Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रवर श्रीआनन्दऋषि अभिनन्दन गन्थ (जैन विद्या एवं प्राकृत भाषा का ज्ञान कोष) 28828 for private & Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श 紅噩 TANNIRNIN फ्र आचार्य प्रवर श्री आनन्द ऋषि अभिनन्दन ग्रन्थ ain Education Hatemational ❀ Step (जैन विद्या एवं प्राकृत भाषा का ज्ञान कोष ) 2929292 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी वर्द्धमान श्रमणसंघ के आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि जी महाराज के अमृत महोत्सव समारोह के पावन उपलक्ष में आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि अभिनन्दन ग्रन्थ [जैन विद्या एवं प्राकृत भाषा का ज्ञानकोष] Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परामर्शदाता मण्डल राष्ट्रसन्त उपाध्याय श्री अमर मुनि मरुधरकेसरी प्रवर्तक - मुनि श्री मिश्रीमल जी मालव केसरी सौभाग्यमल जी महाराज बहुश्रुत श्री मधुकर मुनि जी प्रवर्तक श्री विनयऋषि जी पं० मुनि श्री यशोविजय जी पं० मुनि श्री सुशीलकुमार जी साध्वी श्री सुमतिकुंवर जी सम्पादक मण्डल श्री विजय मुनि शास्त्री श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री साध्वी धर्मशीला एम. ए. डॉ० ए० एन० उपाध्ये प्रो० दलसुखभाई मालवणिया डॉ० नरेन्द्र भानावत डॉ० भागचन्द्र जैन 'भास्कर' डॉ० वशिष्टनारायण सिन्हा पं० शोभाचन्द्र भारिल्ल पं० बदरीनारायण शुक्ल प्रो० माधव श्री० रणदिवे प्रधान सम्पादक श्रीचन्द सुराना 'सरस' प्रकाशक : श्री महाराष्ट्र स्थानकवासी जैन संघ, साधना सदन, नानापैठ, पूना - २ मुद्रक : दुर्गा प्रिंटिंग वर्क्स, दरेसी २, आगरा-४ भगवान श्री महावीर को २५वीं निर्वाण शताब्दी वर्ष वि. सं. २०३१ माघ, ई. सन् १९७५ फरवरी संयोजक चन्द्रभान डाकलिया ( श्रीरामपुर ) संचालाल बाफना ( धूलिया ) संप्र ेरक श्री रतन मुनि श्री कुन्दन ऋषि मूल्य चालीस रुपये Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो आयरियाणं जैनधर्म-भूषण, शासन सम्राट, परम शांतमूर्ति आचार्यप्रवर. श्री आनन्द ऋषि जी महाराज जन्म : वि. सं. १६५७ चिचोड़ी (महाराष्ट्र) दीक्षा : वि. सं. १६७० पूज्यपाद श्री रत्न ऋषि जी म0 के san toucation internana कर-कमलों द्वारा, मिरी गाँव (महाराष्ट्र) . Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान श्री महावीर की २५वीं निर्वाण शताब्दी का यह ऐतिहासिक अवसर संपूर्ण मानव जाति के लिए एक परम सौभाग्य-प्रसंग है। विशेषकर भगवान महावीर के अनुयायी जैन समाज के लिए तो अत्यन्त गौरवमय अवसर है। भगवान महावीर के जन कल्याणकारी संदेश आज चारों ओर मुखरित हो रहे हैं तथा जन-जीवन में सत्य-अहिंसा और विश्वमैत्री के भाव स्फूरित हो रहे हैं यह अत्यन्त हर्ष का विषय है। इसी ऐतिहासिक प्रसंग पर भगवान महावीर की परम्परा के प्रभावक सूत्रधार श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के आचार्य प्रवर श्री आनन्द ऋषि जी म० का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। यह सोने में सुगन्ध जैमा अवसर हमारे हाथों में आया है । आचार्य श्री का हृदय बड़ा विशाल है, वे सरलता की मूर्ति हैं, त्याग वैराग्य की धारा उनके जीवन में प्रवाहित हो रही है। मानवता के प्रचार हेतु उन्होंने अपना ७५ वर्ष का मूल्यवान जीवन समर्पित किया है। सत्य-अहिंसा और विश्वमैत्री के प्रचारार्थ उन्होंने हजारों मील की पद यात्राएं कर जन-जीवन को उद्बोधित किया है। महाराष्ट्र में शिक्षा का प्रचार कर यहाँ की सीधी-सादी धर्मप्रिय जनता को पुरानी रूढ़ियों से मुक्त कर एकता और समाज सेवा के क्षेत्र में बढ़ाने का श्रेय आचार्य प्रवर के गौरवमय कृतित्व को ही है। आज से लगभग ५ वर्ष पूर्व जब आचार्यप्रवर राजस्थान के अंचल में विहार कर रहे थे तब मैंने, मेरे परम सहयोगी श्री चन्द्रभान जी डाकलिया तथा महाराष्ट्र संघ के अनेक प्रमुख कार्यकर्ताओं ने आचार्य देव को महाराष्ट्र में पुन: पधारने की प्रार्थना की थी। क्योंकि आचार्य प्रवर का ७५ वां जन्म दिन ५ वर्ष बाद आनेवाला था और उस अवसर को हम 'अमत महोत्सव' के रूप में मनाने को उत्सुक थे। लगातार दो वर्ष के भक्ति भरे आग्रह के पश्चात महाराष्ट्र की प्रार्थना स्वीकृत हुई और हम लोगों ने अमृत महोत्सव मनाने की योजना बनाई। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) सन् १९७३ में आचार्य श्री का नागपुर चातुर्मास हुआ, वहाँ महाराष्ट्र के स्थानकवासी जैन संघ की विशाल सभा हुई, कार्यकर्ताओं ने यह निश्चय किया कि अगले वर्ष आचार्यप्रवर का अमृत महोत्सव अत्यन्त समारोह के साथ मनाया जावेगा। इस प्रसंग पर आचार्य श्री को एक विशाल अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट करने का भी निश्चय हुआ। अभिनन्दन ग्रन्थ के सम्पादन का भार सुप्रसिद्ध लेखक और सम्पादक श्रीयुत श्रीचन्द जी सुराना 'सरस' को सोंपा गया। श्री सुराना जी ने अथक परिश्रम और उत्साह के साथ इस कार्य को सुन्दर रूप में संपन्न किया है यह हम सबके लिए प्रसन्नता का विषय है। अमृत महोत्सव के उपलक्ष में अनेक स्थानों पर विद्यालय, चिकित्सालय एवं वाचनालय आदि प्रारम्भ किये गये हैं । क्योंकि साहित्यिक कार्य के साथ ही जन सेवा का कार्य भी हो यह आचार्य प्रवर की विशेष अभिरुचि रहती है और प्रेरणा भी। इसी प्रेरणा का बल पाकर हमने सेवा क्षेत्र में अनेक योजनाएं प्रारम्भ की है, हम विश्वास करते हैं कि हमारे वे कार्यक्रम भी सुन्दर रूप से चलते रहेंगे। अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन में जिन सज्जनों ने उदा अर्थ सहयोग किया है, मैं उनको हृदय से धन्यवाद देता हूँ। साथ ही उन विद्वानों, मुनिवरों एवं शुभेच्छु सज्जनों का हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने आचार्य प्रवर के प्रति श्रद्धा सुमन के रूप में अपनी रचनाएँ तथा संदेश भेजकर श्रद्धाभिव्यक्ति की है। सबके प्रति कृतज्ञता की भावना के साथ -संचालाल बाफना संयोजक Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय भगवान महावीर के अनुगामी ज्योतिर्धर आचार्यों की परम्परा में आचार्य प्रवर श्री आनन्द ऋषिजी का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा गया 1 भगवान महावीर के आदर्श और सिद्धान्त इनके जीवन के कण-कण में मुखरित हैं । ये साधुता के श्रृंगार है, मानवता के दिव्य हार हैं, ज्ञान और सेवा की अखण्डज्योति इनके जीवन को आलोकित कर रही 1 ऐसे संत विश्व के लिए प्रकाश पुंज बनकर आते हैं । संत का जीवनव्रत ही समर्पण है, वे मानवता को सुख, शान्ति, प्रेम, ज्ञान और सद्भाव मुक्त हस्त से बांटते हैं । आदान में नहीं, प्रदान में, ग्रहण में नहीं, समर्पण में ही उनका विश्वास है, फिर वे हमारी श्रद्धा और भक्ति का प्रतीक यह 'अभिनन्दन ग्रन्थ' स्वीकार करेंगे ? हम उन्हें अभिनन्दन समर्पित करें और वे उसे ग्रहण करेंगे ? यह एक प्रश्न चिन्ह मन में खड़ा हुआ था । गत वर्ष जब नागपुर में आचार्यप्रवर को अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित करने का निश्चय हुआ और उसके सम्पादन का दायित्व मुझे सोंपा गया तो मेरे मन में उक्त प्रश्न खड़ा हुआ । एक रातभर विचार मन्थन करता रहा । सहसा ही एक समाधान स्फुरित हो गया । महापुरुषों का अभिनन्दन उनके लिए नहीं, किन्तु आम जनता के लिए ही होता है । मन्दिर में भगवान का प्रसाद बटता है, भगवान कहाँ उसे ग्रहण करने आते हैं ? किन्तु हमारी अन्तर श्रद्धा, भावना भगवान को प्रतीक मानकर आम जनता के लिए वह प्रसाद वितरित करके कृतकृत्यता अनुभव करती है । क्या अभिनन्दन ग्रन्थ के सम्बन्ध में भी वही बात नहीं हो सकती ? सच बात तो यह है कि ऐसे महान व्यक्तित्व को केन्द्र मानकर विद्वानों और विचारकों की चिन्तनधारा उत्प्रेरित हो जाती है और कुछ 'उत्तम' तथा चिरस्थायी सर्जना कर डालती है । वह ज्ञान - विज्ञान की नव सर्जना, अनुशीलनात्मक चेतना तथा विचार सामग्री आम पाठकों के लिए एक अत्यन्त उपयोगी और प्रसाद की भांति ग्रहणीय बन जाती है । वास्तव में इस अभिनन्दन ग्रंथ का अयोजन आचार्य श्री के लिए नहीं, किन्तु हजारों ज्ञान-पिपासु जनों के लिए ही हुआ है । इसका समर्पण भी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) आचार्य श्री के लिए नहीं, किन्तु ज्ञान और विचार की प्यासी उस जनता को ही है, किन्तु उस जन श्रद्धा का केन्द्र आचार्य श्री है, इसलिए आचार्य श्री के माध्यम से यह अभिनन्दन ग्रन्थ उस ज्ञान-पिपासु जन के लिए ही है | आचार्य प्रवर इसका ग्रहण अपने लिए नहीं, किन्तु श्रद्धालु जन के लिए ही करेंगे जैसे देवता प्रसाद स्वीकार करते हैं। आचार्य श्री आनन्द ऋषिजी का व्यक्तित्व बड़ा व्यापक है, चुम्बकीय है। वे जीवन के ७४ बसन्त देख चुके हैं, ६० वर्ष से अधिक का समय वे ज्ञान एवं सेवा की साधना में बिता चुके हैं। आज हजारों विद्यार्थी संस्कृत - प्राकृत और तत्व ज्ञान की परीक्षाएँ देकर विद्या के क्षेत्र में गतिशील हैं। इसका मूल प्रेरणा केन्द्र आचार्य श्री हैं। उनकी प्रेरणा से सैकड़ों गांवों और लघु नगरों में अनेक प्रकार की चिकित्सा सेवा के माध्यम से जन सेवा का कार्य हो रहा है, वे अल्पभाषी हैं, किन्तु शक्ति के पुंज हैं, प्रेरणा के अद्भुत केन्द्र है। ज्ञान प्रचार और जन सेवा उनके जीवन के दो महत्संकल्प हैं वे उनको साकार कर रहे हैं । ऐसे संत पुरुष राष्ट्र पुरुष होते हैं इन राष्ट्र-पुरुषों का अभिनन्दन राष्ट्र का अभिनन्दन है, मानवता का अभिनन्दन है । हम उनकी सेवा में यह अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित करके स्वयं को गौरवशाली समझेंगे। प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ में छह खण्ड हैं : प्रथम खण्ड में आचार्यप्रवर के गरिमा मण्डित जीवन वृत्त की सरल झांकी है। उनके कृतित्व को विभिन्न दृष्टिकोणों से रखने वाले अनेक विचारकों के लेख और समीक्षात्मक निबन्ध हैं । आचार्य श्री के उज्ज्वल व्यक्तित्व के प्रति हृदय की असीम श्रद्धा व्यक्त करने वाले, मुनिजनों एवं भक्त श्रद्धालुओं के भाव सुमन हैं, शब्दों के सूत्र में गुंथे हुए । द्वितीय खंड में आचार्य प्रवर द्वारा प्रदत्त प्रेरणाप्रद प्रवचनों का साहित्य तो समुद्र की तरह लघु रूप यहां प्रस्तुत किया है, और साधारण पाठकों के लघु संकलन है । आचार्य श्री का प्रवचन विशाल है, उसी में अवगाहन कर उसका गया है, जो विद्वानों के लिए भी पठनीय लिए भी उपयोगी है। तीसरा खंड काफी बड़ा हो गया है। होना भी था । उसमें धर्म और दर्शन जैसे गहन विषयों का समावेश जो है । दर्शन एवं धर्म के विविध अंगों पर विवेचनापूर्ण मौलिक सामग्री पाठकों को मिलेगी । चतुर्थ खंड प्राकृत भाषा और साहित्य का खंड है। चूंकि प्राकृत जैन दर्शन एवं धर्म को समझने की कुंजी है, प्राकृत ज्ञान के बिना जैन दर्शन का प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त कर पाना कठिन क्या, असंभव जैसा ही है। आचार्यप्रवर ने प्राकृत भाषा के प्रचार के लिए अद्वितीय श्रम किया है। हजारों विद्यार्थियों को आकर्षित किया है, और अनेक विद्वान तैयार किये हैं। इस दृष्टि से प्राकृत भाषा आचार्य प्रवर की जीवन Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 9) साधना का एक अंग बन गई है। आचार्य प्रवर के अभिनन्दन ग्रन्थ में प्राकृत के सम्बन्ध में कुछ न आये, यह कैसे होता ? हमारी कल्पना तो इसी खंड को सबसे अधिक विशाल और नवीनतम सामग्री से समृद्ध करने की थी। लेकिन प्राकृत के विद्वानों ने अपेक्षाकृत प्राकृत के अन्य विषयों पर ही अपने प्रौढ़ विद्वत्तापूर्ण निबन्ध दिये हैं, अतः प्राकृत भाषा खंड कुछ छोटा अवश्य है, पर जितनी सामग्री है, विशिष्ट है, अतः थोड़ा भी सार पूर्ण है। पांचवां खंड इतिहास और संस्कृति से सम्बन्ध रखता है। पाठकों को जैन इतिहास एवं जैन संस्कृति से सम्बन्धित मौलिक सामग्री इसमें मिलेगी। आचार्य प्रवर का पारिवारिक सम्बन्ध जिस ऋषि संप्रदाय के साथ सम्बद्ध है, उसके पांच सौ वर्ष का संक्षिप्त इतिहास भी पाठक इसमें पढ़ सकेंगे । लेखों का संग्रह है । उनमें हुए भी भाषा की एकरूपता है, इसीलिए संनिविष्ट कर दिया गया है। छठा खंड विविध विषयों के अंग्रेजी विषयों की विविधता होते उन लेखों को एक खंड में इस प्रकार यह ग्रन्थ छह खंडों में विभक्त हैं। आचार्य एक प्रकार से धर्म चक्रवर्ती होते हैं। चक्रवर्ती घट्लंडाधिपति होता है—अनायास और अनायोजित रूप से ही ग्रन्थ के छह खंड – आचार्य प्रवर के धर्म चक्रवर्तित्व की साक्षी दे रहे हैं । -- , ग्रन्थ के सम्पादन में परामर्शदातामंडल का एवं सम्पादक मंडल का हार्दिक सहयोग मिलता रहा है; जिसके लिए मैं कृतज्ञ तो हूँ, परन्तु शब्दों द्वारा आभार व्यक्त करके उस सहयोग की गंभीरता को कम नही करना चाहता । डा० नरेन्द्र भानावत (राज० वि० वि) डा० भागचन्द्र जैन, ( नागपुर वि० वि०), डा० वशिष्टनारायण सिन्हा (काशी विद्यापीठ) एवं प्रो० रणदिवे (छत्र० कालेज, सतारा) का आत्मीय भाव सदा रहा है, तदनुरूप उनका विशिष्ट सहयोग भी मिला है। मेरे स्नेही प्रो० श्रीचन्द जैन (उज्जैन) का भी इसमें बड़ा सौजन्यपूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ है। मैं उन आत्मीय सहयोगियों के प्रति हृदय से कृतज्ञ हूँ । लेखक विद्वानों, मनीषी मुनिवरों, एवं शुभकामना संदेश भेजनेवाले समस्त आदरणीयजनों के प्रति विनत है कि उनके सहयोग से ही यह 'अभिनन्दन ग्रन्थ' अपनी सुन्दर एवं विशिष्ट सामग्री के साथ आज पाठकों के हाथों में पहुँच रहा है, और हम हजारों श्रद्धालुओं की श्रद्धा का पिंडीभूत रूप बनकर आचार्य प्रवर के अभिनन्दन समारोह की शोभा बन रहा है। विनीत - श्रीचन्द सुराना 'सरस' Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ कामनाएं एवम् सन्देश 6 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन नाणेणं दंसणेणं च चरित्तेण तहेव य। खन्तोए मुत्तिीए वड्ढमाणो भवाहि य। -उत्तराध्ययन २२।२३ जय जय नंदा ! जय जय भद्दा ! भदंते ! अभग्गेहि नाण-दंसणचरित्तेहि अजियाई जिणाहि इंदियाई जियं च पालेहि समणधम्मं । - कल्पसूत्र Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभकामना राष्ट्रपति भवन, नई दिल्ली-४ पत्रावली सं ८-एम ७४ ३० दिसम्बर, १९७४ प्रिय महोदय २४ दिसम्बर १९७४ के आपके पत्र से राष्ट्रपति जी को यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी के सार्वजनिक अभिनन्दन समारोह का आयोजन किया जा रहा है। समारोह की सफलता के लिये वे अपनी शुभ कामनाएँ भेजते हैं । भवदीय -खेमराज गुप्त भारत के राष्ट्रपति का उप-सचिव, उपराष्ट्रपति, भारत नई दिल्ली दिसम्बर २७, १९७४ प्रिय महोदय आपका दिनांक २४, १६७४ का पत्र प्राप्त हुआ, धन्यवाद । __ मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आप आचार्य श्री आनन्द ऋषि का सार्वजनिक अभिनन्दन आगामी दिनांक १३ फरवरी, १९७५ को पूना में करने जा रहे हैं और इस अवसर पर उन्हें एक अभिनन्दन ग्रंथ भी भेंट किया जायेगा। मैं अभिनन्दन समारोह तथा ग्रंथ की सफलता के लिये अपनी हार्दिक शुभ कामनायें भेजता हूं। आपका, -वा० दा० जत्ती [उपराष्ट्रपति भारत] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमृत-महोत्सव समारोह के अध्यक्ष लोकप्रिय राजनेता नामदार श्री वसंतराव नाईक [ मुख्यमंत्री-महाराष्ट्र ] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्यमन्त्री महाराष्ट्र, सचिवालय, बम्बई २२ बी. आर. दिनांक : २ जनवरी १९७५ आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज का जन्म महाराष्ट्र के अन्दर अहमदनगर जिले के चिंचोडी नामक गांव में हुआ और ह वर्ष की आयु में ही स्थानकवासी समाज के पूज्यनीय स्वर्गवासी १००८ श्री रत्न ऋषि जी महाराज से दीक्षा ग्रहण की, आज वे जीवन के ७५वें वर्ष में चल रहे हैं । उन्होंने जैन समाज को ही नहीं, बल्कि अखंड भारत में सब मानव जाति के सर्वांगीण उन्नति के लिए अनेक प्रयास किये और लगभग १२ वर्ष पूर्व उनको अखिल भारतीय स्थानकवासी समाज के आचार्य सम्राट-पद पर विराजित किया गया और आज भी वे इस पद को विभूषित कर रहे हैं। यह महाराष्ट्र के लिए गौरव की बात है। पूज्य आचार्य श्री ने आज तक अनेक ग्रन्थ लिखे हैं और समाज के कमजोर गरीब लोगों के लिए कई एक हाईस्कूल, कॉलेज और छात्रालय प्रारम्भ किये हैं। वैसे प्राकृत विद्यापीठ और प्राकृत भाषा को महत्त्व देकर हजारों विद्यार्थी उसका लाभ उठाते हैं। ऐसे महान संत पुरुष का अमृत महोत्सव होना अत्यन्त आवश्यक है। उससे समाज को प्रेरणा मिलती रहे और देश के लिए, विशेष रूप से महाराष्ट्र के लिये गौरव की बात हो सके। ऐसे अमृत महोत्सव पर उनका अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है । इस स्तुत्य ग्रन्थ को मेरी शुभ कामना । -वसन्तराव नाईक Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शभकामना मुख्यमन्त्री उत्तर प्रदेश विधान भवन, लखनऊ १-१-७५ प्रिय सुराना जी, आपका २४, १२, १६७४ का पत्र सधन्यवाद प्राप्त हुआ। जानकर प्रसन्नता हुई कि आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि जी का सार्वजनिक अभिनन्दन कर अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित कर उनके प्रति अपने प्रेम, आस्था एवं कृतज्ञता का परिचय दे रहे हैं। ऐसे समाज सेवी के प्रति यह विचार आना स्वाभाविक ही है। । उक्त समारोह के सोल्लास सम्पन्न होने के लिए कृपया मेरी शुभ कामनायें स्वीकार करें। सद्भावनाओं सहित, आपका .-हेमवतीनन्दन बहुगुणा मुख्यमन्त्री राजस्थान जयपुर ४ दिसम्बर, १९७३ प्रिय महोदय, ____ मुझे यह जानकर बड़ी प्रन्नसता हुई कि आचार्य श्री आनन्दऋषि जी के ७५ वें वर्ष प्रवेश के अवसर पर उनका सार्वजनिक अभिनन्दन कर उन्हें अभिनन्दन-ग्रन्थ समर्पित करने का आयोजन किया जा रहा है। श्री आनन्द ऋषि जी ने साधुपन के दीर्घकाल में शिक्षा संस्थाओं को स्थापित कर और अनेक भाषाओं तथा गहन विषयों का ज्ञान प्रसारित कर समाज को विशिष्ट देन दी है। मैं इस अवसर पर अपनी शुभ कामनाएं प्रेषित करता हूँ। -हरिदेव जोशी Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) राजु भवन संदेश राज्यपाल राज भवन कर्णाटक बैंगलोर १७ दिसम्बर, १९७३ प्रिय श्रीचन्दजी सुराना, आपका पत्र मिला। मुझे यह जानकर बड़ा हर्ष हुआ कि जैन-आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी के ७५ वें वर्ष के पदापर्ण के अवसर पर आप उनका सार्वजनिक अभिनन्दन करने जा रहे हैं और उसके उपलक्ष में एक अभिनन्दन ग्रन्थ भी प्रकाशित करना चाहते हैं। मुझे विश्वास है कि आचार्यजी के धार्मिक और शैक्षणिक क्षेत्र में उनकी अपार सेवा के कारण जनता में एक नई जागृति पैदा होगी और वह उससे लाभान्वित होगी। आपके अभिनन्दन समारोह की सफलता के लिए मैं अपनी शुभ कामनाएं भेजता हूँ। –मोहनलाल सुखाड़िया राज्यपाल RAJ BHAVAN उत्तर प्रदेश Lucknow १० जनवरी, १९७५ मुझे यह जानकर हर्ष है कि आचार्य प्रवर श्री आनन्द ऋषि जी महाराज का एक सार्वजनिक अभिनन्दन करने का निश्चय किया गया है, तथा इस अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ भी भेंट किया जायेगा। भारतीय संस्कृति एवं आध्यात्म वाद निश्चय ही ऐसे ही सन्तों तथा ऋषियों की तपस्या पर आधारित एवं विकसित होता रहा है । मुझे यह विश्वास है कि इस आयोजन से हमारे देशवासियों, विशेषकर नवयुवकों व विद्यार्थियों को अपनी गौरवमयी संस्कृति के अध्ययन तथा उसके शाश्वत मूल्यों को ग्रहण करने की प्रेरणा प्राप्त होगी तथा मैं आयोजन की सफलता हेतु अपनी हार्दिक शुभ कामनाएँ भेजता हूँ। -म० चैन्ना रेड्डी GOVERNOR OF RAJ BHAVAN TAMILNADU MADRAS-600022 3rd November. 1973. Dear I am glad to know that an Abhinandan --Granth is proposed to be presented to Acharya-Pravara sri Aananda Rishi.ji on the occasion of his 75th birthday. I after my greetings and respects to him and wish him many happy returns of the day. -K. K. Shah Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) शभकामना रक्षामंत्री, भारत नई दिल्ली ४ नवम्बर, १९७३ प्रिय सुरानाजी, आपके द्वारा यह ज्ञात हुआ कि आचार्य श्री आनन्दऋषि-अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन समिति द्वारा उनके ७५ वें वर्ष में प्रवेश करने के अवसर पर उनका अभिनन्दन किया जा रहा है, और उन्हें एक ग्रन्थ समर्पित किया जाएगा। आशा है, ग्रन्थ में आचार्य जी की जीवनी, तपस्या एवम् धार्मिक सेवाओं का समुचित दिग्दर्शन होगा। समारोह सफल हो एवं ग्रन्थ उपयोगी सिद्ध हो । -जगजीवन राम नौवहन और परिवहन मंत्री नई दिल्ली (भारत) २७ दिसम्बर १९७४ यह हर्ष का विषय है कि आचार्य प्रवर श्री आनन्द ऋषि जी महाराज का अभिनन्दन १३ फरवरी को पूना में हो रहा है। आचार्य श्री का पवित्र जीवन जन-साधारण के लिए प्रेरणास्रोत रहा है। आचार्य श्री की श्रद्धा के प्रतीक अभिनन्दन ग्रंथ भेंट करने का कार्य सराहनीय है। मैं इस अवसर की सफलता के लिए अपनी हार्दिक शुभ कामनाए भेजता हूँ। --कमलापति त्रिपाठी Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रवर श्री आनन्द ऋषि अभिनन्दन ग्रन्थ : जिन के हाथों से विमोचन एवं समपर्ण हो रहा है। जनप्रिय नेता नामदार श्री मधुकर राव चौधरी [ वित्तमंत्री-महाराष्ट्र ] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) मुनि श्री विद्यानन्द जी महाराज मेरठ उ० प्र० ३१ अगस्त, १९७३ यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आप आचार्यप्रवर श्री आनन्द ऋषि जी के सम्मान में अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित कर रहे हैं । आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी ने समाज एव राष्ट्र की महती सेवाएं की हैं, अतः सज्जनों का कर्त्तव्य है कि उन्हें साधुवाद देवें । - शुभमस्ते वित्त, अल्प बचत व वनमंत्री महाराष्ट्र राज्य सचिवालय, मुंबई-३२ ४ जनवरी, १६७४ हार्दिक प्रसन्नता की बात है कि जैन आचार्य श्री आनन्द ऋषिजी के जीवन के ७४ वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष में जैन समाज की ओर से उनका सार्वजनिक अभिनन्दन किया जा रहा है और इस अवसर पर उन्हें अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित किया जा रहा है । भारतीय संस्कृति ऋषियों, मुनियों, साधु एवं सन्तों की परम्परा से भरी पड़ी है । उनके उपदेश हमें सांस्कृतिक विरासत के रूप में मिले हैं। हमारी ऐतिहासिक भावनाओं के अनुसार आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि जी का अभिनन्दन किया जाना अपने में एक सर्वोपरि कार्य है । मैं आचार्य श्री आनन्दऋषि जी के अपने जीवन के ७४ वें वर्ष पूर्ण करके ७५ वें वर्ष में प्रवेश करने के उपलक्ष्य में उनके भावी जीवन में दीर्घायु होने के प्रति हार्दिक शुभ कामना प्रकट करता हूँ और अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पण समारोह की सफलता चाहता हूँ । -म० ध० चौधरी संदेश Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभकामना ( १६ ) [भू०पू० राष्ट्रपति श्री वी० वी० गिरि का संदेश ] राष्ट्रपति सचिवालय राष्ट्रपति भवन नई दिल्ली ४ दिसम्बर, १९७३ प्रिय महोदय, यह जान कर प्रसन्नता हुई कि जैन आचार्य श्री आनन्दऋषिजी अगले ७५ वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं और इस उपलक्ष में आपने उनका सार्वजनिक अभिनन्दन कर उन्हें एक अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित करने का आयोजन किया है। आपके इस प्रयास की सफलता के लिए राष्ट्रपतिजी अपनी शुभ कामनाएं भेजते हैं । खेमराज गुप्त राष्ट्रपति का उप-सचिव [भू० पू० उपराष्ट्रपति श्री गोपालस्वरूप पाठक का सन्देश ] उपराष्ट्रपति सचिवालय नई दिल्ली १० दिसम्बर, १६७३ प्रिय महोदय, अवसर पर उन्हें एक उपराष्ट्रपति जी को यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आप आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी के ७५वें जन्म दिवस के अवसर पर उनका सार्वजनिक अभिनन्दन करने जा रहे हैं और इस अभिनन्दन ग्रन्थ भी भेंट करने का निश्चय किया गया है । उपराष्ट्रपति जी अभिनन्दन समारोह तथा ग्रन्थ की सफलता के लिए अपनी हार्दिक शुभ कामनायें भेजते हैं । - वि० के० एस० अय्यंगार भारत के उपराष्ट्रपति के निजी सचिव Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेश सदस्य, राज्य सभा ११ विश्वम्भरदास मार्ग, नई दिल्ली धर्म-मानव जीवन की सुख-शांति का कल्पवृक्ष है। मनुष्य की सेवा, संसार का भलाई और प्रत्येक जीव के प्रति करुणा, धर्म का मुख्य रूप है। साधु संत धर्म के द्वारा जन-जीवन को सुखी एवं शांतिमय बनाने का प्रयत्न करते हैं। इसलिए भारतीय समाज में उनके प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धा और सद्भावना का प्राबल्य है। आचार्यप्रवर श्री आनन्द ऋषि जी का अभिनन्दन ग्रन्थ इसी श्रद्धा का प्रतीक है। इस ग्रंथ के द्वारा आप साहित्य, धर्म और दर्शन की भी सेवा करेंगे । 'एक पंथ दो काज' वाली बात चरितार्थ होगी। ___अभिनन्दन ग्रंथ जैन धर्म व दर्शन के साथ-साथ भारतीय तत्व चिन्तन व संस्कृति को भी उजागर करेगा और यह एक संग्रहरणीय वस्तु बनेगी। आचार्य श्री को मेरी हार्दिक वन्दनांजलि सूचित करें, आपका ग्रंथ उपयोगी हो, यही शुभ कामना । -लोकनाथ मिश्र डा. गोविन्ददास संसद सदस्य (लोक सभा) ३३, फिरोजशाह रोड, नई दिल्ली ११ दिसम्बर, १९७३ महोदय, आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि का अभिनन्दन बहुत ही उचित बात है। उन्होंने त्याग और तपस्या का अनुपम उदाहरण संसार के सम्मुख रखा है । आज देश को ऐसे ही चरित्रों की आवश्यकता हैं । वे शत वर्ष की आयु प्राप्त कर इसी प्रकार उत्थान की ओर अग्रसर रहें यही भगवान से प्रार्थना है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभकामना (सेठ) अचल सिंह संसद सदस्य ३२ A गार्डनरोड आगरा आचार्य श्री आनन्दऋषि जी म० ने स्थानकवासी जैन समाज को एकता-संगठन और विद्या विकास की दिशा में आगे बढ़ाया है। उनका हृदय बहुत सरल, मिलनसार है । वे समाज के प्रत्येक व्यक्ति के साथ बड़े प्रेम और सद्भाव पूर्वक बातचीत करते हैं। एक धर्मनेता और लोकनेता के उपयुक्त गुण उनके व्यक्तित्व में हैं। उनके अमृत महोत्सव प्रसंग पर अभिनन्दन कर अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया जारहा है। यह ग्रन्थ उनके गरिमामय व्यक्तित्व के अनुरूप ही होगा ऐसा मुझे विश्वास है । मेरी शुभ कामनायें ! -अचल सिंह सदस्य लोक सभा ३ दिसम्बर, १६७४ आचार्य श्री आनन्दऋषिजी ने शिक्षा, साहित्य एवं संस्कृति के सम्बन्ध में लोकोपयोगी और यशस्वी कार्य किया है। उनके कार्यों से धार्मिक श्रद्धा और राष्ट्रीय एकता में वृद्धि हुई है। वह हमारे बीच बहुत दिनों तक जिएं, स्वस्थ रहें और जनता की सेवा करें ऐसी मेरी भगवान विश्वनाथ से प्रार्थना है । -सुधाकर पाण्डेय Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) बनारसीदास चतुर्वेदी भूतपूर्व संसद सदस्य ज्ञानपुर (वाराणसी) आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषिजी के अभिनन्दन-उत्सव तथा अभिनन्दन ग्रन्थ की सफलता मैं हृदय से चाहता हूँ। शास्त्रीय विषयों पर तो मेरा ज्ञान नगण्य है, इसलिए लेख लेखन में मैं असमर्थ हूँ। __ अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त इन तीनों सिद्धान्तों से संसार का बहुत हित हो सकता है और उनका अधिक से अधिक प्रचार होना चाहिए। सर्व धर्म समन्वय का कार्य भी महत्त्वपूर्ण है। श्रद्धेय अमर मुनि जी ने उस दिशा में अत्यन्त प्रशंसनीय कार्य किया भी है। __ आजकल जैसा सिद्धान्त, साहित्य जनता के सामने आ रहा है उसकी ओर भी जैन जगत का ध्यान जाना चाहिए। कृपया आचार्य श्री तक मेरे प्रणाम पहुंचा दीजिए। डा० गंगाशरण सिन्हा (भू० पू०) सदस्य, राज्यसभा, नई दिल्ली आचार्य आनन्दऋषि जी को उनके पचहत्तरवें जन्म दिवस पर अभिनन्दन ग्रन्थ अर्पित करने और उनका सम्मान करने का कार्यक्रम जिन सज्जनों ने बनाया है, वे धन्यवाद के पात्र हैं। उन्होंने एक उपयोगी, आवश्यक और महत्त्वपूर्ण कार्य अपने हाथ में लिया है। श्री आनन्दऋषि ने सिर्फ आध्यात्मिक क्षेत्र तक ही अपने कार्य को सीमित नहीं रखा है। शिक्षा और जन-मानस के उत्थान और विकास के क्षेत्र में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य किए हैं। साधना के साथ-साथ लोक समन्वय उनके कार्यों और जीवन में हुआ है। दोनों क्षेत्र में उनकी देन है। उन्होंने सार्वजनिक कार्यकर्ताओं और मुमुक्षुओं का मार्ग दर्शन किया है। उनके लिए आदर्श उपस्थित किया है। उनके अभिनन्दन का प्रयास अभिनन्दनीय है । ___ इन शब्दों के साथ मैं आनन्दऋषि जी के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ और यह कामना तथा प्रार्थना करता हूँ कि वह अभी बहुत समय हमारे बीच में जगमग प्रकाश स्तम्भ की तरह बने रहकर मार्गदर्शन करते रहें। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) उपसभापति शुभकामना उत्तरप्रदेश विधान परिषद् विधान भवन, लखनऊ प्रिय सुराना जी, ७ जनवरी, १९७५ मुझे यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि जी महाराज की सेवाओं के उपलक्ष में आप उन्हें शीघ्र ही एक अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित करने जा रहे हैं । भारतीय समाज के शैक्षिक, धार्मिक, नैतिक एवं सामाजिक उत्कर्ष के लिए जो सतत प्रयत्न एवं महान सेवा आचार्य जी कर रहे हैं। उससे भारतीय समाज निःसंदेह लाभान्वित हो रहा है। धर्म और दर्शन के क्षेत्र में अनेक विद्वान उनके जैसे तेजस्वी और महानसंतपुरुष से ज्ञान प्राप्त कर जनता को अपनी ज्ञानवाणी एवं अनुभव से मार्गदर्शन कर रहे हैं। ऐसे तपस्वी और विद्वान संत को सार्वजनिक अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित करने का जो निश्चय किया गया है वह एक सराहनीय कार्य है। मैं इसकी सफलता के लिए कामना करता हूँ। -देवेन्द्रप्रतापसिंह अध्यक्ष-भारत जैन महामण्डल बम्बई पूज्य आचार्य श्री आनन्दऋषिजी महाराज स्थानकवासी वर्द्धमान श्रमणसंघ के तेजस्वी विद्वान आचार्य सम्राट हैं। इस वृद्धावस्था में भी सतत जागरूक रहकर अपनी साधना एवं जन-जन को पदयात्रा द्वारा नैतिक मार्गदर्शन दे रहे हैं । आचार्य श्री का जीवन त्याग, तपस्या के साथ-साथ सरलता और सौम्यता का प्रतीक है। आपने संघ में धर्म एवं दर्शन के विद्धान तैयार करने में अथक परिश्रम किया है। अनेक स्थानों पर आपकी सद्प्रेरणा से शिक्षणशालाएं एवं विद्यामंदिर छात्र छात्रओं को संस्कार दे रहे हैं। पूज्य आचार्य श्री एक अन्तर्मुखी एवं साधना शील सन्त हैं । जिन्हें नाम और यश का मोह नहीं है किन्तु कृतज्ञभाव से समाज उनकी महानता और त्याग का अभिनन्दन कर रहा है जो अभिनन्दनीय है। इस अवसर पर मैं पूज्य आचार्य श्री के चरणों में अपनी भावपूर्ण श्रद्धा अर्पित करता हूँ और उनके त्यागमय जीवन की अभ्यर्थना करता हूँ। -शादीलाल जैन Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) संदेश सत्यनारायण मिश्र सम्पादक-जीवन प्रभात बम्बई आचार्य प्रवर श्री आनन्द ऋषि जी को ७५वीं वर्ष गांठ पर उन्हें अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट करने की योजना की मैं हृदय से सफलता चाहता हूँ। उनका सच्चा अभिनन्दन तो यही है कि उनके विचारों एवं व्यक्तित्व से जो व्यक्ति प्रेरित, प्रभावित हैं, वे स्वयं अपने जीवन में उसे लाने का प्रयत्न करें। संपादक-जैन जगत, प्रधानमंत्री-भारतजैन महामंडल, बम्बई ७-१-७५ ऋषि सम्प्रदाय ने दक्षिण भारत में विशेषकर शिक्षा-प्रचार और सेवा का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। अनेक स्थानों पर ज्ञानमंदिरों की स्थापना इसका ज्वलन्त प्रमाण है। इन ज्ञानमंदिरों में न केवल धार्मिक शिक्षा पुस्तकों से ही दी जाती है, बल्कि छात्र-छात्राओं का जीवन भी अध्यात्मकी सौरभ से सुरभित किया जाता है। उसी ऋषि-परम्परा में पूज्य आचार्य श्री आनन्दऋषि जी एक तेजस्वी, पुण्यवान आचार्य हैं। आपका स्वभाव अत्यन्त ऋजु है और वृत्तियों से पापभीरू और सहज सन्त है। आचार्य श्री प्रसिद्धि के मोह से दूर रहकर अपनी साधना में संलग्न रहते हुये धर्म और साहित्य की सेवा में संलग्न हैं। मेरा पूज्य आचार्य श्री से बहुत पुराना आत्मीय संबंध है, और जब जब भी उनके चरणों में बैठने का अवसर मिला मुझे आत्मिक प्रसन्नता हुई। ऐसे आचार्यप्रवर का अभिनन्दन भारतीय संस्कृति एवं त्याग का अभिनन्दन है। समाज को इस अभिनन्दन से स्वयं गौरवबोध होता है। अभिनन्दन के अवसर पर मैं अत्यन्त विनम्रतापूवर्क अपनी हार्दिक श्रद्धा अर्पित करता हूँ और कामना करता हूँ कि आचार्यप्रवर वर्षों तक संघ और शासन की सेवा करते हुये जन-जन को आध्यात्मिक आलोक से आलोकित करते रहें। -रिषभदास रांका Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) यशपाल जैन शभकामना सम्पादक-जीवन साहित्य नई दिल्ली ५ नवम्बर १९७३ बंधुवर, मुझे यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी अपने उदात्त जीवन के ७५वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं और उस शुभ अवसर पर उन्हें एक अभिनन्दन-ग्रन्थ भेंट किया जा रहा है। इसका अभिनन्दन करता हूँ और कामना करता हूँ कि आचार्य महाराज शतजीवी हों और मानव-समाज का निरन्तर मार्ग दर्शन करते रहें। __ आचार्य श्री ने जैन धर्म, दर्शन तथा समाज की जो सेवा की है, वह निःसन्देह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वह अनेक भाषाओं के ज्ञाता हैं। उन्होंने अनेक ग्रंथों का निर्माण किया है। इतना ही नहीं, उन्होंने चार दर्जन से अधिक विद्या-मन्दिरों का निर्माण कराया है । यह उनकी रचनात्मक दृष्टि का परिचायक है । वह जैन संत हैं। संतों का जीवन निर्मल, सरल तथा सौम्य होता है। आचार्य महाराज में इन सभी गुणों का समावेश है। इसके साथ ही उनका व्यक्तित्व बड़ा ही प्रखर है। ___अधिकांश धर्म पुरुष अपनी साधना एकान्त में करते हैं । वे संसार को मायाजाल मानकर उससे पलायन करते हैं । आचार्य आनन्द ऋषि जी उन संतों में से नहीं हैं। वह समाज में रहते हैं और समाज का अहर्निश हित चिन्तन तथा हित साधन करते रहे हैं । उन्होंने जैन धर्म तथा दर्शन का सन्देश पैदल घूम-घूमकर घर-घर पहुँचाया है और अनेक विद्वानों के निर्माण में सहायक हुए हैं। ऐसे श्रेष्ठजन का जितना अभिनन्दन हो, उतना ही अच्छा है। गांधीजी ने कहा था, "मेरा जीवन ही मेरा सन्देश है।" मैं मानता हूँ कि आचार्य श्री का वास्तविक अभिनन्दन तो तभी होगा जबकि समाज उनके जीवन के आदर्शों को सम्मुख रखकर तदनुसार आचरण करे। __ मैं आशा करता हूँ कि जैन तथा जैनेतर समाज उनके गुणों का स्मरण करेगा और उनके आधार पर अपने जीवन को ढालेगा। मैं आचार्य महाराज को इस मंगल अवसर पर अपने आन्तरिक अभिनन्दन अर्पित करता हूँ। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ समाजरत्न, पद्मश्री आनन्दराज सुराना EX. M. L. A. 'प्राणिमित्र' स्वर्णपदक सम्मानित महामंत्री श्री अ० भा० श्वे० स्था० जैन कान्फ्रेंस भाई श्री सुराना जी आपका कृपा पत्र मिला । परम श्रद्धेय आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि जी महाराज के अमृत महोत्सव प्रसंग पर उन्हें अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट करने का उपक्रम हो रहा है यह जानकर प्रसन्नता हुई । आपके सम्पादकत्व में यह कार्य हो रहा है, अतः कार्य उत्तम होगा यह तो विश्वास है । आचार्य प्रवर ने जैन शासन की अकथनीय सेवाएँ की है । धर्म प्रचार के लिए अनेक कष्ट सहनकर सुदीर्घ यात्राएँ की हैं । प्राकृत भाषा एवं जैनधर्म व दर्शन के अध्ययन-अध्यापन तथा प्रचार-प्रसार में उनका योगदान चिरस्मरणीय तो रहेगा ही, सम्पूर्ण जैन समाज के लिए गौरव का विषय भी होगा । ऐसे सन्त आत्मा आचार्य प्रवर के प्रति मेरी कोटि-कोटि विनम्र वन्दना ! -आनन्दराज सुराना फतहसिंह जैन सम्पादक तरुण जैन त्रिपोलिया जोधपुर ( राजस्थान ) प्रिय महोदय, पूज्य आचार्य श्री जी का अभिनन्दन स्थानकवासी जैन समाज के लिए गौरव का विषय है । स्थानकवासी जैन समाज उनकी मूल्यवान सेवाओं के ऋण से अभिनन्दन ग्रन्थ भेंटकर कुछ अंशों में उऋण हो सकेगा । संदेश Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभकामना ( २४ ) संपादक - नवभारत टाइम्स १० जनवरी, १६७५ प्रिय महोदय आपका पत्र मिला । यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि श्री आनन्दऋषि का अभिनन्दन किया जा रहा है । वास्तव में यह बड़े गौरव की बात है कि समाज ऐसे मनीषियों-त्यागियों का अभिनन्दन करें जिन्होंने निस्वार्थ भाव से समाज की सेवा की हो। मेरी ओर से भी महाराज श्री का अभिनन्दन स्वीकार करें। - अक्षय कुमारजन डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल एम० ए० पी-एच० डी० निर्देशक : जैन साहित्य शोध संस्थान, जयपुर आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि जी महाराज श्रमण जगत के प्रकाशमान पुंज हैं । भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा एवं अनेकान्तवाद के वे प्रतीक हैं। उन्होंने अपना समस्त जीवन आत्मचिन्तन के अतिरिक्त देश एवं समाज में समर्पित कर रखा है | आचार्य श्री का जीवन एक खुली पुस्तक के समान है । साहित्य साधना का उन्होंने व्रत ले रखा है तथा अब तक इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है । मैं आचार्य प्रवर के प्रति अपनी विनम्र श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ । डा० हरिदत्त शास्त्री एम० ए० पी-एच० डी० व्याकरण वेदान्ताचार्य आचार्यवर्यो जिनपुण्यचर्य:, शक्त्युच्चयो दीनमहासमर्थः । सोsप्राकृतैः संगमनेरजयः, प्रतीक्ष्य आनन्दमहर्षि वर्णः ॥ १॥ महात्मनां वाचिबलं वदन्ति, राज्ञा बलं सैन्यभटे गदन्ति । दन्ताबलाः संहननाप्तशौर्याः, पाराक आनन्द महर्षि वर्णः ॥ २॥ आसंसारोपचित्तं सदसत्कर्म बन्धाश्रितानाम्, आधि व्याधि प्रजनकरण क्षुत्पिपासादितानाम् । मिथ्याज्ञानप्रबल तमसा नाथ! बांधीकृतानाम्, त्वं नस्त्राता भव करुणयाऽऽनन्द ! तूर्णं महर्षे ॥ ३॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) संदेश डा० रमेशचन्द एम०ए० पी-एच०डी दर्शन विभाग, पटना विश्वविद्यालय पटना (बिहार) “सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय' की भावना से आपूरित महर्षि मानव समाज के मित्र हैं । वे अपनी साधना द्वारा प्राणि मात्र के हितचिन्तन में लीन रहते हैं। अतएव कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु उनका सम्मान, अभिनन्दन करना एक साधारण-सा प्रयास माना जायेगा उनके उपकारों से उऋण नहीं हो सकते हैं। ___ आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषिजी के प्रति शुभकामनाएँ समर्पित करते हुए भावना व्यक्त करता हूँ कि वे अपने शतंजीवी मंगलमय जीवन द्वारा दिग्भ्रान्त मानव को कल्याण मार्ग का दिग्दर्शन कराते रहें। अभिनन्दन-ग्रन्थ समर्पण एवं सार्वजनिक सम्मान करने हेतु गठित समिति धन्यवादाई है कि उसने आचार्यप्रवर के सिद्धान्तों को आत्मसात् करने के प्रति अपनी निष्ठा अर्पित की है मुनि श्री मगनलाल जी म० कारंजा आचार्य सम्रट श्री आनन्द ऋषि जी म० जैन आगमों के मर्मज्ञ मनीषी और सौम्यता की जी मुझे आपकी सेवा का अवसर मिला है, नागपुर चातुर्मास में आपकी सेवा में रहा। मैंने निकट से देखा है, आपकी सेवा में जो भी व्यक्ति आता है, वह हृदय में एक अपूर्व शांति और अपनापन अनुभव करता है। किसी के मन में द्वष व कालुष्य के भाव भी होते हैं तो वे स्वयं ही धुल जाते हैं और उसके अन्तरंग में श्रद्धा की धारा बहने लगती है । आचार्य प्रवर के व्यक्तित्व का जादू कुछ अलख व अगम्य है। आचार्य देव की छत्रछाया में जिन शासन निरन्तर उन्नति करता रहे यही मेरी हार्दिक मंगल भावना है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शभकामना डा० मधुसूदन प्रसाद एम० ए० पी-एच० डी० पटना विश्वविद्यालय, पटना आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी के ७५ वें जन्मोत्सव पर अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें। आचार्य प्रवर की साधना जन साधारण के लिए आत्म-कल्याण हेतु प्रेरित करती रहे, यही मेरी मंगल कामना है। ११ कलाइव रोड कलकत्ता-१ १८ जनवरी ७५ प्रिय श्रीचन्द जी, ___ आचार्य प्रवर श्री आनंद ऋषि जी महाराज का १३ फरवरी को पूना में अभिनदंन हो रहा है, यह जानकर बहुत ही प्रसन्नता हुई। पूज्य आचार्य महाराज ने जैन संस्कृति की अनेक और महती सेवा की है । उनका जीवन आदर्श है। उन्होंने अनेकों शिक्षण शालाओं की स्थापना की है। मैं इस अवसर पर उनको बार-बार नमस्कार करता हूं और उनका अभिनदंन करता हूं। साहू शान्ति प्रसाद जैन सुरेश चतुर मौहता मंत्री-वर्धमान जैन सेवा-समिति बालाघाट (म० प्र०) २२, दिसम्बर १९७३ "जब जब पावन चरण कमल-पड़ जाते इस इस धरती तल पर। भक्ति भाव से हृदय निछावर, श्रद्धा पुष्प भेंट चरणों पर ॥" आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि जी म० सा० के चरणों-में शत-शत वन्दन ! श्रमण संघाचार्य, जैन दिवाकर चारित्र चूड़ामणि, बाल ब्रह्मचारी जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्री आनन्दऋषि जी म. सा. की ७५ वीं वर्षगांठ की पावन बेला में "श्री वर्द्धमान जैन सेवा समिति बालाघाट" आचार्य प्रवर के चरणों में अपनी शत-शत वन्दनांजलियां समर्पित करते हुए जन-जन का कल्याण करने हेतु आचार्य सम्राट चिरायु होने की कामना करती है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) संदेश डा० संजीवनप्रसाद एम० ए० पी-एच० डी० किसान महाविद्यालय सोहसराय (नालन्दा) २४ दिसम्बर, १९७३ विज्ञान के चरमोत्कर्ष पर मानव-मन जिन शंका-आशंकाओं के जड़ बिन्दु पर आकर टिक गया है, वहाँ मन को गतिशील, शंकाओं को निर्मूल और अनपेक्षित अवरोध को निष्कंटकित करने में उस धर्म का महत् योग हो सकता है जिसने ढाई हजार वर्ष पूर्व ही "पुद्गल" अवधारणा को स्वीकार कर जगत और जीवन की तात्विक व्याख्या की है। ऋषियों का जीवन, युग का इतिहास वैमनस्य के नाश का संकेत और सत् धर्म एवं जागरण का संदेश होता है। वर्तमान भारत में फैली जातीयता, फूट, आपसी सन्देह, निष्क्रियता एवं भ्रष्टाचार के उन्मूलन का प्रयास जिस सक्रिय और करुणापूर्ण ढंग से श्री आनन्द ऋषि जी ने सामाजिक स्तर पर जन साधारण में लीन होकर किया है उसकी प्रशंसा, अभ्यर्थना करना हमारा धर्म और पुनीत कर्तव्य है । आप सबों की दृष्टि इधर मुड़ी अतः आपको साधुवाद देता हूँ। कान्तीलाल चोरडिया सम्पादक-जैन जागृति, पूना-(महाराष्ट्र) आचार्यप्रवर आनन्द ऋषि जो के नाम की तरह गुण एवं दर्शन भी आनन्द प्रद हैं। आपश्री की स्वाभाविक सरलता और मानसिक माधूर्य मानव मात्र को अपनी ओर आकार्षित करते हैं। शिक्षा, साहित्य के क्षेत्र में आपके द्वारा किए गए कार्य समाज को स्मरणीय देन है। ___आचार्य श्री की ज्ञान-गरिमा और संयम-साधना मानवीय जीवन को गौरव गाथा है। अतएव वे चिरायु होकर हमें मार्ग दर्शन कराते रहें यही मेरी शुभ कामना है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) शुभकामना जहा य गगणमज्झे, वियासइ जोइस्सींदो चंदो। एवं संघ आयासम्मि, सोहइ आणन्दायरिओ ॥१॥ जहा य सहस्सरस्सी सूरो, पभासेइ पाउसकालम्मि । एवं चउविहसंघम्मि, गुणरस्सीए आयरिओ ॥ २ ॥ पारिजाइओ सुपुष्फं, सव्व पुप्फेसु कहइ राया। तहा समणसंघेसु, नायओ वुत्तो रिसी आणन्दो ॥ ३ ॥ पुप्फस्स मघमघाओ, रसलिच्छु भमरा परिभमन्ति । सावय सावयाणं, समूहो, दंसणलिच्छवा समागच्छन्ति ॥ ४ ॥ उज्जाणम्मि सोहइ लया, चित्तविचित्त पुप्फेसु । एवं सपक्ख परपक्खेसु, आयरिओ लहइ सोहा ॥ ५॥ रिउणं वसंतरिउओ सडरिउणं महिओ। सड्दंसणन आणन्दो, णमो आणंदायरियस्स ॥६॥ जहा वसंत रिउ पाडेइ, सडिय गलिय पत्ताणं । णव पत्तपुप्फदाणं, करेइ सव्वपाणीणं ॥७॥ एवं पुज्जपाय आणंदो, मोयइ दुग्गुण वसणाओ सुगुण गण भव्वजीवाणं, आणंदो पयच्छइ आणंदो ॥८॥ आयरिओ सिरि आणंदो, समुद्द इव गुणरयणायरो। धीरो वीरो सुगंभीरो, णमो णमो गुणरासिस्स ॥ ६ ॥ जयजय पुरिससिंहो, पुरिसुत्तमो पुरिसपुण्डरिओ। धम्म सारहिओ धन्नं, मम दिज्जउ जय विजयं ॥१०॥ णमो संघ नायगस्स, समणसंघ गोवालस्स । "पभा" वंदइ भुज्जो भुज्जो, सिरओ चरण कमलम्मि ।।११॥ --जैन साध्वी प्रभाकंवर जैन सिद्धान्त आचार्य, साहित्यरत्न Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) संदेश जैसे ज्योतिषियों के इन्द्र चंद्रमा आकाश में सशोभित होता है। ऐसे संघ रूपी आकाश में आनंद ऋषिजी महाराज सुशोभित होते हैं। प्रातः काल में जैसे सहस्र किरणवाला सूर्य प्रकाशित होता है, ऐसे अनेक गुण रूपी किरणों से चतुर्विध संघ में आचार्य कहे गये हैं । सब पुष्पों में पारिजात अर्थात् गुलाब का फूल राजा कहलाता है ऐसे श्रमण संघ में पूज्य आनद ऋषिजी महाराज नायक कहलाते हैं। पष्प की सौरभ से आकषित होकर रस के लोभी भ्रमर जैसे पष्पों के समीप परिभ्रमण करते हैं ऐसे ही आचार्य श्री के दर्शन और वाणी के पिपास श्रावक और श्राविकाओं के संघ आते हैं। बगीचे में जैसे चित्र-विचित्र पुष्पों से युक्त लता सुशोभित होती है । इसी तरह से स्वपक्ष और परपक्ष में आचार्य शोभा को प्राप्त होते हैं। ऋतुओं में जैसे वसंत ऋतु सब ऋतुओं का राजा कहलाता हैं, ऐसे ही दर्शन के ज्ञाता आचार्य संघ के नायक कहलाते हैं। ऐसे आचार्य श्री को वंदना हो। वसंत ऋतु जैसे सड़े गले पत्तों को गिरा देती हैं और सब प्राणियों को नये पत्र पुष्पों का दान देती है। ऐसे ही पूज्यपाद श्री आनंदऋषिजी महाराजसाहब भव्य प्राणियों के दुर्गुणों को छुड़ाकर सद्गुणरुपी पुष्प फलों का दान देते हैं। आचार्य सम्राट श्री आनंद ऋषिजी महाराज समुद्र के सदृश है, गुणरत्नों के सागर है। धीर वीर और गंभीर है, ऐसे गूणरासी से युक्त आचार्य श्री को नमस्कार हो। पुरुषों में सिंह सदृश आचार्य श्री की जय जय होवे। पुरुषों में उत्तम पुण्डरिक कमल के समान निर्मल, हे धर्म सारथी ! आप को बार बार धन्यवाद हो और मुझे भी जय विजय देवे । हे संघ के नायक ! आपको नमस्कार हो। हे श्रमण संघ के गोपाल! आपके चरण कमल में "प्रभा" बार बार वंदना करती है । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हार्दिक बधाई आचार्य सम्राट का अमृत महोत्सव पूना श्री संघ को हार्दिक बधाई आचार्य सम्राट ने गत वर्ष श्रावण सुदी १ के दिन ७५वें वर्ष में प्रवेश किया । आचार्य श्री की पवित्र वृत्ति, शांत स्वभाव, सत्र को साथ में लेकर आगे बढ़ने का स्वभाव, ममताभरी दृष्टि आदि गुणों का सभी भक्तों पर सुपरिणाम होना स्वाभाविक है । आचार्य श्री का अमृतमहोत्सव मनाया जाय, यह सभी श्रावक-श्राविकाओं की आन्तरिक तीव्र भावना थी। किन्तु जब भी यह प्रश्न आचार्य श्री के सन्मुख उपस्थित किया जाता, सिवा इन्कार के और कोई जवाब नहीं मिलता। आखिर आचार्य श्री के निकटवर्ती भक्तों ने स्वयं निर्णय ले लिया । आचार्य श्री की सम्मति हो न हो, अमृत महोत्सव मनाना ही है। इस निर्णय ने संघ में बिजली-सी आनन्द लहर फैल गई । आचार्य सम्राट अपने शिष्यगण के साथ वर्षावास के लिए बम्बई पधारे । बम्बई संघ ने अमृत महोत्सव मनाने का निर्णय भी किया था। परन्तु अन्यान्य कारणों से महोत्सव मनाने में कठिनाइयाँ निर्माण हुई और अमृत महोत्सव स्थगित-सा रहा । चातुर्मास के पूर्व से ही पूना श्री संघ का आचार्य सम्राट को आग्रह भरा निमंत्रण था ही; संवत्सरी होते ही पूना से बड़ी भारी संख्या में श्रावक-श्राविकाएं आचार्य श्री की सेवा में प्रार्थनार्थ पहुँचे। चातुर्मास समाप्ति के बाद पूना की ओर विहार करना आचार्य श्री ने स्वीकृत किया। तब क्या था । पूना श्री संघ का होसला बढ़ गया। पूना श्री संघ ने अमृत महोत्सव के लिए आचार्य सम्राट के श्री चरणों में प्रार्थना की। किन्तु बड़प्पन की भावना से कोसों दूर रहने वाले आचार्य श्री स्वीकृति कैसे देते? उनका टालमटोल वाला जवाब मिला। परन्तु पूना श्री संघ ने निर्णय ले लिया कि हो न हो, अमृत महोत्सव पूना में मनाना ही है और वह भी बड़े उत्साह एवं धूम धाम के साथ । पूना श्री संघ के कार्यकर्ताओं में यह भी निश्चय हुआ कि इस महोत्सव का पूरा खर्च सिर्फ पूना से ही हो । इस कार्य के लिए बाहर से चन्दा वसूल नहीं करना है । ये समाचार प्रेस में देते समय तक सुना है, पूना श्री संघ ने Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दन समारोह के मुख्य संयोजक भारत के प्रसिद्ध उद्योगपति, समाजसेवी, स्थानकवासी जैनसमाज के अग्रगण्य नेता, दानवीर तथा कर्मठ कार्यकर्ता श्रीमान संचालाल जी बाफना Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) हार्दिक बधाई दो लाख रुपये इकट्ठे किए हैं । समस्या एक खड़ी हुई कि आचार्य सम्राट का अभिनन्दन ग्रंथ छपवाने के लिए कुछ चन्दा इकट्ठा किया गया था और कुछ आश्वासन भी प्राप्त हुए थे। तब यह तय रहा कि ग्रन्थ-प्रकाशन के लिए बाहर से जो चन्दा आ रहा है, उसका उपयोग उसी काम में किया जाए । इस ग्रन्थ-निर्माण के कार्य में करीब पचास हजार (५००००) रुपयों की लागत का अन्दाज है। यह रकम पूना से बाहर के दाताओं से आ जाएगी। अमृत महोत्सव संपन्न करने में पूना के कार्यकर्ता उत्साह के साथ संलग्न हैं। महाराष्ट्र राज्य के मुख्यमंत्री ना. वसन्तरावजी नाईक अमृत महोत्सव का अध्यक्षपद भूषित करेंगे। आचार्य सम्राट के गौरव ग्रन्थ का विमोचन महाराष्ट्र राज्य के वित्तमंत्री ना० मधुकर रावजी चौधरी के शुभ कर कमलों से सम्पन्न होगा। भगवान महावीर का २५००वाँ निर्वाण महोत्सव वर्ष एवं आचार्य प्रवर का अमृत महोत्सव इन दोनों समारोहों की पवित्रता में दीक्षा महोत्सव मनाकर वृद्धि की जा रही है। इन्ही सुमंगल एवं पवित्र अवसरों से लाभ उठाना महाराष्ट्र का गौरव है। महाराष्ट्र स्थानकवासी जैन संघ का द्वितीय अधिवेशन भी पूना में हो रहा है। पूना श्री संघ द्वारा निर्मित अमृतमहोत्सव समिति ने इतने काम उत्साह एवं लगन के साथ धूमधाम से संपन्न करने का जो बीड़ा उठाया है, यह महाराष्ट्र के स्थानकवासी समाज के इतिहास में अपूर्व सुवर्ण अवसर माने जाएंगे। हम पूना के श्री वर्धमान श्वे० स्थानकवासी जैन श्री संघ का अभिनन्दन करते हैं और यह दुर्लभ कार्य करने का सुअवसर प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की, इसके लिए हम पूना श्री संघ एवं अमृत महोत्सव समिति को हार्दिक बधाई देते हैं। -संचालाल बाफना संयोजक Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ नामावली आचार्य सम्राट पू० श्री आनंद ऋषिजी महाराज के अमृत महोत्सव प्रित्यर्थ देणगी देने वाले पूना के सज्जनों की शुभ नामावली रुपये ८१०० श्री० सुरजमलजी रतनचंद जी मोहनलाल जी लुकड बन्धु (मै० नवमहाराष्ट्र चाकण ऑईल मील) ७५०१ श्री० चन्द्रभानजी रूपचंदजी डाकलीया ५१०१ श्री देविचंदजी उत्तमचंदजी संचेती ५००१ श्री० नवलखा एण्ड सन्स ५००१ श्री. मोतीलालजी गंभीरमलजी कोठारी ५००१ श्री बाबूलालजी शेषमलजी चोरडीया ५००१ मै पुना दाल मील (हरकचंदजी केशरचंदजी पारख) ५००१ श्री० मोतीलालजी सलेराजजी तालेरा ५००० मै० बोरा आणि कंपनी २५५१ श्री० रूपचंदजी उत्तमचंदजी कर्णावट २५०१ श्री० चुनीलालजी बिरदीचंदजी फुलफगर २५०१ श्री० धनराजजी छगनमलजी आणि कंपनी २५०१ श्री० देविचंदजी मुलतानचंदजी २५०१ श्री० भिकमदासजी किसनदासजी पोखरणा २५०१ श्री० रूपचंदजी दगडूरामजी मुथा २५०१ श्री. मोहनलालजी उमेदमलजी भंडारी २५०१ मै नहार ब्रदर्स (शांतीलालजी नहार) २५०१ श्री० चांदमलजी हेमराजजी कटारीया २५०१ श्री० लखमीचंदजी कचरदासजी लुंकड़ २५०१ श्री० हरकचंदजी केवलचंदजी चोरडीया २५०१ श्री० बालारामजी रामचंदजी आणि कंपनी २५०१ श्री. पोपटलालजी बसंतलालजी कोठारी २५०१ श्री. बन्सीलालजी पनालालजी तलेगांवकर २५०१ श्री. दिपचंदजी दयारामजी रुणवाल २५०१ श्री० चन्द्रकांतजी हस्तीमलजी मुथा २५०१ श्री. रमेशचंदजी सोभाचंदजी टाटीया २५०१ श्री० गौतमचंदजी सूखराजजी सेठीया Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दन समारोह के प्रेरणा सूत्र जैन समाज के वयोवृद्ध नेता, दानवीर, अनेक संस्थाओं के प्रेरणास्तंभ, प्रमुख कृषि पंडित एवं उद्योगपति, श्रीमान चन्द्रभान जी डाकलिया--श्री रामपुर Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) शुभ नामावली २५०१ श्री० हरकचंदजी रूपचंदजी तलेगांवकर २५०१ श्री० पनालालजी धनराजजी बोरा २५०१ श्री. चंद्रभानजी रूपचंदजी कर्णाबट २५०१ श्री० एस० व्ही० बोथरा आणि कंपनी २५०१ श्री. पोपटलालजी माणिकलालजी लुणावत २५०१ श्री० फकीरचंदजी रामचंदजी खिवसरा २५०१ श्री० बाबूलालजी उत्तमचंदजी भंडारी २५०१ श्री० डॉ० कांतीलालजी हस्तीमलजी संचेती २५०१ श्री० माणिकचंदजी मोतीलालजी नहार २५०१ श्री. परशरामजी चुनीलालजी चोरडीया २५०१ मै० मुथा पारख आणि कंपनी २५०१ श्री० नथमलजी कांतीलालजी बलदोटा २१०१ श्री० उत्तमचंदजी सुखराजजी कुवाड़ २१०१ श्री. प्रकाशचंदजी मोहनलालजी बाफणा २१०१ श्री० एम० के० ओस्तवाल वकील १५०१ श्री. मोतीलालजी मोहनलालजी शिंगवी १५०१ श्री० उत्तमचंदजी कांतीलालजी १५०१ श्री० नौलाखा ब्रदर्स १५०१ मै० 'वैभव' अमरचन्दजी उत्तमचन्दजी गांधी १५०१ श्री० गणेशमलजी गम्भीरमलजी कटारिया १५०१ श्री० मोहनलाल जी हंसराजजी लुणावत १५०१ श्री० के०जी० बाँठीया ब्रदर्स १५०१ श्री० हरकचन्दजी किसनदासजी डाकलीया ५१०१ मै० बाफणा ऑटोमोबॉईल्स ११०१ श्री. मोतीलालजी पनालालजी लुणावत ११०१ श्री० मदनलालजी मिसरीलालजी चोरडीया ११०१ श्री. मोतीलालजी नेमीचन्दजी सरणोत ११०१ श्री० हीरालालजी रतनचन्दजी मुथा ११०१ श्री. ताराचन्दजी बन्सीलालजी मुथा ११०१ श्री० हीराचन्दजी कपूरचन्दजी खाटेर ११०१ श्री० मुलचन्दजी सखारामजी कांकरीया ११०१ श्री० भुरचन्दजी रायचन्दजी कोठारी ११०१ श्री० पनालालजी चंदनमलजी बोरा ११०१ श्री० उत्तमचन्दजी दिपचन्दजी चोरडीया ११०१ श्री० हकमीचन्दजी चोरडीया (प्रविणमसाला वाले) ११०१ श्री. मोतीलालजी ताराचन्दजी नहार Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) शुभ नामावली ११०१ श्री. पोपटलालजी हरीलालजी नहार ११०१ श्री० नेमीचन्दजी फत्तेचन्दजी दुगड ११०१ श्री. रमणलालजी सुखराजजी सेठीया ११०१ श्री. ताराचन्दजी भिवराजजी आणि कम्पनी ११०१ श्री. मुकचन्दजी भागचन्दजी मावडीकर ११०१ मे० मुलचन्द क्लॉथ कॉर्नर ११०१ मै० संचेती ब्रदर्स ११०१ श्री. सूर्यकांतजी शंकरलालजी खिंवसरा ११०१ श्री० माणिकचन्दजी गणेशमलजी रायसोनी ११०१ श्री० मुकनदासजी झुम्बरमलजी रायसोनी ११०१ मे० बोथरा आणि कम्पनी (चाकनवाला) ११०१ श्री धोडिरामजी दलीचन्दजी खिंवसरा ११०१ श्रीमती सदाबाई लालचन्दजी फुलफगर ११०१ श्री० लालचन्दजी मुकनदासजी ललवाणी ११०१ श्री० देसडला बन्धु (न्हावरेकर) ११०१ श्री० बन्सीलालजी नवलमलजी सुरपुरीया ११०१ श्री. जैनभाई ११०१ श्री० चुनीलालजी कुंदनमलजी खिवसरा ११०१ श्रीमती समरतबेन त्रींबकलाल मेहता ११०१ श्री० सुरजमलजी धनराजजी सिंगवी ११०१ श्रीमती आनंदीबाई बछराजजी सांड ११०१ डॉक्टर सी० डी० गुगले ११०१ मै० कटारीया गूगले आणि कंपनी ११०१ श्री० उमेदमलजी केशरचंदजी पुंगलीया ११०० श्री० केशरचंदजी उत्तमचंदजी लुणावत १००१ मै किर्ती क्लॉथ स्टोअर्स (चंदनमलजी गांधी) १००१ मै० कुन्दनमल एण्ड सन्स ५०१ श्री प्रकाश कुमार जी ताराचन्द जी नहार ५०१ श्री. प्रेमराज जी माणिकचन्द जी ५०१ मे० जयकुमार एन्ड ब्रदर्स ५०१ श्री० झुबंरलालजी चांदमलजी चोपड़ा ५०१ श्री० धनराजजी प्रविणचन्द्र आणि कम्पनी ५०१ मे० लालचन्द ट्रान्सपोर्ट (श्री०एल०आर०रांका) ५०१ श्री. संपतलालजी चांदमलजी चोपड़ा ५०१ श्री. शांतीलालजी मोहनलालजी ललवाणी ५०१ श्री. कांतीलालजी फुलचन्दजी चोरडिया (जैन जागृती) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०१ ५०१ ५०१ ५०१ श्री० नेमीचन्दजी खेमचन्दजी शिंगवी श्री केशरचन्दजी पुनमचन्दजी गुंदेचा श्री० अमोलकचन्दजी भेरूदासजी चुत्तर श्री० बालचन्दजी जिवराजजी रायसोनी ५०१ श्री० रतिलाल दुर्लभदास एन्ड कम्पनी श्री० धनराजजी ताराचन्दजी साकंला मे० धनंजय ट्रेडिंग कम्पनी ५०१ ३५ ) ५०१ ५०१ ५०१ ५०१ श्री० वृन्दावनदासजी पी० तुरखीयी श्री० केशवलाल खेतशी व्होरा ५०१ ५० १ श्री० कुन्दनमलजी खिंवराजजी कोठारी ५०१ श्री० हरकचंदजी लुणकरणजी सांकला ५०१ ५०१ श्री० मोहनलालजी ताराचंदजी भटेवरा सौ० निर्मलबेन बाबूभाई गाठाणी मैं ० चोरडीया ब्रदर्स ५०१ ५०१ ५०१ ५०१ श्री० कुन्दनमलजी गुलाबचंदजी भंडारी श्री० प्रदीपकुमारजी पोपटलालजी खिंवसरा श्री० सुरजमलजी कुन्दनमलजी संचेती ५०१ श्री० नथमलजी कस्तुरचंदजी लोढा ५०१ श्री० सोभाचंदजी रमणलालजी गादीया ५०१ श्री० रायचंदजी रामचंदजी लुणावत ५०१ श्री० कनकमलजी प्रदीपकुमारजी मुनोत ५०१ श्री० नोपतलालजी भगवानदासजी साकंला ५०१ श्री० शशिकांतजी झुंबरलालजी रायसोनी श्री० गुलाबचंदजी शांतीलालजी कुवाड ५०१ श्रीमती सोनीबाई उत्तमचंदजी कर्णावट ५०१ श्री० चुनीलालजी हजारीमलजी रुणवाल मे० मिना क्लॉथ स्टोअर्स (हुकमीचन्दजी भंडारी ) शुभ नामावली ப Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार दर्शन अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन के लिये नीचे लिखे दान दाता महानुभावों की शुम नामावली रुपये ११००१ श्रीमान् चंद्रभानजी रूपचंदजी डाकलीया श्रीरामपुर जि. अहमदनगर ५००१ श्रीमान् संचालालजी छगनमलजी बाफणा, धूलीया २५०१ श्रीमान् नवलमलजीसरदारमलजी पुगलिया, इतवारी सराफ बाजार, नागपुर २५०१ , कांतीलालजी रतनचंदजी बांठीया पनवेल जि० कुलाबा २१०१ , मिश्रीलालजी सुवालालजी बाफणा, पारोला रोड, धुलीया। २००० श्रीमान् अगरचंदजी मानमलजी चैरीटेबल ट्रस्ट १०३, मिट स्ट्रीट, मद्रास २००१ श्रीमान् शांतीलालजी बिरदीचंदजी लुणावत, मुबारकमंझील, ह्य जेस रोड, मंबई नं० ७ १५०१ नागसी हीरजी धर्मार्थ ट्रस्ट, इतवारी नागपुर १५०१ श्रीमान् शादीलालजी निरपराजजी जगतभूषणजी जैन, बरार हाऊस, अब्दुल रेहेमान स्ट्रीट, मुबई नं० ३ १००१ श्रीमान् मोहनलालजी चंदूलालजी कटारीया अनाज बझार, इतवारी, नागपुर १००१ श्रीमान चंपालालजी कोठारी चैरीटेबल ट्रस्ट, मुंबई मेडोज स्ट्रीट फोर्ट मुबई २००१ श्रीमती सिरे कुवरबाई जवाहरलालजी मुणोत, अमरावती महाराष्ट्र २५०१ श्रीमान चंपालालजी संकलेचा मु. पो० जालना, औरंगाबाद २००१ श्रीमान पुखराजजी सागरमलजी लुकड Co परमा फील्मस (प्रा०) लि. ११ ओल्ड प्रभादेवी रोड, मुंबई नं० २५ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे आराध्य गुरुदेव पूज्य पाद श्री रत्न ऋषि जी महाराज आचार्य प्रवर श्री आनन्द ऋषि जी के श्रद्धस्पद गुरुदेव प्रातः स्मरणीय शास्त्रविशारद पूज्यपाद श्री रत्न ऋषिजी महाराज →→ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक पुण्य स्मृति मेरे गुरुदेव .-आचार्यप्रवर आनन्द ऋषि - सम्यक् दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र प्राप्ति में सहायक, मुक्तिमार्गदर्शक पूज्य गुरुदेव श्री रत्नऋषि जी म० के चरणारविन्दों में शत-शत वंदन हैं अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नमः ॥ आपश्री के अनन्त उपकार ही मेरे जीवन के पाथेय हैं। आप ही मेरी ज्ञान-ध्यान, जप-तप साधना आदि के आधारभूत हैं। अतएव मैं सर्वात्मना आपके गुणगान करते हुये भी उऋण नहीं हूँ। आपश्री की गुणावलियों के लिये-- सब धरती कागद करू लेखनि सब वनराय। सात समुद्र की मसि करू (तो भी) गुरु गुन लिखा न जाय ॥ आपश्री इन्द्रियजयी, ब्रह्मचर्य के आराधक, कषायविजेता, पंच महाव्रतों के धारक, अष्ट प्रवचनमाताओं (पाँच समति, तीन गुप्ति) से संयुक्त थे और इन्हीं के संस्कारों को सिंचित कर मेरे जीवन में नित नूतन ओज-तेज का अंकुरारोपण किया है, सन्मार्ग में स्थापित किया है। आपश्री द्वारा प्रदत्त संस्कार हैं सत्यं वद । धर्म चर । स्वाध्याय-प्रवचनाभ्याम् न प्रमदितव्यम् । सत्य बोलो। धर्म का पालन करो। स्वाध्याय-प्रवचन में प्रमाद न करना । आपश्री विरागी थे, अकिंचन थे लेकिन आपको प्राप्त संपदायें अनुपमेय थीं । बड़े-बड़े इन्द्र, नागेन्द्र एवं नरेन्द्र भी उनको प्राप्त करने के लिये लालायित रहते हैं । आपकी सम्पत्तियाँ भोग की नहीं, वरन् योग की साधक हैं और वे हैंआचार, श्रुत, शरीर, वचन, वाचना, यति, प्रयोग और संग्रहपरिज्ञा । मेरे जीवन को संवारने में उक्त अष्ट सम्पदाओं का उपयोग कर मुझे भी आध्यात्मिक वैभव से सम्पन्न बनाया। ____ अपने जीवन निर्माता गुरुदेव के गुणानुवाद के लिये स्वानुभवों की अंजलि के कतिपय संस्मरण प्रस्तुत करता है। जो मेरे लिये मार्गदर्शक होने के साथसाथ संयम साधकों के लिये भी अवलंबनभूत हैं। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) मेरे गुरुदेव मेरी मातुश्री धार्मिक आचार-विचार एवं सम्यक श्रद्धा सम्पन्न थीं। अहनिश आत्मसाधना के लिये समुद्यत रहती थीं। परिवार के लालन-पालन में, संतान को नैतिक बनाने में प्रयत्नशील रहती थीं। प्रतिदिन सूर्योदय के समय सामायिक, प्रतिक्रमण आदि धार्मिक अनुष्ठानों से प्रारम्भ होकर रात्रिशयन तक उनका ही पारायण होता रहता था। जीवन में संतोष था अतः परिवार में सुख-शान्ति भी स्वयं अठखेलियाँ करती थी। न आकांक्षा थी और न लालसा और जब ये दोनों नहीं थीं तो ईर्ष्या की उपस्थिति कैसे हो सकती थी। इसी बीच कविकुलभूषण पं० रत्न पूज्यपाद श्री त्रिलोक ऋषि जी म० के पट्टधर शिष्य गुरुदेव श्री रत्नऋषि जी म० का पर्दापण मेरी जन्मभूमि चिंचोडी में हुआ । गुरुदेव का पदार्पण मेरी मातुश्री के लिये आह्लादकर हुआ और मेरे जीवन के लिये एक नवोन्मेष का संवाहक बना। गुरुदेव के पदार्पण होते ही मातुश्री हुलासबाई ने हुलसित होकर भावना व्यक्त की-बेटा ! नेमिचन्द, सामायिक तो मैं कर लेती हैं, लेकिन प्रतिक्रमण याद न होने से यथाविधि नहीं हो पाता और गाँव में भी अन्य किसी को प्रतिक्रमण नहीं आता। अतः इस शुभ योग को प्राप्त कर प्रतिक्रमण सीख ले । संभवतः आज के समय में मेरे बाल्यजीवन का उक्त प्रसंग महत्त्वपूर्ण प्रतीत न हो, लेकिन यह अवश्य प्रतिभासित कर देता है कि उस समय का जन जीवन धार्मिक संस्कारों के अर्जन के लिए उत्सुक होते हुये भी ज्ञानाभ्यास के साधनों के सुयोग से वंचित था । संत मुनिराजों, विद्वानों का संयोग क्वचित् एवं कादाचित्क था। ऐसे समय में आचार संपदा के धनी गुरुदेवश्री ने ग्राम-ग्राम और नगर-नगर में धार्मिक ज्ञान विकास के लिये प्रयास किये। सामायिक प्रतिक्रमण आदि के प्रारम्भिक ज्ञान से लेकर सूत्रों के अभ्यास की ओर जनमानस को तत्पर बनाया। हाँ तो 'मन भावै और वेद बतावै' के अनुसार मैं प्रतिक्रमण को कंठस्थ करने के लिये तैयार हुआ। मैं ही नहीं, अन्य समवयस्क बंधु भी सीखने लगे। उत्साह एवं स्पर्धा से बहुत थोड़े समय में प्रतिक्रमण कंठस्थ करने के बाद थोकड़ों को कंठस्थ करने लगा । भक्तिपूर्ण पद भी कुछ याद हो जाने से यथावसर गीत के स्वरों को भी गुनगुनाने लगा। श्रोताओं को भी सुख मिलता एवं स्वयं में आनन्दानुभूति करता । इस अनुभूति और अभ्यास से मैं इस निष्कर्ष पर आया कि सुख बाह्य में नहीं अन्तर में है, सांसारिक कार्यों में नहीं आध्यात्मिक साधना में है। अपने विचारों को गुरुदेव के श्रीचरणों में निवेदन किया कि अपने अन्तेवासी के रूप में मुझे अंगीकार कर लीजिये । गुरुदेव ने भावना की अनुमोदना करते हुये भी फरमाया कि आयुष्मन् ! अपने पारिवारिक जनों, माता, भाई आदि की स्वीकृति प्राप्त Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे गुरुदेव करने के पश्चात् ही दीक्षा के सम्बन्ध में विचार हो सकता है। बात भी यथार्थ थी, परिवार के ज्येष्ठों की शुभकार्य में आज्ञा लेना अर्थात् वरद आशीर्वाद प्रदान करने जैसा होता है। अपनी भावना एवं गुरुदेव के संकेत को पूज्य मातुश्री से निवेदन किया। मातुश्री ने प्रत्युत्तर में कहा कि बेटा ! संयम साधना में अग्रसर होने की भावना प्रशंसनीय है, लेकिन अभी बाल्यावस्था के कारण संयम पालन में कठिनाई आ सकेगी। अतः ज्ञानाभ्यास करो। पूज्य गुरुदेव और मातुश्री की भावना के सम्बन्ध में आज विचार करता हूँ तो एक आदर्श एवं यथार्थता के दर्शन होते हैं कि जैसे आचार के बिना ज्ञान में ओज नहीं आता है, वैसे ही ज्ञान के बिना आचार का पालन भी नहीं हो सकता है। व्यक्ति चाहे कितना भी परिश्रमी हो और उसमें कार्य करने की क्षमता भी हो लेकिन कार्य को सफल बनाने की बुद्धि न हो तो श्रम का अपव्यय होता है और कार्य उचित रूप में सम्पन्न नहीं हो पाता । दूसरी बात यह भी है कि आध्यात्मिक साधना में अग्रसर साधक के लिये साधना में अग्रसर होने के पूर्व आत्मविवेक होना प्रमुख है । अतएव किसी प्रकार का आग्रह न कर मैं ज्ञानाम्यास के लिये विशेषरूप से प्रयत्नशील रहने लगा। जो कुछ भी बुद्धि थी और गुरुदेव से शिक्षा ली थी, उसकी पुनरावृत्ति करता। पूज्य गुरुदेव जब विभिन्न क्षेत्रों में विहार करते हये पूनः मेरे जन्मस्थान के निकटवर्ती मिरी गाँव पधारे तब मैं भी मातुश्री के साथ ज्ञानाभ्यास के लिये सेवा में उपस्थित हुआ । पाठ्यक्रम के अनुसार थोकड़ों आदि को कंठस्थ करने के साथ सर्वप्रथम दशवकालिक सूत्र का अध्ययन प्रारम्भ हुआ। गुरुदेव श्री वांचन देते, उसके अर्थ को समझाते और उसमें गभित सार की विवेचना करते थे । इधर मेरी बुद्धि में विकास होते जाने से गाथाओं के उच्चारण और अर्थ समझने से एक अनोखे आनन्द की अनुभूति करता और अधिक से अधिक जिज्ञासापूर्वक नये ज्ञान के लिये लालायित रहता । इन्हीं दिनों बांबोरी में दीक्षा महोत्सव होने से मातुश्री के साथ वहाँ गया । बांबोरी में दीक्षा महोत्सव के अवसर पर विभिन्न संत, सतियों के दर्शन किये और सबसे बड़ा लाभ मुझे यह हुआ कि सतीशिरोमणि महासती श्री रामकुवर जी म० की प्रधान शिष्या महासती श्री सुन्दर जी म. से महावीर स्तुति 'श्रीपुच्छी सुणं' का अभ्यास करने का गुरुदेव ने फरमाया । महासती श्री जी ने बहुत ही ज्ञान, विवेक एवं प्रसन्नता के साथ अभ्यास कराना प्रारम्भ कर दिया। यह अभ्यास कथा के माध्यम से नीति का ज्ञान कराना जैसा सिद्ध हआ। महावीर स्तुति के साथ और दूसरे-दूसरे ज्ञान की जानकारी मिली। अब मैं कुछ शास्त्रों के अन्तर्रहस्य को समझने लायक बन गया । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) मेरे दीक्षा महोत्सव के अवसर पर मेरे अभ्यास, भावना और साधना में अग्रसर होने की पूर्ण दृढ़ता को देखकर मातुश्री ने मुझे पूज्य गुरुदेव के साथ रहकर साधना की तैयारी करने के लिये आज्ञा दे दी । यह हैं मेरे प्रारम्भिक जीवन के कतिपय संस्मरण । जिनमें मातुश्री ने अपने मोह की अपेक्षा संतान के विकास हेतु वात्सल्य और विवेक को प्रमुखता दी स्वार्थ की अपेक्षा परार्थ के लिये त्याग किया और पूर्ण रूप से परीक्षा करके योग्य गुरु के सुयोग्य शिष्य बनने के लिये गुरुदेवत्री को अर्पित कर दिया कि 'शिवास्ते पन्थः सन्तु ।' 1 अब तो ज्ञान एवं संयम में परिपक्वता प्राप्ति के लिये अभ्यास और अध्ययन की ओर मन केन्द्रित हो गया। दैनिक कार्यों के अतिरिक्त समय में अध्ययन और अध्ययन के सिवाय अन्य कोई कार्य नहीं रहे थे । इस समय में किया गया अध्ययन विशेष लाभदायक रहा। जितनी अध्ययन में गति बढ़ती जाती थी उतनी ही और नये अध्ययन के लिये जिज्ञासा बढ़ने लगी। साथ ही संयम साधना के लिये पूर्ण तैयारी देखकर गुरुदेव ने भागवती दीक्षा देने का विचार किया। उनका विचार मेरे लिये महान हर्षदायक था। श्री संघ की अनुमति, पारिवारिक जनों की स्थिति से मिरी ग्राम में भागवती दीक्षा सम्पन्न हो गई। दीक्षा के उपरान्त शास्त्रीय अध्ययन के साथ-साथ व्याकरण, साहित्य, न्याय आदि व संस्कृत प्राकृत भाषाओं के पठन-पाठन का क्रम बना रहा योग्य विद्वानों का सुयोग प्राप्त होने से दो माह में शब्दरूपावली, धातुरूपावली, समास चक्र, रघुवंश के दो सर्ग समाप्त हुये । विहार करते हुये गुरुदेव मनमाड़ पधारे । वहाँ काशी के विद्वान श्री व्यंकटेश लेले शास्त्री के पास लघुसिद्धान्तकौमुदी का अध्ययन दस माह में समाप्त हुआ। इस प्रकार से संस्कृत में कुछ गति हो जाने से तथा सूत्रों की प्रतियों की आवश्यकता होने पर मैंने गुरुदेव से निवेदन किया कि शास्त्रों की प्रतियाँ चाहिये, जिससे अध्ययन होता रहे। गुरुदेव ने जिज्ञासा और रुचि देखकर श्रावकों से आवश्यक सूत्र व ग्रन्थों के लिये संकेत किया और वे प्राप्त हो गये उन दिनों अधिकतर हस्तलिखित शास्त्रों के पढ़ने-पढ़ाने का प्रचलन था । अतः विभिन्न स्थानों के लिपिकारों के लिपिभेदों से अनेक प्रकार के अक्षरों की बनावट का भी सुगमता से ज्ञान हो गया जिससे प्राचीन लिपियों के पढ़ने में कुछ न कुछ सहायता मिलती थी । संस्कृत व्याकरण लघुसिद्धान्त कौमुदी का अध्ययन तो अच्छी तरह से हो चुका था तथा संस्कृत साहित्य एवं भाषा का विशेष ज्ञान प्राप्त करने की दृष्टि से गुरुदेव ने सिद्धान्त कौमुदी के अध्ययन की आज्ञा दी। पूना से श्री सिद्धेश्वर शास्त्री जी को गया और आकर अध्ययन प्रारम्भ हो गया। मैं अध्ययन में रत रहता और गुरुदेव श्री स्वयं शिष्य को अधिक से अधिक समय शिक्षण के लिये मिलने के दृष्टिकोण से गोचरी जाते, देख-रेख रखते और समय-समय पर गुरुदेव Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) __ मेरे गुरुदेव प्रगति की जानकारी करते रहते । इस प्रकार से छह माह बीत गये । एक दिन मैं अध्ययन करके कुछ जल्दी आ गया था। समय दिन के ग्यारह बजे का होगा। गुरुदेव पानी लेकर आये, लेकिन वृद्धावस्था और शरीर की स्थूलता के कारण सांस भर गया। गुरुदेव के स्वास्थ्य को देखकर मैंने निवेदन किया कि अध्ययन के अतिरिक्त कुछ समय सेवा का दीजिये। सेवा के साथ अध्ययन होने से मुझे विशेष लाभ होगा । लेकिन गुरुदेव की एक ही भावना थी कि शिष्य का बौद्धिक विकास अधिक हो, अध्ययन के लिये अधिक समय मिले । अतएव अपने स्वास्थ्य की ओर विशेष ध्यान न देते हुये फरमाया-आनन्द ! समय मात्र का प्रमाद न करो-यह भगवान का वचन ध्यान में रखो। मेरे शरीर की चिन्ता करने की जरूरत नहीं है, यह तो अस्थायी है, ज्ञान स्थायी है अतः उसकी प्राप्त को प्रमुख मानो। यह था गुरु का आदर्श और उसके आलोक में मुझे अध्ययन के अच्छे से अच्छे अवसर प्राप्त होते रहे। व्याकरण का अध्ययन हो रहा था। लेकिन बीच-बीच में व्यवधान आ जाने से गुरुदेवश्री ने विचार किया कि संस्कृत के केन्द्र पूना में शिष्य के लिये व्यवस्था की जाये तो योग्य रहेगा । यह विचार कर पूना पदार्पण किया और विद्वानों की व्यवस्था करने का विचार किया। लेकिन उन दिनों संस्कृत के जैन विद्वान तो थे नहीं और दूसरे विद्वान जैनों को पारिश्रमिक देने पर भी पढ़ाने के लिये तैयार नहीं होते थे। लेकिन जहाँ चाह वहाँ राह के अनुसार सामयिक पत्रों में विज्ञापन देने से अनेक विद्वानों के पत्र आये। उनमें से चयन करके पं० श्री राजधारी त्रिपाठी शास्त्री जी अध्यापन के लिये नियुक्त हये । गुरुदेव ने भी शास्त्री जी की विद्वत्ता और प्रतिभा की परीक्षा करके शिक्षण के लिये निष्णात पाया । त्रिपाठी जी विद्वान थे, साथ ही उत्साही थे। अट्ठाइस माह में सिद्धान्त कौमुदी पूर्ण कराने का कहकर भी उसे बीस माह में ही समाप्त करा दिया। आप जो कुछ पढ़ाते, उसको याद कराते और रात्रि में पुनः आवृत्ति करा के दूसरे दिन आगे पाठ देते थे । स्वास्थ्य ठीक न होने पर भी अपने नियमित अध्यापन में उन्होंने व्यवधान नहीं आने दिया। दिन रात स्थानक में रहना और अध्ययन कराना ही उनके कार्य थे। श्री त्रिपाठी जी ने सिद्धान्तकौमुदी के साथ जैनेन्द्र व्याकरण, शाकटायन व्याकरण, प्राकृत व्याकरण, साहित्यदर्पण, काव्यानुशासन, नैषधीय चरित्रः, विद्वद् मुखमंडन काव्य, वेणीसंहार, मुद्राराक्षस, मृच्छकटिक विश्वगुणादर्शचम्पू विक्रमोर्वशीय, रत्नावली, सुभाषितरत्न संदोह, अष्टादश स्मृति, पिंगल छन्द सुत्र, सिद्धान्त मुक्तावली प्रत्यक्ष खंड तथा माघकाव्य व नेमिनिर्वाण काव्य का भी अध्ययन कराया। अन्य विद्वानों द्वारा लघु कौमुदी, तर्क संग्रह, न्यायदीपिका, वृत्तरत्नाकर, सिन्दूर प्रकर, रघुवंश, किरातार्जुनीय आदि ग्रन्थों का अध्ययन कराया गया था। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) मेरे गुरुदेव गुरुदेव स्वयं जैन आगमों एवं अन्य न्याय, सिद्धान्त, दर्शन ग्रंथों का अध्ययन कराते थे। इस सब अध्ययन का फल यह हुआ कि करीब छह सात वर्ष में अनेक ग्रन्थों का अभ्यास करने का मौका मिला। यह अध्ययन काल इतना गौरवणीय है कि आज भी उसकी स्मति हृदय को पुलकित कर देती है। उन दिनों शिक्षण के लिये विशेष रुचि देखी जाती थी और अध्ययन करने वाले पूर्ण मनोयोग पूर्वक तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त करने की रुचि रखते थे। उन दिनों गुरुजनों और विद्वानों की यह भावना रहती थी कि हमारी अपेक्षा यह शिष्य वन्द अधिक विद्वान और निष्णात बने । विविध भाषाओं से परिचय उक्त अध्ययन से मुझे तो लाभ ही लाभ मिला । मातृभाषा मारवाड़ी होने से तथा बाल्यकाल में मराठी शाला में शिक्षण होने से उन्हें सहजरूप में जान सका लेकिन इन संस्कृत और प्राकृत ग्रन्थों के अभ्यास करने से उनका भी ज्ञान हुआ। गुरुदेव का यद्यपि विहार क्षेत्र विशेष रूप से महाराष्ट्र प्रान्त रहा, लेकिन गुजराती बोली का अध्ययन होता रहा । कई गुजराती विद्वान लेखकों की पुस्तकों के पढ़ने का मौका मिला जिससे उसके महत्त्व को जाना । वैराग्यावस्था में उर्दू तथा दीक्षा के बाद पाथर्डी चातुर्मास में फारसी का भी अध्ययन किया । हिन्दी भाषा का शिक्षण तो अध्ययन काल में होता ही रहा। इन सब भाषाओं की जानकारी हो जाने के बाद गुरुदेव ने अंग्रेजी भाषा का ज्ञान करने के लिये आदेश दिया और उसकी भी व्यवस्था हो गई। उक्त कथन का सारांश यह है कि गुरुदेव शिक्षा के प्रति विशेष ध्यान देते थे और उसमें उद्देश्य यह था कि योग्य अवस्था में डाले गये संस्कार जीवन पर्यन्त लाभदायक होते हैं। उन्हीं की दीर्घदृष्टि का परिणाम यह हुआ कि वे संस्कार आज भी मुझे प्रत्येक समय, परिस्थिति में मार्गदर्शक के समान उपयोगी सिद्ध हो रहे हैं । ___ गुरुदेवश्री शिष्य और संत मंडल में शिक्षा प्रसार की भावना के साथ श्रावक वर्ग एवं जन साधारण को भी शिक्षित और संस्कारी बनाने के लिये ध्यान देते थे। जहाँ भी विहार, चातुर्मास होता और उस समय वहाँ जैसी स्थिति होती तदनुरूप स्वयं शिक्षण देते । शाला, पुस्तकालय आदि की व्यवस्था हो भी जाती थी लेकिन कोई शाला चार-छह माह, तो कोई वर्ष, दो वर्ष तक चल कर रह जाती किन्तु पाथर्डी में संस्थापित श्री तिलोक जैन पाठशाला क्रमश: विकासोन्मुखी बनती गई और आज हाईस्कूल के रूप में व्यवस्थित चल रही है। इसकी शाखा के रूप में चिंचौडी और माणिकदौड़ी में एक-एक हाईस्कूल चल रहे हैं। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) मेरे गुरुदेव गुरुदेव के सदुपदेश से श्री सीवराज जी पारख गरडा निवासी ने बीस हजार रुपये ज्ञान खाते में दान देकर पुष्ट बना दिया था। उस रकम की आय से अनेक संत सतियों के लिये अभ्यास की व्यवस्था की गई, स्थानक भवनों के निर्माण में सहायता दी और आज भी तिलोक जैन पाठशाला पाथर्डी, श्री फतेचन्द जैन विद्यालय विचवड, श्री अमोल जैन पाठशाला कडा को सहायता मिल रही है । घोड़नदी, मिरी, आलकुटि आदि स्थानों पर पुस्तकालय स्थापित हये थे। वे भी अपने क्षेत्रों में अच्छे पुस्तकालयों में माने जाते हैं । गुरुदेवश्री शास्त्रज्ञ प्रवचनकार होने के साथ-साथ विद्वान कवि थे। आपने श्री धर्मपाल चरित्र, वज्रोदर सिंहोदर चरित्र, कलावती सती चरित्र, श्री मणिचन्द्र गुणचन्द्र चरित्र आदि चौपाई काव्य ग्रन्थ लिखे हैं। सामाजिक कुरूढ़ियों जैसे विवाह प्रसंगों पर रात्रि भोजन, वेश्या नृत्य, बारूद के पटाखे आदि छोड़ना तथा अन्य प्रकार के प्रदर्शनों में धन का अपव्यय करना आदि के उन्मूलन के लिये संघों को आह्वान किया और संघों ने लिखित रूप से अपने यहाँ कुरूढ़ियों का उन्मूलन करने की शपथ ली। गरुदेव ने अपने युग में सृजन का शंखनाद किया। उनका एक ही स्वर था--निर्माण करो ! व्यक्ति निर्माण से लेकर समष्टि निर्माण के लिये उनका निर्देश होता था। महाराष्ट्र प्रान्त में आज जो कुछ भी संघों में चेतना दिख रही है, उसके सूत्रधार गुरुदेव थे। उन्होंने अमृत बीजों का वपन किया और आज की पीढ़ी उनके फलों का आस्वाद ले रही है। वे सबके थे और सब उनके थे। साथ ही 'अभयदयाणं' आदर्श तो उनके जीवन में प्रति क्षण झलकता था। अहिंसक की सन्निधि में जन्मजात परस्पर विरोधी प्राणी भी अपना बैर त्याग देते हैं एवं हिंसक भी हिंसा से उपरत हो जाते हैं, इसके उदाहरण भी गुरुदेव के जीवन में देखे हैं। उनके अलावा भी ऐसे अनेक दृश्य व संस्मरण स्मृति में हैं जो तपःपूत संयम साधकों में स्वाभाविक रूप से पाये जाते हैं । अत: उनका उल्लेख नहीं किया है। प्रस्तुत संस्मरण मेरे जीवन में अनुभूत हैं। आज जो कुछ भी अपने में पाता हूँ वह गुरुदेव की देन हैं । गुरुदेव आचार्य थे और आचार्य आचार आदि आठ संपदाओं के धनी होते हैं। उन्होंने आठों संपदाओं को जनहिताय, लोकहिताय वितरण कर प्राणिमात्र को कल्याण का मार्ग दिखाया है। ऐसे गुरु मेरे मन में सदैव बसे रहें । मैं तो यही चाहता हूँ गुरो भक्ति सदास्तु मे। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि ष या नु क्रम प्रथम-खण्ड आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषिजी : व्यक्तित्व एवं कृतित्व [व्यक्तित्व एवं विशेषता] डा० कुमारी ज्योति साकले श्री ज्ञान मुनि श्री कमला जैन 'जीजी' श्री देवेन्द्र मुनि, शास्त्री मुनि श्री फूलचन्दजी 'श्रमण' एक इन्द्रधनुषी व्यक्तित्वः आचार्य श्री आनन्द ऋषिजी आचार्य श्री आनन्द ऋषिजी, अपनी नजर में ज्योतिर्धर आचार्य श्री आनन्दऋषि : जीवन-दर्शन विविध विशेषताओं के संगम आचार्य आनन्द ऋषि आगमों में आचार्य का स्वरूप : __ और आचार्य श्री आनन्द ऋषि शिक्षा-प्रसारक श्री आनन्दाचार्य प्राकृतभाषा एवं श्रमण संस्कृति के प्रवक्ता ___ आचार्य श्री आनन्दऋषिजी आचार्य श्री : एक जीवन दर्शन महर्षि आनन्द और उनका तत्त्वचिन्तन कर्तव्यनिष्ठ सेवा को साकारमूर्तिः पूज्य आचार्य श्री आनन्द ऋषिजी आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषिजी का अन्तरंग चित्र, शब्द पटल पर पं० उदयजैन, धर्मशास्त्री श्री सौभाग्यमल जैन, एडवोकेट ५६ m श्री रवीन्द्र कुमार कोठारी डा० भागचन्द जैन 'भास्कर' साध्वी श्री शीतलकंवरजी श्री सुभाष मुनि Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रतनमुनि ६५ ( ४५ ) आगमों आदर्श में आचार्य श्री का व्यक्तित्व बिम्ब वाक् संयमी किन्तु कर्मयोगी आचार्य श्री का अनुपम जीवन धर्म के प्रचार-प्रसार में आचार्य श्री आनन्द ऋषिजी का योगदान श्रमण संघ के स्वर्ण कंकण की एक दीप्तिमान मणि जीवन-स्पर्शी प्रवक्ता आचार्य देव श्री आनन्द ऋषि का प्रवचन-विश्लेषण महासती त्रिशलाकुमारीजी मुनि श्री रोशनलालजी डा० अच्युतानन्द घिल्डियाल ११० ११२ उपाध्याय श्री अमरमुनि १२४ मुनि श्री नेमिचन्दजी प्रो० श्रीचन्द जैन १२८ श्री सौभाग्य मुनि 'कुमुद महासती श्री शीलकुमारी श्री जिनेन्द्र मुनि १२ श्री राजेन्द्र मुनि, शास्त्री मरुधरकेसरी मुनि श्री मिश्रीमलजी ३७ मुनि सुभाषचन्द, जैन सि० विशारद' ५० श्री पुष्कर मुनि ३५ श्रद्धार्चन कोटि-कोटि अभिनंदन ! धर्म और संस्कृति के सजग प्रहरी ज्योतिर्मय जीवन तुम सलामत रहो हजार वर्ष श्री आनन्द अभिनंदन ! श्रद्धार्चन : आचार्य देव के प्रति श्रमणसंघ की वरिष्ठ विभूतिआचार्य श्री आनन्दऋषि जी अभिनन्दन बेला आई आनन्दमूर्ति : आचार्य श्री आनन्द ऋषि आनन्ददाता: आनन्दऋषि जी अभिनन्दना अभिनन्दनः एक जागरूक चेतना का महाराष्ट्र का कोहेनूर आनन्द पंचक : अभिनन्दन अभिनन्दन शत-शत वार श्रद्धा के दो फूल तुम महान हो ! वंदना आणंद पंचयथुई आनन्द ऋषि भजामि श्री गणेश मुनि शास्त्री, स्वामी श्री रघुवरदयालजी महासती पुष्पावतीजी श्री मधुकर मुनि डा० नरेन्द्र भानावत महासती सुमतिकंवर जी विद्याविनोदी श्रीसुकनमुनि मुनि महेन्द्रकुमार 'कमल' श्री कस्तूर मुनि मुनि श्री रूपचन्द्रजी 'रजत' महासती यशकंवरजी पं० विद्याभूषण मणित्रिपाठी श्री जिनेश मुनि, विशारद xx ur 9 9 x wur mX95 or , 204 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ श्रद्धासुमन आचार्य प्रवर का अभिनन्दन भावाञ्जलि सुमनाञ्जलि शत शत वंदन आपणां आचार्य श्री उदारता की मंजुल मूर्ति मेरे प्रणाम हैं आनन्द के चरणों में श्रद्धा के सुमन आचार्यानन्द-पञ्चक उनको वन्दना हमारी है। श्रद्धा सुमन आचार्या-अर्चना महाराष्ट्र के मान - गौरव आनन्द के मान सरोवर चम चम चमके हैं अनन्त अनन्त श्रद्धा के अमर केन्द्र हार्दिक श्रद्धान द्वितीय खण्ड श्रद्धा के सुमन श्रद्धाचंन तुभ्यं नमः साध्वी सुशीलाकुमारी ६८ श्री सरदारमल चौपड़ा १०० डा० जयकिशनप्रसाद खंडेलवाल १०१ प्रवर्तक मुनि श्री हीरालालजी १०२ मुनि श्री शान्तिॠषि १०२ प्रवर्तक श्री अम्बालालजीमहाराज १०३ श्री जीतमल लूणिया १०४ श्री तिलकधर शास्त्री वैद्य अमरचन्द जैन श्री मदन मुनि 'पथिक' श्रीरंगमुनि श्री हीरा मुनि 'हिमकर' मानव जीवन का सदुपयोग जीवन महल की नींव : विचार मीठी बानी बोलिए डा० भागचन्द्र जैन 'भास्कर' मुनि रमेशकुमार श्री फकीरचन्द मेहता सुनि श्री भागचन्द 'विजय' श्री मगन मुनि 'रसिक' मुनि श्री कन्हैयालाल 'कमल' मुनि श्री हेमचन्दजी उपप्रर्वतक स्वामी व्रजलालजी कविरत्न चन्दनमुनि (पंजाबी) बहुश्रुत श्री मधुकर मुनि प्रवचन पंखुड़ियाँ उपदेश श्रवण का पात्र जीवन विकास का सोपान - अनुशासन आचारः परमो धर्मः १४३ १४८ १५४ १५८ १६२ १६५ १०५ १०६ १०७ ܗܘܐ १०६ १११ ११६ ११७ ११८ ११६ १२३ १२३ १२७ १३६ १४० Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ १७७ सहयोग सर्वत्र आवश्यक प्रीत की रीत क्या है ? सुख की खोज जाकी रही भावना जैसी संगत कीजे साधु की कम खाए, सुख पाए भावना भवनाशिनी कषायमुक्तिः किलमुक्तिरेव मन की महिमा सुख का साधन-धर्म ऊंघे मत बटोही! गुण पूजा करिए १६४ १६६ २०४ तृतीय-खण्ड धर्म और दर्शन २२६ २३६ श्री विजय मुनि शास्त्री, श्री पुष्कर मुनि जी डा. सागरमल जैन प्रो. दलसुखभाई मालवणिया । डा. कृपाशंकर व्यास २४८ २६५ 2 भारतीय दर्शन के सामान्य सिद्धान्त जैनदर्शन में अजीव तत्त्व निश्चय और व्यवहारः किसका आश्रयलें? ___ शून्यवाद और स्याद्वाद नयवाद : सिद्धान्त और व्यवहार की तुला पर ज्ञानवाद : एक परिशीलन स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलम जैन रहस्यवाद बनाम अध्यात्मवाद जैन-दर्शन का कबीर-साहित्य पर प्रभाव धर्म का सार्वभौम रूप पंचास्तिकाय में 'पुद्गल' धर्म का वैज्ञानिक विवेचन कर्म-सिद्धान्तः भाग्य-निर्माण की कला नयवादः सिद्धान्त और व्यवहार की तुला पर अपरिग्रह और समाजवादःएक तुलना ० श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री २७७ श्री देवकुमार जैन श्रीमती पुष्पलता जैन एम. ए. ३३० विद्यावती जैन एम. ए. ३४२ प्रवर्तक श्री विनय ऋषिजी ३५४ डा. हुकुमचन्द पार्श्वनाथ संगवे, डा. वीरेन्द्रसिंह ३६८ श्री कन्हैयालाल लोढ़ा, एम. ए. ३७८ श्री श्रीचन्द चोरड़िया, न्यायतीर्थ ३६२ श्री सौभाग्यमल जैन, एडवोकेट ४०० । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ) ( जैन आचार संहिता जैन साहित्य में क्षत्र-गणित मालवकेसरीमनि श्री सौभाग्यमलजी ४०४ डा. मुकुट बिहारीलाल अग्रवाल चतुर्थ-खण्ड । प्राकृत भाषा और साहित्य प्राकृतभाषा: उद्गम, विकास मुनि श्री नगराजजी डी० लिट् और भेद-प्रभेद पाइअ-भासा श्री चन्दनमुनि प्राकृत तथा अर्धमागधी में प्रो. एस. एस. फिसके अन्तर और ऐक्य प्राकृत भाषा का व्याकरण परिवार महासती श्री धर्मशीला एम. ए. प्राकृत-वाड्-मय में शब्दालंकार डॉ. रुद्रदेवत्रिपाठी, आचार्य प्राकृत साहित्य की विविधता और श्री अगरचन्द नाहटा विशालता अक्षरविज्ञानः एक अनुशीलन मुनि श्री मोहनलाल ‘सुजान' अपभ्रश में वाक्य-संरचना के सांचे डॉ. के. के. शर्मा राजस्थानी भाषा में प्राकृत-अपभ्रश डा. प्रेमसुमन जैन के प्रयोग विक्रमोर्वशीय नाटक के चतुर्थ अंक के डॉ. राजाराम जैन प्राकृत अपभ्रश पद्यों का मूल्यांकन प्राकृत भाषा के प्रचार-प्रसार में श्री बदरीनारायण शुक्ल आचार्य श्री का योगदान Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) पंचम-खण्ड इतिहास और संस्कृति १०५ डॉ. नरेन्द्र भानावत डॉ छगनलाल शास्त्री श्री जवाहरलाल मुणोत १५१ जैन धर्म का सांस्कृतिक मूल्यांकन जैन श्रमणसंघ : समीक्षात्मक परिशीलन क्या जैन सम्प्रदायों का एकीकरण संभव है ? श्री कृष्ण का वासुदेवत्व: जैनदृष्टि पुरातत्त्व-मीमांसा जैन संस्कृति में संगीत का स्थान ग्रन्थों की सुरक्षा में राजस्थान के जैनों का योगदान मथुरा का प्राचीन जैन-शिल्प जैन साहित्यांतील काही प्रमुख आचार्य व त्यांचे प्रमुख ग्रन्थ ऋषि संप्रदाय वे पांच सौ वर्ष श्री महावीर कोटिया १५५ पुरात्तत्वाचार्य मुनि श्रीजिनविजयजी १५८ श्रीमती निरुपमादेवी खंडेलवाल १८१ डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल १८७ श्री गणेशप्रसाद जैन १६४ प्रो० ए. एस. मोरे श्री कुन्दन ऋषि २०७ २१८ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( llo) षष्ठ-खण्ड English Acharya Anand Rishijee-"A Redeemer of The Modern Wasteland" -- Satish Kumar Jain 1 Religious Awakening --Dr. A. N. Upadhye 6 The Vedic Gayatri Mantra & Its Metamorphosis in the Jainism -Dr. N. M. Kansara 8 The Jaina Idea of Universe – Prof. M. S. Ranadive 17 Human Nature and Destiny in Jainism - Dr. Bashishtha Narain Tripathi 23 A Reflection on the Life of Tirthankara Mahavira :--Dr. J. C. Sikdar 37 Varahamihira and Bhadrabahu --Dr. 4jay Mitra Shastri 52 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रवर 2:00.00 श्री आनन्द ऋषि जी व्यक्तित्व कृतित्व Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARIOR कोटि-कोटि अभिनन्दन ! -सौभाग्य मुनि “कुमुद" HA Sammeltd [कवि, गीतकार, कुशलप्रवक्ता एवं समाज संघटक श्रमण ] hrs जय मधु-सिञ्चित-मानस, जय-जय, मानवता के चिर वरदान । जय प्रशान्त पावन प्रकृतिमय, आत्म तत्त्व के अनुसन्धान ॥ जय निकेत शम-दम-करुणा के, जय शिव मार्ग विलासी । जय संथम के सजग देवता, अनेकान्त विश्वासी ॥ समिति-गुप्ति-धन रत्न महाव्रत के अधिकारी धन्य । जिन-पथ सेवा-धर्म परायण, कौन आप-सा अन्य ! ॥ जय आलोक सुमंडित जीवन, प्रगति-पूर्ण इतिहास । युग-युग के आदर्श सदा जय, अडिग अतुल विश्वास ॥ संघ-ऐक्य के अग्रदूत जय, मूर्तिमन्त रत्नत्रय के आराधक जय, सदा सफल अणगार ॥ जय माधुर्यमूर्ति मनमोहक, चिदानन्द के धाम । जय जागृत-विवेक सर्वदा, जय सेवा निष्काम ॥ युग के अभिनव चरण तुम्हारा, कोटि-कोटि अभिनन्दन । "कुमुद” श्रेय पथ अनुगामी, 'आनन्दकन्द' को वन्दन ! ॥ आचार। BHIS תקה fo आपाप्रवर अभियान श्रीआनन्दमन्थश्राआनन्द अन्य५2 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [] डा० कुमारी ज्योति साकले, एम. बी. बी. एस. [युवापीढ़ी की चिंतनशील लेखिका तथा सेवाभावी चिकित्सिका, अमरावती श्रमण-परम्परा के नीलगगन में चमकता चय एक इन्द्रधनुषी व्यक्तित्व : आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि ANA वर्षा से पूर्व या वर्षा के पश्चात् जब कभी नीलगगन में इन्द्रधनूष की मनोहर छटा छितराती है तो दर्शक मुग्ध होकर देखते रहते हैं, उस सुरम्य दृश्य को देखते-देखते आँखें अघाती नहीं, मन भरता नहीं और हृदय की उत्सुकता कम नहीं होती । बार-बार उस नयन-मोहन छवि को देखने हृदय उछालें भर-भर उमगता है, आँखें लपकती हैं। कभी उस इन्द्रधनुष में चार रंग दीख पड़ते हैं, कभी पाँच, कभी सात । वास्तव में उसमें कितने रंग हैं, आँखें निश्चय नहीं कर पातीं, बस उसके रम्य-रंगों को देखते-देखते ही मन विभोर होता रहता है। जनश्रमण आचार्यप्रवर आनन्दऋषि जी के व्यक्तित्व का दर्शन करते समय भी मन में इसी प्रकार की भावनाएँ उमगती हैं । जब-जब ज्ञान की आँखों में श्रद्धा की ज्योति जगती है और आचार्यश्री के स्वच्छ, सौम्य, धवल-वेश-परिमंडित देह के भीतर एक दिव्य व्यक्तित्व की प्रतिमा का दर्शन करते हैं--- तो सचमुच ऐसा ही लगता है। उनका व्यक्तित्व कितने रमणीय रंगों में रंगा है, कह पाना कठिन है। समझ पाना भी कठिन है, सिर्फ अनुभूति होती है। उनके विविध सुरम्य रूपों को देखकर कभी लगता हैआचार्यश्री सरलता की साकार मूर्ति हैं, विनम्रता के पुंज हैं। कभी-कभी उनकी दिव्य ज्ञान-साधना की छवि के दर्शन होते हैं तो लगता है—ज्ञान का अथाह सागर ठाठे मार रहा है, असंख्य-असंख्य ज्ञानउर्मियां उछल रही हैं । विविध भाषाओं का परिज्ञान, दर्शन और धर्म की सूक्ष्मातिसूक्ष्म धारणाओं का विवेचन बुद्धि को चकित कर देता है। उनसे बात करते समय लगता है-वाणी मिश्री-से भी मीठी है, माधुर्य छलक रहा है । शब्दों का विवेक बड़ा गहरा है, भाषा का संयम बड़ा ही सूक्ष्म है। जो कुछ बोलते हैं-हियं, मियं, अदुट्ठ-हितकर, मिताक्षर और सुन्दर बोलते हैं। कोई धाराशास्त्री (वकील) भी उनकी वाणी को कानून के कांटों से पकड़ नहीं सकता । शब्दों में सार, भाषा में भाव और माधुर्य यों छलकता है जैसे अंगूरों के गुच्छे हों। वे सच्चे वाग्मी हैं, वागीश्वर हैं। वे अनुशासनप्रिय हैं, स्वयं गुरुचरणों के कठोर अनुशासन में रहकर शिक्षा और संस्कारों की प्ति की है, इसलिए एक सैनिक की भाँति न केवल स्वयं अनुशासित जीवन जीते हैं, किन्तु दूसरों को भी अनुशासन की प्रेरणा देते रहते हैं-वाणी से कम, व्यवहार से ही अधिक ! उनका जीवन अनुशासन की जीती-जागती तस्वीर है। या Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा एक इन्द्रधनुषी व्यक्तित्व : आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि ५ विज्जा-विणय-संपन्ने-का शास्त्रीय आदर्श उनके जीवन के कण-कण से मुखरित होता-सा लगता है। विद्या के साथ विनय, विनय के साथ विवेक, विवेक के साथ वाग्मिता, व्यवहारपटुता आदि अनेक दिव्य-भव्य गुणों की श्रृंखला ऐसी जुड़ी हुई है कि जैसे मणि-मुक्ता-मंडित माला में एक-एक बहमूल्य मुक्ता गुथी हुई हो। उनकी प्रतिभा बड़ी विलक्षण है । महावीर अगर आज होते तो अपने इस प्रिय शिष्य को-आसुपन्ने दीहपन्ने-आशुप्रज्ञ, दीर्घप्रज्ञ कहकर संबोधित करते । नवनवोन्मेषशालिनी उनकी सूक्ष्म एवं धर्मशुद्ध प्रतिभा बड़ी चमत्कारी है । बचपन में वे जब पढ़ते थे तो बड़े-बड़े न्याय एवं व्याकरण के आचार्य जो अध्यापक बनकर आये थे, उनके सूक्ष्म तर्कों और मूल-ग्राही जिज्ञासा-प्रधान प्रश्नों से कतराने लगे थे। बचपन में ही प्रतिभा की आशातीत स्फूरणा थी और सत्योन्मुखी जिज्ञासा भी। वही जिज्ञासा जिसने दर्शन को जन्म दिया, इन्द्रभूति गौतम को महावीर के समवशरण तक आकृष्ट किया और विशाल वाङ्मय की सर्जना की, आनन्दऋषि जी में भी उसीप्रकार की स्फूर्त जिज्ञासा आज भी देखी जाती है। इसी प्रतिभा और स्फूर्त जिज्ञासा ने आनन्दऋषि को श्रुतज्ञान की अमूल्य निधि की कुंजी सौंपी, वे विद्यासम्पन्न बने। न केवल स्वयं विद्वान बने किन्तु इनके मन में विद्याप्रसार की एक अक्षय लौ भी प्रज्ज्वलित हुई । जिसकी ज्योति से दूर-दूर के प्रदेश आलोकित हुए। हजारों अन्धकाराच्छन्न हृदयों में ज्ञान का दिव्य आलोक जगमगाया । शिक्षाप्रचार की एक अनूठी धुन है आचार्यश्री के हृदय में । जैसी धुन कभी महामना मालवीय जी के हृदय में जगी थी और उन्होंने अपना तन-मन-जीवन अर्पित कर चिरस्मरणीय सरस्वती मन्दिर के रूप में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। कुछ वैसी ही अनूठी, अद्भुत और विलक्षण धुन आचार्यप्रवर के जीवन में दृष्टिगोचर होती है। यद्यपि इन्होंने एक महामंदिर की स्थापना न करके, अनेक सैकड़ों की संख्या में छोटे-छोटे शिक्षाकेन्द्र, विद्यालय, पाठशालाएँ स्थापित की हैं । आज भी जहाँ जाते हैं, विद्याशाला की स्थापना, ज्ञानकेन्द्र, परीक्षा केन्द्र का निर्माण उनका सबसे पहला लक्ष्य रहता है। ऐसा लगता है कि इस ज्ञानपुरुष के कण-कण में शिक्षाप्रसार की एक दिव्यज्योति जल रही है, जो ज्वाला बनकर समस्त अज्ञान-तिमिर को लील जाना चाहती है। आचार्य आनन्दऋषि, सत्यनिष्ठा के एक अमर प्रतीक हैं--सच्चस्स आणाए उवट्ठिए मेहावी मार तरइ-सत्य की आराधना में उपस्थित मेधावी मृत्यु को जीत लेता है। आचार्यप्रवर के सन्दर्भ में यह शब्दावली साकार हो रही है । सत्य में उनकी निष्ठा है, इसलिए नहीं कि वे सत्यमहाव्रतधारी हैं, किन्तु इसलिए है कि सत्य के सिवाय जीवन का और कोई मार्ग ही उनके समक्ष नहीं है । सत्य की आराधना में वे सर्वात्मना समर्पित हो गये हैं। वे किसी भी मूल्य पर, प्रतिष्ठा, परम्परा और भक्तों की भक्ति के मूल्य पर भी सत्य की अवहेलना नहीं करते। सबसे उत्कृष्ट और सबसे प्रमुख सत्य की आराधना ही उनके जीवन का व्रत है। अहिंसा और करुणा आचार्यश्री के जीवन-सरोवर की दो मनोहर पालें हैं। जैसे सरोवर के । किनारे कभी भी देखो शीतलता और हरियाली का साम्राज्य मिलेगा, उसी प्रकार इस अहिंसक तपस्वी के जीवन तट पर कभी-भी आप विचरण करेंगे तो अहिंसा की हरियाली खुशियाली और करुणा की शीतलता, शांतता से आपका तन-मन पुलक-पुलक उठेगा। उनके मन में करुणा का मधुर रस छलकता रहता है, जब भी उनकी वाणी सुनो, बड़ी मधुर, स्नेह-स्निग्ध, आत्मीय भावों से भरी और करुणा की रसधारा से आ प्लादित ! वे अपने प्रत्येक कार्य में सर्वप्रथम यह देखते हैं कि किसी के मन को, किसी के हृदय को कोई आघात न पहुँचे, किसी प्रकार की ठेस या चोट न लगे । पद-पद पर वे इसी बात से चिंतित रहते हैं कि उनसे किसी का कुछ भला हो सके या नहीं, पर किसी का भी, भले ही उनका अपना शिष्य आचार्यप्रअभिआचार्यप्रवभिन श्रीआनन्दमश्रीआनन्दमान viwwwimmmmmmmmmmmm.rainrammar, Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMRARIAN . nu ......hadanADD . .. LAA AAAA .. . . आचार्यप्रवभिन आचार्यप्रवभिन श्रीआनन्द अन्य श्रीआनन्दा ६ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व हो, उसका अहित न हो। शास्त्र की भाषा में वे सव्वभूय हियदंसी-सर्वभूत-हितदर्शी हैं, प्रत्येक प्राणी का हित करने वाले हैं। श्रमण संघ का इतना विशाल संगठन और उसका गुरुतर दायित्व उनके कन्धों पर है, संगठन में अनुशासन मुख्य होता है और अनुशासन में कठोरता बरतनी होती है। लेकिन आश्चर्य होगा कि वे आचार्य जैसे गुरुतर पद का महान उत्तरदायित्व सम्भालते हुए भी, संगठन को सुचारु रूपेण निबाहते हुए भी, कभी कठोरता नहीं बरतते । उनका मन फूलों-सा कोमल है, उनका दिल मां के समान करुणा है । लगता है वे सच्चे करुणाशील सन्त हैं। __ आचार्यप्रवर का कर्तव्य विराट् है, बहुरंगा है, इसलिए उसे इन्द्र-धनुषी व्यक्तित्व कहना अधिक उपयुक्त होगा । वे श्रमण हैं, आचार्य हैं, अनुशास्ता हैं, शिक्षा-प्रसारक हैं, विद्याप्रेमी हैं, विद्वान हैं, कुशल प्रवचनकार हैं, दीन-दुखी मानवता के सच्चे हितैषी हैं, सरल हैं और एक महापुरुष की भाँति पूजा-अर्चाप्रतिष्ठा-सम्मान पाते हुए भी बड़े विनम्र, उदार और सात्विक वृत्ति के संत हैं। भारत की ऋषि-परम्परा के वे सच्चे महर्षि हैं, उस महर्षि के चरणों में कोटि-कोटि बन्दना ! धर्म और संस्कृति के सजग प्रहरी : आचार्य श्री -- महासती श्री शीलकुमारी भारतीय संस्कृति एक शाश्वत जीवनशक्ति है। सुदीर्घ अतीत काल से आधुनिक युग तक महान आत्माओं के जीवन और उनकी शिक्षाओं से प्रेरणा की लहरें प्रवाहित हुई हैं। उन सन्त भगवन्तों ने अपनी गतिशील आध्यात्मिकता, गम्भीर अनुभवों व सेवा और त्यागमय जीवन के द्वारा हमारी सभ्यता और संस्कृति के सारभूत तत्त्व को जीवित रखा है। आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज एक ऐसे ही सन्त रत्न हैं। आपश्री धर्म और संस्कृति के सजग प्रहरी हैं। आपका व्यक्तित्व विभिन्न रंगों से निर्मित चित्र की भांति सुहावना है, सागर की भाँति लुभावना है । आप वक्ता हैं, लेखक हैं, अनुशास्ता हैं। मैंने अनेक बार आपश्री के दर्शन किये हैं, वार्तालाप किया है। श्रमण संघ का गौरव किस प्रकार बढ़े, श्रमणी समुदाय का किस प्रकार विकास हो सके, इस पर मैंने अनेक बार विचार निवेदन किये । मैं चाहती हूँ कि आचार्यश्री के आदेश-निर्देशानुसार श्रमण-सम्मेलन अनेक हुये हैं, पर आज दिन तक श्रमणीसम्मेलन नहीं हुआ। सन्त-सम्मेलनों में श्रमणियाँ पहुँची भी पर उनका वहाँ पर कोई अस्तित्व नहीं रहा है। आज आवश्यकता है श्रमणियों का एक विराट् सम्मेलन हो, जिसमें उनके आचार और विचार के लिए कोई ठोस कदम उठाया जाय । समाज आचार्यप्रवर का अभिनन्दन कर रहा है। मैं लेखिका नहीं है, जो अपने हृदय के विराट भावों को विस्तार से लिख सकं, पर मैं सोचती हूँ कि अभिनन्दन में श्रद्धा की प्रमुखता होती है, शब्दों की नहीं। विशाल शब्दाडम्बर में भाव लूप्त हो जाते हैं इसलिए एक ही शब्द में कहूँ कि हे युग पुरुष ! आचार्य देव ! आप दीर्घकाल तक हमारा नेतृत्व करते हुए हमारे आध्यात्मिक उत्कर्ष को करते रहें । हमारा संयमी जीवन दिन दूना और रात चौगुना चमकता रहे । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री ज्ञानमुनि (कुशल प्रवक्ता, अनेक पुस्तकों के लेखक, प्राकृत-संस्कृत आदि विभिन्न भाषाओं के विद्वान् कवि, प्रभावशाली जैन संत ] व्यक्तित्व-विश्लेषण आचार्य श्री आनन्दऋषि जी, अपनी नजर में NA आचार्य शब्द का अर्थ है-आ मर्यादया चर्यते इति आचार्यः । अर्थात् जिस महापुरुष का आचरण मर्यादा-पूर्ण होता है, उसे आचार्य कहते हैं। आचार्यदेव मर्यादा की आँखों से देखते हैं, मर्यादा की रसना से बोलते हैं, मर्यादा के कानों से सुनते हैं और मर्यादा के पाँवों से चलते हैं। अधिक क्या, आचार्यप्रवर की सब प्रवृत्तियाँ मर्यादा की छत्र-छाया तले ही सम्पन्न होती हैं। इसीलिए जैन-दर्शन आचार्यपद को एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान करता है। हमारे महामहिम आचार्यसम्राट पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज के चरणों में जिस किसी व्यक्ति को भी बैठने का अवसर मिला है, वह यह अच्छी तरह जानता है कि आचार्यपद की शाब्दिक अर्थविचारणा पूज्य आचार्यदेव के जीवन में अक्षरशः चरितार्थ हो रही है। जब आचार्यश्री पंजाब पधारे थे और इनका जम्मू (कश्मीर) में चातुर्मास था तो उस समय इनके पुनीत चरणों में रहने का इस सेवक (लेखक) को भी अवसर मिला था। मैंने आचार्यश्री के जीवनशास्त्र का निकट से परिशीलन किया है। इसी कारण मैं बिना किसी झिझक के कह सकता हूँ कि आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज साधु-मर्यादा की सजीव प्रतिमा हैं, इनके जीवन-भवन में संयम-मर्यादा के दीपक सदा जगमगाते रहते हैं। हमारे श्रमण संघ को आचार्यश्री के मर्यादा पूर्ण जीवन पर महान् गौरव है। यह भी वस्तुस्थिति है कि इनके मर्यादित आचार-विचार की समुज्ज्वलता से साधुजगत भी आज अपने को गौरवान्वित अनुभव कर रहा है। कविरत्न उपाध्याय श्री अमरमुनि जी महाराज के शब्दों में यदि कहैं तो-'श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन श्रमण संघ को यदि स्वर्ण-कंकण की उपमा दी जाए तो निश्चित ही आचार्यपाद पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज उस स्वर्ण-कंकण में जटित सर्वाधिक दीप्तिमान तेजस्वी मणि के रूप में देखे जा सकते हैं। आचार्यश्री के सरल, विनम्र एवं निर्मल व्यक्तित्व की शुभ आभा ने न केवल उस मणि के अपने वैयक्तिक गौरव को बढ़ाया है, अपितु उससे स्वर्ण-कंकण को भी गौरव-मण्डित किया है। पूज्य आचार्यश्री की गुणसम्पदा श्री स्थानाङ्गरात्र के छठे स्थान के अनुसार आचार्य में छः बातों का होना नितान्त आवश्यक है।' महामना आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज के आचार्य-जीवन में ये छः बातें स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रही हैं। वे छः बातें इस प्रकार हैं १. श्रद्धावान-आचार्यपद का वही व्यक्ति अधिकारी हो सकता है जिसका अन्तर्जगत श्रद्धा और NE १ सड्ढी, सच्चे, मेहावी बहुस्सुए, सत्तिमं अप्पाधिकरणे । -स्थानांग सूत्र ६ निन्दा अन्धाआनन्दER Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रव अभिनन्दन ! ८ आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व निष्ठा की पावन ज्योति से सदा ज्योतिर्मान रहता है । जिसे देव, गुरु, धर्म पर अटूट श्रद्धा नहीं होती, जो क्षण-क्षण में अपना विश्वास बदलता रहता है, ऐसा अव्यवस्थित चित्त वाला व्यक्ति आचार्यपद के समुज्ज्वल एवं तेजस्वी सिंहासन पर आसीन नहीं हो सकता । हमारे महामहिम आचार्यसम्राट पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज पूर्ण श्रद्धावान महापुरुष हैं, जिनेन्द्र-वाणी के पूर्ण रसिया हैं, जैनागमों की प्रत्येक पंक्ति के प्रत्येक अक्षर पर इनको अटूट श्रद्धान है। जैनागमों के प्रति अगाध श्रद्धा या तो जैनधर्मदिवाकर, साहित्यरत्न, जैनागमरत्नाकार, आचार्यसम्राट, परमश्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज के जीवन में देखी या फिर जैनदर्शन एवं प्राकृत भाषा के मूर्धन्य विद्वान आचार्यदेव पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज के जीवन में देखने को मिली। मैंने स्वयं अनुभव की आँखों से देखा है कि ये दोनों महापुरुष जैनागमों के प्रत्येक अक्षर को भगवान की वाणी तथा मन्त्रस्वरूप मानकर चलते रहे हैं । आज के वैज्ञानिक युग में व्याख्यानमंच पर बैठकर लच्छेदार भाषा में मञ्जुल प्रवचन किये जा सकते हैं, विद्वानों और विचारकों के हृदयों को छूने वाले लेख भी लिखे जा सकते हैं, परन्तु जैनागमों पर सच्ची आस्था रखना और उन्हीं को अपना श्रद्धा केन्द्र मानकर चलना तथा जिनेन्द्रभगवान प्ररूपित सिद्धान्तों की परिधि में रहते हुए अपने विषय का प्रतिपादन करना साधारण बात नहीं है । हम सबका यह सौभाग्य है कि हमारे आचार्यप्रवर पूज्य श्री आनन्दऋषि जी में यह विशेषता सवा सोलह आने उपलब्ध होती है । 330 乐 雨 फ्र आचार्य प्र Lepe 576249 २. सत्यवादी - जो वस्तु जिस रूप में है, उसे उसी रूप से अभिव्यक्त करना सत्य है । सत्य का भाषण करने वाला व्यक्ति सत्यवादी होता है । सत्य बोलने वाला मनसा, वाचा, कर्मणा सत्य को भगवान मानकर उसकी आराधना एवं परिपालना करने वाला तथा असत्य से सर्वथा दूर रहने वाला व्यक्ति आचार्यपद की विभूषा से विभूषित हो सकता है। जिस व्यक्ति का अपनी भाषा पर नियन्त्रण नहीं है, बिना सोचेसमझे जो मुँह में आया बोल देता है और जो भाषा को सत्य के सौरभ से सुरभित नहीं कर पाता वह व्यक्ति आचार्यपद के समुच्च और आदरास्पद दायित्व को अभिगत नहीं कर सकता। हमारे सन्तशिरोमणि, पण्डितरत्न पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज प्रत्येक दृष्टि से सत्यवादी हैं । ये सदा सत्य बोलते हैं, सत्य लिखते हैं, सत्य पढ़ते हैं, सत्य पढ़ाते हैं और निरन्तर यत्र-तत्र सर्वत्र सत्य के ही पावन दीप जगाते हैं । स्वनामधन्य आचार्यश्री किसी भी शब्द को रसना से निकालने से पहले उसे तोलते हैं, उसके हानि-लाभ का विचार करते हैं और जो बोलते हैं फिर उसे जीवन में ढालते हैं। किसी को कुछ कह दिया और किसी को कुछ और ही कह दिया, ऐसी स्थिति पूज्य आचार्यदेव की नहीं है । ये अपनी बात के पूरे धनी हैं, अपनी कथित बात से रत्ती भर भी इधर-उधर नहीं होने पाते । लोगों की कानाफूसी से अपनी स्थिति को डाँवाडोल नहीं करते । स्थानकवासी जैनसमाज का यह सौभाग्य मानता हूँ, जिसे ऐसे सत्यवादी नेता आचार्य के रूप में सम्प्राप्त हो रहे हैं । ३. मेधावी - मेधा धारणा-शक्ति का नाम है । मेधावान व्यक्ति ही आचार्य के गौरवास्पद स्थान को प्राप्त कर सकता है । हमारे शास्त्रविशारद, आचार्यवर पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज एक मेधावी युग-पुरुष हैं। ये प्राचीन भाषाओं में संस्कृत और प्राकृत तथा प्रान्तीय भाषाओं में से हिन्दी, मराठी, गुजराती, उर्दू, फारसी, राजस्थानी और अंग्रेजी भाषा के बड़े अच्छे जानकार हैं, आज इन भाषाओं पर इनका वाञ्छनीय अधिकार है । इन विविध भाषाओं का परिज्ञान मेधावी व्यक्ति के बिना कौन कर सकता है । इन भाषाओं में उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखी हैं। अपनी ओजस्विनी मेधाशक्ति के बल पर अनेकों धर्मसंस्थानों तथा अनेकों शिक्षण संस्थाओं को जन्म दिया है। मेवा - प्रकर्ष के कारण ही इन्होंने समाज की अनेकों उलझी हुई गुत्थियों को सुलझाकर समाज को शान्त वातावरण प्रदान किया है । इनके मेधावी जीवन के अन्य अनेकों चमत्कार दृष्टिगोचर होते हैं । उदाहरणार्थ अपनी अनुभूत एक दो घटनाएँ प्रस्तुत करता हूँ । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री आनन्दऋषि जी : अपनी नजर में . FICE R चय परमश्रद्धेय आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज पंजाब प्रदेश में विहरण करते हुए मुकेरियां (जिला होशियारपुर) पधारे। वहाँ पर एक टीचर यूनियन है। पूज्यश्री के मुकेरियां पधारने पर टीचर यूनियन के अध्यापक और अध्यापिकाएँ २०-३० की संख्या में इकट्ठे होकर धर्मचर्चा करने के विचार से पूज्यश्री की सेवा में उपस्थित हुआ करते थे। मुझे अच्छी तरह से स्मरण है कि अध्यापक लोग पूज्य आचार्यदेव के सामने बड़े-बड़े गम्भीर और चिन्तनीय प्रश्न रखा करते थे, उनको विश्वास था कि ये वयोवृद्ध सन्त आज के उलझे हुए प्रश्नों को समाहित नहीं कर सकेंगे, परन्तु प्रश्न सुनने के साथ ही पूज्य आचार्यदेव तत्काल ही उनका समाधान कर देते। श्रद्धेय आचार्यदेव का मेधा-वैभव देखकर अध्यापक लोग आश्चर्यचकित रह गये । प्रायः अजैनों में यह धारणा पायी जाती है कि जैन साधु अनपढ़ और अशिक्षित होते हैं, अतः ये लोग किसी भी प्रश्न का समाधान नहीं कर सकते, पर जब आचार्यश्री के बौद्धिक चमत्कार देखे तो सबके सब बड़े प्रभावित हुए और श्रद्धापूर्ण हृदय से नतमस्तक होकर इनके मेधावैभव के गीत गाते नहीं थकते थे। सं० २०१७ की बात होगी । जैनधर्मदिवाकर, आचार्यसम्राट पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज ने श्रमणसंघीय दूषित परिस्थितियों के कारण श्रद्धास्पद उपाचार्य पूज्य श्री गणेशीलाल जी महाराज से अपने प्रदत्त समस्त अधिकार वापस लेकर श्रमण संघ की गाड़ी को सुव्यवस्थित रूप से चलाने के लिए एक "श्रमणसंघीय कार्यवाहक समिति" बनाई थी। दूरदृष्टा परमगम्भीर आचार्यसम्राट श्री जी महाराज ने श्रमणसंघीय अधिकार न तो अपने पास रखे और न ही श्रद्धेय उपाचार्य श्री जी महाराज के पास रहने दिए, सबके सब अधिकार इस कार्यवाहक समिति को सम्भला दिए थे। इस समिति में उपाध्याय पण्डितरत्न पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज, श्रद्धेय प्रवर्तक श्री पन्नालाल जी महाराज, पंजाब-प्रवर्तक पण्डित श्री शुक्लचन्द्र जी महाराज, कविरत्न उपाध्याय श्री अमरमुनि जी महाराज आदि पाँच मुनिराज थे। जब इस समिति के संयोजक बनाने का प्रश्न सामने आया तो दूरदर्शी आचार्यसम्राट पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज ने हमारे सम्मानास्पद उपाध्याय पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज को ही उसका संयोजक बनाया। आचार्यसम्राट पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज के मानस में पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज के मेधापूर्ण कार्य-संचालन पर कितना अधिक भरोसा था ? वे इनकी प्रतिभामयी योग्यता का कितना आदर किया करते थे, वह स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है। आचार्यप्रवर पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज ने भी अद्वितीय योग्यता, दूरदर्शिता तथा शान्तिप्रधान नीति के माध्यम से श्रमण संघ के महारथ का कहीं गत्यवरोध नहीं होने दिया। आज भी यह महारथ अपनी अभिराम एवं अविराम गति से चलता चला आ रहा है। ४. बहुश्रुत-शास्त्रों के ज्ञाता महापुरुष को बहुश्रुत कहते हैं। स्वदर्शन और परदर्शन का मर्मज्ञ विद्वान आचार्य होता है। आत्मा, परमात्मा, जीव, अजीव, नरक, स्वर्ग, लोक और परलोक के सम्बन्ध में अपना क्या विश्वास है ? अन्य परम्पराएँ इनके सम्बन्ध में क्या मान्यताएँ रखती हैं आदि सभी तथ्यों को जो प्रामाणिक रूप से जानता है, वह व्यक्ति आचार्यपद के पावन आसन पर विराजमान हो सकता है। हमारे परमादरणीय सन्तसम्राट पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज बहुश्रुत मुनिराज हैं । जैन तथा अजैन ग्रंथों का इन्हें पर्याप्त बोध है। जैन तथा अजैन दर्शन के गूढ़ रहस्य इनसे अनजाने नहीं हैं। जिन व्यक्तियों ने श्रद्धेय आचार्यदेव के प्रवचन सुने हैं वे भलीभांति जानते हैं कि इनके प्रवचनों में जैन, अजैन सभी ग्रन्थों के उद्धरण होते हैं, उर्दू, फारसी तथा अंग्रेजी भाषा के प्रासंगिक पद्य भी सुनने को मिलते हैं। यही कारण है कि पूज्य आचार्यश्री के प्रवचनों से जैनेतर जनता भी पूर्ण उत्साह, समुल्लास और श्रद्धान के साथ प्रतिलाभित होती है। इन आँखों ने स्वयं देखा है कि जब आचार्यसम्राट पूज्य श्री जी महाराज फगवाड़ा (जिला जालन्धर) में पधारे तो वहाँ एक कन्यापाठशाला में प्रवचन दिया करते थे। पूज्य आचार्यश्री अपने प्रवचनों में जब वैदिक-परम्परा के जाने-माने श्रीमद्भगवद्गीता आदि ग्रन्थों आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवआभन श्रीआनन्द अश५श्रीआनन्दप्रसन्थ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रवर श्रीआनन्दशन आचार्यप्रवभिन श्रीआनन्दग्रन्थ १० आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व और कृतित्व के श्लोक सुरीले स्वर में फरमाने लगते तो अजैन लोग आनन्दविभोर हो उठते थे। प्रवचन-मण्डप श्रोताओं से सदा भरा रहता था। इनमें भी अजनों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक रहती थी। सबकी रमना पर यही स्वर नाच रहे थे---"आचार्यसम्राट पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज सभी मतों के शास्त्रीय तथ्य सुनाते हैं, बड़े ऊँचे विद्वान और तेजस्वी सन्त हैं।" ५. शक्तिमान-शक्ति शब्द बल, सामर्थ्य, क्षमता और प्रभाव अर्थों का बोधक है। शक्ति तीन तरह की होती है-१. मानसिक, २. वाचनिक और ३. शारीरिक । मन की वृनियाँ जब पूर्णतया संगठित हो जाती हैं, तब व्यक्ति में एक शक्ति पैदा हो जाती है, इस शक्ति को मानसिक शक्ति कहते हैं। वचन का ओजस्वी, तेजस्वी, और सर्वप्रिय होना तथा उसका निष्फल न जाना ही वाचनिक शक्ति है। शरीर का निर्दोष, स्वस्थ, सुन्दर और सबल होना शारीरिक शक्ति है। इन विविध शक्तियों में मानसिक शक्ति प्रबल और मुख्य है । मानसिक शक्ति के प्रभाव से चर्मचक्षु बन्द कर लेने पर अन्दर के नेत्र खुल जाते हैं । ऐसी शक्ति वाला व्यक्ति हजारों मील दूर पड़ी वस्तु को ऐसे देख लेता है जैसे वह बिलकुल पास में ही पड़ी हो। जैनधर्मदिवाकर आचार्यसम्राट पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज ने एक बार इसी मानसिक शक्ति के आधार पर लुधियाना के क्रिश्चियन मैमोरियल हॉस्पिटल में बैठे हुए कनडा में बनी एक कोठी का सारा विवरण ऐसे बता दिया था जैसे वह कोठी बिलकुल उनकी आँखों के सामने हो, जबकि कोठी और लुधियाना के हॉस्पिटल का फासला दस हजार मील का था। यह सब मानसिक शक्ति के ही चमत्कार होते हैं। हमारे श्रद्धेय पूज्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज भी अपने पूर्वाचार्य पूज्यपाद श्री आत्माराम जी महाराज की भाँति मानसिक शक्ति के धारक महापुरुष हैं। इनकी मानसिक शक्ति के चमत्कार भी अनेकों उपलब्ध होते हैं। उदाहरणार्थ, केवल एक उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ। आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज कुछ मुनिराजों के साथ राजस्थान के एक गाँव में विराजमान थे । वहाँ पर किसी आवश्यक कार्य के लिए एक श्रावक को बुलाने की स्थिति बन गई । गाँव में कोई ऐसा साधन नहीं था जिससे श्रावक को तत्काल सूचित किया जा सके। अतः सभी साथी सन्त असमंजस में थे। सन्तों को असमंजस में पड़े देखकर आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज ने अपनी मानसिक शक्ति का प्रयोग करते हुए फरमाया "मेरा मन कहता है, जिस श्रावक की यहाँ आवश्यकता है, वह स्वयं ही सायं समय अपने पास पहुँच जायगा।" सभी साथी सन्त विस्मित थे कि बिना सूचित किए इस अनजाने गाँव में वह श्रावक कैसे आ सकता है ? परन्तु सायंकाल के समय सम्मुख आते हुए उस श्रावक को निहार कर सभी सन्त आश्चर्यचकित रह गए। आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज की मानसिक शक्ति बड़ी ही विलक्षण है। इनके जीवन में मानसिक शक्ति के अनेकों दृश्य दृष्टिगोचर होते हैं। अधिक जानकारी के अभिलाषियों को मेरी लिखी हई "श्रमण-संस्कृति के प्रतीक, आचार्य श्री आनन्दऋषि" नामक पुस्तक का "अध्यात्म-चमत्कार" यह अध्याय देख लेना चाहिए। मानसिक शक्ति के अतिरिक्त हमारे आचार्यश्री वाचनिक और शारीरिक शक्ति के भी धनी हैं। इनकी वाणी में ऐसा विलक्षण माधुर्य और प्रभाव है कि विरोधी-से-विरोधी व्यक्ति भी इनके पुनीत चरणों का दास बन जाता है तथा वृद्धावस्था होने पर भी आचार्य श्री एक घुमक्कड़ सन्त हैं। हजारों मील की पदयात्रा करना और घर-घर जाकर अहिंसा, सत्य का पावन अमृत बांटकर जनता-जनार्दन की सेवा करना शारीरिक शक्ति का ही चमत्कार मानता हूँ। श्री स्थानाङ्गसुत्र के अनुसार मानसिक, वाचनिक और शारीरिक शक्तियों का धारक महापुरुष आचार्य होता है। शक्तिहीन नरेश जैसे अपने साम्राज्य को सुरक्षित नहीं रख सकता, वैसे शक्तिशून्य आचार्य भी अपने संघ को व्यवस्थित एवं अनुशासित नहीं रख सकता। अतः आचार्य का शक्तिशाली होना परमावश्यक है। हमारा स्थानकवासी समाज बड़ा भाग्यशाली और पुण्यशाली समाज है, जिसके सिर पर एक शक्तिशाली आचार्य का वरद हस्त टिका हआ है। गया रास Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री आनन्दऋषि जी : अपनी नजर में ११ मावाण UUS ६. अल्पाधिकरण-अल्प अभाव को और अधिकरण क्लेश को कहते हैं। जो व्यक्ति क्लेश मिटाने का सामर्थ्य रखता है, स्नेह, अनुराग और एकता का सजीव प्रतीक होता है तथा जो आपसी वैरविरोध की भीषण अग्नि से जल रहे जनमानस को आपसी प्रेम और ऐक्य का मधुर जल पिलाकर उसके सन्ताप को समाप्त कर देता है, वह आचार्यपद के योग्य होता है। हमारे श्रमणसंघ के ज्योतिर्धर सम्राट श्री आनन्दऋपि जी महाराज प्रेम और सत्य के सजीव प्रतीक हैं। ये क्लेश के वातावरण से सदा दूर रहते हैं, क्लेश को उपशान्त करने के लिए यदि कहीं इन्हें अपनी झोली भी पसारनी पड़े तो भी ये सदा सहर्ष तैयार रहते हैं। इनकी पवित्र अन्तर्वीणा से सर्वदा यही स्वर निकलते रहते हैं--'क्लेश दलदल है, इसमें फंसे व्यक्ति का इससे निकलना मुश्किल होता है। एक दिन उसे अपने जीवन से हाथ धोने पड़ते हैं तथा क्लेश किसी का भला नहीं करता। यह व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के अन्तःस्वास्थ्य को बिगाड़ देता है, अतः इससे बच के रहो।' हमारे आचार्यश्री को श्रमणसंघ के सर्वोच्च अधिकारी होने के नाते बहुत-सी खट्टी-मिट्टी बातें भी सुननी पड़ती हैं, पर शान्ति के पावन स्रोत पूज्य आचार्यश्री पूर्ण शान्ति के साथ सब बातों को सुनते हैं। इनकी शान्तिप्रियता तथा शान्तिप्रधान यह नीति ही आज श्रमण संध के विशाल भवन को सुरक्षित रखे हुए है। अन्यथा विध्वंसप्रिय विद्वेषी लोग इसे कभी का धराशायी कर देते । महान हर्ष का स्थान है कि श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ ने संघाधिपति पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज के सबल कन्धों पर जो दायित्व डाल रखा है, उसे पूर्ण प्रामाणिकता, सात्विकता, उदारता, दीर्घदशिता तथा संलग्नता से निभाने का सत्प्रयास कर रहे हैं। हृदयसम्राट पूज्य श्री जी महाराज की यह संघसेवा श्रमण संघ के इतिहास में सदा अभिवन्दनीय तथा चिरसंस्मरणीय रहेगी। अनागत काल की पीढ़ियाँ इनकी इस श्रमणसंधीय सेवा के उपलक्ष्य में उन्हें सदा अपनी-अपनी श्रद्धांजलियां समर्पित करती रहेंगी। साधना के अमर प्रतीक, महाराष्ट्रकेसरी, आचार्यसम्राट, पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज के ७५वें जन्मदिवस पर उन्हें अभिनन्दन-ग्रन्थ समर्पित करने का जो आयोजन हो रहा है, मैं इसका हृदय से स्वागत करता हूँ। जिन महापुरुप ने जीवनगत अपनी समूची शक्तियाँ समाजोत्थान और समाज-निर्माण के लिए निछावर कर दी हों, उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना, उनके परिपूत चरणों में श्रद्धासुमन समर्पित करना हम सब सामाजिक व्यक्तियों का कर्तव्य बन जाता है । आज इस कर्तव्य की पूर्ति होने जा रही है--यह जानकर हमें हार्दिक हर्ष हो रहा है। इस आयोजन के संयोजकों को उनकी इस मुझबुझ के लिए शतशः धन्यवाद । आचार्यप्रवर पूज्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज के ७५वे वर्ष-दिवस पर "नमो आयरियाणं" इस मंगलमय पद का उच्चारण करता हुआ मैं उनके परम पावन चरण-कमलों में अपने श्रद्धासुमन समर्पित करता है। साथ में शासनेश भगवान महावीर का स्मरण करता हुआ हार्दिक भावना करता हूँ "आचार्य देव ! आप दीर्घजीवी हों, आपका मंगलमय वरदहस्त सदा हमारे सिर पर टिका रहे। ज्ञान, दर्शन, चारित्र की पावन ज्योति से चतुर्विध संघ को ज्योतिर्मान बनाते हुए आप मानव जाति का कल्याण करने में सफल हों।" क THE जय NIयाज RNO andu HSS43 म : . . . . . . . " 6 www.jalilendrary.org POT private Personal use only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्यो ति म य जी व न -जिनेन्द्र मुनि, साहित्य विशारद, काव्यतीर्थ [ श्री गणेश मुनिजी शास्त्री के सुशिष्य, कवि एवं लेखक ] गुणसागर आचार्यप्रवर श्री "आनन्द" आनन्ददायक हैं। डूब रहे जो भवसागर में, उनके सदा सहायक हैं । ज्ञानी ध्यानी परम तपस्वी, संयम पथ के ये साधक । वायुवेग से बढ़कर अविरल, बने श्रेष्ठतम आराधक ॥ उज्ज्वल ज्ञानालोक संग ले, जो जग में हैं ज्योतिर्मान । जिन्हें प्राप्त कर हर्षित जनगण, करते रहते हैं जयगान ॥ गौरवशाली महिमा भारी, जगतीतल पर छाई है। तपस्तेज को आभा तुमने, अति उज्ज्वल चमकाई है ॥ वाणी जिनकी परम पावनी, उद्बोधक है कल्याणी। भारत के हर ग्राम नगर में, [जा रहे हैं जिनवाणी॥ ज्ञानभक्ति सत्कर्म भाव को, निर्मल धारा बहती है। जीवन के कण-कण में जिनके त्याग भावना रहती है। धीर वीरता धरणी के सम, जो जिन-शासन चमकाते । जैनधर्म के दिव्य दिवाकर, जिन वर-गरिमा-गुण गाते ॥ शुभ्र ज्योति का पुंज दिवाकर, जग प्रकाश को पाता है। जिन के आनन्दित स्वरूप में, जन आनन्द समाता है ॥ जन्म दिवस की शुभ वेला में, गुरुवर का हो अभिनन्दन । जग द्वाराअचित चरणों में, करुणामय ! शत-शत वन्दन ॥ HWAND LIGHal Pn Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियायसमाट पूज्य श्री निदझीनीमहाराज । दातणकरकमल- (Right falm) धाकि चिन्हासे परिपुर्ण मरा 370 पू.भाभ्यार्यनीमा दक्षिण हमा A ४४॥ आचार्य सम्राट पूज्य श्री आनदपीजीमहाराज वामकरकमल Left. falm) पाया म्यन्होये परिपुर्ण भरा दुमा पू.आचार्यजीका वाम हता EXY LAYE E CENT आचार्यप्रवर श्री आनन्द ऋषि जी के पुनीत कर-कमल-युगल का सामुद्रिक अध्ययन A ) मुर्यरेया गुरुवलय आत्मरेखा गुरुपर बुध्दरिरवा द्विमुज PALMIST: KANTILAL K.BHANDAR) SHRIRAMPUR Dist. Ahmednagar) Maharashtra stale (तसारेरवाशेहत) (TINo.440) Kantilal K Bhandari tilal K. Bhandart LSPIRAMANG LalEle आपका-दलिणकरकमल, आयायेससाट पूज्य श्री आनदऋषीमहाराज आचार्यसूमाट पूज्य श्री.आनदऋषी महाराज आपकावाम-करकमन. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 कमला जैन 'जीजी' एम. ए. [अनेक पुस्तकों की संपादिका, कवियित्री ] गिक ज्योतिर्धर प्राचार्य श्री प्रानन्दऋषि : जीवन-दर्शन भगवान महावीर ने कहा है, जैसे उदय होता हुआ सूर्य अंधकार का नाश कर सर्वत्र प्रकाश फैलाता है, उसी प्रकार ज्ञानी साधक भी अपने दिव्य ज्ञानालोक से संसार को प्रभास्वर बनाता रहता है। यही बात दूसरे शब्दों में आचार्य भद्रबाहु ने कही है-दीव समा आयरिया आचार्य दीपक के समान हैं, वे ज्योति के प्रतीप्त पुंज हैं। उक्त दोनों सूक्तियाँ हमारे श्रमण संघ के द्वितीय पट्टधर आचार्य श्री के जीवन में यथार्थ होती हैं। हम यहाँ शाब्दिक संस्तुति से नहीं किन्तु आचार्यप्रवर के जीवन-दर्शन से ही इस बात को स्पष्ट करना चाहते हैं । पढ़िए उनके गौरवमय जीवन की एक सरल-विरल भव्य झाँकी। आचार्यश्री का जन्म महाराष्ट्र प्रान्त के चिचोड़ी (शिराल) नामक ग्राम में हुआ था। आपके पिता का नाम श्री देवीचन्द्र जी गूगलिया एवं माता का नाम हुलासाबाई था। दोनों ही अत्यन्त धर्मपरायण एवं सदाचारी थे। इस पुण्यात्मा दम्पति का छोटा-सा परिवार था। दो पुत्र एवं एक पुत्री। बड़े पुत्र उत्तमचन्द्र और छोटे नेमिचन्द्र, जो कि आज स्वनामधन्य श्री आनन्दऋषि जी के नाम से पुकारे जाते हैं तथा श्रमण संघ के आचार्यपद को सुशोभित कर रहे हैं। आपने बाल्यकाल में ही "होनहार बिरवान के होत चीकने पात" कहावत को चरितार्थ कर दिया था। क्योंकि प्रारम्भ से ही आपका जीवन अनेक विलक्षणताओं से परिपूर्ण था तथा आपकी प्रत्येक चेष्टा अन्य सामान्य बालकों से भिन्न एवं निराली थी। जो भी बालक नेमिचन्द्र को देखता, दाँतों तले अंगुली दबाकर रह जाता था। क्योंकि जिस लघुवय में सामान्य बालक नाना प्रकार की बाल-क्रीड़ाओं में तथा विभिन्न प्रकार के आमोद-प्रमोद एवं खेल-तमाशों में रत रहता है, उस सुनहरे शैशवकाल में श्री नेमिचन्द्र संतसमागम, भजन-कीर्तन तथा प्रवचन-श्रवण आदि में रुचि रखते थे। बालक समझकर इन्हें अनेक बार धर्म-स्थलों से निकाल भी दिया जाता था, किन्तु अपनी उत्कट रुचि एवं तीव्र लगन के कारण ये किसी-नकिसी प्रकार वहाँ पहुँच ही जाते तथा बालयोगी के समान तन्मय, अडिग एवं गंभीर रहकर अथ से इति तक धर्म-लाभ लेते। बालभक्त नेमिचन्द्र स्वयं भी विलक्षण गायक थे। जब लोगों को आपके कंठ की मधुरता और मन्त्रमुग्ध कर देने वाली अद्भुत क्षमता का पता चला तो धार्मिक-आयोजनों से उन्हें निकाल देने वाले व्यक्ति ही उन्हें आग्रहपूर्वक निमन्त्रण देकर अपने आयोजनों की शोभा बढ़ाने के लिए बुलाते थे। परिणाम यह होता था कि उन आयोजनों में चार चाँद लग जाते थे और भक्ति के साथ-साथ माधुर्य का स्रोत बह निकलता था। MP Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाय प्र आचार्य प्रव श्री आनन्दन ग्रन्थ श्री आनन्द अन्थन १४ आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि: व्यक्तित्व एवं कृतित्व 430 श वैराग्य का अंकुर बालक नेमिचन्द्र का मानस यद्यपि प्रारम्भ से ही उर्वरा भूमि के सदृश था किन्तु एक ऐसी दुखद घटना घटी कि उसमें वैराग्य का अंकुर भी फूट गया। एक दिवस होनहार छात्र नेमिचन्द्र ज्योंही अपनी शाला से लौटे, देखा कि घर में व्याकुलता पूर्ण कोहराम मचा हुआ है । हक्के-बक्के से होकर जब उन्होंने परि स्थिति की जानकारी की तो मालूम हुआ कि उनके पूज्य पिता श्री देवीचन्द्र जी दुकान से लौटने के पश्चात से ही उदरशूल से पीड़ित हैं। गाँव के सुयोग्य वैद्य उनका इलाज कर रहे हैं, किन्तु सम्पूर्ण प्रयत्नों के बावजूद भी मर्ज बढ़ता जा रहा है । कुछ क्षण अवाक् रहने के पश्चात् ही दुःखातिरेक के कारण विह्वल पुत्र नेमिचन्द्र कटे पेड़ की तरह पिता के शरीर पर गिर पड़े तथा फूट-फूट कर रोने लगे, पर उससे क्या होता ? हुआ वही जो होना था । अपनी धर्मपरायणा पत्नी, पुत्र, पुत्री व समस्त सम्बन्धियों के देखतेदेखते ही महापथ के उस पथिक ने इस लोक से प्रयाण कर दिया। कुछ घंटों में ही हर्षमग्न परिवार शोकसागर में डूबने-उतराने लगा । पिता का देहान्त पुत्र के मानस-मन्थन का कारण बना और बालक नेमिचन्द्र ने उसी समय से संसार की अनित्यता एवं जन्म-मरण-जनित क्लेशों के विषय में विचार करना प्रारम्भ कर दिया। परिणाम यह हुआ कि सांसारिक सुखों से विरक्त होकर उन्होंने अक्षय सुख की प्राप्ति के मार्ग पर चलने की ठान ली। इस प्रकार वैराग्य से अनुप्रेरित होकर नेमिचन्द्र जी ने अपना समय ज्ञानार्जन, ईशभक्ति, संतदर्शन, शास्त्र श्रवण तथा चिन्तन-मनन आदि में व्यतीत करना प्रारम्भ कर दिया तथा वह बाल योगी अपनी बाल- बुद्धि के अनुसार ही संसार में रहते हुए भी संसार से विरक्त, जल-कमलवत् रहने लगा । धर्म पर उनका विश्वास एक और भी चमत्कारिक घटना से बढ़ा, जो इस प्रकार है- एक बार आप अपनी माता के साथ परमविदुषी एवं अनेक शास्त्रों की ज्ञाता महासती जी श्री रामकुँवर जी महाराज एवं उनकी सुयोग्य शिष्याओं के दर्शनार्थ हिवड़ा (अहमदनगर) गए। वहाँ अपनी मौसी के यहाँ ठहरे तथा बीस दिन तक महासती जी के दर्शन, प्रवचन एवं विचार-विमर्श का लाभ लेते रहे । तदनन्तर महासती जी के मुखारविन्द से मंगल पाठ सुनकर ताँगे से रवाना हुए। मार्ग में अचानक ही भूमि के समतल न होने से तांगे का एक पहिया गड्ढे की और तांगे के टेढ़े होते ही नेमिचन्द्र सड़क पर आ गिरे। बैल रुके नहीं और तांगे का से निकल गया । यह सब कुछ इतनी शीघ्रता से हुआ कि माता हुलासावाई केवल उठने के अलावा और कुछ न कर पाईं। किन्तु उन्हें महान् आश्चर्य तब हुआ जब कि तांगे से उतरकर उन्होंने पुत्र को कलेजे से लगाकर शरीर पर आई हुई चोट का पता लगाने की कोशिश की। पर कहीं भी एक भी चोट या घाव उन्हें अपने पुत्र के शरीर पर नहीं मिला। बार-बार देव गुरु की कृपा मानते हुए उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक से लगाए और चैन की सांस लेते हुए गद्गद स्वर से कहा - "यह देव-गुरु-धर्म का प्रताप ही है बेटा कि तू इतने ऊपर से गिरा और तांगे का पहिया भी तेरे शरीर पर गुजर गया किन्तु कहीं चोट नहीं आई । महासती जी के द्वारा सुनाए गए मंगलपाठ ने ही तुझे बाल-बाल बचा लिया ।" इस घटना ने भी नेमिचन्द्र जी के हृदय में जमे हुए धर्म के बीज को स्थिर कर दिया और उन्होंने संयम लेकर आजीवन धर्माराधन करने का निश्चय किया। इस संकल्प को कार्यान्वित करने के लिये सर्वप्रथम उन्होंने सरकारी पाठशाला को त्याग दिया । बुद्धि अत्यन्त कुशाग्र होने पर भी पितृ-वियोग के पश्चात आपका मन उस मराठी शाला में नहीं लगा । अतः चतुर्थ कक्षा में ही अध्यापकों को नमस्कार करके आप स्कूल से बाहर आ गए । ओर झुक गया पहिया उनके ऊपर आर्तस्वर से चीख Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 आचार्य सम्राट् पूज्य श्री आनंदऋषी म. वाम पदकमल पद्म-कमल (Lotus) दैवतरेखा V (Initiation) मत्स्यचिन्ट A उधरेखा पालखी त्रिकोण (Triangle) डमरू 2000 (Fish) Kantilal K. Bhandari Palmist Steranpur Dist Ahmednagar Maharashtra State Phone 440 Insta hayendrashilt आचार्य सम्राट् पूज्य श्री. आनंदऋषी म. दक्षिण पदकमल आचार्यसवार फुटीम आचार्य देव श्री आनन्द ऋषि जी के पावन-चरण-युगल का सामुद्रिक विश्लेषण A मंदीर (Temple) ध्वज (Flag) पर्वतचिन्ह (Moumits) 4 त्रिकोण (Triangle) 2 अंबुजा (spear) उध्वरेक्षा (Vertical Line) मत्स्यचिन्ह(Fish) DARRA Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिर्धर आचार्य श्री आनन्द ऋषि : जीवन-दर्शन दृढ़-संकल्प नेमिचन्द्र जी ने स्कूल छोड़ दिया किन्तु अपने संकल्प को नहीं छोड़ा । केवल अर्थोपार्जन की कला सिवाने वाली शिक्षा को उन्होंने निरर्थक समझा । अतः संसार-मुक्त कराने वाले ज्ञान को ग्रहण करने का निश्चय किया। वे संत-महात्माओं के सम्पर्क में रहकर शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करते, आध्यात्मिक प्रवचन सुनते, स्वयं स्वाध्याय करते, नियम पूर्वक माला जपते और अपने मधुर कंठ द्वारा भक्तिरस-रित संगीत का निर्झर प्रवाहित करते हुए अपने मन को धर्माभिमुख बनाते। समय धीरे-धीरे सरक चला । माता हुलासाबाई पति-वियोग के शोक से बहुत टूट गई थीं किन्तु अमीम धैर्य के साथ उन्होंने अपने आपको संभाला तथा अपने दोनों पुत्रों के सुनहरे भविष्य की कल्पना करने लगी। उन दिनों विवाह-सम्बन्ध बालकों की अल्प बय में ही सम्पन्न हो जाया करते थे अतः अपने द्वितीय पुत्र नेमिचन्द्र के बारह वर्ष समाप्त होते ही उन्होंने बड़े पुत्र उत्तमचन्द्र जी से कहा-"पुत्र, अब नेमिचन्द्र का विवाह कर देना है। कोई संस्कारशीला एवं सुन्दर वधू तलाश करो ताकि उससे कूल का गौरव बढ़े तथा मेरा मन भी सन्तोष एवं शांति का अनुभव कर सके ।' . पर जिनका विवाह करना था वे महापुण्यशाली नेमिचन्द्र जी समीप ही तो बैठे थे अतः अपने अग्रज के उत्तर देने से पूर्व ही बोल पड़े-“माँ ! मेरी धृष्टता को क्षमा करें, पर मैं विवाह कभी नहीं करूँगा। मुझे आजीवन ब्रह्मचर्य की आराधना करना है।" पुत्र की बात सुनकर माता पर मानों वज्र आ गिरा। आश्चर्य से अभिभूत होकर वे प्रश्नसूचक दृष्टि से बेटे को देखती ही रह गई। कुछ कहना चाहते हुए भी कहने के लिये उनके मह से बोल नहीं फूटे। यह देखकर नेमिचन्द्र ही पुनः बोले-"माँ ! आप जैसी माता को पाकर मैं धन्य हुआ हूँ। आपने हम भाई-बहन को धर्मपरायण और संस्कारवान बनाने में कोई कसर नहीं रखी और अब भी मुझे संसार में सुखी देखने के लिये आप मेरा विवाह करना चाहती हैं किन्तु आप जानती नहीं हैं कि इस संसार का कोई भी सुख स्थायी नहीं है और इसीलिये मैं उस सुख को पाने का प्रयत्न करना चाहता हैं जो अक्षय रहता है । विवाह के बन्धन में बँधकर तो मैं कुछ भी नहीं कर सकूँगा।" __ अपने बारह वर्ष के नन्हें-से बालक के ऐसे दृढ़ता पूर्वक कहे गए शब्दों को सुनकर ममता की मारी हलासाबाई काँप उठीं पर आशा की क्षीण-सी रेखा का सम्बल लेकर ही वह विह्वल की भांति बोलीं"तुम्हारा कहना ठीक है बेटा ! पर तुम अभी छोटे हो, खेलने-खाने की उम्र है तुम्हारी, समय आने पर धीरे-धीरे सब कुछ करना।" "पर समय का कोई भरोसा है क्या माँ ! पिताजी की क्या उम्र थी ? पर समय उन्हें ले गया। उनके निधन के बाद से ही तो मुझे विश्वास हो गया है कि काल किसी की परवाह नहीं करता। मेरा भी क्या ठिकाना है कि मैं उचित समय पर ही जाऊँगा । काल किसी के मंसूबों को पूरा करने का समय नहीं देता। इसलिये हमें चाहिये कि जिस क्षण मन में शुभ संकल्प बनें, उसी क्षण से उन्हें कार्यान्वित करने का प्रयत्न करें। मैं भी अपना एक क्षण भी व्यर्थ जाने देना नहीं चाहता। केवल किन्हीं सच्चे प्रथ-प्रदर्शक संत की प्रतीक्षा में हूँ, जिनके चरणों में रहकर मुझे प्रकाश मिले और मैं साधना के पथ पर बढ़ सकें।" मां क्या उत्तर देती ? वह चिन्ता और निराशा के सागर में गोते लगाने लगीं। साथ ही ऐसे सूत्र खोजने का प्रयत्न करने लगीं, जिनसे पूत्र को समझाया जा सके। घर बैठे गंगा आई श्री नेमिचन्द्र जी जिन दिनों अपना विरक्त हृदय लिये सुयोग्य गुरु पाने की कामना कर रहे थे, मौभाग्यवश उन्हीं दिनों में ऋषिसम्प्रदाय के विद्वद्वर्य एवं चारित्रचूडामणि संत श्री रत्नऋषि जी महाराज यत्र-तत्र विचरण करते हुए चिचोड़ी गाँव में पधारे। .. आपाप्रवर आभन्दः HI श्रीआनन्दसन्याश्रीआनन्दा अन्य Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसान व अभिन्दन आनन्द श्री आनन्दप्रस 陳 अभिनंदन ह १६ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि: व्यक्तित्व एवं कृतित्व पूज्यपाद के पदार्पण से चिंचोड़ी की धर्मपरायण जनता हर्षविभोर हो गई । महामान्य मुनिराज के आगमन की सूचना पाकर हुलासाबाई भी सपरिवार उनके दर्शनार्थं गई । बालक नेमिचन्द्र तो गुरुदेव के दर्शन कर अवाक् रह गए। उनके सुडौल शरीर, गौरवान्वित मस्तक, गौरवर्ण एवं भव्य आकृति को देखकर गद्गद होते हुए चरणों में झुक गए। ऋषिराज ने भी अत्यन्त स्नेहभाव से इनकी पीठ पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया और उसके पश्चात् सम्पूर्ण परिवार घर लौटा । कहा जा चुका है कि हुलासाबाई अत्यन्त धर्मशीला आदर्श नारी थीं । उन्होंने अपने पुत्र नेमिचन्द्र से कहा - "बेटा ! महामहिम गुरुदेव के रूप में हमारे लिये तो घर बैठे ही गंगा आ गई है। इस सुअवसर से लाभ उठाना चाहिए। तुम वैसे ही कुशाग्रबुद्धि हो अतः मैं चाहती हूँ कि तुम गुरु महाराज से सामायिक, प्रतिक्रमण सीख लो ।" 'अंधा क्या चाहे, दो आँखें' यह कहावत चरितार्थ हो गई। माता की प्रेरणा पाते ही मानो नेमिचन्द्र जी को मनमांगी मुराद मिली। वे अविलम्ब मुनिश्री के समीप पहुँचे और उनसे ज्ञान-दान देने की विनम्र प्रार्थना की। इन्कार करने का सवाल ही नहीं था अतः हार्दिक प्रसन्नता के साथ गुरुदेव ने इसे स्वीकार किया । नेमिचन्द्र जी ने पहले सामायिक सूत्र कंठस्थ किया, तत्पश्चात् श्रावक प्रतिक्रमण सीखना प्रारम्भ कर दिया । किन्तु वह पूरा नहीं हो पाया और ऋषिवर्य श्री रत्नमुनि जी महाराज चातुर्मास काल समीप आ जाने से अहमदनगर के निकटवर्ती 'मिरी' नामक ग्राम की ओर पधार गए। चातुर्मास प्रारम्भ होने पर अपना प्रतिक्रमण पूरा करने के लिये नेमिचन्द्र जी माता से आज्ञा लेकर 'मिरी' आ गए तथा अध्ययन प्रारम्भ कर दिया । चातुर्मास के काल में आपने प्रतिक्रमण के अनन्तर पच्चीस बोल एवं सड़सठ बोल के थोड़े आदि याद किये, अनेक धार्मिक स्तवन सीखे तथा प्रश्नोत्तरों के द्वारा शास्त्रीय तथ्यों का ज्ञान भी प्राप्त किया । धार्मिक वातावरण में रहने के कारण तथा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने से आपकी वैराग्यभावना भी दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक पुष्ट होती चली गई और आपने एक दिन अशरण भावना पर विवेचन करते हुए गुरुदेव के मुखारविन्द से प्रवचन में एक गाथा भी सुनी असंख्यं जीविय मा पमायए, जरोवणीयस्स हु णत्थि ताणं । एवं विद्याणाहि जणे पत्ते किं नु विहिंसा अजया गर्हिति । - यह जीवन असंस्कृत है । उम्र का कच्चा धागा टूट जाने पर पुनः नहीं जोड़ा जा सकता, अतः प्रमाद नहीं करना चाहिये । वृद्धावस्था को प्राप्त हुए प्राणियों को शरण देने वाला कोई नहीं है, क्योंकि मृत्यु से जीव को बचाने में कोई समर्थ नहीं है । इसलिये प्रत्येक प्राणी को यह भली-भाँति समझ लेना चाहिये कि प्रमादी, अविवेकी एवं हिंसक प्रवृत्ति वाले अजितेन्द्रिय पुरुष अन्त में आशय यही है कि उन्हें कोई भी शरण नहीं दे सकेगा और वे अपने कुकर्मों के फलस्वरूप अनन्त काल तक संसार - परिभ्रमण करेंगे । किसकी शरण लेंगे ? Jain Education- International इस गाथा को सुनने के पश्चात् तो नेमिचन्द्र जी का मानस आन्दोलित हो उठा और उन्होंने गुरुदेव से निवेदन कर दिया कि वे उन्हें दीक्षित कर के अपने चरणों में स्थान दें । उच्चकोटि के ज्ञानी पूज्यपाद श्री रत्नऋषि जी महाराज ने नेमिचन्द्र जी को समझाने का प्रयत्न करते हुए सस्नेह कहा " वत्स ! तुम अभी केवल तेरह वर्ष के छोटे वालक हो । संयम के कण्टकाकीर्ण एवं तलवार की धार के सदृश कठिन मार्ग पर कैसे चल सकते हो ? अभी तुम केवल धार्मिक ज्ञान की प्राप्ति का ही प्रयत्न करो ।" किन्तु दृढ़ संकल्प के धनी नेमिचन्द्र संयम की कठिनाइयों से भयभीत होने वाले कहाँ थे ? विनम्र Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिर्धर आचार्य श्री आनन्दऋषि : जीवन दर्शन १७ टा चि " भाव से बोले-"भगवन् ! मैं तेरह वर्ष की ही आयु का हूँ तो क्या हुआ? सुना है कि स्वयं आपने तो मात्र बारह वर्ष की अल्पायु में ही यह मार्ग अपना लिया था। इस प्रकार जब कि आप बारह वर्ष की वय में ही दीक्षित हो चुके थे तो मेरी आयु तो एक वर्ष अधिक ही है। फिर मैं साधना-पथ पर क्यों नहीं चल सकंगा?" गुरुदेव फिर क्या उत्तर देते । उन्हें तो मूक ही होना पड़ा। परिणाम अन्त में वही हुआ जो एक दृढ़संकल्पी का होता है कि "कार्य वा साधयामि देहं वा पातयामि।" लोगों के नाना प्रकार से समझाने पर भी और माता के रोने, विलखने के बावजूद भी वि० सं० १९७०, मार्गशीर्ष शुक्ला ६, रविवार को तेरह वर्ष की उम्र में "मिरी' गाँव में ही नेमिचन्द जी का दीक्षा-महोत्सव हजारों लोगों की उपस्थिति में अत्यन्त धूमधाम से सम्पन्न हुआ तथा आपने मुनि श्री आनन्दऋषि जी के नाम से साधना-पथ पर प्रथम चरण रखा। नवोन्मेषशालिनी प्रगल्भ बुद्धि __मुनि श्री आनन्दऋषि जी यद्यपि बाल्यकाल से ही होनहार, मेधावी एवं तीव्रबुद्धि के धारी थे तथा ज्ञानार्जन की असीम आकांक्षा रखते थे, किन्तु दीक्षाग्रहण करने के पश्चात् तो आपने अपना ध्यान अन्य समस्त विषयों से हटाकर केवल सरस्वती की उपासना में ही लगा दिया तथा अपनी प्रगाढ़ भक्ति, श्रद्धा एवं विनय के द्वारा अपने गुरु स्वनामधन्य था रत्नऋषि जी महाराज के मन को जीत लिया। वैराग्यावस्था तक की अल्पवय में ही आपने वीरस्तुति, दशवैकालिक सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र के बीस अध्ययन, पच्चीस बोल एवं सड़सठ बोल आदि का अध्ययन कर लिया था और दीक्षा ग्रहण करने के उपरान्त तो बहुत थोड़े काल में ही नन्दी सूत्र, औपपातिक तथा प्रश्न-व्याकरण सूत्र, निशीथ सूत्र आदि कई शास्त्रों का ज्ञान भी प्राप्त कर लिया। अपने नूतन शिष्य के क्रिया-कलापों की दृढ़ता एवं ग्राह्यशक्ति की तीव्रता देखकर गुरुदेव को परम सन्तोष हुआ और उन्होंने श्री आनन्दऋषि जी को संस्कृत भाषा का अध्ययन कराने का विचार किया। यह विचार उस समय के सुश्रावकों के सम्मुख रखा गया तथा उसके अनुसार वरखेड़ी से पंडित कृष्णाजी नामक संस्कृत के अतिविद्वान पंडित को पढ़ाने के लिये बुलवाया गया। केवल दो माह की अल्पावधि में ही हमारे चरितनायक ने पंडित जी से शब्दरूपावली, धातुरूपावली, समासचक्र एवं रघुवंश के दो सर्गों का अध्ययन कर लिया तथा बड़ी गंभीरता पूर्वक आगे पढ़ना जारी रखा। उनके अध्ययन की सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि वे प्रत्येक विषय में उठने वाली सूक्ष्म-सेसूक्ष्म जिज्ञासा अथवा आशंका का पूर्णतया समाधान चाहते थे। प्रायः वे अपनी शंका का समाधान करने के लिये अतिसूक्ष्म, चिन्तन-प्रधान एवं पूर्णतया तर्कसंगत प्रश्न पंडित जी के सामने रखते थे, जिनका उत्तर देना उनके लिये कठिन हो जाता था । आखिर घबराकर वे एक दिन चले गए। इसके पश्चात बनारस से व्यंकटेश लेले शास्त्री को बुलवाया गया। शास्त्रीजी ने श्री आनन्दऋषि जी को लघुकौमुदी तथा किरातार्जुनीय काव्य के दूसरे सर्ग का सार्थ ज्ञान कराया। किन्तु दस माह के अध्यापन कार्य के पश्चात् ही वे भी चल दिये तथा मुनिजी के अध्ययन की समस्या कठिन हो गई। ___अध्यापकों के थोड़े दिन पढ़ाने और उसके पश्चात् पढ़ाने से इन्कार कर देने के कारण गुरुदेव श्री रत्नमुनि जी महाराज को बड़ी हैरानी और चिन्ता हुई। उन्होंने स्थानीय थावक संघ के समक्ष कहा"मैं तो चाहता था कि आनन्द प्राकृत के साथ ही संस्कृत भाषा पर भी पूर्ण अधिकार प्राप्त कर के विद्वान बन जाय तथा सफलतापूर्वक जन-कल्याण कर सके, किन्तु अब तो यह संभव नहीं दिखाई देता।" गुरुदेव की बात सुनकर संघ चकित एवं आशंकित हो उठा और भीत स्वर से लोगों ने पूछा"ऐसा क्यों भगवन् ? क्या मुनिजी को समझने में कठिनाई होती है ? वे पढ़ नहीं पाते ?" गुरुदेव प्रच्छन्नभाव से बोले-"अरे भाई ! पढ़ तो वह सब कुछ लेता है किन्तु साथ ही ऐसे-ऐसे गंभीर और सूक्ष्म प्रश्न पूछने लगता है कि अध्यापक लोग चकरा जाते हैं तथा हैरान होकर चल देते हैं।" Jump 24. आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवरअर श्रीआनन्द श्रीआनन्द Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयाम श्री आनन्द DD π 2000 अभिआर्य प्रस अन्थ श्री आनन्द आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व यह सुनते ही अनेक श्रावक मुक्तभाव से हँस पड़े और चैन की सांस लेकर बोले - "गुरुदेव ! आपने तो हमें डरा दिया । भला यह भी कोई चिन्ता करने की बात है ? प्रतिभाशाली छात्र तो अपनी प्रत्येक शंका का समाधान चाहेगा ही । यही तो उसकी विशेषता और प्रतिभा का चिह्न है ।" "आपकी बात सत्य है श्रावक जी, किन्तु आज तो उसकी प्रतिभा मेरे लिये समस्या बन गई है। अब उसे पढ़ाया कैसे जाय ?" गुरुदेव ने अपनी कठिनाई उपस्थित को । "आप चिन्ता न करें भगवन् ! हम मुनि श्री आनन्दऋषि जी के लिये और भी योग्य एवं प्रकांड पंडित लाने का प्रयत्न करेंगे ।" 20 १८ अभिन्दन अन्थ श्रावक संघ ने अपने वायदे के अनुसार प्रकांड विद्वान की खोज आरम्भ कर दी और अन्त में बहुत सोच-विचार कर विद्या के केन्द्र काशी से ही एक महाविद्वान शास्त्री जी को बुलवाया गया। नये शास्त्री जी ने बड़े उत्साह से अपने शिष्य को शिक्षण देना प्रारम्भ किया और अपनी सम्पूर्ण शक्ति इस शुभ कार्य में लगा दी । किन्तु खेद की बात रही कि उनका उत्साह भी धीरे-धीरे समाप्त हो गया और छात्र की तेजस्विता के कारण उनकी बुद्धि ने भी टका-सा जबाव दे दिया। परिणाम यही हुआ कि अन्य पंडितों की तरह वे भी अध्यापनकार्य में अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए पलायन कर गए। यह देखकर महामहिम श्री रत्नऋषिजी महाराज अत्यन्त खिन्न हो गए और मन की उसी दशा में आपने निश्चय किया कि हमें ऐसे किसी क्षेत्र में विचरण करना चाहिये जहाँ सुयोग्य विद्वानों का अभाव न हो तथा आनन्दऋषि का अध्ययन निर्विघ्न चल सके । इस विचार को कार्यान्वित करने के लिये आपने पूना की ओर विहार कर दिया। मनोकामना पूर्ण हुई पूना भारतवर्ष का एक सुप्रसिद्ध नगर है । संस्कृत की शिक्षा के लिये यह सर्वश्रेष्ठ केन्द्रस्थान माना जाता रहा है। उन दिनों भी वहाँ अनेक उत्तमोत्तम संस्कृत पाठशालाएं थीं जो सैकड़ों शिक्षाप्रेमियों की आकांक्षा को पूर्ण करती थीं । इसीलिये ऋषिवर्य श्री रत्नऋषिजी महाराज अपनी संतमंडली सहित निर्वी, राहु आदि अनेक सुन्दर क्षेत्रों को अपने चरणों से पावन करते हुए पूना में पधारे। वहाँ के जैनधर्मावलम्बी व्यक्तियों को जब आपके आगमन की सूचना मिली तो हर्ष से फूले न समाए तथा अनिर्वचनीय आनन्द से ओत-प्रोत होकर उन्होंने गुरुदेव का स्वागत किया । अपने होनहार एवं तेजस्वी शिष्य आनन्दऋषि जी का भविष्य समुज्ज्वल बनाने की आकांक्षा लिये हुये अपनी वृद्धावस्था एवं स्वास्थ्य का विचार छोड़कर जगतवन्द्य गुरुदेव श्री रत्नऋषिजी महाराज पूना पधारे एवं वहाँ की जनता को अपने प्रभावशाली प्रवचनों से लाभान्वित करना प्रारम्भ किया । किन्तु शीघ्र ही उन्हें अपने पूना आने के उद्देश्य का ध्यान आया और आप एक दिन वहाँ के प्रमुख श्रावकों को लेकर प्रसिद्ध संस्कृत पाठशाला में पधारे । वहाँ के प्रमुख कार्यकर्ता एवं विद्वान श्री गणेश शास्त्री गोडबोले थे । उन्हें महाराज श्री ने अपना उद्देश्य बताते हुए कहा - 'हमें अपने छोटे मुनि आनन्दऋषि को संस्कृत भाषा का अध्ययन करवाना है । क्या आप उनके लिये किसी योग्य विद्वान की व्यवस्था कर सकते हैं, जो करीब दो घण्टे का समय दे सके ? पूर्ण वेतन की व्यवस्था करवा दी जायगी।" फ्रं "यह ठीक है महाराज ! हमारा कार्य ही शिक्षण देना है और समय भी दिया जा सकता है । किन्तु वास्तविकता यह है कि हम किसी भी जैनधर्म के अनुयायी को नहीं पढ़ाते, क्योंकि जैन नास्तिक होते हैं अतः उन्हें ज्ञान-दान देना हमारी दृष्टि से नितान्त पाप है । इस बारे में हम अपने सिद्धान्त के पक्के हैं और इसीलिये हमारी विवशता है ।" Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिर्धर आचार्य श्री आनन्दऋषि : जीवन दर्शन १६ RRC Stest या ज्ञान के ठेकेदार पंडितजी की बात सुनकर पूज्यपाद गुरुदेव एवं अन्य सभी श्रावक स्तब्ध एवं चकित रह गये। कट्टर साम्प्रदायिकता के विष से पीड़ित शास्त्रीजी गुरुदेव को अत्यन्त करुणा के पात्र महसूम हुए और उनकी अज्ञान दशा के लिये आन्तरिक रूप से दुखी होते हुए बोले "पंडित जी आप विद्वान एवं ज्ञानी हैं। भले ही हमारे मुनि को आप पढ़ाये अथवा न पढ़ायें, मुझे इसका रंचमात्र भी दुख नहीं। अफसोस केवल इस बात का है कि आप जैसे विद्वान एवं गम्भीर पुरुष भी ऐसी गलत धारणायें मन में पालते हैं। आप जानते होंगे कि नास्तिक वे कहलाते हैं जो आत्मा, परमात्मा, पुण्य, पाप, बन्धन, मुक्ति और परलोक में विश्वास नहीं रखते। पर यदि आप जैनदर्शन को उठाकर देखें तो सहज ही जान सकते हैं कि जैनधर्म इन सभी को मानता है। यही प्रयत्न करता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी आत्मा को पाप-बन्धनों से मुक्त कर के परमात्मपद की प्राप्ति करे । इसप्रकार जैनधर्म पूर्णतया आस्तिक है, नास्तिक कदापि नहीं।" "इसके अलावा आप किसी भी धर्म के अनुयायी क्यों न हो कोई हर्ज नहीं, किन्तु अन्य धर्म के प्रति ईर्ष्या और द्वेष रखना अत्यन्त अहितकर तथा आत्मा को अवनति की ओर ले जाने वाला है। इसीलिये जैन शास्त्रों में ही नहीं, अपितु समस्त हिन्दू शास्त्रों में द्वेष भावना को निन्दनीय व त्याज्य बताया गया है। भगवद् गीता तो आपका ही मान्य ग्रन्थ है। उसमें भी योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है अद्वेष्टा सर्वभूतानां, मैत्रः करुण एव च । निर्ममो निरहंकारः, समदुःख-सुखः क्षमी ।। सन्तुष्टः सततं योगी, यतात्मा दृढनिश्चयः । मय्यपितमनोबुद्धिर्यो-मद्भक्तः स मे प्रियः ।। -अ० १२/१३-१४ अर्थात् हे अर्जुन ! जो पुरुष सर्वभूतों के प्रति द्वेषभाव एवं स्वार्थ नहीं रखता, सबका स्नेही, दयालु, ममता एवं अहंकार से रहित होता है, सुख एवं दुःख में समभाव रखने वाला, क्षमाशील, संतोषी, जितेन्द्रिय एवं मुझमें दृढ़ निश्चय रखने वाला है और जो मुझमें अर्पित मन-बुद्धि वाला है, वही मेरा भक्त मुझे प्रिय लगता है। "तो पंडित जी ! जब कृष्ण भी द्वषाग्नि से रहित व्यक्ति को प्रिय मानते हैं तब आप जैसे ज्ञानवान और विद्वान को तो इस आत्मविनाशक अग्नि से दूर ही रहना चाहिए। आप जैसे पंडित भी अगर इसके प्रभाव से अछूते नहीं रहे तो फिर आपसे शिक्षा प्राप्त करने वाले तथा अन्य साधारण व्यक्ति किस प्रकार अपने आपको बचा पाएंगे।" । इस प्रकार गुरुदेव ने शास्त्री जी को समझाया किन्तु पंडित जी अपनी आत्मा को निर्मल नहीं बना सके । फिर उपाय ही क्या था? गुरु महाराज उनके लिये भी कल्याण-कामना करते हुए अपने निवासस्थान पर पधार गये। वहाँ के स्वाभिमानी श्रावकों ने उसी समय श्री आनन्द ऋषि जी महाराज के शिक्षण हेतु प्रसिद्ध समाचारपत्र 'केसरी' में सुयोग्य विद्वान के लिये विज्ञापन भिजवा दिया। परिणामस्वरूप अनेक आवेदनपत्र आए और उनमें से वाराणसी विश्वविद्यालय के एक पंडित श्री राजधारी जी त्रिपाठी को बुलवा लिया गया। यद्यपि इस बीच और भी एक दो अध्यापक आकर जा चुके थे किन्तु त्रिपाठी जी के रूप में योग्य शिक्षक लम्बे काल के पश्चात् मिल गए। त्रिपाठी जी शास्त्रों के मर्मज्ञ एवं अनुभवी विद्वान थे तथा अध्यापन के बीच में उठती हुई प्रत्येक शंका के निवारण करने की क्षमता रखते थे। इधर उनके छात्र मुनिथी अत्यधिक ज्ञानपिपासू, मेधावी एवं परिश्रमी थे अतः अध्ययन एवं अध्यापन, दोनों ही कार्य अविराम गति से चल पड़े। किसी को भी कठिनाई महसूस नहीं हुई। ARY Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्मप्रवभिआचार्यप्रवभिनय श्राआनन्दग्रन्थ श्राआनन्दा अन्य५१ २० आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व हमारे चरितनायक ने जैनागमों का काफी ज्ञान तो पूर्व में हो कर लिया था अतः त्रिपाठी जी से "अलगुत्तरपदे' सूत्र का अध्ययन प्रारम्भ किया तथा धीरे-धीरे व्याकरण शास्त्र में सिद्धान्त कौमुदी, जैनेन्द्र व्याकरण, शाकटायन व्याकरण तथा प्राकृत व्याकरण पड़ा । साहित्य में-साहित्यदर्पण, काव्यानुशासन, नैपधीयचरित आदि का ज्ञान किया। स्मृतियों में-अठारह स्मृतियाँ एवं न्यायशास्त्र में-न्यायसिद्धान्तमुक्तावली का बोध प्राप्त किया। साथ ही छंद शास्त्रों में-पिंगलशास्त्र का परिशीलन कर लिया। इन सबके अतिरिक्त आपने प्राकृत, संस्कृत, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, हिन्दी, उर्दू, फारसी एवं अंग्रेजी, इस प्रकार नौ भाषाओं पर भी अपना अधिकार किया। कहने का आशय यही है कि अपनी विलक्षण बुद्धि एवं अटूट लगन से आपने जैन एवं जैनेतर सिद्धान्तों का गम्भीर ज्ञान करते हुए प्रशंसनीय विद्वत्ता प्राप्त की तथा व्यक्ति को जहाँ एक-दो भाषाओं पर अधिकार करना भी कठिन होता है, वहाँ आपने नौ भाषाओं पर अपना आधिपत्य जमा लिया । यद्यपि अब आपकी उम्र ७४ वर्ष के करीब हो चुकी है तथा शारीरिक दुर्बलता के कारण आपकी आवाज उतनी तेज नहीं रही, किन्तु आज भी आपके प्रवचनों को सुनकर सहज ही अन्दाज लगाया जा सकता है कि युवावस्था में आपकी वाणी कितनी बुलन्द रही होगी। मुझे कई बार आपके मर्मस्पर्शी एवं ओजपूर्ण प्रवचनों को सुनने का अवसर मिला है और उस समय आपकी वाणी की तेजस्विता तथा प्रत्येक भाषा के पदों को अत्यन्त मधुर एवं मनोमुग्धकारी ढंग से गाने की क्षमता देखकर दंग रह जाना पड़ा है। सबसे विलक्षण बात तो यह है कि अनेक भाषाओं का ज्ञान होने के कारण आप जिस भाषा में भी बोलना प्रारम्भ करते हैं, इस प्रकार शुद्ध एवं धाराप्रवाह बोलते चले जाते हैं, मानो वह आपकी अपनी ही मातृभाषा है। यह सब प्रताप प्रातःस्मरणीय गुरुदेव पूज्यपाद श्री रत्नऋषि जी महाराज का था, जिन्होंने अपने दुःख-सुख एवं वृद्धावस्था की रंचमात्र भी परवाह न कर अपने तेजस्वी शिष्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज को योग्यतम बनाने का प्रयास किया और तबतक प्रयत्न करना नहीं छोड़ा जबतक उनकी मनोकामना पूर्ण नहीं हो गई। उसके पश्चात् 'अल्लीपुर' नामक गाँव में वि० सं० १९८४, ज्येष्ठ कृष्णा सप्तमी के दिन अपने छोटे शिष्य मुनि श्री उत्तमचन्द्र जी को चरितनायक एवं प्रिय शिष्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज के हाथों में सौंपकर श्री रत्नऋषि जी महाराज परलोकवासी हुए। चरितनायक को अपने गुरुदेव के वियोग का जो मर्मान्तक दुःख हआ, उसकी अभिव्यक्ति लेखनी नहीं कर सकती। उस समय जब कि गुरु की छत्रछाया उनके मस्तक पर से हट गई थी, आचार्य श्री जी की उम्र केवल सत्ताईस वर्ष की थी तथा दीक्षा ग्रहण किये हुए चौदह वर्ष ही व्यतीत हुए थे। उन चौदह वर्षों में भी उनके गुरुदेव परमप्रतापी श्री रत्नमुनि जी महाराज ने रात को रात और दिन को दिन न समझते हुए अपना सम्पूर्ण प्रयत्न और सम्पूर्ण शक्ति एकाग्र करके अपने प्रिय शिष्य की शिक्षा-दीक्षा में लगाई । अहनिशि उनका ध्येय अपने शिष्य को उन्नति के सर्वोच्च सोपान पर पहुंचाने का बना रहा और वे अपने प्रयत्न में सफल भी हुए। मानो पूर्व में ही उन्हें अपने मृत्युकाल का आभास हो गया हो, इस प्रकार निरन्तर तीव्र तथा अविराम गति से उन्होंने शिष्य की प्रगति करवाते हुए मात्र सत्ताईस वर्ष की उम्र में ही महान् विद्वान एवं गम्भीर विचारक बना दिया। ऐसे गुरु के विछोह का दुःख होता भी क्यों नहीं, जिनकी स्नेहमयी छत्र-छाया में समस्त अन्य प्रपंचों से दूर रहकर वे केवल मां सरस्वती की आराधना करते रहे तथा आत्मिक गुणों को निखारते रहे । किन्तु काल पर किसका वश चला है ? वह तो लाख प्रयत्न करने पर भी तथा पद-पद पर प्रहरियों की नियुक्ति कर लेने पर भी अपने निर्धारित समय पर जीव को ले जाता है। कहा भी है N Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिर्धर आचार्यश्री आनन्दऋषि : जीवन दर्शन २१ रक्षण हेतु सदा हो सेना, सजी हुई चतुरंगी। काल बली ले जाएगा, देखेंगे साथी संगी। यही विचार कर चरितनायक ने अपने हृदय को सम्हाला तथा मानस में उठ रहे गुरु-वियोगजन्य दुःख के तीव्र तूफान को शमन करने का प्रयत्न किया। गुरुदेव के अभाव में अपने आपको कर्तव्य-भार से बोझिल मानकर उन्होंने अपने छोटे गुरुभाई मुनि श्री उत्तमऋषि जी को सान्त्वना प्रदान की तथा उनके व्याकूल एवं उद्विग्न मन को समझा-बुझाकर शांत किया। गुरुदेव के निधन के पश्चात् ही उनका समाज से तथा सुश्रावकों से सम्पर्क बढ़ा तथा प्रवचन आदि का सम्पूर्ण भार उन पर आगया। किन्तु चौदह वर्ष के दीक्षित जीवन में आपने ऐसी बहुमुखी प्रतिभा हासिल कर ली थी कि किसी भी दिशा में आपको असफलता का सामना नहीं करना पड़ा, सफलता सदा ही आपके चरण चूमती रही। इसका प्रमाण यही है कि एक दिन सामान्य मुनि कहलाने वाले श्री आनन्दऋषि जी महाराज आज श्रमण संघ के सर्वोच्च पद पर आसीन हैं, अर्थात् आचार्य पद को सुशोभित कर आप अपने नाम के अनुरूप ही आनन्द की साकार प्रतिमूर्ति हैं तथा सहज सरलता, मृदुता एवं समयसूचकता आदि अनेकानेक गुणों के आगर हैं। सबसे बड़ी विशेषता आपकी यही है कि जिस प्रकार घास के एक पूले से सागर गरम नहीं होता उसी प्रकार परिस्थितियों की विषमताएँ आपको कभी भी विक्षब्ध नहीं कर पातीं। ऐसा लगता है मानो सन्तोष और धैर्य का असीम सागर ही आपके मानस में लहराया करता है । समझ में नहीं आ पाता है कि आपके किस-किस रूप पर प्रकाश डाला जाय, सभी तो एक दूसरे को मात करने वाले हैं। तपोपूत जीवन प्रत्येक साधक को अपने साध्य की प्राप्तिहेतु अनेक उपयुक्त साधन जुटाने पड़ते हैं। मुख्य रूप से वे साधन ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप हैं। यहाँ पर मैं भी हमारे चरितनायक आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज के तपोमय जीवन पर प्रकाश डालने जा रही हैं। आपने ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के साथ-साथ तप की भी पूर्णतया आराधना की है। केवल तेरह वर्ष की अल्पवय में संयम ग्रहण करके भी आपने भली-भांति समझ लिया था कि तप-धर्म की साधना यद्यपि दुष्कर है किन्तु आत्मा को मुक्तावस्था की ओर ले जानेवाली है, इसीलिये दीक्षित होने के अल्पकाल के पश्चात् ही आपने अष्टमी एवं पक्खी के दिन कभी आयंबिल और कभी उपवास करना प्रारम्भ कर दिया था । वर्षों तक यही क्रम चलता रहा। किन्तु जब आपके गुरुदेव पूज्य श्री रत्नऋषि जी महाराज का स्वर्गवास हुआ, आपके मानस में और भी विरक्ति आ गई तथा आपने उनके निधन के पश्चात् ही पाँचों तिथियों में आयंबिल करने का निश्चय किया। कुछ वर्षों के पश्चात् जब इससे भी सन्तोष अनुभव न हुआ तो आपने एक ममय आहार लेना प्रारम्भ किया। सायंकालीन भोजन करना छोड़ दिया और उनोदरो तप को पराकाष्ठा तक पहुंचाया। इस प्रकार केवल वाणी से ही नहीं, अपितु क्रियात्मक रूप से संसार के समक्ष आदर्श उपस्थित करते हुए बताया कि मिताहार मानसिक एवं शारीरिक समाधि का साधक है और इसीलिये आगमों में साधक को 'मियासणे' कहा गया है। आचार्य श्री जी की तप के प्रति बड़ी अटूट आस्था है। यही कारण है कि आज अपनी इस वृद्धावस्था तक भी आप एक समय ही आहार करते चले जा रहे हैं। साथ ही अष्टमी एवं पक्खी को आयंबिल अथवा उपवास करना तो छोड़ते नहीं हैं पर प्रत्येक चातुर्मास के प्रारम्भ में एक महीने तक लगातार एकासन भी करते हैं। भले ही स्वास्थ्य समीचीन रहे या नहीं, आपकी तपसाधना में व्यतिक्रम नहीं होने पाता। AAAAAWARAVAwinarikaawaranaanaaras. MALAMA ILAANARAAJAAAAAAL SVIT EYENIया धाआश्व अनि श्राआनन्द अवधाआनन्दा अन्य aara था. .rr narivarxrver.. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रवर आभगन्दन २२ आचार्यप्रवर श्री आनन्द ऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व या इस प्रकार आपके तपोपूत जीवन से स्पष्ट परिलक्षित होता है कि आपने तप के मर्म और महत्त्व को पूर्णतया समझ लिया है तथा अपने मन, जिह्वा एवं इन्द्रियों पर नियन्त्रण करके अपने आपको सच्चा साधक बनाया है। तपाराधन करना सहज नहीं है, अनेक जन्मों के संचित पुण्यवाला जितेन्द्रिय पुरुष ही आन्तरिक और बाह्य, दोनों प्रकार के तपों का आराधन कर सकता है और उसकी सच्ची तपसाधना ही उसे मुक्तावस्था की ओर अग्रसर कर सकती है। साहित्य-साधना महामना आचार्य श्री जी ने जीवन को ज्ञानमय आलोक प्रदान करने वाले साहित्य के महत्त्व को भली-भाँति समझ लिया था और इसीलिये उन्होंने अपने जीवन में साहित्य के भंडार को भरने का सर्वदा अथक प्रयत्न किया ।। मैं पहले ही बता चुकी हैं कि आपका अनेक भाषाओं पर पूर्ण अधिकार है। मराठी भापा भी उन भाषाओं में से एक है। आपने अनेक उत्तम ग्रन्थों का मराठी में अनुवाद किया है जो भाव, भाषा एवं शैली की दृष्टि से अत्यन्त प्रशंसनीय एवं सफल साबित हुआ है। आपकी अनुवादित पुस्तकों की तालिका इस प्रकार है (१) आत्मोन्नतिचा सरल उपाय । (२) अन्यधर्मापेक्षा जैनधर्मातील विशेषता । (३) वैराग्यशतक । (४) जैनदर्शन आणि जैनधर्म । (५) जैनधर्मा विषयी अजैन विद्वानांचे अभिप्राय (दो भाग)। (६) उपदेश रत्नकोश । (७) जैनधर्माचे अहिंसातत्त्व । (८) अहिंसा आदि । उपरोक्त अनुवादित पुस्तकों के अलावा भी अनेक पुस्तकों का आपने विद्वानों से मराठी में अनुवाद कराया है, जिनका परिशोधन एवं संशोधन आपने स्वयं किया है। अनेक उपयोगी पुस्तकों का अनुवाद कराने के साथ-साथ हिन्दी भाषा में पुस्तकों की रचनाएँ कराने की भी आपकी सदा रुचि रही है। इसके परिणामस्वरूप जो पुस्तकें लिखी गई हैं, उनका क्रम इस प्रकार दिया जा रहा है (१) पूज्यपाद श्री तिलोकऋषि जी महाराज का जीवनचरित्र । (२) पंडितरत्न पूज्यपाद श्री रत्नऋषि जी महाराज का जीवनचरित्र । (३) श्रद्धेय श्री देवजीऋषि जी महाराज का जीवनचरित्र । (४) ज्ञान-कुंजर दीपिका। (५) ऋषिसम्प्रदाय का इतिहास । (६) आध्यात्म दशहरा। (७) समाज स्थिति का दिग्दर्शन । (८) सतीशिरोमणि श्री रामकँवर जी महाराज का जीवनचरित्र । (8) विधवा विवाह आदि मुख चपेटिका। (१०) सम्राट चन्द्रगुप्त राजा के सोलह स्वप्न । (११) चित्रालंकार काव्य : एक विवेचन । इस प्रकार हमारे महामान्य चरितनायक ने अनेक पुस्तकों का समयाभाव होने पर अपनी हादिव HINDI HORI DAAI Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिर्धर आचार्य श्री आनन्दऋषि : जीवन-दर्शन २३ प्रेरणा से अन्य विद्वानों के द्वारा साहित्य का निर्माण कराके सत्पथप्रदर्शक ज्ञान-कोष की जो अभिवृद्धि की है, वह सराहनीय है। विशेषकर अनेक महान् आत्माओं के जीवन-चरित्र का निर्माण करवाकर आपने मानवमात्र को सही मार्ग-दिशा बताने का प्रयास किया है। हमारे आगम कहते हैं जहा सुइ ससुत्ता पडियाविन विणस्सइ । तहा जीवो ससुत्तो संसारे न परियट्टइ ॥ अर्थात्-जिस प्रकार धागे वाली सुई सहसा खोती नहीं और अगर खो जाती है तो पुनः उसके मिलने की सम्भावना रहती है, उसी प्रकार जिस आत्मा में ज्ञान होता है, वह भटक नहीं पाती और कभी भटक जाती है तो उसके पुनः संभलने की आशा रहती है। ज्ञान के इस महत्त्व को ध्यान में रखकर ही आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज ने ज्ञान के अक्षय भंडार को भरने का सदा प्रयत्न किया है तथा अब भी करते चले जा रहे हैं। संस्थाएँ : साहित्य-साधना का क्रियात्मक पहलू पाठक जानते होंगे कि किसी भी दुर्लभ वस्तु के भंडार तक कोई भी व्यक्ति एकदम नहीं पहुँच सकता। केवल भौतिक सुख प्रदान करने वाले हीरे, मोती तथा अन्य बहुमूल्य रत्नों के पिटारे अथवा तिजोरियों तक पहुँचने के लिये भी व्यक्ति को योग्यता हासिल करनी पड़ती है और भवन के गुप्त स्थानों तक जाने वाले मार्गों की जानकारी तथा अनेक तालों की कुंजियों का प्रयोग करना सीखना पड़ता है। तो फिर सदा के लिये अक्षय सुख प्रदान करने वाले ज्ञान-कोष तक भी मनुष्य पूर्वापेक्षित योग्यता और ज्ञान के अभाव में कैसे पहुँच सकता है ? उस कोष या भंडार तक पहुँचने के लिये भी तो उसे क्रमशः छोटी और बड़ी शालाओं में जाकर अपनी योग्यता बढ़ानी पड़ती है तथा उस कोष में रहे हुए आत्मा को संसार-मुक्त करने वाले अनुपम सूत्रों को समझने का प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त करना होता है।। यह बात हमारे आचार्य श्री जी की नजरों से ओझल नहीं रही और इसीलिये आपने अनेक स्थानों पर धार्मिक संस्थाओं एवं शालाओं का निर्माण करवाया है ताकि मुमुक्ष अथवा जिज्ञासू व्यक्ति क्रमशः विभिन्न श्रेणियाँ पार करते हुए सम्यक् ज्ञान के अमृतमय कोष को प्राप्त कर सकें तथा उससे समुचित लाभ हासिल कर सकें। ऐसी मुख्य संस्थाओं व शालाओं में से कुछ का परिचय देना आवश्यक है। अतः वह संक्षिप्त रूप से दिया जा रहा है (१) श्री रत्न जैन पुस्तकालय, पाथर्डी-स्वनामधन्य गुरुदेव श्री रत्नऋषि जी महाराज के अल्लीपूर (महाराष्ट्र) में स्वर्गवासी होने के पश्चात् ही उनकी पूण्यस्मति में चरितनायक श्री आनन्दऋषि जी महाराज की प्रेरणा से उक्त पुस्तकालय की स्थापना की गई। जिसमें हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती, फारसी, उर्द, संस्कृत, प्राकृत एवं मराठी आदि विभिन्न भाषाओं की लगभग बारह हजार उत्तमोत्तम पुस्तकें हैं तथा दो हजार के करीब हस्तलिखित अमुल्य ग्रन्थ भी हैं। इसके प्रवन्धकों ने धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक शिक्षार्थियों के लिये भी उपयुक्त साहित्य के प्रकाशन की समुचित व्यवस्था की है। इस प्रकार 'श्री रत्न जैन पुस्तकालय' लगभग सैंतालीस वर्षों से समाज की सेवा करता चला आ रहा है और इसका सम्पूर्ण श्रेय हमारे प्रधानाचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज को है। (२) जैनधर्म प्रचारक संस्था, नागपुर-यह संस्था भी गुरुदेव श्री रत्नऋषि जी महाराज की स्मृति में श्रद्धेय आचार्य श्री जी महाराज की प्रेरणा एवं प्रयत्न से स्थापित की गई है। इस संस्था का उद्देश्य रहा है-जैनेतर समाज में धर्म का प्रचार व प्रसार हो तथा समाज के व्यक्तियों का आत्मोत्थान हो सके ऐसी धार्मिक पुस्तकों को प्रकाशित करना तथा अल्पमूल्य में उन्हें वितरित करना, जिससे अधिक-सेअधिक व्यक्ति उनसे लाभ उठा सकें। जैनधर्म के विरोधियों के भ्रम का निवारण करना भी इसका एक मुख्य उद्देश्य रहा है, जिसके लिये पर्याप्त सामग्री प्रकाशित कर यह सफलता प्राप्त कर सकी है। RAA ANNआचार्यप्रनरभिमान Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ععععععععرمع مدقر عاطفه animalAAN عة عمر ما را برهم مرة مزمع عملهه عععععععععععععععععععم आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवर आभार श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्दगान्थ wwimmind २४ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व . इस संस्था की सफलता का श्रेय भी श्रद्धेय आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज को है, जिनके नागपुर चातुर्मास के अवसर पर दिये गए प्रभावशाली प्रवचनों के द्वारा संस्था का निर्माण हुआ और अब तक भी वह सफलतापूर्वक अपना कार्य कर रही है। (३) श्री तिलोक जैन विद्यालय, पाथर्डी-यह विद्यालय यद्यपि कविकुल-भूषण पूज्यपाद श्री तिलोकऋषि जी महाराज की पुण्यस्मृति में पंडितरत्न श्री रत्नऋषि जी महाराज की प्रेरणा से चालू किया गया था किन्तु उनके दिवंगत हो जाने के पश्चात् भी आजतक हमारे चरितनायक आचार्य श्री जी के निरीक्षण एवं पूर्ण सहयोग से कार्य कर रहा है। __जैसा कि इसका उद्देश्य रहा है, इस विद्यालय ने अब तक महाराष्ट्र प्रान्त के हजारों निर्धन, नाथ एवं असमर्थ विद्यार्थियों को हाईस्कूल की शिक्षा तथा साथ ही धार्मिक एवं व्यावहारिक शिक्षण भी दिया है । इसमें रहे हुए अनेकों छात्र आज सफल डॉक्टर तथा वकील आदि बनकर उच्च संस्कारित जीवन-यापन कर रहे हैं। (४) अमोल जैन सिद्धान्तशाला, पाथर्डी-जिस समय वि० सं. १९६३ में धुलिया में शास्त्रोद्धारक एवं शास्त्रविशारद पूज्य श्री अमोलकऋषि जी महाराज का देहावसान हुआ, उसके बाद ही भुसावल में ऋषिसम्प्रदाय को पुनः संगठित करने के लिये तपस्वी महामुनि श्रद्धेय श्री देवजीऋषि जी महाराज को ऋषिसम्प्रदाय के आचार्यपद पर तथा विद्वद्वर्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज को युवाचार्य के पद पर प्रतिष्ठित किया गया। उसी पुनीत अवसर पर पूज्य श्री अमोलकऋषि जी महाराज के स्मरणार्थ 'श्री अमोल जैन सिद्धान्तशाला' की स्थापना की गई। परमपूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज ने प्रारम्भ से ही अपनी सम्पूर्ण शक्ति इस शाला क . उन्नति और विकास में लगाई। उसी के फलस्वरूप अनेकानेक साधू-साध्त्री एवं श्रावक-श्राविकाओं ने इसके माध्यम से ज्ञानार्जन किया है। साधूवर्ग के सैद्धान्तिक शिक्षण की ओर आचार्य श्री जी का प्रारम्भ से ही ध्यान था और इस विचार को आपने इस महान शाला के द्वारा क्रियान्वित किया ।। (५) श्री तिलोक रत्न स्था० जैन धामिक परीक्षा बोर्ड, पाथों-यह महान संस्था कविकुलभूषण श्री तिलोक ऋषि जी महाराज एवं पंडित मुनि श्री रत्नऋषि जी महाराज इन दोनों ही महान आत्माओं की पावन स्मृति में हमारे चरितनायक की सद्प्रेरणा से उदित हुई थी। इस संस्था ने समाज की अविस्मरणीय सेवा की है तथा वर्तमान में भी करती चली जा रही है। इसके महान् उद्देश्यों को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है (क) प्रकाशन--इसके अन्तर्गत भगवान महावीर के सिद्धान्तों का प्रचार एवं प्रसार करना तथा विभिन्न धार्मिक संस्थाओं में एकरूपता लाने के लिए एक ही पाठ्यक्रम निश्चित करके परीक्षाओं के लिये उपयोगी साहित्य का प्रकाशन करना आता है। इस बोर्ड से अब तक प्रवेशिका, प्रथमा, विशारद और प्रभाकर परीक्षाओं के लिये अनेकों पुस्तकें कई संस्करणों में प्रकाशित हो चुकी हैं। जो हिन्दी तथा गुजराती दोनों ही भाषाओं में हैं। (ख) सम्पादन-बोर्ड के द्वारा सम्यक दर्शन, ज्ञान एवं चरित्र की उपासना के लिये 'सूधर्मा' नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी होता है। पत्रिका में प्रत्येक धर्मावलम्बी विद्वान की रचनाओं को स्थान दिया जाता है तथा धार्मिक परीक्षाओं की गतिविधियों का उल्लेख भी होता है। (ग) परीक्षा-बोर्ड का परीक्षा कार्य इस संस्था की सबसे महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति साबित हुई है। इसे सम्पन्न करने के लिये एक विशाल फंड स्थापित किया गया है, जिसकी आय से परीक्षा सम्बन्धी समस्त व्यय किया जाता है। संतों एवं महासतियों की परीक्षाएँ तो पूर्णतया निःशुल्क ली ही जाती हैं, गृहस्थ परीक्षार्थियों से भी केवल इतना ही शुल्क लिया जाता है जो उन्हीं के लिये पोस्टेज एवं रजिस्ट्री में Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिर्धर आचार्य श्री आनन्दऋषि : जीवन-दर्शन २५ आवश्यक होता है । यह भी सिर्फ उपाधि परीक्षाओं के लिये ही है, अन्यथा शेष परीक्षाओं में हजारों विद्यार्थियों के सम्मिलित होने पर भी उनसे किसी भी प्रकार का परीक्षा-शुल्क नहीं लिया जाता। प्रश्नपत्र उत्तमोत्तम विद्वानों के द्वारा बनवाए जाते हैं तथा समय-समय पर परीक्षाओं के पाठ्यक्रम में परिवर्तन करके नवीन ग्रन्थों को उनमें स्थान दिया जाता है । (घ) पारितोषिक-इस विभाग के अन्तर्गत दिवंगत मुनिवर श्रद्धेय श्री उत्तमऋषि जी महाराज की पवित्र स्मृति में "उत्तमज्ञान-पारितोषिक फण्ड" की स्थापना की गई है। जिसके द्वारा प्रथम श्रेणी में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने वाले परीक्षार्थियों को रजत पदक प्रदान किये जाते हैं तथा जो परीक्षार्थी पदक के योग्य अंक प्राप्त नहीं करते, उनमें से भी जो योग्य होते हैं, उन्हें उत्तम पुस्तके पारितोषिक के रूप में दी जाती हैं। आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज के अथक प्रयत्नों से संचालित यह संस्था ऐसा अभूतपूर्व कार्य कर रही है जो इतिहास में स्वर्णाक्षरों से उल्लेख करने योग्य है। (६) श्री प्राकृत भाषा प्रचार समिति-इस समिति की स्थापना के मूल में लोगों की प्राकृत भाषा के प्रति रही हई उपेक्षा और अनादर ही है। यद्यपि इस भाषा ने ही अहिंसा एवं सत्य के अमर उपासक मंगलमय भगवान महावीर के लोकोपकारी उपदेशों को हम तक पहुँचाया है तथा उन अमुल्य विचारों की सजग प्रहरी के समान रक्षा करती रही है, किन्तु साम्प्रदायिक विष से ओत-प्रोत अनेक व्यक्ति इसे अशिक्षित एवं ग्रामीण लोगों की भाषा कहकर अपमानित करते हैं। यही कारण है कि हमारे श्रमणसंघ के प्रथम आचार्य स्वर्गीय पूज्यपाद श्री आत्माराम जी महाराज के हृदय में इस भाषा के प्रचार व प्रसार की बलवती भावना जागृत हुई थी। फलस्वरूप आपने 'प्राकृत-बालबोध' एवं 'प्राकृत बाल मनोरमा' नामक दो पुस्तकों की रचना की, ताकि छात्र उनकी सहायता से इस भाषा का प्रारम्भिक ज्ञान करते हुए उत्तरोत्तर इसकी तह में पहुंच सकें। आद्य आचार्यसम्राट इस भाषा के पुनरुत्थान के लिये बहुत कुछ करना चाहते थे किन्तु शारीरिक अस्वस्थता के कारण आपके संकल्प क्रियात्मक रूप नहीं ले पाए तथा उनका कार्य अधूरा रह गया। किन्तु परम सौभाग्य की बात है कि जिस कार्य को भूतपूर्व आचार्य अधूरा छोड़ गए, उसे पूर्ण करने का बीड़ा उनके प्रथम पदधर आचार्यसम्राट श्री आनन्दऋषि जी महाराज ने उठा लिया तथा विक्रम संवत् २०२१ के अपने जयपुर चातुर्मास में आपने इस समिति की पुनीत स्थापना कर दी। यह समिति स्कूलों, विद्यालयों तथा धार्मिक शालाओं के शिक्षार्थियों के लिये प्राकृतभाषा सम्बन्धी पाठ्यक्रम तैयार करती है ताकि इसका अधिकाधिक प्रचार हो सके तथा जिज्ञासु व्यक्ति इसके महत्त्व को समझते हुए इसे अपना सकें । चरितनायक ने इस समिति की स्थापना करके प्राकृतभाषा के विकास एवं उत्कर्ष के लिए जो ठोस कदम उठाया है, उसकी जितनी भी सराहना की जाय कम है। कहने का अभिप्राय यही है कि आचार्यसम्राट श्री आनन्दऋषि जी महाराज ने साहित्य-साधना के क्रियात्मक पहले पर भी पूरा ध्यान दिया है तथा उसे सफल बनाने में उपरोक्त संस्थाओं के अलावा भी अन्य अनेक संस्थाएँ तथा धार्मिकशालाएं अपनी सत्प्रेरणा से खुलवाईं तथा पुरानी संस्थाओं को नवजीवन देकर पुनः चालू किया है। जिनमें से कतिपय के नाम हैं (७) श्री अमोल जैन पाठशाला, बम्बई (८) श्री रत्न जैन बोडिंग, बोदवड़ (8) श्री महावीर जैन पाठशाला, पूना (१०) श्री महावीर सार्वजनिक वाचनालय, चिचोड़ी (११) श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन वाचनालय, बदनोर चय +AAIR........dow A ADATADAKALA आपायप्रवर अभिशपायप्रवर अभी श्रीआनन्द अन्नाआनन्द आभ MVWWWM vr.xviron m - ram------ - - Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धावान प्राआवाद २६ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व UC (१२) श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन छात्रालय, राणावास (१३) श्री रत्न जैन श्राविकाश्रम, श्रीरामपुर (१४) श्री तिलोक जैन पारमार्थिक संस्था, घोड़नदी (पूना) (१५) श्री वर्धमान जैन सिद्धान्तशाला, फरीदकोट (पंजाब) (१६) श्री जैन शाला, रालेगांव (१७) श्री जैन विद्याशाला, हिंगणघाट . (१८) श्री जैन विद्यालय, बडनेरा (१६) श्री जैन विद्यालय, बामोरी (२०) श्री जैन शाला, धींगार (अहमदनगर) (२१) श्री जैन पाठशाला, मिरी (दीक्षाभूमि) इनके अतिरिक्त श्री श्रमणोपासक जैन हायर सैकेण्डरी स्कूल, सदर बाजार देहली, श्री जैन हायर सैकेण्डरी स्कूल चांदनी चौक, देहली में आपकी ही प्रेरणा से धार्मिक एवं प्राकृत भाषा के शिक्षण की व्यवस्था चालू की गई। अमृतसर में पूज्य सोहनलाल जी महाराज की स्मृति में स्थापित विद्यालय जो अर्थव्यवस्था की गड़बड़ी से अस्थिर-सा हो रहा था, आपथी की प्रेरणा से उसे भी पुनः नवजीवन दिया गया और उसमें अध्ययन कार्य व्यवस्थित चालू हुआ। प्रश्न उठ सकता है कि आज के युग में तो बड़ी-बड़ी युनिवसिटियाँ, कॉलेज एवं स्कूल शहरों तथा गाँवों में चल रहे हैं, फिर कुछेक शालाओं के न होने से भी कौन-सी न्यूनता शिक्षा-प्राप्ति में आ पाती ? , इस प्रश्न का समाधान यही है कि शहर-शहर एवं गाँव-गाँव में राजकीय शिक्षाशालाएँ होने से पुस्तकीय शिक्षा तो फिर भी काफी मात्रा में प्राप्त की जा सकती है, किन्तु उसमें संस्कारों की सौरभ नहीं आ पाती, जिमसे मानव का चारित्रिक विकास हो सके। और उस संस्कार-रहित शिक्षा-प्राप्त व्यक्ति में यद्यपि भौतिक सुखों के साधन जुटा लेने की क्षमता तो आ जाती है पर अपनी आत्मा को उन्नत बनाने की क्षमता नहीं आ पाती । वह स्वगुणदर्शी और परदोषदर्शी तो बन जाता है किन्तु परगुणदर्शी तथा स्वदोषदर्शी नहीं बनने पाता। इसीलिये दीर्घदृष्टि चरितनायक ने शिक्षा के साथ-साथ धार्मिक संस्कारों का सुमेल करने के लिये अनेक शालाओं की स्थापना करवाई तथा आज भी उन्हें सफल बनाने के लिये सतत प्रयत्नशील हैं। बढ़ते चरण "होनहार बिरवान के होत चीकने पात"---जन-जन के मुंह से सुनी जा सकने वाली यह कहावत अपने आपमें एक ज्वलन्त सत्य छिपाए हुए है, जिससे कोई भी इन्कार नहीं कर सकता । संयम ग्रहण करने के पश्चात् आपने अपने पूज्यपाद गुरुदेव की छत्रछाया में रहकर मां सरस्वती की अनवरत उपासना की तथा ज्ञान के अमर-कोष को प्राप्त किया। उसके पश्चात् दत्तचित्त से तपोमय संयमसाधना प्रारम्भ कर दी, किन्तु प्रगति की सर्वोच्च श्रेणी आपकी प्रतीक्षा कर रही थी, अतः शनैः शनैः आपके पावन चरण उस ओर बढ़ चले। ऋषिसम्प्रदाय-ऋषिसम्प्रदाय के इतिहास पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि इस सम्प्रदाय में कई वर्षों तक आचार्यपद का स्थान रिक्त रहा, किन्तु जिस समय अजमेर में स्थानकवासी जैन साधु-सम्मेलन हुआ, ऋषिसम्प्रदाय ने अपनी विशृंखलित शक्ति का पुनर्गठन करके शास्त्रोद्धारक, शास्त्रविशारद, चारित्रचूडामणि श्रद्धेय श्री अमोलकऋषि जी महाराज को सम्प्रदाय के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। युवाचार्य-आचार्यप्रवर श्री अमोलकऋषि जी महाराज ने श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन परम्परा RATA Sai Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिर्धर आचार्य श्री आनन्दऋषि : जीवन-दर्शन २७ SAI या य के बत्तीस आगमों का हिन्दी में अनुवाद किया तथा जैनधर्म की गहराई तक पहुँचाने वाले लगभग सत्तर ग्रन्थों की स्वतन्त्र रचना भी की। आपके लिये यह कहने में भी अतिशयोक्ति नहीं है कि आपकी सानी के किसी भी विद्वान ने साहित्य के भण्डार की इतनी अभिवृद्धि नहीं की। किन्तु दुर्भाग्य से आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होकर आप केवल चार वर्ष तक ही समाज को अपनी सेवाओं से लाभान्वित कर स्वर्गवासी हो गए। इस दुखद घटना के अनन्तर ऋषिसम्प्रदाय के महामान्य मुनिराजों का भुसावल में सम्मेलन हआ तथा वहाँ पर सर्वसम्मति से स्वनामधन्य तपस्वीराज श्री देवजीऋषि जी महाराज को ऋषिसम्प्रदाय का आचार्य पद तथा मंगल मुर्ति पंडितरत्न श्री आनन्दऋषि जी महाराज को युवाचार्य पद प्रदान किया गया। महामान्य चरितनायक अपनी अद्भुत प्रतिभा, विद्वत्ता, कार्यक्षमता एवं योग्यता के बल पर एक मुनि के स्थान पर युवाचार्य पद के अधिकारी बने तथा आपके कन्धों पर समाज-सेवा की जिम्मेदारी आ गई । वैसे तो इससे पूर्व भी आप प्रत्येक सेवा कार्य में असीम उत्साह एवं रुचि से भाग लिया करते थे। जिस समय से आप युवाचार्य बने, आपने आचार्य श्री देवजीऋषि जी महाराज के निर्देशानुसार अपनी सम्प्रदाय का मार्गदर्शन, मुनियों एवं महासतियों के आचार-विचार सम्बन्धी उच्चता एवं उनकी शिक्षादीक्षा की और पूर्ण ध्यान देते हए धुंआधार परिश्रम करना प्रारम्भ कर दिया। आपने अपने दायित्व को अद्भुत क्षमता एवं सफलतापूर्वक निभाया। आचार्य पद की प्राप्ति--विक्रम सम्बत् १६६६ में युवाचार्य चरितनायक का चातुर्मास बाम्बोरी क्षेत्र में हुआ। चातुर्मास पूर्ण हर्षोल्लास सहित व्यतीत हुआ और आप तदनन्तर चाँदा (अहमदनगर) ग्राम । में पधारे। जिन दिनों आप चाँदा गाँव में विराजते हुए जनता को अपूर्व धर्म-लाभ प्रदान कर रहे थे, एक अत्यन्त दुम्बद सूचना आई पूज्य आचार्य श्री देवजीऋषि जी महाराज के देहावसान की। चारों ओर हर्ष के स्थान पर शोक का वातावरण छा गया, किन्तु होनी पर किसका वश चला है ? आपके स्वर्गवासी हो जाने पर पाथर्डी श्री संघ के आग्रह पर पुनः ऋषिसम्प्रदाय के महामुनियों का सम्मिलन हुआ तथा सर्वसम्मति से विक्रम सम्बत् १६६६ में चरितनायक युवाचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया तथा आप प्रगति के शिखर पर एक कदम और चढ़े। पांच सम्प्रदायों के अधिनायक (आचार्य)—यह तो बताया ही जा चुका है कि चरितनायक आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज में बहुमुखी प्रतिभा थी अर्थात् अनेक विलक्षण सद्गुण आपके मानस में शैशवावस्था से ही निवास किये हुए थे। उन्हीं के कारण आपको पहले युवाचार्य पद तथा बाद में ऋषिसम्प्रदाय का आचार्य पद प्रदान किया गया । किन्तु आपका उज्ज्वल भविष्य इतने से ही सन्तुष्ट नहीं था, वह आपको अभी अत्यधिक ऊँचाई की ओर ले जाने के लिये कटिबद्ध था। विक्रम सम्वत् २००६ में ब्यावर में संघ की एकता को लेकर सन्त-मुनिराजों का एक सम्मेलन हुआ, जिसमें नौ सम्प्रदायों के संगठन का प्रयत्न किया जा रहा था । किन्तु यह विचार पूर्णतया सफल नहीं बना अर्थात् नौ सम्प्रदाय एकता के सूत्र में नहीं बँध सके, फिर भी पाँच सम्प्रदायों ने एकता का स्वागत किया तथा एक ही मूत्र में बँधने की योजना बनाई। सम्मिलित होने वाले सम्प्रदायों के महामान्य मुनियों ने अपनी-अपनी पूर्व पदवियों का त्याग किया तथा ऋषिसम्प्रदाय के आचार्य हमारे चरितनायक ने भी स्वेच्छा एवं हर्ष से क्षण भर में ही अपने पद का त्याग कर दिया। किन्तु त्याग में कितनी चमत्कारिक शक्ति होती है, इसे समझ पाना अत्यन्त दुष्कर है। निश्चय ही त्याग जिम मात्रा में किया जाता है, उमसे अनेक गुनी उपलब्धि पुनः हो जाती है। इमी नियम के अनुमार चरितनायक ने जब एक सम्प्रदाय के आचार्य पद का त्याग किया तो उन्हें आचार्य अनि आचार्यप्रaza ramromenomer Personarrastromimir m irrormernamainenerery.org Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्दा अन्य५५ आप्रव अभिवबअभिनय २८ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व पाँच सम्प्रदायों का आचार्य पद प्राप्त हो गया। यह व्यवस्था उस समय तक के लिये की गई जबतक कि पुनः बृहत् साधु-सम्मेलन का आयोजन किया जाना था। प्रधानमंत्री पद-स्थानकवासी जैन समाज को सुसंगठित करने में अखिल भारतीय श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कान्फरेंस ने घोर प्रयत्न किया तथा उसके परिणामस्वरूप सादड़ी में एक विराट् साधुसम्मेलन का आयोजन किया गया । इस सम्मेलन में पंजाब, राजस्थान, मालवा, मेवाड़, मारवाड़ तथा महाराष्ट्र आदि सभी प्रान्तों के मुनिराजों ने भाग लिया तथा सभी ने एक स्वर से अपने-अपने सम्प्रदाय की पदवियों का त्याग कर एक आचार्य के नेतृत्व में "श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ" की स्थापना की तथा जैनधर्मदिवाकर परम श्रद्धेय श्री आत्माराम जी महाराज को प्रधानाचार्य, स्वनामधन्य पूज्य श्री गणेशीलाल जी महाराज को उपाचार्य पद तथा हमारे चरितनायक पण्डितरत्न पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज को श्रमण संघ के प्रधानमन्त्रित्व का दायित्व सोंपा गया। प्रधानमन्त्री का पद अत्यन्त दुष्कर एवं जिम्मेदारी से भरा हुआ होता है, क्योंकि संघ के बनाए हुए नियम आदि सब उसी के द्वारा क्रियात्मक रूप धारण करते हैं। हमारे चरितनायक ने बड़ी धीरता एवं गम्भीरता से अपने मन्त्री पद के उत्तरदायित्व को निभाया। यद्यपि आपको अपने कार्यकाल में अनुकूल तथा प्रतिकूल, दोनों प्रकार की परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। प्रशंसा-प्राप्ति के साथ अनेकों आरोपों को भी झेलना पड़ा, किन्तु आपकी धीरता ने कभी भी अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं किया। विरोधी वातावरण में भी शान्ति और सहिष्णुता ने आपका साथ नहीं छोड़ा तथा जिस कार्य को भी आपने अपने हाथ में लिया, उसे सफल बनाने का पूर्ण प्रयत्न किया तथा आपकी अद्वितीय कार्यक्षमता के फलस्वरूप सादड़ी के बृहत् साधु-सम्मेलन में आचार्य, उपाचार्य, प्रधानमन्त्री एवं मन्त्री पदों की जो घोषणा की गई थी, उसके अनुसार भीनासर-सम्मेलन में आपको उपाध्याय बना दिया गया। श्रमण संघ के सर्वोच्च अधिकारी (प्रधानाचार्य)-पाठकों को विदित है कि सादड़ी में हुए महासम्मेलन में दिवंगत आचार्य प्रातःस्मरणीय पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज को श्रमण संघ के प्रधानाचार्य का पद दिया गया था। उस समय विक्रम सम्वत् २००६ चल रहा था। भूतपूर्व आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज की प्रशंसा करना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। केवल ग्यारह वर्ष की उम्र में आपने संयम ग्रहण किया था और उसके पश्चात् आपने जैन एवं जैनेतर साहित्य का गंभीरतम अध्ययन किया । संस्कृत एवं प्राकृत साहित्य के तो आप ऐसे उच्चकोटि के विद्वान थे कि आपकी सानी का अन्य विद्वान मिलना कठिन था। एक जर्मन प्रोफेसर ने तो आपको शास्त्रीय ज्ञान का चलता-फिरता पुस्तकालय बताया था। वि० सं० १९९६ में आपको पंजाब का उपाध्यायपद तथा विक्रम सं० २००६ में सादड़ी-सम्मेलन के अवसर पर "श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ" का आचार्य पद दिया गया। किन्तु श्रमण संघ पर आपका वरदहस्त केवल दस वर्ष तक ही रहा तथा वि० सं०२०१६ में कैंसर रोग ने आपको चिरनिद्रा में सुला दिया और श्रमण संघ पुनः छत्रविहीन हो गया। श्रद्धेय आचार्य श्री आत्माराम जा महाराज के देहावसान के पश्चात् श्रमण संघ के अधिकारियों के समक्ष पुनः समस्या उठ खड़ी हुई कि अब किन्हें नवीन आचार्य बनाया जाय ? अखिल भारतवर्षीय जैन कान्फरेंस ने श्रमण संघ के समस्त प्रमुख मुनिराजों से इस सम्बन्ध में विचार-विमर्श करना प्रारम्भ किया। अनेक स्थानों पर विशिष्ट मण्डल भेजे गए, फलस्वरूप अनेक सुझाव भी सामने आए। तदनन्तर जैन कान्फरेंस ने आचार्य पद का निर्णय करने के लिये बम्बई में अपनी जनरल कमेटी की मीटिंग बुलवाई। उस अवसर पर विद्वानों तथा गम्भीर विचारकों ने अपने विचार इसप्रकार व्यक्त किये कि"स्वर्गवासी आचार्य परमश्रद्धेय पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज स्वयं दूरदर्शी थे। उन्होंने अपने जीवन काल में ही पंडितरत्न पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज को कार्यकारिणी का संयोजक बनाकर अपना जय रिया Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिर्धर आचार्य श्री आनन्दऋषि : जीवन-दर्शन पदाधिकारी नियुक्त कर दिया है। आपसे अधिक योग्यता आचार्य पद को प्राप्त करने के लायक अन्य किसमें है ? वैसे भी उपाध्याय पद ग्रहण करने के पश्चात् से अब तक आप जिस विलक्षण कार्यक्षमतापूर्वक श्रमण संघ का संचालन करते आए हैं, उसे देखते हुए केवल आप ही इस सर्वोच्च एवं महान् पद के अधिकारी बनने का अधिकार रखते हैं।" यह विचार जिस समय हमारे चरितनायक के समक्ष रखा गया, आपने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया--"मैं तो श्रमण संघ का एक सामान्य सेवक हूँ। आपके विचारों के अनुसार मेरी योग्यता नहीं हैं। "कार्यवाहक समिति" के संयोजक के नाते संघ की सेवा करने में ही मुझे परम सन्तोष है, अतः अधिक भार मुझ पर न डाला जाये, यही ठीक है।" किन्तु श्रद्धापूरित तथा एकस्वर से उठी हुई आवाज का विरोध कैसे किया जा सकता था ? परिणाम यही हुआ कि चरितनायक को आचार्य मनोनीत कर दिया गया तथा विक्रम संवत् २०२१ में आयोजित किये गए मुनि-सम्मेलन में आपको आचार्य पद की प्रतीक पुनीत चद्दर ओढ़ाई गई। इसप्रकार प्रारम्भ में रहे हुए एक साधारण मुनि श्री आनन्दऋषि जी महाराज अपनी बहमुखी प्रतिभा एवं अद्वितीय कार्यक्षमता के बल पर क्रमशः उन्नति के सोपानों पर चढ़ते हुए एक दिन श्रमण संघ के सर्वोच्च अधिकारी बन गए। स्पष्ट है कि आपका सम्पूर्ण जीवन समाजसेवा में व्यतीत होता रहा और आज भी श्रमण संघ के आचार्य के रूप में समाज की अपूर्व सेवा करते चले जा रहे हैं।। आपकी सबसे बड़ी विशेषता शान्तिप्रियता है, जिसके बल पर आप विषम-से-विषम परिस्थिति का मुकाबला भी बड़ी धीरता से करते हैं तथा किसी भी हालत में अपना सन्तुलन नहीं खोते । इतना ही नहीं, आप अपना अहित करने वाले का भी हित करने के प्रयत्न में रहते हैं। साधना और चमत्कार साधना का क्षेत्र बड़ा विस्तृत और जटिल है। जबतक साधक साधना के मर्म तक न पहुँच जाय, तबतक उसे साधना का आनन्द नहीं आता और साधना का तो लक्ष्य ही है-आत्मानन्द प्राप्त करना। प्रश्न उठता है कि कैसी साधना से साधक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है ? इसका समाधान यही है कि विवेक और बुद्धि द्वारा कष्टसाध्य साधना करने वाला साधक ही अपने निर्दिष्ट साध्य को पा सकता है। एक बात और ध्यान में रखने की है कि यद्यपि साधक का उद्देश्य अपना साध्य सिद्ध करना है, तदपि साधना काल में उसकी उत्कृष्टता. पवित्रता एवं विशुद्धता से अनचाहे ही अनेक चमत्कारपूर्ण घटनाएँ भी घटती हुई देखने को मिलती हैं, जिनसे प्रभावित होकर व्यक्ति साधक के प्रति श्रद्धानिष्ठ बन जाते हैं। हमारे चरितनायक महामान्य आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज की तपोपूत साधना भी ऐसी ही अनेक चमत्कारिक घटनाओं से परिपूर्ण रही है। आपकी वाणी में कुछ ऐसी अनुपम शक्ति है कि आपके मुखारविंद से जो बात निकलती है, उसकी सिद्धि में कभी संशय नहीं रहता। ऐसी अनेक घटनाओं में से कतिपय घटनाएँ पाठकों के लिये दी जा रही हैं। जीवनडोरी कटते-कटते बची--विद्ववर्य पं० नारायणप्रसाद जी शास्त्री को जो कि अनेक वर्षों से आचार्यसम्राट की सेवा में रहते हुए ज्ञानार्थी सन्तों को संस्कृत एवं व्याकरण आदि का ज्ञान देते आ रहे हैं, शिलांग के टी० बी० हॉस्पिटल में चिकित्सा करवा रहे अपने बड़े पुत्र का पत्र मिला। उसमें लिखा था-"पिताजी ! अशुभ कर्मों के कारण मेरा स्वास्थ्य गिरता चला जा रहा है और अब मैं मरणासन्न स्थिति में आपके एकबार दर्शन कर लेना चाहता हूँ।" अपने पुत्र के द्वारा लिखे गये ऐसे शब्द सुनकर कौन पिता अपने चित्त को काबू में रख सकता है ? INE आपाप्रवन अभिमाचार्यप्रवभिः श्रीआनन्द श्रीआनन्द अ५० Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यवभिशापार्यप्रवभिनय श्रीआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्दकन्न ३० आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व शास्त्री जी भी अत्यन्त विहल होकर आचार्यदेव की सेवा में उपस्थित हए तथा फूट-फूटकर रोते हुए उन्होंने सारी बात आपके समक्ष निवेदन की। श्रद्धेय आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज ने धैर्यपूर्वक शास्त्री जी की बात सुनी तथा उनके दुःख को समझा। तत्पश्चात् कुछ क्षण बाद ही आप अपनी वरदायिनी वाणी से गम्भीरता पूर्वक बोले"शास्त्री जी ! धैर्य रखिये, धर्म एवं गुरु की सेवा करने वाले व्यक्ति के सुख को कोई भी ताकत नष्ट नहीं कर सकती। आप निश्चिन्त हों, एक जैन फकीर की बात असत्य साबित नहीं होगी।" और सचमुच ही सच्चे फकीर की बात निरर्थक नहीं गई तथा अगले दिन ही पंडित जी को पुत्र का पत्र मिल गया, जिसमें लिखा था-"मैं अब ठीक है, चिन्ता न करें।" यह घटना वस्तुतः अद्भुत ही है कि टी० बी० जैसे राजरोग से ग्रस्त ही नहीं, अपितु मरणासन्न व्यक्ति भी आचार्य श्री के आशीर्वाद से पूर्ण स्वस्थ होकर आज भी बम्बई में सुखपूर्वक जीवन-यापन कर भंडार भरा ही रहा-दुसरी घटना बाम्बोरी की है। वि० सं० २०१५ में पूज्य आचार्यसम्राट श्री आनन्दऋषि जी महाराज के हाथों सरसबाई नामक एक बहन की दीक्षा होने जा रही थी। दीक्षार्थिनी के पिता को करीब पन्द्रह सौ दर्शनार्थियों के बाहर से आने की आशा थी, अतः उन्होंने लगभग दो हजार व्यक्तियों के भोजन का उत्तम प्रबन्ध किया। किन्तु सौभाग्यवश बाहर से आने वालों की संख्या चार-पाँच हजार तक पहुँच गई तो वे घबराये हुए आचार्य श्री जी महाराज के पास आए और आपसे दीक्षा के पूर्व एक बार अपने चरणों से घर पवित्र कर देने की प्रार्थना की। इस प्रार्थना को स्वीकार करके जब आचार्य श्री जी ने उनके घर पदार्पण किया तो मौका देखकर गृहपति ने अपनी कठिनाई उनके सामने व्यक्त की। सुनकर चरितनायक मुस्करा दिये और बोले"भाई ! धर्म का भण्डार कभी खाली होता है क्या ? वह तो सदा ही भरा रहता है। उस पर विश्वास रखते हुए मन को निश्चिन्त बनाओ। आनन्द-ही-आनन्द होगा।" और वास्तव में ऐसा ही हुआ। दीक्षामहोत्सव के पश्चात् हजारों व्यक्ति भोजन कर गए किन्तु भोज्य-पदार्थों का भंडार फिर भी भरा ही रहा । अर्थात् धर्म के धारक के वचन सत्य साबित हुए। गई वस्तु आ गई-तीसरी घटना इस प्रकार घटी। एक बार श्रद्धेय आचार्य श्री जी का चातुर्मास जबकि अपनी जन्मभूमि चिचोड़ी गाँव में था, औरंगाबाद जिले के माजल गाँव से सुन्दरबाई नामक श्राविका का परिवार दर्शनार्थ आया। गाँव छोटा होने के कारण मोटर वहाँ चंद मिनिटों के लिये ही रकी तथा दर्शनार्थ आई हुई बहनों की एक पेटी जिसमें बहुमूल्य वस्त्राभरण एवं रुपये थे, बदल गई। अगले दिन प्रातःकाल पेटी खोली गई, सब घोर दुःख से दुखी हो गए और "मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक" कहावत चरितार्थ करते हुए सभी आचार्यदेव के पास पहुंचे। सारी बात सुनकर आचार्यसम्राट बोले-"अरे भाई ! यह सन्तों का दरबार है। यहाँ चिन्ताफिक्र का क्या काम? शुभ कर्मों का साथ रहे तो गई हई वस्तु मिल पाना क्या बड़ी बात है ?" आशान्वित होकर चिचोड़ीवासियों ने भरे हुए सन्दुक की खोज प्रारम्भ की तथा उस घटना के तीसरे दिन ही सन्दूक ज्यों-का-त्यों वापस आ गया। वचनसिद्धि--एक और भी आश्चर्यजनक घटना है। जबकि जैनधर्मदिवाकर आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज राजस्थान के किसी गाँव में विराजे हए थे, उस समय एक प्रश्न को लेकर आपके साथी मुनियों से किसी विषय पर वार्तालाप प्रारम्भ हो गया। वार्ता-काल के मध्य में एक खास थावक की आवश्यकता हई, जिसके बिना वार्ता का निकाल संभव नहीं था। सब विचार में पड़ गए कि अब उन्हें Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिर्धर आचार्य श्री आनन्दऋषि जीवन-दर्शन ३१ किस प्रकार यहाँ उपस्थित किया जाय, जबकि उन श्रावक को न कोई सूचना दी गई और न ही उनकी ही कोई सूचना आने के सम्बन्ध में थी। संयोग की बात है कि अचानक ही आचार्य श्री जी के मुखारविंद से शब्द निकले - "मेरा मन कह रहा है कि वे श्रावक आज ही सायंकाल तक आप लोगों के पास आयेंगे ।" यह सुनकर सभी संत बड़े चकित एवं हैरान रह गये, किन्तु सायंकाल होते-होते देखा गया कि मचमुच ही वे धावक स्थानक की ओर चले आ रहे हैं। वचनसिद्धि के इस अद्भुत चमत्कार ने केवल संतों को ही नहीं, अपितु ग्रामनिवासियों को भी आचार्यदेव के समक्ष नतमस्तक कर दिया । स्पर्श सिद्धि वचन-सिद्धि के साथ ही आपकी स्पर्श- सिद्धि भी कम चमत्कारपूर्ण नहीं है। मालेर कोटला की एक घटना है- मालेरकोटला निवासी श्री राममूर्ति लोहटिया रोगग्रस्त हो गए तथा इनकी गर्दन में कुछ ऐसी खराबी हो गई कि डाक्टर को छह महीने तक रहने वाला प्लास्टिक का एक पट्टा अपना पड़ा। सौभाग्यवश उन्हीं दिनों चरिसनायक आचार्य श्री जी महाराज मालेरकोटला पधारे तथा श्री राममूर्ति आपके दर्शनार्थ पहुंचे। ज्योंही इन्होंने वंदन करने के लिये अपना मस्तक झुकाया, अचानक ही आचार्यसम्राट का वरदहस्त इनकी गर्दन को छू गया। हाथ का स्पर्श होने की देर थी कि गर्दन की तकलीफ कम होने लगी तथा छह महीने बंधा रहने वाला पट्टा कुछ दिनों में ही छूट गया । विष पर विजय - चाँदा निवासी सेठ तिलोकचन्द्र जी गुंदेचा ने एक नियम ले रखा था कि वे प्रतिवर्ष चातुर्मास में एक महीना आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज की सेवा में गुजारा करेंगे। अपने नियमानुसार वे वि० सं० २०१५ में आचार्य श्री जी के चातुर्मास में पाथर्डी आए। गुंदेवा जी अपने गाँव से बैलगाड़ी द्वारा ही पाथर्डी आए थे। वहाँ तक पहुंचते-पहुंचते रात्रि हो गई। निर्दिष्ट स्थान पर गाड़ी रोकी गई तथा उनका मजदूर सामान उतारने लगा। अशुभ संयोग से मजदूर को एक विशालकाय एवं विषधर सर्प ने इस लिया। मजदूर छटपटा उठा । श्री गुंदेचा जी को और कोई उपाय उस समय नहीं सुझा और वे मजदूर को लेकर तुरन्त ही आचार्य श्री जी के निवास स्थान की ओर चल पड़े । सभी जानते हैं कि विष का असर शरीर पर बड़े वेग से पहुँचते-पहुँचते तो मजदूर की हालत बहुत ही शोचनीय हो गई। गुरुदेव से कहा - "भगवन् ! दया करके इसकी रक्षा कीजिये मुझे तो कलंक लगेगा ही, इसका परिवार भूखा मर जायगा गुंदेचा जी की प्रार्थना सुनकर और मजदूर की दशा देखकर आचार्य श्री जी ने तुरन्त ही उसे मंगल-पाठ सुनाना प्रारम्भ कर दिया। मंगल-पाठ का श्रवण करते ही मजदूर की स्थिति सुधरने लगी तथा उसे शांति का अनुभव होने लगा। कुछ देर में ही विष का भयानक प्रभाव पर्याप्त मात्रा में कम हो गया। अगले दिन तो वह मजदूर अपने को नव-जीवन प्रदान करने वाले सिद्धपुरुष आचार्य श्री आनन्दऋषिजी महाराज का गुणगान करता हुआ गाँव में घूमने लगा । होना है। अतः आचार्यसम्राट के समीप श्री गुंदेचा जी ने अत्यन्त विकल होकर अगर यह काल का ग्रास बन गया तो बर्बाद हो जायगा ।" । रुकता हुआ दिल धड़कने लगा- मालेरकोटला में डॉ० दयाकृष्ण जी एक अत्यन्त प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं । एक बार उन्हें बड़ी बुरी तरह से हार्ट-अटैक हो गया। हालत ऐसी हो गई कि उन्हें मृत ही मान लिया गया तथा चारों ओर उनके प्राणांत की बात फैल गई । स्वनामधन्य आचार्य श्री जी उन दिनों मालेरकोटला में ही विराज रहे थे । कुछ व्यक्ति आपके पास बदहवास से आए और आपसे डॉ० साहब को मंगल पाठ सुनाने की विनती करने लगे। लोगों के आग्रह पर गुरुदेव डॉ० दयाकृष्ण जी के यहाँ पधारे तथा उन्हें मंगल पाठ सुनाया। पर आयाम प्रवरा आगरदन आआनन्द श्री J CHA 鱷 डी. SHE HAS आगन Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवभि श्रीआनन्दमश्रीआनन्द अन्न ३२ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व vwwwamriram KACA चारों ओर झंड-के-झुंड खड़े हुए व्यक्ति मानों आसमान से गिर पड़े हों ऐसा अनुभव करने लगे, यह देखकर कि आचार्यदेव के मंगल-पाठ तथा अन्य स्तोत्र आदि सुनाते ही डॉ० साहब अपने आपको स्वस्थ अनुभव करने लगे तथा उसके बाद भी अल्पकाल में ही पूर्ण स्वस्थ हो गए। इन घटनाओं को बताने का अभिप्राय केवल इतना ही है कि उत्कृष्ट साधना चमत्कारों की प्रसवभूमि है । सच्चा साधक कभी भी चमत्कार पैदा करने के लिए साधना नहीं करता । उसको साधना केवल अपने कर्मों का क्षय कर आत्मा को संसार-मुक्त करने के लिये होती है किन्तु जिस प्रकार किसान अनाज पैदा करता है, किन्तु घास उसके अनाज के साथ स्वयं ही प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार अपने लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने के लिये साधना करने वाले साधक का जीवन स्वयं ही चमत्कारपूर्ण बन जाता है। एक उदाहरण से यह बात समझी जा सकती है। एक बार एक शिष्य अपने गुरु के पास हर्ष-विह्वल होकर दौड़ा-दौड़ा आया और बोला-"गुरुदेव मैंने बारह वर्ष तक घोर तपस्या की, उसके परिणामस्वरूप मुझे जल पर चलने की चमत्कार पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो गई है।" गुरुजी शिष्य की बात सुनकर झंझलाहटपूर्वक बोले-"मुर्ख ! यह कार्य तो दो-चार पैसे देने पर मल्लाह ही कर देता । क्या तू केवल इस निरर्थक सिद्धि के लिये बारह वर्ष तक घोर तपस्या करता रहा? वह तो तुझ यों ही मिल जाती अगर तू अपनी आत्मा का उद्धार करने का संकल्प करके सच्ची साधना अथवा तपस्या करता।" उदाहरण से स्पष्ट है कि महापुरुष अपनी साधना से चमत्कारों को जन्म देने की इच्छा का घोर तिरस्कार करते हैं। किन्तु उनकी अनिच्छा के बावजूद भी उनकी साधना चमत्कारपूर्ण बन जाती है, जैसी कि हमारे बालब्रह्मचारी श्रद्धेय आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज की है। पूर्ण निर्दोष एवं पावन साधना ने ही आपका जीवन चमत्कारिक बना दिया है। शिष्यवृन्द स्वनामधन्य जैनधर्मदिवाकर परमश्रद्धेय पूज्य आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज का संक्षिप्त जीवन-परिचय दिया जा चुका है। यद्यपि आपके महान् व्यक्तित्व, त्याग, वैराग्य, तप, शांति, सहिष्णुता एवं उत्कष्ट संयम-साधना आदि सभी के विषय में जो कुछ भी लिखा जाय, पूर्ण नहीं कहला सकता, फिर भी श्रद्धालु भक्तों के लिये जो कुछ लिखा जा सके काफी हो सकता है। कहा भी है सौ बोरी धान की, एक मुट्ठी बानगी। __ अर्थात् एक मुट्ठी अनाज को देखकर भी व्यक्ति सौ बोरियों में किस प्रकार का धान है, यह जान सकता है और इसीप्रकार आचार्यसम्राट की महानता के विषय में थोड़ा कहने पर भी बुद्धिमान पाठक आपके जीवन की विशेषताओं को सहज ही समझ सकते हैं। एक बात और भी है कि आचार्य श्री जी की विशेषताओं के विषय में बताते हुए उनकी शिष्य-परम्परा के बारे में बताना भी आवश्यक है। अतः उस विषय में आगे लिखा जा रहा है । आपके प्रथम शिष्य श्री हर्षऋषि जी महाराज हुए। (१) श्री हर्षऋषि जी महाराज-आपने वि० सं० १९८१ में चाँदा नगर में भागवती दीक्षा ग्रहण की थी । आप वर्तमान में जैनदिवाकर श्री चौथमल जी महाराज के संतों की सेवा में विचरण करते हैं। (२) श्री प्रेमऋषि जी महाराज-आपका जन्म कच्छ प्रदेश के अन्तर्गत 'जरखौ बन्दर' में हुआ था तथा आपका पूर्व नाम श्री प्रेमजीभाई था। बड़े होने पर आप व्यापार के सिलसिले में खानदेश के अमलनेर स्थान पर आए। वहाँ पर आपने एक जापानी कम्पनी में सविस प्रारम्भ की तथा कई वर्षों वहाँ पर कार्य किया। कदाचित् यह सिलसिला चलता ही रहता, किन्तु लगभग पचपन-छप्पन वर्ष की आयु % 3RESH ELEC. काया N Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिर्धर आचार्य श्री आनन्दऋषि : जीवन-दर्शन KAM तक जब आप पहुँच गए, आपके हृदय में तीव्र वैराग्य उदित हुआ तथा आपने आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज के चरणों में भागवती दीक्षा ग्रहण की। आप अत्यन्त सेवाभावी तथा उत्तम विचारों को धारण करने वाले मुनि थे। आपके द्वारा आचार्य श्री को समय-समय पर अत्यन्त उपयोगी परामर्श प्राप्त हुआ करते थे किन्तु आयुष्य-कर्म की अल्पता के कारण करीब दस वर्ष तक साधु-जीवन का पालन करके ही आप स्वर्गवासी बन गए। ... (३) श्री मोतीऋषि महाराज -आप नाम गांव निवासी सेठ हजारीलाल जी साहब कांकरिया के सुपुत्र थे। वि० सं० १९५४, भाद्रपद कृष्णा चतुर्दशी को माता सुन्दरबाई के उदर से आपका जन्म हुआ। माता-पिता का स्वर्गवास होने के पश्चात् आपको संसारिक सुख भोगों से अरुचि हो गई तथा वि० सं० १९६२, फाल्गुन शुक्ला पंचमी को आपने आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज के करकमलों से भागवती दीक्षा ग्रहण की। आपने संयम ग्रहण करके संस्कृत तथा प्राकृत आदि भाषाओं का अध्ययन किया तथा ऋषिसम्प्रदाय के इतिहास को भी लेखनीबद्ध किया। आपके होनहार होने के कारण समाज को आपसे बड़ी-बड़ी आशाएँ थी किन्तु कराल काल ने अकस्मात ही भोपालगंज (भीलवाड़ा) में आपको उदरस्थ कर लिया। (४) श्री हीराऋषि जी महाराज --आप कच्छ प्रान्तीय देसलपुर निवासी बीसा ओसवाल श्री खिमजीभाई के होनहार पुत्र थे। जब महामान्य चरितनायक जी का मलाड (बम्बई) पदार्पण हुआ, उनके प्रथम प्रवचन में ही आपको तीव्र वैराग्यभाव उत्पन्न हो गया। परिणामस्वरूप आपने संयम ग्रहण करने का दृढ़ निश्चय कर लिया तथा अपने पिताजी के द्वारा पुनः-पुनः रोके जाने पर भी लोणावला निवासी श्री मोहनलाल जी चोरडिया के सहयोग से वि० सं० १६६६, माघ शुक्ला षष्ठी, रविवार को पच्चीस वर्ष की आयु में आचार्य श्री जी का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। काल की गति बड़ी गहन है। इसको बड़े-बड़े विश्व-विजयी पुरुष भी नहीं रोक सके । आपको दीक्षा के बीसवें दिन ही दस्त और वमन की शिकायत हुई तथा इक्कीसवें दिन आप अपनी नश्वर देह को छोड़कर स्वर्गवासी बने । (५) श्री ज्ञानऋषि जी महाराज-आपकी जन्मभूमि सिरसाला (पूर्व खानदेश) थी। आपका पूर्व नाम श्री बाबूलाल था। वि० सं० १९६० के मन्दसौर चातुर्मास में आपको परम श्रद्धेय आचार्य श्री जी की सेवा में रहने का अवसर प्राप्त हुआ तथा उसी समय से आपमें वैराग्य के अंकुर प्रस्फुटित हो गये किन्तु घरवालों ने आपकी शादी आपकी अनिच्छा होने पर भी सम्पन्न कर दी। फल यह हुआ कि आपने स्वयं तो संयम ग्रहण करने का निश्चय किया ही, साथ ही अपनी पत्नी को भी अपने विचारों के अनुकूल कर लिया । वि० सं० १९६६ में आषाढ़ शुक्ला दूज के दिन आपकी पत्नी परम पूज्य महासती जी श्री रंभावर जी महाराज के पास पूज्य श्री सुमतिकुँवर जी महाराज की नेश्राय में दीक्षा ग्रहण कर ली और उसके चार दिन पश्चात् ही मिरी गाँव में आपने स्वयं भी आचार्य श्री जी के चरणों में मुनिधर्म स्वीकार कर लिया। (६) श्री पुष्पऋषि जी महाराज-आप मारवाड़ में राणावास निवासी श्रीमान् छोगालाल जी कटारिया के पुत्र हैं। वि० सं० २००६ में श्रद्धेय आचार्य श्री राणावास पधारे तथा उनके सदुपदेशों से प्रभावित होकर मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी, गुरुवार के शुभ दिन उदयपुर में आचार्य श्री जी के कर-कमलों से आपने भागवती दीक्षा ग्रहण की। आपको 'ओऽम् शांति' का जाप अत्यधिक प्रिय है तथा अपने सम्पर्क में आने वालों को भी आप इसके जप की प्रेरणा दिया करते हैं। (७) श्री हिम्मतऋषि जी महाराज --आप मंगरूल चवाला (बरार) निवासी श्री छोगमल जी HARMA A चय र आपाप्रवर अभिआपाप्रवन अभिनय श्रीआनन्दान्थ५ श्राआनन्दरग्रन्थ Vipwww Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व साहब भण्डारी के पुत्र थे। आपकी वैराग्यभावना का श्रेय महासती श्री सिरेकँवर जी को है। आचार्य श्री जी के भीलवाड़ा चातुर्मास में आप उनकी सेवा में रहे तथा वि० सं० २००८, मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी को आपने संयम ग्रहण किया था। आपकी अध्ययन अच्छी अभिरुचि थी। (८) श्री चन्द्रऋषि जी महाराज-आप कड़ा निवासी श्री चांदमल जी के नाम से प्रसिद्ध थे । आपके पिता का नाम श्री चुन्नीलाल जी तथा माता का नाम शक्करबाई था। आपको अहमदनगर में जी श्री उज्ज्वल कुमारी जी के सद्पदेशों से वैराग्य उत्पन्न हआ। वि० सं० २०१० में आचार्य श्री का चातुर्मास जोधपुर में था। उसी वर्ष आपने ज्ञान पंचमी को आचार्य श्री जी के सानिध्य में चारित्रधर्म ग्रहण किया। आप अत्यन्त सेवाभावी तथा स्वाध्यायप्रेमी सन्त हैं। आपको सब भगत जी के नाम से ही पुकारते हैं। (६) श्री कुन्दनऋषि जी महाराज-आप मिरी ग्राम निवासी श्री चन्दनमल जी मेहेर के पूत्र हैं। गृहस्थावस्था में आपका नाम श्री मनसुखलाल था। सौभाग्यवश आचार्य श्री का मिरी गाँव में शुभागमन हुआ और आपको भी आचार्य श्री जी के प्रवचन सुनने का लाभ मिला। आपकी वैराग्य भावना जब बलवती हुई तो आपके परिवार वालों को आज्ञा प्रदान करनी पड़ी। आप दीक्षा से पूर्व तीन वर्ष तक आचार्य जी की सेवा में रहकर धार्मिक अध्ययन करते रहे। तत्पश्चात् वि० सं० २०१६, वैशाख शुक्ला षष्ठी को अपनी जन्मभूमि में ही आप स्वनामधन्य आचार्य श्री जी के पदगामी बने । आपका सहज और सरल व्यक्तित्व अति सराहनीय है। आपमें सेवाभावना, मिलनसारिता एवं गुरुभक्ति पर्याप्त मात्रा में है। श्री आचार्य श्री जी के प्रवचनों को जनजन तक पहुँचाने का श्रेय आपको ही दिया जा सकता है। (१०) श्री विजयऋषि जी महाराज-- आपका जन्म मध्यप्रदेश के गोदाला नामक ग्राम में हुआ। आपने वि० सं० २०२१ के चातुर्मास में आचार्य सम्राट के चरणों में संयमपथ का अवलम्बन लिया। आपकी अपने गुरुदेव में अनन्य भक्ति है तथा आप अध्ययन में भी काफी रुचि रखते हैं। (११) श्री धनऋषि जी महाराज-अवस्था में आप वृद्ध हैं। आपकी जन्मभूमि कर्माला है। पिता का नाम श्री मोहनलाल जी कटारिया तथा माता का नाम लगड़ी बाई था । वि० सं० २०२५ के जम्म चातुर्मास में आपने आचार्य श्री के सान्निध्य में दीक्षा ग्रहण की। आपकी सेवा एवं तपस्या में अच्छी रुचि है। (१२) श्री रतनमुनि जी महाराज-आपने मरुधरा के पंडितरत्नमुनि श्री मंगलचन्द्र जी महाराज के चरणों में भागवती दीक्षा ग्रहण की थी। आजकल आप श्रद्धेय आचार्य श्री जी की आज्ञा में विचरण करते हैं। आप एक अध्ययनशील, प्रतिभा-सम्पन्न एवं अच्छे व्याख्याता मनि हैं। आपके पिताजी का नाम श्री खिलूराम जी खन्ना एवं माता का नाम श्यामादेवी है। आपकी जन्मभूमि मुल्तान (पंजाब) है। आप से समाज को बड़ी-बड़ी आशाएँ हैं। इस प्रकार चरितनायक आचार्य श्री जी का शिष्य समुदाय भो "शालि को रूंख शालि को परिवार" इस कहावत को चरितार्थ करता है तथा अपनी संयम साधन में रमण करता है। ऐसे सन्त समूह को प्रत्येक श्रद्धालु भक्त अपार आस्था लिए हुए अपना उत्तमांग झुकाता है। किसी कवि ने कहा भी है संत मिल्यां एता रले काल झाल जमचोट । शीश नमाया ढह पड़े लाख पाप की पोट ।। कविता के भाव विज्ञजन समझ ही गये होंगे कि संत-समागम से किस प्रकार आधि, व्याधि एवं Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री आनन्दऋषिजी महाराज के प्रिय अन्तेवासी कुशल साहित्यकार, विचारक, वक्ता एवं संस्कृत-प्राकृत के सतत अभ्यासी एवं अभिनन्दन ग्रन्थ के मुख्य प्रेरक श्री कुन्दन ऋषि जी महाराज Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिर्धर आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी : जीवन दर्शन ३५ RSENA उपाधि नष्ट होती है। संतों की महिमा तो अगम है, इस विषय में जितना भी कहा अथवा लिखा जाय कम है। वर्षावास से लाभान्वित क्षेत्र आगमों में साधु के लिए नवकल्पी विहार का विधान है, जिनका वे समीचीन रूप से पालन करते हैं। इस विधान के अनुसार प्रत्येक जैन मुनि विशेष कारणों के अतिरिक्त एक क्षेत्र में उनतीस दिन से अधिक नहीं ठहरते। किन्तु वर्षावास में उन्हें चार महीने एक ही स्थान पर ठहरना होता है। हमारे आचार्यश्री ने भी साधु मर्यादा के अनुसार अब तक जिन-जिन क्षेत्रों में चातुर्मास किये हैं उनकी तालिका निम्न है। संख्या वि० सं० क्षेत्र संख्या वि० सं० क्षेत्र १९७१ मनमाड़ १९६८ बोरी (पूना) १९७२ लासलगांव १६६ बाम्बोरी (अहमदनगर) वाघली चाँदा (अहमदनगर) १६७४ म्हासा २००१ जालना (निजाम) वेलवंडी २००२ अमरावती (बरार) १६७६ आलकुटी बोदवड़ (खानदेश) १९७७ अहमदनगर बेलापुर रोड पाथर्डी चिंचोड़ी (अहमदनगर) १६७६ कलम (निजाम) ब्यावर (राजस्थान) १९८० अहमदनगर २००७ उदयपुर (मेवाड़) करमाला (शोलापुर) भीलवाड़ा (राजस्थान) १९८२ चाँदा (अहमदनगर २००६ नाथद्वारा (मेवाड़) १९८३ भुसावल (खानदेश) २०१० जोधपुर (मारवाड़) १९८४ हिंगनघाट (वर्धा) २०११ बड़ी सादड़ी (मेवाड़) १९८५ नागपुर बदनोर (मेवाड़) १९८६ अमरावती (बरार) २०१३ प्रतापगढ़ (मालवा) १६८७ चान्दूर बाजार शुजालपुर (मध्यप्रदेश) १९८८ बोदवड़ (खानदेश) पाथर्डी (अहमदनगर) १६८९ प्रतापगढ़ (मालवा) २०१६ बेलापुर-श्रीरामपुर १६३० मन्दसोर (मालवा) २०१७ बाम्बोरी १९६१ पाथर्डी (अहमदनगर) २०१८ आश्वी (अहमदनगर) १९६२ पूना-खड़की २०१६ बम्बई (घाटकोपर) १६६३ घोड़नदी (पूना) २०२० शाजापुर (मध्यप्रदेश) १९९४ बम्बई (कादावाड़ी) ५१ २०२१ जयपुर (राजस्थान) १९६५ बम्बई (घाटकोपर) ५२ . २०२२ दिल्ली (चांदनी चोक) पनवेल (कुलाबा) ५३ २०२३ लुधियाना (पंजाब) १९६७ अहमदनगर ५४ २०२४ जम्मू-तवी (कश्मीर) २००५ Porr mmmmmmmmmmms २००८ TWINTA ०२१२ I UN आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवभि श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्द Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रवर आभाचार्यप्रवभि आनन्न् श्रीआनन्दा ग्रन्थ आचार्यप्रवर श्री आनन्द ऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व Xxx Gax IAN २०२५ मालेरकोटला (पंजाब) ५८ २०२८ कुशालपुरा (आनन्दनगर देहली (सब्जी मंडी) मारवाड़) ५७ २०२७ बड़ौत (उत्तर प्रदेश) ५६ २०२६ सुजालपुर (म० प्र०) ६० ३०३० नागपुर (विदर्भ) चातुर्मासों की इस तालिका से पाठकगण सहज ही समझ सकते हैं कि हमारे आचार्य सम्राट ने अनेकानेक कठिनाइयों का सामना करते हुए जनहित की भावना से सुदुर प्रान्तों में विहरण किया तथा अपनी अमृतमय वाणी की वर्षा से भव्य जनों के संतप्त हृदयों को शीतलता प्रदान की। ऐसे महामानवों की छत्रछाया चिरकाल संघ पर बनी रहे। यही जन-जन की हार्दिक कामना है। U तुम सलामत रहो हजार वर्ष ! 0 राजेन्द्रमुनि शास्त्री, काव्यतीर्थ [जैन आगम व दर्शन के विशेष अभ्यासी] चार्य प्रवर की महत्ता, व गौरव गरिमा को आलोकित करने के लिए मेरी छोटी सी मशाल की आवश्यकता नहीं है, न मैं उन महान्-भाग्यशालियों में से हूँ जो साधिकार कह सकूँ कि मैं उन्हें अच्छी तरह से जानता हूँ, हाँ मैंने उनके दर्शन सर्वप्रथम सन् १९६४ में रायला गाँव में किये थे, जहाँ मैं अपनी माता राजवैद्या धायकुंवर दोषी के साथ रहता था। आपश्री वहाँ पर कपास फैक्टरी में ठहरे थे। उसके पश्चात् अजमेर शिखर सम्मेलन में भी मैं माता जी के साथ दर्शन के लिए गया था। मैंने सन् १९६५ में पूज्य गुरुदेव राजस्थानकेसरी पुष्कर मुनि जी महाराज के पास दीक्षा ग्रहण की। दर्शन की उत्कट कामना होने पर भी विभिन्न दिशाओं में विहार होने से आपश्री के दर्शन न हो सके । पूज्य गुरुदेव के साथ बम्बई से उग्र विहार कर सन् १९७२ में हम साण्डेराव सम्मेलन में पहुँचे । वहाँ पर आपश्री पधारे, आपश्री के दर्शनों का सौभाग्य मिला । आपश्री के दर्शन कर मुझे असीम आनन्द की अनुभूति हुई। मैंने अनुभव किया-आचार्यश्री बालक मुनियों के साथ बातचीत करने में नहीं कतराते हैं, उन्होंने मेरे से पूछा-कहाँ तक अध्ययन किया है ? मैंने सकुचाते हुए कहा 'काव्यतीर्थ', भारतीय विद्या भवन की तथा पाथर्डी की शास्त्री परीक्षाएँ दी हैं, और इस समय 'साहित्यरत्न' का अध्ययन कर रहा है, तो उन्होंने सिर पर हाथ फेरते हुये कहा-खूब अध्ययन करो, अध्ययन से जीवन चमकेगा, विचारों में निखार आयेगा। मुझे लगा आचार्य श्री वस्तुतः एक ज्योति-स्तम्भ हैं। महान वही है जो छोटों से भी प्यार करता है। मेरी हार्दिक कामना है। "तुम सलामत रहो हजार वर्ष ! हर वर्ष के दिन हों पचास हजार !!" Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्द अभिनन्दन प्रवर्तक मरुधरकेशरी मुनि श्री मिश्रीमल जी महाराज [ आशु कवि, ओजस्वी प्रवक्ता, अनेक उच्च संस्थाओं के संप्रेरक तथा प्रभावशाली वयोवृद्ध संत ] ✩ कुण्डलियाँ [१] दया धर्म दीपक हगन, लवजी ऋषी प्रधान । तस पट्टानुपट्टधर - ऋषी त्रिलोक महान । ऋषी त्रिलोक महान, ज्ञान दर्शन को दरियो । कवि रवि के जोड़, नाम पुहवी में करियो । चरणादिक भूषित गुणी, आतम नाम बना गया। उसके शिष रत्नेस पै, भारति भल कीनी दया || कवित्त [२] हेरियों हजारों चख, देश और विदेश बीच, पैन कहीं दीठ पड़यो, वाणी विलखायगी । रत्न के करन शिष्य, अनेकों उपाय सोचे, योग्यता के शून्य जानी, माता मुरझायगी । महा माया महाराष्ट्र, चिंचोड़ी प्रख्यात पौंची आनन्द आनन भाली, खुशियाली छायगी । देविचन्द नन्दन औ, आनन्द अविंद अहा ! आरामात श्री ब्रह्मसुता अली, वन मंढ़रायगी । [३] उदित मुदित भाग, जाग उठे भानू सम रत्न के अमोल जन- जन मन तन देखी हुलसायगे । रत्न, वैन अँन वारे सुण आनन्द हिया में अति, आनन्द बढ़ायगे । छोर दई दुनि मुनि, गुनि वनि अग्र आयो रतन चरण शुभ, ताहि पै लुभायगे । भाषायें अनेक पढ़ी, ज्ञान को शौकीन बन त्याग और वैराग वारो, कलश चढ़ायगे । अभिन्दन आज आमदन आनन्द Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रदभन्द श्री आनन्द 382448 ३८ आचार्य प्रहर आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि: व्यक्तित्व एवं कृतित्व ग्रन्थर [ ४ ] द्वीप बानिधि चन्द्र, जनम जसा से लीध दूध को दीपाय दियो, सित्तर उन्नीस में । भागवती जैन दीक्षा, शिक्षा युत धार कर पाय गये परीक्षा में, नम्बर इक्कीस में । मधुर गिरा पैं अति, मुदित मानव वृन्द राजा महाराजा नाम को अंकित कियो, सरस कवीश में । सेठ, अनेकों विवुध आय प्रेम से प्रेरित होय, नमत सुरीश में ॥ [ ५ ] प्रथम गणीश निज, गच्छ में बने हैं आप पुनि षट पट बीच, महान गणीश में । वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमणों में भये हैं प्रधान मन्त्री, तन्त्री के सूरीश में । अजमीड़ गढ़ मध्य, संघ के सम्राट बने हिज होलीनेस हद बने हैं बुध्धीश में । जयवन्त रहो लहो जस, सारे विश्व मांझ बुध शिष्य मिश्री भणे, वचन अशीश में || कुण्डलियाँ [६] लता दया लवजी ऋषी, रोपी जैन समाज । सींची ऋषी त्रिलोक सी, रत्न जमायो साज । रत्न जमायो साज, आज आनन्द वर्षायो । सुज्ञ जनों ने एह, सुर तरु मन भायो । श्रमण संघ में जो फूले फले अहा यह मिले, भाग्य सराऊ मैं कित्ता । चौगुणी, संघ संगठन की लत्ता ॥ [ ७ ] आनन्द चहै आखी दुनि, आनन्द जीवन सार । आनन्द विन नर सुर पशु बन जाते बेकार | वन जाते बेकार, फेरे सब माला मन से । दान पुन्य सव करें, मिले आनन्द जो जिनसे । जिन शिव ही बुध राम का, प्रेम से करते वंदन । याते हम भी करे ऋषी, अभिनन्दन || आनन्द Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री देवेन्द्रमुनि, शास्त्री साहित्यरत्न [ चिन्तनशील गद्यकार, अनेक शोध ग्रन्थों के विशिष्ट लेखक ] दीप्तिमान निर्मल गेहुंआ वर्ण, दार्शनिक मुखमण्डल पर चमकती दमकती हुई निश्छल स्मितरेखा, उत्फुल्ल नील कमल के समान मुस्कराती हुई स्नेह - स्निग्ध निर्मल आँखें, स्वर्ण-पत्र के समान दमकता हुआ सर्वतोभद्र भव्य ललाट, कर्मयोग की प्रतिमूर्ति के सदृश सुगठित शरीर, यह है हमारे परमाराध्य आचार्य प्रवर का बाह्य व्यक्तित्व । जिसे लोग युगप्रवर्तक आचार्य आनन्दऋषि जी महाराज के नाम से जानते हैं, पहचानते हैं । विविध विशेषताओं के संगम प्राचार्यप्रवर श्री आनन्दर्षि O वे बाहर से जितने सुन्दर हैं, नयनाभिराम हैं, उससे भी अधिक अन्दर से मनोभिराम हैं । उनकी मञ्जुल मुखाकृति पर निष्कपट विचारकता की भव्य आभा झलकती है और उनकी उदार आँखों के भीतर से बालक के समान सरल सहज स्नेह सुधा छलकती है। जब भी देखिए वार्तालाप में सरस शालीनता के दर्शन होते हैं । हृदय की उच्छल संवेदनशीलता एवं उदात्त उदारता दिखाई देती है जो दर्शक के मन और मस्तिष्क को एक साथ प्रभावित करती है और कुछ क्षणों में ही जीवन की महान दूरी को समाप्त कर सहज स्नेह सूत्र में बाँध देती है । प्रथमदर्शन महास्थविर श्री ताराचन्द जी महाराज और श्रद्धेय गुरुदेव राजस्थानकेसरी प्रसिद्धवक्ता पुष्कर मुनि जी महाराज के साथ सन् १९४७-४८ की महाराष्ट्र की यात्रा में मैंने आपश्री की यशोगाथा, कीर्ति, प्रतिष्ठा आदि बहुत कुछ सुनी थी, किन्तु उस समय महाराष्ट्र में मुझे आपश्री के दर्शनों का सौभाग्य नहीं मिल सका था । सन् १६५० में राजस्थान के पदराड़ा गाँव में आपश्री के दर्शनों का अवसर मिला था । प्रथम दर्शन में ही नेत्रों को परितृप्ति का अनुभव हुआ। उसके पश्चात् सादड़ी, सोजत, अजमेर, साण्डेराव आदि सन्त-सम्मेलनों में साथ में रहने का अवसर मिला । जीवन को निकट से परखने का समय मिला, जिस श्रद्धांकुर का बीजारोपण पदराड़ा में हुआ था, वह दिन-अनुदिन पल्लवित और पुष्पित हो रहा है । आचार्यप्रवर की महती कृपा मुझ पर है । मैंने अनुभव स्वर्णगरुड आचार्य प्रवर के सम्बन्ध में लिखने की मुझे प्रेरणा दी गई। मुझे ऐसा अनुभव होने लगा कि किसी कीट पतंग को स्वर्णगरुड के विषय में अपना अनुभव व्यक्त करने को कहा गया हो । आचार्य श्री विश्व रूपी आकाश के स्वर्णगरुड हैं। उनका निर्भीक साहस, उनकी पारदर्शक दृष्टि, उनका ज्वलंत त्याग आदि ऐसे गुण हैं जिनके कारण उनका समाज में प्रभाव है और प्रतिष्ठा का उच्चतम स्थान है । विशेषताओं का संगम किया है-आचार्य प्रवर का जीवन अनेक विशेषताओं का संगम स्थल है । उनका आसनावरून अमर आभान आमद www. హోల 疏 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयायप्रवास अभिवेदन आआनन्दन ग्रन्थ आयाम प्रवर अभिनंदन आचार्य प्रवर श्री आनन्द ऋषि: व्यक्तित्व एवं कृतित्व ४० फ्र आकर्षण व्यक्तित्व असाधारण है। उनके कमनीय कर्तृत्व ने उनके व्यक्तित्व को निखारा है। साधना के प्रथम चरण में ही उनकी प्रगति का अध्याय प्रारम्भ हुआ, प्रतिकूल परिस्थितियों ने उनकी प्रगति में बाधा बनने का प्रयास किया । किन्तु गंगा के निर्मल प्रवाह की तरह वे निर्बाध गति से आगे बढ़ते गये | वट वृक्ष की भांति उनका व्यक्तित्व सदा विस्तार पाता गया। उनकी वरिष्ठ योग्यता का ही यह ज्वलन्त प्रमाण है कि वे सर्वप्रथम ऋषि सम्प्रदाय के आचार्य बने, फिर पांच सम्प्रदाय के प्रधानाचार्य बने फिर धमण संघ के प्रधान मन्त्री, उपाध्याय एवं आचार्य बने । ओजस्वी आचार्य आप श्रमण संघ के एक ओजस्वी और तेजस्वी आचार्य हैं। आपका जीवन एक सच्चे सन्त का जोवन है। जिस किसी ने भी आपको निकट से देखा है, उसके मन में आपके प्रति श्रद्धा और प्रेम बढ़ा है। आपश्री की प्रगाढ़ विद्वत्ता, अदम्य साहस, उत्तम कर्तव्यनिष्ठा, अद्वितीय अद्भुत त्याग, निस्सीम कर्मठता, स्नेह और संगठन की निर्मल भावना को देखकर कौन मुग्ध नहीं हुआ? प्रलोभनों ने आपको कभी भी विचलित नहीं किया । सत्ता दासी होकर आई है। अधिकार प्राप्त करके भी आप श्री उसी प्रकार निर्लेप हैं जैसे जल में कमल । आत्मविश्वास के धनी 1 प्रसित है। भारत के मुर्धन्य चिकित्सकों आत्मविश्वास अचिन्त्य शक्ति का अक्षय कोष है। उसमें अमंगल को मंगल के रूप में परिणत कर देने की अद्भुत क्षमता है । महान् वह बनता है जो आत्मविश्वास का धनी है। श्रद्धेय आचार्य श्री का आत्म विश्वास गजब का है शरीर अनेक व्याधियों से की राय है कि आप विहार न करें, शारीरिक विशेष श्रम न करें, पर आपश्री ने अपने आत्मविश्वास के बल पर जन-जन के मन में स्वाग-निष्ठा, संयम प्रतिष्ठा और शुद्ध जैनत्व का सन्देश देने के लिए हजारों मील की यात्रा की है। चिकित्सक आपश्री के आत्म-विश्वास को देखकर चकित हैं। आपकी सहिष्णुता बेजोड़ है। दीन मनोभावों को आपने कभी आदर नहीं दिया है। कठोरता और कोमलता का समन्वय 水 जीवन के सर्वाङ्गीण विकास के लिए कठोरता और कोमलता ये दोनों तत्त्व अपेक्षित हैं, अनिवार्य हैं। केवल कठोरता विकास के मार्ग में बाधक है और केवल कोमलता भी उसका सम्बल नहीं हो सकती, मात्रा के औचित्य से ही दोनों की फलवत्ता है। आचार्य श्री के जीवन की आलोचना करते हुए कुछ आलोचक कहा करते हैं कि आचार्य श्री आवश्यकता से अधिक कोमल हैं, वे किसी पर भी अनुशासन नहीं कर सकते, आनन्द के शासन में जितना आनन्द लूटना चाहो लूट लो पर सत्य तथ्य यह है कि उनके जीवन में कठोरता और कोमलता का मधुर समन्वय है। उनका मानस जहाँ अनुशासन के क्षेत्र में वज्र से भी अधिक कठोर है तो श्रद्धान्वित बेता के लिए कुसुम से भी अधिक सुकुमार है। कोमलता को जो लोग उनका दूषण मानते हैं वे भूल-भरे हैं, कोमलता उनका दूपण नहीं अपितु भूषण है । वात्सल्य और अनुशासन आचार्य संघ के शास्ता होते हैं । प्रशासन उनका कार्य है। हजारों श्रमण और श्रमणियों को और लाखों धावक एवं धाविकाओं को उन्हें मार्गदर्शन देना होता है। उनका प्रशासक भाव जिस समय वात्सल्य से भावित होकर संघ के सदस्यों को अपने कर्तव्यों की ओर अग्रसर करने के लिए उत्प्रेरित करता है, उस समय अनुशासन, अनुशासन न रहकर आत्मधर्म बन जाता, उसमें सहजता और आत्मीयता आ जाती है । वह अनुशासन बाहर से थोपा हुआ नहीं, अपितु आत्मगत होता है। श्रद्धेय आचार्यश्री इस Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध विशेषताओं के संगम : आचार्यप्रवर श्री आनन्दषि ४१ प्रकार के प्रयोग सदैव करते रहते हैं। उन्होंने संघीय अनुशासन को हमेशा प्रधानता दी है। अनुशासन का उल्लंघन करना उन्हें बहुत ही अखरता है और वे अनुशासनात्मक कार्रवाई भी करते हैं, उसके पश्चात् उनका हृदय वात्सल्य से छलछलाने लगता है, जिससे उनका कठोर अनुशासन भी किसी को कठोर प्रतीत नहीं होता। मैंने स्वयं साण्डेराव सन्त सम्मेलन में अनुभव किया है कि किसी ने अनुशासन का भंग किया तो आपश्री ने उसे कठोर दण्ड प्रदान किया, आपश्री का उग्र रूप देखकर वह भय से काँप उठा, पर दुसरे ही क्षण उगे प्रेम से पुचकारते हुए कहा, देखो भविष्य में इस प्रकार का कार्य न करना । विवादों से दूर आचार्यश्री को वाद-विवाद पसन्द नहीं है। उनका यह स्पष्ट अभिमत है कि वाद-विवाद से तत्त्ववोध नहीं अपितु कषाय की अभिवृद्धि होती है। यह शक्ति का अपव्यय है, निरर्थक शक्ति का दुरुपयोग करना बुद्धिमानी नहीं है। मुझे स्मरण है कि अजमेर शिखर सम्मेलन के अवसर पर एक व्यक्ति आप थी के पास आया और कहा-मैं आपसे शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ। आचार्य श्री ने मुस्कराते हुए पूछा-किसलिए? उसने कहा--मैं आपको पराजित कर यह उद्घोषणा करूँगा कि श्रमण संघ के आचार्य मेरे जैसे से हार गये। आचार्य श्री ने उसी प्रकार मुस्कराते हुए पूछा, उससे तुम्हें को क्या लाभ होगा? उसने कहा-इससे मेरा सम्पूर्ण समाज में यश फैलेगा। आचार्य श्री ने कहा तो फिर तुम यह मान लो, मैं हारा और तुम जीते। आगन्तुक आचार्य श्री के चरणों में गिर पड़ा और कहने लगा कि आपश्री ने तो बिना शास्त्रार्थ किये ही मुझे पराजित कर दिया। ध्यानी और स्वाध्यायी जैन-संस्कृति तपोमूलक रही है। यदि यह कह दिया जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मुहम्मद ने अपने भक्तों को नमाज प्रदान की, ईसा ने प्रार्थना दी, बुद्ध ने ध्यानमार्ग का उपदेश दिया, पतञ्जलि ने योग पर प्रकाश डाला तो भगवान महावीर ने तपोमार्ग का सन्देश दिया। भगवान महावीर ने स्वयं उग्र तप की साधना की और अपने अनुयायी वर्ग को भी उस पर बढ़ने के लिए उत्प्रेरित किया। तप के द्वादश प्रकार में स्वाध्याय और ध्यान का भी स्थान है। मैंने आचार्य प्रवर के जीवन को गहराई से देखा है। मुझे अनुभव हुआ है कि आचार्य प्रवर के जीवन में ध्यान और स्वाध्याय साकार हो उठे हैं। रात्रि के एकान्त शान्त क्षणों में जब सभी सोये हुए होते हैं तब आपश्री ध्यान में तल्लीन होते हैं। मैंने आपश्री के चरणों में जिज्ञासा प्रस्तुत की तो बताया कि ध्यान आत्मा की एक महान शक्ति है, ध्यान के अभाव में ध्येय की पूर्ति कदापि सम्भव नहीं है। ध्याता ध्यान से ध्येय रूप बन जाता है । ध्यान चेतना की वह निर्मल अवस्था है, जहाँ सम्पूर्ण अनुभूतियाँ एक ही अनुभूति में विलीन हो जाती हैं, विचारों में सामंजस्य आ जाता है, परिधियाँ समाप्त हो जाती हैं। जीवन और स्वतन्त्रता की प्रस्तुत अनुभूति में ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रहता।। इस कथन से सहज ही परिज्ञात होता है कि आपधी की ध्यान के प्रति कितनी गहरी निष्ठा है। ध्यान के समान स्वाध्याय भी आपश्री के जीवन का आवश्यक अंग है। आपश्री ने आगम, त्रिपिटक और वैदिक साहित्य का गहराई से अनुशीलन और परिशीलन किया है। हजारों गाथाएँ, श्लोक, अभंग, सुक्तियाँ, स्तोत्र आपश्री को कंठस्थ हैं। आपश्री स्वाध्याय करने में इतने तल्लीन हो जाते हैं कि उस समय आपश्री को कुछ भी ध्यान नहीं रहता। आहार आने पर आपश्री आहार करने के लिए नहीं आचार्यप्रव233 आचार्यप्रवास अभि श्रीआनन्दग्रन्थ श्राआनन्दान्य५१ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्द अन्थ WHAT ६६३ ४२ आचार्य प्रव न्दि आचार्य प्रवर श्री आनन्द ऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व बैठते पर पहले स्वाध्याय और ध्यान करते हैं। आपश्री फरमाते हैं कि पहले भजन और फिर भोजन । अभ जीवन और शिक्षा जीवन का शिक्षा के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । जीवन शरीर है तो शिक्षा उसका प्राण है । शिक्षा के अभाव में जीवन का कुछ भी मूल्य नहीं है । शिक्षा से ही जीवन में अभिनव चमक और दमक आती है । आचार्यश्री समय-समय पर शिक्षा पर बल देते हैं। आपश्री ने प्रबल प्रेरणा देकर शताधिक स्थानों पर पाठशालाएँ और स्कूल व छात्रावास खुलवाये हैं । श्री तिलोक रत्न स्थानकवासी जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड आपश्री की ही कल्पना का मूर्त रूप है, जिसमें भारत के एक छोर से द्वितीय छोर तक हजारों विद्यार्थी, सन्त व सतीगण बैठती हैं, प्रवेशिका से लेकर आचार्य तक अध्ययन होता है । आपश्री का अभिमत है कि जीवन को संस्कारी, विचारी और आचारी बनाने के लिए शिक्षा से बढ़कर अन्य कोई उपाय नहीं है । आज स्वतन्त्र भारत के समक्ष दो समस्या हैं - शिक्षा और रक्षा । रक्षा की समस्या का समाधान तो दस बीस लाख सैनिक कर सकते हैं पर अज्ञानान्धकार को मिटाने के लिए सभी को शिक्षित बनना आवश्यक है। शिक्षा केवल व्यावहारिक ही नहीं अपितु आध्यात्मिक मी होनी चाहिए | सदाचार और निर्मल जीवन ही सच्ची शिक्षा का आधार है । प्राकृतभाषा के प्रेमी आज पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौंध में मानव अपनी संस्कृति, सभ्यता, और भाषा को भी भूलता चला जा रहा है । यही कारण है कि वह प्राचीन महापुरुषों की मौलिक विचार - निधि से वंचित हो रहा है और असहाय की भांति इधर-उधर भटक रहा है। आपश्री का अभिमत है कि संस्कृति की आत्मा साहित्य के भीतर से अपने असीम सौन्दर्य को अभिव्यक्त करती है। साहित्य सामाजिक भावना, क्रान्तिकारी विचार एवं जीवन के विभिन्न उत्थान और पतन की विशुद्ध अभिव्यंजना है। वह समाज के यथार्थ स्वरूप को अवगत कराने वाला दर्पण है और संस्कृति का प्रधान वाहन है । वह सार्वदेशिक और सार्वकालिक 'सत्यं शिवं और सुन्दरम्' को व्यक्त करता है और गहन समस्याओं का समाधान करता है। प्राकृत साहित्य भारत की अनमोल निधि है । उसमें आध्यात्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभृति जीवन की समस्त भावनाएँ अभिव्यंजित हुई हैं। भगवान महावीर एवं तथागत बुद्ध ने इसी भाषा में उपदेश प्रदान किया है। सम्राट अशोक ने शिला लेख और स्तम्भ लेखों को इसी भाषा में उत्कीर्ण कराया है । खारवेल का हाथी गुफा लेख भी प्राकृत में ही है। हजारों ग्रन्थ इस इसलिए इस भाषा का अध्ययन आवश्यक ही नही अपितु अनिवार्य होना चाहिए। व्यक्तियों को इस भाषा का गम्भीर अध्ययन करने के लिए प्रेरणा प्रदान की है। संगठन के प्रबल समर्थक भाषा में निर्मित हैं, आपश्री ने शताधिक आचार्य श्री जीवन के अरुणोदय से ही संगठन के प्रबल समर्थक रहे हैं। आपश्री के स्पष्ट विचार रहे हैं कि 'संगठन जीवन है और विघटन मृत्यु है।' जैन समाज की बिखरी हुई शक्तियों को देखकर आपश्री के मन में अपार वेदना होती है और हृदय की वेदना वाणी के द्वारा अनेक बार मुखरित हुई है। मैंने स्वयं देखा है सादड़ी, सोजत, अजमेर व साण्डेराव सन्त-सम्मेलनों में आपश्री ने जो मानसिक व बौद्धिक श्रम किया है, वह किसी से भी छिपा नहीं है । इस समय भी आप सम्पूर्ण जैन समाज की एकता के लिए अथक परिश्रम कर रहे हैं । वाणी के जादूगर बोलना एक कला है और कलाओं में उसका प्रथम स्थान है। आचार्यश्री की वाणी में जादू है, जो श्रोताओं के दिल को भी लुभा लेती है, मन को मोह लेती है । आपश्री की जादू भरी वाणी से साधारण Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध विशेषताओं के संगम : आचार्यप्रवर श्री आनन्दषि ४३ व्यक्ति ही नहीं किन्तु देश के चोटी के विद्वान और नेतागण भी प्रभावित हुए हैं। आपकी वाणी में मृदुता, मधुरता और सहज सुन्दरता है। भावों की लड़ी, भाषा की झड़ी और तर्कों की कड़ी का ऐसा मधुर समन्वय होता है कि श्रोता झूम उठता है । आपका प्रवचन मधुर ही नहीं, अति मधुर होता है । आपश्री के प्रवचन की तुलना महात्मा गांधी के प्रवचन से सहज रूप से कर सकते हैं । कलामय जीवन आचार्यश्री का जीवन कलामय है । वे कला को जीवन के लिए मानते हैं, वे लघु-से लघु कार्य को और बड़े-से-बड़े कार्य को लालित्य और माधुर्य से परिपूर्ण करना चाहते हैं । साधारण-से- साधारण कार्य को भी पूर्ण मनोयोग से करना चाहते हैं । आपश्री का मन्तव्य है कि जो कला आत्मा को आत्मदर्शन करने की प्रबल प्रेरणा नहीं देती, वह कला नहीं, अकला है। कला की कसौटी सौन्दर्य है । जो सुन्दर नहीं है, हितकर नहीं है, वह कला नहीं है, और धर्म भी नहीं है । बहु भाषाविद भाषा की दृष्टि से आचार्यश्री का परिज्ञान बहुविध और बहुव्यापी है । संस्कृत, प्राकृत आदि प्राचीन भाषाओं पर उनका पूर्ण अधिकार है। हिन्दी, गुजराती, मराठी और राजस्थानी भाषा में धाराप्रवाह से प्रवचन कर सकते हैं, लिख सकते हैं। मराठी आपश्री की मातृभाषा है । सन्त तुकाराम के अभंगों को और अन्य मराठी सन्तों के भजनों को आप बड़ी तन्मयता के साथ गाते हैं । महापुरुष त्याग और मनस्विता, आदर्श चिन्तन और पुरुषार्थमय जीवन, उदार वृत्ति और सत्य पर दृढ़ रहने का आग्रह, प्रेम-पेशल हृदय और निर्भय कर्तव्यनिष्ठा, सबके प्रति आदर भाव और सप्रयोजन विरोध करने की क्षमता, विनम्रता और सैद्धान्तिक अकड़ एक साथ नहीं रह पाती । जहाँ रहती है वह मानव नहीं महामानव है । आचार्यश्री के जीवन में इनका अद्भुत मिलन हुआ है, इसलिए वे साधारण पुरुष नहीं, महापुरुष हैं । अभिनन्दन अमृतपुत्र आचार्य प्रवर का एक विराट् काय अभिनन्दनग्रन्थ प्रकाशित होना चाहिए, यह मेरी हार्दिक उत्कष्ट अभिलाषा थी, मैंने अनेकों बार डाकलियाजी, पं० बद्रीनारायणजी शुक्ल और स्नेह सौजन्यमूर्ति कुन्दन ऋषिजी को प्रेरणा दी, जो कार्य आज से वर्षों पूर्व होना चाहिए वह कार्य आज हो रहा है, देर अवश्य हुई है पर अन्धेर नहीं हुआ, यह प्रसन्नता है। श्रद्धा, स्नेह, सम्मान आदि भाव व्यक्त करना ही उनका अभिनन्दन करना है। मैं मानता हूँ कि आचार्यप्रवर का यह अभिनन्दन उनके सद्गुणों का अभिनन्दन है, उन्होंने सुदीर्घकाल तक जो समाज की सेवा की है, मार्गदर्शन दिया है, उसी का यह प्रतिफल है । मंगल कामना आचार्यप्रवर सुदीर्घकाल तक स्वस्थ और प्रसन्न रहकर हम सभी का कुशल नेतृत्व करते रहें । समाज को ज्ञान, दर्शन और चारित्र की दृष्टि से निरन्तर आगे बढ़ाते रहें, मैं अपनी असीम श्रद्धा के साथ शत-शत मंगल कामनाएँ अर्पित करता हुआ गौरव का अनुभव करता हूँ । आचार्य प्रव ह マメ श Calaja acal अन्य देव श्री आनन्द अन श Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राआनन्द श्राआनन्द अमदन wrwww . mmm ... .. ." 0 प्रवर्तक मुनि श्री फूलचन्द्र जी 'श्रमण' [जैन आगमों एवं प्राकृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान्, तत्वचिन्तक, भारतीय दर्शन के गहन अध्येता] आगमों में आचार्य का स्वरूप और उसके प्रतीक आचार्य श्री आनन्द ऋषि DURBA NAL यदि स्वीकृत संकीर्ण आग्रहों को छोड़कर देखा जाय तो जैनसंस्कृति की विराट सत्ता के समक्ष अनायास ही मस्तक झुक जाते हैं, क्योंकि इसकी मान्यताएं सर्वदा ससीम से असीम की ओर उन्मुख रही हैं, इसके समस्त स्वर व्यष्टि की परिधियों से मुक्त होकर समष्टि की आराधना करते रहे हैं। पञ्चपरमेष्ठी नमस्कार इसका साक्षी है। इस महामन्त्र के द्वारा दैवी भावनाओं की ओर यात्रा करने वाला साधक अपने महापथ की मङ्गलमयता के लिये सर्वप्रथम उनको नमस्कार करता है जिन्होंने त्याज्य को त्याग दिया है और संसार की दृष्टि में साधना-पथ पर जो अजेय है, उसे जीत लिया है। वह 'नमो अरिहन्ताणं' कह कर उनके प्रति अपनी अहंता को समर्पित कर त्याग और विजय का भाव ग्रहण करता है। दूसरे नमस्कार में वह और भी ऊँचा उठ जाता है, तब वह उन्हें नमस्कार करता है जिन्होंने प्राप्तव्य को प्राप्त कर लिया है, जिनके लिये कुछ भी कर्तव्य शेष नहीं रहा, जो पूर्णकाम हो चुके हैं, सिद्ध, बुद्ध और आनन्द-स्वरूप हो चुके हैं, उन्हीं के समक्ष नत-मस्तक जैन साधक की वाणी 'नमो सिद्धाणं' कहकर आत्म-समर्पण करती है। इन दो नमस्कृतियों के द्वारा लोकोत्तर महापुरुषों का पुण्यस्मरण करके अब वह लोक-यात्रा की पावनता के लिये प्रस्तुत होता है, वह उनकी चरण-शरण ग्रहण करता है जिनसे वह लोकोत्तर भूमियों की यात्रा करने की शक्ति एवं विधि प्राप्त कर सकता है। उनमें सर्वप्रथम वह उन्हें नमस्कार करता है, जिन्होंने लोकोत्तर महापुरुषों की वाणी के मर्म को समझा है, साथ ही अपनी आध्यात्मिक शक्तियों के द्वारा आचरणीय साधना का उनसे भी आचरण करवाया है जो इस पुण्य भावना को लेकर उनकी शरण में आए हैं, ऐसे ही जो अरिहन्त तो नहीं, परन्तु अरिहन्तत्व की प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील हैं उन्हींके समक्ष जैनसाधक 'नमो आयरियाणं' कहकर नमस्कार करता हुआ अपने आपको उनके चरणों में समर्पित करता है। आचार्य को नमस्कार करके जैन साधक 'नमो उवज्झायाण' कहकर उन वन्दनीय चरणों में भी नमस्कार करता है जो ज्ञान-रश्मियों को सर्वत्र प्रसारित करते रहते हैं और 'नमो लोए सव्वसाहूणं' के पावन स्वरों में वह उन समस्त जितेन्द्रिय, त्यागी एवं साधनाशील महापुरुषों के समक्ष भी नत-मस्तक हो जाता है, जिनका जीवन उसके लिये साधना-पथ का आदर्श है। अरिहन्त, सिद्ध, उपाध्याय एवं साधु-समूह के मध्य में जिस महाशक्ति के दर्शन किए गए हैं, वह 'आचार्य' है। आचार्य का दायित्व अत्यन्त कठिन है, क्योंकि उसे चलना भी पड़ता है और चलाना भी पड़ता है, वह स्वयं ऊपर उठ रहा होता है, परन्तु वह उन्हें भी ऊपर उठाना नहीं भूलता है जो उसकी मङ्गलमयी शरण में आए हैं ऊपर उठने की महती आशा लेकर। अतः उसे दोहरे दायित्व का निर्वाह . Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री आनन्द ऋषि ४५ करना पड़ता है । उसके इसी दायित्व को देखते हुए उसके लिये 'आचार्य' शब्द का प्रयोग किया गया है । क्योंकि आचार्य शब्द का अर्थ है जो जिनोपदिष्ट आध्यात्मिक मर्यादाओं के अनुकूल चलता है । 1 जिसने आचार के अनुरूप अपने को ढाला है । २ और आध्यात्मिक तालों की कुंजियाँ पाने के लिये साधक जिसका अनुकरण करते हैं | 3 मननशील मुनीश्वरों ने आचार्य के विशेष दायित्वों का संकेत करते हुए कहा हैसुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो, गच्छस्स मेढिभूओ य । गणतत्ति-विप्पगुक्को, अत्थं वाए ओ आयरियो | आचार्य सूत्र एवं सूत्रार्थ का वेत्ता हो, इस विशेषण में आचार्य की मति-सम्पदा सम्बन्धी उत्कृष्टता की अनिवार्यता घोषित की गई है । दशाश्रुत-स्कन्ध सूत्र में ( दशा - ४) वचन - सम्पदा, वाचना- सम्पदा, मति सम्पदा और प्रयोग-मति सम्पदा के रूप में आचार्य के बौद्धिक पक्ष का प्रत्येक पहलू प्रदर्शित किया, गया है । उसकी ये समस्त सम्पदाएँ 'सुत्तत्थविऊ' होने पर ही विकसित हो सकती हैं । यदि उसकी कुशाग्र ' बुद्धि ने समस्त आगमों को ग्रहण कर लिया है और उसके मर्म को समझ लिया है, उसी दशा में वह प्रतिदिन व्यवहार में आने वाले पदार्थ- ज्ञान के समान शास्त्र वचनों को ग्रहण कर सकता है, शास्त्र-वचनों के विशेष निर्देशों और इङ्गितों को समझ सकता है, शास्त्र-वचनों की सङ्गतियों के वैशिष्ट्य को जानकर उनके सम्बन्ध में निश्चयात्मक तथ्यों को व्यक्त कर सकता है और साथ ही महाज्ञानियों के ज्ञान के साथ उसकी बुद्धि तादात्म्य स्थापित कर लेती है, अतः उसकी ज्ञान शक्ति सद्यः स्फुरणशीला हो जाती है । मति-सम्पदा के इन्हीं क्रमिक स्तरों को अवग्रह, ईहा, अवाय, और धारणा कहा जाता है । ४ यदि आचार्य की ज्ञान-शक्ति उत्कृष्ट है, उसकी प्रतिभा सर्वदा वही सोचती है जो शास्त्रानुकूल है, सांस्कृतिक मर्यादाओं में आवद्ध है, तो उसका प्रत्येक वचन जन-मन के लिए ग्राह्य हो जाता है, जनता उसकी वचन शक्ति के समक्ष नत मस्तक हो जाती है, उसकी वचन मधुरता जन-मन के लिये आल्हादकारी बन जाती है, उसकी बौद्धिक परिपुष्टता के लिये वरदान बन जाती है, उसकी वाणी राग-द्वेष एवं स्वार्थ की सीमाओं को तोड़कर उन्मुक्त रूप से प्रवाहित हो उठती है, उसकी वाणी से निश्चय का आलोक प्रसारित होने लगता है, अनिश्चयात्मकता का अन्धकार उसकी वचन सम्पदा के समक्ष कभी आ ही नहीं सकता है । शास्त्रकार इसीलिये आचार्य को आदेय वचन, मधुर वचन, अनिश्रितवचन और असंदिग्ध वचन कहते हैं । आचार्य आचरण करता ही नहीं, आचरण करवाता भी ; वह ज्ञान- सम्पत्ति का अर्जन ही नहीं करता, उसका विसर्जन भी करता है; उसे योग्य व्यक्तियों को बाँटता भी है, परन्तु उसी दशा में जबकि वह स्वयं 'सुत्तत्थविऊ' हो । जिसके पास कुछ है, वही दातव्य और देने योग्य पात्र का विचार भी करेगा । जिसके पास कुछ है ही नहीं, वह देगा भी क्या ? जिसका अपना ज्ञान कोष पूर्ण हो चुका है, वह ज्ञान के वितरण की शैली पर भी विचार करेगा, उसकी विधि निर्धारित करेगा, उसे विचारपूर्वक योग्य व्यक्ति को ही बांटेगा, वह कभी कच्चे घड़े में पानी भरने की भूल नहीं करेगा, वह जिज्ञासाशीलों को उतना ही १ आ-मर्यादया चरति गच्छतीत्याचार्यः । २ आचारेण वा चरन्तीत्याचार्याः । - आवश्यक चूर्णि १-६६३ ३ आ-मर्यादया तद्विषय-विनयरूपया चर्यन्ते सेव्यन्ते जिनशासनार्थोपदेशकतया तदाकांक्षिभिः इत्याचार्यः । - आवश्यक चूर्णि टीका ४ उग्गह- मइ- सम्पया, ईहा मइ- सम्पया, अवाय मइ- सम्पया, धारणा - मइ- सम्पया । ५ आदेय - वयणे, यावि भवइ, महुर-वयणे यावि भवइ, अणिस्सिय-वयणे यावि भवइ, अविद्धवयणे यावि भवइ । - दशाश्रुत० ४/४ TECTOR अभिनन्दन श्री आनन्द अन्य 99 श्री आनन्दत्र ग्रन्थ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआनन्द प्राआनन्द मदन ४६ आचार्यप्रवर श्री आनन्द ऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व देगा जितना उनके लिए उपयुक्त होगा, जितने को वे अपने ज्ञान-कोष में संजोकर रख सकते होंगे और साथ ही वह अपने शिष्य-वर्ग को इस प्रकार उद्बुद्ध करेगा जिससे उनकी ज्ञान-धारा बहुमुखी होकर प्रवाहित हो सके।' आचार्य की बौद्धिक महत्ता के कुछ अन्य मापदण्ड भी निर्धारित किये गये हैं। आचार्य पर केवल अनुयायियों के मार्गदर्शन का दायित्व नहीं है, उसे तर्क का आश्रय लेकर सूझ-बूझ से परिपूर्ण वचनावली से, देशकाल एवं वातावरण के परिज्ञान पूर्वक अपनी ज्ञान-धारा में उन्हें भी स्नान कराना होता है जो भटके हुए हैं, जो प्रतिकूल साधना को आत्म-साधना समझने की भूल में उलझे हुए हैं, अतः आचार्य का यह दायित्व है कि वह जो कुछ कहे, जो कुछ बोले, वातावरण एवं श्रोताओं की वृत्तियों को समझकर बोले, उसका प्रत्येक वचन देश-विदेश की परिस्थितियों के अनुकूल हो और साथ ही उसकी प्रत्येक उक्तिप्रत्युक्ति श्रोता को परख कर कही गई हो। 'सुत्तत्थविऊ' विशेषण यह भी संकेत करता है कि आचार्य के लिए श्रुत-सम्पदा-सम्पन्न होना भी आवश्यक है। उसने सर्वज्ञ मुनीश्वरों द्वारा कहे गए 'सूत्रों' को अनेक दृष्टियों से समझा हो, उसके सम्बन्ध में अनेक तत्त्ववेत्ताओं के विचारों को जाना हो, अनेक सूत्रों को इस प्रकार समझा हो कि उसका जीवन सूत्रमय बन गया हो, उसके बौद्धिक आलोक के लिए कुछ भी ज्ञातव्य शेष न रह गया हो, सूत्रों के अन्तस्तल का स्पर्श करके जीवन और जगत की अद्भुत गहराइयों और विचित्र अनुभूतियों को जो व्यक्त कर रहा हो और साथ ही सूत्रोच्चारण के साथ-साथ ध्वनि-शास्त्र के अनुरूप उसके उच्चारण की विधियों से पूर्ण परिचित हो, वही जीवन-स्रष्टा मूनीश्वर आचार्यत्व के महान् दायित्व का पालन कर सकता है। मननशील महर्षि ने आचार्य की इसी अर्थवत्ता को समझते हुए ही उसे 'सूत्रार्थविद्' कहकर उसके महापद का समर्थ मूल्यांकन किया है। यहाँ एक और बात भी ध्यान देने योग्य है कि 'सूत्र' शब्द के दो अर्थ हैं, जो कुछ संक्षेप में कहा जाय वह भी सूत्र कहलाता है और एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंचने के साधनों को भी 'सूत्र' कहा जाता है। 'विश्वस्त सूत्र' शब्द सूत्र शब्द के इसी अर्थ की ओर संकेत कर रहा है। सूत्र के लिए हो 'श्रुत' । शब्द का भी प्रयोग किया गया है। तीर्थङ्कर देवों ने अपने युग में जो कुछ कहा वह संक्षेप में कहा-सूत्र रूप में कहा । तीर्थङ्करों ने कुछ भी लिखा नहीं, उनसे सूत्रों को सुना गया, अतः सूत्र ही श्रुत कहलाए। भावी सुदीर्घपरम्परा में होने वाले आचार्य स्वयं तीर्थङ्करों के मुख से सूत्रों का श्रवण नहीं कर सके, परन्तु अपनी व्युत्पन्न प्रतिभा के आधार पर वे ऐसे विश्वस्त सूत्र खोज लेते हैं जिनसे वे सूत्रों के उस मुल तक पहुंच जाते हैं जो तीर्थङ्करों के सम्यक् ज्ञान की भूमि में कहीं गहरे में अवस्थित हैं, ऐसी व्युत्पन्न प्रतिभा के धनी ही 'सूत्रविद्' कहलाते हैं। सूत्र के रूप में जो भी कहा गया है वह संक्षिप्त शब्दों में कहा गया है, अतः उसके वास्तविक अभिप्राय का बोधन, उसकी भावात्मक गहराइयों का चिन्तन और तीर्थङ्करों के आशय की सही पकड़ करने वाला प्रज्ञा-पुरुष ही 'अर्थविद्' है। अतः 'सूत्रार्थविद्' यह एक ही विशेषण आचार्यत्व की समस्त बौद्धिक योग्यताओं का सही मूल्यांकन है। ६ विजयं उहिसइ, विजयं वाएइ, परिनिवावियं बाएइ, अत्थ-निज्जावए यावि भवइ। -दशाश्रुत० ४।५ ७ आयं विदाय वायं पउंज्जित्ता भवइ, परिसंविदाय वयं पउंज्जित्ता भवइ, खेत्तं विदाय पउंज्जित्ता भवइ, वत्थुविदाय वायं पउंज्जित्ता भवइ ।। ८ बहुसुय यावि भवइ, परिचियसुय यावि भवइ, विचित्तसुय यावि भवइ, घोसविसुद्धिकारय भवइ । -दशा० ४।२ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री आनन्द ऋषि ४७ , लक्खणजुत्तो आचार्य के लिए दूसरा वैशिष्ट्य बताया गया है कि वह 'लक्षण-युक्त' हो–'लक्खणजुत्तो। यह लक्षण शब्द भी आचार्यत्व की विविध विशेषताओं को ध्वनित करने वाला है, परन्तु मेरी विचार-सरणी मुझे लक्षण शब्द को 'आचार्य की शरीर-सम्पदा, पर ही केन्द्रित कर रही है, अतः मैं लक्षण-युक्त का अर्थ 'शरीर-सम्पदा-सम्पन्न' मानते हुए आचार्य के इस वैशिष्ट्य का सामान्य सा विश्लेषण करना चाहता हूँ। सूत्र हो या अर्थ, आचार हो या विचार, सबका आरम्म शरीर से ही होता है। शरीर के बिना कुछ रह नहीं सकता । कुछ भी हो नहीं सकता । आचार्य के अन्तर का परीक्षण और उसकी प्रभावशीलता की परख शरीर ही बना सकता है । शरीर-शास्त्री शारीरिक आकृतियों के आधार पर ही जीवन के भूत, भविष्य और वर्तमान का अध्ययन कर लेते हैं। लम्बे कान मस्तिष्क शक्तियों के अनन्त विकास का परिचय देते हैं, हाथ के अंगुष्ठ-मूल का उभरा हआ भाग विलास-प्रियता का परिचायक होता है। खुरदरे एवं कठोर हाथ श्रमिक जीवन का संकेत करते हैं, इसीप्रकार अन्तर में जागृत क्रोध की लहर आँखों में लाली, भोंहों में तनाव, मस्तक पर आड़ी रेखाएँ, दाँतों में कड़कड़ाहट और हाथ-पैर की पटकन के रूप में व्यक्त हो उठती है। इस प्रकार शरीर से मनोवृत्तियों और मनोवृत्तियों से शरीर का अध्ययन होता है, अतः आचार्य के लिए उस व्यक्ति को उपयुक्त समझा गया है, जिसका शरीर न तो अधिक लम्बा हो और न ही अधिक ठिगना हो । आचार्य का शरीर युगानुरूप मर्यादा के अनुकूल लम्बाई एवं ऊँचाई वाला होना चाहिए। जब शरीर-अङ्ग विकृत होते हैं, बेडौल होते हैं, जब शरीर-त्वचा आवश्यकता से अधिक काली होती है, तो इस शरीर-सम्पदा के अभाव में आचार्य की प्रभावशीलता नष्ट हो जाती है। विकृत शरीर के सम्बन्ध में एक लोकोक्ति-जन्य तथ्य सामने आ रहा है सौ में शूर सहस में काना, सवालाख में ऐंचाताना । ऐंचाताना करे पुकार, मैं आया गंजा से हार । यह लोकोक्ति केवल नेत्र-विकृतियों से मनुष्य की हार्दिक विकृतियों के परिमाणों की अधिकता को व्यक्त कर रही है। अतः आचार्य का शरीर ऐसा हो जिसके कारण न तो वह स्वयं आत्महीनता, आत्मग्लानि एवं लोक-लज्जा का अनुभव कर रहा हो और न ही वह समाज लज्जित हो जिस समाज ने उसे आचार्यत्व प्रदान किया हो। आचार्य का शरीर सुसगठित हो अर्थात् उसके समस्त अवयव अनुपात में हों, अनुपात-हीन शरीर मानस-विकृतियों का द्योतक होता है। सुन्दर, कोमल, सुगठित गौर शरीर की भावनाएँ सुन्दर, परम्पराबद्ध एवं करुणा आदि कोमल भावनाओं से युक्त एवं शुद्ध होती हैं । महापुरुषों के शरीर इसीलिए कोमल होते हैं । गच्छस्स मेढिभूमो आचार्य के लिए 'गच्छस्समेढिभूओं' विशेषण देकर उसकी संगठन-शक्ति, अनुशासन-समर्थता एवं गण-प्रतिपालन की योग्यता की ओर संकेत किया गया है। खलिहान में बैल चलते हैं, मध्य में गड़े हुए खूटे की परिधि में । खूटा किसी को अपने से नहीं बाँधता, परन्तु किसान और बैल स्वयं ही खूटे से बँधे रहते हैं। मेढिभूत आचार्यत्व का निर्वाह भी वही कर सकता है जो किसी को बाँधे तो नहीं, परन्तु उसकी प्रभावशीलता के साथ स्वयं ही सब बंधते जायँ। खलिहान के खूटे के चारों ओर बैल चलते रहते हैं, किसान भी चलता रहता है, उनके पैरों से अनाज के दानों पर चढ़ा हुआ आवरण स्वयं ही हटता या है आरोह-परिणाह-संपन्ने यावि भवइ, अणोतप्पसरीरे यावि भवइ, थिरसंघयणे, बहपणिपूणिदिय यावि भवइ ।-दशाश्रुत० ४।३ साचारात्रिआयात्रा श्रीआनन्दाअन्ध५ श्रीआनन्दग्रन्थ Ly . Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "MNASAAN आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवर अभि श्रीआनन्दप ग्रन्थ श्रीआनन्दा अन्य ८ आचार्यप्रवर श्री आनन्द ऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व जाता है। आचार्य की शरण में रहने वाले भी साधना के पथ पर चलते रहते हैं और आत्मा के चारों ओर चढ़े हुए कषायों के आवरण को हटाते रहते हैं, आचार्य अपने अनुशासन में रहने वाले साधु-साध्वियों के लिए वर्षाकाल में उचित निवास की योजनाएँ तैयार करता है, उनके लिए शय्या आदि की व्यवस्था का निरीक्षण करता है, वह साधकों को समयानुरूप प्रतिबोध देता है, उनमें यथासमय साधना-संलीनता | को जागृत करता है और उन्हें बड़ों के प्रति विनय सम्मान एवं आदर का पाठ पढ़ाता है। इस प्रकार वह संघ का स्तम्भ बनकर उसे आश्रय देता है। आचार्य की इसी सम्पदा को शास्त्रकार 'संग्रह-परिज्ञा-नाम-सम्पद' कहते हैं। गणतत्तिविप्पमुक्को आचार्य के अन्य गौरवमय दायित्व की ओर संकेत करते हुए उसे 'गणतत्तिविप्पमुक्को' विशेषण दिया गया है, अर्थात् वह संघ की चिन्ताओं से मुक्त हो, यदि वह समर्थ अनुशासन वाला है तो संघ सम्बन्धी चिन्ताओं को जन्म लेने का अवसर ही न मिलेगा, चिन्ताएँ न होगी तभी तो वह चिन्ताओं से मुक्त रह सकेगा। साथ ही यह विशेषण कहता है कि आचार्य निर्लिप्त हो, संघ की समस्त व्यवस्थाओं को अनुशासित करता हुआ भी साक्षी भाव से रहता हो । यदि आचार्य अपने को शासक समझने लगेगा तो उसका पावन व्यक्तित्व 'मान' के बोझ से दबने लगेगा, 'मान' को पहँची हद हल्की-सी चोट भी क्रोध को जागृत कर देती है, क्रोध के जागृत होते ही उसे अपने क्रोधी स्वरूप के छिपाव एवं दुराव के लिए 'माया' का सहारा लेना पड़ता है और साथ ही अनुशासित वर्ग के लिए वह संग्रह-वृत्ति के रूप में लोभ को सम्बृद्ध करने के लिए भी बाध्य हो जाता है । इस प्रकार धीरे-धीरे वह कषायों के सुदृढ़ आकार से घिरने लग जाता है। उस समस्त अव्यवस्था से बचकर संघव्यवस्था का सम्पादन करते हुए भी निस्पृह रहना पड़ता है, जिससे वह चिन्ता-मुक्त रह सके।५१ इसलिए दशवकालिक के महर्षि आचार्य की कर्तव्य-निष्ठा पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं नो हीलए नो वि अ खिसइज्जा, थंभं च कोहं च चए स पुज्जो।१२ - आचार्यत्व के पूज्य पद के योग्य व्यक्ति संघ के किसी भी सदस्य की निन्दा एवं भर्त्सना नहीं करता वह क्रोध और मान के प्रभावों से सर्वदा मुक्त रहता है। जिसके हृदय को अपने बड़प्पन का आभास होने लगेगा, उसे अपने बड़प्पन की चिन्ता हो जानी भी स्वाभाविक है, यह चिन्ता ही समस्त अवगुणों का मूल है, अतः आचार्य वही है जो नो भावये नो वि अभाविअप्पा, अकोउहल्ले व सया स पुज्जो। __आचार्य न तो किसी की प्रशंसावलियों का गान करता है और न ही किसी से प्रशंसावलियाँ सुनता है, वह संसार के खेलों में मन को नहीं रमाता, वह समस्त जीवन-लीलाओं को देखता है निस्पृह भाव से। 'गणतत्ति-विप्पमुक्को' का यह भी संकेत है कि उसके समर्थ एवं प्रभावशील अनुशासन में संघ का प्रत्येक सदस्य सभी प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त हो जाय। आचार्य का यह वैशिष्ट्य उसकी तपोमयता और सम्यक् व्यवहारशीलता का बोधक है। ऐसे ही आचार्य के तपः प्रभाव के समक्ष सभी नत-मस्तक होंगे और उसके निर्दण्ड शासन को सभी स्वीकार करेंगे। इसीलिए मननशील महर्षि संघ को निर्देश UE १० देखिये--दशा श्रुत० ४।८ ११ चउविह कसाय-मुक्को । अथवा-... चउक्कसायावगए स पूज्जो। ---दशवकालिक ६।३।१४ १२ दशवकालिक ६।३।१० १३ दशवकालिक है।३।१२ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री आनन्द ऋषि देते हैं कि 'सम्यग्ज्ञान आदि रत्नों के अक्षय कोष को प्राप्त करने के लिए संघ को समाधि-सम्पन्न श्रुतशील, प्रखर प्रतिभाशाली, मोक्षमार्ग के महापथिक आचार्य की शरण में रहकर उसकी सेवा करनी चाहिए । १४ आचार्य की तेजस्विता की ओर संकेत करते हुए उसे तपते हुए सूर्य से उपमित किया गया है । १५ सम्भवत: इसीलिए 'जैनधर्मदिवाकर' की उपाधि प्रचलित हुई है । परन्तु तेजस्वी होते हुए भी आचार्य के स्वभाव में शीतलता होनी चाहिए, उसके इसी स्वभाव को व्यक्त करने के लिए उसे 'शशि' सम, कहा गया है ।१६ आचार्यत्व के महतो महीयान् पद की सुरक्षा के लिए उस व्यक्ति का चुनाव करने को कहा गया है जिसमें छत्तीस विशिष्टताएँ पायी जायँ -- पंचिदिय संवरणो नवविह बह्मचेरगुत्तिधरो, चविह कसायमुक्को, इअ अट्ठारस गुर्णेह संजुत्तो । पंचमहन्वयजुत्तो पंच विहायार - पालण - समत्थो । पंच समिओ तिगुत्तो, इअ छत्तीस गुणेहिं गुरुमज्झ । आचार्य वह है जो पांचों कर्मेन्दियों का विजेता हो, नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य का महासाधक हो, चारों कषाय जिसके समक्ष नतमस्तक हों, जो पाँच महाव्रतों का निष्ठावान् आराधक हो, जो ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार रूप पाँच आचारों के पालन में समर्थ हों । पाँच समितियों और तीनों गुप्तियों का धारक हो । ये छत्तीस विशेषताएँ आचार्यत्व के गौरव को सुरक्षित करने वाली हैं। आचार्यत्व की इसी महती महिमा, उसकी गगनोपम गरिमा को देखकर 'सो धनो स अ पुणो अ, स बन्धू मुक्खदायणों' कहकर उसे गौरवान्वित किया गया है । ४६ उपर्युक्त विशेषताओं से युक्त गौरवमय आचार्यत्व के मैंने दर्शन किये हैं पहले तो जैनधर्मदिवाकर श्रद्धेयचरण आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज में और अब उसके दर्शन कर रहा हूँ तेजस्वी महापुरुष श्रद्धेय आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज में । यह द्विमुखी दर्शन मुझे आत्म-आनन्द प्रदान कर रहा है । इसी आनन्द में आत्मविभोर होकर मेरा हृदय कह रहा है- नमो आयरियाणं नमः आचार्येभ्यः । १४ महागरा आयरिया महेसी, समाहिजोगे सुअसीलबुद्धिए । संपावि कामे अणुत्तराइ, आराहए तोसइ धम्मकामी । दश० ६।१।१६ १५ जहा निसंते तवणच्चिमाली, पभासइ केवलं भारहं तु । - दश० ६।१।१६ १६ जहा ससी कोमुइ-जोग- जुत्तो, नक्खत्ततारागण परिवुडप्पा । खे सोहs मिले अभमुक्के, एवं गणी सोहइ भिक्खुमज्झे । दश० | १|१५ आचार्य प्रवरासत अभिनन्दन श्री आनन्द अन्थ श्री Croc so अभिने नन्दग्रन्थ 32 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राआनन्या माआप अपना श्रद्धार्चन : आचार्यदेव के प्रति -मुनि सुभाषचन्द्र "जैनसिद्धान्त विशारद" [घोरतपस्वीरत्न श्री वृद्धिचन्दजी महाराज के सुशिष्य कवि एवं कुशलवक्ता ] जया य मनोहर छन्द _ [३] सरल मृदुता अति, चन्दन शीतलचन्द । जैनधर्म दिवाकर, विभाकर समता के । वदन सदन शुभ, चमके मुख नूर है ।। प्रगटाये आत्मज्योति, मिथ्यात्व हटाते हैं । पूज हैं प्रवर वर, सब सन्त सिरताज । प्रभावशाली आकर्षक, स्नेह भरी दृष्टि अति । शान्तमूर्ति ज्योतिर्धर, सत्य तप शूर है॥ तेजस्वी ललाट भव्य, निश्चल कहाते हैं । श्रमणसंघ पट्टधर, द्वितीय आचार्य आप । सिद्धान्तिक निष्ठा साथ, व्यवहार में वाक्पटु । सहिष्णुता अद्भुत, जीवन सुमधुर है ॥ गम्भीरता वाणी आप, मधु बरसाते हैं ।। कहत सुभाष मुनि, धन्य धन्य दिव्य ज्योति । कहत सुभाष मुनि, धन्य धन्य दिव्य ज्योति । दया के सागर देव, क्षमा से भरपूर है। क्षमता का आदर्श हो, सर्वत्र दिखाते हैं ।। [२] [४] बालब्रह्मचारी भारी, महान ही महायोगी । पवित्र पावन मन, परमार्थ परिचायक । आनन्द कर्तव्य निष्ठा, सब प्रियकारी है। परम आचार्य देव, परम सुखकारी है । परम ध्यानी गुणीवर, मधुसम वाणी धर। आत्म के अमन्द चन्द, आनन्द भण्डार अति । जैनधर्म नेता श्रेष्ठ, दुगुर्गों को टारी है ।। शुद्धाचारी नम्रता ये, जीवन में भारी है। जीतकर काम क्रोध, साधना के पथ पर । संघ शिरोमणी प्यारा, जैन जग उजियारा । अग्रसर हुए पूज्य, पर उपकारी है ।। प्रखर पण्डित ज्ञानी, सच्चे संयमधारी हैं। कहत सुभाष मुनि, धन्य धन्य दिव्य ज्योति । कहत सुभाष मुनि, धन्य धन्य दिव्य ज्योति । सब के ही मन भावे, आप मनहारी है। अहर्निश दमकत, पूज्य क्रान्तिकारी है। दोहा शासनेश मंगल कामना, चिर आयु हो देव । करबद्ध प्रार्थना यह, कीर्तिमान सत्मेव ।। श्रमण संघ फूले फले, तब छत्तर की छाय। बने संगठन प्रबल अति, सब जन मन हुलसाय ॥ अभिनन्दन हो पूज्यवर, दिन दिन तव जयकार । 'श्रद्धा सुमन' अर्पण यह, करो पूज्य स्वीकार ॥ 4g Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० उदय जैन, धर्मशास्त्री, कानोड़ [अनेक शिक्षण संस्थाओं के संचालक, क्रांतदर्शी शिक्षाशास्त्री] iSirtel ज्ञान की अमर लौ जलाने वाले मनीषी शिक्षा-प्रसारक श्री आनन्दाचार्य जा या आनन्दाचार्य आनन्द की, प्रसन्नता की और अभिव्यक्ति की सजीव मूर्ति हैं। जिसने उनके दर्शन किये, प्रसन्न मुद्रा में पाया। गाँव में जन्मा एक मानव, संत एवं आचार्य तथा आचार्यप्रवर के पद पर कैसे पहुँचता है, यही इनकी सौम्य मुद्रा की स्पष्ट स्थिति है। हृदय सरल, मुखाकार सौम्य और कार्य-प्रवृत्ति रसमयी, यही गुण उन्हें धर्म, सम्प्रदाय और समाज के उत्तम शिखर पर ले गये। इनका धर्म या सम्प्रदाय रूप विश्व में स्पष्ट भाषित हो रहा है। संत, धर्ममय होते हैं और आचार्य सम्प्रदायपोषक होते हैं। ये श्रमण संघ के श्रेष्ठ पद पर विराजकर उत्तम शासक रूप में आचार्यप्रवर बने हुए हैं। ये सम्प्रदाय स्थिति में उत्तम स्थान के अधिष्ठाता हैं लेकिन समाज-कल्याण के कार्यों में भी आपका वही रूप निखर आया है। पाथर्डी जैसे छोटे से गांव में विद्या की साधारण शाला प्रारम्भ कर आज विविध ज्ञानाभ्यास एवं परीक्षण केन्द्र बना देना इन्हीं की सुप्रेरणा का फल है। धर्म शिक्षा के साथ व्यावहारिक ज्ञान में समाज के लाड़ले और होनहार बच्चे इसी आचार्यप्रवर की प्रेरणा से वर्षों से आगे बढ़े जा रहे हैं। जहाँ गये विद्याशालाएँ, पाठशालाएँ, गुरुकुल, छात्रावास और उपाश्रय आदि चलाने के उपदेश देते रहे और हर प्रान्त में शिक्षा के लिए उनके किये गये प्रयास तथा दी गई प्रेरणाएँ एवं असरकारक उपदेश सक्रिय हो, बढ़ते जा रहे हैं। महाराष्ट्र, मालव, पंजाब और उत्तरप्रदेश में जहाँ-जहाँ चातुर्मास किये, एक-न-एक याद स्मारक रूप में बना के आये। साधु कहते हैं; आनन्दऋषि जी स्कूलों के कार्यों को देखते हैं, छात्रावासों और स्कूलों में दान देने का उपदेश देते हैं। त्याग करने की प्रेरणाएँ देते हैं। एक धनिक अपने दातव्य दान को उनकी प्रेरणा से समाज के उपयोग में देता है। यह साधु-प्रवृत्ति के खिलाफ होता है। रुपये-पैसों का उपदेश देना और रुपये-पैसों की प्रेरणा देना साधुवृत्ति के अनुकूल नहीं। जैसे भी कहें, कैसे भी कहें। साधु तो साधु ही है और रहेंगे। शिक्षा-प्रसार कार्य और धर्म-प्रसार कार्य की लगन एक साधना ही तो है। कौन साधु कहलाने वाला श्रमण तीन करण, तीन योग का त्यागी है और उसका यथावत पालन करता है। समाज के सन्मुख आये और अपने को सिद्ध करे कि उसे मन, वचन और काया से किसी भी प्रकार के परिग्रह, झूठ, चोरी, हिंसा और कुशील के करने, कराने और अनुमोदना के दोष नहीं लगते हैं। साधु, साधनारत होता है। आत्मिक-साधना में और चारित्र-साधना में लगा हुआ ही साधनारत नहीं कहला सकता। शासकतुल्य धर्माचार वृद्धि में भी उसकी साधना उपयोगी होती है। शासन वृद्धि भी एक प्रकार की साधना है। जिसका हुदय पवित्र हो, जिसके मन में रागद्वेषजनित विकार और आचार्यप्रभा आचार्यप्रवर अभय श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्दमन्थन 4-1- 1n r r r rr -.-..-. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रवर अभिआचार्यप्रवर आभा श्रीआनन्दग्रन्थश्रीआनन्द अन्५० ५२ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व जया कषायजनित वृत्तियाँ धीरे-धीरे शमित होती जायँ, वही साधु है। परिग्रह का विसर्जन कराना, तिरना और तारना का ही कार्य है। मोहकर्म ही साधना में कमी लाता है और मोह-ममता उतारना और उतारने की प्रेरणा या उपदेश देना कैसे साधूता नहीं कहला सकता। श्रमण का कार्य है कि स्वयं श्रम करे, समभाव रखे और समभाव की वृद्धि करे और जन-जन में का विस्तार करे, परिग्रही श्रावक या गृहस्थ यदि उपदेश से विषमवृत्ति को नहीं छोड़ते तो प्रेरणा से विषमवृत्ति का नाश करना समयोग का प्रसार करना ही है। उपदेश और प्रेरणा शब्दों का फेर है। उपदेश का क्रियात्मक अगला कदम प्रेरणा ही तो है। साधु अपने चेले मुंडने के लिए सब कुछ क्रियाएँ कर लेते हैं। लेकिन साधुवृत्ति-समवृत्ति-निष्परिग्रह-वृत्ति और निगण्ठ धर्म फैलाने में प्रेरणा देना कैसे साधुचर्या से विपरीत कार्य होता है। आनन्दाचार्य गृहस्थों को त्यागी और त्यागधर्मी बनाने के लिए निरन्तर उपदेश देते हैं। प्रेरणा करते हैं और कार्यरत भी करते हैं। धर्म के कार्य और साधना के कार्य भिन्न नहीं होते। आज स्थानकवासी समाज का बहुल क्षेत्र आनन्दाचार्य के प्रयास से शिक्षा में आगे बढ़ा है और बढ़ रहा है। आनन्दाचार्य का सदा यही प्रयास रहा है कि भावी पीढ़ी को सुसंस्कृत बनाने के लिए उपयुक्त शिक्षा अवश्य दिलाई जाय और उसके लिए शिक्षालय, वसतिगृह, छात्रालय और शिल्पालय बनाने और विस्तार कराने में धनत्याग-दान का उपदेश और दान की प्रेरणा आवश्यकीय है। आनन्दाचार्य का हृदय शिक्षा-प्रचार के कार्य से भरा हआ है। मस्तिष्क शिक्षाप्रसार में लगा हुआ है और शरीर शिक्षाप्रसार कार्य में प्रेरणा दे रहा है। मेरी दृष्टि में आनन्दाचार्य का जन्म स्थानकवासी समाज में शिक्षाप्रसार के लिए ही हुआ है; ऐसा भासित हो रहा है। शिक्षाप्रसार का मूर्तिमंत आचार्यप्रवर शिक्षा का अवतार बन गया है। प्राकृत-भाषा-शिक्षा, संस्कृत-भाषा-शिक्षा, हिन्दी-भाषा-शिक्षा और आचार-शिक्षा ये इनके जीवन के ज्वलंत कार्य हैं। साधुओं में शिक्षा, साध्वियों में शिक्षा, बच्चों में शिक्षा, बच्चियों में शिक्षा, नवयुवा, प्रौढ़ और वृद्धों तथा नवयुवतियों, प्रौढ़ महिलाओं और वृद्ध महिलाओं में शिक्षा का अत्यधिक प्रसार करने वाला महान् साधक आनन्दाचार्य है। जिसकी रग-रग शिक्षा-प्रचार-प्रसार के खुन से भरी हई है। शिक्षा के साथ परीक्षा का कार्य भी अपने पाथर्डी केन्द्र से दिनोंदिन वृद्धि को पा रहा है। छोटे स्कूल, बड़े स्कूल, अपने स्कूल, पराये स्कूल, जैनी स्कूल, अजैनी स्कूल, जनता के स्कूल और राजकीय स्कूल सभी में सच्ची शिक्षा और संस्कृत, प्राकृत भाषा की शिक्षा का प्रचार-प्रसार का इस युग का महान् देवता यदि कोई है तो आनन्दाचार्य है। इस आनन्द की मूर्ति आनन्दाचार्य को सोते, उठते, बैठते, चलते, खाते, पीते, चर्चा करते और उपदेश देते सभी जगह शिक्षाप्रसार की वार्ता ही भाती है और इसी साधना में उनकी हर प्रवृत्ति सुवासित है। ऐसे शिक्षा-प्रसारक आनन्दाचार्य सिद्धि प्राप्त करने में दीर्घायु हों, यही श्रद्धाञ्जलि अर्पित है । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 श्री पुष्कर मुनि [प्रसिद्धवक्ता, जैन आगमों के मर्मज्ञ मनीषी तथा जैनसमाज के अग्रणी मुनिवर ] श्रमण संघ की वरिष्ठ विभूति आचार्य श्री आनन्दऋषि जी आचार्यप्रवर महामहिम आनन्दऋषि जी महाराज श्रमण संघ की एक महान् जगमगाती ज्योति हैं। जिनका जीवन सूर्य के समान तेजस्वी और चाँद के समान सौम्य है । उनका जीवन सद्गुणों का समुद्र है । उस समुद्र का वर्गीकरण किस प्रकार किया जाय, यह गम्भीर चिन्तन के पश्चात् भी समझ में नहीं आ रहा है । उनके विराट् व्यक्तित्व रूपी सिन्धु को शब्दों के बिन्दुओं में बाँधना बड़ा ही कठिन है । जहाँ तक मुझे स्मरण है, मैंने सर्वप्रथम उनके दर्शन ब्यावर में किये थे । उस समय आप आचार्य नहीं थे | अजमेर के बृहद् साधु-सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए आप अपने शिष्य उत्तमऋषि जी के साथ महाराष्ट्र से विहार कर पधारे थे । हमने आपश्री का मधुर स्वागत किया। राउली कम्पाउण्ड में उस समय सम्मिलित प्रवचन हुए। आपके तन और मन में जवानी का जोश अठखेलियाँ कर रहा था । आपश्री का गला बड़ा ही सुरीला था । प्रवचन में आपने जो संगीत की सुमधुर स्वरलहरियाँ छेड़ीं तो श्रोतागण आनन्द से झूम उठे । अजरामरपुरी अजमेर में बृहद् साधु-सम्मेलन का भव्य आयोजन । जन-जन के मन में अपार उत्साह बरसाती नदी की तरह उमड़ रहा था। एक-से-एक बढ़कर प्रतिभासम्पन्न सन्त पधार रहे थे । उस समय सभी सन्तों की व्यवस्था की जिम्मेदारी हम राजस्थानी सन्तों पर थी। जिससे सभी सन्तों के साथ हमारा मधुर सम्बन्ध होना स्वाभाविक था । उस समय आनन्दऋषि जी महाराज के हृदय की शुद्धता, मन की सरलता और अपने सिद्धान्तों पर पहाड़ की तरह अटल रहते हुए देखकर मेरे मन में उनके प्रति सहज श्रद्धा जागृत हुई । उसके पश्चात् विभिन्न दिशाओं में विहार होने से चाहने पर भी एक दूसरे का मधुर मिलन चिरकाल तक न हो सका । सन् १६५० में पुनः आपश्री के दर्शनों का सौभाग्य मिला । उस समय आप साधारण सन्त नहीं किन्तु विशिष्ट आचार्य थे । आप ऋषिसम्प्रदाय के आचार्य के साथ ही उस समय दिवाकर समुदाय, धर्मदास जी महाराज की सम्प्रदाय प्रभृति अनेक सम्प्रदायों के प्रधानाचार्य थे । मेरे आराध्यदेव महास्थविर श्री ताराचन्द जी के दर्शन के लिए आप उदयपुर से विहार कर पदराड़ा पधारे । मैं भी आपश्री के स्वागतार्थ आठ मील सामने गया । एक ही साथ ठहरे । उस समय स्थानकवासी जैन समाज जो विभिन्न सम्प्रदायों में विभक्त था, उसका विकास बिना एक हुए नहीं हो सकता - इस सम्बन्ध में कई दिनों तक विचार चर्चाएँ होती रहीं । मैंने देखा - महान् आचार्य होने पर भी आप में वही नम्रता है, वही सरलता है और वही स्नेह है । उस समय आपश्री ने अपने हाथ से लिखकर कविकुल- तिलक तिलोकऋषि जी महाराज की कमनीय कलाकृतियाँ मुझे प्रदान कीं। उसके पश्चात् आपश्री से उदयपुर आदि अन्य स्थानों पर मिलन हुआ । SRD श So 菲 उपयाय प्रव अब आगन्द- श्रा आनन्द अन्य श्री www.rainelibrary.org oporrovatrerasota ustro Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ virani । ५४ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व सन् १९५२ में पूज्य गुरुदेव श्री ताराचन्द जी महाराज के साथ हमारा वर्षावास सादड़ी में था। पूज्य गुरुदेवश्री की प्रबल प्रेरणा से सादड़ी में बृहद् साधु-सम्मेलन का आयोजन हुआ। अजमेर-सम्मेलन के पश्चात् दीर्घकाल के बाद यह सम्मेलन हुआ। श्रमण संघ का निर्माण हुआ। आपश्री को प्रधानमन्त्री पद प्रदान किया। मैं उस समय साहित्य-शिक्षण मन्त्री बना। मंत्री होने के नाते प्रधानमंत्री के साथ सम्पर्क होना आवश्यक था। सोजत में मंत्री-मण्डल की बैठक में पुनः आपश्री के दर्शन हए। गम्भीरता के साथ विचार-चर्चाएँ हई। उसके पश्चात् भी श्रमणसंघीय सन्तों को परीक्षाएँ देनी चाहिए या नहीं, इस प्रश्न को लेकर आपश्री से खुलकर पत्राचार हुआ। पूज्य गुरुदेव महास्थविर श्री ताराचन्द जी महाराज की वृद्धावस्था के कारण भीनासर-सम्मेलन में उपस्थित न हो सका। भीनासर-सम्मेलन में आपश्री उपाध्याय बने और व्याख्यानवाचस्पति मदनलाल जी महाराज प्रधानमंत्री बने । आचार्य और उपाचार्य के अधिकारों के प्रश्न को लेकर श्रमण संघ की स्थिति विषम हो गई। आचार्यश्री और उपाचार्यश्री के स्वर्गवास के पश्चात् आपश्री अधिकृत अधिकारी मुनियों के परामर्श से श्रमण संघ का संचालन करने लगे। श्रमणसंघीय गम्भीर समस्याओं को सुलझाने के लिए और सर्वानुमति से आचार्य बनाने के लिए अजमेर में शिखर सम्मेलन का भव्य आयोजन किया गया । उस सम्मेलन में आपश्री पधारे। गुलाबपुरा, विजयनगर, ब्यावर और अजमेर सभी स्थलों पर आपश्री के साथ रहे। गुलाबपुरा से लेकर अजमेर तक की इस लम्बी यात्रा में ऐसे अनेक सामाजिक प्रश्न आए, जिससे साधारण मानव अपने आपे को भूल जाय, पर आपश्री ने अपूर्व धैर्य के साथ उन सभी समस्याओं के समाधान का प्रयास किया, पर विचलित नहीं हुए। मैंने अनुभव किया कि आपकी प्रगति का यही मूल मंत्र है। आचार्यश्री के साथ मेरा अनेक बार मतभेद हुआ है। कितनी ही बातें मुझे उनकी बहुत ही पसन्द आई हैं और कितनी ही बातें मुझे पसन्द नहीं आई । मैंने उनका बहुत ही जोरदार शब्दों में विरोधकिया, पर आपश्री कभी भी मेरे पर नाराज न हए, आपकी कृपादृष्टि में किञ्चिन्मात्र भी अन्तर नहीं आया। पितृ-तुल्य वात्सल्य और आत्मीयता में कभी कमी नहीं आई। आचार्य जैसे गौरवपूर्ण पद पर आसीन होते हुए भी अपनी भूल ज्ञात होते ही उसे स्वीकारने में भी कभी संकोच का अनुभव नहीं किया। यह है आपकी महानता ! राजस्थान प्रान्तीय सन्त-सम्मेलन साण्डेराव (राजस्थान) में पूनः आपश्री के दर्शनों का सौभाग्य मिला और सादड़ी तक आपश्री की सेवा में रहने का अवसर भी मिला। मैंने अनुभव किया-शरीर साथ नहीं देता है तो भी आपश्री के मन में अपार उत्साह है। ___ हमारे संघ का यह परम सौभाग्य है कि आचार्यश्री जैसा नररत्न हमारा कर्णधार है। हमारी आशाएँ और आकांक्षाएँ उनमें केन्द्रित हैं। उनकी सफलता में हमारा वैभव है, उनकी शक्ति में हमारा गौरव है। वे दीर्घकाल तक स्वस्थ रहकर संघ का कुशलता के साथ संचालन करते रहें। उनके नेतृत्व में हमारा संघ ज्ञान, दर्शन और चारित्र की निरन्तर अभिवृद्धि करता रहे, यही मेरी हार्दिक शुभकामना व भावना है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दन-बेला आई -~-गणेश मुनि शास्त्री, साहित्यरत्न गीतकार, कवि, वक्ता तथा अनेक उच्चकोटि की पुस्तकों के लेखक गर पट 4 . लिया जन्म आचार्यप्रवर ने वह पावन है, महाराष्ट्र का ग्राम-चिंचोड़ी, तीर्थधाम है। युगपुरुषों का अभिनन्दन करती जो धरती, उनका जीवन सफल और वह पूर्णकाम है ॥ बाल्यकाल से ही मेधावी, शान्तचित्त हो, धुन के धनी निरन्तर निज कर्तव्य-परायण । शुभ कर्मों का उदय स्वयं ही धो देता है, गुरुतर जन्मान्तर के कलुषित पापों का व्रण ॥ संस्कृत, अंग्रेजी, हिन्दी, प्राकृत, गुजराती, तुम हो विविध भाव-भाषाओं के अभ्यासी । व्याख्याता, रचयिता, स्वयं आगम-ग्रन्थों के, ज्ञानसाधना सचमुच बनी आपकी दासी ॥ सरस्वती के समुपासक-संस्थापक यतिवर, जैनागमनिष्णात ! काव्यरस के अनुरागी। भव्यमूर्ति, विद्याधर, किन्नर कहूँ आपको, विचर रहे हैं वसुधा पर बन वैभव-त्यागी ॥ भ्रमण आपने पैदल ही कर भारत भर का, जन-जन में नैतिकता का देकर उद्बोधन । मिथ्यावादों का प्रतिवाद किया निर्भय हो, दुर्जन जन का भी जीता सज्जनता से मन ॥ जन्मदिवस के अवसर पर शत-शत वन्दन हो, जैनधर्म के तत्त्वों के सच्चे आराधक। पद वन्दन के योग्य आपका अभिनन्दन हो, व्रती, तपस्वी, प्रगति तन्त्र के तुम श्रम-साधक ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआनन्द ग्रन्थ श्री आनन्द थ श्री सौभाग्यमल जैन, एडवोकेट [जैन समाज के प्रमुखनेता, चिंतनशील लेखक तथा शिक्षा एवं राजनीति के क्षेत्र में विशेष ख्यातिप्राप्त ] प्राकृतभाषा एवं श्रमणसंस्कृति के प्रवक्ता आचार्य श्री आनन्दऋषि जी । कुछ विद्वानों का मत है कि किसी क्षेत्र की भूमि में इस प्रकार का वातावरण होता है कि जहाँ महापुरुषों का अवतरण हो जावे । भारतवर्ष में 'महाराष्ट्र' ऐसी ही भूमि वाला प्रदेश है जिसने अतीत में कई सन्तों को जन्म दिया है। समर्थ रामदास, सन्त तुकाराम, सन्त नामदेव, सन्त ज्ञानदेव आदि महापुरुष महाराष्ट्र की ही देन हैं। इसी सन्त प्रसूता महाराष्ट्र को ही यह गौरव प्राप्त है कि जिसने श्रमण संघ के आचार्य मुनि श्री आनन्दऋषि जी को जन्म दिया। यह एक दैवयोग है कि "आनन्द" नामसाम्य का जैन जगत ही नहीं श्रमणसंस्कृति में प्रावल्य रहा है तथा "आनन्द" नाम के महापुरुषों ने श्रमण संस्कृति के उन्नयन में बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । यदि हम भगवान महावीर के समय की बात लें तो हमें भगवान के प्रमुख श्रावक "आनन्द" मिलते हैं उन्हीं के समकालीन गौतम बुद्ध के प्रमुख शिष्य भी " आनन्द " ही थे । तात्पर्य यह है कि हमारे आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराष्ट्र के उसी संत परम्परा के एक ज्योतिर्धर महापुरुष हैं जिन्होंने देश में अपने आचरण द्वारा सात्विक जीवन तथा आध्यात्मिकता का अलख जगाया तथा देश के लाखों व्यक्तियों ने जिनसे प्रेरणा प्राप्त की । हमारे आचार्यप्रवर भी बाल्यावस्था से ही आध्यात्मिकता के विचारों से ही आप्लावित थे तथा उसी के परिणामस्वरूप उन्होंने बाल्यावस्था में ही दीक्षित होकर साधनामय जीवन प्रारम्भ कर दिया। आचार्य श्री बालब्रह्मचारी हैं, आपका जीवन सदैव अध्ययनरत रहा है । आपने प्रारम्भ से ही प्राकृत, संस्कृत आदि प्राचीन भाषाओं का अध्ययन करके जैन आगम का गहराई से अध्ययन किया। उसके साथ ही अन्य भारतीय दर्शनों का भी तलस्पर्शी अध्ययन किया है । इसी कारण आपके प्रवाह पूर्ण प्रवचनों में जैन दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शनों का समन्वय दृष्टिगोचर होता है। इतना ही नहीं, आपने उर्दू, फारसी, अंग्रेजी आदि भाषाओं का अध्ययन करके उसकी सूक्तियां कंठस्थ कर ली हैं। प्रवचन में जब आप संत ज्ञानदेव, नामदेव आदि महाराष्ट्री संतों की औबी, छंद भक्तिभावना से तन्मय होकर ललित गेय स्वर में गाते हैं तब ऐसा लगता है कि यह भारतीय संत अपने मस्तिष्क में अगाध ज्ञान संजोए हुए ज्ञानलोक में विचरण कर रहा है और श्रोता मंत्रमुग्ध होकर स्वयं तल्लीन हो जाता है । इस संत ने स्वयं अध्ययन करते हुए सारे देश में प्राकृत भाषा - प्रचार के लिए कड़ा परिश्रम करके यत्र-तत्र संस्था स्थापित कराई । पाठक जानते हैं कि प्राकृत भाषा में ही अधिकतर जैनसाहित्य विद्यमान है। यदि कोई मूल जैनसाहित्य से परिचय प्राप्त करना चाहता है तो उसे प्राकृत का अवलंबन लेना पड़ता है । किन्तु प्राकृत आज उपेक्षित जैसी रही है। शासन का जितना ध्यान संस्कृत की ओर है, उसका अल्पांश भी प्राकृत की ओर नहीं है । इसी कारण इस संत ने प्राकृत प्रचार को अपना लक्ष्य निर्धारित करके कार्य किया है । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा एवं श्रमणसंस्कृति के प्रवक्ता : आचार्यश्री आनन्दऋषि जी ५७ आचार्य श्री श्रमण संघ में पुरातन पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं। लगभग ६ दशक तक साधनामय जीवन व्यतीत करते हुए सरलता, निच्छलता, निष्कपटता की साक्षात मूर्ति हो गये हैं । आचार्यश्री जहाँ ज्ञान, ध्यान में रत रहते हुए लगभग ७५ वर्ष की आयु में भी अध्ययन करते तथा कराते रहते हैं, वहाँ अपनी श्रमण क्रिया में भी सजग रहते हैं। अधिकतर देखा जाता है कि लम्बे जीवन में क्रिया जीवन की एक रूढ़ पारम्परिक प्रक्रिया हो जाती उसमें रस नहीं रहता, किन्तु आचार्यश्री अपने जीवन में श्रमण-क्रिया करते हुए रस लेते हैं तथा क्रिया को केवल थोथे रूप में नहीं अपितु सजग रहते हुए उसके उद्देश्य को ध्यान में रखकर पालन करते हैं । यही कारण है कि आचार्यश्री के सान्निध्य में जो श्रमण रहते हैं, वह भी इसी प्रकार अपने जीवन को धन्य मानते हुए श्रमणजीवन व्यतीत करते हैं तथा प्रेरणा प्राप्त करते हैं । आचार्यश्री का अधिक कार्यक्षेत्र महाराष्ट्र रहा है किन्तु उसके बाद भी आपने पाद - विहार करते हुए जम्मू-कश्मीर तक की यात्रा करके जम्मू में चातुर्मास किया है तथा वहाँ पर ज्ञान की लौ प्रज्वलित की हैं । सारे देश में भ्रमण करते हुए भारतीय जन-जीवन को प्रेरणा दी है। सात्विक जीवन बिताने के लिए प्रेरित किया है। आपके प्रवचनों से जैन, अजैन सब लाभान्वित होते हैं । एक तपोपूत जीवन की साक्षात प्रतिमा देखकर अपने को धन्य मानते हैं । वास्तविकता यह हैं कि मनुष्य की वाणी जो प्रचार करती है वह इतना प्रभावकारी नहीं होता, जितना उसका आचरण । यदि किसी वक्ता का आचरण उच्चकोटि का है तो उसका प्रवचन भी प्रभावोत्पादक होगा तथा श्रोता के मन, मस्तिष्क पर अमिट प्रभाव छोड़ेगा । यही स्थिति आचार्यश्री की है । वह साक्षात संयममूर्ति हैं। इसी कारण श्रोता पर अमिट प्रभाव छोड़ते हैं । लेखक ने आचार्यश्री के शाजापुर- शुजालपुर के चातुर्मासों में ऐसे कई दृश्य देखे हैं कि जब इतर धर्मीय सज्जनों ने भी आचार्यश्री के जीवन से प्रभावित होकर व्रत ग्रहण किए हैं । वास्तव में आचार्यश्री का स्वभाव अत्यन्त कोमल तथा पूरा जीवन परोपकारमय है। जिस प्रकार नदी, वृक्ष सारे संसार के उपकार के लिए हैं, उसी प्रकार यह संत अपने जीवन के ७५ वें वर्ष में भी भारतीय जन-जीवन में शुद्धता, प्रामाणिकता, सात्विकता, आध्यात्मिकता लाने के लिए अथक परिश्रम कर रहा है । लेखक की यह हार्दिक कामना है कि यह भारतीय ऋषि अपने जीवन के सौरभ को लुटता हुआ हजारों वर्षों तक हमारे बीच रहे, ताकि भारतीय जन-जीवन आदर्श बना सके । ✩ आनन्द-वचनामृत कोई भी समस्या ऐसी नहीं जो सुलझ नहीं सके । कोई भी बीमारी ऐसी नहीं जो मिट नहीं सके । हमारी भीरुता, अज्ञानता और निर्णय की अपरिपक्वता से ही वे विकट और दुरूह रूप धारण करती हैं । समस्या को सुलझाने के लिए विवेक और साहस की जरूरत है । जैसे कि बीमारी को मिटाने के लिए चिकित्सक और औषधि की । विवेक चिकित्सक की भाँति समस्या के सही रूप का ज्ञान करा देता है और साहस औषधि की भाँति उसका निराकरण करता है । ज्ञानहीन संकल्प, विकल्पों का जाल बुनता 1 संकल्प के पूर्व अगर विवेक नहीं जगा हो तो वह वि, कल्प के पूर्व लग जाता है, अर्थात् संकल्प विकल्प बन जाता है । shatru फ्र श्री आनन्द अन्थ : श्री आनन्द ग्रन्थ wwwww Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्वामी श्री रघुवरदयाल जी [वयोवृद्ध प्रभावशाली संत, प्रवक्ता, समाज-सुधारक एवं शिक्षा-प्रसारक] आनन्दमूर्ति : प्राचार्य श्री प्रानन्दऋषि शैले शैले न माणिक्य, मौक्तिकं न गजे गजे । साधवो न हि सर्वत्र, चन्दनं न वने वने ।। भारतीय संस्कृति में संत जीवन अपना सर्वोच्च स्थान रखता है, क्योंकि यह एक चलता-फिरता तीर्थ है जो संसार के तापत्रय से पीड़ित प्राणियों एवं पापपूर्ण पंकजाल में फंसे हुए व्यक्तियों का उद्धार करता है तथा शान्ति प्रदान करता है । कबीर के शब्दों में आग लगी आकाश में, मरि-झरि गिरे अंगार । जो न होते साधुजन, जल मरता संसार । संसार के सभी प्राणी इन्हीं तापत्रय (आध्यात्मिक, अधिभौतिक, आधिदैविक) से संतप्त हैं। प्रत्येक मस्तिष्क में यही अग्नि जल रही है। सन्तगण प्रभु-बाणी रूप अमत से शीतल करते हैं। सन्त बड़े परमार्थी, शीतल उनके अंग । तपन बुझावें और के, दे दे अपना रंग॥ भगवान महावीर ने अहिंसा, संयम और तप को उत्कृष्ट मंगल कहा है। जिन ग्रन्थों में इनकी व्याख्या है उनको आगम कहते हैं। वे साधारण ग्रन्थ न कहे जाकर लोगों के हृदय में शास्त्र के नाम से स्थान पाते हैं तथा श्रद्धेय बन जाते हैं। इसी प्रकार जिस व्यक्ति के अन्दर अहिंसा, संयम और तप रम जाय मानो जिनके आचरण से अहिंसा, संयम और तप का प्राकट्य हो वे साधारण व्यक्ति न रहकर महापुरुष, युगप्रर्वतक कहलाते हैं। इन्हीं गुणों से युक्त होकर बहुत से महापुरुष हुए, होते और होंगे । वर्तमान समय में जैनागमदिवाकर अखिल भारतवर्षीय व० स्था० श्रमण संघ से द्वितीय पट्टधर महामहिम प्रातः स्मरणीय श्री स्वामी १००८ श्री आनन्दऋषिजी महाराज आचार्य पद से शोभायमान हो रहे हैं। + जन्म आपश्री ने संवत् विक्रमी १९५७ में महाराष्ट्र के मध्य जिला अहमदनगर, ग्राम चिचोड़ी में धर्मप्रेमी श्रावक मूर्धन्य श्री देवीचन्द जी के घर जन्म ग्रहण किया था। आपके पिता भी जैनधर्म माने श्रावक एवं शास्त्र के ज्ञाता थे । समग्र परिवार ही धर्म रंग से रंगा हआ था । पूर्व संस्कार से आर्यक्षेत्र, उत्तम कुल में आप जन्म लेकर अपने वंश की शोभा को बढ़ाने लगे। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दमूति : आचार्य श्री आनन्दऋषि ५६ संस्कार जिस परिवार में आपने जन्म लिया था वह धर्मों में श्रेष्ठ जैनधर्म के रंग से रंगा हुआ था ही, फिर उच्चकोटि के महापुरुषों का जब कभी ग्राम चिचोड़ी में आगमन होता तो आपके पिताश्री एवं माता सन्तचरणों में बैठकर धर्मवचन का लाभ अवश्य उठाया करते । धीरे-धीरे आपके मन में धर्मरुचि जागी और आपने सामायिक पाठ आदि सीखना प्रारम्भ कर दिया। "होनहार विरवान के होत चीकने पात" के अनुसार आप पर धर्म का रंग चढ़ने लगा। वैराग्य सन्तों के प्रवचन सुनकर एवं पिताजी का देहावसान देखकर उन्हें संसार से विरवित होने लगी और अन्तरात्मा ने यह निश्चय किया कि धर्म ही एकमात्र हमारा साथी है और कोई नहीं। फिर क्या था यही भावना दृढ़ होते-होते वैराग्यांकुर फूट पड़ा। फिर तो हर समय धर्म-चिन्तन एवं नवकारस्मरण में ही व्यतीत होता व बच्चों में खेलने और किन्हीं अन्य कामों में मन न लगता। अब तो मन यही कहता कि ऐसा महापुरुष मिले जिनके चरणों में सर्वस्व अर्पण कर सदा के लिए सूखी हो जाऊँ, अनाथ से सनाथ बन जाऊँ। दीक्षा आखिर वह क्षण आ पहुँचा, जिसकी मन में चिरकाल से भावना हो रही थी । अर्थात् परम भाग्य से आचार्य श्री रत्नऋषिजी अपनी शिष्यमंडली के साथ पधारे, उनके पावन चरणों में बैठकर प्रभुवाणी सुनने का परम अवसर प्राप्त हुआ और मन ने यही निश्चय किया कि इन्हीं के चरणों में रहकर अपने कल्याण का मार्ग स्वीकार करूँगा। मन के निश्चय को गुरुचरणों में व्यक्त किया, गुरुदेव ने सुना और कहा परिवार से आज्ञा प्राप्त करो। आपने एकमात्र अपनी माता से आज्ञा माँगी, किन्तु माता की ममता, ममता ही होती है, बहुत ही कठिनता से आज्ञा ली और फिर आपने आचार्य श्री रत्नऋषिजी के पावन चरणों में १९७० में मिरी ग्राम में भागवती दीक्षा ग्रहण की। शिक्षा दीक्षा लेकर आप साधना के पथ पर अग्रसर होने लगे। पूज्य गुरुवर्य की सेवा ही इनका मुख्य व्रत था, इसके साथ आपश्री को शास्त्रों का अभ्यास भी करवाया जाने लगा। शनैः-शनैः आप शास्त्रज्ञान में प्रवेश पाने लगे। गुरुओं का शुभाशिष एवं सेवाव्रत से आपकी बुद्धि का विकास होने लगा और ज्ञानपिपासा जागी, जन्मान्तर से पीड़ित एवं बुभुक्षित मानसहंस को ज्ञान रूपी मोती प्राप्त होने लगे। साथ ही अन्य भाषा जैसे कि प्राकृत, उर्दू, हिन्दी, संस्कृत, फारसी एवं आंग्ल भाषा का बोध प्राप्त करते रहे । परिणामतः आप उपरोक्त सभी भाषाओं में अपने विचार अनवरतगति से व्यक्त करते हैं। ___ कार्यक्षेत्र आपश्री की योग्यता प्रगट होने लगी। आपने यों तो कई भाषाओं में प्रवीणता प्राप्त की किन्तु आपका प्राकृत भाषा से विशेष लगाव रहा, कारण जैन वाङमय प्राकृत भाषा में है और इस समय वह पिछड़ी हुई है। ऐसा समझकर आपने जिस प्रकार प्रभुवाणी का प्रसार हो वैसा कार्य करना चाहा । फलस्वरूप आप प्राकृत भाषा के विकास के लिए विद्यामन्दिरों की प्रेरणा देने और शास्त्रज्ञान के प्रचार करने के लिए कटिबद्ध हुए। विद्वानों का सहयोग मिलने लगा, उदारमना सेठों के सहयोग से आपने प्रायः ५० से अधिक विद्यामन्दिरों की स्थापना करवाई और वर्तमान में पाथर्डी विद्याश्रम सबसे बड़ा और महान विद्याकेन्द्र बना। जिसमें साधु-साध्वी एवं श्रावकगण बड़ी रुचि से विद्या-अध्ययन करने लगे और परीक्षाएं देने लगे । आज यह विद्यालय निरन्तर प्रगति पथ पर बढ़ता जा रहा है। आप प्राचीन साहित्य पर अनुसन्धान एवं प्राकृत भाषा के अध्ययन में ४० वर्षों से निरन्तर ही लगे हुए हैं । साथ-साथ संघ की एकता बनी रहे, प्रभु जा आचार्यप्रवर अभिनन्दन श्रीआनन्दग्रन्थामा Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्द आम अन्य आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि: व्यक्तित्व एवं कृतित्व ६० . वीर का शासन निरन्तर विकासशील रहे, इसके लिये भी निरन्तर कर्मयोगी की भांति प्रयत्नशील हैं। यही कारण है कि संघ ने आपभी को अपना संरक्षक मानकर विभिन्न उपाधियों से अलंकृत किया यानी आप प्रधानमन्त्री बनाए गए शास्त्रों में निष्णात थे। सन्तों को पढ़ाना, शंकाओं का समाधान करना जैसे कार्य में निष्णात होने से आपको उपाध्याय पद से संघ ने विभूषित किया था। आपने पदों को नहीं, कार्य को महत्त्व दिया जिसके परिणामस्वरूप आप आगे से आगे बढ़ते गये । आचार्य पद 九 आनन्द आआनन्द आमदन 圖 किसी संस्कृत के विद्वान ने कहा है कि आचार्य कौन हो सकता है आचिनोति शास्त्रार्थानामाचारे स्थापयत्यपि । स्वयमाचरते यस्मादाचार्यस्तेन कथ्यते ॥ उपरोक्त श्लोक के कथनानुसार जब आपभी में गुण पाये जाने लगे, जैनशास्त्रानुसार जो आचार्य के ३६ गुण पाये जाते हैं, उनमें भी आपका पूर्ण प्रवेश हो गया और इधर पंजाब में विराजमान पूज्यपाद महामहिम आचार्यसम्राट श्री आत्माराम जी महाराज का देहावसान हो गया तो इस अभाव की पूर्ति के लिए नए आचार्य स्थापन की खोज होने लगी। आपभी पर सबकी नजर पड़ी जो गुण आचार्य में पाये जाने चाहिए वे सभी आप में विद्यमान थे, बस फिर क्या था आपश्री को आचार्य पद पर सुशोभित कर दिया गया। इस प्रकार से पूर्ण उत्तरदायित्व भगवान महावीर के पाट का लेकर अपने कार्य में निरन्तर प्रगतिशील हैं। आप जहाँ व्याख्यान द्वारा प्रभु का सन्देश घर पर पहुंचाते हैं वहाँ अनेकों ग्रन्थों के सिद्धहस्त लेखक बनकर प्रभु-सन्देश दे रहे हैं । बिहारक्षेत्र आपने दक्षिण भारत की पदयात्रा करते हुए जहाँ ( अहमदनगर में ) पाथर्डी बोर्ड की स्थापना की वहाँ आपने भारत के बड़े-बड़े नगरों, जनपदों, ग्रामों एवं अन्य स्थानों का भले ही वह पूर्वी भारत रहा हो या उत्तरी भारत, सर्वत्र पदविहार से हजारों मीलों की यात्रा की। आप जब उत्तर भारत की यात्रा करते हुए. पंजाब में पधारे तो उस यात्रा में पंजाब के अन्तर्गत जालंधर छावनी भी पधारे थे । जालंधर पंजाब का एक बहुत बड़ा नगर है । इस जालन्धर छावनी में हम ठहरे हुए थे, हमारे सन्त का आप्रेशन हुआ था । इस कारण हम उपाश्रय में न ठहरकर एक कोठी में ठहरे थे जो नगर के थोड़ी दूर पर थी, तो आपश्री (UTTA ने अपनी मंडली के साथ अपनी उदारता प्रदर्शित करते हुए हमारे पास ही ठहरने की कृपा की थी। आचार्यपद प्रतिष्ठित होते हुए आप मान से बिलकुल दूर हैं। भला सूर्य के निकट अन्धकार कहाँ रह सकता है। आपभी ने जब कभी हमें सम्बोधित किया तो नाम से नहीं अपितु स्वामी जी के नाम से व्यक्ति अनायास ही सिचा चला आता सम्बोधित करते । आपकी वाणी में इतनी सरसता है कि कोई भी है । आपश्री ने दो चातुर्मास पंजाब में और एक जम्मू में किया । हुआ कपूरथला नगर में। आपके मन में सदा समाज के हो या उत्तरप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र सभी प्रान्तों पुनः दोबारा दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त प्रति समभाव रहा करता है । भले ही वह पंजाब प्रदेशों में भगवान के संघ की सेवा की भावना आप में सदा बनी रहती है । आपके पवित्र संस्मरण या दर्शन तथा सम्भाषण सदा ही याद रहेंगे । यह मिलन भले ही थोड़े समय का था किन्तु सदा के लिए अमिट छाप छोड़ गया है । प्रचारक्षेत्र आपश्री का चातुर्मास १९६६ का लुधियाना में और १६६७ का जम्मू में तथा १९६८ का चातुर्मास मालेरकोटला में हुआ, आपने जन-जन में जागृति पैदा की तथा एक बार तो समस्त पंजाब आपके पधारने से जागृत हो उठा था । आपकी पावन स्मृति में जम्मू नगर में आनन्द भवन का निर्माण हुआ, तथा फरीदकोट में प्राकृत शिक्षण संस्था की नींव रखी गई तथा जैनेन्द्र गुरुकुल पंचकूला, जिला अम्बाला Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दमूर्ति : आचार्य श्री आनन्दऋषि (हरियाणा) निकट चंडीगढ़ में प्राकृत शिक्षण संस्था का निर्माण हुआ । पंजाब की समग्र जनता ने नैतिकता तथा धार्मिकता एवं शिक्षा के रूप में जो कुछ आपसे प्राप्त किया वह सदा के लिये अमर रहेगा । ७५ वर्ष की आयु और ६१ वर्ष की दीक्षा में आपने समग्र भारत की पदयात्रा में जो कुछ समाज को दिया, वह सदा के लिए स्मरणीय रहेगा । उपसंहार उपरोक्त जो कुछ भी उनके अभिनन्दन में लिखा गया है वह अत्यल्प है, हमारी सच्ची भावना तो इसी में है कि जो कुछ उन्होंने हमें दिया है, हम उन्हीं की आज्ञा का पालन करते हुए, समाज की सेवा करते हुए प्रभु के पावन मिशन को घर-घर पहुँचाए । सच्चे अर्थों में यही हमारी सेवा आचार्यश्री के प्रति होगी । अन्त में यही कहना होगा कि - कागज सब धरती करू लेखन सब वन राय । सब समुद्र स्याही करू, तब गुण लिखा न जाय ॥ ६१ श्रद्धा पुष्प अन्त में हमारी यही सद्भावना है कि युगों पर्यन्त आचार्य श्री के पावन कर हमारे मस्तक पर रहें और उनकी छत्रछाया में निरन्तर साधना पर प्रगतिशील रहें । अन्त में इन्हीं मंगल कामनाओं के साथआप जिएँ कई हजार वर्ष और उन वर्षों के हों दिन कई हजार । ✩ आनन्ददाता : आनन्दऋषि जी [ महासती पुष्पावती 'साहित्यरत्न' आचार्य प्रवर आनन्दऋषि जी महाराज श्रमण संघ के एक वरिष्ठ आचार्य हैं । आचार्य जैसे गौरवपूर्ण पद पर आसीन होने पर भी आपश्री में अभिमान नहीं है । आपका सरल और निश्छल व्यक्तित्व, धीर शान्त प्रकृति और अकृत्रिम व्यवहार को देखकर कौन प्रभावित नहीं होता । वाणी से नहीं, व्यवहार से व्यक्तित्व को देखा और परखा जाता है । व्यवहार जीवन का दर्पण है । उसी में जीवन का तथ्य, सत्य और कथ्य सभी प्रतिविम्बित होता है। जीवन की वह कसौटी है । आचार्यश्री का जीवन इस कसौटी पर पूर्ण खरा उतरा है । मैंने आचार्यश्री के अनेक बार दर्शन किये हैं और जितनी भी बार दर्शन किये हैं उतनी ही बार आनन्द की अनुभूति हुई है । आपश्री नाम से ही केवल आनन्द नहीं है किन्तु आप श्री का सम्पर्क भी आनन्द प्रदान करने वाला है । कोई भी जिज्ञासु आपश्री के पास पहुँचता है, उसे सही समाधान मिलता है | आपश्री गम्भीर चिन्तक हैं। आपश्री की वाणी मधुर है और मन भी मधुर है । आगम की भाषा में कहूँ तो 'हिययमपावमकलुस जीहा वि य महुर भासिणी णिच्च' हृदय अकुलष है, निष्पाप है और वाणी में मधुर अलाप है । 'महुकुंभे महु पिहाणं' है । मैं आचार्यप्रवर के चरणों में श्रद्धास्निग्ध श्रद्धाञ्जलि अर्पित करती हूँ और मंगल कामना करती हूँ कि आपश्री पूर्ण रूप से स्वस्थ रहकर हमें सदा मार्ग-दर्शन प्रदान करते रहें । ✩ श माण 漫 元 द आचार्य प्रवास अभिनन्दन आनन्दका अन्थ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआनन्द प्राआनन्ध मदन - श्री मधुकर मुनि [अनेक ग्रन्थों के लेखक, संस्कृत-प्राकृत भाषा के गहन अभ्यासी, स्थानकवासी जैन समाज के अग्रगण्य मुनि एवं बहुश्रुत] अभिनन्दना परम श्रद्धेय आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज के शुभ दर्शनों का लाभ सर्व प्रथम मुझे व्यावर में मिला था। अजमेर में पहला साधु-सम्मेलन होने जा रहा था। उसमें भाग लेने के लिए प्रायः सभी प्रान्तों के सन्त-मुनिराज दूर-दूर से राजस्थान में पधार रहे थे। आप भी अपनी मुनि-मंडली के साथ उस अवसर पर महाराष्ट्र से इस ओर पधारे थे। मैंने पहले से हो यह सुन रखा था कि आपकी प्रवचन-शैली महती मनो-मोहिनी है। मेरे हृदय में यह भावना सतत समुद्भूत हो रही थी कि कब वह स्वर्ण सूर्य समुदित हो, जब कि मैं आपके मधुरतम प्रवचनों को श्रुति-गोचर कर सकू ? और यह स्वर्ण अवसर मुझे ब्यावर में मिल ही गया। जब आप ब्यावर पधारे थे, तब मैं अपने गुरुजनों के साथ पीपलिया बाजार स्थित जैन स्थानक में ठहरा हुआ था। आप कहीं अन्यत्र विराजमान हुए थे। आपके तीन प्रवचन जैन स्थानक में आयोजित किए गए थे। "भर ऊंघ विसे सुतेला जैन जणाय छ रे' विषय पर आपके प्रवचन तीन दिनों तक निरंतर हुए थे। उस समय आपकी युवावस्था थी। स्वर सुमधुर था। प्रवचन में विषय-प्रतिपादन-शैली भी सुन्दर थी। अतः वे प्रवचन अतीव समयोचित रहे। मेरे हृदय पर तो उन प्रवचनों का प्रभाव सीमातीत पड़ा । उसी समय से मैं अपने हृदय से आपके सन्निकट पहुँच गया। इसके बाद तो आपके दर्शनों का लाभ अनेकधा मिला और आपकी सेवा में रहने का सौभाग्य भी मुझे यदा-कदा मिलता रहा । आचार्य श्री जी का अपना एक विशिष्ट व्यक्तित्व है। आपका व्यक्तित्व एक अलौकिक आभा से सतत आभासित रहता है। आपकी सत्संगति में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति आपके व्यक्तित्व से प्रभावित हुए विना नहीं रह सकता। बातचीत के समय में भी आपके मुख-मंडल पर एक सरल, सहज भावभंगिमा निखरती रहती है। दीक्षा-पर्याय में लघुतम सन्तजन भी जब आपकी सेवा में पहुँचते हैं, तब आप उनका भी इतना आदर करते हैं कि उनका हृदयमंदिर सदा के लिए आचार्य श्री जी का सिंहासन बन जाता है। आप अपनी सम्प्रदाय के तो आचार्य बने ही। कुछ सम्मिलित सम्प्रदायों के आप प्रधानाचार्य भी बने। जब श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ की स्थापना हुई तो आप उसके क्रमशः प्रधानमन्त्री, उपाध्याय व आचार्य बने । इससे यह फलित हो जाता है कि आप एक योग्यतम अनुशास्ता हैं। श्री वर्धमान जैन श्रमण संघ को सबसे पहले परम श्रद्धेय श्री आत्माराम जी महाराज का नेतृत्व मिला और इस समय श्रमण संघ आपके नेतृत्व को पा रहा है। आपके नेतृत्व में श्रमण संघ प्रगतिशील बने यही एक मात्र शुभकामना । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 रवीन्द्रकुमार कोठारी नागपुर जैन समाज के उत्साही कार्यकर्ता] जैनधर्म दिवाकर आचार्यसम्राट : एक जीवन-दर्शन संसार में जब कभी अंधकार का आधिक्य हुआ और अंधविश्वास तथा अनीतियों का प्राबल्य आया, उसी बीच अंधकार के पट विच्छिन्न करके प्राची में उदय होने वाले अरुण सदृश किसी-न-किसी महान आत्मा ने मानवतन धारण कर अपने प्रखर व्यक्तित्व से जन-मानस को आलोकित किया। महान आत्माओं के इसी क्रम में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के द्वितीय पट्टधर, बालब्रह्मचारी, महामहिम, प्रातःस्मरणीय, जैनधर्म दिवाकर आचार्यसम्राट, पण्डितरत्न, गुरुवर्य पूज्य श्री १००८ श्री आनन्दऋषिजी महाराज का इस धरा पर अवतरण वि० सं० १६५७ में श्रवणमास की शुक्लपक्षीय प्रतिपदा (२६ जुलाई १९००) को हुआ था । आपके पिता श्री देवीचन्द जी धार्मिक वृत्ति के पुरुष थे; माता हुलासकंवर देवी भी महान धर्मात्मा महिला थीं। वैसे धर्म-परायण दम्पति से बालक नेमिचन्द (सांसारिक नाम) का अर्घ्य पाकर पावन चिंचोड़ ग्राम (अहमदनगर, महाराष्ट्र राज्य) धन्य हो उठा। तेरह वर्ष की सुकूमार अवस्था में आप अपनी माता से सविनय आज्ञा लेकर परम पूज्य श्री रत्नऋषिजी महाराज की श्रेयस् छाया में आए और वि० सं० १९७०, मार्गशीर्ष शुक्ला ६, रविवार को मिरीगाँव में भागवती दीक्षा ग्रहण की। बाद में मुनिश्री ने संयमसाधना के प्रति ऐसी लगन लगाई कि वह जीवनज्योति-सी जगमगा उठी। वि० सं० १९८४ की ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी, सोमवार को १२ बजे अल्लीपुर नामक ग्राम में आपके गुरुवर्य पण्डित रत्न ऋषिजी स्वर्गस्थ हो गए। इस दुखद समाचार के पाथर्डी (अहमदनगर) पहँचते ही उन्होंने तत्काल स्वर्गस्थ गुरुवर्य की पावन स्मृति में आचार्य श्री की प्रेरणा से एक पुस्तकालय स्थापित करने का निर्णय किया । पुस्तकालय का नाम "श्री रत्न जैन पुस्तकालय" रखा गया। आज यह एक समृद्ध पुस्तकालय बन गया है। इसमें गुजराती, अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू, फारसी, संस्कृत, प्राकृत और मराठी आदि सभी भाषाओं की लगभग १२,००० पुस्तकें हैं। के दूसरे वर्ष ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी, सं० १९८५ को सदर बाजार नागपुर में "जैनधर्म प्रसारक संस्था" की स्थापना आचार्यश्री के सदुपदेशों से की गई। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य आचार-विचार की दृष्टि से जीवन-उत्थान के लिए तथा जैन एवं जैनेतर समाज में जैनधर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए धार्मिक पुस्तकों को प्रकाशित करना तथा स्वल्प मूल्यों में उन्हें वितरित करना है। इसके अतिरिक्त अनेकों ऐसी संस्थाएँ आचार्यश्री की प्रेरणा से चालू हुई तथा उन्हीं के पुण्य प्रताप से आज भी ये संस्थाएँ, पाठशालाएँ आदि व्यवस्थित रूप से चलकर जैनधर्म के विषय में फैलाए गए भ्रम का परिहार एवं सैद्धान्तिक प्रचार करती हैं। वि० सं० १९६६ में आचार्य श्री देवजीऋषिजी महाराज के सदर नागपुर में स्वर्गस्थ हो जाने पर A - .... . .. ............ A ccorrramaram Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रवर अभिसापायप्रवर अभिनय आनन्दग्रन्थ श्रीआनन्दा अन्य५० ६४ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व माघ कृष्ण ६, बुधवार के दिन पाथर्डी शहर में आपको "ऋषिसम्प्रदाय के आचार्य" पद से विभूषित किया गया। यह एक ऐसा युग था जब स्थानकवासी समाज को साम्प्रदायिकता ने बुरी तरह आक्रांत कर क्लांतप्रायः कर रखा था और एकता की भावना प्रायः समाप्त हो चुकी थी-फलतः यह सम्प्रदाय लगभग २२ भागों में बंट चुका था। उन सभी सम्प्रदायों के अपने-अपने पृथक आचार्य थे, परन्तु समय ने करवट बदली और विभिन्न सम्प्रदायों में बंटा जैनसमाज संगठन के महासागर में विलीन होने के सुखद स्वप्न देखने लगा । गम्भीर मंत्रणाओं के पश्चात सभी आचार्य महापुरुषों ने अपूर्व उदारता प्रदर्शित कर वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ की स्थापना की तथा अपनी पदवियां श्रमण संघ को अर्पित कर दीं। अंततः संघ के प्रयत्नों से सादड़ी (मारवाड़) में वि० सं० २००६, वैशाख शुक्ल तृतीया के पुण्य दिन स्थानकवासी मुनिमण्डल का एक विराट सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज को आचार्य पद सौंपा गया। वि० सं० २०१६, माघकृष्ण ६ (३० जनवरी १९६३) को आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् चतुर्विध संघ की ओर से महामान्य श्री श्री आनन्दऋषिजी महाराज को आचार्यपद की प्रतीक चादर समर्पित की गई। चतुर्विध संघ के संचालन का पूर्णभार आपके हाथों में आया। श्रमणसंघ जो कालचक्र के बहुबिध प्रहार से आक्रांत हो क्लांतप्रायः हो चला था, आपश्री ने अपनी प्रतिभा से उसे जाग्रत कर अपूर्व प्राणवत्ता प्रदान की। यह तो महान पुरुषों की अपनी परम्परा रही है परन्तु उनका तन-मन-चिंतन एवं सम्पूर्ण जीवन जन-कल्याणार्थ अर्पित होता है। उनकी साधना प्राणिमात्र का कल्याण करने के लिए होती है। समन्वय के महान संस्थापक-आचार्यश्री का सम्पूर्ण जीवन नाना सम्प्रदायों, ज्ञान के नाना पहलुओं एवं तत्त्वचिंतन की विशिष्ट धाराओं का एक ऐसा समन्वित रूप है कि वह स्वतः समन्वय का एक संस्थापक बिब बन गया है। सर्वज्ञ महावीर प्रभु के अनेकान्तवाद एवं भगवान बुद्ध के करुणावाद का जीवित प्रतिबिंब यदि आप देखना चाहते हो तो इस महान पुरुष के दर्शन कर लें, जिसकी शाश्वत किरणों से श्रमण संघ पूर्णतः आलोकित है। महान पुरुष-गीता में दैवो स्वभाव वाले महान पुरुष का वर्णन करते हए भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है : अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति, परदोष-चिंतन-विरक्ति, प्राणियों पर दया, निर्लोभता, मृदुता, शीलवर्तता, अचंचलता, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, द्वेषहीनता, निरभिमानता, ये समस्त गुण उन व्यक्तियों के हैं जो दैवी स्वभाव लेकर मानवतन धारण करते हैं। ये समस्त गुण आचार्यश्री में स्वभावतया अंतहित हैं। इसमें कोई अत्युक्ति नहीं। निरभिमानता के प्रकट रूप आचार्य श्री जी अपने जीवन के महापथ में स्वतः सफल यात्री सिद्ध हये हैं और विनय आपकी वाणी में ही नहीं अपितु पद-पद में प्रतिष्ठित है। मानव-संस्कृति के सजग प्रहरी-आज का मानव आत्मिक अहमन्यता एवं भौतिकता की चकाचौंध से इतना पथभ्रष्ट हो गया है कि मानवता की किचित् झलक भी उसमें दृष्टिगत नहीं होती। सर्वत्र अनाचार, दुराचार, शोषण एवं उत्पीड़न का ताण्डव नृत्य हो रहा है । ऐसे विषम युग को सत्पथ दिखलाना मानव-संस्कृति के संरक्षक साधु व्यक्तित्व का ही कार्य है। आप मानव को उस पावन संस्कृति की ओर ले जाना चाहते हैं जो दानव को मानव बनाती है तथा मानव को देव के रूप में प्रतिष्ठित करती है। महान साधक-मानवहृदय में साधना का दीप जलाने वालों में आप ऐसे साधक हैं जिनकी साधना-ज्योति युगों से भूले मानव को प्रकाश देकर सत्पथ प्रदान करती है। आपने अपना सम्पूर्ण जीवन जन-मानस को सन्मार्ग पर लाने और आत्मसाक्षात्कार कराने तथा प्राणिमात्र के लिए जीवन में शालीनता स्थापित करने के लिए प्रस्तुत कर रखा है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यसम्राट : एक जीवन-दर्शन ६५ ALES ___ भारतीय संस्कृति के आदर्श संत-संत जीवन अपने लिए नहीं वरन दूसरों के लिए होता है । वह अपने सुख और आराम की चिंता न कर सदा परहित में दत्तचित्त रहता है। वह प्रकृति की तरह उदार भाव से बिना मांगे विश्व को सुख तथा शांति का मार्ग दिखलाता है तथा मेघ की तरह सर्वत्र पुनीत सहस्र धाराएँ बरसाता रहता है। श्रद्धेय आचार्यश्री भी भारतीय संस्कृति के महान संत हैं। भारत में सदा ही ऐसे संतों का महत्त्व रहा है तथा आज भी संतों की कमी नहीं है, परन्तु आचार्यश्री जैसी साधना की आभा बहुत कम संतों में पाई जाती है। वास्तव में पहाड़ एवं पहाड़ी की प्रत्येक चट्टान में माणिक नहीं मिलते, इसी तरह सच्चे साधु भी जहाँ-तहाँ नहीं मिलते। देश और समाज के ऐसे कीर्तिस्तम्भ स्वरूप आचार्यश्री अपने मोहक उपदेशों से सभी को सम्यक् ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र से लाभान्वित करते हुये दीर्घायु को प्राप्त हों, ऐसी मेरी भावना है। साथ ही आपकी महान आचारगरिमा और विद्वत्ता के प्रति असीम श्रद्धा व्यक्त करते हुए अपनी कामनाओं के निष्कम्प दीप जलाकर हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। माग आनन्द-वचनामृत आचार्यों ने श्रावक शब्द का कितना सुन्दर विवेचन किया है-- श्रा-अर्थात् श्रद्धाशील व-अर्थात् विवेकशील क-अर्थात् कर्मशील श्रद्धा, विवेक और कर्म जिसमें हो, वही वास्तव में श्रावक है। C उपासक शब्द बताता है कि जिसमें ये चार गुण हों, वही वास्तव में उपासक कहलाने का अधिकारी है SORIGIN उ-अर्थात् उद्यम प--अर्थात् पवित्रता स-अर्थात् समता क-अर्थात् कोमलता श्रमण में निम्न तीन गुण होना आवश्यक हैं श्र-श्रद्धाबल म-मंदकषाय ण-नम्रवृत्ति Annar... .----LAAAAAAAA AAAA A AAAminuraana :ACAAAAA..Leav GOOD आगारप्रवर अभिमानार्यप्रवर अभय श्रीआनन्द श्रीआनन्दमन्थन Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. भागचन्द जैन 'भास्कर' एम.ए., पी-एच. डी. [बहुभाषाविज्ञ, शोध लेखक, संप्रति पालि-प्राकृत विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय के अध्यक्ष ] MPA विचार, आचार और प्रचार के त्रिवेणी संगम महर्षि आनन्द और उनका तत्त्वचिन्तन एक विश्वसन्त __ महर्षि आनन्द यद्यपि स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय के प्रधानाचार्य हैं परन्तु उनकी सार्वभौमिक दृष्टि ने उन्हें एक विश्वसन्त की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है। उनकी जीवनधारा एक ओर जहाँ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र की पवित्र त्रिवेणी का संगम है, वहीं दूसरी ओर कल्याणकारिणी सेवा और सरस्वती की समन्वित भूमिका है। किसी युगप्रवर्तक ऋषि के लिए महर्षि होने का यह अपेक्षित संकल्प है, जिसे आचार्यप्रवर आनन्दऋषि ने बड़ी कुशलतापूर्वक अजित किया है। महाराष्ट्र को विभूति वि० सं० १६५७ में जन्मे बालक नेमिचन्द ने चिचोड़ी (अहमदनगर, महाराष्ट्र) को एक पुण्यस्थली का रूप दे दिया। पिता देवीचन्द गूगलिया और माता हुलासाबाई, दोनों इतिहास के व्यक्तित्व बन गये। चारित्रचूडामणि सन्त रत्नऋषि जी के सान्निध्य में लगभग १३ वर्ष की अवस्था में बालक नेमिचन्द्र आनन्द के नाम से प्रवजित हुए । विभिन्न भाषाओं और साहित्य-विधाओं के अध्येता साधक आनन्द ने सं० २०२१ में संघ के आचार्य पद को सुशोभित किया । ज्ञानज्योति के ज्योतिस्तम्भ । महर्षि आनन्द ज्ञानज्योति के अजर-अमर स्तम्भ हैं। उन्होंने अध्यात्म-साधना के समान ज्ञानसाधना का भी बीड़ा उठाया। वे सही अर्थ में स्व-पर-प्रकाशक ज्ञान के प्रतीक बन गये। एक ओर जहाँ उन्होंने स्वयं सस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, मराठी, गुजराती और अंग्रेजी भाषाओं में विद्वत्ता प्राप्त की, वहीं दूसरी ओर वे अनेक शैक्षणिक और साहित्यिक संस्थाओं के प्रस्थापक भी बने। उनके द्वारा प्रस्थापित और व्यवस्थापित संस्थाओं के नाम इस प्रकार हैं१. श्री तिलोक जैन विद्यालय पाथर्डी (वि. सं. १६८०) २. श्री रत्न जैन पुस्तकालय, पाथर्डी (वि. सं. १९८४) ३. श्री जैनधर्म प्रचारक संस्था, नागपुर (वि सं. १६८४) ४. श्री अमोल जैन सिद्धान्तशाला, पाथर्डी (वि. सं. १६६३) ५. श्री तिलोक रत्न स्थानक० जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड, पाथर्डी (वि. सं० १९९३) श्री अमोल जैन पाठशाला, दादर, बम्बई (वि. सं. १६६४) ७. श्री महावीर जैन पाठशाला, बोरी (पूना) (वि. सं. १६६८) ८. श्री रत्न जैन बोडिंग, बोदवड़ (वि. सं. १९९६) ९. श्री महावीर सार्वजनिक वाचनालय, चिचोड़ी (वि. सं. २००५) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन वाचनालय, बदनोर ११ श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन छात्रालय, राणावास १२. श्री वर्धमान जैन सिद्धान्तशाला, फरीदकोट १३. श्री रत्न जैन श्राविकाश्रम, श्रीरामपुर १४. श्री तिलोक जैन पारमार्थिक संस्था, घोड़नदी महर्षि आनन्द और उनका तत्त्वचिन्तन १५. श्री प्राकृत भाषा प्रचार समिति, पाथर्डी ये संस्थाएँ आज भी अपनी ज्ञान-साधना से समाज को प्रकाश दे रही हैं। इनके अतिरिक्त बीसों संस्थायें ऐसी भी हैं जो महर्षि आनन्द का सहयोग पाकर जीवित रह सकी हैं। सुधर्मा मासिक पत्र भी उनके निर्देशन में समाज को एक नयी दिशा का बोध करा रहा है। "बुक बैंक" जैसे प्लेटफार्म का निर्माण कर ऋषि जी छात्रजगत की समस्याओं को भी खोजने में व्यस्त हैं । ४. ज्ञान कुंजर दीपिका ५. ऋषिसम्प्रदाय का इतिहास साहित्य सर्जक आचार्य प्रवर आनन्दऋषि जी कुशल साहित्य सर्जक और विविध भाषाओं के पण्डित हैं । मराठी भाषा और साहित्य के विशेष अध्येता होने के कारण उन्होंने मराठी साहित्य को अनुवादन के माध्यम से समृद्ध करना अधिक उपयोगी समझा । अभी तक उनके मराठी भाषा में जो अनुदित ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं वे भाव-भाषा की दृष्टि से प्रशंसनीय कहे जा सकते हैं । ग्रन्थों के आद्योपान्त पढ़ने पर पाठक यह अनुभव करता है कि भाषा के माध्यम से यहाँ भावों की अभिव्यक्ति में कहीं कोई गतिरोध नहीं । प्रवाहशीलता उनकी विशेषता है । यह विशेषता निम्नलिखित अनुदित ग्रन्थों में देखी जा सकती है १. आत्मोन्नतिचा सरल उपाय २. अन्य धर्मापेक्षा जैनधर्मातील विशेषता ३. वैराग्यशतक ४. जैनदर्शन आणि जैनधर्म ५. जैनधर्माविषयी अर्जनविद्वानांचे अभिप्राय ( दो भाग ) ६. उपदेश रत्नकोश ७. जैनधर्माचे अहिंसातत्त्व (वि. सं. २०१२ ) (वि. सं. २०१२ ) (वि. सं. २०१४ ) (वि. सं. २०१६ ) (वि. सं. २०१७ ) (वि. सं. २०२१) ८. अहिंसा आदि महर्षि आनन्द साहित्य सर्जक ही नहीं, साहित्य सर्जकों के निर्माता भी हैं। वे प्रेरणा के सूत्र हैं । उनकी सतत प्रेरणा और संयोजना से अनेक ग्रन्थों का प्रणयन हो चुका है और हो रहा है । प्रणीत ग्रन्थ इस प्रकार हैं- १. पूज्यपाद श्री तिलोकऋषि जी महाराज का जीवनचरित्र २. पण्डितरत्न पूज्य श्री रत्नऋषि जी महाराज का जीवनचरित्र ३. श्रद्धेय श्री देवजीऋषि जो का जीवनचरित्र ६. आध्यात्म- दशहरा ७. समाज-स्थिति का दिग्दर्शन ८. सतीशिरोमणि श्री रामकुंवर जी महाराज का जीवनचरित्र ६. विधवा विवाह मुख चपेटिका आदि १०. सम्राट चन्द्रगुप्त राजा के सोलह स्वप्न ११. चित्रालंकार काव्य : एक विवेचन आचार्य प्रव श्री आनन्द ६७ आमनन्दन आआता दी उप्र भन्थ ५१ श्री आनन्द ronprivate & Persdifal Use Only. J या wate आमदन अन्थ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्मaeaaआचार्ग 24 ग्रन्थ श्रीआनन्दन ६८ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रवचनकार महषि आनन्द शब्दचित्र के निर्माता, अभिव्यक्ति के धनी, वाक्पटुता के पुजारी तथा मृदुता और सरलता के प्रतीक हैं। उनके कृतित्व और व्यक्तित्व की सभी विशेषतायें उनके प्रवचनों में झलकती हैं। उनके अध्ययन और चिन्तन का गांभीर्य वहाँ स्पष्ट हो जाता है। वे जिस विषय को प्रारम्भ करते हैं उसका सम्बन्ध अन्त तक बनाये रखते हैं। अपने विषय को अनेक उपमाओं, उदाहरणों, कथाओं और उद्धरणों के माध्यम से अत्यन्त रोचक और ग्राह्य कर देते हैं । अन्त में तो प्रवचन का सारांश देकर श्रोता को प्रवचनकार का व्यक्तित्व अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। श्रोतृवर्ग की ग्रहण-शक्ति के अनुसार उपदेश देने का कौशल आनन्दऋषि जी की अन्यतम विशेषता है। तत्त्वचिन्तक महर्षि आनन्द की दृष्टि बिलकुल सुलझी हुई है। उनकी चिन्तन-प्रखरता और प्रतिभा-विशदता उनके प्रवचन पढ़ने और सुनने पर अनुभव में आती है। अभी तक आचार्यप्रवर के प्रवचनों के तीन भाग प्रकाशित हो चुके हैं। प्रथम भाग रायपसेयणिसुत्र के सूर्याभदेव के वर्णन पर आधारित है, द्वितीय भाग राज्य, पेट, मौत, तृष्णा, अग्नि, समुद्र, घर और मुक्ति इन आठ खंडों का विवेचन करता है और तृतीय भाग उत्तराध्ययन के अट्ठाइसवें अध्याय की पच्चीसवीं गाथा पर प्रवचन प्रस्तुत करता है। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य प्रवचन भी उनमें सम्मिलित किये गये हैं। इन प्रवचनों में महर्षि आनन्द के आध्यात्मिक, दार्शनिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक जगत के सन्दर्भ में व्यक्त तत्त्वचिन्तन और समीक्षात्मक दृष्टिकोण का जो स्वरूप उद्घाटित हुआ है, वह संक्षेप में इस प्रकार हैधर्म : स्वरूप और उपयोगिता धर्म की कितनी भी परिभाषाएँ की जाएं पर यदि उनमें जीवन को सुधारने की दिशा का निर्देशन नहीं है तो वे सब अधूरी और अधकचरी हैं। अतः धर्म वही है जो प्राणिमात्र का उपकारी हो और उसे संसरण के चक्कर से दूर करने में समर्थ हो । महर्षि आनन्द का मत है "जीवन अमूल्य और दुर्लभ है। अज्ञान और प्रमाद में पड़े रहकर इसकी उपेक्षा करना इसे मिट्टी के मोल गँवा देने के समान है। अतः प्रत्येक आत्मकल्याण के इच्छुक मानव को मंगलमय धर्म का आधार दृढ़ता से ग्रहण करना चाहिए । धर्म की अमर ज्योति ही इस संसार रूपी अरण्य में भटकते हुए जीव को सही मार्ग बता सकती है तथा उसे अनन्त सुख और शाश्वत शान्ति रूपी अमर-पथ की प्राप्ति करा सकती है। धर्म की शरण में जाने पर ही आत्मा का कल्याण और मंगल हो सकेगा।" धर्म से ऋषिवर का मतलब कियाकाण्ड से नहीं बल्कि जीवन को मर्यादित और सुसंस्कृत होने से है। उनका कहना है-"धर्म से हमारा तात्पर्य बाह्य आडम्बर या दिखावे से नहीं है। पूजा-पाठ कर लेना, गंगास्नान कर आना, तिलक-छापे लगा लेना या केवल मुखवस्त्रिका बाँधकर अड़तालीस मिनट तक एक जगह बैठ जाना ही धर्म नहीं है । वरन् जीवन में सद्गुणों, सद्वृत्तियों तथा अविकारी भावों का लाना ही धर्म है। सच्चा धर्म कषाय-विष का नाश करते हुए जीवन के लिए परम रसायन सिद्ध होता है ।"२ धर्म को ऋषि जी ने कल्पवृक्ष की संज्ञा दी है। उनके अनुसार "धर्म संसार की अपूर्व वस्तु है, दूसरे शब्दों में ऐसा कल्पवृक्ष है जिसकी शीतल छाया में बैठकर प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति अपने कषायजनित संताप को मिटा सकता है और ऐसा दिव्य स्रोत है, जिसमें अवगाहन करके प्रत्येक प्राणी अपने आत्मा १ आनन्द प्रवचन, भाग १, पृ० १६ २ वही, पृ० ६६ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महषि आनन्द और उनका तत्त्वचिन्तन ६६ SIN/ Vira गाना की प्रत्येक प्रकार की मलीनता को धो सकता है, समस्त कलुष को बहा सकता है। धर्म वह चीज है जिसे केवल मनुष्य ही नहीं, पशु भी ग्रहण कर सकता है।" “इसलिए इन भाइयों से मेरा कहना है कि धर्म पर दृढ़ रहना तथा हाथ में आये हुए धर्म रूपी रत्न को अस्थिर चित्त वाले नादान व्यक्तियों के प्रभाव में आकर कहीं खो मत बैठना। मेरी तो यही हार्दिक आकांक्षा है कि जो भाई अभी इस मार्ग पर नहीं आये हैं, वे इसे ग्रहण करें। जो इसे ग्रहण कर चुके हैं, अपना ज्ञान-ध्यान बढ़ावें और जो ज्ञान बढ़ा रहे हैं वे उसके प्रसार और प्रचार में लग जायें। अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति अपना कदम बढ़ाता चले ।"२ ज्ञान : स्वरूप और उपयोगिता ज्ञान वस्तू की जानकारी कराता है। पर इस ज्ञान को साधारण न होकर 'सम्यक' होना आवश्यक है। आचार्यप्रवर ने कहा है-.-"प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान हासिल करने में प्रमाद नहीं करना चाहिए। इस संसार में एक मात्र 'सम्यक् ज्ञान' ही आत्मोद्धार में सहायक बनता है। जब सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है तो आत्मा में विवेक की जागृति होती है और प्राणी स्वयं ही सांसारिक भोगों से विरक्त हो जाता है । उनका उपयोग करता हुआ भी वह उनमें आसक्त नहीं रहता, अनासक्त भाव रखता हुआ अपने कर्मों की निर्जरा करता रहता है। भोग-विलास में उसे तनिक भी रुचि नहीं रहती, वह प्रतिपल उस क्षण की प्रतीक्षा किया करता है जिस क्षण वह इस संसार से मुक्त होगा। यह सब सम्यक्ज्ञान की बदौलत ही हो सकता है। सम्यग्ज्ञान के अभाव में किसी भी शुभ क्रिया को करने की प्रवृत्ति नहीं होती। जीवन वही सफल कहलाता है जिसे ज्ञान के आलोक से आलोकित किया जाय । अर्थात् मानव को ज्ञान की प्राप्ति करके उसकी सहायता से अपनी आत्मा को जानना-पहचानना चाहिए। उसके विकास और विशुद्धि का विचार करना चाहिए तथा उसमें छिपी हुई अनन्त शक्ति और अनन्त शान्ति की खोज करनी चाहिए।"४ मन की चंचल गति को सही मार्ग देने के लिए आचार्यप्रवर की दृष्टि में स्वाध्याय, शुभचिन्तन आदि जैन साधन अत्यन्त उपयुक्त हैं। इन शुभ क्रियाओं में अगर वह लगा रहेगा तो उसे विषयवासनाओं की ओर जाने का अवकाश ही नहीं मिल पायगा। स्वाध्याय में बड़ी भारी शक्ति छिपी हई है, इसीलिए इसे महान् तप माना गया है । तपस्या समभाव और निरहंकार होकर की जाय तो उसका फल उत्तम होता है पर सबसे बड़ा तप और सर्वोत्तम फल देने वाला तप स्वाध्याय ही है। ज्ञान-प्राप्ति के साधनों का जिक्र करते हुए आचार्यप्रवर ने ऐसे ग्यारह उपाय बताये हैं जिनसे सतत ज्ञानाराधना की जा सकती है। ये उपाय हैं-पुरुषार्थ, निद्रात्याग, ऊनोदर, मौन, सत्संगति, विनय, तप, संसार की असारता का ज्ञान, स्वाध्याय, ज्ञानी का सान्निध्य और इन्द्रियविषय-त्याग। इन सभी उपायों पर आचार्य जी ने विस्तार से विवेचन किया है।६ कल्याणकारिणी क्रिया के सम्बन्ध में अभ्यास की भी बात कही गई है। क्रिया के साथ ज्ञान और ज्ञान के साथ क्रिया का सम्बन्ध भी जीवन में सफलता AURA १ आनन्द प्रवचन, भाग २, पृ० १३७ २ वही, भाग २, पृ० १६० ३ वही, भाग १, पृ० १६१-२; भाग ३, पृ० २३ ४ वही, भाग ३, पृ० ४ ५ वही, भाग २, पृ० १२; भाग ३, पृ० १४० ६ वही, भाग ३, पृ० २३-२५० ७ वही, भाग ३, पृ० १३ आचायतसआचाudaai مخففعععكه من مقطعید سعادتی مردم برفی های مفید و یکی از عهده مي ممي ممي في موقع دے دے من متعدد مهرههع: متي عقدت في فرع مرغدغه आनन्दा श्रीआनन्द अथ wommmmmmmmmmmmmmmmmmmmmy :-rrrow.comwww Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनंन्दा ग्रामथन्दन ग्राआनन्द आमदन आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व W श ७० प्राप्ति के लिए आवश्यक है।" ज्ञान के अभाव में मनुष्य कैसी भी भक्ति और साधना क्यों न करे, वह अँधेरे में ढेला फेंकने के समान है । सफलता के साधन मानव जीवन चिन्तामणि रत्न जैसा दुर्लभ है । अतः उसे व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए । जीवन की सफलता इसी में है कि वह मुक्ति प्राप्त कर ले। एतदर्थ साधक हिंसा, प्रमाद, कषाय, निद्रा, अहंकार, विकथा आदि का त्याग करे । चित्तधारा को विषय- लालसा से निर्मूल कर दे । आत्मा की अनन्त शक्ति पर पूर्ण विश्वास रखे । संयमी होकर आत्मचिन्तन और आत्मसाधना में लग जाय । आत्मबल के बढ़ने से इन्द्रियों की प्रबलता स्वयं ही कम होगी तथा विषयासक्ति घटती चली जावेगी । इस सबका परिणाम यह होगा कि आत्मा का उत्थान होगा तथा मनुष्य का जीवन सफलता के राजपथ पर अग्रसर होता चला जायगा | सत्संगति सत्संगति भी दुर्लभ होती है । मनुष्य यदि सन्तों द्वारा बताये मार्ग पर चले तो निश्चय ही आत्मस्वरूप का एक दिन साक्षात्कार हो सकता है । सन्तों की संगति से ही मूढ मानव का बौद्धिक विकास हो सकता है तथा उसके हृदय में छाया हुआ अज्ञानान्धकार नष्ट होकर ज्ञान का उज्ज्वल प्रकाश फैल सकता है । सत्संगति से ही मनुष्य के हृदय की दुर्वृत्तियाँ लुप्त हो सकती हैं और सद्वृत्तियाँ जागृत होकर अपना शुभ प्रभाव दिखा सकती हैं । इसीलिए आज संसार को सर्वथा निर्लोभी, निर्मोही, निःस्वार्थी और मार्गदर्शक सन्तों की आवश्यकता है। वे ही पथभ्रष्ट प्राणी को उद्बोधन दे सकते हैं। अगर व्यक्ति सदा श्रेष्ठ पुरुषों की संगति में रहेंगे तो अज्ञान, अहंकार आदि अनेक दुर्गुण तो उनके नष्ट होते ही हैं, उस आत्ममुक्ति के मार्ग की पहचान भी होती है जिसको पाकर वह अपने मानवजीवन को सार्थक कर सकता है । आनन्दऋषिजी के ये शब्द आज के युग के लिए कितने उद्बोधक हैं । उन्होंने अनेक उदाहरणों और कथाओं के माध्यम से सन्त समागम करने की बात कही है। शत्रु-मित्र के प्रति समान व्यवहार, बौद्धिक विकास, क्रोधादि विकारों की शान्ति, गुणवत्ता, असीमशान्ति आदि जैसे सद्गुणों की प्राप्ति सत्संगति से ही होती है | शिक्षा और शिक्षा जगत agfor शिक्षा और शिक्षा जगत के प्रति आचार्य प्रवर अत्यन्त असंतृप्त हैं। आये दिन आन्दोलन, मारपीट आदि जैसे अनुशासनहीनता के कार्य सुनने में आते हैं । इसका मूलकारण उनकी दृष्टि में है— धार्मिक संस्कारों का अभाव। जबतक शिक्षा में धार्मिक विचारों का समावेश नहीं होगा, तब तक वह अपूर्ण रहेगी । इसलिए माता-पिता को अपने बालकों में बचपन से ही धार्मिक संस्कार डालने चाहिए, उनकी रुचि धर्म की ओर उन्मुख करनी चाहिए। उनके हृदय में माता-पिता के प्रति प्रेम, बड़ों के प्रति तथा अपने गुरु के प्रति गहरी श्रद्धा और सम्मान की भावनाएँ जगा देनी चाहिए। तभी वह अपनी नम्रता और विनय के द्वारा जो शिक्षा प्राप्त करेगा उसका परिणाम शुभ होगा । अन्यथा अपनी उच्छृङ्खलता और अविनीतता के कारण शिक्षा के साथ रहकर भी सम्यक्ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकेगा । शिक्षा के उद्देश्य के सन्दर्भ में आचार्य जी का मन्तव्य है कि शिक्षा का कार्य है, बालक में जो ? आनन्द प्रवचन, भाग २, पृ० १, ११५, १३४ २. वही, भाग १, पृ० १२६, १३७, १५६, ३-६७ ३ १ ० २८३, ३ ३ वही, भाग २, पृ० ३१, भाग १, पृ० १४७, भाग ३, पृ०७४, ६० Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महर्षि आनन्द और उनका तत्त्वचिन्तन INIOne सद्गुण गुप्त रूप से विद्यमान होते हैं, उन्हें प्रत्यक्ष करना, चरित्र-निर्माण करना तथा उसे सन्मार्ग बताना। शरीर तथा आत्मा में अधिक-से-अधिक जितने सौन्दर्य और सम्पूर्णता का विकास हो सकता है, उसे सम्पन्न करना ही शिक्षा का उद्देश्य है। शिक्षा के द्वारा ही मनुष्य जीवन की परिस्थितियों का सामना करने की योग्यता प्राप्त करता है। आज स्कूलों और कालेजों में शिक्षा के नाम पर जो शिक्षा दी जाती है वह केवल पुस्तकीय ज्ञान होता है और उसका उद्देश्य सांसारिक सुखों के साधन जुटाना मात्र रहता है। इसलिए ऋषिजी का विचार है कि शिक्षा ऐसी हो जो ज्ञान-चक्षुओं को उघाड़े और आत्मा को जन्म-मरण के चक्कर से छुड़ाये । . इसलिए ऋषिजी ऐसे स्कूल, कालेज और पाठशालाएँ स्थापित कराते रहे हैं जिनमें अध्यात्मवादी शिक्षा देने की भी परिपूर्ण व्यवस्था हो। धार्मिक ज्ञान की वृद्धि के लिए दान करना उनकी दृष्टि में सच्चा दान है। आचार्यप्रवर सदैव ज्ञान के साथ चारित्र का सम्बन्ध जोड़ते आये हैं। उनका कहना है कि विश्वविद्यालय की उच्चतम डिग्री प्राप्त करने पर भी यदि मानव सच्चा मानव नहीं बन सका, उसमें आत्मविश्वास उत्पन्न नहीं हो सका, उसके अन्दर छिपी हुई महान् शक्तियाँ जागृत नहीं हो सकी तथा उसका चरित्र सर्वगुणसम्पन्न नहीं बन सका तो वह अनेक विद्याओं का ज्ञाता और अनेक भाषाओं का जानकार विद्वान भी ज्ञानी नहीं कहला सकता।' परिवारपोषण की नीति आचार्य जी गृहस्थों की समस्याओं पर भी दृष्टि घुमाते हैं और उनके साथ सहानुभूति पूर्वक विचार करते हए कहते हैं कि व्यक्ति अपने परिवार का पालन-पोषण इस प्रकार करे, जैसे एक धाय दूसरे के बालक को पालती है । अर्थात् जिस प्रकार धाय की बालक में आसक्ति और ममता नहीं होती, उसी प्रकार मुमुक्ष प्राणी अपने कुटुम्ब का पालन-पोषण करते हए भी उनसे प्रगाढ़ मोह न रखे। का सम्यग्दृष्टि प्राणी ही शिव-साधन कर सकता है, अपनी आत्मा को कर्म-मुक्त कर शिवपुर ले जा सकता है। आधुनिक परिवारों में व्याप्त अविनीतता, असंस्कारिता, चरित्रहीनता, घृणा, तिरस्कार, अशान्ति आदि के प्रति क्षोभ व्यक्त करते हुए ऋषिजी कहते हैं कि यह सब हमारी दूषित शिक्षाप्रणाली का फल है। माता-पिता की सेवा, भक्ति तथा सम्मान से बढ़कर उनकी दृष्टि में अन्य कोई भी धर्म या शुभकृत्य नहीं है। इसके लिए यह आवश्यक है कि हर परिवार अपने घर का वातावरण सुन्दर बनाये और बालकों पर प्रेरणाप्रद संस्कार डाले।। आज का परिवार अनेक दुर्व्यसनों में भी फँसता हुआ दिखाई दे रहा है। जैन सम्प्रदाय यद्यपि अन्य जातियों और सम्प्रदायों की अपेक्षा अधिक सुसंस्कृत, समृद्ध और शिक्षित है, फिर भी आज उसमें मांस, शराब, जुए आदि जैसे दुर्व्यसन घर करते हुए चले जाते हैं। दहेजप्रथा जैसी कुछ कुरीतियाँ भी समाज में सुरसा के समान बढ़ती चली जाती हैं । इन सबसे बचने का आम उपाय आचार्य की दृष्टि में सन्त और सुशिक्षामय संस्कार और वातावरण की प्रस्तुति है। संगठन महर्षि आनन्द संगठन के बड़े हिमायती हैं। वे सदैव संगठित रहने का उपदेश देते रहते हैं। राजस्थान का भ्रमण उन्होंने श्रमण संगठन में प्रगति करने के उद्देश्य से ही किया था। यहाँ अभी १९७३ जया १ आनन्द प्रवचन, भाग १ पृ० ८१, १७५-१८०; भाग ३, पृ० ५८, ६२, १४७-८ २ वही, भाग १ पृ० १५६, २३०, ३३१-३, ३७१-६; भाग ३, पृ० ६२, ३४२-३ - RALAAJL R AJASun.. . ..... .. . . .. .... पावर अभिसापावर भर श्रीआनन्द श्रीआनन्दा अन्य Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ answNJaanwaeanAOADACANADAALAAAAJAapladacon:',. ७२ आचार्यप्रवर श्री आनन्द ऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व के चातुर्मास के सन्दर्भ में जब महाराज साहब नागपुर पधारे तो उनके प्रारम्भिक आठ दिनों के प्रवचन संगठन पर ही चलते रहे। समूचे चातुर्मास में वे यह प्रयत्न भी करते रहे कि दो दिलों और वर्गों को कैसे जोड़ा जाय । इसमें कोई सन्देह नहीं कि वे इस लक्ष्य में काफी अंश तक सफल भी हुए। आचार्यप्रवर की दृष्टि में संगठन की आवश्यकता प्रत्येक स्थान पर है। समाज, शरीर और आत्मा, सभी को संगठन की अपेक्षा रहती है । यद्यपि आत्मा संसार के समस्त पदार्थों से भिन्न है, किन्तु उसके अपने निजी गुण तो उसमें संगठित रूप से रहना आवश्यक है। इन विषयों के अतिरिक्त आनन्द-प्रवचन में अन्य विषयों पर भी ऋषिवर ने उद्बोधन दिया है। उदाहरणार्थ-मनुष्यभव एक जंकसन है, मनुष्य जन्म रूपी वृक्ष के छः फल, नेक पुरुष का स्वरूप (प्रथम भाग); सोना किस समय, मरण का स्मरण, गृहस्थों की तीन श्रेणियाँ, सच्चा शासक, सच्चा साधक, तपसेवा आदि की महिमा, कर्म का स्मरण, अनुशासन, स्वयं दीपक बनो, मानव जीवन की सात्विकता (द्वितीय भाग); क्रिया का महत्त्व, संसार कहाँ है ?, कछुए के समान बनो, आज का धनीवर्ग, बही-खाता पलटते रहो, व्रत क्यों आवश्यक है, समय से पहले चेतो (तृतीय भाग) आदि । इस प्रकार प्रवचनकार महर्षि आनन्द का कृतित्व और व्यक्तित्व सत्य और अहिंसा का समन्वित स्थल है; सरलता, मृदुता, निर्मलता और तपस्तेज का प्रतीक है तथा ज्ञान, ध्यान, सेवा और विनय का प्रतिबिम्ब है। उनके प्रवचन और उपदेश व्यक्ति की डूबती हुई नौका के लिए पतवार हैं। उनके सहयोग से प्रगति-पथ आलोकित हो उठता है । ऐसे आदर्श महान् सन्त सर्वत्र नहीं मिलते। उनके जन्मदिवस के उपलक्ष में हम अपने श्रद्धा-सुमन समर्पण के साथ उनके चिरजीवी होने की शुभकामना व्यक्त करते हैं। श्रद्धा-सुमन चिंचोड़ी भूमि धन्योऽस्ति यस्मिन्, आचार्य आनन्दऋषि ऋषीश । तत्त्वानि पापानि निधीन्दु वत्सरे, लभेत् जन्म तिमिरारि सन्त ।। पादाविन्दे सुमनानि श्रद्धा, समर्पयामि ऋषि-कंत-सन्त । दिवाकरो तुल्य प्रकाशदाता, नमाम्यऽहं तं शिरसा सुश्रद्धया । ---डा. कस्तूरचन्द्र 'सुमन', बांसातारखेड़ा दमोह (म. प्र.) १. आनंद प्रवचन, भाग २, पृ० २१ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ० नरेन्द्र भानावत एम. ए., पी-एच.डी. [ हिन्दी साहित्य के प्रमुख समीक्षा लेखक, सम्प्रति-- राजस्थान विश्वविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापक ] अभिनन्दन : एक जागरूक चेतना का आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज साहब प्रखर चिन्तक, प्रभावी व्याख्याता, प्रबल संगठक और 'विशिष्ट साधनाशील संत हैं । अपने सुदीर्घ साधनामय जीवन में जहाँ आप आत्म-कल्याण की ओर प्रवृत्त रहे वहीं जन-कल्याण की ओर भी सदैव सचेष्ट रहे । सरलता के साथ भव्यता, विनम्रता के साथ दृढ़ता और ज्ञान-ध्यान के साथ संघ-संचालन की प्रशासनिक क्षमता आपके व्यक्तित्व की अन्यतम विशेषताएँ हैं । आपके व्यक्तित्व में आकर्षण है जिससे व्यक्ति आपकी ओर खिंचता चला आता है। उनमें विशेष प्रभाव है, जो व्यक्ति को अपनी ओर खींच लेता है। मुझे स्मरण आता है, मैंने सबसे पहले आज से लगभग २२ वर्ष पूर्व सादड़ी सम्मेलन में इस महान विभूति के दर्शन किये थे। तब मैं श्री गोदावत जैन गुरुकुल, छोटी सादड़ी का छात्र था और गुरुकुल की ओर से ही हम कई छात्र इस सम्मेलन में सम्मिलित हुए थे । प्रारम्भ से ही मुझे साहित्य के प्रति विशेष रुचि थी । उन दिनों मेरी कविताएँ 'जैनप्रकाश' आदि पत्रों में प्रकाशित होने लग गई थीं। जैनप्रकाश के तत्कालीन सम्पादक श्री रत्नकुमार जी 'रत्नेश' के सहयोग से मुझे सम्मेलन की कार्रवाई को निकट से देखने और समझने का तथा जैन-जगत की कई विभूतियों के प्रथम बार दर्शन करने का अवसर मिला था । कइयों के चित्र आज भी मेरे मानस पटल पर अंकित हैं । आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज साहब के व्यक्तित्व का जो दर्शन मैं इस सम्मेलन में कर सका, वह बाद में मेरे लिये उत्तरोत्तर प्रेरणादायक बनता गया । श्री जवाहर विद्यापीठ, कानोड़ में जो उस समय श्री विजय जैन पाठशाला के रूप में था, मैंने पांचवीं कक्षा तक की पढ़ाई की थी। उस समय मैंने 'श्री तिलोक रत्न जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड, ' पाथर्डी की प्रारम्भिक परीक्षाएँ भी दी थीं। बाद में अपने कालेज अध्ययन के साथ-साथ भी मैं इस बोर्ड की 'जैन सिद्धान्त प्रभाकर' तक की परीक्षाएँ देता रहा और मेरे जैसे हजारों छात्र इस बोर्ड के माध्यम से जैन धर्म और दर्शन का अध्ययन कर सके । इस बोर्ड की परीक्षाओं के प्रति हमारे मन में बड़ा उत्साह और बोर्ड के अधिकारियों के प्रति बड़ी श्रद्धा और सम्मान का भाव रहता था । जब मुझे यह जानने का अवसर मिला कि इस परीक्षा बोर्ड की स्थापना के मूल प्रेरक आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज साहब ही हैं तो उनके सृजनधर्मी, क्रान्तदर्शी व्यक्तित्व के प्रति मेरी श्रद्धा और अधिक बढ़ गई । आज समाज में धार्मिक अध्ययन-अध्यापन का जो वातावरण है, उसका बहुत बड़ा श्रेय पाथर्डी के धार्मिक परीक्षा बोर्ड को है और बोर्ड के प्रेरणा-स्रोत के रूप में आचार्यश्री का समाज पर कितना उपकार है, अप्रत्यक्ष रूप से कितने लोग उनसे अनुप्राणित हुए हैं, धर्म-चिन्तन के क्षेत्र में प्रोत्साहित हुए हैं, उसे शब्दों में आँकना मुश्किल है। और फिर एक संस्था ही क्या, आचार्यश्री ने तो ऐसी कई संस्थाओं को जीवन और पुनर्जीवन दिया है। आचार्यश्री ने शायद यह बहुत पहले महसूस कर लिया था कि नैतिक शिक्षण के अभाव में अब to ST ॐ आचार्य प्रवर अभिन्दै आनन्द अन्थपुन Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NIT आचार्यप्रवर अभिन्न श्रीआनन्दान्थश्राआनन्दान्य ७४ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व कोरा व्यावहारिक शिक्षण सार्थक नहीं बन पाता। इसीलिये वे स्वयं एक संस्था की तरह जैसा-जैसा अवसर और सुयोग मिलता रहा, इस उद्देश्य की पूर्ति में सक्रिय होते रहे। सम्वत् २०२१ में आचार्यश्री का चातुर्मास जयपुर में हुआ, तब मुझे आपके सम्पर्क में आने का विशेष अवसर मिला। इस चातुर्मास में जैनपरम्परा के इतिहास, जैनसाहित्य में शोध, प्राकृत भाषा के अध्ययन-अध्यापन, जैन पत्र-पत्रिकाओं की स्थिति आदि के सम्बन्ध में मेरी आचार्यश्री से काफी बातें हुईं। उनकी बातों से मुझे सदैव यह महसूस होता रहा कि वे शिक्षित युवक-युवतियों को इस क्षेत्र में लाने के लिये प्रयत्नशील हैं। उनकी यह धारणा रही कि हमें संकीर्ण घेरे में बंधकर जैन धर्म और दर्शन का अध्ययन नहीं कराना है। इसके अध्ययन-अध्यापन की आधारभूमि हमें अत्यन्त व्यापक रखनी होगी और यह कार्य तभी सम्भव हो सकता है जब हम प्राकृत भाषा के अध्ययन-अध्यापन की ओर छात्रों और विद्वानों को आकर्षित करें। इन्हीं विचारों को मूर्त रूप देने के लिये आचार्यश्री ने जयपुर चातुर्मास में 'प्राकृत भाषा प्रचार समिति' जैसी नई संस्था को जन्म दिया। o आचार्यश्री की दृष्टि बड़ी पैनी, उदार और वस्तुनिष्ठ है। वे अतीत में नहीं जीते, वर्तमान समस्याओं से सामना करते हुए वे भविष्य के लिये आस्थावान बनते हैं और वह सुन्दर तथा मांगलिक बन सके, इसके लिये सतत चिन्तनशील रहते हुए कोई-न-कोई ठोस योजना अपने मन-मस्तिष्क में लिये चलते हैं। आचार्यश्री ने देखा कि कोरा शास्त्रीय ज्ञान समाज को प्रगतिशील और सचेतन नहीं बना सकता। शास्त्रों के संदेश तब प्रभावी और तेजस्वी बनते हैं जब वे युगीन चिन्तन में सहभागी बनते हैं और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये यह आवश्यक है कि समाज के बुद्धिजीवी चिन्तन की दिशा में अग्रसर हों। बुद्धिजीवियों को यह चिन्तन-भूमि प्रदान करने के लिये ही कदाचित 'सुधर्मा' जैसे मासिक पत्र का प्रकाशन आरम्भ हुआ। आचार्यश्री की प्रेरणा से ही कुछ वर्षों तक मैं सम्पादक-मंडल के सदस्य के रूप में इस पत्र से जुड़ा रहा । आपके जयपुर चातुर्मास के बाद यद्यपि मुझे आपके प्रत्यक्ष दर्शन करने का सौभाग्य नहीं मिला, पर आपकी प्रेरणा मुझे सतत जागरूक बनाये रही। ऋषिसम्प्रदाय की साहित्यिक साधना पर विशेष अनुसंधान हो, इस दृष्टि से मैं समय-समय पर सोचता रहा। संत कवि तिलोकऋषि और अमीऋषि के मधुर सवैये और पद साहित्य की अमूल्य निधि हैं। मैंने अपने निर्देशन में अपनी एक छाया कुमारी मधु माथुर से 'संत कवि तिलोकऋषिः व्यक्तित्व और कृतित्व' ग्रंथ एम. ए. के लघु शोध-प्रवन्ध के रूप में तैयार करवाया है जो आचार्यश्री की सेवा में भेजा जा चुका है। आशा है, यह ग्रंथ शीघ्र ही प्रकाशित होगा। आचार्यश्री नानाविधि प्रवृत्तियों के प्रेरक होने के साथ-साथ स्वयं सुमधुर गायक और गूढ़ व्याख्याता साहित्यकार भी हैं। श्री तिलोकऋषिजी प्रणीत 'आध्यात्मिक दशहरा' और 'ज्ञानकंजर' की विवेचना में आपका गूढ़ दार्शनिक विवेचक रूप और 'आनन्द-प्रवचन' में आपका प्रवचनकार विचारक रूंप स्पष्ट परिलक्षित होता है। आचार्यश्री के ७५ वें जन्म-जयन्तिमहोत्सव पर उनका सार्वजनिक अभिनन्दन कर उन्हें अभिनन्दन-ग्रन्थ समर्पित करने का विचार बहुत ही उपयोगी और स्तुत्य है। क्योंकि यह अभिनन्दन उस साधक व्यक्तित्व का अभिनन्दन है जिसने महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, जम्मू-कश्मीर आदि सुदूर प्रान्तों में पदविहार कर नैतिक जागरण का शंखनाद किया है, यह अभिनन्दन उस अध्यात्मपुरुष का अभिनन्दन है जिसने समाज में धार्मिक शिक्षण-संस्थान का बीज वपन किया है, यह अभिनन्दन उस जागरूक चेतना का अभिनन्दन है जिसने भाषा, साहित्य और संघ-सेवा के प्रति अपने आपको समर्पित किया है। यह आलोकपुरुष शतायु हो और अपनी सहस्र किरणों से हमारा मार्ग प्रशस्त करता रहे- इसी भावना के साथ सादर वन्दनांजलि । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - महासती सुमतिकुंवर जी [विदुषी एवं निर्भीक साध्वी, शिक्षा एवं सेवा कार्यों में संलग्न महाराष्ट्र का कोहेनूर : आचार्य श्री आनन्दऋषि महिमामयी पुण्यभूमि भारतवर्ष नररत्नों की जन्मभूमि है। आध्यात्मिकता और त्याग के बीज इस भूमि के कण-कण में समाये हैं। अतएव यहाँ का सांस्कृतिक लोकजीवन आध्यात्मिक आदर्शो से सदैव अनुप्राणित रहा है। प्रत्येक महामानव ने 'सर्वे सुखिनः संतु' के संगायन के द्वारा उत्तरोत्तर जनता को कल्याण मार्ग का दर्शन कराया है। कशमीर से कन्याकुमारी और तक्षशिला से त्रिपुरा तक फैले इस देश की भूमि में अनेक सम्राटों, परिव्राटों ने देशवासियों के नैतिक निर्माण द्वारा विश्व को जीवन जीने की कला सिखाई है। इसी देश के दक्षिण भूभाग की अपनी अनूठी ही विशेषता है। अनेक रणवीरों, राष्ट्रभक्तों और अध्यात्मसाधक संत-महात्माओं की गौरव गाथायें इतिहास में अंकित हैं, जिनका पुण्यस्मरण और श्रवण कर प्रत्येक देशवासी श्रद्धावनत हो गौरवानुभूति करने लगता है। हिन्दुपत छत्रपति शिवाजी, संत ज्ञानदेव, नामदेव, स्वामी रामदास, संत तुकाराम, बालगंगाधर तिलक, प्रभृति की पुनीत कर्मभूमि यही दक्षिण की शस्य-श्यामला भूमि है। जैनसंस्कृति के आचार-विचारों के व्यापक प्रचार, शिल्प, स्थापत्य के अपूर्व स्मारकों के निर्माण और जैन वाङ्मय के प्रणेता महान आचार्यों की साधना से समृद्ध होने का श्रेय भी इसी भूमि को प्राप्त है। आचार्य स्थूलिभद्र जैसे महान जैनाचार्यों ने सहस्रों जैन ग्रन्थों का ताड़पत्र पर अंकन कर सरस्वती के कोप की श्रीवृद्धि की है और उक्त परम्परा की धारा अद्यावधि जैनाचार्यों द्वारा प्रवहमान है। इसी महिमामयी भूमि को हमारे श्रद्धेय पूज्य श्री आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज को जन्म देने, संयमसाधना में नितनूतन कीर्तिमानों को संस्थापित करने की ओर अग्रसर कराते रहने का गौरव प्राप्त हुआ है । इस भूमि से अजित संस्कारों के फलस्वरूप आपश्री संतशिरोमणि, संघनायक जैसे पदों से सुशोभित हुए हैं । आपश्री की अध्यात्मप्रवणता अध्यात्मसाधकों के लिये दीप-स्तम्भवत् पथप्रदर्शक है। महापुरुषों के जन्मजात संस्कारों को पल्लवित करने का श्रेय माता के रूप में नारी जाति को है। सन्तान को वह अपने वात्सल्य की अमीधारा का पान कराकर एवं स्वकल्याणमयी भावनाओं का पाथेय प्रदान कर अपने आपको कृतार्थ मानती है। लेकिन इस नारी जाति को अपमानित, प्रताड़ित करने के लिए बड़े-बड़े विद्वानों ने सदैव प्रयास किया है। मूढ़, गवार, शुद्र, पशु, नारी ये सब ताड़न के अधिकारी जैसे अवज्ञासूचक वाक्यों का प्रयोग तक कर दिया। यही नहीं, भगवान बुद्ध ने तो अपने संघ में नारी जाति को उचित स्थान देने पर संघविच्छेद होने तक की कल्पना कर ली थी। लेकिन इतने मात्र से नारी के गौरव को धूमिल नहीं किया जा सकता है। उसके दान की अबहेलना नहीं की जा सकती है। यथेच्छा आचार्यप्रवर अभिगन्दामा श्रीआनन्दान्थश्राआनन्दान्थ५१ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 陳 अमि ७६ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व उपेक्षणीय अपशब्दों के उपयोग किये जाने पर भी उसके उपकारों से उऋण नहीं हो सकते हैं । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नारी का योगदान अभूतपूर्व है । ज्ञानाभ्यास के प्रथम सूत्रधार के रूप में ब्राह्मी जैसी नारीरत्न जन-जन के लिये श्रद्धा केन्द्र है । भगवान ऋषभदेव से भगवान महावीर पर्यन्त जैनशासन में साधुओं की अपेक्षा साध्वियों की संख्या, श्रावकों की अपेक्षा श्राविकाओं की संख्या अधिक रही है। वर्तमान में भी यही क्रम देखने में आता है । आचार्य प्रव श्री आनन्दत्र ग्रन्थ अभिनंदन इसी नारी जाति की श्रृंखला में एक पुण्यश्लोका महिलारत्न सौभाग्यवती श्रीमती हुलासबाई की कुक्षि से आचार्य श्री जी का जन्म हुआ था । यथानाम तथागुण के अनुसार मातुश्री हुलासबाई इस पुत्ररत्न को प्राप्त कर हुलास से हुलसित हो उठीं । धार्मिक आचार-विचारों से सम्पन्न संस्कारों का सुपुत्र में सिंचन करने के लिए बाल्यकाल से ही प्रयत्नशील रहीं और प्रतिदिन सामायिक के साथ प्रतिक्रमण करने के लिये गुरुदेव से प्रतिक्रमण सीखने की पुत्ररत्न से अभिलाषा व्यक्त की और आपश्री ने आज्ञाकारी पुत्र के कर्तव्य का पालन किया । यही आध्यात्मिक साधना की ओर अग्रसर होने का सूत्रपात है जो शनैःशनैः व्यापक बनता गया । योग्य समय में बोया गया वीज आज वटवृक्ष के रूप में दृश्यमान है। जिसकी शीतल छाया में अनेक मुमुक्षु इस संसारताप से परित्राण पाने के लिए प्रयत्नशील हैं । ऐसी ही एक दूसरी महिलारत्न है, जिन्होंने पूज्य आचार्यश्री के जीवन-निर्माण में अपूर्व योगदान दिया है । उनका नाम महासती श्री रामकंवर जी महाराज है । आपका जन्म महाराष्ट्र राज्य के पुना जिले के अन्तर्गत घोड़नदी नामक नगर में लोढ़ाकुलभूषण स्वभावतः गम्भीर और नाम से भी गम्भीरमल जी की धर्मपत्नी श्रीमती सौ० चम्पादेवी की कुक्षि से हुआ था । यह कन्यारत्न पारिवारिक जनों के समान ही समाज के लिए भी प्रिय थी और भविष्य में तो धर्म का सन्देश मुखरित कर चतुविध संघ के लिए श्रद्धास्पद बन गई । इस महान पवित्र आत्मा का स्मरण कर आचार्यप्रवर अनेक बार अपना आदरभाव व्यक्त करते रहते हैं । यही संयमनिष्ठ, सौम्यमूर्ति महासती श्री रामकुंवर जी महाराज महाराष्ट्र में श्रमण- शिरोमणि संतों के पदार्पण की कारण बनीं। जब श्री रामकुंवर जी दैववशात विवाहोपरान्त ही विधवा हो गईं तो इनकी माता श्रीमती चम्पादेवी ने अपने पति श्री गम्भीरमल जी लोढ़ा को प्रेरणा दी कि अपनी प्रिय पुत्री के सात्विक, नैतिक, धार्मिक संस्कारों को सबल एवं विकासोन्मुखी बनाने के लिए आप मालवा, मेवाड़, राजस्थान में जाकर इधर के क्षेत्रों में संत-सतियांजी के पदार्पण के लिए विनती करें और इस क्षेत्र में लायें। मैं भी अपनी पुत्री के साथ ही संयमी जीवन बिताना चाहती हूँ। हम माँ-बेटी की यहीं पर दीक्षा हो, जिससे अन्यान्य भव्य मुमुक्ष जनों को संयमाराधना की प्रेरणा मिले और श्रमण भगवान महावीर का सन्देश देशव्यापी बने । श्री गंभीरमल जी लोढ़ा स्वयं धार्मिक आचार-विचारवाले श्रावक थे और धर्मपत्नी के इन उदार विचारों की अनुमोदना करते हुए महाराष्ट्र में संत-सतियाजी महाराज साहब के पदार्पण हेतु विनती करने मालवा आदि की ओर चल पड़े। अनेक स्थानों पर जाकर श्री लोढ़ा जी ने अपनी भावना व्यक्त की । उन दिनों यातायात के लिए आज सरीखे राजमार्ग नहीं थे । छोटी-मोटी पगडंडियाँ, वीहड़ वन आदि और ग्रामों के दूर-दूर होने से साधु सन्तों के लिए विहार में अनेक परिषहों का सामना करना पड़ता था । अतः श्री लोढ़ा जी को सफलता नहीं मिली । अनेक संत सतियां जी ने क्षेत्र, काल आदि को देखकर कुछ निश्चय करने को कहा । अन्त में श्री लोढ़ा जी मालवा प्रान्त के जावरा नगर में चातुर्मास हेतु विद्यमान पूज्य श्री तिलोकऋषि जी महाराज की सेवा में उपस्थित हुए और अपनी भावना, स्थिति आदि व्यक्त करते हुए महाराष्ट्र की ओर विहार करने की विनती की। पूज्यश्री ने परिस्थिति का आकलन कर एवं भविष्य में शुभ होने की सत्कामना के साथ महाराष्ट्र Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराष्ट्र का कोहेनूर : आचार्य श्री आनन्दऋषि ७७ REAN CLORADI की ओर विहार करने की स्वीकृत दे दी। श्री लोढ़ा जी को तो परम सन्तोष हुआ हो और जब इस शुभ संवाद को सुदूर महाराष्ट्रवासियों ने सुना तो हर्षविभोर हो उठे। चातुर्मास-समाप्ति के पश्चात पूज्य श्री तिलोकऋषि जी महाराज का अपने सन्तमण्डल के साथ महाराष्ट्र की ओर विहार हो गया। इधर विहार हुआ और उधर महाराष्ट्रवासी आगमन के दिनों को एक, दो, तीन आदि गिनकर वाट जोहने लगे। यथासमय पूज्यश्री तिलोक ऋषि जी महाराज एवं सतीशिरोमणि श्री हीराकँवर जी महाराज साहब ने घोड़नदी नगर में पदार्पण किया। पूज्यश्री संसारपक्ष में सुराना वंश के जाज्वल्यमान सितारे थे और एक ही दिन पूज्य माता जी, ज्येष्ठ भ्राता, बड़ी बहिन श्री हीराकँवर जी और स्वयं ने साथ में दीक्षा ली थी। पूज्यश्री का महाराष्ट्र में पदार्पण होने से जिनशासन की प्रभावना दूर-दूर क्षेत्रों तक व्याप्त होने लगी। अन्य अनेक भव्य आत्माओं को संयममार्ग पर अग्रसर होने के पूर्व प्रथम शिष्यरत्न पूज्य श्री रत्नऋषि जी महाराज को भागवती दीक्षा अंगीकार करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और भविष्य में यही पूज्यश्री के पाटानुपाट उत्तराधिकारी के रूप में जिनशासन को दैदीप्यमान बनाकर भव्य मुमुक्षु जनों के मार्गदर्शक बने। पूज्य श्री रत्नऋषि जी महाराज पूज्य गुरुदेव की सेवा में रहकर अध्ययन कर ही रहे थे कि अकस्मात गुरुदेव के कालधर्म को प्राप्त होने से वरदहस्त से वंचित हो गये। ऐसे अवसर बड़े ही करुणाजनक और मार्मिक होते हैं। परन्तु एकाकी लघु दीप अपने प्रकाश से ही गहन अन्धकार का उन्मूलन कर देता है और यही बात पूज्य श्री रत्नऋषि जी महाराज के सम्बन्ध में यथार्थ सत्य सिद्ध हुई । महासती श्री हीराकुँवर जी महाराज कुछ सन्तों के साथ आपको पुनः मालवा में पठन-पाठन हेतु लेकर आई और योग्य विद्वान, सिद्धान्तमर्मज्ञ, निष्णात बनाकर शासन के प्रति अपने कर्तव्य का पालन किया । योग्य विद्वान बनने के बाद पुनः पूज्य श्री रत्नऋषि जी महाराज का महाराष्ट्र में पदार्पण हुआ और इसके पश्चात तो दिनोंदिन सद्धर्म की दुन्दुभी दूर-दूर तक व्याप्त होती गई और आज भी पहले की तरह अपने घोष से आबाल-वृद्ध जनसमूह को सुख-शान्ति का सन्देश दे रही है। पूज्य श्री रत्नऋषिजी महाराज का दिव्य जीवन अपने आप में महान है। अज्ञान और अन्धविश्वासों से ग्रस्त जनमानस में धार्मिक संस्कारों का सिंचन करने के लिये यह जरूरी है कि ज्ञानाभ्यास, स्वाध्याय, सामायिक की प्रवृत्ति का प्रचार किया जाय । अतएव आपश्री जहाँ भी पहुँचते थे, बच्चों को एकत्रित कर उन्हें सामायिक, प्रतिक्रमण, २५ बोल का थोकड़ा, भक्तामरस्तोत्र आदि सिखाते । प्रतिदिन प्रातः से लेकर रात्रिविश्राम करने के पूर्व तक यही क्रम चलता रहता था। आप इतनी लगन और परिश्रम से बालकों को शिक्षण देते थे कि अल्पकाल में ही धार्मिक विचारों का अच्छा प्रभाव गांव-गांव और नगरनगर में दिखने लगा। प्रत्येक परिवार में धार्मिक शिक्षण लेने का उत्साह वृद्धिगत होता गया। पूज्य श्री रत्नऋषिजी महाराज की इस साधना का प्रभाव हमारे वर्तमान श्रद्धेय आचार्यश्री जी के बाल्यजीवन पर पड़ा। अहमदनगर जिला की सुरम्य भूमि शिराल चिचोड़ी में आपश्री का जन्म हुआ। बाल्यावस्था में हो पूज्य पिताश्री का वियोग हो जाने से मातुश्री पर लालन-पालन का उत्तरदायित्व आ गया। एक बार पूज्य श्री रत्नऋषिजी महाराज का आपके ग्राम में पदार्पण हुआ। पूज्यश्री धार्मिक अभ्यास के प्रचारक तो थे ही और यहां भी बालकों को धार्मिक ज्ञान देने लगे । आपकी माताजी ने आपसे प्रतिक्रमण आदि सीखने को कहा और आज्ञानुसार प्रतिक्रमण सीखने के लिये तत्पर हो गये। प्रतिक्रमण पाठ का शिक्षण इतना तलस्पर्शी किया कि घरबार ही छोड़ दिया। गुरुदेव के साथ विहार, ज्ञानाभ्यास आपकी दैनिक चर्या बन गई और घर लौटे सिर्फ भागवती दीक्षा अंगीकार करने की आज्ञा लेने। माता ने जब इस भावना को सुना तो हृदय स्नेह से गद्गद हो उठा, दुलार की स्मृतियां जाग उठीं, बहुत कुछ समझाया और संयम मार्ग को किठनाइयां बताईं, लेकिन आप अपने पथ से नहीं डिगे और एक निर्भीक वीर की ३ ए WAJuniaRAJAanadaKINNAaianiawanAJARANJALAAMABAAJADHAAKAAW AAAAMANA PALAMAa ix आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवभि श्रीआनन्दमय श्रीआनन्दमन्थन amer.mmmmmonommmmmm Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राआनन्द प्राआनन्द मदन minim -07:... -.. - --.-:. - . आचार्यप्रवर श्री आनन्द ऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व तरह अध्यात्ममार्ग पर अग्रसर होने के लिये तत्पर रहे। अंत में सभी प्रकार से परीक्षा कर आपको संयम-साधना हेतु भागवती दीक्षा अंगीकार करने की स्वीकृति प्राप्त हो गई। पारिवारिकजनों की अनुमति और संघ की स्वीकृति पूर्वक मिरी ग्राम में पूज्य श्री रत्नऋषिजी महाराज के वरदहस्त से प्रवजित होकर नेमिचंद जी से मुनि आनन्दऋषि जी महाराज के नाम से विख्यात हो गये । आपका यह नामकरण इतना उचित था कि यह लघु शिष्य गुरुदेव को ही नहीं चतुर्विध संघ को भी आनन्दप्रद रहा और है।। पूज्य श्री रत्नऋषि जी महाराज स्वभाव से परम कारुणिक परन्तु बाहर से बड़े ही अनुशासन में कड़क थे । अनुशासन भंग होना उन्हें सह्य नहीं था। अतः लघु शिष्य मुनि आनन्द को घड़ने के लिए अहर्निश तत्पर रहते और शिष्य भी आपके आदर्शों को आत्मसात करने के लिए सदैव तत्पर रहने लगे । उस समय समाज में संस्कृत भाषा-विज्ञ जैन विद्वान नहीं थे और जो ब्राह्मण विद्वान थे वे जैनों को शिक्षण देते नहीं थे । इस विकट स्थिति और समाज में अशिक्षा के कारण बढ़ रही अन्धश्रद्धा से होने वाली हानियों को देखकर पूज्यश्री बहुत ही चितित रहते थे। इसके निराकरण के लिए चतुर्विध संघ से विचार-विमर्श किया और उपाय के रूप में वर्षीदान की प्रेरणा दी। इस प्रेरणा का सुपरिणाम यह निकला कि अहमदनगर जिले के पाथर्डी ग्राम में आज से ५० वर्ष पूर्व विद्यार्थियों को व्यावहारिक शिक्षा के साथ धार्मिक शिक्षण देने के लिए जिस शाला का शुभारम्भ हुआ था, आज सैकड़ों विद्यार्थियों के लिए विद्याकल्पवृक्ष के रूप में प्रगतिशील है। प्रतिवर्ष सैकड़ों विद्यार्थी योग्य बनकर सुख-शान्तिपूर्वक जीवनयापन कर रहे हैं। श्रावक-श्राविकाओं की लिए तो योग्य शिक्षण की व्यवस्था का सूत्रपात हो गया था लेकिन साधुसाध्वियों के योग्य शिक्षाव्यवस्था नहीं बन सकी थी। योग्य विद्वानों का सुयोग नहीं मिलने तथा पैसा देकर गृहस्थों से अध्ययन करने की शास्त्रों की आज्ञा न होने से मन में संकोच बना रहता था कि शिष्यों को योग्य विद्वान कैसे बनाया जाय। इसके साथ ही शास्त्रों में यह भी लिखा है कि अज्ञानी मत रहो, क्योंकि भावश्रुत का कारण द्रव्य श्रुत है और द्रव्यश्रुत का अध्ययन करने हेतु टीका, भाष्य, चूणि आदि का अभ्यास करना आवश्यक है एवं इनका अध्ययन संस्कृत भाषा का अभ्यास किये बिना हो नहीं सकता। संस्कृत के अभ्यास के लिए विद्वानों का समागम जुटाना जरूरी है। पूज्यश्री ने अपनी स्थिति और शास्त्रीय दृष्टि श्रावक वर्ग के समक्ष रखी और श्रावकों ने इसके लिए योग्य व्यवस्था कर दी, जिससे एक के बाद एक योग्य विद्वान संत न्याय, व्याकरण, आगमशास्त्र के ज्ञाता बनते गये। पूज्यश्री की इस दीर्घदृष्टि का परिणाम यह हुआ कि हमारे आचार्य श्री जी ने वर्षों तक न्याय, व्याकरण, दर्शन, सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन करने के साथ-साथ हिन्दी, मराठी, उर्दू, अंग्रेजी आदि भाषाओं पर भी अच्छा अधिकार प्राप्त किया और अपने प्रवचन में उन भाषाओं को माध्यम बनाकर श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध बना देते हैं। श्रोताओं को सन्तुष्ट कर देना मात्र ही आपका लक्ष्य नहीं है। इस वृद्धावस्था में भी सतत नयानया ज्ञानाभ्यास म्वयं करते हैं एवं अपने अन्तेवासी सन्त-सतीवृन्द को भी इसके लिए प्रेरित करते रहते हैं। संयममार्ग में दीक्षित करने के पूर्व आप मुमुक्ष जनों के अध्ययन की ओर विशेष ध्यान देते हैं और इसके लिए पाथर्डी में सिद्धान्तशाला की स्थापना है। जिसकी शाखायें अहमदनगर और घोड़नदी में भी स्थापित की गई हैं। मैं स्वयं इन सिद्धान्तशालाओं में शिक्षण प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त कर सकी हूँ। ऐसे महापुरुष की हीरक-जयन्ती और इस अभिनन्दन-ग्रन्थ-समर्पण समारोह मनाने के अवसर को प्राप्त करने के लिए हम सभी संत, सती अपने को गौरवशाली मानते हैं और नाम से ही नहीं भाव से भी आनन्दमयी पूज्य आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज जयवन्त रहें की भावना व्यक्त करते हैं। जय Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 साध्वी श्री शीतल कुंवर जी [ऋषि संप्रदाय की विदुषी एवं सेवापरायण साध्वी] कर्तव्यनिष्ठ, सेवा की साकारमूर्ति : पूज्य आचार्य श्री आनन्दऋषि जी र दूर नवादहिया गजन यह जानकर अत्यधिक प्रसन्नता हुई कि श्रद्धय पं० रत्न आचार्यसम्राट प्रखरवक्ता श्री आनन्दऋषि जी म. के ७५ वें जन्मदिवस के उपलक्ष में एक अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित करने की योज है। यह स्थानकवासी श्री संघ के लिये सौभाग्य का विषय है। ऐसे महान कार्य में श्रद्धा के सुमन समर्पित करने का मुझे सद्भाग्य प्राप्त हुआ। स्थानकवासी जैन समाज की परम्परा में ऋषिसम्प्रदाय का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस सम्प्रदाय में क्रियोद्धारक श्री लवजीऋषि जी महाराज, पूज्य श्री कहानऋषि जी म०, प्रातःस्मरणीय कविकुलभूषण श्री तिलोकऋषि जी म०, शास्त्र वारिधि पं० रत्नश्री रत्नऋषि जी म० और जैनाचार्य शास्त्रोद्धारक वा० ब्र० श्री अमोलकऋषि जी म० आदि बहुत ही प्रसिद्ध महामुनि हुए हैं। इन्होंने जैन समाज को उन्नति पथ पर अग्रसर करने के लिए कठिन परिषहों को सहनकर के गाँव-गाँव घूमकर धर्म-प्रचार किया और समाज को विशाल साहित्य का भण्डार प्रदान किया। हस्तलिखित शास्त्रों का अध्ययन करने में चतुर्विध संघ को होने वाली कठिनाइयों को दूर करने के लिए शास्त्रोद्धारक पं० रत्नश्री अमोलकऋषि जी महाराज ने तीन वर्षों में बत्तीस सूत्रों का हिन्दी में अनुवाद कर विज्ञ एवं अनविज्ञ सर्वसाधारण के लिए सुलभ बना दिया । स्थान-स्थान पर मिलने वाली ३२ सूत्रों की पेटियां इन्हीं महापुरुष की देन हैं। संधैक्य भावना को सुदृढ़ बनाने के लिए ऋषिसम्प्रदाय के संत, सतियों का योग जैन इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर सदैव अंकित रहेगा। मद्रास, मैसूर, बेंगलोर आदि विकट स्थानों में ऋषिसम्प्रदाय की महासतियांजी ने पहुँचकर धर्मप्रचार किया। तमिल, तेलंगाना, कर्णाटक आदि क्षेत्रों में धर्म का प्रचार करने वाली, अनेक औषधालय, विद्यालय, धर्मस्थानक आदि की संस्थापना में प्रबल प्रेरणा देने वाली, मद्रास के “अगरचन्द्र मानमल जैन कालेज के संस्थापकों की प्रधान प्रेरिका, श्री अमोल जैन ज्ञानालय नामक धूलिया की प्रकाशन संस्था की प्राणस्वरूपा स्वर्गीय गुरणी जी पं० प्रर्वतिनी महासती श्री सायरकँवर जी म० ने उन क्षेत्रों में जो उपकार किया है, उसे स्थानकवासी जैन समाज भूल नहीं सकता। आज वे क्षेत्र मुनियों के आगमन के लिए सरल बन गए हैं। ये क्षेत्र मुनिलाभ पाने में ऋषिसम्प्रदाय के ऋणी हैं। वर्तमान में भी कईएक प्रतिष्ठाप्राप्त महासतियां हैं। कई महासतियां उच्चस्तरीय अध्ययन करके परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुई हैं और हो रही हैं। इस प्रकार ऋषिसम्प्रदाय के मुनियों और महासतियों का जैनशासन के विकास में योग रहा है। इसी संतमाला के अनमोल रत्न हैं हमारे पूज्य आचार्य पं० रत्नश्री आनन्दऋषि जी महाराज। आपका जन्म आज से करीबन ७४ वर्ष पूर्व वि० सं० १९५७, श्रावण शुक्ला प्रतिपदा के शुभ दिवस नया आचार्यप्रवर अभिशापार्यप्रवर अभि श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्दकन्या५ ~rry Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vilm आचार्यप्रव23 श्रीआनन्दग्रन्थ श्राआनन्दा अन्य ८० आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व mammyvaex ग महाराष्ट्र प्रान्तीय अहमदनगर जिले के चिचोड़ी ग्राम में हुआ। माता हुलासा, पिता देवीचन्द्र जी के यहाँ अवतरित होकर आपने महाराष्ट्र के ही नहीं अपितु भारतीय जन-जन को आलोकित किया । तेरह वर्ष की लघु अवस्था में पूज्य माताजी की सत्प्रेरणा से धार्मिक जीवन का विकास होने लगा। फलतः परमपंडित, तत्त्ववेत्ता, आगमवारिधि श्री रत्नऋषिजी म. सा. के पावन पुनीत चरणारविन्द में वि० सं० १९७०, मार्गशीर्ष शुक्ला नवमी, रविवार के शुभ दिवस 'मिरी' ग्राम में आर्हती दीक्षा ग्रहण की। विनम्रता श्रीचरणों में दीक्षित होने के बाद साधना के पथ पर अग्रसर होने के लिए सर्वप्रथम आपने विनय धर्म की आराधना की। कहा भी है 'विद्या ददाति विनयं' अर्थात् विद्या विनय से ही प्राप्त होती है । विनयवान शिष्य ज्ञान का अधिकारी होता है। विनय से गुरुदेव को आपने अपनी ओर आकर्षित कर लिया । प्रसन्न होकर गुरुदेव ने आपको ज्ञान का भण्डार प्रदान किया। वह ज्ञान-ज्योति आपके हृदय में अहिंसा, सत्य, क्षमा, प्रेम, सहिष्णुता, स्नेह और वात्सल्य के रूप में जगमगा रही है।। आपके जीवन की एक घटना है। एक बार आप व्याख्यान फरमा रहे थे । श्रोता लोग मन्त्रमुग्ध होकर सुन रहे थे। उस समय श्रद्धेय गुरुदेव श्री रत्नऋषिजी म० ने पुकारा 'आनन्द' तो उसी समय व्याख्यान बन्द करके गुरुदेव की आज्ञा का पालन करने के लिए उनकी सेवा में उपस्थित हुए। ऐसे गुरुदेव ने चलते व्याख्यान में तीन बार आवाज दीं। तीनों ही बार गुरुदेव की सेवा में उपस्थित हुए। परन्तु आपको कोई विचार न आया कि क्या गुरुदेव ने मुझे निठल्ला समझा जो बार-बार व्याख्यान के बीच में से उठा रहे हैं। परन्तु 'तहत्त' कहकर उनके वचनों को स्वीकार किया। गुरु के एक शब्द का तो क्या गुरु की किसी इच्छा का भी आपने कभी उल्लंघन नहीं किया। यह आपकी विनम्रता का ज्वलन्त उदाहरण है। इसी विनय के मधुर फल का आज आप आस्वादन कर रहे हैं। आप जैनदर्शन और प्राकृत भाषा के मूर्धन्य विद्वान हैं। संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, मराठी, उर्दू, फारसी और अंग्रेजी आदि सात भाषाओं में निष्णात हैं। स्व-परसिद्धान्तों के भी आप गहरे अभ्यासी हैं । प्रखर वक्ता भी हैं। सुमधूर संगीतकार भी हैं। आपकी योग्यता को देखकर जैनसमाज ने विविध प्रकार की पदवियों से विभूषित किया। भुसावल में आप युवाचार्य के पद पर, पाथर्डी में आचार्य पद पर, ब्यावर में पाँच सम्प्रदायों द्वारा प्रधानाचार्य के पद पर, सादड़ी बृहद् साधु-सम्मेलन में श्रमण संघ के प्रधानमन्त्री पद पर, भीनासर-सम्मेलन में उपाध्याय पद पर, तत्पश्चात कार्यवाहक समिति के संयोजक के पद पर और अजमेर-सम्मेलन में "श्रमण संघ के प्रधानाचार्य" के रूप में घोषित किये गये । एक जीवन में क्रमशः सात पदवियों को प्राप्त करने का कारण आपकी विनम्रता ही है। HWAN UCH सहिष्णुता विनय के साथ-साथ आपमें दूसरा गुण सहिष्णुता का है। प्रतिकूल संयोगों और विरोधियों को शमन कर लेने की अपूर्व क्षमता आप में है। साधु-जीवन का प्रथम चातुर्मास था। एक बार शौच-निवृत्ति के लिए आप गांव के बाहर गये हुए थे। वहाँ पर जैनधर्म-द्वेषी एक संन्यासी ने आपके पास से रजोहरण छीनकर उसी से आपको मारने लगा। मारते-मारते रजोहरण की डंडी टूट गई। परन्तु आपने संन्यासी पर क्रोध नहीं किया । "उबसमणे हणे कोह" 'क्रोध को क्षमा से जीतो' महावीर भगवान की इस अमर घोषणा के अनुसार आपने अपनी शान्ति को सर्वथा सुरक्षित रखा। सचमुच आपकी सहिष्णुता सराहनीय है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तव्यनिष्ठ, सेवा की साकारमूर्ति पूज्य आचार्य श्री आनन्दऋषि जी : गम्भीरता गम्भीरता का आप में बहुत बड़ा गुण है । समुद्र जैसा गांभीर्य और हिमालय जैसी अचलता आप में है । कटुवे मीठे सभी प्रकार के अनुभवों को अपने में समाने की आप में शक्ति है । शास्त्रीय शब्दों में कहूँ तो — लाभालाभे सुहे दुक्खे, जोविये मरणे तहा । समो निन्दा पसंसासु, तहा माणावमाणओ || अर्थात् लाभ-अलाभ में, सुख-दुःख में, जीवन-मरण में, कीर्ति अकीर्ति में समभाव को धारण करने वाला साधु है । ऐसे अद्भुत गांभीर्य गुण के धारक आप हैं । सेवा "सेवाधर्मः परम गहनो योगिनामप्यगम्यः " योगियों के लिए भी सेवाधर्म की आराधना सरल नहीं है। लेकिन ऐसे कठिन सेवाधर्म की भावना आपके जीवन में चरम सीमा पर पहुँची हुई है । गुरु, ग्लान, वृद्ध, रोगी, नवदीक्षित आदि की सब प्रकार से सेवा करना आपके जीवन का ध्येय बन गया है । महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, जंगल प्रदेश, जम्मू काश्मीर तक हजारों मील की यात्रा कर जन-गण के मन-मन्दिर में नैतिकता और धार्मिकता की सुगंध पैदा कर रहे हैं। आप श्री जी ने ५० से अधिक विद्यामन्दिरों की स्थापना करवाई है। सैकड़ों विद्वानों को आगे बढ़ने में प्रोत्साहन दिया है और दे रहे हैं । संघ सेवा की भावना तो आपके रग-रग में समाई हुई है। जैनधर्म, प्राकृतभाषा, और श्रमण संघ की जो सेवाएँ आपने की हैं वे इतिहास में चिरस्मरणीय रहेंगी। इस प्रकार आप सेवा की साकार मूर्ति भी हैं । ८ १ ब्रह्मचर्य “तवेसु उत्तमं बम्भचेरं" तपों में उत्तम ब्रह्मचर्यं तप है । आपमें विद्वत्ता का प्रकाश है तो चरित्र की सुवास भी महकती है । आप बालब्रह्मचारी संत हैं । इस तप के प्रभाव से अनेक आध्यात्मिक सिद्धियां आपको प्राप्त हैं । ब्रह्मचर्य, प्रखर बुद्धिमता और सहिष्णुता के कारण यदि आपको आधुनिक अयवंता कुमार एवं भीष्मपितामह कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी । कर्त्तव्यनिष्ठ आपके जीवन के ७४ और मुनिजीवन के ६१ सम्वत्सर पूर्ण होने जा रहे हैं। इस वृद्धावस्था में भी ३२ वर्ष के युवक से सदैव अपने कार्य में व्यस्त रहते हैं। आपके हृदय में नवनीत की कोमलता है तो संकल्प में वज्र के समान कठोरता । आपके चन्द्रमा के समान निर्मल व्यक्तित्व के लिये यह उक्ति यथार्थ सिद्ध होती है । वज्रादपि कठोराणि, मृदूनि कुसुमादपि । लोकोत्तराणां चेतांसि को नु विज्ञातुमर्हति ॥ ऐसे सम्पूर्ण सद्गुण प्राप्त आचार्यदेव को प्राप्त करके अखिल भारतीय स्थानकवासी जैन समाज अपने को धन्य मान रहा है । आपके सर्व गुणों का वर्णन करने में मैं असमर्थ हूँ । अस्तु ! मैं अपनी लेखनी को विराम देती हुई यह मंगल कामना करती हूँ कि आपके नेतृत्व से संघ प्रफुल्लित हो, वृद्धिंगत हो । हम साध्वी समुदाय के प्रति आपका वरदहस्त आजीवन इसी प्रकार बना रहे। यही करबद्ध प्रार्थना है । श्रमण संघ के नायक युग युग में हमारे मध्य में रहकर मानव जाति के अभ्युदय का पथ प्रशस्त करते रहें ! आचार्य प्रव38 श्री आनन्द अन्य 28 JNU JusKid 30 ! भन्थ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MORza आचार्यप्रaea अवय विद्याविनोदी श्रीसुकन मुनि जो [प्रवर्तक श्री मरुधरकेलरी जी म० के सुशिष्य, सेवानिष्ठ, कवि एवं गायक) आनन्द पंचक अभिनन्दन कवित्त अागम अनेकों शोध, ज्ञान में गम्भीर बने, चारित्र के पालन में, दृढ़ श्रद्धावान है। रमणीय शान्त छबी, विमल विवेक जा को, यत्नायुत्त काम करें, षट्काय प्राण है। प्रबल बुद्धि के धनी, उपजे तर्क धणी, वचन सुबोध वारे, सुधा के समान है। रत्न त्रय पालने में, रहैं सदा सावधान, श्रीमन्त साधारण, गीने एक शान है ॥१॥ आन सान प्रान जान, धर्म को दृढ़ाने वाले, नंबर प्रथम पाये, विबुध समाज में। दया दान दम सम खम नमनादि गुण, ऋचा वेद भांती नित्य, विभूषित साज में । षिन्न नाही होत कभी, भिन्नता विसार बैठे, जीवन सुन्दर जाकी, सिंह सी ओघाज है। मनोनीत संघ सारे, आचार्य समराट है। • “सुकन' सुहावे नित, आनन्द महाराज है ॥२॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द पंचक अभिनंदन कुंडलियाँ ऋषि कुल में शशि सम सरस, निवड्यौ नामी संत । आ सारा अवलोक लो, कोमल कविता कंथ । कोमल कविता कंथ, तंत की बातें छानी । लघुवय लीनी दीख, ज्ञान पढ़ हो गये ज्ञानी । जानी नहीं माता-पिता, जान्यो नहीं समाज । इसड़ो उन्नत होवसी, आनन्द ऋषी महाराज ॥३॥ कवित्त देवीचन्द को दुलारो, प्राणी मात्र को सुप्यारो न्याय मग छान नारो, स्हारो मुनि संघ को । कई भाषा जाननारो. स्याद्वाद रेषवारो तिरण तारण हारो, जीते कर्म जंग को । क्रोध मान लोभ छल, कारो कारो पाप सारो जिन से किनारो कर मीठो-मीठो बोल नारो, "सुकन" हमारो गणी, राज्यो ज्ञान रंग को । भक्त मन चोर नारो राजे शुभ अंग को || ४ || दोहा इस अभिनन्दन के समय, श्रद्धा सुम पद पद्म । "सुकन" समर्पित कर चहै, सदानन्द गुण सद्म ॥ ५ ॥ शत शत वंदन ! जैन-जगत के पूज्य महत्तम । वंदनीय आचार्य सुधोपोम ॥ श्री श्रीयुत आनन्द ऋषीश्वर । धन्य धन्य हो तुम योगीश्वर ! श्री चरणों में शत शत वंदन । करियो स्वीकृत यह अभिनन्दन ॥ * - विनय मुनि 'विधु' [ स्वामी श्री व्रज- मधुकर मुनि-सुशिष्य ] You ८३ 乖 श्री आनन्दत्र ग्रन्थ श्री आनन्द ग्रन्थ www. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्द अन्थ: 9 श्री आनन्दत्र ग्रन्थ 張 आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि जी का अन्तरंग चित्र : शब्द पटल पर महानता के मूल मानवता का सहज सिद्ध रूप साधुता है । साधुता आत्मा में उपजती है उपजाई नहीं जाती । स्वाध्यायशील साधु ही स्वाध्याय का प्रेरक और प्रवर्तक बनकर उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित होता है । स्वाध्याय के अनुरूप आचरण करने वाले और करवाने वाले उपाध्याय को आचार्य के पद तक पहुँचने का अधिकार प्राप्त हो जाता है | पद और पदासीन की कुछ जिम्मेदारियाँ भी होती हैं । जिम्मेदार व्यक्ति का पूर्ण ईमानदार होना आवश्यक है । ईमानदारी ही महानता की ओर अग्रसर करती हैं। महानता आत्मा का भीतरी विकास और सहज सिद्ध गुण है । बाह्य उपकरणों और साधनों, प्रशंसा और प्रमाण-पत्रों, वंदना और अभिनन्दनों, प्रचार और प्रसारों, चर्चा और व्याख्यानों, लेख और निबन्धों, लेखन और अनुवादों, प्रकाशन और संस्थानों से महानता को मापना एक अपराध होगा । महानता को मापा नहीं जाता, परखा जाता है और पाया भी जाता है । सुभाष मुनि 'विशारद' [ मधुर गायक, कविता तथा प्रवक्ता ] यहाँ पर जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी वर्धमान श्रमणसंघ के ज्योतिर्धर आचार्यश्री आनन्द ऋषि जी महाराज साहब के पचहत्तरवें जन्म दिवस पर उनका ही "अन्तरंग चित्र शब्द पटल पर उतारने की चेष्टा की जा रही है । यह शब्द चित्र आचार्यश्री के अन्तरंग को चित्रित कर पाएगा या नहीं, यह मैं नहीं जानता । लेकिन इस चित्र में जो टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएं उभरेगी वे आचार्य श्री के प्रति श्रद्धा को अवश्य प्रकट कर पाएगी । ऐसा अनुमान नहीं, दृढ़ विश्वास है । आचार्य श्री की क्षमता और शूरता शूरता को क्र ूरता से बचाने के लिए ही मानो क्षमा ने देह धारण किया हो । असमर्थ के लिए क्षमा का कोई महत्त्व नहीं है । सक्षम ही क्षमा करते हैं और कर सकते हैं । औरों के किये हुए अपराधों को क्षमा किया जा सकता है लेकिन स्वयं के अपराधों को क्षमा नहीं किया जा सकता । संयम की आराधना में विराधना के अवसर पर ही आत्मकृत अपराध माने गए हैं। आचार्य का सीधा और सरल यही अर्थ होता है कि विराधना के विवरों को रोके । शिष्य समुदाय और संघ को विराधना से बचाए और आराधना की ओर मोड़े । आचार्यश्री की क्षमाशीलता और शूरता ही विराधक को आराधक बनाती है । पतित्व को पावन बनाने की परम्परा का पालन पुरुषोत्तम ही कहते हैं, अन्य नहीं । श्रद्धेय आचार्यश्री आनन्द ऋषि जी महाराज साहब के अन्तरंग में क्षमता और शूरता का चित्र ' के साथ उभरा है । अत्युत्तमता Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि जी का अंतरंग चित्र : शब्द पटल पर ८५ आचार्य श्री और औदार्य उदारमना आचार्य ही अर्हणा के पात्र होते हैं। आचार्यों ने ही कहा है कि आत्मगर्हणा करो और अर्हणा के योग्य बनो । जो आत्मगर्हणा नहीं कर पाता, वह अर्हणा को भी नहीं कर पाता । गर्हणा दुष्कृत्यों की की जाती है । किसी के द्वारा की गई आत्म-गर्हणा को उदार मना आचार्य ही सुन सकते हैं। किसी की आत्मगर्हणा को सुनकर उसे समझना और पचाना उदारमना आचार्य ही जानते हैं। किसी की आत्मगर्हणा को प्रगट करने वाला आचार्य आचार्य पद की अर्हणा के अयोग्य माना है । श्रद्धेय आचार्यश्री आनन्द ऋषि जी महाराज साहब का अन्तरंग औदार्य से ओत-प्रोत है । आचार्य श्री और कषाय विप्रमुक्तता क्रोधी और अभिमानी, मायावी और लोभी आचार्य स्वयं संघ को उन्नत बनादे यह विचार उपहासास्पद है । अपने और दूसरों पर आने वाले क्रोध को न आने देना और आ जाए तो उसे उपशांत तथा क्षय कर देना आचार्य का एक उत्तरदायित्व है । अपनी शक्तियों और विभूतियों पर, तप और जय पर, स्थान और सम्मान पर, ज्ञान और व्याख्यान पर, आचार और विचार पर सुधार और प्रचार पर अंग और रंग पर, अहं करने का अर्थ ही होता है कि क्या आचार्य पद और अहं एक साथ निभ पायेंगे ? आचार्य चतुर होता है, मायावी नहीं । तथा छल अपराध है। मायावी का कोई अपना नहीं होता । अतः समूचे संघ को अपना बना लेने वाला आचार्य मायावी नहीं हो सकता । पद और प्रतिष्ठा के लोभ से दूर रहने वाले को ही आचार्य पद के लिए चुना जाता है । "मुझे शिष्य बना लो " शिष्य बनने से पहले पुनर्विचार करो । शिष्य के लोभी आचार्य चातुर्य एक कला है और माया कहने वाले से भी कहा जाता है कि पुनर्विचार की प्रेरणा नहीं दे पाते । श्रद्धेय आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज साहब क्रोध और अहं, माया और लोभ को बहुत पीछे छोड़कर चलने वाले आचार्य हैं । आचार्य श्री का अन्तरंग कषाय विप्रमुक्त है, ऐसा कहने में अतिशयोक्ति क्यों होगी ? आचार्य श्री और संघ आगे चलने वाले को अगुवा कहा जाता है। किसे आगे चलने देना और किसके पीछे-पीछे चलना यह सोचना संघ का उत्तरदायित्व है । संघ जिसे आगे चलने को कहें उसे आगे चलना ही चाहिए क्योंकि संघ का आदेश अवहेलनीय नहीं होता । जब समूचा संघ जिसके साथ-साथ अथवा पीछे चलने को तैयार है उसे आगे चलने में डर भी क्या है ? अगुवा को आपत्ति में डालकर पीछे खिसक जाने वाला संघ ही नहीं हो सकता। संघ वही हो जो विपद आने पर अपने अगुवा को बचाने के लिए अगुवा के पीछे से हटकर स्वयं आगे आ जाए । अगुवा को बचा लेना और कहना कि हमारे अगुवा ने हमें बचा लिया । आचार्य के प्रति संघ का यह उत्तरदायित्व बहुत गौरवपूर्ण है। संघ के लिए आचार्य और आचार्य के लिए संघ पूर्णतया समर्पित होते हैं । संघ की भावना ही शब्द बनकर आचार्य श्री के मुख द्वारा निकलती है । दूसरे शब्दों में कहा जाए तो आचार्य ही संघ का प्रतिनिधित्व करते हैं । आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषिजी महाराज साहब का अन्तरंग संघ के साथ है और संघ का अन्तरंग व बहिरंग आचार्य श्री के अन्तरंग के साथ है । आचार्यश्री की ज्ञानोपासना ज्ञान देवता के उपासक और प्रचारक आचार्यश्री आनन्द ऋषि जी महाराज साहब ने ज्ञान-देवता के चरणों में स्वयं को पूर्णतया समर्पित कर दिया । न्याय, दर्शन, व्याकरण, आगमों की निष्णातता के साथ सात-सात भाषाओं की विद्वत्ता प्राप्त करना ज्ञान देवता की सच्ची सेवा है । स्थान-स्थान पर विद्यामन्दिरों की स्थापना में प्रेरणा और सहयोग करना ज्ञानदेवता के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा प्रगट करना 元 कम फ्र AAAAAJAL आयार्यप्रवरुप अभिनंदन आआनन्दन ग्रन्थ आयायप्रवर अभिनन्द Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आआनंदी अमिन आया आमद ८६ आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व PEKAXY c. है | ज्ञानवान आचार्य ही संघ को प्राणवान बना पाते हैं। ज्ञानवान आचार्य ही ज्ञान का आदान-प्रदान करते हैं | ज्ञान के बिना दर्शन, दर्शन के बिना चारित्र, चारित्र के विना सुख, सुख के विना शान्ति, शान्ति के बिना जीवन शून्य के सिवा और क्या हो सकता है ? आचार्य श्री आनन्दश्री जी महाराज साहब ज्ञान के प्रचार-प्रसार में बड़ी निष्ठा के साथ लगे हुए हैं । आचार्यश्री के ज्ञानालोक से संसार जगमगा उठेगा । आचार्यश्री का विहार और व्याख्यान दीपक प्रकाश देता है पर घूमकर नहीं । सूर्य प्रातः से सायं तक घूमता रहता है और प्रकाश देता है । सूर्य का प्रकाश व्यक्ति विशेष या स्थान विशेष से बँधा नहीं रहता । सूर्य का प्रकाश काल से अवश्य बँधा होता है अर्थात् संध्या होने के बाद सूर्य का प्रकाश नहीं मिलता । सूर्य का प्रकाश लेने वाले की इच्छा से भी बँधा है कि लेने वाला चाहे तो आँखें मूंद ले चाहे आँखें खोलकर सूर्य के प्रकाश का उपयोग करें । सूर्य के प्रकाश ने अपनी वितरण प्रणाली में अन्तर नहीं आने दिया और आने भी न देगा । आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज साहब सूर्य की तरह वाल्यावस्था से लेकर वृद्धावस्था तक घूम-घूमकर प्रकाश फैलाते रहे हैं और रहेंगे । हाँ, इतना अन्तर अवश्य कि सूर्य आकाश में घूमता है और आचार्यश्री धरती पर। सूर्य दूर रह कर प्रकाश देता है और आचार्यश्री जनता के निकट सम्पर्क में आकर । सूर्य संध्या के बाद प्रकाश नहीं देता और आचार्यश्री संध्या होने के बाद भी प्रकाश देते रहते हैं । पाद - विहार और व्याख्यान का प्रयोजन भी यही है कि ज्ञान का प्रकाश जनता तक पहुँचाया जाये । आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज साहब बम्बई, पूना से जम्मू काश्मीर तक घूमे और भारतीयता के साथ नैतिकता और धार्मिकता का नाता जोड़ा । आचार्यश्री और संघ - विकास एक ही सूर्य की किरणों से रंग पाने वाले पुष्पों में भी रंगों का वैविध्य दृष्टिगोचर होता है । ऐसे ही एक ही आचार्य से प्रेरणा पाने वाले व्यक्तियों में भी रुचि वैचित्र्य दृष्टिगत होता है । आपकी प्रेरणा से किसी पर तपस्या का रंग चढ़ा तो किसी पर ज्ञान का। किसी पर अध्ययन का तो किसी पर लेखन का तो किसी पर प्रकाशन का। किसी पर संगठन का तो किसी पर समर्थन का । किसी पर दान का तो किसी पर शील का | किसी पर ध्यान का तो किसी पर संयम विधान का । आचार्य श्री के पुनीत नेतृत्व में संघीय विकास चतुर्मुखी ही नहीं, बहुमुखी है । आचार्यश्री के प्रति शुभेच्छा आचार्यश्री आनन्द ऋषि जी महाराज साहब जब पचहत्तरवें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं तो हम कामना करें कि आप शतायु सहस्राय लक्षायु बनकर हमारा मार्गदर्शन करते रहें । हमें आपके नेतृत्व में पूर्ण विश्वास है । हमें आपकी देखरेख में ही मुक्ति मंजिल को पाना है । हमें कुछ कर दिखलाना है । हमें प्रेम और संगठन को सुदृढ़ बनाना है । अलग-अलग छँटने से शक्तियाँ बिखर जाती हैं और संगठन से शक्तियाँ निखर जाती हैं । आचार्यश्री आनन्द ऋषि जी महाराज साहब के अन्तरग को शब्दावलियों से नहीं बाँधा जाता, वह असीम है, अरूप है, अगम्य है, और आनन्दस्वरूप है । मैं कहता हूँ कि आचार्यश्री आनन्द ऋषि जी महाराज साहब के अन्तरंग में समूचा श्रमण संघ प्रतिबिम्बित है । अन्तरंग की उज्ज्वलता ही हमें हमारी आकृतियों को निरखने का प्रकृतियों का परखने का, विकृतियों को हटाने का अवसर देती है । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दन हो शत-शत वार --मुनि महेन्द्रकुमार 'कमल' [उदीयमान कवि, चिन्तक तथा प्रभावशाली वक्ता ] O श्रमण संघ के सिंहासन पर हो ज्योतिर्धर आचार्यप्रवर का अभिनन्दन हो शत-शत वार । जन्म-मृत्यु से घिरे जगत में, जन्म-मृत्यु से बहुत परे हो आसीन अधिक निखरे हो, ज्ञान- देवता की प्रतिमूर्ति सात वाणियों ने मिलकर के लिया देह - मिस नव्याकार, ज्योतिर्धर आचार्यप्रवर का अभिनन्दन हो शत-शत वार । प्रतिभा ने, औ विनयभाव ने एक हृदय में पाया स्थान निरभिमान विद्वान व्यक्ति हो, है यह भी आश्चर्य महान, आपके द्वारा देखो भारत के कोने-कोने में, ज्ञान प्रेम का प्रबल प्रचार, ज्योतिर्धर आचार्यप्रवर का, अभिनन्दन हो शत-शत वार । उर कोमल है, स्वर कोमल है, करतल शतदल सम कोमल, कोमलता-युत अनुशासन में, केवल निश्छलता का बल, पदतल युगल अधिक कोमल हैं कोमलता से घिरे हुए हो फिर भी करते कठिन विहार, ज्योतिर्धर आचार्यप्रवर का अभिनन्दन हो शत शत वार । पचहत्तरवें जन्मदिवस पर अभिनन्दन मैं करता हूँ श्रद्धा-सुमनस की पंखुरियाँ चार पंक्तियाँ धरता हूँ मुनि महेन्द्र 'कमल' कहता हैदेते रहो प्रकाश जगत को, श्रमण संगठन के शृंगार, ज्योतिर्धर आचार्य प्रवर का, अभिनन्दन हो शत-शत वार । श्री आनन्दन ग्रन्थ 九 隱 आयवर अभिनन्दन Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAJABARJAAAAAAAAMANAVAJAGARAAAAAAANABAJANAJASALADANAJAS, आचार्यप्रवचनआचार्यप्रसार 0 श्री कस्तूर मुनि [सेवा भारी संत] श्रद्धा के दो फूल परम श्रद्धेय आचार्यश्री आनन्द ऋषि जी महाराज हमारी समाज में एक महान प्रकाश स्थम्भ के समान है। जिनका हृदय विशाल है और विचारों में व्यापकता है। इनके जीवन में रहा हुआ उत्साह और कार्य कुशलता प्रत्येक साधक को नई स्फूर्ति देने वाला है। आचार्यश्री जी का जीवन इतना गम्भीर और प्रभावशाली है कि वह शीघ्र ही जन साधारण की भक्ति और श्रद्धा का पात्र बन जाता है। महापुरुषों के जीवन में कुछ ऐसी विशेषताएं होती हैं कि वे जहाँ पर भी, जिस ओर भी, जब भी समाज उत्थान के नये विचार अपने मन में लेकर जाते हैं, तो वे सब कार्य तो पूर्ण हो ही जाते हैं परन्तु बहुत से अचिन्त्य कार्य भी अपने आप ही पूर्ण होते जाते हैं। ___ आचार्यश्री जी हमेशा ही हीन विचारों की क्षुद्र ग्रन्थियों से अपने आपको दूर ही रखते हैं जो क्लेश बढ़ाने वाली होती हैं। उनके बोलने का मधुर तरीका उनका अपना ही है। उनके जीवन के प्रत्येक व्यवहार से कोमलता और सरलता का मधुर मिठास ही बिखरता हुआ दिखाई देता है। आचार्यश्री जी एक ऐसे कर्मठ साधक के रूप में हैं जिन्होंने पीछे न हटकर अपनी मंजिल के लिए आगे बढ़ना ही सीखा है। जीवन में हरेक तरह की बाधाओं से हँसते-हँसते जूझते रहना और फिर उनसे घबरा कर पीछे न हटकर आगे ही बढ़ते जाना, यह कोई साधारण व्यक्ति का काम नहीं। आचार्यश्री जी उस साधक के समान हैं, जिसके जीवन में अनेकों प्रतिकूल उलझनें आती हैं, परन्तु वह घबराता नहीं और उनमें अपने आपको उलझाता भी नहीं। और उनको सुलझाते हुए तब तक आगे ही बढ़ता जाता है, जब तक कि उसको अपनी साधना की मंजिल का सहा किनारा नहीं मिल जाता। आचार्यश्री जी वह फूल है, जिसको जब भी देखा, या देखते हैं तो काँटों के मध्य भी महकता हुआ ही नजर आया । फूल अपने आपको काँटों से घिरा हुआ देखकर भयभीत नहीं होता, परन्तु अपने जीवन की भीनी-भीनी मधुर खुशबू बिखेरता ही रहता है । संघर्ष के बाद हर्ष की बेला आया करती है। घड़ा भी अपने जीवन में अनेकों संघर्षों से टक्कर लेता है, तभी वह एक दिन दूसरों की नजरों में आदर और सम्मान का पात्र बनता है। आचार्यश्री जी के जीवन में परिषह के रूप में अनेकों बाधायें आयीं और आती रहती हैं। परन्तु वे अपने मनोबल के सहारे आगे ही बढ़ते जाते हैं। हमने कभी भी कष्टों में उनका मनोबल मुरझाया हुआ नहीं देखा । आचार्यश्री जी खुद अपने लिए जितने कठोर हैं तो दूसरों के लिए उतने ही कोमल भी हैं। इस | संसार में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हृदय की सरलता तो मिल सकती है परन्तु सब जगह मन की कोमलता Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा के दो फूल का मिलना बहुत ही कठिन है । हमें भी आचार्य श्री जी की पवित्र छत्रछाया में रहकर सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । आचार्यश्री जी से जब भी हम मिले या कभी मिलते हैं तो हमको आचार्यश्री जी अपनत्व की भावना से ही मिलते हुए नजर आये । आचार्यश्री जी के जीवन में जहाँ महासागर जैसी गहराई है, वहाँ पर्वतराज हिमालय जैसी ऊँचाई भी है । आचार्यश्री जी सत्य के पारखी हैं। वे व्यक्ति के नहीं, परन्तु गुणों के पुजारी हैं । जब एक छोटेसे-छोटा सन्त भी सही सलाह इनके पवित्र चरणों में रखता है तो उसकी सलाह को बड़े प्रेम से और सहानुभूति पूर्वक सुनते हैं और समय आने पर उस सही सलाह को स्वीकार भी करते हैं । यह इनके जीवन की बहुत बड़ी विशेषता है । आचार्यश्री जी को अपने जीवन में किसी भी प्रकार के विचारों का तनाव पसन्द नहीं है । जब भी वे बोलते हैं, उनके जीवन का ऐसा मधुर मिठास इनकी वाणी से बिखरता है कि दूसरे के तनाव के विचारों के तन्तु धीरे-धीरे अपने आप ही ढीले होते हुए चले जाते हैं । दूसरे के जीवन में असर करने वाली यह जीवन की मधुर मिठास कोई वैसे ही और एक दम ही नहीं मिल जाती। इस मिठास के पीछे साधक की बड़ी साधनाओं के रस का वेग होता है। अगर आप जीवन की उस मिठास को प्राप्त करना चाहते हैं तो वह सद्विचारों का मिठास निरन्तर चिन्तन और मनन के अभ्यास के द्वारा ही मिल सकता है । उस मिठास का अति शीघ्र या देर में मिलना यह तो आपकी शक्ति और पुरुषार्थ की गति पर अवलम्बित है । कोई भी धर्म- नेता जब समाज के उत्थान के लिए अपने जीवन में संगठन का मधुर रूप लेकर आगे बढ़ता है तो उस वक्त जिन व्यक्तियों का संगठन से प्यार होता है, जिनकी नजरों में संगठन की कीमत होती है उनकी ओर से तो उस धर्म-नेता को सही समर्थन के रूप में मधुर भावनाओं का मिठास ही मिलता है परन्तु जिन व्यक्तियों को संगठन के नाम से गहरी चिढ़ है, उनकी ओर से विरोधी भावनाओं के रूप में तीखे कांटे ही मिलते हैं । जो भी व्यक्ति आचार्यश्री जी के पास चाहे विरोधी भावनाओं का पुलन्दा लेकर क्यों न आये, फिर भी उसको आचार्यश्री जी की ओर से हृदय से आदर-सम्मान ही मिलता है । परन्तु आज व्यक्ति कुछ ऐसा गुटप्रिय बनता जा रहा है, मन इतना छोटा हो चुका है कि दूसरे के विचारों को सुनने या पढ़ने के लिए या तो वह अपने दिमाग के झरोखों को खोलता ही नहीं और यदि कभी खोलता भी है तो दूसरों पर अपने कठोर व्यवहार के पत्थर फेंकता है। यह जीवन में स्वयं इन्सान अपने लिए क्षुद्र विचारों द्वारा बनाई हुई परिभाषा है । यह परिभाषा छोटे विचारों की प्रतीक है । जो ईंटें आपस में मिली हुई हैं, अगर आप अपनी शक्ति द्वारा उनको इधर-उधर बिखेरना चाहते हैं तो यह आप द्वारा अपनी शक्ति का दुरुपयोग हो रहा है। आपके इस कार्य द्वारा समाज का कभी भी भला नहीं हो सकता । अगर आप इधर-उधर बिखरी हुई ईंटों को अपने पुरुषार्थ के द्वारा इकट्ठा करके उनको आपस में जोड़ने का काम कर रहे हैं तो यह आप द्वारा अपनी शक्ति का सही उपयोग हो रहा है । श्रमणसंघ के रूप में हमारे सामने एक सुन्दर और मजबूत संगठन है । अगर आप इस संगठन को कमजोर करने के लिए अपनी शक्ति का उपयोग कर रहे हैं तो इसका अर्थ है, आप भविष्य के लिए, अपने जीवन के लिए और समाज के संगठन के लिए भी जहर में बुझे हुए नुकीले कांटों के बीज बो रहे हैं । चाहे कोई बड़ा साधक हो और चाहे कोई छोटा साधक हो, समस्याएं सबके जीवन में आती हैं । परन्तु आने वाली समस्याओं की उलझनों को सुलझाने का भी तो, एक अनोखा ढंग और सही तरीका होता है । जो साधक अपने आप में सही रूप में जागृत है । जिसकी भावनाओं में समाज की भलाई के दह D आयाय प्रवर अभिनंदन आआनंद त्य श्री WAVENGTHENINTENDO TOURAN VINTAGE TES Carre Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रव38 आचार्य प्रव श्री आनन्दन ग्रन्थ श्री आनन्द अन्य ११ ६० आचार्य प्रवर श्री आनन्द ऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व लिए एक मधुर मिठास काम कर रही है तो वह साधक सम्पूर्ण समाज के कल्याण की भावना से सभी प्रकार की समस्याओं की उलझनों को सुलझा देता है और साथ में सभी प्रकार की समाज विरोधी भावनाओं की कटुता को अपनी सद्भावना और सद्बुद्धि की शक्ति के माध्यम से समाप्त भी कर देता है । परन्तु जो साधक सही रूप में अपने आप में जागृत नहीं है और साथ में जिसके जीवन में से समाज की भलाई की भावनाएँ निकल चुकी होती हैं वह सभी प्रकार की समस्याओं की उलझनों को सुलझाने की अपेक्षा अपनी ओर से और उलझा देता है । वह अपने जीवन में कटुता को कम करने की भावना ही नहीं रखता । वह तो अपनी ओर से समाज संगठन विरोधी भावनाओं की और कटुता मिलाकर उसे और अधिक बढ़ा देता है । वह अपने जीवन के लिए भी और साथ में समाज के शान्त जीवन के लिए भी वर्तमान में भविष्य के लिए अप्रिय घटनाओं के बीज बो रहा है । आचार्यश्री जी अपने आपमें बड़े ही मिलनसार स्वभाव के हैं। आचार्यश्री जी की ओर से विरोधियों का भी अनादर नहीं, परन्तु उन्हें आदर और सम्मान ही मिलता है । जिसने आचार्यश्री जी को ऊपर की आँखों से ही नहीं परन्तु विवेक की आँखों से देखा है, वही जानता है कि आचार्यश्री जी कितने तेजस्वी और प्रभावशाली हैं। आचार्यश्री आनन्दऋषि जी महाराज के जीवन में ऐसे-ऐसे अनेकों गुण हैं जो दूसरे के जीवन में जादू जैसा असर करने वाले हैं । एक विशाल भवन, जो मजबूत भी है और देखने में भी आकर्षक है। अगर किसी कारण से उसके एक कोने में दरार आ गई है और उस कोने में कमजोरी आ गई है तो आप उस कमजोरी को मरम्मत द्वारा दूर कर उस भवन की रक्षा कर सकते हैं। लेकिन आप उस कोने की कमजोरी को ठीक करने के लिए यदि सम्पूर्ण भवन को गिराना चाहते हैं तो यह बात किसी समझदार व्यक्ति के गले नहीं उतर सकती । यह कोई बुद्धिमानी का काम नहीं है । श्रमणसंघ के रूप में हमारे सामने एक बहुत सुन्दर भवन दिखाई दे रहा है । इस भवन के चाहे कोई अन्दर हो और चाहे कोई इसके बाहर हो, प्रत्येक साधक को इसकी सुन्दरता की रक्षा के लिए अपनी शक्ति का सही उपयोग करना चाहिए। हम अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को एकत्रित कर अपने जीवन में इस ढंग से आगे बढ़ें, जिससे कि हमारी साधनाएं भी चमकें, आचार्यश्री जी के हाथ भी मजबूत हों और इस श्रमण संघ के संगठन को भी सच्चा बल मिले। अगर ऐसा कर सके तो सच्चे अर्थों में हम आचार्यश्री जी के पवित्र चरणकमलों में अपनी निःस्वार्थ सद्भावनाओं के पुष्प चढ़ा सकेंगे । आनन्द-वचनामृत श्रद्धाशील, मंदकषायी और नम्रवृत्ति वाला व्यक्ति श्रमण शब्द की शोभा बढ़ाता है । D तृष्णा की नदी को तैरने के लिए वैराग्य की नौका का सहारा लेना होगा । [] सुखों के महल में चढ़ने के लिए समता की सीढ़ियों पर चढ़ना जरूरी है । [ ज्ञानी वह नहीं जो शास्त्रों की गाथाएँ बोलता है, किन्तु ज्ञानी वह है जो मन की आँखें खोलता है । पुष्प का सार है पराग, संत का सार है विराग । तन को सजाना वेश्या का कर्म है, मन को सजाना मुनि का धर्म है । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म हा न हो ! मुनि श्री रूपचन्द्र जी 'रजत' [ राजस्थानी के प्रसिद्ध कवि, वक्ता एवं उग्र तपखी ] तुम हे पूज्य श्री आनन्द ऋषिवर श्रमण संघ के नाथ हो । आनन्ददायी नाम तेरा, जय विजय विख्यात हो ॥ सन्त हो, सुमहन्त हो तुम -- जैन जग जशवन्त हो । शान्त हो अरु दान्त स्थानकवासियों के कन्त हो । अमल अविचल पंथ के तुम सजग राही रूप हो । संसार सागर तारने को सफल नाविक रूप हो ॥ धन्य मात सतत तुमरे धन्य गुरु रतनेश को । धन्य मरुधर में दिनी पुनि, धन्य भारत देश को || आचार्य हो आराध्य हो, आदर्श गुण भण्डार हो । धर्मध्वज के कर दंडधारी भव्य हिय के सवर संयमवन्त हो, कवि कोविदों के शरणागतों की शान हो तुम "रजत" यश में हार हो । ☆ वंदना 0 प्राण हो । महान हो । महासती यशकंवरजी [ प्रसिद्ध व्याख्यात्री एवं विदुषी ] 2 J जिनका जीवन आनन्दमय है आनन्द का सर्जन होता है जिनके मंगलमय जीवन में संयम का नर्तन होता है । जिनके चरणों में भक्त अनेकों आत्मशुद्धि को करते हैं, आनन्दऋषि आचार्य प्रवर को शत शत वन्दन करते हैं ।। मुखमण्डल पर जो दिव्य प्रभा सबको नतमस्तक करती है। जिनकी अमृतमय वाणी ही लाखों के अघ हरती है । जिनके तप संयममय जीवन का सब अभिनन्दन करते हैं आनन्दऋषि आचार्यप्रवर को शत शत वन्दन भक्ति, ज्ञान और कर्मयोग की त्रिवेणी का लाखों जन का उद्धारक यह अद्भुत तीरथ युग-युग जीवें वर्ष हजारों यही कामना आनन्दऋषि आचार्यप्रवर को शत शत वन्दन , ✩ 20 करते हैं । संगम है 7 जंगम है । करते हैं करते हैं | ॐ० INNOVATIENTENT ॐ श्री आनन्दत्र ग्रन्थ श्री आनन्द ग्रन्थ SAMAJALA Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रत अभिया Fo 水 आगमों के आदर्श में आचार्यश्री का व्यक्तित्व-बिम्ब अभिनंदन श्री रतन मुनि [ युवा संत, मधुरवक्ता एवं आचार्यश्री के निकटतम विश्वासपात्र, सेवाभावी, साहित्योन्मुखी वृत्ति ] १ - जहावाइ तहाकारी : - उत्तराध्ययन २६/५१ वे जैसा कहते हैं, वैसा ही करते हैं, उनका वाणी और वर्तन, मन और कर्म सामंजस्य युक्त है । २- सुद्धं चरति बंभचेरं : - प्रश्नव्याकरण २/४ शुद्ध भाव से ब्रह्मचर्य की आराधना करते हैं । अखण्ड ब्रह्मचर्य का ओज उनके दिव्य ललाट पट्ट पर प्रतिक्षण दमकता प्रतीत होता है । ३ - आवत्तीए जहा अप्पं रक्खति तहा अण्णोवि : - निशीथणि ५९४२ वे सच्चे संरक्षक हैं, माता की भांति | आपत्ति काल में जैसे अपनी रक्षा करते हैं उसी प्रकार दूसरों की भी रक्षा करते हैं, बल्कि स्वयं कष्ट उठाकर भी दूसरों के हित साधन में लीन रहते हैं । ४ -- जहा से सुक्क गोलए : - उत्तराध्ययन २५/४३ आचार्य श्री प्रतिष्ठा एवं सुख-सामग्री में सदा निस्पृह रहते हैं । जैसे सूखा गोला किसी भी स्थान पर चिपकता नहीं, वैसे ही वे सदा विरक्त मन से साधना में लीन रहते हैं और भोगों से उदासीन ! ५ तवेणं वोदाणं जणयइ : -उत्तराध्ययन २६/२७ बारह प्रकार की तपस्या के द्वारा कर्मदलिकों का व्यवदान - निरन्तर आत्मा से दूर हटाते रहते हैं । ६ - मेढी आलंबणं खंभं दिट्ठी जाणं सु उत्तमं : आचार्य श्री समस्त संघ के मेढीभूत हैं, स्तंभ के समान संघ महल के की भांति धर्म संघ की दृष्टि हैं, उसके मार्गदर्शक हैं और उत्तम वाहन -- गच्छाचार प्रकीर्णक ८ आधार हैं, शरीर में आंख जहाज के समान हैं । ७ – सोमतरं चंदमंडलाओ, दित्ततरं सूरमंडलाओ : - प्रश्नव्याकरण २।२ आचार्य देव की मुख - मुद्रा चन्द्रमण्डल से भी अधिक सौम्य - शीतल है, सूर्यमण्डल से भी अधिक तेजस्वी - प्रभास्वर है । = -संविभागसीले संगहो वग्गह कुसले : आचार्य प्रवर समतावाद के जागरूक प्रहरी हैं, उसका प्रत्येक श्रमण के लिए संविभाग करते हैं, वितरण और उचित संग्रहण की सुन्दर प्रणाली उनकी विशिष्ट जीवनदृष्टि है । - प्रश्नव्याकरण २/२ जो भी वस्तु सामग्री संघ के लिए प्राप्त होती है प्रत्येक की आवश्यकता का ध्यान रखते हैं, समान Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Main Education International उदीयमान साहित्यकार, विचारक एवं वक्ता आचार्यप्रवर के अन्तेवासी तथा अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रेरणा केन्द्र श्री रतन मुनि जी महाराज www.jaelibrary.org Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों के आदर्श में, आचार्यश्री का व्यक्तित्व-बिम्ब ६३ IMAN LAKE CHIL ६-पोक्खरपत्तं व निरुवलेवे : -प्रश्नव्याकरण २/५ __ अपार जन-श्रद्धा और सर्व प्रकार की भक्ति, पूजा आदि उपलब्ध होने पर भी आचार्य श्री की निस्पृह वृत्ति जल में कमल की भांति सदा निर्लेप और उदासीन रहती है। १०-जीवियास मरण भय विष्पमुक्का : -- भगवती सूत्र ८७ ___आचार्य श्री समस्त उत्तरदायित्वों को कर्तव्य की भावना से पूरा करते हैं, वे जीवन के प्रति, दीर्घायुष्य के प्रति न आकांक्षा रखते हैं और न मृत्यु से कभी डरते हैं । जीवन का लोभ और मृत्यु का क्षोभ उनसे कोसों दूर है। ११- मे तव नियम संजम सज्झाय झाणाऽवस्सयमादीएसु जोगेसु जयणा, से तं जत्ता : -भगवती सूत्र १८/१० उनकी जीवन यात्रा वास्तव में ही संयमयात्रा है, तप-नियम, संयम में प्रवृत्ति, स्वाध्याय ध्यान में, लीनता, आवश्यक मुनि चर्याओं में अप्रमत्तता और विवेक पूर्ण प्रवृत्ति-यही तो उनकी वास्तविक यात्रा है। १२----आयंकदंसी न करेइ पावं : -आचारांग १/३२ वे संसार की भोगाकांक्षाओं को दाख रूप समझते हैं, भोग के पीछे छिपे रोग के आतंक को स्वयं समझते हैं और दूसरों को समझाते हैं। इसलिए वस्तु के परिणाम का ज्ञान कराकर वे पापवृत्तियों का निषेध करते हैं। १३–अणोमदंसी निसण्णे : -आचारांग १/३/२ वे मन को कभी क्षुद्र भावनाओं का शिकार नहीं होने देते। सदा ऊचे विचार और ऊंचे संकल्प रखकर मन को ऊर्ध्वमुखी रखते हैं। १४-उवेह एणं बहिया य लोग : -आचारांग ११४।३ आचार्यप्रवर अपने विचारों के प्रति निष्ठावान हैं पर आग्रही नहीं, अपने विचारों से विपरीत चलने वाले या मतभेद रखने वालों से कभी विरोध या विग्रह नहीं करते किंतु उनके प्रति उपेक्षा --मध्यस्थवृत्ति रखते हैं । वे विरोधियों एवं विरोधी चर्चाओं से उद्विग्न नहीं होते किंतु समता की साधना करते हुए तटस्थवृत्ति रखते हैं। १५-नो निन्हवेज्ज वीरियं : -आचारांग ११५॥३ भगवान महावीर की इस दृष्टि का पूर्ण संगम आचार्यश्री के जीवन में हुआ है। वे आज ७५ वर्ष की वृद्ध अवस्था में भी अपनी शक्ति का पूर्ण उपयोग करते हैं, शरीर, मस्तिष्क एवं मन; तीनों के पराक्रम और शक्ति का समाज एवं संघ के हितार्थ सदा सदुपयोग करते हैं। १६–मणं परिजाणइ से निग्गन्थे : -आचारांग २।३।१५।१ वे निर्ग्रन्थ मन को पूर्ण रूप से परखना जानते हैं, मन की चंचल वृत्तियों को रोककर उसे सदा स्वाध्याय और ध्यान में नियुक्त किए रखते हैं । १७-काले परक्कंतं न पच्छा परितप्पए: -सूत्रकृतांग ११३।४।१५ वे प्रत्येक कार्य को समय पर सही रूप में करते हैं। विचारशीलता उनका गुण है, लेकिन दीर्घसूत्रता के दोष से वे मुक्त हैं । जब जिस प्रकार के कार्य व निर्णय की उपयुक्तता उन्हें प्रतीत होती है, वे बिना किसी झिझक, भय व आलस्य के तुरंत उस पर आचरण करते हैं। १८-सुमणे अहियासेज्जा: -सूत्रकृतांग १।६।३१ वे सदा प्रत्येक परिस्थिति में सुमन प्रसन्नमना दीखते हैं। जैसे सदाबहार पुष्प सदा खिला हुआ रहता है, उसी प्रकार तितिक्षा और समता की साधना के कारण उनके मन की प्रसन्नता, प्रफुल्लता कभी नष्ट नहीं होती। DAANAJANORAMAmbassasaradaBANARASIMHARIANISARJANAAKAALAIJADAAAAAAdmini MIX GURJARIBaat 16 i ntename SITI प्रवा अभिः श्रीआनन्द G 292 anvarwww Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्द आचार्य प्रव आयप्रति अभि avio F ६४ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १६ - जं छन्नं तं न वत्तव्वं : --- सूत्रकृतांग १||२६ २० वे सागर से गम्भीर, कूप के समान गहरे हैं। किसी की भी गुप्त रहस्य की बात उनके समक्ष प्रगट कर दो, वे उसे सुनकर यों उतार लेते हैं जैसे कुए में डाल दी हो । शास्त्र का यह आदर्श " किसी की गुप्त बात किसी के समक्ष प्रगट न करो,” उनके जीवन में शतप्रतिशत साकार हो गया है । अप्पं भासेज्ज संजए : —दशवैकालिक आचार्यप्रवर वाणी के संयमी हैं, बहुत कम बोलते हैं, जब जितने शब्दों की आवश्यकता होती है, तोलकर, विचार कर उतनी-सी ही बात बोलते हैं । शब्दों को रत्नों से भी अधिक मूल्यवान मानने वाले आचार्यदेव अल्पभाषी, वाग्संयमी हैं । ग्रन्थ २१- हिययमपावमकलुषं जीहा विय मधुर भासिणी णिच्चं : --स्थानांगसूत्र ४४ आचार्य देव का हृदय निर्मल निष्पाप है, बर्फ सा उज्ज्वल और शीतल है, उनकी वाणी मधुर रस से आप्लावित मिश्री -सी मीठी है । मन भी मधुर वचन भी मधुर, यही हमारे आचार्यदेव का आदर्श है । ✩ आणंद पंचय थुई पं० विद्याभूषण मणि त्रिपाठी [आचार्यप्रवर के निकटतम विद्वान, संस्कृत प्राकृत भाषाविज्ञ ] आयरिओ जणस्स, साहूणं खु पाणप्पिओ । सीयलं य ससीसमो, संघस्स य पिआ अत्थि ।। णंदणो हुलसाए य, देवीचन्दो पिआ आसी । चिचोंडीए जम्म होत्था, काले साहु तुम जाओ || दया अस्थि हिययम्मि, जगाणं कल्लाणरओ । धम्मस्स उज्जोयगरे, पंचायारे लीणो सया || इन्द समो रयणेसी, तस्स सीसो भवं जाओ । पच्छावि अप्पारामस्स, आयरिओ य संजाओ || सीसो तुझ विउलोय, आइण्णो णाण भूसणो तुज्झ पायम्मि, इमं पुप्फं ✩ कियाए । समप्पए । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासती त्रिशलाकुमारी, जैनसिद्धान्ताचार्य [महासती रत्नकुमारी जी का सुशिष्य] वाक्संयमी, किंतु कर्मयोगी विश्व के इस विराट् पुप्पोद्यान में प्रतिदिन लाखों, करोड़ों फूल खिलते हैं और मुरझा जाते हैं। उनसे प्रकृति की सुन्दरता और मोकहता में कोई परिवर्तन नहीं होता । बहुतों के सम्बन्ध में तो संसार यह भी नहीं जानता कि वे कब खिले और कब मुरझा गये । वे केवल कहने मात्र को फूल थे। उनके अन्दर जन-मन-नयन के आकर्षण के लिए अपनी कोई गंध नहीं थी, परन्तु गुलाब का फूल जब डाल पर खिलता है तो वह अपने दिव्य-सौरभदान से प्रकृति की गोद को सुगंध और सुवास से भर देता है। इसीप्रकार इस धराधाम पर न मालूम कितने मानव जन्म लेते हैं और मरते हैं। संसार उनका न पैदा होना जानता है, न मरना । और कौन उन सबको स्मरण करने में अपना अमूल्य समय नष्ट करना चाहता है ? लेकिन कुछ महामानव इस धरतीतल पर गुलाब का फूल बनकर अवतीर्ण होते हैं, जिनके आँख खोलते ही घर परिवार का बगीचा खिल उठता है। समाज का सूना आँगन मुस्कराहट से भर जाता है और राष्ट्र प्रसन्नता तथा आशाओं की हिलोरें लेने लगता है । वे स्वयं जागरण की एक गहरी अंगडाई लेकर सोई हुई मानवता का भाग्य जगाते हैं । उनको पाकर मानव-जगत एक नयी चेतना, एक नयी स्फूति का अनुभव करता है । ऐसे महापुरुष ही संसार में अपना नाम अमर कर पाते हैं। युग-युग तक मनुष्य उन्हें स्मरण करता है और उनके जीवन से शिक्षा लेकर अपने जीवन को भी सार्थक बनाने का तथा परमात्मा बनाने का प्रयत्न किया है। इस दृश्यमान पृथ्वी पर असीम वैभव प्राप्त कर लेना, अद्भुत एवं आकर्षक वस्तुओं का संग्रह कर लेना तथा प्रकांड पांडित्य के बल पर जनता को मंत्रमुग्ध करके आदर, सन्मान एवं यश की प्राप्ति कर लेना ही इस जीवन का लक्ष्य नहीं है तथा धन, जन, अधिकार अथवा प्रतिष्ठा से प्राप्त होने वाला आनन्द स्थायी नही है । ये सभी सुख केवल सुखाभास हैं और अनित्य हैं। सच्चा सुख तो इन सभी से मुक्त हो जाने में है और यह तभी संभव होगा जबकि बाह्य जगत से मुंह मोडकर अपनी आत्मा में झाँकेगा, उसके दुःख को समझेगा और दुःख के कारणों को निभूल करने का प्रयत्न करेगा। कुछ दिनों तक सांस लेने का नाम ही जीवन और इस धधक का रुक जाना ही मृत्यु नहीं है । एक कवि ने सत्य ही कहा है-- जिन्दगी केवल न जीने का बहाना, जिन्दगी केवल न सांसों का खजाना । , जिन्दगी सिन्दूर है प्रब दिशा का, जिन्दगी का काम है सूरज उगाना ॥ ___ संसार उन्हीं महान् आत्माओं को सादर शीष झुकाता है, जो चन्द्रमा और सूर्य के समान अपनी नैसर्गिक प्रतिभा से आध्यात्मिक आलोक जगत् को प्रदान करते हैं । हम देखते हैं कि आकाशरूपी विशाल प्रांगण में प्रतिदिन अनेक उगण उदित होते हैं और सूर्योदय होने पर लुप्त हो जाते हैं परन्तु उनका विय CHAASARJABAMRAVAJAMMANJInte HORORMATRADADOOJABA आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवभिनों आनन्५ प्रामानन्दन UPL winnrn Arvin vernment Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रसार आचार्यप्रसा श्राआनन्दा न्याआनन्द ६६ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व mmmmmmcaomamamminer जय उदय संसार को कोई नयी चेतना, नया परिवर्तन या नई क्रांति प्रदान नहीं करता, इसके विपरीत अपना शीतलतम प्रकाश संसार को बांटता हुआ चन्द्रमा जव आकाश के रंगमंच पर आता है तब सर्वत्र नवीन दृश्य दृष्टिगत होते हैं। इसी प्रकार संसार में युग-युग तक वन्दनीय एवं अर्चनीय जीवन वही है जो ज्योतिर्मय श्रमणेश भगवान महावीर की भाषा में चन्द्रमा के समान निर्मल, सूर्य के समान तेजस्वी और सागर के समान गम्भीर रहा हो । पूज्य आचार्य भगवान का जीवन ठीक ऐसा ही रहा है। पूज्य गुरुदेव लगभग १२ वर्ष की बाल्यावस्था में भोगविलास और धनवैभव को ठोकर मारकर त्याग, वैराग्य तथा संयम के पुण्य पथ पर अग्रसर हुये । आपके साधना क्षेत्र का प्रत्येक पहलू इतना स्वच्छ, निर्मल और उज्ज्वल है कि संपूर्ण मानव समाज को बरबस वह अपनी तरफ आकर्षित कर रहा है। सिर्फ संयम लेने मात्र से ही आपने अपने आपको कृतकृत्य नहीं समझा वरन् आपने उसी समय से ही गुरुदेव पूज्य श्री रत्नऋषिजी महाराज को छत्रछाया में ज्ञानाभ्यास करना प्रारम्भ किया । ज्ञान के प्रकाश के बिना आचार चमक नहीं सकता है । अतः पूज्य गुरुदेव ने जैनागमों तथा अन्य ग्रन्थों का अध्ययन, चितन एवं मनन किया । नम्रता, विनयभाव और पुरुषार्थ के कारण आपका ज्ञान दिन दूना और रात चौगुना बढ़ता गया तथा आपका जीवन बड़ा ही तपोमय है। पिछले कतिपय वर्षों से आप आहार सिर्फ एक समय ही ग्रहण करते हैं और उसमें भी उपवास, आयंबिल, आदि तपस्या चलती रहती है। आपका संयत जीवन त्याग-वैराग्य का ज्वलंत नमूना है । स्वभाव आपका इतना शांत और मधुर है कि जो एक बार भी आपके संपर्क में आता है वह वैराग्य भावना तथा शांत स्वभाव की अमिट छाप लिये बिना नहीं लौटता है । आपकी प्रवचन शैली तथा उपदेश पद्धति बड़ी ही वैराग्यमय, रोचक और ओजपूर्ण है । सत्य और अहिंसा का घोष करते हये जिधर भी आप निकल जाते हैं, हजारों की संख्या में जनता आपके दर्शनों के लिये उमड़ पड़ती है । आपकी उपदेशधारा इतनी प्रभावशालिनी है कि उससे प्रभावित होकर अनेक मांसाहारियों ने आजीवन मांस न खाने का नियम किया। जिनवाणी का पान कराते हुये, जन-जीवन को जगाते हुये, गाँव-गाँव में अहिंसा, दया, सत्य, दान, शील आदि जीवन-सिद्धांतों की दुदुभि बजाते हुये भारत के प्रायः सभी प्रान्तों और नगरों में आपका पर्यटन हुआ है । सब ओर जनता ने आपका हार्दिक भाव से स्वागत किया और आपकी वाणी का सुधा-पान करके अपने जीवन को धन्य किया। सम्प्रदायों के रूप में अलग-अलग बिखरी हुई समाज की शक्तियों को संगठित करने, एकता का रूप देने और उदारवृत्ति से मिल-जुलकर रहने के आप प्रबल और प्रमुख पक्षपाती हैं । "आज के प्रगतिशील युग में कोई भी समाज पारस्परिक सहयोग और संगठन के बिना संसार की समस्याओं के आगे नहीं टिक सकता है" यह महास्वर सर्वदा आपकी वाणी में गुजित होता रहता है। मौन भाव से संघ-सेवा, कर्तव्य-पालन तथा निष्काम संयम-निष्ठा, ये ही आपके जीवन का उज्ज्वल आदर्श है । आपके समुज्ज्वल व्यक्तित्व और दायित्व-निर्वाह की अपूर्व क्षमता पर मुग्ध होकर संघ ने आपको आचार्य पद प्रदान करके अपना हृदयसम्राट स्वीकार किया और समाज का नेतृत्व आपके हाथों में सोंपकर अपने आपको भाग्यशाली समझा। वर्तमान में आप इस दुर्वह भार का बड़ी धीरता, गंभीरता, कर्तव्यबुद्धि और निर्मल भाव से सफलता पूर्वक निर्वाह कर रहे हैं। आपका हृदय इतना उदार और विशाल है कि श्रमण संघ के आचार्य होते हुए भी आप सांप्रदायिकता से कोसों दूर रहते हैं। मैं अन्त में पूज्य गुरुदेव के चरणारविन्दों में श्रद्धा-पुष्प समर्पित करती हूँ। भले ही उन पुष्पों में सुगंध न हो लेकिन गुरुदेव इसे अवश्य स्वीकार करेंगे, ऐसी अभिलाषा रखती हूँ । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ न न्द म षि भ जा मि श्री जिनेशमुनि 'विशारद [ उपाण्याय श्री अमरचन्द जी महाराज के प्रशिष्य सेवाभावी अध्ययनशील ] मान्यो महात्मा गुरु साधुवर्यः, परोपकारी धृतधर्मशीलः । मानापमानेऽपि समत्वभावी, दयासमुद्रश्च जनोपसेवी ॥ धर्मार्थमेवात्र विधाय जन्म, सर्वत्र कीति तनुते सुदिव्याम् । आनन्दमूर्तिः प्रददाति नित्य—मानन्दमेकं सुखदं समेभ्यः॥ ज्ञानेनशून्यः सकलो जगत्याम, जनो न सौख्यं लभते कदापि । उद्धर्तुमेतं सततं सहर्ष-मानन्दमूर्तिः यतते पदातिः॥ धर्मप्रकाशेन धनान्धकारं, विलोकयत् सर्व जनस्य भूत्यै । विद्यानिधिर्यो विमलोवरेण्य स्तमेकमानन्दमहं नमामि ॥ NDEX यस्यास्ति चित्तं चयनीयमेव, यस्यास्ति वृत्त वहनीयमेव । यस्यास्ति कृत्यं कमनीयमत्र, तमेवानन्दगुरुं नतोऽस्मि ॥ सत्यं शिवं सुन्दरमेव वृत्त, यस्येह लोके मुनि-वृन्दमान्यः । आनन्दनाम सुगुणी गरिष्ठः, संराजतां सर्वजनेषु नित्यम् ॥ शास्त्रेषु दृष्टि विमलाऽस्ति यस्य, कार्येषु सर्वेषु समत्वसिद्धिः । आचारपूतं सुविचारधौतं, सत्यं तमानन्दमृषि भजामि ॥ AAAAAAAJanam GDABADABADRA NिAMU ANMarwwwIMIMWiawwanmeramariawww Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी सुशीलकुमारी [ विदुषी श्री अमृतकुवरजी महासनी का मुशिष्या ] श्रद्धा-सुमन "श्रमण संघ रूप प्रदीप में, स्नेह-श्रद्धा के साज । ज्योति प्रकट हई आनन्द की, धर्मोन्नति के काज ॥" श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमणसंघ को यदि मुकुट की उपमा दी जाय तो हमारे परम श्रद्धेय आचार्यश्री जी उस मुकट के दैदीप्यमान तेजस्वी मणि रत्न है। आचार्यश्री जी की अलौकिक प्रतिभा और अप्रतिम व्यक्तित्व की धवल आभा ने केवल श्रमण संघ को ही नहीं, अपितु समस्त जैन जगत् को भी धवलित किया है । समाज में नयी चेतना, नयी प्रेरणा और नया उत्साह निर्माण किया है। श्रमण संघ का सद्भाग्य है कि उन्हें प्रथम आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज और द्वितीय पट्टधर श्री आनन्द ऋषिजी म. प्राप्त हए हैं।" आत्मा+आनन्द" इन दोनों का कितना अच्छा सुयोग बना है ? आत्मानन्द की साधना यही जीवन की सफल साधना है। यह एक आध्यात्मिक संकेत है, जो जन-जन को जागृत कर रहा है। आप महाराष्ट्र के उज्ज्वल-समुज्ज्वल मोती, श्रमण संघ की प्रज्ज्वलित ज्योति, विश्व की महान् विभूति और त्याग-तप की साकार मूर्ति है । सूरज की तेजस्विता, शशि की शीतलता, सागर की गंभीरता धरती की सहिष्णुता, कमल की निलिप्तता और सुमेरू की निश्चलता आदि सद्गुण आप जैसे चारित्रशील महात्मा में स्थान पाकर मानो कृतार्थ हो गये हैं। आपकी विनत-विनम्र आकृति, सरल-सहज प्रकृति और निःस्वार्थ कृति चतुर्विध संघ को अपनी ओर आकृष्ट कर रही है। आपके ज्ञान की गरिमा जीवन की मधुरिमा और गुणों की महिमा अद्वितीय है। जिसका वर्णन करने के लिए शत-शत जिह्वाएँ भी असमर्थ हैं। वैज्ञानिकों का कथन है कि हर एक मनुष्य के विचारानुसार उनके आस-पास एक तेजोवलय होता है और उसका प्रभाव निकटस्थ व्यक्ति पर पड़े बिना नहीं रहता । इस प्रमाण से सिद्ध होता है कि आपके चरण में पहुंचने वाले व्यक्ति के जीवन में जो परिवर्तन आता है तथा जो धर्म भावना प्रकट होती है, वह सब आपके दिव्य-भव्य निर्मल तेजोवलय का ही प्रताप है। आपके जीवन रूपी घट में से अवतरित मानवता रूपी मधु झरता है। जिसका पान करने के लिए भक्त रूप भ्रमरों के समूह आपके चारों ओर सदैव मंडराते हुए रहते हैं। आपने जैन-अजैन सभी तत्वों का गहन अध्ययन किया, फिर भी आप सत्याग्रही रहे । ज्ञान का गर्व आपमें लेशमात्र भी दिखाई नहीं दिया। भगवान महावीर का तत्त्व आपके अणु-अणु में व्याप्त है। उन तत्त्वों के प्रचार-प्रसार के लिए साहित्य-सर्जन तथा पंडितों को स्वयं तैयार करते हैं और जनता को भी मार्ग दर्शन करते रहते हैं। "प्राकृत भाषा प्रचार समिति" वर्तमान में जो कार्य कर रही है उसमें आपका वही हेतु है कि हमारे ज्योति-पुञ्ज विश्ववंद्य भगवान महावीर का अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रहवाद सिद्धान्त विश्व के कोने-कोने तक पहुंचे। उसके लिए अनेक प्राकृत भाषा के विद्वानों Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा-सुमन का लक्ष्य इस कार्य की ओर केन्द्रित कर रहे हैं। हाईस्कूल और कालेज में भी प्राकृत भाषा के क्लास शुरू कराने के लिए आप सतत प्रयत्नशील हैं । आप प्रभावक प्रवक्ता है। जिस समय आपकी वाणी सरिता प्रवाहित होती है उस समय श्रोतावृन्द के रोम-रोम विकसित हो उठते हैं। आपकी प्रशांत मुख मुद्रा से हर एक व्यक्ति प्रभावित हो जाता है आपकी प्रवचन शैली सरल-सरस सुमधुर और हृदयस्पर्शी है। विविध भाषाओं के ज्ञाता होने पर भी आपकी भाषा में शब्दों का आडम्बर तनिक भी नहीं पाया जाता "सहज बोलणे हाचि उपदेश" संत तुकाराम महाराज की उक्ति आपके जीवन में पूर्णरूपेण घटित होती है। आपके शब्द सदैव नपे-तुले और माधुर्य सने हुए होते हैं तथा विवेक की सरानी पर चढ़कर ही बाहर निकलते हैं। अन्तःकरण की शुद्धता का प्रभाव वाणी पर पड़े बिना नहीं रहता है। अतः आपको वाचासिद्धि भी प्राप्त है । सेवा आपका मूल मंत्र बना हुआ है। "जन सेवा यही जनार्दन की सेवा है" इस सूत्र के अनुसार आपने समाज की विविध प्रकार से सेवा की है । अपने जीवन का कण-कण और क्षण-क्षण परोपकार के लिए समर्पित किया है । यह उक्ति सत्य है कि " परोपकाराय सतां विभूतयः " । आराम को आप कभी जीवन में स्थान नहीं देते । आप सतत अध्ययन-अध्यापन तथा समाज कार्य में रत रहते हैं । एक समय भी व्यर्थ नहीं गंवाते । विविध क्षेत्रों में संचालित पुस्तकालय छात्रालय, सिद्धान्तशाला, पारमार्थिक संस्थाएँ आदि आपकी सेवा की प्रतीक हैं। आपने अनेक निराश्रित बच्चों को आधार देकर स्वावलंबी बनाने के लिए सहयोग दिया है। "स्वहिताय" के साथ-साथ "सर्वहिताय" की विशाल व्यापक विचार धारा को लेकर ही आप वृद्धावस्था में भी जवानी का जोश लिए हुए पाद विहार करके अनेक क्षेत्रों को पावन कर रहे हैं। जहां भी आप जाते हैं वहां की समाज का आप सूक्ष्म निरीक्षण-परीक्षण करते हैं। समाज की विषम और अवनत दशा देखकर आपका दिल द्रवित हो उठता है। उसे दूर करने के लिए ही "महाराष्ट्र एकता संप" आदि योजनाएं बनाई जा रही है। आपकी एक ही आवाज है "United we stand and divided we fall" संगठन यह हमारी उन्नति है और अवनति हमारी फूट है । संगठन की शक्ति बहुत बड़ी है । उसके अभाव में समाज अपनी प्रगति नहीं कर सकेगा। क्योंकि "संघे शक्तिः कलौ युगे । समाज का सर्वागीण विकास हो यही आपकी उत्कट भावना है। उसे कार्यान्वित करना, यह समाज का परम कर्त्तव्य है। समाज के प्रति आपकी आत्मीयता तथा दयालुता ही समाज को संगठित करने वाली एक स्वर्ण श्रृंखला है । इस प्रकार सर्वतोमुखी प्रतिभा सम्पन्न - प्रशांतमूति, आचारनिष्ठ, न्यायप्रिय श्री आचार्यदेव अपनी गुण गरिमा से समस्त समाज के श्रद्धा केन्द्र बने हुए हैं। समाज उन्हें भगवान तुल्य मानता है । ऐसे आचार्य पद को विभूषित करने वाले महान संत का नेतृत्व पाकर हमारे श्रमण संघ का गौरव उसी में है कि "हम सब एक सूरज की ज्योति हैं" इस सूत्र को जीवन बद्ध करके और उनके आदेश का पालन करके जिन शासन की तथा जैन धर्म की अभिवृद्धि करें। हमारे आचार्यश्री जी युग-युग तक ज्ञान की उज्ज्वल किरणें फैलाते रहे इसी शुभ कामना के साथ उनके परम-पुनीत पद-कमलों में "श्रद्धा-सुमन" समर्पित करती हूँ । ६६ मेरी हृदय-वाटिका में खिली, किरण कृपा की एक । आनंद की हरियाली छायी, और "श्रद्धा-सुमन" खिले अनेक ।। बस उसी क्षण साकार बनी, यह दिव्य प्रतिभा अंतः स्थल में । सोचा ये श्रद्धा सुमन, समर्पित कर समर्पित कर दूँ उन पद कमल में ।। ☆ आयाय प्रवरत अभिनंदन श्री आचार्य प्रव20 श्री आनन्द ऋ ग्रन्थ १ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरबारमल चौपड़ा [मंत्री--श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, जयपुर] RCM प्राचार्य प्रवर का अभिनन्दन నాల __ आत्मिक उन्नति का पथ प्रशस्त करते हुए प्राणिमात्र की कल्याण-कामना में सरिता की सरस धारा के समान सदा प्रवाहमान होकर सुख-शांति देने वाले सन्तों का जीवन स्वर्गापम विभूति है। आचार्य सम्राट इस सनातन सत्य की साक्षात् प्रतिमुर्ति है। सरल, सरस और सुन्दर मानस, तर्कप्रवण प्रज्ञा, मदु मधुर और मनोहरवाणी---यह त्रियोग जिस तेजस्वी व्यक्तित्व में एकरस हो गये हैं, वह है आचार्य सम्राट श्री १००८ श्री आनन्दऋषि जी महाराज । जीवन के प्रभात में गीतकार, जीवन के सौरभमय ऋतुराज में कोमल कवि तथा जीवन के तीसरे पहर में दार्शनिक, चिन्तक, समाज संगठक तथा जन-चेतना के लोक-प्रिय अधिनेता। मझला और भरापूरा शरीर, सुषमामय श्यामवर्ण, मधुर मुस्कान, विशाल भाल, चौड़ा वक्षःस्थल, सरल, विरल, धवल केश, तेजोमय नयन, मनोभावों को परखने की सुदृढ़ परख आचार्यश्री का समग्र व्यक्तित्व है। नूतन और पुरातन विचारधाराओं के समन्वित स्वरूप, सामाजिक क्रांति के सूत्रधार, संयोजक और व्याख्याता होते हुए संघ हेतु सर्वदा स्नेह, सहानुभूति, सहयोग और क्षमता के सम्पूट के साधक, आचार्यश्री अपने जैसे आप हैं। "सच्चं खु भगवं' अर्थात् सत्य साक्षात् शिव है, वह अनन्त और अनादि है। वह अपरिमित और असीमित है। उसे सीमित और परिमित कहना भ्रान्ति है। उसे बाँधना, संघर्ष को बुलाना है। उसकी उपासना धर्म है। उसका साधक शाश्वत शिव यानी भगवान है। आचार्य सम्राट इसी विश्वास, आस्था और विराट वैभव के प्रतीक हैं। "मुक्तिः क्रीडति हस्तयोर्बहु विधं सिद्धं मनोवांछितम्' अर्थात् जो वीतराग मार्ग का यात्री है, मुक्ति अर्थात् मोक्ष उसके किसलय से कोमल करों में खेलती है। उसके संकल्प सत् और सुदृढ़ होते हैं। वह पूर्ण होगा । आत्मा श्रद्धामय है, श्रद्धा आत्मा का परिमार्जित और परिष्कृत रूप है आचार्यप्रवर ऐसे ही महामानव है । वे कहा करते हैं "विचार और विकार मानव मन की उपज है। विकार पतन और विचार उत्थान का द्योतक है, दूसरों के प्रति द्वेष की भावना मानव मन का विकार है। विकार को विचार में बदलने की कला जैनत्व है। जन-मानस में दिव्य विचारों का प्रादुर्भाव हो। जैन संत इस भावना से प्रेरित हो आत्म बोधका विपुल स्रोत प्रवाहित करते हैं। आचार्य सम्राट इस अर्थ में एक महान चमत्कार है। उनकी वाणी का चमत्कार कलित कण्ठों से व्यक्त नहीं होता, उसकी अभिव्यक्ति उनके जीवन की शीलता है। आनन्दऋषि जी महाराज का इस सत्य से साक्षात्कार है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रवर का अभिनन्दन १०१ शाम प्रत्येक युग और कोल में ऐसी महान विभूतियां जन्म लेती हैं जो अपनी प्रगल्भ प्रतिभा से विश्व को आलोकित करती हैं, वे अपने युग के सड़े, घिसे-पिटे विश्वासों, आस्थाओं और मान्यताओं तथा आचारविचार को नूतन क्रांति का जामा पहनाते हैं, जीवन के अन्तिम क्षण तक अन्य-विश्वासों, रूढ़ियों और अविवेक से जूझते रहते हैं, वे 'स्व' कल्याण की भावना और मनोकामना से ऊँचे उठकर 'पर' कल्याण की बात सोचते और करते हैं। जैनाचार्य इस ही साधना के साध्य हैं। उनकी इच्छा योग की साधना है। वे बल प्रयोग से परे हैं साधना की जाती है, बाहर से लादी नहीं जाती। आचार्य सम्राट का समग्र जीवन इसी साधना का साध्य है। स्थानकवासी समाज के युग पुरुषों की परम्परा में श्रीआनन्द ऋषि एक प्रमुख हैं। आपने समाज को नया विचार, नया चिन्तन, नयी वाणी और नयी भाषा दी है। वस्तु-तत्त्व को परखने की क्षमता एवं साहस आपका अलौकिक और अनूठा है । आपने प्रस्तुत समाज को प्रबुद्ध करने का नया मन्त्र और आह्वान दिया है । बिखरे समाज को एकता के सूत्र में बाँधने के प्रयास सराहनीय और श्लघनीय है। आचार्य-सम्राट प्रमुख व्याख्याकार, विचारक, चितक और भविष्य के दृष्टा हैं। आप उच्चकोटि के क्रिया-उद्धारक हैं। जीवन के पुराने रास्तों को बदलकर नये मार्ग स्थिर करने वाले क्रान्तिदूत हैं। सच तो यह है कि आचार्य प्रवर आगम वाङमय के गहन, गम्भीर परिशीलन करने वाले मनीषी हैं, जन-चेतना और जागरण के सुदृढ़ स्तम्भ हैं। उनका अभिनन्दन अपने आपमें एक अभिनन्दनीय कृत्य हैं। ऐसे पावन अवसर पर मैं श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ जयपुर की ओर से श्रद्धानवत हो चिरायु की कामना करता हूँ। ऐसे युगपुरुष, महामानव को शतशत कोटि प्रणाम । भा वा अलि डा० जयकिशनप्रसाद खण्डेलवाल [एम० ए० हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, अर्थशास्त्र प्राचीनभारतीय इतिहास एवं संस्कृति, एल० एल० बी० साहित्यरत्न, साहित्यालंकार, पी-एच० डी० संस्कृत विभाग, राजा बलवन्तसिंह कालेज, आगरा) आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी के ७५ वें जन्म दिवस पर प्रकाश्यमान अभिनन्दन ग्रन्थ का आयोजन सर्वथा श्लाघनीय है। वे एक महान् आत्मा हैं और विगत पैंसठ वर्ष से निरन्तर श्रमण-धर्म, संस्कृति एवं दर्शन की महती सेवा कर रहे हैं । ऐसी महान् आत्माएँ ऋषभ-पुत्र भरत के इस महान देश भारत में समय-समय पर जन्म लेकर संसारी जीवों को मोक्षमार्ग का दर्शन कराती हैं और उनके व्यवहारिक जीवन को भी संयमशील एवं उन्नत बनाने में उपदेश आदि के द्वारा सहायक होती है। श्रमण-वर्ग आचार्यजी के उपकार से कभी उऋण नहीं हो सकता, वस्तुतः हम सब उनके चिर-ऋणी बने रहना चाहते हैं। उनके जीवन में भक्ति, ज्ञान और कर्म रूप त्रिधारा का संगम हुआ है। वे तीर्थ स्वरूप है। ऐसे महान् कर्मयोगी के प्रति मैं श्रद्धा-विनत हो अपनी भाव-पूर्ण शब्दावलि अर्पित करता हूँ। पं० आशाधर जी के शब्दों में आचार्य श्री का व्यक्तित्व इस प्रकार है ज्ञानदिवाकर लोकालोकं, निजितकारातिविशोकं । बालत्वे संयम सुपालितं, मोह महानलमथन विनीतं ।। विनम्रता की मूर्ति, सहज भाव में स्थित उन ऋषिप्रवर आचार्यजी के प्रति पुनः भावांजलि अर्पित ! SNIU श्राआअभिसाचारात माया प्रवाअभि श्रीआनन्दग्रन्थ श्राआनन्द अन्य PMINMunavarv. . Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रामानन्द मन्थश्रागाव. प्रवर्तक श्री हीरालाल जी म. [प्रसिद्ध बक्ता तथा सुदूर प्रदेशों में जैन धर्म के प्रचारक HEREST सुमनाञ्जलि आचार्य देव का जीवन अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से भारतीय तथा पाश्चात्य संस्कृति को निज गुणों की सुवास से सुवासित किए बिना नहीं रह सकता है। उनके सुकुमार हृदय में जन-मन को आकर्षित करने तथा शांति स्रोतस्विनी बहाने की सर्वातिशायिनी शक्ति विद्यमान है। उनकी सुन्दर बहुमुखी प्रतिभा के प्रतीक है ५० विद्यामन्दिर, अनेक धर्मस्थान ! माँ भारती के इस वरद पूत्र ने निज जीवन का प्रत्येक क्षण परहिताय, पर-सूखाय लगाकर अज्ञानान्धकार की निराकृति हेतु ज्ञान का आलोक परितः फैलाया। इनका तपःपूत जीवन, वीतरागमुद्रा, अमृतरसस्नाता गिरा, भव्य विचारणा, विचित्र धी, जन्मांतरीय संस्कारों की अमल विरासत हैं। हमारे आचार्य भगवान् जीवन कला के सच्चे कलाकार, अहिंसा के परम उपासक, करुणा के निर्झर, देश, समाज के सुधारकर्ता योगनिष्ठ धर्म नेता हैं जब जब भी समाज में कटुता का, वैमनस्य का, विष पनपा तभी इस दिव्य पुरुष ने शिवशंकर बनकर उसका पान कर समाज को विघटन से बचा लिया। सुखद-स्मृतियों के कारण आज भी गौरवान्वित है । हमारे हृदय सम्राट का भक्तियोग, ज्ञानयोग एवं कर्मयोग का स्रोत सतत् जीवन पथ पर प्रवाहमान है। उनके ज्ञान की त्रिपथगा अविरल अनन्त की मधुर स्वर लहरी में आज भी अपने गंतव्य की ओर प्रवाहशील है। शासनेश से पुनः पुनः कर बद्ध प्रार्थना है-यह ज्ञान की निर्मल ज्योति सहस्रों वर्षों तक अपनी प्रभा से अज्ञानान्धकार में भटकते हए जन मानस को प्रभान्वित करती रहे और मुमुक्ष ओं को शिवगामी बनने का प्रशस्त मार्ग बताये। शत शत वंदन - मुनि श्री शांति ऋषि श्रद्धय आचार्यश्री आनन्द ऋषि जी महाराज के चरणारविन्दों में शत-शत वंदन करता हूँ। आपके मार्गदर्शन के फलस्वरूप ही मैं संयम साधना द्वारा आत्म कल्याण के मार्ग पर अग्रसर है। आपके वरद आशीर्वादों की आकांक्षा के साथ श्रीचरणों में सदैव श्रद्धावनत हैं। आपथी दीर्घायु होकर प्रत्येक भव्य मुमुक्षु को सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्रको सफल बनाने हेत सम्बल बनें, यही शुभ कामना है। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज [मेवाड़ के विशिष्ट प्रभावशाली वयोवृद्ध संत, आगमों के गम्भीर बाता] TE आपांणां प्राचार्य श्री [ मेवाड़ी भाषा] परम आत्मीयता री स्थिति में दो बोल भी दुर्लभ व्यां करे। कई केणो कई नी केणो ई रो कई ध्यान नी आवे । कणी रे इ वास्ते केवारे पेली आपणो अलग अस्तित्व थापणो जरूरी व्हे। घनिष्ठ एकात्मकता री स्थिति में या बात घणी दोरी। पूज्य आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज साहब रे विषय में दो बोल केता थकां म्हूँ भी मुश्किल रो अनुभव करू। आचार्य श्री आपणां श्रमण संघ में आज सिरमौर ने जैन समाज रा प्रधान पद पे है । यो प्रायः व्यां करे के असी स्थिति में पहुँचवा पे एक अजाप्यो अहं अचानक चुपचाप जीवन में घुस जा, वीरो प्रकट प्रभाव रौब राखवारी वृत्ति में नजर आवे। पण आचार्य श्री बी सू बाल-बाल बच सक्या या आचार्य श्री रे वास्ते ही नी, आपणां संघ रै वास्ते भी बड़ी गौरव री बात है। म्हूं घणां वर्षों सू आचार्य श्री ने देख र्यो हूँ, ये जठे हा आज भी बैठे ही है। संजम रे प्रति जागरूक वृत्ति में पेली भी हा आज भी है । बालकां जस्यो सरल स्वभाव बो भी समझ पूर्वक, पेली भी हो आज भी है। ई में कई फरक नी पड्यो । जठा तक उपरली बातां है आचार्य श्री में घणां उतार चढ़ाव आया। एक संप्रदाय का आचार्य पछे छोटा संघ का आचार्य, पछे प्रधान मन्त्री, पछे उपाध्याय, पछे संघ रा आचार्य आदि । यो उपरलो ऊर्ध्वमुखी परिवर्तन तो घणो व्यो, पण अन्तर सू तो ये है जो है। म्हूं अणा सू अलग-अलग स्थिति में मिल्यो पण य म्हने अलगनी मिल्या। केणों कई, करणों, कई बताणों कई, साधना री पहली स्थिति में भी नी चाले, पण घणां ऊंचा बाजवा वाला में भी जद असी बातां नजर आवे तो मन खिन्न व्हे, असी हालत में आचार्य श्री री तरफ नजर जावे तो मन ने बड़ा सन्तोष व्है के आत्मा रा धरातल सू निष्कपट व्यवहार रो आदर्श मर्यो नी जिन्दो है, ने वो आचार्य श्री का रूप में साकार बण घूम रयो है। बलिहारी उलझना ने सुलझावा में नी है, बलिहारी तो उलझना में नी उलझवा में है। श्रमण संघ अलग-अलग संप्रदायां रो एक विधान सम्मत एकीकृत समूह है, ई में कतरी उलझना आई या आवती रे वे या तो जो ई में काम करे वो जाणे। दू जो तो अन्दाज ही नी लगा सके। म्ह जाण क्यू के महूँ ई में काम करू । अठे उलझना रो पार नी पण आचार्य श्री कठेई नी उलझ्या। एक हश्यार आदमी उलझतो थको सुलझा तो सके पण एक जणों घणी हुश्यारी रो प्रयोग नी करतां थका भी उलझे नी तो घणी समस्या आपोआप सुलझे या दूसरी बात आचार्य श्री में नजर आई। चावे जस्यो प्रश्न वो, ये आपणा काम में मस्त दो टीपी राय दी दी ने फारक । ramainaranwerin.commarwarunmidananama AAAAAACAN भागार्यप्रवर अननसाचार्यप्रवर अभि श्रीआनन्द श्रीआनन्द अन्श Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aauruaamamruaranamaAAAAAAAAMIRMALA आचार्य प्रवर अभिभापार्यप्रवर अभि श्रीआनन्दअन्यश्रीआनन्दग्रन्थ wwwwwwwwwwwnawaeravinamrarivinawraviwwwwrane १०४ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व आपणों कई आग्रह नी, जिट्ट नी, बात संघ री रेणी चावे आपणी बातरो कई रोवणो?" अस्या सरल साफ ने सुलझ्या ने कुण उलझा सके ?" समस्याओं रा निपटारा संघ हित री दृष्टि सू व्हे, वे सबां ने रुचे ही या जरूरी नी। कणी रे ही प्रतिकूल कोई बात व्हैं तो थोड़ी घणी अचकचाई पण आवे ने वी में कोई कई के भी दे, पण आचार्य श्री रा कान सुणवा रा मामला में हाथी सू भी म्होटा । सब सुणों पण चू नहीं आ म्होटी बात है। समुद्र जसी गहराई वेवा सूदुश्मन भी अणा सू मिलता शंके नी। व्यक्तिगत दुश्मन तो अणां रे शायद ही कोई व्हे पण संघ रे नाते मत भेद तो जरूर है ही पण वणां ने भी अणां री ईमानदारी ने सच्चाई पर तनिक भी शंका नी या खास बात है जो बहुत कम जगां मिले । संगठन रा जन्मजात हिमायती पूर्ण सेवाप्रेमी, संघहितैषी आत्म-शोधक जैन जगत रा तपा तपाया सो टंच सोना पूज्य आचार्यश्री आनन्दऋषि जी महाराज साहब मानवता री महान विभूति है, जणी पं आपां गौरव को अनुभव कर सका। ये सौ-सौ वर्षों जीवे ने धर्म समाज ने संस्कृति री सेवा साधे अणी शुभकामना रे साथ हूँ, हार्दिक श्रद्धांजली अर्पण करूं । उदारता की मंजुल मूर्ति 0 जीतमल लुणिया, अजमेर [वयोवद्ध गांधावादी साहित्यसेवी] भारतीय साहित्य में आचार्य का अपूर्व महत्व प्रतिपादित किया गया है। आचार्य को देवस्वरूप मानकर उसकी अर्चना की गई है । आचार्य वह है जो स्वयं आचार का पालन करे और दूसरों को आचार पालन की शिक्षा प्रदान करे। ___ मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि जी महाराज के ७५वें वर्ष के सुनहरे अवसर पर एक विशिष्ट अभिनन्द-ग्रन्थ उन्हें समर्पित किया जा रहा है। यह अनमोल साहित्यिक निधि भारतीय साहित्य की बहुमूल्य उपलब्धि सिद्ध होगी, यह मेरा पूर्ण विश्वास है। ___आचार्यप्रवर के दर्शन एवं निकट संपर्क में आनेका मुझे तीन चार बार सौभाग्य प्राप्त हुआ है, उनके विराट व्यक्तित्व और पवित्र चरित्र की अमिट छाप मेरे मानस पर पड़ी है। उनके जीवन का एक सुमधुर संस्मरण आज भी मेरे मानस पटल पर अंकित है। अजमेर पधारे थे । मैं उनके दर्शन के लिए पहुँचा । उनके पास कुछ जीवनोपयोयी साहित्य पड़ा हुआ था । पुस्तकों को देखकर मेरा मन पढ़ने के लिए ललक उठा। मैंने आचार्यप्रवर से नम्रनिवेदन किया कि ये पुस्तकें मूल्य से कहाँ से मिल सकेंगी। मुस्कराते हुए आचार्य प्रवर ने कहा कि मैंने ये पुस्तकें पढ़ली हैं, आप पढ़ना चाहते हैं तो इन्हें सहर्ष ले सकते हैं। आचार्य प्रवर की यह उदारता देखकर मैं आनन्द विभोर हो गया। विविध भाषाओं और साहित्य के प्रकांड पंडित होते हुए भी आचार्य श्री में विद्वता का अभिमान किंचित मात्र भी नहीं है। यदि कोई आपश्री की आलोचना करता है तो आप उसकी बातों पर गहराई से चितन करते हैं । यदि अपनी कोई भूल ज्ञात होती है तो सरल स्वभाव से उसे स्वीकार कर लेते हैं । यह है आपके जीवन की महान विशेषता । आपका जीवन महान है । आप मानव समाज के सच्चे भूषण हैं। आप श्री चिरकाल तक स्वस्थ रहकर जैनशासन की सेवा करें, यही मेरी हार्दिक शुभ कामना व भावना है। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मे रे प्रणा म हैं ...! 0तिलकधर शास्त्री [सम्पादक-आत्मरश्मि ] Dow समय का यह महानद, बहता है अविरत, ॐचे विशाल हैं इसके अगम्य तट गिरते ही रहते हैं लहरियों से कट - कट । देखा है मैंने एक ऐसा ही महामानव जन्म-तट से कूद पड़ा संयम के पोत पर जाकर हुआ खड़ा आश्चर्य है कितना बड़ा ! इधर है जन्म तट उधर है मृत्यु-तट दोनों के मध्य है अतिविशाल अनसूझा अबुझा-सा अन्तराल । सब बहते हैं इस तट से उस तट की ओर, खींचती हैं उन्हें मानो झकझोर अदृष्ट अज्ञात डोर । संयम के सहारे वह आनन्द के सिंधु में डूब-डूब उतराया है ऋषित्व के पावनतम रत्न वह लाया है। उसका आनन्द हुआ ऋषित्व में ही विलीन, उसका ऋषित्व हुआ आनन्द में ही संलीन बन कर आनन्दऋषि आचार्य पद पाया है। सब चिल्लाते हैं बहते ही जाते हैं हो विवश मजबूर जाते हैं दूर - दूर धकेलता है उन्हें सदा चण्ड शूर कर्मकर। PLASSA होते हैं कर्मजयी ऐसे भी महामानव जो इसी तट पर ही रहते हैं, इसके प्रवाह में कभी नहीं बहते हैं। पचहत्तर बसन्तों में श्रेष्ठ बने सन्तों में उत्तम ज्ञानवन्तों में महतोमहीयान् बने श्रीमन्तों में विनयशील, ज्ञान के अक्षय भण्डार है चारित्र-सम्पदा के रूप साकार हैं। ज्ञान के महा रूप दर्शन के समग्र रूप पुर्ण निष्काम हैं जिनके मंगल पाद-पद्म अति अभिराम हैं उन्हीं मंगल चरणों में मेरे प्रणाम हैं, शत-शत प्रणाम हैं। नद एवं तटों के बन्धनों को तोड़ - तोड़, जीवन की दिशा को मोक्ष की ओर मोड़ अमर पद पाते हैं। يحمیحطه امي مي مانحرمين ومعهميعععععنرعرعتغمدهم مطیعریف ONVENI NIयागी 16XZ . . . m aaamwaminenturneareronourityInaniyamaanwar Damanemewanayarmelibrary.org Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रव श्री आनन्दक ग्रन्थ ST. 車 噩 आचार्य प्रव श्री आनन्द आनन्द के चरणों में अभिनंदन अन्थ वैद्य अमरचन्द जैन, बरनाला [[[मन्त्रीज्य जीवनराम जैन पुस्तक प्रकाशन समिति तथा समाज सुधारक ] श्रमण संस्कृति त्याग प्रधान है। यह भोग से योग की ओर चलने का आदेश, संदेश, उपदेश देती है । समय-समय पर इस महान् दिव्य संस्कृति ने भारतवर्ष को ही नहीं, अपितु विश्व को ऐसे नररत्न दिये, जिन्होंने स्व-पर का कल्याण करते हुए विश्व के समक्ष सूर्य प्रकाश सम त्याग मार्ग का आदर्श रखा । जन-जन को "सम्यग्ज्ञान-दर्शन, चारित्राणि मोक्षमार्ग" का दिव्य पथ प्रदान कर उसका पचिक बनाया । अहिंसा, संयम और तप रूपी मंगलमयी धर्म की उत्कृष्ट त्रिवेणी बहाकर जन-मानस का जीवन उत्थान कर, उनको नव धर्म की ज्योति प्रदान की । दानव से मानव बनाया । आज भी एक महान् सूर्य सम प्रखर तेज-पुंज दिव्य आत्मा मानव को मानवता का पाठ पढ़ाता हुआ अहिंसा, संयम, तप का प्रकाश प्रदान कर रहा है। जन-जन का पथ प्रदर्शन कर रहा है। वह हैं पंच परमेष्ठी के तृतीय पदालंकृत सूर्य सम चमकते चन्द्रसम शीतल, आध्यात्मिक आनंद के निधि, जैनागमरत्नाकर, जैनधर्म दिवाकर आचार्य "श्री आनन्द ऋषि जी महाराज । " , आपने छोटी-सी अवस्था में ही इस असार संसार के वैभव को स्थानकर उस उच्च कोटि की साधना में कदम रखा जो श्रमण संस्कृति के त्याग की भूमिका है । आपके जीवन में सौम्यता, क्षमा, धीरता, गम्भीरता, अथाह ज्ञान की गरिमा हिलोर मार रही है। आज ७५ वर्ष के होते हुए भी यत्र-तत्र सर्वत्र विहार कर जन-जन का पथ प्रदर्शन कर रहे हैं। भूले भटके अज्ञानान्धकार के घेरे में घिरे, धर्मविमुख, भौतिकवाद के झूठे चमत्कार में फंसे जन-मानस को भगवान् महावीर की अमर देन सत्य, अहिंसा, अनेकान्त अपरिग्रह का दिव्य आलोक दे रहे हैं। पिछले वर्षो आपने पंजाब की धरती को अपने पवित्रपद रजकणों से पवित्र किया। आपने पंजाब के गांव-गांव नगर-नगर, पर-घर में भगवान् महावीर की दिव्य वाणी का प्रकाश दिया। उनकी सुपुप्त आत्मा में सत्य-अहिंसा-संयम की त्रिवेणी बहाकर जागृति दी । जीवन उत्थान का अध्यात्मिक मार्ग प्रदान किया । अधिक क्या ? आपके गुणों का वर्णन यह लेखनी करने में असमर्थ ही है । आपके दिव्य ज्ञान की ज्योति जन-जन को मिलती रहे और समाज- राष्ट्र पर आपकी दिव्य छत्रछाया बनी रहे इन्हीं शब्दों के साथ...! Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 मदनमुनि 'पथिक' जैनसिद्धान्ताचार्य [कवि एवं मधुर गायक ] श्रद्धा के सुमन । GRA डा भारतवर्ष महान देश है। यह देश ऋषियों, मुनियों, कवियों, दार्शनिकों और सन्तों का देश है। इस पवित्र भू-भाग पर जन्म लेने के लिए देवता भी लालायित रहते हैं। सचमुच इस पवित्र और महान् देश में जन्म लेना किसी भी प्राणी के लिए एक पावन वरदान है, अमूल्य उपलब्धि है। फिर इस देश में एक संत के रूप में विचरण करना और एक आचार्य के रूप में जनता जनार्दन को सदुपदेश देने का अवसर विरले लोगों को ही अपने पूर्व संचित पुण्यों के फल स्वरूप ही प्राप्त होता है। भारतीय संस्कृति में संत जीवन को एक आदर्श रूप में माना जाता है। संयम और संस्कृति की धाराओं में प्रवहमान संत जीवन व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं समस्त मानवता के लिए वरदान रूप सिद्ध होता है। परम आदरणीय, पंडित-रत्न, चारित्र-चूडामणि, बालब्रह्मचारी, श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के द्वितीय पट्टधर पूज्य आचार्य सम्राट श्री १००८ श्री आनन्दऋषि जी महाराज साहब एक अगणित एवं असीमित सद्गुणों की साकार प्रतिमा है। वे मूर्तिमन्त ज्ञान और गुणों के आगार हैं, अक्षय कोष हैं । आपका हृदय नवनीत के समान कोमल, शुद्ध एवं शुभ्र है । जिस प्रकार से आप ज्ञान के अक्षय भण्डार हैं, उसी प्रकार से आपके जीवन में विचारों के साथ-साथ आचार की भी दृढ़ निष्ठा है । ज्ञान एवं आचार का यह मणि-कांचन संयोग शताब्दियों में किसी-किसी व्यक्ति, किसी-किसी महापुरुष के जीवन में ही देखने को मिलता है। आपने अपनी योग्यता, अनुभव, कर्म-कुशलता एवं अद्भुत सहनशीलता के साथ समाज का समुचित मार्गदर्शन किया है, समाज को सुगठित किया है और उसे धर्म मार्ग पर अग्रसर किया है। इससे संघ का अपूर्व हित हुआ है। इतना ही नहीं, आपके तेजस्वी व्यक्तित्व ने समूचे राष्ट्र के गौरव को प्रकाशित किया है तथा राष्ट्र एवं विश्व को अभूतपूर्व आध्यात्मिक निधि प्रदान की है। आपके जीवन की विशेषताओं का वर्णन कर पाना अशक्य ही है। किन्तु आपने इतने उच्च पद पर आसीन रहते हुए भी जिस विनम्रता के साथ आचरण किया है उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की जानी चाहिए। अहंकार का लेश-मात्र भी कभी आपके उज्ज्वल चरित्र में देखने को नहीं मिला। श्रमणसंघ की एकता आपके जीवन का मूल मंत्र है। अधिकार की लालसा से आपका दूर का भी सम्बन्ध नहीं । इसी कारण आपने सदैव श्रमणसंघ की एकता के लिए जी तोड़ प्रयत्न किया है। उसी एकता को स्थिर रखने हेतु आपने अपने पद का विलीनीकरण भी किया, किन्तु आपकी चारित्रगरिमा के कारण पुनः संघ ने आपको संघ संचालन का भार सौंपा । तब से अब तक आप अद्भुत योग्यता से संघ को मार्ग दर्शन करा रहे हैं तथा अनेक प्रकार के विघ्नों को बड़ी सरलता एवं कौशल पूर्वक पार करते चले जा रहे हैं। ऐसे चारित्रवान, तेजस्वी, गुणों के आकर पूज्य आचार्य सम्राट के चरणों में अपनी श्रद्धा के ये सुमन भेंट करते हुए किसे प्रसन्नता न होगी ? Mail - आपाय प्रवर अभिआपाय प्रवर अभय श्रीआनन्द श्रीआनन्द अन्य ramanar marrrrrrrrraiwrnirm.. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दन आयाम प्रवर अभिनंदन आनन्द ग्रन्थ ११ T फ्र [१] नमूं श्री पूज्यराज, तिरन तारण जहाज, सुधारेंगे सभी काज, महा यश धारी हैं । गम्भीर सागर सम, हटाते अज्ञान तम क्षमा, दया, उपशम, महाव्रतधारी हैं | क्रोध मान माया कन्द, लोभ का हटाके फंद बने निर्द्वन्द्व आप आत्म गुण धारी हैं । आया हूँ शरण तेरी, भवजल नैया मेरी पार करो "रंगमुनि" अर्ज गुजारी है | 1 1 आचार्यानन्द--पञ्चक [३] जन्म चिंचोड़ी पाया, हुलसा जी दुलराया, देवीचन्द पिता देख तुम्हें सुख पाया है । आनन्द आनन्द कन्द, गुगलिया वंश चन्द, ज्योति है अमन्द संग पुण्य भारी लाया है ॥ रतन गुरु संयोग दिया है निर्मल योग काटने को भवरोग संयम धन पाया है । शीतलता देख तेरी, चरणों में श्रद्धा मेरी, "रंगमुनि" पुनि पुनि मस्तक झुकाया है ॥ , श्री रंगमुनि जी [स्वर्गीय श्री सहस्रमल जी महाराज के सुशिष्य ] [२] आनन्द वर्धमान श्रमण संघ, द्वितीय पट्टधर आप, आनन्द पद पाये पूज्यराज हैं । तारों बीच शशी जैसे, दिनकर तेज वैसे मुनि वृन्द माँहि ऐसे सोहे सिरताज हैं । शान्त, दान्त, करुणा के सागर समान श्रेष्ठ " वाणी मीठी सुनते ही सुधरते काज हैं । छत्तीस गुणों के धारी, "रंगमुनि" बलिहारी पार करो बेड़ा तुम भवजल जहाज हैं ।। 7 [४] महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब व राजस्थान, मालवा प्रदेश आप भ्रमण कराया है । क्षेत्र मोह त्याग के प्रतिपल रहे जाग अज्ञान हटाय ज्ञान चमकाया है ॥ भानु रहे संघ आलीशान, यही एक प्रण ठान, मान अपमान सब सहन कराया है। आनबान शान तेरी, एक्यता में जीत मेरी "रंगमुनि" संघ हित सर्वस्व लुटाया है || 1 [५] हीरक जयन्ति काज, मिली है समाज आज, अभिनन्दन ग्रन्थराज योजना बनाई है । आचार्य सम्राट भारी, यशस्वी गुणों के धारी, पूज्यराज आनन्द की महिमा जग छाई है ॥ छः काया के प्रतिपाल, दूषण सारे ही टाल, मोह माया मद गाल, वैजयन्ती फहराई है । श्रद्धा के सुमन आज, सहस्रशिष्य पूज्यराज, "रंगमुनि" भक्ति युक्त माला पहनाई है ॥ ✩ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनको वन्दना हमारी है सवैया शूरवीर जप-तप में सघीर, काज ज्ञान रा भंडारी हैं । श्री होरामुनि 'हिमकर' [ कवि तथा सरलमना सेवाभावी संत ] संयम में आतमा रा सारे जांरो चोक्खो है आचार करते धर्म सुमति से लागी प्रीति मुगत थप वाणी मीठी है अनमोल बोली बोले तोले- तोल, शास्त्र वांचे खोल खोल विज्ञ सु विचारी है । रा प्रचार, चारी हैं । कहे हीरा 'हिमकर' मेरे श्रद्धा के आधार, ऐसे मेरे शिरताज आनन्द को वंदना हमारी है ॥ ✩ आनन्द-वचनामृत D जो काम एक प्रेम भरे मधुर वचन से हो सकता है, वह अनेक दण्डप्रहार से भी नहीं हो सकता । हथौड़ी की कई चोटें जिस ताले को नहीं खोल सकतीं उसे छोटी-सी कुंजी ( चाबी) एक ही घुमाव में खोल देती है । [ जिसका जीवन पवित्र होगा, उसकी वाणी भी पवित्र होगी। जैसा अन्तर मन होता है वैसा ही वचन भी । कुएं में जैसा पानी होगा वैसा ही बाहर घड़े या बाल्टी में आयेगा, यही बात मन के सम्बन्ध में है, मन के कुएं में जैसे विचार होंगे, वाणी के घट में वैसा ही शब्दों का जल आयेगा । आचार्य प्रवयव अभिन्दन आआनन्दन ग्रन्थ अभिनंदन 310 AAM Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MyInversity NOTirya CROMACREDI मुनि श्री रोशनलालजी [स्वर्गीय श्री छगनलाल जी महाराज के शिष्य आचार्य श्री का अनुपम जीवन मुझे यह जानकर अत्यन्त हर्ष हुआ कि प्रातःस्मरणीय आचार्य-सम्राट् श्री श्री १००८ श्री आनन्द ऋपि जी महाराज साहब का अभिनन्दन करने के लिये चतुर्विध संघ की ओर से एक अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है। ऐसी महान् आत्माओं का गुणानुवाद संघ की तरफ से होना ही चाहिये । मुझे आचार्यश्री के दर्शनों का सौभाग्य माछीवाड़ा पंजाब में प्राप्त हुआ। उस समय आचार्यश्री लुधियाना का चातुर्मास समाप्त कर आराध्य गुरुदेव स्वर्गीय स्वामी श्री छगनलाल जी महाराज साहब से मिलने पधारे थे । आप में जो विशेषताएँ देखीं, वे निम्नोक्त हैंनम्र एवं सरल प्रकृति आचार्यश्री का जैसा नाम है, वैसे ही गुण भी हैं। आपथी के दर्शन करके मन अत्यन्त आनन्दमग्न हो गया। आप श्री प्रकृति से अत्यन्त सरल एवं नम्र हैं। आप श्री क्षमा के तो मानो अवतार ही हैं । आप श्री हर समय प्रसन्न मुद्रा में ही दिखाई पड़ते हैं। आचार्य श्री के मुखारविंद से चार दिन तक वाणी सुनने का भी सौभाग्य मिला । आपथी की व्याख्यान शैली अत्यन्त रोचक एवं सरल है। आपश्री जहाँ पधारते है, वहां कि प्रान्तीय भाषा में ही व्याख्यान फरमाते हैं । जिससे प्रत्येक व्यक्ति सुनकर प्रसन्न हो जाते हैं । ज्ञान के भंडार आचार्यश्री ज्ञान के तो मानो भंडार ही हैं। आपश्री का संस्कृत, प्राकृत, गुजराती, हिन्दी, मराठी एवं अंग्रेजी आदि भाषाओं पर पूर्णरूप से अधिकार है। आपथी को कई जैनागम, हजारों संस्कृत के श्लोक, दोहे, सवैये आदि मौखिक स्मरण हैं। आपश्री ने अपने साधनामय जीवन के अनुभवों द्वारा बहुत सी ज्ञानवर्धक एवं शिक्षाप्रद पुस्तकों का लेखन संकलन भी किया है। आपथी का जीवन साधनामय है। करीब ७५ वर्ष की आयु होने पर भी ज्ञान, ध्यान, जप, तप एवं स्वाध्याय में ही रात दिन तल्लीन रहते हैं । “समयं गोयम मा पमायए" महावीर भगवान् की इस उक्ति को आप श्री ने पूर्णरूप से चरितार्थ करके दिखाया। आगमों में आचार्य के जो गुण वर्णन किये गये हैं, वह सब आपश्री में विद्यमान है। आपके गुणों का वर्णन करना मानो सूर्य को दीपक दिखाने के समान है, जिस व्यक्ति ने एक बार आपके दर्शन किये, वह आपश्री के साधनामय जीवन से प्रभावित हो ही जाता है। आपश्री जैसे आचार्य देव की आज के युग में अति आवश्यकता है। इसलिये शासन देव से प्रार्थना करते हैं कि हमारे आचार्य देव चिरायु बनें तथा चतविध संघ आपश्री की छत्रछाया में सुदृढ़ बने और आपथी जनता को मार्ग दर्शाते रहें। यही हमारी कामना है। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 डॉ० भागचन्द्र जैन 'भास्कर' अभ्यन-पालि-प्राकृत विभाग नागपुर विश्वविद्यालय, प्रसिद्ध चिंतक व लेखक] श्रद्धा-सुमन नीरव प्रकृति की गोद में नीरज खड़ा निलिप्त-सा। संसार की गतिशीलता को कह रहा निश्छल बना-सा ।। स्नेह की डोरी बंधी दिनकर-किरण उतरी धरा पर । मौन स्वागत कर रही नीराजना ले अंक भर ॥ नेमि का यह साधना-रथ चिचोड़ी को सर्जना है। रत्नऋषि की अमी छाया का उसे संबल मिला है। कर्मठ कुशल आचार्य हिमगिरिवत है मिला श्री संघ को । आनन्द को धारा बही वीणा मिली भगवान को ।। तत्वचिन्तन की प्रखर प्रतिभा सही आकार है। रोती किलपती मनुजता को वह सही पतवार है॥ महावीर का अभिधान हो चिन्तामणि बनता रहा है। सत्य-दर्शन-साधना में वह सफल दीपक रहा है। सम्प्रदाय और जाति की कोई तुम्हें सीमा नहीं है। स्व-पर को पहचान पाकर जग तुम्हें भूला नहीं है । व्योम के उन्मुक्त रूपों में है वसी तेरी कहानी। प्रगति-पथ के हे पथिक ! तुम सत्य साधक ज्ञान दानी ॥ स्वप्न हों साकार सबके चेतना के द्वार खोलो। जिम्बगी का हर चरण सुरभित करो, आलोक वितरो॥ अनुभूलि की परछाइयों में क्या सहारा मिल सकेगा? वेदना-स्वर-लहरियों को क्या किनारा मिल सकेगा? ॥ सारा जगत तब दर्शनों से हो रहा अत्यन्त हर्षित । हुलसित हृदय से कर रहा वह आपको सब कुछ समर्पित ॥ शब्द भी नहीं, भाव भी नहीं, गीत में भी लय नहीं। श्रद्धा-सुमन सादर लिए, अभिनन्दना किञ्चित यही। ع يع تقطيعهعهععهعيعميغيهرع نحنی- طبقه دومره مره مره مع فرعی: ب عد KAJALAMA 32M.AAAAA आपाप्रवनबनिनसाचार्यप्रवर अभि श्रीआनन् -श्रीआनन्द Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्द अभिनन्दः प्रभ श्री आनन्द Jjr crow [] डा० अच्युतानन्द घिल्डियाल एम. ए., पी-एच. डी [ व्याकरण एवं दर्शनशास्त्र के विद्वान, अनेक ग्रंथों के लेखक ] धर्म के प्रचार-प्रसार में आचार्य श्री श्रानन्दऋषि जी का योगदान अति प्राचीन काल से देखा गया है कि मानव जहाँ अपने जीवन को सुखमय बनाने में प्रयत्नशील रहा है वहाँ दूसरी ओर मानव ने अपने चिन्तन के माध्यम से यह भी अनुभव किया कि शारीरिक सुखों की उपलब्धि ही सब कुछ नहीं है । अतः ऐसी स्थिति में दार्शनिक दृष्टि द्वारा ऋषि-मुनियों ने जगत के कल्याण के लिए वास्तविकता को जगत के समक्ष रखा। उन दर्शनशास्त्र के विचारकों ने अपने चिंतन के द्वारा जो अनुभूतियाँ की एवं अति सूक्ष्म दृष्टि से जो देखा उसे अपने विचार देकर व्यक्त किया है । आज के युग में धर्म के नाम से आधुनिक लोग नाक-भौंह सिकोड़ने लगते हैं । धर्म को लोग एक सम्प्रदाय मानने लगते हैं, किन्तु वास्तव में वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है । धर्म वे पवित्र सिद्धान्त हैं, जो मनुष्य को मनुष्य के निकट लाकर मानवता सिखाते हैं । धर्म मानव से उसकी त्रुटियों को दूर करा कर एवं उसकी हिंसकवृत्तियों को दूर करके सही रूप में मानव बने रहने की शिक्षा देता है । आज संसार में सर्वत्र जो अशान्ति, अराजकता, असन्तोष और भ्रष्टाचार फैला है उसे एक मात्र धर्म ही दूर कर सकता है । जिस धर्म ने अपने अनुयायियों को सहिष्णुता, त्याग, प्रेम, समता मानवता, नैतिकता, सत्यता एवं अपने समान ही दूसरों के सुख-दुखों को अनुभव करने की शिक्षा न दी हो वह वस्तुतः धर्म नहीं अपितु एक स्वार्थ है धर्म के माध्यम से ही मानव में सद्गुणों का उदय होता रहा है और हो सकता है । धार्मिक नियमों और सिद्धान्तों का प्रवर्तन जब भी त्यागी, महान्, आदर्श और मानवतावादी महात्माओं द्वारा होगा तभी जनता पर उसका अच्छा एवं अनुकरणीय प्रभाव पड़ेगा । धार्मिक नियमों का प्रवचन विद्वान् अधिकारी ही दे सकते हैं क्योंकि उनके क्रिया-कलापों का प्रभाव सामान्य जनता पर भी पड़ता है । सुधारकों और पथप्रदर्शकों की समाज के कुछ स्वार्थी लोगों ने अनेक प्रकार की आलोचनाएँ एवं उनके विरुद्ध जनमत भी तैयार करने की चेष्टा की, किंतु सदा से उन महान् धर्मसंस्थापकों की ही अपने सही सिद्धांतों के कारण विजय हुई है । उनके सिद्धांत किसी समुदाय विशेष की स्वार्थसिद्धि के लिए नहीं होते अपितु मानवता की रक्षा के लिये होते हैं । इस प्रकार की शिक्षा जैनधर्म के महान् त्यागी आचार्यों के द्वारा भारत में शताब्दियों से दी जा रही है। निष्पक्ष भाव से यह तो मानना ही पड़ेगा आज भी जितनी त्याग की भावनायें जैनधर्म के आचार्यों में पाई जाती हैं वैसी किसी अन्य में दृष्टिगत नहीं होती हैं । भारतवर्ष के प्रायः अनेक स्थानों पर जैनधर्म के आचार्यों के योगदान से ही जैनधर्म का प्रसार और प्रचार होता आ रहा है । सदा से यह देखा गया है कि "सज्जनों की विभूतियाँ परोपकार के लिए ही होती हैं" (परोपकाराय सतां विभूतयः) । उपकारक त्यागी महात्माओं का जन्म जगत के कल्याण के Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म के प्रचार-प्रसार में आचार्य श्री आनन्दऋषि जी का योगदान ११३ लिए ही होता है । उनका अपना व्यक्तिगत कोई स्वार्थ ही नहीं होता है । वे वस्तुतः दूसरों के उपकार के लिए ही जन्म लेते हैं । आचार्य जी का प्रारम्भिक जीवन इस प्रकार के महात्माओं में पूज्य आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज की भी गणना की जाती है। वास्तव में जैनधर्म के प्रसार और प्रचार के लिये आचार्य जी ने अपना सम्पूर्ण जीवन ही दे दिया हैं । आचार्य आनन्द ऋषि जी का प्रारम्भिक जीवन भी एक पवित्र महात्मा के समान रहा हैं । जिन उपकारी पुरुषों को भविष्य में जगत का अपने कार्यों एवं कृत्यों द्वारा कल्याण करना है उनके बाल्य काल के क्रिया कलापों में वह झलक स्पष्ट दिखाई देती है । आचार्य आनन्द ऋषि जी महाराज का बाल्यकाल भी सर्वथा इसी प्रकार का दृष्टिगत होता है । अच्छे बुरे लोगों के संसर्ग में आकर वस्तुतः मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार भले-बुरे गुण-अवगुणों को ग्रहण कर लेता है । लेकिन वास्तव में सन्त अपनी सहज प्रवृत्तियों के कारण सभी के सद्गुणों को ग्रहण करता है । महाराष्ट्र प्रदेश का सदा से यह सौभाग्य रहा है कि उसने सभी धर्मों के संतों को जन्म दिया है । आचार्य आनन्द ऋषि महाराज की भी जन्मभूमि सन्तप्रसूता भूमि 'महाराष्ट्र' ही है । इस प्रकार के धर्मसुधारक, समाजसुधारक धर्म संरक्षक अति प्राचीनकाल से इस पृथ्वी पर मानव कल्याण के लिये जन्म लेते रहे हैं और लेते रहेंगे । आचार्य आनन्द ऋषि महाराज पर भी अपने से पूर्व के महात्माओं का अच्छा प्रभाव पड़ा और इन्होंने उन्हीं की परम्पराएँ अपनाकर जैनधर्म की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया । महात्मा बुद्ध को जिस प्रकार रुग्णव्यक्ति वृद्धव्यक्ति और मृतव्यक्ति के दृश्य को देखकर संसार के प्रति घृणा एवं दुखत्रय से छुटकारा पाने की प्रेरणा मिली ठीक इसी प्रकार आचार्य आनन्द ऋषि जी पर भी अपने पिता की मृत्यु का भी प्रभाव पड़ा और वे श्रमण संस्कृति के पोषक बनकर समाज के समक्ष आये । इस प्रकार की घटनाओं से प्रभावित होकर आचार्य जी ने आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करते हुए जैन धर्म के सिद्धान्तों का अध्ययन कर उनको कार्य रूप में प्रयुक्त कर दूसरों को अपनी अनुभूति द्वारा लाभान्वित किया । श्रमण परम्पराओं का प्रतिपालन करने कराने में आनन्द ऋषि जी का एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । श्रमण संस्कृति की रक्षा, उसके परिपोषण के लिये पूज्य आचार्य आनन्दऋषि जी ने अपना समस्त जीवन लगा दिया है। आचार्य श्री आनन्द ऋषि जो की विद्वत्ता और विद्याप्रेम आचार्य आनन्द ऋषि जी महाराज की बाल्यकाल से ही बहुमुखी प्रतिभा रही है। बहुत छोटी ही • प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में वे पारंगत हो चुके थे । प्रायः यह देखा जाता है कि यदि सुधारक उपदेशक, पथप्रदर्शक और गुरु योग्य व्यक्ति होता है तो उसकी विद्वता का दूसरों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है अवस्था । एवं तभी उसकी प्रतिभा का महत्त्व समाज स्वीकार करता है के क्ष ेत्र में कुछ दे सकता है। जैनधर्म के प्रसार और प्रचार के जो स्वयं परिपूर्ण है, वही दूसरों को ज्ञान लिए आचार्य आनन्द ऋषि जी ने भारतीय प्रायः सभी प्रान्तीय भाषाओं का पूर्ण ज्ञान भी प्राप्त किया है। मराठी, गुजराती, राजस्थानी, उर्दू, हिन्दी संस्कृत एवं प्राकृत, अंग्रेजी आदि भाषाओं का आचार्य जी को पूर्ण ज्ञान है । इसप्रकार का परिपूर्ण व्यक्ति ही अपने ज्ञान से दूसरों का अज्ञान दूर कर सकता है । आचार्य आनन्द ऋषि जी जैन धर्म के पारंगत विद्वान तो हैं ही इसके साथ-साथ अच्छे वक्ता, कुशल लेखक, मनोवैज्ञानिक, समुद्रवत गम्भीर, सच्चे त्यागी, विद्याप्रेमी, धर्म- धुरंधर, तप से पुनीत, वाक्साधक, धर्म संरक्षक, दया से द्रवित एवं परोपकारी हैं। अपना जीवन उन्होंने दूसरों के कल्याण के निमित्त ही धारण किया हुआ है । आपके पुनीत प्रवचनों से श्रद्धालु आनन्द विभोर हो जाते हैं । आचार्य प्रवा श्री आनन्द अन्य 99 श्री आनन्द ग्रन्थ SHE 卐 अभिनन्द थ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रव श्री आनन्द *** JT 水 आपके रचनात्मक कार्यों से जैन धर्म के श्रद्धालु भक्त अत्यधिक प्रभावित और आनन्दित हुए हैं । जैन मुनियों, ऋषियों और महात्माओं का कठोर नियमपूर्ण जीवन तो सर्वविदित है किन्तु आचार्य आनन्द ऋषि जी महाराज के जीवन में अन्य महात्माओं की अपेक्षा एक विशेषता यह रहती है कि आपने व्यक्ति को शिक्षित करने पर अधिक बल दिया है। इसके साथ ही साथ भारतवर्ष के विभन्न स्थानों पर अनेक शिक्षण संस्थाओं द्वारा जैन धर्म की शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था आपने ही कराई है । विद्वान यह अच्छी प्रकार अनुभव करते थे कि अपने धर्म का मंडन तभी किया जा सकता है जब अपने धर्म का पूर्ण ज्ञान और अन्य धर्मों का भी समुचित ज्ञान हो । आचार्य आनन्द ऋषि जी महाराज ने भी इस सिद्धांत को अपनाकर अन्य धर्मो के धामिक ग्रंथों का भी अच्छी प्रकार सांगोपांग अध्ययन भी किया है। उस गम्भीर अध्ययन का ही प्रभाव है कि आचार्यजी अपनी विद्वत्ता से सभी को भी प्रभावित यह कर सके हैं। आज उनकी विद्वत्ता और रचनात्मक कार्यों के कारण ही जैन समाज में ही नहीं, अपितु अन्य समाजों में भी आचार्य जी का आदर होता है । 182 आयायप्रवर अभिनंदन ग्रन्थ श्री आनन्द ग्रन्थ C आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व आचार्य जी ने यह सिद्ध करके दिखाया है कि मनुष्य अपनी साधना के द्वारा भगवान् बन सकता है और तपस्या व कठिन नियमों का परिपालन ही एक ऐसा साधन है जो मनुष्य के पापों एवं बुराइयों को दूर कर सकता है । जिस प्रकार अग्नि दूषित वस्तुओं के दोषों को दूर कर उन्हें पवित्र कर देती है, उसी प्रकार तपस्या से मनुष्य के पुनीत होने की स्थिति के पश्चात् ही वह देवत्त्व कोटि में आ जाता है। आचार्य आनन्द ऋषि जी महाराज ने अपने कार्यों द्वारा एवं अपनी तपस्या के द्वारा अपना जीवन सफल और सार्थक बनाकर साथ ही साथ अपने शिष्यों का भी जीवन सफल बनाने का एक आदर्श उपस्थित किया है । जगत में यद्यपि गुरु का स्थान सर्वोपरि और आदरणीय है । गुरु पात्र को देखकर ही शिक्षा देता है और अपनी शिक्षा के माध्यम से शिष्य के अज्ञान अन्धकार को दूर करता है । सभी धर्मों में गुरु को सम्मानित स्थान दिया गया है और गुरु को इसलिए महान् माना गया है कि उसमें अपने दायित्व का निर्वाह करने की एक गरिमा होती है, कुछ महान गुण होते हैं। गुरु उच्च होता है, श्रेष्ठ होता है, महान् होता है । अपनी महत्ता के कारण वह समाज में आदर पाता है । यदि सचमुच गुरु में गरिमा वाले गुण होते हैं तो वह आदर का पात्र तो है ही किंतु वह अपने सद्कार्यों के द्वारा सदा समाज में अमर हो जाता है । गुरु के ही साथ-साथ आचार्य कोटि में उन मूर्धन्य विद्वानों को गिना जाता है, जो अपने विषयों के पारंगत एवं पुरंधर विद्वान होते हैं। ऐसे लोगों को समस्त शास्त्रों का पूर्णज्ञान और शास्त्रों के गूढ़ रहस्यों का समग्र परिचय होता है । इसीलिये आचार्य कोटि में परम विद्वानों का ही नाम आता है । आचार्य आनन्दऋषिजी महाराज को भी इन्हीं गुणों के कारण आचार्य पद से विभूषित किया गया है। 1 आचार्य आनन्द ऋषि जी महाराज वस्तुतः एक महान् अहिंसावादी महात्मा पुरुष हैं आपके समस्त गुणों की परिचर्चा करना अत्यन्त दुरुह कार्य है किंतु महान् पुरुषों का जीवन एवं कार्य संसार के लोगों के लिये प्रेरणा के स्रोत होते हैं। ठीक इसी प्रकार आचार्य आनन्द ऋषि जी का महान् जीवन, उदार चरित्र, स्वच्छ हृदय, पवित्र विचार, व्यक्तित्व और कृतित्व सदा पथ प्रदर्शन का कार्य करेंगे । आचार्य आनन्द ऋषि जी महाराज ने दर्जनों ग्रंथों को लिखकर अपनी ज्ञानराशि से जैनधर्म को एक अक्षुण्ण भण्डार और अमूल्य निधि दी है एवं अन्य धर्मानुयायियों को जैन धर्म का वास्तविक स्वरुप दिखाने का प्रयास किया है। इतना ही नहीं अपितु इस सच्चे कर्म योगी ने अपने रचनात्मक कार्यों के द्वारा यह सिद्ध करके दिखा दिया है कि मनुष्य को सदैव सुकर्म करने में लगा रहना चाहिये क्योंकि ऐसा करने से अन्य लोगों पर भी सुकर्म करने का प्रभाव पड़ता है और लोग सुकर्म करने की ओर प्रवृत्त होते हैं। आचार्य प्रवर आनन्द ऋषि जी महाराज ने सचमुच अपने रचनात्मक कार्यों के द्वारा जैन धर्म के प्रसार और प्रचार में योगदान तो दिया ही हैं किन्तु इस महान् कर्मयोगी ने हजारों मील की पद यात्रा Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म के प्रचार-प्रसार में आचार्य श्री आनन्दऋषि जी का योगदान ११५ करके छोटे-बड़े सभी को दर्शन और प्रवचन से लाभान्वित किया । इतना ही नहीं अपितु अपने इस परिभ्रमण के माध्यम से अनेक स्थानों पर जैनधर्म को प्रकाश में लाकर उसके प्रसार और प्रचार में योगदान दिया | आचार्य आनन्द ऋषि जी महाराज के जीवन वृत का अध्ययन करने पर ऐसा विदित होता है कि इनके माता-पिता भक्ति भावना से परिपूर्ण थे और जैनधर्म के प्रति यह उत्तम श्रद्धा उन्हें वंश परम्परा से प्राप्त हुई थी । बाल्यकाल से ही आचार्य आनन्द ऋषि जी पर भक्ति, ज्ञान और कर्म को पिथगा का अत्यधिक प्रभाव पड़ा हुआ था, जो कि आगे चलकर उनके जीवन में सही अर्थों में हमें दृष्टिगत होता है । आचार्य आनन्द ऋषि जी का जीवन हम लोगों के लिये अनुकरणीय और आचरणीय है । आचार्य जी ने अपने सम्पूर्ण जीवन में अपने भक्तिमार्ग, ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग के द्वारा हम लोगों को एक नवीन दृष्टि दी है। आचार्य श्री का जीवनवृत और कृतित्व हम लोगों को जीवन की वास्तविकता दिखाता है । इस प्रकाष पूर्ण वर्णित प्रसंगों से अच्छी प्रकार विदित होता है कि महान् आचार्य आनन्द ऋषि जी महाराज जी का जैनधर्म के प्रसार और प्रचार में क्या योगदान रहा है । अतः आचार्य आनन्द ऋषि महाराज को जैनधर्म का प्रकाश स्तम्भ, पथप्रदर्शक एवं धर्मप्रसार-प्रचार का योगदाता माना जाता है । आचार्य आनन्द ऋषि जी महाराज जी का हम सभी लोग उन का अभिनन्दन करते हुये उनसे प्रार्थना करते हैं कि वे अपनी वाणी से, लेखनी से हमें आजन्म प्रेरणा देते रहें । आचार्य जी दीर्घायु प्राप्त कर अपने ज्ञान मानव मात्र का कल्याण करेंगे एवं जैनधर्म के प्रचार और प्रसार में इसीप्रकार योगदान देते रहेंगे । ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है और आपके योगदान का ऐसा चमत्कार होगा कि आगामी पीढ़ी पर आपके कार्यों का ऐसा प्रभाव पड़ेगा कि जिससे आपके योगदान का प्रवाह कभी सूखने नहीं पायेगा और निरन्तर अबाध गति से विकसित होता रहेगा । जैनधर्म के प्रसार और प्रचार के कार्य में आचार्य आनन्द ऋषि महाराज जी का नाम सदा के लिये अमर हो गया है। उनके योगदान का जैनसमाज सदा ऋणी रहेगा । आनन्द-वचनामृत 0 नहि तन तेरा नहीं धन तेरा, तेरा तो है केवल मन ! इस मन को मांज लिया जिसने, उसने ही पाया संजीवन ! [] साधन जब तक आवश्यक है तभी तक उपयोगी है। सीढ़ियाँ महल में चढ़ने तक उपयोगी हैं, महल में पहुँचने के बाद उनका क्या उपयोग ? नौका नदी पार पहुँचने तक उपयोगी है, किनारे पहुँचकर नौका को छोड़ना होगा । www श Forick सर्दी में कम्बल को छाती से चिपका कर रखते हैं, पर गर्मी आते ही उसे खूटी पर लटका देते हैं । इसी प्रकार साधन में शुभ कर्म (पुण्य) की उपयोगिता समझनी चाहिए । आयार्यप्रवर अभिनंदन आआनन्द अन्य FILE Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANJAAdded ParinaamRAMMilandinavaraninanvNAANAPA.... NIVाग - मुनि रमेशकुमार सिद्धान्ताचार्य' [स्थानकवासी जैन समाज के प्रबुद्ध लेखक व कवि संत] 12 आचार्य-अर्चना आचार्य श्री का अभिनन्दन करते हर्षित हो शतवार । चरण-स्पर्श से जीवन बनता ज्योतिर्मय सुन्दर साकार ॥ महामहिम उपकारी पूज्यवर, जीवन जिनका दे सन्देश । धवल धरा पर पूजित होता, वही सुगुण को धरे हमेश ॥ आध्यात्मिक जीवन महक रहा है, अनुभव क्षीर का सागर है। श्रुत रत्नों से चमक दमकता, मानो शान्त सुधाकर है। सम्यग्दर्शन के आराधक शुद्ध ज्ञान के साधक हैं। करणी-कथनी शुद्ध आप को मोक्ष मार्ग संसाधक हैं। स्याद्वाद् सिद्धान्तप्ररूपक शासन की तुम शान हो । धर्मदिवाकर ज्ञान उजागर भव्यों के भगवान हो । समता का तुम पाठ पढ़ाते, जन-जन को हे पूज्यप्रवर ! जैनधर्म-भूषण कहलाते, सरल मना हो ज्ञानेश्वर । अखिल विश्व परिवार आपका आप परम उपकारी हैं। वाणी से अमृत झरता है दैदीप्यमान अवतारी हैं। समाज वाटिका सुरभित होती आनन्द सुरभि को पा करके । सुमन-अंजलि अर्पित करता 'मुनि रमेश' हर्षा करके । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 फकीरचन्द मेहता [प्रसिद्ध उद्योगपति, समाज सेवी तथा स्थानकवासी समाज के अग्रगण्य] CAND Sars महाराष्ट्र के मान गौरव य आचार्यश्री को पिछले ४५ वर्षों से नमन, वन्दन कर रहा हूँ । स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। मेरा बचपन व उनकी जवानी की साधना, यह था मेरा उनसे सम्पर्क ! पण्डित मुनिश्री आनन्द ऋषि जी महाराज का खानदेश में वरणगांव जव भी पदार्पण होता, हम लोग उनके साथ ग्रामानुग्राम घूमा करते थे। सुबह या दोपहर में उनके प्रवचन करवाते थे । मराठी भाषी इस क्षेत्र में उनके मुखारविन्द से जब सन्त तुकाराम के मधुर अभंग प्रस्फुटित होते थे तब जन समुदाय मन्त्रमुग्ध हो जाता था। एक सिद्धहस्त प्रवचनकार होने के नाते किसी भी विषय को इन्होंने बड़ी शांति से, सरल भाषा में समझाने का यत्न किया है । महाराष्ट्र के कीर्तनों की इन पर गहरी छाप है। यह सन्त प्रवर महाराष्ट्र से विहार करके मालव और राजस्थान में पधारे। इन पर व्यावर में और भी जिम्मेदारी का भार आया । पाँच सम्प्रदायों के यह आचार्य बने । पत्र-व्यवहार की बड़ी सूक्ष्मता और उनकी नौंद आदि कार्य इनके व्यवहार की विशेषता है। बुद्धि के मेधावी होने से कभी भी किसी भी बात को भुलते नहीं । अपनी शिष्य-मण्डली को प्रथम आहार करवाने के बाद में इनका आहार होता है। महाराष्ट्र की सन्त भूमि में उन महान् संतो की शृखला में यह अग्रसर हैं। इनके दर्शनों का प्रसंग देश के कई प्रान्तों में आया । विशेषकर पंजाब, जम्मू और हरियाणा में जहाँ आचार्यश्री का पदार्पण होता, उनसे बातचीत होती तो पिछली स्मृतियाँ ताजी हो जाती । मुझे फकीरचन्द भाऊ के नाम से वह सहज में सम्बोधित करते और मारवाड़ी मिश्र मराठी भाषा में वार्तालाप होता रहता था। राजस्थान में श्रमण-संघ के आचार्यपद से जब वे सम्मानित किए गए तो हृदय गद्-गद् हो आया। सोचता हूँ, इन सन्त के साथ सहज में बचपन में घूमता रहता था, विनोदपूर्ण बातें कर लिया करता था। अब वह अवसर मुझे किस सौजन्य से मिलेगा। फिर भी जब दर्शनों का लाभ मिला, देखा तो, व्यवहार में कुछ भी परिवर्तन नहीं था। वही आवाज, वही सम्बोधन और मधुर व्यवहार । नागपुर चातुर्मास के बाद मित्रों की विनती पर आचार्यश्री का सन्त समूह सहित भुसावल पधारने का तय हुआ। दीक्षा महोत्सव की तैयारियाँ होने लगीं । सोचा, आचार्य भगवान को ७५ वर्ष होने जा रहे हैं, दीक्षा के ६१ वर्ष हो रहे हैं, गुड़ी पड़वा का मुहूर्त है । मन में आया ऐसे वक्त का फायदा लेकर आचार्य महाराज की सेवा में अभिनन्दन अंजलि अर्पित करूँ।। अकोला से मलकापुर होते हुए बोदवड़ पधारे । रात्रि में मालुम हुआ कि बोदबड़ के एक भाई दीक्षा लेना चाहते हैं। और अब आचार्यश्री १३ मार्च ७४ को भुसावल नहीं पधारेंगे। मित्रों सहित रात्रि में ही बोदवड़ जाना पड़ा । आचार्य श्री को भुसावल पधारने की याद दिलाई। बड़े असमंजस में मामला पड़ गया । रात बीततीं गई । रात्रि में २॥ बजे तय हुआ कि आचार्यश्री प्रथम भुसावल का आयोजन सफल करेंगे । दिल श्रद्धा से भर आया और दूसरे दिन सबेरे भुसावल की ओर प्रस्थान हुआ। साधार आचार्यप्रतरत TALI टा SamaanindianarmadAAMANAJARAMAIMosariLAORArariaBOBASIUANSamataunnawwaAARIA श्राआनन्दन्थYUSHI . . " Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्गप्रdear ११८ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व जब से आचार्यश्री भुसावल पधारे, कार्यक्रम को विशाल रूप दे दिया गया । फिर भी मन में भय था कि हजारों भाई बहनों का किस तरह स्वागत करेंगे । आचार्यश्री के साथ कई साधु-मन्त आयेंगे । परन्तु आचार्यश्री के प्रताप से आनन्द ही रहा। दीक्षार्थियों की दीक्षा का शुभ दिन आया। आचार्यश्री को 'जैन-धर्म-भूषण' से अलंकृत चादर ओढ़ाई गई । महासती जी कहने लगी--'सतियों की ओर से भी होना चाहिए।' उनकी भावना भी पूरी हुई। कवि-सम्मेलन हुआ। 'संघ की शोभा व प्रतिष्ठा में जो भी अच्छा लगे वह उत्साहपूर्वक करो' इसी भावना पर हम लोग जमे रहे । वह अद्वितीय समारोह निर्विघ्न सम्पन्न हुआ । आचार्य भगवन के उदार हृदय ने सबके मनों पर विजय प्राप्त करली । अब हमें उनके इस अभिनन्दन कार्य को महाराष्ट्र के गौरव के रूप में देखना है । और सरलता लाभ संघ-संगठन हेतु जीवन पर्यन्त मिलता रहे । आनन्द के मानसरोवर 0 मुनि भागचन्द 'विजय' [मुनि श्री टेकचन्द जी महाराज के शिष्य ISISA श्रमणसंघ के सम्माननीय आचार्य सम्राट श्री आनन्दऋषि जी महाराज का नाम गुरुजनों ने बहुत ही सोचसमझकर रखा है। यथानाम तथा गुण के अक्षय आकर हैं। आनन्द के प्रशांत महासागर हैं। जिधर भी चरण बढ़ाते आनन्द की अभी वर्षा करते चले जाते हैं। इन आनन्द के देवता के दर्शन करने चरणारविन्दों में बैठने और वाणी श्रवण से अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है। उक्त अनुभूति की अभिव्यक्ति जड़ लेखनी द्वारा असंभव एवं अशक्य है।। आचार्यश्री आनन्द के मूर्तिमान सरोवर हैं। आपका संयमी जीवन ज्ञान, दर्शन, चारित्र की सम्यकसाधना से समृद्ध है। बालकों जैसी निष्कपटता, युवकों जैसी पराक्रमशीलता एवं वृद्धों जैसी अनुभवशीलता का समन्वित रूप है। समाज का सौभाग्य है कि उसे प्राणिमात्र के प्रति समभाव का अलख जगाने वाले, मैत्री, प्रमोद करुणा का संदेश देने वाले आनन्दार्षि का नेतृत्व प्राप्त है। अतएव अभिनन्दन-ग्रन्थार्पण अथवा अन्य किसी भी रूप में सम्मान किया जाये, सिन्धु में बिन्दु जैसा माना जायेगा। ___ मैं इन शांति के सुधाकर के श्रद्धय श्रीचरणों में सत्कामनाओं की शुभांजलि अर्पित कर हर्षविभोर हूँ। या Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 श्री मगन मुनि जी 'रसिक' कवि, गायक एवं सरलमना सन्त) चम चम चमके हैं [तर्ज-सहनाण पड़यो हय लेवारो (राजस्थानी)] आचार्य प्रवर आनन्द ऋषि, जगति पर चम चम चमके हैं। हैं श्रमण संघ सिर मौर सदा, चन्दा ज्यूं मुखड़ो दमके हैं ॥१॥ वो नगर चिचौंडी धन्य हवो, वठे महा पुरुष ने जन्म लियो। वह तात धन्य वह मात धन्य, धन धरती पावन नाम कियो ।।२।। जब पाप अँधारो छा जावे, तब धर्म वीर जग में आवे । जो उलटे गेले मानव चाले, सनमारग पाछो दिखलावें ॥३॥ वो विक्रम सम्बत् उगणीसौ, सत्तावन लायो सन्देशो। क्रान्ति धर मोटा दिव्य पुरुष, जनमेला साँचो अन्देशो ॥४॥ श्रीमंत सेठ पुण्यवन्त भला, देवीचन्द जी नाम कहायो है। पति-भक्ता हुलषाँ सेठानी, बीतराग धरम अपनायो हैं ॥५।। शुभ-वेला में जनम्या स्वामी, मायडली मन में हलषाई । वी निरख्यो मुखड़ो बालक रो, नहीं नेण धापता मुसकाई ॥६।। जो भागशाली होवे जग में, वह ऐसी कुलवर पावेला । प्राची में छावे अरुणाई, जब दिव्य दिवाकर थावेला ॥७॥ जो मेटे जग रो अँधियारो, वो सूरज सब ने व्हालो है। यूं धरमवीर प्रगटे दुनियाँ में, जन-जन रो हृदय उजालो है ।।८।। सुणताँ ही नाम अमोल सदा, आनन्द यो नाम दियो नामी । सुख यो झूला में झूलत ही, सब लाड़ लड़ाया गुणधामी ॥६॥ विद्या रो पाठ पढ्यो सगलो, निरमलता गहरी भावा में । सत रो दीवड़ लो संजोऊँ, मनड़ो संजम ही लेवा में ॥१०॥ AAAAAAD आचार्यप्रवआनन्दवराआनन्थ आचारसजिनआचार्यप्रवर आना श्रीआनन्द अथश्राम Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रवर अभियन आचार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्दमश्रीआनन्द १२० आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व उगणी सौ सीत्तर वर्ष भलो, गुरुदेव रत्न ऋपि पाया है। अनमोल ज्ञान सुणियो सागे, वैराग्य रंग दिल छाया है ॥११॥ संसार - जाल में नहीं फसू, संजम-पथ लागे प्यारो है। म्हूँ मोह-ममता ने छोडूंला, यो भोग-रोग दुःख खारो है ।।१२॥ दीक्षा रो स्थान है मीरी गाँव, महाराष्ट्र कहायो बड़ भागी। उत्कृष्ट्र भावाँ सं संजम ले, वणग्या है पूरण अनुरागी ।।१२।। जिन आगम रा ज्ञाता बाणग्या, भरपूर ज्ञान-धन ले लीनो । गुरु-काल कियाँ पाछे यांने, आचारज-पद अर्पण कीनो ॥१४॥ गच्छनायक बणिया सम्प्रदाय रा, धरम ने खूब दीपायो है। जब समय एकता रो आयो, तब अद्भुत त्याग दिखायो है ॥१५॥ मुनियाँ रो सम्मेलन भरियो, श्रमण-संघ यो नाम दियो । संगठन रो पावन-पवन चल्यो, आचारज-पद रो त्याग कियो ॥१६॥ एक-स्वर सं सब ने हर्ष धरी, पद प्रधान मंत्री रो संभलायो। बुद्धि री विलक्षणता भारी, ई श्रमण-संघ ने विकसायो ॥१७॥ एक दाण बण्या हा उपाध्याय, संघ-शोभा अविचल पायो है। चारित्र शील गुण रा निधान, घर-घर में गौरव छायो है ॥१८॥ आचार्य-आत्मा रे पट्ट पर, अणी श्रमण-संघ रा नाथ बाण्या। झल मल तो आयो उजियालो, धन जननी पूत-सपूत जण्या ॥१६॥ फल फूल रयो है श्रमण-संघ, दिन दिन यो बढ़तो जावेला । जब कुशल संचालक मिल जावे, नहीं खामी इण में आवेला ।।२०।। साधु संघ ने श्रावक संघ, नित मंगल मोद मनावे है। रहो अजर-अमर आचार्य सदा, आनन्द अखण्ड ही चावे है ॥२१॥ पद-कमल सुलँछन सोहत है, कांति झलकत है मोद मयी । लागे हैं सब जनने बल्लभ, तप-तेज-पुंज मुस्कान नयी ॥२२॥ गौरव गाथा ने कुण गूंथ सके, मानस में अर्हन् भक्ति है। चित निर्मल बाल ब्रह्मचारी, वाणी में अनुपम शक्ति है ॥२३॥ हे नाथ ! आपरा चरणारी, यो दास सदा सेवा चावे । नित मंगल-दर्शन री आशा, आनन्दरा गण मन में भावे ॥२४॥ अभिनन्दन है, अभिनन्द है, आनन्द प्यारा अभिनन्दन है। हो शासन अविचल, आसन अविचल, 'रसिक' चरण में वन्दन है ॥२५॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्याय श्री अमरमुनि [ भारतीय धर्म, दर्शन एवं संस्कृति के मूर्धन्य मनीषी । प्रबुद्ध चिंतक, विचारक एवं वाग्मी । शताधिक पुस्तकों के लेखक ] श्रमण संघ के स्वर्णकंकण की एक दीप्तिमान मणि - श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन श्रमण संघ को स्वर्णकंकण की उपमा दी जाय तो निश्चित ही आचार्यपाद आनन्दऋषि जी महाराज उस स्वर्णकंकण में जटित सर्वाधिक दीप्तिमान तेजस्वी मणि के रूप में देखे जा सकते हैं । आचार्यश्री जी के सरल, विनम्र एवं निर्मल व्यक्तित्व की शुभ आभा ने न केवल उस मणि के अपने वैयक्तिक गौरव को ही बढ़ाया है, अपितु उससे स्वर्णकंकण भी निश्चित रूप से गौरव मंडित हुआ है, यह आज का तटस्थ दर्शक विश्वास पूर्वक कह सकता है । आचार्यश्री जी का प्रथम साक्षात्कार मैंने आज से पैंतीस वर्ष वि० सं० १९६० में प्रथम अजमेर मुनि सम्मेलन के अवसर पर किया था। अजमेर सम्मेलन की स्मृतियाँ आज भी जिनके स्मृतिकोष में सुरक्षित हैं वे उसे अभूतपूर्व ही मानते हैं, संघीय एकता की निष्ठा, स्फूर्ति एवं जागृति का जो प्रथम दर्शन उस सम्मेलन में हुआ, वह स्थानकवासी समाज के इतिहास में एकता की पहली चेतना थी, ऐसा मुझे आज भी प्रतिभासित होता है । जब समाज में अभ्युदय एवं विकास की शुभ घड़ी आती है तो उसका कण-कण स्फूर्तिमान हो उठता है, उसकी सहस्रों आँखें एक ही चरम ध्येय को देखती हैं, उसके हजारों हजार चरण एक ही मंजिल की ओर बढ़ने लगते हैं । उस शुभ घड़ी को पहली पल के रूप में मैंने इस सम्मेलन की फलश्रुति को स्वीकार किया - ऐसा याद है । जहाँ तक मेरी स्मृति काम करती है, मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि उस सम्मेलन के तरुणवर्ग में यदि कोई सर्वाधिक प्रभावशाली, आकर्षक एवं प्राणवान् व्यक्तित्व के धनी थे तो वे थे उस समय के युवाचार्य श्री आनन्दऋषि जी । आचार्यश्री जी उस समय अपने ऋषि-सम्प्रदाय के युवाचार्य थे और वे विशिष्ट प्रतिनिधि के रूप में सम्मेलन में सम्मिलित हुए थे । उनका दीप्तिमान भव्य ललाट, तेजस्वी मुखमुद्रा एवं स्नेह तथा विनम्रता के मधुरस 'से छलछलाती विशाल आँखें, छोटे-बड़े सबके साथ निश्छल मधुर व्यवहार, अटल सैद्धान्तिक निष्ठा के साथ व्यवहारपटुता, यथार्थ एवं निष्पक्ष निर्णय की दिशा में तत्परता - ये कुछ ऐसी विलक्षणताएँ थीं जो उस व्यक्तित्व के भीतर छिपी महान् सम्भावनाओं को व्यक्त कर रही थीं । प्रथम साक्षात्कार की घड़ियों में ही उनके भविष्य की उज्ज्वल सम्भावनायें मेरी अनुभूति के जल में प्रतिबिम्बित हो उठी थीं। मुझे लगा यह व्यक्तित्व आगे चलकर समाज के अभ्युदय एवं संवृद्धि में महान योगदान कर पायेगा | अजमेर मुनि सम्मेलन के पश्चात् हम फिर कुछ दूर-दूर हो गए, पर यह दूरी अब केवल क्षेत्रीय थी, भावात्मक दूरी समाप्त हो चुकी थी । परिचय का आन्तरिक सूत्र अब भी सक्रिय था और जब-जब मैं उनके विकास, वृद्धि एवं प्रगति के संवाद सुन पाता तो हृदय सहज हर्षानुभूति से पुलक उठता । कुछ समय पश्चात् जब ब्यावर में राजस्थान के पाँच मुख्य सम्प्रदायों का विलीनीकरण हुआ और आप CHARLE श्री आनन्द अन्य 9 श्री आनन्द अन्यथ m Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगप्रवभिआचार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्दा ग्रन्थ १२२ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व सर्वसम्मति से उनके आचार्य चुने गये तो मुझे इस संवाद से अत्यधिक प्रसन्नता हई । मेरा यह विश्वास तब और भी सुदृढ़ हो गया कि आनन्दऋषि जी महाराज का व्यक्तित्व श्रमण संगठन की दिशा में अत्यधिक प्रभावकारी सिद्ध हो सकता है । पाँच सम्प्रदायों के विलीनीकरण एवं उसके कुशल नेतृत्व के कारण जो साहसपूर्ण आदर्श उस समय प्रस्तुत हुआ, उसकी ख्याति स्थानकवासी समाज के ओर-छोर तक व्याप्त हो गई और समाज के शुभचिन्तकों की दृष्टि इस उदीयमान व्यक्तित्व पर केन्द्रित हो गई। सादड़ी-सम्मेलन से कुछ समय पूर्व भक्तिकेन्द्र नाथद्वारा में हम पुनः मिले और संघ-क्य की दिशा में चितन व मंत्रणा प्रारम्भ हई, उस समय आपके स्पष्ट व उदार विचारों का जो संबल मिला उससे सादड़ी-सम्मेलन की एकता की सुदृढ़ भूमिका तैयार हुई। सादड़ी-सम्मेलन के अवसर पर मैंने देखा कि साथी मुनियों के मन में कभी-कभी उलझन व आशंकायें भी खड़ी हो रही थीं, उस समय वातावरण को शान्त एवं अनुकूल बनाने में आचार्य श्री जी ने जो योग दिया वह सदा स्मरणीय रहेगा। उनकी सेवाओं से प्रभावित होकर ही समाज ने उन्हें सर्वसम्मति से नवगठित श्रमणसंघ का प्रथम प्रधानमन्त्री चुना और मैं विश्वास के साथ यह कह सकता हूँ कि श्रमणसंघ के अनुशासन, विकास एवं गौरव की दृष्टि से उनकी सेवाएं बहुत ही महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुईं। अपनी कर्तव्यनिष्ठा एवं निष्पक्ष निर्णायक वृत्ति के बल पर सम्पूर्ण समाज का विश्वास उन्हें प्राप्त हुआ और इस विश्वास की परिणति देखने को मिली। श्रमण संघ के श्रद्धेय आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज के स्वर्गारोहण के बाद समस्त समाज ने एक स्वर से आपको अपना आचार्य निर्वाचित किया । __ आचार्यश्री जी की शान्ति, गम्भीरता एवं दीर्घकालीन मंथन के बाद निर्णय लेने की वृत्ति से संभवतः कुछ व्यक्ति नाराज भी हों और इसे दीर्घकारिता के रूप में भी देखते हों पर मैं इसे तो आचार्य का विशिष्ट गुण मानता हूँ । जहाँ विशाल संघ का दायित्व होता है वहाँ बहुत ही गहरा चिन्तन और परिस्थितियों का सूक्ष्म आकलन होना ही चाहिए अन्यथा जल्दबाजी में किये गये निर्णय उथले हुए छिछले स्तर के हो जाते हैं, जिनका कभी घातक परिणाम भी आ सकता है, इसलिए मेरा स्वयं का यह मत है कि निर्णय में देर भले हो, पर वह सही होना चाहिए। और इसलिए आचार्यश्री की गम्भीरता और चिन्तन-शीलता को यदि कोई शीघ्रताप्रिय व्यक्ति दीर्घकारिता कहता है तो मैं उसे दोष के रूप में नहीं किन्तु विशिष्ट गुण के रूप में देखता हूँ। आचार्यश्री जी का जैसा नाम है, तदनुरूप ही वे आनन्द की मच्ची प्रतिमूर्ति हैं। प्रसन्नता और ओजस्विता जब देखो तब उनके मुखमण्डल पर खेलती रहती है, मैंने बहुत ही निकटता से अनुभव किया है, और उनके जीवन में सहज सरलता, मृदुता की धारा सतत प्रवाहित होती रहती है, किसी भी स्थिति में वे विक्षुब्ध नहीं होते । व्यर्थ के प्रपंचों से दूर रहकर सब के साथ समानता और अपनत्व का व्यवहार उनके शासन को अनुशासन में परिवर्तित कर देता है। उनके कुशल नेतृत्व में श्रमणसंघ अपने उज्ज्वल और गौरव एवं वृद्धि-समृद्धि के द्वारा विश्वक्षितिज पर चमकता रहे एवं उनकी कीर्ति दिग्दिगंत में गंजती रहे, यही मंगल कामना है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' [आगम अनुयोग प्रवर्तक, आगमों के विशिष्ट अनुसंधाता ] 0 आगम साहित्य की अनमोल अनुपम निधि है- 'भगवती सूत्र ।' इसमें आचार्य के अन्तर्जीवन का जो दिव्य भव्य स्वरूप अंकित किया गया है, उसकी साकार छवि आचार्यसम्राट, प्रज्ञा के विराट् लोक आनन्दमूर्ति श्री आनन्दऋषि जी महाराज के जीवनदर्पण में प्रतिबिम्बित हुई है । उनके जीवन की पुस्तक को यदि दत्तचित से खोलेंगे तो हर पृष्ठ पर गुणों का चित्र उभरता दिखाई देगा। संक्षेप में आचार्यप्रवर का जीवन गंगा-सा निर्मल, मेरु-सा उच्चस्तरीय सागर-सा गंभीर, सुधांशु-सा शीतल और प्रभाकर-सा प्रभास्वर । मेरी हार्दिक कामना है कि आपके नेतृत्व में श्रमण संघ का दिव्य, भव्य भवन ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की सुदृढ़ नींव पर आधृत रहे । हार्दिक श्रद्धार्चन अनन्त अनन्त श्रद्धा के अमरकेन्द्र * मुनि श्री हेमचन्द्र जी [स्व० [प्राचार्यप्रवर श्रात्माराम जी महाराज के सुशिष्य, संस्कृत-प्राकृत के गहन अभ्यास।] 7 आचार्यश्री आनन्दऋषि जी महाराज उच्चकोटि के व्यक्तित्व के धारक एक महान् जैन साधु हैं । आपका ज्ञान महान् है । जहाँ-जहाँ भी आप जाते हैं अपनी ज्ञान-गरिमा से वहाँ वहाँ की जनता को अपने दर्शन और अनुपम ज्ञान से अत्यन्त आह्लादित कर देते हैं । आप महान् विद्वान् हैं । आपके सान्निध्य में रहने वाला प्रत्येक साधु अपने आपको उच्चतर वातावरण में अनुभव करता है। आपश्री का एक चातुर्मास लुधियाना नगर में भी हुआ था, जिसमें यत्किचित सेवा करने का अवसर मुझे भी मिला था । आप जब शहर में लोगों को दर्शन देने के लिये जाते थे तो मुझे भी प्रायः अपने साथ ले जाने का अवसर देते रहते थे । उस समय की आपकी मधुर मुस्कान एवं प्रेमपूर्ण वार्तालाप को मैं आजीवन अपनी स्मृति में रखते हुए अपने आपको धन्य मानता रहूँगा । प्रातः व्याख्यान से पूर्व जब आप प्रार्थना करते थे, उस समय जितना जन-समुदाय उपस्थित रहता था, उतना आपके विहार के पश्चात् आज तक कभी देखने में नहीं आया। आपके व्याख्यान में भी अद्भुत उपस्थिति होती थी । महामना महात्मा महर्षि श्री श्री श्री पूज्यप्रवर श्री आनन्दऋषि जी महाराज के चरण कमलों में मैं अपना सश्रद्धा श्रद्धाचन अर्पण करता हूँ । ✩ 0 आयश्व अभिनंदन आचार्य प्रवर do यह ग्रन्थ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A RRANAMAHAKAALMANKAPAAAAAAARLALANCEws PYAR [] मुनिश्री नेमिचन्द जी (आगरा) [अहिंसक समाज रचना तथा सर्वोदयी समाज व्यवस्था की दृष्टि से सक्रिय तथा निष्ठाशील प्रचारक, अनेक पुस्तकों के सम्पादक, लेखक] सरल, सरस एवं जीवनस्पर्शी प्रवक्ता : प्राचार्यप्रनर श्री यानन्दषि कहते हैं, युद्धक्षेत्र में शौर्यगीत सुनाकर चारण एवं भाट योद्धाओं को इतना उत्तेजित कर देते थे कि उनकी भुजाएँ फड़कने लगती; वे अपने प्राणों का मोह छोड़कर शस्त्र-अस्त्र लेकर शत्रुसेना पर एकदम टूट पड़ते । यह जादू वचन का ही तो था ! और सरल-स्वभावी-सहृदय कैकयी रानी का मन-मस्तिष्क सहसा जिस मन्थरा दासी ने बदल दिया था; उसमें भी वाणी का ही प्रभाव था। मनुष्य की वाणी में वह बल है कि वह तलवार से भी बढ़कर गहरा प्रहार कर सकती है और चाहे तो पापी-से-पापी मनुष्य का हृदय बदल सकती है। चीन के प्रसिद्ध धर्मग्रन्थ ताओ उपनिषद में एक जगह बताया गया है-“लच्छेदार शब्द कभी विश्वसनीय नहीं होते और हृदय की गहराई से जो शब्द निकलते हैं, वे लच्छेदार नहीं होते।" वास्तव में हृदय की गहराई से उदभुत वचनों में जो स्वाभाविकता होती है, वह लच्छेदार वचनों में नहीं होती। जैसे कुए की गहराई से निकलने वाले पानी में शीतलता और उष्णता स्वाभाविक होती है, कृत्रिम नहीं; वैसे ही हृदय की गहराई से निकले हुए वचन बनावट, दिखावट स रहित स्वाभाविक सुन्दर और मधुर होते है। वचन और प्रवचन __उपर्युक्त प्रभाव साधारण वचन का है। प्रवचन का प्रभाव तो और भी अधिक होता है । क्योंकि बचन तो साधारण पुरुषों का होता है, जबकि प्रवचन विचारकों, संतों और महापुरुषों का। विचारक संतों की वाणी के पीछे उनका अनुभव, चिन्तन-मनन और जीवन का दर्शन होता है। उनके वचन में निरर्थक बकवास या व्यर्थ की गप्पें नहीं होतीं। इसीलिए उनके वचन हृदयस्पर्शी होते हैं, श्रोता की आत्मा को वे झकझोर देते हैं। इसीलिए जैन साध्वाचार के प्रसिद्ध शास्त्र बृहत्कल्पभाष्य में कहा है 'गुण सुठ्ठियस्स वयणं घयपरिसित्तुव्व पावओ भवइ । गुणहीणस्स न सोहइ नेहविहणो जह पईवो ॥' Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनस्पर्शी प्रवक्ता आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि १२५ अर्थात् - गुणसम्पन्न व्यक्ति का वचन घृत - सिंचित अग्नि की तरह तेजस्वी एवं मार्गदर्शक होता है, जबकि गुणरहित व्यक्ति का वचन तेलरहित दीपक की तरह एवं अंधकारपूर्ण होता है, इसलिए वह किसी को सुहाता नहीं । श्रमण संघ के महामहिम ज्योतिर्धर आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज के प्रवचनों में जीवन का गहरा चिन्तन, मनन एवं अनुभवों का निचोड़ है। जैसा उनका नाम आनन्द है; वैसी ही उनकी वाणी श्रोताओं को आनन्ददायिनी प्रतीत होती है। उनके प्रवचनों में अन्तःकरण से सहजस्फूर्त उद्गार हैं, सहज स्वाभाविकता है, बनावट - सजावट नहीं मेरे समक्ष इस समय आचार्यश्री के प्रवचनों के तीन भाग हैं। उनका नाम है-आनन्दप्रवचन | प्रत्येक प्रवचन में मानो अनुभवों का मेला-सा लगा हुआ है। देखिये पेट के लिए कितने पाप ? शीर्षक प्रवचन में उनके उद्गार कितने उद्बोधक हैं "पेट की भूख मिटाने के लिए तो वह जितना भी धन प्राप्त करता है, कम समझता है, किन्तु आत्मा की भूख का उसे स्याल ही नहीं आता । न ही उस भूख को मिटाने का प्रयत्न ही करता है ।" " मानव अर्थप्राप्ति के लिए बिना किसी हिचकिचाहट के इधर से उधर किसी भी दिशा में चल देता है विमान से उड़कर ऊपर जाने में नहीं चूकता और जैसी कि कोलार में सोने की ख़ान नीचे जमीन में है, उसमें उतरने में भी नहीं डरता । सारा डर और हिचकिचाहट तो उसे धर्म की दिशा में जाने से होती है ।"१ तृष्णाग्रस्त मानवों के जीवन पर करारी चोट करते हुए उन्होंने कहा -२ "जिस मनुष्य के हृदय पर तृष्णा का अधिकार होता है, उसकी विवेकशक्ति नष्ट हो जाती है। तृष्णा के वशीभूत होकर वह कर्तव्य के अन्तर को भूल ही जाता है, उसे लोकलज्जा की भी परवाह नहीं रहती । कभी-कभी तो उसकी तृष्णा ऐसा भयंकर रूप धारण कर लेती है कि वह घृणित से घृणित और नीच -से-नीच कृत्य करने को भी तैयार हो जाता है । यहाँ तक कि अपने स्वजनों और सम्बन्धियों की हानि और उनकी हत्या तक कर डालता है ।" वैराग्य की झंकार को उजागर करते हुए आचार्यश्री कहते हैं- “जब तक मानव में राग-द्वेष रूपी विकार विद्यमान रहते हैं, तब तक वह वैराग्य परिणति का विकास नहीं कर पाता । परिणाम यह होता है कि वह सच्चे सुख का अनुभव नहीं कर पाता और दुःखों से छुटकारा नहीं पा सकता । क्योंकि राग और द्वेष की विद्यमानता में वह किसी को अपना स्नेही और किसी को अपना शत्रु अवश्य मानता रहेगा । जिसे शत्रु मानेगा, उससे किसी-न-किसी प्रकार का भय भी बना रहेगा । किन्तु वैराग्य में यह बात नहीं है । आत्मा में विरक्त भावना के होते ही उसे कोई भी अपना शत्रु नहीं दिखाई देता और इसके कारण भय की भावना उसके समीप भी नहीं फटकेगी ।" कितना सुन्दर विश्लेषण है वैराग्य वृत्ति का । सामाजिक जीवन का अनुभव रस उड़ेलते हुए वे कहते हैं-४ “हम यह देख चुके हैं कि परोपकार से हम अपना भी उपकार करते हैं। परोपकार का मूल प्रभाव अपने आपको, अपनी आत्मा को पवित्र करना होता है। महाज्ञानी और परमभक्त की तुलना में परोपकारी और नेक व्यक्ति रंचमात्र भी कम नहीं ठहरता, उलटे अधिक हो साबित होता है ।" १ आनन्दप्रवचन भा० २, पृ० ३०, ३१, २ वही, पृ० ६८ पृ० २५५ ३ ४ 23 आधा कप 乘 wwwwwwLAS श्री आनन्दन ग्रन्थ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्मप्रवभिआचार्यप्रवभिनेर श्रीआनन्दग्रन्थश्राआनन्द-ग्रन्थ५१ १२६ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व vr.x.vvv www.M IAA) यथार्थवादी दृष्टिकोण को अपनाते हुए एक जगह वे विश्लेषण करते हैं-१"यह शरीर भी मोटरगाड़ी या बैलगाड़ी के समान है। जिस प्रकार अन्य गाड़ियों के पहियों व पूर्जी को तेल देना पड़ता है, उसके बिना वे बरावर काम नहीं करते, जल्दी घिस जाते हैं तथा यात्रा खतरे में पड़ जाती है। इसी प्रकार शरीर रूपी गाड़ी को भी खुराक देनी पड़ती है। अन्यथा जीवनयात्रा कठिन हो जाती है। प्राण खतरे में पड़ जाते हैं। "हमें शरीर के द्वारा लाभ लेना है, हानि नहीं उठाना है। और लाभ तभी उठाया जा सकता है, जबकि इसकी सार-सम्भाल और पुष्टि के निमित्त से पापों का उपार्जन न करें, वरन इसकी सहायता से सेवा, त्याग और तपस्या आदि करते हुए आत्मकल्याण के मार्ग पर बढ़े।" धर्म की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए आचार्यश्री कहते हैं---.२ "अगर व्यक्ति धर्म की रक्षा करे तो धर्म उसकी रक्षा करता है। धर्म की रक्षा करने से आशय है-धर्माराधन करना । धर्माराधन करने पर ही धर्म विद्यमान रहता है । अगर व्यक्ति अधर्म का आचरण करे तो फिर धर्म कहाँ रहेगा? धर्माचरण करने पर ही उसकी रक्षा हो सकती है।" संस्कारों का मानव जीवन में महत्त्व बताते हुए आचार्यश्री के उद्गार देखिए --3"ये संस्कार ही मानव के चरित्र का निर्माण करते हैं। अगर संस्कार शुभ हुए तो वह सच्चरित्र और संस्कार अशुभ हुए तो दुश्चरित्र व्यक्ति कहलाता है। कोई भी मनुष्य अपने जन्म से ही महान या निकृष्ट नहीं पैदा होता, वह शनैः-शनैः अपने एकत्रित किये हुए संस्कारों के बल पर ही उत्तम या अधम बनता है।" जीवन में निद्रात्याग का विवेक बताते हुए वे कहते हैं-- "रात को बारह, एक और दो बजे तक जागने के पश्चात् वे प्रातःकाल देर से उठते हैं। परिणाम यह होता है कि उनका चित्त सदा अस्थिर और उद्विग्न बना रहता है तथा चिन्तन, मनन और आध्यात्मिकता की ओर तो उन्मुख ही नहीं होता।" __ आधुनिक शिक्षा प्रणाली पर कटाक्ष करते हुए वे कहते हैं- ५ "आज के युग में शिक्षा-प्रणाली कुछ इस प्रकार की है कि छात्रों में किताबी ज्ञान भले ही बढ़ता चला जाय किन्तु विनयगुण नहीं पनपता । परिणामस्वरूप शिक्षक और शिष्य के बीच जैसा मधुर सम्बन्ध स्थापित होना चाहिए, उसके दर्शन नहीं होते।" धर्म का सच्चा स्वरूप उनकी दृष्टि में सुनिए -६ "सच्चा धर्म वही है, जिसके द्वारा मानब की आत्मा में सत्यता, व्यापकता, निर्मलता एवं उदारता आ सके ।..." जिसके मन में विषय, कषाय, राग, द्वेष तथा मोह आदि का प्रवल वेग रहता है, वहाँ धर्म का आनन्द ढूंढ़े नहीं मिलता, चाहे वह कैसा भी भेष क्यों न धारण कर ले अथवा मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा, स्थानक या उपासरे में जाकर सामायिक, पूजापाठ, प्रतिक्रमण आदि नाना प्रकार की क्रियाएँ दिन-रात क्यों न करता रहे।" अधिकार को परिभाषा करते हुए वे कहते हैं -अधिकार पाकर व्यक्ति को उसका सदुपयोग करना चाहिए तथा उसकी मर्यादा रखनी चाहिए। अन्यथा क्या होगा, जानते हैं? यही कि अधिकार में से 'अ' हट जायगा और केवल धिक्कार ही पल्ले पड़ेगा। ह १ आनन्द प्रवचन भाग २ पृ० १५८ ३ आनन्द प्रवचन भाग ३ पृ. ५ ,, Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनस्पर्शी प्रवक्ता आचार्यप्रवर श्री आनन्द ऋषि १२७ ६ व्रतों के ग्रहण पर जोर देते हुए वे कहते हैं-१"व्रतों का ग्रहण करना अपने आपको एक सीमा में बाँध लेना होता है। जिसका आपको उल्लंघन नहीं करना चाहिए। तभी आपका जीवन मर्यादित, सन्तुलित और सुन्दर बन सकता है। नदी जब तक अपने दोनों किनारों के बीच में वहती है, तभी तक उसकी महत्ता है। अगर वह अपनी सीमा अर्थात् अपने किनारों को तोड़कर निकलती है तो लोग उससे भयभीत होकर यत्र-तत्र भागने लगते हैं।..." श्रद्धा और बुद्धि के अन्तर को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं-"श्रद्धा हृदय को अमूल्य वस्तु है और बुद्धि मस्तिष्क की। श्रद्धा में विश्वास होता है, बुद्धि में तर्क । अगर ये दोनों टकराते हैं तो उसका परिणाम कभी-कभी बड़ा भयंकर रूप ले लेता है। भौतिक ज्ञान की प्राप्ति करने वाले तथा अनेक पोथियाँ पढ़कर जो व्यक्ति जिन-वचनों में अविश्वास करता है तथा आत्मा के सच्चे स्वरूप और उसके सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूपी गुणों को लेकर कुतर्क करता रहता है, वह हृदय की आस्था को खो बैठता है तथा मुक्ति के मार्ग से भ्रष्ट होकर अधोगति की ओर प्रयाण करता है। श्रद्धा एक-एक कंकर को शंकर बनाने की क्षमता रखती है और तर्क शंकर को भी कंकर बनाकर छोड़ता है। जिसके हृदय में श्रद्धा होती है उसकी दृष्टि समदृष्टि बन जाती है।" इस प्रकार आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज के प्रवचन वर्तमान युग में प्रकाशस्तम्भ की तरह जीवनयात्री को स्पष्ट दिशा-दर्शन देते हैं। वे अन्धकार में भटकने से बचाते हैं और जीवन में मच्चे आनन्द की प्राप्ति करा सकते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं। श्रद्धा के सुमन - उपप्रवर्तक स्वामी श्री व्रजलालजी [शासनसेवी वयोवृद्ध संत] moM आचार्यसम्राट श्री आनन्द ऋषि जी महाराज एक अभिनन्दनीय उत्तम पुरुष हैं। उनका अभिनन्दन करना समयोचित प्रसंग है। आचार्यश्री जी के दर्शन जब भी मैंने किए, उन्हें सदा सौम्य व सुमधुर पाया। आचार्य श्री जी श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के सुशासक नेता हैं-यह संघ के लिए गौरव की बात है। उनकी सेवा में मेरे श्रद्धा के सुमन सादर समर्पित हैं। UPL १. आनन्द प्रवचन भा० ३ पृ० ३६२ २. , पृ० ३५७ PRANARDANARAvinaAAAAAAJAAAAAAAAA A AAACADRDABARJAADAAN AIMAAVALI Primmmwwwimm iATMAir-.-.-.Vtomorrrrr: Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IYA श्रीचन्द्र जैन M.A., L.L.B. [जैन कथासाहित्य एवं काव्यसाहित्य के विशेष अनुसंधाता, समीक्षक तथा लेखक । संप्रति-सान्दीपनि स्नातकोत्तर महाविद्यालय, उज्जैन में प्राचार्य] एक चिन्तनशील वाग्मी आचार्यदेव आनन्दऋषि का प्रवचन-विश्लेषण भारतीय ऋषि-परम्परा में महामहिम आचार्यदेव श्री आनन्द का एक विशिष्ट स्थान है । निरन्तर साधना-रत होने के कारण आपकी प्रतिभा विकसित हुई है, एक अनुपम तेज आपके ललाट पर पूर्णरूपेण आलोकित हो रहा है, भगवती सरस्वती आपकी वाणी में अवतरित हुई है, समताभाव की अन्विति के कारण यह विराट विश्व आपका भक्त बन चुका है एवं मानस की उदारता ने आपके चिन्तन-मनन को इतना व्यापक बना दिया है कि न उसमें वर्गभेद जीवित है, न विशिष्ट धर्म-कर्म के प्रति अनुराग है और न किसी विशेष जाति के लिए अनुरक्ति है। सर्वत्र मानवता के मधुर स्वर आपके उपदेशों में प्रतिध्वनित हैं । सन्त के समस्त लक्षण आपकी परिचर्या में एकाकार हो गए हैं। फलतः जन-हितकारी शब्द आपको प्रिय हैं। भले ही वे किसी विशिष्ट सम्प्रदाय के आचार्य हों अथवा किसी धर्म के गुरु कहे गए हों किन्तु समस्त धर्मों का समन्वयात्मक रूप श्री परमपूज्य आनन्द की वाणी में इतना प्रखर है कि जनता अपने अन्धविश्वासों की रूढ़ि-गत परम्परा को भूलकर आपके उपदेशों को सुनने के लिए निरन्तर आतुर रहती है तथा इन उपदेशों का श्रवण कर वह आत्म-निरीक्षण के हेतु प्रयास करने लगती है। इस धरातल पर आचार्य देव प्राणिमात्र के हितार्थ ही अवतरित हुए हैं। माना कि आपके प्रवचनों में कृत्रिम तूफानी जोश नहीं है और न उत्तेजक शब्द-जाल है, लेकिन इनमें (प्रवचनों में) भावना की गहन स्थिरता है, विचारों की अलौकिक निर्मलता है और कथन-शैली में भद्रता है जो बहुत कम साधुओं में परिलक्षित होती है । महामहिम के सहज स्वरूप को देखकर और उनके अदम्य उत्साह से परिपूर्ण प्रवचनों को आत्मसात करने के उपरान्त कवि नीरज की ये पंक्तियाँ सहसा मानस में गूंजने लगती हैं या ह हम नहीं हिन्दू-मुसलमां, हम नहीं शेखो-विरहमन । हम नहीं काजी-पुरोहित, हम नहीं हैं राम-रहीमन । भेद से आगे खड़े हम, फर्क से अनजान हैं हम । प्यार है मजहब हमारा, और बस इन्सान हैं हम । