Book Title: Dharmbindu
Author(s): Haribhadrasuri, Hirachand Jain
Publisher: Hindi Jain Sahitya Pracharak Mandal

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Page 495
________________ . धर्मफल विशेष देशना विधि : ४५९ वस्तु, सद्योगेन-शुद्ध ध्यानके लक्षणवाले, सचेतसां-शुद्ध चित्तवाले। ___ शुद्ध ध्यानसे जिनका हृदय पवित्र हो गया है ऐसे महामुनि उपरोक्त बातको यथार्थ अनुभव सिद्ध समझते हैं । केवलज्ञानी स्वभावतः निष्काम वृत्तिसे शुभ कार्योंमें प्रवृत्ति करते हैं। जो ध्यानी हैं, उससे जिनका हृदय पवित्र हो गया है, जिसे महामुनियोकी इस बातका अनुभवसिद्ध ज्ञान है, वे स्वयं ही फलकी आशा बिना स्वभावतः ऐसी प्रवृत्ति करते रहते हैं। वे स्वयं इस अर्थको अंगीकार करते हैं। उन्हें परोपदेशकी अपेक्षा नहीं है। सुस्वास्थ्य चपरमानन्द इति ।।५१।। (५३२) मूलार्थ-अतिशय स्वस्थता ही परम आनंद है ॥५१॥ . विवेचन-निरुत्सुक या निष्काम प्रवृत्ति ही स्वस्थता है । वही शांति या आनंद है। ऐसी अनंत शाति ही शाश्वत शांति है, वही. परम आनंद है। वही मोक्षका स्वरूप है । मोक्ष मुख परम आनंद है । उसके बाद प्राप्तव्य कुछ नहीं रहता। तदन्यनिरपेक्षत्वादिति ॥५२॥ (५३३) मूलार्थ-आत्माको अन्य वस्तुकी अपेक्षा नरहनेसे ।।२।। विवेचन-आमाको अपनेसे भिन्न किसी भी अन्य वस्तुकी अपेक्षा नहीं रहती। इससे मोक्ष ही परम आनंद है । आत्माका सुख, बाह्य पुद्गल या अन्य वस्तुके बिना भी आनद ही है। सासारिक मुखमें तो हमेशां वाद्य वस्तुका आधार रहता है। अतः आत्माका आनंद ही परम आनंद है।

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