Book Title: Jain Nyayashastra Ek Parishilan
Author(s): Vijaymuni
Publisher: Jain Divakar Prakashan

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Page 71
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२ | जैन न्याय - शास्त्र : एक परिशीलन व्यवहार नय के भेद व्यवहार नय के दो भेद हैं- सद्भुत व्यवहार नय और असद्भूत व्यवहार नय । एक वस्तु में भेद को विषय करने वाला, सद्भुत व्यवहार नय । उसके दो भेद हैं- उपचरित सद्भूत व्यवहार नय, अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय । असद्भुत व्यवहार नय के भी दो भेद हैं- उपचरित असद्भुत व्यवहार नय | अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय । सोपाधि गुण गुणी में भेद ग्रहण करने वाला, सद्भूत व्यवहार नय । निरुपाधि गुण-गुणी में, भेद ग्रहण करने वाला, अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय । जैसे जीव का मतिज्ञान । यहाँ पर उपाधि रूप कर्म के आवरण से दूषित आत्मा का मलसहित ज्ञान होने से जीव का मतिज्ञान सोपाधिक होने के कारण उपचरित सद्भूत व्यवहार नय कहा जाता है । निरुपाधि अर्थात् उपाधिरहित गुण के साथ, उपाधिशून्य आत्मा, जब सम्पन्न होता है, तब अनुपाधिक गुण गुणी के भेद से भिन्न अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय सिद्ध होता है । जैसे केवलज्ञानरूप गुण से सहित निरुपाधिक आत्मा । सम्बन्धरहित वस्तु में सम्बन्ध को विषय करने वाला, उपचरित अद्भुत है । जैसे देवदत्त का धन । यहाँ पर देवदत्त का धन के साथ स्वाभाविक रूप से सम्बन्ध माना गया है । वह कल्पित होने से उपचरित सिद्ध है, क्योंकि देवदत्त और धन ये दोनों एक द्रव्य नहीं हैं । अतः भिन्न द्रव्य होने से देवदत्त तथा धन में सद्भूत अर्थात् यथार्थ सम्बन्ध नहीं है । असद्भूत करने से उपचरित असद्भूत व्यवहार नय कहा गया है । सम्बन्ध सहित वस्तु में सम्बन्ध को विषय करने वाला, अनुपचरित असद्भूत है । यह भेद जहाँ कर्मजनित सम्बन्ध है, वहाँ होता है । जैसे जीव का शरीर । जीव और शरीर का सम्बन्ध कल्पित नहीं है, किन्तु जीवन भर स्थायी होने से अनुपचरित है, तथा जीव और शरीर के भिन्न होने से असद्भूत व्यवहार है । एक-एक नय के शत-शत भेद होते हैं । अतः सात मूल नयों के सात सौ भेद हैं | आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने नैगम नय का संग्रह एवं व्यवहार में समावेश करके मूल नय छह माने हैं । इस अपेक्षा से नयों के छहसो भेद होते हैं । द्रव्यार्थिक नय के चार भेद तथा शब्द, समभिरूढ़ और For Private and Personal Use Only

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