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यदेव श्री आनन्दऋषि का प्रवचन- विश्लेषण १२६ इन्सान जब इन्सानियत को भूलकर दानव बनता है, अनाचार जब इन्सान की मलिन नसों में बढ़ने लगता है और भेद-भाव की ज्वाला पावन धरती के समुज्ज्वल तत्त्वों को भस्मसात करने के लिए आतुर हो उठती है तभी युगपुरुष श्रमण संघ के सिरमौर आचार्यसम्राट श्री आनन्दऋषि जैसे तपस्वी इस धरातल के मलिन प्रांगण में आते हैं और पीयूष - परिपूरिता वाणी से मानव की मटमैली विचारशून्य कुभावना की परिशुद्धि करते हैं । निश्चयतः ये साधक परम प्रभु के प्रतिरूप ही हैं । गोस्वामी तुलसीदास ने ठीक ही कहा है जब जब होय धरम के हानी । बाढ़हिं अमित असुर अभिमानी । तब तब घर प्रभु मनुज सरीरा । हहिं सदा सज्जन दुखपीरा । - रामचरितमानस सन्तवाणी का प्रभाव अनेक चमत्कारों को जन्म देता है। मूढ़ विज्ञ बनता है, शठ सुधरने लगता है और पतित अपने अपराधों के लिए पश्चात्ताप कर उठता है । कल्पित भेद-भावना की दीवाल गिरने लगती है और इंसान अपनी कालिमा कलंकित विमूढ़ता के परित्याग हेतु कृतसंकल्प हो उठता है । काव्यकार के स्वर जो कभी शृंगार-रस-पूरित थे, सार्वभौमि कता के गीत गाने लगते हैं -- दो हुए तो क्या मगर हम एक ही घर के सेहन हैं, एक ही लौ के दिये हैं- एक ही दिन की किरन हैं, श्लोक के संग आयतें पढ़तों हमारी तख्तियाँ हैं, और होली-ईद आपस में अभिन्न सहेलियाँ हैं । मीर की गजलें उसी अन्दाज से हम चूमते हैं, जिस तरह से सूर के पद गुनगुनाकर झूमते हैं, मस्जिदों से प्यार उतना ही हृदय को है हमारे, हैं हमें जितने कि प्यारे मन्दिरों-मठ- गुरुदुआरे । फर्क हम पाते नहीं हैं कुछ अजानों-कीर्तनों में, क्योंकि जो कहतीं नमाजें है वही हरि के भजन में, ज्यों जलाकर दीप धोते हम समाधी का हैं चढ़ाते फूल वैसे ही मजारों घिरा तम, पर यहाँ हम । - नीरज की पाती (पूर्ण आभार सहित ) उपाध्याय अमरमुनि के शब्दों में "परम पूज्य श्री आचार्यदेव श्रोता के सामने खुले मन के साथ स्पष्ट रूप से उपस्थित होते हैं, अतएव जो कुछ कहना चाहते हैं वह सहजभाव से कह जाते हैं। वाणी का बनाव- शृंगार और भावों का दुराव-छिपाव उनके प्रवचनों में नहीं मिलेगा, जो कुछ है वह सरल और सहज है । लगता है आचार्य श्री जिल्ह्वा से नहीं, हृदय से बोलते हैं। इसलिए उनकी वाणी मन पर सीधा असर करती है । भाव, विशेषतः सहजभाव ही वाणी का अन्तःप्राण है। वही प्रभावोत्पादक है । भावशून्य वाणी प्रभाव पैदा नहीं कर सकती। आचार्यश्री की वाणी में भाव हैं, इसलिए उसका प्रभाव भी पाठक के मन को निश्चित ही प्रभावित करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है । परमपूज्य श्री आनन्दऋषि आकृति से भी महासागर की तरह प्रशांत-कांत प्रतीत होते हैं और प्रकृति से भी । श्रद्धालु श्रोताओं को आचार्य प्रव28 अ श्री आनन्द अन्थ wwwwwww. State SU य फ्र Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ srAALANANradAantarancha आयर्मप्रवभिआपार्यप्रवरभि अथ श्रीआनन्दारिदन १३० आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व स्पर्ण सहज अनुभव किया अमित पथिक के लिए प्रकाश में अथाह सागर का उनके मन की निर्मलता, सरलता, सौम्यता और भद्रता उनकी वाणी में पद-पद पर प्रस्फुटित होती परिलक्षित होगी। उनके अन्तरस में वैराग्य की जो पावनधारा प्रवाहित हो रही है, वाणी में उसका शीतल स्पर्श सहज अनुभव किया जा सकता है।" संतों के प्रवचन अंधकार में भ्रमित पथिक के लिए प्रकाश-स्तम्भ की भांति हैं। विमोह-मूढ़ इन्सान को ये ही प्रवचन सन्मार्ग पर लाकर खड़ा कर देते हैं। जिस प्रकार रात में अथाह सागर की उत्ताल तरंगों से भयभीत नाविक दिशा-ज्ञान खो बैठता है और धीरे-धीरे आश्वस्त होकर ध्रुव की ओर उसकी आँखें टिक जाती हैं तथा वह गन्तव्य का परिज्ञान कर लेता है, उसी प्रकार पूज्य आनन्दऋषि के ये प्रवचन संसार-सागर की उद्वेलित लहरों से पग-पग पर चिन्तित मानव को धैर्य प्राप्त कराते है । इसीलिए कहा गया है कि ये प्रवचन ध्रुव की भांति दिशा-सूचक एवं लक्ष्य के परिचायक हैं। प्रबुद्ध इंसान की अनुभूतियाँ इनमें स्पन्दित हैं, भावुक काव्यकार की भावुकता इनमें जीवित है एवं सूर्य की आलोक-रश्मियाँ यहाँ दीप्त हैं। इस प्रकार की सैकड़ों कथाएँ प्रचलित हैं जिनमें बताया गया है कि सुभाषितों अथवा प्रवचनों को सुनकर श्रोता ने पर्याप्त धन कहनेवाले को दिया है तथा अवसर पर उसने अपने पुत्र को बचाया, पत्नी को पथभ्रष्ट न होने दिया तथा फांसी के तख्ते पर खड़े हुए निर्दोष को जीवन-दान दिया। पुरातन काल में एक-एक प्रवचन लाखों में बिकता था और मोल लेनेवाले सहर्ष इन्हें खरीदते थे। "एक लाख की एक बात," "चार लाख की एक सूझ", "जान से प्यारी एक बात", "एक अरब का एक हार" आदि ऐसी ही कथाएँ हैं जिनमें प्रवचनों के महत्त्व को बड़ी श्रद्धा में आंका गया है। "संसार की समस्त ऋद्धि-सिद्धि और समृद्धि में वाणी एक अद्भुत उपलब्धि मानी गई है। वाणी से उद्भुत एक सुवचन-सुभाषित संसार के समस्त रत्नों से भी अधिक मूल्यवान होता है। वास्तव में तो सुभाषित ही सच्चा रत्न है। प्राचीन आचार्यों ने कहा है पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् । मूढः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते । पृथ्वी में असली रत्न तो तीन ही हैं-जल, अन्न एवं सुभाषित । बाकी रत्न तो पत्थर के टुकड़े हैं । जल और अन्न फिर भी सीमित मूल्य रखते हैं । जड़ शरीर की भूख-प्यास बुझाते तो हैं किन्तु क्षणिक ही। वाणी अन्तर्मन को क्षुधा एवं तृषा को शांत करती है सदा-सर्वदा के लिए। एक नन्हा-सा दो-चार शब्दों का सुभाषित भी जीवन में आमूलचूल परिवर्तन ला सकता है, मन को नया मोड़ दे सकता है और अन्धकार में ठोकरें खाते मानव के लिए प्रकाश की प्रखर किरण बन सकता है।"२ आचार्यदेव श्री आनन्दऋषि के प्रवचनों को साधारणतः निम्नस्थ रूपों में विभाजित किया जा सकता है। मेरी राय में सुभाषित और सूक्तियाँ प्रवचन के ही रूपान्तर हैं। एक के ही ये दो रूप हैं। (१) धर्म सम्बन्धी प्रवचन । (२) अर्थ सम्बन्धी प्रवचन । (३) काम सम्बन्धी प्रवचन । (४) मोक्ष सम्बन्धी प्रवचन । इन चार रूपों पर हमें व्यापकता से विचार करना आवश्यक है। सकीर्ण चिन्तन हमारे ध्येय की परिपुष्टि में बाधक हो सकता है। कई प्रवचन तो ऐसे हैं जिनमें उक्त चार तत्त्वों का समाहार हो गया है लेकिन कतिपय प्रवचन एक विशिष्ट विचारधारा के ही समर्थक हैं। १ आनन्द प्रवचन, भाग १, प्रारम्भिक पृष्ठ ६-७ २ उपाध्याय श्री अमरमुनि Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यदेव थी आनन्दऋषि का प्रवचन-विश्लेषण १३१ EIGAD आया P यह सब कुछ होते हुए भी आचार्यप्रवर का मुख्य लक्ष्य यही है कि मानव आत्म-परिष्कार करे और स्वयं प्रबुद्ध बनकर दूसरों को समुचित प्रबोधन प्रदान करे । मानव की यही मानवता है और सच्चे धर्म का यही समीचीन रूप है । गोस्वामी तुलसीदास के मतानुसार कीति, कविता और सम्पत्ति वही उत्तम है जो गंगा की तरह सबका हित करने वाली हो। कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कहँ हित होई ॥ -रामचरितमानस सांसारिक विषय-वासना की परितुष्टि के लिए तो सब ही लिखते रहते हैं तथा ऐसे साहित्य का परिज्ञान तो प्रत्येक इन्सान सहज में ही उपलब्ध करता रहता है। सच्चा रसकाव्य तो वही है जो मानवमात्र को अविनश्वर शान्ति दिला सके । कविवर भूधरदास की ये पंक्तियाँ इस संदर्भ में बड़ी उपयोगी हैं राग उदै जग अंध भयो, सहजै सब लोगन लाज गमाई। सोख बिना नर सीखत हैं विषयादिक सेवन को सुधराई ॥ तापर और रचे रस काव्य, कहाँ कहिये तिनको निठुराई । अन्ध असूझन की अंखियान में, झोंकत हैं रज रामदुहाई ॥ -जैनशतक-६४ ए विधि तुम ते भूलि भई, समुझ न कहाँ कसतूरि बनाई। दीन कुरंगनि के तन में, तुन दंत धरै करुना किम आई ।। क्यों न करी तिन जीभन जे रस, काव्य करं पर को दुखदाई। साधु अनुग्रह दुर्जन दंड, दोऊ सधेत बिसरी चतराई। --जैनशतक-६६ श्री आनन्दऋषि के प्रवचन पूर्णरूपेण विरक्तिमूलक हैं तथा सर्वत्र अध्यात्मवाद का मधुर स्वर शब्दायमान है। यही प्रथम विशेषता है। प्रवचनों की दूसरी विशेषता यह है कि एक तथ्य को प्रमाणित करने के लिए आचार्यप्रवर ने विभिन्न शास्त्रों तथा ग्रन्थों से अनेक प्रमाण दिए हैं और अपने कथ्य को प्रभावोत्पादक शैली में समर्पित किया है। वस्तुतः प्रवचन की गरिमा इसी प्रकार स्थापित की जाती है। उदाहरण के रूप में प्रस्तुत है 'सत्य का अपूर्व बल' शीर्षक प्रवचन । आचार्यश्री सर्वप्रथम महर्षि वेद व्यास की भावना को उदधृत करते हैं जो इस प्रकार है : “सत्य अत्यन्त महान और सबसे बढ़कर धर्म है।" । -आनन्द प्रवचन, भाग ३, पृष्ठ २१६ । महात्मा गांधी ने कहा है-परमेश्वर सत्य है, यह कहने के बजाय सत्य ही परमेश्वर है। यह कहना अधिक उपयुक्त है। -पृष्ठ २१६ इस सम्बन्ध में एक पाश्चात्य विद्वान के भी यही विचार हैंOne of the Sublimest things in the world is plain truth सरल सत्य संसार की सर्वोत्कृष्ट वस्तुओं में से एक है। -पृष्ठ २१६ इसके अनन्तर आचार्य श्री विभिन्न भाषाओं के उद्धरणों को देते अपने कथ्य की सार्थकता सिद्ध करते हैं(१) सच्चं खु भगवं-सत्य ही भगवान है। -पृष्ठ २२० (२) सत्य तोचि धर्म असत्य ते कर्म, आणीक हे धर्म नाहीं दुजे । -संत तुकाराम सत्य भाषण करना परम धर्म है और असत्य बोलना कर्मबन्धन का कारण है। -पृष्ठ २२२ (३) सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । जाके हिरदे साँच है, ताके हिरवे आप ॥ -~~~-पृष्ठ २२२ RAMOMaanasiatra आपाप्रकार riyanvi MAMANN wwwmmmmmmmmmmmmmE Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ An A RANANJANAMANNAINMadamentaJANAMAdda LANABRARABANARA..... • आचार्मप्र.Bat आचार्यप्रवभिन्न श्रीआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्दप्रसन्न आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व M Y - . : . (४) झूठ बतावत सांच समोकर जहर मिलाय के देत हैं गूल । कहत तिलोक करे मन को वश, जाय जमा वश भूठ के सूल। -पूज्यपाद श्री तिलोकऋपिजी, पृष्ठ २२४ (यह पृष्ठ संख्या आनन्द प्रवचन भाग तीन की है।) मधुर शब्दों में बोला गया झूठ ठीक वैसा ही कहलाता है जैसे गुड़ के अन्दर विष मिलाकर किसी को दे दिया जाय । इसीलिए प्रत्येक मानव को अपने मन पर संयम रखते हुए असत्य भाषण की प्रवृत्ति का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। असत्य भाषी अविश्वास का पात्र बनता है। प्रवचनों की तीसरी विशेषता है कि प्रतिपाद्य विषय की उत्कृष्टता को प्रदर्शित करने के लिए इसके विपरीत तत्त्व को दोषपूर्ण बताना । जैसा कि 'सत्य का अपूर्व बल' नामक प्रवचन में दिखाया गया है। मानवता की गरिमा में दानवता को अधम बताना, आत्म-शुद्धि की सराहना में विषय-वासना की मलिनता को चित्रित करना आदि । __ अपने कथ्य के समर्थन में कथाओं का प्रयोग करना यह पूज्य आचार्य के प्रवचनों की चौथी विशेषता है । ये कथाएँ एक ओर सरसता-रोचकता लाती हैं और दूसरी ओर पाठक एवं श्रोता को विषय के अनुशीलन में बड़ी सहायक बनती हैं। यथा तत्त्वज्ञ सेठ (पृ० १७८) महान त्याग (पृ० ७६) सियार-ऊँट की कथा (पृ० १११), सच्चा साधुत्व (पृ० २३७) ज्ञानवृद्धि में रोक, (पृ० २५०) आदि । (यह पृष्ठ संख्या आनन्द प्रवचन भाग तीन की है)। पांचवीं विशेषता यह है कि यथार्थवाद के धरातल पर आदर्शवाद की स्थापना । “समय का मूल्य आँको" नामक प्रवचन में आचार्यश्री ने सबसे पहले मानव की इस नैसर्गिक प्रवृत्ति को दिखाया है कि वह बुढ़ापे में आकर कुछ करने की आवश्यकता समझता है तथा यौवन में विषयासक्ति के प्रति वह लगाव बढ़ाता रहता है । युवावस्था क्षणिक है, जैसा कि एक शायर ने बताया है रहती है कब बहारे, जवानी तमाम उम्र मानिन्द बूये गुल, इधर आई उधर गई। -पृ० २६२ इसी तरह इंसान की कमजोरियों को बताते हुए आचार्यश्री फिर चेतावनी देते हुए एक विशिष्ट आदर्शवाद को सन्मुख रखते हैं। यथा-समय पर थोड़ा-सा प्रयत्न भी आगे की बहत-सी परेशानियों को बचाता है, आदि। इन प्रवचनों की छठवीं विशेषता यह है कि आचार्यप्रवर ने लोक-संस्कृति के प्रति पर्याप्त अनुराग बताया है। यह संस्कृति श्रमण-संस्कृति की सहचरी है। छोटी झोंपड़ी (पृ. २३), पर-उपकारी तरु (पृ० ३७), मेह की उदारता (पृ० ४४) आदि । (यह पृष्ठ संख्या आनन्द प्रवचन भाग १ की है)। इसी प्रकार “गोबर इकट्ठा करने वाला धनवान" (पृ० २४), मृत सर्प के स्थान पर रत्नहार (पृ० २६), खेतों में पानी पहुंचा रहा हूँ" (पृ०७७), सभी यात्री हैं (पृ० १९४), ब्रह्माण्ड की परिक्रमा (पृ० ८६), महान् त्याग (पृ० ७६), कोई जागीर दे दो (पृ० ३८) आदि लोककथाएँ लोक-जीवन की अनुभूतियों को प्रकाशित करने वाली हैं। ये लोक-संस्कृति की धमनियाँ हैं। सातवीं विशेषता है व्यंग्यों का प्रयोग तथा तीखा प्रहार । इस विशेषता ने प्रवचनों को अधिक प्रभावोत्पादक बना दिया है। यह वैशिष्ट्य यथावसर कई प्रवचनों में परिलक्षित होता है। प्रवाह-पूर्ण एवं सरस शैली प्रवचनों की आठवीं विशेषता है। जो प्रत्येक प्रवचन में देखी जा सकती है। AMERIA Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यदेव श्री आनन्दऋषि का प्रवचन-विश्लेषण १३३ CHORIRL साधारण विषय के प्रतिपादन में छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग किया गया है, लेकिन गहन सत्य की विवेचना में लम्बे-लम्बे वाक्यों को अपनाते हुए आचार्यश्री ने तत्सम शब्दों को उपयुक्त माना है। यों तो आपके मानस में विशेष भाषा के विशिष्ट शब्दों के प्रति किसी प्रकार का आग्रह नहीं है। अपनी भावना को स्पष्ट करने के लिए पूज्यश्री ने प्रायः समस्त प्रचलित एवं व्यावहारिक शब्दों को ग्रहण किया है एवं मुक्तियों को भी अपनाया है। कई भाषाओं के प्रकाण्ड पंडित होने के कारण आचार्यप्रवर की शब्दावली बड़ी विस्तृत और व्यापक है। परिणामस्वरूप आपकी भावभरी चेतावनी पर्याप्त रूप में स्नेहिल, बोधपरक, प्रभावक एवं लोक-प्रिय बन गई है। जिस प्रकार आपके चिन्तन-मनन में समन्वयात्मक दृष्टिकोण विद्यमान है इसी प्रकार भाषाशैली में भी आप बड़े उदार और असीमित हैं। विश्व की विराट प्रतिमा में आपका विराट् व्यक्तित्व इस प्रकार समाहित हो गया है जिस प्रकार मक्खन के कण दूध की सफेदी में एकाकार हुए हैं। लोकोक्तियों का यथावसर प्रयोग करके पूज्य ऋषि ने अपने भाषा-विषयक दृष्टि-कोण को अत्यधिक जन-प्रिय बनाया है। निम्नलिखित वाक्य-समूह उपर्युक्त कथन की पुष्टि में पर्याप्त हैं :-- (१) जो व्यक्ति आत्मिक सौन्दर्य का महत्त्व समझ लेता है वह संयम और नियम से अपने मन को आबद्ध करता है। (२) आज मानव के जीवन में संयम का अभाव है। उसका जीवन पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध में पड़कर विलासिता में बहता है। (१० ७) (३) इन्द्र जब देव-सभा में सद्गुणी व्यक्तियों की प्रशंसा करते हैं तो उपस्थित देवों में अनेक मिथ्यादृष्टि देव ऐसे भी होते हैं, जिन्हें संसारी प्राणियों की प्रशंसा सह्य नहीं होती। वे सोचते हैं-देवसभा में देवताओं की तारीफ न करके अन्न के कीड़े मनुष्यों की, अल्पायु प्राणियों की तारीफ क्यों?"-- इस प्रकार के लम्बे-लम्बे वाक्य विषय की गहन अनुभूति के परिचायक हैं। अभिप्राय, दोष-दृष्टि, शंकालु, परिष्कृत, विद्वत जनों, अशिक्षित, असाँकरी समक्ष, वृतियाँ, शंकित, परिणाम, आदर, ईश-स्मरण, गौरवरक्षा आदि (पृष्ठ ७६), तत्सम शब्दों के साथ-साथ छल-फरेव, रिश्वत, नींव, उम्र, न्यौछावर (पृ० ५१), फूल, खुशबू, नासमझी, चाँद, कागज आदि (पृ० ५६), झगड़ा टेढ़े-मेढ़े, चील, चोंच, तकलीफ, काँटे, तकलीफ, महसूस, आराम, दाना-पानी, मालिश, हवाखोरी, सवारी, वजन, बोझा 'पीठ खेल' (पृ० ११४-११५) आदि शब्दों को भी आचार्यप्रवर ने बड़ी उदारता से अपनाते हए अपनी भाषा-सम्बन्धी भद्रता का पूर्ण परिचय दिया है । अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश, मराठी आदि विभिन्न भाषा बोलियों के उद्धरणों का प्रयोग इस सत्य को प्रमाणित करता है कि आचार्यप्रवर बह-भाषाविद हैं, बहन हैं, सतत विचारक हैं, बहश्रत हैं एवं संत-समागम के एक आलोकित दीप हैं। (यह पृ० संख्या आनन्द प्रवचन भाग प्रथम की है)। प्रवचनों में कतिपय प्रयुक्त लोकोक्तियाँ इस प्रकार हैं(१) बुरा करने वाले का भी भला किया जाय । पृ० ३६ (२) संत कभी संतई नहीं छोड़ता। पृ० ३६ (३) सत्संगति दुर्लभ संसारा। पृ० ४२ (४) सत्संगति से नीच से भी नीच महान बन जाता है। (५) चित्त की वृत्तियों को रोकना अत्यन्त कठिन काम है। (दुष्करं चित्तरोधनम्) पृ० ५३ (६) जब हम जागें तभी सबेरा। पृ० ५६ पृ० ४२ manmaduadavuARIANASAAMAIDANALASADNIRANJamesreadmoreadsARAMANADAANAAKAIRANJAIANRAJAMAADAINA आचारप्रवर अभिभाचार्यप्रवर अभि श्रीआनन्द श्रीआनन्द अन्य Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " आचार्य प्रवर आता. आमद आज्ञा आद ग्रन्थ १३४ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व (७) घनों को चोटें खाकर ही देवत्व प्राप्त होता है । घणा चे घाव सो सांवें, देश्ववा देव पद पावे ॥ (८) मनुष्य जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल मिलता है। 2 ) संचिता सारखे पड़े त्याच्या हाता । फारसे मागता हरी नये । ( जितना भाग्य में होगा उसके अनुसार ही माल पल्ले पड़ेगा । माँगने से भी अधिक मिलना संभव नहीं ।) vio (१०) देवता देता है, पर कर्म वापस ले लेता है । (११) बिना प्रयत्न और पुरुषार्थ के भाग्य फलता-फूलता नहीं है । ( एवं पुरुषकारेण बिना देवं न सिद्धयति ) (१२) शरीरमाद्यं खलु धर्म-साधनम् । ( धर्म की साधना करने के लिए शरीर ही माध्यम है ।) (१३) हरिये न हिम्मत बिसारिये न राम । (१४) पृथिव्यां प्रवरं हि दानम् । (इस पृथ्वी पर दान ही सर्वोत्तम कर्म है ।) (१५) साधु भूखा भाव का । (१६) इच्छा का त्याग करना ही तपस्या है । ( इच्छा निरोधस्तपः -- तत्त्वार्थ सूत्र ) ( १७ ) भावना भवनाशिनी (१८) जिह्वा केवल तीन इंच लम्बी होती है किन्तु वह छः फुट वाले आदमी को कत्ल करवा सकती है । (१६) अविद्या जीवनं शून्यम् । ( जो जीवन विद्या से रहित है, वह शून्य के समान है ।) (२०) पढमं नाणं तओ दया--- दशवैकालिक सूत्र ( पहले ज्ञान प्राप्त करो, तत्पश्चात् आचरण में उतारो ) (२१) गुणा: सर्वत्र पूज्यन्ते । ( गुणों का ही सर्वत्र सम्मान होता है ।) आदि-आदि । ( यह पृष्ठ संख्या आनन्द प्रवचन भाग प्रथम की है ।) इन प्रवचनों की नवीं विशेषता है अन्धविश्वासों का विरोध | - पृ० ५८ - पृ० ७१ -पृ० ६५ पृ० १५ पृ० ६५ पृ० १०७ -पृ० १२० - पृ० १४३ - पृ० १५६ - पृ० १६० ---पृ० १७१ - पृ० १६० निस्सन्देह आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि जैसे महान सन्तों ने ही तथाकथित विचारकों द्वारा स्थापित - कल्पित जाति-भेद की भर्त्सना की है । गोस्वामी तुलसीदास ने भी हरि-भक्ति में जाति-पांति की भावना को सारहीन बताया है- - रामचरितमानस - पृ० १९२ - पृ० ३२२ जाति-पांति पूछे नहिं कोई। हरि को भजं सो हरि का होई । परमपूज्य आनन्दऋषि कहते हैं कि इसका कारण यही है कि जैनधर्म ने धर्म की यह जो परिभाषा दी है, उसके अनुसार धर्म किसी देश, काल या जाति के लिये नहीं है, यह तो सार्वदेशिक और सार्वजनिक धर्म है । — आनन्द प्रवचन भाग १ पृष्ठ १० आचार्य श्री तुलसी ने भी यही कहा है कि धर्म को जाति या कौम में मत बांटिये । जातियाँ सामाजिक सम्बन्धों के आधार पर अवस्थित हैं । धर्म जीवन परिमार्जन या आत्म शोधन की प्रक्रिया वहाँ हिन्दू और मुसलमान का भेद नहीं है । धर्म वह शाश्वत तत्त्व है जिसका अनुगमन करने का प्राणि 1 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यदेव श्री आनन्दऋषि का प्रवचन-विश्लेषण १३५ 1.AS an मात्र को अधिकार है । साम्प्रदायिक संकीर्णता की उसमें गुंजाइश नहीं । जहाँ भेद-दृष्टि को प्रमुखता दी जाती है वहाँ साम्प्रदायिक झगड़े और संघर्ष पैदा होते हैं । चूंकि विभिन्न सम्प्रदायों में भेद के बजाय अभेद व समानता के तत्त्व अधिक हैं, अतः उनको मुख्यता देते हुए धर्म के जीवन-शुद्धिमूलक आदर्शों पर चलना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। ऐसा होने से आपसी संघर्ष, विद्वेष और झगड़े खड़े ही नहीं होंगे। (देखिए प्रवचन डायरी, १६५६ पृष्ठ ४६) प्रवचन असाधारण कथन है, जिसमें सम्यक् चिन्तन और मनन के साथ प्रशस्त वाणी का भी मुल्य रहता है । 'प्र' उपसर्ग के साथ वच् धातु में ल्युट् प्रत्यय संलग्न है जो व्याकरणानुसार अन् में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार प्रशस्त कथन का ही नाम प्रवचन है। प्रवचनों के शीर्षक बड़े लुभावने हैं । मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से अलंकृत एवं विचारात्मक तर्कपूर्ण कथनशैली से संपृक्त ये प्रवचन इतने रोचक तथा सर्व जन ग्राह्य इसलिए हो गए हैं कि आचार्यप्रवर ने यथावसर ऐसे पद्य, गाथा, सब्द सुभाषित सुत्र, श्लोक, ओवी, अभंग आदि को उद्धृत कर दिया है जो जनता के कंठों में एक लम्बे समय से मुखरित हैं। यहाँ कुछ ऐसे ही पद्य आदि प्रस्तुत किये जाते हैं जो विचार-प्रवाह की गति को तीव्र करते हैं, अपेक्षित सत्य की गरिमा बढ़ाते हैं, जिज्ञासूओं की आकांक्षाओं को तृप्त करते हैं, ज निरर्थकता को सार्थक बनाते हैं और सुचितित विवेकशीलता को कई सशक्त मोड़ देते रहते हैं। आचार्य श्री का प्रवोधन है कि निरन्तर प्रयत्न करने पर असंभव भी संभव बन जाता है। आवश्यकता सिर्फ यही है कि मनुष्य मुसीबतों से हार न माने तथा प्रत्येक वाधा से जूझता रहे। इसी प्रेरणादायक कथन को सशक्त बनाने के हेतु कहा गया है कि बात की बात में विश्वास बदल जाता है, रात की रात में इतिहास बदल जाता है। तू मुसीबतों से न घबरा अरे इंसान ! धरा की क्या कहें आकाश बदल जाता है। --आनन्द प्रवचन, भाग १, पृ०६६ कर्मभोग के सम्बन्ध में गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस की यह उक्ति कितनी मार्मिक है। आनन्दऋषि ने इसे उद्धत कर सार्वभौमिक सत्य की व्यापकता को अधिक सक्षम बनाया है"करम प्रधान विश्व रच राखा। जो जस करइ सो तस फल चाखा ॥ -आनन्द प्रवचन, भाग १, पृ० २२६ इसी सन्दर्भ में आगे कहा गया है कि कर्म फल भोगे बिना छूटकारा किसी भी प्रकार से नहीं मिल सकता, चाहे व्यक्ति लाख कोशिश क्यों न करे । इसी उक्ति को अधिक प्रभावशील बनाने के हेतु आचार्यदेव निम्नस्थ पद को स्नेह-सिक्त भाव से लिखते हैं करम गति टारी नाहीं टरे। गुरु वशिष्ठ सम महामुनि ज्ञानी, लिख-लिख लगन धरे । दशरथ मरण हरण सीता को बन-बन राम फिरे । लख घोड़ा दस लाख पालकी लख लख चंवर द्ररे। हरिश्चन्द्र से दानी राजा, डोम घर नीर भरे । करम गति टारी नाहीं टरे । -आनन्द प्रवचन, भाग १, पृ० ११२ A 458 منعنعنلمجوهراتها من نتغدهای عراقی وزیر بهدهننقعيها فعل معهعهععمعتمع Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ inde amruRANAMAAJAJJANASALAAAAAJANABAJAJARJANAJATADASANA wwwAYANVI A १३६ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व __ सिद्धि प्राप्ति के लिए अनेक जन्मों तक प्रयत्न करना पड़ सकता है तथा घोर-से-घोर उपसर्ग सहन करने का अवसर आ सकता है। इस अनुभवसिद्ध सुभाषित को आचार्यसम्राट ने इस प्रकार सथित किया है तलाशे-यार में जो ठोकरें खाया नहीं करते । वे अपनी मंजिले मकसूद को पाया नहीं करते । -आनन्द प्रवचन, भाग १, पृ० ११३ प्रवचनों की यह दशमी विशेषता है। ग्यारहवीं विशेषता है व्यंग्यशैली का प्रयोग । यों तो आचार्यप्रवर ने प्रसाद शैली, व्यास शैली, समास शैली, विवेचन शैली, तरंग शैली आदि विभिन्न शैलियों को विषय प्रतिपादन के समय अपनाया है, लेकिन आपकी व्यंग्य शैली विशेषतः उल्लेख्य है। इसके द्वारा आपने श्रोताओं एवं पाठकों के दिल को अनेक बार झकझोरा है । व्यंग्य शैली---जैसाकि नाम से स्पष्ट है, इस शैली में व्यंग्य और चुटकीलेपन की प्रमुखता रहती है । शब्द बाहर से सुन्दर और सरल मालूम पड़ते हैं। उसका अभिधात्मक अर्थ भले ही कुछ न हो, पर व्यंजनात्मक अर्थ बड़ा गहरा और नुकीला होता है, वह सम्बन्धित व्यक्ति को तिलमिला देने वाला होता है । बाह्य अर्थ जो निकलता है वह अपेक्षाकृत अर्थ नहीं है, उसका व्यंजनात्मक अर्थ ही सही अर्थ होता है । अर्थ की पैनी धार हृदय को बेधने वाली होती है। विनय और बड़ाई के लिए प्रयुक्त शब्दव्यंग्य निन्दा का अर्थ ध्वनित करते हैं। उसके सही अर्थ को पाने के लिए गहराई में उतरना पड़ता है। तीखापन, श्लेष और परिहास इसके तीन रूप माने गए हैं। कठोर चुटकीले शब्दों का प्रयोग दुसरे के सिद्धान्तों-विश्वासों पर करारी चोट, मीठे और भले पर द्विअर्थक शब्दों का प्रयोग इसकी विशेषताएँ हैं। मीठी गुदगुदी सर्वत्र मिलेगी। इसके माध्यम से बड़ी-से-बड़ी बात कह दी जाती है। दूसरा व्यक्ति उसका स्पष्ट विरोध भी नहीं कर सकता । इस व्यंग्य को केवल सम्बन्धित व्यक्ति ही समझ सकता है। मनोरंजन के तत्त्वों का समावेश रहता है। बुद्धि और हृदय दोनों का प्राधान्य रहता है।'' आचार्य श्री के निम्नस्थ प्रवचन-उद्धरण इस शैली के अन्तर्गत उल्लेख्य हैं (क) पास तेरे है कोई दुखिया, तूने मौज उड़ाई क्या ? भूखा-प्यासा पड़ा पड़ोसी, तूने रोटी खाई क्या ? इस पद्य में स्वार्थी और विलासी व्यक्ति की भर्त्सना करते हुए कहा है-अरे प्राणी ! अगर तेरे समीप कोई अभावग्रस्त या रोग-पीडित दुःखी व्यक्ति घोर कष्टों में से गुजर रहा है और तूने उसकी ओर ध्यान न देकर केवल अपनी ही मौज-शोक का ध्यान रखा है, अपने भोग-विलास के साधनों को जुटाने और उन्हें भोगने में ही लगा रहा है तो तूने यह जीवन पाकर क्या किया? कुछ भी नहीं। तेरा पड़ौसी तन पर वस्त्र और पेट के लिए अन्न नहीं जुटा सका किन्तु तु प्रतिदिन नाना प्रकार के मधुर पकवान उदरस्थ करता रहा तो क्या हुआ? क्या इससे तेरी कीर्ति बढ़ गई ? नहीं, अपना पेट तो पशु भी भर लेता है। तूने उससे अधिक क्या किया? अगाध ज्ञान और बुद्धि का धनी होकर तथा हृदय में अनेकों भावनाओं का भंडार रखकर भी तुने उनका उपयोग नहीं किया तो मानव तन पाने का तुने क्या लाभ उठाया? यह मत भूल कि उसी का जीवन सफल माना जाता है जो परोपकार में प्रवृत्त रहता है। -आनन्द प्रवचन भाग ३ पृ० १६ १ डॉ० गंगाप्रसाद गुप्त 'बरसैया'-हिन्दी साहित्य में निबन्ध और निबन्धकार, पृ० ३३ से साभार । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यदेव श्री आनन्दऋषि का प्रवचन विश्लेषण १३७ "आधुनिक युग में तो हमें कदम-कदम पर ज्ञान दाताओं की प्राप्ति होती है। ज्ञान के नाम पर शिक्षा देने वालों की आज तनिक भी कमी नहीं है। स्कूलों और कालेजों में शिक्षा देने वाले सभी अपने आपको ज्ञानदाता ही मानते हैं । किन्तु ज्ञान के नाम पर विभिन्न विषयों को रटाकर विश्वविद्यालयों की डिगरियां दिलवा देना ही क्या ज्ञान-लाभ करना कहलाता है ? जिन कतिपय प्रकार की जानकारियों को प्राप्त कर ऊँची-ऊँची नौकरियाँ मिल भी जाती हैं और अधिक से अधिक तनख्वाह मिलने लगती है, क्या उसे ही ज्ञान हासिल करना कहा जा सकता है ? नहीं, अगर ज्ञान प्राप्त करके भी मानव सच्चा मानव नहीं बन सका, उसमें आत्म-विश्वास उत्पन्न नहीं हो सका, उसके अन्दर छिपी हुई महान शक्तियाँ जाग्रत नहीं हो सकीं तथा उसका चरित्र सर्वगुण सम्पन्न नहीं बन सका तो वह अनेक विद्याओं का ज्ञाता और अनेक भाषाओं का जानकार विद्वान भी ज्ञानी नहीं कहला सकता ।" - आनन्द प्रवचन भाग २, पृ० १४७ यहाँ कतिपय विशेषताओं के माध्यम से आनन्द प्रवचनों की विवेचना करने का लघु प्रयास किया गया है । श्रीमान श्रीचन्द सुराना 'सरस' के मतानुसार आनन्द प्रवचन वास्तव में ही आनन्द की एक स्रोतस्विनी है। इसके पृष्ठ उलटते जाइये पढ़ते जाइए और मन में एक आध्यात्मिक शांति, आनन्द और प्रसन्नता की हिलोर अनुभव करते जाइये । संक्षेप में मैं यही निवेदन करना चाहूँगा कि परमपूज्य आचार्य सम्राट के ये प्रवचन आज के सन्तप्त, विकल एवं भ्रमित मानव के लिए आन्तरिक उल्लास के प्रदाता हैं, कल्याणकारी मार्ग के दर्शक हैं और शिवत्व की प्राप्ति के लिए अमर साधन हैं। आनन्द प्रवचन के चार भागों में गुम्फित प्रवचनों की तालिका १. मंगलमय धर्मदीप | २. प्रार्थना के इन स्वरों में । ३. तिन्नाणं तारियाणं । ४. नहि ऐसो जन्म बार-बार । ५. कपाय- विजय । ६. ऐसे पुत्र से क्या ? ७. लेखा-जोखा | ८. बहुपुष्प केरा पंज थी। ६. करम गति टारी नहि टरे । १०. जाणो पैले रे पार । ११. यादृशी भावना यस्य । १२. कटुक वचन मत बोल रे । १३. यही सयानो काम | १४. अनमोल सांसें १. उठ जाग मुसाफिर ! २. राज्य की अमिट बुभुक्षा । ३. पेट के लिए कितने पाप ? भाग १ १५. अब थारी गाड़ी हँकवा में । १६. भक्ति और भावना । १७. रक्षाबन्धन का रहस्य । १८. अमरता की ओर । १६. मानव जीवन की महत्ता । २०. बलिहारी गुरु आपकी । २१ अमरत्व प्रदायिनी अनुकम्पा । २२. दुर्गतिनाशक दान | २३. गुणानुराग मुक्ति का मार्ग । २४. सर्वस्य लोचनं शास्त्रं । २५. जन्माष्टमी से शिक्षा लो । २६. धर्म का रहस्य । २७. सुनहरा संशय २८. नेकी कर कुए में डाला । भाग २ १३. सबसे हिल - मिल चाहिए। १४. लाख रुपए का आदमी । १५. कर्मबन्धन से बचाव । 30 ४ आचार्य प्रव आणाय प्रव 7 25 73/1944 10 3162953 आन्द ग्रन्थ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रव श्री आनन्दा १३८ ६३ ४. मृत्यु को ध्यान में रखो । ५. तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा । ६. बरसन लगे अंगार । ७. भवसागर कैस पार होगा ? ८. कोल्हू कब तक चलाना है ? ६. मोक्षात्परं सुखं नान्यत् । १०. न शरीरं पुनः पुनः । ११. आत्मोप्रति का मूलः अनुशासन । १२. तमसो मा ज्योतिर्गमय । 九 १. कल्याणकारिणी क्रिया । २. पुरुषार्थ से सिद्धि । ३. निद्रा त्यागो । ४. अल्प भोजन और ज्ञानार्जन ५. मौन की महिमा | ६. सत्संगति दुर्लभ संसारा । ७. ज्ञान प्राप्ति का साधनः विनय । अभिनंदन ग्राआनन्द आयाम प्रवर अभिनंदन ग्रन्थ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि व्यक्तित्व एवं कृतित्व ८. तपो हि परमं श्रेयः । ६. असार संसार । १०. स्वाध्याय परम तप । ११. दीप से दीप जलाओ। १२. इन्द्रियों को सही दिशा बताओ । १२. आत्म शुद्धि का मार्ग चारित्र १४. तपश्चरण किस लिए । १. तीर्थंकर महावीर । २. ३. प्रीति की रीति । ४. ५. ६. ७. मोक्ष का द्वार कैसे खुलेगा ? निर्गुणी को क्या उपमा दी जाये ? घड़ी से, घड़ी दो घड़ी लाभ ले लो ! सच्चे सुख का रहस्य | भव पार करने वाला सदाचार । इन्सान ही ईश्वर बन सकता है। १२. मन के मते न चालिए । १३. कहाँ निकल जाऊं या इलाही ! १४. छः चंचल वस्तुएँ | 5. ह. पाप नाशक तप । १०. तुलसी अंधवर के भये ज्यों बंधूर के पान । आज-काल की पांच दिन जंगल होगा वास । ११. १६. अमरत्व की ओर । १७. सफल जीवन किसका ? १८. उन्नत पथ पर प्रथम चरण । १०. मनोरथों का जाल । २०. बचने का दरिद्रता । २१. धर्मरक्षा । २२ आज्ञा-पालन से इच्छित की प्राप्ति । २३. बीज में तरुवर भी है। २४. उपदेशों को आत्मसात् करो। भाग ३ १५. विनय का गुफल । १६. सत्य का अपूर्व बल । १७. आत्मसाधना का मार्ग । १८. मुक्ति का मूल श्रद्धा । १९. समय का मूल्य आँको । २० मानवजीवन की सफलता । २१. समय कम, मंजिल दूर 1 २२ समय से पहले चेतो । २३. वमन की वाञ्छा मत करो । २४. रुको मत ! किनारा समीप है । २५. काँटों से बचकर चलो । २६. सुनकर हृदयंगम करो। २७. जीवन को नियंत्रण में रखो। २८. विजयादशमी को धर्ममय बनाओ। भाग ४ १५. १६. १७. १८. १६. २०. २१. २२. २३. मुक्ति का द्वार — मानव जीवन । शास्त्रं सर्वत्रगं चक्षुः । उत्तम पुरुष के लक्षण । धर्मरूपी कल्पवृक्ष विषम मार्ग मत अपनाओ ! आचारः परमोधर्मः । ज्ञान की पहचान | सर्वस्व लोचन शास्त्रम् । सच्चा पंच कौन-सा ? पूज्यपाद श्री त्रिलोकऋषिजी । कर्म लुटेरे ! शुभ फल प्रदायिनी सेवा २४. २५. २६. २७. जीवन ष्ठ कैसे बने ! २८. कषायों की जीतो । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा र्च न कविरत्न चन्दन मुनि (पंजाबी) (प्रसिद्ध कवि तथा प्रोजवी वक्ता) SHEOS वाया ज्योतिर्धर आचार्य-प्रवर श्री हमें मार्ग-दर्शन देते। मात्र वंदना भक्ति भावना का उपहार स्वयं लेते ॥१॥ नाम मधुर 'आनंद ऋषीश्वर' पचहत्तरवें संवत्सर में सागर है आनन्दों के। आप पा रहे पुण्य प्रवेश । करने वाले दूर निरंतर बने शतायु आप हम ऐसा भवसागर के फंदों के ॥२॥ रखते दृढ़ विश्वास विशेष ॥३॥ छल-बल का मल निकल चुका जब पढ़ी सात भाषाएँ फिर भी बना हुआ दिल सरल महान । प्राकृत पर है प्रेम महान । है व्यक्तित्व कृतित्व आपका इसीलिए प्राक्तन कृतियों पर गौरवशाली ज्ञान-प्रधान ॥४॥ __ करते रहते अनुसंधान ॥५॥ किया गहन अध्ययन तभी तो जिन-शासन को प्रभावना में बने आगमों के निष्णात । बने प्रेरणा-स्रोत महान । ऐसा मुझे प्रतीत हो रहा आगमानुमोदित है जग में ज्ञान-देवता हों साक्षात ॥६॥ आचार्यों का ऊंचा स्थान ॥७॥ श्रद्धार्चन स्वीकार कीजिये पंजाबी 'मुनि चंदन' का। श्लाघनीय अवसर पाया है हमने यह अभिनन्दन का ॥८॥ 7 MADUADOO YMarvriwwwwvvvveer Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुभ्यं नमः बहुश्रुत श्री मधुकर मुनि (प्रबुद्ध मनीषी) य तुभ्यं नमः श्रमण-संघ-विभूषणाय, तुभ्यं नमः सकल-शास्त्र-विशारदाय ! तुभ्यं नमः सुयशसे मुनि-पुंगवाय, तुभ्यं नमो गणिवराय महोदयाय ! आनंद - कंदः खलु यो यशस्वी, शान्त-स्वभावः सदयो मनस्वी । आचार्य - सम्राट् स हि धर्मदेवः, जीयात् जगत्यां किल नित्यमेव ।। - A RAT धण्णो आणंद पुज्जो उज्जोय ओ उ धम्मस्स, वीर-वाणी-पयारओ। णायगो जो उ संघस्स धण्णो आणंद-पुज्जओ ॥ आयरिएसु उच्चो जो-जयवं लोग - विस्सुओ। वद्धमाण - गुणो सो हि आणंदो सुहदो भव ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि जी के जीवनस्पर्शी प्रेरक-प्रवचनों का संक्षिप्त-संकलन ! प्रवचन: परखड़िया Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उपदेश का महत्त्व, उसका लाभ, उपदेश देने व सुनने का पात्र, श्रोता तथा उपदेश से हृदयपरिवर्तन आदि विषयों का विवेचन ] १ उपदेश श्रवण का पात्र नया DPA उपदेश का महत्त्व उपदेश का जीवन में बड़ा भारी महत्त्व है । अगर व्यक्ति उपदेश के चन्द शब्दों को भी ग्रहण करके उन्हें अपने आचरण में उतार ले तो उसकी कायापलट हो सकती है। कुछ निराशावादी कहा करते हैं'यह संसार घोर दुखों से भरा हुआ है, इसमें रहकर हम अपने आपको पापों से कैसे बचा सकते हैं ? हममें इतनी शक्ति ही कहाँ है कि अपने समस्त कर्मों का नाश करके मुक्ति जैसी महान् सिद्धि को हासिल कर सके।' ऐसे अकर्मण्य, पौरुषरहित और निराशावादी प्राणियों को जगाने की शक्ति अगर किसी में है तो वह केवल उपदेश में ही है। अगर व्यक्ति सर्वथा ही विवेकहीन, बुद्धिहीन और श्रद्धाहीन नहीं हो गया है तो भगवान के वचन और उन्हीं पर आधारित सन्त पुरुषों के उपदेश उसे समझा सकते हैं कि यही संसार जिसे वह नरक मानता है, अपने आप में स्वर्ग भी छिपाये हुए है और वह तभी प्रकाश में आ सकता है जबकि प्राणी सच्चा कर्मयोगी बने, कषायों को जीते, मन एवं इन्द्रियों को सांसारिक प्रलोभनों से बचाये तथा सम्यक ज्ञान और क्रिया रूपी अपने दोनों पैरों से पूर्ण आत्मविश्वास और आत्म-बल सहित सत्पथ पर चले। ऐसा करने पर उसे यही संसार जो दःख और पापों से भरा दिखाई देता है, पुण्य और आनन्द से परिपूर्ण जान पड़ेगा। दृष्टि के बदलते ही उसकी भावनाएँ बदल जायेंगी और मानने लगेगा'सभी सम्भव संसारों में यह संसार सर्वोत्तम है और इसमें सभी वस्तुएं सर्वोत्तम के लिए हैं।' ---वाल्टेयर पर दृष्टि को बदलें कैसे ? उत्तर यही है-उपदेश के द्वारा । वीतराग प्रभु उपदेश किस लिए देते हैं ? प्राणियों को सन्मार्ग पर लाने तथा उनकी दोष-दृष्टि को गुण-दृष्टि में बदलने के लिए। उन्हें अन्धकार से प्रकाश में लाने के लिए ही वे उपदेश देते हैं। श्री उत्तराध्ययन सूत्र के बत्तीसवें अध्ययन में कहा है नाणस्स सम्बस्स पगासणाए, अन्नाण मोहस्स विवज्जणाए। रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगन्त सोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥ भगवान का उपदेश इस लिए है कि ज्ञान का प्रकाश हो, अज्ञान और मोह का नाश हो, राग और द्वेष दोनों का पूर्ण तया क्षय हो, तभी एकान्त सुख रूप मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। उपदेश का असर किस पर होता है? संसार में उपदेशों की कमी नहीं। तीर्थकर श्रमण भगवान महावीर द्वारा दिये गये उपदेश जिनवाणी के रूप में हमारे समक्ष आते हैं। सन्त महापुरुष भी उपदेश देते आये हैं और आज आचार्यप्रवर आत्र आचार्यप्रवत्र Ram anAPARAN.. AnamiARAAAAAAADMAINARMAnsamaaseDMAAVARLAMJANAMIKAAMINANAMAIRasranA श्रीआनन्द श्रीआनन्द अन्य Errior Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रवर आभनआचार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्द श्रीआनन्द Verma.comww w mmm १४४ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व भी देते हैं, पर उन्हें ग्रहण करने वाले बिरले ही होते हैं। उपदेश वे ही ग्रहण करते हैं, जो भव्य जीव होते हैं । अभव्य को उपदेश नहीं लगता। . भव्य और अभव्य में क्या अन्तर हैं ? जो भव करके मोक्ष में जाने वाला है, वह भव्य और जो भव करके भी मोक्ष में नहीं जा सकता, वह अभव्य कहलाता है। तर्क करने वाले कहते हैं-वीतराग प्रभु का उपदेश साधारण सन्त या महापुरुष का उपदेश नहीं है। उनके उपदेश का असर क्यों नहीं होता? एक बार मध्यप्रदेश के सुवासरामण्डी नामक गाँव में हमारा प्रवचन चल रहा था। उस समय एक सिख भाई ने प्रश्न किया 'महाराज' आपका उपदेश तो बहुत ही अच्छा और आत्मा को तारने वाला है, पर आपके शिष्य उसे अमल में नहीं लाते, इसका क्या कारण है ?' __मैंने कहा-'भाई, हमारा फर्ज है उपदेश देना और आप लोगों का फर्ज है उसे अमल में लाना। हम अपना फर्ज पूरा करते हैं, अब आप उसे अमल में लाते हैं या नहीं, यह आपकी भावनाओं पर तथा आपकी भविष्य में बंधने वाली गति पर निर्भर है। जिनकी गति शुभ होने वाली होती है, उन्हें अधिक उपदेश की भी आवश्यकता नहीं होती और वे उपदेश के दो शब्दों को ग्रहण करके भी चेत जाते हैं। इस प्रकार सन्तों का कर्तव्य मार्गदर्शन करना है पर सुनने वाले अगर उस मार्ग पर नहीं चलते तो यह दोप उनका है, उपदेश का नहीं। इसी बात को स्पष्ट करने वाला एक श्लोक है पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो वसन्तस्य किम् ? नोलुकोऽध्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य कि दूषणम् ? धारा नैव पतंति चातकमुखे मेघस्य कि दूषणम् ? सबोधात् द्रवते न दुष्टहृदयं बोधस्य कि दूषणम् ? मैंने उस सिख भाई को इस श्लोक का अर्थ स्पष्ट किया कि-'देखो भाई ! जब वसन्त ऋतु आती है, हरएक वृक्ष में कोंपलें फूटती हैं, नवीन पत्ते आते हैं, किन्तु केर का पेड़ ऐसा होता है कि उसमें एक भी पत्ता नहीं लगता, तो इसमें वसन्त ऋतु का क्या दोष है ? इसी प्रकार सूर्य का उदय होते ही संसार के समस्त प्राणी अपने मुंदे हुए नेत्र खोलते हैं और अपने-अपने कार्य में संलग्न हो जाते हैं, किन्तु उल्लू एक ऐसा जीव है जो सूर्योदय होते ही अपनी आँखें बन्दकर लेता है, उसकी ओर देखता ही नहीं। तो बताओ इसमें सूर्य का क्या दोष है ? उसका काम प्रकाश करना है और उसने अपना कर्तव्य पूरा किया अर्थात् प्रकाश फैलाया पर कोई उससे लाभ न उठाये तो वह क्या करे ? सूर्य के समान ही मेघ भी सम्पूर्ण पृथ्वी पर समान वृष्टि करता है। अपनी ओर से वह भूमि के प्रत्येक स्थान को सरस बनाने और प्रत्येक प्राणी को आह्लादित करने का प्रयत्न करता है, किन्तु अगर चातक के मह में जल की बूंद न गिरे तो मेघ क्या करे ? चातक केवल स्वाति नक्षत्र का जल ही लेता है, दूसरा नहीं और इस कारण प्यासा मरता रहता है, पर इसमें मेघ का क्या दोप है ? कुछ भी नहीं। इसी प्रकार सन्त पुरुष सभी प्राणियों को एक-सा उपदेश देते हैं, उन्हें समझाने का प्रयत्न करते हैं तथा सन्मार्ग सुझाते हैं। जबकि भव्य प्राणी थोड़ा-सा सुनकर भी तुरन्त सावधान होकर अपनी दिशा बदल लेते हैं, अभव्य और कुसंस्कारी व्यक्तियों के हृदय पापों के परिणामों को सुनकर भी भयभीत नहीं होते, द्रवित नहीं होते तो सद्बोधन और सदुपदेशों का क्या दोष है ? श्री भर्तृहरि ने सत्य ही कहा है प्रसह्य मणि मुद्धरेन्मकर वक्त्र दंष्ट्रांकुरात्समुद्रमपि सन्तरेत् प्रचलमिमालाकुलम् भुजंगमणि कोपितं शिरसि पुष्पवद्धारयेत् । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश-श्रवण का पात्र १४५ VIRUARY अर्थात् मनुष्य मगर के मुख से बल पूर्वक मणि निकाल सकता है और भयंकर लहरें उठती हों ऐसे दुस्तर समुद्र को भी पार कर सकता है, क्रोधित सर्प को पुष्प की भांति सिर पर धारण कर सकता है, परन्तु हठी मूखों के चित्त को नहीं मना सकता। ऐसे व्यक्ति सन्तों की नसीहत और उपदेशों से कोई लाभ नहीं उठा पाते, कोई भी शिक्षा उनके गले नहीं उतरती। ऐसी स्थिति में गुरु क्या कर सकता है ? एक शिक्षक ब्लैकबोर्ड पर गणित का सवाल लिखता है और नाना प्रकार से उसे हल करने की विधि बताता है। अध्ययन में रुचि रखने वाले छात्र उन विधियों को भली-भाँति समझ लेते हैं और याद कर लेते हैं, किन्तु जड़-बुद्धि और दुष्ट प्रकृति वाला छात्र उस ओर देखे ही नहीं और अपना मन उस ओर न लगाये तो शिक्षक क्या कर सकता है ? इसी प्रकार हम उपदेश देते हैं पर आप उसे अमल में नहीं लाते तो यह आपका दोष है । हमें भी हमारे गुरु महाराज ने संयम पथ पर चलने के लिए अनेक प्रकार की उत्तम शिक्षायें दी थीं। यह उनका काम था, पर अब हमारा काम है, उनके बताये हुए मार्ग पर चलना । हम अगर सही मार्ग पर न चलें तो दोष हमारा ही है। महापुरुषों की भावना लोग भूल जाते हैं कि सन्त महात्मा जो उपदेश देते हैं, उसमें उनका कोई स्वार्थ सिद्ध नहीं होता। वे अन्य प्राणियों की आत्मा को उन्नत बनाने का प्रयत्न करते हैं और करुणा की भावना से संसार चक्र में फंसे हुए जीव को मुक्ति का मार्ग बताते हैं। वस्तुतः अगर व्यक्ति इस संसार के बाह्य और नश्वर पदार्थों में आसक्त रहेगा, इन्हीं की प्राप्ति और भोग की समस्याओं में उलझा रहेगा तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपी आन्तरिक गुणों की ओर ध्यान नहीं दे पायेगा और जब इनके विकास की ओर अपना लक्ष्य नहीं देगा, कभी अपनी आत्मा में नहीं झाँकेगा तो अपने मोक्ष-प्राप्ति के उद्देश्य को कैसे पा सकेगा? जो प्राणी इस बात को समझ लेते हैं, वे अपने अमूल्य जीवन का एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाने देते । सन्तों का उपदेश तो दूर, किसी साधारण-सी घटना से ही अपने जीवन की गलत दिशा को सही दिशा में ले जाते हैं। भव्य जीवन को झाँकी भव्य प्राणियों का जीवन ऐसा ही होता है। निकट भविष्य में ही जिनकी आत्मा संसार मुक्त होने वाली होती है, वे किसी साधारण संयोग से ही चेत जाते हैं और समस्त सांसारिक सुखों को तिलांजलि देकर साधनों में जुट जाते हैं और ऐसा होने पर ही आत्म-कल्याण हो सकता है। जब तक जल में हुए प्राणी की छटपटाहट के समान जीव को इस संसार-सागर से उबरने की छटपटाहट नहीं होती, तब तक वह आत्म-मुक्ति के प्रयत्न में संलग्न नहीं हो सकता। कहा भी है धन धान तजे गृह छोरि भजे जिनराज के नाम लग्यो मन है । शुद्ध सम्यक ज्ञान विराग सधे न करे परमाद इको छिन है। निशवासर दुक्कर धारत कष्ट अनित्य लखे मनुजा तन है। जिन आन अमीरिख शीश धरे शिव पामिवे को यह साधन है। सर्प जिस प्रकार अपनी केंचुली का त्याग करके पुनः पीछे फिरकर नहीं देखता और वहां से सरपट भाग जाता है, इसी प्रकार जब प्राणी धन-धान्य-पूर्ण गृह एवं सांसारिक सम्बन्धियों के प्रति मोह ममता को त्यागकर बिना उनकी ओर मुड़कर देखे भागकर भगवान से लौ लगा लेता है तभी वह साधना के कठोर पथ पर चल सकता है । जो जीव सम्यज्ञान की प्राप्ति कर लेते हैं और वैराग्य में रमण करने लगते हैं, वे एक क्षण का भी प्रमाद किये बिना शरीर को अनित्य मानकर दुष्कर तपादि करते हुए इसका पूरा लाभ उठाते हैं। उनकी आत्मा कभी भी डिगती नहीं, यहाँ तक कि धर्म के लिए वे समय आने पर प्राणों का त्याग करने से भी RAN माया GREE n ews RAMMARRIMARUNawadamaANOARMADAMJANuedmaamannamBABAJANANAMAJHIMJAAAAAAMKARANAJARAMMAamana सायाप्रवाल भिसाचार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्दमग्रन्थ श्रीआनन्द अन्य2 meromerror wMFAwrv Jain.Educati Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवर भिक श्रीआनन्दग्रन्थश्राआनन्दान्य५१ १४६ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व नहीं हिचकिचाते। ऐसा उत्कृष्ट संयम पालन ही शिवगति की प्राप्ति का साधन बन सकता है। किन्तु जो जीव अभवि होते हैं अर्थात् भविष्य में जिनके छुटकारे की सम्भावना नहीं होती वे प्रतिदिन जिनवाणी को सुनकर भी जागृत नहीं होते, सन्तों के उपदेश की एक भी सीख ग्रहण नहीं करते । पूज्यपाद श्री अमीऋषि जी महाराज ने ऐसे जीवों के लिए सत्य ही कहा है बरसत मेघधार भेदे नहीं मगशूल, अभवि को चित्त नहीं भेदे जिनवाणी ये । जलत जवासो जैसे अति धन बरसत, खार की जमी प नहीं बीज वृद्धि मानिए। तुष को पछारे नहीं मिलत तंदुल कन, निकसे न माखन मथावे कोई पानी ये । सन्निपात रोगी ताको दूध खांड जहर होय, अमीरिख कहे ऐसे अभवि पिछानिये ॥ कहा है--जिस प्रकार निरन्तर मेघवृष्टि होने पर भी मगशूल नामक काला पत्थर कभी नहीं भीगता, उसी प्रकार अभवि जीव का अन्तःकरण प्रतिदिन जिनवाणी की अखण्ड धारा को सुनकर भी बोध को प्राप्त नहीं होता, उलटे जिस प्रकार जवासिया का छोटा-सा पेड़ अन्य फले-फूले वृक्षों को देखकर ईर्ष्या से स्वयं ही जल जाता है, वह भी औरों को प्रगति को देखकर मन-ही-मन जलता है और अपनी आत्मा को कलुषित बनाता है। अभव्य के विषय में अधिक क्या कहा जाय? जैसे खारी जमीन में डाला हुआ बीज अंकुरित नहीं होता, तृष अर्थात् छिलकों को पछाड़ने से चावल का एक भी दाना नहीं निकलता, पानी को लगातार मथते रहने पर भी मक्खन प्राप्त नहीं होता और सन्निपात के रोगी को दूध और शक्कर लाभप्रद होने के बजाय हानिकारक साबित होता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व और अज्ञान रूपी रोग से ग्रसित होने के कारण अभव्य जीव को न शास्त्रों का स्वाध्याय करने से, न जिनवाणी का श्रवण करने से और न ही निरन्तर उपदेशों के द्वारा बोध दिलाने का प्रयत्न करने से ही कोई लाभ होता है। नीम न मीठो होय ऐसा जीव कोटि प्रयत्न करने पर भी पूर्ववत् बना रहता है, रंचमात्र भी अपने आपको नहीं बदल पाता है। शास्त्र बताते हैं और आपको भी ज्ञात होगा कि राजा श्रेणिक ने अपने नरक का बँध तोड़ने के लिए क्या-क्या किया था ? जब भगवान ने बताया कि 'तुम मरकर नरक में जाओगे' तो थेणिक को बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने भगवान से उस दुखदायी नरक से बचने का उपाय पूछा । भगवान महावीर ने राजा को चार उपाय नरक से छुटकारा पाने के बताये। जिनमें एक था श्रेणिक की दादी को भगवान के दर्शन कराना और दूसरा था उनकी कपिला दासी के हाथ से दान दिलाना। उपाय सरल थे। राजा श्रेणिक ने सोचा-'यह कौनसी बड़ी बातें हैं ? मैं दादी जी को एक बार तो क्या, कई बार भगवान के दर्शन करा दूंगा और दासी तो मेरी सेविका ही है, उसके हाथ से चाहे जितना दान दिला दूंगा। अत्यन्त प्रसन्न होकर राजा श्रेणिक पहले अपनी दादी के पास आ पहुँचे और बोले-'दादी जी ! आप मेरा सुख चाहती हैं या दुःख ?' 'बेटा, यह कैसी बात है ? मैं तो तेरा सुख ही चाहती हूँ।' 'तो फिर एक बार भगवान के दर्शन करने चलो।' राजा श्रेणिक ने मौका पाते ही कह दिया, पर दादी जी तो जैसे सांप की पूंछ पर पैर पड़ गया हो, इस प्रकार चौंक कर बोलीं Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश-श्रवण का पात्र १४७ Rel PLL 'ऐसी बात तू मत कर ! मैंने अपनी जिन्दगी में कभी भी दर्शन-वर्शन नहीं किये, अब बुढ़ापे में अपनी रीति नहीं तोड़गी और फिर भगवान के दर्शन क्या करना है ? अपने जैसे वे भी मनुष्य हैं, जैसी रोटी हम खाते हैं वैसी ही वे भी खाते हैं । फरक कौनसा है ? मैं तो कदापि नहीं जाऊँगी।' दादी की बात सुनकर श्रेणिक को कुछ निराशा हुई, पर वे चतुर थे। सोचा-'किसी और उपाय से दर्शन करवा दूंगा।' कुछ दिन बाद जब दादी वह बात भूल गईं तो श्रेणिक महाराज ने एक दिन उनसे हवाखोरी के लिए चलने को कहा। बहत मना करने पर भी पोते का आग्रह देखकर वे रथ पर सवार हो हवाखोरी के लिए निकलीं। इधर श्रेणिक को अपना कार्य सिद्ध करना था अतः वे रथ को सीधे भगवान के समवशरण की ओर ले गये तथा जब दूर से ही भगवान दिखाई दिये तो दादी से बोले 'दादी जी ! वे सामने भगवान विराजे हए हैं, देखो।' पर इतना कहते ही देखते क्या है कि दादी ने अपनी रीति की रक्षा करने के लिए तकुए से अपनी दोनों आँखें फोड़ ली हैं। अब समस्या आई कपिला दासी के हाथ से दान दिलवाने की। श्रेणिक को तो नरक की चिन्ता सता रही थी। अतः दादी के क्रियाकर्मादि से निपटकर एक दिन उन्होंने कपिला दासी को अपने समक्ष बुलवाया और उससे दान देने के लिए कहा। 'महाराज ! मैं तो दान नहीं दे सकती।' कपिला ने दो टूक उत्तर दे दिया। राजा ने क्रोध करते हुए पुनः कहा-'क्यों नहीं दोगी दान ? तुझे कोई अपने पास से तो देना नहीं है। मेरा धन है, उसे देने में तेरा क्या जाता है ?' 'कुछ भी हो महाराज ! चाहे आप मुझे जान से मरवा डालें, पर मैं दान नहीं दूंगी।' श्रेणिक बड़े विचार में पड़ गये । सोचने लगे-'क्रोध में आकर दासी को मरवा देना तो सहज है पर उससे क्या होगा ? मेरा नरक का वध तो छूटेगा नहीं, वह तो इसके हाथ से दान देने पर ही छूट सकता है।' आखिर एक उपाय उन्होंने खोजा। कपिला के हाथ में लकड़ी का एक लम्बा चाटू बाँध दिया गया और उससे कहा—'यह दान तो तेरे हाथ का नहीं है । अब इस चाटू से दे दो।' कपिला कम धूर्त नहीं थी। देते हुए बोली-'यह दान मैं नहीं दे रही हूँ, राजा का चाटू दे रहा है।' श्रेणिक मस्तक पर हाथ रखकर बैठ गये और सोचने लगे---किसी ने ठीक ही कहा है सहस बार डुबकी दई मुक्ता लगी न हाथ । सागर को क्या दोष है, बरे हमारे भाग ।। तो बन्धुओ आप अभव्य प्राणी के लक्ष्य भली-भाँति समझ गये होंगे कि कुत्ते की पूंछ के समान उनका हृदय लाख प्रयत्न करने पर भी अशुभ भावनाओं से रहित नहीं हो सकता। अन्यथा श्रेणिक महाराज की दादी दूर से ही भगवान के दर्शन कर लेती तो क्या बिगड़ जाता ? और कपिला दासी राजा का धन अपने हाथ से दान कर देती तो उसकी कौन-सी हानि हो जाती? पर ऐसा होता कैसे ? फिर अभव्य को अभव्य कहने की आवश्यकता क्या थी? थोड़ा-सा प्रयत्न करने पर ही वह भव्य सावित हो सकता था, पर ऐसा कदापि होता नहीं है, यह समझकर हमें इन समस्त उदाहरणों से शिक्षा लेनी है। हमें प्रतिक्षण अपनी आत्मा का निरीक्षण करते हुए उसे दोषरहित बनाना है तथा जिन-वचनों पर दृढ़ आस्था रखते हुए सन्त-महापुरुषों और गुरुओं के उपदेशों को आत्मसात् करते हुए उन्हें अमल में लाना है। तभी हम भगवान के कथनानुसार एकान्त सुख-रूप मोक्ष की ओर बढ़ सकेंगे। ANDI वया جی مهمه. . هر حيعدي في دي فيه هي در هر گروهی این في قولی به ، ما في غرام حر حمر حامي عمر ا علحی فرمان رفته بود و وی ۹۰ مرميع مع علمیعاد معنی आचार PrAYA Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रव आमभन्द आचार्य प्रवर अभिनंदन [अनुशासन का अर्थ, उसका महत्त्व, लाभ, श्रद्धा, विनय तथा उनका जीवन विकास में उपयोग आदि विषयों का निदर्शन] २ जीवन विकास का प्रथम सोपान : अनुशासन धर्मशास्त्र आत्मा की उन्नति के लिये मार्गदर्शन करते हैं। जब तक मनुष्य शास्त्र श्रवण या उनका पठन न करें, वह अज्ञान के अंधकार में भटकता रहता है । कहा भी है सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यंध एव सः । - शास्त्र सबके लिये नेत्र के समान हैं, जिसे शास्त्र का ज्ञान नहीं वह अंधा है । प्राय इसका यही है कि मानव जब तक शास्त्रों का पठन-पाठन न करे तब तक वह जीवअजीव, पुण्य-पाप, आस्रव संवर, बंध मोक्ष या आत्मा-परमात्मा, किसी विषय में नहीं जान सकता तथा इनमें रही हुई विभिन्नताओं को नहीं समझ सकता । इसलिए आवश्यक है कि प्रत्येक आत्मार्थी शास्त्रज्ञान में रुचि रखे और उनमें दी गई शिक्षाओं को आत्मसात् करके जीवन में उतारने का प्रयत्न करे । अनुशासन का अर्थ शास्त्र मनुष्य को पहली शिक्षा देते हैं- अनुशासन में रहना । अनुशासन का अर्थ है - शासन अर्थात् आज्ञा और अनु का अर्थ है अनुसार चलना । तो अनुशासन में रहना अर्थात् आज्ञा के अनुसार चलना या आज्ञा का पालन करना । अनुशासन शब्द में केवल पांच अक्षर हैं, किन्तु ये अपने आप में बड़ा महत्त्व छिपाये हुए हैं । संसारनीति, राजनीति और धर्मनीति सभी में इनकी बड़ी आवश्यकता रहती है। इनके बिना कहीं भी काम नहीं चलता । संसारनीति में अगर पुत्र माता-पिता व गुरुजनों की आज्ञा का पालन नहीं करता है तो वह कुपुत्र कहलाता है । राजनीति में शासन व्यवस्था के अंतर्गत काम करने वाले कर्मचारी राजा अथवा सरकार की आज्ञा का पालन नहीं करते तो गद्दार कहलाते हैं तथा धर्मनीति में वीतराग के वचनों और धर्माचार्यों की आज्ञा का पालन नहीं करने वाले नास्तिक या मिथ्यात्वी साबित होते हैं और अंत में उनकी क्या दशा होती है— जहा सुणी पुई कण्णी निक्कसिज्जइ सव्वसो । एवं दुस्सील पडिणीए मुहरो निक्कसिज्जइ ॥ — उत्तराध्ययन सूत्र, अ. १, गा. ४ जिस प्रकार सड़े कान वाली कुतिया प्रत्येक स्थान से खदेड़कर निकाल दी जाती है, उसी प्रकार अविनीत और अनुशासन में न रहने वाले शिष्य भी सभी जगह से निकाल दिये जाते हैं । अतः आवश्यक है अगुसासिओ न कुप्पेज्जा खंति सेविज्ज पण्डिए । — उत्तराध्ययन सूत्र, अ. १, गा. ε Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन विकास का सोपान - अनुशासन १४६ गुरुजनों की आज्ञा को सुनकर कुपित न हो तथा क्षमा धारण करे । जो ऐसा करता है, वही पण्डित है । कथन का सारांश यही है कि प्रत्येक मनुष्य को इतना विवेक और बुद्धि तो होना ही चाहिए कि वह गुरुजनों की आज्ञा को अपने लिये हितकारी माने और उसके अनुसार चलने का प्रयत्न करे अन्यथा गुरु उन्हें क्या शिक्षा देंगे और शास्त्रों के वाचन का भी उन पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? वस्तुतः विवेकहीन व्यक्ति उच्च जाति, उच्च कुल, परिपूर्ण इन्द्रियां, सत्संगति पाकर भी उनसे लाभ नहीं उठा पाते। वे अपने मिथ्याज्ञान के अभिमान में चूर रहकर समस्त क्रियायें ऐसी करते हैं, जिनके कारण उनका संसार घटने के बजाय बढ़ता जाता है तथा महान् कठिनाई से मिला हुआ मानवजन्म निष्फल चला जाता है। इसीलिये प्रत्येक व्यक्ति को अगर अपने अमूल्य जीवन का लाभ उठाना है । तो शास्त्र श्रवण के साथ-साथ उसकी शिक्षाओं को भी ग्रहण करना चाहिये । मैंने अभी बताया है कि शास्त्रों को सबसे पहली शिक्षा अनुशासन में रहेना या आज्ञा का पालन है । अब हम यह देखें कि किन गुणों को धारण करने वाला अनुशासन में रह सकता है। अनुशासन में वही व्यक्ति रह सकता है, जिसके हृदय में श्रद्धा और विनय हो । इन दोनों के अभाव का अर्थ होता है अहंकार का होना और अहंकारी व्यक्ति कभी अनुशासन में नहीं रह सकता तथा गुरुजनों की आज्ञा का पालन नहीं कर सकता । सद्धा परम दुलहा आज का भारतीय जीवन जो इतना श्रीहीन, शक्तिहीन, क्षीण और दलित हो गया है, उसका प्रधान कारण है मनुष्यों के हृदयों में श्रद्धा का अभाव होना । अश्रद्धा और संदेह से परिपूर्ण हृदय वाले व्यक्ति सामाजिक, राजनीतिक या धार्मिक किसी भी क्षेत्र में प्रगति नहीं कर पाते हैं। क्योंकि वास्तविक शक्ति का स्रोत आत्मा है और श्रद्धा के अभाव में आत्म बल का कुछ भी उपयोग नहीं हो सकता । श्रद्धा या विश्वास के अभाव में व्यक्तियों को संदेह का अंधकार उसे पथभ्रष्ट कर देता है और यह कहावत चरितार्थ हो जाती है 'दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम ।' श्रद्धा ही जीवन की रोड़ है। रोड़ के बिना जिस प्रकार शरीरगति नहीं करता, उसी प्रकार श्रद्धा के अभाव में जीवन गति नहीं करता । श्रद्धा ही मनुष्यता का सृजन करती है और वही उसे कल्याण के पथ पर अग्रसर करती है। जिस व्यक्ति के हृदय में श्रद्धा नहीं होती, उसका मन पारे के समान चंचल बना रहता है । उसके विचारों में तथा क्रियाओं में कभी स्थिरता और दृढ़ता नहीं आ पाती । इस कारण वह एकनिष्ठ होकर किसी भी साधना में नहीं लग पाता है। परिणाम यह होता है कि वह अपने किसी भी उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पाता है । इसके विपरीत जो श्रद्धावान होता है वह अपने अटल विश्वास के द्वारा इच्छित लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है । कहा भी है श्रद्धावल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।। भगवद्गीता जिस व्यक्ति का अंतःकरण श्रद्धा से पूर्ण होता है, वह सम्यक्ज्ञान प्राप्त करता है और सम्यक् ज्ञान प्राप्त करके शीघ्र ही अक्षय शांति अर्थात् मुक्ति को प्राप्त करने का अधिकारी भी बन जाता है । फ्र 乖 आचार्य प्रवास अभिव भन्द अभिनंदन आआनन्दर श्री आनन्दा ग्रन्थ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयायप्रवर अभिनंदन श्री आनन्द अन्थ श्री आनन्द १५० आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि: व्यक्तित्व एवं कृतित्व फ्र Maurya CTOR NOT फ्र यह सारी करामात श्रद्धा की है। श्रद्धा के न होने पर मनुष्य कितनी भी विद्वत्ता क्यों न पा ले उसका कोई भी लाभ नहीं होता। श्रद्धावान विद्वान न होने पर अपना कर्मनाश करके संसार-सागर को पार कर लेता है और था के बिना विद्वान् उसमें गोते लगाता रहता है। एक आचार्य ने लिखा है-अश्रद्धा परमं पापं श्रद्धा पापमोचिनी । जहाति पापं श्रद्धावान् सर्पोजीमिव स्वचम् ॥ अथवा घोर पाप है और थद्धा समस्त पापों का नाश करने वाली है। श्रद्धालु पुरुष समस्त पापों का उसी प्रकार त्याग कर देता है, जिस प्रकार सर्प अपनी केंचुली को छोड़ देता है । अभिप्राय कहने का यही है कि अगर मनुष्य अपने जीवन में किसी भी प्रकार की सिद्धि प्राप्त करना चाहता है तो उसे सर्वप्रथम श्रद्धावान बनना चाहिए। श्रद्धा के बिना उसमें दृढ़ता, संकल्प, शक्ति और साहस कदापि उत्पन्न न होगा और इन सबके अभाव में सिद्धि कोसों दूर रह जायेगी। इसीलिए संसार के सभी धर्म और धर्म ग्रंथ था पर बल देते हैं महाभारत में कहा है श्रद्धामयोऽयं पुरुष: यो यच्छद्धः स एव सः । यह आत्मा श्रद्धा का ही पुतला है। जिसकी जैसी श्रद्धा होती है वह वैसा ही बन जाता है । सिक्य धर्म कहता है निश्चल निश्चय नित चित जिनके । वाहि गुरु सुखदायक तिनके ॥ वे ही मनुष्य सुख की प्राप्ति कर सकते हैं, जिनके हृदय श्रद्धा से परिपूर्ण हैं । ईसाई धर्म कहता है 'एक श्रद्धाहीन मानव अपने समस्त कृत्यों में चलायमान रहता है। उसके दिल या दिमाग किसी में भी स्थिरता नहीं होती ।' जेम्स एल. प जैनशास्त्र तो श्रद्धा को धर्म का मूल ही मानते हैं। वे कहते हैं सद्धा परम दुल्लहा । श्रद्धा अत्यन्त दुर्लभ है, जिसने अतिशय पुण्यों का उपार्जन किया हो और जिसने पूर्व में अत्यधिक साधना की हो उसी को श्रद्धा की प्राप्त होती है । भयंकर कष्ट भी श्रद्धालु को साधना से विचलित नहीं कर पाते । उपासक दशांग सूत्र में कामदेव धावक का वर्णन आया है। उसकी श्रद्धा कितनी प्रगाढ़ थी ? देवता ने उसे धर्म से विचलित करने के लिए क्या नहीं किया ? नाना प्रकार की भयंकर धमकियां दीं और उन्हें कार्यरूप में परिणत भी किया किन्तु कामदेव अपने सत्पथ या धर्मपथ से रंचमात्र भी च्युत नही हुआ । अगर उसके हृदय में दृढ़ श्रद्धा का वास न होता तो वह अपने मार्ग से विचलित हो जाता । श्रद्धा ने ही उसके चित्त में अजेय शक्ति और साहस का आविर्भाव किया। पर आज कहाँ है ऐसी प्रगाढ़ श्रद्धा ? आज तो एक-एक पाई के लिये लोग धर्म को बेच देने के लिए तैयार हो जाते हैं पैसे पैसे के लिये भगवान और धर्म की कसम खा जाते हैं। जरा-सी बीमारी आई या बेटे पोतों के लिए भैरों, भवानी, बालाजी, हनुमान जी के आगे मस्तक टेकते हैं। पर अंत में उनके हाथ क्या आता है ? कुछ भी नहीं, केवल पश्चात्ताप । इस अंधश्रद्धा का कारण यही उसे पूर्व और पश्चात् जन्म, किये हुए है कि आज के मनुष्य में श्रद्धा का कर्म के फल की प्राप्ति आदि पर सर्वथा अभाव हो गया है । विश्वास नहीं रहा है । आत्मा Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन विकास का सोपान-अनुशासन १५१ A अजर-अमर है, वह यह भी नहीं मानता है। उसका इस सत्य की ओर ध्यान ही नहीं जाता। अज्ञानी पुरुष तो यही समझते हैं कि जो कुछ भी है, यही जीवन है और इसमें जितना सांसारिक सुख भोग लिया जाये, भोग लेना चाहिये । यह विचार करता हुआ मानव विषय-भोगों की ओर अधिकाधिक उन्मुख होता है, किन्तु उनसे उसे तृप्ति नहीं मिल पाती, क्योंकि तृष्णा या लालसा एक ऐसी कभी न बुझने वाली आग है जो सदा जलती रहती है और जब तक यह जलती है, जीव को शांति प्राप्त नहीं होती। इसीलिये महापुरुष कहते है कि सच्चे सुख की प्राप्ति का उपाय भोग-तृष्णा का निरोध करना है। जो भव्य प्राणी इसको समझ लेते हैं वे तनिक-सा निमित्त मिलते ही भौतिक सुखों को ठोकर मार देते हैं। यह तभी, जब श्रद्धा संपन्नता प्राप्त होगी। विनय की महिमा अनुशासन का दूसरा अंग है-विनय । जनशास्त्रों में बिनय की महिमा अद्वितीय बताई गई है ___ 'धम्मस्स विणओ मूलं' धर्म का मूल विनय है । साधना का प्रत्येक आचार-विचार विनय पर अवलंबित होता है। जिस प्रकार मूल के कमजोर हो जाने या उखड़ जाने पर वृक्ष नहीं टिक सकता, उसी प्रकार विनय के दूषित या लोप हो जाने पर धर्म नहीं रहता। विनय ही धर्म का प्राण है और एकमात्र सहायक है । कहा भी है या विणओ सासणमूलं विणीओ संजओ भवे ।। विणयाउ विप्प-मुक्कस्म कुओ धम्मो कुओ तवो ॥ -हरिभद्रीय आव. नियुक्ति १२-१६ अर्थात् विनय जिनशासन का मुल है । विनीत पुरुष ही संयम-वान होता है। जो विनय से हीन है उसमें धर्म कहाँ और तप कहाँ ? वस्तुतः विनय के अभाव में अगर व्यक्ति धर्म को पाना चाहे तो बह आकाशकुसुमवत् साबित होगा । यद्यपि अन्य समस्त सद्गुण जीवन के आभूषण हैं, किन्तु विनय के न होने पर वे प्रकाश में नहीं आ सकते । विनय ही उन सब में चमक लाता है। विनयवान व्यक्ति ही सर्वत्र सम्मान का पात्र बनता है और आपके चित्त को आकर्षित करने की क्षमता रखता है।। मुहम्मद साहब ने अपनी एक हदीस में लिखा भी है 'मन या हर मुरिफको या हर मुल खैरे कुल्ल हो।' जिसने विनय को अपना लिया, उसने समस्त अन्य गुणों और भलाइयों को अपना लिया। महात्मा आगस्टाइन ने कहा-'धर्म का पहला, दूसरा, तीसरा यहाँ तक कि सभी लक्षण एक मात्र विनय में निहित हैं।' ___ ज्ञानप्राप्ति के लिए विनय की अनिवार्य आवश्यकता होती है। अनुशासन एवं विनय को प्रगट करते हुए शास्त्रकारों ने कहा है विनय-समाधि चार प्रकार की है, यथा-१. गुरु द्वारा शिक्षित होकर उनके सुभाषित वचनों को सुनने की इच्छा करे, २. गुरु के वचनों को सम्यक् प्रकार से समझे, ३. थ तज्ञान की पूर्णतया आराधना करे और ४. गर्व से आत्मप्रशंसा न करे। वास्तव में जो शिष्य अपने गुरु से कल्याणकारी शिक्षा को प्राप्त करने की अभिलाषा रखता है, शिक्षा प्राप्त करके जीवन में उतारता है और उतने पर भी अपने ज्ञान का तनिक भी गर्व नहीं करता वही AAHIRaninARAYANAJAJNAAAJARAMulamvedamadARDHAARAAJKAnnarJAAAAMRAJAIAAAMRILAJAAAAAAAAAware . SNo. UNT Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M K AAMRA AALANANEWARAanduadamAAR-LAadadnamdase . . साचार्मप्र.Ba आचार्यप्रवभिनय आनन्थ अन्यश्रीआनन्दाअन्ध५१ १५२ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व सच्चा आत्मार्थी या मोक्षार्थी कहला सकता है। ज्ञान प्राप्ति के इच्छुक को सदैव विनय और उसके साथ विवेक को अपने हृदय में जागृत रखना चाहिये। विनय की अद्भुत शक्ति विनय में अद्भुत शक्ति है। जो व्यक्ति विनय गण से संपन्न है वह अपने क्रोधी-से-क्रोधी गुरु को, माता-पिता को या अन्य जो भी व्यक्ति सामने हो उसे झका देता है और अविनीत व्यक्ति उलटा उन्हें कुपित करता है, किन्तु परिणाम क्या होता है ? यही कि वह स्वयं हानि में रहता है। संत तुकारामजी इसी बात को एक उदाहरण द्वारा समझाते हैं 'महा पूरे झाड़ें जाती ते थे लोहाले वाचती।' नदी में बाढ़ आने पर उसका पानी दोनों किनारों को उलांघ जाता है। उस समय किनारे पर खड़े वृक्ष अपनी उंचाई के अहंकार में रहकर जल का स्वागत नहीं करते । फलस्वरूप पानी उनकी जड़ों में रही हुई सारी मिट्टी को बहा ले जाता है और मिट्टी न रहने पर जड़ें कमजोर हो जाती हैं और जल के दूसरे धक्के से ही वे विशाल वृक्ष धराशायी हो जाते हैं । दूसरी ओर नदी में एक घास होती है जो कमर या छाती तक ऊंची होती है, उसमें अत्यन्त नम्रता होती है और जल-प्रवाह के आते ही झक जाती है। जल इसके ऊपर से निकल जाता है। उस वनस्पति को तनिक भी हानि नहीं पहुँचाता । तो नदी के पूर में जहाँ बड़े-बड़े दरख्त अपने अहंकार के कारण टूटकर बह जाते हैं वहाँ छोटी-सी वनस्पति अपनी विनीतता के कारण सुरक्षित रहकर फलती-फूलती है। इसी विषय में किसी कवि ने बड़ी ही सुन्दर बात कही है नमे सो आमा आमली नमे सो दाडम दाख । एरंड विचारा क्या नमे जिसकी ओछी साख । HP इस बात से स्पष्ट है कि विनय से केवल व्यक्ति का ही नहीं अपितु वंश का उत्कर्ष भी सिद्ध होता है। कहा भी है 'विनयो वंशमाख्याति ।' विनय के द्वारा वंश का भी अनुमान लगाया जाता है । व्यक्ति यदि विनीत है तो वह कुलीन माना जाता है, अविनीत है तो अकुलीन । इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपना व्यवहार, वाणी, आचार और विचार सभी उत्तम और विनयपूर्ण रखने चाहिये, ताकि उसका वंश बदनाम न हो। उच्चवंशीय तथा कुलीन व्यक्ति में स्वभावतः विनय और नम्रता होती है। इसीलिये वह मर्वत्र सम्मान पाता है । जैसे स्वर्ण की सलाखा चाहे जितनी भारी हो, उसे मोड़ना चाहेंगे तो तुरन्त मुड़ जायेगी, किन्तु लोहे की कील चाहे जितनी भी पतली क्यों न हो, लाख प्रयत्न करने पर भी नहीं मुड़ेगी । फल यह होता है कि स्वर्ण तोले के भाव बिकता है और लोग उसके आभूषण गौरव के साथ पहनते हैं और लोहे की कीलों को हथौड़े से ठोका जाता है। ऐसा क्यों? इसलिए कि स्वर्ण में नम्रता है और कील में कठोरता । नम्रता को सम्मान मिला और कठोरता को तिरस्कार तात्पर्य यही है कि जो अहंकार और गरूर में चूर रहकर अपने स्वाभाविक गुण विनय को खो देता है। उसकी अंत में दुर्दशा होती है। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर ने एक स्थान पर कहा है जीवन विकास का सोपान - अनुशासन नच्चा नमइ मेहावी लोए किसी से जायइ । हवइ किच्चाणं सरणं भूयाणं जगई जहा ॥ - उत्तराध्ययन सूत्र १-१५ बुद्धिमान पुरुष वही है जो विनय का महत्व समझकर विनम्र बनता है । विनम्र बनने से उसकी कीर्ति बढ़ती है और वह सद् अनुष्ठानों का इसी प्रकार आधारभूत होता है जैसे समस्त प्राणभूतों के लिये पृथ्वी । बन्धुओ ! प्रत्येक आत्मोन्नति के इच्छुक व्यक्ति को शास्त्र का श्रवण और उसका पठन-पाठन करना चाहिये तथा उसके द्वारा प्राप्त होने वाली शिक्षाओं को जीवन में उतारना चाहिये । शास्त्र की पहली शिक्षा अनुशासन है और अनुशासन का मूल श्रद्धा व विनय है। इनकी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यकता है । इनके महत्व को न मानने वाला व्यक्ति कहीं भी आदर सम्मान नहीं पाता। अगर हम अनुशासन के महत्व को समझ लेते हैं और अनुशासन के मुख्य लक्षण श्रद्धा व नम्रता को अपना लेते हैं तो वह दिन दूर नहीं, जब कि हम अपने जीवनोद्देश्य की प्राप्ति कर लेंगे तथा अपने जीवन को सफल बना सकेंगे । ✩ आनन्द-वचनामृत ज्ञान अग्नि है, कु-विचार घास-फूस और कचरा है । ढेर सारे कचरे और घास-फूस को अग्नि की एक चिनगारी भस्म कर सकती है, वैसे ही ज्ञान की एक छोटीसी चिनगारी कुविचारों के ढेर को क्षण भर में जला डालती है । [] संत का वचन उसके अन्तर हृदय से निकलता है, इसलिए दूसरों के हृदय को 'तुरन्त प्रभावित कर लेता है। हृदय से निकली वाणी हृदय को पकड़ लेती है । स्वाध्याय और ध्यान करते समय उसी प्रकार तदाकार हो जाना चाहिए जैसे चित्रकार चित्र बनाते समय स्वयं के मस्तिष्क को पहले उस चित्र की कल्पनाओं से पूरा रंग लेता है और कवि काव्य करते समय पहले उस विषय की भावनाओं में तन्मय हो जाता है । वैसे ही साधक को ध्यान करते समय ध्येय में तल्लीन और तन्मय हो जाना चाहिए तभी ध्यान में आनन्द की अनुभूति हो सकती है । [] एक समय में मन को एक ही केन्द्र पर रखना - तदाकारता है । एक ही क्रिया में शक्ति को केन्द्रित कर देने से शक्ति निखर जाती है, एकाग्रता दृढ़ हो जाती है । [] कर्ज के सागर में जो डूब गया उसका निस्तार हो पाना कठिन है । एक आचार्य ने कहा है— ऋण, व्रण, रोग और अग्नि बढ़ने शुरू होने के बाद रुक पाना कठिन है । १५३ बाल श PPPMS आचार्य प्रवर अभिनंदन आनन्द अन्य अभि श्री Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जाबन का महत्वपूर्ण निधि श्राचार, नद्राचार के विविध पहलुओं का विश्लेषण] ३ आचारः परमो धर्मः आपने पढ़ा होगा और सुना होगा-'आचारः परमो धर्मः ।' अर्थात् आचरण को पूर्ण विशुद्ध रखना सबसे बड़ा धर्म है। मानव के जीवन में आचार को प्रधानता दी गई है। जिसका आचरण पवित्र होता है, उस व्यक्ति का संमार में सम्मान होता है और वह अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है। यद्यपि इस जगत में अनेक व्यक्ति रूपसम्पन्न होते हैं, अनेक धनसम्पन्न होते हैं और अनेक सत्तासम्पन्न पाये जाते हैं। किन्तु अगर वे आचार सम्पन्न नहीं होते तो उनकी अन्य सम्पन्नताएँ व्यर्थ मानी जाती हैं। उस तिजोरी के समान जो आकार में बड़ी है, सुन्दर है और फौलाद के समान मजबूत है, किन्तु अन्दर से खाली है, एक पाई भी उसमें नहीं है। जिस प्रकार ऐसी तिजोरी का होना न होना बराबर है, ठीक इसी प्रकार अन्य अनेक विशेषतायें होते भी आचरणहीन व्यक्ति का होना, न होना समान है। मी तिजोरी के समान ही उस मनुष्य का कोई महत्व नहीं है। आचार का अर्थ आचार का अर्थ है-मर्यादित जीवन बिताना। अगर व्यक्ति अपने जीवन को मर्यादा में नहीं रखता, अर्थात् अपनी इन्द्रियों पर एवं मन पर संयम नहीं रखता तो उसका आचरण भी कदापि शुद्ध नहीं रह पाता। तीन प्रकार के योग माने गये हैं। वे हैं-मनोयोग, वचनयोग एवं काययोग । मनोयोग का काम है-चिन्तन करना या विचार करना। आप चाहे उत्तम कार्य करें या अधम कार्य करें, दोनों के लिए ही पहले मनोयोग द्वारा विचार किया जायेगा कि कार्य किस प्रकार और किस विधि से करना है। इन सब बातों का निश्चय करना ही मनोयोग का काम है। मनोयोग के पश्चात वचनयोग का कार्य प्रारम्भ होता है। मन के द्वारा किसी भी कार्य के करने का निश्चय हो जाने पर वे विचार जबान पर आते हैं। वाणी मन में उमड़ने वाले विचारों की ही प्रतिध्वनि होती है। अगर मन में विचार न आयें तो वे वाणी में भी नहीं उतर सकते । क्योंकि वाणी में विचार करने की शक्ति नहीं है। केवल उच्चारण करने की सामर्थ्य होती है। इसलिए विचार न होने पर उच्चारण भी नहीं हो सकता है। विचार, उच्चार और आचार, इन तीनों में चर धातु का प्रयोग होता है, जिसका अर्थ है 'चलना' ! मन में विचार आया कि ऐसा करना है तो वचन के द्वारा शब्द उठते हैं कि हमको ऐसा करना है । विचार चाहे सामाजिक विषय से सम्बन्ध रखता हो अथवा राजनीति से । वे मन में उठते हैं और तब वचनों से जाहिर होते हैं। कहने का अर्थ यह है कि किसी भी कार्य की नीव मन के विचारों से देखी जाती है, अतः मन में शुद्ध विचार आने चाहिए । जिन व्यक्तियों के पल्ले में पुण्य होता है, उनके मन में शुभ विचार आते हैं और उसके विपरीत जो पुण्यहीन हैं, उनके मन में अशुभ विचारों का उदय होता है। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारः परमो धर्मः १५५ पहले मन में विचार आते हैं, उसके पश्चात वे वाणी द्वारा उच्चरित होते हैं और उसके बाद आचरण में व्यवहृत होते हैं । जब तक विचार कार्य रूप में नहीं आते अर्थात् आचरण में नहीं लाये जाते तब तक उनका कोई महत्व नहीं माना जाता। इसीलिए शास्त्रकारों ने आचार को महत्त्व दिया है। यद्यपि रत्नत्रय में पहले सम्यग्दर्शन, फिर सम्यक्ज्ञान और उसके बाद सम्यक् चारित्र का नम्बर है। सम्यग्दर्शन से ज्ञान पवित्र होता है और ज्ञान के साथ विवेक मिलकर आचरण को शुद्ध और सम्यक बनाते हैं। तो पहले सम्यग्दर्शन यानी श्रद्धा होती है और उसके बाद सम्यक् ज्ञान । किन्तु इन दोनों के होने पर भी अगर चारित्र न रहा तो दोनों की कोई कीमत नहीं है। आप कहेंगे ऐसा क्यों? वह इसलिए कि जिस तरह आप मकान बनवाते समय कम्पाउण्ड, दरवाजा बम्भे और दीवाले सभी कुछ बनवा लेते हैं, किन्तु छत नहीं बनाई गई तो वह मकान क्या आपको सर्दी, गर्मी और बरसात से बचा सकेगा? नहीं, छत के अभाव में आपके मकान की दीवारें, खिड़कियाँ और रास्ते किसी काम नहीं आयेगे। इसी प्रकार मन से विचार कर लिया, वाणी से उसको प्रकट भी किया किन्तु जब तक उसे आचरण के द्वारा जीवन में नहीं उतारा तो विचार और उच्चार से क्या लाभ हुआ? कुछ भी नहीं। आत्म-कल्याण के लिए आचरण आवश्यक ही नहीं, अनिबार्य भी है। आचरण का लक्ष्य నాలి एक गाथा आपके सामने रखता हूँ, जिसे बड़ी गम्भीरता से समझने की आवश्यकता है। गाथा इस प्रकार है अंगाणं कि सारो, आयारो तस्स कि सारो। अंगहो गत्थो सारो, तस्स वि परूवणा शुद्धी॥ व्यावहारिक भाषा में अंग शरीर को कहते हैं। पारमार्थिक दृष्टि से यहाँ अंग का अर्थ द्वादशांग रूप वाणी से है । तो यहाँ गाथा में प्रश्नोत्तर के द्वारा अंग और उसकी उत्तरवर्ती बातों का सार पूछा गया है। प्रश्नकर्ता ने पहला प्रश्न पूछा है कि 'अंगाणं किंसारो' अर्थात् द्वादशांग वाणी का क्या सार है ? उत्तर दिया गया है-'आयारों इनका सार आचरण है। अंगों का सार आचरण करना बताया है। फिर प्रश्न पूछा गया है-उसका भी क्या सार है ? तो उसका उत्तर दिया गया है-भगवान के फरमाये हुए जिन आदेशों को पढ़ा, श्रवण किया, धर्म शास्त्रों से जाना, उस पर चिन्तन करते हुए उसके पीछे-पीछे चलना यानी अनुसरण करना। फिर प्रश्न पूछा गया है---उसका भी सार क्या है ? तो उत्तर मिला-प्ररूपणा अर्थात् परोपदेश देना । क्योंकि हम भगवान की आज्ञानुसार चले तो अपने लिए ही कुछ किया किन्तु उससे जनता को क्या लाभ मिला? अतः भगवान की आज्ञाओं को औरों के हृदय में बिठाना तथा उन्हें सरल ढंग से समझने के लिए उपदेश देना। अगर एक व्यक्ति स्वयं सन्मार्ग पर चलता है, तो वह अच्छा ही है पर कुमार्ग पर जाने वाले अन्य व्यक्ति को भी सन्मार्ग पर ले आता है तो वह बड़े पुण्य का कार्य है। आप देखते हैं कि सन्त मुनिराज सदा एक गांव से दूसरे गाँव में जाते हैं। वह क्यों? क्या उन्हें लोगों से पैसों की वसूली करनी है, अथवा सेठ साहूकारों से कोई जागीर लेनी है ? नहीं, वे केवल इसलिए विचरण करते हैं कि जो व्यक्ति धर्म क्या है यह नहीं जानते और शास्त्र या उसकी वाणी क्या होती है, यह नहीं समझते तो उन्हें इन बातों की जानकारी दी जा सके। ऐसा किये बिना धर्म का प्रचार और प्रसार नहीं हो सकता । तो आचरण का सार प्ररूपणा अर्थात् अज्ञानियों को सदुपदेश देकर सन्मार्ग पर लाने में है। चाया .. JARAJ-AAAAAAAICOMer MK साधा . चार्ग श्राआनन्द याआड अनशन animiam Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a urunsapana..MADANAPle . ka. ..... YM आचार्यप्रवभिगन श्रीआदE VIURI 1964 ग्रन्थ श्रीआनन्दपादन आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व इस गाथा के बाद आगे की गाथा में और कहा गया है सारो परूवणाए चरणं तस्स विय होइ निव्वाणं । निव्वाणस्स उ सारो अव्वावाहं जिणा हंति ।। गाथा में पुनः प्रश्न किया गया है कि-प्ररूपणा का सार वया है ? उत्तर दिया गया है--चरण । अर्थात् आचरण करना । उत्तर यथार्थ है कि हम जिस बात की प्ररूपणा करें यानी जिस कार्य को करने का औरों को उपदेश दें, पहले स्वयं भी उसका पालन करे। क्योंकि 'परोपदेशे पांडित्यं सर्वेषाम् सुकर नृणाम् ।' दूसरों को उपदेश देना और उनके समक्ष अपने पांडित्य का प्रदर्शन करना सरल है, पर उसके अनुसार हमारा स्वयं का आचरण भी पहले होना चाहिए, तभी लोगों पर हमारी बात का प्रभाव पड़ सकता है। सन्त मुनिराजों की शिक्षाओं का प्रभाव लोगों पर जल्दी क्यों पड़ता है ? इसलिए कि वे जिस कार्य को जनता से कराना चाहते हैं, पहले स्वयं करते हैं। अगर वे ऐसा न करें तो लोग उनके आदेशों को नहीं मान सकते। आप स्वयं भी यह महसूस करते होंगे कि अगर हम रात्रि को भोजन करें और आपको रात्रिभोजन करने का त्याग करायें तो आप मानेंगे क्या? इसी प्रकार अगर हम बीड़ी, सिगरेट या मदिरा का सेवन करते रहें और आपसे उसे छोड़ने को कहें तो आप उन्हें छोड़ेंगे क्या? नहीं। तो बन्धुओ। प्ररूपणा करने के लिए पहले स्वयं क्रिया करनी पड़ेगी । इसीलिए शास्त्रकारों ने कहा है-प्ररूपणा का सार स्वयं आचरण करना है। धर्म के तीन अंग हैं-सम्यगदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र । जीवन में दर्शन अर्थात् श्रद्धा का होना आवश्यक है, ज्ञान का होना भी अनिवार्य है, किन्तु उन दोनों को क्रियात्मक रूप देने के लिए चारित्र या आचरण का होना तो श्रद्धा व ज्ञान की अपेक्षा भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। केवल श्रद्धा और ज्ञान से क्या हो सकता है, जबकि उनका कोई उपयोग ही न किया जाये । संत तुकाराम महाराज ने कहा है 'बोलालाच भात बोलाचीच कढ़ी, खाऊँनियां तृप्त कोण झाला?' तात्पर्य यह है कि आपने लोगों को भोजन के लिए आमंत्रित किया। समय पर पंगत खाने के लिए बैठ भी गई। किन्तु आपके पास खाद्य वस्तु कोई भी तैयार नहीं है और आप उन व्यक्तियों के सामने घूम-घूम कर कहते हैं-'लीजिये साहब ! चावल लीजिए, कढी लीजिए।' लेकिन बर्तन आपका खाली है और आप केवल जबान से ही कढ़ी और चावल परोस रहे हैं तो बताइये आपके बोलते रहने मात्र से ही क्या भोजन करने वाले तृप्त हो जायेंगे? नहीं। तो जिस प्रकार कढ़ी और भात के उच्चारण मात्र से भोजन करने वालों के पेट नहीं भर सकते, उसी प्रकार हृदय में श्रद्धा और मस्तिष्क में ज्ञान होने मात्र से ही उनका लाभ आत्मकल्याण के रूप में हासिल नहीं हो सकता, जब तक कि उन्हें आचरण में न लाया जाये । गाथा में आगे पूछा है-उसका भी सार क्या है ? आचरण का सार क्या है ? तो उत्तर में कहा है'निव्वाणं ।' निव्वाणं यानी निर्वाण । अगर व्यक्ति शुद्ध चारित्र का पालन करता है तो निर्वाण की प्राप्ति होती है । कहा भी है 'भिक्खाए वा गिहत्थे वा सुब्वए कम्मई दिवं ।' भिक्षु हो चाहे गृहस्थ हो, जो सुव्रती सदाचारी है, वह दिव्य गति को प्राप्त होता है। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारः परमो धर्मः १५७ या तो पूर्वोक्त कथन का सार संक्षेप में इस प्रकार है द्वादशांग का सार है आचार । आचार का सार अंगुहो यानी आज्ञा के पीछे चलना। उसका भी मार-प्ररूपणा यानी परोपदेश । प्ररूपणा का सार-चारित्र का पालन करना। चारित्र का सार-निर्वाण तथा निर्वाण का सार-अव्वावाहं जिणाहुत्ति यानी जिनेश्वर भगवान ने फरमाया है कि अगर निर्वाण प्राप्त करना है तो पहले आचार को ग्रहण करो, फिर भगवान की आज्ञा के पीछे चलो, बाद में प्ररूपणा से औरों को सन्मार्ग पर लाओ, फिर चारित्र का पालन करो जिससे निर्वाण प्राप्त हो । निर्वाण याने अक्षय शान्ति । आत्मा उस स्थान पर पहुँच जाती है जहाँ किसी भी प्रकार की बाधा या पीड़ा नहीं होती। बाधा इसलिए नहीं होती कि शरीर नहीं होता और पीड़ा इसलिए नहीं होती, क्योंकि कर्म नहीं होता। तो बन्धुओ समस्त पीड़ाओं एवं बाधाओं से रहित, अक्षय शांति और सुख प्रदान करने वाले ऐसे । अपूर्व स्थान पर पहुँचने के लिए उत्कृष्ट चारित्र ही एकमात्र साधन है। अगर हम शुद्ध चारित्र का पालन करते हैं तो हमारे दर्शन और ज्ञान का भी सम्यक उपयोग हो सकता है। श्रद्धा का कार्य आपको धर्म पर विश्वास रखना तथा ज्ञान का कार्य आपको मुक्ति के मार्ग की पहचान कराना है, किन्तु चारित्र का काम है आपको उस मार्ग पर चलाना । आप जानते हैं कि कहीं भी जाने वाले मार्ग पर विश्वास रखना और उस मार्ग की पहचान हो जाना ही काफी नहीं होता। सबसे जरूरी होता है उस मार्ग पर चलना। यही हाल मोक्ष मार्ग का है। इस पर श्रद्धा रखना और इसका ज्ञान होना ही मुमुक्षु के लिए काफी नहीं है, उसके लिए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है उस मार्ग पर चलना । और चलने का दूसरा नाम ही चारित्र है। आशा है चारित्र के महत्त्व को पूर्णतया हृदयंगम करते हुए आप अपने जीवन को दृढ़ एवं शुद्ध चारित्र से अलंकृत करेंगे तथा अपनी मंजिल के समीप पहुँचने का प्रयत्न करेंगे। -- HER पिया आनन्द-वचनामृत0 मरिता का मधुर जल भी संग्रहशील सागर के पास पहुँचकर खारा बन जाता है। क्यों ? और फिर पुनः सरिता में आते ही वह मधुर बन जाता है। क्यों ? सरिता-देती है, सागर-लेता है। देने वाला सदा मधुर रहता है, लेने वाला कडुवा बन जाता है। सरल बाण सीधा अपने लक्ष्य तक पहुंचता है, किन्तु वक्र धनुष वहीं का वहीं पड़ा रहता है । सरलता लक्ष्य पर पहुंचा देती है वक्रता भटकाती है । आपा प्रवभिभावार्यप्रवर अभ श्रीआनन्द . आनन् ५१ AnamaARARIANIMJABAMANANDMAJABARRIAMANAuseuineasainaSAIJANJANAMANAINAIAAIMINAImanasammarAm ASALALAAAAAAA Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ minMAAMAvAAMRA SANप्रवर अभिनिसायप्रवर अभिमान श्रामानन्दमय श्रीआन आभनन्दन [वराई से बचकर भलाई में शक्ति एवं धन का नियोजन करने की प्रेरणा देने वाला प्रवचन] ४ मानव जीवन का सदुपयोग अभी आपने एक भजन सुना--जिसमें कहा गया है--- जय बोलो महावीर स्वामी की, घट-घट के अन्तर्यामी की। भक्त लोग घट-घट के अन्तर्यामी की जय बोलते हैं, लेकिन वह जय केवल उनके अन्तर्यामी होने से ही नहीं बोली जाती। इसका कारण और भी है, जो आगे बताया गया है जो पाप मिटाने आया था...। बस, यही बात उनकी जय बोलने का कारण है। संसार में महानतम पुरुप वही है जो पापों का नाश करने का प्रयत्न करता है। भगवान महावीर स्वामी ने भी अपने पापों का नाश तो किया ही साथ में संसार के अन्य प्राणियों को भी अपने पापों को नष्ट करने की प्रेरणा दी। प्रथम पाप पार वैसे अठारह प्रकार के हैं, पर उनमें प्रथम और सर्व-शिरोमणि है हिंसा । हिंसा घोर पाप है। हिंसक व्यक्ति जन्म-जन्मान्तरों तक इसके महादुखदायी परिणामों को भुगतता है-हिसैव दृर्गतेारम् अर्थात् हिंसा ही दुर्गति का द्वार है। अहिंसा प्रकृति का अविभाज्य अंग है और प्राणिमात्र का नैसगिक धर्म है, क्योंकि संमार का प्रत्येक जीव स्वयं तनिक-सा भी दुःख बरदास्त नहीं कर सकता, अतः औरों को कष्ट देने का भी अधिकार नहीं रखता। इसीलिए संसार के सभी धर्म हिंसा का निषेध करते हैं। महाभारत में कहा है सर्वे वेदा न तत्कुर्य: सर्वे यज्ञाश्च भारत ! सर्वे तीर्थाभिषेकाश्च यत्कुर्यात् प्राणिनां दया । अर्थात् प्राणियों की दया जो फल देती है, वह चारों वेद भी नहीं दे सकते और तीर्थों के स्नान तथा वंदन भी वह फल नहीं दे सकते । कहने का अभिप्राय यही है कि जो धर्म के सच्चे स्वरूप को समझ लेते हैं, वे अन्य समस्त शुभ क्रियाओं को करने से पहले हिंसा का त्याग करते हैं और अहिंसा को ग्रहण करते हैं। हिमा का त्याग भी केवल शरीर से नहीं, अपितु मन और वचन से भी करते हैं। वास्तव में अहिंसा का पालन करना मनुष्य मात्र का धर्म है तथा प्रत्येक जीव को पीड़ा से बचाना तथा उसकी प्राण रक्षा करना इन्सानियत का तकाजा है। पर खेद की बात है कि आज के युग में अपने प्राण देकर दूसरों की रक्षा करना तो दूर, दूसरों के प्राण लेकर अपने शरीर को अधिकाधिक पृष्ट करना ही जीवन का ध्येय बन गया है। लोगों की धारणा बन गई है कि अगर अण्डे व मांस न खाया जाये, मछली का तेल न पीया जाये तो शरीर निर्बल हो जाता है। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव जीवन का सदुपयोग १५६ गया उन जिह्वालोलुप व्यक्तियों की यह धारणा निस्सार और गलत है । बलवान बनने के लिए मांसाहार की कोई आवश्यकता नहीं है। इसी युग में अनेकों व्यक्ति मांसाहार न करके भी मांसाहारियों की अपेक्षा अधिक बलवान साबित होते हैं। पिछले दोनों महायुद्धों में यह प्रमाणित हो गया है। उन युद्धों में मांसाहारी सैनिक भीरू तो साबित हुए ही, वे अल्प परिश्रम करके भी निराभिषभोजियों की अपेक्षा जल्द थक जाने वाले पाये गये हैं। गांधी जी दृढविश्वास पूर्वक कहते थे-'अहिसा प्रचण्ड शस्त्र है, उसकी शक्ति असीम है । वह पुरुष की शोभा, उसका सर्वस्व और परम पूरुषार्थ है। अहिंसा शुष्क, नीरस और जड़ पदार्थ नहीं है, आत्मा का विशेष चैतन्य गण है। अहिंसा सत्य का प्राण है, उसका अर्थ है ईश्वर पर भरोसा करना। अहिंसक स्वयं कुछ नहीं करता, उसका प्रेरक ईश्वर होता है। मैं तो शुरू से ही यह मानता आया हूँ कि अहिंसा ही धर्म है और मानवता की कसौटी है।' अनेक कुतर्क करने वाले व्यक्ति कहते हैं कि कई शास्त्रों में मांसाहार का विधान है। उनका कथन भ्रमपूर्ण है। प्रथम तो जिस शास्त्र में मांसाहार का विधान है, वह शास्त्र ही नहीं कहला सकता । शास्त्र केवल उसी को कहा जा सकता है जो मानव को कुमार्ग पर जाने से रोके । मांस-भक्षण जैसी बुराई को प्रोत्साहन देने वाला शास्त्र कैसे माना जा सकता है ? आहार का प्रयोजन आहार का वास्तविक प्रयोजन केवल शरीरयात्रा का निर्वाह करना ही है। प्राणिमात्र को आहार करना पड़ता है। शरीर के प्रति सम्पूर्ण ममता का त्याग करने वाले मुनि और तपस्वी भी आहार करते हैं, क्योंकि उसके बिना शरीर नहीं चलता और उस स्थिति में आत्मसाधना होना सम्भव नहीं होता । किन्तु आत्म-कल्याण का उद्देश्य छोड़कर केवल शरीर की पुष्टि और अपनी जिह्वातृप्ति को ही प्रयोजन मानकर जो भक्ष्याभक्ष्य का विचार किये बिना अपने उदर को नाना प्रकार के पदार्थों से भरते रहते हैं, उनके समान मुर्ख और अज्ञानी कौन होगा? मांस-मदिरा आदि नाना प्रकार के अभक्षय-भक्ष्य से महान् पाप कर्मों के बंधन का कारण बनने वाला यह परिपुष्ट शरीर क्या उनके साथ जायेगा? नहीं इसीलिए महापुरुष बार-बार जीव को बोध देते हैं 'प्रस्थाने तु पदान्तरेऽपि भवता सार्द्ध न तद्यास्यति ।' अरे आत्मन् ! जब तू परलोक में जायेगा, उस समय में यह शरीर और अन्य भौतिक पदार्थ तेरे साथ नहीं जायेंगे । अतः इनके द्वारा जितनी ही परहित साधना कर सके, उतना समय रहते कर ले, अन्यथा पछताना पड़ेगा। पूज्यपाद श्री अमीऋषि जी महाराज ने तन की निस्सारता बताते हुए कहा है तन है असार नर कीजिये विचार मन, पिंजर है हाड़ ताप चरम जो मढ़ाना है। दुरगंध खाना तू तो मानता है मेरा मेरा, अन्त में दगादार तन जान दुखदाना है। मांगत है खाना नहीं देवे तो हैरान कर, __ खावत अनेक चीज तो है न अघाना है। अमीरिख कहे तन काचा कुंभ जैसे जान, रंग चग देख नर भया क्यों दिवाना है। कई व्यक्ति कहते हैं, जब शरीर का कोई मूल्य नहीं है तो प्राणों को ही किस लिए धारण करना? अरे भाई ! प्राण रहेंगे तभी तो तत्त्वों का चिंतन हो सकेगा? जीव क्या है, अजीव क्या है ? आदि इन T आचार्य प्राआनन्दा आगारप्रवर अनिल श्रीआइन्द minimovies Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JALJAAAAAAAMVAAL و یا به عنواعا ع ن منعطته في غيقة فرعععاون مزععععععععتتفرعا عما علمنع YG आचार्यप्रवभिआचार्य श्रीआनन्दअन्यश्रीआनन्दा अन्य १६० आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व mmmmmmmmmminemammirmwammar m सबका चिन्तन कैसे होगा और जब चिन्तन नहीं किया जायेगा तो पापों से बचने और पुण्यों का संचय करने का प्रयत्न भी कैसे होगा? और यह नहीं होगा तो मनुष्य जन्म का लाभ जो आत्मा की मुक्ति है, वह उठाना भी सम्भव नहीं हो सकेगा। मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि हमें शरीर के द्वारा लाभ लेना है, हानि नहीं उठाना है और लाभ तभी उठाया जा सकता है जबकि इसकी सार-सम्भाल और पुष्टि के निमित्त से हम पापों का उपाजन न करें, वरन इसकी सहायता से सेवा, त्याग और तपस्या आदि करते हए आत्म-कल्याण के मार्ग पर बढ़ें। जो भव्य प्राणी इस बात को समझ लेते हैं तथा सन्मार्ग पर चलते हैं, वे अपना इहलोक और परलोक दोनों ही सुधारने में समर्थ बन जाते हैं। तीन बातें उर्दू भाषा में तीन बातें कही गई है—१. भलाई कर, २. बदी से बच और ३. परहेजगारी कर । ये तीनों बातें मानव के जीवन को उन्नति की ओर ले जाती हैं। प्रेरणा देती है-सदा भलाई करो। इस संसार में जन्म लेकर भी अगर तुम्हें उत्तम मनुष्यगति प्राप्त हुई है तो कुछ पुण्य-संचय कर लो। यहाँ से जाना तो प्रत्येक को पड़ेगा । चाहे कितने भी वर्ष यहाँ रह लें, एक दिन विदाई का अवश्य आयेगा। सौ वर्ष की उम्र पाने वाला और हजार तथा लाख वर्ष की उम्र पाने वाला जीव भी अपना आयुष्य पूर्ण करके प्राप्त शरीर को छोड़ेगा । इसीलिए कहा जाता है-एक दिन तुमको यहाँ से अवश्य जाना है अतः स्वयं भलाई के मार्ग पर चलो तथा औरों को भी इस मार्ग पर चलने की प्रेरणा दो। दूसरी बात है-बदी से बाज आ । आवश्यकता तो यही है कि मनुष्य नेकी करे अर्थात् दूसरों का भला करे, अगर वह यह न कर सके तो कम-से-कम बदी से तो बचे । किसी भजन की एक पंक्ति है 'तू भला किसी का कर न सके तो बुरा किसी का मत करना ।' हम तो आज देखते हैं कि न्याय, नेकी और सचाई का मानो लोप ही हो गया है । ऊपर से लेकर नीचे तक के शासनाधिकारी अपना उल्लू सीधा करने की फिराक में रहते हैं। बदी से बचने के लिए मनुष्य को झूठ, फरेब, छल, कपट करता और धोखेबाजी आदि सभी दुर्गणों से बचना चाहिए। ये सभी दोष बदी के मूल में रहते हैं। इन्हीं के आधार पर बदी का महल खड़ा होता है। तीसरी बात--परहेजगारी करो। आपने भलाई कर दी और बदी से भी बच गये पर परहेज नहीं रखी तो सब गड़ गोबर हो जायेगा । कैसे होगा? यह यहाँ बैठी हमारी माता बहनों से पूछो । वे अनेक वस्तुओं का अचार डालती हैं और जब खाने को निकालती है तो क्या आटे से सने हाथों से या जूठन से भरी कलछी से उसे निकालती हैं ? नहीं, वे अत्यन्त सावधानी पूर्वक मंजे हुए साफ चम्मच से ही अचार निकालती हैं । क्योंकि गन्दे हाथ या गंदे बर्तन से निकालने पर अचार सड़ जाता और खाने लायक नहीं रहता। यही बात हमारे सद्गुणों के लिए भी है । अगर उन्हें थोड़े से समय के लिए भी दुर्गुणों की संगति में छोड़ दिया तो इन्हें दुर्गण बनते देर नहीं लगती है। गुणवान व्यक्ति दुर्गुणी पुरुषों की संगति में रहकर कितनी भी सावधानी क्यों न रखे, कुछ न कुछ दुर्गण उसमें आ ही जायेगे । इसलिए सन्त तुलसीदास जी ने कहा है को न कुसंगति पाय नसाई , रहे न नीच मते चतुराई । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवजीवन का सदुपयोग १६१ कुसंग में रहकर कौन व्यक्ति बिगड़ नहीं जाता ? अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति कुसंगति का कुछ-न-कुछ प्रभाव लेकर ही रहता है । अतः चतुराई इसी में है कि कुसंग से बचा जाये, निकृष्ट व्यक्तियों का कभी साथ ही न किया जाये । इसी का नाम परहेज करना है । जो समझदार प्राणी इस बात का ध्यान रखते हैं, वे कुपथ की ओर नहीं जाते । सदा भले कार्यों में रत रहो तथा सांसारिक झमेलों से समय बचाकर आत्मसाधना में गो। इस शरीर को औरों का अपकारी और अपने भी कर्मबंधन का कारण मत बनाओ, वरन नेक और भले कार्यों को करते हुए दोनों का भला हो ऐसा उपाय करो । बन्धुओ ! आप मेरे कथन का सारांश समझ गये होंगे। मैंने दो बातें बताई हैं। पहली है— इस शरीर को अधिकाधिक भौतिक सुख पहुँचाने तथा हृष्ट-पुष्ट बनाये रखने को ही इस जीवन का उद्देश्य नहीं मानना चाहिए | क्योंकि जो व्यक्ति शरीर को ही अपना सब कुछ समझ लेते हैं, उनका आहार पर संयम नहीं रहता और शरीर की पुष्टि के लिए वे मांस, मदिरा आदि अभक्ष्य और निकृष्ट पदार्थों से भी परहेज नहीं रखते । दूसरी बात है -सदा पर - हित में लगे रहना । अर्थात् भलाई के कार्य करना । मनुष्य अपने असीम ज्ञान से और भक्त अपनी तन्मय भक्ति से जिस उद्देश्य की प्राप्ति करता है, नेक व्यक्ति केवल अपने त्याग और परोपकार के बल पर बिना कामना किये भी उस उद्देश्य को पा लेता है । जो प्राणी इन दोनों बातों के महत्त्व को समझ लेते हैं, वे अपने इस दुर्लभ जन्म और देह का सच्चा सदुपयोग करते हुए एक दिन इस संसार कारागृह से अवश्यमेव मुक्त हो जाते हैं । आनन्द-वचनामृत [[ कमजोरी और रोग का इलाज यह नहीं है कि उसकी चिन्ता की जाय, चिन्ता से तो कमजोरी बढ़ती है, रोग प्रबल होता है । देर मन को निश्चित और प्रसन्न रखना, शक्ति सम्पन्न बनाना ही कमजोरी और रोग की अमोघ चिकित्सा है । संसार में जो भी महापुरुष हुए हैं, और जिसने भी मनुष्यजाति के इतिहास में कुछ नया प्रकाश फैलाया है, उसके मूल में एक ही शक्ति रही है - अदम्य कर्तव्यनिष्ठा । कर्तव्यनिष्ठ मनुष्य ही संसार का सर्वश्रेष्ठ मनुष्य बन सकता है । राई के दाने जब बिखर जाते हैं तो उन्हें चुन-चुनकर एकत्र करना कठिन हो जाता है । वैसे ही मन की शक्तियाँ जब विषयों की भूमि पर बिखर जाती हैं तो उनको केन्द्रित करना कठिन होता है । बिखरे राई के दानों को झाड़ ू से एकत्र किया जा सकता है, वैसे ही मन की बिखरी शक्तियों को ज्ञान की बुहारी से केन्द्रित करना चाहिए । आचार्य प्रव28 य 乘 आमदन आने व आय अभिनंद Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दत्र ग्रन्थ श्री आनन्द श ग्रन्थ [ जीवनमहल की नींव विचार हैं, विचार ही आचार का आधार है, विचार व भाव का महत्त्व प्रदर्शित कर भावशुद्धि का समर्थ संयोजना का उपदेश । ] ५ जीवन महल की नींव : विचार कबीरदास का एक प्रसिद्ध दोहा है- समझा समझा एक है, अनसमझा सब एक । समझा सोई जानिये, जाके हृदय विवेक ॥ जिस हृदय में विवेक का विचार का दीपक जलता है, वही हृदय देवमन्दिर तुल्य है, जिस हृदय में विवेक, विचार का दीपक नहीं है, वह अन्धकारमय हृदय श्मशान के समान है । जब तक हृदय में विवेक तथा विचार की ज्योति नहीं जलती तब तक कोई कितना ही उपदेश दे, समझाए - बुझाए, शास्त्र सुनाए, सब भैंस के आगे बीन बजाने के समान है, अंधे के सामने कत्थक नृत्य दिखाने के बराबर है और बहरे के समक्ष गीत गाने के तुल्य है । विचारशुन्य मनुष्य कभी भी भले-बुरे का हित-अहित का निर्णय नहीं कर सकता । इसलिए कहा है- आँख का अंधा संसार में सुखी हो सकता है किन्तु विचार का अंधा कभी भी सुखी नहीं हो सकता, विचारांध को स्वयं ब्रह्मा भी सुखी नहीं कर सकते । बन्धुओ ! विचार, विवेक जीवनमहल की नींव है। सुरम्य प्रासाद, आलीशान भवन और आकाश से बातें करने वाले महल आखिर किस पर टिके होते हैं ? नींव पर ! यदि महल की नींव नहीं है या नींव कमजोर है तो प्रथम तो ऊंचा महल खड़ा ही नहीं हो सकता, यदि महल खड़ा कर दिया तो कितने दिन टिकेगा ? पास से निकलने वालों की जान को भी और जोखिम ! तो जीवन में यदि विचार नहीं है, विवेक तथा भावना नहीं है तो वह जीवन, मानव का जीवन नहीं कहला सकता ! वह जीवन निरा पशुजीवन है । आप सोच रहे होंगे कि जिस विचार का जीवन में इतना महत्वपूर्ण स्थान है, वह विचार क्या है ? उसका अर्थ क्या है ? वैसे तो मनुष्य विचारशील प्राणी है, विचार करना उसका स्वभाव है । शास्त्र में बताया है, प्राणी नरक में अत्यन्त दुखी रहता है, स्वर्ग में अत्यन्त सुखी । नरक की यंत्रणाओं में, वेदनाओं में उसे कुछ विचार सूझता नहीं और स्वर्ग के सुखों में उसे विचार करने की फुरसत नहीं । इस प्रकार स्वर्ग और नरक की योनियाँ तो विचारशीलता की दृष्टि से शून्य हैं । तिर्यंचगति में प्राणी विवेकहीन रहता है । तिरिया विवेगविकला - तिर्यच विवेक - विकल - रहित होते हैं । उनमें बुद्धि, भावना, विचार और विवेक जैसी योग्य शक्ति नहीं होती। फिर मनुष्ययोनि ही एक ऐसी योनि है, मानव-जीवन ही ऐसा जीवन है जिसमें विचार करने की क्षमता है, शक्ति है, विवेक व बुद्धि की स्फुरणा है, योग्यता है । इसलिए हम कह सकते हैं कि विचार मनुष्य की विशिष्ट संपत्ति है । विचार का अर्थ सिर्फ सोचना भर नहीं है । पहले सोच, फिर विचार । यानी सोचने के आगे की भूमिका है विचार | भारत के चिन्तनशील मनीषियों ने कहा है Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन - महल की नींव : विचार कोsहं कथमयं दोषः संसाराख्य उपागतः । न्यायेनेति परामर्शो विचार इति कथ्यते । J मैं कौन हूँ? मेरा कर्तव्य क्या है ? मुझ में ये दोष क्यों आये ? संसार की वासनाएँ मुझ में क्यों आई ? इन सब बातों का युक्तिपूर्वक चिंतन करना विचार है । इस प्रकार के विचार से सत्य-असत्य का, हित-अहित का परिज्ञान होता है और उससे आत्मा को विश्रान्ति शान्ति मिलती है— विचाराद् ज्ञायते तत्त्वं तत्त्वाद् विश्रान्तिरात्मनि । २ विचार और भावना विचार जब मन में बार-बार स्फुरित होने लगता है, नदी में जैसे लहर-पर-लहर उठने लगती हैं तो वे लहरें एक वेग का रूप धारण कर लेती हैं, उसी प्रकार पुनः पुनः उठता हुआ विचार जब मन को अपने संस्कारों से प्रभावित करता है तो वह भावना का रूप धारण कर लेता है । विचार पूर्व रूप है, भावना उत्तर रूप । वैसे सुनने में, बोलचाल में विचार, भावना एवं ध्यान समान अर्थ वाले शब्द प्रतीत होते हैं किंतु तीनों एक दूसरे के आगे-आगे बढ़ने वाले चिन्तनात्मक संस्कार बनते जाते हैं। अतः तीनों के अर्थ में अन्तर है । विचार के बाद भावना, भावना के बाद ध्यान ! यह इसका क्रम है । जीवन-निर्माण में विचार का जो महत्व है, वह चिन्तन एवं भावना के रूप में ही है। बाइबिल में कहा है- 'मनुष्य वैसा ही बन जाता है, जैसे उसके विचार होते हैं ।' विचार आचार का निर्माण करते हैं, मनुष्य को बनाते हैं इन सब उक्तियों का सार विचार को भावना के रूप में प्रकट करने से ही है । मैंने एक बार कहा था १ २ ३ ४ १६३ जैसा संचा दीजिए, वैसा हो आकार । मानव वैसा ही बने, जैसा रहे विचार ॥ विचार का महत्व सिर्फ विचार के रूप में नहीं, किन्तु सद्विचार, सुविचार या चिंतन-मनन के रूप में है और चिंतन-मनन ही भावना का रूप धारण करते हैं । भावना संस्कार बनाती है, उससे जीवन का महत्वपूर्ण निर्माण होता है। इसलिए मैं आपको विचार से भावना की ओर मोड़ना चाहता हूँ । भव और भाव भाव शब्द से भावना बना है, इसी का तुलनात्मक शब्द है--भव ! दीखने में बोलने में भव एवं भाव में एक मात्रा का अन्तर है, किन्तु यही एक महान् अंतर है । भव का अर्थ है संसार और भाव का अर्थ है विचार ! भव रोग है, भाव उसकी चिकित्सा है । आचार्यों ने बताया है भवन्त्यस्मिन् कर्मवशवर्तिनः प्राणिनः इति भवः संसारः । ३ कर्म के वशीभूत हुए प्राणी जिसमें जन्म-मरण धारण करते हैं, भ्रमण करते हैं, चक्कर काटते हैं, वह संसार-भव है और भाव का अर्थ है मन की प्रवृत्ति भावोऽन्तःकरणस्य प्रवृत्तिविशेषः । ४ योगवाशिष्ठ २१४१५० वही २|१४|५३ पंचाशकसूत्र १, (अभिधान - राजेन्द्र कोष भाग ५, भव शब्द ) सूत्रकृतांग श्रु. १, अ. १५ की टीका आचार्य प्रव श्री आनन्द 30 卐 अभिनन्दन ग्राआनन्दन ग्रन्थ अन्थ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्द अ १६४ PrajaTh श्री आनन्द अन्थ अन्तःकरण की प्रवृत्ति, हलचल, विचारों की लहरें, ये भाव हैं। इसी को अभिप्राय भी कहते हैं भावश्चित्ताभिप्रायः १ – भाव अर्थात् चित्त का अभिप्राय । चेतना के अन्तरसागर में उठनेवाली तरंगेंभाव हैं । तो इस प्रकार भव का अर्थ हुआ संसार और भाव का अर्थ हुआ प्राचीन आचार्य ने कहा है संसारमुक्ति का साधन । एक १ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि: व्यक्तित्व एवं कृतित्व भवो जन्म-जरा-मृत्युर्भावस्तस्य निवारणम् । जन्म-जरा- बुढ़ापा - मृत्यु आदि का चक्र-प्रवाह है भव, और उसका निवारण है भाव । भव से छुटकारा चाहने वाले को भाव की उपयोगिता, भाव की प्रक्रिया समझनी होगी कि भाव के द्वारा, विचारों के द्वारा किस प्रकार भव से मुक्ति मिल सकती है ? प्रानन्द-वचनामृत [ अगरबत्ती अग्नि के संयोग से वायुमंडल को सुवासित कर देती है, दीपक अग्नि के स्पर्श से गृह को आलोकित कर देता है, वैसे ही मन सत्शास्त्र एवं सद्गुरु के संयोग से जीवन को सुरभित और प्रकाशमय बना देता है । आज नहीं, 'कल'; 'कल' कहना आलसी और कायर व्यक्ति का लक्षण है । आज नहीं, अब; 'अब '; यह उद्घोष साहसी और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति का परिचायक है । कविता का सब से बड़ा गुण है - अदृश्य से साक्षात्कार, अगम्य का आत्मानुभव और अप्राप्य - (शान्ति) का मधुर संवेदन ! [ गांठ को काटना नहीं, खोलना चाहिए । काटने से समस्या हल नहीं होती, अधूरी ही खत्म हो जाती है । काटना — हिंसक प्रयोग है, खोलना -अहिंसात्मक प्रतीकार है । काटना-शक्ति है, खोलना — प्रेम है । ✩ काम और कामना में बड़ा अन्तर है । काम - ( कार्य ) से शक्ति बढ़ती है, साहस दीप्त होता है, यश मिलता है । कामना से - शक्ति का ह्रास होता है, मन में दीनता छा जाती है और संसार में बदनामी होती है । काम — ऊँचा उठाता है, कामना -- नीचे गिराती है । काम - आगे बढ़ाता है, कामना - पीछे ढकेलती है । काम - अवश्य करते रहना चाहिए, कामना -- कभी नहीं करनी चाहिए । आचारांग श्र. १ अ० २, उ. ५ की टीका Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ मीठी वानी बोलिये [वारणी की शक्ति, मधुर वचन का प्रभाव, कटुबचन का कुफल, वाणी नर की निशानी आदि का स्पष्ट निदर्शन कराने वाला प्रेरक प्रवचन |] मानवजीवन की महिमा पंचेन्द्रिय तक के प्राणी हमारे बोलने की शक्ति बहुत कम इस जगत में अनन्तानन्त प्राणी विद्यमान हैं । एकेन्द्रिय से लेकर दृष्टिपथ में आते हैं, किन्तु जिह्वा होने पर भी स्पष्ट और सार्थक भाषा प्राणियों में पाई जाती है । एकेन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय के प्राणियों में तो यह क्षमता होती ही नहीं पर समस्त पंचेन्द्रिय जीवों में भी यह नहीं पाई जाती। हाथी, घोड़े, गेंडे आदि विशालकाय जीव पंचेन्द्रिय होकर भी एक दूसरे से अपने विचारों का आदान-प्रदान करने में समर्थ नहीं हैं। केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो दूसरों की समझ में आने वाली भाषा बोल सकता है तथा उन्हें अपने विचारों से भलीभांति अवगत कराने में कुशलता रखता है । यह सब देखने पर हमें स्पष्ट रूप से महसूस होता है कि मनुष्य ने अपने पिछले जन्मों में अन्य प्राणियों की अपेक्षा कुछ विशेष सुकृत किये होंगे तथा विशेष पुण्यों का उपार्जन किया होगा, तभी उसे जगत के अनन्त प्राणियों की अपेक्षा विशेष बौद्धिक शक्ति, मानसिक क्षमता और इन सब से 'बढ़कर सार्थक भाषा बोलने की क्षमता प्राप्त हुई है । अन्यथा संसार के अन्य सभी जीवों को मनुष्य के समान ही शक्तियाँ क्यों प्राप्त नहीं हुई ? पुण्योदय का सुफल – वाणी अनन्त पुण्यों का संचय करने पर हमें जो व्यक्त वाणी बोलने की क्षमता मिली है, यह निश्चय ही अत्यन्त मूल्यवान है । ज्ञानियों की दृष्टि से देखा जाय तो हमें इसकी प्राप्ति के लिये बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। इसलिये इस महा मूल्यवान शक्ति को हमें व्यर्थ ही नहीं गंवाना चाहिये । संसार का प्रत्येक बुद्धिमान और विवेकशील व्यक्ति अपनी किसी भी बहुमूल्य वस्तु को व्यर्थ में नहीं खोता, वह उससे पूरा-पूरा लाभ उठाता है, बल्कि जितना मूल्य देकर उसे प्राप्त करता है, उससे अधिक ही वसूल करना चाहता है । इस दृष्टि से वही व्यक्ति बुद्धिमान माना जायेगा जो वाणी की प्राप्ति में खर्च किये हुए पुण्यों के पूँजों की अपेक्षा भी इसके द्वारा और अधिक नवीन पुण्यों का उपार्जन कर लेगा । जैनागमों में पुण्य के नौ प्रकार बताये हैं, जिनमें से एक वचनपुण्य भी है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि अगर हम अपनी वाणी का उपयोग भली-भांति विचारकर करें, इसके द्वारा किसी को हानि और कष्ट न पहुँचायें, किसी के हृदय को अपने वचनों से व्यथित न करें अपितु जहाँ तक संभव हो सके, इसके द्वारा औरों को सुख और शांति पहुँचाने का प्रयत्न करें तो हम इसके द्वारा पुनः महान् पुण्यों का संचय कर सकते हैं । आचार्य चाणक्य ने वाणी का महत्व बतलाते हुए कहा है- श्री आनन्द AMANA आचार्य प्रव फ्र Vo अगदी आमदन ग्रन्थ wwww^^^^^ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -nmamirmanar. mararmirauniramirrrrawaranamaramananimuasonindiavariduineainik 20. w wwwcvirontierANNYTriveirmiran wwwviryavry... आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व संसार कटुवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे । सुभाषितं च सुस्वादु संगतिः सुजने जने ॥ इस विराट् विश्वरूपी कटुवृक्ष में अमृत के समान दो ही फल हैं---एक है सरस और प्रिय वचन तथा दूसरा सज्जन पुरुषों की संगति । वाणी की शक्ति आज हम जिधर भी दृष्टिपात करते हैं, वैर, विरोध और संघर्ष दिखाई देता है। राष्ट्र, समाज, परिवार, बाजार और स्कूल या कालेजों में, सभी जगह अशांति और कलह का वातावरण बना रहता है। इसके मूल करणों को खोजा जाय तो लगता है कि अधिकांशतया संघर्षों का कारण वाणी का दुरुपयोग करना ही है। मनुष्य अपनी भाषा की मधुरता से जहाँ आसपास के सम्पूर्ण वातावरण को अपने अनुकूल वना लेता है तथा सर्वत्र संमान का पात्र बनता है, वहाँ भाषा के दुरुपयोग से अपमान और निन्दा का भाजन बन जाता है। इसीलिये कहा जाता है-- जिह्वा में अमत बस, विष भी तिसके पास । हक बोले तो लाख ले, एके लाख विनास ॥ अमृत और विष दोनों ही जिह्वा में विद्यमान रहते हैं। जो व्यक्ति अमृतमयी अर्थात् मधुर और प्रिय वाणी का उच्चारण करता है, वह अनेक प्रकार का लाभ प्राप्त कर लेता है और जो अपनी जिह्वा से विषरूप कटुवचनों का उच्चारण करता है, वह अपने पास रहा हुआ वैभव भी खो देता है । स्पष्ट है कि मनुष्य की भाषा में महान् शक्ति निहित होती है। अपनी इस छोटी-सी जीभ से ही वह चाहे तो महाभारत के समान युद्ध ठनवा दे और चाहे तो अपने चारों ओर शत्रओं को भी मित्र बना ले और घोर कलह को पलक झपकते ही शांत कर दे। इसके बारे में एक उर्दू कवि ने कहा है गैर अपने होंगे, शोरी होगा अपनी जवां । दोस्त हो जाते हैं दुश्मन तलख हो जिसकी जवां ।। अपनी जबान मधुर हो तो गैर भी अपने बन जाते हैं और तीखी जबान होने से मित्र भी शत्रु के रूप में बदल जाते हैं। वाणी का प्रयोग करने के संबन्ध में सभी शास्त्र भी एक ही बात कहते हैं कि मनुष्य सदा मधुर वचन बोले । प्रियवचनों का प्रभाव बड़ा चमत्कारिक होता है और इसके विपरीत अगर कटुभाषा का प्रयोग किया जाये तो कहने वाले और सुनने वाले दोनों ही प्राणियों का अहित होता है । दिल दुखाने वाले शब्दों का उच्चारण करके बोलने वाले के कर्मों का बंधन तो होता ही है, साथ में सुनने वाले की जो प्रतिक्रिया होती है, वह निश्चय ही उत्तम नहीं होती, अतः उसके भी कर्म बँधते हैं। मराठी भाषा में कहा है बोलावें बहगोड प्राण्यां बोलावें बह गोड ॥ध्र०॥ दुष्ट दुरुक्ति दुर्वचनाची, टाकु निधावी खोड ॥प्राण्या०॥ पद्य में प्राणी को सीख दी गई है-हे आत्मन् ! तुम बोलो ! किन्तु अपनी बोली में मिठास रखो, कड़वापन मत आने दो ! अन्यथा दूसरों का दिल दुखेगा। तुम्हारे कटुशब्द सुनने वाले के हृदय पर ऐसे घाव कर देंगे जो कभी मिट नहीं सकेंगे। दुर्वचनों का परिणाम भगवान महावीर ने दुर्वचनों के दुष्परिणामों के विषय में कहा है Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोठी वानी बोलिये १६७ मुहुत्त दुक्खा उ हवंति कंटया, वाया- दुरुत्ताणि अर्थात् लोहे के कांटे तो शरीर में चुभने पर अल्पकाल तक ही व्यथा उत्पन्न करते हैं और उन्हें बाहर निकालने में भी विशेष कठिनाई नहीं होती है, किन्तु दुर्वचनरूपी कांटे जब हृदय में चुभ जाते हैं तो उनका निकलना अत्यन्त कठिन हो जाता है। वे जन्म-जन्मान्तर तक वैर की परम्परा को कायम कर देते हैं एवं महान् भय का कारण बनते हैं । अओमया ते वि तओ सुउद्धरा । दुरुद्धराणि, वेणुबंधोणि महन्भयाणि ॥ - दशवेकालिक सूत्र -३-७ निम्नलिखित श्लोक में कवि मिष्टवाणी का प्रयोग करने के लिये सीख देते हैंजिह्वाया खंडन नास्ति तालुको नंव भिद्यते । अक्षरस्य क्षयोनास्ति, बचने का दरिद्रता ॥ मधुर वचन बोलने से न तो जीभ ही कटती है, न तालु भिदता है और न ही कोमल शब्दों के विशाल भंडार में शब्दों की कमी होती है । फिर ऐसी स्थिति में मधुर वचन बोलने में क्यों दरिद्रता दिखाई जाये ? वस्तुत: अगर हमारे पास दान देने के लिये धन, धान्य, वस्त्र या अलंकार आदि नहीं हैं तो भी मीठी जवान तो है । इसका दान तो हम कर ही सकते हैं, फिर क्यों न इसी का दान करें ? आखिर इसमें कौन-सी पूंजी खर्च होती है ? विचार और व्यवहार समान हो अगर मनुष्य सुख चाहता है तो उसे अन्दर और बाहर एक-सा रहना चाहिये । ऊपर से मीठा बोलता रहे किन्तु अन्दर कपटभाव रखे तो वह मायाचारी कहलाता है और उसका मधुर भाषण न उसे कोई लाभ पहुँचाता है और न सुनने वाले को ही । क्योंकि केवल जबान से मधुर बोलने वाला अन्तर् में ईर्ष्या-द्व ेष रखेगा तो वह दूसरे का तो किसी न किसी प्रकार से अहित करेगा ही, स्वयं भी कषाय के कारण पाप का भागी बनेगा । परिणामस्वरूप न वह दूसरों को सुख पहुंचा सकेगा और न स्वयं ही सुखी हो सकेगा । इसलिये आवश्यक है कि मधुर भाषा केवल जबान से ही न बोली जाये अपितु हृदय से निस्मृत हो । समाज में अधिकांश व्यक्ति ऐसे होते हैं कि यदि उनके सामने किसी प्रकार की सामाजिक उलझनें या गम्भीर समस्यायें आ जायें तो वे केवल यह करना चाहिये, वह करना चाहिए, इस बात में यह दोष है। और उस बात में वह कमी, यही वाद-विवाद करते हुए उलझनों को बढ़ा देते हैं, उनका कोई संतोषजनक हल नहीं निकालते । दूसरे शब्दों में अगर यह कहा जाये तो भी अतिशयोक्ति नहीं है कि ऐसे व्यक्ति न स्वयं कुछ लाभदायक काम करते हैं और न दूसरों को ही करने देते हैं । इसलिये समाज के प्रत्येक सदस्य को अपनी जिम्मेदारी, निष्पक्षता तथा निष्कपटता के द्वारा अपनी वाणी पर संयम रखते हुए व्यर्थ के वकवाद से बचना चाहिये और ऐसा कार्य करना चाहिये जिससे कुछ लाभ हो, अन्यथा व्यर्थ के वादविवादों और बहसों से कोई हल निकलना संभव नहीं होता, उलटे कर्मठ और अनुभवी व्यक्तियों के कार्यों में बाधा आती है, उनका मार्ग अवरुद्ध हो जाता है । आध्यात्मिक क्षेत्र की दृष्टि से देखा जाय तो भी भाषा के असंयमी व्यक्ति अपनी आत्मोन्नति में स्वयं ही बाधक बनते हैं । शास्त्रकारों ने भाषा के सम्यक् प्रयोग पर बहुत बल दिया है । पाँच महाव्रतों में सत्यव्रत का विधान भी इसीलिये किया गया है कि मनुष्य मायाचार का त्याग करके अपने मन में भाषा की सचाई और मृदुता का सदैव ख्याल रखे और कभी भी कटु, कठोर और असत्य भाषा का प्रयोग न करे । आचार्य प्रवर Chak D wwwwww आनन्द, आआनन्द अन्द Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAA Gana भावार्यप्रवअभिआचार्यप्रवभिन श्राआनन्दान्थ५ श्रीआनन्दग्रन्थ Aiovivrrierwwmwwwmarwrt.iNevivonomiviroyVAvavivarianiya १६८ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व Apr जिस व्यक्ति के मन और वचन में मधुरता होती है, वह अपने शरीर से भी किसी को कष्ट नहीं पहुँचाता । उसके हाथ-पैर केवल अन्य प्राणियों की रक्षा के लिये, उन्हें आश्रय देने के लिये तथा उनके कष्टों का निवारण करने के लिये ही उठते हैं, किसी को हानि पहुंचाने के लिये नहीं। कहने का आशय यही है कि जो व्यक्ति वाणी के महत्व को भली-भाँति समझ लेता है, वह अपने हृदय को उसके अनुरूप बनाये बिना नहीं रह सकता । वह सदा कोमल और निरवध भाषा का ही प्रयोग करता है तथा निरर्थक तर्क-वितर्क और वितंडावाद से परे रहता है। उसकी जिह्वा से औरों को संताप देने वाले शब्द कभी नहीं निकलते और न ही वह वैर-विरोध और आपसी कटुता को बढ़ाने वाले झमेलों में पड़ता है। उसे पूर्ण विश्वास होता है __ लक्ष्मीर्वसति जिह्वाग्रे, जिह्वाग्रे मित्र बांधवः । जिह्वाग्रे बंधनं प्राप्तं जिह्वाग्रे मरणं ध्र वम् ॥ जीभ का अग्रभाग, जिसके द्वारा शब्दों का उच्चारण होता है, बहुत ही महत्वपूर्ण है । क्योंकि इसके रा उच्चारित सत्य और प्रिय शब्दों से ही लक्ष्मी का आगमन हो सकता है तथा मित्र और हितैषियों से मधुर सम्बन्ध बना रहता है और इसके कुप्रयोग से कभी-कभी बंधनों में बंधना पड़ता है तथा मृत्यु का शिकार भी होना पड़ता है। इसलिये बंधुओ, अगर हमें अपनी आत्मा को विशुद्ध बनाना है तथा इस लोक में यश और प्रतिष्ठा की प्राप्ति करते हुए परलोक में भी शुभगति पाना है तो हमें अपनी भाषाशक्ति के मूल्य को समझना पड़ेगा तथा प्रयत्न करना पड़ेगा कि हमारी जबान से निकला हआ एक भी शब्द निरर्थक न जाये तथा एक भी शब्द अन्य प्राणियों को पीड़ा-संताप पहुँचाने का कारण न बने । ऐसा करने पर ही हमारी आत्मा का कल्याण होगा। AUL ONLINDI आनन्द-वचनामृत 0 जो काम असंभव प्रतीत होता हो, जिसमें श्रम अधिक और लाभ कम हो, जिसका परिणाम अहितकर हो और जिसे करने पर भी लाभ की आशा न हो वैसा काम कभी भी प्रारंभ नहीं करना चाहिए। - विज्ञान-पराश्रित है, ज्ञान-स्वाश्रित है। वैज्ञानिक-किसी भी लक्ष्य का प्रयोग पहले दूसरे पर करता है, फिर अपने पर। ज्ञानी-किसी भी सत्य का प्रयोग पहले अपने पर करता है, फिर दूसरे पर । विज्ञान में स्वार्थ है। ज्ञान में--परमार्थ है। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संसार में सहयोग का महत्व, अकेला कुछ नहीं कर सकता । सहयोग लेना और देना आवश्यक है, गुणों का सन्मान करना, शक्ति का सदुपयोग करना आदि जीवन स्पशी विवेचन] ७ सहयोग सर्वत्र आवश्यक संसार के प्रकार ठाणांग सूत्र के चौथे ठाणे में चार प्रकार के संसार बताये गए हैं चउविहे संसारे पण्णत्ते तं जहा—णेरइएसंसारे, तिरिक्ख जोणियसंसारे, मणुयसंसारे, देव संसारे । अर्थात् संसार चार प्रकार के हैं-नरक संसार, तिर्यच संसार, मनुष्य संसार और देव संसार । नरकगति में जीव को कितने कष्ट उठाने पड़ते हैं, इसका वर्णन करना भी संभव नहीं है। रातदिन के दुःखों के महासागर में डूबते-उतराते रहते हैं। एक स्वास लेने के जितने समय में भी उन्हें शांति नसीब नहीं होती। इसी प्रकार तिर्यंच गति में भी जीव नाना प्रकार के कष्ट भोगता है तथा परतन्त्रता में जीवन बिताता है। कभी-कभी पूर्वकृत पुण्यों के बल पर जीव स्वर्ग में जा पहुँचता है। पर वहाँ भी अपनी करनी के अनुसार देव पद प्राप्त करता है। कोई आभियोगिक चाकर देव बनता है और कोई हुक्म प्रदान करने वाला इन्द्र । चाकर देवताओं को भी अपने से उच्च पद वालों की आज्ञा माननी पड़ती है तथा उनके अनुशासन में रहना होता है। इसके अलावा जब तक उनके पुण्य कर्मों का उदय होता है तभी तक वे स्वर्गीय सुखों का उपयोग करते हैं और ज्योंही वह पुण्यकोष रिक्त हुआ, पुनः जन्म-मरण के चक्कर में में पड़ते हैं। नरक में जीव पाप कर्मों के उदय के कारण असहनीय दुःख भोगता है और स्वर्ग में संचित पुण्यों के बल पर सुखों का अनुभव करता है। किन्तु वे सुख अनित्य होते हैं तथा देवपर्याय की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो जाते हैं। उन सुखों में जीव इतना तल्लीन हो जाता है कि स्थायी और शाश्वत सुख के बारे में सोच ही नहीं पाता है, न ही उनके लिये कुछ प्रयत्न ही कर सकता है । यह कार्य करता है मनुष्य पर्याय में आकर । मनुष्यसंसार नरक और देव संसार दोनों से भिन्न है। यहां अँधेरा भी है और उजेला भी है। दुःख भी है और सुख भी, पाप भी यहां है और पुण्य भी यहीं। यह वह चौराहा है जहां से जीव अपनी करनी के अनुसार नरकगति तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति किसी को भी प्राप्त कर सकता है। कुसंगति में रहकर नरक और तिर्यच में होने वाले कष्टों को भोगता है तथा सत्संग की प्राप्ति होने पर अपने जीवन को पवित्र बनाता हुआ मोक्ष की भी प्राप्ति कर लेता है। सहयोग की आवश्यकता मानवजीवन में सहयोग का बड़ा भारी महत्व है। बालक जन्म लेने के साथ ही सहयोग की अपेक्षा रखता है। सर्वप्रथम वह अपने माता-पिता के सहयोग पर निर्भर होता है और उसके पश्चात् LOD आचार्यप्रवर अभिनआचार्यप्रवरखम श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्द One Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साया ADMel १७० आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व सुशिक्षक पर । इसी प्रकार सुसंस्कारों की बुद्धि एवं सुगुणों की प्राप्ति वह संतजनों की सुसंगति से करता है। इसी का नाम सहयोग है। सहयोग के अभाव में मानवजीवन कभी भी सम्यक प्रकार से अपनी जीवन यात्रा आगे नहीं बढ़ा सकता। मनप्य तो क्या, देवता भी एक दूसरे के सहयोग के बिना अपने कार्य में सफल नहीं हो सकते । सहयोग के अभाव में देवसंसार भी निष्क्रिय होता है। हिरणगमेषी देवों को भी इन्द्र की आज्ञा माननी पड़ती है और आभियोगिक देवता भी अपने से निम्न कोटि के देवताओं को हुक्म देते हैं, जो उन्हें मानना पड़ता है। कहने के अभिप्राय यही है कि प्रत्येक का कार्य दूसरे के सहयोग से चलता है। इसीलिये संस्कृत में एक वाक्य में कहा गया है-- जीवो जीवस्य जीवनम् । __ अर्थात् एक जीव का जीवन दूसरे जीव पर आश्रित है। किन्तु इस वाक्य का अनेक लोग बड़ा भयंकर अर्थ लगाते हैं । वे कहते हैं--जीव जीव का जीवन है, इससे तात्पर्य है दूसरे जीव का भक्षण करके जीवन को टिकाया जाये। किन्तु उनकी युक्ति महा अज्ञान और भ्रम से परिपूर्ण है। वे यह नहीं सोचते कि मनुष्य बुद्धि और विवेक से विभूषित प्राणी है तथा पशु-पक्षी एवं कीट-पतंग आदि अन्य समस्त जीव-जन्तु बुद्धिहीन हैं। अतएव उसे बुद्धिहीन जीवों का अनुकरण न करके अपने निर्मल विवेक और बुद्धि का ही अनुसरण करना चाहिये । अगर मनुष्य अपने से निर्बल प्रत्येक प्राणी और मनुष्य की हत्या करने लग जाये तो क्या सृष्टि का क्रम न बिगड़ जायेगा? मनुष्य को मनुष्य बनकर रहना है या पशु बन कर ? स्पष्ट है कि मनुष्य को मनुष्य बनकर रहना है, न कि पशु बनकर। जीव जीव का जीवन है, इसका सही अर्थ यह है कि जीव जीव का सहायक है, सहारा है, उसका नाश नहीं करना है। संसार का कोई भी धर्म इस बात का समर्थन नहीं करता कि मानव किसी भी अन्य प्राणी का घात करे और अपना जीवन रखने के लिये उसे खा जाये। एक फारसी कवि ने कहा है हजार गंजे कनायत हजार गंजे करम । हजार इताअत शबहा, हजार वेदारी॥ हजार सिजदाव हर सिजदा हर हजार नमाज । कबूल नेस्त गर खातरे बयाजारी॥ अर्थात् चाहे मनुष्य अत्यन्त धैर्यवान हो, प्रतिदिन हजार खजाने दान करता हो, हजारों रात्रियां ईशभजन में व्यतीत करता हो, हजारों प्रणाम और उनके साथ हजारों नमाज पढ़ता हो, फिर भी उसकी वे सब शुभ क्रियायें व्यर्थ चली जायेंगी अगर वह किसी भी अन्य प्राणी को तनिक भी कष्ट देता है। आप समझ गये होंगे कि किसी भी अन्य प्राणी को तनिक-सा कष्ट देना भी जब गहित है तो फिर उसका वध करना और उससे अपने जीवन को टिकाने का प्रयत्न करना तो कितना भयंकर फल प्रदान करने वाला होगा। इसलिये हमें शास्त्र की वाणी और संत महापुरुषों के मार्गदर्शन पर विश्वास करते हुए अपने जीवन को निर्मल बनाने का प्रयत्न करना चाहिये । हम जो सोचते हैं और करते हैं, वही सत्य है ऐसा कदाग्रह करना विनाश को निमंत्रण देना है। इसलिये मोक्ष के अभिलाषी व्यक्ति को सर्वप्रथम कदाग्रह छोड़कर जहां से भी गुण मिलें, जहां से सचाई हासिल हो, उसे पाने का प्रयत्न करना चाहिये तथा औरों से सहयोग लेते हुए अपना सहयोग औरों को प्रदान करना चाहिये। सहयोग के अभाव में कहीं भी काम नहीं चलता। बिना किसी के सहयोग के वह अपनी जीवन यात्रा को एक कदम भी नहीं बढ़ा सकता। PAT Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोग सर्वत्र आवश्यक १७१ ___ अहंकार व्यर्थ है कोई भी व्यक्ति अगर इस बात का गव करे कि मुझे किसी भी दूसरे की सहायता अपेक्षित नहीं है, मैं स्वयं ही अपनी जीवनयात्रा को सम्यकरूप से चला सकता हूँ तो उसका यह अहंकार व्यर्थ है। वह अकेला अपना एक भी कार्य सम्यक रूप से नहीं कर सकता। किसो कवि ने अन्योक्ति अलंकार के द्वारा मनुष्य के अहंकार की व्यर्थता बतलाते हुए कागज, स्याही, कलम, चाकू और हाथ का उदाहरण देकर कहा है कागज घंमड से आबोला आलम से मुहब्बत करता हूँ। सुलतान भी मेरी चाह करे, दिल में अभिमान भी रखता है। कागज के इस अभिमान को देख स्याही उबल पड़ी कहे रोशनाई जोश में आकर नाहक तू पत्र उछलता है। जब तक नहीं मेरे अंक पड़ें तब तक कुछ काम न चलता है। कागज और स्याही के इस वाद-विवाद से लेखनी की तंद्रा टूट गई और उसने अपना महत्व बताते हुए कहा दोनों की बातें सुनकर के लेखनी एकदम बोल उठी। मेरा मान सरकार करे दोनों की पोल मैं खोल उठी ॥ लेखनी की इस अपनी बड़ाई को देखकर चाकू कैसे पीछे रह सकता था और बोला लेखनी से चाकू यों बोला जब तक न चलेगी धार मेरी । तब तक न तुम्हारी कीमत है, रही बात श्रेष्ठ हरबार मेरी॥ इस प्रकार कागज, स्याही आदि चारों को आपस में झगड़ते देख हाथ परेशान हो उठा और अपनी समझदारी से इस विवाद को शांत करने के लिये उसने कहा सबको सुनकर पंजा बोला मेरे बिन काम न चलने का। बस फक्त एक ही व्यक्ति से हगिज कुछ काम न बनने का ॥ हाथ की इस बात को सुनकर आप समझ गये होंगे कि संसार में केवल एक ही वस्तु से कार्य सिद्ध नहीं होता। अनेक वस्तुओं के मेल और सहयोग से ही प्रत्येक कार्य बनता है। महत्त्व सभी वस्तुओं का होता है, किन्तु कोई भी कार्य सम्पन्न तभी होता है जबकि सब चीजों का समान सहयोग और परिश्रम हो। समाज में साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका चारों तीर्थ विद्यमान हैं। चारों ही महान् शक्ति से विभूषित हैं। किसी का भी कार्य एक दूसरे के बिना नहीं चलता। अगर श्रावक, श्राविका न हों तो साधुसाध्वी आहार, वस्त्र आदि किससे ग्रहण करके अपनी साधना को निरापद रीति से आगे बढ़ा सकेंगे ? और साधु-साध्वी न हों तो श्रावक-श्राविकायें किससे कल्याणकारी मार्ग पर अग्रसर होने का मार्गदर्शन प्राप्त कर सकेंगे? ये चारों तीर्थ समाज के भिन्न-भिन्न अंग हैं जो परस्पर सहयोग के द्वारा समाज को उन्नत बनाते हैं । अगर इनमें से एक भी अपने को अलग और सर्वशक्तिमान समझने लगे तो वह स्वयं अपूर्ण रह जायेगा और समाज की शक्ति का भी ह्रास करेगा । दूसरे शद्रों में दोनों की हानि होगी और जिस जैनत्व को दोनों चमकाना चाहते हैं, वह निस्तेज होकर रह जायेगा। प्राचीन काल में संसार में जैनत्व के प्रचारप्रसार का मुख्य कारण यह था कि उस समय ये चारों तीर्थ अपने सामूहिक बल और सहयोग के द्वारा उसका प्रचार-प्रसार करते रहते थे, किन्तु आज जैनत्व का प्रवाह भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों और वर्गों में उलझकर अवरुद्ध-सा हो रहा है।। مشعلخد MAA A AAAAAAAAAAAAAAAAA भिआचार्यप्रवर श्रीआनन्दजान्थश्राआनन्द आचार्यप्रवआनन्दमाआउन्ज rewammamtawwammar Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्व आयाम प्रवर अभिनंद श्री आनन्दन ग्रन्थ श्री आनन्द १७२ 水 अभिनंदन ग्रन्थ यह जीवन यात्रा है . जीवन एक यात्रा है, जिसे प्रत्येक प्राणी संपन्न करता है । किन्तु सभी के चलने में बड़ा भारी अंतर होता है । कुछ यात्री ऐसे होते हैं जो अपना मार्ग लड़ते-झगड़ते तथा कटुता और वैमनस्य बढ़ाते हुए तय करते हैं तथा कुछ ऐसे होते हैं जो सद्भावना और सहानुभूति के द्वारा अपने से अशक्त प्राणियों को सहयोग देते हुए, गिरतों को उठाते हुए संतोष और शांतिपूर्वक अपनी मंजिल की ओर बढ़ते हैं। कितना अंतर है दोनों प्रकार के यात्रियों में ? दोनों ही चलते हैं, किन्तु एक उसी पथ पर चलकर नरक और निगोद में जा पहुँचता है और दूसरा उसी मार्ग पर चलता हुआ स्वर्ग, मोक्ष तक भी पहुँच जाता है । इसका कारण केवल यही है कि एक अन्य यात्रियों से असहयोग करता हुआ वैर, विरोध, कटुता और वैमनस्य के कारण नाना प्रकार के कर्मों का बंधन कर लेता है, जो उसे नीचाई की ओर ले जाते हैं तथा दूसरा व्यक्ति सभी को सहयोग देता हुआ और उनसे सहयोग लेता हुआ अपनी आत्मा को कषाय आदि से परे रखता है तथा अपनी निर्मल भावनाओं के कारण पुण्यसंचय कर लेता है जो उसकी आत्मा को ऊंचा उठाते हैं। आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व इसलिये बंधुओं! हमें मानव के रूप में सर्वप्रथम मानवता को अपनाना है, जिसका चरण है मित्रता और सहयोग की भावना रखना तथा सबसे हिल-मिल कर चलना जो व्यक्ति मानवता के इस प्रथम पाठ को सम्यक् रूप से पढ़ और समझ लेता है, वह अपने हृदय को सद्गुणों का भंडार बनाने में समर्थ हो जाता है। गुणार्जन सरल नहीं गुणों को ग्रहण करना आसान कार्य नहीं है, उसके लिये बड़े त्याग और परिश्रम की आवश्यकता होती है। किसान जिस प्रकार अन्न की फसल को प्राप्त करने के लिये सर्वप्रथम भूमि की शुद्धि करता है और उसमें बीज बो देने पर भी रात-दिन सजग होकर उसकी सुरक्षा बड़ी सावधानी और परिश्रम से करने के बाद ही अन्न को प्राप्त करता है । उसी प्रकार मनुष्य को गुण ग्रहण पड़ती है। सर्वप्रथम हृदय की भूमि को कपयादि के कचरे से रहित करने के लिये कठिन साधना करनी बनकर सरलता रूपी खाद से गुण रूपी फसल के उपजाने योग्य बनाना पड़ता है और सद्गुणों के अंकुरों रक्षा करनी पड़ती है। अगर ऐसा न किया जाये तो एक बार सद्गुणों को की अत्यन्त सावधानी से अपना लेने पर भी कुसंगति से पुनः उनके नष्ट हो जाने की संभावना रहती है। कहा भी है रहिमन उजली प्रकृति को, नहीं नीच का संग । करिया वासन कर गहे, करिखा लागत अंग ॥ इसलिये मनुष्य को गुण ग्रहण करने के पश्चात भी उन्हें सुरक्षित रखने के लिए पूर्ण सावधानी बरतनी चाहिये। अतः आवश्यक है कि दुर्जनों की अथवा निर्गुणियों की संगति से बचता रहे। जो व्यक्ति अपने हृदय में सद्गुणों का संचय करने की अभिलाषा रखता है, उसे जहाँ भी प्राप्त हों वहाँ से लेने का प्रयत्न करना चाहिये। गुणप्राप्ति के लिये उसे धनी निर्धन और शत्रु का भेदभाव भी छोड़ देना चाहिये । गुणग्राही व्यक्ति की सबसे बड़ी विशेषता यही होती है कि वह किसी को भी हीन नहीं समझता । वह 'आत्मत्व सर्व भूतेषु' के सिद्धान्त को मानता हुआ अपनी आत्मा के समान ही सभी की आत्माओं को मानता है । उस व्यक्ति के द्वारा किसी भी व्यक्ति का कभी अहित नहीं होता। उसकी प्रकृति सभी से मिलकर चलने की तथा संगठित होकर जाति, समाज और देश का गौरव बढ़ाने की होती है। जान डिकिन्सन नामक एक विद्वान ने कहा है 'संगठन में हमारा अस्तित्व कायम रहता है और विभाजन में हमारा पतन होता है। वस्तुतः संगठन के द्वारा बड़े-बड़े कार्य भी सरलता पूर्वक संपन्न कर लिये जाते हैं, जबकि फूट और भेदभाव की भावना रखने पर छोटे-छोटे उद्देश्यों की भी पूर्ति नहीं हो पाती । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोग सर्वत्र आवश्यक १७३ बंधुओ ! मेरे कथन का सारांश आप समझ गये होंगे कि अगर मनुष्य अपने दुर्लभ मानवजीवन को सार्थक बनाना चाहता है तो उसे अपनी दृष्टि को दोषदृष्टि न बनाकर गुणदृष्टि बनानी चाहिये ताकि उसका हृदय सरलता पूर्वक सद्गुणों का संचय कर सके । दूसरी बात यह है कि यह जीवन एक महायात्रा है, इसे संपन्न करने के लिये किसी-न-किसी के सहारे की, सहयोग की आवश्यकता और ये तभी मिल सकते हैं, जब कि मनुष्य किसी भी अन्य व्यक्ति के प्रति भेदभाव की भावना न रखे तथा सबसे हिलमिल कर चले, मित्रता और सहयोग के आदान-प्रदान से कठिन यात्रा को सरल बनाता हुआ अपनी मंजिल को प्राप्त कर सकता है और 'जीवो जीवस्य जीवनम्' की सत्यता सिद्ध कर सकता है । आनन्द-वचनामृत [] दोपों का दिग्दर्शन कराना बुरा नहीं है, किन्तु उसमें सद्भाव होना चाहिए । दुर्जन -- दूसरों के दोष उनकी निंदा और बुराई के लिए प्रकट करता है, जबकि सज्जन सुधार और निराकरण के लिए । अगरबत्ती भी धुंआ उगलती है और दीपक भी । पर एक का धुंआ सुवास फैलाता है, दूसरे का धुंआ कालिमा । 0 चंचल जल में चाहे जितना मुंह देखो उसमें प्रतिबिम्ब दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार चंचल चित्त में चाहे जितनी प्रार्थना और ध्यान करो, किन्तु प्रभु का प्रतिबिम्ब नहीं झलक सकता । [] स्थिर जल में प्रतिछाया दीखती है, स्थिर मन में ही प्रभु का प्रतिरूप झलकता है। घास-फूस रहित स्वच्छ भूमि पर अग्नि का जोर नहीं बढ़ता, वैसे ही वासनारहित मन में विकारों की अग्नि का कोई जोर नहीं चल सकता । छिद्रवाले घट में चाहे जितना पानी डालो, एक बंद भी पानी उसमें नहीं टिकता, वैसे ही लोभ और अहंकार के छिद्रयुक्त हृदय में चाहे जितना उपदेश दो किन्तु उसमें एक बात भी ठहर नहीं सकती । 0 खिले हुए फूल को सभी चाहते हैं, मुर्झाये फूल को कोई देखना भी नहीं चाहता । इसी प्रकार प्रसन्न रहने वाले व्यक्ति को सभी चाहते हैं, जिसके चेहरे पर त्यौरियां चढ़ी हों, अथवा उदासी छाई हो उसको कोई भी देखना नहीं चाहता । सच्चा दान वह है जिसके लिए हृदय के भीतर से प्रेरणा उमड़े और देने पर मन आनन्द से भर जाये । पैसा देकर जैसे कोई वस्तु खरीदी जाती है, वैसे ही अगर दान देकर यश और प्रतिष्ठा खरीदने की भावना हो तो वह दान नहीं, एक व्यापार है, एक सौदा है । दूध में तेजाब या विष मिलने से जो दोष दूध में आता है, दान में नाम की भूख मिलने से वही दोष दान में आ जाता है । ☆ आचार्य प्रव आमान व आमदन आआनंदी आद ग्रन्थ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VVVVVVVVVVV WINNAYAviviam- WY [ सहयोग की आधारशिला है प्रेम । प्रेम की पवित्रता बनाए रखिए, प्रेम निभाने का राति सीखिए । ] ८ प्रीति की रीति क्या है ? ___ संगठन की आधार शिला प्रेम है । जब तक समाज के सदस्यों में एक दूसरे के प्रति प्रेम भाव नहीं होता, तब तक वे सभी संगठित होकर किसी उद्देश्य के लिए प्रयत्न नहीं कर सकते । इसलिये आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में अन्य सभी प्राणियों के प्रति सद्भावना और उदारता हो। संस्कृत के एक श्लोक से कहा गया है-- 'उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् । यानी जिसका चित्त उदार है, उसके लिये तो केवल अपना परिवार, समाज या देश ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व ही कुटुम्ब के समान है । संसार के प्रत्येक प्राणी को वह अपना कुटुम्बी समझता है । जिस व्यक्ति का अन्तःकरण उदार और प्रेमानुभूति से आप्लावित होगा, उसका जीवन संपूर्ण संसार के लिये आकर्षण का केन्द्र बन जायेगा। 'प्रेम बढ़ाओ!' यह कहने मात्र से तो किसी के हृदय में प्रेम जगाया नहीं जा सकता है। उसके लिये अपने व्यवहार में परिवर्तन करना पड़ेगा और वह किस प्रकार किया जा सकता है, यह हमें निम्नलिखित संस्कृत श्लोक में बताया गया है ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति । भुक्ते भोजयते चैव षडविध प्रीति लक्षणम् ॥ श्लोक में प्रेमवर्धन के छह कारण या प्रेम के छह लक्षण बताये गये हैं। जो इस प्रकार हैं १ ददाति-ददाति यानी देना । देने से प्रेम बढ़ता है । आप अपने किसी भी सुहृद-संबन्धी को अपने हाथ से उपहार देंगे तो उसका आपके प्रति प्रेम बढ़ेगा । देने के महत्व का आप सभी को भली-भांति अनुभव है। क्योंकि आप आये दिन किसी के जन्मदिन या शादी-विवाह में दी जाने वाली पार्टियों में संमिलित होते हैं और उनमें जाते समय कुछ-न-कुछ उपहार लेकर ही जाते हैं, चाहे वह आभूषण हो, वस्त्र हो, पूस्तक या पेन या अन्य कोई भी छोटी-बड़ी वस्तु हो । आप क्यों देते हैं ? जो व्यक्ति अपनी लडकी के विवाह पर हजारों रुपये खर्च करता है, उसे चन्द रुपयों में खरीदी हुई आपकी वस्तु की कोई आवश्यकता नहीं है, किन्तु वह उसे प्रेम का उपहार समझकर ग्रहण करता है। सिर्फ इसलिए कि उसका आपके साथ मधुर सम्बन्ध कायम रहे। वह उपहार की कीमत नहीं देखता, देखता है उसके पीछे रहे हुए आपके स्नेह को और यह स्नेह आपके उपहार को अत्यन्त प्रिय और मूल्यवान बना देता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को देने का महत्व समझकर उससे स्नेह-प्राप्ति का लाभ उठाना चाहिए। २ प्रतिगृल्लाति-इसका अर्थ है बदले में लेना। आप सोचेंगे यह भी कोई प्रेम बढ़ाने का साधन है ? लेने से तो उलटा प्रेम घटता है। पर नहीं, ऐसी बात नहीं है, प्रेम उस लेने से घटता है, जो SAR का Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रीति की रीति क्या है ? १७५ किसी से जबरदस्ती लिया जाता है। जैसे चोरी करके, छीन करके, व्याज या कर के रूप में लेकर के, | या हैसियत न होने पर भी दहेज आदि की माँग करके । संक्षेप में कोई देना न चाहता हो, फिर भी उससे लिया जाय तो अवश्य प्रेम घटता है। किन्तु स्नेह और सम्मान पूर्वक जो किसी के द्वारा लिया जाता है, उसे लेने से प्रेम घटता नहीं, वरन बढ़ता है और उसे लेने से अगर इन्कार किया जाये तो न लेने वाला व्यक्ति अहंकारी साबित होता है। सारांश यही है कि स्नेहपूर्वक किसी से दिया हुआ लेने पर परस्पर प्रेम की वृद्धि होती है। ३ गुह्यमाख्याति-प्रेम वृद्धि में तीसरा कारण है अपने मन की गुप्त बात कह देना । जिस व्यक्ति पर विश्वास हो, उससे मन की न बताने वाली बात कहने से सुनने वाले का स्नेह बढ़ता है और उसे प्रसन्नता होती है कि मुझे विश्वास के योग्य माना है। दूसरे, कहते हैं कि मन की व्यथा कहने से मन हलका हो जाता है और कभी-कभी सुनने वाले के द्वारा किसी समस्या का हल भी निकल आता है। किन्तु ऐसी गुह्य बातें कहने से पहले सुननेवाले को खूब ठोक-बजाकर समझ लेना चाहिये । अगर वह ओछे दिल वाला हआ तो कहने वाले को संसार के सामने उपहासपात्र या अपमानित बनाकर छोडेगा और ऐसे व्यक्ति से कुछ कहना खतरे से खाली नहीं होगा। एक दोहे में कहा गया है कपटी मित्र न कीजिए पेस-पेस बुध लेत । पहले ठांव बताइके पीछे गोता देत ॥ ऐसे व्यक्ति ऊपर से तो नम्रता, पवित्रता और मित्रता का दावा करते हैं, किन्तु उनके अन्तर में कपट का विष भरा होता है। किसी कवि ने सत्य ही कहा है मुखं पद्मदलाकारं वाचा चन्दन-शीतला । हृदयं कर्तरीतुल्यं धूर्तस्य लक्षणं त्रयम् ॥ तात्पर्य यह कि धुर्त व्यक्ति के तीन लक्षण होते हैं। प्रथम धूर्त का मुख कमल के पत्ते के समान । कोमल होता है, दूसरे उसकी वाणी चन्दन के समान शीतल होती है किन्तु उसका हृदय कैंची के समान होता है। इसलिये ऐसे व्यक्तियों से भूलकर भी मन की गुप्त बातें नहीं कहना चाहिये, अन्यथा लेने के बदले देना पड़ सकता है। ४ पृच्छति--यह अभी बताये तीसरे कारण का उल्टा है । अर्थात् प्रेम बढ़ाने का तीसरा साधन मन की गुप्त वात कहना और यह चौथा कारण है दूसरे के मन की बात पूछना । सुनने में यह बात छोटी लगती है, किन्तु महत्व की दृष्टि से कम नहीं है। किसी दुःखी और चिन्ताग्रस्त व्यक्ति को हम देखते हैं तो स्पष्ट महसूस होता है कि उसके दिल पर दर्द का मानो पहाड़ ही खड़ा है। किन्तु जब हम सहानुभूति पूर्वक उससे उसके दुःख का हाल सुन लेते हैं, उसे सान्त्वना देते हैं और बन सके तो उसके दुःख निवारण का कोई उपाय बता देते हैं तो वह व्यक्ति अपने आपको बड़ा हल्का महसूस करता है और हमारे प्रति प्रेम करता हुआ कृतज्ञता प्रदर्शित करता है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अपनी ही हांके जाते हैं, औरों की कुछ नहीं सुनते । ऐसे व्यक्ति से सुननेवाला उकता जाता है और उससे पीछा छुड़ाने का प्रयत्न करता है, किन्तु जो व्यक्ति अपनी कहता है, उसी प्रकार प्रेम से दूसरों की भी सुनता है, वह सभी का प्रिय पात्र बन जाता है और तभी आपस में प्रेम बढ़ता है। ५ भुक्ते-प्रेम बढ़ाने का पांचवां कारण है खाना । खाने से यहाँ आशय अपने घर में बैठकर । अपना ही भोजन करने से नहीं है वरन् औरों के द्वारा प्रेम से खिलाये जाने वाले भोजन से है। भले ही AAAMARRAIMARALAMNAIKAAMAJanaamaanasaaraameriendrauBABAJANAAsaramin AIMAAJAN PARAM.AAAAAA आप्रवभिशनाएर आचार्यप्रवभि श्रीआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्दन awanwarmvvvvITYMAcrir-Mr.om.ww Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपाय प्रवदत अभिन श्री 九 CHOPPE अभिनंदन श्री आनन्दक १७६ आचार्यप्रवर श्री आनन्दॠषि व्यक्तित्व एवं कृतित्व आप श्रीमंत हैं, किन्तु आपका कोई गरीब मित्र या सम्बन्धी अपनी किसी ख़ुशी के अवसर पर आपको आमंत्रित करके आपके सामने अपनी हैसियत के अनुसार रूखा-सूखा भोजन रखता है तो बिना नाक-भौंह सिकोड़े हुए प्रेम से उसे ग्रहण करना चाहिए। अनेक व्यक्ति तो यही मानकर नियम ले लेते हैं कि सामने आये हुए अन्न का कभी अनादर नहीं करूंगा, भले ही उसमें से एक ही ग्रास क्यों न खाऊं, क्योंकि अन्न हमारे लिए देवता के समान पूज्य है। आज के अधिकांश व्यक्ति जो अमीर होते हैं, वे गरीब के घर खाने तो क्या जायेंगे, उनसे बात करने में भी अपनी हंसी समझते हैं। वे भूल जाते हैं कि जिस धन का हम गर्व करते हैं, उसका अन्त क्षय या वियोग ही है और कोई भी लाभ उससे होने वाला नहीं है । श्रीकृष्ण द्वारा विदुर के घर खाये साग और श्रीराम द्वारा शबरी के झूठे बेर खाने की कथा सभी जानते हैं । उनमें महत्त्व खाने की वस्तु का नहीं वरन उसके पीछे रहे हुए स्नेह का है । अतः उसका अनादर कभी नहीं करना चाहिए और अत्यन्त स्नेहपूर्वक जो भी रूखा-सूखा किसी के द्वारा उपस्थित किया जाये, उसे खिलाने वाले के स्नेह के समान ही स्वयं भी स्नेह से ग्रहण करना चाहिए। ऐसा करने पर ही आपसी प्रेम की वृद्धि हो सकती है। I ६ भोजयते— प्रेमवृद्धि का छठा सूत्र है- मिलाना खाने से जिस प्रकार स्नेह बढ़ता है उसी प्रकार खिलाने से भी बढ़ता है । यह नहीं कि किसी के यहां स्वयं तो अनेक बार खा आयें और अपनी श्रीमंताई और उच्चता का प्रदर्शन करने के लिए सामने वाले को कभी ठंडे पानी के लिए भी न पूछें। तो बताइये वहां प्रीति, मित्रता का भाव पैदा हो सकता है ? इसीलिए प्रेम बढ़ाने के लिये खाने के साथ खिलाना भी आवश्यक है । नीति भी यही कहती है कि अगर और कुछ अधिक न कर सकें तो हमें आये हुए अतिथि को रूखा-सूखा खिलाकर ही ठंडा पानी अवश्य ही पिलाना चाहिये। आपके यहां से लाकर जाने वाला व्यक्ति कभी आपको नहीं भूल सकता है। तो बन्धुओ ! आपस में प्रेम बढ़ाने के ये यह साधन आपके सामने रखे गये हैं। अगर प्रत्येक व्यक्ति इनका उपयोग करे तो परिवार में और समाज में कभी अशांति और आपसी तनाव की स्थिति उत्पन्न न हो । यद्यपि ये साधन सुनने में सरल और सहज लगते हैं, किन्तु इन पर अमल करना उतना सरल नहीं है। फिर भी जो व्यक्ति इन पर अमल करेंगे, उनका जीवन निश्चय ही सुन्दर बनेगा तथा अपने सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति के मन को मुग्ध कर लेगा । आप जानते ही हैं कि मन का मिलना कितना कठिन है और उसका फटना कितना सरल है । मन मिलने में तो बहुत समय लग सकता है, किन्तु उसके टूटने में क्षण-भर भी नहीं लगता । एक दोहे में कहा गया है- दूध फटा घी बह गया मन फटा गई प्रोति । मोती फटा कीमत गई तीनों की एक ही रीति ॥ इसीलिये बन्धुओ अपने सम्बन्धों को बिगड़ने मत दो, अन्यथा प्रेम नष्ट हो जायेगा और एक बार जो प्रेम नष्ट हो गया तो फिर उसे पुनः जागृत करना कठिन होगा । अतएव महापुरुष हमें बार-बार कहते हैं - किसी से बैर मत बांधो क्योंकि जीवन का अल्पसमय पलक झपकते ही व्यतीत हो जायेगा किन्तु बैर से बंधे हुए कर्म अनेक जन्मों तक दुःख देंगे और इसके विपरीत अगर मानव, मानव से प्रेम करेगा तो उसका यह जन्म तो सुखद बनेगा ही अगला जन्म भी शुभ कर्मों के फलस्वरूप सुखद हो सकेगा । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [मन्व- कैमा, किस में और कैसे मिले ? इस अबूझ पहेली का अनुभव पूर्ण विश्लेषण ।] ९ सुख की खोज विर ___ इस विराट् विश्व में हम देखते हैं कि मनुष्य से लेकर पशु-पक्षी तथा छोटे-से-छोटे-कीट-पतंग भी सुखप्राप्ति की इच्छा रखते हैं तथा उसके लिए अपनी शक्ति के अनुसार दौड़धूप करते रहते हैं । सभी को सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय, अतः सुख को प्राप्त करना और दुःख से बचना चाहते हैं। फिर भी महान् आश्चर्य की बात है कि कोई भी प्राणी अपने आपको सुखी अनुभव नहीं करता। सभी अपनी स्थिति से असन्तुष्ट रहते हैं। किसी को पुत्र का अभाव पीड़ित कर रहा है, कोई धनाभाव से दुखी हो रहा है, कोई रोग के फन्दे में जकड़ा हुआ है, किसी को पारिवारिक क्लेश सता रहा है, किसी के पास मकान नहीं है, किसी को व्यापार में घाटा हो रहा है और कोई कन्या के विवाह के लिए चिन्तित हो रहा है । इस प्रकार जिधर देखो और जिस व्यक्ति को देखो, वही किसी-न-किसी प्रकार के दुःख, शोक, चिन्ता, व्याकुलता तथा व्याधि आदि के कारण अशांत और दुखी दिखाई देता है। संसार की ऐसी स्थिति के कारण जिज्ञासु व्यक्तियों के अन्तःकरण में यह जानने की इच्छा बलवती होती है कि आखिर इसका कारण क्या है ? जिससे प्राणी सुख की अभिलाषा रखते हुए तथा सुख के लिए प्रयत्न करते हुए भी सुख को हासिल नहीं कर पाता । सांसारिक सुख हितोपदेश के एक श्लोक में सुख के विषय में बताया है अर्थागमो नित्यमरोगिता च, प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च । वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या, षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन् । कहा है-हे राजन् ! नित्य धन का लाभ, आरोग्यता, प्रिय और प्रियवादिनी स्त्री, आज्ञाकारी पुत्र तथा धन को प्राप्त कराने वाली विद्या-ये संसार के छह सुख हैं। इस प्रकार संसार में छह प्रकार के सुख बताये गये हैं। किन्तु हम दीर्घदृष्टि से विचार करते हैं तो निश्चय ही महसूस होता है कि धन से सच्चे सुख की प्राप्ति कहाँ सम्भव है ? धन से न हम असाध्य रोगों को मिटा सकते हैं, न उससे युवावस्था को स्थिर रखकर बुढ़ापे को आने से रोक सकते हैं और न ही धन की बदौलत मौत से ही बच सकते हैं। जरा ध्यान से विचार करने की बात है कि इस संसार में धन से कौन सुखी होता है ? देवलोक में देवता भी सुखी नहीं हैं। उनके पास प्रचुर वैभव होता है, विमान होते हैं, सुन्दर देवियाँ होती हैं । किन्तु देवताओं को भी अपने वैभव से सन्तोष नहीं होता और वे दूसरे देवों की समृद्धि देख-देखकर असन्तोष और ईर्ष्या की आग में जलते रहते हैं। हम पृथ्वीपति राजाओं को देखें तो वे भी सुखी नहीं हैं। उनके यहाँ अत्यधिक दास-दासियां, सेना, खजाना आदि होता है। उन्हें भी अन्य राजाओं के आक्रमणों से अपने राज्य की रक्षा की चिन्ता रहती है। ....amarianawaimaniamarnatanArraimarnamansamanaramaAIADUADADALAIMAN आचार्यप्रवभिनआचार्यप्रवर आभार श्रीआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्द अन्य werNYMNNAMVNayvfvivneriwavimanawr Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMANAKAMANAankraniHAMANNADAJanANKicantic, १७८ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व कभी-कभी उनके सगे-स्नेही भाई या पुत्र भी उन्हें धोखा दे देते हैं। तात्पर्य यही है कि राजाओं को भी धन रहते हुए भी सुख हासिल नहीं होता। इसी प्रकार सेठ-साहूकारों को देखें तो वे भी सुखी नहीं दिखते हैं। उन्हें भी राजा-चोर आदि का भय बना रहता है। राजा की आँख जरा टेढ़ी हुई नहीं कि सब धनमाल छीनकर देशनिकाला दे दिया जाता है। चोरों की नजर जम गई तो धन तो गया ही, प्राणों से भी हाथ धोना पड़ जाता है। तो बन्धुओ, जैसा कि श्लोक में कहा गया है—नित्य धन का लाभ होना संसार में पहला सुख है, यह सही साबित नहीं होता । अपितु धन सदैव दुखदायी होता है । क्योंकि अर्थानामर्जने दुःखं अजितानाञ्च रक्षणे । आये दुःखं व्यये दुःखं किमर्थं दुःख साधनम् । धन का उपार्जन करने में भी दुःख है, उपार्जन कर लेने के बाद उसकी रक्षा करने में दुख होता है। धन के आने में दुःख और चले जाने में भी दुःख । तब फिर अरे मानव ! तू जानबूझ कर क्यों दुःख-प्राप्ति का साधन करता है ? दुसरा मुख बताया है आरोग्यता । यानी निरोग रहना भी संसार के छह सुखों में से एक सुख है। इसके विषय में आप और हम सभी जानते हैं कि सुन्दर स्वास्थ्य यद्यपि सुखदायी है और स्वस्थ रहने पर इन्सान अपने आपको पूर्ण सुखी मानता है। कहा भी जाता है-पहला सुख निरोगी काया। किन्तु यह शरीर किसी भी हालत में सदा स्वस्थ नहीं रह सकता है। चाहे व्यक्ति सदा ही पौष्टिक पदार्थ खाता रहे, फिर भी न जाने किस अदृष्ट मार्ग से आकर रोग उसे घेर ही लेते हैं और वृद्धावस्था के आ जाने पर तो वे हटाये नहीं हटते । अतः आरोग्यता को भी स्थायी सुख मानना भी निरा अज्ञान है। अब हम श्लोक की दूसरी पंक्ति पर विचार करते हैं। जो कहती है-- प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।' यानी प्रिय और प्रियवादिनी पत्नी का मिलना भी सुख का कारण है। किन्तु हम तो संसार में यह बात भी सही होते नहीं देखते हैं । देखते यही हैं कि सभी सम्बन्धियों के समान ही जब तक मनुष्य धन कमाता है तथा वस्त्राभूषण आदि से पत्नी को सन्तुष्ट रखता है तभी तक वह भी अपने पति से मधुर भाषण करती है और जब पति भाग्य के विपरीत होने से इन भौतिक साधनों को नहीं जुटा पाता तो वह भी आँख फेर लेती है। अगर यह मान भी लिया जाये कि पत्नी की पति में प्रीति होती है तो वह भी कितने समय तक मुख पहुंचा सकती है ? केवल तभी तक तो जब तक कि मनुष्य इस शरीर को धारण किये हुए है। आँखें मुदते ही तो स्त्री का वियोग हो जाता है और आत्मा अन्य किसी योनि में जन्म लेने पहँच जाती है। अतः सुख स्वजनों को अथवा मन के अनुकूल पत्नी को प्राप्त कर लेने में भी नहीं है। अन्यथा कोई यह क्यों कहता घर को नार बहत हित जासों, रहत सदा संग लागी । जब ही हंस तजो यह काया, प्रेत प्रेत कह भागी॥ कहने का अभिप्राय यही है कि नारी के मुख को सुख मानना भी निरर्थक है। यह सुख भी कभी स्थायी नहीं होता है। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख की खोज १७६ यासार. अगला सुख आज्ञाकारी पुत्र का होना माना है। लेकिन इस युग में तो पुत्र का आज्ञाकारी होना बड़ी ही असम्भव-सी बात लगती है। आये दिन सुनते, देखते और पढ़ते हैं कि अमुक स्कूल के विद्यार्थियों ने अपने मास्टरों को गालियाँ दीं, अमुक कालेज के छात्रों ने प्रोफेसर को पीट दिया । क्या ऐसे अनुशासनहीन लड़के अपने माता-पिता का भी आदर-सम्मान कर सकते हैं ? जो छात्र अपने गुरु का मान नहीं करते वे आगे जाकर अपने माता-पिता का मान क्या रख सकते हैं ? इसके अलावा मान भी लिया जाये कि कोई पुत्र सुपुत्र है, तो भी उसकी ओर से क्या माता-पिता को सुख मिलता है ? नहीं, जन्मने के साथ ही उसकी सार-सम्भाल करना शुरू हो जाता है, माता-पिता स्वयं अनेकानेक कष्ट सहकर उसका लालन-पालन करते हैं। इसके पश्चात् वृछ बड़ा होने पर उसकी पढ़ाई-लिखाई के खर्च आदि की चिन्ता में इतना परिश्रम करना पड़ता है कि माता-पिता को स्वयं की ओर ध्यान देने का भी अवकाश नहीं मिलता। इसके पश्चात् जरा बड़ा होने पर शादी-विवाह की चिन्ता हो जाती है, उससे निवृत्त होने पर पौत्र-पौत्री हो गये तो उनकी मोह-ममता में पड़े रहकर अपनी आत्मा के लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता। इस प्रकार पुत्र के जन्म से लेकर ही माता पिता को कभी शांति नसीब नहीं हो पाती और ऐसी स्थिति में पुत्र से सुख मिलता है, यह कहना भूल के अलावा और क्या कहा जा सकता है ? इलोक में छठा सुख बताया गया है--अर्थ के उपार्जन में सहायक होने वाली विद्या का प्राप्त करना। पर क्या उस विद्या या शिक्षा से इन्सान सच्चे सुख की प्राप्ति कर सकता है ? नहीं। पहले तो विद्यार्थी वर्षों तक अनेक विषयों की पोथियाँ रटते-रटते ही परेशान हो जाता है और पढ़-लिख लेने के बाद नौकरी मिल गई तो सूबह से शाम तक कार्यरत रहकर अपने स्वास्थ्य को खो बैठता है। प्राप्त धन उसे निन्यानव के चक्कर में डाल देता है । चाहे वह सौ रुपये कमाता हो या हजार रुपये, अपनी भिन्न-भिन्न आवश्यकताओं के पुरे न होने का रोना रोते रहते हैं। जैसे-जैसे लाभ बढ़ता जाता है, वैसे-ही-वैसे लोभ की मात्रा भी बढ़ती जाती है। इस प्रकार धन का उपार्जन कराने वाली विद्या को हासिल करके भी व्यक्ति कभी सुख का अनुभव नहीं कर पाता। कहने का अभिप्राय यही है कि संसारी जीव परपदार्थों के निमित्त से सुख प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु वह सुख, सुख नहीं, सुखाभास बनकर रह जाता है। पर-पदार्थजन्य सुख केवल मिट्टी के मोदक हैं जो बाहर से तो मन को मुग्ध कर सकते हैं, किन्तु सार उनमें कुछ भी नहीं है। ऐसा जान लेने के पश्चात् स्वभावतः मन में प्रश्न उठता है कि फिर सच्चा सुख कहां है और वह कैसे प्राप्त हो सकता है ? सच्चे सुख की प्राप्ति के उपाय इसका उत्तर यही है कि सुख आत्मा का गुण है और गुण सदैव गृणी में ही विद्यमान रहता है। अतः सच्चा सुख भी आत्मा के अन्दर ही रहता है। बाह्य पदार्थों में खोजने से वह प्राप्त नहीं हो सकता। वह इन्द्रियों द्वारा भोगा नहीं जा सकता और वाणी से उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। उसे केवल गंगे के गुड़ की उपमा दी जा सकती है यानी वह केवल अनुभव से जाना जा सकता है। जैनागमों में उसकी प्राप्ति का क्रम इस प्रकार बताया है--- जया निविदए भोए जे दिव्वे जे य माणसे । तया चयइ संजोगं सभितर बाहिरं ।। NA आपाय प्रवर अभिआपार्यप्रवर आभन श्रीआनन्दान्थ श्राआनन्द 697 wireonewwindiwoartenmA. Ram Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मप्रवभिआचार्य श्रीआनन्द अन्य श्रीआनन्दा अन्ध५2 १८० आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व गया जया जोगे निरु भित्ता सेलिसि पडिवज्जइ । तया कम्म खवित्ताणं सिद्धि गच्छइ नीरओ ॥ जया कम्म खवित्ताणं सिद्धि गच्छइ नीरओ। तया लोग मत्थयत्यो सिद्धो हवइ सासओ॥ अर्थात् जीव जब देवता और मनुष्य सम्बन्धी समस्त कामभोगों से विरक्त हो जाता है तब बाह्य और आन्तरिक सभी संयोग त्याग देता है। माता-पिता, महल-मकान आदि बाहर के पदार्थों का संयोग, बाह्य संयोग और राग द्वेषादि मोह और कषायों का संयोग आभ्यन्तर संयोग कहलाता है। जब मनुष्य बाह्य और आभ्यन्तर संयोगों का त्याग कर देता है तो पूर्ण संयमी बन जाता है और कर्मरज को दूर करता हुआ केवलज्ञान और केवल दर्शन को प्राप्त करता है। पश्चात् मन, बचन और काया के योगों को निरोध करके आत्मा शैलेशी अवस्था यानी सुमेरु के समान अकम्प दशा को पा लेता है और तब सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके सिद्धगति प्राप्त कर लेता है। और जब सिद्ध गति को प्राप्त कर लेता है तो लोक के अग्रभाग पर विराजमान हो जाता है और शाश्वत सिद्ध कहलाता है। इस प्रकार सच्चा सुख केवल मुक्त अवस्था प्राप्त कर लेने में है। आत्मा जैसे-जैसे पर-पदार्थों पर से अपनी ममता हटाता जायेगा तथा आत्मस्वरूप में लीन होता जायेगा, वैसे-ही-वैसे वह सच्चे सुख की प्राप्ति करता जायेगा। अभिप्राय यही है कि सुख संसार के भोगोपभोगों मैं, तथा के पदार्थों का संचय करने में नहीं अपितु उनका त्याग करने में है। त्याग की भावना ऐसी जबरदस्त और प्रभावशाली होती है कि जिसके कारण व्यक्ति राजपाट को भी ठोकर मार देता है और अकिंचन बनकर पूर्ण सन्तोषपूर्वक आत्म-साधना में जुट जाता है । इतिहास उठाकर देखने पर हमें अनेकानेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि बड़े-बड़े राजा-महाराजा और चक्रवर्ती भी अपना सर्वस्व त्याग कर साधु बन गये तथा सन्त जीवन अपनाकर आत्मकल्याण में जुट गये। विवेकी और ज्ञानी पुरुष इस यथार्थ को समझ लेते हैं और भगवान के कहे हुए इन शब्दों पर पूर्णतया विश्वास करते हैं 'कामे कमाही कमियं खु दुक्खं ।' कामनाओं को जीत लो, दुख दूर हो जायेगा। इस एक वाक्य में ही अनन्त काल से उलझी हुई समस्या का अति सुन्दर समाधान दिया हुआ है कि मानव जब तक कामनाओं का दास बना हुआ है तब तक दुःखों से नहीं बच सकता और सुख की प्राप्ति नहीं कर सकता। बन्धुओ, आप सच्चे सुख का रहस्य समझ गये होंगे किन्तु उसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील भी बनेंगे तभी अपना जीवन सफल बना सकेंगे। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाव बिना सब सूना, भावना का, महत्व, शद्ध भाव की विशिष्टता, जैसा भाव पैसा अनुभाव आदि पर उद्बोधक चिम्तन ।] १० जाकी रही भावना जैसी आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है भावरहिओ न सिज्झइ१ भाव (भावना) से रहित आत्मा कितना भी प्रयत्न करे वह मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। शास्त्रों में मोक्ष के जो चार मार्ग बताये हैं-दाणं च सीलं च तवो भावो एवं चउविही धम्मो२ "दान, शील, तप और भाव यह चार प्रकार का धर्म है अर्थात् दान, शील तप और भाव, उनमें अन्तिम मार्ग भाव है। एक प्रकार से यों कह सकते हैं कि दान, शील और तप भी तभी मुक्ति के मार्ग होते हैं, वे भी सिद्धिदायक, फल प्रदाता तभी होंगे जब उनमें भाव होगा । भावना से शून्य दान, शील, तप आदि केवल शरीरकष्ट और अल्प फल देने वाले ही होंगे । इसीलिए तीनों को आखिर में भाव के साथ जोड़ा गया है। दान के साथ में दान देने की शुद्ध भावना होगी, शील-ब्रह्मचर्य पालने में भी सच्ची भावना होगी और तप करने में भी यदि भाव शुद्ध होंगे तभी वे मुक्ति के कारणभूत बनेंगे । इसलिए यह बात शत-प्रतिशत सही है कि भावरहिओ न सिज्झई-भाव शुन्य आचरण कभी भी सिद्धिदायक नहीं होता। आचार्य भद्रबाहु ने कहा है कि वाएण विणा पोओ न चएइ महण्णवं तरिउ जैसे हवा के बिना अच्छे से अच्छा जहाज भी समुद्र में चल नहीं सकता, वैसे ही अच्छे से अच्छा चतुर साधक भी भाव के बिना संसार-सागर को पार नहीं कर सकता । नाव को चलाने में जैसे पवन कारण है, वैसे ही धर्मरूप, साधना रूप नाव को संसार समुद्र से तैरने में भाव ही मुख्य कारण है। भाव के बिना सर्वत्र अभाव-ही-अभाव है। भगवान कहाँ ? भाव में ! लोग मंदिर में जाकर मूर्ति को पूजते हैं-कोई पत्थर की मूर्ति को, कोई सप्तधातु की मूर्ति को और कोई सोना तथा हीरों-पन्नों की मूर्ति के सामने सिर झुकाता है, उसे भगवान मानकर पूजता है, तो क्या भगवान उस मुति में है ? है तो कौनसी मति में है ? सोने-चांदी की मूर्ति में भगवान है या पत्थर की मूर्ति में या आपके हीरा-पन्नों की मूर्ति में भगवान है ? आप कहेंगे भगवान मूर्ति में थोड़े ही है, भगवान तो भाव में है, मन में है। राजस्थानी में कहावत है-"मान तो देव नहीं तर भीतरा लेव।" इसी भाव को आचार्य चाणक्य ने कहा है १ भावपाहड ४ २ सारसय ठाणा वृत्ति द्वार १४१ पृ० ७० (अभिधान राजेन्द्र कोष भाग ४ पृ० २८६) ३ आवश्यक नियुक्ति ६५ GARMANANDNISEAuranoAAAAdamasounawwanceridoosasswomamaARDAMBARABAN morrmwarerrersomamrosemomyim Maw.janelibrary.org Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ عرعر عرعر عرعر عرعر عرقع می ها را با معما هافنغتعظیم و تحقیقرقره لعمل عرعر عرعر عرعر N Sun ONOM ION: 262 AranMantrarawatiwwewiwwwmivinemamalivinirmanand १८२ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व न देवो विद्यते काष्ठे न पाषणे न मण्मये । भावेषु विद्यते देव स्तस्माद् भावो हि कारणम् । देवता, भगवान न लकड़ी की मूर्ति में है, न सोने और पत्थर आदि की मूति में है, भगवान तो सिर्फ भाव में है इसलिए भाव ही मुख्य कारण है। कबीरदास ने कहा है मुझको कहाँ ढूँढ़े बंदे ! मैं तो तेरे पास में। ना मैं मक्का, ना मैं काशी, ना काबे कैलाश में । मैं तो हूँ विश्वास में ! भगवान कहते हैं-मूर्ख भक्त ! तू मुझे कहाँ ढूंढ़ रहा है ! मैं न तो मक्का-मदीना में हूँ, न येरुसलम (ईसाई तीर्थ) में, न काशी में, न कैलाश में, न शिखर जी और न गिरनार में, मैं कहीं बाहर में या पर्वत आदि तीर्थों में नहीं रहता हूँ, मैं तो तेरे पास में ही हूँ, और तेरे विश्वास में ही हूँ। जहाँ, जिस जगह तेरा विश्वास जम गया, जहाँ तेरी भावना जग गई, उसी स्थान में मैं प्रकट हो जाता हूँ । मेरा निवास मुर्ति या तीर्थ में नहीं, भाव में है, दिल में है। पद्मपुराण में एक प्रसंग है कि नारदजी ने विष्णु से पूछा-भगवन् ! आपका निवासस्थान कहाँ है ? विष्णु जी ने उत्तर दिया--- नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च । मद् भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ! न मैं वैकुण्ठ में रहता हूँ, न शेष-शय्या पर और न योगियों के हृदय में, किन्तु मेरे भक्त जहाँ भावना के साथ मुझे पुकारते हैं, मैं वहीं उपस्थित रहता हूँ । उर्दू के एक शायर ने कहा है दिल में तसवीर है यार की गर्दन झुकाई कि देख ले । तेरे भगवान की तसवीर तेरे मन में, भाव में ही है, बस यों गर्दन झकाई अर्थात् अन्तर में झांका कि वहीं भगवान के दर्शन हो जायेंगे । तो इस समूचे विवेचन का अर्थ है कि भगवान, धर्म या साधना का अस्तित्व किसी बाह्य वस्तु में नहीं अपने अन्तर में है और वह अन्तर की शक्ति और कुछ नहीं, सिर्फ भाव है। भाव के बिना सब द्रव्य है दान, शील, तप, स्वाध्याय, पूजा, आदि जितने भी धार्मिक कृत्य हैं, उन सब का फल तभी होता है, जब इनमें भाव हो, अर्थात् इनके साथ भावना का योग हो। भावशून्य क्रिया कभी फलप्रदायिनी नहीं हो सकती। आचार्य सिद्धसेन ने पार्श्वनाथ भगवान की स्तुति करते हुए कहा है आणितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या। जातोऽस्मि तेन जन बांधव ! दुःखपात्रं, यस्मात् क्रिया प्रतिफलन्ति न भावशून्याः । हे प्रभो ! अनेक बार आपके दिव्य वचन सुनकर भी, आपकी पूजा करके भी, और क्या, आपके देव दुर्लभ दर्शन पाकर भी भक्तिपूर्वक उनमें मन नहीं लगाया। इसी कारण तो जन्म-जन्म में भटकते हुए दुःख पा रहा हूँ, क्योंकि भावशून्य क्रिया कभी फलदायी थोड़े ही होती है ? ४ चाणक्यनीति ८।११ ५ कल्याणमन्दिर स्तोत्र ३८ । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाकी रही भावना जैसी १८३ 705 NEL CLAR भाव रहा तो थोड़ा-सा सत्कर्म भी बहुत बड़ा फल देता है और भाव नहीं रहा तो जन्म भर किये गये सत्कर्म भी व्यर्थ तथा अल्पतम फल देने वाले होते हैं। कहा जाता है नमक बिना ज्यों अन्न अलूना, आंख बिना ज्यों जीवन सूना, भाव बिना त्यों धर्म अपूना । आँख के बिना ज्यों जीवन सूना है, नमक बिना मसालेदार भोजन अलूना है, उसी प्रकार भाव के बिना समस्त धर्म क्रियाएँ अपूर्ण हैं, अधूरी हैं। जैनधर्म भावप्रधान धर्म है। यहाँ प्रत्येक वस्तु का विवेचन द्रव्य और भाव दो दृष्टियों से किया जाता है । द्रव्य का अर्थ है---भावनाशून्य प्रवृत्ति। जैसे प्राणरहित शरीर होता है, उसे द्रव्यजीव कहते है, वैसे ही भावरहित धर्म को, द्रव्यधर्म कहते हैं। साधुपन, श्रावकपन, सामायिक, प्रतिक्रमण-सभी को द्रव्य और भाव की अलग-अलग कसौटियों पर कसा गया है । जिस क्रिया के साथ उपयोग नहीं होता, भाव नहीं होता, वह द्रव्यक्रिया है। आप प्रतिक्रमण कर रहे हैं, अथवा सामायिक कर रहे हैं, वेषभूषा, आसन आदि सब जमा लिए, मह से पाठ का उच्चारण भी करने लगे, लेकिन मन, भावना कहीं अन्यत्र भटक रही है तो? आपका शरीर स्थानक में बैठा है और मन दुकान में ? तो क्या आपकी सामायिक भाव-सामायिक होगी? नहीं ! आप मह से प्रतिक्रमण का पाठ बोल रहे हैं और मन कहीं किसी से राग-द्वेष कर रहा है, कहीं लेन-देन, खाने-पीने की चिन्ता में लगा है तो वह प्रतिक्रमण भी सिर्फ द्रव्य-प्रतिक्रमण होगा। अनूयोगद्वार सूत्र में आवश्यक के दो भेद बताये गये हैं-द्रव्य-आवश्यक और भाव-आवश्यक । भावना रहित सिर्फ शब्दों का उच्चारण करना द्रव्य-आवश्यक है और शब्दों के साथ भाव, मन उसी में अनुरक्त हो जाये तब वह भाव-आवश्यक होता है। बताया गया है—तब्भावणाभाविए अन्नत्य कत्थइ मणं अकरेमाणे.. उच्चारण किये जाने वाले शब्दों की जो भावना है, उस भावना से भावित होकर जो मन को उसी में स्थिर करता है, उसी को भाव-आवश्यक होता है। फलं भावानुसारतः कभी-कभी आप लोग देखते हैं और सुनते भी हैं कि क्रिया कुछ और चल रही है और फल कुछ दुसरा ही आ रहा है। आप लोगों को आश्चर्य हो सकता है कि यह क्या? वास्तव में देखा जाय तो फल क्रिया के पीछे नहीं, भाव के पीछे चलता है। आगम में बताया है धर्म में स्थिर, उपयोगयुक्त संयमी साधु रास्ते चलता है, उसके पैर से किसी जीव का प्राणवध हो जाता है, दीखने में हिंसा प्रतीत होती है, किन्तु वास्तव में वह साधु हिंसक नहीं, किन्तु अहिंसक ही है । उसे उपयोग पूर्वक गति करने में पापबंध नहीं कितु कर्मनिजरा होती है। जा जयमाणस्स भवे विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स । सा होइ निज्जरफला, अज्झत्य विसोहि जुत्तस्स । जो यतनावान साधक अन्तर विशुद्धि (निर्मल-भावना) से युक्त है, और आगमविधि के अनुसार आचरण करता है, उसके द्वारा कभी-कभार हिंसा (जीव-विराधना) होने पर भी वह कर्म निर्जरा का कारण होती है। आप आश्चर्य करेंगे कि ऐसा क्यों? यह साधु के साथ पक्षपात नहीं है ? वास्तव में विचार करेंगे तो यहाँ भावना का सर्वोपरि महत्व आपके ध्यान में आयेगा, भाव शुद्ध होने पर हिंसा भी अहिंसा ६ ओघ नियुक्ति, गाथा ७५८-५९ RAMANAR A BANAARIORANJASAAMIRROARDINARIWANIMAdoctarLANJAJARAANADASHIANNAIMIRAMMALANATAFIRandingMIALA MAMITRAMAnimer wowonlod Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमानन्द अदन आनन्द आमदन १८४ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि: व्यक्तित्व एवं कृतित्व हो सकती है, कर्मबंध के कारण भी निर्जरा के कारण बन जाते हैं । इसका कारण है- पुण्य-पाप क्रिया के 'अनुसार नहीं, किन्तु भाव के अनुसार होते हैं । इसीलिए तो भगवान महावीर ने कहा है-जे आसवा ते परिस्सा | ७ ॐ ST 雨 जो आश्रव हैं, कर्मबंध के हेतु हैं, वे ही भावना की पवित्रता के कारण परिश्रव - अर्थात् कर्मनिर्जरा के कारण हो जाते हैं। जितने, जो-जो कारण संसारवृद्धि के हैं, भावना बदलने से वे ही सब कारण संसारमुक्ति के हो जाते हैं, यह आचार्य भद्रबाहु का कथन भावना की फल-शक्ति का परिचायक हैं । 5 योगवाशिष्ठ में महर्षि व्यास ने कहा है अमृत रूप से चिन्तन करने पर विष भी अमृत बन जाता है । शत्रु को बार-बार मित्रदृष्टि से देखने पर शत्रु भी मित्र बन जाता है । श्रीमद्भागवत में कहा है यत्र यत्र मनोदेही धारयेत् सकलं धिया । स्नेहाद् द्वेषाद् भयाद् वापि याति तत्तत्स्वरूपताम् ॥ प्राणी, स्नेह, द्वेष या भय से अपनी भावना को, मन को जहाँ-जहाँ लगता है, वहाँ मन वैसा ही स्नेही, द्वेषी और भयाकुल हो जाता है । अर्थात् स्नेह का चिन्तन करते रहने पर स्नेही, द्वेष की भावना रखने पर द्वेषी और भय की भावना रखने पर भयभीत बन जाता है। वीतराग प्रभु के निकट जातिद्वेष रखने वाले सिंह-बकरी, चूहा -बिल्ली वैर-विद्वेष भूलकर निर्वैर क्यों हो जाते हैं ? इसका कारण हैउनकी वीतराग भावना । उनकी वीतरागता का प्रभाव अन्य प्राणियों की भावना पर भी होता है और उनकी भी भावना बदल जाती है । अमृतत्वं विषं याति तदेवामृतवेदनात् । शत्रु मित्रत्वमायाति मित्र संवित्ति वेदनात् । मैं बता रहा था कि हम जो कुछ क्रिया करते हैं, उसका फल भावना के अनुसार ही हमें मिलता है । भावना शुद्ध रही तो आधा घंटा में भी महान कर्मनिर्जरा कर सकते हैं, पुण्यों का अक्षय उपार्जन कर सकते हैं । संस्कृत में कहावत है- दुग्धं देयानुसारेण कृषिर्मेघानुसारतः । लाभोद्रव्यानुसारेण पुण्यं भावानुसारतः ॥ गाय-भैंस को जैसी खुराक दी जाती है, उसी के अनुसार वह दूध देती है, जैसा मेघ बरसता है, वैसी ही खेती होती है, दुकान में जैसा जितना माल सामान रखा जाता है उसी के अनुसार लाभ या कमाई हो सकती है, और क्रिया में जैसी भावना होती है, उसी के अनुसार पुण्य होता है। इसलिए जिस कार्य में जैसी भावना रहेगी उसी के अनुरूप फल प्राप्ति होगी । कहा है ७ ८ मंत्र में, तीर्थ में, ब्राह्मण के प्रति, देवता, भगवान के प्रति, ज्योतिषी के प्रति, औषधि और गुरु के प्रति जिसकी जैसी भावना होती है, उसे उसी प्रकार की सिद्धि मिलती है । अर्थात् जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी । जिसकी जैसी भावना रही, वह प्रभु को उसी रूप में देखता है । आचारांग ४/२ ओ नियुक्ति ५२ मंत्र तीर्थे द्विजे देवे दैवज्ञ भेषजे गुरौ । यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाकी रही भावना जैसी १८५ राजस्थान में एक कहानी बहुत प्रसिद्ध है दोय जणा बीज बावण ने जाय, मारग में मिलिया मुनिराय । एक देखने हुबो खुशी इणरा माथा जिसा सिट्टा हुसी । बीजो मनमें करे विचार, मोड़ो मिलियो मारग मझार । मस्तक मुंड पाग सिर नाही, कडबा हसी पण सिट्टा नांहीं । किसी गाँव में दो किसान रहते थे । आषाढ का महीना आया, बादल आकाश में छाये, वर्षा हुई और दोनों ही अपने-अपने हल उठाकर खेतों में गये। रास्ते में गांव के बाहर निकलते ही कोई मुनिराज । मिल गये । मुनिराज चातुर्मास करने के लिए गांव में आ रहे थे। मुनि का मस्तक सफाचट था, यह देख कर दोनों किसान विचार करने लगे। पहले ने सोचा-शकुन तो बहुत अच्छे हुए हैं, मैं बाजरी बोने जा रहा हूँ, और नंगे सिर वाला साधु सामने मिला है तो जरूर इस बार साधु के सिर जितने बड़े-बड़े सिट्टे होंगे। इधर दूसरे किसान के मन में भी विचार आया-नंगे सिर वाला मोड़ा (साधु) मिला है, शकुन अच्छे नहीं हुए। साधु के सिर पर पगड़ी नहीं है, इसलिए कडबी तो होगी, लेकिन सिटे नहीं होंगे। संयोग की बात की दोनों ने जैसा विचार किया, वैसा ही हुआ। पहले किसान के खेत में खूब सिट्ट हुए, बाजरा हुआ। दूसरे के खेत में टिड्डियाँ आ गई, सारे सिट्ट खा गईं बस कडब-कड़बा रह गया। तो जैसी भावना थी वैसा ही फल मिल गया। जिसकी भावना अच्छी थी, उसे अच्छा फल मिला, जिसकी भावना बुरी हुई उसे बुरा फल मिला। इस प्रकार हमारे जीवन में, हमारे धार्मिक एवं आध्यात्मिक अभ्युत्थान में भावना एक प्रमुख शक्ति है। भावना पर ही हमारा उत्थान और पतन है, भावना पर ही विकास और ह्रास है। शुद्ध, पवित्र एवं निर्मल भावना जीवन में विकास और उत्थान का मार्ग प्रशस्त करती है। इसलिए भावना को सदा उज्ज्वल और पवित्र रखना चाहिए। आनन्द-वचनामृत 0 एक जिज्ञासु ने ज्ञानी से पूछा--शरीर में सबसे उत्तम अंग कौन-सा है ? ज्ञानी ने कहा-अन्तःकरण और जीभ । कैसे ? जिज्ञासु ने पूछा । ज्ञानी ने उत्तर दिया-करुणा से पूरित हृदय, और सत्य-देवता के आवास से युक्त जिह्वा ये देह में सर्वोत्तम अंग हैं । और देह में सब से अधम अंग-? जिज्ञासु ने पूछा। ज्ञानी ने पुनः कहा-वही ! क रता पूर्ण अन्तःकरण और असत्य के दोष से दूषित वाणी, ये दो ही इस शरीर में सबसे अधम अंग हैं। - मनुष्य का अर्थ है मननशील प्राणी । अगर वह अपने सम्बन्ध में मनन नहीं करता है तो फिर मनुष्य कैसा? मैं क्या हूँ ? मुझे क्या करना है ? क्या कर रहा हूँ ? कहाँ जाना है ? कहाँ से आया हूँ ? मेरे भीतर कितने दोष हैं ? कितने गुण हैं ? पशुता का कितना अंश है ? मनुष्यत्व और देवत्व का कितना अंश है ? इस प्रकार का मनन करना मनुष्य का धर्म है, मनुष्य शब्द की सार्थकता है । आचावट भिआचार्यप्रवरआभार श्रीआनन्दमन्थश्राआनन्दजन्य 2 aurinandna anwAAAAAAdren mernamaAREmainsaanumanAAMADUADIDAON . . ८ C GO HAL PYARAMINIMAvievementatwawuviwwviviewownAPNivrunnerma Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ asar .. Nandi..- .... . WAmaranMARINAKAM -www [मंगत जैसी रंगत, सत्संगति के लाभ, जावन-विकास में सत्संग का महत्त्व आदि पर गंभीर विचारण।।] DESI. ११ संगति कीजे साधु की गया कोई भी व्यक्ति अपने जन्म के साथ ही विद्वत्ता, वीरता अथवा अन्य कोई उल्लेखनीय योग्यता लेकर नहीं आता । वह आगे जाकर जो कुछ भी बनता है, केवल संगति से ही बनता है। विद्वत्कुल में जन्म लेने वाला शिशु अगर कुसंगति में पड़ जाये तो चोर, डाकू, जुआरी और शरावी बन जाता है तथा हीनकुल में जन्म लेने वाला बालक सुसंगति पाकर महा विद्वान् और साधु पुरुष बनकर संसार के लोगों का श्रद्धापात्र बनता है । एक श्लोक में कहा गया है असज्जनः सज्जनसङ्गि सङ्गात् करोति दुःसाध्यमपीह लोके । पुष्पाश्रया शम्भुजटाधिरूढा पिपीलिका चुम्बति चन्द्रबिम्बम् ॥ असज्जन भी सज्जनों की संगति से इस संसार में दुःसाध्य काम कर डालते हैं। फूलों के सहारे चींटी शंकर की जटा पर बैठकर चन्द्रमा का चुम्बन लेने पहुंच जाती है। कहने का अभिप्राय यही है कि सत्संगति से न हो सकने वाला काम भी सहज और संभव हो जाता है । अगर व्यक्ति सदा श्रेष्ठ पुरुषों की संगति में रहे तो अज्ञान, अहंकार आदि अनेक दुर्गुण तो उसके नष्ट होते ही हैं, उसे मुक्ति के सच्चे मार्ग की पहचान भी होती है, जिसको पाकर वह अपने मानवजीवन को सार्थक कर सकता है। श्री भर्तृहरि ने भी सत्संगति का बड़ा भारी महत्त्व बताते हुए कहा है जाड्यं धियोहरति सिञ्चति वाचि सत्यं, मानोन्नति दिशति पापमपाकरोति । चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीति, सत्संगतिः कथय किन्न करोति पुसाम् ॥ सत्संगति बुद्धि की जड़ता को नष्ट करती है, वाणी को सत्य से सींचती है, मान बढ़ाती है, पाप मिटाती है, चित्त को प्रसन्नता देती है, संसार में यश फैलाती है। सत्संगति मनुष्य का कौन सा उपकार नहीं करती है ? प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों? इतना अधिक महत्त्व संत-समागम को किस लिये दिया गया है ? यही आपको आगे बताया जा रहा है । सत्संगति से लाभ सज्जन पुरुषों के समागम से पहला और सर्वोत्तम लाभ यह है कि वे शत्रु और मित्र दोनों से ही समान व्यवहार करते हैं। वे सदा दूसरों का हित ही करते हैं, कभी भी किसी अन्य की चाहे वह उनका कट्टर बैरी ही क्यों न हो, हानि नहीं करते, उसके अहित की भावना हृदय में भी नहीं लाते । इससे स्पष्ट है कि किन्हीं कारणों से, अगर वे किसी का हित न कर पायें तो भी उनके द्वारा अहित होने का भय नहीं रहता है। Nen का Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगति कीजे साधु की १८७ सज्जनों की संगति से दूसरा लाभ बौद्धिक विकास के रूप में होता है । संतों का अनुभव-ज्ञान बड़ा भारी होता है, अतः उनके मार्ग-दर्शन से बिगड़ता हुआ कार्य भी बन जाता है। सच्चे संत भले ही जबान से शिआ न दें पर उनके आचरण से भी मनुष्य को मूक शिक्षा मिलती रहती है तथा जीवन सत्पथ पर बढ़ता है। केवल किताबी ज्ञान ही मनुष्य को ऊंचा नहीं उठा सकता, जब तक कि उसका आचरण भी ज्ञानमय न हो जाये तथा इसके लिए संत-समागम आवश्यक है। बहुत-सी बातें ऐसी होती हैं, जिनका असर जबान से कहने पर नहीं अपितु बुद्धिमत्ता से क्रियात्मक रूप द्वारा समझाने से होता है। तीसरा लाभ सत्संगति से यह होता है कि मनुष्य के मन के अनेक रोग मिट जाते हैं। मन के रोग क्या होते हैं ? इस विषय में जानने की आपको उत्सुकता होगी। यद्यपि वे आपसे छिपे नहीं हैं। आज सभी प्राणी इन रोगों से पीड़ित हैं पर उन्हें वे रोग नहीं मानते, तो मन के रोग हैं--क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष, विषय-विकार, असहिष्णुता एवं उच्छं खलता आदि । यही सब संत-समागम या उनके सहवास से निर्मुल होते हैं। इसीलिए उन्हें मंगलमय तीर्थ कहा जाता है। संत तुलसीदास जी ने भी कहा है-- मुद मंगलमय सन्त समाजू । जिम जग जंगम तीरथ राजू ॥ सज्जनों की संगति का चौथा लाभ यह है कि उससे गुणरहित व्यक्ति भी गुणवान बन जाता है। इस विषय में हितोपदेश में एक श्लोक दिया गया है काचः काञ्चनससर्गाद्धत्ते मारकती द्युतिम् । तथा सत्सनिधानेन मूर्यो याति प्रवीणताम् ॥ सुवर्ण के सम्बन्ध से कांच भी सुन्दर रत्न की शोभा को प्राप्त करता है, उसी प्रकार मुर्ख भी सज्जन के संसर्ग से चतुर हो जाता है। मनुष्य कितनी भी शिक्षा प्राप्त कर ले और अपनी तर्कशक्ति बढ़ा ले, उससे उसकी आत्मिक शक्ति नहीं बढ़ पाती । आज के युग में शिक्षित व्यक्ति ही अधिकतर नास्तिक पाये जाते हैं। नास्तिकों में न तो ईश्वर के प्रति आस्था होती है और न ही उनका धर्म, कर्म, लोक, परलोक तथा पुण्य और पाप में विश्वास होता है। परिणाम यह होता है कि वे पापों से नहीं डरते तथा दिन-रात अपनी आत्मा को अवनति की ओर ले जाते हैं । इसके विपरीत जो व्यक्ति अशिक्षित होते हैं, किन्तु संत-समागम करते हैं, वे हृदय और विचारों से महान् बन जाते है। इसका कारण यही होता है कि सत्संगति से उनको देव, गुरु एवं धर्म में आस्था उत्पन्न हो जाती है और वे पूर्ण श्रद्धासहित जो भी क्रिया करते हैं, उसका उत्तम फल प्राप्त कर लेते हैं। इसीलिए पूज्यपाद पं० मुनि श्री अमीऋषि जी महाराज ने कहा है उत्तम संग उमङ्ग धरी, सजिये सुप्रसङ्गः अनंग निवारे । ज्ञान वधे रू सधे जिन आन , . अज्ञान कुमति को मूल उखारे । शील संतोष क्षमा चित धीरज , पातक से नित राखत न्यारे । डारत दुःख भावोभव के रिख , अमृत सङ्गत उत्तम धारे । कवि ने मनुष्य को उद्बोधन दिया है कि सदा उत्साह और उमंग के साथ उत्तम पुरुषों की संगति करो और उनकी संगति से हृदय के भावों को निर्मल बनाते हुए विषय-विकारों का त्याग करो। आचार्यप्रवटा आभआचार्यप्रवड अभी श्रीआनन्दग्रन्थ श्राआनन्दग्रन्थ عملا ميعاد ...AAR AARAMPARANILIALPANAamdaramaAAMAARAARADARAAJRANJAur Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आण्यप्रत अगदी आआनन्द अत्यन आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व सत्संगति से तुम्हारा ज्ञान बढ़ेगा तथा भगवान के वचनों का पालन हो सकेगा । इस सबसे बढ़कर तो यह होगा कि तुम्हारे हृदय में घर किये हुए अज्ञान का लोप होगा एवं कुबुद्धि जड़मूल से नष्ट हो जायेगी । WES १८८ तुम्हारे हृदय में शील, संतोष, क्षमा, धैर्य आदि अनेक सद्गुणों का उदय होगा जो कि तुम्हारी आत्मा को पापों से दूर रखेगा तथा भव भव के दुखों से छुटकारा दिलायेगा । इसलिये हे प्राणी तुम उत्तम पुरुषों की संगति करो । वस्तुतः : संत जनों की संगति से हृदय में रहे हुए अवगुणों का नाश होता है तथा सद्गुणों का आविभवि हो जाता है । अब सत्संगति का पांचवां लाभ क्या है ? हमें यह देखना है । यह लाभ है मन में असीम शांति की स्थापना होना । जो व्यक्ति सज्जनों की संगति करता है, उससे मन में अपार शांति सदा बनी रहती है, क्योंकि सज्जनों की संगति करने वाले व्यक्ति की कोई निन्दा नहीं करता और उसे किसी प्रकार की लज्जा या शर्म का अनुभव नहीं होता । संत जनों की संगति करने वाला व्यक्ति अगर बुरा हो तब भी लोग उसे भला कहते हैं तथा बुरे व्यक्ति की संगति करने वाले अच्छे व्यक्ति को भी दुनिया बुरा ही मानने लगती हैं। कहा भी है- सत संगत के वास सों अवगुन हू छिपि जात । अहीरधाम मदिरा पिबं दूध जानिये तात ॥ असत संग के वास सों गुन अवगुन जात । दूध पिबं कलवार घर मदिरा सर्बाह बुझात ॥ कहने का अभिप्राय यही है कि दुनिया किसी भी व्यक्ति के साथियों को देखकर ही उस व्यक्ति के चरित्र का अन्दाज लगाती है । इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को सदा भले और सज्जन व्यक्तियों के सहवास में ही रहना चाहिए । इस प्रकार सत्संगति से व्यक्ति को अनेक लाभ होते हैं । सबसे बड़ा लाभ तो यही है कि सज्जनों की संगति करने से वह दुर्जनों के संग से बच जाता है। भले ही व्यक्ति संतजनों का उपदेश न सुने किन्तु समीप रहकर उनकी दिनचर्या का अवलोकन करते हुए भी धीरे-धीरे उनके सद्गुणों का अनुकरण करने लगता है और यही हाल दुर्जनों की संगति से होता है । न चाहने पर भी शनैः-शनैः वह दुर्गुणों की ओर उन्मुख हुए बिना नहीं रह पाता । उनके सहवास से लाभ रंचमात्र भी नहीं होता, केवल हानियां ही पल्ले पड़ती हैं । दुर्जन व्यक्ति संख्या में अनेक होकर भी किसी व्यक्ति का भला नहीं कर सकते। क्योंकि वे स्वयं ही आत्मा को उन्नति की ओर अग्रसर करने का मार्ग नहीं खोज पाते । तभी कहा जाता है 'शतमप्यन्धानां न पश्यति ।' सौ अंधे मिलकर भी देख नहीं पाते । किन्तु इसके विपरीत संत- पुरुष भले ही अकेला हो, वह स्वयं अपने लिए उत्तम मार्ग खोज लेता है तथा अन्य असंख्य व्यक्तियों को भी मार्ग सुझाता है । चन्दन के समान वह अत्यल्प मात्रा में होकर भी मनुष्य के मन को आह्लाद से भर देता है, जबकि गाड़ी भर लकड़ी भी इस कार्य को संपन्न नहीं कर सकती। किसी ने यही कहा है- 'चन्दन की चुटकी भली, गाड़ी भला न काठ ।' इसलिए बन्धुओ, भले ही संगति थोड़े समय के लिए की जाय किन्तु संगति सदपुरुषों की ही करनी चाहिए, उससे हमें जो लाभ होगा वह हमारे जीवन की उन्नति के पथ पर कई कदम आगे बढ़ा सकेगा । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगति कीजे साधु की १८६ DIRE जया ध्यान में रखने की बात है कि मनुष्य किताबी ज्ञान कितना भी हासिल कर ले, बड़े-बड़े ग्रन्थों को कंठस्थ करके विद्वानों की श्रेणी में अपने आपको समझने लग जाये, फिर भी वह ज्ञानी नहीं कहला सकता क्योंकि उसका ज्ञान तर्क-वितर्क तथा वाद-विवाद करके लोगों को प्रभावित करने तथा भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त करने के काम ही आता है। वह ज्ञान उसकी आत्मा को कर्ममुक्त करने में सहायक नहीं बनता। सच्चा ज्ञान वही है जो आत्मा को शुद्धि की ओर बढ़ाता है तथा शनैः-शनैः उसे भवभ्रमण से छुटकारा दिलाता है और ऐसा ज्ञान जिसे हम सम्यक् ज्ञान कहते हैं, संतजनों के संपर्क से ही हासिल हो सकता है । बंधुओ ! इसीलिये कहा गया है कि सत्संगति करने से ज्ञान की वृद्धि होती है तथा सन्मार्ग प्राप्त होता है । संतजनों की संगति करने से सदा लाभ ही होता है। हानि की संभावना नहीं रहती। भले ही व्यक्ति ऐसी आत्माओं की संगति अधिक न कर सके, फिर भी उसे जहां तक बने प्रयत्न करना चाहिए। कभी-कभी तो क्षण भर का सत्संग भी जीवन को ऐसा मोड़ दे देता है कि जीवन भर की कमाई व्यक्ति को इस अल्पकाल में ही हो जाती है। इसलिए आपको सदा यह ध्यान रखना चाहिए कि अल्पकाल के लिए ही सही पर संत-समागम अवश्य करें । कौन जानता है कि किस क्षण मन की गति करवट बदले और गुरु का एक शब्द भी आपके जीवन को सार्थक बना दे। वस्तुतः संतजीवन अत्यन्त दुष्कर, किन्तु महामहिम भी होता है । इसलिए व्यक्ति को उनके जीवन से ज्ञान पाने के लिए उनकी संगति करना चाहिए तथा उनके सदुपदेश एवं आचरण से अपने आत्मकल्याण का मार्ग पाना चाहिए। सत्संगति से ही ज्ञानप्राप्ति संभव है और ज्ञानप्राप्ति से कर्मनाश करते हुए मुक्ति । अतः जिसे मुक्ति की अभिलाषा है, उसे सत्संगति का महत्व समझकर उसके द्वारा अपनी ज्ञानवृद्धि करना चाहिए । प्रानन्द-वचनामृत [ आत्मन् ! तुम कीड़े बनकर भोग-विलास के कीचड़ में मत धसो । शुकर बनकर विषयों की विष्टा से प्रेम मत करो। किंतु मधुकर बनकर सद्गुणों की सौरभ (पराग) का आस्वाद करो, गरुड बनकर अनन्त ज्ञान-दर्शन के आकाश में विहार करो। । सूख का स्रोत आत्मा के भीतर है, वह मन के पर्वतों से शांति का निर्झर बनकर बहता है। सुख न देह में है, न गेह में, न धन में, न परिजन में, न इन्द्रिय-विषयों में और न अन्यत्र कहीं ! वह तो आत्म-गुणों के भीतर से ही प्रकट होता है। 10 कुम्भार मिट्टी के गोल-मटोल पिण्ड को सुन्दर घट के रूप में बदल देता है, मूर्तिकार टेढ़े-मेढ़े पत्थर को मनोहर मूर्ति का आकार प्रदान कर देता है। यह एक कला है, इसी प्रकार साधक भी विषयों से कलुषित बेडोल जीवन को सुन्दर और रमणीय जीवन में बदल सकता है, क्योंकि उसके पास जीवन की कला है-संयम। आचार्यप्रवभिनयआचार्यप्रवर अभि श्रीआनन्दान्थ५ श्रीआनन्द AAAAAAAKimatuarABARJAATBAruwaunuwaamweaderssabsANASANASAL ADAALANASALAJANIKARAN --dain Education International Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AranMAAMANAAAAAAAA Howarriornvrriwarravivameerenawiwivtwim wwwarovavir y [ऊनोदरी के गुण-ज्ञानार्जन, स्वाध्याय-कायोत्सर्ग आदि में अल्पभोजन सहायक । कम खाप सो मुख पाप आदि विषयों का स्पष्टीकरण] १२ कम खाए, सुख पाए ज्ञान आत्मा का निजी गृण है तथा वही आत्मा को संसार से मुक्त करने की शक्ति रखता है। इसकी महत्ता के विषय में जो कुछ भी कहा जाये, कम है। फिर भी विद्वान अपने शब्दों में इसके महत्त्व को बतलाने का प्रयत्न करते हैं। एक श्लोक में कहा गया है तमो धुनीते कुरुते प्रकाशं, शमं विधत्त विनिहन्ति कोपम् । तनोति धर्म विधुनोति पापं, ज्ञानं न किं किं कुरुते नराणाम् ॥ बताया गया है कि एक मात्र ज्ञान ही अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करके आत्मा में अपना पवित्र प्रकाश फैलाता है तथा उसके समस्त निजी गुणों को आलोकित करता है। ज्ञान ही आत्मिक गुणों को नष्ट करने वाले क्रोध को मिटाकर उसके स्थान पर समभाव को प्रतिष्ठित करता है, तथा पापों को दूर कर आत्मा में धर्म की स्थापना करता है । अन्त में संक्षेप में यही कहा गया है कि ज्ञान मनुष्य के लिये क्या-क्या नहीं करता? अर्थात् सभी कुछ करता है जो आत्मा के लिये कल्याणकारी है। ज्ञानी और अज्ञानी में अन्तर इस संसार में ज्ञानी और अज्ञानी, दोनों प्रकार के प्राणी पाये जाते हैं। ज्ञानी पुरुष के होते हैं जो अपने बिवेक और विशुद्ध विचारों के द्वारा अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण नियन्त्रण रखते हैं तथा ज्ञान के आलोक में आत्म-मुक्ति के मार्ग को खोज निकालते हैं, किन्तु अज्ञानी व्यक्ति इसके विपरीत होते हैं। विषय-भोगों को उपादेय मानते हैं, और उन्हें भोग न पाने पर भी भोगने की उत्कट लालसा रखने के कारण निरंतर कर्मबंधन करते रहते हैं तथा अंत में अकाम मरण को प्राप्त होकर पुनः जन्म-मरण करते रहते हैं। इसीलिये ज्ञानी और अज्ञानी में अन्तर बताते हुए कहा गया है जं अन्नाणी कम्म खवेइ बहयाई वास कोडीहि । ___ तं नाणी तिहि गुत्तो खवेइ उस्सास मित्तण ॥ अर्थात् जिन कर्मों को क्षय करने में अज्ञानी करोड़ों वर्ष व्यतीत करता है, उन्हीं कों को ज्ञानी एक श्वासमात्र के काल में ही नष्ट कर डालता है। बन्धुओ ! ज्ञानी और अज्ञानी की क्रिया में कितना अंतर है ? ज्ञान का माहात्म्य कितना जबर्दस्त है ? इसीलिये तो धर्मग्रन्थ तथा धर्मात्मा पुरुष सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति पर बल देते हैं। कहते हैं-अपने मन और मस्तिष्क की समस्त शक्ति लगाकर भी ज्ञान हासिल करो । ज्ञान हासिल करने के लिये वे अनेक उपाय भी बताते हैं। उनमें से ज्ञानप्राप्ति का एक उपाय है- ऊनोदरी करना । ऊनोदरी को हमारे यहाँ तप Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम खाए, सुख पाए १६१ भी माना गया है जो मन और रसना इन्द्रिय पर नियन्त्रण करके भावनाओं और विचारों को आसक्ति तथा लालसा से रहित बनाता हुआ आत्मा को शुद्ध करता है । अनोदरी का अर्थ है कहलायेगी ? दो कौर (कवल) अनोदरी का अर्थ कम खाना आप सोचेंगे कि थोड़ा-सा कम खाना भी क्या तपस्या भोजन में कम खा लिये तो कौन-सा तीर मार लिया जायेगा ? परन्तु बंधुओ, हमें इस विषय को तनिक गहराई से सोचना, समझना है । यह सही है कि खुराक में दो-चार कौर कम खाने से कोई अन्तर नहीं पड़ता किन्तु अन्तर पड़ता है खाने के पीछे रही हुई लालसर कम होने से । आप जानते ही होंगे कि कर्मों का बंधन कार्य करने की अपेक्षा उसके पीछे रही हुई भावना से अधिक होता है। आसक्ति और लालसा का कम होना ही वास्तव में आंतरिक तप है। जैनागमों में तपश्चर्या का बड़ा भारी महत्व बताया और विशद वर्णन किया गया है तथा आत्मशुद्धि के साधनों में तप का स्थान सर्वोपरि माना गया है । तपश्चरण साधना का प्रमुख पथ है । यह आन्तरिक (आभ्यन्तर) और बाह्य दो भेदों में विभाजित है । प्रत्येक साधक तभी अपनी आत्मा को शुद्ध बना सकता है, जबकि उसका जीवन तपोमय बने । तप का प्रभाव तपस्या के द्वारा आत्मा का समस्त कलुष उसी प्रकार धुल जाता है, जिस प्रकार आप साबुन के द्वारा अपने वस्त्रों को धो डालते हैं । दूसरे शब्दों में जिस प्रकार अग्नि में तप कर स्वर्ण निष्कलुष हो जाता है, उसी प्रकार तपस्या की आग में आत्मा का समग्र मैल भी भस्म हो जाता है तथा आत्मा अपनी सहज ज्योति को प्राप्त कर लेती है। तपस्या से मनुष्य अपनी उच्च से उच्च अभिलाषा को पूर्ण कर सकता है । तप का प्रभाव अबाध्य और अप्रतिहत होता है । वह अपने मार्ग में आने वाली प्रवल से प्रबल बाधाओं को भी अल्पकाल में ही नष्ट कर देता है तथा देव एवं दानयों को अपने समक्ष झुका देता है। आहार का प्रयोजन सभी जानते हैं कि भोजन का प्रयोजन शरीर के निर्वाह के लिये आवश्यक है । संसार के प्रत्येक प्राणी का शरीर नैसर्गिक रूप से ही इस प्रकार का बना हुआ है कि आहार के अभाव में वह अधिक काल तक नहीं टिक सकता । इसलिये शरीर के प्रति रहे हुए ममत्व का परित्याग कर देने पर भी बड़े-बड़े महर्षियों को मुनियों को तथा योगी और तपस्वियों को भी लेना जरूरी होता है । किन्तु आज मानव यह भूल गया है साधना में सहायक होना ही है। चूंकि शरीर के अभाव में को काटने का प्रयत्न नहीं किया जा सकता है। अतएव इसे पड़ती है । शरीर साध्य नहीं है, यह अन्य किसी एक उत्तमोत्तम लक्ष्य की प्राप्ति का साधनमात्र है । शरीरयात्रा का निर्वाह करने के लिये बहार कि इस शरीर का प्रयोजन केवल आत्मकोई भी धर्मक्रिया, साधना या कर्मबंधनों टिके रहने मात्र के लिये ही खुराक देनी खेद की बात है कि आज का व्यक्ति इस बात को नहीं समझता। वह तो इस शरीर को अधिकसे अधिक सुख पहुँचाना अपना लक्ष्य मानता है और भोजन को उसका सर्वोपरि उत्तम साधन । परिणाम यह हुआ कि इस प्रयत्न में वह भक्ष्याभक्ष्य का विचार नहीं करता तथा मांस एवं मदिरा आदि निकृष्ट पदार्थों का सेवन भी निस्संकोच करता चला जाता है । जिह्वालोलुपता के वशीभूत होकर वह अधिकचीज का नाम है, इसे जानने से अधिक लाकर अपने शरीर को पुष्ट करना चाहता है तथा उनोदरी किस का भी प्रयत्न नहीं करता । इसका परिणाम क्या होता है? यही कि अधिक ठूस-ठूंस कर खाने से शरीर में स्कूति नहीं रहती, प्रमाद छाया रहता है और उसके कारण अध्यात्मसाधना गूलर का फूल बनी रहती है। मांस-मदिरा आदि का सेवन करने से तथा अधिक खाने से वृद्धि का ह्रास तो होता ही है, चित्त की समस्त वृत्तियां भी दूषित हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में मनुष्य चाहे कि यह ज्ञानार्जन करे, तो क्या यह संभव है ? कदापि आचार्य प्रव अभिन्दन आआन 九 El ॐ श्री आनन्द अथ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपास प्रवर अभिनंदन आआनन्द ग्रन्थ ११ 3 आचार्यप्रवर श्री आनन्दॠषि व्यक्तित्व एवं कृतित्व JU फ्र 九 १६२ नहीं । ज्ञान की साधना ऐसी सरल वस्तु नहीं है, जिसे इच्छा करते ही साध लिया जाये। इसके लिये बड़ा परिश्रम, बड़ी सावधानी और भारी स्थान की आवश्यकता रहती है। आहार के कुछ भाग का स्याग करना अर्थात् ऊनोदरी करना भी उसी का एक अंग है । अगर मनुष्य भोजन के प्रति अपनी गृद्धता तथा गहरी अभिरुचि को कम करे तो वह ज्ञान हासिल करने में कुछ कदम आगे बढ़ सकता है । क्योंकि अधिक खाने से निद्रा अधिक आती है तथा निद्रा की अधिकता के कारण बहुत-सा अमूल्य समय व्यर्थ चला जाता है। आशय यही है कि मनुष्य अगर केवल शरीर टिकाने का उद्देश्य रखते हुए कम खाये या शुद्ध और निरासक्त भावनाओं के साथ ऊनोदरी तप करे तो अप्रत्यक्ष में तप के उत्तम प्रभाव से तथा प्रत्यक्ष में अधिक खाने से प्रमाद और निद्रा की जो वृद्धि होती है, उसकी कमी से अपनी वृद्धि को निर्मल, चित्त को प्रसन्न तथा शरीर को स्कूर्तिमय रख सकेगा तथा ज्ञानाभ्यास में प्रगति कर सकेगा। साथ वस्तुओं की ओर से उसकी रुचि हट जायेगी तथा ज्ञानार्जन की ओर अभिरुचि बढ़ेगी । सुख प्राप्ति के तीन नुस्खे हकीम लुकमान से किसी ने पूछा- ' हकीम जी ! हमें आप ऐसे गुण बताइये कि जिनकी सहायता से हम सदा सुखी रहें। क्या आपकी हकीमी में ऐसे नुस्खे हैं ? रहना है तो केवल तीन बातों का पालन करो लुकमान ने चट से उत्तर दिया हैं क्यों नहीं, अभी बताये देता हूँ देखो! अगर तुम्हें सदा सुखी पहली कम खाओ, दूसरी गम खाओ, तीसरी नम जाओ। हकीम लुकमान की तीनों बातें बड़ी महत्वपूर्ण हैं। पहली बात उन्होंने कही कम लाओ। ऐसा क्यों ? इसलिये कि मनुष्य अगर कम खायेगा तो वह अनेक बीमारियों से बचा रहेगा। अधिक खाने से अजीर्ण होता है और अजीर्ण से कई बीमारियाँ शरीर में उत्पन्न हो जाती हैं। इसके विपरीत अगर बुराक से कम खाया जाये तो कई बीमारियों बिना इलाज किये भी कट जाती हैं। आज के युग में तो कदम-कदम पर अस्पताल और हजारों डाक्टर हैं किन्तु प्राचीन काल में जबकि डाक्टर नहीं के बराबर ही थे, वैद्य ही लोगों की बीमारियों का नुस्खा होता था बीमार को लंघन करवाना। लंघन करवाने का कई-कई दिन तक खाने को नहीं देना । परिणाम फलस्वरूप असाध्य बीमारियां भी नष्ट हो जाया इलाज करते थे और उनका सर्वोत्तम अर्थ है - आवश्यकतानुसार मरीज को भी इसका कम चमत्कारिक नहीं होता था । लंघन के करती थी तथा जिस प्रकार अग्नि में तपाने पर मैल जल जाने से सोना शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार उपवास की अग्नि में रोग भस्म हो जाता था तथा शरीर कुन्दन के समान दमकने लग जाता था। लंघन के पश्चात व्यक्ति अपने आपको पूर्ण स्वस्थ और रोगरहित पाता था । -- लुकमान की दूसरी बात थी- गम खाओ। आज अगर आपको कोई दो शब्द ऊंचे बोल दे तो आप उछल पड़ते हैं । चाहे आप उस समय स्थानक में संतों के समक्ष ही क्यों न खड़े हों। बिना संत या गुरु का लिहाज किये ही उस समय ईंट का जवाब पत्थर से देने को तैयार हो जाते हैं किन्तु परिणाम क्या होता है ? यही कि तू-तू-मैं-मैं से लेकर गाली-गालौज की नौबत आ जाती है पर अगर कहने वाले व्यक्ति की बातों को सुनकर भी आप उनका कोई उत्तर न दें तो ? तो बात बढ़ेगी नहीं और लड़ाई-झगड़े की नौबत ही नहीं आयेगी । उलटे कहने वाले की कटु बातें या गालियां उसके पास ही रह जायेंगी । जैसा कि सीधी-सादी भाषा में कहा गया है- दीधा गाली एक है, पलट्यां होय अनेक । जो गाली देवे नहीं तो रहे एक की एक ॥ हकीम लुकमान की तीसरी हिदायत थी - नाम जाओ । नमना अर्थात् नम्रता रखना भी जीवन को सुखी बनाने का सर्वोत्तम नुस्खा है । जो व्यक्ति नम्र होता है, वह अपनी किसी भी कामना को पूरी करने में असफल नहीं होता । नम्रता में अद्वितीय शक्ति होती है । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम खाए, सुख पाए १६३ PAN वस्तुतः अभिमान मनुष्य को नीचे गिराता है किन्तु नम्रता उसे ऊँचाई की ओर ले जाती है। महात्मा आगस्टाइन से एक बार किसी ने यह पूछ लिया-'धर्म का सर्वप्रथम लक्षण क्या है? उन्होंने उत्तर दिया 'धर्म का पहला, दूसरा, तीसरा और किबहना सभी लक्षण केवल विनय में निहित हैं।' अधिक क्या कहा जाये, नम्रता समस्त सद्गुणों की शिरोमणि है । नम्रता से ही सब प्रकार का ज्ञान और सर्व कलायें सीखी जा सकती हैं, क्योंकि नम्र छात्र अपने क्रोधी-से-क्रोधी गुरु को भी प्रसन्न कर लेता है, जबकि अविनयी शिष्य शांतस्वभावी गुरु को भी क्रोधी बना देता है। स्पष्ट है कि ज्ञान हासिल करने वाले शिष्य को अत्यन्त नम्र स्वभाव का होना चाहिये । बंधुओ ! मैं आपको बता यह रहा था कि प्रत्येक आत्म-हितैषी व्यक्ति को सम्यकज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये और इसके लिये उसे ज्ञानप्राप्ति के समस्त उपायों को भली-भांति समझकर उन्हें कार्यरूप में परिणत करना चाहिये । जैसा कि मैंने अभी बताया है, ऊनोदरी भी ज्ञान-प्राप्ति का एक उपाय है। भूख से कम खाने से प्रथम तो खाद्य पदार्थों पर से आसक्ति कम होती है, दूसरे निद्रा एवं प्रमाद में भी कमी हो जाती है और तभी व्यक्ति स्वस्थ मन एवं स्वस्थ शरीर से ज्ञानाभ्यास कर सकता है। कम खाना अर्थात् ऊनोदरी करना जिस प्रकार आध्यात्मिक दृष्टि से तप है, उसी प्रकार ज्ञानार्जन में सहायक भी है। हमें दोनों ही दृष्टियों से महत्वपूर्ण मानकर उसे अपनाना चाहिये । गया आनन्द-वचनामृत - अश्रद्धा-अधर्म है। श्रद्धा-धर्म है। अश्रद्धा-असत्य है। श्रद्धा-सत्य है। अश्रद्धा-अंधकूप है। श्रद्धा-नन्दनवन है। अश्रद्धा-विष है, मनोबल के महावृक्ष को धीरे-धीरे खोखला करने वाला घुन है। श्रद्धा-अमृत है। आत्मशक्ति के कल्पवृक्ष को पल्लवित, पूष्पित करने वाला मधुर रसायन है। 0 साधारण पुरुष अवसर को खोजता रहता है, वह सोचता रहता है कि कोई अवसर मिले तो कुछ महत्वपूर्ण कार्य करके दिखाऊं।। कर्तृत्वशील पुरुष के पास अवसर स्वयं चले आते हैं। वे छोटे-छोटे से प्रसंग व क्षण को भी अवसर समझकर कुछ न कुछ महत्वपूर्ण कार्य कर लेते हैं। आगार्यप्रवर अभिसागार्यप्रवर अभा श्रीआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्द अन्य wwwwwwwwwwwimwarwavimanawaniwwer -- - Kwyyyan Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भावना में ही बल है | भावना से भवनाश, मुख का वास, ज्ञान का प्रकाश आदि पर नात्विक चिन्तन] RAPE १३ भावना भवनाशिनी वाय मानव-जीवन में भावनाओं का बड़ा भारी महत्त्व है। शुभ भावनायें आत्मिक गुणों का विकास करते हुए उसे उन्नत बनाती हैं और उच्च गति की ओर ले जाती हैं तथा अशुभ भावनाएं आत्मा के सद्गुणों का नाश करती हुईं उसे अधोगति की ओर उन्मुख कर देती हैं। शुभ और सात्विक भावनाओं में ईश्वरत्व का निवास है तथा अशुभ और कुत्सित भावनाओं में शैतान का । इसीलिए हर एक धर्म और शास्त्र कहता है-अशुभ भावना का त्याग करो और शुभ भावना को उसके स्थान पर प्रतिष्ठित करो। आत्मकल्याण का इच्छुक व्यक्ति यही कामना करता है-- असतो मा सद्गमय , तमसो मा ज्योतिर्गमय , मृत्योर्मा अमतंगमय । -बृहदारण्यक उपनिपद् अर्थात् असत्य से मुझे सत्य की ओर ले चलो, अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो। सत्य की शक्ति जिस व्यक्ति का आत्मा और परमात्मा पर विश्वास है, वह परमात्मा से यह प्रार्थना कर रहा है कि मुझमें ऐसी शुभ भावनायें भर दो। उनमें से भी सर्वप्रथम ‘असतो मा सद्गमय'-जिससे मैं असत्य का त्याग करके सत्य पर दृढ़ हो सकू, क्योंकि असत्य भाषण ऐसा महापाप है, जिससे किसी भी प्रकार से छुटकारा नहीं मिलता। कहा भी है 'असत्यवादिनां पंसः प्रतिकारो न विद्यते।' झूठ बोलने वाले पुरुष का प्रतिकार नहीं है। अन्य पापों की तो तप आदि के द्वारा निर्जरा भी हो सकती है लेकिन असत्य का फल तो भोगना ही पड़ता है। इसके सिवा परलोक की बात छोड़ भी दें तो भी असत्यभाषी को यह लोक ही दुखदायी वन जाता है । यथा 'नासत्यवादिनः सख्यं न पुण्यं न यशो भुवि ।। झूठ बोलनेवाले को इस पृथ्वी पर न तो सज्जन आदमियों की मित्रता ही प्राप्त होती है, न पुण्य ही मिलता है और न यश की ही उपलब्धि होती है। इसलिए असत्य का त्याग करके सत्य को ग्रहण करना आत्माभिलाषी प्राणियों के लिए अनिवार्य है। सत्य से आत्मा को असीम बल मिलता है। उसकी सहायता से व्यक्ति भयानक-से-भयानक संकटों का मुकाबला कर सकता है तथा दानव के दिल को भी बदल सकता है। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ भावना भवनाशिनी अरब देश में नावेर नाम के एक व्यक्ति के पास बहुत ही बढ़िया नस्ल का एक घोड़ा था । वहीं रहने वाले एक बाहर नामक व्यक्ति ने घोड़े को देखा तो उसे स्वयं लेने की इच्छा की। J दाह ने नावेर से बहुत सा धन लेकर अथवा बहुत से ऊंट लेकर अपना घोड़ा देने के लिए कहा, किन्तु नावेर को भी अपना घोड़ा अत्यन्त प्रिय था, अतः उसने किसी भी कीमत पर अपना घोड़ा देने से इन्कार कर दिया । किन्तु दाहर उन व्यक्तियों में से था, जो नीति अनीति का विचार किये बिना किसी भी तरह से अपना उल्लू सीधा करने की फिराक में रहते हैं । उसने एक फकीर का वेश धारण किया और अपने आपको अत्यन्त रुग्ण दिखाते हुए जियर से नावेर घोड़े पर चढ़कर जाया करता था, उस रास्ते पर बैठ गया । कुछ समय बाद नावेर जब घोड़े पर सवार होकर उधर से गुजरने लगा तो दाहर ने अपनी अशक्तता का प्रदर्शन करते हुए उससे प्रार्थना की कि वह घोड़े पर चढ़ाकर उसे अगले गाँव तक ले चले। नावेर बड़ा दयालु था, उसे फकीर वेशधारी दाहर पर दया आ गई और उसे घोड़े पर बैठाकर स्वयं पैदल चलने लगा । किन्तु दाहर ने घोड़े पर बैठते ही चाबुक फटकारते हुए नावेर से कहा- तुमने सीधी तरह घोड़ा नहीं दिया, अतः मैंने उसे अपनी चतुराई से ले लिया है ।' नावेर ने यह देखा तो पुकार कर दाहर से कहा- 'भाई ! तुमने असत्य भाषण करके मेरा घोड़ा तो ले लिया तो कोई बात नहीं, किन्तु ख़ुदा के लिए अपने असत्य की ऐसी सफलता का जिक्र किसी से मत करना, अन्यथा और लोग भी इसी प्रकार झूठ बोलकर अन्य निर्धन या भोले-भाले लोगों को ठगना प्रारम्भ कर देंगे और इस पृथ्वी पर पाप का बोझ बढ़ने लग जायेगा ।" नावेर की यह बात सुनकर दाहर के हृदय में एकदम और अप्रत्याशित परिवर्तन आ गया। उसने उसी वक्त लौटकर घोड़ा नावेर को लौटा दिया तथा सदा के लिए असत्य का त्याग करके उससे मैत्री कर ली । यह था शुद्ध हृदय वाले तथा सत्य बोलने वाले की आन्तरिक शक्ति का प्रभाव । सत्य का जिस प्रकार प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है, उसी प्रकार अप्रत्यक्ष प्रभाव भी पड़े बिना नहीं रहता, क्योंकि भावना में बड़ी भारी शक्ति छिपी रहती है। सत्यवादी की अन्तरात्मा इसीलिए अत्यन्त प्रभावशाली बन जाती है और वह शैतान के हृदय को परिवर्तित करने की क्षमता भी पा लेती है । नावेर का हृदय निष्कलंक और सत्य के तेज से दीप्त था, इसीलिए दाहर के हृदय में उसके थोड़े से शब्दों ने ही परिवर्तन ला दिया। हमें संकट में भी सत्य को न त्यागो सचाई का त्याग नहीं करना चाहिए । अज्ञानांधकार दूर होकर सम्यक् ज्ञान किसी भी प्रकार की हानि या प्राणनाथ के भय से भी ऐसा करने पर ही हमारी आत्मा शक्तिमान बनेगी तथा हृदय की पवित्र ज्योति जल उठेगी। संसार के सभी धर्म सत्यवादिता पर बड़ा ओर देते हैं तथा सत्य को सबसे बड़ा धर्म मानते हैं। कहा भी है--- का ਸਰ वेदाधिगमन सर्व तीर्थावगाहनम् । सत्यस्य च राजेन्द्र ! कलां नार्हन्ति षोडशीम् । - महाभारत समग्र वेदों का पठन और समस्त तीथों का स्नान सत्य के सोलहवें भाग की भी बराबरी नहीं कर सकता । सत्य एक ऐसा ज्योतिर्मय दीपक है जिसे किसी भी प्रकार छुपाया नहीं जा सकता, क्योंकि वह अपना प्रकाश स्वयं लेकर चलता है। उसके समक्ष असत्य क्षणमात्र को भी ठहर नहीं सकता । उदाहरण के 九 (T अभिनंद आचार्य अवर अभिनंदन आआनन्द न्य Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दा ग्रन्थ १६६ रूप में कहा जाये तो असत्य एक घास के ढेर के समान है, जिसे सत्य की एक चिनगारी ही भस्म कर डालती है। J 卵 श्री आनन्द अन्थ है आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व सत्य का महत्त्व बतलाते हुए संस्कृत में एक श्लोक कहा गया है सत्येनार्कः प्रतपतिः सत्ये तिष्ठति मेदिनी । सत्यं चोक्तं परोधर्मः स्वर्गः सत्ये प्रतिष्ठितः ॥ सत्य मे ही सूर्य तप रहा है। सत्य पर ही पृथ्वी टिकी हुई है। सत्यभाषण सबसे बड़ा धर्म है। सत्य पर ही स्वर्ग प्रतिष्ठित है । सत्य महान् धर्म है और अन्तरात्मा की सत्ता है। इसको दृढ़तापूर्वक ग्रहण कर लेने पर अन्य सव धर्म सरलता से आचरित हो सकते हैं किन्तु आवश्यक है कि सत्य केवल मनुष्य के वचन में ही न रहे, वह मन और क्रिया में भी आना चाहिए। क्योंकि मन में जो सोचा जाता है वह वचन में आता है और मन तथा वचन में आया हुआ क्रिया में उतरता है। ये तीनों योग एक दूसरे से सम्बन्धित हैं । इसीलिए भगवान महावीर ने कहा है 'मणसच्चे वयसच्चे कायसच्चे । केवल वचन से बोला हुआ सत्य जीवन को उन्नत नहीं बना सकता, जब तक कि मन में सचाई न हो और उसी के अनुरूप आवरण न किया जाये कोई भी मानव तभी महामानव कहला सकता है जब कि उसके तीनों योगों में एकरूपता हो। इसीलिए मुमुक्षु पुरुष यह कामना करता है— 'असतो मा सद्गमय मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अर्थात् मेरे हृदय से असत्य को हटाकर उसमें सत्य को प्रतिष्ठित करो। '' अन्धकार का आशय प्रार्थना का दूसरा अंग है-तमसो मा ज्योतिर्गमय ! मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो। प्रश्न उठता है कि अन्धकार किसे कहते हैं और प्रकाश किसे ? उत्तर यही है कि अज्ञान अन्धकार है और ज्ञान प्रकाश । इसीलिए महापुरुष मनुष्य को अज्ञान का अन्धकार दूर करने की बार-बार प्रेरणा देते है तथा अपने ज्ञान की ज्योति जलाकर उसे मार्ग सुझाते हैं । न मानने पर वे उसे ताड़ना भी देते हैं, जैसा कि निम्नलिखित पद्य में झलकता है- पड़ा पर्दा जहालत का अकल की आंख पर तेरे । सुधा के खेत में तूने जहर का बीज क्यों बोया ? अरे मतिमंद अज्ञानी जन्म प्रभुभक्ति बिन खोया || कहा है- 'अरे निर्बुद्धि ! तेरी अकल पर अज्ञान का यह कैसा परदा पड़ा हुआ है? इसी के कारण तुझे उचित अनुचित का भी ज्ञान नहीं रहा और तूने अमृत के इस खेत में विष का बीज बो दिया अपना समग्र जीवन ही तूने ईश्वर की भक्ति के अभाव में निरर्थक खो दिया। आपको जिज्ञासा होगी कि अमृत का खेत और जहर का बीज क्या है ? बन्धुओ, यह मानव शरीर ही अमृत के बीज बोने का क्षेत्र है । अगर मनुष्य इस दुर्लभ जीवन को पाकर भी अपने मन के क्षेत्र में दान, शील, तप, भाव, भक्ति और वैराग्य आदि के बीज नहीं बोता तो उसे मोक्ष रूपी अमृत फल की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? अमृतपान करने पर मनुष्य पुनः नहीं मरता, इसी प्रकार मोक्ष प्राप्त कर लेने पर भी पुनः पुनः जन्म-मरण का कष्ट नहीं उठाना पड़ता । किन्तु अज्ञानी पुरुष ज्ञान के अभाव में इस बात को समझ नहीं पाता तथा जिस मन के क्षेत्र में अमृत के बीज बोने चाहिए, उसमें काम, क्रोध आदि जो आत्मा के लिए विष के बीज के समान हैं, उन्हें ही बोता रहता है । परिणाम यह होता है कि मोक्ष रूपी अमर फल की प्राप्ति के स्थान पर नरक, तियंच गति रूप विष फल प्राप्त करता है तथा पुनः पुनः जन्म और मरण के दुखों को भोगता है। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावना भवनाशिनी १६७ ऐसा क्यों होता है ? इसलिए कि अज्ञानी की दृष्टि भूत और भविष्य से हटकर केवल वर्तमान तक ही सीमित रहती है, वह भविष्य की कुछ भी चिन्ता नहीं करता। इसीलिए वह अपने भविष्य को सुधारने की ओर ध्यान नहीं देता । अतः मन की तरंगों पर बहता रहता है, इन्द्रियों के संकेतों पर नाचता रहता है और विषय-वासनाओं के फंदे में फंसा रहता है। इतना ही नहीं, अपनी घोर अज्ञानता के कारण वह अपने अज्ञान ही को नहीं समझ पाता। फिर उसे दूर करने की चेष्टा कैसे कर सकता है ? ज्ञान की महिमा इसीलिए भक्त कामना करता है-'प्रभो, मुझे अज्ञान रूपी अन्धकार से बचाकर ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले चलो।' भक्त ऐसी कामना क्यों करता है ? क्यों वह ज्ञान के प्रकाश की ओर जाना चाहता है ? इसलिए कि _ 'अज्ञानप्रभवं सर्व ज्ञानेन प्रविलीयते ।' अज्ञान के प्रभाव से उत्पन्न सभी प्रकार का मायाजाल अथवा कर्मों का खेल ज्ञान की दिव्य शक्ति से नष्ट हो जाता है। वस्तुतः ज्ञान का प्रकाश फैलते ही भौतिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार का अन्धकार लोप हो जाता है तथा मानव आत्मा और परमात्मा रूप तत्वों का चिन्तन, मनन एवं अध्ययन करते हुए अपने मन के विकारों का और मोह का नाश करने के प्रयत्न में जुट जाता है। ज्ञान की प्राप्ति होते ही इस संसार को सब कुछ समझने वाले प्राणी में कितना परिवर्तन आ जाता है, यह पं० अमीऋषि जी महाराज ने अपने निम्नलिखित एक पद्य द्वारा बतलाया है गिने वनितादिक बंधन से पुनिः कामविकार लखे जिमि नाग। अनित्य अपावन देह लखे, कबहूँ नहीं नेक भरे अनुराग ।। गिने दुखदायक सुख सभी धनधाम ममत्व हरे करि त्याग । रहे निर्लप सरोज यथा नर जान अमीरिख सत्य विराग ।। बन्धुओ ! ज्ञान का यही सार है कि उसकी सहायता से आत्मा अपने निजस्वरूप को पहचानने तथा उसकी मुक्ति के लिए सम्यक् रूप से साधना करे । ज्ञान के अलावा संसार की अन्य कोई भी शक्ति उसे भवसागर से पार नहीं उतार सकती। कहा भी है संसार सागरं घोरं तर्तुमिच्छति यो नरः। ज्ञान नावं समासाद्य पारं याति सुखेन सः ॥ जो मनुष्य इस घोर संसार सागर को सुख पूर्वक तैर जाना चाहता है, उसे ज्ञान रूपी नौका का सहारा लेना चाहिए। वास्तव में ज्ञान के समान अद्भुत और दुर्लभ वस्तु इस संसार में दूसरी नहीं है। ज्ञान की महिमा की संसार के सभी शास्त्र एक स्वर से सराहना करते हैं और यह अतिशयोक्ति भी नहीं है। एक उक्ति से इसकी सचाई का अनुमान लगाया जा सकता है अज्ञानी क्षपयेत् कर्म यज्जन्म शत कोटिभिः । तज्ज्ञानी तु त्रिगुप्तात्मा निहन्त्यन्तर्मुहुर्तके । अर्थात् अज्ञानी पुरुष जिन कर्मों को नाना प्रकार के कष्ट सहन करके और तपस्या करके सैकड़ों करोड़ों जन्मों में खपा सकता है, ज्ञानी पुरुष उन्हें तीन गुप्तियों से युक्त होकर मन, वचन, काय के व्यापारों का निरोध करके अन्तर्महुर्त में ही खपा डालता है , इसीलिए तो भक्त कामना करता है-- तमसो मा ज्योतिर्गमय । AAAAAAAARURasatAMAJBARJunswimmarawwwerinewsmawasaAAMARDANAJMANANAMAMIRIALASAMAJAINISAPAINSawinAM r riMovr- rrr-Nir Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रवभिन्न श्राआनन्दग्रन्थश्राआनन्दग्रन्थ भाचप्रवासी १६८ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व IN 'हे प्रभो ! मुझे अज्ञान के अंधेरे से निकाल कर ज्ञान के पवित्र और उज्ज्वल प्रकाश में ले चलो। और अन्त में वह कहता है 'मृत्योर्मा अमृतं गमय ।' __अर्थात्-'मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।' अमरता कैसे प्राप्त हो मृत्यु से अमरता की ओर जाने का अर्थ है जन्म-मरण से मुक्त हो जाना। यह अभिलाषा रहती तो प्रत्येक प्राणी में है, पर केवल इच्छामात्र से तो सिद्धि मिल नहीं सकती। व्यक्ति अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाना चाहता है, किन्तु चले एक कदम भी नहीं, तो क्या वह अपने इच्छित स्थान पर पहुँच जायेगा? हम भी जन्म-मरण की शृखला को तोड़ना चाहते हैं पर मोह, ममता और आसक्ति को नहीं छोड़ सकते, त्याग और तपस्या के मार्ग पर नहीं बढ़ सकते तो फिर आत्मा का कल्याण कैसे होगा? हम भूल जाते हैं कि यह संसार असार है, सांसारिक सुख झठे हैं, इसमें दिखाई देने वाले सभी दृश्यमान पदार्थ नश्वर हैं, और तो और, यह देह भी तो अपनी नहीं है, फिर भी कहते हैं यह मेरा है, यह मेरा है । क्या इसी भावना को लेकर हम अपने कर्मों को नष्ट कर सकते है ? तो जब यह सब अर्थात् संसार के समस्त पदार्थ, मारे सम्बन्धी और अपार धन-वैभव इस शरीर के नष्ट होते ही यहीं छूट जाने वाला है, हम क्यों न इन्हें पहले ही छोड़कर अपनी आत्मा को कर्मरहित बनाने का प्रयत्न करें ताकि इस देह रूपी पिंजरे से मुक्त होते ही अपने स्वभावानुसार ऊपर की ओर ही गमन करें, अपनी स्वाभाविक गति के विपरीत कर्मभार के बोझ से लदकर नीचे की ओर न जायें । संसार छोड़ने का आशय है कि हम संसार के प्रत्येक पदार्थ और प्रत्येक प्राणी के प्रति रही हुई आसक्ति तथा मोह का त्याग करें, संसार में रहते हुए संसार से अलिप्त रहें । संसार का सभी कुछ, यहाँ तक कि यह शरीर भी चाहे कितनी भी इसकी सुरक्षा क्यों न की जाये, एक दिन नष्ट होने वाला है, अतः इसका खयाल छोड़कर हमें अपनी आत्मा की रक्षा करनी चाहिए। एक बार श्रीमद् राजचन्द्र ने एक व्यक्ति से प्रश्न किया-'अगर तुम एक हाथ में घी का भरा लोटा और दूसरे हाथ में छाछ का भरा लोटा लेकर चलो तथा रास्ते में किसी का धक्का लगे तो तुम किम लोटे को संभालोगे? 'घी का लोटा ही संभालेंगे।' उत्तर मिला। राजचन्द्र मुस्कराते हुए बोले---'इतना ज्ञान होते हुए भी मनुष्य छाछ के समान देह को सम्भालता है और घी के समान जो आत्मा है, उसे गिरने देता है । कैसी नादानी है।' तो बन्धुओ ! हमें ऐसी नादानी नहीं करनी है । यही प्रयत्न करना है कि हमारी आत्मा उत्तरोत्तर उन्नत होती हई मृत्यु से अमरत्व की ओर बढ़े और हमारी प्रार्थना---'मृत्योर्माअमृतं गमय'-सार्थक बनसके) परन्तु इस प्रार्थना को सार्थक करने के लिए आवश्यकता है कि वह शब्दों के साथ-साथ हृदय से भी निस्सृत हो । प्रार्थना के स्वरों के साथ अगर हृदय नहीं बोला तो वह प्रार्थना तोतारटंत से अधिक महत्त्व नहीं रखेगी। प्रार्थना करने वाले व्यक्ति के हृदय में सच्ची लगन और दृढ़ता भी होनी चाहिए। वही पुरुषपुगव मुक्ति धाम का अधिकारी बन सकता है। इसलिये बन्धुओ ! अपनी इच्छाशक्ति को जगाओ, अपने आपमें विश्वास रखो तथा सच्चे हृदय से ईशप्रार्थना करते हुए कल्याण के मार्ग पर बढ़ने का प्रयत्न करो। ऐसा करने पर निश्चय ही तुम्हें सत्य की प्राप्ति होगी, तुम्हारी आत्मा मिथ्यात्व और अज्ञान के घोर अंधेरे से निकलकर ज्ञान के दिव्य प्रकाश की ओर बढ़ेगी तथा मृत्यु को जीत कर अमरत्व की प्राप्ति कर सकेगी। -- JARAU S POn Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय संसार वृद्धि का हेतु है । अकषाय मुक्ति का । कषाय का स्वरूप और उससे मुक्त होने की विधि ।] १४ कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव Le अनादि काल से मानव के मन में अपने अभ्युदय की अमर आकांक्षा रही है, किंतु दुःख है कि कोटि प्रयत्न करने पर भी वह पूर्ण नहीं हो पाई। क्यों नहीं हो पाई और उसके मूल में बाधक कारण कौन-कौन से हैं ? यही आज हमें जानना है और आत्मा को अवनति की ओर अग्रसर करने वाले उन घातक कारणों को समूल नष्ट करने का प्रयास प्रारंभ करना है । कषाय चतुष्टय आत्मा को स्वभाव दशा से विभाव दशा में ले जाने वाले तथा जन्म-मरण की कठोर शृंखलाओं में जकड़ने वाले चार कषाय हैं--क्रोध, मान, माया एवं लोभ । ये ही चतुष्कषाय आत्मा के सद्गुणों का नाश करते हैं और ऊर्ध्वगामी होने के बजाय अधोगामी बना देते हैं। कहा भी है कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयनासणो। माया मित्ताणि नासेइ लोभी सब्ब बिणासणो ॥२ __ अर्थात् क्रोध आत्मा के प्रीति गुण का नाश करता है, मान विनय गुण का, माया मैत्री का तथा लोभ उसकी समस्त विशेषताओं को नष्ट कर देता है। इस प्रकार हमारी आत्मा जो जीवराज है, सत्-चित्-आनंदमय है, निर्विकार और निष्कलंक है तथा अत्यन्त शक्तिशालिनी है, इन कषायों के फेर में पड़कर अपनी दिव्यता को खो बैठती है तथा कर्मों के आवरणों से वेष्टित होकर जन्म-जन्मान्तरों तक नाना योनियों में परिभ्रमण करती रहती है, इसलिये कर्मबंधन के प्रधान कारण तथा दुःख व अशांति के बीजरूप कषायों से प्रत्येक मानव को बचने का प्रयत्न करना अनिवार्य है । दशवकालिक सूत्र में भी यही निर्देश किया गया है वमे चत्तारि दोसाई इच्छन्तो हियमप्पणो।' इसका अर्थ है-अपना हित चाहने वाला प्राणी इन चारों दोषों का वपन करता है अर्थात् इन्हें त्याग देता है। जब तक कषाय मन्द नहीं होते तब तक सुख एवं शांति प्राप्त करने के समस्त बाह्य प्रयत्न व्यर्थ हो जाते हैं। जिस प्रकार शीतल जल के चार छींटे दूध के उफान को नहीं रोक पाते, उसी प्रकार पूजा पाठ, भजन व प्रवचन-श्रवण आदि बाह्य क्रियायें कषयों की वह्नि से झुलसती हुई आत्मा को शीतलता प्रदान नहीं कर सकतीं । कपायों की करामात का पूज्यपाद श्री तिलोकऋषि जी महाराज ने अपने एक पद्य में अत्यन्त रुचिकर ढंग से वर्णन किया है १ कषाय की व्याख्या भी यही की गई है। २ दशवकालिक सूत्र SUNDAMuskuraaduaadOAMUIDAVANAGARMINAweaimurereadiAMANABRAranimuanawraneASHARMILAABAIKAILAPAN Forward Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रवर आयार्यप्रवरुप अभिनंद श्री आनन्दन ग्रन्थ श्री आनन्द २०० आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि: व्यक्तित्व एवं कृतित्व अभिनन्दन प्रेम से जुझारसिंह वश किया जीवराज, मानसिंह मायोदास मिलिया चारों भाई हैं । कर्मचन्द काठा भया रूपचन्द जी से प्यार, धनराज जी की बात चाहत सदा ही है । ज्ञानचन्द जी की बात सुने न चेतनराम, आवे नहीं दयाचन्द सदा सुखदाई है । कहत त्रिलोक रिख मनाइ लीजे नेमचन्द, नहीं तो कालुराम आया विपत सवाई है । पद्य मनोरंजक होने के साथ ही शिक्षाप्रद भी है । यद्यपि कवि ने इस में व्यक्तिवाचक संज्ञाओं का प्रयोग किया है किन्तु इनके पीछे रहस्यमय तरीके से कषायों के कुप्रभावों का दिग्दर्शन कराया है । पद्य में लोभ को प्रेमसिंह की, क्रोध को जुझारसिंह की, अभिमान को मानसिंह की तथा माया या कपट को मायीदास जी व्यंग-सूचक संज्ञा से विभूषित किया है । क्रोध जिसे जुझारसिंह नाम से संबोधित किया गया है उसका आक्रमश होने पर व्यक्ति वे भान हो जाता है तथा हिताहित का ज्ञान भूलकर अकरणीय करने पर उतारू हो जाता है। आवेश के कारण उसके विवेक रूपी नेत्रबन्द हो जाते हैं किन्तु जिह्वा उचित अनुचित का भान छोड़कर इच्छानुसार कह जाती है । क्रोध एक तूफान के समान आता है और सर्वप्रथम विवेक की ज्योति को बुझा देता है । विवेक के अभाव में वह क्रोधी को तो जलाता ही है साथ ही अपने कटु वचनों की चिनगारियाँ जिस किसी पर भी पड़ती है वह भी जलने लगता है । तात्पर्य यह है कि क्रोध क्रोधी को तथा क्रोध के पात्र, दोनों को ही उत्तप्त करता है । इसीलिये महापुरुष और मुमुक्ष, प्राणी इससे कोसों दूर रहने का प्रयत्न करते हैं । मान st पद्य में क्रोध रूप जुझारसिंह के दूसरे मित्र का नाम अभिमान को संबोधित किया है । अभिमानी व्यक्ति अहंकार के तथा औरों को तुच्छ । किन्तु इसका परिणाम उलटा हो जाता है। किन्तु संसार की नजरों में वह महान न रहकर क्षुद्र साबित होता है है। कहा भी गया है मानसिंह दिया है । मानसिंह के नाम से कारण अपने आपको महान् समझता है भले ही वह स्वयं को महान् समझे तथा लोगों की नजरों से गिर जाता 'मानेन सर्वजन निन्दितवेशरूपः ।' अहंकार से सभी मनुष्यों द्वारा निन्दा का पात्र ही बनना पड़ता है । अभिमानी व्यक्ति का स्वभाव होता है कि वह औरों के कार्यों को नगण्य मानता हुआ अपने कार्यों को सर्वोत्तम साबित करे । उसके कान सर्वदा अपनी प्रशंसा सुनने के लिये आतुर रहते हैं किन्तु उसकी इस आकांक्षा के पूर्ण होने में उसका अहंकार बाधक बन जाता है तथा उसकी प्रगति रोक देता है । संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि अभिमानी व्यक्ति गगन को छूने का प्रयत्न करता है किन्तु धराशायी होकर संसार के समक्ष उपहास का पात्र बनकर रह जाता । माया जुझारसिंह और मानसिंह का तीसरा भाई है मायीदास । अर्थात् माया और कपट । माया हृदय की सरलता को नष्ट कर देती है तथा कुटिलता को आमंत्रित करती है और हृदय में जहाँ कुटिलता आई कि वहाँ से अन्य सद्गुणों का लोप होना प्रारंभ हुआ ही समझिये । हृदय की वक्रता अथवा कपट साधक की समस्त साधना और तपस्या को मिट्टी में मिला देता है । : Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव २०१ इसलिए प्रत्येक मोक्षाभिलाषी साधक के लिये अनिवार्य है कि वह कपट रूप वक्रता को त्यागकर जीवन में सरलता को स्थान दे । सरलता के अभाव में की जाने वाली समस्त साधनायें केवल कायक्लेश ही होती हैं, वक्र हृदय में धर्म के अंकुर नहीं जमते । वह सरल आत्मा में ही टिकता है क्योंकि सरलता से शुद्धता आती है और शुद्धता के आने पर धर्म का आना अनिवार्य है। लोभ चंडाल-चौकड़ी के तीन मित्रों का वर्णन हम कर चुके हैं अब चौथे का नम्बर है जिसका नाम है प्रेमसिंह । प्रेमसिंह का ही दूसरा नाम है 'लोभ' । लोभ के विषय में अधिक बताने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इससे आप चिर परिचित ही हैं । कोई भी नई वस्तु देखें तो आपकी इच्छा होती है कि इसे प्राप्त करें । अपनी वस्तु से आपको संतोष नहीं होता, दूसरों की वस्तुओं को भी हड़पने की इच्छा होती है । लोभ के आक्रमण के कारण आप के पास कितना भी धन-वैभव क्यों न इकट्ठा हो जाये, उससे भी अधिक पाने की लालसा बढ़ती जाती हैं। इसीलिये कहा गया है.... जहा लाहो तहा लोहो लाहा लोहो पवढइ । दो मास कयं कज्ज कोडीए वि न निट्ठयं । अर्थात् जैसे-जैसे लाभ होता है वैसे-वैसे लोभ बढ़ता जाता है। लाभ ही लोभ को बढ़ता है । दो माशे सोने के लिये आया हुआ ब्राह्मण एक करोड़ में भी संतुष्ट नहीं हुआ। लाभ और लोभ में विशेष अन्तर नहीं है। सिर्फ एक मात्रा ही बढ़ती है, किन्तु उस मात्रा के कारण ही कितना अनर्थ होता है । लोभ के आते ही अनेक घर बर्बाद हो जाते हैं। आपने सुना ही होगाअनेक ठग भोली बहिनों को लोभ के फंदे में फंसा कर लूट लेते हैं। एक तोला सोने का दस तोला सोना बना देने का लालच देते हैं और उनके मूल को भी ले उड़ते हैं। लोग यह नहीं सोचते कि उस धूर्त व्यक्ति में अगर इतनी शक्ति होती तो वह स्वयं दर-दर क्यों भटकता? पर लोभ का जाल ही ऐसा है कि व्यक्ति उधार लेकर भी उसमें फंस जाते हैं। जीवात्मा जब लोभ और लालच में फंस जाता है तब कहीं का नहीं रहता। आपने देखा होगाचूहा कुछ खाने के लालच में पिंजरे में घुसता हैं और पकड़ा जाता है। मछली पकड़नेवाले भी काँटे में आटा लगाकर उसे जल में छोड़ देते हैं और मछली आटा खाने के लोभ में आकर यह नहीं देखती कि इसमें कांटा भी है। मराठी में कहा भी है-- आमिषाच्या आशे गल गिलीयासा, फाटोनिया घसा मरण पावे।' आमिष यानी खाने की आशा में मछली खाद्य-वस्तु पर झपट्टा मारती है पर कांटा उसके गले में फंस जाता है और वह बाहर खींच ली जाती है। बताइये मछली क्यों मरी? खाने के लालच में ही न? इसीलिये लोभ-लालच को त्यागने का विधान आगमों में किया गया है। क्योंकि लोभ की कोई सीमा नहीं है इच्छा हु आगाससमा अणंतिया ।। इच्छायें आकाश के समान अनन्त हैं । लोभी व्यक्ति यह नहीं देखता कि मेरी आवश्यकतायें कितना संचय चाहती हैं ? संचय और आवश्यकताओं की कोई सीमा उसके सामने नहीं होती। वह तो केवल संग्रह करने और उसकी चौकीदारी करने का ख्याल रखता है। परिणाम यह होता है कि अति आसक्ति के कारण उसके कर्मों का पिटारा भारी होता जाता है । कविता के दूसरे चरण में यही कह गया है कर्मचन्द्रजी काठा भया रूपचन्दजी सं प्यार, धनराज जी की बात चाहत सदा ही है। و دهميععي فيعرف هههههههههههه من مرو مريمرخیام आचार्यप्रवभिभाचार्यप्रवर भो श्रीआनन्दग्रन्थ श्राआनन्द अन्य Hammeriname Poswwwaar Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 आयाम श्री आनन्द J फ्र २०२ अभियार्यप्रव आचार्यश्व अन्थ श्री आनन्द आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि व्यक्तित्व एवं कृतित्व : अभिनंदन ग्रन्थ V जब कषायों में आत्मा फंसी रहती है तो कर्मों का दृढ़ बंधन होता है, किन्तु रूपचन्दजी की उपेक्षा करना भी तो सहज नहीं है। माल कमाने में आप कितना प्रयत्न करते हैं ? वे हिसाब और नामस्मरण करने में ? जरा भी नहीं ! दुख की बात है कि आपको यह ख्याल नहीं रहता कि भगवान का स्मरण आत्मा के साथ चलेगा और धन-माल सब यहीं रह जायेगा। किन्तु धनराज जी के समाने आपका वश नहीं चलता रुपया, पैसा, वेत, बाग बगीचा, मोटर, बंगला और अन्य अनेकानेक वस्तुयें आप चाहते हैं। यह सही है कि आप संसारी हैं, आजीविका के बिना आपका काम नहीं चलता किन्तु तनिक ज्ञानचन्दजी की बात भी तो आपको सुनना चाहिये 7 'ज्ञानचन्दजी की बात सुने न चेतनराम, आवे नहीं दयाचन्द्र सदा सुखदाई है ।' ज्ञान की बात चेतन सुनने को तैयार नहीं होता । हमें यह देखना है कि ज्ञान की बात क्या है ? योग्यतानुसार अभावग्रस्त प्राणी की सहायता करनी चाहिये नहीं होती, वह चाहे कितनी भी धर्मक्रियायें क्यों न करे, व्यापार आदि धनार्जन के कार्यों से 'आवे नहीं दयाचन्द्र सदा सुखदाई है - अर्थात् ज्ञान की बात है दिल में दया का होना । प्रत्येक प्राणी के हृदय में दूसरों के दुःख को देखकर करुणा का उदय होना चाहिये तथा उसे अपनी शक्ति और जिस व्यक्ति के हृदय में दया की भावना वे फलदायी नहीं बन पातीं। इसके अलावा मनुष्य को जो लाभ होता है, उसकी अपेक्षा अनेक गुना लाभ दयाभाव से प्रेरित होकर किसी भी प्राणी की सहायता करने से होता है। कहा भी है ब्याजे स्वाद द्विगुणं वित्त व्यवसाये चतुर्गुण' । क्षेत्रे शतगुणं प्रोक्तं पात्रेऽनन्तगुणं भवेत् । ब्याज पर पैसा देने से संभवत: दुगुना हो सकता है, व्यापार में लगाने पर चौगुना और खेत में बीज के रूप में बो देने पर सौगुना भी होता है। ऐसा कहा जाता है । किन्तु अभावग्रस्त और सत्पात्र को दिया हुआ पैसा अनन्त गुना फल प्रदान करता है । 九 दया धर्म के विषय में यही बात ज्ञानचन्द जी अर्थात् 'ज्ञान' 'चेतन' को समझाता है किन्तु चेतन अर्थात् आत्मा उसे सुनने के लिये तैयार नहीं होती। फिर जनम जनम में मुख-प्रदान करने वाली दया कैसे आये ? और पद्य के चतुर्थ चरण में कवि श्री तिलोकऋषि जी महाराज कहते हैं कहत है तिलोरिख मनाई लेहि नेमचन्द्र, नही तो कालूराम आये विपति सवाई है। भाई ! एक बात मेरी मानो ! मनाई लेहि नेमचन्द ! अर्थात् नियम व्रत, स्वाग, प्रत्याख्यान आदि कुछ तो करो जिससे आत्मा का कल्याण हो सके । बंधुओ ! आपसे जब त्याग नियम लेने के लिये कहा जाता है तो आप कह देते हैं 'महाराज ! बनता नहीं' पर याद रखो एक दिन कालूरामजी (काल) आने वाले हैं। वे किसी को भी छोड़ने वाले नहीं हैं । चाहे कोई डाक्टर हो, वकील हो, इन्जीनियर हो । किसी भी साहब का कालचन्दजी को त्याग नहीं है । सच्चा हितैषी धर्म । प्रत्येक मानव को एक दिन इस संसार को छोड़कर जाना पड़ेगा। यहाँ की एक भी वस्तु उसके साथ जाने वाली नहीं है। साथ जायेगा तो केवल शुभ और अशुभ कर्मों का गट्टर ही अशुभ कर्मों की यह गठरी विषय कषायों की तीव्रता से ही अधिकाधिक भारी होती है और आत्मा को पुनः पुनः जन्ममरण के लिये बाध्य करती है । ये ही वे कारण हैं जिनके कारण मनुष्य मुक्ति की आकांक्षा रखते हुए भी Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव २०३ CODAE गया रि मुक्त नहीं हो सकता। अनन्त सुख की प्राप्ति की अभिलाषा होते हुए भी उसे प्राप्त नहीं कर सकता तथा अनन्त काल तक नाना प्रकार के दुखों का अनुभव करता रहता है। इसलिये आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि जन्म-मरण के मूल का सिंचन करने वाले इन विषय-कषायों से अलग रहने का प्रयत्न किया जाये, इन्हें समूल नष्ट करने में एक मात्र धर्म ही सहायक हो सकता है । धर्म से हमारा तात्पर्य बाह्य आडंबर या दिखावे से नहीं है। पूजा-पाठ कर लेना, गंगा स्नान कर आना तिलक-छापे लगा लेना या केवल मुख वस्त्रिका बांधकर अड़तालीस मिनिट तक एक स्थान पर बैठ जाना ही धर्म नहीं है, वरन जीवन में सद्गुणों, सद्वृत्तियों तथा हितकारी भावों का लाना ही धर्म है। दुसरे शब्दों में जीवन का मर्यादित एवं सुसंस्कृत होना ही धर्म है। सच्चा धर्म कषायविष का नाश करते हए जीवन के लिये परम रसायन सिद्ध होता है। अतः मुक्ति के इच्छुक प्राणी को अपनी आकांक्षा पूर्ण करने के लिये इन्द्रियों पर तथा मन पर अंकुश लगाना पड़ेगा। काम, क्रोध, मोह, लोभ, आसक्ति तथा लालसा आदि पर विजय प्राप्त कर अनासक्ति और निर्वेद भाव को अपनाना होगा। क्योंकि जब तक मन पर विजय प्राप्त नहीं की जायेगी, कषायों के तूफानों को रोकना असम्भव होगा। प्राणी उसी अवस्था में मुक्त हो सकेगा जबकि उसकी आत्मा सांसारिक वासनाओं और क्रियाकांडों को ही धर्म समझने वाली अज्ञानता से मुक्त रहेगी। मोक्ष किसी स्थान पर नहीं होता है, वह स्वयं आत्मा में ही निहित होता है । हृदय की अज्ञान-ग्रन्थि का नष्ट होना ही मोक्ष कहा जाता है। बंधुओ, अब आप समझ गये होंगे कि विषय और कषाय ही आत्मा के सहज स्वभाव और ज्ञान पर आवरण बनकर छाये हए होते हैं और इन्हें हटा देने पर आत्मां अपने सहज स्वभाव को प्राप्त करती है तथा सम्यक् ज्ञान प्राप्तकर अजर, अमर, शांतिमय लोक में अपना स्थान बनाती है। कषायों का परित्याग करने पर ही संसार को हटानेवाली प्रवृत्तियों का आविर्भाव होता है तथा कर्मों का आस्रव रुकता है। इसे ही धर्म नाम की संज्ञा दी जाती है। ऐसे धर्म का ही वीतराग महापुरुषों ने निरूपण किया है, जिसे अपनाना तथा उसमें बताये गये विधि-निषेधों का पालन करना प्रत्येक मुमुक्ष का कर्तव्य है। अगर वह ऐसा करने में समर्थ हो जाता है तो संसार की कोई भी शक्ति उसे शाश्वत सुख का अधिकारी वनने से नहीं रोक सकती। D 0Al.. - आनन्द-वचनामृत 0वीर के लिए तिनका भी तलवार है। कायर के लिए तलवार भी तिनका है। सच तो यह है कि कायर का शस्त्र स्वयं उसी का घातक बन जाता है, जब कि वीर किसी भी घास-फूस व तृण से अपनी रक्षा कर लेता है। सम्यग् दृष्टि आत्मा किसी भी वस्तु से ज्ञान ग्रहण कर लेता है और बोध प्राप्त कर लेता है, मिथ्यात्वी हजारों शास्त्रों के होते हुए भी इधर-उधर भटकता रहता है । दीपक भी उसके लिए अंधकार का कारण बन जाता है। आपायप्रवर अभिआगार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्द-ग्रन्थ श्राआनन्दान्य ommarwromrmwarerarmsmardsomrani formwowayamelibrary.org Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A RJ ANNAAKAALANABARADAVardan प्रामा [मन का महिमा-मन चंगा तो कटोत हौ में गंगा, मनः शुद्धि की अपेक्षा है, इन मूत्रों का सुन्दर विवेचन ।] १५ मन की महिमा आज हम कर्म-बंधन और मुक्ति के कारण के बारे में विचार करेंगे कि कर्मों के बंधन में और उनसे मुक्ति में मुख्य हेतु क्या है। कर्मबंध का कारण धर्मशास्त्रों में तीन प्रकार के योग बताये गये हैं-मनोयोग, वचनयोग और काययोग। इन तीनों योगों में से किसी भी योग का कषाय के साथ संबन्ध होने से कर्मबंध होता है। कषाय चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । इन चारों में से किसी भी एक या एक से अधिक कषाय के साथ मन, वचन - और काया के योग जुड़ेंगे तभी कर्म का बंध होगा। अकेले कषाय या अकेले योग से कर्म नहीं बंधते । कषाय अगर नहीं है तो तीनों योगों के विद्यमान रहते हुए भी कुछ नहीं होगा। और तीनों योगों का संबन्ध न होने पर कषाय कर्मों का बंधन आत्मा के साथ करेंगे भी कैसे ? आशय यही है कि कर्मबंधन तभी होगा जब कषायों का और योगों का आपस में सम्बन्ध होगा। कर्म का अबंधक कौन ? हमारे तीर्थकर भगवान जो विदेही हैं और जिन्होंने केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त कर लिया है, उनके मन, वचन और काया इन तीनों योगों के रहते हुए भी कर्मबंध नहीं होता। उन्हें पाप नहीं लगता । ऐसा क्यों ? इसलिये कि उनके योग है पर कषाय नहीं है। अगर कषाय होते और मोहनीय कर्म भी जीता न जाता तो उन्हें केवल ज्ञान नहीं हो सकता था । समस्त कर्मों के शिरोमणि मोहकर्म को जीत लेने के कारण ही उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई है और इसके कारण उनके पापकर्मों का बंधन नहीं होता-रुक गया है। विदेह शब्द का अर्थ हम प्रायः महापुरुषों के लिये 'विदेह' शब्द का प्रयोग देखते हैं । राजा जनक को विदेही कहा जाता है । बड़े-बड़े योगी भी उनके पास ज्ञान प्राप्ति के हेतु आते थे। __ श्री उत्तराध्ययन सूत्र में राजकुमार मृगापुत्र के लिये कहा गया है-'जुवराया दमोसरे।' जुवराया यानी युवराज और दमीसरे अर्थात् इन्द्रियों तथा मन का दमन करने वाला। दो विरोधी शब्दों का कितना आश्चर्यजनक मेल है ? भविष्य में जो राजा बनने वाला है उस युवराज को दमीसरे कहा गया है। पढ़कर आश्चर्य होता है कि युवराज की पदवी के साथ इन्द्रिय और मन के दमन की पदवी भी चल सकती है ? एक युवराज या राजा अपनी इन्द्रियों को वश में रख सकता है ? क्या एक ही व्यक्ति राजा और योगी दोनों के योग्य कर्तव्यों का समीचीन रूप से निर्वाह कर सकता है ? साधारण दृष्टि से देखा जाये तो ऐसा होना संभव नहीं लगता। क्योंकि एक का प्रवृत्तिमार्ग है और दूसरे का निवृत्तिमार्ग । प्रवृत्ति और निवृत्ति एक साथ कैसे चल सकती है? प्रवृत्ति सांसारिक उलझनों रिया Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन की महिमा २०५ CENETTE Wali में फंसाती है और निवृत्ति त्याग की ओर बढ़ाती है। किन्तु मृगापुत्र के लिये दोनों को साथ ही रखा गया है । अतः हमें बारीकी से इसमें रहे हुए रहस्य को समझना है। यह रहस्य इस तरह जाना जा सकता है कि विदेह विशेषण उन महामानवों के लिये प्रयुक्त किया जाता है जो संसार में रहकर भी अपने अन्तर में संसार को नहीं रहने देते है। संसार किसे कहते हैं ? बंधुओ ! अब पुनः प्रश्न उठता है कि संसार क्या है ? संसार है आत्मा में रहे हुए क्रोध, मान, माया, लोभ, राग तथा द्वेष आदि का मूर्तिमान रूप। जन्म-मरण की शृखला या भव-परंपरा हमारे अन्तर में रहे हुए कषायादि के संयोग से हमारे ही मन, वचन या काय योगों के कारण बढ़ती है । अतः स्पष्ट है कि जो कुछ भी होता है, हमारे अन्तर की वृत्तियों के द्वारा ही होता है। जिसे हम संसार कहते हैं-वह हमारे अन्तर्मानस की उपज ही है । अगर हमारे हृदय में कषाय या रागद्वेष न हों, अगर हमारा हृदय इन दोषों से रहित हो तो बाह्य संसार से हमारा कोई संबन्ध ही न रह जाये । इसीलिये कहा जाता है कि संसार को अपने अन्दर मत रहने दो। जो महामानव ऐसा करने में समर्थ बन जाते हैं अर्थात् संसार को अपने अन्दर नहीं रहने देते वे बाह्य संसार में रहकर भी उससे अलिप्त रहते हैं तथा विदेह कहलाते हैं। ____ संसार में रह कर भी संसार से अलिप्त किस प्रकार रहा जाता है, इसे संत तुकाराम जी एक उदाहरण द्वारा समझाते हैं मिष्टान्नाचा स्वाद जिव्हेच्या अगदी। __ मसक भरल्यावरी स्वाद नेणे ॥ अर्थात्-मिष्टान्नों की मधुरता का स्वाद केवल वह जिह्वा के अग्रभाग पर रहता है, तभी तक महसूस होता है, उसके आगे जाते ही समाप्त हो जाता है। एक कहावत भी है-'उतरिया घाटी हुआ माटी।' यानी कितने भी स्वादिष्ट और मधुर पकवान क्यों न हों, गले से उतरते ही माटी के समान स्वादरहित हो जाते हैं । तो जिह्वा नाना प्रकार के रसमय पदार्थों का आस्वादन करते हुए भी सदा कोरी-की-कोरी, स्वादरहित रहती है, उसी प्रकार विदेही व्यक्ति संसार में रहते हुए भी सांसारिक पदार्थों में ममत्व नहीं रखते, उससे अछूते बने रहते हैं। वे समस्त सांसारिक कार्यों और कर्तव्यों को संपन्न करते हुए भी संसार में अपनी आसक्ति, मोह की गृद्धता नही रखते । अर्थात् वे बाह्य संसार को बाहर ही रहने देते हैं, अपने अन्दर नहीं आने देते और इसी का नाम विदेह होकर रहना है । मन-बंध-मुक्ति का कारण पढ़कर आश्चर्य होता है कि ऐसा कैसे हो सकता है ? धन का उपयोग करते हुए भी उससे निलिप्त और समस्त इन्द्रिय-सुखों को भोगते हुए भी उनसे किसी व्यक्ति को विरक्त कैसे माना जा सकता है ? परन्तु सारा रहस्य यही है और आपकी इस जिज्ञासा के उत्तर में ही है। वास्तविकता यह है कि पापकर्मों के बंधन का असली कारण मनोयोग है, अर्थात् मन की प्रवृत्तियों से ही कर्मों का बंधन और उनका झड़ना सम्भव है। कहा भी है मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध-मोक्षयोः । बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्य निविषयं स्मृतम् ॥ अर्थात्-यह मन ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का कारण है। जो मन विषयों में आसक्त होता है वह बंधन में जकड़ता है और जो विषयों से विमुख हो जाता है, वह मोक्ष का कारण होता है। स्पष्ट है कि पापों का मूल मन है । अगर मन में पाप है, आसक्ति है, गृद्धता है तो मनुष्य पापी है और मन में पाप आदि नहीं है तो वह निष्पाप है। HENRIES ANTI memandsowwwaalaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaverimarwasansowroamardanawarananasawaamannaBadoasacrealnaar आचारप्रवर अभिनयाचार्यप्रवर आभार श्रीआनन्दन्थ श्राआनन्द Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री आनन्द ग्रन्थ २०६ 九 水 3702293 873/166381 382 श्री आनन्द अन्य आचार्यप्रवर श्री आनन्दॠषि व्यक्तित्व एवं कृतित्व : बंधुओ ! जो व्यक्ति प्रशंसा - अप्रशंसा की, लक्ष्मी के आने या जाने की, किसी भी प्रकार के भय या लालच की तथा मृत्यु के आतंक की भी परवाह नहीं करता वही कल्याण के सत्यपथ पर विदेह होकर चल सकता है और वही व्यक्ति अपने मन पर संयम रखने में समर्थ हो सकता है। मन वडा चंचल होता है और इसे वश में रखना बड़ा कठिन है। जैसा कि एक इलोक में कहा गया है यः स्वभावो भवेद्यस्य स तेन खलु दुस्त्यजः । न हि शिक्षाशतेनापि कपिमुच्यति चापलम् ॥ जिसका जैसा स्वभाव बन जाता है, उसका छूटना अत्यन्त कठिन होता है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि सैकड़ों शिक्षायें देने पर भी बन्दर अपनी चंचलता नहीं छोड़ता । मन को भी बंदर की उपमा दी गई है । लाख बार समझने पर भी बन्दर एक स्थान पर बैठा नहीं रह सकता । उछल-कूद मचाता रहता है, इसी प्रकार चिन्तन, ध्यान आदि के द्वारा स्थिर करने का प्रयत्न करने पर भी मन की भागदौड़ बंद नहीं होती है। श्रीकृष्ण से कहते है- और दृढ़ है । मुझे भगवद्गीता में उल्लेख है कि अर्जुन मन की चंचलता से परेशान होकर 'हे वासुदेव ! यह मन अत्यन्त चपल है और प्रमथन स्वभाववाला है । अत्यन्त बलवान तो ऐसा लगता है कि उसे वश में करना वायु को वश में करने के समान दुष्कर है। कैसे इस पर संयम किया जाये ।' इसके उत्तर में श्रीकृष्ण ने कहा असंशयं महाबाहो ! अभ्यासेन तु कौन्तेय | मनो दुनिग्रहं चलम् । वंराग्येण च गृह्यते ।। अर्थात् हे महाबाहो ! निस्सन्देह यह मन अत्यन्त चंचल है और कठिनता से वश में आने वाला है, किन्तु अभ्यास से अर्थात् बारवार प्रयत्न करने से और वैराग्य से उसे वश में अवश्य किया जा सकता है। कवि वृन्द के एक दोहे में भी यही बात कही गई है करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान । रसरी आवत जातते सिल पर करत निशान || अर्थात् -- पत्थर कड़ा होता है, परन्तु उस पर भी प्रतिदिन रस्सी के आने-जाने से गहरा निशान जिस प्रकार हो जाता है, उसी प्रकार अत्यन्त जड़बुद्धिवाला व्यक्ति भी अगर अभ्यास करता रहे तो ज्ञानवान बन सकता है । मन के लिये भी ठीक यही बात है कि अगर पूरा प्रयत्न किया जाये और बार-बार उस प्रयत्न को दुहरा कर मनुष्य उसका अभ्यास करता रहे तो मन को स्थिर और संयमित बनाने में सफल हो सकता है। मैंने आपको बताया है कि संसार में पाप कर्मों का बंधन मन, वचन और काया से होता है, पर यह भी ध्यान में रखने की बात है कि इन योगों से पाप जिस प्रकार लगता है, उसी प्रकार छूटता भी है । अगर ये बंधन में डालते हैं तो छुड़ाते भी ये ही है जैसे आपके किसी दुश्मन का किसी प्रकार से अनिष्ट हुआ और आपके मन में इसकी खुशी हुई। बहुत अच्छा हुआ जो इसके व्यापार में घाटा हुआ, इतना ही नहीं और भी उसे दुःख उठाना पड़ें तो अच्छा । यह विचार केवल आपके मन में है, वचन और शरीर से उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ा, फिर भी आपके कर्मों का बंधन हो जायेगा परन्तु उसी समय मुबुद्धि आ जाये विवेक जागृत हो उठे तथा अपनी दुर्बलता के लिये गहरा पश्चात्ताप करते हुए आप विचार करने लगें - अरे, मैं कितना नीच हूँ जो किसी J Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ मन की महिमा अन्य प्राणी का अनिष्ट चिन्तन कर रहा है आदि आदि तो उसी मनोयोग के द्वारा, जिससे कि कुछ क्षण पहले आपके कर्म बँधे थे, उनकी निर्जरा होनी भी प्रारंभ हो जायेगी किन्तु आवश्यक है कि आपका पश्चाताप हार्दिक हो, उसमें बनावट न हो । यही बात वचन के लिये भी है। मान लीजिये किसी ने अन्य व्यक्ति को क्रोधावेश में आकर दुर्वचन कह दिये, किन्तु वही व्यक्ति उस व्यक्ति से जाकर कहे- मैंने कटुवचन कहकर आपके हृदय को दुलाया है, मुझे ऐसा कतई नहीं कहना चाहिये था, इसके लिये आप मुझे क्षमा प्रदान करें तो ऐसे पश्चात्ताप पूर्ण वचनों के कहने पर उसके पाप नष्ट हो जाते हैं । अब रहा शरीरयोग । शरीर से किया हुआ पाप भी शरीर के द्वारा छूट भी जाता है । उदाहरण स्वरूप आप चल रहे हैं, मार्ग में असावधानी से किसी को ठोकर लग गई और ठोकर लगते ही वह कराह उठा। अब अगर आप ठोकर लगाकर भी सीधे चले जाते हैं तो आपको जन्मी व्यक्ति गालियों की बक्शीश देगा किन्तु ठोकर लगते ही आप उसके समक्ष हाथ जोड़कर खड़े हो गये और माफी मांग ली और सेवा कर दी तो वह पिघल जायेगा और आपको माफ कर देगा। सारांश यह कि पैर से ठोकर मारकर आपने हाथों से क्षमा मांग ली, सेवा कर दी तो शरीर से लगा हुआ पान शरीर से ही छूट भी गया । तो स्पष्ट हो गया कि मन, वचन और काया इन तीनों योगों का कषायों के साथ सम्बन्ध होने पर पाप कर्मों का बंधन होता है और मन बचन एवं काया से ही पाप कर्मों की निर्जरा भी होती है । अतः हमे प्रयत्न यह करना चाहिये कि प्रथम तो हमारे तीनों योगों का कपायों से संबन्ध ही न होने पाये और अगर असावधानी, प्रमाद या आवेश के कारण ऐसा हो जाये तो तुरन्त ही सच्चे पश्चात्ताप सहित हम उस पाप से छूट जाने का उपाय कर लें। अगर हम ऐसा कर सकें, अर्थात् कषायों से तथा मोह से अपने आपको बचा सकें तो हमारी आत्मोन्नति का मार्ग निष्कंटक बन जायेगा । मोहकर्म सभी अन्य कर्मों की अपेक्षा बलशाली होता है, वह बारहवें गुण स्थान तक भी आत्मा का पीछा नहीं छोड़ता और कभी-कभी तो वहाँ से लाकर पुनः भव परंपरा में डाल देता है । मोह के वशीभूत होकर प्राणी अपनी आत्मा के कल्याण और अकल्पण का भी ख्याल नहीं रखता । मनोनिग्रह का उपाय बंधुओं ! मोहकर्म की शक्ति वास्तव में ही अत्यन्त प्रबल होती है, अतः प्रयत्न और अभ्यास से कपायों के साथ-साथ इसे जीतने का प्रयत्न करना चाहिये। जब तक वे मन पर छाये रहते हैं, वह स्थिर नहीं रह पाता । अतः जो मुमुक्ष अपने मन को स्थिर और संयमित करना चाहता है, उसे सर्वप्रथम इन सब दोषों को दूर करना पड़ेगा और यह अभ्यास से ही हो सकता है, जैसा कि श्रीकृष्ण ने कहा है- अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते । श्रीकृष्ण ने मन को वश में करने के दो उपाय बताये हैं- एक अभ्यास और दूसरा वैराग्य । अभ्यास के बारे में कुछ विचार किया गया, अब वैराग्य के बारे में विचार करते हैं । सहज ही जिज्ञासा होती है कि वैराग्य की आवश्यकता किसलिये पड़ती है। इसका समाधान यही है कि किसी भी दोष का नाश उसके विरोधी गुण को ग्रहण करने से हो सकता है। तदनुसार कपाय व राग-द्वेष का विरोधी वैराग्य है, अतः इन्हें नष्ट करने के लिये वैराग्य को ग्रहण करना चाहिये । ज्ञानी पुरुषों ने वैराग्यभाव के रूप में जीवन को सम्यक् मोड़ देने वाली एक महिमामयी कला का आविष्कार किया है । यह कला हमारी आत्मा के लिये अत्यन्त हितकर है। जब तक मानव के हृदय में रागद्वेष रूपी विकार विद्यमान रहते हैं तब तक वह वैराग्य परिणति का विकास नहीं कर पाता। परिणाम यह होता है कि वह सच्चे सुख का अनुभव नहीं कर सकता और दुःखों से छुटकारा नहीं पा सकता । आत्मा में विरक्त भावना के होने पर उसे कोई भी अपना शत्रु दिखाई नहीं देता और इसके कारण भय की भावना उसके समीप भी नहीं फटकेगी । इसीलिये भर्तृहरि ने कहा है आयाय प्रवद्ध आभिनंदन आआनन्द ग्रन्थ श्री Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रaaआभाचार्यप्रवभिः श्रीआनन्दयश्रीआनन्देन्या आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व 'सर्व वस्तुभयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ।' इसलिये आत्मकल्याण के अभिलाषी व्यक्ति को सर्वप्रथम अपनी कामनाओं पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये तथा अनन्त बलशाली आत्मा को दीन, हीन और निर्बल बना देने वाली समस्त आकांक्षाओं का त्याग करके सच्चा विरक्तिभाव अपनाना चाहिये। जो ऐसा करने में समर्थ हो जाता है, वही सच्चा मुनि तथा वीर कहलाने का अधिकारी होता है । बौद्धग्रन्थ के प्रसिद्ध ग्रन्थ धम्मपद में कहा है ये सं संबोधि अंगेसु सम्माचित सुभावितं । आदानपाट निस्संगे अनुपादान ये रता । खीणासवा जुतीमन्नो ते लोके परि निता। अर्थात्-इस संसार में वही मुक्त है जिन्होंने ज्ञान के सब अंगों से चित्त को सुव्यवस्थित कर रखा है, जो किसी भी वस्तु से लगे-लिपटे नहीं हैं, जो किसी पर मोह नहीं रखते और जिनकी वासना नष्ट हो गई है। वैराग्य का उत्पादक वास्तव में वस्तुस्वरूप का सम्यक् ज्ञान वैराग्य का जनक है । जो मनुष्य संसार के अनित्य और निस्सार स्वरूप का ज्ञान कर लेता है और यह समझ लेता है कि आनन्द जड़पदार्थों में नहीं आत्मा के अन्दर ही छिपा हुआ है तो स्वतः ही उसके हृदय में वैराग्य की निर्झरणी प्रवाहित होती है और सच्चे ज्ञान का अधिकारी बनता है। अन्यथा उसका ज्ञान लोगों को भुलावा देने के अलावा और कुछ नहीं माना जा सकता है। अतएव मेरे बन्धुओ ! हमें अपने ज्ञान का सही उपयोग करना चाहिये, उसकी सहायता से संसार के पदार्थों का और आत्मा के सच्चे स्वरूप का निश्चय करना चाहिये, तत्पश्चात उसे अपने आचरण अर्थात् क्रिया में उतारते हुए अपने मन, वचन और काय इन तीनो योगों पर संयम रखते हुए आत्मसाधना में जुट जाना चाहिये। कोरे ज्ञान से हमारा उद्देश्य कभी भी सिद्ध नहीं हो सकता, जब तक कि उसका उपयोग तीनों योगों को नियंत्रण में करते हुए आचरण को शुद्ध और दृढ़ न बनाया जाये । कहा भी है ज्ञान क्रिया विन मोक्ष मिले नहीं, श्रीजिन आगम मांहि कही है। एक ही चक्र से नाहिं चले रथ, दो बिन कारज होत नहीं है। ज्ञान है पांगुलां अंध क्रिया मिल, दोन कलाकरि राज ग्रही है। कीजे विचार भली विध 'अमृत', श्रीजिनधर्म को सार यही है। अन्त में मुझे केवल यही कहना है कि अगर हम अपने मनुष्यजन्म को सार्थक करना चाहते हैं तथा आत्मा को कर्म बंधनों से मुक्त करना चाहते हैं तो हमें सांसारिक सुख की असारता और संयोगों की अनित्यता पर विचार करते हुए उनके प्रति अपने चित्त में स्थित राग, मोह और आसक्ति को नष्ट करना चाहिये । ऐसा करने पर हमारे हृदय में निरासक्त भाव बढ़ेगा और संसार में रहते हुए भी हम विदेह हो कर रह सकेंगे। NADA Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन की महिमा यह अकाट्य सत्य है कि हमसे पूर्व इस संसार में जो विदेह बन कर रहे हैं, उनकी आत्मा से हमारी आत्मा किसी भी दृष्टि से हीन नहीं है। उनकी आत्मा के समान ही हमारी आत्मा भी अनन्त बलशाली और अनन्त ज्ञान की अधिकारिणी है । आवश्यकता केवल उसे जगाने की है तथा उस पर पड़े हुए आवरणों को हटाकर उसकी शक्ति, ज्ञान और तेज को प्रकाश में लाने की है और यह तभी प्रकाशित हो सकती है जब कि अज्ञान और मिथ्यात्व का पर्दा उस पर से हटा दिया जाये और कषाय, विषय-वासनाओं की मलिनता के स्थान पर वैराग्य की पवित्र भावनाओं को स्थापित किया जाये। कषायों का संयोग हमारे मन, वचन और काया इन तीनों योगों में से किसी के भी साथ न होने पाये जो कि कर्मबंधन का कारण बनता है । जो भव्य प्राणी ऐसा कर सकेंगे वे निश्चय ही अपने दुर्लभ मानवजीवन को सार्थक बनायेंगे । आनन्द-वचनामृत - राम और रावण-दोनों ही शलाकापुरुष थे, दोनों ही वीर थे, और विद्वान भी थे, फिर क्या कारण है कि राम को संसार पूजता है, रावण को गालियाँ देता है ? कारण यही है कि रावण इच्छाओं का दास था और राम इच्छाओं के स्वामी। 