Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यदेव श्री आनन्दऋषि का प्रवचन-विश्लेषण
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मात्र को अधिकार है । साम्प्रदायिक संकीर्णता की उसमें गुंजाइश नहीं । जहाँ भेद-दृष्टि को प्रमुखता दी जाती है वहाँ साम्प्रदायिक झगड़े और संघर्ष पैदा होते हैं । चूंकि विभिन्न सम्प्रदायों में भेद के बजाय अभेद व समानता के तत्त्व अधिक हैं, अतः उनको मुख्यता देते हुए धर्म के जीवन-शुद्धिमूलक आदर्शों पर चलना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। ऐसा होने से आपसी संघर्ष, विद्वेष और झगड़े खड़े ही नहीं होंगे। (देखिए प्रवचन डायरी, १६५६ पृष्ठ ४६)
प्रवचन असाधारण कथन है, जिसमें सम्यक् चिन्तन और मनन के साथ प्रशस्त वाणी का भी मुल्य रहता है । 'प्र' उपसर्ग के साथ वच् धातु में ल्युट् प्रत्यय संलग्न है जो व्याकरणानुसार अन् में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार प्रशस्त कथन का ही नाम प्रवचन है। प्रवचनों के शीर्षक बड़े लुभावने हैं । मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से अलंकृत एवं विचारात्मक तर्कपूर्ण कथनशैली से संपृक्त ये प्रवचन इतने रोचक तथा सर्व जन ग्राह्य इसलिए हो गए हैं कि आचार्यप्रवर ने यथावसर ऐसे पद्य, गाथा, सब्द सुभाषित सुत्र, श्लोक, ओवी, अभंग आदि को उद्धृत कर दिया है जो जनता के कंठों में एक लम्बे समय से मुखरित हैं। यहाँ कुछ ऐसे ही पद्य आदि प्रस्तुत किये जाते हैं जो विचार-प्रवाह की गति को तीव्र करते हैं, अपेक्षित सत्य की गरिमा बढ़ाते हैं, जिज्ञासूओं की आकांक्षाओं को तृप्त करते हैं, ज निरर्थकता को सार्थक बनाते हैं और सुचितित विवेकशीलता को कई सशक्त मोड़ देते रहते हैं।
आचार्य श्री का प्रवोधन है कि निरन्तर प्रयत्न करने पर असंभव भी संभव बन जाता है। आवश्यकता सिर्फ यही है कि मनुष्य मुसीबतों से हार न माने तथा प्रत्येक वाधा से जूझता रहे। इसी प्रेरणादायक कथन को सशक्त बनाने के हेतु कहा गया है कि
बात की बात में विश्वास बदल जाता है, रात की रात में इतिहास बदल जाता है। तू मुसीबतों से न घबरा अरे इंसान ! धरा की क्या कहें आकाश बदल जाता है।
--आनन्द प्रवचन, भाग १, पृ०६६ कर्मभोग के सम्बन्ध में गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस की यह उक्ति कितनी मार्मिक है। आनन्दऋषि ने इसे उद्धत कर सार्वभौमिक सत्य की व्यापकता को अधिक सक्षम बनाया है"करम प्रधान विश्व रच राखा। जो जस करइ सो तस फल चाखा ॥
-आनन्द प्रवचन, भाग १, पृ० २२६ इसी सन्दर्भ में आगे कहा गया है कि कर्म फल भोगे बिना छूटकारा किसी भी प्रकार से नहीं मिल सकता, चाहे व्यक्ति लाख कोशिश क्यों न करे । इसी उक्ति को अधिक प्रभावशील बनाने के हेतु आचार्यदेव निम्नस्थ पद को स्नेह-सिक्त भाव से लिखते हैं
करम गति टारी नाहीं टरे। गुरु वशिष्ठ सम महामुनि ज्ञानी, लिख-लिख लगन धरे । दशरथ मरण हरण सीता को बन-बन राम फिरे । लख घोड़ा दस लाख पालकी लख लख चंवर द्ररे। हरिश्चन्द्र से दानी राजा, डोम घर नीर भरे । करम गति टारी नाहीं टरे ।
-आनन्द प्रवचन, भाग १, पृ० ११२
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