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नय-निरूपणा | ११७
का ही भेद है । अन्य सभी आचार्य ऋजुसूत्र नय को पर्यायार्थिक नय का ही भेद स्वीकार करते हैं । उनका अनुसरण अन्य किसी भी आचार्य ने नहीं किया है । यह उन का स्वयं का अभिमत है । दिगम्बर परम्परा भी ऋजुसूत्र नय को पर्यायार्थिक का भेद मानती है । सप्त भंगी न्याय
जैन दर्शन का सर्वाधिक गम्भीर एवं गहन विषय है, सप्त भंगी न्याय । भंग का अर्थ है, विकल्प । सात विकल्पों के समुदाय को सप्त भंगी कहा गया है। उसका आधार है, तर्क-शास्त्र । अतः इस को सप्त भंगी न्याय कहा जाता है। सात ही भंग होते हैं-न कम होते हैं, न अधिक होते हैं।
किसी भी एक वस्तु के एक-एक धर्म सम्बन्धी प्रश्न के अनुरोध से 'स्यात् अथवा कथंचित्' शब्द से युक्त सात प्रकार का वचन प्रयोग सप्त भंगी कहा जाता है। विवक्षाओं की भिन्नता के आधार पर वचन प्रयोग, इस प्रकार किया जाता है, कि उस में परस्पर विरोध न हो। किसी में विधि की कल्पना होती है। किसी में निषेध की कल्पना होती है। किसी में विधि और निषेध, दोनों की कल्पना होती है ।
एक वस्तु के एक पर्याय में, सात प्रकार के ही धर्म सम्भव हैं-कम अथवा अधिक नहीं । अतः सात प्रकार के ही संशय उत्पन्न होते हैं । क्यों कि जिज्ञासा सात प्रकार ही होती है । अतएव प्रश्न सात प्रकार के होते हैं, उनके उत्तर रूप भंग भी सात ही होते हैं। यही सप्त भंगी का स्वरूप कहा गया है । जहाँ प्रमाण, नय और निक्षेप का वर्णन किया जाता है, वहाँ सप्तभंगी न्याय का वर्णन भी आवश्यक होता है। यहाँ पर सप्तभंगी का संक्षेप में, परिचय इस प्रकार है--
१. प्रथम भंग-कथंचित् घट है । स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से घट है।
२. द्वितीय भंग-कथंचित् घट नहीं है। पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से घट नहीं है।
३. तृतीय भंग-कथंचित् घट है, नहीं है। स्व की अपेक्षा से है, किन्तु पर की अपेक्षा से नहीं है।
४. चतुर्थ भंग-कथंचित् घट अवक्तव्य है। किसी एक पद से एक साथ अस्ति नास्ति का कथन नहीं हो सकता ।
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