0 मूर्ख दो प्रकार के होते हैं-एक वह जो अपनी भूल को भूल के रूप में स्वीकार नहीं करता, दूसरा वह जो-दूसरों की भूल का दुनिया में ढोल पीटता है। समझदार मनुष्य-अपनी भूल को स्वीकार करता और दूसरों की भूल देखकर चुप रहता है। 1 मोक्ष का अधिकारी कौन ? जिसके अन्तर में मुमुक्षा-मुक्ति पाने की इच्छा लगी हो। कषाय से मुक्ति विकारों से मुक्ति परिग्रह से मुक्ति इन तीनों से मुक्ति पाने की इच्छा रखने वाला ही मोक्ष का अधिकारी है। ف تاة تدعيععيععمر سے شرعی اعتماعیمعرفیعی OMOU साया आनन्द-ग्रन्थ श्राजिन्दग्रन्थ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aun.. 4 ...+ 14. .. d . .... . [धर्म का स्वरूप, धर्म का महिमा, धर्म से हा सुख, करे धर्म छुटे कर्म, मिले शिव-शर्म-श्रादि मूक्तियों का अध्यात्मपरक विश्लेषण १६ सुख का साधन-धर्म जीवन के लिये धर्म मार्गदर्शक दीपक के समान है। धर्म-दीप की सहायता से ही मानव अपने वास्तविक कर्तव्य-पथ पद अग्रसर हो सकता है। जब तक मनुष्य के अन्तःकरण में धर्म की ज्योति नहीं जगती, उसका समस्त आचार-विचार और क्रिया-कलाप निरर्थक सावित होता है तथा वह आत्ममुक्ति के मार्ग पर एक कदम भी नहीं बढ़ पाता। लेकिन दुःख की बात यह है कि आज के युग में धर्म उपेक्षा की वस्तु बन गया है। इसका कारण मानव की धर्म संबन्धी अनभिज्ञता ही है। वे नहीं जानते कि धर्म का सच्चा स्वरूप क्या है ? केवल वाह्य क्रियाकांडों को धर्म समझ लेना तथा उनके कारण विभिन्न धर्मावलम्बियों को आपस में झगड़ते देखकर धर्म के नाम का ही त्याग कर देना, उनकी बड़ी भारी भूल है । हमारी नई पीढ़ी के युवकों का यही हाल है। वे स्वयं तो धर्म को समझने तथा उसके सच्चे स्वरूप को जानने का प्रयत्न नहीं करते, केवल दूर से ही धर्म के नाम पर होने वाले मत-भेदों और कलहों को देखते हैं तथा 'धर्म' नाम का त्याग करने में ही अपनी बुद्धिमानी मानते हैं। ऐसे नादान प्राणियों को ही धर्म का सच्चा स्वरूप संक्षेप में बताने का प्रयास किया जा रहा है। मंगलमय-धर्म जैन शास्त्र धर्म का जो स्वरूप प्रतिपादित करते हैं, वह इतना सरल, उदार, सार्व और सुन्दर है कि प्रत्येक मानव उसे सहज भाव से ग्रहण कर सकता है । धर्म का वह स्वरूप प्रत्येक देश, प्रत्येक जाति, प्रत्येक समाज और प्रत्येक मानव के लिये समान रूप से उपादेय है। दशवकालिक सूत्र के आरंभ में ही कहा गया है धम्मो मंगलमुक्किळं अहिंसा संजमो तवो। देवावि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो॥ जो उत्कृष्ट मंगलमय है, वही धर्म है। मंगलमय का अर्थ है-जो आत्मा की बुराइयों और पापों को नष्ट करे तथा सुख एवं शांति प्रदान करे । धर्म वही करता है और इसीलिये वह मंगलमय है। दुसरे शब्दों में जो प्राणिमात्र के लिये मंगलमय है, उसी का नाम धर्म है। आगे कहा जा सकता है कि ऐसे कौन से विधि-विधान हैं जिनके द्वारा सब का मंगल हो सकता है? शास्त्र में इसी का उत्तर है-अहिंसा, संयम और तप की आराधना करने से मानव का मंगल होता है तथा उसकी आत्मा का कल्याण हो सकता है । इतना नहीं, ऐसे धर्म को धारण करनेवाले को देवता भी नमस्कार करते हैं। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख का साधन -धर्म धर्म को त्रिवेणी -अहिंसा, संयम, तप महाभारत में कहा गया है कि अहिंसा ही सर्वोत्तम धर्म है । वैसे भी अहिंसा के महत्त्व को कौन नहीं समझता और कौन नहीं अनुभव करता है कि आज विश्व को अहिंसा रूपी धर्म की कितनी आव श्यकता है? आज संसार भीषण महायुद्धों से तथा आपसी मारकाट से त्रस्त हो रहा है। प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि किसी प्रकार जगत में शाँति का वातावरण स्थापित हो जाये, किन्तु वह शांति क्या हिंसा से मिल सकती है ? नहीं । अहिंसा के द्वारा ही संसार में शांति की स्थापना हो सकती है और इस प्रकार हिंसा की अपेक्षा अहिंसा की शक्ति अधिक शक्तिशाली साबित होती है। हिंसा कभी भी और कहीं भी उत्तम फल प्रदान नहीं कर सकती है। कहा भी है प्रसूते सत्वानां तदपि न वधः क्वापि सुकृतम् । प्राणियों को हिंसा कभी और कहीं पर भी पुण्य को उत्पन्न करने वाली नहीं होती है। वह तो एकान्तरूप से जघन्यतम पाप ही है इसलिये प्रत्येक प्राणी को हिंसा की भावना का परित्याग करके करुणा और दया की भावना को हृदय में स्थान देना चाहिये । दयावान पुरुष दूसरों को सुख पहुँचाता है। तथा स्वयं भी संतोष और मुख का अनुभव करता है । दया दो तरफी कृपा है । इसकी कृपा दाता पर भी होती है और पात्र पर भी । वास्तव में ही दया मानवता का सर्वोच्च लक्षण है, जिसे धारण करने वाला व्यक्ति परमशांति का अनुभव करता है । दयालु पुरुष 'आत्मवत् सर्वभूतेषु के सिद्धान्त को अपना लेता है तथा कबीर के शब्दों में कहता है दया कीन पर कीजिये का पर सांई के सब जीव हैं कोरी निर्दय होय । कुंजर दोय ॥ २११ अर्थात् किस पर दया करें और किस पर न करें, छोटी-सी चींटी से लेकर विशालकाय हाथी जैसे सभी प्राभी तो एक ही परमात्मा के अंश हैं। महापुरुष ऐसे ही समदर्शी होते हैं। उन्हें प्रत्येक प्राणी की आत्मा में परमात्मा दिखाई देता है । प्रत्येक आत्मा में परमात्मा को देखने वाले ऐसे महापुरुष ही धर्म के सच्चे स्वरूप को समझ सकते हैं तथा अहिंसा धर्म की आराधना कर सकते हैं । धर्म का दूसरा स्वरूप संयम है संयम का अर्थ है - नियंत्रण अपने मन को वश में रखना तथा अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं पर नियन्त्रण रखना ही संयम कहलाता है। कोई भी व्यक्ति या देश जब अपनी आवश्यकताओं को सीमा से अधिक बढ़ा लेता है तथा अपनी कामनाओं पर नियंत्रण न रख सकने के कारण दूसरों के हक छीनने पर आमादा होता है तो वहीं पर हिंसा का जन्म हो जाता है । इसलिये अहिंसा का पालन करने के लिये संयम की अनिवार्य आवश्यकता है। आज के युग में मनुष्यों की मनोवृत्तियाँ अत्यन्त दूषित हो गई हैं। जिसे देखो वही नीति अनीति या पुण्य-पाप की परवाह किये बिना धन संग्रह करने में जुटा हुआ है। कहा भी है । , तृष्णा वश हैं जग जीव सभी हित काज अकाज कछु न विचारे । धन सहस्र हुवे तो चहे लख कोटि असंख्य अनन्त की चाह प्रसारे ॥ जिमि ईन्धन डारत वह्नि बढ़े तिमही तृषणा धन चाहव घारे । चित घारत ज्ञान सन्तोष अमोरिल तो जिय के सब काज सुधारे ॥ जब तक मानव धन-सम्पत्ति में आसक्त होकर उससे सुख पाने की आशा करता है, तब तक शांति का अनुभव नहीं कर पाता उलटे तृष्णा की आग में जलता रहता है मनुष्य को कभी भी आत्मिक और सच्चे सुख का अनुभव नहीं होने देता । थन, लोभ और लालच आचार्य प्रवयव आभिनंदन आआनन्द आधाय प्रवर प ग्रन्थ अभिनंदन Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ...... AWARKAawara nanimaAAAAAAAAAdaalaamanandamALA . आपाप्रवाभिमाचार्यप्रवभिन्न श्राआनन्द श्रीआनन्द अन्य २१२ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व वास्तव में ही धन मानव के लिये महान दुःखों का कारण बनता है। उसके लालच में आकर वह झूठ बोलता है, चोरी करता है तथा हत्या जैसे महापाप से भी नहीं बच पाता। वह नाना प्रकार की यातनायें सहकर तथा गरीबों का शोषण करके भी धनवान बनना चाहता है, क्योंकि उसे संसार के सारे सुखों का खजाना धन में ही दिखाई देता है। बंधुओ ! क्या धन से मनुष्य की आत्मा को कभी तृप्ति, शांति और निराकूलता प्राप्त हुई है ? धन के द्वारा सुख की आकांक्षा करना क्या मृगतृष्णा के समान नहीं है ? अगर ऐसा न होता तो सिकन्दर महान् मृत्यु के समय अपने समस्त धन का अम्बार लगाकर उस पर अश्रुपात करता हुआ क्यों कहता'हाय इसी सम्पत्ति के लिये मैंने जीवन भर भयंकर संग्राम किये, लाखों माताओं को पुत्रहीन बनाया, सौभाग्यवती नारियों का सुहाग लूटा, पर अंत में यह मेरे साथ नहीं चल सकी।' सिकन्दर की अंतिम आज्ञा यही थी कि मेरे दोनों हाथ कफन के बाहर रखना, ताकि मेरी शवयात्रा में साथ रहने वाले सब लोग जान लें कि मैं खाली हाथ जा रहा हूँ और मेरे समान ही मुर्खता वे न करें। कितना मर्मस्पर्शी उदाहरण है ? वास्तव में ही धन कितना भी क्यों न इकट्ठा कर लिया जाये, छह खंड को राज्य भी क्यों न मिल जाये, उससे मानव की आत्मा शांति का अनुभव नहीं कर सकती। सुख का वास्तविक और अक्षय कोष तो आत्मा में ही है और समस्त धन-लिप्सा को त्यागकर के आत्मा में रमण करने पर ही वह प्राप्त हो सकता है। मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि मानव तभी शांति अनुभव कर सकता है, जबकि वह समस्त बाह्य पदार्थों के प्रति रही हुई अपनी आसक्ति और कामनाओं का त्याग कर दे तथा विचार करे कि मुझे मनुष्यजन्म किसलिये मिला है ? इस जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिये? तथा इस लक्ष्य की पूर्ति किन साधनों से हो सकती है। सत्य तो यह है कि जीवन को उच्च, पवित्र, समतामय एवं सुखमय बनाने के लिये इन्द्रियों को वश में करना अनिवार्य है। किन्तु इन्द्रियों का स्वामी मन हैं और जब तक मन वश में नहीं हो जाता, इन्द्रियां वश में नहीं हो पातीं तथा आत्मसंयम के अभाव में आत्मिक सुख पाने की कामना गूलर का फूल बनकर रह जाती है । इसीलिये शास्त्र में कहा गया है एगे जिए जिआ पंच पंच जिए अजिा दस । दसहा उ जिणित्ताणं सव्व सत्तू जिणामहं ।। --उत्तराध्ययन सूत्र २३ । एक (मन) को जीत लेने पर पाँच (इन्द्रियों) को जी तलिया जाता है और पांच को जीत लेने पर दस अर्थात् एक मन, पांच इन्द्रियाँ और चार कषाय-जीत लिये जाते हैं। इन दसों को जिसने जीत लिया उसने सभी आत्मिक शत्रुओं को जीत लिया। जो भव्यजीव भगवान के इस आदेश को सुनकर सचेत हो जाते हैं वे ही जीवन के रहस्य को समझ कर आशा और तृष्णा पर विजय प्राप्त करते हैं तथा सांसारिक पदार्थों की नश्वरता और सांसारिक सम्बन्धों की विच्छिन्नता को समझते हैं । उन्हीं व्यक्तियों का चित्त निर्मल, भावना शुद्ध और क्रियायें निष्कपट बनती हैं। उनके हृदयों में जीवमात्र के प्रति असीम करुणा और प्रेम का अजस्र प्रवाह बहने लगता है। परिणाम यह होता है कि उनके द्वारा किसी भी प्राणी का अनिष्ट नहीं होता तथा ऐसी स्थिति प्राप्त होने पर ही उन के संयम का विकास होता है जो कि धर्म का दूसरा रूप है। संयम जीवन का आंतरिक सौन्दर्य है। उस के सद्भाव में बाह्य सौन्दर्य कितना भी बढ़ा-चढ़ा क्यों न हो, फीका और निस्सार मालूम देता है । जो व्यक्ति आत्मिक सौन्दर्य का महत्त्व समझ लेता है, वह जया Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख का साधन-धर्म २१३ CIDRURU संयम और नियम से अपने मन को आबद्ध करता है। उसके जीवन का एक-एक कण संयम की ज्योति से जगमगाता रहता है। तप धर्म का तीसरा रूप बताया गया है। संयम रखने के लिये कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करना अनिवार्य है । स्वेच्छा पूर्वक कष्टों को सहन करना ही तप है। जीवन में जब तप को स्थान मिलता है तो अहिंसा और संयम का निर्वाह भी भली-भांति होने लगता है। तप की महिमा महान् है। तप के द्वारा ही मनुष्य अपने अभीष्ट पद को प्राप्त करता है तथा पाप एवं अपूर्णता को दूर कर अपने चारित्र को उज्ज्वल और निर्मल बनाता है। तप जीवन की एक प्रखर और महान शक्ति है। इसके द्वारा आत्मा में लिपटी हुई समस्त कर्मरज विनष्ट हो जाती है । तप के प्रभाव से आत्मा शुद्ध, बुद्ध होकर अपने स्वाभाविक प्रकाशमान रूप में अवस्थित हो जाती है। तभी कहा गया है 'संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरह। साधना का मार्ग यद्यपि सरल नहीं है, किन्तु तप के प्रभाव से वह सरल बनता है। सच्चा तपस्वी अपने मन और आत्मा को अपने समस्त बाह्य परिवेश से पृथक् कर लेता है । यद्यपि उसके जीवन में कठिनाइयाँ आती रहती हैं पर वह साहस और निर्लेप भाव से उनका सामना करता हुआ उन्हें अपने मार्ग में सहायक बना लेता है। निर्लेप और निःस्वार्थ भाव से किया हुआ तप ही उसके कर्मों की निर्जरा में सहायक बनता है, पूजा, प्रतिष्ठा अथवा यश की कामना से किया हुआ नहीं । उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान ने स्पष्ट कहा है 'वेएज्ज निज्जरापेही । समाहि कामे समणे तवस्सी ॥' तपस्वी केवल निर्जरापेक्ष होकर ही तपस्या करे अथवा समाधि की कामना से तपस्या करे । जो तपस्वी भगवान के इस आदेश को मानकर सच्चा तप करते हैं वे समस्त कर्मों की निर्जरा करके अपनी आत्मा को शुद्ध-बुद्ध बनाकर मानवपर्याय सार्थक करते हैं। तपाराधन करने वाले साधक में कुछ विशेष गुण होना भी आवश्यक हैं। यथा-उसकी वाणी पवित्र और प्रिय हो, उसका हृदय क्रोध और अहंकार से रहित हो। भगवान महावीर ने तो तपस्वी के 5 लिये क्रोध और मान अपथ्य कहा है। अपथ्य सेवन करने से जिस प्रकार दवा का प्रभाव नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार तपस्या के साथ अगर क्रोध और मान रहा तो तपस्वी की समस्त तपश्चर्या निरर्थक चली जाती है। कई व्यक्ति कहते हैं कि तप करना मूखों का काम है, क्योंकि पाप तो आत्मा करती है और तप करके शरीर को सुखाया जाता है। शरीर को भूखा-प्यासा रखने तथा शीत और ग्रीष्मादि कष्ट में डालने से आत्मा को क्या लाभ है ? ऐसे अज्ञानी व्यक्तियों से पूछना चाहिये कि मक्खन में से भी घी निकालने के लिये तुम उसे बर्तन में रखकर आग पर क्यों रखते हो? घी मक्खन में होता है न कि बर्तन में । तब फिर बर्तन को व्यर्थ ही तपाने का क्या कारण है ? उत्तर यही मिलेगा कि पात्र में रखकर तपाये बिना घी नहीं निकल सकता । मक्खन को सीधा ही आग में झोंक दिया जाये तो वह भस्म हो जायेगा। ठीक इसी प्रकार समझ लेना चाहिये कि जिस प्रकार मक्खन को शुद्धकर घी निकालने के लिये पात्र को तपाना आवश्यक है, उसी प्रकार आत्मा को शुद्ध करने के लिये आत्मा के आश्रय रूप शरीर को भी तपाना आवश्यक ही नहीं वरन अनिवार्य है। बंधुओ ! आशा है कि आपने अहिंसा, संयम और तप रूप मंगलमय धर्म के स्वरूप को समझ लिया होगा। इन सब लक्षणों पर विचार करने से यही मालूम होता है कि धर्म मानव मात्र के लिये ही P RAMRARAMMARI JALAIJASALAIJARAdaaisonamuwerinewoodASISARJANIMJAANMAMIRIAJANAKASAILAIATARIAJARIABANANADA NAGNITI आचार्यप्रवत्र अभिश प सातादन Wwww RAM . Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AALAAJAAADALANASA' आचार्यप्रवरआन आचार्यप्रवर श्रीआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्द अभि mmernamammiyan २१४ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व नहीं वरन् प्राणिमात्र की सुख-समृद्धि और उसके अभ्युदय के लिये है। धर्म संसार के समस्त जीवों के लिये वरदान रूप बनकर इस भू-मंडल पर अवतरित हुआ है। धर्म ही मानव में मानवता की प्रतिष्ठा करता है तथा दानवीय वृत्ति को निकालता है। इसकी प्रेरणा के अभाव में मानव जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता और सिद्धि हासिल नहीं कर सकता। इसलिये आवश्यक है कि वह धर्म को परखे तथा उसकी रक्षा करे। धर्म को परिभाषा विश्व के अनेक विचारकों ने धर्म की भिन्न-भिन्न व्याख्याएं की हैं तथा अब तक धर्म की हजारों परिभाषाएं दी जा चुकी हैं, किन्तु अगर मुक्ति के इच्छुक व्यक्ति को धर्म का वास्तविक स्वरूप समझना है तो उसे श्री कुन्दकुन्दाचार्य की एक छोटी-सी परिभाषा पर ध्यान देना चाहिये। उन्होंने कहा है-- 'वत्थुसहावो धम्मो ।' वस्तु का अपना स्वभाव ही धर्म है। जिस प्रकार जल का स्वभाव शीतलता, अग्नि का स्वभाव उष्णता, शक्कर का स्वभाव मीठापन और नमक का स्वभाव खारापन है, उसी प्रकार आत्मा का स्वभाव ज्ञान-दर्शन-चारित्रमय है । सत्-चित् आनन्दमय है, आत्मा अपने शुद्ध स्वभाव में रहे तो निश्चय ही कहा जा सकता है वह धर्ममय है। अभी मैंने अहिंसा, संयम और तप के विषय में काफी बताया है। ये तीनों आत्मा के स्वाभाविक और निजी गुण हैं। इसीलिये शास्त्रकारों ने इन्हें धर्म कहा है। गंभीरतापूर्वक विचार करने पर यह भलीभांति माना जा सकता है कि आत्मा को अपने सहज स्वभाव की प्राप्ति केवल अहिंसा, संयम और तप में स्थित रहकर ही हो सकती है। अहिंसा, संयम और तप रूप यह त्रिवेणी ही दूसरे शब्दों में मंगलमय धर्म कहलाती है, जिसकी आराधना करके किसी देश का, किसी भी जाति का और किसी भी सम्प्रदाय का व्यक्ति अपनी आत्मा को कर्ममुक्त कर परमात्मा बन सकता है। लेकिन जो व्यक्ति अपने जीवन में कर्म को स्थान नहीं देते तथा उसकी उपेक्षा करते हैं, उनके लिये समझना चाहिये कि वे अपने अमूल्य मानवभव को निरर्थक कर रहे हैं। मानवजीवन की दुर्लभता संसार का कौनसा व्यक्ति नहीं जानता कि मानव-जीवन अत्यन्त दुर्लभ है और इसके अमूल्य क्षण एक-एक कर व्यतीत हो जायेंगे। कोई भी मनुष्य चाहे वह विद्वान हो या मूर्ख, धनवान हो या निर्धन, वीर हो या कायर अथवा बलवान हो या निर्बल, सदाकाल के लिये जीवित नहीं रह सकता, इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को विचार करना चाहिये कि वह अपने इस लघु और नश्वर जीवन का सदुपयोग कैसे करें? अगर व्यक्ति समझदार और विवेकवान है तो वह सहज ही जान लेता है कि जीवन का सदुपयोग बड़ा परिवार होने और उसके ममत्व में गृद्ध होने से नहीं होता, धन का अम्बार लगाकर भोगविलास के अगणित साधन जुटा लेने से नहीं होता अथवा झूठी प्रतिष्ठा और कीति बढ़ा लेने से भी नहीं होता है। सांसारिक भोगों का कहीं अन्त नहीं है । विचार करने की बात है कि क्या उन्हें भोगने से तृप्ति होती है ? कभी नहीं। जिस प्रकार अग्नि में निरंतर आहुति डालते रहने पर भी वह शान्त नहीं होती उलटे भड़कती जाती है, उसी प्रकार अनन्त भोग-सामग्री मिलने पर भी मनुष्य की भोगलालसा सदा अतृप्त ही बनी रहती है । धन की लालसा अथवा स्त्री, पुत्र, भाई, पिता आदि सांसारिक संबन्धियों के प्रति मोह मनुष्य को अंधा बना देता है और उसकी संसार से मुक्त होने की कामना पर पानी फेर देता है, किन्तु अगर मानव को इस संसारचक्र से छूटना है तो उसे अपना विवेक जगाना होगा। संसार के प्रति रही हुई अपनी आसक्ति का त्याग करना होगा। उसे सोचना ही पड़ेगा कि यह जीवन धर्मसाधना के लिये है, न कि संसार में लिप्त रहकर आत्मनाश के लिये। संसार में आसक्त रहने से आत्मा का कल्याण होना कभी भी सम्भव नहीं है । इसीलिये महापुरुष और संतजन आंतरिक और बाह्य परिग्रह का त्याग कर ६. PLEADER या Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख का साधन - धर्म २१५ धर्म का आश्रय लेते हैं, वे स्वयं भी संसार से विरक्त होकर आत्मसाधना करते हैं और संसार में गृद्ध अन्य प्राणियों को भी उद्बोध न देते हुए कहते हैं ढील करे मत तू छिन की करले झट सुकृत लाभ कमाई, बैठ एकान्त करी मन ठाम जपो जिनराज सुध्यान लगाई । दान, दया, तप, संजम मारग श्रीगुरु सेव करो चित्त लाई, 'अमृत' चित्त अलेप रखो नरदेह धरे को यही फल भाई ॥ कवि का कथन कितना सुन्दर और यथार्थ है । प्रत्येक मुमुक्ष को उससे शिक्षा लेकर धर्म को उसके सच्चे रूप में अपनाना चाहिये तथा अपनी दृढ़ साधना से ऐसा पुरुषार्थ जगाना चाहिये कि समस्त कर्मों के दृढ़बंधन भी तड़ातड़ टूट जायें । अस्तु ! जीवन अमूल्य और दुर्लभ है। अज्ञान और प्रमाद में पड़े रह कर इसकी उपेक्षा करना इसे मिट्टी के मोल गँवा देने के समान है । अतः प्रत्येक आत्मकल्याण के इच्छुक मानव को मंगलमय धर्म का आचार दृढ़ता से ग्रहण करना चाहिये । धर्म की अमरज्योति ही इस संसाररूपी अरण्य में भटकते हुए जीव को सही मार्ग बता सकती है तथा उसे अनन्त सुख और शाश्वत शांति रूपी अमरपथ की प्राप्ति करा सकती है । धर्म की शरण में जाने पर ही आत्मा का कल्याण और मंगल हो सकेगा । आनन्द-वचनामृत [ भगवान से पूछा गया है, मोक्ष का मार्ग क्या है ? उत्तर में बताया गया है गुरुजनों की सेवा, अज्ञानीजनों से दूर रहना, स्वाध्याय में लीन रहना, एकान्तवास करना, सूत्रार्थ का चिन्तन करना । इन पांच कारणों से मोक्षमार्ग की आराधना की जाती है । मोक्षमार्ग पर सही गति करने के लिए शास्त्र की आज्ञा पर ध्यान देना परम आवश्यक है । जैसे रेलगाड़ी कुशलक्षेम पूर्वक अपने पथपर तभी चल सकती है जब वह सिग्नल को बराबर ध्यान में रखे, अगर सिग्नल का ध्यान न रखकर रेलगाड़ी चले तो कहीं भी टकराकर चकनाचूर हो सकती है। इसी प्रकार साधक को अपने जीवनपथ में शास्त्र आज्ञा का सिग्नल की भांति सदा ध्यान रखना चाहिए । आचार्य प्र श्रीआनन्द डॉ CA अभिनन्दन Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 श्री आनन्द अन्थ 99 श्री आनन्द 909 श अभिनंदन [मानव जीवन का महत्व, कर्तव्य और श्रम निष्ठा के साथ उसकी सफलता सम्पादन करने की उदात्त प्रेरणा ] १७ ॐघै मत बटोही ! यह संसार विराट् है । जीव इस विराट् सृष्टि में नाना गतियों और नाना योनियों में भ्रमण करता आ रहा है । क्योंकि सभी प्राणी अपने-अपने संचित कर्मों के कारण ही संसार में आते जाते हैं और कर्मअनुसार भिन्न-भिन्न योनियों में पैदा होते रहते हैं । इसीलिए कहा है सव्वे सयकम्म कप्पिया अवियत्तेण दुहेण पाणिणो । हिण्डन्ति भयाउला सढा जाइजरा मरणेहिऽभिदुया || - सूत्र० २-१८ अर्थात् प्राणी जन अपने-अपने कर्मों के अनुसार भिन्न-भिन्न योनियों को प्राप्त हुए हैं । कर्मों की अधीनता के कारण एकेन्द्रिय आदि की अवस्था में वे दुखी रहते हैं। अशुभ कर्मों के कारण जन्म, जरा और मरण से सदा भयभीत रहकर गति चतुष्टय के रूप में संसार में भटकते रहते हैं । सुनकर तनिक आश्चर्य होता है किन्तु गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर इसकी सचाई का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है । क्योंकि हम अपनी आँखों से भी इस भूतल पर अनेक प्रकार के जीव जन्तुओं को देखते हैं। अनेक जीव आकाश में उड़ते हैं, अनेक पृथ्वी पर चलते हैं तथा अनेकानेक जीव जल में तैरते हुए अपना जीवन व्यतीत करते हैं। इसके अलावा इस दिखने वाली पृथ्वी तक ही सीमित नहीं हैं । इसके ऊपर स्वर्ग है और नीचे नरक है, जिनमें देवता और नारकी अपना जीवनयापन करते हैं । अनन्तानन्त तिर्यच जीव भी इसी संसार में रहते हैं। भले ही हम पूर्णतया इस जीव जगत की विशालता को न जान सकें पर कल्पना अवश्य कर सकते हैं। अनमोल मानव जीवन 顅 इसी विराट् संसार में हमने भी जन्म लिया है। हमारा जीव भी अनन्तकाल से असंख्य योनियों में जन्म लेता हुआ आज मानवयोनि को प्राप्त कर सका है। दूसरे शब्दों में कहें, उसे अनन्तानन्त कष्ट सहने के बाद तथा असंख्य कठिनाइयों को पार करने के पश्चात् महान् पुण्य कर्मों के संचय के फलस्वरूप यह मानवजीवन प्राप्त हुआ है। इस मानवजीवन की प्राप्ति के लिए तो देवता भी तरसते हैं तओ ठाणाई देवे पिज्जा - माणुस्तं भवं, आरिएखेत्ते जम्मंसुकुलपच्चायांति ॥ — देवता भी तीन बातों को चाहते हैं । उनमें सबसे पहली है— मनुष्य जीवन और इस मनुष्य जीवन की प्राप्ति के साथ ही आर्यक्षेत्र में जन्म और श्रेष्ठ कुल की प्राप्ति । अर्थात् सबसे पहले मनुष्य जीवन की प्राप्ति दुर्लभ है । अतएव विचार करने की बात है कि असंख्य योनियों से बचकर मनुष्य योनि प्राप्त Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊँधै मत बटोही ! २१७ माता कर लेना कितनी कठिन और बड़ी बात है। इसीलिए वैदिक ऋषियों ने भी कहा है---मानव से बढ़कर विश्व में कोई श्रेष्ठ प्राणी नहीं है-- 'न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किचित्।' जिन जीवों को यह मानव तन मिला है, वे बड़े पुण्यशाली हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। क्योंकि यह जीवन अनमोल है। कोई भी व्यक्ति लाखों करोड़ों रुपये देकर अथवा चक्रवर्ती अपने छह खंड का राज्य और अपना सर्वस्व देकर भी इस मानवजीवन को मोल नहीं ले सकता है।। आध्यात्मिक दृष्टि से जब हम विचार करते हैं तथा वीतराग प्रभु के वचनों पर ध्यान देते हैं तो हमें मालूम पड़ता है कि चरम-सीमा तक आध्यात्मिक विकास केवल मनुष्य ही कर सकता है । यद्यपि देवताओं को मनुष्य की अपेक्षा सांसारिक सुख अधिक प्राप्त होते हैं, किन्तु आत्म-साधना और सिद्धि का जब सवाल आता है तो वे पीछे रह जाते हैं। देवता अधिक-से-अधिक प्रथम चार गुणस्थान प्राप्त कर सकते हैं किन्तु आत्मा की अनंतशक्ति का उपयोग करने में समर्थ मानव चौदह गुणस्थानों को पार कर परमात्मपद पा लेता है। इसीलिए पुण्यशील पुरुष अनेकानेक पुण्यों के फलस्वरूप पाये हुए मानवजीवन को निरर्थक नहीं जाने देते हैं। उनका विश्वास होता है कि अगर पूर्वकृत पुण्य को इसी जीवन में भोगकर समाप्त कर दिया और नवीन पुण्य तथा धर्म का संचय नहीं किया तो अनन्त काल तक उनकी आत्मा को पुनः संसारभ्रमण करना पड़ेगा तथा नरक, निगोद तथा तिर्यंचगति की दुस्सह और भीषण यातनायें भुगतनी पड़ेंगी । अगर मानव जीवन रूपी यह अवसर एक बार हाथ से चला गया तो उसका फिर से प्राप्त करना कठिन ही नहीं, वरन् असम्भव हो जायेगा। मानव का कर्तव्य मान लो कि यह मनुष्य शरीर मिल भी गया, लेकिन मानव के अनुकूल प्रवृत्ति नहीं करता, मानवता का समादर नहीं करता, निःस्वार्थ भाव से दूसरों की भलाई नहीं करता, वह मनुष्य के रूप में पशु है। यदि मानव आकृति से जन है तो उसे सज्जन या महाजन बनने की कोशिश करना चाहिए, किन्तु दुर्जन बनने की कोशिश नहीं करना चाहिए। उसे ऊपर चढ़ते रहना चाहिए, वरना नीचे गिर जायेगा। जीवन का वैभव भौतिक धन-सम्पत्ति नहीं है, वरन् मानव के अपने सद्गुण हैं । समता, सेवा, सहिष्णुता और कर्तव्यपरायणता आदि ही मानव का वास्तविक सौन्दर्य है और इस वास्तविक सौन्दर्य को प्राप्त करना ही मानव जीवन का कर्तव्य है। लेकिन जो इस मानव शरीर को पाकर भी इसको वैसे ही गंवा देते हैं, अपनी आत्मा का कल्याण नहीं करते, उससे बड़ा मूर्ख संसार में दूसरा कोई नहीं हो सकता है और नाना प्रकार की आधि-व्याधियों से पीड़ित होकर अत्यन्त दुखी होता रहता है। __ अतएव इस मानवजीवन को सफल बनाने के लिए बाह्य संयोगों से उदासीन होकर आत्म-साधना में लीन हो जाये । आत्मा की उपलब्धि ही मानवजीवन का सार है, कार्य है और इसी में कृतकृत्यता है। कहा भी है धर्मार्थकाममोक्षाणाम् मूलमुक्तं कलेवरम् । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का साधन यह मनुष्य शरीर है। जो परिश्रमी और पुरुषार्थी होते हैं, वे मनुष्य शरीर का सदुपयोग करते हैं। सिद्धि के लिए श्रमशील बनो यह ठीक है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन सभी का साधन यह मानव शरीर है। लेकिन आप यह विचार कर निश्चिन्त न हो जाइये कि मानव शरीर पा लिया तो अब ये सब सहज ही प्राप्त हो जायेंगे। मोक्षप्राप्ति मानव शरीर से ही सम्भव है, परन्तु इसके लिए प्रयत्न करना पड़ता है। त्याग, तपस्या और साधना करनी पड़ती है तब मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता आचार्यप्रव03 आचार्यप्रवर आभा श्रादग्रन्थश्राआन श्रीआईन् wwwwwwwwwaranwurrendentaronm Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयायप्रवरुप अभिनंद ! श्री आनन्दन ग्रन्थ 3827 आचार्य प्रव श्री आनन्द ग्रन्थ २१८ आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व . है जो क्रोध, मान, माया, लोभ तथा राग-द्वेष आदि का सर्वथा त्याग कर चित्त को शुद्ध बनाये तथा समस्त सांसारिक पदार्थों से विमुख होकर दान, शील, तप और भाव की आराधना करे । जो प्राणी अपने विद्या, बल, बुद्धि, धन, जाति, कुल या प्रभुत्व के मद में चूर रहते हैं, उनके लिए मुक्ति पाना कठिन ही नहीं, असम्भव है। क्रोध आदि कषायों के द्वारा आत्मा का जितना अहित होता है, उतना अन्य किसी भी शत्रु द्वारा नहीं होता है। कषायों के द्वारा जिसकी आत्मा कलुषित है, उसमें ज्ञान दर्शन और चारित्र आदि सम्भव नहीं हैं, जैसे काले कम्बल पर दूसरा कोई रंग नहीं चढ़ता है। जिसकी आत्मा पर कपायों का अधिकार हो जाता है तो उससे सद्गुण एक-एक कर नष्ट हो जाते हैं। कहा है कोहो पीई पणासेइ माणो विषय नासणो । माया मिलाणि नासेड, लोभो सभ्य विणासणो ॥ दशर्वकालिक अ क्रोच प्रीति का नाश कर देता है, मान विनय का नाश करता है, माया मित्रता का नाश करती है और लोभ समस्त सद्गुणों का नाश कर देता है । ये कषाय तीव्र हलाहल विष हैं। विष तो एक बार प्राणों का नाश करता है, किन्तु कपाय मनुष्य को जन्मजन्मांतरों तक पीड़ा देते रहते हैं। रूपायों के आवेश में व्यक्ति उचित-अनुचित का मान भूल जाता है । नाना प्रकार के घृणित, अशोभनीय और हानिकारक कार्य कर बैठता है तथा उस अवस्था में दूसरों का नहीं, वस्तु अपना ही अहित करता है जब तक क्रोध आदि कपाय मन में रहते हैं तब तक पण्डित और मुर्ख में कोई अन्तर नहीं रहता है। इस सम्बन्ध में तुलसीदास जी की यह मार्मिक उक्ति सुनिये - काम, क्रोध, मद, लोभ की जब लों मन में खान । तब लों पंडित मूरखा तुलसी एक समान ॥ कपायों को बढ़ाने से तथा उनके वश में हो जाने से दुर्गुणों का संचय होता है और मुक्तिप्राप्ति की आशा अनन्त के गर्भ में विलीन हो जाती है। कषायों द्वारा उपार्जित कर्मों का फल भोगने के लिए आत्मा को बार-बार जन्म-मरण करना पड़ता है और न जाने किस-किस योनि में आत्मा दुख पाती हुई भटकती रहती है। इसीलिए आत्मा का हित चाहने वालों को मोक्ष प्राप्ति में अन्तराय रूप क्रोधादि कपायों का त्याग कर देना चाहिए । जब तक कषायों का संयोग आत्मा के साथ है, मोक्ष प्राप्ति असम्भव है । हाँ, सम्भव केवल उन्हीं को है जो क्रोध आदि कषायरूप शत्रुओं का उन्मूलन करने के लिए सतत जागरूक रहते हैं और मोहनिद्रा में पड़े रहकर अपने मानव जीवन को एक क्षण भी व्यर्थ नहीं गंवाते हैं । वीतराग प्रभु मोहनिद्रा में सोये हुए प्राणियों को उद्बोधन देते हुए कहते हैंदुमपत्तए पंडुयए जहा, निवडइ राइगणाण अच्चए । एवं मणुयाण जीवियं समयं गोयम मा पमायए ।। ६ इतरयम्मि आउए जीवियए बहुपरवायए । विहणाहि रयं पुरे कंडं समयं गोयम मा मायए ।। -उत्तराध्ययन सूत्र जैसे वृक्ष के पत्ते पीले पड़ते हुए समय आने पर झड़ जाते हैं, उसी प्रकार मानव जीवन भी आयु शेष होने पर समाप्त हो जाता है । अतः हे जीव ! समय भर का भी प्रमाद न कर । आयु नाशवान और स्वल्प है और जीवन में विघ्न बहुत है। अतएव पूर्वसंचित कर्म रूपी रज को शीघ्र दूर कर । हे जीव ! समय मात्र के लिए भी प्रमाद मत कर । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊँधै मत बटोही ! २१६ सन्त महात्मा भी सदा आपको यही उपदेश देते हैं और मोह तथा प्रमाद का भान भुला देने वाली निद्रा से जगाने का प्रयत्न करते हैं । कहते हैं ऊँघ मत पंथी जन ! संसार है अटवी वन, काया रूपी नगर में रहे काम चोर है । जीव है बटाउ यामें आयकर वास कियो, ठगिनि हैं पांच याँ को मुलक में सोर है। ज्ञानादिक गुण रूप रतन अमोल धर्म, ऊँघ तो ले जाय लूट मिथ्यातम घोर है । तिलोक कहत सद्गुरु चौकीदार सोख, धार रे! बटाऊ ऊँघं मती भई भोर है। कितना सुन्दर पद्य है। जिस प्रकार एक चौकीदार गश्त लगाते हए जिस घर के दरवाजे खुले देखता है, फौरन उस घर वालों को दरवाजा बन्द करने और सावधान रहने की चेतावनी देता है, ठीक उसी प्रकार कविकुल-भूषण संत तिलोकऋषि जी महाराज जीव को जगाते हैं, उसे सचेत करते हैं। कहते हैं __'अरे पथिक ! तु मोह-निद्रा में इस प्रकार बेभान होकर मत सो । देख, राग, द्वेष, कषाय, मद आदि अनेक चोर तेरे अन्तर्मानस के खले द्वारों की ओर टकटकी लगाये हुए हैं। अगर तू असावधान रहा तो मौका पाते ही ये दुष्ट तेरा आत्मिक धन चुरा ले जायेंगे। और तू किस पूंजी के बल पर अपनी इस विराट यात्रा को सम्पन्न करेगा? अब सवेरा हो गया है, ऊँघना छोड़ दे।' वास्तव में हम सब मुसाफिर हैं । मुसाफिरी करते-करते इस मानव शरीर रूपी चोले में आकर टिके हैं, परन्तु यह भी स्थायी नहीं है। एक दिन इसे भी छोड़कर जाना पड़ेगा और इस बीच अगर हमारा आत्मिक धन इन दुर्गण रूपी लुटेरों ने लूट लिया तो खाली हाथ यह महायात्रा कैसे पूरी होगी? कवि ने इसी बात को बड़े ही सीधे सरल शब्दों में समझाई है। यह संसार एक भयानक अटवी-महावन है । अनन्त काल तक इसमें भटकते रहने के पश्चात् जीव ने . बड़े सौभाग्य से मानव शरीर रूपी नगर को प्राप्त किया है। जहाँ थोड़ा-सा विश्राम मिला है। यद्यपि इसका गन्तव्य स्थान-मुक्तिधाम अभी बहुत दूर है और जीव को वहाँ पहुँचने की अभिलाषा है किन्तु महायात्रा को थकावट से क्लान्त होकर इस सुविधाजनक पड़ाव पर आकर सो गया है और सोया भी ऐसा कि प्रमादवश उठने का नाम ही नहीं लेता है। यह भूल गया कि इस काया नगरी में काम, क्रोध, लोभ और विषयभोग आदि अनेक ठग हैं जो प्रतिपल उसे लूट लेने की ताक में घूम रहे हैं। दूसरों की क्या कहें स्वयं उसकी पाँचों इन्द्रियाँ भी उन ठगों से मिलकर ठगनी बन गई हैं। धोखा देने लग गई हैं। इनकी शक्ति बड़ी जबरदस्त है, जैसा कि कवि ने कहा है--'ठगणी हैं पाँच याँ को मुलक में शोर है।' हम देखते ही हैं कि जो व्यक्ति विषयभोगों में आसक्त रहते हैं तथा मिथ्यात्व के अंधेरे में मोहनिद्रा के वशीभूत होकर सजग नहीं रह पाते उनका सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र रूपी अमूल्य धर्मरत्न कषाय आदि ठग और वासना रूपी ठगनियाँ चुरा लेती हैं। परिणाम यह होता है कि मनुष्य अपनी मंजिल पर पहुँचाने वाली पूंजी खो बैठता है और पुनः संसार रूपी अटवी में भ्रमण करने को बाध्य हो जाता है । इसीलिए संत हृदय कवि अत्यन्त कोमल और वात्सल्यपूर्ण शब्दों में उसे जगाते हुए कहते हैं तिलोक कहत सदगुरु चौकीदार सीख, धार रे बटाऊ ऊँघ मति भई भोर है। आचार्यप्रसाधन आचार्य अत्र ARUISODE www.vimare Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ marwaRRIAAAJAANAAMKARANABAJANAMAdmin.RAKAL 2.. . . ." २२० आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व कहा है-भोले बटोही ! अब तन्द्रा को छोड़ो। तुम्हारे सद्गुरु एक चौकीदार के समान तुम्हारे आत्मधन की निगरानी और रक्षा कर रहे हैं तथा तुम्हें प्रमाद रूपी निद्रा से सचेत कर रहे हैं। तुम उनकी शिक्षा को ग्रहण कर जाग उठो । प्रातःकाल हो गया है अतः अपने आत्म-धन को सहेज कर इस ज्ञान रूपी प्रकाश में सावधानी से कदम बढ़ाओ। हे पथिक ! जबकि पूर्वोपार्जित पुण्यों के फलस्वरूप तुम्हें यह मनुष्य का चोला मिल गया है तो अब प्रमाद मत करो। जप-तप-ज्ञान-ध्यान और भक्ति भाव की ओर बढ़ो। सांसारिक कार्य तो पानी को मथने के समान है, जिससे तुम्हें कुछ भी लाभ हासिल होने वाला नहीं है । इन कार्यों के करने से तुम परलोक के लिए पूंजी एकत्रित नहीं कर सकोगे। सब कुछ यहीं रह जायेगा। धन पैसा तुम्हारे साथ जाने वाला नहीं है। अगर तुम अपनी आगामी यात्रा के लिए कुछ इकट्ठा करना चाहते हो तो उसे पुण्य के रूप में संचित करो । पुण्य कर्मों का संचय केवल धर्माराधन से ही होगा, जड़ द्रव्य इकट्ठा करने से नहीं। वास्तव में धन दौलत आदि से आत्मा का तनिक भी कल्याण होना सम्भव नहीं होता। फिर भी अज्ञानी जीव इसी माया के पीछे मतवाला बना रहता है। कवि सुन्दरदास जी ऐसे अज्ञानी जीवों को बोध देते हैं माया जोरि जोरि नर राखत जतन करि, कहत एक दिन मेरे काम आये है। तोहे तो मरत कुछ बार नाही लागे शठ, देखत ही देखत बबूला सो बिलाए है। धन तो धर्यो ही रहे चलत न कौड़ी गहे, रोते हाथ आयो जैसे तैसे रीतो जाये है। कर ले सुकृत यह विरिया न आवे फिर, सुन्दर कहत फेर पाछे पछताये है। कवि के कथन का सारांश स्पष्ट है । इसलिए अगर कुछ साथ में ले जाने वाला धन कमाना है तो अविलम्ब उसे चेत जाना चाहिए और सुकृत रूप में परलोक के लिए पूंजी एकत्रित करनी चाहिए। अन्यथा काल का आक्रमण हो जाने के समय पछताने के सिवाय कुछ भी हाथ नहीं आयेगा। नेकी में तू जाग बुराई में सो जा बंधुओ ! आप महापुरुषों के जागो, उठो और सोओ मत ! शब्दों को बार-बार सुनकर घबरायें नहीं। आप सोचते होंगे कि प्रतिक्षण जागते रहेंगे तो फिर विश्राम कब करेंगे? बिना सोये थकावट दूर कैसे होगी? तो इसके समाधान में भी कोई दिक्कत नहीं। अगर आपको सोने का समय चाहिए ही तो एक कवि के शब्दों में बताता हूँ तू नेको में जाग, बुराई में सो जा।' तुम नेकी में तो जागते रहो और बुराई में सो जाओ। यानी जब तुम्हारे हृदय में शुभ भावनाओं का उदय हो और दया, दान तथा सेवा आदि के नेक काम कर सको, उस समय अवश्य जागते रहो, किन्तु मन की गति विचित्र है, उसमें विचारों के बदलते देर नहीं लगती। अतः जब हृदय में राग, द्वेष, निन्दा, विकथा और दूसरों को कष्ट या हानि पहुंचाने के भाव आयें तथा तुम कुकर्मों को करने के लिए उद्यत हो जाओ, उस समय तुम्हारा सोना बेहतर है। बुरा कार्य करने की अपेक्षा तो कुछ न करना ही उचित है और वही समय तुम्हारे सोने के लिए उत्तम है, ऐसा करने पर ही तुम अपनी जीवन रूपी चादर को स्वच्छ बना सकोगे तथा उसमें लगे हुए अपयश रूपी धब्बों को मिटा सकोगे। इन्द्रियों के विषय मनुष्य को गुमराह बनाकर कर्म-बंधनों के कारण तो बनते ही हैं, साथ उसके Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊँधै मत बटोही ! २२१ CIAL ललाट पर अपयश का टीका भी लगा देते हैं। इन्द्रियाँ पाँच हैं और पाँचों ही अपनी-अपनी तृप्ति की माँग करने में लगी रहती हैं। उसका परिणाम होता है इन्द्रियों के वश में होकर मन का गुलाम बनकर, विषयों में फंस के पापी, तन मन व धन है दीना । भाइयो ! जगत में आकर यों ही हआ है जीना ।। कवि का कहना यथार्थ है कि इन्द्रियों के वश में होकर तथा मन का गुलाम बनकर जिसने अपना तन, मन और धन सभी कुछ लुटा दिया है उसका इस मानव-जीवन को प्राप्त करना व्यर्थ साबित हुआ है। इसके अनेक उदाहरण हैं। विनाशकाले विपरीतबुद्धिः कुण्डरीक और पुण्डरीक दो भाई थे। एक ने साधुत्व ग्रहण किया और दूसरे ने राज्य पाया। जो भाई साधु बन गये थे उन्होंने अपने जीवन का अधिक भाग संयम पालन में बिता दिया, किन्तु अन्त में जाकर उनका मन डोल गया और वे अपने भाई के पास आकर अपने हिस्से का आधा राज्य मांगने लगे। राजा ने अत्यन्त चकित और दुखी होकर कहा 'भगवन् ! यह कैसी बातें करते हैं आप? राज्य बड़ा नहीं है, उसकी अपेक्षा आप अनेक गुने बड़े हैं। आप पाँच महाव्रतधारी साधु हैं। आपके चरणों में तो मेरे जैसे अनेक राजा अपना मस्तक झुकाते हैं । आप ज्ञान, दर्शन और चरित्र के धनी हैं । राजाओं से भी महान हैं।' किन्तु 'विनाशकाले विपरीत बुद्धिः' यह कहावत चरितार्थ हुई। साधु भाई ने तो अपना आग्रह दोहराया-'मुझे बड़प्पन और महानता नहीं चाहिए । अपना आधा राज्य चाहिए।' 'अगर ऐसा है तो आधा क्या आप पूरा ही राज्य लीजिये तथा अपना पवित्र बाना मुझे प्रदान कर दीजिए।' कहते हुए राजा ने अपने मस्तक से मुकुट उतार कर भाई के मस्तक पर रख दिया और स्वयं साधु वेष धारण कर वन की ओर चल दिया। इसके बाद हुआ यह कि राज्य लेने वाले भाई का शरीर तो लम्बे काल तक तपस्या करने के कारण निर्बल हो चुका था, पौष्टिक खाद्य पदार्थों को नहीं पचा सका और विषयवासना की तीव्र आसक्ति से बीमार पड़कर केवल तीन दिन के अल्प काल में सातवें नरक का अधिकारी बना और उधर साधुबाना ग्रहण करने वाले भाई ने विचारा-मैंने साधु वेश तो धारण कर लिया, परन्तु जब तक गुरु की प्राप्ति नहीं होती, आहार-पानी कैसे ग्रहण करूँ? इस उत्तम भावना के साथ परिषह सहन करके उसने भी तीन दिन में ही शरीर त्याग दिया और सर्वार्थसिद्धि की प्राप्ति कर ली। मन की गति कैसी विचित्र होती है। विकृत होने के पश्चात् न वह बाने की कद्र करती है और न ही लोकलज्जा की। क्षणमात्र में ही जीवन भर की साधना को भी धूल में मिलाने की स्थिति राय आजाती है। वस्तुतः विषयेच्छाओं की लीला बड़ी अद्भुत और शक्ति अपरम्पार होती है। किन्तु इस उदाहरण से यह आशय नहीं समझ लेना चाहिए कि वासनाओं पर विजय प्राप्त करना तथा मन का निग्रह करना संभव ही नहीं है। अगर ऐसा होता तो संसार में अनेकों महापुरुष तथा तीर्थंकर केवली संसारमुक्त होकर किस प्रकार मोक्ष प्राप्त करते ? मन को वश में किये बिना तो वे आत्मकल्याण के पथ पर एक कदम भी नहीं बढ़ पाते । मनोनिग्रह के उपाय संसार के सभी प्राणी एक सरीखे नहीं होते। सभी अपने मन को दृढ़ता से वश में नहीं रख पाते met amannamurmoniuminummm.in आचावर आत्राचार्यप्रवभिनी श्रीआनन्दप श्रीआनन्द Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रव38 श्री अनिन्दा T फ्र अभिनंदन आआवेदन २२२ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि: व्यक्तित्व एवं कृतित्व तथा विषयवासनाओं के प्रवाह में वह जाते हैं। अतः संत उन्हें सावधान करने, जागरुक रखने, सचेत करते हुए इन्द्रियों और मन को वश में करने का उपाय बताते हैं। यथा-स्वाध्याययोगैश्चरणं क्रियासु व्यापारर्द्वादश भावनाभिः । सुधीस्त्रियोगी सदसत्प्रवृत्ति:फलोपयोश्च मनोनिरुन्ध्यात् ॥ फ्र अर्थात् स्वाध्याय योग में मन को लगाकर, क्रियाओं में संलग्न करके, अनित्यता, अशरणता आदि बारह भावनाओं में जोड़कर और शुभ तथा अशुभ कर्मों के फल के चिन्तन में लगाकर बुद्धिमान पुरुष मन का निरोध करने का प्रयत्न करे क्योंकि मन का स्वभाव प्रतिफल किसी-न-किसी प्रकार का चिंतन करना है । अतः उसे स्वाध्याय आदि प्रशस्त क्रियाओं में संलग्न करना चाहिए। अगर वह इन शुभ क्रियाओं में लगा रहेगा तो उसे विषय वासनाओं की ओर जाने का अवकाश ही नहीं मिल पायेगा और धीरे-धीरे वह सब जायेगा तो विषयों की ओर से विरक्त होकर आत्मा में स्थिर होगा। स शिक्षा मन के निग्रह करने के साधनों और जीव की स्थिति को आप अच्छी तरह समझ गये हैं। कयाय इन्द्रियों के विषय आदि के वशवर्ती होकर जीव किस प्रकार अनन्त काल से विभिन्न योनियों में जन्म लेता चला आ रहा है तथा इस महायात्रा में उसे बड़ी कठिनाइयों से मनुष्यजन्म रूपी अत्यन्त सुन्दर और सुविधाजनक पड़ाव मिला है। लेकिन यहाँ भी आकर आकर्षण और मोह में फँसकर प्रमादमयी निद्रा में सो रहा है । वह भूल गया है कि अभी मेरी यात्रा का अंत नहीं हुआ है । अभी मेरा लक्ष्यस्थान दूर है । भोले मुसाफिर को यह भी ज्ञान नहीं कि अगर मेरी निद्रा का लाभ उठाकर ठगों ने यह वन चुरा लिया तो मैं किस प्रकार अपनी यात्रा सम्पन्न करूँगा तथा किस पूँजी के बल पर आगे बढ़ेगा ? संत पुरुष दुखी होते हैं । वे बार-बार उसे सजग करते हुए जीव की यह दयनीय स्थिति देखकर कहते हैं आमदन ग्रन्थ उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रंग कहाँ जो सोवत है | जो सोवत है सो खोवत है. जो जागत है सो पावत है । कितनी वात्सल्यपूर्ण और कल्याणकारी चेतावनी है। संत तो स्वयं भी जागरूक रहते हैं और दूसरों को भी जगाते हैं । इस सम्बन्ध में एक छोटा-सा उदाहरण प्रसंगवश बताता हूँ एक तपस्वी सारी रात भगवान का भजन करते रहते थे । यह देखकर एक व्यक्ति ने उनसे पूछा - 'महात्मन् ! आप रात्रि को कुछ समय के लिए सो क्यों नहीं लेते हैं ?' महात्मा बोले - 'भाई ! जिसके नीचे नरक की ज्वाला सुलग रही हो और ऊपर जिसे परमब्रह्म बुला रहा हो, उसे नींद कैसे आ सकती है ?' बंधुओ ! संतों का जीवन ऐसा ही होता हैं। उन्हें जिस प्रकार आत्मकल्याण की चिता रहती है, उसी प्रकार परकल्याण के लिए भी वे चिंतित रहते हैं । उनकी आत्मा संसार के समस्त प्राणियों को आत्मवत् समझती है। इसलिए जो प्राणी उनके जगाने से जाग जायेंगे और उनकी चेतावनी से सावधान हो जायेंगे, वे निश्चय ही अपने धर्मरत्न को सुरक्षित रखते हुए अपनी यात्रा के अंतिम लक्ष्य - मोक्षधाम को प्राप्त कर सकेंगे । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणों का श्रादर, गुणीजनों का सम्मान, जीवन को सदगुणों से परिपूर्ण करने की पावन प्रेरणा देनेवाला प्रवचन । 3COM 1VAR १८ गुणपूजा करिए प्रायः देखा जाता है कि संसार में जितने भी प्राणी या पदार्थ हैं, सभी में गुण तथा अवगुण दोनों ही होते हैं। सभी गुणवान हों, ऐसा नहीं होता तथा सभी निर्गुणी हों, यह भी नहीं होता। प्रत्येक प्राणी और प्रत्येक पदार्थ में जहाँ कुछ गुण मिलते हैं, वहाँ कुछ-न-कुछ अवगुण भी पाये जाते हैं। संक्षेप में कहा जाये तो न एक ही स्थान पर केवल गुणों का ही भण्डार होता है और न एक ही स्थान पर अवगुणों का ममुह । एक इलोक में इसी बात की पुष्टि सून्दर उदाहरणों के साथ की गई है यत्रास्ति लक्ष्मीविनयो न तत्र, ह्यभ्यागतो यत्र न तत्र लक्ष्मीः । उभे च तो यत्र न तत्र विद्या, नेकत्र सर्वो गुणसंनिपातः ॥ जहाँ लक्ष्मी रहती है वहाँ नम्रता नहीं है और जहाँ अतिथि-सत्कार की भावना होती है, लक्ष्मी नहीं रहती है और जहाँ दोनों हैं वहाँ विद्या का अभाव रहता है, अतः यह निश्चित है कि एक स्थान पर सब गुण समूह नहीं रहते है। पदार्थों की दृष्टि से देखा जाये तब भी यही बात है। गुलाब के फूल के साथ कांटे होते हैं और कमल कीचड़ में रहता है। कस्तुरी जीवनदायिनी होते हुए भी काले रंग की होती है तथा किंपाक फल सुन्दर होते हुए भी प्राणनाश का कारण बनता है। इस प्रकार सृष्टि के समस्त प्राणी और पदार्थ जहाँ कुछ गुण रखते हैं, वहाँ अवगुणों को भी छिपाये रहते हैं। गुणानुरागी की भावना लेकिन जिन व्यक्तियों का गुणों के प्रति अनुराग होता हैं, वे दूसरों के गुणों को देखकर प्रमुदित होते हैं। दानी पुरुष को देखकर उसकी सराहना करते हैं। तपस्वी को देखकर मन में श्रद्धा के भाव लाते हैं । शीलवान के प्रति अपना मस्तक झुकाते हैं तथा संयमी पुरुष के लिए हृदय में पूज्य भाव रखते हैं । गुणानुरागी व्यक्ति मदा यही भावना रखता है-- गुणी जनों को देख हृदय में, मेरे प्रेम उमड़ आवे । बने जहां तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे । होऊ नहीं कृतघ्न कभी मैं द्रोह न मेरे उर आवे । गुण-ग्रहण का भाव रहे नित दृष्टि न दोषों पर जावे ॥ कितनी सुन्दर भावना होती है गुणानुरागी व्यक्ति की, कि गुणी जनों को देखकर मेरे मन में प्रेम उमड़ आये, मेरा मन खुशी से भर जाये। भले ही मुझ में गुणों का अभाव हो, त्याग और तपस्या आदि నాలు IA مع غيعرفوژه بغرنجرح عميهننخندون محدوده عر۔ ي ج نععئعه دراز مي مين आपाप्रवर अभिरायप्रवाआमानका श्रीआनन्दमयश्रीआनन्दन्श www.jainettbrary.org Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Krm २२४ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व मुझसे न हो पायें और धन के अभाव में दान का लाभ भी न उठा सकें, पर मैं चाहता हूँ कि गुणज्ञ पुरुषों की सेवा अपनी शक्ति के अनुसार करूँ और उससे ही मन में असीम प्रसन्नता का अनुभव करूँ। - इसके साथ ही गुणानुरागी विचार करता है कि मैं कृतघ्न न होऊँ यानी दूसरे के द्वारा किये हुए उपकार को भूल न जाऊँ और उसके प्रति कभी भी बुरी भावना भी पैदा न हो। दुनिया में चाहे अवगुणही-अवगुण भरे हों लेकिन मेरी दृष्टि गुणों पर ही जाये, मेरे मन में गुण देखने की वृत्ति बनी रहे। गुणानुरागी व्यक्ति के बारे में एक उर्दू के शायर ने कहा है जो भले हैं वह बुरों को भी भला कहते हैं। अच्छे न बुरा सुनते हैं न बुरा कहते हैं । पाश्चात्य विद्वान एमर्सन का कथन है 'प्रत्येक मनुष्य जिससे मैं मिलता है, किसी-न-किसी रीति से मुझसे श्रेष्ठ होता है। इसलिए मैं उससे शिक्षा लेता हूँ।' गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो जिज्ञासा होती है कि एक विद्वान को ऐसा सोचने की क्या आवश्यकता है? उसे अन्य व्यक्ति से क्या लेना है ? पर नहीं, संसार में गुण अनन्त है और एक व्यक्ति यह समझे कि मैं अपनी बुद्धि से पढ़-लिख कर ज्ञानी बन गया, अब मुझे और कुछ प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है, तो यह उसकी भूल है। प्रत्येक छोटे-से-छोटे व्यक्ति में भी कोई-न-कोई गुण अवश्य होता है । इतना ही नहीं, सच्चे गुणग्राही पुरुष तो पूर्ण निर्गुण से भी शिक्षा लेने से नहीं चूकते हैं। एक बार लुकमान हकीम से किसी व्यक्ति ने पूछा'आपने तमीज किससे सीखी ?' लुकमान ने सहज भाव से उत्तर दिया-'बदतमीजों से ।' 'वह कैसे ?' व्यक्ति ने साश्चर्य प्रश्न किया। 'क्योंकि मैंने उन लोगों में जो कुछ बुरी बातें देखीं, उनसे परहेज किया ।' उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि जिस व्यक्ति की वास्तव में गुणदृष्टि होती है, वह बुराइयों में से भी अच्छाइयाँ खोज लेते हैं। पर ऐसे महापुरुष तो कदाचित् ही मिलते हैं। साधारणतया तो हम इससे उलटा ही देखते हैं। आपने प्रायः सुना होगा कि जवासिया एक छोटा-सा पेड़ होता है। वर्षा ऋतु में जबकि सारी री-भरी हो जाती है, वह सूख जाता है और जब ग्रीष्म ऋतु आती है तथा धरती पर के सभी लहलहाते वृक्ष सुखने लगते हैं, उनके पत्ते झड़ते हैं, तब वह हरा-भरा हो जाता है। अर्थात् पृथ्वी पर के फले-फूले और हरे-भरे वृक्षों को वह नहीं देख सकता तथा ईर्ष्या की आग के मारे स्वयं भी सुख जाता है, पर जब अन्य वृक्ष सूखने लगते हैं तो उसे इतनी खुशी होती है कि स्वयं ही लहलहा उठता है । यही हाल इन्सान का भी है । संसार में बहुत कम ऐसे व्यक्ति मिलेंगे जो औरों की उन्नति देखकर सच्ची खुशी का अनुभव करते होंगे । एक सुभाषित में कहा गया है नागुणी गुणिनं वेत्ति गुणी गुणिषु मत्सरी। गुणी च गुणरागी च दुर्लभः सरलो जनः ।। इसका अर्थ है-अवगुणी व्यक्ति गुणवानों को नहीं जान सकता । यानी जिसमें स्वयं ही गुण नहीं हैं वह गुणियों की परख कैसे कर सकता है ? गुणवानों को तो गुणवान ही पहचान सकते हैं । किन्तु दुःख की बात है कि गुणवान जो होते हैं, वे गुणवानों को जानकर भी उनका आदर नहीं करते तथा उनकी सराहना करने के बदले उलटा मत्सर भाव रखते हैं । एक विद्वान दूसरे विद्वान को देखकर ईर्ष्या करता है और एक श्रीमंत दूसरे श्रीमंत की धनवृद्धि से जलता है । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणपूजा करिए २२५ इसीलिए श्लोक में आगे कहा है-- सच्चे गुणी और गणानुरागी मनुष्य मिलना बड़ा दुर्लभ है। ये दोनों चीजें एक ही स्थान पर नहीं मिल सकती हैं । व्यक्ति स्वयं गुणवान हो तथा दूसरों के गुणों को देखकर आन्तरिक प्रसन्नता का अनुभव करता हो तो उससे बढ़कर अच्छाई और क्या हो सकती है ? कवि-कुल भूषण पूज्यपाद श्री तिलोकऋषि जी महाराज अपने एक कवित्त के द्वारा प्राणी को। सदुपदेश देते हैं कि तू औरों की निन्दा मत कर, औरों के दोष मत देख । अगर देखना ही है तो अपने स्वयं के दोष देव, जिससे आत्मशुद्धि हो सके । काव्य इस प्रकार है छिद्र पर देख निन्दा करे केम छोड़ के छिद्र सुगुण लहीजे । देख बबूल को कांटा ग्रहे मत छाया ते शीतल होय सहीजे ॥ तुच्छ असार अहार है धेनु को क्षीर विगय तामें सार कहीजे । तिलोक कहत स्वछिद्र को टालत काहे को अन्य का छिद्र गहीजे ॥ कहा गया है-'हे प्राणी ! तू दूसरों का छिद्रान्वेषण क्यों करता है ? परदोष-दर्शन करके उनकी निन्दा करने से तुझे कौन-सा लाभ होने वाला है ? कोई नहीं, अतः दूसरों के दोष देखना छोड़कर उनमें जो गुण हैं, केवल उन्हें ही ग्रहण करना सीख । बबूल का पेड़ तेरे समक्ष है तो क्या यह आवश्यक है कि तू उसमें से काँटे ग्रहण करे ही ? नहीं, काँटों को छूने की आवश्यकता नहीं है । असह्य धूप है और पास में अन्य कोई वृक्ष नहीं है तो तू दो घड़ी बबूल की छाया में बैठकर विश्राम कर । शूल वृक्ष पर हैं तो रहने दे, छाया में तो शूल नहीं हैं, बबूल के शूल रूपी छिद्रों को देखने से तुझे क्या लाभ है ? और न देखे तो कौन-सी हानि है? फिर व्यर्थ का कार्य करना ही किसलिए? उसे न करना ही अच्छा है । वह तो अज्ञानी व्यक्तियों का कार्य है कि दोष पराया देखिके चला हसत हसंत । अपने याद न आवही जिनका आदि न अंत ॥ इसलिए कवि श्री तिलोकऋषि जी महाराज का कथन है कि तू दूसरों के अवगुणों को देख-देख कर अपने अवगुणों में वृद्धि मत कर । और अन्त में कहते हैं-अरे अज्ञानी ! अगर तुझे दोष ही देखने हैं तो औरों के क्यों देखता है। अपने ही क्यों नहीं देखता । औरों के दोष देखने से आखिर तुझे क्या लाभ होगा? अपने स्वयं के देख लेगा तो कुछ आत्मसुधार हो सकेगा। इसलिए उचित यही कि है अपने आप में झाँक, आत्मनिरीक्षण कर । जिन्होंने ऐसा किया है, उनका कहना भी यही है-- बुरा जो देखन मैं चला बुरा न दीखा कोय । जो धर सोधा आपना मो सम बुरा न कोय । वस्तुतः सच्चे महापुरुष अपना ही दोष दर्शन करते हैं। गुणों का महत्त्व गुण अपने आप में सम्पूर्ण होते हैं। उनमें कोई दोष नहीं होता जिसे हटाने की आवश्यकता होती हो तथा कोई अधूरापन नहीं होता जिसे पूरा करने की जरूरत पड़ती हो। इसलिए उन्हें किसी की सिफारिश की भी आवश्यकता नहीं होती है, वे अपने आप ही सब स्थानों पर आदर प्राप्त कर लेते हैं। कहा भी है गुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते पितृवंशो निरर्थकः । वासुदेवं नमस्यन्ति वसुदेवं न ते जनाः ॥ गुणों का ही सर्वत्र समान होता है, गुणी के वंश का नहीं। लोग वासुदेव (कृष्ण) की ही वंदना आपावट आनापार्यप्रवर आ श्रीआनन्दग्रन्थश्राआनन्द बासुदेव नमस्यन्ति मसुदेव न ते जनाः ॥ NiumauntrintammananAaameraMUNDATADORIA + A Novemarwareneurnawani meename Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रवभिग माननग्रन्थश्राआनन्दान्थ५१ २२६ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व करते हैं, उनके पिता वसुदेव की नहीं। गुणी व्यक्ति चाहे अमीर हो या गरीब, छोटा हो या बड़ा, अपने गुणों के कारण ही प्रत्येक स्थान पर सम्मान प्राप्त करता है। कहा भी है 'गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिगं न च वयः ।' पूजा का स्थान केवल गुण ही हैं, उम्र अथवा लिंग नहीं। प्राणी अपने गुणों से महान् बनते हैं, वैभव या ऊँची-ऊँची पदवियाँ प्राप्त कर कुर्सीधारी बन जाने से नहीं। चाणक्यनीति में कहा भी है गुणः सत्तमतां यान्ति नीचरासनसंस्थितः । प्रासादशिखरस्थोपि काकः किं गरुडायते ॥ गुणों से ही मनुष्य महान् होता है, ऊँचे आसन पर बैठने से नहीं। महल के ऊँचे शिखर पर बैठने से भी कौआ गरुड़ नहीं हो सकता है। कहने का अभिप्राय यही है कि महत्त्व केवल गुणों का होता है, लिंग या वय का नहीं। गुणाभिमानी न बनो बंधुओ ! अभी आपको गुणों का महत्त्व बतलाया है और यह भी बताया है कि गुणों की सर्वत्र पूजा होती है। साथ ही यह भी बताना आवश्यक है कि मनुष्य गुणों के साथ-ही-साथ कहीं गर्व का भी संचय न कर ले । अन्यथा उसके समस्त गुणों पर पानी फिर जायेगा। इसीलिए कवीर ने कहा है कबीरा गर्व न कीजिए, कबहूँ न हँसिये कोय । अबहु नाव समुद्र में को जाने का होय ॥ कितनी सच्ची शिक्षा दी है कि किसी अन्य के अवगुणों को देखकर कभी उसका उपहास मत करो तथा अपने गुणों का गर्व मत करो। अभी तो स्वयं तुम्हारी जीवननौका भी संसार-सागर के मध्य में ही है। कौन जानता है कि पार उतरोगे या नहीं? वस्तुतः सच्चा गुणवान वही है जो अपने आप में सदा कमियां देखता है। गुणवानों का सच्चा लक्षण यही है कि वे अपने आपमें उच्चता नहीं, वरन् लघुता महसूस करते हैं और उनकी लघुता की भावना ही उनकी महता की प्रतीक है। जो भव्य प्राणी इस प्रकार अपनी अहंकार रूप दुर्बलता का त्याग कर देते हैं, वे ही इस लोक में प्रशंसा और परलोक में कल्याण के भाजन बनते हैं। इसलिए हमें अपनी बुद्धि और विवेक को जागृत करते हुए अनन्त पुण्यों के उदय से प्राप्त होने वाले इस मनुष्य जन्म को सार्थक करने का प्रयत्न करना चाहिए और यह तभी हो सकेगा जब कि हम गुणानुरागी बनेंगे। __अगर हम में प्रत्येक प्राणी के छोटे-से-छोटे गुण को भी ग्रहण कर लेने की लालसा बनी रहेगी तो एक दिन ऐसा अवश्य आयेगा कि संसार के समस्त सद्गुण हमारे हृदय में निवास करने को आतुर वनेंगे और उनके माध्यम से मोक्षपथ की समस्त कठिनाइयों को पार कर सकेंगे। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 355 धर्म और दर्शन (जैन तत्व-विद्या) Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विजय मुनि, शास्त्री, साहित्यरत्न [धर्म एवं दर्शन के प्रकांड पंडित, 'विश्वदर्शन की रूप-रेखा' जैसे गंभीर ग्रन्थों के L लेखक । कुशल पद्यकार, कथा शिल्पी, प्रभावशाली प्रवक्ता, चिंतक एवं प्रबुद्ध मनीषी] | मान भारतीय दर्शन के सामान्य सिद्धान्त आध्यात्मिक पृष्ठभूमि भारतीय दर्शन फिर भले ही वह किसी भी सम्प्रदाय का क्यों न रहा हो, उसका मूल स्वर | अध्यात्मवाद रहा है। भारत का एक भी इस प्रकार का कोई सम्प्रदाय नहीं है, जिसके दर्शन-शास्त्र । में आत्मा, ईश्वर और जगत के सम्बन्ध में विचारणा न की गई हो। आत्मा का स्वरूप क्या है ? ईश्वर का स्वरूप क्या है ? और जगत की व्यवस्था किस प्रकार होती है ? इन विषयों पर भारत की प्रत्येक दर्शन-परम्परा ने अपने-अपने दृष्टिकोण से विचार किया है । जब आत्मा की विचारणा होती है, तब स्वाभाविक रूप से ईश्वर की विचारणा हो ही जाती है । इन दोनों की विचारणा के साथ जगत की विचारणा भी आवश्यक हो जाती है । दर्शन-शास्त्र के ये तीन ही विषय मुख्य माने गए हैं। आत्मा चेतन है, ज्ञान उसका स्वभाव है, इस सत्य को सभी ने स्वीकार किया है । उसकी अमरता के सम्बन्ध में भी किसी को सन्देह नहीं है। भारतीय-दर्शनों में एक मात्र चार्वाक-दर्शन ही इस प्रकार का है, जो आत्मा को शरीर से भिन्न नहीं मानता । वह आत्मा को भौतिक मानता है, . अभौतिक नहीं । जब कि समस्त दार्शनिक आत्मा को एक स्वर से अभौतिक स्वीकार करते हैं। आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में और उसकी अमरता के सम्बन्ध में किसी भी भारतीय दार्शनिकपरम्परा को संशय नहीं रहा है। आत्मा के स्वरूप और लक्षण के सम्बन्ध में तथा संख्या के सम्बन्ध में भेद रहा है, पर उसके अस्तित्व के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का भेद नहीं रहा। ईश्वर के सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि किसी-न-किसी रूप में सभी दार्शनिकों ने उसके अस्तित्व को स्वीकार किया है, परन्तु ईश्वर के स्वरूप के सम्बन्ध में तथा लक्षण के सम्बन्ध में पर्याप्त भेद रहा है। जगत के अस्तित्व के सम्बन्ध में किसी भी दर्शन-परम्परा को सन्देह नहीं रहा। चार्वाक भी जगत के अस्तित्व को स्वीकर करता है। अन्य सभी दर्शन-परम्पराओं ने जगत के अस्तित्व को स्वीकार किया है, और उसकी उत्पत्ति एवं रचना के सम्बन्ध में अपनी-अपनी पद्धति से विचार किया है। किसी ने उसका आदि और अन्त स्वीकार किया है, और किसी ने उसे अनादि और अनन्त माना है। दर्शन-शास्त्र सम्पूर्ण सत्ता के विषय में कोई धारणा बनाने का प्रयत्न करता है । उसका उद्देश्य विश्व को समझना है । सत्ता का स्वरूप क्या है ? प्रकृति क्या है ? आत्मा क्या है ? और ईश्वर क्या है ? दर्शन-शास्त्र इन समस्त जिज्ञासाओं का समाधान करने का प्रयत्न करता है । दर्शनशास्त्र में यह भी समझने का प्रयत्न किया जाता है, कि मानव जीवन का प्रयोजन और उसका आचार्मर भाचार्यप्रवर अभिनन्दन प्रासानन्द-ग्रन्थ2 श्राआनन्दजन्य मान MARARIAOMJASAJANAMINAJABRJAR MARROAnuruRMANAJASALAIMARALAPAIMAANABANAJAMING minews Moviwrrrrr Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआनन्द अन्य श्रीआनन्द अन्य २३० धर्म और दर्शन मुल्य क्या है ? तथा जगत के साथ उसका क्या सम्बन्ध है ? इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि दर्शन-शास्त्र जीवन और अनुभव की समालोचना है। दर्शन-शास्त्र का निर्माण मनुष्य के विचार और अनुभव के आधार पर होता है। तर्कनिष्ठ विचार ज्ञान का साधन रहा है। दर्शन तर्क-निष्ठ विचार के द्वारा सत्ता के स्वरूप को समझने का प्रयत्न करता है। पाश्चात्य-दर्शन में सैद्धान्तिक प्रयोजन की प्रधानता रहती है । वह स्वतन्त्र चिन्तन पर आधारित है, और आप्तप्रमाण की उपेक्षा करता है। नीति और धर्म की व्यावहारिक बातों से वह प्रेरणा नहीं लेता । जबकि भारतीय-दर्शन आध्यात्मिक चिन्तन से प्रेरणा पाता है। वास्तव में भारतीय-दर्शन एक अध्यात्म शोध एवं खोज है। भारतीय-दर्शन सत्ता के स्वरूप की जो खोज करता है, उसके पीछे उसका उद्देश्य मानव-जीवन के चरम साध्य मोक्ष को प्राप्त करना है । सत्ता के स्वरूप का ज्ञान इसलिए आवश्यक है, कि वह निःश्रेयस और परम-साध्य को प्राप्त करने का एक साधन है । इस आधार पर यह कहा जाता है, कि भारतीय-दर्शन अपने मूल स्वरूप में एक आध्यात्मिक-दर्शन है, भौतिक-दर्शन नहीं। यद्यपि भारतीय-दर्शन में भौतिकता की व्याख्या की गई है, फिर भी इसका मूल स्वभाव आध्यात्मिकता ही रहा है। इसका सर्वप्रथम प्रमाण तो यह है कि भारत में धर्म और दर्शन को एक दूसरे पर आश्रित माना गया है। परन्तु धर्म का अर्थ अन्ध-विश्वास नहीं, तर्क-पूर्ण अनुभव माना गया है। भारतीय-परम्परा के अनुसार धर्म आध्यात्मिक-शक्ति को प्राप्त करने का एक व्यावहारिक उपाय एवं साधन है । दर्शन-शास्त्र सत्ता की मीमांसा करता है, और उसके स्वरूप को विचार के द्वारा पकड़ता है, जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है। अतः स्पष्ट है कि भारतीय-दर्शन एक बौद्धिक विलास नहीं है, बल्कि वह एक आध्यात्मिक खोज है । भारतीय-दर्शन चिन्तन एवं मनन के आधार पर प्रतिष्ठित है, लेकिन उसमें चिन्तन और मनन का स्थान आगम, पिटक एवं वेदों की अपेक्षा गौण है । भारतीय दर्शन की प्रत्येक परम्परा आप्तवचन अथवा शब्दप्रमाण पर अधिक आधारित रही है । जैन अपने आगम पर अधिक विश्वास करते हैं, वौद्ध अपने पिटक पर अधिक श्रद्धा रखते हैं और वैदिक-परम्परा के सभी सम्प्रदाय वेदों के वचनों पर ही एक मात्र आधार रखते हैं । इस प्रकार भारतीय-दर्शन में प्रत्यक्ष अनभूति की अपेक्षा परोक्ष अनुभूति पर अधिक बल दिया गया है । भारत के दार्शनिक सम्प्रदाय भारत के दार्शनिक सम्प्रदायों को अनेक विभागों में विभाजित किया जा सकता है। भारतीय विद्वानों ने भी उनका वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया है। आचार्य हरिभद्र ने अपने 'पड्दर्शन समुच्चय' में, आचार्य मध्व ने 'सर्व-दर्शन-संग्रह' में, आचार्य शंकर ने 'सर्व-सिद्धान्त-संग्रह' आदि में दर्शनों का वर्गीकरण विभिन्न प्रकार से किया है। पाश्चात्य-दर्शन परम्परा के दार्शनिकों ने वर्गीकरण की जो पद्धति स्वीकार की है, वह भी एक प्रकार की न होकर अनेक प्रकार की है । सब से अधिक प्रचलित पद्धति यह है कि भारतीय-दर्शन को दो भागों में विभाजित किया जाता हैआस्तिक-दर्शन और नास्तिक-दर्शन । आस्तिक दर्शन इस प्रकार हैं-सांख्य, योग, वैशेषिक, न्याय, मीमांसा और वेदान्त । नास्तिक-दर्शन इस प्रकार हैं--चार्वाक, जैन और बौद्ध । परन्तु यह पद्धति न तर्क पूर्ण है, और न समीचीन । वैदिक-दर्शनों को आस्तिक कहने का क्या आधार रहा है, और अवैदिक दर्शनों को नास्तिक कहने का क्या आधार रहा है, यह स्पष्ट नहीं है ? इसका एक मात्र आधार शायद यही रहा है कि वे वेद वचनों में विश्वास नहीं करते। यदि वेद-वचनों में विश्वास नहीं करने के आधार पर ही चार्वाक, जैन और बौद्ध को नास्तिक कहा जाता है, तब यही मानना चाहिए, जो Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय दर्शन के सामान्य सिद्धान्त या व्यक्ति चार्वाक-ग्रन्थों में, जैन-आगमों में और बौद्ध-पिटकों में विश्वास नहीं करते, वे भी नास्तिक ही हैं। इस प्रकार भारत का कोई भी दर्शन आस्तिक नहीं रहेगा। यदि यह कहा जाए कि ईश्वर को स्वीकार नहीं करता वह नास्तिक है, और इस दृष्टि से चार्वाक, जैन और बौद्ध नास्तिक कहे जाते हैं । तब इसका अर्थ यह होगा, कि सांख्य और योग तथा वैशेषिक दर्शन भी नास्तिक परम्परा में परिगणित होंगे । क्योंकि ये भी ईश्वर को स्वीकार नहीं करते । वेदों का सबसे प्रबल समर्थक मीमांसा-दर्शन भी ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता तब वह भी नास्तिक कहा जाएगा। अतः आस्तिक और नास्तिक के आधार पर भारतीय-दर्शनों का विभाग करना यह एक भ्रम परिपूर्ण धारणा है। वास्तव में भारतीय-दर्शनों का विभाग दो रूपों में होना चाहिए-वैदिक-दर्शन और अवैदिकदर्शन । वैदिक-दर्शनों में पड्दर्शनों की परिगणना हो जाती है, और अवैदिक-दर्शनों में चार्वाक, जैन और बौद्ध-दर्शन आ जाते हैं। इस प्रकार भारतीय-दर्शन-परम्परा में मुल में नव दर्शन होते हैं--- चार्वाक, जैन, बौद्ध, सांस्य, योग, वैशेषिक, न्याय, मीमांसा और वेदान्त । ये नव दर्शन भारत के मूल दर्शन हैं । कुछ विद्वानों ने यह भी कहा है, कि अवैदिक-दर्शन भी षड् हैं—चार्वाक, जैन, सौत्रान्तिक, वैभाषिक, योगाचार और माध्यमिक । इस प्रकार वैदिक-परम्परा के दर्शन भी छह हैं, और अवैदिक-दर्णन भी छह होते हैं । इस प्रकार भारत के मूल दर्शन द्वादश हो जाते हैं। न्याय और वैशेषिक-दर्शन में कुछ सैद्धान्तिक भेद होते हुए भी प्रकृति, आत्मा और ईश्वर के विषय में दोनों के मत समान है। कालक्रम से इनका एकीभाव हो गया और अब इनका सम्प्रदाय न्याय-वैशेषिक कहा जाता है। सांख्य और योग की भी प्रकृति और पुरुष के विषय में एक ही धारणा है । यद्यपि सांख्य निरीश्वरवादी है, और योग ईश्वरवादी है। अतः कभी-कभी इनको एक साथ सांख्य-योग कह दिया जाता है । मीमांसा के दो सम्प्रदाय हैं जिनमें से एक के प्रवर्तक आचार्य कुमारिल भट्ट हैं, और दुसरे के आचार्य प्रभाकर। इनको क्रमशः भट्ट सम्प्रदाय और प्रभाकर सम्प्रदाय कहा जाता है । वेदान्त के भी दो मुख्य सम्प्रदाय हैं जिनमें से एक के प्रवर्तक आचार्य शंकर हैं और दूसरे के आचार्य रामानुज । शंकर का सिद्धान्त अद्वैतवाद अथवा केवलाद्वैतवाद के नाम से | विख्यात है, और रामानुज का विशिष्टाद्वैतवाद के नाम से । वेदान्त के कुछ अन्य छोटे-छोटे सम्प्रदाय भी हैं। उन सभी का समावेश भक्तिवादी-दर्शन में किया जा सकता है । वेदान्तपरम्परा के दर्शनों में मीमांसा-दर्शन को पूर्व-मीमांसा और वेदान्त-दर्शन को उत्तर-मीमांसा भी कहा जा सकता है। इस प्रकार इन विभागों में वैदिक-परम्परा के सभी सम्प्रदायों का समावेश आसानी से किया जा सकता है। बौद्ध-दर्शन परिवर्तनवादी दर्शन रहा है। वह परिवर्तन अथवा अनित्यता में विश्वास करता है, नित्यता को वह सत्य स्वीकार नहीं करता। बौद्धों के अनेक सम्प्रदाय हैं-उनके वैभाषिक और सौत्रान्तिक सर्वास्तिवादी हैं। इन्हें बाह्यार्थवादी भी कहा जा सकता है । क्योंकि ये दोनों सम्प्रदाय समस्त बाह्य वस्तुओं को सत्य मानते हैं। वैभाषिक बाह्य प्रत्यक्षवादी हैं। इनका मत यह है कि बाह्य वस्तु क्षणिक हैं, और उनका प्रत्यक्ष ज्ञान होता है । सौत्रान्तिक बाह्यानुमेयवादी हैं। इनका मत यह है, कि बाह्य पदार्थ जो क्षणिक हैं, प्रत्यक्षगम्य नहीं हैं, बल्कि मन में उनकी जो चेतना उत्पन्न होती है, उससे उनका अनुमान किया जाता है। योगाचार सम्प्रदाय विज्ञानवादी है। इसका मत यह है कि समस्त बाह्य वस्तु मिथ्या हैं, और चित्त में जो कि विज्ञान सन्तान मात्र है, विज्ञान उत्पन्न होते हैं, जो निरावलम्बन हैं। योगाचार आलय-विज्ञानवादी हैं। माध्यमिक सम्प्रदाय का मत यह है कि न बाह्य वस्तुओं की सत्ता है, और न आन्तरिक विज्ञानों की । ये दोनों ही संवृति मात्र हैं । तत्त्व आचार्यप्रवआभनआचार्यप्रवभिनय आनन्दा अन्धाश्रीआनन्दन Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपाप्रवर अभिमा अभिन २३२ धर्म और दर्शन निःस्वभाव है, अनिर्वाच्य है, और अज्ञेय है। कुछ बौद्ध विद्वान केवल निरपेक्ष चैतन्य को ही सत्य मानते हैं। जैन-दर्शन मूल में द्वैतवादी दर्शन हैं। वह जीव की सत्ता को भी स्वीकार करता है, और जीव से भिन्न पुद्गल की सत्ता को भी सत्य स्वीकार करता है। जैन-दर्शन ईश्वरवादी-दर्शन नहीं है । जैनों के चार सम्प्रदाय हैं-श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी और तेरापंथी। इन चारों सम्प्रदायों में मूल तत्त्व के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का मतभेद नहीं है । तत्त्व सम्बन्धी अथवा दार्शनिक किसी प्रकार का मतभेद इन चारों सम्प्रदायों में नहीं रहा, परन्तु आचार-पक्ष को लेकर इन चारों में कुछ विचार भेद रहा है। वास्तव में अहिंसा और अपरिग्रह की व्याख्या में मतभेद होने के कारण ही ये चारों सम्प्रदाय अस्तित्व में आए हैं, किन्तु तात्त्विक दृष्टि से इनमें आज तक भी किसी प्रकार का भेद नहीं रहा । चार्वाकों में भी अनेक सम्प्रदाय रहे थे-जैसे चार भूतवादी और पांच भूतवादी । इस प्रकार भारत के दार्शनिक-सम्प्रदाय अपनी-अपनी पद्धति से भारतीय-दर्शन शास्त्र का विकास करते रहे हैं। भारतीय-दर्शनों के सामान्य सिद्धान्त भारतीय-दर्शनों के सामान्य सिद्धान्तों मेंमुख्य रूप से चार हैं-आत्मवाद, कर्मवाद, परलोकवाद और मोक्षवाद । इन चारों विचारों में भारतीय-दर्शन के सभी सामान्य सिद्धान्त समाविष्ट हो जाते हैं। जो आत्मवाद में विश्वास रखता है, उसे कर्मवाद में भी विश्वास रखना ही होगा और जो कर्मवाद को स्वीकार करता है, उसे परलोकवाद भी स्वीकार करना ही होगा और जो परलोकवाद को स्वीकार कर लेता है उसे स्वर्ग और मोक्ष पर भी विश्वास करना ही होता है। इस प्रकार भारतीय-दर्शनों के सर्व-सामान्य सिद्धान्त अथवा सर्वमान्य सिद्धान्त ये चार ही रहे हैं । इन चारों के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा विचार नहीं है, जो इन चारों में नहीं आ जाता हो । फिर भी यदि हम प्रमाण-मीमांसा को लें, तो वह भी भारतीय-दर्शन का एक अविभाज्य अंग रही है। प्रत्येक दर्शन की शाखा ने प्रमाण की व्याख्या की है, और उसके भेद एवं उपभेदों की विचारणा की है। फिर आचार-शास्त्र को भी यदि लिया जाए तो प्रत्येक भारतीय-दर्शन की शाखा का अपना एक आचार-शास्त्र भी रहा है । इस आचार-शास्त्र को हम उस दर्शन का साधनापक्ष भी कह सकते हैं। प्रत्येक दर्शन-परम्परा अपनी पद्धति से अपने द्वारा प्रतिपादित तत्त्व-ज्ञान को जब जीवन में उतारने का प्रयत्न करती है तब उसे साधना कहा जाता है । यह साधना-पक्ष भी प्रत्येक भारतीयदर्शन का एक अभिन्न अंग रहा है। दुःख-निवृत्ति और सुख की प्राप्ति यह भी प्रत्येक दर्शन का अपना एक विशिष्ट ध्येय रहा है। यह स्वाभाविक है कि मनुष्य को अपने वर्तमान जीवन से असन्तोष हो । जीवन में प्रतीत होने वाले प्रतिकूल भाव, दुःख एवं क्लेशों से व्याकुल होकर मनुष्य उनसे छुटकारा प्राप्त करने की बात सोचे, यह स्वाभाविक है। भारत के प्रत्येक दर्शन ने फिर भले ही वह किसी भी परम्परा का क्यों न रहा हो, वर्तमान जीवन को दुखमय एवं क्लेशमय माना है। इसका अर्थ यही होता है कि जीवन में जो कुछ दुःख और क्लेश है, उसे दूर करने का प्रयत्न किया जाए। क्योंकि दुःखनिवृत्ति और सुखप्राप्ति प्रत्येक आत्मा का स्वाभाविक अधिकार है । भारत के इस दृष्टिकोण को लेकर पाश्चात्य-दार्शनिकों ने इसे निराशावादी अथवा पलायनवादी कहा है। परन्तु उन लोगों का कथन न तर्क-संगत है, और न भारतीय-दर्शन की मर्यादा के अनुकूल ही। भारतीय-दर्शन में त्याग और वैराग्य की जो चर्चा की गई है, उसका अर्थ जीवन से पराङ्मुख बनना नहीं है, बल्कि वर्तमान जीवन के असन्तोष के कारण चित्त में जो एक व्याकुलता Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय दर्शन के सामान्य सिद्धान्त २३३ PO रहती है, उसे दूर करने के लिए ही भारतीय-दार्शनिकों ने त्याग और वैराग्य की बात कही है। यह दुःखवादी विचारधारा बौद्ध-दर्शन में अतिरेकवादी बन गई है। इसे किसी अंश में स्वीकार करना ही होगा। जैन-दर्शन भी इस दुःखवादी परम्परा में सम्मिलित रहा है। सांख्य-दर्शन के प्रारम्भ में ही इस तथ्य को स्वीकार किया गया है कि तीन प्रकार के दुःख से व्याकुल यह आत्मा सुख और शान्ति की खोज करना चाहता है। इस प्रकार भारतीय-दर्शनों में दुःखवादी विचारधारा रही है, इस सत्य से इन्कार नहीं किया जा सकता । एक मात्र सुख का अनुसन्धान ही उसका मुख्य उद्देश्य रहा है। भारतीय दर्शनों में आत्मवाद भारत के सभी दर्शन आत्मा के अस्तित्व में विश्वास करते हैं। न्याय और वैशेषिक आत्मा को एक अविनश्वर और नित्य पदार्थ मानते हैं । इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान को उसके विशेष गुण मानते हैं । आत्मा ज्ञाता- कर्ता और भोक्ता है। ज्ञान, अनुभूति और संकल्प आत्मा के धर्म हैं । चैतन्य आत्मा का स्वरूप है। मीमांसा-दर्शन का भी मत यही है । मीमांसा-दर्शन आत्मा को नित्य और विभु मानता है। और चैतन्य को उसका आगन्तुक धर्म मानता है। स्वप्न रहित निद्रा तथा मोक्ष की अवस्था में आत्मा चैतन्य गुण से रहित होता है। सांख्य-दर्शन में पुरुष को नित्य, विभु और चैतन्य स्वरूप माना गया है । इस दर्शन के अनुसार चैतन्य आत्मा का आगन्तुक धर्म नहीं है । पुरुष अकर्ता है, वह सुख-दुःख की अनुभूतियों से रहित है । बुद्धि कर्ता है, और सुख तथा दुःख के गुणों से युक्त है। बुद्धि प्रकृति का परिणाम है और प्रकृति निरन्तर क्रियाशील है। इसके विपरीत पुरुष शुद्ध चैतन्य स्वरूप है। __ अद्वैत वेदान्त आत्मा को विशुद्ध सत्, चित् और आनन्द स्वरूप मानता है । सांख्य अनेक पुरुषों को मानता है, लेकिन ईश्वर को नहीं मानता । अद्वैत केवल एक ही आत्मा को सत्य मानता है। चार्वाक-दर्शन आत्मा की सत्ता को नहीं मानता। वह चैतन्य विशिष्ट शरीर को ही आत्मा कहता है। बौद्ध-दर्शन आत्मा को ज्ञान, अनुभूति और संकल्पों की एक क्षण में परिवर्तन होने वाली सन्तान मानता है। इसके विपरीत जैन-दर्शन आत्मा को नित्य, अजर और अमर स्वीकार करता है। ज्ञान आत्मा का विशिष्ट गुण है । गुण और गुणी में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद रहता है । जैन-दर्शन मानता है कि आत्मा स्वभावतः अनन्त-ज्ञान, अनन्त-दर्शन, अनन्त-सुख और अनन्त-शक्ति से युक्त है। इस दृष्टि से प्रत्येक भारतीय-दर्शन आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है, और उसकी अपने ढंग से व्याख्या करता है। भारतीय-दर्शनों में कर्मवाद कर्मवाद यह मारतीय-दर्शन का एक विशिष्ट सिद्धान्त माना जाता है। भारत के प्रत्येक दर्शन की शाखा ने इस कर्मवाद के सिद्धान्त पर भी गम्भीर विचार किया है। जीवन में जो सुख और दुःख की अनुभूति होती है, उसका कोई आधार अवश्य होना चाहिए। इसका आधार एक मात्र कर्मवाद ही हो सकता है। इस संसार में जो विचित्रता और विविधता का दर्शन होता है, उसका आधार प्रत्येक व्यक्ति का अपना कर्म ही होता है। कर्मवाद के सम्बन्ध में जितना गंभीर और विस्तृत विवेचन जैन-परम्परा के ग्रंथों में उपलब्ध है, उतना अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। एक चार्वाकदर्शन को छोड़कर शेष सभी भारतीय-दर्शन कर्मवाद के नियम में आस्था एवं विश्वास रखते हैं। २ aamanardanamananews MAAma MASUAAJA HI समाचार्यप्रवरआन प्राआनन्द आधाआडन्दा अन्य www NNAwnoarnewmarnew Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . جميع KAAdaeaninanaMatkadAJAANNAR.RRRRRN २३४ धर्म और दर्शन कर्म का नियम नैतिकता के क्षेत्र में काम करने वाला कारण नियम ही है। इसका अर्थ यह है कि शुभ कर्म का फल अनिवार्यतः सुख होता है, और अशुभ कर्म का फल अनिवार्यतः अशुभ एवं दुःख होता है । अच्छा काम आत्मा में पुण्य उत्पन्न करता है, जो कि सुग्व-भोग का कारण बनता है । बुरा काम आत्मा में पाप उत्पन्न करता है जो कि दुःख-भोग का कारण बनता है। सुख और दुःख क्रमशः शुभ और अशुभ कर्मों के अनिवार्य फल हैं। इस नैतिक नियम की पकड़ से कोई भी छूट नहीं सकता । शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म सूक्ष्म संस्कार छोड़ जाते हैं, जो निश्चय ही भावी सुख-दुःख के कारण बनते हैं। वे अवश्य ही समय आने पर अपने फल को उत्पन्न करते हैं। इन फलों का भोग इस जन्म में अथवा भविष्य में किया जाता है, अथवा आगामी जन्मों में किया जाता है। कर्म के नियम के कारण ही आत्मा को इस संसार में जन्म और मरण करना पड़ता है । जन्म और मरण का कारण कर्म ही है। कर्म के नियम का बीज-रूप सर्व प्रथम ऋग्वेद की ऋतधारा में उपलब्ध होता है। ऋत का अर्थ है-जगत की व्यवस्था एवं नियम । प्रकृति की प्रत्येक घटना अपने नियम के अनुसार ही होती है । प्रकृति के ये नियम ही ऋत हैं। आगे चलकर ऋत की धारणा में मनुष्य के नैतिक नियमों की व्यवस्था का भी समावेश हो गया था। उपनिषदों में भी इस प्रकार के विचार हमें बीज रूप में अथवा सूक्ष्म रूप में उपलब्ध होते हैं। कुछ उपनिषदों में तो कर्म के नियम की नैतिक नियम के रूप में स्पष्ट धारणा की है। मनुष्य जैसा बोता है, वैसा ही काटता है । अच्छे-बुरे कर्मों का फल अच्छेबुरे रूप में मिलता है। शुभ कर्मों से अच्छा चरित्र बनता है, और अशुभ कर्मों से बुरा । फिर अच्छे चरित्र से अच्छा जन्म मिलता है और बुरे चरित्र से बुरा । उपनिषदों में कहा गया है कि मनुष्य शुभ कर्म करने से धार्मिक बनता है, और अशुभ कर्म करने से पापात्मा बनता है। संसार जन्म और मृत्यु का एक अनन्त चक्र है । मनुष्य अच्छे काम करके अच्छा जन्म पा सकता है, और अन्त में भेद-विज्ञान के द्वारा संसार से मुक्त भी हो सकता है। जैन-आगम में कर्मवाद के शाश्वत नियमों को स्वीकार किया गया है। बौद्ध-दर्शन में (बौद्ध पिटकों में) भी कर्मवाद की मान्यता स्पष्ट रूप से नजर आती है । अतः बौद्ध-दर्शन भी कर्मवादी-दर्शन रहा है। न्याय-वैशेषिक,सांख्य-योग, मीमांसा और वेदान्त-दर्शन में कर्म के नियम में आस्था व्यक्त की गई है। इन दर्शनों का विश्वास है कि अच्छे अथवा बुरे काम अदृष्ट को उत्पन्न करते हैं, जिसका विपाक होने में कुछ समय लगता है। उसके बाद उस व्यक्ति को सुख या दुःख भोगना पड़ता है। कर्म का फल कुछ तो इसी जीवन में और कुछ अगले जीवन में । लेकिन कर्म के फल से कभी बचा नहीं जा सकता। भौतिक व्यवस्था पर कारण-नियम का शासन है और नैतिक व्यवस्था पर कर्म के नियम का शासन रहता है । परन्तु भौतिक व्यवस्था भी नैतिक व्यवस्था के ही उद्देश्य की पूर्ति करती है। इस प्रकार यह देखा जाता है कि भारतीय दर्शनों की प्रत्येक शाखा ने कर्मवाद के नियमों को स्वीकार किया है, और उसकी परिभाषा एवं व्याख्या भी अपनी-अपनी पद्धति से की है। भारतीय-दर्शनों में परलोकवाद जब भारतीय-दर्शनों में आत्मा को अमर मान लिया गया, और मंसारी अवस्था में उसमें सुख एवं दुःख मान लिया गया, तब यह आवश्यक हो जाता है, कि सुख और दुःख को मुल आधार भी माना जाए। और वह मूल आधार कर्मवाद के रूप में भारतीय-दर्शन ने स्वीकार किया। वर्तमान जीवन में आत्मा किस रूप में रहता है ? और उसकी स्थिति क्या होती है, इस समस्या में से ही परलोकवाद का जन्म हुआ। परलोकवाद को जन्मान्तरवाद भी कहा जाता है । एक चार्वाकदर्शन को छोड़कर शेप सभी भारतीय-दर्शनों का परलोकवाद--यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय दर्शन के सामान्य सिद्धान्त २३५ परलोकवाद अथवा जन्मान्तरवाद कर्मवाद के सिद्धान्त का फलित रूप हैं। कर्म का सिद्धान्त यह मांग करता है कि शुभ कर्मों का शुभ फल मिले और अशुभ कर्मों का अशुभ फल मिले। लेकिन सभी कर्मों का फल इसी जन्म में मिलना संभव नहीं है। अतः कर्मफल को भोगने के लिए दूसरा जीवन या जन्म आवश्यक है। भारतीय-दर्शन के अनुसार यह संसार जन्म और मरण की अनादि शृंखला है । इस जन्ममरण का कारण क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में सांख्य-दर्शन में कहा गया है कि प्रकृति और पुरुष का भेद-ज्ञान न होना ही इसका कारण है। न्याय और वैशेषिक-दर्शन में कहा गया कि जन्म और मरण का कारण जीव का अज्ञान ही है । वेदान्त-दर्शन में कहा गया कि अविद्या अथवा माया ही इसका मुख्य कारण है। बौद्ध-दर्शन में कहा गया, कि वासना के कारण ही जन्म-मरण होता है। जैन-दर्शन में कहा गया कि कर्म-बद्ध संसारी आत्मा का जो बार-बार जन्म-मरण होता है, उसके पाँच कारण हैं.-१. मिथ्यात्व-भाव, २. अविरति, ३. प्रमाद, ४. कषाय तथा ५. शुभ और अशुभ योग । सामान्य भाषा में जब तत्त्व-ज्ञान से अज्ञान का नाश हो जाता है तब संसार का भी अन्त आ जाता है। भारतीय-दर्शनों में भी कहा गया है, कि संसार एक बन्धन है, इस बन्धन का आत्यन्तिक नाश आत्मा के शुद्ध स्वरूप-मोक्ष-से ही होता है। बन्धन का कारण अज्ञान है और इसीसे संसार की उत्पत्ति होती है। इसके कारण मोक्ष का कारण तत्त्व-ज्ञान है। तत्त्व-ज्ञान के हो जाने पर संसार का भी अन्त हो जाता है। इस प्रकार तत्त्व-ज्ञान और उसका विपरीत भाव अज्ञान, अविद्या, माया, वासना और कर्म को माना गया है। जन्मान्तर, भवान्तर, पुनर्जन्म और परलोक का अर्थ है-मृत्यु के बाद आत्मा का दूसरा शरीर धारण करना। चार्वाक-दर्शन ने यह माना था कि शरीर के विनाश के साथ चेतन-शक्ति का भी विनाश हो जाता है। परन्तु आत्मा की अमरता में विश्वास करने वाले दार्शनिकों का कहना है कि शरीर के नाश होने से आत्मा का नाश नहीं होता। इस वर्तमान शरीर के नष्ट होने पर भी आत्मा बना रहता है, और पूर्वकृतकर्मों का फल भोगने के लिए आत्मा को दूसरा जन्म धारण करना पड़ता है। दूसरा जन्म ग्रहण करना ही पुनर्जन्म कहा जाता है। पशु, पक्षी, मनुष्य, देव और नारक आदि अनेक प्रकार के जन्म ग्रहण करना यह संसारी आत्मा का आवश्यक परिणाम है। आत्मा अनेक जन्म तभी ग्रहण कर सकता है जब वह नित्य और अविच्छिन्न हो। सभी आस्तिकदर्शन आत्मा की नित्यता को स्वीकार करते हैं। चार्वाक-दर्शन शरीर, प्राण अथवा मन से भिन्न आत्मा जैसी नित्य वस्तु को स्वीकार नहीं करता। अतः उसके मत में जन्मान्तर अथवा पुनर्जन्म जैसी वस्तु मान्य नहीं है। बौद्ध-दार्शनिक आत्मा को क्षणिक विज्ञानों की एक सन्तति मात्र मानते हैं। उनके अनुसार आत्मा क्षण-क्षण में बदलता है। जो आत्मा पूर्व क्षण में था, वह उत्तर क्षण में नहीं रहता। इस प्रकार नदी के प्रवाह के समान वे चित्त-सन्तति के प्रवाह को स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि आत्मा की सन्तति नित्य प्रवहमान रहती है। इस प्रकार क्षणिकता को स्वीकार करने पर भी वे जन्मान्तर और पुनर्जन्म को भी स्वीकार करते हैं। उनकी मान्यता के अनुसार एक विज्ञान सन्तान का अन्तिम विज्ञान सभी पूर्व विज्ञानों की वासनाओं को आत्मसात् करता है, और एक नया शरीर धारण कर लेता है। बौद्ध पत के अनुसार वासना को संस्कार भी कहा गया है। इस प्रकार बौद्धदार्शनिक आत्मा की नित्यता तो नहीं मानते, लेकिन विज्ञान-सन्तान की अविच्छन्नता को अवश्य ही स्वीकार करते हैं। जैन-दार्शनिक आत्मा को केवल नित्य नहीं, परिणामी-नित्य मानते हैं। आत्मा द्रव्यदृष्टि आपाप्रaa आचार्य आजम YG श्राआनन्दग्रन्थ श्राआनन्दग्रन्थ ॐ arenmonaarinaamanarmadanaanindravinAmAhmarnatrinamainamaraGwADRI ranwwwwwverharwwwwvvviews Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAJAananamaARAVAAAAAAdam a narsindan. Ata..' साअभाप्रवर अभिनय प्राआनन्दग्रन्थ श्राआनन्दा अन्य २३६ धर्म और दर्शन से नित्य है, और पर्यायदृष्टि से अनित्य । क्योंकि पर्याय प्रतिक्षण बदलता रहता है। इस बदलने पर भी द्रव्य का द्रव्यत्व कभी नष्ट नहीं होता। जैन-दार्शनिक पुनर्जन्म को स्वीकार करते हैं। क्योंकि प्रत्येक आत्मा अपने कर्मों के अनुसार अनेक गति एवं योनियों को प्राप्त होती रहती है। जैसेकोई एक आत्मा जो आज मनुष्य शरीर में है, भविष्य में वह अपने शुभ या अशुभ कर्मों के अनुसार देव और नारक भी बन सकता है। एक जन्म के बाद दूसरे जन्म को धारण करना इसी को जन्मान्तर या भवान्तर कहा जाता है। इस प्रकार समस्त भारतीय-दार्शनिक परम्पराएँ पुनर्जन्म को स्वीकार करती हैं। भारतीय-दर्शन में मोक्ष एवं निर्वाण आस्तिक-दार्शनिकों के सामने यह प्रश्न उपस्थित हआ कि क्या कभी आत्मा की इस प्रकार की भी स्थिति होगी कि उसका पुनर्जन्म अथवा जन्मान्तर मिट जाए? इस प्रकार के उत्तर में उनका कहना है कि मोक्ष, मुक्ति अथवा निर्वाण ही वह स्थिति है, जहां पहुंचकर आत्मा का जन्मान्तर या पुनर्जन्म मिट जाता है। यही कारण है, कि आत्मा की अमरता में आस्था रखने वाले आस्तिक दर्शनों ने मोक्ष की स्थिति को एक स्वर से स्वीकार किया है। चार्वाक-दर्शन का कहना है. कि मरण ही अपवर्ग अथवा मोक्ष है। मोक्ष का सिद्धान्त सभी भारतीय-दर्शनों को मान्य है। भौतिकवादी होने के कारण एक चार्वाक ही उसको स्वीकार नहीं करता। क्योंकि वह आत्मा की शरीर से भिन्न सत्ता नहीं मानता । अतः उसके दर्शन में आत्मा के मोक्ष का प्रश्न नहीं उठता। चार्वाक की दृष्टि में इस जीवन में अथवा इसी लोक में सुख भोग करना मोक्ष है। इससे भिन्न इस प्रकार के मोक्ष की कल्पना वह नहीं कर सकता, जिसमें आत्मा एक लोकातीत अवस्था को प्राप्त हो जाता है। बौद्ध-दर्शन में आत्मा की इस लोकातीत अवस्था को मोक्ष न कहकर निर्वाण कहा गया है। यद्यपि निर्वाण शब्द जैन-ग्रन्थों एवं जैन-आगमों में भी बहुलता से उपलब्ध होता है, फिर भी इस का प्रयोग बौद्ध-दर्शन में ही अधिक रुढ़ है। बौद्ध-दर्शन के अनुसार निर्वाण शब्द सब दुःखों के आत्यन्तिक उच्छेद की अवस्था को अभिव्यक्त करता है। निर्वाण शब्द का अर्थ है-बुझ जाना। लेकिन इससे यह नहीं समझना चाहिए कि निर्वाण में आत्मा का आत्यन्तिक विनाश हो जाता है। बौद्ध-दर्शन के अनुसार इसमें आत्यन्तिक विनाश तो अवश्य होता है लेकिन दुःख का होता है, न कि आत्म-सन्तति का। कुछ बौद्ध-दार्शनिक निर्वाण को विशुद्ध आनन्द की अवस्था मानते हैं। इस प्रकार बौद्ध-दर्शन क्षणिकवादी होकर भी जन्मान्तर और निर्वाण को स्वीकार करता है। जैन-दार्शनिक प्रारम्भ से ही मोक्षवादी रहे हैं। अनन्त-दर्शन, अनन्त-ज्ञान, अनन्तसुख और अनन्त-शक्ति का प्रकट होना ही मोक्ष है। आत्मा अपनी विशुद्ध अवस्था को तब प्राप्त करता है, जबकि वह सम्यक्-दर्शन (श्रद्धा) सम्यक्-ज्ञान, और सम्यक्-चारित्र की साधना के द्वारा कर्म-पुदगल के आवरण को सर्वथा नष्ट कर देता है। जैन-परम्परा के महान् अध्यात्मवादी आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने समयसार ग्रन्थ में आत्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है-“एक व्यक्ति लम्बे समय से कारागृह में पड़ा हो, और अपने बन्धन की तीव्रता एवं मन्दता को तथा बन्धन के काल को भली-भांति समझता हो, परन्तु जब तक वह अपने बन्धन के वश होकर उसका छेदन करने का प्रयत्न नहीं करता, तब तक लम्बा समय व्यतीत हो जाने पर भी वह छूट नहीं सकता। इसी प्रकार कोई मनुष्य अपने कर्मबन्ध का प्रदेश, स्थिति, प्रकृति और अनुभाग को भली-भांति समझता हो, तो भी इतने मात्र से वह कर्म-बन्धन से मुक्त-उन्मुक्त नहीं हो सकता। वही आत्मा यदि राग एवं द्वेष आदि को हटाकर विशुद्ध हो जाए, तब मोक्ष प्राप्त कर सकता है । बन्धन का विचार Nrn Urr Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय दर्शन के सामान्य सिद्धान्त २३७ 圖 करने मात्र से बन्धन से छुटकारा नहीं मिलता है। छुटकारा पाने के लिए बन्ध को, और आत्मा के स्वभाव को भली-भांति समझकर बन्धन से विरक्त होना चाहिए। जीव और बन्ध के अलगअलग लक्षण समझकर प्रज्ञा रूपी छुरी से उन्हें अलग करना चाहिए, तभी बन्धन से छूटता है । बन्ध को छेद कर क्या करना चाहिए । आत्म-स्वरूप में स्थित होना चाहिए। आत्मस्वरूप को किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए ? इस के उत्तर में कहा गया है कि मुमुक्षु को आत्मा का इस प्रकार विचार करना चाहिए-मैं चेतन स्वरूप हूं, मैं दृष्टा हूँ, मैं ज्ञाता हूँ, शेष जो कुछ भी है, वह मुझसे भिन्न है। शुद्ध आत्मा को समझने वाला व्यक्ति समस्त पर-भावों को परकीय जानकर उनसे अलग हो जाता है। यह पर-भाव से अलग हो जाना ही वास्तविक मोक्ष है।" इस प्रकार जैन-दर्शन में मोक्ष के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। जैन-दर्शन में विशुद्ध आत्म-स्वरूप को प्रकट करने को ही मोक्ष कहा गया है। साँख्य-दर्शन मोक्ष को प्रकृति और पुरुष का विवेक मानता है। विवेक एक प्रकार का भेद-विज्ञान है । इसके विपरीत बन्ध प्रकृति और पुरुष का अविवेक है । पुरुष नित्य और मुक्त है। अपने अविवेक के कारण वह प्रकृति और उसके विकारों से अपना तादात्म्य मान लेता है। शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और अहंकार-ये सब प्रकृति के विकार हैं, लेकिन अविवेक के कारण पुरुष इन्हें अपना समझ बैठता है। मोक्ष पुरुष की स्वाभाविक अवस्था की प्राप्ति है। बन्ध एक प्रतीति मात्र है, और इसका कारण अविवेक है। योग-दर्शन मोक्ष को आत्मा का कैवल्य मानता है। कैवल्य आत्मा के प्रकृति के जाल से छूट जाने की एक अवस्था-विशेष है । आत्मा को इस अवस्था की प्राप्ति तब होती है, जब तप और संयम के द्वारा मन से सब कर्म-संस्कार निकल जाते हैं । सांख्य और योग मोक्ष में पुरुष की चिन्मात्र अवस्थिति मानते हैं। इस अवस्था में वह सुख और दुःख से सर्वथा अतीत हो जाता है। क्योंकि सुख और दुःख तो बुद्धि की वृत्तियां मात्र हैं। इन वृत्तियों का आत्यन्तिक अभाव ही सांख्य और योग-दर्शन में मुक्ति है। न्याय और वैशेषिक-दर्शन मोक्ष को आत्मा की वह अवस्था मानते हैं, जिसमें वह मन और शरीर से अत्यन्त विमुक्त हो जाता है, और सत्ता मात्र रह जाता है। मोक्ष आत्मा की अचेतन अवस्था है, क्योंकि चैतन्य तो उसका एक आगन्तुक धर्म है, स्वरूप नहीं। जब आत्मा का शरीर और मन से संयोग होता है तभी उसमें चैतन्य का उदय होता है। अतः मोक्ष की अवस्था में इन से वियोग होने पर चैतन्य भी चला जाता है। मोक्ष की प्राप्ति तत्त्व-ज्ञान से होती है। यह दुःख के आत्यन्तिक उच्छेद की अवस्था है। मीमांसा-दर्शन में भी मोक्ष को आत्मा की स्वाभाविक अवस्था की प्राप्ति माना गया है, जिसमें सुख और दुःख का अत्यन्त विनाश हो जाता है । अपनी स्वाभाविक अवस्था में आत्मा अचेतन होता है। मोक्ष दुःख के आत्यन्तिक अभाव की अवस्था है। लेकिन इसमें आनन्द की अनुभूति नहीं होती। आत्मा स्वभावतः सुख और दुःख से अतीत है। मोक्ष की अवस्था में ज्ञानशक्ति तो रहती है, परन्तु ज्ञान नहीं रहता। ___ अद्वैत वेदान्त मोक्ष को जीवात्मा और ब्रह्म के एकीभाव की उपलब्धि मानता है। क्योंकि परमार्थतः आत्मा ब्रह्म ही है । आत्मा विशुद्ध, सत्, चित् और आनन्दस्वरूप है। बन्ध मिथ्या है। अविद्या एवं माया ही इसका कारण है। आत्मा अविद्या के कारण शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि AGO १ समयसार, २८८-३०० SHABANAADAAVAKAMALAIJANATALAawsNKawasaveDAOORNAMJABADAINJALAAJAANANAGALASALARAJJAAAAAAAADALA ramananआचार्यप्रभागात SNIC प्राजालन्याआ अभि - साथ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A waaJANWRMANPRAIAAAAJAJARKAAAAAAAJAANJadaiadAJANAADABADASANATASAN आचार्यप्रकाआचार्यप्रसा श्रIEIGथाआनन्दमाश २३८ धर्म और दर्शन और अहंकार के साथ अपना तादात्म्य कर लेता है, जो कि माया निर्मित है । वेदान्त-दर्शन के अनसार यही मिथ्या तादात्म्य बन्ध का कारण है। अविद्या से आत्मा का बन्धन होता है, और विद्या से इस बन्धन की निवृत्ति होती है । मोक्ष आत्मा की स्वाभाविक अवस्था है। यह न चैतन्य रहित अवस्था है, और न दुःखाभाव मात्र की अवस्था है, बल्कि सत्, चित् और आनन्द की ब्रह्म अवस्था है। यही जीवात्मा के ब्रह्मभाव की प्राप्ति है। इस प्रकार मोक्ष की धारणा समस्त भारतीय-दर्शनों में उपलब्ध होती है। वास्तव में मोक्ष की प्राप्ति दार्शनिक चिन्तन का लक्ष्य रहा है। भारत के सभी दर्शनों में इसके स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, और अपनी-अपनी पद्धति से प्रत्येक दार्शनिक ने उसकी व्याख्या की है। उपसंहार भारतीय दर्शनों में जिन तथ्यों का निरूपण किया गया है, उन सब का जीवन के साथ निकट का सम्बन्ध रहा है। भारतीय-दार्शनिकों ने मानव जीवन के समक्ष ऊँचे-से-ऊँचे आदर्श प्रस्तुत किए हैं। वे आदर्श केवल आदर्श ही नहीं रहते, उन्हें जीवन में उतारने का प्रयत्न भी किया जाता है। इस के लिए विभिन्न दार्शनिकों ने विभिन्न प्रकार की साधनाओं का भी प्रतिपादन किया है। ये साधन तीन प्रकार के होते हैं-ज्ञान-योग, कर्म-योग, और भक्ति-योग। जैन-दर्शन में इन्हीं को रत्न-वय-सम्यक्-दर्शन सम्यक्-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र कहा जाता है। बौद्ध-दर्शन में इन्हें प्रज्ञा, शील और समाधि कहा है। इन तीनों की साधना से प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में उच्च से उच्चतर एवं उच्चतम आदर्शों को प्राप्त कर सकता है । दर्शन का सम्बन्ध केवल बुद्धि एवं तर्क से ही नहीं, बल्कि हृदय एवं क्रिया से भी उसका सम्बन्ध है। यही कारण है कि भारतीय दर्शन की परम्परा के प्रत्येक दार्शनिक-सम्प्रदाय ने श्रद्धान, ज्ञान और आचरण पर बल दिया है। भारतीय दर्शन एवं चिन्तन केवल बौद्धिक-विलास मात्र नहीं है, अपितु वह जीवन की वास्तविक एवं यथार्थ स्थिति का प्रतिपादन भी करता है । अतः वह वास्तविक अर्थ में दर्शन है। RANIA प्रानन्द-वचनामृत ऊपर की दिखावट वास्तविकता की निर्णायक नहीं होती, भैस देखने में काली होती है किन्तु उसका दूध सफेद होता है। इसी प्रकार सज्जन पुरुप-चाहे जैसी मैली वेशभूषा में हों, उनके हृदय में सदा दूध की भांति स्निग्धता भरी रहती है। अध्यात्म के पथ पर चलना नारियल के वृक्ष पर चढ़ना है। नारियल के पेड़ पर बढ़ते समय पग-पग पर फिसलने का भय बना रहता है, किन्तु चढ़ने वाले अभ्यास द्वारा निर्विघ्न चढ़ जाते हैं। इसी प्रकार साधक अभ्यास द्वारा अपने कठोर साधना पथ पर निविघ्न चलते हुए लक्ष्य तक पहुंच जाते हैं। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन में अजीव तत्त्व 0 माने गए हैं । (१) जीव, (२) अजीव, (४) संवर ( ५ ) निर्जरा, (६) बंध और और पाप मिलाने से नौ पदार्थ हो जाते जैनदर्शन में षद्रव्य, साततत्त्व और नौ पदार्थ ( धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल ) (३) आश्रव, (७) मोक्ष ये सात तत्व माने हैं। इन सात तत्वों में पुण्य है। नौ पदार्थ को संक्षेप में दो भागों में विभक्त कर सकते हैं जीव और अजीव । जीव का प्रतिपक्षी अजीव है । " जीव चेतनायुक्त है, वह ज्ञान, दर्शन आदि उपयोग लक्षणवाला है तो अजीव अचेतन है। शरीर में जो ज्ञानवान पदार्थ है, जो सभी को जानता है, देखता है और उपयोग करता है, वह जीव है जिसमें चेतना गुण का पूर्ण रूप से अभाव हो, जिसे सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती है, वह अजीव द्रव्य है । 3 । ४ अजीव द्रव्य के दो भेद हैं---रूपी और अरूपी । पुद्गल रूपी है, शेष धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार अरूपी हैं । आगम साहित्य में रूपी के लिए मूर्त और अरूपी के लिए अमूर्त शब्द का प्रयोग हुआ है । पुद्गल द्रव्य मूर्त है और शेष चार अमुर्त है । ५ श्री पुष्कर मुनिजी | जैन आगम एवं दर्शनशास्त्र के गम्भीर विद्वान, ओजस्वी प्रवक्ता, शिक्षा एवं समाज सुधार में विशेष रुचि; श्रमण संघ के वरिष्ठ मुनि ।] आकाश द्रव्य में पाँचों अजीव द्रव्य और एक जीव द्रव्य ये छहों एक ही क्षेत्र को अवगाह कर परस्पर एक दूसरे से मिले हुए रहते हैं किन्तु छहों द्रव्यों का अपना-अपना अस्तित्व है । सभी द्रव्य अपने आप में अवस्थित हैं। तीन काल में जीव कभी अजीव नहीं होता और अजीव जीव नहीं होता । 'पद्रव्य एक दूसरे में प्रवेश करते हैं, परस्पर अवकाश देते हैं, सदा काल मिलते रहते हैं। तथापि अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते। अजीव द्रव्य का विवेचन अन्य दार्शनिकों ने उतना नहीं १ स्थानांग २ | १।५७ २ पंचास्तिकाय २।१२२ ३ ४ ५ पंचास्तिकाय २।१२४-१२५ (क) उत्तराध्ययन ३६।४ (ख) समवायांग १४६ (क) उत्तराध्ययन ३६।६ (ख) भगवती १८।७-७।१० ६ पञ्चास्तिकाय १1७ DD ॐ आय व अभिनंदन श्री आनन्द अन्थ 99 श्री आनन्दन ग्रन्थ 99 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआनन्द अन्नाआना आ wririyarwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwNYOOVir oin २४० धर्म और दर्शन किया जितना जैन दर्शन ने किया है। अजीव द्रव्य, प्रकृति, पुद्गल, जड़, असत्, अचेतन, मैटर नाम से जाना-पहचाना जाता है। अस्तिकाय षद्रव्यों में से जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश इन पाँच को अस्तिकाय कहते हैं । कालद्रव्य अस्तिकाय नहीं है । अस्ति-काय यह एक यौगिक शब्द है। अस्ति का अर्थ प्रदेश है और काय का अर्थ समुह है। जो अनेक प्रदेशों का समूह है वह अस्तिकाय है। दूसरी परिभाषा इस प्रकार है 'अस्ति, अर्थात् जिसका अस्तित्व है और काय के समान जिसके प्रदेश हैं और जिसके प्रदेश बहुत हैं वह अस्तिकाय है।' जीव, धर्म अधर्म, असंख्यात प्रदेशी हैं । आकाश के प्रदेश अनन्त हैं। काल द्रव्य का अस्तित्व तो है पर बहुप्रदेशी न होने से उसे अस्तिकाय में नहीं लिया है। एक अविभागी पुद्गल परमाणु जितने आकाश को स्पर्श करता है उतने को प्रदेश कहते हैं । पुद्गल द्रव्य न्याय-वैशेषिक जिसे भौतिक तत्व कहते हैं, विज्ञान जिसे मेटर कहता है, उसे ही जैनदर्शन ने पुद्गल कहा है। बौद्ध साहित्य में 'पुद्गल' शब्द 'आलयविज्ञान', 'चेतनासंतति,' के अर्थ में व्यवहृत हुआ है। भगवती में अभेदोपचार से पुद्गलयुक्त आत्मा को पुद्गल कहा है ।१० पर मुख्य रूप से जैन साहित्य में पुद्गल का अर्थ 'मूर्तिक द्रव्य' है, जो अजीव है। अजीव द्रव्यों में पुद्गल द्रव्य विलक्षण है। वह रूपी, मूर्त है उसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण पाये जाते हैं। पुद्गल के सूक्ष्म से सूक्ष्म परमाणु से लेकर बड़े से बड़े पृथ्वी स्कंध तक में मूर्त गुण पाये जाते हैं।" इन चारों गुणों में से किसी में एक, किसी में दो और किसी में तीन गुण हों ऐसा नहीं हो सकता। चारों ही गुण एक साथ रहते हैं। यह सत्य है कि किसी में एक गुण की प्रमुखता होती है जिससे वह इन्द्रियगोचर हो जाता है और दूसरे गुण गौण होते हैं जो इन्द्रियगोचर नहीं हो पाते हैं। इन्द्रिय अगोचर होने से हम किसी गुण का अभाव नहीं मान सकते । आज का वैज्ञानिक 'हायड्रोजन और नायट्रोजन को वर्ण, गंध और रसहीन मानते हैं, यह कथन गौणता को लेकर है। दूसरी दृष्टि से इन गुणों को सिद्ध कर सकते हैं। जैसे 'आमोनिया' में एकांश हायड्रोजन और तीन अंश नायट्रोजन रहता है। आमोनिया में गंध और रस ये दो गुण हैं। इन दोनों गुणों की नवीन उत्पत्ति नहीं मानते चूंकि यह सिद्ध है कि असत् की कभी भी उत्पत्ति नहीं हो सकती और सत् का कभी नाश नहीं हो सकता, इसलिए जो गुण अणु में होता है वही स्कंध में आता है। हायड्रोजन और नायट्रोजन ७ (क) स्थानांग ४।१११२५ (ख) तत्वार्थसूत्र ५॥१ (ग) द्रव्यसंग्रह २३ ८ भगवती पृ० २३८ है (क) द्रव्यसंग्रह २४ (ख) प्रवचनसारोद्धार २१४४ १० भगवती ८।१०।३६१ ११ (क) प्रवचनसारोद्धार २।४० (ख) तत्त्वार्थसूत्र अ. ५ (ग) सर्वार्थसिद्धि अ. ५, Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में अजीव तत्त्व २४१ के अंश से आमोनिया निर्मित हुआ है, इसलिए रस और गंध जो आमोनिया के गुण हैं वे गुण उस अंश में अवश्य ही होने चाहिए। जो प्रच्छन्न गुण थे वे उसमें प्रकट हुए हैं। पुद्गल में चारों गुण रहते हैं चाहे वे प्रकट हों या अप्रकट हों। पुद्गल तीनों कालों में रहता है, इसलिए सत् है । उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त है। जो अपने सत् स्वभाव का परित्याग नहीं करता, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से युक्त है और गुण पर्याय सहित है वह द्रव्य है।१२ व्यय के बिना उत्पाद नहीं होता, उत्पाद के बिना व्यय नहीं होता । उत्पाद और व्यय के बिना ध्रौव्य हो नहीं सकता । द्रव्य का एक पर्याय उत्पन्न होता है, दूसरा नष्ट होता है पर द्रव्य न उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है किन्तु सदा ध्रौव्य रहता है। आज का विज्ञान भी मानता है कि किसी भौतिक पदार्थ के परिवर्तन में जड़ पदार्थ कभी भी नष्ट नहीं होता और न उत्पन्न होता है। केवल उसका रूप बदलता है। मोमबत्ती के उदाहरण से इस बात को स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं। सभी पुद्गल परमाणुओं से निर्मित हैं। यह परमाणु सूक्ष्म और अविभाज्य हैं । तत्त्वार्थराजवार्तिक में परमाणु का लक्षण और उसके विशिष्ट गुण इस प्रकार बताए हैं-१३ (१) सभी पुद्गल स्कंध परमाणुओं से निर्मित हैं और परमाणु पुद्गल के सुक्ष्मतम __ अश हैं। (२) परमाणु नित्य, अविनाशी, सूक्ष्म है। (३) परमाणुओं में रस, गंध, वर्ण और दो स्पर्श--स्निग्ध या रूक्ष, शीत या उष्ण होते हैं। (४) परमाणु का अनुमान उससे निर्मित स्कन्ध से लगा सकते हैं। जैन दृष्टि से कितने ही पुद्गल-स्कंध संख्यात प्रदेशों के, कितने ही असंख्यात प्रदेशों के और कितने ही अनंत प्रदेशों के होते हैं। सब से बड़ा स्कंध अनन्त प्रदेशी होता है और सब से लघु स्कन्ध द्विप्रदेशी होता है। अनन्त प्रदेशी स्कंध एक प्रदेश में भी समा सकता है, वही स्कंध सम्पूर्ण लोक में भी व्याप्त हो सकता है। पुद्गल परमाणु लोक में सभी जगह है । १४ पुद्गल परमाणु की गति का वर्णन करते हुए कहा है कि वह एक समय में लोक के पूर्व अन्त से पश्चिम अन्त, पश्चिम अन्त से पूर्व अन्त, दक्षिण अन्त से उत्तर अन्त और उत्तर अन्त से दक्षिण अन्त में जा सकता है । १५ पुद्गल स्कंधों की स्थिति न्यून-से-न्यून एक समय और अधिक से अधिक असंख्यात काल तक है ।१६ स्कन्ध और परमाणु संतति की दृष्टि से अनादि-अनन्त हैं और स्थिति की दृष्टि से सादि-सान्त हैं ।१७। पुद्गल के दो भेद हैं-अणु और स्कन्ध ।१८ स्कन्ध के (१) स्थूल-स्थूल, (२) स्थूल (३) सूक्ष्म-स्थूल, (४) स्थूल-सूक्ष्म, (५) सूक्ष्म (६) सूक्ष्म-सूक्ष्म, ये छह भेद हैं। काया या १२ प्रवचन सारोद्धार २।१।११ १३ तत्त्वार्थ राजवार्तिक अ. ५, सूत्र २५ १४ उत्तराध्ययन ३६।११ १५ भगवती०१८।११ १६ भगवती० ॥७ उत्तराध्ययन ३६।१३ १८ अणवः स्कन्धाश्च -तत्त्वार्थसूत्र अ. ५ आचारसत्रआयाम Monocract श्रीआनन्दअन्य श्रीआनन्दगन्धर miwwwWVIVITIWAY Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दत्र ग्रन्थ २४२ धर्म और दर्शन CHAPORID च अणुओं के संघात को स्कन्ध कहते हैं । स्कंध के जो छह भेद बताए हैं उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है श्री आनन्द अन्थ (१) स्थूल - स्थूल - ठोस पदार्थों को इस वर्ग में रखा गया है। जैसे लकड़ी, पत्थर, धातुएं आदि । स्थूल - इसमें द्रवणशील पदार्थ आते हैं । जैसे जल, केरोसिन, दूध आदि । (३) सूक्ष्म - स्थूल - इसमें वायु आती है । (४) स्थूल सूक्ष्म -- इसमें प्रकाश, ऊर्जा शक्ति का समावेश किया है। जैसे प्रकाश, छाया, तम । (५) सूक्ष्म - हमारे विचारों और भावों का प्रभाव इन पर पड़ता है । इनका प्रभाव अन्य पुद्गलों तथा हमारी आत्मा पर पड़ता है । जैसे कर्म वर्गणा । (६) सूक्ष्म सूक्ष्म - अतिसूक्ष्म अणु का समावेश होता है। विद्युतणु, विद्युत्कण आदि । जैन दार्शनिकों ने प्रकृति और ऊर्जा को पुद्गल पर्याय माना है। विज्ञान भी यही मानता है । छाया, तम, शब्द आदि पुद्गल के पर्याय हैं । १६ अन्धकार और प्रकाश का लक्षण अभावात्मक न मानकर दृष्टि- प्रतिबंधकारक व विरोधी माना है । २० आधुनिक विज्ञान भी प्रकाश के अभाव रूप को अन्धकार नहीं मानता । अन्धकार पुद्गल की पर्याय है । प्रकाश पुद्गल से पृथक उसका अस्तित्व है । छाया पुद्गल की ही एक पर्याय है। प्रकाश का निमित्त पाकर छाया होती है । प्रकाश को आप और उद्योत के रूप में दो भागों में विभक्त किया है । सूर्य का चमचमाता उष्ण प्रकाश 'आप' है और चन्द्रमा, जुगुनू आदि का शीत प्रकाश 'उद्योत' है । शब्द भी पौद्गलिक है । इस विराट् विश्व में जितने भी पुद्गल हैं वे सभी स्निग्ध और रूक्ष गुणों से युक्त परमाओं के बंध से पैदा होते हैं। सभी पुद्गल का रचनातत्त्व एक ही प्रकार का होता है । रचना तत्व की दृष्टि से सभी पुद्गल एक ही प्रकार के हैं । २१ पुद्गलद्रव्य, स्कन्ध में अणु चालित क्रियाशील होते हैं । २२ इस क्रिया का प्ररूपण दो विभागों में विभक्त किया जा सकता है (१) विस्रसा क्रिया और (२) प्रायोगिक क्रिया । विस्रसा क्रिया प्राकृतिक होती है और प्रयोगनिमित्ता क्रिया बाह्य निमित्त से पैदा होती है । परमाणु और स्कंध के बंध तीन प्रक्रियाओं से उत्पन्न होते हैं (१) भेद, (२) संघात, (३) भेद-संघात । भेद का अर्थ है स्कंध में से कुछ परमाणु विघटित हों और दूसरे में मिल जायें । संघात का अर्थ है एक स्कन्ध के कुछ अणु दूसरे स्कन्ध के कुछ अणुओं के साथ संघटित हो । भेदसंघात का अर्थ है भेद और संघात प्रक्रिया का एक साथ होना । एक स्कन्ध के कुछ अणु दूसरे से मिलकर दोनों स्कंधों से समान रूप से सम्बद्ध रहें । संघात में संघटित होकर समान रूप से दोनों स्कंधों से सम्बद्ध रहने वाले अणु किसी भी स्कन्ध से विच्छिन्न नहीं होते । भेद-संघात में विघटित होकर संघटित रूप से रहते हैं । १६ सद्दो बंधो 'दब्वस्स पज्जाया । — द्रव्य संग्रह २० तमो दृष्टिः प्रतिबंधकारणं प्रकाश विरोधी । —सर्वार्थसिद्धि २१ ( क ) तत्त्वार्थ सूत्र ५।२६-३३ (ख) सर्वार्थ सिद्धि अ. ५, सूत्र २४ २२ गोम्मटसार गा० २६२ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में अजीव तत्त्व २४३ भेद का एक और अन्य प्रकार है । वह है पुद्गल गलन की प्रक्रिया । बाह्य और आभ्यन्तर कारणों से स्कन्ध का गलन या विदारण होना भेद है। पुद्गल वह है जिसमें पूरण और गलन ये दोनों संभव हों । इसलिए एक स्कन्ध दूसरे स्निग्ध-रूक्ष गुण युक्त स्कन्ध से मिलता है वह पूरण है । एक स्कन्ध से कुछ स्निग्ध, रूक्ष गुणों से युक्त परमाणु विच्छिन्न होते हैं वह गलन है । पुद्गल अनन्त हैं और आकाश प्रदेश असंख्यात है । असंख्यात प्रदेशों में अनन्त प्रदेशों को किस प्रकार स्थान मिल सकता है ? इसका समाधान पूज्यपाद ने इस प्रकार किया है कि सूक्ष्म परिणमन और अवगाहन शक्ति के योग से परमाणु और स्कन्ध सूक्ष्म रूप में परिणत हो जाते हैं । सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र ने लिखा 'पुद्गल एक अविभाग परिच्छेद परमाणु आकाश के एक प्रदेश को घेरता है । उसी प्रदेश में अनन्तानन्त पुद्गल परमाणु भी स्थित हो सकते है । २३ परमाणु के विभाग नहीं होते पर उसमें सूक्ष्म परिणमन और अवगाहन शक्ति है । इन्हीं शक्तियों से असंभव भी संभव हो जाता है। पुद्गल परमाणु बहुत ही सूक्ष्म है, उसकी अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग है । वह तलवार के नोक पार आ सकता है, पर तलवार की तीक्ष्ण धार उसे छेद नहीं सकती, यदि छेद दे तो वह परमाणु ही नहीं है । २४ परमाणु के हिस्से नहीं होते । परमाणु परस्पर जुड़ सकते हैं और पृथक् हो सकते हैं किन्तु उसका अन्तिम अंश अखण्ड है । २५ वह शाश्वत, परिणामी, नित्य, सावकाश, स्कन्धकर्ता, भेत्ता भी है । २६ परमाणु कारण रूप है, कार्य रूप नहीं, वह अन्तिम द्रव्य है । २७ तत्व - संख्या में परमाणु की पृथक् परिगणना नहीं की गई है । वह पुद्गल का एक विभाग है । पुद्गल के परमाणु पुद्गल और नो परमाणु-पुद्गल, द्वयणुक आदि स्कन्ध, ये दो प्रकार हैं । जैन दार्शनिकों ने जो पुद्गल की सूक्ष्म विवेचना और विश्लेषणा की है वह अपूर्व है । कितने ही पाश्चात्य विचारकों का यह अभिमत है कि भारत में परमाणुवाद यूनान से आया है, पर यह कथन सत्य तथ्य से परे हैं। यूनान में परमाणुवाद का जन्मदाता डियोक्रिट्स ( ईस्वी पूर्व ४६० - ४७० ) था किन्तु उसके परमाणुवाद से जैनदर्शन का परमाणुवाद बहुत ही पृथक् है । मौलिकता की दृष्टि से वह सर्वथा भिन्न है । जैन दृष्टि से परमाणु चेतन का प्रतिपक्षी है, जब कि डेयोक्रिट्स के अभिमतानुसार आत्मा सूक्ष्म परमाणुओं का ही विकार है । कितने ही भारतीय विचारक परमाणुवाद को कणाद ऋषि की उपज मानते हैं किन्तु गहराई से व तटस्थ दृष्टि से चिन्तन करने पर सहज ज्ञात होता है कि वैशेषिक दर्शन का परमाणुवाद जैन- परमाणुवाद से पहले का नहीं है । जैन दार्शनिकों ने परमाणु के विभिन्न पहलुओं पर जैसा वैज्ञानिक प्रकाश डाला है वैसा वैशेषिकों ने नहीं । दर्शनशास्त्र के इतिहास में स्पष्ट रूप से लिखा जावदियं आयासं २४ भगवती ० ५।७ २५ भगवती० १।१० २६ पंचास्तिकाय १७७, ७८,८०, ८१ २७ कारणमेव तदन्त्यसूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणु । २३ - द्रव्य संग्रह CAM आसन्न श्री आनन्द अन्थर श्री आनन्द PYTYNYTVORENTO Sto श Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Maminimin aranAmAAJAAAAAAAAAAKAALANNeetAnandALANKAR damaddam+NAhemattARNALAR:04 २४४ धर्म और दर्शन है कि परमाणुवाद के सिद्धान्त को जन्म देने का श्रेय जैनदर्शन को ही मिलना चाहिए ।२८ उपनिषद् साहित्य में अण शब्द का प्रयोग हआ है किन्तु परमाणवाद का कहीं भी नाम नहीं है। वैशेषिकों का परमाणुवाद संभव है उतना पुराना नहीं है। जैन साहित्य में परमाणु के स्वरूप और कार्य का सूक्ष्मतम विवेचन किया है, वह आज के शोधकर्ता विद्यार्थी के लिए अतीव उपयोगी है। परमाणु का जैसा हमने पूर्व लक्षण बताया कि वह अछेद्य है, अभेद्य है, अग्राह्य है, किन्तु आज के वैज्ञानिक विद्यार्थी को परमाणु के उपलक्षणों में सहज सन्देह हो सकता है, क्योंकि विज्ञान के सूक्ष्म यंत्रों में परमाणु की अविभाज्यता सुरक्षित नहीं है। परमाणु यदि अविभाज्य न हो तो उसे परम-अणु नहीं कह सकते । विज्ञान-सम्मत परमाणु टूटता है, इससे हम इन्कार नहीं होते। जैन आगम अनुयोगद्वार में परमाणु के दो प्रकार बताए हैं-२६ १. सूक्ष्म परमाणु २. व्यावहारिक परमाणु सूक्ष्म परमाणु का स्वरूप वही है जो हमने पूर्व बताया है किन्तु व्यावहारिक परमाणु अनन्त सूक्ष्म परमाणुओं के समुदाय से बनता है।3° वस्तुवृत्या वह स्वयं परमाणु-पिंड है तथापि साधारण दृष्टि से ग्राह्य नहीं होता और साधारण अस्त्र-शस्त्र से तोड़ा नहीं जा सकता । उसकी परिणति सूक्ष्म होती है एतदर्थ ही उसे व्यवहाररूप से परमाणु कहा है। विज्ञान के परमाणु की तुलना इस व्यावहारिक परमाणु से होती है। इसलिए परमाणु के टूटने की बात एक सीमा तक जैनदृष्टि को भी स्वीकार है । पुद्गल के बीस गुण हैंस्पर्श-शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध, लघु, गुरु, मृदु, और कर्कश । रस--आम्ल, मधुर, कद, कषाय और तिक्त । गन्ध-सुगन्ध और दुर्गन्ध । वर्ण-कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत । यद्यपि संस्थान, परिमंडल, वृत्त, व्यंश, चतुरंश ___आदि पुद्गल में ही होता है तथापि वह उसका गुण नहीं है ।३१ सूक्ष्म परमाणु द्रव्य-रूप में निरवयव और अविभाज्य होते हुए भी पर्यायदृष्टि से उस प्रकार नहीं है । उसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श ये चार गुण और अनन्त पर्याय होते हैं । ३२ एक परमाणु में एक वर्ण, एक गंध, एक रस और दो स्पर्श (शीत, उष्ण, स्निग्ध-रूक्ष, इन युगलों में से एक-एक) होते हैं। पर्याय की दृष्टि से एक गुण वाला परमाणु अनन्त गुण वाला हो जाता है और अनन्त गुण वाला परमाणु एक गुण वाला है। एक परमाणु में वर्ण से वर्णान्तर, गन्ध से गन्धान्तर, रस से रसान्तर और स्पर्श से स्पर्शान्तर होना जैन-दृष्टि-सम्मत है । ३२ २८ दर्शनशास्त्र का इतिहास पृ० १२६ २६ परमाणु दुविहे पन्नते, तं जहा सुहमेय, ववहारियेय । -अनुयोगद्वार (प्रमाणद्वार) ३० अणंताणं सुहुमपरमाणु पोग्गलाणं समुदयसमिति समागयेणं ववहारिए परमाणु पोग्गले निफ्फज्जति । -अनुयोगद्वार (प्रमाणद्वार) ३१ भगवती० २५॥३ ३२ चउविहे पोग्गल परिणामे पन्नते, तं जहा-वण्णपरिणामे, गंधपरिणामे, रसपरिणामे, फासपरिणामे। -स्थानांग ४।१३५ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में अजीव तत्त्व २४५ Cale... N धर्म-अधर्म जैन साहित्य में धर्म और अधर्म शब्द का प्रयोग शुभाशुभ प्रवृत्ति के अर्थ में भी होता है और पृथक् अर्थ में भी । यहाँ पर दूसरा अर्थ विवक्षित है। धर्म द्रव्य गतितत्व और अधर्म द्रव्य स्थितितत्त्व के अर्थ में व्यवहृत हुआ है। भारत के अन्य दार्शनिकों ने इस पर चिन्तन नहीं किया है। विज्ञान में न्यूटन ने गतितत्त्व (Medium of Motion) को माना है। अलवर्ट आईस्टीन ने गतितत्त्व को मानते हुए कहा-'लोक परिमित है, लोक के परे अलोक अपरिमित है, लोक का परिमित होने का कारण गतितत्त्व यहाँ पर है और वह द्रव्य शक्ति है, लोक के बाहर नहीं जा सकती।' लोक के बाहर उस शक्ति का अभाव है जो गति में सहायक है। ईथर (Ether) को भी गतितत्त्व माना है। जैनदर्शन में धर्म और अधर्म शब्द पारिभाषिक रहा है। धर्म और अधर्म द्रव्य दोनों द्रव्य से एक हैं और व्यापक हैं । 3 3 क्षेत्र से लोक प्रमाण है।३४ काल से अनादि-अनन्त हैं । भाव से अमूर्त हैं। गुण से धर्म गति-सहायक है और अधर्म स्थितिसहायक है। धर्म और अधर्म ये दोनों द्रव्य तीनों कालों में अपने गुण और पर्यायों से विद्यमान रहते हैं, एक क्षेत्रावगाही होते हुए भी उनकी पृथक् उपलब्धि है। दोनों का स्वभाव और कार्य भिन्न है, सत्ता में विद्यमान हैं, लोक व्यापक हैं। धर्म-अधर्म तो अनादि काल से अपने स्वभाव से लोक में विस्तृत है । ५ जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य परद्रव्य की निमित्तभूत सहायता से क्रियावंत होते हैं। शेष चार द्रव्य क्रियावंत नहीं है।३६ धर्म, अधर्म द्रव्य निष्क्रिय हैं, धर्म और अधर्म द्रव्य जीव, पुद्गल के लिए सिर्फ सहायक बनते हैं। ३७ हलन-चलन या स्थितिकरण क्रिया इन दो द्रव्य के अभाव में नहीं हो सकती। ये गति और स्थिति के उदासीन कारण हैं। ये स्वयं क्रियाशील नहीं हैं । तैरने में जल मछलियों के लिए माध्यम है वैसे ही गति में धर्म द्रव्य सहायक है। अधर्म द्रव्य भी वृक्ष की छाया की भांति पथिक को विश्राम में सहायक हैं। गतितत्त्व के लिए 'रेल की पटरी का उदाहरण दे सकते हैं। रेल की पटरी गाड़ी चलाने में सहायक है । वह गाड़ी को यह नहीं कहती कि तू चल, वैसे ही धर्म द्रव्य है । जहाँ तक पटरी है वहाँ तक ही रेलगाड़ी जा सकती है, आगे नहीं । लोक में धर्म के आधार से हम गमन कर सकते हैं, लोक से बाहर नहीं। आकाश आकाश लोक और अलोक दोनों में है।३८ अन्य द्रव्यों के समान आकाश भी तीनों काल में अपने गुण और पर्यायों सहित विद्यमान है। उसका स्वभाव है जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल को अवकाश देना ।३६ पाँच द्रव्य लोकाकाश में ही रहते हैं। आकाश के प्रदेश में वे VAA या ३३ स्थानांग०१ ३४ (क) भगवती० २।१० (ख) उत्तराध्ययन ३६७ ३५ पंचास्तिकाय-जयसेनाचार्य की टीका ३६ पंचास्तिकाय-जयसेनाचार्य की टीका १६८ ३७ पंचास्तिकाय-बालावबोध टीका ३८ (क) स्थानांग ५।३।४४२ (ख) उत्तराध्ययन ३६।८ ३६ (क)उत्तराध्ययन २८६ (ख) पंचास्तिकाय ११६० mamatarMADAAIIANORKadwasnasasarawaiswasnasRIMARRARAMJAAAAAAMANASAILIMJAILASAKARMADAamannaos प्रवरब अभियान आभन्न प्राआनन्दायथागाAMMAR Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रव 310 फ्र श्री आनन्द अन् २४६ मिलजुल कर रह सकते हैं । पाँच द्रव्य लोकाकाश में ही रहते हैं। बिना आकाश के वे नहीं रह सकते । आकाश में अनन्त पुद्गलों को स्थान देने की शक्ति है । महासागर में जैसे नमक रहता वैसे ही अन्य द्रव्य आकाश में रहते हैं । ग्रन्थ धर्म और दर्शन अकाश के दो भेद हैं- लोकाकाश और अलोकाकाश । अलोकाकाश में आकाश द्रव्य के अतिरिक्त कोई भी द्रव्य नहीं है । धर्म और अधर्म द्रव्य का कार्य आकाश नहीं करता किन्तु वह केवल अवकाश देता है । लोक और अलोक जैन साहित्य में इसकी अनेक परिभाषाएँ मिलती हैं । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय लोक है । ४० पंचास्तिकायमय लोक है । ४१ जीवाजीव लोक है । ४२ षट्द्रव्यात्मक लोक है । ४३ अपनीअपनी दृष्टि से ये परिभाषाएँ हैं । लोक इन्द्रिय गोचर है और अलोक इन्द्रियातीत है । अलोकाकाश में गति और स्थिति नहीं है । आकाश द्रव्य अपने ही आधार से अपने ही अवकाश में है । कालद्रव्य द्रव्यों की वर्तना, परिणाम- क्रिया या नवीनत्त्व काल के कारण ही संभव है ।४४ काल तो दिखलाई नहीं देता, इसलिए उसका अनुमान आकाश की तरह सिद्ध होता है। कितने ही आचार्य काल को स्वतंत्र द्रव्य न मानकर जीवाजीव की पर्याय मानते हैं । उपचार से उसे द्रव्य कहते हैं । ४५ भगवती 'काल को स्वतंत्र द्रव्य माना है । ४६ कुन्दकुन्द लिखते हैं 'काल-द्रव्य परिवर्तन - लिंग से संयुक्त है । ४७ कालाणु संख्या में लोकाकाश के प्रदेशों की तरह असंख्यात है । ४5 श्वेताम्बर परम्परा में कालद्रव्य को अनन्त माना है । ४६ रहट - घटिका के समान वह निरन्तर घूमता रहता है । इसलिए अनादि अनन्त है । काल-द्रव्य अस्तिकाय नहीं, अखण्ड है । समस्त विश्व में एक काल युगपत् है । निश्चय और व्यवहार के रूप में उसके दो भेद हैं । व्यवहार काल को 'समय' कहते हैं, वर्तना निश्चय काल से होती है । सामान्य परिवर्तन व्यावहारिक काल से है । समय का प्रारम्भ और अन्त दोनों होते हैं । निश्चयकाल नित्य है, निराकार है । दिन, मास, ऋतु, वर्ष आदि काल के व्यावहारिक भेद हैं । ० निश्चय काल का कोई भी भेद नहीं है । ४० ४१ ४२ (क) उत्तराध्ययन ३६ (ख) स्थानांग ० २४ भगवती० २।१० भगवती० १३।४ ४३ उत्तराध्ययन० २८ ४४ तत्त्वार्थसूत्र ५।२२ ४५ ४६ ४७ ४८ द्रव्य संग्रह २२ ४६ ५० नव तत्त्व० प्र० – देवेन्द्रसूरि भगवती० २५४ २५ २ पंचास्तिकाय १।६।२२, २४ सप्ततत्त्वप्रकरण – देवेन्द्रसूरि (क) द्रव्यसंग्रह २१ पंचास्तिकाय १।१००,१०१ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में अजीव तत्त्व २४७ कालाणु की उत्पत्ति, स्थिति, और विनाश की दृष्टि से उस को शाश्वत और अशाश्वत कहा है। काल का सूक्ष्म अंश समय है। दो समय साथ नहीं रहते । काल के स्कन्ध आदि भेद-प्रभेद नहीं होते।५१ एक-एक कालाणु लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में रत्नराशि के समान स्थित है।५२ इस प्रकार जैन दर्शन में अजीव तत्त्व का अत्यन्त विस्तार से निरूपण है। किन्तु अभिनन्दन ग्रन्थ की पृष्ठ संख्या की मर्यादा को लक्ष्य में रखकर अत्यन्त संक्षेप में लिखने का प्रयास किया है। ५१ सप्ततत्त्व प्रकरण-हेमचन्द्रसूरि ४८ ५२ द्रव्यसंग्रह २२ आनन्द-वचनामृत 0 गुलाब जैसे कोमल और सुन्दर फूल पर तीखे कांटे-देखकर आश्चर्य होता है। पर यह कुदरत का नियम ही है। संतों और सज्जनों के परोपकारपरायण जीवन में कितने कष्ट और विपत्तियां आती हैं ? गुलाब में कांटे और संतों में कष्ट--यह उनकी महत्ता बढ़ाने के लिए ही हैं। कांटों से गुलाब की रक्षा होती है, कष्टों से संत अपने पथ में सदा अप्रमत्त होकर चलते हैं। 0 विश्व का सब से बड़ा रोग तपेदिक या कोढ़ नहीं, किंतु अज्ञान है। अज्ञान से ग्रस्त मनुष्य पद-पद पर उपहास एवं आपत्तियों की ठोकरें खाता हुआ दुखी होता है। 0 प्रार्थना अन्तःकरण की एक पवित्र पुकार है। प्रार्थना को मैं परमात्मा की ओर आत्मा का ऊर्ध्वगमन मानता हूँ। 0 सच्ची प्रार्थना मंत्रों व स्तोत्रों का पाठ मात्र नहीं है, किंतु वह मन की रहस्यमय स्थिति है, जिसके हर स्वर एवं हर नाद के साथ भक्तिरस का उद्रेक फूटता है। 0 प्रार्थना अशुद्ध चेतन की शुद्ध चेतन में लीनता है। 0 प्रार्थना का आनन्द दार्शनिक और पंडित नहीं समझा सकता, किंतु एक सरल भक्त उस आनन्द का स्वतः अनुभव कर सकता है। जैसे सूर्य की ऊष्मा, जल की शीतलता, फूल की सुगंध और गन्ने की मिठास अपने आप अनुभव की जा सकती है, वैसे ही प्रार्थना का आनन्द भी स्व-संवेद्य है। ' SARIMJANAMInathamainamainancialsasaaaaaataiNASABAIABAAAAAKIAN सायाप्रतिसआचार्य प्राआनन्द अनशन श्राआनन्दन Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रव आगन आन्दन आआनंद ❤NTY می डॉ. ERY अभिनंदन डा० सागरमल जैन एम. ए., पी-एच. डी. [ भारतीय धर्म एवं दर्शनों के तुलनात्मक अध्ययन में संलग्न, चिन्तनशील लेखक । संप्रति - हमीदिया महाविद्यालय, भोपाल में दर्शनविभाग के अध्यक्ष ] निश्चय और व्यवहार : किसका आश्रय लें ? चाहे तत्वज्ञान का क्षेत्र हो या आचरण का बौद्धिक विश्लेषण हमारे सामने यथार्थता या सत्य के दो पहलू उपस्थित कर देता है, एक वह जैसा कि हमें दिखाई पड़ता है और दूसरा वह जो इस दिखाई पड़ने वाले के पीछे है; एक वह जो प्रतीत होता है, दूसरा वह जो इस प्रतीती के आधार में है । हमारी बुद्धि स्वयं कभी भी इस बात से सन्तुष्ट नहीं होती है कि जो कुछ प्रतीती है वही उसी रूप में सत्य है । वरन् वह स्वयं ही उस प्रतीती के पीछे झाँकना चाहती है । वह वस्तुतत्त्व के इन्द्रियगम्य स्थूल स्वरूप से सन्तुष्ट नहीं होकर उसके सूक्ष्म स्वरूप तक जाना चाहती है । दूसरे शब्दों में दृश्य से ही सन्तुष्ट नहीं होकर उसकी तह तक प्रवेश पाना यह मानवीय बुद्धि की नैसर्गिक प्रवृत्ति है । जब वह अपने इस प्रयास में वस्तुतत्व के प्रतीत होने वाले स्वरूप और उस प्रतीती के पीछे रहे हुए स्वरूप में अन्तर पाती है तो स्वयं ही स्वतःप्रसूत इस द्विविधा में उलझ जाती है कि इनमें से यथार्थ कौन है ? प्रतीती का स्वरूप या प्रतीती के पीछे रहा हुआ स्वरूप ? व्यवहार और परमार्थ दृष्टिकोण की स्वीकृति आवश्यक क्यों ? तत्वज्ञान की दृष्टि से सत् के स्वरूप को लेकर प्रमुखतः दो दृष्टियाँ मानी गई हैं, एक तत्व - वाद और २. अनेक तत्ववाद । एक तत्ववादी व्यवस्था में परमतत्व एक या अद्वय माना जाता है । यदि परम तत्व एक है तो प्रश्न उठता है यह नानारूप जगत कहाँ से आया ? यदि अनेकता यथार्थ है तो वह एक अनेक रूप में क्यों और कैसे हो गया ? यदि एकत्व ही यथार्थ है तो इस प्रतीती के विषय में नानारूपात्मक जगत की क्या व्याख्या ? ये ऐसे प्रश्न हैं, जिनका समुचित उत्तर एकतत्ववाद नहीं दे सकता । इसी प्रकार द्वितत्ववादी या अनेक तत्ववादी दार्शनिक मान्यताएँ उन दो या अनेक तत्वों का पारस्परिक सम्बन्ध स्पष्ट करने में असफल हो जाती हैं। क्योंकि सत्ताओं को एक दूसरे से स्वतन्त्र मानकर उनमें पारस्परिक सम्बन्ध सिद्ध नहीं किया जा सकता । अद्वैतवाद या एकतत्ववाद इस नानारूपात्मक जगत की व्याख्या नहीं कर सकता और द्वितत्ववाद या अनेकतत्ववाद उन दो अथवा अनेक सत्ताओं में पारस्परिक सम्बन्ध नहीं बता सकता । एक के लिए अनेकता अयथार्थ होती है, दूसरे के लिए उनका सम्बन्ध अयथार्थ होता है । लेकिन इन्द्रियानुभव से अनेकता भी यथार्थ दिखती है और सत्ताओं का पारस्परिक सम्बन्ध भी यथार्थ दिखता है, अतः इन्हें झुठलाया भी नहीं जा सकता । एकतत्ववाद या अद्वैतवाद में अनेकता की समस्या का और १ यहाँ द्वितत्ववाद को भी अनेक तत्ववाद में ही समाहित मान लिया गया है । : Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय और व्यवहार किसका आश्रय लें ? अनेक तत्ववाद में उनके पारस्परिक सम्बन्धों की समस्या का ठीक निदान नहीं मिलता । यही कारण था कि दार्शनिकों को अपनी व्याख्याओं के लिए सत्य के सम्बन्ध में दृष्टिकोणों (नयों) का अवलम्बन लेना ही पड़ा और जिन दार्शनिकों ने दृष्टिकोणों का अवलम्बन लेने से इन्कार किया वे एकांगी बनकर रह गये । इन्हें इन्द्रियजन्य संवेदनात्मक ज्ञान और तार्किक चिन्तनात्मक ज्ञान में से किसी एक को अयथार्थ कहकर त्यागना पड़ा। चार्वाक या भौतिकवादियों ने वस्तुतत्व या सत् के इन्द्रियप्रदत्त ज्ञान को ही यथार्थ समझा और बुद्धि की विधाओं या विकल्पों से प्रदत्त ज्ञान को जो इन्द्रियानुभूति पर खरा नहीं उतरता था, अयथार्थ कहा। दूसरी ओर कुछ विचारकों ने उस इन्द्रियगम्य ज्ञान को अयथार्थ कहा जो कि बौद्धिक विश्लेषण में खरा नहीं उतरता है और बुद्धिप्रदत्त ज्ञान को ही यथार्थ माना। लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं था । सम्भवत: इस दार्शनिक समस्या के निराकरण का प्रथम प्रयास जैन और बौद्ध आगमों में परिलक्षित होता है । महावीर ने कहा कि न तो इन्द्रियजन्य अनुभूति ही असत्य है और न बुद्धि प्रदत्त ज्ञान ही असत्य है । एक में वस्तुतत्व या सत् का वह ज्ञान है जिस रूप में वह हमारी इन्द्रियों को परिलक्षित होता है अथवा जिस रूप में हमारी इन्द्रियां उसे ग्रहण कर पाती हैं, दूसरे में वस्तुतत्व या सत् का वह ज्ञान है जिस रूप में वह है । जैनागमों के अनुसार पहली लोकदृष्टि या व्यवहार नय है और दूसरी परमार्थ दृष्टि या निश्चयनय है । लोकदृष्टि या व्यावहारिक दृष्टि स्थूल तत्वग्राही है, वह हमें यह बताती है कि तत्व या सत्ता को जनसाधारण किस रूप में समझता है। जबकि परमार्थ दृष्टि या निश्चयनय सूक्ष्म तत्वग्राही है, वह हमें यह बताती है कि सत्ता का बुद्धिप्रदत्त वास्तविक स्वरूप क्या हैं ? जैसे पृथ्वी सपाट है या स्थिर है यह व्यवहारनय या लोकदृष्टि है, क्योंकि वह हमें इस रूप में प्रतीत होती है या हमारा व्यवहार ऐसा मानकर ही चलता रहता है । जबकि पृथ्वी गोल है या चलती है यह निश्चय दृष्टि है अर्थात् वह इस रूप में है। दोनों में से अयथार्थ तो किसी को कहा ही नहीं जा सकता क्योंकि एक इन्द्रिय प्रतीती के रूप में सत्य है या इन्द्रियगम्य सत्य है और दूसरा बुद्धिनिष्पन्न सत्य है या बुद्धिगम्य सत्य है । यह तो सत्ता ( Reality) के सम्बन्ध में दो दृष्टियाँ हैं और इनमें से अयथार्थ या मिथ्या कोई भी नहीं है । दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में सत्य हैं । यद्यपि दोनों में कोई भी एक, स्वतन्त्र रूप में वस्तु तत्व या सत्ता का पूर्ण स्वरूप प्रगट नहीं करती हैं। वस्तुतः सत्ता या तत्व ( Reality ) अपने आप में ही एक पूर्णता है, अनन्तता है और अनन्त के अनन्त पक्षों का प्रगटन वाणी और भाषा के माध्यम से सम्भव नहीं हो सकता । इन्द्रियानुभूति, भाषा और वाणी सभी अनन्त के एकांश का ग्रहण कर पाती है। वही एकांश का बोध नय कहलाता है । उसके अनन्त पक्षों को जिन-जिन दृष्टिकोणों से देखा जाता है वे सभी नय ( Standpoints) कहे जाते हैं और इसीलिए जैन विचारकों ने कह दिया था कि जितने वचन के प्रकार अथवा भाषा के प्रारूप ( कथन के ढंग ) हो सकते उतने ही नय के भेद हैं। लेकिन फिर भी जैन १ लोकव्यवहाराऽभ्युपगमपरा नया व्यवहारनय उच्यते । व्यवहृयते इति व्यवहारः । - अभिधान राजेन्द्र पृ० - अभिधान राजेन्द्र खण्ड ४, पृ० २ निश्चिनोति तत्वमिति निश्चयः । ३ अनन्तधर्माऽध्यासिते वस्तुन्येकांशग्राहको बोध इत्यर्थः । ४ जावइया वयणपहा तावइया चेव होंति नय वाया । आचार्य प्रवस २४६ - अभिधान राजेन्द्र खण्ड ४ पृ० १८५३ । — सन्मति तर्क १३-४७ wwwner १८९२ । १८६२ । आचार्य प्रवास अभि 310 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ W.AawanAmA- AnnANAMIRMALAIKAMALNAJANANAMALAIAiMAKENARAACAMALA आपाप्रवाह आनापार्यप्रवर अभि श्रीआनन्दा ग्रन्थश्राआनन्द-ग्रन्थ २५० धर्म और दर्शन Y NEEK राय विचारकों ने नयों का एक द्विविध वर्गीकरण प्रस्तुत किया था। जिसमें अन्य सभी वर्गीकरण भी अन्तर्भूत है।' जैनागम भगवती सूत्र में व्यवहार और निश्चय दृष्टि का प्रतिपादन बड़े ही रोचक ढंग से किया गया है । गौतम भगवान महावीर से पूछते हैं, भन्ते ! फाणित-प्रवाही गुड़ में कितने रस, वर्ण, गन्ध और स्पर्श होते हैं ? महावीर इसके प्रत्युत्तर में कहते हैं कि गौतम ! मैं इस प्रश्न का उत्तर दो नयों से देता हूँ। व्यवहारिक नय (लोकदृष्टि) की अपेक्षा से तो वह मधुर कहा जाता है लेकिन निश्चय नय (वास्तविक दृष्टि) की अपेक्षा से उसमें पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध और आठ स्पर्श होते हैं । इस प्रकार वहाँ अनेक विषयों को लेकर उनका निश्चय एवं व्यवहार दृष्टि से विश्लेषण किया गया है । वस्तुतः यह निश्चय एवं व्यवहार दृष्टि का विश्लेषण हमें यही बताता है कि सत् (Reality) न उतना ही है जितना वह हमें इन्द्रियों के माध्यम से प्रतीत होता है और न उतना ही जितना कि बुद्धि उसके स्वरूप का निश्चय कर पाती है। जैनाचार्यों ने सत्य को समझने की इन दोनों विधियों का प्रयोग न केवल तत्वज्ञान के क्षेत्र में ही किया वरन् आचार दर्शन की अनेक गुत्थियों के सुलझाने में भी इनका प्रयोग किया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने आगमोक्त इन दो नयों (दृष्टिकोणों) का प्रयोग आत्मा के बन्धन-मोक्ष, कर्तृत्वअकर्तृत्व तथा नैतिक जीवन-प्रणाली या ज्ञान, दर्शन और चारित्र के सम्बन्ध में विस्तृत रूप से किया है और इनके आधार पर तत्वज्ञान तथा आचारदर्शन सम्बन्धी अनेक विवादास्पद प्रश्नों का समुचित निराकरण भी किया है। यही नहीं, आचार्य कुन्दकुन्द की एक विशेषता यह भी है कि उन्होंने निश्चय दृष्टि को भी अशुद्ध निश्चय दृष्टि और शुद्ध निश्चयदृष्टि ऐसे दो रूपों में विभाजित किया है और इस प्रकार उनके अनुसार एक व्यवहारनय दूसरा अशुद्ध निश्चयनय, तीसरा शुद्ध निश्चयनय ऐसे तीन विभाग बनाये गये । इस प्रकार सत् के निरूपण की इन दो दृष्टियों को दर्शन जगत में प्रस्तुत करने और उनके आधार पर दार्शनिक समस्याओं के निराकरण करने का प्रथम श्रेय जैनविचारणा को मिलना चाहिए। फिर भी यह जान लेना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जैनदर्शन और वेदान्तदर्शन में सत् के स्वरूप को समझने के लिए इन शैलियों का खुलकर प्रयोग हुआ है । अजैन दर्शनों में सर्वप्रथम बौद्ध आगमों में हम दो दृष्टियों का वर्णन पाते हैं, जहाँ उन्हें नीतार्थ और नेयार्थ कहा गया है। भगवान बुद्ध ने अंगुत्तरनिकाय में कहा है-भिक्षओ ! ये दो तथागत पर मिथ्यारोप करते हैं, कौन से दो ? जो नेय्यार्थ-सूत्र (व्यवहारभाषा) को नीतार्थ-सूत्र (परमार्थभाषा) करके प्रगट करता है और नीतार्थ-सूत्र (परमार्थभाषा) को नेय्यार्थ-सूत्र (व्यवहारभाषा) करके प्रगट करता है। २ बौद्ध दर्शन की दो प्रमुख शाखाओं--विज्ञानवाद और शून्यवाद–में भी तथता या सत् के स्वरूप को समझाने के लिए दृष्टिकोणों की इन शैलियों का उपयोग हुआ है। बौद्ध विज्ञानवाद तीन दृष्टिकोणों का प्रतिपादन करता है (१) परिकल्पित (२) परतन्त्रत (३) परिनिष्पन्न । शून्यवाद में नागार्जुन दो दृष्टिकोणों का प्रतिपादन करते हैं-१ लोकसंवृति सत्य और २ परमार्थ सत्य । चन्द्रकीर्ति ने लोकसंवृति को भी मिथ्यासंवृति और तथ्यसंवृति इन दो भागों में विभाजित १ निश्चयव्यवहारयोः सर्वनयान्तर्भावः । -वही, खण्ड ४ पृ० १८५३ । २ अंगुत्तरनिकाय, दूसरा निपात (हिन्दी अनुवाद प्रथम भाग, पृ० ६२) ३ द्वे सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना । लोकसंवृति सत्यंच सत्यं च परमार्थतः ।। -माध्यमिक वृत्ति ४६२, बोधिचर्या ३६१ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय और व्यवहार : किसका आश्रय लें? २५१ RANI किया है। इस प्रकार शून्यवाद में भी १. मिथ्यासंवृति, २. तथ्यसंवृति और ३. परमार्थ, यह तीन दृष्टिकोण मिलते हैं । वेदान्तदर्शन में शंकर ने भी अपने पूर्ववतियों की इस शैली को ग्रहण किया और उन्हें १. प्रतिभासिक सत्य, २. व्यवहारिक सत्य और ३. पारमार्थिक सत्य कहा। इस प्रकार जैनागमों ने जिसे व्यवहारनय और निश्चयनय, पर्यायाथिकनय और द्रव्याथिकनय अथवा अभूतार्थनय और भूतार्थनय कहा उसे ही बौद्धागमों में नीतार्थ और नेयार्थ कहा गया । विज्ञानवादियों ने उन्हें परतन्त्र और परिनिष्पन्न कहा और शून्यवाद में उन्हें ही लोकसंवृति और परमार्थ नाम से बताया गया, जबकि शंकर ने उन्हें व्यवहारिक सत्य और पारमार्थिक सत्य के नाम से अभिहित किया। न केवल भारतीय विचारकों ने अपितु अनेक पाश्चात्य विचारकों ने भी व्यवहार और परमार्थ के दृष्टिकोण को स्वीकार किया है । हिरेक्लिटस, पारमेनाइडीस, साक्र टीज, प्लेटो, अरस्तू, स्पिनोजा, कांट, हेगल और ब्रेडले ने भी किसी-न-किसी रूप में इसे माना है। भले ही उनकी मान्यताओं में नामों की भिन्नतायें ही हों, लेकिन अन्ततोगत्वा उनके विचार इन्हीं दो नयों अर्थात् व्यवहार और परमार्थ की ओर ही संकेत करते हैं। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि शंकर के प्रतिभासिक, चन्द्रकीति की मिथ्यासंवृति या विज्ञानवाद के परिकल्पित दृष्टिकोणों के समरूप किसी दृष्टिकोण का प्रतिपादन जैनागमों में नहीं है। यदि इनकी तुलना की जानी हो तो वह किसी सीमा तक जैन विचारणा में मिथ्यादृष्टि से की जा सकती है, यद्यपि दोनों में काफी अन्तर भी है। इसी प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द का अशुद्ध निश्चयनय व्यवहार और परमार्थ की मध्यस्थिति का द्योतक माना जा सकता है। इस सन्दर्भ में एक और महत्त्वपूर्ण अन्तर जैन और जैनेतर विचारणाओं में किया जा सकता है और वह यह कि बौद्ध और वेदान्त विचारणा में व्यवहारदृष्टि या लोकसंवृति को परमार्थ की अपेक्षा निम्नस्तरीय माना गया है, जबकि जैनदर्शन के अनुसार व्यवहार और निश्चय अपने-अपने स्वस्थानों की अपेक्षा से समस्तरीय हैं। वस्तुतः उनमें कोई तुलना करना ही अनुचित है। जैनदृष्टि के अनुसार व्यवहारनय के निराकरण के लिए निश्चयनय का अवलम्बन है, किन्तु निश्चयनयावलम्बन भी कर्तव्य की इतिश्री नहीं है, उसके आश्रय से आत्मा के स्वरूप का बोध करके उसे छोड़ने पर ही तत्व साक्षात्कार सम्भव है। वस्तुतः सत्ता का परमस्वरूप विचार का विषय नहीं है। वह तो विशुद्ध अनुभूति का विषय है । वह तत्वदर्शन है, तत्वज्ञान नहीं है। यदि वह ज्ञान कहा जा सकता है तो तत्वदर्शन या विशुद्ध अनुभूति आत्मा पर जो कुछ अपने चिह्न बनाती है, वही ज्ञान है । ज्ञान अपनी पूर्णता में दर्शन या अनुभूति से पूर्ण तादात्म्य कर लेता है, उसमें कोई संश्लेषण या विश्लेषण नहीं होता, कोई विकल्प नहीं होता है । सत् की यथार्थ उपलब्धि विकल्पों के ऊपर उठने पर ही सम्भव है। आचार्य अमृतचन्द्र सूरि लिखते हैं "तत्ववेदी दृष्टिकोण या नयपक्ष रूपी वन, जिसमें विकल्प रूपी जाल उठते हैं, को लांघकर जो अन्तर और बाह्य सभी ओर समरस एवं एकरस है वही स्वभावमात्र की अनुभूति करता है। तत्ववेदी तो उठती हुई चंचल विकल्प रूपी लहरों और उन विकल्पों की लहरों से प्रवर्तन होने वाले नयों (दृष्टिकोणों) के इन्द्रजाल को तत्काल दूर कर देता है।"१ इस प्रकार हम देखते हैं कि सत्ता के यथार्थ बोध के लिए न केवल व्यवहार या निश्चय GI स्वेच्छासमुच्छलदनल्प विकल्पजालामेवं व्यतीत्य महती नयपक्षाकक्षा । अन्तर्बहिः समरसकरस स्वभावं स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्र । इन्द्रजालमिदमेव मुच्छलत्पुष्कलोच्चलविकल्पवीचिभिः । यस्य विस्फुरणमेव तत्क्षणं कृत्स्नमस्यति तदस्मि चिन्महः । -समयसार टीका, कलश ६०-६१ नाaaaभियान आचार्यप्रवर अभिनन्दन यादआन्थ५१ श्रीआनन्द-मन्थश्रामा PRMसाया। mwwwmonawanivaarimom Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रव श्रीमानको अदि आमा भन ग्रन्थ ग्रन्थ धर्म और दर्शन T शे DOWN २५२ ( परमार्थ) दृष्टिकोणों को जानना ही पर्याप्त है वरन् उनके भी परे जाना होता है जहाँ दृष्टिकोणों के समस्त विकल्प शून्य हो जाते हैं । जैन विचारणा के उपरोक्त दृष्टिकोण का समर्थन हमें बौद्ध और वेदान्त की परम्परा में भी मिलता है । बौद्ध और वेदान्त की परम्परा में पाया जाने वाला यह विचारसाम्य तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण है । बौद्ध शून्यवादी परम्परा के प्रखर दार्शनिक आचार्य नागार्जुन, आचार्य कुन्दकुन्द और उनके टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्रसूरि के साथ समस्वर हो कह उठते हैं ' - भगवान बुद्ध ने समस्त efer की शून्यता ( नयपक्षकक्ष रहितता) का उपदेश दिया है, जिसकी शून्य ही दृष्टि है ऐसा साधक ही परमतत्व का साक्षात्कार करता है । 鱷 आगे परमतत्व के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं-वह परम तत्व न शून्य है, न अशून्य है, न दोनों है और न दोनों नहीं है । शून्यवादी बौद्ध दार्शनिक तो परम तत्व को शून्य और क्योंकि परम तत्व को शून्य अन्य आदि किसी भी संज्ञा से अभिहित करना उचित नहीं समझते, अशून्य, आदि किसी संज्ञा से अभिहित करना उसे बुद्धि की कल्पना के भीतर लाना है । परम तत्व तो विचार की विधाओं से परे है, चतुष्कोटी विनिर्मुक्त है, विकल्पों के जाल से परे है । गीता भी कहती है 'परम तत्व के बोध के लिए विकल्पों के जनक मन को आत्मा में स्थित करके कुछ भी चिन्तन या विकल्प नहीं करना चाहिए। जिस साधक के मन में विकल्पों का यह ज्वार शांत हो चुका है और जिसके मन की समस्त चंचलता समाप्त हो गई है, वही योगी ब्रह्मभूत, निष्पाप और उत्तम सुख से युक्त होता । व्यवहार और परमार्थ की आचारदर्शन के लिए आवश्यकता इस प्रकार आचार दर्शन अपने आदर्श के रूप में जिस सत्ता के यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि चाहता है वह दृष्टिकोणों या नयों के द्वारा प्राप्त नहीं होती लेकिन नयपक्षों या दृष्टिकोणों से प्रत्युत्पन्न विकल्पों के समस्त जाल के विलय होने पर शुद्ध निर्विकल्प समाधि की अवस्था में प्राप्त होता है । यही निर्विकल्प समाधि की अवस्था ही जैन, बौद्ध और वेदान्त के आचारदर्शन का चरम लक्ष्य है, जिसमें सत् साक्षात्कार हो जाता है । लेकिन सम्भवतः यहाँ विद्वत्वर्ग यह विचार करेगा कि यदि साधना का लक्ष्य ही नयपक्षों या विकल्पों से ऊपर उठना है, तो फिर आचारदर्शन या तत्वज्ञान के क्षेत्र में नयपक्षों या तत्वदृष्टियों के निरूपण की क्या आवश्यकता है ? लेकिन इस प्रश्न का समुचित उत्तर जैन आचार्य कुन्दकुन्द और बौद्ध शून्यवादी दार्शनिक नागार्जुन बहुत पहले दे गये हैं । यद्यपि साधना की पूर्णता या यथार्थ की उपलब्धि विकल्पों से अथवा नयपक्षों से ऊपर उठने में ही है लेकिन यह ऊपर उठना उनके ही सहारे सम्भव होता है, व्यवहार के सहारे परमार्थ को जाना जाता है और उस परमार्थ के सहारे उस निर्विकल्प सत्ता का बोध होता है। आचार्य १ शून्यता सर्वदृष्टीनां प्रोक्ता निःसरणं जिनैः । येषां तु शून्यतादृष्टिस्तान् साध्यान् बभाषिरे ।। - माध्या० १३.८ शून्यमिति न वक्तव्यमशून्यमिति वा भवेत् । उभयं नोभयं चेति प्रज्ञात्यर्थं न तु कथ्यते । २ आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चितयेत् । - गीता ६।२५ उत्तरार्ध - माध्या० २२.२१ प्रशान्त मनसं ह्य ेन योगिनं सुखमुत्तमम् । उपैति शान्त रजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥ - गीता ६।२७ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय और व्यवहार : किसका आश्रय लें? २५३ 4 तत्त्व कुन्दकुन्द कहते हैं कि जिस प्रकार किसी अनार्य जन को उसकी अनार्य भाषा के अभाव में वस्तुस्वरूप समझाने में कोई भी आर्यजन सफल नहीं होता, उसे यथार्थ का ज्ञान कराने के लिए उसी की भाषा का अवलम्बन लेना होता है, इसी प्रकार व्यवहार दृष्टि के अभाव में व्यवहार जगत में रहने वाले प्राणियों को परमार्थ का बोध नहीं कराया जा सकता।' आचार्य कुन्दकुन्द के ही उपरोक्त रूपक को ही लगभग समान शब्दों में ही शून्यवादी बौद्ध आचार्य नागार्जुन भी प्रस्तुत करते हैं । २ यही नहीं, समकालीन भारतीय विचारकों में प्रो० हरियन्ना तथा पाश्चात्य विचारक ब्रेडले भी परमार्थ (Reality) के ज्ञान लिए आभास (व्यवहार Apearances) की उपादेयता को स्वीकार करते हैं किन्तु विस्तारभय से उनके विस्तृत विचारों को यहाँ प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं । वास्तविकता यह है कि व्यवहार के बिना परमार्थ का बोध नहीं हो सकता और परमार्थ या निश्चयदृष्टि का बोध हुए विना निर्वाण रूपी नैतिक आदर्श की उपलब्धि नहीं हो सकती। अतः पक्षातिक्रान्त नैतिक आदर्श निर्वाण तत्व-साक्षात्कार आत्म-साक्षात्कार के लिए परमार्थ और व्यवहार दोनों को जानना आवश्यक है, मात्र यही नहीं, दोनों को जानकर छोड़ देना भी आवश्यक हैं। तत्त्वज्ञान और आचारदर्शन के क्षेत्र में व्यवहार और परमार्थ का अन्तर जैन परम्परा में व्यवहार और निश्चय नामक जिन दो दृष्टियों का प्रतिपादन किया गया है, वे तत्वज्ञान और आचारदर्शन, दोनों क्षेत्रों के लिए स्वीकार की गई हैं, फिर भी आचारदर्शन और तत्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चय (परमार्थ) और व्यवहार दृष्टि का प्रतिपादन भिन्न-भिन्न अर्थों में हुआ है। पं० सुखलाल जी इस अन्तर को स्पष्ट करते हए लिखते हैं-जैन परम्परा में जो निश्चय और व्यवहार रूप से दो दृष्टियाँ मानी गई हैं वे तत्वज्ञान और आचारदर्शन दोनों क्षेत्रों में लागू की गई हैं। इधर सभी भारतीय दर्शनों की तरह जैनदर्शन में भी तत्वज्ञान और आचार दोनों का समावेश है। जब निश्चय, व्यवहार नय का प्रयोग तत्वज्ञान और आचार दोनों में होता है तब सामान्य रूप से शास्त्रचिन्तन करने वाला यह अन्तर जान नहीं पाता कि तत्वज्ञान के क्षेत्र में किया जाने वाला निश्चय और व्यवहार का प्रयोग आचार के क्षेत्र में किये जाने वाले प्रयोग से भिन्न है और भिन्न परिणाम का सूचक भी है। तत्वज्ञान की निश्चयदृष्टि आचारविषयक निश्चयदृष्टि दोनों एक नहीं हैं। इसी तरह उभय विषयक व्यवहारदृष्टि के बारे में भी समझना चाहिए। मैं इतना ही सूचित करना चाहता हूँ कि निश्चय और व्यवहारनय यह दो शब्द भले ही समान हों फिर भी तत्वज्ञान और आचार के क्षेत्र में भिन्न-भिन्न अभिप्राय से लागू होते हैं और हमें विभिन्न परिणामों पर पहुंचाते हैं। १ जह णवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा उ गाहेउं । तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं ।। (यथा नापि शक्यो नार्या नार्यभाषां बिना ग्राहयितुम । तथा व्यवहारेण बिना परमार्थोपदेशनमशक्यम्) २ नान्यया भाषया म्लेच्छ शक्यो ग्राहीयेतुं यथा । न लोकिकमुते लोकः शक्यो ग्राहयितुं तथा ।। व्यवहारमनाश्रित्य परमार्थो न देश्यते । परमार्थमनागम्य निर्वाण नाधिगम्यते । ३ दर्शन और चिन्तन पृ०-५०० aumaamanianarmadAARAJanuaruaamavasmaniraasrmanAmAINIKAurasranAmARMA UNP आचार्गप्रशानन आचार्य अभिला श्रीआनन्द श्रीआनन्दन mamimmmmmmmmconomimirmwrimire Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SALAMAAAAAAAAMRAPALAAJAL TRAIN Me श्रीआनन्द अन्य श्रीआनन्द अभिन mnamamimarwariyanaman ४ धर्म और दर्शन ARANI यह देखने के पहले कि इन दोनों में यह विभिन्नता किस रूप में है, हमें यह भी देख लेना होगा कि इस विभिन्नता का मूल कारण क्या है ? वस्तुतः आचरण का सारा क्षेत्र ही व्यवहार का क्षेत्र है। तत्वज्ञान की नैश्चयिक (पारमाथिक) दृष्टि से तो सारी नैतिकता ही एक व्यावहारिक संकल्पना है, यदि विशुद्ध पारमार्थिक दृष्टि से बन्धन और मुक्ति भी व्यावहारिक सत्य ही ठहरते हैं तो फिर आत्मा को बन्धन में मानकर उसकी मुक्ति के निमित्त किया जाने वाला सारा नैतिक आचरण भी व्यवहार के क्षेत्र में ही सम्भव है। आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जीव कर्म से बद्ध है तथा जीव कर्म उसका स्पर्श करता है यह व्यवहारनय का वचन है, जीव कर्म से अबद्ध है अर्थात् न बंधता है और न स्पर्श करता है। यह निश्चय (शुद्ध) नय का कथन है । अर्थात् आत्मा का बंधन और मुक्ति यह व्यवहारसत्य है। परमार्थ-सत्य की दृष्टि से न तो बंधन है और न मुक्ति । क्योंकि बंधन और मुक्ति सापेक्ष पद ही है। यदि बंधन नहीं तो मुक्ति भी नहीं। आगे आचार्य स्वयं कहते हैं कि आत्मा का बंधन और अबंधन यह दोनों ही दृष्टि सापेक्ष हैं, नय पक्ष हैं, परम तत्त्व समयसार (आत्मा) तो पक्षातिक्रांत है, निविकल्प है। इस प्रकार समस्त नैतिक आचरण व्यवहार के क्षेत्र में होता है यद्यपि नैतिक जीवन का आदर्श इन समस्त दृष्टियों से परे निविकल्पावस्था में स्थित है--अतः आचार के क्षेत्र में निश्चय दृष्टि का प्रतिपादन नैतिकता के आदर्श निर्विकल्पावस्था या वीतरागदशा जिसे प्रसंगांतर से मोक्ष भी कहा जाता है कि अपेक्षा से ही हुआ है, जबकि तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चय दृष्टि का आधार भिन्न है। तत्वज्ञान का काम मात्र व्याख्याओं का प्रस्तुतीकरण है जबकि आचार दर्शन का काम यथार्थता की उपलब्धि करा देना है। तत्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चय और व्यवहार तत्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि का काम सत्ता के उस यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन करना होता है जो देशकाल आदि से निरपेक्ष है। निश्चयदृष्टि सत्ता के उस यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन करती है जो सत्ता की स्वभाव दशा है, उसका मूल स्वरूप है या स्व-लक्षण है, जो किसी देश-कालगत परिवर्तन में भी उसके सार के रूप में बना रहता है। जैसे निश्चयदृष्टि से आत्मा ज्ञानस्वरूप है, साक्षी है, अकर्ता है। निश्चयदृष्टि द्रव्यदृष्टि है जो सता के मूलतत्त्व की ओर ही अपनी निगाह जमाती है और उसकी पर्यायों पर ध्यान नहीं देती है। निश्चयदृष्टि से स्वर्णाभूषणों में निहित स्वर्णतत्व ही मूल वस्तु है, फिर चाहे वह स्वर्ण कंकण हो या मुद्रिका हो। निश्चयदृष्टि से दोनों में अभेद ही है, दूसरे शब्दों में निश्चयनय अमेद गामी है। निश्चय दृष्टि, द्रव्य दृष्टि या इस अभेदगामी दृष्टि से आत्मा चैतन्य ही है, अन्य कुछ नहीं। न वह जन्म लेता है, न मरता है, न वह बद्ध है, न वह मुक्त है, न वह स्त्री है, न वह पुरुष है, न वह मनुष्य है, न पशु है, न देव है, न नारक है । तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में व्यवहार दृष्टि सत्ता के उस पक्ष का प्रतिपादन करती है जिस रूप में वह प्रतीत होती है, वह सत्ता के आगन्तुक लक्षणों को प्रगट करती है जो स्थायी नहीं है १ जीवे कम्मं बद्धं पुढें चेदि ववहारणय भणिदं । सुद्धणयस्स दु जीवे अबद्धं हवइ कम्मं ।। कम्मं बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जाणपक्खं । पक्खातिक्कतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो॥ -समयसार-१४१ । १४२ (संस्कृत टीकावाली प्रति से) २ अथ पूनर्बहब्यक्तेरनेक विशेषस्याभेदता भेदराहित्यं तदपि निश्चयविषयम, द्रव्यस्य पदार्थस्य यन्नर्मल्यं तदपि निश्चय विषयम्, नैर्मल्यं तु विमलपरिणतिः बाह्यनिरपेक्ष परिणामः सोऽपि निश्चयानयाऽर्था बोद्धव्यः । —अभि० रा०४। २०५६ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय और व्यवहार : किसका आश्रय लें? २५५ वरन् किसी देशकाल में उससे संयोजित हुए हैं और किसी देशकाल में अलग हो जाने वाले है। सत्ता के उस परिवर्तनशील पक्ष का प्रस्तुतीकरण व्यवहारनय का विषय है जो क्षणिक है, देश एवं काल सापेक्ष है। सत्ता की विभाव दशा का विवेचन करना अथवा उसके इन्द्रियग्राह्य स्वरूप का विवेचन करना व्यवहार नय का सीमा क्षेत्र है। जैसे आत्मा कर्ता है, भोक्ता है, बद्ध है, ज्ञानदर्शन की दृष्टि से सीमित है । व्यवहार के दृष्टि के अनुसार आत्मा जन्म भी लेता है और मरता भी है, वह बन्धन में भी आता है और मुक्त भी होता है, वह बालक भी बनता है और वृद्ध भी होता हैं। आचारदर्शन के क्षेत्र में निश्चय और व्यवहार का तत्वज्ञान के क्षेत्र से अन्तर महाप्राज्ञ पं० सुखलाल जी ने आचारलक्षी निश्चय और व्यवहार का निरूपण तत्वलक्षीय निश्चय (परमार्थ) और व्यवहार के निरूपण से किस प्रकार भिन्न है, इसे निम्न आधारों पर स्पष्ट किया है (१) आचारगामी नैश्चयिक दृष्टि या व्यावहरिक दृष्टि मुख्यतया मोक्ष पुरुषार्थ की दृष्टि से विचार करती है जबकि तत्वनिरूपक निश्चय और व्यवहारिक दृष्टि केवल जगत के स्वरूप को लक्ष में रखकर ही प्रवृत्त होती है। यदि इसे स्पष्ट करने का प्रयास किया जावे तो हम कह सकते हैं कि तत्त्व निरूपण की दृष्टि में क्या है' यह महत्त्वपूर्ण है जबकि आचारनिरूपण में क्या होना चाहिए यह महत्त्वपूर्ण है। वस्तुतः तत्वज्ञान की विधायक (Positive) या व्याख्यात्मक प्रकृति ही तथा आर्दश दर्शन की नियामक (Normative) या आदर्श मुलक प्रकृति ही इनमें यह अन्तर बना देती है। तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि यह बताती है कि सत्ता का मूल स्वरूप क्या है ? उसका सार क्या है ? और व्यवहार दृष्टि यह बताती है सत्ता किस रूप में प्रतीत हो रही है ? उसका इन्द्रियग्राह्य स्थूल स्वरूप क्या है ? उसका आकार क्या है ? जबकि आचारदर्शन के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि कर्ता के प्रयोजन अथवा कर्म की आदर्शोन्मुखता के आधार पर उसकी शुभाशुभता का मूल्यांकन करती है। निश्चयनय में आचार का बाह्य स्वरूप महत्वपूर्ण नहीं होता वरन उसका आन्तर स्वरूप ही महत्वपूर्ण होता है। इसके विपरीत आचार के क्षेत्र में व्यवहार दृष्टि के अनुसार समाचरण के बाह्य पक्ष पर अधिक विचार किया जाता है। (२) आचार दर्शन और तत्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चय और व्यवहार नय के सम्बन्ध में दूसरा महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि तत्वज्ञान के क्षेत्र में नैश्चयिक दृष्टि-सम्मत तत्वों का स्वरूप हम सभी साधारण जिज्ञासू कभी भी प्रत्यक्ष नहीं कर पाते, हम ऐसे किसी व्यक्ति के कथन पर श्रद्धा रखकर ही वैसा स्वरूप मानते हैं, जिसने तत्वस्वरूप का साक्षात्कार किया हो। जबकि आचार के बारे में ऐसा नहीं है कोई जागरूक साधक अपनी आन्तरिक सत-असत् वृतियों को व उनकी तीव्रता और मन्दता के तारतम्य का सीधा प्रत्यक्ष कर सकता है। संक्षेप में नैश्चयिक आचार का प्रत्यक्ष व्यक्ति स्वयं के लिए सम्भव है जबकि नैश्चयिक तत्व का साक्षात्कार प्रत्येक व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है । हमारी सत्-असत् आन्तरिक वृत्तियों का हमें सीधा प्रत्यक्ष होता है, वे हमारी आन्तरिक अनुभूति का विषय हैं जबकि तत्व के निश्चय स्वरूप का सीधा प्रत्यक्षीकरण सम्भव नहीं होता है, वह तो मात्र बुद्धि की खोज है। तत्वज्ञान के क्षेत्र में पर्यायों से पृथक् शुद्ध वस्तु तत्व की उपलब्धि साधारण रूप में सम्भव नहीं होती है जबकि आचार के क्षेत्र में समाचरण से पृथक् आन्तरिक वृत्तियों का हमें अनुभव होता है। (३) तत्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चय दृष्टि आत्मा के बन्धन, मुक्ति, कर्तृत्व, भोक्त्तृव आदि प्रत्ययों को महत्व नहीं देती है, वे उसके लिए गौण होते हैं क्योंकि वे आत्मा की पर्याय दशा को आचार्यप्रवर त्रिनआचार्य अभी श्रीआनन्दाअन्श्रीआनन्दान्थ 9sar | ) maADAARAARADAANAAKAASALARAMANDowwwaniBADDIMASALAMJANAMAMALINIARIANRAJARAMAYALANALABSAAMAN Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AnusalmanianAAAAAM ها است اما باید نقف مع علمنخفا میه مان فرهنهنهنهرها هے आचार्यप्रव3 आचार्य श्रीआनन्द प्राआनन्द Cryyyrewarivarvinvirmiraram २५६ धर्म और दर्शन AC ही सूचित करते हैं। जबकि आचारलक्षी निश्चयदृष्टि में तो बन्धन और मुक्ति आत्मा का कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व ऐसी मौलिक धारणाएं हैं जिसे वह स्वीकार करके ही आगे बढ़ती है । यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्द एवं अन्य जैनाचार्यों ने निश्चय में दो भेद स्वीकार किए। आचार्य कुन्दकुन्द तत्वज्ञान के क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाले निश्चयनय (परमार्थदृष्टि) को शुद्ध निश्चयनय कहते हैं जबकि आचारलक्षी निश्चयदृष्टि को अशुद्ध निश्चयनय कहते हैं। अन्य आचार्यों ने निश्चयनय के द्रव्याथिक निश्चयनय और पर्यायाथिक निश्चयनय ऐसे दो विभाग किये हैं। इसमें द्रव्याथिक निश्चयनय तत्वदर्शन के क्षेत्र में उपयोग की जाने वाली निश्चयदृष्टि है जबकि पर्यायाथिक निश्चयनय आचार दर्शन के क्षेत्र में उपयोग की जाने वाली निश्चयदृष्टि है। द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक नयों की दृष्टि से नैतिकता का विचार इसी तथ्य को जैन विचारणा के अनुसार एक दूसरी प्रकार से भी प्रस्तुत किया जा सकता है। जैनागमों में द्रव्याथिक और पर्यायाथिक ऐसे दो दृष्टिकोण या नय भी स्वीकार किए गए हैं। सांख्यदर्शन परिणामवाद को मानता है लेकिन वह केवल प्रकृति की दृष्टि से जबकि जैनदर्शन जड़ और चेतन उभय परम तत्वों की दृष्टि से परिणामवाद मानता है। सत् का एक पक्ष वह है जिसमें वह प्रतिक्षण बदलता रहता है जबकि दूसरा पक्ष वह है जो इन परिवर्तनों के पीछे है। जैनदर्शन उस अपरिवर्तनशील शाश्वत पक्ष को अपनी पूर्वमान्यता के रूप में स्वीकार कर लेता है लेकिन नैतिकता की सारी सम्भावना एवं सारी विवेचना तो इस परिवर्तनशील पक्ष के लिए है-- नैतिकता एक गत्यात्मकता है, एक प्रक्रिया है, एक होना है (Becoming) जो परिवर्तन की दशा में ही सम्भव है। उस अपरिवर्तनीय पक्ष की दृष्टि से जो मात्र (Being) है, कोई नैतिक विचारणा सम्भव ही नहीं। जैन विचारणा यह भी नहीं कहती है कि हमारा नैतिक आदर्श परिवर्तनशीलता (becoming) से अपरिवर्तनशीलता (being) की अवस्था को प्राप्त करना है क्यों कि यदि सत् स्वयं उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यगुण युक्त है तो फिर मोक्ष अवस्था में यह गुण रहेंगे । जैन विचारणा मोक्षावस्था में आत्मा का परिणामीपन स्वीकार करती है। जैन विचारणा के अनुसार परिवर्तन या पर्याय ( Mode) दो प्रकार के होते हैं.----एक स्वभाव पर्याय या सरूप-परिवर्तन (Homogenous changes) और दूसरे विभावपर्याय या विरूप-परिवर्तन (Hetrogenous changes) होते हैं। जैन नैतिकता का आदर्श मात्र आत्मा को विभाव पर्याय की अवस्था से स्वभाव पर्याय अवस्था में लाना है। इस प्रकार जैन नैतिकता सत् के द्रव्याथिक पक्ष को अपनी विवेचना का विषय न बनाकर सत् के पर्यायाथिक पक्ष को हो अपनी विवेचना का विषय बनाती है। जिसमें स्वभाव पर्यायावस्था को प्राप्त करना ही उसका नैतिक आदर्श है। स्वभावपर्याय या सरूप-परिवर्तन वे अवस्थाएं हैं जो वस्तु तत्व के निज गुणों के कारण होते हैं एवं अन्य तत्व से निरपेक्ष होते हैं। इसके विपरीत अन्य तत्व से सापेक्ष परिवर्तन-अवस्थाएं विभावपर्याय होती हैं। अतः नैतिकता के प्रत्यय की दृष्टि से हम कह सकते हैं कि आत्मा का स्व स्वभाव दशा में रहना यह नैतिकता का निरपेक्ष स्वरूप है। इसे ही आचारलक्षी निश्चयनय कहा जा सकता है क्योंकि जैनदृष्टि से सारे नैतिक समाचरण का सार या साध्य यही है, जिसे किसी अन्य का साधन नहीं माना जा सकता। यही स्वलक्ष्य मूल्य (end in itself) है । शेष सारा समाचरण इसी के लिये है, अतः साधन रूप है, सापेक्ष है और साधन रूप होने के कारण मात्र व्यवहारिक नैतिकता है। १ अण्ण निरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जाओ। (अन्य निरपेक्षो यः परिणामः स स्वभावपर्यायः) -नियमसार २८ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय और व्यवहार : किसका आश्रय लें? २५७ आचार दर्शन के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि और व्यवहारदृष्टि का अर्थ आचार के क्षेत्र में निश्चयनय का अर्थ जैन आचार दर्शन का नैतिक आदर्श मोक्ष है, अतएव जो आचार सीधे रूप में मोक्ष लक्षी है वह नैश्चयिक आचार है । अर्थात् समाचरण का वह पक्ष । जिसका सीधा सम्बन्ध हमारे बन्धन और मुक्ति से है, नैश्चयिक आचार है, वस्तुतः बन्धन और मुक्ति का सीधा कारण समाचरण का बाह्य स्वरूप नहीं होता वरन् व्यक्ति की आभ्यन्तर मनोवृत्तियां ही होती हैं अतः वे चैतसिक तत्व या आभ्यन्तर मनोवृत्तियां जो हमारे बन्धन और मुक्ति का सीधा कारण बनती हैं आचार दर्शन के क्षेत्र में निश्चय नय या परमार्थ दृष्टि के सीमा क्षेत्र में आती हैं। मिथ्यात्व और कषाय अथवा राग, द्वेष और मोह की त्रिपुटी का सम्बन्ध हमारे नैश्चयिक आचार से है। संक्षेप में समाचरण का आन्तर् पक्ष आचारलक्षी निश्चयनय का सीमा क्षेत्र है। नैतिक निर्णयों की वह दृष्टि जो बाह्य समाचारण या क्रियाकलापों से निरपेक्ष मात्र कर्ता के प्रयोजन को लक्ष्य में रखकर शुभाशुभता विचार करती है, निश्चय दृष्टि है।' आचारदर्शन के क्षेत्र में भी नैश्चयिक आचार सदैव ही एक होता है। नैश्चयिक दृष्टि से जो शुभ है वह सदैव ही शुभ है, जो अशुभ है वह सदैव अशुभ है । देश, काल एवं व्यक्तिक भिन्नताओं में भी उसमें विभिन्नताएँ नहीं होती हैं। वैचारिक या मनोजन्य अध्यवसायों का शुभत्व और अशुभत्व देश-कालगत भेदों से नहीं बदलता, उसमें अपवाद के लिये कोई स्थान नहीं होता है। व्यवहारिक नैतिकता में या समाचरण के बाह्य भेदों में भी उसकी एकरूपता बनी रह सकती है। पं० सुखलालजी के शब्दों में नैश्चयिक आचार की (एक ही) भूमिका पर वर्तमान एक ही व्यक्ति अनेकविध व्यवहारिक आचारों में से गुजरता है। यही नहीं, इसके विपरीत समाचरण की बाह्य एकरूपता में भी नैश्चयिक दृष्टि आचार की भिन्नता हो सकती है। वस्तुतः आचार दर्शन के क्षेत्र में नैश्चयिक आचार वह केन्द्र है जिसके आधार से व्यवहारिक आचार के वृत्त बनते हैं। एक केन्द्र से खीचे गये अनेक वृत्त बाह्य रूप से भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हुए भी अपने केन्द्र की दृष्टि से एक ही रूप माने जाते हैं, उनमें परिधिगत विभिन्नता होते हुए भी केन्द्र गत एकता होती है । जैनदृष्टि के अनुसार निश्चय आचार सारे बाह्य आचरण का केन्द्र होता है, सार होता है। आचार दर्शन के क्षेत्र में निश्चय और व्यवहार के सही मूल्यांकन के लिये हम एक दूसरी दृष्टि से भी विचार कर सकते हैं। आचार दर्शन में निश्चय दृष्टि या परमार्थ दृष्टि नैतिक समाचरण का मूल्यांकन उसके आन्तर् पक्ष, प्रयोजन या उसकी लक्ष्योन्मुखता के आधार पर करती है । दूसरे शब्दों में कहें तो यह एक वैयक्तिक दृष्टि से ही जो व्यक्ति के समाचरण का मूल्यांकन उसके लक्ष्य की दृष्टि से करती है । जैनदर्शन के अनुसार नैश्चयिक नैतिकता नैतिक समाचरण के संकल्पात्मक पक्ष का अध्ययन करती है लेकिन नैतिकता मात्र संकल्प ही नहीं है। नैतिक जीवन के लिए संकल्प अत्यन्त आवश्यक, अनिवार्य तत्व है लेकिन मात्र ऐसा संकल्प जिसमें समाचरण (Performance) का प्रयास न हो, सच्चा संकल्प नहीं होता। इसलिए नैतिक जीवन के लिए संकल्प को मात्र संकल्प नहीं रहना चाहिए वरन् कार्य रूप में परिणत भी होना चाहिए और यही संकल्प की १ बाह्य निरपेक्षपरिणामः (जैन विचारणा में परिणाम शब्द मन-दशाओं का सूचक होता है) --अभिधानराजेन्द्र. खण्ड ४, पृ०-२०५६ २ दर्शन और चिन्तन, भाग २, पृ०-४६६ ३ बाह्यस्य आभ्यन्तरत्वं-अभिधान राजेन्द्र. खण्ड ४ पृ०-२०५६ nasannamaanBRAJARURAAJKARINNAMAIRinandanaasarawadAAJAMALALAINIAAAAAAJALANKARAMBAKAARAAAAAAAAAABADALAIM आचार्यप्रवर अभिआचार्यप्रवर आभ श्रीआनन्दथश्रीआनन्दन्थ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HARiminadAAAAAAAAAAAAAwatantanARMANAJASNALAMAuditArAAAAAAAAAAAKAMANA... अपामप्रवभिभाचार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्दसन्थश्राआनन्द10५१ २५८ धर्म और दर्शन IAAD कार्य रूप में परिणति नैतिकता का दूसरा पक्ष प्रस्तुत करती है। मात्र संकल्प तो व्यक्ति तक सीमित हो सकता है, उसका समाज पर कोई प्रभाव नहीं होता, वह समाज निरपेक्ष हो सकता है, लेकिन संकल्प को जब कार्य रूप में परिणत किया जाता है, तो वह मात्र वैयक्तिक नहीं रहता है वरन् सामाजिक बन जाता है। अतः नैतिकता का विचार केवल नैश्चयिक या पारमार्थिक दृष्टि पर ही नहीं किया जा सकता है। ऐसा नैतिक मूल्यांकन मात्र आंशिक होगा, अपूर्ण होगा। अतः नैतिकता के समुचित मूल्यांकन के लिए नैतिकता में बाह्य या सामाजिक पक्ष पर भी विचार करना होगा, लेकिन यह सीमा क्षेत्र आचारलक्षी निश्चय नय का नहीं वरन् व्यवहार नय का है । आचार के क्षेत्र में व्यवहार दृष्टि नैतिकता के क्षेत्र में व्यवहार दृष्टि वह है जो समाचरण के बाह्य पक्ष पर बल देती है। उसमें एकरूपता नहीं विविधता होती है। डा० सुखलाल जी संघवी के शब्दों में "..." व्यवहारिक आचार ऐसा एक रूप नहीं। नैश्चयिक आचार की भूमिका से निष्पन्न ऐसे भिन्न-भिन्न देश-काल-जातिस्वभाव-रुचि आदि के अनुसार कभी-कभी परस्पर विरुद्ध दिखाई देने वाले आचार व्यवहारिक आचार की कोटि में गिने जाते हैं।"१ व्यवहारिक आचार देश, काल एवं व्यक्ति सापेक्ष होता है, उसका स्वरूप परिवर्तनशील होता है। वह तो उन परिधियों के समान है जो समकेन्द्रक होते हुए देश (space) में अलग होती है। आचार दर्शन के क्षेत्र में व्यवहारदृष्टि कर्ता के प्रयोजन को गौण कर कर्मपरिणामों का लोकदृष्टि से विचार करती है। वह यह बताती है कि देशकालगत नैतिकता क्या है। किस देश और किस काल में समाचरण के नियमों का बाह्य स्वरूप क्या होगा? इसका निश्चय नैतिकता की व्यवहार दृष्टि करती है। वह देश, काल एवं नैयक्तिक परिस्थितियों के आधार पर नैतिक समाचरण के बाह्य स्वरूप का निर्धारण करती है। जहाँ तक समाचरण के शुभत्व और अशुभत्व के मूल्यांकन करने का प्रश्न है आचरण के आभ्यन्तर पक्ष या कर्ता के प्रयोजन के आधार पर उनके शुभत्व और अशुभत्व का मूल्यांकन नैतिकता की निश्चय दृष्टि करती है जबकि आचरण के बाह्य पक्ष या उसके फल के आधार उनके शुभत्व और अशुभत्व का निश्चय नैतिकता की व्यवहार दृष्टि करती है। जैन विचारणा के अनुसार कर्मों के इस द्विविध मूल्यांकन में ही उसका समुचित मूल्यांकन सम्भव होता है, यद्यपि यह भी सम्भव है कि कोई कर्म निश्चय दृष्टि से शुद्ध या नैतिक होते हुए भी व्यवहारदृष्टि से अशुद्ध या अनैतिक हो सकता है। जैसे-साधु का वह व्यवहार जो शुद्ध मनोभाव और आगमिक आज्ञाओं के अनुकूल होते हुए भी यदि लोकनिन्दा या लोकघृणा का कारण है तो वह निश्चयदृष्टि से शुद्ध होते हुए भी व्यवहारदृष्टि से अशुद्ध है । इसी प्रकार कोई कर्म या समाचरण का रूप व्यवहारदृष्टि से शुद्ध या नैतिक प्रतीत होते हुए भी निश्चयदृष्टि से अशुभ या अनैतिक हो सकता है। जैसे फलाकांक्षा से किया हुआ तप अथवा परोपकार, यह व्यवहार दृष्टि से शुभ होते हुए भी निश्चय दृष्टि से अशुभ है। जैन आचार दर्शन इस तथ्य को स्वीकार करता है कि नैतिक समाचरण में मात्र आन्तरपक्ष या कर्ता का विशुद्ध प्रयोजन ही पर्याप्त नहीं है, लोकव्यवहार की दृष्टि से बाह्य आचरण भी आवश्यक है। यही नहीं, ऐसा साधक जिसने नैतिक आदर्श की उपलब्धि कर ली है उसे भी लोक-व्यवहार की दृष्टि का आचरण करना आवश्यक है। १ दर्शन और चिन्तन, भाग २ पृ०-४६६ २ व्यवहारा जनोदितम् (लोकाभिमतमेव व्यवहारः) अभिधान राजेन्द्र खण्ड ४ पृ०-२०५६ ३ क्षेत्र कालं च प्राप्ययो यथा सम्भवति तेन तथा व्यवहारणीयम्-अभिधान राजेन्द्र खण्ड ४ -पृ० १०७ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय और व्यवहार : किसका आश्रय लें? २५६ निश्चय नैतिकता का स्वरूप नैतिकता के नैश्चयिक या पारमार्थिक स्वरूप की चर्चा करने के पूर्व पुनः यह बता देना आवश्यक है कि प्रथमतः विशुद्ध द्रव्याथिकनय या शुद्ध निश्चय जो कि तत्वमीमांसा की एक विधि है, जब नैतिकता के क्षेत्र में प्रयुक्त की जाती है तो वह दो बातें प्रस्तुत करती है १-नैतिक आदर्श या साध्य का शुद्ध स्वरूप, २-नैतिकता साध्य का नैतिक साधना से अभेद । हमें इस सम्बन्ध में भी स्पष्ट रहना चाहिए कि नैतिक साध्य वह स्थिति है कि जहाँ आकर नैतिकता स्वयं समाप्त हो जाती है क्योंकि उसके आगे कोई पाना नहीं है, कोई चाहिए नहीं है और इसलिए कोई नैतिकता नहीं है। क्योंकि नैतिकता के लिये 'चाहिए' या 'आदर्श' आवश्यक है अतः नैतिक साध्य उस स्थान पर स्थित है जहाँ तत्वमीमांसा और आचार दर्शन मिलते है, अतः नैतिक साध्य की व्याख्या शुद्ध निश्चयनय, विशुद्ध पारमार्थिक दृष्टि से ही सम्भव है। वस्तुतः तो वह अवाच्य एवं निर्विकल्प अवस्था है। दूसरी ओर नैतिक साध्य पूर्णता की वह स्थिति है कि जब हम उस साध्य की भूमिका पर स्थित होकर विचार करते हैं तो वहाँ साध्य, साधक और साधनापथ का अभेद हो जाता है, क्योंकि जब आदर्श उपलब्ध हो जाता तो आदर्श, आदर्श नहीं रहता और साधक, साधक नहीं रहता, न साधनापथ, साधनापथ ही रहता है। नैतिक पूर्णता की अवस्था में साधक, साध्य और साधनापथ का विभेद टिक नहीं पाता है। यदि साधक है तो उसका साध्य होगा और यदि कोई साध्य है तो फिर नैतिक पूर्णता कैसी ? साध्य, साधक और साधना सापेक्षिक पद है, यदि एक है तो दूसरा है। साध्य के अभाव में न साधक, साधक होता है और न साधनापथ, साधनापथ । उस अवस्था में तो मात्र विशुद्ध सत्ता है, आत्मा है। यदि पूर्वावस्था की दृष्टि से उपचार रूप में कहना हो तो कह सकते हैं कि उस दृष्टि से साध्य भी आत्मा है, साधक भी आत्मा है और ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप साधना पथ भी आत्मा है। तीसरे आचार दर्शन में पारमार्थिक दृष्टि या आन्तरिक नैतिकता की दृष्टि आचरण की शुभाशुभता का निर्णय आचरण के बाह्य रूप से नहीं करती वरन् कर्ता के आन्तरिक प्रयोजन अथवा नैतिक साधना के आदर्श के सन्दर्भ में करती है। आचरण का दिखाई देने वाला रूप उसके लिए महत्त्वपूर्ण नहीं होता है। आचरण के विधि-विधानों से पारमार्थिक या नैश्चयिक आचार का कोई सम्बन्ध नहीं होता है, उसका सम्बन्ध तो विशुद्ध रूप से कर्ता की आन्तरिक मनोवृत्तियों से है। संक्षेप में नैतिकता की नैश्चयिक दृष्टि का सम्बन्ध वैयक्तिक नैतिकता (Individual Morality) है। जैन विचारणा के अनुसार कषायों (अन्तरिक वासनाओं) का सम्बन्ध इसी नैश्चयिक नैतिकता से है। मनुष्य में वासना एवं आसक्ति या तृष्णा की अग्नि जिस मात्रा में शांत होती है, उसी मात्रा में वह नैश्चयिक आचार की दृष्टि से विकास की ओर बढ़ा हुआ माना जाता है। नैश्चयिक नैतिकता में क्रिया या आचरण का महत्व नहीं, महत्व है मनोभावों का । नैश्चयिक नैतिकता क्रिया (Doing) या आचरण की अवस्था नहीं, वरन् अनुभूति या साक्षात्कार की अवस्था है। इसमें शुभाशुभत्व का माप इस आधार पर नहीं होता कि व्यक्ति क्या करता है, वरन् इस आधार पर होता है कि वह अपने परमात्मत्व को कहाँ तक पहचान पाया है। आत्मोपलब्धि (Self realization) या परम तत्व (Reality) का साक्षात्कार ही नैतिक जीवन का परमादर्श है और इस आदर्श के सन्दर्भ में मनोभावों का आकलन करना ही परमार्थिक या नैश्चयिक नैतिकता का प्रमुख कार्य है। व्यक्ति के आन्तरिक विचलन या संघर्ष को समाप्त कर विकार एवं मनोजगत में सांगसंतुलन या आन्तरिक समत्व को बनाए रखना नैश्चयिक आचारदर्शन का क्षेत्र है। आपाप्रत्रिआचार्य अत्र बया OI श्राआन्दका अन्य प्राआनन्न Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ May अध्या - + - - - HRAM YON सर्मिप्रवभिआपाप्रवन अभि श्राआनन्दअन्यश्राआनन्द more vavir a mayanroinwwm २६० धर्म और दर्शन व्यवहार नैतिकता का स्वरूप व्यवहारिक नैतिकता का सम्बन्ध आचरण के उन बाह्य विधि-विधानों से है जिनके पालन की नैतिक साधक से अपेक्षा की जाती है। समाजदृष्टि या लोकदृष्टि ही व्यवहारिक नैतिकता के शुभाशुभत्व का आधार है । व्यवहार नैतिकता कहती है कि कार्य चाहे कर्ता के प्रयोजन की दृष्टि से शुद्ध हो लेकिन यदि वह लोकविरुद्ध या जनभावना के प्रतिकूल है तो उसका आचरण नहीं करना चाहिए। वस्तुतः नैतिकता का व्यवहारदर्शन आचरण को सामाजिक सन्दर्भ में परखता है। यह आचरण शुभाशुभत्व के मापन की समाजसापेक्ष पद्धति है जो व्यक्ति के सम्मुख समाजिक नैतिकता (Social Morality) को प्रस्तुत करती है। इसका परिपालन वैयक्तिक साधना की दृष्टि से इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना समाज या संघ व्यवस्था की दृष्टि से । यही कारण है वैयक्तिक साधना की परिपूर्णता के पश्चात् भी जैन आचारदर्शन समान रूप से इसके परिपालन को आवश्यक मानता रहा है। __ आचरण के सारे विधि-विधान, आचरण की समग्र विविधताएँ, व्यवहार नैतिकता का विषय हैं। व्यवहार नैतिकता क्रिया (Doing) है अतः आचरण कैसे करना इस तथ्य का निर्धारण करना व्यवहारिक नैतिकता का विषय है। गृहस्थ एवं संन्यास जीवन के सारे विधि-विधान जो व्यक्ति और समाज अथवा व्यक्ति और उसके बाह्य वातावरण के मध्य एक सांग संतुलन को बनाए रखने के लिए प्रस्तुत किये जाते हैं, व्यवहारिक नैतिकता का क्षेत्र है। नैतिकता के क्षेत्र में व्यवहार दृष्टि के ५ आधार व्यवहार दृष्टि से नैतिक समाचरण एक सापेक्ष तथ्य सिद्ध होता है। उसके अनुसार देशकाल, वैयक्तिक स्वभाव, शक्ति और रुचि के आधार पर आचार के नियमों में परिवर्तन सम्भव है। यदि व्यवहारिक आचार में भिन्नता सम्भव है, तो प्रश्न होता है कि इस बात का निश्चय कैसे किया जावे कि किस देश काल एवं परिस्थिति में कैसा आचरण किया जावे ? आचरण का बाह्य स्वरूप क्या हो? जैन विचारकों ने इस प्रश्न का गम्भीरता पूर्वक उत्तर दिया है। वे कहते हैं कि निश्चय दृष्टि से तो संकल्प (अध्यवसाय) की शुभता ही नैतिकता का आधार है लेकिन व्यवहार के क्षेत्र में शुभत्व और अशुभत्व के मुल्यांकन करने, आचरण के नियमों का निर्धारण करने के पाँच आधार हैं और इन्हीं पांच आधारों पर व्यवहार के भी पाँच भेद होते हैं। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि इन पाँच आधारों में पूर्वापरत्व का क्रम भी है और पूर्व में आचरण के हेतु निर्देशन की उपलब्धि होते हुए भी पर (निम्न) का उपयोग करना भी अनैतिकता है। (१) आगम-व्यवहार किसी देश-काल एवं वैयक्तिक परिस्थिति में किसी प्रकार का आचरण करना। इसका प्रथम निर्देश हमें आगम ग्रन्थों में मिल जाता है, अतः आचरण के क्षेत्र में प्रथमतः आगमों में वर्णित नियमों के अनुसार व्यवहार करना चाहिए । यही आगम-व्यवहार है । (२) श्रुत-व्यवहार श्रुत शब्द के दो अर्थ होते हैं--१ अभिधारण और २ परम्परा । जब किसी विशेष परिस्थिति में कैसा समाचरण किया जावे, इसके सम्बन्ध में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं मिलता हो या आगम १ यद्यपि शुद्धं तदपि लोकविरुद्धं न समाचरेत् । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय और व्यवहार किसका आश्रय लें ? २६१ अनुपलब्ध हो, ऐसी स्थिति में कर्तव्य क्या है ? इसका निर्णय इस सम्बन्ध में जो पूर्वाचार्यों से सुन रखा हो उसके आधार पर करना चाहिए अथवा प्राचीन समय में ऐसी विशेष परिस्थिति में कैसा व्यवहार किया गया था या परम्परा क्या थी, इसके आधार पर करना चाहिए। ( परम्परायामपि विभाषा कर्तव्याः ) (३) आज्ञा व्यवहार किसी देश काल एवं वैयक्तिक वैभिन्य के आधार पर उत्पन्न विशेष परिस्थिति में किस प्रकार का समाचरण करना इसके सम्बन्ध में न तो आगमों में स्पष्ट निर्देशन हो, न परम्परा या पूर्वाचार्यों के अनुभव ही कुछ बता पाते हों तो ऐसी स्थिति में कर्तव्य का निश्चय अपने से वरिष्ठजनों की आज्ञा के आधार पर ही करना चाहिए । वरिष्ठजनों, गुरुजनों अथवा देशकाल आदि परिस्थितियों से विज्ञ विद्वान (गीतार्थ) की आज्ञा के अनुरूप आचरण करना आज्ञा व्यवहार है । (४) धारणा व्यवहार यदि परिस्थिति ऐसी हो कि जिसके सम्बन्ध में न तो आगमों में स्पष्ट निर्देश मिल रहा हो, न पूर्व परम्परा ही कुछ बता पाने में समर्थ हो और न निकट में कोई देश-काल विज्ञ वरिष्ठजन ही हो, न इतना समय ही हो कि किसी दूरस्थ विज्ञ एवं गुरुजन से कोई निर्देश प्राप्त किया जा सके, ऐसी स्थिति में किंकर्तव्य या कर्म शुभाशुभता का निश्चय स्व-विवेक से करना चाहिए। स्व-विवेकबुद्धि से निश्चित किए हुए कर्तव्यपथ पर आचरण करना धारणा व्यवहार है । (५) जीत व्यवहार यदि परिस्थिति ऐसी हो कि जिसमें किंकर्तव्य या कर्म की शुभाशुभता के निश्चय का उपरोक्त कोई भी साधन सुलभ न हो और स्व-बुद्धि भी कुण्ठित हो गई हो अथवा कोई निर्णय देने में असमर्थ हो वहाँ पर लोकरूढि के अनुसार आचरण करना चाहिए। यह लोकरूढि के अनुसार आचरण करना जीत - व्यवहार है । यहाँ सम्भवतः एक आक्षेप जैन विचारणा पर किया जा सकता है, वह यह है कि, आगम, श्रुत, एवं आज्ञा के पश्चात् स्व-विवेक को स्थान देकर मानवीय बुद्धि के महत्व का समुचित अंकन नहीं किया गया है । लेकिन यह मान्यता भ्रान्त है । वस्तुतः बुद्धि के जिस रूप को निम्न स्थान दिया गया है वह बुद्धि का वह रूप है जिसमें वासना या राग-द्वेष की उपस्थिति की सम्भावना बनी हुई है । सामान्य साधक जो वासनात्मक जीवन या राग द्वेष से ऊपर नहीं उठ पाया उसके स्व-विवेक के द्वारा किंकर्तव्य मीमांसा में गलत निर्णय की सम्भावना बनी रहती, बुद्धि की इस अपरिपक्व दशा में यदि स्व-निर्णय का अधिकार प्रदान कर दिया जावे तो यथार्थ कर्तव्यपथ से च्युति की सम्भवना ही अधिक होती हैं । यदि मूल शब्द धारणा को देखें तो यह अर्थ और भी स्पष्ट हो जाता है । धारणा शब्द विवेक बुद्धि या निष्पक्ष बुद्धि की अपेक्षा आग्रह- बुद्धि का सूचक है और आग्रह- बुद्धि में स्वार्थपरायणता या रूढता के भाव ही प्रबल होते हैं, अतः ऐसी आग्रह बुद्धि को किंकर्तव्यमीमांसा में अधिक उच्च स्थान प्रदान नहीं किया जा सकता। साथ ही यदि धारणा या स्व-विवेक को अधिक महत्व दिया जावेगा तो नैतिक प्रत्ययों की सामन्यता या वस्तुनिष्ठता समाप्त हो जायेगी और नैतिकता के क्षेत्र में वैयक्तिकता का स्थान ही प्रमुख हो जावेगा। दूसरी और यदि हम देखें तो आज्ञा, श्रुत और आगम भी अबौद्धिक नहीं हैं वरन् उनमें क्रमशः बुद्धि की उज्ज्वलता या निष्पक्षता ही बढ़ती जाती है। आज्ञा देने के योग्य जिस गीतार्थ का निर्देश जैनागमों में किया गया है वह एक ओर देश, काल या परिस्थिति को यथार्थ रूप में समझता है, दूसरी ओर आर्यप्र श्री आनन्द wow www.rim डॉ. 乘 ग्रन्थ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ عععععععععععقده واقعیففععلها هل منعععععععه V आचार्यप्रवभिनासम्म श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्द २६२ धर्म और दर्शन आगम ग्रन्थों का मर्मज्ञ भी होता है। वस्तुतः वह आदर्श (आगमिक आज्ञाएँ) एवं यथार्थ (वास्तविक परिस्थितियाँ) के मध्य समन्वय कराने वाला होता है। वह यथार्थ को दृष्टिगत रखते हुए आदर्श को इस रूप में प्रस्तुत करता है कि उस आदर्श को यथार्थ बनाया जा सके । गीतार्थ की आज्ञा नैतिक जीवन का एक ऐसा सत्य है जिसका आदर्श सदैव यथार्थ बनने की क्षमता रखता है। सरल शब्दों में कहें तो गीतार्थ की आज्ञाओं का पालन सदैव ही सम्भव होता है क्योंकि वे देश, काल एवं व्यक्ति की परिस्थिति को ध्यान में रख कर दी जाती हैं। श्रुत एवं आगम-परम्परा के उज्ज्वलतम आदर्शों को तथा उच्च एवं निष्पक्ष बुद्धिसम्पन्न महापुरुषों के निर्देशों को साधक के सामने प्रस्तुत करते हैं, जिनकी बौद्धिकता का महत्व सामान्य साधक की अपेक्षा सदैव ही अधिक होता है। आचारदर्शन के क्षेत्र में नैश्चयिक एवं व्यवहारिक दृष्टिकोणों की तुलना एवं समालोचना तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर तत्वज्ञान के क्षेत्र में प्रयुक्त नैश्चयिक दृष्टि (पारमार्थिक दृष्टि) की अपेक्षा आचारलक्षीनैश्चयिक दृष्टि की यह विशेषता है कि जहाँ तत्वज्ञान के क्षेत्र में नैश्चयिक दृष्टि प्रतिपादित सत्ता (परम तत्व) का स्वरूप विभिन्न दर्शनों में भिन्न-भिन्न है वहां आचारलक्षी नैश्चयिक दृष्टि से प्रतिपादित निश्चय आचार (पारमार्थिक नैतिकता) सभी मोक्षलक्षी दर्शनों में एक रूप ही है । आचरण के नियमों का बाह्यपक्ष या आचरण की शैली भिन्न-भिन्न होने पर भी उसका आन्तर् पक्ष या लक्ष्य सभी दर्शनों में समान है। विभिन्न मोक्षलक्षी दर्शनों से नैतिक आदर्श, मोक्ष का स्वरूप, तत्वदृष्टि भिन्न होते हुए भी लक्ष्य दृष्टि से एक ही है और इसी हेतुकी एकरूपता के कारण आचरण का नैश्चयिक स्वरूप भी एक ही है। पं० सुखलाल जी लिखते हैं 'यद्यपि जैनेतर सभी दर्शनों में निश्चयदृष्टि-सम्मत तत्वनिरूपण एक नहीं है तथापि सभी मोक्षलक्षी दर्शनों में निश्चयदृष्टि-सम्मत आचार व चरित्र एक ही है, भले ही परिभाषा या वर्गीकरण आदि भिन्न हो।' जहाँ तक जैन और बौद्ध आचारदर्शन की तुलना का प्रश्न है, दोनों ही काफी निकट हैं । बौद्धदर्शन भी मोक्षलक्षी दर्शन है, वह समस्त नैतिक समाचरण का मूल्यांकन उसी के आधार पर करता है । उसकी नैतिक विवेचना का सार चार आर्य सत्यों को धारणा में समाया हुआ है। उसके अनुसार दुःख है, दुःख का कारण (दुःख समुदय) है, दुःख के कारण का निराकरण सम्भव है और दुःख के कारण के निराकरण का मार्ग है । बौद्धदर्शन के इन चार आर्य सत्यों को दूसरे शब्दों में कहे तो बंधन (दुःख) और बंधन (दुःख) का कारण और बन्धन से विमुक्ति (मोक्ष) और बन्धन से विमुक्ति का मार्ग इन्हीं चार बातों को जैन नैतिकता में क्रमशः बंध, आश्रव, मोक्ष और संवरनिर्जरा कहा गया है। जैन विचारणा का बंध बौद्ध विचारणा का दुःख है, आश्रव उस दुःख का कारण है, मोक्ष दुःख विमुक्ति है और संवर-निर्जरा दुःख-विमुक्ति का मार्ग है। निश्चय और व्यवहार में महत्वपूर्ण कौन यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि नैश्चयिक आचार अथवा नैतिकता के आन्तरिक स्वरूप और व्यवहारिक आचार या नैतिक आचरण के बाह्यस्वरूप में महत्वपूर्ण कौन है ? __ जैनदर्शन की दृष्टि से इस प्रश्न का उत्तर यह होगा कि यद्यपि साधक की वैयक्तिक दृष्टि से नैतिकता का आन्तरिक पहलू महत्वपूर्ण है लेकिन फिर भी सामाजिक दृष्टि से आचरण के बाह्य पक्ष की अवहेलना नहीं की जा सकती-जैन नैतिकता यह मानकर चलती है कि यथार्थ नैतिक जीवन में नैश्चयिक आचार और व्यवहारिक आचरण में एकरूपता होती है, आचरण के आन्तर १ दर्शन और चिन्तन, भाग २ पृ०-४६८ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय और व्यवहार : किसका आश्रय लें? २६३ co एवं बाह्य पक्षों में कोई अन्तर नहीं होता । विशुद्ध मनोभाव की अवस्था में अनैतिक आचरण सम्भव ही नहीं होता। यही नहीं वह नैतिक पूर्णता की प्राप्ति के पश्चात भी साधक को संघधर्म के बाह्य नियमों के समाचरण को यथावत करते रहने का विधान करती है। जैसे नैतिकता कहती है कि यदि शिष्य नैतिक पूर्णता को प्राप्त कर लेता है और आचार्य उस पूर्णता को प्राप्त नहीं कर पाया हो फिर भी संघमर्यादा के लिए शिष्य को गुरु की यथावत सेवा करना चाहिए।' इस प्रकार वह निश्चय दृष्टि या परमार्थ दृष्टि पर बल देते हुए भी व्यवहार का लोप नहीं करती, मात्र यही नहीं परमार्थ की उपलब्धि पर भी व्यवहार धर्म के यथावत् परिपालन पर आवश्यक बल देती है। गीता और बौद्ध आचारदर्शन भी वैयक्तिक दृष्टि से आचरण के आन्तर् पक्ष पर यथेष्ठ बल देते हुए भी लोक व्यवहार संचरण या आचरण के बाह्य रूपों के परिपालन को भी आवश्यक मानते हैं । गीता कहती है कि जिस प्रकार सामान्य जन लोकव्यवहार का संचरण करता है उस प्रकार विद्वान भी अनासक्त होकर लोकशिक्षा के हेतु को ध्यान में रखकर लोकव्यवहार का संचरण करता रहे । २ गीता का वर्णाश्रमधर्म और लोकसंग्रह का सिद्धान्त भी इसी का प्रतीक है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नैश्चयिक आचार या नैतिक जीवन के आन्तरिक स्वरूप का वैयक्तिक दृष्टि से पर्याप्त महत्व होते हुए भी लोकदृष्टि से आचरण के बाह्य पक्ष का महत्व झुठलाया नहीं जा सकता। जैनदृष्टि के अनुसार वास्तविकता यह है कि नैतिकता के आन्तर और बाह्य पक्ष की या नैश्चयिक और व्यावहारिक आचरण की सबलता अपने स्व-स्थान में है। वैयक्तिक दृष्टि से निश्चय या आचरण का आन्तर् पक्ष महत्वपूर्ण है लेकिन समाज दृष्टि से आचरण का बाह्य स्वरूप भी महत्वपूर्ण है, दोनों में कोई तुलना ही नहीं की जा सकती, क्योंकि निश्चयलक्षी एवं व्यवहारलक्षी आचरण का महत्व व्यक्तिगत और समाजगत ऐसे दो भिन्न-भिन्न आधारों पर है। दोनों में से किसी एक को भी छोड़ा नहीं जा सकता क्योंकि व्यक्ति स्वयं में ही व्यक्ति और समाज दोनों ही एक साथ है। महात्मा गांधी के आध्यात्मिक गुरु तुल्य सत्पुरुष श्री राजचन्द्रभाई इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं 3 'यदि कोई निश्चयदृष्टि अर्थात् नैतिक जीवन में आन्तरिक वृत्तियों को ही महत्व देता है और आचरण की बाह्य क्रियाओं (सद् व्यवहार) का लोप करता है वह साधना से रहित है । वास्तविकता यह है कि तात्विक निश्चय दृष्टि को अर्थात् आत्मा असंग, अबद्ध और नित्य सिद्ध है ऐसी वाणी को सुनकर साधन अर्थात् क्रिया को छोड़ना नहीं चाहिए, वरन् परमार्थदृष्टि को आदर्श रूप में स्वीकार करके अर्थात् उस पर लक्ष्य रखकर के बाह्य क्रियाओं का आचरण 7LDSSI S १ जे सदगुरु उपदेशथी पाम्यो केवलज्ञान । गुरु रह्या छद्मस्थ पण विनय करे भगवान ।। -आत्मसिद्धि शास्त्र १६ २ गीता ३।२५ ३ ला स्वरूप न वृत्ति न ग्रह्य व्रत अभिमान । ग्रहे नहीं परमार्थने लेवा लौकिक मान ॥२८ अथवा निश्चय नय आहे मात्र शब्दनी मांय । लोपे सद्व्यवहारने साधन रहित थाय ॥२६ निश्चय वाणी सांभली साधन तजवां नोय । निश्चय राखी लक्षमां साधन करवां सोय ।।१३१ नय निश्चय एकांत थी आमां नथी कहेल । एकांते व्यवहार नहीं वन्ने साप रहेल ॥१३२ -आत्मसिद्धि शास्त्र (राजचन्द्रभाई) RAamadaranevaalausamIASNewstainasenamARRAIMAANKinnamaAMINATokaaHIRALASERabarima भागावर अभिसापायप्रवर अभि श्रीआनन्दा श्रीआनन्दग्रन्थ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राआनन्द प्राआकाशन MAITrawariviaviM H ANI २६४ धर्म और दर्शन VASNA करते रहना चाहिए । क्योंकि यथार्थ नैतिक जीवन में एकान्त नैश्चयिक दृष्टि अथवा एकांत व्यवहार दृष्टि अलग-अलग नहीं रहकर कार्य नहीं करती वरन् एक साथ कार्य करती है। नैतिकता के आन्तपक्ष और वाह्यपक्ष दोनों ही मिलकर समग्र नैतिक जीवन का निर्माण करते हैं। नैतिकता के क्षेत्र में आन्तर शुभ और बाह्य व्यवहार नैतिक जीवन के दो भिन्न पहलू अवश्य हैं लेकिन अलग अलग तथ्य नहीं हैं। उन्हें अलग-अलग देखा जा सकता है लेकिन अलग-अलग किया नहीं जा सकता।' अन्त में हम एक जैनाचार्य के शब्दों में यही कहना चाहेंगे कि निश्चय राखी लक्ष मां, पाले जे व्यवहार । ते नर मोक्ष पामशे संदेह नहीं लगार ॥ FORE आनन्द-वचनामृत 0 प्रार्थना बुद्धि और तर्क का विषय नहीं किंतु श्रद्धा और भावना का विषय है बुद्धिमानों के लिए प्रार्थना अबूझ पहेली है, किंतु श्रद्धालु भक्त के लिए वह गुड़ की मीठी डली है। यह मत देखो कि प्रार्थना लंबी है या छोटी, संस्कृत, प्राकृत में है या भाषा में, किंतु यह देखो कि आपकी तन्मयता उसमें होती है या नहीं। प्रार्थना तो पिता के साथ बच्चे की बात जेसी सरल और भावनात्मक होनी चाहिए। । प्रार्थना की जो भी विधि, जो भी पाठ हमें शुद्ध चैतन्य के निकट ले जाये वही अच्छा है। 0 प्राकृतिक और भौतिक दुनिया में पशु मनुष्य से अधिक समर्थ है, किन्तु बौद्धिक और भावनात्मक दुनिया में मनुष्य पशु से हजार गुना श्रेष्ठ है। जो मनुष्य होकर भी यदि बुद्धि एवं भावना से हीन है तो वह फिर अपने को पशु से श्रेष्ठ कैसे कह सकता है ? U अज्ञान का अर्थ है मिथ्याधारणा गलत धारणा । मुर्ख को लोग कहते हैं गधा है । गधा कौन? ग-अर्थात् गलत धा-अर्थात् धारणा। गलत धारणा, मिथ्याज्ञान, अज्ञान, मूर्खता ये सब 'गधा' के सूचक हैं। 0 संस्कृत व्याकरण के अनुसार 'देवता' शब्द स्त्रीलिंग है। इसलिए संतों और तपस्वियों को 'देवता' की कामना-उपासना नहीं करना चाहिए, किन्तु जो देवताओं का भी आराध्य है, उस ‘परम पुरुष' की उपासना में ही लगना चाहिए। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A प्रो० दलसुख भाई मालवणिया [निदेशक-ला० द० भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद । भारतीय दर्शनों के प्रकांड विद्वान, जैनविद्या के अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध मनीषी] నాల शून्यवाद और स्याद्वाद भारतीय दार्शनिकों में यदि किसी वाद के विषय में भ्रान्ति हुई है तो सर्वप्रथम शून्यवाद के विषय में और बाद में स्याद्वाद के विषय में। शून्यवाद के लिए भ्रमजनक उस वाद का 'शून्य' शब्द ही हुआ है और स्याद्वाद के लिए 'स्यात्' शब्द । केवल इन शब्दों को ही पकड़कर दार्शनिकों ने इन इोनों वादों का खंडन किया है । शून्यवादी का खंडन परम नास्तिक मानकर और स्याद्वादी का खंडन संशयवादी मानकर किया गया है। इसमें दोनों के प्रति अन्याय हुआ है। दार्शनिकों ने दोनों वादों का गहराई से अध्ययन नहीं किया। परिणामतः जो कुछ खंडन हुआ उसमें दम नहीं है, तर्क नहीं है, केवल अटकलबाजी है। शून्यवादी उच्छेदवादी तो है नहीं, फिर नास्तिक कैसे है ? नास्तिक के लिए तो परमार्थ कुछ नहीं है जबकि शून्यवाद में परमार्थ है।' स्याद्वाद के प्रति आक्षेप है कि यह संशयवाद है किन्तु वस्तुतः वैसा नहीं है। यह तो स्याद्वाद के किसी भी ग्रन्थ को देखकर निर्णय किया जा सकता है। शंकर जैसे विद्वान् ने जब से इन दोनों वादों का खंडन साम्प्रदायिक दृष्टि अथवा स्थूल दृष्टि से किया है तब से प्रायः सभी दार्शनिकों ने उनका ही अनुसरण किया है, मूलग्रन्थों को देखने की किसी ने तकलीफ नहीं की । परिणाम यह है कि भारतीय दर्शन की दोनों विशिष्ट धारा का विशेष परिचय विद्वानों को हुआ नहीं है। भगवान बुद्ध ने अपने समय के उपनिषद्-संमत शाश्वतवाद और नास्तिक-संमत उच्छेदवाद दोनों को अस्वीकृत करके अपने प्रतीत्यसमुत्पादवाद की स्थापना की। स्पष्ट है कि यह वाद एक नया वाद है-उसमें कार्यकारण के संबंध के विषय में एक नई विचारणा अपनाई गई है। भगवान बुद्ध अपने को विभज्यवादी कहते हैं, एकांशवादी नहीं। भगवान महावीर ने भी भिक्षुओं के लिए विभज्यवाद अपनाने का आदेश दिया है। उसी विभज्यवाद का रूपान्तर अनेकान्तवाद १ यद्यभावात्मिका शून्यता कथं परमार्थ उच्यते ? परमज्ञानविषयत्वात् । अनित्यता वत् न तु वस्तुत्वात् । -मध्यान्त विभाग० टी० पृ०३६ तथता भूतकोटिश्चानिमित्तं परमार्थता। धर्मधातुश्च पर्यायाः शून्यतायाः समासतः ।। -मध्यान्त वि० १.१४ टीकाकार स्थिरमति ने-अद्वयता, अविकल्पक धातुः, धर्मता, अनभिलाप्यता, निरोध, असंस्कृत, निर्वाण को भी पर्याय बताया है-टी० पृ० ४१ २ देखें-प्रमाणमीमांसा, प्रस्तावना, पृ० ६ (सिंघी) ३ मज्झिम० सु० ६६ माधानास आचार्यप्रवभि श्राआनन्दमन्थश्रीआनन्दग्रन्थ mmmmmmmmmmrammarwaamanaram MAMANABANJAAAAAAAAAAADAJARAAAAAJARAMODARADABAD Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभापायप्रवभिनय आनन्दग्रन्थश्राआनन्दा ग्रन्थ २६६ धर्म और दर्शन या स्याद्वाद है। विभज्यवाद अपेक्षा पर आधारित है और स्याद्वाद भी अपेक्षावाद पर आधारित है। ये दोनों वाद सापेक्षवाद हैं और प्रतीत्यसमुत्पादवाद का तात्पर्य भी सापेक्षवाद में है। इस प्रकार एक हद तक दोनों वादों का साम्य स्पष्ट है। फिर भी इन दोनों वादों का जो विकास हुआ है उसमें दो दिशायें स्पष्ट हैं। बौद्धों में प्रतीत्यसमुत्पादवाद के सिद्धान्त की निष्पत्ति शून्यवाद तक हुई है जो निषेधप्रधान है और जैनों में नयवाद का विकास हुआ जो विधिप्रधान है। निषेधप्रधान कहने का तात्पर्य नास्तिकवाद से नहीं है----यह तो स्पष्ट कर दिया गया है। तो उसका तात्पर्य इतना है कि भगवान् बुद्ध ने शाश्वत और विच्छेद इन दोनों का निषेध किया और अपने मार्ग को-मध्यममार्ग कहा। जबकि भ० महावीर ने शाश्वत और उच्छेद इन दोनों को अपेक्षा भेद से स्वीकृत करके विधिमार्ग अपनाया। स्याद्वाद और शून्यवाद में एकान्त उच्छेद और एकान्त विनाश समान रूप से असंमत है। एक की भाषा में निषेध प्रधान प्रयोग है जब कि दूसरे की भाषा में विधि प्रधान प्रयोग देखा जाता है। भगवान् बुद्ध ने तो मध्यममार्ग कहकर छोड़ दिया था। किन्तु नागार्जुन ने प्रतीत्यसमुत्पादवाद और शून्य का समीकरण किया जो प्रयोग की दृष्टि से भ्रामक सिद्ध हुआ। भ० महावीर ने अपेक्षाभेद से विरोधी मन्तव्यों को स्वीकार किया था और अपेक्षासूचक शब्द 'स्यात्' रखा था और यही शब्द दार्शनिकों में भ्रम पैदा करने में कारण हुआ। परिणाम स्पष्ट है कि भाषा की अपनी मर्यादा है जिसके कारण शून्यवाद नास्तिक समझा गया और स्याद्वाद संशयवाद ।। भाषा की इस मर्यादा को लक्ष्य करके ही तो कहा गया है कि 'परमार्थो हि आर्याणां तुष्णींभावः' (मध्य० वृ० १० १६)। फिर भी यदि शून्यवादी अपना मंतव्य भाषा के द्वारा ही व्यक्त करता है तो उसके पीछे दृष्टि यह है कि--- नान्यया भाषया म्लेच्छः शक्यो ग्राहयितु यथा । न लौकिकमृते लोक: शक्यो ग्राहयितु तथा ॥ -चतुःशतक ८।१६ यही बात जैन आचार्य कुन्दकुन्द ने भी कही है जह णवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा दु गाहेदु। तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं ॥ -समयसार ८ शून्यवाद की स्थापना में युक्ति और आगम दोनों का अवलम्बन है यह स्पष्टीकरण चन्द्रकीति ने किया है-"आचार्यों युक्त्यागमाभ्यां संशयमिथ्याज्ञानापाकरणार्थ शास्त्रमिदमारब्धवान्"-(माध्यम क० पृ० १३) यही बात आचार्य समन्तभद्र ने भी अनेकान्तवाद के समर्थन में लिखी गई आप्तमीमांसा में कही है स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्ध न न बाध्यते ॥ --आप्तमी०६ ४ सूत्रकृतांग १-१४-२२ । और भी चर्चा के लिए देखें न्याया० प्रस्तावना, पृ० १२ (सिंधी) ५ प्रतीत्यसमुत्पादवाद के नागार्जुन ने जो विशेषण दिये हैं-वे हैं-अनिरोधमनुत्पादमनुच्छेद मशाश्वतम् । अनेकार्थमनानार्थमनागममनिर्गमम् । यः प्रतीत्यसमुत्पादं...'' -माध्य० का० १ ६ विस्तृत चर्चा के लिए देखें-न्याया० प्रस्तावना, पृ० १४ ७ यः प्रतीत्यसमुत्पादः शून्यतां तां प्रचक्ष्महे ।-माध्य० २४-१८ । ८ स्याद्वाद को संशयवाद कहने वाले केवल शंकर ही नहीं। दशवै० अगस्त्यचूणि में भी ऐसा ही कहा है। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुन्यवाद और स्याद्वाद २६७ स्याद्वादी और शून्यवादी दोनों ने यह स्वीकार किया है कि यदि एक ही भाव का परमार्थ स्वरूप समझ लिया जाये तो सभी भावों का परमार्थ स्वरूप समझ लिया गया ऐसा मानना चाहिए। आचारांग में कहा है-- "जे एग जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणई" నాల IPIU अन्यत्र यह भी कहा है "एको भावः सर्वथा येन दृष्टः, सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वे भावा: सर्वथा येन दृष्टाः, एको भावः सर्वथा तेन दृष्ट: । -स्याद्वाद मं० पृ० ११५ । ऐसा ही निरूपण चन्द्रकीति ने भी अनेक उद्धरण देकर किया है। -यथोक्तम् भावस्यैकस्य यो द्रष्टा द्रष्टा सर्वस्य स स्मृतः ।। एकस्य शून्यतायैव सैव सर्वस्य शून्यता ।। इत्यादि -मध्य० वृ० पृ० ५० दोनों ने व्यवहार और परमार्थ सत्यों को स्वीकार किया है। शून्यवादी संवृति और परमार्थ सत्य से वही बात कहता है जो-जैन ने व्यवहार औ नाना प्रकार के एकान्तवादों को लेकर शून्यवादी चर्चा करता है और इस नतीजे पर आता है कि वस्तु शाश्वत नहीं, उच्छिन्न नहीं, एक नहीं, अनेक नहीं, भाव नहीं, अभाव नहीं।-इत्यादि यहाँ नहीं पक्ष का स्वीकार है। जब कि स्याद्वादी के मन में उन एकान्तों के विषय में अभिप्राय है कि वस्तु शाश्वत भी है, अशाश्वत भी है, एक भी है, अनेक भी है, भाव भी है, अभाव भी हैइस प्रकार शून्यवाद और स्याद्वाद में नहीं और भी को लेकर विवाद है, जबकि एकान्तवादी ही को स्वीकार करते हैं। ___ मध्यान्त विभाग ग्रन्थ (५-२३-२६) में पन्द्रह प्रकार के अन्त युगलों की चर्चा करके उन सभी का अस्वीकार करके मध्यमप्रतिपत् का-निर्विकल्पक ज्ञान को स्वीकार किया गया है उनमें से कुछ ये हैं--- (१) शरीर ही आत्मा है यह एक अन्त और शरीर से भिन्न आत्मा है यह दूसरा अन्त; (२) रूप नित्य है यह एक अन्त और अनित्य है-यह दूसरा । भूतों को नित्य मानने वाले तीथिक हैं और अनित्य मानने वाले श्रावकयानवाले हैं। (३) आत्मा है यह एक अन्त और नैरात्म्य है-यह दूसरा अन्त । (४) धर्म-चित्त भूत-सत् है यह एक अन्त और अभूत है यह दूसरा अन्त । (५) अकुशल धर्म को संक्लेश कहना यह विपक्षान्त है और कुशल धर्मों को व्यवदान कहना यह प्रतिपक्षान्त है। (६) पुद्गल-आत्मा और धर्म को अस्ति कहना यह शाश्वतान्त है, और उन्हें नास्ति कहना यह उच्छेदान्त है। (७) अविद्यादि ग्राह्य-ग्राहक हैं यह एक अन्त और उसका प्रतिपक्ष विद्यादि ग्राह्य ग्राहक हैं यह दूसरा अन्त । इत्यादि । HAVE क عدحرهم عن عمر يعد منعه دیار غیر معینی در مرند می ميرا هاه عن ما هي سعر میخعععرف هيا عنه عینی به من مرجعه आपावन अभिननसायप्रवर आ श्राआनन्दग्रन्थ2 श्राआनन्द NAYwawine wave Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ धर्म और दर्शन तात्पर्य यह है कि शुन्यवाद में अन्तों की अस्वीकृति और निर्विकल्प भाव का स्वीकार है। जबकि स्याद्वाद में इससे उलटा है। इसका अर्थ यह नहीं है कि स्याद्वादी को तत्तद्विकल्पों के दोष का ज्ञान नहीं है । एकान्त में रहा हुआ दोप समान रूप से शून्यवादी और स्याद्वादी देखते हैं। किन्तु दोष को देखकर अन्त का केवल अस्वीकार करना यह स्याद्वादी को मंजूर नहीं। यह उस अन्त के गुणों को भी देखता है और उसी दृष्टि से उसका स्वीकार भी करता है। निरपेक्ष अन्त को निरस्त करके वह सापेक्ष अन्त का स्वीकार करता है। इस प्रक्रिया को विशद रूप से नयचक्र में रखा गया है। तर्क दुधारी तलवार है, यह खंडन भी करता है और मंडन भी। आचार्य नागार्जुन ने उसका उपयोग केवल खंडन में ही किया है। दार्शनिक विचारणा के अपने समय तक के प्रमेय और प्रमाण सम्बन्धी मान्यताओं का तर्क के बल से जमकर खंडन ही खंडन किया और शून्यवाद की स्थापना की। जव कि नयचक्र में ऐसी योजना की कि खंडन भी हो और मंडन भी। उसने अपने समय तक के प्रसिद्ध सभी वादों की क्रम से स्थापना की और खंडन भी किया। पूर्व-पूर्ववाद अपने मत का समर्थन करता है और उत्तर-उत्तर वाद पूर्व-पूर्व का खंडन और अंतिम वाद का खंडन प्रथम वाद करता है । इस प्रकार मंडन-खंडन का यह चक्र चलता रहता है। कोई भी वाद अपने आप में पूर्ण नहीं, फिर भी उसमें सत्यांश अवश्य है । यह तथ्य उस ग्रन्थ से फलित किया गया । नयचक्र में क्रमशः इन वादों की चर्चा है-अज्ञानवाद--उस प्रसंग में प्रत्यक्ष प्रमाण, सत्कार्यवाद, असत्कार्यवाद, अपौरुषेयवाद, विधिवाद आदि की चर्चा की गई है, पुरुषाद्वैतवादइस प्रसंग में सत्कार्यवाद आदि की चर्चा है, नियतिवाद, कालवाद, स्वभाववाद, अद्वतवाद, पुरुषप्रकृतिवाद, ईश्वरवाद, कर्मवाद, द्रव्य और क्रिया का तादात्म्य, द्रव्य और क्रिया का भेद, सत्ता, समवाय, अपोह, शब्दाद्वैत, ज्ञानवाद, जातिवाद, अवक्तव्यवाद, गुणवाद, निर्हेतुक विकासवाद और स्थितिवाद । स्पष्ट है कि इसमें जैन का अपना विशिष्ट कोई मत नहीं है किन्तु तत्काल के सभी वादों का-मन्तव्यों का सापेक्ष स्वीकार एक न्यायाधीश की तटस्थता से किया गया है। स्याद्वाद की यही विशेषता है जिसे आचार्य जिनभद्र के शब्दों में कहा जाय तो यह है"सर्वनयमतान्यप्यमूनि पृथक् परीत्तविषयत्वाद् अप्रमाणम्, एतान्येव संहितानि जिनमतम्, अन्तर्बाह्यनिमित्तसामग्रीमयत्वात्, प्रमाणं चेति ।" -विशेषा० भा० १५२८ । अर्थात् सभी नयों-मतों का समुदाय ही जिनमत है। आचार्य सिद्धसेन ने तो कहा था कि जितने भी वचन के मार्ग हैं उतने ही नय हैं-और वे परसमय हैं-(सन्मति० ३-४७) किन्तु जैनदर्शन तो उन परसमय रूप मिथ्यादर्शनों का समूह ही है (वही ३-६६) । उनकी इसी बात को आचार्य जिनभद्र ने इस प्रकार स्पष्ट किया है जावंतो वयणपहा तावन्तो व णया वि सद्धातो। ते चेव य परसमया सम्मत्तं समुदिता सव्वे ।। -विशेषा० २७३६ जब यही नय-नाना मतवाद एक समूह-रूप हो जाते हैं, वे सम्यक हैं-यही जैनमत है। ग है तत्परिवर्जनार्थं मध्यमाप्रतिपद् यदात्मनैरात्म्ययोर्मध्ये निर्विकल्पं ज्ञानम् । -मध्यान्तविभाग-भाष्य-पृ० १७४ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शून्यवाद और स्याद्वाद २६६ भारतीय दर्शन के अखाड़े में जैनदर्शन का प्रवेश देरी से हुआ। इसका फायदा यह हुआ कि जैनाचार्य नाना मतों की निर्बलता और सबलता को देख सके और सभी वादों का समन्वय करने का मार्ग उन्होंने अपनाया। यह उनकी कमजोरी थी या भारतीय प्रजा की भेद में अभेद कर लेने की मूल भूत शक्ति का प्रदर्शन था—यह आप सब महानुभावों के विचार का विषय है। अभी तो इतना संकेत देकर ही मैं अपना वक्तव्य समाप्त करता हूँ। १० अखिल भारतीय दर्शन परिषद् (१८ वाँ अधिवेशन अहमदाबाद में ता० २७-१२-७३ को हुआ) का उद्घाटन भाषण । आनन्द-वच व्याकरण के अनुसार 'मनस्' शब्द नपुंसक लिंग है। नपुंसक में चंचलता एवं विकलता अधिक होती है। 'मन' की स्थिति की प्रायः ऐसी ही है। आकाश के असं ख्य-असंख्य सभी नक्षत्र सदा गतिशील एवं अस्थिर रहते हैं, किंतु ध्रुव 'तारा' सदा उत्तर दिशा में एक ही स्थान पर स्थिर रहता है, वह 'अमरनक्षत्र' माना गया है। ऐसा क्यों ? शायद इसीलिए कि वह दिग्भ्रांत यात्रियों को सदा निष्कामभाव से दिशादर्शन देता रहता है। जो परमार्थ भाव से मार्गदर्शन करता है, वह अमरता का वरण अवश्य ही करेगा। बंगाल में पाट (जूट) अधिक होता है, हजारों लाखों लोग पाट का व्यापार करते हैं ; पाट खरीदते हैं। बाजार में पाट गीला भी आता है और सुखा भी। जो चतुर खरीददार होता है वह कभी गीला पाट नहीं खरीदता चाहे, कितना ही सस्ता मिले। वह कहता है मुझे तो सूखा पाट चाहिए ताकि उसका सहीसही वजन और सही क्वालिटी का पता चले। इसी प्रकार संसार में जो तत्त्व का जानकार होता है, वह कोरे सुन्दर शब्दों के रूप में भीगा हुआ तत्त्व नहीं पसंद करता है, वह सही चीज देखता है, तभी वह उसका सही वजन और सही भाव का सही मूल्य चुका सकता है। 0 बाहर की झूठी मिठास और झूठे सौन्दर्य से वस्तु का मूल्य बढ़ता नहीं, गिरता है। । विज्ञान प्रयोगों की बैसाखी पर चलता है, धर्म अनुभूतियों के परों पर उड़ता है। NRAamarAMAILORIABAJAJNARASISAMAJORAiedioJASGANGAARAMANASALAIMIMALAIMILARAanamaADAHRAIAILABADASAMANAR आचारप्रवर आभाचार्यप्रवचन आभार NamniwwmviAw.wwwwww.ro Niyamirrr Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनंदऋषभदभवत अभिने ग्रन्थर फ्र प्र डा. कृपाशंकर व्यास एम. ए., पी-एच. डी. [ संस्कृत विभाग, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, शाजापुर (म० प्र० ) | नयवाद सिद्धान्त और व्यवहार की तुला पर O भारत मूलतः दर्शन का देश है । विश्व के श्रेष्ठतम दर्शन इस देश ही में जन्मे और यहीं स्वस्थ प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण में पनपे । यहाँ का दार्शनिक चिन्तन आध्यात्मिक दृष्टि से मण्डित है । इसी दार्शनिक तत्व- चिन्तन ने ही भारतीय सत्यता और संस्कृति को समय की विडम्बना, काल की क्रूरता और इतिहास की निर्ममता को झेलने की अपूर्व शक्ति प्रदान की है । बाह्य आक्रमणों की श्रृंखला और आन्तरिक फूट ने यहाँ की सभ्यता, संस्कृति तथा विचारशक्ति को ध्वस्त करके, निश्शेष करने की दुरभिसन्धि की, परन्तु दार्शनिक तत्व-चिन्तन की असाधारणता तथा अपूर्वता ने अपनी अपराजेयता का परिचय देते हुए सांस्कृतिक मूल्यों और सभ्यता की उपलब्धियों को मिटने से बचाया है और भारतीय मानस को सदैव व्यापकता तथा उदारता की भूमि पर अव तरित करने की भूमिका का सोत्साह निर्वाह भी किया है। भारतीय दर्शन अनुभव और संघर्ष के आधार पर निर्मित दृष्टि का पर्याय होने के कारण न वह गिरिकन्दरा का दर्शन है और न एकांति कता तथा व्यक्ति-निष्ठता से अभिशप्त ही है। अपितु वह आध्यात्मिक दृष्टि सम्पन्न होने के कारण संसार को रहने योग्य और स्वर्गतुल्य बनाने की छटपटाहट लिये हुए है । अतः भारतीय दर्शन को मात्र किताबी तथा बकवासी समझना बुद्धि-संकीर्णता को प्रदर्शित करना होगा । यहाँ का दर्शन जीवनोन्मुखी है, इसीलिए यह प्रवृत्तिमूलक और निवृत्तिमूलक चिन्तन के मध्य एक सेतु बन सका है। भारतीय दर्शनधारा मानव मस्तिष्क के अन्तहीन, शाश्वत, मूल्यवान् गवेषणात्मक चिन्तन का दृष्टान्त है, जो पुरातन होने पर भी सदा नवीन परिवेश में है । जीवन के मूल्य बदल जायें, देश-काल की परिस्थितियों में भिन्नता आ जाए किन्तु भारतीय चिन्तन-धारा का प्रवाह सार्वकालिक समस्याओं के हल हेतु सदा नित्य नये रूप तथा वेग में प्रस्तुत था, है, और रहेगा । यह है भारतीय चिन्तनधारा की सार्वकालिकता । विचारों के आदान-प्रदान की स्वतन्त्र प्रक्रिया ने भारतीय विचारधारा को अनेक रूप प्रदान किए हैं, जिनमें सह-अस्तित्व का आदर्श विद्यमान है। इसी प्रक्रिया ने ही एक विचारधारा के अन्तर्गत अनेक सूक्ष्म विभिन्न विचारधाराओं को भी जन्म दिया है, इसीलिए एक ही वस्तु के स्वरूप की अभिव्यक्ति में पर्याप्त भिन्नता लक्षित होती है। इस सहजगम्य भिन्नता को जैनदर्शन ने “नयवाद" से अभिहित कर इसे दार्शनिक रूप में प्रस्तुत कर नवीन सिद्धान्त को जन्म देने का श्रेय प्राप्त कर लिया है । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयंवाद : सिद्धान्त और व्यवहार की तुला पर २७१ NEARN I जान जैनदर्शन के अनुसार वस्तु अनन्तधर्मात्मक होती है। वस्तु के समस्त धर्मों का यथार्थ ज्ञान केवल उसी व्यक्ति विशेष को होता है जिसने कैवल्य ज्ञान को अधिगत कर लिया है पर दिक्भ्रम मानव समाज में इतना सामर्थ्य कहाँ है कि वह प्रत्येक वस्तु के समस्त धर्मों का यथार्थ ज्ञान आत्मसात् कर सके।' मनुष्य-ज्ञान की संकुचित सीमाओं के कारण ही मनुष्य वस्तु के एक या कुछ धर्मों का ज्ञान प्राप्त कर लेना ही श्रेयस्कर समझता है अतः उसका ज्ञान आंशिक होता है। जैनदर्शन वस्तु के इस आंशिक या एकांशिक ज्ञान को "नय” नाम से अभिहित करता है। "नय सिद्धान्त २" जैनदर्शन के प्रमुख सिद्धान्त "अनेकान्तवाद' की आधारशिला है । यह समझना अनुचित होगा कि "नय सिद्धान्त' एकान्तवाद का प्रतिपादक है, अतः एकान्तवाद और अनेकान्तवाद में पूर्ण विरोध है। वस्तुस्थिति पर विचार करने से प्रत्येक ज्ञान का आंशिक या सापेक्ष होना ही न्यायसंगत प्रतीत होता है, पर वास्तविक ज्ञान इससे मिन्न है। इसी कारण से वस्तु के परिज्ञान के इच्छुक जन को प्रथम आंशिक (विकलादेश) ज्ञान पश्चात् पूर्ण (सकलादेश) ज्ञान होता है। वास्तविक ज्ञान का प्रथम सोपान आंशिक ज्ञान हो है। जिस प्रकार कोई व्यक्ति गन्तव्य पर पहुंचने के लिए सोपान का आश्रय लेकर ही लक्ष्य की ओर अभिमुख होता है तथा अन्त में अपने लक्ष्य को अधिगत कर लेता है, उसी प्रकार आंशिक ज्ञान का आश्रय लेकर ही व्यक्ति वस्तु का पूर्णज्ञान क्रमशः प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार आंशिक ज्ञान तथा पूर्ण ज्ञान में किसी भी प्रकार का विरोध परिलक्षित नहीं होता है अपितु ये दोनों ज्ञान एक दूसरे के पूरक ही सिद्ध होते हैं । स्थूलतया ज्ञान के तीन भेद किये जाते हैं-४ (१) दुर्नय (२) नय (३) प्रमाण १. दुर्नय-विद्यमान रहने वाली वस्तु के एक धर्म को यदि सदैव विद्यमान ही सिद्ध करने की चेष्टा की जाये तथा वस्तु के अन्य धर्मों का निषेध किया जाये तो व्यक्ति की इस प्रवृत्ति को दुर्नय कहा जायेगा। २. नय-वस्तु के अन्य धर्मों का निषेध न करते हुए वस्तु के केवल एक सत् धर्म की ही प्रस्तुति की जाये, वस्तु का यह आंशिक ज्ञान "नय" विचारधारा के अन्तर्गत आता है। ३. प्रमाण--"दुर्नय” तथा “नय' विचारधारा से भिन्न विचारधारा प्रमाण है । विद्यमान वस्तु के विषय में "कथंचित् यह सत् है" (स्यात्सत्) यह दृष्टिकोण वस्तु के ज्ञात तथा अज्ञात समस्त धर्मों में संकलित होने के कारण प्रमाण शब्द से अभिहित किया जाता है। वस्तु चूंकि अनन्तधर्मात्मक है अतः प्रत्येक धर्म-विशेष के निरूपण करने के कारण नयों की संख्या भी अनन्त है, परन्तु विवेक दृष्टि से उसके सामान्यतः दो भेद मान्य हैं-५ १. द्रव्यार्थिक नय २. पर्यायाथिक नय । BEER गया १ (अ) एकदेश विशिष्टो यो नयस्य विषयो मतः --न्यायावतार श्लोक २६ (ब) "नय" शब्द की निरुक्तिनीयते परिच्छिद्यते एक देश विशिष्टोऽर्थः अनेन इति नयः । -स्याद्वाद मंजरी पृ० १५६ (क) भारतीय दर्शन-बलदेव उपाध्याय पृ० १०० (ख) भारतीय दर्शन-डा. उमेश मिश्र पृ० १२७-२८ ३ "प्रमाणनयरधिगमः" तत्वार्थसूत्र ११६ ४ स्याद्वाद मंजरी श्लोक २८ ५ स्थानांग सूत्र स्था० ७, अनुयोगद्वार सूत्र rimadnaamavedasindainbursoami SURARAMMAR,AAMAAJAAAAAAAAJAL NY Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राआनन्द आ आभन्दा Momwwwwwrowaviiiwwweirw २७२ धर्म और दर्शन - dyut किसी भी वस्तु के दो धर्म सम्भव हैं (१) एक तो वह जिसके कारण वस्तु की विविध परिणामों के बीच एकता बनी रह सकती है। इसकी ही संज्ञा द्रव्याथिक नय है। (२) दूसरे वे धर्म जो देश तथा काल के कारण किसी वस्तु में उत्पन्न हुआ करते हैं। इन विशेष धर्मों के निरूपण को ही पर्यायाथिक नय संज्ञा दी गई है। प्रथम नय तीन प्रकार का है तथा द्वितीय नय चार प्रकार का है। दोनों का समयोजन करने पर 'नय' के सात प्रकार किये जाते हैं (१) नैगमनय (२) संग्रहनय (३) व्यवहारनय (४) ऋजुसूत्रनय (५) शब्द नय (६) समभिरूढ़नय (समधिरूढ़नय) (७) एवंभूतनय । इन समयोजित सप्त नय में से प्रथम चार पदार्थों अथवा उनके अर्थों के साथ सम्बद्ध हैं और शेष तीन शब्दों से सम्बन्ध रखते हैं। ये सभी यदि अपने आप में पृथक् एवं पूर्ण रूप में लिए जायें तो हमें हेत्वाभास (मिथ्या आभास) ही प्रतीत होंगे। अर्थ (पदार्थ एवं अर्थ) नय अधोलिखित हैं (१) नैगमनय-इसकी व्याख्या दो प्रकार से की जा सकती है। आचार्य पूज्यपाद का मत है कि यह एक प्रयत्न विशेष के प्रयोजन अथवा लक्ष्य से सम्बन्ध रखता है जो कि बराबर और निरन्तर उसके अन्दर विद्यमान रहता है। जब हम ऐसे किसी एक व्यक्ति को देखते हैं जो जल, अग्नि, पात्र आदि ले जा रहा है और हम उससे प्रश्न करते हैं कि 'तुम क्या कर रहे हो तो व्यक्ति प्रत्युत्तर देता है कि "मैं भोजन पका रहा हूँ।" यह नैगमनय का दृष्टान्त है। यह सिद्धान्त सामान्य प्रयोजन का बोध कराता है। आचार्य सिद्धसेन का मत इससे कुछ भिन्न है। उनका कथन है कि जब व्यक्ति एक वस्तु का ज्ञान अधिगत करता है अर्थात् उसके अन्तर्गत जातिगत एवं विशिष्ट दोनों प्रकार के गुणों को पहचान लेता है और उनके मध्य पृथक्करण की भावना नहीं रखता है तब वह नैगमनय की अवस्था कहलाती है। (२) संग्रहनय-यह नय सामान्य विशिष्टताओं पर बल देता है। यह वर्गगत दृष्टिकोण है । यद्यपि यह सत्य है कि वर्ग व्यक्तियों से अतिरिक्त कोई विशिष्ट पदार्थ नहीं है किन्तु फिर भी सामान्य विशेषताओं का परीक्षण कभी-कभी आवश्यक होता है। इसके दो भेद स्वीकार किये गये हैं (१) परसंग्रहनय, (२) अपरसंग्रहनय । (३) व्यवहारनय-यह नय प्रचलित तथा परम्परागत है। व्यक्ति को वस्तु का ज्ञान समस्त रूप से होता है और व्यक्ति इसकी निहित विशेषताओं पर बल देता है। वस्तुओं का विशिष्ट आकार-प्रकार भी व्यक्ति का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करता है। भौतिकवाद की कल्पना और बहुतत्ववाद को भी हम इसके साथ सम्बद्ध कर सकते हैं। ये सभी इस नय के आभास हैं। (४) ऋजुसूत्रनय---यह नय व्यवहारनय की अपेक्षा अत्यधिक संकुचित है। यह पदार्थ की एक समयविशेष की अवस्था का विचार करता है। इसमें सभी के प्रकार के नैरन्तर्य एवं साम्य को . ६ (क) नयकणिका, आरा संस्करण तत्वार्थ राज० वा० ११३३, ३४-३५ (ख) प्रमाणनयतत्वालोक ७।१३, ३२, ३६ । तत्वार्थ राजवर्तिक १, ३३, ६ (ग) लघीयस्त्रय ३, ६, ७०-७१ (घ) द्रव्यानुयोगतर्कणा, (च) भारतीय दर्शन, भाग १, डा० राधाकृष्णन्, पृ० २७५ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयवाद : सिद्धान्त और व्यवहार की तुला पर २७३ केवल स्थान नहीं है । इस नय के अनुसार यथार्थ क्षणिक है । वस्तु का जो रूप विद्यमान है वह वर्तमान क्षण में ही है । इसे हम बौद्धदर्शन के क्षणिकवाद का दूसरा रूप कह सकते हैं । शेष तीन नय को शब्दनय के नाम से अभिहित किया जाता है (५) शब्दनय - इस नय का मत है कि व्यक्ति किसी वस्तु के विषय में किसी विशिष्ट नाम का प्रयोग करता है। यह प्रयोग वस्तुतः व्यक्ति के मन में निहित वस्तुविशिष्ट के गुण, क्रिया आदि से सम्बन्धित होने के कारण ही होता है । प्रत्येक नाम अपने एक विशिष्ट अर्थ का संवाहक होता है । इसीलिए विशिष्ट नाम से विशिष्ट गुण-क्रिया वाली वस्तु का बोध व्यक्ति को सम्भव होता है । अतः यह निष्कर्ष निकलता है कि पद तथा अर्थ में विशिष्ट सम्बन्ध होता है जो कि सापेक्ष सिद्धान्त पर आधारित है । (६) समभिरूढनय - यह नय पदों में उनके धात्वर्थ के आधार पर भेद स्थापना करता है । यह नय शब्द-नय का विनियोग या प्रयोग है । (७) एवंभूतनय -- यह समभिरूढनय का विशिष्ट रूप है । किसी वस्तु के नानात्मक पक्षों में, उसकी श्रेणी - विभाजन में तथा उसकी अभिव्यक्ति में केवल एक ही पद के धात्वर्थ से यह नय सूचित होता है । यह नय पद के वर्तमान स्वरूप को व्यवहृत करने वाला समयोचित अर्थ है किन्तु उसी पदार्थ विशेष को भिन्न परिस्थिति में भिन्न रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है । उपरि वर्णित प्रत्येक नय अथवा दृष्टिकोण विविध प्रकारों में से, जिनसे पदार्थ का ज्ञान किया जा सकता है, केवल एक ही प्रकार को प्रस्तुत करता है। यदि किसी एक दृष्टिकोण को व्यक्ति भ्रमवशात् सम्पूर्ण ज्ञान समझ ले तो यह ज्ञान नयाभास की कोटि में आ जायेगा । तत्वों के स्वरूप विवेचनार्थ नय के दो अन्य भेद भी दार्शनिकों द्वारा मान्य हैं (१) निश्चयनय ( २ ) व्यवहारनय निश्चयनय के माध्यम से तत्वों के वास्तविक स्वरूप तथा उनमें निहित सभी गुणों का निर्धारण होता है । जबकि व्यवहारिक नय के द्वारा तत्वों की सांसारिक उपादेयता पर विचार किया जाता है । " नय" के इसी भेद के कारण इसके सम्बन्ध में प्रचलित भ्रान्तियों का खण्डन सम्भव हो सका है। परिवर्तनशील युग में "नय" का व्यवहारिक रूप नये युग के नये मूल्यों का संवाहक बन सकता है या नहीं यह विचारणीय प्रश्न है । इस सन्दर्भ में आज के वातावरण तथा "नय" का व्यवहारिक परिवर्तित रूप का क्रमशः विवेचन करना न्यायसंगत होगा । आज का मानव जिस भौतिकता के उच्चतम शिखर पर पहुँच गया है वहाँ उसकी समस्त धार्मिक मान्यताओं के समक्ष प्रश्नवाचक चिह्न लग गया है। भौतिकवादी संत्रासयुग में समाज के ७ (अ) भगवती सूत्र, श० १८, उ०६ (ब) दिट्ठीय दो णया खलु ववहारो निच्छओ चेव । - आवश्यक निर्युक्ति ५१५ ( आचार्य भद्रबाहु ) ( स ) " ववहारणयो भासदि जीवो देहो य हवदि खलु इक्को । ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदापि एकट्ठो ॥ - समयसार २७ तथा समयसार ८वीं गाथा दृष्टव्य श्री आनन्द अन्थ श्री आनन्द Jo 350 גווארט Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . KARKALACapradanana-AIRAurwistAlaudnn. साचार्ग आपाप्रवन अभि श्रीआनन्दसाग्रन्थश्रीआनन्दंाग्रन्थ २७४ धर्म और दर्शन प्रत्येक घटक में घृणा, अविश्वास, मानसिक तनाव एवं अशान्ति के बीज प्रस्फुटित हो रहे हैं। आत्मग्लानि, व्यक्तिवादी दृष्टिकोण, आत्मविद्रोह, अराजकता, आर्थिक विषमता, हड़ताल आदि सभी जीवन की लक्ष्यहीनता की ही ओर इंगित कर रहे हैं। इसका कारण आज की वैज्ञानिक दृष्टि है जो कि मनुष्य को बौद्धिकता के अतिरेक का स्पर्शमात्र करा रही है, जिससे मनुष्य अन्तर्जगत की व्यापक सीमाओं को संकीर्ण कर अपनी बहिर्जगत की सीमाओं को ही प्रसारित करने में यत्नशील हो गया है। अतः वर्ग-संघर्ष बहुल द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी युग में क्या प्राचीन मनीषियों द्वारा प्रतिपादित कोई सिद्धान्त शाश्वतकालीन होकर सामाजिक सम्बन्धों को सुमधुर एवं समरस बनाने में सक्षम है ? इस जटिल प्रश्न का उत्तर यदि जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में प्राप्त करने का प्रयास किया जाये तो पूर्वाग्रह रहित कहा जा सकता है कि मानव नयसिद्धान्त के स्वरूप को समझकर उसके अनुरूप आचरण करे तो अवश्य ही आज के आपाधापी के युग में वैचारिक ऊहापोह के झंझावातों से अपने को मुक्त कर आत्मोन्नति के प्रगतिपथ को प्रशस्त कर सकता है। __ अद्यतन बौद्धिक तथा तार्किक प्राणायाम के युग में व्यक्ति की समस्याओं के समाधान हेतु ऐसे धर्म तथा दर्शन की आवश्यकता है जो आग्रहरहित दृष्टि से सत्यान्वेषण की प्रेरणा दे सके। इस दृष्टि से भी नयवाद तथा प्रमाण वाद समय की कसौटी पर खरा ही उतरता है। अनेकान्तवाद का अर्थ है कि प्रत्येक पदार्थ में विविध धर्म तथा गुण हैं। सत्य का सम्पूर्ण साक्षात्कार साधारण व्यक्ति की ज्ञानसीमा से सम्भव नहीं है अतः वह वस्तु के एकांगी गुण, धर्मों का ही ज्ञान प्राप्त कर पाता है । इस एकांगी-ज्ञान के कारण ही वस्तु के स्वरूप-प्रतीति में भी पर्याप्त भिन्नता लक्षित होती है किन्तु इस भिन्नता का यह अर्थ कदापि नहीं है कि वस्तु का एकांगी धर्म ही सत्य है तथा अन्य धर्म असत्य है। "नयवाद" के उपरोक्त स्वरूप की स्पष्ट अभिव्यक्ति हेतु 'नयवाद' का विश्लेषण अघोलिखित बिन्दुओं के आधार पर किया आ सकता है। नयवाद के जीवन को छूने वाले विशेष बिन्दु १. स्वमत की शालीन प्रस्तुति, २. स्वमत के प्रति दुराग्रह का अभाव, ३. अन्य मत के प्रति विनम्र एवं विधेयात्मक दृष्टि । १ नयवाद का स्पष्ट अर्थ है कि अनन्तधर्मात्मक वस्तु के एक धर्म की सांगोपांग प्रतीति । यह वाद विषय के प्रति व्यक्ति का दृष्टिकोण है। जिसके आधार पर व्यक्ति किसी पदार्थ के विषय में अमूर्तीकरण (भेदपृथक्करण) की प्रक्रिया को कार्यान्वित करता है । इस दृष्टिकोण की कल्पनाओं अथवा आंशिक सम्मतियों का जो सम्बन्ध है वह अभीष्ट उद्देश्यों की उपज होती है। इस भेदपृथक्करण एवम् लक्ष्यविशेष पर बल देने के कारण ही व्यक्ति के ज्ञान में सापेक्षता आती है। किसी विशेष दृष्टिकोण को स्वीकार करने का तात्पर्य यह नहीं है कि व्यक्ति अन्य दृष्टिकोणों का खण्डन कर रहा है। नयवादी का यह महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है कि वह केवल-मात्र स्वमत की शालीन प्रस्तुति करे क्योंकि एक व्यक्ति का दृष्टिकोण विशेष सत्य के उतने ही समीप है जितना कि अन्य व्यक्ति का उसी वस्तु सम्बन्धी दृष्टिकोण। यह भिन्न बात है कि वस्तु के सापेक्ष समाधान में ऐसे अमूर्तीकरण हैं जिनके अन्तर्गत यथार्थ-सत्ता का तो समावेश हो जाता है किन्तु वे वस्तु की पूर्णरूपेण ८ सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयः । जे उ तत्थ विउस्सन्ति संसारं ते विउस्सिया ।। -सूत्रकृतांग १।१२।२३ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयवाद : सिद्धान्त और व्यवहार की तुला पर २७५ । व्याख्या नहीं कर सकते हैं। इसीलिए नयवादी के लिए नितांत आवश्यक है कि वह केवल स्वमत के प्रस्तुतीकरण का ही कार्य करे । २ नयवाद का सिद्धान्त एकांशभूत ज्ञान का सिद्धान्त अवश्य है किन्तु हठवादिता तथा दुराग्रह का सिद्धान्त नहीं है। न तो नयवाद पर यह आक्षेप ही लग सकता है कि "नयवाद" वस्तु के केवल एकांशभूत ज्ञान को ही ज्ञान की इतिश्री समझ लेना प्रतिपादित करता है और न “नयवादी” को एकांशभूत ज्ञान प्राप्त कर लेने पर कूपमण्डूक होने का उपदेश ही देता है । “नयवादी" अपने पक्ष को प्रतिपादित करने में किसी भी प्रकार के कदाग्रह का आश्रय नहीं लेता है, अपितु मात्र मत-प्रस्तुतीकरण का आश्रय लेता है, चाहे उस मत को अन्य व्यक्ति स्वीकार करें या न करें। व्यवहारिक जगत् में सम्भवतः नयवाद का यह पक्ष निर्बल प्रतीत होता है, कारण कि व्यक्ति अपने मत की स्थापना करते समय विषय के प्रति दृढ़ता का परिचय शक्तिशाली शब्दों से देता है, जबकि नयवाद इस प्रकार के दृष्टिकोण के प्रतिपादन करने के पक्ष में नहीं है। ३ नयवाद का पक्षधर केवल वस्तु के एकांशभूत ज्ञान को प्राप्त कर लेना ही अपनी ज्ञानपिपासा के लिए पर्याप्त नहीं समझता है अपितु वह वस्तु के अन्यधर्मों का भी ज्ञान प्राप्त करने को सतत यत्नशील रहता है । वस्तु के अन्यधर्मों का ज्ञान होने पर भी अन्य व्यक्ति के द्वारा प्रस्तुत वस्तु सम्बन्धी दृष्टिकोणों को नयवादी खंडन नहीं करता है अपितु वह अन्य के दृष्टिकोण को शान्तभाव से सुनता है। कतिपय विद्वानों का यह अभिमत है कि जैनदर्शन द्वारा प्रतिपादित आंशिक ज्ञान (नयज्ञान) ने ही जगत् में पारस्परिक कलह को उग्रता प्रदान की है। वैसे तो प्रत्येक दर्शन इस विचित्र रूपात्मक विश्व के ही आद्योपान्त विवेचन में व्यस्त है किन्तु फिर भी दार्शनिक विचारों के ऊहापोह को प्रत्येक दर्शन एक विशिष्ट अंश तक ही सीमित रखता है। दर्शन जगत् में पारस्परिक विद्वेष का कारण अपने-अपने सीमित विवेचनों को ही सत्य तथा न्यायसंगत सिद्ध करना है। विषय सम्बन्धी दार्शनिकों का दृष्टिकोण हाथी के स्वरूप निर्णय के विषय में झगड़ा करने वाले अन्ध व्यक्तियों के पारस्परिक दृष्टिकोण के समान है। किन्तु जैनदर्शन का स्पष्ट मत है कि नानारूपिणी सत्ता के अंशमात्र का विवेचन वस्तु का यथार्थ तथा पूर्ण ज्ञान अधिगत करने का प्रथम सोपान है, क्योंकि नयवाद साध्य नहीं अपितु अनेकान्तवाद के स्वरूप निर्णय का साधन है। अतः जैनदर्शन में वैचारिक भिन्नता को तो स्थान है किन्तु उसके कारण होने वाले पारस्परिक विरोध को स्थान नहीं है। विचारस्वातन्त्र्य के युग में चंकि प्रत्येक व्यक्ति हर विचारधारा को समय की उपयोगिता की कसौटी पर कसकर उसका मूल्यांकन करने का पक्षपाती हो गया है, अतः इस वाद की भी उपयोगिता सामाजिक तथा राजनैतिक जीवन में कुछ है अथवा नहीं यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। इस प्रश्न का समाधान नयवाद के दृष्टिकोण से सम्भव है। यदि आज के वैचारिक क्षेत्र में व्यक्ति नय-सिद्धान्त को आधारभूत मानकर विषय या तत्व सम्बन्धी दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का पक्षपाती हो जाये तो व्यक्तियों के जीवन में विचार सम्बन्धी मतभेद से होने वाला विरोध स्वतः समाप्त हो जायेगा । व्यक्ति को अपने विचारों को अन्य पर थोपने का न तो समय मिलेगा और न स्वमतपृष्टि हेतु आग्रह करने का व्यक्ति को अवसर ही मिलेगा। जबकि इससे विपरीत व्यक्ति को दूसरे के दृष्टिकोण को सहिष्णता पूर्वक सुनने, समझने का पूर्ण अवसर मिलेगा, जिससे व्यक्ति स्वमत का पुनर्मल्यांकन कर सकने का लाभ ले सकता है। इस प्रकार विवेकीकृत दृष्टिकोण से न केवल व्यक्ति की ही उन्नति हो सकती है अपितु समाज तथा देश की उन्नति का भी मार्ग प्रशस्त हो सकता है। unerasenanaadamaraamaase आचार्गप्रवa श्रीआनन्द आचार्यप्रवभिगमन श्रीआनन्द Avi wowwwmarwarenewsms Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ धर्म और दर्शन यदि व्यक्ति (चाहे वह राजनैतिक क्षेत्र का कार्यकर्ता हो या सामाजिक क्षेत्र का) केवल मात्र स्वमत का ही आग्रह करता रहेगा तो उस व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विरोध की अभिवृद्धि ही होती रहेगी । परिणामतः द्वेष, कटुता, संघर्ष, हिंसा आदि बुरी प्रवृत्तियों को जन्म मिलेगा। ऐसे अवसर पर व्यक्ति विरोध पर विजय प्राप्ति हेतु येन-केन-प्रकारेण प्रयास करेगा, जिसका फल होगा व्यक्ति की नैतिकता का अवमूल्यन । इस प्रकार व्यक्ति की संगठनात्मक तथा क्रियात्मक शक्ति विघटन तथा विध्वंसक कार्यों की ओर अभिमुख हो जायेगी, जिसके परिणाम आज हम सभी किसी-न-किसी रूप में अनुभव कर रहे हैं। अतः इस संत्रस्त तथा कुंठाग्रस्त युग की आवश्यकता है कि युवाशक्ति को विवेकीकृत ज्ञान से असहिष्णुता, दुराग्रह तथा हठवादिता के पथ से शालीनता पूर्वक विमुख कर उसे वैचारिक-धरातल पर सहिष्णुता, सह-अस्तित्व तथा समरसता के सिद्धान्त की ओर दिशा देने की। तभी व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र न केवल भौतिक उन्नति के चरम बिन्दु पर पहुंच सकता है अपितु पुनः अध्यात्मजगत का गुरुपद अधिगत कर सकता है। इस प्रकार नयवाद का पक्षधर विशालहृदय, उदारचेता होकर विश्वबन्धुत्व सर्वजनीन का पोषक होकर भगवान महावीर के “जियो और जीने दो" के सिद्धान्त का यथार्थ मसीहा बन सकता है। बया र आनन्द-वचनामृत AYA 0 विद्वान और समझदार से मित्रता करना कठिन है, किंतु निभाना सरल है । मुर्ख और नासमझ से मित्रता करना सरल है, किंतु निभाना कठिन है। - साधारण मनुष्य ऊबने पर मनोरंजन के साधनों की तलाश करता है, किंतु ज्ञानी साधक मनोनिमग्न (मन के भीतर डूबने) होने की चेष्टा करता है। मन का ऊबना प्रमाद है, मन के भीतर डूबना साधना है। 0 काम करते-करते थक जाने पर नीरसता आती है, काम करते-करते पक जाने पर सरसता मिलती है। 7 शिक्षा से भी अधिक महत्व है संस्कारों का। अशिक्षित व्यक्ति या कम शिक्षित व्यक्ति भी साधना के पथ पर बढ़ सकता है, और साधना के चरम शिखर तक पहुँच भी सकता है, किंतु संस्कार-हीन व्यक्ति के लिए साधनापथ पर एक चरण रखने को भी स्थान नहीं । । संस्कारहीनता साधना का सबसे पहला शत्रु है । 0 शिक्षा से संस्कार जगें या नहीं, पर सुसंस्कारों से शिक्षा (ज्ञान) अवश्य प्राप्त हो जाती है। संस्कार-हीन शिक्षा निष्प्राण देह की सज्जा है। संस्कार-युक्त शिक्षा प्राणवान देह का श्रृंगार है । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - देवेन्द्र मुनि, शास्त्री साहित्यरत्न [प्रबुद्ध चिंतक, अनेक विशिष्ट ग्रन्थों के लेखक] माण कलाक ज्ञानवाद : एक परिशीलन ज्ञान और आत्मा का सम्बन्ध दण्ड और दण्डी के सम्बन्ध से भिन्न है। दण्ड और दण्डी का सम्बन्ध संयोग-सम्बन्ध है। दो पृथक् सिद्ध पदार्थों में ही संयोग-सम्बन्ध हो सकता है । आत्मा और ज्ञान के सम्बन्ध में यह बात नहीं है। इन दोनों का अस्तित्व पृथक् सिद्ध नहीं है। ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है। स्वाभाविक गुण वह कहलाता है जो अपने आश्रयभूत द्रव्य का त्याग नहीं करता। ज्ञान के अभाव में आत्मा की कल्पना नहीं की जा सकती। न्याय और वैशेषिक दर्शन ज्ञान को आगन्तुक गुण मानते हैं, मौलिक नहीं, किन्तु जैनदर्शन का स्पष्ट मन्तव्य है कि ज्ञान आत्मा का मौलिक गुण है। कितने ही स्थलों पर तो आत्मा के अन्य गुणों को गौण कर ज्ञान और आत्मा को एक कह दिया गया है। व्यवहारनय की दृष्टि से ज्ञान और आत्मा में भेद माना गया है पर निश्चयनय की दृष्टि से ज्ञान और आत्मा में किसी भी प्रकार का भेद नहीं है। ज्ञान और आत्मा में तादात्म्य-सम्बन्ध है। ज्ञान आत्मा का निजगुण है, जो निजगुण होता है वह किसी भी समय अपने गुणी द्रव्य से अलग नहीं हो सकता। ज्ञान से आत्मा को भिन्न नहीं किया जा सकता, आत्मा ही ज्ञान है और ज्ञान ही आत्मा है। ज्ञान स्वभावतः स्वपर-प्रकाशक है। वह अन्य वस्तु को जानने के साथ-साथ स्वयं को भी प्रकाशित करता है। ज्ञान अपने आपको कैसे जान सकता है ? ज्ञान स्वयं को स्वयं से जानता है, यह बात शीघ्र समझ में नहीं आती। कोई भी चतुर नट अपने खुद के कन्धों पर चढ़ नहीं सकता, अग्नि स्वयं को नहीं जला सकती, वह दूसरे पदार्थों को ही जलाती है। वैसे ही ज्ञान अन्य को तो जान सकता है किन्तु स्वयं को किस प्रकार जान सकता है ? जैनदर्शन का कथन है कि जिस प्रकार दीपक अपने आपको प्रकाशित करता हुआ परपदार्थों को भी प्रकाशित करता है, उसी प्रकार ज्ञान अपने आपको जानता हुआ परपदार्थों को जानता है। दीपक को देखने के लिए अन्य दीपक की आवश्यकता नहीं रहती है, वैसे ही ज्ञान को जानने के लिए अन्य किसी ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती। ज्ञान दीपक के समान स्व और पर का प्रकाशक माना गया है। सारांश यह है कि आत्मा का स्वरूप समझने के लिए ज्ञान का स्वरूप समझना अनिवार्य, आवश्यक है। आगमसाहित्य में अभेददृष्टि से जब कथन किया है तब कहा कि जो ज्ञान है वह आत्मा बाया या AMSABAJAJANANDANAJAGAGANGARORAPARiseDOMANJARJAINABALAJAANANAAMNAIAJAJARIranAMPATIALAasaisaAANAS आचार्यप्रवअभिनय श्राआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्दान्थ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ او به همراه عععهلمند د مخ يدفعهنقر علعععععععععععععععععععع هه ههههههههههههه هي في حيه عععععععشق عشره VIUIT भाआचार्यप्रवर: न प्राआनन्दग्रन्थ श्राआनन्दअन्य 2 २७८ धर्म और दर्शन है और आत्मा है वह ज्ञान है।' भेददृष्टि से कथन करते हुए कहा-ज्ञान आत्मा का गुण है। भेदाभेद की दृष्टि से चिन्तन करने पर आत्मा ज्ञान से सर्वथा भिन्न भी नहीं है, अभिन्न भी नहीं है किंतु कथंचित् भिन्न है और कथंचित् अभिन्न है। ज्ञान आत्मा ही है इसलिए वह आत्मा से अभिन्न है । ज्ञान गुण है और आत्मा गुणी है, इस प्रकार गुण और गुणी के रूप में ये भिन्न भी है। ज्ञान उत्पन्न कैसे होता है ? ज्ञेय और ज्ञान दोनों स्वतन्त्र हैं। द्रव्य, गुण और पर्याय ये ज्ञेय हैं। ज्ञान आत्मा का गुण है। न तो ज्ञेय से ज्ञान उत्पन्न होता है और न ज्ञान से ज्ञेय उत्पन्न होता है। हमारा ज्ञान जाने या न जाने तथापि पदार्थ अपने रूप में अवस्थित है। हमारे ज्ञान की ही यदि वे उपज हों तो उनकी असत्ता में उन्हें जानने का हमारा प्रयास ही क्यों होगा? अदृष्ट वस्तु की कल्पना ही नहीं कर सकते । पदार्थ ज्ञान के विषय हों या न हों तथापि हमारा ज्ञान हमारी आत्मा में अवस्थित है। हमारा ज्ञान यदि पदार्थ की ही उपज हो तो वह पदार्थ का ही धर्म होगा, उसके साथ हमारा तादात्म्य सम्बन्ध नहीं हो सकेगा। तात्पर्य यह है कि जब हम पदार्थ को जानते हैं तब ज्ञान उत्पन्न नहीं होता किन्तु उस समय उसका प्रयोग होता है । जानने की क्षमता हमारे में रहती है, तथापि ज्ञान की आवृतदशा में हम पदार्थ को बिना माध्यम से जान नहीं सकते। हमारे शरीर, इन्द्रिय और मन चेतनायुक्त नहीं हैं, जब इनसे पदार्थ का सम्बन्ध होता है या सामीप्य होता है, तब वे हमारे ज्ञान को प्रवृत्त करते हैं और हम ज्ञेय को जान लेते हैं। या हमारे संस्कार किसी पदार्थ को जानने के लिए ज्ञान को उत्प्रेरित करते हैं तब वे जानते हैं। यह ज्ञान की प्रवृत्ति है, उत्पत्ति नहीं। विषय के सामने आने पर उसे ग्रहण कर लेना प्रवृत्ति है। जिसमें जितनी ज्ञान की क्षमता होगी, वह उतना ही जानने में सफल हो सकेगा। इन्द्रिय और मन के माध्यम से ही हमारा ज्ञान ज्ञेय को जानता है। इन्द्रियों की शक्ति सीमित है, वे मन के साथ अपने-अपने विषयों को स्थापित कर ही जान सकती हैं। मन का सम्बन्ध एक समय में एक इन्द्रिय से ही होता है। एतदर्थ एक काल में एक पदार्थ की एक ही पर्याय जानी जा सकती है। अतः ज्ञान को ज्ञेयाकार मानने की आवश्यकता नहीं। यह सीमा आवृत ज्ञान के लिए है । अनावृत ज्ञान के लिए नहीं। अनावृत ज्ञान में तो एक साथ सभी पदार्थ जाने जा सकते हैं। ज्ञान और ज्ञेय का सम्बन्ध ज्ञान और ज्ञेय का विषय-विषयीभाव सम्बन्ध है। प्रमाता ज्ञान स्वभाव है इसलिए वह विषयी है। अर्थ ज्ञेय-स्वभाव है इसलिए वह विषय है। दोनों स्वतन्त्र हैं तथापि ज्ञान में अर्थ को जानने की और अर्थ में ज्ञान के द्वारा जाने जा सकने की क्षमता है। यही दोनों के कथंचित् अभेद का कारण है। AJAN -----आचारांग ५।५।१६६ १ (क) जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया। (ख) समयसार गाथा ७ (ग) णाणे पुण णियमं आया-भगवती १२।१० ज्ञानाद् भिन्नो न चाभिन्नो, भिन्नाभिन्नः कथंचन । ज्ञानं पूर्वापरीभूतं, सोऽयमात्मेतिकीर्तितः ।। ---स्वरूपसम्बोधन-४ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानवाद : एक परिशीलन २७६ जानना, देखना और अनुभूति करना ये चैतन्य के तीन मुख्य रूप हैं । आँख के द्वारा देखा जाता है । स्पर्शन, रसन, घ्राण, श्रोत तथा मन के द्वारा जाना जाता है । आगमिक दृष्टि से जिस प्रकार चक्षु का दर्शन होता है उसी प्रकार अचक्षु-मन और चक्षु के अतिरिक्त चार इन्द्रियों का भी दर्शन होता है । अवधि और केवल का भी दर्शन होता है । यहाँ पर दर्शन का अर्थ देखना नहीं किन्तु एकता या अभेद का सामान्यज्ञान, दर्शन है । अनेकता या भेद को जानना ज्ञान है। ज्ञान के मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवल ये पांच प्रकार हैं और दर्शन के चार मनःपर्याय ज्ञान भेद को ही जानता है इसलिए उसका दर्शन नहीं । होता है । गुण और पर्याय की दृष्टि से विश्व विभक्त है और द्रव्यगत एकता की दृष्टि से अविभक्त है । इसलिए विश्व को सर्वथा विभक्त और न सर्वथा अविभक्त कह सकते हैं । आवृत ज्ञान की क्षमता न्यून होती है । एतदर्थ प्रथम उसके द्वारा द्रव्य का सामान्य रूप जाना जाता है । उसके पश्चात् नाना प्रकार के परिवर्तन और क्षमता जानी जाती है । ज्ञान और वेदनानुभूति पांच इन्द्रियों में से स्पर्शन, रसन और घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ भोगी हैं। इन इन्द्रियों से विषय का ज्ञान और अनुभूति दोनों होती हैं । चक्षु और श्रोत्र ये दो कामी हैं, इन इन्द्रियों से केवल विषय जाना जाता है पर उसकी अनुभूति नहीं होती । ३ इन्द्रियों से हम बाह्य वस्तुओं को जानते हैं किंतु जानने की प्रक्रिया समान नहीं है । अन्य इन्द्रियों से चक्षु की ज्ञानशक्ति अधिक तीव्र है एतदर्थ वह अस्पष्ट रूप को जान लेती है । चक्षु की अपेक्षा श्रोत्र की ज्ञानशक्ति न्यून है क्योंकि वह स्पष्ट शब्दों को ही जान पाता है । स्पर्शन, रसन और घ्राण इनकी क्षमता श्रोत्र से भी न्यून है। बिना बद्ध-स्पष्ट हुए ये अपने विषय को नहीं जान पाते । स्पर्शन, रसन और घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ अपने विषय के साथ निकटतम सम्बन्ध स्थापित करती हैं इसलिए उन्हें ज्ञान के साथ अनुभूति भी होती है। किंतु चक्षु और श्रोत्र में इन्द्रिय और विषय का निकटतम सम्बन्ध स्थापित नहीं होता इसलिए उनमें ज्ञान होता है अनुभूति नहीं होती । मन से भी अनुभूति होती है किंतु वह बाह्य विषयों के गाढ़तम सम्पर्क से नहीं होती । किंतु वह अनुभूति होती है विषय के अनुरूप मन का परिणमन होने से । वेदना के दो रूप : सुख और दुःख वाह्य जगत का परिज्ञान हमें इन्द्रियों के द्वारा होता है और उसका संवर्धन मन से होता है । स्पर्श, रस, गंध और रूप ये पदार्थ के मौलिक गुण हैं और शब्द उसकी पर्याय है । इन्द्रियाँ अपने विषय को ग्रहण करती हैं और मन से उसका विस्तार होता है । बाह्य वस्तुओं के संयोग और वियोग से सुख और दुःख की अनुभूति होती है, किंतु उसे शुद्ध ज्ञान नहीं कह सकते । उसकी अनुभूति अचेतन को नहीं होती, अतः वह अज्ञान भी नहीं है। ज्ञान और बाह्य पदार्थ के संयोग से वेदना का अनुभव होता है । शारीरिक और दुःख सुख की अनुभूति इन्द्रिय और मन के माध्यम से होती है । अमनस्क जीवों को मुख्यतः शारीरिक वेदना होती है और समनस्क जीवों को शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की वेदनाएँ होती हैं। सुख और दुःख ये दोनों वेदनाएँ एक साथ नहीं होतीं । ३ पुट्ठे सुणेइ सद्धं रूपं पुण पासइ अपुट्ठे तु । गंध रसं च फासं, बद्ध-पुट्ठं वियागरे ॥ आनंदऋष j अन्थ 32 श्री आनन्द न Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दन ग्रन्थ 32 श्री आनन्द अन्थ धर्म और दर्शन ॐ carpump २८० आत्म- रमण चैतन्य की विशुद्ध परिणति है । वह आत्मसुख वेदना नहीं है । उसे स्वसंवेदन, आत्मानुभूति या स्वरूप संवेदन कहा जाता है । आगमों में ज्ञानवाद आगम साहित्य में ज्ञान सम्बन्धी जो मान्यताएँ प्राप्त होती हैं, वे अत्यधिक प्राचीन हैं । राजप्रश्नीय सूत्र में केशीकुमार श्रमण राजा प्रदेशी को कहते हैं कि हम श्रमण निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के ज्ञान मानते हैं - १. आभिनिबोधिकज्ञान २ श्रुतज्ञान, ३ अवधिज्ञान, ४ मनः पर्यवज्ञान, ५. केवलज्ञान | ४ केशीकुमार श्रमण भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमण थे । उन्होंने जिन पांच ज्ञानों का निरूपण किया, उन्हीं पांच ज्ञानों का वर्णन भगवान महावीर ने भी किया है। उत्तराध्ययन में केशी और गौतम का संवाद है । उससे स्पष्ट है कि भगवान पार्श्व और महावीर के शासन में आचार विषयक कुछ मतभेद थे किंतु तत्वज्ञान में कुछ भी मतभेद नहीं था । यदि तत्वज्ञान में मतभेद होता तो उसका उल्लेख प्रस्तुत संवाद में अवश्य होता । पंचज्ञान की मान्यता श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में प्रायः एक समान है । केवलज्ञान, केवलदर्शन के उपयोग के विषय में कुछ मतभेद है, अन्य सभी समान है । विकास क्रम की दृष्टि से आगमों के आधार से ज्ञानचर्चा की तीन भूमिकाएँ प्राप्त होती हैं । ७ प्रथम भूमिका में ज्ञान के जो पाँच भेद किये गये हैं, उनमें आभिनिबोधिक के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा भेद किये हैं। वह विभाग इस प्रकार है— 5 ↓ आभिनिबोधिक अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा ४ ५ ६ ७ ↓ श्रुत ज्ञान राजप्रश्नीय सूत्र -१६५ । भगवती ८८।२।३१७ ↓ अवधि अवग्रह आदि के भेद-प्रभेद अन्य स्थानों के समान यहाँ पर भी बताये गये हैं । दूसरी भूमिका में ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद किये गये हैं । उसके पश्चात् प्रत्यक्ष और परोक्ष के भी भेद-प्रभेद किये गये हैं। इसमें पांच ज्ञानों में से मति और श्रुत को परोक्षान्तर्गत, अवधि, मनःपर्यव और केवल को प्रत्यक्ष के अन्तर्गत लिया गया है। इसमें इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष को स्थान नहीं दिया गया है। जैनदृष्टि से जो ज्ञान आत्ममात्र सापेक्ष हैं उन्हें ही प्रत्यक्ष माना है और जो ज्ञान आत्मा के अतिरिक्त अन्य साधनों की अपेक्षा रखते हैं, उन्हें परोक्ष माना है । उत्तराध्ययन अध्ययन २३ । आगम युग का जैनदर्शन - पं० दलसुख मालवणिया, पृ० १२६ भगवती सूत्र ८८२, ३१७ । ↓ मनः पर्यव केवल Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेतर सभी दार्शनिकों ने नोइन्द्रिय-जन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है । नहीं माना है । यह योजना स्थानांगसूत्र में है । केवल भगवती सूत्र की प्रथम योजना में और इस योजना में मुख्य अन्तर यह है कि यहाँ पर ज्ञान के मुख्य दो भेद किये हैं, पांच नहीं। पांच ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो भेदों के प्रभेद के रूप में गिना है। इस प्रकार स्पष्ट परिज्ञान होता है कि यह प्राथमिक भूमिका का विकास है। जो इस प्रकार है भव प्रत्ययिक, अवधि ऋजुमति, प्रत्यक्ष क्षायोपशमिक अंगप्रविष्ट नोकेवल अर्थावग्रह व्यंजनावग्रह श्रुतनिःसृत आवश्यक ६ स्थानाङ्गसूत्र ७ १ ज्ञान आभिनिबोधक मनः पर्यव ज्ञानवाद : एक परिशीलन विपुलमति अर्थावग्रह २८१ परन्तु उसे यहाँ पर प्रत्यक्ष परोक्ष अश्रुत निःसृत श्री आनन्द देव का व्यंजनावग्रह कालिक उत्कालिक faat भूमिका में इन्द्रियजन्य मतिज्ञान का परोक्ष के अन्तर्गत समावेश किया है । तृतीय भूमिका में और भी कुछ परिवर्तन आया है । इन्द्रियजन्य मतिज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद श्रुतज्ञान अंगबाह्य T आवश्यक व्यतिरिक्त आनन्द do का फ्र 320 Dow अभिन्दन Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Angrandu.AMANRAANANANANAanin.nanAAAMAAAAAABAR.M. . आपाप्रवभिआचार्यप्रवर अभिनय श्राआनन्दरग्रन्थश्राआनन्दान्थ५१ २८२ धर्म और दर्शन किये गये हैं । सम्भवतः लौकिक मान्यता के कारण ही इस प्रकार किया गया हो। नन्दीसूत्र के अभिमतानुसार इस भूमिका का सार इस प्रकार है ज्ञान श्रुत अवधि मनःपर्यव आभिनिबोधिक प्रत्यक्ष केवल परोक्ष इन्द्रियप्रत्यक्ष १ श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष २ चक्षुरिन्द्रियप्रत्यक्ष ३ घ्राणेन्द्रियप्रत्यक्ष ४ रसनेन्द्रियप्रत्यक्ष ५ स्पर्शनेन्द्रियप्रत्यक्ष नोइन्द्रियप्रत्यक्ष १ अवधि २ मनःपर्यय ३ केवल आभिनिबोधिक थत श्रुतनिःसृत श्रुतनिःसृत अश्रुतनिःसृत अवग्रह, अवाय, धारणा व्यंजनावग्रह अर्थावग्रह औत्पत्तिकी, वैनयिकी कर्मजा पारिणामिकी बुद्धि उपयुक्त तीनों भूमिकाओं का अवलोकन करने से सहज ही परिज्ञात होता है कि प्रथम भूमिका में दार्शनिक पुट नहीं है। इस भूमिका में प्राचीन परम्परा का स्पष्ट निदर्शन है । इसमें पहले ज्ञान के पांच विभाग किये गये हैं। उसमें मतिज्ञान के अवग्रह आदि भेद किये गये हैं। भगवतीसूत्र में भी इस परिपाटी का दर्शन होता है । द्वितीय भूमिका में शुद्ध जैनदृष्टि के साथ दार्शनिक प्रभाव भी है। इसमें ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये विभाग किये हैं। बाद में जैन ताकिकों ने इस विभाग को अपनाया है। इस विभाग के पीछे वैशद्य और अवैशद्य की भूमिका है, वैशद्य का आधार आत्मप्रत्यक्ष है, और अवैशद्य का आधार इन्द्रिय और मनोजन्य ज्ञान है। जैनदर्शन ने प्रत्यक्ष और परोक्ष सम्बन्धी व्याख्या इसी दृष्टि से की है। अन्य दार्शनिकों की प्रत्यक्ष विषयक मान्यता और जैनदर्शन की प्रत्यक्ष विषयक मान्यता में मुख्य अन्तर यह है कि Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानवाद : एक परिशीलन २८३ चा जैनदर्शन आत्म-प्रत्यक्ष को ही मुख्य रूप से प्रत्यक्ष मानता है जबकि अन्य दार्शनिक इन्द्रियजन्य ज्ञान को भी प्रत्यक्ष मानते हैं । प्रत्यक्ष के अवधि, मनःपर्यव, केवल ये तीन भेद हैं। क्षेत्र, विशुद्धि आदि की दृष्टि से उनमें तारतम्य है । केवलज्ञान सबसे विशुद्ध और पूर्ण है। आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान ये परोक्ष हैं। आभिनिबोधिक ज्ञान का ही अपर नाम मतिज्ञान भी है । मतिज्ञान इन्द्रिय और मन दोनों से होता है। श्रुतज्ञान का आधार मन है। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव आदि अनेक अवान्तर भेद हैं। तीसरी भूमिका में जैनदृष्टि के साथ ही इतर दृष्टि का भी पुट है। प्रत्यक्ष के इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष ये दो भेद किये हैं। इन्द्रिय-प्रत्यक्ष में इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष माना है। वस्तुतः वह इन्द्रियाश्रित होने से परोक्ष ही है किन्तु उसे प्रत्यक्ष में स्थान देकर लौकिक मत का समन्वय किया है। विशेषावश्यक भाष्य में जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि वस्तुतः इन्द्रियज प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहना चाहिए अर्थात् लोकव्यवहार की दृष्टि से ही इन्द्रियज मति को प्रत्यक्ष कहा है, वस्तुतः वह परोक्ष ही है। परमार्थतः प्रत्यक्ष कोटि में आत्ममात्र सापेक्ष अवधि, मनःपर्यय और केवल तीन हैं। प्रत्यक्ष-परोक्षत्व व्यवहार इस भूमिका में इस प्रकार मान्य होता है १-अवधि, मनःपर्याय और केवल पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं। २-श्रुत परोक्ष ही है। ३-इन्द्रियजन्य मतिज्ञान पारमार्थिक दृष्टि से परोक्ष है और व्यावहारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष है। ४-मनोजन्य मतिज्ञान परोक्ष ही है। आचार्य अकलंक ने और अन्य आचार्यों ने प्रत्यक्ष के दो भेद किये हैं-सांव्यवहारिक और पारमार्थिक । यह उनकी स्वयं की कल्पना नहीं है किन्तु उनकी कल्पना का मूल आधार नन्दीसूत्र और विशेषावश्यक भाष्य में रहा हुआ है। आभिनिबोधिक ज्ञान के अवग्रह आदि भेदों पर बाद के दार्शनिक आचार्यों ने विस्तार से विवेचन किया है। स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदि की इन ताकिकों ने जो दार्शनिक दृष्टि से व्याख्या की है, वैसी ही व्याख्या आगम साहित्य में नहीं है। इसका मूल कारण यह है कि आगम-युग में इस सम्बन्ध को लेकर कोई संघर्ष नहीं था किंतु उसके पश्चात् अन्य दार्शनिकों से जैन दार्शनिकों को अत्यधिक संघर्ष करना पड़ा, जिसके फलस्वरूप नवीन ढंग के तर्क सामने आये। उन्होंने इस पर दार्शनिक दृष्टि से गम्भीर चितन किया। हम यहाँ आगम व दार्शनिक ग्रंथों के विमल प्रकाश में पाँच ज्ञानों पर चिंतन करेंगे, उसके पश्चात् स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान आदि पर प्रमाण की दृष्टि से विचार किया जायेगा। मतिज्ञान जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से होता है, वह मतिज्ञान है । अर्थात् जिस ज्ञान में इन्द्रिय और मन की सहायता की अपेक्षा रहती है उसे मतिज्ञान कहा गया है।'' आगम साहित्य १० एगन्तेण परोक्खं लिगियमोहाइयं च पच्चक्खं । इन्दियमणोभवं जं तं संववहारपच्चक्खं ॥ -विशेषावश्यक भाष्य ६५ और उसकी स्वोपज्ञवृत्ति । ११ तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् । -तत्त्वार्थसूत्र १।१४ SORADABANK AAAAENAAAAAAP आगारप्रवन भाचार्यप्रवर आभः आनन्दमयन्थ.