Book Title: Dharmbindu
Author(s): Haribhadrasuri, Hirachand Jain
Publisher: Hindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मविन्दु [टीकानुमारी हिंदी भापतिर आचार्यचर्य श्रीमद् हीरभद्रेशर co 3, BIBA CHAND BAID - - - - - - - ग्रंथप्राप्तिस्थान लार्वजनिक पुस्तकालय नागजी भूधरकी पोल-अहमदाबाद. - Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक हिंदी जैन साहित्य प्रचारक मलकी ओरसे चदुभाई लघुभाई परीस नागजी भूवरकी पोल अहमदावाद वीर सं २४७७ क. चा. सं. ३३ प्रत १००० वि. सं. २००७ इ स १९५१ मुद्रक गोविंदलाल जगशीभाई शाह शारदा मुद्रणालय, पानकोरनाका अहमदावाद Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वचन पूज्य आचार्यचर्य श्रीमद् हरिभद्रसरिजीने रचा हुआ 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थका यह भाषान्तर है। श्रीहरिभद्रसरिजीके जीवन और कवन विषयमें उपोद्घातमें काफी प्रकाश डाला गया है। अत एव यहां उस विषयमें न लिखते हुए इस ग्रन्थका हिंदी भाषान्तर प्रगट करनेको हम क्यों उद्यत हुए इस विषयमें कुछ कह देना उचित है। उपोद्घातमें कह ही दिया है कि जैन तत्त्वज्ञानके विषयसागरको मानो गागरमें भर दिया हो वैसा इस ग्रंथमें प्रतीत होता है। इसमें प्रावेशिक ज्ञानके लिये जीवनके हर पहलु पर प्रकाश डाला गया है। इस ग्रन्थकी निरूपण शैली ही ऐसी है कि जैन, जैनेतर कोई भी इसका अध्ययन करे तो सरलतासे जैन पदार्थीका और विवेकपूर्वक जीवन कैसे बीताया जाय उसका पूरा ख्याल आ सकता है। महात्मा गांधीजीने भी जैनधर्मका वास्तविक ज्ञान इस पुस्तकसे ही प्राप्त किया था, दूसरे विद्वानोंने भी इसीको पढके जैन दर्शनका रहस्य प्राप्त किया है। इसलिये ऐसे ग्रन्थको प्रगट करना हमारे लिये परम आवश्यक प्रतीत हुआ। पूज्य त्रिपुटी महाराजोंने मेरठ जिल्ला, यू. पी. आदि प्रदेशोंमें भ्रमण करके जो नये जैन बनाये उन लोगोके पठनके लिये हिंदी पुस्तकोका प्रगट करना आवश्यक था और इसीलिये पू. मुनिराज श्रीज्ञानविजयजी और स्व. पू. मु श्रीन्यायविजयजी महाराजने, अमदावादके नागजी भूधरकी पोलके संघने सं० १९९९ भाद्रपद सुदि ? के रोज फंड इकट्ठा करके 'हिंदी जैन साहित्य प्रचारक Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंडल' की स्थापना की थी, इस मण्डलने उपर्युक्त हेतुसे यह पुस्तक प्रगट करनेका निश्चय किया। पं. श्री अमृतलाल मोदीने इसका हिंदी भाषांतर किया है भौर पं. अम्बालाल प्रेमचंद शाहने इसे संशोधित करके प्रुफ संशोधन भी किया है । शारदा मुद्रणालय के संचालकोंने इसे बडी चावसे छाप दिया है एतदर्थ उन सबको धन्यवाद दे रहे हैं । अंतमें हिंदी भाषाप्रेमीवर्ग इस अन्थका प्रचार करके हमें ऐसे कार्यमे प्रोत्साहित करते रहें ऐसी आशा रखते हैं और पाठकवर्ग इस ग्रन्थको पढ कर सत्य ज्ञान प्राप्त करके आत्मकल्याणमें प्रवृत्ति करें तो हमारा यह प्रयत्न सफल हुआ समझेंगे । वि सं. २००७ पोप घदि ११ अमदाबाद नागजी भूघर की पोल मंत्री, हिंदी जैन साहित्य प्रचारक मंडल विषयानुक्रम अभ्याय विषय १. गृहस्थ सामान्य धर्म . २ गृहस्थ देशना विधि: १. गृहस्थ विशेष देशना विधि : ४. यति सामान्य देशना विधि · ५. यतिधर्म देशना विधि • ६. यतिधर्म विशेष देशना विधि : ७. धर्मफल देशना विधि • ८. धर्मफल विशेष देशना विधि : 1 पृष्ठ १ ७५ १५८ २६८ २९६ ३५३ ४०१ ४२८ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घात - यह प्रकरण ग्रन्थ आ० हरिभद्रसूरिजीने बनाया है। उसका नाम है धर्मविन्दु । वास्तवमें देखा जाय तो आज यह ग्रन्थ ' गागरमें सागर' सा मालम पडता है। आ० हरिभद्रसूरिजीके सामने धर्मका मान-प्रमाण कितना होगा यह उनके दिये हुए नामसे ही प्रगट हो जाता है। जो कुछ हो, आज तो यह ग्रन्थ हमारे सामने बिन्दुमें ही सागरसा मालूम देता है और उसको देखते हुए आ० मुनिचन्द्रसूरिजीको उस पर टीका लिख कर इस ग्रन्थका गांभीर्य समझाना पड़ा है। आठ अध्यायोमे विभाजित यह सूत्रबद्ध ग्रन्थ नतीजीवन के लिये पूरा और गहरा उपदेश देता है। प्रथम गृहस्थोकी आचारविधि सामान्य और विशेष रूपसे दिखाकर साधुजीवनकी सामान्य और विशिष्ट विधि बता दी है। मनुष्यमें कहां कौनसी ऊणप है उसका व्रतपालनके लिये मानो अपने सामने एक आदर्श अरीसा घर दिया है। गृहस्थ और साधुजीवनकी छोटी-मोटी चर्या पर भी उन्होने बुछ उठा नहीं रखा । सचमुचमें कहा जाय तो यह ग्रन्थ प्रतिदिन, प्रतिक्षण रमरण में रखने योग्य पाट्य ग्रन्थ है । इसलिये मै तो जिसमें सागरसे भी बडे धर्मको विन्दुरूपसे ठान लिया है और जिसके Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरएक सूत्र पर एक एक ग्रन्थ सा विस्तार हो सकता है ऐसा अनूठा ग्रन्थ मानता हूं | आ० श्रीमुनिचन्द्रसूरिजीने इन सूत्रोका विशद रूपसे स्पष्टीकरण किया है। धर्मके विषयमें जो सूचक अंश सूत्रकारने दर्शाये हैं उनको वृत्तिकारने अपनी प्रतिभासे पल्लवित करके उस विषयको और कृति - कारके मन्तव्यको समझानेमें बडी कुशलतासे निरूपण किया है । इतना ही नहीं प्रामाणिक ग्रन्थोके अवतरण देकर अपने प्रतिपादनको प्रतिष्ठ की महोर लगा दी है और अपने बहुश्रुतत्वका इस तरहसे भी परिचय दिया है । आठ अध्यायोंमें-१ गृहस्थविधि, २ देशनाविधि, ३ गृहस्थधर्म, विधि, ४ यतिविधि, ५ यतिधर्मविधि, ६ यतिधर्म. ७, धर्मफलविधि, और ८ तीर्थकर पदप्राप्तिविधि व सिद्धस्वरूप - इत्यादि विषयोंका बडी कुशलतासे ऊहापोह करके उन विषयोका मार्मिक स्वरूपदर्शन कराया गया है । अब हम इस ग्रन्थके कर्ताके विषय में कुछ परिचय दे रहे हैं जिससे वाचक वर्गको श्रीहरिभद्रसूरिजी के महत्वका ख्याल आ सके । आचार्य श्रीहरिभद्रसूरि : उपक्रम जैन शासन में आचार्य हरिभद्रसूरि बढे प्रभावक और महान ग्रन्थकार हुए हैं । उनका विपुल साहित्यराशि आज भी संस्कृत और प्राकृत भाषासाहित्यके गगनमें उज्ज्वल सुधाकर सा प्रकाशमान है । उनकी प्रकांड विद्वत्ता, अपूर्व ज्ञानसंग्राहिता, समभाववृत्ति, निष्पक्ष Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भालोचना और प्रवाहशील, भाषाप्रभुत्व भारतीय साहित्यके इतिहासमें सुवर्णाक्षरोंसे उल्लिखित है, जिससे आधुनिक विद्वान आश्चर्य पुलकित हो उठते है। हर्मन जेकोबी जैसे पाश्चात्य विद्वानने उनकी 'समराइचकहा ' नामक ग्रन्थका संपादन किया है, जिसकी प्रस्तावनामें हरिभद्रसूरिजीके लिये आपने जो लिखा है वह इस बातको प्रमाणित करता है "हरिभद्रसूरिने तो श्वेतांबरोंके साहित्यको पूर्णताके ऊचे शिखर पर पहुंचा दिया है।" इस अभिप्रायमे उनकी ज्ञानगरिमासे वे जैनशासनके महान स्तम्भरूप दिखाई दे रहे हैं। ऐसे प्रकाड पुरुषके चरितके विषयों बहुत कम सामग्री उपलब्ध है और जो है उसमें भी ऐकम य नहीं है। तो भी प्रबन्धग्रन्थोमेंसे जो कुछ प्रामाणिक सूचनायें मिलती है उसको बटोर कर, उस पर एक विहंगात्मक दृष्टि डाल देना अवसरोचित है। उनका जन्मस्थान और परिचय 'कथावली 'कारके कथन मुजब पिर्वगुइ नामकी कोई ब्रह्मपुरीमें उनका जन्मस्थान था। उनके पिता का नाम शंकरभट्ट और माताका नाम गंगादेवी था। उनका खुदका नाम हरिभद्र भट्ट था। जातिसे वे अग्निहोत्री ब्राह्मण थे। वाश्यकालमें जन्मगत संस्कारोसे विद्याओं का अध्ययन करनेमें वे बडे उत्साही थे। उन्होंने क्रमशः चौदह विद्यायें प्राप्त कर ली थी। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रभावकचरित 'कारके कथनसे ज्ञात होता है कि इतिहास प्रसिद्व मेवाड देशके चितोड (चित्रकूट )के राजा जितारिने हरिभद्र भट्टकी विद्वत्ताकी कदर की और अपने राज्यमे उस महापंडितको पुरोहितके सम्मान्य पद पर नियुक्त किया। ज्ञान और सम्मान के साथ सत्ताका योग होता है तब आदमीको गर्वका नशा आ जाता है। हरिभद्र भट्ट इस साहजिक वृत्तिसे बचे नहीं थे। हरिभद्र भट्टको अपने ज्ञानवैभवका बडा मद था। उन्होने बडे बडे वादियोको शास्त्रार्थमे जीत कर वादिविजेताकी ख्याति कमा ली थी। यही कारण था कि वे अपने हृदमें विश्वास कर बैठे कि 'इस जगतमें मेरे जैसा समर्थ विद्वान वेशक कोइ नहीं होगा। ऐसी स्थितिमें वे खुदको कलिकालसर्वज्ञ मानते-मनवाते थे। ऐसा होने पर भी उनकी जिज्ञासावृत्ति कुछ कम नहीं थी। वे नये विद्वानोंके संसर्गमें आते थे और अपनी विद्याकी जांच पड़ताल करते रहते थे। निखालसवृत्तिसे अपनी हृदय'गत सरलताका परिचय भी देते रहते थे। इसलिये उन्होने अपने गर्वकी मर्यादास्वरूप प्रतिज्ञा कर रक्खी थी कि-' इस पृथ्वी पट पर जिस किसीका वचन मै न समझ सकूँ उसका शिष्य बनूंगा।' जन्मसंस्कार-जैनधर्म प्रति विरोधी कट्टर ब्राह्मणता : ___एक समयकी बात है जब हरिभद्र भट्ट पालखीमें बैठ कर राजसभामें जा रहे थे और उनकी परिचर्या करनेवाला विद्यार्थीगण उनकी स्तुतिस्वरूप जयघोष करता हुआ जा रहा था कि रास्तेमें राजाका एक विशालकाय मदोन्मत्त हस्ती निरंकुश होकर भाग छूटा। रास्तेमें चलनेवाले मानवसमुदायमें इस घटनासे भयका वातावरण जम Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया। मामला तंग था। ऐसे अवसर पर हरिभद्र पंडित पालखीमसे कूद कर अपने शिष्यों के साथ पासके किसी मकानमें घुस पडे । वह मकान एक जैनमंदिर था। उसमें विराजमान देवाधिदेव वीतराग परमात्माकी भव्य और प्रशांतमूर्ति पर उनकी दृष्टि पड़ी। अपने जन्मगत संस्कारमे ब्राह्मण और श्रमण जैन संस्कृतिके बीच परापूर्व से चला आता दृष्टिविष घुलने लगा। वीतराग परमात्माकी प्रशमरसनिमग्न मूर्तिको देख कर हंसते हुए वे कटाक्षमें बोल पडे : " वपुरेव तवाचष्टे, स्पष्टं मिष्टान्नभोजनम् । नहि कोटरसंस्थेऽनौ, तरुर्भवति शाड्वलः ॥" -तेरा शरीर अपने आप मिष्टान्न भोजनको अवश्य कह रहा है, क्योकि वृक्षकी बखौलमें अग्नि हो तो वृक्ष हराभरा नहीं रह सकता। इस श्लोकमें उनकी विकृत दृष्टि स्पष्ट थी। सर्वज्ञताके गर्वमें भला, वह प्रकाश उस वख्त उनको कहांसे मिल सकता जिसके द्वारा वे बोले हुए वचन दूसरे समय उनको सुधारने पडेंगे!। सचमुच, ऐसा कहनेमें हरकत नहीं है कि मानो हस्तिघटना उनके गर्वखंडनका एक सूचक प्रसंग थी जो उनकी प्रतिज्ञाका बीडा ऊठानेकी भूमिका स्वरूप जान पडता है; वह प्रसंग दूर न था। जैनधर्म प्रति अनुरागकी भूमिका ____एक दफेकी बात है-पंडित हरिभद्र राजमहेलसे नीकल कर अपने घर जा रहे थे कि रास्तेमें अचानक किसी बूढी स्त्रीका मधुर Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर उनके कर्णसे टकराया। तद्दन अपरिचित और गूढार्थमय स्वरमें घोंटते हुए शब्दोमें उनको नूतनता भासने लगी, वे वहीं स्थिर हो गये और उन शब्दोंको समझनेका प्रयत्न करने लगे, लेकिन, निष्फल। दुबारा उन्होंने वे शब्द सुनेः " चक्कीदुग हरिपणा, पणगं चक्कीण केसवो चक्की । केसव चक्की केसव, दुचक्की केसव चक्की य॥" [-क्रमश. एक पीछे एक २ चक्रवर्ती, ५ वासुदेव, ५ चक्री, १ केशव, १ चक्री, १ केशव, १ चक्री, १ केशव, २ चक्री, १ केशव और १ चक्री हुए हैं। वे शब्दकोशोका स्मरण करते हुए भी जब उसका अर्थ कुछ भी न लगा सके तब उनको अपना आत्माभिमान खंडित होनेका भास हुआ। अभिमान खंडित होता है तब आदमीमे उस्केराट भा जाता है। हरिभद्र भट्ट क्रोधसे धुंआफूआ होकर वेले "किं चक्की चकचकायते 2 " [ यह चकली क्या चकचक करती है ? ] यह शब्द उपाश्रयमे गाजने लगे। उपर्युक्त गाथाको गोखनेवाली एक याकीनी नामकी विदुषी साध्वी थी। हरिभद्रके ऐसे मखौल उडाते शब्दोको वह सहन करनेवाली न थीं । दोनोका पांडित्य आपसमें टकराने लगा। आर्याजीने शिष्टतासे प्रत्युत्तर दिया. वत्स ! यह गीले गोबरसे पोता हुआ नहीं है, जो चटसे मालूम पडे।' हरिभद्र भट्ट साध्वीजीके इस अद्भुत प्रत्युत्तरसे चोक ऊठे। आज तक किसीने उनको ऐसी निडरतासे जवाब दिया न था। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने ऐसे जवाबकी आशा भी रखी न थी। उनके मनमे हुआ कि, न तो इस गाथाका मर्म समझमें आया और जो प्रत्युत्तर मिला वह भी मेरे ज्ञानको चुनौती दे रहा है । वास्तवमे इसमे कुछ गांभीर्य है। उनकी जिज्ञासावृत्तिने उनको नम्र बना दिया। वे उपाश्रयमें जाकर साध्वीजीके सामने विवेकपुरस्सर बैठ कर पूछने लगे. " आर्याजी ! मुझे इस गाथामें शृंखलाबद्धता और कृतिपटुव तो स्पष्ट जान पडता है लेकिन उसका रहस्य सुननेकी बडी उत्कंठा है, कृपया समझाईए।" ____ आर्या याकिनी महत्तरा उसका अर्थ समझा सकती थी पर उन्होने हरिभद्रको ज्यादह धर्मलाभ होनेकी दृष्टिसे कहाः 'महानु भाव ! इस गाथाका अर्थ समझना हो तो हमारे गुरुमहाराज जो बडे ज्ञानी है, उनके पास जाकर आप पूछ सकते हैं। हमारा यह आचार है, इसलिये आप श्रीजिनभट्टसूरिजीके पास जाईए ।' हरिमद्र पंडित पर आर्याजीकी नम्र, आचारपूत और विवेकशील वाणीने असर किया। आर्याजीकी तप प्रभा और स्वाध्यायत्रील चर्या उनकी आंखोसे अछूनी नहीं रही। उस तेजोमृर्तिने हरिभद्रके हृदय पट पर पावनकारी आसन जमाया। तपस्तेजके थोडे ही तापसे मानों मोम पिघलने लगा। उनके स्मरणमे वह प्रत्युत्तर चित्रवत् बना रहा और विचारशील दिमागमें उस निखालस और जिज्ञासावृत्तिने उनको ऐसा प्रभावित कर दिया कि वे दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही गुरुमहाराजके पास चल पडे। उपाश्रयमें जाते समय जिनमंदिर वीच पडता था। उसमें उन्होंने वही मनोहर जिनमूर्ति के दर्शन किये। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म स्वीकारकी तैयारी : ____ आज उनका गर्व खंडित हो चुका था। उनको अपना पांडियमद चुभने लगा था क्योकि उनके दृष्टिविष पर संजीवनसा वह सिंचन नया जीवनपरिवर्तन कर रहा था। उनकी विचारपूत दृष्टिमें वह मूर्ति आई और वह बोल पडे-बोल पडे क्या लेकिन उस लोकको जो जिनमूर्तिके प्रथम दर्शनके समय मखौल ऊडाते हुए बोले थे उनको ही बज्जासे सुधारने लगेः "वपुरेच तचाचष्टे, भगवन् ! वीतरागताम् । नहि कोटर संस्थेऽनौ, तरुर्भवति शाड्वलः ॥" [--भगवन् । आपका शरीर ही वीतरागताको स्पष्ट कह रहा है, क्योंकि वृक्षकी बखौलमें अग्नि हो तो वृक्ष हराभरा नहीं रह सकता। ___ क्या अद्भुत परिवर्तन था। उस परिवर्तनकी आंधीमें उनके ज्ञानगर्वका वह बोजा ही हठ गया था, और पहिले सहसा बोले हुए कटाक्षाने उनको लज्जावनत कर दिया था। वे आचार्यजीके पास बैठ कर विवेकशील वाणीसे उस गाथाका अर्थ पूछने लगे। आचार्यजीने हरिभद्रके हृदयको समाधान करते हुए जैन सस्कृतिकी इतिहासपरंपरा समझा दी, जैनदर्शनकी वह चमत्कृति, गांभीर्य और लाक्षणिकता सुनाई तब उस गाथाका अर्थ उनके लिये सहज हो गया। उनके ज्ञानके छोर पर जैनदर्शनके तत्त्वज्ञानकी तरंगे झपटाने लगी, इतना ही नहीं उनको ललकारने लगीः 'तुम भूले हो, तुम्हारी विद्याने विकृतरूप दिया था, उसको Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तवमें प्रतिष्ठित करनेके लिये यह सुहावना समय मत गुमाना।' वे उत्कंठित होकर पूछने लगेः " भगवन् ! धर्मका फल क्या? वैदिक धर्मके और जैनधर्मके फलमें क्या अंतर है?" ___आचार्यजीने समाधान कियाः " वत्स | सकामवृत्तिवाले मनुष्यको धर्मके फलस्वरूप स्वर्गकी प्राप्ति होती है और निष्कामवृत्तिवालेको 'भवविरह ' याने संसारका अंत होता है। जैनधर्म भवविरहका मार्ग दिखलाता है।" ___उनको अपनी प्रतिज्ञाका स्मरण हो आया. वे उत्कंठासे चिल्ला ऊठेः " भगवन् । मुझे 'भवविरह' चाहिए।" आचार्य महाराजने कहाः “वस ! श्रमणत्वके विना ' भवविरह ' पाम नहीं हो सकता इसलिये प्रथम श्रमणमार्ग अंगीकार करना चाहिए।" श्रमणत्वका स्वीकार और अध्ययनः वस, तब क्या था ! हरिभद्रने उसी वख्त जैन मुनि होनेका निश्चय किया और दीक्षाका प्रसंग वडे समारोहके साथ पूर्ण हुआ। जैनेतर विद्वानों-उनके पराजित वादी पंडितगण भी अपने मुंहमें उंगलि डाल कर आश्चर्यमुग्ध हो ऊठे । जैनधर्मके लिये यह प्रसंग कैसा अद्भुत होग जिसका अनुमान पाठकको सहजमे ही हो सकता है। उनके जीवनके यह क्रांतिपूर्ण अध्यायके मंगल चिहरूप श्रीयाकिनी महतराको उन्होंने अपनी धर्मजननीके स्वरूप स्वीकार किया। उन्होंने अपनी कृतियों में खुदको 'याकिनी महत्तरासूनु' रूप उस अक्षरदेहको चिरस्मरणीय बना कर मानो उनके उपकारका बदला चुकाया है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हां, तो अब उन्होने दीक्षा लेनेके वाद शास्त्रोका मार्मिक अभ्यास किया। वे वेदपारगत तो थे ही और जैन शास्त्रोंके नये दृष्टिकोणसे उनमें तुलनावृत्ति जागृत हो उठी। उनके हृदयमें जैनधर्मके प्रति अनुराग वढनेके साथ साथ जैन तत्त्वज्ञानकी अनेकातदृष्टिकी उत्कृष्टता बस गई। श्रमणत्वके संयमपूर्ण आचारोको पालते हुए वे आचार्य पदके योग्य भी हो चुके थे। ___उन्होंने जैन शासनकी सेवामे अपने आपको सोप दिया। उन्होंने सर्व दर्शनों के सिद्धान्तरहस्यको अपने हृदयमें पचा लिये थे और उनके उस ज्ञानका निर्मल गंगोत्री प्रवाह जो उसमेसे बहने लगा उससे बहुत जिज्ञासु लोग अपनी तृपा छिपाने लगे। अनेकान्तवादकी वह समन्वयपूत दृष्टि से उन्होंने जैन तत्त्वज्ञानका खजाना प्रत्यक्ष कर लिया था। उस समभाव इष्टिका परिचय देनेवाला अनेकान्तवादका झंडा लेकर वादियोंमे अब वे घुमने लगे और उन वादियोंके ,अखाडेमे विजयी मल्लकी ख्याति पाने लगे। कहते हैं कि उन्होने बौद्धवादियोका पराभव किया और दिगंबर आचार्योको भी परास्त किया। उन्होने श्वेताम्बरों में शिथिल बने हुए चैत्यवावासियोको तीखे शब्दोसे कठोर प्रहार किया और संयमकी शुद्ध विवेक दृष्टिका दीप सकोरा। शिष्यरत्न हंस और परमहंसकी घटनाः सूरिजीके शिष्य परिवारमें हंस और परमहंसका नाम उल्लेखनीय है। वे दोनो उनके भानजे थे। उन्होंने सूरिजीका उपदेश सुनकर है Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ उनके पास दीक्षा ली थी। सूरिजीने स्वयं उनको व्याकरण साहित्य और दर्शन शास्त्रोंका अभ्यास करवा कर निपुण बनाये थे । Į सूरिजी सत्ताकालमें बौद्ध दर्शनकी प्रबलता थी । कितनेक देशों में बौद्ध धर्मने राजाश्रय प्राप्त कर लिया था । मंत्र और तंत्र के प्रभावसे वौद्ध दर्शनका प्रसार उस कालके जनसमुदायमें बडी शीघ्रतासे हो चुका था । जैनोके साथ वे बडी स्पर्धा कर रहे थे । युक्ति जब लाचार हो जाती थी तब वे तात्रिक प्रयोग जुटाते थे और अपनी बोलबाला उड़ाते थे । बौद्ध दर्शनके अभ्यास के दिये बौद्ध विद्यापीठों में सब प्रकार की सुविधा मिलती थी और इसलिये विद्यार्थीगण बडी संख्या में आकर वहीं विद्याध्ययन करता था । उसमें पढे हुए विद्यार्थीकी प्रतिष्ठा सर्वमान्य होती थी । सूरिजी के शिष्य हंस और परमहंस को भी इस कारण बौद्ध विद्यापीठमें जाकर बौद्ध दर्शनका ज्ञान प्राप्त करनेकी वढी आतुरता होने लगी । उन्होंने अपनी मनोगत भावना सूरिजीको व्यक्त की । निमित्तशास्त्र के ज्ञानसे उन्होंने भाविकालमे आनेवाला अपाय जानकर उनको अनुमति नहीं दी । भवितव्यता की आंधी विवेकशील आत्माको भी चकाचौध कर घीसट जाती है । वे अपनी धून में सवार होकर बौद्ध विद्यापीठमे चल पडे बौद्ध विद्यापीठमें बौद्ध भिक्षुका वेष बदल कर ही वे रह सकते थे । हंस और परमहंस क्रमशः बौद्ध दर्शनका अभ्यास करने लगे । वे विद्वान तो थे ही और दर्जनो का अभ्यास भी उन्होने किया था, इसलिये बौद्ध ग्रन्थोके मर्भ पर उन्होने अपना ध्यान जुटाया । अपनी अतुल वुद्धिप्रभासे थोडे समयमें रहस्य ग्रंथोको उन्होंने कंठस्थ कर Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ 1 लिये और अवसर पाकर उन शास्त्रोमें आये हुए जैन शास्त्रके खंडनको भी वे छोटे पन्नों में नोध करने लगे। इन पन्नों को वे अपनी पास छुपाके रख रहे थे। जैन शासनका उत्कट अनुराग और बौद्ध दर्शन मार्मिक स्थलोकी उत्कट जिज्ञासा वृत्तिके तुमुल आतर युद्धके विजय में एक दिन - एक क्षणका प्रमाद सा हो गया हो या ज्ञानकी चोरीने उनको शिक्षापाठ देना हो-जो कुछ हो सूरिजी के निमित्तशास्त्रीय उपायका वह करुण घटनानाटकका पडदा आज खुल गया । - बात यह थी कि - एक दिन अचानक वे पन्ने पवन से ऊडते ऊडते किसी बौद्ध भिक्षु - आचार्य के हाथमें पडे । आचार्य उनको पढते ही चौक पढे । उनको निश्चय हो गया कि कोड जैन श्रमण यहाँ पढने आया है । और वौद्ध सिद्धान्तके खडनके मार्मिक स्थलोंको उसने इस तरह बटोर रक्खा है । इतने बडे विद्यार्थी समुदाय में से उनको पहेचान लेना कुछ सामान्य बात न थी । कुशल आचार्यने उनको ढूंढने के लिये एक तरकीब रची। प्रत्येक वर्गके आचार्यको इस तरकीकी इचला दे रक्खी। प्रत्येक विद्यार्थीको पुस्तकालय के ऊपले कमरे से पुस्तक लानेकी क्रमश अनुज्ञा हुई। उपर जाते हुए सीडी के प्रत्येक सोपान में महाचीरका चित्र इस तरह कुगलता से अकित किया गया कि सोपानका कोई कोना भी खाली न रक्खा। इस चित्रमूर्ति पर पैर रख कर ही ऊपले कमरे में कोई भी जा सकता था। हंस और परमहंसके लिये यह बडी कसौटी का प्रसंग था | भयके आतंकने उनको उस क्षण तो काय Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बना लिया, लेकिन समयसूचक इन श्रमणोंने बड़ी हिम्मतसे उस चित्रमूर्तिम जनोऊकी लकीर खींचकर उसको ही बुद्धकी चित्रमूर्ति में परिवर्तित कर दिया। पुस्तक देकर वे वहासे नीकल कर चुपकीसे भागने लगे। बात प्रगट हो गई । हंस और परमहंसका पीछा करनेके लिये बौद्ध राजाकी मददसे सैनिक भेजे गये । हंस और परमहंस दूर न रहे । ये दोनों जैसे शालकुशल थे वैसे ही शस्त्रकुशल योद्धा भी थे। दोनोंमें झपाझपी हुई। निहत्थे ये श्रमण शस्त्रोंके सामने भला, कहां तक टक्कर झेल सकते थे । शस्त्रोंके जल्मोंसे चालणीसा बना हुभा हमका देह धरणी पर दुलक पड़ा। हंसका आत्महंस उस देहमेसे ऊड गया। सोच-विचार करनेका समय था नहीं। खुदको बचानेके लिये परमहंस वहीसे बड़ी तेजीसे भागकर पासके नगरमें पहुंचा और वहांके सुरपाल राजाको इस करुणघटनाका प्रसंग सुनाया। उस शरणागतवत्सल राजाने बौद्ध राजाके सैन्यका सामना किया और परमहंसको रक्षण दिया। बडी कठनाईयां झेलता हुआ परमहंस गुरुमहाराज श्रीहरिभद्रसूरिजीके पास पहुंचा, और गुरुजीके अंतिम दर्शनकी इच्छासे ही मानों परमहंस अपना छेल्ला श्वास घोटता हुआ, आनंद स्वरसे, अविनयकी क्षमा मांगता हुआ सूरिजीके पास पहुचा उसने सूरिजीको सब हाल सुनाया। थोडे समयके बाद परमहंस भी समाधिपूर्वक म्मपने भाईके पीछे चल वसा। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरिजीका विषाद और भीषण प्रतिज्ञाः यह कितना करुण प्रसंग था ! शिष्यस्नेहकी प्रबलताने हरिभद्रसूरि जैसे तेजस्वी ज्ञानराशिको घेर लिया। उनके हृदयमें इस चोंटने उनको इतना बेवस कर लिया कि उनके क्रोधके प्रखर तापको कोई भी उस वख्त नहीं झेल सकता था। इस प्रतिक्रियाके तांडवने उनके निर्मल हृदयको क्षुब्ध बना लिया। सचमुच, कोको गहन गतिको कौन पा सका है ? स्पष्ट दिखाई पडताथा कि समर्थ श्रुतधर भी ऐसे अवसरमे आत्मजागृति गूमा रहे थे। फलत. वे बौद्धोके ऐसे घातकी कृत्यका बदला चुकानेको ऊतारु हो गये । सूरिजी बडे वेगसे विहार करके सुरपाल नगरके राजाके नगरमें आ पहुंचे । सुरपालको यह सब बात कह सुनाई । सुरपाल राजाने सूरिजीकी उत्कट इच्छाको जानकर बौद्ध भिक्षुओंको वादके लिये दूतोंद्वारा बुलावा भेजा। बौद्ध मिक्षु सुरपालकी राजसभामें वाद करने आ जमे। सूरिजी और बौद्ध भिक्षुओके बीच इस वादकी शरत, जो सूरपाल राजाने दोनोंकी सम्मतिपूर्वक निश्चित की थी, बडी कठोर और घातकी थी। सूरिजीने अपने शिष्योंके दु.खद अवसान और बौद्धों परके प्रबल रोपसे कपायके वशीभूत होकर ऐसी शरत भी मंजूर रवाली थी कि ' इस वादमें जो पक्ष पराभूत हो जाय उस पक्षके आदमी अतिशय गरम किये हुए तेलकी कढाईमें जल कर मर जाय। ' कितने हतभाग्यकी यह घटना थी । अहिंसाके परम उपासक दोनों संप्रदायके आचार्योंने कैसा उल्टी गगाका राह पकड रक्खा था ! यह वाद क्या था आदमीका नहीं, प्रत्युत सिद्धांतका गला घोटा जा रहा था। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहकी ऐसी विचित्रताका जीवंत चित्र और क्या हो सकता था। सुरपाल राजाकी राजसभामें कितने ही दिनों तक यह वादविवाद चालु रहा। सूरिजीने मतमें अपने अद्भुत तर्कसामर्थ्य और असाधारण ज्ञानवैभवसे बौद्ध भिक्षुओको बादमे जीत लिया। बौद्धोंका मंत्रपभाव या तांत्रिक शक्ति भी हरिभद्रसूरिजीके सामने लाचार बन गई थी। 'प्रभावक चरित कार इस प्रसंगको स्मरण कराते हुए नोध करते हैं कि-'हरिभद्रसूरिजी वादमें जय प्राप्त कर लेनेके बाद अपने मन्त्रसामर्थ्यसे उस तेलकी कढाईमें बौद्ध भिक्षुओको खींच कर लाये थे, ऐसा कितनेक मनुष्योंका मानना है।' सूरिजीका शुद्धिमार्गः हरिभद्रसूरिजीके परम गुरु आचार्य श्रीजिनभसूरिजीको इस चातका पता लगा तब उन्होने शीघ्र दो विद्वान साधुओको तैयार कर उनके कषायके उपशमके लिये तीन गाथाय देकर हरिभद्रसरिजीके पास भेजे । प्रसंगने परटा खाया । सूरिजीके उत्तप्त क्रोध पर इन गाथाओ ने शान्त रसका सुधासिंचन किया। अपने कषायकी विवशतासे आचरण किये हुए इन दुष्कृत्योंका उनके हृदयमें तीव्र पश्चात्ताप होने लगा और गुरु महाराजके पास अपने दुष्कृतोंकी आलोचना करके शुद्धिका मार्ग अपनाया और वे संयमकी तीन धार पर चलने लगे। यह प्रसंग ' कथावली' में कुछ दूसरी तरहसे बतलाया गया है। जो कुछ हो, लेकिन हरिभद्रसूरिजीको इन शिष्योके विरहसे वडा दुःख हो आया था यह बात निर्विवाद है। इस दुःखको भूलनेके लिये Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और संयमकी शुद्धिके लिये उन्होने जो मार्ग पसंद किया वही उनके जीवनकी अणमोल निधि था, जो आज हमको विरासतमें मिला है। अपने शिष्योंके स्मरण चिहरूप उन्होने अपने ग्रन्थोको अन्तमें 'विरह' शब्दसे अंकित किये है। कहा जाता है कि उन्होने १४४४ ग्रन्थ निर्माण करनेकी प्रतिज्ञा की थी और उसके फलस्वरूप १४०० ग्रन्थोकी तो उन्होने रचना कर ली परतु अपने जीवनका अतिम समय जानकर चाकीके चार ग्रन्थोके बदलेमें उन्होंने 'संसारदावानल ' नामक स्तुति के ३ पद्य और ४ थे पद्यका १ चरण इन चार पद्योंको ही चार ग्रन्थ मान कर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की। छेदसूत्रमें गिनाया गया ' महानिशीथसूत्र' का उद्धार श्रीहरिभद्रसूरिने ही किया था। उनका जो ग्रन्थराशि आज प्राप्त है उसका निर्देश ही यहां कर देना पर्याप्त होगा। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० हरिभद्रसरिजीका ग्रन्थराशिः (१) अनुयोगद्वारसूत्र-विवृति याने शिष्यहिता- यह 'अणु बोगदार' नामक आगमकी संस्कृतमें विकृति है। (२) अनेकान्तजयपताका- इसमें अनेकान्तवादका निरूपण है। योगाचार नामक बौद्ध शाखाके मन्तव्यका इसमें खंडन है। (३) अनेकान्तजयपताकोद्योतदीपिका- ग्रंथाक(२,की यह त्वोपज्ञ वृत्ति है। (४) अनेकान्तप्रघट्ट- इसके विषयमें कुछ ज्ञात नहीं हो सका। (५) अनेकान्तवादप्रवेश- ग्रंथाक(२)का यह संक्षेप माम पडता है। (६) अनेकान्तसिद्धि- ग्रंथांक(२)में इसका उल्लेख आता है। (७) अर्हच्छीचूडामणि- श्रीसुमतिगणिने इसकी नोध दी है। (८) अष्टकप्रकरण (विरहाकित)- इसमें क्षणिकवाद, नित्यवाद आदिका विवेचन है। (९) आत्मसिद्धि- इसमे आत्मानी सिद्धि की गई होगी। जिसका दूसरा नाम 'आत्मानुशासन' (संस्कृतमें) है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ (१०) आवश्यक सूत्र - वृहद्वृत्ति - यह 'आवस्सय' नामक आगमकी बडी विवृति है। यह प्राप्य नहीं है; ग्रं ८४००० । (११) आवश्यक सूत्र विवृति याने शिष्यहिता - यह 'आवरस्य ' की टीका है, श्लो २२००० । (१२) उवएसपयपगरण ( विरहांकित ) - इसमें १०३९ पद्य आर्या में हैं । धर्मकथाकी यह उत्तम कृति है । (१३) ओधनियुक्ति वृत्ति - यह ' मोहनिज्जुत्ति की वृत्ति है जो मिलती नहीं । श्रीसुमतिगणिने इसको गिनाया है । (१४) कथाकोश - श्री सुमतिगणिकी नोंध में है । (१५) कर्मस्तव वृत्ति | (१६) क्षमावली - बीज | (१७) क्षेत्रसमास- वृत्ति - यह ' क्षेत्रसमास- प्रकरण ' की टीका है। जेसलमेरके भंडारमें इसकी पोथी है । (१८) चतुर्विंशतिस्तुति | (१९) चैत्यवन्दनभाष्य - श्री सुमतिगणिकी नौघमें है। यह 'ललितविस्तरा ' से भिन्न होगा । (२०) जंबूद्दीवसंगहणी - इसमें जम्बूद्वीपका अधिकार होगा । (२१) जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति - टीका- यह 'नंबूद्दीवपण्णति' की टीका है। (२२) जिणहरप डिमाथोत्त (जिनगृह प्रतिमा स्तोत्र ) - इसमें त्रिलोक में रही हुई प्रतिमाओंका निर्देश है । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) जीवाजीवाभिगमसूत्र-लघुवृत्ति- यह 'जीवाजीवाभिगम नामक आगमकी वृत्ति है। (२४) तत्वतरङ्गिणी। (२५) तत्वार्थसूत्र-लघुवृत्ति याने डुपडपिका- यह 'तत्त्वार्थसूत्र' की अपूर्ण टीका है। (२६) त्रिभंगीसार। (२७) दंसणसुद्धि दर्शनशुद्धि) याने सम्यक्त्वसप्ततिका- इसमें सम्यक्त्वका अधिकार है। (२८) दंषणसित्तरि (दर्शन सप्तति) याने सावगधम्मपगरण - इसमे श्रावकधर्मका वर्णन है। (२९) दशकालिकमन-टीका याने शिष्यबोधिनी- यह 'दसवेयालिय' नामक आगमकी बडी वृत्ति है। (३०) दशवकालिकसूत्र-लघुवृत्ति- यह दसवेयालिय' नामक आगमकी छोटी वृत्ति है। (३१) दिनशुद्धि (?)। (३२) देवेन्द्र-नरकेन्द्रप्रकरण । (३३) द्विजवदनचपेटा- इसमे वैदिकोकी हास्यास्पद बाबतों का खंडन होगा। इसका दूसरा नाम वेदांकुश है। (३४) धम्मसंगहणि (धर्मसंग्रहणी) (विरहांकित)- इसमे चार्वाक मतोंका खंडन और पांच प्रकारके ज्ञान, सर्वज्ञताकी सिद्धि, मुक्तिमें सुख इत्यादि बाबतोका निरूपण है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० (३५) धर्म बिन्दु ( विरहांकित ) - इसमें गृहस्थ- श्रावक और साधुओकी धर्मविधि बताई हुई है - यह प्रस्तुत पुस्तक । (३६) धर्मलाभ सिद्धि - श्री सुमतिगणिने इसकी नोध की है । ( ३७ ) धर्मसार - पुरुषार्थ पर प्रकाश देनेवाली यह पुस्तक पर श्रीमलयगिरि आचार्यने टीका रची है। (३८) धुत्त खाण ( धूर्ताख्यान ) - वैदिक देवोंका और मंतव्यो का इसमें विनोदपूर्ण उपहास किया है । (३९) ध्यानशतक - वृत्ति - यह आवश्यकसूत्र विवृतिका भाग है | (४०) नन्दी सूत्र टीका याने नन्द्यध्ययनटीका - यह 'नन्दी ' नामक आगमकी टीका है । ( ४१ ) नाणपंचगवरखाण ( ज्ञानपंचकव्याख्यान ) - इसमें पांच ज्ञानका अधिकार है। (४२) नाणायत - ( ज्ञानादित्य प्रकरण ) ' चतुर्विंगततिप्रबन्ध' में इसका नाम गिनाया है। (४३) नाणाचित्तपयरण ( नानाचित्रप्रकरण ) - इसमे धर्मका स्वरूप बताया गया है । (४४) न्यायप्रवेशक व्याख्या याने शिष्यहिता - यह न्याय प्रवेशक नामक बौद्ध ग्रन्थकी टीका है। (४५) न्यायावतारवृत्ति । (४६) पंचनियंठी । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) पंचलिंगी। (४८) पंचवत्युग (पंचवस्तुक)- इसमें दीक्षा, साधुओंका दैनिक . आचार, गच्छावास आदि बातोंका निरूपण है। (४९) पंचवस्तुक-टीका (विरहाकित )- यह 'पंचवथुग' की टोका है। (५०) पंचमत्र-व्याख्या- यह 'पंचसुत्त' नामक प्राचीन प्राकृत ग्रन्थकी टीका है। (५१) पंचस्थानक । (५२) पंचासग(पंचाशक) (विरहांकित )- इसमें श्रावकधर्म, दीक्षा, चन्यवन्दन, पूजा आदि विविध वातोंका निरूपण है। (५३) परलोकसिद्धि- श्रीमुमतिगणिने इसका उल्लेख किया है। (५४) पिण्डनियुक्ति वृत्ति- यह ' पिंडनिजृत्ति 'की टीका है। (५५) प्रज्ञापनासूत्रप्रदेश-व्याख्या- यह ‘पण्णवणा' सूत्रकी टीका है। (५६) प्रतिष्ठाकल्प । (५७) वृहन्मिथ्यात्वमथन- इसको सुमतिगणिने गिनाया है। (५८) वोटिकप्रतिषेध- इसमें दिगंवर मतका खडन है। (५९) भावनासिद्धि- इसमें भावना या वैराग्यका अधिकार होगा। (६०) भावार्थमात्रावेदिनी- यह अपने रचे हुए 'अनेकान्त जयपताका की टीका है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ (६१) मुनिवइचरिय- इसमें मुनिपतिका चरित्र है। (६२) यतिदिनकृत्य। (६३) यशोधरचरित- इसमें यशोधरका वृत्तांत होगा। (६४) योगदृष्टिसमुच्चय-इसमें इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्य योगका निरूपण है। (६५) योगदृष्टिसमुच्चय-वृत्ति- यह अपने रचे हुए 'योगदृष्टि समुच्चय 'की वृत्ति है। (६६) योगविन्दु ( विरहांकित )- इसमें अध्यात्मका विषय है। (६७) योगशतक- 'चतुर्विंशति प्रबन्ध 'मे इसका नाम मिलता है। (६८) लग्गकुंडलिया (लमकुंडलिका) याने लग्नशुद्धि- यह ज्योतिष विषयक ग्रन्थ है। (६९) लघुक्षेत्रसमास-वृत्ति- यह 'लघुक्षेत्रसमास की टीका होगी। (७०) ललितविस्तरा याने चैत्यवन्दनस्तववृत्ति (विरहांकित) यह चैत्यवन्दन सूत्रकी वृत्ति है। इसमें अनेक अजैन मतोंका खंडन है। (७१) लोकतत्वनिर्णय याने नृतत्त्वनिगम- इसमे विष्णु आदि वैदिक देवोंके दुष्कृत्योकी नोंध है और लोरका स्वरूप समझाया गया है। (७२) लोकविन्दु । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ (७३) वर्गकेवलि-वृत्ति - हरिभद्रसूरिजीने इसकी रचना करके संघकी विनति से इसका नाग किया था । (७४) विशेषावश्यक - वृत्ति - यह 'विसेसावस्सय ' की वृत्ति है । (७५) वीरथयं । (७६) वीरांगदकहा । (७७) वीसवीसिया (विंशतिर्विशिका ) - इसमे दान, पूजा आदि चातका निरूपण है । ( ७८) वेदवाह्यता निराकरणता । (७९) व्यवहारकल्प - वृत्ति - ' ववहारकप्प ' नामक आगमकी यह टीका है। (८०) शात्रवार्तासमुच्चय- इसमें आत्मा, हिंसा, सर्वज्ञता इत्यादि विषयक जैन मान्यताका निरूपण है और वैदिक, बौद्ध, साख्य, ब्रह्माद्वैतवादियोके कितनेक मन्तव्यका खंडन है । (८१) शास्त्रवार्तासमुच्चय टीका याने दिक्प्रपा - यह ' गात्रवार्तासमुच्चय' की टीका है । (८२) श्रावकधर्मसमास वृत्ति- यह टीका है। 'सावगधम्मसमास' की (८३) श्रावकप्रज्ञप्ति । (८४) श्रावकप्रज्ञप्ति टीका- यह 'श्रावकप्रज्ञप्ति ' की टीका है। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ (८५) पद्दर्शनसमुच्चय- इसमें बौद्ध, नैयायिक, सांख्य आदि दर्शनोका संक्षेपसे पद्य में परिचय दिया है। (८६) पोडशक - इसमें धर्म, लोकोत्तरतत्व, जिनमंदिर, मूर्ति, पूजा, ज्ञान, दीक्षा, विनय, योग इत्यादि विषयों का विवरण है । (८७) संसारदावानलस्तुति । (८८) संस्कृतात्मानुशासन - श्रीसुमतिगणिने इसको गिनाया है । आत्मानुशासन (८९) संकितपंचसी । (९०) संग्रहणी - वृति - यह ' संग्रहणी' की वृत्ति है । (९१) समराइचकहा ( समरादित्यचरित्र ) - इसमें समरादित्यका चरित्र है । इसमें वैरकी परंपराका चितार है। (९२) संपश्चसित्तरि- इसकी पं. हरगोविंददासने नोध की है। (९३) संबोधसित्तरि । (९४) संबोहपयरण ( संवोधप्रकरण ) याने तत्वप्रकाशकइसमें देव, गुरु आदिका विवरण है । (९५) सर्वज्ञसिद्धि - इसमें सर्वज्ञकी सिद्धि की गई है । (९६) सर्वज्ञसिद्धि- टीका - यह ' सर्वज्ञसिद्धि ' की टीका है । (९७ सावगधम्म ( श्रावकधर्म ) - इसमें सम्यक्त्र और श्रावक के बारह व्रतोंका निरूपण है । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९८) सावगधम्मसमास ( श्रावकधर्मसमास ) - इसमें श्रावकोंके कर्तव्यका स्वरूप समझाया गया है। (९९) सासयजिणकित्तण | (१००) स्याद्वादकुचोद्य परिहार - इसमें स्याद्वाद पर किये गये आक्षेपका खंडन है | (१०१) हिंसकाष्टकावचूरि- यह 'हिंसाएक ' की छोटी टीका है। आ० हरिभद्रसूरिजीका समयः अब हम उनके समयके विषयमें जो जो मत प्रवर्तित है उस पर दृष्टि डाल दें और उसमें क्या तथ्य है उसका विचार करें। I आ० हरिभद्रसूरिजी के समय के विषयमें विद्वानोंमें काफी ऊहापोह हो चुका है । उसमें खास दो मत उल्लेख्य है । एक मतके मुताबिक उनका स्वर्गगमनकाल वि. सं ५८५ बताया जाता है, जिसके प्रमाण इस तरह देते हैं १. ' पट्टावली ' ग्रन्थों में यह गाथा मिलती है. - " पंचसए पणसीए, विकमकालाभ झत्ति अर्थामिओ । हरिभद्दसूरितूरो, भवियाणं दिसउ कल्लाणं ॥ 13 -- वि. सं ५८५ में हरिभद्रसूरि स्वर्गस्थ हुए। वे भव्य मनुप्योंका कल्याण करो । २ आ० धर्मघोषसूरि 'दुस्समकालसमणसंघथयं' की अव चूरिमें लिखते है -- Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सत्यमित्र ७ हारिल ५४॥ पचसए पणसीए (गाथा)॥ जिनभद्रगणिः ६०॥" -आ० सत्यमित्र ७ वर्ष, आ० हारिल ५४ वर्ष युगप्रधान रहे, वि. सं. ५८५ में आ० हरिभद्रसूरिजीका स्वर्ग, आ० जिनभद्रगणि ६० वर्ष युगप्रधान। ३ आ० मेरुतुंगसूरि अपनी विचारश्रेणि ' में लिखते हैं"श्रीवीरमोक्षाद् दशभिः शतैः पञ्चपञ्चाशदधिकैः (१०५५) श्रीहरिभद्रसूरेः स्वर्गः। उक्तं च, पचसए पणसीए (गाथा)॥ ततो जिनभद्रक्षमाश्रमणः ६५॥" --वीर संवत् १०५५-वि सं ५.५ में आ० हरिभद्रसरिजीका स्वर्ग, उसके बाद आ० जिनभद्र क्षमाश्रमण हुए। उनका युगप्रधानत्व ६५ वर्ष । ४. आ० प्रभाचन्द्रसूरि 'प्रभावकचरित' में लिखते हैं-- आचार्य हरिभद्रसूरिजीने ' महानिशीथसूत्र का जीर्णोद्धार किया और आ० जिनप्रभसूरि विविधतीर्थकल्प ' में लिखते हैं कि- आ० जिनभद्र क्षमाक्षमणने मथुरामें 'महानिशीथसूत्र'का उद्धार किया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि ये दोनों आचार्य समकालीन हैं। ५ आ० प्रद्युम्नसूरि 'विचारसार' में कितनीक गाथाओंका अवतरण देते हैं "पचसए पणतीए, विकमभूवामो झत्ति अत्थमिओ। हरिभद्दसूरिसूरो, धम्मरओ देउ मुक्खसुहं ॥ अहवा- पणवन्न दससपहि, हरिसूरी आसी तत्थ पुब्धकई। तेरसबरिसलपहि, अईपहि वप्पहट्टि पह॥" --एक उल्लेख ऐसा है कि वि. स ५३५ में धर्मरत आ० Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦ श्रीहरिभद्रसूरिजी स्वर्गस्थ हुए। वे मोक्षका वे मोक्षका सुख दो। मतान्तरसे ऐसा भी पाठ मिलता है कि वीर सं. १०५५ में श्रीहरिभद्रसूरिजी हुए और वीर नि. सं. १३०० में आ० वप्पभट्टिमूरिजी हुए । इन दो गाथाओंसे दो मतातरों के संवत् दिये गये हैं । यदि ' पणतीए ' की जगह ' पणसीए का पाठ मान लिया जाय तो मतातर रहता नहीं है । यहा जो वप्पभट्टसूरिजी का स्वर्गगमन सं. १३०० में बताया गया है वह भी मतातरके रूपमे ही हैं, क्योंकि 'विचारश्रेणि' मे वीर सं. १३०० में, १३६० मे न संचयमें वी. सं. १३२० में और ' तपागच्छीय पट्टावली 'ओमें वीर सं. १३६५ मे आ० वप्पभट्टिसूरिजी का स्वर्गगमन बताया 1 "" ६. बृहद्गच्छीय सूरिविद्या प्रशस्ति में निम्नलिखित गाथायें हैं'दिनो हरिभद्देण वि, विजाहरवायणाप तया ॥ ३ ॥ चिरमित्त पीइतोला, दिनो हरिभद्दसूरिणा विदओ । विज्ञाहरसाहिणो, मंतो सिरिमाणदेवस्स ॥ ४ ॥ " यह प्रशस्तिका पूर्वापर संबंध और सार इस प्रकार है । - आचार्य मानदेवसूरि जो आ० समुद्रसूरिके पट्टधर और हरिभद्रसूरिजी के वयस्य थे, उनके गुरुजीने सं. ५८२ में चंद्र कुलका सूरिमन्त्र दिया और चिरमित्र आ० हरिभद्रसूरिने सप्रेम विद्याधर कुलका सुरिमंत्र दिया लेकिन वे उन मन्त्रपाठोकी समानता, दुष्काल, लोगोंका संहार और रोगके कारण मन्त्रको भूल गये और पीछेसे उन्होंने गिरनार पर तप करके श्री सीमंधरस्वामीने उपदिष्ट किया हुआ मंत्र अंबिकादेवीको प्रसन्न करके प्राप्त किया आदि ( गाथा १ - १२) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इससे निश्चय हो जाता है कि आ० हरिभद्रसूरिजी और आ० -मानदेवसूरिजी सं ५८२ मे हुए थे और दोनों समकालीन थे। ७. 'गुर्वावली' और 'पट्टावलियो 'में आ० हरिभद्रसूरि और आ० मानदेवसूरिजीको समकालीन आचार्य बताया गया है। फलतः इन सब पाठोंसे स्पष्ट हो जाता है कि आ० हरिभद्रसूरिजी वि सं ५८५ मे स्वर्गस्थ हुए हैं। आ० हरिभद्रसूरिजीके समयनिर्णयमे दूसरे मतके मुताविक वे वि सं. ७८५ लगभगमे स्वर्गस्थ हुए। इससे सिद्ध है कि ऊपरके जो पाठ दिये गये हैं वे सब इसके विरुद्ध जाते हैं। इसके लिये खुलासा किया जाता है कि ऊपर दर्शाये हुए सब पाठ युगप्रधान आ० हारिलसूरि कि जिनका नाम हरिगुप्त और आ० हरिभद्र भी है और जो वी नि सं. १०५५ वि. स ५८५ में स्वर्गस्थ हुए हैं उनकी जीवनघटनाके साथ संगत होते हैं। अर्थात्-- (१) 'पचसए' वाली पट्टावलियोकी गाथा आ० हारिलका स्वर्गसंवत् बताती है । वस्तुतः ‘पंचसए' के बदले 'सत्सए' पाठ मान लिया जाय तो वह गाथा हरिभद्रसूरिजीके स्वर्गवास समयके साथ लागू पड सके। (२) 'दुस्समकालथय'की अवरिम आ० हारिलके पीछे 'पचसए' वाली गाथा दी है और उसके पीछे जिनभद्रसूरिजीका समय बताया गया है वहां भी हारिल और हरिभद्रसूरिको एक माना जाय तो ही उनके पीछे आ० जिनभद्रसूरिजी होनेका संगत हो सकता है। १३) विचारश्रेणी के पाठके लिये भी ऊपरका ही समाधान है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) परंतु आ० हरिभद्रसूरिजीन ' महानिशीथसूत्र का उद्धार किया उस सूत्रकी संस्कृत प्रशस्तिमें समकालीन आचायोंके नाम दिये हैं उनमे आ० हरिभद्रमूरिजीका नाम है । आ० जिनदासगणि क्षमाश्रमणका नाम है, लेकिन आ० जिनभद्रगणिका नहीं है । अतः 'विविधतीर्थकल्प के उल्लेखको दूसरे पुख्त प्रमाणकी अपेक्षा रहती है। (५, 'विचारसार में मतांतर है वही वि. सं. ५८५ में आ० हरिभद्रसूरिजीके स्वर्गवासकी बातको कमजोर बनाता है और गाथा ३० में दिया हुआ 'धम्मरओ' विशेषण आ० हारिलके साथ ज्यादः लागू होता है । ' पणतीए 'के स्थानमें 'पणसीए' माना जाय और फिर 'पंचसए पणसीए के स्थानमें मत्तसए पणसीए ' माना जाय तो बराबर कालसंगति हो जाती है। बाकी चाल स्थितिके पाठ भी आ० हारिसूरिजीके साथ सवध रखते है। (६, 'सूरिविद्या' पाठकी प्रशस्तिमें आ० हरिभद्रसूरजी और आ० समुद्रसूरिजीके पट्टधर आ० मानदेवसूरिजीको एककालीन बताये गये हैं। यह एक सबल पुरावा है। इससे इस घटना आ० समुद्र सूरिजीके शिष्य आ० मानदेवसूरिजीके साथ संबंध रखनेवाली है ऐसा मानना ज्यादा उचित है। यदि प्रशस्ति उसी समयकी हो तो आ. हारिल और आ० मानदेवसूरिजी (दूसरे) समकालीन है यह बात निश्चित हो जाती है परंतु यह प्रशस्ति पश्चात्कालकी हो तो आ० आ० हरिभद्रमूरि और आ० प्रद्युम्नसुरिजीके शिष्य मानदेवसूरिजी (तीसरे) समकालीन है ऐसा मानना पडेगा। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० (७) 'गुर्वावली' आदिके पाठोंका भी समाधान उक्तरीत्या समझना चाहिए । इस तरह उपर सुजब खुलासा हो जाता है । यह तो हुआ पाठोका समाधान लेकिन श्रीहरिभद्रसूजी वि.स ७८५ के अरसे मे स्वर्गस्थ हुए उसका पाठ नीचे मुजब है । १. बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति, शैवाचार्य भर्तृहरि और मीमांसक कुमारिल भट्ट आदि विद्वान विक्रमकी आठमी सदीमे हुए हैं । आ० हरिभद्रसूरिजी ने अपने ग्रन्थोमे उनके नाम और उनके ग्रन्थोके नामका उल्लेख किया है । इससे स्पष्ट है कि आ० हरिभद्रसूरिजी उनके पीछे हुए हैं। २ आ० जिनभद्रसूरिजीने वि सं. ६६६ में 'विशेषावश्यकभाष्य ' की रचना की है। उसमें एक ' ध्यानशतक' की रचना है और उस पर आ० हरिभद्रसूरिजीने टीका बनाई है जिससे निश्चित हो जाता है कि आ० हरिभद्रसूरि उस रचना संवत् पीछे हुए हैं। ३ आ० जिनदासगणि महत्तरने वि. सं. ७३३ लगभगमे चूर्णिप्रन्थों की रचना की है। आ० हरिभद्रसूरिजीने उन चूर्णियोके आधार पर ' आवश्यक - नियुक्ति टोका, नन्दीसूत्र टीका' आदिकी रचना की है। आ० हरिभद्र रेजीने 'महानिशीथसूत्र' का जो जीर्णोद्वार किया था उसका प्रथम आदर्श आ० जिनदासगणिको वांचनेको दिया था। इससे अब कहने की जरूरत नहीं है कि आ० हरिभद्रसूरिजी वि.स ७३३ के पीछे हुए हैं । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. आचार्य गुणनिधानसूरि शिप्य आ० हर्षनिधान रत्नसंचय में यह अवतरण गाथा देते हैं-- पणपन्नवारससए, हरिभद्रसूरी भासीऽपूचकई तेरससय वीस यहिए, वरिसेहि वप्पट्टिपहू ॥२८२॥ -वीर नि स. १२५५ वि. सं ७८५) में महान ग्रन्थकार आ० हरिभद्रसूरिजी हुए। वीर नि. सं. १३२० (वि. सं. ८५०) में आ• वप्पभट्टिसूरि हुए। ५. दाक्षिण्यचिह्न आ० उद्योतनसृरिजी वि. सं. ८३५में अपनी रची हुई · कुवलयनाला की प्रशस्तिमे लिखते हैं-- सो सिद्धन्तेण गुरु, जुत्तिसत्येहि जस्स हरिभदो। बहुसत्थगन्थविस्थरपत्थारिय पयडसञ्चत्थो ॥१५॥ -~~-मेर सिद्धात गुरु आ० वीरभद्रसरिजी हैं और न्यायशास्त्रके गुरु एवं अनेक ग्रन्थों के निर्माता आ० श्रीहरिभद्रसूरिजी हैं। अर्थात् यह श्रीउद्योतनरसूरि वि. सं ८३५ में विद्यमान थे और आ० हरिभद्रसूरजी उससे पहले वि. सं ७८५ के अरसेमे थे यह अति विश्वस्त प्रमाण है। ६. आ० सिद्धर्पिगणि अपनी उपमितिभवप्रपञ्चाकथा' में लिखते हैं कि "नमोऽस्तु हरिभदाय, तस्मै प्रवरसूरये। मदर्थे निमिता एव, वृत्तिललितविस्तरा॥" -मुझे धर्ममे प्रवेश करानेवाले धर्मबोधकर आ० हरिभद्रसूरि हैं, जिन्होंने अपनी समयसूचकतासे मानो मेरे ही लिये चैत्यवन्दन पर ' ललितविस्तरा' नामकी टीका वनाई न हो ऐसे हरिभद्रमूरिजीको नमस्कार हो। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि इस पाठसे आ० हरिभद्रसूरि सिद्धर्पिसूरिजीके साक्षात् गुरु हो ऐसा भ्रम उपस्थित हो जाता है किन्तु श्रीसिद्धर्षिसूरि वि. सं. ९६२ मे हुए हैं और उन्होने 'समयसूचकता'का निर्देश भी किया है इससे आ० हरिभद्रसूरि आ० सिद्धर्पिसूरिजीके साक्षात् गुरु नहीं परन्तु उनके शास्त्रों द्वारा विवेकचा खोलनेवाले सत्यपथ प्रदर्शकके रूपमें परंपरासे गुरु है-ऐसा यहां अमस्फोट किया जाता है। मतलब कि आ० हरिभद्रसूरिजी उनसे पहिले लेकिन कुछ नजदीकमें ही हो गये हैं ऐसा स्पष्ट हो जाता है। इन उपर्युक्त प्रमाणोंसे निर्णीत है कि आ० हरिभद्रसूरिजी वि. सं. ७८५ के अरसेमें विद्यमान थे। इस तरह आ० हरिभद्रसूरिजीके समय के बारेमे दो मत प्रचलित हैं और उसमें करीब २०० वर्षका अंतर है 'सूरिविद्या' पाठ प्रशस्तिका वि. स. ५८५ का सबल प्रमाण है किन्तु वह प्रशस्ति उस समयकी नहीं अर्थात् पश्चात् कालमें लिखे हुए परिचय रूप है इससे यह मानना सर्वथा उचित है कि आ० हरिभद्रसूरिजी वि. सं. ७८५ करीब हुए हैं। इस तरह इस ग्रन्थ और उनके रचयिताके बारेमे हमने जो कुछ संक्षेपमें निर्देश किया है उसमे विद्वानोकी प्रगट सामग्रीका काफी उपयोग किया है। उन सब एकका साथ आभार मानते हुए यह उपोद्यात समाप्त करता हूं। नागजी भूधरनी पोल मुनि दर्शनविजय जैन उपाश्रय : अमदावाद वि स. २००६ (त्रिपुटी) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसर्वज्ञाय नमः ॥ श्रीमुनिचन्द्रसरि रचित टीकाद्वारा अलङ्कृत श्रीमद्हरिभद्रसूरि-विरचित धर्मविन्दु प्रकरण Page #38 --------------------------------------------------------------------------  Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || प्रथम अध्याय ॥ शुद्ध न्यायका अनुसरण करके जिन्होने ज्ञानादि संपत्तिको अपने वशीभूत कर लिया है, और जो परम पद (मोक्ष) को प्राप्त हो चुके हैं; ऐसे श्रीजिनप्रभु' -तीर्थंकर भगवानको नमस्कार हो । t अभाइ सागर समान महान् शास्त्रका पारायण कर ( शास्त्र रूप सागर के रहस्यरूप नलको पीकर ) के जिन्होंने अपने स्वरूपको पुष्ट व गंभीर कर लिया है तथा ऐसे प्राचीन आचार्यस्वरूप मेघोने इस संसारके तापका हरण कर लिया है उन आचार्य मेघों की सदा जय हो । जिसके स्मरणरूप अंजनको सज्जन पुरुष अपने चित्तरूप चक्षुमें लगाकर दिव्य आलोक प्राप्त करके हृदयरूप भूमिके मध्य में समाये हुए गंभीर अर्थवाले प्रवचनरूप रत्नभंडारको शीघ्र ही देख कर निकाल सकते है ऐसी भारती देवी ( परमात्माकी वाणीरूप सरस्थती-) को मैं नमस्कार करता हूं । १. यहा टीकाकारने निनप्रभ नामक- अपने गुरुको भी नमस्कार कर लिया है । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ : धर्मविन्दु मैं अपने ज्ञानसे भव्य जनोके उपकारार्थ इस 'धर्मविन्दु प्रकरण' नामक ग्रन्थकी, जिसके पढोंमें अति विरल' अर्थ समाये हुए हैं, उस टीकाकी रचना करता हूं || प्रणम्य परमात्मानं, समुद्धत्य श्रुतार्णवात् । धर्मविन्दु प्रवक्ष्यामि, तोयविन्दुमिवोदधेः ॥१॥ मूलार्थ-श्रीअरिहन्त परमात्माको नमस्कार करके समुद्र में से जलविन्दुकी भांति, शास्त्र सिद्धान्तरूपी समुद्र से 'धर्मके विन्दु'को निकाल कर इस ‘धर्मविन्दु प्रकरण' नामक ग्रन्थकी रचना करता हूं ॥१॥ विवेचन प्रणम्य-त्रिविध वन्दन करके-कायासे नमस्कार, वाणीसे स्तुति व मनसे चिन्तन--इस तरह मन, वचन व काया तीनोंसे भगवानके स्वरूपको मनन करके, प्रभुको वन्दन करके, परमात्मान-अतति-अर्थात् निरन्तर भिन्न भिन्न पर्यायोको प्राप्त होनेवाला आत्मा या जीव कहलाता है । वह जीव परम और अपरम इस त्रह दो प्रकारका है। केवली सिद्ध व अरिहन्त ये' परमात्मा है और अन्य-ससारी जीव अपरमात्मा हैं । परमात्मा वह है जो समस्त कर्मरूपी मलका नाश करनेसे प्राप्त विशुद्ध ज्ञान केवलज्ञानके बलसे सकल लोकालोकको देखता है-जो इस जगतके प्राणियोंको संतोष देनेवाला है, जिसकी इन्द्रादि देवगण अष्ट प्रातिहार्योंसे - - - २'मूल प्रन्थ सूत्रबद्ध होनेसे विरल पदोंके टीकाकी आवश्य Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ५ पूजा व उपचार करते हैं- तदनन्तर जो सभी भव्य प्राणियोंको अपनी अपनी भाषामें समझमें आनेवाली वाणीद्वारा एक ही समयमें उन (भव्य प्राणियो)के अनेक सदेहोको दूर करता है, अपने विहाररूप वायुद्वारा जो समस्त पृथ्वी पर विखरे हुए पापरूप रजराशिको दूर करता है, और जिसको 'सदाशिव' आदि शब्दोद्वारा पुकारा जाता है ऐसे श्रीअरिहंत भगवान है-वही परमात्मा है । तथा उसके भिन्न सब अपरमात्मा-संसारी जीव है। समुद्धत्यसम्यक् प्रकारसे उद्धार करनेके स्थान-शास्त्रों से-जो कमी हो उसे पूरा करके तथा जो अविरुद्ध हो उसे पृथक् पृथक् करके, उसको उद्धृत किया है-ले कर कहा है । कहांसे :-श्रुतार्णवात्शास्त्ररूप आगमोके समुद्रमेंसे-वह समुद्र कैसा है ? --जिसमें अनेक मंगी याने रचनारूप भवरें है,- अतिविशाल व विपुल सप्त नयरूप मणिमालाओसे भरपूर है, जो मन्दमतिरूपी कमजोर जहाजवाले जीवोंके लिये अत्यन्त दुस्तर है ऐसे शास्त्ररूप समुद्र से । धर्मविन्दु-धर्मविन्दु नामक, प्रकरण, जिसके लक्षण यथास्थान कहे जावेंगे-ऐसा धर्मबिन्दु नामको सार्थक करनेवाले इस ग्रन्थको मैं-प्रवक्ष्यामि-पढता इ-यानि रचना करता हूं। इसका किस तरह उद्धार करके ? वह कहते है-तोयविन्दुमिवोदधेः-जैसे समुद्र में से पानीकी बूद लेते हैं, वैसा यह प्रयत्न है। - बिन्दु शब्दकी उपमा मूत्रके संक्षेपकी अपेक्षासे दी हुई है, अर्थक्की अपेक्षासे सोचें तो जैसे कपूरयुक्त जलका एक बिन्दु भी संपूर्ण घडे में व्याप्त हो जाता है वैसे ही यह धर्मबिन्दु प्रकरण समस्त Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ : धसंधिन्दु धर्मशास्त्रमें व्याप्त है जो यहां साररूपमें दिया है। जैसे दवाका अर्क निकाला जाता है वैसे यह धर्मशास्त्रोमेंसे सारको खींचकर सामने रखा है। ग्रन्थकी रचनामें चार बातें मुख्य होती है-मंगलाचरण, नाम, प्रयोजन और फल । मंगलाचरण और नाम इस पहले श्लोकमें दिये हैं। प्रयोजन व फल टीकाकार बतलाते हैं - प्रणम्य परमात्मानं यह मंगलाचरण है। प्रभुको वन्दन करना सब विघ्नोंको हरनेवाला है। प्रभुके प्रणामसे सब अमंगल दूर हो जाते है । धर्मविन्दु यह इस ग्रन्थका नाम है वह उपमेय है । इस ग्रन्थमें धर्मका एक विन्दु 'अवयव' या 'अग' कहा है। इस परसे ग्रन्थका 'धर्मबिन्दु' नाम रखा है। इस ग्रन्थकी रचना का प्रयोजन प्राणियो पर अनुग्रह करना है । इस ग्रन्थसे ससारके दुःखसे पीडित प्राणियोका उपकार होगा । इस ग्रन्थका फल मुक्तिकी प्राप्ति है। ग्रन्थसे श्रोता या वाचकोको धर्मकी प्राप्ति होकर उनका कल्याण होगा, धर्म प्राप्तिसे अन्ततः मुक्ति होगी। ग्रन्थकारको भी परोपकार होनेसे अन्ततः धमकी उत्कृष्टता होकर मोक्षसुख मिलेगा। यह एक कुशल अनुष्ठान है और कुशल अनुष्ठानका फल मोक्ष है। ___अब धर्मका हेतु, स्वरूप व फल कहते है-फलप्रधानाः प्रारम्भा मतिमतां भवन्तीति-बुद्धिमान् मनुष्य फल देनेवाले कार्योंको ही करते हैं । अतः पहले धर्मका फल कह कर हेतुशुद्धिद्वारा धर्मका स्वरूप कहते हैं - Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ७ धनदो धनार्थिनां प्रोक्तः, कामिनां सर्वकामदः । धर्म एवापवर्गस्य, पारम्पर्येण साधकः ॥२॥ वचनाद् यदनुष्ठानमविरुद्धाद् यथोदितम् । मैञ्यादिभावसंयुक्तं, तद्धर्म इति कीर्त्यते ॥३॥ मूलार्थ-धर्म, धनकी इच्छा करनेवालोंको धन देनेवाला है, कामाभिलापी जनोंको सभी कामभोग देनेवाला है तथा परंपरासे मोक्षका साधक है ॥२॥ परस्पर अविरुद्ध वचनसे शास्त्रमे कहा हुआ मैत्री आदि भावनासे युक्त जो अनुष्ठान है, वह धर्म कहलाता है ॥३॥ विवेचन-धनदः-धनको देनेवाला। धनका अर्थ अन्न, क्षेत्र, वस्तु, द्विपद (सेवक ), चतुष्पद ( पशु) तथा हिरण्य ( चन्दन ), स्वर्ण, मणि, मोती, शंख, प्रवाल आदि सब है। वह धन कुबेरकी समृद्धिसे प्रतिस्पर्धा करनेवाला है। साथ ही जो तीर्थ आदिमें उपयोगमें आ सकें व जिसका फल मिल सके वही वस्तुतः धन है। धनार्थिनां- संसारमें धन ही सब कुछ है तथा धर्मके सिवाय संसारमें कुछ भी नहीं है, ऐसे समझनेवाले तथा धनकी बहुत इच्छा रखनेवाले पुरुषोको, प्रोक्तः -शास्त्रोंमें कहा है। कामिनां-काम अत. कामना-कामकी इच्छावालोको, सर्वकामदः कामभोगकी सब वस्तुएँ देनेवाला-इच्छित और योग्य वस्तुएँ देनेवाला, इस ससारकी व देवताओकी ऋद्धि को देनेवाला है। - धर्म एव-धर्म ही, अपवर्गस्य-मोक्षका-जन्म, जरा व मृत्यु Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८: धर्मविन्दु आदि सब दोषोको हटानेवाला, पारम्पयेण- परंपरासे, अविरत सम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थानसे क्रमशः अन्य गुणस्थानकों के आरोहणसे, सुदेवत्व और मनुष्यन्वको अनुक्रमसे प्राप्त करके मोक्षप्राप्ति करना, साधका-देनेवाला-यह मोक्षकी ओर ले जानेवाला साधन है। धर्मसे सब प्रकारकी इहलौकिक व पारलौकिक वस्तुएँ प्राप्त होती है । धनकी इच्छावालोंको सब प्रकारका धन प्राप्त होता है। अन्य सुख व योग्य वस्तुओकी कामनावालेको वे वस्तुएँ प्राप्त होती है । धर्म करनेसे पुण्य कर्मबन्ध होता है, उससे प्रत्येक प्रकारका शुभ फल मिलता है। इन सब क्षणिक सुख व लाभोको बता कर फिर उत्कृष्ट फल बताते हैं। अनुक्रमसे यही धर्म मोक्ष सुखको देनेवाला है । धर्मसे ही मोक्षकी प्राप्ति होती है, अन्यथा नहीं । 'अविरत सम्यग्दृष्टि नामक गुणस्थानक को प्राप्त करनेमें धर्म ही सहायक है | उस चौथे गुणस्थानकसे ही उत्तरोत्तर चढकर मोक्ष प्राप्ति हो सकती है। अतः धर्म ही मोक्षका साधक है। वचनाद्-जो कहा जाय वह वचन या आगम, उसमेंसे शब्दोंको लेकर, यदनुष्ठानं-उन वचनों के अनुसार जो आचरण । इस लोक व परलोकमे हेय (त्याज्य) व उपादेय (ग्रहण करने योग्य) वस्तुओं-कार्योंके त्याग व ग्रहणकी प्रवृत्ति अनुष्ठान है । वह शास्त्रवचन-अविरुद्धात्-परस्पर विरोध रहित, कप, छेद व तापकी परीक्षासे सोनेकी तरह शुद्ध हो चुका है और वह अविरुद्ध वचन Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ९ श्रीजिनेश्वर भगवंतद्वारा प्रणीत है । वचनका कहनेवाला जो उसका अंतरंग निमित्त है वह शुद्ध है अत' वचन अविरुद्ध हैं । राग, द्वेष व मोहके वशमें होनेसे निमित्त अशुद्ध होता है क्योकि ऐसे निमित्तसे अशुद्ध वचनकी प्रवृत्ति होती है । श्रीजिनेश्वर भगवंतमें ऐसी अशुद्धि नहीं है, न हो सकती है। 'जिन' राग, द्वेष और मोह के जीतनेवाले है अतः उनका वचन अविरुद्ध है । जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है। नीम के बीजसे गन्ना पैदा नहीं होता । अतः दुष्ट कारणसे प्रारंभ किया हुआ कार्य अदुष्ट नही हो सकता । इसी कारण जो 'जिन' नहीं है उनके द्वारा कथित वचन अविरुद्ध वचन नहीं है । वह राग-द्वेष पूर्ण होनेसे बच्चन भी अप्रमाण है । 1 । यदि कोई कहे कि अपौरुपेय वचन अविरुद्ध है तो वह अयुक्त है । जो वचन है वह बोला हुआ ही है। उसका अस्तित्व पुरुषके होने पर ही होता है । अत. अपौरुपेय वचन ध्वनिसे कभी उपलब्ध नहीं होता । अदृष्टवचन, जो पिशाच आदि अदृष्ट रह कर बोले तो ऐसे माने हुए अपौरुपेय वचनसे मनस्वी पुरुष निश्चयपूर्वक प्रवृत्ति कैसे कर सकते हैं ? | यथोदितं - इस प्रकार काल आदिकी आराधनाके अनुसार कहा गया तथा शास्त्रमें प्रतिपादित अविरुद्ध वचनके अनुसार कहा हुआ जो अनुष्ठान है, उसमें प्रवृत्ति करना ही धर्म है । जो अन्यथा 1 या भिन्नप्रवृत्ति है वह शास्त्रविरुद्ध है अत धर्म नहीं है । कहा है Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० : धर्मविन्दु "तत्कारी स्यात् स नियमात्, तद्धेपी चेति यो जडः। आगमार्थे तमुल्लइध्य, तत एवं प्रवर्त्तते" ॥१॥ -(योगबिन्दु श्लोक २४०) —जो मूर्ख शास्त्र या शास्त्रनियमोके विरुद्ध आचरण करे वह शास्त्र व शासोक्त धर्मके विरुद्ध होता है क्योंकि शास्त्रनियमके उल्लघनसे उसकी प्रवृत्ति शास्त्रविरुद्ध होती है। मैत्र्यादिभावसंयुक्तं-मैत्री आदि भावो सहित । ऐसे भाव चार है- मैत्री, प्रमोद, करुणा तथा माध्यस्थ्य-इन भावनाओ सहित बाह्य चेष्टाएँ । प्राणी मात्रके प्रति सममाव तथा मित्रतामैत्रीभाव, अपने से अधिक गुणवानके प्रति हर्ष या प्रमोद रखना, जो दुःखी हो उस पर करुणा भावना रखना और अविनयी या दुर्गुणीके प्रति माध्यस्थ्य भाव रखना। जो अनुष्ठान अविरुद्ध वचनद्वारा शास्त्रमें कहा गया है उसीके अनुसार श्रीजिन भगवान्द्वारा प्रणीत शास्त्रमें उक्त ऐसे वचनो द्वारा कहा हुआ अनुष्ठान मैत्री आदि-इन चारो भावों सहित हो वही वस्तुतः धर्म कहा है। ___ धर्मरूपी कल्पवृक्षके मोक्ष व स्वर्ग फल हैं, मैत्री आदि भाव मूल है। धर्म दुर्गतिमें पड़े हुए जीवोको बचाने और स्वर्ग आदि सुगतिमें ले जानेवाला है । सब सत्यभावनाओंके जाननेवाले बुद्धिमान पुरुष इसे ही धर्म कहते है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ११ | 'अविरुद्ध वचनवाला अनुष्ठान धर्म है' - यह व्यवहार नयकी अपेक्षा कहा है । निश्चय नयसे कहे तो ऐसे शुद्ध अनुष्ठान से उत्पन्न होनेवाले कर्म मलको नाश करनेसे, सम्यग्दर्शन आदि जिससे निर्वाणके बीजरूप फलकी प्राप्ति हो ऐसी जीवशुद्धि ही धर्म हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो जिससे जीवकी परिणति शुद्ध हो, राग, द्वेष कम हो ऐसा ज्ञान, दर्शन व चारित्र प्राप्त करनेका कोई भी मार्ग धर्म है । अब धर्मके भेद व प्रभेद कहते हैंसोऽयमनुष्ठातृभेदात् द्विविधो गृहस्थधर्मो यतिधर्मश्चेति ॥ १ ॥ मूलार्थ - यह धर्म अनुष्ठान करनेवालोंके भेदसे दो प्रकारका है, गृहस्थधर्म और यति धर्म ॥१॥ विवेचन -- सः - वह कहा हुआ, अयं कर्त्ताके हृदय में प्रत्यक्ष -- रूपसे स्थित यह धर्म, अनुष्ठातृभेदात्-धर्म का अनुष्ठान करनेवाले पुरुषोंके भेदसे, द्विविधः - दो प्रकारका है, गृहस्थधर्म :- घर पर रहनेवाला गृहस्थ, उसका दैनिक तथा पर्वादि निमित्तसे होनेवाला धर्म 'गृहस्थधर्म' कहलाता है । यतिधर्मश्च - यतिका धर्म यतिधर्म, जो देह मात्रके आराम से सम्यग्ज्ञानरूप नौका द्वारा तृष्णारूप सरिताको तैरनेका प्रयत्न करे वह यति, उसका धर्म या गुरुके साथ रह कर उसकी भक्ति व बहुमान आदि करता हैं वह 'यतिधर्म' कहलाता है । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ : धर्मविन्दु धर्म एक है, करनेवाले भिन्न भिन्न स्थितिके है, अतः धर्मके दो मुल्य भेद कहे है । जिस कामको गृहस्थ करता है वह गृहस्थधर्म व यति करे सो यतिधर्म । । गृहस्थवर्मको ही श्रावक धर्म रहते हैं । वे भिन्न भिन्न स्थितिके होनेसे से दो प्रकारका धर्म कहा है-- तन्त्र गृहस्थधर्मोऽपि द्विविधः सामान्यतो विशेषतश्चेति ॥२॥ मूलार्थ-उसमें गृहस्थधर्म भी दो प्रकारका है; सामान्य और विशेप ।।२।। विवेचन-जो धर्म सर्व सद्गृहस्थोंद्वारा पाला जा सके वह सामान्य है। अणुव्रत आदि महान गुणोंकी प्राप्तिके लिये सर्वमान्य सामान्य गुण पहले प्राप्त करना चाहिए । उनको बतलानेवाला सामान्य गृहस्थ धर्म है । जो पाच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षात्रत-इस प्रकार समकितके बारह व्रत अंगीकार करता है वह विशेष धर्मका पालन करनेवाला है। इस अध्यायकी समाप्ति तक ग्रन्थकार सामान्य गृहस्थधर्मका वर्णन करते हैं - तत्र सामान्यतो गृहस्थधर्मः कुल क्रमागतमनिन्द्यविभवाद्यपेक्षया न्यायतोऽतुष्टानमिति ॥३॥ मूलार्थ-कुल परंपरासे आया हुआ, निन्दारहित, वैभव Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : १३ आदिकी अपेक्षासे जो न्याययुक्त अनुष्ठान है वह गृहस्थका सामान्य धर्म है || ३ || विवेचन-तत्र सामान्यतः - इन दोनोंमेंसे सामान्य, कुलकमा - मतं- पिता, पितामह आदि द्वारा क्रमशः सेवन किया हुआ, अपने समय तक चला आता हुआ, अनिन्द्यं - जिसकी निन्दा न की जा सके; निन्द्य वह है जिसका साधुजन - जो परलोक व पुनर्जन्मको मुख्य मानते हैं, अनादर करें, जैसे शराबकी दुकान । अनिन्द्यनिन्दारहित, विभवाद्यपेक्षया - वैभव- धनके होने पर भी न्याय्य आचरण, न्यायतः - न्यायसे; बिना मिलावटके शुद्ध, नाप व तोलमें बराबर और व्यवहार आदिमें उचित-जैसे व्याज आदि उचित दरसे लेना - इत्यादि प्रामाणिकता से ( कार्य करना ), अनुष्ठानंव्यापार, राजसेवा आदि । गृहस्थके सामान्य धर्मका वर्णन करते हुए कहते है कि वंश परंपरागत उचित कार्यको करते रहना चाहिए। वैभव, काल, क्षेत्र आदि के होने पर भी उसकी अपेक्षासे प्रत्येक कार्यको न्यायमे करें । जो सज्जनोकी सम्मतिवाले न्यायको मुख्य समझ कर अपने धन के तृतीयांशसे व्यापार करे, अपनी स्थिति देख कर उसके अनुसार व्यापार करें और राजसेवा या नौकरी करें तो उस सेवा के योग्य कार्यमें उचित रीति से प्रवृत्ति करें । वंशपरंपरागत अनिन्द्य आचरण करे, अत्यंत निपुण बुद्धि रखे इससे ही सब विघ्नोसे दूर रहे यही गृहस्थका धर्म है । दीन, अनाथ आदिके उपयोगके येभ्य तथा धर्मका साधन होनेसे गृहस्थको धन उपार्जन करना चाहिए। - Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ : धर्मविन्दु यहां 'अनन्य अनुष्ठान' करनेका शाखाकार कहते है, पर यदि सर्वथा आचरण न करे तो निर्वाह न होनेसे गृहस्थकी सब शुभ क्रियाओके अंत होनेका समय आता है, जिससे अधर्म ही होता है। कहा है P "वित्तियोच्छेयस्मि य, गिहिणो सीयंति सव्वकिरियाओ । निरवेक्खस्स उ जुत्तो संपुण्णो संजमो चेघ" ॥ २ ॥ - ( पचागक श्लोक १५१) -जिस गृहस्थकी आजीविका समाप्त हो जाती है उसकी सर्व धर्मक्रियाएँ खत्म हो जाती हैं। पर जिसे आजीविकाकी अपेक्षा नही है उसे सर्वचिरतियुक्त संयम ही लेना चाहिए । न्यायसे धन उपार्जन करनेका कारण बताते हैंन्यायोपात्तं हि वित्तमुभयलोकहितायेति ||४|| मूलार्थ - न्याय से उपार्जित धन ही इस लोक और परलोकके हित के लिये होता है ||४|| - विवेचन - न्यायोपात - शुद्ध व्यवहारसे कमाया हुआ, वित्तंद्रव्य-धन जो निर्वाहके कार्य में आवे । उभय लोकहिताय - इहलोक और परलोक दोनो के लिये कल्याणकारी । HOM । न्यायवृत्तिसे प्राप्त किया हुआ धन दोनों लोकों के लिये कल्याणकारी होता है ॥ 6 वह न्यायोपार्जित द्रव्य दोनो लोको के लिये कैसे हितकारी होता है - वह कहते हैं Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . गृहस्थ सामान्य धर्म : १५ अनभिशङ्कनीयतया परिभोगाद विधिना तीर्थगमनाच्चेति ॥५॥ मूलार्थ-जिस द्रव्यका उपभोग करनेमें लोगोंको उपभोक्ता पर या भोग्य वस्तु पर शंका न हो ऐसी रीतिसे उसका उपभोग हो और जिस द्रष्यसे विधिपूर्वक तीथोटन आदि हो ऐसा न्यायोपार्जित धन-द्रव्य उस व्यक्तिके दोनों लोकमें हितकारी है-दोनों लोकमें उसका हित करनेवाला है ॥५॥ विवेचन-इस जगत्में अन्याय रत पुरुष पर दो तरहसे शंका की जा सकती है। एक तो भोका पर, जो उस वस्तुका उपभोग करता है तथा दूसरे भोग्य वस्तु और वैभव पर-उपभोग करने योग्य वैभव पर । भोक्ता पर तो 'वह परद्रोह करनेवाला है। इस प्रकारका दोष आनेकी संभावना है। परद्रोह अर्थात् परायेका द्रव्यहरण करनेवाला । भोग्य वस्तु पर पुनः यह आक्षेप किया जा सकता है कि यह परद्रव्य है-दूसरेका वैभव है-इस प्रकारका कोई भी दोष न मडा जा सके तब वह आनंदसे उस व्यका भोग कर सकता है उसे 'अनभिशङ्कनीय' कहा जाता है। ऐसे न्यायसे उपार्जित द्रव्यको प्राप्त करके भोक्ता उसका 'परिमोगाद' उपभोप-परिभोग करे अर्थात् स्नान, पान, आच्छादन व अनुलेपन-तेल व चंदनादि सुगंधी द्रव्योकी मालिश आदि भोगके प्रकारो सहित स्वयं तथा अपने मित्र व स्वजनादि सहित उसका भोग करें- द्रव्यका व्यय करे-उस पर जीवननिर्वाह करे, इसका भाव यह है कि न्यायसे पैदा किये हुए द्रव्य पर तथा उसके भोगने व व्यय करने पर कोई भी व्यक्ति किसी Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ : धर्मविन्दु भी समयमें लेशमात्र भी शंका नहीं कर सकता। इससे प्रसन्न चित्तवाले तथा श्रेष्ठ व प्रशस्त परिणाम या भावनावाले उस न्यायसे उपार्जन करनेवाले व्यक्तिको इस लोकमें भी महान् सुखकी प्राप्ति होती है । परलोकमें उसका हित कैसे होता है' विधिना तीर्थगमनात्विधिपूर्वक याने सत्कार व आदर सहित तीर्थाटन करनेसे । तीर्थ वह है जिससे दुःखरूपी महान् समुद्र तैरा जाय अर्थात् ऐसा पुरुपवर्गमानवयोनि, जिसमें पवित्र गुण रहे हुए है, और दीन व अनाथ आदि प्राणिवर्ग अर्थात् अन्य प्राणी वे 'तीर्थ' कहलाते हैं, वहां जाने पर ऐसे वर्गको सहायता देनेमें क्रयका व्यय होता हो वह 'तीर्थगमन' है। उससे उसका परलोकका हितसाधन होता है । अन्य धर्मों शास्त्रों में भी धार्मिक पुरुषके दानको यह स्थान दिया गया है, वह इस प्रकार है 'पात्रे दीनादिवर्गे च दान विधिवदिष्यते । पोष्यवर्गाविरोधेन, न विरुद्धं स्वतश्च यत् " ॥ ३ ॥ - आश्रित जनो को संतोष रहें, विरोध न हो तथा स्वत विरुद्ध कर्म न हो इस प्रकार सुपात्रको, दीन व अनाथ आदिको देना वह विधिवत् दान कहलाता है ॥ ३ ॥ ' इससे विपरीत अन्यायसे उपार्जित धनसे होनेवाली हानि बताते हैंअहितायैवान्यदिति ॥ ६ ॥ मूलार्थ - उपरोक्त रीतिसे न करके उससे भिन्न रीतिसे करे तो अहित ही होता है । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : १७ विवेचन-न्यायसे उपार्जित न होकर अन्यायसे उपार्जित द्रव्य हो वह दोनो लोकोके लिये अहित करनेवाला है। वह अहितका निमित्त होता है। 'काकतालीय' (कौआ बैठा, डाली तूटी) न्यायसे भी उस द्रव्यसे हित नहीं होता। उससे इस लोकमे तथा परलोकमें भी अमंगल ही होता है। वह अहितका कारण कैसे होता है ?, कहते हैं- तदनपायित्वेऽपि मत्स्यादि गलादिवद् विपाकदारुणत्वादिति ॥७॥ मूलार्थ-यदि वह अन्यायझे' उपार्जित द्रव्य नष्ट न हो तब भी मत्स्य आदिको गलगोरिकी तरह परिणाममें दारुण विनाशकारी होता है। विवेचन-अन्यायसे पैदा किया हुआ धन पहिले तो शीघ्र ही नष्ट होता है, जैसे शल्ययुक्त गृह । शिल्पशास्त्रके अनुसार शल्यवाला घर शीघ्र नष्ट होता है। यदि कभी बलवान पापानुबन्धी पुण्य होनेसे वह जीवनभर बना भी रहा और नाश न हुआ तो भी उसका परिणाम बुरा है । वह लोभ और लालसासे इकट्ठा किया हुआ होता है और लालसा दुःख लाती है, जैसे लोहेके काटेमें मासका टुकडा (गलगोरि) लगा हुआ होता है, उससे रसनाके स्वादमें मत्स्य मारा जाता है, मृगकी गान सुननेकी कर्णेन्द्रियकी लालसासे मृत्यु होती है और पतंग भी चक्षुरिन्द्रियके कारण दीपककी ओर बढकर प्राण खोता है, उसी प्रकार भन्यायका धन कमानेवालेको दुःख लाता Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ : धर्मविन्दु है। बुरे कर्मसे उपार्जन होनेवाले कर्मका फल बुरा मिलेगा ही। अतः धनप्राप्तिमें अन्याय नहीं करना । द्रव्य यदि स्थिर भी रहे तब भी विषयलालसामें प्रवृत्त होनेके कारण बुरा परिणाम लानेवाला बनता है। कहा है कि "पापेनैवार्थरागान्धः, फलमाप्नोति यत् कचित् । घडिशामिषवत् तत् तमविनाश्य न जीर्यति ॥४॥ -यदि कभी द्रव्य के प्रेममें अधा हुआ व्यक्ति कभी अन्यायरूप पापसे द्रव्य फलकी प्राप्ति करता है तो भी अंततः जैसे कांटेमें लगी मांसकी गोली मठलीका नाश करती है वैसे ही वह द्रव्य उसका नाश किये बिना नहीं पचता ॥४॥ यदि अन्यायसे पैदा करनेका मन करनेसे धनकी प्राप्ति ही न हो, उससे आजीविकाका नाश हो, तो धर्म करनेके लिये आवश्यक चित्तकी शांति कैसे रहेगी। उत्तर देते हैंन्याय एव ह्यप्त्युपनिषत्परेति समयविद इति ॥८॥ मूलार्थ-न्याय ही धन पैदा करनेका अत्यन्त रहस्यभूत उपाय है ऐसा सिद्धान्तवेत्ता कहते हैं। . . विवेचन-न्याय एव-न्याय ही, 'अन्याय नहीं, उपनिषतअत्यन्त रहस्यभूत उपाय, जो उपाय योग्य और अयोग्य (युक्त, अयुक्त) अर्थसमूह वे कार्योंमें भेद करनेकी कुशलता रहित स्थूल बुद्धिवाले पुरुषोद्वारा स्वप्नमें भी न जाना जा सके। परा-उत्कृष्ट, समयविदा-सदाचारके ज्ञाता पंडित जन। । । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : १९ न्याय ही धन प्राप्ति करनेका उत्तम रहस्यमून उपाय है। जो मन्दबुद्धि पुरुष योग्य व अयोग्य द्रव्यमें भेद नहीं कर सकते वे इस तरीके को स्वप्नमें भी नहीं पा सकते । बुद्धिमान .लोग न्याय मार्गको उत्तम कमानेका मार्ग समझते है। न्याययुक्त व्यवहारसे न्याय होनेसे शुभ कर्म ही होता है। अन्याययुक्त व्यवहारसे अशुभ कर्म । शुभ कर्मसे धन स्वत आ जाता है। न्याय आचरणसे ही धन प्राप्तिके लिये व्यक्ति योग्य होना है। लोभ रहित न्यायी मनुष्योको लक्ष्मी अपने आप मिलती है। कहा है कि. "निपानमिव मण्डूका, सरः पूर्णमिवाण्डजाः । शुभकर्माणमायान्ति, विवशः सर्वसंपदः ॥५॥ तथा-नोदवानर्थितामेति, न चाम्भोभिन पूर्यते । आत्मा तु पात्रतां नेयः, पात्रमायान्ति संपदः" ॥६॥ -जैसे मेंढक कूएके प्रति और पक्षी सरोवरकी तरफ स्वतः आते हैं वैसे ही शुभ कर्मवाले पुरुकी पास लक्ष्मी व सर्व संपदायें पराधीनकी तरह दौडो आती हैं ॥५॥ - -समुद्र यद्यपि जलके लिये भिक्षा नहीं मांगता, तब भी वह जलसे अपूर्ण रहे ऐसा नहीं होता (याने भरा ही रहता है ) अतः आत्माको पात्र बनाना चाहिए जिससे संपदाएँ आकर्षित होकर आती हैं ॥ ६॥ .. - - - । .. संपत्ति पैदा करने को उपाय न्याय ही है, यह कैसे - कहते हैंततो हि नियमतः प्रतिवन्धककर्मविगम इति ॥९॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० : धर्म सूलार्थ - द्रव्य प्राप्ति में अन्तराय करनेवाले ( लाभान्तराय) का नाश न्याय से ही होता है । विवेचन- ततः--न्यायसे-न्यायानुसार कार्य करनेसे, नियमतः - नियमानुसार निश्चितरूपसे, प्रतिबन्धककर्मणः- रोकनेवाले लाभाराय कर्मका - भवान्तरमे अपने लाभके लिये दूसरेके लाभको हानि करनेसे उत्पन्न तथा अपने लाभमे विघ्न करने वाले - लाभान्तराय कर्मका, विगसः- नाश होता है । संपत्तिको उपार्जन करनेका एक मात्र उपाय न्याय ही है क्योंकि न्याय से लाभान्तराय कर्मका जो अर्थ प्राप्तिमें बाघा करते हैं, नाश होता है, तब द्रव्यकी प्राप्ति होती है । 'जैसे ठीक तरहसे लंघन आदि क्रियासे ज्वर, अतिसार आदि रोग नष्ट होते है वैसे " ही न्यायसे कर्म नष्ट होकर द्रव्य प्राप्त होता है । वह लाभान्तराय कर्मका नाश होने से क्या सिद्ध हुआ ' कहते है 7" सत्यस्मिन्नायत्यामर्थसिद्धिरिति ॥१०॥ - मूलार्थ - उस लाभान्तराय कर्मका नाश होने से भविष्य में धन प्राप्ति होती है । "विवेचन - सति अस्मिन् खाभान्तराय कर्मका नाश होने पर, न रहने पर, आयत्याम् - आनेवाले समय में - उसके बाद, अर्थ - सिद्धि - इच्छित वैभवकी प्राप्ति या सिद्धि होती है । JN #t विघ्नका नाश होने पर वस्तु मिलती है अत घनके लिये , Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्य सामान्य धर्म : २१ अंतराय रूप लाभान्तराय कर्म नष्ट हो जाने पर न्याययुक्त कार्यसे 'नष्ट होते हैं, धन स्वत' प्राप्त होता है । अन्यथा जो दोष होता है, वह कहते हैं - अतोऽन्यथापि प्रवृत्तौ पाक्षिकोऽर्थलाभो निःसंशयस्त्वनर्थ इति ॥११॥ मूलार्थ-उससे भिन्न प्रकारसे (अन्यायसे) व्यवहार करनेसे लाभ कभी कभी होता है, अनर्थ तो जरूर होता है । विवेचन - अतः - न्याय से, अन्यथापि - भिन्न प्रकारसे - अन्यायसे, प्रवृत्तौ व्यवहार करनेसे, प्रवृत्ति या काम करनेसे, पाक्षिकःवैकल्पिक-कभी कभी, अर्थलाभः - धननाप्ति, निस्संशय:- निःसंदेह होती है । न्यायसे उचित आचरण करना चाहिए । न्यायसे न होकर अन्यायद्वारा व्यवहार करनेसे धनकी प्राप्ति तो कभी कभी होती है, कभी नहीं भी होती पर अनर्थ व पापाचरण तो अवस्य ही हो जाता है । यदि पिछला पुण्य तेज हो तो अन्यायद्वारा भी धन मिल जायगा पर उससे आनन्द न होगा | पुण्यकृत्यका नाश होगा व पापकर्मका बन्धन होगा | 15 $ पहले तो अन्याय में प्रवृत्ति करना ही अगस्य है, क्योंकि राजडण्ड आदिका भय रहता है । कहा है कि "राजदण्डभयात् पापं, नाचरत्यधमो जनः । . परलोकभयान्मध्यः, स्वभावादेव चोत्तमः" ॥७॥ - Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ : धर्मविन्दु , जो मनुष्य राजदण्डके भयसे पापफर्म नहीं करता वह अधम है, जो परलोकके भयसे नहीं करता वह मध्यम है पर उत्तम पुरुप तो स्वभावसे ही पापका आचरण नहीं करते ॥७॥ यदि कोई निन्नकोटिका व्यक्ति नीचतासे अन्यायका व्यवहार करे तो भी अर्थप्राप्ति तो उसे हो और न भी हो, एकान्तसिद्धि नहीं होती । कभी अशुद्ध सामग्री व अन्यायका व्यवहार होने पर पापानुबन्धी पुण्यका उदय होनेसे लाभ हो सकता है, यदि ऐसा उदय न हो तो लाभ भी नहीं होता, पर अनर्थ तो अवश्य ही होता है। अन्यायसे प्रवृत्ति होने पर अशुभ कर्मका बन्धन होता है जिससे अवश्य ही अशुभ फल भोगने पडते है । अन्यायसे पापकर्म होता है, उनका फल भोगना ही पड़ता है, उसके बिना पापकर्मका क्षय नहीं होता । कहा है कि-- 'अवश्यमेव भोक्तव्यं, कृतं कर्म शुभाशुभम् । नामुक्तं क्षीयते कर्म, कल्पकोटिशतैरपि" ॥८॥ - -शुभ या अशुभ जैसा भी कार्य किया है उसे अवश्य ही भोगना पडता है। सेकडो कोटि कल्पोके व्यतीत हो जाने पर भी बिना भोगे हुए उन कर्मोंका क्षय नहीं होता ॥८॥ अतः न्याय आचरण करे, अन्यायसे दूर रहे | अन्यायमें विश्वासघात और हिंसा है, न्यायमे परोपकार । अन्यायसे आत्मा मलिन होती है अत कल्याणकी इच्छावाला न्याय आचरण करे । इस तरह गृहस्थधर्मके सामान्यतः जो गुण है उनमे प्रथम कह कर अब दूसरा विवाह प्रकारका Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : २३ तथा-समानकुल-शीलादिभिरगोत्रजैवैवाह्य___ मन्यत्र बहुविरुद्धेभ्य इति ||१२|| मूलार्थ-बहुत लोगोंसे जिनका विरोध है उनके सिवाय समान कुल, शीलवाले भिन्न गोत्री के साथ विवाह करे। ' विवेचन-लग्नका उच्च हेतु स्त्री व पुरुषको प्रेमवन्धनमें जोड कर उनका जीवन सुखमय बनानेका होता है। स्त्री अर्घागिनी कहलाती है जिसका अर्थ वह पुरुषके प्रत्येक कर्ममें सहायक होता है, जैसे प्रजनन, धार्मिक व अन्य सांसारिक वस्तुओमें। उत्तम लानके लिये जिन बातों पर ध्यान देना आवश्यक है वे यहां दी गई है-- समानकुलशीलादिभिः-जिनके कुल व शील समान हो बरावर या एकसे हों वहींसे संबन्ध जोडे । वंशपरंपरा या कुलमें असमानता होनेसे असंतोष हो सकता है। यदि कन्या वैभववाडे व उच्च कुलगी हो तो पतिका, जिसका कुल निम्न है या सामाजिक स्थिति या आर्थिक स्थिति कमजोर है तो कन्या पतिकी अवगणना करेगी । यदि पति ऊचे कुल या अधिक वैभववाला हुआ तो गर्व करेगा व कन्याको हल्की दृष्टिले देखेगा। - समानशीलका अर्थ समान आचारविचार, रहनसहन,-वेषभूषा और भाषा है। दोनों कुलोमें मद्य, मांस, रात्रिभोजन आदिका त्याग हो । शील याने भाचारविचार व रहनसहन एकसे न होंगे वहां परस्पर मेल व प्रेमसाक्में कमी आनेकी पूर्ण संभावना है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ : धर्मविन्दु दोनोके रहनेके ढग भिन्न होगे तो स्वतः दाम्पत्यजीवन बिगड जायगा । मानसिक संपत्ति व गुण दोपादि एकसे होनेसे ही दोनोकी जोडी अच्छी बैठ सकती है। स्वभाव आदिकी भिन्नतासे अन्य दोष भी उत्पन्न हो सकते हैं। अगोवजा-एक ही पुरुषसे चला आनेवाला वश गोत्र कहलाता है, उसमें उत्पन्न लागोसे भिन्न अगोत्रज हैं। एक ही गोत्रमें विवाह होनेसे गोत्रका आपसी बडे छोटेका व्यवहार लुप्त हो जाता है। कन्याका पिता उम्र तथा वैभवमें बडा होने पर भी जामाताके पितासे छोटा ही समझा जायगा। ऐसे विवाह संबन्धसे कोई लाभ भी नहीं है। साथ ही पहले चले आनेवाले विनय-व्यवहारमें अंतर आ जानेसे अनर्थ हो सकता है। वर्तमान स्वास्थ्य विज्ञानने भी यह सिद्ध किया है कि एक ही गोत्रमें विवाह होना स्वास्थ्य तथा बच्चोंकी सुंदरताके लिये भी हानिकर है। . उपरोक्त तीन बातोंके होने पर विवाह संबन्ध जोडे पर एक बात छोडनेकी भी है, वह है बहुविरुद्धेभ्यः अन्यत्र-जिसके बहुत शत्रु हो उसके साथ संबन्ध करनेसे अपराध रहित होने पर भी उसके भी शत्रु हो जाते हैं। दूसरे उसे अकारण टीका सहन करनी पडती है व अपनी प्रतिष्ठाकी कमी हो जाती है। उसका भी उसी प्रकार विरोध हो सकता है । जिसके बहुत शत्रु होंगे उसे कभी शांति न होगी, अशान्त चित्तवालेके साथ विवाह करना अयोग्य है। उससे Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : २५ हानि ही है, लाभ कुछ भी नहीं । इहलोक व परलोक दोनोंके अर्थकी हानि होती है। कहा है " जनानारागप्रभवत्वात् संपत्तीनामिति " || लोगोंकी प्रीतिसे ही संपत्तिकी उत्पत्ति होती है । + और भी जिन लोगों के साथ कन्याका लग्न नहीं करना चाहिए इस प्रकार है- “मूर्ख निर्धन- दूरस्थ - शूर मोक्षामिलाषिणाम् । त्रिगुणाधिकवर्षाणां तेषां कन्या न दीयते" ||९|| 1 - मूर्ख, निर्धन, दूर रहेनेवाला, लडाका या वीर, वैरागी और कन्यांकी उम्र से तीन गुना उनसे अधिक उम्रवालेको कन्या देना नहीं चाहिए । टीकाकार कहते हैं कि, लौकिक नीतिशास्त्र के अनुसार १२ वर्षकी कन्या और १६ वर्षका पुत्र होने पर विवाहयोग्य हो जाते हैं (यह विवाहकी वय उस समयके प्रचलित मतके अनुसार है अभी विवाह के योग्य वय भिन्न भिन्न मतोसे भिन्न भिन्न है । राज्यके कानूनोंसे ही कन्याकी कमसे कम आयु १४ व कहीं १५ है, तथा चरकी आयु भी १८ या २० वर्ष होना आवश्यक है ) 1 कुटुम्ब उत्पादन व पालन आदिके व्यवहारसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शुद्र-चार वर्ण बनाये है। योग्य वर्णविधान तथा युक्तिसे किया हुभा लग्न तथा अग्नि वं देवकी साक्षीसे किया हुआ पाणिग्रहण (हस्तमिलाप ) विवाह कहलाता है । विवाहके आठ गेंद इस प्रकार हैं -- Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ : धर्मविन्दु । १. नाम- जहां कन्याको वस्त्राभूषणोसे अलंकृत करके 'तुम इस महाभाग्यशालीकी सहधर्मिणी बनो' कह कर वरको सौंप दी जावे उस ब्राह्मविवाह कहते हैं। २. प्राजापत्य- पिता अपने घरके अनुकूल द्रव्यादि देकर कन्याका विवाह करे वह । ३. आप- जिस विवाहमे केवल गायोकी जोडी ही दी जावे। ४. दैवविवाह- जिसमे यज्ञके लिये ऋत्विज ब्राह्मणको दक्षिणामें कन्यादान दिया जावे वह । उपरोक्त चारो प्रकारके धर्मविवाह कहलाते है। इसमें गृहस्थके योग्य देवपूजा तथा अन्य व्यवहार आदि सहित माता पिता व बन्धुजनकी सम्मतिसे संबन्ध होता है। ५. गान्धर्व- पारस्परिक प्रीतिसे जो विवाह संबन्ध हो। ६. आसुर- जो किसी शर्त पर किया जावे । ७. राक्षस- वलात्कारसे पाणिग्रहण करना । ८. पैशाच- सोते हुए या अज्ञान अवस्थामें हरण करके विवाह हो या कन्यादान हो । . ये चारो अधर्म विवाह है पर यदि वर-वधूमें किसी भी अपवाद बिना प्रीति हो तो वह अधर्म नहीं है। । विवाहका फल बताते है-विवाहसे कुलीन स्त्रीकी प्राप्ति होती है । उससे सुजात पुत्र, कन्या आदिकी प्राप्ति संभव है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : २७ चित्तको स्वस्थता व शांति मिलती है। स्त्री कुलीन होनेसे उसे घरकी चिंता नहीं होती । वहारसे उद्वेग युक्त आने पर स्त्रीकी प्रसन्न मुद्रासे स्वय भी सुखी व प्रसन्न हो जाता है। उससे गृहकार्यमें सुंदरता आती है, आचारशुद्धि होती है और स्वजन संबन्धी देव, गुरु व अतिथिका आदर सत्कार भली प्रकार हो सकता है। . कूलवघूके रक्षणके उपाय इस प्रकार है-उसे हमेशा गृहकार्यमे लगाये रखना, कुछ थोडा धनका योग उसके पास रक्खे, स्वतंत्रता देना नहीं और हमेशां मातातुल्य स्त्रियों के साथ रहे ऐसा प्रबन्ध करें । गृहकार्यसे अन्य प्रवृत्ति कम होगी। द्रव्यकी अधिक छूट देना ठीक नहीं पर आवश्यकताके लिये कुछ धन तो उसे देना ही चाहिए। हर अवस्थामें पुरुष या पतिद्वारा रक्षित रहनी चाहिए। मातातुल्य नियोके साथ रहनेसे दुर्गुण रुकेगे व सद्गुणों के खिलनेका अवसर प्राप्त होगा। विवाहू संबन्ध न करके वेश्या आदिसे संबन्ध रखनेमें क्या हानि है ? उत्तरमे कहते है वेश्या धोबीकी शिला तथा कुत्तेके चाटनेके वर्तन समान है, अर्थात् हर कोई उसमे मुइ मारता है। ऐसी बुरी वस्तुसे कौन कुलीन प्रसन्न होगा ? उसको दान देनेसे दुर्भाग्य या दरिद्रता आती है, उसके सत्कारसे वह अन्यके उपयोगकी वस्तु-बनती है; उसमे आसक्तिसे पराभव (या लोकनिन्दा) तथा मरण भी हो सकता है, बहुत समयका सबन्ध व प्रेम होने पर भी छोडते ही वह अन्यसे सहवास कर लेती है । वेश्याओंका यही परंपरागत रिवाज हैं। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ : धर्मबिन्दु अतः इन अनर्थों के कारण सुज्ञजन कुलीन तथा शीलवती स्त्रियोसे ही अपना संबन्ध रखना पसंद करेंगे। अब गृहस्थके तीसरे गुणका वर्णन करते हैं (न्याय आचरण व योग्य विवाह पहेले दो है )-~ तथा-घाटमाधामीतता इति ॥१३॥ मूलार्थ-प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष सब उपद्रवोंसे सावधान रहना चाहिए। विवेचन-जगतमें अन्याय व पापाचार होता है, उसमेंसे कईका बुरा फल मिल जाता है। कई ऐसे हैं जिनका बुरा फल नहीं दीखता । ऐसे सब पापकर्मोंसे सावधान तथा उनके फलोंसे डरते रहना चाहिए। दृष्टा-ऐसे फर्म जो दीखते हैं जिनको संसार बुरा कहता है तथा जिनका फल भी राजदंड, अपमान, व टीका आदि प्रत्यक्ष दीखते हैं, जैसे अन्याय व्यवहार, जूआ, परस्त्रीगमन, चोरी आदि, जिनसे विडंबनायें भी सहनी पडती है । अदृष्टाश्च-दूसरे ऐसे कर्म हैं जो प्रत्यक्ष फल नहीं देते, पर वे बाढमें परभवमे कष्टदायक सिद्ध होते हैं व जिनका धर्मशास्त्रोमें निषेध है, ऐसे कर्मोंसे डरते रहना चाहिए । जैसे मद्य-मांससेवन, अशुद्ध विचार, क्रोध आदि जो अशुभ कर्मबन्धके कारण हैं, उनसे नरकादि महादुःख भोगने -पड़ते हैं ऐसी वस्तुओंसे डरे । संक्षेपमें कहे तो हमे शुद्ध मार्ग पर चलना चाहिए व आत्माको मलिन न होने देकर उसे शुद्ध रखते रहना चाहिए। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : २९ तथा-शिष्टाचरितप्रशंसनमिति ।।१४।। मूलार्थ-और साधुचरित पुरुषोंकी प्रशंसा करते रहना चाहिए। विवेचन-शिष्टचरित- सदाचारवाले वृद्ध व ज्ञानी जनोंके पास रहकर जो शिक्षा प्राप्त करते है या प्राप्त की है वे मनुष्य शिष्टजन है उनका चरित्र व आचरण सिष्टचरित है, उसकी प्रशंसा करे। जैसे "लोकापवादभीरुत्व, दीनाभ्युद्धरणादरः। कृतज्ञता सुदाक्षिण्यं, सदाचारः प्रकीर्तितः ॥१०॥ सर्वत्र निन्दासंत्यागों, वर्णवादश्च साधुषु। । आपद्यदैन्यमत्यन्तं, तद्वत् संपदि नम्रता ॥११॥ प्रस्तावे मितभाषित्वमविसंवादनं तथा । प्रतिपन्नक्रिया चेति, कुलधर्मानुपालनम् ॥१२॥ असव्ययपरित्यागः, स्थाने चैव किया सदा। प्रधान कार्य निर्वन्धः, प्रमादस्य विवर्जनम् ॥१३॥ लोकाचारानुवृत्तिश्च, सर्वत्रचित्यपालनम् । प्रवृतिर्गहिते नेति, प्राणैः कण्ठगतैरपि" ॥१४॥ । (योगविन्दु १२६-१३०) ---लोकापवादसे भय, दीनजनोको उद्धार, कृतज्ञता, दाक्षिण्ययह सदाचार कहलाता है। सबकी निन्दाका त्याग, साधु व सज्जनोकी प्रशंसा, आपतिमें भी हिंमत, तथा सुखमें नम्रता रखना। प्रसंगोचित बोलना, किसीसे भी विरोध न करना, अंगीकृत कर्म Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० : धर्सवन्दु करना, कुलधर्मका पालन, फिजूल खर्ची न करना, योग्य स्थान पर योग्य क्रिया करना, उत्तम कार्योम लगे रहना, प्रमादका त्याग, लोकाचारका अनुसरण, सब जगह औचित्यका पालन करना, प्राणोके कंठमें आने पर भी निन्दनीय कार्य न करना-इत्यादि गुण सदाचारमें आते हैं । शिष्ट पुरुष इन गुणोका पालन करते है और ऐसे गुणवान पुरुषोके चरित्रकी प्रशंसा करना चाहिए। प्रशंसा करनेसे ऐसे गुणोकी और आकर्षण होता है । जैसे "गुणेषु यत्नः क्रियतां, किमाटोपैः प्रयोजनम् ? । विक्रीयन्ते न घण्टाभिर्गावः क्षीरविवर्जिताः ॥१५॥ तथा-शुद्धाः प्रसिद्धिमायान्ति, लघवोऽपीह नेतरे। तमस्यपि विलोक्यन्ते, दन्तिदन्ता न दन्तिनः" ॥१६॥ -गुण ग्रहण करनेका यत्न करना चाहिए, सिर्फ आडबरसे क्या लाभ है ? जैसे गाय, विना दूधके केवल गलेमें घंटा बांधनेसे नहीं बिकती, दूधके कारण बिकती है । और शुद्ध वस्तु छोटी होने पर भी प्रसिद्ध हो जाती है पर अशुद्ध वस्तु बडी होने पर भी अप्रसिद्ध रह सकती है जैसे अंधेरेमें भी हाथी के दांत चमकते हैं पर हाथी बडा होने पर भी नहीं दीखता ।। १५-१६॥ . इसी प्रकार पुरुषकी सब जगह पूजा होती है, सुशील पुरुपोका संग करनेसे गुण आते है तथा मनकी मलिनता दूर होती है। : तथा अरिषड्वर्गत्यागेनाविरुद्धार्थप्रतिपत्त्येन्द्रियजय इति ॥