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ग्रन्थ-परिचय
आवश्यकनियुक्ति
आचार्य भद्रबाह द्वितोय (वि. छठी शताब्दी) ने आवश्यक नियुक्ति का प्रणयन किया। सामायिक आदि छह विभाग वाले आवश्यक सूत्र की यह प्राकृत भाषा में प्रथम पद्यबद्ध व्याख्या है। इसकी १६२३ गाथाओं में विविध विषयों का समाकलन है।
इसके प्रारंभ में उपोद्घात है, जिसमें पांच ज्ञान, सामायिक, ऋषभ और महावीर का जीवन-चरित्र, गणधरवाद, आर्यरक्षित-चरित्र तथा निह्नवमतों का विशद विवेचन है।
उपोद्घात के पश्चात् नमस्कार, चतुर्विशति स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, प्रायश्चित्त, ध्यान, प्रत्याख्यान आदि की निक्षेप-पद्धति से व्याख्या की गई है। प्रतिक्रमण के प्रसंग में नागदत्त, महागिरि, स्थलभद्र, धन्वन्तरी आदि ऐतिहासिक पुरुषों के निदर्शन दिये गये हैं।
चूर्णि
इसमें नियुक्ति के सभी विषयों का विस्तृत विवेचन है । यत्र-तत्र विशेषावश्यकभाष्य-गाथाओं की भी व्याख्या की गई है। इसमें ओघनियुक्ति चूणि, गोविंदनियुक्ति, वसुदेवहिंडि आदि ग्रंथों का उल्लेख है । यह प्राकृत में है, किन्तु इसमें संस्कृत के अनेक श्लोक उद्धत हैं । विषय-विस्तार और ऐतिहासिक आख्यानों का यह दुर्लभ दस्तावेज है। सभ्यता एवं संस्कृति की महत्त्वपूर्ण सामग्री इसमें उपलब्ध है। जिनदासगणिमहत्तर कृत यह चणि अन्य सभी चणियों से विशाल और दो भागों में प्रकाशित है। मुद्रित चणि के अनुसार इसका ग्रंथान १९ हजार श्लोक परिमाण है। हारिभद्रीया वृत्ति
इसके कर्ता आचार्य हरिभद्र (वि. ८-९ शताब्दी) हैं। इसमें नियुक्तिगाथाओं का विस्तृत विवेचन है । यत्र-तत्र भाष्य गाथाओं का उपयोग भी किया गया है। इसमें प्राकृत भाषा में अनेक कथानक उद्धत हैं। यह शिष्यहिता वृत्ति २२००० श्लोक प्रमाण है । मलयगिरीया वृत्ति
यह आवश्यकनियुक्ति की अपूर्ण वृत्ति ही उपलब्ध है। १०९९ नियुक्ति गाथाओं की यह वृत्ति तीन भागों में प्रकाशित है। सरस एवं सुबोध भाषाशैली में गुंफित इस वृत्ति में प्रज्ञाकरगुप्त, आवश्यक चूर्णिकार, मूल टीकाकार, मूल भाष्यकार, अकलंक, न्यायावतारविवृतिकार आदि का उल्लेख है। वृत्ति के समर्थन के रूप में विशेषावश्यक भाष्य की गाथाएं उद्धत हैं। प्राकृत में अनेक कथानक भी हैं।
आवश्यक चणि और दोनों वृत्तियों में अनेक ऐतिहासिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक तथ्यों का समाकलन है। पूर्वो के बारे में भी अनेक नवीन तथ्य उजागर हुए हैं, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं। एक उदाहरण यहां प्रस्तुत है -
“आर्य वज्र ने कहा-आर्य रक्षित ! अब तुमने दसवां पूर्व पढना प्रारंभ किया है, अत: सबसे पहले 'यविक' पढो, जो इस पूर्व के परिकर्म के रूप में हैं। यविक सूक्ष्म हैं, गणितज्ञान के कारण अति गूढ़ हैं। चौबीस यविक पढ़ने के पश्चात आर्यरक्षित ने पूछा-अब दसवें पूर्व का कितना भाग अवशिष्ट है ? आर्य वन ने कहाअभी तो तुमने बिंदु अथवा सर्षप जितना भाग पढ़ा है, समुद्र अथवा मंदर जितना भाग अवशिष्ट है। "आर्यरक्षित के साथ ही दसवां पूर्व और अर्धनाराच संहनन-ये दोनों विच्छिन्न हो गए।
एक बार शक्रेन्द्र स्थविर के रूप में उपस्थित हो आर्यरक्षित से बोले-मैं महान व्याधिग्रस्त हं, अतः मुझे अनशन कराओ और यह भी बताओ कि मेरी आयु कितनी है ? १. आवचू १ पृ ४०४. हावृ १ पृ. २०२, २०३. मवृ प ३९५
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