श्रामजन्दगन्ध More Newwwrawimwww Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क आधार्मप्र आचार्यप्रवअभिः श्रीआनन्दजन्यश्री नयन् २८४ धर्म और दर्शन में मतिज्ञान को आभिनिबोधिक ज्ञान कहा है। तत्त्वार्थसूत्र (अ० १, सूत्र १३) में मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता, आभिनिबोध को एकार्थक कहा है। विशेषावश्यक भाष्य (३६६) में ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति, प्रज्ञा आदि शब्दों का प्रयोग किया है। नन्दीसूत्र में इन्हीं शब्दों का प्रयोग हुआ है ।१२ तत्त्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञ भाष्य में इन्द्रियजन्य ज्ञान और मनोजन्य ज्ञान ये दो भेद बताये हैं । १३ सिद्धसेनगणी ने इंद्रियजन्य, अनिन्द्रियजन्य (मनोजन्य) और इन्द्रियानिन्द्रियजन्य ये तीन भेद किये हैं। जो ज्ञान केवल इंद्रियों से उत्पन्न होता है, वह इंद्रियजन्य है। जो ज्ञान केवल मन से उत्पन्न होता है, वह अनिन्द्रियजन्य ज्ञान है। जो ज्ञान इंद्रिय और मन इन दोनों के संयुक्त प्रयत्न से होता है, वह इंद्रियानिन्द्रियजन्य ज्ञान है ।१४ मतिज्ञान इंद्रिय और मन से होता है। इसलिए प्रश्न है कि इंद्रिय और मन क्या हैं ? इन्द्रिय प्राणी और अप्राणी में स्पष्ट भेदरेखा खींचने वाला चिह्न है-इंद्रिय । पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में व अन्य आचार्यों ने इंद्रिय शब्द की परिभाषा करते हुए लिखा है कि इंद्र शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है "इंदतीति इंद्रः' अर्थात् जो आज्ञा और ऐश्वर्य वाला है वह इंद्र है । यहाँ इंद्र शब्द का अर्थ-आत्मा है। वह यद्यपि ज्ञस्वभाव है, तथापि मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम के रहते हुए भी स्वयं पदार्थों को जानने में असमर्थ है। अतः उसको जानने में जो निमित्त होता है, वह इन्द्र का चिह्न इंद्रिय है। अथवा जो गूढ़ पदार्थ का ज्ञान कराता है, उसे लिंग कहते हैं । इसके अनुसार इंद्रिय शब्द का अर्थ हुआ कि जो सूक्ष्म आत्मा के अस्तित्व का ज्ञान कराने में कारण है उसे इंद्रिय कहते हैं। अथवा इंद्र शब्द नामकर्म का वाची है। अतः यह अर्थ हुआ कि नामकर्म की रचनाविशेष इंद्रिय है । सारांश यह है कि आत्मा की स्वाभाविक शक्ति पर कर्म का आवरण होने से सीधा आत्मा से ज्ञान नहीं हो सकता। इसके लिए किसी माध्यम की आवश्यकता रहती है, वह माध्यम इंद्रिय है। जिसकी सहायता से ज्ञानलाभ हो सके वह इंद्रिय है। इंद्रियां पांच हैं-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र । इनके विषय भी पांच हैं-स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द । इसीलिए इंद्रिय को प्रतिनियत अर्थग्राही कहा जाता है। जैसे स्पर्श-ग्राहक इंद्रिय रस-ग्राहक इंद्रिय गंध-ग्राहक इंद्रिय रूप---ग्राहक इंद्रिय शब्द-ग्राहक इंद्रिय श्रोत्र।१५ स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, 卐 १२ ईहा अपोह वीमंसा मग्गणा य गवेसणा । सण्णा सती मती पण्णा सव्वं आभिणिवोहियं ।। नंदी. ७७, पुण्यविजय जी सम्पादित, पृ० २७ १३ तदेतन्मतिज्ञानं द्विविधं भवति । इंद्रियनिमित्तं अनिन्द्रियनिमित्तं च । तत्रेन्द्रियनिमित्तं स्पर्शनादीनाञ्च पञ्चाना स्पर्शादिषु पञ्चस्वेवं स्वविषयेषु । अनिन्द्रियनिमित्तं मनोवृत्तिरोधज्ञानं च। -तत्त्वार्थभाष्य १।१४ १४ तत्त्वार्थसूत्र पर टीका १।१४ १५ प्रमाणमीमांसा ११२।२११२३ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानवाद : एक परिशीलन २८५ 2 प्रत्येक इंद्रिय द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय रूप दो प्रकार की है।१६ पुद्गल की आकृति-विशेष द्रव्येन्द्रिय है और आत्मा का परिणाम भावेन्द्रिय है। द्रव्येन्द्रिय के भी निर्वृत्ति और उपकरण ये दो भेद हैं।१७ इंद्रियों की विशेष आकृतियाँ निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रिय हैं । निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रिय की बाह्य और आभ्यन्तरिक पौदगलिक शक्ति जिसके होने पर भी ज्ञान होना सम्भव नहीं है, उपकरण द्रव्येन्द्रिय है। भावेन्द्रिय भी लब्धि और उपयोग रूप से दो प्रकार की है।१८ ज्ञानावरणकर्म आदि के क्षयोपशम से प्राप्त होने वाली जो आत्मिक शक्तिविशेष है वह लब्धि है। लब्धि प्राप्त होने पर आत्मा एक विशेष प्रकार का व्यापार करती है। वह व्यापार उपयोग है। इन्द्रियप्राप्ति का क्रम सभी प्राणियों में इन्द्रिय-विकास समान नहीं होता है। पांच इन्द्रियों के पांच विकल्प हैं १. एकेन्द्रिय प्राणी। २. द्वीद्रिय प्राणी। ३. त्रीद्रिय प्राणी। ४. चतुरिद्रिय प्राणी। ५. पंचेद्रिय प्राणी। जिस प्राणी में जितनी इन्द्रियों की आकार-रचना होती है, वह प्राणी उतनी इन्द्रियवाला कहलाता है। प्रश्न है कि प्राणियों में यह आकार-रचना का वैषम्य क्यों ? उत्तर है कि जिस प्राणी के जितनी ज्ञानशक्तियां-लब्धि-इंद्रियां निरावरण-विकसित होती हैं, उस प्राणी के शरीर में उतनी ही इंद्रियों की आकृतियाँ बनती हैं। इससे स्पष्ट है कि इंद्रिय के अधिष्ठान, शक्ति तथा व्यापार का मुल लब्धि इंद्रिय है। उसके अभाव में निर्वृत्ति, उपकरण और उपयोग नहीं होता । लब्धि के पश्चात् द्वितीय स्थान निवृत्ति का है। उसके होने पर उपकरण और उपकरण के होने पर उपयोग होता है। उपयोग के बिना उपकरण, उपकरण के बिना निर्वृत्ति, निर्वृत्ति के बिना लब्धि हो सकती है परन्तु लब्धि के बिना निर्वृत्ति और निर्वृत्ति के बिना उपकरण तथा उपकरण के बिना उपयोग नहीं हो सकता। इन्द्रिय पौद्गलिक (द्रव्येन्द्रिय) आत्मिक (भावेन्द्रिय) निवृत्ति उपकरण लब्धि उपयोग मन हरएक इंद्रिय का विषय अलग-अलग है । एक इंद्रिय दूसरी इंद्रिय के विषय को ग्रहण नहीं कर सकती। मन एक ऐसी सूक्ष्म इंद्रिय है जो सभी इंद्रियों के विषयों को ग्रहण कर सकता है। एतदर्थ ही इसे सर्वार्थग्राही इंद्रिय कहा है ।१६ मन को अनिन्द्रिय इसीलिए कहा जाता है कि वह अत्यधिक सूक्ष्म है। अनिन्द्रिय का अर्थ इंद्रिय का अभाव नहीं किंतु ईषत् इंद्रिय है, जिस प्रकार किसी लड़की को अनुदरा कहा जाता है, इसका अर्थ बिना उदर वाली लड़की नहीं किंतु वह लड़की जो १६ सर्वार्थसिद्धि १७ निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियं । १८ लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् । १६ सर्वार्थग्रहणं मनः । -तत्वार्थसूत्र २०१७ -तत्त्वार्थसूत्र २०१८ -प्रमाणमीमांसा श२।२४ SAMANASALAJAAAAAJNATJABAJABADAURADABANARWAwedamaadMAMMARCJIJABARJAADARASASARAMADARASAIRAAZAARADASALAAAAAoN सापावर भिरापार्यप्रवर अभि श्राआनन्दग्रन्थश्राआनन्दा अन्य Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHAMDARAMAansaaraaaaaamwasnasranamaAGannaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa आर्यप्रव भाचार्यप्रवभिनय श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्द २८६ धर्म और दर्शन PRE DESH Dow गर्भवती स्त्री के समान स्थूल उदरवाली न हो। उसी तरह चक्षु आदि के समान प्रतिनियत देश, विषय, अवस्थान का अभाव होने से मन अनिद्रिय कहा है । 'मन अतीत की स्मृति, वर्तमान का ज्ञान या चिंतन और भविष्य की कल्पना करता है। इसलिए उसे दीर्घकालिक संज्ञा भी कहा है। जैन आगम साहित्य में "मन" शब्द की अपेक्षा 'संज्ञा' शब्द अधिक व्यवहृत हुआ है। समनस्क प्राणी को संज्ञी कहा गया है। उसका लक्षण इस प्रकार है--१. सत् अर्थ का पर्यालोचन ईहा है। २. निश्चय अपोह है। ३. अन्वयधर्म का अन्वेषण मार्गणा है। ४. व्यतिरेक धर्म का स्वरूपालोचन गवेषणा है। ५. यह कैसे हुआ? किस प्रकार करना चाहिए? यह किस प्रकार होगा? इस तरह का पर्यालोचन चिंता है । ६. यह इसी प्रकार हो सकता है यह इसी प्रकार हुआ है और इसी प्रकार होगा-इस तरह का निर्णय विमर्श है । वह संज्ञी कहलाता है । २० मन का लक्षण जिसके द्वारा मनन किया जाता है (मनन मन्यते अनेन वा मनः) वह मन है । इस विश्व में दो प्रकार के पदार्थ हैं-मूर्त और अमूर्त । इन्द्रियां केवल मुर्त द्रव्य की वर्तमान पर्याय को जानती हैं, मन मूर्त और अमूर्त दोनों के त्रैकालिक अनेक रूपों को जानता है। मन भी इन्द्रिय की तरह पौद्गलिक शक्ति-सापेक्ष है, इसलिए उसके द्रव्यमन और भावमन ये दो भेद बनते हैं। मनन के आलम्बन-भूत या प्रवर्तक पुदगल द्रव्य मनोवर्गणा-द्रव्य जब मन के रूप में परिणत होते हैं तब वे द्रव्यमन कहलाते हैं। यह मन आत्मा से भिन्न है और अजीव है । २१ विचारात्मक मन भावमन है। मन मात्र ही जीव नहीं है, परन्तु मन जीव भी है। जीव का गुण है, जीव से सर्वथा भिन्न नहीं है, एतदर्थ इसे आत्मिक मन कहते हैं । २२ लब्धि और उपयोग उसके ये दो भेद हैं। प्रथम मानसज्ञान का विकास है और दूसरा उसका व्यापार है। दिगम्बर ग्रन्थ धवला के अनुसार मन स्वतः नोकर्म है। पुद्गल विपाकी अंगोपांग नामकर्म के उदय की अपेक्षा रखने वाला द्रव्यमन है तथा वीर्यान्तराय और नोइन्द्रिय कर्म के क्षयोपशम से जो विशुद्धि उत्पन्न होती है, वह भावमन है। अपर्याप्त अवस्था में द्रव्यमन के योग्य द्रव्य की उत्पत्ति के पूर्व उसका सत्त्व मानने से विरोध आता है, इसलिए अपर्याप्त अवस्था में भावमन के अस्तित्व का निरूपण नहीं किया है ।२ 3 मन का कार्य चितन करना मन का कार्य है। मन इन्द्रिय के द्वारा ग्रहीत वस्तु के सम्बन्ध में भी चितनमनन करता है और उससे आगे भी वह सोचता है। २४ इन्द्रियज्ञान का प्रवर्तक मन है । सभी स्थानों पर मन को इन्द्रियों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। जब वह इन्द्रिय द्वारा ज्ञान रूप should నాల २० कालिओवएसेणं जस्स । णं अत्थि ईहा अवोहा मग्गणा गवसणा चिन्ता बीमंसा सेणं सण्णी त्ति लब्भई ॥ २१ भगवतीसूत्र १३।७।४६४ २२ सर्व विषयमन्तःकरणं युगपत् ज्ञानानुत्पत्ति लिङ्ग मनः तदपि द्रव्यमनः पौद्गलिकमजीवग्रहणेन गृहीतम्, भावमनस्तु आत्मगुणत्वात् जीवग्रहणति । -सूत्रकृतांग वृत्ति १।१२ २३ धवला, सूत्र ३६, पृ० १३० २४ चरक सूत्रस्थान १२० Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानवाद : एक परिशीलन २८७ रस आदि का विशेष रूप से निरीक्षण, परीक्षण करता है, तब वह इन्द्रिय-सापेक्ष होता है। इन्द्रिय की गति पदार्थ तक सीमित है किन्तु मन की गति इन्द्रिय और पदार्थ दोनों में है। मानसिक चितन के ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान, आगम आदि विविध पहलू हैं। मन का स्थान वैशेषिक २५ नैयायिक २६ और मीमांसक २७ मन को परमाण रूप मानते हैं इसलिए उनके मन्तव्यानुसार मन नित्यकारण रहित है। सांख्यदर्शन, योगदर्शन, और वेदान्तदर्शन उसे अणुरूप और जन्य मानकर उसकी उत्पत्ति प्राकृतिक अहंकार तत्त्व से२८ या अविद्या से मानते हैं। बौद्ध, जैन दृष्टि से मन न तो व्यापक है और न परमाणु रूप ही है । किन्तु मध्यम परिमाणवाला है। न्याय-वैशेषिक-बौद्ध आदि कितने ही दर्शन मन को हृदयप्रदेशवर्ती मानते हैं। सांख्य, योग व वेदांत दर्शन के अनुसार मन का स्थान केवल हृदय नहीं है किन्तु मन सूक्ष्म लिङ्ग शरीर में जो अष्टादश तत्त्वों का विशिष्ट निकाय रूप है, प्रविष्ट है और सूक्ष्म शरीर का स्थान सम्पूर्ण स्थूल शरीर है।२६ इसलिए मन का स्थान समग्र स्थूल शरीर है। जैनदर्शन के अनुसार भावमन का स्थान आत्मा है किंतु द्रव्यमन के सम्बन्ध में एकमत नहीं है। दिगम्बर परम्परा द्रव्यमन को हृदय प्रदेशवर्ती मानती है किंतु श्वेताम्बर परम्परा में इस प्रकार का उल्लेख नहीं है । पं० सुखलाल जी का अभिमत है कि श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार द्रव्यमन का स्थान सम्पूर्ण शरीर है ।३० मन का एकमात्र नियत स्थान न भी हो, तथापि उसके सहायक कई विशेष केन्द्र होने चाहिए। मस्तिष्क के संतुलन पर मानसिक चिंतन अत्यधिक निर्भर है, एतदर्थ सामान्य अनुभूति के अतिरिक्त अथवा इन्द्रिय साहचर्य के अतिरिक्त उसके चिंतन का साधनभूत किसी शारीरिक अवयव को मुख्य केन्द्र माना जाय, इसमें आपत्ति प्रतीत नहीं होती। विषयग्रहण की दृष्टि से इन्द्रियां एकदेशी हैं। अतः वे नियत देशाश्रयी कहलाती हैं किन्तु ज्ञानशक्ति की दृष्टि से इन्द्रियां सर्वात्मव्यापी हैं। इन्द्रिय और मन में क्षायोपशमिक शक्ति आवरणविलय-जन्य विकास के कारण से है। आवरणविलय सर्वात्मप्रदेशों का होता है।३१ मन विषयग्रहण की दृष्टि से भी शरीरव्यापी है। मन का अस्तित्व न्याय सूत्रकार का मन्तव्य है कि एक साथ अनेक ज्ञान उत्पन्न नहीं होते । इस अनुमान से वे मन की सत्ता स्वीकार करते हैं ।३२ २५ वैशेषिकसूत्र ७।११२३ २६ न्यायसूत्र ३।२।६१ २७ प्रकरण प० पृ० १५१ २८ माठरकारिका २७ २६ मनो यत्र मरुत तत्र, मरुद् यत्र मनस्ततः । अतस्तुल्यक्रियावेतौ, संवीतौ क्षीरनीरवत् ।। ३० दर्शन और चिंतन, पृ० १४० हिन्दी ३१ सव्वेणं सब्वे निज्जिण्णा ॥ ३२ न्यायसूत्र १११११६ -योगशास्त्र ५।२ -भगवती १३ AAJAADAamantaMRAVAamAlALAIMAAJhansaanweri A MARDANAKAIRAawra.AIRNARAJAIAI.PARIAAJAAAAAAA आवअभिसापार्यप्रवर अभिन श्रीआनन्दमश्राआनन्द ग्रन्थ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रवभिन Raआचार्यप्रवआभार श्रीआनन्दान्थश्राआनन्द W WWMVWITY ra २८८ धर्म और दर्शन COM वात्स्यायन भाष्यकार का अभिमत है कि स्मृति आदि ज्ञान बाह्य इन्द्रियों से उत्पन्न नहीं होता है और विभिन्न इन्द्रिय तथा उसके विषयों के रहते हुए भी एक साथ सबका ज्ञान नहीं होता, इससे मन का अस्तित्व अपने आप उतर आता है।333 ___अन्नभट्ट ने सुख आदि की प्रत्यक्ष उपलब्धि को मन का लिङ्ग माना है । ३४ जैनदर्शन के अनुसार संशय, प्रतिभा, स्वप्न, ज्ञान, वितर्क, सुख, दुःख, क्षमा, इच्छा आदि अनेक मन के लिङ्ग हैं । ३५ ___अब हम अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार करेंगे। क्योंकि ये चारों मतिज्ञान के मुख्य भेद हैं। अवग्रह इन्द्रिय और अर्थ का सम्बन्ध होने पर नाम आदि की विशेष कल्पना से रहित सामान्य मात्र का ज्ञान अवग्रह है।३६ इस ज्ञान में निश्चित प्रतीति नहीं होती कि किस पदार्थ का ज्ञान हुआ है। केवल इतना-सा ज्ञात होता है कि यह कुछ है । इन्द्रिय और सामान्य का जो सम्बन्ध है वह दर्शन है। दर्शन के पश्चात् उत्पन्न होने वाला सामान्य ज्ञान अवग्रह है। अवग्रह में केवल सत्ता (महासामान्य) का ही ज्ञान नहीं होता है किंतु पदार्थ का प्रारम्भिक ज्ञान (अपर सामान्य का ज्ञान) होता है कि यह कुछ है । ३७ अवग्रह के व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह ये दो भेद हैं। अर्थ और इन्द्रिय का संयोग व्यंजनावग्रह है। उपर्युक्त पंक्तियों में जो अवग्रह की परिभाषा दी गई है वह वस्तुतः अर्थावग्रह की है। प्रस्तुत परिभाषा से व्यंजनावग्रह दर्शन की कोटि में आता है। प्रश्न है कि अर्थ और इन्द्रिय का संयोग व्यंजनावग्रह है तब दर्शन कब होगा ? समाधान है कि व्यंजनावग्रह से पूर्व दर्शन होता है। व्यंजनावग्रह रूप जो सम्बन्ध है वह ज्ञानकोटि में आता है और उस से भी पहले जो एक सत्ता-सामान्य का भान है, वह दर्शन है। अर्थावग्रह का पूर्ववर्ती ज्ञानव्यापार, जो इन्द्रिय का विषय के साथ संयोग होने पर उत्पन्न होता है और क्रमशः पुष्ट होता जाता है वह व्यंजनावग्रह कहलाता है। यह ज्ञान अव्यक्त है। व्यंजनावग्रह अर्थावग्रह किस प्रकार बनता है ? इसे समझाने के लिए आचार्यों ने एक रूपक दिया है। एक कुम्भकार अवाड़ा में से एक सकोरा निकालता है। वह उस पर पानी की एक-एक बूंद डालता है। पहली, दूसरी, तीसरी बंद सूख जाती है, अन्त में वही सकोरा पानी की बूंदें सुखाने में असमर्थ हो जाता है और धीरे-धीरे पानी से भर जाता है। इसी प्रकार कोई व्यक्ति सोया है। उसे पुकारा जाता है। कान में जाकर शब्द चुपचाप बैठ जाते हैं, वे अभिव्यक्त नहीं हो पाते, दोचार बार पुकारने पर उसके कान में अत्यधिक शब्द एकत्र हो जाते हैं तभी उसे यह परिज्ञान होता है कि मुझे कोई पुकार रहा है। यह ज्ञान प्रथम शब्द के समय इतना अस्पष्ट और अव्यक्त होता है कि उसे इस बात का पता ही नहीं लगता कि मुझे कोई पुकार रहा है। जलबिन्दुओं की तरह या ३३ वात्स्यायन भाष्य १११।१६ ३४ सुखाद्य पलाब्धिसाधनमिन्द्रियं मनः । -तर्कसंग्रह ३५ संशयप्रतिभास्वप्नज्ञानोहासुखादिक्षमेच्छादयश्च मनसो लिङ्गानि । -सन्मतिप्रकरण टीका काण्ड-२ ३६ प्रमाणमीमांसा ११११२६ ३७ सर्वार्थ सिद्धि ११५३१११, ज्ञानपीठ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानवाद : एक परिशीलन २८६ शब्दों का संग्रह जब काफी मात्रा में हो जाता है तब उसे व्यक्त ज्ञान होता है । व्यंजनावग्रह अव्यक्त है और अर्थावग्रह व्यक्त है । प्रथम रूप जो अव्यक्त ज्ञानात्मक है वह व्यंजनावग्रह है । दूसरा रूप जो व्यक्त ज्ञानात्मक है वह अर्थावग्रह है । चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता । क्योंकि ये दोनों अप्राप्यकारी हैं । इन्द्रियां दो प्रकार की हैं --- प्राप्यकारी और अप्राप्यकारी । प्राप्यकारी उसे कहा जाता है जिसका पदार्थ के साथ सम्बन्ध हो और जिसका पदार्थ के साथ सम्बन्ध नहीं होता उसे अप्राप्यकारी कहा जाता है । अर्थ और इन्द्रिय का संयोग व्यंजनावग्रह के लिए अपेक्षित है और संयोग के लिए प्राप्यकारित्व अनिवार्य है । चक्षु और मन ये दोनों अप्राप्यकारी हैं अतः इनके साथ अर्थ का संयोग नहीं होता । बिना संयोग के व्यंजनावग्रह संभव नहीं है। प्रश्न हो सकता है कि मन को अप्राप्यकारी मान सकते हैं पर चक्षु अप्राप्यकारी किस प्रकार है ? समाधान है - चक्षु स्पष्ट अर्थ का ग्रहण नहीं करती है इसलिए वह अप्राप्यकारी है । त्वगिन्द्रिय के समान स्पृष्ट अर्थ का ग्रहण करती तो वह भी प्राप्यकारी हो सकती थी । किन्तु वह इस प्रकार अर्थ का ग्रहण नहीं करती अतः अप्राप्यकारी है । दूसरा प्रश्न हो सकता है— त्वगिन्द्रिय के समान चक्षु भी आवृत वस्तु को ग्रहण नहीं करती इसलिए उसे प्राप्यकारी क्यों न माना जाय ? उत्तर है कि यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि चक्षु काच, प्लास्टिक, स्फस्टिक आदि से आवृत अर्थ को ग्रहण करती है । यदि यह कहा जाय कि चक्षु अप्राप्यकारी है तो वह व्यवहित और अतिविप्रकृष्ट अर्थ को भी ग्रहण कर लेगी, यह उचित नहीं है । जैसे चुम्बक अप्राप्यकारी होते हुए भी अपनी सीमा में रहे हुए लोहे को ही आकृष्ट करता है । व्यवहित और अतिविप्रकृष्ट को नहीं । कहा जा सकता है कि चक्षु का उसके विषय के साथ भले सीधा सम्बन्ध न हो किन्तु चक्षु में से निकलने वाली किरणों का विषयभूत पदार्थ के साथ सम्बन्ध होता है । अतः चक्षु प्राप्यकारी है । समाधान है कि यह कथन सम्यक् नहीं है । क्योंकि चक्षु तैजस किरणयुक्त नहीं है । यदि चक्षु तैजस होता तो चक्षुरिन्द्रिय का स्थान उष्ण होना चाहिए। सिंह, बिल्ली आदि की आँखों में रात को जो चमक दिखलाई देती है अतः चक्षु रश्मियुक्त है । यह मानना युक्तियुक्त नहीं है । अतैजस द्रव्य में भी चमक देखी जाती है, जैसे मणि व रेडियम आदि में । इसलिए चक्षु प्राप्यकारी नहीं । अप्राप्यकारी होने पर भी तदावरण के क्षयोपशम से वस्तु का ग्रहण होता है । एतदर्थ मन और चक्षु से व्यंजनावग्रह नहीं होता है । शेष चार इन्द्रियों से ही व्यंजनावग्रह होता है । अर्थावग्रह सामान्य ज्ञान रूप है इसलिए पांच इन्द्रियों और छठे मन से अर्थावग्रह होता है । अवग्रह के लिए कितने ही पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग हुआ है । नन्दीसूत्र में अवग्रह के लिए अवग्रहणता, उपधारणता, श्रवणता, अवलम्बनता और मेधा शब्द आये हैं । ३८ तत्त्वार्थभाष्य में - अवग्रह, ग्रह, ग्रहण, आलोचन और अवधारण शब्द का प्रयोग हुआ है । षट्खण्डागम में अवग्रह, अवधान, सान, अवलम्बन और मेधा ये शब्द अवग्रह के लिये प्रयुक्त हुए हैं। अवग्रह के दो भेद अवग्रह के दो भेद हैं- व्यावहारिक और नैश्चयिक | trafor अवग्रह अविशेषित - सामान्य का ज्ञान कराने वाला होता है और व्यावहारिक अवग्रह विशेषित सामान्य को ग्रहण करने वाला होता है । नैश्चयिक अवग्रह के पश्चात् होने वाले ३८ नन्दीसूत्र सूत्र ५१, पृ० २२, पुण्यविजय जी । श आआनंदा आमदन आआनंद! अम vive. Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयाम प्रवर अगदी आज्ञान की अन्य 31 श्री F २६० धर्म और दर्शन ईहा, अवाय से जिसके विशेष धर्मो की मीमांसा हो गई होती हैं, उसी वस्तु के नूतन- नुतन धर्मों की जिज्ञासा और निश्चय करना व्यावहारिक अवग्रह का कार्य है । अवाय के द्वारा एक धर्म का निश्चय होने के पश्चात् उसी पदार्थ सम्बन्धी अन्य धर्म की जिज्ञासा होती है । उस समय पूर्व का अवाय व्यावहारिक अर्थावग्रह हो जाता है और उस जिज्ञासा के निर्णय के लिए पुनः ईहा और अवाय होते हैं । प्रस्तुत क्रम तब तक चलता है, जब तक जिज्ञासायें पूर्ण नहीं होतीं । 'यह शब्द ही है, इस प्रकार निश्चय होने पर नैश्चयिक अवग्रह की परम्परा समाप्त हो जाती है। उसके पश्चात् व्यावहारिक अर्थावग्रह की धारा आगे बढ़ती है । (१) व्यावहारिक अवग्रह — यह शब्द है । ( संशय - पशु का है या मानव का ? ) (२) भाषा साफ और स्पष्ट है इसलिए मानव का होना चाहिए । (३) अवाय - परीक्षा विशेष के बाद निर्णय करना मानव का ही शब्द है । इस प्रकार नैश्चयिक अवग्रह का अवाय रूप व्यावहारिक अवग्रह का आदि रूप बनता है । इस तरह उत्तरोत्तर अनेक जिज्ञासाएँ हो सकती हैं । अवस्थाभेद की दृष्टि से यह शब्द वृद्ध का है या युवक का है, लिङ्गभेद की दृष्टि से स्त्री का है या पुरुष का है । क्रम - विभाग ग्रहण अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा का न उत्क्रम होता है और न व्यतिक्रम होता है । अर्थके पश्चात् ही विचार हो सकता है, विचार के पश्चात् ही निश्चय और निश्चय के पश्चात् ही धारणा होती है । इसलिए अवग्रहपूर्वक ईहा होती है, ईहापूर्वक अवाय होता है, और अवायपूर्वक धारणा होती है । ईहा मतिज्ञान का दूसरा भेद ईहा है । अवग्रह के पश्चात् ज्ञान ईहा में परिणत हो जाता है । अवग्रह के द्वारा सामान्य रूप में अवगृहीत पदार्थ के विषय में विशेष को जानने की ओर झुकी हुई ज्ञान-परिणति को ईहा कहते हैं । कल्पना कीजिए - कोई व्यक्ति आपका नाम लेकर आपको बुला रहा है । उसके शब्द आपके कर्ण-कुहरों में गिरते हैं । अवग्रह में आपको इतना ज्ञान हो जाता है कि कहीं से शब्द आ रहे हैं । शब्द श्रवण कर व्यक्ति चिन्तन करता है कि यह शब्द किसका है ? कौन बोल रहा है ? बोलने वाली महिला है या पुरुष है ? इसके बाद वह चिंतन करता है कि यह शब्द मधुर व कोमल है इसलिए किसी महिला का होना चाहिए। क्योंकि पुरुष का स्वर कठोर व रूक्ष होता है । यहाँ तक ईहा ज्ञान की सीमा है । यहाँ प्रश्न हो सकता है कि ईहा तो एक प्रकार से संशय है, ईहा और संशय में भेद ही क्या है ? उत्तर में कहा जाता है कि ईहा संशय नहीं है क्योंकि संशय में दोनों पक्ष बराबर होते हैं । संशय उभयकोटि स्पर्शी होता है। संशय में ज्ञान का किसी एक ओर झुकाव नहीं होता । यह स्त्री का स्वर है या पुरुष का स्वर है, यह निर्णय नहीं हो पाता । संशय अवस्था में ज्ञान त्रिशंकु की तरह मध्य में ही लटकता रहता है। किन्तु ईहा के सम्बन्ध में यह बात नहीं है । ईहा में ज्ञान उभयकोटि में से एक कोटि की ओर झुक जाता है । संशय ज्ञान में उभय कोटियाँ समकक्ष होती हैं जबकि ईहा ज्ञान एक कोटि की ओर ढल जाता है । यह सही है ईहा में पूर्ण निर्णय या पूर्ण निश्चय नहीं हो पाता है तथापि ईहा में ज्ञान का झुकाव निर्णय की ओर अवश्य होता है । यही संशय और हा में बड़ा अन्तर है। धवला में भी कहा है-— ईहा ज्ञान संदेह रूप नहीं है क्योंकि ईहात्मक विचार Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानवाद : एक परिशीलन २६१ बुद्धि से संदेह का विनाश पाया जाता है।३६ इस प्रकार ईहा ज्ञान संशय का पश्चाभावी निश्चयाभिमुख ज्ञान है। नन्दीसूत्र में ईहा के लिए निम्न शब्द व्यवहृत हुए हैं-आयोगनता, मार्गणता गवेषणता, चिन्ता, विमर्ष । तत्त्वार्थभाष्य में ईहा, ऊह, तर्क, परीक्षा, विचारणा और जिज्ञासा ये शब्द आए हैं।४० अवाय UU मतिज्ञान का तृतीय भेद अवाय है। ईहा के द्वारा ईहित पदार्थ का निर्णय करना अवाय है । दूसरे शब्दों में विशेष के निर्णय द्वारा जो यथार्थ ज्ञान होता है, उसे अवाय कहते हैं । जैसे उत्पतन, निपतन, पक्षविक्षेप आदि के द्वारा “यह वक-पंक्ति ही है, ध्वजा नहीं है" ऐसा निश्चय होना अवाय है।४१ इसमें सम्यक्, असम्यक् की विचारणा पूर्णरूप से परिपक्व हो जाती है और असम्यक् का निवारण होकर सम्यक् का निर्णय हो जाता है। विशेषावश्यक में एक मत यह भी उपलब्ध होता है कि जो गुण पदार्थ में नहीं है, उसका निवारण अवाय है। और जो गुण पदार्थ .. में है उसका स्थिरीकरण धारणा है। भाष्यकार जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के मत से यह सिद्धान्त सही नहीं है । चाहे असद्गुणों का निवारण हो, चाहे सद्गुणों का स्थिरीकरण हो, चाहे दोनों एक साथ हों-सब अवायान्तर्गत हैं।४२ तात्पर्य यह है कि अवायज्ञान कभी अन्वयमुख से प्रवृत्त होकर सद्भूत गुण का निश्चय करता है, कभी व्यतिरेकमुख से प्रवृत्त होकर असद्भुत का निषेध करता है और कभी-कभी अन्वय-व्यतिरेकमुख से प्रवृत्त होकर विधान और निषेध दोनों करता है। नन्दीसूत्र में अवाय के पर्यायवाची निम्न शब्द आये हैं-आवर्तनता, प्रत्यावर्तनता, अवाय, बुद्धि, विज्ञान और षट्खण्डागम में अवाय, व्यवसाय, बुद्धि-विज्ञप्ति, आमुण्डा और प्रत्यामुण्डा ये पर्यायवाची नाम हैं।४३ तत्त्वार्थभाष्य में अवाय के लिए निम्न शब्द व्यवहृत हुए हैं-अपगम, अपनोद, अपव्याध, अपेत, अपगत, अपविद्ध, अपनुत ।४४ ये सभी शब्द निषेधात्मक हैं। उपर्युक्त पंक्तियों में विशेषावश्यक भाष्य में जिस मत का उल्लेख किया है, संभवतः यह वही परम्परा हो । अवाय और अपाय ये दो शब्द हैं । अवाय विध्यात्मक है और अपाय निषेधात्मक है। राजवातिक में प्रश्न उठाया है कि अवाय शब्द ठीक है या अपाय ठीक है ? उत्तर दिया है कि दोनों ठीक हैं। क्योंकि एक के वचन में दूसरे का ग्रहण स्वतः ३६ हा संदेहरूवा विचारबुद्धीदो संदेह विणासुवलंभा। ----धवला १, ६---१, १४, १७।३ Iran ४० (क) नंदीसूत्र सूत्र ५२, पृ० २२, पुण्यविजयजी (ख) तत्त्वार्थभाष्य १११५ ४१ (क) प्रमाणमीमांसा ११११२८ (ख) सर्वार्थसिद्धि १।१५।१११।६ ४२ विशेषावश्यक भाष्य १८६ ४३ (क) नंदीसूत्र सूत्र ५३ (ख) षट्खण्डागम १३।५।५। सूत्र ३६ ४४ तत्त्वार्थसूत्र भाष्य १११५ armanapadadiatrenatammnama يعتمداد عععجعید فردی فرقہ وارد Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARNAMAAwikkAALANNlawanNKA MandalaimadAsiaxARIA २६२ धर्म और दर्शन हो जाता है । जैसे 'यह दक्षिणी नहीं है', ऐसा अपाय त्याग करता है। तब 'उत्तरी है' यह अवाय निश्चय हो ही जाता है। इसी तरह 'उत्तरी है' इस प्रकार अवाय या निश्चय होने पर 'दक्षिणी नहीं है' यह अपाय त्याग हो जाता है । जो परम्परा इस ज्ञान को निषेधात्मक मानती है उसमें विशेषरूप से अपाय शब्द का प्रयोग हुआ है। जिस परम्परा में अवाय मात्र विध्यात्मक है उसमें प्रायः अवाय शब्द का प्रयोग हुआ है।४६ वस्तुतः यह ज्ञान धारणा की कोटि में पहुंचने के पश्चात् ही पूर्ण निश्चित होता है, एतदर्थ ही यह मतभेद है । अवाय में कुछ न्यूनता अवश्य रहती है । विध्यात्मक मानने पर भी उसकी दृढ़ावस्था धारणा में ही मानी है । एतदर्थ दोनों परम्पराओं में विशेष मतभेद की स्थिति नहीं रहती है। धारणा मतिज्ञान का चौथा भेद धारणा है। अवाय के पश्चात् धारणा होती है। उसमें ज्ञान इतना दृढ़ हो जाता है कि उसका संस्कार अन्तरात्मा पर अंकित हो जाता है। इस कारण वह कालान्तर में स्मृति का हेतु बनता है। इसीलिए धारणा को स्मृति का हेतु कहा है। धारणा संख्येय और असंख्येय काल तक रह सकती है। विशेषावश्यक भाष्य में कहा है ज्ञान की अविच्युति धारणा है।४७ जिस ज्ञान का संस्कार शीघ्र नष्ट न होकर चिरस्थायी रह सके और स्मृति का हेतु बन सके वही ज्ञान धारणा है। धारणा के तीन प्रकार हैं-अविच्युति, वासना, अनुस्मरण । १. अविच्युति-धारणा काल में जो सतत उपयोग चलता है वह अविच्युति है। उसमें पदार्थ के ज्ञान का विनाश नहीं होता है। २. वासना-उपयोगान्तर होने पर धारणा वासना के रूप में परिवर्तित हो जाती है। यही वासना कारणविशेष से उद्बुद्ध होकर स्मृति को उत्पन्न करती है। वासना अपने आप में ज्ञान नहीं है। किन्तु अविच्युति का कार्य और स्मृति का कारण होने से दो ज्ञानों को जोड़नेवाली कड़ी रूप में ज्ञान मानी जाती है। ३. अनुस्मरण-भविष्य में प्रसंग मिलने पर उन संस्कारों का स्मृति के रूप में उबुद्ध होना। इस प्रकार अविच्युति, वासना और स्मति ये तीनों धारणा के अंग हैं। वादिदेवसूरि का मन्तव्य है कि धारणा अवाय-प्रदत्त ज्ञान की दृढ़तम अवस्था है। कुछ समय तक अवाय का दृढ़ रहना धारणा है । धारणा स्मृति का कारण नहीं हो सकती, क्योंकि इतने लम्बे समय तक किसी ज्ञान का बराबर चलते रहना संभव नहीं है। यदि धारणा दीर्घकाल तक चलती रहे तो धारणा और स्मृति के बीच के काल में दूसरा ज्ञान होना बिलकुल असंभव है। क्योंकि एक साथ दो उपयोग नहीं हो सकते ।४८ संस्कार एक अलग गुण है जो आत्मा के साथ रहता है । धारणा उसकी व्यवहित कारण हो सकती है। किन्तु धारणा को-स्मृति का सीधा कारण मानना तर्कयुक्त नहीं है। धारणा की IARRI ४५ देखिए-सवार्थसिद्धि, राजवार्तिक ग्रन्थ । ४६ (क) देखिए-तत्त्वार्थसूत्र भाष्य, हारिभद्रीयटीका, (ख) सिद्धसेनीय टीका ४७ विशेषावश्यक. १८० । ४८ स्याद्वाद रत्नाकर २।१०। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानवाद : एक परिशीलन २६३ HERONECH अपनी समयमर्यादा है, उसके बाद वह नष्ट हो जाती है और फिर नया ज्ञान उत्पन्न होता है। एक ज्ञान के पश्चात् दूसरे ज्ञान की परम्परा चलती रहती है। वादिदेवसूरि का प्रस्तुत अभिप्राय तर्क की दृष्टि से वजनदार प्रतीत होता है ।४६ नन्दीसूत्र में धारणा के लिए धरणा, धारणा, स्थापना, प्रतिष्ठा, कोष्ठा शब्दों का प्रयोग हुआ है। उमास्वाति ने प्रतिपत्ति, अवधारणा, अवस्थान, निश्चय, अवगम, अवबोध शब्द प्रयोग किये हैं। मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा इन चार भेदों का निरूपण किया जा चुका है । अवग्रह के दो भेद हैं-व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह । स्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत्र का व्यंजनअवग्रह होता है। व्यंजन के तीन अर्थ हैं-(१) शब्द आदि पुद्गल द्रव्य । (२) उपकरण-इन्द्रियविषय ग्राहक इन्द्रिय । (३) विषय और उपकरण इन्द्रिय का संयोग । व्यंजन-अवग्रह अव्यक्त ज्ञान होता है । चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं इसलिए इन दोनों से व्यंजनावग्रह नहीं होता है । बौद्धदर्शन श्रोत्र को भी अप्राप्यकारी मानता है। नैयायिक-वैशेषिकदर्शन चक्षु और मन को अप्राप्यकारी नहीं मानते हैं, किन्तु जैनदर्शन की विचारधारा इन दर्शनों से भिन्न है। श्रोत्र व्यवहित शब्द को नहीं जानता। जो शब्द श्रोत्र से संपृक्त होता है, वही उसका विषय बनता है, एतदर्थ श्रोत्र को अप्राप्यकारी नहीं कह सकते । चक्षु और मन व्यवहित पदार्थ को जानते हैं, एतदर्थ वे दोनों प्राप्यकारी नहीं हो सकते । क्योंकि दोनों का ग्राह्य वस्तु के साथ सम्पर्क नहीं होता। वैज्ञानिक दृष्टि से-चक्षु में दृश्य वस्तु का तदाकार प्रतिबिम्ब पड़ता है। जिससे चक्षु अपने विषय का ज्ञान करती है । नैयायिक मानते हैं कि चक्षु प्राप्यकारी है क्योंकि चक्षु की सूक्ष्म रश्मियाँ पदार्थ से संपृक्त होती हैं। विज्ञान इस बात को नहीं मानता। वह आँख को बहुत बढ़िया केमरा मानता है। उसमें दूर की वस्तु का चित्र अंकित हो जाता है। इससे जैनदृष्टि की अप्राप्यकारिता में किसी भी प्रकार की बाधा नहीं आती। क्योंकि विज्ञान के अनुसार भी चक्षु का पदार्थ के साथ सम्पर्क नहीं होता । काच निर्मल है। उसके सामने जो वस्तुएँ आती हैं उनका प्रतिबिम्ब उसमें गिरता है। ठीक इसी प्रकार की प्रक्रिया आँख के सामने किसी वस्तु के आने पर होती है । काच में वस्तु का प्रतिबिम्ब गिरता है। किन्तु वस्तु और प्रतिबिम्ब एक नहीं होते । एतदर्थ काच उस वस्तु से संपृक्त नहीं कहलाता । ठीक यही बात आंख के लिए भी है। अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों पाँच इन्द्रियों और मन इन छः से होते हैं। अतः इनके ४४६-२४ भेद होते हैं। व्यंजनावग्रह मन और चक्षु को छोड़कर शेष चार इंद्रियों से होता है, इसलिए उसके चार भेद होते हैं। कुल २४--४=२८ । इस प्रकार इन ज्ञानों में श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार प्रत्येक ज्ञान के फिर १. बहु, २. बहुविध, ३. अल्प, ४. अल्पविध, ५. क्षिप्र, ६. अक्षिप्र, ७. अनिश्चित, ८. निश्चित, ६. असंदिग्ध, १०. संदिग्ध, ११. ध्र व, १२. अध्र व ये बारह भेद होते हैं । DETA A CHETTO ४६ देखिए-जैनदर्शन, डा. मोहनलाल जी मेहता पृ० २३२ ५० धारणाप्रतिपत्तिरवधारणमवस्थानं निश्चयोऽवगमः अवबोध इत्यनर्थान्तरम् । -तत्त्वार्थभाष्य १११५ تغییر می نامزه M आपाप्रवन अभिभाचार्यप्रवर अभिः श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्द Namailo viry Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAAGAMANACAAJAAAAAJAS प्रय अभियाआनन्द श्रीआनन्द Nivrrivaare २६४ धर्म और दर्शन EGA ERON AMI बहु का अर्थ अनेक और अल्प का अर्थ एक है। अनेक वस्तुओं का ज्ञान बहुग्राही है । एक वस्तु का ज्ञान अल्पग्राही है। अनेक प्रकार की वस्तुओं का ज्ञान बहुविधग्राही है। एक ही प्रकार की वस्तु का ज्ञान अल्पविधग्राही है। बहु और अल्प इनका सम्बन्ध संख्या से है। बहुविध या अल्पविध इनका सम्बन्ध जाति से है । अवग्रह आदि ज्ञान जो शीघ्र होता है वह क्षिप्र कहलाता है और जो विलम्ब से होता है वह अक्षिप्र कहलाता है । हेतु के बिना होने वाला वस्तुज्ञान अनिश्चित है । पूर्वानुभूत किसी हेतु से होने वाला ज्ञान निश्चित है । निश्चित ज्ञान असंदिग्ध है और अनिश्चित ज्ञान संदिग्ध है। अवग्रह और ईहा के अनिश्चित से इसमें भेद है। इसमें यह पदार्थ है-इस प्रकार निश्चय होने पर भी उसके विशेष गुणों के प्रति संदेह रहता है। अवश्यम्भावी ज्ञान ध्रुव व उसके विपरीत अध्रुव है। इन बारह भेदों में से चार भेद प्रमेय की विविधता पर अवलम्बित हैं और शेष आठ भेद प्रमाता के क्षयोपशम की विविधता पर आश्रित हैं। दिगम्बर परम्परा के ग्रंथों में इन नामों में कुछ अंतर है, उन्होंने अनिश्चित और निश्चित के स्थान पर अनिःसृत और निःसृत शब्द का प्रयोग किया है । अनिःसृत का अर्थ है असकल रूप से आविर्भूत पुद्गलों का ग्रहण और निःसृत का अर्थ है-सकल आविर्भूत पुद्गलों का ग्रहण । इसी प्रकार असंदिग्ध और संदिग्ध के स्थान पर अनुक्त और उक्त शब्द का प्रयोग हुआ है । अनुक्त का अर्थ है-अभिप्राय मात्र से जान लेना और उक्त का अर्थ है कहने से जानता ।५१ उपर्युक्त २८ भेदों में से प्रत्येक के १२ भेद करने से कुल २८x१२=३३६ भेद होते हैं। इस प्रकार मतिज्ञान के ३३६ भेद हैं। श्वेताम्बर परम्परा में भी इन नामों के विषय में सामान्य मतभेद पाया जाता है। ve FVEER श्रुतज्ञान मतिज्ञान के पश्चात् जो चितन-मनन के द्वारा परिपक्व ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान होने के लिए शब्द-श्रवण आवश्यक है। शब्द-श्रवण मति के अन्तर्गत है क्योंकि वह श्रोत्र का विषय है। जब शब्द सुनाई देता है तब उसके अर्थ का स्मरण होता है। शब्द-श्रवण रूप जो प्रवृत्ति है वह मतिज्ञान है, उसके पश्चात् शब्द और अर्थ के वाच्य-वाचकभाव के आधार पर होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है। इसलिए मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान कार्य है। मतिज्ञान के अभाव में श्रुतज्ञान कदापि सम्भव नहीं है। श्रुतज्ञान का अंतरंग कारण तो श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम है। मतिज्ञान उसका बहिरंग कारण है। मतिज्ञान होने पर भी यदि श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम नहीं हुआ तो श्रुतज्ञान नहीं हो सकता । यह श्रुतज्ञान का दार्शनिक विश्लेषण है। प्राचीन आगम की भाषा में श्रुतज्ञान का अर्थ है-वह ज्ञान जो श्रुत से अर्थात् शास्त्र से सम्बद्ध हो। आप्त पुरुष रचित आगम व अन्य शास्त्रों से जो ज्ञान होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। श्रतज्ञान के दो भेद हैं-अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । अंगबाह्य के अनेक भेद हैं । अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं ।५२ अंगप्रविष्ट उसे कहते हैं जो साक्षात् तीर्थङ्कर द्वारा प्रकाशित होता है और गणधरों द्वारा सूत्रबद्ध किया जाता है । आयु, बल, बुद्धि आदि के क्षीण होते हए देखकर बाद में आचार्य सर्व ५१ (क) सर्वार्थसिद्धि १११६ (ख) राजवार्तिक ११६ ५२ श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेकद्वादशभेदम् । -तत्त्वार्थसूत्र ११२० Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानवाद : एक परिशीलन २६५ साधारण के हित के लिए अंगप्रविष्ट ग्रंथों को आधार बनाकर विभिन्न विषयों पर ग्रंथ लिखते हैं, वे ग्रंथ अंगवाह्य के अंतर्गत हैं । अर्थात् जिसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थङ्कर हैं और सूत्र के रचयिता गणधर हैं वह अंगप्रविष्ट है। जिसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थङ्कर हों और सूत्र के रचयिता स्थविर हों वह अंगबाह्य है । अंगबाह्य के कालिक, उत्कालिक आदि अनेक भेद हैं। इन सभी का परिचय हमने साहित्य और संस्कृति नामक ग्रंथ में दिया है । पाठकों को वहाँ देखना चाहिए। श्रुत वस्तुतः ज्ञानात्मक है । ज्ञानोत्पत्ति के साधन होने के कारण उपचार से शास्त्रों को भी श्रुत कहते हैं । आचार्य भद्रबाहु ने लिखा है कि जितने अक्षर हैं और उनके जितने विविध संयोग हैं, उतने ही ज्ञान के भेद हैं । उन सारे भेदों की गणना करना संभव नहीं है । अतः श्रुतज्ञान के मुख्य चौदह भेद बताए ५. 3 १. अक्षर २. अनक्षर ३. संज्ञी ४. असंज्ञी ५. सम्यक् ६ मिथ्या ७. सादिक ८. अनादिक C. सपर्यवसित १०. अपर्यवसित ११. गमिक १२. अगमिक १०. अंगप्रविष्ट १४. अंगबाह्य इन चौदह भेदों का स्वरूप इस प्रकार है । अक्षरश्रुत के तीन भेद हैं १. संज्ञाक्षर - वर्ण का आकार । २. व्यंजनाक्षर - वर्ण की ध्वनि । ३. लब्ध्यक्षर - अक्षर सम्बन्धी क्षयोपशम । संज्ञाक्षर व व्यंजनाक्षर द्रव्यश्रुत हैं और लब्ध्यक्षर भावश्रुत है । खाँसना, ऊँचा श्वास लेना, छींकना आदि अनक्षरश्रुत हैं । संज्ञा के तीन प्रकार होने के कारण संज्ञीश्रुत के भी तीन प्रकार हैं- १. दीर्घकालिकी - वर्तमान, भूत और भविष्य विषयक विचार दीर्घकालिकी संज्ञा है । २. हेतूपदेशिकी केवल वर्तमान की दृष्टि से हिताहित का विचार करना हेतुपदेशिकी संज्ञा है । ३. दृष्टिवादोपदेशिकी -- सम्यक् श्रुत के ज्ञान के कारण हिताहित का बोध होना दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा है । जो इन संज्ञाओं को धारण करते हैं, वे संज्ञी कहलाते हैं । जिनमें ये संज्ञाएँ नहीं हैं वे असंज्ञी हैं । असंज्ञी के भी तीन भेद हैं । जो दीर्घकाल सम्बन्धी सोच नहीं कर सकते वे प्रथम नम्बर के असंज्ञी हैं । जो अमनस्क हैं वे द्वितीय नम्बर के असंज्ञी हैं । यहाँ पर अमनस्क का अर्थ मनरहित नहीं किन्तु अत्यन्त सुक्ष्म मनवाला है। जो मिथ्याश्रुत में निष्ठा रखते हैं, वे तृतीय नम्बर के असंज्ञी हैं । सम्यक् श्रुत उत्पन्न ज्ञान- दर्शनधारक सर्वज्ञ, सर्वदर्शी ने जो द्वादशाङ्गी का उपदेश दिया, वह सम्यक्त है और सर्वज्ञों के सिद्धान्त के विपरीत जो श्रुत है, वह मिथ्याश्रुत है । जिस की आदि है वह सादिक श्रुत है और जिसकी आदि नहीं है वह अनादिक श्रुत है । द्रव्यरूप से श्रुत अनादिक है और पर्यायरूप से सादिक है । ५३ नन्दीसूत्र सूत्र ३७ आयायप्रवर अभिनन्दन या आनन्द अभिनन्दन Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ madaanamaarnaaaMAANAaramanaraaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaAMALAAADAROAanchaJRAJAkadaadaasABARADABALI उपचार्यप्रस भावार्यप्रवर अभिनित श्रीआनन्दग्रन्थ श्राआनन्दान्थ २६६ धर्म और दर्शन MiAawrdinwwwmaavawwwwantony wwwwwwwanavarodawariyana जिसका अन्त होता है वह सपर्यवसित है और जिसका अन्त नहीं होता वह अपर्यवसित श्रुत है । यहाँ पर भी द्रव्य और पर्याय की दृष्टि से समझना चाहिए। जिसमें सदृश पाठ हों वह गमिक श्रत है। जिसमें असदृशाक्षरालापक हों वह अगमिक है। अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य का स्पष्टीकरण पूर्व पंक्तियों में किया जा चुका है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के सम्बन्ध में विशेष ज्ञातव्य मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के सम्बन्ध में कुछ बातें समझना आवश्यक हैं-- प्रत्येक संसारी जीव में मति और श्रतज्ञान अवश्य होते हैं। प्रश्न यह है कि ये ज्ञान कब तक रहते हैं ? केवलज्ञान के पूर्व तक रहते हैं या बाद में भी रहते हैं ? इसमें आचार्यों का एकमत नहीं है। कितने ही आचार्यों का अभिमत है कि केवलज्ञान की उपलब्धि के पश्चात् भी मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की सत्ता रहती है। जैसे दिवाकर के प्रचण्ड प्रकाश के सामने ग्रह और नक्षत्रों का प्रकाश नष्ट नहीं होता किन्तु तिरोहित हो जाता है, उसी प्रकार केवलज्ञान के महाप्रकाश के समक्ष मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का अल्प प्रकाश नष्ट नहीं होता किन्तु तिरोहित हो जाता है। दूसरे आचार्यों का मन्तव्य है कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान क्षायोपशमिक ज्ञान हैं और केवलज्ञान क्षायिक ज्ञान है। जब सम्पूर्ण रूप से ज्ञानावरण कर्म का क्षय होता है, तब क्षायिक ज्ञान प्रकट होता है, जिसे केवलज्ञान कहते हैं। उस समय क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं रह सकता। इसलिए केवलज्ञान होने पर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की सत्ता नहीं रहती। प्रथम मत की अपेक्षा द्वितीय मत अधिक तर्कसंगत व वजनदार है और जैनदर्शन के अनुकूल है। श्रुत-अननुसारी साभिलाप (शब्दसहित) ज्ञान मतिज्ञान है । श्रुत-अनुसारी सामिलाप (शब्दसहित) ज्ञान श्रुतज्ञान है। मतिज्ञान साभिलाप और अनभिलाप दोनों प्रकार का होता है। किन्तु श्रुतज्ञान साभिलाप ही होता है।५४ अर्थावग्रह को छोड़कर शेष मतिज्ञान के प्रकार साभिलाप होते हैं। श्रुतज्ञान साभिलाप ही होता है। किन्तु यह बात स्मरण रखनी चाहिये कि साभिलाप ज्ञान मात्र श्रुतज्ञान नहीं है। क्योंकि ज्ञान साक्षर होने मात्र से श्रुत नहीं कहलाता। साक्षार ज्ञान परार्थ या परोपदेश क्षय या वचनाभिमुख होने की स्थिति में श्रुत बनता है। मतिज्ञान साक्षर हो सकता है किन्तु वचनात्मक या परोपदेशात्मक नहीं होता। श्रुतज्ञान साक्षर होने के साथ-साथ वचनात्मक होता है ।५५ ___ मतिज्ञान का कार्य है उसके सम्मुख आये हुए स्पर्श, रस, गंध, रूप, शब्द, आदि अर्थों को जानना और उनकी विविध अवस्थाओं पर विचार करना । श्रुतज्ञान का कार्य है--शब्द के द्वारा उसके वाच्य अर्थ को जानना और शब्द के द्वारा ज्ञात अर्थ को फिर से शब्द के द्वारा प्रतिपादित करने में समर्थ होना । मति को अर्थज्ञान और श्रुत को शब्दार्थज्ञान कहना चाहिये। मति और श्रत का सम्बन्ध कार्य-कारणसम्बन्ध है। मति कारण है और श्रुत कार्य है। श्रुतज्ञान शब्द, संकेत और स्मरण से उत्पन्न होने वाला अर्थबोध है। इस अर्थ का यह संकेत है, यह जानने के पश्चात् ही उस शब्द के द्वारा उसके अर्थ का परिज्ञान होता है। संकेत को मति जानती है । उसके अवग्रहादि होते हैं, उसके पश्चात् श्रुतज्ञान होता है । TO.... re - - - ५४ विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति १०० ५५ तत्थ चत्तारि नाणाई ठप्पाइ ठवणिज्जाइ । -अनुयोगद्वार-२ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानवाद : एक परिशीलन द्रव्य श्रुतमति ( श्रोत्र ) ज्ञान का कारण बनता है, परन्तु भाव श्रुत उसका कारण नहीं बनता । एतदर्थं मति को श्रुतपूर्वक नहीं माना जाता । दूसरे मत से द्रव्य श्रुत श्रोत्र का कारण नहीं है, विषय बनता है । कारण कहना चाहिये जबकि श्रूयमाण शब्द से श्रोत्र को उसके अर्थ का परिज्ञान हो, पर इस प्रकार होता नहीं है । केवल शब्द का बोध श्रोत्र को होता है, श्रुतनिश्रित मति भी श्रुतज्ञान का कार्य नहीं होता । अमुक लक्षण वाली गाय होती है । यह परोपदेश या श्रुतग्रन्थ से जाना, उसी प्रकार के संस्कार बैठ गये । गाय देखी और जान लिया कि यह गाय है, यह ज्ञान पूर्वसंस्कार से पैदा हुआ ! एतदर्थ इसे श्रुतनिश्रित कहा जाता है । ५ ६ ज्ञानकाल में यह "शब्द" से उत्पन्न नहीं हुआ । एतदर्थ इसे श्रुत का कार्य नहीं माना जाता । मतिज्ञान विद्यमान वस्तु में प्रवृत्त होता है और श्रुतज्ञान वर्तमान, भूत और भविष्य इन तीनों विषयों में प्रवृत्त होता है । प्रस्तुत विषयकृत भेद के अतिरिक्त दोनों में यह भी अन्तर है कि मतिज्ञान में शब्दोल्लेख नहीं होता और श्रुतज्ञान में होता है। तात्पर्य यह है कि जो ज्ञान इन्द्रियजन्य और मनोजन्य होने पर भी शब्दोल्लेख युक्त है वह श्रुतज्ञान है और जिसमें शब्दोल्लेख नहीं होता, वह मतिज्ञान है । दूसरे शब्दों में कह सकते हैं इन्द्रिय और मनोजन्य एक दीर्घ ज्ञानव्यापार का प्राथमिक अपरिपक्व अंश मतिज्ञान है और उत्तरवर्ती परिपक्व व स्पष्ट अंश श्रुतज्ञान है । जो ज्ञान भाषा में उतारा जा सके वह श्रुतज्ञान है और जो ज्ञान भाषा में उतारने- युक्त परिपाक को प्राप्त न हो, वह मतिज्ञान है । मतिज्ञान को यदि दूध कहें तो श्रुतज्ञान को खीर कह सकते हैं । ४७ अवधिज्ञान जिस ज्ञान की सीमा होती है उसे अवधि कहते हैं । अवधिज्ञान केवल रूपी पदार्थों को ही जानता है। 5 मूर्तिमान द्रव्य ही इसके ज्ञेयविषय की मर्यादा है। जो रूप, रस, गंध और स्पर्श युक्त है, वही अवधि का विषय है । अरूपी पदार्थों में अवधि की प्रवृत्ति नहीं होती । षट् द्रव्यों में से केवल पुद्गल द्रव्य ही अवधि का विषय है । क्योंकि शेष पाँचों द्रव्य अरूपी हैं । केवल पुद्गल द्रव्य ही रूपी है । अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से इसकी अनेक मर्यादाएँ बनती हैं । जैसे— जो ज्ञान इतने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का ज्ञान कराता है उसे अवधि कहते हैं । अवधिज्ञान का विषय १. द्रव्य की दृष्टि से जघन्य अनन्त मूर्तिमान द्रव्य, उत्कृष्ट समस्त मूर्तिमान द्रव्य । २. क्षेत्र की दृष्टि से जघन्य न्यून से न्यून अंगुल का असंख्यातवां भाग, उत्कृष्ट अधिक-सेअधिक असंख्य क्षेत्र (सम्पूर्ण लोकाकाश) और शक्ति की कल्पना करें तो लोकाकाश के जैसे असंख्य खण्ड उसके विषय हो सकते हैं । ३. काल की दृष्टि से एक आवलिका का असंख्यातवां भाग, उत्कृष्ट असंख्य अवसर्पिणीउत्सर्पिणी काल । २६७ ४. भाव की दृष्टि से जघन्य अनन्त-भाव पर्याय, उत्कृष्ट अनन्त भाव- सभी पर्यायों का अनन्तवां भाग | ५६ विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति १६८ । ५७ तत्त्वार्थसूत्र । ५८ रूपिष्वधेः । vernon - पं० सुखलाल जी, पृ० ३५-३६ । - तत्त्वार्थ सूत्र १।२८। आयायप्रवरुप आनन्द आआनन्दन ग्रन्थश Vo Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -uzanwarmadaradaNAIRAwareAadABAR. N ... .. आपाप्रवनका श्रीआनन्दसाग्रन्थ श्राआनन्दमन्थ५१ २६८ धर्म और दर्शन अवधिज्ञान के अधिकारी अवधिज्ञान के अधिकारी चारों गतियों के जीव हैं। देवों और नारकों में जो अवधिज्ञान होता है वह भवप्रत्यय है।५६ और मनुष्यों एवं तिर्यंचों में जो अवधिज्ञान होता है वह गुणप्रत्यय है । जो अवधिज्ञान जन्म के साथ-ही-साथ प्रकट होता है, वह भवप्रत्यय है। देव और नारक जीवों को जन्म लेते ही अवधिज्ञान पैदा हो जाता है। वह भव ही ऐसा है कि वहाँ पर जन्म लेते ही उन्हें अवधिज्ञान हो जाता है। उसके लिए उन्हें व्रत, नियम आदि का पालन करना नहीं पड़ता। मनुष्य और तिर्यंच में ऐसा नहीं है। उन्हें व्रत, नियम का पालन करने से अवधिज्ञान होता है । इसलिए इसे गुणप्रत्यय अवधिज्ञान कहते हैं। प्रश्न उबुद्ध हो सकता है कि अवधिज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से अवधिज्ञान होता है तो फिर देव और नारकों को जन्म से ही किस प्रकार होता है ? उसके लिए क्या क्षयोपशम आवश्यक नहीं है ? उत्तर में निवेदन है कि अवधिज्ञान के लिए अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम आवश्यक है। किन्तु अन्तर यह है कि देवों और नारकों का क्षयोपशम भवप्रत्यय होता है। वहाँ पर जन्म लेते ही अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम हो ही जाता है। किन्तु मनुष्य व तिर्यंच के लिए वह नियम नहीं है। उन्हें विशेषरूप से नियम आदि का पालन करना होता है, तब जाकर अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होता है । क्षयोपशम दोनों में आवश्यक है । अन्तर केवल साधन में है। जो जीव जन्मग्रहण करने मात्र से क्षयोपशम कर सकते हैं, उनका अवधिज्ञान भवप्रत्यय है। जैसे पक्षियों में जन्म लेते ही उड़ने की शक्ति प्राप्त हो जाती है, पर मानव में नहीं। गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के छः प्रकार हैं -६० १. अनुगामी—जिस क्षेत्र में स्थित जीव को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, उससे अन्यत्र जाने पर नेत्र के समान जो साथ-साथ जाय-बना रहे। २. अननुगामी-उत्पत्ति-क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य क्षेत्र में जाने पर जो न रहे। ३. वर्धमान-उत्पत्ति के समय में कम प्रकाशमान हो और बाद में क्रमशः बढ़े। ४. हीयमान-उत्पत्ति काल में अधिक प्रकाशमान हो और बाद में क्रमशः घटे । ५. अप्रतिपाती-जीवनपर्यन्त रहने वाला, अथवा केवलज्ञान उत्पन्न होने तक रहने वाला। ६. प्रतिपाती-उत्पन्न होकर जो पुनः चला जाए। उपर्यक्त अवधिज्ञान के ये छः भेद स्वामी के गुण की दृष्टि से किये गये हैं। तत्त्वार्थराजवार्तिक में क्षेत्र आदि की दृष्टि से तीन भेद किये गये हैं १. देशावधि, २. परमावधि, और ३. सर्वावधि ।११ AJAN. MAINEER PvN वा ५६ (क) नन्दीसूत्र ७, (ख) द्विविधोऽवधिः । तत्र भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् । -तत्त्वार्थसूत्र श२१-२२ ६० तं समासओ छव्विहं पण्णत्तं । तं जहा-आणुगमियं, अणाणुगमियं, वड्ढमाणयं, हायमाणं, पडिवाति, अपडिवाति । --नन्दीसूत्र सूत्र ६ ६१ पुनरपरेऽवधेस्त्रयो भेदा देशावधिः परमावधिः सर्वावधिश्चेति ।। -राजवार्तिक ११२२१५ (वृत्तिसहित) Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानवाद : एक परिशीलन २९६ ASPAad నాలో देशावधि के तीन भेद होते हैं । जघन्य देशावधिक क्षेत्र उत्सेधांगुल का असंख्यातवां भाग है। उत्कृष्ट देशावधि का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है। अजघन्योत्कृष्ट देशावधि का क्षेत्र इन दोनों के मध्य का है। जिसके असंख्यात प्रकार हैं। जघन्य परमावधि का क्षेत्र एक प्रदेश से अधिक लोक है। उत्कृष्ट परमावधि का क्षेत्र असंख्यात लोकप्रमाण है। अजघन्योत्कृष्ट परमावधि का क्षेत्र इन दोनों के मध्य का है । ६२ सर्वावधि एक प्रकार का होता है। उसका क्षेत्र उत्कृष्ट परमावधि के क्षेत्र से बाहर असंख्यात क्षेत्रप्रमाण है। क्षेत्र की अधिक-से-अधिक मर्यादा लोक है। लोक से बाहर कोई पदार्थ नहीं है। जो लोक से अधिक क्षेत्र का निर्देश किया गया है, उसका तात्पर्य ज्ञान की सूक्ष्मता से है। देशावधि चारों गतियों में होता है किन्तु परमावधि और सर्वावधि मनुष्यों में मुनियों के ही होते हैं। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन सात निक्षेपों से अवधिज्ञान को समझने का सूचन किया है।४ मनःपर्यायज्ञान यह ज्ञान मनुष्यगति के अतिरिक्त अन्य किसी गति में नहीं होता। मनुष्य में भी संयत मनुष्य को देता है, असंयत मनुष्य को नहीं। मनःपर्यायज्ञान का अर्थ है-मनुष्यों के मन के चिन्तित अर्थ को जानने वाला ज्ञान । मन एक प्रकार का पौद्गलिक द्रव्य है। जब व्यक्ति किसी विषयविशेष का विचार करता है तब उसके मन का नाना प्रकार की पर्यायों में परिवर्तन होता रहता है। मनःपर्यायज्ञानी मन की उन विविध पर्यायों का साक्षात्कार करता है। उस साक्षात्कार से वह यह जानता है कि व्यक्ति इस समय में यह चिन्तन कर रहा है। केवल अनुमान से यह कल्पना करना कि अमुक व्यक्ति इस समय अमुक प्रकार की कल्पना कर रहा होगा, इस प्रकार अनुमान को मनःपर्याय ज्ञान नहीं कहते। यह ज्ञान मन के प्रवर्तक या उत्तेजक पुद्गल द्रव्यों को साक्षात् जानने वाला है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो-मन के परिणमन का आत्मा के द्वारा साक्षात् प्रत्यक्ष करके मानव के चिन्तित अर्थ को जान लेना मनःपर्यायज्ञान है। यह ज्ञान मनपूर्वक नहीं होता, किन्तु आत्मपूर्वक होता है। मन तो उसका विषय है। ज्ञाता साक्षात् आत्मा है । ६५ दो विचारधाराएँ मनःपर्यायज्ञान के सम्बन्ध में आचार्यों की दो विचारधाराएँ हैं। आचार्य पूज्यपाद एवं आचार्य अकलंक का मन्तव्य है कि मनःपर्यायज्ञानी चिन्तित अर्थ का प्रत्यक्ष करता है। अर्थात् मन के द्वारा चिन्तित अर्थ के ज्ञान के लिए मन को माध्यम न मानकर सीधा उस अर्थ का प्रत्यक्ष मान ६२ विभिन्न वस्तुओं के नापने के लिए विभिन्न अंगुल निश्चित किये गये हैं। मुख्यरूप से उसके तीन भेद हैं-उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल, और आत्मांगुल । ६३ तत्त्वार्थसार, अमृतचन्द्र सुरि, पृ० १२ -गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला ६४ विशेषावश्यक भाष्य ६५ मणपज्जवणाणं पुण, जणमणपरिचितियत्थ पागडाणं । माणुसखेत्तनिबद्धं, गुणपच्चइयं चरित्तवओ ॥ -आवश्यक नियुक्ति ७६ manorankarinaamarriandiaramremiumAnasunitanatanAmarnarmercadorial आचार्यप्रवभिआपाप्रवआभः श्रीआन्दा अन्शनाआनन्दमयन ANIMNamariwwwnarayanawwmanomenorrenewanawimilaiaml Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anmarriaJAAAAAAAAAAAAAAAAALANANAirtanvartam ICC शकस श्रीआनन्दग्रन्थश्राआनन्दान्थ५१ न्यायप्रवामिनी ३०० धर्म और दर्शन लेती है। यह परम्परा मन के पर्याय और अर्थपर्याय में लिंग और लिङ्गी का सम्बन्ध नहीं मानती। मन एकमात्र सहारा है। जैसे कोई व्यक्ति यह कहे कि "सूर्य बादलों में है" इसका तात्पर्य यह नहीं कि-बादल सूर्य के जानने में कारण है। बादल तो सूर्य को जानने के लिए आधार है। वस्तुतः प्रत्यक्ष तो अर्थ का ही होता है । इसके लिए मन रूप आधार की आवश्यकता है।६६ ___ आचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण का कथन है कि मनःपर्याय ज्ञानी मन की विविध अवस्थाओं का प्रत्यक्ष करता है। किन्तु उन अवस्थाओं में जो अर्थ रहा हुआ है, उसका अनुमान करता है। अर्थात् यह परम्परा अर्थ का ज्ञान अनुमान से मानती है। उसका कथन है कि मन का ज्ञान मुख्य है । अर्थ का ज्ञान उसके पश्चात् की वस्तु है। मन के ज्ञान से अर्थ का ज्ञान होता है । सीधा अर्थज्ञान नहीं होता है। मनःपर्याय का अर्थ ही यह है कि मन की पर्यायों का ज्ञान, न कि अर्थ की पर्यायों का ज्ञान ।६७ उपर्युक्त दोनों परम्पराओं में द्वितीय परम्परा अधिक तर्कसंगत है। क्योंकि मनःपर्यायज्ञान से साक्षात् अर्थज्ञान होना सम्भव नहीं है। उसका विषय रूपी द्रव्य का अनन्तवां भाग है।६८ यदि मनःपर्यायज्ञान मन के सभी विषयों का साक्षात् ज्ञान कर लेता है तो अरूपी द्रव्य भी उसके विषय हो जाते हैं । क्यों कि मन के द्वारा अरूपी द्रव्य का भी चिन्तन हो सकता है। जबकि इस प्रकार नहीं होता। जितने मूर्त द्रव्यों का अवधिज्ञानी साक्षात्कार करता है, उन से कम का मनःपर्यायज्ञानी करता है । अवधिज्ञानी सभी प्रकार के पुद्गल द्रव्यों को ग्रहण कर सकता है। किन्तु मनःपर्यायज्ञानी उनके अनन्तवें भाग अर्थात् मन रूप बने हुए पुद्गलों का मानुषोत्तर क्षेत्र के अन्तर्गत ही ग्रहण करता है। मन का साक्षात्कार हो जाने के पश्चात् उसके द्वारा चिन्तित अर्थ का परिज्ञान अनुमान से हो सकता है। ऐसा होने पर मन के द्वारा सोचे गये मूर्त-अमूर्त सभी द्रव्यों का ज्ञान हो सकता है।६६ दो प्रकार मनःपर्यायज्ञान के ऋजुमति और विपुलमति ये दो प्रकार हैं।७० ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति ज्ञान अधिक विशुद्ध होता है । ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति मन के सूक्ष्म परिणामों को भी जान सकता है। दोनों में दूसरा अन्तर यह भी है कि ऋजुमति प्रतिपाती है अर्थात् उत्पन्न होने के पश्चात् नष्ट भी हो जाता है। किन्तु विपुलमति केवलज्ञान की प्राप्ति तक बना रहता है । ७१ मनःपर्यायज्ञान का विषय १. द्रव्य की दृष्टि से-मन रूप में परिणत पुद्गल द्रव्य (मनोवर्गणा)। २. क्षेत्र की दृष्टि से--मनुष्यक्षेत्र । ६६ (क) सर्वार्थसिद्धि १६ (ख) तत्त्वार्थराजवार्तिक २२६६-७ । ६७ विशेषावश्यक भाष्य ८१४ । ६८ तदनन्तभागे मनःपर्यायस्य । -तत्त्वार्थसूत्र ११२६ । ६६ जनदर्शन डा० मोहनलाल मेहता ७० नन्दीसूत्र सूत्र १८ ७१ विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः । -तत्त्वार्थसूत्र ११२५ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानवाद : एक परिशीलन ३०१ ३. काल की दृष्टि से-असंख्यात काल तक का (पल्योपम का असंख्यातवां भाग) अतीत का और भविष्य । ४. भाव की दृष्टि से-मनोवर्गणा की अनन्त अवस्थाएँ। अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान की विशेषताएं अवधि और मनःपर्याय ज्ञान ये दोनों ज्ञान आत्मा से होते हैं। इनके लिए इन्द्रिय और मन की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। किन्तु ये दोनों ज्ञान रूपी द्रव्य तक ही सीमित हैं। इसलिए अपूर्ण अर्थात् विकलप्रत्यक्ष हैं। जबकि केवलज्ञान रूपी-अरूपी सभी द्रव्यों को जानने के कारण सकलप्रत्यक्ष है। अवधि और मनःपर्याय में विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय इन चार दृष्टियों से | अन्तर है। मनःपर्यायज्ञान अपने विषय को अवधिज्ञान की अपेक्षा विशद रूप से जानता है। IT इसलिए वह उससे अधिक विशुद्ध है। यह विशुद्धि विषय की न्यूनाधिकता पर नहीं है । विषय की सुक्ष्मता पर अवलम्बित है। महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि अधिक मात्रा में पदार्थों को जाना जाय, पर महत्त्वपूर्ण यह है कि ज्ञेय पदार्थ की सूक्ष्मता का परिज्ञान हो । मनोवर्गणाओं की मन के रूप में परिणत पर्याय अवधिज्ञान का भी विषय बनती हैं। तथापि मनःपर्याय उन पर्यायों का स्पेशलिस्ट (विशेषज्ञ-सूक्ष्मज्ञ) है। एक डाक्टर वह होता है जो सम्पूर्ण शरीर की चिकित्सा-विधि साधारण रूप से जानता है, और एक डाक्टर वह होता है जो आँख का, कान का, दाँत का, एक अवयव विशेष का पूर्ण निष्णात होता है । यही बात अवधि और मनःपर्याय की है। अवधिज्ञान के द्वारा रूपी द्रव्य का सूक्ष्म अंश जितना जाना जाता है उससे अधिक सूक्ष्म अंश मनःपर्यायज्ञान के द्वारा जाना जाता है। अवधिज्ञान का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोक के रूपी पदार्थ हैं किन्तु मनःपर्याय का क्षेत्र मनुष्यलोक ही है। अवधिज्ञान के स्वामी चारों गति वाले जीव हैं। किन्तु मनःपर्याय का स्वामी केवल चारित्रवान् श्रमण ही हो सकता है। अवधिज्ञान का विषय सम्पूर्ण रूपी द्रव्य है (सब पर्याय नहीं), किन्तु मनःपर्यायज्ञान का विषय केवल मन है। जो कि रूपी द्रव्य का अनन्तवां भाग है। केवलज्ञान केवल शब्द का अर्थ एक या असहाय है।७२ ज्ञानावरणीयकर्म के नष्ट होने से ज्ञान के अवान्तर भेद मिट जाते हैं और ज्ञान एक हो जाता है, उसके पश्चात् इन्द्रिय और मन के सहयोग की आवश्यकता नहीं होती, एतदर्थ वह केवल कहलाता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति में गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की-भगवन् ! केवली इन्द्रिय और मन से जानता है और देखता है ? भगवान् ने समाधान करते हुए कहा-गौतम ! वह इन्द्रियों से जानता व देखता नहीं है। गौतम ने पुनः प्रश्न किया-भगवान् ! ऐसा क्यों होता है ? भगवान् ने उत्तर दिया-गौतम ! केवली पूर्व दिशा में मित को भी जानता है और अमित को भी जानता है । वह इन्द्रिय का विषय नहीं है ।७३ ७२ केवलमेगं सुद्धं, सगलमसाहारणं अणंतं च । -विशेषावश्यक भाष्य ८४ । ७३ व्याख्याप्रज्ञप्ति ६।१० AAAMAMINIMIRamaanaanadaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaasandraAADALA mvivarvivyameviniwr Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाय श्री आनन्द ३०२ భ 張 COMBARD आमन्देन आमा व आमदन श्री आनन्द धर्म और दर्शन केवल शब्द का दूसरा अर्थ शुद्ध है । ७४ ज्ञानावरणीय के नष्ट होने से ज्ञान में किञ्चिन्मात्र भी अशुद्धि का अंश नहीं रहता है। इसलिए वह "केवल" कहलाता है । केवल शब्द का तीसरा अर्थ सम्पूर्ण है । ७५ ज्ञानावरणीय के नष्ट होते से ज्ञान में अपूर्णता नहीं रहती है, इसलिये वह "केवल” कहलाता है । केवल शब्द का चौथा अर्थ - असाधारण है । ७६ ज्ञानावरणीय कर्म के नष्ट होने पर जैसा ज्ञान होता है, वैसा दूसरा नहीं होता, इसलिए वह "केवल" कहलाता है । केवल शब्द का पांचवा अर्थ अनन्त है । ७७ ज्ञानावरणीय के नष्ट होने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह फिर कदापि आवृत नहीं होता, एतदर्थं वह 'केवल' कहलाता है । "केवल" शब्द के उपर्युक्त अर्थ - "सर्वज्ञता " से सम्बन्धित नहीं हैं । आवरण के पूर्ण रूप से क्षय होने पर ज्ञान एक शुद्ध असाधारण और अप्रतिपाती होता है। इस में किसी भी प्रकार का विवाद नहीं है । विवाद का मुख्य विषय ज्ञान की पूर्णता है । कितने ही तार्किकों का मन्तव्य है कि ज्ञान की पूर्णता का अर्थ बहुश्रुतता है । कितने ही आचार्य ज्ञान की पूर्णता का अर्थ सर्वज्ञता करते हैं । जैन परम्परा में केवलज्ञान का अर्थ सर्वज्ञता है । केवलज्ञानी केवलज्ञान पैदा होते ही लोक और अलोक दोनों को जानने लगता है । ७८ केवलज्ञान का विषय सर्व द्रव्य और सर्व पर्याय हैं । ७६ कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसे केवलज्ञानी नहीं जानता हो। कोई भी पर्याय ऐसा नहीं जो केवलज्ञान का विषय न हो। छहों द्रव्यों के वर्तमान, भूत और भविष्य के जितने भी पर्याय हैं, सभी केवलज्ञान के विषय हैं । आत्मा की ज्ञानशक्ति का पूर्ण विकास केवलज्ञान है । जब पूर्ण ज्ञान हो जाता है तब अपूर्ण ज्ञान स्वतः नष्ट हो जाता है । इसके सम्बन्ध में पूर्व लिख चुके हैं । दर्शन और ज्ञान विषयक तीन मान्यताएँ उपयोग के दो भेद हैं—– साकार और अनाकार । साकार उपयोग को ज्ञान कहते हैं और अनाकार उपयोग को दर्शन 50 साकार का अर्थ सविकल्प है और अनाकार का अर्थ निर्विकल्प है । जो उपयोग वस्तु के विशेष अंश को ग्रहण करता है वह सविकल्प है । और जो उपयोग सामान्य अंश को ग्रहण करता है वह निर्विकल्प है । ज्ञान और दर्शन की मान्यता जैन साहित्य में अत्यधिक प्राचीन है। ज्ञान को आवृत करने वाले कर्म का नाम ज्ञानावरण है और दर्शन को आच्छादित करने वाले कर्म का नाम दर्शनावरण ७४ शुद्धम्-निर्मलम्-सकलाव रणमलंकविगमसम्भूतत्त्वात् । ७५ वही – ८४ ७६ असाधारणम् अनन्य - सदृशम् तादृशापरज्ञानाभावात् । ७७ विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति ८४ । ७८ जया सव्वत्तगं नाणं दंसणं चाभिगच्छई । तया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली ॥ ७९ सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य । - तत्त्वार्थसूत्र १ । ३० ८० तत्त्वार्थ सूत्रभाष्य १६ - विशेषावश्यक भाष्यवृत्ति ८४ - विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति ८४ - दशवैकालिक ४।२२ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानवाद : एक परिशीलन ३०३ है। इन कर्मों के क्षयोपशम से ज्ञान और दर्शन गुण प्रकट होते हैं। आगम-साहित्य में यत्र-तत्र ज्ञान के लिए "जाणइ" और दर्शन के लिए "पासइ" शब्द व्यवहृत हुआ है। __ दिगम्बर आचार्यों का यह अभिमत रहा है कि बहिर्मुख उपयोग ज्ञान है और अन्तर्मुख उपयोग दर्शन है। आचार्य वीरसेन षट्खण्डागम की धवला टीका में लिखते हैं कि सामान्य-विशेषात्मक बाह्यार्थ का ग्रहण ज्ञान और तदात्मक आत्मा का ग्रहण दर्शन है। दर्शन और ज्ञान में यही अन्तर है कि दर्शन सामान्य-विशेषात्मक आत्मा का उपयोग है-स्वरूप-दर्शन है जबकि ज्ञान आत्मा से इतर प्रमेय का ग्रहण करता है। जिनका यह मन्तव्य है कि सामान्य का ग्रहण दर्शन है और विशेष का ग्रहण ज्ञान है वे प्रस्तुत मत के अनुसार दर्शन और ज्ञान के मत से अनभिज्ञ हैं। सामान्य और विशेष ये दोनों पदार्थ के धर्म हैं। एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व नहीं है। केवल सामान्य और केवल विशेष का ग्रहण करने वाला ज्ञान अप्रमाण है। इसी तरह विशेष-व्यतिरिक्त सामान्य का ग्रहण करने वाला दर्शन मिथ्या है।८१ प्रस्तुत मत का प्रतिपादन करते हुये द्रव्यसंग्रह की वृत्ति में ब्रह्मदेव ने लिखा है-ज्ञान और दर्शन का दो दृष्टियों से चिन्तन करना चाहिये। तर्कदृष्टि से और सिद्धान्तदृष्टि से । दर्शन को सामान्यग्राही मानना तर्कदृष्टि से उचित है। किन्तु सिद्धान्तदृष्टि से आत्मा का सही उपयोग दर्शन है और बाह्य अर्थ का ग्रहण ज्ञान है । व्यावहारिक दृष्टि से ज्ञान और दर्शन में भिन्नता है, पर-नैश्चयिक दृष्टि से ज्ञान और दर्शन में किसी भी प्रकार की भिन्नता नहीं है । ८२ सामान्य और विशेष के आधार से ज्ञान और दर्शन का जो भेद किया गया है, उसका निराकरण अन्य प्रकार से भी किया गया है। यहां अन्य दार्शनिकों को समझाने के लिए सामान्य और विशेष का प्रयोग किया गया है। किन्तु जो जैन तत्त्वज्ञान के ज्ञाता हैं उनके लिए आगमिक व्याख्यान ही ग्राह्य है। शास्त्रीय परम्परा के अनुसार आत्मा और इतर का भेद ही वस्तुतः सार- || पूर्ण है। उपर्यक्त विचारधारा को मानने वाले आचार्यों की संख्या अधिक नहीं है। अधिकांशतः दार्शनिक आचार्यों ने साकार और अनाकार के भेद को स्वीकार किया है। दर्शन को सामान्यग्राही मानने का तात्पर्य इतना ही है कि उस उपयोग में सामान्य धर्म प्रतिबिम्बित होता है और ज्ञानोपयोग में विशेष धर्म झलकता है। वस्तु में दोनों धर्म हैं पर उपयोग किसी एक धर्म को ही मुख्य रूप से ग्रहण कर पाता है । उपयोग में सामान्य और विशेष का भेद होता है किन्तु वस्तु में नहीं। __ काल की दृष्टि से दर्शन और ज्ञान का क्या सम्बन्ध है ? जरा इस प्रश्न पर भी चिन्तन करना आवश्यक है। छद्मस्थों के लिए सभी आचार्यों का एकमत है कि छद्मस्थों को दर्शन और ज्ञान क्रमशः होता है, युगपद् नहीं। केवली में दर्शन और ज्ञान का उपयोग किस प्रकार होता है ? इस सम्बन्ध में आचार्यों के तीन मत हैं-प्रथम मत के अनुसार दर्शन और ज्ञान क्रमशः होते हैं। द्वितीय मान्यता के अनुसार दर्शन और ज्ञान युगपद् होते हैं । तृतीय मान्यतानुसार ज्ञान और दर्शन में अभेद है अर्थात्-दोनों एक हैं। ८१ षट्खण्डागम, धवला वृत्ति ११११४ ८२ द्रव्यसंग्रह वृत्ति गा० ४४ । ८३ द्रव्यसंग्रह वृत्ति ४४ । AMARRITAINARAAMAJamaAJANAanandnainaamaverinaamanaubAANAMIKANAKIALALA RAMANANJARITAIKARANJABANANA maramniweMINYorrrrrrrrrrrrrry Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दन आपायप्रवर अभिनंदन आनन्द अन्य T h V 九 SUNTY NE धर्म और दर्शन प्रज्ञापना में एक संवाद है । गौतम भगवान् से पूछते हैं - हे भगवन् ! केवली आकार, हेतु, उपमा, दृष्टान्त, वर्ण, संस्थान, प्रमाण और प्रत्यावतारों के द्वारा इस रत्नप्रभा पृथ्वी को जिस समय जानता है उस समय देखता नहीं है और जिस समय देखता है उस समय जानता है ? ३०४ भगवान् हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। - गौतम - हे भगवन् ! केवली आकार आदि के द्वारा इस जानता है उस समय देखता नहीं है, और जिस समय देखता है उस क्या कारण ? भगवान् हे गौतम! उसका ज्ञान साकार है और दर्शन निराकार है । अतः वह जिस समय जानता है उस समय देखता नहीं है और जिस समय देखता है उस समय जानता नहीं है । इस प्रकार अधः सप्तमी पृथ्वी तक सौधर्म कल्प से लेकर ईषत्प्राग्भार पृथ्वी तक तथा परमाणु पुद्गल से अनन्तप्रदेश स्कंध तक जानने का और देखने का क्रम समझना चाहिए। 5४ पृथ्वी को जिस समय रत्नप्रभा समय जानता नहीं है । इसका ८ आवश्यक निर्मुक्ति विशेषावश्यक भाष्य आदि में भी कहा गया है कि केवली के भी दो उपयोग एक साथ नहीं हो सकते । श्वेताम्बर परम्परा के आगम इस सम्बन्ध में एक मत हैं । वे केवली के दर्शन और ज्ञान को युगपद् नहीं मानते। दिगम्बर परम्परा के अनुसार केवलदर्शन और केवलज्ञान युगपद् होते हैं । इस विषय में सभी दिगम्बर आचार्य एकमत हैं। 50 उमास्वाति का भी यही मत रहा है कि मति श्रुत आदि में उपयोग क्रम से होता है युगपद् नहीं । केवली में दर्शन और ज्ञानात्मक उपयोग प्रत्येक क्षण में युगपद् होता है। नियमसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट लिखा है कि जैसे सूर्य में प्रकाश और ताप एक साथ रहते हैं उसी प्रकार केवली में दर्शन और ज्ञान एक साथ रहते हैं । ८८ तीसरी परम्परा चतुर्थ शताब्दी के महान् दार्शनिक आचार्य सिद्धसेन दिवाकर की है। उन्होंने सन्मति प्रकरण में लिखा है कि मनःपर्याय तक तो ज्ञान और दर्शन का भेद सिद्ध कर सकते हैं किन्तु केवलज्ञान और केवलदर्शन में भेद सिद्ध करना सम्भव नहीं है । ० दर्शनावरण और ज्ञानावरण का युगपद् क्षय होता है । उस क्षय से होने वाले उपयोग में "यह प्रथम होता है, यह बाद में होता है" इस प्रकार का भेद किस प्रकार किया जा सकता है। कैवल्य की प्राप्ति जिस समय होती है उस समय सर्वप्रथम मोहनीय कर्म का क्षय होता है । उसके पश्चात् ज्ञानावरण, ८४ प्रज्ञापना पद ३० । सू ३१६ | पृ० ५३१ ८५ आवश्यक निर्युक्ति गा० ६७७-९७६ ८६ विशेषावश्यक भाष्य ८७ (क) गोम्मटसार जीवकाण्ड ७३० (ख) द्रव्यसंग्रह ४४ ८८ मतिज्ञानादिषु चतुर्षु पर्यायेणोपयोगो भवति न युगपद् । सम्भिन्न ज्ञानदर्शनस्य तु भगवतः केवलिनो युगपद् भवति । तत्वार्थसूत्रभाष्य ११३१ ८६ नियमसार १५६ १० मणपज्जवणाणतो णाणस्स व दरिसणस्स य विसेसो । केवलणाणं पुण दंसणं ति गाणं ति य समाणं ॥ सम्मतिप्रकरण २३ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानवाद : एक परिशीलन ३०५ दर्शनावरण और अन्तराय का युगपद् क्षय होता है। जब दर्शनावरण और ज्ञानावरण दोनों के क्षय में काल का भेद नहीं होता है तब यह किस प्रकार कहा जा सकता है कि प्रथम केवलदर्शन होता है फिर केवलज्ञान। इस समस्या के समाधान के लिए कोई यह माने कि दोनों का युगपद् सद्भाव है तो यह भी उचित नहीं है, क्योंकि एक साथ दो उपयोग नहीं हो सकते। इस समस्या का सबसे सरल व तर्कसंगत समाधान यह है कि केवली अवस्था में दर्शन और ज्ञान में भेद नहीं होता । दर्शन और ज्ञान को पृथक्-पृथक् मानने से एक समस्या और उत्पन्न होती है। यदि केवली एक ही क्षण में सभी कुछ जान लेता है तो उसे सदा के लिए सब कुछ जानते रहना चाहिए। यदि उसका ज्ञान सदा पूर्ण नहीं है तो वह सर्वज्ञ कैसे? १ यदि उसका ज्ञान सदैव पूर्ण है तो क्रम और अक्रम का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता । वह सदा एक रूप है। वहाँ पर दर्शन और ज्ञान में किसी भी प्रकार का कोई अन्तर नहीं है । ज्ञान सविकल्प है और दर्शन निर्विकल्प है। इस प्रकार का भेद । आवरण रूप कर्म के क्षय के पश्चात् नहीं रहता।६२ जहाँ पर उपयोग की अपूर्णता है वहीं पर सविकल्प और निर्विकल्प का भेद होता है, पूर्ण उपयोग होने पर किसी भी प्रकार का भेद नहीं होता । एक समस्या और वह यह है कि ज्ञान हमेशा दर्शनपूर्वक होता है किन्तु दर्शन ज्ञानपूर्वक नहीं होता । ३ केवली को जब एक बार सम्पूर्ण ज्ञान हो जाता है तब फिर दर्शन नहीं हो सकता, क्योंकि दर्शन ज्ञानपूर्वक नहीं होता, एतदर्थ ज्ञान और दर्शन का क्रमभाव नहीं घट सकता। दिगम्बर परम्परा में केवल युगपद् पक्ष ही मान्य रहा है। श्वेताम्बर परम्परा में इसकी क्रम, युगपद् और अभेद ये तीन धारायें बनीं। इन तीनों धाराओं का विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के महान् ताकिक यशोविजय जी ने नयदृष्टि से समन्वय किया है। ऋजुसुत्रनय की दृष्टि से क्रमिक पक्ष संगत है। यह दृष्टि वर्तमान समय को ग्रहण करती है। प्रथम समय का ज्ञान कारण है और द्वितीय समय का दर्शन उसका कार्य है । ज्ञान और दर्शन में कारण और कार्य का क्रम है। व्यवहारनय भेदस्पर्शी है। उसकी दृष्टि से युगपत् पक्ष भी संगत है। संग्रहनय अभेद-स्पर्शी है। उसकी दृष्टि से अभेद पक्ष भी संगत है। तर्कदृष्टि से देखने पर इन तीन धाराओं में अभेद पक्ष अधिक युक्तिसंगत लगता है। दूसरा दृष्टिकोण आगमिक है, उसका प्रतिपादन स्वभावस्पर्शी है। प्रथम समय में भिन्नतागत अभिन्नता को जानना स्वभावसिद्ध है। ज्ञान का स्वभाव ही इस प्रकार है। भेद में अभेद और अभेद में भेद समाया हुआ है । तथापि भेदप्रधान और अभेदप्रधान दर्शन का समय एक नहीं है। उपसंहार इस प्रकार आगमयुग से लेकर दार्शनिक युग तक ज्ञानवाद पर गहराई से चिन्तन किया गया है। यदि उस पर विस्तार के साथ लिखा जाय तो एक विराट्काय स्वतन्त्र ग्रंथ तैयार हो सकता है, पर संक्षेप में ही प्रस्तुत निबन्ध में प्रकाश डाला गया है, जिससे प्रबुद्ध पाठकों को यह परिज्ञात हो सके कि जैन दार्शनिकों ने ज्ञानवाद पर कितने स्पष्ट विचार प्रस्तुत किये हैं। ६१ सन्मति प्रकरण १११० १२ सन्मति प्रकरण २०२२ ६३ ज्ञानविन्दु POORNA आचामप्रकार आचार्यप्रवर अभिनय आनन्न्याश्रीआनन्द अन्य ameramania Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्द अन्थ श्री आनन्द अन्थ अभिन Jo → श्रीदेवकुमार जैन, सि. आचार्य, दर्शनशास्त्री, साहित्यरत्न [ अनेक पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक ] स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन मनुष्य एक विचारशील प्राणी है। वह अपने जन्मकाल से ही स्व-अस्तित्व के बारे में विचार करता आया है । इस विचार के साथ ही दर्शन का प्रादुर्भाव हो जाता है। भले ही हम उसे दर्शन के नाम से सम्बोधित करें अथवा अन्य किसी नाम से सम्बोधित करें, लेकिन यह सत्य है कि विचार करने के साथ ही दर्शन के क्षेत्र में प्रवेश हो जाता है। यही नहीं, राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक आदि जीवन से सम्बन्धित सभी प्रवृत्तियों में दर्शन का अस्तित्व तिल में तेल की तरह विद्यमान है । दर्शन के अस्तित्व की अस्वीकृति का सिद्धान्त भी प्रकारान्तर से दर्शन का परिणाम है । घट-दर्शन इत्यादि व्यवहार में चाक्षुषज्ञान अर्थ में, आत्म-दर्शन इत्यादि व्यवहार में साक्षात्कार अर्थ में और न्याय दर्शन, सांख्यदर्शन इत्यादि व्यवहार में तत्वचिन्तन की विचारसरणी अर्थ में दर्शन शब्द का प्रयोग देखा जाता है । उनमें से प्रस्तावित प्रसंग में दर्शन शब्द का अर्थ तत्वचिन्तन की विचारसरणी ग्रहण किया गया है। इस विचार सरणी में दर्शन का अभिधेय सत्य का साक्षात्कार करना है । सत्य वह है जो पूर्ण है और पूर्ण होकर भी यथार्थ रूप से प्रतीत होता है । साक्षात्कार का अभिप्राय है जिसमें भ्रम, सन्देह, मतभेद या विरोध को अवकाश न हो । यद्यपि सभी दर्शन और उनके प्रवर्तक सत्य का ही समर्थन करते हैं और अहर्निश सत्यान्वेषण की साधना एवं निरूपण में तल्लीन रहते हैं, तथापि सत्यान्वेषण और सत्य निरूपण की पद्धति सर्वत्र एक सी नहीं होती है । सत्य प्रकाशन की पद्धति सबकी अपनी-अपनी है। बौद्ध दर्शन में जिस प्रणाली द्वारा सत्य का निरूपण किया गया है, उससे विपरीत वेदान्त दर्शन की प्रणाली है । इसी प्रकार न्याय, सांख्य आदि-आदि दर्शनों की सत्य निरूपण की पद्धति अपनी-अपनी और भिन्न-भिन्न है । उनमें सत्य निरूपण हेतु जैन दर्शन की प्रणाली अपनी और अनूठी ही है । वह विभिन्न विचारकों का विरोध न कर उदारता का परिचय देते हुए उनके आंशिक सत्यों को यथा स्थान सत्य मानती है । जैन दर्शन की इसी प्रणाली को स्याद्वाद - सिद्धान्त कहते हैं । जैन दर्शन की उदारता का कारण जैन- दर्शन ने विचार एवं जीवन सम्बन्धी अपनी व्यवस्थाओं के विकास में कभी भी किसी प्रकार का संकुचित दृष्टिकोण नहीं अपनाया । उसकी वैचारिक भूमिका सदैव उदात्त रही है । वह समन्वय के दृष्टिकोण को अपनाने एवं सही तथ्यों को प्रस्तुत करने के लिये आग्रहशील रहा है । इस आग्रह में संघर्ष या खंडन का स्वर नहीं, अपितु उस प्रणाली को प्रस्तुत करने का लक्ष्य रखा गया है। जो सयुक्तिक और जीवन-स्पर्शी है । यही कारण है कि जैन दर्शन द्वारा तत्व-निरूपण के लिये स्याद्वाद सिद्धान्त जैसी निर्दोष प्रणाली को स्वीकार किया गया है । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन ३०७ AALI CCC र कभी-कभी जैन-दर्शन के बारे में कहा जाता है कि वह अवसरवादी है। इसीलिए उसने अपनी तात्विक चिन्तन-प्रणाली में अनेक परस्पर विरोधी बातों का समावेश कर लिया है और उसका अपना कुछ भी नहीं है। परन्तु गम्भीरता से विचार करने पर उक्त धारणा निर्मल सिद्ध हो जाती है, क्योंकि परस्पर विरोधी बातों का समावेश किसी व्यावहारिक सुविधा के विचार से जैनदर्शन में नहीं किया गया है परन्तु पदार्थों की वैसी स्थिति और चिन्तन-मनन-कथन की स्वाभाविक परिणति के कारण सहज रूप में ऐसा हो ही जाता है। अतएव इस बात को स्पष्टतया समझने के लिए तत्व-विषयक स्थिति को समझ लेना युक्ति-संगत होगा। जैन-दर्शन की तत्व-विषयक भूमिका हम प्रत्यक्षतः विश्व की संरचना, विकास, विनाश और व्यवस्था की प्रक्रिया में परस्पर विरुद्ध गुण-धर्मों वाले दो पदार्थों को देख रहे हैं। हमारा अनुभव भी इस स्थिति को प्रमाणित करता है। उनमें एक सचेतन (सजीव) और दूसरा अचेतन (अजीव) है। अनेक चिन्तकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से इस सम्बन्ध में विचार व्यक्त किये हैं। कुछ चिन्तकों ने सिर्फ एक चिदात्मक (सचेतन) द्रव्य ही स्वीकार किया है और दृश्यमान जगत् के शेष पदार्थों को माया-जाल बतलाया है । परन्तु क्या यह दृश्यमान जगत् मिथ्या है, असत् है ? क्या इन दृश्यमान पदार्थों का अपने विभिन्न रूपों में अस्तित्व नहीं है ? कुछ दूसरे चिन्तकों ने केवल भौतिक पदार्थों की सत्ता स्वीकार की है और उन्हीं के मेलजोल से चैतन्य की उत्पत्ति मानी है। लेकिन क्या यह संभव है कि विजातीय गुण, जाति, स्वभाव वाली वस्तु से उससे विपरीत गुण-धर्म-स्वभाव वाली वस्तु की उत्पत्ति हो जाये? ___ जैन-दर्शन जीव-अजीव दोनों तत्वों को स्वीकार करता है। दोनों का अपने-अपने गुण, धर्म, स्वभाव से अस्तित्व है। उनमें अपनी-अपनी स्थिति-रूप से परिवर्तन होते रहने पर भी नित्यता है। वे न तो सर्वथा नित्य ही हैं और न सर्वथा अनित्य ही। इसी प्रकार उनमें वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि अनेक गुण हैं। पदार्थों की यह स्थिति है। इसी पृष्ठ-भूमि के आधार पर जैन-दर्शन ने अपना दृष्टिकोण एवं चिन्तन-मनन के लिये स्याद्वाद का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है । स्याद्वाद की परिभाषा विचार करने की क्षमता ही मनुष्य को समग्र प्राणधारियों में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त कराती है। मनुष्य स्वयं सोचता है और स्वतंत्रता पूर्वक सोचता है। परिणामतः विचारों की विभिन्न दृष्टियां जन्म लेती हैं। एक ही वस्तु के बारे में विभिन्न व्यक्ति अपने-अपने दृष्टिकोणों से सोचना प्रारम्भ करते हैं। यहां तक तो विचारों का क्रम ठीक रूप में चलता है, किन्तु उसके आगे यह होता है कि विचार करने वाले विचारणीय वस्तु को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखकर उसके समग्र स्वरूप को समझने की ओर उन्मुख नहीं होते, जिसके फलस्वरूप एकान्तिक दृष्टिकोण एवं हठवादिता का वातावरण बनने लगता है और जो विचार सत्य-ज्ञान की ओर बढ़ा सकते थे, वे ही पारस्परिक समन्वय के अभाव में विद्वषपूर्ण संघर्ष के जटिल कारणों के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। इस संघर्ष का परिहार स्याद्वाद-सिद्धान्त द्वारा संभव है। हम अपने जीवन-व्यवहार को ही लें। वह विधि-निषेध-संस्पर्शी पार्श्वयुगल के बीच से गुजरता है । प्रत्येक रूप और क्रिया-कलाप में इनका प्रयोग दूध में पानी के समान मिला हुआ देखते हैं। इनके बिना हम अपने व्यवहार का निर्वाह एक क्षण के लिये भी नहीं कर सकते । जैसे भाग मा आचामप्रवत्रिआचार्यप्रवाशा श्रीआनन्दशश्रीआनन्द wimminetmarwavivarmencomram Animawrview Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K AJAL . . . . . . . . आचार्यप्रव3 मिलापार्यप्रवर आभिनय श्रीआनन्दा श्रीआनन्द अन्य ३०८ धर्म और दर्शन एक ही व्यक्ति में पितृत्व, पुत्रत्व, भ्रातृत्व आदि अनेक स्थितियों का समावेश है, किन्तु वक्ता अपनीअपनी अपेक्षाओं की मुख्यता और गौणता के दृष्टिकोण से उसे संबोधित करता है और वे अपेक्षायें उस-उस दृष्टिकोण से सत्य मानी जाती हैं। 'स्यादवाद' स्यात् और वाद इन दो शब्दों से निष्पन्न यौगिक रूप है। इनमें 'स्यात्' शब्द का अर्थ एक अपेक्षा से और 'वाद' शब्द का अर्थ कथन करना है। अर्थात् अपेक्षा विशेष से अन्य अपेक्षाओं का निराकरण नहीं करते हुए वस्तु-स्वरूप का प्रतिपादन करना 'स्याद्वाद' कहलाता है। प्रत्येक पदार्थ में अनन्त धर्मों की सत्ता है, यह पूर्व में संकेत किया गया है। वह सत्ता उस पदार्थ में विद्यमान अन्य धर्मों की प्रतिरोधक नहीं है। स्याद्वाद उन अनन्त धर्मों की विद्यमानता का निश्चय कराता है और उनको बतलाने के लिए 'स्यात्' शब्द समस्त वाक्यों के साथ प्रगट या अप्रगट रूप से प्रयोग करता है अथवा सम्बद्ध रहता है। वस्तु और उसके विविध आयामों का जानना उतना कठिन नहीं है, जितना शब्दों द्वारा उनका कथन करना कठिन है। एक ज्ञान अनेक आयामों (धर्मों) को एक साथ जान सकता है, किन्तु एक शब्द एक समय में वस्तु के एक ही धर्म का आंशिक कथन कर सकता है। वह अनेक धर्मों में से किसी एक धर्म का मुख्यता से वचन-व्यवहार करता है, क्योंकि अनेकधर्मात्मक वस्तु में जिस धर्म की विवक्षा होती है, वह धर्म मुख्य और इतर धर्म गौण कहलाता है। वक्ता के वचनव्यवहार के दृष्टिकोण को समझने में श्रोता को कोई धोखा न हो, यह स्याद्वाद का हार्द (आशय) है। समस्त संसार परस्पर विरोधी बातों से भरा पड़ा है। ऐसी स्थिति में उनका परिहार किसी एक ही पक्ष को अङ्गीकार करने से नहीं किन्तु अभीप्सित अभिधेय को मुख्य और अनभीप्सित को गौण मानकर किया जा सकता है। पदार्थों में परस्पर विरोधी धर्मों के सहतित्व का कारण यह स्पष्ट तथ्य है कि विश्व की प्रत्येक वस्तु अपने सत्-अस्तित्व से समन्वित होकर भी असत्-नास्तित्व से सहित है और यह क्षणक्षयता-अनित्यता भी सत् अंश से विहीन नहीं है। यह अस्तित्व क्यों है ? अस्तित्व का अर्थ है सत् की प्राथमिकता । सत्ता का अर्थ प्रत्येक संभव निषेध का त्याग और स्व की शुद्ध स्वीकृति है। यह सत् और असत् दोनों है। यदि असत्-नास्तित्व न हो तो कोई अस्तित्व, कोई सत्ता, कोई अभिव्यक्ति नहीं होगी। यह असत् है जो सत् को अभिव्यक्त होने को प्रेरित करता है। असत् उस सत् पर आश्रित है, जिसका वह निषेध करता है । असत् शब्द स्वयं ही असत् पर सत् की दार्शनिक प्राथमिकता को व्यक्त करता है। यदि पहले सत् न हो तो कोई असत् नहीं हो सकता। सत् अपने अन्दर स्वयं को और जो उसके प्रतिकुल या विरुद्ध है, उस असत् को भी रखता है। असत् सत् का ही अंश है । वह उससे अलग नहीं किया जा सकता। इसलिये प्रत्येक वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मों का सहवर्तित्व स्वतः सिद्ध हो जाता है। यह सहवर्तित्व एक ही वस्तु में अविरोध रूप से रहता है और प्रत्यक्षादि प्रमाणों से प्रमाणित होता है । इनके सहवर्तित्व के कारण वक्ता प्रश्नानुसार विधि-प्रतिषेध का आश्रय लेकर वाग्-व्यवहार करता है। __एक ही वस्तु में यद्यपि परस्पर विरोधी धर्मों का अवस्थान कुछ असमंजस में डाल देता है परन्तु मध्यस्थ एवं तटस्थ दृष्टि से अथवा 'मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे' के भावानुसार विचार करें तो असामंजस्य की स्थिति स्वतः दूर हो जाती है। एक ही दृष्टि से वस्तु नित्य और अनित्य कदापि नहीं हो सकती, किन्तु वे परस्पर विरोधी धर्म अपने-अपने स्वरूप से रहते हुए भी दूसरे का अपलाप नहीं करते। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माण വ स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन ३०६ विश्व में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है, जो अपने स्वरूप से, अपने गुण, धर्म, स्वभाव से तो न हो किन्तु दूसरे के गुण, धर्म, स्वभाव से हो । यदि पदार्थ स्वरूप से तो न हो, किन्तु पररूप से हो तो मभी में एकरूपता हो जायेगी और विभिन्नता नाम की कोई चीज नहीं रहेगी। इसलिए प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से है, पररूप से नहीं। यह प्रयोग और स्वभाव से सिद्ध है। वह अस्तित्व रूप से एवं नास्तित्व रूप से परिणमित होता रहता है। फिर भी पारस्परिक विरुद्धता होने पर भी उनके । सहवर्तित्व रूप से रहने में कोई विरोध दिखलाई नहीं देता है। जैसे घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोक-प्रमोद-माध्यस्थं जनो याति सहेतुकम् ॥ एक स्वर्णकार के पास तीन ग्राहक पहुंचे। उनमें से एक को स्वर्ण-घट, दूसरे को मुकुट और तीसरे को स्वर्ण की आवश्यकता थी। उस समय स्वर्णकार स्वर्ण-घट को तोड़कर मुकुट बना रहा था। स्वर्णकार की इस प्रवृत्ति को देखकर घट के ग्राहक को दुःख हुआ, मुकुट के इच्छुक को हर्ष और स्वर्ण लेने वाला व्यक्ति, उस स्थिति में मध्यस्थ रहा। इसका तात्पर्य यह हुआ कि वहां एक ही समय में एक व्यक्ति विनाश को देख रहा है, दूसरा उत्पत्ति देख रहा है और तीसरा व्यक्ति उन दोनों स्थितियों में मध्यस्थ रहकर स्वर्ण-रूप ध्रुवता को देख रहा है । उक्त दृष्टान्त से यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्पाद और विनाश दो परस्पर विरुद्ध धर्म हैं और वचन-व्यवहार द्वारा उनका अलग-अलग कथन किया जाता है, फिर भी ये उत्पाद और विनाश रूप दोनों धर्म एक ही स्वर्ण नामक पदार्थ में सहवर्ती रूप से विद्यमान हैं। उन दोनों धर्मों के होते रहने हर भी स्वर्ण नामक द्रव्य में किसी प्रकार का अन्तर नहीं आता है। दोनों ही स्थितियों में वह स्वर्ण नाम से सम्बोधित किया जाता है। स्वर्णत्व स्थायी रूप से स्थिर है। इसलिये परस्पर विरुद्ध धर्मों का एक पदार्थ में सहतित्व मानने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं है। इस प्रकार के स्वभाव से विश्व का प्रत्येक पदार्थ समन्वित है । स्याद्वाद की कथनशैली पदार्थ सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य नहीं है किन्तु परिणामी नित्य है। परिणामी नित्य का अर्थ है-प्रतिसमय निमित्तानुसार भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में परिवर्तित होते हुए भी अपने स्वरूप का परित्याग नहीं करना। प्रत्येक पदार्थ (द्रव्य) अपनी जाति का त्याग किये बिना ही प्रतिसमय निमित्तानुसार परिवर्तन करता रहता है। यही द्रव्य का परिणाम कहलाता है । यह परिणाम अनादि-अनन्त हैं और सादि-सान्त हैं। उस चक्र में से कभी कोई अंश लुप्त नहीं होता और कोई भाग मात्र नित्य और कोई भाग मात्र अनित्य नहीं हो सकता। इसका आशय यह हुआ कि प्रत्येक द्रव्य में दो शक्तियां होती हैं--एक ऐसी जो तीनों कालों में शाश्वत है और दूसरी ऐसी जो सदा अशाश्वत है । शाश्वतता के कारण प्रत्येक वस्तु ध्रौव्यात्मक (स्थिर) और अशाश्वतता के कारण उत्पाद-व्ययात्मक (अस्थिर) कहलाती है। उक्त शाश्वतिक और अशाश्वतिक स्वभाव से युक्त द्रव्य की शाश्वतिक स्थिति को गुण और अशाश्वतिक स्थिति को पर्याय भी कहते हैं। जो गुण-पर्यायवान है, उसे द्रव्य कहते हैं । ये गुण और पर्याय अनन्त हैं। गुण त्रिकालवर्ती होते हैं और पर्याय प्रतिसमय अवस्था से अवस्थान्तर को करने वाली होती हैं । प्रकारान्तर से कहा जा सकता है कि द्रव्य में परिणाम-जनन की जो शक्ति होती है, वही उसका गुण कहलाती है और गुणजन्य परिणाम पर्याय । एक द्रव्य में शक्ति-रूप से अनन्त गुण हैं जो वस्तुतः आश्रयभूत द्रव्य से अविभाज्य हैं। प्रत्येक गुण-शक्ति की भिन्न-भिन्न समयों में होने वाली कालिक पर्यायें अनन्त हैं । द्रव्य और उसकी अंशभूत शक्तियां उत्पन्न व विनष्ट न होने के कारण नित्य अर्थात् अनादि-अनन्त हैं परन्तु सभी पर्याय प्रतिक्षण उत्पन्न तथा नष्ट होते EMAMANIKiranmainaaJanamanoraruncesranamamaniaNAIRSANASAMAamaramAAAAAAJAMANDAKamadanim a आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवभिनय श्राआनन्दग्रन्थश्राआनन्दाग्रन्थ viewIYArrrr Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ مرا مرثعنننمعلثععععععععععععععععععععععععهعهعهعنهعن ميعععععيهك من فهمیدهیم هر کے معععععععععهد سعره आचार्यप्रवर अभिआपाप्रवर आभन्न श्रीआनन्द अन्य श्रीआनन्द ३१० धर्म और दर्शन रहने के कारण व्यक्तिशः अनित्य अर्थात् सादि-सान्त हैं और प्रवाह की अपेक्षा अनादि-अनन्त हैं । कारणभूत एक शक्ति के द्वारा द्रव्य में होने वाला त्रैकालिक पर्याय-प्रवाह सजातीय भी है और विजातीय भी है। द्रव्य में अनन्त शक्तियों से जन्य पर्याय-प्रवाह एक साथ चलते रहते हैं। भिन्न-भिन्न शक्ति-जन्य विजातीयपर्याय एक समय में एक द्रव्य में पायी जा सकती हैं। परन्तु एक शक्ति-जन्य भिन्न-भिन्न समयभावी सजातीय पर्याय एक द्रव्य में एक समय में नहीं पायी जा सकती हैं। IP त्रैकालिक अनन्त पर्यायों के एक-एक प्रवाह की कारणभूत एक-एक शक्ति (गुण) और ऐसी अनन्त शक्तियों का समुदाय द्रव्य है, यह कथन भी भेदसापेक्ष है। अभेददृष्टि से पर्याय अपनेअपने कारणभूत गुणस्वरूप और गुण द्रव्य-स्वरूप है। द्रव्य में सब गुण एक-से नहीं हैं। कुछ साधारण अर्थात् सब द्रव्यों में समान रूप से पाये जाने वाले होते हैं, जैसे---अस्तित्व, नास्तित्व, प्रदेशत्व, प्रमेयत्व आदि और कुछ असाधारण अर्थात् मुख्यरूप से एक-एक द्रव्य में पाये जाने वाले होते हैं, जैसे-चेतना, रूप आदि। इन असाधारण गुणों और तज्जन्य पर्यायों के कारण प्रत्येक द्रव्य एकदूसरे से भिन्न है। पूर्वोक्त कथन से यह सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि द्रव्य-स्वभाव का यह वैचित्र्य है कि परस्पर विरोधी शक्तियों---अस्तित्व, नास्तित्व, भेद-अभेद, नित्य-अनित्य आदि का उसमें समावेश है और ये सभी अपनी-अपनी अपेक्षाओं से युक्त हैं। इन आपेक्षिक धर्मों का कथन या ज्ञान अपेक्षा को सामने रखे बिना नहीं हो सकता । इसलिए परस्पर विरोधी होने पर भी नित्यानित्यादि दृष्टि का प्रयोग एक ही वस्तु में पक्ष-भेद को लक्ष्य में रखते हए होता है। इनका कथन करने के लिये स्व द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा विधिरूप और पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा निषेधरूप प्रक्रिया अपनाई जाती है । इसमें न तो भ्रांति की संभावना है और न तत्वज्ञान सम्बन्धी कोई रहस्यमय गुत्थी सुलझाने का ही प्रश्न उठता है । इसके लिये एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं एक अंगूठी किसी साधारण धातु या पीतल की बनी हुई है किन्तु उस पर इस प्रकार का मुलम्मा किया गया है कि वह सोने की बनी हुई-सी दिखलाई दे। कोई ग्राहक उसे खरीदने के लिए आता है, परन्तु खरीदने के पहले वह निश्चय कर लेना चाहता है कि अंगूठी सोने की बनी है या नहीं। वह एक अनुभवी व्यक्ति से पूछता है कि क्या वह अंगूठी सोने की बनी है ? उसे इसका उत्तर 'नहीं' में मिलता है। ग्राहक पुनः पूछता है कि वह सोने की नहीं बनी है तो फिर किस धातु की बनी हुई है ? जानकार उस धातु का नाम बताता है, जिससे वह अंगूठी बनी है और फिर उस पर सोने का मुलम्मा कर दिया गया है। प्रामाणिकता के लिये वह अंगूठी के किसी भाग को जरा-सा खरोंच कर बतला देता है कि अंगूठी किस धातु की बनी है। इस प्रकार एक ही अंगूठी के विषय में दो कथन-एक निषेधात्मक (सोने की नहीं बनी है) और दूसरा विध्यात्मक (जिस धातु की बनी है, उसका नाम) न्याय्य और सत्य है। जब ग्राहक यह जानना चाहता है कि क्या अंगूठी सोने की बनी है तो 'नहीं' उत्तर सत्य है और जब अंगूठी सोने की नहीं बनी है तो किस धातु की बनी है ? उसका उत्तर चाहे तब अमुक धातु की बनी है, यह उत्तर सत्य है । सारांश यह है कि निषेधात्मक दृष्टि का उदय तब होता है जब वस्तु में 'पर' की अपेक्षा से कथन होता है और विधिदृष्टि का प्रयोग उसके 'स्व' रूप से कहने में होता है। वास्तव में अंगूठी तो सोने की बजाय दूसरी धातु की है, किन्तु जिसकी अपेक्षा नहीं कहा गया है, वह सोने की अपेक्षा कहा गया है। इस प्रकार विश्व का प्रत्येक पदार्थ आपेक्षिक कथन द्वारा स्याद्वाद प्रणाली का विषय बनता है, Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन ३११ ९ हां, यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि एक ही अपेक्षा से विधि-रूप और निषेध-रूप कथन नहीं किया जा सकता है। इस स्थिति को स्याद्वाद में निश्चित शब्दावली द्वारा व्यक्त किया जाता है और निम्नलिखित सप्तभंगों द्वारा कथन-परम्परा चलती है-- १. स्यात्-अस्ति कथंचित् है। २. स्यान्नास्ति कथंचित् नहीं है। ३. स्यादस्ति-नास्ति कथंचित् है और नहीं है। ४. स्यादवक्तव्य कथंचित् कहा नहीं जा सकता है। ५. स्यादस्ति-अवक्तव्य कथंचित् है, तो भी कहा नहीं जा सकता है । ६. स्यान्नास्ति-अवक्तव्य कथंचित् नहीं है तो भी कहा नहीं जा सकता है। ७. स्यादस्ति-नास्ति-अवक्तव्य कथंचित् है और नहीं है तो भी कहा नहीं जा सकता है। उक्त भंगों के माध्यम से मुख्य और उपचार कथनशैली द्वारा वस्तु-स्वरूप समझने में सफलता मिलती है और भ्रांत-धारणाओं का उन्मूलन होकर शाश्वत सत्य समझ में आ जाता है। वस्तु के अनन्त धर्म ज्ञान का विषय होने से ज्ञेय हैं। इसी तरह शब्द का वाच्य होने से अभिधेय भी हैं। हम जिन-जिन शब्दों द्वारा वस्तु को संबोधित करते हैं, वस्तु में उन-उन शब्दों द्वारा कही जाने वाली शक्तियां विद्यमान हैं। यदि ऐसा न होता तो वे वस्तुयें उन-उन शब्दों के द्वारा संबोधित नहीं होतीं और न उन शब्दों को सुनकर विवक्षित धर्मों का बोध ही होता। स्याद्वाद द्वारा उन धर्मों का अपेक्षाओं को लक्ष्य में रखते हुए कथन किया जाता है, लेकिन वस्तू के अनुजीवी धर्मों में इसका प्रयोग नहीं होता है, जैसे-आत्मा चेतन है, और पुद्गल रूप, रस, गंध एवं वर्ण वाला है । क्योंकि आत्मभूत लक्षणात्मक धर्म आपेक्षिक नहीं होते हैं। यदि उन्हें भी किसी प्रकार आपेक्षिक बनाया जा सके तो फिर उनमें भी स्याद्वाद प्रक्रिया लागू होगी। सप्तभंगों की सिद्धि वस्तु में विद्यमान अनन्त धर्म त्रिकाल-भूत, वर्तमान और भविष्यवर्ती हैं । अतः उनके कथन की प्रक्रिया भी ऐसी होनी चाहिये, जिससे उनका कथन होते रहने के साथ-साथ कथितेतर धर्मों के अस्तित्व आदि का बोध होता रहे एवं उनका अपलाप या अवगणना न हो जाये । इस सार्वकालिक स्थिति का दिग्दर्शन स्याद्वाद द्वारा कराया जाता है और उस स्थिति में स्यादस्ति, स्यान्नास्ति आदि सप्तभंग स्वयमेव सिद्ध हो जाते हैं। इन सप्त भंगों में स्यात्-अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य ये तीन असंयोगी भंग हैं । स्यादस्तिनास्ति, स्यादस्ति-अवक्तव्य, स्यान्नास्ति-अवक्तव्य द्विसंयोगी और स्यादस्ति-नास्ति-अवक्तव्य यह In विसंयोगी भंग है। यद्यपि अस्ति और नास्ति रूप स्थिति का अनुभव तो हमें प्रतिसमय होता है और हमारा बर्ताव, व्यवहार दोनों में से किसी एक की मुख्यता और दूसरे की गौणता के आधार पर चलता रहता है, किन्तु उस स्थिति में भी वस्तु अनन्त धर्मों से विहीन नहीं है। अतः इनकी सत्ता अवक्तव्य शब्द द्वारा प्रगट की जाती है। शेष भंग क्रमिक और युगपत् मुख्यता और गौणता देने से बन जाते हैं। यहाँ प्रश्न होता है कि जब एक की मुख्यता और दूसरे की गौणता के आधार पर वागव्यवहार होता है तो उक्त सप्तभंगों के अस्ति, नास्ति इन दो भंगों में से कोई एक भंग रख लिया जाये और दूसरा न माना जाये । यदि इससे काम चल सकता है तो दूसरे भंगों की संख्या भी नहीं AAKIRAILERaransaAAAAAAKJAINLADABANKaamanariesreadiadyaAMDAINIKKAniraanwar بهره به همراه في عمرهم आचार्यप्रवभिः आचार्यप्रवभिनय श्राआनन्दग्रन्थश्राआनन्दअन्य MAmrivim oranmomwww.marimmmm mmmirrrriinners Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ADAAIJANAINA LAMAJAINIJABRAJARARAMAnaeminadaKARALAAAAABAJANASABADASANABARARIAAIRS अशाप्रवन अभिआयामप्रवभिनों आाआडन्दा AN -trwWVYAVM wwimweaviwomamriomwwwmwamme ३१२ धर्म और दर्शन बढ़ेगी। परन्तु इस सम्बन्ध में यह विचारणीय है कि यदि मात्र 'अस्ति भंग' माना जाये और 'नास्ति भंग न माना जाये तो जो वस्तु एक स्थान पर है, वह अन्य सब स्थानों पर भी रहेगी। इस तरह एक स्थान पर विद्यमान घड़ा भी व्यापक हो जायेगा । इसी तरह केवल 'नास्ति भंग' ही माना जाये तो एक स्थान पर वस्तु का अभाव होने से सर्वत्र उसका अभाव हो जायेगा। एक वस्तु के सम्बन्ध में जो कथन है, उसको सार्वत्रिक समझना चाहिये। इसलिये अस्ति, नास्ति इन दोनों भंगों को पृथक्-पृथक मानने की आवश्यकता है। इसके सिवाय इन भंगों का विषय अलग-अलग है। एक का कार्य दूसरे से नहीं हो सकता। जैसे घड़ा यहाँ नहीं है, इसका अर्थ यह नहीं है कि अमुक स्थान पर घड़ा है। अतः जिज्ञासा का समाधान करने के लिये 'वह कहाँ पर है', इसका ज्ञान कराने के लिए अस्ति भंग आवश्यक है। इसी प्रकार अस्ति-भंग का प्रयोग होने पर भी नास्ति-भंग की आवश्यकता बनी रहती है, जैसे 'मेरी थाली में रोटी है' कह देने पर भी 'तुम्हारी थाली में रोटी नहीं है' कहने की आवश्यकता रहती है क्योंकि ये दोनों चीजें भिन्न-भिन्न हैं। इस प्रकार अस्ति, नास्ति इन दोनों भंगों को पृथक्-पृथक् मानना सिद्ध है।। अस्ति-नास्ति' नामक ततीय भंग उक्त दोनों भंगों से अलग स्वीकार करना होगा, क्योंकि केवल अस्ति अथवा केवल नास्ति द्वारा उसका ज्ञान नहीं हो सकता। मिश्रित वस्तु के कथन के लिये मिश्रित शब्द का उपयोग हो सकता है। मिश्रित वस्तु को भिन्न मानना प्रतीत सिद्ध है। जैसे खटमिट्ठा शब्द को ही ले लें। इसमें खट्टा और मीठा दो शब्द संयुक्त हैं और उनकी वाच्य वस्तु के गुण-धर्म भी अलग-अलग हैं। परन्तु उन दोनों के संयोग से एक तीसरे प्रकार की रसस्थिति व्यक्त होती है जो न खट्टी है और न मीठी है । अतः अस्ति-नास्ति रूप तीसरा भंग पहले बताये गये अस्ति, नास्ति इन दो भंगों से भिन्न है । अवक्तव्य नामक चौथा भंग है । पदार्थ में विद्यमान अनेक धर्म एक साथ नहीं कहे जा सकते। इसलिये एक साथ स्व-पर-चतुष्टय द्वारा कहे जाने की अपेक्षा वस्तु अवक्तव्य है। इसके सिवाय वस्तु इसलिये भी अवक्तव्य है कि उसमें जितने धर्म हैं, उतने उसके वाचक शब्द नहीं हैं। धर्म अनन्त हैं और शब्द संख्यात । दूसरी बात यह भी है कि पदार्थ स्वभाव से अवक्तव्य है। वह अनुभव में आ सकता है किन्तु शब्दों से नहीं कहा जा सकता । जैसे मिश्री का मीठापन या नमक का खारापन यदि कोई जानना चाहे तो वह शब्दों द्वारा नहीं किन्तु चखकर ही जाना जा सकता है। इस प्रकार कई अपेक्षाओं से पदार्थ अवक्तव्य है। यह तो सुविदित ही है कि जिस अपेक्षा से हम वस्तु के 'अस्तित्व' अथवा 'नास्तित्व' का कथन करते हैं, उसकी अपेक्षा वस्तु के होने या न होने के बाद भी अन्य सभी अपेक्षायें अकथनीय रहती हैं और उनका अस्तित्व अस्वीकृत नहीं किया जा सकता। उन अपेक्षाओं के सद्भाव की अभिव्यक्ति के लिये समानवाचक शब्द का प्रयोग करना पड़ता है। यद्यपि कई अपेक्षाओं से पदार्थ अवक्तव्य है, फिर भी किसी दृष्टि से वक्तव्य भी हो सकता है। इसलिये जब अवक्तव्य के साथ 'अस्ति', 'नस्ति' और 'आस्ति-नास्ति' को संबद्ध करेंगे तब क्रमशः 'अस्ति-अवक्तव्य,' 'नास्ति-अवक्तव्य' और 'अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य' नामक क्रमशः पंचम, षष्ठ और सप्तम भंग बन जाते हैं। स्यादवाद और नय स्याद्वाद के अंग-प्रत्यंग नय हैं। नय न तो प्रमाण हैं और न अप्रमाण है किन्तु प्रमाणांश हैं। प्रमाण के द्वारा पूर्ण वस्तु का ज्ञान होता है और नय प्रमाण के द्वारा परिज्ञात वस्तु के एक Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन देश को ग्रहण करता है । इसीलिये अनन्त धर्मों से युक्त समग्र वस्तु प्रमाण के द्वारा ज्ञात होने पर भी अपने-अपने अभिप्रायानुसार उस वस्तु के एक धर्मविशेष का ज्ञान कराने वाले को नय कहते हैं । वैसे तो कोई भी शब्द वस्तु के एक ही धर्म को कह सकता है, फिर भी उस शब्द द्वारा समस्त वस्तु भी कही जा सकती है और एक धर्म भी । इसका पता शब्दों से नहीं, भावों से लगता है । जब हम किसी शब्द के द्वारा पूरे पदार्थ को कहना चाहते हैं, तब वह प्रमाणवाक्य कहा जाता है और जब शब्द द्वारा किसी एक धर्म को कहा जाता है तब वह नयवाक्य माना जाता है । जैसे, जीव शब्द के द्वारा जीवन गुण एवं अन्य अनन्त धर्मों के अखंड पिंडरूप आत्मा का कथन करना प्रमाणवाक्य है, और जब जीव शब्द द्वारा सिर्फ जीवनधर्म का ही वोध किया जाये तो उसे नयवाक्य कहते हैं । इस वक्तव्य का यह अर्थ हुआ कि प्रमाणदृष्टि से पदार्थ अनेकान्तात्मक है और नयदृष्टि से एकान्तात्मक है, किन्तु वह सर्वथा अनेकान्तात्मक और सर्वथा एकान्तात्मक नहीं है । इस आशय को प्रगट करने के लिये प्रत्येक वाक्य के साथ स्वाद्वाद-सूचक स्यात् कथंचित् अथवा किसी अपेक्षा आदि में से किसी एक का प्रयोग किया जाता है । यदि हम किसी कारण वश प्रयोग न भी करें तो भी हमारा अभिप्राय ऐसा रहना चाहिये, अन्यथा यह सब व्यवस्था और उत्पन्न ज्ञान मिथ्या हो जायेगा । वस्तु अनन्तधर्मात्मक है, अतएव कथन-पद्धति भी अनन्त होनी चाहिये और जब उनकी वचन-पद्धति अनन्त है तो नय भी उतने ही प्रकार के होंगे। फिर भी उनका समाहार करते हुए और समझने में सरलता की दृष्टि से उन सब वचनपक्षों को अधिक से अधिक सात भागों में विभाजित कर दिया गया है। उनके नाम इस प्रकार हैं १. नैगमनय २ संग्रह्नय, ३. व्यवहारनय ४ ऋजुमुत्रनय ५. शब्दनय, ६. समभिरूढ़नय, ७. एवंभूतनय । इन अनन्त वचनपक्षों का और भी संक्षेप में संग्रह करने के लिये निश्चयनय और व्यवहारनय, इन दो भागों में विभाजन करके वचन व्यवहार चलता रहता है। पूर्वोक्त ये सातों नय पूर्व - पूर्व स्थूल विषय को और उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषय को ग्रहण करने वाले होते हैं । जैसे, नैगमनय सत्-असत् दोनों को विषय करता है, किन्तु संग्रहनय मात्र सत् को ही ग्रहण करता है । इसी प्रकार क्रमशः अन्यान्य नयों के बारे में भी समझ लेना चाहिये । स्याद्वाद संपूर्ण जैनेतर दर्शनों का समन्वय करता है। एतदर्थ जैनदर्शनकारों का कथन है कि संपूर्ण दर्शन 'नयवाद' में गर्भित हो जाते हैं, अतएव संपूर्ण दर्शन नय की अपेक्षा से सत्य हैं । उदाहरणार्थं ऋजुमुत्रनय की अपेक्षा बौद्ध संग्रहनय की अपेक्षा वेदान्त नैगमनय की अपेक्षा न्यायवैशेषिक, शब्दनय की अपेक्षा शब्दब्रह्मवादी तथा व्यवहारनय की अपेक्षा चार्वाक दर्शन को सत्य कहा जा सकता है। ये नयरूप समस्त दर्शन परस्पर विरुद्ध होकर भी समुदित होकर सम्यक्त्वरूप कहे जाते हैं। जिसप्रकार भिन्न-भिन्न मणियों के एक साथ गूंथे जाने से सुन्दर माला तैयार हो जाती है, उसी तरह जब भिन्न-भिन्न दर्शन सापेक्षवृत्ति धारण करके एक होते हैं, उस समय ये जैनदर्शन कहे जाते हैं। 'स्याद्वाद' परस्पर एक दूसरे पर आक्रमण करने वाले दर्शनों को सापेक्ष सत्य मानकर सबका समन्वय करता है । इसीलिये जैन विद्वानों ने जिन भगवान के वचनों को 'मिथ्यादर्शनों का समूह' मानकर 'अमृत का सार' बताया है । प्रमाण द्वारा गृहीत और नय द्वारा ज्ञात वस्तु और धर्म स्याद्वाद द्वारा अभिधेय हैं । उनमें अस्तित्व, नास्तित्व आदि सप्तभंग आपेक्षिक दृष्टि को लक्ष्य में रखते हुए समझे जा सकते हैं । इसलिये प्रमाण गृहीत वस्तु में अस्तित्व आदि सप्तभंगी की प्रणाली को प्रमाण-सप्तभंगी और नय द्वारा कथित वस्तु के एक धर्म के बारे में अस्तित्व आदि भंगों का प्रयोग नय-सप्तभंगी कहलाता है । 九 Y:2 आयाय प्रवद्ध आनन्देन आआनन्द अन्य श्री Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्द अन्थ श्री आनन्द थ ३१४ धर्म और दर्शन एकान्तिक धारणाएँ और स्पाद्वाद स्याद्वाद द्वारा दार्शनिक एकान्तवादों के समन्वय करने का जो प्रयास किया है, वह प्रायः इस प्रकार हैं—भावैकान्त, अभावैकान्त, द्वैतैकान्त, अद्वैतैकान्त, नित्यैकान्त, अनित्यैकान्त, भेदकान्त, अभेदैकान्त, हेतुवाद, अहेतुवाद, अपेक्षावाद, अनपेक्षादाद, दैववाद, पुरुषार्थवाद आदि । भावैकान्तवादियों का कथन है कि सब भावरूप ही है, अभावरूप कोई भी वस्तु नहीं है— सर्वं सर्वत्र विद्यते - सब सर्वत्र है, न कोई प्रागभाव रूप है, न प्रध्वंसाभाव रूप है, न अन्योन्याभाव रूप है और न अत्यन्ताभाव रूप है । इसके विपरीत अभाववादी का कहना है कि सब जगत् अभावरूप है— शून्यमय है । जो भावमय समझता है, वह मिथ्या है । यह प्रथम संघर्ष का रूप है । 調 द्वितीय संघर्ष है एक और अनेक का। एक (अद्वैत) वादी कहता है कि वस्तु एक है, अनेक नहीं है । अनेक का दर्शन केवल माया - विजृम्भित है । इसके विपरीत अनेकवादी सिद्ध करता है कि पदार्थ अनेक हैं—एक नहीं हैं । यदि एक ही हों तो एक के मरने पर सबके मरने और एक के पैदा होने पर सबके पैदा होने का प्रसंग आयेगा । जो न देखा जाता है और न इष्ट ही है । तृतीय द्वन्द्व है नित्य और अनित्य का । नित्यवादी कहता है कि वस्तु नित्य है । यदि वह अनित्य हो तो उसके नाश हो जाने के बाद फिर यह दुनिया और स्थिर वस्तुयें क्यों दिखाई देती हैं ? अनित्यवादी इसके विपरीत कथन करते हुए कहता है कि वस्तु प्रतिसमय नष्ट होती है, वह कभी स्थिर नहीं रहती है । यदि नित्य ही हो तो जन्म-मरण, विनाश, अभाव, परिवर्तन आदि नहीं होने चाहिये । चौथा दृष्टिकोण सर्वथा भेद और सर्वथा अभेद को स्वीकार करने का है । सर्वथा भेदवादी का कहना है कि कार्य, कारण, गुण, गुणी, सामान्य और सामान्यवान् आदि सर्वथा पृथक्-पृथक् हैं, अपृथक नहीं हैं । यदि अपृथक् हों तो एक का दूसरे में अनुप्रवेश हो जाने से दूसरे का अस्तित्व टिक नहीं सकता है । इसके विपरीत सर्वथा अभेदवादी कहता है कि कार्य, कारण आदि सर्वथा अपृथक् हैं, क्योंकि यदि वे पृथक्-पृथक् हों तो जिस प्रकार पृथसिद्ध घट और पट में कार्य-कारणभाव या गुण-गुणीभाव नहीं है, उसी प्रकार कार्यकारण रूप से अभिमतों अथवा गुण गुणीरूप से अभिमतों में कार्य-कारणभाव और गुण-गुणीभाव कदापि नहीं बन सकता । पांचवां अपेक्षकान्त और अनपेक्षैकान्त का संघर्ष है । अपेक्षैकान्तवादी का मंतव्य है कि वस्तुसिद्धि अपेक्षा से होती है। कौन नहीं जानता है कि प्रमाण से ही प्रमेय की सिद्धि होती है और इसलिये प्रमेय प्रमाण सापेक्ष है । यदि वह उसकी अपेक्षा न करे तो सिद्ध नहीं हो सकता । अनपेक्षवादीका तर्क है कि सब पदार्थ निरपेक्ष हैं, कोई भी किसी की अपेक्षा नहीं रखता । यदि अपेक्षा रखें तो परस्पराश्रय होने से एक भी पदार्थ सिद्ध नहीं हो सकेगा । हेतुवादी का कथन है कि हेतु-युक्ति से सब छठवां दृष्टिकोण हेतुवाद और अहेतुवाद का है। सिद्ध होता है, प्रत्यक्षादि से नहीं, क्योंकि प्रत्यक्ष से देख लेने पर भी यदि वह हेतु की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है तो कदापि ग्राह्य नहीं माना जा सकता है—' युक्त्यायन्न घटमुपैति तदहं दृष्ट्वापि न श्रद्ध े ।' अहेतु आगम-वादी कहता है कि आगम से हरएक वस्तु का निर्णय होता है । यदि आगम से वस्तु का निर्णय न माना जाये तो हमें ग्रहोपरागादि का कदापि ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें हेतु का प्रवेश नहीं है । सातवां संघर्ष देव और पुरुषार्थ का है । दैववादी का मत है कि सब कुछ दैव (भाग्य) से होता है । यदि भाग्य में न हो तो कुछ भी नहीं मिल सकता और प्राप्त भी नष्ट हो जाता है । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद सिद्धान्त एक अनुशीलन ३१५ इसके विपरीत पुरुषार्थवादी का घोष है कि पुरुषार्थ से ही सब कुछ होता है। बिना पुरुषार्थ के तो भोजन का ग्रास भी मुंह में नहीं जा सकता । इसी प्रकार के अन्यान्य एकान्तिक संघर्ष भी दार्शनिकों द्वारा प्रस्तुत वे अपने-अपने दृष्टिकोणों को अपनी-अपनी समर्थक युक्तियों, प्रमाणों द्वारा परन्तु दूसरे के दृष्टिकोण को समझने और उसका समन्वय करने का प्रयास नहीं करते हैं । स्याद्वाद इन एकान्तिक दृष्टिकोणों को समझाने का प्रयत्न करने के साथ-साथ समन्वय का मार्ग भी सुझाता है । स्याद्वाद ने सप्तभंगों के माध्यम से एक ऐसी अभिनव विचार एवं कथन शैली व्यक्त की, जिससे सभी एकान्तवादियों का उपसंहार करते हुए उनके कथन की प्रामाणिकता का स्तर निर्धारित किया गया है। सर्वथा भावात्मक और सर्वथा अभावात्मक दृष्टिकोण के सम्बन्ध में स्याद्वाद अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए बतलाता है कि वस्तु को कथंचित् भावरूप और कथंचित् अभावरूप मानिये । दोनों को सर्वथा, सब प्रकार से केवल भावात्मक ही मानने में दोष है । क्योंकि केवल भावरूप ही वस्तु को मानने पर प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव इन अभावों का लोप हो जायेगा और उनके लोप होने पर वस्तु क्रमश: अनादि, अनन्त, सर्वात्मक और स्वरूपहीन हो जायेगी। इसी प्रकार वस्तु को केवल अभावरूप मानने पर भाव का लोप जायेगा और उसका लोप हो जाने से अभाव का साधक ज्ञान अथवा वचनरूप प्रमाण भी नहीं रहेगा । तब किसके द्वारा भावैकान्त का निराकरण और अभावैकान्त का समर्थन किया जा सकेगा ? परस्पर विरुद्ध होने से दोनों एकान्तों का मानना एकान्तवादियों के लिये सम्भव नहीं है और अवाच्यैकान्त तो अवाच्य होने से ही अयुक्त है । अतएव वस्तु कथंचित्स्व द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा से अस्तित्व भावरूप है और कथंचित्-पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से नास्तित्व-अभावरूप है। जैसे पड़ा अपनी अपेक्षा से अस्तित्वरूप है और वस्त्रादि पर पदार्थों की अपेक्षा से नास्तित्व-अभावरूप है। इस तरह उसमें अपेक्षा भेद से दोनों विधि-निषेध धर्म विद्यमान हैं । समस्त पदार्थों की स्थिति इसी प्रकार की है । अतः भाववादी का भी कहना सत्य है और अभाववादी का कथन भी सत्य है परन्तु शर्त यह है कि दोनों को अपने-अपने एकान्ताग्रह को छोड़कर दूसरे की दृष्टि का आदर करना चाहिये । , वस्तु के एक और अनेक विषयक संघर्ष का समाधान करते हुए स्याद्वाद का कथन है कि वस्तु (सर्व पदार्थ समूह ) सत्सामान्य ( सत्रूप) से तो एक है और द्रव्यादि के भेद से अनेक रूप है। यदि उसे सर्वधा एक (अद्वैत) मानी जाये तो प्रत्यक्षदृष्ट कार्य-कारण भेद लुप्त हो जायेगा, क्योंकि एक ही स्वयं उत्पाद और उत्पादक दोनों नहीं बन सकता है। उत्पाद्य और उत्पादक दोनों अलग-अलग होते हैं। इसके सिवाय सर्वथा अद्वैत को स्वीकार करने पर पुण्य-पाप का द्वैत, सुख-दुःख का द्वैत, इहलोक-परलोक का द्वैत विद्या अविद्या का द्वैत और बन्ध-मोक्ष का द्वैत आदि नहीं बन सकते । इसी प्रकार यदि वस्तु सर्वथा अनेक ही हो तो सन्तान (पर्यायों और गुणों में अनुस्यूत रहने वाला एक द्रव्य), समुदाय, साधर्म्य और प्रेत्यभाव आदि कुछ नहीं बन सकेंगे। अतएव दोनों एकान्तों का समुच्चय ही वस्तु है । इसलिये दोनों एकान्तवादियों को अपने एकान्त हठ को त्याग कर दूसरे सिद्ध होती है और विरोध अथवा के अभिप्राय का आदर करना चाहिए। ऐसी स्थिति में पूर्ण वस्तु अन्य कोई दोष उपस्थित नहीं होता । किये जा सकते हैं। स्पष्ट भी करते हैं। सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य वस्तु को मान्य करने के बारे में स्याद्वाद यथार्थता उपस्थित करते हुए बतलाता है कि वस्तु कथंचित् नित्य भी हैं और कथंचित् अनित्य भी है। द्रव्य की अपेक्षा से तो वह नित्य और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है । वस्तु केवल द्रव्य रूप नहीं है, क्योंकि परिणामभेद और बुद्धिभेद पाया जाता है। केवल पर्याय रूप ही नहीं है, क्योंकि यह वही है, जो पहले था, 1 फ्र 雅 आचार्य प्रव आचार्य प्रव श्री आजतक आमदन आज आम ग्रन्थ फ्र Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाय प्रवास अभिर्यप्र hariot C ३१६ धर्म और दर्शन इस प्रकार का अभ्रांत प्रत्यभिज्ञान- प्रत्यय होता है । यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो उसमें विकार ( परिवर्तन ) नहीं बन सकता । इसके साथ ही पुण्य-पाप कर्म और उनका प्रेत्यभावफल (जन्म-मरण, सुख-दुःख आदि) एवं बन्ध-मोक्ष आदि कुछ नहीं बनते । इसी तरह यदि वस्तु सर्वथा अनित्य हो तो प्रत्यभिज्ञान प्रत्यय न हो सकने से बद्ध को ही मोक्ष आदि व्यवस्था तथा कारण से ही कार्योत्पत्ति आदि सब अस्त-व्यस्त हो जायेगा । जिसने हिंसा का अभिप्राय किया वह हिंसा नहीं कर सकेगा और जिसने हिंसा का अभिप्राय नहीं किया, वह हिंसा करेगा तथा जिसने न हिंसा का अभिप्राय किया और न हिंसा की वह कर्मबन्ध से युक्त होगा तथा उस हिंसा के पाप से मुक्त कोई दूसरा होगा, क्योंकि वस्तु सर्वथा अनित्य, क्षणिक है । अतएव वस्तु को जो द्रव्य-पर्याय रूप है, द्रव्य की अपेक्षा से तो नित्य और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य दोनों रूप स्वीकार करना चाहिए। तभी हिंसा का अभिप्राय वाला ही हिंसा करता है और वही हिंसक, हिंसाफल भोक्ता एवं उससे मुक्त होता है आदि व्यवस्था सुसंगत हो जाती है । अभिनंदन अतः इन नित्य, अनित्य आदि सभी एकान्तवादी दार्शनिकों को सर्वथा एकान्त के आग्रह को छोड़कर दूसरे की दृष्टि को भी समझना और अपनाना चाहिये । इस तरह स्याद्वाद ने उन सभी उपस्थित संघर्षों का शमन किया है जो समन्वय के अभाव में परस्पर विरोधी बनकर विषाक्त चिन्तन के वातावरण के निर्माण में तत्पर रहे हैं। स्याद्वाद का स्पष्ट कथन है कि भाव-अभाव, एकअनेक, नित्य-अनित्य आदि जो दृष्टिभेद हैं, वे सर्वथा मानने से दुष्ट ( विरोधादि दोष युक्त) होते हैं और स्यात् कथंचित् (एक अपेक्षा से ) मानने से पुष्ट होते हैं— वस्तुस्वरूप का पोषण करते हैं । अतएव सर्वथा नियम के त्याग और अन्य दृष्टि की अपेक्षा रखने वाले 'स्यात्' शब्द के प्रयोग अथवा स्यात् की मान्यता को जैनदर्शन में स्थान दिया गया है एवं निरपेक्ष नयों को मिथ्या तथा सापेक्ष नयों को सम्यक् बतलाया गया है । आगमों में स्याद्वाद और भंगों का रूप ST आचार्य सिद्धसेन, समन्तभद्र प्रभृति महान् जैन दार्शनिक आचार्यों द्वारा रचित ग्रंथों के आधार पर ईस्वी सन् की चौथी शताब्दी से अनेकान्त व्यवस्थायुग का प्रारम्भ होना कहा जा सकता है । उत्तरवर्ती आचार्यों ने इसको विशेष रूप से पल्लवित किया है । जान पड़ता है उस समय के जैन आचार्य अपने सिद्धान्तों पर होने वाले प्रतिपक्षियों के प्रहारों से सतर्क हो गये थे और अनेकान्तवाद को सप्तभंगी का तार्किक रूप देकर जैन सिद्धान्तों की रक्षा के लिये प्रवृत्तिशील होने लगे थे । आज के परिष्कृत रूप में विद्यमान स्याद्वाद के बीज प्राचीन आगमों में विद्यमान हैं । ज्ञातृधर्मकथा और भगवतीसूत्र में तो अनेकान्तवाद सम्बन्धी विचार प्रायः देखने को मिलते हैं । वहाँ एक ही वस्तु को द्रव्य की अपेक्षा 'एक', ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा से 'अनेक', किसी अपेक्षा से 'अस्ति', किसी अपेक्षा से 'नास्ति', और किसी अपेक्षा से 'अवक्तव्य' कहा गया है । आगमों की त्रिपदी ( उत्पाद, व्यय और धौव्य), सिय अत्थि, सिय णत्थि, द्रव्य, गुण, पर्याय, नय आदि स्याद्वादसूचक शब्दों का अनेक स्थानों पर उल्लेख पाया जाता है । आगम ग्रंथों पर रचित भद्रबाहु की निर्युक्तियों में भी उन्हीं विचारों को विशेष रूप से प्रस्फुटित किया गया है । इसके बाद आचार्य उमास्वाति के तत्त्वार्थाधिगम सूत्र और तत्त्वार्थ भाष्य में अनेकान्तवाद, विशेषकर नयवाद की विस्तृत रूप में चर्चा पाई जाती है । वहाँ अर्पित, अनर्पित नयों के भेदों, उपभेदों का वर्णन विस्तार से किया गया है । इस प्रकार आगमों और तत्सम्बन्धी निर्युक्तियों आदि में स्याद्वाद विषयक संकेतों का संक्षेप में दिग्दर्शन कराने के बाद अब कुछ विशेष कथन प्रस्तुत किया जाता है । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन ३१७ r पूर्व में यह संकेत किया गया है कि विचार के साथ ही दर्शन का प्रारम्भ हुआ। विश्व के स्वरूप, उसकी उत्पत्ति आदि के बारे में नाना प्रकार के प्रश्न और उनका समाधान विविध प्रकार से प्राचीन काल से होता आया है। इसके साक्षी ऋग्वेद से लेकर उपनिषद् आदि समस्त दार्शनिक सूत्र एवं टीका ग्रंथ आदि हैं। ऋग्वेद में दीर्घतमा तपस्वी विश्व के मुल कारण और स्वरूप की खोज में लीन होकर प्रश्न करता है कि इस विश्व की उत्पत्ति कैसे हुई, इसको कौन जानता है ? अंत में वह कहता है कि 'एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' सत् तो एक ही है किन्तु विद्वान उसका वर्णन कई प्रकार से करते हैं, अर्थात् एक ही तत्त्व के विषय में नाना प्रकार के विचार, वचनप्रयोग देखे जाते हैं। इस वचनप्रयोग में मनुष्य-स्वभाव की उस विशेषता के दर्शन होते हैं, जिसे हम समन्वयशीलता कहते हैं। इसी समन्वयशीलता का शास्त्रीय रूप स्याद्वाद है। विश्व के कारण की जिज्ञासा में से ही अनेक विरोधी मतवाद उत्पन्न हए, जिनका निर्देश उपनिषदों में हुआ है। जिसको जैसा सूझ पड़ा, उसने वैसा कहना शुरू कर दिया। इस प्रकार मतों का एक जाल बन गया किन्तु उन सभी मतवादियों का समन्वय स्याद्वाद द्वारा हो जाता है। विश्व का मूल कारण क्या है ? वह सत् है या असत् है। सत् है तो पुरुष है या पुरुषतर-- जल, वायु, अग्नि, आकाश आदि में से कोई एक ? इन प्रश्नों का उत्तर उपनिषदों के ऋषियों ने अपनी-अपनी बौद्धिक प्रतिभा से दिया और नाना मतवादों की सृष्टि खड़ी कर दी। किसी के मत से असत् से सत् की उत्पत्ति हुई । किसी के मत से सत् से असत् की उत्पत्ति हुई । सत्कारणवादियों ने कहा कि असत् से सत् की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? सर्व-प्रथम एक अद्वितीय सत् ही था, उसी ने सोचा मैं अनेक होऊँ और क्रमशः सृष्टि की उत्पत्ति हुई। लेकिन सत्कारणवादियों में भी मतैक्य नहीं था। किसी ने जल को, किसी ने वायु को, किसी ने अग्नि को, किसी ने आकाश को और किसी ने प्राण को विश्व का मूल कारण माना। इन सभी वादों का सामान्य तत्व यह है कि विश्व के मूलकारण रूप में कोई आत्मा या पुरुष नहीं। इन सभी वादों के विरुद्ध अन्य ऋषियों का मत है कि इन जड़तत्वों से सृष्टि उत्पन्न नहीं हो सकती, मूल में कोई चेतनतत्व कर्ता होना चाहिये। किसी के मत से प्रजापति से सृष्टि की उत्पत्ति हुई। किसी ने आत्मा को मूल कारण मानकर उसी में से स्त्री और पुरुष की उत्पत्ति के द्वारा क्रमशः संपूर्ण विश्व की सृष्टि मानी। किसी ने आत्मा को उत्पत्ति का कर्ता नहीं, किन्तु कारणमात्र माना। किसी ने ईश्वर को ही जगत्कर्ता माना और उसी को मूलकारण कहा। इस विषय में संक्षेप में यों कहा जा सकता है कि किसी के मत से असत् से सत् की उत्पत्ति होती है, किसी के मत से विश्व का मूल तत्व सत् है। किसी के मत से वह सत् जड़ है और किसी के मत से वह तत्व चेतन । इनके अलावा किन्हीं ने काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत, पुरुष, इन सभी का संयोग और आत्मा इन में से किसी एक को कारण माना है। इन नाना वादों में से आगे चलकर आत्मवाद की मुख्यरूप से प्रतिष्ठा हुई और उपनिषदों के ऋषि अंत में इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि विश्व का मूलकारण या परम तत्व आत्मा ही है। परमेश्वर को भी जो आत्मा का आदि कारण है, आत्मस्थ देखने को कहा है। उपनिषदों का ब्रह्म और आत्मा भिन्न नहीं है किन्तु आत्मा ही ब्रह्म है, ऐसा कहा गया है। इसी आत्मतत्व, ब्रह्म-तत्व को जड़ और चेतन जगत का उपादानकरण, निमित्तकरण या अधिष्ठान मानकर दार्शनिकों ने केवलाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत, शुद्धाद्वैत का समर्थन किया है ___ इसके साथ ही उपनिषदकाल में कुछ लोग पृथ्वी आदि महाभूतों से आत्मा का समुत्थान SRI RANA SAHARSAMMImaanuarAIMAAnandama nawaranawraisadnamaAASANNIAMS nanRIAAAAAJAJANATAVALIAAAAAAB Res आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवर श्रीआनन्दन्थ श्रीआनन्द अन्य wimmininavaranewmomonianpinirvie Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MARJARALAWAAAAAAAASANAMAAJM awaiinsaanJALASAINSamacARDASJADAKAMALAMERICADAAAMADAMADRASAACASH Mix Futuisg3.315 आचार्यप्रअभि श्रीआनन्दकन्थ2श्राआनन्दा ३१८ धर्म और दर्शन और महाभूतों में ही लय मानने वाले भी थे । इसकी चर्चा भी उपनिषदों में देखने को मिलती है । यह भूतवाद तत्कालीन आत्मवाद के प्रचार को प्रभावहीन करने में समर्थ नहीं हआ और स्वयमेव निष्क्रिय होकर हतप्रभ-सा हो गया। परन्तु भगवान् बुद्ध ने इस उपनिषद्-कालीन आत्मवाद के प्रभाव को अपने अनात्मवाद के उपदेश द्वारा मंद किया। जितने वेग से आत्मवाद का प्रचार हुआ, उतने ही वेग से भगवान् बुद्ध ने इसको निरस्त करने का प्रयत्न किया। भगवान् बुद्ध विभज्यवादी थे। अतः उन्होंने रूप आदि ज्ञात वस्तुओं तथा वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान आदि को अपने तर्कों द्वारा एक-एक करके अनात्म सिद्ध किया । भगवान् बुद्ध के अनात्मवाद का यह तात्पर्य है कि उन्हें शरीरात्मवाद ही नहीं, किन्तु सर्वव्यापी, शाश्वत् आत्मवाद भी अमान्य था। उनके मत में न तो आत्मा शरीर से अत्यन्त भिन्न ही है और न आत्मा शरीर से अभिन्न ही है । उन्हें चार्वाक-सम्मत भौतिकवाद और उपनिषदों का कूटस्थ आत्मवाद भी एकान्त प्रतीत होता था । शाश्वत, कूटस्थ आत्मा मरकर पुनः जन्म लेती है और संसरण करती है, ऐसा मानने से शाश्वतवाद होता है। यदि ऐसा माना जाये कि माता-पिता के संयोग से महाभूतों से आत्मा उत्पन्न होती है और इसीलिये शरीर नष्ट होने पर आत्मा भी उच्छिन्न, विनष्ट और लुप्त हो जाती है तो यह उच्छेदवाद होता है । अतएव बुद्ध ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद दोनों को छोड़कर मध्यममार्ग-अशाश्वतानुच्छेदवाद, प्रतीत्यसमुत्पादवाद का उपदेश दिया। जैसे क्या दुःख स्वकृत है, परकृत है, स्वपरकृत है या अस्वपरकृत है ? इन प्रश्नों के उत्तर भगवान् बुद्ध ने 'नहीं' में दिये और इसका कारण स्पष्ट करते हुए कहा कि दुःख स्वकृत है, ऐसा कहने का अर्थ होता है कि जिसने किया वह भोग करता है, यह शाश्वतवाद का अवलंबन हुआ । यदि परकृत कहें तो ऐसा कहने का मतलब होता है कि किया किसी दूसरे ने और भोग करता है कोई अन्य । ऐसी स्थिति में उच्छेदवाद आ जाता है। अतएव शाश्वतवाद और उच्छेदवाद इन दोनों अंतों को छोड़कर मध्यममार्ग को ग्रहण करना योग्य है। इसका तात्पर्य यह है कि संसार में सुख-दुःख, जन्म-मरण, बंध-मुक्ति आदि सब होते हुए भी इनका कोई स्थिर आधार आत्मा हो ऐसा नहीं है, परन्तु ये अवस्थायें पूर्व-पूर्व कारण से उत्तर-उत्तर काल में होती हैं और नये कार्य को उत्पन्न कर नष्ट हो जाती हैं। इस प्रकार संसारचक्र चलता रहता है। पूर्व का सर्वथा उच्छेद भी इष्ट नहीं और ध्रौव्य भी इष्ट नहीं । उत्तर पूर्व से सर्वथा असंबद्ध हो, यह बात भी नहीं किन्तु पूर्व के अस्तित्व के कारण उत्तर होता है, पूर्व की शक्ति उत्तर में आ जाती है। उत्तर पूर्व से सर्वथा भिन्न भी नहीं और अभिन्न भी नहीं किन्तु अव्याकृत है, क्योंकि भिन्न कहने पर उच्छेदवाद होता है और अभिन्त कहने पर शाश्वतवाद होता है । बुद्ध को ये दोनों वाद मान्य न थे । अतएव उन्होंने ऐसे प्रश्नों को अव्याकृत कहकर उत्तर दिया। इस संसारचक्र के नाश का क्या उपाय है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान बुद्ध ने बताया-पूर्व का निरोध करना । कारण के नाश होने पर कार्य उत्पन्न नहीं होगा । जैसे अविद्या का निरोध होने पर संस्कार का निरोध, संस्कार का निरोध होने से विज्ञान का निरोध और इस प्रकार एक से दूसरे का क्रमशः निरोध होकर अंत में जन्म के निरोध होने पर मरण का निरोध हो जाता है। __इस स्थिति में मरणान्तर तथागत बुद्ध का क्या होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में भी भगवान् बुद्ध ने 'अव्याकृत है' ऐसा कहा है। वह इसलिये कि मरणोत्तर तथागत होता है तो शाश्वतवाद का और नहीं होता है तो उच्छेदवाद का प्रसंग आता है। अतएव दोनों वादों का निषेध करने के लिये भगवान बुद्ध ने तथागत की मरणोत्तर दशा को 'अव्याकृत' कहा । जिस रूप, वेदना आदि के Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन ३१६ कारण तथागत की प्रज्ञापना होती थी वे रूप आदि तो प्रहीण हो गये, अब उनकी प्रज्ञापना का कोई साधन नहीं रहा, अतएव वे अव्याकृत हैं। इस प्रकार जैसे उपनिषदों में आत्मवाद की पराकाष्ठा के समय आत्मा या ब्रह्म को 'नेतिनेति' द्वारा अवक्तव्य प्रतिपादित किया, उसे सभी विशेषणों से परे बताया, ठीक उसी प्रकार बुद्ध ने भी आत्मा के विषय में उपनिषदों से सर्वथा विपरीत दृष्टि का अनुसरण कर उसे 'अव्याकृत' माना है। फिर भी जैसे उपनिषदों में परम तत्व को अवक्तव्य मानते हुए भी अनेक प्रकार से आत्मा का वर्णन किया गया है और वह व्यवहारिक माना गया है, वैसे ही बुद्ध ने भी कहा है कि लोकसंज्ञा, लोक-निरुक्ति, लोक-व्यवहार, लोक-प्रज्ञप्ति का आश्रय लेकर कहा जा सकता है कि 'मैं पहले था, नहीं था, ऐसा नहीं; मैं भविष्य में होऊँगा, नहीं होऊँगा, ऐसा नहीं; मैं अब हैं, नहीं हूँ, ऐसा नहीं।' ऐसी भाषा का प्रयोग करते हुए भी बुद्ध उसमें कहीं फंसते नहीं थे। तत्कालीन दार्शनिक-चिन्तन के क्षेत्र की स्थिति इस प्रकार की थी। भगवान महावीर ने तत्व के स्वरूप के विषय में उठने वाले नये-नये प्रश्नों का स्पष्टीकरण तत्कालीन अन्यान्य दार्शनिकों के विचारों के प्रकाश में किया। यही उनकी दार्शनिक क्षेत्र में नई देन है, जिसका संकेत आगमों में यत्र-तत्र-सर्वत्र देखने को मिलता है । अतएव आगमों के आधार पर अब उस नई देन के बारे में विचार करते हैं। आगमों के अनुसार भगवान महावीर को 'केवलज्ञान' होने के पूर्व जिन दस महास्वप्नों के दर्शन हुए थे, उनमें तीसरा स्वप्न 'चित्र-विचित्रपक्षयुक्त पुस्कोकिल' देखमा था। भगवतीसूत्र में इसका फल यह बतलाया गया है कि भगवान महावीर विचित्र ऐसे स्व-पर सिद्धान्त को बतलाने वाले द्वादशांग का उपदेश देंगे। यहां 'विचित्र' विशेषण से यह तात्पर्य लिया गया मालूम होता है कि उनका उपदेश अनेकरंगी-अनेकान्तवादात्मक होगा। भिक्ष के भाषाप्रयोग के प्रसंग में सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है कि उसे विभज्यवाद का उपयोग करना चाहिए। इस विभज्यवाद का ठीक से अर्थ समझने में जैन टीका ग्रंथों के अतिरिक्त बौद्धग्रंथ सहायक हो सकते हैं । बुद्ध ने अपने को विभज्यवादी बतलाया है, एकांशवादी नहीं, जो मज्झिमनिकाय (सुत्त ६६) में शुभमाणवक के प्रश्नों के उत्तरों से प्रगट होता है। उन उत्तरों में उन्होंने त्यागी या गृहस्थ की आराधकता और अनाराधकता में जो अपेक्षा या कारण था, उसे बताकर दोनों को आराधक या अनाराधक बताया है। अर्थात् प्रश्न का उत्तर विभाग करके दिया है। अतएव वे अपने को विभज्यवादी कहते हैं । परन्तु यहाँ यह विशेष ध्यान रखना चाहिये कि भगवान बुद्ध ने उन्हीं प्रश्नों का उत्तर विभज्यवाद के आधार पर दिया, जिनका उत्तर विभज्यवाद से ही संभव था। वे कुछ प्रश्नों का उत्तर देते समय ही विभज्यवाद का अवलंबन लेते थे, सभी प्रश्नों के उत्तरों में विभज्यवादी नहीं थे । भगवान बुद्ध के विभज्यवाद का क्षेत्र सीमित था और भगवान महावीर के विभज्यवाद का क्षेत्र व्यापक है। यही कारण है कि जैन-दर्शन आगे जाकर अनेकान्तवाद में परिणत हो गया और बौद्ध-दर्शन किसी अंश में विभज्यवादी होते हुए भी एकान्तवाद की ओर अग्रसर हुआ। मज्झिमनिकाय सुत्त ६६ से एकांशवाद और विभज्यवाद का परस्पर विरोध स्पष्ट सूचित हो जाता है और जैन टीकाकार विभज्यवाद का अर्थ स्याद्वाद अर्थात् अनेकान्तवाद करते हैं । ऐसी स्थिति में सूत्रकृतांगगत विभज्यवाद का अर्थ अनेकान्तवाद, नयवाद, अपेक्षावाद या विभाजन करके किसी तत्व के विवेचन का वाद लिया जाना ठीक है। अपेक्षाभेद से स्यात् शब्दांकित प्रयोग आगमों में देखे जाते हैं। एकाधिक भंगों का स्याद्वाद भी आगमों में मिलता है। अतः आगमकालीन अनेकान्तवाद या विभज्यवाद को स्याद्वाद कहा जाना उचित है। SAMBAJAJALRAanasaIRANJANAGAURAHAvasarawaiiaawazASALANDANAamraemarwAAAAAAAILAama m WWorimrrnManornv Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LARKAmAJAJAMABAJIRAANDALAMANANABAR NYivyayiwwwvive Mewarividiminay ३२० धर्म और दर्शन भगवान महावीर का विभज्यवाद भगवतीसूत्र-गत प्रश्नोत्तरों (७-२-२७०, १२-२-४४३, १-८-७२) आदि से स्पष्ट हो जाता है। भगवान बुद्ध के विभज्यवाद से तुलना करने के लिये और भी सूत्र-संख्याओं का संकेत किया जा सकता है, लेकिन यहाँ इतने ही पर्याप्त हैं। उनमें यह बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि भगवान महावीर ने अपने विभज्यवाद का क्षेत्र व्यापक बनाया। उन्होंने विरोधी धर्मों को अर्थात् अनेक अंतों को एक ही काल में और एक ही व्यक्ति में अपेक्षाभेद से घटाया है । इसी कारण से विभज्यवाद का अर्थ अनेकान्तवाद या स्याद्वाद हुआ। तिर्यक् सामान्य की अपेक्षा से होने वाली पर्यायों में विरोधी धर्मों को स्वीकार करना, यह भगवान बुद्ध के विभज्यवाद का मूलाधार है, जबकि तिर्यक् और ऊर्ध्वता दोनों प्रकार के सामान्यों की पर्यायों में विरोधी धर्मों को स्वीकार करना अनेकान्तवाद, स्याद्वाद का मूलाधार है। भगवान महावीर के द्वारा की गई अनेकान्तवाद की प्ररूपणा में तत्कालीन दार्शनिकों में से भगवान बुद्ध के निषेधात्मक दृष्टिकोण का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रतीत होता है कि भगवान बुद्ध ने तत्कालीन वादों से अलिप्त रहने के लिये जो दृष्टि अंगीकार की थी, उसी में अनेकान्तवाद का बीज है । जीव, जगत् और ईश्वर के नित्यत्व, अनित्यत्व आदि के विषय के होने वाले प्रश्नों को भगवान बुद्ध ने अव्याकृत (विवेचन करने योग्य नहीं) बता दिया था, जब कि भगवान महावीर ने उन्हीं प्रश्नों का व्याकरण (विवेचन) अपनी पैनी दृष्टि से किया अर्थात् अनेकान्तवाद के आश्रय से उनका समाधान किया। इन प्रश्नों के समाधान से उनको जो दृष्टि सिद्ध हुई, उसी का सार्वत्रिक विस्तार करके उन्होंने अनेकान्तवाद को सर्ववस्तुव्यापी बना दिया। भगवान बुद्ध दो विरोधी वादों को देखकर उन से बचने के लिए अपना तीसरा मार्ग उनकी अस्वीकृति में ही सीमित करते थे जबकि भगवान महावीर उन दोनों विरोधी वादों का समन्वय करके उनकी स्वीकृति में अपने नये मार्गअनेकान्तवाद, स्याद्वाद की स्थापना करते थे। भगवान बुद्ध ने 'क्या लोक शाश्वत है,' 'क्या अशाश्वत है, आदि (मज्झिमनिकाय चुलमालुक्य सुत्त ६३) जिन प्रश्नों को अव्याकृत कहा है, उनका (१) लोक की नित्यता-अनित्यता और सान्तता-निरन्तता, (२) जीव-शरीर का भेद-अभेद, (३) तथागत की मरणोत्तर स्थिति-अस्थिति अर्थात् जीव की नित्यता-अनित्यता इन बातों में समावेश हो सकता है। भगवान बुद्ध के समय ये महान प्रश्न थे। इनके बारे में भगवान बुद्ध ने अपना मत देते हुए भी विधायक रूप में कुछ भी नहीं कहा, क्योंकि 'नित्य' आदि स्वीकार करने में शाश्वत और 'अनित्य' आदि स्वीकार करने में उच्छेदवाद को स्वीकार करना पड़ता था। इसलिये अपने नये वाद का कुछ नाम न देते हुए 'दोनों वाद ठीक नहीं ऐसा कहकर वे रह गये और ऐसे प्रश्नों को अव्याकृत बता दिया। भगवान बुद्ध के ऐसा करने का कारण स्पष्ट है। तत्कालीन प्रचलित वादों के दोषों की ओर ही उनकी दृष्टि गई। इसीलिये उनमें से किसी वाद का अनुयायी होना उन्होंने पसंद नहीं किया और अशाश्वतानुच्छेदवाद को ही स्वीकार किया। इस प्रकार प्रकारान्तर से उन्होंने अनेकान्त वाद का मार्ग प्रशस्त कर दिया। . इसके विपरीत भगवान महावीर ने उन वादों के दोषों और गुणों दोनों की मीमांसा की। प्रत्येक वाद का गुण-दर्शन तो उस वाद के स्थापक ने और दोष-दर्शन भगवान् बुद्ध ने करा दिया। इस प्रकार भगवान महावीर के सामने उन वादों के गुण और दोष दोनों आ गये । दोनों पर मध्यस्थ दृष्टि देने पर अनेकान्तवाद-स्याद्वाद स्वतः सिद्ध हो जाता है। उन्होंने तत्कालीन वादों के गुण-दोषों की परीक्षा करके जिस वाद में जितनी सचाई थी, उसे उतनी मात्रा में स्वीकार करके सभी वादों का समन्वय करने का प्रयास किया। यही भगवान महावीर का अनेकान्तवाद-स्याद्वाद सिद्धान्त है। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यावाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन ३२१ भगवान् बुद्ध जिन प्रश्नों का उत्तर विधि रूप से नहीं देना चाहते थे, उनका उत्तर देने में भगवान महावीर अनेकान्तवाद का आश्रय लेकर समर्थ हए। उन्होंने प्रत्येक वाद की पृष्ठभूमि, उसकी मर्यादा, उत्थान होने की अपेक्षा को समझने का प्रयत्न किया और फलितार्थ को नयवाद के रूप में दार्शनिकों के समक्ष रखा और यह नयवाद अनेकान्तवाद-स्याद्वाद का मूलाधार बन गया। भगवान् बुद्ध द्वारा 'अव्याकृत' माने गये धर्म आपेक्षिक हैं और अनेकान्तवाद द्वारा आपेक्षिक धर्मों का अपेक्षादृष्टि से कथन होता है। अतएव भगवान बुद्ध द्वारा अव्याकृत माने गये प्रश्नों के सम्बन्ध में यहाँ संक्षेप में विवेचन किया जाता है । __भगवान बुद्ध के अव्याकृत प्रश्नों में से प्रथम चार लोक की नित्यता (शाश्वतता)-अनित्यता (अशाश्वतता) और सान्तता-अनन्तता से सम्बन्धित हैं। उनमें से लोक की सान्तता और अनन्तता के विषय में भगवान महावीर द्वारा किया गया स्पष्टीकरण भगवतीसूत्र के स्कन्दक परिव्राजक के अधिकार (२-१-६) में उपलब्ध है-लोक द्रव्य की अपेक्षा से सान्त और पर्यायों की अपेक्षा अनन्त है। काल की अपेक्षा से लोक अनन्त और क्षेत्र की अपेक्षा सान्त है। यहाँ मुख्यतः सान्त और अनन्त शब्दों को लेकर अनेकान्तवाद की स्थापना की गई है। लोक की शाश्वतता और अशाश्वतता के बारे में भगवान महावीर का अनेकान्तवादी मंतव्य इस प्रकार है कि लोक शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है। त्रिकाल में ऐसा एक भी समय नहीं, जब लोक किसी-न-किसी रूप में न हो, अतएव वह शाश्वत है। लोक अशाश्वत भी है, क्योंकि लोक सदैव एक रूप नहीं रहता है। उसमें अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी के कारण अवनति और उन्नति होती रहती है। सर्वथा शाश्वत में परिवर्तन नहीं होता है, अतएव उसे अशाश्वत भी मानना चाहिए। यहाँ लोक का मतलब है, जिसमें पाँच अस्तिकाय-धर्म, अधर्म, आकाश, जीव, पुद्गल हैं। भगवान् बुद्ध ने 'जीव और शरीर का भेद है या अभेद हैं। इस प्रश्न को अव्याकृत माना है । इस विषय में भगवान महावीर ने (भगवती० १३-७-४६५) आत्मा को शरीर से अभिन्न भी कहा है और भिन्न भी कहा है। उक्त कथन पर दो प्रश्न उपस्थित होते हैं-यदि शरीर आत्मा से अभिन्न है तो आत्मा की तरह शरीर को भी अरूपी और सचेतन होना चाहिए। इसके उत्तर में कहा है कि शरीर रूपी भी है और अरूपी भी है । वह सचेतन भी है और अचेतन भी है। जब शरीर आत्मा से पृथक् माना जाता है, तब वह रूपी और अचेतन है और जब शरीर को आत्मा से अभिन्न माना जाता है, तब वह अरूपी और सचेतन है। भगवान बुद्ध के मत से यदि शरीर को आत्मा से भिन्न माना जाये, तब ब्रह्मचर्यवास सम्भव नहीं और अभिन्न माना जाये तब भी ब्रह्मचर्यवास सम्भव नहीं, किन्तु इन दोनों का समाधान करते हए भगवान महावीर ने कहा कि यदि आत्मा को शरीर से अत्यन्त भिन्न माना जाये, तब काय-कृत कर्मों का फल उसे नहीं मिलना चाहिए। अत्यन्त भेद मानने पर अकृतागम दोष आ । जाता है और यदि अत्यन्त अभिन्न माना जाये तो शरीर का दाह हो जाने पर आत्मा भी नष्ट होगी, जिससे परलोक सम्भव नहीं रहेगा। इस प्रकार कृतप्रणाश दोष की आपत्ति होगी, परन्तु एकान्त भेद और एकान्त अभेद मानने पर जो दोष होते हैं, वे उभयवाद मानने पर नहीं होते। दूसरी बात यह है कि जीव और शरीर का भेद इसलिए मानना चाहिए कि शरीर का नाश हो जाने पर भी आत्मा दूसरे जन्म में मौजूद रहती है या सिद्धावस्था में अशरीरी आत्मा भी होती है । अभेद इसलिए मानना चाहिए कि संसारावस्था में शरीर और आत्मा का सम्बन्ध नीरक्षीरवत् होता है। इसीलिए शरीर से किसी वस्तु का स्पर्श होने पर आत्मा में संवेदन होता है। कायिक कर्म का विपाक आत्मा में होता है। FACE HEAL भO عرعر عرعر عرعر عرععهده AAAAJRAJAJARi c ewalNORMASAJANIGAMANARAaru-A आपाप्रवन आभभापायप्रवर अभि श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्द . Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्द अन्य श्रीआनन्द ३२२ ... twanormation - -- धर्म और दर्शन मृत्यु के बाद तथागत होते हैं या नहीं (जीव की नित्यता-अनित्यता), इस प्रश्न को भगवान बुद्ध ने अव्याकृत कोटि में रखा है, किन्तु भगवान महावीर ने अनेकान्तवाद का आश्रय लेकर कहा कि तथागत मरणोत्तर भी हैं। क्योंकि जीव द्रव्य नष्ट नहीं होता है, वह सिद्धस्वरूप बनता है, किन्तु मनुष्य, पशु आदि रूप जो कर्म-कृत भाव-पर्याय है, वह नष्ट हो जाती है, इसलिए अनित्य है । जीव द्रव्य का कभी विच्छेद नहीं होता है, इस दृष्टि से जीव नित्य है और जीव की मनुष्य, पशू आदि नाना अवस्थायें जो स्पष्ट रूप से विच्छिन्न होती हुई दिखाई देती हैं, उनकी अपेक्षा अनित्य है। भगवान महावीर ने अनेकान्तवाद के माध्यम से जिस प्रकार भगवान बुद्ध के अव्याकृत प्रश्नों का समाधान किया, वैसे ही उन्होंने द्रव्य-पर्याय का भेदाभेद, जीव-अजीव की एकता-अनेकता (एक-अनेक), परमाणु की नित्यता-अनित्यता, अस्ति-नास्ति आदि विरोधी युगलों का अनेकान्तवाद के आश्रय से समाधान कर उन-उनकी प्रतिष्ठा की है, जिससे उत्तरवर्ती दार्शनिक विकास के युग में सामान्य-विशेष, द्रव्य और गुण, द्रव्य और कर्म, द्रव्य और जाति आदि अनेक विषयों में भेदा-भेद की चर्चा हुई। इस प्रकार देखते हैं कि भगवान् बुद्ध के सभी अव्याकृत प्रश्नों की विवेचना भगवान महावीर ने विधिमार्ग को स्वीकार करके की और अनेकान्तवाद को प्रतिष्ठित किया। एक ही वस्तु में अपेक्षाभेद से अनेक सम्भावित विरोधी धर्मों को घटाया गया, यही अनेकान्तवाद का मूलाधार है । यद्यपि भगवान बुद्ध ने भी समन्वयशीलता और अनेकान्तवादिता का प्रदर्शन किया, परन्तु यह सीमित ही रहा। भगवान महावीर ने उसका व्यापक क्षेत्र में प्रयोग किया और अनेकान्तवाद के प्रज्ञापक हुए। पूर्वोक्त कथन से यह तो स्पष्ट है कि अनेकान्तवाद और विभज्यवाद में दो विरोधी धर्मों को समान भाव से स्वीकार किया गया है और इसीलिये वे दोनों पर्याय शब्द मान लिये गये । किसी-न-किसी अपेक्षा-विशेष से दो विरोधी धर्मों को स्वीकार किया जा सकता है, उस भाव को सूचित करने के लिए वाक्य में 'स्यात्' शब्द जोड़ा जाता है। इसी कारण अनेकान्तवाद स्याद्वाद के नाम से प्रसिद्ध हो गया । जिस वाक्य में साक्षात् अपेक्षा का उपादान हो वहाँ तो 'स्यात्' शब्द का प्रयोग नहीं भी किया जाता, किन्तु जहाँ अपेक्षा का साक्षात उत्पादन नहीं है, वहां स्यात शब्द का प्रयोग किया जाता है। अब ऐतिहासिक दृष्टि से देखते हैं कि स्याद्वाद का बीज आगमों में है या नहीं। प्रोफेसर उपाध्ये के मत से 'स्याद्वाद' यह शब्द आगमों में है। उन्होंने सूत्रकृतांग सूत्र भाग-१, अध्ययन १४, गाथा, १६ में न या सियावाय अंश से इस शब्द को फलित किया है। टीकाकार ने इस अंश का 'न चाशीर्वाद' ऐसा संस्कृत प्रतिरूप दिया है। किन्तु प्रो० उपाध्ये के मत से वह 'न चास्याद्वाद' होना चाहिए। उनका कहना है कि आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के अनुसार आशिष शब्द का प्राकृत रूप 'आसी' होना चाहिए । स्वयं हेमचन्द्र ने 'आसीया' ऐसा दूसरा रूप दिया है । आचार्य हेमचन्द्र ने स्याद्वाद के लिए प्राकृत रूप 'सियावाओ' दिया है। यदि इस सियावाओ शब्द पर ध्यान दिया जाये तो उक्त गाथा में अस्याद्वाद वचन के प्रयोग का ही निषेध मानना ठीक होगा। यदि टीकाकार के अनुसार आशीर्वचन के प्रयोग का निषेध माना जाये तो कथानकों में जो धर्मलाभ रूप आशीर्वादात्मक वचन का प्रयोग मिलता है, वह असंगत होगा। इस प्रकार आगमों में 'स्याद्वाद' इस पूरे शब्द के अस्तित्व के बारे में किसी को मतभेद हो सकता है, किन्तु 'स्यात्' शब्द के अस्तित्व में मतभेद नहीं है। इसलिए स्यात् शब्द के प्रयोग के कारण जैनागमों में स्याद्वाद का अस्तित्व सिद्ध ही मानना चाहिये। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन ३२३ (I भाग P परस्पर विरोधी धर्मों को एक ही धर्म में स्वीकार किया जाये, इस प्रकार की समन्वयात्मक भावना से अनेकान्तवाद का जन्म हुआ। किसी भी विषय में प्रथम अस्ति-विधि पक्ष होता है तब कोई दूसरा उस पक्ष का नास्ति-निषेध पक्ष लेकर खंडन करता है। अतएव समन्वयकर्ता के समक्ष जब तक दोनों पक्ष उपस्थित न हों, तब तक समन्वय का प्रश्न ही नहीं उठता । इस प्रकार अनेकान्तवाद-स्याद्वाद के मूल में 'अस्ति और नास्ति' पक्ष का होना आवश्यक है। इसीलिए स्याद्वाद के भंगों में सर्वप्रथम अस्ति, नास्ति इन दोनों को स्थान मिलना स्वाभाविक है। यदि भंगों के साहित्यिक इतिहास की ओर ध्यान दें तो ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में भंगों का कुछ आभास मिलता है। उक्त सूक्त के ऋषि के समक्ष दो मत थे। कोई जगत् के आदि कारण को सत् कहते थे और कोई असत् । इस प्रकार जब ऋषि के समक्ष यह सामग्री उपस्थित हुई, तब उन्होंने कह दिया कि वह सत् भी नहीं है और असत् भी नहीं है। उनका यह निषेधपरक उत्तर भी एक पक्ष में परिणत हो गया। इस प्रकार सत्, असत् और अनुभय (अन्+उभय) ये तीन पक्ष तो ऋग्वेद जितने प्राचीन सिद्ध हो गये। उपनिषदों के समय में जब आत्मा या ब्रह्म को परम तत्व मानकर विश्व को उसी का प्रपंच मानने की प्रवृत्ति हुई तब यह स्वाभाविक था कि अनेक विरोधों की भूमि ब्रह्म या आत्मा ही बने । परिणामतः आत्मा या ब्रह्म और ब्रह्मरूप विश्व को ऋषियों ने अनेक विरोधी धर्मों से अलंकृत किया। परन्तु जब उन विरोधों के तार्किक समन्वय में भी उन्हें संतोष नहीं मिला तब उसे वचनागोचर-अवक्तव्य बताकर अनुभवगम्य कह दिया। यदि इस प्रक्रिया को ध्यान में रखा जाये तो 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' (कठोपनिषद्), 'सदसद्वरेण्यम्' (मुण्डकोपनिषद्) आदि उपनिषद् वाक्यों में किसी एक ही धर्मी में परस्पर विरोधी दो धर्मों को स्वीकार किया गया है। विधि और निषेध दोनों पक्षों का विधि-मुख से समन्वय हुआ है। ऋग्वेद के ऋषि ने दोनों विरोधी पक्षों को अस्वीकृत करके निषेधमुख के तीसरे अनुभय पक्ष को उपस्थित किया है और उपनिषदों के ऋषियों ने दोनों विरोधी धर्मों को स्वीकृति द्वारा उभयपक्ष का समन्वय कर विधिमुख से चौथे उभय भंग का आविष्कार किया। जब परम तत्व को इन धर्मों का आधार मानने पर भी विरोधों की गन्ध आने लगी तो अन्त में उन्होंने दो मार्ग ग्रहण किये । जिन धर्मों को दूसरे लोग स्वीकार करते थे, उनका निषेध कर देना अर्थात् ऋग्वेद की तरह अनुभय (अन् + उभय) पक्ष का अवलंबन लेकर उत्तर दे देना कि न वह सत् है और न असत् है। यह प्रथम मार्ग हुआ । जब इसी निषेध को नेति-नेति के चरम तक पहुंचाया, तब उसमें से फलित हो गया कि वह अवक्तव्य है। यह दूसरा मार्ग हुआ। इस चर्चा का फलितार्थ यह है कि जब दो विरोधी धर्म उपस्थित होते हैं, तब उसके उत्तर में तीसरा तक्ष तीन प्रकार से हो सकता है-(१) उभय विरोधी पक्षों को स्वीकार करने वाला (उभय), (२) उभय पक्ष को निषेध करने वाला (अनुभय) और (३) अवक्तव्य । इनमें से तीसरे प्रकार दूसरे प्रकार का विकसित रूप है, अतएव अनुभय और अवक्तव्य को एक ही भंग समझना चाहिए। इस अवक्तव्य और वस्तु की सर्वथा अवक्तव्यता के पक्ष को व्यक्त करने वाले अवक्तव्य के भेद में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि प्रथम को सापेक्ष अवक्तव्य और दूसरे को निरपेक्ष अवक्तव्य कह सकते हैं । सापेक्ष अवक्तव्य अर्थात् किसी वस्तु में दो या अधिक धर्मों को कहने के लिये तदर्थ शब्द की खोज करते हैं तो उनके वाचक भिन्न-भिन्न शब्द तो मिल जाते हैं किन्तु उन शब्दों के क्रमिक प्रयोग से विवक्षित सभी धर्मों का युगपत् बोध नहीं हो पाता, अतएव उसे अवक्तव्य कह देते हैं। निरपेक्ष अवक्तव्यता से यह प्रतिपादित किया जाता है कि वस्तु का पार | 1 APURANAJDO GRAMMARVACADAKIRAAJAMATABASAN AARRAJARAMMARDANAMAHA PYAM आचार्यप्रवभिन्न जापान श्रीआनन्द अन् श्रीआनन्द अन्य wirmwwwnnerman Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्द अन्थ W धर्म और दर्शन Fi श F आर्यन अभिनन्दन ३२४ मार्थिक रूप ही ऐसा है, जो शब्द ग्राह्य नहीं । अतएव उसका वर्णन नहीं किया जा सकता अर्थात् सापेक्ष अवक्तव्यता का आधार वचनप्रयोग है और निरपेक्ष अवक्तव्यता का आधार वस्तु का पारमार्थिक रूप है । स्याद्वाद के भंगों में जो अवक्तव्य भंग है, वह सापेक्ष अवक्तव्य है और वक्तव्यत्वअवक्तव्यत्व ऐसे दो विरोधी धर्मों को लेकर जैनाचार्यों ने जो स्वतंत्र सप्तभंगों की योजना की, उसका मूल निरपेक्ष अवक्तव्य प्रतीत होता है । इतनी चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि उपनिषदों के समय तक ( १ ) सत् (विधि), (२) असत् (निषेध), (३) सदसत् (उभय), (४) अवक्तव्य ( अनुभय) ये चार पक्ष स्थिर हो चुके थे । इन चार पक्षों की परंपरा बौद्ध त्रिपिटक से भी सिद्ध होती है। भगवान बुद्ध के समयपर्यन्त एक ही विषय के चार विरोधी पक्ष उपस्थित करने की शैली दार्शनिकों में प्रचलित थी । त्रिपिटकगत संजय बेलट्ठपुत्र के मत वर्णन से भी यही सिद्ध होता है । यहाँ इतना विशेष समझना है कि भगवान बुद्ध ने प्रश्नों को अव्याकृत इसलिये कहा कि वे उन प्रश्नों का 'हां' या 'ना' में उत्तर नहीं देना चाहते थे, जबकि भगवान् महावीर ने अस्ति आदि चारों पक्षों का समन्वय करके सभी पक्षों को भेद से स्वीकार किया है। भगवान महावीर के स्यादवाद और संजय के भंगजाल में इतना अंतर है कि स्यादवाद प्रत्येक भंग का स्पष्ट रूप से नयवाद और अपेक्षावाद का समर्थन कर निश्चय करता है और संजय कोई निश्चय नहीं करता है और अज्ञानवाद में कर्तव्य की इतिश्री समझता है । जैनागमों में भी कई पदार्थों के वर्णन के लिये विधि, निषेध, उभय और अनुभय के आधार पर विकल्प किये हैं । जैसे - ( १ ) आत्मारम्भ, (२) परारम्भ, (३) तदुभयारम्भ, (४) अनारम्भ । इससे यह फलित होता है कि भगवान महावीर के समयपर्यन्त विधि आदि अनुभय पर्यन्त उक्त चार पक्ष स्थिर हो चुके थे और संभवतः इन्हीं पक्षों का भगवान महावीर ने समन्वय किया होगा । उस स्थिति में स्याद्वाद के निम्नलिखित मौलिक भंग फलित होते हैं। : (१) स्याद् सत् (विधि), (२) स्याद् असत् (निषेध), (३) स्याद् सत् स्याद् असत् (उभय ), (४) स्यादवक्तव्य ( अनुभय ) । इन चार भंगों में से अंतिम भंग अवक्तव्य दो प्रकार से प्राप्त हो सकता है- ( १ ) प्रथम के दो भंग रूप से वाच्यता का निषेध करके और ( २ ) प्रथम के तीनों भंग रूप से वाच्यता का निषेध करके । इनमें से प्रथम रूप की स्थिति ऋग्वेद कालीन और दूसरे रूप की स्थिति उपनिषद् कालीन प्रतीत होती है। जैन आगमों में स्याद्वाद के भंगों में जो अवक्तव्य को तीसरा स्थान दिया गया, वह इतिहास की दृष्टि से संगत मालूम होता है। इसका अनुसरण आचार्य उमास्वाति ( तत्वार्थ भा. ५ - ३१), सिद्धसेन ( सन्मति १ - ३६) आदि ने किया और अवक्तव्य को चौथा स्थान देने का अनुसरण आचार्य समन्तभद्र (आप्त मी. का. १६) आदि ने किया । आचार्य ने कुन्दकुन्द दोनों मतों का अनुसरण किया है । भगवान महावीर द्वारा विभिन्न मतवादों का समन्वय कैसे ऋग्वेद से लेकर भगवान बुद्ध पर्यन्त जो विचारधारा प्रवाहित हुई, प्रथम एक पक्ष उपस्थित हुआ— सत् या असत् का । उसके विरोध में पक्ष उठा असत् या सत् का । इनका समन्वय करने के लिये किसी ने कह दिया कि तत्त्व न सत् कहा जा सकता है और न असत् कहा जा सकता है । वह अवक्तव्य है । किसी ने दोनों विरोधी पक्षों को मिलाकर कह दिया कि वह सदसत् है । विचारधारा के उपर्युक्त पक्ष, विपक्ष और समन्वय ये तीन क्रमिक सोपान हैं । किया गया, यह द्रष्टव्य है । उससे यह प्रतीत होता है कि Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन ३२५ परन्तु समन्वय पर्यन्त आ जाने पर समन्वय भी एक पक्ष बन गया। और जब यह पक्ष बन गया तो विपक्ष का बनना भी सहज था। फिर उनके भी समन्वय की आवश्यकता हुई। यही कारण है कि जब वस्तु की अवक्तव्यता में सत् और असत् का समन्वय हुआ तो वह भी एक एकान्त पक्ष और उसके साथ ही विपक्ष बन गया। इस प्रकार पक्ष-विपक्ष-समन्वय का चक्र अनिवार्य था। इस चक्र को भेदने का मार्ग भगवान महावीर ने बताया। उन्होंने समन्वय का एक नया मार्ग बतलाया, जिससे समन्वय स्वयं आगे जाकर एक नये विपक्ष को मौका न दे । उनके समन्वय की यह विशेषता है कि वह समन्वय स्वतंत्र पक्ष न होकर सभी विरोधी पक्षों का यथा-योग्य सम्मेलन है। उन्होंने प्रत्येक पक्ष के बलाबल की ओर दृष्टि दी। यदि वे केवल दौर्बल्य की ओर ध्यान देकर समन्वय करते तो सभी पक्षों का सुमेल होकर भी एकत्र सम्मेलन न होता और किसी विपक्ष के उत्थान को अवकाश देता । अतएव उन्होंने प्रत्येक पक्ष की सचाई पर भी ध्यान दिया और सभी पक्षों को वस्तु के दर्शन में यथा-योग्य स्थान दिया । जितने भी अबाधित विरोधी पक्ष थे, उन सभी को सच बतलाते हुए प्रकट किया कि सम्पूर्ण सत्य का दर्शन तो उन सभी विरोधों को मिलाने से ही हो सकता है, पारस्परिक निरास से नहीं। इसकी प्रतीति नयवाद के द्वारा कराई । नयवाद का अर्थ है कि सभी पक्ष, सभी मत पूर्ण सत्य को जानने के भिन्न-भिन्न प्रकार हैं। किसी एक प्रकार का इतना प्राधान्य नहीं कि वह सत्य हो और दूसरा न हो। सभी पक्ष अपनीअपनी दृष्टि से सत्य हैं और इन्हीं सब दृष्टियों के यथायोग्य संगम से वस्तु के स्वरूप का आभास होता है । नय सुनय तभी कहलाते हैं जबकि वे अपनी-अपनी मर्यादा में रहें और अपने पक्ष का स्पष्टीकरण करते हुए दूसरे पक्ष का मार्ग अवरुद्ध न करें। भगवान महावीर का समन्वय इतना व्यापक था कि उसमें पूर्व सभी मत अपने-अपने स्थान पर रहकर वस्तुदर्शन में यंत्र के भिन्न-भिन्न अंगों की तरह सहायक होते हैं । फल यह हुआ कि उनका वह समन्वय अंतिम ही रहा । अब इस संपूर्ण कथन के उपसंहार रूप में स्याद्वाद के स्वरूप का जैसा कि वह आगम में है, विवेचन किया जाता है। इसके लिये भगवती सूत्र का एक सूत्र अच्छी तरह से मार्ग-दर्शक है। उसका सार नीचे दिया जाता है। गौतम का प्रश्न है कि रत्नप्रभा पृथ्वी आत्मा है या अन्य है ? उत्तर में भगवान् ने कहा(१) रत्नप्रभा पृथ्वी स्यादात्मा है । (२) रत्नप्रभा पृथ्वी स्यादात्मा नहीं है। (३) रत्नप्रभा पृथ्वी स्यादवक्तव्य है । अर्थात् आत्मा है और आत्मा नहीं है, इस प्रकार से ___ वह वक्तव्य नहीं है। उक्त तीन भंगों को सुनकर गौतम ने पूछा एक ही पृथ्वी को आप इतने प्रकार से किस अपेक्षा से कहते हैं। उत्तर में भगवान् ने कहा (१) आत्मा 'स्व' के आदेश से आत्मा है। (२) 'पर' के आदेश से आत्मा नहीं है । (३) तदुभय के आदेश से अवक्तव्य है । गौतम ने रत्नप्रभा पृथ्वी की तरह सभी पृथ्वियों, स्वर्ग, सिद्धशिला के बारे में पूछा और वैसे ही उत्तर मिला । परमाणु पुद्गल के प्रश्न के बारे में भी पूर्ववत् उत्तर दिया गया । परन्तु जब द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, चतुष्प्रदेशी, पंचप्रदेशी, षट्प्रदेशी स्कन्धों के बारे में प्रश्न पूछे गए तो ADAJARAMNAADIMANANADA Anan dmuAAAAAAAAAAAwaamadanindranadiatAAAAAAAAAAAAAAAAARINAARI आचार्यप्रवभि आचार्यप्रवआभी श्रीआनन्दमन्थश्राआनन्दमयन्थ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AJAN AAAAAAMAJANAJANADAASARAMANANAGAaranaamaAAAAAAAAAAAAAAAAAA wwwwwwview ३२६ धर्म और दर्शन क्रमशः छह, तेरह, उन्नीस, बाईस और तेईस भंगों से उनकी अपेक्षा के कारणों के साथ उत्तर दिया गया । (विशद जानकारी के लिए भगवतीमूत्र--१२-१०-४६६ देखिए।) इस सूत्र के अध्ययन से इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि विधि रूप और निषेध रूप इन दो विरोधी धर्मों को स्वीकार करने में ही स्याद्वाद के भंगों का उत्थान होता है। दो विरोधी धर्मों के आधार पर विवक्षाभेद से शेष भंगों की रचना होती है। सभी भंगों के लिए अपेक्षा कारण अवश्य होना चाहिए। इन्हीं अपेक्षाओं की सूचना के लिए प्रत्येक भंग-वाक्य में 'स्यात्' ऐसा पद रखा जाता है । स्याद्वाद के भंगों में से प्रथम चार अस्ति, नास्ति, अस्ति-नास्ति, अवक्तव्य -भंगों की सामग्री तो भगवान् महावीर के सामने थी। उन्हीं के आधार पर प्रथम चार भंगों की योजना भगवान ने की है। शेष भंगों की योजना भगवान की अपनी है, ऐसा प्रतीत होता है। आगमों में अवक्तव्य का तीसरा स्थान है। __ स्याद्वाद के भंगों में सभी विरोधी धर्मयुगलों को लेकर सात भंगों की (न कम, न अधिक की) जैन-दार्शनिकों द्वारा की गई योजना का कारण यह है कि भगवतीसूत्र के ऊपर संकेत किये गये सूत्र में त्रिप्रदेशी और उससे अधिक प्रदेशी स्कन्धों के भंगों की संख्या में मूल सात भंग वे ही हैं जो जैन-दार्शनिकों ने अपने सप्तभंगी के विवेचन में स्वीकृत किये हैं। जो अधिक भंगसंख्या बताई गई है, वह मौलिक भंगों के भेद के कारण नहीं किन्तु एकवचन, बहुवचन के भेद की विवक्षा के कारण ही है। यदि वचनभेद-कृत संख्यावृद्धि को निकाल दिया जाये तो मौलिक भंग सात ही रह जाते हैं। अतएव वर्तमान में प्रचलित स्याद्वाद के सप्तभंग आगमों में कहे गये सप्तभंगों के ही रूप हैं। सकलादेश-विकलादेश की कल्पना भी आगमिक सप्तभंगों में विद्यमान है। आगमों के अनुसार प्रथम तीन सकलादेशी भंग हैं और शेष विकलादेशी हैं। इस प्रकार आगमों में स्याद्वाद और भंगों का रूप देखने में आता है, जिसको उत्तरवर्ती आचार्यों ने विविध रूपों से व्याख्यान करके जन-साधारण के लिए सरल बना दिया और चिन्तनमनन हेतु विद्वानों को सही दृष्टिकोण किया। स्याद्वाद और अनेकान्तवाद यह पहले संकेत कर चुके हैं कि जैनदर्शन एक वस्तु में अनन्त धर्म मानता है और उन धर्मों में से व्यक्ति अपने इच्छित धर्मों का समय-समय पर कथन करता है । वस्तु में कथन किये जा सकने वाले वे सभी धर्म वस्तु के अन्दर विद्यमान हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि व्यक्ति अपनी इच्छा से उन-उन धर्मों का पदार्थ पर आरोपण करता है। वस्तु अनन्त या अनेक धर्मों के कारण ही अनन्तधर्मात्मक या अनेकान्तात्मक कही जाती है और अनेकान्तात्मक वस्तु का कथन करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता है। 'स्यात्' शब्द का अर्थ है कथंचित् । किसी एक दृष्टि से वस्तु इस प्रकार की कही जा सकती है और दूसरी दृष्टि से वस्तु का कथन दूसरे प्रकार से हो सकता है। यद्यपि वस्तु में वे सब धर्म हैं किन्तु इस समय हमारा दृष्टिकोण अमुक धर्म की ओर है, इसलिए वस्तु एतद्रप ज्ञात हो रही है। वस्तु केवल इस रूप में ही नहीं है, वह अन्य रूप में भी है, इस सत्य को व्यक्त करने के लिए स्यात् शब्द का प्रयोग किया जाता है। स्यात् शब्द के प्रयोग से ही हमारा वचन स्याद्वाद कहलाता है । 'स्यात्' पूर्वक जो 'वाद' कथन है, वह स्याद्वाद है। इसीलिए यह कहा जाता है कि अनेकान्तात्मक अर्थ का कथन स्याद्वाद है। स्याद्वाद को अनेकान्तवाद कहने का कारण यह है कि स्याद्वाद से जिस पदार्थ का कथन होता है वह अनेकान्तात्मक है । अनेकान्त अर्थ का कथन स्याद्वाद है। 'स्यात्' यह अव्यय अनेकान्त माता हा Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन ३२७ rurn का द्योतक है, इसलिए स्याद्वाद को अनेकान्तवाद कह सकते हैं । स्याद्वाद और अनेकान्तवाद दोनों एक ही हैं। स्याद्वाद में स्यात् शब्द की प्रधानता है और अनेकान्तवाद में अनेकान्त धर्म की मुख्यता है। स्यात् शब्द अनेकान्त का द्योतक है। अनेकान्त को अभिव्यक्त करने के लिए स्यात् शब्द का प्रयोग किया जाता है। जैन-दार्शनिकों ने अपने ग्रन्थों में इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग किया है और इस प्रयोग के पीछे जो हेतु रहा हुआ है, वह है वस्तु की अनेकान्तात्मकता । यह अनेकान्तात्मकता अनेकान्त शब्द से भी प्रकट होती है और स्याद्वाद शब्द से भी। वैसे देखा जाये तो स्याद्वाद शब्द का प्रयोग अधिक प्राचीन मालूम होता है, क्योंकि आगमों में स्यात् शब्द का प्रयोग अधिक देखने में आता है। उसमें वस्तु की अनेक रूपता का प्रतिपादन करने के लिए 'सिय' (स्यात्) शब्द का प्रयोग किया गया है। यद्यपि अनेकान्तवाद स्याद्वाद का स्थूलतः पर्यायवाची शब्द कहा जाता है, फिर भी दोनों में वह अन्तर है कि स्याद्वाद भाषादोष से बचाता है और अनेकान्तवाद चिन्तन को निर्दोष घोषित करता है । दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि अनेकान्तवाद पूर्वक स्याद्वाद होता है, क्योंकि निर्दुष्ट चिन्तन के बिना दोष-मुक्त (निर्दोष) भाषा का प्रयोग सम्यक् रीति से नहीं हो सकता । अनेकान्त वाच्य और स्याद्वाद वाचक है । स्याद्वाद भाषा की वह निर्दोष प्रणाली है, जिसके माध्यम से दूसरे के दृष्टिकोण का समादर किया जाता है। स्याद्वाद-साहित्य का विकास : ऐतिहासिक दृष्टि यह पहले संकेत किया जा चुका है कि स्याद्वाद मूलक सात भंगों के नाम कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय और प्रवचनसार नामक ग्रन्थों में दिखलाई पड़ते हैं । वहाँ सात भंगों के केवल नाम एक गाथा में गिना दिये गये हैं । जान पड़ता है कि इस समय जैन आचार्य अपने सिद्धान्तों पर होने वाले प्रतिपक्षियों के तर्कप्रहार से सतर्क हो गये और इसीलिए स्याद्वाद को तार्किक रूप देकर जैन सिद्धान्तों की रक्षा के लिए प्रयत्नशील होने लगे थे । स्याद्वाद को प्रस्फुटित करने वाले जैन आचार्यों में ईसवी सन् की चौथी शताब्दी के अपूर्व प्रतिभाशाली, उच्चकोटि के दार्शनिक विद्वान सिद्धसेन दिवाकर और समन्तभद्र का नाम सबसे महत्त्वपूर्ण है। इन विद्वानों ने जैन तर्कशास्त्र पर सन्मतितर्क, न्यायावतार, युक्त्यनुशासन, आप्तमीमांसा, आदि स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना की हैं। सिद्धसेन और समन्तभद्र ने अनेक प्रकार के दृष्टान्तों और नयों के सापेक्ष वर्णन से स्याद्वाद का अभूतपूर्व ढंग से प्रतिपादन किया है तथा अन्य दार्शनिकों की दृष्टियों को अनेकान्तदृष्टि के अंश प्रतिपादित कर अपनी सर्व-समन्वयात्मक उदार भावना का परिचय दिया है। - इसके बाद ईसा की चौथी-पांचवीं शताब्दी में मल्लवादी और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण नामक विद्वानों का प्रादुर्भाव हुआ। मल्लवादी ने अनेकान्तवाद का प्रतिपादन करने के लिए नयचक्र आदि ग्रन्थों की रचना की और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य आदि ग्रन्थ बनाये । जिनभद्र ने प्रायः सिद्धसेन दिवाकर की शैली का ही अनुसरण किया है।। इन विद्वानों के पश्चात् ईसा की आठवीं-नौवीं शताब्दी में अकलंक और हरिभद्र के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन विद्वानों ने स्याद्वाद का नाना प्रकार से ऊहापोहात्मक, सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचन कर उसको सांगोपांग एवं परिपूर्ण बनाया । इस समय प्रतिपक्षियों द्वारा अनेकान्तवाद पर अनेक प्रकार के प्रहार होने लगे थे। कोई अनेकान्त को संशय कहते, कोई केवल छल का रूपान्तर और इसमें विरोध, अनवस्था आदि दोषों का प्रतिपादन कर उसका खण्डन करते थे। ऐसे समय में अकलंक और हरिभद्र ने तत्वार्थ-राज-वार्तिक, सिद्धविनिश्चय, अनेकान्त नया ...... Orana,AMAJIRALANRA amadARANAAAAAAAAAAAAAENManahartAJALAIMINAAMGODADARPAN आचार्यप्रवरaआभआचार्यप्रवआभार श्रीआनन्दसन्यश्रीआनन्दमयन्य 22 Poweeveenwoman-Mancam Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AmAAAAAAAMAAJAARIAJIRAKSHANKARIAAJALMAGraminim umARMAIIANADABAJAJANAMAAJMJADAJABARADASAJANATAJANATANABAJANAS ३२८ धर्म और दर्शन जयपताका, शास्त्र वातांपमुच्चय आदि ग्रंथों का निर्माण कर योग्यता पूर्वक उक्त दोषों का निवारण किया और अनेकान्तवाद की जय-पताका फहराई। ईसा की नौवीं शताब्दी में विद्यानन्द और माणिक्यनन्दि सुविख्यात विद्वान हो गये हैं। विद्यानन्द अपने समय के बड़े भारी नैयायिक थे। इन्होंने कुमारिल भट्ट आदि वैदिक विद्वानों के जैन-दर्शन पर होनेवाले आक्षेपों का बड़ी योग्यता से परिहार किया है। विद्यानन्द ने तत्वार्थ-श्लोकवातिक, अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा आदि ग्रन्थों की रचना करके अनेक प्रकार से तार्किक शैली द्वारा स्यावाद का प्रतिपादन और समर्थन किया । माणिक्यनन्दि ने सर्व-प्रथम जैन न्याय को परीक्षामुख के सूत्रों में गंथ कर अपनी अलौकिक प्रतिभा का परिचय दिया और जैन-न्याय को समुन्नत बनाया। ईसा की दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में होने वाले प्रभाचन्द्र और अभयदेव महान् तार्किक विद्वान थे। इन विद्वानों ने सन्मतितर्क टीका (वादमहार्णव), प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचंद्रोदय आदि ग्रन्थों की रचना कर जैन न्यायकोष की भी वृद्धि की है । इन्होंने सौत्रांतिक, वैभाविक, विज्ञानवाद, शून्यवाद, ब्रह्माद्वैत शब्दाद्वैत आदि वादों का समन्वय करके स्यावाद का नैयायिक पद्धति से प्रतिपादन किया। इसके पश्चात् ईसा की बारहवीं शताब्दी में वादिदेवसूरि और कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्र का नाम आता है । वादिदेव वाद-शक्ति में असाधारण माने जाते हैं। वादिदेव ने स्याद्वाद का स्पष्ट विवेचन करने के लिए प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, स्याद्वाद-रत्नाकर आदि ग्रन्थ लिखे । हेमचंद्र अपने समय के असाधारण विद्वान थे। उन्होंने अन्ययोगव्यवच्छेदिका, अयोग-व्यवच्छेदिका, प्रमाणमीमांसा आदि ग्रंथों की रचना करके स्याद्वाद की सिद्धि से जैन-दर्शन के सिद्धान्तों को पल्लवित किया। ईसवी सन् की सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी में उपाध्याय यशोविजय जी और पंडित विमल'दास जैनदर्शन के विख्यात विद्वान् हो गये हैं। उपाध्याय जी जैन परम्परा में लोकोत्तर प्रतिभा के धारक एवं असाधारण विद्वान् थे। इन्होंने योग, साहित्य, प्राचीन न्याय आदि का पांडित्य प्राप्त करने के साथ नव्य-न्याय का भी पारायण किया था। आपने शास्त्र-वार्ता-समुच्चय की स्याद्वादकल्पलता टीका, नयोपदेश, नय-रहस्य, नय-प्रदीप, न्याय खंड-खाद्य, न्यायालोक, अष्टसहस्री-टीका आदि अनेक ग्रंथों की रचना की है। पंडित विमलदास ने नव्य-न्याय का अनुकरण करने वाली भाषा में सप्तभंगीतरंगिणी नामक स्वतंत्र ग्रंथ की संक्षिप्त और सरल भाषा में रचना करके एक विशेष कार्य की पूर्ति की है। पूर्वोक्त विद्वानों के अतिरिक्त अन्यान्य भी अनेक प्रभावक विद्वानों ने स्यावाद सिद्धान्त के प्रतिपादक ग्रंथों की रचना की है और जैन-दर्शन के रूप को व्यापक बनाया है। पूर्वोक्त परिशीलन से यह भलीभांति समझ में आ जाता है कि यदि पदार्थ के स्वभाव को समझना है और ज्ञान का सही मूल्यांकन करना है तो अनेकान्तमयी स्याद्वाद दृष्टि को अपनाना चाहिये । क्योंकि साधारण मनुष्य की शक्ति अत्यल्प है और बुद्धि परिमित है। इसलिये हम अपनी छमस्थ दशा में हजारों-लाखों प्रयत्न करने पर भी ब्रह्माण्ड के असंख्य पदार्थों का ज्ञान करने में असमर्थ रहते हैं। स्याद्वाद यही प्रतिपादन करता है कि हमारा ज्ञान पूर्ण सत्य नहीं कहा जा सकता है, वह पदार्थों की अमुक अपेक्षा को ही लेकर होता है, इसलिये हमारा ज्ञान आपेक्षिक सत्य है । प्रत्येक पदार्थ में अनन्त धर्म है, इन अनन्त धर्मों में से हम एक समय में कुछ धर्मों का ही ज्ञान कर सकते हैं और दूसरों को भी कुछ धर्मों का प्रतिपादन कर सकते हैं। स्याद्वाद की शैली सहानुभूतिमय है इसलिये उममें समन्वय की क्षमता है। उसकी मौलिकता यही है कि पड़ोसी वादों को उदारता के साथ स्वीकार करता है, लेकिन उनको उसी रूप Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन ३२६ में नहीं, उनके साथ रहने वाले आग्रह के अंश को छांटकर उन्हें वह अपना अंग बनाता है। स्याद्वाद दुराग्रह के लिये नहीं, किन्तु ऐसे आग्रह के लिये संकेत करता है, जिसमें सम्यक् ज्ञान के लिये अवकाश हो। सच्चा स्याद्वादी सहिष्णु होता है, वह राग-द्वेष रूप आत्मविकारों पर विजय पाने के लिये सतत प्रयत्नशील रहता है। वह दूसरों के सिद्धान्तों को आदर की दृष्टि से देखता है और मध्यस्थभाव से संपूर्ण विरोधों का समन्वय करता है। इसीलिये षड्-दर्शनों को जिनेन्द्र भगवान के अंग कहकर परम योगी आनन्दघन जी ने 'आनन्दघन चौबीसी' में इस भाव को निम्न प्रकार से व्यक्त किया है 'षट् दरसण जिन अंग भणीजे, न्याय षडंग जो साधे रे। नमि जिनवरना चरण उपासक, षट्दर्शन आराधे रे ॥१॥ जिन सुर पादप पाय बखाणं, सांख्य जोग दोय भेदे रे। आतम सत्ता विवरण करता, लही दुग अंग अखेदे रे ॥२॥ भेद अभेद सुगत मीमांसक, जिनवर दोय कर भारी रे । लोकालोक अवलंबन भजिये, गुरुगमथी अवधारी रे ॥३॥ लोकायतिक कूख जिनवरनी, अंश विचार जो कीजे । तत्व विचार सुधारस धारा, गुरुगम विण केम पीजे ॥४॥ जैन जिनेश्वर उत्तम अंग, अंतरंग बहिरंगे रे । अक्षर न्यास धरा आराधक, आराधे धरी संगे रे ॥५॥. स्याद्वाद केवल दार्शनिक चिन्तन, कथन की प्रणाली ही नहीं है, अपितु प्रतिदिन जीवनव्यवहार में भी हम स्याद्वाद का प्रायोगिक रूप देखते हैं और उसके कथन के अनुरूप कार्य-प्रवृत्ति भी देखते हैं। फिर भी यह आज की विडंबना है कि स्याद्वाद-प्रणाली का उपयोग करते हुए भी उसकी शैली का नामोल्लेख नहीं करते हैं। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि स्याद्वाद चिन्तन की प्रक्रिया के साथ-साथ स्वस्थ, स्वच्छ आचार की भी प्राथमिक भूमिका है। स्याद्वाद के संबंध में अपनी शक्ति, क्षमता, बुद्धि से किये गये यत्किचित् संकेत को ज्ञानसागर के अंशमात्र का कथन मानता हूँ। प्रयास की सफलता का समग्र श्रेय गुरुजनों को है, और इसमें कुछ त्रुटि रह गई हो तो अपनी अज्ञता के लिये क्षमा-प्रार्थी हूँ । विज्ञजन संशोधन कर प्रमादगत स्खलना से अवगत करावें, जिससे परिमार्जन कर तथ्य को समझ सकें । विज्ञेषु किमधिकम् । RUARKARIN AMJAAAAAAD AAAAAAAAAABEANIJABADASHAIRJARDAMAImaniauranium AIABAmavasa n a आचारसभाचार्यप्रसा श्रीआनन्द अयश्रीआनन्दप्रसन्न MwwwxYYIWAN Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARMAAAAAP MALAAAAMKARAwaalasedawaisinusan-ANANARMintaalanadJANABMARArarts - em witya.varuwave श्रीमती पुष्पलता जैन, एम. ए. (हिन्दी, भाषाविज्ञान) (नागपुर) जैन रहस्यवाद बनाम अध्यात्मवाद सृष्टि के सर्जक तत्त्व अनादि और अनन्त हैं। उनकी सर्जनशीलता प्राकृतिक शक्तियों के संगठित रूप पर निर्भर करती है। पर उसे हम प्रायः किसी अज्ञात शक्ति-विशेष से सम्बद्ध कर देते हैं, जिसका मूल कारण मानसिक दृष्टि से स्वयं को असमर्थ स्वीकार करना है। इसी असामर्थ्य में सामर्थ्य पैदा करने वाले 'सत्यं, शिवं, सुन्दरं' तत्त्व की गवेषणा और स्वानुभूति की प्राप्ति के पीछे हमारी रहस्यभावना एक बहुत बड़ा सम्बल है । यही रहस्य-भावना एक गुह्य तत्त्व है। धर्म और रहस्यभावना ___ गुह्य तत्त्वों का सम्बन्ध पराबौद्धिक ऋषि-महर्षियों की गुह्य-साधना को पराकाष्ठा और उसकी विशुद्ध तपस्या से जुड़ा हुआ है । प्रत्येक दृष्टा के साक्षात्कार की दिशा, अनुभूति और अभिव्यक्ति समान नहीं हो सकती । अन्य प्रत्यक्ष-दशियों की अपेक्षा पृथक होने की ही सम्भावना अधिक रहा करती है। फिर भी लगभग समान मार्गों को किसी एक पन्थ या सम्प्रदाय से जोड़ा जाना भी अस्वाभाविक नहीं। जिस मार्ग को कोई चुम्बकीय व्यक्तित्व प्रस्तुत कर देता है, उससे उसका चिरन्तन सम्बन्ध जुड़ जाता है। आगामी शिष्य-परम्परा उसी मार्ग का अनुसरण करती रहती है। यथासमय इसी मार्ग को अपनी परम्परा के अनुकूल कोई नाम दे दिया जाता है और अन्त में हम अपनी भाषा में धर्म भी कहने लगते हैं। इसी प्रकार रहस्यभावना के साथ धर्म का अविनाभाव सम्बन्ध स्थापित कर कालान्तर में उसे भिन्न-भिन्न धर्मों की सीमा में बाँध दिया जाता है। रहस्य शब्द का अर्थ 'रहस्य' शब्द 'रहस्' पर आधारित है। 'रहस्' शब्द 'रह' त्यागार्थक धातु में असुन् प्रत्यय लगाने पर बनता है। तदनन्तर यत् प्रत्यय जोड़ने पर रहस्य शब्द निर्मित होता है, जिसका विग्रह होगा-रहसि भवं रहस्यम् । २ अर्थात् रहस्य एक ऐसी मानसिक प्रतीति अथवा अनुभूति है जिसमें साधक ज्ञेय वस्तु के अतिरिक्त ज्ञेयान्तर वस्तुओं की वासना से असंपृक्त हो जाता है। 'रहस्' शब्द का द्वितीय अर्थ विविक्त, विजन, छन्न, निःशलाक, रहः, उपांशु और एकान्त है। विजन में होने वाले को रहस्य कहते हैं (रहसिभवं रहस्यम्) । गुह्य अर्थ में भी रहस्य शब्द १ सर्वधातुभ्योऽसुन् (उणादिसूत्र-चतुर्थपाद)। २ तत्र भवः दिगादिभ्यो यत् (पाणिनि सूत्र ४.३.५३,५४)। ३ विविक्त विजनः छन्नानिः शलाकास्तथा रहः । रहस्योपांशु चालिगे रहस्यं तद्भवे त्रिषु ।। -अमरकोश, २.८, २२-२३, अभिधान चिन्तामणि कोश, ७४१ । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन रहस्यवाद बनाम अध्यात्मवाद ३३१ का प्रयोग हुआ है । श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों में रहस्य शब्द का विशेष प्रयोग दिखाई देता है। वहां एकान्त अर्थ में "योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थित: ( ६.१०) तथा मर्म अर्थ में "भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदमुत्तनम्" और गुह्यार्थ में " गुह्याद् गुह्यतरं ( १८.६३) परमगुह्य (१८.३८) आदि की अभिव्यक्ति हुई है । इसी रहस्य को आध्यात्मिक क्षेत्र में अनुभूति के रूप में प्रस्फुटित किया गया है और काव्यात्मक क्षेत्र में रस के रूप में । रहस्य के अन्त में दोनों क्षेत्रों के मर्मज्ञों ने स्वानुभूति को चिदानन्द चैतन्य अथवा ब्रह्मानन्द सहोदर नाम समर्पित किया है । साधक और कवि की रहस्यभावना साधक और कवि की रहस्य - भावना में किञ्चित् अन्तर है । साधक रहस्य का स्वयं साक्षात्कार करता है, पर कवि उसकी भावात्मक भावना करता है। यह आवश्यक नहीं कि योगी कवि नहीं हो सकता अथवा कवि योगी नहीं हो सकता । काव्य का सम्बन्ध भाव से विशेष होता है। और साधक की रहस्यानुभूति भी वहीं से जुड़ी हुई है । अतः यह प्रायः देखा जाता है कि उक्त दोनों व्यक्तित्व समरस होकर आध्यात्मिक साधना करते रहे हैं । यही कारण है कि योगी कवि हुआ है और कवि योगी हुआ है। दोनों ने रहस्यभावना की भावात्मक अनुभूति को अपना स्वर दिया है । प्रस्तुत निबन्ध में हमने उक्त दोनों व्यक्तित्वों की सजगता को परखने का प्रयत्न किया है । इसलिए रहस्यवाद के स्थान पर हमने रहस्यभावना शब्द को अधिक उपयुक्त माना है । भावना अनुभूतिपरक होती है और वाद का सम्बन्ध अभिव्यक्ति और दर्शन से अधिक होता है। अनुभूति असीमित होती है और वाद किसी धर्म, सम्प्रदाय अथवा साहित्य से सम्बद्ध होकर ससीमित हो जाता है । इस अन्तर के होते हुए भी रहस्य - भावना का सम्बन्ध अन्ततोगत्वा चूंकि किसी साधनाविशेष से सम्बद्ध रहता है इसलिए वह भी कालान्तर में अनुभूति के माध्यम से एक वाद बन जाता है । रहस्यवाद : अभिव्यक्ति और प्रयोग रहस्यवाद को अंग्रेजी में Mysticism कहा जाता है । यह शब्द ग्रीक के Mystikas शब्द से उद्भूत हुआ है, जिसका अर्थ है - किसी गुह्य ज्ञान की प्राप्ति करने के लिए दीक्षित शिष्य । उस दीक्षित शिष्य द्वारा व्यक्त उद्गार अथवा सिद्धान्त को Mystesism कहा गया है । इस शब्द का प्रयोग अंग्रेजी साहित्य में सन् १६०० के आसपास हुआ है । ६ जहाँ तक हिन्दी साहित्य का प्रश्न है, रहस्यवाद शब्द का प्रयोग उसमें पाश्चात्य साहित्य के इसी अंग्रेजी शब्द Mysticism के रूपान्तर के रूप में प्रयुक्त हुआ । इसका सर्वप्रथम प्रयोग आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने सन् १९२७ में सरस्वती पत्रिका के मई अंक में किया था । लगभग इसी समय अवध उपाध्याय तथा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी इस शब्द का उपयोग किया था । जैसा ऊपर हम देख चुके हैं प्राचीनकाल में 'रहस्य' जैसे शब्द साहित्यिक क्षेत्र में आ चुके थे पर उसके पीछे अधिकांशतः अध्यात्मरस में सिक्त साधनापथ जुड़ा हुआ था । उसकी अभिव्यक्ति ४ गुह्य रहस्यं । - अभिधान चिन्तामणि कोश, ७४२ । ५ The concise Oxford Dictionary, p. 782. (word-Mystic.) Oxford 1961. अनन्देल का अंग्रेजी शब्दकोश भी देखिए । Bonquet, p.c. Comperative Religion ( Petiean series, 1953) p. 286. ६ ज्ञा 350 डॉ आचार्य प्रव आचार्य प्रव अभिनन्दन श्री आनन्दत्र श्री आनन्दत्र ग्रन्थ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाय प्रवल अभिनंदन श्री आनन्द ॐ 571 डॉ. 乐 आचार्य प्रवर अभिनंदन अन्थ श्री आनन्द अन्थ धर्म और दर्शन ३३२ भले ही किसी भाव और भाषा में होती रही हो पर उनकी सहजानुभूति सार्वभौमिक रही है। जहाँ तक उसकी अभिव्यक्ति का प्रश्न है, उसे निश्चित ही साक्षात्कार कर्ता गूंगे के गुड़ की भांति पूर्णत: व्यक्त नहीं कर पाता । अपनी अभिव्यक्ति में सामर्थ्यं लाने के लिए यह तरह-तरह के साधन अवश्य खोजता है। उन साधनों में हम विशेष रूप से संकेतमयी और प्रतीकात्मक भाषा को ले सकते हैं । ये दोनों साधन साहित्य में भी मिल जाते हैं । यद्यपि रहस्यवाद जैसा शब्द प्राचीन भारतीय योगसाधनाओं में उपलब्ध नहीं होता, पर रहस्य शब्द का प्रयोग अथवा उसकी भूमिका का विनियोग वहाँ सदैव से होता रहा है । इसलिए भारतीय साहित्य के लिए यह कोई नवीन तथ्य नहीं रहा । अतः प्राचीन भारतीय काव्य में पाश्चात्य रहस्यवाद की परिभाषा को शब्दशः खोजना उपयुक्त नहीं है उसका तद्रूप में पाया जाना यहाँ सम्भव भी नहीं जिस रहस्यवाद शब्द का प्रयोग १२वीं शताब्दी में प्रारम्भ में हुआ, उसकी भावधारा को उसके पूर्व उसी रूप में कैसे प्राप्त किया जा सकता है? और फिर यदि सांस्कृतिक और भौगोलिक भिन्नता हो, तब तो और भी कठिन हो जाता है । साधारण समानतायें मिलना दूसरी बात है और उन्हीं को आधार बना लेना दूसरी बात है। अतः पाश्चात्य रहस्यवाद को भारतीय अध्यात्मवाद में ढूंढ़ना उचित नहीं कहा जा सकता । रहस्यभावना का वैभिन्य रहस्यभावना का सम्बन्ध चरम तत्त्व को प्राप्त करने से रहा है और चरम तत्त्व का सम्बन्ध किसी एक धर्म अथवा योगसाधना विशेष से रहना सम्भव नहीं इसलिए रहस्यभावना की पृष्ठभूमि में साधक की जिज्ञासा और उसका आचरित सम्प्रदाय विशेष महत्त्व रखता है । सम्प्रदायों और उनके आचारों का वैगिन्य स्वभावतः विचारों और साधनाओं में विभिन्नता पैदा कर देता है । इसलिए साधारण तौर पर आज जो यह मान्यता है कि रहस्यवाद का सम्बन्ध भारतीय साधनाओं में मात्र वैदिक-साधना में ही है. गलत है। प्रत्येक सम्प्रदाय का साधक अपने किसी-नकिसी आप्तपुरुष में अद्वैत तत्त्व की स्थापना करने की दृष्टि से उनके ही द्वारा निर्दिष्ट पथ का अनुगमन करता है और अलौकिक स्वसंवेद्य अनुभवों और रहस्य भावों को प्रतीक आदि माध्यम से अभिव्यक्त करने का प्रयत्न करता है। यही कारण है कि आधुनिक रहस्यवाद की परिभाषा में भी मतवैभिन्न्य देखा जाता है । ज्ञान इसके बावजूद अधिकांश साधनाओं में इतनी समानता दिखाई देती है कि जैसे वे हीनाधिक रूप से किसी एक की सम्प्रदाय से सम्बद्ध हों। यह अस्वाभाविक भी नहीं, क्योंकि प्रत्येक साधक का मूल लक्ष्य उस अदृष्ट शक्तिविशेष को आत्मसात करना है। उसकी प्राप्ति में दर्शन, और चारित्र की समन्वित त्रिवेणी धारा का पवित्र प्रवाह अपेक्षित है। रहस्यभावना की भूमिका में इन तीनों का संगम है। परम सत्य या परमात्मा से आत्मसाक्षात्कार के स्वरूप का वर्णन सभी साधक एक जैसा नहीं कर सके, क्योंकि वह अनादि, अनन्त और सर्वव्यापक है और उसकी प्राप्ति के मार्ग भी अनन्त हैं । अतः अनेक कथनों से उसे व्यंजित किया जाना स्वाभाविक है । उनमें जैनदर्शन के अनुसार किसी का भी कथन गलत नहीं कहा जा सकता। रहस्यभावना में वैभिरन्य छन्द से इसी भाव को पाये जाने का यही कारण है। संभवतः पदमावत में जायसी ने निम्न दर्शाया है "विधना के मारग हैं तेते । सरग नखत तन रोवां जेते ।। " इस वैभिन्य के होते हुए भी सभी का लक्ष्य एक ही रहा है--परम- सत्य की प्राप्ति और परमात्मा से आत्मसाक्षात्कार । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन रहस्यवाद बनाम अध्यात्मवाद ३३३ रहस्यवाद की परिभाषा जहाँ वाद होता है वहाँ विवाद की शृंखला तैयार हो जाती है। आत्मसाक्षात्कार से की गई योगसाधना के साथ भी वाद जुड़ा और रहस्यवाद की परिभाषा में अनेकरूपता आई। इसलिए साहित्यकारों ने रहस्यभावना को कहीं दर्शनपरक माना और कहीं साधनापरक । कहीं भावात्मक (प्रेमप्रधान) तो कहीं प्रकृतिमूलक, कहीं यौगिक तो कहीं अभिव्यक्तिमूलक । परिभाषाओं का यह वैविध्य उसकी अनुभूति की विभिन्नता पर ही आधारित रहा है। इतना ही नहीं, कुछ विद्वानों ने तो रहस्यभावना का सम्बन्ध चेतना, संवेदन, मनोवृत्ति और चमत्कारिता से भी जोड़ने का प्रयत्न किया है। इसलिए आज तक रहस्यवाद की परिभाषा सर्वसम्मत नहीं हो सकी। भारतीय और भारतीयेतर विद्वानों द्वारा प्रस्तुत रहस्यवाद की विविध परिभाषाओं का उल्लेख करना, यहाँ विस्तार के भय से संभव नहीं है । मात्र हम उनका नामोल्लेख कर सकते हैं। पाश्चात्य विद्वानों में Albert Forges, Nettleship, walter Stace, Pfleiderer,१० • Pringle Panthison,११ E. Caird,१२ W. E. Hocking,१3 William James,१४ Von Hastman,१५ Ku. Underhill,१६ Frank Gayner १७ प्रभृति विद्वानों के नाम उल्लेखनीय हैं। इनमें अंडरहिल, हाकिंग और फ्रेंक गैनार को छोड़कर शेष सभी विद्वानों की परिभाषायें मनोदशा से विशेष सम्बद्ध हैं। उन्होंने स्वानुभूति को किसी साधना-विशेष से नहीं जोड़ा। अंडरहिल, हाकिंग और फ्रेंक गैनार की परिभाषायें रहस्यवाद की सही स्थिति पर विचार करती हुई दिखाई देती हैं । रहस्यवाद को हम केवल मनोदशा से ही नहीं जोड़ सकते, वह तो वस्तुतः किसी एक साधनापथ पर आचरित होकर आत्मसाक्षात्कार करने का एक मार्ग है। भारतीय विद्वानों में राधाकृष्णनन, ८ महेन्द्रनाथ सरकार,१६ राधाकमल मुकर्जी,२० वासुदेव जगन्नाथ कीर्तिकर,२१ रानाडे,२२ रामचन्द्र शुक्ल, जयशंकर प्रसाद,२४ रामकुमार वर्मा,२५ महादेवी मा ७ Mystical Phenomena (London, 1926.) p. 3. Mysticism in Religion by Dr. W. R. Inge (Newyark) p. 25. E The teachings of the mystics (Newyark, 1960) p. 238. १० Mysticism in Religion by Dean. Inge. p. 25. ११ Mysticism in Religion by Inge. p. 25. १२ वही p. 25. १३ 'रहस्यवाद', परशुराम चतुर्वेदी से उद्धत, पृ० २० १४ The Varieties of Religious Experience a study in Human Nature (Long mans 1929) p. p. 379. 429 १५ भक्तिकाव्य में रहस्यवाद, पृ० १२. १६ वही पृ० १३ (Practical Mysticism by Under Hill. p. 3) १७ 'Mysticism Dictionaries' by Frank Gayner. १८ Eastern Religion and western thoughts., p. 61. १६ Mysticism in Bhagavad Gita (Calcutta 1944) p. 1 (Preface) २० Mysticism theory and Art, P.XII. २१ Studies in Vedanta. Bombay. 1924. p. p. 150-160. २२ Mysticism in Maharashtra, p. p. 1. 2. २३ काव्य में रहस्यवाद (आ० रामचन्द्र शुक्ल) २४ काव्य, कला तथा अन्य निबन्ध-प्रसाद २५ कबीर का रहस्यवाद, पृ० ६ (डा. रामकुमार वर्मा) चय शाचाप्राचार्य आनका ग्रन्थ श्रीआनन्दन्थ wwwvieomara mewwwammam mama Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रवर अभिनन्दन आआनन्द आयाम प्रवर श्री आनन्द 鞠 ܐ ३३४ धर्म और दर्शन वर्मा, २६ परशुराम चतुर्वेदी, २७ हजारीप्रसाद द्विवेदी, २८ प्रेमसागर जैन, २६ नेमिचन्द्र शास्त्री, कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, ३१ त्रिगुणायत, ३२ रूपनारायण पाण्डेय, 33 वासुदेवसिंह ३४ आदि विद्वानों के नाम उल्लेखनीय हैं। इनमें कतिपय परिभाषाओं को छोड़कर शेष परिभाषाओं में विद्वानों ने रहस्यवाद को किसी एक दृष्टिकोण को लेकर विचार किया है। किसी ने उसे समाजपरक माना है। तो किसी ने विचारपरक, किसी ने अनुभूतिजन्य माना है तो किसी ने ज्ञानजन्य । किसी ने आचारप्रधान माना है तो किसी ने अध्यात्मप्रधान, किसी ने उसकी परिभाषा को विशुद्ध मनोविज्ञान पर आधारित किया है तो किसी ने दर्शन पर, किसी ने उसे जीवनदर्शन माना है तो किसी ने उसे व्यवहारप्रधान बताया है। अतः परिभाषा को एकाङ्गिता के संकीर्ण दायरे से हटाकर उसे सर्वाङ्गीण न की दृष्टि से हम अपनी परिभाषा प्रस्तुत करने का प्रयत्न करते हैं । "रहस्यभावना एक ऐसा आध्यात्मिक साधन है जिसके माध्यम से साधक स्वानुभूतिपूर्वक आत्मतत्त्व से परमतत्त्व में लीन हो जाता है ।" यही रहस्यभावना अभिव्यक्ति के क्षेत्र में आकर 'रहस्यवाद' कही जा सकती है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि अध्यात्म की चरमोत्कर्ष अवस्था की अभिव्यक्ति का नाम रहस्यवाद है । परिभाषा का विश्लेषण इस परिभाषा में हम रहस्यवाद की प्रमुख विशेषताओं को इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं १. रहस्यभावना एक आध्यात्मिक साधन है । अध्यात्म से तात्पर्य तत्त्वचिन्तन है, जिसमें व्यक्ति सम्यक्चारित्र का परिपालन करता हुआ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की आराधना करता है । ^ अभिनंदन श्र २. स्वानुभूति - रहस्यवाद की अन्यतम विशेषता है स्वानुभूति । बिना स्वयं की प्रत्यक्ष अनुभूति के साधक साध्य को प्राप्त नहीं कर सकता। इसी को हम शास्त्रीय भाषा में सम्यग्दर्शन कह सकते हैं । अनुभूति के उपरान्त ही श्रद्धा दृढ़तर होती चली जाती है । . ३. आत्मतत्त्व - आध्यात्मिक साधना का केन्द्र है । संसरण का मूलकारण है आत्मतत्त्व पर सम्यक् विचार का अभाव । आत्मा का मूल स्वभाव क्या है ? और वह मोहादि विकारों से किस प्रकार जन्मान्तरों में भटकता है ? इत्यादि जैसे प्रश्नों का समाधान खोजने का प्रयत्न किया जाता है । ४. परमपद में विलीन हो जाना रहस्यवाद की प्रमुख अभिव्यक्ति है । इसमें साधक आत्मा की इतनी पवित्र अवस्था तक पहुँच जाता है कि वह स्वयं परमात्मा बन जाता है । आत्मा और परमात्मा का एकाकारत्व एक ऐसी अवस्था है, जहाँ साधक समस्त दुःखों से विमुक्त होकर २६ महादेवी का विवेचनात्मक गद्य २७ रहस्यवाद, पृ. २५. २८ हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ, पृ. ४३८ / २९ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. ४ ( भाग २ ) / ३० हिन्दी साहित्य : एक परिशीलन ३१ हिन्दी पद-संग्रह, प्रस्तावना, पृ. २० ३२ कबीर की विचारधारा ३३ भक्तिकाव्य में रहस्यवाद, पृ. ३४६ ३४ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद, पृ. १३ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन रहस्यवाद बनाम अध्यात्मवाद ३३५ CBAD ADHA अनिर्वचनीय शाश्वत चिदानन्द चैतन्यरस का पान करने लगता है। इसीको शास्त्रीय परिभाषा में हम निर्वाण अथवा मोक्ष कहते हैं। रहस्यवाद की उक्त परिभाषा में अध्यात्म और दर्शन विशेष महत्त्व रखता है। अध्यात्मतत्त्व स्वयं में एक गुह्य तत्त्व है, जिसके निरावृत होने पर अपवर्ग की प्राप्ति हो जाती है । इस गृह्य तत्त्व का सम्बन्ध समूची सृष्टिप्रक्रिया से है, जो अनादि और अनन्त है और जिसका कर्ता-हर्ताधर्ता ईश्वर जैसा कोई व्यक्ति नहीं है, उसका कर्तृत्व और जीवन-संचालन भी रहस्य बना हुआ है। रहस्यवाद और अध्यात्मवाद अध्यात्म अन्तस्तत्त्व की निश्छल गति-विधि का रूपान्तर है। उसका साध्य परमात्मा का साक्षात्कार और उससे एकरूपता की प्रतीति है। यह प्रतीति किसी-न-किसी साधनाफ्थ अथवा धर्म पर आधारित हुए बिना सम्भव नहीं। साधारणतः विद्वानों का यह मत है कि धर्म या सम्प्रदाय को रहस्यवाद के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता, क्योंकि धर्म और सम्प्रदाय ईश्वरीयशास्त्र (Beology) के साथ जुड़ा रहता है। इसमें विशिष्ट आचार, बाह्य पूजन-पद्धति, साम्प्रदायिक व्यवस्था आदि जैसी बातों की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है, जो रहस्यवाद के लिए उतने आवश्यक नहीं। ३५ चतुर्वेदीजी का यह कथन तथ्यसंगत प्रतीति नहीं होता। ईश्वरीय शास्त्र का सम्बन्ध प्रत्येक धर्म अथवा सम्प्रदाय से उस रूप में नहीं, जिस रूप में वैदिक तथा ईसाई धर्म में है । जैन तथा बौद्ध दर्शन में ईश्वर को सृष्टि का कर्ता-हर्ता-धर्ता नहीं माना गया। साथ ही बाह्य पूजनपद्धति, कर्मकाण्ड आदि का सम्बन्ध भी जैन, बौद्ध धर्मों के मूल रूपों में नहीं मिलता। ये तत्त्व तो श्रद्धा और भक्ति के विकास के सूचक हैं। उक्त धर्मों का मूल तत्त्व तो संसरण के कारणों को दूर कर निर्वाण की प्राप्ति करना है। इसी को हम तत्तद् धर्मों का रहस्यवाद भी कह सकते हैं। रहस्यवाद का सम्बन्ध, जैसा हम पहले कह चुके हैं, किसी-न-किसी धर्म-विशेष से अवश्य रहेगा। ऐसा लगता है, अभी तक भारतीय रहस्यवाद की व्यवस्था और उसकी परिभाषा मात्र वैदिक दर्शन और संस्कृति को मानदण्ड मानकर की जाती रही है। ईसाई धर्म भी इस सीमा से बाहर नहीं है। इन धर्मों में ईश्वर को कर्ता आदि स्वीकार किया गया है और इसीलिए रहस्यवाद को उस ओर अधिक मुड़ जाना पड़ा । परन्तु जहां तक श्रमण संस्कृति और दर्शन का प्रश्न है, वहाँ तो इस रूप में ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं। आत्मा ही परमात्मपद प्राप्त कर तीर्थंकर अथवा बुद्ध बन सकता है। जैनधर्म नास्तिक नहीं जैन धर्म और दर्शन को कुछ विद्वानों ने नास्तिक दर्शनों की श्रेणी में बैठा दिया है, यह आश्चर्य का विषय है। इसी कल्पना पर यह मन्तव्य व्यक्त किया जाता है कि जैनधर्म और साहित्य में रहस्यवाद हो ही नहीं सकता, क्योंकि यह वेद और ईश्वर को स्वीकार नहीं करता। यही मूल में भूल है। प्राचीनकाल में जब वैदिक संस्कृति का प्राबल्य था तब नास्तिक की परिभाषा "वेद निन्दको नास्तिकः" के रूप में निश्चित की गई। परिभाषा के इस निर्धारण में तत्कालीन परिस्थितियों का विशेष हाथ था। वेदनिन्दक अथवा ईश्वर को सृष्टि का कर्ता-धर्ता के रूप में स्वीकार न करने वाले सम्प्रदायों में प्रमुख सम्प्रदाय थे-चार्वाक, जैन और बौद्ध । इसलिए उनको नास्तिक कह दिया गया। इतना ही नहीं, निरीश्वरवादी मीमांसा और सांख्य जैसे वैदिक दर्शनों को भी नास्तिक हो जाना पड़ा। याला वटा 4AAD Minariandainaireranaina auruaamatamanndansranama ३५ रहस्यवाद, (आ. परशुराम चतुर्वेदी) पृ० ६ । आचार्यप्रवभिनापार्यप्रवर अभिः श्राआनन्द अन् श्रीआनन्दन wwwnewsvacawpearanaaranimuvecarnive Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व मनाचार्यप्रवर आभार पावभाआनन्द अन्य श्रीआनन्दा अन्य ३३६ धर्म और दर्शन सिद्धान्ततः नास्तिक की वह परिभाषा नितान्त असंगत है। नास्तिक और आस्तिक की परिभाषा वस्तुतः पारलौकिक अस्तित्व की स्वीकृति और अस्वीकृति पर निर्भर करती है। आत्मा और परलोक के अस्तित्व को स्वीकार करने वाला आस्तिक और उसे अस्वीकार करने वाला नास्तिक कहा जाना चाहिए था। पाणिनि सूत्र "अस्तिनास्ति दिष्टं मतिः।" (४.४-६०) से भी यह बात पुष्ट हो जाती है। जैनसंस्कृति के अनुसार आत्मा अपनी विशुद्धतम अवस्था में स्वयं ही परमात्मा का रूप ग्रहण कर लेता है। दैहिक और मानसिक विकारों से वह दूर होकर परमपद को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार यहां स्वर्ग, नरक, मोक्ष आदि की व्यवस्था स्वयं के कर्मों पर आधारित है । अतः जैनदर्शन की गणना नास्तिक दर्शनों में करना नितान्त असंगत है। अध्यात्मवाद और दर्शन जहां तक अध्यात्मवाद और दर्शन के सम्बन्ध का प्रश्न है, वह परस्पराश्रित है। अध्यात्मवाद योगसाधना है जो साक्षात्कार करने का एक साधन है और दर्शन उस योग-साधना का बौद्धिक विवेचन है। अध्यात्मवाद तत्त्वज्ञान प्रधान है और दर्शन उसकी पद्धति और विवेचन करता है। अध्यात्मवाद अनुभूति पर आधारित है जबकि दर्शन ज्ञान पर आधारित है। इस प्रकार दर्शन अध्यात्मवाद से भिन्न नहीं हो सकता। अध्यात्मवाद की व्याख्या और विश्लेषण दर्शन की पृष्ठभूमि में ही संभव हो पाता है। दोनों के अंतर को समझने के लिए हम दर्शन के दो भेद कर सकते हैंआध्यात्मिक रहस्यवाद और दार्शनिक रहस्यवाद । आध्यात्मिक रहस्यवाद आचार-प्रधान होता है और दार्शनिक रहस्यवाद ज्ञानप्रधान । अतः आचार और ज्ञान की समन्वयावस्था ही सच्चा अध्यात्मवाद अथवा रहस्यवाद है। रहस्यभावना किसी-न-किसी सिद्धान्त अथवा विचारपक्ष पर आधारित रहती है और उस 'विचारपक्ष का अटूट सम्बन्ध जीवन-दर्शन से जुड़ा रहता है, जो एक नियमित आचार और दर्शन पर प्रतिष्ठित रहता है। साधक उसी के माध्यम से रहस्य का साक्षात्कार करता है। वही रहस्य जब अभिव्यक्ति के क्षेत्र में आता है तो काव्य बन जाता है और जब विचार के क्षेत्र में आता है तो दर्शन बन जाता है। काव्य में अनुभूति की अभिव्यक्ति का प्रयत्न किया जाता है और उस अभिव्यक्ति में स्वभावतः श्रद्धा-भक्ति का आधिक्य हो जाता है। धीर-धीरे अंध-विश्वास, रूढ़ियां, चमत्कार, प्रतीक, मंत्र-तंत्र आदि जैसे तत्त्व बढ़ने और जुड़ने लगते हैं। अध्यात्मवाद बनाम रहस्यवाद के प्रमुख तत्त्व रहस्यवाद का क्षेत्र असीम है, उस अनन्त शक्ति के स्रोत को खोजना ससीम शक्ति के सामर्थ्य के बाहर है। अतः ससीमता से असीमता और परम विशुद्धता तक पहुंच जाना तथा चिदानंद चैतन्यरस का पान करना साधक का मूल उद्देश्य रहता है। इसलिए रहस्यवाद का प्रस्थानबिन्दु संसार है, जहां प्रात्याक्षिक और अप्रात्याक्षिक सुख-दुःख का अनुभव होता है और परम विशुद्धावस्था रूप चरम लक्ष्य को प्राप्त करता है। वहां पहुंचकर साधक कृत-कृत्य हो जाता है और उसका भवचक सदैव के लिए समाप्त हो जाता है। इस अवस्था की प्राप्ति का मार्ग अत्यन्त रहस्य अथवा गुह्य है। इसलिए साधक में विषय के प्रति जिज्ञासा और औत्सुक्य जितना अधिक जागरित होगा, उतना ही उसका साध्य समीप होता चला जायगा। रहस्य को समझने और अनुभूति में लाने के लिए निम्नलिखित प्रमुख तत्त्वों का आधार लिया जा सकता है १. जिज्ञासा और औत्सुक्य, २. संसारी आत्मा का स्वरूप, Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन रहस्यवाद बनाम अध्यात्मवाद ३. संसार का स्वरूप, ४. संसार से मुक्त होने का उपाय (भेदविज्ञान) और ५. मुक्तावस्था की परिकल्पना-निर्वाण । रहस्यभावना का साध्य रहस्यभावना का प्रमुख साध्य परमात्मपद की प्राप्ति करना है, जिसके मूल साधन हैं स्वानुभूति और भेदविज्ञान । किसी विषयवस्तु का जब किसी प्रकार से साक्षात्कार हो जाता है तब साधक के अन्तरंग में तद्विषयक विशिष्ट अनुभूति जागरित हो जाती है। साधना की सुप्तावस्था में चराचर जगत साधक को यथावत् दिखाई देने लगता है। उसके मन में रहस्य की यह गुत्थि जब समझ में आ जाती है कि संसार का प्रत्येक पदार्थ अशाश्वत है, क्षणभंगुर है, और यह सत्, चित् रूप आत्मा उस पदार्थ से पृथक् है, ये पदार्थ हमारे नहीं हो सकते और न हम कभी इन पदार्थों के हो सकते हैं तब उसके मन में एक अपूर्व आनन्दानुभूति होती है । इसे हम जैन शास्त्रीय परिभाषा में भेदविज्ञान कह सकते हैं। साधक को भेदविज्ञान की यथार्थ अनुभूति हो जाना ही रहस्यवादी साधना का साध्य कहा जा सकता है। विश्व-सत्य का समुचित प्रकाशन इसी अवस्था में हो पाता है। भेदविज्ञान की प्रतीति कालान्तर में दृढ़तर होती चली जाती है और आत्मा भी उसी रूप में परम विशुद्ध अवस्था को प्राप्त हो जाता है। इस अवस्था में पहुंचकर साधक अनिर्वचनीय अनुभूति का आस्वादन करता है। आत्मा की यह अवस्था शाश्वत और चिरन्तन सुखद होती है। रहस्यवादी का यही साध्य है। शास्त्रीय परिभाषा में इसे हम निर्वाण कह सकते हैं। साध्य सदैव रहस्य की स्थिति में रहता है । सिद्ध हो जाने पर फिर वह रहस्यवादी के लिए अज्ञात अथवा रहस्य नहीं रह जाता। साधक के लिए वह भले ही रहस्य बना रहे। इसलिए तीर्थंकर ऋषभदेव, महावीर, राम, कृष्ण आदि की परम स्थिति साध्य है। इसे हम ज्ञेय अथवा प्रमेय भी कह सकते हैं। इस साध्य, गेय अथवा प्रमेय की प्राप्ति में जिज्ञासा मूल कारण है। जिज्ञासा ही प्रमेय अथवा रहस्य तत्त्व के अन्तस्तल तक पहुँचाने का प्रयत्न करती है। तदर्थ साध्य के सन्दर्भ में साधक के मन में प्रश्न, प्रतिप्रश्न उठते रहते हैं, "अथातो ब्रह्मजिज्ञासा" इसी का सूचक है । "नेति-नेति" के माध्यम से साधक की रहस्यभावना पवित्रतम होती जाती है और वह रहस्य के समीप चला जाता है। फिर एक समय वह अनिर्वचनीय स्थिति को प्राप्त कर लेता है—यतो वाचा निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह । इस अनुभूतिपरक जिज्ञासा की अभिव्यक्ति के रूप में सृजित होने वाले काव्य के माध्यम से सहृदय व्यक्ति साधारणीकरण प्राप्त करता है और शनैः-शनैः साध्य दशा तक बढ़ता चला जाता है । अतएव इस प्रकार के काव्य में व्यक्त रहस्यभावना की गहनता और सघनता यथार्थ में काव्य की विधेयावस्था का केन्द्रबिन्दु समझना चाहिए। रहस्यभावना का साधन परम गुह्य तत्त्व रूप रहस्यभावना के वास्तविक तथ्य तक पहुँचने के लिए साधक को कुछ ऐसे शाश्वत साधनों का उपयोग करना पड़ता है जिनके माध्यम से वह चिरन्तन सत्य को समझ सके। ऐसे साधनों में आत्मा और परमात्मा के विशुद्ध स्वरूप पर चिन्तन-मनन करना विशेष महत्त्वपूर्ण है। जैनधर्म में तो आत्मतत्त्व इसी केन्द्र-बिन्दु के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है । इसी को कुछ विस्तार से समझने के लिए वहाँ समूचे तत्त्वों को दो भागों में विभाजित किया गया है-जीव और अजीव । जीव का अर्थ है आत्मा और अजीव का विशेषण, सम्बन्ध उन पौद्गलिक NA ondamaARAMMASALAIKAKJANAASADANIMADArowseriodwwAugannaNAIAIAIRAAMANARASIMANDLA आचार्यप्रयासआचार्यप्रसार श्रासानग्रन्थश्राआनन्दाअन्य Moram Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्द अर्थ 59 श्री आनन्द अन्थ ३३८ धर्म और दर्शन कर्मों से है जिनके कारण यह आत्मा संसार में बारम्बार जन्म ग्रहण करता रहता है। इन कर्मों का सम्बन्ध आत्मा से कैसे होता है, इसके लिए आस्रव और बन्ध शब्द आये हैं तथा उनसे आत्मा कैसे विमुक्त होता है, इसके लिए संवर और निर्जरा तत्त्वों को रखा गया है। आत्मा का कर्मों से सम्बन्ध जब पूर्णतः दूर हो जाता है तब उसका विशुद्ध और मूल रूप सामने आता है । इसी को मोक्ष कहा गया है । PAR ज 5 इस प्रकार रहस्यभावना का सीधा सम्बन्ध जैन-संस्कृति में उक्त सप्त तत्त्वों पर निर्भर करता है । इन सप्त तत्त्वों की समुचित विवेचना ही जैन ग्रन्थों की मूल भावना है । आचारशास्त्र, विचारशास्त्र इन्हीं तत्त्वों का विश्लेषण करते हुए दिखाई देते हैं, अध्यात्मवादी ऋषि महर्षियों और विद्वानों-आचार्यों ने रहस्यभावना की साधना में स्वानुभूति के साथ विपुल साहित्य सृजन किया है । रहस्यभावना का साधक 'एकं हि सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' के अनुसार साधक एक ही परम सत्य को विविध प्रकार से अनुभव में लाते हैं और उसे अभिव्यक्त करते हैं । उनकी रहस्यानुभूतियों का धरातल पवित्र आत्मसाधना से मण्डित रहता है। यही साधक तत्त्वदर्शी और कवि बनकर साहित्य जगत में उतरता है । उसका काव्य भावसौन्दर्य से निखरकर स्वाभाविक भाषा में निसृत होता है। फिर भी पूर्ण अभिव्यक्ति में असमर्थ होकर वह प्रतीकात्मक ढंग से भी अपनी रहस्यभावना को व्यक्त करने का प्रयत्न करता है । उसकी अभिव्यक्ति के साधन भाव और भाषा में श्रद्धा, प्रेम, भक्ति, उपालम्भ जैसे भाव समाहित होते हैं । साधक की दृष्टि सत्संगति और गुरुमहिमा की ओर जाकर आत्मसाधना के माध्यम से परमात्मपद की प्राप्ति की ओर मुड़ जाती है । अध्यात्मवाद बनाम रहस्यवाद : एक विश्लेषण उक्त सभी तत्त्वों पर आध्यात्मिक साधकों ने साहित्यिक रूप में पर्याप्त विवेचन किया है । इन अध्यात्मवादी साधकों की एक लम्बी परम्परा है । जिसमें आचार्य कुन्दकुन्द मुनि कार्तिकेय, पूज्यपाद, योगीन्दु मुनि मुनि रामसिंह, लक्ष्मीचन्द, आनन्दतिलक, महरिण, छीहल, बनारसीदास, भगवतीदास, रूपचन्द्र, ब्रह्मदीप, आनन्दघन, यशोविजय, भैया भगवतीदास, पांडे हेमराज द्यानतराय, भूधरदास, दौलतराम, बुधजन, भागचन्द आदि का नाम उल्लेखनीय है । उन्होंने आत्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के रूपों पर अनुभूतिमिश्रित सम्यक् विवेचन प्रस्तुत किया है । इन साधकों के अध्यात्मवादी साहित्य का पर्यवेक्षण करने पर पाठक को यह अनुभूति हुए बिना नहीं रहेगी कि वे परमात्मा के साक्षात्कार के लिए कितने आतुर रहे हैं । इस सन्दर्भ से उन्होंने अपने आराध्य तीर्थंकरों और परमेष्ठियों की स्तुतियां की हैं, भक्ति के प्रवाह में आकर अपना दास्यभाव प्रदर्शित किया है तथा नामस्मरण, सत्गुरुदर्शन आदि की महिमा का व्याख्यान किया है । इन सभी प्रसंगों में साधकों की गहन अनुभूति का पता चलता है। इसे हम समासतः इस प्रकार देख सकते हैं--- कुन्दकुन्द का साहित्य, विशेषतः पाहुड़ साहित्य रहस्यवाद की परम्परा का संस्थापक कहा जा सकता है । योगीन्दु, रामसिंह, बनारसीदास, द्यानतराय आदि कवियों के लिए वह उपजीवक रहा है । सकल निकल परमात्मा का निरूपण, साकार - निराकार की भक्ति तथा सगुण-निर्गुण ब्रह्म की उपासना जैन साधकों ने अपने ढंग से की है। फागु, वेलि, रासा, स्तोत्र, चौपाई, बारहमासा, चरित्र, आयण आदि ऐसे ही माध्यम हैं जहां उनकी अनुभूति का स्वर गहरा हुआ है । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन रहस्यवाद बनाम अध्यात्मवाद ३३६ 'निरंजन' पद प्राप्त करने के लिए मन किस प्रकार से परमेश्वर में एकाकार और समरस हो जाता है, यह योगीन्दु मुनि द्वारा प्रस्तुत वर्णन में दृष्टव्य है मणु मिलियउ परमेसरहं परमेसरु वि मणस्स । बीहि वि समरसि हहि पुज्ज चडावउं कस्स ॥३६ इसी प्रकार मुनि रामसिंह के लिए यह समस्या खड़ी हो जाती है कि आत्मा और परमात्मा के मिलन पर किसे नमस्कार किया जाये ?3७ शारीरिक दुःखों का आभास तभी तक होता है, जब तक यह समरसता नहीं आती देहमहेलो एह बढ तउ सतावइ ताम । चित्तु णिरंजणु परिणि सिंह समरसि होइ ण जाम ॥३८ छोहल तो निश्चयनय के रस में इतने सरावोर हो गये कि उन्हें आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का आभास-सा हो गया। फलतः वे कहने लगे कि मैं दर्शन-ज्ञान-चारित्र हूं, देहप्रमाण हूं, अखण्ड हूं, परमानन्द में विलास करने वाला हं, हंस हूं, शिव हूं, बुद्ध हूं, वासुदेव हूं, कामदेव हूं हउं सण णाण चरित्त सुद्ध। हउं देह परमाणु वि गुण समिद्ध ।। हउँ परमाणदुं अखण्ड देसु। हउं णाण सरोवर परमहंसु ॥ हर रयणत्तय चउविह जिणंदु । हर बारह चक्केसर रिंदु ॥ हवं णव पडिहर णव वासुदेव । हउँ णव हलधर पुणु कामदेव ॥ बनारसीदास कहीं 'म्हारे प्रगटे देवनिरंजन' कहते हैं तो कभी 'देखो भाई महाविकल संसारी' को सोचते हुए 'मन की दुविधा कब जायेगी' इसकी चिन्ता उन्हें घर कर जाती है दुविधा कब जैहै या मन की। कब निजनाथ निरंजन सुमिरों, तज सेवा जन-जन की ॥ दुविधा० ॥१॥ कब रुचि सौं पीवें हग चातक, बूंद अखयपद धन की। कब सुभ ध्यान धरौं समता गहि, करून ममता तन की ॥२॥ कब घट अन्तर रहे निरन्तर, दिढता सुगुरु वचन की। कब सुख लहौं भेद परमारथ, मिट धारना धन की ॥३॥ कब घर छाडि होहुं एकाकी, लिए लालसा वन की। ऐसी दशा होय कब मेरी, हों बलि-बलि वा छन की ॥४॥ बनारसीदास भाव-विभोर होकर द्वैत से अद्वैत की ओर पहुँच जाते हैं। उन्हें आत्मा रूपी पत्नी का परमात्मा रूपी पति से वियोग दुःसह्य हो उठता है। पत्नी "जल बिनु मछली" जैसी तड़पती है, फिर 'समता' सखी से अपने भावी मिलन की बात कहकर आनन्दित हो जाती है। अन्त में उसे या ३६ परमात्मप्रकाश, १२ ३७ दोहापाहुड़, ४६ ३८ वही, ६४ - AMAnandana SABAIKUARIAAIRasairaramaARIHARANAMAMMAmanLAMINMAAJAAAAAARI wwwmovie Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LARKALANKAJAvasna NSINIचार आगामप्रवभिन श्राआनन्द श्राआनन्द अभिन 4 . 2 wwwrawi ३४० धर्म और दर्शन वाटा अपना पति घर में ही मिल जाता है। मिलने पर वे दोनों किस प्रकार एकाकार और समरस हो जाते हैं, यह निम्न पद्यों से देखिये पिय मोरे घट मैं पिय माहि, जलतरंग ज्यों दुविधा नाहिं । पिय मो करता मैं करतूति, पिय ज्ञानी मैं ज्ञानविभूति ।। पिय सुखसागर मैं सुख-सींव, पिय शिव मन्दिर मैं सिव-नींव । पिय ब्रह्मा मैं सरस्वति नाम, पिय माधव मो कमला नाम ॥ पिय शंकर मैं देवि भवानि, पिय जिनवर मैं केवलवानि । पिय भोगी मैं भुक्तिविशेष, पिय जोगी मैं मुद्राभेष ॥38 रूपचन्द ने परमात्मा की महिमा को जानने का अथक प्रयत्न किया, पर जान नहीं सके । तब कह उठे प्रभु तेरी महिमा जानि न जाई॥ नय विभाग विन मोह मूढ जन, मरत बहिर्मुख धाई ॥१॥ विविध रूप तव रूप निरूपत, बहुतै जुगति बनाई। कलपि कलपि गज रूप अंध, ज्यों झगरत मत समुदाई ॥२॥ विश्वरूप चिद्रूप एक रस, घट घट रह्यउ समाई। भिन्न भाव व्यापक जल थल, ज्यौं अपनी दुति दिनराई ॥३॥ मारयउ मन जारय उ मनमथु, अरु प्रति पाले खटुकाई । बिनु प्रसाद विन सासति, सुरनर फणियत सेवत पाई ॥४॥ मन वच करन अलख निरंजन, गुण सागर अति साई। रूपचन्द अनुभव करि देख हुं, गगन मंडल मनु लाई ॥५॥ द्यानतराय साधना करते-करते जब थक गये तो दीनदयाल को उलाहना देते हुए कहते हैं कि तुम तो मुक्ति में जाकर बैठ गये और हम अभी संसार में ही भटक रहे हैं । तीनों काल तुम्हारा नाम जपने पर भी तुम हमको कुछ नहीं देते और कुछ नहीं तो कम-से-कम हमारे राग-द्वेष को तो टाल दो तुम प्रभु कहियत दीनदयाल ।। आपन जाय मुकति में बैठे, हम जु रुलत जग जाल ॥१॥ तुमरी नाम जपें हम नीके, मन वच तीनों काल । तुम तो हमको कछु देत नहिं, हमरो कौन हवाल ॥२॥ बुरे भले हम भगत तिहारे, जानत हो हम चाल।। और कछुनहिं यह चाहत हैं, राग-दोष को टाल ॥३॥ हम सौं चूक परी सो बकसो, तुम तो कृपा विशाल । द्यानत एक बार प्रभु जगते, हमको लेह निकाल ॥४॥ इस प्रकार जैन कवियों ने 'आतमराम' की बात कहकर 'परमातम' की अनुभूति को विविध रूप से निहारा है। उन्होंने जैनेतर देवों को भी नमस्कार करने में हिचक नहीं दिखाई, बशर्ते कि वे वीतरागी हैं । वीतरागी परमात्मा की स्तुति में उन्होंने कहीं दास्यभाव उकेरा है तो कहीं दाम्पत्य ( VARI ३६ बनारसीविलास, पृ० १६१ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन रहस्यवाद बनाम अध्यात्मवाद ३४१ भाव, कहीं सखिभाव से बात की है तो कहीं उपालम्भ से। यहीं उनकी भावात्मक अनुभूति और अध्यात्मवाद अथवा रहस्यवाद की स्वीकृति मिलती है। अध्यात्मवादी जैन साधकों की तुलना जैनेतर साधकों से करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रारम्भ में जैनेतर साधकों और संतों ने जैन साधकों से बहुत कुछ लिया है। कबीर आदि सन्त तो निश्चित ही उनसे बहुत प्रभावित रहे हैं। मुनि योगीन्दु और रामसिंह कबीर से शताब्दियों पूर्व हए थे। कबीर ने उनके भावों को ग्रहण कर अपने काव्य में उन्हें खूब गंथा है। बाह्याडम्बर का खण्डन-मण्डन, दास्यभाव की अनुभूति आदि कुछ ऐसे तत्त्व हैं जो कबीर ने जैन साधकों से ग्रहण किये हैं। जायसी के रूपकतत्त्व, मीरा की रहस्यभावना, तुलसी की भक्ति-साधना और सूरदास का वात्सल्यरस रहस्यवाद के निश्चित ही अमूल्य रूप हैं। पर उनके मूल में भी जैन कवियों की भावप्रेरणा दृष्टव्य है। निबन्ध के विस्तारभय से उसे हम यहां प्रस्तुत नहीं करना चाहेंगे। यह तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है। इस प्रकार जैन अध्यात्मवाद अपने विविध रूपों में आधुनिक रहस्यवाद तक आ पहुंचा है। उसमें विकास के अनेक चरण देखे जा सकते हैं। श्रद्धा-भक्ति और प्रेम की त्रिवेणी के संगम से जो भावधारा यहां कवियों में फूटी है, वह अन्य कवियों को प्रेरक तो बनी ही है, साथ ही सूक्ष्म भावों की प्रस्तुति का एक मानदण्ड भी प्रस्थापित हो गया है । प्रानन्द-वचनामृत मणका विवेक ही वह संजीवनी औषधि है जो कृति (कर्म में सत्कृति, संस्कृति और शुकृति का प्राण संचारण करता है। - जैसे पर्वत-शिखर पर चढ़ने के लिए चढ़ाई की, श्रम और दृढ़ अभ्यास आवश्यक है वैसे ही उन्नति एवं अभ्युदय के लिए कष्ट भोग की अनिवार्यता है। - स्वार्थ से परार्थ और परार्थ की ओर बढ़ते जाना जीवन का आध्यात्मिकता आरोहण है। तीव्र शारीरिक वेदना के क्षणों में भी मानसिक शांति की अनुभूति करने का एक सरल उपाय है-देह के साथ आत्मा की भिन्नता का अनुभव करना । देह को नश्वर जानकर अमर आत्मा का दर्शन करनेवाला किसी भी पीड़ा-वेदना एवं व्यथा से उसी प्रकार भुब्ध नहीं होता जैसे वातानुकूल (एयरकंडीसन) भवन में बैठने वाला बाहर की सर्दी-गर्मी से। जिस प्रकार पुण्य सलिला गंगा का पवित्र जल चाहे मिट्टी के घट में भरा हो, या स्वर्ण-पात्र में, वह तो सदा ही अभिषेकाह माना जाता है। उसी प्रकार महापुरुष का जीवन चरित्र चाहे ललित काव्यात्मक भाषा में लिखा हो, अथवा सामान्य शब्दावली में वह सदा ही पठनीय एवं वंदनीय होता है। AGAn i malaswatarnamaAALANATANJANAaw.AAAAJAmmunanaGOOK साचाTOR23आचार्यप्रगान ब्द श्राआनन्द आभन्न ramavavemarwarnamane Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SanR.AANAMAJAMJANBARAJAPANAARAAAAAAAAAAAADADAJaindaaDAWAJAGadaa. SUN R अभिसापार्यप्रवर श्रीआनन्द-ग्रन्थ32श्राआनन्दमन्थ RAvate MYANMNIYNivity - विद्यावती जेन, एम० ए०, साहित्यरत्न (आरा) Frate । जैन-दर्शन का कबीर-साहित्य पर प्रभाव MRO... प्राकृत-अपभ्रंश के जैन कवियों ने एक ओर जहाँ प्रबन्ध-चरित-काव्यों की रचना की है, वहीं दूसरी ओर उन्होंने दर्शन-समन्वित रहस्यवादी ऐसे काव्यों की भी रचनाएँ की हैं, जो दर्शन एवं अध्यात्म के क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं तथा परवर्ती जनेतर साहित्य पर भी जिन्होंने अपना अमिट प्रभाव डाला है। फिर भी उनकी यह विशेषता रही है कि उनकी कृतियों में साम्प्रदायिकगन्ध लेशमात्र भी नहीं। कुछ समय पूर्व जैन-कवियों पर यह आरोप लगाया जाता था कि उनकी रचनाएँ साम्प्रदायिक एवं धार्मिक संकीर्णताओं से परिपूर्ण हैं। उनमें मात्र जैनधर्मोचित उपदेश और नीरस सिद्धान्तों का ही विवेचन किया गया है और इसलिए वे साहित्य की कोटि में नहीं आ सकतीं। किन्तु अनेक शोध-विद्वानों ने अपने गहन अन्वेषणों द्वारा इस धारणा को निर्मूल सिद्ध कर यह प्रमाणित कर दिया है कि जैन रचनाओं में काव्य की कई विधाओं के विकसित प्रयोग मिलते हैं। ये हमें लोकभाषा के काव्य रूपों को समझने में जहाँ सहायता पहुँचाते हैं, वहीं उस काल की भाषागत अवस्थाओं और प्रवृत्तियों को समझने की कुंजी भी प्रदान करते हैं । जैन कवियों का ध्यान दर्शन एवं अध्यात्म की ओर अधिक रहा और आरम्भ से ही वे आत्मा, परमात्मा, कर्म, मोक्ष, सहज-समाधि, समरस, अक्षरज्ञान जैसे गूढ़तम विषयों पर अपने विचार व्यक्त | करते रहे हैं। ऐसे कवियों में मुनि योगीन्दु (छटवीं सदी) रामसिंह (११वीं सदी) एवं आनन्दतिलक (१२ वीं सदी) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। योगीन्दु ने 'परमप्पयासु' एवं 'जोइसारू' नामक ग्रन्थों की रचना की। उनमें उन्होंने संकीर्ण मत-मतान्तरों तथा व्यर्थ के साम्प्रदायिक विवादों में न पड़कर स्वानुभूति और स्वसंवेद्यज्ञान को ही प्रमुखता दी तथा अपने जीवन में जिस चरमसत्य का अनूभव किया, उसे स्पष्ट और निर्भीक शब्दावली में अभिव्यक्त भी किया। योगीन्दु के बाद मुनि रामसिंह एवं आनंदतिलकसूरि की रचनाएँ विशुद्ध दार्शनिक रहस्यवाद की कोटि में आती हैं। मुनि रामसिंह ने 'पाहुडदोहा' एवं आनन्दतिलक ने 'आणंदा' नामक रचनाओं का सृजन किया। उन रचनाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि उन्होंने रूढ़िगत परम्पराओं का अन्धानुकरण नहीं किया, किन्तु बाह्याडम्बरों एवं पाखण्डों का तीव्र शब्दों में खण्डन कर लोक को जीवन्मुक्ति का नया संदेश दिया। वस्तुतः इन कवियों ने जीवन एवं जगत के परिवर्तित मूल्यों एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए कई महत्वपूर्ण दार्शनिक तत्वों का मौलिक एवं लोकानुकूल चिन्तन मार्मिक भाषा-शैली में प्रस्तुत किया है। सहज एवं स्वसंवेद्य-ज्ञानानुभाव, जड़ एवं घिसीपिटी बातों के विरोध में एक निर्भीक क्रान्ति तथा आचार एवं विचार की समरसता में विश्वास जगाने वाली उक्त कवियों की यह विचारधारा सार्वजनीन एवं जनभाषा (अपभ्रश) में होने के कारण इतनी लोकप्रिय एवं प्रेरक सिद्ध हुई कि परवर्ती कई जनेतर सन्तकवियों ने उससे प्रभावित पया Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-दर्शन का कबीर-साहित्य पर प्रभाव ३४३ भाया होकर उनके कितने ही विचारों को आत्मसात् कर लिया। इस प्रसंग में कबीर-साहित्य को उदाहरणस्वरूप लिया जा सकता है। कबीर के समस्त साहित्य पर उक्त कवियों का प्रभाव दिखलाना स्थानाभाव के कारण सम्भव नहीं है, फिर भी उसके कुछ महत्वपूर्ण दार्शनिक-तत्वों पर प्रकाश डालने का यहाँ प्रयत्न किया जा रहा है। आत्मज्ञान शास्त्रागमों का ज्ञान तभी सफल माना जाता है जब साधक आत्मज्ञान प्राप्त कर ले । उसके प्रति अपनी रुचि जागृत कर ले, क्योंकि शुद्धात्मा का अनुभव ही मोक्षमार्ग है । शुद्धस्वरूप की अनुभूति से ही आत्मा निर्विकार होते-होते परमस्वरूप को प्राप्त कर लेता है। अतः सन्तकवियों ने कोरे अक्षरज्ञान का निरन्तर विरोध किया और एक अक्षरज्ञान का उपदेश दिया है। मुनि रामसिंह ने इस एक अक्षरज्ञान को ही 'आत्मज्ञान' की संज्ञा प्रदान की है, क्योंकि आत्मा ही आत्मा को प्रकाशित करती है। अनुभव-जन्य-ज्ञान को सर्वोपरि मानकर और उसे शास्त्रज्ञान से ऊँचा स्थान देकर निस्सन्देह ही उन्होंने सामान्यकोटि के साधकों के लिये ज्ञानानुभूति के मार्ग का एक समर्थ आत्मबल प्रदान किया है। कहा भी गया है अप्पा मिल्लिवि णाणमउ, चिति ण लग्गइ अण्ण । मरगउ जे परियाणियउ, तह कच्चें कउ गण्णु ॥७॥ अर्थात् जिसने मरकतमणि को प्राप्त कर लिया है, उसे कांच के टुकड़ों से क्या प्रयोजन है ? उसी तरह जिसका चित्त आत्मा में लग गया, उसको दूसरे पदार्थों की वाञ्छा नहीं रहती। आगे योगीन्दु कहते हैं सत्थ पढ़तह ते वि जड़, अप्पा जे ण मुणंति । तहिं कारणि ए जीव, फुड णहु णिवाणु लहंति ॥५३॥ -योगसार, पृ० ३८३ अप्पा अप्पउ जइ मुणहि, तो णिव्वाण लहेहि। पर अप्पा जइ मुणहि, तुहुँ तो संसार भमेहि ॥१३॥ -योगसार, पृ० ३७३ जसु मणि णाणु ण विपफुरइ, कम्महं हेउ करंतु । सो मुणि पावइ सुक्खणवि, सयलई सत्य मुणंतु ॥२४॥ -पाहुडदोह, पृ० ८ | संत कबीर भी उक्त जैन कवियों की तरह परमात्मतत्त्व को ही सर्वोत्कृष्ट मानकर आत्मविचारक को परमज्ञानी कहते हैं। जिस परमतत्त्व की खोज के लिये लोग दुनिया भर के तीर्थों के तट पर जाते हैं, वह तत्त्वरत्न तो स्वयं उन्हीं के पास विराजमान है, किन्तु ज्ञानचक्षु जागृत न होने के कारण वे उसे देख नहीं पाते । वेदपाठियों एवं कोरे अक्षरज्ञानियों को डाँट-फटकार लगाते हुए वे कहते हैं कि पंडित लोग पढ़-पढ़ कर वेदज्ञान की चर्चा तो कहते हैं, किन्तु स्वयं के भीतर स्थित बड़े भारी तत्त्व-ब्रह्म या आत्मा को नहीं जानते; इससे बढ़कर मूर्खता और क्या होगी? वे कहते हैं कथता बकता सुरता सोई, आप विचार सो ग्यांनी होई । जिस कारनि तट तीरथ जांही, रतन पदारथ घट ही मांहीं ॥ पढ़ि-पढ़ि पंडित वेद बखाणे, भींतरि हती बसत न जाणे ॥४२॥ -कबीर ग्रन्थावली, पृ० ३४२ ना ..... ... AAAAAAAAAAAAAMAbunda n AmAnamuna JALANKAnahane Aurmurar-SDADAPATI आचार्यप्रवर अभिवापार्यप्रवर आभन श्रीआनन्दजन्थश्राआनन्दान्थ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MMENT ३४४ धर्म और दर्शन वा कबीर सोच बिचारिया, दूजा कोई नांहि । आपा पर जब चीण्डियां, तब उलट समानामांहि ॥३॥ -कबीर ग्रन्थावली, पृ० २४४ कौन विचार करत हौ पूजा । आतम राम अवर नहीं दूजा ॥ पर-आत्म जौ तत्त विचार । कहि कबीर ताकै बलिहारै ॥१३॥ -कबीर ग्रन्थावली, पृ० ३८६ आत्मज्ञानी साधक ईंट एवं पत्थरों से बने हए जड़ भवनों में परमात्मा की खोज नहीं करते । उनकी दृष्टि से अज्ञान के कारण जगत में व्यवहार को ही सत्य माना जाता है। आत्मज्ञानी तो यही कहते हैं कि घड़े को कुम्हार ने बनाया है। ऐसा कोई नहीं कहता कि घड़ा मिट्टी का बना है, यथार्थतः घड़े में मिट्टी का ही रूप है। मिट्टी का पिंड ही धड़ा के रूप में परिवर्तित हुआ है। कुम्हार का योग तो निमित्तमात्र है। इसी प्रकार तीर्थस्वरूप जिन-प्रतिमाएं भी केवल निमित्तमात्र हैं। उनके द्वारा अपने शुद्धात्मा के सदृश परमात्मा का स्मरण अवश्य हो जाता है, किन्तु क्षेत्र या प्रतिमा या मन्दिर सभी तो अचेतन, जड़ हैं । फिर भी अज्ञानी व्यक्ति उन्हें ही सब कुछ समझ कर तीर्थाटनादि करते रहते हैं । आत्मज्ञान-प्राप्ति में नहीं लगते । वे इस रहस्य को ही नहीं समझ पाते कि उनका आत्मा ही स्वभाव से परमात्मा है और वह स्वयं उन्हीं के शरीर में विद्यमान है। योगीन्दु ने लिखा है-- देहा-देवलि देउ जिणु जणु देवलिहिं णिएइ। हासउ महु पडिहाइ इह सिद्ध भिक्ख भमेइ॥ -योगसार, पृ० ३८० देहा देवलि सिउ वसइ तुहुँ देवलइँ णिएहि । हासउ महु मणि अत्थि इहु सिद्ध भिक्ख भमेहि ॥ -पाहुडदोहा, पृ० ५६ सन्त कबीर भी शरीर को देवालय मानते हैं। वे कहते हैं कि लोग अज्ञानवश परमात्मा की खोज सैकड़ों कोश दूर स्थित तीर्थों एवं मन्दिरों में तो करते है, किन्तु उनके ही शरीर में जो परब्रह्म परमात्मा है, उसे वे नहीं देख पाते। इसका मूल कारण उनके अन्तर् में समाहित माया एवं भ्रम ही है। यदि वे उतार फेंकें, तो उसमें समाहित अलख निरञ्जन स्वयं ही प्रत्यक्ष हो जायेगा। वे कहते हैंहरि हिरदै रे अनत कत चाहौ, भूल भरम दुनीं कत बाहो ॥१७०॥ —कबीर ग्रन्थावली, पृ० ४१० कबीर दुनियाँ दे हुरै, सीस नवांवण जाइ । हिरदा भीतर हरि बस, तूं ताही सौं ल्यौ लाइ ॥११॥ -कबीर ग्रन्थावली, पृ० २१७ कबीर यहु तो एक है, पड़दा दीया भेष । भरम करम सब दूरि करि, सबहीं माहिं अलेष ॥१८॥ -कबीर ग्रन्थावली, पृ० २२२ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-दर्शन का कबीर-साहित्य पर प्रभाव ३४५ जैनों का परमात्मतत्त्व और कबीर का ब्रह्म गम्भीर चिन्तन के बाद जैन कवियों ने आत्मा और परमात्मा विषयक अपने मौलिक विचार बड़े ही उन्मुक्त भाव से व्यक्त किये हैं। उनके शब्दों में कर्मरहित आत्मा ही परमात्मा है। जब तक कर्मबन्ध रहता है, तभी तक यह जीव संसार-वन में भ्रमण करता रहता है एवं पराधीन होकर दूसरे का जाप करता रहता है, किन्तु जब उसे अपने यथार्थ स्वरूप का ज्ञान हो जाता है तब उस समय यही आत्मा, परमात्मा बन जाता है। सभी रहस्यवादी कवियों का यह भी विश्वास है कि परमात्मा का निवास शरीर में ही है। मुनि योगीन्द्र ने कहा है कि जो शुद्ध, निर्विकार आत्मा लोकाकाश में स्थित है, वही इस देह में भी विद्यमान है । उन्होंने इसी देह में उनके दर्शन करने का उपदेश दिया है । यथा जेहउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहि णिवसइ देउ । तेहउ णिवसइ बंभु परु देहहँ में करि भेउ ॥२६॥ परमात्मप्रकाश, पृ० २३ अर्थात्-जैसा केवलज्ञानादि अनन्तगुण रूप सिद्ध परमेष्ठी देवाधिदेव परम आराध्यदेव मुक्ति में निवास करता है, वैसा ही परब्रह्म, शुद्ध, बुद्ध स्वभाव वाला परमात्मा इस शरीर में तिष्ठता है, इसलिए सिद्ध भगवान में और अपने में भेद मत करो। योगीन्दु को उक्त कथनमात्र से ही सन्तोष नहीं हआ, अतः उसी बात को पुनः दुहराते हैं और कहते हैं कि शरीर स्थित जो यह आत्मा है, वही परमात्मा है णियमणि णिम्मलि णाणियह णिवसइ देउ अणाइ । हंसा सरवरि लोणु जिम महु एहउ पडिहाइ ॥११२॥ -परमात्मप्रकाश, पृ० १२३ अर्थात--रागादि तरंगों से रहित ज्ञानियों के मन में अनादि देव शुद्धात्मा निवास कर रहा है। जैसे हंसों का निवासस्थान मानसरोवर है, उसी प्रकार ब्रह्म का निवासस्थान ज्ञानियों का निर्मल चित है। कबीर ने भी अपने आत्मा में ही परमात्मा के दर्शन करने का अनुरोध किया है। वे कहते हैं कि आत्मा एवं परमात्मा एक ही हैं और उसका निवास स्वयं के शरीर रूपी देवालय में ही है। इसके लिए वे मृग-कस्तूरी की उपमा देते हुए कहते हैं-कि जिस प्रकार मोहवश मृग स्वयं स्थित कस्तूरी-गन्ध की खोज में इधर-उधर तो भटकता रहता है, किन्तु अज्ञानवश अपनी नाभि में उसे नहीं देख पाता, उसी प्रकार मोह, माया, एवं अज्ञानवश लोग परमात्मा की खोज तीर्थों, मन्दिरों एवं मस्जिदों में तो करते हैं, किन्तु अपने शरीर में ही स्थित उसकी खोज नहीं करते । वे कहते हैंहरि मैं तन है, तन में हरि हैं, है सुनि नाहीं सोइ ॥२६३॥-कबीर ग्रं०, पृ० ४७७ में ही शरीर है, हरि शरीर में तथा यह शरीर रहता भी नहीं। झंझा निकट जुघटु रहिओ दूरि कहा तजि जाइ। . जा कारिणि जग ढूढ़ि अउ नेरउ पाइ अउ ताहि ॥१६॥ -सन्तकबीर, पृ० ८० अर्थात्-जब चंचु (अर्थात् शरीर) के निकट ही घर (अर्थात् आत्मा) उपस्थित है तब उसे छोड़कर दूर खोजने क्यों जाता है ? जिस कारण से उस परमात्मा को संसार में खोजता फिरा, वह तो तू अपने समीप ही पा सकता है। पा ASHIKARANAADAMIRROHO............................ BANAMSARDASABAIRISAM u naireasaanaarasAGANIGAMImandarmernama Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्मप्रवभिRASISH 19 Rio श्रीआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्दन ____३४६ धर्म और दर्शन कस्तूरी कुंडली बस, मग ढूंड बन मांहि । ऐसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नांहि ॥१॥-कबीर ग्रन्थावली, पृ० २६७ अर्थात् कस्तूरी तो मृग की कुडली में रहती है, किन्तु उसको न जानने वाला मृग गन्ध को, कहीं अन्यत्र से आता हुआ जानकर जंगल के पौधों में ढूढ़ता फिरता है, ठीक इसी प्रकार राम भी घट-घट में बसे हुए आनन्द की तरंगों को लहराते हैं, किन्तु दुनिया उन्हें नहीं जान पाती, अतः मृग की तरह जगतारण्य में उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करती है। मुनि योगीन्दु एवं रामसिंह ने परमात्मा को वर्ण, रस, गन्ध एवं स्पर्श रहित बतलाया है। उनके अनुसार वीतराग, निराकार, निर्विकार, अजर एवं अमर है। उस निरञ्जन स्वरूप शुद्धात्मा को ही उन्होंने उपादेय कहा है। जा सुण वण्णु ण गंघु रसु जासु ण सद्द, ण फासु । जासु ण जम्मणु मरणु ण वि णाउ णिरंजणु तासु ॥१९॥ -परमात्मप्रकाश, पृ० २७ जिस भगवान के सफेद, काला, लाल, पीला, नील स्वरूप पांच प्रकार वर्ण नहीं हैं, सुगन्धदुर्गन्ध रूप दो प्रकार की गन्ध नहीं है, कषाय रूप पांच रस नहीं है, जिसके भाषा-अभाषारूप शब्द नहीं है। शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, गुरु, लघु, मदु, कठिन रूप आठ तरह का स्पर्श नहीं है और जो जन्म, जरा, मृत्यु से रहित है, उसी चिदानन्द शुद्धस्वभाव परमात्मा की निरञ्जन संज्ञा है। देहहि उभउ जरमरणु देहहि वण्ण विचित्त । देहहो रोया जाणि तुहं देहहि लिग मित्त ॥३४॥ अस्थि ण उभउ जरमरण रोय वि लिंगई वण्ण । णिच्छइ अप्पा जाणि तुहुँ जीवहो जक्क विसण्ण ॥३५॥ वण्ण विहूणउ णाणमउ जो भावइ सम्भाउ । संतु णिरंजणु सो जि सिउ तहिं किज्जइ अणुराउ ॥३८॥ --पाहुड, पृ० १२ कबीर ने योगीन्दु एवं रामसिंह के समान ही परमात्मा की चर्चा करते हुए कहा है कि वह अलख, निरञ्जन, निराकार, वर्ण-विहीन, रूप-रेख-विहीन, वेद-विवजित, पाप-पुण्य-विवर्जित एवं भेष-विवर्जित है अलख निरञ्जन लखै न कोई, निरर्भ निराकार है सोई। सुनि असथूल रूप नहीं रेखा, द्रिष्टि अद्रिष्टि छिप्यो नहीं पेखा ॥ बरन अबरन कथयो नहीं जाई, सकल अतीत चट रह.यौ समाई ॥१३॥ -कबीर ग्रन्थावली, पृ० ५४२ बेदविजित, भेद विजित, विजित पापरु पुण्यं । ग्यान बिजित ध्यान विंबजित. बिजित अस्थल संन्यं ।। मेष बिजित भीख बिबजित, बिजित डयंभक रूपं । कहै कबीर तिहुँ लोक विजित, ऐसा तत्त अनूपं ॥२२॥ -कबीर ग्रन्थावली, पृ० ४३६ परमब्रह्म के विविष नाम ज्ञानस्वरूप अविनाशी परमात्मा को यदि किसी भी नाम से पुकारा जाय तो उसके गुण और स्वभाव में कोई अन्तर नहीं आता। इसलिए जैन-कवियों ने परमात्मा को अनेक नामों से Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-दर्शन का कबीर-साहित्य पर प्रभाव ३४७ सम्बोधित किया है। उनका विश्वास था कि परमात्मा को किसी भी नाम से पुकारा जाय, उसका तात्पर्य केवल अखण्ड अविनाशी ब्रह्म आत्मा या परमात्मा से होगा। ये कवि भेद की संकीर्णता को प्रश्रय नहीं देते । उनका कथन था कि निर्विकल्प 'परमात्मा' ही राम, विष्णु अथवा ब्रह्म है। । योगसार में तो मुनि योगीन्दु यहाँ तक कह गये हैं कि आत्मा ही देव है, अरहंत, सिद्ध है, मुनि है, वही आचार्य, गुरु है, शिव है, वही शंकर है अथवा ब्रह्मा, विष्णु और अनन्त है अरहंतु वि सो सिद्ध फूड सो आयरिउ वियाणि । सो उवझायउ सो जि मुणि णिच्छइँ अप्पा जाणि ॥१०४॥ सो सिउ संकरू विण्हु सो रुद्द वि सो बुद्ध । सो जिणु ईसरु बंभु सो सो अणंतु सो सिद्ध ॥१०५।। निश्चय से आत्मा ही अरहन्त है, वही सिद्ध, आचार्य है और उसे ही उपाध्याय तथा मुनि समझना चाहिये । वही शिव है । वही शंकर एवं विष्णु है । वही रुद्र, बुद्ध, जिन, ईश्वर, ब्रह्मा एवं अनन्त है और उसी को सिद्ध भी कहना चाहिए। कवि के उक्त कथन का यह अर्थ नहीं कि जैन कवि अवतारवाद के समर्थक थे। इन कवियों ने अवतारवाद का सर्वत्र खण्डन किया है, क्योंकि जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु भी अनिवार्य है और जो मरणशील है वह अविनाशी एवं अजर-अमर कैसे हो सकता है? तथा जो अविनाशी नहीं है, वह परमात्मा कैसे हो सकता है ? यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि ये कवि जब राम, शिव और ब्रह्मा का नाम लेते हैं, तो उनका तात्पर्य यह नहीं रहा कि वे दशरथसुत 'राम,' कैलासवासी शिव अथवा सृष्टिकर्ता ब्रह्मा या शुद्धोदनपुत्र बुद्ध हैं। वह समस्त नामावली तो आत्मा की ही प्रतीक अथवा पर्यायवाची है। जिसका न आदि है, न अन्त । अनन्त उसके नाम हैं और वह अचिन्त्य है। कबीरदास भी अवतारवाद के विरोधी थे। उन्होंने भी उस परम ब्रह्म परमात्मा को अनेक नामों से सम्बोधित किया है। अपने इष्ट देव को किसी भी नाम से पुकारने में उन्हें हिचक का अनुभव नहीं हुआ। उनको किसी प्रकार की संकीर्णता मान्य नहीं। किन्तु फिर भी उन्होंने ब्रह्म के आह.वान के लिए सर्वाधिक 'राम' शब्द का प्रयोग किया है । उन्हें परमब्रह्म के अन्य समस्त नामों में यही नाम सर्वाधिक प्रिय रहा है। किन्तु कबीर का वह 'राम' भक्तों का सर्वस्व एवं भूमि का भार-हरण करने के लिये अवतार धारण करने वाला दशरथपुत्र राम नहीं, या यशोदापुत्र कृष्ण नहीं है। उनके 'राम', 'कृष्ण' पौराणिक 'राम' 'कृष्ण' न होकर सबसे भिन्न और सबसे ऊपर परम आत्मा के ही प्रतीक हैं--- नां जसरथ घरि औतरि आवा, नां लंका का राव संतावा । देव कूख न औतरि आवा, ना जसवं ले गोद खिलावा ।। बांवन होय नहीं बलि छलिया, धरनी बेद लेन उघरिया । बद्री बैस्य ध्यान नहीं लावा, परसरोम हवं खत्रीन संतावा ।। कहै कबीर विचार करि, ये ऊलं व्योहार । याही थें जे अगम है, सो बरति रह या संसार ॥४१॥ -कबीर ग्रन्थावली, पृ० ५६३ कबीर की यह मान्यता रही है कि जो जन्म लेता है और मरता है, वह राम नहीं, माया है। समस्त विश्व के नष्ट हो जाने पर भी कबीर का राम अविनश्वर है । वह दूर खोजने की वस्तु नहीं, अपितु सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है AAMANAJARAweomaadanAmARDANAamamaAIMIMINAARA.AAPATRALAAAAAAAAAA आपाप्रवन अभिस आचार्यप्रवर अभिगमन श्रीआनन्दसन्याश्रीआनन्द अन्य IN ratext Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रत TV ३४८ निरञ्जन ग्रन्थ धर्म और दर्शन श्री आनन्दत्र अन् कहै कबीर सब जग विनस्या राम रहे अविनाशी रे ।। २६५ ।। निरञ्जन शब्द के विषय में विभिन्न प्रकार की विचारधाराएँ उपलब्ध होती हैं । कुछ विचारक उसे कालपुरुष, शैतान, दोषी, पाखण्डी आदि निन्दात्मक अर्थों में लेते हैं तो कुछ लोग परमब्रह्म, परमपद, बुद्ध, प्रभृति प्रशंसात्मक अर्थों में । जैन साहित्य में इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग कुन्दकुदाचार्य ने किया है। उनके अनुसार 'निरञ्जन' शब्द उपयोग अर्थात् चेतन या आत्मा का ही नामान्तर है । यथा— ए एसु य उवओगो तिविहो सुद्धो णिरंजणो भावो ॥६०॥ — कबीर ग्रन्थावली, पृ० ४६३ अर्थात् उपयोग आत्मा का शुद्ध निरञ्जन भाव है | आचार्य कुन्दकुन्द की निरञ्जन की यह परिभाषा भले ही अपने समय में एकार्थक के रूप में रही हो, किन्तु आगे चलकर इसकी परिभाषा पर्याप्त विकसित हुई । यही विचार धारा विकसित रूप में जोइन्दु में प्रस्फुटित हुई और मुनि रामसिंह से विकसित होती हुई कबीर में मुखरित हुई दिखाई देती है । आचार्य जोइन्दु ने अपने 'परमप्पयासु' में 'निरञ्जन' शब्द का प्रयोग 'रागादिक उपाधि एवं कर्ममलरूपी अञ्जन से रहित' के अर्थ में किया है । यथा - णिच्चु णिरंजणु णाणमउ परमाणंद-सहाउ । जो एहउ सो संतु सिउ तासु मुणिज्जहि भाउ ॥१७॥ - समयसार, पृ० ११५ - परमात्मप्रकाश, पृ० २६ अर्थात् जो अविनाशी, अंजन से रहित, केवलज्ञान से परिपूर्ण और शुद्धात्मभावना से उत्पन्न हुए वीतराग परमानंद से युक्त हैं, वे ही शान्तरूप और शिवस्वरूप हैं, उसी परमात्मा का ध्यान करना चाहिए । आगे चलकर उन्होंने चिदानंद शुद्धस्वभाव परमात्मा को भी 'निरञ्जन' विशेषण से विभूषित किया है। 'णिरंजण' का जो तत्व-निरूपण जैन कवियों ने किया, आगे चलकर वह पौराणिक रूप पा गया । निरञ्जन की अन्तिम परिणति देवतारूप में हुई, यद्यपि वह परमात्मतत्व विश्व में व्यापक है और विश्व उसमें व्यापक है । तथापि वह मनुष्य के शरीर मन्दिर में भी ज्ञानस्फुरण के रूप में अनुभूत होता है— जसु अब्भंतरि जगु वसई जग - अभंतरि जो जि । जग जि वसंतु वि जगु जि ण वि मुणि परमप्पड सो जि ॥४१॥ -- परमात्मप्रकाश, पृ० ४५ मुनि रामसिंह ने भी 'निरञ्जन' शब्द को परमतत्व के रूप में ही लिया है। दर्शन और ज्ञानमय निरञ्जन देव परम आत्मा ही है। जब तक निर्मल होकर परम निरञ्जन को नहीं जान लिया जाता, तभी तक कर्मबन्ध होता है । इसलिए उसी को जानने का प्रयत्न करना चाहिए कम्म पुराइउ जो खवर अहिणव ये सु ण वेइ । परम णिरंजणु जो नवइ सो परमप्पड होई ॥७७॥ पाउवि अप्यहिं परिणवs कम्महूँ ताम करेइ । परमणिरंजणु जाम ण वि णिम्मलु होइ मुणेइ ॥७८॥ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-दर्शन का कबीर-साहित्य पर प्रभाव ३४३ BETION अण्णु णिरंजणु देउ पर अप्पा सण णाक। अप्पा सच्चउ मोक्ख पहु एहउ मूढ वियाणु ॥७६॥ -पाहुडदोहा, पृ० २४ कबीर ने भी 'निरञ्जन' शब्द का प्रयोग ब्रह्म के लिए ही किया है। कबीर जहाँ निरञ्जन से परमतत्व की ओर संकेत करना चाहते हैं, वहीं पर वे उस तत्व को निर्गुण और निराकार भी बतलाते हैं। उनका कथन है-- गोव्यंदे तूं निरंजन तूं निरंजन राया। तेरे रूप नाहीं रेख नाहीं मुद्रा नहीं माया ॥२१॥ --कबीर ग्रन्थावली, ४३६ कबीर के अनुसार यदि महारस का अनुभव करना है, तो निरञ्जन का परिचय प्राप्त कर उसे हृदय में बसा लेना आवश्यक है । कबीर के विचार से विश्व के समस्त दृश्यमान् पदार्थ अञ्जन हैं और निरञ्जन इन पदार्थों से नितान्त पृथक् है । यथा अंजन अलप निरंजन सार, यहै चीन्हि नर करहु विचार । अंजन उतपति बरतनि लोइ, बिना निरंजन मुक्ति न होई ॥३४७।। कबीर ने इस निरंजन तत्व के सहारे सबसे बड़ा जो कार्य किया, वह है हिन्दू और मुस्लिम के बीच भेदभाव की बढ़ती हुई खाई को पाटना । हिन्दू और तुर्क दोनों की पद्धतियाँ उन्हें मान्य नहीं थी, क्योंकि उनका तो एक निरंजन तत्त्व ही आराध्य था और उसी की आराधना उनके लिये सर्वोपरि थी। वे कहते हैंएक निरंजन अल्लह मेरा, हिन्दू तुरक दुहुँ नहीं मेरा। समरसता आचार्य द्विवेदी के अनुसार 'पिण्ड में मन का जीवात्मा में तिरोभूत हो जाना या एकमेक होकर मिल जाना ही सामरस्य है।' जैन कवियों की भी यही मान्यता रही है कि प्रत्येक प्राणी में परमतत्व की अवस्थिति है, किन्तु अज्ञान का पर्दा पड़े रहने के कारण प्राणी उस परमतत्व का साक्षात्कार नहीं कर सकता। उसे तो आन्तरिक शुद्धि के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। जीव परमतत्व से ऐक्य की स्थिति में उस तत्व को अन्दर ही प्राप्त कर लेता है। जीव की इस दशा का वर्णन मुनि योगीन्दु, रामसिंह एवं आनन्दतिलकसूरि ने भी किया है। योगीन्दु मुनि कहते हैं कि मन का जीवात्मा में ऐक्य हो जाना ही सामरस्य है। मणु मिलियउ परमेसरहँ परमेसरु वि मणस्स । वीहि वि समरसि-हूवाह पुज्ज चडावउँ कस्स ॥१२३॥ -परमात्मप्रकाश, पृ० १२५ अर्थात मन परमेश्वर से मिल गया-तन्मय हो गया और परमेश्वर भी मन से मिल गया, दोनों समरस हो गये, तब ऐसी स्थिति में पूजा का प्रयोजन समाप्त हो गया। मुनि रामसिंह ने भी मुनि योगीन्दु के दृष्टान्त को ही प्रस्तुत किया है। वे भी कहते हैं कि जब विकल्प रूप मन भगवान् आत्माराम से मिल गया और ईश्वर भी मन से मिल गया, दोनों समरसता की स्थिति में पहँच गये, तब पूजा किसे चढ़ाऊँ ? यथा मणु मिलयउ परमेसरहो, परमेसरू जि मणस्स । विण्णिा वि समरसि हइ रहिय पूज्ज चढावउँ कस्स ॥४६॥ -पाहुडदोहा, पृ० १६ आचार्यप्रवर अभी प्रामानन्दा-ग्रन्थाआनन्दपादन] aurav..ADramaana - AdivadaareaamaAAAAAAMANARurandatadaanahunJAAN WOODOOT आचार्यप्रवभिनत AN Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KANIAMPAVANIMriniwan.wimwari ३५० धर्म और दर्शन आगे वे इसी अद्वैतावस्था का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जैसे नमक पानी में विलीन हो जाता है, उसी प्रकार चित्त निरंजन से मिल जाता है और जीव समरसता की स्थिति में पहुँच जाता है, तो किसी अन्य समाधि की आवश्यकता नहीं रह जाती। वे कहते हैं जिम लोणु विलिज्जइ पाणियहँ तिम जइ चित्त विलिज्ज । समरसि हवइ जीवडा काइँ समाहि करिज्ज ॥१७६॥ -पाहुडदोहा, पृ० ५४ आनन्दतिलक के अनुसार भी समरसता की स्थिति में ही साधक अपनी आत्मा का दर्शन करता है। समरस भावें रंगिया अप्पा देखइ सोई॥४०॥ -आणंदा कबीरदास ने भी जैन कवियों के समान ही आत्मा-परमात्मा के इस मिलन को समरसता कहा है। इन्होंने इस सामरस्य-भाव के लिये उक्त कवियों के भावों को ही अपनी भाषा में व्यक्त किया है। वे कहते हैं मेरा मन सुमर राम कू, मेरा मन रामहिं आहि । अब मन रामहि ह वै रहा, सीस नवावौं काहि ॥१८॥ -कबीर ग्रन्थावली, पृ० ११० आगे वे नमक, पानी का ही दृष्टान्त प्रस्तुत करते हैं । जिसमें मुनि रामसिंह के पद्य का पूर्ण भाव समाहित है मन लागा उन मन सौं, उन मन मनहिं विलग। लूण बिलगा पाणियां, पाणि लूण विलग ॥१६॥ -कबीर ग्रन्थावली, पृ० १३६ __ मुनि योगीन्दु ने योगसार में आत्मा-परमात्मा के मिलन की स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा है कि जीव परमतत्व से ऐक्य की स्थिति में उस तत्व को अपने अन्दर ही प्राप्त कर लेता है । ऐसी दशा में उसे विश्व के सभी प्राणियों में उस परमतत्व की सत्ता आभासित होने लगती है, तब दोनों में कोई भेद ही नहीं रह जाता। जो ज्ञानस्वरूप परमात्मा है, वही मैं हूँ और जो मैं हूँ, वही परमात्मा है। इसमें किसी प्रकार का विकल्प नहीं करना चाहिये । यथा जो परमप्पा सो जि हऊँ, जो हउँ सो परमप्पु । इउ जाणे बिणु जोइया, अण्णु म करहु वियप्पु ।।२।। -योगसार, पृ० ३७५ कबीर ने भी मुनि योगीन्दु के अनुकरण पर ही उसी 'अहं' रूप 'त्वं' की स्थिति को अपने शब्दों में इस प्रकार व्यक्त किया है तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ। बारी फेरी बलि गई, जित देखों तित तू ॥६ --कबीर ग्रन्थावली, पृ० ११० 4 चित्तशुद्धि . शाश्वत सुख-प्राप्ति हेतु बाह्य-शुद्धि की अपेक्षा अन्तशुद्धि अत्यावश्यक है। आत्मा यदि कलुषित है, वह राग, द्वेष, ईर्ष्या आदि से युक्त है, तो बाह्याचार मात्र पाखण्ड एवं दिखावा है । अतः योगीन्दु, रामसिंह और आनन्दतिलक ने चित्तशुद्धि पर ही अधिक बल दिया है। उनका कथन Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन का कबीर साहित्य पर प्रभाव ३५१ है कि जब तक भीतरी चित्त मलिन है, तब तक बाह्य स्नान, ध्यानादि से कोई लाभ नहीं । उसी प्रसंग में आगे वे कहते हैं कि जैसे मलिन दर्पण में रूप नहीं दिखता, उसी प्रकार रागादिक से मलिन चित्त में शुद्ध आत्मस्वरूप का दर्शन पाना अत्यन्त दुर्लभ है । यथा—राऍ रंगिऐ हियवडए देउ ण दीसइ संतु । दप्पणि मइलए बिंबु जिम एहउ जाणि णिमंतु ।। १२० ।। -- परमात्मप्रकाश, पृ० १२१ मुनि रामसिंह ने चित्तशुद्धि का एकमात्र प्रमुख कारण चित्त में निरंजन को धारण करना ही बतलाया है । उन्होंने कहा :-- अभिंतर चित्त वि मइलियइँ बाहिरि काई चित्ति णिरंजणु को बि घरि मुच्चाहि जेम तवेण । मलेण ॥ ६१ ॥ उक्त विचार-परम्परा से प्रभावित होकर कबीर ने भी आन्तरिक शुद्धि पर ही अधिक जोर दिया है । उन्होंने भी मुनि योगीन्दु के उक्त भावों को आदर्श मानकर चित्तशुद्धि का विवेचन करने हेतु आत्मा को दर्पण से उपमा दी है । दर्पण चैतन्य - आत्मा का प्रतीक है- -- पाहुडदोहा, पृ० १८ जौ दरसन देख्या चहिए, तौ वरपन मंजत रहिऐ । जब दरपन लागे काई, तब दरसन किया न जाई ॥ उनकी रचनाओं में यह चित्तशुद्धि अत्यधिक मात्रा में परिलक्षित होती है । उन्होंने सर्वप्रथम आत्मतत्व को पहचानने का उपदेश दिया । उनके अनुसार यदि आत्मतत्व को नहीं पहचाना गया तो बाह्य स्नानादि क्रियाएँ व्यर्थ हैं। अपने सिद्धान्त के समर्थन में उन्होंने मेंढक का सुन्दर उदाहरण दिया है । वे कहते हैं, कि 'दादुर' तो सदैव गंगा में ही रहता है, किन्तु फिर भी उसे मुक्ति प्राप्त नहीं हो पाती। कबीर ने गंगा स्नानादि को व्यर्थ की मूढ़ता बतलाकर आत्मारूपी रामनाम के स्मरण को विशेष महत्व दिया है- क्या है तेरे न्हाई धोई, आतमराम न चीन्हा सोई । क्या घर ऊपर मंजन कोर्य, भीतरी मैल अपारा ॥ नाम बिन नरक न छूट, जो धोवं सौ बारा । ज्यू दादुर सुरसरि जल भीतरि हरि बिन मुकति राम मुनि रामसिंह ने बाहरी वेष- विन्यास की भी तीव्र भर्त्सना की है । ये ऐसे योगी की तीव्र आलोचना करते हैं, जिसने अपने सिर को तो मुड़ा लिया है, किन्तु चित्त विकारों से युक्त है । क्योंकि उनकी दृष्टि में तो चित्त मुण्डन ही संसार का खण्डन करने में श्रेष्ठ सहायक है । वे कहते हैं— न होई ॥। १५८ ॥ — कबीर ग्रन्थावली, पृ०३२२ मुंडिय मुंडिय मुंडिया । सिरु मुंडिउ चितु ण मुंडिया । चित्त मुंडणू जि कियउ । संसारहं खंडण ति कियउ ॥१३५॥ -- पाहुडदोहा, पृ० ४० कबीर ने भी कहा है कि चित्तशुद्धि के अभाव में सिर मुँडा भी लिया और संन्यासी का वेश धारण कर भी लिया, तो वह सब निस्सार है श्री आनन्द अदन आनन्द आ ट D च 疏 (44 Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mwitterviwww धर्म और दर्शन . केसौं कहा बिगाड़िया, जे मूंडे सौ बार । मन को काहे न मुंडिए, जामैं विषं विकार ॥१२॥ -कबीर ग्रन्थावली, पृ० २२१ मंड मुंडाकर पाखण्ड दिखाने वाली जैन कवियों की उक्ति कबीर साहब को इतनी अधिक रोचक एवं मार्मिक लगी कि उन्हें एक ही दोहे में उसे अपनी भाषा में व्यक्त करके सन्तोष नहीं हुआ, अतः उन्होंने 'भेष को अंग' नामक एक अलग ही प्रकरण की रचना की और अकेली दाढ़ी-मूंछ मुड़ाने वाली बात कई छन्दों में लिखनी पड़ी । उदाहरणार्थ मिलते-जुलते कुछ पद यहाँ प्रस्तुत हैं माला पहरया कुछ नहीं, भगति न आई हाथि । मायौ मूंछ मुंडाइ करि, चल्या जगत के साथि ॥१०॥ साँई सेंती साँच चलि, और सूसुध भाइ । भावे लंबे केस करि, भावै घुरडि मुडाइ ॥११॥ मूंड़ मुंडावत दिन गये, अजहूँ न मिलिया राम । राम नाम कहु क्या करें, जे मन के और काम ॥१४॥ -कबीर ग्रन्थावली, पृ० २२१ जिस प्रकार एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं, उसी प्रकार चित्त में भी ब्रह्मविद्या और विषयविनोद दोनों एक साथ नहीं समा सकते । क्योंकि जहां ब्रह्म-विचार हैं, वहां विषय-विकार नहीं रह सकते और जहां विषय-विकार हैं, वहां ब्रह्मविचार नहीं ठहर सकता। क्योंकि दोनों परस्पर विरोधी हैं । आचार्य योगीन्दु ने कहा भी है-- जसु हरिणच्छी हिय वडए तसु णावि बंभु वियारि । एक्कहिं केम समंति वढ वे खंडा पडियारि ॥१२१॥ --पर० प्र०, पृ० १२२ ___ संत कबीर भी योगीन्दु की इसी उक्ति के अनुसार कहते हैं खंभा ऐक गइंद दोइ, क्यू करि बंध सिबारि । मानि कर तो पीव नहीं, पीव तौ मानि निवारि ॥४२॥ उक्त पद्य में खम्भा, गयंद, पीव, एवं मानी ये चार पद विचारणीय हैं। कबीर चंकि प्रतीक-पद्धति के महाकवि माने गये हैं, इसलिये उन्होंने 'खंभे' को 'चित्त', मान एवं विषय-वासना को गइंद एवं 'आराध्य' को 'पीव' की संज्ञा दी है । कबीर ने यद्यपि योगीन्दु की पूर्ण शब्दावली को नहीं लिया, किन्तु भाव-भूमि दोनों की एक है। शास्त्रज्ञान समीक्षा जिस प्रकार बाह्याचार से मुक्ति सम्भव नहीं, उसी प्रकार कोरे ग्रन्थज्ञान से भी आत्म-तत्व की उपलब्धि सम्भव नहीं। गूढ़-चिन्तन के पश्चात् उपरोक्त कवियों ने यही निष्कर्ष निकाला कि शास्त्रीय-ज्ञान में प्रवीण व्यक्ति निश्चय ही आत्मलाभ नहीं कर सकता । यथार्थतः उसे स्वसंवेद्यज्ञान की परम आवश्यकता है। प्रतीत होता है कि प्रकाश और ज्ञान के उक्त शोधियों ने शास्त्रज्ञान का विरोध इसलिए किया था, क्योंकि शास्त्रज्ञान से ही संकीर्णताओं, रूढ़ियों तथा परम्पराओं को प्रश्रय मिलता है। विभिन्न मतों के ग्रन्थों के कारण ही मतभेद होते हैं और साम्प्रदायिकता बढ़ती है । यदि एक ओर कोरे शास्त्रज्ञान को त्याज्य ठहराकर इन जैन कवियों ने जन-जीवन के लिये ज्ञान का सहज द्वार खोल दिया था, तो दूसरी ओर पण्डितों और पुरोहितों के ऊपर उन्होंने यह सीधा प्रहार भी किया था कि उनके शास्त्र पाखण्डों से परिपूर्ण Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-दर्शन का कबीर-साहित्य पर प्रभाव ३५३ ROKES SH हैं तथा वर्ग-विशेष के स्वार्थ ही उनमें सुरक्षित हैं। अतः उनका अध्ययन सामान्य जनता के लिये उपयुक्त नहीं है। योगीन्दु मुनि ने उक्त कोरे शास्त्रज्ञान पर अच्छा प्रकाश डाला है। उनका दृष्टिकोण था कि व्यक्ति शास्त्रों का अध्ययन करने के पश्चात् यदि अपनी आत्मा को नहीं पहचानते तो वे निश्चित ही जड़ पदार्थ के तुल्य हैं। उनका ज्ञान कल्याणकारी-पथ का प्रदर्शक बनने योग्य नहीं - सत्यु पढंतह ते वि जड़ अप्पा जेण मुणंति । तहि कारणि ए जीव फुड ण हुणिव्वाण लहंति ॥५३॥ -योगसार, पृ० ३८३ मुनि रामसिंह ने भी इसी विषय को लेकर 'पाहुडदोहा' में अपने विचारों को व्यक्त किया है बहुयइँ पढियइँ मुढ़ पर तालु सुक्कइ जेण । एक्कु जि अक्खरु तं पढ़हु शिवपुरि गम्महि जेण ॥१७॥ -पाहुडदोहा, पृ० ३० अर्थात् बहुत पढ़ा जिससे तालु सूख गया पर मूर्ख ही रहा । उस एक ही अक्षर को पढ़, जिससे शिवपुरी का गमन हो। मुनि योगीन्द्र एवं रामसिंह के भावों को कबीर ने ज्यों-का-त्यों अपनी भाषा में व्यक्त कर दिया है पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोई। ऐक आषरं पीव का, पढ़े सु पंडित होई ॥४॥ -कबीर ग्रन्थावली, पृ० २०२ इस प्रकार स्पष्ट है कि सन्त कबीर जैन-दर्शन के मूलभूत सिद्धान्तों-आत्मा, परमात्मा, ज्ञान, चेतन, कर्म, समाधि प्रभति से पर्याप्त प्रभावित रहे हैं। विशेषतया कुन्दकुन्द, गुणभद्र एवं सर्वप्रसिद्ध रहस्यवादी जैन कवि योगीन्दु, मुनि रामसिंह एवं आनन्द तिलक की क्रान्तिकारी जैनदार्शनिक विचार-धारा ने कबीर पर अपनी सर्वाधिक गहरी छाप छोड़ी है। कहीं-कहीं तो उक्त जैन कवियों का कबीर ने उसी प्रकार अनुकरण किया है, जिस प्रकार 'गोस्वामी तुलसीदास' ने अपने 'रामचरित मानस' में स्वयम्भूकृत पउमचरिउ का अनुकरण किया है। सन्त कबीर का जैनेतर परिवार में जन्म होना, प्रकृति की भूल भले ही कही जा सके, किन्तु ऐसा अवश्य प्रतीत होता है कि उन पर जैनदर्शन एवं जैनधर्म का पूर्व संस्कार अवश्य रहा है तथा उनकी गणना उस क्रान्तिकारी जैन-परम्परा में की जा सकती है, जिस परम्परा में कई युगसष्टा जैन-कवियों ने पाखण्डों एवं धर्म के नाम पर होने वाले स्वार्थपूर्ण धार्मिक कृत्यों और लोक में फैले हुए अन्धविश्वासों एवं जड़ता के विरोध में कड़ी-से-कड़ी डाँट-फटकार लगाई थी। प्रस्तुत निबन्ध में उक्त विषयों का संक्षिप्त तुलनात्मक विवेचन ही किया जा सकता है । आवश्यकता इस बात की है कि जैनदर्शन एवं कबीर-साहित्य का गम्भीर एवं विस्तृत तुलनात्मक अध्ययन किया जाय । यह अध्ययन उन तथाकथित विद्वानों के लिये एक आदर्श उदाहरण का कार्य करेगा, जिन्होंने अपने अन्वेषणो में मात्र इस्लाम के एकेश्वरवाद, वैष्णवों के अहिंसा प्रपत्तिवाद, उपनिषदों के ब्रह्मवाद से ही कबीर को प्रभावित माना है। उन आलोचकों ने निस्संदेह ही हृदय की संकीर्णता अथवा जैनदर्शन के अध्ययन के अभाव में ही कबीर को जैनदर्शन से प्रभावित होने का उल्लेख नहीं किया, जबकि वस्तुस्थिति भिन्न ही है। AnguantuARAriendaaiJ ANWo MAMMALAJaiURAIAPawatsARIAASARJAAAw ..... ............... arARIANAMAAIAAJRALAMALAIADIA आपाप्रवभिनआचार्यप्रवभि श्रीआनन्द श्रीआनन्द ArvinA Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ععععععععهخرعة حرة في نعرہ متععرف . wereAKxdeasMania.an-un-muraroen -kr.... अपामप्रवभिनआचार्यप्रवर अभी श्राआनन्द अन्यश्रीआनन्द अन्न ANA - प्रवर्तक श्री विनयऋषि जी [संस्कृत-प्राकृत के विद्वान, विद्याप्रेमी, समाजसुधारक | या धर्म का सार्वभौम रूप विश्व के विराट् सुनहले क्षितिज पर असंख्य अपरिमित धर्मों का उदय हो चुका है। प्रस्तुत दृश्यमय जगत पर भी धर्मों का अमिट प्रभाव परिलक्षित होता है। धर्म से ब्रह्माण्ड का कोई स्थान अछूता नहीं है और न उसके अभाव में किसी वस्तु के अस्तित्व की ही कल्पना की जा सकती है। विस्तृत संसार में धर्म विभिन्न नाम, रूपों में व्याप्त है। इस मनुपुत्र की धरती पर धर्मों का जालसा फैला हुआ है । प्रमुख रूप से एशिया, आफ्रिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया, अमरिका आदि महाद्वीपों में प्रचलित धर्मों की संख्या तेरह के लगभग मानी गई है। मिसाल के तौर पर..."जैन, बौद्ध, हिन्दू, सिक्ख, पारसी, ईसाई, इस्लाम, कन्फ्युशियस, ताओ, शिन्नो, शैव, शाक्त-वैष्णव आदि प्रचलित धर्म हैं। विश्व में प्रचलित धर्मों की यह तालिका संकीर्णता की सूचक है। वस्तुतः सभी धर्मों के प्रेरणा-स्रोत उनके प्रवर्तक संस्थापकों की व्यक्तिगत अन्तर्दृष्टियां हैं। अनुपम आध्यात्मिक अनुसंधान के द्वारा जो अन्तर्योति उन्हें प्राप्त हुई, वही उन्होंने संसार के सामने प्रज्ज्वलित की। धर्म एक अनुपम पुष्प है। सभ्य-असभ्य जातियों ने किसी-न-किसी रूप में इसे अपनाया है। किन्तु यह संकीर्णता धर्म के सार्वभौम रूप को विच्छिन्न कर देती है। हर धर्म का उदय सार्वभौम रूप में होता है, किन्तु आगे चलकर उसके प्रबल समर्थक उसे Limited रूप दे देते हैं । मानव-जीवन के हर क्षेत्र को जो धर्म प्रभावित कर सके, व्याप्त कर सके, भेद-भावों की दीवारें तोड़ सके, उसी में सार्वभौम पद की क्षमता निहित है। प्रत्येक जिज्ञासु, साधक आत्मा में यह प्रश्न उपस्थित है कि धर्म का वह सार्वभौम रूप क्या है ? उसकी परिभाषा क्या हो सकती है ? इत्यादि अन्तर्मन में उठे हुए प्रश्न प्रत्युत्तर के लिए कटिबद्ध हैं। संसार भर के विचारकों, चिन्तकों, और ऋषि-मुनियों ने शाब्दिक एवं साहित्यिक परिभाषाएँ या व्याख्याएँ देने का एक स्तुत्य प्रयोस किया है। उदाहदण के तौर पर शाब्दिक परिभाषा को हम देखें, जैसे ___“धिन्वनाद् धर्म' अर्थात् धिन्वन का अर्थ है धारणा या आश्वासन देना। 'धारणाद् धर्मः' अर्थात् धारणा या दुःख से बचाना । 'ध्रियते येन स धर्मः' अर्थात् जिसने इस विश्व को धारण किया है, वही धर्म है। शाब्दिक व्याख्याओं की तरह साहित्यिक परिभाषाएं भी हमारे सामने पर्याप्त रूप में आती हैं Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का सार्वभौम रूप 'धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठाः' धर्म समस्त जगत का आधार है। -नारायण उपनिषद् 'चोदनालक्षोऽअर्थो धर्मः।' --आचार्य जैमिनी 'स एव श्रेयस्करः स एव धर्म शब्देनोच्यते'। —विश्वकोष मीमांसा महाश्रमण तीर्थंकर भगवान महावीर ने धर्म की विशुद्ध अबाधित परिभाषा देते हुए कहा 'वत्थु सहावो धम्मो' वस्तु का जो स्वभाव है, वही उसका धर्म है। मिश्री का स्वभाव मीठा है, और इमली का खट्टा । संसार में जितनी भी वस्तुएँ हैं, उनका धर्म भी भिन्न-भिन्न है । यह भिन्नभिन्न धर्म एक नहीं है। पाश्चात्य विचारकों में से आधुनिक विद्वान प्रो० व्हाइटहेड के अनुसार-"धर्म वह क्रिया है जो व्यक्ति अपनी एकान्तता के साथ करता है।" मैथ्यु आर्नल्डः "मूलतः धर्म संवेगों से युक्त नैतिकता है।" किसी एक अन्य विचारक से जब धर्म की परिभाषा के विषय में पूछा तो उसने बताया कि 'Religion is the way of Life' धर्म, यह जीवन का मार्ग है। हकीकत में धर्म मानवहृदय की उदात्त एवं निर्मल वृत्तियों की अभिव्यक्ति का ही नाम है। शरीर साम्प्रदायिक क्रियाकाण्ड का आधार हो सकता है, धर्म का नहीं। धर्म अन्तस्तल की चीज है, उसे केवल बाहर के विधि-निषेधों से ही जांचना, परखना अपने को ही भ्रमजाल में उलझाये रहना है । धर्म का निवास मनुष्य के मन में है। यह स्वयं मनुष्य के स्वभाव का एक अंग है। धर्म एक मानसिक अवस्था है, भक्ति का रूप है। धर्म की आत्मा अनुभव है। प्लेटो के अनुसार 'धर्म ही ज्ञान है।' चरित्रता का उत्कृष्टतम रूप धर्म है। नैतिकता के आधार पर धर्म अजित मानसिक प्रवृत्ति है। धर्म का अर्थ पूजा-पाठ नहीं है, बल्कि आत्मज्ञान और आत्मनिर्भरता ही धर्म है। धर्म प्रेरणाशक्ति है। धर्म मन्तव्य (मत-विचार) नहीं, बल्कि जीने का ढंग है । धर्म प्रकाश नहीं, किन्तु आत्मा का लक्ष्य है। धर्म है मनुष्य के मन में रही हुई प्रेम की बूंद को सागर का रूप देने की साधना । धर्मवेत्ताओं ने डंके की चोट कहा है 'तलवार से फैलने वाला धर्म, धर्म नहीं हो सकता और वह धर्म भी धर्म नहीं हो सकता कि जो सोना-चांदी के प्रलोभनों की चकाचौंध में पनपता हो। सच्चा धर्म वह है जो भय और प्रलोभनों के सहारे से ऊपर उठकर तपस्या और त्याग के, मैत्री और करुणा के निर्मल भावना रूपी शिखरों का सर्वाङ्गीण स्पर्श कर सके। धर्म का एकमात्र नारा है-'हम आग बुझाने आये हैं, हम आग लगाना क्या जानें।' जिस धर्म का यह नारा नहीं है, वह धर्म, धर्म नहीं है। धर्म सब के साथ समानता, भ्रातृभाव तथा प्रेम का व्यवहार करना सिखाता है। दीन-दुःखियों की सेवा, सत्कार में लगाना सिखाता है । घृणा और द्वेष की आग को बुझाना सिखाता है। इसी प्रकार के धर्म से प्राणिमात्र के कल्याण की आशा की जा सकती है। धर्म हमसे अनेक बोलियों में बात करता है। इसके विविध रंग-रूप हैं। फिर भी इसकी सच्ची आवाज एक ही है और वह है मानवीय दया और करुणा की, अनुकंपा की, धैर्ययुक्त प्रेम की, सत्य और असलियत की। धर्म के सार्वभौम रूप की विस्तृत चर्चा-विचारणा के अनन्तर जब महाश्रमण भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्म की ओर हमारी निगाह जाती है, तब इन सभी बातों का समावेश IAADI R A AAAAAAAAABJADADAJARDANAJunMAARAANuware- namAIAANA WALAAAAAAA आचार्गप्रवरात्राचार्य भिक प्राआनन्द अनाआनन्द Mirror Pravvv Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ धर्म और दर्शन उसी में हम पाते हैं। अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह में धर्म की संपूर्ण विशेषताओं का पूर्णतया अन्तर्भाव हो जाता है । अहिंसा विश्व के समग्र चैतन्य को एक धरातल पर खड़ा कर देती है। वह सब प्राणियों में समानता पाती है। अहिंसा स्व और पर, अपने और पराये, घृणा एवं वैर की नींव पर खड़ी भेदरेखा को तोड़ देती है। अहिंसा स्वर्ग का साम्राज्य है। अहिंसा उज्ज्वल चरित्र के भविष्य का निर्माण है। अहिंसा जीवन की आधारशिला है। अहिंसा आत्मदीप-साधन की ज्योति है और आत्मनिर्भरता का वरदान है। अहिंसा भगवती की आराधना के लिए सूक्ष्म अहिंसा का परित्याग अत्यावश्यक माना गया है । ईसा मसीह ने भी अपने शिष्यों की यह कहकर Thou shalt not Kill "किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो" सावधान किया है। यह ईसाई मत की जो दस आज्ञाएँ (Commands) हैं, उनमें से पांचवीं है। सेन्ट ल्युकस लिखते हैं-Be kind to all creatures अर्थात् सभी प्राणियों पर दया करो। Be ye therefore merciful as your Father is merciful. अर्थात् जब तुम्हारे पिता दयावान हैं तब तुम भी दयावान बनो । सेन्ट ल्युकस इसी प्रकार न्यू टेस्टामेन्ट में लिखते हैं-Don't mingle thy pleasure of thy joy with the sorrow of the meanest thing that pells अर्थात् "अपने जरा से सुख के लिए दूसरों को मत सताओ।" श्रमण भगवान महावीर का विश्वमैत्री-सूचक पावन सूत्र था-"मित्ती मे सव्वभूएसु वेर मज्झं न केणई" सचमुच भारत के आध्यात्मिक जगत का वह महान् एवं चिरन्तन सत्य उनके जीवन से साक्षात् साकार हो रहा है। तुमं सि नाम तं चेव जं हंतव्वं ति मनसि, तुम सि नाम तं चेव जं अज्जावेयम्वन्ति मन्नसि, तुम सि नाम तं चेव जं परियावेयव्वंति मन्नसि ॥ -आचाराङ्ग सूत्र १-५-५ जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है, जिसे तुशासित करना चाहता है. वह तू ही है, जिसे तू परिपात देना चाहता है, वह तू ही है। स्वरूपदृष्टि से सब चैतन्य एक समान हैं। यह अद्वैत भावना ही अहिंसा का मूलाधार है। "अहिंसा तस-थावर-सव्वभूय खेमकरी।" –प्रश्नव्याकरण सूत्र अहिंसा त्रस-स्थावर (चर-अचर) सब प्राणियों का कुशलक्षेम करने वाली है। इस प्रकार अहिंसा के अन्तर्गत सभी नैतिक, आध्यात्मिक, मैत्री, प्रमोद, करुणा, प्रेम, स्नेह, शुचिता, पवित्रता, उदारता आदि महद् गुणों का समावेश हो जाता है। इसीलिए हमारे दीर्घद्रष्टा एवं आत्मस्रष्टा ऋषि मुनियों ने “अहिंसा परमो धर्मः" कहकर अहिंसामय धर्म को ही विश्वकल्याण का आधारभूत तत्व माना है। . अहिंसा के बाद अपरिग्रह पर उतना ही बल दिया गया है। परिग्रह सब दुःखों की जड़ है। परिग्रह, मान्यताप्राप्त हिंसा है । "मुच्छा परिग्गहो" कहकर के भगवान महावीर ने मन की ममत्व दशा को ही परिग्रह बताया। परिग्रह का परिष्कार दान है। इसीलिए मुक्ति मंजिल के चार सोपानों में प्रथम सोपान दान कहा गया है । वैचारिक परिग्रह ही एकान्तवाद को जन्म देता है। अतः उससे भी विरत होने का प्रभु का आदेश है । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का सार्वभौम रूप ३५७ तीसरा मौलिक तत्त्व है-अनेकान्तवाद। वह वस्तुतः मानव का जीवनधर्म है। समग्र मानवजाति का जीवनदर्शन है। संकुचित एवं अनुदार दृष्टि को विशाल और उदार बनाने वाला अनेकान्त ही है। परस्पर सौहार्द, सहयोग, सद्भावना एवं समन्वय का मूल प्राण है । अस्तु हम अनेकान्तवाद को समग्र मानवता के सहज विकास की, विश्वजन-मंगल की धुरी भी कह सकते हैं। अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह रूप धर्म ही विषमतापूर्ण विश्व की समाज-व्यवस्था में समता के नारे लगा सकता है। उपासना और कर्मकाण्ड में उलझा हुआ धर्म मानसिक समता की लौ प्रज्ज्वलित नहीं कर सकता। समता क्रिया है, अहिंसा प्रतिक्रिया; विषमता क्रिया है तो हिंसा प्रतिक्रिया। विज्ञान से विश्व शान्ति दूर है, धर्म से सन्निकट है। अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्त रूप धर्म से ही जन-मन में मंगल की भावना परिव्याप्त होती है। अन्त में, धर्म का वास्तविक अर्थ है "अपने सर्वोच्च विकसित रूप में उच्चतम और अधिक मूल्यवान के प्रति पूर्णतया समर्पण।" आनन्द-वचनामृत 0 जैसे आवश्यक खाद, धूप, हवा, पानी पाकर बीज में निहित विकासोन्मुख शक्ति का प्रस्फुटन होता रहता है, उसी प्रकार शिशु आत्मा में सुप्त विराट संस्कार अनुकूल वातावरण पाकर निखर उठते हैं । । कारा (जेल) का बंधन अनचाहा होता है, इसलिए वह मनुष्य को त्रासदायक लगता है। दारा (पत्नी) बंधन का मनचाहा होता है, इसलिए वह मनुष्य को आह्लाददायक लगता है। 7 कारा की कठोरता से भी दारा की कोमलता अधिक खतरनाक होती है। - दीपक चाहे मिट्टी का हो, धातु का हो या सोने का, उसका महत्व उसकी काया से नहीं, बाती से है। 0 साधक चाहे निम्न कुल का हो या उत्तम कुल का, उसका गौरव कुल या वर्ण के बाह्यरूप में नहीं, किंतु ज्ञान की जगमगाती ज्योति से है। तलवार का मूल्य उसकी धार में है, सितार का मूल्य झंकार में है, मां का मूल्य उसके प्यार में है, साधु का मूल्य उसके आचार में है। - चपलता बालक का गुण है, युवक का दोष है। - पुरुष का सौन्दर्य है पुरुषार्थ, नारी का सौन्दर्य है लज्जा। wowwwimwww.wavivaranaviramerammmmmmmumoveme Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप आमदेव श्रीआनन्द अन्थ श्री आनन्दव डॉ. फ्र डा० हुकुमचन्द पार्श्वनाथ संगवे, एम. ए., पी-एच. डी. [ संप्रति - प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली ] पंचास्तिकाय में पुद्गल अनादि काल से विश्व को पहचानने की कोशिश हो रही है । अनेक दर्शनों का जन्म हुआ । मनुष्य के मस्तिष्क में जगत् स्रष्टा की कल्पना प्रस्फुटित हुई और जिज्ञासा भी हुई, 'यह जगत् किन तत्वों से निर्मित है । इन्हीं तत्वों का प्रारम्भ और प्रलय कैसा होता है ? और विश्व के पदार्थ को भारतीय दार्शनिकों ने पृथ्वी, अप, तेज, वायु और आकाश इन पांच महाभूतों से निर्मित माना । यूनानी दार्शनिकों ने मिट्टी, जल, अग्नि और वायु इन चार मूल तत्वों को स्वीकार किया तो जैन दार्शनिकों ने षट् द्रव्य का मूलभूत तत्वों में - ( Fundamental realities of universe) विवेचन किया | चार्वाकदर्शन जड़वादी है। उसके मत के अनुसार जड़ ही एक मात्र तत्व है, उससे ही चेतन आत्मा उत्पन्न होता है और मृत्यु के उपरान्त उसका नाश होता है । वह ईश्वर, स्वर्ग, नरक, जीवन की नित्यता और अमूर्त तत्वों को नहीं मानता। बौद्धदर्शन में इस विश्व को चार आर्यसत्य से युक्त समझा गया है। उनका कहना है, 'जो नित्य स्थायी मालूम पड़ता है, उसका भी पतन है। जहाँ संयोग है, वहाँ वियोग है ।" दुनिया की हर चीज अनित्य धर्मों का संघात् मात्र है । उसी का उत्पाद, स्थिति और निरोध होता रहता है।' भवचक्र द्वादश निदान से बना है ।" तत्वों का सविस्तार विचार सौत्रान्तिक मत में हुआ है। 3 वैशेषिक दर्शन के अनुसार द्रव्य गुण, कर्म का आधार और अपने सावयव कार्यों का समवायी कारण है । द्रव्य गुण, कर्म से भिन्न होते हुए भी उनका आधार है । उनके बिना गुण अथवा कर्म नहीं रह सकते | पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन ये नौ द्रव्य हैं । ४ सांख्य में प्रकृति अनादि अनन्त है। प्रकृति में जगत् उत्पत्ति के गुण मिलते । प्रकृति अव्यक्त है ।" प्रकृति और पुरुष के संगोग से ही संसार बनता है । पुरुष भोक्ता है, प्रकृति भोग्या है । पुरुष निष्क्रिय है, प्रकृति सक्रिय है। इसके अनुसार सत्व, रज तथा तम ये तीन गुण विकास में १ भारतीय दर्शन की रूपरेखा - डा० वात्सायन, पृ० ७२ २ वही पृ० ८२ ३ वही पृ० १०० ४ भारतीय दर्शन की रूपरेखा - डा० वात्सायन, पृ० १५७ ५ वही, पृ० १७० Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचास्तिकाय में पुद्गल ३५६ पहली विकृति 'महत्' है । वह अहंकार, मनसमेत सारी सृष्टि का कारण है । ६ २५ तत्वों में से पुरुष ( आत्मा ) न प्रकृति है, और न विकृति । प्रकृति केवल 'प्रकृति' है । महत्, अहंकार, पाँच तन्मात्राएँ आदि सात तत्व प्रकृति और विकृति रूप हैं । अन्य १६ तत्वों को सांख्य ने विकृतरूप माना है । शंकर के मत में जगत् असत्य और ब्रह्म सत्य है । अतः तत्वों के संदर्भ में कार्य-कारणवाद, असत्कार्यवाद, सत्कार्यवाद, आरम्भवाद, विवर्तवाद, नित्यपरिणमनवाद, क्षणिकवाद, स्याद्वाद का विवेचन विभिन्न दार्शनिक विचारधारा में हुआ है । अजीव द्रव्य : जैनदर्शन में षट्द्रव्य, सात तत्व और नौ पदार्थ माने गये हैं । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये षट् द्रव्य हैं और जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये सात तत्व हैं । इन सात तत्वों में पुण्य और पाप का समावेश करने से नौ पदार्थ बन जाते हैं । वैशेषिक दर्शन में नौ द्रव्य माने गये हैं, इन्हीं नौ का अन्तर्भाव जैनदर्शन के द्रव्यों में किया जा सकता है। पृथ्वी, आप, तेज, वायु इन चार द्रव्यों का समावेश पुद्गल द्रव्य में हो जाता है। जैनदर्शन के 'अनुसार मन के दो भेद किये गये हैं- एक द्रव्यमन और दूसरा भावमन, द्रव्यमन का अन्तर्भाव पुद्गल में और भावमन को आत्मा में समाविष्ट किया जा सकता है । षट् द्रव्य, सात तत्व और नौ पदार्थ पर दृष्टि स्थिर करने से मुख्य दो तत्व सामने आते हैं । वे ये हैं- 'जीव और अजीव' इन्हें जगत् के Fundamental Substance कहा जा सकता है । इन्हीं के वियोग और संयोग से अन्य सब तत्वों की रचना होती है । जीव का प्रतिपक्षी अजीव है । जीव चेतन, उपयोग, ज्ञान, दर्शन युक्त है तो अजीव अचेतन है । जीव १० ज्ञानवान होते हुए भी भोक्ता है, कर्ता है, सुख-दुःख का आस्वाद लेने वाला है, अजीव का लक्षण इसी से बिलकुल विपरीत है ।११ जीव के भी भेदप्रभेद बहुत होते हैं परन्तु यहाँ अजीव द्रव्य के कथन की अपेक्षा के कारण जीव द्रव्य का वर्णन गौण है । अजीव के पांच प्रकार हैं- (१) पुद्गल (Matter of energy ), ( २ ) धर्म ( Medium of motion for soul and matter) (३) अधर्म ( Medium of rest ), (४) आकाश (Space) और (५) काल ( Time ) । इन्हीं पांचों को रूपी १२ और अरूपी के अन्तर्गत समाविष्ट किया जाता है । 'पुद्गल' रूपी है और धर्म, अधर्म, आकाश काल अरूपी हैं । 'रूपी' और 'अरूपी' के लिए आगम में क्रमशः 'मूर्त' और 'अमूर्त' शब्द का प्रयोग हुआ है। पुद्गल द्रव्य 'मूर्त' है और शेष अमूर्त 13 हैं । पुद्गल द्रव्य में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण ये चार गुण पाये जाते हैं। इसी का वर्णन हम आगे विस्तार से करेंगे। मूर्तिक गुणवाला पुद्गल इन्द्रियग्राह्य है और अमूर्तिक गुण वाले अजीव द्रव्य इन्द्रियग्राह्य नहीं हैं । १४ ६ वही, पृ० १८२ ७ वही, पृ० १९४ ८ वही, पृ० २२० ६ स्थानांग २११ – ५७, १० पंचास्तिकाय २।१२२, ११ वही २।१२४-२५ १२ उत्तराध्ययन सूत्र ३६।४ और समवायांग सूत्र १४६ १३ वही ३६।६ और भगवती सूत्र १८।७; ७ १० १४ प्रवचनसार २३८, ३६, ४१, ४२ RO CLOT Mo आयाम प्रवर अभिनंदन आआनन्दत्र ग्रन्थ ११ श्री Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NABANASANAPANJANAMANALIAADABAJAJANAMAN ععععععععععععمعمو सपा प्रवर अभिवसागप्रवरा अभिनय श्रीआनन्दाथाश्रीआनन्दान हि ३६० धर्म और दर्शन wayvargvaviiiiiiwwwimm आकाश द्रव्य में पांचों अजीव द्रव्य और जीव द्रव्य ये षट् द्रव्य क्षेत्रावगाही और परस्पर ओत-प्रोत होकर रहते हैं। एक साथ रहते हुए भी ये षट् द्रव्य अपना-अपना स्वभाव और अस्तित्व खो नहीं पाते । हर एक द्रव्य अपने में अवस्थित है। जीव न कभी अजीव हुआ, न अजीव कभी जीव हुआ है। यही पंचास्तिकाय में स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि 'षट द्रव्य परस्पर एक दूसरे में प्रवेश करते है, परस्पर अवकाश दान करते हैं, सदा-सर्वदा काल मिल-जुल कर रहते हैं, तथापि वे कभी भी अपने स्वभाव से च्युत नहीं होते। १५ अजीव द्रव्य सत् है। इसमें यथार्थ की दृष्टि से उत्पाद और व्यय होते रहते हैं। एक पर्याय का नाश 'व्यय' कहलाता है। और नूतन पर्याय (Modification) उत्पन्न होना 'उत्पाद' कहलाता है। पर्याय और व्ययात्मक अवस्था में भी वस्तु के गुणों का अस्तित्व का अचल रहना ही 'ध्रौव्य' है। पंचास्तिकाय षट् द्रव्यों में से पांच-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश अस्तिकाय हैं । 'कालद्रव्य' आस्तिकाय नहीं है। 'अस्ति+काय' अस्तिकाय यह एक यौगिक शब्द है। आस्ति का अर्थ है प्रदेश, काय का अर्थ है-'समूह' अर्थात् जो अनेक प्रदेशों का समूह हो वह अस्तिकाय ७ है। अन्यत्र दूसरी व्याख्या देखने में आती है। 'अस्ति' अर्थात् 'अस्तित्व' जिसका अस्तित्व है और 'काय' के समान जिसके बहुत प्रदेश हैं। इस प्रकार भी कह सकते हैं- 'जो है और जिसके प्रदेश बहुत हैं वह 'अस्तिकाय' है ।१८ अतएव काल द्रव्य के बिना शेष चार द्रव्य अपनी सत्ता में अनन्य हैं, अनेक प्रदेशी हैं और उनका सामान्य और विशेष अस्तित्व नियत है, गुण और पर्याय सहित अस्तित्व भाव रूप है।१६ जीव, धर्म, अधर्म के असंख्यात प्रदेश हैं। आकाश के भी असंख्यात प्रदेश हैं। पुद्गल के प्रदेश, संख्यात असंख्यात और अनन्त हैं । 'काल-द्रव्य' अस्तित्व रखता है परन्तु बहुप्रदेशी न होने के कारण उसका समावेश अस्तिकाय में नहीं किया। ___"एक पुद्गल-परमाणु जितने आकाश को स्पर्श करता है, उतने भाग को 'प्रदेश' कहा है।" पुद्गल परमाणु की व्याख्या हम आगे करेंगे। अतः पंच द्रव्य 'अस्तिकाय' हैं इसलिए पंचास्तिकाय का चलन हुआ। आचार्य कुन्दकुन्द ने इसी नाम से एक ग्रन्थ भी लिखा । भगवान महावीर के समय पंचास्तिकाय को लेकर वाद-विवाद हुआ२० था। पुद्गल-द्रव्य अजीव द्रव्यों को अचेतन नाम से जाना जाता है। विज्ञान जिसको Matter और न्यायवैशेषिक भौतिक-तत्त्व और सांख्य में जिसे प्रकृति कहते हैं, उसे जैनदर्शन में पुद्गल संज्ञा दी गई है। बौद्धदर्शन में 'पुद्गल' शब्द का प्रयोग आलय-विज्ञान, चेतना, सन्तति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । जैनागम में भी उपचार से पुद्गलयुक्त (शरीरयुक्त) आत्मा को 'पुद्गल२१ कहा गया है। परन्तु सामान्यतया प्रमुखता से पुद्गल का प्रयोग अजीव मूर्तिक द्रव्य के लिए ही हुआ है । १५ पंचास्तिकाय ११७ १६ तत्त्वार्थसूत्र ५।१; द्रव्यसंग्रह-२३; स्थानांग ४।१।१२५ १७ भगवतीसार पृ० २३८. १८ द्रव्यसंग्रह २४, १६ पंचास्तिकाय ४१५ २० भगवती १८७; ७।१० २१ वही ८।१०-३६१ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचास्तिकाय में पुद्गल 'पुद्गल' शब्द 'पुद् और गल' पद से बना है । 'पुद्' का अर्थ है 'पूरण', 'गल' का अर्थ है गलन - इस प्रकार जिसमें पूरण और गलन होता हो वही 'पुद्गल' २२ है । जैनदर्शन में प्रतिपादित षड् द्रव्यों से पुद्गल द्रव्य की अपनी विशेषता है। पुद्गल द्रव्य के बिना अन्य द्रव्यों में पूरण गलन द्वारा सतत परिवर्तन नहीं होता । अन्य द्रव्य में परिवर्तन सतत होता है । परन्तु वह परिवर्तन पूरण- गलनात्मक नहीं होता । पुद्गल के सूक्ष्म सें सूक्ष्म परमाणु से लेकर बड़े से बड़े पृथ्वी स्कन्ध तक में सतत पूरण-गलनात्मक परिवर्तन होता रहता है और उसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण ये चार गुण पाये जाते हैं । यह हम पहले कह आये हैं । पुद्गल उसे कहते हैं, जो रूपी हो और जिसमें ऊपर निर्दिष्ट चार गुण पाये जाते हों । पुद्गल में पूरण- गलन (Combination & disintegration phenomena) होते समय इन चार गुणों का कभी भी नाश नहीं होता । इन चारों गुणों में से किसी में एक और किसी में दो और किसी में तीन गुण हों ऐसा नहीं । चारों गुण पुद्गल में एक साथ रहते हैं । अब प्रश्न यह कि ये चार गुण विद्यमान रहते हुए भी उनका प्रतिभास क्यों नहीं होता । विज्ञान के अनुसार हाइड्रोजन और नाइट्रोजन वर्ण, गंध एवं रस हीन हैं। इस संदर्भ में इसके दो प्रकार के कारण हो सकते हैं - ( १ ) आन्तरिक तथा ( २ ) बाह्य । इन्हीं दो कारणों से इन्द्रिय मन में विकल्पावस्था आ सकती है। समझ में भी वृद्धि, हानि तथा अन्य दोष की भी संभावना है । मनुष्य इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करता है । इन्द्रियातीत को जानने के लिए आत्मज्ञान की आवश्यकता चाहिए। कर्मबद्ध परतंत्र अवस्था में अनुमानादि प्रमाणों का सहारा लेना पड़ता है । प्रयोगशाला में द्रव्यों के विघटन की प्रक्रिया भी की जाती है । वह भी इन्द्रिय शक्ति के अनुरूप ही होती है । इन्द्रियातीत ज्ञान ही यथार्थ और प्रत्यक्ष ज्ञान है । कर्म से ऊपर उठे हुए स्वतंत्र आत्मा में वह ज्ञान सम्भव होता है । वस्तु का ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की सीमाओं से आबद्ध होता है । परन्तु इससे वस्तु का वास्तविक स्वरूप प्रकट होता, नहीं ऐसा नहीं । सीमाओं में रहकर वस्तु के वास्तविक ज्ञान की अनेकान्त, नय, प्रमाण के आधार पर यथार्थ विचाराभिव्यक्ति की प्रगाढ़ संभावना हो सकती है । ३६१ किसी भी वस्तु का कथन मुख्य और गौण को लेकर होता है । हाइड्रोजन में विज्ञान ने तीन गुणों का अभाव बताया है। अतः उनका यह कथन गौण दृष्टिकोण से हुआ है । जगत् उत्पत्ति से लेकर आज तक की विद्यमान परिस्थिति में 'वर्ण' हीन पदार्थ देखने में नहीं आता । सप्त वर्ण में वर्णों का कथन सीमित नहीं अपितु उनसे परे भी और वर्णभेद की विद्यमानता रहती है । फिर भी अपनी अपूर्ण भाषा - रचना द्वारा प्रकट करने में असमर्थ है। पुद्गल जड़ है फिर भी वह वर्ण रहित है, ऐसा नहीं कह सकते । हाइड्रोजन तथा नाइट्रोजन में स्पर्श गुण होता है । चूंकि जहाँ स्पर्श गुण रहता है वहाँ अन्य गुण भी रहते हैं, जैसे आम । अतः प्रयोगशाला में पदार्थों के गुणों की इस दृष्टिकोण से परीक्षा करने की अपेक्षा है । एकांश हाइड्रोजन और तीन अंश नाइट्रोजन से अमोनिया पदार्थ की उत्पत्ति होती है । अमोनिया रस और गंध सहित है लेकिन जिनसे यह बना है उनमें रस और गंध नहीं है। प्रश्न उठता है कि गंध रहित तत्त्व हाइड्रोजन और नाइट्रोजन से बना अमोनिया में वह गुण कैसे पाया जाता है ? ऐसा है तो बालू के समूह से भी तेल की प्राप्ति होनी चाहिए। जो है और जिसमें उत्पादन २२ सर्वार्थसिद्धि अ० ५।१-२४; राजवार्तिक ५।१ २४ और धवला में देखिये २३ प्रवचनसार २४० CAPRINES Sto 乖 CONNE आचार्य आगत वर्ष अभिन्दन ग्रामानन्द आश Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KAALAINGANAwaantaranMakk- dana आगामप्रवास भाचार्यप्रवर अभि श्रीआनन्दान्श्राआनन्दान् ३६२ धर्म और दर्शन की शक्ति है उसी से वह प्राप्त हो सकता है, कारण 'असत् की उत्पत्ति नहीं होती और सत् का नाश कभी नहीं होता।' यह सिद्धांत जैनागम, विज्ञान और गीता में प्रतिपादित है। अतः इसीसे यह सिद्ध होता है कि अमोनिया के अंश के जो गुण हैं वही अमोनिया में होना चाहिए। अणु, परमाणु या अन्य सूक्ष्म स्कन्ध पुद्गल में जो चार गुण रहते हैं वह प्रकट या अप्रकट रूप में रहते हैं। जैनागम में पुद्गल द्रव्य को सत् माना है। जो द्रव्य सत् है वह उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य गुण से युक्त होता है ।२४ जो अपने 'सत्' स्वभाव से च्युत नहीं होता, गुण पर्याय से युक्त है, वही द्रव्य२५ है । व्यय रहित उत्पाद नहीं और उत्पाद रहित व्यय नहीं होता, उत्पाद और व्यय होते रहते हुए भी ध्रौव्य द्रव्य का गुण कभी नाश नहीं होता। उत्पाद और ध्यय दोनों द्रव्य के पर्याय हैं। ध्रौव्य ध्रुव है न इसका उत्पाद है और न व्यय । यही बात उदाहरण से समझाई जाती हैजैसे सुवर्ण से कटक बनाया फिर उसी कटक से कुंडल बनाया तो सुवर्ण का नाश या उत्पाद नहीं हुआ, जो सुवर्ण कटक में विद्यमान था वही कुंडल में भी विद्यमान है। अतः सुवर्ण सुवर्ण के रूप रहा । परन्तु उत्पाद और व्ययात्मक पर्याय बदलती रही सुवर्ण ध्रौव्य रहा। अतः जिसका अभाव हो उसकी२६ उत्पत्ति कैसी? इसी ध्रौव्य के बारे में भी विज्ञान का मत उल्लेखनीय है--Nothing can made out of nothing and it is impossible to annihilate any thing. All that happens in the world depends on a change of forms (qf) and upon the mixture or seperation of to the bodies'-अर्थात् सारांश रूप में इस प्रकार कह सकते हैं कि किसी भी वस्तु का सर्वथा नाश नहीं होता। सिर्फ परिवर्तन होता रहता है। इसी मत को एम्पीडोकल्स२७ ने अन्य ढंग से प्रस्तुत किया है "There is only change of modification of the matter.' इसी संदर्भ में मोमबत्ती का उदाहरण दिया गया है। विज्ञान युग ने अणु बम या एटम बम की अनोखी देन दी। इसी एटम बम का निर्माण पुद्गल की गलन और पूरण शक्ति के आधार पर हुआ है। अतः विज्ञान की भाषा में इसे पयुजन व फिशन या इन्टिग्रेशन व डिस्इन्टिग्रेशन (Fusion and Fisoon or Integration and disintegration) कहते हैं। इसी एटम बम में एटम के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं और तब शक्ति उत्पन्न होती है। और हाइड्रोजन बम में एटम परस्पर मिलते हैं, तब उसमें शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। परमाणुवाद परमाणुओं की कल्पना आज से २॥ हजार वर्ष पूर्व डिमोक्रिटस् आदि यूनानियों ने की थी और भारत में पदार्थों के अन्दर छिपे हुए कणों का (परमाणुओं का) संशोधन करने वाला कणाद् नामक ऋषि हो गया है। पाश्चात्य विद्वानों को जैन दर्शन के साहित्य के अध्ययन का सु-अवसर मिलता तो कणाद् और डिमोक्रिटस् आदि कतिपय विचारकों के 'परमाणुवाद का सिद्धान्त' का उद्गम इनके पहले का माना जाता। जैन दर्शन में भी इस दिशा में पर्याप्त प्रयास हआ है-. आगम में कहा है कि सूक्ष्म या स्थूल सब पुद्गल परमाणुओं से निर्मित हैं। RSSES २४ भगवती ११४, २५ प्रवचनसार २।१-११. २६ पंचास्तिकाय २।११-१५ २७ General and Inorganic chemistry-by P. J. Durrant. Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचास्तिकाय में पुद्गल ३६३ IN राजवार्तिक में २८ परमाणु का वर्णन सूक्ष्मता से किया है। परमाणु जो स्वयं आदि है स्वयं ही वह अपना मध्य है और स्वयं ही अन्त्य है। इसी के कारण वह इन्द्रियों से किसी भी तरह ग्राह्य नहीं हो सकता। ऐसा जो अविभागी पुद्गल है उसे परमाणु कहा है। आधुनिक युग के विज्ञान द्वारा जिस परमाणु का विस्फोट किया है, वह वास्तव में परमाणु नहीं अपितु यूरेनियम एवं हाइड्रोजन तत्त्वों के एक कण हैं। कण और परमाणु में बहुत अन्तर है। कण के टुकड़े हो सकते हैं, परन्तु परमाण के नहीं। बौद्ध तथा वैशेषिक दर्शन ने इसी का समर्थन किया है। विज्ञान की मान्यतानुसार संसार के पदार्थ ६२ मूल तत्वों से बने हैं, जैसे सोना, चांदी आदि । इन तत्वों को उन्होंने अपरिवर्तनीय माना है। परन्तु जब रदरफोर्ड और टौमसन ने प्रयोगों द्वारा पारा के रूपान्तर से सोना बनाने की किमया सिद्ध की है और बताया कि सब द्रव्यों के परमाणु एक से ही कणों से मिलकर बने हैं और परमाणुओं में ये (Alpha) कण भरे पड़े हैं । इसी अल्फा (Alpha) कणों का गलन-पूरण द्वारा परिवर्तन संभवनीय है । पारा, सोना, चांदी आदि पुद्गलद्रव्य की भिन्न-भिन्न पर्यायें हैं। पानी एक स्कन्ध है। संसार के सभी पुद्गल स्कन्धों का निर्माण परमाणुओं से हुआ है। यह हम पहले कह आये हैं। पानी की बूंद को खण्ड-खण्ड करते हुए एक इतना नन्हा सा अंश बनायेंगे कि जिसका पुनः खण्ड न हो। यही स्कन्ध (Molecule) ऑक्सीजन और हाइड्रोजन से बना है। अतः जल के स्कन्ध में तीन परमाणु होते हैं । एक परमाणु ऑक्सीजन और दो परमाणु हाइड्रोजन के [H,0]। इसी प्रकार अन्य पदार्थों के स्कन्धों में भी परमाणुओं की संख्या भिन्न-भिन्न पाई जाती है। इन्हीं परमाणुओं के संघात से निर्मित स्कन्ध के छः भेद हैं। इसी का वर्णन हम निम्नोक्त वर्गीकरण के अन्तर्गत करेंगे (१) परमाणु एक सूक्ष्मतम अंश है। (२) वह नित्य अविनाशी है । (३) परमाणुओं में रस, गंध, वर्ण और दो स्पर्श-स्निग्ध अथवा रूक्ष, शीत या उष्ण होते हैं। (४) परमाणुओं के अस्तित्व का अनुमान उससे निर्मित स्कन्धों से लगाया जा सकता है। परमाणुओं के या स्कन्धों२६ में बन्ध से बने स्कन्ध संख्यात प्रदेशी, असंख्यात प्रदेशी या अनन्त प्रदेशी हो सकते हैं। सबसे बड़ा स्कन्ध अनन्त प्रदेश वाला है। अनन्त प्रदेशी की यह विशेषता है कि वह एक प्रदेश में भी व्याप्त होकर या लोकव्यापी होकर रह सकता है। समस्त लोक में परमाणु ० है, उसकी गति के विषय में भगवती में3१ कहा है कि 'वह एक समय में लोक के पूर्व अन्त से पश्चिम अंत तक, उत्तर अंत से दक्षिण अंत तक गमन कर सकता है। उसकी स्थिति कम से कम एक समय और अधिक से अधिक असंख्यात समय३२ तक है। यही बात उत्तराध्ययन में 3 अन्य ढंग से प्रस्तुत की गई है। स्कन्ध और परमाणु सन्तति की अपेक्षा अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं। ANSI का २८ तत्त्वार्थराजवार्तिक श२५ २६ तत्त्वार्थसूत्र अ० ५, ३० उत्तराध्ययन ३६/११ ३१ भगवती १८/११ ३२ वही ५/७ ३३ उत्तराध्ययन ३६/१३ AAJIJADHAARAVAADAMAKJAIAJAPAN A GARAAJAAMKARAARAAJanA. AAAAAAAAAJ En www.janelibrary.org Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HI आचार्यप्रवभिनय ग्रन्थश्राआनन्दान्थर ३६४ धर्म और दर्शन LAM यही परमाणु विज्ञान युग का ऊर्जा रूप है। इसी की शक्ति के आधार पर उत्थान और पतन हो सकता है। आताप (heat), उद्योत (light), विद्युत (Electricity), ये तीन शक्तियां अति सूक्ष्म हैं। इन्हीं शक्तियों का प्रतिपादन जर्मनी के प्रो० अलवर्ट आइन्सटाइन ने सबसे पहले सूत्र में प्रस्तुत किया। इसी को ऊर्जा व पदार्थ की समानता के सिद्धान्त नाम से जाना जाने लगा। (Principal of Equivalance between mass and energy) i सूत्र का प्रतिपादन इस प्रकार है E=m--2/c'E' का अर्थ एनर्जी और (m) का अर्थ 'मास' है और (c) प्रकाश की गति का द्योतक है। अतः जब पदार्थ अपने स्थूल रूप को नष्ट करके शक्ति के सूक्ष्मरूप में परिणत हो जाता है, तब हजारों टन कोयला जलाने से जो शक्ति उत्पन्न होती है वही शक्ति एक ग्राम पदार्थ में भी प्राप्त हो सकती है । इसी महान शक्तिशाली परमाणु की रचना विज्ञान के दृष्टिकोण से इस प्रकार है गोम्मटसार में परमाणु को षटकोणी, खोखला और सदा दौड़ता हुआ बतलाया गया है। तत्त्वार्थसूत्र में 'स्निग्ध' और रूक्षत्व गुणों के कारण को बंध कहा है। सर्वार्थसिद्धि में 'स्निग्धरूक्षगुणनिभित्तो विद्युत' ऐसा कहा है। अर्थात् स्निग्ध और रूक्ष के कारण ही विद्युत की उत्पत्ति होती है। स्निग्ध रूक्ष के चिकना या खुरदरा अर्थ न लेकर विज्ञान की भाषा के अनुसार Positive and Negative का प्रयोग आचार्य पूज्यपाद को मान्य था। हायड्रोजन के परमाणु के मध्य में धन (स्निग्ध) विद्युत कण (Proton) अल्पस्थान में स्थिर रहता है। यही उसी परमाणु का नाभि के रूप में है। (Nucleus नाभि) के चारों ओर कुछ दूरी पर रूक्ष अर्थात् ऋण-विद्युत कण (Electron) सतत् नाभि की ओर चक्कर लगाता रहता है । अतः स्निग्ध (Proton) और रूक्ष (Electron) के बीच जो खोखलापन है, उसी के कारण एक परमाणु के अन्दर दूसरा परमाणु प्रवेश कर सकता है। इसी क्रिया को सर्वार्थसिद्धिकारने सूक्ष्म-अवगाहन शक्ति नाम दिया। प्रदेश की व्याख्या पहले हम कर आये । एक प्रदेश में अनन्तानन्त परमाणु को स्थित करने की अवगाहन शक्ति है। अतः इससे विज्ञान की मान्यता को जैनदर्शनानुसार किस ढंग से कहा है, पता लगता है। वैज्ञानिक दृष्टि से जैनदर्शन का अध्ययन होना चाहिए। न कि साम्प्रदायिक और धार्मिक दृष्टिकोण से। इसी की जंजीर में जैनदर्शन या पदार्थ-दर्शन का स्वरूप अंधकार में रहा और अनेक गलतफहमियां फैलती रहीं। सर्वार्थसिद्धि का पांचवां अध्याय पुद्गल परमाणु का यथार्थ स्वरूप प्रतिपादित करता है, जैसा कि विज्ञान में प्रतिपादित हुआ है। स्कन्ध : बन्ध की प्रक्रिया--पुद्गल परमाणु के समूह से स्कन्ध बनता है और बंधने की प्रक्रिया का वर्णन जैन दर्शन में वैज्ञानिक ढंग से हुआ है। विज्ञान किसी धर्मग्रन्थ-आगम तथा दर्शन से जुड़ा हुआ नहीं है । विज्ञान के सिद्धान्त कोई भी अन्तिम नहीं हैं। वे समय-समय पर बदलते रहते हैं, वह एक सत्य की खोज करने वाला जिज्ञासु है। इसी के कारण अपनी कमजोरी को वह स्वीकार करने में हिचकता नहीं। बाइबिल, आगम, कुरान आदि आर्षग्रन्थ में प्रतिपादित तत्वों को विज्ञान ने कभी भी आंख मूंद कर स्वीकार नहीं किया, बल्कि उसे सत्य की कसौटी पर कसने की कोशिश की और सत्य को सामने उपस्थित किया। छः हजार पुरानी पृथ्वी का बाइबिल द्वारा जो कथन हुआ था उसे विज्ञान ने ५० हजार वर्ष पुरानी सिद्ध कर दी। चय Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचास्तिकाय में पुद्गल टा e यह पृथ्वी सबसे बड़ा स्कन्ध है। संसार में जितने भी पुद्गल स्कन्ध दृष्टि में आते हैं वे सब स्निग्ध-रूक्ष गुणों से युक्त हैं । यह हम पहले परमाणु के बारे में कह आये हैं। उनकी रचना एक जैसी होने के कारण सब पुद्गल एक प्रकार के हैं । यही बात जैन दार्शनिकों का महत्त्वपूर्ण अविष्कार है । उमास्वाति जो ईसा की प्रथम शती में हुए उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र में 3५ कहा है कि पुद्गल स्कन्ध के टूटने से, भेद से अथवा छोटे-छोटे स्कन्धों के संघात से उत्पन्न होते हैं। इन संघात (Combination) के मूल कारण परमाणु के स्निग्ध और रूक्षगुण हैं। जितने भी भिन्न-भिन्न प्रकार के स्कन्ध हैं, उनका बन्ध इन्हीं के आधार पर हुआ है। पुद्गल स्कन्ध में अणुसमूह और वातियों आदि पुद्गलों में व्यूहाणु (Molecales) की चलन क्रिया होती रहती है।३६ इसी क्रिया का वर्गीकरण दो प्रकार से किया गया है । ३७ उनमें से एक विस्रसा क्रिया होती है और दूसरी प्रयोग निर्मित क्रिया । विस्रसा गतिक्रिया प्राकृतिक है, विज्ञान में वतियों (Gasses) में जो व्युहायुओं की क्रिया कही गई है उसे भी विस्रसा गतिक्रिया जान सकते हैं। प्रयोगनिर्मित क्रिया बाह्य शक्ति या कारणों से भी उत्पन्न होती है। Electron Positively charged at negatively charged इसी वैज्ञानिक बन्ध-प्रक्रिया से संघातादि का जो सर्वार्थसिद्धि में नियम बताया गया है वह पूर्णतः इससे मिलता है । सूक्ष्म अणुओं की बन्ध प्रक्रिया को भी स्पष्ट किया गया है। अतः उसका कथन इस प्रकार है 'भेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्ते, भेदादणुः । स्निग्ध-रूक्षत्वात् बन्धः, न जघन्यगुणानाम्, गुणसाम्ये सदृशानाम्, द्वयधिकाधिगुणानां, बंधेऽधिको पारिणामिकौ च । (१) अणु की उत्पत्ति सिर्फ भेद प्रक्रिया में ही हो सकती है, अन्य प्रकार की प्रक्रिया से नहीं। (२) स्निग्ध-रूक्ष के कारण ही बन्ध प्रक्रिया सम्भव है। अन्यथा स्कन्ध बन्ध ही न बनता । विजातीय से भी बन्ध होता या सजातीय का परस्पर बन्ध सम्भव है। (३) परन्तु एकाकी गुणों का होना बन्ध का कारण नहीं। दोनों गुण होना चाहिये । विजातीय गुण की संख्या का प्रमाण समान हो तो बन्ध नहीं होता। विज्ञान का Equal energy level व least energy level नियम यहां भी लागू होता है। (४) बन्ध उन्हीं परमाणुओं का सम्भव है जिसमें स्निग्ध और रूक्ष गुणों की संख्या में दो absolute units का अन्तर हो। ४:६।। जैन दर्शन में भेद, सघात और भेदसंघात इन्हीं तीन प्रक्रिया से बन्ध सम्भव बतलाया गया है। इसी की तुलना Molecules के लिए (1) electro Valency (2) Covalency और (3) Co-ordinate covalency से की जा सकती है। स्कन्धों से कुछ परमाणुओं का विघटित होना और दूसरे में मिल जाना भेद कहलाता है (Disinte gration) यही भेदात्मक प्रक्रिया की तुलना वैज्ञानिक Radioactivity प्रक्रिया से की जा सकती है। एक स्कन्ध के कुछ परमाणु का अन्य स्कन्ध के अणुओं के साथ जो मिलन होना बतलाया गया है उसी को संघात कहा UOL ३४. तत्त्वार्थसूत्र अ० ५/२६-३३ ३५. वही ३६. गोम्मटसार जीवकाण्ड ५६२ ३७. तत्त्वार्थराजवार्तिक ५/७ meansDADAAS NIPAT MIMINARomarwanamannerwironmaraar Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धाEिN IN आपका vowwwm orrow.y ३६६ धर्म और दर्शन जा सकता है। तीसरी प्रक्रिया में भेद और संघात की रचना एक साथ होती रहती है । जिसमें परमाणु विघटित होते हैं तो कुछ संघटित होते हैं। बन्ध का अर्थ यहाँ कर्म बन्ध प्रकृतियों की अपेक्षा न ग्रहण कर स्कन्ध का बन्ध-संयोग समझना चाहिये। अवगाहनशक्ति-परमाणु की रचना में जो खोखलापन की चर्चा की गई है, उसी के कारण संकोच विस्तार की सम्भावना होती है। अतः आकाश द्रव्य में सब द्रव्यों को अवकाशदान मिलता है । आकाश के प्रदेश असंख्यात हैं, तो पुद्गल के प्रदेश अनन्त हैं । अतः यहाँ स्वाभाविक ही प्रश्न उपस्थित होता है कि असंख्यात प्रदेश में अनन्त प्रदेशों का समावेश कैसे सम्भव है ? इस सन्दर्भ में पुद्गल का एक अविभाग परिच्छेद परमाणु आकाश के एक प्रदेश को (unit space) घेरता है। उसी प्रदेश में और अनन्तानन्त पुद्गल परमाणु अपने खोखलेपन के कारण या अवगाहन की शक्ति के कारण स्थित हो सकते हैं। इसी सूक्ष्म परिणमन शक्ति के कारण असंख्यात प्रदेश में अनन्तानन्त पुद्गल परमाणु रह सकते हैं। तलवार या तलवार की धार पर स्थित परमाणु की वह धार उन्हें खण्डित नहीं कर सकती ।३६ वह अन्तिम भाग है। उसमें जुड़ने की और अलग होने की शक्ति है । वह कार्य रूप नहीं, कारण रूप है। उसमें अवगाहन की महान् शक्ति विद्यमान है। पुद्गल का वर्गीकरण-परमाणु और स्कन्ध ये दो पुद्गल के प्रमुख भेद ० हैं । परमाणु का विभाजन तो हो नहीं सकता। स्कन्ध तो उसी के कारण बनता है। उसके छः भेद हैं४१ १. स्थूल स्थूल (Solid), २. स्थूल (Lequid), ३. सूक्ष्म-स्थूल (Gass), ४. स्थूल-सूक्ष्म (Energy), ५. सूक्ष्म (Fine matter beyound sense-pereepation), ६. सूक्ष्म-सूक्ष्म (Extra fine matter)। प्रकृति, शक्ति, तम, प्रकाशादि को पुद्गल का पर्याय माना है। ४२ तम के बारे में मतभेद है। किसी ने उसे प्रकाश का अभाव माना तो किसी ने उसीकी अर्थात् प्रकाश की अनुपस्थिति स्वीकार किया।४३ सर्वार्थसिद्धि में अंधकार को भावात्मक न मानकर 'दृष्टिप्रतिबंध कारण व प्रकाशविरोधी' माना है। विज्ञान ने प्रकाश की भांति अंधकार को स्वतन्त्र रूप में स्वीकार किया। 'छाया' जिसे अंग्रेजी में (Shadow) कहते हैं, वह प्रकाश के निमित्त से होती है।४४ प्रकाश के दो-आतप और उद्योत भेद हैं।४५ सूर्य और अग्नि के उष्ण प्रकाश को आतप कहते हैं । जुगनू, चन्द्रमा आदि के शीतल प्रकाश को उद्योत कहते हैं। शब्द, तम, छाया, आतप, उद्योत ये सब स्थूल सूक्ष्म के पर्याय हैं। ये किसी के गुण नहीं। वैशेषिक दर्शन में४६ मात्र शब्द को आकाश का गुण माना है। जबकि शब्द पौद्गलिक है, वह कान से सुना जाता है। इसके सम्बन्ध में विज्ञान भी सहमत है। ३८. द्रव्यसंग्रह-जावदियं आयासं'... ३६. भगवती ५/७. ४०. तत्त्वार्थसूत्र, अ० ५ ४१. नियमसार-अतिस्थूलाः.......''सूक्ष्म इतिः । ४२. द्रव्यसंग्रह-सद्दोबंधो........"दव्वस्स पज्जाया । ४३. सर्वार्थसिद्धि-तमोदृष्टिः प्रतिबंध कारणं प्रकाश विरोधी। ४४. वही, ५/२४. ४५. वही, अ० ५. ४६. तर्कसंग्रह, पृ० ६ 'शब्दगुणकमाकाशम् ।' Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचास्तिकाय में पुद्गल ३६७ शब्द तो एक स्कन्ध के दूसरे स्कन्ध से (Molecule) टकराने से उत्पन्न होता है । ४७ इसी टकराव से वस्तु में कम्पन उत्पन्न होती है, कम्पन से वायु में तरंगें उत्पन्न होती हैं और ध्वनि फैलती है । जैसे शांत शीतल सरोवर में एक कंकड़ फेंकने से तरंगें उत्पन्न होती हैं, वैसे ही वायु में भी तरंगें उत्पन्न होती हैं । यही तरंगें उत्तरोत्तर पुद्गलवर्गणाओं में कम्पन उत्पन्न करने में समर्थ होती हैं, इसी प्रक्रिया से उद्भूत हुई ध्वनि से ही 'शब्द' सुनाई देता है ।४८ शब्द के दो भेद किये गये हैं— (१) भाषात्मक और (२) आभाषात्मक । भाषात्मक शब्द के भी दो भेद - - ( १ ) अक्षरात्मक (२) अनक्षरात्मक हैं। अभाषा शब्द प्रायोगिक और वैस्रसिक भेद से दो प्रकार के हैं । फिर प्रायोगिक के तत, वितत, घन और शुषिर ये चार भेद हैं । इन्हीं भेद प्रभेदों का कथन स्थानांग ४६ में अन्य ढंग से हुआ है । वे इस प्रकार हैं । शब्द के प्रथम भाषा शब्द और नोभाषा शब्द भेद से दो भेद किये गये, तदन्तर नोभाषा शब्द के आतोद्य और नो-आतोद्य भेद कर फिर आतोद्य के तत वितत ये भेद किये गये हैं । फिर तत के घन और शुषिर, वितत के भी यही भेद हैं । नो-आतोद्य के भूषण शब्द तथा नो भूषण शब्द दो भेद किये गये हैं । नो भूषण शब्द के तालशब्द और लतिका शब्द | भाषा शब्द के कोई भेद-उपभेद नहीं हैं । यही पौद्गलिक शब्द का वर्गीकरण हुआ । इसी को आधुनिक विज्ञान ने प्रकारान्तर से स्वीकार किया है -- उन्होंने शब्द को ध्वनि नाम से स्वीकार किया है। ध्वनि के दो भेद किये गये हैं- ( १ ) कोलाहल ध्वनि ( Noises ), ( २ ) संगीत ध्वनि (Musical ) । संगीत ध्वनि ( १ ) यंत्र की कम्पन से, (२) तनन की कम्पन से, (३) दण्ड और पट्टे के कम्पन से, (४) प्रतर के कम्पन से उत्पन्न होती है । इन्हीं भेदों का समावेश तत, वितत, घन, शुषिर में किया जा सकता है । जगत् में जीव अर्थात् आत्मा के बिना स्थूल, सूक्ष्म, दृश्य पदार्थ का समावेश पुद्गल में किया जा सकता है । अनंत शक्ति स्वरूपात्मक पुद्गल का विधायक कार्य में किस प्रकार उपयोग किया जाय और विनाशक प्रवृत्ति से बचाव किया जाय इसी को सोचना और उपयोग में लाना एकमात्र जीव का कार्य है । मन, बुद्धि, चिन्तनात्मक शक्ति भाव रूप से तो आत्मा और द्रव्य रूप से पुद्गल की है । यहाँ द्रव्य का अर्थ सत् न लेकर द्रव्य भाव ग्रहण करना चाहिए । पुद्गल जीव का उपकार कर सकता है। पुद्गल, पुद्गल का उपकार कर सकता है । जीव-जीवों का उपकार कर सकता है। पुद्गल में अनंतशक्ति है और वह जीव की भांति अविनाशी और अपने पर्याय सहित विद्यमान है। पुद्गल का परिवर्तन होता रहता है, जीवों को जीव के भावों से कर्म वर्गणा बंधन बनते हैं परन्तु कर्मवर्गणा जीव का घात नहीं कर सकती, कारण वह भी पुद्गल स्वरूपात्मक है । जड़ है, स्पर्शादि गुणों के सहित है । ४७. पंचास्तिकाय, १७६. ४८. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, ५. ४६. स्थानांग, ८१. Ro ~SENT THE OVEN THE फ्र आयाय प्रवरत अभिनन्दन आआनन्द अथव अभिनंदन श्री Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ marriaRAAAAAAAAAAAAAAAASARAMANAare KAARAANABAJANASANABAJAJARANARMADABAADAAAAAAAAAADAJEDABADDABADANAPANASOON डा० वीरेन्द्रसिंह एम .ए., पी-एच. डी. [प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, राज० वि० वि०, जयपुर GOV TREET चय धर्म का वैज्ञानिक विवेचन MBER PAN पुराण और धर्म-प्रवृत्ति की वैज्ञानिकता धर्म का क्षेत्र ज्ञान-साक्षात्कार का क्षेत्र है और वैज्ञानिक विचारधारा में ज्ञान का स्वरूप सापेक्ष माना गया है । इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि धर्म और विज्ञान, मानवीय ज्ञान के दो महत्त्वपूर्ण पक्ष होने के नाते उनका सम्बन्ध मानवीय चेतना के क्रमिक विकास से सम्बन्धित है। पुराण और मिथकीय प्रवृत्ति का सम्बन्ध भी धार्मिक मनोभाव के विकास के साथ जुड़ा हुआ है और इस सम्बन्ध में हमें कहीं-कहीं पर वैज्ञानिक प्रत्ययों की हल्की-सी झलक मिल जाती है। इसका तात्पर्य केवल इतना है कि मानवीय चेतना के विकास में अनुभव की तार्किकता लक्षित होने लगती है । कार्य-कारण की यह तर्कना शक्ति वैज्ञानिक मनोभाव की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। पुराण और धर्म का एक तार्किक सम्बन्ध है, क्योंकि दोनों अनुभव की आधारशिला को लेकर ही विकसित हुए हैं । हर्बर्ट स्पेन्सर का कथन है कि धार्मिक विचार मानवीय अनुभव से प्राप्त किए गए हैं जो क्रमशः संगठित और परिष्कृत होकर, प्रतीकात्मक रूप में स्थिर हो गए। यह धारणा ब्रह्मा, विष्णु और महेश के स्वरूप विश्लेषण से स्पष्ट होती है कि सृष्टि के तीन तत्त्वों (सृष्टि, सामंजस्य तथा संहार) के आपसी संतुलन से ही विश्व की स्थिति सम्भव है। 'त्रिमूति' की इस धारणा के पीछे मानव की अनुभव शक्तियों पर आश्रित 'तर्कना' का एक ऐसा रूप मिलता है जो प्राचीन मानव को घटनाओं और वस्तुओं के सापेक्ष सम्बन्ध की ओर प्रेरित करता है। इसी प्रकार किसी न किसी देवता की कल्पना एक वैज्ञानिक सत्य का निर्देशन है। प्राणिशास्त्र की दृष्टि से, सृष्टि एवं प्रजनन के लिए 'एक' की सत्ता निष्क्रिय है, उसमें सक्रियता उसी समय आती है जब वह दूसरी विपरीत “सत्ता" से संसर्ग स्थापित करती है। इस दृष्टि से “अर्धनारीश्वर" का महत्त्व भी दर्शनीय है। वेदांत-दर्शन में यह प्राप्त होता है कि 'जब ब्रह्म को सृष्टि का ईक्षण (कामना) हुआ, तब उसने 'माया' की उत्पत्ति की और सृष्टि कार्य सम्पन्न किया ।२ उपर्युक्त उदाहरणों से यह निष्कर्ष निकालना कि सभी धार्मिक प्रस्थापनाओं के पीछे यह 'वैज्ञानिकता' प्राप्त होती है। मैं तो यह मानता हूँ कि वैज्ञानिक दृष्टि से हम धार्मिक तात्त्विक संकेतों को अधिक गहराई से समझ सकते हैं। यह 'गहराई' विश्लेषणात्मक पद्धति के द्वारा स्पष्ट ren १ दि फर्स्ट प्रिंसिपल, स्पेन्सर, पृ० १५ २ उपनिषद् भाष्य, खण्ड १, पृ० ५६-५७ (गीता प्रेस) Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का वैज्ञानिक विवेचन ३६६ होती है क्योंकि वैज्ञानिक तर्कना में विश्लेषण और संश्लेषण का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । अवतार, लीला तथा ब्रह्म आदि की धारणाएँ विकासवादी सिद्धान्त तथा मनोविज्ञान की दृष्टि से नये परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित एवं मूल्यांकित की जा सकती हैं । धार्मिक प्रतीकों को वैज्ञानिकता उपर्युक्त विवेचन के प्रकाश में 'अवतार' की धारणा को एक नयी परिदृष्टि प्रदान होती है जो विकास - परम्परा का एक प्रतीकात्मक निर्देश है । विकासवाद सिद्धांत ( Evolution ) में चेतना के क्रमिक विकास और शारीरिक संगठन को अन्योन्याश्रित माना गया है। भारतीय दस अवतार प्राणियों के चेतना- विकास के क्रमिक सोपान हैं जिससे यह भी स्पष्ट होता है कि मानव नामधारी प्राणी अन्य मानवेतर प्राणियों से सम्बद्ध है और 'वह' विकास परम्परा में शीर्षस्थ है । प्रथम अवतार मत्स्य है जो नितांत जल में रहनेवाला प्राणी है और दूसरा कूर्म है जो अंशतः जल और धरती दोनों पर रह सकता है, जिसे जीवशास्त्रीय भाषा में एम्फीबियन कहा गया है । यह दूसरी अवस्था पहली अवस्था से ज्यादा विकसित है । वाराह अवतार तक आते स्तनधारी प्राणियों ( मैमल्स ) का प्रादुर्भाव होता है जो केवल पृथ्वी काही निवासी है। चौथा अवतार नरसिंह है । इसमें नर के साथ पशु-अंश की विद्यमानता है जिसका उन्नयन 'वामनावतार' में होता है। यदि फिर भी, इस पशु-प्रवृत्ति (रक्त) का अवशेष रह जाता है, वह 'परशुराम' के अवतार में दृष्टव्य है । सातवां अवतार 'राम' है जो परशुराम की अहं प्रवृत्ति का शमन करते हैं । आठवां कृष्णावतार है जिसमें मानव के बहुमुखी व्यक्तित्व का विकास होता है । 'बुद्ध' और 'कल्कि' अवतार 'अतिमानव' (सुपरमैन) के भावी संभावित रूप हैं जो मानव की अन्तर्निहित शक्तियों का क्रमिक साक्षात्कार है । इसी प्रकार ब्रह्म, लीला, द्रव्य आदि की धारणाओं को वैज्ञानिक दृष्टि से समझा जा सकता है । यह तथ्य यह भी स्पष्ट करता कि ज्ञान का स्वरूप सापेक्ष है और अन्तर अनुशासनीय है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि ज्ञान का क्षेत्र 'सापेक्ष सत्य' के साक्षात्कार का क्षेत्र है और इसका है - 'आनंद' उस प्रक्रिया में निहित है जो साक्षात्कार तक पहुँचने का माध्यम है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार गंतव्य तक पहुँचने की लालसा का आनंद गंतव्य प्राप्त हो जाने पर उसका क्रमशः शमन हो जाना । इस दृष्टि से धार्मिक प्रतीकों का रहस्य भी ज्ञान-परक है । जब यह ज्ञान 'अनुभूति' के संस्पर्श से ऊर्ध्वगामी होता है, तब वह भौतिक क्षेत्र को छोड़कर तात्त्विक क्षेत्र की व्यंजना करता है । विज्ञान भी इसी तात्त्विकता की ओर अग्रसर हो रहा है । अनेक विचारकों ने धार्मिक प्रतीकों या ज्ञान को केवल भौतिक क्षेत्र के अन्दर ही सीमित माना है और उनका महत्त्व केवल नैतिक मूल्यों तक ही सीमित रखा है। इसके समर्थक काँट, फीत्से आदि विचारक हैं । इनके अनुसार यदि नैतिकता के मानदण्डों का निर्माण न हो तो धार्मिक प्रतीकात्मक दर्शन का विकास ही संभव न हो सकेगा । इस मत में सत्य का केवल एक पक्ष ही है । धार्मिक दर्शन में नैतिक मूल्यों का एक प्रमुख स्थान है, पर उसके 'ज्ञान' को केवलमात्र 'नैतिकता' के दायरे में बांधा नहीं जा सकता है । सत्य में, नैतिकता का विकास भी विकासवादी परम्परा की सापेक्षता में होता है । नैतिकता के अतिरिक्त, धार्मिक प्रतीकों में किसी धारणा या आदर्श का अव्यक्त रहस्य और ऊर्ध्वगामी अभियानों का दिग्दर्शन होता है । ईश्वर, आत्मा, अनंत अथवा निरपेक्ष (एब्सोल्यूट Absolute ) की धारणाओं का हृदयंगम केवल नैतिक मान्यताओं के द्वारा नहीं हो सकता है । दूसरा वर्ग उन ३ दे० पुरानाज इन दि लाइट आफ माडर्न साइंस, के० एन० अय्यर, पृ० ५०-६० ४ लैंगवेज एण्ड रियाल्टी, अरबन, पृ० ६०० आचार्य प्रवास गाना आचार्य प्रदर श्री आनन्दत्र ग्रन्थ ग्रन्थ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ areasirdanandn.nakarma-MARNAMAAAA-Nahadatara..... सर्मप्रव17 नाव अभिर श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्द अन्५५ ३७० धर्म और दर्शन विचारकों का है जो धर्म को केवलमात्र भौतिक अनुभाव तथा प्रयोग का विकसित रूप मानते हैं। इस मत के पोषक ली रो (Le Roe), विलियम जेम्स तथा रसेल आदि विचारक हैं। इन विचारकों ने इसाई-धर्म की अनेक रूढ़ियों एवं मान्यताओं का विश्लेषण करने के बाद इस निष्कर्ष को सामने रखा है कि धार्मिक प्रतीकों तथा मान्यताओं का सर्वप्रथम महत्त्व उनके अर्थ में समाहित है जो अनुभव के तथा प्रयोग-पद्धति के द्वारा विकसित हुए हैं। केवलमात्र 'अनुभव' ही किसी मान्यता अथवा प्रस्थापना की सत्यता का मापदण्ड है।" इस सिद्धांत के पक्ष में कहा जा सकता है कि इसका क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है क्योंकि ज्ञान का आरम्भ एवं विस्तार अनुभव पर ही आश्रित है। परन्तु इसका क्षेत्र, जैसा कि इन विचारकों ने बताया है, केवलमात्र भौतिक ही है और मैं किसी सीमा के बाद इससे सहमत नहीं है। जहाँ तक भौतिकता का प्रश्न है, उससे भी मेरा कोई मतभेद नहीं है। परन्तु अनुभव का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। वह केवल भौतिक प्राचीरों (ऐंद्रियजन्य) के अन्दर ही सीमित नहीं है । उसका क्षेत्र भौतिकता से परे, तात्त्विकता का भी क्षेत्र है। इस क्षेत्र में आकर 'अनुभव', भौतिकता की परिधि को छोड़कर 'अनुभूति' (इन्ट्यूशन Intution) के क्षेत्र के प्रवेश करता है। समस्त मानवीय ज्ञान इसी 'अनुभूति' के क्षेत्र को किसी-न-किसी रूप में स्पर्श करते हैं। धर्म और आत्मज्ञान उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि धार्मिक प्रतीक तथा प्रत्यय जहाँ अनुभव की परिधि को स्पर्श करते हैं, वहीं वे तत्त्व-चिन्तन की भावभूमि को छूते हैं । अतः दृश्यमान भौतिक क्षेत्र से अदृश्यमान तात्त्विक क्षेत्र तक एक क्रमागत सम्बन्ध है जिसमें नैतिक तथा अन्य प्रकार के अनुभवों का एक अभिन्न योगदान है। दृश्य अथवा भौतिकता का यहाँ तिरोभाव या नकार नहीं है, पर उसका उचित तथा अर्थवान सन्निवेश है। आधुनिक वैज्ञानिक-चिन्तन भी भौतिकता से क्रमशः अदृश्य प्रत्ययों की ओर गतिशील हो रहा है। परमाणु, ऊर्जा (Energy) ईथर, दिक्, काल तथा गुरुत्वाकर्षण शक्ति आदि ऐसे ही प्रत्यय हैं जो अदृश्य कल्पनाएं हैं जिन पर विज्ञान (भौतिकी और गणित आदि) की तात्त्विकता दृष्टिगत होती है । आधुनिक पदार्थ (या जैन शब्दावली में "द्रव्य") का स्वरूप नितान्त भौतिक नहीं रह गया है, यहाँ तक कि दिक् और काल को भी पदार्थ का रूपान्तर माना गया है। बट्रेन्ड रसेल का तो यहाँ तक कथन है कि पदार्थ वह है जहाँ तक 'मन' अन्तिम रूप से पहँच न सके । आधुनिक विज्ञान की यह धारणा एक तात्त्विकता की ओर संकेत करती है और ज्ञान के एक ऐसे पक्ष की ओर संकेत करती है जिसे हम आत्मिक या आध्यात्मिक-ज्ञान की संज्ञा देते हैं। ज्ञान का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है और उसी की व्यापकता पर "यथार्थ" का स्वरूप स्पष्ट होता है । सत्य और यथार्थ का स्वरूप निरपेक्ष न होकर सापेक्ष है और सापेक्षता की दशा में कोई भी प्रत्यय या प्रतीक किसी 'अन्य' से सम्बन्धित होकर ही अपनी अर्थवत्ता प्रकट करता है। सत्य का सापेक्षिक साक्षात्कार मूलतः ज्ञानपरक 'आस्था' पर ही आधारित है। कोई भी ज्ञान-क्षेत्र (चाहे वह धर्म हो या विज्ञान आदि) बिना 'आस्था' के पंगु रह जाता है और आत्मज्ञान की प्रक्रिया में यह आस्था तथा विश्वास का तर्कसम्मत रूप ही मान्य है । यह आस्था का प्रश्न मूलतः 'प्रतिबद्धता' (Commitment) का प्रश्न है जो हमारे कार्यों, विचारों तथा व्यवहारों को ५ इस विचारधारा को "प्रेगमैटिज्म' कहते हैं जो वैज्ञानिक पद्धति का दार्शनिक रूप है। ६ फिलासिफिकल एस्पेक्ट्स आफ माडर्न साइंस, सी० ई० एम० जोड, पृ० ६१. Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का वैज्ञानिक विवेचन ३७१ ACC . ---DHIM THE re नियन्त्रित और दिशा संकेत करती है। यह प्रतिबद्धता ही मानवीय उत्तरदायित्व की एक सबल भूमिका है, यदि वह हमें उचित गंतव्यों की ओर ले जाती है। इस दृष्टि से आस्था और प्रतिबद्धता अन्योन्याश्रित हैं। यह आस्था एक अन्तर्दृ ष्टि का विषय है जो हमें आत्मज्ञान के निकट ले जाती है। विज्ञान एक विश्लेषणात्मक ज्ञान है और विश्लेषण-पद्धति में हम 'घटकों' का सूक्ष्म साक्षात्कार करते हैं जो "पूर्ण" के ही अंग हैं। आत्मज्ञान का स्वरूप भी उसी समय स्पष्ट होता है जब हम अंशों, घटकों और स्तरों का क्रमिक अवगाहन करते हैं। इसीसे गीता ने आत्मज्ञान का विस्तार समस्त विश्व में माना है अथवा यह 'ज्ञान' ही समस्त विश्व को अपने अन्दर ही समेटे हुए है और समस्त विश्व उसी ज्ञान से प्रकाशित हो रहा है। ___सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ! आध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ॥ अर्थात् 'हे अर्जन, 'मैं' ही समस्त सृष्टि का आदि, मध्य और अन्त हूँ, समस्त विद्याओं में मैं आत्म या आध्यात्मिक विद्या हूँ; शब्दों के द्वारा जो सिद्धान्त बनाए जाते हैं, मैं ही वह सिद्धान्त हूँ जो सत्य का प्रतिपादन करते हैं।' यही सत्य की खोज धर्म का ध्येय है (और ज्ञानों का भी यही लक्ष्य है) और यहाँ पर हम 'धर्म' के सही रूप को प्राप्त करते हैं जो ज्ञानपरक है। ज्ञान का यह विस्तृत स्वरूप निरपेक्ष न होकर सापेक्ष है, वह सत्य में, विभिन्न आयामों को अपने अन्दर समाविष्ट करता है । 'धर्म' का ज्ञान भी निरपेक्ष नहीं है, उसकी मान्यताएं भी नवीन ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में परीक्षित होती है। आज के नित नए विकसित होते हुए ज्ञान-क्षेत्रों के संदर्भ में हम 'धर्म' को केवल उसकी परम्परागत-धारणा की प्राचीरों से आबद्ध नहीं कर सकते हैं। उपासना का स्वरूप संसार के सभी धर्मों में उपासना का कोई न कोई रूप अवश्य प्राप्त होता है; और यह उपासना 'धर्म' की धारणा का एक आवश्यक अंग है। यहाँ पर इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करना आवश्यक है कि जिस प्रकार सौंदर्य, कला की बपौती नहीं है, उसी प्रकार 'उपासना' का सम्बन्ध केवल धर्म से नहीं जोड़ा जा सकता है, क्योंकि 'उपासना' तो सभी ज्ञान-क्षेत्रों का एक आवश्यक तत्त्व है। उपासना एक ऐसी 'मनोदशा' है जो आंतरिक 'प्रकाश' को प्रकट करती है, जिसमें व्यक्ति अपनी 'अस्मिता को पहचानता है। उपासना एक ऐसी तल्लीनता है जो 'ज्ञान' के रहस्यों का उद्घाटन कर, 'अस्मिता' का साक्षात्कार कराती है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म में इस 'अस्मिता' के प्रति सबसे अधिक बल दिया गया है और 'आत्मज्ञान' के साक्षात्कार को 'अस्मिता' का ही साक्षात्कार कहा गया है। धर्म का चाहे और कोई महत्त्व हो या न हो, पर 'अस्मिता' के साक्षात्कार का वह एक सबल माध्यम है। धर्म का इतिहास मानव-मन के इसी अभियान का इतिहास है। धर्म के प्रतीक और धारणायें इसी आत्मसाक्षात्कार के माध्यम हैं और जहाँ तक 'प्रतीक' का सम्बन्ध है, वह धर्म, दर्शन, कला-विज्ञान और अन्य ज्ञान-क्षेत्रों का एक अभिन्न अंग है। प्रतीक का इतिहास ज्ञान के विकास का इतिहास है और ज्ञान का नित्य विकास प्रतीकों का सृजन एवं विस्तार ही है। यहां पर यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि आदिमानवीय दशा में भी प्रतीकों का एक देश से दूसरे देश या स्थान में गमन की प्रकिया (Migvation) एक ऐसा सत्य है जो मानवीय इतिहास से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। स्वास्तिक, कास, त्रिशूल और अनेक पूजा ७ श्रीमद्भगवद्गीता, विभूतियोग, पृ० ३६५ ८ आर्ट एण्ड दि साइन्टिफिक थॉट, मार्टिन जॉनसन, पृ० १२० SUAAAAAAAAAAAAAAAJAJSAJAAJARINA waaaaaaaa M D amannmamimaramana ARDaninMAmyawAJan प्राआवाज अनाआवर अव onwereyvineerry Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAKAMANANDANuskuranate-Baatein dae आचालनमा प्रिय अभिसाचार्यप्रवर अभी श्राआनन्द अन्यश्रीआनन्दन ३७२ धर्म और दर्शन वाया AC प्रतीकों का इतना गहरा सम्बन्ध है कि विद्वानों ने इनके अस्तित्व को एकदेशीय न मानकर अंतर्देशीय माना है। इस तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि धर्म, दर्शन, विज्ञान, कला, साहित्य और समाजशास्त्र आदि के प्रतीकों का प्रयोग किसी एक ज्ञान-क्षेत्र से ही सम्बन्धित नहीं है, वरन् उनका प्रयोग अनेक क्षेत्रों में होता आया है और आज भी होता जा रहा है। यह एक ऐसा क्षेत्र है जो विज्ञान, धर्म और कला के आपसी संवादों को, एक निश्चयात्मक भावी संभावना के रूप में प्रस्तुत करता है। अतः इस सत्य को ध्यान में रखकर जब हम यह देखते हैं कि 'प्रतीकों' को लेकर हम आपस में लड़ते हैं, तो यह संघर्ष कितना बेमानी हो जाता है। प्रतीकोपासना का यह रूप इस बात की ओर संकेत करता है कि उपासना में हम प्रतीक के स्वरूप का साक्षात्कार करते हैं जो हमें किसी न किसी रूप में 'सत्य' के निकट ले जाता है। सत्य के प्रति इस प्रकार की सही दृष्टि विभिन्न धर्मों के 'प्रतीकों' में संघर्ष की स्थिति को कम ही करेगी। प्रतीकोपासना का अर्थ उनका संघर्ष नहीं है, पर उनका आदर और सम्मान है। यही वैज्ञानिक दृष्टि है जो तर्क एवं विवेक के आधार पर एक अन्तर्दृष्टि प्रदान करती है। प्रतीकों का अन्तर्गमन भी यही सिद्ध करता है जिसकी ओर ऊपर संकेत किया गया । धर्म : एक वस्तुगत समस्या उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि कोई भी मानवीय क्रिया निरपेक्ष नहीं होती है और उसकी सापेक्षता किसी न किसी वस्तु या प्रत्यय से होती है। इस दृष्टि से धर्म और विज्ञान का सम्बन्ध तथा महत्त्व मानव-सापेक्ष ही है। आधुनिक मानव की वैज्ञानिक-परिदृष्टि के द्वारा वस्तुगत तार्किकता की जो दृष्टि प्राप्त हुई है, उसने धर्म को एक वस्तुगत समस्या के रूप में भी स्वीकार किया है। या तु या मैजिक और धर्म का सम्बन्ध एक ऐतिहासिक सम्बन्ध है और धर्म के विकास के साथ यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि धर्म, मानव और उसके परिवेश की क्रियाप्रतिक्रिया का फल है। धर्म का सम्बन्ध मानवीय-भाग्य से जुड़ा है और साथ ही धर्म भी एक सबल मानवीय-जीवन पद्धति है क्योंकि 'धर्म' का तात्पर्य है जो धारण किया जा सके। यह धारण करने की प्रक्रिया ही मानव-जीवन सापेक्ष है और धर्म, यदि उसे आज की तार्किकता एवं बौद्धिकता में गतिशील होना है तो उसे यथार्थ की कठोर भूमि को स्पर्श करना होगा। यह यथार्थ मानवीय आस्था से प्रतिबद्ध है और आस्था का बल आज की वैज्ञानिक प्रगति से टूटता जा रहा है। धर्म और विज्ञान का पारस्परिक सम्बन्ध इसी 'आस्था' को मानवीय-संदर्भ में रेखांकित करना है । यहाँ पर जे० हक्सले का मत है कि धर्म का रोल समाज-सापेक्ष है, और इसके लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि वह ईश्वर की भावना का त्याग करे और उसका कहना है कि जिस प्रकार असुर, अप्सराएँ और मिश्रित देवताओं (Hybrid Gods) का विलोप होता जा रहा है, उसी प्रकार ईश्वर की धारणा का भी विलोप होता जा रहा है।'' ऊपर से तो यह बात नितांत सत्य है, क्योंकि आज के मूल्यों में जो विघटन की प्रवृत्ति नया ६ प्रतीकों के इस अन्तर्गमन के विस्तृत विवेचन के लिए देखें, डा० जगदीश गुप्त की प्रसिद्ध पुस्तक "प्रागैतिहासिक भारतीय चित्रकला", पृ० ४००-४२० १० ईश्वर के नाम पर जो अंधविश्वास चल पड़े हैं उनका त्याग आवश्यक है, ईश्वरत्व की ___ भावना का नहीं। (सम्पादक) ११ मैन इन दि माडर्न वर्ल्ड, जे० हक्सले, पृ० १३५ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का वैज्ञानिक विवेचन ३७३ , लक्षित हो रही है, वह हर वस्तु को अस्वीकार की मुद्रा में स्वीकारती है। परन्तु मैं यह समझता हूं कि ईश्वर की धारणा भी स्थिर धारणा नहीं है, वह भी विकासोन्मुख धारणा है । आज वैज्ञानिक दर्शन 'ईश्वर को एक धारणा के रूप में स्वीकार करता है और उसे निरपेक्ष न मानकर सापेक्ष मानता है। मानवीय विकास क्रम को सापेक्षता में 'ईश्वर' की भावना परिवर्तित एवं परिवद्धित होती रही है। जैसा कि अन्यत्र संकेत किया जा चुका है कि किसी भी 'प्रतीक' के क्षेत्र को केवल एक ज्ञान क्षेत्र में ही सीमित कर देना उस प्रतीक की अर्थ सम्भावनाओं को सीमित या कुंठित कर देना है। आज के बौद्धिक युग में मानवीय चित्तन के क्षेत्र में सत्यों की समरसता, एक अत्यन्त आवश्यक तत्व है और धर्म तथा विज्ञान के सत्यों में भी समरसता अपेक्षित है। जहाँ तक इन दोनों क्षेत्रों का सम्बन्ध है, इन दोनों के अनेक सिद्धान्तों एवं प्रस्थापनाओं में विरोध एवं समानताएँ हैं और यह बात भी ध्यान में रखनी आवश्यक है कि सिद्धान्तों का संघर्ष कोई विनाश का सूचक नहीं है, पर यह संघर्ष तो एक ऐसा अवसर है जो जीवन मूल्यों के प्रवाह को एक नई गति प्रदान करता है । रूपों के प्रवाह में जीवन को व्यवस्थित एवं सुरक्षित किया जा सकता है । आधुनिक-धर्म की प्रवाहमयता जीवन के इसी प्रवाह को हृदयंगम कर सकती है और दूसरी ओर विज्ञान की अतिबौद्धिकता को आस्था एवं आस्तिकता के संस्पर्श से सरस एवं बोधगम्य बना सकती है । मेरी तो यह मान्यता है कि विज्ञान धर्म की आस्था को और धर्म को विज्ञान की तार्किकता को इस प्रकार समाहित करना होगा कि दोनों एकाकार हो जाएं ज्ञान के क्षेत्र में हठधर्मिता की 'पिघलन' अत्यन्त आवश्यक है और आज का बुद्धिजीवी अपने-अपने दायरों में इतना हठधर्मी हो गया है कि वह अपने क्षेत्र को ही एकमात्र सत्य क्षेत्र मानता है । जीवन के मूल्यों को किसी विशिष्ट सांचे में सदा ढाला नहीं जा सकता है अथवा दूसरे शब्दों में, जीवन की प्रवाहमयता को किसी एक दिशा में बांध देना, उसके प्रवाह को कुंठित ही नहीं करना है, पर उसे उसकी 'चेतना' से अलग कर देना है। इस संदर्भ में धार्मिक अनुष्ठानों के प्रति अविश्वास का प्रश्न ही नहीं उठता है, वरन् उनके यथोचित सम्मान का प्रश्न अवश्य है। किसी भी धार्मिक अनुष्ठान एवं संस्कार का सम्मान इसलिए करें कि अनुष्ठानकर्ता उसे कितनी सचाई से करता है। सचाई के प्रति उसकी प्रतिबद्धता ही उसकी परीक्षा है। ज्ञान का चाहे कोई भी क्षेत्र क्यों न हो, यदि वह सचाई के प्रति प्रतिबद्ध नहीं है, तो वह अपने में ही सिमटकर शुतुरमुर्गीय प्रवृत्ति का हो जाएगा। यह शुतुरमुर्गीय प्रवृत्ति ज्ञान के लिए एक खतरनाक प्रवृत्ति है जो ज्ञान को कुंठित कर देती है। अतः ज्ञान क्षेत्रों के लिए आस्था एक आवश्यक तत्त्व है जो धर्म के प्रतीकों तथा मान्यताओं में भी इष्टव्य है। यही रूप 'ईश्वर' और 'आत्मा' की धारणाओं में मिलता है। अद्वैतवाद जो धर्म तथा दर्शन का मुख्य विवेच्य रहा है, वह आधुनिक विज्ञान की प्रस्थापनाओं के द्वारा पुष्ट होता जा रहा है । बट्र ेन्ड रसेल, फ्र ेड हॉयल, डा० आइन्स्टाइन आदि विज्ञान- दार्शनिकों ने विज्ञान के अद्वैत-दर्शन की ओर संकेत किया है जो यथार्थ और आदर्श का समन्वित रूप है। इस दृष्टि से यह हम इस विचारधारा को आदर्शवाद के ही अधिक निकट पाते हैं । पदार्थ का ऊर्जा (Energy) में और ऊर्जा का पदार्थ में 'रूपान्तरण', उनमें 'एकत्व' की स्थिति को स्पष्ट करता है जो दार्शनिक शब्दावली में 'अद्वैत' का ही रूप है। विज्ञान और धर्मशास्त्र यहाँ पर एक प्रश्न और उठता है। वोरूप में इस शताब्दी के आरम्भ में और आगे चलकर १२ साइंस एण्ड दि माडर्न वर्ल्ड, ए० एन० ह्वाइट हेड, पृ० १८५ १३ दि ह्यूमन डेस्टनी, ली काम्ते ड्यूं न्यूं, पृ० १२७ आयाम प्रवरात आनन्द आआनन्द अन्थ श्री W טח: Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AJANANDA - - - - - - - - - - WIPL minainm en TODAY NA आपाप्रवाह अभिन्दिन आया प्रवाब अभिन्न श्रीआनन्द ३७४ धर्म और दर्शन Uzu PAWAN भौतिकी के अनेक सिद्धान्तों ने, वैज्ञानिकों के मन में यह विचार प्रतिष्ठित कर दिया कि वैज्ञानिक प्रस्थापनाएं धर्मशास्त्र के सष्टि विषयक सिद्धान्तों की पुष्टि करती हैं। यह मत किसी सीमा तक सही माना जा सकता है, पर योरूपीय इतिहास में रूस की क्रान्ति और विश्व-युद्धों की विभीषिका ने वैज्ञानिकों और बुद्धिजीवियों को भीरु बना दिया जिसके फलस्वरूप वे रूढ़िवादी तथ्यों की ओर गतिशील हए । वैज्ञानिकों की यह भीरुता इस तथ्य की ओर भी ध्यान आकर्षित करती है कि चर्च और राजतन्त्र के आधिपत्य के कारण वैज्ञानिकों का 'उनके सिद्धान्तों के विरोध में कुछ भी कहना, ईश्वर के आदेश का उल्लंघन करना था। गैलीलियो, ब्रूनो, डार्विन आदि अनेक वैज्ञानिकदार्शनिकों के साथ नृशंस व्यवहार ही नहीं किया गया, पर गैलीलियो को मृत्युदण्ड भी दिया गया । उसका अपराध केवल यह था कि धर्म की मनोकल्पित परम्परागत-धारणा को उसने वैज्ञानिक आविष्कारों के द्वारा खण्डित किया । गैलीलियो ने सूर्य को सौर मण्डल का केन्द्र माना था। इसी प्रकार डाबिन के विकासवादी सिद्धान्त ने मानव को ईश्वर का दिव्य अवरोहण न मानकर मानव को अन्य मानवेतर प्राणियों की शृखला से जोड़कर, मानव को विकास-क्रम का सबसे विशिष्ट जीवधारी घोषित किया । इस सिद्धान्त ने 'ईश्वर' की अलौकिक रूपात्मक धारणा के प्रति एक प्रश्नचिह्न लगाया। धर्म एवं विज्ञान के इस संघर्ष को मठाधीशों ने अपनी सत्ता का अन्त माना और फलस्वरूप, ज्ञान के नव क्षितिजों को उद्घाटित न होने से लिए उन्होंने भरसक प्रयत्न किया । वे यह भूल गए कि ज्ञान की गत्यात्मकता का अवरोध एक अपराध है और वैज्ञानिक-दार्शनिकों, अन्वेषकों, सर्जकों और बुद्धिजीवियों को 'ज्ञान' के उद्घाटन में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप एक ऐसा अपराध है जिसे इतिहास कभी भी स्वीकार नहीं कर सकता है । धर्मशास्त्रों की सृष्टि-रचना और इसके साथ विज्ञान का सृष्टि-सिद्धांत एक तथ्य की ओर संकेत करता है कि आदितत्त्व के रूप में कुछ न कुछ अवश्य था। तर्क के आधार पर भी यही कहा जा सकता है कि अस्तित्व किसी न किसी 'भविता' की धारणा को स्वीकार करता है। धर्मशास्त्रों में इस भविता को कोई न कोई 'नाम' दिया गया है जैसे ब्रह्मा, मृत्तिका, पिंड, ईश्वर आदि । सृष्टि का विस्फूरण इन 'तत्त्वों' से होता तो है, पर यह विस्फूरण अनेक कौतूहलों एवं आश्चर्यों से भरा हुआ है, और कभी-कभी ऐसा लगता है कि यह क्या इन्द्रजाल है ? विज्ञान और धर्म का पारस्परिक सम्बन्ध यहाँ पर दृष्टिगत हो सकता है, क्योंकि वैज्ञानिक चिंतन से इस इंद्रजाल को एक नई दृष्टि से समझा जा सकता है। आदितत्त्व या आदि कारण की धारणा को समझने के लिए विज्ञान द्वारा प्रतिपादित अनिश्चितता के सिद्धांत को विवेचित करना आवश्यक है। हिजिनबर्ग ने १६२८ में पहली बार भौतिकी के क्षेत्र में इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इस सिद्धांत के अनुसार यह माना जाता है कि किसी कण की स्थिति और उसके संवेग का निश्चित निर्धारण असंभव है। प्रत्येक निर्धारण में कुछ न कुछ त्रुटि रह ही जाती है। यह सिद्धांत सृष्टि-विषयक प्रस्थापनाओं को अनिर्धारण की स्थिति में मानता है और इसके साथ ही साथ, इस सिद्धांत के प्रकाश में यह भी स्पष्ट होता है कि दिशा और काल सम्बन्धी हमारे पुराने यंत्र आधुनिक भौतिकी की आवश्यकता के लिए अपर्याप्त हैं । १४ आधुनिक वैज्ञानिक प्रगति ने दिककाल की धारणा को एक नवीन आयाम प्रदान किया है क्योंकि आइंस्टाइन के सापेक्षवादी सिद्धांत ने इन धारणाओं का सापेक्षिक महत्त्व स्वीकार किया है। आइंस्टाइन ने यह माना है कि जहाँ साबुन के बुलबुले की दो विभाएँ या आयाम हैं, वहीं विश्व-बुबुद् के चार आयाम हैं--तीन आयाम दिक् के और एक आयाम काल काटा 圖 १४ वैज्ञानिक परिदृष्टि, १० ८२, ८३, रसेल । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का वैज्ञानिक विवेचन ३७५ ANCE CE का। यही नहीं, विश्व-रहस्य और सृष्टि के विषय में यह प्रस्थापना एक महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर संकेत करती है कि 'जिस द्रव्य से यह बुबुद् बनाया गया है वह साबुन की फिल्म है जो शून्य । आकाश का पर्याय है और साथ ही जिसकी झलाई शून्य काल पर की गई है। शून्य की यह अवधारणा धर्मशास्त्र के अनेक सिद्धांतों के समकक्ष बैठती है। तांत्रिकों का शून्य तत्त्व और उपनिषदों का ब्रह्म या नेति-नेति तत्त्व-इसी शून्य की प्रतिध्वनि है। इसे ही हाइड्रोजन का गोलाकार पिंड भी कह सकते हैं क्योंकि सृष्टि क्रम यहीं से आरम्भ माना गया है। इस वैज्ञानिक प्रस्थापना में 'हाइड्रोजन' एक द्रव्य के रूप में माना गया है और इस पिंड की चक्राकार गति क्रमशः संकोचन प्रक्रिया के द्वारा ठंडी होती गई और फलत: ग्रहों का निर्माण होता गया।१५ अतः सृष्टि रचना एक निरन्तर गतिशील प्रक्रिया है और धर्म में इस प्रक्रिया का कारण किसी 'आदि तत्त्व' को माना गया है । परन्तु विज्ञान में यह 'आदितत्त्व' (ब्रह्म, ईश्वर आदि) एक द्रव्य या पृष्ठभूमि-पदार्थ के रूप में मान्य है जो एक प्रक्रिया का फल है । धर्मशास्त्र के उपर्युक्त स्वरूप के प्रकाश में जेस्पर्स का एक महत्वपूर्ण कथन है जो ईश्वर और धर्मशास्त्र के आपसी सम्बन्ध को रूपायित करता है। वह कहता है कि ईश्वर की परिकल्पना ही धर्मशास्त्र का विषय है अथवा दूसरे शब्दों में, ईश्वर की परिकल्पना को ही धर्मशास्त्र कहा जा सकता है। १६ इसका तात्पर्य यह हुआ कि धर्मशास्त्र का क्षेत्र भी बौद्धिक अवधारणा का क्षेत्र है जो एक ऐसी भाषा का सृजन करता है जो प्रतीकों और जेस्पर्स के शब्दों में 'साइफर' (cypher) की सृजन-प्रक्रिया से गुजरता है। ज्ञान का कोई भी क्षेत्र 'सृजन' प्रक्रिया के इस महत्वपूर्ण दौर से अवश्य गुजरता है। क्योंकि ज्ञान की प्रक्रिया एक सृजन-प्रक्रिया है। देवी शक्ति की धारणा धर्मशास्त्र के इस भाषागत स्वरूप को ध्यान में रखकर ज्ञान के सापेक्ष महत्त्व का ही। प्रतिपादन होता है और इसके साथ ही साथ विकासवादी परम्परा के द्वारा भी इसकी पुष्टि होती है। जब विकासवाद एक नया सिद्धान्त था, तब उसे धर्म का विरोधी माना गया था परन्तु चितकों का एक ऐसा वर्ग उदित हो गया है जो विकास क्रम में क्रमश: प्रकट होती हुई दैवी-शक्ति को मानता है जिसके अनुसार ईश्वर की धारणा विकास-क्रम से जुड़ी हुई है और इस दृष्टि से, ईश्वर कोई निरपेक्ष तत्त्व न होकर एक सापेक्ष धारणा है। इसके विपरीत एक वर्ग ऐसा भी है जो इस विकासक्रम को जीवित जैविक-अंगों का एक दुर्बोध संयोजन मानते हैं। इसके अनुसार विकास-क्रम के द्वारा हम अपने ही प्रयोजनों की पूर्ति करते हैं और इस दृष्टिकोण के द्वारा हम ईश्वर के प्रयोजनों की पूर्ति करते हैं। विकासवादी-सिद्धान्त की यह एक विशेषता है कि वह मानव नामधारी प्राणी को एक विशिष्ट परिप्रेक्ष्य में देखता है और उसे विकास-क्रम का सबसे विशिष्ट प्राणी मानता है। यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय, तो विकास का प्रयोजन यह विशिष्टीकृत 'मानव' ही है और 'ईश्वर' का (या अन्य किसी धारणा का) प्रत्यय उसकी अवधारणा की शक्ति का फल है। अत: व्यक्तिगत रूप से मैं विकासवादी सिद्धांत को इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मानता हूँ, क्योंकि इस मत में ईश्वर और मानव का सापेक्ष सम्बन्ध है, और ईश्वर, मानव की बौद्धिक प्रक्रिया का एक अवधारणात्मक प्रत्यय ही है । धर्म में ईश्वर का यही अवधारणात्मक रूप प्राप्त होता है और ईश्वर का साकार रूप, मानव की उसी महत्ता को स्वीकार करता है। धार्मिक 'परम तत्त्व' की भावना भी इसी तथ्य की ओर १५ द नेचर आफ यूनीवर्स' फेड हॉयल, पृ० ६२ १६ टूथ एण्ड सिम्बल, जेस्पर्स, पृ० ७५ Umay . T Niu M . - - - wwwraaeewwwwwwmarwarimanoparnwurav Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रव आप आमद आमदन श्री आनन्द T מע श COPTED फ्र * आचार्य प्रव श्री आनन्द ३७६ धर्म और दर्शन संकेत करती है । अन्तर केवल इतना है कि धर्म में ईश्वर या ब्रह्म का स्वरूप निरपेक्ष एवं निरालम्ब स्थिति का द्योतक है जिसे सिद्धों तथा नाथों की 'निरति' दशा का पर्याय माना जा सकता है। भौतिकी से जीव-विज्ञान तक की यात्रा एक दिलचस्प दशा की ओर संकेत करती है। इस यात्रा के प्रकाश में हम क्रमश: एक ब्रह्मांडीय विषय से एक संकीर्ण क्षेत्रीय विषय का साक्षात्कार करते हैं। भौतिकी और ज्योतिष के द्वारा हम एक विस्तृत और व्यापक विश्व के रहस्यों के प्रति सचेत होते हैं, न कि 'विश्व' के केवल एक कोने का जिस पर कि हम रह रहे हैं । धर्म में केवल पृथ्वी की ही कल्पना नहीं है, पर पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य लोकों तथा नक्षत्रों की भी एक बलवान परम्परा प्राप्त होती है जो ऊपर से देखने पर एक वितंडा के समान लगती हो, पर गहराई में जाने पर यह स्पष्ट होता है कि ये सभी धार्मिक कल्पनाएं विश्व के एक अत्यंत व्यापक परिवेश को उजागर करती हैं । सृष्टि रचना में इस व्यापक विश्व की संरचना पर विचार किया जा चुका है जो विश्व की गहनता के साथ दिकू और काल के चतुआयामिक विश्व के अगाध स्वरूप को उद्घाटित करती है। विज्ञान भी विश्व की इसी अगाधता का अवगाहन करना चाहता है और धर्म तथा दर्शन का ध्येय भी इसी अगाधता का साक्षात्कार करना है— अंतर केवल पद्धति और दृष्टि का है। सृष्टि को इस व्यापकता को ध्यान में रखकर इसके प्रयोजन का अनुसंधान करना धर्मशास्त्र का विषय है। परन्तु विज्ञान अनिश्चितता के सिद्धांत के द्वारा किसी अंतिम प्रयोजन की घोषणा नहीं कर सकता है मैं तो यह मानता हूँ कि सृष्टि स्वयं में एक प्रयोजन है, फिर उसके प्रयोजन का क्या तात्पर्य ? इसी प्रकार मानव स्वयं अपना ही प्रयोजन है और ईश्वर भी अपना ही प्रयोजन है । विकासवादी धर्मशास्त्र “मानव अपना स्वयं ही प्रयोजन है" के प्रत्यय को एक तार्किक परिप्रेक्ष्य में रखता है क्योंकि विकासवाद 'मानव' को ही अपना प्रयोजन मानता है और चूंकि मानव नामधारी प्राणी के पास 'मन' का एक अत्यंत विकसित रूप प्राप्त होता है जो मानवेतर प्राणियों में अपेक्षाकृत कम विकसित है । विकास क्रम में, जहाँ एक ओर भौतिक संगठन का पारिमार्जन हुआ है, वहीं दूसरी ओर 'मन' या चेतना का भी क्रमिक विकास हुआ है। यहां पर यह तथ्य भी प्रकट होता है कि द्रव्य या पदार्थ और मन या चेतना का विकास समानान्तर ही हुआ है अथवा द्रव्य ही मन है और मन ही द्रव्य है । पदार्थ और मन का द्वैत, आज के वैज्ञानिक चिंतन में मान्य नहीं है और यह मान्यता धर्म और दर्शन के क्षेत्रों में भी उतनी ही स्वीकार्य है जितनी आधुनिक वैज्ञानिक दर्शन में । पदार्थ और ऊर्जा, द्रव्य और मन, प्रकृति और पुरुष, शिव और शक्ति आदि युगल रूपों में द्वैत के माध्यम से 'अद्वैत' की ही स्थापना होती है। विकासवादी धर्मशास्त्र इसी 'अद्वैत' को रूपायित करता है जो चेतना के क्रमिक आरोहण का रूप है । यही बात अवतारों के बारे में भी सत्य है। जिसकी ओर प्रथम ही संकेत हो चुका है। 1 यहाँ पर एक अन्य स्थिति की ओर ध्यान आकर्षित करना आवश्यक है मार्गन ने विकासपरम्परा के साथ दैवी शक्ति की कल्पना की है। मार्गन एक जीव-विज्ञानी भी था और साथ ही, धार्मिक भावना से युक्त चितक भी। यही कारण है कि उसने विकास क्रम में एक देवी प्रयोजन देखा है। उसका कहना है-"कभी-कभी ऐसा होता है कि विशिष्ट प्रकार से व्यवस्थित किए गए पदार्थों का संकलन एक नवीन गुण-धर्म को प्राप्त कर लेता है जो व्यक्तिगत रूप में उन पदार्थों में उपलब्ध नहीं होता है और न उन पदार्थों से 'उसका' निगमन ही किया जा सकता है ।" यहां पर ऐसा लगता है कि मार्गन की 'देवी शक्ति' निरपेक्ष है क्योंकि वह पदार्थों की संगठना से अलग है १ इमरजेंट एवोल्यूशन, लॉयड मार्गन, पृ० ५० Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का वैज्ञानिक विवेचन ३७७ --- जबकि चेतना के क्रमिक विकास के साथ ही यह दैवी-प्रयोजन या शक्ति निहित है। दूसरे शब्दों में, चेतना ही दैवी शक्ति है जो अजैव से लेकर जैव-जगत तक एक क्रमिक गतिशीलता का परिचय देती है। अतः यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि विकास का प्रयोजन चेतना का क्रमिक विकास है जो दैवी-प्रयोजन का पर्याय है। यदि किसी को दैवी-प्रयोजन से आपत्ति है, तो मुझे विश्वास है कि 'चेतना' से उन्हें आपत्ति न होगी क्योंकि चेतना का विकास ही सृष्टि का आधार है। 'चेतना' के इसी स्वरूप का विश्लेषण मनोविज्ञान तथा दर्शन दोनों का विषय है और धर्म भी एक विशिष्ट मानवीय प्रक्रिया है जो 'चेतना' के स्वरूप तथा अर्थ-क्षेत्र को एक विशिष्ट संदर्भ देती है । भारतीय तथा पाश्चात्य मनोविज्ञान में एक विशिष्ट अंतर है। पाश्चात्य मनोविज्ञान केवल 'मन' की क्रियाओं तक ही सीमित है जबकि भारतीय मनोविज्ञान मन की क्रियाओं के अतिरिक्त मन से भी सूक्ष्म धरातलों का 'विज्ञान' है। दूसरे शब्दों में भारतीय मनोविज्ञान केवल मन तक ही सीमित नहीं है, पर वह मन से भी सूक्ष्म प्रत्ययों का आविष्कार कर सका है।' मन से भी परे मानवीय चेतना की विकास-शक्तियों को दिखाना भारतीय मनोविज्ञान का केद्रबिन्दु है। यहाँ पर मन से सूक्ष्म प्राण है और प्राण से आत्मा सूक्ष्म है। इस प्रकार 'मन' या मानसिकता एक धरातलीय स्वरूप है पर इससे सूक्ष्म तथा गहन एक गुप्त एवं अव्यक्त 'शक्ति' है जो चेतना-शक्ति (दि फोर्स आफ कान्शेसनेस) के नाम से अभिमित है जो प्रकृति और विश्व की क्रियात्मक शक्ति है। महर्षि अरिविंद ने चेतना-शक्ति को इसी क्रियात्मक शक्ति के रूप में स्वीकारा है और जहाँ तक मैं समझ सका हूँ यह चेतना-शक्ति मानवीय और मानवेतर 'विश्व' में विभिन्न स्तरों के रूप में प्रकट होती है। धर्म और दर्शन इन्हीं स्तरों को उद्घाटित करता है और आधुनिक मनोविज्ञान और विकासवादी मिद्धांत भी मन के गहन-स्तरों के साक्षात्कार में गतिशील रहे हैं। आधुनिक मनोविज्ञान की दो धाराएँ इस ओर गतिशील है--एक है अहं (Ego) की धारणा और दूसरी है पराअहं (Super Ego) की भावना जो कमश: मन से सूक्ष्म प्रत्ययों का स्वरूप है। उपर्युक्त विश्लेषण के प्रकाश में यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि आधुनिक वैज्ञानिक प्रगति और उससे उद्भूत चिंतन की दिशाएं 'धर्म' की अनेक प्रस्थापनाओं की पुष्टि भी करती है और दूसरी ओर, धार्मिक भावना और धर्मशास्त्र के सृष्टिविषयक सिद्धांतों को समझने के लिए एक व्यापक परिदृष्टि प्रस्तुत करती है। मानवीय 'ज्ञान' की परिसीमाएँ सापेक्षिक हैं, वे किसी भी दशा में निरपेक्ष नहीं हैं और धर्म को 'ज्ञान' का एक क्षेत्र मानकर ही उसके सही स्वरूप को जाना जा सकता है। किसी भी ज्ञान क्षेत्र को अंधविश्वास अथवा हठधर्मिता से नहीं समझा जा सकता है और विज्ञान और धर्म के सही सम्बन्ध को समझने के लिए उस हठधर्मिता को त्यागना अपेक्षित है। २५ KNON १ हिंद साइकोलोजी, स्वामी अखिलानन्द, १० १५ २ साइंस एण्ड कल्चर, श्री अरिविंद, पृ० ४२ AAJARMANADRAMANABAJAIAAKJANAJADAJANOARNManaia n R ILHAJANAPRIMARIRAMMALADAKIRIA.ABAJA आचार्यप्रव श्रीआनन्द भिआचार्यप्रवर अभि श्रीआनन्दा अन्य 26 wr Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w rimorial Marivartand कन्हैयालाल लोढ़ा, एम. ए. [जैनधर्म व दर्शन के विशिष्टअध्येता] चिकित्सा-शास्त्र और मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में 'कर्म-सिद्धान्त : भाग्य-निर्माण की कला' जगत के मौलिक पदार्थ जब हम जगत पर नजर डालते हैं तो दो प्रकार की वस्तुएं या पदार्थ दिखाई देते हैं। एक प्रकार के पदार्थ तो वे हैं जिनमें इच्छाएं हैं, भावनाएं हैं, विचार हैं, ज्ञान है, संज्ञाएं हैं। जिन्हें सुख-दुःख का संवेदन होता है। जो श्वास लेते हैं, भोजन करते हैं व उसे पचाते हैं। जिनका शरीर बढ़ता है, मरता है। दूसरे प्रकार के पदार्थ वे हैं जिनमें प्रथम प्रकार के पदार्थों में बतलायी हुई कोई भी क्रिया नहीं होती है। विज्ञान की भाषा में प्रथम प्रकार के पदार्थों को जीवधारी एवं दूसरे प्रकार के पदार्थों को भौतिक कहा जाता है। जैन दर्शन में भी जगत में इन दो ही प्रकार के पदार्थों का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। जैन दर्शन में प्रथम प्रकार के पदार्थों को जीव, आत्मा या चेतन कहा है तथा दूसरे प्रकार के पदार्थों को अजीव कहा है। अजीव या भौतिक पदार्थों की क्रिया प्रकृति के आधीन होती है। उसकी किसी भी क्रिया में उसका अपना कोई प्रयत्न या पुरुषार्थ नहीं होता है । जीव की क्रिया में जीव स्वयं का भावात्मक या क्रियात्मक पुरुषार्थ भी करता है। विकार की प्रक्रिया प्रत्येक वस्तु या पदार्थ का निजी या मौलिक स्वभाव होता है। उस पदार्थ के स्वभाव से मेल खानेवाली अर्थात् समान स्वभाववाली वस्तु या पदार्थ सजातीय कहलाता है। उस पदार्थ के स्वभाव से भिन्न-विपरीत या विषम-स्वभाववाला पदार्थ विजातीय कहलाता है। यह भौतिक शास्त्र एवं चिकित्सा-शास्त्र का नियम है कि जब किसी पदार्थ का विजातीय पदार्थ से संयोग होता है तो उनका एक दूसरे पर प्रभाव पड़ता है जिससे उनमें विकार उत्पन्न हो जाता है। शुद्ध जल का शुद्ध जल से संयोग होता है तो उसमें कोई विकार उत्पन्न नहीं होता है, संमिश्रित जल भी शुद्ध ही रहता है। परन्तु शुद्ध जल में मिट्टी या रंग मिलता है तो विकृत हो जाता है, स्वर्ण से जब चांदी या तांबा का संयोग होता है तो वह विकृत हो जाता है। हमारे शरीर की प्रकृति या स्वभाव से जिन पदार्थों की प्रकृति मेल नहीं खाती है वे शरीर के लिए विजातीय पदार्थ हैं। जब ऐसे विजातीय पदार्थों का शरीर में प्रवेश हो जाता है तो शरीर में उनका विपरीत प्रभाव पड़ता है जिससे शरीर में विकार उत्पन्न हो जाता है। शरीर उस विकार को बाहर निकालने की क्रिया करता है उसे ही रोग कहा जाता है। रोग का वास्तविक रूप हैशरीर में विजातीय द्रव्य से जो क्रिया (Action) होती है, उसके प्रति शरीर के द्वारा की गई प्रतिक्रिया (Reaction)। उदाहरण के लिए शरीर की प्रकृति से विष की प्रकृति विपरीत होती है niran For Private Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-सिद्धान्त : भाग्य-निर्माण की कला ३७६ प अतः विष जैसे ही शरीर में प्रवेश करता है शरीर में वमन, दस्त आदि प्रतिक्रियाएं उत्पन्न हो जाती हैं। किसी व्यक्ति के शरीर में रक्त की कमी को दूर करने के लिए अन्य व्यक्ति का रक्त प्रवेश कराया जाता है तो दोनों रक्तों को रासायनिक तत्वों में विषमता होने पर तत्काल शरीर में स्थित रक्त प्रविष्ट रक्त के प्रति अपनी प्रतिक्रिया प्रारंभ कर देता है। हृदय, गुर्दा आदि अंगरोपण में भी शरीर समान स्वभाववाले अंगों को ही स्वीकार करता है, भिन्न स्वभाव वाले को नहीं। निर्जीव पदार्थों में भी विजातीय द्रव्य से मिलने पर विकार तो उत्पन्न होता है परन्तु वे अपनी ओर से प्रतिक्रिया करने का प्रयत्न नहीं करते हैं। उनमें जो भी क्रियाएं होती हैं वे प्राकृतिक नियमानुसार स्वतः होती हैं । उनमें क्रियाएं ही होती हैं, प्रतिक्रियाएं नहीं । स्वर्ण में मिले हुए ताँबे को निकालने का यत्न स्वर्ण नहीं करता है। परन्तु सजीव पदार्थ में यह विशेषता है कि वह विजातीय द्रव्य के संयोग को बरदाश्त नहीं करता है। वह उसे निकालने के लिए स्वयं प्रयत्न करता है। शरीर, इन्द्रिय, रक्त, चर्म आदि जब तक जीव से संयुक्त हैं सजीव हैं। तब तक इनमें किञ्चित् भी विजातीय द्रव्य का संयोग हुआ नहीं कि उसे निकालने का प्रयत्न प्रारंभ कर देते हैं। पैर में काँटे का कण भी प्रवेश कर जाय, नेत्र में रेणु का अणु भी प्रवेश कर जाय तो उसे निकाले बिना चैन नहीं पड़ता है। तात्पर्य यह है कि सजीव विजातीय द्रव्य के संयोग से विकारग्रस्त होता है और उसका यह विकार रोग के रूप में प्रकट होता है। इसी सिद्धान्त की गहराई में प्रवेश करने पर तो ज्ञात होता है कि जीव के लिए अजीव मात्र विजातीय द्रव्य है। दोनों द्रव्यों के स्वभाव में मौलिक भिन्नता है, असमानता है, विषमता है। जीव का स्वभाव उपयोग है, चिन्मयता है, जानने, अनुभव करने का गुण है। अजीव का स्वभाव जड़ता है। अतः जब जीव के साथ अजीव का संयोग होता है तो जीव में विकार उत्पन्न हो जाता है। जीव के साथ अजीव के संयोग रूप विकार को ही जैनदर्शन में कर्म कहा है। कर्म-सिद्धान्त : चिकित्साशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में जिस प्रकार चिकित्साशास्त्र में रोगी व रोग का रूप, रोग का प्रकार, रोग के कारण, रोग रोकने के उपाय, रोग घटाने वाले पथ्य, रोग बढ़ाने वाले कुपथ्य, रोग का उपचार, रोग रहित अवस्था का स्वरूप आदि का वर्णन है। चिकित्साशास्त्र के ये सब अध्याय उसी चिकित्सा पद्धति का रूप धारण कर लेते हैं जिस अंग की चिकित्सा करने का लक्ष्य है। नेत्र से संबंधित नेत्र चिकित्सा, कर्ण से संबंधित कर्ण चिकित्सा, शरीर से संबंधित शारीरिक चिकित्सा, मन से सम्बन्धित मानसिक चिकित्सा कही जाती है। इसी प्रकार आत्मा से संबंधित विकारों के वर्णन को आध्यात्मिक चिकित्सा भी कहा जा सकता है। जीव को रोगी के रूप में और कर्म को रोग के रूप में लिया जाय और फिर गहराई से देखा जाय तो ज्ञात होगा कि जैन तत्वज्ञान आध्यात्मिक चिकित्सा का ही अनुसरण करता है। जैन तत्वज्ञान को आध्यात्मिक चिकित्साशास्त्र के रूप में देखा जाय तो रोगी का वर्णन जीवतत्व में, रोगोत्पादक पदार्थ का वर्णन अजीवतत्व में, रोगी के रूपों व प्रकारों का वर्णन बंधतत्व में, रोगोत्पत्ति के कारणों का वर्णन आश्रव तत्व में, रोगों के रोकने के उपायों का वर्णन संवरतत्व में, रोगों के उपचार का वर्णन निर्जरा तत्व में, रोग रहित पूर्ण स्वस्थ अवस्था का मोक्षतत्व में, रोगोत्पादक कुपथ्य चर्या-कार्यों का वर्णन पापतत्व में एवं स्वास्थ्य प्रदायक सुपथ्य चर्या-कार्यों का वर्णन पुण्यतत्व के रूप में किया गया है। इस प्रकार जैन तत्वज्ञान को आध्यात्मिक चिकित्साशास्त्र कहा जा सकता है । CHUAIMILIARNAJAAAAAAAAAAAAMALANIMALURALIABADASAnsumi ASALALASAAMACANAawaniranadianRISARMARKamudrCHARINAKAPawa आचार्यप्रवाआभनआचार्यप्रवास अभिन श्रीआनन्दयामा Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८० धर्म और दर्शन SIN बाया कर्मसिद्धान्त की व्यापकता अन्य समस्त चिकित्सा शास्त्रों से आध्यात्मिक चिकित्सा शास्त्र का क्षेत्र व्यापक है। कारण कि नेत्र चिकित्साशास्त्र का क्षेत्र नेत्र तक सीमित है, शारीरिक चिकित्साशास्त्र का क्षेत्र शरीर तक सीमित है जिसमें नेत्र, कान, नाक, हाथ, पैर आदि सभी सम्मिलित हैं, अतः नेत्र चिकित्सा से इसका क्षेत्र अधिक व्यापक है । शारीरिक चिकित्सा से मानसिक चिकित्सा का क्षेत्र अधिक व्यापक है। शारीरिक रोगों का मन से घनिष्ट संबंध होने में मानसिक चिकित्सा में मन के विकारों की चिकित्सा के साथ शारीरिक रोगों की चिकित्सा भी आ जाती है। मानसिक चिकित्सा से आध्यात्मिक चिकित्सा का क्षेत्र अति व्यापक है। इसमें उपर्युक्त सब प्रकार की चिकित्साएँ तो आ ही जाती हैं कारण कि शरीर और मन के रोगों का मूल कारण तो आत्मा के विकार रूप कर्म ही हैं। साथ ही आत्मा के जन्म, मरण, रोग-शोक, सुख-दुःख, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों, सफलता-विफलता आदि जीवन से संबंधित समस्त घटनाओं की उत्पत्ति का संबंध भी प्राणी के अपने कर्मों से ही हैं। अतः जीवन से संबंधित प्रत्येक क्षेत्र का समावेश आध्यात्मिक चिकित्सा में हो जाता है। - आधुनिक मनोविज्ञान ने भी कर्म सिद्धान्त के इस तथ्य को स्वीकार किया है कि प्राणी के तन-मन एवं जीवन की समस्त स्थितियों का निर्माण उसके अंतस्तल में छिपे भावों के अनुसार ही होता है। हृदय में भय का भाव उत्पन्न होते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। आंतें कार्य करना बंद कर देती हैं इसी कारण से जंगल में शेर को सामने देखते ही पाजामे में टट्री-पेशाब लग जाते हैं। क्रोध उत्पन्न होने पर खून खौलने लग जाता है। शरीर का ताप और रक्त का चाप बढ़ जाता है। मान का मद चढ़ते ही व्यक्ति अपनी यथार्थ स्थिति से विस्मृत हो अनाप-शनाप खर्च करने व बलिदान होने को तैयार हो जाता है । जोश में होश खो बैठता है और ऐसा आचरण करने लगता है जो स्वयं के लिए घातक है। प्रियजन की मृत्यु के शोक से पाचन शक्ति क्षीण हो जाती है। मुंह में भोजन-ग्रास लेते ही उल्टी होने लगती है। चिन्ता से हृदयरोग, अलसर, रक्तचाप, दुर्बलता, विक्षिप्तता का होना, सर्व साधारण को विदित है। यह तो हुई (हृदय, फेफड़े, रक्त, पाचन आदि) शारीरिक अंगों व संस्थानों की संचालन क्रिया पर भावनाओं का प्रभाव पड़ने की बात । परन्तु इससे भी अधिक विस्मयकारी बात तो आधुनिक वैज्ञानिकों का यह कथन है कि भावों का प्रभाव केवल शरीर के श्वसन, पाचन, रक्त संचरण आदि संस्थानों की संचालन क्रिया पर तो पड़ता ही है साथ ही उनकी संरचना पर भी पड़ता है। उनका कथन है कि व्यक्ति के मस्तिष्क, आँख, नाक, कान, बाल, रक्त, हाथ-पैर की संरचना तथा हाथ-पैर-मस्तिष्क की रेखाओं तक के निर्माण में भी उस व्यक्ति के भावों का ही हाथ है। इनके आकार-प्रकार के निर्माण के साथ जिन तत्वों से ये अंग बने हैं उन तत्वों में भी भावों के साथ रासायनिक परिवर्तन होते रहते हैं। इधर जिस क्षण व्यक्ति के भावों में परिवर्तन होता है उधर उतने ही अंशों में उन तत्वों में भी रासायनिक परिवर्तन हो जाता है जिससे मस्तिष्क, रक्त, बाल, हड्डी आदि का निर्माण हुआ है। रूस में एक वैज्ञानिक है जो मृत मनुष्य की खोपड़ी की हड्डियों को देखकर, उस मनुष्य की जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत की सब घटनाओं को इस प्रकार पढ़ लेते हैं मानों वे उसकी आत्मकथा पढ़ रहे हों। यहाँ तक कि वह व्यक्ति मरते समय किस भावावेश में था तथा किस प्रकार के विष देने से मरा यह भी बतला देते हैं। आज किसी भी मनुष्य के बाल की रासायनिक क्रियाओं का विश्लेषण करके, उसके स्वभाव की, अपराध आदि वृत्तियों का पता चलाने का विज्ञान भी विकसित हो गया है। हड्डी और बाल दोनों शरीर में सब से अधिक ठोस एवं सब से कम Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-सिद्धान्त : भाग्य-निर्माण की कला ३८१ संवेदन की वस्तुएं हैं जब उनके आकार-प्रकार व संरचना का भी मानव की प्रकृति व प्रवृत्ति का इतना संबंध है तो मानव के श्वसन, पाचन आदि अन्य संस्थानों की संरचना व संचालन के साथ भावों का अत्यंत घनिष्ट सम्बन्ध हो तो आश्चर्य की बात ही क्या है। वर्तमान में ऐसी मशीन का भी आविष्कार हो गया है जो मनुष्य के मस्तिष्क पर लगा देने पर यह बतला देती है कि यह मनुष्य सच बोल रहा है अथवा झठ । कर्मसिद्धान्त का महत्व ऊपर शारीरिक रोग और शरीर संरचना के साथ जिस मन के घनिष्ट सम्बन्ध के विषय में कहा गया है, इसे मनोविज्ञान में चेतनमन एवं कर्म सिद्धान्त में द्रव्यमन कहा जाता है । इस मन का निर्माण करने वाली एक और शक्ति है उसे मनोविज्ञान में अचेतनमन कहा जाता है और जैन दर्शन में कर्म या कार्मण शरीर कहा जाता है। इसका निर्माता है आत्मा। आत्मा अनंत विलक्षण गुण एवं शक्ति का भंडार है। आत्मा की इस विलक्षणता का ज्ञान बिरले ही व्यक्तियों को है। आज जड़ परमाणु की शक्ति के ज्ञान ने जगत को विस्मय में डाल दिया है। यह सर्वविदित है कि चेतन की शक्ति के समक्ष जड़ की शक्ति नगण्य है। चेतन जड़ की शक्ति को प्रकट करने, नियंत्रण करके उपयोग करनेवाला है । अतः जब जड़ परमाणु की आंतरिक शक्ति ही इतनी आश्चर्यकारी है तो जड़ के नियन्ता चेतन की आन्तरिक शक्ति कितनी चमत्कारिक होगी, इसकी कल्पना भी संभव नहीं है। जिस प्रकार जड़ परमाणु की शक्ति का संहार में भी उपयोग हो सकता है और सर्जन में भी। इसी प्रकार चैतन्य की शक्ति का भी विनाश में भी योग हो सकता है और विकास में भी । चैतन्य की शक्ति का उपयोग हिंसा, झूठ, ईर्ष्या, अपकार, प्रतिशोध आदि पाप प्रवृत्तियों में करना अपने जीवन का विनाश करना है, आपत्तियों-विपत्तियों को, आधि-व्याधि उपाधियों को निमंत्रण देना है। चैतन्य शक्ति का उपयोग करुणा, सेवा, परोपकार आदि सद्-प्रवृत्तियों में करना अपने जीवन का विकास करना है। कारण कि प्रवृत्ति के अनुरूप प्रकृति का निर्माण होता है। प्रकृति से वातावरण का निर्माण होता है। वातावरण से जीवन का निर्माण होता है । अत: चेतन जैसी शुभ-अशुभ प्रवृत्ति करता है वैसा ही उसके सुखदायी-दुखदायी जीवन का निर्माण होता है। कर्म-सिद्धान्त इस तथ्य को युक्तियुक्त सुन्दर वैज्ञानिक शैली में प्रस्तुत करता है। अतः कर्म-सिद्धान्त का शास्त्र भाग्य के संविधान का ही शास्त्र है। __ आधुनिक मनोविज्ञान के शीर्षस्थ विद्वान् 'चार्ल्स युग' का कथन है कि मनुष्य अपने व्यक्तित्व को उतनी ही दूर तक बढ़ा सकता है जितनी दूर तक वह अज्ञात मन की गहराई में छिपी शक्तियों को जानता है एवं उनका नियंत्रण करता है। उस अज्ञात मन में बिना भौतिक साधनों के दूरस्थ की घटनाओं को देखने की शक्ति है तथा वह अतीत काल में हुई घटनाओं को जान सकता है एवं बहुत दूर तक भविष्य का दर्शन भी कर सकता है। अभिप्राय यह है कि हमारे भावों एवं प्रवृत्तियों से ही हमारे जीवन का, व्यक्तित्व का निर्माण होता है । हमारी प्रवृत्तियों से कर्म का निर्माण होता है । कर्म की प्रकृति के अनुसार शरीर और जीवन की प्रत्येक घटना का निर्माण होता है। हमारे सुख-दुःख, सफलता-असफलता, जयपराजय, सम्पन्नता-विपन्नता, प्रभाव-अभाव आदि सब का मूल हमारा कर्म ही का फल है। हमारा वर्तमान जीवन हमारे कर्म का ही परिणाम है। हमारे जीवन के सुख-दुःख आदि का दायित्व हमारे पर ही है। कर्मफल का ही दूसरा नाम भाग्य है। अपने भाग्यविधाता हम स्वयं ही हैं। हमारी आत्मा ही हमारे भाग्य की निर्णायक है। हमारा ब्रह्म ही भाग्य को अंकित करने वाला ब्रह्मा है, हमारी आत्मा के अतिरिक्त अन्य कोई हमारे भाग्य का लिपि-लेखक ब्रह्मा नहीं है । VOL TA) .RAA LFINI WEDDI طعام مااععععععععععهخحهخلعهديه شعريهحعععاع आचार्यप्रवभिE आचार्यप्रवर आमा श्रीआनन्दन्थश्राआनन्दमयन् १७ 26 wweiveawwanmmmmove Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ marwww YavNMMiwww ३८२ धर्म और दर्शन कर्म सिद्धान्त के सूत्र भाग्य के संविधान के सूत्र हैं। जिस प्रकार विधान संस्थानसंचालन व संरचना के नियमों का निदर्शक होता है उसी प्रकार कर्म सिद्धान्त भी जीवन संचालन व संरचना के नियमों के निदर्शक है। जिनका ज्ञान करके एवं तदनुकूल आचरण करके मानव मात्र अपनी इच्छानुसार सौभाग्यमय जीवन का निर्माण कर सकता है एवं ऐसे शाश्वत परमानंद के क्षेत्र में प्रवेश कर सकता है जहाँ जन्म, मरण, रोग, शोक, दु:ख, दारिद्रय, का अस्तित्व ही नहीं है। कर्म-बंध की प्रक्रिया पहले कहा गया है कि चेतन में अपने विरोधी स्वभाव वाले अचेतन पदार्थ के संयोग से कर्म रूपी विकार उत्पन्न होता है। कर्मोत्पत्ति की प्रक्रिया में वही नियम काम करते हैं जो रोगोत्पत्ति की प्रक्रिया में काम करते हैं। जिस प्रकार शारीरिक रोग की उत्पत्ति के चार रूप होते हैं, (१) रोग का प्रकार या प्रकृति, (२) शरीर में प्रविष्ट रोगोत्पादक विष की मात्रा, (३) रोग कितने समय तक टिकने वाला है, रोग की कालावधि और (४) रोग किस रूप में प्रकट होकर फल देने वाला है। इसीप्रकार आत्मिक रोग-विकार कर्म की उत्पत्ति या कर्मबंध के भी चार रूप हैं :(१) प्रकृतिबंध, (२) प्रदेशबंध, (३) स्थितिबंध और (४) अनुभागबंध । कर्मबंध ने इन चारों रूपों को नीचे शारीरिक रोगों के चारों रूपों के आधार पर प्रस्तुत किया जाता हैप्रकृतिबंध जिस प्रकार व्यक्ति द्वारा ग्रहण किया गया प्रत्येक पदार्थ अपनी प्रकृति के अनुसार शरीर में अलग-अलग प्रभाव के रूप में प्रकट होता है। इमली वात प्रकृति वाली है, दही व दूध घृत कफ प्रकृति वाले हैं। मच्छर काटने का विष मलेरिया पैदा करने की प्रकृति वाला है, बावले कुत्ते का विष पागलपन पैदा करने की प्रकृति वाला है, अफीम, धतूरा, संखिया आदि विष अपनी अलगअलग प्रकृति वाले हैं। इसीप्रकार मन, वचन, काया की प्रत्येक प्रवृत्ति अलग-अलग कर्म प्रकृति पैदा करने वाली है । ज्ञान में बाधा डालनेवाली, ज्ञानी व ज्ञान का अनादर करने वाली प्रवृत्ति ज्ञान में बाधा डालने वाली प्रकृति का रूप धारण करती है। इसकी प्रकार कोई प्रवृत्ति दर्शन में, कोई प्रवृत्ति आनंद में, कोई प्रवृत्ति सामर्थ्य के प्रकटीकरण में बाधा डालती है। जैसे व्यक्ति द्वारा ग्रहण किये गए दूध, घृत, रोटी आदि कुछ पदार्थ शरीर का निर्माण वृद्धि, पुष्टि करने वाले होते हैं इसी प्रकार मन, वचन काया की कुछ प्रवृत्तियां शरीर, आयु, संवेदन शक्ति आदि के निर्माण करने वाली होती हैं। मन, वचन, काया के स्पंदन-प्रवृत्ति, क्रिया से उसी स्थान में स्थित कार्मण वर्गणाएँ आकृष्ट होकर आत्मा के साथ एकीभूत हो जाती है वे वैसा ही रूप ग्रहण कर लेती है जैसी प्रवृत्ति होती है। कर्म सिद्धान्त के नियमानुसार प्राणी की प्रवृत्ति ही प्रकृति का रूप धारण करती है । सूत्र है-जैसी प्रवृत्ति वैसी प्रकृति । प्रवृत्तियां अगणित हैं अतः कर्म प्रकृतियां भी अगणित हैं परन्तु कर्म ग्रंथों में उन सबका वर्गीकरण आठ मूल प्रकृतियों में, एक सौ अठावन उत्तर प्रकृतियों के रूप में कर दिया गया है। प्रकृति स्वभाव का पर्यायवाची है। कर्म की आठ मूल प्रवृत्तियाँ हैं यथा(१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयु, (६) नाम, (७) गोत्र और (८) अंतराय। जिस प्रकार अलग-अलग प्रकार के विष या पदार्थ शरीर में अलगअलग प्रकार के विकार उत्पन्न करते हैं इसी प्रकार प्राणी की प्रवृत्तियां या भाव भी आत्मा में अलगअलग प्रकार की कर्म प्रकृतियां उत्पन्न करते हैं। जैसे कोई विष मस्तिष्क में विकार उत्पन्न कर विक्षिप्त बनाता है, विचार शक्ति को कुंठित करता है इसी प्रकार जो प्रवृत्ति या भाव आत्मा के ज्ञान को विकृत करती व कुंठित करती है उसे ज्ञानावरणीय कर्म प्रकृति कहा है। कोई विष आँख की देखने Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-सिद्धान्त : भाग्य-निर्माण की कला ३८३ का की शक्ति को क्षीण करता है इसी प्रकार जो प्रवृत्ति व भाव आत्मा की साक्षात्कार करने की शक्ति को क्षीण या कुंठित करती है उसे दर्शनावरणीय कर्म प्रकृति कहा गया है जिस प्रकार चंदन शरीर में शीतलता एवं किचमिची खुजली पैदा करती है इसी प्रकार जो प्रवृत्तियां आत्मा को साता-असाता देती हैं वे वेदनीय कर्म की प्रकृतियां कही जाती हैं। जिस प्रकार शराब शरीर से बेभान, मोहित करती है उसी प्रकार जो प्रवृत्तियां या भाव आत्मा को अपने स्वरूप या स्मृति को भुलाती हैं वे मोहनीय की प्रकृतियां कहलाती हैं। जिस प्रकार कुछ पदार्थों का सेवन शरीर को जीवनी शक्ति देकर टिकाये रखते हैं इसी प्रकार जो प्रवृत्तियां या भाव शरीर को निश्चित समय तक टिकाये रखने की शक्ति देती हैं उन्हें आयु की प्रकृतियां कहा जाता है। जिस प्रकार कुछ प्रकार के पदार्थ का सेवन शरीर, इन्द्रिय आदि के निर्माण व पुष्ट अथवा क्षीण करने वाले होते हैं इसी प्रकार जिन प्रवृत्तियों या भावों से शरीर, इन्द्रिय, अंगोपांग के निर्माण, पुष्ट व क्षीण करने वाली आंतरिक शक्ति उत्पन्न होती है वे नाम कर्म की प्रकृतियां कही गई हैं। जिस प्रकार कुछ पदार्थ शरीर में विशेष प्रकार की प्रकृति उत्पन्न करने वाले होते हैं इसी प्रकार जिन प्रवृत्तियों से शरीर की रचना उच्च या नीच संस्कार ग्रहण योग्य हो वे गोत्र कर्म की प्रकृतियां कही जाती हैं। जिस प्रकार कुछ विष या पदार्थ शरीर, इन्द्रिय, मन, प्राण की शक्ति को क्षीण करने वाले होते हैं ऐसे ही कुछ प्रवृत्तियां या भाव आत्मा की शक्तियों को क्षीण करने वाली होती हैं इन्हें अन्तराय कर्म की प्रकृतियां कहा जाता है। प्रवृत्तियों व भावों के अनुरूप ही प्रकृतियों का निर्माण होता है । अत: जहाँ-जहाँ ऊपर प्रकृति व भाव कहा गया है वहाँ तत्संबंधी प्रकृतियों का भी अन्तर्भाव कर लेना चाहिए। कर्म की इन आठ मूल प्रकृतियों की उत्तर प्रकृतियाँ एक सौ अठावन हैं, उनको भी चिकित्सा शास्त्र की उपर्युक्त पद्धति से समझ लेना चाहिए। विस्तारभय से उनका वर्णन यहाँ नहीं किया । गया है। प्रदेशबंध मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों से वहीं स्थित सुक्ष्म कार्मण वर्गणाएँ आकृष्ट होती हैं और जब वे आत्मा के साथ संबद्ध या एकीभूत हो जाती हैं तो कर्म कही जाती हैं। उन कर्मों के समुदाय में भी परमाणु हैं। उन परमाणुओं के परिमाण या मात्रा को जो आत्मा से बंधी हुई हैं उसे प्रदेशबंध कहा जाता है। प्रदेशबंध को शरीर में प्रविष्ट विष या विकार की मात्रा से समझा जा सकता है । शरीर में विषैले कीटाणुओं एवं विकारोत्पादक पदार्थ जितने अधिक सक्रिय होते हैं उतनी ही अधिक मात्रा में रोग की विद्यमानता हो जाती है। इसी प्रकार मन, वचन, काया की प्रवृत्तियां जितनी अधिक सक्रिय होती हैं उतनी ही अधिक मात्रा में कार्मण वर्गणाएँ खिचती हैं और आत्मा से संबद्ध हो जाती हैं, इसे ही प्रदेशबंध कहा जाता है। अनुभागबंध आत्मा से सम्बद्ध कर्मों की फलदान शक्ति को अनुभागबंध कहा जाता है। जिस प्रकार शरीर का हर विकार अपना फल अलग-अलग रूप में देता है, मंदाग्नि अतिदस्त या कब्ज के रूप में अपना फल देती है। हैजा दस्त-उल्टी के रूप में, जुकाम सिरदर्द व खाँसी के रूप में, मलेरिया सिरदर्द, उल्टी, ज्वर के रूप में अपना-अपना फल देते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक कर्म अपना अलग-अलग फल देते हैं। किसी कर्म का फल कठोर होता है तो किसी का मदु । किसी का फल सबल होता है तो किसी कर्म का फल निर्बल । कर्म में फलदान शक्ति कषाय के कारण से होती है। कषाय अर्थात् राग द्वेष भाव, जितना प्रमाद होगा कर्म का फल भी उतना ही प्रगाढ़ व सबल होगा। COM DareAMAA. AnaramanupadanadaNAIAAAAAAAAAAAAAAAANAAMERAAhADJAAMAunamaASO आपाप्रवन अभिनत्राचार्यप्रवर आम श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्दप्रसन्न Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औधाप्रबराजमाचार्यप्रवचन श्रीआनन्द श्रीआनन्द अत्यन ३८४ धर्म और दर्शन कषाय या राग-द्वेष-मोह भाव से आत्मा का कर्म के साथ तादात्म्य होता है। जितना कषाय गाढ़ा होगा कर्म परमाणु उतनी ही प्रगाढ़ता से आत्मा के साथ एकीभूत होगा और उनका फल भी उतनी ही प्रबलता से मिलेगा। जिस प्रकार जो विकार शरीर के साथ अधिक तादात्म्य-एकरूपता को प्राप्त होता है वह उतना ही अधिक फल देता है। उसी प्रकार जिस प्रवृत्ति में कषाय जितना अधिक तीव्र होगा वह प्रकृति उतना ही अधिक फलदान करेगी। स्थितिबंध आत्मा से बंधे कर्म जितने समय तक आत्मा के साथ रहते हैं उस समय की अवधि को स्थितिबंध कहते हैं। जिस प्रकार प्रत्येक शारीरिक विकार अलग-अलग समय तक अपना फल देता है। किसी को मलेरिया ज्वर दो दिन रहता है किसी को नौ दिन । कभी सिर दर्द कुछ समय तक रहता है कभी बहुत समय तक । इसी प्रकार कोई कर्मबंध बहुत समय तक फल देता है, कोई कम समय तक। कर्म का यह स्थितिबंध कषाय के परिमाण (Quantity) के अनुसार होता है। मन, वचन, काया की प्रवृत्ति को योग कहते हैं। राग-द्वेष भाव को कषाय कहते हैं । योग के प्रकार-परिणाम (Quality) के अनुसार प्रकृतिबंध होता है। योग के परिमाण (Quantity) के अनुसार प्रदेशबंध होता है। कषाय के परिणाम (Quality) के अनुसार अनुभागबंध होता है और कषाय के परिमाण (Quantity) के अनुसार स्थितिबंध होता है। कर्म बंध का मूलाधार परिणाम (भावना) है। जिस प्रकार जैसा बीज होता है वैसा ही फल है, इसी प्रकार जैसा परिणाम (भावना) होती है वैसा ही परिणाम (फल) आता है । भावना रूप परिणाम ही फल रूप परिणाम का कारण है। यादृशी भावना तादृशी सिद्धिर्भवति । प्राणी भाव से भाग्यवान बनता है और भाव से भगवान भी बन सकता है। कर्म के प्रकार कर्म को हम अशुभ और शुभ इन दो रूपों में वर्गीकरण कर सकते हैं। अशुभ कर्म कुपथ्य के समान अहितकारी हैं और शुभ कर्म सुपथ्य या अनुपान के समान हितकारी हैं। जिस प्रकार कुपथ्य सेवन से शारीरिक रोग बढ़ता है और पथ्य सेवन से रोग घटता है एवं सामर्थ्य व स्वास्थ्य की वृद्धि होती है। इसी प्रकार अशुभ कर्मों से दुःखदायी स्थितियों की वृद्धि होती है और शुभ कर्मों से आत्मा के सामर्थ्य व स्वस्थता में वृद्धि होती है। अशुभ कर्मों को कर्म-विज्ञान में पापकर्म व शुभकर्मों को पुण्यकर्म कहा है। पापकर्म हैं-हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, चुगली, निंदा, रति, अरति, छल-प्रपंच, मिथ्यात्व आदि । पुण्यकर्म हैं-परोपकार, सेवा व मन, वचन, काया से दूसरों का हित करना है। शुभ से अशुभ का ह्रास होता है। जितनी शुभ प्रवृत्तियों की वृद्धि होगी उतनी ही अशुभ प्रवृत्तियों में कमी होती जायेगी । जिस प्रकार पथ्य का सेवन कुपथ्य के दुष्प्रभाव को घटाता है । इसी प्रकार पुण्य प्रवृत्तियां पाप प्रवृत्तियों के दुष्परिणाम को घटाती हैं। जिस प्रकार जितना रोग धटता जाता है उतना ही शरीर का सामर्थ्य एवं स्वास्थ्य बढ़ता जाता है । इसी प्रकार जितना पाप प्रकृतियों का जोर घटता जाता है उतनी आत्मा की शक्ति बढ़ती है। आत्मा स्वस्थ होती जाती है। आत्मा का विकास होता जाता है और आत्मा का विकास इन्द्रियवृद्धि, प्राणवृद्धि, ज्ञानवृद्धि, बुद्धिवृद्धि, वैभववृद्धि के रूप में प्रकट होता है। 'पुनाति आत्मानं इति पुण्यः', जो आत्मा को पवित्र करे, वह पूण्य है। आत्मा मैली होती है कषाय के कलुष से। अतः जिससे कषाय में मंदता आवे वह पुण्य है। जिस प्रकार अशोधित विष शरीर में विकार उत्पन्न करता है, स्वास्थ्य का घात करता है, अहितकारी है। परन्तु वही शोधित कर दिया जाय और फिर लिया जाय तो स्वास्थ्यकारी हो जाता है। इसी प्रकार प्रवृत्ति जब, या UPI Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-सिद्धान्त : भाग्य निर्माण कला ३८५ CUDIL भोग या पाप रूप होती है तो आत्मा के लिए अहितकारी होती है और वही प्रवृत्ति सेवा या पुण्य रूप होती है तो हितकारी हो जाती है । जिस प्रकार शराब पीने से मोह (बेहोशी) ग्रस्त व्यक्ति में जड़ता आ जाती है, उस की मस्तिष्क व इन्द्रियों की संवेदन शक्ति बहुत घट जाती है फिर जैसे-जैसे उनका मोह-नशा घटता जाता है उसकी मन, बुद्धि, इन्द्रियों की शक्तियां बढ़ती जाती हैं। इसी प्रकार पाप प्रकृतियां आत्मा को मोहग्रस्त-बेहोश करती हैं। उसमें जड़ता आ जाती है और उसकी मन, मति व इन्द्रिय शक्ति घट जाती है अतः वह चेतना का जहाँ विकास अत्यन्त कम है ऐसे वनस्पति आदि में जन्म लेता है। फिर जैसे-जैसे मोह (जड़ता) घटता जाता है उसमें चेतनता का विकास होता जाता है, उसकी इन्द्रिय, मन, बुद्धि में वृद्धि होती जाती है। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि हमारी राग-द्वेष की मात्रा जितनी कम होती जाती है उतने ही हम तटस्थ होते जाते हैं और हमारे सोचने-विचारने, अनुभव-संवेदन करने की शक्ति बढ़ती जाती है। कषाय की मन्दता रूप पुण्य से ही प्राणी को इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि की उपलब्धि होती है। माग्यपरिवर्तन की प्रक्रिया : करण कर्म-सिद्धान्त में जहाँ एक ओर यह विधान-नियम है कि बंधा हआ कर्म फल दिए बिना कभी नहीं छूटता है वहीं दूसरी ओर उन नियमों का भी विधान है जिनसे बन्धे हुए कर्मों मे परिवर्तन भी किया जा सकता है। इन्हीं नियमों को कर्मशास्त्र में करण कहा गया है। करण एक प्रकार से भाग्य परिवर्तन की प्रक्रिया है। करण के आठ प्रकार हैं :-(१) बन्धन करण (२) निधत्त करण (३) निकाचना करण (४) उदवर्तना करण (५) अपवर्तना करण (६) संक्रमण करण (७) उदीरणा करण और (८) उपमशना करण । करण उसे कहा जाता है जिसकी सहायता से क्रिया या कार्य हो । अर्थात् जो क्रिया या कार्य में कारण हो, हेतु हो । इन आठ प्रकारों से कर्म में क्रिया होती है । अतः इन्हें करण कहा जाता है। इन्हें भाग्य-परिवर्तन के हेतु भी कहा जा सकता है। बन्धन करण जिसके कारण आत्मा कर्म को ग्रहण कर बन्धन को प्राप्त हो वह बन्धन करण है। जिस प्रकार शरीर द्वारा ग्रहण किया गया पदार्थ शरीर के लिए हित-अहित का कारण बनता है। इसी प्रकार आत्मा द्वारा ग्रहण किए गए शुभ-अशुभ कर्म परमाणु आत्मा के लिए सौभाग्य-दुर्भाग्य के कारण बनते हैं । अतः जो दुर्भाग्य को दूर रखना चाहते हैं उन्हें अशुभ पाप प्रवृत्तियों से बचना चाहिये । जो सौभाग्य चाहते हैं उन्हें सेवा, परोपकार, वात्सल्य भाव आदि शुम प्रवृत्तियों को अपनाना चाहिये। निधत्त करण वह क्रिया जिससे पूर्व में बन्धे कर्म दृढ़ हों, निधत्त कहलाती है। जिस प्रकार किसी को ज्वर हो और वह उस अवस्था में घृत-तेल आदि का सेवन करे तो वह ज्वर कष्टसाध्य हो जाता है । अथवा किसी को अफीम का नशा करने की आदत हो और फिर गाँजे व सुलफे का नशा करने का निमित्त मिल जावे तो वह अफीम के नशे की आदत दृढ़ हो जाती है फिर प्रयत्नों से मात्रा में कमी-ज्यादा तो हो सकती है परन्तु सदा के लिए आदत मिटना कठिन हो जाता है। प्रतिदिन समय पर नशा करना ही पड़ता है। इसी प्रकार किसी कर्मप्रकृति का बन्ध शिथिल हो परन्तु उसी की सहयोगी अन्य प्रकृतियों का निमित्त मिल जाता है तो वह दृढ़ हो जाती है फिर प्रयत्नों से साधारण सा फेरफार तो हो सकता है परन्तु उसका रूपान्तरण व मिटना सम्भव न हो। कर्म का आचारसनाचार्यप्रवभिनेता श्रीआनन्दमयन्यश्रीआनन्दन Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAAAAAJ आपायप्रवर अभिनंदन आमान अश श्री आनन्दव ग्रन्थ 3 JT फ्र 九 讀 F ३५६ धर्म और दर्शन इस अवस्था का प्राप्त होना निघत्तकरण कहलाता है। अतः ज्ञानीजनों का कर्तव्य है कि अपनी अशुभ प्रवृत्ति को बल देने वाली अन्य अधम प्रवृत्तियों से अपने को बचायें । निकाचना करण वह क्रिया जिससे कर्म ऐसे हड़तम हो जायें कि फिर उसमें किसी भी प्रकार का कुछ भी परिवर्तन सम्भव ही न रहे, निकाचना करण कहलाता है। जिस प्रकार कोई साधारण सा साध्य अथवा कष्ट साध्य रोग अपनी वृद्धि के अनुकूल साधन पाकर असाध्य रोग का रूप धारण कर लेता है फिर उस पर दवा उपचार कारगर नहीं होता है, उसे भोगना ही पड़ता है-जैसे कैंसर रोग । इसी प्रकार कर्म भी कषाय की प्रबलता को पाकर दृढ़तम बन्ध को प्राप्त हो जाता है । उसका आत्मा से इतना प्रगाढ़ सम्बन्ध स्थापित हो जाता है कि उसे भोगना ही पड़ता है । अतः अन्य के इस निकालना स्वरूप को ध्यान में रखते हुए ज्ञानी जनों का कर्तव्य है कि अपनी पाप प्रकृतियों के रस में निमग्न न होवें । जलकमलवत् निर्लिप्त रहने का ध्यान रखें । उद्वर्तन करण Your जिस कारण से कर्म की स्थिति और रस बढ़ जाता है, उसे उद्वर्तना करण कहते हैं । जिस प्रकार खाँसी घृत तेल आदि से बढ़ जाती है और अधिक काल तक कष्ट देती है । इसी प्रकार किसी प्रवृत्ति में बार-बार रस लेने से उस प्रवृत्ति से सम्बन्धित प्रकृति में अधिक फलदान करने एवं अधिक समय तक टिकने की शक्ति आ जाती है । अतः हित इसी में है कि पाप प्रवृत्तियों की पुनरावृत्ति से बचा जाय, उनमें कम से कम रस लिया जाय । अपवर्तना करण जिस कारण से कर्म की स्थिति और रस घट जाता है, उसे अपवर्तना करण कहते हैं । जिस प्रकार पित्त का रोग नींबू- आलूबुखारा खाने से घटता है। तीव्र क्रोध का वेग जल पीने से घटता है । इसी प्रकार किए गए दुष्कर्मों के प्रति पश्चात्ताप व प्रायश्चित्त आदि करने से उनकी फलदान शक्ति घटती है । अतः रति या अविरति को त्यागने व विरति को अपनाने में आत्मा का हित है । संक्रमण करण जिस कारण से पूर्व में बन्धे कर्म की प्रकृति अपनी सजातीय प्रकृति में रूपान्तरित हो जाती है, उसे संक्रमण करण कहते हैं । जिस प्रकार शरीर के विकारग्रस्त अंग हृदय, नेत्र आदि को हटाकर उनके स्थान पर स्वस्थ हृदय, नेत्र का आरोपण करने से रोगी होता है— बीमारी के कष्ट से बचना एवं स्वस्य अंग की शक्ति-सुख को पाना । को दुहारा लाभ इसी प्रकार अशुभ कर्म प्रकृति को अपनी सजातीय शुभ कर्म प्रकृति में बदला जा सकता है। आधुनिक मनोविज्ञान में इसे मार्गान्तरीकरण (Sublimation of Mentalenegy) कहा जाता है । कुत्सित प्रकृतियों को उदात्त प्रकृतियों में मार्गान्तरीकरण या रूपान्तरणकरण को वर्तमान मनोविज्ञान में उदात्तीकरण कहा गया है। इसका अपराधी या दोषी मनोवृत्तियों के व्यक्तियों को सुधारने में उपयोग किया जाता है। अपनी उपयोगिता के कारण मार्गान्तरीकरण - उदात्तीकरण मनोविज्ञान का प्रधान अंग बन गया है तथा इसके विभिन्न रूप प्रस्तुत किए गए हैं यथा-तोड़फोड़ करने वाले, अनुशासन हीन छात्रों को उनकी रुचि के रचनात्मक कार्य में लगाकर उनकी मनोवृत्ति बदली जाती है। तीव्र रोग या शरीर के प्रति कामवासना (कुत्सित भाव ) का उदात्ती करण गुणानुराग, भक्तिभाव, कला या काव्य रचना में किया जा सकता है । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-सिद्धान्त : भाग्य निर्माण कला ३८७ NACEAM HING M कुत्सित प्रकृतियों को सद् प्रकृतियों में संक्रमण करण या उदात्तीकरण के लिए आवश्यक है कि पहले व्यक्ति के हृदय में भोगों के क्षणिक अस्थायी सुख के स्थान पर स्थायी सुख प्राप्ति का भाव जागृत किया जाय । भावी सुख के लिए तात्कालिक क्षणिक सुख का त्याग करने की प्रेरणा दी जाय। इस प्रकार प्रथम स्वार्थपरक आत्मसंयम की योग्गता पैदा होती है फिर दूसरों के सुख के लिए अपने सुख का त्याग करने की योग्यता आती है। इससे स्थायी आनन्द के रसास्वादन का अनुभव होता है। रसास्वादन का यह बीज सेवाभाव, परोपकार के रूप में पल्लवित, पुष्पित व फलित होता है । और अन्त में सर्वहितकारी प्रवृत्ति का रूप ले लेता है। जिस प्रकार मनोविज्ञान में मार्गान्तरीकरण या उदात्तीकरण केवल सजातीय प्रवृत्तियों में ही सम्भव माना है विजातीय प्रवृत्तियों में नहीं। इसी प्रकार कर्म-विज्ञान में संक्रमण केवल सजातीय प्रकृतियों में सम्भव माना है विजातीय प्रकृतियों में नहीं। यह समानता आश्चर्यजनक है । मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि उदात्तीकरण शारीरिक एवं मानसिक रोगों के उपचार में, जीवन के उत्थान में बड़ा कारगर उपाय है। मनोविज्ञानशालाओं में असाध्य प्रतीत होने वाले महारोग भी उदात्तीकरण से ठीक होते देखे गये हैं। जिस प्रकार अशुभ प्रवृत्तियों का शुभ प्रवृत्तियों में रूपान्तरण होता है, यह जीवन के उत्थान में उपयोगी है। इसी प्रकार शुभ प्रवृत्तियों का भी अशुभ प्रवृत्तियों में रूपान्तरण-संक्रमण होता है यह जीवन के अधःपतन का कारण बनता है । सज्जन, भले व्यक्ति जब कुसंगति, कुत्सित वातावरण में पड़ जाते हैं और उससे प्रभावित हो जाते हैं तो उनकी शुभ प्रवृत्तियाँ अशुभ प्रवृत्तियों में परिवर्तित हो जाती है जिससे उनका मानसिक एवं नैतिक पतन हो जाता है। परिणामस्वरूप उनके समक्ष अनेक कष्ट, विपत्तियाँ, रोग, अशांति, रिक्तता, हीनभावना, अनिद्रा आदि अवांछनीय स्थितियाँ उपस्थित हो जाती हैं। जिस प्रकार मनोविज्ञान में मार्गान्तरीकरण का महत्त्वपूर्ण स्थान है उसी प्रकार कर्मविज्ञान में संक्रमण करण का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कषाय पाहुड की टीका जयधवला में संक्रमण करण का विस्तार में महाभारत ही बन गया है । उद्वर्तन, अपवर्तन आदि करण संक्रमण करण के ही अंग हैं। अभिप्राय यह है कि संक्रमण करण के सिद्धान्तों का अनुसरण कर व्यक्ति नर से नारायण, भिखारी से भगवान, हीन से महान, दुरात्मा से महात्मा, भाग्यहीन से भाग्यवान, दु:खी से सुखी बन सकता है तथा अपने जीवन को पतन से बचा सकता है, अपने भाग्य का इच्छानुसार निर्माण कर सकता है। आपत्तियों एवं विपत्तियों से अपनी रक्षा कर सकता है। प्रसन्नचन्द राजर्षि ध्यान में स्थित थे तब राहगीर से जब यह सुना कि शत्रु मेरी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर मेरे राज्य को छीनने को उतारू हो गया है तो उनका हृदय तीव्र कषाय से भर गया और सातवें नर्क की मनोस्थिति बन गई, तत्काल विवेक से मानसिक प्रवृत्ति में संक्रमण किया और केवलज्ञान को प्राप्त हो गये, यह है संक्रमण करण का चमत्कार । उदीरणा करण जिस कारण से कर्म स्वाभाविक उदय में आने के समय के पूर्व ही प्रयत्न या पुरुषार्थ से उदय में लाकर फल पा लेना उदीरणाकरण है। जिस प्रकार शरीर में स्थित कोई विकास कालान्तर में रोग रूप में फल देने वाला है उसके फल को टीका लगा अथवा दवा आदि के प्रयत्न द्वारा पहले ही पा लेने से विकार से शीघ्र मुक्ति मिल जाती है। उदाहरणार्थ-चेचक का टीका लगाने से चेचक का विकार समय से पहले अपना फल दे देता है फिर आगे उससे छुटकारा मिल जाता है। पेट में बया Sapanimal READHAMAAJanuKinHAAR Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवर अभिमानार्यप्रवर अ श्रीआनन्दमश्राआनन्दान्थ५५ ३८८ धर्म और दर्शन आंव की बीमारी में, दस्त लगने की दवा देकर पहले ही अधिक दस्ते लगवा दी जायें तो पेट में से दूषित मल जो पीछे धीरे-धीरे निकलता वह पहले ही निकल जाता है और रोग से समय पहले छुटकारा मिल जाता है। इसी प्रकार कर्म की ग्रंथियों को भी प्रयत्न से समय के पूर्व उदय में लाया जा सकता है तथा उनका फल भोगा जा सकता है। कर्मों की उदीरणा प्राणी के सहज प्रयत्नों से चलती रहती है परन्तु अन्तर में अज्ञात गहराई में छिपे कर्मों की उदीरणा के लिए विशेष पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। आधुनिक मनोविज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार करता है और विश्वविख्यात मनोवैज्ञानिक डा० फ्रायड ने अज्ञात मन में स्थित मानसिक ग्रन्थियों को ज्ञात मन के स्तर पर लाने की पद्धति प्रस्तुत की है। इसे मनोविश्लेषण पद्धति कहा जाता है । इस पद्धति से भीतर अज्ञात मन में छिपी हुई ग्रंथियाँ, कुठाएं, वासनाएं, कामनाएं ज्ञात मन में प्रकट होती हैं और उनका फल भोग कर लिया जाता है तो वे नष्ट हो जाती हैं। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि मानव की अधिकतर शारीरिक एवं मानसिक बीमारियों का कारण ये अज्ञात मन में छिपी ग्रन्थियाँ ही हैं जिनका संचय हमारे पहले के जीवन में हुआ है । अत: जब ये ग्रन्थियाँ बाहर प्रकट होकर नष्ट हो जाती हैं तो इनसे सम्बन्धित बीमारियाँ भी मिट जाती हैं । वर्तमान में मानसिक चिकित्सा में इस पद्धति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अपने द्वारा हुए पापों या दोषों को स्मृतिपटल पर लाकर गुरु के समक्ष प्रकट करना, उनकी आलोचना करना, प्रतिक्रमण करना उदीरणा या मनोविश्लेषण पद्धति का ही रूप है। इससे साधारण दोष-दुष्कृत मिथ्या हो जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं । यदि दोष अति प्रगाढ़ हो, भारी हो तो उसके नाश के लिए प्रायश्चित्त लिया जाता है। प्रतिक्रमण कर्मों की उदीरणा में बड़ा सहायक है। हम प्रतिक्रमण के उपयोग से अपने दुष्कर्मों की उदीरणा करते रहें तो कर्मों का संचय घटता जायेगा। जिससे आत्मा में आरोग्य की वृदिध होगी । जो शारीरिक एवं मानसिक आरोग्य, समता, शांति एवं प्रसन्नता के रूप में प्रकट होगी। उपशमना करण कर्म का उदय में आने के अयोग्य हो जाना उपशमना करण है। जिस प्रकार शरीर में आपरेशन, घाव आदि से उत्पन्न पीड़ा का कष्ट अनुभव न होने देने के लिए इन्जेक्शन या दवा दी जाती है जिससे पीड़ा या दर्द का शमन हो जाता है, कारण विद्यमान रहने पर भी उसके परिणाम से रोगी उस समय बचा रहता है। इसी प्रकार ज्ञान और क्रिया के विशेष प्रयत्न से कर्म-प्रकृतियों का कुफल शमन किया जा सकता है, अन्तस्तल में भोग्यमान प्रकृतियाँ कारण रूप में विद्यमान रहने पर उनके परिणाम से बचा जा सकता है । परन्तु जिस प्रकार इन्जेक्शन या दवा से दर्द का शमन रहने पर भी आपरेशन के घाव भरने का जो समय है वह घटता रहता है, घाव भरता रहता है। इसी प्रकार कर्म-प्रकृतियों के फलभोग का शमन होने पर भी उनका प्रकृति, स्थिति, प्रदेश बंध घटता रह सकता है। करण के ज्ञान की उपयोगिता कर्म या भाग्य-निर्माण के नियमों का ज्ञान करना आवश्यक है। इन नियमों को जानकर तद्नुसार आचरण करे तो अभीष्ट भाग्य का निर्माण किया जा सकता है। बंधन करण की उपयोगिता या लाभ अशुभ कर्मबंध न बांधकर शुभ कर्मबंध बांधने में है अथवा कर्मबंध से बचने में है। निधत्तकरण की उपयोगिता ऐसी प्रवृत्ति व भावों से बचने में जिनसे कर्म दृढ़ होते हैं। निकाचना करण की उपयोगिता ऐसी प्रवृत्ति व भावों से बचने में पूर्ण सावधान रहने में है जिनसे ऐसे कर्म बंध Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-सिद्धान्त : भाग्य निर्माण कला ३८६ जायें जिनको अवश्यमेव भोगना ही पड़े। उद्वर्तना व अपवर्तना करण की उपयोगिता इस में है कि इस प्रकार की प्रवृत्ति व भाव करना चाहिये जिससे दुष्कर्म घटे व शुभ कर्म बढ़े। संक्रमण करण की उपयोगिता अनिष्ट व कुफल फलदायी पाप प्रवृत्तियों को इष्ट व सुफलदायी पुण्य प्रकृतियों में रूपान्तरण करने में है। उदीरणा करण का लाभ कर्म को प्रयत्न द्वारा समय से पूर्व उदय में लाकर अल्पफल भोगते हुए क्षय कर दिया जाय । उपशमना करण का लाभ है प्रयत्न द्वारा उदय को निष्फल बना देना। इस प्रकार कर्म-विज्ञान का करणज्ञान कर्म या भाग्य निर्माण की परिवर्तन, परिवर्धन, परिशमन, परिशोधन, संरचना, संक्रमण करने की कला का ज्ञान है। ___ जिस प्रकार शारीरिक या मानसिक चिकित्साशास्त्र के दो प्रधान विभाग होते हैं, एक में शरीर या मन की संरचना व उनमें उत्पन्न होने वाले विकारों का स्वरूप निरूपण होता है, दूसरे में शरीर या मन में उत्पन्न विकारों का उपचार । इसी प्रकार आध्यात्मिक चिकित्साशास्त्र या कर्मविज्ञान के भी दो विभाग हैं-प्रथम आत्मा में उत्पन्न विकारों के स्वरूप का निरूपण करनेवाला और दूसरा उन विकारों को दूर करने का उपचार बताने वाला। प्रथम विभाग का बंधतत्त्व के रूप में निरूपण है जिसका बंध के प्रकार व करण के रूप में ऊपर संक्षिप्त विवेचन दिया गया है, इसका विस्तृत वर्णन लाखों श्लोक प्रमाण बीसों कर्म ग्रंथों में आज भी विद्यमान है। दूसरा विभाग उपचार का है। उपचार का ही दूसरा नाम साधना है, इसके भी दो खण्ड हैं-प्रथम विकारोत्पत्ति को रोकने के उपाय बनानेवाला इसे संवर तत्व कहा जाता है और दूसरा खण्ड है संचित विकारों के नाश के उपायों का ज्ञान करानेवाला, इसे निर्जरा तत्व कहा जाता है। संवर-दुर्भाग्य से बचने के उपाय (१) अज्ञान (२) असंयम (३) लापरवाही (४) लोलुपता और (५) अनुचित प्रवृत्तियाँ ये पांच बातें जिस प्रकार शारीरिक एवं मानसिक विकारोत्पत्ति में कारण हैं उसी प्रकार आत्मिक विकारोत्पत्ति (कर्मबंध) में भी कारण हैं। कर्मबंध के इन कारणों को अध्यात्म शास्त्र में आश्रव कहा जाता है। इनका विस्तृत वर्णन आश्रव तत्व में किया गया है । इन पापों का त्याग कर देना ही विकारोत्पत्ति से बचने का उपाय है। अध्यात्म शास्त्र में इनसे बचने के उपायों को संवर कहा है, कर्मबंध रोकने का उपाय कहा है। प्राणी का जीवन तन, मन व वचन की सक्रियता पर निर्भर है। अतः जब तक जीवन है तब तक इनकी सक्रियता रहती है। या यों कहें कि जब तक तन-मन सक्रिय हैं तभी तक जीवन है। आशय यह है कि जब तक जीवन है तब तक तन-मन अवश्य सक्रिय रहने वाले हैं। मरने पर ही इनकी निष्क्रियता संभव है। सक्रियता का ही दूसरा नाम प्रवृत्ति या व्यवसाय है। अतः उपयुक्त पांचों कारण जो असद्प्रवृत्तियों के रूप में हैं इन्हें सद्प्रवृत्तियों में परिणत कर दिया जाय । इन पांचों आश्रव द्वारों के स्थान पर (१) सम्यक्त्व, (२) विरति (३) अप्रमाद (४) अकषाय और (५) शुभ योग को स्थान देना ही संवर है। सम्यक्त्व-अपना हित किस में है, अहित किस में, यह विवेक होना ही सम्यक्त्व है । जिस प्रकार हिताहित का विवेक होने से व्यक्ति ऐसे पदार्थों का सेवन करता है जो शरीर के लिए हितकारी हैं, विकार उत्पन्न नहीं करने वाले हैं। इसी प्रकार हिताहित का विवेक होने से व्यक्ति को पाप कार्यों से बचने का ज्ञान होता है और वह अपने को अहितकारी वृत्तियों से बचाता रहता है। विरति- भोग रोग के कारण हैं। विवेक से यह जानकर भोगों से विरत होना, संयम धारण करना विरति है । जिस प्रकार खान-पान, रहन-सहन का असंयम शारीरिक रोगों का कारण TRENGT आचार्यप्रवभिनयप्र0आम श्रीआनन्दशश्रीआनन्द eurorwwwwwwwwwwwwvomawarwwwmarawamannamrunomimm a avyvar Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रव श्री आनन्द Sterow ह आयाम प्रवरुप अभिनंदन ग्रन्थ श्री आनन्द 323 ३६० धर्म और दर्शन होता है एवं संयम शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्ति का कारण होता है । इसी प्रकार असंयम आत्मिक विकार (कर्म) उत्पत्ति का कारण होता है और संयम आत्मा के निर्विकारी व स्वस्थ बनाने में कारण होता है । ht अप्रमाद - अपने कल्याण के प्रति सजग रहना अप्रमाद है । जिस प्रकार रोगी लापरवाही करने और अपने को रोगोत्पादक वातावरण व पदार्थों से न बचावे तो रोग की वृद्धि होती है और स्वास्थ्य प्रदायक पथ्य और उपचार का बराबर ध्यान रखे तो शरीर शीघ्र स्वस्थ बनता है । इसी प्रकार व्यक्ति पाप से बचने के प्रति एवं चारित्र को ऊँचा उठाने के प्रति जितना सजग रहता है, उतना ही जीवन का उत्थान होता है। उतना ही अधिक निर्विकार बनता है । अकषाय-राग-द्वेष की वृत्तियां कषाय कही जाती हैं। कयाय से ही कर्मों का स्थिति और अनुभाग बंध होता है। जिस प्रकार कलुष, कमैले पदार्थ शरीर में रोगोत्पत्ति के कारण होते हैं इसी प्रकार कषाय आत्मा के विकारोत्पत्ति का कारण है । कषाय से ही कर्म में फल देने की शक्ति आती है । अतः जितना कषाय कम होगा कर्म उतना ही निर्बल व अल्प समय टिकने वाला होगा । शुभयोग- मन, वचन व काया की शुभ प्रवृत्ति को शुभ योग कहते हैं जिस प्रकार शरीर की अहितकर प्रवृत्तियां गलत ढंग से बैठना, उठना, चलना, खाना, काम करना आदि शरीर में रोगोत्पत्ति की कारण होती हैं और स्वास्थ्यवर्द्धक ढंग से उठना बैठना, खाना पीना आदि से स्वास्थ्य की वृद्धि होती है। इसी प्रकार मन, वचन, काया की पापमय अशुभ प्रवृत्तियों से आत्मा के अकल्याणकारी कर्म - विकारों का बंध होता है । पुण्य व संयममय शुभ प्रवृत्तियों से आत्मा के विकार नष्ट होते हैं एवं आत्म-विकास में सहायक सामग्री मिलती है। , चिकित्साशास्त्र में रोगोपचार में पध्य व अनुपान का जो स्थान है वही स्थान आध्यात्मिक उपचार में कर्म विज्ञान में शुभयोग व पुण्य का है। अनुपान या पथ्य उपचार का औषधि का सहायक अंग है उसी प्रकार पुण्य भी संवर-निर्जरा का सहायक अंग है । जिस प्रकार पूर्ण स्वस्थ होने पर औषधि का कार्य समाप्त हो जाता है फिर न औषधि की आवश्यकता रहती है और न अनुपान की इसी प्रकार आत्मा के पूर्ण स्वस्थ, निर्विकार, कर्म रहित हो जाने पर न संबर- निर्जरा की जरूरत रहती है न पुण्य या शुभ योग की । --- निर्जरा-जिन कारणों से संचित कर्म क्षय हों उन्हें निर्जरा कहते हैं। जिस प्रकार शारीरिक विकार दो प्रकार से नष्ट होते हैं- एक प्रकार है रोग के रूप में प्रकट होकर स्वतः समाप्त होना और दूसरा प्रकार है औषधि से बिना अपना परिणाम दिखाये ही समाप्त होना । इसी प्रकार निर्जरा के भी दो प्रकार हैं- प्रथम प्रकार है कर्म स्वतः यथासमय अपना फल देकर नष्ट हो जाते हैं, इसे सविपाक निर्जरा कहते हैं। दूसरा प्रकार है प्रयत्न पूर्वक बिना फल दिये ही कर्मों को क्षय कर देना, इसे अविपाक निर्जरा कहते हैं । शारीरिक चिकित्सा शास्त्र में जो स्थान उपचार का है वही स्थान कर्म सिद्धान्त में अविपाक निर्जरा का है। जिस प्रकार शारीरिक चिकित्साशास्त्र में उपवास, औषध, सेवा-शुश्रूषा आदि उपचार के अनेक रूप हैं इसी प्रकार आध्यात्मिक चिकित्साशास्त्रकर्म-सिद्धान्त में, अविपाक निर्जरा में उपवास, प्रोषध, सेवा-शुश्रूषा ध्यान आदि आत्म-विकारक्षय के अनेक रूप हैं। चिकित्साशास्त्र के साथ इनकी क्या संगति है, यह स्वतन्त्र लेख का विषय है। मोक्ष - जैनधर्म का मुख्य उद्देश्य या लक्ष्य मुक्ति या मोल है। आत्मा का अपने सर्वविकारों को नष्ट कर स्व में स्थिति हो जाना अर्थात् स्वस्थ हो जाना ही मोक्ष है । यह विकारों से सर्वथा मुक्ति की स्थिति है, इसीलिए इसे मुक्ति कहा गया है। आत्मा का पूर्ण निर्विकार, स्वस्थ अवस्था ही Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-सिद्धान्त : भाग्य निर्माण कला माग्य निमाण कला ३६१ जया या मोक्ष है। चिकित्साशास्त्र का मुख्य उद्देश्य भी आरोग्य या स्वास्थ्यप्राप्ति है। शरीर या मन का विजातीय द्रव्यों के प्रभाव या विकारों से मुक्ति ही आरोग्य या स्वास्थ्य कहलाता है। इस प्रकार चिकित्साशास्त्र और कर्म-सिद्धान्त, इन दोनों में उद्देश्य या लक्ष्य की दृष्टि से भी आश्चर्यजनक समानता है, एक ही रूप है-निविकार-स्वस्थ अवस्था की प्राप्ति । जिस प्रकार शरीर के निर्माण एवं शारीरिक चिकित्सा में घनिष्ट सम्बन्ध है । इसी प्रकार भाग्य-निर्माण और आत्मा के विकार दूर करने की प्रक्रिया (आध्यात्मिक चिकित्सा) में भी घनिष्ट सम्बन्ध है। कर्मवाद भाग्यनिर्माण और आध्यात्मिक चिकित्सा इन दोनों को एक साथ प्रस्तुत करता है। कारण कि जैसे-जैसे आत्मा के विकार दूर होते जाते हैं, क्षीण होते जाते हैं वैसे-वैसे भाग्य का उत्थान होता जाता है। कर्म-सिद्धान्त का उपयोग कर मानव अपने जीवन का सर्वांगीण विकास कर सकता है। अपने आन्तरिक विलक्षण अतीन्द्रिय शक्तियों को प्रकट कर सकता है। अपने शारीरिक और मानसिक विकारों को दूर कर सकता है । स्वर्ग के साम्राज्य में प्रवेश कर मुक्ति के महल में पहुंच सकता है । इसी जीवन में स्थायी शान्ति एवं परमानन्द की प्राप्ति कर सकता है। कर्मवाद और मनोविज्ञान आत्मा का सब से अधिक निकट का सम्बन्ध मन से है। अतः कर्म-सिद्धान्त का सब से निकट का सम्बन्ध मनोविज्ञान से है। मनोविज्ञान की शाखा परामनोविज्ञान है । जिसका कार्य है मन के गहरे अज्ञात स्तरों की खोज करना। परामनोविज्ञान और कर्म-सिद्धान्त में इतनी समानता है कि ये दोनों प्रायः एक ही से प्रतीत होते हैं। महान मनोवैज्ञानिक डा० चार्ल्स युग महाशय मन को अमर मानते हैं। उनका कथन है कि शरीर नष्ट हो जाता है परन्तु मन विद्यमान रहता है। युंग महाशय' ने अज्ञात मन के स्वरूप का जैसा वर्णन किया है वह जैन आगमों में कर्म समुदायधारी कार्मण शरीर से बहुत मिलता है। परामनोविज्ञान अभी अपनी शैशव अवस्था ही में है फिर भी उसकी जो खोजें सामने आई हैं उन्होंने कर्मवाद के अनेक गहन सिद्धान्तों को पुष्ट कर दिया है एवं उनकी उपयोगिता को भी प्रस्तुत किया है। कर्म की रचना भावों व प्रवृत्तियों से होती है। भावों से सम्बन्धित ज्ञान की खोज ही मनोविज्ञान का विषय है । अतः कर्मवाद में मनोविज्ञान गर्मित ही है। अन्तर केवल यही है कि कर्मसिद्धान्त मनोविज्ञान के समस्त पक्षों को एवं उससे भी परे स्थित आत्मा के स्वरूप को प्रस्तुत करता है जबकि आधुनिक मनोविज्ञान अभी मन के भी अत्यल्प क्षेत्र का ज्ञान कर पाया है इसलिए अधूरा है। जैसे-जैसे मनोविज्ञान की खोज आगे बढ़ती जायेगी वैसे-वैसे वह कर्म सिद्धान्तों को स्थान देता जायेगा। लेख की सीमा को ध्यान में रखकर मैंने प्रस्तुत लेख में कर्म-सिद्धान्त के मनोवैज्ञानिक रूप को यत्र-तत्र केवल संकेतात्मक रूप में ही प्रस्तुत किया है। कर्म-सिद्धान्त का क्षेत्र इतना व्यापक है व इसके इतने पक्ष हैं कि इन सबका मनोवैज्ञानिक विवेचन किया जाय तो सैकड़ों ग्रन्थ बन जाने की सम्भावना है । यह कार्य किसी व्यक्ति विशेष का न होकर सम्पूर्ण समाज का है। अतः मेरा समस्त समाज के तत्त्ववेत्ताओं व कर्णधारों से निवेदन है कि वे इसमें अपना योग देकर विश्व का कल्याण करें। I ? The Modern man in Search of a Soul, p. 213 .......andr. nRJAAAJAARAKHANNALAAdamadraMNJAD.ma.. ENNN SALAnnathunJAARRIANORADA ATV Sit I fos PA SI4G MONDrapemarwanamarpawimmameramanaraa m anawimarwas Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ memaramaarnamaAuraisamanaraswasundaen o menacasranAKAMARINAMAnsisteadacasinoaracaendrace Nx आचार्यप्रवर Wआचार्यप्रवचन श्रीआनन्दथश्रीआनन्दान्थ . Ayanvwayamvad Meriwiywww - श्रीचन्द चोरडिया, न्यायतीर्थ (द्वय) नयवाद : सिद्धान्त और व्यवहार की तुला पर जिसके द्वारा पदार्थों के एक अंश का ज्ञान हो उसे नय कहते हैं । किसी वस्तु में अन्य धर्मों का निषेध करके अपने अभीष्ट एकान्त अस्तित्व को सिद्ध करने को दुर्नय कहते हैं। जैसेघट ही है, वस्तु में अभीष्ट धर्म की प्रधानता से अन्य धर्मों का निषेध करने के कारण दुर्नय को मिथ्यानय भी कहा गया है। इसके विपरीत किसी वस्तु में अपने इष्ट धर्म को सिद्ध करते हुए अन्य धर्मों में उदासीन होकर वस्तु के विवेचन करने को नय (सुनय) कहते हैं, जैसे--यह घट है। नय में दुर्नय की तरह एक धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों का निषेध नहीं किया जा सकता, इसलिए नय को दुर्नय नहीं कहा जा सकता तथा नय में 'स्यात्' शब्द का प्रयोग न होने से इसे प्रमाण मी नहीं कह सकते । वस्तु की नाना दृष्टियों को कथंचित् सत् रूप विवेचन करने को प्रमाण कहते हैं ? -जैसे-कथंचित् घट सत् है (स्यात् कथंचित् घटः) । नय और प्रमाण के द्वारा दुर्नयवाद का निराकरण किया जाता है। नयों से वस्तु के सम्पूर्ण अंशों का ज्ञान नहीं होता; अतः नय को पूर्ण रूप से सत्य नहीं कह सकते ।२ विशेषावश्यक भाष्य में जिनभद्र क्षमाश्रमण ने नयों को प्रमाण के समान कहा है। उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय—ये चार अनुयोग महानगर में पहुंचने के दरवाजे हैं। प्रमाण से निश्चित किये हुए पदार्थों के एक अंश के ज्ञान करने को नय करते हैं। वस्तु का प्रमाण द्वारा निश्चय होने पर उसका नय से ज्ञान होता है। वस्तुओं में अनंतधर्म होते हैं। अत: नय भी अनंत होते INTE तम्हा सव्वे वि भिच्छादिट्ठी सपकखपडिबद्धा । अण्णोण्णणि स्सिया उण हवन्ति सम्मत्तसब्भावा । -सम्मतीतर्क भेदाभेदात्मके ज्ञये भेदाभेदाभिसन्धयः । ये तेऽपेक्षानपेक्षाभ्यां लक्ष्यन्ते नय दुर्नयाः || -लधीय० का० ३० | २ यथा हि समुद्रैकदेशो न समुद्रो नाप्यसमुद्रस्तथा नया अपि न प्रमाणं न वा अप्रमाणमिति । -जैन तर्कभाषा ३ प्रमाणपरिच्छिन्नस्यानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकदेशग्राहिणस्तदितरांशाप्रतिक्षेपिणोऽध्यवसायविशेषा नया:। -जैन तर्कभाषा Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयवाद : सिद्धान्त और व्यवहार की तुला पर ३६३ हैं । वस्तु के अनंत धर्मों में से वक्ता के अभिप्राय के अनुसार एक धर्म के कथन करने को नय कहते हैं । घट में कच्चापन, पक्कापन, मोटापन, चौड़ापन आदि अनंत धर्म होते हैं, अतः नाना नयों की अपेक्षा से शब्द और अर्थ की अपेक्षा प्रत्येक पदार्थ में अनंतधर्म विद्यमान हैं। नय का उद्देश्य है माध्यस्थ बढ़े । अतः लोकव्यवहार में भी नय का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । शाब्दिक, आर्थिक, वास्तविक, व्यावहारिक, द्रव्याथिक और पर्यायाथिक के अभिप्राय से आचार्यों ने नय के मूलतः सात भेद किये हैं-- यथा नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूप तथा एवंभूत । बौद्ध कहते हैं-रूप आदि अवस्था ही वस्तुद्रव्य है । वेदांत का कहना है कि द्रव्य ही वस्तु है, रूपादि गुण तात्त्विक नहीं हैं । भेद और अभेद के द्वन्द्व का एक निदर्शन है । नयवाद अभेद-भेद -- इन दो वस्तुधर्मों पर टिका हुआ है । (१) नैगमनय - यह नय सत्ता रूप सामान्य को द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व रूप अवान्तर सामान्य को, असाधारण रूप विशेष को, तथा पर रूप से व्यावृत्त और सामान्य से भिन्न अवान्तर विशेषों को जानता है अर्थात् यह नय सामान्य विशेष को ग्रहण करता है ।" केवल नैगमनय का अनुकरण करने वाले न्याय-वैशेषिक परस्पर भिन्न और निरपेक्ष सामान्य और विशेष दोनों को स्वीकार करते हैं । नैगमनय के अनुसार अभिन्न ज्ञान का कारण सामान्यधर्म विशेषधर्म से भिन्न है । दो धर्म अथवा दो धर्मी अथवा एक धर्म और एक धर्मी में प्रधान और गौणता की विवक्षा को 'नैकगम' अथवा नैगमनय कहते हैं । ७ परन्तु दो धर्म, दो धर्मी अथवा एक धर्म और एक धर्मी में सर्वथा भिन्नता दिखाने को 'नैगमाभास' कहते हैं । 'निगम' शब्द का उपचार | इनमें होने वाले अभिप्राय को नैगम कहते हैं । अर्थात् इसमें सामान्य विशेष की भिन्नता का समर्थन किया जाता है । निलयन और प्रस्थ-ये नैगमनय के दो दृष्टांत प्रसिद्ध हैं । निलयन शब्द का अर्थ हैनिवासस्थान — जैसे—– किसी ने किसी से पूछा - ' आप कहाँ रहते हैं ?' उसने जवाब दिया कि मैं लोक में रहता हूँ । लोक में भी जंबूद्वीप - भरत क्षेत्र - मध्यखंड, अमुक देश — अमुक नगर - अमुक घर में रहता हूँ । नैगमनय इन सब विकल्पों को जानता है। दूसरा दृष्टांत प्रस्थ का है-धान्य को नापने के लिए पांच सेर के परिमाण को प्रस्थ कहते हैं। किसी ने किसी आदमी को कुठार लेकर जंगल में जाते हुए देखकर पूछा, 'आप कहाँ जाते हैं ?' उस आदमी ने जवाब दिया कि मैं प्रस्थ लेने के लिए जाता हूँ । ये दोनों नैगमनय के उदाहरण हैं । नैगमनय के अनुसार द्रव्य और पर्याय का समस्थिति में युगपत् ग्रहण नहीं होता 5 ४ (क) नत्थि नएहिं विहूणं, सुत्तं अत्यो य जिणमए किंचि । आसज्जउ सोयारं, नए नयविसारओ बूआ || - आव० नि० गा० ७६२ (ख) अनिराकृतेतरांशी वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नयः । ५ सामान्यविशेषाद्यनेकधर्मोपनयनपरोऽध्यवसायो नैगमः । ६ नैगमनयानुरोधिनः कणादा आक्षपादाश्च । ७ णेगेहि माणेहिं भिणइति णेगमस्स य निरुत्ती । ८ हरिभद्रीयावश्यक टिप्पणे नयाधिकारः । अर्थ है - देश, संकल्प और तादात्म्य की अपेक्षा से ही — जैनसिद्धांतदीपिका प्र० ६ - जैनतर्कभाषा - स्याद्वादमंजरी, श्लोक १४, टीका — अनुयोगद्वार सूत्र 卍 AAAAAAAAAAAJ श्री आनन्द आनन्दः वामन दाष आमद ग्रन्थ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aur ana...'Nood - ... . ३६४ धर्म और दर्शन (२) संग्रहनय-विशेषों की अपेक्षा न करके वस्तु को सामान्य रूप से जानने को संग्रहनय कहते हैं । अस्तित्व धर्म को न छोड़कर संपूर्ण पदार्थ अपने अपने स्वमाव में उपस्थित हैं। इसलिए संपूर्ण पदार्थों के सामान्य रूप से ज्ञान करने को 'संग्रहनय' कहते है। वेदांती और सांख्य दर्शन केवल संग्रहनय को मानते हैं। विशेष रहित सामान्य मात्र जानने वाले को संग्रहनय कहते हैं। पर और अपर सामान्य के भेद से संग्रह के दो भेद हैं। संपूर्ण विशेषों में उदासीन भाव रखकर शुद्ध सार मात्र को जानना पर-संग्रह है, जैसे सामान्य से एक विश्व ही सत् है। सत्ताद्वैत को मानकर संपूर्ण विशेषों का निषेध करना संग्रहाभास है । जैसे--सत्ता ही एक तत्त्व है। द्रव्यत्व, पर्यायत्वादि अवान्तर सामान्य को मानकर उनके भेदों में माध्यस्थ भाव रखना अपर संग्रह कहलाता है-जैसे द्रव्यत्व की अपेक्षा धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव एक हैं। धर्मादि को केवल द्रव्यत्व रूप से स्वीकार करके उनके विशेषों के निषेध करने को अपर संग्रहाभास कहते हैं। (३) व्यवहारनय-लोक-व्यवहार के अनुसार उपचरित अर्थ को बताने वाले विस्तृत अर्थ को 'व्यवहार' कहते हैं। जितनी वस्तु लोक में प्रसिद्ध हैं, अथवा लोक-व्यवहार में आती हैं, उन्हीं को मानना और अदृष्ट, अव्यवहार्य वस्तुओं की कल्पना न करने को व्यवहारनय कहते हैं। संग्रहनय से जाना हुआ अनाद्यनिधन रूप सामान्य व्यवहारनय का विषय नहीं हो सकता; क्योंकि इस सामान्य का सर्वसाधारण को अनुभव नहीं होता। इसी प्रकार क्षण-क्षण में बदलने वाले परमाणु रूप विशेष भी व्यवहार नय के विषय नहीं हो सकते, क्योंकि परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ हमारे इन्द्रिय प्रत्यक्षादि प्रमाण के बाह्य होने से हमारी प्रवृत्ति के विषय नहीं हैं। अतएव व्यवहारनय की अपेक्षा कुछ समय तक रहने वाली स्थूल पर्याय को धारण करने वाली और जल धारण आदि क्रियाओं के करने में समर्थ घटादि वस्तु ही पारमार्थिक और प्रमाण से सिद्ध है ।१० क्योंकि इनके मानने में कोई लोकविरोध नहीं आता। इसलिए घट का ज्ञान करते समय घट की पूर्वोत्तरकाल की पर्यायों का विचार व्यर्थ है। निष्कर्ष यह हुआ कि संग्रहनय से जानी हुई सत्ता को प्रत्येक पदार्थ में भिन्नभिन्न रूप से मानकर व्यवहार करने को व्यवहारनय कहते हैं। चार्वाक लोग व्यवहारनयवादी हैं। - कहने का तात्पर्य यह है कि संग्रहनय से जाने हुए पदार्थों में योग्य रीति से विभाग करने को व्यवहारनय कहते हैं, जैसे जो सत् है वह द्रव्य का पर्याय है। यद्यपि संग्रहनय की अपेक्षा द्रव्य और पर्याय सत् से अभिन्न हैं परन्तु व्यवहारनय की अपेक्षा द्रव्य और पर्याय को सत् से भिन्न माना गया है।१ द्रव्य और पर्याय के एकांत भेद प्रतिपादन करने को व्यवहाराभास कहते हैं-जैसे चार्वाकदर्शन । चार्वाक लोग द्रव्य के पर्यायादि को मानकर केवल भूतचतुष्टय को मानते हैं अतः NA UA ६ (क) सामान्यप्रतिपादनपरः संग्रहनयः। -जैनतर्कभाषा (ख) संगहियपिंडिअत्थं, संगहवयणं समासओविति ।। -अनुयोगद्वार (ग) सामान्यमात्रग्राही संगहः । -जैनसिद्धान्तदीपिका प्रह १० (क) संग्रहेण गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाभिसंधिना क्रियते स व्यवहारः । -प्रमाणनय० ७/२३ (ख) संगृहीतार्थानां यथाविधिभेदको व्यवहारः ।। -जैनसिद्धांतदीपिका प्र०६ ११ लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहार (नयः) । -तत्त्वार्थभाष्य १/३५ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयवाद : सिद्धान्त और व्यवहार की तुला पर ३६५ उन्हें व्यवहाराभास कहा गया है। यह व्यवहारनय उपचारबहुल और लौकिक दृष्टि को लेकर चलता है।१२ (४) ऋजुसूत्रनय-वस्तु की अतीत और अनागत पर्यायों को छोड़कर वर्तमान क्षण की पर्यायों को जानना 'ऋजुसूत्र' नय का विषय है। 3 वस्तु की अतीत पर्याय नष्ट हो जाती है और अनागत पर्याय उत्पन्न नहीं होती, इसलिए अतीत और अनागत पर्याय खरविषाण की तरह, संपूर्ण सामान्य से रहित होकर कोई अर्थक्रिया नहीं कर सकती, इसलिए अवस्तु है। क्योंकि अर्थक्रिया करने वाला ही वास्तव में सत् कहा गया है। (यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थ सत्) अपने स्वरूप में स्थित परमाणु ही परस्पर के संयोग से कथंचित् समूहरूप होकर सम्पूर्ण कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। इसलिए ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा स्थूल रूप को धारण न करने वाले स्वरूप में स्थित परमाणु ही यथार्थ में सत् कहे जा सकते हैं । अतएव ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा निज स्वरूप ही वस्तु है, पर स्वरूप को अनुपयोगी होने के कारण वस्तु नहीं कह सकते। वर्तमान क्षण की पर्यायमात्र की प्रधानता से वस्तु का कथन करना ऋजुसूत्रनय है।'४ जैसे-इस समय मैं सुख की पर्याय भोगता हूँ। द्रव्य के सर्वथा निषेध करने को ऋजुसूत्रनयाभास कहते हैं, जैसे-बौद्ध लोग । बौद्ध लोग क्षण-क्षण में नाश होने वाली पर्यायों को ही वास्तविक मानकर पर्यायों के आश्रित द्रव्यों का निषेध करते हैं, इसलिए उनका मत ऋजुसूत्रनयाभास है। (५) शब्दनय-रूढ़ि से सम्पूर्ण शब्दों के एक अर्थ में प्रयुक्त होने को 'शब्दनय' कहते हैं । १५ जैसे शक्र, पुरन्दर, इन्द्र आदि एक अर्थ के द्योतक हैं। जैसे शब्द अर्थ से अभिन्न है, वैसे ही उसे एक और अनेक भी मानना चाहिए। इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि पर्यायवाची शब्द कभी भिन्न अर्थ का प्रतिपादन नहीं करते । क्योंकि उनसे एक ही अर्थ का ज्ञान होता है। अत: इन्द्रादि पर्यायवाची शब्दों का एक ही अर्थ है । जिस अभिप्राय से अर्थ कहा जाय उसे शब्द कहते हैं। अतः सम्पूर्ण पर्यायवाची शब्दों से एक ही अर्थ का ज्ञान होता है। 'तट:, तटी, तटम्' परस्पर विरुद्ध लिंग वाले शब्दों से पदार्थों के भेद का ज्ञान होता है। इसी प्रकार संख्या-एकत्वादि, काल-अतीतादि, कारक-कर्ता आदि और पुरुष-प्रथम पुरुष आदि के भेद से शब्द और अर्थ में भेद समझना चाहिए। परस्पर विरोधी लिंग, संख्यादि के भेद से वस्तु में भेद मानने को शब्दनय कहते हैं । वैयाकरण लोग शब्द आदि का अनुकरण करते हैं। कालादि के भेद से शब्द और अर्थ को सर्वथा अलग मानने को शब्दाभास कहते हैं, जैसे सुमेरु था, सुमेरु है और सुमेरु होगा-आदि भिन्न-भिन्न काल के शब्द भिन्न काल के शब्द होने से भिन्न-भिन्न अर्थों का ही प्रतिपादन करते हैं-जैसे अन्य भिन्न काल के शब्द ।१६ १२ विशेषप्रतिपादनपरो व्यवहारनयः । -आचार्य मलयगिरि १३ साम्प्रतमुत्पन्नं प्रत्युत्पन्नमुच्यते वर्तमानमिति । -आवश्यक सूत्र-टीका। १४ पच्चुपन्नग्गाही उज्जुसुओ णयविही मुणेअव्वो। -अनुयोगद्वार १५ इच्छइ विसेसियतर, पच्चुप्पण्णं णओ सद्दो। -अनुयोगद्वार १६ विरोध लिंग संख्यादि भेदाह भिन्न स्वभावताम् । तस्यैव मन्यमानोऽयं शब्द: प्रत्यवतिष्ठते । -संग्रहश्लोकाः आचारतासाचार्यप्रसा श्रीआनन्द श्रीआनन्दा अन्य ansomnim a AAAAAAADHANABA RAGALANDARAN ANNARRA NARAJJAAAAAAA xiwwwmovi Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाय प्रवर श्री आनन्द उग्रन्थ श्री आनन्द INSUTH IN BETWENTYw.www. धर्म और दर्शन (६) समभिरूढ़नय - यह नय पर्यायवाची शब्दों में भिन्न अर्थ को द्योतित करता है— जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर शब्दों के पर्यायवाची होने पर भी इससे परम ऐश्वर्यवान् ( इन्दनात् इन्द्रः ), शक्र से सामर्थ्यवान् ( शकनात् शक्रः ) और पुरन्दर से नगरों के विदारण करने वाले (पूर्दारणात् पुरन्दरः) भिन्न- भिन्न अर्थों का ज्ञान होता है । भिन्न-भिन्न व्युत्पत्ति से पर्यायवाची शब्द भिन्नभिन्न अर्थों के द्योतक हैं। जिन शब्दों की व्युत्पत्ति भिन्न-भिन्न होती है वे भिन्न-भिन्न अर्थों के द्योतक होते हैं, जैसे-इन्द्र, पुरुष, पशु । पर्यायवाची शब्द भी भिन्न-भिन्न व्युत्पत्ति होने के कारण भिन्नभिन्न अर्थ को सूचित करते हैं । क्षणस्थायी वस्तु को भिन्न-भिन्न संज्ञाओं के भेद से भिन्न मानना समभिरूढ़नय है ।१७ पर्यायवाची शब्दों में निरुक्ति के भेद से भिन्न अर्थ को कहना समभिरूढ़नय है | पर्यायवाची शब्दों को सर्वथा भिन्न मानना समभिरूढ़नयाभास है । 25 जैसे करि, कुरंग, तुरंग शब्द परस्पर भिन्न हैं वैसे ही इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्दों को सर्वथा भिन्न मानना समभिरूढ़नयाभास है । مند डॉ. ३६६ (७) एवंभूतनय - जिस समय व्युत्पत्ति के निमित्तरूप अर्थ का व्यवहार होता है, उसी समय अर्थ में शब्द का व्यवहार होता है अर्थात् जिस क्षण में किसी शब्द में व्युत्पत्ति का निमित्तकारण सम्पूर्ण रूप में विद्यमान हो, उसी समय उस शब्द का प्रयोग करना उचित है - यह एवंभूतनय की मान्यता है । वस्तु अमुक क्रिया करने के समय ही अमुक नाम से कही जा सकती है, वह सदा एक शब्द का वाच्य नहीं हो सकती, इसे एवंभूतनय कहते हैं ।१६ कहने का तात्पर्य यह है कि जिस समय पदार्थों में जो क्रियायें होती हैं, उस समय उस क्रिया के अनुरूप शब्दों से अर्थ के प्रतिपादन करने को एवंभूतनय कहते हैं, जैसे परम ऐश्वर्य का अनुभव करते समय इन्द्र, समर्थ होने के समय शक्र, नगरों का नाश करने के समय पुरन्दर होता है। पदार्थ में अमुक क्रिया होने के समय को छोड़कर दूसरे समय उस पदार्थ को उसी शब्द से नहीं कहना, एवंभूतनयाभास है । जैसे, जल लाने आदि की क्रिया का अभाव होने से पट को घट नहीं कहा जा सकता वैसे ही जल लाने आदि क्रिया के अतिरिक्त समय घट को घट नहीं कहना - एवंभूतनयाभास है । २० संक्षेप में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक भेद से नय के दो भेद हैं । द्रव्यार्थिकनय के नैगम, संग्रह, व्यवहार - ये तीन भेद हैं। ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत – ये चार पर्यायार्थिक नय के भेद हैं । इन नयों में पहले-पहले नय अधिक विषय वाले हैं और आगे आगे के नय परिमित विषयवाले है । संग्रहनय सत् मात्र को जानता है जबकि नैगमनय सामान्य और विशेष दोनों को जानता है, इसलिए संग्रहनय की अपेक्षा नैगमनय का अधिक विषय है । व्यवहारनय संग्रहनय से जाने हुए पदार्थों को विशेष रूप से जानता है जबकि संग्रह समस्त सामान्य पदार्थों को जानता है, इसलिए संग्रहनय का विषय व्यवहारनय की अपेक्षा अधिक है । व्यवहारनय तीनों कालों के पदार्थों को जानता है और ऋजुसूत्रनय से केवल वर्तमान पर्याय का ज्ञान होता है अतएव व्यवहारनय का १७ वत्थूओ संकमणं, होइ अवत्थू नए समभिरूढे । १८ पर्यायध्वनिनामाभिधेयनानात्वमेव कक्षीकुर्वाणस्तदाभासः । अभिनंदन अन्य १६ वंजण अत्थतदुभयं एवंभूओ विसेसेई । २० क्रियानाविष्टं वस्तु शब्दवाच्यतया प्रतिक्षिपस्तु तदाभासः । - अनुयोगद्वार --प्रमाणनय० ७।३८ - अनुयोगद्वार - प्रमाणनय० ७/४२ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयवाद : सिद्धान्त और व्यवहार की तुला पर ३६७ विषय ऋजुसूत्र से अधिक है । इसी प्रकार शब्दनय से ऋजुसूत्रनय का, समभिरूढ़ २१ से शब्द - नय का, एवंभूतनय २२ से समभिरूढ़नय का अधिक विषय है । प्रमाण के सात भंगों की तरह अपने विषय में विधि और प्रतिषेध की अपेक्षा नय के भी सात भंग होते हैं । २३ सभी पदार्थ द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा नित्य और पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा अनित्य हैं । केवल द्रव्यार्थिकनय को मानने वाले अद्वैतवादी, कोई मीमांसक और सांख्यक सामान्य को ही सत् ( वाच्य ) कहते हैं । केवल पर्यायार्थिकनय को मानने वाले बौद्ध लोग विशेष को सत् कहते हैं । केवल नैगमनय का अनुकरण करनेवाले न्याय वैशेषिक परस्पर भिन्न और निरपेक्ष सामान्य और विशेष — दोनों को स्वीकार करते हैं । सम्मतितर्क में कहा है उप्पज्जेति वियति य भावा नियमेण पज्जवणयस्स । व्यस सव्वं सया अणुप्पन्नमविण ॥२१॥ अर्थात् पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा सर्व भाव उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं अर्थात् प्रतिक्षण भाव उत्पाद और विनाश स्वभाव वाले हैं । द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा सर्व वस्तु अनुत्पन्नअनष्ट हैं अर्थात् प्रत्येक भाव स्थिर स्वभाव वाले 1 तित्थयरवयणसंगह विपत्थर सूवागरणी । दव्वट्टिओ य पज्जवणओ य सेसा वियप्यासि ॥ ३ ॥ अर्थात् तीर्थंकर के वचन के विषयभूत ( अभिधेयभूत) द्रव्य-पर्याय हैं, उनका संग्रहादि नय के द्वारा जो विस्तार करने में आते हैं उनका मूल वक्ता द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय है । नैगमादि नय उनके विकल्प हैं, भेद हैं। शुद्ध संग्रहनय की अपेक्षा द्रव्यार्थिक नय समस्त पदार्थों को केवल द्रव्य रूप जानता है क्योंकि द्रव्य और पर्याय सर्वथा भिन्न नहीं हैं । संपूर्ण पदार्थ सामान्य विशेष रूप से ही अनुभव में आते हैं । अत: अनेकवाद में ही वस्तु का अर्थक्रियाकारित्व लक्षण सम्यग् प्रकार से घटित हो सकता है । सामान्य और विशेष परस्पर सापेक्ष हैं। बिना सामान्य के विशेष और विशेष के बिना सामान्य कहीं भी ठहर नहीं सकते । अतः विशेष निरपेक्ष सामान्य को अथवा सामान्य निरपेक्ष विशेष को तत्त्व मानना केवल प्रलाप मात्र है । जिस प्रकार जन्मांध मनुष्य हाथी का स्वरूप जानने की इच्छा से हाथी के भिन्नभिन्न अवयवों को टटोलकर हाथी के केवल कान, सूंड, पैर आदि को ही हाथी समझ बैठते हैं उसी प्रकार एकांत व्यक्ति वस्तु के सिर्फ एकांश को जानकर उस वस्तु के एक अंश रूप ज्ञान को ही वस्तु का सर्वांशात्मक ज्ञान समझने लगते हैं । संपूर्ण नय स्वरूप स्याद्वाद के बिना किसी भी वस्तु का सम्यक् प्रकार से प्रतिपादन नहीं किया जा सकता । सिद्धांत में लौकिक व्यवहार के अनुसार भी नय का प्रतिपादन उपलब्ध होता है । निश्चय २१ पर्यायशब्देषु निरुक्तिभेदेन भिन्नमर्थं समभिरोहन् समभिरूढः । २२ शब्दानां स्वप्रवृत्तिनिमित्तभूतक्रियाविष्टमर्थं वाच्यत्वेनाभ्युपच्छन्नेवंभूतः । २३ नयवाक्यमपि स्वविषये प्रवर्त्तमानं विधिप्रतिषेधाभ्यां सप्तभंगीमनुव्रजति । - जैनतर्कभाषा — जैनतर्कभाषा -प्रमाणनय० प्र ७ आचार्य प्रव आचार्य प्रवरासत अभिनंदन आआनन्दर 50 Clo फ्र END SASALAMAND Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राआनन्द अथ श्रीआनन्दा अन्य w wwaamve mamawimariwwwmamme ३६८ धर्म और दर्शन नय के साथ व्यवहारनय का भी उल्लेख मिलता है। निश्चयनय-तात्त्विक अर्थ का प्रतिपादन करता है ।२४ व्यवहारनय लोकप्रसिद्ध अर्थ का अनुसरण करता है । २५ निश्चयनय की मान्यता है कि भ्रमर का शरीर पांच वर्णवाला होता है अतः भ्रमर को पांच वर्णवाला मानता है तथा व्यवहारनय की मान्यता है कि भ्रमर कृष्णवर्णवाला है क्योंकि उसका शरीर कृष्ण वर्ण का है। कहीं-कहीं उपरोक्त दोनों नयों की यह भी परिभाषा उपलब्ध होती है-सर्वनयों के अभिमत अर्थ को ग्रहण करने को निश्चय नय कहते हैं (सर्वनयमतार्थग्राही निश्चयः) तथा किसी भी एक नय के अभिप्राय को अनुसरण करने को व्यवहारनय कहते हैं, (एकनयमतार्थ ग्राही व्यवहारः)। अस्तु प्रमाण इन्द्रिय और मन-सब से हो सकता है किन्तु नय सिर्फ मन से ही होता है क्योंकि अंशों का ग्रहण मानसिक अभिप्राय से हो सकता है। जब हम अंशों की कल्पना करने लग जाते हैं तब वह ज्ञान 'नय' कहलाता है ।२६ अन्य वादी परस्पर पक्ष और प्रतिपक्ष भाव रखने के कारण एक दूसरे से ईर्ष्या करते हैं परन्तु सम्पूर्ण नयों को एक समान देखने वाले हे भगवान् आपके शास्त्रों में पक्षपात नहीं है । आपका सिद्धान्त ईर्ष्या से रहित है क्योंकि आप नैगमादि सम्पूर्ण नयों को एक समान देखते हैं। जिस प्रकार बिखरे हुए मोतियों को एक सूत्र में पिरो देने से मोतियों का सुन्दर हार बनकर तैयार हो जाता है । उसी प्रकार भिन्न-भिन्न नयों को स्याद्वाद रूपी सूत्र में पिरो देने से सम्पूर्ण नय 'श्रुत प्रमाण' कहे जाते हैं। परस्पर विवाद करते हुए वादी लोग किसी मध्यस्थ न्यायी के द्वारा न्याय किये जाने पर विवाद करना बन्द करके आपस में मिल जाते हैं वैसे ही परस्पर विरुद्ध नय सर्वज्ञ भगवान् के शासन की शरण लेकर 'स्यात्' शब्द से विरोध के शान्त हो जाने पर परस्पर मैत्रीभाव से एकत्र रहने लगते हैं । अतः भगवान् महावीर के शासन के सर्व नयस्वरूप होने से उनका शासन संपूर्ण दर्शनों से अविरुद्ध है क्योंकि प्रत्येक दर्शन नयस्वरूप है ।२७ हे भगवन् ! आप सम्पूर्ण नयस्वरूप दर्शनों को मध्यस्थभाव से देखते हैं अतः आप ईर्ष्यालु नहीं हैं । क्योंकि आप एक पक्ष का आग्रह करके दूसरे पक्ष का तिरस्कार नहीं करते हैं । हे भगवन् ! आपने केवलज्ञान से समस्त पदार्थों को यथार्थ रीति से जानकर नय और प्रमाण के द्वारा दुर्नयवाद का निराकरण किया है। अन्यान्य तैर्थिक रागद्वेषादि दोषों से युक्त होने के कारण यथार्थदर्शी नहीं हैं। अतः दुर्नयों का निराकरण नहीं कर सकते हैं । २८ आचार्य हेमचन्द्र २६ ने कहा है कि एकान्तवादी लोग दुर्नयवाद में आसक्तिरूप खङ्ग से २४ तात्त्विकार्थाभ्युपगमपरस्तु निश्चयः । -जैनतर्कभाषा २५ लोकप्रसिद्धार्थानुवादपरो व्यवहारनयः । -जैनतर्कभाषा २६ तत्राऽनिराकृतप्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायोनयः । -प्रमेयकमलमार्तण्ड ६१ २७ सापेक्षाः परस्परसंबद्धास्ते नयाः । -अष्टश० १०६ २८ स्यादवाद: सर्वथैकान्तात्यन्तिकं वृत्तचिदविधिः । सप्तभंगनयापेक्षो हेत्वादेविशेषिकः ।। -आप्तमीमांसा २६ स्याद्वादमंजरी। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयवाद : सिद्धान्त और व्यवहार की तुला पर ३६६ जाया सम्पूर्ण जगत का नाश करते हैं। जिस प्रकार शत्रु खङ्ग के द्वारा समस्त संसार का नाश करते हैंसंहार करते हैं उसी प्रकार परवादियों ने दुर्नयवाद का प्ररूपण करके सत् ज्ञान का नाश कर दिया है। एक दूसरे का नाश करने वाले सुन्द और उपसुन्द नाम के दो राक्षस भाइयों के समान क्षुद्र शत्रु एकान्तवादी रूप कंटकों का परस्पर नाश हो जाने पर नयस्वरूप स्याद्वाद का प्ररूपण करने वाला आपका द्वादशांग प्रवचन किसी के द्वारा भी पराभूत नहीं किया जा सकता। अपेक्षा दृष्टियां उस विरोध को मिटाती हैं, जो तर्कवाद से उद्भूत होता है। जो एक अंश को लेकर वस्तु के स्वरूप का वर्णन करता है वह वस्तुतः ज्ञाननय है।३० आचारांग में कहा है कि जिसको सम्यग ज्ञान अथवा सम्यग् रूप देखो-उसी को संयम रूप देखो और जिसको संयमरूप देखो-उसी को सम्यग् रूप देखो।3 ° सम्यक् जानकर ही ग्रहण करने वाले अर्थ में और अग्रहणीय अर्थ में भी होता है उसे इहलोक तथा परलोक से सम्बन्धित अर्थ के विषय में यत्न करना चाहिए । इस प्रकार जो सद्व्यवहार के ज्ञान के कारण का उपदेश है-वह प्रस्तावतः ज्ञाननय कहा जाता है। भगवान् ने साधुओं को लक्ष्य करके कहा है णयंमि गिण्हिअव्वं अगिण्हिअव्वंमि अत्थंमि । जइ अव्वमेव इह जो, उवएसो सो नओ नाम । सम्वेसि पि नयाणं बहुविहवत्तव्वं निसामित्ता। तं सव्वनयविसुद्ध, जं चरणगुणढिओ साहू ॥ -अनुयोगद्वार-उत्तरार्ध अर्थात जो सभी नयों के नाना प्रकार की वक्तव्यताओं को सुनकर सब नयों में विशुद्ध है वही साधु चारित्र और ज्ञान के विषय में अवस्थित है। इस प्रकार नयवाद सिद्धांत और व्यवहार की तुला पर टिका हुआ है। LANN TAM JASTHA 4 MANANET . E ३० मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्थैकांतताऽस्ति नः । निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तुतेऽर्थकृत् । -आप्तमीमांसा, १०८ ३१ ज सम्म ति पासह तं मोणं ति पासह । जं मोणं ति पासह तं सम्म ति पासह । -आचारांग ५/३ MOREसभागार साधाना 40 SainamudrDAIANS مع ام متتفاعل श्राआनन्द श्रीआनन्द peoameramanimasomarware Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NASAMAJANAJASAURAGARAU AIAARADABADancARANJAL amavacademinarainian आगारप्रवर अभिआनन्दा अन्य प्रवर सभिभाचार्यप्रवर आभा MNIYVVVVVV N Immmmmmmmmmmmammiarienirvinww सौभाग्यमल जैन [प्रबुद्ध विचारक एवं चिन्तक] - अपरिग्रह और समाजवाद : एक तुलना य यह सब कोई जानते हैं कि भगवान् महावीर का तत्वदर्शन 'अहिंसा' पर आधारित है। जैन आगम के प्रश्नव्याकरण सूत्र में भगवान महावीर ने 'अहिंसा' भगवती के ६० पर्यायवाची नामों का वर्णन किया है। जब हम अहिंसा शब्द को लेते हैं तो जन साधारण केवल किसी प्राणी का प्राणघात न करने की बात से तात्पर्य लेता है किन्तु वास्तविकता यह है कि भगवान महावीर ने जहाँ समस्त प्राणी जगत के प्रति अहिंसक रहने का विचार दिया वहीं समाज में वैचारिक अहिंसा के रूप में 'अनेकांत' तथा सामाजिक तथा आर्थिक न्याय के लिये 'अपरिग्रह' का विचार दिया। यह सारी अहिंसा की ही प्रक्रिया है। यदि हम गहराई से अध्ययन करें तो हमें ज्ञात होगा कि 'अपरिग्रह' एक विचार है 'वाद' नहीं है । जो सिद्धान्त, वाद का स्थान ग्रहण कर लेता है उसमें जड़ता, संकुचितता आ जाती है जबकि 'विचार' में सदैव उन्नतशीलता रहती है। जैसे-जैसे मानव समाज में वैचारिक 'प्रगति होती जाती है वैसे-वैसे उस सिद्धान्त की प्रगतिशील व्याख्या होती जाती है। भगवान महावीर से पूर्व तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समय में उनका उपदेश 'चातुर्याम धर्म' कहा जाता था। उन्होंने अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा अपरिग्रह चार सिद्धान्तों को अपनाने पर बल दिया था। अनुमान यह है कि उन्होंने 'स्त्री' को भी एक परिग्रह माना तथा उसका स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार नहीं किया, किन्तु भगवान महावीर ने अनुभव किया कि महिला स्वयं एक बड़ी शक्ति है, उसका स्वतंत्र अस्तित्व है, तब उन्होंने पुरुष के लिये (यदि वह गृहस्थ है) स्वदारसन्तोष तथा महिला के लिये (यदि वह गृहस्थ है) स्वपतिसन्तोष का व्रत रखने की दृष्टि से चतुर्थ व्रत ब्रह्मचर्य का विधान किया। इस प्रकार पंचयाम धर्म का उपदेश दिया। तात्पर्य यह है कि अपरिग्रह एक विचार है, जिसमें सदैव नित नवीनता तथा प्रगतिशीलता विद्यमान है । हमारे युग के महापुरुष गांधीजी ने भी अपने विचारों का कोई 'वाद' या 'गांधीवाद' स्वीकार नहीं किया अपितु देश को एक विचार दिया । भगवान महावीर ने अनुभव किया कि समाज में अर्थजन्य द्वेष तथा ईर्ष्या विद्यमान है, उसके निराकरण का उपाय सर्वांश या अंशतः अपरिग्रह के विचार में ही है। मनुष्य की इच्छा आकाश के समान 'अनंत' है, यदि उस पर नियंत्रण न हो तो वह उत्तरोत्तर वृद्धिंगत ही होती जाती है, किन्तु प्रश्न यह है कि नियन्त्रण स्वेच्छा का हो या कानून द्वारा थोपा गया ? अनुभव यह बताता है कि जब कोई बात कानून द्वारा थोपी जाती है तो मनुष्य अपनी स्वतंत्रता का हनन अनुभव करता है तथा उसके Voilation के मार्ग खोजता है, जबकि स्वेच्छा के नियंत्रण में मनुष्य उल्लंघन का प्रयत्न नहीं करता। तात्पर्य यह कि 'अपरिग्रह' एक स्वेच्छापूर्ण नियन्त्रण है। मनुष्य जब अपनी अपरिमित इच्छा पर स्वेच्छा से नियंत्रण करने का नियम लेता तो अपना अहोभाग्य मानता है तथा ऐसा अनुभव करता है कि वह अपने पर नियंत्रण करके समाज के प्रति अपने कर्तव्य का पालन कर Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह और समाजवाद : एक तुलना ४०१ (H मा Sad रहा है और अधिक यह कि उसका 'परलोक' सुधरेगा। इसका एक कारण और है, और वह यह कि अपरिग्रह का विचार देश को जिन महापुरुषों ने दिया वह स्वयं अपने जीवनव्यवहार में उसे अमल में लाते थे। चाहे हम उसे 'समता' कहें या 'साम्ययोग' कहें। यह विचार अति प्राचीन है, अपितु यह कहना अतिशयोक्ति पूर्ण न होगा कि यह विचार प्राग् ऐतिहासिक काल से है। युग के साथ उसकी व्याख्या में परिवर्तन हुआ हो किन्तु मौलिक रूप से विचार विद्यमान था। इसकी तुलना में समाजवाद कानून द्वारा स्थापित नियंत्रण है और इस कारण जब यह नियंत्रण लगाया जाता है तब मनुष्य उसके उल्लंघन के मार्ग खोजता है। कारण कि वह कानून द्वारा स्थापित नियंत्रण को विवशता मानता है। इसके अतिरिक्त यह भी बात है कि समाजवाद के मूल पुरस्कर्ता चाहे अपने जीवन में समाजवाद ला चुके हों, वैसा ही जीवन-व्यवहार चलाते हों किन्तु आज का राजनीति से प्रभावित समाजवाद और उसका जनक भारतीय शासन है और आंशिक रूप में प्रादेशिक शासन । चाहे भारतीय शासन हो चाहे प्रादेशिक शासन, उसके प्रमुख, शासनकर्ता, उच्च अधिकारी (जो समाजवाद के अनुरूप विचार रखकर कानून बनवाते हैं) का जीवन उसके अनुरूप नहीं। स्वयं सामन्ती ढंग का विलासपूर्ण तरीकों (वह भी करदाता के प्रदत्त धन के मूल्य पर) से जीवन चलाकर भी समाजवाद की बातें करते हैं। इस कारण उसका प्रभाव नगण्य होता है। यही कारण है कि अपरिग्रह विचार के पीछे कानून की कोई शक्ति Sauction न होते हुए भी अधिक सफल है तथा समाजवाद के पीछे कानून की शक्ति के बावजूद अत्यन्त असफल है। गत २५-२६ वर्षों के प्रयत्नों के बावजूद परिणाम यह है कि धनी, सम्पन्न व्यक्ति अधिक सम्पन्न बन गया तथा गरीब अधिक गरीब बना । यह बात भारतीय शासन द्वारा प्रकाशित सर्वेक्षण की रिपोर्टस् से भलीभांति प्रगट है । इसी कारण पेश्तर जहां 'गरीबी हटाओ' के नारे बड़ी मुस्तैदी तथा जोश से लगाये जाते थे तथा उसके लिये हमारे शासनकर्ता प्रेरणा देते थे, वहाँ वही शासनकर्ता अब यह कहने लगे हैं कि 'गरीबी' स्वयं नहीं मिट सकती, हमारे पास जादू नहीं है, श्रम करना होगा, आदि । किन्तु यह कहने वाले को इसका उदाहरण स्वयं के जीवन से भी प्रस्तुत करना होगा, तब देश में लहर उत्पन्न होगी। इसमें संदेह नहीं कि देश को प्रगति पथ पर ले जाने का दायित्व जिन मस्तिष्कों तथा कंधों पर है उनकी वाणी तथा कर्म में साम्य नहीं है। इसी कारण जन-साधारण पर श्रमसाध्य जीवन की बात का प्रभाव नहीं पड़ता । यदि हम अपरिग्रह के पुरस्कर्ता महापुरुषों के जीवन पर दृष्टिपात करें तो यह स्पस्ट होगा कि वहां वाणी कर्म की साम्यता है। लगभग २५०० वर्ष पूर्व जिस महापुरुष ने अपरिग्रह के विचार की प्रगतिशील ब्याख्या करके देश के सन्मुख रखा वह अकिंचन था। उसका सारा जीवन स्वावलम्बन पर आधारित था। यही नहीं जब उस पर उपसर्गों के कारण विपत्ति आई तो इन्द्र ने आकर प्रार्थना की भगवन् आपको कष्ट न हो इसलिये आपकी रक्षा हेतु मैं साथ रहा करू', तब उस महापुरुष ने जो उत्तर दिया उसका भावार्थ था कि स्ववीर्येण गच्छन्ति जिनेन्द्राः परम गति । हे इन्द्र ! मैं अपनी साधना में व्यस्त हूँ, यदि कोई विपत्ति आती हो तो मुझे सहन करना चाहिये । जिनेन्द्र अपनी शक्ति के बल पर ही परम गति को प्राप्त करते हैं। यही नहीं उस महापुरुष ने चतुर्विध संघ के महत्वपूर्ण दो घटक साधु तथा साध्वी के लिये जो चर्या बनाई वह स्वयं स्वावलम्बन पर आधारित है, उसमें परमुखापेक्षिता नहीं। वास्तविक रूप से देखा जाये तो वह महापुरुष अपरिग्रही था। आधुनिक भाषा में कहें तो समाजवादी था, जिसने अपने जीवन में स्वयं समता के तत्व उतार लिये थे, तब जगत को स्वानुभूति पूर्ण उपदेश दिया था। यही बात आधुनिक युग के महापुरुष गांधीजी के सम्बन्ध में सत्य है । वह भी सच्चे समाजवादी थे, उन्होंने charety सा PROMसाच्या, श्राआनन्द आचार Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04aan... NAN.. ... आचार्मप्रवभिनमा आचार्मप्रवभि श्राआनन्दग्रन्थ32श्राआनन्दा ४०२ धर्म और दर्शन begins at home के आधार पर स्वयं वैसा जीवन जीया । परिणाम यह हुआ कि देश में सादा जीवन पद्धति को बल मिला, लोग सामन्ती ढंग के विलासपूर्ण जीवन से घृणा करने लगे तथा यह लहर ठेठ उत्तर से दक्षिण तक फैलाई। भारतीय अपरिग्रह के विचार में मूलतत्त्व स्व-परभेद-विज्ञान का है। तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ तथा अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर ने आत्मा के अतिरिक्त सब कुछ को पर माना, जिसकी चरम निष्पत्ति यह है कि "आत्मा" ने अपने शरीर को भी पर माना । जैसा कि इस देश के निर्गुणी सन्त कबीर ने एक स्थान पर शरीर को पिंजरे की उपमा दी तथा पिंजरे में आत्मा रूपी हंस कैद है । तात्पर्य यह है कि "आत्मा' स्व के अतिरिक्त शरीर तक को "पर" माना । जब यह अनुभव हो कि शरीर जर्जर हो गया है तब उसके प्रति उदासीनता रखकर "संल्लेषणा" व्रत अंगीकार करना चाहिये । पाठक जानते हैं कि जैन आचार पद्धति में संल्लेषणा व्रत द्वारा मनुष्य अपने शरीर का मोह त्माग कर मृत्यु को सखा के रूप में निरपेक्षभाव से वरन करता है। ऐसी स्थिति में भौतिक सम्पदा के संग्रह का विचार नहीं हो सकता। भगवान महावीर ने साधु जीवन में सर्वतः अपरिग्रह तथा गृहस्थ जीवन में अंशतः अपरिग्रह का विधान करके स्वेच्छा का नियंत्रण स्थापित किया। अभी गत चातुर्मास के समय मेरठ में मुनि श्री विद्यानन्दजी के पास कुछ साम्यवादी मित्र आकर “कम्यूनिज्म" के तत्त्व बताने लगे तब उन्होंने उन मित्रों से कहा कि आप किसे कम्यूनिज्म के सिद्धान्त समझाने का प्रयत्न करते हैं जो सर्वथा निर्वसन है। भगवान महावीर ने सम्पदा-संग्रह, आय के स्रोत आदि पर स्वेच्छा पूर्ण नियंत्रण लगाने का सन्देश दिया था। यही नहीं, दैनिक उपयोग में आने वाली तुच्छ वस्तुओं (जैसे दंतोन आदि) की सीमा निर्धारित करने का विधान किया। (देखिये श्रावक के अणुव्रतों में ७ वां अणुव्रत ।) तात्पर्य यह है कि मनुष्य अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तु का उपयोग न करे । आज की भोग-प्रधान संस्कृति में जहां मनुष्य संग्रह करता है, आय के साधन विस्तृत करता है वहीं उसके व्यय पर भी वह स्वयं प्रतिबन्ध नहीं लगाता, परिणाम यह होता है कि उपभोग की वस्तु (परिमित मात्रा में उत्पादन होने कि स्थिति में) केवल उसको प्राप्त होती है कि जिसके पास उसको क्रय करने जितना धन हो। यह एक सुनिश्चित सिद्धान्त है कि जब किसी वस्तु का उत्पादन कम हो, बाजार में उसकी खपत अधिक हो तो मूल्य वृद्धि होती है जैसा कि आधुनिक अर्थशास्त्री डिमान्ड एण्ड सप्लाय के सिद्धान्त से प्रमाणित करते हैं। दैनिक उपयोग अथवा अन्य वस्तुओं के उपभोग पर जब हम स्वेच्छा से नियंत्रण लगाते हैं तब हम जहां अपरिग्रही हैं वहीं हम नागरिक धर्म का पालन भी करते हैं। यह शंका से परे तथ्य है कि भगवान महावीर अकिंचन थे । बालक जैसी मासूमियत के साथ निर्विकार भाव से यत्र-तत्र विचरण करते थे। जैन साहित्य के महत्वपूर्ण ग्रन्थ तत्वार्थसूत्र में एक स्थान पर कहा है कि मूपिरिग्रहः तात्पर्य यह है कि मूच्र्छारहित होकर धर्मसाधना के उपकरण साधु रखता है। आधुनिक महापुरुष गांधीजी ने सम्पन्न लोगों के लिये ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया था। उसका तात्पर्य यह था कि जो कुछ संचित है उसे समाज की मालकी मान कर अपने को ट्रस्टी मानें ताकि समाज की आवश्यकता के समय उसका उपयोग किया जा सके। इसमें भी मुरिहित, आसक्तिरहित होने का तत्त्व विद्यमान है। समर्थ रामदास तथा छत्रपति शिवाजी का प्रसंग सर्व विश्रु त है, किन्तु समय परिवर्तन के साथ आज वैचारिक विकृति आ गई है। कई त्यागी होने का दावा करते हुए प्रचुर सामग्री मूर्छारहित या अनासक्त भाव से अपने पास होने का दंभ करते हैं, वास्तविकता यह है कि आज अपनी आवश्यकता से अधिक संग्रह में मूर्छारहित या अनासक्ति के भाव की गुंजाइश नहीं है । इस non attachment की भावना का अधिक विस्तार ने ढोंग पनपा है। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह और समाजवाद : एक तुलना ४०३ तात्पर्य यह है कि सब से बड़ा भेद अपरिग्रह तथा समाजवाद में यह है कि अपरिग्रह अपनी आवश्यकता को कम करने पर बल देता है किन्तु समाजवाद अधिक से अधिक कमी व्यय पर नियंत्रण कर सकता है, इससे अधिक उसमें गुंजाइश नहीं है । सारांश यह है कि अपरिग्रह एक प्रकार से अपनी जरूरतों को स्वात्मनियंत्रण के साथ कम करने की प्रेरणा देता है जबकि समाजवाद अधिक उत्पादन करके जरूरतें अधिक करके उपभोग की प्रेरणा देता है, यही संभवत: राष्ट्र के समृद्ध होने की कल्पना है । जहां तक राष्ट्र का प्रश्न है उत्पादन वृद्धि आवश्यक है ताकि मनुष्य को अपनी आवश्यक वस्तु ( जीवनोपयोगी) उचित मूल्य पर मिल सके किन्तु जहाँ मनुष्य के स्वयं के जीवन का सम्बन्ध है उसे स्वयं अपनी परिस्थिति के अनुसार अपने उपयोग की वस्तु में, जरूरतों में कमी करना चाहिए ताकि वह प्रत्येक परिस्थिति में अभाव से दु:ख अनुभव न करें। आनन्द-वचनामृत दुःख में अगर समभाव रहे तो दुःख दूर हो जाता है। सुख में अगर समभाव न रहे तो सुख का सरोवर सूख जाता है । दुःख-सुख दोनों में समभाव रखना जरूरी है । [ सुख और आनन्द में अन्तर है --सुख की अनुभूति बाहरी वस्तुओं से भी हो सकती है, किंतु आनन्द की अनुभूति तो आत्मा में ही जागृत होती है । जो व्यक्ति जितना बड़ा होता है, उसे उतनी ही सावधानी से अपने नियमों और आदर्शो पर चलना होता है। कार और बसें, कभी-कभी सड़क से हटकर भी चलें तो कोई खास दुर्घटना नहीं होती, किंतु रेल को तो अपनी पटरी से एक इंच भी इधर उधर हटने का अवकाश नहीं और हटी कि दुर्घटना घटी। बड़े आदमियों का जीवन-पथ रेल का पथ है । मंगल दूर सच्चा मंगल वह है जो 'मं' अर्थात् पांप को 'गल' अर्थात् गाले, पाप को करे । जब पाप दूर हो गया तो विघ्न-बाधा भी स्वतः ही दूर हो गयी । पाप के कारण ही विघ्न आते हैं । अतः मंगल का अर्थ है पाप को दूर करना, पाप का आचरण नहीं करना । संसार में सबसे बड़ा मंगल धर्म है। क्योंकि धर्म ही मनुष्य को सत्कर्म की ओर बढ़ाता है, सत्कर्म सब सुखों का मूल है । अतः सुख, आनन्द की प्राप्ति का मूल कारण धर्म है । आयायप्रवर आगनंन्देन आआनंदी आ 232 兼 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्द अन्थ 32 श्री आनन्द अन्थ मालव केसरी सौभाग्यमल जी महाराज [ प्रसिद्ध वक्ता, स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के वरिष्ठ मुनि ] जैन आचारसंहिता जीवमात्र का एक ही लक्ष्य है दुःख से मुक्त होना, सुख एवं शान्ति को प्राप्त करना । इसीलिए प्रत्येक विचारक, चिन्तक ने जीव और जगत का चिन्तन करते हुए दुःख से निवृत्ति और सुख की प्राप्ति के उपायों पर विचार किया है। यह बात तो सभी विवेकशील व्यक्तियों ने सिद्धान्तः स्वीकार की है कि कर्म से आवद्ध जीव इस जगत में परिभ्रमण करता है और विभिन्न योनियों में अनेक प्रकार के सुख-दुःखों का अनुभव करते हुए भी दुःखों से छुटकारा पाने का सतत प्रयास करता है । दुःखों से छुटकारा यानी कर्मबन्ध से मुक्ति, अनन्त सुख, शाश्वत आनन्द एवं परम शान्ति की प्राप्ति । प्रत्येक दर्शन एवं धर्म के शास्त्रों एवं ग्रन्थों में चिन्तन के आधार पर बन्धन से मुक्त होने का रास्ता बतलाया है। इस कथन का एक ही उद्देश्य रहा है कि व्यक्ति जीवन के स्वरूप को समझे, बन्ध और मुक्ति के कारणों का परिज्ञान करे और तदनन्तर साधना के द्वारा अपने साध्यलक्ष्य को प्राप्त करे । परन्तु विचारकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से साधना का मार्ग बतलाया है । इसीलिए साधना पद्धतियों में विभिन्नता परिलक्षित होती है और यह स्वाभाविक भी है । - भारतीय चिन्तन अध्यात्मपरक है । उसमें प्रत्येक प्रवृत्ति को आध्यात्मिक विकास के साथ सम्बद्ध किया गया है कि आत्मा को इससे क्या हानि-लाभ होगा । इसीलिए भारतीय चिन्तन में मुक्ति के दो मार्ग बतलाये गये हैं-ज्ञान और क्रिया अथवा विचार और आचार । कुछ विचारकों ने ज्ञान को प्रमुखता दी और कुछ ने क्रिया को, आचार को ही सब कुछ स्वीकार किया । अद्वैतवादी शंकराचार्य की मान्यता है कि ब्रह्म के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान कर लेना ही मुक्ति का मार्ग है । जब तक व्यक्ति अविद्या - अज्ञान के बन्धन में जकड़ा रहेगा, तब तक मुक्त नहीं हो सकेगा । इसके विपरीत मीमांसादर्शन का कथन कि मुक्तिप्राप्ति के लिए सिर्फ ब्रह्म का जानना ही काफी नहीं है किन्तु वेदविदित यज्ञयागादि करना चाहिए। क्योंकि विचारों की काल्पनिक उड़ान से प्राप्ति नहीं होती है, आचार के द्वारा ही लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है । इस प्रकार एक ओर ज्ञान को श्रेष्ठ मानकर आचार की उपेक्षा की गई तो दूसरी ओर क्रियाकाण्ड को प्रमुख मान कर ज्ञान का तिरस्कार किया गया है। दोनों दर्शनों ने इसके लिए अपनी-अपनी युक्तियाँ दी हैं । जैनदर्शन को दृष्टि लेकिन जैनदर्शन में ऐसे दुविधा पूर्ण परस्पर विरोधी दृष्टिकोण को कोई स्थान नहीं दिया है। न तो यह माना है कि ज्ञान ही श्रेष्ठ है और क्रिया अथवा आचार का कोई मूल्य नहीं है और Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचारसंहिता ४०५ न यह प्रतिपादित किया है कि आचार के सामने विचार-ज्ञान का महत्त्व नहीं है। भगवान महावीर ने स्पष्ट उद्घोषणा की कि-मुक्ति के लिए ज्ञान और क्रिया-विचार और आचार दोनों आवश्यक हैं।' विचार का महत्त्व, उपयोगिता आचार द्वारा प्रगट होती है और आचार में ओज ज्ञान-विचार द्वारा प्राप्त होता है। विचार के आधार हैं-सम्यक्-दर्शन और सम्यक-ज्ञान तथा आचार की भूमिका है—सम्यक् चारित्र यानी जो दर्शन और ज्ञान से जाना, समझा, अनुभूति की उसे आचरण के द्वारा मूर्त रूप देना । इस प्रकार ज्ञान और क्रिया के समन्वित रूप द्वारा साधक बन्धन से पूर्ण मुक्त हो सकता है । ज्ञान जब तक विचार-चिन्तन तक सीमित रहता है, तब तक साधक अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकता है और क्रिया-आचार का बिना ज्ञान के पालन हो तो लक्ष्य को नहीं देख पाता है, इधर-उधर उलझ जाता है। अतः जब ज्ञान आचार में उतरता है और आचार ज्ञान की दृष्टि लेकर गति करता है तब साधक को साध्यसिद्धि में सफलता प्राप्त होती है। आचार का स्वरूप जब यह निश्चित है कि साध्य-प्राप्ति के लिए ज्ञान और क्रिया मुख्य साधन हैं तब उनके स्वरूप को समझना आवश्यक है । ज्ञान का अर्थ है-वस्तु स्वरूप को देखना, जानना, समझना और उसका चिन्तन-मनन करना। ज्ञान की प्रवृत्ति द्विमुखी है, उससे स्व का भी ज्ञान होता है और पर-स्वरूपावबोध होता है। यानी ज्ञान का अर्थ हुआ आत्मा का बोध रूप व्यापार और उस ज्ञान को आचरण में उतारने एवं व्यवहार में लाने की प्रक्रिया को आचार कहते हैं। जो कुछ जाना और समझा उसी के अनुरूप व्यवहार करना अथवा उसके अनुसार अपने जीवन को ढालना आचार है। निश्चय दृष्टि से आचार का अर्थ होगा 'स्व' के द्वारा 'स्व' और 'पर स्वरूप' का यथार्थ बोध करके 'पर' से मुक्त होकर 'स्व' में स्थित हो जाना। यानी विचार के अनुरूप हो जाना। इस स्थिति में विचार और आचार में कोई भेद परिलक्षित नहीं होता है। आचार के भेद आगमों में आचार के विभिन्न दृष्टियों से अनेक भेद किये गये हैं, जैसे श्रुतधर्म और चारित्रधर्म । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तथा ज्ञान-आचार, दर्शन-आचार, चारित्रआचार, तप-आचार, वीर्य-आचार । इन दो, तीन अथवा पाँच भेदों में संख्या भेद अवश्य है लेकिन सैद्धान्तिक दृष्टि से इनमें कोई मौलिक अन्तर नहीं है। विभिन्न प्रकार से समझाने के लिए भेद की कल्पना की गई है । क्योंकि सम्यग्दर्शन और ज्ञान श्रुतधर्म के अन्तर्गत आ जाते हैं और सम्यक् चारित्र चारित्रधर्म है ही। इसी प्रकार जो पांच भेद किए गये हैं, उनमें प्रथम दो का ज्ञान में और अन्तिम तीन का चारित्र में समाहार हो जाता है। क्योंकि तप और वीर्य दोनों चारित्र साधना के ही अंग हैं। इस प्रकार ज्ञान और क्रिया अथवा सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र में सभी भेदों को गभित किया जा सकता है। जैनधर्म में जिसे दर्शन, ज्ञान और चारित्र कहा है उसे गीता में भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग कहा गया है। क्योंकि भक्ति के मूल में श्रद्धा रहती है, श्रद्धा के अभाव में भक्ति सम्भव ही नहीं है। ज्ञान ज्ञान है ही और कर्म का अर्थ क्रिया करना-आचरण करना । इस प्रकार भक्ति, ज्ञान और कर्मयोग जैनधर्म के दर्शन, ज्ञान और चारित्र के दूसरे नाम कहे जा सकते हैं। १ नांणकिरिया हि मोक्खो। २ श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं, तत्परः संयतेन्द्रियः । -गीता ४/३६ श्रद्धावान ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है और ज्ञान प्राप्त होने पर ही इन्द्रिय-संयम (सदाचार) सघता है। عععععععععععععهمعا عهده علاطعمعمعيه معاه ع ع ع ع ع ع عومران भायामप्रसाचार्यप्रकाशा बाआआ सानन्दन Memorya moviemamal Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ArrAMUNISAMAJOONOMARAANANAADABSAJANARAAAAAALANAJARJAAAAAAAC.. . CMir आपार्यप्रवर आभासाचार्यप्रवर श्रीआनन्दराश श्राआनन्द Veroni ४०६ धर्म और दर्शन परन्तु गीता और जैन परम्परा की मान्यता में एक मौलिक अन्तर है। गीता के अनुसार साधक किसी एक योग की साधना द्वारा साध्य को प्राप्त कर सकता है जबकि जैन परम्परा में भक्ति, ज्ञान और कर्म इन तीनों योगों की समन्वित साधना द्वारा साध्य प्राप्ति मानी गई है। क्योंकि 'स्व' पर विश्वास करना श्रद्धा (दर्शन) है, स्व को जानना ज्ञान है और स्व में स्थिर होना चारित्र है और इन तीनों की एकरूपता मोक्षमार्ग-दुःख मुक्ति का उपाय है। आचार भी दर्शन है आचार सिर्फ क्रिया या प्रवृत्ति ही नहीं, किन्तु एक दर्शन भी है। उसकी तात्विक एवं सैद्धान्तिक दृष्टि है। वही आचार आचरण करने योग्य होता है जो चरम सत्य को केन्द्रबिन्दु मानकर चलता है। जब सत्य की प्राप्ति के लिए प्रवृत्ति की जाती है, तब दर्शन-चिन्तन और आचार एक दूसरे से तन्मय बन जाते हैं कि उनमें भेद नहीं होता है। एक दूसरे दूध और मक्खन के समान एकाकार हो जाते हैं । शाब्दिक भेद से भले ही हम ज्ञान-क्रिया, विचार-आचार आदि पृथक्-पृथक कह सकते हैं लेकिन तिल और तेल की तरह दोनों एक दूसरे पर आधारित हैं। आचारांग सूत्र आचार की व्याख्या करता है और व्याख्या के लिए सर्वप्रथम सूत्र में कहा है कि 'जिसको अपने स्वरूप का, अपने त्रिकालवर्ती अस्तित्व का, संसार में अनन्तकाल से परिभ्रमण के कारण का, पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओं में से किस दिशा से आने और किस दिशा में जाने आदि का ज्ञान हो गया है, वही आत्मवादी है, लोकवादी है, कर्मवादी है और क्रियावादी है। इसका सारांश यह है कि जिस जीव को अपने त्रिकालवर्ती अस्तित्व का बोध नहीं है उसे न तो संसार का ज्ञान होगा और न ही बंध-मोक्ष के कारणों को जान सकेगा। इस स्थिति में वह किसे तो छोड़ेगा और किसे ग्रहण करेगा। वहाँ त्यागने और ग्रहण करने का प्रश्न ही नहीं उठेगा। लेकिन जिसे 'स्व-पर' का ज्ञान है, वह किसी वस्तु को छोड़ता नहीं किन्तु वस्तु स्वयं छूट जाती है। यही आचार का दार्शनिक रूप है। भगवती सूत्र में गौतम गणधर के एक प्रश्न का उल्लेख है कि हिंसा, झूठ, चोरी आदि का त्याग-प्रत्याख्यान करने वाले व्यक्ति का त्याग सुप्रत्याख्यान है या दुष्प्रत्याख्यान है । इसका समाधान करते हुए भगवान महावीर ने फरमाया है कि जिसे अपने स्वरूप का ज्ञान है, जीव क्या है, अजीव आदि का ज्ञान है, उसका त्याग-प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है। इसके सिवाय अन्य सब त्याग-प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है। इस कथन का सारांश यह है कि त्याग-विराग की सम्यक्ता का आधार 'स्व' स्वरूप का बोध है । स्व-स्वरूप के बोध के साथ जो भी स्थूल प्रवृत्ति होगी वह सब स्वरूप बोध का ही एक पहलू है । अतः आचार दर्शन का मूल उद्देश्य है समत्वयोग की साधना-आत्मा का आत्मा में प्रतिष्ठित हो जाना, स्व को इतना व्यापक बना देना कि पर कुछ भी न रह जाये अथवा पर को इतना अस्तित्व हीन कर लिया जाए कि पर का नामावशेष हो जाये । जब यह स्थिति बन जाएगी तब साधक अपने साध्य की सिद्धि कर लेता है। आचार का व्यावहारिक दृष्टिकोण ऊपर आचार की तात्विक भूमिका का संकेत किया गया है। लेकिन जब तक साधक साध्य की सिद्धि नहीं कर लेता है, तब तक लक्ष्य के उच्च होने पर भी, उसे जीवन व्यवहार चलाना ही पड़ता है। केवलज्ञान प्राप्त दशा में भी केवलज्ञानी अपनी शारीरिक प्रवृत्तियों में, व्यावहारिक १. आचारांग १/१/१ २ भगवती सूत्र ७/३२ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचारसंहिता ४०७ are Int प्रवृति में परिवर्तन नहीं करते हैं । निराबरण ज्ञान होने पर भी रात्रि में आहार नहीं लेते हैं, रात्रि में गमनागमन की क्रियाओं को नहीं करते हैं। इसीलिए आगम में कहा गया है कि साधना में केवल निश्चय नहीं व्यवहार भी आवश्यक है। अध्यात्म का मुख्य रूप से कथन करने वाले उपनिषदों में भी व्यवहार को उपेक्षणीय नहीं बताया है और कहा है कि कर्मों (व्यवहारों) की उपेक्षा करके ज्ञान सम्भव नहीं है । आचार से शून्य होकर कोई भी व्यक्ति ज्ञान की वृद्धि नहीं कर सकता है। ___ जैन परम्परा का दृष्टिकोण पहले बताया ही जा चुका है कि आचार उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना ज्ञान । आगम में कहा गया है कि चलने, उठने, बैठने, खाने-पीने की क्रिया जो करो, वह यत्न एवं विवेक पूर्वक करो। यत्नपूर्वक कार्य करने से पापबन्ध नहीं होगा । इसका अभिप्राय यह कि बन्ध तभी होता है जब क्रिया में राग-द्वेष होता है, आसक्ति होती है। आगमों में आचार का व्यावहारिक दृष्टिकोण यह है कि संयम से रहो, जितना सम्भव हो सके अपने आपकी प्रवृत्ति को संकुचित वनाओ, आवश्यकता पड़ने पर कार्य किया जाये, निष्प्रयोजन इधर-उधर भटकना नहीं चाहिए । इसके लिये ईर्यासमिति आदि पाँच समितियों और तीन गुप्तियों का विधान किया गया हैं। इन समिति और गुप्ति का आशय यह है कि आवश्यकता होने पर विवेकपूर्वक गति की जाये, भोजन की गवेषणा (भिक्षाचरी) की जाये, वस्त्र पात्र आदि ग्रहण किये जायें, मन, वचन, काय की प्रवृत्ति का गोपन किया जाये । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि महाव्रत, तप एवं इनकी सुरक्षा तथा अभ्यास के लिए अनेक नियमोपनियम बताये गये हैं। यह सब आचार का व्यावहारिक पक्ष है। इन सब का लक्ष्य यह है कि बाहर से हटकर, विभाव से हटकर अन्तर् में, स्वभाव में आना, स्व-स्वरूप में रमण करना। इसके लिए जो भी क्रिया सहायक बनती है, वह सम्यक है, उसे व्यावहारिक दृष्टिकोण से और तात्त्विक दृष्टि से चारित्र-आचार माना जायेगा और वही सम्यक् है । जैन परम्परा में आचार को मात्र क्रियाकाण्ड या प्रदर्शन न मानकर आत्म-विकास का दर्शन कहा है और अपेक्षा भेद से उसके भेद करते हुए भी उन सब में आत्म-दर्शन, ज्ञान और रमणता को मुख्य माना है। पात्र की अपेक्षा आचार के भेद जैन आगमों में आचार का महत्त्व बतलाने के लिए उसे धर्म कहा है-'चारित्तं धम्मो'-- अर्थात् चारित्र ही धर्म है। और चारित्र क्या है ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहा है"असुहादो विणवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं" अशुभ कर्मों से निवृत्त होना और शुभ कर्मों में प्रवृत्त होना चारित्र कहलाता है। अशुभ में प्रवृत्ति के कारण हैं-राग-द्वेष । जब तक राग-द्वेष की परम्परा चलती रहती है तब तक शुभ प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। जैन-धर्म में राग-द्वेष प्रवृत्तियों के निवारणार्थ आचार को दो भागों में विभाजित किया है-साधु-आचार और श्रावकाचार । साधुआचार साक्षात् मोक्ष का मार्ग है और श्रावकाचार परम्परा से मोक्ष का कारण है । साधु का एक मात्र लक्ष्य आत्मोद्धार करना है। वह लोक, कुटुम्ब आदि पर पदार्थों से ही नहीं, लेकिन अपनी साधना में सहायक शरीर से भी निस्पृह होकर साधना में लग जाता है। साधु ही अहिंसा का उत्कृष्टतया पालन कर सकता है श्रावक नहीं। क्योंकि साधु प्राणिमात्र से मैत्री भाव रखकर निरंतर रागद्वेषमयी प्रवृत्तियों के उन्मूलन में तत्पर रहता है। ज्ञान, ध्यान, तप आदि में अहनिश रत रह कर उत्तरोत्तर रत्नत्रय प्राप्ति के लिए सजग रहता है और आत्मा में विद्यमान अप्रकट अनन्त शक्तियों का विकास करना ही साधु का एकमात्र लक्ष्य होता है। संक्षेप में साधु आचार व्यक्ति को वीतरागी बनाने एवं प्राकृतिक जीवन जीने के लिए स्वावलम्बी बनने की प्रवत्ति है। 19 या e تعمیعے عیدمعرفة هههه متهعهه یه به هم می معه ارومرو علم کی Janumaamhindime امع تلك SNMENT MIND आचामप्रवभिनयाद श्रीआनन्दन्थश्राआनन्द Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 श्रीमानन्दकी आमदन अमात ग्रन्थ ४०८ धर्म और दर्शन लेकिन सभी साधुपद की मर्यादा का निर्वाह करने में सक्षम नहीं होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी-अपनी मानसिक, शारीरिक योग्यता होती है। अतएव जो व्यक्ति साधु आचार का पालन करने में तो पूर्णतया समर्थ नहीं हैं लेकिन उस आचार को ही आत्मकल्याण का साधक मानते हैं, उसमें रुचि भी रखते हैं और साध्य की सिद्धि करना चाहते हैं, उनकी सुविधा एवं अभ्यास के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार साधना की प्रारम्भिक भूमिका के रूप में श्रावकाचार के सरल नियम निर्धारित किये हैं। ताकि अभ्यास द्वारा शनैः-शनैः अपने प्रमुख लक्ष्य को पा सकें। इस अभ्यास की प्रारम्भिक इकाई हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का आंशिक त्याग करना । आंशिक त्याग के अनुरूप इन्द्रियों का व्यापार किया जाना और पारिवारिक जीवन में रहते हुए साम्यभाव में वृद्धि करते जाना । इस प्रकार से जैनधर्म में आचार का उद्देश्य एक होते हुए भी व्यक्ति की योग्यता को ध्यान में रखते हुए साधु आचार और धावकाचार यह दो भेद किए गये हैं। भावना व्याप्त हैं दोनों प्रकारों में एक ही 九 CONSTED 鱷 उयायप्रवर अभिनंद आआनन्दाः अथ नागेणं दंसणेणं च चरितणं तवेण य संतीए मुतीए बढमाणो भवाहि य ॥ ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, क्षमा और निलभता की दिशा में निरंतर इन ज्ञानादि के अभ्यास द्वारा आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त किया जाये । जैनधर्म में पात्रता को ध्यान में रखते हुए आचार धर्म के भेद अवश्य किए हैं, लेकिन इसका कारण जाति, वर्ण, लिंग, वेष आदि नहीं है, किन्तु व्यक्ति का आत्मबल या मनोबल ही उस भेद का कारण है। कोई भी व्यक्ति चाहे वह किसी भी देश, काल आदि का हो, किसी जाति, वर्ण का हो, स्त्री हो या पुरुष, समान रूप से धर्मसाधना कर सकता है। सभी प्रकार के साधकों का वर्गीकरण करने के लिए १. साधु, २. साध्वी, ३. श्रावक और ४. धाविका यह चार श्रेणियां बतलाई हूँ । इनमें साधु और साध्वी का आचार प्रायः एक-सा है और श्रावक व भाविका का आचार एकसा है। - उत्तरा० २२ / २६ बढ़ते रहो अथवा उक्त श्रेणियों में साधु और धायक के लिए आचार नियम पृथक्-पृथक् बतलाये हैं। साधु आचार को महाव्रत और श्रावक- आचार को अणुव्रत कहते हैं । इन दोनों आचारों में पहले साधुआचार का और बाद में श्रावकाचार का वर्णन यहाँ करते हैं । साधु आचार विश्व के सभी धर्मों और चिन्तकों ने स्याग को प्रधानता दी है। जैन संस्कृति ने त्याग की जो मर्यादायें और योग्यताएं स्थापित की हैं, वे असाधारण हैं। वैदिक संस्कृति के समान जैनधर्म ने त्याग जीवन को अंगीकार करने के लिए वय, वर्ण आदि को मुख्य नहीं माना है । उसका तो एक ही स्वर है कि यह जीवन क्षणभंगुर है, मृत्यु किसी भी समय जीवन का अन्त कर सकती है । अतएव इस जीवन से जो कुछ लाभ प्राप्त किया जा सकता है, उसे प्राप्त कर लेना चाहिए। वस पर जोर न देते हुए भी जैन शास्त्रों में त्यागमय जीवन अंगीकार करने वाले की योग्यता का अवश्य संकेत किया है कि जिसे तत्वदृष्टि प्राप्त हो गई है, आत्मा अनात्मा का भेद समझ लिया है, संसार, इन्द्रिय, विषय-भोगों का स्वरूप जान लिया है और वैराग्य भावना जाग्रत हो गई है, वह व्यक्ति त्यागी साधु बनने के योग्य है। संसार शरीर भोगों से ममत्व का त्याग करके जो आत्मसाधना में संलग्न रहना चाहता है, वह साधु आचार को अंगीकार कर सकता है । साधु की साधना स्वयं में स्व को प्राप्त करने के लिए होती है, तभी आत्मा की सर्वोच्च सिद्धि मिलती है। इस भूमिका को प्राप्त करने के लिए घर-परिवार, धन-सम्पत्ति आदि बाह्य पदार्थों Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचारसंहिता ४०६ FOKG समाज य का त्याग तो करना ही पड़ता है लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं, साधुता में तेज तभी आता है जब अन्तर् में जड़ जमाये हुए विकारों पर विजय पा ली जाती है। मान-अपमान, निन्दास्तुति, जीवनमरण में भेद नहीं माना जाता है।' तिरस्कार को भी अमृत मानकर पान किया जाता है और स्वयं कटुवचन बोलकर दूसरे का तिरस्कार नहीं किया जाता है । पृथ्वी के समान बनकर सब अच्छाखुरा, हानि-लाभ आदि सहन किया जाता है ।२ आत्मसाधना करते हुए भी साधु संसार की भलाई से विमुख नहीं होता है। वह तो आध्यात्मिकता की अखण्ड ज्योति लेकर विश्व मानव को सन्मार्ग का दर्शन कराता है। उसे अपने दुःख, पीड़ा, वेदना का तो अनुभव नहीं होता लेकिन परपीड़ा उसके लिए असह्य हो जाती है। वह भलाई करते हुए भी अहंकार नहीं करता है कि मैंने अमुक कार्य करके दूसरों का भला किया है। किन्तु सोचता है कि अपनी भलाई के लिए मेरे द्वारा दूसरे का भी भला हो गया है। इस प्रकार की साधना द्वारा साधु अपने जन्म-मरण का अन्त करता है और सिद्धि लाभ कर परमात्मपद प्राप्त कर लेता है। भगवान महावीर ने साधु आचार और साधु जीवन की मर्यादा की ओर संकेत करते हए कहा है-श्रमण के लिए लाघव-कम से कम साधनों से जीवन निर्वाह करना, निरीहता-निष्काम वृत्ति, अमूर्छा-अनासक्ति, अप्रतिबद्धता, अक्रोधता, अमानता, निष्कपटता, और निर्लोभता के द्वारा साधनात्मक मार्ग प्रशस्त होता है । इस कथन के आधार पर जैनागमों में साधु के आचार-विचार की विस्तार से प्ररूपणा की गई है । संक्षेप में यहाँ साधु-आचार का दिग्दर्शन कराते हैं। साधु आचार की रूपरेखा पंच महाव्रत-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह । पांच समिति-ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदाननिक्षेपणसमिति, परिष्ठापनिकासमिति । तीन गुप्ति-मनोगस्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति । द्वादश अनुप्रेक्षा-अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व,अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोकभावना. बोधिदुर्लभ, धर्मभावना। दस धर्म-क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य । पांच चारित्र-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय, यथाख्यात । इस प्रकार से महाव्रत में लेकर चारित्र पर्यन्त साधु आचार की संक्षिप्त रूपरेखा है । इनका विवरण यथाक्रम से बतलाते हैं । पंच महाव्रत-पांच महाव्रत साधुता की अनिवार्य वृत्ति है। इनका भली-भाँति पालन किये बिना कोई भी साधु नहीं कहला सकता है। १. अहिंसा महावत जीवन पर्यन्त के लिए सर्वथा प्राणातिपातविरमण । यानी त्रस और स्थावर सभी जीवों की मन, वचन, काय से हिंसा न करना, दूसरे से भी नहीं कराना और हिंसा करने वाले का अनुमोदन न करना। ___ अहिंसा महाव्रत का पालन करने वाले के मन, वचन और काय सद्भावना से आप्लावित होते हैं । वह प्राणिमात्र पर अखण्ड करुणा की वृष्टि करते हैं। अतएव वह सजीव जल का उपयोग नहीं करते । अग्निकाय के जीवों की हिंसा से बचने के लिए अग्नि का किसी भी प्रकार से आरंभ 1 १. समो निन्दापसंसासु तहा माणावमाणओ। -उत्त०१६।९१ २. पुढवीसमो मुणी हवेज्जा ।-दशवै० १०।१३ ३. भगवती १/8 RAAAAJAAKAR wwwserieronieDRMANsammanawarernamaANASAMANDALAMA Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गार्मप्रवभिआचार्यप्रवभिन श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्दा अन्य ४१० धर्म और दर्शन नहीं करते हैं। पंखा आदि हिलाकर वायु को उद्वेलित नहीं करते हैं । कन्द, मूल, फल आदि किसी भी प्रकार की सचित्त वनस्पति का स्पर्श भी नहीं करते। पृथ्वीकाय के जीवों की रक्षा के लिए जमीन को खोदने आदि की क्रिया नहीं करते हैं। रात्रि में विहार आहार, आदि नहीं करते हैं और ऊँट, घोड़ा, बैल आदि का सवारी के लिए उपयोग नहीं करते हैं। इनका सारांश यह है कि जिन कारणों और क्रियाओं द्वारा जीवहिंसा की सम्भावना हो सकती है, उन सब कार्यों से अहिंसा का पालक विरत रहता है। २. सत्यमहाव्रत सर्वथा मृषावाद का विरमण करना। मन से सत्य विचारना, सत्य वचन को बोलना और काय से सत्य आचरण करना। क्रोध, लोभ, हास्य, भय आदि कारणों के वश होकर सूक्ष्म असत्य का भी कभी प्रयोग न करना । सत्य का साधक मौन रहना प्रियतर मानता है, फिर भी प्रयोजनवश हित, मित और प्रिय निर्दोष भाषा का प्रयोग करता है। वह न तो बिना सोचे-विचारे बोलता है और न हिसा को उत्तेजना देने वाला भी वचन कहता है। ३. अचौर्यमहावत सर्वथा अदत्तादानविरमण । साधु संसार की कोई भी वस्तु चाहे वह सचित्त हो या अचित्त, अल्पमूल्य की हो या बहुमूल्य की, छोटी हो या बड़ी, बिना स्वामी की आज्ञा के ग्रहण नहीं करते हैं । और तो क्या दांत साफ करने के लिए तिनका भी बिना आज्ञा के ग्रहण नहीं करते हैं। ४. ब्रह्मचर्यमहावत सर्वथा मैथुनविरमण । कामराग-जनित चेष्टा का नाम मैथुन है। साधक के लिए कामवृत्ति और वासना का नियमन आवश्यक है। इस व्रत का पालन करना दुद्धर है अतएव इस व्रत का पालन करने के लिए अनेक प्रकार की नियम-मर्यादायें बतलाई हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं १. शुद्ध स्थान सेवन-स्त्री-पशु, नंपुसकों से रहित स्थान में रहना । २. स्त्री का वर्जन-कामराग उत्पन्न करने वाले स्त्री के हाव, भाव, विलास आदि का सम्पर्क व वर्णन न करना । ३. एकासनत्याग-स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठना एवं जहाँ स्त्री बैठी हो, उस स्थान पर अन्तर्महर्त तक न बैठना। ४. दर्शननिषेध-स्त्री के अंगोपांगों को प्रेमभरी या स्थिर दृष्टि से न देखना । ५. श्रवणनिषेध-स्त्री-पुरुषों के विकारोत्पादक कामुकता पूर्ण शब्दों को न सुनना। ६. स्मरणवर्जन-पूर्व कालीन विषय भोगों का स्मरण न करना। ७. सरस आहारत्याग-सरस, पौष्टिक, विकार जनक राजस, तामस आहार का त्याग करना। ८. विभूषात्याग-स्नान, मंजन, विलेपन आदि द्वारा शरीर को विभूषित नहीं करना । ९. शब्दादित्याग-विकारोत्पादक शब्द, रूप आदि इन्द्रिय विषयों में आसक्त न बनना। ये नियम ब्रह्मचर्य की रक्षा करने वाले द्वारपाल के समान हैं। इनका ध्यान रखने से ब्रह्मचर्य को किसी प्रकार का खतरा नहीं है । इनमें से आदि के नौ नियमों को ब्रह्मचर्य की नव गुप्ति (वाड़) और दसवें (ब्रह्मचर्य) को कोट भी माना गया है। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचारसंहिता ५. अपरिग्रहमहाव्रत सर्वथा परिग्रहविरमण । साधु परिग्रहमात्र का त्यागी होता है । चाहे फिर वह घर, धन-धान्य हो, द्विपद, चतुष्पद हो या अन्य कुछ भी हो। वह सदा के लिए मन, वचन, काय से समस्त परिग्रह - मूर्च्छाभाव को छोड़ देता है और पूर्ण असंग, अनासक्त, अपरिग्रही होकर विचरण करता है । संयम साधना में जिन उपकरणों की अनिवार्य आवश्यकता होती है, उनके प्रति भी ममत्व नहीं होता है । ४११ किसी भी वस्तु में मूर्च्छा - आसक्ति का नाम परिग्रह है । वस्तुयें बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार की हैं । बाह्य परिग्रह में क्षेत्र, धन-धान्य, द्विपद- चतुष्पद, गाय-बैल आदि का ग्रहण होता है और हास्य, रति, अरति, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि मानसिक विकारों को आभ्यन्तर परिग्रह माना जाता है । साधु दोनों प्रकार के परिग्रह के त्यागी होते हैं । पांच समिति पाप प्रवृत्तियों से बचने के लिए प्रशस्त एकाग्रता की जाने वाली प्रवृत्ति को समिति कहते हैं । ये पांच प्रकार की समितियां महाव्रतों की रक्षा और पालन में सहायक होने से साधु आचार की अंग हैं । वे इस प्रकार हैं १. ईर्ष्या समिति - जीवों की रक्षा के लिए, ज्ञान, दर्शन, चारित्र के निमित्त सावधानी के साथ चार हाथ जमीन देखकर चलना । २. भाषा समिति - यतना पूर्वक हित, मित, प्रिय, निरवद्य सत्य बोलना । ३. एषणा समिति – निर्दोष एवं शुद्ध आहार, उपधि आदि की गवेषणा कर ग्रहण करना । ४. आदान-निक्षेपण समिति — आदान नाम लेने-ग्रहण करने, उठाने का है और निक्षेपण का अर्थ है रखना | किसी वस्तु को सावधानी के साथ उठाना या रखना, जिससे किसी भी जीवजन्तु का घात न हो जाये । ५. परिष्ठापनिका समिति - मल, मूत्र आदि अनावश्यक वस्तुयें ऐसे स्थान पर विसर्जित करना, जिससे जीवों का घात न हो और न जीवोत्पत्ति हो तथा दूसरों को घृणा या कष्ट न हो । उक्त पांच समितियां साधक की प्रवृत्ति को निर्दोष बनाती हैं । तीन गुप्ति मोक्षाभिलाषी आत्मा का आत्मरक्षा के लिए इन्द्रियों और मन का गोपन करना अर्थात् उन्हें असत्य प्रवृत्ति से हटा लेना, अशुभ योगों के रोकना गुप्ति कहलाती है । गुप्त 'तीन भेद इस प्रकार हैं १. मनोगुप्ति -- मन को अप्रशस्त, अशुभ एवं कुत्सित संकल्प - विकल्पों से हटाना यानी आर्त- रौद्र ध्यान तथा संरम्भ, समारम्भ, आरंभ सम्बन्धी मानसिक संकल्प-विकल्पों को रोक देना । २. वचनगुप्ति - वचन के अशुभ व्यापार को रोकना, असत्य, कर्कश, कठोर, कष्टजनक, अहितकर भाषाप्रयोग को रोक देना । ३. काय गुप्ति - उठना बैठना, खड़ा होना आदि कायिक व्यापार हैं । शरीर को असत व्यापारों से निवृत्त करना एवं प्रत्येक शारीरिक क्रिया में अयतना - असावधानी का परित्याग करके सावधानी रखना । समिति प्रवृत्ति रूप है और गुप्ति निवृत्ति रूप । समिति और गुप्ति का घनिष्ट सम्बन्ध है । आचार्य प्रव अभिन्दन 麗 Th फ्र आयायप्रवर अभिनन्दन Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rane.rammar maraEmore mvimeviyimom e ४१२ धर्म और दर्शन जैसे सावधानी पूर्वक चलना ईर्या-समिति है और देखे बिना न चलना कायगुप्ति है । निरवद्य भाषा बोलना भाषासमिति है और सावध भाषा निरोध करना या मौन रहना वचनगुप्ति है। सारांश यह है कि समिति द्वारा जो मन, वचन, आदि की प्रवृत्ति की जाती है, उसमें गुप्ति द्वारा अयतनाअसावधानी के अंश की निवृत्ति की जाती है। पांच समिति और तीन गुप्ति इन आठों को प्रवचनमाता कहते हैं। इनमें द्वादशांग रूप प्रवचन-शास्त्र समा जाते हैं। पांच महाव्रतों का जीवन के प्रत्येक व्यवहार में सतत पालन करना होता है। महाव्रत सिर्फ नियम मात्र नहीं किन्तु जीवन व्यवहार बने इसके लिए ऐसे आचार की तालीम जीवन में आये एतदर्थ आगमों में महाव्रतों की २५ भावनाएँ बताई गई हैं। उन भावनाओं के चिन्तन-अनुशीलन से जीवन व्रतों में एकरस हो जाता है और वह सहज जीवन क्रम बन जाता है । विस्तार के लिए प्रश्न-व्याकरण संवर द्वार देखना चाहिए। बारह भावनाएं साधना को ओजस्वी और सजीव बनाने के लिए मन को साधना अनिवार्य है। मन का निग्रह किए बिना आचार में शुद्धता नहीं आ सकती है। इसीलिए मन को साधने, विरक्ति की स्थिरता एवं वृद्धि के लिए साधक को अनित्य आदि बारह भावनाओं को पुनः पुनः चिन्तन करना जरूरी बताया है। जब तक साधक सांसारिक वस्तुओं को क्षणभंगुर, अपने आपको अशरण, अकेला आदि नहीं मानेगा और आत्म-विकास के कारणों को नहीं समझेगा, तब तक सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती है । भावनाएँ वैराग्य को जगाने एवं संयम को सबल बनाने में सहायक होने से चिन्तवन करने योग्य हैं । बारह भावनाओं का चिन्तवन प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह श्रमण हो या श्रावक, कर सकता है। इन भावनाओं का जितना चिन्तन-मनन किया जायेगा, उतना ही मन एकाग्र होगा, विरक्त होगा और मन की एकाग्रता होने पर कर्ममुक्ति सहज हो जायगी। बारह भावनाओं के नाम पूर्व में कहे गये हैं और उनका अर्थ भी सरलता से समझा जा सकता है। अत: यहाँ विशेष कथन नहीं किया गया है। दस श्रमणधर्म जीव स्वभाव से अमर है लेकिन कर्मवशात जन्म-मरण अवस्थाओं द्वारा शरीर से शरीरान्तर होता रहता है। फिर भी भौतिक पदार्थों के माध्यम से अथवा संतान परम्परा द्वारा अपने को अमर करने की अभिलाषा रखकर बाह्य नाशवान पदार्थों के संग्रह में जुटा रहता है । उन पदार्थों को प्राप्त करने के लिए क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों में रत रहने से अमरता के मूल आधार आत्मा का ज्ञान ही नहीं होता है तो ये नाशवान पदार्थ अमर कैसे बना सकते हैं, जो स्वयं नाशवान हैं, वे दूसरों को कैसे अमर बना सकेंगे? हां ! अमरता प्राप्ति का मार्ग क्षमा, मार्दव आदि दस विधि धर्म रूप है। इसीलिए श्रमण को उनका पालन करना आवश्यक बतलाया है। उनका संक्षिप्त रूप इस प्रकार है। १. क्षमा-क्रोध को उत्पन्न न होने देना एवं उत्पन्न होने पर उसे जीतना, शमन करना क्षमा है। बृहत्कल्प भाष्य ४/१५ में बतलाया है कि साधु, साध्वियों को परस्पर में कलह हो जाने पर तत्काल क्षमायाचना करके शान्त कर देना चाहिए। क्षमायाचना किए बिना गोचरी आदि के लिए जाना, स्वाध्याय करना, विहार भी नहीं कल्पता है। क्षमायाचना करने वाला साधु आराधक और न करने वाला विराधक माना गया है। १. उत्तरा० २४११ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचारसंहिता ४१३ POEMS २. मार्दव-मान को जीतना, विनम्र वृत्ति रखना मार्दव कहलाता है। अभिमान के आठ कारण होने से अभिमान के आठ भेद हैं-जाति, कुल, बल, रूप, तप, ज्ञान, लाभ और ऐश्वर्य (प्रभुत्व) । व्यक्ति जिस-जिस वस्तु का अभिमान करता है, उससे उस वस्तु की प्राप्ति में कमी हो जाती है। जैसे ज्ञान का घमण्ड करने से मूर्खता और रूप का अभिमान करने से कुरूपता मिलती है। इसीलिए अभिमान करना योग्य नहीं है। व्यक्ति जिन वस्तुओं पर अभिमान करता है, वे तो क्षणिक हैं किन्तु उन पर अभिमान करने से पाप कर्मों का वंध तो हो जाता है। ३. आर्जव-माया, छल कपट, वक्रता का त्याग करना । सरल वृत्ति रखना। आर्जव धर्म का पालन करने से मन, वचन, काय की कथनी करनी में समानता की प्राप्ति होती है। ४. शौच-लोभ को जीतना । पौद्गलिक वस्तुओं की आसक्ति का त्याग करना। इस धर्म का पालन करने से अपरिग्रहत्व की प्राप्ति होती है । शौच का दूसरा नाम मुक्ति भी है, संतोष है। ५. सत्य-सावद्य-अप्रिय एवं अहितकारी मन, वचन, काया की प्रवृत्तियों का सर्वथा त्याग करना, सत्य व्यवहार करना सत्य धर्म है। सत्यधर्म का पालन करने वाले को ही सभी प्रकार की ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति होती है। इसीलिए साधु को प्राण देकर भी सत्य धर्म की सुरक्षा करना चाहिए। ६. संयम–सर्व सावध व्यापारों से निवृत्त होना संयम धर्म है। संयम के सत्रह भेद हैंपांच आस्रवों से निवृत्ति, पाँच इन्द्रियों का निग्रह, चार कषायों पर विजय, तथा मन, वचन, काय की अशुभ प्रवृति से विरति । ७. तप-जिस अनुष्ठान द्वारा शारीरिक विकारों और ज्ञानावरणादि कर्मों को तपाकर नष्ट किया जाये। तप के बाह्य और आभ्यन्तर यह दो भेद हैं। वाह्य तप के अनशन, ऊनोदरी आदि छः भेद हैं तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य आदि अन्तरंग तप के छह भेद होते हैं। कुल मिलाकर तप के बारह भेद हैं। ८. त्याग-कर्मों के ग्रहण कराने के बाह्य कारण-पारिवारिक जन तथा आभ्यन्तर कारण--राग-द्वेष आदि का त्याग करना त्याग धर्म है। ९. आकिंचन्य-इसका दूसरा नाम लाघव है । यानी द्रव्य से अल्प उपकरण रखना तथा भाव से तीन प्रकार के गारव-ऋद्धिगारव, रसगारव, सातागारव का परित्याग करना । मान एवं लोभ से मिश्रित अशुभ भावना का नाम गारव है। १०. ब्रह्मचर्य-ब्रह्म अर्थात् आत्मा और चर्य अर्थात् चिन्तन । आत्मा के चिन्तन में तल्लीन रहने को ब्रह्मचर्य कहते हैं। उपरि-उल्लखित महाव्रत आदि श्रमण आचार प्रवृत्ति करने से स्व में रमणता करने में वृद्धि होती जाती है। इसीलिए इन सबको साधु आचार का व्यावहारिक रूप कह सकते हैं। इन सबका यथावत् आचरण करने से स्व को स्व में देखना सरल होता जाता है और जब साधक अपनी साधना की चरम स्थिति पर पहुँच जाता है तब स्व-रमणता के क्षेत्र में प्रवृष्ट होकर आत्मोन्मुखी बन जाता है। उसकी यह स्थिति योगी जैसी कही जा सकती है। योगावस्था सम्पन्न आत्मा अपने आप में समता भावना को इतना व्यापक बना लेता है कि बाह्य पदार्थों के प्रति आकर्षण तो पहले ही नष्ट हो जाता है लेकिन जो कुछ भी थोड़ा बहुत रागद्वेष का अंश शेष रह जाता है उसे भी साधना के द्वारा शांत करता है अथवा उसको निष्क्रिय बना देता है। इस प्रकार संक्षेप में यह श्रमण-आचार है। + IES PN an. napur-namara-ALNaamin-AAdamadneKAJABARJAMANAAAAAAAAAAAAAAASON . U SNETसाचार्य अविक CTIOGO प्रामानन्दमयन्थ womaypeerawanwaranandwoarnewaranane Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रव ROMसाचार्य श्रामानन्दमयन्थश्रामानन्द सन्थ ४१४ धर्म और दर्शन क VEAM श्रावक धर्म श्रमण साक्षात रूप से मोक्ष मार्ग के साधक होते हैं, वे पूर्ण मनोबल के साथ तृष्णा, भोगअभिलाषा एवं ममत्व का त्याग करते हैं। थावक साधुपद के उक्त आदर्शों की मर्यादा का निर्वाह करने में समर्थ न होने के कारण शनैः शनैः क्रम क्रम से मोक्षमार्ग पर अग्रसर होने का अभ्यास करते हैं। इसी दृष्टि से श्रावक वर्ग के लिए महाव्रतों के अनुसरण करने में सुविधा की दृष्टि से आचार धर्म के नियम बतलाये हैं। श्रावक वर्ग के लिए बताये गये आचार का यहां संक्षिप्त स्वरूप प्रस्तुत किया जाता है । श्रावक का पद श्रमण के समकक्ष तो नहीं है किन्तु अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। हर कोई व्यक्ति श्रावक कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकता है लेकिन जिसमें श्रावक के योग्य गुण हैं और जो व्रतों को धारण करता है वह श्रावक बन सकता है। इसीलिए आचार्यों ने थावक शब्द के प्रत्येक अक्षर का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है' --- श्रा-जो सर्वज्ञभाषित तत्व पर श्रद्धा रखता है। व-सत्पात्रों में दान रूप बीज बोता है। क-कर्मरूप मलिनता को दूर हटाता है। वह श्रावक कहलता है । श्रमणों-साधुओं की उपासना करने, सेवा करने के कारण श्रावक को श्रमणोपासक भी कहा गया है। श्रावक अल्प-आरम्भी, अल्प-परिग्रही, धर्म भावना युक्त, धर्म का अनुसरण करने वाले, धर्म की प्रभावना करने वाले, सुशील, सुव्रती, धर्म में आनन्द मानने वाले होते हैं। श्रावक के आचार को 'अणुव्रत' कहते हैं। श्रावक अपनी शक्ति, मर्यादा आदि को ध्यान में रखकर त्यागमार्ग की ओर अग्रसर होने के साथ व्रतों को अणुरूप में अर्यात् आंशिक रूप में, मर्यादा व छूट के साथ स्वीकार करता है, इसलिए वह अणुव्रती कहलाता है । श्रावक के लिए निम्न प्रकार से बारह व्रतों का विधान किया गया पांच अणुव्रत-हिंसा, झूठ, चोरी आदि का आंशिक रूप से त्याग करना। तीन गुणवत-अणुव्रतों के पालन में विशेष सहायता करने वाले व्रत । चार शिक्षावत-अणुव्रतों, गुणवतों तथा धर्मसाधना का विशेष अभ्यास कराने वाले व्रत । अणुव्रत और गुणव्रत यावज्जीवन के लिए ग्रहण किये जाते हैं, किन्तु उनको सबल बनाने के लिए समयानुसार प्रतिदिन मर्यादा की जाती है। श्रावक-आचार के बारह व्रतों के नाम और उनका संक्षेप में स्वरूप निम्नप्रकार है१. अहिंसाणुव्रत स्थूल प्राणातिपातविरमण, अर्थात् निरपराध वस जीवों की संकल्प पूर्वक हिंसा करने का त्याग करना। संसार में जीव दो प्रकार के हैं-स और स्थावर। द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव त्रस और एकेन्द्रिय जीव--पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति स्थावर कहलाते हैं। हिंसा के चार प्रकार हैं--आरंभी हिंसा, २. उद्योगी हिंसा, ३. विरोधी हिंसा और ४. संकल्पी हिंसा। १ स्थानांग ४/४ टीका २ (क) उपासक दशा० १, टीका (ख) तत्त्वार्थसूत्र Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचारसंहिता जीवन निर्वाह, परिवार के पालन-पोषण के लिए अनिवार्य रूप से होने वाली हिंसा आरंभी हिंसा है । आजीविका चलाने के लिए कृषि, गोपालन आदि जो-जो उद्योग किए जाते हैं, उनमें हिंसा की भावना व संकल्प न होने पर भी अनिवार्यतः जो हिंसा होती है वह उद्योगी हिंसा कहलाती है । अपने प्राणों की रक्षा एवं परिवार, देश आदि की रक्षा के लिए प्रतिरक्षात्मक रूप में की जाने वाली हिंसा विरोधी हिंसा तथा निरपराध प्राणी को जानबूझ कर मारने की भावना से हिंसा करना संकल्पी हिंसा है । उक्त चारों प्रकार की हिंसा में से श्रावक संकल्पी हिंसा का तो पूर्ण रूप से त्याग करता है और शेष तीन प्रकार की हिंसा में से यथाशक्ति त्याग करते हुए अहिंसाणुव्रत का पालन करता है । संकल्पी हिंसा का त्याग करने से भी बहुत सी हिंसा से बचा जा सकता है । अहिंसाव्रत का पालन करने के लिए निम्नलिखित पांच अतिचारों (दोषों) से बचने के लिए श्रावक को सदा ध्यान रखना चाहिए --- बंध - किसी जीव को बांधना, जैसे तोता आदि को पिंजरे में बन्द कर देना । वध - किसी जीव को मारना पीटना । ४१५ छविच्छेद -- किसी का अंग भंग करना, विरूप बनाना । अतिभार - घोड़े, बैल आदि पशुओं पर सामर्थ्य से अधिक बोझ लादना, नौकरों से अधिक काम लेना । भक्तपान विच्छेद - अपने आश्रित प्राणियों को समय पर भोजन - पानी न देना । इसके सिवाय रात्रि में भोजन आदि का त्याग करना भी अहिंसाव्रत की भावना के लिए आवश्यक है । २. सत्याणुव्रत दृष्टि से अनर्थों की सम्भावना हो), बोलने के प्रति सावधान रहना । सत्पुरुष और लोक व्यवहार में स्थूल ( ऐसा असत्य जिससे सामाजिक एवं राष्ट्रीय असत्य (झूठ बोलने का सर्वथा त्याग करना एवं सूक्ष्म असत्य यद्यपि स्थूल और सूक्ष्म असत्य में भेद करना कठिन है, लेकिन जिसे असत्य माना जाता है, ऐसे असत्य का त्याग करना आवश्यक है । सत्य व्रत का भली-भाँति पालन करने के लिए निम्नलिखित पांच दोषों पर ध्यान देना जरूरी है ( १ ) सहसाभ्याख्यान - बिना विचारे असावधानी पूर्वक दूसरे पर मिथ्यारोपण करना । ( २ ) रहोभ्याख्यान - किसी की गुप्त बात को प्रगट कर देना । (३) स्वदारमंत्र भेद - पत्नी के साथ एकान्त में हुई मंत्रणा को दूसरे के सामने कहना अथवा उसके साथ विश्वासघात करना । (४) मृषोपदेश - दूसरे को गलत सलाह देना, मिथ्या उपदेश करना । (५) कूटलेखकरण - जालसाजी करना, झूठे दस्तावेज आदि लिखना । इन कार्यों से सम्बन्धित अन्य प्रवृत्तियों जैसे आत्मप्रशंसा, परनिन्दा, ईर्षा, चुगली करना, आदि से बचने का ध्यान सत्यव्रती को रखना चाहिए। ३. अचौर्याणुव्रत स्वामी की आज्ञा के बिना किसी की वस्तु को न लेना अचौर्याणुव्रत कहलाता है । चोरी दो प्रकार की है— स्थूल चोरी और सूक्ष्म चोरी। जिस चोरी के कारण व्यक्ति चोर कहलाये, न्यायालय दण्ड दे और जो समाज में चोरी के नाम से कहलाये वह स्थूल चोरी है और रास्ते चलते-फिरते २० 3 आचार्य प्रवास अगदी आआनन्द अन्थ ASPARA Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ عرعر عرعر تعرج هاجموهرعر عرعر عععععععععععطت عمده به هر ععععععععععععععععععععععععععععععج पार्यप्रवर अभिसापावर भिर श्रीआनन्दकन्थ32श्राआनन्दान्थ2 ViYMayoraamaaraavrriorivarwww ४१६ धर्म और दर्शन AMM/ - कंकर, तिनका आदि उठा लेना या इसी प्रकार की अन्य कोई वस्तु स्वामी की आज्ञा के बिना ले लेना सूक्ष्म चोरी में गमित किया जा सकता है। गृहस्थ के लिए जीवन में पूर्ण रूप से चोरी का त्याग करना कठिन है, इसलिए उसे स्थूल चोरी के त्याग करने का विधान किया गया है। अचौर्याणुव्रती को निम्नलिखित पाँच बातों से बचना चाहिये१. स्तेनाहृत-चोरी (तस्करी) का माल खरीदना ।। २. स्तेनप्रयोग-चोर को चोरी करने की प्रेरणा एवं सहायता देना। ३. विरुद्ध राज्यातिक्रम-राष्ट्र के विरुद्ध कार्य करना, जैसे उचित कर न देना। राजा की आज्ञा के विरुद्ध विदेशों को माल भेजना और मंगवाना। ४. कूटतुला-मान-न्यूनाधिक तोलना, मापना । ५. प्रतिरूपक व्यवहार—बहुमूल्य वस्तु में अल्प मूल्य की वस्तु की मिलावट । सेंध लगाना, जेब काटना, सूद के बहाने किसी को लूट लेना आदि भी स्थूल चोरी के अन्तर्गत हैं । अतः इन कार्यों को किसी भी स्थिति में नहीं करना चाहिए। ४. ब्रह्मचर्याणुव्रत इसको स्वदारसंतोषव्रत भी कहते है। काम-भोग एक प्रकार का मानसिक रोग है, जिसका प्रतिकार भोग से नहीं हो सकता है। अतः मानसिक बल, शारीरिक स्वास्थ्य और आत्मविकास के लिए कामेच्छा से बचना पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत है। लेकिन जो ब्रह्मचर्यव्रत का पूर्णरूप से पालन नहीं कर सकते उन्हें परस्त्रीगमन का तो सर्वथा त्याग कर देना चाहिए और स्वस्त्री के साथ भी ब्रह्मचर्य की मर्यादा करना ब्रह्मचर्याणुव्रत है। ब्रह्मचर्याणुव्रती कामवासना पर विजय प्राप्ति के लिए सदा सचेष्ट रहता है। निम्न पांच दोषों से ब्रह्मचर्याणुव्रती सदैव बचता रहे (१) इत्वरिका परिगृहीतागमन-रखैल आदि के साथ सम्बन्ध रखना। (२) अपरिगृहीतागमन-कुमारी या वेश्या आदि से सम्बन्ध रखना। (३) अनंगक्रीड़ा--काम सेवन के प्राकृतिक अंगों के अतिरिक्त अन्य अंगों से कामक्रीड़ा करना अथवा अप्राकृतिक मैथून सेवन करना। (४) परविवाहकरण-अपने या परिवार के सिवाय दूसरों के विवाह करवाना, उनके विवाहसम्बन्ध (सगाई आदि) स्थापित कराने में अधिक रुचि लेना। (५) कामभोग-तीन अभिलाषा-कामभोगों की तीव्र अभिलाषा रखना, शब्द, रूप आदि इन्द्रिय विषयों में विशेष आसक्त होना । ५. परिग्रहपरिमाणवत पर पदार्थों में मूर्छा-ममत्व व आसक्ति का नाम परिग्रह है। परिग्रह को संसार का सबसे बड़ा पाप कह सकते हैं। परिग्रह-संग्रहवृत्ति के कारण संसार में युद्ध, वर्गसंघर्ष आदि की ज्वाला सुलग रही है । जबतक मनुष्य में लोभ, लालच, गृद्धि भावना विद्यमान है, तब तक शांति नहीं मिल सकती । गृहस्थ सम्पूर्ण रूप से परिग्रह का त्याग नहीं कर सकता। अत: उसके लिए परिग्रह का परिमाण (मर्यादा) करने का विधान है। इससे असीम इच्छाएँ सीमित हो जाती हैं। इस कारण इस व्रत को इच्छापरिमाणव्रत भी कहते हैं। यदि विश्व के सभी नागरिक परिग्रह का परिमाण कर लें तो यह भूमण्डल स्वर्गलोक बन सकता है । परिग्रहपरिमाणव्रत का पालन करने के लिए निम्नलिखित दोषों से बचना चाहिए (१) क्षेत्रावस्तु परिमाण-अतिक्रमण-मकान, खेत आदि के क्षेत्र के परिमाण का अतिक्रमण करना। RO ). 4 Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचारसंहिता ४१७ (२) हिरण्य- सुवर्ण प्रमाण अतिक्रमण --- सोने-चांदी आदि के प्रमाण को भी किसी बहाने से बढ़ाना । (३) धन-धान्य प्रमाणातिक्रमण - मर्यादित प्रमाण के अतिरिक्त रुपया-पैसा अनाज, आदि की मर्यादा का भंग करना । ( ४ ) द्विपद-चतुष्पद प्रमाणातिक्रमण -- द्विपद ( नौकर ), चतुष्पद (गाय, बैल आदि ) के परिमाण का उलंघन करना । (५) कुप्य प्रमाणातिक्रमण – दैनिक उपयोग में आने वाले वस्त्र, बर्तन आदि के कृत प्रमाण का उलंघन करना । पूर्वोक्त पांच अणुव्रत श्रावक के मूलव्रत हैं। उनका भलीभांति आचरण करने के लिए और जिन व्रतों की आवश्यकता होती है उन्हें उत्तरव्रत कहते हैं । गुणव्रत और शिक्षाव्रत इसी प्रकार के उत्तरव्रत हैं । उनमें से पहले गुणव्रतों की व्याख्या करते हैं— ६. दिग्व्रत मनुष्य तृष्णा के वश होकर विभिन्न क्षेत्रों में भटकता रहता है। धन की लालसा में ऊपर, नीचे, तिरछे हजारों मील भी जा सकता है, फिर भी उसकी आवश्यकता पूरी नहीं होती है । अतः इस लालसा को नियंत्रित करने के लिए श्रावकाचार में दिगव्रत का विधान किया गया है । इस व्रत का धारक समस्त दिशाओं - ऊपर, नीचे, तिरछे दसों दिशाओं में गमनागमन की मर्यादा करता है और उससे बाहर के क्षेत्र में सब प्रकार के व्यापारों को त्याग देता है । इसको दिशापरिमाण व्रत भी कहते हैं । इस व्रत के धारक श्रावक को पांच अणुव्रतों सम्बन्धी दोषों से बचने के समान दिव्रत सम्बन्धी निम्नलिखित पांच दोषों से बचने का ध्यान रखना चाहिए ( १ ) उर्ध्व दिशा में की गयी क्षेत्रमर्यादा का अतिक्रमण करना । (२) अधोदिशा की मर्यादा को असावधानी वश उलंघन करना । (३) तिरछी दिशा में कृत मर्यादा का सीमोलंघन करना । ( ४ ) किसी दिशा के प्रमाण को घटाकर दूसरी दिशा के क्षेत्रप्रमाण में वृद्धि कर लेना । (५) सन्देह हो जाने पर सीमित क्षेत्र से भी आगे चले जाना । ७. उपभोग - परिभोग परिमाणव्रत एक बार भोगने योग्य भोजन आदि वस्तुओं को उपभोग और पुनः पुनः भोग की जाने वाली वस्तुओं को परिभोग कहते हैं, जैसे - वस्त्र, पात्र आदि वस्तुएँ। इस व्रत में उपभोग - परिभोग संबंधी वस्तुओं का मर्यादा उपरान्त त्याग किया जाता है । यह व्रत भोग और कर्म (व्यवसाय) की दृष्टि से दो प्रकार का है । भोग से त्याग करने पर इन्द्रिय विषयों की लोलुपता कम होती है और व्यापार सम्बन्धी मर्यादा कर लेने पर पापपूर्ण व्यापारों का त्याग हो जाता है । इस व्रत सम्बन्धी पांच अतिचार यह हैं- ( १ ) त्याग किए हुए सचित्त द्रव्य को असावधानीवश खा लेना । ( २ ) सचित्त वस्तु से संयुक्त द्रव्य को खाना । (३) नहीं पके हुए कच्चे फल, धान्य आदि को खाना । ( ४ ) पूरे नहीं पके हुए बाजारा, गेहूँ आदि को खाना । (५) जिनमें खाने का पदार्थ थोड़ा हो ओर फेंकना अधिक पड़े ऐसे फल आदि को खाना, जैसे सीताफल, ईख आदि । CASTIEL Jo प्राज्ञति की आवदेन आमाना आमदन Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ~-~AR ARAMNA.MAMALNAINAurn.nanminimalandan. ४१८ धर्म और दर्शन कर्म (व्यापार) सम्बन्धी परिमाण करने में महारम्भ वाले व्यापार-धन्धों का त्याग किया जाता है। शास्त्रों में निम्नलिखित १५ कर्मादान (व्यापार) बतलाये हैं १. इंगालकम्मे-कोयले आदि बनाने का व्यापार । २. वणकम्मे--जंगल के वृक्षों को काटकर बेचने का व्यापार । ३. साड़ीकम्मे-गाड़ी, रथ, पालको, किवाड़ आदि बनाकर बेचना। ४. भाडीकम्मे-ऊंट, बैल आदि से माड़ा कमाना। ५. फोड़ीकम्मे-हल, कुल्हाड़ी, सुरंग आदि से पृथ्वी फोड़ना। ६. दन्तवाणिज्जे-हाथी दांत, शंख, चर्म आदि का व्यापार । ७. लक्खवाणिज्जे-लाख, मेणसिल, रेशम आदि का व्यापार । ८. रसवाणिज्जे-~-~घी, दूध, तेल, मदिरा आदि का व्यापार । ६. विषवाणिज्जे-अफीम, संखिया आदि का व्यापार । १०. केशवाणिज्जे-केश वाले जीवों का व्यापार करना। ११. जन्तपोलणकम्मे-तिल, ईख, सरसों आदि पीलने का व्यापार । १२. निलंक्षणकम्मे-पशुओं को नपुसंक बनाने का व्यापार । १३. दवग्गिदावणया-वन, पर्वतों में आग लगाने का धन्धा । १४. सरदहतड़ागपरिशोषणया-खेती आदि के लिए तालाब आदि को सुखाने का व्यापार । १५. असईजणपोषणया-आजीविका के लिए वेश्या, नट, भांड आदि रखना। उक्त पन्द्रह प्रकार के कर्मादान व्यापार की दृष्टि से कहे हैं। श्रावक को इन व्यापारों की मर्यादा करना चाहिए। ८. अनर्थदण्डविरमणव्रत बिना प्रयोजन के हिसा करना अनर्थदण्ड कहलाता है। हास्य, कौतूहल, अविवेक आदि के वश होकर की जाने वाली हिंसा अनर्थ हिसा है। श्रावक को इस प्रकार की व्यर्थ में होने वाली हिंसा का त्याग करना चाहिए। विवेक शून्य मनुष्यों की मनोवृत्ति चार प्रकार से व्यर्थ ही पाप का उपार्जन करती है। इसीलिए अनर्थदण्ड के चार प्रकार हैं (१) अपध्यान--आर्त और रौद्र ध्यान में रत रहकर दूसरों का बुरा विचारना। (२) प्रमादाचरित-प्रमाद का आचरण करना, निन्दा, विकथा आदि करना । (३) हिंसाप्रदान-तलवार, बन्दुक आदि हिंसा के साधनों को दूसरो को देना । (४) पापोपदेश-पापजनक कार्यों को करने का उपदेश देना । इस व्रत को वैसे भी जन सामान्य अपना ले तो संसार में व्यर्थ होने वाली हिंसा से व्यक्ति बच सकता है । लेकिन श्रावक को अपने निर्दोष जीवन के लिए अनर्थदण्ड का त्याग आवश्यक है। इस व्रत का साधक कामवर्धक वार्तालाप नहीं करता। फूहड़ चेष्टाएं नहीं करता और न हिंसक साधनों के क्रय-विक्रय में भाग लेता है। भोगोपभोग के पदार्थों में आसक्त नहीं होता । अनर्थदण्डविरमणव्रत के निम्नलिखित पांच अतिचार हैं (१) कन्दर्प--कामवासना-वर्धक शब्दों आदि का उपयोग करना । (२) कौत्कुच्य-भांड, विदूषक आदि की तरह शरीर की कुचेष्टाएं करना। (३) मौखर्य-बिना कारण अधिक बोलना, अनर्गल बातें करना । (४) संयुक्ताधिकरण-हिंसाकारक वस्तुओं को तैयार करके रखना। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचारसंहिता ४१६ % AKA EPTE (५) उपभोगपरिभोगातिरिक्ता--उपभोग-परिभोग के लिए जिन वस्तुओं की मर्यादा की गयी है उनमें अत्यधिक आसक्त रहना । विशेष आनन्द लेने के लिए उनका बार-बार उपभोग करना। गुणवत के भेदों का कथन करके अब शिक्षाव्रत के ४ भेदों के स्वरूप को बतलाते हैं। उनके नाम और लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं है. सामायिक मन की राग-द्वेषमयी परिणति विषमभाव है और वस्तुओं पर रागद्वेष न करके मध्यस्थ भाव रखना सम कहलाता है । इस सम-भाव से साधक को जो आय-लाभ होता है, उसे सामायिक कहते हैं । अतएव समभाव को प्राप्त करने, विकसित करने और स्थायी बनाने के लिए जिस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है उसे भी सामायिक कहते हैं। ग्रहस्थ के लिए इस व्रत की आराधना का काल ४८ मिनट निर्दिष्ट किया गया है। इस समय में श्रावक को समस्त पापमय व्यापारों का त्याग करके आत्मचिन्तन करना चाहिए और उस समय में प्राप्त समभाव की प्रेरणा को जीवनव्यापी बनाने का यत्न करना चाहिए। सामायिक व्रत में निम्नलिखित पाँच दोषों का बचाव रखना चाहिए(१) मनोदुष्प्रणिधान-मन से सावद्य-पाप युक्त विचार करना । (२) वचनदुष्प्रणिधान-सावद्य वचन बोलना । (३) कायदुष्प्रणिधान---शरीर की सावध प्रवृत्ति करना । (४) सामायिकस्मृतिअकरणता-मैंने सामायिक की है, इसे भूल जाना अथवा सामायिक करना ही भूल जाना। (५) सामायिक अनवस्तिकरणता-सामायिक से ऊबकर उसके निर्धारित समय से पहले उठा जाना या सामायिक के समय के पूरे होने या न होने के लिए बार-बार घड़ी आदि की ओर ध्यान जाना। १० देशावकाशिकवत दिग्वत में जीवन पर्यंत के लिए गमनागमन के लिए की गई मर्यादा में से एक दिन या न्यूनाधिक समय के लिए कम करना और उस मर्यादा के बाहर के समस्त पापकार्यों का त्याग कर देना देशावकाशिक व्रत है। इस व्रत में भोगोपभोग की वस्तुओं के लिए की गई मर्यादा में भी संकोच किया जाता है। इस व्रत के निम्नलिखित पांच अतिचार हैं(१) आनयनप्रयोग-मर्यादित क्षेत्र से बाहर के क्षेत्र की वस्तु को दूसरों से मंगवाना। (२) प्रेष्यप्रयोग-मर्यादित क्षेत्र से बाहर दूसरों के द्वारा वस्तु को भिजवाना। (३) शब्दानुपात-मर्यादित क्षेत्र से बाहर न जा सकने के कारण छींक, खांसी आदि शब्द प्रयोग के द्वारा दूसरे को बुलाना । (४) रूपानुपात-मर्यादित क्षेत्र से बाहर रहे हए व्यक्ति को अपनी शारीरिक चेष्टाओं द्वारा बुलाना या सूचना आदि देना। (५) बहिःपुद्गलक्षेप-मर्यादित क्षेत्र से बाहर प्रयोजन वश अपना भाव बतलाने के लिए पत्थर, कंकड़ आदि फेंकना । इन अतिचारों से श्रावक को बचना चाहिए। ११. पौषधव्रत जिससे आत्मिक गुणों और धर्मभाव का पोषण होता है, उसे पौषधव्रत कहते हैं । यह व्रत चार प्रकार का है IE waJAANBARA AARAMJJAAJAVAJAVAJANAADARAAJAJaaDHAMAAJhar RAMEANALAine आचार्यप्रवर सजिनापार्यप्रवलि श्राआनन्दग्रन्थश्राआनन्दा Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्द अन्थ श्री आनन्द धर्म और दर्शन (क) आहार पौषध - चौविहार उपवास अथवा नवकारसी, पोरसी आदि करना । (ख) शरीर पौषध - शरीर को पूर्णतः या आंशिक अलंकृत करने का त्याग करना । (ग) ब्रह्मचर्य पौषध - अब्रह्मचर्य का सर्वतः या देशतः त्याग करना । (घ) अभ्यापार पौषध - वाणिज्य आदि सावद्य व्यापार का त्याग करना । JUD ४२० इस व्रत में सांसारिक उपाधियों से छुटकारा लेकर साधु जैसी चर्या को धारण करने का अभ्यास किया जाता है । इस व्रत का आचरण प्रायः अष्टमी, चतुर्दशी आदि विशिष्ट तिथियों पर किया जाता है । यह पूर्णव्रत आठ प्रहर का होता है । लेकिन आजकल चतुष्प्रहरी पौषध भी होने लगे हैं, जो न करने से कुछ करने की उक्ति के समान माने जा सकते हैं, लेकिन वास्तव में पौषधव्रत तो नहीं हैं । इस व्रत में निम्नलिखित पांच दोषों से बचने का ध्यान रखना चाहिए (१) पौषध के समय काम में लिए जाने वाले शैया - संथारे का प्रतिलेखन न करना अथवा अविधि से करना । (२) शैया - संथारे पर बैठते, सोते समय पूजणी आदि से पूँजना नहीं या अविधि से पूँजना । (३) मल-मूत्र आदि के विसर्जन के स्थान को विधिपूर्वक न देखना । (४) मल-मूत्र आदि के विसर्जन के स्थान को न पूँजना या अविधि से पूँजना । (५) आगमोक्त विधि से स्थिरचित्त होकर पौषधव्रत का पालन न करना । १२. अतिथिसंविभागव्रत जिनके आने की कोई तिथि, समय निश्चित न हों, उन्हें अतिथि कहते हैं । संग्रहपरायण मनोवृत्ति को निष्क्रिय बनाने और त्याग भावना को जागृत विकसित करने के लिए इस व्रत का विधान है | अतिथि शब्द से मुख्यतः साधु, श्रमण, निर्ग्रन्थ का अर्थ ध्वनित होता है। श्रावक उनके प्रति उदार होकर दान, सेवा-भक्ति आदि तो करता ही है, लेकिन उनके सिवाय दीन-दुःखी, जरूरतमंद के लिए भी उसके द्वार खुले रहते हैं । इसलिए अतिथिसंविभाग का अर्थ यह हुआ कि अपने लिए बनी वस्तु का संविभाग - स्वयं के लिए संकोच करके अतिथि को देना । इस व्रत के निम्नलिखित पांच दोषों पर श्रावक को ध्यान रखना चाहिए (१) सचित्तनिक्षेप - सुपात्र को नहीं देने की भावना से उनके लेने योग्य अचित्त वस्तु को सचित्त वस्तु पर रख देना । (२) सचित्तविधान -- नहीं देने की भावना से अचित्त वस्तु को सचित्त वस्तु से ढक देना । (३) कालातिक्रम - नहीं देने की भावना से काल का अतिक्रमण करना यानी भिक्षा के समय से पहले भोजन करना या बाद में रसोई आदि बनाना । (४) परव्यपदेश - नहीं देने की भावना से अपनी वस्तु को दूसरे की बता देना, कह देना । (५) मात्सर्य - दूसरे को दान देता देखकर ईर्ष्या करना, प्रतिस्पर्धावश अधिक दान देना । मांगने पर कुपित होना आदि । इन और इनके समकक्ष अन्य दोषों से बचकर श्रावक को अतिथिसंविभागव्रत का पालन करना चाहिए । बारह व्रतों का पालन करने से आध्यात्मिक उन्नति, सामाजिक शांति और स्व-पर को सुख की प्राप्ति होती है । प्रत्येक परिवार यदि इन व्रतों का पालन करने लगे तो संसार भी स्वर्ग बन जाये और विश्वबन्धुत्व स्थापित होने में विलम्ब न हो । व्रतधारी श्रावक को क्रमशः वैराग्य भाव में वृद्धि करते हुए मोह माया से दूर होने का प्रयत्न चालू रखना चाहिए और अपनी शक्ति को समझकर पूर्ण संयम- श्रमणाचार-ग्रहण कर लेना Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काया जैन आचारसंहिता ४२१ चाहिए। यदि संयम लेना शक्य न हो तो दर्शन, व्रत, सामायिक आदि ग्यारह पडिमाओं का पालन करना चाहिए। पडिमाओं का पालन करते-करते और रोग या वृद्धावस्था आदि कारणों से जब मृत्यु निकट प्रतीत होने लगे तो संथारा, संलेखना करके समाधिमरण करने का प्रयत्न करना चाहिए। संलेखना (मृत्युकला) मृत्यु की कल्पना संसार में सबसे भयावह मानी जाती है। लेकिन हमें समझना चाहिए कि मृत्यु भी जीवन का ही दूसरा पहलू है या अनिवार्य परिणाम है । अतः मृत्यु से डरने की जरूरत नहीं है, किन्तु उसको भी इस रूप में ग्रहण करना चाहिए कि वह शोक की जगह उत्सव का रूप बन जाए। मृत्यु को भी कला का रूप देते हुए भगवान महावीर ने जो निर्देश किया है, वैसा अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है। उन्होंने कहा कि मृत्यु से भयभीत होना अज्ञान का फल है । मृत्यु तो मनुष्य की मित्र है और जीवन भर की साधना को सफलता की ओर ले जाती है। यदि मृत्यु सहायक न बने तो धर्मानुष्ठान कर पारलौकिक फल स्वर्ग-मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकेगा। इसीलिए मृत्युकला का विशद विवेचन करते हुए उन्होंने मृत्यु के १७ प्रकार बतलाये हैं। उन सबको वाल (मुर्ख जीवों का) मरण और पंडित मरण इन दो भेदों में गभित किया जा सकता है। बाल मरण से वे जीव शरीर त्यागते हैं जो इस संसार की मोहमाया में लिप्त हैं। लेकिन पंडित मरण ज्ञानियों का होता है, जिन्होंने संसार के स्वरूप को समझ लिया है, हर्ष, विषाद, जीवन, मरण में माध्यस्थभाव से रमण करते हुए आत्म-विकास के लिए तत्पर हैं। मरण को कला बनाने के लिए जैनधर्म में जीवन के प्रारम्भ से ही अभ्यास करने का संकेत किया है कि मृत्यु कभी भी आ सकती है, दिन में भी और रात में सोते समय भी। अत: कम से कम व्यक्ति को रात में सोते समय समस्त संकल्प-विकल्पों को तजकर सागारी त्याग-प्रत्याख्यान पूर्वक सोना चाहिये । प्रतिरात्रि इस प्रकार का संथारा करने से समाधिमरण की कला का ज्ञान हो जाता है और अकस्मात सोते समय मरण हो जाने पर भी जगत की मोहमाया से अलिप्त रहकर परभव में एक नए उज्ज्वल जीवन का प्रारम्भ करता है और कभी ऐसा भी अवसर आ जाता है जब कि जीवन और मरण के चक्र को सदैव के लिए निर्मल कर मोक्ष प्राप्त हो सकता है। समाधिमरण का साधक सब प्रकार से मोह-ममता का त्याग करके आत्मध्यान में समय व्यतीत करता है । फिर भी उसे निम्नलिखित पांच दोषों से बचने के लिए सतर्क किया गया है १. इहलोकाशंसा, २. परलोकाशंसा, ३. जीविताशंसा, ४. मरणाशंसा, ५. कामभोगाशंसा। आशंसा का अर्थ है इच्छा, आकांक्षा, शंका रखना । मृत्युकला का यह संक्षिप्त दिग्दर्शन है। इस कला की उपासना श्रमण और श्रावक दोनों को करना चाहिए। जैन आचार-संहिता का यहाँ संक्षेप में विवेचन किया गया है। यथाशक्ति जो भी व्यक्ति अपनी पात्रता के अनुसार आचरण करेगा वह इस जन्म में सुखी बनेगा और परजन्म में अपने सुकृत का उपभोग करते हुए स्वरमणता रूप स्थिति को प्राप्त करेगा। म AvinayaN Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयाय प्रवल अभिनंदन प्रभानन्द अन्य आचार्य प्रवल अभिनंद श्री → डा० मुकुटबिहारीलाल अग्रवाल एम० एस-सी०, पी-एच० डी० [सहायक प्रोफेसर - बलवंत विद्यापीठ, रूरल इन्स्टीट्यूट बिचपुरी (आगरा ) गणित एवं विज्ञान सम्बन्धी अनेक पुस्तकों के लेखक ] जैन साहित्य में क्षेत्र - गणित ☆ यह सत्य है कि भारतवर्ष में क्षेत्र - गणित का प्रादुर्भाव शुल्व सूत्रों (ईसा से लगभग ३००० वर्ष पूर्व) से ही हुआ है। इन सूत्रों में यज्ञ वेदियों के बनाने की विधियों के साथ-साथ वर्ग, समचतुर्भुज, समबाहु समलम्ब चतुर्भुज, आयत, समकोण त्रिभुज, समद्विबाहु समकोण त्रिभुज आदि आकृतियों के उल्लेख भी दर्शनीय हैं। वैदिक परम्परा में भी क्षेत्र -गणित की झलक 'वेदांग ज्योतिष' आदि ज्योतिष के ग्रन्थों में देखने को मिलती है । परन्तु जैन-ग्रन्थों में क्षेत्र - गणित के सम्बन्ध में जैन दर्शन के वर्णन पर विशेष सामग्री प्राप्त होती है । इन ग्रन्थों में लोक का स्वरूप वर्णित पाया जाता है और उस निमित्त से सूर्य, चन्द्र व नक्षत्र तथा द्वीप, समुद्र आदि के विवरणों में क्षेत्र गणित की नाना आकृतियों का प्रचुरता से उपयोग किया गया है । 'सूर्यप्रज्ञप्ति' 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' एवं 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' नामक उपांगों में तथा 'तिलोयपण्णति', 'षट्खण्डागम की धवला टीका' एवं 'गोम्मटसार' व 'त्रिलोकसार' तथा उनकी टीकाओं में क्षेत्र-गणित का प्रचुर मात्रा में प्रयोग पाया जाता है और वह भारतीय प्राचीन गणित के विकास को समझने के लिये बड़ा महत्त्वपूर्ण है । 'षट्खण्डागम' में तो इस पर 'क्षेत्र - गणित' नाम से एक बड़ा भाग उपलब्ध है। इतना ही नहीं जैनाचार्यों के द्वारा प्रणीत गणित के स्वतंत्र ग्रन्थ अपना विशिष्ट महत्त्व बनाये हुये हैं । इन ग्रन्थों में क्षेत्र - गणित पर व्यापक चिन्तन एवं मनन दर्शनीय है । उद्धरणतः महावीराचार्य ( ८५० ई० ) का 'गणितसारसंग्रह' और उमास्वाति का 'क्षेत्रसमास' । यही कारण है कि क्षेत्र- गणित को अत्यधिकोपयोगी समझते हुये ही 'सूत्रकृतांग'' में इसको 'गणित - सरोज' की संज्ञा से अभिहित किया है । क्षेत्रों के प्रकार 'सूर्यप्रज्ञप्ति २ (३०० ई० पू० ) में आठ प्रकार के चतुर्भुजों का उल्लेख किया है । उनके नाम इस प्रकार हैं- समचतुरस्र, विषमचतुरस्र, समचतुष्कोण, विषमचतुष्कोण, समचक्रवाल, विषमचक्रवाल, चक्रार्धचक्रवाल और चक्राकार । समचतुरस्र चित्र १ विषम चतुरस्र चित्र २ समचतुष्कोण चित्र ३ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में क्षेत्र-गणित ४२३ विषम चतुष्कोण चित्र ४ समचक्रवाल चित्र ५ विषम चक्रवाल चित्र ६ चक्रार्धचक्रवाल चक्राकार चित्र ७ चित्र ८ प्रो० वेबर ने उपरोक्त नामों की व्याख्या करके उनके नाम क्रमशः इस प्रकार लिखे हैं3वर्ग, विषमकोण समचतुर्भुज, आयत, समान्तर चतुर्भुज, वृत्त, दीर्घवृत्त, अर्धदीर्घवत्त और गोले का खण्ड । 