Book Title: Jain Arti Sangraha
Author(s): ZZZ Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 12
________________ श्री ऋषभदेव की आरती (2) प्रभु आरति करने से, सब आरत टलते हैं। जनम-जनम के पाप सभी, इक क्षण में टलते हैं। मन-मंदिर में ज्ञानज्योति के दीपक जलते हैं।।प्रभु.।।टेक.।। श्री ऋभषदेव जब जन्में-हां-हां जन्में, कुछ क्षण को भी शांति हुई नरकों में। स्वर्गों से इन्द्र भी आए....हां-हां आए, प्रभु जन्मोत्सव में खुशियां खूब मनाएं।। ऐसे प्रभु की आरति से, सब आरत टलते हैं। मन मंदिर में ज्ञानज्योति.........॥प्रभु.॥१॥ धन-धन्य अयोध्या नगरी-हां-हां नगरी, पन्द्रह महीने जहां हुई रतन की वृष्टी। हुई धन्य मात मरूदेवी-हां-हां देवी, जिनकी सेवा करने आईं सुरदेवी।। उन जिनवर के दर्शन से सब पातक टलते हैं। मन मंदिर में ज्ञानज्योति.........॥प्रभु.॥२॥ सुख भोगे बनकर राजा-हां-हां राजा, वैराग्य हुआ तो राजपाट सब त्यागा। मांगी तब पितु से आज्ञा-हां-हां आज्ञा, निज पुत्र भरत को बना अवध का राजा।। वृषभेश्वर जिन के दर्शन से, सब सुख मिलते हैं। मन मंदिर में ज्ञानज्योति.........॥प्रभु.॥३।। इक नहीं अनेकों राजा-हां-हां राजा, ‘चंदनामती' प्रभु संग बने महाराजा। प्रभु हस्तिनागपुर पहुंचे-हां-हां पहुंचे, आहार प्रथम हुआ था श्रेयांस महल में।। पंचाश्चर्य रतन उनके महलों में बरसते हैं।। मन मंदिर में ज्ञानज्योति.........॥प्रभु.॥४॥ तपकर कैवल्य को पाया-हां-हां पाया, तब धनपति ने समवसरण रचवाया। फिर शिवलक्ष्मी को पाया-हां-हां पाया, कैलाशगिरि पर ऐसा ध्यान लगाया।। दीप जला आरति करने से आरत टलते हैं। मन मंदिर में ज्ञानज्योति.........॥प्रभु.॥५॥ 12

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