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२४२ :धर्सबिन्दु
विवेचन-वीतरागधर्म-श्रीजिन भगवानद्वारा निरूपित वीतराग देवके धर्ममें ही श्रद्धा रखनेवाले साधु दानका उपयुक्त क्षेत्र हैं। वे इसके योग्य पात्र हैं.। उसका विशेष लक्षण इस प्रकार है
"क्षान्तो दान्तो मुक्तो, जितेन्द्रियः सत्यवागभयदाता । प्रोक्तस्त्रिदण्डविरतो, विधिग्रहीता भवति पात्रम्" ॥१२॥
-~-क्षमावान्, इन्द्रिय दमन करनेवाला, मुक्त, इंद्रियोंको जीत: नेवाला, सत्य बोलनेवाला, अभयदाता, मन वचन व काया-तीनों दंडसे रहित और विधिका ग्रहण करनेवाला योग्य पात्र है। तथा-दुःखितेष्वनुकम्पा यथाशक्ति द्रव्यतो
भावतश्चेति ॥ १॥ (२०४) मूलार्थ-दुःखी पुरुषों पर द्रव्य तथा भावले यथाशक्ति अनुकम्पा व दया रखे ॥ ७१ ॥
दिवेचन-दुखितेषु-भवांतरमे, जो पाप किये हैं उनके विपाकसे-प्राप्त हुए तीन क्लेश भोगनेवाले प्राणियों पर, अनुकम्पा-कृपा करे, यथाशक्ति अपने सामर्थ्यके अनुसार, द्रव्यत:-अन्न, वसा, धन आदिसे, भावतुः-इस-भीषण भव भ्रमणासे वैराग्य उत्पन्न करा कर।
जो मनुष्य भवांतरके पापोंके उदयसे, कर्मविपाकसे रोगग्रस्त हैं. या अन्य कष्ट सहते हैं उन पर अनुकम्पा या दया करना चाहिये। अपने सामर्थ्यके अनुसार अन्न, वस्त्र या धन देकर उसकी सेवा करे। साथ ही, भाव, दया भी रखे। उसे इस संसारसे भीषण कष्टोंके कारणको समझाने तथा, सद्बोध देवे जिससे वैराग्य उत्पन्न हो । दुःखी