'भगवती सूत्र' और 'अनुयोगद्वारसूत्र'५ आदि में पांच प्रकार की आकृतियों का उल्लेख किया गया है त्रिस्र आयत चतुझे चित्र १० चित्र ६ चित्र ११ ....... ..LARAAJA-AmarwAditAuthAranAAAAAMARPAamdhanRNAMEANAPGDBOOR. आगारप्रवर अभिसापायप्रवर अमन श्रीआनन्द श्रीआनन्द अन्न Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2.M OVIE wwwwwwwwwwmarvavramanantimom - ४२४ धर्म और दर्शन CREEN MAR वृत्त चित्र १२ परिमण्डल चित्र १३ UPA त्रिभुज, चतुर्भुज, आयत, वृत्त और दीर्घवृत्त (Ellipse) । इन आकृतियों के लिये उन ग्रन्थों में क्रमशः ये नाम लिखते हैं :-त्रिस्र, चतुस्र, आयत, वृत्त तथा परिमण्डल । इन क्षेत्रों के प्रतर और धन-ये दो भेद बताकर 'अनुयोगद्वारसूत्र' में बड़ी सूक्ष्म चर्चा की है । घनत्रियस्र, धनचतुस्र, धनायत, घनवृत्त तथा घनपरिमण्डल का आशय क्रमशः त्रिभुजाकार सुचीस्तम्भ, घन, आयताकार ठोस, गोला और दीर्घवृत्ताकार बेलन से है। इनकी आकृतियां इस प्रकार हैं RE COM घनायत घनत्रियस्र चित्र १४ घनचतुस्र चित्र १५ चित्र १६ घनपरिमण्डल घनवृत्त चित्र १७ चित्र १८ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में क्षेत्र-गणित ४२५ ___इसके अतिरिक्त वृत्ताकार, त्रिभुजाकार और चतुर्भुजाकार वलय का भी उल्लेख जैन ग्रन्थों में उपलब्ध है। इन आकृतियों को जैन साहित्य में क्रमशः वलयवृत्त, वलयत्रिस्र और वलय चतुस्र के नाम से पुकारा जाता है । ये आकृतियां निम्न आकार की हैं : 0 AMA) OADA जय वलयवत्त चित्र १६ वलयत्रित्र चित्र २० वलयचतुर्स चित्र २१ 'गणितसारसंग्रह' नामक ग्रन्थ में त्रिभुज, चतुर्भुज तथा वक्ररेखीय आकृतियों का वर्णन मिलता है। इसमें त्रिभुज के तीन प्रकार की चर्चा की है जो भुजाओं के विचार से है। कोणों के विचार से त्रिभुजों का भेद नहीं किया है, यद्यपि समकोण त्रिभुज का गणित अवश्य मिलता है। इसके अनुसार त्रिभुज निम्नप्रकार के हैं-- . १. समत्रिभुज (समत्रिबाहु त्रिभुज) २. द्विसमत्रिभुज (समद्विबाहु त्रिभुज) ३. विषम त्रिभुज (विषमबाहु त्रिभुज) समत्रिभुज चित्र २२ द्विसमत्रिभुज चित्र २३ विषम त्रिभुज चित्र २४ Uट 'गणितसारसंग्रह' में चतुर्भुज के पांच प्रकार बतलाये हैं जो इस प्रकार हैं १. समचतुरस्र (वर्ग) २. द्विद्वि समचतुरस्र (आयत) ३. द्विसमचतुरस्र (समलम्ब चतुर्भुज जिसकी दो असमान्तर भुजायें समान लम्बाई की हों) । ४. त्रिसमचतुरस्र (समलम्ब चतुर्भुज जिसकी तीन भुजायें समान लम्बाई की हों) ५. विषमचतुरस्र (साधारण चतुर्भुज) r aumaaJARJATAJANAutnawwwesmadutODMRUARJASAAAAAAAAADINAMAPANIPALAAJAAAAI आचार्गप्रवरसाजनआचार्य आत्रमा Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....Anir- AnuraaNMAARJAAAAPaneRAMKARANaircularuantanARJAIAALARAMAdmdahanudra आचार्य प्रवा आणि आचार्यप्रवर भिक श्राआनन्दमयन्याआड अभिनन्दन ४२६ धर्म और दर्शन E ICzars -TED समचतुरस्त्र चित्र २५ द्विद्वि समचतुरस्र चित्र २६ द्विसमचतुरस्त्र चित्र २७ त्रिसमचतुरस्र विषम चतुरस्र चित्र २८ चित्र २६ महावीराचार्य ने वक्ररेखीय आकृतियां निम्नलिखित आठ प्रकार की वर्णित की हैंसमवृत्त, अर्द्धवृत्त, आयतवृत्त (दीर्घवृत्त), कम्बुकावृत्त (शंखाकार क्षेत्र), निम्नावृत्त (अवतलवृत्तीय क्षेत्र जैसे होमवेदी का अग्निकुंड), उत्तलवृत्तीय क्षेत्र जैसे कछुवे की पीठ), बहिश्चक्रवाल वृत्त और अन्तश्चक्रवाल वृत्त । समवृत्त चिच ३० अर्धवृत्त चित्र ३१ आयतवृत्त चित्र ३२ rce कम्बुकावृत (शख के आकार की आकृति) निम्नावृत्त चित्र ३४ उन्नतावृत्त चित्र ३५ चित्र ३३ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब वहिश्रकवालवृत्त चित्र ३६ इसके अतिरिक्त 'गणितसारसंग्रह' ग्रन्थ में 'हस्तदन्त क्षेत्र' का भी उल्लेख मिलता है । ६ (चित्र ३८ ) महावीराचार्य ने ऐसी कई अन्य आकृतियों का उल्लेख किया है जिनका विवेचन उनसे पहले किसी अन्य हिन्दू गणितज्ञ ने नहीं किया है । वे आकृतियां ये हैं ७ - यवाकारक्षेत्र ( जौ के आकार का क्षेत्र ), मुरजाकार क्षेत्र ( मृदंगाकार क्षेत्र), पणवाकार क्षेत्र, वज्राकार क्षेत्र, उभयनिषेध क्षेत्र, एक निषेध क्षेत्र तथा संस्पृशी तीन और चार वृत्तों द्वारा सीमित क्षेत्र । इन आकृतियों के आकार निम्न प्रकार हैं -- Ge प 2 हस्तदन्त क्षेत्र चित्र ३८ पणवाकारक्षेत्र चित्र ४१ एक निषेध आकृति चित्र ४४ जैन साहित्य में क्षेत्र - गणित वज्राकार क्षेत्र चित्र ४२ B यवाकारक्षेत्र चित्र ३६ O संस्पृशी तीन वृत्तवाला क्षेत्र चित्र ४५ अंतश्चक्रवाल वृत्त चित्र ३७ ४२७ मुरजाकारक्षेत्र चित्र ४० उभयनिषेध आकृति चित्र ४३ && संस्पृशी चार वृत्त वाला क्षेत्र चित्र ४६ ॐ 30 आचार्य प्रव997 अन् श्री आनन्द Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AANKala....... आचार्यप्रवaal श्रीआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्दकन्थ amwww.nawamerammm ४२८ धर्म और दर्शन बाह १ क्षेत्रों की नापने की इकाईयाँ 'अनुयोगद्वारसूत्र' में नापने की तीन इकाईयों का उल्लेख किया गया है-सूच्यांगृल, प्रतरांगुल और घनांगुल । ये तीनों क्रमशः लम्बाई, क्षेत्रफल और आयतन नापने की इकाईयाँ हैं । वृत्तगणित सम्बन्धी शब्द 'तत्वार्थाधिगमसूत्र भाष्य' में वृत्त गणित सम्बन्धी शब्दों का उल्लेख मिलता है । यथा-वृत्त परिक्षेप (परिधि), ज्या (जीवा), विषकम्भ (व्यास), इषु (वाण), धनुषकाष्ठ'० (चा तथा विषकम्मा १२ (अर्द्धव्यास) । वृत्तगणित के सूत्र 'तत्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य' में निम्नलिखित छः सूत्र उपलब्ध हैं। 1 वृत्त की परिधि =V10 व्यास 2. वृत्त का क्षेत्रफल = परिधि X व्यास 3. जीवा =V4 वाण (व्यास-वाण) 4. वाण = (व्यास-Vव्यास-जीवा') 5. धनुष =16 वाण+जीवा ___ (वाण+1 जीवा') 6. व्यास वाण 'तिलोयपण्णति' में धनुष, जीवा, वाण, पार्श्वभुजा आदि के प्रमाण निकालने के लिये निम्नलिखित सूत्र मिलते हैं परिधि१४ =V10xव्यास' धनुष'५ = 2 (व्यास+वाण):- (व्यास) र व्यास व्यास जीवा 71 वाण' = -144] 2 धनुष, वाण और जीवा में निम्नलिखित सम्बन्ध हैं-१७ (धनुष) =6 (वाण) + (जीवा)' నల पाश्वं रेखा जीवा. बाण । धनुष चित्र ४७ चित्र ४८ जीवा व्यास जीवा = (व्यास)-(व्यास-वाण) 'व्यास -वाण 2 Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में क्षेत्र-गणित शंकुछिन्नक की पार्श्व भुजा' == V (P-4)+he +वाण 2 जबकि D= भूमि का व्यास, d=मुख का व्यास और h=ऊँचाई है। 'जम्बूद्वीपण्णत्ति' में वृत्त सम्बन्धी निम्नलिखित सूत्र मिलते हैं1. वृत्त की परिधि२० =v10 विष्कम्भ 2. वृत्त का विष्कम्भ२१ जीवा 2 .4 वाण 3. धनुष की पार्श्व भूजा२२ बड़ा चाप-छोटा चाप 4. जीवा२३ =V4 (विष्कम्भ-वाण)x वाण 5. धनुष२४ =v6 (वाण) + (जीवा) 6. वाण२५ =/ (धनुष) - (जीवा) 6 वाण के लिये एक सूत्र और दिया जो विष्कम्भ और जीवा ज्ञात होने पर प्रयोग किया जाता है। २६ 7. वाण विष्कम्भ-V (विष्कम्भ) - (जीवा) 8. शंकुछिन्नक की पार्श्व भुजा की लम्बाई ___-V (D-4)+ जबकि D=भूमि का व्यास,d=मुख का व्यास और h=ऊँचाई है। 'गणितसारसंग्रह' में वृत्त सम्बन्धी गणित के अन्तर्गत धनुष, वाण तथा डोरी के सन्निकट एवं सूक्ष्म मान निकालने के सूत्र दिये हैं।२८ यहां पर 'डोरी' शब्द जीवा के लिये प्रयोग किया है। 1. धनुष की सन्निकट लम्बाई=15 (वाण) + (डोरी) 2. धनुष की सूक्ष्म लम्बाई =V6 (वाण) (डोरी)' %ER 3. वाण की सन्निकट लम्बाई=/ (धनुष) - (डोरी) 4. वाण की सूक्ष्म लम्बाई =/ (धनुष) - (डोरी) 5. डोरी की सन्निकट लम्बाई=(धनुष)2-5(वाण) 6. डोरी की सूक्ष्म लम्बाई =V (धनुष):--6(वाण) 10वीं शताब्दी के आचार्य नेमिचन्द्र ने 'त्रिलोकसार' में समपार्श्व, शंकू, सूचीस्तम्भ तथा गोले का वर्णन किया है ।२६ आचाप्रति आचार्यप्रवर आज HanumanJALAAMANASAKARuwannaCSADABALAJal भीआनन्द श्राआनन्द wayra Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AnaNARAAMRIMARARIAAJAMIRJARIKANNAAINAMANRAAAAAAAMARPANMARADAJIJADARIAL,AAJAJARJANABAJADAMADANATANDARO TORY साचार्य श्रीआनन्द आचार्यप्रवभिनय श्रीआनन्दग्रन्थ NAVVVvfverMVNON ४३० धर्म और दर्शन 'त्रिलोकसार' में वृत्त सम्बन्धी गणित-सूत्र इस प्रकार मिलते हैं 30 - परिधि का सन्निकट मान =3xव्यास परिधि का सूक्ष्म मान ==V10 व्यास वृत्त की त्रिज्या --9/16 (वर्ग की भुजा), जबकि वृत्त, वर्ग के समक्षेत्रीय है। (जीवा) == 4 वाण (व्यास-वाण) = (धनुष):-6 (वाण): (धनुष) = 6(वाण)+ (जीवा) =4 वाण ((व्यास + वाण) ____ (जीवा) + 4(वाण) 4 वाण (जीवा):+(2 वाण) 4 वाण व्यास =IT(धनुष वाण -A/ (धनुष) - (जीवा) =1/2[व्यास-V (व्यास) - (जीवा) =V (व्यास) +1/2 (धनुष):---व्यास T का मान-भिन्न-भिन्न समयों में लोगों ने 7 के विभिन्न मान माने हैं। जैन ग्रन्थों में भीग के विभिन्न मान दृष्टिगोचर होते हैं। 'सूर्य प्रज्ञप्ति'31 मेंग का मान V10 प्रयोग किया गया है। ज्योतिष्करण्डक'३२ और 'भगवती सूत्र' 33 में भी ग का मान V10 काम में लाया गया है। 'जीवाभिगमसूत्र' में ग का मान V10 और 3.16 हैं । सूत्र 82 व 109 में तो =V10 माना है परन्तु सूत्र 112 में ग का मान 3.16 है। 'तत्वार्थाधिगमसुत्र' 3 ४ में का मान /10 माना गया है। 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' ३५ तथा 'उत्तराध्ययन सूत्र' ३६ में 7 का मान 3 से कुछ अधिक (त्रिगुणं सविशेषम्) माना है। 'तिलोयपण्णत्ति'३७में भीग का मान V10 लिया गया है। धवलाकार वीरसेनाचार्य ने ग का मान 355/113 माना है जो सर्वदा विलक्षण एवं शुद्ध है। दिगम्बर ग्रन्थ 'लोकप्रकाश' 3 ८ (लगभग 1651 ई०) में ग का मान - मिलता है । महावीराचार्य ने 'गणितसारसंग्रह'3 में 7 का मान केवल 3 मानकर स्थूल क्रिया की है - परन्तु सूक्ष्म कार्य के लिये V10 माना है। 'त्रिलोकसार' में भी आचार्य नेमिचन्द्र ने स्थूल कार्य के लिये 7 का मान 3 तथा सुक्ष्म कार्य के लिये 110 माना है। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में क्षेत्र-गणित ४३१ 'त्रिलोकसार' में 7 का मान (16/9) भी मिलता है।४१ उसमें लिखा है-“यदि किसी वृत्त की त्रिज्या हो और वह वृत्त a भुजा वाले वर्ग के बराबर हो तोra होता है।" अतः =(16/9) क्षेत्रफल सम्बन्ध सूत्र 'तत्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य' में वृत्त के क्षेत्रफल के लिये निम्न मूत्र मिलता है-४२ वृत्त का क्षेत्रफल=1/4 परिधि व्यास 'तिलोयपण्णत्ति' में क्षेत्रफल सम्बन्धी निम्न सूत्र मिलते हैं-- समलम्ब चतुर्भज का क्षेत्रफल ४३ == मुख भूमि - समान्तर रेखाओं के बीच की दूरी | वृत्त का क्षेत्रफल ४४ =परिधि x व्यास 2 वलय के आकार की आकृति का क्षेत्रफल ४५ =/10 (बाहरी व्यास)2 (भीतरी ब्यास) di - चित्र ४६ धनुषाकार क्षेत्र का क्षेत्रफल ४६ ==v x वाण - जीवा यांखाकार आकृति का क्षेत्रफल = [(विस्तार)-(मुख) + (मुख)]x2 शंखाकार आकृति का क्षेत्रफल ४७ =| चित्र ५० MAdarnama acrimarn.samanararaman PAAAAAAMIRamaanmashansuremaramalaine आचार्गप्रवर श्रीआनन्द 4 आचार्यप्रवर अभी श्रीआनन्दप्रसन्न rainivasaemaramecommerooarniwwwite mmawariya Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - worthyam LY आचार्यप्रसाधनाचार्यप्रसाद श्रीआनन्दाअन्ध92श्रीआनन्दमन्थ । ४३२ धर्म और दर्शन 'जम्बूद्वीवपण्णति' में वलयाकार आकृति क्षेत्रफल के लिये विभिन्न सूत्र दिये हैं जो इस प्रकार हैं-४८ वलयाकार क्षेत्र का क्षेत्रफल = [2d.- (d.-d.)]]( )x10] जबकि dh=बाहरी व्यास तथा d, भीतरी व्यास है। 'गणितसार संग्रह' में क्षेत्रफल के सम्बन्ध में आचार्य ने दो प्रकार के क्षेत्रफल का वर्णन किया है-सन्निकट और सूक्ष्म । यथा-सम्भव प्रत्येक आकृति के दोनों ही प्रकार के क्षेत्रफल-निकालने के सूत्र दिये हैं जो निम्नलिखित हैं त्रिभुज का सन्निकट क्षेत्रफल = 1/2 X आधार X बाजू की दोनों भुजाओं का योगफल त्रिभूज का सूक्ष्म क्षेत्रफल ० =Vम(म ---अ) (म-ब) म-स) जबकि म त्रिभुज की अर्धपरिमिति तथा अ, ब, स त्रिभुज की तीनों भुजायें हैं । दूसरा नियमत्रिभुज का सूक्ष्म क्षेत्रफल ५१ = आधार X लम्ब 2 चतुर्भुज का सन्निकट क्षेत्रफल५२_अ-+सब+द 2 २ चतुर्भुज का सूक्ष्म क्षेत्रफल ५३ = V(म-अ) (म - ब) (म-स) (म --द) जबकि अ, ब, स और द चतुर्भुज की चारों भुजाएँ और म अर्द्ध परिमिति है । दूसरे नियम के अनुसार चतुर्भुज का सूक्ष्म क्षेत्रफल५४ ___ ब+द या 2 Xल IRAM जबकि ब आधार, द उसके सामने की भुजा और ल, द से ब पर डाला गया लम्ब है। नेमिक्षेत्र (कंकणसदृश) आकृति५५ का सन्निकट क्षेत्रफल ५६ = (प, +.) X ल नेमिक्षेत्र आकृति का सूक्ष्म क्षेत्रफल५७=१५ प२४ ल XV 10 6 IP ज जबकि प, बाहरी परिधि पर-भीतरी परिधि ल =कंकण की चौड़ाई है। हाथी के दांत का सूक्ष्म क्षेत्रफल५८ _प, +१२ x बX/10 12 (इसके लिये चित्र ३८ देखें) चित्र ५१ वृत्त का सन्निकट क्षेत्रफल-इसमें 7 का सन्निकट मान 3 लिया गया है। अतः यदि व्यास a हो तो Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्ति को सन्निकट परिधि = 3a और वृत्त का सन्निकट क्षेत्रफल = 31 · 3 (~2~/-) 2 = जब कि a / 2 = r = वृत्त की त्रिज्या 3a अर्द्धवृत्त की सन्निकट परिधिः 2 और अर्द्ध वृत्त का क्षेत्रफल वृत्त का सूक्ष्म क्षेत्रफल परिधि का सूक्ष्म मान वृत्त का क्षेत्रफल = ० 3r2 2 10X व्यास परिधि X व्यास 4 1 और अर्द्ध वृत्त का क्षेत्रफल = 2 इसमें का मान 10 लिया गया है । क्षेत्रफल =3r2 'परिधि X व्यास' 4 आयतवृत्त (Ellipse ) का क्षेत्रफल - यदि आयतवृत की बड़ी और छोटी अक्ष (Semi axes ) क्रमशः a और b हों तो आयतवृत्त का सन्निकट क्षेत्रफल 1 = 2 x (2a + b) xb / 2 ==2ab+b जैन साहित्य में क्षेत्र - गणित आयतवृत्त की सूक्ष्म परिधि ६२ 6b2+4a2 और आयतवृत्त का सूक्ष्म क्षेत्रफल = 1⁄2 bX√6b2+4ao 3 शंखाकार आकृति का क्षेत्रफल – आचार्य महावीर द्वारा उल्लेखित शंखाकार आकृति, तिलोयपणति में वर्णित शंखाकार आकृति से भिन्न है । यदि शंखाकार आकृति का व्यास और मुख की माप m हो तो परिमिति की सन्निकट माप ६४ और सन्निकट क्षेत्रफल ६५ =3 शंखाकार आकृति की सूक्ष्म परिमिति = m (22) a - 3 =[©(^- 2)]×++2(2) X 2 m =(a−1) × - m 1 तथा सूक्ष्म क्षेत्रफल ६७ =[{(−2)×2}'+(*)']\√√ निम्नावृत्त और उन्नतावृत्त के तलों का क्षेत्र यदि p छेदीयवृत्त ( किनार) की परिधि और b व्यास हो तो ४३३ xb XV/10 ریان apn 30 आचार्य प्रव आचार्य प्रव श्री आनन्द अन्थ श्री आनन्द थ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सायाम श्राआनन्दमयन्थश्राआनन्दाअन्ध५१ ४३४ धर्म और दर्शन बहिश्चक्रवालवृत्त तथा अन्तचक्रवालवृत्त का क्षेत्रफल-यदि भीतरी व्यास b और कंकण की लम्बाई हो तो बाहरी कंकण का सन्निकट क्षेत्रफल ६-3(b+ror =3br+3rd भीतरी कंकण का सन्निकट क्षेत्रफल. =3(b-rr =3brअन्तश्चक्रवाल वृत्त तथा वहिश्चक्रवाल वृत्त पूर्व वणित नेमिक्षेत्र से मिलते हैं । अतः वह नियम जो नेमिक्षेत्र के क्षेत्रफल को ज्ञात करने के लिये हैं, उपरोक्त नियमों से बिलकुल मिलते हैं क्योंकि-नेमिक्षेत्र के क्षेत्रफल के नियम से-- चित्र ५२ चित्र ५३ 3b+3(b+2r). बहिश्चक्रवाल वृत्त का क्षेत्रफल 2 ___3br+3br+6r 2 6br+6r 2 = 3br+3r यहाँ पर 7 का मान 3 लिया गया है। बाहरी कंकण का सूक्ष्म क्षेत्रफल = (b+r)xrxv10 और भीतरी कंकड़ का सूक्ष्म क्षेत्रफल २= (b-r)xrxv10 वृत्त की परिधि, व्यास और क्षेत्रफल निकालने के लिये नियम, जब क्षेत्रफल, परिधि और व्यास का योग दिया हो--७३ यदि p वत्त की परिघि और 1 =3 लिया गया हो तो व्यास- और क्षेत्रफल --- 3 P यदि परिधि, व्यास और क्षेत्रफल का योग=m हो तो DER य ___P+3+3g=m ... P = 112m+64-8 यव, मुरज, पणव और वज्र के आकार का सन्निकट क्षेत्रफल "अन्त और मध्य माप के योग की अद्धराशि को लम्बाई द्वारा गुणित करने पर क्षेत्रफल प्राप्त होता है।"७४ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में क्षेत्र-गणित उपरोक्त नियम इस मान्यता पर आधारित हैं कि प्रत्येक सीमावर्ती वक्र रेखा उन सरल रेखाओं के योग के बराबर है जो वकों के सिरों (छोरों अथवा अन्तों) को मध्य बिन्द्र के मिलाने से प्राप्त होती है। मृदंगाकार, पणवाकार और बज्राकार आकृतियों के सूक्ष्म क्षेत्रफल "महत्तम लम्बाई को मुख की चौड़ाई द्वारा गुणित करने पर जो प्राप्त हो ऐसे परिणामी क्षेत्रफल में सम्बन्धित धनुषाकृतियों के क्षेत्रफलों के मान को जोड़ने पर योग मृदंग के आकार की आकृति के क्षेत्रफल का माप होता है।" ७५ “पणव और वज्र की आकृति के क्षेत्रफल प्राप्त करने के लिये महत्तम लम्बाई और मुख की चौड़ाई के गुणनफल से प्राप्त क्षेत्रफल में धनुषाकृति के क्षेत्रफल को घटा देते हैं।" उभयनिषेध एवं एकनिषेध क्षेत्र का क्षेत्रफल किसी चतुर्भुज को उसके दोनों विकर्णों द्वारा चार त्रिभूजों में बाँट देने पर और फिर दो सम्मुख भुजाओं को हटाने पर प्राप्त आकृति उभयनिषेध क्षेत्र कहलाती है। यदि केवल एक त्रिभुज हटाया जाय तो प्राप्त आकृति एक निषेधक्षेत्र कहलाती है। यदि उभयनिषेध की लम्बाई । और चौड़ाई b है तो क्षेत्रफल=lb-11b एक निषेध आकृति का क्षेत्रफल=b-11b. बहुविधवज्र आकार का सन्निकट क्षेत्रफल७७ यदि भुजाओं की मापों के योग की आधीराशि ऽ हो और भुजाओं की संख्या n हो तो क्षेत्रफल = x", होता है। यह सूत्र त्रिभुज, चतुर्भुज, षट्भुज और वृत्त को अनन्त भुजाओं की आकृति मानकर उनके सम्बन्ध में व्यावहारिक क्षेत्रफल का मान देता है। नियमित षट्भुज के कर्ण, लम्ब और क्षेत्रफल के सूक्ष्म मान ८ कर्ण --- 2a लम्ब= V3a और क्षेत्रफल= 13 a जहाँ a षट्भुज की एक भुजा है। संस्पर्शीवृत्तों द्वारा समिति क्षेत्र का क्षेत्रफल __ यदि अर्द्ध परिमिति S और भुजाओं की संख्या n हो, तो वृत्तों द्वारा सीमित क्षेत्र का क्षेत्रफल= Exn-1 ) होता है। इसका स्पष्टीकरण निम्न उदाहरणों द्वारा है। _ n st . उदाहरणार्थ प्रश्न 1-चार समानवृत्त जिनमें से प्रत्येक का व्यास 9 है एक दूसरे को स्पर्श करते हैं। बतलाओ उनसे धिरे हुए क्षेत्र का क्षेत्रफल क्या है। हल-इस प्रश्न में (चित्र ४६ के अनुसार) चारों वृत्तों का व्यास स्पर्श बिन्दुओं में से गुजारने पर चतुर्भुज बन जाता है । इस चतुर्भुज की परिमिति 4x9=36 हुई और भुजाओं की संख्या 4 है। anamaANMARKAJALALAAINAJARAJAJANMARATHI MANANGIJNAAMANAJPARIAAINAMASALA आचार्गप्रशासनाचार्यप्रवर भिक श्रीआनन्दा श्राआनन्दा अन्य mew Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभभवक अमरदेव आआनन्दी श्र धर्म और दर्शन ४३६ अतः अभीष्ट सीमित क्षेत्र का क्षेत्रफल -G×4=] ^ 2 4 1 X 4 4 1 36 36 3 X 3 2 2 81 4 =20 1 4 प्रश्न 2 - तीन वृत्त, जिनके व्यास की माप 6, 5 और 4 है एक-दूसरे को स्पर्श करते हैं । बतलाओ इन वृत्तों द्वारा घिरे हुये क्षेत्र का क्षेत्रफल क्या है । ८१ हल --- इस प्रश्न में (चित्र ४५ के अनुसार ) तीनों वृत्तों के व्यास स्पर्श बिन्दुओं में से गुजारने पर AABC बनता है। इस परिमिति = 6+5+ 4 = 15 हुई और भुजाओं की संख्या 3 है । की अतः वृत्तों द्वारा घिरे हुये क्षेत्र का क्षेत्रफल 1= ¥[G×3] 15 15 1 अभिनन्दन 25 8 3 1 8 I धनुषाकार आकृति का सन्निकट क्षेत्रफल धनुषाकार क्ष ेत्र, वृत्त का अवधा जैसा होता है। यहाँ धनुष, वृत्त का चाप, धनुष की डोरी और वाण, चाप और डोरी के बीच की महत्तम लम्ब दूरी होती है। यदि वाण = 1 और डोरी K हो तो, धनुषाकार आकृति का क्षेत्रफल २ = ( K + 1) ×1/2 और धनुषाकार आकृति का सूक्ष्म क्षेत्रफल 53=Kx KX 1/1/ XVIO यवाकार आकृति का सूक्ष्म क्षेत्रफल ४ यवाकार आकृति का सूक्ष्म क्षेत्रफल = KX XV 10 3 जबकि 1 दोनों ओर के पूर्ण वाण की लम्बाई है । चतुर्भुज के परिगत और अन्तर्गत वृत्त के सन्निकट क्षेत्रफल १५ परिगत वृत्त का क्षेत्रफल =: - 3 / 2 X चतुर्भुज का क्षेत्रफल तथा अर्न्तगत वृत्त का क्ष ेत्रफल = - 3 / 4 X चतुर्भुज का क्षेत्रफल 'गोम्मटसार' तथा 'त्रिलोकसार' में क्षेत्रफल से सम्बन्धित निम्नलिखित सूत्र उपलब्ध होते हैं । Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में क्षेत्र-गणित ४३७ समद्विबाह समलम्ब चतुर्भुज का क्षेत्रफल८६ =1/2(मुख+भूमि) ऊँचाई वृत्त का क्षेत्रफल =1/4Xपरिधि- व्यास वृत्त-खण्ड का सन्निकट क्षेत्रफल -10 जीवा X वाण 4 वृत्त-खण्ड का सूक्ष्म क्षेत्रफल -1/2 (जीवा+वाण)xवाण त्रिभुज के अवधाओं तथा लम्ब निकालने का नियम inita CENTE Ch स,- (स+अब) स,= ( स-अ-ब) तथा ल=/अ-स. अथवा आधार के Vब-स चित्र ५४ यहाँ अ, ब, और स त्रिभुज की भुजाओं का निरूपण करते हैं। स, और स ऐसे दो खण्ड हैं जिनका योग स है तथा ल शीर्ष से आधार पर गिराया गया लम्ब है। चतुर्भुज के विकों का मान निकालने के लिये नियम यदि अ, ब, स और द चतुर्भुज की भुजाओं की माप हों तो चतुर्भुज का विकर्ण (अ. स ब . द) (अ. ब.+स.द) अ. द+स. द अथवा (अ. स+ब. द) (अ. द.+ब.स) अ. ब+स. द आयतन सम्बन्धी सूत्र "तिलोयपण्णत्ति' में आयतन सम्बन्धी निम्नलिखित सूत्र मिलते हैं : लम्ब पम्पार्व का आयतन २=आधार का क्षेत्रफल x सम्पावं की ऊँचाई घनाकार सान्द्र का आयतन 3=" जबकि / घनाकार सान्द्र की एक कोर की लम्बाई है। आयतज का आयतन ४ =लम्बाई-चौड़ाईxऊँचाई बेलन का आयतन: ५=/10 (त्रिज्या)Px ऊँचाई समान्त रानीक (Parallelepiped) का आयतन ६ =लम्बाई चौड़ाई x उत्सेध शंखाकार सान्द्र का आयतन ७ =आधार का। क्षेत्रफल x उत्सेध -----ऊंचाई मोटाई + -भूमि चित्र ५५ ani.su.. .RRAIMARJunainamaADAPAddIABAJANARAANAANAANAanadar.ABAJANRAIAPAIGONDORE SNNIL ६ आचार्यप्रकट भआचार्यप्रवरअ श्राआनन्दाग्रन्थ श्राआनन्द wearinaruwaonawarenemaoniw araneway Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38294 आगामी आवदेन आआनन्दा भन्द ४३८ धर्म और दर्शन 43 'जम्बूद्वीपण्णति' में वेत्रासन सदृश क्षेत्र के आयतन का सूत्र मिलता है जो इस प्रकार हैवेत्रासन सदृश क्षेत्रका आयतन मुख + भूमि X उँचाई Xx मोटाई 2 आचार्य महावीर ने आयतन सम्बन्धी विवेचन 'खात व्यवहार' के अन्तर्गत किया है इसमें इन्होंने तीन प्रकार ने आयतन का उल्लेख किया है- कर्मान्तिक घनफल, औन्ड्र घनफल, तथा सूक्ष्म घनफल । बेलन का आयतन, खोदी हुई खाई का घनफल, गोले का घनफल, त्रिभुजाकार आधार वाले स्तूप का घनफल विभिन्न प्रकार के ईट सम्बन्धी प्रश्न एवं लकड़ी सम्बन्धी गणित आदि का भली प्रकार विवेचन किया है । गढ़े का सन्निकट आयतन गढ़े का सन्निकट आयतन = - गढ़े के आधार का सन्निकट क्षेत्रफल x गहराई । खातों का सूक्ष्म आयतन निकालने के सम्बन्ध में महावीराचार्य ने तीन प्रकार की मापों का वर्णन किया है— कर्मान्तिक, औन्ड्र और सूक्ष्म घनफल । कर्मान्तिक और औन्ड्र माप समाइयों के सूक्ष्म मानों को देते हैं । इन दोनों सूक्ष्म मानों की सहायता से सूक्ष्म धनफल की गणना की जाती है । 2 I सूक्ष्म घनफल== a-K 3 +K K+ 3 जहाँ a औन्ड्र घनफल और K कर्मान्तिक घनफल है । यदि काटे गये वर्ग आधार वाले स्तूप के ऊपरी तथा निम्न तल की भुजाओं की माप क्रमशः a और b और ऊँचाई / हो तो - कर्मान्तिक घनफल = = (a + b)2 \ 2 और औन्ड्र घनफल गोले का आयतन a2+b2, h 2 == 9 गोले का सन्निकट आयतन १०० - 2 (2) 9 9 और गोले का सूक्ष्म आयतन १०१. -2 (1-2-3)2 + 1/10 X स्तूप का सन्निकट आयतन = यदि स्तूप के आधार की एक भुजा की माप व हो तो, a ·√/10 (2) 0 9 V5 X. 18 Xh तथा स्तूप का सूक्ष्म आयतन = गोम्मटसार में आयतन सम्बन्धी सूत्र 3 V10 यह नियम इस प्रकार बनता है 3 सम्पा का आयतन १०२ = आधार X ऊँचाई a जब d गोले का व्यास है = 5 18 as V 2 12 शंकु अथवा सूची स्तम्भ का आयतन १०३ = x आधार का क्षेत्रफल X ऊँचाई गोले का आयतन १०४ – १ X ( 7 ) (परिधि ) x ऊँचाई शंक्वाकार ढेर (सरसों आदि) का आयतन १०५ a == Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में क्षेत्रगणित ४३६ आधार का क्षेत्रफल = (परिधि) (7 का मान 3 रखने पर) अतः आयतनःX आधार का क्षेत्रफल X ऊँचाई =1XI(परिधि)'xऊँचाई (परिधि (6) Xऊँचाई निष्कर्ष-'क्षेत्रगणित' का भारतीय गणित में ही नहीं अपितु विश्व गणित में अपना विशिष्ट महत्व है। क्षेत्र गणित के अन्तर्गत त्रिभुज, वर्ग, चतुर्भुज, दीर्घवृत्त, परवलय आदि गणित अध्ययन के ऐसे तत्व हैं जिनके द्वारा गणित का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट होना सम्भव है। क्षेत्र गणित के इन तत्वों के उद्गम और विकास में जैनाचार्यों का वह महत्तम योगदान है जिसको कभी विस्मरण नहीं किया जा सकता । कतिपय क्षेत्रगणित के तत्वों के उद्गम एवं विकास पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि वृत्त क्षेत्र के सम्बन्ध में प्राचीन गणित पर जितना भी कार्य हआ है वह जैनाचार्यों की ही देन है। आजकल की खोज में वृत्त की जिन गूढ़ गुत्थियों को कठिनाई से गणितज्ञ समझा पा रहे हैं, उन्हीं को जैनाचार्यों ने अपनी महती प्रज्ञामयी कुशलता से सरलता पूर्वक समझाया है। दीर्घवृत्त का अध्ययन करने वाले महावीराचार्य जी, जो हिन्दू गणित में तो अपना कोई सानी नहीं रखते, साथ ही साथ विश्व गणित में भी अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। महावीराचार्य ने वृत्तीय चतुर्भुजों के उन समस्त सूत्रों का उल्लेख किया है जो ब्रह्मगुप्त ने दिये हैं परन्तु आपकी शैली अत्यधिक सुस्पष्ट है। यवाकार, मुरजाकार, पणवाकार, वज्राकार आदि विभिन्न क्षेत्रों का वर्णन और उनके क्षेत्रफलों का प्रतिपादन जैनाचार्यों के विशेष योगदान से ही सम्भव हो सका है। क्षेत्रगणित के अन्तर्गत ग की महिमा अपना चौमुखी महत्व रखती है। 7 का मान 355/113, जो नवीं शताब्दी के गणितज्ञ धवलाकार वीरसैनाचार्य की विशेष देन है, वह आज भी आधुनिकतम खोज द्वारा प्राप्त ग के मान से पूर्णतः मेल खाती है। अन्ततः कहा जा सकता है कि क्षेत्रगणित के व्यापकत्व में जैनाचार्यों का चिरस्मरणीय योगदान है। इन्हीं जैनाचार्यों ने क्षेत्र गणित जैसे नीरस विषय को सरलता, सुबोधता तथा स्वाभाविकता की त्रिगुणात्मकता की चिरगरिमा से मण्डित किया है। संदर्भ १. सूत्रकृतांग भाग २, अध्याय १, सूत्र १५४ १३. वही, भाग ३, अध्याय २, पृ० २५८ २. सूर्यप्रज्ञप्ति, सूत्र ११, २५, १०० १४. तिलोयपण्णत्ति ४, ५५-५६ ३. Indische studien, Vol X, p. 274 १५. वही, ४, ६ ४. भगवतीसूत्र (१५, ३ सूत्र ७२४-७२६) १६. वही, ४, १८२ ५. 'अनुयोगद्वार सूत्र' सूत्र, १२३-१४४ १७. तिलोयपण्णति का गणित, पृ० ५४ ६. गणितसारसंग्रह, अध्याय ७, गाथा ११ १८. तिलोयपण्णत्ति ४, १८० ७. वही, अध्याय ७, गाथा ३२, ३७, एवं ४२ १६. वही, ४, १७६३ ८. 'अनुयोगद्वारसूत्र', सूत्र १००, १३२, १३३ २०. जम्बूद्वीवपण्णत्ति, १, २३; ४,३३-३४ ९. 'तत्वार्थाधिगमसूत्र भाष्य' भाग ३, २१. वही, २, २६, ६ अध्याय २, पृ० २५८ २२. वही, २, ३० १०. वही, भाग ३, अध्याय २, पृ० २५८ २३. वही, २, २३, ६, ६ ११. वही, भाग ३, अध्याय २, पृ० २५८ २४. वही, २, २४-२८, ६, १० १२. वही, भाग ४, अध्याय १४, पृ० २८८ २५. वही, २, २६ भाया प्रकार आभापार्यप्रवर अभी श्रीआनन्द श्रीआनन्दप्रसन्न wwwive Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ maaranaraaNamancoursraveenacancernsamaan आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवर अभि श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्द YYAmoviram ४४० धर्म और दर्शन SHREERA २६ वही, २, २५, ६, ११ ५७-५८. वही, अध्याय ७, गाथा ८० १/२ २७. वही, ४,३६ ५६. वही, अध्याय ७, गाथा १६ २८. गणितसार संग्रह अध्याय ७, गाथा ४३, ६०. वही, अध्याय ७, गाथा ६० . ४५, ७३३ और ७४१/२ ६१. वही, अध्याय ७, गाथा २१ २६. त्रिलोकसार, गाथा १७, १९, २२, और २३ ६२-६३. वही अध्याय ७, गाथा ६३ ३०. वही, गाथा, ३११, १८, ७६०, ७६१, ६४. वही अध्याय ७, गाथा ३० ७६३-७६६ ६५. वही अध्याय ७, गाथा २३ ३१. सूर्यप्रज्ञाति सूत्र २० ६६-६७. वही, अध्याय ७, गाथा ६५ १/२ ३२. ज्योतिष करण्डक, गाथा १०५ ६८. वही, अध्याय ७, गाथा २५ ३३. भगवती सूत्र-सूत्र ६१ ६९-७०. वही, अध्याय ७, गाथा २० ३४. तत्वार्थाधिगम सूत्र ३-११ ७१-७२. वही, अध्याय ७ गाथा ६७ १/२ ३५. जम्बूद्वीपप्रज्ञाति, सूत्र १६ ७३. वही, अध्याय ७, गाथा ३० ३६. उत्तराध्ययन सूत्र-सूत्र (३५-५६) ७४. वही, अध्याय ७ गाथा ३२ ३७. तिलोयपण्णति ४, ५५-५६ ७५-७६. वही, अध्याय ७, गाथा ७६ १/२ ३८. लोक प्रकाश (आई० वी० ७२) ७७. वही, अध्याय ७, गाथा ३६ ३६. गणितसारसंग्रह अध्याय ७ गाथा १६-६० ७८. वही, अध्याय ७ गाथा ८६ १/२ ४०. त्रिलोकसार, गाथा, २११ ७६. वही, अध्याय ८, गाथा ३६ ४१. वही, गाथा १८ ८०-८१. वही अध्याय ७, गाथा ४२ ४२. तत्वार्थाधिगमसूत्र भाष्य, भाग ३, अध्याय २, ८२. वही, अध्याय ७, गाथा ४३ पृ० २५८ ८३-८४. वही, अध्याय ७, गाथा ७० १/२ ४३. तिलोयपण्णत्ति १, १६५ ८५. वही, अध्याय ७, गाथा ४७ ४४. वही,४, ६ और ४, २७६१ ८६ त्रिलोकसार ११४ ४५. वही, ४, २७६३ ८७. वही, गाथा ३११ ४६. वही, ४,२३७४ ८८-८६. वही, गाथा ७६२ ४७. वही ५, ३१६-२० १०. गणितसारसंग्रह, अध्याय ७, गाथा ४६ ४८. जम्बूद्वीवपण्णति ,११ ६१ ११. वही, अध्याय ७, गाथा ५४ ४६. गणितसारसंग्रह अध्याय ७ गाथा ५० १२. तिलोयपण्णत्ति, १, १६५ ५०. वही अध्याय ७ गाथा ५० ६३-६४. वही, १, २०३-१४ ५१. वही, अध्याय ७ गाथा ५० ६५. वही, १११६ ५२. वही, अध्याय ७ गाथा ७ ६६. वही, १, २६८ ५३. वही, अध्याय ७ गाथा ५० ६७. वही, ५, ३१६-२० ५४. गणितसार संग्रह, अध्याय ७, गाथा ५० ६८. जम्बूद्वीवपण्णात्ति, ११, १०८ परन्तु यह नियम विषभचतुर्भुज के लिये ६६. गणितसारसंग्रह, अध्याय ८ गाथा ४ लागू नहीं है। १००-१०१. वही, अध्याय ८, गाथा २८ १/२ ५५ ऐसे दो वृत्तों की जिनके केन्द्र एक ही हों, १०२. गोम्मटसार, गाथा १७ परिधियों के बीच का क्षेत्रफल, नेमिक्षेत्र १०३-१०४. वही, गाथा १६ कहलाता है। ५६. गणितसार संग्रह, अध्याय ७ गाथा ७ १०५. वही, गाथा, २२, २३ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.Jainelibrary.org Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा : उद्गम, विकास और भेद - प्रभेद 0 मुनि श्री नगराज जी डी० लिट्० [ इतिहास एवं साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान, अणुव्रत के व्याख्याता ] देश और काल किया है, उसके काल-क्रम निर्धारित भाषा वैज्ञानिकों ने भारतीय आर्य भाषाओं के विकास का जो अनुसार प्राकृत का काल ई० पू० ५०० से प्रारम्भ होता है । पर वस्तुत: यह बात भाषा के साहित्यिक रूप की अपेक्षा से है । यद्यपि वैदिक भाषा की प्राचीनता में किसी को सन्देह नहीं है, पर, वह अपने समय में जनसाधारण की बोलचाल की भाषा रही हो, ऐसा सम्भव नहीं लगता । वह ऋषियों, विद्वानों तथा पुरोहितों की साहित्य - भाषा थी । यह असम्भव नहीं है कि उस समय वैदिकभाषा में सामंजस्य रखने वाली अनेक बोलियाँ प्रचलित रही हों । महाभाष्यकार पतञ्जलि ने प्रादेशिक दृष्टि से एक ही शब्द के भिन्न-भिन्न रूपों के प्रयोग के सम्बन्ध में महाभाष्य में जो उल्लेख किया है, सम्भवत: वह इसी तथ्य को पुष्ट करता है कि कुछेक प्रदेशों में वैदिक भाषा के कतिपय शब्द उन-उन प्रदेशों की बोलियों के संसर्ग से कुछ भिन्न रूप में अथवा किन्हीं शब्दों के कोई विशेष रूप प्रयोग में आने लगे थे । यह भी अस्वाभाविक नहीं जान पड़ता कि इन्हीं बोलियों में से कोई एक बोली रही हो, जिसके पुरावर्तीरूप ने परिमार्जित होकर छन्दस् या वैदिक संस्कृत का साहित्यिक स्वरूप प्राप्त कर लिया हो । कतिपय विद्वानों का ऐसा अनुमान है कि वेदों का रचना- काल आर्यों के दूसरे दल के भारत में प्रविष्ट होने के बाद आता है । दूसरे दल के आर्य पंचनद तथा सरस्वती व दृषद्वती के तटवर्ती प्रदेश में होते हुए मध्य देश में आये । इस क्रम के बीच वेद का कुछ भाग की घाटी में बना और बहुत-सा भाग मध्यदेश में प्रणीत हुआ । माना जाता है, सम्भवतः पूर्व में बना हो । पंचनद में तथा सरस्वती व दृषद्वती अथर्ववेद का काफी भाग जो परवर्ती पहले दल के आर्यों द्वारा जिन्हें दूसरे दल के आर्यों ने मध्यदेश से खदेड़ दिया था, वेद की तरह किसी भी साहित्य के रचे जाने का उल्लेख नहीं मिलता। यही कारण है कि मध्यदेश के चारों ओर के लोग जिन भाषाओं का बोलचाल में प्रयोग करते थे, उनका कोई भी साहित्य आज उपलब्ध नहीं है । इसलिए उनके प्राचीन रूप की विशेषताओं को हम नहीं जान सकते, न अनुमान का ही कोई आधार है । वैदिक युग में पश्चिम, उत्तर, मध्यदेश और पूर्व में जनसाधारण के उपयोग में आने वाली इन बोलियों के श्री आनन्द अन्थ श्री आनन्द cornear अभिनंद Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआनंदी आनंद प्राकृत भाषा और साहित्य वैदिक युग से पूर्ववर्ती भी कोई रूप भी रहे होंगे, जिनके विकास के रूप में इनका उद्भव हुआ । वैदिककाल के पूर्व की ओर समवर्ती जनभाषाओं को सर जार्ज ग्रियर्सन ने प्राथमिक प्राकृतों (Primary Prakritas) के नाम से उल्लिखित किया है । इनका समय २००० ई० पूर्व से ६०० ई० पूर्व तक माना जाता है । ऐसा अनुमान किया जाता है कि ये प्राथमिक प्राकृतें स्वरों एवं व्यंजनों के उच्चारण, विभक्तियों के प्रयोग आदि में वैदिक भाषा से बहुत समानताएँ रखती थीं । इन भाषाओं से विकास पाकर उत्तरवर्ती प्राकृतों का जो साहित्यिक रूप अस्तित्व में आया, उससे यह प्रमाणित होता है । पतंजलि की ध्वनियों में 베로 ४ महाभाष्यकार पतंजलि ने महाभाष्य के प्रारम्भ में व्याकरण या शब्दानुशासन के प्रयोजनों की चर्चा के सन्दर्भ में शुद्ध शब्दों तथा दुष्ट शब्दों या अपशब्दों की चर्चा की है। दुष्ट शब्दों के प्रयोग से बचने और शुद्ध शब्दों का प्रयोग करने पर जोर देते हुए उन्होंने निम्नांकित श्लोक उपस्थित किया है "यस्तु प्रयुङ्क्त े कुशलो विशेषे, शब्दान् यथावद् व्यवहारकाले । सोऽनन्तमाप्नोति जयं परत्र, वाग्योगविद् दुष्यति चापशब्दः ||"" अर्थात् जो शब्दों के प्रयोग को जानता है, वैसा करने में कुशल है, वह व्यवहार के समय उनका यथोचित प्रयोग करता है, वह परलोक में अनन्त जय - उत्कर्ष - अभ्युदय प्राप्त करता है । जो अपशब्दों का प्रयोग करता है, वह दूषित — दोष भागी होता है । 2162 आगे वे दुष्ट शब्दों या अपशब्दों की ओर संकेत करते हुए कहते हैं - एक -एक शब्द के बहुत से अपभ्रंश हैं । जैसे गो शब्द के गावी, गोणी, गोपोतलिका इत्यादि हैं ।" यहाँ अपभ्रंश शब्द का प्रयोग उन भाषाओं के अर्थ में नहीं है, जो पाँचवीं शती से लगभग दशवीं शती तक भारत ( पश्चिम, पूर्व, उत्तर और मध्यमण्डल) में प्रसृत रहीं, जो प्राकृतों का उत्तरवर्ती विकसित रूप थीं । यहाँ अपभ्रंश का प्रयोग संस्कृतेतर लोकभाषाओं, जिन्हें उस काल की प्राकृतें कहा जा सकता है, के शब्दों के लिए है। ऐसा प्रतीत होता है, तब लोकभाषाओं के प्रसार और प्रयोग का क्षेत्र बहुत व्यापक हो चला हो । उनके शब्द सम्भवतः वैदिक और लौकिक संस्कृत में प्रवेश पाने लग गये हों । अत: भाषा की शुद्धि के पक्षपाती पुरोहित विद्वान् उस पर रोक लगाने के लिए बहुत प्रयत्नशील हुए हों । पतंजलि के विवेचन की ध्वनि कुछ इसी प्रकार की प्रतीत होती है । वे ( पतंजलि) कुछ आगे और कहते हैं-' "सुना जाता है कि 'यर्वाण तर्वाण' नामक ऋषि थे । वे प्रत्यक्ष धर्माधर्म का साक्षात्कार किये हुए थे । पर और अपर - परा और अपरा विद्या के ज्ञाता थे । १. महाभाष्य, प्रथम आन्हिक, पृष्ठ ७ २. एकैकस्य शब्दस्य बहवोऽपभ्रंशाः । तद्यथा गौरित्येतस्य शब्दस्य गावी, गोणी, गोपोतलिकेत्येवमादयोऽपभ्रंशाः । - महाभाष्य, प्रथम आन्हिक पृष्ठ ८ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा : उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद ५ जो कुछ ज्ञातव्य-जानने योग्य है उसे वे जान चुके थे । वे वास्तविकता को पहचाने हुए थे । वे आदरास्पद ऋषि 'यद् वा नः तद् वा नः - ऐसा प्रयोग जहाँ किया जाना चाहिए, वहाँ 'यर्वाणःतर्वाणः ' ऐसा प्रयोग करते थे । परन्तु याज्ञिक-कर्म में अपभाषण- अशुद्ध शब्दों का उच्चारण नहीं करते थे । असुरों ने याज्ञिक कर्म में अपभाषण किया था अत उनका पराभव हुआ 1 ११ पतंजलि के कहने का आशय यह है कि वैदिक परम्परा के विद्वान् पण्डित भी कभी-कभी बोलचाल में लोक-भाषा के शब्दों का प्रयोग कर लेते थे। पतंजलि इसे तो क्षम्य मान लेते हैं परन्तु इस बात पर वे जोर देते हैं कि यज्ञ में अशुद्ध भाषा कदापि व्यवहृत नहीं होनी चाहिए । वैसा होने से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। पतंजलि के कथन से यह अभिव्यंजित होता है कि इस बात की बड़ी चिन्ता व्याप्त हो गई थी कि लोक-भाषाओं का उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ प्रवाह याज्ञिक कर्म-विधि तक कहीं न पहुँच जाये । आगे चलकर पतंजलि यहाँ तक कहते हैं "याज्ञिकों के शब्द हैं कि यदि अहिताग्नि ( याज्ञिक) अग्न्याधान किये हुए व्यक्ति द्वारा अपशब्द का प्रयोग हो जाये तो उसे उसके प्रायश्चित स्वरूप सरस्वती इष्टि सारस्वत (सरस्वती देवताओं को उद्दिष्ट कर) यज्ञ करना चाहिए । २ एक स्थान पर पतंजलि लिखते हैं- जिन प्रतिपादिकों का विधिवाक्यों में ग्रहण नहीं किया गया है, उनका भी स्वर तथा वर्णानुर्षी के ज्ञान के लिए उपदेश संग्रह इष्ट है ताकि शश के स्थान पर पष, पलाश के स्थान पर पलाष और मञ्चक के स्थान पर मंजक का प्रयोग न होने लगे । ” पतंजलि के समक्ष एक प्रश्न और आता है। वह उन शब्दों के सम्बन्ध में है, जो पतंजलि के समय या उनसे पहले से ही संस्कृत में प्रयोग में नहीं आ रहे थे, यद्यपि वे थे संस्कृत के ही । ऊष, तेर, चक्र तथा पेच - इन चार शब्दों को पतंजलि ने उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने ऊष के स्थान पर उषिताः, तेर के स्थान पर तीर्णाः, चक्र के स्थान पर कृतवन्तः तथा पेच के स्थान पर पक्ववन्तः के रूप में जो प्रयोग प्रचलित थे, उनकी भी चर्चा की है । * १. एवं हि श्रूयते यर्वाणस्तर्वाणो नाम ऋषयो बभूवुः प्रत्यक्षधर्माण: परावरज्ञा विदितवेदितव्या अधिगतयाथातथ्याः । ते तत्र भवन्तो यद्वानस्तद्वान इति प्रयोक्तव्ये यर्वाणस्तर्वाण इति प्रयुञ्जते, याज्ञे पुनः कर्मणि तापभाषन्ते । तैः पुनरसुरैयज्ञ कर्मण्यपभाषितम् ततस्ते पराभूता: । - महाभाष्य, प्रथम आन्हिक पृष्ठ ३७-३८ २. याज्ञिकाः पठन्ति आहिताग्निरपशब्द प्रयुज्य प्रायश्चित्तीयां सारस्वतीमिष्टि निर्वपेत् । -- महाभाष्य प्रथम आन्हिक पृ० १४ स्वरवर्णानुपूर्वी ज्ञानार्थ उपदेशः कर्तव्यः । ३. .........यानि तर्ह्य ग्रहणानि प्रातिपदिकानि एतेषामपि शशः षष इति मा भूत् । पलाश: पलाष इति मा भूत् । मञ्चको मञ्चक इति मा भूत् । - महाभाष्य प्रथम आन्हिक पृ० ४८ ४. अप्रयोगः खल्वप्येषां शब्दानां नाट्यः । कुतः । प्रयोगान्यत्वात् यदेषां शब्दानामर्थेऽन्याच्छन्दान्प्रयुञ्जते । तद्यथा ऊषेत्यस्य शब्दस्यार्थे क्वयूयमुषिताः तेरेत्यस्यार्थे क्व यूयं तीर्णाः, चक्रेत्यस्यार्थे क्व यूयं कृतवन्त:, पेचेत्यस्यार्थे क्व यूयं पक्ववन्त इति । - महाभाष्य प्रथम, आन्हिक पृष्ठ ३१ .. फ़्र होकर भनन्दन ग्रन्थ श्री आनन्द थ आ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवाज श्री आवन्द WEDN फ्र आचार्य श्री आनन्द अभि ग्रन्थ प्राकृत भाषा और साहित्य अभिनंद अन् फिर इन शब्दों के अप्रयोग का परिहार करते हुए वे लिखते हैं— " हो सकता है, वे शब्द जिन्हें अप्रयुक्त कहा जाता है, अन्य देशों, स्थानों में प्रयुक्त होते हों, हमें प्रयुक्त होते नहीं मिलते हों । उन्हें प्राप्त करने का यत्न कीजिए । शब्दों के प्रयोग का क्षेत्र बड़ा विशाल । यह पृथ्वी सात द्वीपों और तीन लोकों में विभक्त है । चार वेद हैं । उनके छः अंग हैं । उनके रहस्य या तत्वबोधक इतर ग्रन्थ हैं । यजुर्वेद की १०१ शाखाएँ हैं, जो परस्पर भिन्न हैं । सामवेद की एक हजार मार्ग - परम्पराएँ हैं । ऋग्वेदियों के आम्नाय - परम्परा क्रम इक्कीस प्रकार के हैं । अथर्ववेद नौ रूपों में विभक्त है । वाकोवाक्य ( प्रश्नोत्तरात्मक ग्रन्थ) इतिहास, पुराण, आयुर्वेद इत्यादि अनेक शास्त्र हैं, जो शब्दों के प्रयोग के विषय हैं । शब्दों के प्रयोग के इतने विशाल विषय को सुने बिना यों कहना कि अमुक शब्द अप्रयुक्त हैं, केवल दुःसाहस है । "" पतंजलि के उपर्युक्त कथन में दो बातें विशेष रूप से प्रतीत होती हैं, एक यह है— संस्कृत के कतिपय शब्द लोकभाषा के ढाँचे में ढलते जा रहे थे। उससे उनका व्याकरण - शुद्ध रूप अक्षुण्ण कैसे रह सकता । लोक-भाषाओं के ढाँचे में ढला हुआ - किंचित् परिवर्तित या सरलीकृत रूप संस्कृत में प्रयुक्त न होने लगे, इस पर पतंजलि जोर देते हैं। क्योंकि वैसा होने पर संस्कृत की शुद्धता स्थिर नहीं रह सकती थी । शश-षष, पलाश - पलाष, मञ्चक, मञ्जक जो पतंजलि द्वारा उल्लिखित किये गये हैं, वे निश्चय ही इसके द्योतक हैं । दूसरी बात यह है कि संस्कृत के कुछ शब्द लोक भाषाओं में इतने घुलमिल गये होंगे कि उनमें प्रयोग सहज हो गया । सामान्यतः वे लोकभाषा के ही शब्द समझे जाने लगे हों । संस्कृत के क्षेत्र पर इसकी प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई । वहाँ उनका प्रयोग बन्द हो गया । हो सकता है, आपातत: संस्कृतज्ञों द्वारा उन्हें लोक-भाषा के ही शब्द मान लिया गया हो या जानबूझ कर उनसे दुराव की स्थिति उत्पन्न कर ली गई हो । पतंजलि के मस्तिष्क पर सम्भवतः इन बातों का असर रहा हो। इसलिए वे इन शब्दों की अप्रयुक्तता के कारण होने वाली भ्रांति का प्रतिकार करने के लिए प्रयत्नशील प्रतीत होते हैं। शुद्ध वाक्-ज्ञान, शुद्ध वाक्-प्रयोग, शुद्ध वाक्-व्यवहार को अक्षुण्ण बनाये रखने की पतंजलि को कितनी चिन्ता थी, यह उनके उस कथन से स्पष्ट हो जाता हैं जिसमें उन्होंने अक्षर-समम्नाय के ज्ञान को परम पुण्यदायक एवं श्रेयस्कर बताया है । उन्होंने लिखा है : "यह अक्षर-समम्नाय ही वाक्समम्नाय है अर्थात् वाक्-वाणी या भाषा रूप में परिणत होने वाला १. सर्वे खल्वप्येते शब्दा देशान्तरेषु प्रयुज्यन्ते । न चैवोपलभ्यन्ते । उपलब्धौ यत्नः क्रियताम् । महाञ्छब्दस्य प्रयोग विषयः । सप्त द्वीपा वसुमती त्रयो लोका, चत्वारो वेदा:, साङ्गाः सरहस्याः, बहुधा भिन्ना एकादश मध्वर्यु शाखा:, सहस्रवर्त्मा सामवेद: एकविंशतिधा बाहवृच्यं, नवधाऽऽथर्वणोवेदः, वाकोवाक्यम्, इतिहासः, पुराणम् । वैद्यकमित्येतावाञ्छन्दस्य प्रयोग विषयः । एतावन्तं शब्दस्य प्रयोगविषयमननुनिशम्य सन्त्यप्रयुक्ता इति वचनं केवलं साहसमात्रमेव । - महाभाष्य, प्रथम आन्हिक पृष्ठ ३२-३३ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा : उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद ७ । है। इस पुष्पित, फलित तथा चन्द्रमा व तारों की तरह प्रतिमण्डित अक्षर-समम्नाय को शब्द-रूप ब्रह्मतत्त्व समझना चाहिए। इसके ज्ञान से सब वेदों के अध्ययन से मिलने वाला पुण्य-फल प्राप्त होता है। इसके अध्येता के माता-पिता स्वर्ग में गौरवान्वित होते हैं।" अस्तु, साधारणतया भाषा वैज्ञानिक प्राकृतों को मध्यकालीन आर्यभाषा काल में लेते हैं। जैसा कि उल्लेख किया गया है, वे ५०० ई० पूर्व से १००० ई० तक का समय इसमें गिनते हैं । कतिपय विद्वान् ६०० ई० पूर्व से इसका प्रारम्भ तथा ११०० या १२०० ई० तक समापन स्वीकार करते हैं। प्राकृत-काल--तीन भागों में स्थूल रूप में यह लगभग मिलती-जुलती-सी बात है। क्योंकि भाषाओं के विकास-क्रम में काल का सर्वथा इत्थंभूत अनुमान सम्भव नहीं होता। मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा काल को प्राकृत-काल भी कहा जाता है । यह पूरा काल तीन भागों में और बांटा जाता है—प्रथम प्राकृत-काल, द्वितीय प्राकृतकाल, तृतीय प्राकृत-काल । प्रथम प्राकृत-काल प्रारम्भ से अर्थात् ५०० ई० पूर्व से ई० सन् के आरम्भ तक माना जाता है । इसमें पालि तथा शिलालेखी प्राकृत को लिया गया है । दूसरा काल ई० सन् से ५०० ई० तक का माना जाता हैं। इसमें प्रवृत्त भाषा प्राकृत नाम से अभिहित की गई है। प्राकृत के अन्तर्गत कई प्रकार की प्राकृतों का समावेश है, जिनके स्वतन्त्र रूप स्पष्ट हो चुके थे। तीसरे काल की अवधि ५०० ई० से १००० ई० तक मानी जाती है । इसकी भाषा का नाम अपभ्रंश है, जो प्राकृतों का उत्तरवर्ती विकास था। पण्डित हरगोविन्ददास टी० सेठ ने भी पाइअ सहमहण्णवो की भूमिका में इस प्राकृत-काल को, जिसे उन्होंने द्वितीय स्तर की प्राकृतों का समय कहा है, तीन युगों में विभक्त किया है। प्रस्तुत विषय के स्पष्टीकरण में उपयोगी होने से उसे यहाँ उद्धृत किया जाता है : प्रथम युग (विस्त पूर्व ४०० ई० से ख्रिस्त के बाद १०० ई०) (क) हीनयान बौद्धों के त्रिपिटक, महावंश और जातक प्रभृति ग्रन्थों की पालि-भाषा । (ख) पैशाची और चूलिका पैशाची। (ग) जैन आगम-ग्रन्थों की अद्धमागधी भाषा । (घ) अंगग्रन्थभिन्न प्राचीन सूत्रों की और पउमचरिअं आदि प्राचीन ग्रन्थों की जैन महाराष्ट्री भाषा। (ङ) अशोक-शिलालेखों की एवं परवतिकाल के प्राचीन शिलालेखों की भाषा । अश्वघोष के नाटकों की भाषा मध्ययुग (शिस्तीय १०० से ५००)। (क) त्रिवेन्द्रम् से प्रकाशित मासचरित कहे जाते नाटकों और बाद के कालिदास प्रभति के नाटकों की शौरसेनी, मागधी और महाराष्ट्री भाषाएँ। १. सोऽयमक्षरसमाम्नायो वाक्समाम्नायः पुष्पितः फलितश्चन्द्रतारकवत्प्रतिमण्डितो वेदितव्यो ब्रह्मराशिः सर्ववेदपुण्यफलावाप्तिश्चास्य ज्ञाने भवति, माता पितरी चास्य स्वर्गे लोके महीयेते । -महाभाष्य, द्वितीय आन्हिक, पृष्ठ ११३ AMARCANJANAMAN- OADCASION WEREअभा श्रीअन्दर INivaranwavimeopranamurarima hommrapmiews Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआनन्द अन्य श्रीआनन्द प्राकृत भाषा और साहित्य (ख) सेतुबन्ध, गाथासप्तशती आदि काव्यों की महाराष्ट्री भाषा। (ग) प्राकृत व्याकरणों में जिनके लक्षण और उदाहरण पाये जाते हैं, वे महाराष्ट्री, शौरसेनी, ____ मागधी, पैशाची, चूलिका पैशाची भाषाएँ । (घ) दिगम्बर जैन ग्रन्थों की शौरसेनी और परवर्तिकाल के श्वेताम्बरों की जैन महाराष्ट्री भाषा । (ङ) चण्ड के व्याकरण में निर्दिष्ट और विक्रमोर्वशीय में प्रयुक्त अपभ्रंश भाषा । शेष युग (ख्रिस्तीय ५०० से १००० वर्ष) भिन्न-भिन्न प्रदेशों की परवर्तिकाल की अपभ्रंश भाषाएँ । पण्डित हरगोविन्ददास टी० सेठ का यह विभाजन प्राकृत के भेदों पर विस्तार से प्रकाश डालता है। प्राकृत के भेदों के सम्बन्ध में आगे यथाप्रसंग विस्तार से विचार किया जायेगा। इस सम्बन्ध में विश्लेषण करने से पूर्व प्राकृत की उत्पत्ति पर विचार करना आवश्यक है। प्राकृत के नाम-नामान्तर प्राकृत के लिए पाइय, पाइअ, पाउय, पाउड, पागड, पागत, पागय, पायअपायय, पायउ जैसे अनेक नाम प्राप्त हैं। जैन अंग साहित्य में तीसरे अंग स्थानांग सूत्र में पागत शब्द व्यवहृत हुआ है । क्षमाश्रमण जिनभद्रगणिकृत विशेषावश्यक भाष्य की टीका में हेमचन्द्र सूरि ने पागय शब्द का प्रयोग किया है। राजशेखर द्वारा रचित कर्पूरमन्जरी नामक सट्टक में पाउअ शब्द आया है। वाक्पतिराज ने गउडवहो नामक अपने प्राकृत काव्य में पायय शब्द का प्रयोग किया है। ये सभी शब्द प्राकृत के अर्थ में हैं। नाट्यशास्त्र के रचयिता आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र में प्राकृत के नाम से इस भाषा को अभिहित किया है। प्राकृत का उत्पत्ति-स्रोत भाषा वैज्ञानिक साधारणतया ऐसा मानते आ रहे हैं कि आर्य-भाषाओं के विकास-क्रम के अन्तर्गत वैदिक भाषा से संस्कृत का विकास हुआ और संस्कृत से प्राकृत का उद्भव हुआ। इसीलिए भाषा वैज्ञानिक इसका अस्तित्व संस्कृत-काल के पश्चात् स्वीकार करते हैं । इस सम्बन्ध में हमें विशद रूप से विचार करना है। वैयाकरणों की मान्यताएं सुप्रसिद्ध प्राकृत वैयाकरण आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत-व्याकरण में "प्रकृतिः संस्कृतम्, तत्र भवं तत आगतं व प्राकृतम् ।” अर्थात् प्रकृति संस्कृत है, वहाँ होने वाली या उससे आने वाली भाषा प्राकृत । १. स्थानांग सूत्र, स्थान ७, सूत्र ५५३ २. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा १४६६ की टीका कर्पूरमंजरी, जवनिका १, श्लोक ८ ४. गउडवहो, गाथा ६२ ५. नाट्यशास्त्र, अध्याय १७, श्लोक १. Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा : उद्गम, विकास और भेद-प्रभंद है । मार्कण्डेय ने प्राकृत-सर्वस्व में प्राकृत का "प्रकृतिः संस्कृतम् तत्र भवं प्राकृतमुच्यते” प्रकृति संस्कृत है, वहाँ होने वाली भाषा अर्थात् उससे निष्पन्न होने वाली भाषा प्राकृत कही जाती है—ऐसा लक्षण किया है । प्राकृत-चन्द्रिका में "प्रकृतिः संस्कृतम् तत्र भवत्वात् प्राकृत स्मृतम्" प्रकृति संस्कृत है, वहाँ होने से या उससे उद्भूत होने से यह भाषा प्राकृत कही गई है-ऐसा उल्लेख किया गया है। नरसिंह ने षड्भाषाचन्द्रिका में "प्राकृते: संस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृती मता" संस्कृत रूप प्रकृति का विकार-विकास माना गया है- ऐसा विवेचन किया गया है। प्राकृत-संजीवनी में कहा गया है कि "प्राकृतस्य सर्वमेव संस्कृतं योनिः" अर्थात प्राकृत का मूल स्रोत सर्वथा संस्कृत ही है। नाट्यशास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान् धनिक ने दशरूपक में "प्राकृते: आगतं प्राकृतम् प्रकृति: संस्कृतम्" । जो प्रकृति से आगत है वह प्राकृत है और प्रकृति संस्कृत है-ऐसा विश्लेषण किया है। सिंहदेवगणी ने वाग्भटालङ्कार की टीका में "प्रकृते: संस्कृतात् आगतं प्राकृतम्” संस्कृत रूप प्रकृति से जो भाषा आई, उद्भूत हुई, वह प्राकृत है-ऐसी व्याख्या की है। काव्यादर्श के टीकाकार प्रेमचन्द तर्कवागीश ने लिखा है--"संस्कृतरूपाया प्राकृतेः उत्पन्नत्वात प्राकृतम्" संस्कृत रूप प्रकृति से उत्पन्नता के कारण यह भाषा प्राकृत नाम से अभिहित हुई है। नारायण ने रसिकसर्वस्व में प्राकृत और अपभ्रंश के उद्भव की चर्चा करते हुए कहा है--"संस्कृतात् प्राकृतमिष्टम् ततोऽपभ्रंशभाषणम्" संस्कृत से प्राकृत और उससे अपभ्रंश अस्तित्व में आई। प्राकृत के वैयाकरणों तथा काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों के कतिपय टीकाकारों के उपर्युक्त विचारों से सामान्यत: यह प्रकट होता है कि उन सबकी प्रायः एक ही धारणा थी कि संस्कृत से प्राकृत उत्पन्न यहाँ सबसे पहले सोचने की बात है कि संस्कृत का अर्थ ही संस्कार, परिमार्जन या संशोधन की हुई भाषा है, तब उससे प्राकृत जैसी किसी दुसरी भाषा का उद्भूत होना कैसे संभव हो सकता है। या तो प्राकृत के उपर्युक्त वैयाकरणों ने और काव्यशास्त्रीय विद्वानों ने भाषा-तत्त्व या भाषा-विज्ञान की दृष्टि से सोचा नहीं था या उनके कहने का आशय कुछ और था। प्रकृति शब्द का मुख्य अर्थ जन-साधारण या स्वभाव होता है। जन-साधारण की भाषा या स्वाभाविक भाषा--वस्तुत: प्राकृत का ऐसा ही अर्थ होना चाहिए। आगे हम कुछ विद्वानों के मतों की चर्चा करेंगे, जिससे यह संगत प्रतीत होगा। उपर्युक्त विद्वानों ने यदि वस्तुतः संस्कृत को प्राकृत का मूल स्रोत स्वीकार किया हो, इसी अर्थ में संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति कहा हो तो यह विचारणीय है। जैसा कि सिद्ध है, संस्कृत व्याकरण से सर्वथा नियमित एवं प्रतिबद्ध हो चुकी थी। ऐसा होने के बाद भाषा का अपना स्वरूप तो यथावत् बना रहता है पर उसका विकास रुक जाता है। उससे किसी नई भाषा का प्रसूत होना सम्भव नहीं होता। क्योंकि वह स्वयं किसी बोलचाल की भाषा (जन-भाषा) के आधार पर संस्कार-युक्त रूप धारण करती है। आचार्य हेमचन्द्र जैसा विद्वान् जिसकी धार्मिक परम्परा में प्राकृत को जगत् की आदिभाषा तक कहा गया है, इसे संस्कृत से निःसृत माने, यह कैसे सम्भव हो सकता है। हेमचन्द्र आदि वैयाकरणों ने संस्कृत को PAINMainaraninabranAmarwAAJ- ANAMALA . आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवभि श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्दा अन्य meromainnromeryonextar v.' Arvie Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयायप्रवर अभिनंद आआनन्द अन्य १० प्राकृत भाषा और साहित्य प्राकृत की प्रकृति के रूप में जो निरूपित किया है, उसका एक विशेष आशय प्रतीत होता है । ये वैयाकरण तथा काव्यशास्त्रीय टीकाकार प्राय: प्राकृत-काल के पश्चाद्वर्ती हैं । इनका समय अपभ्रंशों के अनन्तर आधुनिक भाषाओं के उद्गम तथा विकास के निकट का है । तब प्राकृत का पठन-पाठन लगभग बन्द हो गया था । यहाँ तक कि प्राकृत को समझने के लिए संस्कृत छाया से काम लेना पड़ता था अर्थात् पुरातन भाषाओं के सीखने का माध्यम संस्कृत थी । इसका मुख्य कारण यह है कि संस्कृत यद्यपि लोक भाषा का रूप कभी भी नहीं ले सकी परन्तु भारत की आर्यभाषाओं के आदिकाल से लेकर अनेक शताब्दियों तक वह भारत में एक शिष्टभाषा के रूप में प्रवृत्त रही । इस दृष्टि से उसकी व्याप्ति और महत्त्व क्षीण नहीं हुआ। तभी तो जैसा कि सूचित किया गया है, काल-क्रमवश जन-जन के लिए अपरिचित बनी प्राकृत जैसी भाषा जो कभी सर्वजन प्रचलित भाषा थी, को समझने के लिए संस्कृत जैसी शिष्टभाषा का अवलम्बन लेना पड़ा । सम्भवत: प्राकृत- वैयाकरणों के मन पर इसी स्थिति का असर था । यही कारण है कि उन्होंने प्राकृत का आधार संस्कृत बताया । यहाँ तक हुआ, जैन विद्वान्, जैन श्रमण, जिनका मौलिक वाङमय प्राकृत में रचित है, अपने आर्य ग्रन्थों के समझने में संस्कृत छाया और टीका का सहारा आवश्यक मानने लगे थे । MO विशेषत: हेमचन्द्र के प्राकृत - व्याकरण के सम्बन्ध में कुछ और ज्ञापनीय है । हेमचन्द्र ने कोई स्वतन्त्र प्राकृत-व्याकरण नहीं लिखा । वस्तुतः हेमचन्द्र ने सिद्ध है मशब्दानुशासन के नाम से बृहत् संस्कृतव्याकरण की रचना' की । उसके सात अध्यायों में संस्कृत-व्याकरण के समग्र विषयों का विवेचन है । १. आचार्य हेमचन्द्र के व्याकरण रचने के सम्बन्ध में एक घटना है । गुर्जरेश्वर सिद्धराज जयसिंह, जो गुर्जरदेश को काश्मीर, काशी और मिथिला की तरह संस्कृत विद्या का प्रशस्त पीठ देखना चाहता था, का अपने राज्य के विद्वानों से यह अनुरोध था कि वे एक नूतन व्याकरण की रचना करें, जो अपनी कोटि की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति हो । सिद्धराज जयसिंह को विशेषतः यह प्रेरणा तब मिली, जब उसने अपने द्वारा जीते गये मालवदेश के लूट के माल में आये एक ग्रन्थ भण्डार की गवेषणा करवाई । उसमें धाराधीश भोज द्वारा रचित एक व्याकरण-ग्रन्थ पर सिद्धराज की दृष्टि पड़ी, जिस (ग्रन्थ) की पण्डितों ने बड़ी प्रशंसा की । सिद्धराज की साहित्यिक स्पर्द्धा जागी । फलतः उसने विद्वानों से उक्त अनुरोध किया । सिद्धराज की राजसभा में हेमचन्द्र का सर्वातिशायी स्थान था । वे अप्रतिम प्रतिभा के धनी थे, अनेक विषयों के मार्मिक विद्वान् थे । प्रभावकचरित में इस प्रसंग का यों उल्लेख किया गया है "सर्वे सम्भूय विद्वान्सो, हेमचन्द्र व्यलोकयन् । महाभक्त्या राज्ञासावभ्यचर्य प्राथितस्ततः ।। शब्दव्युत्पत्तिकृच्छास्त्रं निर्मायास्मन्मनोरथम् । पूरयस्व महर्षे ! त्वं, बिना त्वामत्र कः प्रभुः ॥ यशो मम तव ख्यातिः पुण्यं च मुनिनायक ! विश्वलोकोपकाराय, व्याकरणं कुरु नवम् 11 ” - प्रभावकचरित १२, ८१, ८२, ८४ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतभाषा: उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद आठवें अध्याय में आचार्य ने प्राकृत-व्याकरण का वर्णन किया है। इससे यह स्पष्ट है कि प्राकृत-व्याकरण का विश्लेषण ग्रन्थ का मुख्य विषय नहीं था । जैसा कि कहा गया है, युग-प्रवाह को देखते उन्हें सम्भवतः यही समीचीन लगा हो कि संस्कृत के माध्यम से प्राकृत तक पहुँचा जाए। प्राकृत की सीधे व्याख्या करना उन्हें रुचिकर भी नहीं लगा होगा, क्योंकि बोलचाल में प्राकृत का व्यवहार न रहा, इतना ही नहीं, बल्कि उसके स्वतन्त्र अध्ययन की प्रवृत्ति भी क्षीण हो चुकी थी । उसका अध्ययन संस्कृत - सापेक्ष बन ही गया था। लगता है, इसीलिए उन्हें संस्कृत के आधार को स्वीकार करना समयानुकूल और अध्ययनानुकूल प्रतीत हुआ है । शब्दों के संस्कृत रूप इन-इन परिवर्तनों से प्राकृत रूप, यही प्राकृतभाषा में प्रवेश पाने का सुगमतम मार्ग था । अस्तु, इसी परिपार्श्व में उन्हें संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति कहना उचित लगा है, यह सुस्पष्ट प्रतीत होता है । वस्तुत: आचार्य हेमचन्द्र प्राकृत की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भ्रान्त नहीं थे, अपने काव्यानुशासन की पहली कारिका में वे कहते हैं अकृत्रिमस्वादुपदां परमार्थाभिधायिनीम् । सर्वभाषापरिणतां, जनीं वाचमुपास्महे || अलंकारचूड़ामणि नामक स्वोपज्ञ व्याख्या में इसका स्पष्टीकरण करते हुए वे लिखते हैं"अकृत्रिमाणि - असंस्कृतानि अतएव स्वादूनि मन्दधियामपि पेशलानि पदानि यस्यामिति विग्रहः ।" .....तथा सुरनरतिरश्चां विचित्रासु भाषासु परिणतां तन्मयतां गतां सर्वभाषापरिणताम् । एकरूपाऽपि हि भगवतोऽर्धमागधी भाषा वारिदविमुक्तवारिवद् आश्रयानुरूपतया परिणमति । " इस बात को और पुष्ट करने के लिए वे निम्नांकित पद्य भी वहीं उद्धृत करते हैं— देवा देवीं नरा नारों शबराश्चापि शाबरीम् । तिर्यञ्चोऽपि हि तैरश्वों मेनिरे भगवद्गिरम् ॥ हेमचन्द्र द्वारा स्वयं अपनी व्याख्या में किये गये इस विवेचन से स्पष्ट है कि वे संस्कृत को कृत्रिम भाषा मानते थे । प्राकृत उनकी दृष्टि में अकृत्रिम स्वाभाविक या प्राकृतिक भाषा थी । अस्तु, इस विचार - धारा में विश्वास रखने वाला मनीषी यह स्थापना कैसे कर सकता है कि प्राकृत संस्कृत से निकली है । ११ हेमचन्द्र के इस व्याकरण की गुजरात में तथा अन्यत्र बहुत प्रशस्ति हुई । इस सम्बन्ध में निम्नांकित श्लोक बहुत प्रसिद्ध है किं स्तुमः शब्दपाथोधेर्हेमचन्द्रयतेर्मतिम् । एकेनापि हि येनेदृक् कृतं शब्दानुशासनम् ॥ सुप्रसिद्ध जैन विद्वान् जिनमण्डल ने भी इसी प्रकार के उद्गार व्यक्त किये हैंजयसिंहदेववयणाउ निम्मियं सिद्धहेमवागरणं । नीसे ससद्द लक्खण निहाणमिमिणा देणं ॥ [जर्यासहदेववचनात् निर्मितं सिद्धहैमव्याकरणम् । निःशेषशब्दलक्षणनिधानमनेन मुनीन्द्रेण ॥ ] contr [D CURR ॐ आसव अमिश दन आनन्द अभि 麗 Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KAANAIL.JANABANKERAJ.AAJASANA.AAR.. .RIAMRAPAL :. दर १२ प्राकृत भाषा और साहित्य आचार्य हेमचन्द्र के पूर्ववर्ती महान् नैयायिक एवं कवि आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने भी इसी प्रकार उल्लेख किया है अकृत्रिम स्वादुपदैर्जनं जिनेन्द्रः साक्षादिव पासि भाषितैः ।' __ आचार्य हेमचन्द्र ने इसी परम्परा का अनुसरण किया है । यहाँ तक कि आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के शब्दों को भी यथावत् रूप में स्वीकार किया है। रुद्रटकृत काव्यालंकार के व्याख्याता, सुप्रसिद्ध अलंकारशास्त्री जैन विद्वान नमि साध ने प्राकृत की व्याख्या करते हुए उसे सब भाषाओं का मूल बताया। पहले मानव की आदिभाषा के सम्बन्ध में विचार करते समय नमि साधु के विचारों को उपस्थित किया गया है। उनके अनुसार प्राकृत शब्द पाक+कृतं २ अर्थात् पहले किया हुआ (अति प्राचीन) से बना है। नमि साधु ने अपनी व्याख्या में यह भी उल्लेख किया है कि जिस प्रकार बादल से गिरा हुआ पानी यद्यपि एकरूप होता है, पर भूमि के भेद से वह अनेक रूपों में परिवर्तित हो जाता है, उसी प्रकार वह (प्राकृतभाषा) अनेक रूपों में परिणत हो जाती है। .........."वही पाणिनि आदि के व्याकरण के नियमों से संस्कार पाकर सम्मार्जित होकर संस्कृत कहलाती है। नमि साधु उक्त विश्लेषण के संदर्भ में एक बात की और चर्चा करते हैं, जो काफी महत्त्वपूर्ण है। वे कहते हैं कि मूल ग्रंथकार आचार्य रुद्रट ने अपने विवेचनक्रम के मध्य प्राकृत का पहले तथा संस्कृत आदि का बाद में निर्देश किया है। यह स्पष्ट है, यों कहकर नमि साधु इस बात पर बल देना चाहते हैं कि प्राकृत पूर्ववर्ती है तथा संस्कृत तत्पश्चाद्वर्ती । नमि साधु के विचार भाषा-विज्ञान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण और मननीय हैं। पूर्वोद्धृत वैयाकरणों तथा काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों के टीकाकारों से ये मेल नहीं खाते । नमि साधु प्राय: इन सभी से पूर्ववर्ती थे । राजशेखर जैसे अजैन विद्वानों ने भी इसी बात की ओर इंगित किया है। राजशेखर का समय लगभग नौवीं ईसवी माना गया है। बालरामायण का एक प्रसंग है, जहाँ वे लिखते हैं १. द्वात्रिंशद् द्वात्रिशिका १, १८ २. ...... पाक्-पूर्वकृतं प्राकृतं, बालमहिलादिसुबोधं सकलभाषानिबन्धनभूतं वचनमुच्यते । ३. ......."मेघनिर्मुक्त जलमिवैकस्वरूपं तदेव विभेदानाप्नोति ।........"पाणिन्यादि व्याकरणोदितशब्द लक्षणेन संस्करणात् संस्कृतमुच्यते । ......"अतएव शास्त्रकृता प्राकृतमादौ निदिष्टं तदनु संस्कृतादीनि । रुद्रट का विवेचन प्राकृत-संस्कृत-मागध-पिशाचभाषाश्च शौरसेनी च। षष्ठोऽत्र -भूरिभेदो देशमशेषादपभ्रंशः ॥ . Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा: उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद १३ यद् योनि किल संस्कृतस्य सुदृशां जिह्वासु यन्मोदते, यत्र श्रोत्रपथावतारिणि कटुर्भाषाक्षराणां रसः । गद्यं चूर्णपदं पदं रतिपतेस्तत् प्राकृतं यद्वचः, ताल्लाटॉल्ललिताङ्गिः पश्य नुदती दृष्टेनिमेषततम् ॥ -बालरामायण ४८, ४६ अर्थात् जो संस्कृत का उत्पत्ति-स्थान है, सुन्दर नयनों वाली नारियों की जिह्वाओं पर जो प्रमोद पाती है, जिसके कान में पड़ने पर अन्य भाषाओं के अक्षरों का रस कडुआ लगने लगता है। जिसका सुललित पदों वाला गद्य कामदेव के पद जैसा हृद्य है, ऐसी प्राकृत भाषा जो बोलते हैं, उन लाटदेश (गुजरात) के महानुभावों को हे सुन्दरि ! अपलक नयनों से देख ! इस पद्य में प्राकृत की विशेषताओं के वर्णन के संदर्भ में राजशेखर ने प्राकृत को जो संस्कृत की योनि-प्रकृति या उद्गम-स्रोत बताया है, भाषा-विज्ञान की दृष्टि से वह महत्त्वपूर्ण है।। गउडवहो में वाक्पतिराज ने प्राकृत की महत्ता और विशेषता के सम्बन्ध में जो कहा है, उसका उल्लेख पहले किया ही जा चका है। उन्होंने प्राकृत को सभी भाषाओं का उद्गम-स्रोत बताया है। गउडवहो में वाक्पतिराज ने प्राकृत के सन्दर्भ में एक बात और कही है, जो भाषाविज्ञान की दृष्टि से मननीय है। उन्होंने कहा है "प्राकृत की छाया-प्रभाव से संस्कृत-वचनों का लावण्य उद्घाटित या उद्भाषित होता है। संस्कृत को संस्कारोत्कृष्ट करने में प्राकृत का बड़ा हाथ है।"२ इस उक्ति से यह प्रकट होता है कि संस्कृत-भाषा की विशेषता संस्कारोत्कृष्टता है अर्थात् उत्कृष्टतापूर्वक उसका संस्कार--परिष्कार या परिमार्जन किया हुआ है। ऐसा होने का कारण प्राकृत है। दूसरे शब्दों में प्राकृत कारण है, संस्कृत कार्य है। कार्य से कारण का पूर्वभावित्व स्वाभाविक है। १. सयलाओ इमं वाया विसंति एतो यन्ति वायाओ। एन्ति समुदं चिय णेन्ति सायराओ च्चिय जलाई।। -गउडवहो ६३ [सकला एतद् वाचो विशन्ति इतश्च निर्यान्ति वाचः । आयान्ति समुद्रमेव निर्यान्ति सागरादेव जलानि । इस भाषा (प्राकृत) में सब भाषाएँ प्रवेश पाती हैं। इसीसे सब भाषाएँ निकलती हैं। पानी समुद्र में ही प्रवेश करता है और समुद्र से ही (वाष्प के रूप में) निकलता है। २. उम्मिलइ लायण्णं पययच्छायाए सक्कयवयाणं । सक्कयसक्कारुक्करिसणेण पययस्स वि पहावो ।। ---गउडवहो ६५ [उन्मील्यते लावण्यं प्राकृत्तच्छायया संस्कृतपदनाम् ।। संस्कृतसंस्कारोत्कर्षणेन प्राकृतस्यापि प्रभावः ।।] . . . . . . .... . ... . . . .. . . . ...... . ... . . . . ..... . . . . .. . . अत्रला आचार्यtaza आ आचार्य श्राआनन्दप अन्य प्राआनन्द vMAAwinninantmaitramanar Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रवत्र श्राआनन्दा-ग्रन्थश्राआनन्दन्थ५१ प्राकृत भाषा और साहित्य मार्गप्रवर अभिनय राजशेखर तथा वाक्पति के कथन पर गौर करना होगा। वे जैन-परम्परा के नहीं थे, वैदिकपरम्परा के थे। जैन लेखक प्राकृत को अपने धर्मशास्त्रों की भाषा मानते हुए अपनी परम्परा के निर्वाह अथवा उसका बहुमान करने की दृष्टि से ऐसा कह सकते हैं, पर जहाँ अजैन विद्वान ऐसा कहते हैं, वहाँ अवश्य कुछ महत्त्व की बात होनी चाहिए। राजशेखर और वाक्पति का कथन निःसन्देह प्राकृत के अस्तित्व, स्वरूप आदि के यथार्थ अंकन की दृष्टि से है। आचार्य सिद्धर्षि का अभिमत संस्कृत वाङमय के महान् कथा-शिल्पी आचार्य सिद्धषि ने अपने "उपमितिभवप्रपञ्चकथा" नामक महान संस्कृत कथा-ग्रंथ में भाषा के सम्बन्ध में चर्चा की है, जो प्रस्तुत विषय में बड़ी उपयोगी है । वे लिखते हैं संस्कृत और प्राकृत-ये दो भाषाएँ प्रधान हैं। उनमें संस्कृत विदग्ध जनों के हृदय में स्थित है । प्राकृत बालकों के लिए भी सद्बोधकर है तथा कर्णप्रिय है। फिर भी उन्हें (दुर्विदग्ध जनों को) प्राकृत रुचिकर नहीं लगती। ऐसी स्थिति में जब उपाय है (संस्कृत में ग्रन्थ रचने की मेरी क्षमता है) तब सभी के चित्त का रञ्जन करना चाहिए। इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैं संस्कृत में यह रचना करूंगा।" जैसा कि उद्धरण से स्पष्ट है, आचार्य सिद्धर्षि संस्कृत को दुर्विदग्ध लोगों के हृदय में स्थित मानते हैं। प्राकृत, उनकी दृष्टि में बालकों द्वारा भी समझे जा सकने योग्य है और कर्णप्रिय है। कोश के अनुसार दुर्विदग्ध' का अर्थ पण्डितंमन्य या विष्ठ है। परंपरया यह शब्द श्रेयान अर्थ में प्रयुक्त नहीं है। इसका प्रयोग दम्मिप्ता या अहंकारिता जैसे कुत्सित अर्थ में है। यद्यपि आचार्य सिद्धर्षि का यह विश्वास था कि प्राकृत सर्वलोकोपयोगी भाषा है पर वे यह भी मानते थे कि पाण्डित्यभिमानी जनों को प्राकृत में रचा ग्रन्थ रुचेगा नहीं। कारण साफ है, उनका समय (१०वी, ११वीं शती) वैसा था, जिसकी पहले चर्चा की है, जब प्राकृत का प्रयोग लगभग बन्द हो चुका था और ग्रन्थकार सिद्धान्ततः प्राकृत की उपयोगिता मानते हए भी संस्कृत की ओर झुकने लगे थे। ऐसा करने में उनका ऐसा आशय प्रतीत १. संस्कृता प्राकृता चेति, भाषे प्राधान्यमहतः । तत्रापि संस्कृता तावविदग्ध हृदि स्थिता ।। बालानामपि सद्बोधकारिणी कर्णपेशला । तथापि प्राकृता भाषा न तेषामपि भासते ।। उपाये सति कर्तव्यं, सर्वेषां चितरञ्जनम् । अतस्तदनुरोधेन संस्कृतेयं करिष्यते ।। -उपमितिभवप्रपञ्चकथा, प्रथम प्रस्ताव ५१, ५३ २. ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्माऽपि नरं न रञ्जयति । -भर्तृहरिकृत नीतिशतक ३ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMA प्राकृत भाषा : उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद १५ होता है कि उनकी रचना विद्वज्जनों में समाहत बने । अतएव संस्कृत, जो (Linguafrance) का रूप लिये हए थी, में रचना करने में उन्हें गौरव का अनुभव होता था। दूसरी बात यह है कि प्राकृत को जो सर्वजनोपयोगी भाषा कहा जाता था, वह उसके अतीत की बात थी। उस समय प्राकृत भी संस्कृत की तरह दुर्बोध हो गई थी। दुर्बोध होते हुए भी संस्कृत के पठन-पाठन की परम्परा तब भी अक्षुण्ण थी। प्राकृत के लिए ऐसी बात नहीं थी, अतः संस्कृत में ग्रन्थ लिखने का कुछ अर्थ हो सकता था। जबकि प्राकृत में लिखना उतना भी सार्थक नहीं था। ऐसे कुछ कारण थे, कुछ स्थितियाँ थीं, जिनसे प्राकृत वास्तव में लोकजीवन से इतनी दूर चली गई कि उसे गृहीत करने के लिए संस्कृत का माध्यम अपेक्षित ही नहीं, आवश्यक हो गया। संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति बनाने में वैयाकरण जिस प्रवाह में बहे हैं, उस स्थिति की एक झलक हमें आचार्य सिद्धर्षि की उपर्युक्त उक्ति में दृष्टिगत होती है। यही प्रवाह आगे इतना वृद्धिगत हुआ कि लोगों में यह धारणा बद्धमूल हो गई कि संस्कृत प्राकृत का मूल उद्गम है। पण्डित हरगोविन्ददास टी. सेठ ने प्राकृत की प्रकृति के सम्बन्ध में उक्त आचार्यों के विचारों का समीक्षण और पर्यालोचन करने के अनन्तर प्राकृत की जो व्युत्पत्ति की है, वह पठनीय है। उन्होंने लिखा है-"प्रकृत्या स्वभावेन सिद्ध प्राकृतम्" अथवा "प्रकृतीनां साधारणजनानामिदं प्राकृतम्१ यह वास्तव में संगत प्रतीत होता है। प्राकृत के देश्य शब्द : एक विचार प्राकृत में जो शब्द प्रयुक्त होते हैं, प्राकृत-वैयाकरणों ने उन्हें तीन भागों में बाँटा है :१. तत्सम, २. तद्भव, ३. देश्य (देशी)। (१) तत्सम-तत् यहाँ संस्कृत के लिए प्रयुक्त है । जो शब्द संस्कृत और प्राकृत में एक जैसे प्रयुक्त होते हैं, वे तत्सम कहे गये हैं । जैसे—रस, वारि, भार, सार, फल, परिमल, नवल, विमल, जल, नीर, धवल, हरिण, आगम, ईहा, गण, गज, तिमिर, तोरण, तरल, सरल, हरण, मरण, करण, चरण आदि । (२) तदभव-वर्गों का समीकरण, लोप, आगम, परिवर्तन आदि द्वारा जो शब्द संस्कृत शब्दों से उत्पन्न हुए माने जाते हैं, वे तद्भव' कहे जाते हैं। जैसे-धर्म=धम्म, कर्म=कम्म, यक्ष=जक्ख, १. पाइय सद्दमहण्णवो, प्रथम संस्करण का उपोद्घात, पृष्ठ २३ । २. प्राकृत में जो तत्सम शब्द प्रचलित हैं, वे संस्कृत से गृहीत नहीं हैं। वे उस पुरातन लोकभाषा या प्रथम स्तर की प्राकृत के हैं, जिससे वैदिक संस्कृत तथा द्वितीय स्तर की प्राकृतों का विकास हुआ। अतएव इन उत्तरवर्ती भाषाओं में समान रूप से वे शब्द प्रयुक्त होते रहे। वैदिक संस्कृत से वे शब्द लौकिक संस्कृत में आये। ३. प्रथम स्तर की प्राकृत से उत्तरवर्ती प्राकृतों में आये हुए पूर्वोक्त शब्दों में एक बात और घटित हुई। अनेक शब्द, जो ज्यों-के-त्यों बने रहे, तत्सम कहलाये । पर, प्राकृतें तो जीवित भाषाएँ थीं, कुछ woriainirendrARATALokmarriratneranchistmas-PANAamkamumarSCADADAM आचार्यप्रवभिनत राज आचार्यप्रवआभनट श्राआनन्दग्रन्थ श्राआनन्दान्थ2 New mew wwwynwarvan Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दा ग्रन्थ श्री आनन्द ग्रन्थ १६ प्राकृत भाषा और साहित्य ब्राह्मण == बम्हण, क्षत्रिय = खत्तिअ, ध्यान = झाण, दृष्टि = दिट्टि, रक्षति रक्खइ, पृच्छति पुच्छइ. अस्ति = अत्थि, नास्ति = नत्थि इत्यादि । (३) देश्य (देशी) - प्राकृत में प्रयोग होने वाले शब्दों का एक बहुत बड़ा समुदाय ऐसा है कि जो न संस्कृत शब्दों के सदृश है और न उनसे उद्भूत जैसा प्रतीत होता है । वैयाकरणों ने उन शब्दों को देश्य कहा है । उनके उद्गम की संगति कहीं से भी नहीं जुड़ती । जैसे उअ = पश्य, मुंड = सूकर, तोमरी == लता, खुप्पइ = निमज्जति, हुत्त = अभिमुख, फुंटा = केशबन्ध, बिट्ट = पुत्र, डाल = शाखा टंका = जंघा, धयण = गृह, झडप्प = शीघ्र, चुक्कइ = भ्रश्यति, कंदोट्ट कुमुद, धढ == स्तूप, विच्छहु: = समूह । - इन देश्य शब्दों पर कुछ विचार करना अपेक्षित है। इससे प्राकृत की उत्पत्ति जो एक सीमा तक, अब भी विवादास्पद बनी हुई है, को समझने में सहायता मिलेगी। यदि प्राकृत संस्कृत से निकली होती तो इन देश्य शब्दों का संस्कृत के किन्हीं न किन्हीं शब्दों से तो अवश्य सम्बन्ध-स्रोत जुड़ता । पर ऐसा नहीं है । यद्यपि संस्कृत - प्रभावित कतिपय वैयाकरणों ने इन देश्य शब्दों में से अनेक नामों तथा धातुओं को संस्कृत के नामों और धातुओं के स्थान पर आदेश' द्वारा प्रतिष्ठापित करने का प्रयत्न किया है । आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत-व्याकरण में इस प्रकार का उपक्रम द्रष्टव्य है । एतत्सम्बद्ध कुछ सूत्र यहाँ उद्धृत किये जाते हैं वृक्षक्षियो रुक्खछूढौ ।। २ । १२७ = वृक्षक्षिपृयोर्यथासंख्यं रुक्ख छूढ इत्यादेशौ वा भवतः । वृक्ष और क्षिपृ शब्द को ( विकल्प से) क्रमश: रुक्ख और छढ आदेश होते हैं । यथा— वृक्ष:रुक्खो, क्षिप्रम् - छूढं, उत्क्षिपृम् - उच्छूढं । मार्जारस्य मञ्जरवञ्जरौ ।। २ । १३२ मार्जार शब्दस्य मञ्जर वञ्जर इत्यादेशौ वा भवतः । मार्जार शब्द को ( विकल्प से) मञ्जर और वञ्जर आदेश होते हैं । यथा — मार्जार = मञ्जरो, वञ्जरो । त्रस्तस्य हित्थतट्ठौ ।। २ । १३६ त्रस्त शब्दस्य हित्थ तट्ठ इत्यादेशौ वा भवतः । त्रस्त शब्द को ( विकल्प से) हित्थ और तट्ठ आदेश होते हैं । यथा - त्रस्तम्-हित्यं, तट्ठ | शब्दों के रूप उनमें परिवर्तित होते गये । यद्यपि वे शब्द संस्कृत और प्राकृत में प्रथम स्तर की प्राकृत से समान रूप में आये थे पर, व्याकरण से नियमित और प्रतिबद्ध होने के कारण संस्कृत में वे शब्द ज्यों-के-त्यों बने रहे । प्राकृत में वैसा रहना सम्भव नहीं था। वे ही परिवर्तित रूप वाले शब्द तद्भव कहलाये । अतः तद्भव का अभिप्राय, जैसा कि सामान्यतया समझा जाता है, यह नहीं है कि वे संस्कृत शब्दों से निकले हैं । १. मित्रवदागमः शत्रुवदादेश: । Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधस् शब्दस्य हे इत्ययमादेशो भवति । अधस् शब्द को हेट्ठ आदेश होता है । यथा -- अधः- हे | गोणादयः ।। २ । १७४ सिद्ध होते हैं । यथा- गोणादयः शब्दा अनुक्तप्रकृतिप्रत्ययलोपागम-वर्णविकारा बहुलं निपात्यन्ते । जिनके प्रकृति, प्रत्यय, लोप, आगम तथा वर्णविकार आख्यात हैं, ऐसे गोणादि शब्द निपात से गौ: गोणो, गावी बलीवंद: बइल्लो पञ्चपञ्चाशत् = पञ्चावण्णा, पणपन्ना व्युत्सर्जनम् = वोसिरणम् अपस्मारः = बम्हलो धिक् धिक् = निलयः = निहेलणं क्षुल्लक:= खुड्डुओ विष्णु: - भट्टिओ असुरा:=अगया = दिनम् = अल्लं = छि छि पण्डकः = लच्छो बली = उज्जलो पुंश्चली = छिछई इत्यादि । प्राकृत भाषा उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद अधसो हेट्ठ ।। २ । १४१ गाव: = गावीओ आपः = आऊ व्युत्सर्गः: = विउसग्गो बहिमैथुनं वा = बहिद्धा उत्पलम् = कन्दुट्ट स्थासक: चच्चिक्कं जन्म = जम्मणं कुतूहलम् = कुड्डु श्मशानम् == करसी पौष्पं रजः = तिङ्गिच्छि समर्थ :- पक्कलो कर्पास:== पलही ताम्बूलम् = झसुरं शाखा : साहुली कथेर्व ज्जर- पज्जरोप्पाल पिसुण- सँघ - बोल्ल चव- जम्प - सीस- साहाः ॥। ४ । २ कथेर्धातोर्वज्जरादयो दशादेशा वा भवन्ति । १७ कथे धातु को (विकल्प से) वज्जर आदि दस आदेश होते हैं । जैसे—वज्जरइ, पज्जरइ, उप्पालइ, पिसुणइ, संघइ, बोल्लइ, चवइ, जम्पइ, सीसइ, साहइ, उब्बुक्कइ इति तूत्पूर्वस्य बुक्क भाषणे इत्यस्य । एते चान्यैर्देीषु पठिता अपि अस्माभिर्धात्वादेशीकृता विविधेषु प्रत्ययेषु प्रतिष्ठन्तामिति । तथा च वज्जरिओ कथितः, वज्जरिऊण कथयित्वा वज्जरणं कथनम् वज्जरन्तो कथयन् वज्जरिअव्वं कथयितव्यमिति रूपसहस्राणि सिध्यन्ति । संस्कृतधातुवच्च प्रत्ययलोपागमादिविधिः । दुःखे णिव्वरः || ४ | ३ दुःखविषयस्य कथेणिव्वर इत्यादेशो वा भवति । णिव्वरइ- दुक्खं कथयतीत्यर्थः । दुःख विषयक कथ् धातु को ( विकल्प से) णिव्वर आदेश होता है । जैसे णिव्वरइ - दुःख का कथन करता है । CADR ॐ प्रव उपाध्याय प्रवदतु अभि-देन आसमान आमदन NAAN Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपायप्रवास अभिनंदन आआनन्द סים 雨 १८ अन्य आचार्य प्रवर अभिनंदन प्राकृत भाषा और साहित्य पिबेः पिज्ज - डल्ल - पट्ट-घोट्टाः ॥ ४ । १० पिबतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । पिब को ( विकल्प से ) पिज्ज, डल्ल, पट्ट तथा घोट्ट ये चार आदेश होते हैं; जैसे -- पिबति — पिज्जइ, डल्ल, पट्टई, घोट्टई । निद्रातेरोहीरोङ्गौ ॥ ४ । १२ निपूर्वस्य द्राते: ओहीर उङ्घ इत्यादेशो वा भवतः । नि पूर्वक द्राति को ( विकल्प से) ओहीर और उङ्घ आदेश होते हैं; जैसे निद्राति - ओहीरइ, उङ्घइ । वैयाकरणों ने आदेशों द्वारा देशी शब्दों और क्रियाओं को संस्कृत के साँचे में ढालने का जो प्रयत्न किया, वह वस्तुतः कष्टकल्पना थी, जिसे समीचीन नहीं कहा जा सकता । आचार्य हेमचन्द्र के जो सूत्र ऊपर सोदाहरण उद्धृत किये गये हैं, उन से दो तथ्य प्रकाश में आते हैं। एक यह है कि अन्य प्राकृत वैयाकरणों की तरह हेमचन्द्र भी आदेशों के रूप में उसी प्रकार की कष्टकल्पना के प्रवाह में बह गये। दूसरा यह है कि हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के प्रणयन उद्देश्य, कथन, प्रकार आदि पर पिछले पृष्ठों में जो चर्चा की गई है, उसी सन्दर्भ को यहाँ जोड़ा जा सकता है अर्थात् हेमचन्द्र संस्कृत के पुल से प्राकृत के तट पर पहुँचाना चाहते थे, इसलिए देशी शब्दों के आधार, व्युत्पत्ति, स्रोत आदि कुछ भी न प्राप्त होने पर भी उन्हें व्याकरण को परिपूर्णता देने की दृष्टि से आवश्यक लगा है। कि देशी शब्दों और धातुओं को भी क्यों छोड़ा जाए। उनके लिए कुछ जोड़-तोड़ की जा सकती है । सम्भवत: इसी का परिणाम हेमचन्द्र द्वारा निरूपित आदेश हैं । हेमचन्द्र अपने व्याकरण के चतुर्थ पाद के दूसरे सूत्र में कथ् धातु के स्थान पर होने वाले आदेशों का उल्लेख कर एक और बात सूचित करते हैं कि यद्यपि दूसरे ( सम्भवतः दूसरे उनसे पूर्ववर्ती) वैयाकरणों ने इनको देशी (रूपों) में गिना है पर वे (हेमचन्द्र ) धात्वादेशपूर्वक इन्हें विविध प्रत्ययों में प्रतिष्ठित करने की व्यवस्था कर रहे हैं । हेमचन्द्र के इस कथन से यह स्पष्ट है कि पूर्ववर्ती वैयाकरण अनेक देशी शब्दों और धातुओं को देशी (रूपों) में पढ़ देते थे । वे सभी देशी रूपों को सिद्ध करने का प्रयास नहीं करते थे । हेमचन्द्र ने तो कथ् धातु के अर्थ में प्रयुक्त होने वाली दश देशी क्रियारूपों को उपस्थित कर दिग्दर्शन मात्र कराया है, और भी ऐसे अनेक देशी रूप रहे होंगे, जिन्हें पूर्ववर्ती वैयाकरण देशी में गिनाते रहे हों । यह वस्तुस्थितिपरक बात थी । संस्कृत के ढाँचे में प्राकृत को सम्पूर्णतः ढालने के अभिप्राय से चला यह आदेश - मूलक क्रम भाषा विज्ञान की दृष्टि से समुचित नहीं था । बलात् व्याकरण के साँचे में उतारने से भाषा के वास्तविक स्वरूप को समझने में भ्रान्ति उत्पन्न हो जाती है । पर क्या किया जाता, युग का मोड़ ही सम्भवतः वैसा था । संस्कृत-नाटकों पर दृष्टिपात करने से इस तथ्य पर और प्रकाश पड़ता है । जैसा कि प्रसंगोपात्ततया चर्चा की गई है । संस्कृत - प्राकृत रचित नाटकों में सम्भ्रान्त या उच्चकुलोत्पन्न पुरुष पात्र संस्कृत में बोलते हैं तथा साधारण पात्र (महिला, बालक, भृत्य आदि) प्राकृत में बोलते हैं । नाटकों की यह भाषा सम्बन्धी परम्परा प्राकृत की जनभाषात्मकता की द्योतक है । यहाँ कहने की बात यह है कि इन ( उत्तरवर्ती काल में रचित) नाटकों में प्रयुक्त प्राकृतों का सूक्ष्मता से परिशीलन करने पर प्रतीत होता है कि सोवा संस्कृत में Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा : उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद १६ माया गया है और उस (सोची हुई शब्दावली) का प्राकृत में अनुवाद मात्र कर दिया गया है । आश्चर्य तब होता है, जब नाटकों के कई प्रकाशनों में यहाँ तक देखा जाता है कि प्राकृत भाग की संस्कृत-छाया तो मोटे टाइप में दी गई है और मूल प्राकृत छोटे टाइप में । अभिप्राय स्पष्ट है, प्राकृत को सर्वथा गौण समझा गया। मुख्य पठनीय भाग तो उनके अनुसार संस्कृत-छाया है। इन नाटकों में प्रयुक्त प्राकृतें स्वाभाविक कम प्रतीत होती हैं, कृत्रिम अधिक । प्राकृतों को नाटकों में रखना नाट्यशास्त्रीय परम्परा का निर्वाहमात्र रह गया। सारांश यह है कि जहाँ साहित्य-सर्जन का प्रसंग उपस्थित होता, सर्जक का ध्यान सीधा संस्कृत की ओर जाता। देश्य शब्दों का उद्गम देश्य भाषाओं के उद्गम-स्रोत के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों ने अनेक दृष्टियों से विचार किया है। उनमें से कइयों का यों सोचना है, जैसा कि यथाप्रसंग चचित हुआ है, आर्यों का पहला समुदाय जो पञ्चनद व सरस्वती दृषदवती की घाटी से होता हुआ मध्यदेश में आबाद हो चका था, जब बाद में आने वाले आर्यों के दूसरे दल द्वारा वहाँ से खदेड़ दिया, तब वह मध्यदेश के चारों ओर बस गया। पहला समूह मुख्यत: पञ्चनद होता हुआ मध्यदेश में रहा, जहाँ वैदिक वाङमय की सृष्टि हुई । जो आर्य मध्यदेश के चारों ओर के भूभाग में रहते थे, उनका वाग्व्यवहार अपनी प्रादेशिक प्राकृतों में चलता था। प्रदेशभेद से भाषा में भिन्नता हो ही जाती है। इसलिए मध्यदेश में रहने वाले आर्यों की प्राकृतें किन्हीं अंशों में मिलती थीं, किन्हीं में नहीं । मध्यदेश के आर्यों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएँ छन्दस् के अधिक निकट रही होंगी क्योंकि छन्दस् उसी भू-भाग की या उसके आस-पास की किसी प्राक्तन लोक-भाषा का परिनिष्ठित रूप थी। मध्यदेश के बाहर की लोक-भाषाएँ या प्राकृतें अपने प्रादेशिक भेद तथा वैदिक परम्परा से असंलग्नता के कारण छन्दस् से अपेक्षाकृत दूर थीं । प्राकृत साहित्य में ये देश्य शब्द गृहीत हुए हैं, उनका स्रोत सम्भवत: ये ही मध्यदेश के बाहर की प्रादेशिक भाषाएँ हैं। क्योंकि इन लोक-भाषाओं का कोई भी प्राक्तन या तत्कालीन रूप वैदिक भाषा का आधार या उद्गम-स्रोत नहीं था। अत: इनसे आये हुए शब्दों के जो देश्य नाम से अभिहित किये, अनुरूप संस्कृत में शब्द नहीं मिलते। देशभाषा : व्यापकता देशी भाषा का देशभाषा बहुत प्राचीन नाम है। प्राचीन काल में विभिन्न प्रदेशों की लोकभाषाएँ या प्राकृतें देशी भाषा या देशभाषा के नाम से प्रचलित थीं। महाभारत में स्कन्द के सैनिकों और पार्षदों के वर्णन के प्रसंग में उल्लेख है "वे सैनिक तथा पार्षद विविध प्रकार के चर्म अपने देह पर लपेटे हए थे। वे अनेक भाषा-भाषी थे । देश भाषाओं में कुशल थे तथा परस्पर अपने को स्वामी कहते थे।" NEY HTA टा १. नानाचर्मभिराच्छन्ना नानाभाषाश्च भारत । कुशला देशभाषाषु जल्पन्तोऽन्योन्यमीश्वराः ।। -महाभारत, शल्य पर्व, ४५, १०३ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " مع سمع دويتوفر فيه ععععععععععععععععرعر عرعر عرععد عربعموعه هے یه متخلخل معترفعيغفهم مع مع معععع عدد و بهره برده ام आचार्यप्रवट आनापार्यप्रवर अभि श्रीआनन्दकन्थश्रीआनन्दाअन्५२ प्राकृत भाषा और साहित्य memornimoviemummonerime NHERI इसी प्रकार नाट्यशास्त्र में देशभाषाओं के सम्बन्ध में चर्चा है, जो इस प्रकार है "अब मैं देशभाषाओं के विकल्पों का विवेचन करूंगा अथवा देश भाषाओं का प्रयोग करने वालों को स्वेच्छया वैसा कर लेना चाहिए।" कामसूत्र में भी लिखा है "लोक में वही बहुमत या बहसमाहत होता है, जो गोष्ठियों में न तो अधिक देशभाषा में कथ कहता है।" जैन वाङमय में अनेक स्थानों पर देशी भाषा सम्बन्धी उल्लेख प्राप्त होते हैं। उदाहरणार्थसम्राट श्रेणिक के पुत्र मेघकुमार के वर्णन के प्रसंग में कहा गया है __ "तब वह मेधकुमार............."अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में प्रवीण हुआ। ज्ञातृधर्मकथा सूत्र का एक दूसरा प्रसंग है "वहाँ चम्पा नगरी में देवदत्ता नामक गणिका निवास करती थी। वह धनसम्पन्न......."तथा अठारह देशी भाषाओं में निपुण थी।" जैन वाङमय में और भी अनेक प्रसंग हैं, जैसे ........."वह दृढप्रतिज्ञ बालक....... ."अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में विशारद था।" ___ ............"दृढ़प्रतिज्ञ बालक..."अट्ठारह देशी भाषाओं में चतुर था।" "वहाँ वाणिज्य ग्राम में कामोद्धता नामक वेश्या थी, जो... ''अठारह देशी भाषाओं में कुशल थी।" इन प्रसंगों से यह अनुमित होता है कि भिन्न-भिन्न प्रदेशों में जो लोकजनीन भाषाएँ या पण्डित अत ऊर्ध्व प्रवक्ष्यामि देशभाषा विकल्पनम् । अथवाच्छन्दतः कार्या देशभाषाप्रयोक्त भिः ।। -नाट्यशास्त्र, १७, २४, २६ नात्यन्तं संस्कृतेनैव नात्यन्तं देशभाषया । कथां गोष्ठीषु कथयंल्लोके बहुमतो भवेत् ।। कामसूत्र १, ४, ५० ३. तते णं से मेहेकुमारे................अट्ठारसविहिप्पगार देसीभाषा विसारए............."होत्था । -ज्ञातृधर्मकथा सूत्र ४. तत्थ णं चंपाए नयरीए देवदत्ता नाम गणिया परिवसइ उड्डा....... ."अट्ठारदेसीभाषा विसारया । -ज्ञातृधर्मकथा सूत्र ३८, ६२ ५. तए णं से दढपइण्णे दारए..............."अट्ठारसविहदेसिप्पगारभाषा विसारए । राजप्रश्नीय सूत्र, पत्र १४८ ६. तए णं दढपइण्णे दारए..... अट्ठारसदेशीभाषा विसारए। --औपपातिक सूत्र अवतरण १०६ ७. तत्थ णं वाणियगामे कामञ्झया णामं गणिया होत्था......"अटारसदेसीभाषा विसारया । -विपाकश्रुत पत्र, २१,२२ . Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा : उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद हरगोविन्ददास टी० सेठ के शब्दों में प्रथम स्तर की प्राकृतें, जिन्हें सर जार्ज ग्रियर्सन ने Primary Prakritas कहा है, प्रचलित थीं, उन्हें देशभाषा या देशी भाषा के नाम से अभिहित किया गया है । इस सम्बन्ध में कतिपय पाश्चात्य भाषावैज्ञानिकों का मत है कि प्राकृत भाषाओं में जो देशी शब्द और धातुएँ प्रचलित हैं, वे वास्तव में द्रविड़ परिवार तथा आग्नेय परिवार जो अनार्य भाषा परिवार हैं, से आई हैं । क्योंकि आर्यों का भारत आने से पूर्व यहाँ मुख्यतः द्रविड़ परिवार तथा आग्नेय परिवार की भाषाएँ बोलने वाले लोग बसते थे । आर्यों द्वारा भारत की भूमि ज्यों-ज्यों अधिकृत की जाती रही, वे (अनार्य) अन्य सुरक्षित स्थानों की ओर सरकते रहे । बाद में वहाँ भी आर्य' पहुँच गये । संघर्ष के बाद आर्य, अनार्य दोनों जातियों के लोग वहाँ स्थिर हो गये । साथ-साथ रहने से पारस्परिक सम्पर्क बढ़ना स्वाभाविक था । फलतः अनार्य भाषाओं के कुछ शब्द आर्यों की बोलचाल की भाषाओं (या तात्कालीन प्राकृतों) में समा गये । महाभारत का जो उद्धरण देशभाषाओं के स म्बन्ध में पहले उपस्थित किया गया है, उसके सन्दर्भ पर गौर करने से उक्त तथ्य परिपुष्ट होता है । उन सैनिकों और पार्षदों की वेषभूषा, चाल-ढाल आदि १. संभवतः वे ये आर्य थे, जो आर्यों के दूसरे दल के मध्यदेश में आ जाने पर वहाँ से भाग उठे थे और मध्यदेश के इर्द-गिर्द आबाद हो गये थे । नानावेषधराश्चैव नानामाल्यानुलोपना: । नानावस्त्रधराश्चैव चर्मवासस एव च ॥ उष्णीषिणो मुकुटिनः सुग्रीवाश्च सुवर्चसः । किरीटिन: पञ्चशिखास्तथा काञ्चन मूर्धजाः ॥ त्रिशिखा द्विशिखाश्चैव तथा सप्तशिखाः परे । शिखण्डिनो मुकुटिनो मुण्डाश्च जटिलास्तथा ॥ चित्रमालाधराः केचित् केचित् रोमाननास्तथा । विग्रै हरसा नित्यमजेया सुरसत्तमैः ॥ कृष्णा निर्मांसवक्त्राश्च दीर्घपृष्ठास्तनूदराः । स्थूलपृष्ठा ह्रस्वपृष्ठा प्रलम्बोदर मेहनाः ॥ महाभुजा ह्रस्वभुजा ह्रस्वगात्राश्च वामनाः । कुब्जाश्च ह्रस्वजङ्घाश्च हस्तिकर्ण शिरोधराः ॥ हस्तिनासा कर्मनासा वृकनासास्तथापरे । दीर्घोच्छ्वासा दीर्घजङ्घा विकराला ह्यधोमुखाः ॥ महादंष्ट्रा हस्वदंष्ट्राश्चतुर्दंष्ट्रास्तथा परे । वारणेन्द्र निभाश्चात्ये भीमा राजन् सहस्रशः ॥ विभक्त शरीराश्च दीप्तिमन्तः स्वलङ कृता: । पिङ्गाक्षा शङ्कुकर्णाश्च रक्तनासाश्च भारत । पृथुदंष्ट्रा महादंष्ट्र: स्थूलौष्ठा हरिमूर्धजाः । नाना पादौष्ठदंष्ट्राश्च नानाहस्तशिरोधराः ॥ - महाभारत शल्य पर्व १४५ -३ - १०२ २. श्री आनन्दत्र ग्रन्थ २१ आमानव अि हमा Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रवर अभिआपाय प्रवर अभिनय श्रीआनन्द प्राआगन्दा अन्य २२ प्राकृत भाषा और साहित्य - m से प्रकट है कि वे संभवतः अनार्य जाति के लोग थे। देवताओं के सेनापति और असरों के विजेता के रूप में स्कन्द हिन्दू-शास्त्रों में समाहत हैं। ऐसा अनुमान है कि आदिवासियों की विभिन्न जातियों को उन्होंने संगठित किया हो। महाभारतकार उन भिन्न-भिन्न जातियों के लोगों का विस्तृत वर्णन कर देने के बाद उन्हें देश-भाषाओं में कुशल बतलाते हैं। आर्यों और अनार्यों के पारस्परिक सम्पर्क तथा साहचर्य से प्रादेशिक भाषाओं ने एक विशेष रूप लिया हो । संभवतः उन्हें ही यहाँ देशभाषा से संज्ञित किया हो। पण्डित हरगोविन्ददास टी० सेठ द्रविड़ परिवार तथा आग्नेय परिवार की तमिल, कन्नड़, मुण्डा, आदि भाषाओं से देशी शब्दों के आने पर सन्देह करते हैं। उनके कथन का अभिप्राय है कि ऐसा तभी स्वीकार्य होता, यदि अनार्य भाषाओं में भी देशी शब्दों तथा धातुओं का प्रयोग प्राप्त होता। संभवत: ऐसा नहीं है। इस सम्बन्ध में एक बात और सोचने की है कि ये देशी शब्द अनार्य भाषाओं से ज्यों-के-त्यों प्रादेशिक (मुख्यतः मध्यदेश के चतु: पार्श्ववर्ती) प्राकृतों में आ गये, ऐसा न मानकर यदि यों माना जाए आर्य भाषाओं तथा उन विभिन्न प्रादेशिक प्राकृतों के सम्पर्क से कुछ ऐसे नये शब्द निष्पन्न हो गये जिनका कलेवर सम्पूर्णतः न अनार्य-भाषाओं पर आधृत था और न प्राकृतों पर ही। उन देशी शब्दों के ध्वन्यात्मक, संघटनात्मक स्वरूप के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता । अस्तु, देशी शब्दों, देशभाषाओं या देशी भाषाओं के परिपार्श्व में इतने विस्तार में जाने का एक ही अभिप्राय था कि प्राकृत के उद्भव और विकास पर कुछ और प्रकाश पड़े। क्योंकि यह विषय आज संदिग्धता की कोटि से मुक्त नहीं हुआ है। वैदिक संस्कृत तथा प्राकृत का सादृश्य प्राकृतों अर्थात् साहित्यिक प्राकृतों का विकास बोलचाल की जन-भाषाओं, दूसरे शब्दों में असाहित्यिक प्राकृतों से हुआ, ठीक वैसे ही जैसे वैदिक भाषा या छन्दस् का। यही कारण है कि वैदिक संस्कृत और प्राकृत में कुछ ऐसा सादृश्य खोज करने पर प्राप्त होता है, जैसा प्राकृत और लौकिक संस्कृत में नहीं है। निम्नांकित उदाहरणों से इसे समझा जा सकता है संस्कृत ऋकार के बदले प्राकृत में अकार, आकार, इकार तथा उकार होता है। ऋकार के स्थान में उकार की प्रवृत्ति वैदिक वाङमय में भी प्राप्त होती है । जैसे ऋग्वेद १,४६,४ में कृत के स्थान । ONNI aika १. ऋतोत् ।।८।१।१२६ । आदेऋकारस्य अत्वं भवति ।-सिद्ध हैमशब्दानुशासन २. आत्कृशा-मृदुक-मृदुत्वे वा ॥८।१।१२७ । एषु आदेऋत आद् वा भवति । ३. इत्कृपादौ ।।८।१।१२८ कृपा इत्यादिषु शब्देषु आदेऋत इत्वं भवति । उहत्वादौ ।।८।१।१३१ ऋतु इत्यादिषु शब्देषु आदेत उद् भवति । Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा : उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद र भद-प्रभद २३ पर कुछ का प्रयोग है। और भी इस प्रकार प्राकृत में अन्त्य व्यंजन का सर्वत्र लोप होता है। जैसेयावत् =जाव, तावत्=ताव, यशस्=जसो, तमस् = तमो । वैदिक साहित्य में हमें यत्र-तत्र ऐसी प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। जैसे--पश्चात् के लिए पश्चा (अथर्ववेद संहिता १०-४-११) उच्चात् के लिए उच्चा (तैत्तिरीय संहिता २-३-१४), नीचात् के लिए नीचा (तैत्तिरीय संहिता ४-५-६१) । प्राकृत में संयुक्त य, र, व, श्, ष, स् का लोप हो जाता है और इन लुप्त अक्षरों के पूर्व के हस्व स्वर का दीर्घ हो जाता है। जैसे-पश्यति =पासह, कश्यपः =कासवो, आवश्यकम = श्यामा सामा, विश्राम्यन्ति-वीसमइ, विश्राम:=विसामो, मिश्रम् =मीसं, संस्पर्शः=संफासो, प्रगल्भ = पगल्भ, दुर्लभ = दुल्लह । वैदिक भाषा में भी हमें इस कोटि के प्रयोग प्राप्त होते हैं। जैसे अप्रगल्भ=अपगल्भ (तैत्तिरीय संहिता ४-५-६१), त्र्यचत्रिच (शतपथ ब्राह्मण १-३-३-३३), दुर्णाश-दुणाश (शुक्लयजुः प्रातिशाख्य ३-४३)। प्राकृत के संयुक्त वर्णों के पूर्व का दीर्घ स्वर ह्रस्व हो जाता है । जैसे ताम्रम् = तम्बं, विरहाग्निः = विरहगी, आस्यं = अस्सं, मुनीन्द्रः-मुणिन्दो, तीर्थम् =तित्थं, चूर्णः चूण्णो इत्यादि । वैदिक संस्कृत में भी ऐसी प्रवृत्ति प्राप्त होती है। जैसे--रोदसीप्रा-रोदसिप्रा (ऋग्वेद १०-८८-१०) अमात्र=अमत्र (ऋग्वेद ३-३६-४.) प्राकृत में संस्कृत के द के बदले पर अनेक स्थानों पर ड होता है। जैसे—दशनम् = डसणं, दृष्ट: डट्टो, दग्धः= डड्ढो, दोला-डोला, दण्ड=डण्डो, दरः=डरो, दतः=डाहो, दम्भः-डम्भो, दर्भः =डभो, कदनम् = कडणं, दोहदः-डोहलो। वैदिक संस्कृत में भी यत्रतत्र इस प्रकार की स्थिति प्राप्त होती है। जैसे—दुर्दम=दूडम (वाजसनेय संहिता ३।३६), पुरोदास=पुरोडाश (शुक्लयजुः प्रतिशाख्य ३।४४)। १. अन्त्यव्यञ्जनस्य ।।१।११ शब्दानां यद् अन्त्यव्यञ्जनं तस्य लुग भवति । २. लुप्त य-र-व-श-ष-सां दीर्घः ।।१।४३। (सिद्धहैमशब्दानुशासन) प्राकृतलक्षणवशाल्लुप्ता याद्या उपरि अधो वा येषां शकार षकार सकाराणां तेषामादेः स्वरस्य दीर्घो भवति। ३. ह्रस्व: संयोगे ।८।१८४ दीर्घस्य यथादर्शनं संयोगे परे ह्रस्वो भवति । ४. दशन-दष्ट-दग्ध-दोला-दण्ड-दर-दाह-दम्भ-दर्भ-कदन-दोहदे दो वा ड: ।।१।२१७ एषु दस्य डो वा भवति । N. आप आभन्दा आनन्द पाय - श्रीआनन्द Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ प्राकृत भाषा और साहित्य प्राकृत में संस्कृत के ख, घ, थ, तथा भ की तरह ध का भी ह होता है। जैसे-साधुः साहू, बधिरः बहिरो, बाधते-वाहइ, इन्द्रधनु = इन्द्रहणू, सभा-सहा ।। वैदिक वाङमय में भी ऐसा प्राप्त होता है। जैसे-प्रतिसंधायप्रतिसंहाय (गोपथ ब्राह्मण २.४) प्राकृत (मागधी को छोड़कर प्रायः सभी प्राकृतों) में अकारान्त पुलिंग शब्दों के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ओ होता है। जैसे--मनुषः माणसो, धर्मः धम्मो। एतत् तथा तत् सर्वनाम में भी विकल्प से ऐसा होता है। स: सो, एषः एसो। वैदिक संस्कृत में भी कहीं प्रथमा एकवचन में ओ दृष्टिगोचर होता है। जैसे--संवत्सरो अजायत (ऋग्वेद संहिता १०.१६०.२) सोचित् (ऋग्वेद संहिता १.१६१.१०-११) संस्कृत अकारान्त शब्दों में ङसि (पञ्चमी) विभिक्ति में जो देवात्, नरात धर्मात, आदि रूप बनते हैं, उनमें अन्त्य त् के स्थान पर प्राकृत में छः आदेश होते हैं। उनमें एक त का लोप भी है । लोप के प्रसंग को यों भी समझा जा सकता है कि पंचमी विभक्ति में एकवचन में (अकारान्त शब्दों में) आ प्रत्यय होता है । जैसे देवात् =देवा, नरात्=णरा, धर्मात् = धम्मा आदि । वैदिक वाङमय में भी इस प्रकार के कतिपय पञ्चम्यन्त रूप प्राप्त होते हैं। जैसे-उच्चातउच्चा, नीच्चात् =नीचा, पश्चात् = पश्चा। प्राकृत में पञ्चमी विभक्ति बहुवचन में भिस् के स्थान पर हि आदि होते हैं । जैसे देवेहि आदि । वैदिक संस्कृत में भी इसके अनुरूप देवेभिः ज्येष्ठेभिः गर्भारेभिः आदि रूप प्राप्त होते हैं। १. ख-घ-थ-ध भाम् ।।८।१११८७ स्वरातपरेषामसंयुक्तानामनादिभूतानां ख घ थ ध भ इत्येतेषां वर्णानां प्रायो हो भवति । २. अतः से?ः ।।८।३।२ अकारान्तान्नाम्नः परस्य स्यादेः सेः स्थाने डो भवति । वैतत्तदः ।।८।३।३ एतत्तदोकारात्परस्य स्यादेः सेझै भवति । ४. स्वौजसमौट्छष्टाभ्यांभिस्ङभ्यांभ्यस्ङसिभ्यांभ्यस्ङसोसाम्ङयोस्सुप् । अष्टाध्यायी ॥४१२ सु औ जस् इति प्रथमा । अम् औट शस् इति द्वितीया । टा भ्यां भिस् इति तृतीया । ङ भ्यां भ्यस् इति चतुर्थी । ङसि भ्यां भ्यस् इति पञ्चमी । डस् ओस् आम इति षष्ठी। डि ओस् सुप् इति सप्तमी। ङसेस् त्तो-दो-दु-हि-हिन्तो-लुकः ।।८।३।८ अतः परस्य डसे: त्तो दो दुहि हिन्तो लुक इत्येते षडादेशा भवन्ति । जैसे वत्सात वच्छतो, वच्छाओ, वच्छाउ, वच्छाहि, वच्छाहिन्तो, वच्छा। ६. भिसो हि हि हि ।।८।३।७ अतः परस्य भिसः स्थाने केवल: सानुनासिकः, सानुस्वारश्च हिर्भवति। - www.jainerforary.org Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा : उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद २५ प्राकृत में एकवचन और बहुवचन ही होते हैं. द्विवचन नहीं होता। वैदिक संस्कृत में वचन तो तीन हैं पर इस प्रकार के अनेक उदाहरण मिलते हैं, जहाँ द्विवचन के स्थान पर बहवचन के रूपों का प्रयोग हुआ है । जैसे-इन्द्रवरुणौ के स्थान पर इन्द्रवरुणाः, मित्रावरुणौ के स्थान पर मित्रावरुणाः, नरी के स्थान पर नराः, सुरथी के स्थान पर सुरथाः, रथितमौ के बदले रथितमाः । इस युग के प्राकृत के महान् जर्मन वैयाकरण पिशल ने अपने विशाल ग्रन्थ Comparative grammar of the Prakrit language में संस्कृत से प्राकृत के उद्गम' का खण्डन करते हुए प्राकृत तथा वैदिक भाषा के सादृश्य के द्योतक कतिपय उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं, जिनमें से कुछ ये हैंप्राकृत भाषा वैदिक भाषा त्वन स्त्रीलिंग षष्ठी के एकवचन का रूप आये तृतीया बहुवचन का रूप एहि एभिः बोहि (आज्ञावाचक) बोधि ता, जा, एत्थ तात्, यात्, इत्था अम्हे अस्मे वग्गूहि वग्नुभि सद्धि सघ्रीम् त्तण आए घिसु घ्रस रुक्षव रूक्ष उपर्युक्त विवेचन से यह सिद्ध होता है कि प्राकृतों का उद्गम वैदिक-भाषा काल से प्राग्वर्ती किन्हीं बोलचाल की भाषाओं या बोलियों से हुआ, जैसे कि उन्हीं में से किसी बोली के आधार पर वैदिक भाषा अस्तित्व में आई। १. ...........This Sanskrit was not the basis of the Prakrit dialects, which indeed go back to a certain popular spoken dialect, which on political or religious grounds, was raised to the status of a literary medium. But the difficulty is that it does not seem useful that all the Prakrit dialects sprang out from one and the same source at least they could not have developed out of Sanskrit, as is generally held by Indian scholars and Hobber, Lassen, Bhandarkar and Jacoby. All the Prakrit languages have a series of common grammatical and lexical characteristics with the Vedic language and such are significantly missing from Sanskrit. -~-~-Page 4. maan A BARAJAVAJSAALAAMADARAMANADARPARASADANUABASAHJAHARAMJAAISATALABILARAARADALAJ.MA A was श्राआनन्द अनव र अमन amannamrimirmimmmwommmmmmmmmmmmmmmmmmmmminarsimirrom Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ प्राकृत भाषा और साहित्य प्राकृत के प्रकार प्राकृतें जीवित भाषाएँ थीं । जैसा कि स्वाभाविक है, भिन्न-भिन्न प्रदेशों में बोले जाने के कारण उनके रूपों में भिन्नता आई। उन (बोलचाल की भाषाओं या बोलियों) के आधार पर जो साहित्यिक प्राकृतें विकसित हुई, उनमें भिन्नता रहना स्वाभाविक था। यों प्रादेशिक या भौगोलिक आधार पर प्राकृतों के कई भेद हुए। उनके नाम प्रायः प्रदेश विशेष के आधार पर रखे गये। आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र में प्राकृतों का वर्णन करते हुए मागधी, अवन्तिजा, प्राच्या, सूरसेनी, अर्धमागधी, बालीका, दक्षिणात्या नाम से प्राकृत के सात भेदों की चर्चा की है।' प्राकृत के उपलब्ध व्याकरणों में सबसे प्राचीन प्राकृत प्रकाश के प्रणेता वररुचि ने महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी, और पैशाची इन भेदों का वर्णन किया है। चण्ड ने मागधी को मागधिका और पैशाची को पैशाचिकी के नाम से उल्लिखित किया है। छठी शती के सुप्रसिद्ध काव्यशास्त्री दण्डी ने काव्यादर्श में प्राकृतों की भी चर्चा की है। उन्होंने महाराष्ट्री (महाराष्ट्राश्रया), शौरसेनी, गौड़ी और लाटी इन चार प्राकृतों का उल्लेख किया है। आचार्य हेमचन्द्र ने वररुचि द्वारा वणित चार भाषाओं के अतिरिक्त आर्ष, चूलिका, पैशाची और अपभ्रंश इन तीनों को प्राकृतभेदों में और बताया है। हेमचन्द्र ने अर्द्धमागधी को आर्ष कहा है। त्रिविक्रम, लक्ष्मीधर, सिंहराज और नरसिंह आदि वैयाकरणों ने आचार्य हेमचन्द्र के विभाजन के अनुरूप ही प्राकृत भेदों का प्रतिपादन किया है । अन्तर केवल इतना-सा है, इसमें त्रिविक्रम के अतिरिक्त किसी ने भी आर्ष का विवेचन नहीं किया है। वस्तुतः जैन-परम्परा के आचार्य होने के नाते हेमचन्द्र का, अर्द्धमागधी (जो जैन आगमों की भाषा है) के प्रति विशेष आदरपूर्ण भाव था, अतएव उन्होंने इसे आर्ष नाम से अभिहित किया। १. मागध्यवन्तिजा प्राच्या सूरसेन्यर्धमागधी । वाह्नीका दाक्षिणात्या च सप्त भाषाः प्रकीर्तिताः ।। -नाट्यशास्त्र १७, १८, -प्राकृत लक्षण ३.३८ -प्राकृत लक्षण ३.३६ २. प्राकृत प्रकाश १०.१-२, ११.१, १२.३२ ३. पैशाचिक्यां रणयोर्लनौ ॥ मागधिकायां रसयोलशौ ।। महाराष्ट्राश्रयां भाषां, प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः । सागरः सूक्तिरत्नानां, सेतुबन्धादि यन्मयम् ।। शौरसेनी च गौडी च, लाटी चान्या च तादृशी । याति प्राकृतमित्येवं, व्यवहारेषु सन्निधिम् ।। ५. ऋषीणामिदमार्षम् । -काव्यादर्श १.३४-३५ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा : उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद २७ मार्कण्डेय ने प्राकृत- सर्वस्व में प्राकृत को सोलह भेदोपभेदों में विभक्त किया है। उन्होंने प्राकृत को भाषा, विभाषा, अपभ्रंश और पैशाच इन चार भागों में बाँटा है। इन चारों का विभाजन इस प्रकार है (१) भाषा - महाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती और मागधी । (२) विभाषा -- शाकारी, चाण्डाली, शबरी, आभीरिका और टाक्की । (३) अपभ्रंश - नागर, ब्राचड तथा उपनागर । (४) पैशाच - कैकय, शौरसेन एवं पाञ्चाल । नाट्यशास्त्र में विभाषा के सम्बन्ध में उल्लेख है कि शकार, अभीर, चाण्डाल, शबर इमिल, आन्ध्रोत्पन्न तथा वनेचर की भाषा द्रमिल कही जाती है । मार्कण्डेय ने भाषा, विभाषा आदि के वर्णन के प्रसंग में प्राकृत चन्द्रिका के कतिपय श्लोक उद्धृत किये हैं, जिनमें आठ भाषाओं, छः विभाषाओं, ग्यारह पिशाच भाषाओं तथा सत्ताईस अपभ्रंशों के सम्बन्ध में चर्चा है । इनमें महाराष्ट्री, आवन्ती, शौरसेनी, अर्द्धमागधी, वालीकी, मागधी, प्राच्या तथा दक्षिणात्या ये आठ भाषाएँ, छः विभाषाओं में से द्राविड़ और ओढूज ये दो विभाषाएँ, ग्यारह पिशाच भाषाओं में से कांचीदेशीय, पाण्ड्य, पाञ्चाल, गौड़, मागध, ब्राचड, दाक्षिणात्य, शौरसेन, कैकय और द्राविड़ ये दश पिशाच भाषाएँ तथा सत्ताईस अपभ्रंशों में ब्राचड, लाट, वैदर्भ बार्बर, आवन्त्य, पाञ्चाल, टाक्क, मालव, कैकय, गौड, उड्डू, द्वंव, पाण्ड्य, कौन्तल, सिंहल, कालिङ्ग, प्राच्य, कार्णाट, काञ्च, द्राविड़, गौर्जर, आभीर और मध्यदेशीय ये तेबीस अपभ्रंश विभिन्न प्रदेशों के नामों से सम्बद्ध हैं । जिनजिन प्रदेशों में प्राकृतों की जिन-जिन बोलियों का प्रचलन था, वे बोलियाँ उन-उन प्रदेशों के नामों से अभिहित की जाने लगीं । इतनी लम्बी सूची देखकर आश्चर्य करने की बात नहीं है । किसी एक ही प्रदेश की एक ही भाषा उसके भिन्न-भिन्न भागों में कुछ भिन्न रूप ले लेती है और उस प्रदेश के नामों के अनुरूप उप-भाषाओं या बोलियों में बहुत अन्तर नहीं होता पर यत्किञ्चित् भिन्नता तो होती ही है । उदाहरण के लिए हम राजस्थानी भाषा को लें। वैसे तो सारे प्रदेश की एक भाषा राजस्थानी है, पर बीकानेर क्षेत्र में जो उसका रूप है, वह जोधपुर क्षेत्र से भिन्न है । जैसलमेर क्षेत्र की बोली का रूप इनसे और भिन्न है । इसी प्रकार चित्तौड़, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, अजमेर, मेरवाड़ा, कोटा, बूँदी आदि हाडौती का क्षेत्र, जयपुर या ढूंढाड़ का भाग, अलवर का इलाका, भरतपुर और धौलपुर मण्डल --- इन सब में जनसाधारण द्वारा बोली जाने वाली बोलियाँ थोड़ी बहुत भिन्नता लिए हुए हैं । कारण यह है कि एक ही प्रदेश में बसने वाले लोग यद्यपि राजनैतिक या प्रशासनिक दृष्टि से एक इकाई से सम्बद्ध होते हैं परन्तु उस प्रदेश के भिन्न-भिन्न भू-भागों में पास-पड़ोस की स्थितियों के कारण, अपनी क्षेत्रीय सामाजिक, सांस्कृतिक तथा भौगोलिक भिन्नताओं या विशेषताओं के कारण परस्पर जो अन्तर होता है, उसका उनकी बोलियों पर अलग अलग प्रभाव पड़ता है और एक ही भाषा के अन्तर्गत होने पर भी उनके रूप में, कम ही सही, पार्थक्य आ ही जाता है । ऊपर पिशाच भाषाओं और अपभ्रंशों के जो अनेक भेद दिखलाये श्री आनन्दन ग्रन्थ 9 श्री आनन्द www.conne 瓶 च AAR अभिन Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ orammaruaamaarnamaAAAAdaramarikaawaralasranamasanaMaNMKianarassromania NABARABANJainisairanibartamaas आचारसयभाचाanaa श्रीआनन्द अन् श्रीआनन्द अन्य THANIwwwYYYYIWwwvacammoveviviYyiwwview २८ प्राकृत भाषा और साहित्य गये हैं, वे पैशाची प्राकृत के क्षेत्र तथा अपभ्रंश के क्षेत्र की अनेकानेक बोलियों और उप-बोलियों के सूचक हैं। प्राकृत के भिन्न-भिन्न रूपों या भाषाओं पर आगे विस्तार से विचार किया जायेगा। यहाँ तो केवल पृष्ठभूमि के रूप में सूचन-मात्र किया है । प्राकृतों का विकास : विस्तार-पृष्ठभूमि पूर्व और पश्चिम की संस्कृति तथा जीवन में प्राचीन काल से ही हम कुछ भेद पाते हैं। पश्चिम के कृष्ण और पूर्व के जरासन्ध जैसे राजाओं के पुराणप्रसिद्ध युद्धों की शृङ्खला इसकी परिचायक है। भारत में आने वाले आर्य पश्चिम में टिके, मध्यदेश में टिके, कुछ पूर्व में भी खदेड़ दिये गये । पर, शायद मगध तक उनका पहुँचना नहीं हुआ होगा। हुआ होगा तो बहुत कम । ऐसा प्रतीत होता है कि कोशल और काशी से बहुत आगे सम्भवतः वे नहीं बढ़े। अतः मगध आदि भारत के पूर्वीय प्रदेशों में वैदिक युग के आदिकाल में वैदिक संस्कृति के जो यज्ञ-याग प्रधान थी, चिन्ह नहीं प्राप्त होते हैं। ऐसा अनुमान है कि वैदिक संस्कृति मगध प्रभृति पूर्वी प्रदेशों में काफी बाद में पहँची, भगवान महावीर तथा बुद्ध से सम्भवतः कुछ शताब्दियाँ पूर्व । वेद-मूलक आर्य-संस्कृति के पहुँचने के पूर्व मगध आर्यों की दृष्टि से निद्य था। निरुक्तकार यास्क ने मगध को अनार्यों का देश कहा है। ऋग्वेद में कीकर शब्द आया है, जिसे उत्तरकालीन साहित्य में मगध का समानार्थक कहा गया है। ब्राह्मणकाल के साहित्य में भी कुछ ऐसे संकेत प्राप्त होते हैं, जिनसे प्रकट है कि तब तक पश्चिम के आर्यों का मगध के साथ अस्पृश्यता का-सा व्यवहार रहा था । शतपथ ब्राह्मण में पूर्व में बसने वालों को आसुरी प्रकृति का कहा गया है। आर्य सम्भवतः अनार्यों के लिए इस शब्द का प्रयोग करते थे, जिसमें निम्नता या घृणा का भाव था। यहाँ एक बात की ओर विशेष रूप से ध्यान देना होगा। पहले दल में भारत में आये मध्यदेश में बसे आर्य जब दूसरे दल में आये आर्यों द्वारा मध्यदेश से भगा दिये गये और वे मध्यदेश के चारों ओर विशेषतः पूर्व की ओर बस गये तो उनके भगाने वाले (बाद में दूसरे दल के रूप में आये हुए) आर्यों से वैचारिक दुराव रहा हो, यह बहत संभाव्य है। उनका वहाँ के मूल निवासियों से मेल-जोल बढ़ा हो, इसकी भी सहज ही कल्पना की जा सकती है। मेल-जोल के दायरे का विस्तार वैवाहिक सम्बन्धों में भी हुआ हो, यों एक मिश्रित नवंश अस्तित्व में आया हो, जो सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से पश्चिम के आर्यों से दूर रहा हो। वैदिक वाङमय में प्राप्त व्रात्य शब्द सम्भवतः इन्हीं पूर्व में बसे आर्यों का, जो सामाजिक दृष्टि से पूर्व में बसने वाले मूल-निवासियों से सम्बद्ध हो चुके थे, द्योतक है। व्रात्य शब्द की विद्वानों ने अनेक प्रकार से व्याख्या की है। उनमें से एक व्याख्या यह है कि जो लोग यज्ञ-यागादि में विश्वास न कर व्रतधारी यायावर संन्यासियों में श्रद्धा रखते थे, व्रात्य कहे जाते थे। व्रात्यों के लिए वैदिक परम्परा में शुद्धि की एक व्यवस्था है या वे शुद्ध होना चाहते तो उन्हें प्रायश्चित्तस्वरूप शुद्धचर्य यज्ञ करना पड़ता । व्रात्य-स्तोम में उसका वर्णन है। उस यज्ञ को करने के अनन्तर वे बहिर्भूत आर्य वर्ण-व्यवस्था में स्वीकार कर लिए जाते थे। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा : उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद २६ जैसा कि सूचित किया गया है, भगवान महावीर और बुद्ध से कुछ शताब्दियों पूर्व पश्चिम या मध्यदेश से वे आर्य, जो अपने को शुद्ध कहते थे, मगध, अंग, बंग आदि प्रदेशों में पहुँच गये हों। व्रात्यस्तोम के अनुसार प्रायश्चित्त के रूप में याज्ञिक विधान का क्रम, बहिष्कृत आर्यों का वर्ण-व्यवस्था में पुन: ग्रहण इत्यादि तथ्य इसके परिचायक हैं। एक बात यहाँ और ध्यान देने की है । पूर्व के लोगों को पश्चिम के आर्यों ने अपनी परम्परा से बहिर्भूत मानते हुए भी भाषा की दृष्टि से उन्हें बहिर्भूत नहीं माना। ब्राह्मण-साहित्य में भाषा के सन्दर्भ में व्रात्यों के लिए इस प्रकार के उल्लेख हैं कि वे अदुरुक्त को भी दुरुक्त कहते हैं,' अर्थात् जिसके बोलने में कठिनाई नहीं होती, उसे भी वे कठिन बताते हैं। व्रात्यों के विषय में यह जो कहा गया है, उनकी सरलतानुगामी भाषाप्रियता का परिचायक है। संस्कृत की तुलना में प्राकृत में वैसी सरलता है ही। इस सम्बन्ध में वेबर का अभिमत है । प्राकृत भाषाओं की ओर संकेत है। उच्चारण सरल बनाने के लिए प्राकृत में ही संयुक्ताक्षरों का लोप तथा उसी प्रकार के अन्य परिवर्तन होते हैं । व्याकरण के प्रयोजन बतलाते हुए दुष्ट शब्द के अपाकरण के सन्दर्भ में महाभाष्यकार पतञ्जलि ने अशुद्ध उच्चारण द्वारा असुरों के पराभूत होने की जो बात कही है, वहाँ उन्होंने उन पर 'हे अरयः' के स्थान पर 'हेलय' प्रयोग करने का आरोप लगाया है अर्थात् उनकी भाषा में 'र' के स्थान पर 'ल' की प्रवृत्ति थी, जो मागधी की विशेषता है। इससे यह प्रकट होता है कि मागधी का विकास या प्रसार पूर्व में काफी पहले हो चुका था। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले के अन्तर्वर्ती सहगौरा नामक स्थान से जो ताम्र-लेख प्राप्त हुआ है, वह ब्राह्मी लिपि का सर्वाधिक प्राचीन लेख है। उसका काल ईसवी पूर्व चौथी शती है। यह स्थान जिसे हम पूर्वी प्रदेश कह रहे हैं, के अन्तर्गत आता है। इसमें 'र' के स्थान 'ल' का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। ऐसा भी अनुमान है कि पश्चिम में आर्यों द्वारा मगध आदि पूर्वीय भू-भागों में याज्ञिक संस्कृति के प्रसार का एक बार प्रबल प्रयत्न किया गया होगा। उसमें उन्हें चाहे तथाकथित उच्च वर्ग के लोगों में ही सही एक सीमा तक सफलता भी मिली होगी। पर जन-साधारण तक सफलता व्याप्त न हो सकी। भगवान महावीर और बुद्ध का समय याज्ञिक विधि-विधान, कर्मकाण्ड, बाह्य शौचाचार तथा जन्मगत उच्चता आदि के प्रतिकूल एक व्यापक आन्दोलन का समय था । जन-साधारण का इससे १. अदुरुक्तवाक्यं दुरुक्तमाहुः । -ताण्ड्य महाब्राह्मण, पंचविश ब्राह्मण २. तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्तः पराबभूवुः । तस्माद् ब्राह्मणेन न म्लेच्छित वै नामभाषित वै । म्लेच्छो ह वा एष यदपशब्दः । -महाभाष्य, प्रथम आन्हिक, पृष्ठ ६ amanarasinivenubuirraturmuscwODANA धामना आदान Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्मप्रवभिनआचार्यप्रवर भिलों श्राआनन्द अन् श्रीआनन्दा अन्य ३० प्राकृत भाषा और साहित्य AF प्रभावित होना स्वाभाविक था ही, सम्भ्रान्त कुलों और राजपरिवारों तक इसका असर पड़ा । महावीर और बद्ध के समकालीन कई और भी धर्माचार्य थे, जो अपने आपको तीर्थकर कहते थे । पूरण काश्यप, मक्खलि गोशाल, अजित केशकंबलि, पकुधकत्यायन तथा संजयवेलट्रिपुत्त आदि उनमें मुख्य थे। बौद्ध वाङमय में उन्हें अक्रियावाद, नियतिवाद, अच्छेदवाद, अन्योन्यवाद तथा विक्षेपवाद के प्रवर्तक कहा गया है। यद्यपि आचार-विचार में उनमें भेद अवश्य था, पर वे सबके सब श्रमण संस्कृति के अन्तर्गत माने गये हैं। ब्राह्मण-संस्कृति यज्ञ-प्रधान थी और श्रमण-संस्कृति त्याग-वैराग्य और संयम प्रधान । श्रमण शब्द की विद्वानों ने कई प्रकार से व्याख्या की है। कुछ विद्वानों ने इसे श्रम, सम और शम पर आधृत माना है। फलतः तपश्चर्या का उग्रतम स्वीकार, जातिगत जन्मगत उच्चत्व का बहिष्कार तथा निर्वेद का पोषण इन पर इसमें अधिक बल दिया जाता रहा है । श्रमण-परम्परा के अन्तवर्ती ये सभी आचार्य याज्ञिक तथा कर्मकाण्डबहुल संस्कृति के विरोधी थे। यह एक ऐसी पृष्ठभूमि थी, जो प्राकृतों के विकास और व्यापक प्रसार का आधार बनी । भगवान् महावीर और बुद्ध ने लोक-भाषा को अपने उपदेशों का माध्यम बनाया। सम्भव है, उपर्यक्त दूसरे आचार्यों ने भी लोक-भाषा में ही अपने उपदेश किये होंगे। उनका कोई साहित्य आज प्राप्त नहीं है। महावीर और बुद्ध द्वारा लोकभाषा का माध्यम स्वीकार किये जाने के मुख्यतः दो कारण सम्भव हैं। एक तो यह हो सकता है उन्हें आर्य क्षेत्र में व्याप्त और व्याप्यमान याज्ञिक व कर्मकाण्डी परम्परा के प्रतिकूल अपने विचार बहुजन-हिताय बहुजन-सुखाय जन-जन तक सीधे (Directly) पहुँचाने थे, जो लोकभाषा द्वारा ही सम्भव था। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि संस्कृत, जिसके प्रति भाषात्मक उच्चता किवा पवित्रता का भाव था, जो याज्ञिक परम्परा और कर्मकाण्ड के पुरस्कर्ता पुरोहितों की भाषा थी, का स्वीकार उन्हें संकीर्णतापूर्ण लगा होगा, जो जन-मानस को देखते यथार्थ था। महावीर और बुद्ध द्वारा प्राकृतों के अपने उपदेश के माध्यम के रूप में अपनालिए जाने पर उन्हें (प्राकृतों का) विशेष वेग तथा बल प्राप्त हुआ। उनके समय में मगध (दक्षिण बिहार) एक शक्तिशाली राज्य के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका था। उत्तर-बिहार में वज्जिसंघ के कतिपय गणराज्य स्थापित हो चके थे और कौशल के तराई के भाग में भी ऐसी ही स्थिति थी, महावीर वज्जिसंग के अन्तर्वर्ती लिच्छवि गणराज्य के थे और बुद्ध कौशल के अन्तर्वर्ती मल्ल गणराज्य के । यहाँ से प्राकृतों के उत्तरोत्तर उत्कर्ष का काल गतिशील होता है। तब तक प्राकृत (मागधी) मगध साम्राज्य, जो मगध के चारों ओर दूर-दूर तक फैला हुआ था, के राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित हो चुकी थी । प्राकृतों का उत्कष केवल पूर्वीय भू-भाग तक ही सीमित नहीं रहा। वह पश्चिम में भी फैलने लगा। लोग प्राकृतों को अपनाने लगे। उनके प्रयोग का क्षेत्र बढ़ने लगा। बोलचाल में तो वहाँ (पश्चिम) भी प्राकृतें पहले से थी ही, अब वे धार्मिक क्षेत्र के अतिरिक्त अन्यान्य लोक-जनीन विषयों में भी साहित्यिक माध्यम का रूप प्राप्त करने लगी। वैदिक संस्कृति के पुरस्कर्ता और संस्कृत के पोषक Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा : उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद लोगों को इसमें अपने उत्कर्ष का विलय आशंकित होने लगा । फलतः प्राकृत के प्रयोग की उत्तरोत्तर संवर्द्धनशील व्यापकता की संस्कृत पर एक विशेष प्रतिक्रिया हुई । तब तक मुख्यतः संस्कृत का प्रयोग पौरोहित्य, कर्मकाण्ड, याज्ञिक विधि-विधान तथा धार्मिक संस्कार आदि से सम्बद्ध विषयों तक ही सीमित था । अब उसमें एक लोकजनीन विषयों पर लोकनीति, राजनीति, सदाचार, समाज-व्यवस्था, लोकरंजन प्रभृति जीवन के विविध अंगों का संस्पर्श करने वाले साहित्य की सृष्टि होने लगी । प्राकृत में यह सब चल रहा था । लोक-जीवन में रची- पची होने के कारण लोक - चिन्तन का माध्यम यही भाषा थी । अत: उस समय संस्कृत में जो लोक-साहित्य का सर्जन हुआ, उसके भीतर चिन्तन-धारा प्राकृत की है और भाषा का आवरण संस्कृत का । उदाहरण के रूप में महाभारत का नाम लिया जा सकता है । महाभारत समय-समय पर उत्तरोत्तर संवद्धित होता रहा है । महाभारत में श्रमण संस्कृति और जीवन-दर्शन के जो अनेक पक्ष चर्चित हुए हैं, यह सब इसी स्थिति का परिणाम है । भाषावैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से यह अन्वेष्टाओं के लिए गवेषणा का एक महत्वपूर्ण विषय है । अस्तु -- एतन्मूलक (संस्कृत) साहित्य प्राकृतभाषी जन समुदाय में भी प्रवेश पाने लगा । इस क्रम के बीच प्रयुज्यमान भाषा (संस्कृत) के स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन हुआ । यद्यपि संस्कृत व्याकरण से इतनी कसी हुई भाषा है कि उसमें शब्दों और धातुओं के रूपों में विशेष परिवर्तन की गुंजायश नहीं हैं, पर फिर भी जब कोई भाषा अन्य भाषा-भाषियों के प्रयोग में आने योग्य बनने लगती है या प्रयोग में आने लगती है तो उसमें स्वरूपात्मक या संघटनात्मक दृष्टि से कुछ ऐसी बातें समाविष्ट होने लगती हैं, जो उन भाषा-भाषियों के लिए सरलता तथा अनुकूलता लाने वाली होती हैं । उसमें सादृश्यमूलक शब्दों का प्रयोग अधिक होने लगता है । उसका शब्द-कोश भी समृद्धि पाने लगता है । शब्दों के अर्थ में भी जहाँ-तहाँ परिवर्तन हो जाता है । दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है, वे नये-नये अर्थ ग्रहण करने लगते हैं । विकल्प और अपवाद कम हो जाते हैं। साथ ही साथ एक बात और घटित होती है, जब अन्य भाषा-भाषी लोग किसी शिष्ट भाषा का प्रयोग करने लगते हैं तो उनकी अपनी भाषाओं पर भी उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता । ३१ यह सब हुआ, पर भगवान् महावीर और बुद्ध के अभियान के उत्तरोत्तर गतिशील और अभिवृद्धिशील होते जाने के कारण संस्कृत उपर्युक्त रूप में सरलता और लोक-जनीनता ग्रहण करने पर भी प्राकृतों का स्थान नहीं ले सकी । अतएव तदुपरान्त संस्कृत में जो साहित्य प्रणीत हुआ, वह विशेषतः विद्वद्भोग्य रहा, उसकी लोक-भोग्यता कम होती गई । लम्बे-लम्बे समास, दुरूह सन्धि-प्रयोग, शब्दालंकार या शब्दाडम्बर तथा कृत्रिमतापूर्ण पदरचना और वाक्यरचना से साहित्य जटिल और क्लिष्ट होता गया । सामान्य पाठकों की पहुँच उस तक कैसे होती । 0 康 श्री आनन्दन ग्रन्थ : 39 श्री आनन्द थ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NSTI साप PAL श्रीआनन्द श्रीआनन्द अन्न - श्री चन्दन मुनि प्राकृत एवं संस्कृत के अनेक ग्रन्थों के लेखक, तेरापंथसंघ के प्रतिभाशाली प्रमुख संत] पाइअ-भासा 1Ale ___ जगईए जं किमवि पयडीए पयडीहूअं थावरजंगमं वत्थुजायं तं सव्वमवि मणोहरं, मणुण्णं, अमलाविलं च पडिहाइ । अव्वो ! अणुऊल-सलिल-तावाइ-सहयर-सहयोग-समुट्ठिअं सयं संमुच्छिमं मउलतममंकुरं केरिसं णयणप्पियं ? ण कस्स पुण पेच्छणिज्जं उभयओ णई-कूल-कोआसि१ णियन्त-हरिअ-भरि पगडीए पत्थूअमाणं निम्मलं सद्दलं ? कत्थइ अणुत्ता वि असित्ता वि अरक्खिआ वि विविह-वण्ण-विचित्ता णाणामणोरमागार-मंजूला पडिप्फुडंत-सोरह-महमहिआ पगइ-अकक्कसा कुसुमाणं पंती। कण्हइ विसंखला थउडा समुन्नया अवणया य तण-लया-गुम्म-रुक्ख-तिरोहिआ पगइ-सोहिआ सिहरीणं सेणी। णूणं सहजसमुल्लसि पयडि-विलसि सव्वओ सव्वं पिअंहि परिप्फरइ । सक्कार-परिक्करिअं किमवि परहत्थफुसि लज्जावईछ्वमिव अन्नारिसं परिलक्खिज्जइ । अलं भो अलं णाणाविहपहप्पर-पओगकुसला आहुणिआ विण्णाणिआ ! पयडीए पत्थूअमाणं वत्थु मा मोरउल्ला सक्कारणामेण विगयं काउं चेट्ठह । सुन्दरं उवजोगिमं कुणिमो त्ति मा निरद्वयं गव्वं परिवहह । अत्थि पयडि-पइट्ठिअं सुन्दरासुन्दरविवेयणविरहि तारगचक्कवालव्व सयं मणोहारि । खणं तं अमयमयं पिबह विगप्पसुन्नेणं विमलेणं चेयसा । पाइअ-भासा वि नेसग्गिअ-गुणप्पसन्नप्पगासा आबालंगणागोवालचक्कवालेण अणायासमासाइज्जमाणा विलसइ अणाइकालेणं । सा सक्कय भासासगासओ विगासमागय त्ति वागरणं अलद्धजागरणं । णणु णामेणावि पगईए आगय पागयं ति फुडं परिकप्पिज्जइ किर अप्पण्णुणा वि मणुओण । तहेव सक्कारोहितो णिप्फन्नं सक्कयं ति पायड निव्वयणेणं अवसि हवेज्ज ईसि सक्खरेण वि णरेण । तत्तो णिस्संकमिणं अंगीकरणिज्जं जं पुव्वमासि किर पउर-पउर-जणेहिं पओगमाणिज्जमाणा आइमकालओ पयारं पत्ता विविह-जडिलवागरण-णियमेहिं अणियंतिआ णाणाजाइदेसभेएहि विभत्तिमावन्ना सयं संपन्ना पागया भासा धूवमपक्खगाहिणा मेहाविणा । असिक्खिओ अपाढिओ वि तीसे पओगो आसि साहारणजणवयणारविंद-विरायमाणो तक्कालम्मि। तेसिं लाहट्टमेव कारुण्ण-पुण्णा महावीर-बुद्धाइणो जुगपुरिमा तप्पओगं णिस्संकं कुणमाणा आसि । जहा-'भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ। सा वि य णं अद्धमागहा भासा तेसि सव्वेसिं आयरिअमणायरिआणं अप्पणो सभासाए परिणामेणं परिणमइ” (औपपातिक DER HE १. विकसितम् । Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअ-भासा सूत्र) एवं अद्धमागाह भासं जिणा भासन्ति त्ति फुडकहणमत्थि आगमिआणं । तित्थयराणं माहप्पेण अइसइआ सा चिअ भासा सघण-घण-मुत्ता कायंबिणी व णाणादेसविसेसभावं भयमाणा सव्वेसिं सुरासुरनर-तिरिअ-वग्गेण सुगेज्झा विचित्त-जडिल-पण्हजाल-समाहाणकरण-कुसला सरला सुबोहा सुगमा य पडिहाइ। हं भो ! ण तक्कणिज्जं इणमो जं कहमेआरिसं पडिवाइअं कलिगालसव्वण्णुणा सिरिहेमचंदायरिअपाएण । जहा -- प्रकृतिः संस्कृतं, ततः आगतं प्राकृतम्' एत्थ वि विलसइ किमवि सुन्दरं समाहाणं अपक्खगाहिणीए जइ सहदिट्ठीए पलोइज्जिइ । जं तेहिं अज्झायसत्तगम्मि सुकय-सवित्थर-संगोवङ्ग-सक्कय भासासाहणे पगइ-पच्चय-लिंग-विभत्ति-कारग-समासाईणं विवेयणपुव्वगं सद्दाणुसासण । तत्थ जइ पाइअभासाए पुणरवि सततरूवेणं सिद्धी संपाडिज्जेज्जा तयाणि सव्वेसिं पयडि-पच्चयाईणं तहेव संठावणं णिओयणं च करणिज्ज सिया। तम्हा पुव्व-पवंचिअं धाउ-विभत्ति-पच्चयाइयं किंचि बिभेअ-णिदंसण-पुरस्सरं उवढोइअं समाणं सव्वेसिं णवपाढगाणं सुगम सोकज्जच निच्छ्यिं हवेज्जा। जहा तज्जाणगा अप्पतमपयासेण वि पाइअं भासं गहेउं पहप्पेज्जा । तेण आयरिअपाएण सपरिस्सम-लाहवं सुगमाए पणालीए साहिअं । किंतु ण तस्स एयारिसं तप्पज्जं अहिलसणिज्जं जं ण पुव्वमासि पागया भासा, सा सक्कय-भासाओ पाउब्भावं गय त्ति। अहो ! आयरिअ-हेमचन्दस्स चेअ सद्दे ण सा संका सयं णिरसिआ सिया । जहा तेण कव्वाणुसासणस्स मंगलायरणं कुणमाणेण जिणवरगिराए माहप्पं निरूवमाणेण फुडं वागरिअं—“अकृत्रिमस्वादुपदां जैनी वाचमुपास्महे" एत्थ 'अकित्तिम' सहस्स पओगो कि पि रहस्समयं तत्तं पयडीकुणेइ । णूणं पाइअ-भासाए पायडं णिसग्गजन्नत्तणं सूअयइ । जं भासं मायरभासारूवेण सव्वेवि बाला, गोवाला, कम्मगरा, अपढिअनरा तहा सहजसभासापेम्मिल्लाओ महुरवयणाओ महेलाओ पउंजंति सा अकित्तिमा सक्कार-परिक्कारपरिवज्जिआ जहिच्छिया बाललीला विय मणोहारिणी कण्णप्पिया पडिहाइ। एत्तोच्चिअ सा साउपया समहरुच्चारा अक्खलिअ-पयक्खरा सव्वओ अणिअंतिआ हियंगमा पडिकहिज्जइ। तहेव कव्वगगणंगण-भक्खरेण सिद्धसेण-दिवायरेणावि दुवातिस-दुवातिसिगामज्झे जिणिदं थणमाणेण उग्घोसिअं-"अकृत्रिमस्वादुपदैर्जनं जनं जिनेन्द्र ! साक्षादिव पासि भाषितैः" एत्थ वि 'अकित्तिम-साउपय' विसेसणप्पओगो जिणिन्द-चन्दाणं भासा-कए कओ। सा एव भासा जणं जणं-साहारजणं पडिबोहेउ पच्चला। तहेव जेणेयर-कवितल्लजेहिं पि पाइअ-भासा सव्वेसिं भासाणं उग्गमरूव त्ति पडिवन्न । जहा स्तिस्स अट्ठमीए सईए लद्धजम्मेण बप्पइराअ-णामगेण "गउडवह"-णामगं कव्वं लिहमाणेण महापंडिएण पयडिअं सयलाओ इमं वाया विसंति एत्तो य णेति वायाओ। एंति समुह चिअ णेति सायराओ च्चिअ जलाइं ॥३॥ महापंडिय-बप्पइणो कहणस्स इणमेव तप्पज्जं जंण पाइअ-भासा अन्नभासासगासओ सब्भावं गया। पच्चल्लं सव्वाओ किर भासाओ समुद्दणिदंसणेण जलाणीव पाउब्भावं गया, तम्मि चेव पच्छा विलीणा। १. छाया=सकला इमां वाचो विशन्तीतश्च निर्यन्ति वाच; । आयान्ति समुद्रमेव निर्यन्ति (वाष्पादिरूपेण) सागरादेव जलानि ॥६३॥ sxecomwwwimwecasranamammission SVITI साचा श्रीआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्दा अन्य rrer IPYTHIN. ....... .M.Niraya-rvt.vorror Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JoumiraninanAmAradAnurasaMJAAAAAAAAKinarsionawanamainamaAJAJARKIAAAAAAAAAAAAAACADIBAAR08 aonmammomramviraimaaivinmommmmmmmmmmmmarrieviewInHindimammam ३४ प्राकृत भाषा और साहित्य इणं पि ण संकणिज्ज पुण जं मिलिच्छ-वडु-विऊसग-मुहेहि ववहरिज्जमाणा सा भासा, ण उणाइ सब्भ-सालीणजण मुहारविन्देसु विरायमाणा। एयं कहणमवि ण खलु विवेगविलसिअं। जहा-महाकवि सिरि भवभूइविरइए उत्तररामचरिए कहं सीआ कोसल्ला य तप्पओ गं कुणमाणा । उयाहरणं-जहा तइये अंकम्मि । सीता--(ससंभ्रम कतिचित्पदानि गत्वा) "अज्जउत्त ! परित्ताहि परित्ताहि मह पुत्त (विचिन्त्य) हद्धी ! हरी ! ताई एव्व चिरपरिचिदाई अक्खराइं पंचवटीदसणेण मं मन्दभाइणि अणुबन्धन्ति । हा अज्जउत्त" ।' कौसल्या-"कहं ण खु वच्चए मे बहुए वनगदाए तस्सा पिदुणो राएसिणो मुहं दसम्ह ।" २ पेच्छणिज्जं, किं णासि जगणंदणी रामस्स महारायस्स परमवल्लहा सीया सक्खरा णाणाविज्जाभेय-कुसला । तहेव सिरिरामस्स माया कोसल्ला कि णु णासि विविहविज्जाविण्णाणपारं गया ? कहं तीहिं पाइअ-भासाए पओगो कओ। कहं वा जइत्थठिइविण्णुणा महा कविणा तीसुतो तारिस-भासापओगो काराविओ ? णूण सभासावल्लहो पयडीए विलयाजणो तं चियभासं भासमाणो आसि त्ति फुडं सूइअं । णीसंकं इणमेव पडिवज्जणिज्जं जं सभावओ सब्वत्थ सव्वजणवएसु सीअं मायर-भासं भासमाणीओ पेक्खिज्जति महेलाओ। होंतु पढिआओ ताओ तहवि ण सतो मुहकमलसंचारिणि माउभासं चएउं समीहंति । केरिसी महरिमा केरिसी अत्थविबोहणखमया विरायइ णिअ-भासासु । सुपढिअ-मणुआ अवि पारवारिएहि जणेहिं सभासाए किर संलवंति । अलद्ध-सद्दजालेहि बालेहि सद्धि तु सव्वेवि जणा सभासं सप्पेमं पउंजंति त्ति सव्वविइयमेव । पुणो णाणाणियमणियंतिआसु अवरभासासु ण तारिसो जंपणप्पहावो वि परिप्फुरेज्जा जारिसो णिअभासम्मि । कारणं, सद्दचयणचिंतणम्मि भाव-आविब्भावप्पहावो खंडिओ सिया। तम्हा पाइअ-भासाओ सव्वदिट्टिहितो सुगमा सुहबोहा सुहुच्चारा य । अलाहि परेसिं उयाहरणेहि । एत्थ उत्तररामचरिते एव छट्रमे अंके अणेगविज्जाविउरा सयं विज्जाहरी वि तं चेव भासं भासमाणी पत्तत्तं गया। जहा—विद्याधरी -'कहं अविरल-विलोलघुण्णमाण-विज्जुलदाविलासमंसलेहिं मत्तमयूर-कण्ठ-सामलेहि ओत्थरीअदि ण भोंगणं जलहरेहिं ।"3 ता सयं निरट्ठयत्तणं गया सा संका जं अपढिअ-जणाणं पागय-भास त्ति । तहेव कविकूलकूजरेण कालिदासेणावि अभिण्णाण-साउन्दले णामणाडए सयं सउन्दला वि तमेव भासं भासमाणा पत्थुआ। अच्छरिज्जमिणं जं सा रिसिआसमं सेवमाणा अणुवेलं रिसीहिं सद्धि संलवमाणा कहं पाइअभासापेमिल्ला जाया ? एवमाइएहिं अणेगदिट्ट तेहिं निव्वाबाहं इणं तत्तं परिप्फुडत्तणं वच्चइ जं वेइयकाले वि काएचिय कत्थभासाए साहारणजणपउंजणजुग्गाए अवस्स भवियव्वं । कावि भासा सा पागय-णामेण णणं ववहरणिज्ज ति अपण ल्लिअ वि तत्तं सयं अप्पडिहयं पयडिअं जायइ । HAA htA १. छाया=आर्यपुत्र, परित्रायस्व परित्रायस्व मम पुत्रकम् । हा धिक् ! हा धिक् ! तान्येव चिरपरिचि तान्य क्षराणि पंचवटीदर्शनेन मां मन्दभागिनीं अनुबध्नन्ति । हा आर्यपुत्र ! २. छाया= कथं न खलु वत्साया मे वध्वा वनगतायास्तस्याः पितुः राजर्षे: मुखं दर्शयामः । ३. छाया- कथमविरल-विलोल-चूर्णमान-विद्युल्लता-विलास-मांसलमत्त-मयूरकण्ठ-श्यामलैरवस्तीर्यते नभोङ्गणं जलधरैः। Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 पाइस-मासा ३५ पुणो एगं वीमंसणिज्जं तत्तं अह सक्कयभासा वि दुविहा विभजिज्जमाणा पडिवज्जिआ सव्वेहिं पाईणवागरणकारगेहिं । जहा-वेइअ-सक्कयभासा, लोइअ-सक्कयभासा य । एत्तो च्चिअ इणं रहस्सं अंकुरिअं भवेज्जा जं वेइअ सक्कयभासा वि जहाकहंचि णणं सवकारमावन्ना समाणा वे इअ-सक्कयभासा-णामत्तो पसिद्धि गया। सा चेव पूणो कालक्कमेण पाणिणिआई-मुणित्तिगेण साई सक्कारमावाइआ वागरणणियमेहि सुयरं णिअंतिआ संती लोइअ-सक्कयभास त्ति सव्वेहिं सीकया। जा भासा किचि सक्कारं पडिवज्जेऊण वेइअसक्कयभासाए णामेण पाउब्भावं गया, सा सक्कारविवज्जिआ का भासा पुव्वमासि ! णणु सक्कारं तु विज्जमाणं किर किमवि वत्थुजायं पडिवज्जिज्जा। जइ णत्थि किमवि पुव्वं ताहे कीस सक्कारो संपाडिज्जेज्ज । जहा पयडिपदिण्णं गोथण-निप्फन्नं अकित्तिमं विसुद्धं दुद्धं । तं पि अग्गिसंताविअं कढिअं तंदुलखंडाइदम्वेहि मीसालि एलाकेसराइ-वत्थुनिखेवेण महमहिअं पायसं भणिज्जइ । सद्दनिज्जुत्तिसमयम्मि पयस्स विगारो पायसं ति (पयसः विकार:पायसं) फुडं कहणिज्जमेव । णीविगअं तु पाइअं दुद्धं चेव । तम्हा पयडि-पचलिआ णिसग्ग-उवढोइआ सा भासा, पागया चेव, इअ टंकुक्कसि तत्तं । __इणं तु णिच्छि पडिवज्जेयव्वं तत्तं जं जारिसी पुवकालिया पाइअ-भासा, ण तारिसी आहणिया। अहणा पउंजमाणा पागय-भासा णूणं सक्कय-भासाए जत्थ तत्थ पहाविआ । अणेगेहिं तग्गयपओगेहि किंचि कायकप्पं पत्ता। तह वि सुरसरस्सईव सततं वहमाणा अज्ज वि णि गारवं सुरक्खमाणा विलसइ । किंतु सक्कअभासा-सगासओ पाइअभासा पाउब्भावं गय 'त्ति कहणं कहमवि ण खमणारिहं। पागय ववहरमाणेहिं जेणागमिएहिं ण सक्कय भासा तुच्छदिट्ठीए पलोइआ। पच्चुलं समासणणिवेसणेण तीसे विसिट्ठ माहप्पं परिवड्डिअं । जहा-अणुओगदारे सुत्तम्मि फुडं भाणिअं-"सक्कयं पागयं चेव, पसत्थं इसिभासि।" पुव्वकालिय-आयरिएहि पुणो इणमेव पडिवन्नं जं गणिपिडगसन्नं दुवालसमं दिट्टिवायणामगं अईव वित्थिण्णं सक्कयभामाए चेव संकलिअं आसि जं इयाणि विलुत्तं विज्जइ। पूणो आगमवित्तिकारगेहिं किर सा चिअ भासा पओगं णीआ। पुणो वेइअ—सक्कयभासाए अणेगे वागरण-णिअमा पाइअ-भासा तुल्ला । अणेगा किरिआओ वि रूवसम्म सम्मं परिवहन्ति । अणेगे विभत्तिपच्चया अवि तस्समाणा । तेण पुत्वं ववहरिज्जमाण-पाइअभासाए फड पभावो दीसए तत्थ । उअह (पश्यत) काइं चि उयाहरणाई दोण्हं भासाणं तुल्लत्तण-वंजगाईपाइअ-भासाए अगारंत-पुलिंगेगवयणे 'ओ' ववहरिज्जइ । जहा-देवो जिणो सो, तहेव वेइअ-भासाए ओगारप्पओगो कत्थइ दीसइ । जहा—संवत्सरो अजायत, सो चित् (ऋग्वेदसंहिता १, १८१, १, ११) पेच्छणिज्जं केरिसं सम्म ? पाइले पुणो तइयाए बहुवयणम्मि देवेहि, गंभीरेहिं, जे? हिं, तहेव वेइअप्पओगेसु- देवेभिः गंभीरेभिः ज्येष्ठेभिः । जहा होइ पाइअ-भासाए 'ध' स्स हकारो, जहा-बधिर = बहिरो व्याध =बाहो, तहा वेए वि-प्रतिसंधाय प्रतिसंहाय (गोपथब्राह्मण २-४) पाइअ-गिराए अंतवंजणस्स लुग हवइ । जहा-- तावत्=ताव, यशस्= जसो, तहा वेएसु वि पओगा लब्भिज्जति । जहा-पश्चात-पश्चा, नीचात् =नीचा, उच्चात् उच्चा । पाइओ इव वेएस वि चउत्थी विभत्तिट्ठाणे छट्ठी । “चतुर्थ्यथें बहुलं सस 1ORIA - OPA ANDA UnaukaawaiianSAALAAMALAMGAAIMeawwerinaamareANUASAMANASAAAAAAAAAAAAAAAACADAIRANAS A MMAR आचार्यप्रवर अभिलागार्यप्रवर आभा श्राआनन्दप अन्य प्राआनन्द अन्न v MNAamrapariwa MANYIWAVanavarnama Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रवर आचार्यप्रवामिन श्रीआनन्दमश्रीआनन्द प्राकृत भाषा और साहित्य छन्दसि" (२, ३, ६२) अलाहि बहवित्थरेण, अणेगसो तुल्ला पओगा पाइअ-वेइअभासाणं दिट्रिपहं समोयरंति । एवं पुवपचलिअ-पाइअभासापओगेहिं णणं वेइअभासा सक्कारमावण्णावि किंचि अवकता ठिआ। केरिसी सुगेज्झा पाइअ-भासा ? केई आहणिआ पच्छमिल्ल-भासाराय-रंजिआ सक्कय-मासा-मंडिआ पंडिआ वा अन्नाणओ पाइअं भासं कढिणं मन्नमाणा उवेक्खंति । परन्तु जइ ईसि पि ते पाइअ-भासाए परिणाणट्ठ परिस्समेज्जा तयाणि तुरिअं चवलमेव तं परिघेत्तु समत्था हवेज्जा, णत्थि एत्थ कोइ संदेहो । तेसि भंतिणिवारण₹ सप्पेरण, वा इच्छामो अम्हे एत्थ का चि उधाहरणाई पत्थोउं । जहा-पुत्वमेव सन्धिप्पगरणेसु कढिण विगप्प-जाल-जडिले केरिसे 'दध्यानय' आइ-दुरूह-विमासाभास-विसंतुले पओगे पयडीकुणेइ तत्थ पागयभासा एगमेव सुरक्खिरं सत्तं पक्खिवेइ पाढगाणं पुरओ। जहा-"पदयोः सन्धिर्वा" पागय-भासासु सव्वाओ संधीओ विगप्पिज्जति । णिच्चसन्धिस्स ण कोइ एत्थ णिअमो । कुणिज्जउ वासेसी, वास इसी इअ जहिच्छिअं रूवं । किं बहुणा समासम्मि वि जत्थ सक्कयभासाए निच्छिओ सन्धिणिअमो तत्थ वि एत्थ जहिच्छिअपओआणं पओयणा । जहा आइच्चाभामंडनम्मि, तहा आइच्च-आभामंडलम्मि । केरिसी सुगमा पणाली ? कइवाहसंधीओ तु ण सीकया पाइअभासाए । जहा-ए-अय, ऐ-आय, ओ-अ, औ-आव् । तहेव इ-अय, उ-अव्, ऋ-अर, ल-अल् एवमाइओ संधीओ कयाइ ण भवंति । अणेण कमेण पागयभासए ण सन्धीणं काइ णियंतणा। एवं विभत्तिरूवाणि वि पागय-भासाए अईव सुगमाणि । पुलिंगे इगारंत-उगारंतरूवाण पि अगारंतरूवेहि सद्धि बहुसो तुल्लत्तणं । जहा-देवस्स सव्वस्स, तहा हरिस्स, भाणुस्स । तहेव दंडिणो दंडिस्स, कत्तणो कत्तारस्स, पिउणो पियरस्स, एवमाइआ तुल्ला पओगा। अहो ! ण पागय-भासाए हलंता सहा ठाणं पत्ता । एत्थ सव्वेवि संरता सद्दा च्चिअ ; तेण लिंगत्तिगेण सव्वाई रूवाई सिझंति, ण खलु लिंगछक्केण । अंतवंजणस्स लोवे सगारंता सद्दा वि अगारंता संपाडिज्जति । जहा तमस्=तमो, पयस्=पयो, तहेव णगारंता वि अगारंता हवंति । जहा--जन्मन् = जम्मो, कर्मन् = कम्मो। णात्थि पुण एत्थ तालव्वाइ-भेएण उम्हत्तिगं (श, ष, स इति उष्मत्रिकम्) पागय-भासाए। एगेण किर दंतसगारेण गहिअं उम्हवण्णाणं ठाणं । तेण पाढगाणं कए सक्कय-भासागया एगा महाजडिला समस्सा सयं अकिंचिक्करा जाया । तेण संकर-पीउस-सप्पाइसद्द च्चारणे ण ठाणभेयेण मुहमोडणं कायव्वं सिया । पुणो विसम्गाणं णाणाविहि-विहि-णिसेहरूवो विग्धो ण पागय-भासाए मत्थयत्तिरुवो एत्थ ठाणं पत्तो। तेण बिंदुजुग्ग-वज्जिआ सव्वा वि कव्वप्पणाली इह णिसग्गओ पवहइ । तहा तद्धिअ-पच्चयाणं कयंत-पच्चयाणं इत्थीलिंगम्मि ईबंत-आबंत-निम्माणे जा सक्कयगिराए दुग्घड़ा घडणा तत्थ पागय-सरस्सई अणियन्तं वहमाणा ण ताई बन्धणाई सहेउं पच्चला । एत्थ तु धीमन्ती धीमन्ता, अज्जतणी अज्जतणा, वरागी वरागा, तहेव गच्छंती गच्छमाणा, कुणन्ती कुणमाणा, होती होमाणा इच्चाइरूवाणि लद्धरूवाणि । किं बहुणा इमाए इमीए, ताए तीए, जाए जीए एवमाइआ पओगा वि एत्थ मासासरलत्तणं पयडीकुणेति । P... I ( DARI Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअ-भासा ३७ का N अणणासिअ-विसयम्मि वि एत्थ जहिच्छिया णियमावली ठिई गच्छेइ । इह पङ्को पंको, कञ्चुओ कंचओ, अन्तरं अंतरं इच्चाइरूवजुयलं सावगासं । लिंगाणं कलणा तु सक्कय-भासाए एआरिसी दुग्गमा दुग्गेज्झा, खलंति जत्थ पंडियमाणिणो वि कव्वं कुणमाणा, तत्थ वि पागय-भासा गहियविचित्त-लिंगवत्तासा विरायइ ।" वाक्ष्यर्थवचनाद्याः" (१,३३), "गुणाद्याः क्लीवे वा” १,३४) "वेमाञ्जल्याद्याः स्त्रियाम्” (१,३५) इइ सुत्तत्तयेण दढलिंग-णियन्तणभित्ती सिढिलीकया। तेण णिच्चणपुंसगलिंगा वि पुलिंगं पत्त। । जहा-नयणाणि नयगा, वयणाणि वयणा, माहप्पं माहप्पो । णिच्चपुलिंगा वि णपुंसगलिंगम्मि सावगासा । जहा-गुणा गुणाई, रुक्खा रुक्खाई, तहेव धुवपुवायगा इमंता वि इत्थीलिंग पत्ता । जहा-एस महिमा एसा महिमा, एवं अणेगे लिंगविप्पयासप्पओगे पागय-मासा धारेउं खमा । वत्युत्तणो सव्वं लिंगतंतं पागय-भासाए अतंतमेव । तेण ठाणे-ठाणे भणीयइ जं "प्राकृतत्वात् लिंग-व्यत्ययः ।" णूणं अप्पणियंतणं हि भासाए पगरिससूयगं 'ति कहेंति बहुभासाविण्णुणो। अक्खायपगरणं तु सक्कय-भासाए महारण्णतुल्लं दुरवगाहं दुरुत्तरं च । गण-णवगस्स णाणाविहा णियमा विचित्ताणि य रूवाणि । "सेट अनिट्' परिणाणं तु हवेज्ज महामेहाभमकारणं णवपाढगाणं । एगो विधाऊ लगार-णवग-रंगभूमीसुभममाणो णव-णवरूवाइं धारेइ । तत्थ पागय-भासा सरलं-सरलं सरणि सीकरेइ । "सेट् अनिट"-किलेसो लेसओ वि ण विज्जइ एत्थ । सव्वेवि धाउणो पंचसेहि सुत्तेहिं णिरूविआ समाणा सुगेज्झाणि तुल्लाणि रूवाणि धारयति । भूअ-कालेवि ण एत्थ अणज्जतण-सामन्नभूअ-परोक्खाइभेया । जवर एगेण किर रूवेण सव्वेसि भूआणं पूरणं हवेज्जा। जहा–हुवी=अभवत्, अभूत् तहा बभूव, इइरूवाणं एगवयण-बहुवयणजुत्ताणं सम्मपरिणाणं जाएज्जा । एवं काहीअ-कहणेण, अकरोत् अकार्षीत, चकार, इइ सूइअं सिया । एवं वत्तमाणरूवाणं भविस्सइ-णिम्माणे केवलं 'हि' पवेसणेण कज्जं संपन्नं हवेज्जा । जहा-होइ=होहिइ, हसइ=हसिहिइ । पाढगाणं कए केरिसं सुगमत्तणं ? पुणो "ज्ज-ज्जा" पओगे तु सव्वकालमेअ-गयाणि एगवयण-बहुवयणरूवाणि असेसधाउरूवाणि सिझंति । जहा--"भवेज्जा भवेज्ज" , -जोअणेण-भवति भवेत्, भवतु, अमवत, अभूत, बभूव, भूयात्, भविता, भविष्यति, अभविष्यत् आइरूवाणं तत्पज्जं साहिअं सिया । अलाहि बहुपल्लविएण, णीसंदेहं पागय-वागरणं अईव सुलह, सुगम, अप्परिस्समेण पढणिज्जं च विज्जइ । साहिच्चराईणं कए वि पागय-भासा णियंतगहणिज्जा, मन्नणिज्जा य । सिलेसालंकारनिम्माणे तु ण एआरिसी परा काइ भासा जम्मि भिन्न-भिन्नत्थबोहगाणं सहाणं एगेण सण सम्म बोहणं । जहापब्वंभणिज्जमाणी सुव्वइ एगा कव्वसुत्ती भिल्लस्स तिणि भज्जा, एगा मग्गेइ पाणिरं देहि। बीआ मग्गइ हरिणं, तइया गीयं गवरावेइ॥ १ ॥ कस्सवि भिल्लस्स तिणि भज्जाओ आसि । पइस्स परओ तीहि पुहं-पुहं मग्गणा कया। एगाए पिवासाकुलाए पाणि मग्गिअ । बीआए छुहाकुलाए हरिणं मग्गिअं । तइयाए पुण गीयं सुणेउं उक्कंठिरीए गीयं गायउ त्ति साहि। भिन्न-भिन्न-मग्गणाओ सूणेऊण धीमतेण भिल्लपइणा पच्चत्तरिअं "सरो णत्थि" तिणि वि समाहाणं पत्ता। जहा-पढमाए पाणि मग्गिअं । सरो=तडागो णत्थि, कुओ पाणियं ? 卐 minAN- NCRa .....- man.r ai masamanaresamroGORADuwave .nnadunm. Nagaआनआचार्यप्रवचन श्राआनन्द आशाआनन्द marwarenemamananewaamaan PnA Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसन व अमित अभिनंदन आचार्य प्रव ३८ प्राकृत भाषा और साहित्य बीआए हरिण - मग्गणा कया । सरो== बाणो णत्थि । कहं हरिणो मारिज्जइ ? तइयाए गीयठटं कहिअं । सरो = स्वरः णत्थि । कंठस्सरमन्तरेण कुओ गीअं ? एवं एगेण सद्दण सव्वेसि वि एक्कसियं समाहाणं जायं । अच्छरिज्जं ! पाइअ-भासाए एगेण सद्देण विचित्ता खलु अत्था समुब्भवंति । जहा 'वाय' सद्दो एत्थ किंचि चितणिज्जो । वाय = ( वाच) शुक-समूह वाय = ( व्रात) समूह संघ 'अव' उपसर्गस्य अ-लोपे ************ वाय = ( वाचय्) वाएइ, पढ़ना-पढ़ाना वाय = (वा) बहना । महावाए वायते वाय == वादय) बजाना । वाइयव्व वाय = ( व्यागस् ) प्रकृष्ट अपराधी वाय = (वात) जुलाहा, जैसे तन्तुवाय वाय = ( वाक) ॠग्वेद - आदिवाक्य वाय = ( व्याप) प्रकृष्ट विस्तार वाय = ( व्याय) गति, चाल, विशेष लाभ वाय == ( व्याच) वचना, ठगाई वाय = (वाज) पक्ष, पंख, यज्ञ का धान्य Verb 27 "} Adj. Noun " 33 11 11 " "1 77 वाय = ( वाज्) फेंकने वाला वाय = ( व्याज) कपट, बहाना, विशिष्ट गति वाय = (वाग) वल्क वाय (व्यात) विशिष्टगमन वाय = ( वाप) बोना, वपन करना वाय === (वाय) गमन, विवाह वाय = ( व्याद) विशेष ग्रहण करने वाला वाय = (वात) पवन, हवा 1 ! वाय = (पाक) रसोई, बालक वाय पात) पतन, पक्षी समूह वाय = ( पाय) पाप, धूर्त पो वः करणे Noun 37 पुणो बप्पइराएण कवि कोडि-कोडीरेण महापंडिएण गउडवहे केद्दहं सुन्दरं भणिअं - 21 37 23 27 RRR 21 वाय== (अवाय) अपाय । जहा - " बहु वायम्मि वि विसुज्झमाणस्स वरमरणं" एवं एगम्मि सद्दम्मि अणेगे विचित्तचित्त विम्हयकारगे अत्थे सगब्भे वहमाणी पगडा वसुन्धरा विय पागय भासा विरायइ । किं बहु वक्खाण, तंदुलपागणाएण सयं ऊहणिज्जं धीरेहि । "3 hed विझुणकव्वं सव्वसिद्ध ति पडिवज्जेति सध्वे वि सरस- कव्वरसपाइणो विबुह- सेहरा कइणो । तत्थ तु पागय भासा विसिद्ध एगाहिवच्चं वहमाणा विलसइ । लक्खणा - वंजणा-वंगुत्तिपाउक्करणे सीयं fsfsघोसं वायेंती अणेलिसी जसंसिणी सव्वेहि कव्वरस - विष्णूहि सायरं सीकया । "ध्वन्यालोक - साहित्यदर्पणकाव्यानुशासन-वाग्भट्टालंकार” आइगंथेसु ताणि ताणि उदाहरणाणि पागय-भासाणिबद्धाणि पयड पेक्खणिज्जाणि ।” "1 अहो ! कहं तग्गारवं कविधुरंधरा गायन्ति त्ति किंचि दिट्ठिक्खेवो वि कायव्वोअमयं पाउय कव्वं पढिडं सोउं च जेण याणंति । कामस्स तत्त तंति कुणति ते कह ण लज्जति ॥ (हाल की गाथासप्तशती १-२ ) पागय——भासाए सुउमारत्तणं वंजमाणो महाकवी रायसेहरो केत्तिल्लं गरिमाणं तं अप्पेइपरसो सक्कयबंधो पाउय-बन्धोवि होइ सुउमारो । पुरिस - महिलाणं जेत्तिअमिहंतरं तेत्तिअभिमाणं ॥ ( राजशेखर कृत कर्पूर मंजरी जवणिया १ ) Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उम्मिल्लइ लायण्णं पयय-च्छायाएं सक्कयवयाणं । सक्कय-सक्काक्करिसणेण पययस्स वि पहावो ॥ णवमत्यदंसण-संनिवेससिसिराओ बंधरिद्धीओ । भुवबंध मह पययस्मि ॥ अविरलमिणमो अन्भुअ- भावभंगिमं वजमाणाणि पेच्छणिज्जाणि काणि चि पाइय-पज्जाणिअज्जं गओ त्ति अज्जं गओ त्ति अज्जं गओ त्ति गणिरीए । पढमे व्विअ दिअहद्धे कुड्डो रेहाहि चित्तलिओ ॥ उल्लावो मा दिज्जउ लोअ - विरुद्ध 'त्ति णाम काऊण । समुहापडिए को उण वेसे वि दिट्ठ ण पाडेइ ॥ पिबन्तु सुभासियामयं पाइअ - कव्वाणं वायगचणा एवं विसिसुभास १. अवनतमुख: २. सशूको पाइअ-भासा ३६ ( गउडवहो ६५ ) ( गउडवो ७२ ) ( गाथासप्तशती ३-८ ) ( गाथासप्तशती ६-१२) ( गाथासप्तशती ६-६७ ) ( गाथासप्तशती ६ - ६८ ) संतमसंतं दुक्खं सुहं च जाओ घरस्स जाणंति । ता पुत्तअ ! महिलाओ सेसाओ जरा मणुस्साणं ॥ पंकमइलेण छीरेक्कपाइणा दिणाणुवडणे | आनंदिज्जइ हलिओ पुत्तेण व सालिखेत्तेण ॥ कह मे परिणइआले खलसंगो होहिs त्ति चिंतंतो 'ओणअमुहो ससूओ' रुवइ व साली तुसारेण ॥। जंतिअ ! गुलं विमग्गसि ण य मे इच्छाइ वाहसे जंतं । अणरसिअ ! कि ण याणसि ण रसेण विणा गुलो होइ ॥ हसि अदिट्ठदंतं भविअमणिक्कंत देहलीदेसं । मक्खित्तमहं एसो मग्गो कुलबहूणं || जेण विणा ण जिविज्ज्इ अणुणिज्जइ सो कथावराहो वि । पत्त वि णयर दाहे भण कस्स ण वल्लहो अग्गी ॥ ( गाथासप्तशती २-६३ ) अद्दंसणेण पेम्मं अवेइ अइदंसणेण वि अवेइ । ( गाथासप्तशती ६-५४) ( गाथासप्तशती ६ - २५ ) वि अवेइ || ( गाथासप्तशती १-८१) णीअस्स । खलस्स || ( गाथासप्तशती १-८२ ) पिसुण- जणजम्पिएण वि अवेइ एमेव अद्दंसणेण महिला अणस्स अइदंसणेण मुक्खस्स पिसुणजणजम्विएण एमेव वि अणथोवं वणथोवं अग्गीथोवं कसायथोवं च । ण हु थोवं मंतव्वं थोवं पि बहुर होइ ॥ भंडाआरं पाइय-मासा भासाविष्णाणाणुसंधाणे | (आवश्यक नियुक्ति) ( गाथासप्तशती ६-१४) आपाय प्रवद अभिनंदन आआनंद प्रव श्री ॐ० TAPEES 五 SUAJAJAJAM अभिनंद ग्रन्थ vas Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमानव अमदन आआन ४० प्राकृत भाषा और साहित्य पुणो कहं विभिन्नाणं भासाणं परुप्परं सबंधो, मेलणं, कहं एगा भासा अन्नाए पभाविआ, कहं अन्नभासासद्दा अन्नभासाए अप्पसाकय त्ति अणुसंधाउकामेहि विष्णुमणुअहि अवस्सं पढणिज्जा पाइअ-भासा । इसे भासाए णाणं विणा कहमवि ण अनन्नभासाणं संओयणं काउं सक्कं । काओ पुव्वकाल-पउत्ताओ अट्ठारसदेसीय भासाओ ताओ आसि जेसि विआणिरीओ तक्कालिआओ गणिगाओ तप्पओगं कुणमाण 'त्ति कहेंति आगमिआ । इमीसे भासाए गहिर णाणेण तेसि सम्म बोहो संभविज्जइ । तेण जइ कोइ अत्थाहं भासामहासायरं अवगाहे उमहिलसइ तेण अवस्सं पाइअभासा सवसा करणिज्जत्ति अम्हं सबलं पचोयणं । पच्चक्खमणुहूअमेअ अम्हेहि । Su EDITO फ्र www अबिइज्जया विसेसया पाइअ -भासाए पुनरेगा अबिइज्जया विसेसया जं इमाए देसीसद्दाण संगहो णिस्कोअं कओ । ण णाए बद्धकवाडाए ठाउं चेट्ठियं । उग्घाडिअ दारा एसा अइउयारे सगब्भे णव णव-देसीयसद्द धारेडं, जीरेउ च खमा । तम्हा परोसहस्सा जणेहि पउत्तमाणा देसीआ सद्दा एत्थ संग्रहं गया । 'बुहारी' 'टोपिआ' आइणो जण - सद्दा, मोक्कलिअ - आरोग्गिअ - आइआणि किरियारुवाणि एत्थ समाविट्ठाणि । अज्ज वि केसिचि वि देसी सद्दाणं जहा तहा पओगो काउं सक्को । तेण णव णव - सद्दप्पवेसेहि णिच्चं सज्जुक्का एसा ण कयाइ काजुण्णा हविस्सइ । तम्हा धीधणेहि अवस्सं परिचिआ कायव्वा पाइअ -भासा | प्राकृत पद्यों की संस्कृत छाया अमिअं पाउअकव्वं छाया == अमृतं प्राकृतकाव्यं पठितुं श्रोतुं च ये न जानन्ति । कामस्य तत्त्वचिन्तां कुर्वन्ति ते कथं न लज्जन्ते ॥ परुसो सक्कअ-बंधो..... छाया = परुषः संस्कृतबन्ध: प्राकृतबन्धस्तु भवति सुकुमारः । पुरुष महिलयोर्यावदिहान्तरं तावदनयोः 11 उम्मिल्लड लायण्णं ...... अभिनंदन छाया == उन्मीलति लावण्यं प्राकृतच्छायया संस्कृतपदानाम् । संस्कृतसंस्कारोत्कर्षणेन प्राकृतस्यापि प्रभावः ॥ णवमत्थदंसणं .. छाया = नवमार्थदर्शनं अविरलमिदमा भुवनबन्धमिह अज्जं गओ त्ति अज्जं ...... संनिवेशशिशिरा केवलं बन्धर्द्धयः । प्राकृते ॥ छाया = अद्य गत इत्यद्य गत इत्यद्य गत इति गणनशीलया । प्रथम एव दिवसार्धे कुड्यं रेखाभिश्चित्रितम् ।। Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअ-भासा ४१ उल्लावो मा दिज्जउ... छाया= उल्लापो मा दीयतां लोकविरुद्ध इति नाम कृत्वा । संमूखापतिते क: पुनर्दृष्येऽपि दृष्टि न पातयति ।। सन्तमसन्तं दुक्खं ..... छाया -- सदसद दुःखं सुखं च या गृहस्य जानन्ति । ताः पुत्रक ! महिलाः शेषा जरा मनुष्याणाम् ।। पकमइलेण छोरेक्कपाइणा....... छाया= पङ्कमलिनेन क्षीरकपायिना दत्तजानपतनेन । आनन्द्यते हालिकः पुत्रेणेव शालिक्षेत्रेण ॥ कह मे परिण इआले ...... छाया = कथं मे परिणतिकाले खलसङ्गो भविष्यतीति चिन्तयन् । अवनतमुखः सशूको रोदितीव शालिस्तूपारेण ।। जन्तिअ गुलं...... छाया यान्त्रिक गुड विमार्गयसे न च ममेच्छया वाहयसि यन्त्रम् । अरसिक! किं न जानासि न रसेन विना गुडो भवति ॥ हसिअं अदिट्ठदन्तं .... छाया= हसितमदृष्टदन्तं भ्रमितमनिष्क्रान्तदेहलीदेशम् । दृष्टमनुत्क्षिप्तमुखमेष मार्गः कुलवधूनाम् । जेण विणा ण जिविज्जइ... छाया येन विना न जीव्यतेऽनुनीयते स कृतापराधोऽपि । प्राप्तेऽपि नगरदाहे भण कस्य न वल्लभोऽग्निः ॥ असणेण पेम्म...... छाया प्रेमापैत्यतिदर्शनेनाप्यपैति पिशूनजनजल्पितेनाप्यपैत्येवमेवाप्यपैति असणेण महिलाअणस्स...... छाया = अदर्शनेन महिलाजनस्यातिदर्शनेन नीचस्य । मूर्खस्य पिशुजनजल्पितेनैवमेवापि खलस्य । अणथोवं वणथोवं...... छाया= ऋण-स्तोक व्रण-स्तोकं अग्नि-स्तोक कषाय-स्तोकं च । न खलु स्तोकं मन्तव्यं स्तोकमपि बहतरं भवति ।। NME nasa R आपावरब अनि आचारप्रवर अभिन्नाआनन्दा न्य Ox AmmoniNMYMAvaiviativrammarovarvirawirvior Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ veduarter-umarARMERAiruva n ana m paaninindenar.naria . .'-.. PADM . ..... यार्स 15Nआचार्य IYAR - - - OTO. SHRA Namoumar Mw.mmmonwermireonivernmwwwanmomvine -NNNN ० प्रा० एस० एस०, फिसके एम० ए० (अर्धमागधी), एम० ए० (हिन्दी) (प्रा० छत्रपति शिवाजी कालेज, सतारा, महाराष्ट्र) नय प्राकृत तथा अर्धमागधी में अंतर और ऐक्य प्राकृत भारत देश की पुरातन भाषा है। हर एक भाषा का अपना-अपना अलग-अलग स्थान व स्वरूप होता है। 'भाषा' शब्द की व्याख्या विविध प्रकार से की गई है-“मनुष्य के बीच वस्तुओं के विषय में अपनी इच्छा और विचारों का आदान-प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि-संकेतों के व्यवहार को भाषा कहते हैं।" "विचार और आत्माभिव्यक्ति का साधन भाषा है"। भाषा-उत्पत्ति के प्रत्यक्ष और परोक्ष मार्ग होते हैं जैसे अनुकरणमूलकता, विकास, असभ्य जातियों की भाषा आदि। डा० ग्रियर्सन ने भाषा का विभाजन ऐतिहासिक और व्यावहारिक रूप में किया है। ऐतिहासिक भाषा वह है, जिसका छोटा भाग शब्द, उसकी व्युत्पत्ति हमें चेष्टा करने से प्राप्त हो सकती है। व्यावहारिक भाषा का रूप ऐतिहासिक भाषा से अलग है । विरुद्ध स्वरूप है। प्राकृत ऐतिहासिक भाषा है। ऐतिहासिक भाषा इण्डो-जर्मन, इण्डो-आर्यन नाम से भी ज्ञात है। ग्रियर्सन का विचार है कि भारत में प्रथम दो टोलियाँ आई थीं। पहली टोली पंजाब के पास रहने लगी। भौगोलिक परिस्थितियों से भाषा में परिवर्तन होने लगा। दूसरी टोली पंजाब के पास ही वास्तव्य के लिए आ गई। उसने अपनी भाषा समद्ध बनायी, उस भाषा में साहित्य लिखा है। वही भाषा वैदिक भाषा के नाम से प्रसिद्ध हो गई। वैदिक भाषा के समय जो बोली भाषा थी उसे ही प्राकृत कहते हैं। पाणिनी ने वैदिक भाषा का व्याकरण बनाया और उसका संस्कृत नामाभिधान किया । वैदिक और प्राकृत भाषा समकालीन हैं। प्राकृत भाषा की तीन विकासावस्थाएँ हैं । पहली अवस्था प्रथम टोली की बोली भाषा, दूसरी अवस्था साहित्यिक भाषा, तीसरी अवस्था अपभ्रंश तथा प्रादेशिक भाषा है। प्राकृत भाषा की उत्पत्ति के बारे में दो प्रवाह प्रचलित हैं। प्राकृत भाषा का व्याकरण संस्कृताचार्यों ने लिखा। संस्कृत साहित्यिक भाषा होने के कारण तथा ऊँचे लोगों को प्राकृत भाषा का रूप-ज्ञान होने के उद्देश्य से संस्कृत भाषा में व्याकरण लिखा। उनके मतानुसार संस्कृत भाषा से प्राकृत भाषा निर्मित हो गई। साहित्यिक भाषा से बोली भाषा का निर्माण भाषा-विज्ञान के अनुसार सिद्ध नहीं हो सकता । प्राकृत प्रेमी आचार्यों ने प्राकृत से संस्कृत भाषा के निर्माण होने का मत प्रकट किया है । Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत तथा अर्धमागधी में अंतर तथा ऐक्य संस्कृत आचार्यों का मत (१) हेमचन्द्र ( सिद्धहेमशब्दानुशासन ) - प्रकृतिः संस्कृतम् तत्र भवं, तत आगतम् वा प्राकृतम् । (२) मार्कण्डेय - ( प्राकृतसर्वस्व ) - प्रकृतिः संस्कृतम् तत्र भवं प्राकृतमुच्यते । (३) लक्ष्मीधर – (षड्भाषा - चन्द्रिका) - प्रकृतेः संस्कृतयास्तु विकृतिः प्राकृती मता । (४) प्राकृत संजीवनी - प्राकृतस्य तु सर्वमेव संस्कृतम् योनिः । प्राकृत प्रेमी नमिसाधु, महाकवि सिद्धसेन दिवाकर, महाकवि वाक्पतिराज, राजशेखर ने प्राकृत भाषा के बारे में प्रभावक विचार स्पष्ट किये हैं । नमिसाधुजी का मत है- प्रकृति शब्द का अर्थ लोगों का व्याकरण आदि के संस्कार रहित स्वाभाविक वचन व्यापार, उससे उत्पन्न या वही प्राकृत है । महाकवि सिद्धसेन दिवाकर और आचार्य हेमचन्द्र जिनदेव की वाणी को अकृत्रिम मानते हैं । प्राकृत जनसाधारण की मातृभाषा होने के कारण अकृत्रिम, स्वाभाविक है । वाक्पतिराज ने 'गउडवहो' नामक महाकाव्य के ९३ श्लोक में कहा है— इसी प्राकृत भाषा में सब भाषाएँ प्रवेश करती हैं और इस प्राकृत भाषा से ही सब भाषाएँ निर्गत हुई हैं, जैसे जल आकर समुद्र में ही प्रवेश करता है और समुद्र से ही वाष्प रूप से बाहर होता है । प्राकृत भाषा की उत्पत्ति अन्य किसी भाषा से नहीं हुई है, बल्कि संस्कृत आदि सब भाषाएँ प्राकृत से ही उत्पन्न हुई हैं । प्राकृत के अनेक शब्द और प्रत्ययों का मेल संस्कृत भाषा से नहीं सिद्ध होता, अतः प्राकृत मूल भाषा मानना उचित होगा । प्राकृत भाषा में अनेक भाषाएँ समाविष्ट हैं, जैसे- पाली, पैशाची, शौरसेनी, मागधी, अर्धमागधी, महाराष्ट्री, अपभ्रंश । अर्धमागधी प्राकृत भाषा का एक भाग होगा । आगमग्रन्थों की भाषा अर्धमागधी है । जैन धर्म का उपदेश अर्धमागधी भाषा में किया गया है । गणधर सुधर्मास्वामी ने अर्धमागधी को साहित्यिक भाषा का रूप दे दिया । इसे आर्ष प्राकृत और देवताओं की भाषा कहा जाता है । अर्धमागधी भाषा की उत्पत्ति के बारे में मत इस तरह है ४३ (१) मागधी भाषा का आधा भाग जिस भाषा में है वह भाषा अर्धमागधी । (२) जिनदासगणि महत्तर के अनुसार अर्धमगधदेश में बोली जाने वाली भाषा अर्धमागधी है । (३) मगधद्ध विसय मासा निबद्धं । पिशेल इसे आर्ष नाम देते हैं । (४) नमिसाधु का मत - ऋषि, देव, सिद्धों की तथा पुराणों की भाषा आर्ष भाषा है । (५) पश्चिम की ओर शौरसेनी और पूरब की ओर मागधी, इसके बीच बोली जाने वाली भाषा अर्धमागधी है । तत्त्वानुसार देखा जाये तो अर्धमागधी पाली से अर्वाचीन लगती है लेकिन साहित्यिक रूप से देखा जाय तो पाली से अर्धमागधी प्राचीन है, यह सिद्ध होता है । अर्धमागधी का मूल उत्पत्ति स्थान मगध या शूरसेन (अयोध्या) का मध्यवर्ती प्रदेश माना जाता है । ग्रियर्सन ने अर्धमागधी भाषा मध्यदेश और अयोध्या की भाषा कहा है। भाण्डारकर इस भाषा का उत्पत्ति समय ई० द्वितीय शताब्दी, डॉ० चटर्जी तृतीय शताब्दी, डॉ० जेकोबी ई० पू० चतुर्थं शताब्दी का आचार्य प्रव 九 अमरदः आआन व आमदन श्री आनन्दप्र Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DAMAKinARAAMunawwareAIIABADramirmaanindiasarwajaJAINMENMADARJAINAAAAAAAAADMAANBADEEPAL VivmarwYINHIVEen voviyanwiridvioviornvita ४४ प्राकृत भाषा और साहित्य mpn शेष भाग या ई० पू० तृतीय शताब्दी का प्रथम भाग मानते हैं। अर्धमागधी भाषा का निर्माण वैदिककालीन प्राकृत से हुआ है । अर्धमागधी भाषा के लक्षण वर्णभेद-(१) दो स्वरों के मध्यवर्ती असंयुक्त 'क' के स्थान में प्राय: सर्वत्र 'ग' और अनेक स्थलों में 'त' और 'य' होता है-जैसे-आकाश-आगास, लोक-लोग, अधिक-अधित, कुणिक-कुणित, कायिक-काइय, लोक-लोय । (२) दो स्वरों के बीच का असंयुक्त 'ग'प्रायः कायम रहता है, इसका 'त' और 'य' होता है। जैसे-आगमन-आगमण, अतिग-अतित, सागर-सायर । (३) अनाद्य, असंयुक्त क, ग, च, ज, त, द, प, य, व इन व्यंजनों का प्रायः लोप होता है । लुप्त व्यंजनों के दोनों तरफ 'अ' वर्ण होने पर लुप्त व्यंजन के स्थान 'य' होता है । जैसे-लोक:-लोओ, रोचितरोइय, भोजिन्-भोइ, आतुर-आउर, आदेशि-आएसि, कायिक-काइय, आवेश-आएस आदि। (४) शब्द के आदि, मध्य, संयोग में सर्वत्र 'ण' की तरह 'न' भी होता है। जैसे-नदी-नई, ज्ञातपुत्र-नायपुत्त, अनिल-अणिल । (५) यथा, यावत्, शब्द के 'य' का लोप और ज दोनों ही देखे जाते हैं। जैसे-यथाजातअहाजाय, यावज्जीव-जावज्जीव । नाम विभक्ति-(१) अकारान्त पुलिंग शब्द के प्रथमा एक वचन में 'ए', 'ओ' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं—देवे, देवो। (२) सप्तमी एकवचन में 'अंसि, प्रत्यय आता है-देवंसि, कम्मसि । (३) चतुर्थी के एकवचन में आए प्रत्यय आता है-सवणाए, कण्हाए। धातु रूप--(१) भूतकाल के लिए एकवचन में 'इत्था' और बहवचन में 'इंसु' प्रत्यय आते हैंकरित्था, करिसु । (२) 'त्वा' प्रत्यय के अनेक रूप दिखाई देते हैं -कटु, चइत्ता, जाणितु, किच्चा, दुरूहिया, लद्ध आदि । (३) 'तुम' प्रत्यय के स्थान में 'इत्तए' का प्रयोग करते हैं, जैसे-करित्तए, गच्छित्तए। (४) तद्धित रूप बनाने के लिए 'तर' प्रत्यय का 'तराय' रूप होता है-जैसे अप्पतराए, कंततराए। अन्य विशेषताएँ-(१) पुनरावृत्ति न हो, इसलिए अंकों का प्रयोग किया जाता है, जैसेअन्न-४, खीरधाई-५। (२) वैशिष्ट्यपूर्ण वाक्यप्रयोग-कालं मासे कालं किच्चा, जामेव दिसी पाउन्भूया तामेव दिसी पडिगया। (३) सप्तमी विभक्ति के बदले तृतीया विभक्ति का प्रयोग किया जाता है जैसे--तेण कालेणं तेणं समएणं। (४) समान वर्णन हो तो कुछ शब्द, वाक्य लिखकर जाव....."ताव, वण्णओ आदि का प्रयोग कर शेष वर्णन करते हैं। May Karmy Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत तथा अर्धमागधी में अंतर तथा ऐक्य ४५ बरनेट का मत यह है कि अर्धमागधी विशिष्ट शब्दों से युक्त होने से तान्त्रिक भाषा है अत: रचना क्लिष्ट लगती है। नूतनता का अभाव है। अन्य प्राकृत भाषा-प्रेमी विद्वानों का विचार है-अर्धमागधी भाषा आसान, समझने के लिए अच्छी है । नायाधम्मकहाओ, उत्तराज्झयण की भाषा सुबोध है। ___'प्राकृत भाषा' यह शब्दप्रयोग अर्धमागधी तथा अन्य भाषाओं के लिए भी किया जाता है। अन्यान्य व्याकरणकारों ने किसी-न-किसी रूप में महाराष्ट्री भाषा को महत्त्व दिया है। संस्कृत भाषा का अपभ्रष्ट रूप जो भी भाषा या रूप प्राप्त होगा उसे प्राकृत माना गया है। पाली और अर्धमागधी भाषा को पहले-पहल प्राकृत माना गया । सूक्ष्मता से देखा जाय तो अर्धमागधी भाषा का रूप अलग ही है। आर्षभाषा और अर्धमागधी भाषा इन दोनों में भेद नहीं है, यह डॉ. जेकोबी ने सप्रमाण सिद्ध किया है। जैन सूत्रों की भाषा अर्धमागधी है तथा परवर्ती काल में महाराष्ट्री की विशेषताओं से युक्त होने से जैन महाराष्ट्री कही जा सकती है। पंडित बेचरदास जी ने अर्धमागधी भाषा को महाराष्ट्री सिद्ध करने की विफल चेष्टा की है । प्राकृत शब्द का मुख्य अर्थ है प्रादेशिक कथ्यभाषा लोकभाषा। जैन सूत्रों की अर्धमागधी भाषा नाट्यशास्त्र या प्राकृत व्याकरणों की अर्धमागधी से समान न होने के कारण महाराष्ट्री न कही जाकर अर्धमागधी ही कही जा सकती है। भरत ने जिन सात भाषाओं का उल्लेख किया है, उसमें अर्धमागधी भी है। नाटकों में प्रयुक्त अर्धमागधी तथा जैन सूत्रों की अर्धमागधी में समानता की अपेक्षा भेद ही दिखाई देता है । डॉ० होन लि ने जैन अर्धमागधी को ही आर्षप्राकृत कहकर इसी को परवर्ती काल में उत्पन्न अन्य भाषाओं का मूल माना है। हेमचन्द्र ने एक ही भाषा के प्राचीन रूप को आर्ष प्राकृत और अर्वाचीन रूप को महाराष्ट्री मानते हुए आर्ष प्राकृत को महाराष्ट्री का मूल स्वीकार किया है। महाराष्ट्री में य श्रुति का नियम हम देखते हैं । अर्धमागधी में प्रायः उसी नियम से सम्बन्धित व्यंजनों के लिए अन्यान्य व्यंजनों का प्रयोग किया जाता है। महाराष्ट्री की तरह लोप भी दिखाई देता है। गद्य में भी अनेक स्थलों में समास के उत्तर शब्द के पहले 'म्' आगम होता है। महाराष्ट्री के पद्य में पादपूर्ति के लिए ही कहीं-कहीं 'म्' आगम देखा जाता है, गद्य में नहीं। अर्धमागधी में ऐसे बहुत से शब्द हैं, जिनका प्रयोग महाराष्ट्री में उपलब्ध नहीं होता जैसे-बक्क, विउस आदि । ऐसे शब्दों की संख्या भी बहुत बड़ी है जिनके रूप अर्धमागधी और महाराष्ट्री में भिन्न प्रकार के होते हैं; जैसे—आहरण -उआहरण, दोच्च-दुइअ, पुब्बि-पुव्वं । महाराष्ट्री में सप्तमी विभक्ति में 'म्मि', तृतीया एकवचन में 'एण' प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है । महाराष्ट्री में भूतकाल का प्रयोग लुप्त हो गया है। महाराष्ट्री और अर्धमागधी में सूक्ष्म भेद भी है । अर्धमागधी भाषा की अन्य विशेषताएं पूर्व में स्पष्ट की हैं। उन विशेषताओं से भी महाराष्ट्री से अर्धमागधी भाषा अलग है, यह सिद्ध होता है। भाषा परिवर्तनशील है । अर्धमागधी भाषा का रूप पहले वैशिष्ट्यपूर्ण था, बाद में उसे परिवर्तित होना पड़ा । प्राकृत शब्द से सम्बन्धित जो अन्य भाषाएँ हैं उनका तथा अर्धमागधी का सम्बन्ध माता और पुत्री जैसा माना जाय तो गलत नहीं होगा। वैदिक कालीन बोली-भाषा का रूप विशेष है। उससे अर्धमागधी भाषा का निर्माण हुआ। किसी मात्रा में अर्धमागधी खास वैशिष्ट्यपूर्ण भाषा है, यह मानना पड़ेगा। सन्दर्भ ग्रन्थ (१) भाषाविज्ञान-डॉ० भोलानाथ तिवारी (२) प्राकृत साहित्य का इतिहास-डॉ० जैन (३) पाइयसद्दमहाण्णओ-पं० शेठ (CADA सर DDA namaAJANAJAamadhuriAARAMATIOTADADAINIK आचार्यप्रभा आचार्यप्रवचआभार श्रीआनन्द श्रीआनन्दकन्य Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HERS REA अमित D महासती श्री धर्मशीला, एम. ए. [प्राकृत भाषा की विदुषी चिन्तनशील साध्वी महासती उज्ज्वलकुमारो जी की शिष्या] एयर प्राकृतभाषा का व्याकरणपरिवार भाषा परिज्ञान के लिए व्याकरण ज्ञान की अत्यन्त आवश्यकता है। प्राकृत में छन्द, ज्योतिष, द्रव्य-परीक्षा, धातु-परीक्षा, भूमि-परीक्षा, रत्न-परीक्षा, नाटक, काव्य, महाकाव्य, सट्टक आदि विभिन्न रचनायें होती रही हैं । जब किसी भी भाषा के वाङमय की विशाल राशि संचित हो जाती है तो उसकी विधिवत ब्यवस्था के लिए व्याकरण ग्रन्थ लिखे जाते हैं। प्राकृत जनभाषा होने से प्रारम्भ में इसका कोई व्याकरण नहीं लिखा गया। वर्तमान में प्राकृत भाषा के अनुशासन सम्बन्धी जितने व्याकरण ग्रन्थ उपलब्ध हैं, वे सभी संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं, प्राकृत में नहीं । कुछ विद्वानों का कहना है कि-प्राकृत भाषा का व्याकरण प्राकृत में लिखा हुआ अवश्य था, परन्तु आज वह अनुपलब्ध है। अत: आज प्राकृत भाषा का व्याकरण-परिवार जो उपलब्ध है, उस पर हम थोड़ा विचार करेंगे। विद्वानों ने प्राकृत व्याकरण की दो शाखायें मानी है। एक पश्चिमी और दूसरी पूर्वी । प्रथम शाखा को वाल्मीकी-परम्परा और द्वितीय को वररुचि की परम्परा कहा जाता है। पश्चिमी परम्परा का प्रतिनिधि त्रिविक्रम (ई० १३००) कृत प्राकृत व्याकरण है। कहा जाता है कि-इसे महाकवि बाल्मीकि ने रचा था, परन्तु इस बात का कोई प्रामाणिक आधार नहीं है। लक्ष्मीधर की "षड्भाषा-चन्द्रिका" तथा सिंहराज का प्राकृत-रूपावतार भी इसी शाखा में अंतर्भूत होते हैं। पूर्वी शाखा का प्रथम व्याकरण वररुचि कृत 'प्राकृत-प्रकाश' है। (१) प्राकृत-प्रकाश-यह व्याकरण श्री वररुचि ने रचा है। यह सर्वप्रथम प्राकृत व्याकरण कहा जाता है। कुछ विद्वान चण्ड के प्राकृत-लक्षण को प्रथम मानते हैं और उसका अनुकरण वररुचि ने किया है, ऐसा कहते हैं । वररुचि का गोत्र कात्यायन कहा गया है। डॉ० पिशल ने अनुमान किया था कि प्रसिद्ध वातिककार कात्यायन और वररुचि दोनों एक ही व्यक्ति हैं, किन्तु इस कथन की पुष्टि के लिए एक भी सबल प्रमाण मिलता नहीं है। एक वररुचि कालिदास के समकालीन भी माने जाते हैं जो विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे "रत्नानि वै वररुचिर्नवविक्रमस्य" । Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा का व्याकरणपरिवार ४७ दूसरी जगह ऐसा भी उल्लेख आता है कि पाणिनी सूत्रकारं च भाष्यकारं पतञ्जलीम् वाक्यकारं वररुचिम्'। इस प्रकार वररुचि के बारे में भिन्न-भिन्न मान्यताएँ हैं। प्राकृत-प्रकाश में कुल ५०६ सूत्र हैं। भामह-वृत्ति के अनुसार ४८७ और चन्द्रिकाटीका के अनुसार ५०६ सूत्र उपलब्ध हैं । प्राकृत-प्रकाश की चार प्राचीन टीकाएँ भी प्राप्य हैं (१) मनोरमा-इस टीका के रचयिता भामह हैं। इसका काल सातवीं-आठवीं शताब्दी है। (२) प्राकृतमञ्जरी-इस टीका के रचयिता कात्यायन नाम के विद्वान् हैं। इनका काल छठी-सातवीं शताब्दी है। (३) प्राकृतसंजीवनी—यह टीका वसन्तराज ने लिखी है। इसका काल १४-१५ शताब्दी है। (४) सुबोधिनी—यह टीका सदानन्द ने लिखी है। नवम परिच्छेद के नवम सूत्र की समाप्ति के साथ समाप्त हई है। नारायण विद्याविनोद-कृत 'प्राकृतपाद' इत्यादि टीकायें हैं । कंसवहो तथा उसाणिरुद्ध के रचयिता मलावार निवासी रामपाणिवाद ने भी इस पर टीका लिखी है। इस टीका में गाथा सप्तसती, कर्पूरमंजरी, सेतुबन्ध और कंसवहो आदि से उद्धरण प्रस्तुत किये गये हैं। प्राकृत-प्रकाश में बारह परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में स्वर-विकार और स्वर-परिवर्तन के नियमों का निरूपण किया गया है। विशिष्टविशिष्ट शब्दों में स्वर-सम्बन्धी जो विकार उत्पन्न होते हैं, उनका ४४ सूत्रों में विवेचन किया है। दूसरे परिच्छेद में ४७ सूत्र हैं। इसका आरम्भ मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप से होता है। मध्य में आने वाले क, ग, च, ज, त, द, प, य और व के लोप का विधान है। तीसरे सूत्र के विशेष-विशेष शब्दों के असंयुक्त व्यंजनों के लोप एवं उनके स्थान पर विशेष व्यंजनों के आदेश का नियमन किया गया है। तीसरे परिच्छेद में ६६ सूत्र हैं। इसमें संयुक्त व्यंजनों के लोप, विकार एवं परिवर्तनों का निरूपण है। सभी सूत्र विशिष्ट-विशिष्ट शब्दों में संयुक्त व्यंजनों के परिवर्तन का निर्देश करते हैं। चौथे परिच्छेद में ३३ सूत्र हैं। इसमें संकीर्ण विधि-निश्चित शब्दों के अनुशासन वणित हैं। इस परिच्छेद में अनकारी, विकारी और देशज इन तीनों प्रकार के शब्दों का अनुशासन आया है। पाँचवें परिच्छेद में ४७ सूत्र हैं। इसमें लिंग और विभक्ति का आदेश वणित है। छठे परिच्छेद में ६४ सूत्र हैं। इसमें सर्वनाम विधि का निरूपण है। यानी सर्वनाम शब्दों के रूप एवं उनके विभक्ति, प्रत्यय निदिष्ट किये गये हैं। सातवें परिच्छेद में ३४ सूत्र हैं। इसमें तिङन्त विधि है। धातुरूपों का अनुशासन संक्षेप में लिखा गया है। अष्टम परिच्छेद में ७१ सूत्र हैं। इसमें धात्वादेश है। संस्कृत की किस धातु के स्थान पर प्राकृत ama-44MARATranAmAADODADAM SNNIचायत्र iy साचार्य DIS अाआ अनाव -14 ML movieirvanAmAVE 27 M arrowarraimammnamas Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECTIFIf ga24आभन्दन आचार्मप्रवासी श्रीआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्दग्रन्थ ४८ प्राकृत भाषा और साहित्य बया में कौन-सी धातु का आदेश होता है, इसका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। यह प्रकरण बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। नवम परिच्छेद में १८ सूत्र हैं। यह परिच्छेद निपात का है। इसमें अव्ययों के अर्थ और प्रयोग दिये गये हैं। दसवें परिच्छेद में १४ सूत्र हैं। इसमें पैशाची भाषा का अनुशासन है। ग्यारहवें परिच्छेद में १७ सूत्र हैं। इसमें मागधी प्राकृत का अनुशासन है। बारहवें परिच्छेद में ३२ सूत्र हैं। इसमें शौरसेनी भाषा के नियम दिये हैं। प्रारम्भ के ६ परिच्छेद माहाराष्ट्री के हैं, १०वा पैशाची का है, ११वां मागधी का और १२वाँ शौरसेनी का है। कुछ इतिहासकारों का मत है कि-अन्तिम तीन परिच्छेद भामह अथवा किसी अन्य टीकाकार ने लिखे हैं। प्राकृतसंजीवनी और प्राकृतमंजरी में केवल महाराष्ट्री का ही वर्णन है। सम्भव है कि ये तीन परिच्छेद हेमचन्द्र के पूर्व ही सम्मिलित कर लिए गये होंगे। वररुचि का प्राकृतप्रकाश भाषाज्ञान की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संस्कृत भाषा की ध्वनियों में किस प्रकार के ध्वनि-परिवर्तन होने से प्राकृत भाषा के शब्द रूप बनते हैं, इस विषय पर इसमें विस्तृत प्रकाश डाला गया है। प्राकृत अध्ययन के लिए यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी है। वररुचि का समय लगभग छठी शताब्दी माना जाता है। चण्ड का समय तीसरी, चौथी शताब्दी माना जाता है। इससे स्पष्ट है कि वररुचि के प्राकृतप्रकाश से पूर्व चण्ड का प्राकृतलक्षण होगा । (२) प्राकृतलक्षण—यह रचना चण्ड कृत है । कुछ विद्वान् वररुचि के प्राकृतप्रकाश को प्रथम मानते हैं और कुछ विद्वान् चण्ड के प्राकृतलक्षण को प्रथम मानते हैं। परन्तु सम्भव है की यही प्रथम होगा। डॉ० पिशल जैसे अनेक विद्वान प्राकृत लक्षण को पाणिनीकृत कहते हैं। परन्तु आजकल यह ग्रन्थ उपलब्ध न होने से निश्चित कुछ नहीं कह सकते। प्राकृतलक्षण यह संक्षिप्त रचना है। इसमें सामान्य प्राकृत का जो अनुशासन है, वह प्राकृत अशोक की धर्मलिपि जैसी प्राचीन भाषा प्रतीत होती है। वररुचि के प्राकृतप्रकाश की प्राकृत उसके पश्चात् की प्रतीत होती है। वीर भगवान को नमस्कार करके चण्ड ने इस व्याकरण की रचना की है। इस व्याकरण के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय प्राकृत में आज की भाँति अनेक भेद नहीं थे। डॉ० हार्नल ने ई० स० १८८० में कलकत्ता में कलकत्ता से अनेक प्राचीन प्रतियों की तुलना करके इसकी प्रति छपाई थी। उससे अनेक बातों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है, परन्तु आज वह भी अनुपलब्ध है। इस व्याकरण में चण्ड ने बताया है कि मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों का लोप नहीं होता है, वे वर्तमान रहते हैं। इस ग्रन्थ में कुल ६६ या १०३ सूत्र हैं। वे चार पादों में विभक्त हैं। आरम्भ में प्राकृत शब्दों के Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा का व्याकरण परिवार ४६ तीन रूप---तद्भव, तत्सम और देशज बतलाये हैं। तीनों लिंग और विभक्तियों का विधान संस्कृत के समान ही पाया जाता है । प्रथम पाद के ५वें सूत्र से अन्तिम ३५वें सूत्र तक संज्ञाओं और सर्वनामों के विभक्ति रूपों का निरूपण किया है। द्वितीय पाद के २६ सूत्रों में स्वर-परिवर्तन, शब्दादेश और अव्यय का कथन किया गया है । तृतीय पाद के ३५ सूत्रों में व्यंजन-परिवर्तन के नियम दिये गये हैं। चतुर्थ पाद में केवल चार सूत्र ही हैं। इनमें अपभ्रश का लक्षण, अधोरेफ का लोप न होना, पैशाची की प्रवृत्तियाँ, मागधी की प्रवृत्तियाँ, र और स के स्थान पर ल और श् का आदेश, शौरसेनी में त के स्थान पर विकल्प के द का आदेश किया गया है। (३) प्राकृतव्याकरण-"सिद्धहेमशब्दानुशासन' नाम का आचार्य श्री हेमचन्द्र रचित व्याकरण है । यह व्याकरण सिद्धराज को अर्पित किया है और हेमचन्द्र द्वारा रचित है, इसलिए इसे "सिद्धहेम व्याकरण" नाम दिया गया है । इस व्याकरण में सात अध्याय संस्कृत शब्दानुशासन पर और आठवें अध्याय में प्राकृत भाषा का अनुशासन लिखा गया है । आचार्य हेमचन्द्र का यह प्राकृत व्याकरण उपलब्ध समस्त प्राकृत व्याकरणों में सबसे अधिक परिष्कृत, सुव्यवस्थित और परिपूर्ण है। सिद्धहेमव्याकरण का समय १०८८-११७२ ईस्वी का माना जाता है। इसका सम्पादन १६२८ में पी० एल० वैद्य ने किया है। दूसरे अनेक विद्वानों ने भी इसका सम्पादन किया है। इस व्याकरण में प्राकृत की छः उप-भाषाओं पर विचार किया है---(१) महाराष्ट्री, (२) शौरसेनी, (३) मागधी, (४) पैशाची, ५) चलिका, पैशाची और (६) अपभ्रंश । अपभ्रंश भाषा का नियमन ११६ सूत्रों में स्वतन्त्र रूप से किया है। पश्चिमी प्रदेश के प्राकृत के विद्वानों में आचार्य हेमचन्द्र का नाम सर्वप्रथम है। जिस प्रकार वररुचि के व्याकरण की भाषा शुद्ध महाराष्ट्री मानी जाती है, उसी प्रकार जैन आगमों के प्रभाव के कारण हेमचन्द्र की प्राकृत को जैन महाराष्ट्री प्राकृत कहा जाता है। हेमचन्द्र ने स्वयं ही बृहत और लघु वत्तियों में अपने व्याकरण की टीका प्रस्तुत की है। लघु-वृत्ति "प्रकाशिका" के नाम से मिलती है । उदयसोभाग्य गणिन् द्वारा "प्रकाशिका' पर की गई एक टीका "हेमप्राकृतवृत्ति दुण्ढिका" अथवा "व्युत्पत्तिवाद" नाम से मिलती है। जिसे कुछ विद्वान् “प्राकृत प्रक्रिया वत्ति' भी कहते हैं । हेमचन्द्र के आठवें परिच्छेद पर नरेन्द्रचन्द्रसूरि रचित "प्राकृत प्रबोध टोका" उपलब्ध होती है। इस व्याकरण में कहीं-कहीं कश्चित्, केचित्, अन्ये इत्यादि प्रयोग से मालूम पड़ता है किहेमचन्द्र ने अपने से पूर्व के व्याकरणकारों से भी सामग्री ली होगी। हेमचन्द्र की शैली चण्ड और वररुचि से ज्यादा परिष्कृत है। हेमचन्द्र ने प्राचीन परम्परा को स्वीकार करके अनेक नये अनुशासन उपस्थित किये हैं। 9422 IMAGE IPiu UPS onsuaariARAAAAA आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवआभार श्रीआनन्दम ग्रन्थ श्रीआनन्द अन्य NAVANT.vMcMw.instrumentrum.ww-momix Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अायामप्रकार आनन्द भाचार्यप्रवी श्रीआनन्द अन्य - - Mom MAmarwarsery wwwmove wmvM प्राकृत भाषा और साहित्य 6 इस व्याकरण में चार पाद हैं । प्रथम पाद में २७१ सूत्र हैं। इसमें सन्धि, व्यंजनान्त शब्द, अनुस्वार, लिंग, विसर्ग, स्वर-व्यत्यय और व्यंजन-व्यत्यय का विवेचन किया गया है। द्वितीय पाद के २१८ सूत्र हैं। इसमें संयुक्त व्यंजनों के परिवर्तन, समीकरण, स्वरभक्ति, वर्णविपर्यय, शब्दादेश, तद्धित, निपात और अव्ययों का निरूपण है । तृतीय पाद में १८२ सूत्र है। इसमें कारक, विभक्तियाँ तथा क्रिया रचना सम्बन्धी नियमों का कथन किया गया है। चौथे पाद में ४४८ सूत्र हैं। आरम्भ के २४६ सूत्रों में धात्वादेश और आगे क्रमशः शौरसेनी इत्यादि छह भाषाओं का निरूपण किया गया है । आचार्य श्री हेमचन्द्र के मत से प्राकृत शब्द तीन प्रकार के हैं-तत्सम, तद्भव और देशज; इसमें से तद्भव शब्दों का अनुशासन इस व्याकरण में किया गया है। आचार्य हेमचन्द्र ने 'आर्षम" ८/१/३ सूत्र में आर्ष प्राकृत का नामोल्लेख किया है और बतलाया है कि- "आर्ष प्राकृतं बहुलं भवति, तदपि यथास्थानं दर्शयिष्यामः । आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्पयन्ते" अर्थात अधिक प्राचीन प्राकृत आर्ष-आगमिक प्राकृत है। इसमें प्राकृत के नियम विकल्प से प्रवृत्त होते हैं। हेमचन्द्र ने विषय-विस्तार में बड़ी पटता बताई है। आचार्य हेमचन्द्र ने संस्कृत शब्दों के प्राकृत में जो आदेश किये हैं, वे भाषाविज्ञान से मेल नहीं खाते । उदाहरण स्वरूप “गम" धातु का हिण्ड या भम्म' नहीं बन सकता। हेमचन्द्र ने केवल अर्थ का ध्यान रखा है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से अध्ययन करने के लिए उचित होगा कि मूल धातुओं की खोज ये । पाणिनि के धात पाठ में "हिण्डिगतो" स्वतन्त्र धात है। जिसके रूप "हिण्डति" इत्यादि बनते हैं। इसी प्रकार "भ्रम" धातु भी स्वतन्त्र है। यदि इस प्रकार भी सदृश्य धातुओं का ध्यान रखा जाये तो अध्ययन अधिक वैज्ञानिक हो सकेगा। (४) संक्षिप्तसार-श्री क्रमदीश्वर का यह व्याकरण संस्कृत, प्राकत इन दोनों भाषा पर लिखा है और सिद्धहेम व्याकरण की तरह इसमें भी वें अध्याय में प्राकृत व्याकरण का विचार किया है । उसे "प्राकृतपाद" की संज्ञा दी है। इस ग्रन्थ में प्राकृत के व्याकरण के छह विभाग किये हैं (१) स्वरकार्य, (२) हलकार्य, (३) सुबन्तकार्य, (४) तिङन्तकार्य, (५) अपभ्रंगकार्य और (६) छन्द कार्य । क्रमदीश्वर ने अपने संक्षिप्तसार व्याकरण पर एक छोटी-सी टीका भी लिखी है । इस पर और तीन टीका हैं, जो प्रकाशित नहीं हुई हैं (१) जमरनन्दिन् की रसवती, (२) चण्डिदेव शर्मन की प्राकृतदीपिका, (३) विद्या विनोदाचार्य की प्राकृतपाद टीका । Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा का व्याकरण परिवार ५१ 24 का (B मा ) . क्रमदीश्वर ने वररुचि का ही अनुकरण किया है। इनका काल हेमचन्द्र और बोधदेव के बीच १२वीं १३वीं शताब्दी है। (५) प्राकृतव्याकरण—यह व्याकरण त्रिविक्रमदेव ने रचा है। जिस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने सर्वाङ पूर्ण प्राकृत व्याकरण लिखा है, उसी प्रकार त्रिविक्रमदेव का यह सर्वाङ पूर्ण व्याकरण है। इनकी स्वोपज्ञवत्ति और सूत्र दोनों ही उपलब्ध हैं। इस व्याकरण में तीन अध्याय हैं । प्रत्येक अध्याय में ४-४ पाद हैं। इस प्रकार कुल १२ पादों में यह व्याकरण पूर्ण हुआ है। इसमें कुल १०३६ सूत्र हैं। श्री त्रिविक्रमदेव ने हेमचन्द्र के सूत्रों में ही कुछ फेर-फार करके अपने सूत्रों की रचना की है। विषयानुक्रम हेमचन्द्र का ही है। इस व्याकरण में देशी शब्दों के वर्गीकरण से हेमचन्द्र की अपेक्षा नवीनता दिखती है। यद्यपि अपभ्रंश के उदाहरण हेमचन्द्र के ही हैं, परन्तु संस्कृत छाया देकर इन्होंने अपभ्रंश के दोहों को समझाने का प्रयास किया है। श्री त्रिविक्रमदेव ने अनेकार्थक शब्द भी दिये हैं। इन शब्दों के देखने से तत्कालीन भाषाओं का ज्ञान तो होता ही है, पर साथ-साथ अनेक सांस्कृतिक बातों की भी जानकारी मिलती है। इस प्रकार हेमचन्द्राचार्य के व्याकरण की अपेक्षा इस व्याकरण में अनेक विशेषताएँ हैं। इसमें शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका-पैशाची इत्यादि भाषाओं के नियम भी मिलते हैं। इसमें श्री त्रिविक्रमदेव ने मंगलाचरण में वीर भगवान को नमस्कार किया है। ऐतिहासिक विद्वान त्रिविक्रमदेव को दिगम्बर जैन मानते हैं।। इनके व्याकरण के सम्बन्ध में दो मत प्रचलित हैं। कुछ तो कहत हैं कि सूत्र और वृत्ति दोनों ही त्रिविक्रमदेव के हैं, कुछ विद्वान सूत्रों को बाल्मीकिकृत और वृत्ति त्रिविक्रमकृत मानते हैं। सूत्रों की रचना पाणिनीय के अष्टाध्यायी की काशिका वृत्ति के अनुसार हुई है। इनका समय १२-१५ शताब्दी के बीच का है, क्योंकि हेमचन्द्र के ग्रन्थ का त्रिविक्रमदेव ने अपने ग्रन्थ में उल्लेख किया है और त्रिविक्रमदेव के ग्रन्थ का कुमारस्वामी (सोलहवीं शताब्दी) ने अपने ग्रन्थ रत्नायण में उल्लेख किया है। इन प्रमाणों से त्रिविक्रम का समय हेमचन्द्र और कुमारस्वामी के बीच का ही सम्भव है। पश्चिमी सम्प्रदाय के प्राकृत वैयाकरणों में त्रिविक्रम प्रमुख हैं। (६) प्राकृतरूपावतार–श्री सिंहराज कृत प्राकृतरूपावतार त्रिविक्रमदेव के सूत्रों को ही लघुसिद्धान्त-कौमुदी की पद्धति के रूप में लिखा है। इसमें संक्षेप में सन्धि, शब्दरूप, धातुरूप, समास, तद्धित आदि का विचार किया है। इसमें छह भाग हैं । शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका-पैशाची और अपभ्रंश इन भाषाओं का विवेचन है। संज्ञा और क्रिया पद के ज्ञान के लिए यह व्याकरण बहुत ही उपयोगी है। सिंहराज की तुलना वरदाचार्य के साथ कर सकते हैं। सिंहराज को कुछ विद्वान सिद्धराज भी कहते हैं। सिंहराज ने लक्ष्मीधर की भांति ही सूत्रों पर PAARDarua maABARJANORADABADASANABAJANAwaminate. MAGAMANApriandaindaNASAJANASAJANAawanAGAIAAAJA आपाप्रवभिशापायप्रवर आभ श्रीआनन्दजन्यश्राआनन्दग्रन्थ MARAamirwainme www.jainalibrary.org Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपायप्रवर अभिभापार्यप्रवर अनि श्रीआनन्दप्रसन्थ श्रीआनन्द yamayva: ५२ प्राकृत भाषा और साहित्य RUM SHARAL वृत्ति की रचना की है। इस वृत्ति का ही नाम प्राकृतरूपावतार रखा है। इसमें सूत्रों का क्रम षड्-भाषाचन्द्रिका के समान ही रखा गया है।। यह ग्रन्थ सन् १६०६ में इ० हल्शे (E-Hultzsca) ने एशियाटिक सोसाइटी कलकत्ता की तरफ से प्रकाशित किया था। इनका काल १३००-१४०० ई० स. माना जाता है। तुलना की दृष्टि से इसमें प्रत्येक सूत्र के सामने आचार्य हेमचन्द्र के सूत्र भी दिये गये है। युष्मद्, अस्मद् आदि शब्दों के रूप दूसरे व्याकरणों की अपेक्षा से इसमें अधिक विस्तृत हैं। कहीं-कहीं रूपों में कृत्रिमता भी स्पष्ट दिखती है । इस व्याकरण का निर्माण करते समय सिंहराज ने इस बात का विशेष ध्यान रखा है कि कोई भी आवश्यक नियम छूट न जाये । इसलिए उन्होंने आवश्यक सूत्रों को ही लिया है, शेष कुछ सूत्रों को छोड़ दिया है। (७) प्राकृतकल्पतरु --श्री रामशर्मा तर्कवागीश ने प्राकृतकल्पतरु की रचना पुरुषोत्तम के प्राकृतनुशासन के अनुसार की है । ये बंगाल के निवासी थे। इनका समय ईसा की १७वीं शताब्दी माना जाता है । प्राकृतकल्पतरु पर स्वयं लेखक की एक स्वोपज्ञ टीका भी है। इस व्याकरण में तीन शाखाएँ हैं । पहली शाखा में दस स्तबक हैं। जिनमें माहाराष्ट्री के नियमों का विवेचन है। दूसरी शाखा में तीन स्तबक हैं-जिनमें शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती, वाह्नीकी, मागधी, अर्धमागधी और दाक्षिण त्या का विवेचन है। विभाषाओं में शाकारि, चाण्डालिका, शाबरी, अभीरिका और टक्की का विवेचन है। तीसरी शाखा में नागर, अपभ्रंश, ब्राचड तथा पैशाचिका का विवेचन है। कैकय, शौरसेनी, पांचाल, गोड, मागध और ब्राचड पैशाचिका भी इसमें वर्णन है। (E) प्राकृतसर्वस्व-श्री मार्कण्डेय कवीन्द्र का 'प्राकृत सर्वस्व' एक महत्त्वपूर्ण व्याकरण है। इसका रचनाकाल १५वीं शताब्दी है । मार्कण्डेय ने प्राकृत भाषा के भाषा, विभाषा, अपभ्रंश और पैशाची ये चार भेद किये हैं। भाषा के माहाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती और मागधी भेद हैं। विभाषा के शकारी, चाण्डाली, शवरी, अभीरी और ढक्की यह भेद हैं । अपभ्रंश के नागर, ब्राचड और उपनागर तथा पैशाची के कैकयी, शौरसेनी और पांचाली इत्यादि भेद किये हैं। मार्कण्डेय ने आरम्भ के आठ पादों में महाराष्ट्री प्राकृत के नियम बतलाये हैं। इन नियमों का आधार प्रायः वररुचि का प्राकृतप्रकाश ही है। हवें पाद में शौरसेनी के नियम दिये गये हैं। १० वें पाद में प्राच्या भाषा का नियमन किया गया है। ११वें पाद में अवन्ती और वाह नीकी का वर्णन है । १२वें पाद में मागधी के नियम बतलाये गये हैं। इनमें अर्धमागधी का भी उल्लेख है। आचार्य श्री हेमचन्द्र ने जिस प्रकार पश्चिमीय प्राकृत भाषा का अनुशासन रचा है, उस प्रकार श्री मार्कण्डेय ने पूर्वीय प्राकृत का नियमन बतलाया है। मार्कण्डेय ने अपने व्याकरण की रचना आर्या-छन्द में की है। उस पर उनकी स्वोपज्ञ टीका है। I RAA गर Pe Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा का व्याकरण परिवार ५३ चा श्री मार्कण्डेय कवीन्द्र ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही वररुचि, शाकल्य, भरत, कोहल, भामह और वसन्तराज इत्यादि का नामोल्लेख किया है। भाषा के १६ भेद बताये हैं। भाषा, विभाषा के ज्ञान के लिए यह व्याकरण अत्यन्त उपयोगी है। (8) षड्भाषाचन्द्रिका-श्री लक्ष्मीधर ने षड्भाषाचन्द्रिका में प्राकृत का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। इसमें प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, अपभ्रंश इत्यादि छह भाषाओं पर विस्तारपूर्वक विवेचन किया है, इसलिए इस ग्रन्थ का नाम षड्भाषाचन्द्रिका है। इस व्याकरण की तुलना भट्टोजिदीक्षित की सिद्धान्तकौमुदी के साथ कर सकते हैं। याने सिद्धान्तकौमुदी का क्रम इसमें है । उदाहरण सेतुबन्ध, गउडवहो, गाहासत्तसई, कप्पूरमंजरी आदि ग्रन्थों से दिये गये हैं । लक्ष्मीधर ने लिखा है "वृत्ति त्रैविक्रमीगूढां व्याचिख्यासन्ति ये बुधाः ।। षड्भाषाचन्द्रिका तैस्तद् व्याख्यारूपा विलोक्यताम् ॥" याने जो विद्वान त्रिविक्रम की गूढ़वत्ति को समझना और समझाना चाहते हैं, वे उसकी व्याख्यारूप षड्भाषाचन्द्रिका को देखें। प्राकृत भाषा की जानकारी प्राप्त करने के लिए षड्भाषाचन्द्रिका अधिक उपयोगी है। इस व्याकरण में शब्दों के रूप तथा धातुओं के रूप पूर्ण विस्तृत रूप से लिखे गये हैं। इसमें देशी शब्दों का भी समावेश किया गया है । लक्ष्मीधर का समय त्रिविक्रमदेव के बाद का माना जाता है। क्योंकि षड्भाषाचन्द्रिका में लक्ष्मीधर ने त्रिविक्रम का उल्लेख किया है। त्रिविक्रमदेव, लक्ष्मीधर और सिंहधर इन तीनों ने सूत्रों की संकलना एक समान ही की है। लक्ष्मीधर के प्रारम्भ के श्लोक से लगता है कि-उनकी टीका त्रिविक्रम की वृत्ति पर आधारित है, उस टीका पर की यह टीका है ऐसा लगता है। इन मुख्य व्याकरणों के अतिरिक्त अन्य अनेक प्राकृत व्याकरण हैं, जिनकी नामावली नीचे दी जा रही है। विस्तार भय से इनका विस्तृत विवरण यहाँ नहीं दिया है। (१०) प्राकृतकामधेनु—लंकेश्वर--इस व्याकरण में ३४ सूत्र हैं। इसमें प्राकृत के मूल नियमों का विवेचन है। (११) प्राकृतानुशासन-पुरुषोत्तम; इस व्याकरण में अनेक भाषा-विभाषाओं का वर्णन है । (१२) प्राकृतमणिदीप-अप्पयदीक्षित; इसमें प्राकृत के सभी उपयोगी नियमों का विवेचन मिलता है। (१३) प्राकृतानन्द--रघुनाथ कवि; इसमें ४१६ सूत्र हैं। वररुचि के प्राकृतप्रकाश के समान ही यह व्याकरण है। (१४) प्राकृतव्याकरण---श्री रतनचन्द्र जी म० । (१५) प्राकृतव्याकरण- समन्तभद्र । RETANTERNMENT PIRA म wwmai n ESGHANE अशा अनि आमा श्रीआनन्द श्रीआनन्द MARArmation www.jain Stibrary.org Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mandaramate-Crgadaa.. . ....... . ... .... -ARANASALARBADA una SVIH श्राआनन्द श्रीआनन्द अन्य ५४ प्राकृत भाषा और साहित्य (१६) प्राकृतबोध-नरचन्द्र । (१७) प्राकृतचन्द्रिका-कृष्णपंडित (शेषकृष्ण) (१८) प्राकृतचन्द्रिका-वामनाचार्य । (१६) प्राकृतदीपिका-चण्डिवर शर्मा। (२०) प्राकृतानन्द - रघुनाथ शर्मा । (२१) प्राकृत प्रदीपिका-नरसिंह । (२२) प्राकृतमणिदीपिका-चिन्नवोम्म भूपाल । (२३) प्राकृतमणिदीप-अप्पयज्वन् । (२४) षड्भाषारूपमालिका-दुर्गुणाचार्य । (२५) षड्भाषाचन्द्रिका-भामकवि । (२६) षडभाषासुबंतादर्श-श्री नागोबा । (२७) षड्भाषावातिक.............. (२८) षड्भाषामंजरी............. (२६) प्राकृतव्याकरण- शुभचन्द्र । (३०) प्राकृत-मार्गोपदेशिका-पं० बेचरदास जी । (३१) औदार्य चिन्तामणि-श्री श्रुतसागर । (३२) प्राकृतव्याकरण- श्री भोज । B6M 1STAN JALAND U UPL Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी, आचार्य, एम० ए०, पी-एच० डी० (प्रवाचक-संस्कृत विद्यापीठ, दिल्ली) प्राकृत-वाङमय में शब्दालंकार प्राकृत-वाङमय मानव-जन्म की सफलता उसकी वाणी में केन्द्रित रहती है। इसी वाणी के आश्रय से पठित और अपठित सभी अपने भावों का सम्प्रेषण करते हैं। अन्तर इतना ही रहता है कि पठित व्यक्ति अपनी वाणी को विविक्तवर्णाभरण, सुखश्रति और प्रसन्न गम्भीर पदा के रूप में अभिव्यक्त करके शत्रओं हृदय को अनुराग-रंजित बना देता है, जबकि अपठित अपने लौकिक कार्य-कलाप को भी कठिनाई से चला पाता है । अत: पठितों की वाणी का सर्वत्र समादर स्वाभाविक है। संस्कृत भाषा की संस्कार-सम्पन्नता का वैशिष्ट्य दिखाकर प्राकृत भाषा को जनसाधारण की भाषा कहने वाले तथा प्राकृत को ही वास्तविक भाषा कहकर संस्कृत को उत्तरवर्ती, संस्कारित भाषा बताने वालों के विवाद में हम तो केवल एक ही समाधान प्राप्त करते हैं, और वह है-अन्योन्याश्रयात्मकता । जैसे "बीज से वृक्ष तथा वृक्ष से बीज" में किसकी प्राथमिकता है ? इसका उत्तर 'अन्योन्याश्रय' है, वैसे ही इस भाषा के विवाद में भी उपर्युक्त उत्तर ही समाधेय है। वैसे भी चन्द्रावदातमति कवि राजहंस 'ओजस्वी, मधुर, प्रसाद-विशद, संस्कार-शुद्ध, अभिधालक्षणा-व्यजनासंवलित, विशिष्ट रीति, अभिनव अलङ कृति, उत्तम वृत्त एवं रस-परिपाक से समन्वित अपने वाग्व्यवहार द्वारा किसी भी भाषा को भणिति-गुण से अलंकृत कर ही देते हैं' अतः प्राकृत भाषा में ही रचनाएँ प्रस्तुत कर पूर्व मनीषियों ने अनेकविध आनन्द-प्रद साहित्य की सृष्टि की है। प्राकृतभाषा का क्षेत्र विस्तार भारतीय आर्यभाषा का युग ईसवी पूर्व ५०० से ११०० ईसवी तक माना जाता है। यह युग प्राकृत-भाषाओं का युग था, जिसमें उस काल की सभी जन-साधारण की बोलियाँ आ जाती हैं । संस्कृत भाषा के ध्वनितत्त्व एवं व्याकरण-सम्बन्धी नियमों के परिवर्तन से ये बोलियाँ-पालि, शिलालेखों की प्राकृत, जैन आगमों की अर्धमागधी तथा संस्कृत नाटकों में व्यवहृत प्राकृत पैशाची, महाराष्ट्री, मागधी और शौरसेनी आदि के रूप में यत्र-तत्र साहित्यिक स्वरूप को प्राप्त हुई हैं। randuranAmanandnam rdrusadawaADMAARAMIRaaranAcamkArunanumanA.ACADDADAM आप प्रवर अभRINप्रवर आना श्रीआनन्द श्रीआनन्दसन्य LArrarimamericanam wwwrarmins Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ प्राकृत भाषा और साहित्य प्रत्येक काल में रचनागत विशेषताओं के आधार पर साहित्य की सष्टि होती है। तदनुसार प्राकृत भाषा के इस विस्तृत क्षेत्र में जैन आगम, आगमों का व्याख्या-साहित्य, दिगम्बर सम्प्रदाय के प्राचीन शास्त्र, आगमोत्तर जनधर्म सम्बन्धी साहित्य, प्राकृत कथा-साहित्य, प्राकृत चरित साहित्य, प्राकृत काव्य-साहित्य, संस्कृत नाटकों में प्रयुक्त प्राकृत साहित्य, व्याकरण, छन्द, कोष तथा अलंकार ग्रन्थों में प्रयुक्त प्राकृत, उपदेश एवं सुभाषितों के रूप में प्रयुक्त प्राकृत तथा शास्त्रीय प्राकृत-संहिता का समावेश होता है। शब्दालंकारों के सर्वसामान्य प्रयोग का दर्शन इन सभी वर्गों में किसी-न-किसी रूप में मिल ही जाता है, किन्तु जिन स्वरूपों को कुछ महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है उनमें प्राकृत काव्य-साहित्य की प्राथमिकता है। गद्य-साहित्य में ललित वर्णविन्यास--जो कि अनुप्रास के भेद-विभेदों में अनेकत्र उपलब्ध होता है, वह तथा श्लेष अलंकार जो प्राकृत के संस्कृत-रूपों की विविधता के कारण बहुधा अर्थवैविध्य को प्रकट करता है, वह प्रचुर मात्रा में सुलभ है। रचनाओं का वैविध्य साहित्य परमात्मा के विराट स्वरूप के समान ही अनेक आश्चर्यमय रूपों का आगार है। जैसे गीता में अर्जुन ने विराट रूप का दर्शन करते हुए कहा था कि--'हे देव, मैं आपके शरीर में सभी भूतसघ, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, ऋषि, सर्प आदि देखता हूँ। आपके इस शरीर के अनेक हाथ, मुख और आँखें हैं। इसका कोई आदि, मध्य और अन्त नहीं दिखाई देता है। इसी में समस्त देव, गन्धर्व, राक्षस, भूत, प्रत, पिशाच आदि तथा रुद्र, आदित्य, वसु, अश्वनीकुमार प्रभृत्ति समाये हुए हैं।' इत्यादि कथन के अनुरूप ही साहित्य में भी विश्व में प्रचलित सभी कथन-प्रकार व्याप्त हैं। २ साहित्य का अर्थ अत्यन्त व्यापक है किन्तु आलकारिकों ने इसे शब्दार्थ के सहभाव में संकुचित कर लिया है। महाराज भोजदेव ने इसी सहभाव को बारह प्रकारों में विभक्त माना है, जिनमें ग्यारहवां विभाग 'अलंकार-योग' भी है। यह अलंकार-योग गद्य और पद्य में निबद्ध समस्त वाङ्मय २. पश्यामि देवास्तव देव देहे सर्वस्तिथा भूतविशेष सङ घान् । ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषीश्च सर्वानुरगाँश्च दिव्यान् ।।१५।। -से ३१ वें पद्य तक श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ११ द्रष्टव्य । वक्रोक्ति जीवितकार कुन्तक ने 'साहित्य' की परिभाषा इस प्रकार दी हैमार्गानुगुण्यसुभगो माधुर्यादिगुणोदयः । अलङ्करण-विन्यासो वक्रतातिशयान्वितः ।। वृत्तौचित्य मनोहारि रसानां परिपोषणम् । स्पर्धया विद्यते यत्र यथास्वमुभयोरपि । सा काप्यवस्थितिस्तद् विदानन्दस्पन्द सुन्दरा। पदादिवाक्परिस्पन्दसारः 'साहित्यमुच्यते' ।। Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-वाङमय में शब्दालंकार ५७ में दृष्टिगोचर होता है। गद्य के मुक्तक, वृत्तगन्धी, उत्कलिकाप्राय अथवा चूर्णक में अथवा पद्य के विविध-वृत्तनिबद्ध प्रकारों में सर्वत्र अलंकारों का समायोजन अपनी आभा बिखेरने में कभी पीछे नहीं रहा है। अलङ्कारों का महत्त्व साहित्यकारों ने अलङ्कार-चिन्तन से पूर्व किस विधा का चिन्तन किया होगा? यह कह सकना कठिन है, क्योंकि साहित्यशास्त्र के आदि चिन्तकों ने इस सम्बन्ध में अपना कोई स्वतन्त्र विवेचन न देकर सम्प्रदाय विशेष का ही अवलम्बन लिया है। कहा जा सकता है कि वेदों में-'रसो वै सः' 'रसं वायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति' आदि मन्त्र पदों की उपलब्धि होने से रस ही सर्वप्रथम साहित्य का मूल है, तो यह उचित नहीं । वहीं वेद-मन्त्रों में-'हविष्मन्तो अरङ कृता:' ऋग्वेद १/४/१४/५, 'सोमा अरङ कृताः, अलङ - करिष्णुमयज्वानम्' तथा शतपथ में--'मानुषोऽलङ्कारः' इत्यादि पाठ आते हैं-जो अलङ्कारों के पक्ष में रस की अपेक्षा स्वयं का महत्त्व अभिव्यक्त करते हैं। साहित्यशास्त्रों में अलङ्कारों के वैशिष्ट्य को लक्ष्य में रखकर बहुधा कहा गया है कि'न कान्तमपि निभूषं विभाति वनितामुखम् ; काव्यं कल्पान्तरस्थायि, जायते सदलङ कृति , काव्यशोभाकरान धर्मान्लङ कारान् प्रत्यक्षते" काव्यशोभायाः कर्तारो धर्मा गुणाः । तदतिशयहेतवस्त्वलङ्काराः, सालङ्कारस्य काव्यता, इत्यादि अनेक उक्तियों से प्रेरित होकर ही तो महाकवि जयदेव ने "अङ्गीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलङ कृती । असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलं कृती ॥"८ अनलङ कृत काव्य को काव्य मानने में भी आपत्ति की है। अतः हृदय के ओज की अभिव्यक्ति, विचारों की परिपुष्टि, शब्दमाधुर्य की सृष्टि तथा मानसिक चित्रों की स्पष्टता के लिए अलङ्कारों की स्थिति अनिवार्य मानी गई है। शब्दालङ्कारः : एक अविभाज्य अङ्ग विवेचनशील मानव ने वैज्ञानिक प्रक्रिया के माध्यम से वस्तु के वास्तविक स्वरूप को परखने का पर्याप्त प्रयास किया है। अलङ्कार शास्त्र के आचार्य भी अलङ्कारों का वैज्ञानिक-विभाजन या वर्गीकरण करने में तत्पर रहे। परिणामतः अलङ्कार के प्रमुख तीन भेद--(१) शब्दगत, (२) अर्थगत और ३. काव्यालङ्कार-(भामह) १/१३ । ४. वही १/१६ । ५. काव्यादर्श—(दण्डी) २/१ । ६. काव्यालङ्कार सूत्र--(वामन) ३/१/१ तथा २ । ७. वक्रोक्तिजीवित-१/६ । ८. चन्द्रालोक-१/८ । PRIMAnimaanadaaaaaaaaMBAJAJARAMINAABARDAroeluNusanNINNIMAMAnwrAINAMANASAIRASACRAIADEAKIMAM आगाप्रवनवाभिमासाचार्यप्रवर भिर धाआनन्दा श्रीआनन्द-ग्रन्थ MHIVimeoNandinwwww wwww womammmmmmmmmmamtammanaKASANA Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दन ग्रन्थ 99 श्री आनन्दका अन्थ प्राकृत भाषा और साहित्य (३) उभयगत' किये गये हैं । इनमें भी शब्द के सौष्ठव को सर्वसाधारण के समक्ष सरलता से उपस्थित कर अर्थज्ञान के लिए प्रेरित करना तथा वर्ण कौतुक के आधार पर श्रुतिमाधुर्य से आकृष्ट करने का कार्य शब्दालङ्कार पर ही निर्भर रहा है। 'काव्य यदि एक कला है तो उस कला का रूप शब्दालङ्कार ही है' इस दृष्टि से शब्दालङ्कार के विभिन्न रूप प्रस्तुत हुए और उनकी इतनी व्यापकता हुई कि कोई भी शब्दशिल्पी इससे बच नहीं पाया । इसकी परिधि में प्रमुखतः चार बातें, जो कि भाषा के सौन्दर्य को बढ़ाने में अत्यधिक अपेक्षित होती हैं, उन - (१) स्वर और व्यंजनों की योजना, (२) शब्द-संघटना, (३) पद अथवा वाक्य व्यवस्था एवं सुसज्जित विन्यास तथा (४) अर्थ सौन्दर्य अथवा चमत्कार का सन्निवेश - का समावेश आवश्यक माना गया है और यही कारण है कि शब्दालङ्कार काव्य का एक अविभाज्य अङ्ग बन गया । शब्दालङ्कारों की संख्या पूर्वाचार्यों ने अलङ्कार मात्र के लिए कहा है कि- 'वाणी की अलङ्कार - विधि विस्तृत है १०, अलङ्कारों की सृष्टि तो आज भी हो रही है, अतः समस्त अलङ्कारों की गणना कौन कर सकता है ? 19 इसके अनुसार शब्दालङ्कार भी मूलतः (१) अनुप्रास, (२) यमक, (३) पुनरुक्तवदाभास, (४) वक्रोक्ति, ( ५ ) श्लेष तथा ( ६ ) चित्र - इन छह प्रकारों में विभक्त होकर भी प्रत्येक के अनेकानेक भेदोपभेदों के कारण अनन्तता को प्राप्त करता है । आज भी इसके भेद – प्रकारों में नये-नये स्वरूपों का समावेश हो रहा है । 10 ५८ 卐漫 यह अलङ्कार वस्तुत: अपनी मनौवैज्ञानिक प्रक्रिया के कारण अनचाहे मन पर भी प्रभाव जमाता रहता है । तभी तो महाकवि जगद्धर ने 'स्तुतिकुसुमाञ्जलि' में कहा है कि शब्दार्थ मात्रमपि ये न विदन्ति तेऽपि, संरुद्ध सर्वकरण प्रसरा यां मूर्च्छनामिव मृगाः श्रवणैः पिबन्तः । भवन्ति, चित्रस्थिता एव कवीन्द्रगिरं नमस्ताम् ।। ५ / १७ ॥ ऐसी कवीन्द्रों की वाणी में जो नाद-सौन्दर्य अन्त्यानुप्रासनिबद्ध मधुराक्षर-संनिवेश, संगीतलयलहरी और वर्ण- मैत्रीरूप झंकृति का ही नाम शब्दालङ्कार है । प्राकृत भाषा का साहित्य वैसे तो प्राकृत भाषा में निबद्ध साहित्य की परम्परा अति प्राचीन है, किन्तु महाकाव्य के रूप में 隱 उपलब्ध प्रथम कृति 'सेतुबन्ध" महाकवि प्रवरसेन की मानी जाती है; पाँचवीं शती में निर्मित यह काव्य ६. शब्दार्थोभय भूयिष्ठ भेदात् त्रेधा तदुच्यते । ४/२५ सरस्वती कण्ठाभरण । १०. गिरामलङ्कारविधिः सविस्तरः । - काव्यालङ्कार - भामह, ३-५८ । ११. ते चाद्यापि विकल्प्यन्ते कस्तात् कात्र्त्स्न्येन वक्ष्यति । काव्यादर्श - दण्डी, २ / १ । Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-वाङमय में शब्दालंकार ५६ काय n तत्कालीन गुप्त और वाकाटक नपतियों के प्रशासनिक महत्त्व एवं व्यापारिक उन्नति के कारण संस्कृतवाङ्मय के साथ-साथ प्राकृत-वाङ्मय में जो उत्क्रान्ति आयी थी, उसका प्रतीत बन गया है। इस काव्य में भाव एवं अभिव्यंजना पक्ष को सन्तुलित रखते हुए रामकथा के वर्णन में अनुप्रास, यमक और श्लेषालंकार को पर्याप्त स्थान मिला है। इसी शती में महाकवि भारवि का किरातार्जुनीय भी लिखा गया था। अतः उसकी रचना का तथा तत्कालीन रचना-पद्धति का इस काव्य पर बहुत प्रभाव पड़ा है। प्राकृत-साहित्य में सेतुबन्ध-काव्य अपने ढंग का एक अनूठा काव्य है। महाराष्ट्री प्राकृत में रचित यह काव्य 'रावणवध' अथवा 'दशमुखवध' नाम से भी प्रख्यात है। महाकाव्यों की परम्परा में प्रथम होने के कारण उत्तरवर्ती न केवल प्राकृत के कवियों ने अपितु संस्कृतकाव्यकारों ने भी श्री प्रवरसेन का नाम बड़े आदर से लिया है। इनके पश्चात् नवीं शती में श्री जयसिंह सूरि ने 'धर्मोपदेशमाला विवरण' की रचना की। श्रीसूरि अलङ्कार-शास्त्र के अच्छे पण्डित थे । अतः इस ग्रन्थ में उन्होंने अनुप्रासादि शब्दालङ्कारों के साथसाथ चित्रालङ्कार को अधिक प्रश्रय दिया है । 'प्रश्नोत्तर, पादपूर्ति, वक्रोक्ति, गूढोक्ति' आदि के अतिरिक्त पुष्पचूला की कथा में विभिन्न भाषा के 'प्रश्नोत्तरों' का प्रयोग भी किया है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, पैशाची और मागधी भाषा में 'मध्योत्तर, बहिरुत्तर, एकालापक, गतप्रत्यागत' नामक चित्र-भेदों का प्रयोग इनकी अपनी विशेषता है। उदाहरणार्थ देखिये कां पाति न्यायतो राजा विश्रसा बोध्यते कथम् । टवर्गे पञ्चमे को वा राजा केन विराजते ॥ धरणेदो कं धारेह केण व रोगेण दोब्बला होति । केण व रायह सेमान, पडिवयणं 'कुञ्जरेणे' ति ॥ यहाँ संस्कृत और प्राकृत दोनों का एक ही उत्तर-'कुञ्जरेण' कहा गया है। यथा-(१) कुंपृथिवीम्, (२) जरेण-वृद्धेन, (३) ण, (४) कुञ्जरेण, (५) कु, (६) जरेण-वृद्धावस्थया, (७) कुञ्जरेण । इत्यादि। इसी प्रकार जिनेश्वरसूरि के शिष्य धनेश्वरसूरि (सन् १०३८) ने 'सुरसुन्दरी-चरिय' का निर्माण किया, जिसमें क्रीडा-विनोद के अवसर पर 'प्रश्नोत्तर-चित्र' का उपयोग किया है। संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत को सहज-प्राप्त सौविध्य के आधार पर संस्कृत का एक शब्द प्राकृत में तीन चार अर्थों का बोधक बन जाता है, क्योंकि उसका रूप संस्कृत में विभिन्न रूपों में बन जाता है। जैसे 'ससंक' शब्द का संस्कृत रूप 'शशाङ्क' और 'सशङ्क' सहज हो सकता है। १२वीं शती के आरम्भ में आचार्य हेमचन्द्र ने 'द्वयाश्रय-काव्य' की रचना की थी। जिसमें कुमारपाल का चरित्र और सिद्ध-हैमव्याकरण के नियमों का ज्ञापन किया है तथा इसी के द्वितीय भाग में प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका-पैशाची और अपभ्रंश के व्याकरण का समन्वय श्लेष अलङ्कार के आश्रय से करते हुए कुमारपाल का वर्णन किया है। ह श्रीआनन्दा अभिपायप्रवरत प्रामान्य ग्रन्थ श्रीआनन्द आमाकन MAMIYNiwariMYTMInviryime-tani AmAvvvPvtArArvierry Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CorruaaraamanamaAJAMINAIANMAAAAJAsanamaAAAAAAAAAAAAAAAAAAAMARIABASANKiainianusardrum:08 साचारसत्राचार्य SIआनन्दग्रन्थश्राआनन्ग्र न्थ प्राकृत भाषा और साहित्य ब - इसी प्रकार की एक अन्य रचना वररुचि के 'प्राकृत प्रकाश' और त्रिविक्रम के 'प्राकृत व्याकरण' के विषयों को स्पष्ट करने के लिए 'सिरिचिधकाव्य' की निमिति कवि सार्वभौम श्रीकृष्ण लीलाशूक ने की है। इस कवि का अपर नाम 'गोविन्दाभिषेक' भी है। इसकी रचना कवि केवल नौ सर्गों तक ही कर पाया था, अतः शेष चार सर्गों की रचना इसके टीकाकार श्री दुर्गाप्रसाद यति ने की है। इसमें कुछ आकार-चित्रों को स्थान मिला है। जगच्चन्द्रसूरि के शिष्य देवचन्द्रसूरि (सन् १२७० ई०) ने 'सुदंसणाचरिय' की रचना में अध्ययनशाला से पढ़कर आई हुई राजकन्याओं से उनकी परीक्षा के निमित्त 'कट-प्रश्न' किये हैं, जो 'गूढ़चित्र' के उदाहरण हैं। सुमतिसूरि (१४वीं शती) ने 'जिनदत्ताख्यानद्वय की तथा रत्नशेखरसुरि के शिष्य हेमचन्द्र (सन् १३७१ ई०) ने 'सिरिवाल-कहा' की रचना की है। इनमें प्रहेलिकाओं तथा समस्यापूर्तियों को प्रश्रय मिला है। श्री जयवल्लभ द्वारा संगृहीत 'वज्जालगं' में अनुप्रासादि शब्दालङ्कारों का पर्याप्त विकास दिखाई देता है । यथा कह सा न संभलिज्जइ, जा सा निसास सोसिसा सरीरा। आसासिज्जई सासो जाव न सा सा समप्पंति ।। यहाँ मूलभाव को अनुप्रास और यमक की योजना से व्यक्त किया गया है। यमककाव्यों की परम्परा का पोषण करते हए श्रीकण्ठ कवि ने 'सौरिचरिय' नामक काव्य की रचना द्वारा एक अभिनव प्रयास किया है । इसकी प्रत्येक गाथा में श्रीकृष्ण के चरित्र का चित्रण करते हए 'यमकालङ्कार' का आश्रय लिया है। यथा रअ रुइरंगं ताणं घेत्तूण व अंगणंमि रंगताणं । चुंबइ माआमहिआ बल-कण्हाणं मुहाई माआमहिआ॥ यहाँ धूलि-धूसरित अङ्गवाले, आँगन में रेंगते हुए बलदेव और कृष्ण को उठाकर पूजनीय माता यशोदा उन्हें चूमने लगी और वह माया के वश में हो गई। यह वर्णन बड़े ही प्रासादिक ढंग से हुआ है तथा 'पादान्तयमक' की योजना भी उत्तम हुई है। वहीं एक अन्य पद्य इस प्रकार है जो णिच्चो राअंतो रमावई सोविगव्व चोराअंतो। वह बहु बद्धो बंतो सद्दोव्व ठिइच्चुओ अबद्धोसंतो॥ यहाँ 'जो कृष्ण नित्य शोभा को प्राप्त होते हए, गायों के दूध की चोरी करते हुए व्रज-वनिता यशोदा के द्वारा ओखली से बांध दिये गये थे, फिर भी वे शान्त रहे, मर्यादा से च्युत शब्द की भाँति वे अबद्ध ही रहे।' इस कथन के साथ-साथ पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में 'अन्त्ययमक' का निर्वाह दर्शनीय है। चित्रालङ्कारमय प्राकृतस्तोत्रसाहित्य । चित्रालङ्कार वर्णादि को आकार में लिखे जाते और वर्णों की विभिन्न आवत्तियों के आधार पर स्फुरित होते हैं । शब्दालङ्कार के अन्य भेदों का जहाँ विभिन्न रूप से विकास देखा जाता है, वहीं इस भेद की भी विस्तृति आश्चर्यजनक रूप में हुई है। वाग्विकल्प के जो अनन्त प्रकार हैं, उनका अभिनव रूप इस जया - Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत वाङमय में शब्दालंकार ६१ यासार लिया विधा में मुखरित हुआ है । स्तुति-स्तोत्ररूप वर्ण्यतत्त्व, सर्वजनसुलभ प्राकृत-भाषा और चित्रालङ्कार इन । तीनों का एक अपूर्व संगम होने से प्राकृत-वाङमय का भाण्डार कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण बन गया है। इस प्रकार का साहित्य पर्याप्त उपलब्ध है, उसमें से उदाहरण के रूप में कुछ स्तोत्रों का परिचय यहाँ दिया जा रहा है। छठी शताब्दी के निकट महर्षि नन्दिषेण ने 'अजियसंति-थय' नाम से एक चित्रस्तोत्र की रचना की। इस स्तोत्र में विविध छन्दों का प्रयोग हआ है तथा चित्र-बन्धों की दृष्टि से—(१) रसपद, (२) तालवृन्त, (३) भृङ्गार, (४) व्यंजन, (५) स्वस्तिक, (६) मत्स्ययुगल, (७) दर्पण, (८) श्रीवत्स, (६) वापिका, (१०) दीपिका, (११) मंगल-कलश, (१२) शरावसम्पुट, (१३) तिलकरत्न, (१४) भद्रासन, (१५) नागपाश, (१६) धूपदानी, (१७) रत्नमाला, (१८) चतुर्दीपका, (१६) मन्थान, (२०) कुम्भ, (२१) गदा, (२२) मयूरकला, (२३) अश्व, (२४) मयूर, (२५) हल, (२६) अष्टारचक्र, (२७) मुकुट, (२८) वीणा, (२६) नरधनुष, (३०) वृक्ष, (३१) ध्वज, (३२) शिखर, (३३) त्रिशूल, (३४) चामर, (३५) सिंहासन, (३६) चतुर्गुच्छ, (३७) कल्पतरु, (३८) अष्टदल-कमल, (३६) मशाल, (४०) नागफणा, (४१) कमल-मालिका तथा (४२) व्यजन-बन्धों की योजना प्राप्त होती है। यद्यपि यह बन्धों की योजना पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित नहीं है किन्तु इसकी भाषागत विशिष्टता के आधार पर मुनिश्री धुरन्धरविजयजी ने यह प्रयास किया है।' इसी प्रकार जयचन्द्रसूरि के 'पण्ह गम्भ-पंचपरमिट्टिथवण' में (१) शृङ्खला जाति और त्रिगत, (२) पञ्चकृत्वोगति, (३) चतुःकृत्वोगति, (४) गतागत एवं द्विर्गत तथा (५) अष्टदल-कमल बन्ध की योजना की गई है। इनके अतिरिक्त निम्नलिखित प्राकृत-स्तोत्र भी अपनी शब्दालङ्कार पोषक और विशेषतः चित्रालङ्कार-मूलक प्रवृत्तियों के कारण अनुशीलनीय हैं--- (१) मन्त्रगर्भ श्रीपार्श्वजिनस्तवन -रत्नकीर्तिसूरि (२) मन्त्रगर्भ श्रीपार्श्वप्रभु-स्तवन —कमलप्रभाचार्य (३) मन्त्रयन्त्रादिभित श्रीस्तम्भन पार्श्वजिन-स्तवन श्रीपूर्णकलश गणि (४) नवग्रहस्वरूपगर्भ श्रीपार्श्वजिन-स्तवन -~-अज्ञातकर्तृक (५) अष्टभाषामय सीमन्धरजिन-स्तवन ------श्रीजिनहर्ष (६) अष्टभाषामय सम्यक्त्वरास ----श्रीसंघकलश (७) षड्भाषामय गौडीपार्श्वनाथ-स्तवन -श्रीधर्मवर्धन मधm १. यह पुस्तक प्रकाशनाधीन है तथा लेखक ने इसकी व्यवस्था और योजना में भी सहयोग दिया है। २. यह स्तोत्र बम्बई के 'जैन साहित्य विकास मण्डल' से प्रकाशित 'नमस्कार स्वाध्याय' के प्राकृत स्तोत्र विभाग में सचित्र मुद्रित है। ३. प्राकृत, मागधी. शौरसेनी, पैशाची, चलिका-पैशाची, अपभ्रंश और संस्कृत भाषा में निर्मित यह स्तोत्र 'धर्मवर्धन-ग्रन्थावली' 'बीकानेर' में मुद्रित है। در محیححححني جعبه مجموعه ای گلدرهم حق مععععيع مردان کی عا دعا به اجرا .. وهوا 4 श्राआनन्द-ग्रन्थश्राआनन्दअन्य 2 Ca Amaranteememowoman me - - wowan MAv INAVI Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दत्र ग्रन्थ 32 फ्र आचार्य प्रव ६२ प्राकृत भाषा और साहित्य (८) पार्श्वनाथ स्तोत्र (संस्कृत प्राकृत भाषामय) - श्री समय सुन्दर (e) तीर्थङ्कर - चतुर्विंशति- गुरुनामगर्भ-पार्श्वस्तवन, (१०) ईर्यापथिकी - विधिगमित पार्श्वनाथस्तवन, (११) संस्कृत प्राकृतमय पार्श्वनाथस्तवन, (१२) अल्पत्वबहुत्व विचारगर्भित प्राकृत स्तोत्र, (१३) यमकबद्ध प्राकृत स्तोत्र, (१४) संस्कृत भाषाभिन्न पूर्वार्धोत्तरार्ध श्री जिनस्तवन - धर्मघोषसूरि, (१५) ओहाणबन्ध (आभाणकबन्ध ) जिनस्तोत्र, (१६) संस्कृत - प्राकृतमय श्रीवीरस्तवन, धनपाल ( १७ ) संस्कृत प्राकृतमय आदिदेवस्तवन, रामचन्द्रसूरि, (१८) महामन्त्रगर्भित अजितशान्तिस्तव, धर्मघोष, (१९) नवग्रहश्लेषरूप पार्श्वनाथ लबुस्तव, जिनप्रभसूरि, (२०) मन्त्र - भेषजादि गर्भित युगादिदेवस्तव, शुभसुन्दरगणि, (२१) पंचकल्याणक कलितक विंशतिस्थानगर्भित - श्रीमल्लिजिनस्तवन, (२२) भोज्यादिनामगर्भ जिनस्तवन तथा ( २३ ) रसवतीचित्रगर्भ वर्धमानस्तव । उपसंहार अभिनंदन प्राकृत भाषा की शब्दगुम्फना में अनुरणन की जो मसृणता सहज उपलब्ध हो जाती है तथा पदों की मृदुलता और मांसलता से जो आन्दोलन-माधुरी निखर आती है, वह सचमुच ही सहृदय - हृदयै कगम्य है । यही कारण है कि नाटकों में इस भाषा को सर्वतोभावेन प्रश्रय मिला। कुछ पात्रों के लिए यह भाषा सर्वथा आवश्यक मानी गई। एक काल वह भी आया कि लोकरंजन की भूमिका का निर्वाह करने के लिये संस्कृत भाषा को छोड़ शुद्ध प्राकृत में ही गहन साहित्य की रचना की जाने लगी। जैन-सम्प्रदाय और उनके आचार्यों ने अपनी साहित्य-साधना का माध्यम प्राकृत भाषा को ही स्वीकार किया । आगमादि समस्त धार्मिक वाङ् मय इसी भाषा में आकलित है तथा उन्हीं ग्रन्थों के महान् दायित्व को चिर-स्थिर रखने के आज भी प्रयास हो रहे हैं । Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्री अगरचन्द्र जी नाहटा [सुप्रसिद्ध साहित्यान्वेषक ] प्राकृत साहित्य की विविधता और विशालता मानव की स्वाभाविक बोलचाल की भाषा का नाम प्राकृत है। यह भाषा देशकाल के भेद से अनेक रूपों और नामों से प्रसिद्ध है । आगे चलकर यह कुछ प्रकारों में विभक्त हो गई और उन्हीं के लिए प्राकृत संज्ञा रूढ़ हो गई । जैसे - अर्धमागधी, महाराष्ट्री, शौरसेनी, पैशाची आदि । बोली के रूप में तो प्राकृत काफी पुरानी है । पर साहित्य उसका इतना पुराना नहीं मिलता। इसलिए उपलब्ध ग्रन्थों में सबसे पुराने 'वेद' माने जाते है, जिनकी भाषा वैदिक संस्कृत है । भगवान् महावीर और बुद्ध ने जनभाषा में धर्म प्रचार किया। दोनों ही समकालीन महापुरुष थे और उनका विहार विचरण प्रदेश भी प्रायः एक ही रहा है । पर दोनों की वाणी जिन भाषाओं में उपलब्ध है, उनमें भिन्नता है । पाली नाम यद्यपि भाषा के रूप में प्राचीन नाम नहीं है, पर बौद्ध त्रिपिटकों की भाषा का नाम पाली प्रसिद्ध हो गया । भगवान महावीर की वाणी जो जैन आगमों में प्राप्त है, उसे 'अर्धमागधी' भाषा की संज्ञा दी गई है । क्योंकि मगध जनपद उस समय काफी प्रभावशाली रहा है और उसकी राजधानी 'नालन्दा' में भगवान् महावीर ने चौदह चौमासे किये । उसके आस-पास के प्रदेश में भी उनके कई चौमासे हुए। इसलिए मागधी भाषा की प्रधानता स्वाभाविक ही है। पर मगध जनपद में भी अन्य प्रान्तों के लोग आते-जाते रहते थे और बस गये थे तथा भगवान् महावीर भी अन्य प्रदेशों में पधारे थे अतः उनकी वाणी सभी लोग समझ सकें, इस कारण मिली-जुली होने से उसको 'अर्धमागधी' कहा गया है। आगे चलकर जैनधर्म का प्रचार पश्चिम और दक्षिण की ओर अधिक होने लगा तब श्वेताम्बर सम्प्रदाय के जो ग्रन्थ रचे गये, उनकी भाषा को महाराष्ट्री प्राकृत और दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थों की भाषा को 'शौरसेनी' प्राकृत कहा गया । प्राकृत का प्रभाव कई शताब्दियों तक बहुत अच्छा रहा। पर भाषा तो एक विकसनशील तत्त्व है । अतः उसमें परिवर्तन होता गया और पाँचवीं छठवीं शताब्दी में उसे 'अपभ्रंश' की संज्ञा प्राप्त हुई। अपभ्रंश में भी जैन कवियों ने बहुत बड़ा साहित्य निर्माण किया है । अपभ्रंश से ही आगे चलकर उत्तर-भारत की सभी बोलियाँ विकसित हुईं। उनमें से राजस्थानी, गुजराती और हिन्दी में भी प्रचुर जैन - साहित्य रचा गया । प्राकृत के प्रचार और प्रभाव के कारण ही संस्कृत के बड़े-बड़े कवियों ने जो नाटक लिखे, उनमें जन साधारण की भाषा के रूप में करीब आधा भाग प्राकृत में लिखा है । कालिदास, भास, आदि के D आयायप्रवरुप अभिनंदन आआनन्द अन्य Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनंदन आमानादष अमन आआनन्द ६४ प्राकृत भाषा और साहित्य नाटक इसके प्रमाण हैं। शिलालेखों में भी बहुत से लेख प्राकृत भाषा में उत्कीर्ण मिलते हैं । इससे प्राकृत भाषा के कई रूपों और विकास की अच्छी जानकारी मिल जाती है । यद्यपि प्राकृत में साहित्यरचना की परम्परा जैसी जैनों में रही, वैसी अन्य किसी धर्म सम्प्रदाय या समाज में नहीं रही, पर जैनेतर विद्वानों ने भी प्राकृत भाषा के व्याकरण बनाये हैं और कुछ काव्यादि रचनाएँ भी उनकी मिलती हैं । इससे सिद्ध होता है कि संस्कृत का प्रभाव बढ़ जाने पर भी प्राकृत सर्वथा उपेक्षित नहीं हुई और जैनेतर लेखक भी इसे अपनाते रहे । A 頭 प्राकृत साहित्य विविध प्रकार का और बहुत ही विशाल है। अभी तक बहुत-सी छोटी-छोटी रचनाओं की तो पूरी जानकारी भी प्रकाश में नहीं आयी है । वास्तव में छोटी होने पर भी ये रचनाएं उपेक्षित नहीं होनी चाहिए। क्योंकि इनमें से कई तो बहुत ही सारगर्भित और प्रेरणादायी हैं । बड़े-बड़े ग्रन्थों में जो बातें विस्तार से पायी जाती हैं, उनमें से जरूरी और काम की बातें छोटे-छोटे प्रकरण-ग्रन्थों और कुलकों आदि में गूंथ ली गई हैं। उनका उद्देश्य यही था कि बड़े-बड़े ग्रन्थ याद नहीं रखे जा सकते और छोटे ग्रन्थों या प्रकरणों को याद कर लेना सुगम होगा, अतः सारभूत बातें बतलाने व समझाने में सुविधा रहेगी । ऐसे बहुत से प्रकरण और कुलक अभी तक अप्रकाशित हैं। उनका संग्रह एवं प्रकाशन बहुत ही जरूरी है - अन्यथा कुछ समय के बाद वे अप्राप्त हो जायेंगे । ऐसी रचनाएँ फुटकर पत्रों और संग्रह प्रतियों में पाई जाती हैं । हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची बनाते समय भी उनकी उपेक्षा कर दी जाती है । पर संग्रह प्रतियाँ और गुटकों की भी पूरी सूची बनानी चाहिए, जिससे प्रसिद्ध रचनाओं के अतिरिक्त अप्रकाशित एवं अज्ञात रचनाएँ कौन-सी हैं ? इसका ठीक से पता चल सके । प्राकृत भाषा का 'स्तोत्र - साहित्य' भी उल्लेखनीय है, अतः प्रकरणों, कुलकों, स्तोत्रों, सुभाषित पद्यों के स्वतन्त्र संग्रह - ग्रन्थ प्रकाशित होने चाहिए। मैंने जैन कुलकों की एक सूची अपने लेख में प्रकाशित की थी, उसमें शताधिक कुलकों की सूची दी गई थी । प्राकृत जैन - साहित्य को कई भेदों में विभक्त किया जा सकता है । जैसे—आगमिका, अंग- उपांग, छन्द, सूत्र - मूल आदि तो प्रसिद्ध हैं । दार्शनिक साहित्य में सम्मतिप्रकरण आदि अनेक ग्रन्थ हैं । औपदेशिक साहित्य में 'उपदेश माला' जैसे ग्रन्थों की एक लम्बी परम्परा है । प्रकरण साहित्य में जीव-विचार, नवतत्व, दण्डक, क्षेत्र समास, संघयणी, कर्मग्रन्थ आदि सैकड़ों प्रकरण ग्रन्थ हैं। महापुरुषों से सम्बन्धित सैकड़ों चरित काव्य प्राप्त हैं । कथाग्रन्थ गद्य और पद्य में हैं। सैकड़ों छोटी-बड़ी कथाएँ स्वतन्त्र रूप से और टीकाओं आदि में पाई जाती हैं । सर्वजनोपयोगी साहित्य में व्याकरण, छन्द, कोष, अलंकार आदि काव्यशास्त्रीय ग्रन्थो का समावेश होता है । प्राकृत के कई कोष एवं छन्द ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके है । 'पाइय लच्छी नाममाला' और 'जयदामन छन्द' प्रसिद्ध हैं । अलंकार का एकमात्र ग्रन्थ 'अलकार दप्पण' जैसलमर भण्डार की ताड़पत्रीय प्रति में मिला था, जिसे मेरे भतीजे भँवरलाल ने हिन्दी अनुवाद के साथ मरुधर केसरी अभिनन्दन ग्रन्थ में प्रकाशित करवा दिया है । भँवरलाल ने प्राकृत में कुछ पद्यों की रचना भी की है और जीवदया Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ प्राकृत साहित्य की विविधता और विशालता प्रकरण, नाना वृत्तक प्रकरण और बालबोध प्रकरण को भी हिन्दी अनुवाद सहित हमारे " अभय जैनग्रन्थालय" से प्रकाशित करवाया है। ठाकुर फेरू के 'धातोत्पति' 'द्रव्य - परीक्षा' और 'रत्न- परीक्षा' का भी उसने हिन्दी अनुवाद किया है। इनमें से 'रत्न- परीक्षा' तो हमारे "अभय जैन ग्रंथालय " से प्रकाशित हो चुकी है । 'धातोत्पति' यू. पी. हिस्टोरिकल जर्नल में सानुवाद डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल के द्वारा प्रकाशित करवा दी है । 'द्रव्य-परीक्षा' सानुवाद टिप्पणी लिखने के लिए डॉ० दशरथ शर्मा को दी हुई है । इसी तरह कांगड़ा राजवंश सम्बन्धी एक महत्वपूर्ण रचना का भी भंवरलाल ने अनुवाद किया है । उस पर ऐतिहासिक टिप्पणियाँ डॉ० दशरथ शर्मा लिख देंगे, तब प्रकाशित की जायेगी । अनुपलब्ध प्राकृत रचनाएँ- प्राकृत का बहुत-सा साहित्य अब अनुपलब्ध है । उदाहरणार्थ — रथानांगसूत्र में दश दशाओं के नाम व भेद मिलते हैं । उनमें से बहुत से ग्रन्थ अब प्राप्त नहीं हैं । इसी प्रकार नन्दीसूत्र में सम्यग् सूत्र और मिथ्या सूत्र के अन्तर्गत जिन सूत्रों के नाम मिलते हैं, उनमें भी कई ग्रन्थ अब नहीं मिलते हैं । जैसे—महाकल्प महापन्नवणा, विज्जाचारण, विणिच्छओ, आयविसोही, खुडिआविमाणपविभती, महल्लिया विमाण विभती, अंगचूलिया, वग्गचूलिया, विवाह - चूलिया अयणोववाए, वसणोववाए, गुयलोववाए, धरगोववाए, बेसमोववाए, वेलधरोववाए, देविंदोववाए, उट्ठाण सुयं, समुट्ठाणसुयं, नागपरियावणियाओ, आसीविसभावणाणं दिट्ठिविसभावणाणं, सुमिणभावणाणं, महासुमिणभावणाणं, तेयग्गिनिसग्गाणं । पाक्षिक सूत्र में भी इनका उल्लेख मिलता है । व्यवहार सूत्र आदि में भी जिन आगम ग्रन्थों का उल्लेख है, उनमें से भी कुछ प्राप्त नहीं हैं । प्राकृत भाषा के कई सुन्दर कथा-ग्रन्थ जिनका उल्लेख मिलता है, अब नहीं मिलते। उदाहरणार्थपादलिप्तसूरि की 'तरंगवई कहा' तथा विशेषावश्यक भाष्य आदि में उल्लिखित 'नरवाहनयता कहा', मगधसेणा, मलयवती । इसी तरह ११वीं शताब्दी के जिनेश्वरसूरि की 'लीलावई - कहा' भी प्राप्त नहीं है । कई ग्रन्थ प्राचीन ग्रन्थों के नाम वाले मिलते हैं पर वे पीछे के रचे हुए हैं - जिस प्रकार 'जोणीपाहुड' प्राचीन ग्रंथ का उल्लेख मिलता है, पर वह अप्राप्त है । प्रश्नश्रमण के रचित योनिपाहुड़ की भी एक मात्र अपूर्ण प्रति भाण्डारकर ओरियण्टल इन्स्टीटूट, पूना में सम्वत् १५८२ की लिखी हुई है । इसकी दूसरी प्रति की खोज करके उसे सम्पादित करके प्रकाशित करना चाहिए । प्रश्नव्याकरण सूत्र भी अब मूल रूप में प्राप्त नहीं है, जिसका कि विवरण समवायांग और नन्दी सूत्र में मिलता है । इसी तरह के नाम वाला एक सूत्र नेपाल की राजकीय लाइब्रेरी में है । मैंने इसकी नकल प्राप्त करने के लिए प्रेरणा की थी और तेरापन्थी मुनिश्री नथमल जी के कथनानुसार रतनगढ़ के श्री रामलाल जी गोलछा जो नेपाल के बहुत बड़े जैन व्यापारी हैं, उन्होंने नकल करवा के मँगवा भी ली है । पर अभी तक वह देखने में नहीं आई अत: पाटण और जैसलमेर भण्डार में प्राप्त जयपाहुड़ और प्रश्नव्याकरण से वह कितनी भिन्नता रखता है ? यह बिना मिलान किये नहीं कहा जा सकता । पंजाब के जैन भण्डारों का अब रूपनगर दिल्ली के उनमें शोध करने पर मुझे एक अज्ञात बिन्दुदिशासूत्र और प्रति विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार जयपुर में भी मिली है । गया श्वेताम्बर जैन मन्दिर में अच्छा संग्रह हो की प्रति प्राप्त हुई है । फिर इसकी एक मैंने इस अज्ञात सूत्र के सम्बन्ध में श्रमण के 乘 CANTOD आसवन अनन्दन आआनन्द का अभिन्दन श्री Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaaaaamananAmarnantanuaranevanavaranoramainaramanianRJAMANUMALAndroin.MAADAALAJAasalasariABARDainiree Sition NOMMI NWAV श्रीआनन्द अन्य धाआनन्द थz ६६ प्राकृत भाषा और साहित्य जून ७१ अंक में संक्षिप्त प्रकाश डाला है। इसका सम्पादन करने के लिए मुनिश्री नथमलजी को इसकी कॉपी दी गई है । प्राकृत का यह सूत्र ग्रन्थ छोटा-सा है पर हमें इससे यह प्रेरणा मिलती है कि अन्य ज्ञान-भण्डारों में भी खोजने पर ऐसी अज्ञात रचनाएँ और भी मिल सकेंगी। हवीं शती के जैनाचार्य बप्पभट्रिसूरि के 'तारागण' नामक ग्रन्थ का प्रभावक-चरित्र आदि में उल्लेख ही मिलता था पर किसी भी भण्डार में कोई प्रति प्राप्त नहीं थी, इसकी भी एक प्रति मैंने खोज निकाली है। वैसे बहुत वर्ष पहले इसकी यह प्रति अजीमगंज में यति ज्ञानचन्द जी के पास मैंने देखी थी पर फिर प्रयत्न करने पर भी वह मिल नहीं सकी थी। गतवर्ष अचानक बीकानेर के श्रीपूज्यजी का संग्रह जो कि राजस्थान प्राच्यविद्याप्रतिष्ठान की बीकानेर शाखा में दे दिया गया है, उसमें यह प्रति मिल गई, तो उसका विवरण मैंने 'वीरवाणी' में तत्काल प्रकाशित कर दिया। उसकी रचना पढ़ते ही मुझे डा० ए० एन० उपाध्याय ने पत्र लिखा और उन्होंने फोटो-प्रति करवा ली है। इसी तरह ३० वर्षपूर्व भारत के प्राकृत जैनेतर कामशास्त्र की एक भाग अपूर्ण प्रति मुझे अनूप संस्कृत लाइब्रेरी में प्राप्त हई थी। प्राकृत भाषा के इस एकमात्र कामशास्त्र का नाम है 'मदनमुकुट'। यह गोसल ब्राह्मण ने सिन्ध के तीरवर्ती माणिक महापुर में रचा था। इसका विवरण मैंने तीस वर्ष पहले "भारतीय विद्या" वर्ष २, अंक २ में प्रकाशित कर दिया था। उस समय की प्राप्त प्रति में तीसरे परिच्छेद की पैतीस गाथाओं तक का ही अंश मिला था । अभी दो-तीन वर्ष पहले जब मैं ला० द. भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद का संग्रह देख रहा था तो मुझे इसकी पूरी प्रति प्राप्त हो गई, जो सम्वत् १५६९ की लिखी हुई है । इसके अनुसार यह प्राकृत कामशास्त्र छ: परिच्छेदों में पूर्ण होता है। जैनेतर कवि के रचित प्राकृत के इस एकमात्र कामशास्त्र को शीघ्र प्रकाशित करना चाहिए। प्राकृत की भाँति अपभ्रंश साहित्य का कई दृष्टियों से बहुत ही महत्व है, पर अभी तक इस दृष्टि से अध्ययन एवं मूल्यांकन नहीं किया गया है। अन्यथा जिस प्रकार प्राचीन भारतीय संस्कृति, साहित्यिक परम्परा और भाषाविज्ञान की दृष्टि से संस्कृत साहित्य का आलोचनात्मक एवं सांस्कृतिक अध्ययन किया गया व किया जाता रहा है, उसी तरह प्राकृत, अपभ्रंश साहित्य का भी होता है । जैसा कि पहले बतलाया गया है, लोक भाषाओं का उत्स प्राकृत भाषा में ही है। हजारों लोकप्रचलित शब्द, प्राकृत से अपभ्रंश में होते हुए वर्तमान रूप में आये हैं और कई शब्द तो ज्यों-के-त्यों वर्षों से प्रयुक्त होते आ रहे हैं । कई व्याकरण के प्रत्यय आदि भी प्रान्तीय भाषा में प्राकृत से सम्बन्धित सिद्ध होते हैं। इस सम्बन्ध में अभी एक विस्तृत निबन्ध 'श्रमण' में छपा है । 'जैन भारती' में प्रकाशित तेरापन्थी साध्वी के लेख में और पं० बेचरदास जी आदि के ग्रन्थों में ऐसे सैकड़ों शब्द उद्धृत किये गये हैं, जिनका मूल संस्कृत में न होकर प्राकृत में है । जैन-आगमों में प्रयुक्त हजारों शब्द सामान्य परिवर्तन के साथ आज भी प्रान्तीय भाषाओं में बोले जाते हैं। प्राकृत जनभाषा थी, इसलिए जनता में प्रचलित अनेक काव्य विधाएँ एवं प्रकार अपभ्रंश और प्रान्तीय भाषा में अपनाये गये । सैकड़ों व हजारों कहावतें एवं मुहावरे भी प्राकृत ग्रन्थों में मिलते हैं एवं Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत साहित्य की विविधता और विशालता आज भी लोकव्यवहार में प्रचलित हैं । प्राकृत ग्रंथों की कहावत जो राजस्थान में अब भी बोली जाती हैं, उनके सम्बन्ध में डा० कन्हैयालाल सहल का शोध-प्रबन्ध द्रष्टव्य है । प्राकृत साहित्य का सांस्कृतिक महत्व सर्वाधिक है। क्योंकि जनजीवन का जितना अधिक वास्त विक चित्रण प्राकृत, अपभ्रंश साहित्य में मिलता है, उतना संस्कृत साहित्य में नहीं मिलता। क्योंकि संस्कृत के विद्वान अधिकांश राज्याश्रित एवं नगरों में रहने वाले थे अतः गाँवों और साधारण नागरिकों का स्वाभाविक चित्रण वे अधिक नहीं कर पाये । अलंकारों आदि से संस्कृत महाकवियों ने अपने काव्यों को बोझिल बना दिया, क्योंकि उनका उद्देश्य पांडित्य-प्रदर्शन ही अधिक रहा। जबकि प्राकृत साहित्य के प्रधान निर्माता जैनमुनिगण, गाँवों में और जनसाधारण में अपने साहित्य का प्रचार अधिक करते रहे हैं, इस दृष्टि से लोकरुचि को ध्यान में रखते हुए लोक-कथाओं, द्रष्टान्तों को सरल भाषा में लिखने का प्रयास करते थे । जिससे साधारण लोग भी अधिकाधिक लाभ उठा सकें। डा० मोतीचन्द्र जी आदि ने प्राकृत साहित्य की प्रशंसा करते हुए कुवलयमाला आदि का सांस्कृतिक महत्त्व बहुत अधिक बतलाया है । अत: भारतीय जन-जीवन और लोकप्रचलित रीति-रिवाज, विश्वास आदि के सम्बन्ध में प्राकृत साहित्य से बहुत महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हो सकती है । बहुत कम लोगों को यह मालूम होगा कि मध्यकाल में संस्कृत एवं लोक-भाषाओं का इतना अधिक प्रभाव बढ़ जाने पर भी प्राकृत साहित्य के निर्माण की परम्परा निरन्तर चलती रही है, किसी भी शताब्दी का कोई चरण शायद ही ऐसा मिले जिसमें थोड़ी-बहुत प्राकृत रचनाएँ न हुई हों, वर्तमान में भी वह परम्परा चालू है । वर्तमान आचार्य 'विजयपद्मसूरि' ने प्राकृत में काफी लिखा है । विजयकस्तूरिसूरि ने भी कई संस्कृत ग्रन्थों को प्राकृत में बना दिया है । तेरापन्थी मुनिश्री चन्दनमुनि जी रचित संस्कृत रणवाल कहा अभी-अभी प्रकाशित हुई है और जयाचार्य का प्राकृत जीवनचरित्र जैन भारती में निकल रहा है । और भी कई साधु-साध्वी प्राकृत में लिखते हैं तथा भाषण देते हैं और प्राकृत के अभ्यास 1 निरन्तर लगे हुए है । पर अभी कोई ग्रन्थ ऐसा नहीं लिखा गया जिसमें प्रत्येक शताब्दी में बनी हुई रचनाओं की कालक्रमानुसार सूची दी गई है । मेरी राय में ऐसा एक ग्रन्थ शीघ्र ही प्रकाशित करना चाहिए। जिससे ढाई हजार वर्षों की प्राकृत साहित्य की प्रगति और अविच्छिन्न प्रवाह की ठीक जानकारी मिल सके । प्राकृत के मध्यकालीन बहुत से ग्रन्थ अप्रकाशित हैं । उनके प्रकाशन की योजना बनानी चाहिए। कुछ प्राकृत साहित्य परिषद से प्रकाशित हुए हैं। पर मेरा सुझाव यह है कि सबसे पहले प्राकृत की छोटी-छोटी रचनाएँ जितनी भी हैं, उनका संग्रह काव्यमाला संस्कृत सिरीज की तरह प्रकाशित किया जाये । अन्यथा वे थोड़े समय में ही लुप्त हो जायेंगी। अभी तक न तो उनकी जानकारी ही ठीक से प्रकाश में आई है, न उनके संग्रह ग्रन्थ ही अधिक निकलते हैं । १२वीं शताब्दी से ऐसी अनेक संग्रह प्रतियाँ मिलने लगती हैं और फुटकर ग्रन्थ भी हजारों मिलते हैं । जो अद्यावधि सर्वथा उपेक्षित-से रहे है । प्राकृत से अपभ्रंश और उससे प्रान्तीय भाषाएँ निकलीं यह भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि परवर्ती हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती रचनाओं में उन रचनाओं की भाषा को कवियों ने स्वयं प्राकृत ६७ आपाय प्रवष अभिनन्दन ग्राआनन्द Sc अन्य आचार्य प्रवरुप अभिनंदन 風 Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mamarinaamaaranaanakarandaanarauasanarsusarmanandsamosamineractrendrammamaABASABudainancisailasreadmornine प्रवर आभागावर अभि श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्द aorywwimmivirwirvindrawiwwimwwwIYYiwavintrovernormwaremories ६८ प्राकृत भाषा और साहित्य बतलाया है । वहाँ प्राकृत शब्द का अर्थ जन-भाषा ही अभिप्रेत है। अपभ्रंश के दिगम्बर चरित-काव्य तो कुछ प्रकाशित हुए हैं और उनकी जानकारी भी ठीक से प्रकाश में आई है पर श्वेताम्बर अपभ्रंश रचनाओं का समुचित अध्ययन अभी तक नहीं हो पाया है । जितनी विविधता श्वेताम्बर अपभ्रंश साहित्य में है, दिगम्बर अपभ्रंश साहित्य में नहीं है। अत: हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती काव्य-रूपों या प्रकारों का अध्ययन करते समय मैंने प्रायः सभी की परम्परा अपभ्रंश से जोड़ने या बतलाने का प्रयत्न किया है। विविध विधाओं एवं प्रकारों की मूल अपभ्रंश रचनाओं का संग्रह भी प्रकाशित किया जाना आवश्यक है। हमने ऐसी कई रचनाएँ अपने ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, दादाजिनदत्तसूरि, मणिधारी जिनचन्द्रसूरि आदि ग्रन्थों में तथा विविध लेखों में प्रकाशित करने का प्रयास किया है। हमारा अभी एक ऐसा संग्रह ग्रंथ ला० द. भारतीय संस्कृति विद्या-मन्दिर अहमदाबाद से छप रहा है। इससे प्राचीन काव्य-रूपों और भाषा के विकास के अध्ययन में अवश्य ही सहायता मिलेगी। प्राकृत भाषा का साहित्य बहुत ही विशाल है। ज्यों-ज्यों खोज की जाती है, नित्य नई जानकारी मिलती रहती है। अभी-अभी हमें भद्रबाह की अज्ञात रचनाएँ मिली हैं, कई ग्रंथों की अपूर्ण एवं त्रुटित प्रतियाँ मिली हैं, आवश्यकता है प्राकृत भाषा एवं साहित्य सम्बन्धी एक त्रैमासिक पत्रिका की, जिसमें छोटी-छोटी रचनाएँ व बड़े ग्रंथों की जानकारी प्रकाश में लाई जाती रहे। CREDIOAA Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री मोहनलाल जी 'सुजान' (तेरापंथ जैन संघ के विद्वान संत एवं कवि ) अक्षरविज्ञान : एक अनुशीलन वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर भावों को अभिव्यक्त करने का प्रमुख साधन है। मानव जाति के विकास के साथ-साथ वर्णमाला का भी विकास होता आया है । प्रायः ऐतिहासिक मान्यतानुसार वर्णमाला के निर्धारण के पूर्व भावाभिव्यक्ति का संकेत ही एकमात्र साधन था । सांकेतिक भावाभिव्यक्ति का भी बहुत बड़ा महत्व रहा है । मानव सभ्यता के जन्म के पश्चात् ही वर्णमाला का निर्धारण हुआ ऐसा प्रतीत होता है । जैन मान्यतानुसार भगवान श्री ऋषभनाथ ने सर्वप्रथम ब्राह्मी और सुन्दरी नामक अपनी दोनों पुत्रियों को अंकगणित और वर्णमाला की कलायें सिखाई थीं । वे कलायें ही परम्परानुक्रम आगे से आगे विकसित बनीं । विविध लिपियों के माध्यम से उनका विकास हुआ। जैन शास्त्रकारों ने वर्णों को द्रव्यश्रुत कहा है तथा ज्ञानप्राप्ति का मुख्य आधार माना है । आत्म-ज्ञान क्षयोपशमजन्य है । वह अक्षरज्ञान ही प्रयत्न विशेष से आत्मज्ञान के रूप से परिणत हो जाता है । वर्णमाला और मनोवृत्ति - देवनागरी लिपि के अक्षरों के आकार और उच्चारण भी विशेष अर्थ - सूचक तथा भिन्न-भिन्न विशेषतायें लिए होते हैं। सभी अक्षरों की भिन्न-भिन्न मातृका - ध्वनियाँ भी होती हैं । इस वर्णमाला में उच्चारण के अनुरूप ही आकार निर्धारण किया गया है । प्रत्येक अक्षर के आकार में आये हुए विभिन्न प्रकार के घुमाव, मोटापन तथा पतलापन में उच्चारण के साथ समताल का ध्यान भी रखा गया है । इसलिए ही इस वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर विशेष शक्तिसूचक तथा मन्त्ररूप में प्रयुक्त होने वाले अक्षर हैं । मनोवैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर भी इस वर्णमाला के अक्षरों का अपना प्रमुख स्थान है । मानव जीवन की मूल प्रवृत्तियों के साथ इस वर्णमाला सिद्ध होता है । मनुष्य की भावनाओं तथा मूल प्रवृत्तियों का संयोजन माध्यम में ही ठीक-ठीक बन पाता है। क्योंकि शब्दोच्चारण ही मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों को व्यवस्थित बनाता है तथा मनोगत भावों का शुद्धिकरण करता है। मनोगत भावों की शुद्धि के लिए मनोवृत्ति को जानना जरूरी है, शब्दों के उच्चारणों की विधि तथा वर्णमाला का रहस्य जानना भी जरूरी है । के स्थायी भावों का आधार - मनुष्य की दृश्य क्रियायें उसके चेतन मन में होती हैं और अदृश्य अक्षरों का बहुत कुछ यथार्थभाव अक्षर के विराट रूप शब्दों के आचार्य प्रव28 श्री आनन्द अभिनन्दन आआनन्द 99 अभिनेत अन्थ Vo Dr. PRASTAD Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रवाअभियप्रवाआभगन्दन श्रीआनन्दा अन्यश्रीआनन्द अन्य ७० प्राकृत भाषा और साहित्य क्रियायें अवचेतन मन में होती हैं । इन दोनों प्रकार की क्रियाओं को मनोवृत्ति कहा जाता है। साधारणतः तो मनोवत्ति शब्द चेतन मन की क्रिया के बोध के लिए ही प्रयुक्त होता है। परन्तु वस्तुतः यह नहीं है। प्रत्येक मनोवृत्ति के तीन पहलू हैं-ज्ञानात्मक, वेदनात्मक और क्रियात्मक । मनोवृत्ति के इन तीनों पहलुओं को एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता। क्योंकि मनुष्य को जो कुछ ज्ञान होता है, उसके साथ वेदना और क्रियात्मक भाव की भी अनुभूति होती है। ज्ञानात्मक मनोवृत्ति के संवेदन, प्रत्यक्षीकरण, स्मरण, कल्पना और विचार ये पांच रूप होते हैं। संवेदनात्मक के संवेग, उमंग, स्थायीभाव और भावनाग्रन्थि ये चार रूप होते हैं। क्रियात्मक मनोवृत्ति के सहज क्रिया, मुलवत्ति, आदत, इच्छित क्रिया और चरित्र ये पाँच रूप होते हैं । मनोवृत्ति के इन विविध रूपों का शुद्धिकरण ही जीवन का शुद्धिकरण है, व्यवहार का शुद्धिकरण है । मन की प्रत्येक प्रवृत्ति वचन और काया से सम्बन्धित होती है। वचन द्वारा बोले जाने वाले शब्द तथा काया द्वारा की जाने वाली क्रियायें ही मन को अपनी ओर आकर्षित करती हैं: केन्द्रित करती हैं। ज्ञानकेन्द्र और क्रिया-केन्द्रों का समन्वय होने से भी मानव मन सुदृढ़ होता है। मन की सुदृढ़ता ही उसके चरित्र को उन्नायक है तथा उसके स्थायी भावों का आधार है । शब्द-शक्ति का मूल-मनुष्य का चरित्र उसके स्थायी भावों का समुच्चय मात्र है । जिस मनुष्य के स्थायी भाव जिस प्रकार के होते हैं, उसका चरित्र भी उसी प्रकार का होता है । मनुष्य का परिमाजित और आदर्श स्थायी भाव ही हृदय की अन्य प्रवृत्तियों का नियन्त्रण करता है। जिस मनुष्य के स्थायी भाव सुनियन्त्रित नहीं तथा जिसके मन में उच्च आदर्शों के प्रति स्थायी भाव नहीं है, उसका व्यक्तित्व सुगठित तथा उसका चरित्र सुन्दर नहीं हो सकता। सुगठितता व चरित्रशीलता का शब्दों के उच्चारण के साथ बहुत गहरा सम्बन्ध है । शब्दशक्ति का अपना अचूक प्रभाव होता है। मनुष्य के द्वारा की जाने वाली अनेकानेक प्रवृत्तियाँ आदमी द्वारा समुच्चारित शब्दों का ही प्रतिबिम्ब हैं। मनोवैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर इन प्रवृत्तियों में से भोजन ढूंढ़ना, भागना, लड़ना, उत्सुकता, रचना, संग्रह, विकर्षण, शरणागत होना, कामप्रवृत्ति, शिशु-रक्षा, दूसरों की चाह, आत्म-प्रकाशन, विनीतता और हँसना, ये चौदह मूलप्रवृत्तियाँ हैं । इन मूल-प्रवृत्तियों का अस्तित्व संसार के सभी प्राणियों में पाया जाता है। परन्तु मनुष्य की ही यह विशेषता है कि वह इन मूल-प्रवृत्तियों में समुचित परिवर्तन कर लेता है। अन्यथा केवल मूलप्रवत्तियों द्वारा संचालित जीवन असभ्य और पाशविक जीवन कहलाता है । इसलिए इन मूल-प्रवृत्तियों में Repression दमन, Inhibition विलयन, Redirection मार्गान्तरीकरण और Sublimation शोधन, ये परिवर्तन होते रहते हैं। ये परिवर्तन सहज व स्वाभाविक हैं फिर भी शब्दशक्ति से बहुत प्रभावित रहते हैं। उदाहरणतया कम्पन शब्द के श्रवण, मनन, चिन्तन तथा जल्पन के साथ ही कम्पन की क्रिया सहज होने लगती है। भयात्मक शब्द के श्रवण, मनन, चिन्तन व जल्पन के साथ ही भयात्मक स्थिति बनने लगती है। इसलिए ये परिवर्तन भी शब्दरचना से सम्बन्धित रहते हैं। शब्दशक्ति का मूल वर्णमाला का आकार-प्रकार है, द्रव्यश्रुत का आधार है। गणित के द्वार पर श्रुतज्ञान-श्रुतज्ञान के दो प्रकार होते हैं-द्रव्यश्रुत और भावश्रुत; अक्षर रूप ज्ञान के आत्मभाव को भावत कहते हैं। इस ज्ञान के आत्मभावों के अनुरूप ही विधायें होती हैं । KNAUA HAND - Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षरविज्ञान : एक अनुशीलन ७१ द्रव्यश्रुत; अक्षर रूप ज्ञान को द्रव्यश्रुत कहते हैं । उन अक्षर रूप ६४ अनादि मूलवर्णों को लेकर समस्त श्रुतज्ञान के अक्षरों का प्रमाण निम्न प्रकार निकाला जा सकता है । गाथासूत्र निम्न प्रकार है— चउसट्ठियं विरलिय दुगं दाऊण सगुणं किच्चा सऊणं च कए पुण सुदणाणस्सक्खरा होंति ॥ अर्थ – चौसठ अक्षरों का विरलन करके प्रत्येक के ऊपर दो का अंक देकर परस्पर सम्पूर्ण दो के अंकों का गुणा करने से लब्ध राशि में एक घटा देने से जो प्रमाण रहता है, उतने ही श्रुतज्ञान के अक्षर होते हैं । इन अक्षरों का प्रमाण गाथा में निम्न प्रकार कहा गया है छस्सत्तयं च च य सुण्णसत्ततिय सत्ता । एकट्ठे च चय सुणं णव पण पंच य एक्कं छक्केक्कगो य पणयं च ॥ अर्थ – एक, आठ, चार, चार, छह, सात, चार-चार शून्य, सात, तीन, सात, शून्य, नव, पंच, पंच, एक, छह, एक, पाँच इतने श्रुतज्ञान के अक्षर हैं । मातृका ध्वनियाँ :- एक दिग्दर्शन - ज्ञान की अमित शक्ति वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर में छिनी हुई है । वर्णमाला में स्वर संख्या १६ तथा व्यंजन संख्या ३५ है । सभी अक्षरों की मातृका ध्वनियाँ हैं । जयसेन प्रतिष्ठापाठ में बतलाया गया है अकारादि क्षकारान्ताः, वर्णा प्रोक्तास्तु मातृकाः । सृष्टिन्यासः स्थितिन्यासः, संहृति न्यासतस्त्रिधा ॥ ३७६ ॥ अर्थ—अकार से लेकर क्षकार ( क् + ष् + अ ) पर्यंन्त मातृका वर्ण कहलाते हैं । इनका तीन प्रकार का क्रम है - सृष्टिक्रम, स्थितिक्रम और संहारक्रम । इन तीनों क्रमों में आत्मानुभूति की स्थिति के साथ लौकिक अभ्युदय का निर्माण तथा असत् का संहार जुड़ा हुआ रहता है । वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर बीजसंज्ञक । बीजाक्षरों की निष्पत्ति के सम्बन्ध में बताया गया है – “हलो बीजानि चोक्तानि, स्वराः शक्तय इता:" अर्थात् ककार से हकार पर्यन्त व्यंजन बीजसंज्ञक हैं और अकारादि स्वर शक्ति रूप हैं । मन्त्र बीजों की निष्पत्ति बीज और शक्ति के संयोग से होती है । सारस्वतबीज, मायाबीज, भुवनेश्वरीबीज, पृथ्वीबीज, अग्निबीज, प्रणवबीज, मारुतबीज, जलबीज, आकाशबीज आदि की उत्पत्ति उपरोक्त हल् और अचों के संयोग से होती है। बीजों का सविस्तार वर्णन बीजकोश में वर्णित है, परन्तु यहाँ पर सामान्य जानकारी के लिए ध्वनियों की शक्तियों का दिग्दर्शन कराया जाता है । अ-अव्यय, व्यापक, आत्मा के एकत्व का सूचक, शुद्ध-बुद्ध ज्ञानरूप, शक्ति द्योतक, प्रणयबीज का जनक | आ - अव्यय, शक्ति और बुद्धि का परिचायक, सारस्वतवीज का जनक, मायाबीज के साथ कीर्ति, धन और आशा का पूरक । इ - गत्यर्थक, लक्ष्मी प्राप्ति का साधक, कोमल कार्य साधक, कठोर कर्मों का बाधक, बहिनबीज का जनक 1 आचार्य प्र आचार्य प्रव आमदन आ फ्रा Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाMBERaसाजन आचार्य अत्र श्रीआनन्दपाश्रीआनन्दमा अशान प्राकृत भाषा और साहित्य CTESTRA सन ई-अमृत बीज का मूल, कार्य-साधक, अल्प-शक्ति द्योतक, ज्ञानवर्धक, स्तम्भक, मोहक, जम्भक । उ-उच्चाटन बीजों का मूल, अद्भुत शक्तिशाली, श्वासनलिका द्वारा जोर का धक्का देने पर मारक । ऊ-उच्चाटक और मोहक बीजों का मूल, कार्यध्वंस के लिए शक्तिदायक । कृ-ऋद्धि बीज, सिद्धिदायक बीजों का मूल । ब-सत्य का संचारक, वाणी का ध्वंसक, लक्ष्मी बीज की उत्पत्ति का कारण । ए-निश्चल, पूर्ण, गतिसूचक, अनिष्ट निवारण बीजों का जनक । ऐ—उदात्त, उच्च स्वर का प्रयोग करने पर वशीकरण बीजों का जनक, जल बीज की उत्पत्ति का कारण, शासन देवताओं को आह्वान करने में सहायक, ऋण विद्य त का उत्पादक । ओ-अनुदात्त-निम्न स्वर की अवस्था में माया बीज का जनक, उदात्त-उच्च स्वर की अवस्था में कठोर कार्यों का जनक बीज, रमणीय पदार्थों की प्राप्ति हेतु प्रयुक्त होने वाले बीजों का अग्रणी, अनुस्वारान्त बीजों का सहयोगी। औ-मारण और उच्चाटन सम्बन्धी बीजों के प्रधान, शीघ्र कार्य साधक, निरपेक्षी। अं—स्वतन्त्र शक्ति रहित, कर्माभाव के लिए प्रयुक्त ध्यान मन्त्रों में प्रमुख, शून्य या अभाव का सूचक, आकाश बीज का मूल, अनेक मृदुल शक्तियों का उद्घाटक लक्ष्मी बीजों का मूल । अ:- शान्ति बीज का जनक, निरपेक्षावस्था में कार्य असाधक, सहयोगी का अपेक्षक । क-शक्ति बीज, प्रभावशाली, सुखोत्पादक, कामबीज का जनक । ख-आकाश बीज, अभाव कार्यों की सिद्धि के लिए कल्पवृक्ष । ग-पृथक् करने वाले कार्यों का साधक, प्रणव और माया बीज के कार्य सहायक । घ-स्तम्भक बीज, मारण और मोहक बीजों का जनक । ङ-शत्रु का विध्वंसक, स्वर मातृका बीजों के सहयोगानुसार फलोत्पादक । च-अंगहीन, खण्डशक्ति द्योतक, उच्चाटन बीज का जनक । छ-छाया सूचक, मायाबीज का सहयोगी, आपबीज का जनक । ज-नूतन कार्यों का साधक, आधि-व्याधि का शामक, आकर्षकबीजों का जनक । झ-रेफ युक्त होने पर कार्य साधक, श्रीबीजों का जनक । अ-स्तम्भक और मोहक बीजों का जनक, साधना का अवरोधक । ट-बहिनबीज, आग्नेय कार्यों का प्रसारक और निस्तारक । ठ-अशुभ सूचक बीजों का जनक, क्लिष्ट और कठोर कार्यों का साधक, अशान्ति का जनक, सापेक्ष होने पर द्विगुणित शक्ति का विकासक, बनि बीज । ड-शासन देवताओं की शक्ति का प्रस्फोटक, निकृष्ट आचार-विचार द्वारा साफल्योत्पादक, अचेतन क्रिया साधक । ढ--निश्चल, माया बीज का जनक, मारण बीजों में प्रधान । का Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षरविज्ञान : एक अनुशीलन -BIDDIAN CARRIED ण-शान्ति सूचक, आकाश बीजों में प्रधान, शक्ति का स्फोटक । त-आकर्षक बीज, शक्ति का आविष्कारक, सारस्त बीज के साथ सर्वसिद्धिदायक । थ-मंगल साधक, लक्ष्मी बीज का सहयोगी, स्वर मातृकाओं के साथ मिलने पर मोहक । द-कर्मनाश के लिए प्रधान बीज, वशीकरण बीज का जनक । ध-श्रीं और क्लीं बीजों का सहायक, मायाबीज का जनक । न-आत्मसिद्धि का सूचक, जल तत्व का स्रष्टा, मदुतर कार्यों का साधक । प-परमात्मा का दर्शक, जलतत्व के प्राधान्य से युक्त । फ-वायु और जल तत्व युक्त, स्वर और रेफ युक्त होने पर विध्वंसक, फट् की ध्वनि से युक्त होने पर उच्चाटक । ब-अनुस्वार युक्त होने पर समस्त प्रकार के विघ्नों का विघातक । भ- सात्विक कार्यों का निरोधक, परिणत कार्यों का तत्काल साधक, साधना में नाना प्रकार के विघ्नोत्पादक, कटु मधु वर्गों से मिश्रित होने पर अनेक प्रकार के कार्यों के साधक, लक्ष्मीबीजों का विरोधी। म-सिद्धिदायक, लौकिक और पारलौकिक सिद्धियों का प्रदाता । य-शान्ति तथा ध्यान का साधक, मित्र प्राप्ति या किसी अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए अत्यन्त उपयोगी। र-अग्निबीज, समस्त प्रधान बीजों का जनक, शक्ति का प्रस्फोटक, वर्द्धक । ल-लक्ष्मी प्राप्ति में सहायक, श्री बीज का किटतम सहयोगी और सगोत्री । व-ह, र, और अनुस्वार के संयोग से चमत्कारों का उत्पादक, सारस्वत बीज, भूत-पिशाच, डाकिनी-साकिनी की बाधा का विनाशक, रोग व विपत्तियों का हर्ता स्तम्भक । श-निरर्थक, सामान्य बीजों का जनक, उपेक्षा धर्मयुक्त, शान्ति का पोषक । ष-आह्वान बीजों का जनक, अग्नि स्तम्भक, जल स्तम्भक, सापेक्ष ध्वनि ग्राहक, सहयोग या संयोग द्वारा विलक्षण कार्य साधक, रुद्र बीजों का जनक, भयंकर बीभत्स कार्यों के लिए कार्यसाधक। स–सर्व समीहित साधक, क्लीं बीज का सहयोगी, काम बीज का उत्पादक । ह-शान्ति-पोष्टिक और मांगलिक कार्यों का उत्पादक, आकाश तत्वयुक्त, सभी बीजों का जनक, साधना के लिए परमोपयोगी, स्वतन्त्र और सहयोगापेक्षी लक्ष्मी तथा सन्तान की उत्पत्ति में साधक । संयोजन दुर्लभ है-उपयुक्त ध्वनियों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि मातृका मन्त्र ध्वनियों के स्वर और व्यंजनों के संयोग से ही समस्त बीजाक्षरों की उत्पत्ति हुई है। ये बीजाक्षर ही मन्त्र शक्ति का सामर्थ्य रखते हैं । नीतिकारों ने कहा है "अमंत्रं अक्षरं नास्ति",-कोई भी अक्षर अमंत्र नहीं है। मंत्रशक्ति का मूल आधार अक्षर ही है। ज्ञानाभाव के कारण उस शक्ति का प्रतिफल असम्भाव्य भी हो सकता है परन्तु उस स्थिति में शक्ति UP PRATIMAINMaaaaaaaaaaNBHAJAMANANAJARAawweindainindmJANARDANAGAURANAMIKANIASANAINASIADMAAVacanARAJAMAJAN virmwamimanwarmy- room YNONY mammomemamannaamanian, MVIVITINAY Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ hamaramrAmAurnimaranaAJAINAAMAAJALRAamanawr.NABARJANMALADASAiranAALANATABASJABALPACADALA आचार्यप्रवर जाचार्यप्रव233 श्रीआनन्दग्रन्थश्राआनन्द . Marvtm m,m ७४ प्राकृत भाषा और साहित्य की उपादेयता निकारी नहीं जा सकती। वस्तुस्थिति का ज्ञान ही प्रतिफल का मूल कारण होता है। ऊपर बतायी हई अक्षरों की शक्तियाँ आध्यात्मिक व भौतिक दोनों प्रकार की हैं। ये शक्तियाँ अन्तरदृष्टा के लिए जहाँ ऊँचे से ऊँचा मार्गदर्शन कर सकती हैं वहाँ बाह्य जगत में विहरण करने वालों के लिए भी बहुत कुछ मार्गदर्शन कर सकती हैं परन्तु दोनों ही स्थितियों के लिए यथार्थ ज्ञान अपेक्षित है। जैसे प्रकाश के अभाव में पड़ी हुई वस्तु भी उपयोगी नहीं बन सकती, वैसे ही यथार्थ ज्ञान के अभाव में शक्तियों का प्रतिफल पाना अशक्य है । इसीलिए तो कहा है—“योजकस्तत्र दुर्लभः"-वस्तु का अभाव नहीं, वस्तु की प्राप्ति दुर्लभ है, संयोजन दुर्लभ है। मंत्र-शक्ति अक्षरों की संयोजना का रूप है, श्रुतज्ञान की साक्षात्कार उपलब्धि है। बीजाक्षरों का सामर्थ्य-मन के साथ जिन ध्वनियों का घर्षण होने से दिव्य ज्योति प्रकट होती है उन ध्वनियों के समुदाय को मंत्र कहा जाता है। मंत्र शब्द का दूसरा अर्थ है-मन्धातु (दिवादि ज्ञाने) से त्र प्रत्यय लगाकर बनाया जाता है। इसका व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थ होता है.