१५॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ३१ मूलार्थ छ अंतरंग (काम, क्रोधादि ) शत्रुओंको जीत कर (गृहस्थके) अविरुद्ध (इन्द्रियों के विषय रूप ) अर्थको अंगीकार करके इन्द्रियोंको जीतना चाहिए। विवेचन - युक्ति विना प्रयोगमें लाये हुए काम, क्रोव, लोभ, मान, मद व हर्ष - यह छशिष्ट गृहस्थोंके अंतरंग शत्रु हैं इनका त्याग करना सामान्य धर्म है (गृहस्थ के समान्य धर्मका चौथा गुण गुणानुराग तथा पाचवा परिपुविजय है ) । काम- स्त्री के साथ भोगको काम कहते है। गृहस्थको स्वस्त्रीसे संतोष होना चाहिए। परली, कुमारिका व वेश्याका त्याग गृहस्थको जरूरी है । " परपरिगृहीतास्वनूढासु वा स्त्रीपु दुरभिसन्धिः कामः” । - परस्त्री, कुमारी, अथवा वेव्याके साथ दुष्ट अध्यवसाय को 'काम' नामक प्रथम अंतरंग शत्रु कहा है। कामवृत्तिको जीतनेवाला देव समान है। कामवासनासे कई प्रकारको हानि होती है-चल, वीर्य, व बुद्धि का नाम, अप्रीति, अनादर आदिकी उत्पत्ति होती है । क्रोध - क्रोध या गुस्सेसे कई कार्य बिना विचारे हो जाते हैं । क्रोव सब दुखोंका मूल है । क्रोधका सर्वथा त्याग गृहस्थ न कर सके तो भी टीकाकारके मतसे- "अविचार्य परस्यात्मनो वाऽपायहेतुः क्रोधः" | - अविचारसे उत्पन्न अन्यको अथवा स्वयं को दुख देनेवाली प्रवृत्ति 'क्रोध' है । इसका व्याग जरूरी है । क्रोध अग्नि समान हैं 1 1 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ : धर्मविन्दु लोभ - लोभसे संसार में कई अनर्थ होते हैं । लोभकी वृत्ति जिससे अन्याय द्वारा भी पैसा कमानेकी वृत्ति होती है वह हानिप्रद तथा अनर्थकारी है । टीकाकार के मतसे "ढानार्हेषु स्वचनाप्रदानमकारणपरधनग्रहणं चा लोभः ' । - दानके योग्य सुपात्रको दान न करना तथा निष्कारण परघनको हरण करना 'लोम' है । सुपात्रको दान देनेसे रोकनेवाली वृत्ति ही लोग है । पवन हरण लोभकी दूसरी परिभाषा है । न्यायसे जो धन मिले उससे सतुष्ट रहते हुए यथाशक्ति उसका सदुपयोग करना ही हितकर है। 1 मान - अपने अल्प ज्ञानको सर्वज्ञता मान कर अन्योसे उम्र गिनना ही 'मान' है। अहकारमें विनयका लोप हो जाता है । वह अधिक ज्ञानको प्राप्त नहीं कर सकता । प्रत्येक स्थानसे ज्ञानका संग्रह करना चाहिए तथा निरंतर नम्रता रखें । टीकाकारके मतसे "दुरभिनिवेशालोक्षो युक्तोकाग्रहण वा मानः” । -- दुराग्रहको छोडना नहीं तथा ज्ञानी जनके योग्य वचनको ग्रहण न करना 'मान' है | मंद-यह एक प्रकारका मनका उन्माद है । भिन्न भिन्न वस्तुओंके आश्रयसे यह आठ प्रकारका है। कहा है 2 “कुल व लैश्वर्य रूप-विद्यामिरात्माऽहङ्कारकरणं निबन्धनं वा सदः" ॥ - कुल, बल, ऐश्वर्य, रूप, व विद्याके कारण स्वयं अहंकार Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म .. करना और इनके बलसे अन्य परं प्रहार करना ही 'मद' है। इसके अलावा लोभमद; तपमद, व जातिमद और है। इस प्रकार आठ मेद होते हैं । मद यह एक नशा सा है जो इन सब कारणोंसे या किसी भी एक या दोके कारण आ सकता है । वैभव या रूपका मद, मनुष्यको कई अनर्थोकी ओर प्रेरणा करता है। यह सब वस्तुएँ नाशवान हैं। इनका मद करना सर्वथा अनुचित है। प्रमु महावीरने.भी जब कुलमद किया तो नीच गोत्रमें जन्म लेना पडा । इन सबका फल बुरा है अतः इसका सर्वथा त्याग करना चाहिए। • हर्ष- यह छठा शत्रु है। इसे आत्माके आनंदके साथ मिलाना नहीं चाहिए- दूसरेके कष्ट आदिसे खुश होना हर्ष है। आत्माका आनंद प्रेम स्वभाव है। हलके विचारोंसे खुश होनेसे कर्म बन्धन होता है। हानिनिमित्तमन्यस्य दुःखोत्पादनेन स्वस्वस्य द्यूत 'पापद्धर्याद्यनर्थसंश्रयेण वा मनप्रीतिजनना हर्षः" । -अकारण किसीको कष्ट देकर और स्वयं जुआ खेलकर, शिकार, वेश्यागमन आदि व्यसनोंका सेवन करके मनको प्रीति व 'भानंद देने यो खुश होनेको 'हर्ष' कहते हैं। . -इस-हर्षमें जो अनर्थकारी है तथा स्वाभाविक आनंदमें जो आत्मासे स्फुरित होता है अथवा शुभ कर्म करनेसे मनसे प्रगट होता है बहुत भेद है। यह मानंद स्वभाविक है। शुभ कर्मों में हर्ष या आनंद करनेसे पुण्यका ही उपार्जन होता है पर ऐसा हर्ष निससे स्वियं किसीको कष्ट देते हैं' या कष्टमें खुश होते हैं. त्याज्य है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ : धर्मविन्दु इस हर्षमें जिससे अन्योंको कष्ट होता है हिंसा है । सप्त व्यसनमें आनंद प्राप्त करना पापकर्मका बन्धन करना है यह सभी व्यसन दुर्गुण हैं इनमें पडनेसे अशुभ ही होता है । ऐसे छ अंतरंग शत्रुओंका नाश करना चाहिए। इनके रहनेसे पाप प्रवृत्ति होती है और न रहनेसे पुण्य कर्म करनेका प्रसंग उपस्थित होता है । इन षट् कर्मोंका त्याग करके गृहस्थ अवस्थाके 'योग्य धर्म और अर्थके अविरुद्ध (जिनसे विरोध या हानि न हो सके वे ) सर्व इन्द्रियोके त्रिपोंका उनमें आसक्ति रखे बिना सेवन करना चाहिए। धीरे धीरे उसमें कमी करके इन्द्रिय निग्रह करना चाहिए, इसे इन्द्रियजय कहेते हैं । सर्व इन्द्रियोके विकारोंका संपूर्ण निरोध करना यतिधर्म है जिसके बारेमें आगे कहा जायगा । यहां गृहस्थका सामान्य धर्म कहा है अतः इन्द्रियोंके विषयोंको अंगीकार करके आसक्ति विना व क्रमशः इन्द्रिय निरोवको गृहस्थके सामान्य धर्मका अंग कहा है। तथा-उपप्लुतस्थानत्याग इति ॥१६॥ मूलार्थ-उपद्रववाले स्थानका त्याग करना चाहिए । विवेचन-अपने राज्यका या अन्य राज्यके सैन्यका विक्षोभ होने पर अकाल, महामारी, लोकविरोध तथा अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि उपद्रव उत्पन्न होने, पर अपने निवास स्थान प्राम, नगर आदिका त्याग कर देना चाहिए । न करनेसे चित्तकी अशाति होती है जिससे , धर्मध्यान व संसार व्यवहारमें बाधा पहुचती है । इससे पूर्व प्राप्त Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ३५ धर्म, अर्थ व कामका नाश होता, है और नवीनका उपार्जन नहीं हो सकता । इससे दोनो लोकोमें आत्माका अहित होता है अतः उपद्रव स्थानका त्याग करना चाहिए । तथा-स्वयोग्यस्याश्रयणमिति ॥१७॥ मूलार्थ-अपने योग्य पुरुष या स्थानका आश्रय लेना चाहिए। विवेचन-जो व्यक्ति अपना रक्षण करनेको 'समर्थ हो तथा 'लाभदायक हो सके अर्थात् नई चीजोका लाभ करा सके व उपार्जित वस्तुका रक्षण कर सके ऐसे सेठ, श्रीमत या राजाका आश्रय लेना चाहिए । इसी तरह रक्षण सामर्थ्यवाले और लाभदायक स्थानमें ही निवास करना चाहिए । चतुर व्यक्ति विना आश्रयके भी चला लेते है पर सामान्य गृहस्थ तो लता समान है अतः योग्य आश्रय आवश्यक होता है। स्वामी या आश्रयदाता कैसा हो ? स्वामी धर्मात्मा, शुद्ध कुलवान, शुद्ध आचार व शुद्ध परिवारवाला, प्रतापवान व न्यायवान होना चाहिए। आश्रय ग्रहण करते समय इनका विचार करे। बादमें निष्ठासे उनकी सेवा करे । तथा प्रधानसाधुपरिग्रह इति ॥१८॥ मूलार्थ-उत्तम और सदाचारी व्यक्तिओंकी संगति करना चाहिए। । । विवेचन-उत्तम अर्थात् कुलीनता, सौजन्य, दाक्षिण्य व कृतज्ञता आदि गुणोंसे युक्त साधु व सदाचारमें आग्रह रखनेवाले ऐसे पुरुषकी Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ : धर्मविन्दु संगति करना चाहिए | जैसे पानी गरम लोहे पर, कमलपत्र पर या स्वातिनक्षत्रमें सीप पर पडता है तब क्रमशः वह नष्ट, मुक्तासम, व मोती होता है वैसे ही मनुष्य भी उत्तम, मध्यम या नीच संगतिसे तदनुरूप गुणों की प्राप्ति करता है । नीच पुरुष सर्पवाले घरकी तरह संगतिके लायक नहीं होता । उत्तम पुरुषकी संगति करनेसे ही यह पुरुष गुणवान है ऐसी प्रसिद्धि होती हैं । कहा भी है कि "गुणवानिति प्रसिद्धिः संनिहितैरेव भवति गुणवद्भिः । ख्यातो मधुर्जगत्यपि, सुमनोभिः सुरभिभिः सुरभिः” ॥१७॥ गुणवान पुरुषोके सानिध्यसे ही 'गुणवान् है' ऐसी पुरुषकी प्रसिद्धि होती है । जैसे वसंत ऋतुका नाम 'सुरभि' नामक सुगंधित पुष्पसे ही 'सुरभि' पढा है । तथा-स्थाने गृहकरणमिति ॥ १९ ॥ 1 1 मूलार्थ - योग्य स्थानमें निवास स्थान बनाना चाहिए। विवेचन- अयोग्य व बुरे स्थानको छोड़कर अन्य स्थानों में अपना निवास स्थान बनाना चाहिए । अयोग्य स्थानके लक्षण कहते है -- अतिप्रकटा तिगुप्तस्थानमनुचितप्रातिवेश्यं चेति ॥२०॥ मूलार्थ- जो स्थान बहुत खुला हुआ या बहुत गुप्त हो तथा जिसके पडौसी खराब या अयोग्य हों वह स्थान रहनेके लिये अयोग्य है । विवेचन - अतिप्रकटम् - जो एकदम आम रास्ते पर या Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ३७ जिसके आसपास कोई घर न हो । अतिगुप्तम्-सब तरफ घर आ जानेसे उसके द्वार आदि विभाग पहिचाने न जा सकें या एकदम सबसे अलग च बहुत अंदर हो । इससे दानादिका प्रसंग कम आवे तथा कुसमयमें सहायता मिलना भी मुश्किल है । अस्थानम्-अयोग्य स्थान पर घर बनाना भी अनुचित है। अनुचितप्रातिवेश्यं च -जिस स्थानके आसपास बुरे यादुर्गुणी लोगों का वास हो या जूआ आदि सप्त व्यसन सेवन करते हों ऐसे स्थानमें नहीं रहना चाहिए। ये स्थान,अयोग्य, कहे उसके कारण बताते है-- ____ अति प्रकट स्थानमें कोई आवरण न होनेसे या अकेले गृहके कारण चोर आदि निःशंक मनसे चोरी कर सकते हैं। अतिगुप्त स्थान पर उसकी शोभा नहीं हो सकती। तथा अग्नि आदिके उपद्रवके समय निकलना या प्रवेश करना कठिन होता है । __ "संसर्गजा दोष-गुणा भवन्ति"। -दोष व गुण संसर्गसे पैदा होते हैं। अतः दुर्गुणी पडौसीके देखने, बातचीत तथा सहवास स्वत गुणी मनुष्यके तथा उसके बालबच्चोंके गुणोंकी हानि संभव है । अतः खराब पडौसीके पास न रहे। कैसे स्थान पर निवास करना चाहिए? उसकी विशेष विधि कहते हैं__ लक्षणोपेतगृहवास इति ॥२१॥ मूलार्थ-वास्तुशास्त्रमें कथित लक्षणोंवाले घरमें रहना चाहिए ॥ : - विवेचन-वास्तुके आम स्वरूपको बतानेवाले लक्षण, जैसे Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ : धर्मविन्दु ' . दूर्वादल, कुन्तुंब नामक वनस्पति, जहांकी मिट्टीका रंग व गंध शुद्ध और अच्छा हो । स्वादिष्ट जल सहित तथा द्रव्य भंडारसे युक्त पृथ्वी पर तथा वास्तुशास्त्र के नियम पर बने हुए घरमें रहने पर संपत्तिकी हानि आदि तथा अन्य अनेक लोकप्रसिद्ध दोप उत्पन्न होते हैं। साथ ही घरके शुभ लक्षण गृहस्थकी इच्छित सिद्धिमें मुख्य साधन हैं। वर्तमान समयमें धरके लिये आवश्यक चीजोमें सूर्यके प्रकाश व हवा के आवागमनके रास्ते मुख्य हैं तथा अत्यन्त आवश्यक हैं, हो सके तो एक बगीचा भी हो । गृहके उक्त लक्षण संशयरहित हैं, यह कैसे जाना जाय १ कहते है-- निमित्तपरीक्षेति ॥२२॥ मूलार्थ-शकुन आदि निमित्तसे परीक्षा करे। विवेचन-शकुन, स्वप्न व उपश्रुति (शब्द श्रवण) आदि निमित्तशास्त्र के अग है । इन निमित्तोंसे जो अतीन्द्रिय (जो पदार्थ सीधे इन्द्रियोके विषयसे परे है) पदार्थों के ज्ञानका हेतुभूत है, घरके लक्षणोंकी परीक्षा करना चाहिए । सब प्रकारसे संदेह, विपरीतता व अनिश्चय आदि यथार्थ ज्ञानके दोषको छोडकर अवलोकन करना-परीक्षा है । इस तरह घरके लक्षणोको देखे । तथा अनेकनिर्गमादिवर्जनमिति ॥२३॥ मलार्थ-जाने आनेके बहुतसे द्वारोंसे रहित वनावे ॥ विवेचन-अनेके-बहुतसे, निर्गमादि-निकलने के रास्ते तथा प्रवेशके, वर्जनम-नहीं रखना । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ३१ जाने आनेके बहुतसे गत्ते होनेसे घरको भली भाति रक्षा होना संभव नहीं रहता । त्रियोंकी लज्जा तथा धनकी हानि होना संभव है । अधिक द्वारवाले घरकी रक्षामें अधिक समय व पैसा भी लगता है । घोडे दरवाजेवाले घरकी रक्षा करना सुगम रहता है। तथा-विभवाद्यनुरूपो वेपो विरुद्धत्यागेनेति ॥२४॥ मूलार्थ-विरुद्ध वेपका त्याग करके अपनी संपत्ति के अनुरूप वेषभूषा पहने। विवेचन-विभवादीनाम्-संपत्ति, अवस्था, स्थिति तथा देशके, अनुरूप:-योग्य-अनुसार, वेप:-वन आदि, विरुद्धस्य-जंघा आदिका अर्ध नग्न दीखना, सिर पर छोगा, खूब तंग कपडे अथवा वदमाश व लुबी जैसी चेप्टा, स्पष्ट झलके ऐसा या सुंदर तथा आकर्षक, त्यागेन-छोडनेसे । प्रत्येकको अपने वैभव आदि स्थितिके अनुसार वेशभूषा धारण करना चाहिए। जिस वेपो लोगोमें हंसी न हो, खर्च आदि भी वैभवके अनुसार ही हो ऐसे कपड़े पहने । विरुद्ध वेश न पहने । लोगोंके हंसी, मजाक या निन्दाका पात्र न बने । सुंदर वेशभूषाका मना नहीं करते पर केवल आकर्षक हो यह ठीक नहीं, वैभव आदि पदार्थीक अनुकूल हो । प्रसन्न वेशभूषा पहननेवाला मंगलमूर्ति कहलाता है और मंगलसे ही लक्ष्मी मिलती है । कहा है "श्रीमद्गलात् प्रभवति, प्रागल्भ्याच प्रवर्द्धते । दाक्षिण्यात् कुरुते मूलं, संयमात् प्रतितिष्ठति" ॥१८॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० : धर्मविन्दु ___-लक्ष्मी मंगलसे उत्पन्न होती है, चतुराईसे उसकी- वृद्धि होती है । दाक्षिण्यतासे उसका मूल बनता है या जड जमती है, तथा संयमसे प्रतिष्ठा होती है व स्थिरता आती है। .. न्यायसे धन पैदा करना व अन्याय मार्ग पर खर्च न करना, लक्ष्मीका संयम है । इससे लक्ष्मी स्थिर होकर रहती है व उसका नाश नहीं होता। तथा-आयोचितो व्यय इति ॥२५॥ मूलार्थ-आयके अनुसार व्यय करना चाहिए। विवेचन- आय-- धनके कमानेके बारेमें पहले कहा जा चुका है। उसीके अनुसार नीति रखना चाहिए। कमानेसे धन-धान्य आदिकी वृद्धिको आय कहते हैं । उचितः-उसके योग्य या अनुरूप । व्यया-आश्रितोका भरण पोषण, खुदका खर्च, देवे, अतिथि आदिकी पूजा व सेवामें खर्च । नीतिशासमें भी अपनी आयके किस भागको किसमें खर्च करना उचित कहा है सो बताते हैं "पादमायानिधि कुर्यात् , पाद वित्ताय घट्टयेत् । धर्मोपभोगयोः पादं, पादं भर्तव्यपोषणे ॥ १९ ॥ आयादर्द्ध नियुञ्जीत, धर्म समधिकं ततः। शेषेण शेषं कुर्वीत, यत्नतस्तुच्छमैहिकम्" ॥ २० ॥ -~- अपनी आयके चार भाग करके, उसमें एक घरमें अना मत या संग्रह करके रखे, ताकि वह आपत्तिके समय काम आवे । एक भाग व्यापार आदिमें लगावे जिससे' पैसोमें वृद्धि हो. 'एक भारा Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ४१ धर्मके लिये तथा अपने उपभोगके लिये रखे और एक भाग (चतुर्थ) अपने आश्रित व कुटुंबीजनों के भरणपोषणमें खर्च करें। किसी दूसरे मतसे अन्यत्र कहा है कि धनके दो भाग करे, एक भाग यदि हो सके तो कुछ ज्यादा धर्ममें खर्च करे और शेष धनमें से तुच्छ ऐसा इस लोक संबन्धी अपना शेष कार्य करे । इन दोनों की भिन्नता समय के अनुसार आई हुई प्रतीत होती | आजकल के समय में भी समय देख कर धार्मिक कामोंमें तथा खास कर सार्वजनिक कामोंमें जिससे समाजकी उन्नति हो, अपनी आयका एक विशेष भाग अवश्य ही खर्च करना चाहिए। वह सोलहवां, वीसवां आदि हो सकता है । ' जैसे रोगसे शरीर कमजोर होता है वैसे ही आयसे ज्यादा खर्च करनेसे धनहानि व ऋण हो जाता है और सब प्रकारके उत्तम व्यवहार चलानेमें वह असमर्थ हो जाता है। कहा है " आयव्ययमनालोच्य, यस्तु वैश्रवणायते । अचिरेणैव कालेन, सोऽत्र वै श्रवणायते" ॥२१॥ - जो पुरुष आय, व्ययका ख्याल रखे विना वैश्रवण- कुवेरकी तरह खर्च कर देता है वह थोडे समय में, शीघ्र ही श्रवण मात्र रह जाता है याने 'वह धनवान था ' ऐसी श्रुति मात्र रह जाती है । अपनी शक्तिके अनुसार ही व्यय करे, वरना ऋण होता है व हृदयमें सता रहता है । देखादेखी व मौजशोखके खर्चको कम करना चाहिए। गृहस्थके सामान्य धर्म में इन गुणोका पालन Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ : धर्मविन्दु आवश्यक है। 'पट रिपुत्याग'के बाद 'उपद्रवस्थान त्याग'- छटा, 'योग्य आश्रय टेना'-सातवा, 'अच्छी संगति'-आठमा, 'योग्य स्थानमें रहना'-नवा, तथा 'ठीक वेशभूषा' दसवा गुण है। 'आयके अनुसार उचित व्यय' तथा 'देशके आचारका पालन क्रमशः ग्यारहवां तथा बारहवा गुण है। अब वारहवा गुण बताते हैं तथा-प्रसिद्धदेशाचारपालनमिति ॥२६॥ मूलार्थ- भोजन-वस्त्रादिमें चलते हुए तथा शिष्ट जनों द्वारा अंगीकृत देशाचारका पालन करे। विवेचन-प्रसिद्धस्य-शिष्ट पुरुषोंसे सम्मत तथा रूढिसे आया हुआ, देशाचारस्य-सब लोगोके व्यवहारमें आनेवाला, भोजनवस्त्रादि तथा चित्र क्रियादिका प्रचलित व्यवहार । गृहस्थ अपने देशमें प्रचलित आचारको पालन करे। उसका उल्लंघन होनेसे वहाके निवासियोसे विरोधकी संभावना रहती है तथा उससे अमगल या हानि संभव है। साथ ही पुराने रिवाज आदि वृद्ध पुरुषोने अनुभव व बुद्धिसे बनाए हैं। अतः उनको छोडनेसे पहले बहुत विचार करना चाहिए। फिर भी कालिदासके अनुसार'पुराणमित्येव न साधु सर्वम्'-पुराना सत्र उत्तम व नया सब बुराऐसा नहीं है। सत्पुरुषोको चाहिए कि वे प्रवाहमें न पड कर परीक्षा करके जो उत्तम रास्ता हो उसे अंगीकार करे। कहते हैं "यद्यपि सकलां योगी, छिद्रां पश्यति मेदिनीम् । तथापि लौकिकाचारं, मनसाऽपि न लषयेत्" ॥२२॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ४३ -यद्यपि योगीजनोंको सारी पृथ्वीके-संसारको छिद्रं (दोष) दिखाई देते हैं तब भी व मनसे लौकिक आचारको नहीं छोडते । अतः देशाचार यद्यपि अधिक उपयोगी न भी हो या न दीखे तब भी जब तक वह हानिमद न हो उसका पालन करना ही ठीक है । अब आगेके गुण कहते हैं तथा-गर्हितेषु गाढमप्रवृत्तिरिति ॥ २७ ॥ मूलार्थ-निन्दित कार्यमें लेश भी प्रवृत्ति न करना चाहिए। विवेचन-गहितेषु-ऐसा कार्य जिससे इहलोक तथा परलोकमें अनादर तथा निन्दा हो, जैसे मद्य-मांस सेवन व परदारगमनादि निन्दित कार्य, गाढमप्रवृत्तिः-लेश मात्र भी प्रवृत्ति न करना-मन, वचन व काया-सबसे बच कर रहना। गृहस्थको मद्य-मांस सेवन व परदारगमन जैसे घृणित कार्योसे जिससे इहलोक व परलोक दोनों बिगडते है, दूर रहना चाहिए। मन, वचन, काया- तीनोंसे इस ओर लेश मात्र भी प्रवृत्ति न करना चाहिए । आचारशुद्धि होनेसे सामान्य कुलोत्पन्न पुरुष भी महत्ताको प्राप्त होते हैं। कहा है कि "न कुलं वृत्तहीनस्य, प्रमाणमिति मे मतिः। अन्त्येष्वपि हि जातानां, वृत्तमेव विशिष्यते" ॥२३॥ -सदाचार रहित पुरुषका कुल प्रमाणरूप नहीं है-ऐसा मैं मानता हूं। क्षुद्र कुलोत्पन्न होने पर भी सदाचारी होने पर वह उत्तम होता है या महत्ता पाता है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ : धर्मविन्दु आचार भ्रष्ट कुलीन नहीं कहा जा सकता परंतु सदाचारी ही कुठीन है । श्रीभर्तृहरि भी कहते है कि, "कान ज्ञान श्रवणसे शोभा पाता हैं कुंडलसे नहीं, हाथ दानसे न कि कंकणसे, तथा दयालु हृदयी पुरुषोंका शरीर चंदनसे नहीं पर परोपकारसे शोभित होता है" । अत निन्द्य आचारोंका त्याग करके सत्कार्यमें प्रवृत्ति करना चाहिए । तथा - सर्वेष्ववर्णवादत्यागो विशेषतो राजादिष्विति ॥ २८ ॥ मूलार्थ सब जनोंका अवर्णवाद विशेषतः राजा आदिके अवर्णवादका त्याग करना चाहिए । विवेचन - सर्वेषु -नीच, उत्तम व मध्यम आदि मेदसे विभिन्न सभी जनोका, अवर्णवादस्य - निन्दा करना, टीका या अपवादको प्रसिद्ध करना, राजादिषु - राजा, मंत्री आदि वहुतों को मान्य- । सभी मनुष्योकी अकारण निन्दाका त्याग करें। उनके दोषोंको प्रगट करना एक प्रकारका दुर्गुण है। गृहस्थ इसका त्याग करें। बुराई से द्वेषभाव पैदा होता है। कहा है कि "न परपरिवादादन्यद् विद्वेषणे परं भपजमस्ति" । 7 - दूसरे की बुराई करने से अन्य, शत्रुता पैदा करनेकायोग्य औषध नहीं है याने दूसरेकी टीका करना शत्रुता करने का सबसे अच्छा साधन है । फिर खास कर राजा, मंत्री, पुरोहित आदि जो बहुतों को मान्य हैं उनकी बुराई करना तो और भी बुरा है क्योंकि उससे धन वैभव व प्राणका नाश होना संभव है । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ४५ "उपदेशरत्नकोश"में कहा है कि, 'निदिजई दुजगो वि न कया वि'-दुर्जनकी भी निन्दा न करे यह वाच्य खास ध्यान देने लायक है। बुराईसे तो दुर्गुणी अधिक हठाग्रही बनेगा, क्रोधित व शत्रु होगा । निन्दासे ही सुधार नहीं होता । हमेशां गुणग्राहककी ही दृष्टि रखे । इससे सर्वत्र कुछ सीखनेको मिलेगा । निन्दासे आत्मा भी अवगुणोंकी ओर जाती है अत निन्दाका सर्वथा त्याग करना ही उत्तमताका लक्षण है। यह गृहत्यका चौदहवां गुण है। तथा-असदाचारैरसंसग इति-॥२९॥ मूलार्थ-दूराचारीकी संगति नहीं करना चाहिए । विवेचन-असदाचारः-असद् + आचार ~ इस लोक और परलोकको रिगाडनेवाले ऐसे असुन्दर भाचार तथा वैसी प्रवृत्ति करनेवाले व्यसनग्रस्त असदाचारी, असंसर्ग:-संबन्ध विच्छेद करना। __ व्यसन आदि असद् बावरण तथा उनको करनेवाले लागोंसे हमेशां दूर रहना चाहिए। जैसे जलती हुई अग्नि, उपद्रव या दुष्काल पीडित क्षेत्रसे दूर रहना चाहिए, इनसे कोई संपर्क न रखे। इतना ही नहि ऊलटे संसर्गः सदाचारैरिति ॥३०॥ मूलार्थ-सदाचारी जनोंकी संगति करो। विवेचन-दुराचारीका छोडना ही काफी नहीं है। सदाचारी व संत तया महात्माओंना सार्थ करना चाहिए, तमी सत्संगसे ही कुछ गुणवृद्धि होगी। सदाचारीको छोड़ने पर भी ससंग न Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ : धर्मविन्दु करनेसे गुणवृद्धि नहीं होती। इसलिये यह सूत्र कहा है । अतः सदाचारी व समानधर्मीका संग व गोष्ठी करो। कहा है कि... "यदि सत्सद्भनिरतो, भविष्यसि भविष्यसि । अथासजनगोष्ठीषु, पतिप्यसि पतिष्यसि" ॥२४॥ -यदि सत्संग किया तो ऐश्वर्यवान वनोंगे व दुष्ट संगतिमें पडे तो पतित होकर कष्ट पाओगे। अत सत्सङ्ग करो। तथा-माता-पितृपूजेति ॥३१॥ मलार्थ-माता पिताकी पूजा करनी चाहिए। विवेचन-अपने मातापिताको त्रिकाल प्रणाम आदि करके भक्ति करना चाहिए। श्रीरामचन्द्रजीका पितृभक्तिका अपूर्व उदाहरण है। पूजन विधि के लिये कहा है "पूजनं चास्य विज्ञेयं, त्रिसन्ध्यं नमनक्रिया। तस्यावसरेऽप्युच्चैश्चेतस्यारोपितस्य तु" ॥२५॥ -प्रात', मध्याह व सन्ध्या तीनो समय मातापिता आदि पूज्य वर्गको नमस्कार करनेको उनका पूजन कहते हैं। यदि अवसर न मिले तो उनका स्मरण करके जोरसे उच्चारणपूर्वक नमस्कार करे। बाहर आते जाते भी प्रणाम करे। माता पिताके प्रति कटुवचन नहीं कहना व आज्ञाका उल्लवन नहीं करना चाहिए। 'ठाणांगसूत्र में लिखा है कि, मातापिताको प्रसन्न करनेके लिये कोई भी कार्य करे तो भी उनके उपकारका बदला नहीं चुकाया जा सकता। उनको धर्मरत्नकी प्राप्ति करानेसे ही उपकारका बदला हो सकता है। गुरुवर्गमें ये हैं--- Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ४७ " "माता पिता कलाचार्यः एतेषां ज्ञातयस्तथा । वृद्धा धर्मोपदेष्टारो, गुरुवर्गः सतां मतः ॥२६॥ - संतजन, मातापिता, कला सिखानेवाला आचार्य, उनकी ज्ञाति (संबंधी) वृद्धजन तथा धर्मके उपदेशक - इन सबको गुरुवर्ग मानते है। इन गुरुजनोका -- "अभ्युत्थानादियोगश्च तदन्ते निभृतासनम् । नामग्रहश्च नास्थाने, नावर्णश्रवणं कचित्" ॥२७॥ - उनके आने पर खड़े होना, सामने जाना, आसन देना व सुखशातादि पूछना, तथा उनको प्रसन्न करके अन्य कार्य करना चाहिए | उनके पास निश्चल होकर बैठना चाहिए। अयोग्य स्थल पर उनका नाम नहीं लेना तथा उनकी निंदा न करना, न सुनना ही चाहिए। ( मंत्र व देव आदिकी तरह गुरुजनोंको भी पवित्र -समझना चाहिए ) । हो सके तो निंदकको रोकना भी चाहिए । इस बाह्य विनयके साथ हार्दिक बहुमान भी रखें। माता पिता आदिका अन्य विशेष रखनेके बारेमें कहते है-आमुष्मिक योगकारणं तदनुज्ञया प्रवृत्तिः प्रधानाभिनवोपनयनं तद्भोगेऽप्यत्र तदनुचितादिति ||३२|| मूलार्थ - माता पिताको धर्मकी प्रेरणा करना, उनकी आज्ञासे प्रवृत्ति करना तथा उनके अयोग्य वस्तुको छोड कर प्रत्येक नइ व श्रेष्ठ वस्तु उनको भेट करके भोगमें लाना चाहिए ||३२|| Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ : सविन्दु विवेचन-आशुष्मिका:-परलोकसंबंधी, योगा-देवपूजा आदि धर्मव्यापारका, कारणं-खुद करना तथा उनको कराना या प्रेरणा करना, तदनुज्ञया-माता पिताकी आज्ञा च अनुमतिसे, प्रवृत्ति:-सब इहलौकिक व पारलौकिक कामोका करना, प्रधानस्य-वर्ण, गन्ध आदिसे श्रेष्ठ, अभिनवस्य-नह वस्तुका, उपनयनं माता पिताको मेट करना, तद्भोगे-माता पिताके खाने पर, भोगः-स्वयं खाना या काममे लेना, अन्यत्र-भिन्न या दृसरी, तदनुचिताद-माता पिताके लिए प्रकृतिसे ही अनुचित या अयोग्य अथवा व्रतके कारण छोडी हुई। ___ माता पिताको धर्मकर्मका योग कगना चाहिए। जिन कमोसे परलोकका प्रयोजन सुघरे वे उनको करावे । उनको धर्मकार्यमें उत्साह दिलाना चाहिए । 'आप कोइ चिंता न करें तथा धर्मकार्य में प्रवृत्त रहे' इत्यादि कह कर उनको धर्ममें प्रेरणा दें। उनकी आज्ञा और अनुमतिसे सब वस्तुओंमें प्रवृत्ति करे। प्रत्येक शुभ वस्तु पुष्प, वस्त्र, फल, अन्नादि खाने पीने तथा अन्य भोगकी सब वस्तुएं जो अच्छी हो व नई हो तो पहले उनको देना चाहिए। सब ताजी वस्तुए पहले उनको भेट करना चाहिए। उनके भोग करनेके बाद स्वयं भोगे । इसमें एक ही अपवाद है। माता पिताकी प्रकृति के विरुद्ध कोई वस्तु हो, चाहे उन कमजोरी या शारीरिक स्थितिसे उनको अयोग्य हो यो तो व्रतके कारण छोडी हुई हो तो ऐसी जो भी उनके लिए योग्य न हो उस वस्तुका भोग पहले स्वयं कर सकते है । अन्य संव वस्तुएं पहले माता पिताको भेट करना आवश्यक है। . तथा-अनुद्वेजनीया प्रवृत्तिरिति ॥३३॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ४९ मृलार्थ-किसीको भी उद्वेग न करनेवाली प्रवृत्ति करना चाहिए ॥३३॥ - - - - - - - - ।" विवेचन-अनुवैजनीया-उद्वेग या अशांतिका हेतु न होना । प्रवृत्तिः-मन, वचन, कायाकी चेष्टारूप कार्य।.. ____ अपने या पराये किसी भी मनुष्यको कष्ट या मनको अशांति व उद्वेग पैदा हो ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए। कोई मानसिक चेष्टा वचनसे या कायासे ऐसा कार्य न हो जो दूसरेको अशांत करे । दूसरेको अशांति उत्पन्न करानेवालेको कभी भी चित्तकी शाति नहीं मिल सकती। 'अनुरूपफलप्रदत्वात् सर्वप्रवृत्तीनामिति' सब प्रवृत्तियोंका फल उनके अनुरूप ही मिलता है। जिहा पर संयम रखे। क्रोधके समय मौन धारण करना चाहिए। अविचारित कार्य करनेसे अनर्थ होता है। - तथा-भर्त्तव्यभरणमिति ॥३४॥ मूलार्थ-भरणपोषण करने योग्य (आश्रित). जनोंका भरणपोषण करे ॥३४॥ . . . : .. - _ विवेचन-भर्त्तव्यानां-भरणपोषण करने योग्य, माता पिता तथा आश्रित स्वजन, सगे संबंधी तथा सेवक आदिका, भरणं-भरणपोषण करना। -: इन सब भरणपोषण करने योग्य मातापिता तथा-जिनका वह कर सके भरणपोषण करना चाहिए.. इनमेसे इन-तीनका अवश्य भरणपोषण करे-मातापिता, सती स्त्री तथा छोटे बच्चे। कहा है कि Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० : धर्मविन्दु । "वृद्धौ च मातापितरौ, सती भायां सुतान् शिशून् । अप्यकर्मशत कृत्वा, भर्तव्यान् मनुरब्रवीत् ॥२८॥ -सैंकडो अकर्म करके भी मातापिता, सती स्त्री तथा छोटे बच्चों (जो कमाने लायक नहीं हुए)का रक्षण करना ही चाहिए। ऐसा मनु कहते हैं। यदि हम ठीक वैभवसंपन्न है तो अन्य लोगोंका भी पोषण करना चाहिए। कहा है कि"चत्वारि ते तात! गृहे वसन्तु, श्रियाऽमिजुष्टस्य गृहस्थधर्मे। सखा दरिद्रो भगिनी व्यपत्या, ज्ञातिश्च वृद्धो विधनः कुलीनः ॥२९॥ -हे तात ! गृहस्थधर्ममें रहे हुए संपत्तियुक्त तुमको अपने घरमें इन चारको रख कर उनका भरणपोषण करना चाहिए । 'दरिद्री, मित्र, बिना पुत्र-पुत्रीकी बहिन, अपने कुल या जातिका कोई भी वृद्ध तथा निर्धन कुलीन'- इनकी लक्ष्मीयुक्त गृहस्थ रक्षा करे। पर क्या उन्हे आलसी व निरुद्यमी बनाना चाहिए ! उत्तरमें कहते हैं तथा-तस्य यथोचितं विनियोग इति ॥३५॥ । मूलार्थ-तथा उनको उनके योग्य कार्यमें लगाना चाहिए ॥३५॥ विवेचन-इस आश्रित वर्ग जिसका भरणपोषण करना है (जिसमें सेवक भी शामिल है) जो उनके लिए योग्य धर्म या कर्म हो उसमें उनको लगाना चाहिए। माता, पिता आदिके लिए योग्य धर्म तथा अन्योंके लिये उचित कार्य उनको सौंपे। जिस परिवार के पास कोई Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान्य धर्म : ११ शक्तिको धूत जना व्यक्ति निठल्ला कार्य नहीं है या जो व्यक्ति निठल्ला बैठा बैठा खाता है वह अपनी शक्तिको द्यूत (जुआ) आदिमें या अन्य ऐसे बुरे कार्यमें लगाएगा। ऐसे व्यसन या बुरे कर्मसे वह अपने सहायक पर भी दोष लगाता है। अपने बचे हुए समयमें अकर्म करता है उससे दुर्गति होती है तब दोषका निमित्त सहायक भी बनता है। दूसरे वह शक्तिका अपव्यय करनेसे निरुपयोगी भी हो जाता है। जब कोई आश्रित निरुपयोगी हो जाय तव उस पर अनुग्रह किया नहीं कहलाता पर उसका विनाश किया कहा जायगा । अत. पोप्य वर्गको योग्य कार्य में लगावे । - तथा-तत्प्रयोजनेषु बद्धलक्षतेति ॥ ३६ ।। मूलार्थ-और उनके प्रयोजन पर लक्ष देना चाहिए ॥३६॥ विवेचन-प्रयोजनेषु-धर्म, अर्थ या काम जो भी उनको सौंपा हो उस पर, बद्धलक्षता-ध्यान देना, वरावर जाच करते रहना । उस पोष्यवर्गको जो भी कार्य सौंपा हो उस पर हमेशा ध्यान देकर उसकी योग्य जांच करना चाहिए।' ठीक कार्यकी प्रशंसा तथा मूलकी सुधारणा करना आवश्यक है। इससे वह अपने पासके कामको अच्छी तरह करेगा। यदि स्वामी उस पर लक्ष न देगा तो वे चिंता रहित हो जायेंगे और उन पर आपत्ति आने पर ध्यान न दिया तो वे दुखी होगे और इससे प्रसन्न मनसे अच्छा काम न कर सकेंगे। अतः हानि तो स्वामीको ही होगी। स्वामीको हमेशा अपने पोण्य वर्गको सौंपे हुए कार्य पर ध्यान व सावधानी रखनी चाहिए। तथा-अपायपरिरक्षोद्योग इति ॥३७॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ : धर्मविन्दु - मूलार्थ-अनर्थ या विनाशसे पोज्य वर्गकी रक्षाका प्रयत्न करना चाहिए ॥३७॥ . विवेचन-अपायेभ्यः-अनर्थसे, परिरक्षा-सब जगहसे त्राण या बचाना। . - इस लोक या परलोक संबंधी कोई भी आपत्ति पोण्य वर्ग पर आती हो तो उसका नाश करके उनको सुख देनेका महान प्रयत्न करना चाहिए। यदि स्वामी ऐसे समय पर उनकी रक्षा कर सके तो ही उसके प्रति सेवक व पोज्यवर्गका योग्य भाव जागृत होगा। पोष्यवर्गके प्रति उसका स्वामित्व तभी है जब वह अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करावे (योग) और प्राप्त वस्तुकी रक्षा (क्षेम) करनेमे समर्थ हो। 'योग-क्षेमकरस्यैव नाथत्वादिति'-योग और क्षेमके करनेसे ही स्वामित्व है। ... तथा गर्ये ज्ञानस्वगौरवरक्षे इति ॥३८॥ __- मूलार्थ-उनके निन्दनीय व्यवहारको जान कर अपने गौरवकी रक्षा करे ॥३८॥ . , . : . . . . . . . . ... विवेचन-ग-निन्दनीय, कभी कोई लोकविरुद्ध अनाचार या निन्दायुक्त कार्य करे, ज्ञानम्-जान कर निश्चित करना-संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसायको छोड कर जैसा हो वैसे स्वरूपका निश्चय निर्धारित करना, संशय-यह ऐसा है, ऐसा नहीं हैं-इस प्रकार परस्पर विरुद्ध ज्ञान होना, जैसे- 'मै-आत्मा हूं या शरीर हूं । विपर्यय-'मै शरीर हू, अग्नि ठडा है'-आदि विरुद्ध ज्ञान होना, अनध्यवसाय-- . Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ५३ 'यह कुछ है, पर कया है यह न जानना' ऐसे निश्चित ज्ञान बिना जानना । इन तीनों रहित यथावस्थित स्वरूपको निश्चित रूपमें जानना-ज्ञान है। जब कभी यह जान पडे कि पोप्यवर्गमें, किसी एकने या सबने कोई निन्दा योग्य कार्य किया है तो उसके बारेमें निश्चित वस्तु जानना आवश्यक है। सुनी सुनाई बात पर आधार न रखे। मंशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय रहित निश्चिन वै सन्य ज्ञान प्रान करना। यदि निदोष हो तो उसे अपना स्थान देना चाहिये यदि दोपी हो तो अपने गौरवकी रक्षाके लिये उसे दिये हुए मानको नष्ट करना चाहिये अथवा तो उसे त्याग भी करना चाहिये। तथा-देवातिथिदीनप्रतिपत्तिरिति ॥३९।। मूलार्थ-देव, अतिथि व दीन जनोंकी सेवा करनी चाहिए ॥३९|| . विवेचन-देव-इन्द्रादिक देवता जिनकी निरंतर स्तुति करते रहते हैं, जो क्लेश उत्पन्न करनेवाले कर्मके सैंकडों विपांकीमे मुक्त हैं और जिनमें अनन्त वीर्य व अनन्त सुख है और जो करुणाकी मूर्ति हैं उनको अरिहन्त, अज, अनन्त, शंभु, बुद्ध, तथा तमान्तक आदि नामसे पुकारते हैं। ये सब नाम परमात्मके गुणके सूचक हैं। अतिथि-जो निरंतर धर्मक्रियांक अनुष्ठानमें लगे रहते है और उसमें तिथि आदि में भेद न करके सबै दिवसोको एकमा मानते हैं वे ही अतिथि है। कहा है कि Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ : धर्मविन्दु "तिथि-पर्वोत्सवाः सवे, त्यक्ता येन महात्मना। अतिथि तं विजानीयाच्छेपमभ्यागतं विदुः" ॥३०॥ -जिन महात्माओने तिथि, पर्व तथा उत्सव-सबका त्याग कर दिया है उन्हें अतिथि (साधु) कहना चाहिए, अन्य सबको अभ्यागत जानो। ये गुरु ही तीर्थकर व केवली आदिके न होने पर भी ज्ञानकी रक्षा करते हैं। ऐसे गुरुकी भक्ति करना चाहिए । गुरुभक्तिसे ही ज्ञान मिलता है। दीना:-'दीड क्षये'-धातुसे-जिनके पैसे खत्म हो गये या धर्म, अर्थ व कामकी आराधना करनेके सब साधन व शक्तिका क्षय हो गया है वे दीन हैं। __ऐसे देव, अतिथि व दीनकी निरंतर भक्ति, सेवा व उपचार आदि करना चाहिये अर्थात् प्रभुकी निरंतर भक्ति व पूजा, गुरुकी भक्ति तथा अन्न, पान, विद्या आदिसे यथोचित सेवा-सुश्रूषा व दीनोंको दान देना ही उनकी सेवा करना है। द्रव्यकी तीन गतिमेंसे दान करना ही अति उत्तम है अन्यथा वह विना खर्च किये नाश होता है। उसमें भी तदौचित्यायाधनमुत्तमनिदर्शनेनेति ॥४०॥ मूलार्थ-उत्तम पुरुषोंके उदाहरणसे उनके (देवादि) के औचित्यका उल्लंघन न करे॥४०॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म: ५५ विवेचन-तदौचित्यं-देव आदिकी औचित्यपूर्वक सेवा-पूजा आदि करना उत्तम, मध्यम आदि भेदसे, अवाधनं--उसका उल्लंघन नहीं करना । उत्तमनिदर्शनेन-अन्य लोगोसे अति ऊचा व्यवहार करनेवाले उत्तम-वे भी परोपकार-प्रिय भाषण आदि गुणोरूपी मालाके मणकोसे अलंकृत मनुष्य है-उनके उदाहरणसे । देवादिकी सेवामें उनके औचित्यका पालन करे। पात्रके मेदके भनुसार भक्ति भेद होता है । सेवा उत्तम, मध्यम व जघन्य तीन प्रकारकी है। औचित्यका उल्लघन नहीं करना चाहिये । उसका उलंघन करनेसे शेष-गुण होते हुए भी नाश हो जाते हैं। कहा है कि "औचित्यमेकमेकत्र, गुणानां राशिरकतः। विषायते गुणग्रामः, औचित्यपरिवर्जितः ॥ ३९॥ --औचित्यको एक ओर तथा अन्य सारे गुणोंकी राशिकी एक भोर, तब भी औचित्यके विना सारी गुणराशि विषमय हो जाती है। मत: सबका योग्य सन्मान करे। ___ उत्तम पुरुषोंके उदाहरणसे यह औचित्य गुण अच्छी तरह जाता है। उनके उदाहरणके अनुसार कार्य करनेवाले ऊंचे व उदार मनवाले पुरुष स्वप्नमें भी विकृत प्रकृतिके नहीं होते । इस तरह देवादिकी सेवा हमेशा करे, विशेषत भोजनके समय । तथा-सात्म्यतः कालभोजनमिति ॥४१॥ . मूलार्थ-और अपनी प्रकृतिके अनुकूल योग्य समय पर भोजन करे ॥४१॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ : धर्मविन्दु विवेचन-मनुष्यके सामान्य धर्ममें देवादिकी पूजा भक्ति १८वां तथा समय पर भोजन १९वा गुण है। " पानाहारादयो यस्याविरुद्धाः प्रकृतेरपि।। सुखित्वायावलोक्यन्ते, तत् सात्म्यमिति गीयते" ॥३२॥ -मनुप्यकी प्रकृति के अनुकूल जो खान-पान है तथा जो उसको सुखप्रद देखनमें आवे बह सात्म्य कहलाता है। ऐसे लक्षणवाले साम्य भोजनको समय पर करे अर्थात् जब भूख लग आवेऐसे समय पर भोजन करे। अभिप्राय यह है कि जन्मसे ही सात्म्यसे खाया हुआ विष भी पथ्य हो जाता है और असाम्यसे खाया हुआ पथ्य भी प्रकृति से प्रतिकूल हो जाता है। - सर्व वलंयतः पथ्यम्' 'बलवानके लिये सब पथ्य है। ऐसा मान कर कालकूट विष नहीं खाना चाहिए। विपतंत्रको अच्छी तरह जाननेवाला सुशिक्षित व्यक्ति भो कदाचित् विपसे मर सकता है तथा विना क्षुधाके खाया हुआ अमृत भी विष जैसा हो जाता है। भूखके समयके बाद अन्न पर अरुचि पैदा हो जाती है तथा वरावर खाया नहीं जाता या पचता नहीं। जैसे-" विध्यातेऽग्नौ कि नामेन्धनं कुर्यादिति ?' अग्नि शांत होनेके बाद इन्धन क्या कर सकता है ? अंत भूख लेंगने पर भोजन करे। -- - . तथा-लौल्यत्याग इति २० ॥४२॥ मूलार्थ-रुचि उपरांत भोजनमें लोलुपता नहीं करना चाहिए ॥४२॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म । ५७ विवेचन-लौल्य-लोलुपता-आकांक्षाकी अधिकतासे ज्यादा भोजन करना। ... सात्म्यतासे जो काल भोजन किया जाता है उसमें लोलुपताका त्याग करना चाहिये ! जो मूखमे कुछ कम खाता है, मितमोजी हैं वही बहुत खाता है-पूर्ण भोजन करता है ऐसा समझो। दुनियाके कई रोग अधिक भोजनसे होते हैं। अधिक भोजनसे वमन, दत्त व मृयु-इन तीनमें से एक किये बिना वह अतिरिक्त भोजन आराम नहीं लेता। भोजन ऐसा करे जिससे शामको यो दूसरे दिन सवेरे तक जठराग्नि मन्द न पडे । भोजनके परिणामका कोई सिद्धांत नहीं है। जितना आरामसे पचे उतना ही खाना चाहिए । जठराग्निके, अपने रुचिके जितना भोजन करे। अतिभोजन करनेसे जठराग्नि विगहती है और जठराग्नि प्रदीप्त होने पर कम भोजन करनेवालेका शरीर क्षीण होता है और अतिभोजनसे परिणाममें दुख होता है। श्रमसे थके हुए मनुष्यको शीघ्न भोजन या पान करनेसे अवश्य ज्वर या वमन होता है। अर्थात् कुछ समय आराम लेकर फिर भोजन पान करे। ' - तथा-अजीर्णे अभोजनंमिति २१ ॥४३॥ ., ___ मूलार्थ-यदि अजीर्ण हुआ तो भोजन नहीं करना चाहिये ॥४३॥ - - ; .,.,, , विवेचन-पहलेका किया हुआ भोजन यदि न पंचे तो अथवा 'पूर्ण पाचन न हो तो दूसरे समय या जब तक वह पूर्ण न पचे Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ : धर्मविन्दु तव तक सर्वथा भोजनका त्याग करे। अजीर्णमें भोजन करने पर या अजीर्ण ही सब रोगोंका मूल है, और रोगोकी वृद्धि करता है। कारण, जैसे अग्नि पर एक लकडी पर यदि दूसरी बड़ी लकडी रख, दी जावे तो अग्नि कम होता है। वैसे ही ऊपर ऊपर अधिक करते जानेसे जठराग्नि मंद पड़ जाता है-अपच होता है। ऐसे भोजनसे रस, वीर्य आदि धातु नहीं बनते तथा अनर्थ परंपरा व रोग बढते. जाते है। कहा है कि 'अजीर्णप्रभवा रोगास्तत्राजीणं चतुर्विधम् । आमं विदग्ध विष्टब्ध, रसशेपं तथा परम् ॥३३॥ आमे तु द्रवगन्धित्वं, विदग्धे धूमगन्धिता। विष्टन्धे गात्रभङ्गोऽत्र, रसशेषे तु जाड्यता" ॥३४॥ -सब रोग अजीर्णसे पैदा होते हैं। अजीर्ण चार प्रकारका है-आम, विदग्ध, विष्टव्ध और रसशेष । आम-अजीर्णमें नरम दस्त तथा छाश आदिकी दुर्गन्ध-द्रवगन्धी होती है। विदग्ध-अजीर्णमें खराव धुंए जैसी दुर्गन्ध आती है। विष्टब्धमें शरीर तूटता है, शरीरमें पीडा होती है तथा अवयव दीले पड़ जाते हैं। चौथे रसशेषमें जडता-शिथिलता व आलस आता है ॥ द्वगन्धी-द्रव्य या दस्तमें नरमी तथा कोहेली व छाश जैसी दुर्गन्ध आती है। अजीर्णके लक्षण ये हैं 'मलवातयोर्विगन्धो, विड्भेदो गात्रगौरवमरुच्यम् । अविशुद्धश्चोहारः, षडजीर्णव्यक्तलिहानि" ॥३५॥ . -मल व वायुकी हमेशासे भिन्न दुर्गन्ध, विष्टामें हमेशांसे Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ५९ भिन्नता, गरीरका भारीपन, अन्न पर अरुचि तथा बुरी डकार आनायह छ अजीर्ण लक्षण है। अजीर्णसे जो रोग होते है वह कहते है -- 'मूर्च्छा प्रलापो वमथुः प्रसेकः सदनं भ्रमः । उपद्रवा भवन्त्येते, मरणं वाऽप्यजीर्णतः " ॥३६॥ - अजीर्णके कारण मूर्छा, प्रलाप, कंपन, अधिक पसीना व थूक आना, शरीर नरम होना तथा चक्करका आना आदि उपद्रव होते है और अचेतनसे अंतमें मृत्यु भी होती है। अर्थात् अजीर्णके समय कुछ न खाकरलंघन करना चाहिये । पसीना ज्यादा आना, सदनं - अगग्लानि ) । ( प्रसेक - थूक व तथा - बलापाये प्रतिक्रियेति २२ ॥४४॥ मूलार्थ - बलकी कमी होने पर उसकी प्रतिक्रिया करे ॥ ४४ ॥ -- विवेचन-बल- शरीरका सामर्थ्य, अपाय-नाश या हास, प्रतिक्रिया - उसको रोकनेका उपाय, । शरीरका बल कम होता प्रतीत हो उसका उपाय शीघ्र करना चाहिये। प्रथम तो बलका हास किस कारण हुआ यह जानो और उसके अनुरूप उपाय करो अर्थात् ज्यादा परिश्रमका त्याग, स्निग्ध व अल्प आहारका पथ्य लेना आदि क्रियाओसे शरीर बलकी पूर्ति करना चाहिये। कारण कि, 'बलमू लि जीवनम्' - जीवनका मूल्य शारीरिक शक्ति है । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६० : धर्मविन्दु अत शारीरिक बलकी हानि न हो ऐसे सब प्रकारसे यत्न -करना चाहिये । यदि कभी किसी रीतिसे बलका हांस हो जाय तो वह 'विषं व्याधिरुपेक्षितः ' - व्याधिकी उपेक्षासे वह विष समान हो जाता है ऐसा सोच कर शीघ्र ही उसकी प्रतिक्रिया - उसके मिटानेका उपाय करना चाहिये और पुन कभी भी उपेक्षा न करे । मुख्यतः - वीर्यनाशसे व्याधि उत्पन्न होती है, अतः उस ओर ध्यान देना चाहिये । + तथा - अदेशकालचर्यापरिहार इति २३ ||४५॥ मूलार्थ - और अयोग्य देश कालका परिहार करे || ४५|| 'विवेचन - जिस देशमें चोर आदिका उपद्रव हो, जहां आचार विचार हीन व मलिन हों, लडाई भादि होती हो, इसलोक व परंलोकके लिए अहित होता हो अथवा दुष्काल व महामारीका समय हो ऐसे देश तथा ऐसे समय में रहना अयोग्य है, उसका त्याग करे । यहां शास्त्रकार शरीर रक्षण पर जोर देते हैं, यद्यपि वे शरीरको तुच्छ समझते थे क्योकि शरीर ही धर्मका प्रथम व उत्तम साधन है। तथा-यथोचितलोकयात्रेति २४ ||४६ || सूलार्थ - योग्यता अनुसार लोक व्यवहार करना चाहिये ॥ ४६ ॥ विवेचन - यथोचित - जैसा उचित हो, योग्य हो, लोकयात्रा लोगोंके चित्तको अनुसरण रूप व्यवहार । हमको हमारी येग्यतानुसार यथोचित लोक व्यवहार में प्रवृत्ति करना चाहिये। उसका उल्लंघन करनेसे लोगोंके चित्तकी विराधना Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ६१ होती है। वह अपने विरुद्ध होते हैं तथा अवगणना होती है। जिससे अपनी लघुता उत्पन्न होती हो उसका कारण स्वयं होते हैं। इस कारण अपनेमें रहे हुए गुण तथा सम्यक् आचार- आदिकी छाप हम और लोगों पर नहीं डाल सकते । अतः लोक व्यवहारका आदर करना चाहिए । कहा है कि " लोकः खल्वाधारः, सर्वेषां धर्मचारिणां यस्मात् । "तस्माल्लोकविरुद्धं, धर्मविरुद्धं च संत्याज्यम्' ॥३७॥ ___-धर्म मार्ग पर चलनेवाले सबका आधार लोक है अतः, जो लोकविरुद्ध व धर्मविरुद्ध हो उसका त्याग करना चाहिए। तथा-हीनेषु हीनक्रम इति ॥ ४७॥ मूलार्थ- हीनके साथ तदनुकूल व्यवहार करना चाहिये ॥ १७ ॥-..... . .. १. विवेचन-हीनेषु-अपने कर्मके दोषसे, जाति, विद्या आदि. गुणों के कारण जो लोकमें नीचे गिना जाता है। हीनक्रम-तुच्छ लोकव्यवहार करना-तदनुकूल व्यवहार । - - - - खुदके कर्म दोपसे जो व्यक्ति जाति या कर्म विद्याको प्राप्त हो या जिसमें कम गुण हों उसके साथ उसके अनुरूप - व्यवहार करना चाहिये । पर उसका तिरस्कार न करे तथा अपने- उंचेपनका मद न करे । किसीमे दोष है तो कर्मके कारण है ऐसा सोचकर उस पर दया करना । अवगुणी भी गुणीके संगसे आत्मनिरीक्षण द्वारा धीरे धीरे अपने दोष दूर कर सकेंगा। उसके साथ उसके योग्य वर्तन Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ : धर्मविन्दु । करना चाहिये । वह अपनी आत्माको उत्तम लोगोंकी संभावनाके अयोग्य मानता है, अतः वह उनका अनुसरण करके अपने आपको कृतार्थ करके हर्षित होगा। साथ ही यह भी नहीं भूलना चाहिये कि यह वात गृहस्थके सामान्य धर्मके लिए कही गई है। तथा-अतिसङ्गवर्जनमिति २५ ॥४८॥ मूलार्थ-अधिक परिचयका त्याग करना चाहिये ॥४८॥ - विवेचन-सभीके साथ अतिपरिचयका त्याग करना ही उचित है। इससे गुणगानका भी अनादर होने लगता है। अतिपरिचय तिरस्कार उत्पन्न करता है और उससे गुणीके प्रति भक्ति भी कम हो जाती है। कहा है कि "अतिपरिचयादवज्ञा भवति, विशिष्टेऽपि वस्तुनि प्रायः। लोकः प्रयागवासी,, कूपे स्नानं सदा कुरुते" ॥३८॥ - प्रायः विशिष्ट वस्तुसे भी अतिपरिचय रखनेसे अवज्ञा या अवगणना होने लगती है, जैसे कि, प्रयागमें रहनेवाले गंगामें न नहाकर सदा कुंएसे ही स्नान करते हैं। ,अतः सबसे योग्य सहवास करना चाहिए। तथा-वृत्तस्थज्ञानवृद्धसेवेति २५ ॥ ४९ ॥ .. । मलार्थ-सदाचारी व ज्ञानवृद्ध पुरुपोंकी सेवा करना चाहिए ॥ ॥४९॥ । । । . विवेचन-वृत्तं-दुराचारसे दूर रहना व सदाचारमें प्रवृत्ति करना-वृत्तमें रहनेवाले वृत्तस्थाः , ज्ञान- हेय व उपादेय (त्याज्यं Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ६३ व ग्रहणीय) वस्तुका भेद निश्चित रूपसे जानना। ऐसे ज्ञानसे वृद्ध ज्ञानवृद्धाः । ऐसे वृत्तस्य तथा ज्ञानवृद्ध पुरुषकी सेवा करना चाहिए । गुणवानकी सेवा करनेसे गुणी होते हैं । जैसे दरिद्री की सेवा करनेसे दरिद्री तथा धनवानकी सेवा करनेसे धनवान बनते हैं। सम्यग् ज्ञान व सम्यक् क्रियारूप गुणके पात्र ( या इस गुणके धारक ) पुरुष सेवा करने योग्य है | उनकी अच्छी सेवा करनेसे वे अवश्य सदुपदेशरूपी उत्तम फलको प्रदान करते है । कहा भी है- , " उपदेशः शुभो नित्यं दर्शनं धर्मचारिणाम् । स्थाने विनय इत्येतत् साधुसेवाफलं महत्" ॥३९॥ " - शुभ उपदेशका मिलना, धार्मिक पुरुषोंके नित्य दर्शन, और उचित स्थान पर विनय करना - ये सावु सेवाके महान् फल हैं । तथा - परस्परानुपघातेनान्योऽन्यानुवद्वत्रिवर्गप्रतिपत्तिरिति २७ ॥ ५० ॥ मूलार्थ - परस्पर गुंथे हुए धर्म, अर्थ व कामकी परस्पर विरोध विना सेवा करे ॥ ५० ॥ विवेचन - धर्म, अर्थ व काम यह त्रिवर्ग है। धर्म- जिससे सद्गति व मोक्षकी प्राप्ति हो । धर्म ही अर्थ व कामकी भी प्राप्ति कराता है | अतः तीनों पुरुषार्थों के देनेवाले धर्मका सदा पालन करे। अर्थ - जिससे व्यावहारिक व पारमार्थिक सव प्रयोजनोंकी सिद्धि Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ : धर्मविन्दु ;हो । अर्थ या धनसे ही काम व धर्मकी साधना होती है। अभिमान या अहकारके रससे व्याप्त ऐसी सब इंद्रियोकी प्रीति जिससे हो, जिससे सब इंद्रियोका विषय भोग हो सके वह काम है। परस्परानुपघातेन- इनकी पारस्परिक एक दूसरेकी हानि न हो इस भांति तीनोंका सेवन करे। अन्योज्यानुवद्धस्य-यह तीनो परस्पर एक दूसरेसे बंधे हुए हैं, अतः किसी एकका हर्ज करके दूसरेका सेवन नहीं करना । प्रतिपत्ति- सेवन । . . . धर्म, अर्थ व कामका यह त्रिवर्ग है और तीनोका एक दूसरेसे अन्योन्याश्रित संबंध है । इन तीनों पदार्थों का, जो परस्पर गुंथे हुए हैं बिना किसीकी भी हानि किये सेवन करे। धर्म और अर्थकी हानि करके सिर्फ काम-विषय सुखमे आसक्त व्यक्ति जंगली हाथीकी तरह आपत्तिमें गिरता है। धर्मको छोड़ कर धन (अर्थ) उपार्जन करनेसे सब स्वजन आदि अन्य जन उसका लाम लेते है व स्वयं सारे (या बहुत अंशमें ) पापका भागी होता है। जैसे सिंह हाथीको मारनेसे पापका भागी होता है (क्यों कि वह स्वयं बहुत कम भाग काममें लेता है तथा बाकी सारा भाग - शियाल आदि अन्य, जानवर खा जाते हैं । ) धर्मको छोडकर धन, उपार्जन करनेवाला उस कुटुंबी (किसान ) की तरह दुख पाता है। जो बीज (बोनेके लिए आया या लाया हुआ अन्न ) भी खा जाता है, इसी तरह मनुष्य, जन्मरूपी-बीजको-पापसे खोनेवाला--दुख पाता है। अधार्मिकका कोई कल्याण नहीं होता। अत. धर्मका उल्लंघन किये विना न्यायोपार्जित धनसे ही संतोष,मानना चाहिए। वही-वास्तवमें Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ६५ मुखी है। जो इहलोफका सुख भोगते हुए भी परलोक-सुखको नष्ट नहीं होने देता अर्थात् परलोकका विरोध न करके सुख भोगनेवाला ही वस्तुतः सुखी है । अतः बुद्धिमान लोग धर्मको बाधा न पहुंचे इस प्रकार अर्थ व कामका आराधन करते हैं। जो व्यक्ति अर्थ व कामकी हानि करके धर्मकी ही उपासना करता है उसके लिए यतिधर्म ही श्रेयस्कर है, गृहवास नहीं। पर गृहस्थको तो (धर्मके साथ ) अर्थ व काम (घन व इच्छित पदार्थ प्राप्ति ) की उपासना करना ही कल्याणकारी है, इस न्यायसे धन पैदा करे तथा तादात्विक, मूलहर और कदर्यके भवगुणोंसे बचा रहे । क्योंकि इन तीनो पर शीघ्र आफत आती है। तादात्विक- कुछ भी सोचे बिना उत्पन्न धनका अयोग्य व्यय करनेवाला । मूलहर- जो पिता, पितामह आदिका एकत्रित घन अन्यायसे खाता है तथा कदर्य- (कंजूस ) जो सेवक तथा स्वयं दोनोको कष्ट देकर धनका उपार्जन करे तथा संचय करे और दान व भोगमें व्यय न करे । तादात्विक और मूलहर दोनोको उत्तर अवस्थामें (वादमे) बहुत कष्ट उठाना पडता है व उनका कल्याण नहीं होता। उन दोनोका धन शीघ्र ही समाप्त हो जाता है । धनके नाश हो जाने पर धर्म व कामकी साधना नहीं हो सकती। कदर्यका किया हुआ अर्थ संग्रह राजा द्वारा हरा जाता है या उसके भागीदारोंकी संपत्ति हो जाती है या चोर लूट कर ले जाते हैं या जल जाता है। उस संपत्तिसे Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ : धमविन्दु भी धर्म व कामकी साधना नहीं होती । अतः मतिमान लोग इन तीनोंकी प्रकृतिका त्याग करके अर्थका सेवन करते है अर्थात् उचित -व्यय तथा रक्षण करते है। जिस व्यक्तिकी इद्रिये वर्शमें नहीं है उसका कोई भी कार्य 'सिद्ध नहीं होता । जो अतिकामासक्त है उसका कोई उपाय नहीं । और जो स्त्रियों में अतिमासक है उसका द्रव्य, धर्म या शरीर - कुछ भी उसके हाथमें नहीं रहता । यह इन तीनों को खो देता है। जो -विरुद्ध काममें प्रवृत्त है वह लंबे समय तक सुखी नहीं होगा। कामनिग्रह करना आसान नहीं है तब भी धीरे धीरे काम निग्रह करना चाहिये । कामवृत्तिको जो जीत लेता है वही देव समान है । मतः धर्म व अर्थको हानि हो उस तरह काम नहीं करना चाहिये । इस प्रकार परस्पर विरोध उत्पन्न न हो ऐसे तरीकेसे धर्म, अर्थ व काम - तीनों की साधना करनी चाहिये। यदि उनमें परस्पर बाधा आती हो तो किसका त्याग करे सो कहते हैं- तथा - अन्यतरबाधासंभवे मूलाबाधेति ॥ ५१ ॥ मूलार्थ - किसीको हानि हो तो मूल पुरुषार्थको बाधा नहीं होने देना चाहिये ।।५१ ॥ विवेचन - अन्यतर-उत्तरोत्तर पुरुषार्थको, मूलाबाधा - मूल पूर्ववर्ती की हानि न होने देना । 1 धर्म, अर्थ व काम एक त्रिवर्ग है उसमें किसी भी उत्तरोत्तर पुरुषार्थको बाधा न होने पर पूर्व पुरुषार्थको बाधा न होने दे। इसमेंसे Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ६७ अंतिम कामको बाधा होने पर धर्म व अर्थको हानि नहीं होने देना चाहिये । अर्थ व काम दोनोंमें अंतराय हो तो मी धर्मको हानि न होने दे। क्योंकि यदि धर्म व धन होगा तो इच्छित पदार्थ स्वतः मिलेंगे। यदि धर्म होगा तो ऊपर कहे अनुसार वह धन व कामका दाता है अतः ये चीजें धर्मके कारण 'मिल हो जावेगी । धर्म ही अर्थ व कामका मूल है। कहा भी है कि "धर्मश्चेनावसीदते, कप्रालेनापि जीवितः । आट्योऽस्मीति गन्तव्यं धर्मवित्ता हि साधवः" ||४०|| 1 — कटोरी लेकर भिक्षा मागनेवाला भी धर्म सहित होने पर 'कमी नाशको प्राप्त नहीं होता। 'मैं धनवान हूं' वह ऐसा विचार करे, क्योंकि साधु पुरुषोको तो धर्म ही धन है । दूसरी जगह भी कहा है कि लक्ष्मी उताकी तरह धर्मवान पुरुषोका आश्रय लेती है अत' अर्थ या काम या दोनोंकी हानि हो तो भी धर्मका नाश नहीं होने देना चाहिये । तिम्रा बलाबलापेक्षप्रमिति २८ ॥ ५२ ॥ मूलार्थ - अपनी शक्ति व अशक्तिको सोच कर काम करना चाहिये ||५|| विवेचन-बल- द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावका अपना सामर्थ्य न्या शक्ति, अत्रल- उल्टा-असामर्थ्य या अशक्ति, अपेक्षणं-आलोचना या विचार करके | Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ : धर्मविन्दु बुद्धिमान् पुरुषको किसी भी काममे प्रवृत्ति करते समय द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावसे अपना सामर्थ्य कितना है, व अशक्ति कितनी है उसका विचार करना चाहिये। यदि विना सोचे काम करे तो संपत्ति आदिका क्षय होनेका निमित्त होता है। जैसे अपने सामर्थ्यसे ज्यादा व्यापार करनेवाला हानि होने पर बिलकुल मारा जाता है। कहा है कि "क. कालः कानि मित्राणि, को देशः को व्यायागमौ? । : कश्चाहं का च मे शक्तिरिति चिन्त्यं मुहुर्मुहुः" ॥४१॥ --समय कैसा है, मित्र कौन है, कौनसा देश है, खर्च व आय कितनी है, मैं कौन हू, मेरी शक्ति कितनी है ? इत्यादि सारी बातोका निरंतर विचार करना चाहिये। __इन सबका विचार करनेसे कई दुःख कम पड़ जाते हैं अतः हमेशा साधन व शक्ति आदिका विचार करके किसी भी कार्यमें पडना चाहिये। तथा-अनुवन्धे प्रयत्न इति ॥५३॥ मूलार्थ-धर्म, अर्थ व कामकी उत्तरोत्तर वृद्धिका प्रयत्न करना चाहिये ॥५३॥ विवेचन-अनुबन्ध-(धर्म, अर्थ व कामकी ) उत्तरोत्तर वृद्धि करना, प्रयत्न-अधिक यत्न करना। . धर्म, अर्थ व कामकी निरंतर व उत्तरोत्तर वृद्धि हो ऐसा प्रयत्न करते रहना चाहिये । उसका आग्रह रखना चाहिये। विन आने Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܕ गृहस्थ सामान्य धर्म : ६९ 7 | करते रहना चाहिये। अनुबन्ध वन्ध्या स्त्रीकी भांति कोई गौरव पर भी प्रारंभ किये हुए कार्यको बिनाके जो प्रयत्न या कार्य हैं वे नहीं प्राप्त कर सकते। उल्टे उसकी अवहेलना होती है। तथा - कालोचितापेक्षेति २९ ||५४|| मूलार्थ - कालके अनुसार योग्य वस्तुको अंगीकार करना चाहिये ॥ ५४ ॥ विवेचन- अपेक्षा - अंगीकार । जिस समय जो वस्तु हो या उपादेय हो तब उसका त्याग या उपार्जन करना चाहिये । उपादेय वस्तुका अतिनिपुण बुद्धिसे विचार करके उसे अंगीकार करना चाहिये । यह बुद्धिमानका लक्षण है और यह सब प्रकारसे लक्ष्मीकी प्राप्तिका हेतुरूप होता है । कहा भी है कि- " यः काकिणीमप्यपथाप्रपन्नामन्वेषते निष्कसहस्रतुल्याम् । कालेन कोटीण्यपि मुक्तहस्तस्यानुबन्धं न जहाति लक्ष्मीः” ॥ ४२ ॥ - जो व्यक्ति कुमार्गमें पडी कौडीको भी हजार मोहरोंकी भांति ढूंढता है और समय पर खुले हाथो करोडों रूपये का दान भी कर देता है, लक्ष्मी उससे अपना संबंध नहीं तोडती । तथा - प्रत्यहं धर्मश्रवणमिति ३० ॥ ५५ ॥ मूलार्थ - प्रतिदिन धर्मश्रवण करना चाहिए ॥ ५५ ॥ 1 विवेचन - जैसे एक पुरुष किसी युवतीके साथ एकांत में बैठा हो और किन्नरका गीत सुनाई देने पर जिस रुचिसे वह सुने उतने Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ক্লনার ৪ কৰি ৰ বুজা অন দুরি ক ৷ ७ : विन्दु . प्रेमभाव व रुचिसे प्रतिदिन धर्मस श्रवण करना चाहिये। धर्मशास्त्रका श्रवण करनेसे अगणित गुण उत्पन्न होते है। कहा है कि--- 'क्लान्तमुपोज्झति खेद, तप्तं निर्वाति वुध्यते मूढम्। स्थिरतामेति व्याकुलमुपयुक्तसुभापित चेतः" ॥४३॥ -गुणवाना पुरुषका उपयुक्त सुवचन ग्लानियुक्त पुरुष चित्तके खेदको दूर करता है, तप्त चित्तको शात करता है, मूर्खको प्रतिबोध देता है तथा व्याकुल चित्तको स्थिरता देता हैं। - तथा-सर्वत्राभिनिवेश इति ३१ ॥५६॥ भूलार्थ-सद कार्योंमे कंदाग्रहका परित्याग करना चाहिए ।। ५६ ।। विवेचन-सर्वत्र-सभी कार्योंमें, अभिनिवेश-झूठी या गलत वातका आग्रह ( कदाग्रह ) छोडना । बुद्धिमान लोग सभी कार्योमे कदाग्रह छोड देते हैं। दूसरेका पराभव, हार करानेकी इच्छासे न्यायमार्ग छोड कर अनीतिका कार्य आरंभ करनेको अभिनिवेश कहते है उसे छोडना चाहिये। नीतिका उल्लंघन करनेवाले कार्यको करनेकी इच्छा होना नीचका लक्षण है। वह कदाग्रह, अज्ञान, लोभ व स्वार्थवृत्तिसे जाग्रत रहता है अत. यह नि ध कदाग्रह त्याज्य है। कहा है कि-- "दर्पः श्रमयति नीचान्निष्फलनयविगुणदुष्करारम्भैः। स्रोतो विलोमतरणैर्व्यसनिमिरायास्यते मत्स्यैः' ॥४॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ७१. -जैसे पानीके बहावके सन्मुख-चलनेके व्यसनवाले मस्योंका प्रयत्न विफल जाता है वैसे ही नीच पुरुषोंका कदाग्रह फलरहित व अन्याययुक्त है। कदाग्रहसें (अहंकारद्वारा' वे बहुत कठिन कामों का प्रारंभ करनेका निरर्थक प्रयास करते हैं। तथा-गुणपक्षपातितेति ३२ ॥१७॥ मूलार्थ-गुणोंके प्रति पक्षपात रखें ।।५७॥ विवेचन-गुणेषु- दाक्षिण्य, सौजन्य, उदारता, स्थिरता, प्रियवचनयुक्त भाषण आदि गुण स्व तथा परका' उपकार करनेके कारणरूप आत्माका धर्म, पक्षपातिता-बहुमानपूर्वक प्रशंसा,, सहायता आदि अनुकूल प्रवृत्ति करना चाहिये। ___गुणानुराग सबस उत्तम गुण है और इसीसे अन्य सन्न गुण आते है । इन. गुणोके प्रति प्रशंसा व बहुमान. रखनेसे, गुणानुरागसेव्यक्तिको प्रत्येक गुण प्राप्त होता है। तीर्थकर तककी कोई भी ऋद्धि. दुर्लभ नहीं । यदि दोषोकी ओर दृष्टि रखें तो दोष अपनेः अंदर आवेंगे । आत्मनिरीक्षण जरूरी है। गुणी पुरुषों पर, राग रख कर गुण प्राप्त करनेका सतत प्रयत्न करना चाहिये । ___गुणानुरागसे प्राप्त होनेवाले पुण्यानुवधी पुण्यके प्रभावसे इस लोकमे तथा परलोकमे शरद ऋतुके चंद्रकी किरपो समान शुक्ल गुणसमूहको अवश्य पाता है। क्योकि गुणानुराग चिंतामणि रत्नसे भी अधिक फल देनेवाला हैं। चिंतामणि रत्न-तो केवला इस लोकके इच्छित पदार्थोको देनेवाला है पर गुणानुरागसें तोमोक्षसुख मिलता है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ : धर्मविन्दु तथा - ऊहापोहादियोग इतीति ३३ ॥ ५८ ॥ मूलार्थ - तर्क, वितर्क आदि बुद्धिके गुणोंका योग करे ||१८|| 1 विवेचन - बुद्धिके आठ लक्षण है। उनका योग व समागम करना चाहिये । शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, विज्ञान, ऊह, अपोह तथा तत्त्वाभिनिवेश- ये आठ लक्षण है। बुद्धिके इन गुणोंके लक्षण इस प्रकार है- शुश्रूषा-सुनने की इच्छा, श्रवण-सुनना, ग्रहण- सुने हुए को समझ कर अंगीकार करना, धारणा- उसे याद रखना, विज्ञान - मोह, संदेह तथा विपरीतता रहित निश्चित ज्ञान, ऊहज्ञात अर्थका अवलंबन करके अन्य पदार्थों में उस पदार्थकी व्याप्ति सहित वितर्क करना, जैसे घरमें धुंआ देख कर वहां अग्नि है ऐसा विचार करनेको वितर्क कहते हैं । अपोह - वचन व युक्तिसे विरुद्ध कार्य जैसे हिंसा आदि कामको करने से पाप होता है, उसमेंसे निवृत्ति करना, ऐसे विरुद्ध कार्य ( हिंसादि ) का न करना अपोह है । पुनः दूसरे अर्थ में सामान्य ज्ञान ऊह है तथा विशेष ज्ञानको अपोह कहते है । विज्ञान, ऊह और अपोहको विशुद्ध रूपसे जान कर निश्चित रूपसे ज्ञान प्राप्त करके, तर्क-वितर्क करके तथा निचित रूपपे निवृत्ति या प्रवृत्ति करनेसे शुद्ध ज्ञानकी प्राप्ति होती है इससे 'यह ऐसा ही है' ऐसा निश्चित ज्ञान प्राप्त करनेको तत्त्वाभिनिवेश कहते है । तत्त्वकी प्राप्ति तत्त्वाभिनिवेश है । व्यक्तिको बुद्धिके इन आठ गुणोंकी प्राप्ति करना चाहिये तथा Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ७३ 1 धर्मश्रवण आदि तथा ऐसी प्रवृत्ति करना चाहिये। इस तरह शुश्रूषा आदि बुद्धि गुणोंसे यथार्थ ज्ञान प्राप्त करनेवाला व्यक्ति जिसकी बुद्धि इस कारण ही तीव्रताको प्राप्त होती है उसका कभी भी अमंगल नहीं होता । सदा कल्याण होता है । वह अपना निश्चित अभिप्राय बता सकता है | साथ ही वह अन्योंको भी शुद्ध राह पर ले जा सकता है। कहा है कि- 1 "जीवन्ति शतशः प्राज्ञाः, प्रज्ञया वित्तसंक्षये । न हि प्रज्ञाक्षये कश्चिद्, वित्ते सत्यपि जीवति ॥४५॥ 1 - सैकडो बुद्धिमान घनके नाश होने पर भी बुद्धि द्वारा जीते हैं पर बुद्धिका नाश होने पर धन होते हुए भी कोई (वस्तुत' ) जीवित नहीं रह सकता । 46 अत धनसे बुद्धि उत्तम है इसलिये बुद्धिको प्राप्त करनेका प्रयत्न सतत करना चाहिये । यहां अव गृहस्थके सामान्य धर्मकी समाप्ति करते है ऐसा सामान्य धर्म पालन करनेवाला विशेष धर्मका अधिकारी होता है । क्रमाः यतिधर्म व मोक्ष पाता है । श्रीग्रन्थकार इस सामान्य धर्मका फल कहते हैं --- एवं स्वधर्मसंयुक्तो. सद्गार्हस्थ्यं करोति यः । लोकgasrat धीमान्, सुखमाप्नोत्यनिन्दित्तम् ||४|| मूलार्थ - जो पुरुष इस प्रकार स्वधर्मयुक्त श्रेष्ठ गृहस्थ धर्मका पालन करता है वह बुद्धिमान पुरुष इस लोकमें तथा परलोकमें अनिन्दित सुखको पाता है । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४. : धर्मविन्दु I विवेचन-एवं-न्याय सहित जैसा कहा है, स्वधर्म:- गृहस्थका साधारण धर्म, सद्गार्हस्थ्यं - सुदर गृहस्थाश्रम, अनिंदित-शुभानुबंधी होनेसे सद्बुद्धिवाले पुरुषों द्वारा निन्दा न की जाने ऐसा, धीमान - प्रशस्त, बुद्धियुक्त, आप्नोति - प्राप्त होता है । इस प्रकार जो उपर्युक्त सामान्य गृहस्थ धर्मयुक्त सुंदर गृहस्था -- श्रमका पालन करते है वे बुद्धिमान पुरुष दोनों लोकोंमें भी अनिन्दित सुखको प्राप्त करते है । वह सुख- पुण्यानुबंधी पुण्यसे मिलता है। गृहस्थ के सामान्य धर्म में गृहस्थ के श३ गुण कहे हैं । प्रत्येक गुणकी मूलके साथ ( पहलीवाली ) संख्या दी है । इन सब गुणोको पानेवाला ही सामान्य गृहस्थ धर्मको पालता है । इसका पूरा प्रयास करना चाहिये । यही आगे के दो लोकोमें बताते हैंदुर्लभं प्राप्य मानुष्यं विधेयं हितमात्मनः । करोत्यकाण्ड एवेंह, मृत्युः सर्वं न किञ्चन ||५|| सत्येतस्मिन्नसारासु, संपत्स्यविहिताग्रहः । पर्यन्तदारुणा सूच्चैर्धर्मः' कार्यो महात्मभिः ||६| मूलार्थ - दुर्लभ मनुष्य जन्मको पा कर आत्मका हित साधन चाहिये क्यों कि मृत्यु अकस्मात ही आकर इस संसार में ' कुछ न था' ऐसा कर देगी। इस स्थितिको विचार कर परिणामतः- कष्ट देनेवाली असार सपत्ति में मोह रखे बिना आत्मार्थी पुरुषों को उच्च प्रकार से धर्मका आचरण व सेवन करना चाहिये । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ७५ विवेचन-दुर्लभ- दुष्प्राप्य, हित- कल्याण करना, उत्तम मित्रोंके योग आदिको अनुकूल बनाना, अकाण्ड एव - वाल, युवा, मध्यम, वृद्ध किसी भी अवस्थाको न देखकर असमय ही आनेवाला, सर्व- पुत्र, कलत्र, वैभव आदि, न किन्चन- मृत्युसे बचानेमें असमर्थ अर्थात् कुछ नहीं। ____ यह मनुष्य जन्म दुर्टम है । इसमे मृत्यु किसी भी समय अकस्मात ही आं उपस्थित होती है उसको रोकनेमें कोई भी समर्थ नहीं हैं अतः आत्माको हित करना चाहिये ॥ ५ ॥ सति- इस जगतमें स्थित सब जन्तु तथा वैभव आदि, एतस्मिन्- मृत्यु, असारासु-मृत्युके निवारणमें अक्षम, असमर्थ, संपत्सु- धन-धान्य आदि सपत्ति लक्षण, अविहिताग्रहः- आग्रह या मूर्छा छोडकर, पर्यन्तदारुणासु- विराम या मृत्युके समय सैंकडों कष्ट देनेवाली, महात्मभिः- श्रेष्ठ आत्मावालोंसेमहात्माओं द्वारा। ऐसें असार इस संसार व संपत्तिकों जो दारुणं दु.ख देनेवाली है मच्छरिहित होकर महात्मा पुरुयोको उच्च प्रकारसे धर्मका सेवन करना चाहिये। मुनिचन्द्रसरि द्वारा विरचित धर्मविन्दु प्रारणकी टीकाका सामान्य गृहस्थ धर्म विधि नामक प्रथम अध्याय समाप्त । इस प्रकार सामान्य गृहस्थ धर्मके स्वरूपको बतानेवाले प्रथम अध्यायकी व्याख्या समाप्त हुई ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय। प्रथम प्रकरणमे बताये हुए गृहस्थके लक्षण जिस व्यक्तिमें आ जाते है वह धर्मका उपदेश ग्रहण करनेका योग्य अधिकारी हो जाता है। अब दूसरे अध्यायकी व्याख्या करते हैं। इस अध्यायका विशेष विषय शास्त्रकार स्वयं कहते है इससे यहां नहीं बताया । अन्य अध्यायोंमें भी ऐसा ही है । द्वितीय अध्यायका यह पहला सूत्र हैप्रायः सद्धर्मवीजानि, गृहिष्वेवंविधेष्वलम् । रोहन्ति विधिनोप्तानि, यथा बीजानि सतक्षितौ ॥७॥ मूलार्थ- जैसे अच्छी पृथवीमें विधिवत् बोये हुए बीज उगते हैं वैसे ही उपयुक्त लक्षणवाले गृहस्थोंमें विधि सहित बोये हुए सद्धर्मके बीज प्रायः ऊग आते हैं ।।७।। विवेचन-सद्धर्मस्य-सम्यग्ज्ञान, दर्शन व चारित्ररूप, वीजानि -कारणानि-मूल, गृहिपु-गृहस्थमें, एवंविधेपु-कुल क्रमागत अनिन्द्य न्याय अनुष्ठान आदि गुणोंके पात्रमें, अलं-अपने सफल कारणोसे, रोहन्ति-धर्मचिन्तन आदि लक्षणवाले अकुरोंसे युक्त, Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्य देशना विधि : ७७ विधिना-देशना योग्य वाल आदि पुरुषोंकी योग्यताके लक्षणसे, उसानि-डाले हुए, यथा-जैसे, वीजानि-शालि, गोधूम-मोहूं आदि अन्नकी भांति, सक्षितो-अच्छी व वरावर भूमि । प्रायः करके सद्धर्मके बीज अच्छे गृहस्थके हृदयमें जम कर धर्मचिन्ता आदिके लक्षणके रूपमें अंकुरकी तरह ऊग आते हैं। यदि वे देशना आदिसे विधिवत् बोये जाय, जैसे शालि आदि अन्न अच्छी व वरीवर भूमिमें विधिसे वोये जाने पर अग आते हैं। सद्धर्मके बीज ये है "दुःखितेषु दयाऽत्यन्तमद्धेपो गुणवत्सु च । औचित्यासेवनं चैव, सर्वत्रैवाविशेषतः" ॥४६॥ -दुःखी पर दया, गुणी पर अद्वेष (गुणी पर राग) तथा सव स्थानों पर भिन्नता रहित योग्य मार्गका सेवन करना, ये धर्मके बीज हैं। ये वीज भी विधिवत् गृहस्थके हृदयमें बोने पर प्रायः ऊग आते हैं। धर्मके अंकुर पैदा होते है उसके बारेमे कहा है कि "वपनं धर्मवीजस्य, सत्प्रशंसादि तद्गतम् । सञ्चिन्ताद्यड्कुरादि स्यात् . फलसिद्धिस्तु निर्वृतिः" ॥४॥ "चिन्ता सच्छ्रुत्यनुष्ठानदेवमानुपसंपदः । क्रमेणाङ्कुरसत्काण्डनालपुष्पसमा मता' ॥४॥ -~-सत्पुरुकी प्रशंसा करना यह धर्मग्रीजका आरोपण है। धर्मचिन्तन आदि उससे अंकुर समान है और निवृति या मोक्ष उसकी फलसिद्धि समान है ॥४७॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८: विन्तु । धर्मका चिन्तन, उसका प्रचपा, अनुष्ठान, देव व मनुष्य संपदा आदि कासशः धर्मबीजके अंकुर, डाली, नाल (घड) तथा पुष्प समान है ॥४८॥ यहा यह बताया है कि, दुःखी पर दुया, गुणानुराग व औचित्यपालन आदि धर्मके बीज़ हैं। कुल सागत अनिन्द्य धर्मका 'अनुष्ठान करनेवाला गृहस्थ शुभ भूमि है। ये वीज उसमें फलित होकर अंकुर, धड, डाल व पुष्प लाते हैं तथा अंशतः मोक्षरूपी फल भी लाते हैं। ऐसे गृहस्थ जिनका साधारण धर्म ऊपरले अध्याय में कहा है उनको धर्मदेशनासे उनके मन में धर्म पैदा होता है तथा धीरे धीरे फलित होकर क्रमशः मोक्षको देनेवाला होता है। कभी कभी भन्नत्याने पक जाने पर सहदेवी माता आदिकी तरह झमकी अपेक्षासे भी अकस्मात फल प्राप्त होता है। पर इससे विरोध नहीं उत्पन्न होता । प्रायः उनका ऊगना क्रमशः ही होता है अतः धर्ममें २।४ गुणस्थानक कहे है जो गृहस्थ के लिये सीढी पर चढनेका एक एक कदम है। ___यदि पात्र अच्छा न हो तो धर्मबीजका क्या होता है ? कहते हैवीजनाशो यथाऽभूमो, प्ररोहो वेह निष्फलः। तथा सद्धर्मवीजानामपान्नेषु विदुर्बुधाः ॥८॥ ____ मूलार्थ-जैसे 'ऊपर भूमिमें पड़ा हुआ चीज अंकुर हो जाने पर भी निष्फल जाता है वैसे ही अपात्र के प्रति धर्मका बीजारोपण हो वह भी नष्ट होता है।ऐमा पंडित कहते हैं।।८।। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : ७९ विवेचन-अभूमौ ऊपर आदि भूमि, प्ररोहा अंकुर आदि 'प्रस्फुटित होना, निष्फल-फलरहित। ऊपर या बंजर भूमिमें वोये हुए अन्नका वीज ही नष्ट हो जाता है। यदि कभी अंकुर भी फूट गया तो धान्य आदिकी जो “उत्पत्ति होना चाहिये वह फल उसका नहीं होता और वह निष्फल ही रहता है। उसी तरह अज्ञानी अपात्र गृहस्थके हृदयमें बोया हुआ सद्धर्मका बीज भी नष्ट होता है। यदि व्यवहारमें कभी सद्गुण आदि.अंकुर निकला भी तो मोक्षरूपी फल-तो कदापि नहीं मिलता। ___ अपात्रमे कैसे सद्धर्मका बीज नष्ट होता है या अंकुर होने पर भी निष्फल होता है। कहते हैंन साधयति यः सम्यगज्ञः-स्वल्पंचिकीर्षितम् ।। अयोग्यत्वात् कथं मूढः, स महत्.साधयिष्यति ॥९॥ मूलार्थ-जो अज्ञानी अपनी तुच्छ इच्छाको भी नहीं साध सकता, वह मूढ अयोग्य होनेसे मोक्ष प्राप्तिरूप महत कार्यका संपादन कैसे कर सकता है ? ॥९॥' विवेचन-अज्ञः हिताहितका विभाग करनेमे अकुशल, 'चिकिर्षितम्-निर्वाह आदि अनुष्ठान, अयोग्यत्वात्-अज्ञतासे अयोग्य होनेसे अधिकारी नहीं, महत्-परम पुरुषार्थके हेतुरूप होनेसे महान् धर्मवीजको अंगीकार करनेका कार्य या मोक्ष। जो मूढ जीव हित, अहिनमे मेद नहीं कर सकता वह अपनी तुच्छ आजीविका आदिका अनुष्ठान करनेमें भी असमर्थ हैं। जो Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० : धर्मविन्दु । सरसोको नहीं उठा सकता वह मेरु पर्वतको कैसे धारण कर सकता है ? अतः वह जीव जो अज्ञाताके कारण अयोग्य है, धर्मश्रवणका अधिकारी नहीं। कहा है कि 'सूर्सस्य क्वचिदर्थ नाधिकार.'-मूर्ख किसी भी अर्थ (काम) का अधिकारी नहीं है । वह मूढ परम पुरुषार्थ (मोक्ष) का हेतुरूप धर्मवीजको अंगीकार करने का कार्य कैसे कर सकते हैं । जो बोधके जितना योग्य हो उसे उतना ही देना चाहिये। इति सद्धर्मदेशनाई उक्तः, इदानीं तद्विधि मनुवर्णयिष्याम इति ॥१॥ (५९) मूलार्थ-इस प्रकार सद्धर्मकी देशनाका अधिकारी बता कर उसकी देशना विधि कहते हैं ॥१॥ विवेचन-सद्धर्मदेशनाही-लोकोत्तर धर्मकी देशनाके योग्य, उसे हृदयंगम करने योग्य (सामान्य धर्मपालन करनेवाला गृहस्थ ) वद्विधिम्-सद्धर्मका देशना क्रम । इस प्रकार पूर्व अध्यायमें वर्णित गृहस्थके सामान्य धर्मको बताया है उसे पालन करनेवाला गृहस्थ लोकोत्तर धर्मको हृदयमें स्थापित करने योग्य हे व उसका श्रवण करनेका अधिकारी है, अतः सदर्भदेशनाका अधिकारी व उसके गुण व धर्मका वर्णन करनेवाली अव देशनाविधि कहते है। तत्प्रकृतिदेवताधिमुक्तिज्ञानमिति ॥२॥ (६०) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : ८१ मूलार्थ - देशनायोग्य व्यक्तिकी प्रकृति तथा उसके इष्ट देव आदिका ज्ञान प्राप्त करे ||२|| विवेचन - प्रकृतिः - उसका स्वरूप, गुण व गुणीजनोंके संगमें प्रीति, अप्रीति आदि, देवताधिमुक्ति - बुद्ध, कपिल आदि कौनसे देव इष्ट है तथा मुक्ति किस भाति मानता है । देशना देनेवाला व्यक्ति उपदेश सुननेवालेकी प्रकृतिको पहले जाने । उसका गुणानुराग, आचार विचार, तथा उसके इष्टदेव व मुक्तिकी मान्यता जान ले । यह जानने से किस रास्ते धर्मज्ञान देना यह जाना जा सकता है । जिस मनुष्यमें (१) प्रवृत्ति बहुत हो उसे क्रियामार्गसे, (२) प्रेम बहुत हो उसे भक्तिमार्गसे, (३) ज्ञानके प्रति रुचिवालेको ज्ञानमार्गसे उच्च राहकी ओर - धर्मकी राह पर लाया जा सकता है | अतः उपदेश्य पुरुषके गुण, अवगुण जानना आवश्यक है । - प्रकृति जानने से यदि रागी, द्वेषी, मूढ या अन्य किसी उपदेशक द्वारा पहले विपरीत धर्म न पाया हो तो कुशल उपदेशक उसे उसे भांति लोकोत्तर गुणके पात्र बना सकता है। यदि उसकी देवमुक्तिकी मान्यता ज्ञात हो जाती है तो उस देवताद्वारा प्रणीत मार्गानुसारी गुणोंका उपदेश देनेसे उसके रचे हुए राहके अनुसार वचन समझा कर उसकी प्रीति उत्पन्न करना चाहिये, फिर अपने व उसके शासनमें क्या क्या मतभेद हैं तथा उसके क्या कारण हैं, उसमें क्या दूषण हैं, अधिक ऊंचे तत्त्व किसमें है आदि समझा कर द " उसे संद्धर्मके राह पर आसानीसे लाया जा सकता है। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ : धर्मपिन्दु तथा-साधारणगुणप्रशंसेति ॥३॥ (६१) मृलार्थ-उपदेशक सामान्य गुणोंकी प्रशंसा करे ॥३॥ विवेचन-साधारण लोक तथा लोकोचरके सामान्य गुण, प्रशंसा-उपदेश सुननेवालेके सामने लोक व लोकोत्तरके साधारण, सामान्य गुणोकी प्रशंसा करे जिससे वह उपदेश सुननेकी लालसा प्रगट करे।। जैसे। "प्रदान प्रच्छन्नं गृहमुपगते संभ्रमविधिः, प्रियं कृत्वा मौनं 'सदसि कथनं चाप्युपकृतेः। अनुत्सेको लक्ष्म्या निरभिमतसारा परकथा, ___ श्रुतौ चासंतोषः कथनमभिजाते निवसति" ॥४९॥ '-सुपात्रमें गुप्त दान, (लोक प्रशंसाके लिये नहीं), कोई घर आवे तो उसे अहोभाग्य समझकर (प्रीति सहित उसकी भक्ति तथा स्वागत करना ), किसीका प्रिय या हित करके मौन रखना (भला करके कह बताना नहीं ), किसीका (अपने पर) किया हुआ उपकार सभाके बीच कहना, लक्ष्मीका मद नहीं करना, दूसरोंकी भली बात करना, पर पराभव हो वैसी बुरी . बात , कभी न कहना, सब जगह संतोष रखना पर शास्त्रश्रवण व अध्ययनमें - संतोष नहीं रखना अर्थात् श्रवण व अध्ययन बहुत करना, ऐसे सुंदर गुण कुलीन पुरुषोंकी अपेक्षा और किसमें पाये जाते हैं. ॥४९॥ .. - अन्यत्र भी कहा है कि-'लोभका नाश, क्षमा, अभिमात दूर करना, पापमें आनंद नहीं लेना, सत्य बोलना, साधुपुरुषों का अनुसरण करना, विद्वानोकी सेवा, मान्य पुरुषोंका मान, दुश्मनोंको मता Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : ८३ लेना, स्वगुणोको गुप्त रखना, कीर्तिकी रक्षा तथा दुःखी पर दया करना आदि गुण संतजन, महापुरुषोंके हैं।' तथा-सम्यक् तदधिकाख्यानमिति बा४ा (६२) मूलार्थ और सम्यक् प्रकारसे उच्च गुणोंका आख्यान करना नाना । - विवेचन-सम्यक्-अच्छी तरह, अविपरीत रुपये, तदधिकजन सामान्य व साधारण गुणोंसे विशेषजोगुण है उनका आख्यानवर्णन। . . . . . इन ऊपर 'कहे हुए साधारण गुणोंसे अधिक अंचे व विशेष गुणोंका वर्णन ठीक 'प्रकारसे करे। जब उपदेशक देखे 'कि श्रोता ऐसे गुणों के वर्णनमें रस लेता है तो उच्च गुणोका वर्णन उसके सामने करे। जैसे "पञ्चैतानि पवित्राणि, सर्वेषां धर्मचारिणाम् ।। अहिंसा सत्यमस्तेयं, त्यागो मैथुनवर्तनम्" ॥५०॥ -~-अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), त्याग (अपरिग्रह-दान) तथा अमैथुन (ब्रह्मचर्य पालन )-ये पांच बातें.धर्मोमें पवित्र मान कर अंगीकार की हुई हैं। . . , . . , - जितने आर्यधर्म हैं वे सब इन्हें मानते है. 1. बुद्धधर्मसे पुणशील (पंचशील.) तथा वेदांतमें पंच यम कहे हैं। अतः प्रथम इनका उपदेश देना चाहिये। . . . . . . . . . . . ...तथा-अबोधेऽप्यनिन्देति ॥६॥ (६३) , . . 1 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ : धर्मयिन्दु मूलार्थ-गुणका बोध न भी हो तब भी निंदा नहीं करना चाहिये ॥५॥ विवेचन-अबोधेऽपि-सामान्य या विशेष किसी भी गुणका बोध न हो तो भी, अनिन्देति-श्रोताकी निन्दा नहीं करना । __यदि श्रोताको सामान्य गुण या विशेष गुण इन सबमें से एक भी गुणका बोध प्राप्त न हो, उसके मन पर असर न हो या न समझे तो भी उसकी निन्दा नहीं करना चाहिये। जैसे कि-'तुम मंदबुद्धि या अभागे हो, हमने तुमको इतनी तरहसे बोध किया; समझाया तो भी तुमको वस्तु तत्वका बोध न हुआ' इस प्रकारकी श्रोताकी निंदा या तिरस्कारका त्याग करे1 उपदेशक गुस्से न हो। ऐसा करनेसे श्रोताकी- जिज्ञासा नष्ट होती है, मनमें सुननेके प्रति भावकी कमी हो जाती है। तब उपदेशक क्या करे? कहते है-१, 'शुश्रुषाभावकरणमिति ॥६॥ (६४) 'मूलार्थ-सुननेकी इच्छाका भाव श्रोतामें उत्पन्न करे ॥६॥ - विवेचन-उपदेशक श्रोताको इस प्रकार उपदेश दे कि श्रोताके मनमें शास्त्रश्रवणकी भावना पैदा हो। अर्थात् योग्य वचनोसे श्रोताको धर्मशास्त्र सुननेकी इच्छा बिना धर्मोपदेश करनेसे ऊलटे अनर्थ होनेकी संभावना रहती है। कहा है कि-" स खलु 'पिशाचकी वातकी वा यः परेऽनर्थिनि वाचमुदीरयते " -सुननेकी इच्छाके रहित श्रोताके सम्मुख उपदेशक जो वाणी उच्चारे वह पिशाचग्रस्त अथवा वातूनीकी Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधिः ८५ बातें हैं याने “ भैंसके सामने भागवत " वाली बात है । अर्थात् वह निष्फल जाती है अत' इच्छा उत्पन्न करना चाहिये । तथा - भूयोभूय उपदेश इति ॥७॥ (६५) मूलार्थ और बार बार उपदेश करना चाहिये ||७|| विवेचन - यदि श्रोताको बोध शीघ्र न हो तो बार बार उपदेश करते रहना चाहिये। जैसे सन्निपातके रोग में तिक्तादि काथ पिलानेका उपचार बार बार किया जाता है जब तक कि सन्निपात न मिटे | उसी तरह जब तक धर्मशास्त्रकी बात श्रोताके हृदयमें न जमे बार चार उपदेश देना ही चाहिये । उमास्वाति कहते है कि - जैसे जहर उतारनेमे वार चार मन्त्रोचारमें पुनरुक्ति दोष नहीं है वैसे ही व्याख्यानमें भी । तथा - बोधे प्रज्ञोपवर्णनमिति ||८|| (६६) मूलार्थ - बोध होने पर उसकी बुद्धिकी प्रशंसा करे ||८|| विवेचन - एक बार या बार बार उपदेश करने पर जब श्रोताको बोध हो, शास्त्रकी बात हृदयंगम हो तो उसकी इस प्रकार प्रशंसा करे - " दीर्घकर्मी ( भारे कर्मी ) प्राणी ऐसी सूक्ष्म बातोंको समझने में असमर्थ होते है । जो लघुकर्मी ( अल्पकर्मी ) हैं वे ही ऐसी सूक्ष्म वाते समझ सकते है, सुननेकी रुचि होना भी पुण्योदयसे होती है अतः ध्यान देकर सुनो आदि भी बढ़ता है 1 कहने से उसका उत्साह भ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ : 'धर्मपन्दु ' तथा तन्त्रावतार' इति ॥९॥ (६७) मूलाथ-और शास्त्र में प्रवेश कराना चाहिये ।। विवेचन-तन्त्रे-आगममें । अवतीर:-प्रवेश । 'श्रेताको पहले शोलके प्रति बहुमान उत्पन्न करा कर उसके द्वारा प्रवेश कराना चाहिये। आगमके प्रति बहुमान पूज्यभाव उत्पन्न हो ऐसा उपदेश देना । श्रोताको कहे कि "परलोकविधी शास्त्रात्, प्रायो नान्यदपेक्षते । आसन्नभव्यो मतिमान् , श्रद्धाधनसमन्वितः" ॥५०॥ - . .--आसन्न भव्य तथा श्रद्धावान बुद्धिमान मनुष्य परलोकसंबंधी कार्य, प्राय. शास्त्र सिवाय अन्यकी अपेक्षा नहीं रखता । पारलौकिक वस्तुएँ इन्द्रियोसे नहीं जानी जा सकती, अतः ज्ञानीकी उपस्थितिमें शास्त्र ही प्रमाण है। कहा है कि " उपदेशं विना ह्यर्थकामौ प्रति पटुर्जनः। • धर्मस्तु न विना शास्त्रादिति तत्रादरो हितः" ॥५१॥ - -अर्थ व काम दोनो पुरुषार्थः विना उपदेशके भी साधे जा सकते हैं, पर धर्म साधन तो शास्त्र बिना नहीं हो सकता। अत' शास्त्रका आदर करना हितकर हैं। "अर्थादावविधानेऽपि, तदभावः परं नृणाम् । "धर्मेऽविधानतोऽनर्थक क्रियोदाहरणात् परर" ॥५२॥ -- अर्थ व कामका उपार्जन न करनेसे मनुष्योको केवल अर्थ या कामका ही अभाव होगा पर धर्मका उपार्जन न करनेसे तो अर्थ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : ८७ हो जायगा। वह क्रियाके स्वरूप या उदाहरणसे जान लेना चाहिये। (क्रियाका स्वरूप ‘पन्नवणा' आदि सूत्रोंमें कहा है ) "तस्मात् सदैव धर्मार्थी, शस्त्रयत्तः प्रशस्यते । लोके मोहन्धिकारेऽस्मिन् , शास्त्रालोकः प्रवर्तकः" ॥१३॥ उपरोक्त कारणोसे शास्त्रका अभ्यास करनेवाला धर्मी पुरुष सदा प्रशसा योग्य है । इस लोकके मोह अन्धकारको · दूर करनेके लिये शास्त्र ही दीपक (ज्योति ) है और वही उसको हेय, उपादेय वस्तुको बतानेवाला सही मार्ग पर ले जानेवाला है। "पापमयौपधं शालं, शास्त्रं पुण्यनिवन्धनम् । चक्षुः सर्वत्रगं शास्त्र, शास्त्रं सर्वार्थसाधनम् " ॥५४॥ -शाल पापरूप रोगका औषध, पुण्यका कारण तथा सर्वत्र गमन करने ( जाने ) वाला चक्षु है। सक्षेपमे शास्त्र सर्व अर्थको साधनेवाला है। . न यस्य भक्तिरेतस्मिन् , तस्य धर्मक्रियापि हि । ___ अन्धप्रेक्षाक्रियातुल्या, कर्मदोपादसल्फला" ॥५५॥ -ऐसे शास्त्रमे जिसको मक्ति नहीं है, उसकी सारी धर्मक्रिया भी अन्धे पुरुषके देखनेका प्रयास करने जैसी है और कर्मका दोष होनेसे शुभ फलकी देनेवाली नहीं है अथवा उसको सद्गति रूप फल नहीं हो सकता। __ “यः श्राद्धो मन्यते मान्यान् , अहङ्कारविवर्जितः। गुणरागी महाभागः, तस्य धमक्रियः परा" ॥५६॥ : ---जो महाभाग्यशाली पुरुष अहंकार सहित और गुणानुरागी Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ : धर्मचिन्दु है तथा श्रद्धा सहित मान्य ( देव, गुरु व धर्म )की भक्ति करता है उसकी धर्मक्रिया उत्कृष्ट है। " यस्य त्वनादरः शास्त्रे, तस्य श्रद्धादयो गुणाः । उन्मत्तगुणतुल्यत्वान प्रशंसास्पद सताम्" ॥५७॥ -~~-जिसको शास्त्रके प्रति आदर नहीं है उसके श्रद्धा आदि गुण उन्मत्त पुरुषके गुणो जैसे हैं और सत्पुरुषो द्वारा प्रशंसनीय नहीं है। "मलिनस्य यथाऽत्यन्तं, जलं वस्त्रस्य शोभनम् । अन्तःकरणरत्नस्य, तथा शास्त्रं विदुर्बुधाः" ॥५८॥ ----जैसे जल अत्यंत मलिन वस्त्रको भी स्वच्छ कर देता है वैसे पंडित जन शास्त्रको अन्त करण रत्नका शोधन करनेवाला बताते हैं। "शास्त्र भक्तिर्जगद्वन्द्यैर्मुक्तिदूती परोदिता। अत्रैवेयमतो न्याय्या, तत्प्राप्यासनभावतः" ॥५९॥ -~-जगवंद्य श्रीतीर्थकर देवद्वारा शास्त्रभक्ति मुक्ति स्त्रीकी उत्कृष्ट दूती कही गई है (याने शास्त्रभक्ति मुक्ति लानेवाली ) है यह योम्य वचन है क्योकि शास्त्रभक्तिसे मुक्ति समीप आती है। शास्त्रभक्तिसे ज्ञानवृद्धि, क्रियावृद्धि तथा कर्मनिर्जरा होती है और मुक्ति स्वतः समीप आती है। (योग २२१-३०) इस प्रकार उपदेश देकर श्रोताके मनमें शास्त्रके प्रति आदरको जगाना चाहिये। तीर्थकर व केवलज्ञानीके विचरणके समय शास्त्रकी आवश्यकता ही नहीं होती पर उनके न होनेसे उनके उपदिष्ट वचन Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : ८९ जो शास्त्रमें आये हुए हैं, उनकी अनन्य भक्ति व अभ्यास करना धर्मप्राप्तिका साधन है। तथा-प्रयोग आक्षेपण्या इति ॥१०॥ (६८) मूलार्थ-श्रोताको मोहसे तत्वकी और आवर्जित करनेचाली कथा कहना। विवेचन- प्रयोग- कथा प्रसंग कहना, आक्षेपणी- जो आकर्षित तत्त्वकी ओर भव्य प्राणियोको मोहसे ले जावे । ___ धर्मकथा करते समय उनको मोहसे तत्त्वकी ओर खींचनेवाली आक्षेपणी कथा कहे। आक्षेपणीके चार भेद हैं-१ आचार, २ व्यवहार, ३ प्रज्ञप्ति तथा ४ दृष्टिवाद । इनके लक्षण इस प्रकार हैं-१ आचार-साधुकी लोच, अस्नान आदि क्रिया या आचारका वर्णन, २ व्यवहार प्राप्त दोषके निवारणके लिये प्रायश्चित करनेका वर्णन, ३ प्रज्ञप्ति-संशयमें पडे हुए को मधुर वचनसे ज्ञान वताना या संशय निवारण, १ दृष्टिवाद-श्रोताकी अपेक्षासे (जैसा वह हो, उसे पहिचान कर ) जीव, अजीव आदि तत्वोंका सूक्ष्म भावका कथन, इस प्रकारकी आक्षेपणी कहे । ' तथा-ज्ञानाद्याचारकथनमिति ॥११॥ (६९) । मूलार्थ-और ज्ञानादि आचारोंका वर्णन करे ॥. विवेचन-ज्ञानादि-आचार पांच प्रकारके हैं-ज्ञानाचार, दर्शन नाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार । कथनम्-उनका वर्णन ! Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० : धर्मादिन्दु जिस आचारसे' ज्ञानावरणीय कर्मका स्वाभाविक ज्ञान प्रगटे हो उसे ज्ञानाचार आचार ज्ञानाचार है । क्षय हो और आत्माका कहते हैं । श्रुतलक्षणका १. ज्ञानाचार के आठ भेद हैं, वे ये है -१ काल, २ विनय, ३ बहुमान, ४ उपधान, ५ अनिह्नत्र, ६ व्यञ्जन, ७ अर्थ और - ८ तदुभय-ये आठ भेद हैं। इनके लक्षण कहते हैं 19 १ काल ज्ञानाचार - " जिस अंग सिद्धान्तमें श्रुत-आगमका जो काल अभ्यास कहा गया है उसका तभी स्वाध्याय करना ऐसे तीर्थंकर भगवानके वचनसे योग्य कालमें ही अभ्यास करना, अन्य समय पर नहीं करना ही काल ज्ञानाचार है । कृषिका फल भी योग्य समय पर खेती करनेसे ही मिलता है, असमय में निष्फल जाता है। २ विनय ज्ञानाचार - श्रुतको ग्रहण करते समय सुन कर हृदयगम करनेमें गुरुका विनय करना । गुरुके आने पर खडा होना, आसन बिछाना, गुरुचरणकी सेवा करना आदि विनय हैं । अविनयसे पठित विद्या भी चली जाती है । अतः ज्ञानके लिये विनय करे । ३ बहुमान ज्ञानाचार - शास्त्रका अभ्यास करनेवाला, श्रोता, शास्त्र ग्रहण करने को तत्पर पुरुष या विद्यार्थी गुरुका बहुमान करे । हृदयमें जाग्रत गुरुके प्रति श्रद्धा व पूज्यभावको ही बहुमान ज्ञानाचार कहते हैं । बहुमान आंतरिक है व विनय बाह्य | यहां विनय व बहुमानकी चतुर्भगी होती है- (१, एकको चिनय = Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : ९१ है पर बहुमान नहीं । (२) दूसरे को बहुमान है पर विनय नहीं। (३) एकको विनय तथा बहुमान दोनों हैं । (४) चौथेको न विनय हैं न बहुमान । इसमें तीसरा उत्कृष्ट है। ४ उपधान ज्ञानाचार-शास्त्रका अभ्यास करनेवाले, श्रुत ग्रहण करनेकी इच्छावालेको उपधान करना चाहिये। जिस तपस्यासे ज्ञानको पुष्टि मिले उसे उपधान कहते हैं और उस तपके करनेको उपधान ज्ञानाचार कहते हैं। तपपूर्वक उपार्जित ज्ञान विशेष सफल होता है। तपसे शरीर व मन आत्माके अधीन होते हैं तभी आत्मा मन व शरीर को ज्ञान प्राप्तिमें लगाती है और ज्ञान शीघ्र प्राप्त होता है । इद्रिय व मन स्वाधीन व सयमी न होने पर ज्ञानाभ्यास इच्छित रूपमें नहीं होता । तपका अर्थ 'विचार कग्ना' भी होता है। अत शास्त्राभ्यासीको शास्त्र पर विचार करना चाहिये। उसे मनन करना आवश्यक है। आगाढ आदि योग युक्त जो तप जिस अध्ययनमें कहा हो वह तप उस अध्ययनमें करना चाहिये । तप पूर्वक शास्वाध्ययन सफल होता है। ५ अनिव ज्ञानाचार-जिस गुस्से शिक्षा ग्रहण की उसका नाम छिपाना निहव है । अत. उस नामको न छिपाना 'अनिहव' है । शास्त्र ग्रहण करनेवाला निहब न करे, जिसके पास अध्ययन किया हो उसीका नाम लेना अन्यका नहीं। यह असत्यका प्रकार है। इससे चित्तमें कलुषितता आती है। शास्त्रज्ञान भी सफल नहीं होता। ऐसा व्यक्ति कृतघ्न समझा जाता है । उसी गुरुका नाम लेनेसे उसकी प्रशंसा होती है, तभी ऋणमुक्त होगे । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ : धर्मविन्दु www { ६ व्यंजन ज्ञानाचार - श्रुत ग्रहण करनेवाला व फलकी इच्छावाला व्यंजन भेद, अर्थ भेद तथा उभय भेद नहीं करे। जैसे 'धम्मो मंगलमुक्किटं” के बजाय "पुन्नो कल्लाणमुक्कोसं " शब्द लिख देना । यद्यपि अर्थ भेद न आवे तब भी व्यंजन या अक्षर भेद नहीं करना चाहिये | इससे शब्दका सामर्थ्य नष्ट होता है । ७ अर्थ ज्ञानाचार—प्रसिद्ध अर्थको छोड कर दूसरा अर्थ करना अर्थभेद है। जैसे " आवंतीके यावंती लोगंसि विप्परामसंति " ऐसा पाठ आचारांगसूत्रमें आया है। इसका प्रसिद्ध अर्थ है कि ' इस पाखंडी लोक में जितने असयत जीव हैं उसमेसे कई छ कायके जीवोकी विराधना करते हैं'। इस अर्थके बदले " यावन्तः केचन लोके अस्मिन् पाखण्डिलोके विपरामृशन्ति' कहना, जिसका अर्थ है 'अवती देशमें रस्सीवाले लोग कुंएको संताप देते हैं, यह विपरीत अर्थ है । इस प्रकार विपरीत या भिन्न अर्थ करना अर्थभेद है । जिसमें यह अर्थ भेद न हो वह अर्थ ज्ञानाचार है । ८ तदुभयज्ञानाचार - व्यंजन (अक्षर) तथा अर्थ दोनों में भेद लानेवालेको उमयभेद कहते हैं । उदाहरणार्थ - "धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टमहिंसा पर्वतमस्तके" यहां व्यंजनभेद करने से अर्थभेद भी हो - जाता है। इसे उत्सूत्र दोष कहते हैं । यह दोनो भेद जहां न हो -उसे तदुभय ज्ञांनाचार कहते हैं । व्यंजनका भेद होनेसे अर्थभेद होता है । उससे क्रियामे भी Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : ९३ भिन्नता आती है । क्रियामेदसे मोक्षका अभाव हो जाता है। मोक्षका अभाव हो जानेसे दीक्षा निरर्थक है । ' इन आठ नियमोका ध्यान कर विनय सहित गुरुके पास अभ्यास करनेसे ज्ञान वृद्धि होती है तथा ज्ञानावरणीय कर्म क्षय होते हैं। २. दर्शनाचार-' तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ' तत्त्वार्थ पर श्रद्धा रखनेको · सम्यग्दर्शन' कहते है । इसके भी आठ भेद हैं१ निश्शंकित, २ निष्काक्षित, ३ निर्विचिकित्सा, ४ अमूढदृष्टि, ५ उपहा, ६ स्थिरीकरण, ७ वात्सल्य और ८ तीर्थप्रभावना । १. निश्शंकित-शंका रहितता-शंका दो प्रकारकी है-देशशंका व सर्वशंका-धर्मके किसी एक (या कुछ ) सिद्धातके बारेमें शंकाको देशशंका कहते हैं और धर्मके सब तत्वों के बारेमें शंकाको सर्वशंका कहते हैं। जैसे, 'जीवत्व सामान होते हुए भी एक जीव भव्य है तथा एक अभव्य है ऐसा क्यो:। यह देशशंका है। "धर्मके सारे सिद्धात प्राकृत भाषामें निबद्ध या रचे हुए है अतः यह सब फल्पित मालूम पडता है" ऐसी शंका सर्वशंका है। ऐसे स्थान पर शंका करनेवालेको यह सोचना चाहिये कि संसारमें कई वस्तुएं हेतुप्राय है अर्थात् कारण देकर समझाई जा सकती हैं तथा कई पदार्थ अहेतुग्राह्य है अर्थात् उनके कारण अपनी सामान्य बुद्धिसें नहीं समझे जा सकते । सर्वज्ञ ही समझ सकते हैं। जीवका अस्तित्व आदि हेतुग्राम है। हेतुग्राह्य वे है जो प्रत्यक्ष ज्ञानसे - देखें व Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ : धर्मविन्दु समझे जा सके । पर भव्यत्व आदि बातें अहेतुग्राह्य है क्योकि ये उत्कृष्ट ज्ञानका विषय है और छद्मस्थ अवस्थावाले नहीं समझ सकते । इस लिये इसे तिरस्कार न करके ज्ञानवृद्धिकी राह देखें। सब ग्रथोकी रचना प्राकृत होनेका कारण यह है कि उस समय प्राकृत ही प्रचलित भाषा थी और बाल जीवोंको सरलतासे समझमें आ सकती थी, अतः ग्रन्थरचना इस भाषामें हुई । कहा है कि"वाल-स्त्री-मूढ-मूर्खाणां, नृणां चारित्रकाशिणाम् । अनुग्रहार्थे तत्त्वज्ञः, सिद्धान्तः' प्रातः स्मृतः ॥६०॥ —बाल, स्त्री, मूढ व मूर्ख मनुष्यो तथा चारित्र ग्रहण करनेकी इच्छावालों पर अनुग्रह करनेके लिये तत्त्वज्ञाने "सिद्धातकी रचना प्राकृतमें की है। अतः यह सिद्धांत-कल्पित नहीं है। प्रत्यक्ष, अनुमान तथा भागय प्रमाणसे भी अविरुद्ध सिद्ध होता है। इन दोनों प्रकारकी शंकासे रहित होना निश्शंकित दर्शनाचार' है अतः नि,शंक होकर अर्हत् शासतको प्राप्त हुआ जीव निशंक दर्शनाचार है। इससे 'दर्शन' तथा 'दर्शनवाले' (दर्शनी,) में अभेद उपचार कहा हैअर्थात् दर्शन व दार्शनिक एक ही है। जो उनमें एकांत मेद कहा हो तो अदर्शनीकी तरह फलाभाव होता है और उससे मोक्षाभाव होता है। बाकी-सात मेदोंमें भी यही भावना समझना । पाठातर-मन्द । प्रकृत। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : १५ शुद्ध श्रद्धासे शुद्ध कार्य होता है और शुद्ध कार्य परंपरासे मोक्ष प्राप्ति होती है। अतः जन शंका हो तब योग्य गुरुसे शंकारहित होकर शुद्ध प्रवृत्ति करना। .. । । २. निष्कांक्षित-दर्शनाचारका द्वितीय भेद कोक्षारहितता' है । उसके भी दो भेद है। 'देशकांक्षा व सर्वकांक्षा'। दिगंबर आदि किसी एक दर्शनकी आकांक्षा करे, उस दर्शनका अंगीकार करनेकी इच्छा करे वह देशकांक्षा, उसी प्रकार सर्व दर्शनोंकी आकांक्षा करे सर्वकांक्षा । वह अन्य शास्त्रोसें पिड्जीवनिकायपीडा तथा असत्प्ररूपणाको नहीं देखता । ऐसी कांक्षाओंसे, रहित होना 'निष्कांक्षित दर्शनाचार' है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि अन्य सन धर्म चुरे है। अपेक्षासे तथा अंशतः सत्य सब धर्मोमे है। जहां जहां जितना सत्य व सगुण हो उसे ग्रहण करना ही जैन दृष्टि है। अशोकके शिक्षाठेखोंमें भी ऐसा मिलता है। "अन्य धर्मों पर आक्षेप नहीं करना, तथा निष्कारण अन्य धर्मोकी अप्रतिष्ठा नहीं करना" पर स्वधर्मसे भविचल श्रद्धा रक्खे। . ३. निर्विचिकित्सा-बुद्धिमे विभ्रम यां भ्रांतिको विचिकित्सा कहते है। उस भ्रांतिसे रहितता निर्विचिकित्सा है। जैसे-जिनदर्शन तो अच्छा है इसमें प्रवृत्ति करनेसे मुझे फल होगा या नहीं ? जैसे खेती आदिमें फलकी प्राप्ति व अप्राप्ति दोनों होते हैं। इस प्रकार के संकल्प विकल्पको विचिकित्सा या भ्रांति कहते हैं। इसे छोड देना चाहिये। "जैसा बोयेंगे वैसा काटेंगे" या "जो 'कर्म करोगे वैसे भरोगे" इसे आधारभूत समझ कर कार्य करना चाहिये। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ : धर्मविन्दु श्रति होने से पूर्ण श्रद्धा व अडिग भक्तिसे धर्ममें प्रवृत्ति नहीं होती । यथार्थ फलसे भी वंचित रहना पडता है । अतः गलत धारणा व भ्रांतिको त्याग कर आत्मविश्वास व कार्य-कारणके नियम में विश्वास रखना चाहिये। योग्य उपाय करनेसे प्राप्य वस्तु अवश्य मिलेगी "ऐसा निश्चय रखे। इसे प्राति रहितता या निर्विचिकित्सा कहते हैं । अथवा तो साधुके मलिन गात्र आदि देख कर भी जुगुप्सा नहीं करना चाहिये, उसे निर्विजुगुप्सा दर्शनाचार कहते हैं । ४. अमूढदृष्टि - बाल तपस्वी या अज्ञान कष्ट करनेवाले (जैसे हठयोगी ) तपस्वी तप, विद्या आदि अतिशय देख कर मूढ न हो, सम्यग्ज्ञान रूप दृष्टि ं चलित न हो, उसे अमूढदृष्टि दर्शनाचार कहते है । यह चार दर्शनाचार गुणी प्रधान है ( गुणका आश्रय लेकर कहे है ) अब गुण प्रधान ( गुण का आश्रय लेकर कहते हैं ) - ५. उपबृंहा—-साधर्मिक बन्धुओंके सद्गुणों की प्रशंसा करना तथा उसमें वृद्धि करनेको उपबृंहण दर्शनाचार कहते हैं । 2 ६. स्थिरीकरण - धर्म से पतित या धर्मभ्रष्ट होनेवालेको रोककर धर्ममे दृढ करनेको स्थिरीकरण दर्शनाचार कहते हैं । ७. वात्सल्य - समानधर्मी पुरुषोंका उपकार करना वात्सल्यदर्शनाचार है । ८. तीर्थप्रभावना - धर्मकथा आदिसे तीर्थकी, धर्मकी प्रसिद्धि करना तीर्थप्रभावना दर्शनाचार है । 7 - पश्चादुवर्त्ती चारों भेद गुणोका आश्रय लेकर कहें हैं। गुण व Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : ९७ गुणीमें थोडा भेद है । जो भेद न हो तो गुणका नाश होने पर गुणीका भी नाश होता हैं । परिणाम शून्य आता है । अतः उपर्युक्त क्रमसे गुणी व गुणका आश्रय लेकर अलग कहे हैं । 1 ३. चारित्राचार - चारित्रके पालन सबधी साधुके आचारको चारित्राचार कहते हैं । यह आठ प्रकारका है। इसमें पांच समिति द तीन गुप्ति होती है। नीचे समिति व गुप्तिका स्वरूप संक्षिप्त व्याख्या -- अन्यत्रसे उद्धृत करके दिया है १. इर्यासमिति - रास्ते में आते जाते किसी जीवकी विराधना या हिंसा न हो उस हेतुसे यत्न सहित तेज दृष्टि से देखते हुए चलनेको इर्यासमिति कहते हैं । २. भापासमिति - किसी भी जीवका द्रव्य या भाव प्राणका व या विराधना न हो उस प्रकार सत्य वचन बोल्नको भाषासमिति कहते है । ३. एपणासमिति - ४२ दोष रहित आहार आदिकी गवेषणा या शोध करना । ४. आदान निक्षेपण समिति बैठते-ऊठते, बेते व रखतेप्रत्येक समय पूजना व प्रमार्जना करनेका उपयोग रखना वह । ५. पारिष्ठापनिका समिति - मल-मूत्रादिकको परठवनेके समय शुद्ध भूमि देखनेका उपयोग रखना वह । ד गुप्ति तीन है-मन गुप्ति, वचन गुप्ति व काय गुप्ति - वे इस प्रकार जानना । ७ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ : धर्मविन्दु १. मनगुप्ति-मनमें उत्पन्न विचार तरंगोंको रोकना, मनको शांत वनना, और संयममें लाना मनगुप्ति है। मनको शुभ अध्यवसायमें रोकना तथा धीरे धीरे उसे एकाग्र बनाकर वशमें लाना चाहिये। २. वचनगुप्ति-वचनो पर पूर्णनिग्रह-मनुष्य परिणामका विचार करके बोले। ३. कायगुप्ति-शरीरको अशुभ व्यापारमें जानेसे रोकना, तथा इंद्रियोंको वशमें रखना। शास्त्रमें इनको अष्ट प्रवचनमाता कहते है। ये समिति व गुप्ति चारित्रका पुत्रवत् पालन करती है, अतः इन्हें यह नाम दिया गया है। ४. तपाचार-इसके मूल भेद दो है । बाह्य व आभ्यंतरइनके प्रत्येकके छ भेद हैं अतः बारह भेद हुए। बायतपके मेद इस प्रकार है"अनशनमूनोदरता, वृत्तेः संक्षेपणं रसत्यागः। कायक्लेश संलीनतेति बाह्यं तपः प्रोक्तम्" ॥६॥ --अनशन, ऊनोदरता, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश और सलीनता--ये छ बाह्य तप हैं। उनके लक्षण इस प्रकार हैं १. अनशन-चारों प्रकारका आहार त्याग, इसके दो भेद हैं१ थोडे समयका, तथा २, आजीवन । पहेलाका काल वीर शासनमे ६ मास, ऋषभदेवके तीर्थमें १ वर्ष तथा अन्य बाइस तीर्थकरोंके शासनमें ८ मास माना गया है। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : ९९ २. ऊनोदरी-पुरुषका आहार ३२ कंवल (एक वार मुंहमें जावे वह १ कंवल) तथा खीका २८ कंवल माना गया है। इससे कम खानेको ऊणोदरी तप कहते हैं । यह द्रव्य तप है। इसी प्रकार ऊणोदरी भाव तप क्रोधादि घटानेसे होता है। ३. वृत्तिसंक्षेप-खानेके पदार्थ या क्षेत्रको सीमित करना वृत्तिसंक्षेप है। ४. रसत्याग-दही, दूध आदि रसके पदार्थोंका त्याग | ५. कायक्लेश-विभिन्न आसन या लोचादिसे जो शरीरको कष्ट हो वह । ६ संलीनता-अंगोपांग फैला कर न सोना, समेटकर सोना; इन्द्रिय, कषाय, व मन, वचन तथा काया-तीनों योगोंको वशमें रखना; तथा स्त्री, पशु नपुंसक रहित स्थानमें रहना । आभ्यन्तर तपके मेद इस प्रकार हैं "प्रायश्चित्तध्याने, वैयावृत्यविनयावथोत्सर्गः। स्वाध्याय इति तपः, षट्प्रकारमाभ्यन्तर भवति" ॥३२॥ -१ प्रायश्चित्त, २ ध्यान, ३ वैयावञ्च, ४ विनय, ५ कायोसर्ग और स्वाध्याय-यह छ प्रकारका आभ्यन्तर तप कहलाता है। बाह्य तपका हेतु शरीर संयम है तथा आभ्यन्तर तपका मनको वशमें करना; शरीर व मन आत्माके नौकर समान हैं पर स्वामीकी अनुपस्थितिमें जैसे नौकर मनचाहा करते हैं वैसे ही इनके बारेमें भी है। अतः आत्मा अपने इन नौकरोको अपने वशमें करे ताकि Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० : धर्मबिन्दु उसकी उन्नति व प्रगति हो सके । पर शरीरको नष्ट करना इसका हेतु नहीं है । शरीर धर्मका प्रथम साधन है । " इच्छा रोधन तप भलो " पर आत्मशक्ति से मनको वश करो। इसके अभ्यास व वैराग्य - दो रास्ते हैं । मनको स्थिर करनेका अभ्यास करते रहना चाहिये। विनाशी वस्तुओ पर वैराग्य हो तभी मन उधर नहीं दौडेगा । सत्य व असत्य तथा नित्य व अनित्य वस्तु के बीच विवेक या भेद करना सीखे । ५. वीर्याचार - बाहर तथा भीतर के सारे सामर्थ्य से अपने सामर्थ्यको छिपाये बिना उपरोक्त ज्ञान दर्शनादिके ३६ आचारोंको यथाशक्ति अगीकार करनेका पराक्रम करे और अंगीकार करने के बाद शक्ति अनुसार उसका पालन करे वह वीर्याचार है । आत्माके प्रत्येक प्रदेश पर अनत कर्म वर्गणाएं हैं पर आत्माका 嚯 एक ही प्रदेश अनंत कर्म वर्गणाओको एक क्षणमे नाश करनेको समर्थ हैं | आत्मविश्वासका किसी भी संयोग में त्याग नहीं करना । तथा - निरीहशक्य पालनेति ॥१२॥ ( ७० ) मूलार्थ - और इच्छारहित होकर यथाशक्ति पालन करे || विवेचन - निरीहेण - ऐहिक व पारलौकिक फलकी इच्छा रहित या राजा, देवता आदि वस्तुओकी धार्मिक क्रियाके फलस्वरूप प्राप्तिकी इच्छाका त्याग । शक्यस्य - ज्ञान आदि पांचो आचारका 'शास्त्रमें ऐसा कहा है ' ऐसी बुद्धि रखकर यथाशक्ति पालन करना । पुरुष धर्मक्रिया करे, उसमें दो वस्तुएं बताई है - एक तो फलकी Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : १०२ इच्छा न रख कर, दूसरे यथाशक्ति । फल दो प्रकारके हैं--लौकिक व पारलौकिक, इनकी इच्छा किये बिना धर्मकार्य करना उत्तम है। इच्छा या वासना रखनेसे कर्मबन्धन होता है, उसे जन्म मरण मुक्ति नहीं मिलती। दूसरे यथाशक्ति धर्मक्रिया करें। शक्तिसे अधिक कार्य करनेसे पीडा, आध्याने, तथा उत्साह भंग होता है। उत्तरो. तर धर्मक्रियामें शक्ति अनुसार बढना ही ठीक है। तथा-अशक्ये भावप्रतिपत्तिरिति ॥१३॥ '७१) मूलार्थ-और अशक्य होने पर उस ओर भावना रखे । विवेचन-अशक्ये-धैर्य, शरीररचना (बंधारण) काल तथा बलमेंसे एक या सबकी शक्ति कम होने पर ज्ञानाचार आदि विशेष धर्मका पालन न किया जा सके तो भावप्रतिपत्तिः-प्रवृत्ति विना भी भाव या अंतःकरणसे अंगीकार करना । धैर्य, संहनन (गरीररचना) काल व बल किसी भी कभीसे ज्ञानाचार आदि आचारोंका पालन न कर सके तो उस ओर शुम भावना रखे; भावनासे अंगीकार करे। विचार व भावना उच्च रखे पर उसमें प्रवृत्ति न करे, कारण कि योग्य समय तथा शक्ति बिना व्यर्थका उत्साह तत्त्वतः आर्तध्यान है । क्योंकि "अकालौत्सुक्यस्य तत्त्वत आर्तध्यानत्वादिति ॥ तथा-पालनोपायोपदेश इति ॥१४॥ (७२) मूलार्थ-ज्ञानादि आचारके पालनका उपदेश करे। विवेचन-ज्ञानादि आचारका वर्णन किया जा चुका है। उनको Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ : धर्मबिन्दु पालन करनेका उपाय बताना चाहिये । जैसे · उसे अपनेसे अधिक गुणी या समान गुणवालोके साथ या उनके बीच निवास करना चाहिये ।' अन्योको क्रिया प्रवृत्त देख कर उसकी भी इच्छा उस ओर प्रवृत्ति करनेकी होगी। " अपने जिस गुणस्थानक पर हों उसके योग्य क्रियाका पालन करना तथा उसका स्मरण करना" ऐसा उपाय बताना चाहिये । इससे आगे बढ़ सकता है। अधिकारीको पात्र, शक्ति व योग्यता देखकर उपदेश देना चाहिये। . तथा-फलमरूपणेति ॥१५॥ (७३) मूलार्थ-और फलकी प्ररूपणा करे ।। विवेचन-इस आचारके सम्यक् प्रकारसे पालन करनेका क्या सुंदर फल होता है उसका वर्णन करना चाहिये। साधारण मनुष्य फल लालसा बिना कोई कार्य नहीं करता। इसके फल इस प्रकार बताये जाय । इस संसारमें उपद्रवोका नाश होता है। हृदयमें उच्च भावकी उत्पत्ति होना, ऐश्वर्यकी वृद्धि तथा लोकप्रियता-यह प्रत्यक्ष फल है। अन्य जगह परलोकमे भी सुगतिको प्राप्त होकर उत्तम स्थान पर जन्म ग्रहण होता है। देवऋद्धि प्राप्त होती है तथा मानवयोनिमे उत्तम कुलमे जन्म लेता है तथा क्रमशः परंपरासे निर्वाणको प्राप्त होता है । इस प्रकारके फलको बतानेसे बाल जीव धर्मकी ओर अग्रसर होता है विशेषत: देवद्धिवर्णनमिति ॥१६।। (७४) मूलार्थ-देवऋद्धिका वर्णन करे। विवेचन-देवताओंकी ऋद्धि जिसमें मुख्यतः वैमानिक देवोंकी Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : १०३ समृद्धि, उनका रूप, लक्षण आदिका इस प्रकार वर्णन करे। उनका उत्तम रूप, संपत्ति, सुंदर स्थिति, प्रभाव, उत्तम सुख व उसके साधन, कांति, लेश्या, शुद्ध इन्द्रिये, अवधिज्ञान, भोगके उत्तमोत्तम साधन और दिव्य विमान आदि उनकी ऋद्धिका वर्णन (जो आगे कहा जायगा) श्रोताको वतावे ।। ____ सत्कार्य, शुभ वचन, प्राणीप्रेम, इन्द्रिय तथा मनका निग्रह भादि गुणों पर अनुराग तथा उनकी प्राप्ति व पालनसे ऐसी ऋद्धि मिलती है। देवऋद्धि भी मोक्ष सुखके सामने दुखप्रद ही है पर बाल जीवोंको देवऋद्धि बताना चाहिये ताकि वे उस ओर बढ़ें। तथा-सुकुलागमनोक्तिरिति ।।१७।। (७२) मूलार्थ-और उत्तम कुलमें जन्म होनेका कहे । विवेचन-देवस्थानसे च्युत होकर वह फिरसे मनुष्य योनिमें आता है और तब वह अच्छे देशमें तथा निष्कलंक, सदाचारी व प्रसिद्ध ऐसे उत्तम कुलमें जन्म लेता है। साथ ही वह जन्म निर्दोष व अनेक मनोरथों की पूर्ति करनेवाला होता है; इत्यादि कहे और यह सब मनुष्य जन्ममें किये हुए सुकृतका ही फल है। तथा-कल्याणपरम्पराख्यानमिति ॥१८॥ (७६) मूलार्थ-और उसे कल्याण परंपरा प्राप्त होती है ऐसा कहे। - विवेचन-उस उत्तम कुलमें आकर उसे कल्याण परंपरा प्राप्त होती है अर्थात् सुंदर रूप, अच्छे लक्षण, निरोगी काया, शक्तिवाली Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ : धर्मबन्दु इन्द्रियां मिलती है । वह जनप्रिय और सम्मान प्राप्त करनेवाला होता | यह सब फल धर्म सेवनसे मिलते है - यह सब कहें ( इनका वर्णन सातवे अध्याय में करेगे) । 1 तथा - असदाचारगर्हेति ||१९|| (७७) मूलार्थ - और असत् आचारसे घृणा करें। विवेचन - जो आचार असत्, निन्द्य व अशुभ है वह असदाचार है । वह दस प्रकारका हैं Nation " हिंसानृतादयः पञ्च तत्त्वाश्रद्धानमेव च । क्रोधादयश्च चत्वारः इति पापस्य हेतवः " ॥६३॥ - हिंसा, मृषा, चोरी, मैथुन व परिग्रह- ये पांच तत्त्वमें अश्रद्धा, तथा क्रोध, मान, माया व लोभ ( ये चार कषाय ) ये कुल दस पापके हेतु (कारण) है । इन पापके कारणोंकी निंदा करे । इसमे सबसे बुरा तत्त्वमें अश्रद्धा या मिथ्यात्व है । सत्य तथा धर्मको असत्य व अधर्म मानना और अधर्म व असत्यको धर्म और सत्य मानना ही मिध्यात्व है । इसका त्याग उचित है | कहा है कि " न मिथ्यात्वसमः शत्रुः, न मिथ्यात्वसमं विषम् । न मिथ्यात्वंसमी रोगो, नं मिथ्यात्वंसमं तमः ॥६४॥ "" -- मिथ्यात्व के समान न शत्रु हैं, न विष है, न रोग है, न अंधकार। याने किसी भी शत्रु, विष, रोग व अंधकार से मिथ्यात्व ज्यादा बुरा है 1 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्य देशना विधि : १०५ "द्विपद्विपतमोरोगkःसमेकत्र टीयते । मिथ्यात्वेन दुरन्तेन जन्तोर्जन्मनि जन्मनि" ॥६५॥ "घरं ज्वालाऽऽकुले शितो, देहिनाऽऽत्मा विनश्यते । न तु मिथ्यात्वसंयुक्त, जीवितव्य कदाचन" ॥६६॥ -शत्रु, विष, अंधकार व रोग मनुप्यको एक समय या एक ही जन्ममें दुख देते हैं पर दुरंत मिथ्यात्व तो जन्म जन्मान्तरमें भी दुःख देना है। -धधकते हुए ज्वालाकुंडमें गिर कर मनुष्यको अपने देहको जलाना उत्तम है, पर मिथ्यात्वसहित जीवन कदापि न रखे । __ इस प्रकार तत्वमें अश्रद्धा! मिथ्यात्व )की निंदा करे और हिंसादि तथा चार कपाय इन नौ पाप कारणोकी भी. जो अनिष्ट परिणामवाले हैं, निंदा करे। तथा-तत्स्वरूपकथनमिति ॥२०|| ७८) मूलार्थ-और अंसदाचारका स्वरूप बताना चाहिये । विवेचन-हिंसा आदि पाप कारगोंका, अंसद् आचरणका स्वरूप वताना आवश्यक है। उदाहरणार्थ-१ प्रमाढयोगसे प्राणीका नाश, उसका देश प्राणोसे वियोग- हिंसा है । २ असत्ये कहना, सत्य न कहना मृपा या अनृतं है। ई अदत्त-बिना दिया हुआ लेना स्तेय या चोरी है। ४ मैथुन या स्त्रीमोग तथा कामभोगको अब्रह्म कहते हैं। ५ कोई मी वस्तु मेरी है ऐसी उस पर मूर्छा या मोह रखनेको परिग्रह कहते हैं। 'तत्त्वार्थ सूत्र में इस प्रकार कहा है Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ : धर्मवन्दु "प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥ ७-८ ॥ " असदमिधानमनृतम् ॥ ७-९॥ " अदत्तादान स्तेयम् ॥ ७-१०॥ " मैथुनमब्रह्म" ॥ ७-११॥ "सूच्छा परिग्रहः ॥ ७-१२ ॥ इस प्रकार स्वरूप बतावें। तथा स्वयं परिहार इति ॥२१॥ (७९) - मूलार्थ-स्वयं (उपदेशक) असदाचारका त्याग करे । विवेचन-स्वय उपदेशक असदाचार न करे। इनका त्याग करे । यदि स्वयं असदाचार आचरण करता हुआ धर्मोपदेश करे तो उसका धर्मोपदेश वेशधारी नटके वैराग्यकी तरह अग्राह्य होता है। वह साध्यकी सिद्धि करानेवाला, धर्मकी प्राप्ति करानेवाला नहीं होता। आचरण व उदाहरणकी असर उपदेशसे ज्यादा होती है । तथा ऋजुभावासेवनमिति ॥२२।। (८०) मूलार्थ-और वह सरलभाव रखे ॥ विवेचन-ऋजुभाव-कुटिलताका त्याग, सरलताकी भावना या सरल स्वभाव, आसेवनम्-आचरण । उपदेशक कुटिलताका (वृथामिमान आदि ) का त्याग करके सरलभाव रखे । इससे शिष्य पर यह भाव प्रगट होगा कि वह प्रतारणा ( ठगाई ) करनेवाला नहीं है। ऐसा होनेसे शिष्य उससे दूर नहीं होता और उसके उपदेशके समीप आता है। कुटिलतासे Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि . १०७ बुरा असर होकर वह ( शिष्य ) उपदेश तथा उपदेशक दोनोसे भागता है। तथा-अपायहेतुत्वदेशनेति ॥२३।। (८१) मूलार्थ-और अनर्थ (दुःख के कारणोंको बतावे । विवेचन-अपायानाम्-उन अनर्थो का, जो इस लोक तथा परलोकमें होना संभव है और जो जाने जा सकते हैं। हेतुत्वम्दुःखका कारण (असदाचार), उसके हेतु या कारणोका वर्णन करे। जैसे मनुष्य जब अपने स्वरूपको भूल कर प्रमाद दशामे पड जाते हैं, तो यह भूल जाते हैं कि अन्य जीव भी उसके जैसे ही हैं, तब वह अनेक असदाचारोंका सेवन करता है, अतः प्रमाद ही दुर्गतिका मूल है। जैसे "यन प्रयान्ति पुरुषाः, स्वर्ग यच प्रयान्ति विनिपातम् । तत्र निमित्तमनार्यः प्रमाद इति निश्चितमिदं मे" ॥६७॥ -पुरुष स्वर्ग नहीं पाते तथा अशुभ गतिमें उत्पन्न होते हैं या पतित होते हैं। मेरा निश्चित मत है कि उसका निमित्त कारण अनार्य प्रमाद ही है। प्रमाद ही असदाचार है, उससे ही अनर्थ परंपरा पैदा होती है तथा नरकके दुःख भोगने पड़ते हैं। नारकदुःखोपवर्णनमिति ॥२४॥ (८२) मूलार्थ-नारकीके दुःखोंका वर्णन करना चाहिये । विवेचन-नरकमें उत्पन्न नारक जीवोंके दुःखका वर्णन करे। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ : धर्मविन्दु www - साथ ही निचके दुखोका वर्णन करे, इससे मनुष्य इन दुःखोंकें - कारण असदाचारका त्याग करें । जैसे ||३८|| 'तीक्ष्णैरसिभिर्दीप्ति, कुन्तैर्विपमैः परश्वधैश्वकैः । परशु त्रिशूल तोमर मुद्गरवासीमुपण्डीभि: “ संभिन्नतालुशिरसरिछन्नभुजाश्छिन्नकर्णनासौष्टाः । भिन्नहृदयोदरात्रा, भिन्नाक्षिपुटाः सुदुःखार्त्ताः ॥६९॥ " निपतन्त उत्पतन्तो, विचेष्टमाना महीतले दीनाः । नेक्षन्ते त्रातारं नरयिकाः कर्मपटलान्धाः ॥७०॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : १०९ पर गिरते हैं, उछलते हैं तथा तडफडाते है । तथा कर्मपटलसे अंघ बने हुए वे प्राणी अपने बाता (रक्षक)को नहीं देख सकते ॥ क्षुधा, तृपा, बर्फ, उष्णता और भयसे पीडित, पराधीनताके व्यसनसे आतुर ऐसे दुःखी तियेच जीवोको खुखका प्रसंग तो तुच्छ और कहने मात्र है परन्तु वस्तुत. उनको दु ख ही दुःख हैं। मनुष्य भवमे भी प्राणी दारिद्रय, रोग, दुर्भाग्य, शोक, मूर्खता तथा जाति, कुल और शरीरके अवयवोंकी न्यूनताको प्राप्त होते है। -देवताओंको भी यद्यपि अनेक सुख हैं पर उसका अंत आ जाता है अतः देवोंको अपने भवमें च्यवन ( दूसरमें जाना ) तथा वियोगका दुख, क्रोध, ईर्ष्या, मद और मदनसे उनको परिताप (कष्ट ) उत्पन्न होता है। हे आर्यों! विचार कर कहो कि देवता ओंको भी कौनसा कहनेलायक सुख है। ___ यद्यपि अपेक्षासे सुख है तथापि वह भी अंशत ही है, पूर्णतः नहीं । तथा-दुष्कुलजन्मप्रशस्तिरिति ॥२५।। (८३) मूलार्थ-और इससे बुरे व हलके कुलमें जन्म होता है वह बतावे। विवेचन-दुष्कुलेषु-शक, यवन, शबर व बर्वर तथा उससे संबंधित कुलोमें, प्रशस्ति:-वताना । __ इस प्रकारके, असदाचार, बुरे आचरण करनेवालोंका जन्म यवन आदि कुलोंमें होता है। इस वातको भली भाति समझा देना । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० : धर्मविन्दु चाहिये। उससे और भी उनके दुराचार सीखते हैं तथा उससे दुःख पर दुःख आता है। उन कुलोंमें उत्पन्न प्राणियोंसे क्या कहे सो कहते हैं दुःखपरम्परा निवेदनमिति ॥२६॥ (८४) मूलाथ-उनको दुःखकी परंपरा समझाना। विवेचन-उपदेशक उन बुरे कुलोंमें उत्पन्न व्यक्तियोको, दुःखकी जो परंपरा है, एक दुःखके कारण दूसरा, दुराचारसे दुख, उससे फिर दुराचार और तब अत्यंत दुःख-ऐसे इस प्रवाह 'जनित दुःखके बारेमें समझावे । जैसे-असदाचारवाले पुरुष उससे परवश हो जाते हैं और उससे बुरे कुलमें उत्पन्न होते हैं, उसमें भी उन प्राणियोको हलका तथा बुरा वर्ण, रस, गंध व स्पर्शवाले शरीरकी प्राप्ति होती है। उनको इस दुःखका निवारण करनेवाला धर्म स्वममें भी नहीं मिलता व सबोध दुर्लभ होता है। अत. जिससे हिंसा, असत्य, तथा स्तेय आदि अशुद्ध कर्ममें प्रवृत्त होनेसे नरकादिक फल देनेवाले पाप कर्मकी वृद्धि होती है। उसे उससे परास्त हुए उन प्राणियोंको इहलोक तथा परलोकमें 'अनुबन्धविच्छेदरहितदुःखपरम्परा' प्राप्त होती है अर्थात् जन्म, जन्मान्तरमें पाप पर पाप बंधते जाते हैं। उन पाप कर्मोंकी उत्पत्तिमें कोई विच्छेद या व्याघात नहीं पड़ता। इस निरंतर पाप बन्धसे निरंतर दुःख आता है और यह दुःख परंपरा चलती रहती है, सुख कहीं भी प्रगट नहीं होता। इस प्रकार असदाचार दुःखपरंपरा लानेवाला है। कहा भी है कि Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि:१११ "तः कर्मभिः स जीवो, विवशः संसारचक्रमुपयाति। द्रव्यक्षेत्राद्धाभावभिन्नामावर्तते बहुशः" ॥७३॥ -कर्मके वश हुआ जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावसे भिन्न भिन्न भेद पाकर इस संसारचक्रमें बार बार परिभ्रमण करता है अर्थात् द्रव्य पुद्गल परावर्तन, क्षेत्र पुद्गल परावर्तन, काल पुद्गल परावर्तन तथा भाव पुद्गल परावर्तन बहुत बार करता रहता है। (पुद्गल परावर्तनका लक्षण 'प्रवचनसारोद्धार में लिखा है)। ___अत जिस असदाचारसे यह सब कर्म बन्धन होता है उसे त्याग करनेकी प्रवृत्ति करना चाहिये । तथा-उपायतो मोहनिन्देति ॥२७॥ (८५) मूलार्थ-और उपायसे मोहकी निन्दा करे। विवेचन-उपायतः-उपायसे, अनर्थ प्रधान मूढ पुरुषोंके लक्षणोंको विस्तारपूर्वक बताना । मूढताकी निन्दा करे-उसे अनादर करने योग्य बताना। __ मोहकी-मूर्खता या अज्ञानकी, उपायसे-मूखोंके लक्षणोंको विस्तारसे बता कर निन्दा करे। उसे अनादरणीय बताना चाहिये। "अमित्रं कुरुते मित्रं, मित्रं द्वेष्टि हिनस्ति च। कर्म चारभते दुधं तमाहुर्मूढचेतसम्" ॥४॥ -जो अमित्र या शत्रुको मित्र माने, मित्रका द्वेष या हनन करे, तथा दुष्ट कर्मका प्रारंभ करे उसे मूर्ख या अज्ञानी कहते हैं। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ : धर्मविन्दु " अर्थवन्त्युपपन्नानि, वाक्यानि गुणवन्ति च । नैव मूढो विजानातिः, मुसूर्युरिव भेपजम्" ॥७५॥ "संप्राप्तः पण्डितः कृच्छं, प्रक्षया प्रतिबुध्यते । मूढस्तु कृच्छ्रमासाद्य, शिलेवाम्भसि मजति" ॥७६॥ -जैसे मरणासन्न व्यक्ति औषध लेना नहीं चाहता, वैसे ही मूढ पुरुष उसके कहे हुए सार्थक व गुणवाले वाक्योको ग्रहण नहीं करता । अथवा जैस मरणासन्न पुरुषको औषधिका असर नहीं होता वैसे मूढको सदुपदेशका कोई असर नहीं होता। पडित जन कष्ट पाकर भी बुद्धिसे प्रतिबोध पा जाते है अर्थात् शिक्षा देने पर उसे ग्रहण कर देता है पर मूर्ख कष्ट आ जाने पर जलप्रवाहमे शिलाकी तरह डूब जाता है, अत. नीच कर्म करनेको प्रेरित होता है। पडित जन सुख-दुःखके क्रमको समझकर मनको, समाधानपूर्वक रख लेते हैं। मूढ कष्टस घबरा जाते है। मोहका अलाभ या हानि बताकर उसको त्याग करनेका उपदेश देना चाहिये | मोहका दूसरा अर्थ ससारके पदार्थों प्रति राग है। आत्मा व द्रव्यकी भिन्नता मोहसे छिप जाती है। आत्मा द्रव्यको अपना मानता है और अंतत. दुःख पाता है और संसार भ्रमण करना पडता है, अतः मोहका त्याग करना आवश्यक है। ___ या दूसरा उपाय-मोहका कष्टदायक फल बताकर मोहकी निंदा करे। जैसे " जन्ममृत्युजरान्याधिरोगशोकाद्युपद्रुतम्। वीक्षमाणा अपि भवं, नोद्विजन्त्यपि मोहतः" ॥७॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : ११३ "धर्मबीजं परं प्राप्य, मानुष्यं कर्मभूमियु। न सत्कर्मकृपावस्य, प्रयतन्तेऽल्पमेधसः" ॥७८|| "विडिशामिषवत् तुच्छे, कुसुखे दारुणोदये। सक्कास्त्यजन्ति सच्चेष्टां, धिगहो ! दारुणं तम." ॥७९॥ -~~-जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, रोग, शोक आदि उपद्रवोंसे पीडित इस संसारको देख कर भी उसमें रहनेवाले मनुष्य मोहके कारण इससे उद्वेग या वैराग्य नहीं पाते ॥७७॥ -~-इस कर्मभूमिमें दुर्लभ मनुष्य भवरूपी उत्कृष्ट धर्मवीज प्राप्त करके भी अल्प बुद्धिवाले उससे सल्कर्मरूपी खेती करनेका प्रयल नहीं करते ७८॥ जो मनुष्य जन्मका सदुपयोग नहीं करते वे चिंतामणि रत्नसे कौआ उडाने के समान इसे खोते है। अतः सत्कर्म में प्रवृत्ति करके मनुष्य जन्म सफल करना चाहिये ॥७९॥ ___ गलगोरि ( कांटेमें मांस ) की तरह तुच्छ तथा भयंकर परिणामवाले और सुखका आभास मात्र विषय सुखमें आसक्तिवाले मनुष्य जिस कारण सक्रियाका त्याग करते हैं उस भयंकर मोहरूप अंधकारको धिक्कार है। तथा-सज्ज्ञानप्रशंसनमिति ॥ २८ ॥ (८६) मूलार्थ-और सद्ज्ञानकी प्रशंसा करना चाहिये ॥८॥ विवेचन-सत् या सम्यग् ज्ञानवाले पंडित - जनकी और विवेचना सहित ज्ञानकी प्रशंसा करना चाहिये। इससे श्रोताओंको ज्ञान-तथा ज्ञानी पर पूज्यभाव हो व ज्ञान प्राप्तिकी इच्छा हो । जैसे--- Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ : धर्मविन्दु " तन्नेत्रिभिरीक्षते न गिरिशो नो पद्मजन्माष्टभिः, स्कन्दो द्वादशभिर्न वा न मघवा चक्षुः सहस्त्रेण च । संभूयापि जगत्नयस्य नयनस्तद्वस्तु नो वीक्ष्यते, प्रत्याहृत्य दृशः समाहितधियः पश्यन्ति यत् पण्डिताः॥८॥ --" समाधिवाली बुद्धिको धारण करनेवाले पंडित अंतरदृष्टिसे जो वस्तु देख सकते हैं वह शंकर तीन नेत्रोंसे, ब्रह्मा आठसे, कार्तिकेय बारहसे, तथा इंद्र हजार चक्षुसे भी नहीं देख सकता । इतना ही नहीं तीन जगत्के नेत्र भी एकत्र होकर उस वस्तुको नहीं देख सकते।" जो ज्ञानी हैं वह क्षणभरमें ज्ञानाग्निसे कर्मदलको बिखेर देता है । आत्मप्रदीप स्वयमेव प्रकाशित होता है व ऐसा ज्ञानी सर्वत्र पूज्य है । और भी कहा है"नाप्राप्यमभिवाञ्छन्ति, नेटं नेच्छन्ति शोचितुम् । आपत्सु च न मुह्यन्ति, नराः पण्डितवुद्धयः ।।८१॥ "न हृष्यत्यात्मनो माने, नापमाने च रुष्यति । गाह्रो हृद् इवाक्षोभ्यो, यः स पण्डित उच्यते" ॥८२॥ -पंडित जन अप्राप्य वस्तुकी इच्छा नहीं करते, नष्ट वस्तुका खेद नहीं करते, और आपत्तिमें घबराते नहीं ॥८॥ अपना मान होनेसे हर्षित नहीं होता, अपमानसे रोष नहीं करता अर्थात् जो गंगानदीकी तरह क्षोभ रहित है वहीं पंडित है। मानापमानमें हर्प शोक रहित हृदयको स्थिर रखना बुद्धिमानी है । ज्ञानीकी परीक्षासे ज्ञानकी परीक्षा स्वतः हो जाती है । तथा-पुरुषकारसत्कथेति ॥२९॥ (८७) मूलार्थ-और पुरुषार्थ (उद्योग) की प्रशंसा करे ॥२९॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : ११५ विवेचन - पुरुषकारस्य - उत्साहरूप पुरुषार्थ या उद्योग | सत्कथा - महात्म्य - प्रशंसा । उत्साह रूप पुरुषार्थ के माहात्म्यकी प्रशंसा करे। जैसे" दुर्गा तावदिय समुद्रपरिखा तावन्निरालम्बनं, व्योमन्ननु तावदेव विषमः पातालयात्रागमः । दत्त्वा मूर्द्धनि पादमुद्यमभिदो देवस्य कीर्तिप्रियः, वीर्यादिह न साहसतुलामारोप्यते जीवितम् ॥ ८३ ॥ तथा "विहाय पौरुषं कर्म, यो देवमनुवर्त्तते । तद्धि शाम्यति तं प्राप्य, क्लीवपतिमिवाङ्गना ॥८४॥ 1 - जब तक कीर्तिप्रिय वीरोने उद्यम न करनेवाले दैव( भाग्य ) के मस्तक पर पैर रख कर अपने जीवनको साहस( हिंमत ) की तुला पर चढाया नहीं तभी तक यह समुद्रवेष्टित पृथ्वी उनके लिये दुर्गम है, तब तक ही आकाश निरालम्ब हैं और तभी तक पाताल - यात्रा विषम है । वह आकाश, पाताल व समुद्र सब जगह जा सकता है | और जो पुरुषार्थ छोड़कर दैवका अनुसरण करता है वह जैसे स्त्री नपुसक पति पाकर निष्फल होती है उसी तरह उसका दैव निष्फल जाता है ॥ कार्य मनोरथसे नहीं, पुरुषार्थसे सिद्ध होते हैं । उनके बिना दैव कुछ नहीं कर सकता । तथा - वीर्यद्धिवर्णनमिति ॥ ३० ॥ ( ८८ ) मूलार्थ - और वीर्य की ऋद्धिका वर्णन करे ! ||३०|| Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६: धर्मविन्दु विवेचन-वीर्यके, शक्तिके-उत्कृष्ट रूपका जो शुद्ध आचारके बलसे प्राप्त होता है तथा अततः बढ कर तीर्थकरके वीर्य तक पहुंचता है उसका वर्णन करे। अनुचित व्यय नहीं करनेवालेकी वीर्यवृद्धि होती है। विचार शुद्धिसे विचारवल, सदाचारसे आत्मवीर्य तथा शरीर बलकी वृद्धि होती है । उसका वर्णन ऐसे करे जैसे " मेरुं दण्डं धरां छन, यत् केचित् कर्तुमीशते । तत्सदाचारकल्पगुफलमाहुमहर्पयः" ॥८५॥ -महर्षि कहते हैं कि जो मेरुको दण्ड तथा धरा (पृथ्वी, को छत्र बनानेका सामर्थ्य पाते है वह सब सदाचाररूप कल्पवृक्षका फल है, अत सदाचार सेवन करे। तथा-परिणते गम्भीरदेशनायोग इति ॥३।। (८९) मूलार्थ-और (उपदेश )से शुद्ध परिणाम होने पर गंभीर देशना देना चाहिये ॥३१॥ विवेचन-परिणते-आत्मीय भाव होना या आत्मासे एक रस होना, गम्भीर- उपरोक्त देशनासे अधिक व अत्यन्त सूक्ष्म जैसे भामा, उसका अस्तित्व, कर्मबन्ध, मोक्ष आदिकी। जब श्रोता उपरोक्त उपदेशका यथार्थ ज्ञान व श्रद्धाकी प्राप्ति करके उस रीतिसे अनुष्ठान या आचरण करने लगे और यह उपदेशका ज्ञान व श्रद्धा उसकी आत्माके साथ एक रस हो जावे तब अधिक गंभीर उपदेशके लायक हो जाता है। गंभीर देशना या पूर्वोक्त उपदेशसे अधिक सूक्ष्म अर्थात् आत्माका अस्तित्व, उसका Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्य देशना विधि : ११७ बन्ध व मोक्ष आदिका वर्णन हो। इसका अर्थ यह है कि पहले सामान्य गुण और बादमें विशेष गुणकी प्रशंसा की जावे वह उसके हृदयंगम हो कर उसके अनुसार आचरण करे तब अधिक सूक्ष्म देशना देवे । वोधके असरका फल आचरण होता है तमी सूक्ष्म देशना देवे । जैसे एक बारका खाना पाचन होने पर ही खानेसे शरीर सुखी रहता है, वैसे ही अनेक प्रकारसे दिया हुआ सामान्य गुणका उपदेश, आवरण करनेवाले कर्मोका ह्रास होकर मंगांगी भावरूप परिणामको पावे तभी वह देशनाके योग्य होता है। इस गंभीर देशनाका योग श्रुत और धर्मके कथन बिना नहीं होता । कहते हैं श्रुतधर्मकथनमिति ॥३२॥ १९०) मूलार्थ- श्रुतधर्मका कथन करना ॥३२॥ विवेचन-श्रुतधर्मस्य-सिद्धांतका, कथनम्-उपदेश । सिद्धांत व ( श्रुतधर्म ) का उपदेश करे। उसका लक्षणवाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथन है। वे इस प्रकार हैं-गुरुका प्रथम उपदेश वाचना है। संदेइमें विनयसे गुरुको पूछना पृच्छना है। पूछ लेने पर भूल न हो अतः फिर सम्हालनेको परावर्तना कहते हैं। सूत्रकी तरह अर्थका चिंतन अनुप्रेक्षा और अभ्यास किये हुए सूत्रका दूसरेको उपदेश देना धर्मकथा कहलाता है। इन लक्षणों युक्त सिद्धीतका-श्रुतधर्मका जो सर्व मंगल समूहरूप कल्पवृक्षके विशाल क्यारी- समान है, कथन करे। जैसे-- Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ : धर्मविन्दु मस्त पवेह, ये श्रुतज्ञानचक्षुपा । सम्यक् सदैव पश्यन्ति भावान् हेयेतरान् नराः " ॥८६॥ - जो पुरुष इस जगतमें हेय तथा इतर ( ग्राम व अग्राह्य ) पदार्थों को श्रुतज्ञान रूप चक्षुसे सम्यकू प्रकारसे देखते हैं वे ही वस्तुत नेत्र वाले हैं ॥८६॥ " यह श्रुत ( सिद्धात ) प्रत्येक दर्शनमे भिन्न भिन्न प्रकारसे प्रतिपादित है तो किस दर्शनका कौनसा श्रुत अंगीकार करने योग्य है उसके उत्तर में कहते है 2 बहुत्वात् परीक्षावतार इति ||३३|| (९१) मूलार्थ - श्रुतधर्म बहुत है अतः उत्तमकी परीक्षा में उतरे । विवेचन - श्रुतधर्म ( सिद्धात ) बहुतसे है उनमे श्रुतधर्म शब्द सामान्य है अतः कौनसा सत्य है तथा कौनसा मिथ्या है यह पता नहीं लगता अतः पुरुषकी बुद्धि चकित हो जाती है | अतः जैसे स्वर्णकी परीक्षा कप, छेद व तापसे होती है वैसे ही तीन प्रकारसे श्रुतकी भी शुद्धि करके परीक्षा करनी चाहिये । कहा है कि " तं शब्दमात्रेण वदन्ति धर्म, विश्वेऽपि लोका न विचारयन्ति । स शब्दसाम्येऽपि विचित्रभेदैः, विभिद्यते क्षीरमिवार्चनीयः " ॥८७॥ " लक्ष्मीं विधातुं सकलां समर्थ, सुदुर्लभं विश्वजनीनमेनम् । परीक्ष्य गृहन्ति विचारदक्षाः, सुवर्णवद् वञ्चनभीतचि ताः " ॥८८॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : ११९ - इस विश्व में शब्द मात्रसे सबको धर्म कहते हैं पर कौनसा सत्य है ऐसा विचार नहीं करते । धर्म शब्द समान होने पर भी वे विचित्र भेदोंके कारण भिन्न भिन्न है अतः शुद्ध दूधकी तरह परीक्षा करके मान्य करना चाहिये || जैसे ठगे जानेके भयसे बुद्धिमान व्यक्ति स्वर्णकी परीक्षा करके उसे खरीदते है वैसे ही सर्व धन देनेमे समर्थ, अति दुर्लभ तथा जगत हितकारी श्रुतधर्मको भी परीक्षा करके ग्रहण करते हैं । उस परीक्षाका उपाय कहते हैं कषादिप्ररूपणेति ॥ ३४ ॥ (९२) मूलार्थ - कषादिकी प्ररूपणा करना चाहिये ||३४|| विवेचन - केवल स्वर्णकी समानतास अज्ञ लोगोमें विचार बिना शुद्ध या अशुद्ध स्वर्ण पर मुग्धता से प्रवृत्ति होती है, पर विचक्षण पुरुष कष, छेद और ताप तीनों प्रकारसे उसकी परीक्षा शरू करते हैं, वैसे ही यहा श्रुतधर्ममें भी परीक्षा करनेके योग्य कष आदिकी प्ररूपणा करना । वह कष आदि कहते हैं विधिप्रतिषेधौ कष इति ॥ ३५ ॥ (९३) मूलार्थ - विधि और निषेध यह कसौटी है ||३५|| विवेचन - विधि - अविरुद्ध अर्थात् अनुकूल कर्त्तव्य बताने वाला वाक्य विधि वाक्य कहलाता है । जैसे तप, ध्यान आदि करना । प्रतिषेध - किसी कामका निषेध अर्थात् वह नहीं करना, हिंसा, असत्य, चोरी आदि नहीं करना, कष- यह विधि तथा निषेध कष Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० धर्मविन्दु है- जैसे स्वर्ण परीक्षामें कसौटी पर रेखा खींचते हैं वैसे विधिनिषेध धर्मकी कसौटी है। । स्वर्ग और केवलज्ञान चाहनेवाला तप, ध्यान तथा पंच समिति, तीन गुप्ति सहित शुद्ध क्रिया करे, साथ ही असत्य, चोरी आदि न करे । ये विधि निषेध धर्मकी कसौटी हैं। जिस धर्ममें कहे हुए विधि व निषेध जगह जगह पुष्कल मिलते है वह धर्म कषशुद्ध है, परंतु अन्यधर्मस्थिताः सत्त्वाः, असुरा इव विष्णुना। उच्छेदनीयास्तेषां हि, वधे दोषो न विद्यते" ॥८९॥ ----" जैसे विष्णुने असुरोका नाश किया, वैसे ही अन्यधर्मीको मार देना चाहिये । उन प्राणियोंका उच्छेद या वध करने में कोई दोष नहीं " ऐसे वाक्यवाला धर्म कसौटी शुद्ध नहीं है। - छेदका स्वरूप कहते है-- तत्सम्भवपालनाचेष्टोक्तिश्छेद इति ॥३६॥ (९४) मूलार्थ-उनकी उत्पत्ति तथा पालन करनेकी चेष्टाको कहना छेद है। विवेचन-तयो:-विधि-निषेधका, सम्भव-उत्पत्ति, पालनाउनका पालन व रक्षा, चेष्टा-भिक्षार्टन' आदि बाह्य क्रियारूप चेष्टा, उक्ति-कहना। विधि-निषेध यदि न हों तो उनको उत्पन्न करके भी उनकी रक्षारूप पालना करना तथा उसकी जो शुद्ध चेष्टा हो जैसे भिक्षाटन आदि उसे कहना चाहिये। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशनो विधि : १२१ जैसे स्वर्ण खरीदते समय कसौटी पर देखने पर शुद्ध मालम हो तभी अंदरसे शुद्ध है या नहीं उसकी शंका रहनेसे उसे काटकर या छेद कर देखा जाता है। उसी भांति कषशुद्ध धर्ममें भी छेदकी आवश्यकता है। धर्ममें विशुद्ध बाह्य चेष्टा ही छेद है। वह बाह्य शुद्ध चेष्टा जिसमें विधि-निषेधके अनुकूल मार्ग पर चलते हुए उनसे आत्माको बाधा न पडे इस प्रकार कार्य करते हुए अपनी आत्माको प्राप्त होता है। उसे प्राप्त करके भी अतिचार तथा अनाचार रहित उत्तरोत्तर वृद्धिका अनुभव करे। ऐसी विशुद्ध बाह्य क्रियासे विधिनिषेधको उत्तेजन मिलता है। जिस धर्ममें ऐसी शुद्ध चेष्टाका वर्णन है वह छेदशुद्ध है । अतः जहां उपरोक्त विधि-निषेध मार्गकी सहायक शुद्ध क्रिया ( बाह्य )का यथार्थ वर्णन है वही छेदशुद्ध धर्म है । जैसे कर्ष व छेदशुद्ध स्वर्णमें भी किसी वस्तुकी मिलावट हो यो होने पर भी वैसा ही हो तो उसकी परीक्षाके' लिये अग्नि परीशामें डाला जाता है और तापशुद्ध होने पर पूर्ण शुद्ध माना जाता है, इसी तरह धर्ममें भी कष व छेद शुद्ध होने पर भी ताप परीक्षा मावश्यक है। धर्ममें ताप किसे गिनना उसे ताते हुए शास्त्रकार कहते हैंउभयनिवन्धन भाववादस्ताप इति ॥३७॥ (९५) मूलार्थ-कष व छेदके परिणामी कारण जीवादि भावकी प्ररूपणा ताप है ॥३७॥ विवेचन-उभयोः-कष व छेदका, निवन्धनम्-परिणामी रूप कारण, भावा-जीवादि लक्षण, वाद-प्ररूपणा । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२: धर्मवन्दु दोनो कप व छेदके बाद उनका परिणामी रूप कारण जो जीवादि लक्षण भाव हैं उनकी प्ररूपणा करना श्रुतधर्म परीक्षाके अधिकारम ताप कहा गया है। जैसे स्वर्ण वहा होने पर भी उसके भिन्न भिन्नरूप या स्वरूप होते हैं अर्थात् वह द्रव्यसे नित्य, पर पर्यायसे अनित्य है, उसी भाति जीवादि पदार्थ जिस शास्त्रमं द्रव्यार्थिक नयस नित्य-न च्यवे न उत्पन्न हो- (न मरे, न पैदा हो) तथा पर्यायार्थिक नयसे अनित्य-अर्थात् क्षण क्षणमे स्वभावकी भिन्नतावाला हो, कह गये हो वह शास्त्र तापशुद्ध है ऐसा जानना । अर्थात् जीवादि पदार्थ नित्य व अनित्य दोनों है, जैसे स्वर्ण बदलता भी है वह नहीं भी बदलता। जिस शास्त्र या धर्ममे ऐसा कहा है वह तापशुद्ध है। इसक परिणाम स्वरूप जहा आत्मा आदिके ऐस अशुद्ध पर्यायका निरोध करनस ध्यान, अध्ययन आदि अन्य शुद्ध पर्यायके प्रगट होनेस कष ( विधि-निषेध ) और बाह्य शुद्धिकी चेष्टाके लक्षणवाला छेद कहा गया है वह सभव है, अर्थात् तापशुद्धि होनेसे हो कष व छेद शुद्धि बराबर है अन्यथा बराबर नहीं । कष, छेद व ताप कौन सबसे बलवान है । इसके उत्तरमे कहते है-- अमीषामन्तरदर्शनमिति ॥३८॥ (९६) मूला4-इनका (तीनों परीक्षाका ) परस्पर अंतर बताना। विवेचन-अमीपां-परीक्षाके तीनो प्रकारोका पारस्परिक, अन्तरस्य-सामर्थ्य, असामर्थ्य । - परीक्षाके इन तीनो प्रकारोंमें पारस्परिक अंतर बतावे। उनका Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : १२३ सामर्थ्य व असामर्थ्य बतावे । उनका भेद बताकर उत्तम, मध्य व कनिष्ठ कौन है वह बतावे। उसे बताते हैं--- ___ कषच्छेदयोरयत्न इति ॥३९।। (९७) । मूलार्थ-कप व छेदसे ही वस्तुका आदर न करे ॥३९॥ विवेचन-कसौटी व छेद केवल इन दो परीक्षामोंके सामर्थ्यमें विश्वास न करे। इससे ही वस्तु आदर करने लायक नहीं होती। क्यो कि उससे कोई तात्पर्य नहीं ऐसा बुद्धिमान कहते हैं । उसका कारण बताते हैं-- तभावेपि तापाभावेऽभाव इति ॥४०॥ (९८) __ मूलार्थ-कप, छेदके होने पर भी तापके अभावमें उनका भी अभाव समझे ॥४०॥ विवेचन-कष व छेद दोनो परीक्षा कर लेने पर भी यदि उक्त प्रकारकी ताप परीक्षा न हो तो उन दोनोंका भी अभाव समझना | वह परीक्षा भी हुई, न हुई बरावर है। तापमें न रखा हुआ स्वणे कसौटी और छेद परीक्षाके हो जाने पर भी अपना शुद्ध स्वरूप प्राप्त करनेको समर्थ नहीं। वह तो नाम मात्र ही स्वर्ण है (जैसे यदि गरम करने पर रंग बदल जाय तो वह स्वर्ण नहीं है। यद्यपि कष व छेदसे स्वर्ण ही दीखे) ऐसे ही जो श्रुतधर्म ताप सहन न कर सके वह प्रमाणभूत नहीं है । -तापशुद्धि न होने पर कप व छेदशुद्धि शुद्धि क्यो नहीं ! कहते हैं Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ : धर्मयिन्दु तच्छुद्धौ हि तत्साफल्यमिति ॥४१॥ (९९। मूलार्थ-तापशुद्धि होनेसे ही कपशुद्धि व छेदशुद्धिकी सफलता है ।।४०॥ विवेचन-तच्छुद्धौ-तापशुद्धि होने पर, तत्साफल्यम्-कष व छेदका सफलताभाव है। - यदि तापमेंसे शुद्ध निकले तो कर्ष व छेद भी उपयोगी होते हैं। सूत्रका चिंतन (ध्यान ) व अध्ययन विधिमार्ग है। उनका फल कर्म निर्जरा है। हिंसा आदिका प्रतिषेध किया हुआ है जिसका फल नये कर्मकी उत्पत्तिका निरोध करना है। यह विधिनिषेध कष है और इस विधि-निषेध मार्ग (कष )का पालन करनेके लिये जो, बाह्य शुद्ध चेष्टा कही है वह छेद है। यदि विधि व निषेध दोनो न हो तो इनको पैदा करे और, उत्पन्न हुए हों तो पालन करनेसे बाह्य चेष्टाकी शुद्धि फलवती होती है। यदि आत्मा अपरिणामी हो तो उसमें पूर्वोक्ता लक्षणवाले कष व, छेद अपना कार्य करनेमें असमर्थ होते हैं उससे वे तापशुद्धि होनेसे सफ़लताको प्राप्त होते हैं अन्यथा नहीं क्या तब वे दोनों (कष व छेद), निष्फल होगे ? कहते हैं फलवन्तौ च वास्तवाविति ॥४२॥ (१००) .. मूलार्थ-वे दोनों फलवान हों तभी वास्तविक (सत्य) है। विवेचन-कष व छेदका फल मिल सके तो ही वे सत्य गिने जावे, क्योकि साध्यवस्तुको करनेवाली क्रियाको ही सन्तजन सत्य वस्तु कहते हैं । कष व छेदका फल तापशुद्धि पर रहा हुआ है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : १२६ मतः अंतमें जिसके तत्त्व शुद्ध व सत्य हो वही धर्म सत्य हैं ऐसा सिद्ध हुआ । कष व छेदके फलका आधार तापशुद्धि रूप धर्मके गंभीर तत्त्वों पर रहा हुआ है । कष व छेद फल देनेवाले हो तो ही सत्य गिनना नहीं तो- अन्यथा याचितकमण्डनमिति ||४३|| (१०१) मूलार्थ - नहीं तो वे मांगे हुए आभूषणोंकी तरह हैं ॥४३॥ विवेचन-अन्यथा - फल रहित हों तो, याचितकमण्डनम् - मांगे हुए आभूषण । यदि कृष व छेद उपरोक्त फल देनेवाले न हो तो वस्तु परीक्षा के अधिकारमें गिने जाने पर भी वे माग कर लाये हुए आभूषणोकी तरह हैं। उनमें परकीयत्वकी ( परायेपनकी) संभावना होती है अतः मांगा हुआ कुत्सित ( बुरा ) होता है । कडा कुंडलादि आभूषण विशेष जो मांग कर लाये हुए हो उस तरह जानना । यथार्थ तत्त्वो पर रचित विधि निषेध मार्ग तथा सहायक शुद्ध क्रिया सफल होती हैं, नहीं तो मार्ग व क्रिया मागे हुए आभूषणों की तरह हैं। आभूषणोंका फल दो प्रकारका है-यदि निर्वाह ठीक चलता हो तो शुद्ध - अभिमान जनित सुख उत्पन्न करनेवाला शरीरको शोभा देनेवाला है । कदाचित् किसी रीतिसे निर्वाहका अभाव हो तो उससे ही निर्वाह किया जा सकता है अर्थात् उसे बेच कर काम चलाया जा सकता है। मांगे हुए आभूषणोंमें ये दोनों नहीं होते । वे मांगे हुए तथा पराये हैं । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ : धर्मविन्दु इसी तरह कष व छेद जब फलदायक नहीं होते तो वे मांगे हुए आभूषणोकी तरह हैं । इसका अर्थ यह है कि द्रव्य व पर्याय दोनोंसे नित्य व अनित्य माना हुआ जीव या अन्य पदार्थ हो तो कष व छेद दोनो अर्थात विधि-निषेध मार्ग और सहायकारी क्रिया उचित गिने जा सकते हैं। पर नित्य या अनित्यके एकांतवादमें तो वादी अपने वादकी शोभाके लिये ही कष व छेदकी कल्पना करता है। वे तो मांगे हुए आभूषणोंकी तरह निष्फल दीखते हैं और अपना कार्य करनेमे असमर्थ होते हैं। उपरोक्त वातसे सिद्ध होता है कि कष छेद व तापसे शुद्ध जो श्रुतधर्म है वह ग्रहणीय है। पर किसका कहा हुआ श्रुतधर्म प्रमाणभूत मानना ? कहते है-- नातत्त्ववेदिवादः सम्यग्वाद इति ॥४४॥ (१०२) ' मूलार्थ-जो तत्त्ववेत्ता नहीं उसका वाद (धर्म) सम्यग्बाद नहीं॥४४॥ विवेचन-अतत्ववेदिनः-साक्षात् वस्तु तत्वको न जाननेवाला, या अर्वाग् दृष्टि छमस्थ पुरुष, वाद-सत्य वस्तुका कथन-धर्म, सम्यग्वाद:-यथार्थे वस्तुके अर्थका बाद । । जो अतत्त्ववेदी छमस्थ पुरुष है उसका वाद सम्यग्वाद नहीं । साक्षात् वस्तुको नहीं देखनेवाले शास्त्रकार द्वारा रचित शास्त्र, जन्मसे अंधे चित्रकार द्वारा चित्रित चित्रकी तरह यथार्थ वस्तुके शुद्धरूपसे भिन्न होगा। इसी प्रकार ऐसे अर्धज्ञानी द्वारा प्ररूपित शास्त्र अंतर्दृष्टि खुले हुए ज्ञानीद्वारा कथित यथार्थ वस्तुकी तरह सन्य नहीं हो Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : १२७ सकता । अतः उसका ( अतत्त्ववेदी या अर्धज्ञानीका) कहा हुआ अविपरीत कैसे हो सकता है। सम्यग्वाद यह है ऐसा कैसे जानना उस उपायको कहते हैंबन्धमोक्षोपपत्तितस्तच्छुद्धिरिति ॥४६॥ (१०३) , मूलार्थ-वन्ध और मोक्षकी सिद्धिसे सम्यग्वादकी शुद्धि जानना ॥४५॥ विवेचन-बन्ध-मिथ्यात्व आदि कारणोंसे जीवका कर्म पुद्गलोके साथ अभिन्न पारस्परिक बन्धन जैसे तप्त लोहेमें अग्नि या क्षीर व नीरका अभिन्न बन्धन, जिनका भेद न किया जा सके। मोक्षसम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्रसे कर्मका अत्यन्त छेद या पूर्ण क्षय । उपपत्ति-होना, तच्छुद्धि:-उसे शुद्ध जानना । जिस धर्ममें आत्माका बन्ध व मोक्षका इस प्रकारका वर्णन है वही सम्यग्वाद है। जैसे दूध व पानी अविभाज्यरूपसे मिले हैं वैसे ही आत्मा तथा कर्म पुद्गल मिले हुए हैं। मिथ्यात्व, कषाय. प्रमाद व योगसे कर्मबन्ध होता है। सम्यग्ज्ञान, दर्शन व चारित्रसे कर्म छूटकर आत्माकी मुक्ति होती है। जिस धर्ममें यह वन्ध व मोक्ष कहा है तथा आत्मा बन्ध व मोक्षके योग्य है ऐसा कहा है वही वस्तुवाद निर्मल है । वह धर्म सर्वज्ञद्वारा प्रणीत है ऐसा विद्वानोंका निश्चित मत है। इस बन्ध, मोक्षकी सिद्धिकी युक्तिका आधार कहते हैं इयं वध्यमानबन्धनभाव इति ॥४६॥ (१०४) Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ : धर्मविन्दु मूलार्थ-इस (बंध, मोक्षकी युक्ति का आधार बंधनेवाले जीव और वन्धन पर है ।।४६॥ . विवेचन-आत्मा कर्भवन्धनसे बांधी जाती है। उस कर्मबन्धनके होनेसे (वह स्थित होनेसे ) आत्माके बन्ध व मोक्षकी युक्तिका आधार बनता है । बध व मोक्ष कहना तभी सत्य है जब आत्माका बंधन होता है और उसका मोक्ष होता है। यदि आत्मा मुक्त हो तो बंध व मोक्ष कहना ही अयोग्य होगा। ___ कर्म जीवको बाधते है यह माननेसे ही मिथ्यात्व, कषाय आदिसे कर्मबन्धन होता है यह सत्य सिद्ध होता है। यदि आत्मा बंधता ही नहीं तो उसका मुक्त होना ही क्या । इसका हेतु क्या है। कहते है-- __ कल्पनामात्रमन्यथेति ॥४७॥ (१०५) मूलार्थ-अन्यथा यह युक्ति कल्पना मात्र है ॥४७॥ विवेचन-जिस कारणसे यह केवल कल्पना है वह असत्य अर्थका आभास है। उसमें अर्थका आभास भी नहीं है। मुख्य कर्म बांधनेवाला जीव और बन्धन (कर्म)का अभाव हो तो यह सब बंध, मोक्षकी युक्ति कल्पनामात्र है। यदि आत्मा मुक्त ही है तो आगम कल्पनाजनित व निरर्थक हैं । अत. आत्मा बंधता है। वध्यमान व बन्धन (कर्म व आत्मा)की व्याख्या करते हैवध्यमान आत्मा बन्धनं वस्तुसत् 'कर्मेति ॥४८॥ (१०६) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : १२९ मूलार्थ - बंधनेवाला आत्मा और बांधनेवाले विद्यमान कर्म हैं ||४८ || विवेचन – बध्यमानः - अपना सामर्थ्य शक्ति गुमा कर परवशताको प्राप्त होनेवाला आत्मा, आत्मा जो चौदह भेदवाला जीव कहलाता है । यह चौद भेद यह है - सूक्ष्म व चादर एकेन्द्रिय, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिन्द्रिय, और गर्भज व समूच्छिम पंचेंद्रिय - ये ७ पर्याप्ता और ७ अपर्याप्ता ये चौद मेद जीवके है । बन्धनम् - मिथ्यात्व आदि हेतु से आत्माको बाघनेवाला, वस्तुसत् - विद्यमान, यथार्थ वस्तु, कर्म - ज्ञानावरणादि कर्म जो अनतानंत परमाणुओंके समूहरूप स्वभाववाला है तथा जो मूर्त प्रकृति या मूर्त्तिमान है । (साक्षात् वस्तु - यथार्थ पदार्थ ) | आत्मा मिथ्यात्व आदि कारणोंसे कर्मोद्वारा बंधता है । कर्म विद्यमान है व सत्यवस्तु है । आत्मा के चौदह भेद है। ज्ञानावरणादि कर्मके परमाणु जैसे जीव कर्म करता है वैसे ही आकर्षित होकर राग-द्वेषकी चिकनाईके कारण उस पर चिपक जाते है । है 'सांख्यमत ' में इस प्रकार कहा 68 'आत्मा न बद्ध्यते नापि, मुच्यते नापि संसरति कञ्चिद् । संसरति वद्धयते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः" ॥८९॥ - आत्मा बंधता नहीं, मुक्त नहीं होता और न संसारमें भ्रमण करता है पर विचित्र प्रकारके आश्रयवाली प्रकृति ही भ्रमण करती है, बंघती है व मुक्त होती है । यदि प्रकृतिका ही बंध और मोक्ष होता है तथा आत्मा निर्लेप Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० : धर्मविन्दु माना जाय तो आत्माकी सांसारिक व मोक्ष अवस्था समान होती है तब 'योगशास्त्र में मोक्ष पानेके लिये कहे हुए यम-नियम आदि क्रिया अनुष्ठान व्यर्थ है। ____कर्म सत्य है। बिना कर्मके केवल राग-द्वेषसे आत्मा नहीं बंधता । 'बौद्धधर्म' में कहा है "चित्तमेव हि संसारो, रागादिक्लेशवासितम् । तदेव तैर्विनिमुक्तं, भवान्त इति कथ्यते" ॥१०॥ -रागादि क्लेशसे संस्कारित चित्त ही संसार है, जब चित्त उन रागादि क्लेगोसे मुक्त हो जाता है तो भव-संसारका अन्त हो जाता है, या मोक्ष होता है। आत्मा राग आदिके बन्धनसे ही नहीं बंधती। राग आदि होनेसे कर्मद्वारा वन्धन होता है। राग व द्वेष चिकनाईके सदृश है जिनसे कर्मरूपी रज आत्मारूपी वस्त्र पर चिपकती है। चित्तसे आत्मा नहीं बंध सकता । जैसे पुरुष बन्धनमें पडता है तब बंधन करनेवाली वस्तु भिन्न होती है, उसी भांति आत्मा कर्मद्वारा बांधी जाती है, अपने आप नहीं बंधती। बन्ध व मोक्षके हेतुका विचार करते हैहिंसादयस्तद्योगहेतवः, तदितरे तदितरस्य ॥४९॥ (१०७) मूलार्थ-हिंसा आदि वन्धनके कारण हैं, उससे भिन्न (अहिंसादि) मोक्षके ॥४९॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : १३१ विवेचन-हिंसादय:-हिंसा, असत्य आदि जीवके परिणाम विशेष, तद्योगहेतवा-बन्धका फल संसार होता है, वही वस्तुत पापरूप बंध होता है उसका कारण है (हिंसादि), तदितरे-हिंसा आदिसे भिन्न-अहिंसा आदि, तदितरस्स-उस (वंय से भिन्न मोक्ष। वस्तुतः जीवको संसारमे परिभ्रमण करानेवाला पाप है। उसका कारण जीवके अशुभ परिणाम हैं, जो पाप बन्धके हेतु हैं और उसीसे संसार भ्रमणा वढती है। पाप बन्धके कारण"हिंसानृतादयः पञ्च, नत्त्वाश्रद्धानमेव च । क्रोधादयश्च चत्वारः, इति पापस्य हेतवः" ॥२१॥ --हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन व परिग्रह ये पाच अव्रत, तत्त्वमे अश्रद्धा ( मिथ्यात्व ) तथा क्रोध, मान, माया, लोभ नामक चार कपाय-यह इस पापबन्धके हेतु है। उससे भिन्न अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह आदि पांच व्रत, सम्यक्त्व और चारों कषायोंका त्याग ये वंधसे 'भिन्न मोक्षके कारण है। __ “अनुरूपकारणप्रभवत्वात् सर्वकार्याणामिति"। -~सव कार्य अपने कारणके अनुरूप होते हैं। बघहेतुसे बन्ध व मोक्षहेतुसे मोक्ष होता है। बन्धका स्वरूप कहते हैं-- प्रवाहतोऽनादिमानिति ॥५०॥ (१०८) मूलार्थ-बन्ध प्रवाहसे अनादि हैं ॥५०॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ : धर्मविन्दु विवेचन-प्रवाहत:-परंपरासे, अनादिमान्-आदि बंध काल रहित-अनादि समयसे । ___ कर्मका बन्ध अनादि कालसे है। कर्मसे मुक्त आत्मा किसी भी समय नहीं था। किसी एक कर्मका समय निर्धारित किया जा सकता है। पुराने कर्म छूटते जाते हैं, नये बंधते जाते हैं । अतः परंपरा व प्रवाहसे अनादिकालसे जीव कर्मके बन्धनमें है। जीव व कर्मका वन्धन अनादिकालसे है। कृतकत्वेऽप्यतीतकालबदुपपत्तिरिति ॥५१।। (१०९) मूलार्थ-बन्धका कारण होने पर भी वह अतीतकालकी तरह समझना ॥५१॥ विवेचन-तकत्वेऽपि-कर्मके वंधका कारण जानने पर भी। वंधके हेतुसे बंधकी उत्पत्ति होती है। तब भी वधकी घटना, अनादिकालमें हुई यह जानना। कारण तो केवल निमित्त है उसका उत्पत्तिका कारण तो हृदयम रहा हुआ अशुद्ध भाव है। बन्ध प्रतिक्षण किया जाता है तब भी प्रवाहकी तरह चलते आते हुए होनेसे वह अतीतकालकी तरह ही अनादि समयसे है। उसका प्रारंभ भी कालके प्रारंभकी तरह अनादि है। वर्तमानताकल्पं कृतकत्वमिति ॥५२॥ (११०) मूलार्थ-वर्तमानकालकी तरह बन्ध भी किया हुआ है। विवेचन-जैसे अतीतकाल व वर्तमानलका संबंध है- आपसमें एक दूसरेसे पारस्परिक अमेध संबंध है वैसे ही बन्धका भी समझना। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ f गृहस्थ देशना विधि : १३३ करनेके समय तथा समाप्तिके समयमें निश्वयनयकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है । कुछ काम तत्काल हुए हैं या हो रहे हैं या हो चुकते हैं और कुछ होते रहते हैं ये सब काम होते हैं एसा कहा जायगा । किसी भी एक कार्यकी समाप्ति व दूसरे कार्यके प्रारंभ में कोई खास समयका भेद नहीं होता । वह चलता रहता है जैसे गंगानदीका प्रवाह है वह अनंत समय से - अनादिकाल मे चलता आ रहा है । उसी तरह कर्म भी अनादिकालसे चलते आ रहे हैं अतः प्रवाहकी अपेक्षा कर्मबन्ध भी अनादि है । जिस आत्माको पूर्वोक्त बन्धका हेतु होता है उस आत्माको अन्वय तथा व्यतिरेकसे कहते है-परिणामित्यात्मनि हिंसादयो, भिन्नाभिन्ने च देहादिति ॥ ५३ ॥ (१११) मूलार्थ - देहसे कुछ भिन्न व अभिन्न ऐसे परिणामी आत्मासे हिंसादिक बंध होता है ॥५३॥ 1 विवेचन - आत्मा परिणामी है । द्रव्यरूपसे एक ही पदार्थ हैं, वह वैसा ही रहता है पर उपाधिसे भिन्न भिन्न परिणाम पाता है । उसका रूपान्तर होता है । जैसे स्वण एक ही वस्तु है पर वह बनानेसे माला, अंगूठी तथा अन्य आभूषणके रूप में आता है । उसी तरह जीव पदार्थ एक होने पर भी कर्मवश भिन्न भिन्न पर्याय (योनि) पाता है | कहा है कि— " परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः, परिणामस्तद्विदामिष्टः " ||२२|| - परिणाम एक स्वरूको छोड़कर दूसरेमे परिवर्तन होता है । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ : धर्मविन्दु सर्वथा एक ही रूप नहीं रहता, न सर्वथा विनाश ही होता है। उसे विद्वान परिणाम कहते हैं ऐसे परिणामवाला आत्मा परिणामी है, पूर्वोक्त हिंसादि पदार्थ उसके द्वाग होते हैं। वह देहसे भिन्न है, देहसे अभिन्न भी है। अन्यथा तदयोग इति ॥५४॥ (११२) मूलार्थ-अन्यथा हिंसादिका उससे अयोग होता है ॥५४॥ विवेचन-यदि यह परिणामी आत्मा देहसे भिन्न तथा अभिन्न न हो तो वधके हेतु अहिंसा आदि आत्मासे कोई संबंध नहीं हो सकता। ऐसा क्यो ? कहते हैंनित्य एवाविकारतोऽसंभवादिति ॥५५॥ (११३) मूलार्थ-नित्य अविकारी आत्माद्वारा दोषोंका होना असंभव है ॥५५॥ विवेचन-नित्य एव-नित्य आत्मा, च्युत न होनेवाला, उत्पत्ति विना स्थिर स्वभाववाला, अविकारतां-तिलके तुषके तृतीयाश अर्थात् ऐसे सूक्ष्म भागका भी पूर्व स्वरूपका नाश न होनेसे, असंभवात-हिंसादि दोषकी घटना न होना। यदि आत्माको एकांत नित्य मानें, जो न मरे न पैदा हो पर सदा एक स्वभावमे स्थिर रहे । द्रव्यनयसे ऐसा माननेसे यदि आत्मा एक स्वभावका हा हो तो उसमें जरा भी विकार न आवे। ऐसा होने पर उसके द्वारा हिंसा आदि दोपका होना सभव ही नहीं। यदि कुछ भी नाश न हो, एक स्वभाव हो तो क्रोधादि हो ही नहीं सकते । (यह नित्य आत्माके लिये कहा है)। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : १३५ पर हम देखते हैं कि हिंसा (मारने पर प्राणिका मरना) तथा क्रोध आदि वास्तवमें होते हैं । अतः आत्मा परिणामी है उसका पर्यायान्तर व विनाश स्वभाव है । कहा है "तत्पर्यायविनाशो, दुःखोत्पादस्तथा च संक्लेशः । एप वधो जिनभणितो, वर्जयितव्यः प्रयत्नेन ' ॥९॥ -आत्माके पर्यायका नाश करना, आत्माको दुःख देना, और क्लेश करना, उस सवको जिन भगवान हिंसा कहते हैं उसका यत्नसे त्याग करना चाहिये। तथा-अनित्ये चापराहिंसनेनेति ॥५८॥ (११४) मूलार्थ-यदि सर्वथा अनित्य हो तो अन्यसे हिंसा हो नहीं सकती ॥५॥ विवेचन-अनित्ये च-सर्वथा अनित्य, क्षण क्षणमें नाश होनेवाका, अपरेण-किसी शिकारी द्वारा, अहिंसनेन-न मार सकनेसे किसी भी प्राणीकी हिंसा असंभवित है। यदि आत्माको पूर्णतः अनित्य मानें तो प्रतिक्षण नष्टे होती है, अतः वह अपने आप मरती है दूसरे अन्य कोई (शिकारी आदि) किसी भी प्राणिका वध नहीं कर सकता। अत: हिंसा नहीं हो सकती, व प्रतिक्षण मरता है तो कौन उसे मारनेवाला है ? यदि आत्मा नित्य है तो मारता ही नहीं अतः न क्रोध होगा, न दुःख, न हिंसा । यदि अनित्य ही है तो अपने आप हर क्षण मरनेसे उसे मारनेवाला कौन ? और मरनेवाला कौन ? अतः वह न एकान्त नित्य है, न एकांत अनित्य ही। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ : धर्मविन्दु तथा-भिन्न एव देहान्न स्पृष्टवेदनमिति ॥५७।। (११५) , मूलार्थ-यदि आत्मा देहसे सर्वथा भिन्न हो तो स्पर्श आदि वेदना न हो ॥५७ विवेचन-भिन्न एव-देहसे सर्वथा भिन्न-अलग, देहातदेहसे, स्पृष्टस्य-शरीरसे कंटक, जलन आदि जो इष्ट या अनिष्ट स्पर्शेन्द्रियक विषय वेदनम् -उसका अनुभव या भोग आदिकी प्राप्ति। ____ आत्मा अपनी नैसर्गिक स्थितिमें शरीरसे भिन्न है और शरीर उसका साधन है। पर जब तक वह कर्मसे बंधा हुआ है, तब तक वह देहसे भिन्न नहीं है । यदि उसे शरीरसे सर्वथा भिन्न मानें तो स्पर्श आदि इंद्रियोके योग्य पदार्थोंका चाहे वे इष्ट हों या अनिष्ट उसे कोइ अनुभव ही, नहीं हो सकता । जैसे एक व्यक्ति शय्या पर सोये या भोग करे तो दूसरेको उसका अनुभव नहीं हो सकता। इसी तरह यदि देह व आत्मा भिन्न हों तो देहके भोगका अनुभव आत्माको न हो। पर ऐसा अनुभव नहीं होता है अन: आत्मा सर्वथा भिन्न या अलग नहीं है। तथा निरर्थकश्चानुग्रह इति ॥५८। (११६) मूलार्थ-और उपकार आदि निष्फल हो ॥५८॥ विवेचन-निरर्थका-पुरुषके संतोष लक्षण रहित, अनुग्रहःपुष्प, चंदन, स्त्री आदिका जिससे स्पर्शेन्द्रियका संबंध व संतोष हो व लाभ मिले। । यदि आत्माका देहसे संबंध न हो तो देह पर किया हुआ उपकार, चंदन, पुष्प, स्त्री आदिके नानाविध भोग जो शरीरको सुख Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : १३७ देनेको किये जाय पर आत्माको कोई सतोष नहीं देते। शरीरकी दुखद वस्तुका भी आत्मासे संबंध न हो । हिंसा भी नहीं हो सकती । पर इन सबका अनुभव आत्माको भी होता है अत: . उससे सर्वथा भिन्न नहीं है। भेद पक्षका निराकरण करके अब अमेद पक्षका निराकरण करते हैंअभिन्न एवामरणं वैकल्यायोगादिति ॥५९॥ (११७) मृलार्थ-देह व आत्मा सर्वथा अभिन्न हो तो मृत्यु नहीं हो सकती, शरीर वैसा ही रहता है ।।५९॥ विवेचन-अभिन्न एव-देहसे सर्वथा अभिन्न, भिन्न भिन्न प्रकारमें न बदलनेवाला, अमरणम्-मृत्युका अभाव, वैकल्यस्य अयोगात्-अन्तरका न होना । यदि यह माना जावे कि आत्मा व शरीर अभिन्न है, सर्वथा एक ही है और आत्मा भिन्न भिन्न रूप नहीं करता तो-"चैतन्यसहित शरीर ही पुरुष या आत्मा है " ऐसे मतको माननेवाले बृहस्पतिके शिष्योंका मत अंगीकार करना पडेगा । उससे तो मृत्युकी संभावना नष्ट हो जाती है । शरीरमें अंतर नहीं आता । जैसा था वैसा ही है तो मृत्यु कैसे ? शरीरमेंसे आत्माके जानेसे मृत्यु होती है। पर इस पक्षको माननेसे शरीर ही आत्मा है तो गया ही क्या ? और शरीर उसी रूपमें पडा है तो जीवन मरणमे क्या मेद है ? देहको प्रारंभ करनेवाले पृथ्वी आदि पंच भूतो से मृत्यु होने पर मी किसी भी वस्तुका भय नहीं होता । टीकाकार इस पक्षकी शंका व Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ : धर्मविन्दु उसका उत्तर इस प्रकार देते हैं -~-~ शंका- शरीर ही आत्मा है, आत्मा शरीर से जुदा नहीं है । उत्तर - मृत्यु होने पर शरीर तो वैसा ही रहता हैं । यदि शरीर ही आत्मा है तो मृत्यु कैसी ? आत्मा भिन्न है, शरीर साधन हैं । आत्मा शरीरको जीर्ण होने पर जीर्ण वस्त्रको तरह छोड़ देती हैं, अतः शरीर व आत्मा भिन्न है । शंका- मृतदेह वैसा ही है पर वायु चला गया। उत्तर - वायु तो है ही, वायु न हो तो शरीर ऐसा ही प्रफुल्लित न होता । शंका- मृतदेह तेज नहीं है। उत्तर - तेजके चले जानेसे तो देहका कुथित भाव न होना चाहिये। वह होता है, अतः तेजके अभावमै मृत्यु कहना वृथा है । शरीर व आत्मा भिन्न है । पहले जैसी अवस्थावाला तेज व वायुका अभाव हो गया है इससे मृत्यु हुई है उसका उत्तर इस प्रकार शास्त्रकार देते हैंमरणे परलोकाभाव इति ॥ ६०॥ (११८) मूलार्थ मृत्यु मानने से परलोकका अभाव सिद्ध होता है। विवेचन यदि आत्मा व देह अभिन्न माना जावे तो मृत्यु · होनेसे परलोककी स्थितिको नहीं माननेका प्रसंग आता है। यदि शरीर व आत्मा एक है तो शरीर यहीं रहता है तो फिर परलोकमे कौन जाता है या क्या जाता है" । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : १३९ शंका-परलोक है ही नहीं। . उत्तर-सर्व शिष्ट जनोंने प्रमाणके बलसे परलोककी स्थितिको स्वीकार किया है वह प्रमाण इस प्रकार है। मनुष्यको जितनी अभिलाषाए होती हैं वे सब एक दूसरेसे संबंधित रहती हैं। यदि एक अभिलाषा हुई तो उससे पूर्व किसी अभिलापासे अवश्य ही उसका संबंध होता है, जैसे-यौवनावस्थामें होनेवाली अमिलाषाएं बाल्यावस्थाकी अभिलापाओंसे संबंधित हैं। अतः जब नया जन्मा हुआ बालक आंखें खोल कर माताके स्तनकी ओर देखता है और स्तनसे दुग्धपानकी आशा करता है वह निश्चय ही पूर्वकी किसी अभिलाषासे संबंधित है। वह पूर्वभवके ससारके कारण ही है, अत' उसका पूर्व जन्म था जिससे परलोक सिद्ध होता है। ऐसी कई युक्तियों से एक इस प्रकार है प्रो० मेक्समूलर लिखते हैं कि, किसी मनुष्य को प्रथम देखते ही अपने मनमें उसके प्रति स्वत प्रेमभाव या द्वेषभाव जाग्रत होता है, वह उस व्यक्तिके तथा अपने पूर्वभवके प्रेमसंबंध या शत्रुताके कारण होता है। ऐसी युक्ति पूर्व जन्म और पर जन्मको सिद्ध करती है, अतः आत्मा व शरीर भिन्न है। तथा-देहकृतस्यात्मनाऽनुपभोग इति ॥६१।। (११९) मूलार्थ-देह व आत्माको सर्वथा भिन्न माननेसे देहद्वारा उपार्जित कर्मका आत्माद्वारा उपभोग न होना चाहिये ।।६१॥ विवेचन-सर्वथा देह व आत्मा भिन्न माननेसे जैसा कि 'साख्यमत' में माना है तो दूसरोको मारना पीटना, तिरस्कार,. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४० : धर्मविन्दु हिंसा, व्यभिचार आदि अशुभ कर्म या देवताको नमन, स्तवन आदि शुभ कर्म जो कि देहद्वारा किये जाते हैं तो उस शुभ, अशुभ कर्मका फल किसी दूसरेको भोगना नहीं पडता । आत्मा व शरीर भिन्न है तो शरीर के कर्मों का फल शरीरको तथा आत्माके कर्मो का फल आत्माको हो । पर वस्तुत सुख, दुःख आत्माको होता है । अत जब तक कर्मसहित आत्मा है तब तक आत्मा व देह पूर्णतः भिन्न नहीं है जो ऐसा न हो तो कृतनाश (किये हुए कर्मका नाश ) तथा अकृत अभ्यागम ( न किये हुएका आना ) ऐसे दो दोष उत्पन्न हो जाते हैं, अतः शरीर व आत्मा मिले हुए हैं - और raat किया हुआ दूसरेको भोगना होता है । . तथा - आत्मकृतस्य देहेनेति ||६२|| (१२० ) मूलार्थ - और आत्माद्वारा किये हुए कर्मका उपभोग देहसे नहीं हो सकता ||६२॥ विवेचन - आत्मा व देहको सर्वथा भिन्न मानें तो आत्माद्वारा किये हुए कामका - शुभ, अशुभ अनुष्टानका फल इहलोक व परलोक में शरीर नहीं भोग सकता । आत्माद्वारा किया हुआ कम भिन्न वस्तु होनेसे न करनेवाला शरीर उसे नहीं भोग सकता । यदि शंकाके तौर पर ऐसा ही मानें तो उसमें क्या दोष हैं ? कहते हैं— दृष्टेष्टवाति ||१३|| (१२१) मूलार्थ - दृष्ट व इष्ट गलत सिद्ध होता है ॥ ६३ ॥ विवेचन - दृष्टस्य -- सब लोगोंको प्रत्यक्ष दिखनेवाला देहके Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : १४१ कामका आत्मासे तथा आत्माके कार्यका देहसे जो सुख, दुःखका अनुभव होता है, इष्टस्य-शास्त्रसिद्ध वस्तुका। देहद्वारा किये हुए का आत्माद्वारा तथा आत्माका, किये हुए का देहद्वारा सुख, दुःखका अनुभव करना प्रत्यक्ष है यह सव जानते हैं। जैसे देहकृत चोरी, व्यभिचार आदि अनाचारोंसे बंदीखाना आदि स्थानमें अधिक समय तक शोक आदि दुःखका अनुभव आत्माको करना पडता है और मनके क्षोभ या चिन्तासे ज्वर, संग्रहणी आदि रोग होते हैं जिनका कष्ट शरीरको भोगना पड़ता है तथा मुक्ति और उसे पानेके लिये करनेमें आते अनुष्ठान क्रिया आदि इष्ट वस्तुको भी बाधा पहुंचती है । इस तरह दृष्ट मान्यता कि. मात्मा व शरीर भिन्न है, सिद्ध नहीं होती। वह नास्तिकका लक्षण है। इसका आशय यह है कि आत्मा द्रव्यनयसे नित्य, पर्यायनयसे अनित्य, व्यवहारनयसे शरीरसे अभिन्न तथा निश्चयनयसे शरीरसे भिन्न मानना। इस प्रकार सर्वथा नित्य या अनित्य और सर्वथा शरीरसे भिन्न या अभिन्न आत्माको अंगीकार करनेसे हिंसा आदि दोपका असंभव होता है, अतः एकांतवादका इस प्रकार खंडन करके अब शास्त्रकार इस विषयका उपसंहार करते हैं। कहते हैं किअतोऽन्यथैतसिद्धिरिति तत्त्ववादइति ॥६४॥ (१२२) मूलार्थ- इससे भिन्न आत्माको माननेसे बंध व मोक्षकी सिद्धि होती है वह तत्ववाद है ॥६४॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AJWNL १४२ : धर्मविन्दु विवेचन- अतः- एकान्तवादसे, अन्यथा- भिन्न अर्थात् आत्मा नित्यानित्य व देहसे भिन्न व अभिन्न है। एतदसिद्धिःहिंसा आदिका होना सिद्ध होता है, उससे आत्माको होनेवाला बंध व मोक्ष सिद्ध होता है। एकान्तबादसे भिन्नम न्यता होनेसे अर्थात् आत्मा नित्यानित्य है तथा शरीरसे भिन्नाभिन्न है ऐसा माननेसे हिंसा आदि दोप व पापकर्मकी युक्तता सिद्ध होती है। उससे आत्माका बध स्वीकार होता है और उस बंधसे मुक्त होनेका अनुष्ठान आदि भी यथार्थ है। यही तत्त्ववाद है और नास्तिक या अतत्त्ववादीसे यह नहीं समझा जा सकता। ___इस तत्त्ववादका निरूपण करके कया करना चाहिये सो कहते हैं परिणामपरीक्षेति ॥६५॥ (१२३) मूलार्थ-श्रोताके परिणामकी परीक्षा करना चाहिये॥६५॥ विवेचन- परिणामस्य- तत्त्ववादके विषयमें ज्ञान व श्रद्धाके लक्षणकी, परीक्षा- एकांतवादकी ओर अरुचि तथा तत्त्ववादकी स्तुति आदि उपायसे उसके परिणामकी परीक्षा करे। उसके बाद क्या करे ? कहते हैं शुद्ध वन्धभेदकथनमिति ॥६६॥ (१२४) मूलार्थ-शुद्ध परिणाम देख कर बन्धभेदका वर्णन करना चाहिये ॥६६॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि . १४३ विवेचन-शुद्ध-परिणामकी उत्कृष्ट शुद्धि पर, वन्धभेदकयनम्-बंधके मेदका वर्णन। श्रोताके परिणाम उत्कृष्ट रीतिसे शुद्ध हो गये हों, उसे अनेकान्तवाद पर पूर्ण श्रद्धा हो जाने तब उसे बंधके ८ मूल प्रकृतिमेद तथा ९७ उत्तर प्रकृतिमेदका वर्णन करना चाहिये । ८ भेदोंके क्रमश उत्तरभेद ५, ९, २, २८, ४२, ४, २ और ५ हैं जो कुल ९७ हैं। जो 'बन्धशतक' थादि ग्रन्थ तथा ‘कर्मग्रन्थो में वर्णित हैं। इन प्रकृतिबंधका स्वभाव तथा उसका स्वरूप समझाने। तथा-वरवोधिलाभप्ररूपणेति ॥६७|| (१२५) मूलार्थ-श्रेष्ठ बोधि वीजके लाभकी प्ररूपणा करे ।।६७|| विवेचन-सत्य वस्तुको सत्य जानना तथा असत्य वस्तुको असत्यरूपमें पहचानना तथा उसकी यथार्थ श्रद्धा होनेसे समकितकी प्राप्ति हुई कहलाती है। तीर्थकर नामकर्म उपार्जित करनेका कारणभूत वोधिबीन सामान्य समकितसे श्रेष्ठ है। अथवा द्रव्य समकितसे भाव समकित श्रेष्ठ है। उस उत्तम समकितकी प्ररूपणा करना चाहिये । उसका पूर्ण वर्णन करे। उसके हेतु, स्वरूप व फलका मुमुक्षुओंके सामने वर्णन करे। बोधिबीजके प्राप्तिका हेतु बताते हैंतथा-भव्यत्वादितोऽसाविति ॥६८।। (१२६) मूलार्थ-उस प्रकारके भव्यत्वादिकसे उस समकितकी प्राप्ति होती है ॥६८॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ : धर्मविन्दु विवेचन-भव्यत्व-सिद्धिमें जानेकी योग्यता, जो अनादि कालसे आत्माका परिणामी भाव है या स्वभाव है वह आत्माका मूल तत्त्व है । तथा भव्यत्व एक रूप नहीं, उसके अनेक भेद हैं। बीज सिद्धिके भावसे भव्यत्व काल, नियति, कर्म और पुरुषको लेकर नाना प्रकारका है। काल-पुद्गल परावर्त तथा उत्सर्पिणीसे गिना जाता है। जैसे वसंत आदि ऋतु वनस्पतिको विशेष फल देनेवाली है। उसी तरह काल भव्यत्वका फल देनेवाला है। उत्सर्पिणी अधिक अनुकूल है तब भी नियतिकी जरूरत है। नियति-कालको निश्चितरूपसे नियत करनेवाली है। पुण्यकर्म या शुभ कर्मकी जरूरत रहती है। क्लेशको दूर करनेवाला नानाविध शुभ आशयका अनुभव करानेवाली कुशलानुबंधी पुण्य कर्मकी जरूरत होती है। जिसने बहुत पुण्य भंडार एकत्रित किया है, महान कल्याणकारी आशयवाला, प्रधान ज्ञानवाला, तथा प्ररूपित अर्थको जानने में कुशल वह मोक्षाधिकारी पुरुष है । उस मोक्षाधिकारी पुरुषमें काल, नियति व कर्म हो तब वे सफल होते है। यह भव्यत्व आदि चारों बातोंके होनेसे उसे वर बोधिलाभ, श्रेष्ठ बोधिवीज या समकितकी प्राप्ति होती है । सम्यक्त्वका स्वरूप जीवादि पदार्थ पर श्रद्धा है। अब उसका फल कहते हैंग्रन्थिभेदेनात्यन्तसंक्श इति ॥६९।। (१२७) मूलार्थ- ग्रन्थि (राग-द्वेष) को छेद देनेसे अत्यन्त संक्लेश (पूर्व कठोरता) नहीं होता। . Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि १४६ विवेचन- ग्रन्थि- राग-द्वेषका परिणाम, ग्रंथि-गाठ समान होनेसे राग-द्वेषको प्रन्थि कहा है, भेदेन- अपूर्वकरणरूपी वनकी सई द्वारा छिद्र करनेसे शुद्ध तत्त्व व श्रद्धा तथा समकितका सामर्थ्य प्राप्त होनेसे, अत्यन्त- पूर्ववत् गहन, संक्लेश:- राग-द्वेषका परिणाम । - - राग-द्वेष जिसका परिणाम ग्रन्थि( गांठ )के समान दृढ है, तत्त्व श्रद्धारूप समकितकी वज्ररूपी सूईसे छेद दिये जानेके वाद जब कि शुद्ध तत्त्वश्रद्धा प्राप्त हो जाती है तो राग-द्वेषके परिणाम पहलेकी तरह निविड या गहन नहीं होते । आत्माका तथा तत्वका ज्ञान हो जानेके बाद राग-द्वेषकी कमी हो जाती है। जैसे मणिमें छेद कर देनेके बाद वह मलसे पूरित होने पर भी पहले जैसा दृढ व कठिन नहीं होता, उसमें छिद्र रहता ही है और वह पूर्वावस्थाको प्राप्त नहीं कर सकता। वैसे ही राग-द्वेषकी ग्रन्थि छिद जानेके बाद वह इतनी दृढ नहीं हो सकती और परिणाम धीरे धीरे शुद्ध होते जाते हैं अर्थात् सम्यक्त्वंसे राग द्वेषकी अन्थि टूटने पर शुद्ध परिणाम पैदा होते हैं। न भूयस्तद्वन्धनमिति ॥ ७० ॥ (१२८) मूलार्थ-पुनः उस ( ग्रन्थि का बन्धन नहीं होता ॥७॥ विवेचन- भूयः- फिरसे, तस्य- प्रन्थिका, बन्धनम्बंधना, फिर होना। फिरसे राग द्वेषकी उस प्रन्थिका बन्धन नहीं होता । उस गहन ૧૦ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ : धर्मविन्दु गांठके तूट जाने पर वह फिरसे बंधती ही नहीं। जब आत्माको आत्माकी तरह जान लिया, और आत्माको छोडकर अन्य सब पदार्थ विनाशी और जड माने तब गन्थिभेद होनेके समयसे आयुष्यको छोडकर सभी कर्मोंकी स्थिति कुछ न्यून एक कोटाकोटि सागरोपमकी रहती है। जैसे ज्ञानावरणीय कर्मकी ३० कोटाकोटिकी उत्कृष्ट स्थितिमेंसे २९ कोटाकोटि सागरोपमका क्षय हो जाता है। ठीक तरहसे समकित प्राप्त हो जाने पर पुनः मिथ्यात्व पाने में तीव्रतर क्लेश होने पर भी उतने ही कर्मबन्धन करेगा जितनी अन्य कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति रहती है । नवीन कर्मबन्ध उससे अधिक समयका न होगा। तथा-असत्यपाये न दुर्गतिरिति ॥७१।। (१२९) मूलार्थ-और नाश न हो तो दुर्गति नहीं होती ।। ७१॥ विवेचन-असति-अविद्यमान न होना, अपाये- विनाश, दुर्गति:-नरक, तिथंच व कुदेव 'या कुमनुष्यकी गति । ____ समकित दर्शनका नाश न हो या मिथ्यात्वकी प्राप्ति न हो और बुद्धिभेद आदि कारण न होने पर शुद्ध भव्यत्वके सामर्थ्य से दुर्गति नहीं होती। वह सुदेवत्व तथा सुमनुष्यत्वको ही प्राप्त होता है। पर यदि पहले ही दुर्गतिका आयु बांध चुका हो तो दुर्गति हो सकती है। अन्यथा दुर्गति होगी ही नहीं। . तथा-विशुद्धे चारित्रमिति ॥७२।। (१३०) मूलार्थ-और समकितकी शुद्धिसे चारित्रकी प्राप्ति होती है ॥७२॥ । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि १४७ विवेचन-विशुद्धे-निशंकित आदि आठ प्रकारके दर्शनाचाररूपी जल प्रवाहसे शंका आदिका की चड घुल चुका है उस, उत्कर्ष प्राप्ति के लक्षणवाले (देखो सूत्र ६९ पृष्ठ १४४ ) ऐसे शुद्ध समकितसे, चारित्रम्-सर्व सावध (पापरूप योग का त्याग करके निरवद्य योगका आचार पालनरून चारित्र । समकितकी पूर्ण शुद्धिसे चारित्रकी प्राप्ति होती है। शुद्ध सम्यक्त्व ही चारित्र रूप है। 'आचागगसूत्र' में कहा है कि 'जं मोणंति पासहा, तं,सम्मति पासहा । जं सम्मति पासहा, तं मोणंति पासह ॥ -"जो इस मुनिपनको देखे तो सम्यग ज्ञानको देखो और निश्चय समकित को देखो " अर्थात् समकित भाव मुनि भाव है और मुनि भाव समकित भाव है, क्योंकि ज्ञानका फल विरति है और समकितसे मुनिभाव आता है। भावनातो रागादिक्षय इति ॥७३।। (१३१) . मूलार्थ-भावनासे रागादिकका क्षय होता है ।।७३॥ - विवेचन-मुमुक्षु पुरुष जिसका निरंतर अभ्यास करते हैं वह भावना है वह अनित्यत्व, अशरण' आदि १२ प्रकारकी है। कहा है कि- ... ... .. "भावयितव्यमनित्यत्वमशरणत्वं तथैकताऽन्यत्वे । अशुचित्वं संसारः, कर्माश्रव-संवरविधिश्च ॥२४॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ : धर्मवन्दु “निर्जरण-लोकविस्तर-धर्मस्वाख्याततत्त्वचिन्ताश्च । चौधेः सुदुर्लभत्वं च, भावना द्वादश विशुद्धाः" ॥२५॥ -अनित्य १, अशरण २, एकत्व ३, अन्यत्व ४, अशुचित्व ५, संसार ६, आश्रव ७, संवर ८, निर्जरा ९, लोकविस्तार १०, धर्मस्वाध्याय ११, बोधिदुर्लभ १२-इस तरह बारह सिद्ध भावनाओंका मनन करना। इन भावनाओसे रागादिका क्षय होता है, राग-द्वेष तथा मोह नामक मल क्षीण होते हैं। जैसे सम्यक् प्रकारकी चिकित्सासे वातपित्त आदि रोगका अंत आता है तथा प्रचण्ड पवनसे मेघमण्डल तितर-बितर हो जाता है, क्योकि ये बारह भावनाओं इन मलोकी शत्रु या हनन करनेवाली है। यहां पाठकोकी जानकारी तथा उनको भावनाओके मननमे सहायभूत हो इसलिये इन बार भावनाओंका स्वरूप सक्षेपमें अन्यत्रसे उद्धृत करके देते हैं___ (१) अनित्यभावना-जगत्में सर्व वस्तुओंका पर्याय बदलता रहता है। सभी चीजें नाशवान् है अतः अनित्य है। कुछ वस्तुएं अल्पकालीन, कुछ. जीवन पर्यंत तथा कुछ कल्पांत पदार्थ होते हैं। जैसे पुष्प या पौधा, मनुष्य जीवन, सूर्य या देव । तब भी सभी अनित्य हैं। शरीर भी नाशवान है। केवल आत्मा नित्य है। लक्ष्मी भी चंचल है। मृत्यु मानवको नष्ट कर देती है। मनुष्यके अभिमानकी सब चीजे, जैसे तन, धत, यौवन आदि सभी नाशवान हैं। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : १४९ केवल आत्मा शाश्वत है। इस तरह नित्य, अनिन्यका फर्क समझ कर अनित्य वस्तुओं परसे गगको कम करना ही अनित्यभावना है। (२) अशरणभावना-आमाका कोई भी आवार नहीं है। माता, पिता. स्वजन, बांधव आदि माने जाते हैं पर वे निश्चयतः किसी प्रकारकी शरण देनेवाले नहीं हैं। आत्माके ज्ञान, दर्शन व चारित्र आदि गुण ही आत्माकी तरह निय हैं। मृत्युके समय शुम, अशुभ कर्म ही साथ आते हैं, अन्य कोई भी वस्तु न उनके साथ जातो है, न मृत्युमुखमैसे उसे छुडा सकती है। केवल आत्मा नित्य है, अन्य सब अनिय है। उसीका शरण लेना, जो आत्मिक गुणोंमें वृद्धि करे। अन्य सब वृथा हैं। कोई शरण या आधार नहीं । गुरु भी गह बनानेवाला है, चलना स्वयंको है, अतः स्वाश्रयी बनना-यह अशरणभावना है। (३) संसारभावना- मसारचक्र अनन्तकालसे चल रहा है और जीव उसमें अपने अपने कमौके अनुरूप फल भोग करता है। कई जीवोंके सबंधमें यह आत्मा कई वार भिन्न भिन्न भवोमें आया है पर किसीका संबंध स्थायी नहीं, अत' आसक्तिरहित बनना । राग मनुष्यका संसार बढाता है। आसक्ति- ममत्व ही रागे है । अपने संबंध में आनेवाली आत्माका अधिक कल्याण करनेकी भावना प्रेमसे होती है, जो स्वाभाविक धर्म है अत. निस्पृही रहना। अज्ञानी बाह्य वस्तुमें सुख खोनता है पर सुख आत्मामें ही रहा हुआ है। संसारका सुख क्षणभंगुर व इन्द्रजाल समान है । संसारके स्वरूपका मनन करना-संसारभावना है। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०: धर्मविन्दु (४) एकत्वभावना- जीव अकेला ही उत्पन्न हुआ, अकेला ही मरेगा, अकेला ही कर्भका कर्ता है तथा अकेला ही भोका है। धर्मको छोड कर कुछ भी सहायकारी नहीं। सभी विचार व कार्योंसे हुआ कर्मका फल खुद ही भोगना पडता है। प्रत्येक कार्य, विचार और वासनाका स्वय उत्तरदायी है। ममत्वकी व्याधिको मिटानेके लिये सम्यग् ज्ञान ही महौषधि है। सत् , असत् , नित्य, अनित्यका विवेक ही ममताको नाश करनेवाला है। ममता मोह राजाका मन्त्र है। ममत्वसे ससार भ्रमण बढता है अतः आत्मज्ञान व एकत्वभावना बढाना चाहिये । (५) अन्यत्वभावना- आत्माके सिवाय सब वस्तुएं पराई हैं। देह, धन, स्वर्ण, गृह आदि सब वस्तुए अन्य हैं। ये सब आत्मद्रव्य से भिन्न हैं । जीव पुद्गलसे भिन्न है। सब पदार्थ पुदगलके रूपांतर हैं, यह अन्यत्वभावना है। .. (६) अशुचिभावना- शरीर ही सब कुछ है ऐसा जडवादी मानते हैं, जो मूल है । शरीर तो वन है। यह शरीर तो अपवित्र है, मल मूत्रसे भरा हुआ है। उस पर राग न रखे । उसे अशुचिभावना कहते हैं। तब भी वह ज्ञानप्राप्ति व धर्मक्रियाका साधन है। शरीर नौकर समान हैं। उसे वशमें भी रखना चाहिये तथा अनादर भी नहीं करना चाहिये । (७) आश्रवभावना- जीव प्रति क्षण शुभ या अशुभ कर्मका बंध करता रहता है। कर्मबन्धके हेतु मिथ्यात्व, अविरति, कषाय व Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : १५१ योग हैं। मैत्री, कारुण्य, प्रमोद व माध्यस्थ्य भावनासे शुभ कर्मका बंध होता है। आर्त, रौद्र ध्यानसे तथा विषय कषायसे अशुभ कर्मका बन्ध होता है । इस सराग प्रवृत्तिको आश्रव कहते हैं, इसे त्याग कर निष्काम वृत्तिसे काम करे यही- आश्रवभावना है। (८) संवरभावना- आश्रवको रोकना संवर है। नये कर्मबन्धके कार्योंको रोकना या निरोध करना संवर है। सम्यग्ज्ञानसे मिथ्यात्वका नाश करना, विरतिसे अविरतिका रोध, तथा क्रोध, मान, माया, व लोभ नामक कषायोको क्षमा, नम्रता व सरलता तथा संतोषसे क्रमशः जीते । संवर दो हैं - सर्व व देश । सर्व संवर तो १४ वे गुणस्थानक पर स्थित अयोगीके वलीको होता है। देश संवर तो एक, दो या तीन प्रकारके आश्रवको रोकनेसे संभव है । इसके दो भेद हैं- द्रव्यसंवर व भावसंवर । आश्रवसे जो मामका पुद्गल सग्रह है वह रोकना द्रव्यसंवर है । आत्माकी अशुद्ध परिणति हटा कर स्वस्वभावमे रमण करना संवरभावना है। (९) निर्जराभावना-नये कर्मोंका रोध सवर है। पूर्व बंधे हुए कर्मोको तप आदिसे तितर-बितर करना निर्जरा है। निर्जराके दो भेद हैं-सकाम व अकाम । बाह्य-अभ्यतर बारह प्रकारके तपसे केवल मोक्षकी इच्छासे सकाम निर्जरा होती है, जो विरतिसे होती है । अकाम निर्जरा विरतिभाव बिना निष्कारण कष्ट सहनसे होती है। कषाय मंद करके तप करना लाभकारी है। इच्छाका रोष रूप ही सत्य तप है, ऐसे विचारमें रहना उसे निर्जगभावना कहते है। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ : धर्मबिन्दु ( ० लोकस्वभावभावना - चौदह राजलोककी स्थिति तथा उसमें स्थित षट् द्रव्य धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, काल और जीवका विचार करना चाहिये। इस तीन लोकके स्वरूपके विचारको लोकस्वभावभावना कहते हैं । (११) बोधिदुर्लभ भावना – कई जन्म ग्रहण करने पर भी यह उत्तम स्थिति बडी दुर्लभता से प्राप्त हुई है । मनुष्य भव, पूर्ण पंचेद्रियपना, तथा धर्मश्रवणकी इच्छा होने पर भी उत्कृष्ट विशुद्धता बताने वाली -कर्म मैल दूर करनेवाली, सर्वज्ञ प्ररूपित सद्वाणीमे श्रद्धा अतिदुर्लभ है। सत्को सत् व असत्को असत् जानना दुर्लभ हैंयह बोधिदुर्लभभावना है । (१२) धर्मभावना - प्राणियोको तारने की दृष्टिसे सर्वज्ञने सद्ज्ञान सिखाया। रोहिणीया चोरको बिना इच्छाके भगवानकी वाणीका एक शब्द सुननेसे लाभ हुआ तो उसका श्रवण करके उसके अनुसार व्यवहार करनेमे कितना अधिक लाभ होगा ? | सर्वज्ञने दशविध यति धर्म तथा १२ व्रतरूप श्रावक धर्मका उपदेश दिया है । इस प्रकार धर्मका उपदेश करनेवाले सर्वज्ञ तथा धर्मका विचार धर्मभावना है । 2 यह बार भावनाओंका संक्षेपमें स्वरूप कहा ये भावनाएं रागादि मलका नाश करती है । उससे क्या होता है ? शास्त्रकार कहते हैंतद्भावेsar " इति ॥७४॥ ( १३२ ) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : १५३ मूलार्थ - उससे रागादि (क्षयसे) अपवर्गप्राप्ति होती है ।। विवेचन - तस्य-दि क्षयसे, भावे- हो जानेसे. अपवर्गमोजकी प्राप्ति । राग आदिके क्षय होनेसे सारे लोकालेकको देखनेकी शक्तिचाला केवल ज्ञान दर्शन आदिकी प्रामिसे इस संसाररून समुद्रको तैर जानेवाले संतजनों को मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है । सब पदार्थों व सच प्राणियोंके प्रति राग व द्वेपका अंत हो जाता है। तब आमा समभाव स्थित होता है। सकल लोकालोकको देखनेवाला केवलज्ञान व केवलदर्शन प्राम होता है । वह उसमें प्रगट होता हैं । इस संसार रूप समुद्रको तैरनेवाले प्राणीको मोक्ष मिलता है। मोक्षका लक्षण क्या है ? कहते हैं स आत्यन्तिको दुःखविगम इति ॥ ७२ ॥ (१३३) मूलार्थ - पूर्णतया सत्र दुःखोंका नाश मोक्ष है ||७५ || विवेचन -मः - मोक्ष, अत्यन्तम्- समस्त, सकल दुःखकी शक्तिको निर्मूल करनेसे होता है, दुःखविगम:- सारे शरीर व मन संबंधी दुःखोंका नाश | सभी दुखोंके पूर्णत नाशको ही मोक्ष कहते हैं। सारे जीवलोकसे भिन्न असाधारण, आनंदका अनुभव वहा होता है। वहां जरा भी दुःख नहीं है. सब प्रकारका उच आनन्द है । वह सुखस्थान ही मोक्ष है। वहां अन्य किसी की प्राप्तिकी इच्छा नहीं रहती । वह ट सुवास या परम फल शुद्ध चारित्रसे मिलेगा । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ : धर्मबिन्दु इस प्रकार देशनाविधिके बारेमें कह कर उसका उपसंहार करते हुए कहते हैंएवं संवेगकृद् धर्म, आख्येयो मुनिना परः। यथाबोधं हि शुश्रूषो वितेन महात्मना ॥१०॥ 1. मूलार्थ-इस प्रकार धर्मभावनावाला महात्मा मुनि, श्रोताको संवेग करनेवाला उत्कृष्ट धर्म अपने बोधके अनुसार कहे ॥१०॥ विवेचन-एवं-इस प्रकार, संवेगकत्-श्रोताको संवेग पैदा करानेवाला, आख्येय:-कहना, मुनिना-साधुद्वारा अन्य कोई धर्मोपदेश करनेका अधिकारी नहीं, पर:-अन्यतीर्थी धर्मसे अति उत्कृष्ट, यथाबोधम्-अपने बोधानुसार,-धर्माख्यानका यथार्थ बोध न होनेसे विपरीत मार्गकी प्ररूपणा होकर अनर्थ संभव है। शुश्रूषो:धर्मश्रवणकी इच्छावाले श्रोताको, भावितेन-धर्मके प्रति वासना या प्रेमसे जिस मुनिका हृदय वासित हो, क्योकि " भावसे भाव पैदा होता है" और गीतार्थके आख्यानसे श्रोताके मनमें श्रद्धा आदि गुणोकी उत्पत्ति होती है। महात्मना-प्रशंसनीय आत्मावाला, अनुग्रह करनेमे तत्पर। इस प्रकार न्यायसे संवेग उत्पन्न करनेवाला धर्म श्रोताको कहना चाहिये । मुनि गीतार्थ हो तथा भावना व श्रद्धावाला हो । सवेगका लक्षण कहते हैं । "तथ्ये धर्मे ध्वस्तहिंसा प्रबन्धे, देवे रागद्वेष-मोहादिमुक्ते। साधौ सर्वग्रन्थसंदर्भहीने, संवेगोऽसौ निश्चलो योऽनुरागः" ॥