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१९० : धर्मविन्दु और अनिष्टका दोष पहले कहनेवाले पर आता है, अतः असत्य दोपको कहना नहीं चहिये ।
कूटलेखक्रियामे 'कायासे मृषावाद नहीं करूं' अथवा 'न करुं, न कराऊं' व्रतका मंग ही होता है । ' झूठ नहीं वोलंगा' इस व्रतका किंचित् भी भंग नहीं हुआ। तथापि सहसात्कार आदिसे या अतिक्रा आदिसे अतिचार होता है । 'मैंने मृपावाद अर्थात् असत्य वोलनेका व्रत नहीं लिया' ऐसी मोली बुद्धिवाले पुरुषको वनकी अपेक्षा है, अत व्रतभंग होने पर भी भग होता है अतः अतिचार है । ___ यद्यपि असत्य लेखसे द्रव्यरूपसे लाभ हो जाता है पर भावरूपसे आत्मद्रव्यकी कितनी अधिक हानि हो जाती है ? न्यायवृत्तिका आत्मगुण नष्टप्राय हो जाता है। असत्य लेखसे दूसरे व्यक्तिकें द्रव्यप्राण और भावप्राणका नाश होता है, अतः हिंसा होती है। उसकी चिंता, द्वेषके कारण स्वयं बनते है। कोर्टमें असत्य साक्षी भी इसीमे आ जाता है।
कोई मनुष्य अपना धन अनामत या व्याजसे रखे और वापस मांगे तब उसे न दिया जाय तो न्यासापहार-अनामतका गायब फरना है । इसमें अदत्तादान तो-प्रत्यक्ष हो जाता है । कूटलेखकी तरह इससे भी द्रव्यप्राण तथा भावपाणके नष्ट करनेसे हिंसा भी होती है । " तुम्हारी अनामत या रकम हमारे पास नहीं है" यह मृषावाद हुआ। जब ऐसा-बिना सोचे कहा जाय तब अतिचार होता है । जान बूझ कर बोला हुआ असत्य तो व्रतभंग ही है ।