२६॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधिः १५५ — हिंसादिके नाश करनेवाले सत्यधर्मके प्रति राग, द्वेष व मोहादिकसे मुक्त - १८ दोष रहित देवके प्रति; और द्रव्य तथा भाव दोनों परिप्रहरहित साधुके प्रति जो निश्चल अनुराग पैदा हो उसे संवेग कहते हैं। सुधर्भ, सुदेव व सुगुरुके प्रति पूर्ण श्रद्धा ही संवेग है । गीतार्थ साधु ही श्रोताको उपदेश दे । अन्य उसका अधिकारी नहीं है । 'निशीथसूत्र' में कहा है कि 'संसारदुक्खमहणो, विवोहणो भवियपुंडरियाणं । धम्मो जिणपन्नत्ता, पकप्पलइणा कहेयव्वो " ॥९७॥ 1 ss -- संसारके दुखको नाश करनेवाला, भविजनरूपी कमलकों विकसित करनेवाला या प्रतिबोध करनेवाला और जिन भगवंतद्वारा निरूपित धर्मको ' निशीथसूत्र का अध्ययन किया हुआ मुनि कहे । वह मुनि अपने वोधके अनुसार धर्मोपदेश दे । इसके लिये कहा है कि—— "K 'न ह्यन्धेनान्यः समाकृष्यमाणः सम्यगध्वानं प्रतिपद्यते " । -अंधा मनुष्य अधेद्वारा मार्ग दिखाये जाने पर सही राह नहीं पा सकता । वह गीतार्थ धर्मके बारेमें शास्त्र श्रवणकी इच्छासे उपस्थित श्रोताको उपदेश दे । मुनिके मनमें धर्मकी वासना जत्रत हो । श्रोताजनों पर अनुग्रह करनेमें तत्पर प्रशंसनीय महामुनि श्रोता जनको धर्मोपदेश दे । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ : धर्मविन्दु धर्मकथनका क्या फल है ? कहते हैं - अबोधेऽपि फलं प्रोक्तं, श्रोतॄणां मुनिसत्तमैः । कथकस्य विधानेन नियमाच्छुद्धचेतसः ॥ ११ ॥ मूलार्थ - उत्तम मुनि कहते हैं कि यदि श्रोताको लाभ न हो तो भी शुद्ध चित्तवाले उपदेशकको विधिवत् उपदेश - क्रियाका निःसंशय फल होता ही है ॥। ११॥ विवेचन - अबोधेऽपि सम्यक्त्वका बोध न होनेपर भी, फलम्क्लिष्ट कर्मका निर्जरारूप फल, श्रोतॄणाम् - श्रोताओंको, मुनिसत्तमैःअरिहंतद्वारा, कथकस्य - धर्मोपदेशक साधु, विधानेन - चाल, मध्यम, या बुद्धियुत श्रोताओकी अपेक्षासे, नियमाद्- अवश्य, शुद्धचेतस:शुद्ध चित्तवाला । श्रीअरिहंत भगवान द्वारा कहा हुआ है कि जो शुद्ध हृदयवाला धर्मोपदेशक साधु सबको उपदेश करता है उसे श्रोताओको बोध न होने पर भी कर्म निर्जरारूप फल तो अवश्य मिलता ही है। यदि अन्य प्रकारसे देशनाका फल मिले तो इस बोध करानेका क्या प्रयोजन कहते हैं नोपकारो जगत्यस्मितादृशो विद्यते कचित् । यादृशी दुःखविच्छेदाद्, देहिनां धर्मदेशना ॥ १२॥ मूलार्थ - प्राणियोंके दुःखका विच्छेद करनेसे धर्मदेशना जो उपकार करती है वैसा जगतमें दूसरा उपकार नहीं ||१२| Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ देशना विधि : १५७ विवेचन-दुःखविच्छेदात्-शरीर व मनके सब दुखोंको अंत करनेवाला, देहिनाम्-व्यक्ति (सुननेवाले ), धर्मदेशनादेशनासे उत्पन्न मार्ग में श्रद्धा आदि गुण ।। देशना योग्य प्राणियोको इस जगतमें किसी भी काल या क्षेत्रमें शरीर व मनके दुःखोंको नाश करनेमे धर्मदेशना जितनी उपकारक है उतना उपकार किसी अन्य पदार्थसे संभव नहीं। देशनासे मार्ग श्रद्धा आदि गुण पैदा होते हैं। सारे क्लेशोसे पूर्णतः रहित मोक्षको लानेमें वह गुण सफल (अवन्ध्य ) कारण है। धर्मदेशनासे मार्ग पर श्रद्धा होती है, तथा उससे मोक्ष मिलता है। अत बोध देने में पालस नहीं करना । श्रोता देशनाश्रवणमें आलस न करें। ___ ज्ञान प्राप्त होनेसे अज्ञानांधकारका नाश होता है तब हेय व उपादेयका यथार्थ ज्ञान होता है। जितना भी ज्ञान प्राप्त हो उसे काममें लाना चाहिये । उससे अधिक ज्ञान प्राप्त करनेके योग्य बनते हैं और अधिक ज्ञान मिलता है। श्रीमुनिचन्द्रसरि द्वारा विरचित धर्मविन्दुकी टीकाका देशनाविधि नामक द्वितीय अध्याय समाप्त हुआ। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय । प्रथम व द्वितीय अध्यायमें गृहस्थके सामान्य धर्मका तथा चाल जीवका धर्म की ओर आकर्पण कैसे करना इसका विवेचन है । अव जीव किस राह जाकर मोक्षका अधिकारी होता होगा यह बताते हैं द्वितीय अध्यायकी व्याख्या हो चुकी, अत्र तृतीय अध्याय प्रारंभ करते हैं । उसका प्रथम सूत्र यह है 1 } सद्धर्मश्रवणादेवं, नरो विगतकल्मषः । ज्ञाततत्त्वो महासत्त्वः परं संवेगमागतः ॥१३॥ ॥ मूलार्थ - सद्धर्म श्रवणसे जिसका पाप चला गया जिसने तच्च पा लिया है और जो महान पराक्रमवाला है ऐसा श्रोता पुरुष उत्कृष्ट संवेगको प्राप्त हुआ है । विवेचन- सद्धर्मश्रवणात् - पारमार्थिक सत्य धर्मके सुननेसे, एवं उक्त रीति से, नरः - श्रोता, विगतकल्मषः - पापरहित, ज्ञाततत्व:- जीव व पदार्थ तत्त्वका भेद पा गया है, जिसने शात्ररूपी - नेत्र-बल से जीवादि वस्तुवादको हाथमें रहे हुए बडे मोतीकी तरह Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्य विशेष देशना विधि : १५९ देख लिया है. महासत्व - शुद्ध श्रद्धा प्रगट होनेसे प्रशंसनीय पराक्रमवाला, परं संवेगम्-उत्कृष्ट संवेगवाला । विशेष धर्मकी व्याख्या करते हैं । उसका अधिकारी बताते हैंजिम श्रोताका सत्य धर्मश्रवण करनेसे मिध्यात्व मोह आदि मन्त्रिनताका नाश हो चुका है, जिसने चालवलसे जीवादि वस्तुवाद व तत्त्वको समझ गया है और शुद्ध श्रद्धासे उत्कृष्ट संवेग को पा चुका है तथा शुद्ध श्रद्धासे महान पराक्रनवाले धर्मका अधिकारी है। संवेग पाने पर वह क्या करे. कहते हैं " 1 धर्मोपादेयतां ज्ञात्वा संजातेऽच्छोत्र भावतः । दृढं स्वशक्तिमालोच्य ग्रहणे संप्रवर्तते ||१४|| मूलार्थ - धर्मकी उपादेयता जानकर, धर्म के प्रति भावना सहित, स्वशक्तिका दृढ विचार करके मनुष्य उसे अंगीकार करने की प्रवृत्ति करता है । विवेचन - धर्मोपादेयताम् - धर्म ग्रहण करने लायक है, ऐसा भाव रखे, या ज्ञात्वा - जानकर, संजातेऽच्छ:- धर्म प्राप्तिकी इच्छा या ऐसा परिणाम होना, दृढं पूर्णतया सूक्ष्मरीतिसे, स्वशक्तिअपने सामर्थ्यका विचार करके, ग्रहणे - योगवंदन आदि शुद्धिरूर विधिले तत्पर होकर धर्म ग्रहण करनेमें, संप्रवर्तते ठीक प्रवृत्ति करे। " वह धर्मका अधिकारी धर्मकी उपादेयताको जानता है । धर्मकी उपादेयता कैसी है? कहते हैं Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० : धर्मविन्दु " एक एव सुहृद्धर्मो, मृतमप्यनुयाति यः । शरीरेण समं नाश, सर्वमन्यत् तु गच्छति " ॥९८॥ --धर्म ही ऐसा सुहृद्-मित्र है जो मृत्यु होने पर भी जीवके साथ जाता है और धर्मको छोडकर अन्य सब शरीरकी तरह उसीके साथ नष्ट हो जाता है। धर्मकी ऐसी उपादेयता जानकर उसकी प्रापिकी इच्छा हो तब दृढरूपसे अपने सामर्थ्यका विचार करके शुद्ध विधिसे धर्म ग्रहण करनेकी प्रवृत्ति करे । यदि शक्तिका ठीक विचार न करके शक्तिसे ज्यादा धर्मको ग्रहण करे तो भंग होना सभव है, जिससे उलटा अनर्थ संभव है अत: पूर्ण व दृढ विचार आवश्यक है। ___क्या यही व्यक्ति धर्म ग्रहण करनेका अधिकारी हैं ? अन्य क्यों नहीं ? कहते हैंयोग्यो ह्येवंविधः प्रोक्तो, जिनैः परहितोद्यतैः। फलसाधनभावेन, नातोऽन्यः परमार्थतः ॥१५॥ मलार्थ-परहितमें उद्यत जिनेश्वराने फल साधनाके भावसे ऐसे ही लक्षणोंसे युक्त पुरुषोंको योग्य कहा है । वस्तुतः अन्य पुरुष इसके योग्य नहीं है।. विवेचन-योग्यः-भव्य, एवंविधः-इस प्रकारके उपरोक गुणोवाला धर्मग्रहणके योग्य नर, परहितोद्यतैः-सब जीव लोकके कल्याणमें उद्यत प्रभुद्वारा, फलसाधनभावेन--फल साधनाके Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि ः १६४ भावसे योग्यको ही अधिकारी कहा है, अन्या-इससे भिन्न, परमार्थता-वस्तुतः। श्री जिन भगवान जो लोकका कल्याण करनेवाले हैं, उन्होंने उपर्युक्त श्लोकोमे वर्णित गुणवाले पुरुषको ही इस विशेष धर्मके ग्रहणका अधिकारी माना है। क्योकि ऐसा साधक ही मोक्ष नामक साध्य फलकी साधना कर सकता है। अयोग्य पुरुष जो सामान्य धर्मका भी ठीक पालन न कर सके वह विशेष धर्मको कैसे सफलतासे पाल सकता है। साथ ही शासनकी उन्नति भी योग्य व्यक्तिके धर्म ग्रहण करनेसे ही होती है । अन्य व्यक्ति वस्तुत. इस विशेष धर्मका अधिकारी नहीं है, क्योंकि वह मोक्षफलकी साधना नहीं कर सकता। इति सद्धर्मग्रहणाहे उक्तः, साम्प्रतं तत्पदान विधिमनुवर्णयिष्यामः ॥१॥ (१३४) मूलार्थ-इस प्रकार सद्धर्म ग्रहण करने योग्य पुरुषका वर्णन किया। अब उस सद्धर्मको देनेकी विधि कहते हैं ॥१॥ विवेचन-धर्म अपनी चित्तशुद्धिके आधीन है तो उसके ग्रहण करनेसे क्या कहते हैं किधर्मग्रहणं हि सत्प्रतिपत्तिमद् विमलभाव करणमिति ॥२॥ (१३५), मलार्थ-सत्प्रतिपत्तिसे धर्म ग्रहण करना निर्मलभावका कारण है ।।२।। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२: धर्मबिन्दु विवेचन-सवप्रतिपत्तिमद्-स्वशक्तिका विचार करके धसकी शुद्धि प्राप्त करनेसे, विमलभावकरणं-अपने फलके उत्कृष्ट साधनसे सफल परिणाम उत्पन्न करनेवाला। ___ऊपर कहे हुए धर्मको सत्प्रतिपत्तिसे-अपनी शक्तिका विचार करके शुद्ध परिणामसे अंगीकार करनेसे वह विमल भावनाको पैदा करता है । यदि अपनी शक्तिका दृढ विचार करके धर्मको ग्रहण करें तो उसका उत्कृष्ट फल अवश्य मिलता है, जिनसे निर्मल भाव पैदा होता है । अतः विधिपूर्वक धर्म ग्रहण करनेका वर्णन करते हैंतच्च प्रायो जिनवचनतो विधिनेति ॥३॥ (१३६) मूलार्थ-प्रायः वह धर्मग्रहण वीतरागके सिद्धांतके अनुसार निम्न विधिसे होता है ॥३॥ विवेचन-तच-वह सत्प्रतिपत्ति सहित धर्मग्रहण, प्राय:ज्यादातर, जिनवचनता-श्रीवीतराग प्रभुके, सिद्धांतसे, विधिनाकही जानेवाली। प्रायः इस विधिसे वीतरागके सिद्धांतके अनुसार धर्मग्रहण करनेसे विमलभाव पैदा होता है। कभी कभी मरुदेवी आदिको जैसे बिना धर्म ग्रहणके भी विमलभाव पैदा होता है, इस विधिसे सत्प्रतिपत्तिवाला धर्म ग्रहण किया जाता है। इति प्रदानफलवत्तेति ॥४॥ (१३७) मूलार्थ-इस प्रकार धर्मका दान मफल होता है ॥४॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि । १६३ विवेचन-इस प्रकार सम्प्रतिपत्ति सहित.धर्मका, विधिवत् ग्रहण करनेसे विमल भाव पैदा होता है। गुरु यदि शिष्यको, अनुग्रह व उपकारपूर्वक धर्मग्रहण करावें तो, गुरुआशिष्से वह, गिष्यको उपकार, करनेवाला व अधिक फल प्रदान करनेवाला होता है। अन्यथा अविधिसे या, अयोग्य, पुरुषको क्रिश हुआ. धर्मका दान, उपर भूमिमें बोये हुए की तरह प्रायः निष्फल होता है। ____ पहले योग्य पुरुषका विशेषतः धर्म ग्रहण करनेको कहा है, जिसने प्रायः श्रावक धर्मका अभ्यास, या पालना ठीक तरहसे किया है। वह यतिधर्मके योग्य होता है, अतः जो विशेष प्रकारका गृहस्थधर्म, है वह ग्रहण करनेकी विधि पहले कहते हैंसति सम्यग्दर्शने न्याय्यमणुव्रतादीनां ग्रहणं नान्यथेति ॥५॥ (१३८) मूलार्थ-सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होने पर अणुव्रत आदि ग्रहण योग्य होता है अन्यथा नहीं ॥५॥ विवेचन-सति-होते पर, सम्यग्दर्शने-सम्यक्त्व प्राप्त होने पर, न्याय्यम्-योग्य, अणुव्रतादीनाम्-५ अणुनत, ३ गुणवत, ४ शिक्षाबत-इस प्रकार श्रावकके १२ व्रत । सम्यगदर्शनकी प्राप्ति होने पर अणुव्रतादिका ग्रहण करना योग्य है, विना समकिन प्राप्तिके ये व्रत निष्फल जाते हैं। जब तत्वको तत्वरूपसे जान ले, तभी उसके योग्य व्यवहारकी इच्छा होती है। तभी उसे श्रावकके १२ व्रत-अगुव्रत, गुणवत, शिक्षा, Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ : धर्मबिन्दु व्रतको ग्रहण 'करना न्याय्य है। यदि सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति न हो तो १२ व्रत धारण करना वृथा है । क्योकि तब वे निष्फल हो सकते हैं। कारण कि बिना क्रियाका भाव फल नहीं होता । कहा है " सस्यानीवोपरे क्षेत्रे, निक्षिप्तानि कदाचन । न व्रतानि प्ररोहन्ति, जीवे मिथ्यात्ववासिते ||१९|| " संयमा नियमाः सर्वे, नाश्यन्तेऽनेन पावनाः । क्षयकालाजलेनेव, पादपाः फलशालिनः " ॥१००॥ — जैसे ऊपर भूमिमें बोये हुए बीज कभी नहीं ऊगते उसी प्रकार मिध्यात्ववासना से भरे हृदय में ये व्रत नहीं फलते, इनके अंकुर नहीं निकलते या कर्मक्षय रूप फल पैदा नहीं होता । जैसे प्रलयकालकी अग्निसे सभी फलशाली वृक्ष नष्ट हो जाते हैं वैसे ही इस मिथ्यात्व से सब पवित्र संयम और नियम नाश हो जाते हैं । सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति कैसे होती है सो कहते हैं— जिनवचनश्रवणादेः कर्मक्षयोपशमादितः सम्यग्दर्शनमिति ॥ ६॥ (१३९) मूलार्थ - जिनवचनके श्रवणादिकसे और कर्म के क्षयोपशम आदि से सम्यग्दर्शन होता है ॥६॥ विवेचन- जिनवचनश्रवणादे: - जिन भगवानके वचनका श्रवण तथा उसमें श्रद्धाकी उत्पत्ति तथा भव्यत्वके परिपाकसे उत्पन्न जीवकी वीर्यशक्ति और उससे, कर्मक्षयोपशमादितः - कर्म याने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मिथ्यात्व मोह आदिका क्षयोपशम, उपशम Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि.: १६५ व क्षयके गुणसे, सम्यग्दर्शन-तत्त्वमें श्रद्धा जो स्वाभाविक रीतिसे या उपदेशसे होती है- . . . . कर्मक्ष्यका रूप इस प्रकार है खीणो निव्वायहुआसणो ध्व, छारपिहिय व्व उवसंता। वरविज्झायविहाडिय, जलणोवम्मा खमोवसमा " ॥१०॥ आयिक भाव बुझे हुए अग्नि समान, उपशमभाव राखसे ढंकी हुई अग्नि समान तथा क्षयोपशमभाव थोडा वुझा हुआ व थोडा बिखरा हुआ अग्नि हो उसके समान है। जिन वचनको श्रद्धासे सुननेसे तथा भव्यत्वके पकने या समीप होनेसे उत्पन्न कर्मके क्षयोपशम आदिमे सम्यग्दर्शनको प्राप्ति होती है। विरुद्धताका नाश करके कदाग्रह रहित शुद्ध वस्तु बतानेवाला, तीनं क्लेशसे वर्जित, उत्कृष्ट अशुभ कर्मबन्धका अभाव पैदा करनेवाला आत्माके शुभ परिणामरूप सम्यग्दर्शन है; उसकी प्राप्ति कैसे होती हैं उसका स्वरूप या यहचान क्या है । कहते हैं"प्रशमसंवेगनिदानुकम्पाऽस्तिक्याभिव्यक्ति लक्षणं तदिति ॥७॥ (१४०) - मूलार्थ-प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्यइन लक्षणोंवाला सम्यग्दर्शन है ॥७॥ विवेचन-प्रशम-स्वभावसे क्रोधादि क्रूर कषाय रूप विषके विकारसे उत्पन्न कटु फलको देख कर उसका निरोध करना, संवेगमोक्षकी अभिलाषा, निद-संसारसे उद्वेग होना, अनुकम्गा-दुःखी Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ : धर्मबिन्दु 'प्राणी पर द्रव्य तथा भावेसे दया, आस्तिक्य-निन भगवान द्वारा कथित ही निःशक सत्य है ऐसा मानना । जिस व्यक्तिमें प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्यये पाँची गुण संथा लक्षण प्रगट हो तथा जिनके हृदयमै इनका उदय हो वह 'सम्यग्दर्शनवाला है। इस प्रकार सम्यग्दर्शनकी शुद्धि होने पर गुरुको जो करना चाहिये वह कहते हैंउत्तमधर्मप्रतिपत्यसहिष्णोस्तत्कथनपूर्वमुपस्थितस्य विधिनाऽणुव्रतादिदानमिति ॥८॥ (१४१) मूलार्थ-उत्तम (यति) धर्मको ग्रहण करने में असमर्थ, अपने पास धर्म ग्रहण करने के लिये आये हुए पुरुषको अणुव्रत आदिका स्वरूप समझाकर उसका विधिवत् दान करें।।। विवेचन-प्रतिपत्ति:-लेनेमें या पालनमें,असहिष्णु:-असमर्थ, तत्कथनपूर्वम्-स्वरूप व भेद सहित अणुव्रतादिको कह कर, उपस्थितस्य-ग्रहण करनेको तत्परः। -इस भव्य-जीवके सामने जो संसारसे डर कर -धर्म ग्रहण करनेको तैयार है, उसको पहले क्षमा, मार्दव आदि यतिधर्मका सविस्तर वर्णन करके उसे यतिधर्म ग्रहण करने योग्य करना। क्योंकि वही सर्व रोगोको हरण करनेवाली औषधि है। यदि वह अभी भी विषयमुंख आदिकी तृष्णासे उत्तम ऐसे क्षमा, कोमलता आदि गुणवाले यतिधर्मको अंगीकार करनेमें असमर्थ हो तो उसे अणुव्रत आदिके Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि :१६७ स्वरूप व मैदीको वर्णन करके विधिसहित अणुव्रत आदि श्रीवकके १३ अतोको दान करें, जब वह धर्मग्रहण करने को तत्पर हो। बिना यतिधर्म कहैं श्रीवक धर्म प्रदान करे तो जो दोष होता - सहिष्णोः प्रयोगेऽन्तसय इति ॥९॥ (१४२) १, मूलार्थ-समर्थ व्यक्तिको व्रतदानसे यतिधर्ममें अन्तराय होता है। विवेचन सहिष्णोः उत्तम (यति) धर्मका पालन करने में समर्थ, प्रयोगे-अणुव्रत आदिका दान करनेसे, अन्तरीय चारित्र धर्म पालनमें रुकावट। यदि वह व्यक्ति चारित्र धर्मका पालन करने योग्य है, समर्थ है और उसे श्रावकके ३२ त प्रहण करा दिये जाय तो गुरुद्वारा चारित्र पालनमें अंतराय किया जाता है। इस अंतरायसे 'गुरुको भी भवांतरमें चारित्र प्राप्ति दुर्लम होती है, अतः प्रत्येकको उसके योग्य धर्म प्रदान करना चाहिये। .. अनुमतिश्चेतरत्रेति ।।१०।। (१४३) मूलार्थ-श्रावक धर्म देनेसे अनुमोदनी दोष आता है ॥१०॥ विवेचन अनुमति अनुज्ञा दोष उसकी अनुमोदना, इतरत्रअणुव्रत आदि देनेसे सौगध लिये हुए साँवा अंशसे गमन, विना सौगंध लिया हुभी सविध अंशका। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८: धर्मबिन्दु यदि वह श्रावक साधुधर्मके योग्य हो तो उसे श्रावक - धमे देनेसे जिस सावध अंशका वह पञ्चरखाण नहीं करता उससे अनुमोदना दोष होता है। यदि वह यतिधर्म ग्रहण करता तो वह सावद्य आचरण करता ही नहीं । अत: जो भी सावध आचरण वह करे उसमें उसकी अनुमोदना हो जाती है। साथ ही यावज्जीव उस साधुको अपने सर्व पाप रहित यतिधर्मके नियममें मलिनता आती है। अत: उसे. पहेले यतिधर्म कह कर फिर श्रावक व्रत ग्रहण करावे। ऊंचेके योग्यको नीचा स्थान देनेसे अंतराय होता है । 'नीचे के योग्यको ऊंचा स्थान देनेसे वह उभयभ्रष्ट होता है। अतः सबको उसके योग्य धर्म ग्रहण कराना चाहिये। . अन्यथा जो दोष है वह कहते हैंअकथन उभयाफल आज्ञाभङ्ग इति ॥११॥ (१४४) - मूलार्थ-(ऐसे) न कहनेसे दोनों धर्मके फल रहित होनेसे आज्ञाभंग होता है ॥११॥ ___ 'विवेचन-आज्ञाभङ्गः भगवानके शासनके 'खत्म होने रूप दुःखद अंत । ____यदि उत्तम चारित्रधर्मके पालनमें असमर्थ पुरुषको श्रावकधर्म न कहे तो वह यतिधर्म व श्रावकधर्म दोनोंके फलसे वंचित रहता है। उससे भगवानके शासनकी आज्ञा भंग होती है "श्रममविचिन्त्यात्मगतं, तस्माच्छ्रेयः सदोपदेष्टव्यम् । आत्मानं च परं च हि, हितोपदेष्टाऽनुगृह्णाति" ॥१०२॥ -('तत्त्वार्थसूत्रटीका'कारिका) Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : १६९ > -उपदेष्टा गुरु उपदेश करनेसे होनेवाले अपने श्रमका विचार किये बिना कल्याणका उपदेश करे । हितका उपदेश करनेवाला गुरु अपने व दूसरे दोनों पर अनुग्रह करता है । " क्यों यतिधर्मके अयोग्य 'पुरुषको श्रावकधर्म ग्रहण करानेसे, बिना त्याग किया हुआ जो सावध अंश (पाप सहित कार्य ) रहता है जिसे वह करेगा, उसके अनुमोदनका दोष गुरुकों नहीं होगा? कहते हैं— ܐ भगवचनप्रामाण्यादुपस्थितदाने दोषाभाव इति ||१२|| (१४५) मूलार्थ - भगवानके वचनके प्रमाणसे श्रावकधर्म ग्रहण करनेमें तत्पर पुरुषको उसका दान करनेमें दोष नहीं है ॥ १२ ॥ " "विवेचन-' उपासक दशांग' आदिमें भगवानने स्वयं आनंद आदि श्रावant अणुव्रतादि श्रावकधर्म ग्रहण कराया है ऐसा पाठ है। भगवानको 'उसमें अनुमति दोष नहीं है। भगवानका आचरण सर्वांग सुंदर है, अतः वह एकांत दोष रहित है । अनादि श्रावधर्म ग्रहण करनेको तत्पर पुरुषको भगवानके वचनकी प्रामाणिकतासे अणुव्रतादि श्रावकधर्म ग्रहण कराने में गुरु केवल साक्षी मात्र रहता है। अन्य पापव्यापार न रोकनेसे उसे उसका अनुमति दोष नहीं लगता । व्रतका अभाव अनादि कालसे है, उसमें गुरुकी कोई साक्षी नहीं है। व्रत लेनेवाला उतना ही व्रत लेना चाहता है अतः उसमें गुरु साक्षी देता है पर बाकी अनतमें पहलेसे Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० : धर्मविन्दु ही उसकी प्रवृत्ति है और वह उसे रोकता नहीं || गुरुको अनुमोदना दोष नहीं आता वह कैसे ? कहते हैं— गृहपतिपुत्रमोक्षज्ञातादिति ॥ १३॥ (१४६) मूलार्थ - गृहपति पुत्रको मुक्त करानेके दृष्टांसे ज्ञात होता है ||१३|| विवेचन-निम्न कथानकमें गृहपति नामक गृहस्थने राजगृहसे अपने एक पुत्रको मुक्त कराया, उस दृष्टांत परसे ऐसा ज्ञात होता है। उसका भावार्थ कथानक परसे समझमें आ सकता | वह कथानक इस प्रकार है [गृहपतिका कथानक ] मगध नामक एक देश था, जिसमें स्त्रियोंके कटाक्षसे अप्सराओके विलासको भी नीचा देखना पडे उससे वह सारा देश J 1 रमणीय था। वहा हिमालय पर्वत जैसे शुभ्र महल थे। उस महलके 1 t उच्च शिखरोंसे शरद् ऋतुके श्वेत मेघ जैसा शोभायमान वसंतपुर नगर दिखाई देता था । उसका प्रतिपालक जितशत्रु नामक राजा था । सेवा करने के समय जब कई राजी उसे एकसाथ मस्तक नमाते थे तो उनके मुकुटोंमें रहे हुए माणिकोंकी किरणोंसे उसके चरणकमले हुए दिखते थे। अपनी प्रचंड भुजासे तलवार द्वारा उसने अपने शत्रुके मदोन्मत्त हाथियोंके कुंभस्थलको मैदा था, वह यथार्थ रक्षक 1 " था। उसके धारिणी नामक रानी थी, जो मनुष्य मात्रके नेत्र तथा 1 मनको हरण करनेमें समर्थ थी । वह अपने पूर्वभव कृत पुण्यके Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : १९ फलाकी उपमोग करती थी और अपने भोग' और ऐश्वर्यसे अप्सरीओंक गैविकी भी हरण करती थी। वह जितशत्रु राजा, जिससे सर्व दूषण दूर भागते थे, अपनी प्रियाके साथ पंच प्रकारके मनोहर भोग भोगता हुआ रहता था। उस समय उसी शहरमें समुद्रदर्स मामक सेठ रहता था। उसके पास कई सेवक तथा जनावर थे। उसके भंडीर घान्य से भरपूर थे और वह स्वर्ण आदि धातुएं तथा भणि, माणिक, शिला, मुक्ता, प्रवाल, अमराग, वैडूर्य, चन्द्रकान्त, इन्द्रनील, महानील, राज आदि उत्तम प्रकारके पदार्थोंसे परिपूर्ण समृद्धिवान तथा कुवेरके गर्वको हरण करनेवाला था। वह दीन, अनाथ, अंध, पंगु आदि प्राणियोंके शोकका हरण करानेवाला था। वह चणिक शिरोमणि, सुंदर आकृतिवाला तथा सर्व शुभ गुणोंका आगार था। ... उसको सुमंगला नामक पतिव्रता स्त्री थी। वह स्त्री सर्व लावण्यके गुणोंका भाँधीर, सर्व कल्याणकारी वस्तुओंको उदाहरण स्वरूप पुण्यरलोक महामहाररूप, स्वर्कुल सततिके आभूषणरूप और कोमलतामें वनलताके समान तथा संघर्मचारिणी थी। उसके साथ गाढ अनुरागसे बद्ध वह सेठ'विषयसुख सागरमें निर्मम होकर समय व्यतीत करता था। . समुदत्त और सुमंगलाके समय व्यतीत होने पर उनके निर्मल आचारसे पवित्र, प्रियकर, क्षेमकर, धनदेव, सोमदेव, पूर्णभद्र और माणिभद्र नामक छ पुत्र उत्पन्न हुए। वे स्वभावसे ही गुरुजनोंका विनयं करनेमें तत्पर थे। उनका परम कल्याणकारी और शुद्ध धर्म, TE Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ : धर्म विन्दु J -अर्थ व काम नामक त्रिवर्ग पर पूर्ण अनुराग था । उनके लोकप्रिय स्वभावसे कीर्तिकामिनी उनका वरण कर चुकी थी। वे सर्व सज्जनोंके मनको संतोष देनेनाले और दया, दान व दाक्षिण्य आदि महत् गुणोंसे अलंकृत थे। उनके सुंदर शरीरकी लावण्यता कामदेवकी सुंदरता को नीचा दिखती थी। उन छहों पुत्रोंने वणिक जनों के योग्य श्रेष्ठ व्यवहारसे अपने पिताको कुटुंबकी चिंताके अतिशयं भारसे मुक्त - कर दिया था । एक समय अतः पुरमें जब राजा जितशत्रु सुंदर वाद्य 'बजा रहे थे, उनकी सी धारणीने अनेक अवयवोके हावभावसे अति आनंद-दायक नृत्य किया । राजाने हर्षातिरेकसे रानीको वरदान मागनेको कहा। घारणी बोली-" अभी वह वरदान आपके पास रहने दो, मैं अपनी इच्छाके समय वरदान मांग लूंगी " । कुछ समय व्यतीत होने पर कामीजनोके विलास व उल्लासका सहायक शरद पूर्णिमाका - दिवस आया। उस देवीने राजासे जाकर कहा - " हे देव ! प्रथम दिये हुए वरदानको अर्पण करो । आज रात्रिमें जब कर्पूरके समान उज्ज्वल चंद्रकिरणों से सब दिशाएं व्याप्त हैं, मैं इस महान नगरीको अपने पूर्ण परिवार सहित तथा शेष अंतःपुर सहित सब चौराहे, बाजार आदि रमणीय प्रदेशों की सुंदरता को देखनेके लिये इधर उधर सर्वत्र घूमनेकी अभिलाषा रखती हूं। तब राजाने नगरमें सर्वत्र यह घोषणा करवाई कि आज रात्रिमें सर्व पुरुष (नर) नगर छोड कर बाहर चले जाय । सर्व जन अपनी अपनी अनुकूलताको देख कर गहरसे बाहर जाने लगे। राजा भी Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : १७३ यथोचित समय पर मंत्री आदि नगरके प्रधान व्यक्तियों सहित नगरके बाहर ईशान दिशामें स्थित मनोरम उद्यानमें चले गये। वे छहों श्रेष्ठीपुत्र हिसाव आदि करलेमें व्यग्र हो जानेसे " अभी जाते हैं, अभी जाते हैं" सोचते हुए सन्ध्या समय तक दुकानसे वाहर न जा सके। सूर्य अस्त हो गया और ज्यों ही वे वेगसे बाहर जाते समयमानों उनके जीनेकी आशाके साथ ही नगरद्वारके दानों पुर वद हो बानेसे उनके जीनेकी आशा भी जाती रही। अपने जीवनको बचानेके लिये कोई न देखे उस प्रकार लौट कर गृहके अंदर गुप्ठभूमिमें जाकर छिप गये । धारिणी रानी मी श्रेष्ठ शृंगार धारण करके अतःपुर तथा परिवार सहित रात्रिमें उस पुरुष रहित नगरमें घूमने लगी। प्रातःकाल होने पर कमलको विकसित करनेवाला, टेसूके समान चमकते हुए रंगसे दिशा मंडलोंको रंजित करनेवाला जगत्के नेत्रसमान सूर्य उदय हुआ । उस समय राजाने पुरुषोंके नगरमें प्रविष्ट होनेसे पहले नगर स्खकोंको आज्ञा दी-" इस शहरको भलो भाति देख कर पता लगाओ कि कोई मेरी आज्ञा भंग करनेवाला व्यक्ति तो वहां नहीं हैं " - नगरको देखते हुए वे यमके दूत समान नगररक्षक उन छ श्रेष्ठि पुत्रोंके समीप भाये तथा उनको पकड कर राजाके समक्ष ले गये । तब उस राजने क्रोधसे कुपित होते हुए यमराजाके समान भीषण अकुटी सहित ललाटसे उन श्रेष्ठी पुत्रोंको वध करनेकी आज्ञा Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ : धर्मविन्दु प्रदान की। मुद्गरके आघात, समान, यह बात, जव, सेठके कानों में पड़ी तब वह एकदम निश्चल व शांत हो गया। उसकी बुद्धि प्रांत, हो गई, तथा उसका मन, पीडित हो उठा। हस्तीके समान. बुड़े मगरके करास्फालनसे, उद्वेलित हुए समुद्रके मध्यमें स्थित टूटते हुए जहाजके मनुष्यों समान व किंकर्तव्यमूढ हो गया । क्षणभर तो वह दारुण कष्टका भनुभव करने लगा । कुछ देर पश्चात् कायर मनुष्यों समान धैर्यको धारण करके, नगरके मुख्य लोगोंकी सहायतासे उत्तम रहनादि हाथमें ग्रहण करके राजाके सम्मुख विनति करनेके लिये उपस्थित हुआ। उसने प्रार्थना की कि-"हे. महाराजा! किसी भी चित्तके दोषसे मेरे पुत्र नगरके बाहर निकलने में असमर्थ नहीं हुए परंतु उस प्रकारके हिसाब आदिमें व्यग्र हो जानेसे पहले नहीं निकल सके तथा सूर्यास्तके समय जब नगरके बाहर निकलने लगे तो वेगसे चलने पर भी दरवाजे बंध हो जानेके कारण वे बाहर नहीं जा सके । अतः उनका यह एक अपराध, क्षमा कीजिए और मेरे प्रिय पुत्रोंको, जीवनदान देनेकी कृपा किजिये । " इस प्रकार सेठके वारवार कहने पर भी राजा उनको छोड़नेको उत्साहित नहीं हुआ। इसके क्रोधको शांत करनेके लिये एक पुत्रको छोडकर अन्य पुत्रोको छोडनेकी प्रार्थना की । राजाके न माननेसे क्रमश: दो, तीन तथा चार पुत्रोंकी अपेक्षा चार, तीन तथा दो पुत्रोंको मुक्त करनेकी प्रार्थना की। अंततः उसने पांच पुत्रोंको छोड कर ही ज्येष्ठ पुत्रको मुक्त करनेकी प्रार्थना की। तब समीपस्थ मंत्री, पुरोहित आदिने भी मुक्त करनेकी अत्यंत प्रार्थना की तथा कुलका मूलोच्छेद Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : १७५ करने से महापाप होता है ऐसा कहने पर क्रोधके मन्द्र हो जानेसे राजाने सेठके ज्येष्ठ पुत्रको मुक्त कर दिया ! इस काका भावार्थ (उपनय) इस प्रकार है इस कथानमें भाये हुए वसंतपुर नगर, राजा, श्रेष्ठी और छ पुत्रोंकी तरह क्रमशः यह संसार, श्रावक, गुरु तथा षट्जीवनिकाय हैं । जैसे वह सेठ शेष पुत्रोंकी उपेक्षा करके एक ही पुत्रको मुक्त करा पाता है और पुत्रोंके घकी अनुमति नहीं देता, उसी प्रकार गुरु भी अपने पुत्र सम षट्जीवनिकायरूप गृहस्थको साधु धर्म देकर श्रावकसे जो उनका वध करना चाहता है- मुक्त कराना चाहते हैं और उसके वर्तमानमें मुक्त करनेकी इच्छाके न होनेसे ज्येष्ठ पुत्र सभ कायको शेषकी उपेक्षा करके भी मुक्त कराते हैं, तो गुरुको शेष कायके वघका अनुमति दोष नहीं है । अर्थात् श्रावकको विशेष गृहस्थ धर्म अंगीकार कराने में जो पाप व्यापार अंश श्रावक करता है उसका अनुमोदन दोष गुरुको नहीं होता । विधिसे अणुव्रतादि ग्रहण करनेका पहले कहा है, वह विवि कहते हैं- योग़वन्दननिमित्तदिगाकारशुद्धिविधिरिति ॥ १४ ॥ (१४७) मूलार्थ - योगशुद्धि, वन्दनशुद्धि, निमित्तशुद्धि, दिकुशुद्धि और आगारशुद्धि-ये अणुव्रतादिकी प्राप्तिमें विधि हैं ||१४|| विवेचन-यहां मूलमे शुद्धि शब्द आया है, वह सबके साथ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ : धर्मविन्दु लगता हैं, अतः पूर्वोक्त अर्थ हुआ। योग तीन प्रकारके हैं-काययोग, मनयोग, वचनयोग-तीनोंके कामकी शुद्धिको योगशुद्धि कहते हैं । उपयोगसहित जाना-आना-कायशुद्धि, निर्दोष भाषण-वचनशुद्धि और शुभ विन्तन-मनशुद्धि--इन तीनोंकी शुद्धिसे योगशुद्धि होती है । अस्खलित व विना मिले हुए प्रणिपातादि तथा दंडकसूत्रके शुद्ध उश्चार और प्रतिरहित कायोत्सर्ग करना-वन्दनशुद्धि है । तत्काल उत्पन्न शख, पणव (नौबत) आदि शुभ वाजिंत्रका नाद श्रवण करना, पूर्णकुम्भ, छत्र, ध्वज, चामर आदिको देखना, शुभ गन्धको खूधना आदि निमित्तशुद्धि कहलाती है। पूर्वदिशा, उत्तरदिशा और जिस दिशामे जिनेश्वर या जिन चैत्य हों उस दिशाका आश्रय लेनादिशाशुद्धि है । राजा आदिके अभियोगसे पच्चक्खाणमे अपवाद रखनेको आगार शुद्धि कहते हैं। ' 'तथा-उचितोपचारश्चेति ॥१५॥ (१४८) . मूलार्थ-और देवगुरु आदिकी उचित सेवा करना ॥१५॥ विवेचन-देव, गुरु, स्वधर्मी बंधु, स्वजन, दीन अनाथ आदिकी यथायोग्य सेवा करना चाहिये अर्थात् जो जिसको योग्य हो वैसी सेवा करनी चाहिये । धूप, पुष्प, वस्त्र, विलेपन, आसन आदि देकर उनका गौरव बढाना-विनय करना यह सेवा भी विधिमें आ जाती है। अब क्रमशः अणुव्रतादिका वर्णन करते हैंस्थूलप्राणातिपातादिभ्यो विरतिरणुव्रतानि पञ्चेति ॥१६॥ (१४९) Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : १७७ मूलार्थ-स्थूल हिंसा आदि पांच अव्रतसे निवृत्त होनेको पांच अणुव्रत कहते हैं ||१६|| विवेचन- १. यहां प्राणातिपातका अर्थ प्रमादसे प्राणीका नाश करनेको हिंसा कहा है । वह दो प्रकारकी है- स्थूल तथा सूक्ष्म । पृथ्वी, पानी, तेज, वायु तथा वनस्पति -पव स्थावर काय सूक्ष्म हैं तथा चेइंद्रिय आदि सकाय रथूल है, जो दृष्टिगोचर भी हो सकते हैं ऐसे स्थूल प्राणीओकी हिंसा स्थूल है। इसी प्रकार - २. स्थूल मृपावाद - दिखता हुआ या ज्ञात झूठ । ३. स्थूल अदत्तादान - जान बूझ कर चोरी करना । ४. स्थूल अनह्मचर्य (मैथुन ) - स्वलीको छोड कर अन्य मैथुन, परखी, पर पुरुष, पशु, नपुंसक अथवा अप्राकृतिक मैथुन । ५. स्थूल परिग्रह - नियमित परिग्रहसे अधिक रखनेको कहते है । इन पांचोंका त्यागे, इनका न करना, स्थूल प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन व परिग्रह विरमण व्रत कहलाते हैं। वे प्रायः प्रसिद्ध हैं। इन पांचों स्थूल प्राणातिपात आदि महा पातकोंसे विरति या इनका त्याग स्थूल प्राणातिपातादि विरमण व्रत कहलाते हैं । ये पाचों अनत कहलाते हैं, कारण कि साधुके व्रतसे वे छोटे व्रत हैं। साधुके नियम महानत हैं तथा श्रावकके अणुव्रत । इन पांचोंका त्याग स्थूल प्राणातिपात आदि पांच अणुव्रत कहलाते हैं । तथा - दिगवत भोगोपभोगमानानर्थदण्ड विरतयस्त्रीणि गुणवतानीति ||१७|| (१५०) - ૨ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAM १७८ : धर्मविन्दु मूलार्थ और दिग्परिमाण व्रत, भोगोपभोगका प्रमाण तथा अनर्थदंड विरमग-ये तीन गुणवत कहलाते हैं ॥१७॥ विवेचन-शास्त्रोमें दिशाओंका अनेक प्रकारका वर्णन है। जिस दिशामें सूर्योदय होता है वह पूर्व दिशा है। अन्य पश्चिम, दक्षिण, उत्तर आदि आठ दिशाये तथा ऊपर व नीचे इस प्रकार दस दिशाओमें गमनागमन-जानेका परिमाण कर लेना, इस नियमको दिग्वत या दिग्परिमाण व्रत कहते हैं। भोजन आदि जो एकबारमें समाप्त हो जाता है-भोग कहलाते हैं। वस्त्र, स्त्री आदि जो बार बार भोगे जाते हैं-वे उपभोग कहलाते हैं। इन भोग तथा उपभोगकी वस्तुओंका परिमाण करना-उनका नियम करना-भोगोपभोग परिमाण व्रत कहलाता है। प्रयोजनके लिये धर्म, स्वजन तथा इंद्रिय आदिके शुद्ध उपकारके लिये अनुष्ठान अर्थदंड कहलाते हैं, इनके विरुद्ध कर्मको अनर्थदण्ड कहते हैं। वह अनर्थदंड चार प्रकारसे होता है-१ अपध्यानाचरित-बुरा चिंतन व ध्यानसे, २ प्रमादाचरित-प्रमाद करनेसे, ३ हिंसाप्रदान हथियार आदि हिंसाके साधन देनेसे, तथा ४ पापकर्मोपदेश-पाप कर्मका उपदेश करनेसे–चार प्रकारका अनर्थदंड होता है। इस अनर्थदंडको नहीं करना, इसका त्याग करना-अनर्थदंड विरमण व्रत कहलाता है। । ये तीनों गुणवत कहलाते हैं, गुण या उपकारके लिये ये तीनों व्रत होनेसे दिक्परिमाण, भोगोपभोग परिमाण तथा अनर्थदंड । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : १७९ विरमण - गुणव्रत कहे जाते हैं । कारण कि गुणत्रत सिवाय अणुकी शुद्धि नहीं होती । तथा - सामायिकदेशावकासिक पौषधोपवासातिथिसंविभागश्चत्वारि शिक्षापदानीति ||१८|| (१५१) सूलार्थ - सामायिक, देशावकासिक, पौषध और अतिथिसंविभाग- ये चार शिक्षावत हैं || १८ || विवेचन - सम + आय = समाय, मोक्षके साधनके प्रति समान शक्तिवाले सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रकी आय या लाभ -समाय है। राग-द्वेष के बीच दोनोंके न रहनेसे उपन्न समभावले या मध्यस्थतासे सम्यग्दर्शनादिका लाभ अथवा सर्व जीवों के साथ मैत्रीभाव के लक्षणका लाभ होता अर्थात् मैत्रीभावको प्राप्त होना समाय है । इसमें तीनों प्रकारके अर्थवाले शब्दोंमे इक प्रत्यय लगानेसे सामायिक शब्द बनता है, जिससे सर्व सवय योगका त्याग और निरवय योग अनुष्ठानरूप जीवके परिणामको सामायिक कहते हैं । देश + अवकाश-देशावकाश, देश अर्थात् कुछ अंश में पहलेसे ही ग्रहण किया हुआ दिशात्रत जैसे शत योजन आदिका परिमाणसे अवकाश अर्थात् “ आज इतने योजन तक जाना इसका नित्य पचक्खाण करना " - उसे देशावकासिक व्रत कहते हैं । ' " पोष+घ = पोषध, पोष अर्थात् गुणकी पुष्टिको धारण करनेवाला पौषध कहलाता है । अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व दिवसों में दोषनिवृत्तिके साथ " Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० : धर्मविन्दु आहारत्याग आदि गुणों सहित निवास करना उपवास कहलाता है। कहा है " उपावृत्तस्य दोषेभ्यः, सम्यग्वासो गुणैः सह । उपवासः स विज्ञेयो, न शरीरविशोषणम्" ॥१०३॥ --दोपसे निवृत्त होकर गुणो सहित सम्यक् प्रकारसे रहनाउपवास कहलाता है, गुण बिना शरीर गोषण उपवास नहीं है। इस तरह पौषध सहित उपवास करनेको पौषधोपवास व्रत कहते है। ____ अतिथये विभजनम्-अतिथिसविभागः-श्रीवीतरागके धर्मका पालन करनेवाले साधु, साध्वी, श्रावक या श्राविका-ये अतिथि कहलाते हैं। इनको न्यायोपार्जित व कल्पनीय अन्नपानादिका विभाजन करके योग्य-रचित रीतिसे अर्पण करनेको अतिथिसंविभाग कहते हैं। उमास्वाति वाचकद्वारा रचित 'श्रावकप्रज्ञप्तिसूत्र में भी इस प्रकार कहा है कि-" अतिथिसंविभाग व्रत उसे कहते हैं कि अतिथि अर्थात् साधु, साध्वी, श्रावक तथा श्राविकाको घर पर लाकर या इनके आने पर भक्तिसे उठना, आसन देना, पैर धोना, नमस्कार करना श्रादि रीतिसे सेवा करके अपनी समृद्धिकी शक्तिके अनुसार अन्न, पान, वस्त्र, औषध, स्थान आदि देकर संविभाग करना। ये चारो-सामायिक, देशावगासिक, पौषधोपवास और अतिथिसंविभाग-शिक्षावत कहलाते है। ततश्च एतदारोपणं दानं यथार्हे साकल्यवैकल्या-, भ्यामिति ।।१९।। (१५२) मूलार्थ-जिस प्रकार योग्य हो, सकलता या विकलतासे Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेप देशना विधि : १८१ धर्म योग्य प्राणीको इन व्रतोंका आगेपण या व्रतदान करना चाहिये ॥१९॥ विवेचन-धर्मके योग्य प्राणीको जिसका लक्षण कह चुके हैं ये अणुव्रत आदि व्रतोंको पूर्वोक्त विधिके अनुसार (श्रावकको) ग्रहण कराना चाहिये, इसे व्रतदान कहते है। ये दो प्रकारसे होता है-सकलतासे तथा विकलतासे। सकलतासे अर्थात् सर्व अणुव्रत, गुणवतं तथा शिक्षात्रतोंके दानको सकलतासे बतदान कहते हैं और आदिमें किसी एक दो या ज्यादा व्रतोंका ग्रहगं कराना विकलतासे बतदान होता है। इन समकित मूलवाले अणुव्रत आदि अंगीकार करानेके बाद जो करना उचित है वह इस प्रकार है:.. गृहीतेष्वनतिचारपालनमिति ॥२०॥ (१५३) मूलार्थ-ग्रहण करनेके बाद अनतिचार पालन करना या अतिचार नहीं लगने देना चाहिये ॥२०॥ - विवेचन-गृहीतेपु-सम्यगदर्शन आदि गुणोंका ग्रहण करके अनतिचारपालन-निरतिचार पालन करना-अतिचार, विगधना या देशभंग एक ही है अर्थात् व्रतका संशतः भंग । अतिचारका न होना अनतिचार है। उसका पालन या धारण करना अनतिचार पालन है। ___ सम्यग्दर्शन आदि गुण तथा अणुव्रत आदिके ग्रहण करने पर उन व्रतोंको आंगिक खंडन भी न होने देना चाहिये। जिस प्रकार बुरी हवासे शस्य-धान अपना फल पूर्ण रूपसे नहीं दे सकते उसी प्रकार अतिचार दोपसे व्रत भी अपना फल देनेमें असमर्थ हो जाते हैं अतः निरविचारपालन आवश्यक है। . Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ : धर्मविन्दु अब अतिचार कहते हैं विचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेर तिचारा इति ॥ २१ ॥ ( ९५४) शङ्काकाङ्क्षा मूलार्थ - शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दर्शनकी प्रशंसा व परिचय करना - ये छ सम्यगृहष्टिके अतिचार है ॥२१॥ ; विवेचन - यहा शंका, काक्षा तथा विचिकित्सा के लक्षण व व्याख्या " ज्ञानाद्याचारकथनमिति ॥ ११ ॥ (६९ ) " सूत्रमें कहे जा चुके हैं। जैनधर्म या वीतराग प्रणीत धर्ममें शंका करना शंका है। दिगवर आदि किसी भी अन्य दर्शनके अंगीकार करनेकी आकांक्षा करना कांक्षा है | तथा बुद्धिभ्रम - फलप्राप्ति का आदिको विचिकित्सा कहते हैं । अन्यदृष्टि अर्थात् सर्वज्ञ प्रणीत दर्शनसे भिन्न शाक्य (बुद्ध), कपिल, कणाद, अक्षपाद आदि द्वारा प्रणीत शास्त्रो व उनके अनुसार चलनेवाले लोगोकी प्रशंसा करना उनका परिचय करना - ये दो अतिचार हैं। जैसे यह पुण्यवंत है, इनका जन्म उत्तम है, ये दयालु हैं - आदि शब्द कहना - प्रशंसा करना है । संस्तव अर्थात् सहवास सहित परिचय - जो वस्त्र, भोजन, दान, आलाप आदि लक्षणोवाला है-करना संस्तव अतिचार है । ये पांचों अतिचार सम्यग्दृष्टि के है । ये सब अतिचार सम्यगदर्शनकी विराधनाके प्रकार हैं, कारण कि इससे शुद्ध तत्त्वश्रद्धा में बाधा उत्पन्न होती है । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : १८२ तथा-व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रममिनि ॥२२॥(१५५) मृलार्थ-अणुव्रत और शील व्रतके प्रत्येकके पांच पांच अतिचार हैं। ॥२२॥ विवेचन-व्रतेपु-हणुनतो, शीलेषु- शीन्त्रन अर्थात् गुणस्त तथा शिक्षात्रत-सदमें, यथाक्रमम्-अनुक्रमझे । श्रावकके सभी बार बतोमें जिसमें ५ अणुव्रत, ३ गुणत्रत तथा १ शिक्षाक्त हैं, प्रत्येक पांच पाच अतिचार होते हैं। उसमें पहले कणुनतके अतिचारवन्धवधच्छविच्छेदानिभारारोपणानपाननिरोधा । इति ॥२३॥ (१५६) मृलार्थ-वन्ध, बध, चर्म या अंगछेदन, अतिभार रखना तथा अन्नपानको रोकना-ये पांच प्रथम व्रतके अतिचार हैं।॥२३॥ विवेचन-स्थूल प्राणातिपात विरमण त नामक पहले अणुबदके बन्ध, वय, छविच्छेद, पतिमार आरोपण तथा अन्नपान निरोध- पांच अतिचार हैं । वंका अर्थ रस्सी आदिसे वांवकर संयम करना या रोकन्न । वधका मर्थ चाबुक आदिसे मारना । छवि + च्छेदः छविच्छेद अर्थात् चर्म या अंगका मेदन ग तलवार, छुरी आदिसे काटना । अतिभारारोपणका अर्थ बैल आदिके पृष्ठ पर सुपारी गदि किसी भी पदार्थका बहुत ज्यादा बोझा लादना या मनुप्यके ऊपर भी बहुत सामान देना अथवा गाडी आदिमे पशुके सामर्थ्यसे अधिक मार लादना है । अन्नपान निरोधका व्यर्थ है भोजन, Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ : धर्मविन्दु जल आदि वस्तुओका रोकना, उनको बंध कर देना अथवा अपेक्षाकृत कम मात्रामें देना है। ये सब अतिचार क्रोध, लोभ आदि कषायसे जिसका अंतःकरण कलंकित हो और जो प्राणीओको अकारण ही मारता है या कष्ट देता है उसे लगते है। जो निरपेक्ष होकर ऐसा करे उसे अतिचार लगते हैं । जो सापेक्ष बंध आदि करे तो उसे अतिचार नहीं लगते । उसकी विधि 'आवश्यकचूर्णि' आदिसे उद्धृत करके यहां लिखते हैं बंध द्विपद व चतुष्पद ( मानव तथा पशु) दोनोका होता है। वह दो प्रकारका है-अर्थसे तथा अनर्थसे । जो अनर्थ या निरर्थक वध, वह करना योग्य नहीं । सार्थक बंधके दो भेद हैंसापेक्ष और निरपेक्ष । जो पूर्णतया निश्चल प्रकारसे बांधा जाय वह निरपेक्ष । जो बंध-रस्सीकी गांठ आदिसे बांधा जावे और अग्नि आदिके प्रकोपके समय छोडा जा सके या काटा जा सके वह सापेक्ष बंध है । पशुके इस प्रकार बंधके अलावा मानवका बंध इस प्रकार है-दास, दासी, चोर अथवा प्रसादी पुत्रको यदि वह हिलडुल सके और उनका रक्षण हो सके, अग्नि आदिके भयसे नष्ट न हो। इनको सापेक्ष या सार्थक बंध कहते है, जो किया जा सकता है । पर श्रावकको ऐसे ही द्विपद व चतुष्पदोका सग्रह करना चाहिये, जो बिना बांधे भी रह सके ॥१॥ - वध भी उसी तरह है । निर्दय रीतिसे मारना जो निरपेक्ष वध है, सर्वथा त्याज्य है। वहा वधका अर्थ प्राणहानि नहीं, ताडना या Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : १८५ पीटना है, अर्थात् निरर्थक तथा निरपेक्षरीतिसे त्याज्य है । सार्थक और सापेक्षका वर्णन यहां दिया जाता है। प्रथम तो श्रावक इस प्रकार रहे कि सर्व जन उससे मानते रहे। यदि कोई विनय न करे तो उसके मर्मस्थलको छोड कर हाथ, पैर अथवा रस्सी या लकडीसे एक या दो बार ताडन करना चाहिये ॥२॥ । छविच्छेद भी उसी प्रकार समझना । हाथ, पैर, कान, नाक आदिका काटना त्याज्य है, जो निर्दवतासे व निरपेक्ष हो । सापेक्ष व सार्थक, गण्ड, व्रणसंधिका छेदन अथवा डाम (जलाना-किसी अंगको ठीक करनेके लिये ) देना है ॥३॥ अतिभारका आरोपण करना ही नहीं चाहिये। पहले तो श्रावक द्विपद आदि वाहनसे होनेवाली आजीविका छोड दे। यदि कोई अन्य आजीविका न मिल सके तो वह व्यक्ति जितना बोझा स्वयं उठा सके या नीचे रख सके उतना ही उसे देना चाहिये । चतुष्पद आदिको जितना योग्य हो उससे कुछ कम-भार लादना चाहिये और हल, बैलगाडी आदिको उचित समय पर छोड देना चाहिये ॥४॥ किसी भी प्राणीका भोजन और पानका विच्छेद नहीं करना चाहिये । अन्यथा तीन क्षुधावाला मृत्युको प्राप्त हो जाता है। इसका विच्छेद भी बंधके दृष्टातकी तरह सार्थक व निरर्थक समझ लेना चाहिये । सापेक्ष निरोध रोगचिकित्सा आदिके लिये हो सकता है। अपराध करनेवालेको वचनसे ही कहना बहुत है पर द्रव्यसे निरोध करना न चाहिये । रोग-शाति आदि निमित्तसे उपवास भी कराया जा सकता है ॥५॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ : धर्मविन्दु अधिक क्या लिखा जावे ? जिस प्रकारसे मूलगुण प्राणातिपात विरमण व्रतको कोई अतिचार न लगे उस प्रकार सर्वत्र यत्नसे कार्य करना चाहिये । शंका - व्रत अंगीकार करनेवालेने प्राणातिपात ( हिंसा ) का व्रत लिया है उसमें बंध आदि करनेसे कोई दोष नहीं, क्योंकि उससे व्रतभंग नहीं होता । यदि वंधादिका पञ्चकखाण लिया हो तो बंध आदि करनेसे व्रतभंग होता है, जिससे विरतिका खंडन होता है । प्रत्येक व्रतम पांच पाच अतिचार होनसे वह व्रतमें अधिकता हो जाती है अतः वष आदिको अतिचार नहीं गिनना चाहिये । समाधान - यह सत्य है कि प्राणातिपातका व्रत लिया है, वंध व्यादिका नहीं । परंतु प्राणातिपातका व्रत लेनेसे अर्थतः वध आदिका भीत हो जाता है ऐसा समझो, क्योंकि वध आदि प्राणातिपातके उपाय है । वध आदि करनस व्रतभंग नहीं होता किन्तु अतिचार ही लगता है | देशसे व्रतभग होना अतिचार कहलता है । व्रत अंतर्वृत्ति तथा बहिर्वृत्तिसे दो प्रकारका है। मैं मारता हूं' ऐसा विकल्प या विचार न करके कोप आदिके आवेश अन्यके प्राण जानेका न सोचकर बंध भादिकी जो प्रवृत्ति करता है उससे प्राणनाश नहीं होता, अतः दयारहित होनेसे चिरतिकी अपेक्षा बिना जो प्रवृत्ति की है वह अन्तर्वृत्तिसे व्रतभंग है और प्राणघातके अभाव से बहिर्वृत्तिसे व्रतका पार्लन हुआ है या भग नहीं हुआ । व्रतका देशसे भंग तथा देशसे पालन अविचारके नामसे पहचाना जाता है। कहा है कि--- Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि ः १८७ "न मारयामीति कृतवतस्य, विनव मृत्यु क इहातिचार !! निगद्यते यः कुपितो वघादीन्, करोत्यसोत्यान्नियमानपेक्षः॥१०॥ "मृत्योरभावान्नियमोऽस्ति तस्य, कोपाद् दयाहीनतयातु भन्नः। देशस्य भन्नादनुपालनाच, पूज्या अतीचारमुदाहरन्ति" ॥१०५॥ ___--" में प्राणीको न मारुं" ऐसा व्रत करनेवाले व्यक्तिको मृत्यु बिना अतिचार कहासे होता है ? अर्थात् नहीं। इसका उत्तर यह है कि जो कोप आदिसे वध आदि करता है और नियमकी अपेक्षा नहीं करता वह अतिचार है। __मृत्युके अमावसे उसका नियम रहत है, कोप तथा हृदयहीनताले व्रतमंग होता है या अंतर्वृत्तिसे नियम भंग होता है । अतः देशसे भंग तथा देशसे पालन पूज्य पुरुषोंद्वारा अतिचार कहा गया है । - "ये व्रतसे अधिक है " ऐसा जो कहा व अयुक्त है। विशुद्ध हिंसासे जो विरति है उसमें बंध आदि आ जाते हैं (अर्थात् उनका निषेध है) अत ये बंध आदि अतिचार हैं । बंध आदिके कहनेसे तथा उसके लक्षणसे समान ऐसे मंत्र-तंत्र आदिके प्रयोग भी अति. चार ही गिने जाते हैं। अब मृषावाद विरमण नामक दूसरे व्रतका अतिचार कहते हैमिथ्योपदेशरहस्याभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासा पहारस्वदारमन्त्रभेदा इति ॥२४॥ (१५७) मूलार्थ-इसके पांच अतिचार ये हैं-१ मिथ्या उपदेश, २ रहस्यकथन, ३ झूठे दस्तावेज या साक्षी, ४ अमानतका Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ : धर्मविन्द दुरुपयोग और ५ स्त्री आदिके साथ हुई गुप्त बात प्रगट करना ||२४|| विवेचन- १. मिथ्योपदेश - असत्य बात संबंधी उपदेशयह ऐसा है, ऐसा ही 'बोलो' इत्यादि असत्य कहनेको सिखाना । सत्य जानने पर भी असत्य कहना या कहलाना । २. रहस्याभ्याख्यान - 'रह' अर्थात् एकान्ते, वहा हुआ 'रहस्य' - रहस्य का कथन, जैसे किसी को एकांत में बातचीत करते हुए देखकर इस प्रकार कहना कि " ये लोग रांजा आदिके विरुद्ध इस प्रकार सलाह कर रहे है " या ऐसा विचार करते है आदि कहना । या किसी अन्यका ज्ञात हुआ रहस्य किसी दूसरे पर प्रकट करना । ३. कूटलेखक्रिया -असत्य अर्थ दर्शानेवाले अक्षरोको लिखना । ४. न्यासापहार-न्यास + उपहार - किसी अन्यके यहां रखे हुए रूपये आदिकी रखी हुई अमानतका समय पर न देना, गायब कर देना या स्वय उपयोग कर लेना । ५. स्वदारमन्त्रभेद - स्वारा - अपनी स्त्रीके गुम भाषणका भेद बाहर प्रकाशमें लाना। यहां स्वदारा में मित्र तथा हितैषी और विश्वास करनेवाले मित्र भी आ जाते हैं उनका रहस्य कहना | 1 मिश्रया उपदेश में 'दूसरेके पास झूठ न बुलाना' इस ब्रेनका भंग करता है । ' झंठ नहीं बोलूंगा' इस बनका खंडन नहीं होता । तो भी सहसात्कार और अनामो से अतिक्रम, व्यतिक्रम अथवा अतिचारसे अन्य व्यक्तिद्वारा झुठमें प्रवृत्ति कराना इस व्रतका अतिचार ܐ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : १८९ है। यद्यपि वह अपने व्रतकी रक्षाके लिये स्वयं झूठ न बोलने पर दूसरेके द्वारा झूठ बुलवाये या परवृत्तांत कहलाने मिथ्या उपदेश करे वह अतिचार है। वह अपने व्रतका रक्षण करनेके लिये न बोले पर अन्यको मृषावादका उपदेश करे या उसे उसमें प्रवृत्ति करावे तो वह भंग हुआ तथा न हुआ-दोनो होनेसे व्रतका अतिचार है जैसे, " देशाद् भङ्ग अनुपालनाच" देशसे भंग तथा देशसे पालनया वहिर्वृत्तिसे पालन, अंतर्वृत्तिसे भंग-यह अतिचार हुआ। रहस्याभ्याख्यानमे असत् दोष दिया जाता है या झूठी बातको कहा जाता है अतः निश्चय व्रतभंग ही है, अतिचार नहीं। यह शंका सत्य है पर जब दूसरेको हानि करनेवाला वाक्य अनजानमें कहा जाय तो उसमें सक्लेश (कष्ट देनेका) भाव न होनेसे व्रतभंग नहीं होता परंतु दूसरेको हानि होती है अतः भंग भी हैं । इस तरहसे भंग, अभंग होनेसे अतिचार ही होता है। पर यदि तीव्र संक्लेश (कष्ट पहुंचानेकी इच्छा से कहे तो व्रतभंग ही है क्योकि वहां व्रतकी अपेक्षा नहीं रही। कहा है कि-- "सहसऽभक्खाणाई, जाणंतो जइ करेइ तो भगो। जह पुणणाभोगाईहिंतो तो होइ अइयारो" ॥१०६॥ । - -यदि जान बूझ कर सहसात्कार करे तो व्रतका भंग होता है पर अनजाने कह देनेसे अतिचार ही होता है ।। - किसीके प्रति बुरा विचार प्रगट करना अनुचित है। किसीको बात करते देख कर ऐसी बात करते हैं, ऐसा निश्चय करना तथा दूसरों पर प्रकट करनेसे बिलकुल झूठी बात बहुत फैल जाती है Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० : धर्मविन्दु और अनिष्टका दोष पहले कहनेवाले पर आता है, अतः असत्य दोपको कहना नहीं चहिये । कूटलेखक्रियामे 'कायासे मृषावाद नहीं करूं' अथवा 'न करुं, न कराऊं' व्रतका मंग ही होता है । ' झूठ नहीं वोलंगा' इस व्रतका किंचित् भी भंग नहीं हुआ। तथापि सहसात्कार आदिसे या अतिक्रा आदिसे अतिचार होता है । 'मैंने मृपावाद अर्थात् असत्य वोलनेका व्रत नहीं लिया' ऐसी मोली बुद्धिवाले पुरुषको वनकी अपेक्षा है, अत व्रतभंग होने पर भी भग होता है अतः अतिचार है । ___ यद्यपि असत्य लेखसे द्रव्यरूपसे लाभ हो जाता है पर भावरूपसे आत्मद्रव्यकी कितनी अधिक हानि हो जाती है ? न्यायवृत्तिका आत्मगुण नष्टप्राय हो जाता है। असत्य लेखसे दूसरे व्यक्तिकें द्रव्यप्राण और भावप्राणका नाश होता है, अतः हिंसा होती है। उसकी चिंता, द्वेषके कारण स्वयं बनते है। कोर्टमें असत्य साक्षी भी इसीमे आ जाता है। कोई मनुष्य अपना धन अनामत या व्याजसे रखे और वापस मांगे तब उसे न दिया जाय तो न्यासापहार-अनामतका गायब फरना है । इसमें अदत्तादान तो-प्रत्यक्ष हो जाता है । कूटलेखकी तरह इससे भी द्रव्यप्राण तथा भावपाणके नष्ट करनेसे हिंसा भी होती है । " तुम्हारी अनामत या रकम हमारे पास नहीं है" यह मृषावाद हुआ। जब ऐसा-बिना सोचे कहा जाय तब अतिचार होता है । जान बूझ कर बोला हुआ असत्य तो व्रतभंग ही है । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : १९१ स्वदारमंत्रभेद-अपनी स्त्री या मिनके गुप्त विचार बाहर अगट करना । यदि सत्य बात जो हुई है वही कही जाय तो असत्य न होनेसे व्रतमंग नहीं होता पर सहसात्कारसे ऐसी गुप्त चातके प्रगट हो जानेसे लज्जा आवे अथवा आत्महत्या करे तो उसका कारण बात करनेवाला है, अतः परमार्थसे वह असत्य हो जाती है, जिससे कुछ व्रतभंग होनेसे अतिचार कहा है, व्रतभंग नहीं । विना हुई गुप्त बात कहनेसे तो व्रतभंग होता है । स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्वराज्यातिकमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहारा इति॥२५॥ (१५८) मूलार्थ-अदत्तादान व्रतके पांच अतिचार ये हैं-१ स्तेनप्रयोग-चोरको मदद करना, २ चुराई हुई वस्तुका संग्रह, ३ शत्रु देश में प्रवेश, ४ न्यूनाधिक तोल नाप रखना तथा ५ मिलावट अथवा समान दिखानेवाली हलकी व कीमती वस्तुका आपसी बदलना ॥२५॥ विवेचन-१. स्तेनप्रयोग-स्तेन या चोरको मदद या सहायता करना, ' इस स्थानसे अथवा इस प्रकार चोरी करो' जो एक प्रकारकी अनुमति है। २. तदाहतादान-चोर द्वारा चुराई हुई वस्तुओंका संग्रह जो लोभवश कम कीमतमें खरीदना अथवा लेके चुपकीसे रखना। . ३. विरुद्धराज्यातिक्रम-अपने राजा या राष्ट्रके प्रतिद्वन्द्वी राष्ट्रमें अपने राज्यकी सीमाका उल्लंघन करके प्रवेश करना । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ : धर्यविन्दु ४: हीनाधिकमानोन्मान-स्वभाव अथवा वस्तुतः नाप या तौलसे कम अथवा अधिक नाय और तौलकी वस्तुएं-सेर आदि तोले या भरनेके नापको जितना चाहिये उससे कम अथवा अधिक लिया जावे।। ५. प्रतिरूपकव्यवहार-शुद्ध बीहि या घृत देनेके स्थान पर उसके सदृश दिखनेवाले पदार्थ अथवा मिलावटसे देना-उसका विक्रय करना--अधिककी कीमत लेकर कम देना या अच्छा नमूना बताकर हल्की वस्तु देना । प्रतिरूपक-समानरूपवालीका व्यवहार-व्यापार। ___ यहां स्तेनप्रयोगमे यद्यपि 'चोरी नहीं करूगा, न कराऊंगा' ऐसे बतका भग होता है पर स्वतः चोरीका त्याग करनेवाला दूसरेको प्रेरणा देता है वह अतिचार ही है। जैसे 'आजकाल निरुद्यमी क्यो हो यदि खाने पीनेको न हो तो मै देता हू, यदि तुम्हारे चोरीके मालको बेचनेवाला न हो तो मै बेच दूं' आदि वचनोंसे चोरोको उत्तेजन देना तथा अपनी कल्पनासे चोरीका त्याग करना, व्रतकी सापेक्षताके कारण अतिचार है। चोरोद्वारा चुराई हुई वस्तुओंको लोभसे चुपकीसे लेनेवाला पुरुष भी चोर ही है । कहा है कि-- ___ "चोरश्वोरापको मन्त्री, भेदज्ञः प्राणकक्रयी। । अन्नदः स्थानदश्चैव, चौरः सप्तविधः स्मृतः ॥१०७॥ . । '---चोर, चोरी करानेवाला, चोरीकी व्यवस्था करनेवाला, चोरकी गुप्त बात जाननेवाला या जानकर सहायता करनेवाला, Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : १९३ बोरीकी वस्तु लेनेवालो या बेचनेवाला, चोरको अन्न देनेवाला और स्थान देनेवाला ये सात प्रकारके चोर कहे गये हैं। ___ चोरी करनेसे व्रतमंग होता है। मैं चोरी नहीं करूंगा पर मुझे व्यापार करना है (चाहे कैसा ही हो) ऐसा ध्यान करके व्रत ग्रहण करनेवालेको व्रतभंग नहीं होता । पर देशसे पालन तथा देशसे भंगजो कि लोभके कारण चोरी हुई वस्तु लेनेसे होता है-के कारण अतिचार है। विरुद्ध राज्यातिक्रममें व्यापार वास्ते अथवा अन्य कारणसे अन्य राज्यमें भाज्ञा बिना चोरीसे नाना विरुद्धराज्यातिकम है। ऐसे व्यक्तिको राज्यद्वारा दंड भी होता है, यह चोरीके समान है। "सामी जीवादत्तं तिथयरेणं तहेव य गुरूहिं ". जो 'पक्सीसूत्र में कहा है उस योगसे भी स्वामीअदत्त होनेसे यह चोरी या व्रतभंग है । तथापि यदि केवल व्यापारके लिये हो तथा चोरी करनेकी इच्छा न हो, साथ ही यह चोर है। ऐसी बात न होनेसे यह देशभग होता है और देशसे पालन भी होता है, अतः यह अतिचार है। न्यूनाधिक नाप, तौल रखना तथा प्रतिरूपक व्यवहार दूसरेको ठगनेके कारण तथा परंद्रज्यके ग्रहणसे व्रतमंग ही है। केवल सेध लगाना अथवा पराई वस्तु उठाना ही चोरी है पर न्यूनाधिक नाप, तौल और प्रतिरूपक व्यवहार यह वाणिज्य कलाएं हैं ऐसा मानकर व्रत लेनेवालेके लिये व्रतभंग नहीं, पर अतिचार है। स्तेन प्रयोग आदि पांचों अतिचार वस्तुत: चोरी ही है अतः Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ : धर्मविन्दुव्रतभंग ही है। पर यदि केवल सहसात्कार आदिसे तथा अतिक्रम, व्यतिक्रमसे होनेवाले ये अतिचार कहे गये हैं। ये अतिचार राज्य कर्मचारियोंको नहीं लगते ऐसा नहीं है, उन्हें भी लागू होते हैं। पहले दो स्तेनप्रयोग, तदाहृतादान-चोरोंकी मदद व वस्तुसंग्रह-तो उनको स्पष्ट ही लागू पडते हैं अर्थात् वे भी ऐसा कर ही सकते है। यह काम वे शायद ज्यादा अच्छा कर सकते हैं क्योकि वे चोरोंको पकडनेका काम भी करते हैं। उत्तेजन देना, खासकर पुलिसके लिये, बहुत आसान है । मंत्री आदि अन्य नौकर भी अपने स्वामीका नमक खाने पर भी यदि शत्रु राष्ट्रकी सहायता करते हैं तो स्पष्टतः यह अतिचार लगता है। राज्य मंडारकी वस्तुएं लेने देनेमें अथवा राज्यके लिये आवश्यक सामग्रीके खरीदने में हल्की वस्तु लेकर अधिक कीमत वसूल करके जेबमें डाल देना या वीचमें दलाली व कमीशन खाना-ये सब चौथे व पांचवे अतिचारके भेद हैं। ये सब वस्तुतः व्रतभंग ही है कारण कि इससे चोरी ही होती है, पर यदि ऐसा ही व्रत ध्यानमें लिया हो तो अतिचार है। । अब स्वदार-संतोष व परदारविरमण नामक चतुर्थ अणुव्रतके अतिचार कहते हैंपरविवाहकरणेत्वरपरिगृहीताऽपरिगृहीतागमनानगा क्रीडातीवकामाभिलाषा इति ॥२६॥ (१५९) मूलार्थ-दूसरोंके पुत्र या पुत्रीका विवाह करना, दूस Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : १९५ रेकी रखेली स्त्री और वेश्याके साथ संभोग, अनंगक्रीडा तथा तीव्र काम अभिलाषा - ये पांच अतिचार हैं | ||२६| विवेचन - परविवाहकरण - परेषां विवाहकरणम् - अपने पुत्र पुत्रीको छोड़कर अन्य जनोकी संततिका विवाह कराना । कन्या - दानके फलकी इच्छासे अथवा स्नेहसंबंध से दूसरे लोगोंका विवाह कराना अतिचार है । इसमें भी अपने संतानका लम करनेमें भी संख्याका नियम रखना न्याय्य है । I जो किसी प्रकारसे पैसे देकर कुछ समय के लिये भोगी जाय वह इवरी स्त्री रखेली या वेश्या है । ऐसी स्त्रीके साथ कामभोग भी अतिचार हैं । किसी एकने खास कर न रखी हो ऐसी वेश्या तथा कोई कुलीन या अनाथ स्त्री हो ऐसी सब स्त्रियां या इनमेंसे किसी एकके साथ कामभोग करना इत्वरपरिग्रहीता - अपरिगृहीतागमन नामक दो अतिचार होते हैं । अनंग-अंगका अर्थ यहां देहके मैथुनका अवयव अर्थात् लिंग या योनि, इनको छोड़ कर अन्य अंग-कुच, कक्ष, उरू, वदन आदि सब अनंग हैं। इनसे क्रीडा करना या खेलना अनंगक्रीडा है। अनंगका दूसरा अर्थ काम है । कामक्रीडा या कामद्वारा क्रीडा भी अनंगक्रीडा है । अथवा तो कामांगके बिना ही अन्य किसी प्रकारसे कामभोग करना भी अनंगक्रीडा है । अथवा तो पशुमैथुन और गुदामैथुन भी अनंगक्रीडामें आते हैं। तीव्रकामाभिलाषा- कामभोग या मैथुन तथा शब्द और Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६: धर्मविन्दु रूपका काम तथा रस, गध व स्पर्श ये मोग इन सबमे तीव्र अभिलाषा रखना, उसमें अत्यंत अध्यवसाय (हर घडी उसीमें ध्यान) रखना या निरतर विषयसुख भोगनके लिये वाजीकरण आदि उपचारस कामोद्दीपन करना या हर समय विषयसुख व कामभोगकी इच्छा व लालसा करना। . इसम दूसरा व वासरा अतिचार स्वदारा संतोष व्रत रखनेवालके लिये भातचार है, परदारविरमणवाल नताके लिये नहीं। दूसरे तीनों इन दोनोके लिये हैं। सूत्रमं कहा है “सदारसतोसस्स इम पच अइयारा "-स्वदारा संतोषके लिये ये पाचो आतचार है। इस प्रकार कहनम निम्नभावना है पैसे देकर अल्प कालके लिये रखी हुई स्त्री या वेश्या वह स्वस्सी तरीके मान लता है, अतः स्वदारा सतोषकी कल्पनाका उसका व्रतमग नहीं होता तथापि वस्तुतः वह थोडे समयके लिये है अतः उसकी स्वनी नहीं है अत. मतभग होता है। अतः भग व अभंग होनस अतिचार हुआ। न रखी हुई ऐसी वेश्याक साथ गमन, अनाभोग आदि व अतिक्रम मादस अतिचार होता है। परदार विरमण व्रतवालेके ये दोनो अतिचार नहीं है। थोडे कालके लिये रखी हुई अथवा न रखी हुई दोनो वेश्या हैं। अनाथ कुलीन स्त्री भी अनाथ होनेसे तथा वेश्या ये परस्त्री नहीं है। वस्तुतः रीतिसे तो ये दोनो स्वदारा संतोषी के लिये व्रतभंग ही है, कारण कि स्व खुदकी व्याही हुई स्त्रीको छोड कर किसीके भी Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : १९७ साथ भोग करना व्रतमंग है। परदार विरमण व्रतीके लिये ये अतिचार है कारण कि पर अर्थात् अपनी विवाहितासे जुदी चाहे कोई स्त्री हो वह पर है, अतः स्वदाराको छोड कर किसीके साथ भी भोग करनेसे भंग होता है तथा कहनेको नहीं भी होता, अतः अतिचार है। ___ कुछ आचायोंके मतसे इत्वरपरिगृहीतागमन स्वदार संतोपीके लिये अतिचार है, जिसमें भावना पूर्ववत् है और अपरिगृहीतागमन परदार विरमण व्रतीके लिये अतिचार है, जिसकी भावना इस प्रकार है- अपरिगृहीता- वेश्यामें यदि उसने किसी अन्यसे पैमै ग्रहण किये हैं तो उसके साथ सभोग करनेसे परस्त्री हो जानेसे दोष आता है । साथ ही वेश्या होनेसे व्रतभंग नहीं होता है, अतः भंग व ममंगसे अतिचार हुआ। . पुनः दूसरे आचार्य इस प्रकार कहते हैं "परदारवजिणो पंच, होति तिन्नि उ सदारसंतुटे । इत्थीए तिन्नि पंच क, भंगविगप्पेहिं नायब्वा" ॥१०॥ --परस्त्री विरमण नतीको पांच तथा स्वदार संतोषीको तीन अतिचार होते हैं। स्त्रीको भी इसी प्रकार भंगके विकल्पसे तीन और 'पांच अतिचार होते हैं- . - दूसरेने थोडे समयके लिये जिसे रखा हो ऐसी वेश्याके साथ गमन करनेसे परखी विरमण व्रतीको अतिचार होता है क्योंकि वह कुछ तो ' परस्त्री के नामसे प्रख्यात है। अतः व्रतभंग हुआ और कामुककी कल्पनासे और उसके भरिके अभावसे वह परस्त्री नहीं Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८: धर्मविन्दु है। इस तरह व्रतभंग न भी हुआ, अतः भंग व अभंगसे ये दोनों अतिचार हुए। बाकी तीनो अतिचार दोनोको हैं। वह बताते हैं- स्वदारा • संतोषीने अपनी स्त्रीके प्रति तथा दूसरेने वेश्या व स्वस्त्री दोनोंके प्रति यद्यपि इन्होने अनगरतका- लिंग, योनिको छोड कर अन्य अगोंके साथ क्रीडा या 'दूसरा अप्राकृतिक मैथुनका साक्षात् पञ्चक्खाण नहीं लिया तब भी इसे न करे । क्योकि ये लोग पापभीरु हैं और ब्रह्मचर्य रखनेकी ही इच्छा करते हैं पर जब पुरुषवेदके- कामभोगेच्छाके उदयको नहीं रोक सकते और ब्रह्मचर्य पालनमें असमर्थ होते हैं तब निर्वाहके लिये स्वदारसंतोष आदि करते हैं कारण कि मैथुनसे ही कामेच्छाकी तृप्ति होती है। अंतः अनंगरतका पञ्चक्खाण तो आ ही जाता है । इसी प्रकार परविवाह व कामकी तीने अभिलाषाको समझ लेना चाहिये। क्योकि उनका पच्चक्खाण होते हुए भी उनमे प्रवृत्ति होती है अतः वे अतिचार हैं। - '. दूसरे आचार्य अनंगक्रीडाके लिये इस प्रकार कहते है- व्रत लेनेवाला साक्षात् मैथुनको ही व्रत समझता है। आलिंगन आदिका नियम नहीं लिया ऐसा सोच कर स्वदारसंतोषी वेश्या आदिसे तथा परदार विरमणवती परदारसे भी आलिंगन आदि रूपसे अनंगक्रीडा करता है अतः ये, व्रतका कुछ अतिक्रम करने है पर व्रतकी अपेक्षा रखते है अतः यह अतिचार है। । स्वदार संतोषीने अपनी स्त्रीसे अन्य (भिन्न कोई भी) और दूसरेने स्वस्त्री तथा वेश्यासे भिन्न 'मन, वचन व कायासे मैथुन न Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : १२९ करना व न कराना' ऐसा कह कर जो व्रत लिया है तब परविवाह करानेसे अर्थतः मैथुन कराना ऐसा हो जानेसे व्रतका भंग होता है साथ ही वह व्रती यह सोचता है कि मैंने विवाह कराया है मैथुन नहीं अतः व्रतकी सापेक्षतासे भंग नहीं होता, अतः यह अतिचार हैं। शंका-कोई यह कहे कि परविवाहकरणमें कन्यादानके फलकी इच्छा उसका कारण बताया हो तो वह व्रती सम्यग्दृष्टि है या मिध्यादृष्टि ? यदि सम्यग्दृष्टि है तो उसे फलकी इच्छा नहीं क्योंकि सम्यग्दृष्टि ऐसी इच्छा न करे। यदि मिथ्यादृष्टि है तो उसे व्रत ही नहीं होता, अत: पर विवाहकरण अतिचारका यह कारण कैसे हो सकता है। उत्तर-सत्य है, पर ऐसी अव्युत्पन्न दशामें ही- जब सर्वथा मिथ्यादृष्टि नहीं हुई, न सर्वथा सम्यग्दृष्टि उत्पन्न हुई है ऐसी दशामें ही यह संभव है या ऐसी इच्छा संभव है और भद्रिक मिथ्यादृष्टिवालेको गीतार्थ पुरुष सन्मार्ग प्रवेश करानेके लिये भी अभिग्रह देते हैं जैसे श्रीआर्यसुहस्ती आचार्यने रंकको सर्वविरतिव्रत ग्रहण कराया था। - अपनी संतानका विवाह करना और परविवाहको वर्जनीय कहना न्याय्य है अन्यथा अविवाहिता कन्या स्वच्छंदचारिणी हो जाती है उससे शासनकी भी अवहेलना होती है। विवाहिता हो जानेसे व्रतबंध विवाहके कारण वह वैसी नहीं होती। कहा है कि ___ "स्वापत्येष्वपि संख्यामिग्रहो न्याय्यः" अपने बच्चोंके विवाह करानेकी संख्याका भी अभिग्रह न्याय्य है। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० : धर्मविन्दु उस अवस्थामें कोई अन्य विवाहकी चिन्ता करनेवाला हो तो ठीक है, अन्यथा संततिकी वह संख्या पूर्ण हो जाने पर अधिक उत्पत्तिसे अधिक विवाह करने पड़ेंगे व नियमभंग होगा आदि विचारसे उत्पत्तिका निरोध अथवा कामभोगसे निवृत्ति आवश्यक है। दूसरे आचार्य इस तरह कहते हैं परविवाह- पर:- अन्यः अर्थात् स्वयं दूसरा विवाह करना। पूर्ण संतोष न होनेसे अन्य स्त्रीसे विवाह करना भी परविवाहकरण कहलाता है। यह स्वदारसंतोषी पुरुषको लगता है। स्त्रीके लिये स्वपुरुष संतोष तथा परपुरुष त्यागमें कोई भेद नहीं। स्वभर्तारको छोडकर अन्य सब परपुरुष ही हैं। अतः स्वदारासंतोषी पुरुषको १ परविवाहकरण, २ अनंगक्रीडा, और ३ तीवकामामिलाप-ये तीन अतिचार है वैसे ही स्त्रीको स्वपुरुषके विषयमें है। यदि वह अपने पतिको सपत्नीके ग्रहण करनेके दिन अंगीकार करती है ---उसे ग्रहण करती है तो सपत्नीकी बारी-का अतिक्रमण करनेसे उसे दूसरा अतिचार लगता है (इस्वरपरिगृहीता)। ___ अतिक्रम आदि करके परपुरुषसे गमन करनेवाली स्त्रीको तृतीय अतिचार लगता है। ब्रह्मचारीको अतिक्रम आदिसे अतिचार लगता है। अब पांचवे अणुव्रतके अतिचार कहते हैक्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्य प्रमाणातिकमा इति ॥२७॥ (१६०) मूलार्थ-क्षेत्र-वास्तु, स्वर्ण-चांदी, धन-धान्य, दासी-दास, Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेप देशना विधि : २०१ और आसन-शय्या; इन सबका अतिक्रमण-ये पांच अतिचार है ॥२७॥ विवेचन-क्षेत्र-धान्यकी उत्पत्ति भूमि, यह तीन प्रकारकी होती है-१ सेतुक्षेत्र-जिसमें कुंए पर रहट हो, जिससे पानी नीकाल कर सींचा जा सके ।२ केतुक्षेत्र-जिसमें आकाशसे गिग्नेवाले पानीसे खेती होती हो। ३ उभगक्षेत्र-सेतुकेतु-जिसमें दोनों रोतिसे अन्न उत्पन्न की जाती है । वास्तु-घर, ग्राम व नगर, उसने घरके तीन प्रकार हैं-१ खात-भूमिके नीचे गुप्त गृह २ उच्छ्रित-भूमिके उपरका घर | ३ खातोच्छ्रित-जिम घरमें दोनों हों। इन सब क्षेत्र व वास्तुका जो प्रमाण किया हो, उस संख्यासे अधिक रखनेसे अतिक्रम-अतिचार होता है । अथवा तो यदि एक ही क्षेत्र या वास्तु रखनेका अभिग्रह किया हो और अधिककी अमिलापा हो जाने पर व्रतभंग होनेके से उसके समीपस्थ क्षेत्र या गृह लेकर उसके वीचकी आड या दीवार आदिको हटाकर उसे पुरानेके साथ मिला देनेसे व्रतकी सापेक्षतासे विरतिको कुछ हानि होती है और उससे भंगाभंग होकर अतिचार लगता है ! हिरण्य-सुवर्ण-रजत-हेम-इसका भी जो परिमाण किया जाय उससे अधिक यदि कोई दूसरा उसे दे या अपने पास न रखते हुए दूसरेको दे तो वह अतिक्रम-अतिचार होता है। उदाहरणार्थ-किसीने चातुर्मासमें स्वर्ण व चादीका परिमाण किया, उससे राजा या सेठ प्रसन्न होकर उससे अधिक स्वर्ण या चांदी उसे देता है । वह व्रतभंग होनेके डरसे उस अवधिके लिये दूसरेको दे देता है तथा अवधि Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ : धर्मविन्दु पूर्ण होने पर पुनः लेनेकी इच्छा करता है, वह कुछ विरतिकी हानि, होनेसे व सापेक्षता से भंग न होनेसे अतिचार होता है । धन-धान्य- धनके चार प्रकार हैं- १ गणिम - गिनने योग्य -सुपारी आदि वस्तुएं अथवा रूपये, पैसे । २ घरिम - तोलने योग्य गुड आदि वस्तुएं | ३ मेय- नापने योग्य घृत, दुग्ध आदि तथा 8 परिच्छेद्य-परीक्षा योग्य हीरा, माणिक, मोती आदि और धान्य- मूंग, उडद, गेहूं आदि इनका जो परिमाण किया हो उस मर्यादाका उल्लघन करने से अतिचार होता है । यदि धनके निश्चित किये हुए प्रमाणसे अधिक उसे कोई दे तो उसे व्रतभंग के भयसे चातुर्मास आदिकी समाप्ति पर या अपने पास के ऐसे द्रव्यको बेचने के बाद ग्रहण करूंगा इस भावनासे बंध बाधकर या निमंत्रणा करके अथवा रस्सी आदिसे बाधकर अथवा वचन लेकर उसे स्वीकार करके भी उसीके घर रहने दे या दूसरे के यहा रखे तो वह अतिचार होता है । इसमें भी स्वयं लेनेसे अभग, पर इस प्रकार ग्रहण कर लेनेसे भंग हो गया. अतः भंगाभंगसे अतिचार हुआ । दासी - दास - इसमें द्विपद तथा चतुष्पद (पशु) सबका समावेश हो जाता हैं । द्विपदमे पुत्र, पुत्री, स्त्री, दास, दासी, शुकसारिका तथा चतुष्पदमें गौ, ऊंट, भैस, घोडा आदि आते है । उनके परिमाणसे ज्यादा न होना चाहिये । उनका गर्भाधान करानेसे अतिक्रम - अतिचार होता है । यदि एक वर्षका परिमाण किया हो तो गर्भाधान से संवत्सर के बीच में प्रसव हो जानेसे व्रतभंग नहीं भी होता है, अतः वर्षमें काफी समय बीत जाने पर जो गर्भाधान होता है वह 1 14 है Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि :२०३ भी अतिचार ही है क्योंकि संख्यामें वृद्धि होनेसे भग नहीं भी होता मतः भंगाभंगसे अतिचार हुआ। . ___ कुप्य-आसन- शय्या आदि घरके उपकरण- इसका जो परिमाण किया हो उससे संख्यामें अधिकता करनेसे व्रतभग होता है पर उसका रूप अथवा आकार वदल कर वही रखनेसे अतिचार लगता है। उदाहरणार्थ- यदि किसीने तावे या पीतलके दस पात्र रखे वे किसी प्रकार वढ जावे तो दो दोका एक एक पात्र करावे जिससे व्रतभंग न हो। इस पर्यायान्तरसे अपनी संख्या पूर्ण करनेसे तथा स्वाभाविक संख्या या वस्तुसे अधिक हो जानेसे भंगाभंग हुआ मतः यह अतिचार है। कुछ आचार्य कहते हैं कि जिसे अधिक पात्रादिककी आवश्यकता हो वह 'मैं इनको ग्रहण करूंगा' ऐसा विचार कर किसी अन्यको उन पात्रोंको अपने परिमाणकी अवधि तकके लिये रखनेको कहे । दुसरेको मत देना ऐसी व्यवस्था करावे तो यह अतिचार लगता है। इनके प्रमाणका अतिक्रम करनेसे अतिचार लगता है यह प्रगट मर्थ है। अतिचारको विशेषतः समझानेके लिये यहां मिलाने तथा बांटनेकी भावना बताई है । क्षेत्रादि परिग्रह नौ प्रकारका है पर उसे पंच संख्यक बनानेके लिये सजातीयताको आपसमें मिला दिया है। शिप्य हितके लिये प्रायः पाच पाच अतिचार होनेसे यहा भी पांच मतिचार ही गिनाये हैं। परिग्रह परसे मोहको कम करनेके लिये यह पाचवा गुण अणुव्रत है इससे प्रमाण की हुई संख्यासे मनुष्य संतुष्ट हो सकता Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ : धर्मविन्दु है। इच्छा व तृष्णा बढती ही जाती है उसे रोकनेका यह उत्तम साधन है। इस अणुव्रतमे जो बढे उसे सन्मार्गमें लगाना ही उत्तम है। अब पहले अणुव्रतके अतिचार कहते हैं--- अधिस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धि स्मृत्यन्तर्धानानीति ||२८॥ १६१) मूलार्थ-ऊपर, नीचे व तिरछा क्षेत्रका व्यतिक्रम (ये तीन), क्षेत्रवृद्धि और स्मृतिनाश- ये पांच अतिचार पहला गुणवत-दिशा परिमाणके हैं ॥२८॥ विवेचन-ऊर्ध्व-अधा-तिर्यग-व्यतिक्रमः-ऊपर, नीचे व तिरछे इस प्रकार तीन तरफ जानेका जो दिक्परिमाण होता है उसका व्यतिक्रम- ऊपरका, नीचेका, या तिरछेका व्यतिक्रम तीन अतिचार हुए । जितने क्षेत्रका प्रमाण किया है उससे बाहरसे कोई वस्तु अपने क्षेत्रमें दूसरेके द्वारा लाना या भेजना या दूसरेके द्वारा भेजना व लाना, उसमें यह अति चार लगता है। स्वयं इन दिशाओंमें जितना परिमाण किया है उससे अधिक आगे जावे तो व्रतभग होता है। दूर देशसे वस्तु मंगानेसे अतिचार — मैं व्यतिक्रम न करूं, न कराऊ' ऐसे व्रतीको लगता है। दूसरेको जिसने सिर्फ स्वय अतिक्रम 'न करू ' ऐसा व्रत लिया है उसे नहीं लगता क्योंकि यह व्रत ही उसे नहीं है। क्षेत्रवृद्धि- पूर्वादि दिशाओंको लेकर व्रत लिया गया है उसमें एक दिशामे कम करके ऊलटी दिशामें बढा देनेसे क्षेत्रवृद्धि अतिचार Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २०५० होता है। उदाहरणार्थ-किसीने प्रत्येक दिशामें सो योजन जानेका परिमाण किया है, वह एक दिशामें नम्वे योजन तथा दूसरी दिशामें एकसो दस योजन जानेका परिमाण करता है। दोनों प्रकारसे कुल दोसौ योजनसे अधिक क्षेत्र न होनेसे प्रतकी सापेक्षतासे भंग नहीं होता पर एक दिशामें किये हुए सो योजनके परिमाणकी वृद्धि करनेसे भंग होता है अतः भंगाभंगसे यह अतिचार हुआ। ____कभी अधिक व्याकुलतासे, प्रमादसे या बुद्धि चातुर्यकी कमीसे अपने लिये हुए परिमाण- जैसे योजनका विस्मरण हो जावे तो उसे स्मृतिनाश अतिचार कहते हैं। ___ यहा पर वृद्ध संप्रदायका मत है कि ऊपर जानका जो प्रमाण किया हो उससे अधिक ऊपर पर्वत शिखा या वृक्ष पर वंदर या पक्षीद्वारा वल या आभूषण ले जाया जावे तो उसे वहां जाना नहीं चाहिये। यदि वह गिरे या कोई अन्य ले आवे तो ले सकता है। ऐसा अष्टापद, गिरनार पर्वत आदि पर हो सकता है। इसी प्रकार नीचे भी कुए आदि प्रमाणमें समझना । तिरछा जानेमें जो प्रमाण किया हुआ है उसका उल्लंघन तीन प्रकार होता है जो न करना चाहिये। क्षेत्रवृद्धि न करना चाहिये। वह किस प्रकार ? जो पूर्व दिशामें जानेवाला अपने लिये हुए प्रमाण तक जाकर माल खरीदता है वहां न विकनेसे या आगे जानेसे ज्यादा लाम व अच्छा माल मिलनेकी आशासे पश्चिम दिशाकी दूरीको पूर्वमें जोडकर उतना आगे जावे तो वैसे स्थलसे वस्तु न लेवे। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ : धर्मविन्दु अब द्वितीय गुणवत-भोगोपभोगपरिमाण व्रतके अतिचार कहते हैसचित्तसंबद्धसंमिश्राभिषवदुष्पकाहारा । इति ॥२९॥ (१६२) । मूलार्थ-सचित्त, सचित्तले संबद्ध, सचित्तसे मिश्रित, मदिरा, आसव आदिसे संसर्गवाला, अर्थ पक्क या दुष्पक- ये पांच अतिचार हैं ॥२९॥ 'विवेचन-यहां सचित्त आदि (३)की निवृत्ति करने पर उसमें प्रवृत्ति करनेसे अतिचार होता है। वह अतिचार व्रतकी सापेक्षतासे अविचारसे, अतिक्रम आदि कारणोसे उत्पन्न होने पर लगता है अन्यथा व्रतभंग होता है। सचित्तमें कन्द, मूल व फल आते है। संबद्ध-जैसे सचित्त वृक्षसे लगे हुए गूंदे या पके हुए फल आदि हों उसे खानेसे सावध आहारका परित्याग करनेवालेको सावध आहारमें प्रवृत्ति होनेसे अनाभोगके कारण अतिचार लगता है या उसमें बीज आदि रही हुई वस्तु जो सचित्त है उसे त्याग करूंगा और केवल अचित्त भाग खाऊंगा ऐसा विचार करे उसे संबद्ध अतिचार लगता है, व्रतभंग नहीं होता। संमिश्र- अर्ध पक फल या कुछ सचित्त व कुछ अचित्त ऐसे जल आदि या तत्काल पीसे हुए आटे आदिमें रहे हुए सचित्त कणके कारण वह संमिश्र है, उसे खानेसे यह अतिचार लगता। अभिपव-अनेक द्रव्यसंघातसे उत्पन्न मदिरा, मधु आदि Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २०७ अथवा सुरा और संघात अर्थात् कालका अतिक्रम होनेके बाद - निश्चित अवधिके पश्चात्का आचार- खानेवालेको सावध त्याग होनेसे अतिचार होता है ।" 2 दुष्पकाहार - आधी पकी हुइ और आधी कधी ऐसी वस्तु सावध आहार है और अविचारी अवस्थामें खानेसे अतिचार लगता है- ये पांचों अतिचार भोजनके बारेमें कहे, अन्यत्र यह भोगोपभोग परिमाण भोजनकी अपेक्षा कहा जाता है अतः उसके में अतिचार कहे और भी सर्व व्रतोंके पांच पांच होनेसे इसके भी पांच कहे। 'आवश्यक नियुक्ति आदिमें इन्हे कर्मसे भी कहा हैं । 房 Commi आजीविका के लिये आरम्भ कर्म होता है उससे जो तीव्र कर्म होते हैं और निर्दय जनोंके योग्य कठोर कर्मके आरंभ करनेवाले चौकीदार या जेलर आदिके कर्मोंका त्याग करना ही अच्छा है । इन whatra स्वर कर्मके अलावा अंगार कर्मके जो १५ अतिचार हैं वे कहते हैं "इंगाली वणसाडी, भाडी फोडी सुवजय कम्मं । 'वाणिज्जं चैव य दंत-लक्स रस केस विस- बिसयं ॥१०९ ॥ "एवं खु जंत- पिल्लणकस्मं निलंछणं च दव्वदाणं च । सर- दह-तलायसोस, असईपोसं च वज्रिजा" ॥११०॥ eir - दंगाली - अंगारकर्म, वण- वनकर्म, साडी- शकटकर्म, भाडी- किराये पर वाहन देना, फोडी- स्फोटी कर्म- फोडना; इन कमका त्याग करना, दंत- हाथीदांत, लक्ख- लाख, रस- मदिरा आदि रस, केस - चाल अथवा वालवाले मनुष्य व पशु, विस- विषेको 741 ये पाँचों व्यापार वर्जनीय हैं। जंतपीलण चक्की, घाणी, निलं 31 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८:धर्मविन्दु छण- पशुओंके लिंगको काटना, दवदाणं- जंगल जलाना, सरदहतलायसोसं- सरोवर, तालाब आदि सुखाना, असईपोसं- असती. पोषण- इस प्रकारके पंद्रह कर्म व व्यापार श्रावकके लिये वर्जित हैं। ___इसका भावार्थ वृद्ध संप्रदायकी परंपरासे जानना चाहिये जो इस प्रकार है १. अंगार कर्म-अंगारे या कोयले करके बेचना, उसमें छ काय जीवोंका वध होता है अतः वह वर्जित है। २. वन कर्म-वन या जंगल खरीद करके उसे काट काट कर, बेच कर उससे आजीविका चलाते हैं। उसके पेड- पन्ने आदि लकडीका बेचना निषिद्ध है। इससे सचित्तको मारनेका तथा उसके जलने, खानेसे जो पाप होता है उसका भागी बनना पडता है। ३. शकट कर्म- जो गाडी आदि वाहन रखे और उससे आजीविका करे- उसमें गाय, बैल आदिका वध, बन्ध आदि दोष है। उसी प्रकार इस समयमें मोटर आदि वाहनका है। उसमे भी टकरानेसे मनुष्य तथा अन्य प्राणीकी मृत्यु होती है तथा उसमें पैट्रोल आदि जलने तथा उससे चलनेसे कई जीवोका वध आदि होता है। ४. भाडी कर्म-किराया लेकर गाडी आदिसे दूसरोंका माल लाना, ले जाना, अथवा दूसरेको गाडी, बैल आदि किराया पर देनायह वर्जित है। ५. स्फोटी कर्म-तोडना, फोडना व खोदना तथा हल आदिसे Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २०९ जमीनको उखेडना- इसका त्याग करना, क्योंकि उसमें कई जीवोकी विराधना होती है । ६. दंतवाणिज्य- हाथी के दांत के व्यापारका निषेध है। इसका व्यापार करनेवाले भील आदि लोगोको पहलेसे पैसे देकर 'थोडे समयमें मुझे दांतला दो' आदि कहते हैं। वे दांतके लिये हाथी आदिका हनन करते हैं अथवा उसके लाये हुए मालको वेचते हैं । इसमें पंचेन्द्रिय जीवका हनन होता है और पापकर्मके भागी बनते हैं । आजकल इस प्रकारकी अन्य कई वस्तुए जैसे दवाईया आदि तथा अगम्य वस्तुएं जिसमें जीव हिंमा होती हैं, बेची जाती है। प्रत्येक अंग्रेजी दवा मदिरा और अन्य प्राणीकी हिंसाका समावेश होता है उसे बेचने व खाने से उस जीवहिंसा के भागी होते हैं तथा उस जीव हिंसाको उत्तेजना देनेवाले बनते हैं । इन सब वस्तुओं का व्यापार भी श्रावक न करे । ७. लक्षवाणिज्य - उसमे भी यह दोष है- उसमें जीवकी उत्पत्ति होती है । ८. रसवाणिज्य- मदिरा आदि रसोका व्यापार- मडीसे मदिरा - नीकाली जाती है । उसी प्रकार मधुका निपेत्र है । मदिरामें अनेक दोष है - उपरांत पीनेवाला मारना, क्रोध, हिंसा आदि भी करता है। अत. ऐसा व्यापार न करे | ९. केशवाणिज्य- दास, दासी तथा पशु आदि बालवाले प्राणियोंका व्यापार- दास दासीको एकसे खरीद कर दूसरेको वेचना -- Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० : धर्मविन्दु इसमें कई दोष हैं, जैसे उसका परवश बनना आदि। आजकल गुलामी प्रथाके बंद होने पर भी कहीं कहीं ऐसा होता है। ऐसे किसी प्राणीको बेचनेसे उसको जो लेनेवाला दुःख दे उससे भी पाप होता है। १०. विषवाणिज्य- विषका व्यापार या वेचना श्रावकको योग्य नहीं, उससे बहुतसे जीवोंकी विराधना होती है। ११. यन्त्रपीडन कर्म-तिल, गन्ने आदिको उसके यंत्रोंद्वारा दवानेसे रस आदि नीकालना- उसी प्रकार चक्की आदिसे आटा पीसना भी इसीमें आ जाता है। इससे वे सब एकेन्द्रिय जीव तो डरते ही है अन्य भी कई प्राणयोंकी हिंसा व विराधना होती है। १२. निलांछन कर्म-बैल आदि पशुओंको जलाना, उनके अंडकोश आदिको काटना- इससे उन प्राणियोंको बहुत कष्ट होता है। १३. दवदाव कर्म- वनको जलानेका कार्य- यह क्षेत्रकी रक्षाके निमित्त कहीं कहीं करते है, इससे कई सहस्र प्राणियोंका नाश होता है। किसी भी कारणसे हो, यह पाप ही है। १४. सरो-इद-तडागपरिशोपण-- जिसमे तालाब आदिका खेतके लिये अथवा किसी अन्य कारणसे शोषण करते हैं । इससे कई जलचर जीव मर जाते है और अपने तालाब आदि मछली मारनेवालोंको नहीं देना चाहिये । १५. असतीपोषण-योनि पोषण करनेवाली दासीको रखना, उसका पोषण करना तथा उनके व्यभिचारसे आजीविका चलाना। व्यभिचार ही पाप है तब उससे पैदा किया हुआ पैसा तो पापका Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २११ ही है। इसी तरह हिंसक पशुओका पोषण, भी-समझना ।। ' . - इसी प्रकारके अन्य कई सावध कर्म हैं। यहां उनका दिग्दर्शन मात्र है तथा,उनका संक्षिप्त वर्णन है। सब यहां नहीं गिनाये जा सकते। - ये पुनरह अतिचार तथा पूर्वोक्त पांच मिलानेसे २० अतिचार हुए। की विस्मृति आदि अतिचार सभी व्रतोंमें होते हैं। जो पांच 'अतिचार सब जगह बतायें हैं। उसी प्रकारके अन्य व्रतके परिणामको कलुषित करनेवाले हो ऐसे सबको अतिचार जानना। कोई भी व्रतमें जिससे बुराई आवे उसे अतिचार गिनना। यह बतानेको ही यहाँ। ५ कर्मादान अतिचार कहे हैं। शंका-कोई कहे कि अंगार कर्म आदि किस व्रतके अतिचार हैं ? .... उत्तर-खर कर्म या क्रूर कर्मके व्रतके। ... तो अतिचार व व्रतमें परस्पर क्या मेद हैं ? खर कर्मरूप अंगार कर्म आदि हैं जो यहाँ कहे गये हैं। खर कर्म आदिश्खर, कर्म व्रतवालेके लिये वर्जनीय हैं। जब अनामोग आदिसे इनमें प्रवृत्ति करे तब ये अतिचार होते हैं। यदि जान बूझकर करे तो व्रतमंग होता है। अब अनर्थदंड नामक तीसरे गुणवत के अतिचार कहते हैंकन्दपकोकच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोप५ भोगाधिकत्वानीति ॥३०॥ (१६३) । मूलार्थ-कामोद्दीपक, नेत्रकी वाचालता, Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२: धर्मयिन्तु विचार विना साधनोंका रखना तथा उपभोगमें अधिकता-ये पाँच अविचार हैं। विवेचन-कन्दर्प-काम या उस हेतु वाणिका प्रयोग या मोहको उत्पन्न करनेवाले शब्द कन्दर्प है । श्रावकको अट्टहास नहीं करना चाहिये । मौका आने पर मुस्करा देना चाहिये। गंभीरता श्रावकका एक विशेष गुण है । अनर्थदंड उसे कहते है जब ऐसे वचन कहना या कर्म करना जिसका कोई प्रयोजन न होने पर उससे उलटे अनर्थ हो । अतः उससे बचनेके लिये उसे त्याग करनेरूप यह व्रत है । कदर्प आदि इसके अतिचार हैं पर मनकी तीव्रतासे ऐसा कर्म या वाणीका प्रयोग किया जावे तो व्रतभंग ही होता है । कुकुच-नेत्रका संकोच या विकार चेष्टा जो निंदित कही जा सके कौकुच्य कहलाती है। अनेक प्रकारके मुख, नेत्र आदिकी विकारपूर्वक चेष्टा या परिहास आदिसे होनेवाली, भाडोकी तरह होनेवाली विडम्बन क्रिया । श्रावकका कर्तव्य है कि श्रावक उस प्रकार न बोले, न हैसे, 'न वैठे, न चले जिससे लोग हसे। अर्थात् जिससे लोग हंसे ऐसी कोई क्रिया श्रावक न करे। ये दोनों कंदर्प व कौकुच्य प्रमादसे व्रतका आचरणे करनेवालेको होते हैं कारण कि ये दोनों प्रमादरूप हैं। मौखर्य-जिसके मुख है वह मुखर । उससे होनेवाला कर्ममौखर्य । मौखर्य वह वाचालता है जिससे धृष्टताभरे प्रायः असभ्य, असत्य, असबद्ध प्रलापकी तरह वचन कहे जाते हैं। यह पापो“पदेशका दूसरा नाम है। मौखर्यसे पापोपदेशेका-पाप करनेकी प्रवृ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LAVAN गृहस्थ विशेष देशना विधि : २१३ तिका, संभव होता है । ऐसे वचन श्रावक न बोले। उससे सब अनर्थ होते हैं, अतः श्रावक मित, हित, प्रिय व सन्य बोले । असमीक्ष्याधिकरण कोई कार्यमें किसी वस्तुकी आवश्यकता है या नहीं यह विचारे बगेर किसी अधिकरण या सामग्रीका रखनाऐसी सामग्री या वस्तु जो.खास कर पापमें प्रवृत्ति करावे। जैसे खैरल, ओखली, शिला, गेहूंका पीसनेका यंत्र-घंटी या चक्की, तलवार, धनुष आदि साधन श्रावक न रखे, क्योंकि उससे हिंसा होती है तथा दूसरे ले जाकर उसका दुरुपयोग भी करते हैं । टीकाकार बताते हैं कि-'श्रावक जुडी हुई गाडी आदि न रखे" क्योंकि कोई मांग कर ले जाय तो वह या ऐसी वस्तुओंसे हिंसा करे तव हिंस्रप्रदान अतका अतिचार लगता है। उपभोग अधिकत्व-उपभोग तथा मोगकी अधिकता अर्थात् आवश्यकसे अतिरिक्त- आवश्यकता से अधिक वस्तुएं होनेसे ममत्व बढ़ता है। उसका अन्य कोई दुरुपयोग करे तो भी उस वस्तु के स्वामीको दोष लगता है। ये सब अतिचार, तब लगते हैं जब व्रतका. आचरण प्रमादसहित होता है । अत. उसका परिहार-त्याग करना चाहिये । यदि व्रतका आचरण अपध्यानसे अतिचारसे किया जावे तो अपध्यान प्रवृत्ति अनाचार लगता है। जो कंदर्प आदि अतिचार कहे हैं वे यदि निर्दयतापूर्वक और जानबूझकर काये जावे तो वह भग ही होता है, अतिचार नहीं। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ : धर्सबिन्दु अब शिक्षाव्रतोंके अतिचारमें प्रथम (सामायिक )के अतिचार कहते हैं योगदुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुप स्थापनानीति ।।३१।। (१६४) मृलार्थ-मन, वचन, कायाके योगोंकी पापमार्गमें प्रवृत्ति, अनादर व स्मृतिनाश-ये पांच प्रथम शिक्षाव्रतके अतिचार हैं। विवेचन-योगदुष्प्रणिधान-योग अर्थात् मन, वचन व कायाके योग-मनोयोग, वचनयोग व काययोग-उनका दुष्प्रणिधान या पापमार्गमें प्रवृत्ति-ये तीन अतिचार हुए। अनादर-प्रवल प्रमाद आदि दोषसे जैसे तैसे सामायिक करनासामायिक पूर्ण हुई या नहीं इसका ख्याल किये बिना या प्रारंभ करके संपूर्ण हुए बिना उसी क्षण पार लेना-या समाप्त कर देना। स्मृत्यनुपस्थापन-स्मृतिनाश अर्थात् सामायिक करनेके अवसर या समयकी स्मृतिका न रहना अथवा " मुझे सामायिक कब करना है" या " मैने सामायिक किया या नहीं" इस प्रकारके स्मरणका नष्ट होना। __मनोदुष्प्रणिधानसे सामायिककी निरर्थकता और उससे अभाव ही का प्रतिपादन किया है । सामायिकके अभावस क्या होता है । मतः यह अतिचारका मलिनरूप हो जाता है। यह तो भंग हुआ अतिचार कैसे! Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २१५ यह सत्य है पर अनाभोग या अतिचारसे ऐसा हो तो यह अतिचार ही है । (6 "9 सामायिक ' द्विविधं त्रिविधेन' सावध व्यापारका व्याग करने के पञ्चक्खाणरूप है, अतः मन, वचन, कायासे न करूं, न कराक ऐसा व्रत लिया जाता है । उसमें मन दुष्प्रणिधान आदिसे सावध चिंतन आदि पञ्चक्खाणभंग होता है अतः सामायिकका अभाव है । उसके भंग होनेसे प्रायम्बित करना होता है । मनका दुष्प्रणिधान - सावध चिंतन बहुत मुश्किल से छूटता है कारण कि मन अस्थिर होता है । अतः यह सिद्ध होता है कि सामायिक लेनेसे न लेना ज्यादा अच्छा है- - इस शकाका उत्तर इस प्रकार है | ऐसा नहीं है । "मन, वचन, कायासे न करना, न कराना"इस तरह " द्विविधं त्रिविधेन " सामायिक व्रत लिया जाता है । उससे " मनसे सावद्य न करूंगा " आदि छ पञ्चक्खाण हुए । उसमें एकका भग होता है और शेष पांच रहते हैं उससे सामायिक बिल्कुल नहीं ऐसा नहीं है । मनदुष्प्रणिधानका प्रायश्चित्त 'मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ' ऐसा करनेसे शुद्धि हो जाती है । सर्व विरति सामायिक के लिये भी ऐसा ही कहा गया है। गुप्तिका भंग होने पर ' मिथ्या दुष्कृत - मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ' - प्रायश्चित कहा गया हैं। कहा है कि 'घीओ उ असमिओमित्ति कीस सहसा अगुत्तो वा ? " ॥ - दूसरे अतिचार अर्थात् समिति-गुप्तिका भंगरूप अतिचार की शुद्धि " अरे मैं सहसा अगुत्तो— बिना गुप्तिवाला या बिन समिति - Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ : धर्मबिन्दु वाला कैसे हुआ ? " कहनेसे होती है अर्थात् इस प्रकार प्रायश्चित्त करनेसे उसकी शुद्धि होती है। - अतः " 'सामायिक न करना-करनेसे अच्छा है." ठीक नहीं। अभ्याससे मनको वश करके सामायिक करना चहिये। अतिचार सहित भी अनुष्ठान होनेसे समय व्यतीत होने पर अभ्याससे निरतिचार अनुष्टान होगा। इसके लिये आचार्योंने कहा है-- . 'अभ्यासोऽपि प्रायः प्रभूतजन्मानुगो भवति शुद्धः ॥ __-कई ज-मोसे चला आनेवाला अभ्यास भी धीरे धीरे प्रायः शुद्ध होता है या कई जन्मोंसे करते करते अभ्यास शुद्ध होता है । अतः निरतिचार शुद्ध सामायिक मनको वशमें करके अभ्याससे होगी। ___सामायिकमें मनके संकल्प प्रयत्नपूर्वक कम करने हो तो धर्मके बारेमें करना ही श्रेष्ठ है। मनको अशुभ विचरसे खींच कर शुद्ध ध्येयकी तरफ प्रवृत्त करना चाहिये । मनके दश दोष टालने चाहिये। वचनके दश दोष भी टालना । सामायिकमें मौन रखना-अथवा तो प्रभुस्तुति या धार्मिक वाचन या पठ' करना चाहिये । शरीरसे निश्चल रहना अथवा तो धार्मिक क्रियाकी विधिपूर्वक शरीरकी हलचल करना, अन्यथा नहीं । कायाके १२ दोष टालने चाहिये । अब द्वितीय देशावकासिक शिक्षाबतके अतिचार कहते हैआनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलप्रक्षेपा इति ॥३२॥ (१६५) मूलार्थ-नियमित क्षेत्रके बाहरसे वस्तु मंगाना, सेवक या Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २१७ मनुष्य भेजना, शब्द सुनाना, रूप दिखाना, तथा कंकर आदि पुद्गल फेंकना-ये पांच अतिचार हैं ॥३२॥ . विवेचन-आनयन- जिस क्षेत्रका परिमाण किया है उससे बाहरसे सचेतन आदि द्रव्यको उस क्षेत्रके भीतर मंगवाना । स्वयं जानेसे व्रतभंग होता है, अतः किसी जानेवालेके साथ संदेश आदि मेनः कर अपना काम कराना ॥१॥ प्रेष्य- अपना नियत किया हुआ स्थान या क्षेत्रसे बाहर आज्ञा देकर किसीको मेजना- स्वयं जानेसे वतभंगका भय है, अतः किसी दूसरेको भेजना, यह दूसरा अतिचार है ॥२॥ आनयन और प्रेष्य दोनो प्रयोग कहलाते हैं। १. शब्द (अनुपात)- इसी प्रकार किसी व्यक्तिको बुलानेके लिये खांसी आदि शब्द कग्ना जिससे उसे अपनी स्थितिका जग्न हो ॥३॥ रूप ( अनुपात :- नियमित क्षेत्रकी बाहरके किसी व्यक्तिको बुलाने के लिये अपनी आकृति या शरीरको दिखाना, यह रूपानुपात चौथा अतिचार हुआ ॥१॥ - यहां भाव यह है कि नियमित क्षेत्रसे बाहरके किसी व्यक्तिको जनमंगके मयूसे बुलानेमें असमर्थ होनेसे उसे खांसी आदि शब्दसे या अपनी आकृति या शरीर आदि दिखानेसे उसके उपर आकर्षित करते हैं, अत: व्रतकी सापेक्षतासे रूपानुपात व शब्दानुपात अतिचार होता है । ' प्रगल प्रक्षेप-उस क्षेत्रके वाहरके मनुष्यको अपनी स्थिति Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ : धर्मविन्दु दर्शाने के लिये कंकर आदि पुद्गलको उसकी ओर फेंकना ।।५।। देशवत दिग्बतका एक भाग है । दिगनतमें दश दिशाओंका परिमाण करते हैं। देशव्रतमें घर, ग्राम आदि संबंधी जाने-आनेकी सीमा बांधते हैं। इसका अभिप्राय गमनागमनसे प्राणिनाश होता है, वह न हो । अतः स्वयं न जाकर दुसरेको मेजे तब भी वही फल (प्राणनाश) होता है । उलटा स्वयं जानेसे अधिक अच्छा है। इससे यतनापूर्वक जाना-आना होनेसे इर्यापथिकी शुद्ध होती है। सेवकके जानेसे वह अशुद्ध होगी। इसमें प्रथम दो अतिचार तो अपक्क बुद्धि या सहसात्कारसे होते हैं तथा अंतिम तीनो किसी बहानेसे दूसरेको बतानेसे होते हैं। इस बारेमें वृद्ध पुरुष इस प्रकार कहते हैं दिग्बत संक्षेपसे देशावकासिक होता है। इस प्रकार यदि प्रत्येक अणुव्रतका संक्षेप किया जावे तो होता है और उससे भिन्न नत होनेसे बतकी संख्या १२ है, इससे विरोध होता है अर्थात् व्रत बढ जाते हैं। अत. इसके अतिचार मो दिगवतके अतिचारों के अनुसार ही हैं। इस शकाका समाधान इस प्रकार हैं-अन्य व्रतोके संक्षेपको देशावकासिक कहते हैं, अतः उसके अतिचार भी उनके अनुसार होते हैं। जैसे प्राणातिपात आदिका संक्षेप करनेसे बन्ध आदि अतिचार यथार्थतः उसी प्रकार संभवत होते हैं। दिगवतके संक्षेपसे क्षेत्रके कम हो जानेसे शब्दानुपात आदि अतिचार होते हैं। अतः मेद होनेसे कहे गये हैं। सब जगह व्रतभेद होनेसे विशेष अतिचार कहनेकी आवश्यकता नहीं । जैसे रात्रिभोजन आदि व्रतमें उसके अतिचार नहीं बताये गये। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २१९ अत्र तृतीय शिक्षात्रतके अतिचार कहते हैं अप्रत्युपेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादान निक्षेप संस्तारोपक्रमणाऽनादरस्मृत्यनुपस्थापनानीति ||३३|| (१६६) मूलार्थ - बिना देखे व विना प्रमार्जित किये मल-मूत्र त्याग करना, ऐसे ही स्थानमें धार्मिक उपकरण रखना या लेना, संधारा (पथारी) को बिना देखे या प्रमार्जे चिना उपभोग करना, पौषधोपवासका अनादर करना और स्मृतिनाश- ये पांच अतिचार हैं । विवेचन - अप्रत्युपेक्षित - नेत्रों द्वारा पहलेसे देखे चिना, प्रमादसे प्रांत नेत्रों द्वारा भली प्रकार निरीक्षण किये बिना यहां दोनों अर्थ बिना देखे तथा बिना ठीक प्रकारसे देखे - लेने चाहिये । अप्रमार्जित - वस या पूंजीसे बिना साफ किये या आबा साफकरके ही इस प्रकारकी भूमिमें स्थंडिल - शौच व मूत्र आदिका त्यागकरना | पौषधोपवासमें प्रत्येक वस्तु भली प्रकारसे देखकर तथा साफकरके लेना-देना चाहिये । यतनापूर्वक जाना-आना चाहिये तथा मल-मूत्रादिका त्याग या परठनेके समय देखकर व साफ करके करना चाहिये । पौषधोपवासमें उपयोगी तथा स्थंडिल वगेरह में उपयोगी धर्मके उपकरण -पाट, पूंजी, ठवणी आदिको भली प्रकारसे देखकर तथा साफकरके काम लेना चाहिये । उनको लेते समय तथा रखते समय इसकी बहुत सावधानी रखना चाहिये, जिससे किसी प्रकारसे भी Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० : धर्मविन्दु जीवकी विराधना आदि न हो । सूक्ष्म जीवका भी प्राणनाश न हो। संस्तारोपक्रमण- शय्या अथवा सस्तार- सर्व अंगसे पूर्णतः शयन करना, संस्तार-- शव्याका विना निरीक्षण किये व बिना प्रमार्जिन, किये उपभोग करना- यह तीसरा अतिचार हुआ। अर्थात् शय्याको वस्त्र या चरवलेसे साफ करके तथा भली भांति देखकर उसका उपयोग करना चाहिये . अनादर- भक्ति व बहुमान विना पौपब करना या जैसे तैसे करना । स्मृत्युपस्थापन- स्मृतिनाश । ये चौथा व पांचवां अतिचार सामायिक व्रतके जैमा ही है, इसकी भावना उसी प्रकारकी है। संस्तारोपक्रमकी वृद्ध मामाचारी इस प्रकार है- पौषधोपवासवाला पडिलेहण बिना शय्या पर न बैठे, या पडिलेहण हिना पौषधशाला या शय्याका सेवन न करे । न वस्त्रको भूमिमें बिछाये । मूत्रादिक करके आने पर पुनः शय्याका निरीक्षण या पडिलेहण -करे, अन्यथा अतिचार होता है। अन्य पाट आदि वस्तुओंके विषयमें भी जानना अर्थात् प्रत्येक वस्तु का ' प्रमार्जन किये विना उपयोग नहीं करना। ____ अब यतिथिसंविभाग नामक चतुर्थ शिक्षाबतके अतिचार कहते हैं: सचित्तनिक्षेपपिधानपरव्यपदेशमात्सर्यः .. . कालातिकमा इति ॥३४।। (१६७) Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २२१ मूलार्थ साधुको अर्पण करने योग्य वस्तुको सचित्त पर रखना, उसे सचित्तसे ढंकना, अपनी वस्तुको दूसरेकी बताना, मत्सरभाव तथा समयका उल्लंघन करना- ये पांच अतिचार अतिथि संविभागवतके हैं। विवेचन- सचित्रं- जिसमे जीव हो- मचेतन, जैसे पृथवी आदि । निक्षेप- ऐसे स्थान पर साधुको देने योग्य वस्तु रखना ॥१॥ विधान- सचित्त वस्तु जैसे बीजोग आदिसे साधुको देने योग्य वस्तुको ढांकना ॥ २ ॥ परव्यपदेश- अपनेसे भिन्न साधुको देनेकी इच्छा न होने पर साधुके सामने " यह अन्नादिक वस्तु मेरी नहीं है" कहना ॥ ३ ॥ मत्सर- सहन न करना, साधु आदि द्वारा मागने पर क्रोष करना अथवा तो " क्या मैं उसे कैसे कम हूं, जो उसने दी" आदि विकल्प करना ऐसा भाव रखना- असहनगीलता- मत्सर भावको मात्सर्य कहते हैं ॥ ४ ॥ कालातिक्रम-धुकी गोचरीके योग्य समयका व्यतीत हो जाना- उस समयको जाने देना- अथवा तो उसे गोचरी न देनेके हेतु, समय जाने बाद साधुको विनति करना- कालातिकम है ॥४॥ ये पांचो अतिचार है, जो त्याज्य है । इसमें भावना यह है कि यदि अनाभोग व अतिक्रमसे हों तो ये अतिचार हैं अन्यथा व्रतभंग 'होता है, अत इनका त्याग ही उचित है। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ : धर्मविन्दु इस प्रकार अणुव्रत आदि १२ व्रत तथा उसके अतिचार कहनेके बाद उसी विषय पर आते हैंएतद्रहिताणुव्रतादिपालनं विशेषतो गृहस्थधर्म इति ॥३५॥ (१६८) मूलार्थ-इन अतिचारों रहित अणुव्रतका पालन गृहस्थका विशेष धर्म है ॥३५॥ विवेचन-इस प्रकार जिन अतिचारोंका वर्णन किया है वे न लगें, उनके रहित निरतिचारपनसे अणुव्रत आदि और उस प्रकार सम्यक्त्वका पालन करना चाहिये । इनका निरतिचार पालन गृहस्थका विशेष धर्म है ऐसा शास्त्रोमें प्रथमतः ही सूचित है। कहा है कि यदि विधिवत् व्रत ग्रहण किये हों तो सम्यक्त्व तथा इन अणुनतादि १२ व्रतोंमें अतिचार असभव हैं तो " इनके रहित अणुव्रतादिका पालन करना चाहिये" ऐसा क्यों कहा है ? इस शंकाका उत्तर देते हैं-- क्लिष्टकर्मोदयादतिचारा इति ॥३६॥ (१६९) मृलार्थ-क्लिष्ट कर्मके उदयसे अतिचार लगते हैं ॥३६॥ विवेचन-सम्यक्त्व आदिको अंगीकार करनेके समय उत्पन्न शुद्ध गुणों से भी जिन कर्मोका सर्वथा नहीं हुआ है, जो कर्मवध छिन्न नहीं हुए ऐसे मिथ्यात्व आदि कोंके उदयसे- उनके विपाकसे ये अतिचार होते हैं। शंका तथा वधबंध आदि अतिचार उत्पन्न होते हैं। कहनेका तात्पर्य यह है कि जब भव्यत्वकी शुद्धिसे मिथ्यात्व Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २२३ आदि कर्मका अति अनुबंध आदि नहीं होता और सम्यक्त्व प्राप्त होता है तब अतिचार असंभव होते हैं- होही नहीं सकते । अन्यथा सम्यक्त्वके अंगीकार करनेमें ही अतिचार लगता है । तब ये अतिचार किस तरह नहीं हों- कहते हैंविहितानुष्ठानवीर्यतस्तज्जय इति ||३७|| ( १७० ) मूलार्थ - अंगीकृत सम्यक्त्वके आचरण (सामर्थ्य ) से अतिचार विजित होते हैं ||३७|| विवेचन-विहितानुष्ठान - विहित या अंगीकृत सम्यक्त्वके अनुष्ठान व नित्यस्मरणके आचरणसे, वीर्यतः - उसकी शक्तिजीवके अनुष्ठानके सामर्थ्य से तज्जयः- अतिचारोंका जय- उनके उपर विजय । " सम्यक्त्वके नित्य स्मरण आदि अनुष्ठानसे जीवके सामर्थ्यबलसे अतिचार कम होते हैं- उनका नाश होता है । विहित अनुठान (शास्त्रोक्त आचरण) ही सर्व अपराधरूप व्याधिको नाश करनेका महौषध है । सत्श्रद्धासे सद्विचार उत्पन्न होता है और उससे सन्कार्यकी उत्पत्ति होती है । सत्श्रद्धा आधार है तथा जीवके वल, वीर्य व पराक्रमसे अतिचार समाप्त होते हैं। अग्निमें धूंआ होने पर उसे सतेज करते हैं अत. अतिचार भयसे व्रतयाग नहीं पर शुद्ध नतको पुष्ट करनेसे अतिचार समाप्ति होगी । इस विषयका उपदेश करते हैं अत एव तस्मिन् यत्न इति ||३८|| (१९७१) Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ : धर्मविन्दु मूलार्थ-अंत: अनुष्ठान करनेके लिये यत्न करना चाहिये। विवेचन-अत एवं-विहित अनुष्टानमे-उसके प्रति, यत्न सर्वे उपाधि रहित उद्यम। शास्त्रोक्त विधिवत् आचरण करनेसे ही अतिचार कम होते हैं, अतः शास्त्रोक आचरण करनेके लिये शुद्ध प्रयत्न करते रहना चाहिये । कहा है कि " तम्हा निञ्चसईए, वहुमाणेण च अहिगयगुणम्मि1 पडिवक्खदुगंछाए, परिणइ आलोयणेणं च " ॥११॥ ' ----अंगीकृत समकित आदि गुणोंके प्रति प्रयत्न करना चाहिये, व्रतोका स्मरण निय करना चाहिये । उनका कारण फल, विघ्न आदिके विचारसे चित्तमे स्थिरता आती है । उसके प्रति बहुमान तथा उच्च भावना रखनी चाहिये । प्रतिपक्ष अर्थात् हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन आदि जो बुरे फल देनेवाले हैं, ऐसा विचार करना और शुद्ध परि'ति-धर्मके तथा व्रतोंके प्रति शुद्ध परिणाम रख कर उसके शुद्ध फल-मोक्षको विचारना चाहिये। 1. 'तित्थंकरमत्तीए, सुसाहुजणपन्जुवासणाएं य।। ' , उत्तरगुणसद्धाए, पत्थ सया होइ जइयत्वं ॥११२॥ " , -तार्थ करकी भक्तिसे, साधुजनोंकी सेवासे, उत्तर गुणमें श्रद्धाले, 'निरंतर उच्च भावना से सर्वदा प्रयत्न करना चाहिये। उत्तरगुणशुद्धा- समंकितसे अणुव्रत तथा अणुव्रतसे महाव्रत लेनेकी अभिलापा- 'बादके गुणों को प्राप्त करनेकी इच्छा व उसमे श्रद्धा । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि :२२५ एवमसंतोऽवि इमो, जायइ जायो यण पिडइ कयाव । ता एत्थं वुद्धिमया, अपमामो होई काययो" ॥११॥ -इस प्रकार विरति व सम्यक् दर्शनका परिणाम या भाव गुप्त हो वह प्रगट होता है और उत्पन्न परिणाममे वृद्धि होती है कभी घटता नहीं । अत. बुद्धिमान् पुरुष अंगीकृत व्रतोंको नित्य स्मरण आदि करते हैं, इसमें अप्रमाद कर्तव्य हो जाता है। अब सम्यकद आदि गुणोंकी प्राप्तिके लिये तथा प्राप्त हो जाने पर उनका रक्षण तथा पालन करने के लिये विशेष शिक्षा इस प्रकार देते हैं-- सामान्यचर्यास्येति ॥ ३९ ॥ (१७२) मलार्थ-इस गृहस्थकी सामान्य चर्या(चेष्टा) इस प्रकार होती है । विवेचन- जिसको सम्यक्त्व आदि गुण प्राप्त हो गये है ऐसे सर्व प्राणियोकी साधारण या सामान्य चर्या या चेप्टा अर्थात् विशेप गृहत्य धर्मके पालन करनेवालेको प्रवृत्ति इस प्रकारकी होती है। कैसी होती है वह कहते है समानधानिकमध्ये वास इति ॥४०॥ (१७३) मूलार्थ-समान धर्मबालेके वीचमें रहना चाहिये ॥४०॥ विवेचन-समाना:- तुल्य आचारवाले अथवा अधिक शुद्ध आचारवाले, धार्मिका- धर्मवाले- धार्मिक जन, वास:- रहना। अपने समान गुणवाले या विशेष अधिक गुणवाले ऐसे धार्मिक Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ : धर्मबिन्दु भाईयों के बीचमें रहना चाहिये। उसमें खास गुण यह है कि उस प्रकारके दर्शन मोहनीय कोंके उदयसे यदि कदाचित् धर्मच्युत हो अथवा स्वयं धर्मच्युत हो तो वे उसे धर्ममें स्थिर करते हैं । वह धर्ममें पुन: दृढ हो जाता है। कहा है कि " यद्यपि निर्गतभावस्तथाप्यसौ रक्ष्यते सद्भिरन्यः। वेणुविलूनमूलोऽपि, वंशगहने महीं नैति" ॥१८४॥ , ~~यद्यपि मनुष्य भावरहित हो जाय तो भी अन्य सत्पुरुष उसकी रक्षा कर लेते हैं। जैसे बांस निर्मूल हो जाने पर भी समूहमें होनेसे पृथ्वी पर गिरता नहीं है। सत्पुरुषोंके साथ रहनेसे उनके सदविचारोंसे बल मिलता है तथा शुद्ध आचार व शुद्ध विचार पैदा होते हैं। तथा-वात्सल्यमेतेविति ॥४१॥ (१७४) . मूलार्थ-इन साधर्मिकों पर बात्सल्यभाव रखना चाहिये। विवेचन-वात्सल्यम्- अन्न, पान, तांबूल आदि देकर सत्कार करना तथा बिमारी आदिमें रात्रि जागरण करके भी सेवा व वेयावच्च करना । एतेषु- धार्मिक जनोंका । उन साधर्मिक जनोंका वात्सल्य तथा सेवा सत्कार आदि करना चाहिये। कारण कि यही जिनशासनका साररूप है। कहा है कि--- "जिनशासनस्य सारो, जीवदया निग्रहः कषायाणाम् । साधर्मिकवात्सल्यं, भक्तिश्च तथा जिनेन्द्राणाम् ' ॥११५|| -~-जीवदया, कषायनिग्रह, सांधर्मिक वात्सल्य और जिनेन्द्रोंकी 'भक्ति यही जिनशासनका सार है। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेप देशना विधि : २२७ तथा- धर्मचिन्तया स्वपनमिति ॥४२॥ (१७५) मलार्थ और धर्मचिन्तन करते हुए सोना चाहिये ॥४२॥ विवेचन-धर्म चिन्तन कैसे करना सो कहते हैं"धन्यास्ते वन्दनीयास्ते, तस्त्रेलोक्यं पविनितम् । येरेप भुवनक्लेशी, काममल्लो विनिर्जितः" ॥११॥ -जिन्होंने जगत्को कष्ट देनेवाले कामदेवको जीता है वे धन्य हैं, वे वंदनीय हैं तथा उनके द्वारा यह तीनो लोक पवित्र हुए हैं। थे तथा ऐसी शुभ भावनाओंको सोचते हुए सोना चाहिये । क्योंकि शुभ भावना व शुभ चिंतन करते हुए सोया हुआ मनुष्य उतने समयके लिये शुभ परिणामवाला रहता है। तथा-नमस्कारेणाववोध इति ॥४३॥ (१७६) मूलार्थ-नमस्कार मन्त्र कहते हुए जागना चाहिये ॥४३॥ विवेचन-नमस्कारेण- सर्व कल्याणरूप नगरके श्रेष्ठी (नगरसेठ) ऐसे पचपरमेष्ठि दाग अधिष्ठित 'नमा अरिहंताणं' आदि शब्दोंवाला प्रख्यात रूपवाला नवकार मंत्र, अवबोध- निदात्याग। प्रातःकालमें ऊठते हुए निदात्यागके समय नमस्कार मंत्रका स्मरण करना चाहिये। परम कल्याणकारी अरिहत आदि पदोंको नमस्कार करनेवाला यह पदस्मरण करते हुए उठना चाहिये । यह परमेष्ठि नमस्कार महागुणवान है । कहा है कि---... 'एर पञ्चनमस्कारः, सर्वपापप्रणाशनः। । मगलानां च सपा, प्रथमं भवति मगलम् ' ॥११७॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ २२८ : धर्मबिन्दु -ये पांच नमस्कार सर्व पापोको नाश करनेवाले हैं और सर्व मंगलोमें मुख्य (प्रथम) मगल है। तथा-प्रयत्कृतावश्यकस्य विधिना चैत्यादि __वन्दनभिति ॥४४॥ (१७७) • मूलार्थ प्रयत्नसे आवश्यक क्रिया करके विधि सहित चैत्यवंदन करना ॥४४॥ विवेचन-आवश्यक- यह आवश्यक क्रिया मल-मूत्रका त्याग तथा अंगप्रक्षालन, नहाना तथा शुद्ध वस्त्र ग्रहण करना आदि हैं। विधिना- पुष्पादि द्वारा पूजा करके मुद्रा, न्यासा आदि प्रसिद्ध विधि द्वारा-चैत्यवंदन करना चाहिये। तथा, माता-पिता आदि गुरुजनोंका वंदन भी। । प्रातःकाल. ऊठनेके पश्चात् शारीरिक क्रियाएं करना । मलमूत्रका त्याग करके नहाकर तथा वस्त्र धारण करके विधिसे प्रभुकी पूजा आदि करके चैत्यवंदन करना। माता-पिता आदि गुरुजनोका तथा साधु, आदिका वंदन व भक्ति करना चाहिये । कहा है कि "चत्यवन्दनतः सम्यक्, शुभो भावः प्रजायते। तस्मात् कर्मक्षयः सम्यक्, तत. कल्याणमश्नुते" ॥११८॥ ----चैत्यवंदनसे सम्यक् प्रकारसे शुभ भाव उत्पन्न होते हैं, उससे सर्व कर्मका क्षय होता है, उससे सर्व कल्याणकी प्राप्ति होती है इत्यादि फल प्राप्ति है। तथा-सम्यकप्रत्याख्यानक्रियेति ॥४५॥ (१७८) Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २२९ मूलाथै-और सम्यक् प्रकारसे पञ्चक्खाण ग्रहण करे॥४५॥ विवेचन-सम्यक्-जैसे बने वैसे मान, क्रोध, 'अनामोग (अविचार) आदि दोषोंका त्याग करके, प्रत्याख्यान- मूलगुण तथा उत्तरगुणकी वृद्धिके लिये पञ्चक्खाण करना। इच्छानिरोघ इसका हेतु है। क्रिया- ग्रहण करना। ___ मान, क्रोध, अनाभोग आदि दोषोको टालते हुए पञ्चकलाण करना चाहिये । इससे इच्छानिरोध होता है तथा मन और आत्माकी क्रमश शुद्धि प्रकट होती है। परिणाम किये हुए सावध कर्मके सेवनके साथ अपरिमित सावद्यका त्याग करनेसे महान् प्राप्ति होती है। कहा है कि " परिमितमुपभुक्षानो, ह्यपरिमितमनन्तकं परिहरश्च। प्राप्नोति च परलोके, ह्यपरिमितमनन्तक सौख्यम्" ॥१२॥ -परिमित सायद्य कर्म करते हुए भी अनन्त अपरिमित सावद्यका त्याग करनेवाला परलोकमें निश्चय ही अपरिमित अनंत सुख पाता है। तथा-यथोचितं चैत्यगृहगमनमिति ॥४३॥ (१७९) मृलार्थ-योग्य रीतिसे मंदिरमें जाना चाहिये ॥४६॥ विवेचन-यथोचित-यथायोग्य, चैत्यगृहगमनम्-जिनभवन अर्थात् मंदिरमें अरिहंत प्रभुके विंच या मूर्तिके दर्शनार्थ प्रत्याख्यान क्रियाके वाद जाना चाहिये। पञ्चक्खाण क्रियाके बाद यथोचित रीतिसे जिनमंदिरमें प्रभुके दर्शनार्थ जाना चाहिये । श्रावक दो प्रकारके कहे हैं ऋद्धिवान तथा Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० : धर्मविन्दु ऋद्धिरहित । ऋद्धिवान अर्थात् राजा आदि तथा धनी कुटुंबवाला, अपने सारे परिवार व समुदायसहित मदिरमें जावे जिससे शासनकी प्रभावना होती है । दूसरा-भी ऋद्धिरहित श्रावक भी स्वकुटुंब सहित मंदिरमे जावे । समुदायमें किये हुए कर्म भवांतरमे भी समुदायमें ही भोगे जाते हैं। तथा-विधिनाऽनुप्रवेश इति ॥४७॥ (१८०) मूलार्थ-और विधिसहित मंदिरमें प्रवेश करे । 'विवेचन-चत्यगृह अर्थात मंदिरमें विधिसहित प्रवेश करना चाहिये । प्रवेश करनेकी विधि इस प्रकार है___"सचित्ताणं दवाणं विउस्सरयणाए, अचित्ताणं दवाणं विउस्सरणाए, एगसाडिएणं उत्तरासंगेण, चक्खुफासे अंजलि. पग्गहेणं मणसो एगत्तीकरणेणं" ॥ -सचित द्रव्यका त्याग करके, अचित्त द्रव्यका त्याग किये बिना एकगाटिकेन-ओढनेके वस्त्रका उत्तरासन बनाकर, जिन विव देखते ही अंजलि जोडकर तथा मनको एकाग्र करके मंदिर में प्रवेश करें।' तत्र च उचितोपचारकरणमिति ॥४८॥ (१८१) मृलार्थ-वहां उचित उपचार (सेवा-भक्ति) करना चाहिये। विवेचन-उचित-अर्हत् बिंबके योग्य, उपचार-पुष्प, धूप आदिसे पूजा व सेवाभक्ति । १ यदि राजा मदिर में जावे तो राजचिह्नोंका त्याग करे । राजचिह्न ये हैं-१ वाहन (जूते आदि), २ मुकुट, ३ तलवार, ४ छत्र व ५ चामर । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २३१. ___ वहां मंदिरमें जाकर फल, फूल तथा धूप, दीप आदिसे प्रभुकी सेवा भक्ति व पूजा करना चाहिये । __ . ततो भावतः स्तवपाठ इति ॥४९॥ (१८२) . मूलार्थ-तव भावसे स्तोत्र पाठ या स्तवन आदि करना चाहिये ॥४९॥ विवेचन-जैसे दरिद्री व्यक्तिको लक्ष्मीका भंडार मीलने पर संतोष होता है, ऐसा प्रभुके पूजनसे सतोप पाकर भावना सहित गंभीर अर्थवाले, प्रभुके गुणोले वर्णनवाले, भक्ति तथा पूज्यभाव प्रदर्शन करनेवाले स्तवन व स्तोत्र आदिका उचित ध्वन्सेि उच्चार करना चाहिये । अथवा सद्भूत गुणोको प्रगट करनेवाले नमस्कार भादि स्तवनोंसे प्रभुकी स्तुति करना चाहिये। ततः चैत्यसाधुवन्दनमिति ॥५०॥ १८३) मूलार्थ-तव अरिहंत विंब व साधुका वन्दन करना चाहिये ॥५०॥ विवेचन-प्रभुके दर्शन, पूजन, स्तवन आदि करके अन्य अरिहंत विवोंको तथा भाव अरिहंत, द्रव्य अरिहंत व नाम अरिहंत-सवको वन्दन करे तथा साधुओको और व्याख्यान आदिके लिये आये हुए वंदनीय मुनिराजोको वन्दना-नमस्कार करें। वंदनका अर्थ वंदन आदिके प्रसिद्धरूपसे साधुवंदन करना चाहिये । प्रभुवंदन तथा तत्पश्चात् क्या करना सो कहते हैं ततः गुरुसमीपे प्रत्याख्यानाभि व्यक्तिरिति ॥५१॥ १८४) Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ : धर्मविन्दु मलार्थ-तब गुरुके - सम्मुख पचखाण प्रगट (उच्चार) करे ॥५१॥ विवेचन-जो पञ्चक्खाण पहले घर पर किया है उसको शुद्धिसहित उत्तम साधुके समक्ष प्रगट करे अर्थात् गुरुकी साक्षीके लिये उसका गुरुके सामने उच्चारण करे। ततो जिनवचनश्रवणे नियोग इति ॥५२॥ (१८५) मूलार्थ-फिर जिनवचन सुनने में ध्यान लगावे ॥५२॥ निवेचन-श्रावक-सम्यकदर्शन आदिको प्राप्त करके हमेशा साधुजनोंसे सामाचारी-अपना कर्तव्य संबधी उपदेश-सुने वह श्रावक है । इस अर्थको पूरा करनेके लिये इसका अनुसरण करनेके लिये जिनवचन-धर्मशाला सुननेमें मनको लगाना चाहिये । धर्मश्रवण बार बार करना चाहिये । अतः प्रतिदिन श्रवण करना जरूरी है । ततः सम्यक् तदर्थालोचनमिति ॥५३॥ (१८६) मूलार्थ-तब जिनवचनके अर्थ पर सम्यक्रीतिसे विचार व मनन करे ॥५३॥ विवेचन-संदेह, विपर्यय तथा अनध्यवसायका त्याग करके सम्यक् प्रकारसे जो जिनवचन सुना है उस पर उसके अर्थ पर मनन करना चाहिये । उसे ठीक प्रकारसे विचारना चाहिये । उस पर बार बार विचार करना चाहिये, क्योंकि " चिंतन विना श्रवण वृथा है"। अतः यदि मनन न करे तो सुननेका कुछ भी गुण नहीं होता, अतः मनन करे। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २३३. ततः आगमैकपरतेति ॥५४॥ (१८७) मूलार्थ-जिन आगमको ही प्रधान माने ।।५४|| विवेचन-आगमः-जिन सिद्धांत-त्याहाद, एकपरता-वही एक (अन्य नहीं) मुख्य है । तथा हर समय श्रीजिनसिंद्धातको ही सब क्रियाओंमें प्रधान माने तथा शकाके समय आगमके वोधके अनुसार चले। उसमे एकपरता रखे। सर्व क्रियाओमें आगमको प्रधान समझकर प्रवृत्ति करे। ततः श्रुतशक्यपालनमिति ॥५५॥ (१८८) मूलार्थ-आगमसे सुने हुए का यथाशक्ति पालन करे।।५५॥ विवेचन-श्रुतस्य-आगमसे जो उपलब्ध हुआ है-जो सुना है उसका । शक्यस्य-जो करनेकी क्षमता हो उतना अनुष्ठान, पालनम्-उत्समें प्रवृत्ति-सामायिक, पौषध आदि करना। आगमसे जो कुछ सुना हो तथा जितना करनेकी शक्ति हो उस तरह उतनेका पालन करे, उसमें प्रवृत्ति करे सामायिक, पौषध आदि करे तथा श्रवण किये हुएका पारायण व मनन करे । तथा-अशक्ये भावप्रतिवन्ध इति ॥५६॥ (१८९) मूलार्थ-अशक्य अनुष्ठानमें भावना रखे ॥५६|| विवेचन-उशक्ये-जो न पाला जा सके, उस प्रकारकी शक्ति सामग्रीके अभावसे जिसका पालन न किया जा सके, जैसे साधुधर्मः आदिकी अन्तःकरणसे भावना रखना। " मनुष्य जितना कर सके उसे करना चाहिये। जो अनुष्ठान उसे. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ : धर्मविन्दु न बन पडे उसके प्रति शुद्ध भावना रखे "मैं करूं" ऐसा भाव रखे, : जिससे ऐसे सदनुष्ठान करनेके समान ही फलप्राप्ति होती है। निरंतर उच्च भावना रखना । सर्वविरति आदिका सोचना, जैसे-- " अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे, थइशुं वाह्य अभ्यंतर निम्रन्थ जो; सर्व संबंधनां तीक्ष्ण बंधन छेदीने, विचरशुं क्व महापुरुषने पंथ जो।' अनुष्ठानका फल अनुमोदनसे-भावनासे भी मिल जाता है कहा है कि- "नार्या यथाऽन्यसत्तायास्तत्र भावे सदा स्थिते । तद्योगः पापचन्धाय, तथा धर्मेऽपि दृश्यताम् " ॥१२०॥ -~-जो स्त्री अन्य पुरुषमे आसक्त है और भावनासे उसे हर समय चाहती रहती है उसकी अपने पति व कुटुम्बकी सेवाभक्तिमें प्रवृत्ति होने पर भी उसको पापचय ही होता है। उसी तरह धर्ममें भी समझना अर्थात् सावध व्यापार करते हुए तथा श्रावक धर्म पालन करते रहने पर भी सर्व विरतिकी भावना होनेसे उस प्रकारके अनुष्ठान तुल्य फल मिलता है। तथा-तत्कषु प्रशंसोपचाराविति ॥५७॥ (१९०) , मूलार्थ-और अशक्य अनुष्ठान करनेवालेकी प्रशंसा व उपचार करना चाहिये ॥५॥ विवेचन-तत्कर्तृघु- अपनी आत्माकी अपेक्षा जो अनुष्ठान: अशक्य है उसे करनेवाले पुरुषसिंहका, प्रशंसोपचारी- बार बार Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २३५: गुणोंकी स्तुति करना तथा उनके योग्य अन्नपान वस्त्र आदिले सेवा व सहायता करना । जिस सर्व विरतिको स्वयं ग्रहण नहीं कर सकते उसे अंगीकार करनेवाले पुरुषसिंहके गुणोंकी प्रतिक्षण प्रशंसा करना चाहिये। उसका गुणगान तथा योग्य वस्तुओंसे सेवा आदर व सहायता करना चाहिये । तथा - निपुणभावचिन्तनम् ||५८|| (१९१ ) मूलार्थ - सूक्ष्म बुद्धिसे ज्ञात होनेवाले भावोंका चिंतन करना चाहिये || ५८ ॥ विवेचन- निपुणानाम् - अति निपुण बुद्धिसे सूक्ष्मभाव समझने योग्य, भावानाम् - उत्पाद, व्यय और प्रौत्र्यके स्वभाववाले सत् पदार्थोंका जैसे बंध, मोक्ष आदिका विवेचन या चार निक्षेपोंसे वस्तुविवंचन या सप्तभंगीके स्वरूपका विचार करना । धर्ममें द्रव्य, गुण पर्यायको सूक्ष्म स्वरूपका विचार करना, सत् वस्तुकी लक्षणसे परीक्षा व विवेचन, चार निक्षेपा व सप्तभंगी आदि सूक्ष्म भावोंका चिंतन व विचार करना चाहिये। इस तत्वचिंतनसे बुद्धि बढती है तथा हृदय पर सत्यकी असर बढती है । बंघ, मोक्ष आदिका विवेचन करे जिससे तत्त्व जाननेसे मोक्षकी तरफ जोव प्रवृत्तिमय होवे | कहा है कि- " अनादि निधने द्रव्ये, स्वपर्यांयाः प्रतिक्षणम् । - उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति, जलकल्लोलवजले ” ॥१२१॥ —— जैसे जलमें तरंगें बारंबार उत्पन्न होती हैं तथा समाप्त होती Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ : धर्मविन्दु हैं वैसे ही अनादि अनंत द्रव्यके पर्याय भी क्षण क्षणमें उत्पन्न व नष्ट होते हैं। "स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य, रेणुना ब्लिष्यते यथा गात्रम् । राग-द्वेषाक्लिन्नस्य, कर्मवन्धो भवत्येवम्" ॥१२२॥ --जैसे स्नेह (तेल से लिम शरीरको रज चिपटती है वैसे राग द्वेषसे लित आत्मामें कर्मबन्ध होते हैं या कर्म उसको चिपटते हैं इयादि प्रकारसे शास्त्रवचनोका चितन करना चाहिये। तथा-गुरुसमीपे प्रश्न इति ॥५९॥ (१९२) मूलार्थ-और गुरुसे प्रश्न करने चाहिये ॥५९।। विवेचन-जब निपुण व सूक्ष्म वुद्धिसे विचार करने पर भी तथा गंभीरतासे सोचने पर भी कोई भाव स्वय समझमें न आवे, किसी वस्तुका निश्चय स्वयं न कर सके तब संवेगी व गीतार्थ गुरुके पास शुद्ध विनयपूर्वक इस प्रकार प्रश्न पूछना चाहिये। जैसे- “हे भगवन् । मेरे यत्न करने पर भी मै इसका अर्थ नहीं समझ सका ई था मुझे अर्थज्ञान न हो सका अतः आप हमें उसका बोध दीजियेहमें समझाइये । गुरुगमसे कई वातें समझम आती हैं। ____तथा-निर्णयावधारणमिति ॥६०॥ (१९३) मूलाथ-गुरुके निर्णय किये हुए अर्थकी, वचनकी अब धारणा करे ॥६॥ विवचन-निर्णयस्य-गुरुद्वारा निरूपित निश्चयकारी वचनका, अवधारणम्- ध्यान देकर ग्रहण करना। जाता है। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २३७ गुरुने जो अर्थ वताया हो, जो निश्चय करके वचन कहा हो उसे ध्यान देकर मनसे ग्रहण करना चाहिये। एकाग्र चित्तसे मनमें धारणा करे। कहा है कि 'सम्म वियारियचं, अकृपयं भावणापहाणेणं । विसए य ठावियन्नं, वहुसुयगुरूणो सयासाओ" ॥१२३॥ -बहुश्रुत गुरुले सुने हुए अर्थका भावना प्रधान श्रावक सम्यक् प्रकारसे विचार करे तथा उसके स्वरूपका विचार कर । तथा-ग्लानादिकार्याभियोग इति ॥६१॥ (१९४) मूलार्थ-ग्लान आदिका कार्य करनेमें सावधान रहना ।। विवेचन ग्लानादीनाम्- बीमार, बालक, वृद्ध आगमको ग्रहण करनेके लिये उद्यत तथा अतिथि आदि साधु व साधर्मिकोका, कार्याणि-अन्न, पान, वस्त्र, औषध, पुस्तक, आश्रय तथा सहजागरण आदि कार्योंमें, अभियोग-सावधानीसे तथा चित्त देकर कराना। ऐसे साधु व साधर्मिक जनोंका जो बीमार हो या बालक, वृद्ध या अतिथि हों उनके कार्योंको (उपरोक्त) ध्यान देकर करना चाहिये। तथा-कृताकृतप्रत्युपेक्षेति ॥६२॥ (१९५), मूलार्थ-कृत, व अकृत कार्योंके प्रति सावधानी (व तत्परता) रखना ॥६२॥ विवेचन-मंदिरके तथा ग्लान आदि जनोके किये हुए या न किये हुए (कृत व अकृत ) सब कार्योंका बराबर ध्यान रखना। : निपुण नेत्रोद्वारा उसकी गवेषणा करना चाहिये। उसके लिये तत्पर Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ : धर्मविन्दु रहे । अन्यथा अपनी शक्तिका व्यर्थ क्षय होने का प्रसंग आता है। अर्थात् कृत कर्मको छोडकर अकृत करे। ततश्च-डचितवेलयागमन मिति ॥६२॥ (१९६) मूलार्थ-वहांसे उचित समय पर घर पर लोटे ॥६३।। विवेचन-उचितवेलया- योग्य समय होने पर व्यापार, राजसेवा या व्यावहारिक कार्यका समय हो जाने पर, आगमनम्मंदिर तथा गुरुके पाससे लौटना।। उचित समय हो जाने पर जैसे व्यापार, नौकरी अथवा अन्य धंधे पर जानेके समयसे कुछ पूर्व मंदिर, उपाश्रय आदिसे घर लौटे। गृहस्थकों अपने कर्तव्यके लिये घर आना जरूरी है। ततो धर्मप्रधानो व्यवहार इति ॥६४|(१९७) मूलार्थ-तत्र धर्मपूर्वक अपना व्यवहार करे ॥६॥ विवेचन-व्यवहार-कुलकमागत' (१-३) इत्यादि सूत्र में कहे गये अनुसार अनुष्ठान करना । __प्रथम अध्यायमे कहे हुए " कुलक्रमागत" आदि सूत्रके अनुसार सर्व अनुष्ठान करना । गृहस्थ उचित संसारव्यवहार करे पर धर्मभावना हर समय रखे । प्रत्येक कार्यमें धर्मको प्रधान समझ कर उच्च भावना सहित कार्य करे ।। तथा-द्रव्ये संतोषपरतेति ॥६५॥ (१९०) मूलार्थ द्रव्य-धन, धान्य आदिमें संतोपपरता या संतोपप्रधानता-मुख्यता संतोप रखना । धार्मिक पुरुष अपने परिमाण Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २३९ किये हुएके अनुसार तथा निर्वाह मात्रके लिये जो द्रव्य-धन मिले उसमें संतोष रखना ||६५|| विवेचन - धार्मिक गृहस्थ अपना व्यवहार करते समय द्रव्यका उपार्जन करनेमें मित द्रव्य निर्वाह मात्र के हेतुसे संतोष रखकर उपार्जन करे। असंतोष दुःखका हेतु है । कहा है 'अत्युष्णात् सघृतादन्नादच्छिद्रात् सितवाससः । अपरप्रेष्यभावाच्च, शेषमिच्छन् पतत्यधः " ॥ १२४ ॥ 45 - थोडे घीके साथ गरम अन्न मिले, छिद्ररहित सफेद वस्त्र मिले तथा पराई नौकरी न करनी पडे इतने से संतोष माने । वाकीकी अधिक इच्छा करनेवाला नीचे गिरता है । उसका अधः पात होता है । कहा है 6" " 'संतोषामृततृप्तानां यत् सुख शान्तचेतसाम् । कुतस्तद्धनलुब्धानां इतश्चेतश्च धावताम् ॥ १२५ ॥ - संतोपरूपी अमृतसे तृप्त तथा शांत चित्तवालोंको जो सुख प्राप्त है वह धनमें लुब्ध हुए इधर उधर भटकते हुए पृरुपोको कहांसे प्राप्त हो सकता है ? उद्विग्न चित्तको संतोष कहां और संतोष बिना सुख कहां " । 2 तथा - धर्मे धनवुद्धिरिति ॥ ६६ ॥ (१९९) मूलार्थ' धर्म ही धन है' ऐसी बुद्धि रखे ||६६ ॥ विवेचन- धर्मे - सर्व वाछितकी असाधारण सिद्धि देनेवाले या सिद्धिके मूल श्रुत चारित्ररूप धर्ममें, धनबुद्धि- निरंतर यह सोचना कि बुद्धिमानों का धर्म ही धन है । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.२४० : धर्मविन्दु सर्व वांछित पदार्थोकी अविकल सिद्धिका मूल श्रुतचारित्ररूप धर्म ही धन है, ऐसा निरंतर सोचते रहना चाहिये। धर्मसे ही संतोष ,मान कर अधिक धनकी लालसा नहीं करना चाहिये। यह शुभ परिमाण सतत रखे। तथा-शासनोन्नतिकरणमिति ॥६७|| (२००) मूलार्थ-जैन शासनकी उन्नति करना चाहिये ॥६७॥ विषेचन-शासनस्य-सर्व हेय और उपादेय भावोंको प्रगट करनेमे सूर्य समान ऐसे श्रीजिन भगवान द्वारा निरूपित वचनरूप शासन, उन्नति-उच्च भावसे अच्छी रीतिसे न्याययुक्त व्यवहार करना । श्रीजिन भगवान द्वारा प्रणीत शास्त्र सिद्धांतरूप शामनकी उन्नति करनेमें तत्पर रहना । ठीक रीतिले न्यायका व्यवहार करनेसे, योग्यतानुसार लोंगोका विनय करना, दीन व अगायोका उद्धार, शुद्ध थतियोंकी पूजा व सकार, शुद्ध ब्रह्मचर्यका पालन, जिनमंदिर बनवाने, यात्रा, स्नात्र आदि विविध उत्सव करना, आदि उपायोमे जैन शासनकी उन्नतिमे निरतर रत रहना चाहिये । उसमें बहुत गुण रहे हुए हैं। कहा है कि "कर्तव्या चोन्नतिः सत्या, शक्ताविह नियोगतः । अवन्ध्यं कारण होपा, तीर्थकक्षामकर्मणः " ॥१२॥ -इस लोकमें अपने शासनकी उन्नति यथाशक्ति करना चाहिये क्योंकि यह तीर्थबर नाम कर्मका उपार्जन करनेका सही कारण है। विभयोचित विधिना क्षेत्रदानमिति ॥६८॥ (२०१) Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २४१ मूलार्थ-अपने वैभवके अनुसार विधिवत् क्षेत्रमें दान करे ॥६८॥ . विवेचन-विभवोचित-स्ववैभवके अनुसार, विधिना-आगे कही जानेवाली विधिसे, क्षेत्रेभ्य:-क्षेत्रोंमे, दानम्- योग्य वस्तु देना। प्रत्येक गृहस्थ अपने वैभवके अनुसार योग्य अधिकारी व पात्रको यथाशक्ति विधिवत् दान करे । अन्न, पान, वन, औषध, पात्र आदि उचित वस्तुका अर्पण करे । शास्त्रकार विधिके बारेमे कहते हैंसत्कारादिविधिनिःसंगता चेति ॥६९।। (२०२) मूलार्थ-सत्कार आदि सहित मोक्षसे भिन्न सब इच्छाओंका त्याग करके जो काम करे वह विधिवत् है ॥६९॥ विवेचन-सत्कार-ऊठना, आसनदेना, वन्दन करना आदि विनयपूर्वक देश, कालकी आराधना व विशुद्ध श्रद्धाको प्रकट करनेके लिये विनयसहित दान करना, निसंगता-ऐहिक व पारलौकिक सब प्रकारके फलोंकी अभिलाषा त्याग कर केवल सकल क्लेशके हरण करनेवाले और अकलकिक मोक्षकी ही इच्छा करना। . सत्कार सहित देशकालके अनुसार श्रद्धा प्रगट हो उस प्रकार किया हुआ दान विधिवत् दान है। साथ ही निष्कामवृत्तिसे दान देना चाहिये । इसलोक व परलोकके किसी भी सुखकी वाचा न रखकर केवल मुक्तिकी इच्छा करे। वीतरागधर्मसाधवः क्षेत्रमिति ॥७०॥ (२०३) . मलार्थ-वीतराग धर्मसे युक्त साधु योग्य क्षेत्र है |७०॥' Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ :धर्सबिन्दु विवेचन-वीतरागधर्म-श्रीजिन भगवानद्वारा निरूपित वीतराग देवके धर्ममें ही श्रद्धा रखनेवाले साधु दानका उपयुक्त क्षेत्र हैं। वे इसके योग्य पात्र हैं.। उसका विशेष लक्षण इस प्रकार है "क्षान्तो दान्तो मुक्तो, जितेन्द्रियः सत्यवागभयदाता । प्रोक्तस्त्रिदण्डविरतो, विधिग्रहीता भवति पात्रम्" ॥१२॥ -~-क्षमावान्, इन्द्रिय दमन करनेवाला, मुक्त, इंद्रियोंको जीत: नेवाला, सत्य बोलनेवाला, अभयदाता, मन वचन व काया-तीनों दंडसे रहित और विधिका ग्रहण करनेवाला योग्य पात्र है। तथा-दुःखितेष्वनुकम्पा यथाशक्ति द्रव्यतो भावतश्चेति ॥ १॥ (२०४) मूलार्थ-दुःखी पुरुषों पर द्रव्य तथा भावले यथाशक्ति अनुकम्पा व दया रखे ॥ ७१ ॥ दिवेचन-दुखितेषु-भवांतरमे, जो पाप किये हैं उनके विपाकसे-प्राप्त हुए तीन क्लेश भोगनेवाले प्राणियों पर, अनुकम्पा-कृपा करे, यथाशक्ति अपने सामर्थ्यके अनुसार, द्रव्यत:-अन्न, वसा, धन आदिसे, भावतुः-इस-भीषण भव भ्रमणासे वैराग्य उत्पन्न करा कर। जो मनुष्य भवांतरके पापोंके उदयसे, कर्मविपाकसे रोगग्रस्त हैं. या अन्य कष्ट सहते हैं उन पर अनुकम्पा या दया करना चाहिये। अपने सामर्थ्यके अनुसार अन्न, वस्त्र या धन देकर उसकी सेवा करे। साथ ही, भाव, दया भी रखे। उसे इस संसारसे भीषण कष्टोंके कारणको समझाने तथा, सद्बोध देवे जिससे वैराग्य उत्पन्न हो । दुःखी Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्य विशेष देशना विधि : २४३चनों पर अनुकम्पा काके उनका उपकार करना धर्मका हेतु है। कहा है कि "लोकार्थेन प्रवक्ष्यामि, यदुकं प्रत्यकोटिभिः । परोपकार पुण्याय, पापाय परपीडनम् ॥१३८॥ "अन्योपकारकरणं, धर्माय महीयते च भवतीति। अघिगतपरमार्थानामविवादो वादिनामत्र" ॥१२॥ -जो करोडो ग्रन्थोंमें कहा है वह मैं आये श्लोकमें कहता हूं। परोपकार पुण्यके लिये तथा परपीडन (दूसरोंको कष्ट देना) पापका हेतु है। परमार्थ प्राप्त तथा तत्वज्ञानी पुरुषोंके मतसे परोपकार करना महत् परमार्थ के लिये होता है । इसमें वादीजनोंमें दो मत नहीं है ( सर्व मान्य है)। ___ पहले कीर्ति के लिये फिर सुखेच्छासे तथा अंतत निःस्वार्थ परोपकार बुद्धिसे दान दिया जाता है इस तरह क्रमश बढते वढते उच्च मावनाको पहुंचे। यही उच्च मावना युक्त दान एक महान् धर्म है। तथा लोकापवादभीरतेति ॥७२॥ (२०५) मूलार्थ-लोकापवादसे डरते रहना चाहिये ।।७२।। विवेचन-लोकापवाद-सब-लोगोंका द्वेष हो वह, भीरताडरकी, भावना-!. जिस बातसे- अपयश मिले वह न करना चाहिये । लोगोंकी सामुदायिक नाखुश होनेकी स्थितिसे बचना चाहिये । उससे हर समय डरते रहना चहिये तथा दूर रहना चाहिये । अपयनसे- प्रतिष्ठा कम Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ : धर्मविन्दु होती है। अतः प्रत्येक कार्यको निपुणवुद्धिसे विचार कर तथा उस प्रकारसे हमेशा योग्य वृत्तिसे प्रत्येक कार्य करे जिससे सर्व वांछित सिद्धिको देनेवाली लोकप्रियता वृद्धिको प्राप्त हो और कोई भी जनापवाद न हो। लोगोमें अप्रसिद्ध (निंदा ) या अपयश मरनेसे भी बुरा है। कहा है कि"वचनीयमेव करणं भवति, कुलीनस्य लोकमध्येऽस्मिन् । मरणं तु कालपरिणतिरियं च जगतोऽपि सामान्या" ॥१२९॥ -~-इस लोकमें कुलीनके लिये कलंक या अपयश (निंदा) ही मरण तुल्य है। काल परिणामसे जो मृत्यु होती है वह तो सबको सामान्य ही है। तथा-गुरुलाघवापेक्षणमिति ॥७३।। (२०६) मूलार्थ-सब बातोंमें गुरु लघुकी-बडे छोटेकी अपेक्षा रखना चाहिये ॥७३॥ विवेचन-अधिक लाभ देनेवाला व कम लाभ देनेवाला गुरु व लघु कहलाता है। धर्म, अर्थ व काम- तीनों पुरुषार्थोंमें तथा सब कार्योंमें गुण किसमें अविक है व किसमें कम है या दोष किसमें कम व किसमें ज्यादा है इसका अवश्य पूर्णतः विचार करे। उसका द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके बलकी अपेक्षाले विचार करे- यह बुद्धिमानोका आवश्यक कर्तव्य है। इस प्रकार गुरु व लघुकी- अधिक व कम लाभवालेकी निपुणतासे विचार करे। तब क्या करना, शास्त्रकार कहते हैंF' , ' बहुगुणे प्रवृत्तिरिति ॥७४।। (२०७) Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PM गृहस्थ विशेष देशना विधि : २४५ 1 - मूलार्थ-अधिक गुणवाले प्रवृत्ति करे ॥४॥ -- विवेचन-प्रायः प्रत्येक प्रयोजन व कार्य गुण व लाभसे तथा दोषसे मिश्रित होता है। उसके गुणदोषका विवेचन मनसे करना चाहिये और अधिक गुणवाले प्रयोजनमें प्रवृत्ति करना चाहिये । जैसे कि वणिक अधिक लाभ व कम हानिवाला व्यापार करता है। आप मुनिजन इस बारेमें कहते हैं कि- "अप्पेण बहुमेसेजा, एयं पडियलक्खणं । सवासु पडिसेवासु, एवं अट्ठपयं विऊ ' ॥१२९॥ - अल्प दोषसे अधिक गुणोंकी इच्छा करना पंडितका लक्षण है। और सर्व अपवाद कार्योंमें यही सूत्र ध्यानमें रखना चाहिये ।। ____ इस जगतमें कोई भी कार्य संपूर्ण व शुद्ध नहीं है अत' गुणदोषका विचार करके अधिक लाभदायक कर्म करनेमें तत्पर रहे। तथा-चैत्यादिपूजापुर सरं भोजनमिति ॥७६।। (२०८) मलार्थ-चैत्य आदिकी पूजा करके भोजन करना चाहिये। '' विवेचन-चैत्यादि- जहां जिनविंच हों उन मंदिरोकी तथा साधु व साधर्मी भाईयोंकी, पूजा- मंदिरमे फूल व धूप आदिसे तथा साधुवसाधर्मिककी अन्न, पान आदिके उपचारसे, भोजनम्-अन्न ग्रहण। " भोजन करनेका समय होने पर मंदिरमें श्रीवीतगग प्रभुकी पूजा करके तथा साधु व साधर्मिक जनोंकी यथोचित सेवा करके उसके बाद भोजन या अन्न ग्रहण करे। कहा भी है कि-- "जिणपूओचियदाणं, परियणसंभालणा उचियकिच्चं । ठाणुववेसो य तहा, पञ्चक्खाणस्स संभरणं" ॥१३०॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ : धर्मविन्दु ___--जिनपूजा, उचित दोन, पोज्य परिजनोंकी संभाल, उचित कार्य और योग्य स्थान ग्रहण करना तथा पचक्खाणको याद करनाये कार्य भोजनके पहले करनेके हैं। तथा तदन्वेव प्रत्याख्यानक्रियेति ॥७६|| (२०९) मूलार्थ-भोजन उपरीत पञ्चक्खाणं करे ॥७६।। विवेचन-तदन्वेव- भोजनके अनन्तर, प्रत्याख्यान-दुविहार, तिविहार आदि । अशन, पनि, खादिम, स्वादिम-इन चार आहार से दो, तीन या चारोंका त्याग करना। ___ भोजन कर लेनेके पश्चात् यथाशक्ति दुविहार, तिविहार या चौविहारका पञ्चक्खाण करे । आहारका संवरण करे। तथा-शरीरस्थिती प्रयत्न इति ॥७७॥ २१०) भूलार्थ-शरीरकी स्थिति, उसकी संभालके लिये प्रयत्न करे या शरीररक्षाका प्रयत्न करे ।।७७॥ विवेचन-शरीरस्थिती- तेलमर्दन, मालिश, स्नान आदि क्रियायें जो शरीररक्षा निमित्त की जावे । यत्न:- आदर। शरीरकी स्थिति अर्थात् शरीररक्षा व उसके नीरोग बने रहनेके लिये आवश्यक कार्योंको आदरपूर्वक करे । शरीर सारी धर्मक्रिया व ज्ञानप्राप्तिका अति आवश्यक साधन है, अत: उसकी रक्षा पर, अवश्य ध्यान दे। कहा है कि "धर्मार्थकाममोक्षाणां, शरीरं कारणं यतः। ततो यत्नेन तद्रक्ष्य, यथोक्तैरनुवर्त्तनैः' ॥१३१॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २४७ -~-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सबका साधन शरीर ही है अतः पूर्वोक कार्योंद्वारा यत्नसे शरीरकी रक्षा करना चाहिये। बाललम, कसरतको अभाव तथा आरोग्य नियमोकी अनितासे हमारा शारीरिक बल बहुत घट गया है। तथा तदुत्तरकार्यचिन्तेति ७ि८॥ (२११) मृलार्थ-और (शरीर स्थितिके लिये) भविष्य के कार्योकी चिता करे ॥७८॥ विवेचन-तत्तरकार्य- शरीरकी स्थितिके लिये आवश्यक बादमें करनेके कार्य अर्थात् धनोपार्जन आदि, चिन्ता-विचार करना। शरीरकी स्थिति के लिये अन्नपान आदि आवश्यक है तथा स्वजन परिवारका निर्वाह भी आवश्यक है, इसके लिये द्रव्यको आवश्यकता रहती है, अत. द्रव्य उपार्जन करने के लियें, धन कमानेके लिये व्यापार आदि उद्यम या कार्य करे। श्रावक निरुधमी न बैठे पर निर्वाहके लिये आवश्यक द्रव्यकी उत्पत्ति के लिये प्रयत्न करे। तथा-कुशलभावनायां प्रवन्ध इति ॥७९॥ (२१२) मुलार्थ-शुभ भावनाओंमें चित्तको लगाना चाहिये॥७९॥ 'विवेचन-कुशल भावनाओं के बारेमे कहा है कि-- 'सर्वेऽपि सन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् पापमाचरेत् " ॥१३२॥ --सर्व प्राणी सुखी हो, सब निरोगी हों, सर्व कल्याणको प्राप्त हों तथा कोई भी पापाचार न करे। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ : धर्मविन्दु ऐसी शुभ भावनाएं और सर्वका शुभ चिंतन चित्तसे सहर्ष करे। तथा-शिष्टचरितश्रवणमिति १८०॥ (२१३) . मूलार्थ-और शिष्ट पुरुषोंके चरित्रका श्रवण करे ॥८॥ विवेचन-शिष्टचरितानां प्रथम अध्यायमें 'शिष्टचरितप्रशंसनमिति' (१-१४) नामक सूत्रमें कहे गये लक्षणोंवाले, श्रवणंनिरंतर सुनना। शिष्ट पुरुषोंके, जिनके गुण प्रथम अध्यायमें बताये हैं, चरित्रको निरंतर सुनना चाहिये। उनके सुनने या जीवनचरित्रोके पढनेसे उनके गुणोंके प्रति आकर्षण पैदा हो कर उसे प्राप्तिकी इच्छा होती है और उससे प्राप्त गुणकी हानि संभव नहीं है। कई उपन्यास व निरर्थक पुस्तकें पढनेमे हमारा समय वृथा जाता है, जीवनचरित्र पढनेसे उनमेंसे हमें कुछ न कुछ बोध प्राप्त हो सकता है। उन अलौकिक गुणोमसे कोई न कोई गुणकी प्राप्ति अवश्य हो सकती है। उनको पढनेसे आत्मपरीक्षण भी उत्पन्न होता है। तथा-सान्ध्यावधिपालनेति १८१॥ (२१४) मूलार्थ-और संध्याकालकी विधिका पालन करे ।।८१॥ विवेचन-सान्ध्यविधि- संध्याकालमें करनेकी विधि अर्थात् दिनके अष्टमांश भागके शेष रहने पर (करीब ४ घडी या १॥ घंटा) भोजनादिसे निवृत्त होना तथा अन्य विधि-आवश्यक क्रियाएं करना। संध्याकाल अर्थात् शामको करनेके अनुष्ठानमें तत्पर रहे। दिनके वे भागमें भोजन करके तथा अन्य व्यवहारको बंध करके अन्य आवश्यक क्रियाएं आदि करनेमें उद्यमवत हो। इस विषयमें Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २४९ विशेष कहते हैं-- यथोचितं तत्प्रतिपत्तिरिति ॥४२॥ (२१५) मूलार्थ-यथाशक्ति उस विधिको अंगीकार करे॥८२॥ विवेचन-अपने सामर्थ्यके अनुसार संध्याविधिका, जो आगे कही जायगी, श्रावक अंगीकार करे तथा उनमें प्रयत्न करे । वह किसी है सो कहते हैंपूजापुरस्सरं चैत्यादिवन्दनमिति ॥४३॥ (२१६) मूलार्थ-संध्यापूजा सहित चत्यादिका वंदन करे ॥८॥ विवेचन-उस समयके योग्य पूजा करके-धूप आरतीके बाद जिनमंदिर तथा गृहमंदिर (यदि हो तो) का वंदन तथा गुरु व मातापिताका वंदन करे। तथा-साधुविधामणक्रियेति ॥८४॥ (२१७) मूलार्थ-और साधुको विश्राम देनेकी क्रिया करे।।.४॥ विवेचन-साधूनां निर्वाण या मोक्षकी आराधनाके योगमें प्रवृत्त पुरुषोंको, और स्वाध्याय, ध्यान आदि अनुष्ठानते थके हुए ऐसे साधुओंको, विश्रामणा-सेवा करनेवाले अन्य साधुकी अनुपस्थितिमें उनकी सेवा करके उनको विश्राम देना-अर्थात् वैयावच करना। साधुलोग स्वाध्याय, ध्यान और योगमें तल्लीन होनेसे उनको जो थकान होती है उसे वैयावच्च द्वारा दूर करनेका प्रयत्न करे। । तथा योगाभ्यास इति ॥८५॥ (२१८) Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० : धर्मविन्दु सूलार्थ - योगका अभ्यास करना चाहिये ॥८५॥ विवेचन - योगस्य सलिंबन व निरालम्बन 'मेंदवाला योगचित्तको एकाग्र करनेकी प्रवृत्ति, अभ्यास- बार बार प्रयत्न करना । पतंजलि कहते है - " योगश्चित्तवृत्तिनिरोध " - योग चित्तकी वृतिका निरोध है । चित्त प्रतिक्षण अस्थिर रहता है उसको एकाप्र करनेका प्रयत्न करे । यह योग सालंबन और निरालंबन इस तरह दो प्रकारका है । स्थूल पदार्थ पर मनको एकाग्र करना सालंबन व तत्त्व या निराकार वस्तुका ध्यान निरालंबन योग है। कहा है " सालम्बनो निरालम्वनश्च योगः परो द्विधा ज्ञेयः । जिनरूपध्यानं खल्वाद्यः तत्तत्त्वर्गस्त्वपरः " ||१३३|| --- उत्कृष्ट योग सालंबन और निरालंबन - ऐसे दो प्रकारका है । जिनेश्वरकी प्रतिमा या समवसरण में बैठे जिनके रूपका ध्यान करना सलिवन है, तथा जिनतत्त्व या केवलज्ञानादि सहित जीवप्रदेशके तत्त्वका चिंतन करना निरालंबन योग है। सालंबन योग अधिक आसान है, अतः जिनकी प्रतिमाका ध्यान करे | तथा - नमस्कारादिचिन्तनमिति ॥ ८६ ॥ (२१९) मूलार्थ - नमस्कार आदिका चिंतन करे | ८६ ॥ विवेचनं- नमस्कार (नवकार) पंच परमेष्ठि तथा अन्य स्वाध्याय व ज्ञानग्रंथोंका अभ्यास तथा चिंतन करे । तथा - प्रशस्त भाव क्रियेति ॥८७॥ ( २२० ) मूलार्थ - प्रशंसनीय अंतःकरण (भाव) करना ||८७ || Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि :२५१ विवेचन-क्रोधादि दोषके विपाकका विचार करके हृदय व अंतःकरणको शुद्ध करना । उसे उन दोपोंको हठाकर प्रशंसनीय बनाना चाहिये । क्रोध, मान, माया व लोभ- क्रमश. प्रीति, विनय, मित्रता, और सर्वस्वका नाश करनेवाले हैं-आदि विचारोंसे इन चारों कषायोंको दूर करे अन्यथा महादोष लगता है। कहते हैं कि-- "चित्तरत्नमक्लिष्टमान्तरं धनमुच्यते । यस्य तन्मुपितं दोपैः, तस्य शिष्टा विपत्तयः" ॥१३॥ --क्लेश रहित चित्तरत्न ही मनुष्यका सान्तर घन है। जिसका चित्तरत्न (यां यह धन) क्रोधादि दोपौसे लूट गया है उसे सब विपत्तियां घेरती हैं। अत. अंत करण शुद्ध रखे। तथा भवस्थितिप्रेक्षणमिति ॥८८॥ (२२१) मृलार्थ-और संसारकी स्थितिका विचार करे ।।८८॥ विवेचन-भवस्थितेः-- संसारके रूपको, प्रेक्षणं- अवलोकन । क्षण क्षणके परिवर्तनोको विचारे। उनका अवलोकन करे। जैसे कि-- "यौवनं नगनदास्पदोपमं, शारदाम्बुदविलासिजीवितम् । स्वप्नलब्धधर्मावभ्रमंधनं, स्थावरं किमपिनास्ति तत्त्वतः॥१३५॥ "विहां गदर्भुजहमालयाः, संगमा विगमदोपदूपिताः। संपदोऽपि विपदा कटाक्षिता नास्ति किञ्चिदनुपद्रवंस्फुटम् ॥१३६॥ ----युवावस्था पर्वतकी नदीके समान चंचल है, मानवजीवन शरद् ऋतुके बादलोंके विलास समान अस्थिर है, धन या द्रव्य त्वममें मिले हुए वैभव समान है अतः इन सब जड पदार्थोंमें वस्तुत कोई भी पदार्थ स्थिर नहीं। ये सब वस्तुएं चंचल, अस्थिर व क्षणभंगुर है। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२५२ : धर्मविन्दु . --शरीर रोगरूपी सोका निवास स्थान है, संयोग, वियोग दोषसे दूषित है। संपत्ति पर भी विपत्तिकी कटाक्षदृष्टि है अतः इस संसारमें उपद्रव रहित कुछ भी नहीं है। इस प्रकार इस संसारकी क्षणभंगुरता व असारताका विचार करे। जगत्की सर्व वस्तुएं भयसे आक्रांत है केवल वैराग्य ही अभयका कारण है। इस प्रकार संसार-स्वरूपका विचार करे। तदनु तन्नैर्गुण्यभावनेति ।।८९।। (२२२) मूलार्थ-तब उसकी निस्सारताका विचार करे ।।८९॥ विवेचन-तन्नैर्गुण्यभावना- भवस्थिति या संसारकी असारता या निस्सारताका चिंतन । संसार असार है इस भावनाका विचार करना चाहिये, जसे-- "इतः क्रोधो गृध्रः प्रकटयति पक्षं निजमितः, शृगाली तृष्णेयं विवृतवदना धावति पुरः । इतः क्रूरः कामो विचरति पिशाचश्चिरमहो, स्मशानं संसारः क इह पतितः स्थास्यति सुखम् !” ॥१३७॥ -~~-इधर क्रोध नामक गृध्र अपने पंख फैलाये हुए बैठा है, उघर तृष्णा नामक शृगाल मुख फाडे हुए आगे आगे दौडा जा रहा है और उधर कामरूप भयंकर पिशाच विचर रहा है। इस संसाररूपी स्मशानमें पटा हुआ कौनसा प्राणी सुखी रह सकता है ? अर्थात् क्रोध, तृष्णा व काम जहां तीनो लगे हुए हैं ऐसे इस संसारमे कोई सुखी नहीं रह सकता। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेप देशना विधि - २५३ "एतास्तावदसंशयं कुशदलप्रान्तोदविन्दूपमा, लक्ष्म्यो बन्धुसमागमोऽपि न चिरस्थायी खलप्रीतिवत् । यच्चान्यत् किल किञ्चिदस्ति निखिलं तच्छारदाम्भोघरच्छायावञ्चलतां विभर्ति यदतः स्वस्मै हितं चिन्त्यताम् ॥१३७॥ -कुश या दर्भपत्रके किनारे रहे हुए जलकी बुंदके समान लक्ष्मी है यह निःसंशय वात है। वन्धुजनोका समागम भी दुष्टोंकी प्रीतिके समान चिरस्थायी नहीं है। इस मंसारमे जो कुछ भी अन्य वस्तु है वह शरद ऋतुके बादलकी छायाके समान अस्थिर है, अतः हे भव्य जनो ! अपने हितकी चिंता करो। क्योंकि ससार भणमंगुर तथा मसार है इसलिये अपने आत्माके हितके लिये यथाशक्ति धर्मकी आराधना करो। · तथा-अपवर्गालोचनमिति ॥९०॥ (२२३) मूलार्थ-और मुक्ति (मोक्ष)का विचार करे ॥१०॥ विवेचन-अपवर्गस्य- मुक्तिका, आलोचनम्-विचार । सर्व गुण उसमें है अतः वह उपादेय या ग्राह्य है ऐसी भावना करना । मोक्षकी भावना करे। वही एक ग्राह्य वस्तु है। संसारकी बुराइका विचार करनेके साथ उच्च व प्राप्य वस्तुका विचार करनेसे ही बुरी वस्तु त्यागी जा सकती है। अत. मोझमें सब गुण है ऐसी भावना रखे। जैसे- . . . "प्राप्ताः श्रियः सकलकामदुधास्ततः किं, - दत्त पदं शिरसि विद्विषतां ततः किम् ?। संपूरिताः प्रणयिनो विभवस्ततः किं, कल्पं भृतं तनुभृतां तनुमिस्तत. किम् ? ॥१३९॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ धमबिन्दु ' तस्मादनन्तमजरं इरमं प्रकाश, तचित्त ! चिन्तय क्रिमेभिरसविकल्पैः । यस्यानुषङ्गिण इमे भुवनाधिपत्य योगादयः कृपणजन्तुमतां भवन्ति' ॥१४०॥ -~-सर्व कामको दोहन करनेवाली लक्ष्मीके' प्राप्त होनेसे भी क्या : शत्रुओके मस्तक पर पैर रखा पर उससे क्या ? स्नेहीजनोंको वैभवसे परिपूर्ण कर देनेसे भी क्या और कल्पांत तक भी प्राणियोका तन बना रहा उससे भी क्या 2 ये सब होने पर भी शाश्वत सुखको अर्पण करनेवाली मुक्तिके न मिलनेसे यह सब कुछ न होनेके समान है। क्योंकि इनका सुख नाशवान तथा दुःख मिश्रित है। अतः हे चित्त ! चक्रवर्ती तथा देवकी ऋद्धिसे भी अधिक, अनंत, अजर (जरारहित ) परम प्रकाशरूप, मोक्षसुखका चिंतन कर । उपरोक्त असद् विकल्पोसे क्या होनेवाला है? क्या लाभ है। विषय- सुखकी प्राप्तिके लिये रंक समान प्राणियोंके लिये भुवनपति और देवत्वकी प्राप्ति तथा उसका सुख भी मोशमुखका, आनुपगिक सुख है. अर्थात् भीतर समा जानेवाला सुख है। तथा श्रामण्यानुराग इतिः ॥९१॥ (२२.४) मूलार्थ-और साधुत्वमें अनुराग रखे ॥११॥ विवेचन-शुद्ध साधुभावनाके ऊपर प्रीति रखना चाहिये । 'मैं कब शुद्ध साधु,बनूंगा' ऐसा भाव मनमें रखे, जैसे--- "जैन मुनिव्रतमशेषभवात्तकर्स:-- संतानतानवकर स्वयमभ्युपेतः । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि • २५५ कुर्यां तदुत्तमतरं च तपः कदाऽहं भोगेपु निःस्पृद्दतया परिमुकसंग ः " ॥ १४१ ॥ 7 -- सर्व भवो में किये हुए कमको काटनेवाले जैन मुनिव्रतको स्वयं पा कर भोग मात्रसे स्पृहारहित होकर, सर्व-संगका त्याग करके कब मैं इस उत्तम-तपका-भाचरण कर सकूंगा' इत्यादि शुद्ध भावना रखे तथा-यथोचितं गुणवृद्धिरिति ||१२|| (२२५) मूलार्थ - यथोचित गुणवृद्धि करे ॥ ९२ ॥ विवेचन-यथोचितं- सम्यक् दर्शन आदि गुणोंकी - जब भी हो सके वृद्धि करना चाहिये। उसकी दुर्गनप्रतिमा व व्रतप्रतिमा द्वारा वृद्धि या पुष्टि करना ★ दया, जितेन्द्रिय, क्षमा, परोपकार, नम्रता, सयता, आत्मसंयम, आदि गुणोंको जो बढ़ाना हो तो उनको पैदा करना । एक. गुणको लेकर प्रातःकाल मनन करे, दिनभर उसे काममें लाने का प्रयत्न करे तथा रात्रिमे उसकी जांच करे । इस तरह लगातार कई दिन तक करते रहने से वह गुण उत्पन्न होगा। एक गुणके पूर्ण विकास - होने पर कुछ अंगोंमें दूसरे भी कई गुण उत्पन्न होगे । एक्के बाद दूसरे गुणको भी इसी प्रकार उत्पन्न करे। इस तरह धीरे धीरे कइ गुण विकसित होंगे। तथा - सम्वादिषु मैत्र्यादियोग इतीति ॥ ९३॥ ( २२६) मूलार्थ - सर्व जीवों के प्रति मैत्री आदि- चार भावना रखना चाहिये ॥ ९३ ॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ : धर्मविन्दु विवेचन - सत्त्वादिषु - सामान्यतः सब जीवोके प्रति व विशेषतः दुःखी, सुखी व दोषीके प्रति भावनाएं, मैत्रयादियोग- मैत्री आदि चार भावना । जैनधर्ममे यह चार भावना बहुत आवश्यक हैं। किसके प्रति कौनसी भावना रखना उसका लक्षण इस प्रकार है 'परहितचिन्ता मैत्री, परदुःखविनाशिनी तथा करुणा । परसुख तुष्टिर्मुदिता, परदोपोपेक्षणमुपेक्षा " ॥१४२॥ --दूसरे के हितकी चिन्ता या सर्वके प्रति सामान्यतः मैत्रीकी भावना - मैत्री हैं, और दूसरो के दुःखको हरनेकी कामना - करुणा, दूसरेके सुखमें सतोष- मुदिता और दूसरोके दोपोको न देखनाउपेक्षा या माध्यस्थ्य भावना है। वडे, समान व हलके लोगोंके प्रति क्रमशः प्रमोद, मैत्री व कारुण्य भावना होनी चाहिये । दोषयुक्त पुरुषो के प्रति माध्यस्थ भावना रखे। कोई भी व्यक्ति ज्ञान, गुण, कला या विद्या किसी भी अपनेसे आगे हो उसके प्रति प्रमोद भावना अथवा आनंद उत्पन्न हो, ईर्ष्याको स्थान न मिले। उससे उत्साह प्राप्त करना चाहिये । द्वेषसे आर्त्तध्यान व कर्मबंध होता है । प्राणी मात्र के प्रति सुहृद् भावना रखे। स्वार्थका त्याग करना चाहिये व 'अहम्' - 'मैं' पनको छोडना चाहिये । समभाव रखनेवाला ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है चाहे वह किसी धर्मका अनुयायी हो । 'वंटितासूत्र 'मे भी कहा है- " मित्ति मे सव्वभूएसु, वेर मज्झ न केणई " मुझे सबसे मित्रता हैं किसी से भी वैर नहीं। अपनेसे ' Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २५७ पीछे रहे हुए चाहे वह ज्ञान, बुद्धि, सद्गुण अथवा विद्या किसी में भी हो दया व करुणा भावना रखे, तिरस्कार नहीं । व्यसनी वा दुराचारी लंगडे कुत्ते की तरह ही दयाके पात्र हैं। दुखोकों दूर करनेकी भावना रखे । दुखीजनों पर करुणा करे और दुःख दूर करने का प्रयत्न | माध्यस्थ या उपेक्षाभाव दोषित लोगोके प्रति हो। उसी तरह अन्य धर्मावलंत्री जनोंकी तरफ भी माध्यस्थ्य व सहनशीलता रखना आवश्यक है | राग या द्वेष करना नहीं। कोई गलत सह पर जावे तो उसे समझाना पर न समझे तो राग या द्वेष न करके उपेक्षाभाव रखे - उदासीनता रखे। इन चार भावनाओको हृदयंगम करे । 7" गृहस्थधर्मकी समाप्ति कर के उपसंहार करते हुए, शास्त्र कार कहते हैंविशेषतो गृहस्थस्य, धर्म उक्तो जिनोत्तमैः । एवं संभावनासारः परं चारित्रकारणम् ||१६|| मूलार्थ - श्रीजिन भगवानने गृहस्थका विशेष धर्मः जो उत्कृष्ट चारित्रको देनेवाली है तथा जिसमें सद्भावना मुख्य है वह इस प्रकार कहा है ॥१६॥ विवेचन-विशेषतः - सामान्य धर्म से भिन्न, गृहस्थस्य-गृहस्थका धर्म, उक्तः- निरूपित, जिनोत्तमै:- अरिहंत भगवंत द्वारा, एवं उपरोक्त प्रकारसे, सद्भावनासार:- परमपुरुषार्थ - मोक्षके अनुकूल भावनाः जिसमें मुख्य है या भाव श्रावक धर्म है । और कैसा है ? परं - भवांतर में भी अवन्ध्य, चारित्रकारणम् - सर्वविरतिका हेतु ॥ श्री जिन भगवान श्रावकका यह विशेष धर्म, इस प्रकार कहा हैं। यह उत्कृष्ट चारित्रको प्रदान करनेका कारणरूप है तथा इसमें ૧૭ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ : धर्मविन्दु मोक्ष प्राप्तिके अनुकूल उत्तम भावनाएं मुख्य हैं। सारा धर्म इन चार भावनाओंके ऊपर आधारित है। उच्च भावना रखना ही प्रधान बात है। यह चारित्रका कारण जिस प्रकार है सो कहते हैंपदं पदेन मेधावी, यथा रोहति पर्वतम् । सम्यक् तथैव नियमात , धीरश्चारित्रपर्वतम् ॥१७॥ मूलार्थ- जैसे बुद्धिमान् क्रमगः कदम कदमसे पर्वत पर चढ जाता है वैसे ही धीर पुरुष चारित्र पर्वत पर क्रमशः अवश्य चढ जाता है ॥ १७॥ विवेचन- पदं पदेन- क्रमशः कदम कदमसे, मेधावीबुद्धिमान् , आरोहति- चढ जाता है। पर्वतम्- जैसे रैवताचल आदि पर । सम्यक्-भली प्रकारसे, हाथ पैर तोडे विना, तथैव-उसी प्रकार, नियमात-अवश्य, धीर:- निष्कलंकित श्रावक धर्मको पालन करनेवाला, चारित्रपर्वतम्- सर्व विरति नामक महान शिखर पर । जैसे किसी भी पर्वत पर तुरत ही नहीं चढा जा सकता पर एक एक कदम चल कर उसकी चोटी तक पहुंच सकते हैं वैसे ही जो व्यक्ति श्रावक धर्मको भली भांति पालता है वह अवश्य ही क्रमशः चारित्रके महान पर्वत शिखर पर चढ जाता है। यह कैसे हो सकता है। कहते हैंस्तोकान् गुणान् समाराध्य, बहनामपि जायते । यस्मादाराधनायोग्या, तस्मादादाक्यं मतः ॥१८॥ मूलार्थ-मनुष्य छोटे या थोडे गुणों की आराधनासे अधिक गुणोंकी आराधनाके योग्य बनता है अतः पहले गृहस्थके Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANANA गृहस्थ विशेष देशना विधि : २५९ विशेष धर्मका पालन करे ॥१८॥ विवेचन-स्तोकान्-थोडे-तुच्छ, गुणान्-जो गुण श्रावकके योग्य हैं, समाराध्य-पालन करनेसे-अच्छी तरह आरावन करनेसे, बहूनाम्- श्रमणके योग्य गुणोंको, जायते-होता है, आराधनायोग्या-परिपालनके लिये उचित अवस्थाको प्राम करना, तस्मादइसीलिये, आदौ-पहले, अयम्-यह गृहस्थधर्म, मत!-सत्पुरुष संमत । जो मनुष्य पहले श्रावक धर्मका पालन भली भांति कर सकता है वही श्रमगके गुणोंकी आराधनाके योग्य कहा जा सकता है। जो गृहस्थधर्म ही न पाल सके वह साधुधर्मके योग्य कैसे हो सकता है ? अतः पहले यह गृहस्थधर्मके बारेमें कहा है जिसे पहले पालन करनेसे इन अप गुणोंकी आराधनाके बलसे अधिक गुणोंके लाभमें बाधक कर्म कलंकके मिट जानेसे उन गुणोंकी प्राप्ति व आराधनाका सामर्थ्य होता है, तब ही मनुष्य चारित्र ग्रहण करने के योग्य बन सकता है। यह न्याय पुरुष विशेषकी अपेक्षासे है अर्थात् सर्व सामान्यके लिये है । अन्यथा उस प्रकारके सामर्थ्यसे जिनका चारित्र-मोहनीय (चारित्र लेनेमें अंतराय करनेवाला कर्म) निर्वल हो जाता है ऐसे स्थूलभद्र आदि महापुरुषोको इस क्रमको छोड कर भी शुद्ध सर्वविरतिका लाभ हुआ है ऐसा शास्त्रों में कहा गया है। अर्थात् बिना विशेष धर्म ग्रहण किये ही वे सीधे साधु वने हैं। श्रीमुनिचन्द्रसूरि विरचित धर्मबिंदु वृत्तिमें विशेष गृहस्थधर्म विधि नामक तृतीय अध्याय समाप्त हुआ। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय। सांप्रतं चतुर्थ आरभ्यते, तस्य चेदमादिसूत्रम्एवंविधिसमायुक्त सेवमानो गृहाश्रमम् । चारित्रमोहनीयेन, मुच्यते पापकर्मणा ॥१९॥ मूलार्थ अव चौथे अध्यायको प्रारंभ करते हैं -यह उसका प्रथम सूत्र है इस प्रकार विधिसे गृहस्थधर्मको पालनेवाला पुरुष चारित्र मोहनीय नामक पापकर्ममेंसे मुक्त हो जाता है ।।१९।। -, विवेचन-एवविधिना- पूर्वोक्त सामान्य व विशेष गृहस्थधर्मके लक्षणों सहित, सामायुक्तः-युक्त या सपन्न, सेवमान:-सेवन करते हुए, गृहाश्रम-गृहस्थीमें रहते हुए, मुच्यते-मुक्त हो जाता है; पापकर्मणा-पापकृत्यसे। पूर्वोक्त विधियोंसे क्रमशः सामान्य धर्मके पश्चात् विशेष धर्मका पालन करनेसे चारिन मोहनीयकर्म तूटते हैं। गृहस्थधर्म जिसमें अणुव्रतादिक, पाले जाते, हैं चारित्रके लिये तैयारीरूप है । अणुव्रतोंसे महानतोका अधिकारी बनता है। आमा चारित्र मोहनीयसे कैसे मुक्त होती है सो कहते हैं Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति सामान्य देशना विधिः २६१ सदाज्ञानाराधनायोगाद्, भावशुद्धेर्नियोगतः। उपाय संप्रवृत्तेश्च, सम्यक्चारित्ररोगतः ॥२०॥ मूलार्थ - भगवानकी सज्ञाकी आराधना से हुई मात्रशुद्धिसे, सम्यक् चारित्र पर अनुराग रखनेसे तथा साधनोंमें प्रवृत्ति करनेसे अवश्य ही चारित्र मोहनीय कर्म से मुक्त होता है | } विवेचन - सत्- कलंकरहित, आज्ञाराघनायोगात् - यतिधर्मके योग्य न होने से श्रावकधर्मका पालन करे ऐसी जिनाज्ञाको पालन करनेसे, भावशुद्धि - उससे उत्पन्न मनकी निर्मलतासे, नियोगतः - अवश्य ही, उपाय संप्रवृत्तेश्च - शुद्ध हेतुको अंगीकार करने की प्रवृत्तिसेचेासे, और सम्यक् चारित्ररागतः - निर्दम्भ चारित्रकी अभिलाषासे, उसमें होनेवाले अनुरागते । प्रभुकी शुद्ध आज्ञाको पालन करनेसे- श्रावक धर्मके पालन करनेसे हृदयकी जो निर्मलता प्राप्त होती है और सम्यक् चारित्र पर जो राग है उसको पाने की जो अभिलाषा है, शुद्ध हेतुको अंगीकार करनेकी प्रवृत्तिसे जो अणुत्रतादिक के पालन करने में है - इन तीन चित्तनिर्म छता, चारित्र पर रॉग व हेतुमे प्रवृत्ति होनेसे चारित्र मोहनीय कर्म क्षय होते हैं। इससे "अन्य कोई उपाय नहीं है । यह शंका करे कि चारित्र मोहनीय कर्मसे मुक्त हो जाने पर भी यह कैसे सिद्ध होता है कि बादमें पूर्ण पचखाण लेनेवाली बनेगा ? 'उत्तर इस प्रकार हैं विशुद्धं सदनुष्ठानं, स्तोकमप्यर्हतां मतम् । तत्त्वेन तेन च प्रत्याख्यानं ज्ञात्वा सुबह्नपि ॥२१॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ ~ ~ ~ २६२ : धर्मविन्दु मूलार्थ-शुद्ध व सदनुष्ठान अल्प होने पर भी अरिहंतको मान्य है क्योंकि तत्त्वसे प्रत्याख्यानका स्वरूप समझ जाने पर बहुत करनेका भी विचार होता है। विवेचन-विशुद्ध-निरतिचार, सत-सुंदर, अनुष्ठान-स्थूल प्राणातिपात विराण आदि अणुव्रतका पालनरूप आचरण, स्तोकंथोडा भी, क्योंकि यह स्थूलका ही पालन है, मतम्-मान्य, तत्त्वेन तात्त्विकरूपसे, अतिचारकी कलुपिततासे दूषित नहीं, तेन च-विशुद्ध अनुष्ठानके करनेसे, प्रत्याख्यान-आश्रव व निरोध लक्षणवाला, ज्ञात्वा-गुरुके पास श्रुतधर्मसे प्रत्याख्यानके फल व हेतुको मली प्रकारसे जानकर सुबहपि-सर्व पापस्थानका त्याग करनेको भी तैयार होगा। श्रावकके बार व्रत जो यतिधर्मकी अपेक्षा कम हैं निरतिचार रीतिसे पालन हो वे प्रभुको मान्य हैं। क्योकि इससे धर्मका पालन करनेवाला पञ्चक्खाणके स्वरूपको उसके हेतु तथा फलको भली प्रकारसे जानता है यह प्रगट होता है। जब वह इसे तत्त्वरूपसे यह जानता है कि वह आश्रव व निरोध करनेवाला है तो वह अधिक पच्चक्खाण भी लेनेको प्रेरित होगा। सक्षेपमे जो निरतिचार थोडा भी व्रत पालन करता है वह व्रतके स्वरूप, हेतु व फलको जानता है, अतः उसे योग्य समय पर अधिक व्रतकी भी प्राप्ति होगी। इति विशेषतो गृहस्थधर्म उक्तः, सांप्रतं यतिधर्मावसर इति यतिमनुवर्णयिष्याम इति ॥१॥ (२२७) Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति सामान्य देशना विधि : २६३ मूलार्थ-इस प्रकार गृहस्थका विशेष धर्म कहा है। अब यतिधर्म करनेका अवसर है अतः यतिका व यतिधर्मका वर्णन करते हैं ॥१॥ यतिका स्वरूप कहते हैंअर्हः अहंसमीपे विधिप्रजितो यतिरिति ।।२।। (२२८) मूलार्थ-योग्य अधिकारी योग्य व्यक्तिसे विधिवत् दीक्षा ले वह यति है ॥२॥ विवेचन-अर्ह -दीक्षा योग्य अधिकारी, अर्हस्य- दीक्षा देने योग्य गुरुके, समीपे-पास, विधिना-विधिवत् प्रव्रजित:-दीक्षा ग्रहण किया हुआ, यति-मुनि। . दीक्षाके योग्य हो जाने पर जो दीक्षा देनेके योग्य गुरुके पास विधिवत् दीक्षा ग्रहण करे वह मुनि कहलाता है । ___ दीक्षाके योग्य व्यक्तिकी योग्यता शास्त्रकार बताते हैंअथ प्रव्रज्याहः आर्यदेशोत्पन्नः, विशिष्टजातिकुलान्विता, क्षीणप्रायकर्ममलः, तत एव विमलवुद्धिः, दुर्लभं मानुष्यं, जन्म मरणनिमित्तं, संपदश्चपलाः, विषया दुःखहेतवः, संयोगेवियोगः, प्रतिक्षणं दारुणो विपाकः इत्यवगतसंसारनैर्गुण्यः, तत एव तद्विरक्ता, प्रतनुकषायः, अल्पहास्यादिः, कृतज्ञा, विनीतः, प्रागपि राजा Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ : बिन्दु मात्य पौरजनबहुमतः, अद्रोहकारी, कल्याणाङ्गः, श्राद्ध:, स्थिरः, समुपसंपन्नश्चेति ||३|| (२२९) मूलार्थ - दीक्षा लेने योग्य पुरुषके लक्षण कहते हैं - १ आर्यदेशमें उत्पन्न, २ विशिष्टजाति व कुलवाला, ३ कर्ममल प्रायः क्षीण हों, ४ उससे निर्मल बुद्धिवाला, ५ मनुष्य भव दुर्लभ है, जन्म मरणका निमित्त है, संपत्ति चंचल है, विषय दुःखका कारण है, संयोगमें वियोग है, मृत्यु प्रतिक्षण है, कर्म विपाक भयंकर है - ऐसी संसारकी असारताको जाननेचाला, ६ अतः संसारसे विरक्त, ७ अल्प कपायवाला, ८ थोडा हास्य आदि ( नोकपायवाला), ९ कृतज्ञ, १० विनयवान, ११ पहले भी राजा, मंत्री तथा पुरजन आदिद्वारा सम्मानित, १२ द्रोह न करनेवाला, १३ कल्याणकारी अंग व मुखाकृतिवाला, १४ श्रद्धावान, १५ स्थिर, १६ दीक्षाके हेतु गुरु समीप आया हुआ || ३ ॥ 1 विवेचन - प्रवजन - पाप से उत्कृष्ट चारित्रद्वारा दूर जानेवाला - वह प्रवज्या, उसके योग्य - प्रव्रज्यार्हः, आर्यदेशोत्पन्न-मगध आदि साढे पच्चीस देशोके मध्य जन्मा हुआ। आजकल आर्य व अनार्य का पुराना भेद समाप्त हो गया है । फिर भी जैन यति होनेके पात्र वही मनुष्य है जो मांस-मदिरा, वेश्या, चोरी व जुआ खेलना - आदि व्यसनोंसे रहित हैं अथवा तो इनको बुरा समझते हैं और जन्म तथा पुन 1 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति सामान्य देशना विधि : २६५ जैन्ममें मानते या विश्वास रखते हैं। ऐसे लोग या अधिकतर ऐसे लोग जहाँ रहें वही आर्यदेश माननेलायक है । मेरे विचारसे ऐसी संस्कृति भारतवर्ष में ही है । भारतसे भिन्न अनार्य कहे जा सकते हैं। विशिष्टजातिकुलान्विता - शुद्ध विवाह योग्य चार वर्णके अन्तर्गत माता - पितावाला तथा कुलीन जातिवाला, क्षीणप्रायकर्ममल:- ज्ञानावरणीय, मोहनीय आदि कर्ममल जिसका प्रायः क्षीण हो गया है और उससे उत्पन्न विमलबुद्धिवाला अर्थात् कर्म क्षीण होनेसे निर्मल बुद्धि उत्पन्न हो गई है वह, प्रतिक्षणं मरणं - अपने कालके अनुसार मृत्यु होने की अपेक्षा क्षण क्षण पर मरण । कहा है कि - "यामेव रात्रि प्रथमामुपैति, गर्भे वसत्यै नरवीर ] लोकः । ततः प्रभृत्य स्वलितप्रयाणः स प्रत्यहं मृत्युसमीपमेति ॥१४३॥ - व्यास युधिष्ठिरसे कहते हैं - हे नरवीर जिस रात्रिमें जीव गर्भमें उत्पन्न होता है, उसी समयसे निरंतर प्रयाण करनेवाला जीव जिसकी आयुष्य प्रतिक्षण क्षीण होता है वह प्रतिक्षण व प्रतिदिन मृत्युके समीप आता है प्रागपि - दीक्षा लेनेसे पूर्व स्थिर - आरंभ किये हुए कार्यको बीच में न छोडनेवाला, समुपसंपन्नः - सम्यकूं प्रकारसे सर्वथा आत्मसमर्पणद्वारा पास में आया हुआ - साधुके समीप दीक्षा लेने को उपस्थित | जैनधर्म दो प्रकारसे पाला जाता है - एक श्रावकद्वारा, दूसरा यति - साधुद्वारा | श्रावकका धर्म ऊपर कहा जा चुका है। साधुका आगे कहते हैं । साधु वननेके लिये दीक्षा लेना होता है । दोशाके योग्य होनेके लिये जिन गुणोंकी आवश्यकता है वे इसमें कहे गये Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म बिन्दु : २६६ हैं । यतिधर्म दुर्गम है । इसमें संयम, परोपदेश, ब्रह्मचर्य, देशाटन, सर्दीगर्मी, परीषह सहना, अभ्यास तथा तप आदि करना पडते हैं । योग्य व्यक्ति साधु बनकर उसे चमकाता है । यह त्याग है- ससारकी जिम्मेदारियां से बचने के लिये नहीं पर साधुधर्मकी अधिक जिम्मेदारी सहनेके लिये । अतः उसके गुण आवश्यक १. आर्यदेशमें जन्म के बार में ऊपर विवेचन किया है । २. विशिष्टजाति व कुलवाला - माता पिता उच्च कुल व जाति के हो । कुलीन वरानोंमें उदारता, दाक्षिण्यता आदि स्वाभाविक रीति से गुण होते हैं । 1 ३. क्षीणप्राय कर्ममल - ज्ञानावरणीय आदि कर्म बहुत अंशमें क्षय हो जानेसे उसे ज्ञान होता है व राग द्वेष कम होता है अतः वह योग्य है । ४. निर्मल बुद्धि - ज्ञानसे तथा राग-द्वेष न होनेसे बुद्धि भी निर्मल होती है । मन शांत होता है और आत्मज्योतिसे विशुद्ध होता है। ५. संसारकी असारता को समझनेवाला - यह दो प्रकारसे अनुभव व उपदेश से ज्ञात होती है | उपदेशसे पूर्वभव के संस्कार - के कारण वैराग्य होता है । गृहस्थाश्रम पालने से तथा असारता व अनित्यता के अनुभव से विशेष वैराग्य पैदा होता है । मनुष्य भव दुर्लभ, मृत्यु निश्चित, संपत्ति चंचल, विषय दुखसे भरपूर, कर्मके भयकर फल आदिका अनुभव हो अथवा उनका ज्ञान हो । केवल शास्त्रीय ज्ञान ही सब कुछ नहीं होता । इससे पदार्थों परसे मोह हट जाता हैं और तब Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति सामान्य देशना विधि : २६७ ६. संसारविरक्ति - उत्पन्न होती है। आत्मा ही नित्य है, अन्य सब अनित्य है - ऐसा जो समझ लेता है उसकी विरक्ति कभी क्षय नहीं होती । वह साधु समुदायका आभूषण हो जाता है । ७. अल्प कपाय - क्रोध, मान, माया व लोभ बहुत कम होने चाहिये । इनके अधिक होनेसे वह चारित्र पदको कलंकित करता है । ८. हास्यादि - थोडे हो । हास्य, रति, अरति, भीति, जुगुप्सा और शोक छः, नौ नोकषाय या दोष कहलाते हैं। ये अल्पमात्रामें होने चाहिये । ९. कृतज्ञ - कृतघ्नी बहुत बडा पापी है"। कृत गुणको कभी न भूले। १०. विनयी - विनयमूलो धम्मो' धर्मका मूल विनय है । यह एक दीक्षार्थीका आवश्यक गुण है । ११ दीक्षाके पहले ही लोकप्रिय हो - उत्तम चारित्रवान हो, सब उसका बहुमान (आदर) करते हो । जो विषयी या दुराचारी है उसके प्रति पूज्यभाव नहीं हो सकता, लोग उसके उपदेशसे दूर रहते हैं अतः वह स्व-परका हित नहीं कर सकता ! १२. अद्रोहकारी - 'विश्वासघात एक पाप है" । किसीका द्रोह करनेवाला न हो । १३. कल्याणांग - सर्व इन्द्रिय शुभ हो तथा भव्य मुखाकृति मंग दोषवाला प्रभावोत्पादक नहीं होता । ऐसेको आचार्यपद देनेकी आज्ञा नहीं है । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ : धर्मचिन्दु १४. श्रद्धावान-धर्मके प्रति श्रद्धा आवश्यक है। उदर पूर्तिके लिये साधुधर्म वृथा है। १५. स्थिर-प्रारंभ किया हुआ कार्य विन आने पर भी न छोडे । अनिष्ट संयोग आने पर जो वैराग्य आता है वह स्थिर नहीं रहता। संयम कैद समान लगता है। क्षणिक चैराग्य स्थिर नहीं रहता । १६. दीक्षा लेनेको उपस्थित-गुरु शिष्यों को न ढूंढे, पर वैराग्य होनेसे शिष्य ही गुरुके सामने दीक्षा लेने आवे । आत्म समर्पण करनेवाला आज्ञाकारी भी होता है । साथ ही गुरुकै प्रति उसमें भक्ति होना आवश्यक है। दीक्षाके योग्य व्यक्तिके गुण केह कर अब योग गुरुके गुण -बताते हैगुरुपादास्तु इत्थंभूत एव-विधिप्रतिपन्नप्रव्रज्यः, समुपासितगुरुकुला, अस्वलितशीला, सम्यगधीतागमः, तत एव विमलतरवोधात् तत्त्ववेदी, उपशान्ता, प्रवचनवत्सलः, सत्त्वहितरतः, आदेयः, अनुवर्तक, गम्भीस, अवि. षादी, उपशमलव्ध्यादिसंपन्नः, 'प्रवचनार्थवक्ता, स्वगुर्वनुज्ञातगुरु पदश्वेतीति ॥४॥ (२३०) में मूलार्थ-ऐसे गुणवाला साधुशुरुपदके योग्य है-१ विधि-वत् दीक्षित, २ गुरुकुलका सम्यक उपासक, ३ अखंड शील- वाला, ४ आगमका सम्यक अध्ययन करनेवाला, ५ उससे Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थति सामान्य देशना विधि : २४९ ोष होने से तत्त्वका ज्ञाता, ६ उपशांत, ७ संबके हितमें तत्पर, ८ प्राणि मात्र के हितमें लीन, ९ जिसका वचन ग्रहणीय हो, १० गुणी जनों का अनुकरण करनेवाला, ११ गंभीर, १२ विषाद (शोक), १३ उपशम लब्धिवाला, १४ सिद्धांतका उपदेशक, १५ अपने गुरुसे गुरुपद प्राप्त ॥४॥ विवेचन- गुरुपदार्ह - गुरुपद के योग्य, इत्थंभूत. एव-इन गुणोवास, अन्य नहीं, यदि स्वयं निर्गुणी है तो वह दीक्षा देनेके लिये अयोग्य है, लायक नहीं। वह दीक्षा देनेवाला गुरु कैसा हो जिसमे निम्न १५ गुण हो ।, १. विधिप्रतिपन्न प्रवन्यः - विधियुक्त दीक्षा ग्रहण करनेवाला । २. समुपासितगुरुकुल: - गुरुके परिवारकी भली प्रकार आराधना करनेवाला | ३. अस्खलितशील - दीक्षा लेनेके दिन से अब तक अखड - रूपसे सतत महात्रतकी आराधना की हो. व्रत खंडित न हुआ हो 1 ४. सम्यगधीतागमः- अच्छी तरह आगमका अध्ययन किया हो। सूत्र व अर्थके ज्ञान व क्रियाके गुणको जाननेवाले गुरुकी सेवासे तीर्थंकर प्ररूपित आगमके रहस्य को जाना हो । ५. तत एव विमलतरवोधात् तच्चवेदी - आगमके रहस्यका ज्ञाता व अभ्यस्त होनेसे जिसे अतिशय निर्मल बोध है - वृद्धिका पूर्ण विकास हो चुका है और उससे तत्त्वज्ञाता या जीवादि वस्तुका ज्ञाता है। ६. उपशान्त:- मन, वचन व कायाके विकारोंसे रहित, । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० : धर्मविन्दु ७. प्रवचनवत्सल!- चतुर्विध सकल संघका यथायोग्य वात्सल्य करनेवाला। ८ सत्त्वहितरत:- विविध उपायोंसे सामान्यतः सर्व जीवोका हित करनेमें तत्पर । ९. आदेयः- जिसका वचन व चेष्टा ग्रहणीय हो। १०. अनुवर्तक:- भिन्न भिन्न स्वभाव व गुणवाले प्राणियोंमें गुणकी वृद्धि करनेके लिये उनका उस विधिसे अनुकरण करनेवाला। ११. गंभीरः- रोष व संतोषमें जिसका हृदय न हो। १२. अविषादी- परीषह आदि दुःख पाकर छ कायके संरक्षणमें दीन बननेवाला नहीं-उससे शोक न पानेवाला। १३. उपशमलब्ध्यादिसंपन्नः-दूसरेको शांत करनेके लिये समर्थ ऐसी लब्धिवाला-तथा उपकरणलब्धि और स्थिर हस्तलब्धि सहित । १४. प्रवचनार्थवक्ता- आगमके यथार्थ अर्थको कहनेवाला । १५. खगुर्वनुज्ञातगुरुपदः-अपने गुरु या गच्छनायक द्वारा जिसे गुरुपद अर्थात् आचार्यपदवी दी गई हो। ये गुरुके १५ गुण है। ___गुरुमै उच्च गुणोकी आवश्यकता है। इन १५ गुणोंके गुरुमें होनेसे शिष्यमें अच्छे गुण आते हैं। गुरुपरंपरासे दीक्षित गुरुसे ही दीक्षा लेना उचित है। गुरुकुलमें रहनेवाला होना चाहिये । वह संप्रदायके आचार-विचारका जानकार होता है। उसका एक भी महाव्रत सारे समयमें खडित न हुआ हो। सूत्र व अर्थका ज्ञान व क्रिया जाने व तीर्थकर प्रणीत आगम रहस्य जानता हो। कहा है कि Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति सामान्य देशना विधि : २७१ "तित्ये सुत्तत्थाणं, गहणं विहिणा उ तत्य तित्थमिदं। उभयन्न चेव गुरू, विही उ विणयाइओ चित्ते" ॥१४॥ "उभयन्नू विय किरियापरो, दृढं पवयणाणुरागी य। स समयपरुवगो, परिणो य पन्नो य अञ्चत्थं ' ॥१४५॥ -तीर्थमें विधिसे सूत्र और अर्थका ग्रहण होता है। सूत्रार्थको जाननेवाला गुरु तीर्थ कहलाता है। विधि तो विनय आदि है । वह गुरु सूत्रार्थका ज्ञाना, क्रिया तत्पर, दृढ, प्रवचन अनुरागी, जैनागममें श्रद्धा सहित परिपक, अन्य शास्त्रोंमें निपुण और स्वसिद्धांतमे कुशल होता है। शास्त्रका अभ्यास होनेसे बहुत अच्छा ज्ञान प्राप्त है तथा तत्वको समझता है। मन, वचन व कायाके विकारों रहित हैं। सघ पर भक्ति रखनेवाला है। उनका कल्याण करनेका इच्छुक है। प्राणी मात्रके हितमें तत्पर होना चाहिये। सब उसका वचन मान्य रखें एसा वह होना चाहिये। लोगोंको उनके गुण समझ कर अन्य गुण उसमें पैदा करे। सबसे मैत्री रखे और सद्बोध दे। गंभीर हो व मनमें समभाव रखे। परीपहसे विषाद पैदा न हो। व्रतपालनमें धैर्य हो। मन व चहेरा प्रफुल्लित हो । चिंता व उद्वेग रहित हो। सहनशील हो। गुरु शांत व अल्प कषायवाला हो। अन्योंको उपदेश दे सके । गच्छनायक द्वारा गुरुपद या आचार्यपद मिला हुआ हो। दीक्षार्थीके १६ गुण तथा गुरुके १५ गुणोका वर्णन किया। इन दोनोंका मेल दुर्लभ है । अतः यहां अपवाद मार्ग बताते हैंपादाद्धगुणहीनो मध्यमाऽवराविति ॥५॥ (२३१) Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ : धर्मविन्दु मूलार्थ-चतुर्थ भाग व अर्द्ध भागके गुण कम हों तो मध्यम व जघन्य जानो ॥५॥ विवेचन-पादन- चौथे भागसे, अर्द्धन- आधा, हीनी-इन गुणोंमें कमी, मध्यमाञ्वरी- मध्यम व जघन्य योग्यता । पूर्वोक्त गुण सब एक साथ हो तो दीक्षार्थी व दीक्षा देनेवाला उत्तम समझना चाहिये। उसमें चतुर्थ भागके गुण हों तो मध्यम समझना चाहिये । आधे गुण कम हो तो जघन्य समझना। इस बारेमें दस प्रकारके भिन्न भिन्न मत प्रदर्शित किये गये हैं। इसके बाद शास्त्रकार स्वयं अपना मत कहते हैं नियम एवायमिति वायुरिति ॥६॥ (२३२) मूलार्थ-दीक्षा लेनेवाले तथा देनेवालेमें उपरोक्त सर्व गुण अवश्य होने चाहिये, यह वायु नामक आचार्यका मत है ॥६॥ विवेचन-नियम एव- अवश्य ही, अयं- पूर्वोक्त, सर्वगुण संपन्न,, अन्य नहीं । अर्थात् जिसमें चौथे अंश- आदि गुण कम हो वह योग्य नहीं । वायु:- वायु नामक प्रवादी विशेष।। वायु नामक, आचार्यका स्पष्ट मत है कि दोनो गुरु व शिष्य संपूर्ण गुणवाले हो । परिपूर्ण गुणवाले. ही क्यो योग्य है ? उत्तरी कहा हैसमग्रगुणसाध्यस्य तदर्द्धभावेऽपि तसिध्य संभवादिति ।।७।। (२३३) मूलार्थ-सकल गुणसे साध्य कार्यकी सिद्धि आधे गुण होने पर असंभव है ।।७।। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M - यति सामान्य देशना विधि : २७३ विवेचन-समग्रगुणसाध्यस्य-सव गुणोंसे साधने योग्य कार्यका, चदभावेऽपि-आधे गुण अथवा चौथे भागके गुण कम होने पर न तसिद्धयसंभवाद-आधे या चौथे गुणके कम होनेसे बो सिद्धि समस्त गुणसे होती है वह नहीं होती या वह असंभव है। जिन गुरु शिष्यमें पूर्ण गुण हो तब जो कार्य सिद्ध हो सकता है वह कुछ या आधे गुण कम होने पर असंभव है। अतः पूर्ण गुण होने चाहिये । अन्यथा ऐसा न होनेसे) कार्य कारणको व्यवस्थामर्यादाका नाश होना संभव है। नैतदेवमिति वाल्मीकिरिति ।।८ (२३४) -सलार्थ-वाल्मीकिके मनसे ऐसा-नहीं है ।।८।। विवेचन-वाल्मीकि नामक ऋषिका मत है कि वायुने जो कहा है वह युक्त नहीं । अर्थात् पूर्ण गुण ही आवश्यक है ऐसा नहीं है । उसका कारण क्या है ? कहते हैंनिर्गुणस्य कश्चिद्गुणभावोपपत्तेरिति ।।९।। (२३५) मूलार्थ-निर्गुण भी कुछ गुणकी प्राप्ति कर सकता है ।।९।। विवेचन-तद्गुणभावोपपत्तेः-उन सब गुण जो गुरु व शिष्यमें होने चाहिये वे उत्पन्न होना संभव है। निर्गुणी जीवमें भी किसी भी प्रकारको स्वयंकी योग्यता हो तो यह संभव है कि वे सारे गुरु व शिष्यके गुण उसमे उत्पन्न हो सकते हैं। योग्यता होनेसे सब गुण न होने पर भी वे सब गुण उत्पन्न हो सकते हैं। ऐसा योग्यताके बलसे संभव है । कोई मनुष्य Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ : धर्मविन्दु निर्गुण हो तो भी विशिष्ट कार्यके लिये आवश्यक गुण पहले ही प्राप्त करता है वैसे ही गुगके अभावमें भी विशेष कार्य हो सकता है । उसमें विरोध नहीं है । जैसे दरिद्री भी अकस्मात् राज्य आदि प्राप्त कर सकता है । अतः गुणरूप कारण बिना भी कार्यकी उत्पत्ति संभव है। अकारणमेतदिति व्यास इति ॥१०॥ (२३६) .. मूलार्थ-यह (उपर्युक्त) निष्कारण है ऐसा व्यास कहते हैं। ॥१०॥ विवेचन-अकारण-प्रयोजन रहित, निष्फल, एतत्-वाल्मीकिका कहा हुआ वाक्य, इति-इस प्रकार कहते हैं कौन ? व्यास'कृष्ण द्वैपायन व्यास । कृष्ण द्वैपायन व्यास कहते हैं कि वाल्मीकिका कहना न्याय युक्त नहीं। यह व्यर्थ व प्रयोजनहीन है इस · कारणके अयोग्य होनेका कारण बताते हैंगुणमानासिद्धौ गुणान्तरभावनियमा भावादिति ॥११॥ (२३७) __ मूलार्थ-गुणमात्रकी अनुपस्थिति में अन्य गुणोंकी उत्पत्ति निश्चित ही नहीं हो सकती ॥११॥ विवेचन-गुणमात्रस्य-स्वाभाविक या तुच्छ गुण, ,असिद्धौअनुपस्थित, गुणान्तास्य-अन्य विशेष गुण आदि, भावा-उत्पत्ति, नियमात-अवश्य, अभावात-न होना। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थति सामान्य देशना विधि : २७५ जहां स्वाभाविक मामूली गुण ही न हो वहा विशेष गुणोंकी उत्पत्ति तो अवश्य ही नहीं हो सकती। गुणोके अभावमें विशेष गुणकी उत्पत्तिका होना संभव ही नहीं। "स्वानुरूपकारणपूर्वको हि कार्यव्यवहारः" अपने अनुप या योग्य कारणों से ही कार्य होता है। कहा है"नाकारणं भवेत् कार्य, नान्यकारणकारणम्। अन्यथा न व्यवस्था स्यात् , कार्य-कारणयोः क्वचित्" ॥१४॥ ~~-कारण विना कार्य नहीं हो सकता। एक कार्यका कारण दूसरे कार्यका कारण नहीं बन सकता, ऐसा न मानें तो ( अन्यथा) कार्यकारणकी व्यवस्था कदापि नहीं रह सकती। जैसे वल का उपादान कारण जो सूत्रपिंड है वह घटके कारणरूप नहीं हो सकता । अर्थात् सूतसे वल ही होगा, घडा कदापि नहीं बन सकता। नैतदेवमिति सत्राडिनि ॥१२।। (२३८) ___ मूलार्थ-यह (व्यासका कथन) ऐसा ही है यह सही नहीं ऐसा सम्राट् राजर्षिका मत है ॥१२॥ विवेचन-सम्राट् राजर्षिका कहना है कि व्यापका कथन यथार्थ नहीं, किस कारणसे ? कहते हैं संभवादेव श्रेयस्त्वसिद्धेरिति ।।१३।। (२३९) मूलार्थ-योग्यतासे ही श्रेयस्त्व(श्रेयपना)की सिद्धि होती है ॥१३॥ विवेचन-संभवादेव- योग्यतासे ही, श्रेयस्त्वसिद्धेः- सर्व प्रयोजनोका सिद्ध होनेका श्रेय । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ : धर्मविन्दु वस्तुतः योग्यता से ही सर्व कार्य सिद्ध होते हैं। योग्यताके अभावमें, उसके न होनेसे, केवल गुणसे कल्याण नहीं होता या प्रयोजन सिद्धि नहीं होती । कहनेका आशय यह है कि केवल गुणोंके होनेसे दीक्षाका अधिकारी जीव दीक्षाके लिये योग्यताकी प्राप्ति नहीं करता तब तक उसका आरंभ किया हुआ कार्य सिद्ध नहीं होता । मनुष्य में गुण हों पर दीक्षाकी योग्यता न हो तो उसका प्रारंभ किया हुआ कार्य सिद्ध नहीं होता । जो योग्य है वही अधिकारी है और 1 जो योग्य नहीं है वह किसी भी कार्यका अधिकारी नहीं है । अनधिकारीको सर्वत्र निषेध है अतः योग्यता ही सर्व कार्यों में कल्याणको देनेवाला गुण है । यत् किञ्चिदेतदिति नारद इति || १४ || ( २४० ) मूलार्थ सम्राटका मतं वास्तविक नहीं है ऐसा नारद कहते हैं. 1 ॥१४॥ विवेचन सम्राटको कहना भी योग्य नहीं है, नारदका मत यह है । किस लिये ? उसका उत्तर देते हैं गुणमात्रांद् गुणान्तरभावेऽप्युत्कर्षा - योगादिति ॥ ५॥ ( २४१) .. मूलार्थ - योग्यता मात्र से अन्य गुणोंकी उत्पत्ति संभव है, उत्कर्ष नहीं ॥ १५ ॥ विवेचन- गुणमात्रात् - योग्यता मात्रसे, : उत्कर्षायोगात् - उत्कृष्ट गुणों का संभव नहीं है । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति सामान्य देशना विधि : २७७ योग्यता हो तो कई गुणोंको प्राप्ति संभव है पर केवल योग्यतासे सर्व कार्य सिद्ध नहीं होते। जो ऐसा न माने और योग्यताकों ही मुख्य गुण मान लें तो योग्यता तो सब मनुष्योंमें अपनी स्थितिके अनुसार होती ही है। इससे सत्र उत्कृष्ट गुणवाले बन जायं और जगत्में सामान्य गुणवाला तो कोई न रहे। अत. यह सिद्ध होता हैं कि विशिष्ट योग्यता उत्कृष्ट गुणोंकी साधक है केवल सामान्य योग्यता नहीं। . सोऽप्येवमेव भवतीति वसुरिति ॥१६॥ (२४२) मूलार्थ-गुणोत्कर्ष-भी इसी प्रकार होता है यह वसुकामत है ॥१६॥ विवेचन-एवमेव-पूर्व गुण जो हैं वे उत्तर गुणोंकी शरूआत है. अर्थात् .बडे गुणोंकी प्राप्तिका आरंभ पहले प्राप्त होनेवाले छोटें: छोटे पूर्व-गुणोंसे ही होता है। गुणसे गुणकी वृद्धि होती है। । सामान्य गुणमेंसे विशेष गुण उत्पन्न होता है। पर केवल योग्यतासे उच्च गुण प्राप्त नहीं होते। बीज बिना कभी भी पेड पैदा नहीं होता अतः कोई भी कार्य निर्बीज होना असंभव है। अतः गुण होने पर उसकी वृद्धि होती है ऐसा वसु नामक राजा का अभिप्राय है जो व्यासके मतको अनुसार है। अयुक्तं कार्षापणधनस्य तदन्यविढपनेऽपि कोटिव्यवहारारोपणमिति क्षीरकदम्बक इति ॥१७॥ (२४३) Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMAN २७८ : धर्मविन्दु मूलार्थ-कार्षापण धनमें अन्य धनके जुड जाने पर भी उसे कोटिध्वज कहना अयुक्त है ऐमा क्षीरकदम्बकका मत है। विवेचन-अयुक्तं- अयोग्य, कापणधनस्य- बहुत हलके घनवाला व्यवहारी, तदन्यविढपनेऽपि- उस कार्षापण या हलके धनसे अन्य कार्यापण धन होने पर भी- उससे क्या? कोटिव्यवहारारोपणं- कोटिध्वजके नाम का या व्यवहारका आरोपण करना या वह स्वयं अपनेको क्रोडाधीश माने । जो व्यापारी हलकी जातिका व्यवहार करे, हलके धनसे अन्य ऐसा ही धन और कमावे तथा अपने आपको कोटिध्वज माने तो वह अयोग्य है। उसका व्यवहार कोटिध्वजके व्यवहारके समान नहीं हो सकता । कोटिध्वजका व्यवहार बहुत लंबे समयमें साघा' जा सकता है। उतने लंबे समय तक व्यापारीका जीवन संभव नहीं होता । उच्च गुण तो विशिष्ट योग्यतासे ही आ सकते हैं-यह क्षीरकदम्बकका अभिप्राय है। नारद और भीरकदम्बकके वचन मात्र, अंतर है अर्थमें नहीं उनमें मतभेद नहीं है। न दोषो योग्यतायामिति विश्व इति ॥१८॥ मूलार्थ-योग्यतामें दोप नहीं ऐसा विश्व आचार्यका मत है। विवेचन-दोप- अयुक्तता, योग्यतायां-योग्यता- कार्षापण धनवाला भी उस प्रकारका भाग्योदय होने पर कोटिध्वज हो सकता है। विश्व- नामक आचार्य । कार्षापण धनवाला भी उस प्रकारका भाग्योदय होने पर प्रतिदिन सौगुने, हजार गुने आदि कार्षापण धनको इकट्ठा करके भी वह Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति सामान्य देशना विधि : २७९ कोटिध्वज हो सकता है अतः एसा होना संभव नहीं है यह दोप संभव नहीं अर्थात् ऐसा हो भी सकता है। ऐसा शास्त्रमें कहा जाता है कि कई जन जो पहले तुच्छ व्यवहारवाले थे वे भी भाग्योदयसे थोडे ही समयमें कोटिध्वज हो गये तथा उस व्यवहारको प्राप्त हुए। ऐसा विश्व आचार्यका मत है। यह सम्राट्के मतके अनुसार है। अन्यतरवैकल्येऽपि गुणवाहुल्यमेव सा तत्वत इति सुरगुरुरिति ॥१९॥ (२४५) मूलार्थ-किसी गुणके अभावम भी बहुत गुणोंके विद्यमान होनेसे वही वस्तुतः योग्यता है-ऐसा सुरगुरु-वृहस्पतिका मत है ॥१९॥ विवेचन-किसी गुणके अभावमें भी (विकलता न होने पर भी), गुणवाहुल्यमेव-बहुत गुणोंका होना, सा-योग्यता (आवश्यक), तत्त्वता-वस्तुतः। बृहस्पतिका मत है कि किसी गुणकी कमी हो तब भी (या कमी न हो) गुणोंकी बहुलता ( अधिकता) वास्तवमें योग्यता है। प्रत्येक मनुष्य सब गुणोसे संपूर्ण नहीं होता। बहुत गुणोसे अवगुण अपने माप मिट जाता है। अतः चौथे भाग या आधे भागके गुणोंके कम होनेसे उसकी चिंता न करें। सर्वमुपपन्नमिति सिद्धसेन इति ॥२०॥ (२४६) . मूलार्थ-बुद्धिमान पुरुष जो भी योग्य माने वह सर्व योग्य है ऐसा सिद्धसेनका मत है ॥२०॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० : धर्मविन्दु विवेचन-पुरुष पराक्रमसे साध्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्षके ་ संब व्यवहारोंमें उनके बारेमें द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावका विचार' करके बुद्धिमान पुरुष ' जिसे योग्य माने वह आदरणीय है, उसमें किसी प्रकारकी हानि नहीं। उपपन्न- योग्य तथा योग्यतामें कोई मैद नहीं । सिद्धसेन नीतिकारका यह मत है । इस प्रकार दस अन्य तीर्थियों के मतोंको बताकर अब ग्रन्थकार अपना मत बताते हैं- भवन्ति त्वल्पा अपि असाधारणगुणाः कल्याणोत्कर्ष साधका इति ॥२१॥ (२४७) ' मूलार्थ - असाधारण गुण अल्प हों तो भी कल्याण व उत्कर्षके साधक हैं ॥२१॥ विवेचन - अल्पा अपि-कम हों तो भी (ज्यादा भी हो सकते हैं ), गुणाः- आर्यदेशोत्पन्न आदि पूर्वोक गुण, असाधारण - जो सामान्य या प्रत्येक मनुष्यमे होना सभव नहीं है । कल्याणोत्कर्षसाधकाः- दीक्षा लेना आदि उच्च कल्याण के साधक हैं । शास्त्रकारका मत है कि - असाधारण व उच्च गुण थोडे भी हों तब भी वे उच्च कल्याणका साधन करनेमें समर्थ होते हैं । असाधारण गुण अवश्य ही अन्य गुणोंका आकर्षण करने में सफल होते हैं । अतः चौथे व आधे गुण कम होने पर मध्यम व जघन्य योग्य हैं ऐसा कहना जो पहले कहा है योग्य है । यहां वायु, वाल्मीकि, व्यास सम्राट्, नारद, वसु व क्षीरकदम्बकके जो मत दर्शाये हैं वे एक दूसरे के मतंका खण्डन करते हैं Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति सामान्य देशना विधि : २८१ पर हम इसमें तटस्थ हैं और उनका मत खण्डन कानेका विचार नहीं है। विश्व, सुरगुरु और सिद्धसेनने जो असाधारण गुणोंका अनादर करके केवल योग्यताको अंगीकार किया है वह ठीक नहीं हैं। क्योंकि केवल योग्यताका ही प्रतिपादन नहीं किया और असाधारण गुणोंको भी माना है तो हमारा मत भी उसी प्रकारका है। संक्षेपमें कहें तो मनुष्यमें भले ही सब गुण न हो पर यदि उसमें कुछ साधारण गुण हों और अधिक गुण प्राप्त करनेकी योग्यता हो तो वह दीक्षा लेनेके योग्य है। . दीक्षार्थी तथा दीक्षा देनेवालेके बारेमें कह कर अब दीक्षाके चारमें कहते हैं:- उपस्थितस्य प्रश्नाचारकथनपरीक्षादि- . विधिरिति ॥२२॥ (२४८)मलार्थ-दीक्षा लेनेको आये हुए पुरुषसे प्रश्न, आचारकपन तथा परीक्षा आदि विधि है ॥२२॥ - विवेचन-उपस्थितस्य-स्वयं दीक्षा ग्रहण करनेको आया हुआ प्रश्नाचारकथनपरीक्षा-उससे प्रश्न करना, आचार कहना तथा करना आदि अर्थात् सामायिक आदि सूत्र कंठस्थ हो तथा उस प्रकारके अनुष्ठानका अभ्यास करना, विधिः-दीक्षा देनेकी पूर्वोक्त विधि है। ___ जो पुरुष दीक्षा लेनेके लिये आवे' उससे प्रश्न करना, उसे साधुका आचार कहना तथा परीक्षा करना तथा सामायिक आदि सूत्र कंठस्थ है और उसे ऐमा अभ्यास आदि विधि है। कहनेका Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ : धर्मविन्दु तात्पर्य यह है कि सद्धर्म कथा सुननेसे जिसका मन दीक्षा लेनेको तत्पर है ऐसे भव्य प्राणीसे पूछना, जैसे- " हे वत्स! तुम कौन हो? किस लिये दीक्षा ग्रहण करते हो ?" उसके उत्तरमें यदि वह यह उत्तर दे कि- "हे भगवन् ! मै कुलीन हूं, मैं आर्यदेशके उस स्थानमें उत्पन्न हूं, और सर्व अशुभ उत्पत्तिवाला भवस्वरूप संसारी व्याधिका क्षय करनेके हेतु ही मैं दीक्षा लेनेको तपर ह, यह संसार मुझे असार लगता है और बंधनमुक्त होनेके लिये ही दीक्षा लेनेको तत्पर हूं।" तब वह प्रश्नशुद्ध हुआ समझा जावे अतः उसका उत्तर सही है और इस कारणसे तो दीक्षाके योग्य ही है। इस प्रकार उत्तर देने पर शिष्यको कहे; यह दीक्षाका मागे कायरके लिये नहीं पर शूरवीरके वास्ते है । यह प्रव्रज्या (दीक्षा)का पुरुष द्वारा मुश्किलसे अनुकरण करने लायक है । उनसे पालन नहीं हो सकती । दीक्षा शूरवीर पुरुषों द्वारा ही पाली जा सकती है अतः शूरवीरता रखे। और आरंभसे निवृत्त पुरुषको इस भवमे तथा परभवमें परम कल्याणका लाभ होता है। यदि आज्ञाकी विराधना की जाय तो ससारफलका दुःख देनेवाली है। जैसे कुष्ठ आदि रोगमें हैरान होने पर औपघि लेकर पथ्यका पालन करे तो ठीक, अन्यथा यदि औषधि लेकर अपथ्य करे तो विना औषधि मृत्यु पाता है, उससे अधिक शीघ्र औषधमें अपथ्य पालनेसे नाशको प्राम होता है। इसी प्रकार कर्मव्याधिका क्षय करनेके लिये संयमरूप भावक्रिया औषध है अतः असंयमरूप अपथ्यका पालन करे तो अधिक कर्म उपार्जित करता है । अत: बिना दीक्षा जितना कर्मबंध होता है, दीक्षा लेकर असंयम Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति सामान्य देशना विधि : २८३ करनेसे उससे अधिक कर्मबंधन होता है । इस प्रकार साधुका आचार उसे कहा जाय ऐसा साधु आचार कहने पर भी उसका मन न डिगेतो उसकी भलीभांति परीक्षा लेना चाहिये । कहा है कि 17 65 'असत्याः सत्यसंकाशाः, सत्याश्चासत्यसन्निभाः । 'दृश्यन्ते विविधा भावाः, तस्माद् युक्तं परीक्षणम् ॥१४७॥ " अतथ्यान्यपि तथ्यानि दर्शयन्त्यतिकौशलाः । चित्रे निम्नोन्नतानीव, चित्रकर्मविदो जनाः ॥१४८॥ — कितने ही असत्य पदार्थ सत्य जैसे दिखते हैं, कितने ही सत्य पदार्थ भी असत्य समान दिखते हैं । इस प्रकार विविध प्रकारके भाव दिखाई देते हैं, अतः परीक्षा करना ( सत्य व असत्य क्या है ? इसकी ) योग्य ही है ॥ जैसे कुशल चित्रकार चित्रमें ऊंचा व नीचा दोनों भाव बतानेमें समर्थ होते हैं वैसे हो अति कुशल पुरुष असत्यको सत्य और अतथ्यको तथ्य वस्तुकी तरह बता सकते हैं । उसमें सम्यक्व, ज्ञान, दर्शन, चारित्रके अर्गत उसकी कैसी कैसी परिणति तथा भाव है उसकी उस उस प्रकारसे परीक्षा करनी चाहिये | परीक्षाकाल प्राय छ मासका है । उस प्रकारके पात्रकी 1 अपेक्षासे न्यून व अधिक समय भी लग सकता है । जिसने उपधान न किया हो उस पुरुषको सामायिक सूत्र कंठसे खुद देना अर्थात् पढाना चाहिये । पात्रताकी अपेक्षासे दूसरा भी सूत्र पढाना चाहिये । तथा - गुरुजनाद्यनुज्ञेति ॥ २३॥ ( २४९) मूलार्थ - माता - पितादि गुरुजनोंकी आज्ञा लेना । * Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ : धर्मविन्दु विवेचन- गुरुजन- माता-पिता आदि, अनुज्ञा- दीक्षा लेनेकी अनुमति । दीक्षा ग्रहण करनेवालेको 'मातापिता, बहन, माई, स्त्री, पुत्र आदिकी समति लेनी चाहिये ऐसी विधि हैं। श्रीमहावीर प्रभुने भी माता-पिताकी जीवितावस्थामें तो दीक्षा ली नहीं पर माईके भी कहने पर और दो वर्ष गृहस्थाश्रममें रहे। . . जब-सवधीवर्ग उस प्रकार आज्ञा मांगने पर भी आज्ञा न दे तो क्या करना चाहिये १ कहते हैं कि तथा- तथोपधायोग इति ॥२४॥ (२५०) सलार्थ-संबंधीवर्ग आजा देवे ऐसी युक्ति करना ॥२३॥ विवेचन-ऐसी युक्तिका उस उस प्रकारसे सर्वथा दूसरेको मालम न पडे इस तरह उपयोग करे। वह किस प्रकार करना सो कहते हैं दुःस्वप्नादिकथनमिति ॥२५॥ (२५१) .. मूलार्थ-दुःस्वप्न आदि कहें ॥२५॥. . . विवेचन-गधा, ऊट, भैस आदि पर बैठनेके स्वप्न.आये इस प्रकार कहे। तथा-विपर्ययलिङ्गसेवेति ॥२६।। (२५२) मूलार्थ और विपरीत चिह्न सेवन करे ॥२६॥ विवेचन-अपने प्रकृतिके विपरीत चिह्नोंका दिखाव करे जिससे माता पिता उसे आज्ञा प्रदान करें। जो माता पितादि विपरीत चिहोंका न जाने क्या करे ? कहते है देवस्तिथा तथा निवेदनमिति ॥२७॥ (२५३) Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति सामान्य देशना विधि : २८५ मूलार्थ - जोशी लोगों उस उम प्रकार कहलावे ||२७|| विवेचन - दैवज्ञ अर्थात् निमित्तशास्त्र जाननेवालों द्वारा ऐसा ऐसा कहलावे जिससे दीक्षाकी आज्ञा दे दें । ऐसेको दीक्षा देनेसे क्या लाभ है ! उत्तर देते हैं— न धर्मे मायेति ॥२८॥ ( २५४) मूलार्थ-धर्ममें माया नहीं है ||२८|| विवेचन - धर्मका साघन करनेमें जो क्रिया की जाती है वह माया नहीं हैं। वह वस्तुतः अमाया ही है। ऐसा कैसे कहते हो ? वह कहते हैं— 2 उभयहिनमेतदिति ||२९|| (२५५) मूलार्थ - यह दोनों के हित के लिये हैं ॥ २९ ॥ `विवेचन-दीक्षाविधिमें यह जो कार्य किया जाता है उससे स्वपरका हित साधा जाता है अतः स्वपरके श्रेय व कल्याण करनेवाली दीक्षाके लिये यह कपट नहीं है । "अमायोऽपि हि भावेन, माय्येव तु भवेत् कचित् । पश्येत् स्वपरयोर्यत्र, सानुबन्धं हितोदयम् " ॥१४२॥ —जहां स्व तथा परके निरंतर हितका उदय होता है वहां माया बिना भी पुरुष कुछ मायावी हो जाता है। ऐसा करने पर भी माता पितादि निर्वाह न कर सके और दीक्षा देनेकी आज्ञा न दे ते क्या करना चाहिये। उसका उत्तर देते हैंयथाशक्ति सौविहित्यापादनमिति ||३०|| (२५६) मूलार्थ - यथाशक्ति माता-पितादिका समाधान करे ॥३०॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ धर्मविन्दु विवेचन-यथाशक्ति-अपनी शक्तिके अनुसार, सौविहित्यापादन-निर्वाहका उपाय करना । _माता-पिता आदिका समाधान करें। उनके निर्वाहका उपाय करनेसे माना-पिता आदिकी बादमे हैरानगति न हो। ऐसी कृतज्ञता करनेसे वे खुश होकर आज्ञा दे सकते हैं। ऐसा करने पर भी यदि वे आज्ञा न दें तो क्या करेंग्लानौषधादिज्ञातात त्याग इति ॥३१।। (२५७) मूलार्थ-ग्लान औपधिक दृष्टांतसे त्याग करे.॥३१॥ विवेचन-कोई एक कुलीन पुत्र अपने माता-पिता आदिके साथ उनकी सेवा करते हुए जंगलमें उनके साथ गया। वहां मातापिताको रोग हो जाने पर उसने सोचा कि औषधि बिना उनका रोग नहीं जा सकता और मेरे थोडे समयके लिये दूर रहनेसे मरे जैसे नहीं है अतः वह उनको छोडकर औषधि लेने चला जाता है। ऐसा त्याग करने पर भी वह सज्जन है। यहा फल प्रधान है। धीर पुरुष जिसमें फर देखे ऐसा ही कार्य करते हैं । अतः औषध लाकर वह माता पिताको ठीक करे ऐसा है। वह कुलीन पुत्र शुक्लपक्षवाला महापुरुष है । वह इस संसाररूप जंगलमें पडा है । विना समकितके माता पिता आदि सामान्य जनोका मोह आदि रोग हुआ है, अतः समकित औषध बिना इनका नाश न होगा और समकित औपधसे उनका रोग मिट सकता है अतः समकित औषधकी प्राप्ति के लिये वह उनका त्याग करे। संसार अटवीमेंसे उनका त्याग तत्वतः अत्याग है। यहां तत्त्व फल प्रधान है। उत्तरोत्तर हित करनेवाला ही तत्व फल है । वह धीर Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति सामान्य देशना विधि : २८७ पुरुष आमन्न भव्य है। अन्य स्वजन लोगोंका उपकार करने लायक है । यह सत्पुरुपका धर्म है । यहा अकुशलानुबंधी माता - पितादिके शोकको त्याग करनेवाले श्रीमहावीर हां हैं । तथा - गुरुनिवेदनमिति ||३२|| (२५८) मूलार्थ - दीक्षा लेनेवाला गुरुसे सर्व बातों का निवेदन करे | विवेचन- गुरुनिवेदनं - सर्व आत्मासे गुरुके सामने आत्मसमर्पण करे | दीक्षा लेनेवाला गुरुके स'मने आकर अपना आत्मसमर्पण करे तथा सब वातोंका निवेदन करे । गुरुको ही सर्वस्व समझे । गुरुकी आज्ञा का पालन करे | यह दीक्षार्थी के बारे में विधि कही अव गुरुके वारे में विधि कहते हैंअनुग्रहधियाऽभ्युपगम इति ||३३|| (२५९) मूलार्थ - अनुग्रह बुद्धिसे शिष्यका स्वीकार करे ||३३|| विवेचन - अनुग्रहविया - गुरुद्वारा अनुग्रह करनेकी बुद्धिसे - सम्यक्त्व आदि गुणोंके आरोपण करनेकी बुद्धिसे, अभ्युपगमः - साधु चनाने आदिके रूपमें अंगीकार करे । गुरु शिष्य पर अनुग्रह करनेकी बुद्धिसे सम्यक्त्व आदि गुणोंको देनेकी वृद्धिसे उसे गियरूपमें साधु बनाकर अंगीकार करे। अपनी पर्षदा (संघाडा ) की वृद्धि करनेकी बुद्धिसे शिष्य न करे । नथा-निमित्त परीक्षेति ||३४|| (२६०) मूलार्थ - निमित्त शास्त्रसे उसकी परीक्षा करे ॥ ३४ ॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८८ : धर्मविन्दु विवेचन- निमित्तानां भावी कार्यसूचक शकुन आदिसे, परीक्षा - निश्चय करना | भावी अर्थकी सूचना करनेवाले शकुन आदि द्वारा शिष्यकी परीक्षा करे । निमित्तशुद्धिकी आवश्यकता है। वह प्रधान विधि है । तथा - उचितकालापेक्षणमिति ||३५|| (२६१) 'मूलार्थ - दीक्षा देनेके योग्य कालकी अपेक्षा रक्खे ||३५|| विवेचन - उचितकाल - दीक्षा देनेके योग्य समय, तिथि, नक्षत्र आदिका उत्तम योग देखे । गणितविद्या के प्रकीर्णक ग्रन्थमे निर्देश किये अनुसार मुर्हत देखे । उसमें कहा है--- " तिहि उत्तरादि वह रोहिणीहिं कुजा उ सेहनिक्खमणं । गणिवायर अणुना, महव्ययाणं च आरुहणा ॥ १५०॥ " चउदसी पन्नरसिं वज्जेजा अहमि च नवमिं च । छ िच चथि चारसिं च दोन्हं पि पक्खाणं ॥ १५९ ॥ ॥” - तीन उत्तरा नक्षत्र, उत्तराषाढा, उत्तरा भाद्रपद, उत्तरा फाल्गुनी तथा रोहिणी नक्षत्र - इन चार नक्षत्रोंमे शिष्यको दीक्षा देना । गणिपद या वाचकपद तथा महाव्रतकी आसेपणा भी इन्हीं नक्षत्रों में करना चाहिये 1. चतुर्दशी, पूर्णिमा, अष्टमी, नवमी, षष्ठी, चतुर्थी व द्वादगी (चउदस, पूर्णिमा, बारस आदि) इन तिथियों को दोनों पक्षमें छोडकर अन्य तिथियोंमें देना चाहिये || तथा - उपायतः कार्यपालनमिति ||३६|| (२६२) W Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति सामान्य देशना विधि : २८९ मूलार्थ-पृथ्वीकाय आदिका रक्षण करे ऐसा उपाय बतावे ॥३६॥ विवेचन-उपायता-निर्दोष अनुष्ठानके अभ्यासरूप उपायसे, कायानां-पृथ्वीकाय आदिका, पालनं-रक्षा करे । दीक्षा लेनेवाला पुरुष पृथ्वीकाय आदिका रक्षण कर सके उस प्रकार निर्दोष अनुष्ठानका अभ्यास करे। तथा-भववृद्धिकरणमिति ॥३७॥ (२६३) मूलार्थ-दीक्षा लेनेके भावकी वृद्धि करे॥३७॥ विवेचन-भाववृद्धि-दीक्षा लेनेके अभिलाषकी वृद्धि-बढती करे, करणं-संपादन करना। दीक्षा लेनेका फल बताना आदि वचनोद्वारा दीक्षा लेनेकी अभिलाषाकी वृद्धि करे । फलको बतानेसे भावमें वृद्धि होती है। तथा-अनन्तरानुष्टानोपदेश इति ॥३८॥ (२६४) मूलार्थ-बादमें करने योग्य अनुष्ठानका उपदेश करे ॥३८॥ विवेचन-अनन्तरानुष्ठान-दीक्षा ग्रहण करनेके वाद करनेका आचरण । दीक्षा लेनेके बाद शिष्य क्या आचरण करे। उसका गुरुके प्रति क्या कर्तव्य है, किस प्रकार व्यवहार करना, धर्म क्रिया, गुरुकी भक्ति बहुमानादि करना, इस दीक्षाके बाद करनेके अनुष्ठानका बोध व उपदेश करे । ऐसा करनेसे यदि मन डिग जाय तो ऐसा समझें कि उसे असली वैराग्य जागृत नहीं हुआ। .... ૧૯, Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M २९० : धयादन्दु तथा-शक्तितस्त्थागतपसी इति ॥३९॥ (२६५) मूलार्थ-शिष्यकी शक्तिके अनुसार त्याग व 'तप करावे ॥३९॥ विवेचन-शक्तिती-शक्ति के अनुसार, त्याग-देव, गुरु, संघ आदिकी भक्ति व पूजा करने में यथाशक्ति द्रव्यका व्यय करे, तपअनशनादि तप करावे । दीक्षा लेनेवाले शिष्यसे उसकी शक्तिके अनुसार सन्मार्गमें व्यय करावे । देव, गुरु व संघकी भक्ति तथा जानकार्य व स्वामी भाइयोंका दुःख दूर करने आदि सन्मार्गामें दीक्षार्थीकी स्थिति व शक्ति के अनुसार धनका सद्व्यय कराना । परिग्रह त्यागकी परीक्षा भी उमसे होती है। आयंबिल, उपवाम आदि तपस्या भी कराना चाहिये । शक्तिके अनुसार शरीर व इद्रिय पर क्या संयम है उसका यथार्थ पता लगे। तथा-क्षेत्रादिशुद्धी वन्दनादिशुद्धया शीला रोपणमिति ॥४०॥ (२६६) । , मूलार्थ-और क्षेत्र आदिकी शुद्धि करके वंदन आदिकी शुद्धिसे शीलका आरोपण करे ॥४॥ विवेचन-क्षेत्रस्य-भूमि व दिशाओंकी, शुद्धौ-शुद्धि कराना, बन्दनादिविशुद्ध्या-वन्दन आदिकी शुद्धिसै चैत्यवंदन, कायोत्सर्ग (काउसंग्ग ) तथा साधुवेशको देकर या पहनाकर सुदेर आचरिको सुंदरतासे तथा शुद्धतासे शीलका आरोपण करे अर्थात् सामायिकको 'परिणामरूप आचार तथा उसका अर्पण करना-अर्थात् 'कमि भते सामइयं' आदि दंडकके उच्चारणपूर्वक दीक्षांके योग्य पुरुषको दीक्षा देना। - ।। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति सामान्य देशना विधि : ३९१ जहाँ दीक्षा देना हो वह स्थान शुद्ध हो। उममें दिशाशुद्धि भी आ जाती है फिर चैत्यवंदन तथा कोउसंग कराना चाहिये । त दीक्षार्थीको साधुवेश पहनाकर शीलका या सामायिकका उच्चारण करावे अर्थात् 'करेमि भते सामीइथे 'कह कर दीक्षा उच्चरावे । क्षेत्रशुद्धिके बारे में कहा है "उच्छवणे सालिवणे पउससरे कुसुमिए वणसंडे । गंभीरसाणुणाए, पयाहिणजले जिणेहरे वा" ॥१५२॥ तथी "पुराभिमुही उत्तरमुही वे, दिजाऽहवा पंडिच्छेजा। जाए जिणादओ वा, दिसाए जिणचेइयाई वा" ॥१५३॥ गन्ने का खेत या वनं, शालि गां धान्यको क्षेत्र, पद्मसरोवर, या पुष्पवाले वनखंडमें गंभीर शब्द करते हुए और प्रदक्षिणा में बहते हुए जलके पास अथवा जिनगृह या मंदिरमें दीक्षा देना चाहिये। पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर या जिस 'दिशामें केवली विहार करते हों या जिनचैन्य हो उस दिशांकी ओर शिष्यका मुख करके दीक्षा देना चाहिये। __ शीलके बारेमें कहते हैंअसङ्गतया समशत्रुमित्रता शीलमिति ॥४१॥ (२६७) मलार्थ-अनासक्तिसे शत्रु व मित्र के प्रति संमभाव रखना शील है ॥४१॥ "विवेचन अमगतया किसी वस्तुमें 'आसक्ति या प्रतिबंध रोहित ममत्वहीनता, समशत्रुमित्रता-शत्रु व मित्रके प्रति सममाव या चित्तही समानवृत्ति। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ २९२ : धर्मविन्दु किसी भी वस्तुमें आसक्ति न रखें तथा शत्रु हो या मित्र सबके प्रति एक ही वृत्ति रखे, समभाव रखे उसे 'शील' कहते हैं। शील तो अपने परिणामसे साध्य हे फिर क्षेत्रादि शुद्धिसे उसका आरोपण कैसे होता है ? उत्तरमे कहते हैंअतोऽनुष्ठानात् तद्भावसंभव इति ||४२|| (२६८) मूलार्थ इस अनुष्ठानसे शीलकी उत्पत्ति संभव है ।।४२॥ विवेचन-अनुष्ठानात्- शीलक आरोपण करनेके कार्यसे, तद्भाव-शालका परिणाम उत्पन्न होना, संभव-पेदा होना शक्य है। इस अनुष्टानसे क्षेत्रादि शुद्धि करके शीलके आरोपण करनेसे शीलके परिणामकी हृदयमें उत्पत्ति होना संभव होती है तथा जिसमें शील विद्यमान हो उसमें उसको स्थिर करते हैं या उसमें शीलकी वृद्धि होती है। द्रव्यक्रिया भावक्रियाकी कारणभूत है। अच्छे कार्यसे अच्छी वृत्ति पैदा होती है और अच्छी वृत्ति हो तो उसकी वृद्धि होती है। तथा-तपोयोगकारणं चेतिती॥४३॥ (२६९) , मूलार्थ-और शिष्यके पास तपोयोग कराना चाहिये ॥४३॥ विवेचन-तपोयोग- गुरुपरंपरासे प्राप्त आबिल आदि तपं, कारण- कराना। विविवत् दीक्षा लिये हुए शिष्यके पास गुरुपरंपरासे प्राप्त आंबिल आदि तप कराना चाहिये। तपसे इन्द्रिये मनके स्वाधीन होती है तथा इच्छानिरोध होता है। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति सामान्य देशना विधि : २२३ इस दीक्षाविधिकी समाप्ति करते हुए ग्रन्थकार कहते हैएवं यः शुद्धयोगेन, परित्यज्य गृहाश्रमम् । संयमे रमते नित्यं, सं यतिः परिकीर्तितः ॥२२॥ मूलार्थ- इस प्रकार शुद्ध आचारसे गृहस्थाश्रम छोडकर जो नित्य संयममें विचरण करता है वह यति कहलाता है।॥२२॥ विवेचन-एवं-इस प्रकार, य:- जो भव्य प्राणी, शुद्धयोगेनसम्यक् व शुद्ध आचारसे, परित्यज्य- छोड कर, संयमे- हिंसादि विरमण महाव्रतके पालनरूप संयममें, रमते- आसक्तिवान या रागसहित, सा- ऐसा गुणवान परिकीर्तितः- कहलाना है।। 'यततेऽसौ यतिः । 'ज्ञानस्य फलं विरतिः'- वही यति है जो यत्न करता है। ज्ञानका फल विरति है। धर्मश्रवणसे ज्ञान प्राप्त करके जो विरति ग्रहण करता है तथा उसमें प्रवृत्ति करता है सो यति है। जो उक्त विधिसे संयम या चारित्र धारण करे और उसमें आनंद माने तथा उसीमें रागसहित विचरण करे, हिंसादि विरमण महावतोंका पालन करे वह यति कहलाता है। एतत् तु संभवत्यस्य, सदुपायप्रवृत्तितः । अनुपायात् तु साध्यस्य, 'सिद्धि नेच्छन्ति पण्डिताः ॥२३॥ मृलार्थ- सच उपायोंसे प्रवृत्ति करनेसे ही यह यतित्य संभव है। साध्य कार्यकी सिद्धि पंडितजन उपाय विना नहीं इंच्छते या उपाय विना कार्यकी सिद्धि संभव नहीं ॥२३॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ : धर्मविदु विवेचन- एतत् तु संभवत्यस्य - यह यतित्व दीक्षा देने - बालको समव है, वह विद्यमान रहता है या टिकता है। कैसे ? सदुपायप्रवृत्तितः- सुंदर उपाय से प्रवृत्ति करने से, योग्य गुरु से दीक्षा ले इत्यादि उक्त विधि वेश करनेसे । अनुपायात् तु उपाय रहित, सिद्धिं - सामान्यत सर्वं कायोंकी सिद्धिको कार्यकी पूर्णता को, नेच्छन्ति - इच्छा नहीं करते, पण्डिताः - कार्य कारण के विभागमे कुशल | " सदुपाय से दीक्षा लेनेवाला मृतित्व के योग्य है। उपरोक्त प्रकारसे योग्य शिष्य योग गुरु योग्य विधि सहित दीक्षा ले तब वह वस्तुतः यति होगा। क्योंकि उपाय या साधन अच्छे हों तो फल भी सुंदर मिलता है। सुंदर उपाय विना पंडितजन कार्यकी सिद्धिकी इच्छा नहीं करते । क्योंकि क़हा है कि कारण विना कार्य नहीं हो । उपरोक्त रीति से ऊलटे चलनेमे जो दोष है उसे बताते हुए मध्याय समाप्त करते है यस्तु नैवंविधो मोहाचेष्टते शास्त्रवाध्या । स तान् लिङ्गयुक्तोऽपि न गृही न यतिर्मतः ||२४|| मूलार्थ- जो उपरोक्त रीतिसे न चल कर मोहके कारण शाखोल्लंघन करता है, वह यति लिंग्रधारी होने पर भी उभय भ्रष्ट है ||२४|| विवेचन - यस्तु - जिसकी सवभ्रमणा कम न हुई, नैवंविध उपरोक्त विधिसे विपरीत, मोहात्— मोह या अज्ञानसे, शास्त्रवाध्या Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति सामान्य देशना विधि . २९५ शास्त्रोल्लंघनसे, वालिङ्गयुक्तोऽपि - शुद्ध यति लिंगधारी होने पर भी- यति वेशधारी होने पर भी । जो पुरुष उपरोक्त विधि रहित यतिधर्म ग्रहण करे वह मोह तथा अज्ञानसे शास्त्रका उल्लंघन करता है तथा उसकी ऐसी प्रवृत्ति होनेसे वह यति वेषधारी होने पर भी उभवभ्रष्ट हैं । जो शास्त्रीके I अर्थके विरुद्ध चले तथा उपरोक्त विधि बिना दीक्षा ले वह शुद्ध यतिके समान होने पर भी, यतिलिंगधारी होने पर भी न यति है, न गृहस्थ । गृहस्थाश्रमका त्याग हो जाता है पर भाव चारित्र से रहित होनेके कारण यति भी नहीं होता अत उभयम्रष्ट है। जिसकी भवभ्रमणा बाकी है तथा मोहगर्भित वैराग्यसे यतित्रत धारण करे तथा यतिके गुण उसमें न हो तब वह उभयभ्रष्ट है। गृहस्थावास बिगडता है तथा यतिधर्मके योग्य वह नहीं होता । अयोग्य शिष्यको संयम देनेसे अनिष्ट परिणाम आता है। तथा जैनशासनको अपकीर्ति होती है इसकी जिम्मेदारी गुरु पर आती है। श्रीमुनि चन्द्रसूरिविरचित धर्मविन्दु वृत्तिमें यतिविधि नामक चतुर्थ अध्यायः समाप्त हुआ. 12 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्याय । दीक्षार्थी व गुरुके गुण तथा दीक्षा विधिका वर्णन चतुर्थ अध्यायमें करके यतिधर्मका वर्णन इस पांचवे अध्यायमें करते है। उसका पहला सूत्र यह है-- बाहुभ्यां दुस्तरो यद्वत्, क्रूरनको महोदधिः । यतित्वं दुष्करं तद्वत् , इत्याहुस्तत्त्ववेदिनः ॥२५॥ __ मूलार्थ- तत्ववेत्ता कहते हैं कि जिस प्रकार क्रूर मगर व मत्स्यवाले महोदधिको अपनी दोनों भुजाओंसे तैरना कठिन है उसी प्रकार यह यतिधर्म दुष्कर हे ॥२५॥ विवेचन- बाहुभ्यां- भुजाओमे, दुस्तर:- तैरना अशक्य है, क्रूरनक:- भीषण जल जन्तुओंसे आक्रांत- भरा हुआ, जैसेमगर मच्छ आदि जीवोंसे, महोदधिर- महासमुद्र, दुष्करंमुश्किलसे आचरणयोग्य कष्टसे किया जानेवाला, तत्त्ववेदिन:दीक्षाके परमार्थको जाननेवाले । ____ तत्त्वज्ञ जनोंका मत है कि जिस प्रकार क्रूर व भीषण जलजंतुओंसे भरा हुआ महासमुद्र हाथोंसे तैरना महा मुश्किल है उतना Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : २९७ ही कष्टसाध्य यतिधर्मका पालन है। महान् फल बडे पुरुषार्थसे ही प्राप्त होते हैं । यतिधर्म दुष्कर होने का कारण कहते हैं अपवर्ग: फलं यस्य, जन्म-मृत्यादिवर्जितः। परमानन्दरूपश्च, दुष्करं तन्न चाद्भुतम् ॥२६॥ मूलार्थ- परम आनंदरूप जन्म मृत्यु श्रादिसे रहित मोक्ष जिस यतिधर्मका फल है वह दुष्कर हो उसमे क्या आश्चर्य है। विवेचन- जन्म-मृत्यादिवर्जित:- जन्म, मृत्यु, जरा आदि संस्कार विकार रहित, परमानन्दरूपः- जहाके आनदकी न सीमा हैं, न उपमा । इस यतिधर्मका भलीभांति पालन करनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है । उसके प्राप्त होनेसे आत्मा जन्म, जग, मृत्यु आदि महान् कष्टोसे पूर्णतया मुक्त हो जाती है। वहांका आनंद असीम, उपमा न देने लायक तथा अनत है। उसकी प्राप्तिके लिये जो मार्ग है वह यतिधर्म है अतः इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि वह रास्ता इतना कष्ट साध्य हो साध्य या फल महान् है अत' उसको लक्ष्यमे रखकर मार्गभ्रष्ट हुए बिना इस कष्टसाध्य व दुर्गम राह पर चलते रहना चाहिये । जैसे विद्या, मंत्र या औषधिकी साधनाके लिये इस लोकमें कितना यत्न करना पड़ता है। जब यही इतने कष्टसे प्राप्त होते हैं तो महान आत्मिक लब्धिके फलको पानेमें अधिक प्रयास होना अवश्यंभावी है । ऐया दुष्कर यतिधर्म कैसे पाला जा सकता है ? उत्तरमें कहते हैं Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Wwwwwww २९८: धर्मविन्दु अवस्वरूपविज्ञानात , तद्विरागाच तत्त्वतः। अपवर्गालुरागाच, स्थादेतन्नान्यथा, कचित् ॥२७॥ मूलार्थ- संसारके स्वरूपको जाननेसे, उस पर वस्तुतः वैराग्य होनेसे तथा मोक्षके प्रति अनुरागसे यतिधर्मका पालन हो सकता है अन्यथा किसी तरह नहीं ॥२७॥ दिलेच्न - मनस्वरूपस्य- ससारका स्वरूप जो क्षणमुंगुर है अथवा इन्द्रजाल, मृगतृष्णा, गुन्धर्वनगर या स्वप्नके सदृश है । विज्ञानात्- शास्त्रचक्षुसे भी प्रकार पहलेसे देखनेमे, तद्विरागातूजैसे तपे हुए लोहे पर पैर रखनेसे जो उद्वेग हो ऐसा, वैराग्य संसारसे होने पर पूर्णतः विरक्तिसे, तत्त्वतः- वस्तुतः- दिना कपटभावके वास्तविक विरक्ति, अपवर्गानुरागाव- परम पदको प्राप्त करनेकी तीव्र इच्छासे, स्यादेतत्- यतिधर्मका पालन होना, नान्यथाअन्य किसी भी प्रकारसे नहीं, कचित- किसी भी क्षेत्र या कालमें-नहीं। ___ ससार अनित्य है। सर्व वस्तुएं तथा सुख क्षणभगुर है। संसारके ऐसे वास्तविक रूपके जान टेनेसे उससे वैराग्य हो जाता है। उसके प्रति तीव्र उद्वेग हो जाता है तथा इससे छुटकारा पानक लिये जब मोक्षकी प्राप्तिकी उत्कंठा बढ़ जाती है। पूर्ण इच्छासे मुक्ति पाना चाहे तभी यतिधर्मका पालन हो सकता है तब वह इतना कष्ट साध्य भी नहीं लगता । आसान दिखता है। जो पुरुष संसारकी असारताको समझ ले वही इस सयमके योग्य है, लक्ष्य मोक्षका Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३९ 1 ओर होना चाहिये | ऊबे सहारेको पाकर ही छोटे सहारेको छोडना चाहिये । इस तरह विरक्ति उत्पन्न होकर मोक्षमें, अनुरक्ति हो, तब अतिधर्म का पालन सरल हो जाता है। अच्छे उपाय न होनेसे कदाचिव उपेय (प्रतिधर्म) का अभाव हो सकता है । इत्युक्तो यतिः, अधुनाऽस्य धर्ममनुवर्णयिष्यामः । यतिधर्मो द्विविधः, सापेक्षयतिधर्मो निरपेक्षयतिमश्चेति ॥ १॥ (२७०) "... "मूलार्थ - इस प्रकार यतिका स्वरूप कहा अब यतिधर्म कहते हैं | यतिधर्म दो प्रकारका है - १ सापेक्ष यतिधर्म तथा २ निरपेक्ष रतिधर्म ॥ १ ॥ विवेचन- गुरु व गच्छकी सहायता की अपेक्षा ( इच्छा ) रखनेवाला सापेक्ष यति कहलाता है। जो अपेक्षा विना दीक्षा पालन करे- वह निस्पेक्ष | इनके लक्षण गच्छसे निवास करना तथा जिनकल्पादि है या गच्छवास, सापेक्ष है तथा जिनकल्प निरपेक्ष है । तत्र सापेक्षयतिधर्म इति ||२|| (२७१) मूलार्थ-उसमें सापेक्ष यतिधर्मका वर्णन पहले करते हैं ॥२॥ विवेचन - सापेक्ष व निरपेक्ष दो प्रकारके यतिधमौमेसे सापेक्षका वर्णन पहले करते हैं । यथा - गुर्वन्तेवासितेति ॥ ३ ॥ (२७२) मूलार्थ - गुरुके पास शिष्यभावसे रहना ॥३॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० : धर्मविन्दु विवेचन- गुरोः- दीक्षा देनेवाला आचार्य, अन्तेवासितायावज्जीव गिप्यभावसे रहना। दीक्षा देनेवाले आचार्य जो उसके गुरु है उनके साथ आजन्म शिष्यभाव रखकर रहे । शिष्यभावसे रहनेका महान् फल है। वह कहते हैं'नाणस्स होइ भागी, थिरयरओ देसणे चरित्ते य। धण्णा आवकहाए, गुरुकुलवासं न मुञ्चन्ति ॥ १५४ ॥" - -जो शिष्य मृत्यु होने तक (आजन्म) गुरुके साथ रहते हैं वे धन्य पुरुष ज्ञान प्राप्त करते हैं तथा दर्शन व चारित्रमें पूर्णतः स्थिर होते हैं। तथा- तद्भक्तिवहुमानाविति ॥ ४॥ (२७३) - मूलार्थ- और गुरुकी भक्ति तथा बहुमान करे ॥४॥ - विवेचन- भक्ति बाह्य आचरणसे तथा बहुमान हृदयसे होता है । गुरुके साथ रहे तथा अन्न-पान आदि लाकर देना, पैर धोना आदि सेवा करे तथा हृदयसे आदर व प्रेम रखे । विनय व वैयावच्च करना चाहिये। तथा- सदाज्ञाकरणमिति ॥५॥ (२७४) मूलार्थ- निरंतर गुरुक आज्ञाका पालन करे ॥५|| विवेचन- सर्वदा, हर समय गुरु जो भी आज्ञा दे, चाहे रात्रि हो, चाहे दिवस उसका तत्काल पालन करना चाहिये । तथा- विधिना प्रवृत्तिरिति ॥३| (२७५) Ahc Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३०९ मूलार्थ और विधिवत् आचार आदिका पालन करे ॥६॥ विवेचन - शास्त्रोक द्विधिके अनुसार पटिलेहण, प्रमार्जन, गोचरीत्र बुक बाजार गली भातिम पालन करना चाहिये । शुद्ध मार्गी पालन करना । तथा - आत्मानुग्रह चिन्ननमिति ||७|| (२७६) मूलार्थ - अपने पर किये उपकारका चिंतन करना ||७|| विवेचन- गुरुद्वारा किये हुए उपकारीका विचार करना नाहिये। टीकाकार के अनुसार गुरुकी सारी आज्ञाएं अनुग्रह (उपकार) रूप में मानना चाहिये कहा है कि "धन्यस्योपरि निपतत्यधितसमाचरणधर्मनिर्वापी । दलतो, वचनरसन्यनस्पर्श. " ॥ १५५ ॥ -अहित अनग्ण (अमगल कार्य ) गरमीको शांत करनेबालागुरके इसरूपी मल्यानटसे निकला हुआ वचनरल चंदनके स्पर्श समान है । यह भाग्यवान् पुरुषों पर ही पढता है । अतः गुरुके वचन अमगलकारी आचरोको मिटानेवाले हैं और भाग्यवान पुरुषों पर ही पटते है - इस प्रकार विचार करें। तथा - व्रतपरिणामरक्षेति ||८|| (२७७) मूलार्थ व्रतके परिणामकी रक्षा करनी चाहिये ||८|| विवेचन - चारित्र पालनमें जो उपसर्ग तथा परीपह आर्वे तो उनको यथोचित रीतिस दूर करना चाहिये। उपसर्गोस न डरे तथा परी पहको सहन करें। जिस प्रकार चिंतामणिरत्न की रक्षा करनेके लिये प्रत्येक प्रकारके कर सह फर भी तत्पर रहते हैं उसी प्रकर Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२॥ धर्मविन्दु चारित्र चिंतामणिनी रक्षण करनी चाहिये। प्रतिक्षण इसकी संभाल रखनी चाहिये। तथा- 'आरम्भयांग इति ॥९॥ (२७८) मूलार्थ-और आरंभका त्याग करे॥९॥ 'विवेचन-जिन कार्योंसे छकायकी विराधना हो उतनी त्याग करें। ऐसे सब कार्य जिनसे छकायमसे किसी भी कार्यक जीवकी विरीधना हो वे सब कार्य त्याज्य हैं। यति उनको न करें। उस (आरंभ त्याग)का उपाय कहते है । पृथिव्याधसंघट्टनमिति ॥१०॥ (२७९) मलाथ-पृथ्वीकाय आदिको स्पर्श न करे॥१०॥ 'विवेचन-असंघटन-स्पर्शका न करना जिससे जीवोंको परि. ताप या कष्ट कम या अधिक हो, उनको फैंकना आदिका त्याग करना। "पृथ्वी काय आदि जीवोंकी स्पर्श न करें। इन छ काये जीवामसे किसीका स्पर्श या विरीधना न करे। संक्षेपमै छ काय जीवों की रक्षा करें। तथा- त्रिधाशुद्धिः ॥११॥ १२८०) भूलार्थ-तीन प्रकारकी ईयाँशुद्धि करना ॥११॥ विवेचन-विधा-ऊँचे नीचे या तिरछी-इन तीन दिशाओंकी अपेक्षासे तीन प्रकारकी, ईययाः शुद्धिः जाने आनेकी-गमनकी शुद्धि रखना । अर्थात् भलीभांति देखकर चलना। तीनों दिशामिसे जीते अति 'दृष्टि डालते हुए "मली प्रकारसे चलें ताकि चलनमें किसी जीवको विराधना नहीं, कोई भी जीव पैर नीचे ने आवे । इस प्रकार ईयासमिति पाले। 1. Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३०३ 'तथा भिक्षाभोजनमिति ॥ १२ ॥ (२८१) मूलार्थ और भिक्षा मांगकर भोजन करना ||१२|| विवेचन - भिक्षा तीन प्रकारकी है - १ सर्वसंपत्करी, २ पौरुषघ्नी, और ६ वृत्तिभिक्षा । उनके लक्षण इस प्रकार हैं "यतिर्ध्यानादियुक्तो यो, गुर्वाज्ञायां व्यवस्थितः । 'सदाऽनारम्भिणस्तस्य सर्वसंपत्कारी मंता ॥५६॥ "वृद्धाद्यर्थमसङ्गस्य, भ्रमरोपमयाऽटनः । गृहिदेहोपकाराय, विहितेति शुभाशयांत् ॥१५७॥ "प्रवज्यां प्रतिपन्नो, यस्तद्विरोधेन वर्तते । असदारम्भिणस्तस्य पौरुपनी प्रकीर्तिता ॥ १५८॥ "निःस्वान्धवो ये तु न शक्ता वै क्रियान्तरे । भिक्षामन्ति वृत्यर्थं वृत्तिभिक्षेयमुच्यते " ॥१५९॥ J J — जो यति ध्यान आदि सहित, गुरुकी आज्ञामे रहनेवाला, · निरंतर आरंभरहित, वृद्ध गुरु आदिके लिये भ्रमर की तरह अनासक्तिसे घूमनेवाला, जो भिक्षा गृहस्थ तथा देहके उपकार के लिये लाता है वह सर्वसंपत्करी भिक्षा होती है उसमें शुभ आशय रहा हुआ है। जो पुरुष दीक्षा लेकर उसके विरुद्ध प्रवृत्ति करता है तथा असद् आरंभको करनेवाला है उसकी मिक्षा पौरुपनी कहलाती है । जो व्यक्ति निर्धन, अधे तथा लंगडे या लूके हैं और अन्य कोई क्रिया करनेमें असमर्थ हैं वे वृत्ति या आजीविका के लिये जो भिक्षाटन करते है, भीख मागते हैं वह वृत्तिभिक्षा कहलाती है । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ : धर्मविन्दु इनमेंसे यति सर्वसंपत्करी भिक्षासे पिंड लाकर भोजन करे तथा- आघाताचदृष्टिरिति ॥१३॥ (२८२) मूलार्थ-जहां जीवहिंसा आदि हो, साधु उसे न देखे । टीकार्थ-आघागदेः-जहां जीवहिंसा आदि हो अर्थात् कसा. ईखाना, तथा जहा जुआ खेला जावे या अन्य दुष्ट कार्य होते हो तथा ऐसे ही अन्य प्रमाद स्थानोकी ओर अदृष्टि:- नहीं देखना, दृष्टिपात न करना। जहा जीवहिंसा हो अथवा तो जूआ, वेश्यागमन, अन्य व्यसनाढिमें पडे हुए मनुष्य हो या जहा व्यसन किये जाते हों, नाटक आदिके स्थल जहा भी प्रमाद हो ऐसे सर्व स्थानोंकी ओर साधु न देखे । अपनी दृष्टि न डाले। क्योकि उसके देखनेसे कई पूर्वभवोंके संस्कारोके जागृत हो जाने तथा प्रमादसे हृदय उधर आकर्षित हो जानेकी संभावना रहती है । उससे अनर्थ होता है अतः साधु ऐसे सर्व स्थानोंकी ओर दृष्टि भी न डाले । तथा- तत्कथाऽश्रवणमिति ॥१४॥ (२८३) मूलार्थ-और ऐसे स्थानोंकी बात भी न सुनें ॥१४|| विवेचन-आघात आदि जहा हो ऐसे उपरोक्त स्थानोकी बात भी यदि किसी द्वारा कही जाय तो उसे भी न सुने । उसके सुननेमें उपरोक्त दोष ही है। ऐसे संस्कार जागृत होना संभव है अतः सन्मार्गसे पतित हो सकते हैं। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३०५ तथा - अरक्तद्विष्टति ||१५|| ( २८४ ) मूलार्थ - और राग-द्वेषका त्याग करे || १५ || विवेचन - सर्वत्र राग-द्वेषके रहित होना । जो प्रिय करते हैं उन पर राग तथा अप्रिय करनेवाले पर द्वेष- दोनोंका त्याग करे । ममत्व या असक्ति न रखे पर प्राणिमात्र पर प्रेमभाव तो रखे । जो अपनेको प्रतिकूल हो - अपने को सहन न हो वह दूसरेके प्रति नहीं करना चाहिये | कहा है कि 'राग-द्वेषौ यदि स्यातां, तपसा कि प्रयोजनम् ? ।" - यदि राग-द्वेष वर्तमान है तो तपसे क्या प्रयोजन है? अर्थात् राग-द्वेष न रख कर ही तप करनेसे फलदायी होता है । तपसे भी राग द्वेष नष्ट होता है । तथा - ग्लानादिप्रतिपत्तिरिति ||१६|| ( २८५ ) मूलार्थ -और बीमार आदिकी सेवा करनी चाहिये ॥१६॥ विवेचन-- ग्लानादि- ज्वर पीडा या बीमार, बाल, वृद्ध, बहुश्रुत, मेहमान आदि, प्रतिपत्ति:- योग्य अन्न, पान आदि लाकर देना - वैयावच्च करना | जो बीमार हो, उम्र में बालक हो या वृद्ध हो, ज्ञानोपार्जनमें ज्यादा लगा हो या विद्याभ्यास अधिक करे व विद्वान हो अथवा कोई महेमान हो इन सबकी सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिये । उनको अन्न-पान आदि योग्य वस्तु लाकर देना चहिये। इस वैयावचका महान् फल्ल है । कहा है कि २० Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ : धर्मशिन्दु "पडिमग्गस्स मयस्स व, नासइ चरणसु अगुणणाप। नो वैयावसायं, सुहोदय नालइ कम्मं ॥१६॥ तथा"जह भमरमहुअरिंगणा, निवयंति कुसुमियम्मि वणसंडे । श्य होइ निवइयव्वं, गोलग्णे कइयवजढेणं ॥१६॥" -~चरित्रके परिणामसे भ्रष्ट हुए व्यक्तिका और मृत व्यक्तिका चरित्र नष्ट हो जाता है और गणना या अभ्यास बिना शास्त्र विस्मृत हो जाता है पर शुभ उदयवाला वैयावच करनेसे उपजार्जित कर्म नष्ट नहीं होता। और जैसे पुष्पवाले वनखंडमें भ्रमरीके समुदाय आकर रहते है उस प्रकार लान साधुकी सेवाके लिये पुरुषोको आना चाहिये । अर्थात् आदर सहित सेवा करे। इससे उसके चारित्रपरिणाम भी शुद्ध रहते हैं। तथा-परोद्वेगाहेतुतेति ॥१७॥ (२८६) । मूलार्थ-और दूसरोंको उद्वेगका कारण न वने ॥१७|| विवेचन-परोदेश-अपने पक्षके या अन्य पक्षके गृहस्थ या अन्य किसीको उद्वेग उपजे, अहेतुता-उसका कारण न बने या ऐसा कार्य न करे। साधु कोई भी कार्य ऐसा न करे जिससे किसी भी अन्यको उद्वेग उत्पन्न हो । वह ऐसा वचन भी न बोले। उससे शांति उत्पन्न होना चाहिये न कि उद्वेग । कहा है कि " धम्मत्थमुजपणं, सव्वसापत्तियं न कायव्यं । इय सजमोऽवि सेओ, एत्य य भयवं उदाहरणं ॥१६॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३०७ "सो तावसासमाओ, तेसि अप्पत्तियं मुणेऊणं । परमं अवोहिवी, तओ गओ इंतकालेऽवि ॥ १६४ ॥ "इय यत्रेणऽवि सम्मं, सर्क अप्पत्तियं सइजणस्स । नियमा परिहरियां, इयरम्मि सतत्तचिताउ चि ॥१६५॥" - धर्ममें तत्पर पुरुष दूसरोको अप्रीति करनेवाला कार्य न करे | अप्रीतिके कारणको दूर करनेसे संयम अधिक श्रेयकारी होता है । भगवानका उदाहरण विचारणीय है । जैसे- भगवान किसी तापसके आश्रम में उतरे पर यह जान कर कि उसे अप्रीति उत्पन्न होगी और बोधिवीजकी प्राप्ति न होगी अतः अकालमें भी (जत्र विहार न करपे - वर्षाकालमें) विहार कर गये । अतः संयममें तत्पर साधुजन भावशुद्ध रखनेके लिये लोगों को अप्रीति हो तो यथासाध्य उस स्थानका त्याग करे। यदि स्थान त्याग न कर सके तो अपने -दोष या अपराधका विचार करे । वह इस प्रकार विचार करे- "ममेवायं दोषो यदपरभवे नाजितमहो, शुभं यस्माल्लोको भवति मयि कुप्रीतिहृदयः । अपास्यैवं मे कथमपरया मत्सरभयं, जनो याति स्वार्थे प्रतिविमुखतामेत्य सहसा ॥१६६॥" -- अरे ! यह मेरा दोष है, मैंने परभवमें पुण्योपार्जन नहीं किया अतः लोगो में मेरे प्रति अप्रीति होती है । यह मेरमें ही किसी दोषके होने के कारण है । यदि मैं अपापी होता, शुभ कर्मवाला होता तो लोग निश्चित ही अपना काम छोड़ कर मेरे प्रति विमुख न होते । मेरे पर मसर क्यों रखते ! अतः यह मेरा ही दोष है - ऐसा विचारे पर क्रोध न कर ! Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ : धर्मबिन्दु भावतः प्रयत्न इति ॥१८॥ (२८७) मूलार्थ - भाव से प्रयत्न करे, (मनसे अप्रीतिका कारण टाले )|| - विवेचन - भावतः - चित्तके परिणामसे, प्रयत्नः- अप्रीति के कारणको हटाने का प्रयास । चित्तके मन के भावसे उस कारणको हटानेका प्रयत्न करे । तात्पर्य यह कि यदि एसी विषम परिस्थिति आ जावे तो कायासे और वचनसे या काया व वचन दोनोसे दूसरोको अप्रीति करनेके कारणको हटानेकी कोशिश करें । स्थान त्याग करे या शांत व मधुर वचनोसे समझावे । दोनोके न होनेपर भावसे दूसरोंकी अप्रीति या उद्वेगको मिटानेका प्रयत्न करे । द्वेष द्वेषसे नष्ट नहीं होता, प्रेमसे मिटता है । भावका फल निश्चित है अतः उत्तम भावसे अप्रीति अवश्य नष्ट होती है। कहा है कि -- 'अभिसन्धेः फलं भिन्नमनुष्ठाने समेऽपि हि । परमोतः स एवेह वारीव कृषिकर्मणि ॥१६७॥ - अनुष्टान समान होने पर भी भावकी भिन्नता से भिन्न भिन्न फलकी प्राप्ति होती है । जैसे खेती में पानी ही परम कारण है उसी 1 प्रकार भाव फलकी प्राप्तिमें प्रधान कारण है । तथा - अशक्ये बहिश्चार इति ||१९|| ( २८८ ) त्याग करे या मूलार्थ - अशक्य आरंभ न करे ॥ १९॥ अनुष्ठानका M विवेचन - अशक्ये - किसी भी कारण से द्रव्य, क्षेत्र, काल व Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३०९ भावकी प्रतिकूलतासे, किसी तप आदिका कोई अनुष्ठान करना संभव न हो, बहिश्वार:- त्याग। ___ जो अनुष्ठान किसी भी हेतुसे करना अशक्य हो उसे त्याग करे ऐसेको प्रारंभ ही न करे । उसका परिणाम शुभ नहीं होता। इंदयमें क्लेश होता है और साध्यवस्तुकी सिद्धि नहीं होती। इससे शक्य कार्यमें भी बाधा आती है अतः अपने सामर्थ्यका विचार करके प्रत्येक धर्मकार्यका प्रारंभ करे । तथा अस्थानाभाषणमिति ॥२०॥ (३८९) मूलार्थ-नवौलनेके स्थान पर (अस्थानमें) बोलना नहीं। विवेचन-अस्थाने-जहां बोलनेका उपयोग न हो या बोलना भयोग्य हो। - उचित वस्तु ही वोले तथा योग्य स्थान पर ही बोले । अस्थान पर न बोले । न बोलने योग्य स्थल पर किसी भी कार्यके वारेमें कहना नहीं। अयोग्य स्थल पर बोलनेसे भाषासमितिकी शुद्धि नहीं रहती। सत्य, प्रिय व हितकर बोले, अन्य नहीं । तथा-स्खलितप्रतिपत्तिरिति ॥२१॥ (२९०) मूलार्थ-और दोप स्खलन)का प्रायश्चित्त करे ॥२१॥ विवेचन-स्खलितस्य-किसी भी कारणसे प्रमादके कारण किसी भी मूलगुण आदिके आचारमें विराधना हुइ हो तो, प्रतिप्रचिः उसका शत्रोक्त प्रायश्चित्त करना । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० : धर्मबिन्दु किसी भी कारण से प्रमादवश किसी मूलगुण आदिके आचारकी कोई विराधना हुई हो तो उसका स्वतः या किसीकी प्रेरणासे दोषको स्वीकार करके शास्त्रोक्त प्रायश्चित्त अंगीकार करे 1 यदि प्रायश्चित्त या आलोचना न ली जावे तो दोष होने के समय से दोपका अनन्त गुना दारुण परिणाम आता है, जिसे भोगना पडता है । मूलको मान लेनेसे तथा प्रायश्चित्तसे पाप टल जाता है पर दोषको स्वीकार न करनेसे अनन्त गुना दोष लगता है । शास्त्रमें कहा है--- "उप्पण्णा माया अणुमग्गय निहंता । "अलोमण निणमरहणाहि न पुणो विधीयति ॥१६॥ "अणगारं पर कम्मं, नेवं गृहे न निण्डवे । सुई सया वियडभावे, असंसत्ते जिइंदिप ॥ १६९॥ " - अपने प्रमादसे उत्पन्न : दोषसे मूलगुणकी जो विराधना हुई हो उसकी आलोयण, निंदा और गर्हणा से तथा फिरसे प्रमाद न करने से उस विराधनाका नाश करना अर्थात् दोषका प्रायश्वित करना और फिरसे मूल न हो उसका संकल्प करना । निर्मल बुद्धि - वाला, सुंदर भाववाला, आसक्तिरहित, और जितेन्द्रिय कदाचित् पाप करे पर तत्काल गुरुके पास उसका प्रायश्चित्त करे पर उसे छिपा नहीं | तथा - पाण्यपरित्याग इति ॥२२॥ (२९१) सूलार्थ और कठोरताका त्याग करे ||२२|| विवेचन - पारुष्यस्य - तीन कोप तथा कषायके उदयसे उत्पन्न Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३११ कठोरता या कठोर भाषण या स्वपक्ष व परपक्षको लेकर अयोग्यतासे जैसा तैसा बोलना। हरेक व्यक्ति को चाहिये कि वह कठोरताका त्याग करे । साधुमें तो कठोरताकी जंग भी जरूरत नहीं । हृदयमें आर्द्रता व प्रेम होना चाहिये । कठोर पुरुषका चहेरा च नेत्र भी कठोर होता है तथा वचन भी 1 इन सबको छोड देना चाहिये । कठोरतासे अप्रीति व उद्धग उत्पन्न होता है तथा विश्वास नष्ट हो जाता है । अकठोरता रूप विश्वास ही सर्व सिद्धियोंका मूल है । कहा हैं "सिद्धविश्वासितामूलं, याथपतयो,गजा । सिंहो मृगाधिपत्येऽपि, ने मृगैरनुगम्यते" ॥१७॥ - --विश्वास सर्व सिद्धिका मूल है जैसे हाथी यूथपति होकर विचारता है पैर सिंह मृगेन्द्र होने पर भी मृग उसके पीछे नहीं जाते । हाथी नहीं मारेगा ऐसा उस पर विश्वास है पर सिंह क्रूर है स्मतः कोई उसका साथ नहीं देता। अतः मिलनसार स्वभाव रखके अपने पर विश्वास जमावे ताकि सब मनुष्य अपने पर प्रीति, विश्वास व रुचि रखे। कठोर त्यागसे ही रुचि होगी । तधा-सर्वत्रापिशुनतेति बारशा (२९२) मूलार्थ-सबके दोष नहीं देखना या दोषारोपण नं करना ॥२३॥ विवेचने-अपने व पराये सबके परोक्षमे दोपदर्शन नहीं करना । किसीके भी दोषोके प्रति साधु अपनी दृष्टि न करे। किसीकी Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ : धर्मविन्दु गुप्त बात किसी अन्यको न कहे । साधु गंभीर रहे । दूसरोंके दोष देखनसे स्वयंकी आत्मा मलिन होती है अत. दोष न देखे । कहा है "लोओ परस्स दोसे, हत्थाहन्थि गुणे य गिण्हतो । । अपाणमप्पण चिय, कुणइ सदोसं च सगुण च ॥१७॥ • ~जो मनुष्य पराये दोपको खुद ही ग्रहण काता है वह स्वयं दोषयुक्त होता है और जो पराये गुणोंको देखता है वह स्वयं गुणवान बनता है। तथा-विकथावर्जनमिति ॥२४॥ (२९३) मूलार्थ-और विकथाका त्याग करना चाहिये ॥२४॥ विवेचन-विकथानाम्-विकथा चार प्रकारकी हैं-स्त्रीकथा, भोजनकथा, देशकथा व राजकथा-इनका साधु त्याग करे कारण कि स्वभावसे ही इनमे अशुभ आशय रहता है। ... साधु इन चारों विकथाओंका त्याग करे । इनसे अंतःकरण मलिन होता है। स्फटिक मणि निर्मल होने पर भी काले नीले या जिस किसी रंगके संबंधों आवे वैसा दीखता है। उसी प्रकार आत्मा निर्मल होने पर भी स्त्री आदिकी कथा सुनकर उसमे लीन हो जानेसे वैसे भावको पाता है। अतः इन कथाओंसे -आत्मा को लाभके बजाय हानि है । कषायोदय होता है अतः न करे न सुने। तथा-उपयोगप्रधानतेति ॥२५॥ (२९४) मूलार्थ-और उपयोगकी प्रधानता रखे ॥२५|| Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३१३ विवेचन-सर्व कार्योंमें, प्रत्येक धर्म अनुष्ठान आदिमें उपयोगको ध्यानमें रखे । भावसहित क्रिया करे । दान, गील, तप व भावमें में भाव मुख्य है। उपयोग रहित अनुष्ठान केवल द्रव्य अनुष्ठान है। वह क्रिया केवल द्रव्य क्रिया है । अनुयोगद्वारमें कहा है- . ___"अनुपयोगो द्रव्यम्"-अतः भाव प्रधान रखे। उसके विना अधिक लाभ नहीं होता। तथा-निश्चितहितोक्तिरिति ॥२६॥ (२९४) मूलार्थ- और निश्चित किया हुआ हित वचन बोले ॥२६॥ विवेचन-निश्चित-समय, विपर्यय व अनध्यवसाय दोषोंसे रहित निश्चय किया हुआ, हितस्य-सुंदर परिणामवाला, उक्ति-बोलना। ___ जब साधुको पूर्णतः सव दोषरहित किसी वचनमे विश्वास हो कि यह हित ही करेगा अहित नहीं तव ऐसा निश्चित वचन बोले। कहा है कि 'कुदृष्टं कुश्रुत चव, कुज्ञात कुपरीक्षितम् । कुभावजन कं सन्तो, भाषन्ते न कदाचन ॥१७२॥ जो सतजन हैं वे सुने हुए, देखे हुए, जाने हुए, परीक्षा किये हुए और निदित भाव उत्पन्न करनेवाली एसी इन चुरी बातोंको कदापि नहीं बोलते । यदि ये सब कार्य अच्छे हों तो बोले, एक भी खराब होने पर न बोले तथा-प्रतिपन्नानुपेक्षेति ॥२७॥ (२९६) मूलार्थ-अंगीकृत सदाचारकी उपेक्षान करे ॥२७॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ : धसदिन्दु विवेचन-गुरुका विनय, स्वाध्याय, 'साधुका सम्यक् भाचार, आदि जो भी अंगीकार किया है वह कदापि न छोड़े, उसकी उपेक्षा 'या अनादर न करे । उसे यथार्थ रीतिसे पालन करे। साधुके आचार जो पुरुष तिरस्कार करते हैं उनको जन्मान्तरमें भी वह अचार दुर्लम होता है ।।२९६॥ तथा-असत्प्रलापाश्रुतिरिति ॥२८॥(२९७) झूलार्थ-असद (दुष्ट) पुरुषों के वचन नहीं सुने ॥२८॥ -विवेचन--असतां-जो संत नहीं, खल या दुष्ट, प्रलापा:-विना मतलबके निरथक वचन, अश्रुति नहीं सुनना-ध्यान न देना । ऐसे दुष्ट जनो निरर्थक वचनोंको नहीं सुनना, उनकी ओर लक्ष न देना । यदि वह अपने अपमान आदिमे कहे जावे तो उसके प्रति द्वेष न करके उसको उलटा अनुग्रह समझना, अपने पर किया उपकार समझें। कारण कि वह अपनेको हमारे दोष दिखाता है। कहा है कि"निराकरिष्णुर्यदि नोपलभ्यते, भविष्यति शान्तिरनाश्रया कथम् । थदाश्रयात् शान्तिफलं मयाऽऽप्यते, स सत्कृति कर्म च नाम नाहति" ॥१७३॥ -~-यदि कोई अपमान करनेवाला न हुआ तो क्षांति (क्षमा)का आधार क्या ? अपमान होनेसे मेरी क्षमाको जो स्थान मिला है उससे क्षमा रखनेका फल मुझे मिलता है। क्षमागुण व लोको. Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३३५ घर दोनो लाभ हैं। पर अपमान करनेवाला न इस भवमें सत्कार योग्य रहेगा न परभवमें उसे सत्कर्मका फल ही मिलेगा, अंतः 'उसकी क्या गति होंगी ? यह सोचकर उस पर दया करे । खुद पर उपकार किया ऐसी अनुग्रह बुद्धि तथा दया रखे । तथा - अभिनिवेशत्याग इति ||२९|| (२९८) मूलार्थ - मिथ्या आग्रहका योग करे ॥ २९ ॥ विवेचन - कदाग्रह न रखे। अपनी मूलको 'अधिक ज्ञानी द्वारा बताये जाने पर तुरंत मान लेना चाहिये । कोई गीतार्थ पुरुष भूल समझावे उसे न मानना कदाग्रह है इसे छोड़ देना चाहिये । सभी कार्यों में ऐसे कदाग्रहका त्याग करे | तथा - अनुचिताग्रहणमिति ||३०|| (२९९) - मूलार्थ - और अयोग्यको ग्रहण न करे ||३०|| विवेचन - अनुचितस्य - साधुके आचारको बाधा करे या प्रयोग्य वस्तुओका त्याग करे | हानि करे वह अयोग्य - सर्व अशुद्धपिंड (आहार), शय्या, वस्त्रादि धर्मके अन्य उपकरण जो अयोग्य हों उनको ग्रहण न करे, न ले | दीक्षाके अयोग्य बालकवृद्ध तथा नपुंसक आदिको दीक्षा न दे। कहा है कि " पिंड सिज्जं च वत्थं च वउत्थं पायमेव च । अकप्पियं न इच्छिजा, पडिगाहिज्ज कप्पियं ॥ ९७४ ॥ "अट्ठारसपुरिसेसुं, वीसं इत्थीसु दसनपुंसेसु । पव्वावणा अणरिहा, पन्नत्ता वीयरागेहिं" ॥१७५॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ : धर्मविन्दु - पिंड, शय्या, वस्त्र तथा पात्र - ये सव या जो कोई अकल्पित हो, साधुको न कल्पे ऐसे हों तो उसे ग्रहण न करे । और कल्पनीय हो, ग्रहण योग्य हो तो जितनी आवश्यकता हो उतना ही ( उचित मात्रामें ग्रहण करे । ' श्रीवीतराग प्रभुके कथन के अनुसार अठारह प्रकारके पुरुष, वीस प्रकारकी स्त्रिय तथा दस प्रकारके नपुंसक दीक्षा के योग्य नहीं हैं। वे इस प्रकार है--- 'वाले वुड्ढे नपुंसे य, कीवे जड़े य वाइए । तेणे रायावगाही य, उम्मत्ते य असणे ॥ दासे दुडेय सूढे य, अणत्ते जुंगिए इय । ओaar य भयो, सह निप्फेटिए इय" ॥१७६॥ ---बालक, वृद्ध, नपुंसक, क्लीव, जड, रोगी, चोर, राजाका अपकार करनेवाला, उन्मत्त, अन्धा, दास, दुष्ट, मूढ, ऋणी जातिकर्म व शरीरसे अशुद्ध या दूषित, स्वार्थसे प्रेरित या बंधा हुआ, - द्रव्यसे रखा हुआ चाकर और माता पिता आदिकी आज्ञा बिना आनेवाला - यह अठारह प्रकारके पुरुष दीक्षा लेने योग्य नहीं है । सगर्भा तथा छोटे बच्चेवाली इन दो प्रकारकी उपरोक्त दोषोंबाली खियोंकि १८ प्रकारके साथ जोडने से २० प्रकारकी इन दोषों- वाली खिये दीक्षाके योग्य नहीं हैं। इन सबके बारेमें कुछ विवेचन इधर-उधर से लेकर जोडा जाता है। ये निम्नोक्त लोग दीक्षाके योग्य नहीं हैं। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३१७ १. वाल-जन्मसे ८ वर्ष तक बालक रहता है, वह दीक्षा योग्य नहीं है । 'प्रवचनसारोद्धार के अनुसार दीक्षाकी जघन्य या लघुतम आयु ८ वर्ष कही है, इससे कम दीक्षाके योग्य नहीं । वह देशविरति या सर्वविरतिका अधिकारी नहीं । वज्रस्वामीने छमासकी आयुमें ही भावसे सर्व सावध विरतिका राग किया था। ऐसा अपवाद है उदाहरण नहीं माना जा सकता। चालक होनेसे पराभव भी होता है। संयमकी विराधना व लोकनिंदा होती है अतः बालकको दीक्षा न दे। २. वृद्ध- सित्तर-७० वर्षसे अधिक वृद्ध कहलाता है। कोई ६० वर्षसे अधिकको भी वृद्ध कहते हैं। उस वयमें इंद्रिय हानि हो जाती है। १०० वर्षके आयुमें यह प्रमाण है। जब आयुमान कम हो, मनुष्यकी साधारण आयु कम या अधिक हो तो दस भागमेंसे ७ भाग तक ही दीक्षाके योग्य माना गया है। १० मेसे ८ वां या अधिक भागमें वृद्ध गिना जाता है। ३. नपुंसक- स्त्री व पुरुष दोनोंका अभिलापी, पुरुष आकृतिबाला अथवा दोनो लिंगो रहित व्यक्ति नपुंसक है। ४. क्लीच- दर्शन व श्रवणसे विकारको सहनेमें असमर्थ, नियोंद्वारा प्रार्थना किये जाने पर या अंगोपाग देख कर या ऐसी वार्ता सुनकर कामातुर होनेवाला क्लीव है। वह कभी बलात्कार भी करे अतः वह अयोग्य है। ५. जड- ये तीन प्रकारके हैं- भाषाजड, शरीरजड तथा करणजड । तुतलाना, हकलाना या अव्यक्त शब्द कहना तीनों भाषा Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ : धर्मपिन्छ जड़ हैं। स्थूल शरीर होनेसे भिक्षाटन, वंदन तथा विहार आदि करनेमें असमर्थ हो वह शरीरनड तथा साधु क्रियाके पालनमें असमर्थ वह करणजड । अर्थात् पांच समिति, तीन गुप्ति, प्रतिक्रमण, पडिलेहण आदि संयमकी क्रियाएं उपदेश करने पर भी न कर सके, प्रमादवश, या जडतावश वह करणजद है। तीनो दीक्षाके, अयोग्य हैं। भाषाजड ज्ञानप्राप्तिमें असमर्थ है, शरीरजड आवश्यक क्रियाओमें, तथा करणजड आवश्यक नियमादिके पालनमें असमर्थ हैं। ६. रोगी- भगंदर, अतिसार, कोट, पथरी, क्षय, ज्वर आदि व्याधि या रोगोंसे पीडित व्यक्तिको दीक्षा नहीं देना चाहिये । चिकित्सामें छकाय जीवकी विराधना संभव है तथा स्वाध्याय होना भी कठिन है। ७. स्तेन या चोर अनर्थका कारण होनेसे अयोग्य है। ८. राजापकारी- राजाके भंडार, अंतःपुर, शरीर या कुटुंबका द्रोह करनेवाला कारागृह देशनिकालके पात्र है अतः दीक्षाके योग्य नहीं। .. ९. उन्मत्त- पागल. या मोहके उदयसे परवश दीक्षाके योग्य नहीं है। उससे स्वाध्याय, ध्यान व संयमकाः पालना अशक्य है। ।। १०. अदर्शन या अंध, नेत्ररहित या समकितदृष्टिहीन इससे छकाय जीव विराधना होती है। समकित न होनेसे चारित्रके योग्य नहीं होता। ११. दास- दासीसे उत्पन्न या मोल लिया हुआ। वह स्वयं अपना अधिकारी नहीं है । स्वामीका उस पर स्वत्व है। . Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३१९ १२. दुष्ट - कषायदुष्ट जो मामूली कारण होनेसे व्यतिकषाय या क्रोध' करनेवाला तथा विषयदुष्ट जो परस्त्री आदिमें या व्यसनोमें ध हो; ये दोनों ही दीक्षाके अयोग्य हैं। १३. मूढ - स्नेह या अज्ञानसे वस्तुज्ञानरहित मूढमें कार्य, भकार्यका विवेक नहीं होता । १४. ऋणी - राजा या अन्यका कर्जा हो । उसका निरादर होता है । १५. जुंगित - जाति, कर्म या शरीर से दूषित - हलकी जातिचाला, चंडाल, मोची आदि जातिजुंगित है । मोर, तोता आदि पालकर बेचनेवाले, नट तथा शिकार आदि निन्द्य कर्म करनेवाले कर्मजुंगित हैं । विकलांग जैसे बहरे, लुले, लंगडे, काने, कुबडे आदि शरीरजुंगित हैं । १६. अवबद्ध - द्रव्य या विद्या निमित्त दीक्षा लेनेवाला या काल नियत करके दीक्षा लेनेवाला अवबद्ध है। उससे कलह आदि दोषकी उत्पत्ति संभव है । १७. भृतक - अवधि सहित रखा हुआ चाकर अवधि समाप्ति तक अयोग्य है। J १८. निष्फेटिका - माता-पिता आदिकी आज्ञा बिना आये हुए या अपहरण किये हुएको दीक्षा न दे। इससे माता, पिता दिका कर्मबंध होता है तथा दीक्षा देनेवालेको अदत्तादान लगता है । तथा -- Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० : धर्मबिन्दु "पडए वाइए कीवे, कुंभी ईसालय त्ति य। सकणी तक्कम्मलेवी य, पक्खियापक्खिए इय" ॥१७॥ "सोगंधिए य आसत्ते, एए दस नपुंसगा। संकिलिट्ठ त्ति साहूणं, पव्वावेउं अकप्पिया" ॥१७८॥ -पंडक, वातिक, क्लीब, कुंभी, ईर्ष्यालु, शकुनि, तत्कर्मसेवी, पाक्षिकापाक्षिक, सौगंधिक और आसक्त-ये दस प्रकारके नपुंसक हैं। ये संक्लेशका कारण होनेसे दीक्षाके योग्य नहीं हैं--- . १. पंडक- जिसका आकार पुरुषका हो पर स्वभाव स्त्रीका हो । मदगति, शीतल शरीर, स्त्रीकी तरह केशवंधन करनेवाला, आभूषणोंकी अधिक इच्छा करनेवाला, पुरुषोंमें शंका व भय रखना, ये उसके लक्षण हैं। पुरुष चित बडा, वाणी स्त्रीके जैसी, स्वरमें भेद तथा रस, गंध, वर्ण, स्पर्श आदिमें स्त्रीसे विलक्षण हो। . ३ वातिक- पुरुषचिव स्तब्ध होने पर सीसेवा बिना वेदको धारण करनेमें असमर्थ हो। ४. क्लीव- स्त्रीको देख कर, शब्द सुन कर, आलिंगनसे-या निमन्त्रणसे जो क्षोभ पाता है वह क्लीब है। ५. कुंभी- जिसका पुरुषचिह्न कुभकी तरह स्तब्ध हो अथवा कुंभ जैसे स्तन हो वह कुभी कहलाता है। ५. ईर्ष्यालु- स्वयं स्त्रीका सेवन करनेमें असमर्थ होनेसे अन्य कोई स्त्रीका सेवन करे तो उस स्त्रीको देख कर ईर्ष्या करनेवाला ईर्ष्यालु है। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३२१ ६. शकुनि - जो बार बार स्त्रीसेवनमें आमत हो । ७. तत्कर्म सेवी - जिल्हा आदिसे चाटने जैसे निंद्य कर्म करनेवाला | ८. पाक्षिकापाक्षिक- जिसे एक पक्ष अतिशय मोह व दूसरेमें अप मोह हो । ९. सौगंधिक- अपने लिंगको शुभ गंधवाला जीन कर सूवा करे 1 १०. आसक्त- वीर्यपात बाद भी आलिंगन बद्ध ही रहे । पुरुष व स्त्रीमें जो नपुंसक मेद बताया वह पुरुषाकृति तथा स्त्रीयाकृतिवाले नपुसकके लिये कहा है । उपरोक्त दस भेद नपुंसक आकृतिवाले नपुंसकके हैं। यह तीनों तरहके नपुंसकोंमें भेद है । शास्त्रमें कुल नपुंसक १६ कहे हैं। उपरोक १० दीक्षाके स्ययोग्य हैं। जो छ प्रकारके नपुंसक दीक्षाके योग्य निशीथाध्ययन सूत्रमें कहे हैं व ये हैं-अर्थात् निम्न छ प्रकार के दीक्षा के योग्य समझना । १. वर्द्धितक- राजाद्वारा अंतपुरकी रक्षाके लिये नाजर किया हुआ पुरुष । २. चिपित - जन्म होते ही अंगुलियोंके मर्दनसे वृषण गळायेहों वह पुरुष । ३. मत्रोपहत - मंत्रसे जिसका पुरुषवेद नष्ट हुआ हो । ४. औषध्युपहत - 'औषधिसे जिसका पुरुषवेद नष्ट हुआ हो । ५. ऋषिशस) जो ऋषि या देवके श्रापते पुरुषवेद नष्ट ६. देवशप्त होकर नपुंसक बना हो । ૨૧ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ : धर्मविन्दु ये दीक्षाके योग्य है। इसका विशेष स्वरूप निशीथाध्ययनसे जानना। तथा-उचिते अनुज्ञापनेति ॥३१॥ (३००) मूलार्थ-योग्य वस्तुके ग्रहणमें अनुज्ञा लेना ॥३१॥ विवेचन-जो उपरोक्त पिंड आदि वस्तुएं ग्रहणके योग्य हों, अयोग्य न हो, उनको ग्रहण करनेमें गुरुकी या स्वामीकी अनुमति लेना चाहिये । जैसे 'आप यह वस्तु ग्रहण करने की आज्ञा दीजिये' अन्यथा अदत्तादान होता है। तथा निमित्तोपयोग इति ॥३२॥ (३०१) मूलार्थ-शकुन आदि निमित्तका विचार करना ॥३२॥ निवेचन-उचित आदि आहार ग्रहण करनेमें साधु शुद्धि व अशुद्धिके साधुजनोंमें प्रसिद्ध शकुनका विचार करे। जो निमित्त अशुद्ध लगे तो चत्यवंदन आदि शुभ क्रिया करना चाहिये और निमित्त या शकुनका पुनः विचार करे। ऐसा तीन बार करने पर यदि तीनों बार निमित्तशुद्धि न हो तो साधु उस दिन कुछ भी ग्रहण न करे। यदि कोई दूसरा ले आवे तो उसे खा लेनेमें कोई हानि नहीं। निमित्तशुद्धि होने पर भी अयोग्येऽग्रहणमिति ॥३३॥ (३०२) मूलार्थ-अयोग्य वस्तु ग्रहण न करे ।।३३।। विवेचन-अयोग्य या अनुचित आहार ग्रहण नहीं करना चाहिये क्योकि वह कोई उपकार नहीं करता। शास्त्रमें आहारग्रहण Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि ः ३२३ करनेकी जो विधि है उस प्रकार नयालीस दोपरहित आहार ग्रहण करना चाहिये । तथा अन्ययोग्यस्य ग्रह इति ॥३४॥ (३०३) मृलार्थ-अन्यके योग्य वस्तुको भी ग्रहण कर सकता है।॥३४॥ विवेचन-खुदको छोड कर गुरु अथवा ग्लान, बाल आदि साधुके योग्य जो वस्तु हो तो उसे अवश्यता होने पर ग्रहण किया जा सकता है । ऐसा ग्रहग करने पर क्या करे सो कहते हैं गुरोनिवेदनमिति ॥३५॥ (३०४) मूलार्थ-गुरुसे निवेदन करे ॥३५॥ विवेचन-उपाश्रय या रहनेके स्थानमे सौ हाथसे अधिक दूर जाने पर या जाकर वस्तु लाने पर पहले आने की ईर्यापतिकमण आदि आलोषणा करना । और तब गुरुपे निवेदन करना । सो हाथके भीतरसे लाने पा आलोयगा बिना ही गुरुने निवेदन करना । जिसके हाथसे जिस प्रकार वस्तु प्राम हो वह मब निवेदन करके वह गुरुको सौंपना चाहिये । यह कर लेनेसे--- स्वममदानमिति ॥३६॥ (३०५) मूलार्थ-स्वय दूसरेको (गुरु आज्ञा विना) न दे ॥३६॥ विवेचन-वह स्वयं लाने पर भी अपने आप दूसरोंको न दे क्योंकि वह गुरुको समर्पित की हुई है। अतः गुरु आज्ञा विना Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४-: धर्मविन्दु किसीको न दे। यदि गुरु स्वयं बालक, वृद्ध या बीमारको कुछ दे तो अच्छा है। यदि गुरु किसी काममें लगे हुए हो और खुद न देकर उसीसें दिलावे तो तदाज्ञया प्रवृत्तिरिति ॥३७॥ (३०६) मूलार्थ-गुरुकी आज्ञासे प्रवृत्ति करना ॥३७॥ विवेचन-गुरुकी आज्ञासे लाई हुई सारी सामग्रीको बांट देना चाहिये । उसमें भी उचितच्छन्दनमिति ॥३८।। (३०७) मलार्थ-योग्य पुरुपकी निमन्त्रणा करना ॥३७॥ विवेचन-अपने साथ जो बरावर भागमे खा सके ऐसे बाल आदि साधुको अन्नग्रहणकी अभिलापा उत्पन्न करा कर उसको देवे। दूसरेको नहीं देना क्योकि दूसरेको देनेका उसे अधिकार नहीं है। सवको देने के बाद बचे हुए अन्तका धर्मायोपभोग इति ॥३९॥ (३०८) मूलार्थ-धर्मके लिये उपभोग करना ॥३९॥ विवेचन-शरीर ,धर्मका- साधन है। अतः धर्मके आधारभूत शरीरके लिये धर्म साधनार्थ उस अन्नको खावे । पर शरीर, आकृति या वीर्यवलकी वृद्धिक लिये नहीं । कहा है कि "वेयण वेयावच्चे, शरयट्ठाए य सयमहाए । तह पाणवत्तियार, छटुं पुण धम्मचिंताए ॥१७९॥" Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३२५ मुखकी शांति के लिये वैयावच (सेवा) करनेके लिये, ईर्यासमिति के गोधनके लिये, संयम धारण करनेके लिये, प्राण धारण करनेके लिये और धर्म चितवनके लिये अन्नका उपभोग करे या अन्न ग्रहण करे । तथा - विविक्तवसतिसेवेति ||४०|| (३०९) मूलार्थ - और एकांत स्थानमें निवास करना ||४०|| विवेचन - विविक्तायाः - स्त्री, पशु या नपुंसक जहां न रहते हों; वसते:- स्थानका, सेवा - उपयोग करना । ऐसे स्थान पर जहां स्त्री, पशु या नपुसक न रहते हों वहां - रहे । अर्थात् एकान्त स्थानमें वास करे । एकांत में न रहने से साधुको ब्रह्मचर्यभंगका प्रसंग उपस्थित हो सकता है । अर्थात् ब्रह्मचर्य पाल - नके लिये एकांत में रहे | ब्रह्मचर्य पालन करने में बची हुई गुप्तियों के पालनके लिये अब कहते हैं | तत्र स्त्रीकथा परिहार इति ॥ ४१ ॥ (३१०) मूलार्थ - उसमें स्त्रीकथाका त्याग करे ||४१ ॥ विवेचन - ब्रह्मचर्य पालनके लिये, शेष गुप्तियों के पालनके लिये जो आगे आठ सूत्र कहे जाते हैं उनमें पहला यह है । स्त्रीकथा चार प्रकारकी है - जाति, कुल, रूप व वस्त्र आदि वेषके बारेमें कथा । जैसे ब्राह्मण आदि जाति चौलुक्य आदि कुल, शरीरके आकार प्रकार तथा वेषभूषा के बारेमें बातें करना । स्त्रीकथा कामोद्दीपन करती है अतः -न सुने, न करे और न पढे । ब्रह्मचर्य के लिये यह आवश्यक है । जैसे Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ : धर्म विन्दु "धि ब्राह्मणीर्धवाभावे, या जीवन्ती मृता इव । धन्याशी जनैर्मान्या, पतिलक्षेऽप्यनिन्दिता ॥ १८०॥ "अहो ! चौलुक्यपुत्रीणां साहसं जगतोऽधिकम् । विशन्त्यग्नां मृते पत्यो, या प्रेमरहिता अपि ॥१८२॥ "अहो ! अन्ध्रपुरन्ध्रीणां रूपं जगति वर्ण्यते । यत्र यूनां शो लग्ना, न मन्यन्ते परिश्रमम् ॥ १८२ ॥ "धिग् नारोरौदीच्याः, बहुचस्त्राच्छादिताद्गलतिकत्वात् । यद्यौवनं च यूना, चक्षुमोदाय भवति सदा ॥ १८३॥ " ब्राह्मण नारीको विकार है जो पतिके मृत्यु पर मृतवत् रहती है । धन्य है गूद्र नारीको जो कई पति होने पर भी लोगों में मान्य व अनिंदित रहती है । अहो ! चोलुक्य पुत्रियोका साहस सबसे अधिक हैं। प्रेम रहित होने पर भी वे पति के मरने पर अनिमे प्रवेश करती है | अहो | आन्ध्रदेशकी स्त्रियों का रूप जगत् में प्रसिद्ध है जहा सीके रूपको देखते हुए नेत्र कभी थकते ही नहीं | औदीच्य नारी या उत्तरीय नारीको धिक्कार है जो अपने लता समान अंगोंको बहुत वस्त्रोंसे आच्छादित कर लेती है जिससे उनका यौवन युवानोंके देखनेके उपयोग में नहीं आता। ऐसी स्त्रीकथाको त्याग करे, ऐसी पुस्तकें भी पढ़े निषद्यानुपवेशनमिति ॥ ४२॥ (३११) मूलार्थ - स्त्रीके आसन पर नहीं बैठना चाहिये ॥४२॥ विवेचन-स्त्रीके बैठनेके पट्ट आदि आसन पर ब्रह्मचारी स्त्रीके “ऊठ जाने पर भी दो घडी ( ४८ मिनिट ) तक न बैठे । तत्काल Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३२७ ऐसे आसन पर बैठनेसे स्त्रीके संयोगसे उत्पन्न उष्णताके स्पर्शसे साधु या ब्रह्मचारीका मन विह्वल हो सकता है। अतः उसी स्थान पर तुरंत नहीं बैठना। इन्द्रियाप्रयोग इति ॥४३॥ (३१२) मूलार्थ-स्त्रीके अवयवोंकी तरफ इंद्रियोंका प्रयोग न करे ॥४॥ विवेचन-इन्द्रियाणां-नेत्र आदि इन्द्रियोसे स्त्रीके शरीरके गुह्य, साथल, मुख, कान, स्तन आदि अवयवांको देखना, छुना मादि, अप्रयोग:-प्रयोग नहीं करना । ब्रह्मचारी स्त्रीको विषयभावसे देखे नहीं । स्त्रीके इन अवयवाको विषयभावस देखनेसे, उनको निरखनेम कामक्री उत्तेजना होती है। देखनेसे मनमे कामभाव पैदा होता है। किसी भी अंगका स्त्री पर प्रयोग नहीं करना-जैसे स्पर्ग, नेत्र, हाथ या अन्य कर्मेन्द्रियकासवका प्रयोग वर्जित है। कुडयान्तरदाम्पत्यवर्जनमिति ॥४४॥ (३१३) . मूलार्थ-एक दीवारके अंतरसे दम्पति रहते हों वहां न रहे ॥४४॥ विवेचन-कुडचं-एक दीवार, दाम्पत्यं-स्त्री व पतिका जोडा। यदि एक ही दीवार वीचमें हो व उसके दूसरी ओर पतिपत्नी रहते हों तो ऐसे स्थान पर साधु न रहे । ऐसी जगह पर स्वाध्याय व ध्यान भी नहीं हो सकता । साथ ही ऐसे स्थान पर जब काम Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ : धर्मविन्दु क्रीडाकी बात होती हो तो वह सुननेमें आवे अतः साधुका मन स्खलित हो तथा विहल हो और ध्यान, स्वाध्याय न हो सके। पूर्वक्रीडितास्मृतिरिति ॥१५।। (३१४ मूलार्थ-स्त्रीके साथ की हुई पहलेकी क्रीडाका स्मरण न करे ॥४५॥ विवेचन-दीक्षा लेनेके पहले स्त्रीके माथके कामभोग तथा क्रीडा वा विलास, खास तौरसे वे प्रसग जो आनंददायक थे, उनको याद न करे । इससे मन उसकी ओर प्रेरित होता है तथा कामोद्दीपन भी होता है । यह भुक्तभोगी साधुके लिये विशेषतया कहा है। प्रणीताभोजनमिति ॥४६॥ (३१५) मुलाथे-अतिस्निग्ध भोजनका त्याग करे ॥४६॥ विवेचन-जो आहार बहुत स्निग्ध या ग्सप्रद हो जैसे घीके बिंदु टपके ऐसा रसीला आहार साधु न करे। इससे कामविकारकी उत्पत्ति होती है। साथ ही ऐसी सर्व वस्तुओंका भी त्याग करे जो कामवृद्धि करती हैं। अतिमात्राभोग इति ॥४७॥ (३१६) मूलार्थ-अतिशय आहार नहीं करना ॥४७॥ . विवेचन अतिस्निग्ध न हो तब भी अधिक मात्रामें खाना नहीं चाहिये । शास्त्रोक्त प्रमाण ३२ कवलका है। ज्यादा भोजन करनेसे इद्रिय सतेज होती हैं जिससे कामविकारकी उत्पत्ति होकर Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३२९ उसे वशमें करना कठिन होता है । विभूपापरिवर्जनमिति ||१८|| (३१७) मूलार्थ - शृंगारका त्याग करे ||१८| विवेचन - विभूषा अर्थात् शरीरका गंगार करनेवाले वेपको धारण न करे । शरीरकी शोभा बढानेके लिये किया हुआ वेग तथा ते, इत्र आदि लगाना भी कामोद्दीपक है और इन्द्रियों को विलासी बनाता है । अत साधु इसे त्यागे । स्त्रीयासे लेकर कहे हुए ये नौ सूत्र जिसमें ब्रह्मचर्यपालन संबंधी नौ नियम हैं. ब्रह्मचर्यपालन सहायक हैं । ये ब्रह्मचर्यकी नौ वाड या ब्रह्मचर्यको पालनेके लिये नौ दीवार हैं। माधु व ब्रह्मचारी इन नियमों का पालन करें। ये मोड़के उत्तेजनाके निमित्त हैं। अतः इनका निषेध किया है । तथा तत्त्वाभिनिवेश इति ||१९|| ( ३१८) मूलार्थ-तत्त्वके प्रति पूर्ण आदर रखे ||१९|| विवेचन - सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्रकी पुष्टि करनेवाली सब क्रियाओं में असमर्थ हो अथवा अगक्त हो उसके प्रति मनसे भाव रखे तथा उसे करनेकी इच्छा रखे ॥ तथा - युक्तोपधिधारणमिति ॥ ५० ॥ (३१९) मूलार्थ - और योग्य सामग्री रखे या धारण करे ॥५०॥ -विवेचन - शालक प्रमाणवाली, लोकापवाद रहित तथा स्वयं Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० धर्मविन्दु व अन्य किसीको राग उत्पन्न न करे ऐसी वस्तु या सामग्री ग्रहण करे व रखे । वस्न, पात्र आदि वस्तुएं सब योग्य प्रमाणमे शस्त्रोक्त तथा आवश्यकतानुसार ग्रहण करे । इन उपकरणोंमें किसीका राग उत्पन्न न हो। यदि अधिक हो तो उनका त्याग भी उचित है। उपयोगसे अधिक सामग्री हानेसे ममता बढती है तथा संयमपालनमें वाधा आती है । कहा है कि "धारणया उवभोगो, परिहरणा होइ परिमोगों" ॥१८॥ -वन, पात्रादिकका धारण करना तथा त्याग करना क्रमशः उपभोग व परिभोग कहलाता है अत अधिक वस्तुका परिभोग और त्याग कर। तथा-मूछात्याग इति ॥५१॥ (३२०) मूलार्थ-और मूर्छाका त्याग करे ।।५१॥ विवेचन-सामग्री कम होनेके साथ उसमे ममत्व तो जरा मात्र भी न रखे। जहा ममत्व भावना है चाहे सामग्री कम हो या अधिक वहा परिग्रह है और पाचवे महाव्रतका खण्डन होता है । सब बाह्य व अभ्यतर वस्तुओंमे जैसे शरीरका बल आदि, ममता व मूर्खाका त्याग कर। तथा-अप्रतिवद्धविहरणमिति ॥५२।। (३२१) मलार्थ-और प्रतिबंधभाव रहित विहार करे ॥५२॥ विवेचन-देश, ग्राम, कुल आदि किसीम ममता न रखे। मूर्छा भावनाका त्याग करके विहार करे। साधुलोक कल्याणके Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि - ३३१ लिये विविध स्थलोमें घूमे । किसी देश, स्थान, कुल अथवा भक्तजनके प्रति ममता नहीं रखना चाहिये। तथा-परकृतविलवास इति ।।१४।। (३२२) मृलार्थ-अनुज्ञासे शुद्धि करके निवास करे ॥५४॥ विवेचन-अवग्रह पाच है- देवेन्द्र, राजा, गृहपति, शय्यातर व साधर्मिक-इन पाचौंकी आज्ञा या अनुज्ञा लेकर तब उस स्थान पर रहे । साधुके पास अपना कोई स्थान नहीं अत जिसके आषिपत्यमें जगह हो उसकी आज्ञा लेना जरूरी है। सौधर्मेन्द्र जो इस स्थानका अधिपति है, राजा, चक्रवर्ती आदि जिसका राज्य हो, गृहपति, उस देशका नायक या जागीरदार हो, शय्यातर-उस घरता खुद मालिक या जिसके कबजेमें वह स्थान हो तथा आचार्य, उपाध्याय आदि जो आसपास पाच कोस तक रहते हो उनकी आज्ञा लेना चाहिये । इन सबकी आज्ञा ही अवग्रह शुद्धि हैं। उसके बाद ही वहां निवास करे। मासादिकल्प इति ॥५५॥ (३२३) मूलार्थ-मास आदि कल्पके अनुसार विहार करे ॥५५॥ विवेचन-मास कल्प व चतुर्मास कल्प नो गालमें कहा है उसके अनुसार विहार करे । साधु चातुर्मासमें चारों महिने (अथवा पांच) तथा अन्य समयमें एक माससे अधिक एक जगह रह नहीं सकते । अत: उस प्रकार विहार करना चाहिये । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAP ३३२ : धर्मयिन्दु जब दुष्काल हो, राजाओका परस्पर युद्ध हो, अपने पैरसे चलनेकी -शक्तिका हास हो ऐसे समय मासकल्प आदिके अनुसार विहार या भ्रमण न कर सके तो क्या करे ? एकत्रेव तक्रियेति ॥५६॥ (३२४) मूलार्थ-एक ही क्षेत्रमें मासकल्प आदि करे ॥५६॥ विवेचन-उपरोक्त कारणोसे एक 'नगर या देश छोडकर दूसरी जगह जानेका न हो सके तो एक गांवसे दूसरे गांव, एक स्थानसे -दूसरे स्थान, एक गलीसे दूसरी गली अथवा तो भिन्न उपाश्रय, उसी उपाश्रयमे भिन्न स्थान, अथवा तो अंततः जिस स्थान पर संथारा हो उसको छोड़ कर दूसरे स्थानमें संथारा करे पर कल्पको दूषण न लगे । कहा है कि "सथारपरावत्त, अभिग्गहं चेव चित्तरूवं तु । एत्तो चरित्तिणो इह, विहारपडिमाइसु करित्ति" ॥१८४॥ -जिनशासनके चारित्रधारी मुनिविहार और पडिमाको करनेके लिये अंतत संथारा परिवर्तन भी करके और अभिग्रह करके उसका पालन करें। तत्र च सर्वत्रामसत्वमिति ॥५७॥ (३२५) मलार्थ-वहां भी सब वस्तुओंमें ममत्वरहित हो ॥१७॥ विवेचन- वृद्धावस्था आदि उपरोक्त कारणोंसे यदि एक ही -स्थल पर रहना पडे तो भी वहा रही हुई सब वस्तुओं, उपाश्रय, पुस्तक या अन्यके प्रति ममत्वभावना रहित रहे, इसीलिये भ्रमण आवश्यक है। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३३३ तथा - निदान परिहार इति ॥ ५८ ॥ (३२६) मूलार्थ और नियाणाका त्याग करना चाहिये ॥ ५८ ॥ विवेचन - देवता या राजादिककी ऋद्धि प्राप्त करनेकी इच्छा करना निदान या नियाणा हैं । धर्मरूपी कल्पवृक्षका मूल सम्यग् - दर्शन है। ज्ञान व विनय उसका थड हैं। दान गील, तप और भावना उसकी डालिया हैं । देव व मनुष्यके सुख उसके पुप्प हैं तथा मोक्ष उसका फल है अतः हमेशां लक्ष्य मोक्षका रखना । नियाणा या निदान करना धर्मरूपी कल्पवृक्षको छेदना है । अतः उस निदानका त्याग करे। ऐसी ऋद्धि आदिकी वांछा (इच्छा) न करे । मोक्षप्राप्ति के लिये किये गये प्रयत्नके फलस्वरूप अन्य ऋद्धि अपने आप प्राप्त हो जाती है जैसे अन्नकी खेतीमे घास | अतः निष्कामवृत्ति रखें । निदानका परिणाम बुरा है । कहा है कि ' यः पालयित्वा चरणं विशुद्धं करोति भोगादिनिदानमज्ञः । ही वर्द्धयत्वा फलदानदक्षं, स नन्दनं भस्मयते वकः। १८५।" -- जो अज्ञ शुद्ध चारित्रका पालन करके भोग आदिकी प्राप्तिका निदान करता है वह मन्दबुद्धि सुंदर फल देनेवाले नन्दन बनको बढा करके भी जला देता है। तंत्र क्या करे, वह कहते हैं विहितमिति प्रवृत्तिरिति ॥५९|| (३२७) मूलार्थ - सब क्रियायें शास्त्रोक्त है अतः प्रवृत्ति करना चाहिये ॥ ५९ ॥ विवेचन - सब धर्म क्रियाये भगवान द्वारा निरूपित हैं, शास्त्र में Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ : धर्मविन्दु कही हुई हैं ऐसा सोच कर क्रियायें करे । सव धर्म कार्योंमें प्रवृत्ति इसी धारणासे करे । वह भगवान द्वारा कर्तव्यरूपमें कही हैं अतः करनी हैं । पुण्य व पाप स्वर्ण व लोहेकी वेडी समान हैं जो दोनो वन्धनयुक्त हैं, अतः आसक्ति रहित निष्काम वृत्तिसे कर्म करना चाहिये। तथा-विधिना स्वाध्याययोग इति ॥६०॥(३२८) मूलार्थ-और विधिवत् स्वाध्याय करे ॥६०॥ विवेचन-काल, विनय आदि शास्त्रोक्त विधिसहित स्वध्याय करे । पढना, सुनना व मनन करना, उसका समय तथा विनयपूर्वक वाचना लेना आदि विधिसे करे । गुरुका विनय व बहुमान करनेका नियम पाले । तथा-आवश्यकापरिहाणिरिति ॥६१।। (३२९) मूलार्थ-आवश्यक कार्योंका भंग नहीं करना ॥६१॥ विवेचन-आवश्यक-समयके अनुसार करनेयोग्य नियमित कर्तव्योंका जैसे पडिलेहण आदि, अपरिहाणिः-तोडना नहीं भंग न होने देना। जिस जिस समय पर साधुको करनेके जो जो अनुष्ठान है वह उसके आवश्यक कर्म हैं, उनको अवश्य ही करना चाहिये । वे साधुपनेके मुख्य चिह्न हैं। उसके लिये दशवकालिक सूत्रमें लिखा है "संवेगो निव्वेओ, विसयविवेगो सुसीलसंसग्गी।' आराणा तवोनाणदसणचारित्तविणओ य ॥१८६॥" Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३३५ "खती य मद्दवऽजव, विमुत्तयाऽदीया तितिक्खा य । आवस्सगपरिसुद्धी य भिक्खुलिंगाइ एयाई" ॥१८७॥ -~-संवेग मोक्षकी अभिलाषा), निर्वेद (ससारसे विरक्ति', विषय विवेक (हेय व उपादेयका विवेक), सुशील साधुकी संगति, ज्ञानादि गुणकी आराधना, बाह्य-अभ्यंतर तप करना, ज्ञान-दर्शन और चारित्रका विनय करना; क्षमा, मृदुता, मान, माया व लोमका त्याग, दीनता छोडा तथा परीषह-उपसर्ग आदि सहना और आवश्यक काँकी शुद्धि (पडिलेहण आदि) या धर्मानुष्ठान-ये सब साधुके लक्षण हैं या साधुके चिह्न हैं। तथा-यथाशक्ति तपासेवनमिति ॥२॥(३३०)। मूलार्थ-और शक्तिके अनुसार तप करे ॥२॥ विवेचन-अपनी शक्तिके अनुसार न अधिक कृश करके, न शरीरको बचाकर, तपका आचरण करना चाहिये । कहा है कि"कायो न केवलमय परितापनीयो, मिष्टै रसैर्वहुविधेर्न च लालनीयः। चित्तेन्द्रियाणि न चरन्ति यतोत्पथेन, वश्यानि येन च तदाचरित जिनानाम् ॥१८८॥" ----शरीरको केवल कष्ट हो ऐसा तप न करे, नही बहुत मधुर तथा रसप्रद पदार्थों द्वारा उसका लालन पालन करे जिससे चित्त व इन्दियां गलत राह पर न चलें और वशमें हो ऐसा जिन परमात्माका कहा हुआ तप है। तथा-परानुग्रहक्रियेति ॥६३।। (३३१) Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ : धर्मविन्दु मूलार्थ-और दूसरों पर अनुग्रह हो ऐमी क्रिया न करे।६३। विवेचन-अपने व पराये सब पर करुणा करके ज्ञान दान आदि उपकार करना । लोगोंको उपदेश देना । इससे श्रोताको लाभ होता है तथा वक्ताको भी करुणा व अनुग्रह द्वारा उपदेश देने के कारण लाभ होता है। तथा-गुणदोषनिरूपणमिति ॥६४।। (३३२) सूलार्थ और सर क्रियाओंमें गुणदोषका ध्यान रखना।६।। विवेचन-जो जो भी कार्य करे उस सबमें गुण तथा दोषका विवेचन करके उस कार्यको करे, इससे दोष टालकर केवल गुण करनेवाली क्रिया ही की जायगी, जिससे बहुत लाभ होगा । विहार आदि सब कामोंमे ऐसा करे । तथा-बहुगुणे प्रवृत्तिरिति ॥६५।। (३३३) .. मूलाथै-और अधिक गुणवाली क्रिया प्रवृत्ति करें।।१५।। विवेचन-जो कार्य बहुत गुणोंवाला अथवा केवल गुणोंवाला हो उस कार्यमें प्रवृत्ति करें। अन्य कार्य जिसमे दोष अधिक हो व गुण कम हो वह कदापि न करे।। तथा-क्षान्तिर्मादवमाजवमलोभतंति॥६६॥ (३३४) मूलार्थ-क्षमा, मृदुता, सरलता और संतोप रखना ॥६६॥ विवेचन-चारो कषाय-क्रोध, माया व लोभका त्याग करके उनके शत्रुरूप क्षमा, मृदुता, सरलता व सतोषको अपनाना चाहिये। ये चारों गुण साधुधर्मके मूल भूमिका रूप है, अतः इन्हें निरंतर हृदयमें रखना। , Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - यतिधर्म देशना विधि : ३३७ क्रोधाद्यनुदय इति ॥६७॥ (३३५) मूलार्थ-क्रोध आदिका उदय न होने दे ॥६॥ विवेचन-क्रोध आदि चारों कपायोका उदय न हो, मूलसे ही उत्पन्न न हों ऐसा यत्न करना चाहिये । जिन कारणोंसे इन् कषायोंका उदय हो उनका ही त्याग अधिक अच्छा है। - तथा-वैफल्यकरणमिति ॥६८॥ (३३६) मूलार्थ-और उदय हुए क्रोध आदिको निष्फल करे।।६८॥ विवेचन-पूर्व जन्म उपार्जित कर्मसे, उसके कारण मिल जाने पर, क्रोध आदि कषायकी उत्पत्ति कदाचित् हो जाय तो उसे निष्फल करना चाहिये । क्रोध आदिके आवेश जो काम करनेकी इच्छा हो उसको नहीं करना या न होने देना। ऐसा होने पर ही पूर्वोक्त क्षमा, मृदुता, सरलता व संतोष आदि गुणोका सेवन कहा जायगा। क्रोध आदिका उदय न होने देनेके लिये जो करना चाहिये वह कहते है विपाकचिन्तेति ॥६९॥ (३३७) मूलार्थ-कपायोंके फलका विचार करना ॥६९॥ विवेचन-क्रोध आदि कषायोंके जो बुरे परिणाम होते है, इस भवमें तथा परभवमें, उन परिणामों व फलोंको सोचे जिससे वे कम हो । जैसे. "क्रोघात् प्रीतिविनाश, मानाद् विनयोपघातमाप्नोति । शाठ्यात् प्रत्ययहानि, सर्वगुणविनाशनं लोभात् ॥१८९॥" -क्रोधसे प्रीतिनाश, मानसे विनयकी हानि, शठता या मायासे (कपटसे) विश्वासकी समाप्ति तथा लोमसे सर्व गुणों का नाश होता है। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ : धर्मविन्दु नथा-धर्मोत्तरो योग इति ||७७।। (३३८) मूलाथ-मन, वचन व कायासे ऐसा काम करे जिसका फल धर्म हो ||७७॥ विवेचन-मन, वचन व कायासे सब ऐसे ही काम करने चाहिये जिनसे धर्मकी प्राप्ति हो । अतः मनसे शुभ विचार, शांति व ज्ञानको देनेवाले शब्दोंका उच्चार और दुःख दूर करने या किसीको हानि न पहुंचानेका कायिक व्यापार या कार्य करे। ऐसे विचार, वचन या कार्य न करे जिनका फल पाप हो, जैसे-जोरसे हंसना, कुवचन बोलना, खराब विचार करना आदि कर्म न करे । तथा-आत्मानुप्रेक्षेति ॥७१।। (३३९) मूलार्थ-और-आत्माका विचार करे ७१॥ विवेचन-साधु प्रतिक्षण आत्मनिरीक्षण करें। अपने आपकी, अपने मनके ऊठते हुए भावोकी तथा कार्योंकी आलोचना स्वयं करे। जैसे 'किं कयं कि या सेले, किं करणिज्ज तवं न करेमि । पुवावरत्तकाले, जागरओ भावपडिलेह त्ति ॥१९०॥ ~मैंने क्या किया, क्या करना बाकी है, और करने योग्य कौनसा तप मै नहीं करता हूं-इस प्रकार प्रातःकालमें ऊठ कर भाव पडिलेहण करे । अर्थात् सवेरे जब रात्रिके अतिम भागमें जागे तब इस प्रकार अपने भावोंका विश्लेषण करे। इस प्रकार प्रति समय आत्मनिरीक्षण करनेसे या मैं कौन हूं, कहांसे आया, - क्या धर्म है, Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि. : ३३९ क्या कर्तव्य है, अन्य प्राणियोंसे क्या संबध आदि प्रश्नों पर विचार करते रहने से मनुष्य अपने दोपोको हठाता तथा शुभ कर्मोको करता है व करनेको प्रेरित होता है । इस प्रकार साधु व श्रावक सोचें । उचितप्रतिपत्तिरिति ।[७२।। (३४०) मूलार्थ-योग्य अनुष्ठान अंगीकार करे ॥७२॥ विवेचन-डम प्रकार आत्मनिरीक्षण करके जो अनुष्ठान योग्य लगे ऐसे शुग अनुष्ठान करे । गुणकी वृद्धि करनेवाला, प्रमादको हठानेवाला-ऐसा उचित कार्य करे। नथा-प्रतिपक्षासेवनमिति ॥७३॥ (३४१) मूलार्थ-और दोपोंके शत्रुरूर युगोंका सेवन करे ॥७३॥ विवेचन-जैसे हिमपातसे तकलीफ पाया हुआ प्राणी अग्निका उपयोग करे वैसे ही जब भी किसी पुरुषमें कोई भी ढोष उत्पन्न हो तब वह उस दोपके शत्रुबस गुणका सेवन करें। जैसे क्रोधके लिये क्षमा, द्वेषके लिये प्रेम-इसी प्रकार सब दोषोंका समझना । अत' दुर्गुण त्यागके लिये उसका विरोधी गुण ग्रहण करना चाहिये। तथा-आज्ञाऽनुस्मृतिरिति ॥७४॥ (३४२) मूलार्थ-और भगवानको आज्ञाका स्मरण रखे. ॥७४॥. विवेचन-भगवानके वचनोको हर समय अपने हृदयमें स्मरण, रखे । भगवानके वचनका स्मरण भगवानके स्मरणके समान है अतः भगवानके स्मरणका महान् लाभ होता है। कहा है कि Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० : धर्मविन्दु "अस्मिन् हृदयस्थे सति, हृदयस्थस्तत्त्वतो मुनीन्द्र इति । हृदय स्थिते च तस्मिन् नियमात् सर्वार्थसंसिद्धिः ॥१९१॥ " -जब प्रभुका वचन हृदय में है तो वास्तवमें प्रभु ही हृदयमें हैं । जब प्रभु ही हृदयमें हैं तो निश्चय ही सर्व अर्थकी सिद्धि हुई ऐसा समझे । तथा - समशत्रु मित्रतेति ॥७५॥ (३४३) मूलार्थ - शत्रु व मित्रमें समान भाव रखना ||७५|| विवेचन - साधुको शत्रु तथा मित्र के प्रति समान परिणाम रखना चाहिये | शत्रु तिरस्कार करे तथा मित्र स्तुति तथा चंदन करे तब भी साधु एकभावसे देखे । वह सोचे कि दोनोंको इससे संतोष मिलता है । मै तो दोनोके कार्य के लिये निमित्तमात्र हूं। मुझे किसीसे भी काम नहीं । मेरे कोई भी न ज्यादा है न कम है मर्थात् मेरे लिये बराबर है - ऐसा सोचे । एक पर राग व एक पर द्वेष न रखे। दोनोका कल्याण हो ऐसी प्रवृत्ति करे । 1 तथा - परीषहजय इति ॥७६ || (३४४) मूलार्थ और परीपहको जीते ॥७६॥ विवेचन-क्षुधा, पिपासा आदि बाईस परीपह हैं । इन सबको जीतना चाहिये | या हराना चाहिये पर स्वयं इनसे न हारे । इन सबको समभावसे सहन करके कर्म निर्जरा करे । दर्शन परीषदको सहना या जीतना सम्यग् मार्ग या मोक्षमार्गसे पतित होनेसे बचानेका है और बाकी परीपह कर्मकी निर्जराके लिये हैं। कहा है कि" मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषद्दाः ।" Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३४१ - मोक्ष मार्ग से भ्रष्ट न हों तथा कर्मकी निर्जरा हो इसके लिये परीषद सहन करे । तथा - उपसर्गातिसहन मिति ||७७|| (३४५) मूलार्थ - और उपसगको अति सहन करना ||७७ || विवेचन-धर्ममार्ग में प्रयाण करते हुए जो संकट आते हैं वे उपसर्ग कहलाते हैं या पीडासहित जो पुरुष वेदना या कष्ट दे वह उपसर्ग है । वह चार प्रकारके हैं - दिव्य (देव) संबंधी, मनुष्यसंबंधी, तिर्यचसंबंधी और आत्मासंबंधी । जब पुरुष सब कर्मोंसे छूटनेकी कोशिश करता है तो सब कर्म एकदम आकर कष्ट देते हैं इस प्रकार तथा उसके सद्गुणोंकी कसौटीके लिये भी उपसर्ग होते हैं। लब ये चार प्रकारके या इनमेंसे एक उपसर्ग हो तो मनका समभाव नहीं खोना चाहिये । सहनशीलता से पूर्वोपार्जित कर्मका फल समझ कर उसे जीते तथा सन्मार्गसे डीगना नहीं । संसार कष्टमय है और कष्टको सहन न करनेसे मूढता मालूम होती है। कहा है कि"संसारवर्त्यपि समुद्विजते विपद्भ्यो, यो नाम मूढमनसां प्रथमः स नूनम् । अम्भोनिधौ निपतितेन शरीरभाजां, संसृज्यतां किमपरं सलिलं विहाय ? ॥१९२॥ — जो संसारमें रह कर टु खसे डरता है वह प्रथम मूर्ख है या महामूर्ख है । जो समुद्रमें गिर गया है उसे पानी छोडकर अन्य किसका संसर्ग होगा ? अतः कष्ट होगा ही | I तथा - सर्वथा भयत्याग इति ||१८|| (३४६) Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२: धर्मविन्दु मूलार्थ-और सब प्रकारसे मयका त्याग करे ।।७८॥ विवेचन-सब प्रकारसे इस लोक तथा परलोकमें होनेवाले सब भयोसे डरना छोड दे । कर्ममे माननेवाला कभी भय न रखे। सब भोग्य कर्म अवश्य भोगना है और नहीं किया हुआ भोगना ही नहीं है । और जो निरतिचार यतिधर्मका पालन करता है और जिसने एसा कर्म उपार्जन किया है जिससे अनन्त सुख मिले, मोक्षको प्राप्त करनेवाला है अतः उसे मृत्युका भी भय नहीं है तो और सामान्य सय तो हो ही कैसे ! कहा है कि "प्रायेणाकृतकृत्यत्वान्मृत्योरुद्वेजते जनः । कृतकृत्याः प्रतीक्षन्ते, मृत्यु प्रिमिवातिथिम् ॥१९॥" -~-जो मनुष्य प्रायः करनेयोग्य कार्यको नही करते हैं वे ही मृत्युसे उद्वेग पाते है पर जिन्होने योग्य कर्म किया है वे तो अपने प्रिय अतिथिकी तरह मृत्युकी राह देखते हैं। मृत्यु उनका प्रिय अतिथि है । मृत्यु ही उच्च जीवन देनेवाली है। तथा तुल्याश्मकाञ्चनतेति ॥७९॥ (३४७) मूलार्थ-और पत्थर व स्वर्णको बराबर माने ॥७९॥ विवेचन-साधु आसक्ति रहित होकर स्वर्ण व पत्थर को बराबर समझे । 'सम गणे सुवर्ण पाषाण रे' यह साधुका चिद है । अतः धन पर ममत्वभाव न रखे। तथा-अभिग्रहग्रहणमिति ||८०॥ (३४८) मूलार्थ-और अभिग्रह धारण करे ॥८॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३४३ विवेचन-द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावसे विभिन्न अवग्रहको साधु धारण करे । अनेक प्रकारके अभिग्रह लेनेका गास्त्रमें कहा हुआ है। कोई खास द्रव्य लेना या विगईका त्याग करना या कुछ काल तक मौनव्रत रखना आदि विभिन्न अभिग्रह है । जैसे-- "लेवंडमलेवर्ड वा, अमुग दव्वं च यज बेच्छामि। अमुंगेण व व्वेण व, यह दव्वाभिगहो एस ॥१९४॥" ---"लेपवाला या विना लेपवाला अमुक द्रव्य ग्रहण करुंगा या भमुक द्रव्य सहित आहारादि वस्तु अमुक वस्तु द्वारा दे तो लेना यह द्रव्य अभिग्रह है" ऐसा शास्त्रोक अभिग्रह ले । तथाविधत्वपालनमिति ।।८।। (३४१) मूलार्थ-और विधिवत् उनका पालन करना ||८१|| विवेचन-जिस प्रकार विधिसमित अभिग्रहोंका पालन हो उस प्रकार करना । यथार्थरीतिसे पालन करना तथा उनको संभालना, लगे हुए अतिचारकी आलोयणा लेवे व फिरसे अतिचार न लगे ऐसा निश्चय करे। तथा-यथाहंध्यानयोग इति ॥८२।। (३६१) मृलार्थ-और योग्य ध्यानको धारण करे ।।८२॥ विवेचन-जैसा उचित हो वैसा धर्मध्यान व शुल्ल ध्यान ध्यावे । जो योग्य हो उसका उल्लंघन किये बिना दोनों शुभ ध्यानोको धारण करें । अथवा ध्यानके योग्य देश व कालका जो उचित हो उनका उल्लंघन न करे। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ धर्मविन्दु तथा-अन्ते संलेखनेति ॥८३।। (३५१) मलार्थ-और अंतकालमें संलेखना करे ।।८३॥ विवेचन-अन्ते-मृत्युके समीप आने पर, संलेखना-शरीर व कपायोंको तपद्वारा कृश करना । आयुष्यका अंत जानकर या शरीरके वेकार हो जाने पर साधु सलेखना करे। तपसे शरीर व भावसे कपायोंको कम करे । शरीर व पाय दुर्बल कर । उसमें-- संहननाघपेक्षणमिति ॥८४।। (३५२) मलार्थ-अपने सामर्थ्यकी अपेक्षा रखे ॥८४॥ विवेचन-शरीरसामर्थ्य, अपनी चित्तवृत्ति तथा आसपासके अन्य साधुओंकी सहायताका विचार करके संलेखना करना । शरीर शक्तिके अनुसार तप करे । इनद्रव्य व भाव दो संलेखनामेंसे कौनसी ज्यादा करने लायक हैभावसंलेखनायां यत्न इति ॥८॥ (३५३) मृलार्थ-भाव संलेखनाका प्रयत्न करना ।।८५॥ विवेचन-कपाय और इंद्रियके विकारोंको कम करनेके हेतुसे भावसंलेखना करे। द्रव्य संलेखना करनेका हेतु भी भावसंलेखना ही है । तात्पर्य यह कि मोक्षकी इच्छावाला भिक्षु-साधु प्रतिदिन मृत्युके समयको जाननेका प्रयत्न करे। मृत्युका समय जाननेके लिये शास्त्र, देवताके वचन, खुदकी सुबुद्धि और उस प्रकारके अनिष्ट स्वप्न आदि अनेक उपाय हैं जो शास्त्रमें व लोकमें प्रसिद्ध है उस प्रकार समय जान लेने पर वारह वर्ष , पहलेसे ही Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३४५. उत्सर्गमार्गमे संलेखना करना प्रारंभ करे। वारह वर्ष संलेखना करना चाहिये, उसमें--, "चत्तारि विचित्ताई, विगईनितहियाइ धत्तारि । संवच्छरे य दोण्णि उ, एगरिय च आयामं ॥१९५॥ "नाइविगिट्ठो य तवो, छम्मासे परिमियं च आयामं । अन्नेवि य छम्माले, होइ विगिटुं तवोकम्मं ॥१९६॥ "वास कोडिसहिय, आयामं काउमाणुपुबीए । गिरिकंदरं तु गंतुं, पायवगमणं अह करेइ ॥१९७॥' [पञ्च० १५७४, ७५, ७६]] -~-पहले चार वर्ष तक विचित्र तप, चतुर्थ, अष्टम, द्वादश आदि (एक, दो, तीन, चार, पाच उपवास) आदि करे । फिर चार वर्ष तक विचित्र तप करे पर पारणेमे नीवी तप करे अर्थात् उत्कृष्ट रसका त्याग करे । फिर दो वर्ष तक उपवास आदि करे और पार-. गेमें आयंबिल करे । इस प्रकार दस वर्ष व्यतीत होने पर ग्यारहवें वर्षमें प्रथम छ मासमें चतुर्थ, षष्ठ (एक या दो उपवास) तप करे और पारणेमे आयंबिल करे पर कुछ कम आहार ग्रहण करे और पारणेमें आयविल करके ग्यारहवां वर्ष पूरा करे । वारहवें वर्षम अत तक कोटिसहित (उणोदरीव्रतसहित) आयंबिल निरंतर करे। कोई कहते हैं कि बारहवें वर्षमें चतुर्थ करके पारणेमें आयविल करे । तपमें भेद होनेसे परंपरानुसार तप करे। इस प्रकार बारह वर्ष संलेखना करके पर्वतकी गुफामें या जहां षट्जीवनिकायकी रक्षा हो वहां जाकर पादोपगमन नामक अनशन व्रत करे । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ : धर्मबिन्दु ____ बारहवें वर्षमें आयंबिल करते करते एक एक कंवल कम करे और अंतमें सिर्फ एक कंवल बाकी रखे उसमें भी धीरे धीरे कम करके एक अंश ही रखे-जैसे दीपकमें तेल व लेह एक साथ खतम होता है वैसे ही शरीर व आयुष्यका एक साथ अंत आवे वह सुदर है । अंतिम चार मासमें हर तीसरे दिन तेलका कुल्ला भर कर मुहमें रखे और राखमें डाल दे फिर गरम पानीसे कुल्ले करे । ऐसा न करनेसे मुह बहुत लखा (स्निग्धता रहित) हो जाता है और नवकार मंत्रका भी उच्चार नहीं हो सकता। ___ जब किसी प्रकार शरीरके सामर्थ्य (संहनन)के कम होनेसे इतने समय संलेखना न हो सके तब कुछ वर्ष और मास कम करते अंतते. छ मासकी संलेखना करे । बारह वर्षके बजाय ११,१०,८; ६,५,४,३,२,१ वर्ष अथवा ११,१०,९,८,७ या ६ मासका कमसे कम व्रत करे। क्योंकि जो साधु शरीर व कषायोंको क्षीण न करे उसके अनशन लेनेसे शीघ्र धातुक्षय होनेसे समाधि मरण व सुगति नहीं हो सकती अत निकृष्टतम (कमसे कम) छ मास तो संलेखना करना ही चाहिये। ततो विशुद्धं ब्रह्मचर्यमिति ॥८६॥ (३५४) मूलार्थ-फिर विशुद्ध ब्रह्मचर्यका पालन करे ॥८६॥ विवेचन-विशुद्ध-विशेषत. शुद्ध-अतिगहन रूपसे गुप्तिसहित ब्रह्मचर्यका शुद्धरूपसे पालन । - साधु ब्रह्मचर्यका पालन तो करता ही है पर संलेखना व्रतमें ब्रह्मचर्य पालन करनेका कहनेका तात्पर्य यह है कि शरीर शुष्क Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३४७ हो जाने पर भी मैथुनकी अभिलाषा उत्पन्न हो सकती है। उस वेदनाके उदयको रोकना है जो वहुत कठिन है । संलेखना करते हुए शीघ्र मृत्यु उपजानेवाले विपविशूचिका आदि रोग हो जाने पर क्या करना चाहिये सो कहते हैं विधिना देहत्याग इतीति ।।८७।। (३५५) मूलार्थ-विधिवत् देहका त्याग करे ॥८॥ . विवेचन-देहत्याग करते समय, मृत्युके उपस्थित होने पर आलोयणा करना, व्रतका उच्चार करना, अनशन करना, सर्व जीवको खमाना, प्रायश्चित्त करना, शुभ भावना रखना, पंच परमेष्ठित्मरण आदि विधिसे देहत्याग करे । पंडित मरणकी आराधना करे। इस प्रकार सापेक्ष यतिधर्म कहा। अव दूसरा निरपेक्ष यतिधर्मका वर्णन करते हैं निरपेक्षयतिधर्मस्त्विति ॥८६॥ (३५६) मृलार्थ-निरपेक्ष यतिधर्म इस प्रकार है ॥४८॥ विवेचन-जो गुरुके कुलके साथ नहीं रहते ऐसे जिनकल्पी साधुका निरपेक्ष यतिधर्म कहते हैं। वचनगुरुतेति ॥८९।। (३५७) मृलार्थ-आगमको गुरु माने ।।८।। विवेचन-जैसे सापेक्ष यतिधर्म पालन करनेवाला सब बातोमें गुरुसे पूछ कर उसकी आज्ञाके अनुसार प्रवृत्ति व निवृत्ति करता है उसी प्रकार निरपेक्ष यतिधर्म पालन करनेवाला शास्त्रोक्त विधि Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ : धर्मादिन्दु - अनुसार या शास्त्रका अनुसरण करके प्रवृत्ति व निवृत्ति करे । शास्त्र है ही उनका गुरु 1 तथा - अल्पोपधित्वमिति ॥९०॥ (३५८) मूलार्थ - उपकरण (सामग्री) कम रखे ||१०|| विवेचन - सापेक्ष यतिधर्मको पालन करनेवालेकी अपेक्षा उसके उपकरण व साधनसामग्री, जैसे - वस्त्र - पात्र आदि बहुत कम होने चाहिये । सामानका प्रकार अन्य विशेष शास्त्र से जानना चाहिये । तथा - निष्प्रतिकर्मशरीरतेति ॥ ९१ ॥ (३५९) मूलार्थ और प्रतीकार रहितता से शरीर धारण करे ॥९१॥ विवेचन - बिना किसी प्रतीकारके रोग मिटाने आदिके साघन किये विना, शरीरको उनकी सामान्य प्रकृतिस्थ अवस्थामें रहने देवे । जैसी स्थिति हो वैसी ही रहे । अपवादत्याग इति ॥९२॥ (३६०) मूलार्थ - अपवाद मार्गका त्याग करे ||१२|| विवेचन - इस कारण से अपवाद मार्गका त्याग करना चाहिये। सापेक्ष यतिधर्मवाला उत्सर्ग मार्ग पर चले और न चल सके तो ज्यादा गुण व कम दोषवाला अपवाद मार्ग ग्रहण करे पर निरपेक्ष - यतिधर्म में जीव जाय तो भी अपवाद मार्ग ग्रहण नहीं करे । केवल गुणवाला उत्सर्ग पथका ही आचरण करे । वह केवल उत्कृष्ट - रास्ते पर चले । न्यून व अपवाद मार्ग पर सापेक्षवानकी तरह नहीं । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३४९ तथा-ग्रामैकरात्रादिविहरणमिति ॥९३।। (३६१) मलार्थ-और गाममें एक रात्रि आदि प्रकारसे विहार करे। विवेचन-एक गांव या नगरमें केवल एक रात्रि अथवा तो दो रात्रि या मास तक रहे पर ज्ञातरूपसे कि पडिमाकल्पी साधु भाये हैं वहां एक रात्रि ही रहे। अज्ञात अवस्थामें अधिक रहे । कहा है कि "नाएगरायवासी, एग च दुग च अन्नाए ॥१९॥" --ज्ञात अवस्थामें एक रात्रि रहे, अज्ञातमें एक या दो रात्रि रहे। जिनकल्पी या उसके जैसे यथालन्दकल्पिक और शुद्ध परिहारिक ऐसे निरपेक्ष साधु ज्ञातरूपसे या अज्ञातरूपसे एक मास तक रहे। तथा-नियतकालचारितेति ।।१४।। (३६२) मूलार्थ-और नियतकालमें भिक्षाटन करे ॥९४।। विवेचन-नियत समयमें अर्थात् तीसरे प्रहरमें भिक्षाके लिये नावे । कहा है कि "मिक्खापंथो य तइयाए त्ति"॥ -भिक्षाके लिये तीसरी पोरसी (प्रहर )में जावे । तथा-प्राय ऊर्ध्वस्थानमिति ॥१५॥ (३६३) मृलार्थ-और प्रायः कायोत्सर्ग मुद्रामे रहे ॥१५॥ विवेचन-निरपेक्ष यतिधर्म पालन करते बहुधा कायोत्सर्ग मुद्रामें ही रहे। तथा-देशनायामप्रवन्ध इति ॥९६॥ (३६४) मृलार्थ-और देशना देने में बहुत भाव न रखे ॥१६॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० : धर्मविन्दु विवेचन-धर्मकथारूप देशना या व्याख्यान देनेमें धर्मको सुननेवाले उस प्रकारके लोगोंके उपस्थित होने पर भी बहुत भाव न रखे। बहुत आग्रह करे तो 'एगवयणं दुवयणं'--एक या दो वचन कहे-ऐसा शास्त्रका प्रमाण है । निरपेक्ष मुनि अधिकांश कायोत्सर्गमें रहता है। कभी कोई धर्म सुनने आवे तो उसे सारभूत शास्त्रके एक दो वचन कहे-यही भाव है। तथा-सदाऽमसन्ततेति ॥९७॥ (३६२) मूलार्थ-और निरंतर प्रमाद रहित रहे ।।९७॥ विवेचन-निरंतर मन तथा इद्रियोको स्वाधीन रखे। पांचों प्रकारके प्रमादका त्याग करे। दिवस या रात्रिमें जरा भी प्रमाद न करे। निद्रा आदिका त्याग करे। प्रतिक्षण सावधान रहे । तथा-ध्यानकतानत्वमिनि ॥९८॥ (३६६), भूलार्थ-और ध्यानमें एकाग्रता रखे ।।९८॥ विवेचन-धर्मध्यानमें मनको तल्लीन रखे। मनको भटकने न दे, पर धर्मध्यान व स्वाध्यायमें तल्लीन रहे और- चित्त एकाग्र रखे। इति शब्द समाप्त्यर्थक है। ___ अब उपसंहार करते हुए कहते हैंसम्यग्यतित्वमाराध्य, महात्मानो यथोदितम् । संमाप्नुवन्ति कल्याणमिहलोके परत्र च ॥२८॥ अर्थ-महात्मा लोग उपरोक्त यतिधर्मको द्रव्य व भावसे सम्यक् प्रकारसे. आराधन करके इस लोक तथा परलोकमे कल्याणको प्राप्त Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म देशना विधि : ३५१ ऊपर जो यतिधर्म कहा है उसे भली प्रकारसे जो महात्मा आराधता है उसे इस लोकमें कल्याणकी प्राप्ति होती है तथा परंपरासे मोक्षकी प्राप्ति होती है। इसका विवरण आगे करते हैंक्षीराश्रयादिलब्ध्योघमासाद्य परमाक्षयम् । कुर्वन्ति भव्यसत्त्वानामुपकारमनुत्तमम् ॥२९॥ मूलार्थ-वे महात्मा क्षीराश्रव आदि उत्तम तथा अक्षय लब्धि पाकर भव्य प्राणियों पर अति उत्तम उपकार करते हैं। विवेचन-क्षीराश्रवादि- श्रोताजनोके कानोमे दूध, दही या अमृतके समान मधुर लगनेवाले वचन बोलनेरूप लब्धि, लब्ध्योपालब्धिसमूह, आसाद्य-प्राप्त करके, परम- सुन्दर, अक्षयम्- अनेक रीतिसे सहायता करने पर भी क्षय न होनेवाली, उपकारस्- सम्यक् ज्ञान, चारित्र आदि देनेका,, मव्यसत्त्वानां- भव्य प्राणियोंका, अनुत्तमम्-निर्वाण। वे महात्मा क्षीराश्रव आदि महान् लब्धियोको प्राप्त करके भत्र्य प्राणियोंको सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदिकी प्राप्ति करानेका उपकार करते हैं तथा उनको निर्वाणरूपी उत्तम फल प्रदान करानेमें सहायक होते हैं। उन लब्धियोका उपयोग अपनी महत्ताके लिये नहीं पर अन्य जीवोंका उपकार करनेमें करते हैं। मुच्यन्ते चाशु संसारादत्यन्तमसमञ्जसात् । जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि-रोग-शोकायुपद्रुतात् ॥३०॥ मूलार्थ-वे महापुरुष जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, रोग, Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ : धर्मबिन्दु शोक आदि उपद्रवयुक्त तथा अत्यंत अयोग्य ऐसे इस संसारखे तुरत मुक्त करते हैं ||३०|| विवेचन - मुच्यन्ते - मुक्त करते हैं, आशु शीघ्र, संसाशत्-भवसे, संसार भ्रमणसे, अत्यन्तमसमञ्जसात् - अत्यन्त अयोग्य इस संसार के स्वरूपसे । - इस महान अयुक्त संसारसे तथा इसके अंदर रहे हुए कई उपद्रवोसे वे महात्मा शीघ्र ही मुक्त करते हैं - स्वयंको तथा अन्योंकोअर्थात् वे स्वयं शीघ्र मुक्तिलाभ करते हैं तथा अन्योको भी निर्वाण दिलानेमें सहायक होते हैं। इस संसारके जो कई उपद्रव हैं उन सबसे मुक्त होना ही मोक्ष है || श्रीमुनिचन्द्रसूरि विरचित धर्मविन्दुकी टीका में यतिविधि नामक पांचवा अध्याय समाप्त हुआ । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठा अध्याय। निरपेक्ष तथा सापेक्ष यतिधर्मकी व्याख्या नामक पाचवें प्रकरणकी व्याख्या करके अब छट्टे अध्यायकी व्याख्या करते हैं । यह प्रथमसूत्र हैआशयाधुचितं ज्यायोऽनुष्टानं सूरयो विदुः । साध्यसिद्धयङ्गमित्यस्माद् यतिधर्मो-द्विधा मंतः॥३१॥ मूलार्थ-आशयसे उचित अनुष्ठानको आचार्य श्रेष्ठ कहते हैं। वह साध्या (मोक्ष) की सिद्धिका अंग है अतः यतिधर्म (सापेक्ष और निरपेक्ष) दो प्रकारका है। .. विवेचन-आशयस्य-चित्तकी वृत्ति आदि, ज्ञान, शरीरवल, परोपकार करनेकी शक्ति व अशक्ति, उचित-उसके योग्य, ज्यायः अनुष्ठान-बहुत प्रशस्त, जैनधर्मकी सेवारूप आचरण, साध्यसित्संग-साध्य जो सब क्लेशको हरनेवाला-मोक्ष, उसकी प्राप्तिका कारण, तस्माद-इस कारण, द्विधा-दो प्रकारका । . . -: -हृदयके आशय, ज्ञान, शरीरके संहनन, सामर्थ्य तथा परोपकार करनेकी मशक्ति अथवा न कर सकनेके सामर्थ्यसे-जो जैनधर्मकी सेवारूप आचरण किया जाता है उसे सूरिगण-आचार्य बहुत प्रशस्त. Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ : धर्मविन्दु प्रशंसनीय कहते हैं। वह सब क्लेशको नाश करनेवाले मोक्षकी प्राप्तिका कारण है । अतः इस साध्य वस्तुके साधनरूप आचरण निरपेक्ष व सापेक्ष यतिधर्म कहे हैं। समया यत्र सामग्री, तदपेक्षेण सिद्धयति । दवीयसापि कालेन, वैकल्येतु न जातुचित् ।३२॥ मूलार्थ-जहां सब सामग्री होती है तो कार्य तत्काल सिद्ध होता है पर सामग्रीके अभावमें तो काफी समय जाने पर भी सिद्धि हो या न भी हो ॥३२॥ विवेचन-समग्रा-पूर्ण, सामग्री-सब संयोग पूरे हों,अपेक्षेणतुरंत, दवीयसाऽपि-बहुत समय बाद तथा दूर रहे हुए समयमें भी, वैकल्ये-सामग्रीकी कमीसे। जिस कार्यमे सारी परिपूर्ण सामग्री हो, सब संयोग पूरे हो तो वह कार्य शीघ्र ही पूरा हो जाता है। अन्यथा सब सामग्रीके न होनेसे बहुत समय व्यतीत होने पर भी कुछ सामग्रीकी कमीसे वह काम कदाचित् हो या न हो। वह सामग्री क्या है ? व क्या कर्तव्य है सो कहते हैंतस्माद् यो यस्य योग्यास्यात्, तत्तेनालोच्य सर्वथा। भारब्धव्यमुपायेन, सम्यगेष सतां नयः॥३३॥ मूलार्थ-अतः जो जिसके योग्य हो, उसका, सापेक्ष या निरपेक्ष यतिधर्मका) पूर्णतया विचार करके उपाय सहित प्रारंभ करे। यही सत्पुरुषोंका न्याय्य मार्ग है। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३५५ विवेचन-यस्य- सापेक्ष व निरपेक्षसे जिसका आचरण कर सके, योग्य- समुचिन, आलोच्य- पूर्ण निपुणतासे ऊहापोहसे विचार करके (तर्क वितर्क सहित)। ___ ऊपर दोनों यतिधर्माका वर्णन किया है अतः उनमेंसे जिस मार्गका पालन साधु कर सके उसे तर्क वितर्क सहित पूर्णतया सोचकर जो उचित लगे उसे योग्य साधनों सहित प्रारंभ करे। जो योग्य हो वही आचरणीय है यही सत्पुरुषोका नीतिमार्ग है। इत्युक्तो यतिधर्मः, इदानीमस्य विषयविभाग मनुवर्णयिष्याम इति ॥१॥ (३६८) ; 'मूलार्थ-इस प्रकार यतिधर्म कहा है । अब इसके विषय विभागोंका वर्णन करते हैंतत्र कल्याणाशयस्य श्रुतरत्नमहोदधेः उपशमादिलब्धिमतापरहितोद्यतस्य अत्यन्तगम्भीरचेतसा ' प्रधानपरिणतेर्विधूतमोहस्य परमसत्त्वार्थक ः - सामायिकवत: विशुद्धमानाशयस्य ' -यथोचितप्रवृत्तेः सात्मीभूतशुभ योगस्य श्रेयान् सापेक्षयतिधर्म , . - . एवेति ॥२॥ (३६९) मूलार्थ-यतिधर्ममें शुभ आशयवाला, शास्त्ररत्नोंका समुद्र, उपशम आदि लब्धिप्राप्त, परहितमें तत्पर, अत्यंत गंभीर चित्तवाला, उत्तम परिणतिवाला, मोह (मूर्खता)को नाश । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ : धर्मविन्दु करनेवाला, जीवोंके लिये उत्तम मोक्षरूप प्रयोजनको साधनेवाला, सामायिकवाला, जिसका आशय शुद्ध पवित्र) है, उचित प्रवृत्ति करनेवाला, और शुभ योगको आत्माके साथ जोडनेवाला जो पुरुष (या साधु) हो उसके लिये सापेक्ष यतिधर्म ही श्रेयस्कर है। विवेचन-तम-विषय विभागके वर्णनमें, कल्याणाशयस्यजिसके परिणाम-भाव अरोग्यरूपी मुक्तिनगरको ले जानेवाले हैं या जो सर्व जीवोंका कल्याण करनेका आशय रखता है, शूतरत्नमहोदधे:-जैसे समुद्र, रत्न रहते हैं वैसे ही उसके हृदयमें सिद्धांत. या शास्त्रके रल हों, अर्थात् ज्ञानी हो, उपशमादिलब्धिमत:उपशम आदि हित करनेमे तत्पर या उनके हितको ही धन समझनेवाला, अत्यन्तगम्भीरचेतसः-उसके मनमें हर्ष या विषाद क्या है उसको बहुत निपुण मनुष्य भी न समझ सके या वह ये चित्तविकार उसमें न पा सके ऐसा गंभीर हृदयवाला, तथा दूसरेकी गुप्त बात प्रगट न करे ऐसा बडे मनवाला, इससे ही प्रधानपरिणते:सर्वोत्तम आत्मपरिणतिवाला, विधूतमोहस्य-मोह अर्थात् मूढता तथा आलसकी मुद्रासे रहित, परमसत्त्वार्थकतः उच्च वस्तु मोक्षके वीजरूप सम्यत्व आदिका अन्योंमें प्रयोजन करनेवाला, या लोगोमें सम्यक्त्व उपजानेवाला, 'सामायिकता-सबके प्रति समभाव तथा माध्यस्थ्यदृष्टि रखनेवाला, विशुद्ध्यमानाशयस्य-शुद्ध आशय अर्थात् शुक्ल पक्षके चंद्रमाक्री तरह प्रतिक्षण उज्ज्वल हृदयवाला, यथो; चितप्रवृत्ते:-प्रसंगके योग्य प्रयोजन या कार्य करनेवाला या कालो-- Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म विशेप देशना विधि : ३५७ 'चित प्रवृत्ति करनेवाला, इससे ही सात्मीभूतशुभयोगस्य-जैसे तप्त लोहपिंड अमिके साथ एकमेक या एक समान हो जाता है ऐसे ही जिसकी आत्मामें शुभ योग व्याप्त है ऐसा, अर्थात् शुभ भावनामय । यतिधर्म दो प्रकारका है । सापेक्ष यतिधर्मको पालने लायक जो यति है उसके गुण यहां कहे गये हैं। जिस यतिमें या व्यक्तिमें उपरोक्त (इस सूत्रम) वर्णन किये हुए गुण हों उसके लिये सापेक्ष यतिधर्म ही श्रेयकारी या मंगलमय है, अन्य नहीं। ऐसा क्यों ? अर्थात् इन गुणोपाला निरपेक्ष यतिधर्म क्यों न पाले ? कहते हैं वचनप्रामाण्यादिति ॥३॥ (३७०) मृलार्थ-भगवानकी आज्ञा इसका प्रमाण है ॥३॥ . विवेचन-उपरोक्त गुणवाला निरपेक्ष यतिधर्म न पाले पर सापेक्ष रीतिसे पाले ऐसी भगवानकी आज्ञा है । यह कैसे कहा है ? किस आधारसे ? कहते हैंसंपूर्णदशपूर्वविदो निरपेक्षधर्मप्रतिपत्ति- .. प्रतिषेधादिति । ४॥ (३७१). मूलार्थ-संपूर्ण दश पूर्व जाननेवालेको निरपेक्ष यतिधर्म अंगीकार करनेका निषेध है ॥४॥ निषेधके लिये निम्न सूत्र कहा है"गच्छे चिय निम्माओ, जा पुन्वदसमवे. असंपुग्णा। नवमरस तइयवत्थू , होइ जहन्नो सुआभिगमो ॥१९८॥ -~~-साधु समुदायमें रह कर निरपेक्ष यतिधर्म पालन करनेके अभ्यासमें परिपक्क हो और इस प्रतिमाकल्पादिक निरपेक्ष यतिधर्मके Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ : धर्मविन्दु । पालन करनेवालेको उत्कृष्ट श्रुतज्ञान सूत्र व अर्थते कुछ कम दश पूर्वका होता है और जघन्यतासे नवम पूर्वकी तीसरी वस्तु (प्रत्याख्यान नामक पूर्वकी आचार नामक तीसरी वस्तु) तक श्रुतज्ञान होता है । इन वचनोंसे सपूर्ण दश पूर्वधारीको निरपेक्ष यतिधर्मके स्वीकारका निषेध सिद्ध होता है । सपूर्ण दश पूर्वधर 'अमोघवचनी' होते है अतः उनका वचन तीर्थकर समान होता है अतः वे धर्मदेशनाद्वारा भव्य जीवोंका उपकार करके तीर्थवृद्धि करते हैं अतः प्रतिमा आदि कल्पको अंगीकार नहीं करते । यह निषेध किस लिये किया है (निरपेक्ष यतिधर्मका ?) कहते है परार्थसंपादनोपपत्तेरिति ॥५।। (३७२) मूलार्थ-परोपकार करने का अर्थ सिद्ध होता है ॥५॥ विवेचन-सापेक्ष यतिधर्मका पालन करनेसे परोपकार होता है अतः निरपेक्षका निषेध है । दश पूर्वधर तीर्थक आधारभन हैं अतः वे सापेक्ष यतिधर्मका पालन करके जगत्के कल्याणके मार्गको स्वीकार करते हैं। यदि परोपकार होता है तो भी क्या कहते हैतस्यैव च गुरुत्वादिति ॥६॥ (३७३) मूलार्थ-परोपकार ही सबसे उत्तम है ॥६॥ विवेचन-धर्मके सब अनुष्ठानोंमें परोपकार सबसे गुरुतर है। परोपकार ही सर्वोत्तम है । वह उत्तम कैसे ८ कहते है सर्वथा दुःखमोक्षणादिति ॥७॥ (३७४) मूलार्थ-इससे सब दुःखोंमेंसे मुक्ति होती है ॥७॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३५९ विवेचन-परोपकार करनेसे सब प्रकारसे अपने व दूसरोके शरीर व मन संबंधी सब कष्टोंका अत होता है अत. परोपकार ही उत्तम है। तथा-संतानप्रवृत्तः ॥८॥ (३७२) मूलार्थ-और उससे संतान प्रवृत्ति होती है |८|| विवेचन-परोपकार करनेसे शिष्य, प्रशिष्यके प्रवाहरूप संतानकी उत्पत्ति होती है। तथा-योगत्रयस्याप्युदग्रफलभावादिति ॥९॥ (३७६) मूलार्थ-और तीनों योगोंका वडा फल मिलता है इस हेतुसे ॥९॥ विवेचन-दूसरोंको धर्मके उच्च ज्ञानका बोध देने जैसा उत्तम मार्ग इस जगत्में एक भी नहीं है। उसमें तीनों ही योग-मन, 'वचन व काया जैसे शुद्ध व्यापारमें प्रवृत्त होते हैं वैसे किसी भी दूसरे अनुष्ठानमें नहीं । अतः परोपकार करनेसे तीनो योगोंसे उत्तम कर्म होनेसे उत्तम फलकी प्राप्ति होती है। इससे अनेक कौकी निर्जरा होती है । अन्य किसी भी प्रकारसे ऐसा कर्मनिर्जराका फल नहीं मिलता । अतः ज्ञानशक्तिवाला दूसरोंको सद्बोध देवे । ज्ञानप्राप्ति उत्तम है पर ज्ञानदान अधिक उत्तम है। तथा-निरपेक्षध चितस्यापि तत्प्रतिपत्तिकाले परपरार्थसिद्धौ तदन्यसंपादकाभावे प्रतिपत्तिप्रति षेधाचेति ॥१०॥ (३७७) Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० : धर्मविन्दु - मूलार्थ और निरपेक्ष यतिधर्म के योग्य पुरुषको भी अंगीकार करते समय अन्य जीवोंकी उत्कृष्ट सिद्धि करानेके लिये अन्य पुरुषका अभाव हो तो निरपेक्ष यतिधर्मका अंगीकार करनेका प्रतिषेध है अतः परहित ही उत्तम मार्ग है ॥ १० ॥ विवेचन - तत्प्रतिपत्तिकाले - निरपेक्ष धर्म अंगीकार करनेके समय, परपरार्थसिद्धौ-अन्य जनों के सम्यग्दर्शन आदि उत्तम प्रयोजनकी सिद्धि करने में, तदन्यसंपादकाभावे - जो निरपेक्ष यतिधर्मके योग्य है उससे दूसरा साधु जो दूसरोको ज्ञान दे न सकता हो तो, प्रतिपत्तिप्रतिषेधात् - अंगीकार करनेका निषेध है । * कोई साधु निरपेक्ष यतिधर्म पालन करनेके योग्य हो, और अन्य जीवोको सद्द्बोध से सम्यग्दर्शन आदिकी प्राप्ति करानेवाले दूसरे साधु या व्यक्तिका अभाव हो तो वह साधु निरपेक्ष यतिधर्म अंगीकार न करे, उसे निषेध है । अत परोपकार ही अधिक उत्तम मार्ग है। सापेक्ष यतिधर्मकी योग्यता के लक्षण कह कर निरपेक्षके लिये कहते हैं--- वादिपूर्वधरस्य तु यथोदितगुणस्यापि साधुशिष्यनिष्पत्तौ साध्यान्तराभावतः सति कायादिसामर्थ्यं सद्वीर्याचारसेवनेन तथा प्रमादजयाय सम्यगुचितसमये आज्ञाप्रमाण्यतस्तथैव योगवृद्धेः प्रायोपवेशन वच्छ्रेयान्निरपेक्षयतिधर्म इनि ॥ ११॥ (३७८) Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३६१ मूलार्थ-पूर्वोक्त गुणों सहित नबसे अधिक पूर्वधारी अच्छे शिष्य प्राप्त करके, अन्य साध्य कार्यके अभाव में, शरीर सामर्थ्य होने पर, सद्वीर्याचारके सेवनसे, प्रमादको जीतनेके लिये योग्य समय होने पर तथा भोगकी वृद्धि के लिये आज्ञाके 'प्रमाणसे अनशनकी तरह निरपेक्ष यतिधर्म अंगीकार करे वह अति उत्तम है ॥११॥ विवेचन-नवादिपूर्वधरस्य-नवें पूर्वकी तीसरी वस्तुसे लेकर दश पूर्वसे कुछ कम ज्ञानवाला, यथोदितगुणस्यापि-तत्र 'कल्या. णाशयस्ते' सूत्रमें कहे हुए जो सापेक्ष यतिधर्म पालनके गुण हैं वे सब निरपेक्ष यतिधर्म पालन करनेवालेमें हो, साधुशिष्यनिष्पत्तीअच्छे शिष्य होने पर आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, तथा गणाधिपति ऐसे पांच योग्यतावाले साधु उसके शिष्य हों, साध्यान्तराभावत-निरपेक्षः यतिधर्मके योग्य शरीरवल तथा मनोबल होना चाहिये और सामर्थ्य होनेका विश्वास सामर्थ्यके उपयोगसे पैदा हुआ हो । वह बल वज्रऋषमनाराच संहननरूप शरीरका बंधारण हो और वज्रकी दीवारके जैसी धीरज हो-इससे काय व मनका महान् सामर्थ्य हो, सद्वीर्याचारासेवनेन-अच्छे यतिधर्मके विषयमें प्रवृत्ति करनेसे सुंदर वीर्याचार अर्थात् अपने सामर्थ्य व वलको नहीं छिपावे ऐसे वीर्याचारके सेवनसे, तथा प्रमादजयाय-और निरपेक्ष यतिधर्मको अंगीकार करके निद्रादि प्रमादको हरावे, प्रमादको हरानेके लिये, सम्यगुचितसमये-शास्त्रोक्त नतिके अनुसार तप, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और वल-इन चांच प्रकारको तुलनासे अपनी आत्माको Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ : धर्मबिन्दु । भली भांति तोलकर, जांचकर उचित समयमें अर्थात् तिथि, वार, नक्षत्र, योग और लमकी शुद्धि देकर, आज्ञाप्रामाण्यत:-इस विषयमे आज्ञा ही प्रमाण है ऐसा परिणाम रखकर, तथैव-और अंगीकृत निरपेक्ष यतिधर्मकी योग्यता द्वारा या उसके अनुरूप ही, योगवृद्धेःसम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप धर्मके.व्यापारके योगकी वृद्धिके लिये, प्रायोपवेशनवत्-अंत समयमें करने योग्य अनशनव्रतकी क्रियाके समान है ऐसा समझकर, श्रेयान्-अतिप्रशस्त, बहुत शुभ या कल्याणकारी है, निरपेक्षयतिधर्म:-जिनकल्प आदि जिसका स्वरूप अन्थोमें प्रसिद्ध है वह निरपेक्ष यतिधर्म। जिससाधुमें कमसे कम ऊपर कहे हुए सापेक्ष यतिधर्मके पालनमें आवश्यक जो गुण हैं, वे हो और वह नवादि पूर्वधर तथा अन्य इस सूत्रमें कहे गये ( तथा जिनका विवेचन अभी यहां किया है ) सब गुण स्थित हैं जिसमें-इतना सामर्थ्य है, वह उचित समयमे सम्यगपसे प्रमादको जय करनेके लिये, योगकी वृद्धि के लिये, आज्ञाको प्रमाण मानकर अनशनवतकी तरह निरपेक्ष यतिधर्मको स्वीकारे उसके लिये यह अतिशय श्रेष्ठ है। इस निरपेक्ष यतिधर्मके लिये साधुमे महान् गुणोंकी भावश्यकता है। इतना बल, वीर्य तथा नवादि पूर्वका ज्ञान जंबूद्वीपके भरतक्षेत्रमें वर्तमान समयमें विद्यमान प्रतीत नहीं होता। फिर भी उसका वर्णन जानना भव्य आत्माओंके लिये तथा उसकी ओर लक्ष्य करनेके लिये आवश्यक होनेसे अथकारने बताया है। तथा-तत्कल्पस्य च परंपरार्थलब्धि विकलस्येति ॥१२॥ (३७९) Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३६३ मृलार्थ-और जो पूर्वोक्त गुणवाला हो परन्तु अन्यों पर उपकार करनेकी शक्ति रहित हो वह भी निरपेक्ष यतिधर्मके. योग्य है ॥१२॥ विवेचन-तत्कल्पस्य-निरपेक्ष यतिधर्मके पालनके समर्थ पुरुषके समान दूसरा भी, परं-केवल, परार्थलब्धिविकलस्य-उस प्रकारके अंतराय आदि दोषके कारण व कर्मके कारण परतन्त्र होनेसे परोपकार करनेमें-साधु व शिप्य आदि करनेमें असमर्थ हो जो साधु शिष्य आदि न कर सके। जो साधु निरपेक्ष यतिधर्म पाल सकता है उसके समान गुणवाला जो ऊपर कहे जा चुके हैं दूसरा भी कोई व्यक्ति हो पर किसी अंतराय कर्मके कारण परोपकार न कर सके, शिष्य-प्रशिष्य न बना सके वह भी निरपेक्ष यतिधर्मका पालन करे। जो परोपकार करनेमेअसमर्थ हो वह अपना हित तो साधे यह भावार्थ है। ये दो विभाग करनेका हेतु शास्त्रकार बताते हैंउचितानुष्ठानं हि प्रधानं कर्मक्षयकारण मिति ॥१३॥ (३८०) मूलार्थ-योग्य अनुष्ठान कर्मक्षय करनेका मुख्य कारण है। विवेचन-जिसके लिये जो आचरण श्रेष्ठ है या उचित है वह कर्मके क्षय करनेमें मुख्य कारण है जो जिसके लायक हो वह उसका उचित अनुष्ठान है और उचित प्रवृत्तिमे प्रयास करनेसे विजय होती है अत उचित अनुष्ठान कर्मक्षयका प्रधान कारण है। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ : धर्मविन्दु उचित अनुष्ठानसे कर्मक्षय कैसे होता है। कहते हैंउदग्रविवेकमावाद रत्नत्रयाराधनादिति॥१४॥ (३८१) मूलार्थ-उत्कट विवेकसे तीन रत्नोंका आराधन होता है, उससे कर्मक्षय होता है ॥१४॥ विवेचन-विवेक-उचित व अनुचितका यथार्थ भेद समाना, करने योग्य व न करने योग्यका भेद जानना, उदग-उन्फट, पूर्णरूपसे खिला हुआ। ___ जिसमे यह विवेक पूर्ण जाग्रत हैं व खिला हुआ है। वह ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप रत्नत्रयका आराधन ठीक तरहसे कर सका है। रत्नत्रयके आरावनसे ही कर्मका भय हो सकता है। तात्पर्य यह कि उचित अनुष्ठानके आरंभ करनेसे ही नत्रयका आराधक उत्कृष्ट, विवेक उत्पन्न होता है और नत्रयके आराधनसे ही कर्मक्षय होता है अतः विवेकको उत्पन्न करनेवाला उचित अनुष्ठान कर्मक्षयका प्रधान कारण है । यदि उचित अनुष्ठान न हो तो क्या फल होता है। कहते है अननुष्टानमन्यदकामनिर्जराङ्गमुक्त विपर्ययादिति ॥१५॥ (३८२) मूलार्थ-पूर्वोक्तसे विपरीत अनुष्ठान अनुष्ठान ही नहीं, वह अकाम निर्जराका अंग है। विवेचन-अननुष्ठान-अनुष्ठान ही नहीं होता, अन्यत्-उचित अनुष्ठानसे भिन्न, अकामनिर्जराङ्ग-अकाम, विना इच्छाके बैल आदिकी तरह, जो कर्मनिर्जरा होती है उसका अंग होता है-विना Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३६५ इच्छाके कर्मक्षय जैसा होता है-जो निर्जरा मुक्तिफल-देनेवाली नहीं, विपर्ययाव-उत्कृष्ट विवेकके अभाव में रत्नत्रयकी आराधना नहीं होती है अतः उचित अनुष्ठानसे भिन्न अन्य अनुष्ठान अनुष्ठान ही नहीं । इसी भावको आगे स्पष्ट करते हैं--- निर्वाणफलमत्र तत्त्वतोऽनुष्टानमिति ॥१६॥ (३८३) मूलार्थ-जिस अनुष्ठानका फल मोक्ष है वही तत्वतः अनुष्ठान है ॥१६॥ विवेचन-निर्वाणफलं-मुक्ति देनेवाला, अत्र-जिनवचनमें, तत्त्वतः-वस्तुत., अनुष्ठान-सम्यग दर्शन आदिके आराधनाके रूपमें जो कहा जाता है। सम्यग्दर्शन आदि जो अनुष्ठान केवल मेक्ष फलकी आशासे किया जाय वही जैनशास्त्र के अनुसार यथार्थ अनुष्ठान हैं। मोक्षके फलके बिना अन्य कोई फलकी आगासे किया जानेवाला अनुष्ठान नहीं। स्वर्गादि पदार्थकी प्राप्ति होने पर भी साध्यबिंदु मोम होनेसे वह अनुष्ठान है। मोक्षको ले जानेवाली क्रिया ही अनुष्ठान है। . ऐसा कहनेसे क्या ' शास्त्रकार उत्तर देते है न चासदभिनिवेशवत् तदिति ॥१७॥ (३८४) मूलार्थ-वह अनुष्ठान मिथ्याभिनिवेशवालानहीं होता ॥१७॥ -- विवेचन न च असद् अभिनिवेशवत्-मिथ्या आग्रहयुक्त नहीं होता, तत्-निर्वाण फल देनेवाला अनुष्ठान । - ' जो अनुष्ठान मोक्षफल देनेवाला है वह मिथ्या आग्रहवाला नहीं होता। मिथ्या आग्रहवाला बडा अनुष्ठान भी मोक्षफल रोकनेवाला : Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ : धर्मविन्दु होता है अतः ऐसे असद् आग्रहका त्याग करनेके हेतु सच्चा अनुष्ठान असत् आग्रहवाला न हो, कहा है मिथ्या आग्रहसे विवेक बुद्धि नष्ट हो जाती है अत उचित व अनुचितका भेद नहीं प्रतीत होता। अनुचित अनुष्ठान भी मिथ्या आग्रह बिना संभव है-इस शंकाका उत्तर देते हैं अनुचितप्रतिपत्ती नियमादसदभिनिवेशोऽन्यत्रानाभोगमात्रादिति ॥१८॥ (३८५) मूलार्थ-अज्ञात अवस्था सिवाय अनुचित अनुष्ठानमें प्रवृत्ति हो वह निश्चित दुराग्रह है ।।१८॥ विवेचन-अनुचितप्रतिपत्ती- अनुचित अनुष्ठान अंगीकार करना, नियमात्- अवश्य, असदभिनिवेश- मिथ्या आग्रह रूप, अन्यत्र-विना, अनाभोगमात्रात्-आग्रह रहित अज्ञानताके कारण। ___ अनुचित अनुष्ठान अवश्य ही मिथ्या आग्रहरूप है। मिथ्या आग्रह ही अनुचित अनुष्ठानका कारण है पर अपवादस्वरूप मिथ्या आग्रह रहित केवल अज्ञानतासे किया हुआ अनुचित अनुष्ठान भी आग्रह नहीं है। अतः अज्ञानताको छोडकर अन्य सब अनुचित अनुष्ठानकी प्रवृत्ति मिथ्या आग्रह है। वह दुराग्रह नहीं है, ऐसा करनेसे क्या सिद्ध हुआ ? कहते हैंसंभवति तद्वतोऽपि चारित्रमिति ॥१९॥ (३८६) मूलार्थ-केवल अज्ञानतासे अनुचित प्रवृत्ति करनेवालेको भी चारित्र संभव है ॥१९॥ . . Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३६७ विवेचन-संभवति- होने पर, तद्वतोऽपि- अज्ञानतासे अनुचित मार्गमें प्रवृत्ति हो तो भी। जो पुरुष केवल अज्ञानतासे अपने सामर्थ्यको न समझकर अथवा अन्य कारणसे अनुचित अनुष्टानमें प्रवृत्ति करे तो भी उसे सर्व विरतिरूप चारित्र संभव है। उचित प्रवृत्तिवालेको तो चारित्र संभव ही है। विशेष कहते हैंअनभिनिवेशवास्तु तद्युक्तः खल्वतत्वे ॥२०॥ (३८७) मूलार्थ-चारित्रवान पुरुष अतत्वमें आग्रहरहित होता है। विवेचन-अनभिनिवेशवान- निराग्रही, खलु- निश्चित ही, अतचे- प्रवचनद्वारा निषिद्ध । जो कार्य प्रवचनद्वारा निषिद्ध है ऐसे कार्यको निराग्रही पुरुष युक्त है ऐसा नहीं कहेगा। अज्ञानतासे अनुचित मार्गमें भी प्रवृत्ति करे पर चारित्रवान् पुरुष ऐसे अतत्त्वको माननेका दुराग्रह नहीं करेगा अथवा दुराग्रह रहित चारित्रवान् उस अनुचित मार्गको निश्चय ही योग्य न कहेगा। यह कैसे कहा है ? उत्तर देते हैं___ स्वस्वभावतोत्कर्षादिति ॥२१॥ (३८८) मूलार्थ-अपने स्वभावकी उत्कृष्टतासे ॥२१॥ विवेचन-स्वस्य- उपाधि रहित होनेसे अपने खुदके, स्वभावस्य- भा.मतत्वके, उत्कर्षाद- उत्कृष्टताके कारण-वृद्धि होनेसे(वह अतत्त्वको योग्य नहीं कहता) ॥ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ : धर्मविन्दु . . . . . :. , जिन्होंने चारित्र ग्रहण किया है वे छद्मस्थ हैं अतः अज्ञानतासे अनुचित मार्गमें प्रवृत्ति होने पर भी अतत्त्वको तत्त्व माननेकी अज्ञानता तो उनमें नहीं होती। उनका स्वभाव सम्यग्दर्शनमय होता हैं। उसमें न्यूनता नहीं आती, वह उत्कृष्ट है । अतः स्वभाव उत्कृष्ट होनेसे अतत्त्वको तत्त्व नहीं मानते। गौतम आदि महामुनिकी तरह छमस्थ होनेसे उस प्रकारके अतिवाधक कर्म रहित होनेसे सम्यग्दर्शन आदिरूप अपने स्वभावको न्यून नहीं होने देते । उनका स्वभाव न्यून न होकर वृद्धि पाता है। क्योंकि तत्त्वोके साथ उनका स्वभाव तन्मय हो गया है अंतः वह उत्कर्ष ही पाता है। स्वभावकी उत्कर्षता किससे होती है । वह कहते है• मार्गानुसारित्वादिति ॥२२॥ (३८९). मूलार्थ-मार्गानुसारितासे (स्वभावकी उच्चता होती है)। विवेचन-ज्ञान, दर्शन व चारित्र आदिके सम्यग् मार्गके अनुसार चलनेसे आत्मा उच्च स्वभाववाला होता है। मुक्तिमार्गको अनुसरण करनेसे स्वभाव उच्चताको प्राप्त होता है। . रत्नत्रयके मार्गका अनुसरण किससे होता है । कहते है तथा-रुचिस्वभावत्वादिति ।।२३।। (३९०). र मूलार्थ-उसमें रुचिका स्वभाव होनेसे ॥२३॥ - विवेचन-मोक्ष मार्गको अनुसरण करनेके लिये रत्नत्रयके आराधनरूप मार्गमे रुचि व श्रद्धा होनेसे मार्गानुसारिता प्राप्त होती, Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३६९/ - हैं । मोक्षकी इच्छार होनेसे उसके लिये आवश्यक मार्ग रत्नत्रयके ब्याराधनका है अतः उसमें रुचि होने से मार्गका अनुसरण: प्राप्त होता है। सन्मार्ग पर चलने की रुचि कैसे होती है? कहते हैंश्रवणादौ प्रतिपत्तेरिति ॥२४॥ (३९१)-- मूलार्थ शास्त्र श्रवणसे (भूल):अंगीकार करनेसे: (मार्ग में रुचि होती है ) ||२४|| " विवेचन - शास्त्रका श्रवण करनेसे स्वयं अथवा दूसरेकी प्रेरणासेअपनी मूल मैंने यह असुंदर कर्म किया है? ऐसा अंगीकार करनेसे --- मानने से मार्गानुसारिता आती है। मूल ज्ञात होनेसे हृदय - मन्थनः होकर सन्मार्ग खोजता है, इससे मार्ग में रुचि होती है। असदाचारगर्हणादिति ॥२५॥ (३९२) मूलार्थ - असदाचारकी निन्दा करने से ॥२५॥ - विवेचन अघटितव युक्तमाचरणकी निन्दा करे व उचित प्रायश्चित्त करे, वह अपनी मूलके अंगीकार करना हुआ । प्रायश्चित्तः द्वारा निन्दा करें तब सन्मार्ग में रुचि होती है। इत्युचितानुष्ठानमेव सर्वत्र श्रेय इति||२६|| (३९३)=== मूलार्थ - अतः उचित-अनुष्ठान ही सब जगह श्रेयस्कर है। विवेचन - इति- इस ) प्रकार : अनुचित - अनुष्ठान में अवश्य ही मियायामहः है, मत सर्वत्र गृहस्थधर्म में तथाऽयतिधर्म में श्रेयःप्रशंसनीय, श्रेयस्कर । २४ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० : धर्मविन्दु h अत: चाहे गृहस्थधर्म हो, चाहे यतिधर्म - उचित अनुष्ठान ही यत्कारी है उसमे दुराग्रह नहीं है । X उचित अनुष्ठान हितकारी क्यों है ? वह कहते है - ; भानसारत्वात् तस्येति ||२७|| (३९४) मूलार्थ - भावनाकी प्रधानतासे उचित अनुष्ठान श्रेयकारी है। विवेचन - भावना ही उचित अनुष्ठानमें प्रधान होती है अतः वह "श्रेयस्कारी है। भावना उच्च होनेसे परिणाम लाभप्रद ही होता है। भावना उच्च कार्यकी प्रेरणा होती है अतः निरंतर उच्च भावना रखना चाहिये । उच्च भावना से ही उचित अनुष्ठान श्रेयस्कारी है | F इयमेव प्रधान' निःश्रेय- ref 6 1 ३. साङ्गमिति ||२८|| (१९५)7 मूलार्थ - भावना ही मोक्षका प्रधान कारण है ॥२८॥ | विवेचन-भावना, अर्थात् उच्च, विचार, वही वास्तवमे मोक्षका मुख्य कारण है। ईप "मन एव मनुष्याणां कारण - मोक्षयोः ॥ — मन ही मनुष्यों के संघ और मोक्षका कारण है । अतः उच्च विचार व शुभ भावना ही मोक्षका हेतु है एतत्स्थैर्याद्धि कुशलस्थैर्यो पत्तेरिति ॥२९॥ (३९६) , ~+मूलार्थ - भावनाकी स्थिरतासे सर्व कुशल आचरणोंकी स्थिरता होती है ॥ २९ ॥ पचादार ジャにという ܐ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३७१ विवेचन- एतस्य - भावनां के, कुशलाना - सच कल्याणकारी चरणोंकी । Tag 1 यदि भावना उच्च हो तो विचार, कार्य व वचन - सब उच्च 1 f 1 होंगे । अतः भावना पर सब कार्यों का आधार है । अत' जब भावना स्थिर रहती है तब सब कुशल व कल्याणकारी आचरण भी स्थिर-1 ई 7 R.C " ताको प्राप्त होते है अतः वे निश्चितरूपसे किये जा सकते है । इससे ही मोक्षका प्रधान कारण शुद्ध भावना है। यह कैसे ? कहते है - भावानुगतस्य ज्ञानस्य तत्त्वतो 'ज्ञानत्वादिति ॥ १०॥ ३९७) ܕ F मूलार्थ भावना के अनुसार ज्ञान ही वस्तुतः ज्ञान है ॥ ३ ॥ विवेचन - ज्ञानके तीन भेद हैं- श्रुतज्ञान, चिन्ताज्ञान, भावनाज्ञान । इनके लक्षण ये हैं | 1274 PHO , Sr "वाक्यार्थमात्रविषय, कोष्ठकगतवीजसंनिभ ज्ञानम् । श्रुतमयमिह विज्ञेयं मिथ्याभिनिवेशरहितमलम् ॥ १९९ ॥ यत्तु महावाक्यार्थजमति सूक्ष्मसुंयुक्तिचिन्तयोपेतम् । १. उदक इव तैलबिन्दुर्विसपि - चिन्तामयं तत् स्यात् ॥ २००॥ “दम्पर्यगतं यद् विध्यादौ यत्नवत् तथैवोचः । पतत् तु भावनामयमशुद्धसद्रत्नदीप्तिसमम् ॥२०१॥ 1 17 - वाक्यके अर्थ मात्रको बतानेवाला, मिथ्या "आग्रह रहित, भंडारमें रहे हुए अनके बीजके सदृशं श्रुतज्ञान है । सर्व धर्मात्मक वस्तुको प्रतिपादन करनेवाला, अनेकांतवाद विषयवाला, अति सूक्ष्म बुद्धिसे जानने लायक, सुयुक्तिद्वारा सोना हुआ, जलमै तेल विन्दुकी Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ : धर्मपिन्द्र - भांति विस्तारवाला चिन्ताज्ञान है। सर्वज्ञकी आज्ञाको ग्रहण करनेवाला; विधि, द्रव्य, दाता व पात्रके प्रति आदरवाला, और, उच्च, तात्पर्य सहित जो ज्ञान है वह भावताज्ञान है । वह अशुद्ध सद्रत्नके समान कातिवाला है। जैसे अच्छा रत्न साफ न किया हुआ. हो तब भी अधिक कांतिवान है वैसे ही अशुद्ध रख्न समान भन्यः , जीवमें रहा हुआ यह ज्ञान अन्योसे अधिक प्रकाश देनेवाला है। ___ ज्ञान प्राप्तिके तीन साधन है-श्रवण, मनन व निदिध्यासन । श्रवणका ज्ञान श्रुतज्ञान है जो बीजकी तरह जितना हो उतना ही रहता है। मननसे ज्ञान बढ़ता है और वह चिन्ताज्ञान है। पूर्ण आत्मा जब एक ध्यान होकर उधर भावना व निदिध्यासन करे तब पूर्ण सामर्थ्य प्रगट होनेवाले भावनाज्ञानसे, ही पूर्ण रहस्य, प्राप्त होता है, अतः भावनाके अनुसार जो विशेष ज्ञान होता है वही... वस्तुतः ज्ञान कहा जा सकता है। ... । 'पहले श्रवण होता है वह श्रुतज्ञान, फिर। दिमागमें विचार व तर्क आदि होता है वह चिंताज्ञान तथा फिर वह. हृदयमें उतरता है तब भावनाज्ञान होता है । जिस ज्ञानको हृदय अनुभवसे स्वीकार करता है वह भावनाज्ञान ही वस्तुतः 'ज्ञान हैं, वही श्रद्धा है। - न न हि श्रुतमच्या प्रज्ञया, भावन One + मूलार्थ-श्रुतमय, धुद्धिसे जाना, हुआ ज्ञान नहीं, परत भावनासे देखा व जाना हुआ जाना है, ॥३१॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ arma - L. E. ३७ - - T.IN यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३७३ विवेचन- जो प्रथम ज्ञानरूप बुद्धिद्वारा देखा व जाना या श्रुतमय प्राज्ञद्वारा देखा या जाना गया वह वस्तुतः ज्ञान नहीं है पर भावनाज्ञान द्वारा जो सामान्य प्रकारसे देखी जाय तथा विशेष प्रकारसे 'देखी जाय तथा विशेष प्रकारसे जानी जावे वे वस्तु जानी हुई है, अतः भावना द्वारा देखा व जाना ही वस्तुतः ज्ञान है । कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार भावना वस्तुका ज्ञान होता है वैसा केवल श्रुतज्ञानसे नहीं होता। जो सुना, मनन किया किया तथा भावनासे जाना वही यथार्थ ज्ञान है। ___ उपरार्गमात्रत्वादिति ॥३२॥ (३९९) - मूलार्थ-क्योंकि श्रुतज्ञान केवल बाह्य ज्ञान है ॥३२॥ टीकार्थ-श्रुत्तज्ञान केवल उपरसे रंगे हुए समान है जैसे स्फटिक मणिके पास किसी भी रंगका पुष्प रख देनेसे वह उस रंगका दीखता है पर वस्तुत. वह उसका रंग नहीं अतः वह उपरी रंग है । उसी प्रकार श्रुतज्ञानसे उपरका ज्ञान होता है पर भाव परिणति नहीं होती। अत 'श्रुतज्ञानसे जाना हुआ नहीं जानने समान है, भावनाज्ञान ही वस्तुतः ज्ञान है । श्रुतंज्ञान केवल ऊपरी ज्ञान है ? यह कैसे हो सकता है। कहते हैं"दृष्टवंदपायेभ्योऽनिवृत्तरिति ॥३३॥ (४००) मूलार्थ-दृष्ट अनर्थसे व्यक्ति निवृत्ति नहीं पातां ॥३३॥ - विवेचन जो मनुष्य यथार्थ रीतिसे अनेको देखे व जाने, 'भावनाज्ञानसे उसे अनर्थ समझे वह उसे छोडता है पर श्रुतमय Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ : धर्मविन्दु प्रज्ञासे देखे व जाने हुए अनर्थको वह नहीं छोड़ता है। भावनासे -जाना हुआ अनर्थ छूट जाता है केवल दृष्ट अनर्थ नहीं छूटता । अतः श्रुतज्ञान बाहरी ज्ञान है तथा भावना ज्ञान ही वस्तुतः ज्ञान है, भावना ज्ञानसे जैसी निवृत्ति होती है वैसी दृष्ट या श्रुतज्ञानसे नहीं, अतः श्रुत ऊपरी है । जो यथार्थ ज्ञान हो तो प्रवृत्ति भी वैसी ही होती है अत. अनर्थ छूटता है । भावना ज्ञान होने पर भी अनर्थसे निवृत्ति नहीं होती तब ? उत्तर देते हैं- . . एतत्सूले च हिताहितयोः प्रवृत्ति . निवृत्तिरिति ॥३४॥ (४०१) , मूलार्थ-हितमें प्रवृत्ति व अहितसे निवृत्ति-इसका मूल ही भावनाज्ञान है ॥३४॥ विवेचन-जिस बुद्धिमान पुरुषको भावनाज्ञान हुआ है वही हित-अहितमें भेद कर सकता है तथा वहीं हितमें प्रवृत्ति तथा अहितसे निवृत्ति करेगा । हित व अहितके भेद करनेमें मूलभूत भावनाज्ञान ही है, दूसरा ज्ञान नहीं। अत एव भावनादृष्टज्ञाताद् विपर्यया- . योग इति । ॥३५।। (४०२) मूलार्थ-इस कारणसे ही भावज्ञान. द्वारा--देखे जाने व जानने पर विपरीत प्रवृत्ति नहीं होती ॥३५॥ .. , . विवेचन-अत एव-हित, अहितमे प्रवृत्ति व निवृत्तिके मूलमें भावनाज्ञान ही है। भावनादृष्टज्ञातान-भावना द्वारा देखी व Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३७५ जानी वस्तुको प्राप्त करके, विपर्ययायोगः-विपरीतताका योग नहीं होता-विपरीतमें प्रवृत्ति नहीं है तो। । - - हितमार्ग व अहित मार्गका भेद बतानेवाला ही भावनाज्ञान है। भावनाज्ञान द्वारा देखे हुए तथा जाने हुए पदार्थोंके बारेमें विपरीत प्रवृत्तिका संभव नहीं है । विना मतिविभ्रमके हितमें अप्रधृत्ति तथा अहितमे प्रवृत्ति नहीं होती । यह विपरीतता भावनाज्ञानमें होती ही नहीं । यह कैसे सिद्ध होता है ? कहते हैं.. तद्वन्तो हि दृष्टापाययोगेऽप्यदृष्टापायेभ्यो निवर्तमाना दृश्यन्त एवान्य- रक्षादावितीति ॥३६॥(४०३) मूलार्थ-भावनाज्ञानवाले पुरुष दृष्ट कष्टोंकी. (मरण आदि) प्राप्ति होने पर भी अदृष्ट (नरक) कष्टोंसे निवृत्ति पाकर अन्य जीवोंकी रक्षा प्रवृत्त होते हैं ॥३६॥ विवेचन-तद्वन्त:-भावनाज्ञानवाले, दृष्टापाययोगेपिप्रत्यक्ष दीखनेवाले मरण आदि कष्ट प्राप्त करने पर भी (उनके न पाने पर तो और भी -विशेषतः) अदृष्टापायेभ्या-नरक आदि गति देने वाले (हिंसा आदि कर्म), अन्यरक्षादौ-अपनेसे भिन्न दूसरे प्राणियोंकी रक्षा, मृत्युसे बचाना, उपकार करना तथा जैनमार्गकी श्रद्धा मादि आरोपण करनेमें-(तत्पर देखे जाते हैं)। . जो भावनाज्ञानवाले पुरुष हैं वे मरण आदि कष्ट जो दीखते हैं उनको पाने पर नरक आदि कुगतिको ले जानेवाले हिंसा आदि Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , ३७६ : धर्मचिन्दु कर्मसे 'निवृत्ति पाते हैं। वे ऐसे अनर्थकारी कार्य नहीं करते, इतना ही नहीं अन्य जीवोंकी रक्षा व उपकार करनेमें सर्वदा तत्पर रहते हैं। 'मेतार्य मुनिका दृष्टान्त इस बारेमें प्रसिद्ध है । "वे भिक्षाके लिये एक सूनारके यहां गये जो सोनेके जो बना रहा था। वह भिक्षा 'देनेके लिये अंदरसे लाने गया 'इतनेमें उसका मुर्गा कई जो निगल गया । मुंनि मौनव्रत रख कर चले गये । सूनारने जी चुराये हुए जान कर मुनिको पकडा । उनके नाम न बताने पर सिर पर गिला चमडा बांध कर सूनारने उनकी मृत्युका प्रारंभ किया। स्वयं कष्ट उठा कर भी हिंसाके भयसे मुर्गाका नाम न-बताया। ऐसे महासत्त्ववाले महापुरुष अब भी. देखे जाते है जो जीवोंकी रक्षा तथा अन्योंको धर्ममार्ग में प्रवृत्त व स्थिर करने आदिका उपकार करते हैं। इस विषयकी समाप्ति करते हुए कहते हैइति मुमुक्षोः सर्वत्र भावनायामेव यत्नः . श्रेयानिति ॥३७॥ (४०४) - मूलार्थ-इस प्रकार मुमुक्षु सर्वत्र भावनामें ही यत्न करें यही श्रेयस्कारी है ॥३७॥ विवेचन-अत: सब कार्योंमें, सब अनुष्ठानोंमें यति उच्च प्रकार'की भावना रखे यही श्रेयस्कारी मार्ग है । भावनाज्ञान ही सद्विचारोंका प्रेरक ज्ञान है। सद्विचार ही सत्कार्य करनेवाले हैं । भावनाज्ञान प्रतिक्षण मनमे रखे । भावनाकाही आदर करना बहुत प्रशंसनीय है। तदभावे निसर्गत एव सर्वथा दोषो परतिसिद्धेरिति ॥३४॥ (४०५) Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म विशेप देशना विधि : ३७७ मूलार्थ-भावनाज्ञान द्वारा स्वभावतः उपरामसिद्धि (दोपोंसे निवृत्ति) होती है।॥३८॥ विवेचन-तद्भावे-भावनाके होनेसे, निसर्गत एव-स्वभावसे - ही, दोषाणां-रागादि दोपोंका, उपरतिसिद्धेः-निवृत्तिका सिद्ध होना-दोषोंका टल जाना। - जब-भावना हृदयमें रही हुई हो तब स्वभावसे ही राग आदि "दोष हट जाते हैं। उनसे निवृत्ति होती है अथवा तो भावनाज्ञानसे ही सब प्रकारके मनोविकार-तथा वृत्तिये हट जाती हैं-मिट जाती है। भावनाके होनेसे स्वभावसे ही रागादि-दोष नष्ट हो जाते हैं । भावनाकी उत्पत्ति व कारण बताते हैं वचनोपयोगपूर्वा विहितप्रवृत्ति'योनिरस्या 'इति ॥३९॥ (४०६) मूलार्थ-वचन के उपयोग सहित शास्त्र में कहे हुए अनुठानकी प्रवृत्ति भावनाका कारण है ॥३९॥ विवेचन-वचनोपयोगः-शास्त्रमें इस इस प्रकार कहा है “ऐसा सोच कर. योनिः-उत्पत्ति स्थान । भावनाज्ञानको उत्पत्ति शास्त्रोक्त प्रवृत्तिमें हैं। शास्त्रके वचनको भली प्रकार सोचना व समझना तथा उसकी आलोचना सहित "किसी कार्यमें प्रवृत्ति, करना वह भावनाज्ञानका उत्पत्ति स्थान है। शास्त्रद्वारा कथित अनुष्टानोंमें उपयोगसहित की हुई प्रवृत्ति भावनाज्ञानको पैदा करती है। वचनोपयोग सहित शास्त्रोक्त प्रवृत्ति भाव Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ : धर्मविन्दु नाका कारण क्यों है ? कहते हैं महागुणत्वाद् बचनोपयोगस्येति ॥४०॥ (४०७) मुलार्थ-वचनोपयोग महागुणकारी है ॥४०॥ विवेचन-वचनोपयोग-शास्त्रमें यह बात इस प्रकार है व इस प्रकार कही है अतः ऐसे करना चाहिये आदि आलोचना 'सहित कार्य करना वह बहुत गुणकारी है, शास्त्रोक्त वचनका विचार करना बहुत उपकारी है । शास्त्रमें ज्ञानी जनोंका अनुभव तथा जिस रास्ते चल्नेसे इष्टसिद्धि होती है उसका वर्णन होता अतः उसके अनुसार विचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेसे भावनाज्ञान होता है। " तन धचिन्त्यचिन्तामणिकल्पस्य भगवतो बहु मानगर्भ स्मरणमिति ॥४१॥ (१०८) - मूलार्थ-वचनोपयोग द्वारा प्रवृत्तिसे अचिन्त्य चिन्तामणि समान भगवानका बहुमान सहित स्मरण होता है ।।४।। - विवेचन-शास्त्रोक्त विचारका स्मरण करके तदनुसार प्रवृत्ति करनेसे शास्त्रके प्रणेताका भी स्मरण होता है । जिसके प्रभावके बारेमे सोचना अशक्य है ऐसे चिंतामणि रत्नके समान प्रभु भगवान है उनका स्मरण भी हो आता है। प्रभुका बहुमानपूर्वक स्मरण भी अत्यंत लाभदायक है अतः शास्त्रोक्त वचनको विचार करके निरंतर प्रवृत्ति करे । वह स्मरण किस प्रकार होता है ? कहते है... भगवतैवमुक्तमित्याराधनायोगादिति ॥१२॥ (१०१) Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३७५ मूलार्थ-भगवानने ऐसा कहा है इस प्रकारके अराधना योगसे (स्मरण होता है) ॥ ४२ ॥ विवेचन-जब शास्त्रवचनोंका विचार करते हैं तथा मनन करते है तब भगवानने इस बारेमें ऐसा कहा है ऐसा विचार - स्वभाविक रूपसे आता है । उससे शास्त्र व उसके प्रणेताके प्रति अनुकूल भाव जागृत होते हैं और इससे भगवानका स्मरण होता है। ' एवं च प्रायो भगवत एव चेतसि " समवस्थानमिति ॥४३॥ (४१०) मूलार्थ-इस प्रकार प्राय. भगवानकी ही ठीक प्रकारसे चित्तमें स्थापना होती है ॥४३॥ विवचन-ऐसे वहुमानपूर्वक भगवानका स्मरण करनेसे हृदयमें भगवानकी ही स्थापना होती है। क्रिया करते समय चित्त क्रियामें ही स्थिर होता है अन्यथा वह भावक्रिया न होकर केवल द्रव्य क्रिया रहती है अतः इस प्रकार कुछ समयको छोड़ देनेसे भगवानका स्मरण प्रायः ही होता है, सर्व कालमें नहीं। क्रियाके समय चित्त उसमें ही रखे। भगवानका कहा करनेसे क्या सिद्ध होता है ? कहते हैं तदाज्ञाराधनाच तद्भक्तिरेवेति ॥४४॥ (४११) . मूलार्थ-भगवानकी आज्ञाकी आराधनासे भगवानकी ही भक्ति होती है ॥४४॥ विवेचन-भगवानकी आज्ञका अनुसरण करना यही भगवान Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ३८० : धर्सदिन्दु की भक्ति है। भक्तिके लिये उनकी आनाका पालन आवश्यक है अतः आराधनासे उनकी भक्ति होती है। “उपदेशपालनैव भगवद्भक्तिः, नान्या, कृतकृत्यत्वादिति ॥४५॥ (४१२) “मूलाथ-भगवानके उपदेशका पालन करना ही भगवानकी भक्ति है ॥४५॥ विवचन-भगवानकी भक्ति करनेका एक ही मार्ग है वह उनका उपदेशपालन । जो भगवानकी आज्ञाके अनुसार कार्य करता है वही वस्तुतः भगवानका भक्त है यह निश्चित है । भगवान तो अपने करनेयोग्य सब कुछ कर चुके व मोक्ष सिधार गये हैं वे कृतकृय है । प्रभु कृतकृत्य है तो पुष्पादिसे पूजा करनेका क्या प्रयोजन ? कहते हैंउचितद्रव्यस्तवस्यापि तद्रूपत्वादिति ॥४६॥(४१३) मूलार्थ-उचित द्रव्यस्तव भी उपदेशपालनरूप है अतः वह भी भक्ति है ॥४६॥ 'विवेचन-पुष्पादि पूजा द्रव्यस्तुति है । द्रव्यस्तुतिसे भी भगवानकी आज्ञाका पालन होता । कहा है "काले सुइभूपणं, विसिहपुप्फाइएहि विहिणाउ। सारयुइथोत्तगरई, जिणपूजा होई कार्यव्वा ॥३०२|| • 'योग्य अवसर पर पवित्र होकर अच्छे पुष्पदिस तथा विधिसहित स्तुति व स्तोत्र आदि द्वारा महान जिनपूजा करना योग्य है। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि:: ३८१६ ऐसा शास्त्रोक्त उपदेश है। इस आज्ञाके अनुसार चलनेसे भक्ति होती है अतः, भावपूजा, व द्रव्यपुजा दोनों ही प्रभुभक्तिके मार्ग है क्योकि जब द्रव्यस्तव-उपदेशपालत समझा है.तब भावस्तव तो है ही अतः निरंतर प्रभुपूजा करनी चाहिये। ऐसा क्यों कहते हैं........ . - , भावस्तवाङ्गतया; विधानादितिः॥४७॥ (४१४).. मूलार्थ-द्रव्यस्तव भावस्तवका अंग है ऐसा कहा, हुआ. है ॥४७॥ विवेचन-द्रव्यस्तवका विधान शालमें शुद्ध यतिधर्मके कारण है। विषयतृष्णा आदि कारणोसेसाधुधर्मरूप मंदिरके शिखर पर चढ़ने में असमर्थ तथा धर्मकार्य करनेकी इच्छा, रखनेवाले प्राणीके, लियो महान सावध कर्मसे निवृत्ति पानेका दूसरा मार्ग न होनेसे अरिहंत भगवानने शुभ आरंभके रूपमें द्रव्यस्तवका उपदेश किया है। जैसे- -- 'जिनभवनं जिनविम्वं, जिनमतं च यः कुर्यात __तस्य नरामरशिवसुखफलानि करपलवस्थापि ॥२०३॥.. जो पुरुध जिनमदिर, जिनविंच, जिनपूजा-और-जिनमतको करता है, उसको कराता है या उसकी पूजा-भक्ति करता है, उस पुरुषके हाथमें नर, देवता व मोक्षके संब सुख आ जाते हैं, ..... इस प्रकार द्रव्युत्तव-भी भगवानके उपदेशके, पालनुरूप है। माज्ञापालतः भक्ति है--अतः दन्यस्तव भी भक्ति है ।:- भगवानको चित्तमें रखनेका फल कहते हैं Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wowwwwww ३८२६ धर्मनि । हदि स्थिते च भगवति क्लिष्टकर्म, विगम इति ॥४८॥ (४१५) ॥ . ' मूलार्थ-भगवान हृदयमें रहनेसे ‘लिष्ट कर्मोंका चय होता है ॥४८॥ विवचन-लिष्ट कर्म वे है जो संसारमें रहनेके लिये आत्माको बाध्य करते हैं। उनका नाश भगवान के स्मरणसे होता है । 'भशुम अनुबंधी मिथ्यात्व मोहनीय आदि कर्म हैं । ऐसा किस तरहसे कहा ! (कैसे कर्म क्षय होते हैं ।) कहते हैं, जलाललवदनयोविरोधादिति ॥४९॥ - (४१६) । मूलाथे-सगवानका स्मरण वह क्लिष्ट, कर्मका जलवा अग्निकी तरह परस्पर विरोधी है ॥४९॥ .. 31 Mis. १. विवेचन जिस प्रकार जलके 'साथ' अग्नि नहीं रह सक्रती, जहाँ जल होगा वहां अग्नि समाप्त हो जायगी। उसी प्रकार मंगवानके चितमें रहने से क्लिष्ट कर्मोंका विरोध होनेसे स्वतः नाश हो जाता है। जब भगवान चित्तमें होंगे क्लिष्ट कर्म नहीं रहेंगे। इत्युचितानुष्ठानमेव सर्वत्र प्रधानमिति ॥५०॥(४१७) मला कारचित ne - v- m मुख्य है ॥५०॥" . अनुष्ठान ही सब जगह विवेचन-इसका भावार्थ पहले सूत्र २६ (३९३) में भा चुका है। उचित अनुष्ठान मुख्यं है यह कैसे कहा जा सकता है । कहते हैं Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म विशेष देशना विधिः ३८३ • प्रायोऽतिचारासंभवादिति ॥५१॥ (४१८) । मूलार्थ-प्रायः उचित अनुष्ठानमें अतिचार संभव नहीं है। (अतः उचित अनुष्ठान मुख्य है) ॥५१॥ .. ‘विवेचन-जो पुरुष अपना उचित कर्म करनेको तत्पर होता है उसमें उसे प्रायः अतिचार लगना संभव नहीं है। कर्म उचित होनेसे उसमें वह अतिचार लगने नहीं देता । प्रायः ऐसा ही होता है पर कमी कमी उस प्रकारके अनाभोग या अविचारके दोषसे अर्थवा न तूटनेवाले निकाचित क्लिष्ट कर्मोंके उदयसे कभी किसी पुरुषको नो ऐसे सन्मार्ग पर जाता है अतिचार हो सकता है वह उसी प्रकार है जैसे कि किसी पथिकको राहमें कांटा लगना, ज्वर आना अथवा दिशाम होना संभव है। इस तरह कभी अतिचार लगसकता है पर अधिकांशत. उचित अनुष्ठान करनेवालेको अतिचारका संभव कम हैं। अतिचार न लगे-वह किस प्रकार ! कहते हैं--- यथाशक्ति प्रवृत्तेरिति ।।५२।। (४१९), मूलार्थ-यथाशक्ति प्रवृत्ति करनेसे ॥५॥ ‘विवेचन-सब कार्योंमें जितना सामर्थ्य हो, जितनी शक्ति हो, उसी प्रकार प्रवृत्ति होती है। अतः उचित अनुष्ठानमें फिर मतिचार लाना संभव नहीं रहता । जितना वह कर सकता है उतना ही करता है और वह कर लेता है. अतः अतिचार नहीं लगता।: संद्रावप्रतिबन्धादिति ॥५३॥(१२०), Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ धर्मविन्दुः . . . . गूलार्थ-सद्भावमें चित्त, लगानेसे (यथाशक्तिः प्रवृत्ति होती है), ॥५.३।। . विवेचन-जो सत्यकार्य वह अपनी शक्ति कर सकता है। ऐसे सत्कार्यमें अपना चित्त लगानेसे मनुष्य अपनी-शक्तिके अनुसार फार्य कर सकता है यथाशक्ति कार्यमें चित्त रखनेसे वह. प्रवृत्ति.भी. बरावर हो,सकती है इतरथाऽतध्यानोपपत्तिरिति ॥५४॥ (४२१) - मूलार्थ-शक्ति उपरांत करनेसे आर्त ध्यानका प्रसंग आता है॥५४॥ ..... ... ..:-: ‘विवेच इतरथा अनुचित । कार्यके आरंभसे, उपपचिः प्रसंग आना अनुचित कार्यको प्रारंभ करनेसे, अपनी शक्तिसे अधिक काम करनेसें, वह नहीं कर सकनेसे आध्यानका अवसर आता है। अनिच्छा या शक्ति उपरांत कार्यमे आध्यानकाप्रसंग आ जाता है। मनमे कुविचार ऊठते है। अकालोत्सुक्यस्यत्तित्वतस्तत्वादिति ॥५५॥ (१२२) ""मूलार्थम् अकाल उत्सुकता वस्तुतः आर्तध्यान ही है।।५५ - विवेचन-समय अनुकूल न हो तब कालके उचित कार्यका' त्योग करके उत्सुक होकर जो कार्य किया जाय, उस कार्यमें व्यवंहारसे धर्म ध्यान कहलाने पर भी वस्तुतः उसका स्वरूप आतध्यान" ही होता है । जैसे. जो अपनी इंद्रियोंको वशमैं-नि. कर सके वह Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गए। यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३८५ब्रह्मचर्य अंगीकार करे तब केवल आतध्यान ही होता है। अतः उचित समय पर उचित कार्य करना ही अच्छा है अन्यथा योग्य समय न होने पर भी उत्सुक होकर कोई काम किया जावे तो मार्तध्यान होता है। उत्सुकता रहित पुरुष प्रवृत्तिकाल कैसे पाप्त कर सकता है ? कहते हैं. नेदं प्रवृत्तिकालसाधनमिति ॥५६॥ (४२३). मूलाथ-उत्सुकता प्रवृत्तिकालका साधन नहीं है ॥५६॥ विवेचन-इदम्- औत्सुक्य-उत्सुकता, प्रवृत्तिकाल-कार्यमें प्रवृत्ति करनेका समय, साधनम्-हेतु। ' मनुष्य कोई काम करनेको उत्सुक हो उस परसे प्रवृत्तिका समय मिले, ऐसा नहीं होता। यदि प्रवृत्ति करनेका अवसर न हो तो उत्सुकत्तासे कुछ नहीं होता । धर्मसाधनका जो अवसर है उसके सिवाय धर्मसाधनकी कोई प्रवृत्ति करे तो वह निष्फल जाती है । जैसे बहुत भूखा मनुष्य भी समय या अवसर विना भोजन प्राप्त नहीं कर सकता । अतः उत्सुकता समय प्राप्त करनेका साधन नहीं है। इसका सार क्या है या क्या करना चाहिये ? कहते हैं- इति सदोचितमिति ॥५७।। (४२४). " मूलार्थ--अतः निरंतर उचित कार्य करे ॥२७॥ विवेचन--उत्सुकताका त्याग करके जो उचित हो वही कार्य हमेशा है ऐसा सोचकर कार्य करे। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ : धर्मदिन्तु तदा तदसत्यादिति ॥५॥ (१२५) मूलार्थ -उस समय वह (उत्सुकता) असद है ॥५ ॥ विवेचन-प्रवृत्ति काल के समय उत्सुकता आवश्यक नहीं है। पुरुप कार्यमे प्रवृत्ति करते समय उसुकताका आश्रय नहीं लेते । वे पुरुष अच्छे उपायद्वारा ही प्रवृत्ति करते हैं। सदुपाय कार्यको अवश्य सिद्ध करता है। कार्यमें भी उपाय या साधनका असर अवश्य प्रगट हो जाता है। जैसे घडेको बनाने का साधन मिट्टी है। वह कार्यकी प्रवृत्तिके समय अवश्य स्थित होती है अतः किसी भी कार्यकी प्रवृत्तिके समय उसके लिये साधनरूप कारण अवश्य प्रगट हो जाता है । बुद्धिमान जन कार्य में प्रवृत्ति, करनेके समय उसुकता नहीं दीखाते । अतः: उत्सुकता कैसे साधनभाव, हो सकता है ? उत्सुकत्ता प्रवृत्ति कालमें कार्यका साधन नहीं है । सदुपाय ही साधन है। उत्सुकता कार्यसाधनमें विघ्नरूप भी है। सदुपायसे उचित प्रवृत्ति करना ही कार्यसिद्धिका लक्षण है । कहा भी है कि "अत्वरापूर्वकं सर्व, गमनं कृत्यमेव वा। प्रणिधानसमायुक्तमपायपरिहारतः" ॥२०५॥ -सब प्रकारके कार्य अथवा 'गमन (जाना) त्वरारहित (शीघ्रता या उत्सुकता छोड कर ) करना चाहिये क्योंकि कष्ट त्याग करके चित्तकी एकाग्रतासे किया हुआ कार्य सिद्ध होता है अतः उत्सुकता त्याग करके अपने- उचित कार्यमें प्रवृत्ति करना । यदि उत्सुकता प्रवृत्तिकालका साधन नहीं है तो दूसरा कारण क्या है ? कहते हैं Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३८७ प्रभूतान्येव तु प्रवृत्तिकाल साधनानीति ||१९|| (४२६) मूलार्थ प्रवृत्तिकालके बतानेवाले साधन (कारण) बहुत है ॥५९॥ विवेचन- किसी कार्यके प्रारंभ करनेका योग्य समय हो' जानेकी सूचना देनेवाले, ऐसे समयको बतानेवाले एक दो नहीं, कई एक कारण हैं । वे बताते हैं निदानश्रवणादेरपि केपाञ्चत् प्रवृत्तिमात्रदर्शनादिति ||६|| (४२७) - निदान, श्रवण आदि से भी कईयों की प्रवृत्ति होती दिखती है ॥ ६० ॥ 2 विवेचन - यहा निदान शब्द कारण मात्र के लिये आया है । जैसे इस रोगका निदान, उत्पत्तिका कारण क्या है ? इस प्रयोगमेंकहा है, जैसे संसारिक - व-स्वर्गीय सुख व भोगोंका कारण दान है ऐसा शास्त्रों में कहा है अत. प्रवृत्ति कालका एक साधन नहीं है । जैसे "भोगा दानेन भवन्ति, देहिनां सुरगनिश्च शीलेनं । भावनया च विमुतिस्तपसा सर्वाणि सिद्ध्यन्ति ” ॥२०५॥--- दान देनेसे प्राणियोको भोगकी प्राप्ति होती है । शील पालनसे देवगति मिलती है । भावसे मुक्ति मिलती हैं तथा तपसे सब कार्योंकी सिद्धि होती है । ऐसा सुनने से उसकी प्राप्तिके लिये प्राप्तिकी इच्छासे, स्वजन के भाग्रह से और बलात्कार आदि कारणोसे कई पुरुषोंने दीक्षा ली है । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ : धर्मपिन्टु जैसे गोविंद वाचक, सुन्दरानन्द, आर्य सुहरित आदिने किसी एक पुरुष, भवदेव तथा करोटक गणि आदिको दीक्षा दी है। उन्होंने जब दीक्षा ली तब केवल प्रवृत्ति करनेके समय वे तात्त्विक उपयोग रहित थे । इस संबंधमे केवल दीक्षा लेना हीउनकी योग्यता थी। ऐसा शाखमें उल्लेख है। ऐसी दीक्षामे प्रवृत्ति मात्र सद्भावयुक्त दीक्षाकी प्राप्तिकालका कारण कैसे हैं ? उत्तर देते हैंतस्यापि तथा पारस्पयंसाघनत्वमिति॥६॥ (१२८) मूलार्थ-वह प्रवृत्तिमात्र भी (तथा भव वैराग्य आदिसे) उस परंपराका साधन है ॥६॥ निवेचन-तथा पारण-उस प्रकारकी परंपरासे, साधनत्वंसाधनगाव है। प्रवृत्ति मात्र भी उस प्रकारकी परंपरासे दीक्षाका साधन या कारण है। भव वैराग्य आदि तो मुख्य कारण है ही। कई पुरुष उपरोक्त भोगामिलापासे अर्थात् दीक्षासे दैवी व मानवी सुख प्राप्त होगे, ऐसा सुननेसे दीक्षित हुए। पर द्रव्य दीक्षाके अंगीकार करनेके बाद अभ्यास--सतत दीक्षा पालनेसे भोगामिलापाको त्याग करके यदि अतितीव्र चारिन मोहनीय कर्मका उदय न हो तो, भावदीक्षा अंगीकार करनेके लायक बन जाते है । जैसे गोविंद वाचक मादि । अतः द्रव्य दीक्षा (प्रवृत्तिमात्र) भी भावदीक्षाका परंपरासे कारण है। तब तो प्रवृत्ति मानसे योग्यता हो गई ? कहते हैं... यतिधर्माधिकारम्बायमिति प्रतिषेध - इति ॥६२॥ (१९२) . Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३८९ मूलार्थ- शुद्ध यतिधर्मके अधिकार में इस ( प्रवृत्तिमात्र) का निषेध है ||६२ || विवेचन - यतिधर्माधिकारः - शुद्ध साधुधर्मके व्यधिकारमेंवर्णन | यहां उत्सर्ग और शुद्ध यतिधर्मके बारेमें कहा जा रहा है। अतः यहां शुद्ध यतिधर्मके बारेमें ही वर्णन करेंगे। अतः केवल दीक्षाकी प्रवृत्तिको ही योग्यता मानना- इसका निषेध है । हरेक पुरुष केवल दीक्षा ले लेनेसे ही भाव यतित्वके योग्य नहीं होता | लेकिन जैसे कीड़ा लकडी खाते खाते उसमें कोई अक्षर बना ले इससे कीडा अक्षर ही बनायेगा यह नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार गोविंद चाचक जैसा कोई द्रव्य दीक्षाके बाद भाव दीक्षाके योग्य भी होता है पर प्रत्येक ऐसा नहीं हो सकता । अत सब जगह उचितताका विचार आवश्यक है । केवल प्रवृत्ति मात्रका तो निषेध ही है । न चैतत्परिणते चारित्रपरिणामेति || ६३ || (४३०) मूलार्थ - चारित्र के परिणामकी उत्पत्ति होने से उत्सुकता नहीं होती ॥६३॥ F विवेचन - जिसे चारित्रके भाव प्रगट हो गये हैं, जो चरित्रका यथार्थ स्वरूप समझ कर उसे लेनेमें तल्लीन हो गया है वह कभी उत्सुकता नहीं बतायेगा । उचित समय पर अकाल उत्सुकतासे कोई कार्य न करेगा | तस्य प्रसन्नगम्भीरत्वादिति ॥ ६४॥ (४३१) Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० : धर्मपिन्दु , मूलार्थ-चारित्रके परिणामकी प्रसन्नता व गम्भीरतासे । विवेचन-जैसे शरद ऋतुमें सरोवरका जल निर्मल व प्रसन्न दीखता है वैसे जिसको वस्तुतः चारित्रके परिणाम. उत्पन्न हुए हैं उसका हृदय वैसा ही निर्मल होगा। उसका मन समुद्रके मध्य भागके जैसा गंभीर होगा। ऐसा प्रसन्न व गंभीर पुरुष कभी अनुचित अनुष्ठान न करेगा या अकाल उत्सुकता न दिखायेगा। हितावहत्वादिति ॥६५॥ (४३२) मूलार्थ चारित्रका परिणाम हितकारी है ॥६५॥ विवेचन-जिसमे शुद्ध चारित्रके लिये वस्तुतः भावना उत्पन्न हुई है उसका कार्य केवल हितकारी ही होगा। वह कभी भी अयोग्य समयमें उसुकतासे चारित्र ग्रहण करनेको त पर नहीं होगा। ___यह चारित्र परिणामकी परिणति ( उत्पत्ति ) हो जाने पर वह प्रसन्न, गंभीर तथा हितकारी होता है तो चारित्रके भावकी प्राप्तिके बाद साधुको बार बार विभिन्न शब्दोंसे उपदेश क्यो दिया जाता है । जैसे "गुरुकुलवासो गुरुततया य, उचियविणयस्ल करण च। वसहीपमजणाइसु, जत्तो तह कालविक्खाए" ॥२०६॥ "अनिगृहणा वलम्मी, सवत्थ पवत्तणं च सत्तीए । नियलाभचिंतणं सइ, अणुग्गहो मित्ति गुरुवयणे" ॥२०७॥ "संवरनिच्छिदत्तं, छज्जीवरक्खणासुपरिसुद्ध। विहिसज्झाओ मरणादवेक्षणं जइजणुवएसो" ॥२८॥ -~~-मुनि गुरुकुलमें वास करे, गुरुकी अधीनतामें रहे तथा Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३९१ उचित विनय करे और कोलकी अपेक्षा करके रहनेकी जगहकी प्रमार्जना आदि करे। अपने वलको न छीपावे (धर्मकार्यमें पुरुषार्थ करे )। सब जगह शक्तिपूर्वक व्यवहार करे। अपने हितकारी वस्तुका चिंतन करे तथा गुरुकी भाज्ञाको अपने पर किया गया उपकार माने । संवरमें अतिचार आदि दोषका निवारण करे, छकाय जीवकी रक्षा करे तथा शुद्धभाव रखे। विनय आदि विधिसे स्वाध्याय करे, शास्त्रोक मरण 'आदिका विचार करे तथा यतिजनोके पास उपदेश सुने। यदि चारित्रके भाव साधुमें हो तो यह उपदेश देनेकी क्या आवश्यकता है । कहते हैं चारित्रिणां तस्साधनानुष्ठानविषयस्तूपदेशः, प्रतिपात्यसौ, कर्म वैचित्र्यादिति ॥६६॥ (४३३) मूलार्थ-उपदेश चारित्र परिणामको साधनेवाला अनुष्ठान है, क्योंकि कर्मकी विचित्रतासे चारित्र परिणाम मिट सकते हैं अतः उपदेश आवश्यक है ॥६६॥ . . विवेचन-चारित्रिणां- चारित्रके परिणाम जिनको हुए है, तत्साधन- चारित्र परिणामको साधन करनेवाले, अनुष्ठान- गुरुकुलवास आदि, विषयः- जिसके विषयमें ये अनुष्ठान बताना है, उपदेश:-उपदेष्टा या धर्मप्रवर्तकके वचनरूप जो शास्त्रमें कहे हुए हैं, प्रतिपाती-पतनशील, कर्मवैचित्र्यांव-कर्मकी विचित्रतांके कारण। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ : धर्मपिन्दु । जिमको चारित्र ग्रहण करनेके परिणाम उत्पन्न हुए हैं उनके चारित्र परिणामके साधनरूप जो अनुष्ठान है उनको बतानेवाला यह उपदेश है । अतः उपदेश देना उत्तम है। उपदेश देनेका कारण यह है कि कर्मकी विचित्रताके कारण चारित्रके परिणाम पतनशील हैं। कर्मकी विचित्रतासे सब कुछ हो सकता है। कहा है कि "कम्माई नूर्ण घणचिकणाइ कढिणाई वजसाराई । णाणड्ढ्यपि पुरिलं, पंथाओ उप्पहं नैति" ॥२०९॥ -गाढ, चिकने, कठिन तथा वज्रसमान कर्म ज्ञानमार्गमें स्थिर पुरुषको भी उन्मार्गमें ले जानेमें समर्थ हैं। अतः कर्मवश कभी किसीका चरित्रभाव समाप्त हो जाय तब भी गुरुकुल वास आदि साधनोंसे वह चारित्रमावमें स्थिर रह सकेगा । अतः उपदेश हितकारी है। तत्संरक्षणानुष्ठानविषयश्च चक्रादिप्रवृत्यवसान भ्रमाधानज्ञातादिति ।। ६७ ॥ (४३१) मूलार्थ- चारित्र परिमाणकी रक्षा के लिये अनुष्ठानवाला उपदेश इस प्रकार है। जैसे चक्र आदिकी गति मंद होने पर दंड आदिसे गति तीव्र की जाती है ।।६७॥ . विवेचन- चारित्र भावकी जो उत्पत्ति हुई हैं उसका रक्षण करनेके लिये अनुष्ठान करना आवश्यक है और उन अनुष्ठानोको वतानेवाला उपदेश बहुत लाभप्रद है। जैसे"ज्जेजा संगग्गिं, पासत्थाई हिं पावमित्तेहि । कुजा उ अप्पमत्तो, सुद्धचरित्तेहि व धीरेहि ॥२०॥" Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३९३ ! -अप्रमत्त पुरुष पापके मित्र जैसे असंयत पुरुषोंके संसर्गका त्याग करे और शुद्ध चारित्रवान धीर पुरुषोंका ससर्ग करे। : जैसे कुम्हारका चक्र घूमता है और उसकी गति मंद पड जाने पर कुम्हार दंड द्वारा उसे तीन करता है ऐसे ही उपरोक्त प्रकारके उपदेशोसे चारित्र परिणामकी आई हुई मन्दताको हटा कर तीनता उत्पन्न की जाती है। उपदेशकी निष्फलता कब होती है ? कहते हैं. माध्यस्थ्ये तद्वैफल्यमेवेति ।। ६८ ॥ (४३५) मूलार्थ- मध्यस्थतामें उपदेशकी निष्फलता है ।।६८॥. विवेचन- अप्रवृत्ति और प्रवृत्तिकी मंदता इन दोनोंके बीचकी मध्यस्थता हो अर्थात् जब चास्त्रि परिणाममें तीव्रता हो तब उपदेश वृथा है अर्थात् जिस पुरुषको चारित्रका तीव्र भाव है उसे उपदेशकी जरूरत नहीं है। । । । स्वयं भ्रमणसिद्धेरिति ॥ ६९ ॥ (१३६) मूलार्थ- अपने आप ही भ्रमणकी सिद्धि है ॥६९॥ विवेचन- जैसे चक्र जब अपने आप चलता है तो उसे चलाने की आवश्यकता नहीं होती वैसे ही जब आत्मामें स्वयं तीन चारित्र भाव हैं तो उपदेशकी जरूरत नहीं। । । भावयतिहिं तथा कुशलाशयत्वादशक्तोऽसमजसप्रवृत्तावितरस्यामिवेतर इति ॥७०॥ (४३७) मूलार्थ- भावयति कुशल आशयवाला होनेसे अयोग्य Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४॥ धर्मविन्दु प्रवृत्ति करनेमें असमर्थ है और जो भावयति नहीं वह योग्य प्रवृत्ति करने में असमर्थ है । ७०॥ विवेचन- ताकुशलाशय- चारित्रवृद्धिका हेतु रखनेवाला, 'शुद्ध भाव तथा आशंर्यवाला। जो भावयति या परमार्थतः साधु है वह चारित्रकी वृद्धिके शुद्ध भाव रखता है, अतः वह कदापि अनाचार सेवन नहीं कर सकता । जो भावयति नहीं है। केवल द्रव्ययति है वह भावसे संयमकी प्रवृत्ति करनेमें अशक्त है । उसी प्रकार उत्तम साधुके योग्य प्रवृत्ति करनेके लिये उपदेशकी अपेक्षा नहीं है। इति निदर्शनमात्रमिति ॥ ७१ ॥ (४३८) मूलार्थ- यह समानता केवल दृष्टांत मात्र कही है ।७१॥ विवेचन- 'द्रव्ययति शुद्ध संयम पालनेमें अशक्त है। वह केवल दृष्टांत मात्रके रूपमें कहा है इस परसे यह नहीं समझना कि द्रव्ययति संयमका पालन ही नहीं कर सकता । न सर्वसाधर्म्ययोगेनेति ॥ ७२ ।। (४३९) - मूलार्थ- उपरोक्त दृष्टांत सर्व प्रकारसे सादृश्य योगका नहीं है ॥७२॥ "विवेचन- इस दृष्टांतमें जो समानता-सादृश्यता कही है वह सब 'प्रकारसे "सर्वाशसे नहीं है केवल कुछ अंशोमें ही समानता है।" Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३९५ यतेस्तदप्रवृत्तिनिमित्तस्य गरीय स्त्वादिति ॥ ७३ ॥ (४४०). मूलार्थ- भाव यतिकी अनुचित कार्यमें प्रवृत्ति न होनेका निमित्त मुख्य है ॥७३॥ विवेचन- यंतेः- भावसाधु, तदप्रवृत्ति-अनुचित कार्यमें प्रवृत्ति न होना, निमित्तस्य- सम्यग्दर्शन आदि परिणामका, गरीयस्त्वात्- महत्वा । भाव साधु अनाचार सेवन आदि अनुचित कार्य नहीं करता । उसका कारण सम्यग्दर्शनका परिणाम है । वह सम्यग्दर्शन आदि अनुचित कार्यमें प्रवृत्ति करानेवाले मिथ्यात्व आदि कषायोंसे अधिक महत्त्वका है। मिथ्यात्व आदि उसे प्रकारके कर्भके उदयसे उत्पन्न वस्तु है । सम्यगदर्शन आदि आत्माके स्वाभाविक गुण है अतः वे ज्यदा महत्त्वके हैं। स्वाभाविक गुण अस्वाभाविकसे ज्यादा महत्ववाले हैं ही। वस्तुतः स्वाभाविकत्वादिति ॥ ७४ ॥ (४४१) मूलार्थ- वास्तवमें सम्यग्दर्शन आदि आत्माके स्वाभाविक गुण है ||७४॥ विवेचन- उचित प्रवृत्तिके कारणरूप जो सम्यग्दर्शन आदि हैं वे आत्माके वास्तवमें स्वाभाविक गुण है । आत्मत्वभावमय हैं (अतः मिथ्यात्व आदिसे महत्त्वके हैं)। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ : धर्मविन्दु तथा सद्भाववृद्धः फलोत्कर्षसाधना दिति ॥७५॥ (४४२) स्मूलार्थ-और शुभ भावकी वृद्धि मोक्षरूप महाफलको देनेवाली है ||७५॥ विवेचन-सद्भाव-शुभ परिणाम, फलोत्कर्षसाधनाद-महान् फलरूप मोनको देनेवाली-सम्यकदर्शनसे शुद्ध भावकी वृद्धि होती है और शुद्ध भावकी वृद्धिसे मोक्षरूप सर्वोच्च फल मिल सकता है अतः सम्यग्दर्शन ज्यादा महत्त्वका है। मिथ्यात्व आदिसे कभी भी मोक्षफल नहीं मिल सकला । अतः मिव्यात्व आदिसे सम्यग्दर्शन श्रेष्ठ है। . उपप्लवचिगमेन तथावभासना दितीति ॥७६॥ (४४३) .. मूलार्थ-राग-द्वेपादि उपद्रवका नाश होनेसे वैसा बोध होता है ।।७६॥ विवेचन-उपप्लबविगमेन-राग-द्वेष आदि आंतरिक उपद्रवोके अंत होनेसे, तथावभासनात-उस प्रकारका ज्ञान, अनुचित कार्यमें प्रवृत्ति न करना ही ठीक है-ऐसा ज्ञान ।। - सन्यग्दर्शनसे शुद्ध भ व होते हैं। शुद्धभावसे राग-द्वेष आदि उपद्रव नष्ट होते हैं। उससे भाव यतिको सारा निर्मल प्रकाश मिलता है। उससे अनुचित कार्यमें प्रवृत्ति न करना ठीक है ऐसा विश्वास होता है । अत सम्यगदर्शन महत्त्वका है। मत. पूर्वोक्त 'असाधु भाव संयम पालनमें असमर्थ है। केवल दृष्टान्त मात्र है। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि :.३९७ अव इस प्रकरणको समाप्त करते हुए कहते हैंएवंविधयतेः प्रायो, भावशुद्धेर्महात्मनः । विनिवृत्ताग्रहस्योचैः, मोक्षतुल्यो भवोऽपि हि ॥३४॥ मूलार्थ-दुराग्रह रहित इस प्रकार भावशुद्धिवाले उचित अनुष्ठानवाले महात्मा भाव यतिके लिये प्रायः यह संसार ही मोक्ष समान हैं॥३४॥ - विवेचन-एवंविधस्य-अपनी स्थितिके अनुकूल उचित अनुष्ठान प्रारंभ करनेवाले, यते-साधु, प्राय -अक्सर, - विनिवृत्ताग्रहस्स-शरीर आदि संबंधी मूर्छादोष जिसका नाश हो गया है, उच्चै • बहुत-अति, मोक्षतुल्य -संसार भी मोक्षके बराबर है। "जो अपनी अवस्थाके अनुकूल उचित अनुष्ठान करनेमें तत्पर है, भावशुद्धिवाला है, शरीर आदि पर जिसकी मूछाका नाश हो गया है ऐसे भाव यतिको संसार भी मोक्षके समान है। यद्यपि वह संसारमें रहे तब भी मोक्षसुख ही भोगता है। कहा है कि"निर्जितमदमदनानां पाक्कायमनोविकाररहितानाम् । विनिवृत्तपराशनामिहेव मोक्षः सुविहितानाम् ॥११॥" ---जिसने अहंकार व कामदेवको जीत लिया है, जो मन, वचन, कायाके विकारोसे रहित है, जिसने दूसरी (पुद्गल भावकी इच्छा) आशाको छोड़ दिया है ऐसे सुविहित साधुको यह संसार भी मोक्ष है। संसार भी मोक्ष कैसे है ? सो बताते हैं Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ : धर्मविन्दु सदर्शनादिसंप्राप्ते, संतोषामृतयोगतः । भावैश्वर्यप्रधानत्वात्, तदासन्नत्वतस्तथा ||३५|| मूलार्थ - सम्यग्दर्शन आदिकी प्राप्तिसे, संतोषरूपी अमृ तको प्राप्त कर लेनेसे, भावरूपी ऐश्वर्यकी मुख्यतासे और मोक्षकी समीपतासे यहां ही मोक्ष कहा है ||३५|| विवेचन - सद्दर्शनादीनाम् - चिन्तामणि, कल्पवृक्ष और कामधेनु जैसी उपमाओको भी न्यून बतानेवाले सम्यग्ज्ञान, दर्शन ब चारित्र, संप्राप्त-लाभ, प्राप्ति-भावैश्वर्येण - क्षमा, मार्दव आदि भावोंका प्रधानत्वात् उत्तम या मुख्यता, तदासन्न - मोक्षकी समीपता । चितामणि, कामधेनु और कल्पवृक्ष आदि वस्तुओसे भी अधिक उत्तम सम्यग्दर्शन आदिको प्राप्त करके, सतोषरूपी अमृर्तको पाकर, सावरूपी ऐश्वर्यकी मुख्यता से और मोक्ष समीप होनेसे भाव यतिके लिये यह संमार, ही मोक्ष समान है। उक्तं मासादिपर्यायवृद्ध्या द्वादशाभिः परम् | तेजः प्राप्नोति चारित्री, सर्वदेवेभ्य उत्तमम् ||३६|| मूलार्थ- मासादिक पर्यायकी वृद्धि करके बारह महिने तक चारित्रको धारण करनेवाला सर्व देवताओंसे उत्तम तेजउत्कृष्ट सुखको प्राप्त करता है ||३६|| - $ विवेचन- उक्तं- भगवतीसूत्र मे कहा हुआ, मासादिपर्यायवृद्ध्या-एक, दो, तीन आदि क्रमश १२ महिने तक पर्यायवृद्धिं करके, परं-उत्कृष्ट, तेजः-चित्तके सुख की प्राप्तिवाला, प्राप्नोति Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३९९ पाता हैं, चारित्री - विशिष्ट चारित्रवाला (भाव यति); सर्वदेवेभ्यःभवनवासीसे लेकर अनुत्तर विमानवासी देव तकके सर्व देवताओंसे अधिक सुख प्राप्त करता है । कोई एक महिना, कोई दो महिना - इस प्रकार अनुक्रमसे जो 'चारह महिने तक उत्कृष्ट चारित्र पाले ऐसा उत्तम भावयति भवनपतिसे प्रारंभ करके विमानवासी देवताओं तक सब देवोंके सुखसे अधिक सुख प्राप्त कर सकता है । + भगवती सूत्र में इस बारेमें इस प्रकार कहा है 1 इस वर्तमान कालमें विचरण करते हुए श्रमण निर्ग्रन्थ किससे - मक्किक चित्तको सुख देनेवाले तेजको धारण कर सकता है ? इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार है- 2 एक मासका चारित्र पर्याय पालन करनेवाला साधु ( श्रमण निर्ग्रन्थ) वाणञ्यंतर देवताओंसे अधिक सुख प्राप्त करता है । दो मास तक चारित्र पर्याय पालनेवाला साधु असुरेंद्र बिना भवनपति देवताओं से अधिक सुख प्राप्त करता हैं। तीन मास तक चारित्र पर्यायवाला साधु असुरेन्द्रसे अधिक सुख प्राप्त करता है । चार मास पर्यायवाचा साधु चंद्र व सूर्यको छोड़कर सब ग्रह नक्षत्र और तारारूप ज्योतिष्क देवताओंसे अधिक सुख प्राप्त करता है । पाच मासपर्यायवाला चंद्र व सूर्य ज्योतिष्क देवताओंसे अधिक सुख प्राप्त करता है । छ मास पर्यायवाला साधु सौधर्म व ईशान के देवताओं से अधिक सुख प्राप्त करता है । सात मासवाला सनत्कुमार व माहेन्द्र Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० :धर्मविन्दु देवलोकोंके देवताओंसे अधिक सुख पाता है। नौ मासवाला महाशुक्र और सहस्रार देवलोकके देवताओंसे अधिक सुख पाता है। दस मास पर्यायवाला निर्ग्रन्थ मुनि आनत, प्राणत, आरण और मच्युत-चारों देवलोकके देवताओसे अधिक सुख प्राप्त करता है। ग्यारह मास पर्यायवाला अत्रेयक देवताओसे अधिक सुख प्राप्त करता है । उसके बाद शुक्ल और शुक्लाभिजात्य होकर सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, निर्वाण प्राप्त करते हैं और सब दुःखोंका अंत करते हैं । (अर्थात् अणिमादि ऐश्वर्य, केवली, भवोपग्रही कर्मसे मुक्त और सर्वथा कर्म रहित होकर सर्व दुःखोंका अंत करते हैं)॥ , मुनिचन्द्रपरि विरचित धर्मविन्दुकी टीकामें ' यतिधर्म विषय विधि नामक छट्ठा अध्याय समाप्त हुआ। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्याय । । अब सातवां अध्याय प्रारंभ करते हैं, उसका यह प्रथम फलप्रधान आरम्भः, इति सल्लोकनीतितः। , . संक्षेपादुक्तमस्येदं, व्यासतः पुनरुच्यते ॥ ३७॥ । मूलार्थ- सत्पुरुषोंकी नीति फलप्रधान कार्य आरंभ करनेकी है । अतः धर्मका यह फल हैं ऐसा संक्षेपमें 'पहले बताया है उसे विस्तारसे अब कहते हैं। ॥३७॥ . ' विवेचन- आरम्भः- धर्म आदि संबंध प्रवृत्ति करना, सल्लोकनीतितः- शिष्टजनों द्वारा आचरण किया जाना, व्यासत:विस्तारसे पुनः कहना। . . . . .: . ' शिष्टजनोंका यह आचार है कि वे धर्मादिक ऐसी प्रवृत्ति करते है जिसमें फल प्रधान है। इस कारण ग्रन्थकारने 'धर्मका यह फल है, इस प्रकार संक्षेपमें ग्रन्थके शुरुमें 'धनदो धनार्थिनां प्रोक्तः श्लोक द्वारा कहा है उसे (धर्मके फलको) अब विस्तारसे कहते हैं। यदि अब धर्मका फल विस्तारसे कहते हो तो पहले संक्षेपसे क्यो कहा कहते हैं Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ : धर्मविन्दु प्रवृत्यङ्गमदः श्रेष्ठं, सत्त्वानां प्रायशश्च यत् । आदौ सर्वत्र तद्युक्तमभिधातुमिदं पुनः ॥३०॥ मूलार्थ-सव कार्योंमें प्राणियोंकी प्रवृत्ति होनेका कारण शायः उसका फल है अतः उसे कहना श्रेष्ठ है अतः प्रारंभमें संक्षेपसे और अब विस्तारसे कहना युक्त है ।।३८॥ विवेचन-प्रवृत्यङ्ग-प्रवृत्तिका कारण, अद:-फल, सत्वानांफलकी इच्छावाले प्राणी विशेपोके लिये, प्रायशा-अक्सर करके, आदौ-पहले ही, सर्वत्र-सब कामोंमें, तयुक्तं-अतः उचित है। अभिधातुं-कहनेको । ... . ..... .. . . ___फैलकी इच्छाँवाले प्राणियोंको प्रवृत्ति करनेके लिये मुख्य कारण फल है अतः धर्ममें रुचि र प्रवृत्ति करानेके लिये-पहले धर्मका फल कहा । यदि विस्तारसे धर्मका--फल-पहले कहा होता तो शस्त्रके सिद्धांत बहुत देर बाद कहने पडते, उससे कहनेमें नीरसता आती, अतः शास्त्र सुननेमें अनादर होनेका प्रसंग.आता 1. इस कारण पहले संक्षेपमें कहा और अब विस्तारसे फलको कहते हैं।. . यथा विशिष्टं देवसौख्यं, यच्छिवसौख्यं च यत्परम् धर्मकल्पद्रुमस्येदं, फलमाहुर्मनीषिणः ॥३९॥ . मूलार्थ-देव संबंधी महान् सुख तथा मोक्षरूपी उत्कृष्ट सुख धर्मरूपी कल्पवृक्षके फल है ऐसा बहुत बुद्धिमान् पुरुष कहते हैं ॥३९॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल देशना विधि : ४०३ विवेचन-जिस प्रकार कल्पवृक्ष फल देता है उसी भांति भाव धर्मरूप यह कल्पवृक्ष भी फल देता है । एक फल उत्कृष्ट स्वर्ग सुख और दूसरा उत्तमोत्तम मोक्ष सुख है । ऐसा सुधर्मस्वामी आदि महान् मुनिराज कहते हैं। इत्युक्तो धर्मः, सांप्रतमस्य फलमनु वर्णयिष्यामः ॥१॥ (४४४), मूलार्थ-इस प्रकार गृहस्थ धर्म व यतिधर्म कहा अब उसके फलको वर्णन करते हैं ||१|| द्विविधं फलम्-अनन्तर-परम्परभेदादिति ॥२॥(४४५) मूलार्थ-अनन्तर व परंपरा भेदसे फल दो प्रकारका है । विवेचन-धर्मका फल दो प्रकारका है—एक अनन्तर कार्यके साथ ही मिलनेवाला और क्रमा मिलनेवाला अंतिम फल-परंपरा फल-अर्थात् समीपका व दूरका-ऐसे दो फल हैं।' तत्रानन्तरफलमुपप्लवहास इति ॥३।(४४६) मृलार्थ-उसका' अनन्तर फल तो रागादि उपद्रवका नाश है || - - - विवेचन-तत्र-उन दोनों फलोमें, उपप्लवहास-रागादि दोपके उदय होनेके उपद्रवका सब प्रकारसे नाश । ___ धर्मके दो फल हैं उसमें से पहले अनन्तर फल बताते हैं। अनन्तर फलमें तुरंतका फल राग अ,दि दोषोका सर्वथा नाग हो जाना है। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ : धर्मबिन्दु तथा - भावैर्श्वयवृद्धिरिति ॥४॥ (४४७) मूलार्थ - और भाव ऐश्वर्यकी वृद्धि होना || ४ || विवेचन-भावैश्वर्य - उदारता, परोपकार, पापकर्मकी निंदा या तिरस्कार आदि गुण । भावरूप समृद्धि, उदारता, परोपकार आदि सद्गुणोंकी प्राप्ति तथा वृद्धि होना । तथा - जनप्रियत्वमिति ||५|| (४४८ ) मूलार्थ - और लोकप्रिय होना ॥५॥ f " ई ; विवेचन- जो व्यक्ति वस्तुतः धार्मिक है, सदाचारी है तो f 1 सब लोग उस पर प्रेम रखते हैं । वह सब लोगोके चित्तको आनंद ऊपजानेवाला, लोकप्रिय पुरुष हो जाता है । ये सब अनन्तर (समीपके) फल बताये अब परंपरा फल कहते हैपरम्परफलं तु सुगतिजन्मोत्तमस्थानपरम्परानिर्वाणावाप्तिरिति ॥६॥ (४४९) 1 सूलार्थ - अच्छी गतिमं जन्म उत्तम स्थान की प्राप्ति तथा परंपरा से मोक्षकी प्राप्ति परंपरा फल है ||६|| विवेचन धर्मका परंपरा फल तो देवगति व मनुष्यगतिमें जन्म लेना है और ऐसे उत्तम स्थानकी परंपरा से निर्वाण प्राप्ति है । स्वयं शास्त्रकार इस सूत्र का विवेचन आगे करते है - सुगतिर्विशिष्टदेवस्थानमिति ||७|| (४५०) Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल देशना विधि : ४०५ , 4 मूलार्थ - उच्च देवलोक में जन्म होनेको सुगति कहा है । विवेचन - सौधर्म आदि देवलोकमें जन्म होनेको सुगति कहते हैं। तेत्रोत्तमा रूपसंपत् सत् स्थितिप्रभावसुखद्युतिश्यायोगः, विशुद्धेन्द्रियावधित्वम्, प्रकृष्टानि भोगसाधनानि, दिव्यो विमाननिवहः मनो'हराण्युद्यानानि, रम्या जलाशयाः कान्ता अप्सरसः अतिनिपुणाः किङ्कराः, प्रगल्भो नाट्यविधिः, चतुरोदारा भोगाः, सदा चित्ताह्नाद, अनेकसुखहेतुत्वम्, कुशलानुबन्धः, महाकल्याणपूजाकरणम्, तीर्थङ्करसेवा, सद्धर्मश्रुतौ रतिः, सदा सुखित्वंमिति ||८|| (४५१) t मूलार्थ - उस देवलोकमें उत्तम रूप संपत्ति, सुंदर स्थिति, प्रभाव, सुख, कांति व लेश्याकी प्राप्ति, निर्मल इन्द्रिय, और अवधिज्ञान, उच्च भोगके साधन, दिव्य विमानोंका समूह, मनोहर उद्यान, रम्य जलाशय, सुंदर अप्सराएं, अतिचतुर सेवक, अतिरमणीय नाटकविधि, चतुर उदार भोग, सदा चित्तमें आनन्द, अनेकोंके सुखोंका कारण, सुंदर परिणामवाले कार्यकी परंपरा, महाकल्याणकोंमें पूजा करना, तीर्थकरकी 7 (" ( 12 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ४०६ : धर्मबिन्दु सेवा, सद्धर्म सुननेमें हर्ष और निरंतर सुख-इन सबकी प्राप्ति होना धर्मके परंपराफल हैं ।।८।। ..., विवेचन-तत्र- देवलोकमें, रूपसंपत्-- शरीरका संस्थान या बंधारण, सद्- सुंदर, स्थिति- पत्योपम व सागरोपमकी आयुष्यकी स्थिति, प्रभावः-निग्रह व अनुग्रह करनेकी शक्ति, सुखम्- चित्तको समाधि या गांनि, द्युति- शरीरके आभूषणादिकी काति व चमक, लेश्या- तेजोलश्या आदि, विशुद्ध इन्द्रियाणि- अपने अपने विषयका यथार्थ ज्ञान रखनेवाली निर्मल इन्द्रिये, अवधि - उनको अवधिज्ञानका होना, प्रकृष्टानि भोगसाधनानि- उकृष्ट भोगके साधन व सामग्रीयें, वे इस प्रकार बताते है-दिव्यः- अपनी कांति व तेज चमकसे अन्य तेजस्वी चक्रोको हरा देनेवाला, विमाननियहःविमानोंका समूह, मनोहराणि उद्यानानि- मनको प्रमोद देनेवाले अशोक, चंपा, पुन्नाग, नागकेशर आदि पुप्प व लताओसे भरे हुए उद्यान, रम्याः जलाशया:- खेल व क्रीडा , करने के योग्य बावडी, तालाब 4 सरोवर आदि जलाशय ( जलके स्थान ), कान्ताः अप्सरसः, अतिशय काति व रूपवाटी अप्सरा व देवीये, अतिनिपुणा. किङ्करा - शुद्ध विनय विधिको जाननेवाले चतुर सेवक या नोकरगण, प्रगल्भः नाट्यविधि:- तीर्थकर आदि महान भात्माओके चरित्रसे युक्त अभिनयवाले अनुपम व अति सुंदर नाटक, चतुरोदाराः भोगा:- मन व इंद्रियोको तुरंत आकर्षित करने में कुशल व उत्तम शब्द तथा श्रवण आदि इदियोके विषय, सदा चित्ताहादःनिरंतर मनकी प्रसन्नता, अनेकेषां- अपनेसे भिन्न अनेक देव आदिको Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल देशना विधि - : ४०७ विविध व उनके योग्य आचार सहित चतुराईके गुण सहित दूसरोको, सुख हेतुत्वम् - संतोष देनेके निमित्त कारण, कुशलानुबन्ध - जिसका परिणाम निरंतर सुंदर व संच्छा आवे ऐसे कार्य करने में तत्पर, महाकल्याणेषु पूजायाः करणं - बडे कल्याणक याने श्रीतीर्थंकर देवके जन्म, महावत अंगीकार करने आदिके समय उनका स्नान, पुष्प चढाना, धूप करना आदि प्रकारसे उनकी पूजा करना, तीर्थकराणां सेवा - जिसने अपने प्रभाव द्वारा तीनो जगत् के सब जीवोंके मनको वश कर लिया है, और जिसने अमृतकी वर्षाके समान अपनी देशनासे भव्य प्राणियों के मनके तापका हरण कर लिया है J ऐसे पुरुषरत्न तीर्थकरों की वंदना, नमस्कार, उपासना व पूजा द्वारा आराधना करना, सतः धर्मस्य श्रुतौ रतिः - पारमार्थिक श्रुत चारित्र लक्षणवाले धर्मको सुननेमें प्रेम रखनेवाले - स्वर्ग में उत्पन्न तुंबुरु आदि गन्धवों द्वारा प्रारंभ किये हुए पंचम स्वरके गीतको सुनने की प्रीतिसे अधिक संतोष उत्पन्न करनेवाले रागवाले, सदा सुखित्वम् - हमेशां सब समयोमें बाहरी सुखोसे जैसे गवन, आसन, वस्त्र, अलंकार आदि उत्पन्न गरीर सुखसे युक्त और मनको आनंद देनेवाले संयोगों से युक्त वे स्वर्गीय सुख भोगते है- ये सब देव या सुगतिमें प्राप्त होते हैं । देवलोकमें धर्मक प्रभावसे उत्पन्न होनेसे उपरोक्त 'सच विविध सुख भोगकी सामग्री प्राप्त होती हैं। ये सब धर्म के प्रभावसे प्राप्त होती हैं । - तथा - तच्च्युतावपि विशिष्टे देशे विशिष्ट एव काले स्फीते महाकुले निष्कलङ्केऽन्वयेन उदग्रे सदा Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ : धर्मविन्दु चारेण आख्यायिकापुरुषयुक्ते अनेकमनोरथापूरकमयन्तनिरवयं जन्मेति ॥९॥ (४५२) मूलार्थ-और देवलोकसे च्यवन होनेके बाद भी अच्छे देशमें, अच्छे कालमें, प्रसिद्ध महाकुलमें, वंश कलंकरहित, सदाचारसे बडा, और जिसके बारेमें कथा-वार्ता लिखी जावे ऐसे पुरुपयुक्त महाकुलमें, अनेक मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला ऐसा-अत्यन्त दोप रहित जन्म होता है ।।९।। विवेचन- तच्च्युतावपि- देवलोकसे नीचे उतरने पर, विशिष्टे देशे:- मगध आदिमें, विशिष्ट एव काले- सुखमदु खम भादि, निष्कलङ्के- असदाचार रूपी फलंक मलसे रहित, अन्वयेनपिता, दादा आदि पुरुष परंपरासे, उदने- उत्तम, सदाचारेण-देव, गुरु, स्वजन आदिकी उचित सेवारूप सदाचार, आख्यायिकापुरुपयुक्त- जिन पुरुषोंने उस प्रकारके असाधारण मुणोंके आचरणसे ऐसे पराक्रम किये हो जिनके नाम चरित्रोंमें आये हो ऐसे पुरुषों सहित, अनेकमनोरथापूरक- स्वजन, परजन, परिवार आदिकी मनोकामनाकी पूर्ति करनेवाला, अत्यन्तनिरवयं--शुभ लग्न व शुभ ग्रह आदिमें विशिष्ट गुण सहित और एकात सब दोषोसे रहित समयमें, जन्म- उनका जन्म होता है। जब वह धर्मिष्ठ पुरुष देवलोकमें अपना यु पूर्ण कर लेता है तो वहांसे च्यव कर इस संसारमें जन्म लेता है, तब वह उत्तम देशमें, शुभ कालमें, निष्कलक ऐसे उत्तम व प्रसिद्ध महाकुलमें जन्म Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल देशना विधि : ४०९ लेता है। उसके जन्मसे सबके मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं तथा उत्तम लग्न व ग्रहमें तथा सब दोष 'रहित उत्तम सयममे उसका जन्म होता है। ' ' . . . सुन्दरं रूपं आलयो लक्षणानां रहितमामयेन युक्तं प्रज्ञया संगतकलाकलापेन ।। १० ।। (४५३) मूलार्थ- सुन्दर रूप व लक्षणों सहित, रोग रहित, बुद्धियुक्त और कलाकलाप सहित (जन्म होता है )॥ .' विवेचन- सुन्दर रूपम्- सुंदर अच्छे संस्थान (संहनन) तथा बंधारणवाला रूप सहित शरीर, आलयो लक्षणानां- चक्र, वज्र, स्वस्तिक, मत्स्य, कलश, कमल आदिके शुभ लक्षण उसके हाथ व पैरो पर दीखते हो, रहितमामयेन- ज्वर, अतिसार, भगंदर आदि रोगोंसे दूर ( रहित ), युक्तं प्रज्ञया-वस्तुओंके यथार्थ ज्ञानको अहण करनेवाली वस्तु के वोधको जाननेवाली शक्ति 'बुद्धि) सहित, संगतं कलाकलापेन- लिपि, शिक्षा आदिसे लेकर पक्षीको बोली जानने तककी सब कलाओंके समुदाय सहित । .. .. . . तथा जब वह ऐसा धर्मिष्ठ पुरुष देवलोकसे इस . मनुष्य भवमें जन्म लेता है तब उसको सुदर रूप मिलता है, कई लक्षणोमें युक्त होता है वह रोग रहित, बुद्धि सहित और कलाओंका जानकार होता है। ' तथा- गुणपक्षपातः, असदाचार भीरुना, कल्याण'मित्रयोगः, सत्कथाश्रवणं, मार्गानुगो वोधः, सर्वो - 1 . Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० : धर्मविन्दु, चितप्राप्तिः, हिताय सत्त्वसंघातस्य, परितोषकारी गुरूणां, संवद्धनो गुणान्तरस्य, निदर्शनं जनानां, अत्युदार आशया, असाधारणविषयाः, रहिताः संक्लेशेन, अपरोपतापिन, अमगुला वसानाः ॥ ११ ॥ (४५९) मूलार्थ- और . मनुष्य जन्ममें उसे गुणके पक्षपात, असदाचारसे डर, पवित्र बुद्धि देनेवाले मित्रकी प्राप्ति, अच्छी कथाओंका श्रवण, मार्गको अनुकरण करनेका बोध, सब जगह (धर्म, अर्थ व काममें ) उचित वस्तुकी प्राप्ति होती है। वह उचित वस्तुको प्राप्ति प्राणी मात्रके हितके लिये, गुरुजनोंको संतोप देनेके लिये, दूसरे गुणों को बढानेवाली और अन्य लोगोंके लिये दृष्टांत लायक होती है । वह बहुत उदार आशययाला होता है और उसे असाधारण विषयोंकी प्राप्ति होती है, जो केशरहित, दूसरोंको कष्ट न देनेवाले और परिणामसे सुंदर होते हैं। १ ९ . . . . . . . . . . विवेचन- गुणा:- शिष्ट पुरुषों द्वारा आचरण किये जानेवाले गुण- (नीचे श्लोक २१२ है) पक्षपात- वे गुण अपने में आवे ऐसा गुणानुराग, उससे ही पैदा होनेवाली, असदाचारभीरुता. चोरी, परदारगमन आदि अनाचारसे रोग, विष तथा अग्निकी तरह डरना, कल्याणमित्र- शुद्ध बुद्धि देनेवाला पुरुष जो धर्मके प्रति Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल देशना विधि : ४११ ले जावे उनसे, योगः- संबंध, सत्कथाश्रवणं- संत जन, सदाचारी गृहस्थ व यतियों की कथाओ व चरित्रोको सुनना, मार्गानुगो बोधः- मुक्ति पथको ले जानेवाले रास्तेको समझना, सर्व वस्तुका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना । सर्वोचितप्राप्ति - धर्म, अर्थ, काम आदि सब वस्तुओं में उचित व योग्य वस्तुकी प्राप्ति- इसके चार विशेषण यह इस तरह चार प्रकारकी है, हिताय सवसंघातस्यप्राणी मात्र के हित व कल्याणको करनेवाली, परितोषकारी गुरूणांमाता, पिता आदि लोगोंको सतोष व प्रमोद देनेवाली, संवर्द्धनी गुणान्तरस्य - अपने व दूसरोके अन्य गुणों को बढानेवाली, निदर्शनं जनानां - उस प्रकार के सुंदर आचरण में शिष्ट लोगो के लिये दृष्टातरूप, अत्युदार - तीव्र उदारतावाला, आशयः- मनका परिणाम, असाधारण विषया:- सामान्य लोगों से भिन्न- शालिभद्र आदिकी तरह शब्द आदि विषय, रहिता संक्लेशेन अध्यन्त आसक्ति रहित, अपरोपतापिन:- दूसरेको कष्ट न देनेवाला, अमङ्गुलाबसाना - पथ्य वस्तुके खानेकी तरह सुंदर परिणामवाले असाधारण विषयोकी प्राप्ति । - - जब धर्मी जीव देवगतिमेंसे च्युत होकर मनुष्य जन्ममे आवे . तब उत्तम कुल, नीरोग शरीर आदि उपरोक्त वस्तुए मिलती हैं साथ ही वह स्वयं गुणानुरागी होता है । कैसे गुणो, पर उसे, पक्षपात होता है व कैसे गुणों पर उसे अनुराग होता है वह कहते हैं 'असन्तो नाभ्यर्थ्याः सुहृदपि न याच्यस्तनुधनः, प्रिया वृत्तिन्यय्या मलिनमसुभङ्गेऽप्यसुकरम् । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvv ४१२: धर्मबिन्दु विपद्युः स्थेयं पदमनुविधेयं च महतां, सतां केनोद्दिष्टं विपममसिधाराव्रतमिदम् ॥२१२॥" -~-दुर्जनोकी प्रार्थना न करना, थोडे धनवाले मित्र या स्वजनसे याचना नहीं करना, न्यायसे सुंदर निर्वाह करना, प्राणनाश हो तव भी मलिन काम नहीं करना, विपत्तिके समय भी उच्च भाव स्थिर रखना, और महान् पुरुषों के मार्गका अनुसरण-इस प्रकार तलवारकी धाराके समान व्रत सज्जनों के स्वभावमें ही हैं। ' से गुणोका पक्षपात, चोरी, मदिराभक्षण आदिसे दूर धर्मिष्ठ व सदाचारी मित्र, लुंदर चारित्रका सुनना या पढ़ना, मोक्ष मार्ग पर अनुसरण, सर्व उचित वस्तुओं का संयोग जो दूसरोंके हित, वडोके संतोष, गुणोंको बढानेवाले तथा अन्योको दृष्टांतरूप हो, साथ ही उदार आशय, और असाधारण विषयोंकी प्राप्ति जो आसक्ति रहित, दूसरोंको कष्ट न देनेवाली तथा पथ्य खानेके समान सुंदर परिणामवाले होते हैं इन सब वस्तुओंकी प्राप्ति उस धर्मिष्ठ जीवको प्राप्त होती है। तथा-काले धर्मप्रतिपत्तिरिति ॥१२॥ (४५५) मूलार्थ-और योग्य समय पर धर्मको अंगीकार करे॥१२॥ विवेचन-काले-विषयसे विमुखता होनेके समयका लाभ ऊठाकर, धर्मप्रतिपत्तिः-सब सावध व्यापारका त्याग करनेरूप धर्मका अंगीकार करना । . . वह धर्मिष्ठ पुरुष इस जीवनमें उपरोक्त विषयसुख प्राप्त करता Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल देशना विधि : ४१३ है और समय आने पर विषयकी असारताका अनुभव होनेसे विरक्ति होकर सब सावध व्यापारके न्यागन्य साधुधर्मको अंगीकार करता है। तत्र च-गुरुसहायसंपदिति ॥१३॥ (४५६) मूलार्थ-उसमें भी गुरुकी सहायतारूप संपत्ति मिलती है। - विवेचन-दीक्षा अंगीकार करनेके समय योग्य गुरु मिलता है उसेसे दीक्षाके परिणाम वृद्धि पाते हैं और गुरुकी सहायतास दीक्षामार्गमें वह आगे बढता है । इस प्रकार पुण्यवान जीव सर्वत्र सुखी होता है। सर्व दोषरहित गुरुगच्छकी संपत्ति मिलती है। ततश्च साधुसंयमानुष्ठानमिति ॥१४॥ (४५७) मृलार्थ-उससे अच्छी तरह संयमका पालन होता है ॥१४॥ विवेचन-साधु- सब अतिचार छोडनेसे शुद्ध, संयमस्यप्राणातिपात आदि पापस्थान विरमणल्पका-पंच महाव्रतधारी, अनुष्ठान-संयमका पालन । अतिचार न लगे वैसा शुद्ध संयमका वह पालन करता है। पांचों महातका पालन करता है। और शुद्ध संयमका पालन करता है। ततोऽपि परिशुद्धाराधनेति ॥१५॥ (४५८) मूलार्थ-उसके बाद परिशुद्ध आराधना करता है ॥१५॥ विवेचन-परिशुद्धा-निर्मल-मल रहित, आराधना-जीवनके अंत तक संलेखना करना । इस प्रकार शुद्ध और अतिचार रहित संयम पालनेके बाद Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vNvM ४१४ : धर्मविन्दु मृत्यु समय समीप जानकर वह यति संलेखना करता है उसे आराधना कहते हैं। तत्र च-विधिवच्छरीरत्याग इति ॥१६॥ (४५९) मूलार्थ-तब विधिवत् शरीरका त्याग करता है ।।१६।। विवेचन-शास्त्रीय विधिके अनुसार उसे प्रधान समझकर शरीरका त्याग उसी प्रकार करता है जिस प्रकार अनशन आदि क्रियासे संलेखना करके शास्त्रविधिसे अपने शरीरका त्याग करता है । ' . ततो विशिष्टनरं देवस्थानमिति ॥१७॥(४६०) मलार्थ-फिर अधिक उत्तम देवस्थानकी प्राप्ति होती विवेचन-विशिष्टतरं-पहले प्राप्त हुए देवस्थानकी अपेक्षा अधिक सुंदर, स्थान-विमान वास । - पहले जो उसे देवताका स्थान मिला हो उससे अधिक उत्तम प्रकारका देवस्थान प्राप्त करता है और वहां वह विमानमें वास करता है। ततः सर्वमेव शुभतरं तत्रेति ॥१८॥ (४६१) .. मूलार्थ और वहां अतिशय शुभ सब वस्तुएं मिलती हैं । विवेचन-पहले जिस देवस्थितिका वर्णन किया है वहां जैसे रूप संपत्ति आदि वस्तुए मिली थी उससे इस समय अधिक उत्तम प्रकारकी सब वस्तुएं प्राप्त करता है। . परं गतिशरीरादिहीनमिति ॥१९॥ (४६२) Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल देशना विधि : ३१५ मूलार्थ-परंतु गति और शरीर आदि पूर्वकी अपेक्षा हीन होती है ॥१९॥ ' विवेचन-गति-देशांतर जानेकी गति, शरीरं-देह, परिवार तथा प्रवीचार आदि समझना-उन सबकी कमी या हीनता-उत्तरोतर देवस्थानमें पहले पहले की अपेक्षा गति, शरीर आदि शास्त्रमें कम कम बताये हैं। जैसे जैसे ऊपरके देवलोक व विमानमें जाते हैं गति कम होती है तथा शरीर, परिवार तथा प्रवीचार आदि वस्तुएं बेटी, कम व हीन होती है। . . . . तथा-रहितमौत्सुक्यदुःखेनेति॥२०॥ (४६३) मूलार्थ-और उत्सुकता दुःखसे रहित होता है ॥२०॥ विवेचन-रहित-मन, वचन व कायाकी त्वरारूप कष्टसे रहित। जो लोग देवलोकमें जन्म लेते है उन्हें उत्सुकता नहीं होती। मन, वचन व कायाकी उतावल - या तेजीसे सामान्यतया मनुष्यको जो कष्ट होता है वे उससे रहित होते है या तो अपने कार्यके परिणामकी उत्सुकता भी नहीं होती। . . . अतिविशिष्टाहादादिमदिति ॥२१॥ (४६४) मलार्थ-और · वह जन्म अतिशय आहादसे युक्त होता है ॥२१॥ . : विवेचन-अतिविशिष्ट-बहुत उत्कृष्ट, आह्लादादय:-आनंद कुशलानुबन्ध और महाकल्याणके समय पूजा करना आदि सुकृत युक्त। Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ : धर्मविन्दु और जिस देवलोक मे उत्पन्न होता हैं वहां उसे उच्च प्रकारका आह्लाद व आनंद होता है, वहां कुशल कार्यमें प्रवृत्ति होती हैं और तीर्थंकर की पूजा आदिमें निरंतर तत्पर रहते है । ततः तच्च्युतावपि विशिष्टदेश इत्यादि समानं पूर्वेणेति ||२२|| (४६५) भ्रूलार्थ - वहां से च्यवन होने पर अच्छे देश आदि मैं जन्म ( पहले की तरह) होता है । २२ ॥ विवेचन - पूर्वेण -- इस ग्रन्थमें पहले कहे अनुसार 'विशिष्टे देशे' आदिमें जन्म होता हैं । विशिष्टतरं तु सर्वमिति ||२३|| (४६६), मूलार्थ - पूर्वोक्त से इस जन्म में सच विशिष्ट प्रकारका होता है ॥२३॥ विवेचन-- पहले जो सुंदर रूप व निर्दोष जन्म कहा था जो ( ४५२ व ४५३ ) में कहा है, उससे ज्यादा सुंदर रूप और निर्दोष जन्म समझना यह सब अधिक अच्छा मिलता है । विशेष उत्तमं 1 प्रकार के ये सब किससे मिलते हैं इसका उत्तर देते है - 2 क्लिष्टकर्मविगमादिति ॥२४॥ (४६७) सूलार्थ - अशुभ कर्मका नाश होने से ||२४|| विवेचन-क्लिष्ट कर्म-दुर्गति, दुर्भाग्य और चुरा कुल ऐसे वेदनीय व अशुभ कर्म । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल देशना विधि : ४१७ . ऐसे सब अशुभ कर्मके नाश होनेसे सद्गति, सौभाग्य व उत्तम कुल आदिकी प्राप्ति होती है। ऐसा वेदनीय कर्मके नाशसे होता है। शुभतरोदयादिति ॥२५॥ (४६८) मृलार्थ-अधिक शुभ कर्मके उदयसे ॥२५॥ विवेचन-शुभतराणाम्-अति प्रशस्त कर्मवे, उदयात्-परिपाकले। अधिक शुभ कौके उदयसे अशुभ कर्म स्वयमेव नष्ट हो जाते हैं। अतिशय प्रशस्त कर्मके परिपाकसे बुरे कर्मोंका नाश हो जाता है। प्रशस्त कर्मका उदय किस प्रकार होता है ! उत्तर देते हैं जीववीर्योल्लासादिति ॥ २६॥ (४६९) मूलार्थ- जीवके वीर्यकी अधिकतासे (शुभ कमोदय होता है ॥२६॥ विवेचन-जीववीर्यस्य-शुद्ध सामर्थ्यरूप जीवके वीर्यकी, उल्लासात्- अधिकतासे । जीवकी शुद्ध शक्ति अतिशय बढनेसे शुभ कर्मका उदय होता है। आत्मा अनंत वीर्यवाला है पर वीर्य दब गया है। आत्मशक्ति शुभ मार्गमें लगानेसे शुभ कर्मोदय होता है। परिणतिवृद्धेरिति ॥ २७॥ (१७०) मलार्थ- जीवकी परिणतिकी वृद्धिसे ॥२७|| विवेचन- परिपतेः- उसके शुभ अध्यवसायकी, वृद्धःनढनेसे, उत्कर्षसे । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RA ४१८ : धर्मबिन्दु जीवके शुभ अध्यवसायकी बढतीसे जीवके वीर्यका उल्लास होता है। जहां आत्मामें शुभ विचारोकी वृद्धि हुई, वैसे ही विचारोंको कार्यरूपमें लानेकी वृत्ति होती है। तत् तथास्वभावत्वादिति ॥२८॥ (१७१) मूलार्थ-जीवको उस प्रकारका स्वभाव होनेसे ॥२८॥ विवेचन-तस्य जीवका, तथास्वभावत्वात् . परिणतिके वृद्धि स्वरूप । जीवका शुभ अध्यवसाय होना जीवका स्वभाव है । आत्मा अनंत ज्ञानवाला है और उससे उच्च ज्ञान स्वरूप होनेसे आत्माका शुभ अध्यवसाय होना स्वभाविक है। जब भव्यता परिपक्क होती है तव जीवकी शुभ परिणति अतिशय वृद्धि प्राप्त करती है। . किञ्च-प्रभूतोदाराण्यपि तस्य भोगसाधनानि, अयत्नोपनतत्वात् प्रासङ्गिकत्वादभिषगा. भावात् कुत्सिताप्रवृत्तेः शुभानुबन्धित्वादुदारासुखसाधनान्येव बन्धहेतु स्वाभावेनेति ॥२९।। (४७२) मूलार्थ-और अतिशय उदार ऐसे भोगके साधन भी बन्धके कारणका अभाव होनेसे उदारता सुखका साधन होता है क्योंकि वे शुभ कर्मके अनुवन्धसे उत्पन्न होते हैं । उससे कुत्सित कर्ममें प्रवृत्ति नहीं होती और उससे उसमें असक्तिका Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल देशना विधि : ४१९ अभाव होता है । उससे वह प्रसंगोपात्त मिलता है और उनके लिये प्रयत्न नहीं करना पड़ता ॥२९॥ विवेचन-प्रभूतानि-प्रचुर, उदाराणि-पात उदार, बालताने, तस्य- पूर्वोक्त जीवके, भोगसाधनानि-नगर, परिवार, अंतपुर आदि 'उदारमुग्वसाधनान्ये' जो बादमें आता है उससे संवा । अपत्नोपननत्यान--बिना यत्नके बहुत तीन पुण्य के उदयस यह अपने आप खींच कर आता है, वह बिना पुरुप प्रयत्नके प्राप्त होता है। प्रायशिकत्वान-प्रसंगवश जैसे खेती करनेसे पाल उत्पन्न होता है उसी तर भोग साधन अपने माप लाते हैं। अभिनयाभावान-भरत आदिकी तरह अतिगाढ आसत्तिसे रहित, वह भी, कलिगताप्रवृत्ते अनीतिमार्ग छोटकर नीतिमार्गमें प्रवृत्ति करते है, शुमानुबन्धित्वात् -मोक्ष प्राप्तिके निमित्तरूप आर्यदेश, दृढसहनन (गरीरकी बनावट) आदि कुशल व शुभ कार्यके अनुबन्धसे, उदारसुखसाधनान्येव-उदार व अतिशय मुराके साधन-शरीर व चित्तको अहलाद देनेवाले पर इस लोक व परलोकमै दुःर न उत्पन्न करनेवाले, उनका तात्विक हेतु यह है-पन्धहेतुत्वामानबन्ध हेतुका अभाव होनेसे, कुगतिमें पडनेके निमित्तरूप जो अशुभ कर्मप्रकृतिके लक्षणवाले बन्धका हेतु, प्रक्रात भोग साधनौके अभावसे -इसका तात्पर्य यह कि बहुत उदार भोग साधनोकी बंध हेतुताके अभावमे उदार सुखके साधन ही उस पुरुपको प्राप्त होते है । बंध हेतुका भाव प्रयत्न विना मिलता है । ऐसे धर्मिष्ट पुरुषको अनेक सुखके साधन मिलते हैं। नगर, Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० : धर्मविन्दु परिवार आदि भोग साधन भी उसे सुख के साधन होते हैं, दुःखके कारणभूत नहीं । वे शुभ कर्मके उदयसे प्रयत्न बिना खींचकर आते हैं । मोक्षका उद्यम करते हुए प्रसंगवश भोगके साधन ऐसे ही मिलते है जैसे गेहूं की खेती मे घास । राजा भरतकी तरह उसको आसक्ति नहीं होती । पुण्यानुबंधी पुण्यके उदयसे उसकी अशुभ मार्ग में प्रवृत्ति नहीं होती । इससे भोगके साधन उसे दुःखरूप न होकर सुखके कारणभूत ही होते हैं । कुगतिमं पड़नेके कारणरूप अशुभ कर्मप्रकृतिरूप कर्मबंधका अभाव होनेसे भोगसाधन सुख साधन होते हैं क्योकि उसे पुण्यानुबंधी पुण्यका उदय है । अशुभपरिणाम एव हि प्रधानं बन्धकारणम्, तदङ्गतया तु बाह्यमिति ॥३०॥ (४७३) सूलार्थ - अशुभ परिणाम ही बंधका मुख्य कारण है उससे ही बाह्य (अंतःपुर आदि) कारण बंधके हेतु होते हैं ||३०|| विवेचन-- प्रधान- मुख्य, बन्धकारणं - नारकादि फलवाले पापकर्म के बन्धनका निमित्त, तदङ्गतया तु अशुभ परिणामके कारण ही, बाह्यम्--अंतःपुर आदि बध कारण है । अशुभ परिणाम ही पाप बन्धका मुख्य कारण है । पापकर्मका बन्धन मनके अशुभ परिणामसे विचार या परिणति से होता है और नगर, अंतःपुर आदि बाबा भोगके साधन तो मात्र अशुभ परिणामके निमित्त मात्र बनते हैं अतः वे भी बंध कारण गिने गये है पर वस्तुतः अशुभ परिणाम ही बंधका कारण है । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल देशना विधि : ४२१ तदभावे वाह्यादल्पवन्धभावादिति॥३२॥(४७४) मूलार्थ-अशुभ परिणामका अभाव होने पर तो वाह्य (अशुभ कार्य)से अल्प बंध होता है ॥३१॥ विवेचन-तदभावे-अशुभ परिणामके अमावसे, वाह्यात्जीवहिंसा आदि बाह्य अशुभ कार्योसे, अल्पबन्धमावाद-तुच्छ बंधकी उत्पत्ति होती है। यदि अशुभ परिणाम न हो और वाय कोई अशुभ कार्य जैसे जीवहिंसादि हो जाय तो उससे बहुत अल्प कर्मवन्ध होता है। भाव ही मुख्य है. कर्म गौण है। - वचनप्रामाण्यादिति ॥३२॥ (४७६) मूलार्थ-आगमके वचन प्रमाणसे ॥३२॥ विवेचन-वचनस्य-आगमका, प्रामाण्यात्-प्रमाणभावसे । तीर्थकर प्ररूपित आगमके प्रमाणसे कहते हैं कि अशुभ परिणाम ही बंधका मुख्य कारण है। और अशुभ परिणाम विना वाह अशुभ आचरणसे अल्प कर्मबन्ध होता है । बायोपमर्देऽप्यसंज्ञिषु तथाश्रुतेरिति ॥३३॥ (१७६) मूलार्थ-बाह्य हिंसा होने पर भी असंज्ञी जीवोंके लिये शास्त्रमें वैसा ही कहा है ॥३३|| विवेचन-बाह्य-शरीर मात्रसे की हुई हिंसा, केवल शरीरसे बहुत जीवों की हिंसा करने पर भी, असंज्ञिपु-समूर्छिम ऐसे महा Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ : धर्मविन्दु भत्त्यादि द्वारा तथा - अल्पबंध, श्रुते:-- 'असंज्ञी जीव प्रथम रक तक जाता है' ऐसे वचनोंसे सिद्धांत में ऐसा कहा है | केवल बाह्य हिंसा, शरीर मात्र से की हुई असख्य जीवोंकी हिंसा करने पर भी असंत्री जीवोको पापकर्मका बंध अल्प होता है। जैसे महामत्स्यादि जो असंज्ञी है केवल पहली नाक में ही जाते हैं । (असंज्ञी - विना मनवाले प्राणी) । 1 शास्त्रमें कहा है कि - असज्ञी मत्स्य आदिका शरीर एक हजार योजन तकका होता है वे स्वयंभूरमण महासमुद्र में निरंतर डोलते हैं-घूमते हैं । वे पूर्वकोटि वर्षों तक जीवित रहते हैं और अनेक प्राणियोका सहार करते हैं तो भी पहली रत्नप्रभा पृथ्वी तक ही ( नग्मे) उत्पन्न होते हैं । वइ उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्येय भागके आयुष्यवाके और पहली नरक के चौथे प्रतरमें रहे हुए नारकी जीवोंके साथ जन्म प्राप्त करते हैं उससे आगे नहीं जाते। पर तदुल नामक मत्स्य बाहरसे हिंसा न कर सकने पर भी निमित्त विना बहुत तीव्र रौद्र ध्यान करनेवाले होने से अतर्मुहूर्त आयुष्य पाल कर भी सातवीं नरकको प्राप्त होता है जहा तैतीस सागरोपमकी आयु प्राप्त करता है यतः परिणाम ही प्रधान वैधका करण है ऐसा सिद्ध होता है । ऐसा होने पर भी दूसरी बात सिद्ध होती है - वह कहते है एवं परिणाम एव शुभो मोक्षकारणमपीति ||३४|| (४७७) भ्रूलार्थ - ऐसे ही शुभ परिणाम मोक्षका कारण है ||३४|| Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल देशना विधि : ४२३ विवेचन-एवं-जैसे अशुभ बंधनमें वैसे ही परिणामसे, शुभासम्यग्दर्शन आदि, मोक्षकारणमपि-मुक्तिका हेतु भी।। जैसे अशुभ परिणामसे पापबंध होता है वैसे ही मनके शुभ परिणामसे तथा शुभ अध्यवसायसे मोक्षकी भी प्राप्ति होती है । शुभ परिणामसे अशुभ कर्मबंध रुक जाते हैं और पापक्षय होकर मोक्ष प्राप्ति होती है। शुभ परिणाम बिना केवल क्रियासे मोक्ष नहीं मिलता। “तदभावे समग्रक्रियायोगेऽपि मोक्षा सिद्धरिति ॥३५।। (४७८) मूलार्थ-शुभ परिणामके अभावमे संपूर्ण क्रियाका योग होने पर भी मोक्षसिद्धि नहीं होती ॥३५॥ विवेचन-तदभावे-शुभ परिणामके न होने पर, समग्रक्रियायोगेऽपि-श्रमणोचित संपूर्ण क्रिया व बाह्य अनुष्ठान करने पर मी, मोक्षासिद्धेः-निर्वाण प्राप्ति नहीं होती। दिप मुनिपनके उचित सब बाह्य अनुष्ठान साधु करे और चारित्रके सब वाह्य आचारका पालन करे तो भी आचार व अनुष्ठानमें शुभ भाव न हो तो मोक्ष नहीं मिल सकता । अतः सिद्ध होता है किशुभ परिणाम ही मोक्षका मुख्य कारण है। वाह्य क्रियाओसे ऊंची स्थिति मिलती है पर शुभ परिणाम विना मोक्ष नहीं मिलता । सर्वजीवानामेवानन्तशो वेयकोपपात- श्रवणादिति ॥३६॥ (४७९) Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ : धर्मविन्दु मूलार्थ--सब जीवोंको भी अनंत बार अवेयकमें उत्पत्ति हुई है-ऐसा सुनते हैं ॥३६॥ विवेचन- सर्वजीवानामेव व्यवहार राशिम रहे हुए सन जीवोंकी, अनन्तशः अनन्त वार, गैवेयकेपु-ग्रैवेयक विमानमें, उपपात-उत्पत्ति, श्रवणात-शास्त्रमे सुनते हैं। शुभ परिणाम बिना बाह्य आचारसे सब जीव अनन्तबार वेयक तक देवस्थिति प्राप्त करनेमें समर्थ हुए है पर शुभ परिणाम विना मोक्ष नहीं मिलता। समग्रक्रियाऽभावे तदनवाप्तेरिति ॥३७॥ (४८०) मूलार्थ-समस्त क्रियाके अमावमें नवमे ग्रैवेयककी प्राप्ति नहीं होता ॥३७॥ विवेचन--समग्रक्रियाऽभावे श्रमणके उचित पूर्ण अनुष्ठानके न होने पर, तदनवाप्ते नवमें ग्रैवेयकमें उत्पत्ति नहीं होती। ___परिपूर्ण साधुके आचार पालन विना नवमें अवेयककी प्राप्ति नहीं होती । अतः शुभ परिणाम बिना मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती। कहते है कि " आणो हेणाणता, मुका गेवेज्जगेसु य सरीरा। न य तत्थाऽसंपुण्णाए साहुकिरियाइ उववाउत्ति ॥२१३॥ -सामान्यतः सब जीवोंने अवेयकमें अनंत शरीर पाये है या अनंत बार उत्पन्न हुए हैं और इस अवेयकमें असंपूर्ण क्रियासे उत्पत्ति नहीं होती। भतः संपूर्ण साधु क्रिया होने पर भी सम्यगदर्शन आदि Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल देशना विधि : ४२५ शुभ परिणाम न हो तो जीवको मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती अत' मोक्षका प्रधान कारण शुभ परिणाम ही हैं। अव उपसंहार करते हुए शसकार कहते हैं इत्यप्रमादसुखवृद्धया तत्काष्ठासिद्धी निर्वाणाचासिरितीति ॥३८॥ (४८१) मृलार्थ-इस प्रकार अप्रमादसुखकी वृद्धिसे चारित्र धर्मकी मडी सिद्धि होने पर मोक्ष प्राप्ति होती है ॥३८॥ विवेचन-इति-इस प्रकार उक्त रीतिसे, अप्रमादसुखवृद्ध्याअप्रमत्तता लक्षणकी वृद्धि होनेसे, प्रमादके मिटनेसे, अप्रमादकी वृद्धि होनेसे-तवकाष्टासिद्धौ-चारित्र धर्मकी उत्कृष्ट सिद्धि होने पर शैलेशी अवस्थाकी प्राप्ति होनेसे, निर्वाणस्य-सब क्लेशके लेश मात्र भी न रहनेसे जीवका असली वरूपका मिलना ही निर्वाण है, अवाप्ति-मिलना। ____ मोक्ष प्राप्तिके लिये साधु अप्रमादी होवे । शुभ विचार निरंतर बढे पर अशुभ विचार उसमें न घुस सके और चारित्रपालनकी उच्चतर हद तक बढे तभी उसे निर्वाण मिल सकता है। वही आत्मत्त्वरूपको पा करके मोक्ष पाता है। यत् किञ्चन शुभं लोके, स्थानं तत् सर्वमेव हि। अनुबन्धगुणोपेतं, धर्मादाप्नोति मानवः ॥४०॥ मूलार्थ-इस लोकमें जो कोई शुभ स्थान कहलाते हैं वे सब उत्तरोत्तर शुभ गुण सहित मनुष्य धर्मद्वारा प्राप्त करता है। विवेचन-यत् किञ्चन-सब कुछ, शुभं-सुंदर, लोके तीनों Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ : धर्मविन्दु जगतमें, स्थान-इन्द्र आदिकी अवस्था आदि शुम स्थान, अनुबन्धगुणोपेतं-असली स्वर्णके घडेकी तरह उत्तरोत्तर शुभानुबन्ध सहित शुभ स्थान, धर्मात्-धर्मसे, आप्नोति-प्राप्त करता है, मानव:मनुष्य, मनुष्य ही परिपूर्ण धर्मसाधन प्राप्त कर सकता है। इस लोकमे जो उत्तमोत्तम स्थान है जैसे इंद्र आदिका, वे सब धर्मसे ही मनुष्यको मिलते हैं। उसमे भी उत्तरोचर गुणोंकी वृद्धि होती है। भावार्थ यह है कि अच्छी तरह सेवन करनेसे धर्मसे मनुष्य पुण्यानुबंधी पुण्य उपार्जन करता है और उससे शुभ मार्ग में उत्तरो. तर बढ़ता जाता है। तथाधर्मश्चिन्तामणिः श्रेष्टो, धर्मः कल्याणमुत्तमम् । हित एकान्ततो धर्मो, धर्म एवामृतं परम् ॥४१॥ मूलार्थ-और धर्म श्रेष्ठ चिंतामणि रत्नके समान है, धर्म उत्तम कल्याणकारी है, धर्म एकान्त हितकारी है और धर्म ही परम अमृत है ॥४१॥ विवेचन-यहां बारवार धर्म शब्दको कहा है उसका कारण है कि धर्म अवर आदरणीय है यह बताने के लिये ही। अत. धर्मका आदर करे। तथाचतुर्दशमहारत्नसभोगानृष्वनुत्तमम् । चक्रवर्तिपदं प्रोक्तं, धर्महेलाविजृम्भितम् ॥४२॥ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल देशना विधि : ४२७ मूलार्थ-चौदह महारत्नोंके भोगसे मनुष्यों में उत्तमोत्तम गिना जानेवाला चक्रवर्तीका पद भी धर्मकी लीलाका विलास मात्र है ॥४२॥ विवेचन-चौदह महारत्नोंके नाम-१ सेनापति, २ गृहपति, ३ पुरोहित, ४ हाथी, ५ घोडा, ६ वर्द्धकि (मिस्त्री), ७ स्त्री, ८ चक्र, ९ छत्र, १० चर्म (चामर), ११ मणि, १२ काकिणी, १३ खड्ग, १४ दंड-ये चौदह महारत्न हैं। सद्भोगाव-सुदर उपभोग, नृषुमनुष्योंमें, अनुत्तमम्-सबमें प्रधान, मुख्य, अनुपम, चक्रवर्तिपदम्चक्रधरकी पदवी, प्रोक्तम्-सिद्धांतमें कहा हुआ, प्रतिपादित किया हुआ, धर्महेलाविजृम्भितम्-धर्मकी लीलाके विलास समान । इन चौदह महारत्नोका सुख चक्रवर्ती भोगता है। उसका मुख अनुपम गिना जाता है। ऐसा सुख भी धर्मके कारण लीला मात्र है, सहजमें ही प्राप्त होता है। अतः धर्मकी आराधना ही सार है। मुनिचन्द्रसरि विरचित धर्मविन्दुकी टीकाका धर्मफलविधि नामक सातवां अध्याय समाप्त । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्याय। अब आठवां अध्याय प्रारंभ करते हैं, उसका यह पहला सूत्र हैकिं चेह बहुनोक्तेन, तीर्थकृत्त्वं जगद्वितम् । परिशुद्धादवाप्नोति, धर्माभ्यासान्नरोत्तमः ॥४३॥ मूलार्थ-अधिक कहनेसे क्या लाभ ? उत्तम पुरुष अतिशुद्ध धर्मके अभ्याससे जगतके लिये हितकारी तीर्थकर पदको प्राप्त करता है ॥४३॥ विवेचन-किं च- क्या अर्थ - इह- धर्मफलके बारेमें, बहुनोक्तन- बहुत कहनेसे, तीर्थकृत्त्वं- तीर्थकर पद, जगद्धितंजगतके जन्तुओंके हितको करनेवाला, परिशुद्धाव- अतिनिर्मल व शुद्ध, अवामोति-धर्माभ्याससे प्राप्त करता है, नरोत्तमः- स्वभावसे ही अन्य सामान्य पुरुषोमे मुख्य। ___धर्मके फलका बहुत वर्णन करनेसे क्या लाभ ? मनुष्य जगत्के लिये हितकारी तीर्थंकर पद भी धर्मसे प्राप्त कर सकता है तो इंद्रादिकी विभूतिएं मिलना तो मामूली बात है। यह फल उत्तमोत्तम पुरुष ही प्राप्त कर सकता है। तीर्थंकर पद प्राप्त कर सकनेवालेके -सामान्य गुण इस प्रकार है Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल विशेष देशना विधिः ४२९ - वे परहितको ही उत्कृष्ट धर्म समझते हैं। अपने स्वार्थको गौण (या हलका ) स्थान देते हैं। उचित क्रियामें प्रवृत्ति करते हैं। सर्वदा मदीन भाव बताते हैं। उनका प्रत्येक कार्यका प्रारंभ सफ लतापूर्वक ही होता है या प्रत्येक आरंभ किये हुए कार्यमें सफलता ही मिलती है। पश्चात्ताप नहीं करते या पश्चात्ताप करनेका कोई अवसर ही नहीं आता। कृतज्ञताके स्वामी, विक्षोभ रहित चित्तवाले, देवगुरुका बहुमान करनेवाले तथा गंभीर आशयवाले होते हैं ये सामान्य गुण हैं। यदि तीर्थंकरपद धर्मसे प्राप्त होता है तो वह धर्मका उत्कृष्ट फल है-ऐसा कैसे कहा ? कहते हैं-- नातः परं जगत्यस्मिन्, विद्यते स्थानमुत्तमम् । तीर्थकृत्त्वं यथा सम्यक्, स्व-परार्थप्रसाधकम् ॥४४॥ मूलार्थ-स्व और परके कल्याणको करनेवाला जितना उत्तम यह तीर्थकर पद है वैसा उत्तम स्थान इस जगतमें दसरा एक भी नहीं है ॥४४॥ विवेचन-न अत:- तीर्थंकर पदसे- नहीं, परम्-कोई दूसरा, नगत्यस्मिन्-इस चराचर स्वभावके जगत्में मिलना, विद्यते-होना, स्थान- पद, उत्तम- उत्कृष्ट, सम्यक्-ठीक प्रकारसे, स्वपरार्थसाधकं- अपने तथा दूसरेके हितको करनेवाला। तीर्थकर पद ही ऐसा है जिसमें अपना तथा दूसरेका हित उत्तमोत्तम रूपसे साधा जा सकता है। इस सारे जगत्में अन्य कोई Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० : धर्म विन्दु वस्तु स्थान या पद नहीं जिसमें इससे अधिक स्व-परका हित साधन हो सके । तीर्थकरका अर्थ ही जगदुद्धारक होता है। संसार समुद्र तैरना ही तीर्थ हैं, तीर्थको करे वही तीर्थकर । तीर्थकर नामकर्म ही 1 विश्वका उपकार करनेवाला है, जैसे- विश्वोपकार की भूततीकृनामनिर्मितिः । पञ्चरपि महाकल्याणेपु त्रैलोक्यशङ्करम् । तथैव स्वार्थसंसिद्धया, परं निर्वाणकारणम् ||४५ ।। मूलार्थ - तीर्थंकरपद पांचों महाकल्याणकोंके अवसर पर तीनों लोकोंका कल्याण करनेवाला है और स्वार्थसाधनमें मोक्ष प्राप्ति ही उत्कृष्ट कारण है ॥४५॥ विवेचन - पश्ञ्चस्वपि - पांचो समयो पर, महाकल्याणेषु - तीर्थकरके महाकल्याणक के अवसर पर, जैसे- गर्भाधान ( या यवन) जन्म, दीक्षा आदि। केवलज्ञान प्राप्ति व निर्वाण चौथे व पांचवें कल्याणक हैं। त्रैलोक्यशङ्करम् - तीनों लोकोंको सुख करनेवाले, तथैव - तीनों लोकोको सुख देने पूर्वक, स्वार्थसंसिद्ध्या - क्षायिक सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्रकी सिद्धिसे, परं- मुख्य, निर्वाणकारणंमुक्तिका हेतु है। प्रत्येक तीर्थकरके पांच कल्याणक ( उपरोक) होते है। इन यांचों कल्याणकोंके समय तीनों लोकोंमें सब जगत् के जीव मात्रको आनंद होता है । अतः यह परोपकार करनेवाला तीर्थंकरपद है । और क्षायिक सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र के लाभसे मोक्षकी प्राप्ति होती है जो स्वयं या आत्माका उत्कृष्ट अर्थसाधन है। इस प्रकार तीर्थंकर स्वार्थ व परार्थ साधक है । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४३१ इत्युक्तप्रायं धर्मफलम्, हदानीं तच्छेषमेव उदग्रमनुवर्णयिष्याम इति ॥ १ ॥ (४८२ ) मूलार्थ - इस प्रकार प्रायः धर्मफल कहा है अब बाकी रहा हुआ ( धर्मफल ) उत्कृष्ट फलका वर्णन करते हैं ॥१॥ विवेचन - धर्मका फल पिछले अध्याय में वर्णन किया है । उसका जो बचा हुआ है और जो धर्मका उत्कृष्ट फल है उसका अव शात्रकार वर्णन करते हैं तच सुखपरम्परया प्रकृष्टभावशुद्धेः सामान्यं चरमजन्म तथा तीर्थकृत्वं चेति ॥२॥ (४८३) मूलार्थ - सुखकी परंपरा से उत्कृष्ट भावकी शुद्धि होनेसे सामान्यतः आखिरी जन्म और तीर्थकरपद ये धर्मके उत्कृष्ट फल हैं ||२|| विवेचन - परम्परया- उत्कृष्ट भावशुद्धि होने तक उत्तरोत्तर क्रमश चढते हुए मुखसे, सामान्यं - जो तीर्थंकर और दूसरे मोक्षगामी जीवोंके लिये जो तीर्थंकर नहीं है- समान है, चरमजन्मअतिम बारका जन्म, जिसके बाद देहधारण करना न पडे, तीर्थकृत्त्वं तीर्थंकर । ; धर्मका सामान्य फल पूर्व वर्णित देव तथा मनुष्योके सुख हैं। उत्कृष्ट फल तो उत्तरोत्तर सुखवृद्धि तथा भावकी क्रमश उत्तमता प्रगट होना है इससे अंतत उत्कृष्ट फल चरम देह है जिससे सीधे मुक्तिमें जाते है तथा दुबारा जन्म-मरणके कष्टसे तथा देह धारण Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२: धर्मविन्दु करनेसे छूटकारा हो जाता है। पर तीर्थंकरका उत्कृष्ट फल कुछको ही होता है। यद्यपि चरमदेह तो सब केवली होनेवाले भव्य जीवोंको मिलती है। तत्राक्लिष्टमनुत्तरं विषयसौख्यं हीनभावविगमा, उदनतरा संपत्, प्रभूतोपकारकरणं, आशय-- विशुद्धिः, धर्मप्रधानता, अवन्ध्यक्रिया-- - त्वमिति ॥३॥ (४८४) मूलार्थ-उस चरम देहमें क्लेशरहित अनुपम विषय सुख मिलता है। हीन भावका नाश होता है। अत्यंत महान संपत्ति प्राप्त होती है। बहुत उपकार किया जाता है अतः कारणकी शुद्धि या आशय-शुद्धि होती है। धर्म ही प्रधान विषय होता है। तथा सब क्रियायें सफल होती है ॥३॥ विवेचन-अक्लिट-सुंदर परिणामवाले, क्लेश रहित, अनुत्तमअन्य भोगोमे मुख्य सुख, विषयसौख्यं-शब्द आदि विषयोंका सुख, हीनभावविगमः-जाति, कुल, वैभव, उम्र, अवस्था आदि सबकी कमी या न्यूनतारूप जो हीनता होती है वह सब इसमें नहीं होती। अर्थात् इन सबकी या किसी एककी हीनता रहित, सब बातें अच्छी हीन नहीं), उदग्रतरा संपत-पूर्वभवोंसे अत्यत उच्च संपत्ति, जैसे-द्विपद, चतुष्पद आदि संपत्तिकी प्राप्ति है। प्रभूतोपकारकरण-अपना व परायेका अतिशय भला व काम करनेका मौका मिलना, इससे ही, आशयविशुद्धिः-चित्तकी निर्मलता, निर्मल भाव, Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४३३ धर्मप्रधानता - धर्म ही सार है, अवन्ध्यक्रिया - बहुत निपुण विवेकद्वारा प्राप्त सब वस्तुओका यथार्थ तत्त्व जाननेसे क्रियाकी धर्म आदिके आराघनरूप क्रियाका हमेशा सफल होना, निष्फल न जाना । 1 उपरोक्त सात बातें चरम जन्ममें प्राणीको मिलती हैं । इस स्थान पर चरम देहवाले, जिसे उस भवमें 'केवल' व मुक्तिकी प्राप्ति होती है, उसको मिलनेवाली वस्तुएं तथा उसकी आंतरिक व बाह्य स्थितिका वर्णन किया है । क्लेशरहित विषयसुखकी प्राप्ति होती है । वह प्रत्येक प्रकारसे अच्छा, पूर्ण व हीनतारहित होता है अर्थात् जाति, कुल, वैभव, अवस्था आदि सब उत्तम होते है । वह तन, मन व धनसे सबका उपकार करता है। उसका स्वभाव परोपकारमॅय हो जाता है । उसमें स्व-परका भेद नहीं होता । 'उदारचरितानां Ì ंतु वसुधैव कुटुम्बकम्' । ममत्व-भावनारहित प्रेममय स्वभाव निर्मल चित्तवाला होता । धर्मभावना ही उसमें मुख्य होती है तथा उसकी सब क्रियायें सफल होती हैं । चरमदेही ये प्राप्त करता है । तथा - विशुद्धयमांनाप्रतिपातिचरणावाप्तिः, तत्सात्म्यभावः, भव्यप्रमोदहेतुता, ध्यानसुखयोंगः, अतिशयद्विप्राप्ति- रिति ||४|| (४८५) मूलार्थ- शुद्ध तथा नाशे न होनेवाले चारित्रकी प्राप्ति होती है | चारित्रके साथ आत्माकी एकता होती है। वह ૨૮ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ : धर्मबिन्दु भव्य जनोंके लिये हर्षका कारण होता है। ध्यानके सुखकी प्राप्ति होती है और अतिशय ऋद्धिकी प्राप्ति होती है ॥४॥ विशुद्ध्यमानस्य-हीनता व क्लेशसे रहित तथा भिन्न अतः केवल शुद्ध, अप्रतिपातिनः-जिसका कभी भी नाश न हो, चरणावाप्ति-चारित्रकी प्राप्ति, तत्सात्म्यभावा-ऐसे चारित्रके कारण ही उसके साथ आत्माकी एकता हो जाती है और ऐसा,सुंदरभाव उत्पन्न होता है, चारित्रके साथ आत्मा मिलकर एकरस हो जाता है; (भावपरिणति ,, भव्य प्रमोदहेतुता-भव्य जनोंको संतोष व हर्ष पैदा करनेवाला, ध्यानसुखयोग:-ध्यान सुखका, अन्य सब सुखोसे अतिशय ज्यादा सुखवाला, चित्तका निरोध करनेवाला योग, अतिशर्द्धिप्राप्तिरिति--अतिशय ऋद्धि, जैसे--आमर्षऔषधि आदि लब्धिओकी प्राप्ति होना, (उपर्युक्त सूत्रकी ७ बातोंमें ये ५ मिलानेसे १२ हुई) : .. , इस चरम देहमे ( अंतिम भवमें ) अतिचार रहित, भावन्यूनता विना यथाख्यात चारित्रका पालन करता है। वह चारित्रसे कभी नहीं डिगता। चारित्रके साथ उसकी एकता हो जाती है। उसके उच्च विचार कार्यरूपमे आते हैं। . उसके (धर्मिष्ठ जीवके अतिम भवमें-चरम देहवालेके) आचार विचारसे मुमुक्षु क भव्य जीवोंको बहुत लाभ होता है तथा आनंद व संतोष भी। साथ ही ध्यानसे उत्पन्न होनेवाला अचिन्त्य सुख मिलता है। चित्तवृत्ति स्थिर होती है। चित्तके निरोधसे आत्मज्योति Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल विशेष देशना विधि . ४३५ बढकर ज्ञानकी वृद्धि होती है। यह ध्यानयोगका उत्तम सुख अवर्णनीय है । उस भवमें योग वलसे, आत्मबलसे उसे कई लधिओंकी प्राप्ति होती है। . . . . . . अपूर्वकरणं, क्षपकश्रेणिः, मोहसागरोत्तारः, - केवलाभिव्यक्तिः, परमसुखलाभ इति १५॥ (४८६) - मृलार्थ-उपरोक्त गुणों की प्राप्तिके वाद समय आने पर अपूर्वकरण (आठवां गुणस्थान ) पाता है। क्षपकश्रेणि चढता है, मोहरूपी सागरको तैरता है, केवलज्ञानी होता है और मोक्ष प्राप्त करता है ॥५॥ . . . __- विवेचन-अपूर्वकरणं- मोक्ष प्राप्ति के लिये आत्मा धीरे धीरे चढता है। उसके लिये कुल चौदह गुणस्थानक कहे गये हैं। एक पर्वत शिखर जिसके ऊपर मोक्ष है. तथा नीचे मिथ्यात्व हैं, उस पर चढनेके लिये चौदह विश्राम स्थान हैं। वे चौदह गुणके स्थानक हैं इसमे आठवां अपूर्वकरण कहलाता है। पहले किसी गुणस्थानकमें प्राप्त न होनेवाली पांच वाते यहां मिलती हैं-स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि, गुणसंक्रम- तथा अपूर्व स्थितिबंध-इस गुणस्थानक परे आनेसे साधु कर्मोंका क्षय जल्दी जल्दी करने लगता है। इस क्रमश: क्षयको क्षपकश्रेणि कहते हैं। आपकश्रेणि- घातीकर्म व प्रकृतिको क्षय करनेवाला यत्न क्षपककी श्रेणि याने मोहनीय आदि कर्मोको क्षय करनेकी क्रमशः प्रवृत्ति होना । क्षपक श्रेणिका क्रम इस प्रकार है Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ : धर्म पिन्दु www इस चरमदेह में, अंतिम भवमें जीवके सम्यग्दर्शन आदि गुण पूर्ण परिषक होते हैं। वह अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत, व अप्रमतसंयत नामक चार गुणस्थानकमेंसे किसीमें भी स्थित होकर अपने मनको अतिशय वृद्धि पाते हुए तीव्र शुभ ध्यानके आधीन करता है तथा क्षपकश्रेणि पर चढने की इच्छा करता है। वह अपूर्वकरण गुणस्थानकको पाकर पहले चारों अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ नामक कपायका एक साथ क्षय करने लगता है । अनंतानुवधी कपायोंका बल हीन हो जाने पर तथा कुछ बाकी रहनेके समय मिध्यात्वका क्षय करने लगता है। तब बचे हुए कपायोंका तथा मिथ्यात्वका क्षय करता है। उनके क्षय होने पर क्रमशः सम्यकू ( मिश्रपुंज) और सम्यक्त्व ( शुद्वपुंज ) का क्षय करता है। पहले मिश्रपुंज, बाद में शुद्धपुंजको खपाठा है। उसके बाद जिसने आयुबंध नहीं किया वह जीव सकल मोहको नाश करनेमें समर्थ अनिवृत्तिकरण नामक नवमे गुणस्थानक पर चढ़ता है । उस पर रहा हुआ जीव अपने चित्तको प्रतिक्षण शुद्ध करता हुआ इस गुणस्थानकके कितने ही संख्यात भागके जाने पर अप्रत्याख्यानावरणीय और प्रत्याख्यानावरणीय नामक क्रोधादिक आठ कषायोका क्षय करना आरंभ करता है। उनका क्षय करते हुए शुभ अध्यवसाय द्वारा निम्न सोहल प्रकृतियोंका नाश करता है १ निद्रानिद्रा, २ प्रचलाप्रचला, ३ क्षीणद्धि निद्रा (Somnambulism), ४ चरक गति, ५ नरकानुपूर्वी, ६ तिर्यग्गति, ७ तिर्यगानुपूर्वी, ८ एकेन्द्रिय, ९ वेइद्रिय, १० तेइन्द्रिय, ११ चौरिन्द्रिय ' Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४३७ जाति नामकर्म, १२ आतप नामकर्म. १३ उद्योत नामकर्म, १४ साधारण नामकर्म, १५ स्थावर नामकर्म और १६ सूक्ष्म नामकर्म । ___इन सोलह प्रकृतियोको नाश करके- उपरोक्त आठ कषायोंका संपूर्ण क्षय करता है । तब यदि वह जीव पुरुषवेदी हो तो क्रमशः नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और हास्य, रति, अति, भीति, जुगुप्सा और गोक-इन छका नाश करता है । और तब पुरुषवेदका क्षय करता है। यदि वह जीव स्त्री हो तो पहले नपुंसकवेद, फिर पुरुषवेद तथा अंत नपुंसकवेदका क्षय करता है। उसके बाद क्रमशः क्रोध, मान, माया-तीनो संचलन कषायोका क्षय करके बादर लेोभका भी क्षय इसी गुणस्थानकमें करता है। फिर सूक्ष्म संपगय नामक गुणस्थानक पाकर सूक्ष्म लोभको खपाता है।इस प्रकार कषायोका सर्वथा नाश करके सकल मोह विकारोसे निवृत्त होकर क्षीणमोह नामक गुणस्थानकको प्राप्त करता है। वहां समुद्र तैर कर वाहर नीकले हुए या रणक्षेत्रमें जीत कर आये हुए पुरुषकी तरह मोह निग्रहमें निश्चय अध्यवसायके कारण हुआ होनेसे उस वारहवे गुणस्थानको मंतर्मुहर्त विश्राम लेकर उस गुणस्थानकके अंतिम समयसे पहलेवाले समयमें निद्रा व प्रचला नामक दो प्रकृतियोंको खपाता है और अंतिम समयमें ज्ञानावरणकी पाच तथा अंतरायकी पांच और दर्शनावरणकी बची हुई चार, कुल चौदह प्रकृतियोका क्षय करता है। उपरोक्त वात उस जीवके लिये है जिसने आयुष्य नहीं वांधा। जिसने आयुष्य बांध लिया है वह चार अनंतानुबधी और तीन दर्शनमोहनीय-ऐसो सात प्रकृतियोंका क्षय करके विश्राम लेता है और Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ : धर्मविन्दु जैसा आयुवध किया हो उसे भोग कर भवांतर में क्षपकश्रेणि प्रारंभ करता है । यहां अपूर्वकरण के बाद क्षपकश्रेणिकी बात कही है वह सैद्धांतिक पक्षकी अपेक्षासे कही है | इसके अनुसार अपूर्वकरण गुणस्थानमे रह कर दर्शन मोहनी के सप्तकका क्षय करता है । कर्मग्रन्थके अभिप्राय से ऐसा नही है । उसके अभिप्राय से अविरत सम्यग्दृष्टि, विरत सम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त गुणस्थानक आदि चार गुणस्थानों में से किसी रहा हुआ भी जीव क्षपकश्रेणिको प्रारंभ कर सकता है । उसके बाद मोहसागरोत्तारः - मिथ्यात्व मोह आदिके सागरको जो स्वयंभूरमण सागरसे भी अधिक वेगवाला है वह पार ऊतरता हैदूसरे पार जाता है। उसके बाद केवलाभिव्यक्तिः - केवलज्ञान व केवलदर्शन की जो जीवका गुण है-प्राप्ति होती है, जिसमें ज्ञानावरणीय आदि घातीकर्मके नष्ट हो जानेसे वह प्रगट होता है, और तब परमसुखलाभ:- टत्कृष्ट सुखकी प्राप्ति करता है अर्थात् उत्कृष्ट देवताओंके सुखसे भी अधिक मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है । उसके बाद किसी अन्य प्रकारके आनंदकी इच्छा नहीं रहती । उसे परम आनंद मिलता है । " यच्च कामसुख लोके, यच्च दिव्यं महासुखम् 1 वीतरागसुखस्येदं, अनन्तांशे न विद्यते ॥ २१४॥ " - इस लोकमें जितना भी कामसुख है और देवताओं संबंधी जो भी महासुख है वह सब मिलकर भी वीतरागके सुखके अनंतवें Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४३९ हिस्सेके समान भी नहीं है। ___ इस चरमदेहवाले पुरुषको जो वस्तुएं प्राप्त होती हैं उनका उपरोक्त तीन सूत्रोंमें विवेचन किया गया है-३(४८४) से ५ (१८६) में, अक्लिष्टमनुत्तरं विषयसौख्यं-से लेकर परमसुखलाभ:-तककी १७ वस्तुएं चरमदेहीको मिलती है और इस सूत्रकी पांचों वस्तुएं अपूर्वकरण गुणस्थानक मिलनेसे लेकर प्रारंभ होती हैं और मोक्षसुखकी प्राप्ति संतमे उसे मिलती है। वहां वह जीव शाश्वत (सदा स्थिर रहनेवाला) आनंद पाता है। सदारोग्याप्तेरिति ॥६॥ (१८७) मूलार्थ-निरंतर आरोग्य रहता है ॥६॥ विवेचन-मोक्ष मिलनेके साथ मोक्षमें परम आनंद मिलता है उसका कारण बताते हुए कहते हैं कि वहा हमेशां सतत आरोग्य अवस्था, भाव आरोग्य अवस्था हो रहती है। भावसंनिपातक्षयादिति ॥७॥ (४८८) मूलार्थ-भाव संनिपातका क्षय हो जानेसे ॥७॥ 'विवेचन-भाव आरोग्यके मिलनेका कारण यह है कि भाव संनिपात नामक रोग विशेष, हृदयके रोग तथा मनके विकार आदि सबका नाश हो जाता है। मनके दुर्जय विकार तथा वासनाएं भावरोग हैं उसके नाशसे आमाकी स्वाभाविक स्थिति प्रगट होती है, केवलज्ञान प्राप्ति होती है । भावसंनिपातका रूप बताते हैं Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० : धर्म चिन्दु रागद्वेष मोहादिदोषाः, तथा तथाऽऽत्मदूषणादिति ||८|| (४८९) मूलार्थ - उस उस प्रकार से आत्माको दूषित करनेसे राग, द्वेष व मोह तीनों दोष हैं ॥ ८ ॥ विवेचन - दोषः - भावसंनिपातरूप त्रिदोष, तथा तथा उस उस प्रकारसे असक्ति आदिसे (द्वेष व मोह पैदा करा कर ) । जैसे शरीर के रोग में वात, पित्त व कफका त्रिदोष होता है वैसे ही आत्मा के रोगके लिये राग, द्वेष व मोहका त्रिदोष है जो व्यात्माको आसक्ति आदि दोषोंद्वारा दूषित करते हैं, जीव विकार पैदा करते हैं । यह मावरोग आत्माको निर्बल बनाता है | रागादिके बारेमे 'तत्त्व (स्वरूप), भेद व पर्याय' से व्याख्या करके बताते हैं - अविषयेऽभिष्वङ्गकरणाद् राग इति ||९|| ( ४९० ) मूलार्थ - अयोग्य विषयोंमें आसक्ति ही राग है ||९|| .. विवेचन - अविषये-स्वभावसे ही नाशवान स्त्री आदि, जिन पर बुद्धिमानोंको आसक्ति न करनी चाहिये, अभिष्वङ्गकरणाद् - मनकी आसक्ति करना । आत्माको छोड कर सब वस्तुएं क्षणभंगुर है । स्त्री आदि तथा अन्य जड वस्तुओं पर जो स्वभावसे ही नाशवान है आसक्ति रखना राग है | अतः सब परसे राग-आसक्ति भाव हठाना । चाहिये केवल आत्मा अविनाशी है अन्य संब नाशवान है अतः उन परसे रागको हठावे और आत्मतत्त्वका चिंतन करे । 1 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४४१ तत्रैवाग्निज्वालाकल्पमात्सर्यापादनाद् द्वेष इति ॥१०॥ (४९१). __ मूलार्थ-उसी नाशवान पदार्थ पर आसक्तिके कारण अग्निज्वाला समान मत्सर करना द्वेष है ॥१०॥ विवेचन-तत्रैव-त्री आदि पदार्थमें आसक्ति होनेसे अग्निकी ध्वाला समान जो सम्यक्त्व आदि सब गुणोंको जला देता है ऐसा मत्सर-दूसरेकी संपत्तिम असहिष्णुता-सहन न करना, आपादनात्होनेसे । । ____ जब किसी वस्तु पर आसक्ति हो और उसे प्राम करनेमें कोई बाधा आवे तब उसे सहन न करना, और उस पर क्रोध करना ही द्वेष है। यह द्वेष प्रमोद भाव तथा सम्यग्दर्शन आदि शुभ गुणोका नाश करता है अत: अग्निसमान है । द्वेष मन व आत्माकी निर्मल वृत्तिओंका नाश करता है । दूसरोके प्रति असहिष्णु वनना व क्रोध ही द्वेष है ! द्वेष आत्माकी वृद्धिको रोकता है अतः उसे छोडना चाहिये । हेयेतरभावाधिगमप्रतिवन्धविधानान्मोह इति ॥११॥ (४९२) मूलार्थ-हेय व उपादेय भावके ज्ञानको रोकनेवाला मोह नामक दोष है ॥११॥ विवेचन-हेयानां-निश्चय नयसे त्याज्य, मिथ्यात्व आदि, इतरेषां-उपादेय या ग्राह्य जैसे सम्यग्दर्शन आदि, भावाधिगम:इन भावोंका-या व्यवहार नयसे विष व कंटक आदि हेय तथा माला, Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ : धर्मविन्दु चंदन आदि उपादेय पदार्थों के भावका ज्ञान या विवेक, प्रतिबन्धविधानात् - रोकना, इस विवेक या ज्ञानके उत्पन्न होनेमे विघ्नरूपमोह दोष है । मोह एक उन्माद है | वह अज्ञान नामक रोग है । त्याज्य और ग्राह्य वस्तुएँ तथा भावोंके योग्य ज्ञान व विवेकको रोकनेवाला यह अज्ञान है । इस मोहसे, इस अज्ञानसे अग्राह्य या व्याज्य वस्तुओं को प्राप्त करनेकी लालसा व्यक्ति में होती है तथा वह ग्राह्य वस्तुओंको ग्रहण करनेकी ओर नहीं बढता । यह मोह नामक दोपके ही कारण है । मोहसे ही असत् मार्गमें प्रवृत्ति होती है । मोहसे बुद्धि निस्तेज होती है। विवेक बुद्धिसे ही यथार्थ ज्ञानसे ही मोहका बल कम किया जा सकता है | राग द्वेष व मोहके भाव संनिपातको बताते हुए कहते है 1 सत्स्वेतेषु न यथावस्थितं सुखं, स्वधातुवैषम्यादिति ॥१२॥ (४९३) मूलार्थ - इस त्रिदोष के होने से मूल प्रकृतिकी विषमतासे यथार्थ सुख नहीं मिल सकता ॥१२॥ विवेचन - सत्स्वेतेषु - राग आदि त्रिदोषके होनेसे, न - नहीं होता, यथावस्थितं - जीवका पारमार्थिक या यथार्थ सत्य सुख, स्वधातुवैषम्यात् - जीव स्वरूपको धारण करनेवाली धातु, धातवः - आत्माके "सम्यग्दर्शन आदि गुण, उनकी विषमता अर्थात् जीवका सत्य स्वरूप 'नहीं दीखता पर अन्यथारूप दीखता है । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४४३ रागादि त्रिदोषके उपस्थित रहनेसे आत्माका सत्य या यथार्थ मुख नहीं दीखता । इसका कारण यह है कि त्रिदोषसे आत्माका 'सत्य स्वरूप प्रगट होनेके बदले अन्यथारूप दीखता है । जैसे वात, पित्त व कफके त्रिदोषके कारण जब शरीरको संनिपात होता है तब शरीरकी सातों घातुएं रस आदि अपना कार्य छोड देती है और जो यथार्थ कामभोग, मनःसमाधि आदिका कोई सुख नहीं मिलता, उसी प्रकार राग, द्वेष व मोहके त्रिदोपसे भावसंनिपात होता है। उसी प्रकार इस त्रिदोषसे सम्यग्दर्शनादि गुण मलिन हो जाते हैं और राग, द्वेष व मोहके मिटनेसे जो सुख होना चाहिये वह सुख प्राप्त नहीं होता । इस त्रिदोषसे आ माका वास्तविकरूप आच्छादित हे कर स्वाभाविक सुख नहीं मिलता। क्षीणेषु नदुःख, निमित्ताभावादिति ॥१३।। (४९४) मूलार्थ-त्रिदोप क्षयसे दुख नहीं होता, क्योंकि दुःखकेनिमित्तका अभाव होता है ॥१३॥ विवेचन-रागादि त्रिदोषके क्षय हो जाने पर भाव संनिपातका होनेवाला दुःख नहीं होता । इसका कारण यह है कि निमित्त या कारण जो रागादि दोप है वे नहीं होते । इस त्रिदोषके नाश होनेसे आत्माका स्वाभाविक गुण प्रगट होता है । आत्यन्तिकभावरोगविगमात् परमेश्वरताऽऽप्तेस्तत् तथास्वभावत्वात् परमसुखभाव इतीति ॥१४॥ (४९५) Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ :धर्मविन्दु मूलार्थ-भावरोगके पूर्ण नाशसे परमेश्वर पद प्राप्त होता है और उससे स्वभावतः परम सुख मिलता है ॥१४॥ विवेचन-परमेश्वरतायाः आप्ति:-इन्द्र व चक्रवर्तीके ऐश्वर्यसे अतिशय अधिक केवल ज्ञान आदि लक्षणवाले परमेश्वरताकी प्राप्ति, तत् तथास्वभावत्वात्- परमेश्वरताके स्वभावसे ही परम सुखभाव पैदा होता है। राग आदि तीनों दोपोके पूर्ण नाश हो जानेसे, भाव रोगके सर्वथा नाश हो जानेसे, इंद्र व चक्रवर्तीसे अधिक ऐश्वर्यवाला परमेश्वर पद मिलता है और उस स्थितिमें स्वभावतः उत्कृष्ट मुख और आनंद मिलता है । आत्मा परमानंदको प्राप्त करती है। इस प्रकार तीर्थकर व अन्य केवली या चरमदेहीको मिलनेवाले सामान्य अनुपम धर्मफलका वर्णन किया। अव तीर्थकरके संवधर्म असाधारण फलका वर्णन करते हैं देवेन्द्रहर्षजननम् ॥१५॥ (४९६) मूलार्थ-'तीर्थकरत्व) देवेन्द्रको हर्ष उत्पन्न करनेवाला है। विवेचन-देवेन्द्राणां-चमरेंद्र, शकेंद्र आदिको, हर्षस्यसंतोषका, जननं उत्पन्न करनेवाला । तीर्थकरका जन्म होनेवाला है ऐसा जानकर सब देवताओं और इंद्रको हर्ष होता है। तथा-पूजानुग्रहाइतेति ॥१६॥ (४९७) ~ मूलार्थ-और पूजा द्वारा जगत्के उपकारका कारण है। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४४५ विवेचन-पूजया-तीर्थकरके जन्म कालसे लेकर निर्वाणकी प्राप्ति तक उस उस प्रकारके निमित्तसे मेरु पर्वतके शिखर पर स्नान आदि द्वारा पूजाके रूपमें जो अनुग्रह-मोक्षणी प्राप्तिरूप तीन जगत् पर जो उपकार होता है उसकी अंगता-कारणभाव । जबसे प्रभुका जन्म होता है तबसे लेकर निर्वाणप्राप्ति तक (तथा बादमें भी) भिन्न भिन्न समयों पर देवेन्द्र, देव, राजाओ तथा सामान्य मनुष्योंद्वारा प्रभुकी पूजा की जाती है। इस प्रकार प्रभु समझ कर ये लोग जो सेवा करते हैं उससे उनको सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है जो मोक्षकी प्राप्तिका कारण बनता है । इस प्रकार तीर्थकर तीनो जगत्का उपकार करते है। भगवानको देखकर मोक्षकी प्राप्तिकी इच्छावाले और उनकी भक्तिके समूहसे भरी हुई इंद्रादि देवो द्वारा की हुई पूजासे बहुतसे भव्य प्राणियोंको मोक्षको देनेवाला सम्यक्त्व आदि महान गुणका लाभ होकर महान उपकार होता है । तथा प्रातिहार्योपयोग इति ॥१७॥ (४९८) मूलार्थ-और आठ प्रातिहार्योंका उपयोग होता है ।।१७॥ विवेचन-धर्मके उत्कृष्ट फल तरीके तीर्थंकरको आठ प्रातिहार्य मिलते हैं। सभा या घरके बाहर जो द्वारपाल रहता है उसे प्रतीहारी कहते हैं । भगवान जहां भी जाते है वहां उनके साथ निम्न आठ प्रातिहार्य जाते हैं"अशोकवृक्षा सुरपुष्पवृष्टिः, दिव्यो ध्वनिश्चामरमासनं च । भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं,सत्प्रातिहार्याणि जनेश्वराणाम्।।२१५॥" -१ अशोकवृक्ष, २ देवोद्वारा की हुई पुष्पवृष्टि, ३ दिव्य Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ : धर्मविन्दु ध्वनि, ४ चामर, ५ सिंहासन, ६ भामण्डल, ७ दुन्दुभि, और ८ छन- ये तीर्थंकर के आठ महाप्रातिहार्य है । ततः परम्परार्थकरणमिति || १८ || ( ४९९ ) उत्कृष्ट परार्थ करनेवाला है ||१८|| मूलार्थ - और विवेचन - परम - उत्कृष्ट, परार्थस्य - दूसरों का कल्याण करने वाला | दूसरो का कल्याण करनेका उत्तम मार्ग उपदेश हैं। तीर्थकर अपना उपदेश अपनी अमृत तुल्य वाणी द्वारा सबको आनंद देनेवाली वाणी में देते है । सब प्राणी उसे अपनी अपनी भाषा में समझ जाते हैं । वह चारों तरफ एक योजन प्रमाण तक रहे हुए सब प्राणियों - को सुनाई देती है । वाणीसे तथा भिन्न भिन्न विचित्र उपायों द्वारा दूसरोको मोक्ष दिलानेका उपकार करनेवाला तीर्थंकरपद है । उन उपायोको निम्न सूत्रोंसे बताते हैं: अविच्छेदेन भूयसां मोहान्धकारापनयनं हृद्यैर्वचन भानुभिरिति ||१९|| (५०० ) 7 मूलार्थ यावज्जीव मनोहर वचन किरणोंसे प्राणियों के मोहान्धकारको नष्ट करते हैं ||१९|| 1 विवेचन- अविच्छेदेन -- यावज्जीव-जीवन पर्यत, भूयसाम्अनेक लाखो, करोडो भव्य प्राणियोंको, मोहान्धकारस्य- मोहकें अज्ञानरूपी अंधकारका, अपनयनं - नाश करना, हृद्यैः- हृदयंगमं होनेवाले मनोहर, वचनभानुभिः - वचनरूप सूर्यकी किरणोसे । श्रीतीर्थकर प्रभुके शुभ व मनोहर वचनोंसे, जैसे सूर्य किरणोंसे Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल विशेप देशना विधि : ४४७ अंधकार नष्ट होता है, मोहरूपी अज्ञानताका नाश होता है। वे यावज्जीव कई करोडो भव्य प्राणियोंके मोहको नाश करते हैं। भगवानका उपदेश लोगोंके हृदय पर सीधा असर करता है अतः उनके मोहान्धकारको नष्ट करता है। सूक्ष्मभावप्रतिपत्तिरिति ॥२०॥ (५०१). मूलार्थ-सूक्ष्म भावका ज्ञान होता है ॥२०॥ विवेचन-सूक्ष्माणाम्-अनिपुण बुद्धि या सामान्य बुद्धिसे नहीं जाने जा सकनेवाले, भावानां-जीवादि । . जब लोगोका मोहांधकार नष्ट हो जाता है तो वे लोग सूक्ष्म पदार्थोंको भी विवेक सहित मीत्र समझ लेते है। ऐसा जीवादि भाव तत्त्वोंका उनको बोध होने लगता है। ततः श्रद्धामृतास्वादनमिति ॥२१।। (५०२) . .. मूलार्थ - और श्रद्धामृतका आस्वादन होता है ॥२१॥ • विवेचन-सूक्ष्म भावोंका ज्ञान होनेसे उनमें श्रद्धा होती है और उस श्रद्धाके अमृतको, यथार्थ तत्वको समझनेसे अमृत समान उसका पान कर आनंद लेते हैं। वे उसे हृदयरूपी जिहासे ग्रहण करते हैं और सत्य मानते हैं तथा श्रद्धा रखते हैं। . . . तता सदनुष्ठानयोग इति ॥२२॥ (५०३) मूलार्थ-तब अनुष्ठानका संबंध होता है ॥२२॥" ... विवेचन-जब लोग यथार्थ तत्त्वका ग्रहण कर लेते है तो उसके अनुसार आचरण करने लगते हैं इससे साधु व गृहस्थके Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ : धर्मविन्दु धर्मका शुभ आचरण करने में प्रवृत्त होते है । उस धर्माभ्याससे उनका संबंध होता है और गृहस्थ धर्म या यतिधर्म पालन करने लगते है । ततः परमापायहानिरिति ॥२३॥ (५०४) मूलार्थ-तब उत्कृष्ट, अनर्थकी हानि होती है ॥२३॥ विवेचन-परमा उत्कृष्ट, अपायहानिः-नरक व तिर्यचकी कुगतिमें जानेके महान अनर्थकी हानि । ___ वे मनुष्य धर्मको पा जाते है उससे उनकी तिर्यच व नरककी कुगति नष्ट हो जाती है। इससे वे इन गतियोंसे होनेवाले अनर्थसे बच जाते हैं। तब जितना उपकार प्रभु करते हैं और उन भव्य प्राणियोंको जो लाभ होता है वह कहते हैंसानुबन्धसुखभाव उत्तरोत्तर प्रकामप्रभूतसत्त्वोपकाराय अवन्ध्यकारणं निवृत्तरिति ॥२४॥ (५०५) मूलार्थ-उत्तरोत्तर विशेष अविच्छिन्नसुखभाव उन प्राणियोंके उपकारके लिये होता है और उससे वह मोक्षका अवन्ध्य (सफल) कारण है ॥२४॥ विवेचन-उत्तरोत्तर- क्रमशः अच्छेसे अच्छा, प्रकाम-प्रौढ, अवन्ध्यकारणं -सफल हेतु। सदनुष्ठानसे मनुष्यको सुख मिलता है और अन्योंका कल्याण करते रहनेसे उत्तरोत्तर क्रमशः अधिक सुख मिलता जाता है और 'अंततः मोक्ष मिलता है। निरंतर उत्कृष्ट सुखभावसे, निरंतर अन्य प्राणियोंका उपकार करते रहनेसे अवश्य मोक्ष मिलता है। परोपकारसे Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४४९, ही विशेष सुख मिलता है अतः सुखका साधन ही परोपकार है। . इति परम्परार्थकारणमिति ॥२५॥ (५०६) __ मूलार्थ-अतः तीर्थकरपद उत्कृष्ट परोपकार करनेवाला है । विवेचन-तीर्थकरके वचनसे मोहांधकार मिट कर सूक्ष्मभाव समझे जाते हैं, सदनुष्ठानकी प्राप्ति होती है, कुगति मिट कर सुखलाभ होता है। उससे उत्तरोत्तर अधिक परोपकार करते हुए मोक्षमुखकी प्राप्ति होती है। इस तरह विभिन्न प्राणियोको उत्कृष्ट सुख प्राप्त करानेमें तीर्थंकरपद विशेष लाभदायक होता है। वह दूसरोका उत्कृष्ट कल्याण करनेवाला है। अब फिरसे दोनोंका (तीर्थकर व अन्य चरमदेहका ) साधारण धर्मफल कहते हैं भवोपग्राहिकर्मविगम इति ॥२६॥५०७) मूलार्थ-भवोपग्राही कर्मका नाश होता है ॥२६॥ विवेचन- भवोपग्राहिकर्म- वेदनीय, आयु, नाम व गोत्रके चार कर्म, विगमः- नाश। भवको मदढरूप, जन्म के सहायकरूप चारों कर्म वेदनीय, आयु, नाम व गोत्रके अघाती कमौका चौदहवें गुणस्थानकके अंतमें पूर्वकोटि मादि परिणाममें सयोगिकेवली पर्यायका पालन करनेके बाद नाश हो जाता है। :. ततः निर्वाणगमन मिति ॥२७॥ (५०८) मूलार्थ-तब निर्वाणप्राप्ति होती है ॥२७॥ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० : धर्म विन्दु विवेचन - देहधारी प्राणी देह आदिसे निवृत्त होकर निर्वाणको चला जाता है। जीव सिद्धिक्षेत्र में प्रवेश करता है । सब उपाधि व देहसे मुक्त होकर आत्माको अपने असली स्वरूपका ज्ञान होता है उस अवस्थाको निर्वाण अवस्था कहते हैं । चरमदेही व तीर्थकर इन सव कर्मोंको नाश कर सिद्धिक्षेत्र में जीवके अपने स्वरूपमें रहनेके लिये जीव वहां चला जाता है । तत्र च पुनर्जन्माद्यभाव इति ||२८|| (५०९) मूलार्थ - मोक्षप्राप्ति पर पुनर्जन्मका अभाव होता है ॥२८॥ विवेचन - मोक्ष हो जाने पर निर्वाण पालने पर जीवका दूसरी तीसरीवार जो बराबर जन्म होता है वह जन्म, जरा, मृत्यु आदि सब अनर्थीका पूर्णतः विच्छेद हो जाता है । वीजाभावतोऽयमिति ॥ २९ ॥ (५१० ) मूलार्थ - वह चीजके अभाव से होता है ||२९|| विवेचन - पुनर्जन्म आदि न होनेका कारण बताते हैं । जैसे चीजके बिना अंकुर नही होता वैसे ही कर्मवीजके सर्वथा नष्ट हो जाने पर मुक्त आत्माका पुनर्जन्म आदि नहीं होता । कर्मविपाकस्तदिति ॥३०॥ ( ५११) मूलार्थ - कर्म विपाक ही बीज है ॥ ३० ॥ विवेचन- कर्मणां - ज्ञानावरण आदि कर्मोंका, विपाकः - उदय, तत् - पुनर्जन्म आदिका बीज । Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४५१ ज्ञानावरण आदि कोका उदय ही पुनर्जन्मका बीज है। कोके होनेसे ही बार बार जन्म लेना पड़ता है। जब सब कर्मोंका नाश हो नाता है तो जन्म कैसे हो सकता है ? अकर्मा घासादिति ॥३१॥ (५१२) मूलार्थ-चे जीव कर्मरहित होने हैं।३१॥ विवेचन-जो जीव निर्वाण प्राम करते हैं वे क्रोंसे रहित होते हैं। उनको पुन' कोई कर्म नहीं लगता। वह भले अकर्मा हो पर उसे पुनर्जन्म आदि होता है ? उसका उत्तर देते हैं___ तद्वत एव तद्ग्रह इति ॥३२।। (५१३) मूलार्थ-कर्मवालेको ही पुनर्जन्म आदि होते हैं ॥३२॥ विवेचन-तद्वत एव- कर्मवाले जीवोंको ही, तद्ग्रहः- पुनर्जन्म आदि होना। जो जीव कर्ममहित है वे ही पुन जन्म धारण करते हैं। जो जीव कर्मरहित हैं उनको जन्म मरण नहीं होता। अतः निर्वाणप्राप्त जीवको जन्म मरण नहीं होता। यदि कर्मवालेको ही जन्म मरण होता है तो प्रथम जीवने कर्म कब किया जिससे जन्म धारण करना पड़ा उसके उत्तरमें कहते हैंतदनादित्वेन तथाभावसिद्धेरिति ॥३३॥ (५१४) मूलार्थ-कर्मके अनादिपनसे उपरोक्त भाव (जन्म ग्रहण आदि)की सिद्धि होती है ॥३२॥ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ : धर्मबिन्दु विवेचन-द्वितीय अध्यायमें विस्तारसे यह सिद्ध किया है कि कर्म भी भात्माके साथ ही अनादि है, उससे कर्मवालेको ही पुनर्जन्म आदि होता है'-यह भाव सिद्ध होता है । कर्मरहित सिद्ध आत्माओंको पुनर्जन्मादि नहीं होता। कोई शंका करे कि निग्न वचनके प्रमाणसे अकर्मा भी जन्म लेता है "ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, कर्तारः परमं पदम् । · गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि, भवं तीर्थनिकारतः ॥२१६॥" -धर्मतीर्थको करनेवाले ज्ञानी पुरुष मोक्षमें जाकर तीर्थका उच्छेद देखकर पुनः इस संसारमें आते हैं"। तो अकर्मा कैसे जन्म नहीं लेता ? कहते हैं सर्वविप्रमुक्तस्यतु तथास्वभावत्वानिष्ठितार्थत्वान्न तद्ग्रहणे निमित्तमिति ॥३४॥ (५१५) मृलार्थ-सर्वथा कर्ममुक्त जीव स्वभावतः ही कृतकृत्य होनेसे पुनः जन्म नहीं लेते क्योंकि पुनः जन्म लेनेका कोई निमित्त ही नहीं होता ॥३४॥ __विवेचन-निष्ठितार्थत्वात-उन्होंने सब प्रयोजन पूर्ण किया हुआ है, तद्ग्रहणे-जन्मादिका होना, निमित्त-हेतु या कारण । ___ वे मोक्षगामी जीव सब कर्मोंसे सब प्रकारसे मुक्त हैं। वे अपना सब प्रयोजन पूर्ण कर चुके हैं। उनका साध्य सिद्ध हो चुका Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४५३ । गतः उन जीवोंको जन्म आदि ग्रहण करने का कोई कारण नहीं है | कहने का तात्पर्य यह है कि कर्म व कारण विशेषके न रहने पर जन्म ग्रहण नहीं हो सकता । जो जीव सव कर्मोंसे सर्वथा मुक्त है उसे जन्मादि लेनेका कोई निमित्त नहीं । सब प्रयोजनकी समाप्ति हो जानेसे जन्मादि ग्रहण करानेवाले स्वभावका अभाव है । किसीने जो तीर्थंके उच्छेद करने के लक्षणवाले कारणकी कल्पना की है वह हेतु भी योग्य नहीं । वह तो कषाय हेतुसे पैदा होता है और मोक्षगामी जीवको तीर्थ के प्रति राग या उसके उच्छेदके प्रति कोई द्वेष नहीं है । वीतराग मोक्षगामीको यह नहीं होता । नाजन्मनो जरेति ||३५|| (५१६) मूलार्थ - जिसे जन्म नहीं उसे जरा नहीं ||३५|| विवेचन - जिस जीव की उत्पत्ति ही नहीं होती, जो अजन्मा हैं उसे जरा या वृद्धावस्था नहीं होती । एवं च न मरणभयशक्तिरिति ||३६|| (५१७) मूलार्थ - और मृत्युका भय भी नहीं रहता || ३६ || विवेचन - जब तक जन्म होता है तभी तक जरा होती है और मृत्यु होती है अत. जन्मवालेको हो मृत्युका भय होता है । जब जन्म ही नहीं तो मृयु तथा मृत्युका भय क्या' । तथा - न चान्य उपद्रव इति ||३७|| (५१८) मूलार्थ - और सिद्ध जीवको अन्य उपद्रव भी नहीं होता ॥ ३७॥ विवेचन - भूख, प्यास, रोग आदि अन्य उपद्रव जो संसारीको Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ : धर्मविन्दु होता है वे सब सिद्ध जीवको नहीं होते। तब वहां क्या होता है ? उत्तरमें कहते हैं--- विशुद्धस्वरूपलाभ इति ॥३८॥ (५१९) मूलार्थ-अति शुद्ध आत्मस्वरूप प्राप्त होता है ॥३८॥ विवेचन-कर्ममलसे रहित निर्मल आत्माके स्वरूपका लाभ है । आत्मा आनदमय और सर्वज्ञ होता है । तथा-आत्यान्तिकी व्यावाधानिवृतिरिति ॥३९॥ ५२०) मूलार्थ-और दुःखकी अत्यंत निवृत्ति होती है ॥३९॥ विवेचन-व्यायाधानिवृत्तिः-शरीर व मनकी व्यथासे रहित । आधि, व्याधि व उपाधिके त्रिविध ताप दूर हो जाते हैं । शरीर व मन संबंधी सब दुःखोका पूर्णतः अंत हो जाता है। इस पीडाका पूर्ण उच्छेद होता है। सा निरूपमं सुखमिति ॥४०॥ (५२१) मूलार्थ-वह दुःखनिवृत्ति अनुपम सुख है ॥४०॥ विवेचन-मोक्षमें मन व शरीरकी पीडासे सर्वथा जो निवृत्ति होती है वही ऐसा सुख है जिसकी कोई उपमा नहीं दी जा सकती। वही परम सुख है उस सुखकी प्राप्तिके बाद कोई तृष्णा नहीं रहती। दुःखका पूर्ण विच्छेद ही पूर्ण सुख होता है। उसका कारण सर्वत्राप्रवृत्तेरिति ॥४१॥ (५२२) Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४५५ मूलार्थ-सब जगह प्रवृत्ति रहित होनेसे ॥४१॥ विवेचन-हेय व उपादेय आदि किसी भी वस्तुमें सर्वथा प्रवृत्तिका त्याग होता है। समाप्तकार्यत्वादिति ॥४२॥ (५२३) मूलार्थ-सव कार्योंकी समाप्ति हो चुकी है ॥४२॥ विवेचन-उनके लिये जो भी साध्य कार्य थे वे सब पूर्ण हो चुके । उनके योग्य सब पदार्थ व सव कार्य वे पूरे कर चुके हैं। अतः उन मोक्षके सिद्ध जीवोंको कोई काम व कोई प्रवृत्ति नहीं है। न चैतस्य कचिदौत्सुक्यमिति ॥४३॥ (५२४) मूलार्थ-उनको किसी कार्यके करनेमें उत्सुकता नहीं रहती ॥४३॥ विवेचन-किसी भी कार्यके लिये इन निवृत्त प्राणियोंको आकांक्षा या उत्सुकता होती ही नहीं । दुःखं चैतत् स्वास्थ्यविनाशनेनेति ॥४४॥ (५२५) मूलार्थ-स्वस्थताका नाश करनेसे उत्सुकता दुःख है।।४४॥ विवेचन-एतत्-उत्सुकता, स्वास्थ्यविनाशनेन-स्वास्थ्य जो सब सुखका मूल है उसका हरण करनेसे। सुखका मूल स्वस्थता या शाति है, उत्सुकतासे शांति नहीं रहती अतः दुःख होता है। यदि उत्सुकतासे स्वस्थताकी हानि होती है तब भी वह दुःखरूप कैसे हैं? कहते हैं--- Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ : धर्मविन्दु दुःखशक्त्युद्रेकतोऽस्वास्थ्य सिद्धेरिति ||१५|| (५२६ ) मूलार्थ - दुःखके बीजरूप उत्सुकता से अस्वस्थता सिद्ध होती है ॥ ४५ ॥ विवेचन- दुःखशक्तेः-दुःखके बीजरूप, उद्रेकतः - उत्पन्न होनेसे, सिद्धेः - सिद्ध होती है। दुःखका बीज या कारण उत्सुकता है । जो तृष्णावाले है या उत्सुक रहते हैं उनके चित्तको शाति नहीं रहती । उत्सुकता से आत्मा अस्वस्थ रहती है अतः उत्सुकता ही दुःख है। अस्वस्थताकी सिद्धि होना कैसे जाना जाता है ? कहते हैं अहितप्रवृति ||१६|| (५२७) मूलार्थ - अहितकर प्रवृत्तिसे (अस्वस्थता जानी जाती है ) | विवेचन - जब मनुष्य हितकारी मार्गको छोड़कर अहितकर राहकी ओर प्रवृत्ति करता है तो जानना कि वह मनकी अस्वस्थता के कारण है । अस्वस्थता उत्सुकता - तृष्णासे पैदा होती है। तृष्णा ही मनुष्यको अहितकर मार्ग में ले जाती है। आत्माकी अस्वस्थतासे मनको प्रीति देनेवाली वस्तुओंमें प्रमादसे प्रवृत्ति होती है। ऐसी स्त्री आदिकी ओर अहितकर प्रवृत्तिसे अस्वस्थता प्रगट होती है । अब स्वस्थताका स्वरूप कहते हैं -- स्वास्थ्यं तु निरुत्सुकतया प्रवृत्तेरिति ||१७|| (५२८) मूलार्थ - उत्सुकता रहित प्रवृत्ति ही स्वस्थता (शांति है ) ||४७|| Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४५७ विवेचन - सब कार्यों में उत्सुकता या चपलताको छोडकर प्रवृत्ति करने से स्वस्थता प्रगट होती है । तृष्णा या उत्सुकतासे चिचकी स्वस्थता नष्ट हो जाती है । कर्मफल की आशा रखे विना निष्काम प्रवृत्ति ही स्वस्थता देती है । परमस्वास्थ्यहेतुत्वात् परमार्थतः स्वास्थ्यमेवेति ||१८|| (५२९) मूलार्थ - उत्कृष्ट स्वस्थताका कारण होनेसे उत्सुकता रहित प्रवृत्ति ही स्वस्थता है ॥४८॥ विवेचन - परमस्वास्थ्य हेतुत्वात् - चिचके उद्वेगको छोडकर उत्कृष्ट स्वभावमें, अपने स्वरूपमें रहनेके कारणसे, परमार्थतः - तत्त्ववृत्तिसे, स्वास्थ्यमेव - (निरुत्सुक प्रवृत्ति ही ) स्वस्थता है । जो लोग उत्सुकता रहित प्रवृत्ति करते हैं वे परम स्वस्थता पाते हैं । अतः निरुत्सुक प्रवृत्ति ही परम स्वस्थता है । वह निरुत्सुक प्रवृत्ति केवलज्ञानी भगवानकी है। केवली भगवानको किसी जगह उत्सुकता नहीं है। संसार व मोक्षमें एकांत निस्पृह ऐसे केवली भगवान के योग्य प्रवृत्ति और अयोग्यसे निवृत्ति कैसे होती है ? उत्तर में करते हैं किवह केवल द्रव्यसे होती है । वह जैसे कुम्हारका चक्र गति देनेके बाद बिना चलाये भी कुछ समय अपने आप घूमता है वैसे ही पूर्व संस्कार वश केवलीकी भी प्रवृत्ति निवृत्ति होती है, वे भावसे प्रवृत्ति निवृत्ति नहीं करते । 7 भावसारे हि प्रवृत्यप्रवृत्ती सर्वत्र प्रधानो व्यवहार इति ॥ ४९ ॥ ( ५३० ) Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ : धर्मबिन्दु मृलार्थ-भावसहित प्रवृत्ति निवृत्ति ही वस्तुत. प्रवृत्ति निवृत्ति है ऐसा सब जगह मुख्य व्यवहार हैं ।।४९।। विवेचन-भावसारे-मनके संकल्प विकल्प सहित, सर्वत्रकरने योग्य या न करने योग्य सब कार्योंमें, प्रधान:-भावरूप, व्यवहार:-लोकव्यवहार या आचार । मनके भावसहित जो प्रवृत्ति निवृत्ति होती है वही तत्त्वतः प्रवृत्ति या निवृत्ति गिनी जाती है । द्रव्यसे प्रवृत्ति या निवृत्ति वस्तुतः प्रवृत्ति निवृत्ति नहीं है । जो द्रव्यसे चारित्र पाले पर उसमें भाव न हो तो वह क्रिया करनेवाला शास्त्र में चारित्रधारी नहीं गिना जाता । ऐसे ही असंही प्राणी बड़े मत्त्य घोर कर्म करने पर भी ज्यादा बुरा आयु नहीं बांधते । वे सातवी नरकका आयु वाघनेका पाप करने पर भी भावरहित होनेसे वैसा कर्म नहीं बाधते । ऐसे ही केवली भगवान जिनको संसार व मोक्ष समान होता है और जो किसीकी मी स्पृहा नहीं रखते ऐसे सयोगी केवली पूर्व संस्कार वग ही शास्त्रविहित अनुष्टानमें प्रवृत्ति करते है और अन्य कार्यों से निवृत्त रहते हैं । वे भावसे प्रवृत्ति-निवृत्ति नहीं करते अत उसे व्यवहारमें प्रवृत्ति निवृत्ति नहीं गिना जाता। प्रतीतिसिद्धश्चायं सद्योगसचेतसामिति ॥२०॥ (५३१) ___ मूलार्थ-सद्ध्यान योगसहित सावधान मनवाले मुनियोको उपरोक्त अनुभव सिद्ध है ||५०॥ विवेचन-प्रतीतिसिद्धः-अपने अनुभवसे सिद्ध है, अयं-पूर्वोक Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . धर्मफल विशेष देशना विधि : ४५९ वस्तु, सद्योगेन-शुद्ध ध्यानके लक्षणवाले, सचेतसां-शुद्ध चित्तवाले। ___ शुद्ध ध्यानसे जिनका हृदय पवित्र हो गया है ऐसे महामुनि उपरोक्त बातको यथार्थ अनुभव सिद्ध समझते हैं । केवलज्ञानी स्वभावतः निष्काम वृत्तिसे शुभ कार्योंमें प्रवृत्ति करते हैं। जो ध्यानी हैं, उससे जिनका हृदय पवित्र हो गया है, जिसे महामुनियोकी इस बातका अनुभवसिद्ध ज्ञान है, वे स्वयं ही फलकी आशा बिना स्वभावतः ऐसी प्रवृत्ति करते रहते हैं। वे स्वयं इस अर्थको अंगीकार करते हैं। उन्हें परोपदेशकी अपेक्षा नहीं है। सुस्वास्थ्य चपरमानन्द इति ।।५१।। (५३२) मूलार्थ-अतिशय स्वस्थता ही परम आनंद है ॥५१॥ . विवेचन-निरुत्सुक या निष्काम प्रवृत्ति ही स्वस्थता है । वही शांति या आनंद है। ऐसी अनंत शाति ही शाश्वत शांति है, वही. परम आनंद है। वही मोक्षका स्वरूप है । मोक्ष मुख परम आनंद है । उसके बाद प्राप्तव्य कुछ नहीं रहता। तदन्यनिरपेक्षत्वादिति ॥५२॥ (५३३) मूलार्थ-आत्माको अन्य वस्तुकी अपेक्षा नरहनेसे ।।२।। विवेचन-आमाको अपनेसे भिन्न किसी भी अन्य वस्तुकी अपेक्षा नहीं रहती। इससे मोक्ष ही परम आनंद है । आत्माका सुख, बाह्य पुद्गल या अन्य वस्तुके बिना भी आनद ही है। सासारिक मुखमें तो हमेशां वाद्य वस्तुका आधार रहता है। अतः आत्माका आनंद ही परम आनंद है। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० : धर्मविन्दु अपेक्षाया दुखरूपत्वादिति ॥५३॥ (५३४) मूलार्थ-अपेक्षा ही दुःखरूप है (अतः निरपेक्षता सुख है)। विवेचन-दूसरे पर आधार रखनेले वास्तविक सुख होता ही नहीं। दूसरेका आधार रखना ही दुःखमूलक है। अत. आत्माका आनंद ही दूसरेकी अपेक्षा विना सुख है। अर्थान्तरमाप्त्या हि तनिवृत्तिखत्वेना निवृत्तिरेवेति ॥५४॥ (५३५) मूलार्थ-अन्य विपयोंकी प्राप्तिसे इच्छाकी निवृत्ति होने पर भी दुःखरूप होनेसे अनिवृत्ति ही है ॥५४॥ विवेचन-इन्द्रियोंके विषय सुखकी प्राप्तिसे दुखकी या इच्छाकी निवृत्ति होती है। पर वह वस्तुन. क्या है । दुःखरूप ही है । बाह्य पदार्थोंकी इच्छा होने पर उनके मिलनेसे कुछ सुख तो मिलता है तब भी वह वास्तवमें दुःख ही है। वह तृप्ति देनेवाला नहीं है, भणिक है, दुःख ही है। अतः आत्माके आनंदके सिवाय अन्य पदार्थोंकी प्राप्तिका सुख शाश्वत नहीं है। न चास्यार्थान्तरावाप्तिरिति ॥५५।। (५३६) मूलार्थ-मोक्षके जीत्रको अन्य पदार्थकी प्राप्ति नहीं रहती। विवेचन-न च-फिरसे नहीं, अस्य--सिद्ध जीवको, अर्थान्तरा-वाप्ति-अपनेसे भिन्न भावसे सबंध । मोक्षमें गये हुए जीवको अपनेसे भिन्न अन्य पुद्गल आदि ‘भावसे कोई संबंध नहीं रहता। अत आत्माको दुःख नहीं है, वह परम आनंद पाता हैं। Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४६१ स्वस्वभावनियतो ह्यसौ विनिवृत्तेच्छाप्रपञ्च इति ||१६|| (५३७) मूलार्थ - जिसने इच्छा समूहका नाश कर दिया है ऐसा सिद्ध जीव अपने स्वभावमें ही रहता है ||५६ || विवेचन - स्वस्वभाव नियत - अपने स्वरूपमात्रमें ही रहनेवाला, सौ - जिस सिद्ध भगवानने, विनिवृत्तेच्छाप्रपञ्च - सर्व पदार्थों के प्रति इच्छाका नाश कर दिया है । तीनों भुवनके सब पदार्थों की ओर से अपनी अभिलापाको खत्म कर दिया है । क्योंकि वे उसे शाश्वत सुख देनेवाली नहीं है ऐसा अनुभवसिद्ध है अतः वह अपने आत्मामें ही रहता है वहीं उसे शाश्वत शांति मिलती है । बाह्य पदार्थों की अभिलाषा नहीं है। सिद्ध क्षेत्र गत आकाशके साथ भी सिद्ध जीवका संबंध नहीं है ऐसा बताते हैं अतोकामत्वात् तत्स्वभावत्वान्न लोकान्तक्षेत्राप्तिराप्तिः || ५७|| (५३८) मूलार्थ - निष्काम होनेसे, निष्काम स्वभाव होनेसे लोकांतस्थित सिद्धक्षेत्र में जाने पर भी उसके साथ संबंध नहीं है ॥५७॥ विवेचन - अत - सब इच्छाओंके नाश हो जानेसे, अकामत्वंजो निष्कामपना या निरभिलापता, तत्स्वभावत्वं उससे आत्मासे भिन्न वस्तुओंकी अपेक्षा न होनेसे, लोकान्तक्षेत्राप्ति- लोकांत क्षेत्रकी प्राप्ति होने पर भी, आप्ति - आत्मासे भिन्न आकाशसे संबंध | Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ : धर्मबिन्दु सिद्ध जीवकी आशातृष्णाएं नष्ट हो चुकी है अतः वह निष्काम होना सिद्ध जीवका स्वभाव है। इस कारण यद्यपि वह सिद्धक्षेत्रमें जाते हैं तब भी उनका व सिद्धक्षेत्रका कोई संबंध नहीं है। उसका कारण यह है किऔत्सुक्यवृद्धिहि लक्षणमस्याः, हानिश्च समयान्तरे इति ॥५८।। (५३९) मूलार्थ-एक समयमें उत्सुकताकी वृद्धि और दूसरे समय नाश (अन्य वस्तु प्राप्तिका ) लक्षण है ॥५८॥ विवेचन-लक्षणमस्याः- अर्थातर ( आत्मासे मिन्न) प्राप्तिका स्वरूप, हानिश्च- उत्सुकता नाश होना, समयान्तरे-प्राप्ति समयके वादके समयमें। सिद्ध जीव सिद्धिक्षेत्रमें जाता है फिर भी सिद्धिक्षेत्रसे उनका कोई संबंध नहीं है । किसी भी वस्तुको प्राप्त करनेके लिये जो उत्सु. कता होती है वह प्राप्तिके बाद ही नष्ट हो जाती है यह अथातर प्राप्तिका स्वरूप है और यह दुख मूलक है अतः सिद्धको ऐसी उत्सुकता नहीं होती । सिद्धको यह उसुकता लक्षण क्यों नहीं है ? कहते हैंन चैतत् तस्य भगवता, आकालं तथाव स्थितेरिति ॥५९॥ (५४०) मूलार्थ-भगवानको यह उत्सुकता नहीं है क्योंकि यावत् काल वे उसी स्थिति में रहते हैं ॥१९॥ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४६३ विवेचन-एतत-कहा हुआ अर्थान्तर प्राप्तिका स्वरूप, तस्यसिद्ध भगवानको, आकालं आनेवाले सदा काल तक, सारे समय तक, तथावस्थिते:-उसी प्रकार रहना । सिद्ध जीवको कोई अन्य पदार्थ प्राप्त करनेकी उत्सुकता नहीं है। वे सदा काल तक उसी अपने स्वरूपमें रहनेवाले हैं। सर्व कर्मसे मुक्त होकर ऊर्ध्व गति करके सिद्ध होनेके प्रथम समयसे लेकर जहां तक काल रहेगा अर्थात् अनत समय तक प्रथम समयमें रही हुई उनकी अपनी स्थितिमे स्वस्वरूपमें रमण करनेकी स्थितिमें रहेंगे। कर्मक्षयाविशेषादिति ॥६०॥ (५४१) मूलार्थ-कर्मक्षयमें विशेषता न होनेसे ॥६०॥ - विवेचन-जिस क्षणमे सिद्धत्वकी प्राप्ति हुई उसी प्रथम क्षणमें सकल कर्मक्षय हो चुके थे या हो जाते हैं अतः उनका सब क्षणोमें-सब समयमें एकरूपता है, मेद नहीं। अतः सिद्ध भगवान सदा काल उसी स्थितिमें रहते है। कर्मक्षयसे जो अपना स्वरूप प्रगट हुआ है सर्व समयमे उसी स्वरूपमें रहते हैं। कोई विशेष कर्मक्षय करनेके लिये बचे ही नहीं है कि उनका विशेष स्वरूप प्रगट हो। इति निरुपमसुग्वसिद्धिरिति॥६१।। (५४२) मूलार्थ-इस प्रकार सिद्ध भगवानको निरुपम सुख है ऐसा सिद्ध हुआ ॥६॥ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ : धर्मविन्दु विवेचन - इस प्रकार उत्सुकताका पूर्ण नाश हो जाने पर सिद्ध जीवोat flour / उपमा रहित ) सुखकी प्राप्ति होती है यह बात सूत्र परंपरा से सिद्ध हुई । ऐसी ही श्रद्धा रखना । अत्र उपसंहरामें उसे कहते हैं सद्ध्यानवह्निना जीवो, दग्ध्वा कर्मेन्धनं भुवि । सद्ब्रह्मादिपदैर्गीतं स याति परमं पदम् ||१६|| | मूलार्थ- शुक्ल ध्यानरूप अग्निसे कर्मरूपी इंधनको जलाकर 'सत् ब्रह्म' आदि पदों द्वारा जीव शास्त्रमें वर्णित परम पदको पाता है ||४६ || विवेचन - सद्ध्यानवह्निना - शुक्ल ध्यानके जलते हुए अग्निद्वारा, जीवः - भव्य प्राणी, दूग्ध्वा - जलाकर, कर्मेन्धनं भवोपग्राही कर्मरूप काको, भुवि - मनुष्य क्षेत्र - पृथ्वीमें, सद्ब्रह्मादिपदैःसुंदर ऐसे ब्रह्म, लोकातवासी आदि शब्द और पदोंसे वर्णित, स:शुद्ध साधुधर्मका आराधन करनेवाला जीव, याति - पाता है । इस मनुष्यक्षेत्र पृथ्वी पर रहा हुआ शुद्ध धर्मको आराधन करनेवाला जीव शुक्ल ध्यानकी अग्निसे सब कर्मरूप इधनको जला देता है । शास्त्रोमे सद् या ब्रह्मपदेसे कहा हुआ परम पद वह प्राप्त करता है। मनुष्य ही यह पद पा सकता है । वह लोकांत या सिद्धक्षेत्र इस चौदह राज होकके उपर आया हुआ है। कर्म रहित जीवकी ऊर्ध्व गति होकर वहां कैसे जाता है ? कहते हैं Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४६५ पूर्वावधवशादेव, तत्स्वभावत्वतस्तथा । वात् , समयेनानुगुण्यतः॥४७॥ संस्कार वश कर्मरहित होने पर भी ऊर्ध्वगमन करता है। और उस प्रशारके स्वभावसे तथा अनंत वीर्य युक्त होनेसे एक समयमें समश्रेणिके आयसे परम पदको पाता है ॥४७॥ विवेचन-पूर्वावधवशाव-पूर्व ससार अवस्थाके गमन आवेशसे तत्स्वभावत्वतः-यह ऊर्ध्वगमनके स्वभावसे बन्धनयुक्त होकर अरंडीके बीजकी तरह ऊपर जानेका उसका स्वभाव होनेसे, अनन्तवीर्ययुक्तस्वात्-अपार सामर्थ्यसंपन्न होनेसे, समयेनानुगुण्यतः-शैलेशी अवस्था पाकर एक ही समयमें आकाशरूप क्षेत्रमें समश्रेणिद्वारा (परम पदको जाता है)। संसार अवस्थामें गमन करनेका समय होनेसे कर्म रहित जीव भी गमन करता है । कर्ममल रहित होकर जीव अपने स्वभावसे ही ऊर्ध्वगमन करता है तथा सारे लोकालोकके आकाशको पार करके लोकांव तक पहुंचता है। उसे अनंत सामर्थ्य होनेसे भी वह एक ही समयमें समश्रेणिमें परमपद मोक्षको पहुंच जाता है । स तत्र दुःखविरहादत्यन्तसुखसंगतः। तिष्ठत्ययोगो योगीन्द्रवन्धस्त्रिजगदीश्वरः ॥१८॥ मूलार्थ-दुःखके विरहसे, अत्यंत सुखसहित, योगीन्द्रों द्वारा वंदनीय तीन जगतके परमेश्वर अयोगी सिद्ध भगवान मोक्षमें स्थित है ॥४८॥ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ : धर्मविन्दु विवेचन-सः-वह जीव, तत्र-सिद्धक्षेत्रमें, दुःख विरहातशरीर व मनको होनेवाले सब कटोसे रहित, अन्यन्तसुखसंगत:आत्यंतिक व ऐकान्तिक सुखरूप सागरके वीचमें मम होकर (रहते हैं), अयोग:-मन वचन व कायाके व्यापारसे रहित, योगीन्द्रवन्यायोगीन्द्रो द्वारा वन्दन करने योग्य, उससे भी त्रिजगदीश्वरः-द्रव्य तथा भाव दोनोंकी अपेक्षासे सब लोगोंके ऊपर रहनेवाले तीनों जगतके परमेश्वररूप । । वहां सारे दुःखका नाश हो जाता है, अत्यन्त सुख होता है, मन, वचन, व कायाके सब काम बंध हो जाते हैं या होते ही नहीं। अतः अयोगी है । और तीन जगत्के परमेश्वर बनते हैं । सव योगी जन उनको वदन करते हैं तथा सिद्ध भगवानका ध्यान करते हैं। वे शाश्वत आनंदमे सदाकाल रहते हैं। ____ यहां 'विरह' शब्द आया है वह ग्रन्थके कर्ता हरिभद्रसूरिको बताता है। वे अपने सब ग्रन्थों के अन्तमें 'विरह' शब्दका प्रयोग करते हैं। इस प्रकार मुनिचन्द्र सरि द्वारा धर्मविन्दुकी टीकाका धर्मफल विशेष विधि नामक आठवां अध्याय समाप्त हुआ टीकाकार मुनिचन्द्रसूरि ग्रन्थ समाप्ति पर लिखते हैंनाविक मुदारतां निजधियो वाचां न वा चातुरी, मन्ये नापि च कारणेन न कृता वृत्तिर्मयाऽसौ परम् । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४६७ तत्त्वाभ्यास रसादुपात्तसुकुतोऽन्यत्रापि जन्मन्यह, सर्वादीनवद्दानितोऽमलमना भूयासमुच्चैरिति ॥ १ ॥ - मैंने यह टीका अपनी बुद्धिकी उदारता या वाणीकी --- चतुराई प्रगट करने या अन्य किसी कारण से नहीं की पर तत्वके अभ्यासके रससे पुण्य आर्जन करके अन्य जन्ममे भी सब दुखोका नाश होनेसे निर्मल मनवाला बनूं ऐसी शुभ इच्छासे यह टीका को है । मुनिचंद्रसूरिविरचित धर्मविन्दुवृत्ति समाप्त ॥ प्रत्यक्षरं निरूप्यास्था ग्रन्थमानं विनिश्चितम् । अनुष्टुभां सहस्राणि त्रीणि पूर्णानि बुद्धयताम् ॥ के मानको निश्चित करनेके लिये प्रत्येक अक्षर के हिसाब से पूर्ण तीन हजार अनुष्टुभ श्लोकके बराबर प्रमाण है ऐसा जाना जाता है || . ॥ संपूर्ण ॥ Page #504 --------------------------------------------------------------------------  Page #505 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