-"मन्यते ज्ञायते आत्मादेशोऽनेन इति मंत्रः" अर्थात जिसके द्वारा आत्मा का आदेश-निजानुभव जाना जाय वह मंत्र है। मंत्र और विज्ञान दोनों में बड़ा अन्तर है, क्योंकि विज्ञान के प्रयोग का एक ही प्रतिफल निकलता है, जबकि मंत्र की यह स्थिति नहीं है, उसकी सफलता साधक और साध्य पर निर्भर है, ध्यान के अस्थिर होने से भी मंत्र असफल हो जाता है। मंत्र तभी सफल होता है जहाँ श्रद्धा, इच्छा और दृढ़ संकल्प ये तीनों ही यथावत् कार्य करते हों। मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि मनुष्य के अवचेतन मन में बहत-सी आध्यात्मिक शक्तियाँ भरी रहती हैं, इन्हीं शक्तियों को मंत्र द्वारा प्रयोग में लाया जाता है। मंत्र की ध्वनियों के संघर्षण द्वारा आध्यात्मिक शक्ति को उत्तेजित किया जाता है । इस कार्य में अकेली विचारशक्ति ही काम नहीं करती है, इनकी सहायता के लिए उत्कट इच्छा शक्ति के द्वारा ध्वनि-संचालन की भी आवश्यकता होती है। मंत्रशक्ति के प्रयोग की सफलता के लिए मानसिक योग्यता प्राप्त करनी पड़ती है, जिसके लिए नैष्ठिक आचार की भी आवश्यकता होती है। मंत्र निर्माण के लिए ऊँ, हां, ह्रीं, ह्रह्रौं, ह्रः, हा, ह, सः क्लीं क्ल ट्रा, ट्री, ट्रः श्रीं क्षीं क्ष्वीं, क्वीं है अं, फट, वषट्, सवौषट्, धे, धै, यः ठः खः ह, ल्वयं पं बं यं झं तं यं दं आदि बीजाक्षरों की आवश्यकता होती है। साधारण व्यक्ति के लिए ये बीजाक्षर निरर्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु ये सभी सार्थक हैं और इनमें ऐसी शक्ति अन्तनिहित है कि जिसमें आत्मशक्ति या देवताओं को उत्तेजित किया जा सकता है। अतः ये बीजाक्षर अन्तःकरण और वत्ति की शुद्ध प्रेरणा के व्यक्त शब्द हैं जिनसे आत्मविकास किया जा सकता है। विचारशक्ति और विद्य त-लहर--बीजाक्षरों में सबसे महत्वपूर्ण तथा प्रधान ॐ बीज है। यह आत्मवाचक मूलभूत है। ॐकार को तेजोबीज, कामबीज और भवबीज माना गया है तथा प्रणव वाचक भी कहा जाता है। श्री को कीर्तिवाचक, ह्रीं को कल्याणवाचक, क्वीं को शान्तिवाचक, ह को मंगलवाचक, क्ष्वी को योगवाचक, ह्रको विद्वेष और रोषवाचक, प्रों प्रीं को स्वतन्त्रवाचक और क्लीं को लक्ष्मीप्राप्ति वाचक कहा गया है। ये सभी बीजाक्षर मन्त्रों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप हैं। इनका बार-बार Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षरविज्ञान : एक अनुशीलन बागा उच्चारण ही विशेष शक्तिशाली होता है। ये बीजाक्षर दो स्थानों के बीच बिजली का सम्बन्ध स्थापित करने के समान होते हैं। साधक की विचारशक्ति स्विच के समान तथा मन्त्रशक्ति विद्य त-लहर के समान होती है। इस प्रयोग से जब मन्त्र सिद्ध हो जाता है तब आत्मिक शक्ति से आकृष्ट देवता भी मान्त्रिक के समक्ष आत्मार्पण कर देता है, जिससे उस देवता की सारी शक्ति मान्त्रिक के पास आ जाती है। सामान्य मन्त्रों के लिए विशेष विधि की आवश्यकता नहीं होती है। साधारण साधक बीजमन्त्र और उनकी ध्वनियों के घर्षण से अपने भीतर आत्मिक-शक्ति का प्रस्फुटन करता है। मन्त्रशास्त्र में इसी कारण मन्त्रों के विशेषतः नव भेद हैं। (१) स्तम्भन, (२) मोहन, (३) उच्चाटन, (४ वश्याकर्षण, (५) जभण, (६) विद्वेषण, (७) मारण, (८) शान्तिक और (९) पौष्टिक । इनमें एक से तीन ध्वनियों तक के मन्त्रों का विश्लेषण अर्थ की दृष्टि से नहीं किया जा सकता है किन्तु इससे अधिक ध्वनियों के मन्त्रों का विश्लेषण हो सकता है। मन्त्रों से इच्छाशक्ति का परिष्कार या प्रसारण होता है जिससे अपूर्वशक्ति आती है। तत्त्व और वर्णसंज्ञक-मन्त्रशास्त्र में बीजाक्षरों के विवेचन के साथ उनके रूपों का भी निरूपण किया गया है। रूपों के अतिरिक्त लिंग, वर्ण, संज्ञक आदि अनेक विवेचन प्राप्त होते हैं। बीजाक्षरों के तत्त्वसंज्ञक ये हैं-अ आ ऋह श य क ख ग घ ङ ये वर्ण वायु तत्त्वसंज्ञक हैं। च छ ज झ ञ इ ई ऋ क्ष र ष ये वर्ण अग्नि तत्त्वसंज्ञक हैं। त ट द ड ऊ उ ण ल व ल ये वर्ण पृथ्वीसंज्ञक हैं, 'ठ थ घढ़ न ए ऐ ल स' ये वर्ण जल तत्त्वसंज्ञक हैं। प फ ब भ म ओ औ अं अः ये वर्ण आकाश तत्त्वसंज्ञक हैं। अ उऊ ऐ ओ औ अं क ख ग ट ठ ड ढ त थ प फ ब ज झ ध य स ष क्ष ये वर्ण पुल्लिग हैं । आ ई च छ ल ब ये वर्ण स्त्रीलिंग संज्ञक हैं। इ ऋ ल ल ए अः ध भय र ह द अ ण ड़ ये वर्ण नपुसक लिंग संज्ञक होते हैं। मन्त्र शास्त्र में स्वर और ऊष्म ध्वनियाँ ब्राह्मण वर्ण संज्ञक हैं । अन्तस्थ और कवर्ग ध्वनियाँ क्षत्रियवर्ण संज्ञक हैं। चवर्ग और पवर्ग ध्वनियाँ वैश्यवर्ण संज्ञक हैं और टवर्ग और तवर्ग ध्वनियाँ शूद्रवर्ण संज्ञक होती हैं। मन्त्र और शब्द प्रयोग मन्त्रों के साथ कुछ विशेष सूचक बीजाक्षरों का प्रयोग है। उस प्रयोग के अभाव में मन्त्र भी अपने में अधूरे होते हैं। वे एक जैसे प्रयोग केवल पूर्तिसूचक न होकर विशेष महत्वपूर्ण होते हैं । कुछ विशेष प्रयोजनों के लिए तो वे प्रयोगनिर्णीत हैं, जैसे-वश्याकर्षण और उच्चाटन में 'हं' का प्रयोग; मारण में फट् का प्रयोग; स्तम्भन में, विद्वेषण और मोहन में नमः का प्रयोग; शान्तिक और पौष्टिक के लिए वषट् का प्रयोग किया जाता है । इन प्रयोगों के अतिरिक्त प्रायः विशिष्ट मन्त्रों के अन्त में 'स्वाहा' शब्द का प्रयोग किया जाता है । यह प्रयोग भी पापनाशक, मंगलकारक तथा आत्मा की आन्तरिक शान्ति को उबुद्ध करने वाला माना गया है। मन्त्र को शक्तिशाली बनाने वाली अन्तिम ध्वनियों में स्वाहा को स्त्रीलिंग, वषट्, फट, स्वधा को पुल्लिग और नम: को नपुसक लिंग माना जाता है। मन्त्रसिद्धि के इन प्रयोगों के अतिरिक्त जन ग्रन्थों में चार पीठों का उल्लेख भी मिलता हैश्मशानपीठ (२) शवपीठ (३) अरण्यपीठ (४) श्यामापीठ । इन चारों पीठों की साधना क्रमशः कठोर से कठोरतम होती है। चारों प्रकार की साधनायें वैयक्तिक स्तर पर ही की जाती हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से इन चारों पीठों के माध्यम से की जाने वाली साधनायें क्रमशः पूर्णता की ओर आगे बढ़ाती हैं । PasaANABANARAadamGAAAAAAA ApearerayooooAIAS-IMaawaraaaaAIAAAPSAALANDowan ENIया व अभिपायप्रवर अभिल श्रीआनन्द अन्य धाआनन्द Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ mmmmmmmminaerammaroor प्राकृत भाषा और साहित्य KOCA. जय मन्त्रविज्ञान में ज्ञान का महत्व-इस मन्त्र शास्त्र के संक्षिप्त विश्लेषण और विवेचन का निष्कर्ष यह है कि मन्त्रों के बीजाक्षरों, सन्निविष्ट ध्वनियों के रूपों, विधान में उपयोगी लिंगों और तत्वों के विधानों एवं मन्त्रों के अन्तिम भाग में प्रयुक्त होने वाले पल्लवों अर्थात् अन्तिम ध्वनि समूहों का ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति के लिए बहुत आवश्यक है। उस ज्ञान के अभाव में व्यक्ति की साधनायें विकसित नहीं हो सकती हैं। भगवान महावीर ने आत्मोत्थान के लिए ज्ञान और क्रिया दोनों को आवश्यक माना है । मन्त्रसाधना में भी साधक ज्ञान और क्रिया दोनों के बल पर ही इच्छित फल प्राप्त कर सकता है। क्योंकि मन्त्र की शक्ति के साथ साधक की शक्ति भी अपना विशेष प्रभाव रखती है। एक ही मन्त्र का फल विभिन्न साधकों को उनकी योग्यता, परिणाम, स्थिरता आदि के अनुसार भिन्न-भिन्न मिलता है। मन्त्र के प्रत्येक अक्षर में स्वतन्त्र शक्ति निहित है, भिन्न-भिन्न अक्षरों के संयोग से भिन्न-भिन्न प्रकार की शक्तियाँ उत्पन्न की जाती हैं। जो व्यक्ति उन ध्वनियों का मिश्रण करना जानता है, वह उन मिश्रित ध्वनियों के प्रयोग से उसी प्रकार के शक्तिशाली कार्य को सिद्ध कर लेता है । महामन्त्र का माहात्म्य-ध्वनियों के घर्षण से दो प्रकार की विद्युत् उत्पन्न होती है-(१) धनविद्युत् (२) ऋण विद्युत् । धनविद्युत् शक्ति द्वारा बाह्य पदार्थों पर प्रभाव पड़ता है और ऋण विद्युत् अंतरंग को प्रभावित करता है। वर्तमान में विज्ञान ने भी यह माना है कि पदार्थ दोनों शक्तियों का केन्द्रस्थल है। मन्त्र का उच्चारण और मनन इन शक्तियों का विकास करता है। जैसे जल में छिपी हुई विद्यु तशक्ति जल के मंथन से उत्पन्न होती है, वैसे ही मन्त्र के बार-बार उच्चारण करने से मन्त्र के ध्वनिसमूह में छिपी हुई शक्तियाँ विकसित होती हैं। भिन्न-भिन्न मन्त्रों में यह शक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है तथा शक्ति का विकास भी साधक की क्रिया और उसकी ज्ञान-शक्ति पर निर्भर करता है। जैनग्रन्थों में णमोकार मन्त्रकल्प, भक्तामर यन्त्र-मन्त्र, कल्याणमन्दिर यन्त्र-मन्त्र, यन्त्र-मन्त्र संग्रह, पद्मावति मन्त्रकल्प आदि मांत्रिक ग्रंथों के अवलोकन से पता लगता है कि समस्त मन्त्रों के रूप, लिंग, बीज, पल्लव आदि नमस्कार महामन्त्र से ही निकले हैं। नमस्कार महामन्त्र में सभी मातृकी ध्वनियाँ होने से सभी मात्रिकी शक्तियाँ विद्यमान हैं। चौदह पूर्व रूप जैन आगमों का सार रूप यही नमस्कार महामन्त्र है। श्रुतज्ञानावरणीय तथा चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम से ही इस महामन्त्र की साधना साकार बन सकती है । सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चरित्र की आराधना द्रव्यश्रुत अर्थात् अक्षर-ज्ञान व द्रव्य क्रिया के माध्यम से सहजतया की जा सकती है। अक्षरज्ञान ही अनुभवज्ञान का आधार है। अक्षरश्रुत के आराधक अनेकानेक व्यक्ति क्रमश: विशिष्ट ज्ञानी बने हैं व बन सकते हैं। उपसंहार-अस्तु इस प्रस्तुत लेख में वर्णमाला के विषय में यत्किंचित् विवेचन किया गया है, इसका प्रमुखतः जैन ग्रन्थ ही आधार हैं। सभी धर्म. ग्रंथकार, इतिहास विशेषज्ञ, तर्कवादी आदि इस में एकमत हों, यह सम्भाव्य नहीं है । विज्ञान की धारणायें भी इस विषय में भिन्न हो सकती हैं। फिर भी सर्व-सामान्य रूप से माने जाने वाले तथ्य इस लेख में प्रस्तुत किये गये हैं । देवनागरी लिपि को वर्णमाला प्रस्तुत लेख का प्रतिपाद्य है । क्योंकि यही लिपि सभी लिपियों का मूल स्रोत है। वर्तमान में सभी देशों में प्रचलित लिपियों का आकार-प्रकार व उच्चारण आदि इस लिपि से बहुत भिन्न नहीं है, ऐसा ATIO Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षर विज्ञान : एक अनुशीलन दृढ़ता के साथ कहा जा सकता है । कालान्तर में हुए लिपिविकास के भेद से आकार-प्रकार के भेद की भिन्नता का बाहुल्य अवश्य हो गया है परन्तु उच्चारण का भेद बहुत अधिक नहीं है, यह निश्चित है । मन्त्र शक्ति का आधार भी यही लिपि है । गणित तथा तोल-माप का सम्बन्ध इस लिपि से गहरा जुड़ाहुआ है । इस लिपि के माध्यम से लिखी जाने वाली भाषाओं का शब्दभण्डार अक्षय है, महत्वपूर्ण है । इस लेख में मन्त्रशक्ति विषयक जो भी विवेचन किया गया है वह आध्यात्मिक होने के साथ-साथ भौतिक दृष्टिकोण वाला भी है । मन्त्रशक्ति अपने आप में उभयसिद्धिदाता है । मन्त्रशक्ति से सम्बन्धित नमस्कार महामन्त्र के अंग-प्रत्यंग के रूप में अनेकानेक मन्त्र तथा उनकी विधि व फलाफल यहाँ पर विस्तारभय से नहीं उल्लिखित किये गये हैं । जैन ग्रन्थों में उनका बहुत महत्वपूर्ण व विस्तृत वर्णन है । जहाँ मौलिक रूप से आध्यात्मिक उपलब्धि तथा आनुषांगिक रूप से भौतिक उपलब्धि भी उल्लिखित की गई है। वह उपलब्धि दृढ़ श्रद्धालुओं के लिए आनुषांगिक रूप से भौतिक ऋद्धिसिद्धि देने वाली बनती सत्य है | इस लेख में वर्णित तथ्य पाठकगण ज्ञेय भाव से जानेंगे तथा आदेय भाव से ऐसी आशा है । ७७ यह निर्विवाद ग्रहण करेंगे, O ४० @ न क - क 30 ज לומטרים आचार्य प्रव आचार्य प्रभ श्री आनन्द श्री आनन्द भन्थ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजाद अमरदेव सामान व आम अष R डॉ० के० के० शर्मा, हिन्दी विभाग, उदयपुर विश्व विद्यालय [प्राकृत एवं अपभ्रंश के विशेषज्ञ ] अपभ्रंश में वाक्य संरचना के साँचे (Patterns) O वाक्य भाषा की इकाई है । कतिपय विद्वान वाक्य को लघुतम इकाई मानते हैं, अन्य रूपिम को लघुतम इकाई प्रतिपादित कर वाक्य को रूपिम, पदबन्ध, उपवाक्यादि का समुच्चय ( set ) मानते हैं । किसी भी भाषा में वाक्य भाषागत गठन के वैशिष्ट्य पर आधृत होते हैं । योगात्मक प्रवृत्ति वाली भाषा के वाक्यों में पदों के स्थान निश्चित नहीं होते, अर्थाभिव्यक्ति के लिए इसकी अपेक्षा भी नहीं होती । संस्कृत योगात्मक है, इसलिए विश्लेषण आदि पदबन्धों का निश्चित क्रम आवश्यक नहीं है । बाण की कादम्बरी में वाक्य 'अस्ति' अथवा 'आसीत्' से प्रारम्भ होता है और अनेक विशेषण पदबन्धों के उपरान्त विशेष्य आता है । संस्कृत में कर्ता, कर्म आदि अपनी-अपनी विशेष अर्थव्यंजक विभक्तियों से युक्त होते हैं। अतः वाक्य कही जाने वाली इकाई में इन्हें कहीं भी रखा जा सकता है, उनका अर्थ अव्यवहित ही रहता है । प्राकृत, अपभ्रंश में कहा जाता है कि अपभ्रंश तक आते-आते संस्कृत की कुछ विभक्तियाँ परसर्गों का रूप ग्रहण कर चुकी थीं, अपभ्रंश में कई विभक्ति रूप समाप्त हो गये । जहाँ संस्कृत में एकवचन, बहुवचन में सभी कारकों के संज्ञा रूप परस्पर निश्चित पार्थक्य रखते हैं, वहाँ अनेक कारकों की विभक्तियाँ एक सी हो गई हैं । इसके अतिरिक्त सम्बन्धकारक में केरक, केर, केरा, करण में सो, सजो, सहुँ, सम्प्रदान में केहि, अधिकरण में माँझ, उप्परि जैसे परसर्गों का प्रयोग भी अपभ्रंश के अध्येताओं पाया है । संस्कृत तिङन्त रूपों के स्थान पर कृदन्त रूपों का प्रचलन अधिकता से होने लगा था । वर्तमान और भविष्य में तिङन्त तद्भव रूप रहे, अन्यत्र कृदन्त रूप ही चले । 'उ' तथा हुँ क्रमश: उ० पु० एक व० और ब० व० की विभक्तियाँ हैं । प्राकृत, अपभ्रंश किञ्चित् अयोगात्मक होने लगी थीं । किञ्चित् मैंने इसलिए कहा कि वाक्यगत प्रयोगों में अधिकता संयोगात्मक रूपों की ही है । पदबन्धों के प्रयोग में, प्राकृत और अपभ्रंश में एक Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश में वाक्य-संरचना के साँचे निश्चित व्यवस्था है । अन्त:केन्द्रित (endocentric) और बहिष्केन्द्रित (exocentric) दोनों ही प्रकार की वाक्य-संरचनाएँ प्राकृत, अपभ्रंश में मिलती हैं । मूल वाक्य सरल होते हैं, जटिलता विशेषण पदबन्धों अथवा क्रिया पदबन्धों के समायोजन से उत्पन्न होती है। डॉ० भोलाशंकर व्यास ने 'संस्कृत का भाषा-शास्त्रीय अध्ययन' ग्रन्थ में संस्कृत भाषा के 'वाक्य' पर भी विचार किया है। उन्होंने प्रासंगिक रूप से अपभ्रंश की वाक्यरचना के विषय में लिखा है"प्राकृत में वाक्य-रचना संस्कृत परिपाटी का पालन करती है । परन्तु अपभ्रंश में कर्ता, कर्म, करण आदि कारकों के लिए एक निश्चित स्थान रह गया ।" डॉ० व्यास का यह कथन व्यापकतः प्रवृत्त नहीं होता, जैसा कि आगे प्रस्तुत उदाहरणों से स्पष्ट हो गया । अपभ्रंश की वाक्यरचना में कर्ता, कर्म, करणादि का एक निश्चित स्थान नहीं है । हाँ, वाक्य-संरचना में कुछ साँचों (Patterns) का आवर्तन अवश्य मिलता है। यह "कुछ साँचों" का आवर्तन तो प्रत्येक भाषा में होता है, किसी भी भाषा में असंख्य साँचे नहीं होते । मानव-मस्तिष्क कतिपय मूल साँचों को स्मरण रखता है, उन्हीं के आधार पर किञ्चित हेर-फेर कर असंख्य साँचे बना लेता है। अतः प्राकृत-अपभ्रंश में भी कुछ साँचे हैं, संस्कृत में भी हैं। प्रत्येक कवि अथवा लेखक के कुछ विशेष साँचे होते हैं जो उस कवि विशेष के सन्दर्भ में शैलीचिन्हक (style marker) कहलाते हैं । संस्कृत में काल और लंकार का विशेष प्रयोग निश्चित था। संज्ञा की भाँति सर्वनाम और विशेषण प्रयुक्त होते थे । कर्मवाच्य में कर्ता के लिए तृतीया का प्रयोग होता है, कर्तृवाच्य में कर्ता के लिए प्रथमा का । "जहाँ सत्तार्थक क्रिया का वर्तमाने प्रयोग होता है यह क्रिया प्रयुक्त नहीं होती। किन्तु ऐसी दशा में उद्देश्य को विधेय के पूर्व रखते हैं। जैसे 'स: पुरुषः शूरः' में 'अस्ति' की अपेक्षा है, 'शूरः : पुरुषः' में अस्ति की आवश्यकता नहीं है । इस प्रकार के प्रयोगों में विशेषक सर्वनाम का प्रयोग सदैव होता है।" प्राकृत-अपभ्रंश में भी यह प्रवृत्ति है। प्रस्तुत प्रसंग में, अपभ्रंश में उपलब्ध कतिपय वाक्य-संरचनाओं को परीक्षणार्थ उपस्थित किया जा रहा है। इनसे अपभ्रंश की वाक्यविन्यास-व्यवस्था का स्वरूप प्रकट होता है। आधुनिक आर्यभाषाओं में अयोगात्मकता के कारण वाक्य । में पदों का स्थान निश्चित है। हिन्दी में नियमत: पहले कर्ता, फिर कर्म, अन्त में क्रिया आती है। काव्यभाषा में क्रम का व्यत्यय होता है, पर सामान्य कथन में स्थान निश्चित ही है। अपभ्रंश को कर्तृवाच्य संरचनाएँ अपभ्रंश में सामान्य वाक्य कर्ता+कर्म+क्रिया अथवा कर्ता+क्रिया ही होता है। परन्तु संयोगात्मक होने के कारण अन्य क्रम भी दिखलाई पड़ते हैं। स्वयंभूदेव रचित 'पउमचरिउ' में ऐसे प्रयोग शतशः हैं। 'पभणइ सायरबुद्धि भडारउ'--(१)[पउमचरिउ २१ वीं सन्धि] उपर्युक्त वाक्य में एक क्रिया है 'पभणइ' और 'सायरबुद्धि भडारउ' कर्ता है। यह कर्ता और क्रिया से युक्त लघुतम वाक्य है । 'भट्टारक' (भडारउ) भी हटाया नहीं जा सकता। क्योंकि प्रस्तुत प्रसंग में यह 'सायरबुद्धि' के विशेष अर्थ का वाचक है। इसलिए पूरे 'सायरबुद्धि भडारउ' को कर्ता मानना होगा । तब इस सामान्य वाक्य की संरचना होगी 题 namand al AircanendradKArum.indianhendra-sdamak.NARA M.50 पापा श्रीआनन्द अभिशापार्यप्रवर अभः -श्रीआनन्दैन्थ wirememmammmwammamwammarnama Anomenamen . Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ به .. سعر مع احده . عمل مقدماء من العمر مع مایعا در همد. قاعده ی عه م في قدر يجمعه فرد به نام محیای صورت مایع معنی اوحده ما به ما - دين مله عملها .. اره عديده دمی رام د आचार्मप्रवी दिन्याभि मआया अन्न ८० प्राकृत भाषा और साहित्य पभणइ सायरबुद्धि भडारउ=VS Alag --- इसी वाक्य का विस्तार है पभणइ सायरबुद्धि भडारउ, कुसुमाउह-सर-पसर णिवारउ-(२) DIETY UA या F रेखांकित अंश (१) विशेष्य पदबन्ध है तथा रेखांकित अंश (२) विशेषण पदबन्ध । सामान्यतः विशेषण पदबन्ध पहले और विशेष्य पदबन्ध बाद में रखा जाता है। संस्कृत में ऐसा कोई बन्धन नहीं है। विशेष अर्थ की व्यंजना के लिए विशेषण पदबन्ध को बाद में भी रखा जाता है। उपर्युक्त संरचना में छन्द की अपेक्षा से (क्योंकि दोनों में मात्राएँ १६-१६ ही हैं।) विशेषण पदबन्ध बाद में नहीं रखा गया है। इसका कारण सायरबुद्धि की विशेषता पर बल देने की इच्छा ही है। वाक्य (२) की संचरना VS A है, यह VS का ही विस्तार है। परन्तु सामान्य वाक्य S. V. वाला रूप भी बहु प्रयुक्त है ___ अज्जु विहीसणु उप्परि एसइ--(३) -At- --S- -AL---Vयहाँ AT =Adjunct of time (कालवाचक विशेषण) AL =Adjunct of bocation (स्थानवाचक विशेषण) s =Subject ( कर्ता) V =Verb ( क्रिया) Ins = Instrumental (करणकारकीय) हैं । तब संरचना होगी ____ At . S. AL V. यदि AT और AL को हटा दें तो वाक्य 'विहीसणु एसई' रह जाता है और सरलीकृत संरचना का स्वरूप S. V. ही प्रकट होता है। ध्यातव्य है कि (१) और (२) वाक्य में AT . S. V. और AL का स्थान भाषा की अयोगात्मकता से निर्धारित नहीं है। उपर्युक्त दोनों ही वाक्यों में योगात्मक रूप ही प्रयुक्त हैं। दसरह-जणय विणीसरउ लेप्पमउ थवेप्पिण अप्पणउ---(४) [५० च० २१ वी० सं०] --- -- - - -- -0 इस वाक्य की सामान्य संरचना भी S. V.oही है। परन्तु यह मिश्रित वाक्य है। कर्म-पदबन्ध स्वयं में पूर्वकालिक क्रिया वाला उपवाक्य है । लेप्पमउ थवेप्पिण अप्पणउ ---0- -V - -M'अप्पणउ', लेप्पमउ का विशेषण है। - Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो उपवाक्यों वाली संयुक्त वाक्य संरचना इस प्रकार है अज्जु विहीसणु उपरि AT AL S एसइ | तुम्हइँ विहि मि सिरहूँ तोडेसइ -V V तो सहसत्ति -Am पूर्ण वाक्य में 1 और 2 उपवाक्य हैं, परन्तु इन्हें संयुक्त करने वाला योजक नहीं है। संरचना है AT. S. AL V +0. V. उपर्युक्त वाक्य में से ३, ४ और ५ में S. V क्रम ही है । Am. V. S का उदाहरण है पलित्तु खग्गेहिं -Ins वाणेहि संरचना V. S. Am. है । सोहइ -V पेखन्तह णरवर संघाय हुँ- - (७) इसका तात्पर्य यह हुआ कि स्वयंभूदेव ने कर्तृवाच्य में दो प्रकार की ही संरचनाएँ प्रयुक्त की हैं, SV और V. S., इनमें विस्तार हुए हैं। V. S वाली संरचना संस्कृत वाक्य रचना के प्रभावस्वरूप भी हो सकती है । परीक्षणार्थ आचार्य पुष्पदन्त की रचनाओं से भी कतिपय उदाहरण लिए जा सकते हैं । पुष्पदन्त का समय नवीं सदी है । नागकुमार और दुर्वचन के युद्ध-प्रसंग में पुष्पदन्त ने अत्यन्त सरल वाक्यों का प्रयोग किया है माणुस सरीर --S अपभ्रंश में वाक्य संरचना के साँचे छिदंति —V— विधंति जलहरु S O सहपोल विहीसणु – – (६) -S –0+v हरं वरु वंभणु णवि मैं ( हूँ) ब्राह्मण नहीं सिल्ले हिं —Ins— "फर एहि सुरधणु भिदति -V रुधंति -Am छायए -(=) ८१ - ( 2 ) - (५) -- (१०) संरचना S. V है । यदि उपर्युक्त संरचनाओं में पदक्रम में परिवर्तन भी कर दिया जाये तो अर्थ में अन्तर नहीं होगा । मुनि रामसिंह की रचनाओं में भी वाक्य संरचना यही है - ( ११ ) इस वाक्य में क्रिया सार्वनामिक प्रत्यय 'उं' से ही व्यक्त हो रही है। सार्वनामिक प्रत्ययों के योग से क्रिया द्वारा पुरुष और लिंग की सूचना की प्रवृत्ति संस्कृत में भी है और आधुनिक आर्य भाषाओं में भी । श्री आनन्द अन्थ श्री आनन्द we K फ्र आयायप्रवर अभिनंदन Ju Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ----uniaNAAJanmanNAamannarammaAAAJANAMAANJAJANSARDADODainbo.. आचार्यप्रवर आचार्यप्रकार श्रीआनन्ग्र न्थश्राआनन्दाग्रन्थ 10 mommymamimmoramirmwarma 23 ८२ प्राकृत भाषा और साहित्य कासु समाहि करउं को अंचउं --(१२) किसकी समाधि करू किसे पूजू इन प्रयोगों में भी पदक्रम में अन्तर करने से अर्थ-भेद नहीं होता । मुनि कनकामर के प्रयोग देखें। कनकामर का समय ११वीं सदी का मध्य माना गया है। सा सोहइ सिय जल कुडिलवन्ति -(१३) -S - -Vसंरचना S. V. Am. आचार्य हेमचन्द्र का समय बारहवीं सदी है। हेमचन्द्र की रचनाओं में संयोगात्मक रूप ही प्रयुक्त हुए हैं विणुमणसुद्धिए लहइ न सिवु जणु -(१४) उपर्युक्त वाक्य के सभी पद संश्लिष्ट हैं। इसे यों भी लिखा जा सकता है अथवा अन्य क्रम से भी लहइ न सिवु जणु विणुमणसुद्धिए अथवा-जणु सिवु लहइ न विणुमणसुद्धिए इससे अपभ्रंश की संयोगात्मक स्थिति ज्ञात होती है। अयोगात्मक संरचनाएँ बहुत कम हैं। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि स्वतन्त्र कारक चिन्हों के विकसित होने पर भी अपभ्रंश की वाक्यसंरचना में संयोगात्मक स्थितिजन्य प्रवृत्ति की ही प्रधानता रही। कर्तृवाच्य संरचनाओं में-v.s अथवा S. V. ही अधिकतर प्रयुक्त हुईं। कर्मवाच्य संरचनाएँ कर्मवाच्य संरचनाओं में कर्ता तृतीया में होता है और क्रिया के वचन, लिंग और पुरुष का निर्धारण कर्म के अनुसार होता है, अर्थात् कर्मवाच्य की क्रिया को _On-p-g AAI ___V सूत्र से व्यक्त किया जा सकता है। इस सूत्र में V क्रिया पद है, 0-कर्म है तथा n=number, p=person तथा g=gender के सूचक हैं । अर्थात् क्रिया, कर्म के वचन, पुरुष तथा लिंग से निर्धारित होगी। कर्ता करणकारक में होगा, इसका लिंग, वचन और पुरुष स्वतन्त्र होगा। एक उदाहरण देखें णियइँ सिरई विज्जाहरेंहिं -~--V...- -0- - -- 'विज्जाहरेंहिं' बहु० व० तृतीया का रूप है, इसमें 'विज्जाहर' (विद्याधर) के अन्त्य 'अ' को विकल्प से 'ए' होकर तृतीया ब० व० की विभक्ति हि लगने से रूप बना विज्जाहरोहिं । णियई' क्रिया पद, कर्म सिरई के अनुरूप है । तब वाक्यसंख्या १५ की संरचना होगी Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश में वाक्य-संरचना के माँचे ८३ । चिया On-P-G Ins-G-N-p v O S इसी प्रकार का अन्य प्रयोग है दुटु कलत्तु व भुत्तु अणेयहिं --(१६) - - - - - इस वाक्य के पूर्व कर्म आ चुका है, यहाँ कर्ता का स्थानी 'दुटु कलत्तु' है अतः क्रिया 'भत्तु' भी 'दृट्ठ कलत्तु' की अनुवतिनी है । इस वाक्य की संरचना है vOn-P- G K Ins-G-N-P भरहु चवन्तु णिवारिउ राए --(१७) --0- -V.-- -Sवाक्य में भी यही संरचना है । o von-p- G s Ins G-NP कर्मवाच्य संरचना में 0. S. V साँचा भी हो सकता है, जैसे निम्नलिखित वाक्य में सायरबुद्धि विहीसणेण परिपुच्छिउ । ---(१८) -0- - - - - - कर्मवाच्य संरचनाओं में S. O. और v के क्रम की यह स्वतन्त्रता योगात्मक भाषाओं में ही सम्भव है। गंगाणइ दिट्ठी जंतएण --[मुनि कनकामर] (१९) -0- - - -S0. V. S पुणेण होइ विहओ --[मुनि रामसिंह] (२०) V. 0. इस प्रकार देखा जा सकता है कि कर्मवाच्य की वाक्य संरचना के तीन प्रमुख अवयव हैं-5.0. और V। संयोगात्मक भाषाओं में इनके निम्नलिखित क्रम सम्भव हैं 1. v. o. s. 2. o. V. S. 3. o. s. v. 4. - v. ०. भाववाच्य में क्रिया सदैव एक व. पुल्लिग में रहती है । रज्जे गम्मई णिच्च णिगोयहों --(२१, -V -- -AT- -ALInst BA M arwwwAAJANKAJAWAHARAJagaswwwesearcacadsAWABGADHAawwwiaNAMAJAILAAJAPain MAMANAWAL आपा प्रवास आभाचार्यप्रवर अभिल श्रीआनन्द श्रीआनन्दा अन्य Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रaas साधार्यप्रवर आभनन्दन श्रीआनन्दसन्यश्रीआनन्दन ८४ प्राकृत भाषा और साहित्य VvvimavIVINYiwimmy.viraimermanor TV - -3 - - V यह सूचित करता है कि क्रिया कर्ता अथवा कर्म आदि से मुक्त है। कभी-कभी विशेषण और विशेष्य के बीच अन्य पदबन्ध आ जाता है, पर अर्थ-अभिव्यक्ति में बाधा नहीं पड़ती, क्योंकि विशेषण और विशेष्य सम-विभक्तिक होते हैं जयसिरि माणणहो कहें केत्तडउ कालु अचलु जउ जीविउ रज्जु दसा दसाणणहों -- - - --- 2 - -- उपयुक्त उदाहरण में अंश 1, अंश 4 का विशेषण है, दोनों के बीच कर्म पदबन्ध है। परन्तु माणणहों की 'हो' षष्ठी एक० व० की विभक्ति और दसाणणहों में भी उसी विभक्ति 'हों के कारण विशेषण-विशेष्य भाव स्पष्ट हो जाता है। अन्यत्र भी विशेषण-विशेष्य की समवैभक्तिकता के प्रमाण मिलते हैं __ दुग्गइ-गामिउ रज्जु ण भुमि --(२२) ----Mo-- - - -v'रज्जु' (राज्य) कर्म है । दुग्गइ-गामिउ (दुर्गतिगामी) कर्म का विशेषण (Modifier) है । दोनों में समान विभक्ति चिन्ह 'उ' है । आचार्य हेमचन्द्र के निम्नलिखित सूत्र से कर्म. एक व० में 'उ' की इस स्थिति की सूचना मिलती है 'स्यमोरस्यात' परन्तु यह सूत्र अन्त्य 'अ' को ही 'उ' का आदेश करता है । प्राकृत में भी वाक्य-विन्यास में कर्ता+क्रिया वि०+क्रिया साँचा प्रयुक्त होता रहा है'से ण किणे न किणाकिणंतं न समणुजाणइ' --(२३) [आचारांग सूत्र, पृ० २६२, सं०-मुनि समदर्शी] 'आवंती केयावंती लोयंसि अपरिग्गहावंती' --(२४) [वही, पृ० ४२८] S अतः कर्तृवाच्य और कर्मवाच्य के ये सांचे प्राकृत-अपभ्रंश में चलते रहे हैं। वस्तुतः जैसा विद्वानों ने कहा है 'अपभ्रंश में अयोगात्मकता हो गई थी', वैसा है नहीं । अपभ्रंश के वाक्य साँचे, जैसा कि उपर्युक्त उदाहरणों से सिद्ध होता है, उसे योगात्मक कोटि की जनभाषा ही सिद्ध करते हैं। तब भी अपभ्रंश के अपने साँचे हैं, अपनी व्यवस्था है। इनमें से कतिपय का दिग्दर्शन उपर्यक्त विवेचन में प्रस्तुत किया गया है। Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डा० प्रेमसुमन जैन, एम० ए०, पी-एच० डी० (संस्कृत विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय) राजस्थानी भाषा में प्राकृत-अपभ्रंश के प्रयोग आधुनिक भारतीय भाषाओं के विकास में संस्कृत के अतिरिक्त प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। राजस्थानी एवं गुजराती भाषाएँ साहित्य की दृष्टि से पर्याप्त विकसित हो चुकी हैं। ध्वनिविज्ञान एवं रूपविज्ञान की अपेक्षा से इनका स्वतन्त्र अस्तित्व है। किन्तु इन भाषाओं के विकास-क्रम एवं प्राचीन स्वरूप को जानने के लिए इन पर प्राकृत एवं अपभ्रंश के प्रभाव का अध्ययन करना आवश्यक है। इससे प्राचीन एवं अर्वाचीन भाषाओं का सम्बन्ध भी स्पष्ट हो सकेगा। उत्पत्ति एवं सम्बन्ध विद्वानों का यह सामान्य मत है कि विभिन्न आधुनिक भारतीय भाषाएँ अलग-अलग अपभ्रंशों से उत्पन्न हुई हैं।' जिसे आज 'राजस्थानी' कहा जाता है वह भाषा नागरअपभ्रंश से उत्पन्न मानी जाती है, जो मध्यकाल में पश्चिमोत्तर भारत की कथ्य भाषा थी। राजस्थानी भाषा के क्षेत्र और विविधता , को ध्यान में रखकर डा० सुनीतिकुमार चटा -इसकी जनक भाषा को सौराष्ट्र-अपभ्रंश तथा श्री के० एम० मुन्शी गुर्जरी-अपभ्रंश कहते हैं। राजस्थानी भाषा बहुत समय तक गुजराती भाषा से अभिन्न रही है इसलिए उसकी उत्पत्ति को विभिन्न अपभ्रंशों से जोड़ा जाता है। वस्तुतः छठी शताब्दी से ११वीं शताब्दी तक पश्चिमोत्तर भारत में जो सामान्य विचार-विनिमय की कथ्य-भाषा थी, उसी से राजस्थानी विकसित हुई है। विद्वान् उसे 'पुरानी हिन्दी' नाम से भी अभिहित करते हैं। राजस्थानी भाषा राजस्थान और मालवा के अतिरिक्त, मध्यप्रदेश, पंजाब तथा सिन्ध के कुछ भागों में बोली जाती है। अतः कई उपभाषाओं का सामान्य नाम राजस्थानी है, जो आधुनिक विद्वानों ने स्थिर किया है। इसका प्राचीन नाम 'मरुभाषा' था जिसका सर्वप्रथम उल्लेख उद्योतनसूरि ने 'कुवलयमालाकहा' में किया है । उत्तरकालीन ग्रन्थों में इस भाषा के लिए 'मरुभाषा' मरुभूमिभाषा, मारुभाषा, मरुदेशीयाभाषा, मरुवाणी, डिंगल आदि नाम प्रयुक्त हए हैं। इनसे स्पष्ट है कि राजस्थानी मुख्यत: मारवाड़-भूभाग की भाषा है । यद्यपि उसका प्रभाव पड़ौसी प्रान्तों की भाषा पर भी है। mandarmanaMERARMANAS Mo v ememewmarana mmammomaonewhiamananews Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ د. ععععه و مر مر یف فلیمی عرعر عرعر عزه جمعي في وعده جنه ا ء دلع ید ع مرعي تيايه GE ല आचार्यप्रवास आचार्यप्रभि श्रीआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्दा अन्ध५2 ८६ प्राकृत भाषा और साहित्य राजस्थानी भाषा के अन्तर्गत कई बोलियाँ हैं, जिनका विभाजन विद्वानों ने कई दृष्टियों से किया है। डा०ग्रियर्सन का विभाजन अधिक उपयुक्त है। पूर्वी राजस्थानी-दृढाड़ी एवं हाड़ोती, दक्षिणी राजस्थानी-मालवी निमाड़ी, उत्तरी राजस्थानी-मेवाती तथा पश्चिमी राजस्थानी-मारवाड़ी एवं मेवाड़ी। इन सब में मारवाड़ी साहित्यिक दृष्टि से अधिक समृद्ध है। राजस्थानी भाषा की इन सभी बोलियों पर प्राकृत-अपभ्रंश का प्रभाव पड़ा है । इनके कई प्रयोग आज भी राजस्थानी में देखे जा सकते हैं। प्राकृत एवं अपभ्रंश के जो तत्व राजस्थानी भाषा में उपलब्ध हैं, वे दो प्रकार के हैं-(i) राजस्थानी का जो प्राचीन साहित्य है उसके ग्रन्थों की भाषा पर तथा (ii) वर्तमान की बोल-चाल एवं साहित्यिक राजस्थानी पर। किसी भी भाषा पर अन्य भाषा का प्रभाव दो प्रकार से पड़ता है-ध्वनि-परिवर्तन द्वारा एवं व्याकरण के आधार पर। राजस्थानी में प्राकृत एवं अपभ्रंश के ये दोनों प्रकार के तत्व उपलब्ध हैं। ध्वनि-तत्व राजस्थानी में भाषा-विज्ञान की दृष्टि से अनेक ध्वनि-परिवर्तन हुए हैं। किन्तु राजस्थानी के परिवर्तित रूपों का मूल अपभ्रंश या प्राकृत-रूप क्या था, कह पाना कठिन है। इन भाषाओं के साहित्य में प्रयुक्त कुछ शब्दों के आधार पर राजस्थानी भाषा के ध्वनि-परिवर्तनों को देखा जा सकता है। स्वर आचार्य हेमचन्द्र ने अपभ्रंश का नियोजन करते हुए एक सूत्र दिया है स्यादौ दीर्घ स्वौ ॥ ३३० ।-अर्थात सि-सु आदि विभक्तियाँ परे रहें तो संज्ञा शब्दों के अन्त्यस्वर का प्राय: दीर्घ या ह्रस्व हो जाता है। यही प्रवृत्ति राजस्थानी में उपलब्ध है । यथा (i) दीर्घ का ह्रस्व होना-धण<धन्या, रेह< रेखा, बहरबध आदि । (ii) ह्रस्व का दीर्घ होना-ढोल्ला<ढोल, सामला<श्यामल, संगाइ<संगति, हीय< हिय <हृत आदि। (iii) ऋ का परिवर्तन-प्राकृत एवं अपभ्रंश में ऋकार का अनेक स्वरों में परिवर्तन होता है। राजस्थानी में यह प्रवृत्ति सुरक्षित है यथा रिसी<ऋषि, नाच<नच्च<नृत्य, तिन <तृण, बड्ढो<वृद्ध आदि । व्यंजन प्राकृत के व्यंजन-परिवर्तनों की सामान्य प्रवृत्ति को अपभ्रंश ने बनाये रखा। राजस्थानी में यद्यपि इसके प्रयोग कम हो गये हैं, फिर भी कुछ तत्व उपलब्ध हैं, यथा नेर <नयर<नगर, सायर<सागर, सहि<सखि, कोइल <कोकिल, जुज्झ<युद्ध, डोला<दोला, डाह <दाह, भणइ<पढइ< पठति आदि । दा क Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी भाषा में प्राकृत-अपभ्रंश के प्रयोग ८७ इसी प्रकार स्वरागम, व्यंजनागम, विपर्यय आदि के रूप भी राजस्थानी में खोजे जा सकते हैं। वस्तुतः यह पूरा विषय भाषावैज्ञानिक अध्ययन का है। तभी राजस्थानी के ध्वनि-परिवर्तनों को पूर्णतया स्पष्ट किया जा सकेगा। व्याकरण-तत्व राजस्थानी भाषा के व्याकरणमूलक अध्ययन से ज्ञात होता है कि इस समुदाय की बोलियों में ब्द-समूह, वाक्य-संरचना, क्रियापद आदि के स्तर पर अनेक नवीनताएँ विकसित हो गयी हैं। फिर भी मूल भाषा प्राकृत एवं अपभ्रंश के व्याकरण के तत्वों का प्रभाव इनमें अधिक है। यद्यपि संस्कृत-व्याकरण का प्रभाव भी कम नहीं है। संज्ञा राजस्थानी के संज्ञा रूपों की रचना पर प्राकृत का सीधा प्रभाव है । प्राकृत में प्रथमा विभक्ति के एक वचन परे रहते अकार को ओकार होता है। यथा-रामो<रामः, सुज्जो<सूर्यः, मिओ<मृगः आदि । राजस्थानी में एक वचन में ओकारान्त संज्ञापद ही अधिक हैं । यथा-घोडो, छोरो आदि । इनका प्रयोग इस प्रकार होता है घोडो जाइ रयो है। छोरो रो रयो है। आदि । कुछ विद्वान राजस्थानी का अपभ्रंश से विकास होने के कारण राजस्थानी की इस ओकारान्त प्रवृत्ति को अपभ्रंश की उकारान्त प्रवृत्ति से विकसित मानते हैं। हेमचन्द्र के स्यमोरस्योत् ।। ३३१ ।। सूत्र के अनुसार अप० में प्र० एवं द्वि० एक वचन परे रहते अकार का उकार होता है । यथा-दहमुहु< दसमुख, संकरु< शंकर आदि । हो सकता है अपभ्रंश की उकार बहुला प्रवृत्ति राजस्थानी में आकर फिर प्राकृत की ओर लौट गयी हो।। राजस्थानी में बहुवचन संज्ञापद आकारान्त होते हैं। यथा-'इ घोडा कूणका है।' प्राकृत एवं अपभ्रंश में भी बहुवचन में 'घोडा' ही होगा। यथा-एइ ति 'घोड़ा'; आयासे 'मेहा' सन्ति; पव्वयम्मि 'रुक्खा' ण सन्ति आदि । विभक्ति का अदर्शन प्राकृत में चतुर्थी और षष्ठी विभक्ति को एक कर दिया गया था। यह प्रवृत्ति लोकभाषा द्वारा प्राकृत में आयी थी। अपभ्रंश में विभक्तियों के प्रयोग में अधिक शिथिलता देखने को मिलती है। इसमें मुख्यतः प्रथमा, षष्ठी और सप्तमी ये तीन ही विभक्तियाँ रख गयीं।११ आभीर, गुर्जर आदि जातियों द्वारा उच्चारण-सौकर्य के कारण यह प्रवृत्ति अपभ्रंश में विकसित मानी जा सकती है। १२ इसका प्रभाव गुजराती और राजस्थानी भाषाओं पर भी पड़ा। हेमचन्द्र ने अपभ्रंश में प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति के लोप ३ का विधान करते हुए उदाहरण दिया है। 'एइ ति घोडा एह थलि ।' यहाँ पर 'एइ घोडा' में जस का और 'एइ थलि' में सि विभक्ति का लोप है। का L17COME IfA आदि आचार्यप्रवभिगमन श्रीआनन्दायर Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनंदन ८८ प्राकृत भाषा और साहित्य राजस्थानी की मारवाड़ी बोली में कर्ता एक वचन में प्रतिपादिक ही पद के रूप में प्रयुक्त होता है तथा बहुवचनसूचक रूपिम ( Magphemes ) जोड़ा जाता है । कर्ता की कोई विशेष विभक्ति नहीं होती । मारवाड़ी के उदाहरण दृष्टव्य हैं आआनंद कोष आमदन आआआ आनन्द NANOON (i) छोरो रोटी खा य है । (ii) छोरा रोटी खा या है । इन वाक्यों में 'छोरो' एक वचन में है, उसकी (कर्ता) कोई विभक्ति नहीं है । इसी प्रकार 'छोरा' में 'आ' बहुवचन सूचक है, किन्तु कर्ता में कोई विभक्ति नहीं है । इस प्रकार अन्य विभक्तियों के उदाहरण मी राजस्थानी में खोजे जा सकते हैं, जिनका प्रयोग नहीं होता । विभक्ति की अदर्शन प्रवृत्ति से प्रभावित होकर प्राकृत अपभ्रंश में निपात एवं परसर्गों का प्रयोग होने लगा था । प्राकृत वैयाकरण पुरुषोत्तम ने डा (१८) और डु ( २० ) प्रत्ययों का प्रयोग बहुवचन में बतलाया है। हेमचन्द्र ने भी अ, डड, डुल्ल इन प्रत्ययों का प्रयोग संज्ञा शब्दों के साथ बतलाया है । १४ उदाहरण दिया है— 'म कन्तहो वे दोसडा' (मेरे कन्त के दो दोष हैं) राजस्थानी में दोसडा, दिवहडा, रुक्खडा, सन्देसडा आदि प्रयोग आज भी होते हैं । स्त्रीलिंग में राजस्थानी में यह प्रत्यय डी हो जाता है । लोकगीतों में 'गोरडी' रूप बहु प्रयुक्त है । सर्वनाम प्राकृत के सर्वनामों की संख्या अपभ्रंश में न केवल कम हुई है, अपितु उनमें सरलीकरण भी हुआ है। राजस्थानी में अपभ्रंश के बहुत से सर्वनाम यथावत् आ गये हैं अथवा उनमें बहुत कम परिवर्तन हुआ है । कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं 'हउं मन्द बुद्धि णिग्गुणु णिरत्थु ।' (भविसयत्त कहा १ / २ ) 'हउं पुणु जाणमि' (दोहाकोस, १४४ ) यहाँ मैं के लिए हउं शब्द प्रयुक्त हुआ है । गुजराती में हुं के अनेक प्रयोग मिलते हैं। राजस्थानी में साहित्य एवं बोलचाल दोनों में इसका प्रयोग होता है । यथा 'हउं ऊजालिसि आयणा' (अचलदास खीची-री वचनिका १४ - ५ ) 'हउं कोसीसा कंत' (१४-६) 'हूं पापी हेक्ली, सुजस नह जाणां सांमी ।' 'हूं वेदां वाहरु किसन' (पीरदान ग्रन्थावली, पृ० ५१-५३) 'हूं पाठवी तीणइ तूं अ पासि' (सदयवत्स वीरप्रबन्ध, ४८६ ) इसी प्रकार अन्य सर्वनामों में भी साम्य दृष्टिगोचर होता है। हेमचन्द्र ने 'किम: काईकवणौ वा' ।। ३६७ ।। सूत्र द्वारा कहा है कि अपभ्रंश में किम् शब्द के स्थान पर 'काई' और 'कवण' विकल्प से आदेश होते हैं । यथा Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी भाषा में प्राकृत-अपभ्रंश के प्रयोग ८६ A COPTION MP 'काई अधोमुंह तुज्झु' 'ताई पाराई कवण 'घृण' आदि राजस्थानी के बोलियों में इसके विविध प्रयोग मिलते हैं। यथा-ढूंढाड़ी में 'काई छै' मेवाड़ी में 'कंड है' तथा मारवाड़ी में 'कई हओ' आदि । साहित्य में इसके प्रयोग देखे जा सकते हैं यथा-- 'तु काई हिंगोलि' 'तम्हइ कांइ मानउ आपणा' (अ० खीची० री० ब०, १-१-२१.६) कवण के यथावत प्रयोग भी देखने को मिलते हैं । यथा-- 'कवण वज्र झेलियई' 'कउण सिरि वीज सहारइ' (वही. २४) बोलियों में ढूंढाड़ी का 'कूण', मेवाड़ी और मारवाड़ी का 'कण' अपभ्रंश 'कवण' के ही रूपान्तर हैं, जिसका हिन्दी में 'कौन' हो गया है। इनका विकास इस क्रम से हआ प्रतीत होता है क:पुन:>को उण>कवुण>कवण>कउण>कुण>कूण>कौन । गुजराती के 'केम' 'एम' भी सीधे अपभ्रंश से आये हैं । हेमचन्द्र के 'कथं-यथा-तथा थादेरेमेमेहेघाडितः ॥ ४०१ ॥ सूत्र के अनुसार अपभ्रंश में कथं, यथा, तथा के 'था' को 'एम' और 'इम' आदेश होते हैं । यथा 'केम सगप्पउ दुठ्ठ दिणु' गुजराती के 'केम छे', 'एम छे' आदि प्रयोगों में यही प्रवृत्ति देखी जा सकती है । गुजराती का 'अम्हें' सर्वनाम भी अपभ्रंश के अम्हे या अम्हई से आया है। राजस्थानी के उत्तम पुरुष में बहुवचन के सर्वनाम म्हे, म्हां आदि भी अपभ्रंश के एतद् सदृश सर्वनामों में विपर्यय से विकसित हुए हैं। धातुरूप राजस्थानी भाषा की अनेक धातुएँ प्राकृत एवं अपभ्रंश से गृहीत हैं। यथा-काढ़<कड्ढ, खा, चढ़ < चढ, जान, जाग, डूब<बुड्ड<डुब्ब, बोल<बोल्ल, भूल<भुल्लइ, सुन<सुण, भण<पढइ आदि । बोलचाल की भाषा के अतिरिक्त राजस्थानी साहित्य में ऐसी अनेक क्रियाएँ प्रयुक्त हुई हैं, जिनका प्राकृत से साम्य है। उदाहरण के लिए 'डिंगल गीत' नामक संग्रह से निम्न क्रियाएँ देखी जा सकती हैं 'कंवरी सु झला न्हाण करई' 'बण जां रइ नल बसई' 'हइ राजवियां जाय विनइ ल्द' -(गीत छत्रियां रो तारीफ रो, पृ० ५) इन वाक्यों में 'कर इ', 'बसई', 'हइ' क्रमशः प्राकृत की करइ, वसइ एवं हवइ क्रियाओं के रूप हैं। इनमें कोई विशेष परिवर्तन नहीं है। किन्तु राजस्थानी की कुछ क्रियाएँ परिवर्तित रूप में भी हैं, जिनमें प्राकृत की क्रिया की 'इ' (कथइ कथ+इ) 'ऐ' में परिवर्तित हो गई है। यथा-कथ+इ=ऐ 'कथ' आदि । तुलनात्मक दृष्टि से कुछ क्रियाएं दृष्टव्य हैं । यथा PANASAMJABAJawaalaARAIGAJAMIAMACHADANAPARIAAMRATANJanearAJANABARARIAAAAwwANAMANNAAIABARRANSLAMITAL Emmeroimmamimamirmirmirmanianim Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Paruanmmarairmawesome ---mararerinarwarendramanALAJADAranMAADAALAJaatra a FORSC श्रामानन्द आएगा vivhamiyaw.wwwmviravivartamatarmovie प्राकृत भाषा और साहित्य बीहइ जंपइ राजस्थानी (डिंगलगीत) प्राकृत हिन्दी घड़े (पृ० ७) घड़ बनाता है जाचे (२१) जांचई मांगता है खांडे (३७) खण्डइ तोड़ता है घारै (३६) धारइ धारता है बीहै (४५) डरता है पूरै (४७) पूरइ पूरा करता है जंपै (४६) बोलता है इस प्रकार की अनेक क्रियाएँ राजस्थानी साहित्य में खोजी जा सकती हैं। इनके अतिरिक्त अन्य क्रियाओं में भी साम्य देखा जा सकता है। राजस्थानी का प्रयोग है - 'कंइ कीधौ' यहां कीधौ प्राकृत की किदो (कृतः) का रूपान्तर है । डिंगल गीत है 'कीधौ ते कोप साझियौ कानौ ।' (वही, पृ० ३) कीधौ के समान देने के अर्थ में 'दीधौ' का प्रयोग भी होता है। यथा-'रिड़मल ने दीधौ तें राज।' न केवल राजस्थानी में अपितु सिन्ध की कच्छी के मुहावरों में भी इन शब्दों का प्रयोग होता है। यथा काम कीदौ भलौ। डांड़ दीदी भलौ। राजस्थानी में न केवल वर्तमान काल की क्रियाओं में, अपितु भविष्यत् काल की क्रियाओं में भी प्राकृत एवं अपभ्रंश के प्रयोग दृष्टिगोचर होते हैं । हेमचन्द्र ने 'वयंति-स्यस्य सः' ।। ३८८ ।। सूत्र द्वारा निर्देश किया है कि अपभ्रंश में भविष्यत् अर्थ में 'ति' आदि में 'स्य' के स्थान पर 'स' विकल्प से आदेश होता है । इसके अनुसार प्राकृत की क्रिया होहिइ (भविष्यति) अपभ्रंश में होसइ हो जाती है । ___ मारवाड़ी और ढूंढारी के होसी, जासी, करसी एवं बहुवचन में हास्यां जास्यां, करस्यां आदि रूप अपभ्रंश के हासइ जैसे रूपों से ही निष्पन्न हैं। राजस्थानी साहित्य में 'होइसउं' रूप भी मिलता है। ___तो आडी होइस' (अचलदास खीचिरी वचनिका १४,६) पूर्वकालिक क्रियारूपों के सम्बन्ध में हेमचन्द्र ने कहा है कि अपभ्रंश में क्त्वा प्रत्यय के स्थान पर इ, इड और इवि और अवि ये चार आदेश होते हैं (४३६) । राजस्थानी में इ को छोड़कर अन्य प्रत्यय वाले रूप नहीं बनते । इ प्रत्यय से बनने वाले रूप अपभ्रंश के अनुरूप हैं । यथाअपभ्रंश राजस्थानी 'जइ पुण मारि मराहुं, 'जाइ ने आऊं' (तो फिर मारकर ही मरेंगे) (जाकर और आऊँगा) 'मेल्ही करि' (छोड़ कर) इसी इ वाले करि से हिन्दी में कर प्रत्यय जड़ा है। यथा-खाकर, जाकर, आदि । । परा Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी भाषा में प्राकृत-अपभ्रंश से प्रयोग ६१ इसके अतिरिक्त राजस्थानी की धातुओं के बहत से शब्द अपभ्रंश शब्दसमूह से ही आये हैं। उदाहरण के लिए छोलना क्रिया को लिया जा सकता है। छोलना क्रिया का सम्बन्ध संस्कृत के किसी रूप से नहीं जोड़ा जा सकता। जबकि जनभाषा अपभ्रंश में 'छोलना' इसी रूप में प्रयुक्त होता था। हेमचन्द्र के 'तक्ष्यादीनां छोल्लादयः ॥ ३६५ ॥ सूत्र के अनुसार तक्षि आदि धातुओं को छोल्ल आदि आदेश होते हैं। यथा 'जइ ससि छोल्लिज्जन्तु' (यदि चन्द्र को छीला जाता) मेवाड़ी एवं मारवाड़ी में छोलना इसी अर्थ में प्रयुक्त क्रिया है।१६ शिष्ट हिन्दी में यही छीलना हो गया है। शब्द-समूह राजस्थानी भाषा में उपर्युक्त प्राकृत एवं अपभ्रंश के तत्वों के अतिरिक्त अनेक ऐसे शब्द प्रयुक्त होते हैं, जो किंचित ध्वनि-परिवर्तनों के साथ प्राकृत एवं अपभ्रंश से ग्रहण कर लिए गये हैं । अव्यय, तद्धित एवं संख्यावाची कुछ ऐसे शब्दों की निम्न तालिका से यह प्रवृत्ति अधिक स्पष्ट हो जाती है : यथाआगलो<अगला ऊखाणउ<आहाणउ<आभाणक अचरिज<अच्छरियं <आश्चर्य खुड़िया<खुडिअ<त्रुटित आपणी< आफणी< अप्पणीयम् < आत्मीयम् घड़ा<घणो (घना) उणहीज< उसी का छेडी<छेडि<छेरि<छगल उन्हो<उण्हो<उष्ण छोरो<छोरो उन्डा<उण्डा (गहरा) जेवड़ी<जेवडी (रस्सी) जौहर यह शब्द राजस्थानी साहित्य एवं संस्कृति में बहुप्रचलित है। डा० वासुदेवशरण अग्रवाल ने जौहर को जतुगृह से व्युत्पन्न माना, जो भाषाशास्त्र की दृष्टि से भी ठीक है । यथा---जतुगृह>जउगह >जउघर>जउहर>जौहर । 'अचलदास खीची री वचनिका' में 'जउहर' शब्द प्रयुक्त भी हआ है। किन्तु राजस्थानी के अन्य ग्रन्थों में इसके लिए 'जमहर' शब्द का प्रयोग हुआ है (हम्मीरायण २६२, २७३ आदि)। 'जमहर' यमगृह-मृत्यु का बोधक है। अत: जौहर इसी शब्द का अपभ्रंश मानना चाहिए । तब उसका विकास-क्रम इस प्रकार होगा यमगृह >जमगृह जमघर>जमहर>जंबहर>जौहर>जौहर ।१७ पैलो<पहिला पातर<पात्र=नर्तकी, हिन्दी में पतुरिया । पाछलो< पिछला बहनेवी<बहिणीवई<भगिनीपति, हि० बहनोई बारहट्ट<बारहट्ट<द्वारभट MAMAAJABUAAAAAAAAAADMASALASALALAAJAADARALAJRAIADABADDIANJABARJASKARANAaanAAAAAALAJANAADARASRAJAP ATRA whawanatimeviven,varANIMViNewITYMAN-Nirm www.jahelibrary.org Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रवी श्राआनन्दग्रन्थ श्राआनन्दाग्रन्थः प्राकृत भाषा और साहित्य womanmomvivarwavimirmwoman.avir www.in १२ RATE 128 बारां<बारह <द्वादस सगला<सगलो<सकल साइं<सामि<स्वामि हलुआ<लहुआ<लघुक इस प्रकार राजस्थानी भाषा के ध्वनि-तत्वों एवं व्याकरण तत्वों दोनों पर मध्यकालीन भारतीय आर्य-भाषाओं का पर्याप्त प्रभाव है । प्रादेशिक भाषाओं में प्राकृत के तत्वों के अध्ययन का प्रयत्न पूना प्राकृत सेमिनार में किया गया । १६ किन्तु उसके सभी निबन्ध प्रकाशित नहीं हो सके हैं। प्रो० टी० एन० दबे ने 'राजस्थानी एवं गुजराती पर प्राकृत का प्रभाव' एवं डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने 'भोजपुरी में प्राकृत के तत्व' विषयों का अच्छा विवेचन किया है । इस अध्ययन को पर्याप्त अनुसन्धान की आवश्यकता है। सन्दर्भ १. दृष्टव्य-पाइअसद्दमहण्णव, पृ० ४५ २. ग्रियर्सन-लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इण्डिया, खण्ड १, भाग १ ३. डा० चटर्जी-'राजस्थानी भाषा' पृ० ६५ ४. मुन्शी- 'गुजराती एण्ड इटस् लिटरेचर' %. It is spoken in Rajputana and Western Portion of Central India and also in the neighbouring tracts of central Proviences, Sind and the Panjab. -Grierson-L.S. I. Vol. I Part I. p. 171. ६. 'अप्पा-तुप्पाँ' भणिरे अह पेच्छइ मारुए तत्तो'-कुव० १५३.३ एवं दृष्टव्य-लेखक का प्रबन्ध ---- 'कुबलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन', छठा अध्याय । ७. डा० शिवस्वरूप शर्मा—'राजस्थानी गद्य साहित्य', पृ० २ पर उद्धृत सन्दर्भ । ८. दृष्टव्य , वही, पृ० ४, सन्दर्भ ĉ. Dr. R. C. Dwivedi 'Influence of Sanskrit on the Rajasthani language and literature'.--Charu Dev Shastri Felicitation Volume p. 217-32. १०. 'चतुर्थ्याः षष्ठी' । हेम० ८/३/१३१ ११. डा० तंगारे—'हिस्टारिकल ग्रामर आफ अपभ्रंश', पृ० १०४ १२. डा. वीरेन्द्र श्रीवास्तव-अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृ० १२४ १३. 'स्यम्-जस-शसां लुक' ।। ३४४ ॥ १४. 'अ-डड-डुल्लाः स्वार्थिक-क-लूक च' ॥ ४२६ ।। १५. रावत सारस्वत- 'डिंगलगीत' शब्दार्थ, दृष्टव्य १६. डा० के० के० शर्मा---'मेवाड़ी के क्रियापदवन्द', नागरी प्रचारिणी पत्रिका, मई जन ७३ । १७. डा० दशरथ शर्मा-भूमिका पृ०७२, 'हम्मीरायण' । १८. Proceedings of the Seminar in Prakrit Studies. Poona, 1969. Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ० राजाराम जैन, एम० ए०, पी-एच० डी०, शास्त्राचार्य [ मगध विश्वविद्यालय, बोधगया (बिहार)] विक्रमोर्वशीय नाटक के चतुर्थ अङ्क में प्रथित प्राकृत अपभ्रंश पद्यों का काव्य मूल्यांकन महाकवि कालिदास सार्वभौम कवि हैं । अनुपम पदविन्यास एवं काव्यगरिमा उनके समस्त नाटक! एवं काव्यों में उपलब्ध है । प्रकृति-वर्णन एवं मानव के आन्तरिक भावों का निरूपण महाकवि ने बड़ी ही पटुता से प्रदर्शित किया है । अपनी विलक्षण कल्पना और काव्य कौशल के बल पर उन्होंने मानवस्वभाव के सम्बन्ध में ऐसी अनेक बातें कही हैं जिन्हें सृष्टि में घ्र ुवसत्य की संज्ञा दी जा सकती है । रचनाओं में भारतीय साहित्य परम्परा तथा आदर्श की पूरी झांकी प्राप्त होती है । कालिदास का शृंगार जीवन को मधुमय ही बनाता है, वासनापूर्ण नहीं । वे प्रेय पर श्रेय का प्रभुत्व दिखलाते हैं । उनकी दृष्टि में हेय तो सर्वथा हेय ही है । जिस श्रृङ्गार में वासनाधिक्य रहता है और विवेक का अभाव हो जाता है वह शृङ्गार नितान्त हेय है क्योंकि इस प्रकार के शृङ्गार से व्यक्ति एवं समाज दोनों का अहित होता है । उनके नाटकों में मानव की मानसिक क्रियाओं एवं प्रतिक्रियाओं को उस रूप में चित्रित किया गया है जो आज भी मानव के लिये दर्पण के समान हैं । वास्तव में हम उनके पात्रों की उल्लसित देख आनन्दविभोर हो उठते हैं, विलाप करते देख दुखविह्वल हो जाते हैं और उन्हें शोकमग्न देख हमें वेदना होने लगती है । साहित्य की यही सबसे बड़ी कसौटी है । कालिदास की साहित्य-साधना समस्त संस्कृत वाङ् मय के लिये बौद्धिक, भावात्मक एवं मानसिक विकास में एक कड़ी के समान है। उन्होंने जहाँ जिस भाव का चित्रण किया है, वहाँ वह भाव हमें बरसाती नदियों से बहाकर प्रशान्त महासागर में पहुंचा देता है । प्रेमी-प्रेमिका के भोग-विलास एवं शीलसौष्ठव के प्रति भी आस्था एवं अनुराग व्यक्त करते हैं । राष्ट्र के अमर गायक कवि ने सांस्कृतिक परम्पराओं का यथेष्ट पोषण किया है। हम यहाँ उनके समस्त काव्य साहित्य का मूल्याङ्कन प्रस्तुत नहीं कर सकेंगे । केवल विक्रमोर्वशीय नाटक के चतुर्थ अङ्क ग्रथित नेपथ्य के माध्यम से १८ एवं सामान्य वर्णनक्रम में १३, इस प्रकार कुल ३१ प्राकृत अपभ्रंश पद्यों के काव्य सौन्दर्य का ही विश्लेषण प्रस्तुत करेंगे । में विक्रमोर्वशीय नाटक के चतुर्थ अङ्क का प्रारम्भ ही प्राकृत अपभ्रंश पद्य से होता है । नेपथ्य से D आचार्य प्रवर श्री आनन्द ७० CHOWTOON 30 आमभन्दा आआनन्द अन्य का Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्म आचार्यप्रवर अभिनित श्रीआवन्द अन् श्रीआनन्दप्रसन्न Mu r timex . ...." ---- ६४ प्राकृत भाषा और साहित्य ध्वनि आती है कि "एक तालाब के जल में बैठी हुई हँसी अपनी प्रियसखी के विरह में रुदन कर रही है।" कवि ने प्रारम्भ से ही विरह का वातावरण प्रस्तुत करने के हेतु प्रतीक रूप में हंसी को प्रस्तुत किया है। हंसी अपनी सखी के वियोग में अनमनी हो जाती है। दूसरी ओर सूर्य की रश्मियों के स्पर्श से सरोवर के कमल भी विकसित हो जाते हैं। इस प्रकार एक ही पद्य में कवि ने दो दृश्य हमारे सम्मुख प्रस्तुत किये हैं । एक ओर हंसी की विमनस्कता और दूसरी ओर सूर्य करस्पर्श से कमल का विकास । ये दोनों ही यहाँ प्रतीक हैं । हंसी की विमनस्कता उर्वशी के वियोग का संकेत उपस्थित करती है और कमल का विकास पुरुरवा एवं उर्वशी के पुनर्मिलन का संकेत देता है । महाकवि ने व्यञ्जना द्वारा इन दोनों तथ्यों का समावेश बड़ी ही कुशलता से किया है। प्रासाङ्गिक गाथा निम्न प्रकार है : पिअसहिविओअविमणा सहि हंसी वाउला समुल्लवइ । सूरकरफंसविअसिअ तामरसे सरवरुसंगे ॥---विक्रमो० ४।१ द्वितीय पद्य में पून: कवि हमें एक संकेत देता है । वह दो हंसियों को सखी के वियोग में आँसू बहाते हुए प्रस्तुत करता है। यहाँ ये दोनों हसियां उर्वशी की सखियां चित्रलेखा एवं सहजन्या की प्रतीक हैं। हंसियों का व्याकुल होना तथा रुदन करना इस बात की ओर इङ्गित करता है कि शीघ्र ही उर्वशी का वियोग होने वाला है और ये दोनों सखियां उर्वशी के वियोग से प्रताड़ित होने के कारण ही विलाप कर रही हैं । यद्यपि द्वितीय एवं तृतीय पद्य प्रायः समान हैं किन्तु इनके द्वारा कवि ने जिस काव्य वातावरण की मधुरिमा को प्रस्तुत किया है, वह अत्यन्त महनीय है। समस्त कथावस्तु व्यञ्जना के रूप में समक्ष आ जाती है और दर्शक एवं पाठकों को नेपथ्य की ध्वनि से ही नाटकीय वस्तु का परिज्ञान हो जाता है । वातावरण का सौरभ अपनी तीव्रता से मन को उल्लसित करने लगता है। महाकवि कालिदास नेपथ्य में ही प्रतीकात्मक उक्त वातावरण का सृजन करते हैं : सहअरि दुक्खालिद्ध सरवर अम्मि सिणिद्ध। वाहोवग्गिअणअणअं तम्मइ हंसी जुअलअं॥-वही ४।२ प्राकृत पद्य एवं गद्य में वर्णित वातावरण से ऐसा अनुमान होता है कि पुररवा शयन कर रहा है। सर्य की स्वणिम रश्मियां वातायन से झांकती हई उसकी शैया पर पड़ती हैं और वह स्वप्न में ही उर्वशी के वियोग का अनुभव करता हुआ उसे प्राप्त करने की चेष्टा करता है। सखी सहजन्या के कथन से एवं उसकी पुष्टि में लिखे गये प्राकृत गद्य से उक्त तथ्य स्पष्ट हो जाता है । सहजन्या कहती है :- "सहि ण क्ख तारिसा आकिदिविसेसा चिरं दुक्खभाइणो होन्ति । ता अवस्सं किपि अणुग्गहणिमित्त भूवोवि समाअम कारणं हविस्सदि (प्राचीदिशं विलोक्य) ता एहि । उदअमुहस्स भअवदो सुज्जस्स उवट्ठाणं करेम्ह ।" (वही, चतुर्थ अंक, तृतीय पद्यान्तर प्रयुक्त गद्य खण्ड) स्पष्ट है कि दुःख या वियोग का समय सर्वदा एक जैसा नहीं रहता । वियोग के पश्चात् संयोग का अवसर आता ही है । अत: सखियां सूर्य प्रार्थना के लिये उपक्रम करती हैं। इस सन्दर्भ में महाकवि ने पुरुरवा को नगाधिराज के रूप में प्रस्तुत किया है। यहाँ यह नगाधिराज वास्तव में राजा के जीवन की छाया है। राजा को स्वप्न में प्रिया का हरण दिखाई देता है और आँखें Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत अपभ्रंश पथों का काव्यमूल्यांकन ६५ खुलते ही उसे मेघ का दर्शन होता है। वह बिजली को प्रिया समझकर उसका पीछा करता है और उसकी मानसिक उद्विग्नता बढ़ती जाती है। महाकवि ने राजा की इस मनोदशा का बड़ा ही सजीव चित्रण किया है । यथा : गहणं गईदगाहो पिजविरहुम्मा अपअलिअ विजारो विes तरकुसुम किसलय भूमिअणिअदेह परमारो ॥ - ४१५ अर्थात् यह गजराज अपनी प्रिया के वियोग में पागल बनकर वहाँ अपनी मनोव्यथा को प्रकट करने के हेतु वृक्षों के पुष्पों एवं कोमल पत्तों से अपने शरीर को सजा रहा है । और उद्विग्न-सा गहनवन में प्रवेश कर रहा है। इस प्रकार कवि ने पुरुरवा को गजराज के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया है और इसकी तीव्र व्यञ्जना पुनः हंस का प्रतीक प्रस्तुत करके की है हिअआहि अपि दुखओ सरवरए घुदपक्खओ । बाहोग्गअ णअणओ तम्मइ हंस जुआणओ ॥ - वही ४।६ अर्थात् यह युवा हंस अपनी प्यारी के विछोह में पंख फड़फड़ाता हुआ आँखों में आँसू भरे हुए सरोवर में बैठा सिसक रहा है । इस प्रकार कवि ने हंस के रूप में वियोगी पुरुरवा को उपस्थित किया है। कवि पुरुरवा की मनोव्यथा एवं घबराहट को प्रस्तुत करता हुआ नेपथ्य से ध्वनि कराता है कि "यह तो अभी-अभी बरसने वाला बादल है, राक्षस नहीं, इसमें यह खिंचा हुआ इन्द्र का धनुध है राक्षस का नहीं और टप टप बरसने वाले ये वाण नहीं जलबिन्दु हैं, एवं यह जो कसौटी पर बनी हुई सोने की रेखा के समान चमक रही है, यह मेरी प्रिया उवंशी नहीं, विद्युरेखा है। 7 संस्कृत पद्य में निरूपित इस शंकास्पद स्थिति का निराकरण कवि प्राकृत-पद्य द्वारा करता है। और वह अपनी मुग्धावस्था को यथार्थ रूप में प्राप्त कर बिजली का अनुभव करता है। पुरुरवा सोचता है कि मेरी मृगनयनी प्रिया का कोई राक्षस अपहरण करके ले जा रहा है। मैं उसका पीछा कर रहा । पर मुझे प्रिया के स्थान पर विद्युत और राक्षस के स्थान पर कृष्णमेघ ही प्राप्त होते हैं । कवि ने यहाँ नायक की भ्रान्तिमान मनस्थिति का बड़ा ही हृदयग्राही चित्रण किया है। कवि कहता है: म जाणिअं मिअलोअणी जिसअरु कोइ हरेइ । जाव णु णवतलि सामल धाराहरु वरिसेइ ॥ वही० ४८ बरसते हुए बादलों को देखकर पुरुरवा की वेदना अधिक बढ़ जाती है और वह उन पर अपनी भावनाओं का आरोपण करता है । वह अनुभव करता है कि मेघ क्रोधित होकर ही जल की वर्षा कर रहे हैं । अतः वह उनसे शान्त रहने की दृष्टि से प्रार्थना करता है । और कहता है कि हे मेघ, थोड़े समय तक आप लोग रुक जाइये । जब मैं अपनी प्रिया को प्राप्त कर लूँ तब तुम अपनी मूसलाधार वर्षा करना प्रिया के साथ तो मैं सभी कष्टों को सहन कर सकता हूँ, पर एकाकी इस वर्जन- सर्जन को सहन FR 375174 ril T68 SHONR 9 था आनन्द 10. फ्र फार Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपाप्रवन अभिसार्यप्रवर अभिनय आनन्दाअन्यश्रीआनन्दा ग्रन्थ १६ प्राकृत भाषा और साहित्य कर सकना सम्भव नहीं प्रतीत होता । इस पद्य में कवि ने मेघ को मानव के रूप में चित्रित कर नाना प्रकार की भावनाओं का विश्लेषण किया है। कवि ने प्रकृति को मानव के रूप में देखा है : जलहर संहर एह कोपइँ आढत्तओ अविरल धारा सार दिसामुह कतओ। ए मई पुहवि भमंतो जइपिों पेक्खमि तव्वे जं जु करीहिसितंतु सहिहिमि ॥ -४।११ उन्मत्त पुरुरवा अपने पद का अनुभव कर मेघों को भी आदेश देता है कि वे अभी वर्षा बन्द कर दें। तत्क्षण ही उसे प्रकृति का मधुमय वातावरण आकृष्ट कर लेता है । यह वातावरण विप्रलम्भ को संवद्धित करने के लिये उद्दीपन है। महाकवि कालिदास ने उद्दीपन के रूप में भौरों की झंकार एवं कोकिल की कूक को आवश्यक माना है। पवन के प्रताड़न से कल्पतरु के पल्लव नाना प्रकार के हावोंभावों को प्रदर्शित करते हुए नृत्य करने लगे हैं। पुरुरवा की उन्मत्तावस्था वृद्धिंगत होती जाती है और वह वर्षा के उपकरणों को ही अपने राजसी उपकरण समझने लगता है । महाकवि ने उक्त अवस्था का प्राकृत-पद्य के माध्यम से निम्न प्रकार चित्रण किया है : गंधमाइअ महुअर गीएहिं वज्जंतेहिं परहुअ तूरेहिं । पसरिअ पवणव्वेलिअपल्लव णिअरु, सुललिअ विविह पआरं गच्चइ कम्पअरु ॥-वही० ४११२ कवि ने यहाँ राजा की भावना को प्रकृति में आरोपित किया है तथा उसकी मानसिक अवस्था का प्रतिफलन भी प्रस्तुत किया है। राजा की प्रेमोन्मत्तावस्था वृद्धिंगत होती है । यह प्रिया के अन्वेषण में प्रवृत्त होता है । उसे ऐसा आभास होता है कि प्रिया से वियुक्त उन्मत्त गज, पुष्पों से युक्त पहाड़ी जंगल में विचरण कर रहा है। कुसुमोज्ज्वल गिरिकानन में विचरण करता हुआ अपने चित्त की विभिन्न भूमिकाओं का स्पर्श करता है। प्रियाविरह के कारण उसकी मानसिक दशा प्रतिक्षण उग्र होती जा रही है। महाकवि ने नेपथ्य से राजा की इसी अवस्था का सजीव चित्रण किया है । यथा : दइआरहिओ अहि दुहिओ विरहाणगओ परिमंथरओ। गिरिकाणणए कुसुमुज्जलए, गजजूहवई बहुझीण गई ॥ -वही४।१४ विरह की पराकाष्ठा वहाँ होती है जहाँ नायक अपने विवेक को खोकर चेतन-अचेतन का भेद खो बैठता है। उसे यह विवेक नहीं रहता कि तिर्यञ्च भी सार्थक वाणी के अभाव में किसी निश्चित बात का उत्तर नहीं दे सकते हैं । जब विरह की अन्तरावस्था अत्यधिक बढ़ जाती है, तब यह पराकाष्ठा की वृत्ति आती है। मेघदूत का यक्ष अपनी भाव-विभोर अवस्था के कारण ही 'धूमज्ज्योतिर्सलिल मरुताम्' के संघात मेघों द्वारा अपनी प्रिया के पास सन्देश भेजता है। भावों की पराकाष्ठा ही नायक को इस स्थिति में पहुँचाती है। पुरुरवा अपनी प्रेयसी के अन्वेषण में संलग्न होकर मयूरों से प्रार्थना करता है कि 'सर्वत्र विचरण करने वाले हे मयूरो, तुमने मेरी प्रेयमी को देखा है ? उस चन्द्रमुखी हंसगामिनी को तुम अवश्य ही पहिचानते होगे । मैं तुम्हें उसके चिन्हों को बतलाता हूँ। आशा है उन चिन्हों के बल पर COME Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-अपभ्रंश पद्यों का काव्यमूल्यांकन ६७ तुम उसे अवश्य पहिचान लोगे। वास्तव में मेरी प्रिया के घंघराले केश मयूरों के केशपाशों से भी सुन्दर हैं।' हाथ जोड़कर पुरुरवा मयूरों से अनुनय करता है : बंहिण पई इअ अ०भत्थिअमि आ अक्खहि मं ता, एत्थवणे भम्मते जइ पई दिट्ठी सा महू कंता। णिसमाहि मिअंक सरिसवअणा हंसगई, ए चिण्हे जाणीहिसि आअक्खिउ तुज्झ मई॥-४२० राजा की विरहावस्था की पुष्टि नेपथ्य से होती है । नेपथ्य में प्रतीक रूप में पुरुरवा को गज कहा गया है और उसकी समस्त क्रियाओं एवं मनोभावों को नेपथ्य द्वारा अभिव्यक्त किया गया है । जिन पद्यों को कवि ने उपस्थित किया है वे वस्तुतः दृश्यकाव्य के मर्म द्योतक हैं। भले ही कतिपय आलोचक उन्हें प्रक्षिप्त कहे पर उनके बिना राजा की व्यथा की अभिव्यक्ति होती ही नहीं। अतएव यह महाकवि कालिदास की ही सूझ है कि जिसने पुरुरवा के विरह शोक को उन्मत्त गज के रूपक द्वारा प्रस्तुत किया है : परहअ महरपलाविणि कंती गंदणवण सच्छंद भमंती। जइ पई पिअअम सा महु दिट्टी ता आ अक्खहि महु परपुट्ठी ॥-४।२४ उक्त पद्य में पुरुरवा अपनी प्रियतमा का पता कूजती हुई कोकिल से पूछता है। पुरुरवा हंस को देखकर समझता हैं कि इसने मंद मदिर चाल मेरी प्रियतमा से ही सीखी है अतः इसने अवश्य ही मेरी प्रियतमा को देखा होगा । अतएव वह हंस के समक्ष अपनी हादिक वेदना को उपस्थित करते हुए कहता है : रे रे हंसा कि गोइज्जइ गइ अणसारें म लक्खिज्जइ। कई पई सिक्खिउ ए गई लालसा सा पई दिट्टी जहण मरालसा ॥-४।३२ इस प्रकार महाकवि कालिदास ने पुरुरवा द्वारा चक्रवाक, गज, पर्वत, समुद्र आदि से अपनी प्रिया का पता पुछवाया है। महाकवि ने पुरुरवा की इस हार्दिक वेदना को प्राकृत पद्यों में व्यक्त किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि जिन भावनाओं को कवि संस्कृत में अभिव्यक्त करने में कठिनाई का अनुभव करता है उन भावों को उसने प्राकृत-पद्यों में अभिव्यक्त किया है । यहाँ हम उदाहरणार्थ एक-दो पद्य ही उद्धृत करना उचित समझते हैं । पुरुरवा पर्वत से पूछता हुआ कहता है : फलिह सिलाहअ णिम्मलणिज्झरू बहुविह कुसुमें विरइअसेहरु । किणर महुरुग्गीअ मणोहरु देखावहि महु पिअअम महिहरु ।।--४१५० स्फटिक की चट्टानों पर बहते हुए उजले झरनों वाले रंग-विरगे फलों से अपनी चोटियाँ सजाने वाले, किन्नरों के जोड़ों मे मधुर गीतों से सुहावने लगने वाले हे पर्वत, मेरी प्यारी की एक झलक तो मुझे दिखा दो। इस प्रकार पुरुरवा मयूर, कोकिल, हस, चकवा, भ्रमर, हाथी, पर्वत नदी, हिरण (४/७१ प्रति से अपनी प्रिया का पता पूछ-पूछकर सन्तोष प्राप्त करता है। महाकवि ने इन सभी मर्मस्थलों को प्राकृत पद्यों में ही निबद्ध किया है। संस्कृत के पद्यों द्वारा इस प्रकार की सरस भावनाएँ अभिव्यक्त नहीं हो सकी हैं। पुरुरवा ने हरिणी से पता पूछते समय उर्वशी की जो शरीराकृति व्यक्त की है, उसके आधार पर एक RECK PARAMBIOwwsadalaANGANAWARAJANAawwwseriawaamaamRAIDAMBANDHAmarwaraNAMAJAINAMASAIRAJADARASALAJIA सपा प्रवास अभिसमा प्रवल अभि MMMMMMMARWArmwMImmmm Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य अत्राचार्याय श्रीआनन्दग्रन्थश्राआनन्दान्थर and प्राकृत भाषा और साहित्य टा रेखा-चित्र द्वारा उर्वशी को अंकित किया जा सकता है। अजन्ता की गुफाओं में इस प्रकार के कई चित्र पाये जाते हैं। कवि कहता है: सुर सुन्दरि जहण भरालस पीणुत्तुंग घणस्थझी, थिरजोव्वण तणुसरीरि हंसगई। गअणुज्जल काणणें मिअलोअणि भमंती दिट्ठी पइँ तह विरह समुइंतरें उतारहि मई॥-४१५६ अर्थात् "नितम्बों के भारी होने के कारण धीरे-धीरे चलने वाली और उतुग एवं पीनस्तनों वाली, चिरयुवा, कृशकटिवाली, हंस जैसी गतिवाली उस मृगनयनी उर्वशी को यदि तुमने इस आकाश के समान उज्ज्वल वन में घूमते हुए देखा हो तो उसका पता बताकर मुझे इस विरहसागर से उबार लो।" उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि महाकवि कालिदास ने गहन भावनाओं की अभिव्यक्ति के हेतु प्राकृत-पद्यों का प्रयोग किया है। ये पद्य महाकवि द्वारा ही विरचित हैं । इसकी पुष्टि अनेक विद्वानों के कथन से होती है। श्री चन्द्रबली पाण्डेय ने गहन शोध-खोज के बाद यह निष्कर्ष निकाला है- “यह और कुछ नहीं, राजा के स्वयं जीवन की छाया है, जो वासना के मुखर हो उठने से, 'प्राकृत' में फूट निकली हैं। कालिदास की इस कला को पकड़ पाना तो दूर रहा, लोगों ने इसे क्षेपक बना दिया। सोचा इतना भी नहीं कि कवि गुरु के अतिरिक्त यह सूझता भी किसे, जो यहाँ जोड़ दिखाता। निश्चय ही यह अपूर्व नाटक दत्तचित्त हो सुनने का है, कुछ किसी अंश को ले उड़ने का नहीं। धीरज धर ध्यान से सुनें तो सारी गुत्थी आप ही सुलझ जाय और 'प्राकृत' का कारण भी आप ही व्यक्त हो जाय । सन्दर्भ एवं भावपृष्ठभूमि के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि विरह की वास्तविक अभिव्यञ्जना के लिए' इन प्राकृत-पद्यों की आवश्यकता है । महाकवि कालिदास के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति द्वारा उक्त साँचे में ये पद्य फिट नहीं किये जा सकते। इन पद्यों की भाषा अपभ्रंश के निकट है और छन्द भी अपभ्रंश-साहित्य का व्यवहृत हुआ है। हमने यहाँ भाषा-वैज्ञानिक एवं व्याकरण सम्बन्धी विवेचन प्रस्तुत न कर केवल काव्य मूल्य पर ही प्रकाश डालने का प्रयास किया है। अपभ्रंश (प्राकृत का एक परवर्ती रूप) भाषा के इन पद्यों में कवि ने अपनी प्रवृत्ति के अनुसार उपमालंकार की भी योजना की है। प्रायः सभी पद्यों में उपमान निस्यूत है। हम यहाँ उक्त पद्यों के कतिपय उपमानों के सौन्दर्य पर प्रकाश डालेंगे। काव्य मूल्यों की दृष्टि से इन समस्त पद्यों में कई विशेषताएँ उपलब्ध होती हैं । कवि ने शब्दों का चयन इतनी कुशलता से किया है कि संगीत तत्त्व का सृजन स्वयमेव होता गया है। विरह की अभिव्यञ्जना के लिये शब्दों का जितना मधुर और कोमल होना आवश्यक है उतना ही उनका नियोजन भी अपेक्षित है। कुशल कवि का शब्द-नियोजन ही विरह को अभिव्यक्त करता जाता है। नेपथ्य से आने वाली संगीत ध्वनियों, वर्णों एवं शब्दों का नियोजन बड़ी ही कुशलता से किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि विरह शरद कालीन नद के प्रवाह के समान स्वयं प्रवाहित हो रहा है। निम्न उदाहरण दृष्टव्य है : . Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-अपभ्रंश पद्यों का काव्यमूल्यांकन 88 चिन्तादुम्मिअमाणसिआ सहअरिदंसणलालसिआ। विअसिअ कमल मणोहरए विहरइ हंसी सरवरए॥-४१४ हंसी चिन्ता से दुर्मन है, शब्दावली भी उसकी इस दशा का उद्घाटन कर रही है । पद्य के पढ़ते ही नेत्रों के समक्ष विरहजन्य वातावरण उपस्थित हो जाता है और ऐसा ज्ञान होने लगता है कि किसी विरही का विरह शब्दों की धारा में प्रवाहित हो रहा है। यों तो अनप्रास और यमक दोनों ही शब्दालंकार शब्दों के नियोजन से ही रस की सृष्टि करते हैं पर उपर्युक्त पद्य में शब्दों ने ही रस संवेग को उपस्थित कर दिया है। अनिर्वचनीय रसानुभूति को उत्पन्न करने का प्रयास श-दों के द्वारा ही किया गया है। यह काव्य का सिद्धान्त है कि काव्य का वाच्य सर्वत्र विशेष होता है। वाच्य के इसी विशेषत्त्व को प्रकट करने के लिये भाषा को भी विशेषत्त्व प्राप्त करना होता है। महाकवि ने उक्त समस्त प्राकृत-पद्यों में शब्दों को-ह्रस्व एवं लघु रूप में प्रयुक्त कर व्यवहारिक साधारणत्व का अतिक्रमण कर असाधारण रूप में वर्गों की योजना की है और काव्य के संगीत धर्म को उपस्थित किया है । हिअआहि अपि दुक्खओ सरवरए धुदपक्खो । (४१६), परहअमहर पलाविणी (४१२४), पिअअम विरह किलामिअवअणओ (४१२८), फलिहसिलाहणिम्मलणिज्झर (४१५०), पसिपिअअमसुंदरिए (४१५३), आदि पदों द्वारा हृदय की अस्फुट बात भाषा में अभिव्यक्त करने का कवि ने प्रयास किया है। उक्त सभी पद अर्थ को विचित्र ध्वनितरंग द्वारा विस्तृत कर हृदय की गम्भीर और व्यापक भावनाओं को चित्रित करते हैं। इन पदों में संगीत की एक ऐसी मधुर झंकार है, जिससे हृत्तन्त्रियाँ शब्दायमान हुए बिना नहीं रहती। कवि ने जहाँ उक्त प्राकृत पद्यों में संगीतधर्मों का नियोजन किया है वहाँ कतिपय उपमानों द्वारा चित्रधर्म की भी स्थापना की है । बाह्य में किसी वस्तु या घटना के स्मृतिधृत स्फुट-अस्फुट चित्र को मन के परदे में अंकित कर उसकी सहायता से वक्तव्य की अभिव्यक्ति करने के हेतु महाकवि कालिदास ने उपमानों का ग्रहण किया है। इन्द्रियानुभूति द्वारा जिन पदार्थों के संस्कार हमारे हृदय-पटल पर पड़ते हैं, उन्हें उपमानों द्वारा ही प्रेषणीय बनाया जा सकता है। उर्वशी के नख-शिख सौन्दर्य की अभिव्यञ्जना के हेतु मिअलोअणि (४८, ४।५६)-मृगलोचनी, हंसगइ (४।२०, ४।५६)-हंसगति, अंबरमाण (४।२३) -अंबरमान, अर्थात् मेघसमान प्रभृति उपमानों का व्यवहार किया है । मृगलोचनी उपमान केवल नायिका की बड़ी-बड़ी आँखों की ही अभिव्यञ्जना नहीं करता, अपितु नायिका की सतर्कता की भी अभिव्यञ्जना करता है यह उपमान मन के अमूर्त भावों को मूर्त रूप देता है। इसी प्रकार 'हंसगति' उपमान से भी नायिका की सुन्दर मन्थरगति तो अभिव्यक्त होती ही है, साथ ही उसका रूपलावण्य भी मूत्तिमान हो जाता है। 'अंवरसमान' उपमान द्वारा कवि ने गज के कृष्णवर्ण की व्यञ्जना के साथ उसके विशाल रूप की भी अभिव्यक्ति की है। इस प्रकार महाकवि कालिदास ने दैहिक एवं मानसिक अनुभूतियों के लिये प्रकृति से विविध प्रकार के उपमान उक्त प्राकृत-पद्यों में प्रयुक्त किये हैं। इन उपमानों के अतिरिक्त कवि गुणवाचक, क्रियावाचक और मानसिक अवस्थावाचक शब्दों का प्रयोग कर भी विरह की स्थिति पर प्रकाश डाला है। गोरोअणा कुकुमवण्णा' (४।३६), 'दिट्ठी' (४।३२), 'सिक्खिउ' (४।३२) जैसे गणवाचक एवं क्रियावाचक शब्दों से भावों को गतिशील बनाया है। मानसिक अवस्था की अभिव्यक्ति - ده مه و به دیدار فرعي فرع ا فعوام شعر عر فرقون علامه و فرم ده مه وه وه ها را درود عقده مع ما نفكهافت هنقنعطف عفا عنه عف पावन अभियापार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्दग्रन्थ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अाया 1THशाचार्य . Na m WANASAMPADMAANAANNAIANAANABAJAJANKARARIAABAJAJAJAJAMIABANADARADAana.00 MORE 17G 2 Camwaminirommonww wwimaraviwarwaiwwmmmmmawwarawermentariniriwwwimmamme naww.iane १०० प्राकृत भाषा और साहित्य तो कवि ने शब्दों की योजना द्वारा बड़े सुन्दर ढंग से की है। शब्द ही हृदय की भाव-विभोर अवस्था को उपस्थित करने में सक्षम्य हैं । यथा : पिककारिणी विच्छोइअओ गुरुसोआणल दीविअओ। वाह जलाउललोअणलो करिवरु भमई समाउलओ॥-४।२९ अर्थात् अपनी प्यारी हथिनी के विछोह की भयंकर आग में जलता हुआ और रोता हुआ यह हाथी व्याकुल होकर घूम रहा है। अपभ्रंश छन्द परम्परा की तुकान्त प्रवृत्ति अथवा ताल छन्दों का सर्वप्रथम दर्शन हमें उक्त प्राकृतअपभ्रंश पद्यों में मिलता है। इनमें अनेक लोकगीतात्मक छन्दों का प्रयोग हुआ है जो परवर्ती कई छन्दों के आदिम रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं । चर्चरी गीतियों के विशिष्ट अध्ययन हेतु भी ये पद्य बहुत ही महत्वपूर्ण सिद्ध होंगे । २४ मात्रावाला एक ऐसा छन्द भी विद्यमान है जिसे कुछ विद्वानों ने रोला छन्द का आदिम रूप माना है। विक्रमोर्वशीय नाटक के चतुर्थ अंक में प्रस्तुत प्राकृत-पद्यों का छन्दों की दृष्टि से विशद विश्लेषण यहाँ प्रसंगानुकूल नहीं है । प्रकाशित संस्करणों की प्रमादजन्य अशुद्धियों के कारण वह सहज सम्भव भी नहीं, किन्तु संक्षेप में उनका वर्गीकरण निम्न प्रकार किया जा सकता है :१. गाथा ४११, १।४, ४।५, २. गाहू ४।३, ४।६, ४।१६, ४।३५, ४१४३, ४१४८, ४।६४, ४१७६ ३. गाथिनी ४।१४, ४।२३, ४. सिंहनी ४१५३, ५. स्कन्धक ४१५०, ४७१, ६. दोहा ४।८, ४।३६, ४।४१, ७. रसिका छन्द- ४।२४, ४।३२, ४।६६, ८. छप्पय ४१५४, ६. रड्डा--- ४।२८, ४१५४, १०. मधुभार-- ४१५३ ११. दुवई ४।२, ४।२६, महाकवि कालिदास द्वारा प्रयुक्त उक्त विविध छन्द भाषा में संगीतात्मकता एवं चित्रात्मकता उत्पन्न करने में समर्थ सिद्ध हुए हैं। कवि ने मन की रसप्रेरणा की अभिव्यक्ति के हेतु शब्दालंकारों एवं अर्थालंकारों के साथ इन छन्दों की नियोजना की है। वास्तव में हमारे शब्द का अर्थ उसकी ध्वनि एवं चित्रसम्पदा पर इतना निर्भर रहता है कि इस समस्त संगीत माधुर्य एवं चित्रसम्पदा को पृथक कर देने पर शब्द का निरपेक्ष अर्थ ढूंढ़ पाना ही कठिन होगा। कालिदास ने उक्त प्राकृत-अपभ्रंश पद्यों में अपनी प्रकृति के अनुसार वैदर्भी रीति का नियोजन किया है । मधुर कान्तपदावली के साथ असमस्यन्त पद सर्वत्र प्रयुक्त हैं । प्रसाद गुण भी सभी पद्यों में समाविष्ट है । कृत्रिमता अथवा बलपूर्वक शब्द चयन करने की चेष्टा नहीं की गई है । अतएव उक्त पद्य भाषावैज्ञानिक दृष्टि से जितने महत्वपूर्ण हैं उतने ही काव्यमूल्यों की दृष्टि से भी। IN Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IRAL श्री बदरीनारायण शुक्ल, न्यायतीर्थ (प्राकृत भाषा प्रचार समिति एवं धार्मिक परीक्षा बोर्ड पाथर्डी के कार्यवाहक) n प्राकृत भाषा के प्रचार-प्रसार में आचार्य श्री का योगदान तेजस्वी ऋषिरत्न गुरुवर्य श्री रत्नऋषिजी म. से किशोरावस्था में ही चारित्ररत को स्वीकार कर रत्नचर्या की समाराधना में सम-समान उपलब्धियाँ प्राप्तकर आचार्य श्री आनन्दऋषि जी म० श्रमण संध के चमकते सितारे हैं । इनका शिक्षण भारत के सुप्रसिद्ध विद्यापीठों के माने हए विद्वानों द्वारा भारत की आर्य प्राचीन भाषाओं-प्राकृत और संस्कृत का उच्च श्रेणी का सम्पन्न हुआ। नैसर्गिक प्रतिभा के कारण प्रान्तीय भाषाओं का सहज अभ्यास होता गया। जिससे भाषाओं के मर्म को भलीभांति समझने लगे । आप श्री का ध्यान इस विषमता की ओर आकृष्ट हुआ कि देश की दो प्रधान संस्कृतियों-श्रमण और बाह्मण-का सुविशाल साहित्य विद्यमान होते हुए भी आज संस्कृत भाषा का इतना प्रचार और समादर किन्तु प्राकृत की इतनी उपेक्षा क्यों ? श्रमण भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध जैसी भारतीय विरलतम विभूतियों ने जनकल्याण के सर्वागीण विकास के लिए उस काल की लोकभाषाओं-अर्द्धमागधी और पाली प्राकृत में जो उपदेश दिये, उनको जन-जन तक पहुँचाने की दृष्टि से उन भाषाओं का अध्ययन-अध्यापन अत्यंत आवश्यक था । विशेषत: इस भौतिक और हिंसाप्रधान युग में आर्ष (ऋषिप्रणीत) आध्यात्मिक ज्ञान का दर्शन कराना जन-कल्याण का साधन हो सकता है । आचार्य श्री ने शिक्षा शास्त्रियों से परामर्श कर एक परीक्षा बोर्ड के स्थापन की आवश्यकता का अनुभव किया, क्यों कि बोर्ड के पाठ्यक्रम को माध्यम बनाकर अनेक अप्रकाशित प्राक्तन ग्रन्थों तथा नवनिर्मित पुस्तकों का प्रकाशन और पूर्व प्रकाशित ग्रन्थों का प्रचार कार्य अच्छी तरह किया जा स इस कल्पना ने ईस्वी सन् १९३६ में विद्यारसिक समाज-हितैषियों के सहयोग से मूर्त रूप धारण कर लिया और 'श्री तिलोक रत्न स्थानकवासी जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड' नाम से संस्था की स्थापना की गई। इस परीक्षा-बोर्ड के पाठ्यक्रम में प्राकृत भाषा के व्याकरण, काव्य, निबन्ध, प्रबन्ध और आगम के अनेक ग्रन्थ निर्धारित किये गये। लगभग ३० वर्ष में पाठ्यक्रमों के परिवर्तन-परिवर्द्धन में प्राकृत ग्रन्थों का कुछ SANELD marwAdvIMAMANAKARMAdanindraKAIRAAMANAMAAJAJARAddrAALAMIDUABADASANAus animaduaa TION आगारप्रवर अभिनापार्यप्रवर आभनय श्रीआनन्दकन्थश्राआनन्दग्रन्थ WAVVNIM mananewmaramanandwa Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपाप्रव मनापORD . श्रीआनन्द अन्य धाआनन्दरा CORE १०२ प्राकृत भाषा और साहित्य अधिक समावेश तो अवश्य हुआ किन्तु प्राकृत भाषा के अवान्तर भेदों के विशिष्ट ग्रन्थों का प्रतिनिधित्व पर्याप्त मात्रा में नहीं हो पाता था। इस विषय में विशिष्ट विद्वानों की एक परिषद का आयोजन करके प्राकृतभाषा की स्वतन्त्र परीक्षा नियत करने का निर्णय किया गया। तदनुसार सन् १९६६ में 'प्राकृत भाषा प्रचार समिति' के नाम से एक संस्था की स्थापना की गई । संस्था की उपयोगिता पर ध्यान देकर समाज के अनेक अग्रगण्य महानुभावों ने अपना बहुमूल्य सहयोग देकर स्वल्प काल में ही इसकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ कर दी। विद्वतपरिषद की सलाह से इस संस्था के उद्देश्य को सफल बनाने के लिए तीन योजनाओं को क्रियान्वित करने का निश्चय किया गया १. प्रकाशन योजना २. प्रशिक्षण योजना ३. परीक्षण योजना । प्रथम योजना के अन्तर्गत अद्यावधि इन ग्रन्थों का प्रकाशन किया गया है-१ सुबोध प्राकृत व्याकरण भाग १ । २—सुबोध प्राकृत व्याकरण भाग २। ३-सुबोध प्राकृत व्याकरण भाग ३ । ४प्राकृत व्याकरणम् आचार्य हेमचन्द्र छात्र संस्करण । ५–पाइयरयणावली भाग १ । ६-पाइयरयणावली भाग २ । ७--पाइयकुसुमावली। ८-पाली कुसुमावली। 8-कुम्मापुत्तचरियं । १०-बम्हदत्तो। ११-कव्यपरिमलो। प्रशिक्षण योजना के द्वारा विविध विद्यालयों और महाविद्यालयों में अर्द्धमागधी, प्राकृत तथा अन्य प्राकृत भाषा का शिक्षण देने वाले शिक्षकों को मानधन देकर उन्हें प्रोत्साहित किया जा रहा है, यह अध्यापक संख्या २७ तक पहुँच गई है। विशिष्ट प्राकृत विद्वानों का सत्कार और शोध-कार्य करने की व्यवस्था है। योग्य स्थानों में सेमिनार (शिविर) का आयोजन करके प्राकृत भाषा पर विशिष्ट विद्वानों के व्याख्यान और शिक्षण शैली का प्रचार किया जाता है। परीक्षण योजना में प्राकृत भाषा की परीक्षाओं का आयोजन है-१-प्राकृत प्रथमा, २-प्राकृत द्वितीया, ३-प्राकृत प्राज्ञ, ४-प्राकृत प्रवीण, ५–प्राकृत प्रभाकर । इस प्रकार संप्रति ५ परीक्षाओं की व्यवस्था की गई है। इन परीक्षाओं में अनेक केन्द्रों से परीक्षार्थी सम्मिलित हो रहे हैं। इनमें से सफल परीक्षार्थियों के लिए प्रमाणपत्र के साथ पुरस्कार-पारितोषिक प्रदान करने की व्यवस्था है। विशेषता यह कि आचार्य श्री के सान्निध्य में रह कर कई संस्कृत के पंडित प्राकृत भाषा का अध्ययन करते रहते हैं। आप श्री की अध्यापन-कला बहुत ही सराहनीय है। Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180S 0.00 TE Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 डॉ० नरेन्द्र भानावत, एम० ए०, पी-एच० डी० (प्राध्यापक हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर एवं मानद निदेशक-आचार्य श्री विनयचन्द्र शोध प्रतिष्ठान जयपुर) HAMA CARRIA ET INPr जैनधर्म का सांस्कृतिक मूल्यांकन - SAIRAA धर्म और संस्कृति : संकीर्ण अर्थ में धर्म संस्कृति का जनक और पोषक है । व्यापक अर्थ में धर्म संस्कृति का एक अंग है। धर्म के सांस्कृतिक मूल्यांकन का अर्थ यह हुआ कि किसी धर्म विशेष ने मानव-संस्कृति के अभ्युदय और विकास में कहाँ तक योग दिया ? संस्कृति जन का मस्तिष्क है और धर्म जन का हृदय । जब-जब संस्कृति ने कठोर रूप धारण किया, हिंसा का पथ अपनाया, अपने रूप को भयावह व विकृत बनाने का प्रयत्न किया, तब-तब धर्म ने उसे हृदय का प्यार लुटा कर कोमल बनाया अहिंसा और करुणा की बरसात कर उसके रक्तानुरंजित पथ को शीतल और अमृतमय बनाया, संयम, तप और सदाचार से उसके जीवन को सौन्दर्य और शक्ति का वरदान दिया । मनुष्य की मूल समस्या है-आनन्द की खोज । यह आनन्द तब तक नहीं मिल सकता जब तक कि मनुष्य भयमुक्त न हो, आतंकमुक्त न हो, इस भय-मुक्ति के लिए दो शर्ते आवश्यक हैं। प्रथम तो यह कि मनुष्य अपने जीवन को इतना शीलवान, सदाचारी और निर्मल बनाए कि कोई उससे न डरे । द्वितीय यह कि वह अपने में इतना पुरुषार्थ, सामर्थ्य और बल संचित करे कि कोई उसे डरा धमका न सके । प्रथम शर्त को धर्म पूर्ण करता है और दूसरी को संस्कृति । जैनधर्म और मानव-संस्कृति : जैनधर्म ने मानव संस्कृति को नवीन रूप ही नहीं दिया, उसके अमूर्त भाव तत्व को प्रकट करने के लिए सभ्यता का विस्तार भी किया। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव इस मानव-संस्कृति के सूत्रधार बने । उनके पूर्व युगलियों का जीवन था, भोगमूलक दृष्टि की प्रधानता थी, कल्पवृक्षों के आधार पर जीवन चलता था। कर्म और कर्तव्य की भावना सुषुप्त थी। लोग न खेती करते थे न व्यवसाय । उनमें सामाजिक चेतना और लोक-दायित्व की भावना के अंकुर नहीं फूटे थे । भगवान् ऋषभदेव ने भोगमूलक संस्कृति के स्थान पर कर्ममूलक संस्कृति की प्रतिष्ठा की। पेड़-पौधों पर निर्भर रहने वाले लोगों को खेती करना बताया । आत्मशक्ति से अनभिज्ञ रहने वाले लोगों को अक्षर और लिपि का ज्ञान देकर पुरुषार्थी बनाया। देववाद के स्थान पर पुरुषार्थवाद की मान्यता को सम्पुष्ट किया। अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध लड़ने Mmmaan aamanamaAAJAJABAJAJAIMIMIAAJRAIABADMAAAJAADIMALAIMAAAAAAAAAAAJAAAASARAIADMAAAAA PowmoviMAirihirvaarimWANIYYYYAvinayanayantrwirANaviram romanawr. www.jdinelibrary.org Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mamariaamiranamannaamaABASwannainamainamainamusamanarennainamainamainandacademadnaindaincode.net.in SANJIVA आचार्यप्रवआभापार्यप्रकट श्रीआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्दा ANTAwammarrivivnrTIVivwwwwwwVIPIXivaravenvironceams १०६ इतिहास और संस्कृति के लिए हाथों में बल दिया। जड़ संस्कृति को कर्म की गति दी चेतनाशून्य जीवन को सामाजिकता का बोध और सामूहिकता का स्वर दिया । पारिवारिक जीवन को मजबूत बनाया, विवाह प्रथा का समारम्भ किया । कला-कौशल और उद्योग-धन्धों की व्यवस्था कर निष्क्रिय जीवन-यापन की प्रणाली को सक्रिय और सक्षम बनाया। संस्कृति का परिष्कार और महावीर : अन्तिम तीर्थंकर महावीर तक आते-आते इस संस्कृति में कई परिवर्तन हुए । संस्कृति के विशाल सागर में विभिन्न विचारधाराओं का मिलन हुआ। पर महावीर के समय इस सांस्कृतिक मिलन का कत्सित और बीभत्स रूप ही सामने आया। संस्कृति का जो निर्मल और लोककल्याणकारी रूप था, वह अब विकारग्रस्त होकर चन्द व्यक्तियों की ही सम्पत्ति बन गया । धर्म के नाम पर क्रियाकाण्ड का प्रचार बढ़ा । यज्ञ के नाम पर मूक पशुओं की बलि दी जाने लगी । अश्वमेध ही नहीं, नरमेध भी होने लगे । वर्णाश्रम व्यवस्था में कई विकृतियाँ आ गईं । स्त्री और शूद्र अधम तथा निम्न समझे जाने लगे। उनको आत्म-चिन्तन और सामाजिक-प्रतिष्ठा का कोई अधिकार न रहा । त्यागी-तपस्वी समझे जाने वाले लोग अब लाखों करोड़ों की सम्पत्ति के मालिक बन बैठे । संयम का गला घोंटकर भोग और ऐश्वर्य किलकारियाँ मारने लगा। एक प्रकार का सांस्कृतिक संकट उपस्थित हो गया। इससे मानवता को उबारना आवश्यक था। वर्द्धमान महावीर ने संवेदनशील व्यक्ति की भाँति इस गम्भीर स्थिति का अनुशीलन और परीक्षण किया। बारह वर्षों की कठोर साधना के बाद वे मानवता को इस संकट से उबारने के लिए अमत ले आये। उन्होंने घोषणा की—सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। यज्ञ के नाम पर की गई हिंसा अधर्म है। सच्चा यज्ञ आत्मा को पवित्र बनाने में है। इसके लिए क्रोध की बलि दीजिए, मान को मारिये, माया को काटिये और लोभ का उन्मूलन कीजिये । महावीर ने प्राणी-मात्र की रक्षा करने का उद्बोधन दिया । धर्म के इस अहिंसामय रूप ने सस्कृति को अत्यन्त सूक्ष्म और विस्तृत बना दिया। उसे जनरक्षा (मानव-समुदाय) तक सीमित न रख कर समस्त प्राणियों की सुरक्षा का भार भी संभलवा दिया। यह जनतंत्र से भी आगे प्राणतंत्र की व्यवस्था का सुन्दर उदाहरण है। जैन धर्म ने सांस्कृतिक विषमता के विरुद्ध अपनी आवाज बुलन्द की, वर्णाश्रम व्यवस्था की विकृति शुद्धिकरण किया । जन्म के आधार पर उच्चता और नीचता का निर्णय करने वाले ठेकेदारों को मुंहतोड़ जवाब दिया । कर्म के आधार पर ही व्यक्तित्व की पहचान की। हरिकेश चाण्डाल और सद्दालपुत्र कुम्भकार को भी आचरण की पवित्रता के कारण आत्म-साधकों में समुचित स्थान दिया। अपमानित और अचल सम्पत्तिवत मानी जाने वाली नारी के प्रति आत्म-सम्मान और गौरव की भावना जगाई। उसे धर्म ग्रंथों को पढ़ने का ही अधिकार नहीं दिया वरन् आत्मा के चरम-विकास मोक्ष की भी अधिकारिणी माना । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार इस युग में सर्वप्रथम मोक्ष जाने वाली ऋषभ की माता मरूदेवी ही थी । नारी को अबला और शक्तिहीन नहीं समझा गया। उसकी आत्मा में भी उतनी ही शक्ति सम्भाव्य मानी गई जितनी पुरुष में । महावीर ने चन्दनबाला की इसी शक्ति को पहचान या Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म का सांस्कृतिक मूल्यांकन १०७ IMA) ANSI या कर उसे साध्वियों का नेतृत्व प्रदान किया। नारी को दब्बू, आत्मभीरु और साधना क्षेत्र में बाधक नहीं माना गया । उसे साधना में पतित पुरुष को उपदेश देकर संयम-पथ पर लाने वाली प्रेरक शक्ति के रूप में देखा गया। राजुल ने संयम से पतित रथनेमि को उद्बोधन देकर अपनी आत्मशक्ति का ही परिचय नहीं दिया, वरन् तत्वज्ञान का पांडित्य भी प्रदर्शित किया। सांस्कृतिक समन्वय और भावनात्मक एकता: जैन धर्म ने सांस्कृतिक समन्वय और एकता की भावना को भी बलवती बनाया। यह समन्वय विचार और आचार दोनों क्षेत्रों में देखने को मिलता है। विचार-समन्वय के लिए अनेकान्तदर्शन की देन अत्यन्त महत्वपूर्ण है । भगवान् महावीर ने इस दर्शन की मूल भावना का विश्लेषण करते हुए सांसारिक प्राणियों को बोध दिया-किसी बात को, सिद्धान्त को एक तरफ से मत देखो, एक ही तरह उस पर विचार मत करो। तुम जो कहते हो वह सच होगा, पर दूसरे जो कहते हैं, वह भी सच हो सकता है। इसलिए सुनते ही भड़को मत, वक्ता के दृष्टिकोण से विचार करो। . आज संसार में जो तनाव और द्वन्द्व है वह दूसरों के दृष्टिकोण को न समझने या विपर्यय रूप से समझने के कारण है। अगर अनेकान्तवाद के आलोक में सभी राष्ट्र और व्यक्ति चिन्तन करने लग जायें तो झगड़े की जड़ ही न रहे । संस्कृति के रक्षण और प्रसार में जैनधर्म की यह देन अत्यन्त महत्वपूर्ण है । आचार-समन्वय की दिशा में मुनि-धर्म और गृहस्थ-धर्म की व्यवस्था दी है। प्रकृति और निवत्ति का सामंजस्य किया गया है । ज्ञान और क्रिया का, स्वाध्याय और सामायिक का सन्तुलन इसीलिए आवश्यक माना गया है। मुनिधर्म के लिए महाव्रतों के परिपालन का विधान है। वहाँ सर्वथा-प्रकारेण हिंसा, झठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह के त्याग की बात कही गई है । गृहस्थधर्म में अणुव्रतों की व्यवस्था दी गई है, जहाँ यथाशक्य इन आचार नियमों का पालन अभिप्रेत है। प्रतिमाधारी श्रावक वानप्रस्थाश्रमी की तरह माना जा सकता है। सांस्कृतिक एकता की दृष्टि से जैनधर्म का मूल्यांकन करते समय वह स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि उसने सम्प्रदायवाद, जातिवाद, प्रान्तीयतावाद आदि सभी मतभेदों को त्याग कर राष्ट्र-देवता को बड़ी उदार और आदर की दृष्टि से देखा है। प्रत्येक धर्म के विकसित होने के कुछ विशिष्ट क्षेत्र होते हैं। उन्हीं दायरों में वह धर्म बंधा हुआ रहता है पर जैनधर्म इस दृष्टि से किसी जनपद या प्रान्त विशेष में ही बंधा हुआ नहीं रहा । उसने भारत के किसी एक भाग विशेष को ही अपनी श्रद्धा का, साधना का और चिन्ता का क्षेत्र नहीं बनाया। वह सम्पूर्ण राष्ट्र को अपना मानकर चला। धर्म का प्रचार करने वाले विभिन्न तीर्थंकरों की जन्मभूमि, दीक्षास्थली, तपोभमि, निर्वाणस्थली आदि अलग-अलग रही है। भगवान महावीर विदेह (उत्तर बिहार) में उत्पन्न हुए तो उनका साधना क्षेत्र व निर्वाण स्थल मगध (दक्षिण बिहार) रहा । तेइसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ का जन्म तो वाराणसी में हुआ पर उनका निर्वाण स्थल बना सम्मेदशिखर । प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव अयोध्या में जन्मे, पर उनकी तपोभूमि रही कैलाश पर्वत और भगवान् अरिष्टनेमि का कर्म व धर्म क्षेत्र रहा गुजरात । भूमिगत सीमा की दृष्टि से जैनधर्म सम्पूर्ण KEEERS... 圖 MARATHIndanamaAANJANAJABADASANASAMBANANADAALAAJasraDAIJAADARJANAINAINAMMINIAAIAAJAAAAJASACRAIADASAALAAMIAL SNINया Ma आचार्य अनिल श्रीआनन्दसन्धाश्रीआनन्द आन्थ५2 साया - mometenanmainamammammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmonomiranammer Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रजिनाचार्य श्रीआनन्दग्रन्थश्राआनन्दा nawimwivinviwwviY onvironmirmwarrivinine Maryomwwwvvv.in १०८ इतिहास और संस्कृति HAI VAN NM राष्ट्र में फैला। देश की चप्पा-चप्पा भूमि इस धर्म की श्रद्धा और शक्ति का आधार बनी । दक्षिणी भारत के श्रवणवेलगोला व कारकल आदि स्थानों पर स्थित बाहुबली के प्रतीक आज भी इस राष्ट्रीय चेतना के प्रतीक हैं। जैनधर्म की यह सांस्कृतिक एकता भूमिगत ही नहीं रही। भाषा और साहित्य में भी उसने समन्वय का यह औदार्य प्रकट किया। जैनाचार्यों ने संस्कृत को ही नहीं, अन्य सभी प्रचलित लोक भाषाओं को अपना कर उन्हें समुचित सम्मान दिया । जहाँ-जहाँ भी वे गए, वहाँ-वहाँ की भाषाओं को चाहे वे आर्य परिवार की हों, चाहे द्राविड़ परिवार की-अपने उपदेश और साहित्य का माध्यम बनाया। इसी उदार प्रवृत्ति के कारण मध्ययुगीन विभिन्न जनपदीय भाषाओं के मूल रूप सुरक्षित रह सके हैं । आज जब भाषा के नाम पर विवाद और मतभेद हैं, तब ऐसे समय में जैनधर्म की यह उदार दृष्टि अभिनन्दनीय ही नहीं, अनुकरणीय भी है। साहित्यिक समन्वय की दृष्टि से तीर्थंकरों के अतिरिक्त राम और कृष्ण जैसे लोकप्रिय चरित्र नायकों को जैन साहित्यकारों ने सम्मान का स्थान दिया । ये चरित्र जैनियों के अपने बन कर आये हैं। यही नहीं, जो पात्र अन्यत्र घणित और बीभत्स दृष्टि से विचित्र किये गये हैं, वे भी यहाँ उचित सम्मान के अधिकारी बने हैं। इसका कारण शायद यह रहा कि जैन साहित्यकार अनार्य भावनाओं को किसी प्रकार की ठेस नहीं पहुँचाना चाहते थे। यही कारण है कि वासुदेव के शत्रुओं को भी प्रति-वासुदेव का उच्च पद दिया गया है । नाग, यक्ष आदि को भी अनार्य न मानकर तीर्थंकरों का रक्षक माना है और उन्हें देवालयों में स्थान दिया है । कथा-प्रबन्धों में जो विभिन्न छन्द और राग-रागनियाँ प्रयुक्त हुई हैं उनकी तर्जे वैष्णव साहित्य के सामंजस्य को सूचित करती हैं। कई जैनेतर संस्कृत और डिंगल ग्रंथों की लोकभाषाओं में टीकाएँ लिख कर भी जैन विद्वानों ने इस सांस्कृतिक विनिमय को प्रोत्साहन दिया है। KEE जैनधर्म अपनी समन्वय भावना के कारण हो सगुण और निर्गुण भक्ति के झगड़े में नहीं पड़ा। गोस्वामी तुलसीदास के समय इन दोनों भक्ति धाराओं में जो समन्वय दिखाई पड़ता है उसके बीज जैन भक्तिकाव्य में आरम्भ से मिलते हैं। जैन दर्शन में निराकार आत्मा और वीतराग साकार भगवान के स्वरूप में एकता के दर्शन होते हैं । पंचपरमेष्ठी महामंत्र (णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं आदि) में सगुण और निर्गुण भक्ति का कितना सुन्दर मेल बिठाया है। अर्हन्त साकार परमात्मा कहलाते हैं । उनके शरीर होता है वे दिखाई देते हैं । सिद्ध निराकार हैं, उनके कोई शरीर नहीं होता, उन्हें हम देख नहीं सकते। एक ही मंगलाचरण में इस प्रकार का समभाव कम देखने को मिलता है। जैन कवियों ने काव्य-रूपों के क्षेत्र में भी कई नये प्रयोग किये। उसे संकीर्ण परिधि से बाहर निकाल कर व्यापकता का मुक्त क्षेत्र दिया । आचार्यों द्वारा प्रतिपादित प्रबन्ध-मुक्तक की चली आती हुई काव्य-परम्परा को इन कवियों ने विभिन्न रूपों में विकसित कर काव्यशास्त्रीय जगत में एक क्रांति-सी मचा दी। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि प्रबन्ध और मुक्तक के बीच काव्य-रूपों में कई नये स्तर इन कवियों ने निर्मित किये। Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म का सांस्कृतिक मूल्यांकन १०६ जैन कवियों ने नवीन काव्य-रूपों के निर्माण के साथ-साथ प्रचलित काव्य रूपों को नई भाव-भूमि और मौलिक अर्थवत्ता भी दी। इन सब में उनकी व्यापक, उदार दृष्टि ही काम करती रही । उदाहरण के लिए वेलि, बारहमासा, विवाहलो रासो, चौपाई, संधि आदि काव्य रूपों के स्वरूप का अध्ययन किया जा सकता है । वेलि संज्ञक काव्य डिंगल शैली में सामान्यतः वेलियो छन्द में ही लिखा गया है पर जैन कवियों ने 'बेलि' काव्य को छन्द विशेष की सीमा से बाहर निकाल कर वस्तु और शिल्प दोनों दृष्टि से व्यापकता प्रदान की । 'बारहमासा' काव्य ऋतु काव्य रहा है जिसमें नायिका एक-एक माह के क्रम से अपना विरह - प्रकृति के विभिन्न उपादानों के माध्यम से व्यक्त करती है । जैन कवियों ने 'बारहमासा' की इस विरह-निवेदन प्रणाली को आध्यात्मिक रूप देकर इसे श्रृंगार क्षेत्र से बाहर निकालकर भक्ति और वैराग्य के क्षेत्र तक आगे बढ़ाया। 'विवाहलों' संज्ञक काव्य में सामान्यतः नायक-नायिका के विवाह का वर्णन रहता है, जिसे ब्याहलो भी कहा जाता है। जैन कवियों ने इसमें नायक का किसी स्त्री से परि य न दिखा कर संयम और दीक्षा कुमारी जंसी अमूर्त भावनाओं को परिणय के बंधन में बाँधा गया । रासो, संधि और चौपाई जैसे काव्य रूपों को भी इसी प्रकार नया भाव बोध दिया । 'रासो' यहाँ केवल युद्ध परक वीर काव्य का व्यंजक न रह कर प्रेम परक गेय काव्य का प्रतीक बन गया । 'संधि' शब्द अपभ्रंश महाकाव्य के सर्ग का वाचक न रह कर विशिष्ट काव्य विधा का ही प्रतीक बन गया । 'वौपाई संज्ञक काव्य चौपाई छन्द में ही न बँधा रहा, वह जीवन की व्यापक चित्रण क्षमता का प्रतीक बनकर छन्द की रूढ कारा से मुक्त हो गया । उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि जैन कवियों ने एक ओर काव्य रूपों की परम्परा के धरातल को व्यापकता दी तो दूसरी ओर उसको बहिरंग से अन्तरंग की ओर तथा स्थूल से सूक्ष्म की ओर भी खींचा। यहाँ यह भी स्मरणीय है जैन कवियों ने केवल पद्य के क्षेत्र में ही नवीन काव्य रूप नहीं खड़े किये वरन् गद्य के क्षेत्र में भी कई नवीन काव्य रूपों गुर्वावली, पट्टावली, उत्पत्तिग्रंथ, दफतर बही, ऐतिहासिक टिप्पण ग्रथ प्रशस्ति, वचनिका - दवावैत-सिलेका, बालावबोध आदि की सृष्टि की। यह सृष्टि इसलिए और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उसके द्वारा हिन्दी गद्य का प्राचीन ऐतिहासिक विकास स्पष्ट होता है । हिन्दी के प्राचीन ऐतिहासिक और कलात्मक गद्य में इन काव्य रूपों की देन महत्वपूर्ण है । जैनधर्म का लोक-संग्राहक रूप : धर्म का आविर्भाव जब कभी हुआ विषमता में समता, अव्यवस्था में व्यवस्था और अपूर्णता में सम्पूर्णता स्थापित करने के लिए ही हुआ । अतः यह स्पष्ट है कि इसके मूल में वैयक्तिक अभिक्रम अवश्य रहा पर उसका लक्ष्य समष्टिमूलक हित ही रहा है, उसका चिन्तन लोकहित की हुआ है। भूमिका पर ही अग्रसर पर सामान्यतः जब कभी जैनधर्म के लोक संग्राहक रूप की चर्चा चलती है तब लोग चुप्पी साध लेते हैं । इसका कारण मेरी समझ में शायद यह रहा है कि जैनदर्शन में वैयक्तिक मोक्ष की बात कही गई है । सामूहिक निर्वाण की बात नहीं। पर जब हम जैनदर्शन का सम्पूर्ण सन्दर्भों में अध्ययन करते हैं तो उसके लोक-संग्राहक रूप का मूल उपादान प्राप्त हो जाता है | आचार्य अभि आचार्य प्र श्री आनन्द ग्रन्थ आनंद 九 350 फ्र mypo Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रवास अभि श्री आनन्द ऋ Ammay p ११० अगदी प्रामानन्द आव ग्रन्थ इतिहास और संस्कृति लोकसंग्राहक रूप का सबसे बड़ा प्रमाण है लोक नायकों के जीवन क्रम की पवित्रता, उनके कार्य व्यापारों की परिधि और जीवन-लक्ष्य की व्यापकता जैनधर्म के प्राचीन ग्रंथों में ऐसे कई उल्लेख आते हैं कि राजा धावक धर्म अंगीकार कर अपनी सीमाओं में रहते हुए लोक-कल्याणकारी प्रवृत्तियों का संचालन एवं प्रसारण करता है । पर काल-प्रवाह के साथ उसका चिन्तन बढ़ता चलता है और वह देशविरति श्रावक से सर्वविरति श्रमण बन जाता है। सांसारिक मायामोह, पारिवारिक प्रपंच, देह- आसक्ति आदि से विरत होकर वह सच्चा साधु, तपस्वी और लोक सेवक बन जाता है। इस रूप या स्थिति को अपनाते ही उसकी दृष्टि अत्यन्त व्यापक और उसका हृदय अत्यन्त उदार बन जाता है। लोक-कल्याण में व्यवधान पैदा करने वाले सारे तत्व अब पीछे छूट जाते हैं और वह जिस साधना पथ पर बढ़ता है, उसमें न किसी के प्रति राग है न द्वेष वह सच्चे अर्थों में श्रमण है। अभिनंदन श्रमण के लिए शमन, समन, समण आदि शब्दों का भी प्रयोग होता है। उनके मूल में भी लोकसंग्राहक वृत्ति काम करती रही है। लोक-संग्राहक वृत्ति का धारक सामान्य पुरुष हो ही नहीं सकता। उसे अपनी साधना से विशिष्ट गुणों को प्राप्त करना पड़ता है । क्रोधादि कषायों का शमन करना पड़ता है, पाँच इन्द्रियों और मन को वशवर्ती बनाना पड़ता है, शत्रु-मित्र तथा स्वजन - परिजन की भेद-भावना को दूर हटाकर सबमें समान मन को नियोजित करना पड़ता है । समस्त प्राणियों के प्रति समभाव की धारणा करनी पड़ती है । तभी उसमें सच्चे श्रमणभाव का रूप उभरने लगता है । वह विशिष्ट साधना के कारण तीर्थंकर तक बन जाता है। ये तीर्थंकर तो लोकोपदेशक ही होते हैं । इस महान साधना को जो साध लेता है, वह श्रमण बारह उपमाओं से उपभित किया गया है उरग गिरि जलण सागर महतल तरुगण समायं जो होइ । भमर मिय धरणि जलरुह, रवि पवण समोय सो समणो ॥ · अर्थात् जो सर्प, पर्वत, अग्नि, सागर, आकाश, वृक्षपंक्ति, भ्रमर, मृग, पृथ्वी, कमल, सूर्य और पवन के समान होता है, वह भ्रमण कहलाता है। ये सब उपमायें साभिप्राय दी गई हैं। सर्प की भाँति ये साधु भी अपना कोई घर (बिल) नहीं बनाते । पर्वत की भाँति ये परीषहों और उपसर्गों की आँधी से डोलायमान नहीं होते । अग्नि की भाँति ज्ञान रूपी ईंधन से ये तृप्त नहीं होते। समुद्र की भांति अथाह ज्ञान को प्राप्त कर भी वे तीर्थंकर की मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करते। आकाश की भांति ये स्वाश्रयी, स्वावलम्बी होते हैं, किसी के अवलम्बन पर नहीं टिकते। वृक्ष की भांति समभाव पूर्वक दुख-सुख के तापातप को सहन करते हैं। भ्रमर की भाँति किसी को बिना पीड़ा पहुंचावे शरीर रक्षण के लिए आहार ग्रहण करते हैं। मृग की भाँति पापकारी प्रवृत्तियों के सिंह से दूर रहते हैं। पृथ्वी की भांति शीत, ताप, छंदन, भेदन आदि कष्टों को समभाव पूर्वक सहन करते हैं, कमल की भाँति वासना के कीचड़ और वैभव के जल से अलिप्त रहते हैं । सूर्य की भाँति स्वसाधना एवं लोकोपदेशना के द्वारा अज्ञानान्धकार को नष्ट करते हैं। पवन की भाँति सर्वत्र अप्रतिबद्ध रूप से विचरण करते हैं। ऐसे श्रमणों का वैयक्तिक स्वार्थ हो ही क्या सकता है ? Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म का साँस्कृतिक मूल्यांकन १११ ये श्रमण पूर्ण अहिंसक होते हैं । षट्काय (पृथ्वी-काय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पति काय और त्रसकाय) जीवों की रक्षा करते हैं। न किसी को मारते हैं, न किसी को मारने की प्रेरणा देते हैं और न जो प्राणियों का वध करते हैं उनकी अनुमोदना करते हैं। इनका यह अहिंसा प्रेम अत्यन्त सूक्ष्म और गम्भीर होता है। ये अहिंसा के साथ-साथ सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के भी उपासक होते हैं। किसी की वस्तु बिना पूछे नहीं उठाते । कामिनी और कंचन के सर्वथा त्यागी होते हैं । आवश्यकता से भी कम वस्तुओं की सेवना करते हैं। संग्रह करना तो इन्होंने सीखा ही नहीं। ये मनसा, वाचा, कर्मणा किसी का वध नहीं करते, हथियार उठाकर किसी अत्याचारी-अन्यायी राजा का नाश नहीं करते, लेकिन इससे उनके लोकसंग्रही रूप में कोई कमी नहीं आती। भावना की दृष्टि से तो उसमें और वैशिष्ट्य आता है। ये श्रमण पापियों को नष्ट कर उनको मौत के घाट नहीं उतारते वरन् उन्हें आत्मबोध और उपदेश देकर सही मार्ग पर लाते हैं । ये पापी को मारने में नहीं, उसे सुधारने में विश्वास करते हैं । यही कारण है कि महावीर ने विषदृष्टि सर्प चण्डकौशिक को मारा नहीं वरन् अपने प्राणों को खतरे में डाल कर, उसे उसके आत्मस्वरूप से परिचित कराया । बस फिर क्या था ? वह विष से अमृत बन गया। लोक कल्याण की यह प्रक्रिया अत्यन्त सूक्ष्म और गहरी है । इनका लोक-संग्राहक रूप मानव सम्प्रदाय तक ही सीमित नहीं है । ये मानव के हित के लिए अन्य प्राणियों का बलिदान करना व्यर्थ ही नहीं, धर्म के विरुद्ध समझते हैं । इनकी यह लोक संग्रह की भावना इसीलिए जनतन्त्र से आगे बढ़कर प्राणतन्त्र तक पहुँची है। यदि अयतना से किसी जीव का वध हो जाता है या प्रमादवश किसी को कष्ट पहुँचता है तो ये उन पापों से दूर हटने के लिए प्रातः सायं प्रतिक्रमण (प्रायश्चित) करते हैं । ये नंगे पैर पैदल चलते हैं । गाँव-गाँव और नगर-नगर में विचरण कर सामाजिक चेतना और सुषुप्त पुरुषार्थ को जागृत करते हैं । चातुर्मास के अलावा किसी भी स्थान पर नियत वास नहीं करते । अपने पास केवल इतनी वस्तुएँ रखते हैं जिन्हें ये अपने आप उठाकर भ्रमण कर सकें। भोजन के लिए गृहस्थों के यहाँ से भिक्षा लाते हैं । भिक्षा भी जितनी आवश्यकता होती है उतनी ही । दूसरे समय के लिए भोजन का संचय ये नहीं करते । रात्रि में न पानी पीते हैं न कुछ खाते हैं। इनकी दैनिकचर्या भी बड़ी पवित्र होती है । दिन-रात ये स्वाध्याय मनन-चिन्तन-लेखन और प्रवचन आदि में लगे रहते हैं। सामान्यतः ये प्रतिदिन संसार के प्राणियों को धर्म बोध देकर कल्याण के मार्ग पर अग्रसर करते हैं। इनका समूचा जीवन लोक कल्याण में ही लगा रहता है । इस लोक-सेवा के लिए ये किसी से कुछ नहीं लेते। श्रमण धर्म की यह आचार निष्ठ दैनन्दिनचर्या इस बात का प्रबल प्रमाण है कि वे श्रमण सच्चे अर्थों में लोक-रक्षक और लोकसेवी हैं। यदि आपदकाल में अपनी मर्यादाओं से तनिक भी इधर-उधर होना पड़ता है तो उसके लिए भी ये दण्ड लेते हैं, व्रत-प्रत्याख्यान करते हैं। इतना ही नहीं, जब कभी अपनी साधना में कोई बाधा आती है तो उसकी निवृत्ति के लिए परीषह और उपसर्ग आदि की सेवा करते हैं। मैं नहीं कह सकता इससे अधिक आचरण की पवित्रता, जीवन की निर्मलता और लक्ष्य की सार्वजनता और किस लोकसंग्राहक की होगी ? थप AaramaanindainaindavMAHARAJAMAmanduadcardeendiAAAAAAAmAM.GADADABADAM आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवरआन श्रीआनन्दग्रन्थ श्राआनन्दसन्ध mommahinaraneer mmMayaMaiwomawraxnwwwmein marrmymarws Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MPाचा आचार्मप्रaa3 RAIL प्रवर अनि श्रीआनन्दा ग्रन्थ श्रीआनन्दा अन्य ५० ११२ इतिहास और संस्कृति श्रमण धर्म के लोक संग्राहक रूप पर प्रश्नवाचक चिन्ह इसलिए लगा हुआ है कि उसमें साधना का फल मुक्ति माना जाता है—ऐसी मुक्ति जो वैयक्ति उत्कर्ष की चरम सीमा है। बौद्ध धर्म का निर्वाण भी वैयक्तिक है । बाद में चलकर बौद्ध धर्म की एक शाखा महायान ने सामूहिक निर्वाण की चर्चा की। मेरी मान्यता है कि जैन-दर्शन की वैयक्तिक मुक्ति की कल्पना सामाजिकता की विरोधिनी नहीं है। क्योंकि श्रमण धर्म ने मुक्ति पर किसी का एकाधिकार नहीं माना है। जो अपने आत्म-गुणों का चरम विकास कर सकता है, वह इस परम पद को भी प्राप्त कर सकता है और आत्मगुणों के विकास के लिए समान अवसर दिलाने के लिए जैनधर्म हमेशा संघर्ष शील रहा है। भगवान महावीर ने ईश्वर के रूप को एकाधिकार के क्षत्र से बाहर निकाल कर समस्त प्राणियों की आत्मा में उतारा । आवश्यकता इस बात की है कि प्राणी साधना पथ-पर बढ़ सके । साधना के पथ पर जो बन्धन और बाधा थी, उसे महावीर ने तोड़ गिराया। जिस परम पद की प्राप्ति के लिए वे साधना कर रहे थे, जिस स्थान को उन्होंने अमर सुख का घर और अनन्त आनन्द का आवास माना, उसके द्वार सबके लिए खोल दिये । द्वार ही नहीं खोले, वहाँ तक पहुँचने का रास्ता भी बतलाया। जैन दर्शन में मानव-शरीर और देव शरीर के सम्बन्ध में जो चिन्तन चला है, उससे भी लोकसंग्राहक वृत्ति का पता चलता है। परम शक्ति और परमपद की प्राप्ति के लिए साधना और पुरुषार्थ की जरूरत पड़ती है। यह पुरुषार्थ कर्तव्य की पुकार और बलिदान की भावना मानव को ही प्राप्त है, देव को नहीं। देव-शरीर में वैभव विलास को भोगने की शक्ति तो है पर नये पुण्यों के संचय की ताकत नहीं। देवता जीवन-साधना के पथ पर बढ़ नहीं सकते, केवल उसकी ऊँचाई को स्पर्श कर सकते हैं। कर्मक्षेत्र में बढ़ने की शक्ति तो मानव के पास ही है । इसीलिए जैनधर्म में भाग्यवाद को स्थान नहीं है । वहाँ कर्म की ही प्रधानता है। वैदिक धर्म में जो स्थान स्तुति-प्रार्थना और उपासना को दिया गया है वही स्थान श्रमण धर्म में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र को मिला है। समग्र रूप से यह कहा जा सकता है कि श्रमण धर्म का लोकसंग्राहक रूप स्थल की अपेक्षा सूक्ष्म अधिक है, बाह्य की अपेक्षा, आन्तरिक अधिक है। उसमें देवता बनने के लिए जितनी तड़प नहीं, उतनी तड़प संसार को कषाय आदि पाप कर्मों से मुक्त कराने की है । इस मुक्ति के लिए वैयक्तिक अभिक्रम की उपेक्षा नहीं की जा सकती जो जैन साधना के लोक संग्राहक रूप की नींव है। जैनधर्म-जीवन-सम्पूर्णता का हिमायती: सामान्यत: यह कहा जाता है कि जैनधर्म ने संसार को दुखमूलक बताकर निराशा की भावना फैलाई है, जीवन में संयम और विराग की अधिकता पर बल देकर उसकी अनुराग भावना और कला प्रेम को कुठित किया । पर यह कथन साधार नहीं है, भ्रांतिमूलक है। यह ठीक है कि जैनधर्म ने संसार को दुखमूलक माना, पर किसलिए ? अखण्ड आनन्द की प्राप्ति के लिए, शाश्वत सुख की उपलब्धि के लिए। यदि जैनधर्म संसार को दुखपूर्ण मान कर ही रुक जाता, सुख प्राप्ति की खोज नहीं करता, उसके लिए साधना मार्ग की व्यवस्था नहीं देता तो हम उसे निराशावादी कह सकते थे, पर उसमें तो मानव को Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म का सांस्कृतिक मूल्यांकन ११३ महात्मा बनने की, आत्मा को परमात्मा बनाने की आस्था का बीज छिपा हुआ है । देववाद के नाम पर अपने को अक्षम और निर्बल समझी जाने वाली जनता को किसने आत्म जागृति का सन्देश दिया ? किसने उसके हृदय में छिपे हुए पुरुषार्थ को जगाया ? किसने उसे अपने भाग्य का विधाता बनाया ? जैनधर्म की यह विचारधारा युगों बाद आज भी बुद्धिजीवियों की धरोहर बन रही है, संस्कृति को वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान कर रही है । यह कहना भी कि जैनधर्म निरा निवृत्तिमूलक है, ठीक नहीं है । जीवन के विधान पक्ष को भी उसने महत्व दिया है । इस धर्म के उपदेशक तीर्थंकर लौकिक अलौकिक वैभव के प्रतीक हैं । देहिक दृष्टि से वे अनन्त बल, अनन्त सौन्दर्य और अनन्त पराक्रम के धनी होते हैं । इन्द्रादि मिलकर उनके पंच कल्याणक महोत्सवों का आयोजन करते हैं । उपदेश देने का उनका स्थान ( समवसरण) कलाकृतियों से अलंकृत होता है । जैनधर्म ने जो निवृत्तिमूलक बातें कही हैं, वे केवल उच्छृंखलता और असंयम को रोकने के लिए ही हैं । जैन धर्म की कलात्मक देन अपने आप में महत्वपूर्ण और अलग से अध्ययन की अपेक्षा रखती है । वास्तुकला के क्षेत्र में विशालकाय कलात्मक मन्दिर, मेरुपर्वत की रचना, नन्दीश्वर द्वीप व समवसरण की रचना, मानस्तम्भ, चैत्य, स्तूप आदि उल्लेखनीय हैं। मूर्तिकला में विभिन्न तीर्थंकरों की मूर्तियों को देखा जा सकता है । चित्रकला में भित्तिचित्र, ताड़पत्रीय चित्र, काष्ठचित्र, लिपिचित्र, वस्त्र पर चित्र आश्चर्य में डालने वाले हैं । इस प्रकार निवृत्ति और प्रवृत्ति का समन्वय कर जैन धर्म ने संस्कृति को लचीला बनाया है । उसकी कठोरता को कला की बाँह दी है तो उसकी कोमलता को संयम का आवरण । इसी लिए वह आज भी जीती-जागती है । आधुनिक भारत के नवनिर्माण में योग : आधुनिक भारत के नवनिर्माण की सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और आर्थिक प्रवृत्तियों में जैन धर्मावलम्बियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है । अणुव्रत आन्दोलन इसी चेतना का प्रतीक है । अधिकांश सम्पन्न जैन श्रावक अपनी आय का एक निश्चित भाग लोकोपकारी प्रवृत्तियों में व्यय करने के व्रती रहे हैं । जीवदया, पशुबलि निषेध, स्वधर्मी वात्सल्यफंड, विधवाश्रम, वृद्धाश्रम, जैसी अनेक प्रवृत्तियों के माध्यम से असहाय लोगों को सहायता मिली है। समाज में निम्न और घृणित समझे जाने वाले खटीक जाति के भाइयों में प्रचलित कुव्यसनों को मिटा कर उन्हें सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा देने वाला धर्मपाल प्रवृत्ति का रचनात्मक कार्यक्रम अहिंसक समाज रचना की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है । लौकिक शिक्षण के साथ-साथ नैतिक शिक्षण के लिए देश के विभिन्न क्षेत्रों में कई जैन शिक्षण संस्थायें, स्वाध्याय-शिविर और छात्रावास कार्यरत हैं। निर्धन और मेधावी छात्रों को अपने शिक्षण में सहायता पहुँचाने के लिए व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर बने कई धार्मिक और पारमार्थिक ट्रस्ट हैं, जो छात्रवृत्तियाँ और ऋण देते हैं । जन स्वास्थ्य के सुधार की दिशा में भी जैनियों द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में कई अस्पताल और औषधालय खोले गये हैं, जहाँ रोगियों को निःशुल्क तथा रियायती दरों पर चिकित्सा सुविधा प्रदान की जाती है । आचार्य प्रवर mebensver आदि www.y lo 疯 प्रवरुप अभिनंदन Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gondwa namandASAJANIMAL --MARAirAmAnamJina JABANNAMAAJAJAPADAMODALODANADOData..... आचार्यप्रवर आभाचार्यप्रवभिः आाआनन्दका wamirmwarwINirviewYYYYIMMINMmwwwmIYAviaawar ११४ इतिहास और संस्कृति जैन साधु और साध्वियाँ वर्षाऋतु के चार महिनों में पदयात्रा नहीं करते। वे एक ही स्थान पर ठहरते हैं जिसे चातुर्मास करना कहते हैं। इस काल में जैन लोग तप, त्याग, प्रत्याख्यान, संघ-यात्रा, तीर्थयात्रा, मुनि-दर्शन, उपवास, आयम्बिल, मासखमण, संवत्सरी, क्षमापर्व जैसे विविध उपासना-प्रकारों द्वारा आध्यात्मिक जागति के विविध कार्यक्रम बनाते हैं। इससे व्यक्तिगत जीवन निर्मल स्वस्थ और उदार बनता है, तथा सामाजिक जीवन में बंधुत्व, मैत्री, वात्सल्य जैसे भावों की वृद्धि होती है । अधिकांश जैनधर्मावलम्बी कृषि, वाणिज्य और उद्योग पर निर्भर हैं। देश के विभिन्न क्षेत्रों में ये फैले हुए हैं । बंगाल, बिहार, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, आदि प्रदेशों में इनके बड़े-बड़े उद्योग-प्रतिष्ठान हैं। अपने आर्थिक संगठनों द्वारा इन्होंने राष्ट्रीय उत्पादन तो बढ़ाया ही है, देश के लिए विदेशी मुद्रा अर्जन करने में भी इनकी विशेष भूमिका रही है। जैन संस्कारों के कारण मर्यादा से अधिक आय का उपयोग वे सार्वजनिक स्तर के कल्याण कार्यों में करते रहे हैं। राजनीतिक चेतना के विकास में भी जैनियों का सक्रिय योग रहा है। भामाशाह की परम्परा को निभाते हुए कइयों ने राष्ट्रीय रक्षाकोष में पुष्कल राशि समर्पित की है। स्वतन्त्रता से पूर्व देशी रियासतों में कई जैन श्रावक राज्यों के दीवान और सेनापति जैसे महत्वपूर्ण पदों पर कार्य करते रहे हैं। स्वतन्त्रता संग्राम में क्षेत्रीय आन्दोलनों का नेतृत्व भी उन्होंने संभाला है। अहिंसा, सत्याग्रह, भूमिदान, सम्पत्तिदान, भूमि सीमाबन्दी, आयकर प्रणाली, धर्म निरपेक्षता, जैसे सिद्धान्तों और कार्यक्रमों में जैनदर्शन की भावधारा न्यूनाधिक रूप से प्रेरक कारण रही है। प्राचीन साहित्य के संरक्षक के रूप में जैन धर्म की विशेष भूमिका रही है। जैन साधुओं ने न केवल मौलिक साहित्य की सर्जना की वरन् जीर्णशीर्ण दुर्लभ ग्रन्थों का प्रतिलेखन कर उनकी रक्षा की ओर स्थान-स्थान पर ग्रन्थ भंडारों की स्थापना कर, इस अमूल्य निधि को सुरक्षित रखा। राजस्थान और गुजरात के ज्ञान भंडार इस दृष्टि से राष्ट्र की अमूल्य निधि हैं। महत्वपूर्ण ग्रन्थों के प्रकाशन का कार्य भी जैन शोध संस्थानों ने अब अपने हाथ में लिया है। जैन पत्र-पत्रिकाओं द्वारा भी वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, और राष्ट्रीय जीवन को स्वस्थ और सदाचार युक्त बनाने की दिशा में बड़ी प्रेरणा और शक्ति मिलती रही है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जैन धर्म की दृष्टि राष्ट्र के सर्वांगीण विकास पर रही है। उसने मानव-जीवन की सफलता को ही मुख्य नहीं माना, उसका बल रहा उसकी सार्थकता और आत्म-शुद्धि पर। Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D विद्यामहोदधि डॉ. छगनलाल शास्त्री, काव्यतीर्थ एम० ए० (संस्कृत, हिन्दी, प्राकृत व जैनोलोजी) स्वर्णपदक-समादत, पी-एच०डी० या जैन श्रमणसंघ : विभाजन : पद : योग्यता : दायित्व : कर्तव्य समीक्षात्मक परिशीलन भ० महावीर का श्रमण-संघ भगवान महावीर का श्रमण-संघ बहुत विशाल था। अनुशासन, व्यवस्था, संगठन, संचालन आदि की दष्टि से उसकी अपनी अप्रतिम विशेषताएं थीं। फलत: उत्तरवर्ती समय में भी वह समीचीनतया चलता रहा, आज भी एक सीमा तक चल रहा है। भगवान महावीर के नौ गण थे, जिनका स्थानांग-सूत्र में निम्नाङ्कित रूप में उल्लेख हआ है "समणस्स भगवओ महावीरस्स णव गणा होत्था । तं जहा–१. गोदासगणे, २. उत्तर-बलियस्सयगणे, ३. उद्देहगणे, ४. चारणगणे, ५. उड्ढवाइयगणे, ६. विस्सवाइयगणे, ७. कामिडिढ्यगणे, ८. माणवगणे, ६. कोडियगणे।" इन गणों की स्थापना का मुख्य आधार आगम-वाचना एवं धर्मक्रियानुशीलन की व्यवस्था था। अध्ययन द्वारा ज्ञानार्जन श्रमण-जीवन का अपरिहार्य अंग है। जिन श्रमणों के अध्ययन की व्यवस्था एक साथ रहती थी, वे एक गण में समाविष्ट थे। अध्ययन के अतिरिक्त क्रिया अथवा अन्यान्य व्यवस्थाओं तथा कार्यों में भी उनका साहचर्य एवं ऐक्य था। __गणस्थ श्रमणों के अध्यापन तथा पर्यवेक्षण का कार्य गणधरों पर था। भगवान महावीर के ग्यारह गणधर थे: १. इन्द्रभृति, २. अग्निभूति, ३. वायुभूति, ४. व्यक्त, ५. सुधर्मा, ६. मण्डित, ७. मौर्यपुत्र, ८. अकम्पित, ६. अचलभ्राता, १०. मेतार्य, ११. प्रभास । इन्द्रभूति भगवान महावीर के प्रथम व प्रमुख गणधर थे। वे गौतम गोत्रीय थे, इसलिए आगमवाङमय और जैन परम्परा में वे गौतम के नाम से प्रसिद्ध हैं। प्रथम से सप्तम तक के गणधरों के अनु १. स्थानांग सूत्र ६.२६ COAAJanasaudaramainaniBansaAcaudaaaaaaaaaaachaareeudraAILIAMGaminamasomaaaaaaaAASARABANAAD Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रव vene you फ्र डॉ. फ्र अभिनंदन इमरान व आमदन ST2 श्री ११६ इतिहास और संस्कृति शासन में उनके अपने- अपने गण थे । अष्टम व नवम गणधर का सम्मिलित रूप में एक गण था । इसी प्रकार दशवें तथा ग्यारहवें गणधर का भी एक ही गण था। कहा जाता है कि श्रमण-संख्या कम होने के कारण इन दो-दो गणधरों के गणों को मिलाकर एक-एक किया गया था । अध्यापन, क्रियानुष्ठान की सुविधा व सुव्यवस्था रहे, इस हेतु गण पृथक्-पृथक् थे । वस्तुतः उनमें कोई मौलिक भेद नहीं था । वाचना का भी केवल शाब्दिक भेद था, अर्थ की दृष्टि से वे अभिन्न थीं । क्योंकि भगवान महावीर ने अर्थ रूप में जो तत्व-निरूपण किया, भिन्न-भिन्न गणधरों ने अपने-अपने शब्दों में उसका संकलन या संग्रथन किया, जिसे वे अपने गण के श्रमण समुदाय को सिखाते थे । अतएव गणविशेष की व्यवस्था करने वाले तथा उसे वाचना देने वाले गणधर का निर्वाण हो जाने पर उस गण का पृथक् अस्तित्व नहीं रहता । निर्वाणोन्मुख गणधर अपने निर्वाण से पूर्व दीर्घजीवी गणधर सुधर्मा के गण में उसका विलय कर देते । एक अनुपम विशेषता भगवान महावीर के संघ की यह परम्परा थी कि सभी गणों के श्रमण, जो भिन्न-भिन्न गणधरों के निर्देशन और अनुशासन में थे, प्रमुख पट्टधर के शिष्य माने जाते थे । इस परम्परा के अनुसार सभी श्रमण भगवान महावीर के निर्वाण के अनन्तर सहजतया सुधर्मा के शिष्य माने जाने लगे । यह परम्परा आगे भी चलती रही । भिन्न-भिन्न साधु मुमुक्षुजनों को आवश्यक होने पर दीक्षित तो कर लेते थे, पर परम्परा या व्यवस्था के अनुसार उसे अपने शिष्य रूप में नहीं लेते, दीक्षित व्यक्ति मुख्य पट्टधर का ही शिष्य माना जाता था । यह बड़ी स्वस्थ परम्परा थी । जब तक रही, संघ बहुत सबल एवं सुव्यवस्थित रहा । वस्तुतः धर्म-संघ का मुख्य आधार श्रमण श्रमणी -समुदाय ही है । उनके सम्बन्ध में जितनी अधिक जागरूकता और सावधानी बरती जाती है, संघ उतना ही स्थिर और दृढ़ बनता है । भगवान बुद्ध धर्म देशना भगवान बुद्ध इस ओर कुछ भिन्न दृष्टिकोण लिये हुए थे । जब वे बुद्ध हुए तो पहले पहल किसी को धर्म देशना दीक्षा देने को तैयार न थे । महावग्ग में उनके उद्गार हैं "कुच्छ साधना से — कष्ट से जो धर्म मैंने अधिगत किया है, उसे रागद्वेष में फँसे हुए लोग नहीं समझ पायेंगे । यह धर्मतत्व प्रतिस्रोत-गामी ( लोकप्रवाह के विपरीत चलने वाला), निपुण, गम्भीर, दुश्य और सूक्ष्म है । अंधकारावृत्त एवं राग-रक्त मनुष्य इसे नहीं देख पायेंगे । १ "देवलोक से समागत ब्रह्म सम्पति नामक देव ने भगवान से पुनः विशेष अनुनय-विनय कियावे देवताओं और मनुष्यों के कल्याणार्थ धर्मदेशना दें । तब भगवान बुद्ध ने पहले पहल पाँच मनुष्यों को अपने धर्म में दीक्षित किया । महावग्ग में उन्हें पंचवग्गिय कहा गया है ।"" १. महावग्ग १.५. ७ २. महावग्ग १.५. १० Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन ११७ "तदनन्तर जस आदि अनेक व्यक्तियों को उन्होंने उपसम्पदा दी। जिनमें से विशिष्ट संस्कार सम्पन्न साधक शीघ्र ही अर्हत् हो गये। यों तब भगवान सहित इकसठ अर्हत थे।"3 ___भगवान बुद्ध ने उन्हें धर्म-प्रसार के लिए विहार करने का निर्देश देते हुए कहा-भिक्षओ ! बहुत जनों के हित के लिए, सुख के लिए, लोगों की अनुकम्पा के लिए, देवताओं और मनुष्यों के लाभ, हित और सुख के लिए विहार करो।"४ भिक्षु विहार के लिये निकल पड़े । जन-जन को धर्म का सन्देश दिया। अनेक मनुष्य भिक्षु-जीवन स्वीकार करने को तत्पर हुए। दीक्षित करने का अधिकार भिक्षुओं को नहीं था। वे उन सबके साथ भगवान के पास आए। इतने सारे दीक्षार्थियों को देखकर भगवान मन में वितर्कणा करने लगे। "इतने भिक्ष नाना दिशाओं से, नाना जनपदों से प्रव्रज्यापेक्षी, उपसम्पदापेक्षी लोगों को यह सोचकर कि भगवान इन्हें प्रव्रज्या देंगे, उपसम्पदा देंगे, लाते हैं । इससे भिक्षुओं को तथा प्रव्रज्या व उपसम्पदा चाहने वालों को क्लान्ति होती है। इसलिए अच्छा हो, मैं भिक्षुओं को अनुज्ञा दे दूं-भिक्षुओ अब तुम्हीं उन-उन दिशाओं में, जनपदों में प्रव्रज्या और उपसम्पदा देते रहो ।"५ यों प्रव्रज्या और उपसम्पदा देने का अधिकार जो भगवान बुद्ध के अपने हाथ में था, सब भिक्षुओं को दे दिया गया। ___ आगे चलकर बौद्ध धर्म उत्तरोत्तर प्रचार-प्रधान होता गया। जनपदों व दिशाओं में, भिन्न-भिन्न नगरों तथा प्रान्तों में भिक्षु जाते । दीक्षा देने का प्रतिबन्ध हट गया था । बिना रोक-टोक लोगों को दीक्षित करते । फलतः बौद्ध धर्म फैला तो खूब पर उसमें कुण्ठा व्याप्त होने लगी, नियमों की कठिनता में शैथिल्य आने लगा। प्रान्त-प्रान्त और गाँव-गाँव में उसके भिन्न-भिन्न स्वरूप दष्टिगोचर होने लगे। अधिकार, कर्तव्य, अनुशासन कोई भी अधिनायक या प्रधान अपने-अपने संगठन के समग्र कार्य स्वयं संचालित कर सके, यह सम्भव नहीं होता। अतः अपने अधीनस्थ व्यक्तियों को कुछ एक कार्यों के अधिकार देना आवश्यक होता है । जो अधिकार पाते हैं, उनमें अधिकार-प्राप्ति के साथ ही दृढ़ कर्तव्य-भावना जागनी चाहिए। यदि अधिकार और कर्तव्य समन्वित रूप में या सामंजस्य पूर्वक चलें तो व्यवस्था स्वस्थ बनी रहती है। जहाँ उनका समन्वय टूट जाता है, व्यवस्था दुर्बल हो जाती है। व्यवस्था की दुर्बलता में उच्छृखलता का पनपना स्वाभाविक है । ऐसी स्थिति में अनुशासन सफल सिद्ध नहीं होता। अधिकार का यथार्थ उपयोग और कर्तव्य-बुद्धि जहाँ होती है, वहीं अनुशासन कारगर होता है। इनके मिट जाने पर अनुशासन ओजरहित तथा निष्फल हो जाता है। वस्तुतः अधिकार, कर्तव्य और अनुशासन-इन दोनों का परस्पर अव्यवहित सम्बन्ध है। ३. महावग्ग १. ६. ३१ ४. महावग्म १. १०. ३२ ५. महावग्ग १. ११. ३४ MAAOMMEWALAnand AmandalaseenawinatanAmAAAAADIBABAmale wranammamimammmmmarimmorontroiewtainment MAMMAR Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श Í अभिन आयात अमिन प्रन्थ श्री आनन्द ११८ इतिहास और संस्कृति ऊपर भगवान बुद्ध के धर्म-संघ की जो चर्चा आई है, उससे स्पष्ट है कि अधिकार, कर्तव्य और अनुशासन की भावना मिट जाने पर किसी भी संस्थान, संगठन या धर्म-संघ की स्थिति यथावत् नहीं रह पाती । उत्तरवर्ती जैन श्रमण संघ के इतिवृत्त से भी यह सिद्ध होता है कि ज्यों-ज्यों अधिकार के न्याय तथा सचाई पूर्वक निर्वाह एवं कर्तव्य भावना के लुप्त हो जाने पर अनुशासन शिथिल होता गया । फलतः धर्म-संघ की जो सुदृढ़, समीचीन और उत्तम व्यवस्था पहले थी, वह नहीं रह पाई । गण, कुल, शाखा भगवान महावीर के समय से चलती होता रहा। उनके बाद इस क्रम ने एक नया थी । भगवान महावीर के समय व्यवस्था की यथावत् रूप में नहीं चल पाया। सारे संघ का नेतृत्व तक तो चल सका, आगे सम्भव नहीं रहा । फलतः भिन्न नामों से पृथक्-पृथक् समुदाय निकले, जो 'गण' नाम से अभिहित हुए । आई गुरु-शिष्य परम्परा का आचार्य भद्रबाहु तक निर्वाह मोड़ लिया । तब तक श्रमणों की संख्या बहुत बढ़ चुकी दृष्टि से गणों के रूप में संघ का जो विभाजन था, वह एकमात्र पट्टधर पर होता था, वह भी आर्य जम्बू उत्तरवर्ती काल में संघ में से समय-समय पर भिन्न यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि भगवान महावीर के समय में 'गण' शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त था, आगे चलकर उसका अर्थ परिवर्तित हो गया। भगवान महावीर के आदेशानुवर्ती गण संघ के निरपेक्ष भाग नहीं थे, परस्पर सापेक्ष थे । आचार्य भद्रबाहु के अनन्तर जो 'गण' निकले, वे एक दूसरे से निरपेक्ष हो गये । फलतः दीक्षित श्रमणों के शिष्यत्व का ऐक्य नहीं रहा । जिस समुदाय में वे दीक्षित होते, उस समुदाय या गण के प्रधान के शिष्य कहे जाते । एक उलझन भगवान महावीर के नौ गणों के स्थानांग सूत्र में जो नाम आये हैं, उसमें से एक के अतिरिक्त ठीक वे ही नाम आचार्य भद्रबाहु के अनन्तर भिन्न-भिन्न समय में विभिन्न आचार्यों के नाम से निकलने वाले आठ गणों के मिलते हैं, जो कल्प स्थविरावली के निम्नांकित उद्धरणों से स्पष्ट है "थेरेहितो णं गोदासेहितो कासवगोत्तेहितो एत्य णं गोदासगणं नामं गणं निग्गए । काश्यपगोत्रीय स्थविर गोदास से गोदास गण निकला । ...... येरेहितो णं उत्तरबलिस्सहे हितो तत्थ णं उत्तरबलिस्सहगणं नामं गणं निग्गए । स्थविर उत्तर और बलिस्सह से उत्तरबलिस्सह गण निकला । थेरेहितो णं अज्जरोहणं हितो कासवगोत्तेहितो तत्थ णं उद्देहगणं नामं गणं निग्गए । काश्यप गोत्रीय स्थविर आर्यरोहण से उद्देह गण निकला । थेरेहितो णं सिरिगुत्तहितो हारियसगोत्तेहितो एत्थ णं चारणगणे नामं गणे निग्गए । हारीतगोत्रीय स्थविर श्रीगुप्त से चारण गण निकला । येरेहितो भद्दजसे हितो भारद्दायसगोत्तेहितो एत्थ णं उडवाडिय गणें निग्गए । भारद्वाजगोत्रीय स्थविर भद्रयश से उडवाडिय गण निकला । येहितो णं कामिहितो कुंडिलसगोतहितो एत्थ णं वेसवाडियगणे नामं गणं निग्गए । Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन ११६ कुंडिलगोत्रीय स्थविर काद्धि से वेसवाडिय गण निकला। थेरेहितो ण इसिगहितोणं कावहितो वासिटठसगोत्तेहितो तत्थ णं माणवगणं नामं गणं निग्गए। वशिष्ठगोत्रीय, काकंदीय स्थविर ऋषिगुप्त से माणव गण निकला। थेरेहितो णं सुठ्ठिय सुपडिबुहितो कोडियकाकन्दएहितो वग्धावच्चसगोहितो एत्थ णं कोडियगणं नामंगणं निग्गए। कोटिककाकंदकाभिध व्याघ्रापत्य गोत्रीय स्थविर सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध से कोडिय गण निकला । भगवान महावीर ने नौ गणों में सातवें का नाम 'कामइढिय था। उसको छोड़ देने पर अवशेष नाम ज्यों के त्यों हैं । थोड़ा बहुत जो कहीं-कहीं वर्णात्मक भेद दिखाई देता है, वह केवल भाषात्मक है। अपने समय की जीवित-जनप्रचलित भाषा होने के कारण प्राकृत की ये सामान्य प्रवृत्तियाँ हैं। प्रश्न उपस्थित होता है कि भगवान महावीर के गणों का गोदास गण, बलिस्सहगण आदि के रूप में जो नामकरण हुआ, उसका आधार क्या था ? यदि व्यक्ति-विशेष के नाम के आधार पर गणों के नाम होते तो क्या यह उचित नहीं होता कि उन-उन गणों के व्यवस्थापकों-गणधरों के नाम पर वैसा होता? गणस्थित किन्हीं विशिष्ट साधुओं के नामों के आधार पर ये नाम दिये जाते तो उन विशिष्ट साधुओं के नाम आगम वाङ्मय में, जिसका ग्रथन गणधरों द्वारा हुआ, अवश्य मिलते । पर ऐसा नहीं है । समझ में नहीं आता, फिर ऐसा क्यों हुआ ! विद्वानों के लिए यह चिन्तन का विषय है। ऐसी भी सम्भावना की जा सकती है कि उत्तरवर्ती समय में भिन्न भिन्न श्रमण-स्थविरों के नाम से जो आठ समुदाय या गण चले, उन (गणों) के नाम भगवान् महावीर के गणों के साथ भी जोड़ दिये गये हों। एक गण जो बाकी रहता है, उसका नामकरण स्यात् स्थविर आर्य सुहस्ती के बारह अंतेवासियों में से चौथे कामिइढि नामक श्रमण-श्रेष्ठ के नाम पर कर दिया गया हो, जो अपने समय के सुविख्यात आचार्य थे, जिनसे वेसवाडिय नामक गण निकला था। स्पष्टतया कुछ भी अनुमान नहीं लगाया जा सकता—ऐसा क्यों किया गया। हो सकता है, उत्तरवर्ती गणों पर प्रतिष्ठापन्नता का मुलम्मा चढ़ाने के लिए यह स्थापित करने का उपक्रम रहा हो कि भगवान् महावीर के गण भी इन्हीं नामों से अभिहित होते थे। एक सम्भावना हम और कर सकते हैं-यद्यपि है तो बहुत दूरवर्ती, स्यात् भगवान महावीर के नो गणों में से प्रत्येक में एक-एक ऐसे उकृष्ट साधना-निरत, महातपा, परमज्ञानी, ध्यानयोगी साधक रहे हों, जो जन-सम्पर्क से दूर रहने के नाते बिल्कुल प्रसिद्धि में नहीं आये, पर जिनकी उच्चता और पवित्रता असाधारण तथा स्पृहणीय थी। उनके प्रति श्रद्धा, आदर और बहुमान दिखाने के लिए उन गणों का नामकरण जिन-जिनमें वे थे, उनके नामों से कर दिया गया हो। उत्तरवर्ती समय में संयोग कुछ ऐसे बने हों कि उन्हीं नामों के आचार्य हुए हों, जिनमें अपने नामों के साथ प्राक्तन गणों के नामों का साम्य देखकर अपने-अपने नाम से नये गण प्रवर्तित करने का उत्साह जागा हो। रामबाग hair -:-.. hinar ne.chaineKRA.Asunee aanindranatantammansoorandu आपापभिरापार्यप्रवर अभी श्रीमानन्द श्रीआनन्द wamAAMmma amwwmainraamanamomamarommamimire Minvanya www.jairnelibrary.org Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ navpremierrecaamanandramure १२० इतिहास और संस्कृति ये सब मात्र कल्पनाएँ और सम्भावनाएँ हैं। इस पहल पर और गहराई से चिन्तन और अन्वेषण करना अपेक्षित है। तिलोयपण्णत्ति में गण का वर्णन तिलोयपण्णत्ति में भी गण का उल्लेख हआ है। वहाँ कहा गया है "पुव्वधर सिक्खकोही केवलिवेकूव्वी विउलमदिवादी। पत्तेकं सत्तगणा, सव्वाणं तित्थकत्ताणं ॥" १०६८ सभी तीर्थंकरों में से प्रत्येक के पूर्वधर, शिक्षक, अवधिज्ञानी, केवली, वैक्रियलब्धिधर, विपुलमति और वादी श्रमणों के सात गण होते हैं। भगवान महावीर के सात गणों का वर्णन करते तिलोयपण्णत्तिकार लिखते हैं - तिसयाई पुग्वधरा, णवणउदिसयाई होति सिक्खगणा। तेरससयाणि ओही सत्तसयाई पि केवलिणो ॥११६०॥ इगिसयरहिवसहस्सं, वेकुव्वी पणसयाणि विउलमदी। चत्तारिसया वादी, गणसंखा वड्ढमाणजिणे ॥११६१॥ भगवान महावीर के सात गणों में उन उन विशेषताओं वाले श्रमणों की संख्याएं इस प्रकार थींपूर्वधर तीनसौ, शिक्षक नौ हजार नौ सौ, अवधिज्ञानी एक हजार तीन सौ, केवली सात सौ, वैक्रिय लब्धिधर नौ सौ, विपुलमति पाँच सौ तथा वादी चार सौ। . प्रस्तुत प्रकरण पर विचार करने पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि यद्यपि 'गण' शब्द का प्रयोग यहाँ अवश्य हआ है पर वह संगठनात्मक इकाई का द्योतक नहीं है। इसका केवल इतना-सा आशय है कि भगवान महावीर के शासन में अमुक-अमुक वैशिष्ट्य सम्पन्न श्रमणों के अमुक-अमुक संख्या के समुदाय या समूह थे अर्थात उनके संघ में इन-इन विशेषताओं के इतने श्रमण थे। केवलियों, पूर्वधरों और अवधिज्ञानियों के तथा इसी प्रकार अन्य विशिष्ट गुणधारी श्रमणों के अलग-अलग गण होते, यह कैसे सम्भव था। यदि ऐसा होता तो सभी केवली एक ही गण में होते । वहाँ किसी तरह की तरतमता नहीं रहती । न शिक्षक-शैक्ष भाव रहता और न व्यवस्थात्मक संगति ही । यहाँ गण शब्द मात्र एक सामूहिक संख्या व्यक्त करने के लिए व्यवहृत हुआ है । श्वेताम्बर वाङ्मय में भी इस प्रकार के वैशिष्ट्य-सम्पन्न श्रमणों का उल्लेख हुआ है ।' केवली, अवधिज्ञानी, पूर्वधर और वादी-इनकी दोनों परम्पराओं में एक समान संख्या मानी गई है। वैक्रियलब्धिधर की संख्या में दो सौ का अन्तर है । तिलोयपण्णत्ति में वे दो सौ अधिक माने गये हैं। उक्त विवेचन से बहत साफ है कि तिलोयपण्णत्तिकार ने गण का प्रयोग सामान्यत: प्रचलित अर्थसमूह या समुदाय में किया है। १. केवली सात सौ, मनःपर्यवज्ञानी पाँच सौ, अवधिज्ञानी तेरह सौ, चौदह पूर्वधारी तीन सौ, वादी चार सौ, वैक्रियलब्धिधारी सात सौ, अनुत्तरोपपातिक मुनि आठ सौ। —जैनधर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम खण्ड, पृष्ठ ४७३ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन १२१ शाखाएं गणों के साथ-साथ शाखाओं का भी वर्णन मिलता है, जिनकी चर्चा यहाँ अपेक्षित है। आचार्य भद्रबाहु के शिष्यों में एक का नाम गोदास था। उनसे गोदास नामक गण निकला, ऐसा उल्लेख किया जा चुका है। कल्प-स्थविरावली में ऐसा भी वर्णन है कि गोदास गण से चार शाखाएँ निकलीं, जिनके निम्नांकित नाम थे १. ताम्रलिप्तिका २. कोटिवर्षीया ३. पौण्ड्रवर्धनीया ४. दासीकर्पटिका शाखाओं के इन नामों से प्रकट है कि इनके नामकरण के आधार स्थान-विशेष हैं । प्रतीत होता है कि जिन श्रमणों का जिस स्थान के इर्द-गिर्द अधिक विहार तथा प्रवास होता रहा, उन श्रमणों या उनके दल का उस स्थान से सम्बद्ध नाम पड़ गया । यहाँ उल्लिखित शाखाओं का सम्बन्ध क्रमशः ताम्रलिप्ति, कोटिवर्ष, पौण्ड्रवर्धन तथा दासीकर्पट नामक स्थानों से प्रतीत होता है। ऐसा भी लगता है कि क्षेत्र-विशेष में विशेष प्रवासन पर्यटन के कारण सम्बद्ध गण के अन्य श्रमणों से अधिक सम्पर्क नहीं रह सका । फलतः भिन्न-भिन्न शाखाएँ मूल गण से अपने को सर्वथा विच्छिन्न न मानते हुए भी व्यवस्था, अनुशासन, पठन-पाठन आदि की दृष्टि से पृथक्-सी हो गई हों। जिस प्रकार गोदास गण से उपर्युक्त शाखाएँ निकलीं, उसी प्रकार उत्तरवर्ती समय में प्रतिष्ठित होने वाले अन्यान्य गणों से भी शाखाओं के निकलते रहने का क्रम चालू रहा। MINE श्रमणों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती गई। गणों के रूप में जो इकाइयाँ निष्पन्न हई थीं उनका रूप भी विशाल होता गया। तब स्यात् गण व्यवस्थापकों को वृहत् साधु-समुदाय की व्यवस्था करने में कुछ कठिनाइयों का अनुभव हुआ हो। क्योंकि अनुशासन में बने रहना बहुत बड़ी सहिष्णुता और धैर्य की अपेक्षा रखता है। हर कोई अपने उद्दीप्त अहं का हनन नहीं कर पाता। अनेक ऐसे कारण हो सकते हैं, जिनसे व्यवस्था-क्रम में कुछ और परिवर्तन आया। जो समुदाय गण के नाम से अभिहित होते थे, वे कुलात्मक इकाइयों में विभक्त हुए। इसका मुख्य कारण एक और भी है। जहाँ प्रारम्भ में बिहार और उसके आस-पास के क्षेत्र में जैन धर्म प्रसृत था, उसके स्थान पर उसका प्रसार क्रम तब तक काफी बढ़ चुका था। श्रमण दूर-दूर के क्षेत्रों में बिहार, प्रवास करने लगे थे। जैन श्रमण बाह्य साधनों का मर्यादित उपयोग करते थे, अब भी वैसा है। अतएव यह सम्भव नहीं था कि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में पर्यटन करने वाले मुनिगण का पारस्परिक सम्पर्क बना रहे । दूरवर्ती स्थान से आकर मिल लेना भी सम्भव नहीं था, क्योंकि जैन श्रमण पद-यात्रा करते हैं। ऐसी स्थिति में जो-जो श्रमण-समुदाय विभिन्न स्थानों पर बिहार करते थे, वे दीक्षार्थी मुमुक्षु जनों को स्वयं अपने शिष्य रूप में दीक्षित करने लगे। उनका दीक्षित श्रमण-समुदाय उनका कुल कहलाने भागप्रवर अभिसापायप्रवर अभिनय श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्दान्थ MinomonaMMwaminior Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wamanarrawnaramanumarmaramananeruwataranamamarinaranamasumaasaaranamardanMJAADAABAJabardanasalut NIRUD ONOME e NYM . . . " आचार्यप्रवल अभिमभागावर आमा श्रीआनन्द अन्ध-श्रीआनन्द अन्य Miniwomenimwimmitmarwarmirmiremainer womwww १२२ इतिहास और संस्कृति लगा । यद्यपि ऐसी स्थिति आने से पहले भी स्थविर-श्रमण दीक्षार्थियों को दीक्षित करते थे परन्तु दीक्षित श्रमण मुख्य पट्टधर या आचार्य के ही शिष्य माने जाते थे। परिवर्तित दशा में ऐसा नहीं रहा । दीक्षा देने वाले दीक्षा गुरु और दीक्षित उनके शिष्य-ऐसा सीधा सम्बन्ध स्थापित हो गया। इससे संघीय ऐक्य की परम्परा विच्छिन्न हो गई और कुल के रूप में एक स्वायत इकाई प्रतिष्ठित हो गई। भगवती सूत्र की वृत्ति में आचार्य अभयदेवसूरि एक स्थान पर कुल का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं। "एत्थ कुलं विण्णेयं, एगायरियस्स संतई जाउ । तिण्ह कुलाणमिहं पुण, सावेक्खाणं गणो होई।' (एतत कुलं विजेयम्, एकाचार्यस्य सन्ततिर्यातु । बयाणां कुलानामिह पुनः सापेक्षाणां गणं भवति ।) एक आचार्य की सन्तति या शिष्य-परम्परा को कुल समझना चाहिए। तीन परस्पर सापेक्ष कुलों का एक गण होता है। पंचवस्तुक टीका २ में तीन कुलों के स्थान पर परस्पर-सापेक्ष अनेक कुलों के श्रमणों के समुदाय को गण कहा है। प्रतीत होता है कि उत्तरोत्तर कलों की संख्या बढ़ती गई। छोटे-छोटे समुदायों के रूप में उनका बहुत विस्तार होता गया। यद्यपि कल्पस्थविरावली में जिनका उल्लेख हुआ है, वे बहुत थोड़े से हैं पर जहाँ कुल के श्रमणों की संख्या नौ तक मान ली गई, उससे उक्त तथ्य अनुमेय है। पृथक-पृथक् समुदायों या समूहों के रूप में विभक्त रहने पर भी ये भिन्न-भिन्न गणों से सम्बद्ध रहते थे। एक गण में कम से कम तीन कुलों का होना आवश्यक था। अन्यथा गण की परिभाषा में वह नहीं आता। इसका तात्पर्य यह हुआ कि एक गण में कम से कम तीन कुल अर्थात् तदन्तर्वर्ती कम-से कम सत्ताईस साधु तथा एक उनका अधिनेता, गणपति या आचार्य-कुल अट्ठाईस सदस्यों का होना आवश्यक माना गया। ऐसा होने पर ही गण को प्राप्त अधिकार उसे सुलभ हो सकते थे । यह न्यूनतम संख्या-क्रम है। इससे अधिक चाहे जितनी बड़ी संख्या में श्रमण वन्द उसमें समाविष्ट हो सकते थे। गणों एवं कुलों का पारस्परिक सम्बन्ध, तदाश्रित व्यवस्था आदि का एक समय विशेष तक प्रवर्तन रहा। मुनि ५० श्री कल्याण विजय जी युगप्रधान-शासन-पद्धति के चलने तक गण व कुलमूलक परम्परा के चलते रहने की बात कहते हैं। पर युगप्रधान-शासन-पद्धति यथावत रूप में कब तक चली, उसका संचालनक्रम किस प्रकार का रहा- इत्यादि बातें स्पष्ट रूप में अब तक प्रकाश में नहीं आ सकी हैं । अतः हम काल की इयत्ता में इसे नहीं बांध सकते । इतना ही कह सकते हैं, सघ संचालन या व्यवस्था-निर्वाह के १. भगवती सूत्र, शतक ८, उद्देशक ८ वृत्ति २. परस्परसापेक्षाणामनेककुलानां साधूनां समुदाये । -पंचवस्तुक टीका द्वार १ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन १२३ रूप में यह क्रम चला, जहाँ मुख्य इकाई गण था और उसकी पूरक इकाइयाँ कुल थे। इनमें पारस्परिक समन्वय एवं सामंजस्य था, जिससे संघीय शक्ति विघटित न होकर संगठित बनी रही। MA गच्छ COMPA जैन संघ की उत्तरकालीन संघ-व्यवस्था या श्रमण-संगठन के सन्दर्भ में हम देखते हैं कि आगे चलकर गण और कुल का स्थान गच्छ ले लेते हैं । यद्यपि गच्छ शब्द नये रूप में आविर्भूत नहीं हुआ था, पुरातन परम्परा में यह प्राप्य है, परन्तु जिस अर्थ में पश्चाद्वर्ती काल में इसका प्रयोग होने लगा, वैसा प्रयोग पहले नहीं होता था । सार्वजनीन रूप में व्यवहृत गण शब्द के साथ-साथ गच्छ शब्द का भी कहींकहीं प्रयोग प्राप्त होता है । पर इसका व्यापक प्रचलन नहीं था। जीवानुशासन में एक आचार्य के परिवार को गच्छ कहा गया है । औपपातिक में भी ऐसा ही उल्लेख है। पञ्चाशक में एक आचार्य के अन्तेवासी साध-समुदाय को गच्छ के नाम से अभिहित किया गया है । जीवानुशासन और पञ्चाशक में की गई परिभाषाओं में कोई विशेष अन्तर प्रतीत नहीं होता । बृहत्कल्पभाषा की टीका में गच्छ के विषय में विशेष बातें कही गई हैं, जो इस प्रकार हैं "तिगमाइया गच्छा, सहस्स बत्तीसई उसभेण । त्रिकादयस्त्रिचतुः प्रभृतिपुरुषपरिमाणा गच्छा भवेयः । किमुक्तं भवति? एकस्मिन् गच्छे जघन्यतस्त्रयो जना भवन्ति, गच्छस्य साधुसमुदायरूपत्वात्तस्य च त्रयाणामधस्तादभावादिति । तत ऊर्ध्व ये चतुः पञ्चप्रभृति पुरुषसंख्याका गच्छास्ते मध्यमपरिमाणतः प्रतिपत्तव्यास्तावद्यावदुत्कृष्टं परिमाणं न प्राप्नोति । कि पुनस्तद् ? इति चेदत आह (सहस्स बत्तीसई उसभेणत्ति) द्वात्रिंशत्सहस्राण्येकस्मिन् गच्छे उत्कृष्टं साधूनां परिमाणं, यथा श्रीऋषभस्वामिप्रथमगणधरस्य भगवत ऋषभसेनस्येति ।"१ इस विवेचन के अनुसार गच्छ में कम से कम तीन साधुओं का होना आवश्यक है। उससे अधिक चार-पाँच आदि भी हो सकते हैं । इस प्रकार के गच्छ मध्यम परिमाण के कहे जाते हैं। गच्छान्तर्वर्ती साधओं की अधिकतम संख्या का परिमाण बत्तीस हजार है। टीकाकार ने इस प्रसंग में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ के प्रथम गणधर ऋषभसेन की चर्चा की है और उनके गच्छ को उत्कृष्टतम संख्या के उदाहरण के रूप में उपस्थित किया है। गहराई से सोचने पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि यहाँ प्रयुक्त 'गच्छ' शब्द तीर्थंकर के एक गणधर द्वारा अनुशासित गण के अर्थ में है। आगे जाकर गच्छ बहत प्रचलित हो गया और भिन्न-भिन्न कारणों से भिन्न-भिन्न नामों के गच्छों का प्रचलन हुआ। टीकाकारों ने गच्छ, कुल आदि के विश्लेषण के प्रसंग में गच्छों के समूह को कुल बतलाया है। १. वृहत्कल्पभाष्य प्रथम उद्देशक वृत्ति (मलयगिरि) २. बहूनां गच्छानामेकजातीयानां समूहे । -धर्मसंग्रह सटीक अधिकरण ३ GUARANJABANADA انها تدعما معرفی بما wachidananewAAAAADIMAnaconawanAAJAADAboradAARADAR awammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmunireviemarinivirmware Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ می علمیه و شمال شرقی به علت عل ع معععخعقول نحن فيه فنحن نتعاقد مع الشيخ عمر عفيه عمل عاشر الحلقعقعها لخليقع همان محمد بود را بر ما دیده आचार्यप्रवाट आजिनाचार्यप्रवभि श्रीआनन्दरा श्रीआनन्द ५2 १२४ इतिहास और संस्कृति Nen पर इसका आशय स्पष्ट नहीं होता, क्योंकि कुल स्वयं अपने आपमें एक सीमित समुदाय था, जो गण का भाग था। ऐसी स्थिति में गच्छों का समूह कुल हो, यह कम सम्भव प्रतीत होता है । यदि ऐसा हो तो यह कल रूप सीमित इकाई का और अधिक सीमित भाग होगा। गच्छ का प्रयोग जिस अर्थ में हम पाते हैं, उससे यह तात्पर्य सिद्ध नहीं होता। वहां वह गण जैसे एक समग्र समुदाय का बोधक है। जैन संघ के संगठन के समय-समय पर परिवर्तित होते रूपों का यहाँ दिग्दर्शन मात्र कराया गया है। जैन संघ में पद श्रमण-जीवन का सम्यक्तया निर्वाह, धर्म की प्रभावना, ज्ञान की आराधना, साधना का विकास तथा संगठन व अनुशासन की दृढ़ता आदि के निमित्त जैन संध में निम्नांकित पदों के होने का उल्लेख प्राप्त होता है। १. आचार्य २. उपाध्याय ३. प्रवर्तक ४. स्थविर ५. गणी ६. गणधर ७. गणावच्छेदक। इनमें आचार्य का स्थान सर्वोपरि है। संघ का सर्वतोमुखी विकास, संरक्षण, संवर्धन, अनुशासन आदि का सामूहिक उत्तरदायित्व आचार्य पर होता है। __ जैन वाङमय के अनुशीलन से प्रतीत होता है कि जैन संघ में आचार्य पद का आधार मनोनयन रहा, निर्वाचन नहीं। भगवान महावीर का अपनी प्राक्तन परम्परा के अनुरूप इसी ओर झुकाव था। भगवान महावीर के समसामयिक धर्म-प्रवर्तकों या धर्म-नायकों में महात्मा बुद्ध का संघ उल्लेखनीय था, जिसका बौद्ध साहित्य में विस्तृत विवेचन है। संख्या की दृष्टि से मंखलिपुत्र गौशालक का संघ भी बहुत बड़ा था पर उसके नियमन, अनुशासन, संगठन आदि के सम्बन्ध में कोई प्रामाणिक ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त नहीं है। भगवान महावीर और बुद्ध की संघीय व्यवस्था के सन्दर्भ में तुलनात्मक रूप में विचार किया जाए, यह उपस्थित प्रसंग के स्पष्टीकरण की दृष्टि से उपयोगी होगा। भगवान बुद्ध का भिक्षु-संघ भगवान बुद्ध एक विशाल भिक्षु-संघ के अधिनायक थे । 'ललित विस्तर' में उल्लेख है, श्रावस्ती में भगवान बुद्ध के साथ १२ सहस्र भिक्षु थे। सामञ्जफलसुत्त में भगवान बुद्ध के साथ राजगृह में १२५० भिक्षुओं का होना लिखा है। तात्पर्य यह है, भगवान बुद्ध के जीवन-काल में ही उनका भिक्षुसंघ बहुत वृद्धिगत हो चुका था। भगवान बुद्ध प्रजातान्त्रिक संघ-व्यवस्था में विश्वास करते थे। यही कारण है, उन्होंने न कोई अपना उत्तराधिकारी निश्चित किया और न धर्म-शासन के लिए कोई पद-व्यवस्था ही की। उन्होंने अधिशासन, संचालन एवं अधिकार-सत्ता का अधिष्ठान विनय एवं धम्म को माना। १. (क) स्थानांग सूत्र ४, ३, ३२३ वृत्ति (ख) बृहत्कल्प सूत्र ४ था उद्देशक Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन १२५ भगवान महावीर की संघीय शासन-व्यवस्था से भगवान बुद्ध की व्यवस्था में अन्तर था। महावीर वैयक्तिक अधिकार में विश्वास करते थे। अधिकारी, योग्य व्यक्ति के संचालकत्व एवं अधिनायकत्व में उन्हें संघ का चिरहित दीखता था । उन द्वारा की गई पद-व्यवस्था से यह अनुमेय है । बुद्ध ने अपने संघ में वैयक्तिक नेतृत्व, अधिकार या वैशिष्ट्य को स्थान नहीं दिया। एक बार गोपक मोग्गलान ने आनन्द से पूछा-"भद्र आनन्द ! क्या कोई ऐसा भिक्षु है, जिसे तथागत ने यह कहते हुए कि मेरे निर्वाण के अनन्तर यह तुम लोगों का सहारा होगा, इसका तुम अवलम्बन लोगे, मनोनीत किया? __ आनन्द का उत्तर था-"कोई ऐसा श्रमण या ब्राह्मण (भिक्षु) नहीं है, जिसे पूर्णत्व प्राप्त, स्वयं बोधित भगवान ने यह कहते हुए कि मेरे निर्वाण के अनन्तर यह तुम लोगों का सहारा होगा, जिसका अवलम्बन हम लोग ले सकें, मनोनीत किया।" गोपक मोग्गलान ने पूनः पूछा-"पर क्या आनन्द ! ऐसा कोई भिक्ष है, जिसे संघ ने स्वीकार किया हो और अनेक वृद्ध भिक्षुओं द्वारा जिसके सम्बन्ध में यह कहते हुए व्यक्त किया गया हो कि तथागत के निर्वाण के अनन्तर यह हमारा सहारा होगा, जिसका तुम अवलम्बन ले सकते हो।" आनन्द ने कहा-"ऐसा कोई भी श्रमण ब्राह्मण नहीं है, जिसे संघ ने माना हो......"और जिसका अब हम अवलम्बन ले सकते हैं।" इस वार्तालाप से स्पष्ट है, भगवान बुद्ध ने अपने पश्चात् किसी को भी संघ-संचालन का भार वहन करने के लिए मनोनीत नहीं किया और न संघ ने तथा स्थविर भिक्षओं ने ही ऐसा किया। धम्मसेनापति, धम्मधर, विनयधर बौद्ध वाङमय में "धम्म सेनापति", "धम्मधर" और "विनय-धर" ये पदसूचक शब्द प्राप्त होते हैं । वस्तुतः ये भिक्षु-संघ के शासन से सम्बद्ध नहीं हैं। ये धर्म और विनय सम्बन्धी वैयक्तिक योग्यता पर आधृत हैं।। धर्म के ज्ञाता को धम्मधर कहा जाता था। भगवान बुद्ध के निकटतम अन्तेवासी आनन्द के लिये यह विशेषण प्रयुक्त मिलता है । आनन्द को भगवान बुद्ध के सान्निध्य में सबसे अधिक रहने का अवसर मिला था। (उन्होंने भगवान बुद्ध द्वारा निरूपित धर्म-सिद्धान्तों का कथन भी किया था)। "धम्म-सेनापति" धर्म-तत्त्व की अत्यधिक अभिज्ञता पर आधृत है । सारिपुत्र एवं मोग्गलान इस कोटि में लिये गये हैं। भगवान बुद्ध के जीवन काल में भी उन्होंने यदा-कदा धर्मोपदेश किया, जिसे भगवान बुद्ध ने समर्थन दिया था। विनयधर उसे कहा जाता था, जो विनय भिक्षु-आचार के सिद्धान्तों का विशेष ज्ञाता होता था। उपालि का विनयधर के रूप में उल्लेख हुआ है। १. द मिडिल लेंथ सेइंग वाल्यूम ३, पृ० ५६-६० Mariam-DArunintentionar-JAMAJdindain.LAaummaNCONOD -RAMM orerwara Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रवल अभिनंदन आनन्द आर्यप्रति आमन १२६ इतिहास और संस्कृति लिच्छवि गणतन्त्र का प्रभाव भगवान बुद्ध के भिक्षु संघ की व्यवस्था लिच्छवि गणतन्त्र से थोड़े से परिवर्तन के साथ बहुत अशों में मिलती-जुलती थी । सम्भव लिच्छवि शासन-परम्परा से बुद्ध ने इसे ग्रहण किया हो । स्वयं लिच्छवि राजकुमार होने से भगवान महावीर एक वंशीयता के नाते लिच्छवियों के अधिक निकट थे, पर पालिपिटकों से प्रकट है, लिच्छवियों का बुद्ध की ओर कहीं अधिक झुकाव था । डा० भगवतशरण उपाध्याय ने भारत के प्राचीन गणराज्यों का वर्णन करते हुए लिच्छवियों के सम्बन्ध में लिखा है " लिच्छवि अपने संघ की बैठकों के लिए प्रसिद्ध थे । उनकी बैठकों में शासन के कार्य अत्यन्त सुचारु रूप और एकता से सम्पन्न होते थे । गौतम बुद्ध ने उनको बहुत सराहा था ।" " लिच्छवियों के बुद्ध की ओर विशेष झुकाव का कारण बुद्ध के भिक्षु संघ की प्रजातान्त्रिक व्यवस्था का होना प्रतीत होता है । लिच्छवि अपनी जनतान्त्रिक परम्परा के कारण शासक-शासित का भेद जहाँ न हो, उधर विशेष आकृष्ट रहे, यह सहज था । अधिकारी और अधिकृत बड़े और छोटे का भेद सह सकने के लिच्छवि अभ्यस्त नहीं थे । बुद्ध की संघ व्यवस्था यदि एकतान्त्रिकता या व्यक्तिनिष्ठ अधिकारसत्ता की ओर झुकी होती तो यह कम सम्भव था, वे बुद्ध की ओर आकृष्ट रहते । लिच्छवियों की इस मनोवृत्ति का परिचय वज्जिपुत्तक- भिक्खु, जो लिच्छवि वंश के थे, के उस कदम से मिलता है, जो उन्होंने द्वितीय बौद्ध संगीति के अवसर पर उठाया था । ज्यों ही उन्हें लगा, भिक्षु संघ में बड़े छोटे का भेद उत्पन्न हो रहा है, उनके स्वतंत्र अस्तित्व पर इतर आधिपत्य छा जाना चाहता है, वज्जिपुत्तक भिक्षु संघ से पृथक् हो गये और उन्होंने स्वतन्त्र रूप से वज्जिपुत्तक संघ का प्रवर्तन किया । महावीर भी यद्यपि प्रजातान्त्रिक परम्परा से आए थे पर उन्हें नहीं लगा, श्रमण संघ प्रजातान्त्रिक पद्धति के अनुसार चिरकाल तक अपना यथावत् अस्तित्व लिये निर्द्वन्द्व रूप में चल सकेगा । इस व्यवस्था में उन्हें धर्म-संघ का चिर जीवन नहीं दीखता था। भविष्य ने कुछ बताया भी वैसा ही । जैन श्रमण संघ आज सहस्राव्दियां बीतने को आई, बहुत अंशों में अक्षुण्ण रहा, बौद्ध भिक्षु संघ बुद्ध के थोड़े ही समय बाद विश् खल होने लगा । भगवान बुद्ध से सम्राट अशोक तक आते-आते वह अनेक खण्डों में बंट गया । विचार- प्रसार की दृष्टि से केवल भारत ही नहीं, समुद्र पार के देशों तक पहुँचकर उसने असाधारण सफलता प्राप्त की पर उसकी मौलिकता स्थिर नहीं रही । तब से अब तक का इतिहास साक्षी है, जहाँ एकतंत्री शासक खरा, ईमानदार और सेवाशील रहा, वहाँ राष्ट्र, समाज और धर्म ने चतुर्दिक उन्नति की । अति प्रजातान्त्रिकता में परिवर्तन पर परिवर्तन आये, शासन जम नहीं पाया । विषाक्त प्रतिस्पर्धा भी वहां शान्ति का सांस नहीं लेने देती । धर्मक्षेत्र में यह फब सके, क्या यह सम्भव है । १. प्राचीन भारत का इतिहास, पृष्ठ ६८ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन १२७ S संघीय पद : एक विश्लेषण आचार्य के अतिरिक्त जो अन्य पद निर्धारित थे, उनका लक्ष्य आचार्य के कार्य में सहयोग करना था, जिससे संघ के साधु-साध्वियों का अध्ययन, उनके चातुर्मास, विहार, शेषकालिक प्रवास, वस्त्र-पात्र प्रभृत्ति आपेक्षित उपकरणों की व्यवस्था--यह सब समीचीन रूप में सध सके । जैन साहित्य के आधार पर इन पदों के उत्तरदायित्व, कर्तव्य आदि के सम्बन्ध में कुछ विस्तार से लिखना उपयोगी होगा। पदों के कर्तव्य-निर्धारण में स्वस्थ तथा विकसित संघीय जीवन के उन्नयन की कितनी सूक्ष्म दृष्टि थी, इससे यह स्पष्ट होगा । आचार्य संघ की सब प्रकार की देखभाल का मुख्य उत्तरदायित्व आचार्य पर रहता है । संघ में उनका आदेश अन्तिम और सर्वमान्य होता है । "आचार्य सूत्रार्थ के वेत्ता होते हैं। वे उच्च लक्षण युक्त होते हैं । वे गण के लिए मेढिभूत-स्तम्भ रूप होते हैं । वे गण के ताप से मुक्त होते हैं-उनके निर्देशन में चलता गण सन्ताप-रहित होता है, वे अन्तेवासियों को आगमों की अर्थ-वाचना देते हैं-उन्हें आगमों का रहस्य समझाते हैं।' "आचार्य ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप-आचार तथा वीर्याचार का स्वयं परिपालन करते हैं, इनका प्रकाश-प्रसार करते हैं, उपदेश करते हैं, दूसरे शब्दों में वे स्वयं आचार का पालन करते हैं तथा अन्तेवासियों से वैसा करवाते हैं, अतएव आचार्य कहे जाते हैं ।"२ और भी कहा गया है आचिनोति च शास्त्रार्थमाचारे स्थापयत्यपि । स्वयमाचरते यस्मादाचार्यस्तैन कथ्यते ।। अर्थात् जो शास्त्रों के अर्थ का आचयन-संचयन-संग्रहण करते हैं, स्वयं आचार का पालन करते हैं, दूसरों को आचार में स्थापित करते हैं। इन कारणों से वे आचार्य कहे जाते हैं। आचार्य की आठ सम्पदाएँ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र में आचार्य की विशेषताओं का विस्तार से वर्णन किया गया है। वहाँ आचार्य की आठ सम्पदाएँ बतलाई गई हैं, जो निम्नांकित हैं। KE १. सुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो, गच्छस्स मेढ़िभूओ य । गणतत्तिविप्पमुक्को, अत्थं वाएइ आयरिओ। -भगवती सूत्र १.१.१ मंगलाचरण (वृत्ति) २. पंचविहं आयारं, आयरमाणा तहा पयासंता। आचारं दसता, आयरिया तेण वुच्चंति ।। --भगवती सूत्र १, १, १ मंगलाचरण (वृत्ति) ३. दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, अध्ययन ४, सूत्र १ ' karanammana.c om WwwAIMIMAmraemon Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IPL आन्दन आगामप्रवभिआनन्द आनन्द अन्य129 १२८ इतिहास और संस्कृति १. आचार-सम्पदा २. श्रुत-सम्पदा ३. शरीर-सम्पदा ४. वचन-सम्पदा ५. वाचना-सम्पदा ६. मति-सम्पदा ७. प्रयोग-सम्पदा तथा ८. संग्रह-सम्पदा। आचार सम्पदा जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, आचार-प्रवणता आचार्य का मुख्य गुण है। आचार्य शब्द प्रायः इसी आधार पर निष्पन्न हुआ है। आचार-सम्पदा में इसी आचार-पक्ष का विश्लेषण है, जिसके चार भेद' कहे गये हैं। (१) संयम-ध्रुवयोग युक्तता.-संयम के साथ आत्मा का ध्रव या अविचल सम्बन्ध संयम-ध्रवयोग कहा जाता है। आचार्य संयम ध्र वयोगी होते हैं। वे अपनी संयम-साधना में सदा अडिग रहते हैं । (२) असंप्रगृहीतात्मता-जिसे जाति, पद, तप, वैदुष्य आदि का मद या अहंकार होता है, उसे संप्रगृहीतात्मा कहा जाता है । आचार्य निरहंकार होते हैं। जो गरिमाएँ उन्हें प्राप्त हैं, उनका जरा भी मद उन्हें नहीं होता । फलतः वे क्रोध, मानसिक उत्ताप आदि से मुक्त होते हैं। अतः वे असंप्रगृहीतात्मा कहे जाते हैं । अर्थात् उनकी आत्मा अहंकार, मद एवं क्रोध आदि से जकड़ी नहीं रहती। (३) अनियतवृत्तिता-जिनका आहार, विहार नियत या प्रतिबद्ध होता है, उनसे विशुद्ध आचारमय जीवन भली-भाँति सध नहीं पाता। अनेक प्रकार की औ शिकता का जुड़ना वहाँ सम्भावित होता है, जो निर्दोष संयम-पालन में बाधक है । अतः आचार्य अनियतवृत्ति होते हैं। शास्त्रीय आचार-परम्परा के अनुरूप उनका आचार अप्रतिबद्ध होता है। (४) वृद्धशीलता-युवा और चिरदीक्षित न होने पर भी आचार्य में वयोवृद्ध और दीक्षा-मर्यादा में ज्येष्ठ श्रमणों जैसा शील, संयम, नियम, चारित्र आदि पालने की विशेषता होती है । अतः वे वृद्धशील कहे जाते हैं। वृद्धशील का आशय यों भी हो सकता है-वृद्ध या रोग आदि के कारण जो वृद्ध की ज्यों अशक्त हो गये हैं, उन श्रमणों की सेवा या सुव्यबस्था में आचार्य सदा जागरूक रहते हैं । श्रुत-सम्पदा श्रुता सम्पदा का भी चार प्रकार से विवेचन किया गया है(१) बहुश्रुतता (३) परिचितश्रुतता (२) विचित्र-श्रुतता (४) घोषविशुद्धिकारकता बहुश्रुतता-आचार्य बहुश्रुत होते हैं । वे अपने समय में उपलब्ध आगम सम्यक्तया जानते हैं। अपने समय-सिद्धान्त या शास्त्रों के अतिरिक्त परसमय-अन्य शास्त्रों के भी वेत्ता होते हैं । यों उनका श्रतशास्त्रीय ज्ञान बहत विस्तीर्ण और व्यापक होता है । १. दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, अध्ययन ४, सूत्र २ २. दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, अध्ययन ४, सूत्र ३ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन १२६ IU विचित्र-श्रुतता-आचार्य बहुश्रुत के साथ विचित्रश्रुत भी होते हैं। उन द्वारा अधिकृत श्रुत अनेक विचित्रताएँ या विभिन्नताएँ लिए होता है । आचार्य को जीव, मोक्ष आदि विषयों का निरूपण करने वाले विविध आगमों का अन्तःस्पर्शी ज्ञान होता है । वे उत्सर्ग, अपवाद आदि विभिन्न पक्षों को विशद रूप से जानते हैं । जिस प्रकार अपने सिद्धान्तों का अंग-प्रत्यंग उन्हें अधिगत होता है, उसी प्रकार अन्य दर्शनों के सिद्धान्तों का भी उन्हें तलस्पर्शी बोध होता है। परिचित-श्रुतता-आचार्य आगमों के रहस्य विद्-मर्मज्ञ होते हैं । वे सूत्र और अर्थ दोनों को भलीभांति आत्मसात् किये हुए होते हैं। उनमें क्रम से--आदि से अन्त तक और उत्क्रम से-अन्त से आदि तक धारा-प्रवाह रूप में सूत्र-वाचन की क्षमता होती है । संक्षेप में आशय यह है कि आगमों का उन्हें चिर-परिचय, सूक्ष्म-परिचय और सम्यक्-परिचय होता है। घोषविशुद्धिकारकता-घोष का अर्थ शब्द या ध्वनि है । आचार्य का शास्त्रोच्चारण अत्यन्त शुद्ध होता है। उदात्त, अनुदात्त, हस्व, दीर्घ प्रमुख उच्चारण-सन्दर्भ सभी दृष्टियों से उनकी ध्वनि अत्यन्त निर्दोष होती है । इस विशेषता का एक आशय और है-अपने आप में अलंकृत, सत्य, प्रिय, हित, परिमित तथा प्रसंगानुरूप होना शब्द की सुषमा है । अलंकृतता, असत्यता, अप्रियता, अहितता, अपरिमितता तथा अप्रासंगिकता शब्द के दोष हैं। इनके वर्जन से घोष या शब्द विशुद्ध कहा जाता है। आचार्य की यह सहज विशेषता होती है। वे सुन्दर, सत्य, प्रिय, हित, परिमित और प्रसंगानुरूप शब्द बोलते हैं। श्रुत सम्पदा के अन्तर्गत यह उनका शब्दसौष्ठव है। शरीर-सम्पदा शरीर-सम्पदा या शारीरिक सुष्ठता भी चार' प्रकार की मानी गई है(१) आरोह-परिणाह-सम्पन्नता (२) अनवत्राप्यशरीरता (३) स्थिरसंहननता (४) बहुप्रतिपूर्णेन्द्रियता (१) आरोह-परिणाह-सम्पन्नता–देह की समुचित लम्बाई और चौड़ाई को आरोह-परिणाह कहा जाता है। अपने पुण्योदय के कारण आचार्य के देह की यह विशेषता होती है। (२) अनवत्राप्यशरीरता-अवत्राप्य का अर्थ लज्जायोग्य है । जो शरीर कुरूप, अंगहीन, घणोत्पादक तथा उपहासजनक होता है, वह अवत्राप्यशरीर कहलाता है, जो हीन व्यक्तित्व का द्योतक है। आचार्य का शरीर इस प्रकार का नहीं होना चाहिए । वह सुरूप, सांगोपांग, सुन्दर तथा आकर्षक होना चाहिए। (३) स्थिरसंहननता--आचार्य का दैहिक संहनन --शारीरिक गठन सुदृढ़ होना चाहिए। आचार्य पर जो संघ का बहत बड़ा उत्तरदायित्व होता है, उसके निर्वाह के लिए उनके सुदृढ़, स्थिर और सशक्त देह का होना भी आवश्यक है । ताकि अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में अनाकुल भाव से वर्तन किया जा सके। (४) बहुप्रतिपूर्णेन्द्रियता-नेत्र, श्रोत्र, घ्राण आदि इन्द्रियों का सर्वथा निर्दोष, अपने अपने विषयों १ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, अध्ययन ४, सूत्र ४ SARAIJARAadiamadnamasuaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaadMAJASGAasanaMIAAAAAGRAM आप्रवर अभिसापार्यप्रवर अभि श्रीआनन्द श्रीआनन्द अन्य Amarwa Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ خلع ملاعلي فخ تحقرعر عرعر عرعر عرعر عرب غیراشباع مع الهميععععهعنهعنحيفيفه عن نافع عند ... با ما را به فرم مع مزمند مي زفة 5NiY आचार्यप्रवर अभियानानन्दन श्रीआनन्दान् श्रीआनन्द अन्य -- - meaninainamainww.marriamr ro १३० इतिहास और संस्कृति . के ग्रहण में सक्षम होना बहप्रतिपूर्णेन्द्रियता कहा जाता है। आचार्य में इसका होना अपेक्षित है। सर्वेन्द्रियपरिपूर्णता में जहाँ देह की प्रभावकता फलित होती है, वहाँ उससे व्यक्ति की गम्भीरता भी प्रकट होती है । आचार्य में ऐसा होना चाहिए । वचन-सम्पदा वचन-सम्पदा चार' प्रकार की कही गई है(१) आदेयवचनता (२) मधुरवचनता (३) अनिश्रितवचनता (४) असन्दिग्धवचनता (१) आदेयवचनता-जो वचन ग्रहण करने योग्य होता है, वह आदेय वचन कहा जाता है । ग्रहण करने योग्य वही वचन होता है, जिसमें उपयोगिता तथा श्रद्धेयता हो । आचार्य में आदेयवचनता की विशेषता होनी चाहिए, जिससे श्रोतृगण उनके वचनों की ओर सहजतया आकृष्ट हों, लाभान्वित हों। (२) मधुरवचनता-हितकरता और उपादेयता के साथ यदि वचन में मधुरता भी हो तो वह सोने में सुगन्ध जैसी बात है। लौकिक जन सहज ही माधुर्य और प्रेयस् की ओर अधिक आकृष्ट रहते हैं। यदि उत्तम बात भी अमधुर या कठोर वचन द्वारा प्रकट की जाय तो सुनने वाला उससे झिझकता है महान् कवि और नीतिविद भारवि ने इसीलिए कहा था-हितं मनोहारिच दुर्लभं वचः अर्थात् ऐसा वचन दुर्लभ है, जो हितकर होने के साथ मनोहर भी हो । आचार्य में ऐसा होना सर्वथा वांछनीय है। इससे उनके आदेय वचनों की ग्राह्यता बहत अधिक बढ़ जाती है। (३) अनिश्रितवचनता-जो वचन राग, द्वेष या किसी पक्ष विशेष के आग्रह पर टिका होता है, वह निश्रित वचन कहा जाता है । वैसा वचन न वक्ता के अपने हित के लिए है और उससे श्रोतागण को ही कुछ लाभ हो सकता है । आचार्य निश्रितवचन-प्रयोक्ता नहीं होते। वे अनिश्रित वचन बोलते हैं, जिससे सर्वसाधारण का हित हो सकता है, जिसे सब आदरपूर्वक अंगीकार करते हैं। (४) असन्दिग्धवचनता-स्फुटवचनता, तथ्य का साधक और अतथ्य का बाधक जो न हो, वैसा ज्ञान सन्देह कहलाता है। जो वचन उससे लिप्त है, वह सन्दिग्ध या अस्फुट है । आचार्य सन्दिग्ध अस्फूट या अस्पष्ट वचन का प्रयोग नहीं करते। वैसा करने से उपासकों की श्रद्धा घटती है। उनका किसी भी प्रकार से हित नहीं सधता । क्योंकि वचन के सन्देहयुक्त होने के कारण वे उधर आकृष्ट नहीं होते, फलतः आचार्य चाहे व्यक्त न सही, अव्यक्त रूप में उपेक्षणीय हो जाते हैं । वाचना-सम्पदा वाचना-सम्पदा के निम्नांकित चार भेद हैं(१) विदित्वो शिता (२) विदित्वा वाचिता (३) परिनिर्वाप्य वाचिता (४) अर्थनिर्यापकता १. दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, अध्ययन ४, सूत्र ५ २. दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, अध्ययन ४, सूत्र ६ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन १३१ --+ THEIR (ग विदित्वोद्देशिता-पहले उल्लेख किया गया है कि आचार्य अन्तेवासियों को श्रुत की अर्थ-वाचना देते हैं । वाचना-सम्पदा में इसी सन्दर्भ में कतिपय महत्वपूर्ण विशेषताएँ बतलाई गई हैं। उनमें पहली विदित्वा शिता है । इसका सम्बन्ध अध्येता या वाचना लेने वाले अन्तेवासी से है । अध्येता का विकास किस कोटि का है, उसकी ग्राहक शक्ति कैसी है, किस आगम में उसका प्रवेश सम्यक् है, इत्यादि पहलुओं को दृष्टि में रखकर आचार्य अन्तेवासी को पढ़ाने का निश्चय करते हैं । इसका आशय यह है कि अध्येता की क्षमता को आँकने की आचार्य में विशेष सूझबूझ होती है। विदित्वा वाचिता-उक्त रूप में अन्तेवासी की योग्यता तथा धारणा शक्ति को आँक कर उसे प्रमाण, नय, हेतु, दृष्टान्त तथा युक्तिपूर्वक अर्थ-वाचना देना विदित्वा वाचिता है। परिनिर्वाप्य वाचिता-अन्तेवासी अध्यापित विषयों को असन्दिग्ध रूप से हृदयंगम कर सका है, उसकी स्मति में वे स्थिर हो चुके हैं, यह जानकर उसे वाचना देना परिनिर्वाप्य वाचिता है। अध्यापयिता को ऐसा करना आवश्यक है क्योंकि यदि पूर्व अध्यापित विषय अध्येता को यथावत् रूप में तैयार नहीं हो सके हों और उस ओर ध्यान दिये बिना आगे से आगे पढ़ाते जाना अध्येता के लिए लाभजनक नहीं होता है। यों अध्यापयिता को वृथा श्रम होता है। उसका अभीप्सित फल नहीं होता। अर्थनिर्यापकता-सूत्र-अध्यापयिता के लिए आवश्यक है कि सूत्र-निरूपित जीव, अजीव, आस्रव, सम्वर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष, प्रभति विषयों का उसे पूर्वापर-संगति सहित असन्दिग्ध-निर्णायक बोध हो । उत्सर्ग, अपवाद आदि का रहस्य उसे सम्यक् परिज्ञात हो अनेकान्तवादी दृष्टिकोण से ये समस्त विषय उस द्वारा आत्मसात् किये हुए हों । यह विषय का निर्यापन है। आचार्य में ऐसा अध्ययन-अनुशीलन होना अपेक्षित है। अपने इस प्रकार के अध्ययन-क्रम द्वारा अन्तेवासियों को अर्थ का अवबोध कराना अर्थनिर्यापकता है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जहाँ किसी कारणवश उपाध्याय के पद की व्यवस्था नहीं होती या सूत्र-वाचना का कार्य नहीं चलता, वहाँ आचार्य सूत्र-वाचना भी देते हैं । वे सूत्र और अर्थ दोनों की वाचना देने के कारण दोनों पदों का उत्तरदायित्व वहन करते हैं। भगवती वृत्ति तथा व्यवहार भाष्य आदि में ऐसे उल्लेख प्राप्त हैं। इतना ही नहीं, आवश्यक होने पर आचार्य अन्य पदों का भार भी स्वयं ले सकते हैं । वस्तुतः वे सर्वाधिकारी होते हैं। मति-सम्पदा मन का पदार्थ विषयक निर्णायक व्यापार मति है। मति-सम्पदा का अर्थ बुद्धि-वैशिष्ट्य है। (VAR 2-2/ १ आचार्येण सहोपाध्याय-आचार्योपाध्यायः, सविसयंसि त्ति स्वविषयेऽर्थदान-सूत्रदानलक्षणे गणं त्ति शिष्यवर्गम्, अगिलाए त्ति अखेदेन संगृह्णन्-स्वीकुर्वन्-उपसृम्भयन् -भगवती शतक ५, उद्देशक ६, प्रश्न ११ (वृत्ति) POmanitaramaniaNAMDARASADNAMBAnacotcamBAADAMsamiAAAAAAaranandsamanari AGRAAJAAAAAAAJTA आचार्यप्रवआभापार्यप्रवटभि श्राआनन्दगन्थश्राआनन्दा अन्य womenmovi M witwarivanmove Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रदर श्री आनन्द ॐ. १३२ उपयाय प्रवद अभिनंदन श्री ग्रन्थ इतिहास और संस्कृति मति सम्पदा के चार भेद हैं (१) अवग्रह - मति-सम्पदा (३) अवाय मति सम्पदा (२) ईहा-मति सम्पदा (४) धारणा-मति सम्पदा क्रम के ये चार सोपान हैं। सबसे पहले अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-मति ज्ञान के परिणति ज्यों ही इन्द्रिय किसी पदार्थ का साक्षात्कार करती है, तब उस (पदार्थ) का अति सामान्य ज्ञान होता है। अवग्रहमति सम्पदा - सामान्य का तात्पर्य उस बोध से है, जहाँ पदार्थ के स्वरूप नाम, जाति आदि की कल्पना नहीं रहती, वे अनिर्दिष्ट रहते हैं वह मनःस्थिति अवग्रह कही जाती है। अवग्रह को प्रशस्त क्षमता का होना अवग्रह-सम्पदा है। आचार्य में सहज ही यह विशेषता होती है। ईहा-मति सम्पदा अवग्रह में ज्ञेय पदार्थ विषयक अस्पष्ट मनःस्थिति रहती है तब निश्चयोन्मुख जिज्ञासा का स्पन्दन होता है। मन तदनुरूप चेष्टोन्मुख बनता है। अवग्रह द्वारा गृहीत स्वरूपादि के वैश से रहित अति सामान्य ज्ञान के पश्चात् विशेष ज्ञान की ओर ईहा -- मननात्मक चेष्टा ज्ञान की निर्णीत स्थिति की ओर बढ़ते क्रम का रूप है। ऐसी उदात्त स्फुरणा का होना ईहा सम्पदा कहा जाता है। आचार्य उत्कृष्ट ईहा मति-सम्पदा से युक्त होते हैं । अवाय मति सम्पदा ईहा का उत्तरवर्ती क्रम अवाय है। ईहा चेष्टात्मक है, अवश्य निश्वयात्मक निर्णेय पदार्थ के साधक और बाधक प्रमाण या गुणागुण-विश्लेषण के माध्यम से जो निश्चित मनःस्थिति बनती है, वह अवाय है। रज्जू और सर्प के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। अँधेरे में सहसा निश्चय नहीं हो पाता कि जिज्ञासित पदार्थ सर्प है या रज्जू जब साधक प्रमाण द्वारा या स्पष्टता करने वाले हेतु द्वारा यह निश्चित रूप से अवगत हो जाता है कि यह रज्जू है, तब अवाय की स्थिति आ जाती है अवाय तक सूक्ष्मतापूर्वक पहुंचना या यथावत् अवायात्मक- निश्चयात्मक स्थिति अधिगत कर लेने की विशिष्ट क्षमता अवाय सम्पदा के नाम से अभिहित होती है, जो आचार्य में स्वभावतः होती है। धारणा-मति सम्पदा अवाय क्रम में ज्ञान जिस निश्चिति में पहुंचता है, उसका टिकना, स्थिर रहना, स्मरण रखना धारणा है । इसे वासना या स्मृति भी कहा जाता है । यह संस्करात्मक है । मन के स्मृति-पट पर उस ज्ञान का एक भावात्मक रूप अंकित हो जाता है । दूसरे किसी समय वैसे पदार्थ को देखते ही पहले के पदार्थ की स्मृति जाग उठती है यह जागने वाली स्मृति उसी संस्कार का फल है, जो उस पदार्थ के मत्यात्मक मनन क्रम में मन पर अंकित हो गया था। धारणा, वासना या स्मृति का वैशिष्ट्य या वैभव धारणा-मतिसम्पदा है। आचार्य इसके धनी होते हैं। - जिसकी मननात्मक क्षमता जितनी अधिक विकसित होती है, उसे मति के इस उत्थान क्रम में उतना ही वैशिष्ट्य प्राप्त रहता है। आचार्य में यह क्षमता अपनी विशेषता लिए रहती है। उदात्त व्यक्तित्व की दृष्टि से आचार्य के लिए ऐसा होना आवश्यक भी है । प्रयोग-सम्पदा किसी विषय पर प्रतिवादी के साथ वाद या विचार करना यहाँ प्रयोग शब्द से अभिहित किया १. दशाश्रुतस्कन्धसूत्र, अध्ययन ४, सूत्र ७ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन १३३ । गया है। वाद सम्बन्धी विशेष पटता या कुशलता का नाम प्रयोग-सम्पदा है। उसके निम्नलिखित चार' भेद हैं (१) अपने आपको जानकर वाद का प्रयोग करना । (२) परिषद् को जानकर वाद का प्रयोग करना । (३) क्षेत्र को जानकर वाद का प्रयोग करना । (४) वस्तु को जानकर वाद का प्रयोग करना। (१) आत्म-ज्ञानपूर्वक वाद का प्रयोग-वादार्थ उद्यत व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि पहले वह अपनी शक्ति, क्षमता, प्रमाण, नय आदि के सम्बन्ध में अपनी योग्यता को आँके । यह भी देखे कि प्रतिवादी की तुलना में उसकी कैसी स्थिति है । वह तत्पश्चात् वाद में प्रवृत्त हो । ऐसा न होने पर प्रतिकुल परिणाम आने की आशंका हो सकती है । अतः आचार्य में इस प्रकार की विशेषता का होना आवश्यक है। यों सोच-विचार कर, अपनी क्षमता को आँक कर बुद्धिमत्तापूर्वक वाद में प्रवृत्त होना पहले प्रकार की प्रयोग-सम्पदा है। (२) परिषद-ज्ञान पूर्वक वाद-प्रयोग-जिस परिषद् के बीच वाद होने को है, कुशल वादी को चाहिए कि वह उस परिषद के सम्बन्ध में पहले से ही जानकारी प्राप्त करे कि वह (परिषद) गम्भीर तत्वों को समझती है या नहीं । यह भी जाने कि परिषद् की रुचि वादी के अपने धार्मिक सिद्धान्तों में है या प्रतिवादी के सिद्धान्तों में । केवल तर्क और युक्ति-बल द्वारा ही प्रतिवादी पर सम्पूर्ण सफलता नहीं पाई जा सकती। जिन लोगों के बीच वाद प्रवृत्त होता है, उनका मानसिक झुकाव भी उसमें काम करता है । अतएव सफलता या प्रतिवादी पर विजय चाहने वाले वादी के लिए यह आवश्यक है कि परिषद की अनुकुलता और प्रतिकुलता को दृष्टि में रखे । इस ओर सोचे-विचारे बिना वाद में प्रवृत्त न हो। आचार्य में इस प्रकार की विशेष समझ के साथ वाद में प्रवृत्त होने की सहज विशेषता होती है। क्षेत्र-जान पूर्वक वाद-प्रयोग--जिस क्षेत्र में वाद होने को है, वह कैसा है, वहाँ के लोग दर्लभ बोधि हैं या सुलभ बोधि, वहाँ का शासक विज्ञ है या अज्ञ, अनुकूल है या प्रतिकूल इत्यादि बातों को भी ध्यान में रखना वादी के लिए आवश्यक है। यदि लोग सुलभ बोधि, शासक विज्ञ तथा अनुकूल हो तो विद्वान वादी को सफलता और गौरव मिलता है। क्षेत्र की स्थिति इसके प्रतिकूल हो तो वादी अत्यन्त योग्य होते हुए भी सफल बन सके, यह कठिन है । आचार्य में क्षेत्र को परखने की अपनी विशेषता होती है। वस्तु-ज्ञान पूर्वक वाद का प्रयोग--वस्तु का अर्थ वाद का विषय है । जिस विषय पर वाद या वैचारिक ऊहापोह किया जाना है, वह वादी को ध्यान में रहना आवश्यक है । उस विषय के विभिन्न पक्ष, उस सम्बन्ध में विविध धारणाएँ, उनका समाधान इत्यादि दृष्टि में रखते हुए वाद में प्रवृत्त होना हितावह होता है। आचार्य में यह विशेषता भी होनी चाहिए। संक्षेप में, सार यह है कि आचार्य का संघ में सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्थान होता है। उनकी विजय NET १ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, अध्ययन ४, सूत्र ११ indantriM aar-AAMANABAJANANALShaiMahasammGOWOOONP Nit! SIआचार्य प्राआमाआNAYA Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रवख अभिनन्दन श्री आनन्दन ग्रन्थ Www डॉ. Exxxt डॉ आचार्य प्रव श्री आनन्द १३४ इतिहास और संस्कृति सारे संघ की शोभा है, उनकी पराजय सारे संघ का अपमान । अतः यह वांछनीय है कि आचार्य में वादप्रयोग सम्बन्धी विशेषताएँ, जिनका उल्लेख हुआ है, हों । जिससे उनका अपना गौरव बढ़े, संघ की महिमा फैले । अभिन्दन अन्थादन संग्रहपरिक्षा सम्पदा जैन श्रमण के जीवन में परिग्रह के लिए कोई स्थान नहीं है । वह सर्वथा निष्परिग्रही जीवनयापन करता है । यह होने पर भी जब तक साधक सदेह है, उसे जीवन-यात्रा के निर्वाह के लिए कतिपय वस्तुओं की अपेक्षा रहती ही है। शास्त्रीय विधान के अनुरूप उन वस्तुओं का ग्रहण करता हुआ साधक परिग्रही नहीं बनता क्योंकि उन वस्तुओं में उसकी जरा भी मूर्च्छा या आसक्ति नहीं होती । परिग्रह का आधार मूर्च्छा या आसक्ति है । यदि अपने देह के प्रति भी साधक के मन में मूर्च्छा या आसक्ति हो जाए तो वह परिग्रह हो जाता है । आत्म-साधना मे लगे साधक का जीवन अनासक्त और अमूच्छित होता है, होना चाहिए । यही कारण है कि उस द्वारा अनिवार्य आवश्यकताओं के निर्वाह के लिए अमूच्छित एवं अनासक्त भाव से अपेक्षित पदार्थों का ग्रहण अदूषणीय है । संग्रह का अर्थ श्रमण के वैयक्तिक तथा सामष्टिक संघीय जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं का अवलोकन, आकलन या स्वीकार है । वस्तुओं की आवश्यकता, समीचीनता एवं सुलभता का ज्ञान संग्रहपरिज्ञा कहा जाता है। आचार्य पर संघ के संचालन, संरक्षण एवं व्यवस्था का उत्तरदायित्व होता है अतः उन्हें इस ओर जागरूक रहना अपेक्षित है कि कब किस वस्तु की आवश्यकता पड़ जाए और पूर्ति किस प्रकार सम्भव हो । इसमें जागरूकता के साथ-साथ सूझ-बूझ तथा व्यावहारिक कुशलता की भी आवश्यकता रहती है । यह आचार्य की अपनी असाधारण विशेषता है । संग्रहपरिज्ञा सम्पदा के चार प्रकार बताये गये हैं(१) क्षेत्र - प्रतिलेखन - परिज्ञा (३) काल - सम्मान - परिज्ञा बिहार के स्थान क्षेत्र कहे जाते हैं । जैन (१) क्षेत्र प्रतिलेखन - परिज्ञा - साधुओं के प्रवास और श्रमण वर्षा ऋतु के चार महीने एक ही स्थान पर टिकते हैं, कहीं बिहार यात्रा नहीं करते । इसे चातुर्मासिक प्रवास कहा जाता है । इसके अतिरिक्त वे जन-जन को धर्मोपदेश या अध्यात्म-प्रेरणा देने के निमित्त घूमते रहते हैं । रोग, वार्धक्य, दैहिक अशक्तता आदि अपवादों के अतिरिक्त वे कहीं भी एक मास से अधिक नहीं टिकते। (२) प्रातिहारिक अवग्रह-प्ररिज्ञा (४) गुरु - संपूजना - परिज्ञा चातुर्मासिक प्रवास के लिए कौनसा क्षेत्र कैसा है, साधु-जीवन के लिए अपेक्षित निरवद्य पदार्थ कहाँ किस रूप में प्राप्य हैं, अस्वस्थ साधुओं की चिकित्सा, पथ्य आहार आदि को सुलभता, जलवायु व निवास स्थान की अनुकूलता आदि बातों का ध्यान आचार्य को रहता है । चातुर्मासिक प्रवास में इस बात १ दशश्रुतस्कन्ध सूत्र अध्ययन ४ सूत्र १२ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन १३५ CHI बा का और अधिक महत्व है। वर्ष भर में वर्षावास के अन्तर्गत ही श्रमणों का एक स्थान पर सबसे लम्बा प्रवास होता है । अध्ययन चिकित्सा आदि की दृष्टि से वहाँ यथेष्ट समय मिलता है। इसलिए इन बातों का विचार बहुत आवश्यक है। धर्म-प्रसार की दृष्टि से भी क्षेत्र की गवेषणा का महत्व है। यदि किसी क्षेत्र के लोगों को अध्यात्म में रस है तो वहाँ बहत लोग धर्म-भावना से अनुप्राणित होंगे, धर्म की प्रभावना होगी। ___ आचार्य इन सब दृष्टिकोणों को आत्मसात् किये रहते हैं। (२) प्रातिहारिक अवग्रह-परिज्ञा-श्रमण अपनी आवश्यकता के अनुसार दो प्रकार की वस्तुएँ लेते हैं। प्रथम कोटि मे वे वस्तुएँ आती हैं, जो सम्पूर्णतया उपयोग में ली जाती हैं, वापिस नहीं लौटाई जाती, जैसे-अन्न, जल, औषधि आदि । दूसरी वे वस्तएं हैं. जो उपयोग में लेने के बाद वापिस जाती हैं, उन्हें प्रातिहारिक कहा जाता है। प्रातिहारिक का शाब्दिक अर्थ भी इसी प्रकार का है। पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक आदि इस कोटि में आते हैं। आचार्य के दर्शन तथा उनसे अध्ययन आदि के निमित्त अनेक दूसरे साध भी आते रहते हैं। उनके स्वागत-सत्कार, सुविधा आदि की दृष्टि से जब जैसे अपेक्षित हों, पीठ, फलक, आसन आदि के लिए आचार्य को ध्यान रखना आवश्यक होता है। कौन वस्तु कहाँ प्राप्य है, यह ध्यान रहने पर आवश्यकता पड़ते ही शास्त्रीय विधि के अनुसार वह तत्काल प्राप्त की जा सकती है। उसके लिए अनावश्यक रूप में भटकना नहीं पड़ता है। (३) काल-सम्मान-परिज्ञा-काल के सम्मान का आशय साधुजीवनोचित क्रियाओं का समुचित समय पर अनुष्ठान करना है। ऐसा करना व्यावहारिक दृष्टि से जहाँ व्यवस्थित जीवन का परिचायक है, वहाँ आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन में इससे अन्त:स्थिरता परिव्याप्त होती है। क्रियाओं के यथाकाल अनुष्ठान के लिए काल का 'सम्मान' करना—ऐसा जो प्रयोग शास्त्र में आया है, उससे स्पष्ट है कि यथासमय धार्मिक क्रियाओं के सम्पादन का कितना अधिक महत्व रहा है। आचार्य सारे संघ के नियामक और अधिनायक होते हैं। उनके जीवन का क्षण-क्षण अन्तेवासियों एवं अनुयायियों के समक्ष आदर्श के रूप में विद्यमान रहता है । उसका उन पर अमिट प्रभाव होता है। इसलिए यथासमय सब क्रियाएँ सुव्यवस्थित रूप में संपादित करना, उस ओर अनवरत यत्नशील रहना आचार्य के लिए आवश्यक है। (४) गुरु-संपूजना-परिज्ञा-जो दीक्षा-पर्याय में अपने से ज्येष्ठ हों, उन श्रमणों का वन्दन, नमन आदि द्वारा बहुमान करने में आचार्य सदा जागरूक रहते हैं। इसे वे आवश्यक और महत्वपूर्ण समझते हैं । ऐसा करना गुरु-संपूजना-परिज्ञा है। आचार्य की यह प्रवृत्ति अन्तेवासियों को बड़ों का सम्मान करने, उनके प्रति आदर एवं श्रद्धा दिखाने की ओर प्रेरित करती है। संघ के वातावरण में इससे सौहार्द का संचार होता है। फलत: संघ विकसित और उन्नत बनता है। १. प्रतिहरणं प्रतिहार-प्रत्यर्पणम्, तमहतीति प्रातिहारिकम् । पुन: समर्पणीय संस्तारकादौ । -ज्ञाताधर्मकथा सटीक, श्रुतस्कन्ध १, अध्ययन ५ आचार्यप्रवर श्रीआनन्दमन्थश्रान्दियन् आचार्यप्रवरआनन्द Preemwwer Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रव श्री आनन्द* ग्रन्थ १३६ उपाध्याय अभिनंदन इतिहास और संस्कृति * ग्रन्थ जैनदर्शन ज्ञान और क्रिया के समन्वित अनुसरण पर आधृत है । संयम-मूलक आचार का परिपालन जैन साधक के जीवन का जहाँ अनिवार्य अंग है, वहाँ उसके लिए यह भी अपेक्षित है कि वह ज्ञान की आराधना में भी अपने को तन्मयता के साथ जोड़े । सदज्ञान पूर्वक आचरित क्रिया में शुद्धि की अनुपम सुषमा प्रस्फुटित होती है। जिस प्रकार ज्ञान प्रसूत क्रिया की गरिमा है, उसी प्रकार क्रियान्वित या क्रिया-परिणत ज्ञान की ही वास्तविक सार्थकता है। ज्ञान और क्रिया जहाँ पूर्व और पश्चिम की तरह भिन्न दिशाओं में जाते हैं, वहाँ जीवन का ध्येय सघता नहीं । अनुष्ठान द्वारा इन दोनों पक्षों में सामंजस्य उत्पन्न कर जिस गति से साधक साधना-पथ पर अग्रसर होगा, साध्य को आत्मसात् करने में वह उतना ही अधिक सफल बनेगा । जैन संघ के पदों में आचार्य के बाद दूसरा पद उपाध्याय का है । इस पद का सम्बन्ध मुख्यतः अध्ययन से है, उपाध्याय श्रमणों को सूत्र वाचना देते हैं । कहा गया है— बारसंगो जिणक्खाओ, सज्जओ कहिओ बुह । त उवइस्संति जम्हा, उवज्झया तेण वुच्चंति || जिन प्रतिपादित द्वादशांगरूप स्वाध्याय --- सूत्र - वाङ् मय ज्ञानियों द्वारा कथित वर्णित या प्रथित किया गया है । जो उसका उपदेश करते हैं, वे (उपदेशक श्रमण ) उपाध्याय कहे जाते हैं । यहाँ सूत्र वाङ् मय का उपदेश करने का आशय आगमों की सूत्र वाचना देना है । स्थानांग वृत्ति में भी उपाध्याय का सूत्रदाता' (सूत्रवाचनादाता) के रूप में उल्लेख हुआ है । आचार्य की सम्पदाओं के वर्णन प्रसंग में यह बतलाया गया है कि आगमों की अर्थ- वाचना आचार्य देते हैं । यहाँ जो उपाध्याय द्वारा स्वाध्यायोपदेश या सूत्रवाचना देने का उल्लेख है, उसका तात्पर्य यह है कि सूत्रों के पाठोच्चारण की शुद्धता, स्पष्टता, विशदता, अपरिवर्त्यता तथा स्थिरता बनाये रखने के हेतु उपाध्याय पारम्परिक तथा आज की भाषा में भाषा वैज्ञानिक आदि दृष्टियों से अन्तेवासी श्रमणों को मूल पाठ का सांगोपांग शिक्षण देते हैं । अनुयोगद्वार सूत्र में 'आगमत: द्रव्यावश्यक, के सन्दर्भ में पठन या वाचन का विवेचन करते हुए तत्सम्बन्धी विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है, जिससे प्रतीत होता है कि पाठ की एक अक्षुण्ण तथा स्थिर परम्परा जैन श्रमणों में रही है । आगम-पाठ को यथावत् बनाये रखने में इससे बड़ी सहायता मिली है । आगम-गाथाओं का उच्चारण कर देना मात्र पाठ या वाचन नहीं है । अनुयोगद्वार में पद के शिक्षित, जित, स्थित, मित, परिजित, नामसम, घोषसम, अहीनाक्षर, अत्यक्षर, अव्याविद्धसर, अस्खलित, १. भगवती सूत्र १. १. १ मंगलाचरण वृत्ति । २. उपाध्याय : सूत्रदाता । स्थानांग सूत्र ३. ४. ३२३ वृत्ति । Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन १३७ JAESIBAR 2 DIM अमिलित, अव्यत्यानंडित, प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्ण घोष तथा कण्ठोष्ठविप्रमुक्त विशेषण दिये गये है।' संक्षेप में इनका तात्पर्य यों है१. शिक्षित साधारणतया सीख लेना। २. स्थित सीखे हुए को मस्तिष्क में टिकाना । ३. जित अनुक्रम पूर्वक पठन करना। ४. मित अक्षर आदि की मर्यादा, संयोजन आदि जानना । ५. परिजित अननुक्रम-व्यतिक्रम या अनुक्रम के बिना पाठ करना। ६. नामसम जिस प्रकार हर व्यक्ति को अपना नाम स्मरण रहता है, उस प्रकार सूत्र का पाठ याद रहना अर्थात् सूत्रपाठ को इस प्रकार आत्मसात् कर लेना कि जब भी पूछा जाए, यथावत् रूप में बतलाया जा सके। ७. घोषसम स्वर के ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत तथा उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के रूप में जो उच्चारण सम्बन्धी भेद वैयाकरणों ने किये हैं, उनके अनुरूप उच्चारण करना । ८. अहीनाक्षर पाठकम में किसी भी अक्षर को हीन-लुप्त या अस्पष्ट न कर देना। ६. अनत्यक्षर अधिक अक्षर न जोड़ना। १०. अव्याविद्धासर अक्षर, पद आदि का विपरीत-उल्टा पठन न करना। ११. अस्खलित पाठ में स्खलन न करना, पाठ का यथाप्रवाह उच्चारण करना। १२. अमिलित अक्षरों को परस्पर न मिलाते हुए-उच्चारणीय पाठ के साथ किन्हीं दूसरे अक्षरों को न मिलाते हुए उच्चारण करना। १३. अव्यत्यानंडित अन्य सूत्रों, शास्त्रों के पाठ को समानार्थक जानकर उच्चार्य पाठ के साथ मिला देना व्यत्यानंडित है। ऐसा न करना अव्यत्या म्रडित है। १४. प्रतिपूर्ण पाठ का पूर्ण रूप से उच्चारण करना, उसके किसी अंग को अनच्चारित न रखना। . Merge E १. अनुयोग द्वार सूत्र--१६ २. ऊकालोऽज्यस्व दीर्घ प्लुतः । -पाणिनीय अष्टाध्यायी १. २. २७ । ३. उच्च रुदात्तः । नीचैरनुदात्तः । समाहारः । स्वरितः । -पाणिनीय अष्टाध्यायी १. २. २६-३१ PARuaman andnanMANASAMBHAJAJANMAAMADARAiseDMAALLARSHANAMAHAKARIAAAAAINIAKIRTALRAMPARAMINAKASHING YC शाचाफ्रानाशाचाफ्नावश श्रीआनन्दन्थश्राआनन्द अन्य m- Howmom AmAvinianMonieranorma Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PLAndamarinanArrarsemaniamarMinIAL -MAuranamamimandarawasanaramaniaiorsranamamaAAAdrialwedisair m ire Kranamamrpawan आचार्यप्रवर त्रिआचार्यप्रवअभिनय श्रीआनन्दग्रन्थश्राआनन्दान्थः ६ १३८ इतिहास और संस्कृति १५. प्रतिपूर्णधोष उच्चारणीय पाठ का मन्द स्वर, जो कठिनाई से सुनाई दे, द्वारा उच्चारण न करना, पूरे स्वर का स्पष्टता से उच्चा रण करना। १६. कण्ठोष्ठविप्रमुक्त : उच्चारणीय पाठ या पाठांश को गले और होठों में अटका कर अस्पष्ट नहीं बोलना। सूत्र पाठ को अक्षुण्ण तथा अपरिवर्त्य बनाये रखने के लिए उपाध्याय को सूत्र-वाचना देने में कितना जागरूक तथा प्रयत्नशील रहना होता था, यह उक्त विवेचन से स्पष्ट है। लेखनक्रम के अस्तित्व में आने से पूर्व वैदिक, जैन और बौद्ध सभी परम्पराओं में अपने आगमों, आर्ष शास्त्रों के कण्ठस्थ रखने की प्रणाली थी। मूल पाठ का रूप अक्षुण्ण बना रहे, परिवर्तन समय का उस पर प्रभाव न आए, इस निमित्त उन द्वारा ऐसे पाठ-क्रम या उच्चारण-पद्धति का परिस्थापन स्वाभाविक था, जिससे एक से सुनकर या पढ़कर दूसरा व्यक्ति सर्वथा उसी रूप में शास्त्र को आत्मसात् बनाये रख सके । उदाहरणार्थ संहिता पाठ, पद-पाठ, क्रम-पाठ जटा-पाठ, और घन-पाठ के रूप में वेदों के पठन का भी बड़ा वैज्ञानिक प्रकार था, जिसने अब तक उनको मूल रूप में बनाये रखा है। एक से दूसरे द्वारा श्रुति-परम्परा से आगम-प्राप्तिक्रम के बावजूद जैनों के आगमिक वाङमय में कोई विशेष या अधिक परिवर्तन आया हो, ऐसा सम्भव नहीं लगता । सामान्यतः लोग कह देते हैं कि किसी से एक वाक्य भी सुनकर दूसरा व्यक्ति किसी तीसरे व्यक्ति को बताए तो यत्किंचित् परिवर्तन आ सकता है, फिर यह कब सम्भव है कि इतने विशाल आगम-वाङमय में काल की इस लम्बी अवधि के बीच भी कोई परिवर्तन नहीं आ सका। साधारणतया ऐसी शंका उठना अस्वाभाविक नहीं है किन्तु आगम-पाठ की उपर्युक्त परम्परा से स्वतः समाधान हो जाता है कि जहाँ मूल पाठ की सुरक्षा के लिए इतने उपाय प्रचलित थे, वहाँ आगमों का मूल स्वरूप क्यों नहीं अव्याहत और अपरिवर्तित रहता । अर्थ या अभिप्राय का आश्रय सूत्र का मूल पाठ है । उसी की पृष्ठभूमि पर उसका पल्लवन और विकास सम्भव है । अतएव उसके शुद्ध स्वरूप को स्थिर रखने के लिए सूत्र-वाचना या पठन का इतना बड़ा महत्व समझा गया कि संघ में उसके लिए 'उपाध्याय' का पृथक् पद प्रतिष्ठित किया गया। प्रवर्तक आचार्य के बहविध उत्तरदायित्वों के सम्यक निर्वहण में सुविधा रहे, धर्म-संघ उत्तरोत्तर उन्नति करता जाए, श्रमणवन्द श्रामण्य के परिपालन और विकास में गतिशील रहे, इस हेतु अन्य पदों के साथ प्रवर्तक का भी विशेष पद प्रतिष्ठित किया गया। प्रवर्तक पद का विश्लेषण करते हए लिखा है तप संयमयोगेषु, योग्यं योहि प्रवर्तयेत् । निवर्तयेदयोग्यं च, गणचिन्ती प्रवर्तकः ॥' ALS pn १. धर्मसंग्रह, अधिकार ३, गाथा १४३ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन १३६ प्रवर्तक गण या श्रमण-संघ की चिन्ता करते हैं अर्थात् वे उसकी गतिविधि का ध्यान रखते हैं। वे जिन श्रमणों को तप, संयम तथा प्रशस्त योगमूलक अन्यान्य सत्प्रवृत्तियों में योग्य पाते हैं, उन्हें उनमें प्रवृत्त या उत्प्रेरित करते हैं। मूलतः तो सभी श्रमण श्रामण्य का निर्वाह करते ही हैं पर रुचि की भिन्नता के कारण किन्हीं का तप की ओर अधिक झकाव होता है. कई शास्त्रानुशीलन में अधिक रस लेते हैं, कई संयम के दूसरे पहलुओं की ओर अधिक आकृष्ट रहते हैं। रुचि के कारण किसी विशेष प्रवृत्ति की ओर श्रमण का उत्साह हो सकता है पर हर किसी को अपनी यथार्थ स्थिति का भली भाँति ज्ञान हो, यह आवश्यक नहीं। अति उत्साह के कारण कभी-कभी अपनी क्षमता को आंक पाना भी कठिन होता है। ऐसी परिस्थिति में प्रवर्तक का यह कर्तव्य है कि जिनको जिस प्रवृत्ति के लिए योग्य मानते हों, उन्हें उस ओर प्रेरित और प्रवृत्त करें। जो उन्हें जिस प्रवृत्ति के सम्यक् निर्वाह में योग्य न जान पड़ें, उन्हें वे उस ओर से निवृत्त करें। साधक के लिए इस प्रकार के पथ-निर्देशक का होना परम आवश्यक है। इससे उसकी शक्ति और पुरुषार्थ का समीचीन उपयोग होता है। ऐसा न होने से कई प्रकार की कठिनाइयाँ उपस्थित हो जाती हैं । उदाहरणार्थ-कोई श्रमण अति उत्साह के कारण अपने को उग्र तपस्या में लगाये पर कल्पना कीजिये, उसकी दैहिक क्षमता इस प्रकार की न हो, स्वास्थ्य अनुकूल न हो, मानसिक स्थिरता कम हो तो वह अपने प्रयत्न में जैसा सोचता है, चाहता है, सफल नहीं हो पाता । उसका उत्साह टूट जाता है, वह अपने को शायद हीन भी मानने लगता है। अतएव प्रवर्तक, जिनमें ज्ञान, अनुभव तथा अनठी सूझबूझ होती है, का दायित्व होता है कि वे श्रमणों को उनकी योग्यता के अनुरूप उत्कर्ष के। विभिन्न मार्गों पर गतिशील होने में प्रवृत्त करें, जो उचित न प्रतीत हों, उनसे निवृत्त करें। उक्त तथ्य को स्पष्ट करते हुए और भी कहा गया है तवसंजमनियमेस, जो जुग्गो तत्थ तं पवेत्तई। असह य नियतंत्ती, गणतत्तिल्लो पवत्तीओ। तपः संयमयोगेष मध्ये यो यत्र योग्यस्तं तत्र प्रवर्तयन्ति, असहांश्च । असमर्थाश्च निवर्तयन्ति । एवं गणताप्तिप्रवृत्ताः प्रवतिनः ।। सयम, तप आदि के आचरण में जो धैर्य और सहिष्णुता चाहिए, जिनमें वह होती है, वे ही उसका सम्यक अनुष्ठान कर सकते हैं । जिनमें वैसी सहनशीलता और दृढ़ता नहीं होती, उनका उस पर टिके रहना सम्भव नहीं होता । प्रवर्तक का यह काम है कि किस श्रमण को किस ओर प्रवृत्त करे, कहाँ से निवृत्त करे। गण को तृप्त-तुष्ट-उल्लसित करने में प्रवर्तक सदा प्रयत्नशील रहते हैं। स्थविर जैन संघ में स्थविर का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण है। स्थानांग सूत्र में दश प्रकार के स्थविर बतलाये गये हैं, जिनमें से अन्तिम तीन जाति-स्थविर, श्रुत-स्थविर तथा पर्याय-स्थविर का सम्बन्ध विशेषतः श्रमण १. व्यवहार भाष्य, उद्देशक १, गाथा ३४० २. स्थानांगसूत्र, स्थान १०, सूत्र ७६२ oundaNABARAAAAABARSAAMAAJAIWALAIMJAMMinortavaadebasubruANASABAIKLAINAAR IAAAAMJAAnath AAAAAA: viMMAvanMw.naviVivan MINiravinviMAmriMav er Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आओ करून आग आ श वही १४० इतिहास और संस्कृति जीवन से है । स्थविर का सामान्य अर्थ प्रौढ़ या वृद्ध है । जो जन्म से अर्थात् आयु से स्थविर होते हैं, वे जाति-स्थविर कहे जाते हैं । स्थानांग ' वृत्ति में उनके लिए साठ वर्ष की आयु का संकेत किया गया है । जो श्रुत-समवाय आदि अग, आगम व शास्त्र के पारगामी होते हैं, वे श्रुत स्थविर' कहे जाते हैं । उनके लिए आयु की इयत्ता का निबन्ध नहीं है । वे छोटी आयु के भी हो सकते हैं । पर्याय स्थविर के होते हैं, जिनका दीक्षाकाल लम्बा होता है । इनके लिए बीस वर्ष के दीक्षापर्याय के होने का वृत्तिकार ने उल्लेख किया है जिनकी आयु परिपक्व होती है, उन्हें जीवन के अनेक प्रकार के अनुभव होते हैं । वे जीवन में बहुत प्रकार के अनुकूल-प्रतिकूल, प्रिय-अप्रिय घटनाक्रम देखे हुए होते हैं अतः वे विपरीत परिस्थिति में भी विचलित नहीं होते वे स्थिर बने रहते हैं । स्थविर शब्द स्थिरता का भी द्योतक है । जिनका शास्त्राध्ययन विशाल होता है, वे भी अपने विपुल ज्ञान द्वारा जीवन सत्व के परिज्ञाता होते हैं । शास्त्र ज्ञान द्वारा उनके जीवन में आध्यात्मिक स्थिरता और दृढ़ता होती है । जिनका दीक्षा - पर्याय, संयम जीवितव्य लम्बा होता है, उनके जीवन में धार्मिक परिपक्वता, चारित्रिक बल एवं आत्म-ओज सहज ही प्रस्फुटित हो जाता है । इस प्रकार के जीवन के धनी श्रमणों की अपनी गरिमा है । वे दृढ़धर्मा होते हैं और संघ के श्रमणों को धर्म में, साधना में, संयम में स्थिर बनाये रखने के लिए सदैव जागरूक तथा प्रयत्नशील रहते हैं । प्रवचनसारोद्धार (द्वार २) में कहा गया है अभिनंदन "प्रवर्तितव्यापारान् संयमयोगेषु सीदतः साधून् ज्ञानादिषु । ऐहिकामुष्मिक पाय दर्शनतः स्थिरीकरोतीति स्थविर: । जो साधु लौकिक एषणावश सांसारिक कार्य-कलापों में प्रवृत्त होने लगते हैं, जो संयम पालन में, ज्ञानानुशीलन में कष्ट का अनुभव करते हैं, ऐहिक और पारलौकिक हानि या दुःख दिखला कर उन्हें जो श्रमण जीवन में स्थिर करते हैं, वे स्थविर कहे जाते हैं । वे स्वयं उज्ज्वल चारित्र्य के धनी होते हैं, अत: उनके प्रेरणा वचन, प्रयत्न प्रायः निष्फल नहीं होते । स्थविर की विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहा गया है कि स्थविर संविग्न-मोक्ष के अभिलाषी, मार्दवित, अत्यन्त मृदु या कोमल प्रकृति के धनी और धर्मप्रिय होते हैं । ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र्य की आराधना में उपादेय अनुष्ठानों को जो श्रमण परिहीन करता है, उनके पालन में अस्थिर बनता है, वे १. जातिस्थविरा: - षष्टिवर्ष प्रमाणजन्मपर्यायाः । २. श्रतस्थविरा: समवायाङ गधारिणः । — स्थानांग सूत्र, स्थान १० सूत्र, ७६२ वृत्ति ३. पर्यायस्थविरा: - विशतिवर्ष प्रमाणप्रव्रज्या पर्यायवन्तः । ——स्थानांगसूत्र, स्थान १०, सूत्र ७६२ वृत्ति —स्थानांगसूत्र, स्थान १०, सूत्र ७६२ वृत्ति Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन (स्थविर) उसे ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र्य की याद दिलाते हैं। पतनोन्मुख श्रमणों को वे ऐहिक और पारलौकिक अधःपतन दिखला कर मोक्ष के मार्ग में स्थिर करते हैं।' इसी आशय को और स्पष्ट करते हुए कहा गया है तेन व्यापारितेष्वर्थे-पनगारांश्च सीदतः । स्थिरीकरोति सच्छक्तिः, स्थविरो भवतीह सः ॥ तप, संयम, श्रुताराधना तथा आत्म-साधना आदि श्रमण-जीवन के उन्नायक कार्य, जो संधप्रवर्तक द्वारा श्रमणों के लिए नियोजित किये जाते हैं, में जो श्रमण अस्थिर हो जाते हैं, इनका अनुसरण करने में जो कष्ट मानते हैं या इनका पालन करना जिनको अप्रिय लगता है, भाता नहीं, उन्हें जो आत्मशक्तिसम्पन्न दृढचेता श्रमण उक्त अनुष्ठेय कार्यों में दृढ़ बनाता है, वह स्थविर कहा जाता है। इससे स्पष्ट है कि संयम-जीवन. जो श्रामण्य का अपरिहार्य अंग है, के प्रहरी का महनीय कार्य स्थविर करते हैं । संघ में उनकी बहुत प्रतिष्ठा तथा साख होती है। अवसर आने पर वे आचार्य तक को आवश्यक बातें सुझा सकते हैं, जिन पर उन्हें (आचार्य को) भी गौर करना होता है। संक्षेप में, सार यह है कि स्थविर संयम में स्वयं अविचल-स्थितिशील होते और संघ के सदस्यों को वैसा बने रहने के लिए उत्प्रेरित करते रहते हैं। गणी ___गणी का सामान्य अर्थ गण या साधु-समुदाय का अधिपति है। अत: आचार्य के लिए भी इस शब्द का प्रयोग देखने में आता है। परन्तु यहाँ यह एक विशिष्ट अर्थ को लिए हुए है। संघ में जो अप्रतिम विद्वान, बहुश्रुत श्रमण होता था, उसे गणी का पद दिया जाता था। गणी के सम्बन्ध में लिखा है अस्य पार्वे आचार्याः सूत्रद्यमभ्यस्यन्ति ।3 अर्थात् आचार्य उनके पास सूत्र आदि का अभ्यास करते हैं। - यद्यपि आचार्य का स्थान संघ में सर्वोच्च होता है। उनमें आचार पालने, पलवाने, संघ के श्रमणों को अनुशासन में रखने, उनको तत्व-ज्ञान देने, उनका परिरक्षण तथा विकास करते रहने की असाधारण य संविग्गो मद्दविओ, पियधम्मो नाणदसणचरित्तै । जे अट्ठ परि हायइ, सातो ते हवई थेरो ॥ यः संविग्नो मोक्षाभिलाषी, मार्दवित: संज्ञातमार्दविकः । (१) प्रियधर्मा एकान्तवल्लभः संयमानुष्ठाने, यो ज्ञानदर्शनचारित्रेषु मध्ये यानानपादेयानुष्ठानविशेषान् परिहापयति हानि नयति तान् तं स्मारयन् भवति स्थविरः, सीदमानान्साधन ऐहिकाऽऽमुष्मिकापायप्रदर्शनतां मोक्षमार्गे स्थिरीकरोतीति स्थविर इति व्युत्पतेः। -अभिधान राजेन्द्र भाग, ४, पृष्ठ २३८६-८७ २. धर्मसंग्रह, अधिकार ३, गाथा ७३ ३. कल्प सुबोधिका कल्प : DJukunMEANMAHARAOORDADAND आपाप्रवाहव आनापार्यप्रवर अमन श्राआडन्न्याश्रीआनन्द mew wwimary Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ENITI haiआचार्य आचार्यप्रवास अभिव अत्र श्राआनन्दाअन्यश्रीआनन्दग्रन्थ १४२ इतिहास और संस्कृति टा क्षमता होती है। उनके व्यक्तित्व में सर्वातिशा य ओज तथा प्रभाव होता है। परन्तु यह आवश्यक नहीं कि संघगत श्रमणों में वे सबसे अधिक विद्वान एवं अध्येता हों। गणी में इस कोटि की ज्ञानात्मक विशेषता होती है। फलस्वरूप वे आचार्य को भी वाचना दे सकते हैं। इससे यह भी स्पष्ट है कि आचार्य-पद केवल विद्वत्ता के आधार पर नहीं दिया जाता । विद्या जीवन का एक पक्ष है। उसके अतिरिक्त और भी अनेक पक्ष हैं । जिनके बिना जीवन में समग्रता नहीं आती। आचार्य के व्यक्तित्व में वैसी समग्रता होनी चाहिए, जिससे जीवन के सब अंग परिपूरित लगें। यह सब होने पर भी आचार्य को यदि शास्त्राध्ययन की और अपेक्षा हो तो वे गणी से शास्त्राभ्यास करें। आचार्य जैसे उच्च पद पर अधिष्ठित व्यक्ति एक अन्य साधु से अध्ययन करें, इसमें क्या उनकी गरिमा नहीं मिटती-आचार्य ऐसा विचार नहीं करते । वे गुणग्राही तथा उच्च संस्कारी होते हैं, अत: जो जो उन्हें आवश्यक लगता है, वे उन विषयों को गणी से पढ़ते हैं । यह कितनी स्वस्थ तथा सुखावह परम्परा है कि आचार्य भी विशिष्ट ज्ञानी से ज्ञानार्जन करते नहीं हिचकते । ज्ञान और ज्ञानी के सत्कार का यह अनुकरणीय प्रसंग है। गणधर गणधर का शाब्दिक अर्थ गण या श्रमण-संघ को धारण करने वाला, गण का अधिपति या स्वामी होता है । आवश्यक वृत्ति में अनुत्तर ज्ञान, दर्शन आदि गुणों के गण-समूह को धारण करने वाले गणधर कहे गये हैं। आगम-वाङमय में गणधर शब्द मुख्यत: दो अर्थों में प्रयुक्त है। तीर्थंकर के प्रमुख शिष्य, जो उन (तीर्थकर) द्वारा प्ररूपित तत्व-ज्ञान का द्वादशांगी के रूप में संग्रथन करते हैं, उनके धर्म-संघ के विभिन्न गणों की देख-रेख करते हैं, अपने-अपने गग के श्रमणों को आगम-वाचना देते हैं, गणधर कहे जाते हैं। अनुयोगद्वार सूत्र में भाव-प्रमाण के अन्तर्गत ज्ञान गुण के आगम' नामक प्रमाण-भेद में बताया गया है कि गणधरों के सूत्र आत्मगम्य होते हैं। तीर्थंकरों के वर्णन-क्रम में उनकी अन्यान्य धर्म-सम्पदाओं के साथ-साथ उनके गणधरों का भी यथाप्रसंग उल्लेख हआ है। तीर्थंकरों के सान्निध्य में गणधरों की जैसी परम्परा वर्णित है, वह सार्वादिक नहीं है। तीर्थंकरों के पश्चात् अथवा दो तीर्थकरों के अन्तर्वर्ती काल में गणधर नहीं होते। अतः उदाहरणार्थ गौतम, सूधर्मा आदि के लिए जो गणधर शब्द प्रयुक्त हुआ है, वह गणधर के शाब्दिक या सामान्य अर्थ में अप्रयोज्य है। ___ गणधर का दूसरा अर्थ, जैसा कि स्थानांग वृत्ति में लिखा गया है, आर्याओं या साध्वियों को बया १. अनुत्तरज्ञानदर्शनादिगुणानां गणं धारयन्तीति गणधराः। -आवश्यकनियुक्ति गाथा १०६२ वत्ति २. प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम-इन चार प्रमाणों का वहाँ वर्णन हुआ है। ३. आर्यिकाप्रतिजागरको वा साधु विशेषः समयप्रसिद्धः ।। -स्थानांग सूत्र ४. ३. ३२३ वृत्ति Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन १४३ प्रतिजागृत रखने वाला अर्थात् उनके संयम- जीवन के सम्यक् निर्वहण में सदा प्रेरणा, मार्गदर्शन एवं आध्यात्मिक सहयोग करने वाला श्रमण गणधर कहा जाता है । आर्या-प्रतिजागरक के अर्थ में प्रयुक्त गणधर शब्द से प्रकट होता है कि संघ में श्रमणी - वृन्द की समीचीन व्यवस्था, विकास, अध्यात्म-साधना में उत्तरोत्तर प्रगति इत्यादि पर पूरा ध्यान दिया जाता था । यही कारण है कि उनकी देखरेख और मार्गदर्शन के कार्य को इतना महत्वपूर्ण समझा गया कि एक विशिष्ट श्रमण के मनोनयन में इस पहलू को भी ध्यान में रखा जाता था । गणावच्छेदक इस पद का सम्बन्ध विशेषतः व्यवस्था से है। संघ के सदस्यों का संयम जीवितव्य स्वस्थ एवं कुशल बना रहे, साधु-जीवन के निर्वाह हेतु अपेक्षित उपकरण साधु-समुदाय को निरवद्य रूप में मिलते रहें इत्यादि संघीय आवश्यकताओं की पूर्ति का उत्तरदायित्य या कर्तव्य गणावच्छेदक का होता है । उनके सम्बन्ध में लिखा है जो संघको सहारा देने, उसे दृढ़ बनाये रखने अथवा संघ के श्रमणों की संयमयात्रा के सम्यक् निर्वाह के लिए उपधि - श्रमण - जीवन के लिए आवश्यक सामग्री की गवेषणा करने के निमित्त विहार करते हैं—पर्यटन करते हैं, प्रयत्नशील रहते हैं, वे गणावच्छेदक होते हैं । " श्रामण्य - निर्वाह के लिए अपेक्षित साधन सामग्री के आकलन, तत्सम्बन्धी व्यवस्था आदि की दृष्टि से गणावच्छेदक के पद का बहुत बड़ा महत्त्व है । गणावच्छेदक द्वारा आवश्यक उपकरण जुटाने का उत्तरदायित्व सम्हाल लिये जाने से आचार्य का संघ व्यवस्था सम्बन्धी भार काफी हल्का हो जाता है । फलतः उन्हें धर्म-प्रभावना तथा संघोन्नति सम्बन्धी अन्यान्य कार्यों की सम्पन्नता में समय देने की अधिक अनुकूलता प्राप्त रहती है । आधार: पृष्ठभूमि पहले यह चर्चित हुआ है कि जैन परम्परा में पद नियुक्ति का आधार निर्वाचन जैसी कोई वस्तु नहीं थी । वर्तमान आचार्य अपने उत्तराधिकारी आचार्य तथा अन्य पदाधिकारियों का मनोनयन करने के लिए सर्वाधिकार सम्पन्न थे । आज भी वैसा ही है । ज्ञातव्य है कि उत्तराधिकारी आचार्य का मनोनयन तो आवश्यक समझा गया पर दूसरे पदों में से जितनों की, जब आचार्य चाहते, पूर्ति करते । ऐसी अनिवार्यता नहीं थी कि उत्तराधिकारी आचार्य के साथ-साथ अन्य सभी पदों की पूर्ति की जाए । आचार्य चाहते तो अवशेष सभी पदों का कार्य निर्वाह स्वयं करते अथवा उनमें से कुछ का करते, कुछ पर अधिकारी मनोनीत करते । मूलतः समग्र उत्तरदायित्व के आधार स्तम्भ तो आचार्य ही हैं । १. गणस्यावच्छेदो विभागोऽशोऽस्यास्तीति । यो हि तं गृहीत्वा गच्छोपष्टम्भायवोपधिमार्गणादिनिमित्तं विहरति । आचार्य प्र428 श्री आनन्द — स्थानांग सूत्र स्थान ४ उद्द ेशक ३ ( वृत्ति) ग्रन्थ BBA 30 श्री आनन्द थ Pro Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयायप्रवल अभिनन्दन आआन अभिनंदन इतिहास और संस्कृति व्यवस्था-सौंदर्य के लिए प्राय: अन्य पदों पर उपयुक्त, योग्य अधिकारियों का मनोनयन भी आचार्य उपयोगी मानते रहे हैं । पर क्रमशः पश्चाद्वर्ती समय में वैसा क्रम पूर्णतया नहीं रहा । कभीकभी केवल आचार्य पद पर अधिष्ठित एक ही व्यक्ति सारा कार्यभार सम्हालते रहे । कभी आचार्य तथा उपाध्याय - दो पद कार्यकर रहे । कभी सातों पदों में से जब जो-जो अपेक्षित समझे गये, तत्कालीन आचार्यों द्वारा भरे गये । रा 出 फ्र १४४ कुछ विशिष्ट योग्यताएं पदों पर मनोनीत किये जाने वाले श्रमणों में कुछ विशेष योग्यताएं वांछनीय समझी गई थीं । असाधारण स्थितियों में कुछ विशेष निर्णय लेने की व्यवस्थाएं भी रही हैं । व्यवहार-सूत्र तथा माध्य में इस सन्दर्भ में बड़ा विशद विवेचन हुआ है, जिसके कतिपय पहलू यहाँ उपस्थित करना उपयोगी होगा । कहा गया है कि जिन श्रमणों, निर्ग्रन्थों को दीक्षा स्वीकार किये आठ वर्ष हो गये हों, जो आचार, संयम, प्रवचन, प्रज्ञा, संग्रह ' तथा उपग्रह ( श्रमणों के परिपोषण) में कुशल हों, जिनका चारित्र अखण्ड, अशबल - अनाचार के धब्बों से रहित अदूषित, अभिन्न- एक जैसा सात्त्विक, असंक्लिष्ट - संक्लेशरहित हो अर्थात जो चारित्र का सम्पूर्ण रूप में आत्मोल्लास पूर्वक पालन करते हों, जो बहुश्रुत विद्वान हों, जो कम से कम अनिवार्यतः स्थानांगसूत्र और समवायांग सूत्र के धारक - वेत्ता हों, उन्हें आचार्य उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी और गणावच्छेदक पद पर अधिष्ठित करना कल्पनीय - - विहित है । इसी को और स्पष्ट करते हुए बतलाया गया है कि जिन श्रमणों में उक्त गुण या विशेषताएँ न हों, उन्हें ये पद देना अकल्पनीय है, ये पद उन्हें नहीं दिये जाने चाहिए । पदों के सम्बन्ध में एक विकल्प यों है जिन श्रमण-निर्ग्रन्थों को दीक्षा स्वीकार किये पाँच वर्ष व्यतीत हो चुके हों, जो आचार, संयम, प्रवचन, प्रज्ञा, संग्रह तथा उपग्रह में कुशल हों, जिनका चारित्र्य अखण्ड, अशबल - अदूषित, अभिन्न- एक जैसा सात्त्विक, असंक्लिष्ट —संक्लेशरहित हो, जो बहुश्रुत और विद्वान हों, जो कम से कम दशाश्रुतस्कन्ध, बृहतकल्प, व्यवहारसूत्र के वेत्ता हों, उनके लिए आचार्य और उपाध्याय का पद कल्पनीय है, उन्हें आचार्य या उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित करना विहित है । 3 उपाध्याय पद पर मनोनीत किये जाने योग्य श्रमणों का वर्णन करते हुए बतलाया गया है कि जिन श्रमणों, निर्ग्रन्थों को दीक्षा स्वीकार किये तीन वर्ष व्यतीत हो गये हों, जो आचार, संयम, प्रवचन, प्रज्ञा, संग्रह तथा उपग्रह में कुशल हों, जिनका चारित्र अखण्ड, अशबल - अदूषित, अभिन्न- एक जैसा सात्विक, असंक्लिष्ट – संक्लेशरहित हो, जो बहुश्रुत और विद्वान हों, जो कम से कम आचारांग और निशीथ के वेत्ता हों, उन्हें उपाध्याय के पद पद आसीन करना कल्पनीय है ।४ १. व्यवहार सूत्र उद्देशक ३, सूत्र, ७ २. श्रमणों के विहार के लिए समीचीन क्षेत्र, अपेक्षित उपकरण, उनकी आवश्यकताओं की यथोचित परिपूर्ति | ३. व्यवहार सूत्र उद्देशक ३, सूत्र ५ ४. व्यवहार सूत्र उद्दे शक ३, सूत्र ३ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन १४५ कमाण LUN पयर उपर्युक्त उद्धरणों में जो दीक्षा-काल दिया गया है, वह न्यूनतम है। उससे कम समय का दीक्षित श्रमण साधारणत: ऊपर वणित पदों का अधिकारी नहीं होता। पद और दीक्षा-काल आठ वर्ष, पांच वर्ष और तीन वर्ष के दीक्षा-काल के रूप में ऊपर तीन प्रकार के विकल्प उपस्थित किये गये हैं। अन्य योग्यताएँ सबकी एक जैसी बतलाई गई हैं। आठ वर्ष के दीक्षित श्रमण को आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी तथा गणावच्छेदक का पद दिया जाना कल्पनीय-विहित कहा गया है। सात पदों में से छः पदों का उल्लेख यहाँ हुआ है। गणधर का पद उल्लिखित नहीं है। पर, भावत: उसे यहाँ अन्तर्गभित मान लिया जाना चाहिए। तात्पर्य यह है कि जिस श्रमण का दीक्षा-पर्याय आठ वर्ष का हो चुका है और जिसमें यदि दूसरी अपेक्षित योग्यताएँ हों तो वह सभी पदों का अधिकारी है। पाँच वर्ष के दीक्षित श्रमण को, यदि अन्य योग्यताएँ उसमें हों तो आचार्य और उपाध्याय पद का अधिकारी बताया है। तीन वर्ष के दीक्षित श्रमण को और योग्यताएँ होने पर उपाध्याय पद के लिए अनुमोदित किया है। इन तीन विकल्पों में से दो में आचार्य का उल्लेख हआ है और उपाध्याय का तीनों में ही। इसका आशय यह है कि आचार्य के लिए कम से कम पाँच वर्ष का दीक्षा-काल होना आवश्यक है । तब यदि उनका आठ वर्ष का दीक्षा-काल हो तो और भी अच्छा। आठ वर्ष के दीक्षा-काल की अनिवार्यता वस्तुतः प्रवर्तक, स्थविर, गणी तथा गणावच्छेदक के पद के लिए है । पहले विकल्प में क्रमशः सभी पदों का उल्लेख करना था अतः आचार्य का भी समावेश कर दिया गया। उपाध्याय-पद के लिए कम से कम तीन वर्ष का दीक्षा-काल अनिवार्य है । फिर वह यदि पांच या आठ वर्ष का हो तो और उत्तम है। जैसा कि कहा गया है, आठ वर्ष के दीक्षा-काल की अनिवार्यता आचार्य तथा उपाध्याय के अतिरिक्त अन्य पदों के लिए तथा पांच वर्ष के दीक्षा-काल की अनिवार्यता केवल आचार्य पद के लिए है। पहले विकल्प में सभी पदों का और दूसरे विकल्प में दो पदों का उल्लेख करना था अत: दोनों स्थानों पर उपाध्याय का समावेश किया गया। श्रुत-योग्यता, आचार-प्रवणता, ओजस्वी व्यक्तित्व तथा जीवन के अनुभव-ये चार महत्वपूर्ण तथ्य हैं, जिनका संघीय पदों से अन्तरंग सम्बन्ध है। उपाध्याय का पद श्रुत-प्रधान या सूत्र-प्रधान है। आत्म-साधना तो जीवन का अविच्छिन्न अंग है ही, उसके अतिरिक्त उपाध्याय का प्रमुख कार्य श्रमणों को सूत्र-वाचना देना है। यदि कोई श्रमण इस (श्रुतात्मक) विषय में निष्णात हों तो अपने उत्तरदायित्व का भली-भाँति निर्वाह करने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं आती। व्यावहारिक जीवन के अनुभव आदि की वहाँ विशेष अपेक्षा नहीं रहती। वहाँ P aausamanarasanaadARDAcadalaaormaBBAGLADramanAmours مي عمر مر مر العمراویان هما حزمرد مرده هر کی به من م عهد आधारित समाचाफ्रतारनाम श्रीआनन्द अन्धाअन्धाअन्धन mmmmWAMIAMVwoMOKavy.AMMA merivinlaMareAMANY Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ENIयारी MIND ALLICIP आपाप्रवर आनापार्यप्रवर अभि श्रीआनन्दान्थ५ श्रीआनन्दजन्य - - १४६ इतिहास और संस्कृति सूत्र सम्बन्धी व्यापक अध्ययन, प्रगल्भ पाण्डित्य तथा प्रकृष्ट प्रज्ञा होनी चाहिए । अतः यदि तीन वर्ष के दीक्षित श्रमण में भी ये योग्यताएँ हों तो वह उपाध्याय-पद का अधिकारी हो सकता है। आचार्य पद के लिए योग्यता का आधार आचार-कौशल, शासन-नै पुण्य, ओजस्वी व्यक्तित्व, व्यवहार-पटुता, शास्त्रों का तलस्पर्शी सूक्ष्म ज्ञान तथा जीवन के अनुभव हैं। इनमें अनुभव के अतिरिक्त जो विशेषताएं बतलाई गई हैं, वे काल-सापेक्ष कम हैं, क्षयोपशम या संस्कार-सापेक्ष अधिक । कतिपय व्यक्ति जन्मजात प्रभावशील, ओजस्वी और कर्तव्य-कुशल होते हैं तथा कतिपय ऐसे होते हैं कि वर्षों के अभ्यास तथा चिर प्रयत्न के बावजूद इस प्रकार का कुछ भी वैशिष्टय अजित नहीं कर पाते । प्रत्येक कार्य में पुरुषार्थ और प्रयत्न तो चाहिए पर तरतमता की दृष्टि से वस्तुतः इन विशेषताओं का सम्बन्ध प्रयत्नों से कम और संस्कारों से अधिक है। आचार्य सस्कारी और पुण्यात्मा होते हैं। उनमें ये विशेषताएं स्वाभाविक होती हैं। पर, जीवन का अनुभव भी चाहिए। अतः उनके लिए कम से कम पांच वर्ष के दीक्षा-काल की अनिवार्यता बतलाई गई। संस्कारी एवं प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति के लिए जीवन के बहमुखी अनुभव अजित करने की दृष्टि से यह समय कम नहीं है। प्रवर्तक, स्थविर तथा गणावच्छेदक के पद जिस प्रकार के उत्तरदायित्व से जुड़े हैं, उनके निर्वहण के लिए बहुत ही अनुभवी व्यक्तित्व की आवश्यकता है, जो जीवन के अनुकूल-प्रतिकूल, मधुर-कटु, प्रियअप्रिय जैसे अनेक क्रम देख चुका हो, परख चुका हो । अनुभव-परिपक्वता की दृष्टि से उन पदों के अधिकारी होने योग्य श्रमण के लिए जो कम से कम आठ वर्ष का दीक्षाकाल स्वीकार किया गया है, वह वास्तव में आवश्यक है। इसी प्रसंग में व्यवहार सूत्र में एक विशेष बात कही गई है। बताया गया है कि विशेष परिस्थिति में एक दिन के दीक्षित श्रमण को भी आचार्य या उपाध्याय का पद दिया जा सकता है। यह बात विशेषतः निरुद्ध-वास-पर्याय-श्रमण को उद्दिष्ट कर कही गई है। निरुद्ध-वास-पर्याय का आशय उस श्रमण से है, जो पहले श्रमण-जीवन में था पर दुर्बलता से उससे पृथक हो गया । यद्यपि ऐसा व्यक्ति संयम से गिरा हुआ तो होता है पर उसके पास साधु-जीवन का लम्बा अनुभव रहता है। यदि वह सही रूप में आत्मप्रेरित होकर पुनः श्रामण्य अपना लेता है तो उसके विगत श्रमण-जीवन का अनुभव उसके लिए, संघ के लिए क्यों नहीं उपयोगी होगा । आचार्य का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों को लिए हुए होता है । अतः उक्त प्रकार के एक दिवसीय दीक्षित साधु में, जिसे आचार्य या उपाध्याय का पद दिया जाना विहित कहा गया है, और भी कुछ असाधारण विशेषताएं होनी चाहिए, जिनका निम्नांकित रूप में उल्लेख किया गया है--- वह स्थविर ऐसे कुल का हो, जिसके प्रति संघ की प्रतीति हो अथवा जो संघ के लिए दान, सेवा आदि की भावना के कारण प्रीतिकारक हो, जो स्थेय हो-प्रीतिकर होने के नाते जो संघ की चिन्ता में प्रमाणभूत हो, जो संघ के लिए, सबके लिए वैश्वासिक-विश्वास-स्थान हो, सम्मत हो, कठिनाई या संघर्ष आदि की स्थिति में सहयोग करने के नाते जो संघ के लिए प्रमोदकारक हो, जो संघ के लिए अनुमत हो Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन १४७ ല अथवा श्रमणों को दान देने में जहाँ परिवार के छोटे-बड़े सभी सदस्यों की अनुमति हो—सभी भिक्षा देने के अधिकारी हों, जो संघ द्वारा बहुमत हो-सेवाशीलता, शालीनता तथा धर्म-भावना की वृत्ति के कारण जिस कुल का संघ में बहुमान हो।' पारंपरिक संस्कारों का मनुष्य-जीवन पर बहुत प्रभाव होता है। पारिवारिक और पैतृक संस्कार मानव के हृदय में कुछ ऐसी धारणाएँ और मान्यताएँ प्रतिष्ठित कर देते हैं कि वह सहसा हीनपथ का अवलम्बन नहीं कर पाता। उसमें सहज ही धीरज, दृढ़ता, स्थिरता और उदात्तता आदि कुछ ऐसी विशेषताएँ होती हैं, जिनके कारण संघ का गुरुतर उत्तरदायित्व वह वहन कर सकता है। अपनी पैतृक प्रतिष्ठा, सम्मान और गरिमा भी उसके मस्तिष्क में रहती है, जो उसे किसी भी महान कार्य में साहस और निर्भीक भाव से जुट जाने को प्रेरित करती है। यही कारण है, यहाँ कुल की महत्ता पर इतना जोर दिया गया है। उक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि कुल के जो विशेषण ऊपर दिये गये हैं, उनका सीधा सम्बन्ध श्रमण संघ से है। जिस कुल से श्रमण संघ का इतना नैकट्य है, जिसके बच्चे-बच्चे के हृदय में श्रमणों के प्रति अगाध श्रद्धा है, परिवार का प्रत्येक सदस्य श्रमणों को भक्ति और आदर के साथ सदा दान देने को तत्परता रहता है, वहाँ एक दो का अपवाद हो सकता है, पर उसमें उत्पन्न व्यक्ति सहज ही संघीय दायित्वों के प्रति बहुत जागरूक होगा । परम्परा और संस्कार के कारण उसे लगभग वह सब प्राप्त होता है, जो काफी समय पूर्व दीक्षित साधु को होता है । ऐसे निरुद्ध-वास-पर्याय-श्रमण में वह शासकीय अभिज्ञता तो अपेक्षित है ही, जो आचार्य-पद के लिए वाञ्छनीय है। यह विशेष परिस्थिति भी, कभी-कभी तब बनती है जब अपना उत्तराधिकारी मनोनीत करने का अवसर पाये बिना ही आचार्य अचानक काल-धर्म को प्राप्त हो जाते हैं । समग्र संघ के पुराने श्रमणसदस्यों में कोई ऐसा व्यक्ति न दीख पड़े, जो आचार्य या उपाध्याय के उत्तरदायित्व को सम्हालने में सक्षम लगे, तब संयोगवश कोई ऐसा व्यक्ति दृष्टि में आए, जो परम योग्य प्रतीत होता हो, पर जिसका दीक्षा-पर्याय केवल एक ही दिन का हो तो उसे पदासीन किया जा सकता है। सामान्यतया ऐसा होता नहीं, पर विशेष स्थिति में ऐसा संयोग बन जाए तो वहाँ करणीयता का जो आधार होना चाहिए, उसे उपर्युक्त रूप में संकेतित किया है। व्यवहार-सूत्र में एक और ऐसी ही विशेष परिस्थिति के सन्दर्भ में कहा गया है, यदि अचानक आचार्य काल-धर्म को प्राप्त कर जाएं और तब तक उत्तरवर्ती आचार्य या उपाध्याय का मनोनयन न किया जा सका हो और संयोगवश सामने एक ऐसा (निरुद्ध-वास-पर्याय) श्रमण हो, जो यद्यपि सभी अपेक्षाओं से आचार्यत्व के अनुरूप हो पर जिसकी दीक्षा पर्याय केवल एक दिवसीय हो, जो बहुश्रुत न हो, परन्तु जो समुच्चय रूप में आचारांग तथा निशीथ का कुछ ही भाग पढ़ा हो, परन्तु अवशिष्ट भाग पढ़ १. व्यवहार सूत्र, उद्देशक ३, सूत्र ६ । ARM A nsadhanAGARMADARAMBAwariAGARicordarAJIJABRJAAAAAAAAAAJAINAASAIRAMSARNAM Amwani भागार प्रवास अभियापार्यप्रवर अभि श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्द आभार Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ د قیمت مققلععح علمدفرعود عن موعیعنی هم به هفتمطمطمطعفی که در مثمر مع مععرعر عرعر عرعر علتی منعه معهميععععععهن आचार्यप्रवभिनआचार्यप्रवरअभिला श्रीआनन्द अन्य श्रीआनन्द अन् Yoravivariwaveviv e १४८ इतिहास और संस्कृति लेने का निश्चय व्यक्त करे, वह आचार्य या उपाध्याय के पद के लिए कल्पनीय है-उसे ये पद सौंपे जा सकते हैं। परन्तु अपने निश्चय के अनुरूप यदि वह उक्त अंश पढ़ नहीं पाए तो इन पदों का अधिकारी नहीं रह सकता। श्रमण-चर्या श्रमण जीवनोचित आचार को सूक्ष्मता से जानने-समझने तथा पालने के लिए आचारांग और निशीथ को आत्मसात् करना प्रत्येक श्रमण के लिए बहुत आवश्यक है। आचार्य स्वयं आचार के जीवित प्रतीक होते हैं, अन्तेवासियों को आचार-पालनार्थ उत्प्रेरित करते हैं। स्वयं आचार पालना, औरों से पालन करवाना यह आचार्य के कर्तव्यों में से मुख्य कर्तव्य है । अतएव श्रमण-आचार का स्वरूप और सार बताने वाले वाङमय को आत्मसात् करना आचार्य के लिए परम आवश्यक है। दूसरे शब्दों में यह अनिवार्य करणीयता है । व्यवहार-सूत्र के उक्त विवेचन का इंगित इसी ओर है। जैन धर्म में आचार का सर्वोच्च स्थान है। कितना ही बड़ा ज्ञानी क्यों न हो, आचार के बिना उसका ज्ञान सार्थक नहीं है । उसे भार से अधिक क्या कहें, आचार्य, उपाध्याय आदि महत्त्वपूर्ण पदों पर आने की पहली योग्यता निर्मल आचरण है । वर्तमान में तो आचार पूर्णतया परिशुद्ध और उज्ज्वल होना ही चाहिए, जीवन के पिछले भाग में भी उसमें पवित्रता रही हो, यह अपेक्षित है। अतएव इस प्रसंग में व्यवहार सूत्र में यहाँ तक निर्देश है कि श्रमण के रूप में रहते हुए यदि किसी ने व्यभिचार का सेवन कर लिया और साधु-जीवन से पृथक् हो गया, फिर पुनः प्रायश्चित्त आदि कर वह श्रमण-जीवन में आ गया, ऐसा व्यक्ति जीवन में कभी भी आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी तथा गणावच्छेदक के पद पर आने का अधिकारी नहीं है। उसे यावज्जीवन कभी इनमें से किसी भी पद पर प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता। क्योंकि श्रमण के वेष में रहते हुए व्यभिचार सेवन कर वह अपने श्रामण्य की पवित्रता और उज्ज्वलता पर एक ऐसा धब्बा लगा देता है, जो अत्यन्त दुषणीय है। ऐसे व्यक्ति को आचार्य आदि पदों पर मनोनीत कर देने से धर्म-शासन की अवहेलना होती है, उससे लोगों की आस्था हटती है। जिस प्रकार साधु के लिए अब्रह्मचर्य-सेवन अत्यन्त जघन्य कार्य है. उसी प्रकार असत्य, प्रवंचना एवं छल भी उसके लिए सर्वथा परिहेय है। व्यवहार सूत्र में इस पहलू को दृष्टि में रखते हुए कहा गया है कि जो भिक्षु बहुश्रुत हो, उत्कृष्टतया दश पूर्व तक के ज्ञान का संवाहक हो, परम विद्वान् हो, पर किन्हीं अनिवार्य कारणों के उपस्थित होने पर भी यदि वह माया का आचरण करता है, मृषावाद का प्रयोग करता है, उत्सूत्र को प्ररूपणा करता है तथा पापोपजीवी होता है अर्थात् पापपूर्ण जीविका का आश्रय लेता है, वह जीवन भर के लिए आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी या गणावच्छेदक पद का पात्र नहीं हो सकता। १. व्यवहार सूत्र, उद्देशक ३, सूत्र १० २. व्यवहार सूत्र, उद्देशक ३, सूत्र १३ ३. व्यवहार सूत्र, उद्देशक ३, सूत्र २६ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन १४६ श्रमण का जीवन वस्तुत: कायिक, वाचिक और मानसिक शुद्धि का जीवन है। यदि उसमें कर्म और वचन की पवित्रता न रहे तो वह शोभित नहीं होता । जो श्रमण उक्त प्रवृत्तियों द्वारा दूषित बनता जाता है, उसकी साख बिगड़ जाती है। वह कितना ही बड़ा पण्डित और ज्ञानी क्यों न हो, वस्तुतः उसके द्वारा धर्म या संघ का यथार्थ उत्कर्ष सधता नहीं, अपितु अपकर्ष होता है । अतएव ऐसे व्यक्ति को आचार्य, उपाध्याय आदि किसी भी पद के लिए योग्य नहीं माना गया। संघ में आचार्य का स्थान अप्रतिम गरिमामय है। उसकी महत्ता और पवित्रता सदा अव्याहत रहे, इसी ओर जैन परम्परा में सदैव जागरूकता बरती जाती रही है। व्यवहार-सूत्र में इस सम्बन्ध में एक स्थान पर बड़ा मार्मिक विवेचन मिलता है। कहा गया है कि संयोगवश कोई आचार्य-उपाध्याय अत्यन्त रुग्ण हों, उनको अपनी मृत्यु सन्निकट लगे और तब तक वे अपने उत्तराधिकारी का मनोनयन न कर सके हों, तो वे उन साधुओं को जो उनके पास हों, कहें कि उनका आयुष्य पूर्ण होने पर अमुक साधु जो इस पद के योग्य है, को पद-प्रतिष्ठित कर दीजियेगा । यहाँ आचार्य और उपाध्याय इन दोनों नामों का जो उल्लेख है, उसका आशय ऐसे आचार्य से प्रतीत होता है, जिनके पास आचार्य पद के साथ-साथ उपाध्याय पद भी हो । अस्तु संयोगवश आचार्य कालधर्म को प्राप्त हो जाते हैं। जिन श्रमणों को उनका इंगित किया हुआ होता है, वे आचार्य द्वारा निर्दिष्ट श्रमण की परीक्षा करें। उन्हें लगे कि वह व्यक्ति पद की गरिमा को वहन करने में सक्षम है, पद के उत्तरदायित्वों को भलीभांति सम्हाल सकेगा तो उसे उक्त पद पर अधिष्ठित करें। यदि ऐसा लगे कि उसमें पद-निर्वाह की योग्यता नहीं है तो ऐसे किसी दूसरे व्यक्ति का मनोनयन करें, जो उसके योग्य प्रतीत हो । साथ ही साथ इसमें एक विकल्प और है । जो दूसरा योग्य प्रतीत हो, उसको यदि आचारांग और निशीथ का अध्ययन न हो तो उन्हें (श्रमणों को) चाहिए कि जब तक वह श्रमण आचारांग और निशीथ का अध्ययन न कर ले, तब तक के लिए वे उस व्यक्ति को पद दें, जिसके लिए दिवंगत आचार्य निर्देश कर गये हों। पर उसको वे यह बतला दें कि जब तक उक्त (दूसरा) श्रमण अध्ययन न कर ले, तब तक के लिए वह उस पद का अधिकारी है। दूसरे श्रमण के अध्ययन कर चुकने पर पद उसे सौंप देना होगा। तदनन्तर जब वह दूसरा श्रमण पढ़ कर योग्य हो जाये, तब वे अस्थायी रूप से आचार्य-पद पर अधिष्ठित किये गये व्यक्ति से वह पद पूर्वनिश्चयानुसार उसे सौंप देने के लिए कहें। इस पर यदि पदासीन श्रमण पद न छोड़े तो संघ के श्रमणों को चाहिए कि वे खुल्लमखुल्ला उससे पद छोड़ने के लिए कहें, उस पर जोर डालें कि वह पद का वास्तविक अधिकारी नहीं है। यों सुन कर यदि आचार्य-पदासीन व्यक्ति अपना पद विसजित कर दे तो उसे कोई प्रायश्चित्त नहीं आता । यदि पद का विसर्जन न करे तो वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। जैन परम्परा में आचार्य द्वारा उत्तराधिकारी मनोनीत किये जाने के रूप में एकतन्त्रीय शासन प्रणाली की प्रधानता थी पर उसमें एकान्तिकता या निरंकुशता नहीं थी । जहाँ आचार्य का निर्णय सर्वोपरि होता था, वहाँ उस पर चिन्तन करने की भी गुजायश थी। सामष्टिक रूप में विवेक की कसौटी पर कसे १. व्यवहार सूत्र, उद्देशक, ४ सूत्र १३ JaimitramaniaNamaraGORONOR साचासत्राचायनशाना प्राआवद अनाआना MARAMAvanamamaMeSaarenmonweammeMMAvor Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ENT श्रीआनन्द अन् श्रीआनन्द अन्य५: प्र अभिवापार्यप्रवर अभि १५० इतिहास और संस्कृति जाने पर यदि उसमें परिवर्तन करना आवश्यक होता तो श्रमण-समुदाय वैसा करना अनुचित नहीं मानता, वैसा करता, पर ऐसी स्थितियाँ कदाचित्क होतीं, बहुत कम आती क्योंकि आचार्य निःस्वार्थ और निर्मोहभाव से निर्णय लेते थे । उसमें अपवाद बहुत कम होता। जैसा कि पहले विवेचन हुआ है, यह एक ऐसी स्वस्थ एकतन्त्रीय परम्परा थी, जिसमें अधिनायक के प्रति समग्र श्रद्धा और विश्वास के बावजूद निर्लेप और उन्मुक्त चिन्तन के लिए निर्बाध स्थान था। इसी का यह परिणाम रहा कि जैन संघीय व्यवस्था में संकीर्ण स्वार्थपरता और हीनता नहीं आने पाई । यद्यपि समय-समय पर अनेक प्रकार के परिवर्तन तो आये पर वे मौलिक रूप पर आघात करने वाले नहीं बने । जैन श्रमण संघ के दो भाग थे-श्रमण-समूह और श्रमणी-समूह । मौलिक नियम दोनों के लिए एक से थे, व्यवस्था-क्रम भी दोनों के लिए समान रूप से लागू था । पर, श्रमणीवृन्द की दैनन्दिन व्यवस्था की समीचीनता के लिए उनमें भी प्रवतिनी, स्थविरा तथा गणावच्छेदिका के पद निर्धारित थे । समलैगिकता के नाते श्रमणियों की व्यवस्था में इससे अपेक्षाकृत अधिक सुविधा रहती है । इसके अतिरिक्त श्रमणों और श्रमणियों के अति सम्पर्क का अवसर भी, जो अवाञ्छनीय है, इससे नहीं बनता। Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sh 0 श्री जवाहरलाल मुणोत, [जैन समाज के प्रभावशाली नेता, अमरावती INTER जत क्या जैन सम्प्रदायों का एकीकरण सम्भव है ? IANS लेख के शीर्षक से प्रतीत होता है कि जैन धर्म में भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों की मौजूदगी अगर बुरी नहीं तो अप्रस्तुत तो जरूर है और इसलिये उनका एकीकरण किया जाना चाहिये । परन्तु आप गहराई से देखें तो यह स्पष्ट होगा कि संसार के प्रत्येक प्रमुख धर्म में बहुत जल्द सम्प्रदायों का उद्गम हो जाता है और इन अलग-अलग सम्प्रदायों में बंटा धर्म, उसके अनुयायियों के लिये किसी विशेष चिन्ता का कारण नहीं बनता । बौद्धों के हीनयान और महायान के मोटे विभेदों का हमें पता है परन्तु इन भेदों के अन्तर्गत अनगिनत सम्प्रदाय-विशेष वाले प्रभेद हैं। संसार के दूसरे बड़े धर्म ईसाई का भी यही हाल है। रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेंटों के सम्प्रदायों ने धार्मिक असहिष्णुता का रक्तरजित इतिहास सजा है। इस्लाम के शिया-सुन्नी सम्प्रदायों से भारतवासी परिचित हैं । और हिन्दू धर्म तो असंख्य सम्प्रदायों और शाखाओं का ही एक विशाल बरगद है। तब जैन धर्म के चार प्रमुख सम्प्रदाय-दिगम्बर, श्वेताम्बर (मू० पू०), स्थानकवासी और तेरापंथी-एकीकरण की किन आवश्यकताओं की ओर संकेत करते हैं। ____ मैं यहाँ पर उन ऐतिहासिक और शास्त्रीय कारणों का उल्लेख नहीं करूंगा जो इन विभिन्न सम्प्रदायों की स्थापना के लिए उत्तरदायी माने जाते हैं। और मेरे इस तटस्थ भाव के लिये सबल कारण हैं । बात साफ यह है कि कोई भी सम्प्रदाय अपने जन्म और विकास को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने का आदी नहीं। उसके लिये अपना सम्प्रदाय ही एकमात्र अपने धर्म का सही और उचित मार्ग है। अन्य संप्रदाय या तो सच्ची धर्म-व्याख्या से अनजान हैं अथवा धर्म की विडम्बना । एक बार आपने भिन्न-भिन्न संप्रदायों की गहराई से तथा वैज्ञानिक व्याख्या करनी शुरू कर दी तो बहुत जल्द हम अलग-अलग संप्रदाय वालों को अपनी-अपनी आस्तीने च ढ़ो कर, आपस में गाली-गलौज करते पायेंगे। अनेकांत दर्शन के आधार-स्तम्भ जैन धर्म का ही जब यह हाल है-जब जैन सम्प्रदाय वाले भी, अपने सम्प्रदाय के अलावा का बया ज्य पार्यप्रवआभापार्यप्रवर आ श्रीआनन्दश्रीआनन्दान् mannyeon A - RMATMammer Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रव श्री आनन्द We अभिनन्दन आआनन्दका अन्य ग्र १५२ इतिहास और संस्कृति अन्य सम्प्रदायों के बारे में धैर्य से बात सुनने-समझने को तैयार नहीं, तब भला दूसरे धर्मों के बारे में निन्दा का तो हमें अधिकार ही क्या है ? बहुत मोटी बुद्धि से भी यह समझ में आ जाता है कि धर्म संस्थापक, दैवी शक्ति से विभूषित, अद्भुत प्रतिभा के धनी और जन-जन के मन पर अनिर्वचनीय प्रभाव पैदा करने वाली शक्ति के संयोजक होते हैं । उनकी वाणी, कर्म और विचार, समस्त मानव जाति के अन्तिम सुख, शान्ति और कल्याण के लिये समर्पित होते हैं । इसलिये उनके ईमानदार से ईमानदार शिष्य के लिये भी, उस युग-निर्माणक देव- पुरुष के कथन, उपदेश अथवा आचरण का सौ फीसदी स्वरूप समझ पाना शायद सम्भव हो भी जाय परन्तु उस कथन, उपदेश अथवा आचरण की जन-जन के लिये वैसी ही विशुद्ध व्याख्या कभी सम्भव हो ही नहीं पायेगी । आखिर व्याख्याता - शिष्य, स्वयं तीर्थंकर भगवान या अवतार तो नहीं होता और इस प्रकार, प्रत्येक विशाल धर्म की सहज, ईमानदार और निश्छल व्याख्या के प्रयत्नों के बाद भी, बहुत जल्द धर्म की भिन्न-भिन्न व्याख्याएँ जन्म लेने लगती हैं । सम्प्रदायों का यही उद्गम है । अगर यह सही है तब प्रश्न उठेगा - किन स्थितियों में, सम्प्रदायों का एकीकरण सम्भव है ? पहले हम एकीकरण का अर्थ समझ लें । जहाँ तक मैं समझता हूँ, एकीकरण का अर्थ, विलीनीकरण तो हो ही नहीं सकता । जिन विशिष्ट परिस्थितियों में प्रत्येक सम्प्रदाय ने जन्म लिया है, वे भला भविष्य में भी समाप्त कैसे हो सकती हैं ? अगर कोई असाधारण प्रतिभा और देवी प्रेरणा का प्रतीक यह प्रयत्न भी करे तो डर यही है कि वह एक नये सम्प्रदाय को जरूर जन्म दे देगा, मौजूद सम्प्रदायों का विलीनीकरण सम्भव नहीं होगा । तब एकीकरण ? आप इसे हठ कहें या अपना-अपना आग्रह, कोई भी सम्प्रदाय न तो अपनी-अपनी व्याख्याओं और उन पर आधारित धार्मिक रस्मों में परिवर्तन करने को तैयार होगा और ना ही इस बात के लिये राजी होगा कि सम्प्रदाय अपने परिवर्तन प्रचार को त्याग दे । ऐसी हालत में, शायद हम एकीकरण की बात, एक विरोधाभास के रूप में ही पेश कर रहे हैं ? उप-सम्प्रदायों का संसार शायद इसीलिये, देश - काल के समाज सुधारक और प्रखर प्रतिभाशाली विद्वानों ने सम्प्रदायों का एकीकरण के बजाय, उप-सम्प्रदायवाद की समाप्ति पर बल दिया । मैं स्थानकवासी हूँ । जानता हूँ, स्वयं इस जैन सम्प्रदाय में कितने छोटे-बड़े सम्प्रदाय हैं। सभी उप-सम्प्रदाय, केवल अपने आप को ही विशुद्ध और सही स्थानकवासी मानते हैं । लेकिन यह तो जरूर सम्भव है कि कम-से-कम विशिष्ट सम्प्रदाय के उप-सम्प्रदायों का एकीकरण कर डाला जाय और आम जनता में, केवल एक ही सम्प्रदाय की मान्यता सर्वव्यापी हो ? कमीबेशी, यही हालत आपको जैन धर्म के अन्य सम्प्रदायों में भी मिल जायेगी । स्थानकवासी समाज की धुरी है - हमारे श्रमण । और हमारे आदरणीय श्रमण ही, उप-सम्प्रदायवाद की समाप्ति करने के लिये आसानी से एकमत नहीं होते । इन अनगिनत उपसम्प्रदायों का आधार केवल श्रमणवर्ग की भिन्नता है, उनका विभिन्न आचार-विचार है और है उनकी अपनी-अपनी व्यक्तिगत आचरण-शैली । मेरे लिये वैराग्य और श्रमण जीवन का मनोवैज्ञानिक रहस्य समझना तो असम्भव है। Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या जैन सम्प्रदायों का एकीकरण सम्भव है ? १५३ ( iद ORG परन्तु यह प्रकट है कि आत्म-कल्याण और आन्तरिक तप के इन अधिष्ठाताओं के लिये श्री संघ का अनुशासन स्वीकार करना और उस पर सतत आचरण करना बहुत कठिन होता है। फिर भी, श्री शासनदेव द्वारा ही, जगत्-कल्याण के लिये, श्रमण-संघों की अनुशासनबद्ध स्थापना जैन धर्म का एक निर्मम नियम है क्योंकि उसी सूरत में, आत्मकल्याण, जगत् कल्याण का पर्याय बन जाता है। बीस बरसों से अधिक समय हुआ होगा जब उपसम्प्रदायवाद को एकसूत्री सम्प्रदाय का स्वरूप देने का स्थानकवासी समाज का एक महत्वपूर्ण प्रयोग शुरू हुआ था । श्रमण संघ का सादड़ी अधिवेशन में एकीकरण हुआ और यह आशा सुदृढ़ हुई कि इस एकता की शुरूआत, अन्त में सम्पूर्ण सम्प्रदाय के विशुद्ध एकीकरण को जन्म देगी। मैं यहाँ इतिहास की व्याख्या नहीं करूंगा। लेकिन स्थानकवासी समाज को पता है कि श्रमण-एकता का काल खण्ड बहुत छोटा रहा । एक के बाद एक, विभिन्न उपसम्प्रदाय, अलग-अलग कारणों से फिर से उपसम्प्रदायों की स्थापना करने लग गये और श्रमण-एकता का स्वप्न टूट गया। जिस महा-मनीषी के गौरव के लिये यह अभिनन्दन ग्रन्थ रचा जा रहा है, उन्हीं आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषिजी महाराज साहब ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा से इस एकता के मूल सूत्र अब भी जोड़ रखे हैं । परन्तु क्या हम इसे एकीकरण का सफल प्रयोग कह सकते हैं ? नई पीढ़ी और उप-सम्प्रदायों का एकीकरण मूल रूप से, मैं मानता हूँ कि जैन धर्म के प्रमुख सम्प्रदायों का एकीकरण तो सम्भव नहीं है, सद्भाव, एकत्रित और संयुक्त कामकाज, सहयोग और संयुक्त विकास अवश्य सम्भव है, हितकर भी है और आवश्यक भी। लेकिन यह भी मेरी मान्यता है कि इन चार प्रमुख सम्प्रदायों में, अंतर्गत उपसम्प्रदायों का आरम्भ में एकीकरण और अन्त में विलीनीकरण सम्भव भी है और आवश्यक भी। और मेरा विचार है कि इस बड़े काम के लिये, श्रावकों की भूमिका भविष्य में अधिक निर्णायक और प्रभावशाली रहेगी। मुझे खेद के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि कम-से-कम निकट भविष्य में तो, श्रमणों में तो स्वयं स्फूर्ति से उत्पन्न एकीकरण सम्भव नहीं दिखलाई देता। अगर मौके बेमौके ऐसे प्रयत्न होंगे भी तो वे अल्पजीवी ही रहेंगे और उन्हें स्थायी स्वरूप दे पाना बहुत कष्टसाध्य बात होगी। लेकिन इस अहम् सवाल पर हम श्रावकों को क्यों भूल जाते हैं ? जरा जैन धर्मावलम्बियों की नई पीढ़ी की ओर देखिये । वे अगर आज जैनी हैं तो इसीलिये कि उनके मां-बाप जैनी हैं और एक विशिष्ट सम्प्रदाय के हैं ? परन्तु धर्माचरण और धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा क्या विरासत में मिलती है ? क्या इस बात की कोई गारण्टी है कि विशिष्ट सम्प्रदाय अथवा उपसम्प्रदाय की सन्तान उसी सम्प्रदाय की बिला हीला-हज्जत श्रावक-श्राविका बनी रहेगी? यह तो नई पीढ़ी के साथ अन्याय भी होगा और उसकी शक्ति को अनदेखा करने जैसा होगा। अगर हमारे इस युग की नौजवान पीढ़ी को अपने धर्म से, अपने सम्प्रदाय से अभिन्न लगाव होगा तो उसमें तर्क, बुद्धि और भावना का त्रिवेणी संगम होगा। केवल गतानुगति और परिवार की रुचि निर्णायक नहीं रह सकती। और इस नये युग की नई जैन स्थानकवासी श्रावक समाज की सामूहिक शक्ति स्वाभाविक ही, उपसम्प्रदायवाद को समाप्त कर सकेगी। हमारे लिये मुख्य कार्य है, उस आधार को तैयार करना SALAMAAJANSAMVIRAINindiAIIMomsaina MARWAJANARORICASutr a Mirmirm viiiiviaNAM Domimmamromintwwmanwadiwww Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ormininAAAAPranamamamaAJAJanuahar आमाश्रीआनन्द 22 भाषाप्रवन नाचावर आमा १५४ इतिहास और संस्कृति जो नये युवक-युवतियों में सम्प्रदाय विशेष को एकीकरण के रूप में ही अंगीकार करेगा। जो नव-श्रावकश्राविकाओं को समग्र जैन धर्म के प्रति सच्ची आस्था और सम्प्रदाय के प्रति सही जानकारी और अनेकान्तवादी आसक्ति से ओतप्रोत होगा। इसीलिये, मैं आशावादी हूँ क्योंकि उपसम्प्रदाय के एकीकरण के लिए, अमली रूप से हमने अब तक श्रावक-शक्ति का उपयोग ही कब किया है ? अगर श्रमण एक संघीय एकता के लिए तत्पर नहीं हैं या उसे कर पाने में कम-से-कम फिलहाल असमर्थ हैं तो चिन्ता की क्या बात है ? आधुनिक श्रावक तो एक हो ही सकते हैं और ऐसी स्थितियों को जन्म दे सकते हैं जो अन्ततोगत्वा सम्प्रदाय के एकीकरण और श्रमण संघ की सतही नहीं-मूलभूत एकता की पुनर्स्थापना करें। आचार्य प्रवर श्री आनन्द ऋषिजी महाराज का इससे श्रेष्ठ अभिनन्दन क्या हो कि उनके ७५ वें सौभाग्यशाली जन्म-दिवस पर, सम्पूर्ण स्थानकवासी श्रावक समाज अपनी सामाजिक एकता और एकीकरण की शक्ति से अभिनन्दन करे और इस तपःपूत महर्षि को, एकत्र श्रावक-शक्ति से वन्दन करे ? आप पूछेगे, यह श्रावक-एकता सिद्ध कैसे हो ? मुझे बात सम्भव इसलिए लगती है क्योंकि स्थानकवासी जैन श्रावकों की व्यवहारिकता और सामान्य सांसारिकता पर मुझे भरोसा है । अगर मैं भूल नहीं करता तो प्रबुद्ध श्रावक-श्राविका के लिए सारे स्थानकवासी सम्प्रदाय की एकता के इस युग के, देश-काल के भारी महत्त्व को समझना अपेक्षतया सरल है और यही वह कड़ी है जो एकीकरण का रास्ता सुगम बनायेगी । हम जानते हैं कि श्रमण एकता छिन्न-भिन्न हो जाने पर भी श्रावक एकता अब तक उतनी खण्डित नहीं होने पाई और जरूरत इस बात की है कि श्रावक-एकता की प्रतीक संस्था (यथा-अ० भा० श्वे० स्था० कान्फ्रेन्स) में सभी उपसम्प्रदायों को उचित स्थान हो और वह इस प्रकार के काम-काज में अग्रसर हो जो श्रावक-एकता का मार्ग प्रशस्त करे। मैं इसी विश्वास का प्रबल समर्थक हूं कि हमारे प्रयत्नों से श्रावक संस्था न केवल बलशाली बने अपितु वह वीर्यवान, जीवप्रद भी हो। अगर किन्हीं कारणों से किसी उपसम्प्रदाय ने उससे अलगाव कर डाला है तो श्रावक सारी शक्ति से उन कारणों का उन्मूलन कर डालें। हमारा अन्तिम लक्ष्य सारे स्थानकवासी समाज का, सम्प्रदाय का एकीकरण है और श्रावक एकता इस मार्ग का पहिला बड़ा पडाव । एक बार श्रावक-एकता प्रस्थापित हो गई तो मुझे इसमें संशय नहीं कि उसका अगला कदम श्रमण-एकता ही होगा। दूसरे शब्दों में, श्रावक-एकीकरण का अमली अर्थ है. स्थानकवासी श्रावक-श्राविकाओं की भारतीय संस्था का प्रबलीकरण । क्या मैं देश के बिखरे श्रावक समाज से प्रार्थना करूँ कि वे सम्प्रदाय एकीकरण के महान अनुष्ठान में आगे आकर स्थानकवासी श्रावक-संस्था को मजबूत बनायेंगे ? Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 श्री महावीर कोटिया, जयपुर [विचारक, लेखक श्री कृष्ण का वासुदेवत्व : जैन दृष्टि भारतीय-साहित्य में श्री कृष्ण के विशिष्ट स्वरूप का परिचय देने वाला ग्रन्थ 'महाभारत' है। महाभारत के श्री कृष्ण स्वयं भगवान विष्णु हैं, जिन्होंने संसार के कल्याणार्थ देवकी-वसुदेव के यहाँ जन्म लिया है। वे भगवान समस्त सृष्टि के उपादान कारण हैं, अखिल विश्व-सभी चराचर-के सर्जक हैं, अव्यक्त हैं, अविनाशी हैं और सबके पूज्यतम हैं। भीष्मपर्वान्तर्गत गीता में स्वयं उनसे कहवाया गया है-"मैं सभी प्राणियों का स्वामी और अजन्मा हैं। मेरे स्वरूप में कभी व्यय अथवा विकार नहीं होता, तथापि अपनी ही प्रकृति में अधिष्ठित होकर मैं अपनी ही माया से जन्म लिया करता हूँ।"3 महाभारतकार ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही 'नारायणं नमस्कृत्य नरचैव नरोत्तमम्' तथा 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्रों का विधान कर उन भगवान नारायण, वासुदेव को नमस्कार किया है । इस प्रकार महाभारत में विष्णु के अवतार, देवकी-वसुदेव के पुत्र श्री कृष्ण स्वयं भगवान वासुदेव हैं, नारायण हैं ! वस्तुतः महाभारत में श्री कृष्ण वासुदेव तथा नारायण पर्यायवाची हैं। जैन-परम्परा में भी श्री कृष्ण, वासुदेव हैं, नारायण हैं ! जैन-साहित्य में जिन श्रेषठ-शलाकापुरुषों के चरित वर्णन की प्रधानता है, उसमें श्री कृष्ण, शलाका पुरुष वासुदेव (नारायण) हैं ! उनके वासूदेव रूप का ही जैन-साहित्य में वर्णन है। तदनुसार उनके विशिष्ट स्वरूप की विशेषताएं जैनसाहित्य में निम्न प्रकार हैं : (१) वे असाधारण वीर व पराक्रम सम्पन्न हैं। उनके विभिन्न वीरतापूर्ण व साहसिक कार्यों से बाल्यावस्था से ही उनके असाधारण व्यक्तित्व का परिचय मिलने लगता है। (१) अनुग्रहार्थं लोकानां विष्णुर्लोक नमस्कृतः। वासुदेवात तु देवक्यां प्रादुर्भूतो महायशाः ।।-आदिपर्व ६३६६ (२) कृष्ण एव ही लोकानामुत्पत्तिरपि चाव्ययः । कृष्णस्य ही कृते विश्वमिदं भूतं चराचरम् ।। एव प्रकृतिरव्यक्ता कर्ताचैव सनातनः । परश्च सर्वभूतेभ्यस्तस्मात् पूज्यतमाऽच्युतः ।।-सभा पर्व ३८।२३-२४ (३) गीता ४।६ musanmaaamwwwAAKARINAAMANAMANIMAainaariMALINGAMunmaarnamaAMINAAMIRASAINManoos NIMA RATNयार्गव श्रीआनन्द अानन्द अनशन VYAMwimmm VarnamaANYaviv.. Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रवर श्री So TALASEY श्र इतिहास और संस्कृति (२) वे अत्यधिक प्रभावशाली व शक्तिसम्पन्न शासक हैं । उन्हें अर्धचक्रवर्ती अथथा त्रिखण्डाधिपति भी कहा गया है । जैन - भूगोल के अनुसार सम्पूर्ण देश को ६ खण्डों में विभाजित किया गया है। इनमें तीन खण्ड उत्तर भारत के तथा तीन खण्ड विन्ध्याचल (विजयार्द्ध पर्वत ) से नीचे के अर्थात् दक्षिण भारत के । श्रीकृष्ण का द्वारका सहित सम्पूर्ण दक्षिण क्षेत्र में प्रभाव था, अतः उन्हें अर्द्धचक्रवर्ती कहा गया है । १५६ श्री आनन्दन ग्रन्थ: 31 (३) अर्द्धचक्रवर्ती शासक होने के कारण वे शक्ति, धनुष, गदा, चक्र, कृपाण, शंख और दण्ड आदि सात रत्नों के धारक थे।" (४) उनके कार्यों से अधर्म, अनाचार व अशान्ति का नाश होता है । वे देश में धर्म तथा न्याय की स्थापना करते हैं । (५) वे अपने समान बली, शक्तिशाली व प्रभुत्व सम्पन्न शत्रु-राजा, जिसे कि जैन परम्परा में प्रतिवासुदेव ( प्रतिनारायण ) कहा है; जो कि बुरी शक्तियों - अधर्म, अनाचार, अन्याय आदि को प्रश्रय देते हैं, हनन करते हैं । इस दृष्टि से श्रीकृष्ण का प्रतिद्वन्द्वी जरासन्ध था। उसके हनन से लोक में सर्वत्र प्रसन्नता छा जाती है और स्वयं देवगण उनका वासुदेव रूप में अभिनन्दन करते हैं तथा उन पर पुष्पवृष्टि करते हैं । (६) वे अत्यधिक धार्मिक वृत्ति के हैं । धर्म प्रभावना में उनका पूर्ण योगदान रहता है । साथ ही राज्य, वैभव तथा प्रभुता के प्रति उनका मोह का भाव भी है, इसलिए तपस्या अथवा वैराग्य के महान पथ के वे साधक नहीं बन पाते हैं । उक्त विवरण से स्पष्ट है कि जैन-परम्परा में वासुदेव (नारायण) से तात्पर्य महान् पराक्रमी व अत्यधिक शक्तिसम्पन्न अर्ध चक्रवर्ती शासक से है, जो कि अपने असाधारण बल, पराक्रम व शक्ति के द्वारा अनाचारी और अत्याचारियों का उन्मूलन करके, पीड़ितों व दीन-दुखियों का उद्धार करते हैं और इस प्रकार धर्म की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करते हैं। उनका आदर्श मुख्यतः लोकरक्षा का है । अतः समाज में उनके वीर स्वरूप की पूजा होती है ! स्पष्ट ही 'वासुदेव' शब्द का यह प्रयोग महाभारत में प्रयुक्त देवाधिदेव भगवान के पर्यायवाची शब्द 'वासुदेव' से पूर्णतः भिन्न है । 'वासुदेव' शब्द की इस अर्थ में प्रयुक्ति से ऐसी सम्भावना भी प्रकट होती है कि तत्कालीन भारत में वासुदेव एक विरुद था, जिसे अत्यधिक पराक्रमी व शक्तिशाली शासक ग्रहण किया करते थे । श्रीकृष्ण (४) गंगा सिंधुर्णइति वेयड ढगेण भरहखेत्तम्मि । छक्खंड संजादं ताण विभागं परुवेमो । उत्तर दक्खिण भरहे खंडाणि तिणि होति पतेवक्कं । दक्खिण तिय खंडेसु अजाखंडोत्ति मज्झिओ ॥ -तिलोयपण्णत्ति ४।२६६-६७ (५) मत्ती कोदंड गदा चक्कक्विणाणि संख दंडाणि । इय सत्त महारयणा सोहते अद्धचक्कीणं ॥ - वही ४।१४३४ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कृष्ण का वासुदेवत्व : जैन दृष्टि १५७ ने यह विरुद धारण किया अतः वे वासुदेव भी कहलाये । यह बात निरी सम्भावना नहीं है । इसके प्रमाण निम्न उल्लेखों में देखे जा सकते हैं : (अ) हरिवंश पुराण (भविष्य पर्व) में काशीराज पौंड्रक का कथानक आता है। इसके अनुसार जब श्रीकृष्ण कैलाश पर तपस्या कर रहे थे, तब पौंड्रक ने अपने साथी राजाओं को बुलाकर एक सभा की और उसमें घोषणा की, "कृष्ण, छल और घमण्ड से मेरी बराबरी कर रहा है । मैंने अपना नाम वासुदेव रखा है, इसलिए उसने भी अपना नाम वासुदेव रख लिया है। मेरे पास जो अस्त्र-शस्त्र हैं, वैसे ही नाम वाले अस्त्र-शस्त्र उसने भी धारण करना प्रारम्भ कर दिया है।" इस घोषणा के पश्चात अपने अधीनस्थ राजाओं को लेकर उसने द्वारका पर आक्रमण कर दिया। इस कथानक से यह स्पष्ट आभास होता है कि कृष्ण और पौंड्रक का संघर्ष मूलत: वासुदेव नाम धारण करने को लेकर हुआ। (ब) जैन-मान्यता की बात ऊपर कही जा चुकी है। जैन-कथा के अनुसार श्रीकृष्ण द्वारका सहित । दक्षिण भारत के प्रभावशाली अधिपति थे। उत्तर भारत में जरासन्ध उनकी टक्कर का राजा था। इसलिए श्रीकृष्ण व जरासन्ध की प्रतिद्वन्द्विता ने उग्र रूप धारण कर लिया। मूल जैन-स्रोतों के अनुसार तो महाभारत का युद्ध श्रीकृष्ण व जरासन्ध के मध्य लड़ा गया । कौरव-पाण्डवों ने विपरीत पक्षों से इसमें भाग लिया। इस युद्ध की समाप्ति श्रीकृष्ण द्वारा जरासन्ध-वध से होती है। इस अवसर पर देवताओं द्वारा श्रीकृष्ण का 'वासुदेव' रूप में अभिनन्दन करने तथा पुष्पवृष्टि करने का वर्णन जैन-पुराणों में हुआ है। इसी युद्ध के परिणामस्वरूप श्रीकृष्ण ने जरासन्ध के पूत्र सहदेव को मगध के सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया और इस प्रकार उत्तर भारत में भी अपने प्रभाव का प्रसार किया। ध्यान देने की बात है कि जैनपरम्परा में जरासन्ध को प्रतिवासुदेव कहा गया है, परन्तु शक्ति, पराक्रम व प्रभाव में दोनों को समान कहा गया है । इस विवरण से भी यही ध्वनित होता है कि कृष्ण-जरासन्ध की प्रतिद्वन्द्विता का आधार 'वासुदेवत्व' था, तभी तो कृष्ण की विजय पर उनके वासुदेव रूप में अभिनन्दित होने की बात कही गई है। (स) घत जातक के अनुसार यह स्पष्ट है कि बौद्धों ने भी श्रीकृष्ण के लिए वासुदेव नाम ही प्रयुक्त किया है । बौद्ध-कथा में भी वासुदेव की शक्ति व पराक्रम का ही वर्णन है। कंस को मारकर उन्होंने अयोध्या के राजा को जीता और इस प्रकार अपनी शक्ति बढ़ाते हुए द्वारका जाकर अपनी राजधानी स्थापित की। इस उल्लेख से भी 'वासुदेव' के श्रेष्ठ व शक्तिशाली राजा के स्वरूप का बोध होता है। ___ इससे यही निष्कर्ष पुष्ट होता है कि अपने वास्तविक ऐतिहासिक रूप में देवकी-वसुदेव के पुत्र, यादव-कुल-शिरोमणि, वीरश्रेष्ठ श्रीकृष्ण, द्वारका के शक्तिशाली अधिपति व एक प्रभावशाली राजा थे। उनके देवाधिदेव रूप में प्रतिष्ठित हो जाने पर कालान्तर में जो उनके साथ अनेक प्रकार की लीलाओं आदि की बातें जुड़ गई हैं, उनका श्रीकृष्ण के महान चरित्र से वस्तुत: कोई सम्बन्ध नहीं। अपने मूल रूप में द्वारकाधीश श्रीकृष्ण एक अलौकिक वीर पुरुष हैं और यही सम्भावना है कि उनकी वीर-पूजा को ही सर्वप्रथम प्रतिष्ठा मिली । जैन-साहित्य में उनकी वीर-पूजा को ही स्थान मिला है। चूंकि जैन-दर्शन किसी परम सत्ता (परमात्मा) के अस्तित्व को स्वीकार भी नहीं करता है, अतः उसके अवतार रूप में या स्वयं उसी के रूप में श्रीकृष्ण की प्रतिष्ठा जैन-साहित्य में सम्भव भी नहीं थी। AKAA EHUL A Marwana Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दन ग्रन्थ ग श्री आनन्द ग्रन्थ D पुरातत्त्वाचार्य पद्मश्री मुनि श्री जिनविजय जो चन्देरिया, चित्तौड़गढ़ पुरातत्त्व मीमांसा 'पुरातत्त्व' यह एक संस्कृत शब्द है । सामान्यतया अंग्रेजी में जिसको 'एण्टी क्विटीज' (Antiquities) कहते हैं उसी अर्थ में इस शब्द का प्रयोग होता है । पुरातत्त्व अर्थात् पुरातन, जूना, पुराणा और संशोधन अर्थात शोध-खोज । जूनी पुरानी वस्तुओं की शोध-खोज करना ही पुरातत्त्व संशोधन कहलाता है । भारत की पुरातन वस्तुओं की शोध-खोज किस प्रकार हुई और किन-किन संस्थाओं तथा किन-किन व्यक्तियों ने इस कार्य में विशेष भाग लिया -- इसका कुछ दिग्दर्शन कराना मेरे इस निबन्ध का मुख्य उद्देश्य है । O मनुष्य एक विशेष बुद्धिशाली प्राणी है । इसलिए प्रत्येक वस्तु को जानना अर्थात् जानने की इच्छा - जिज्ञासा होना उसका मुख्य स्वभाव है । आत्मा के अमरत्व में विश्वास करने वाले प्रत्येक आस्तिक मनुष्य के मत से प्रत्येक प्राणी में उसके पूर्व संचित संस्कारों के अनुसार न्यूनाधिक मात्रा में ज्ञान का विकास होता है । मनुष्य प्राणी सब प्राणियों में श्रेष्ठ माना जाता है, इसका कारण यह है कि उसमें अन्य जीवजातियों की अपेक्षा ज्ञान का विकास सर्वाधिक मात्रा में होता है। ज्ञान के विकास अथवा प्रसार का मुख्य साधन वाणी अर्थात् भाषा है, और इस वाणी का व्यक्त स्वरूप सम्पूर्ण रीति से मनुष्य जाति में ही विकसित हुआ है । इसीलिए दूसरे देहधारी जीवात्माओं की अपेक्षा मनुष्यात्मा में ज्ञान का विशेष विकास होना स्वाभाविक है | मनुष्य जाति में भी व्यक्तिगत पूर्व संचित संस्कारानुसार ज्ञान के विकास में अपरिमित तारतम्य रहता है । संसार में ऐसे भी मनुष्य दृष्टिगोचर होते हैं कि जिनमें ज्ञान शक्ति का लगभग नितान्त अभाव होता है और जो मनुष्य रूप में प्रायः साक्षात् अबुद्ध पशु जैसे होते हैं । इसके विपरीत, ऐसे भी मनुष्य उत्पन्न होते हैं कि जिनमें ज्ञानशक्ति का अपरिमेय रूप से विकास होता है, और वे पूर्ण प्रबुद्ध कहलाते हैं । प्राचीन भारतवासियों में अधिकांश का तो यहाँ तक पूर्ण विश्वास था कि इस ज्ञानशक्ति का किसी-किसी व्यक्ति में सम्पूर्ण विकास होता है अथवा हो सकता है जिससे उसको इस जगत के समस्त पदार्थों का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो सकता है, विश्व की दृश्य अथवा अदृश्य वस्तुओं में से कोई भी वस्तु उसको अज्ञात नहीं होती। ऐसे व्यक्ति को आर्य लोगों ने सर्वज्ञ नाम से कहा है । आर्यों के इस बहु Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 199k पुरातत्त्व मीमांसा १५६ IA संख्यक समाज की श्रद्धा के अनुसार ऐसे किसी सर्वज्ञ व्यक्ति का अस्तित्व हो सकता है या नहीं, यह एक बड़ा भारी विवादास्पद विषय है जो बहुत प्राचीनकाल से चला आ रहा है और सर्वज्ञ के अस्तित्वअनस्तित्व पर आज तक असंख्य विद्वानों के अनन्त शङ्का-समाधान होते चले आये हैं। परन्तु मेरा कहना तो यह है कि विशुद्ध चक्षुओं से देखा जा सके ऐसे सर्वज्ञ का अस्तित्व प्रमाणित करने वाला कोई प्रत्यक्ष प्रमाण तो आज तक चिकित्सक संसार में किसी ने स्वीकार नहीं किया । अस्तु इस 'सर्वज्ञ' के विषय में कुछ भी हो इतनी बात तो अवश्य है कि किसी-किसी मनुष्य में ज्ञान शक्ति का इतनी अधिक मात्रा में विकास अथवा प्रकर्ष होता है कि दूसरों के लिए उसका माप करना अशक्य होता है। शब्दशास्त्र की व्युत्पत्ति के अनुसार ऐसे व्यक्ति को यदि 'सर्वज्ञ' नहीं कह सकते तो भी उसको बहुज्ञ अथवा अनल्पज्ञ तो अवश्य ही कहा जा सकता है। ऐसे एक बहुज्ञ व्यक्ति की ज्ञान शक्ति की तुलना में दूसरे साधारण लाखों अथवा करोड़ों मनुष्यों की एकत्रित ज्ञानशक्ति भी पूरी पड़ सके-ऐसी बात नहीं है। इतिहास-अतीतकाल से संसार में ऐसे असंख्य अनल्पज्ञ व्यक्ति उत्पन्न होते आये हैं और जगत को अपनी अगाध ज्ञान शक्तियों की अमूल्य देन सौंपते रहे हैं। फिर भी, इस जगत के विषय में मनुष्यजाति आज तक भी बहुत थोड़ा ही जान पाई है। यह अभी तक भी वैसा का वैसा अगम्य और अज्ञेय बना हुआ है । जगत की अन्य वस्तुओं को रहने दीजिए-मनुष्य जाति अपने ही विषय में अब तक कितना जान सकी है ? जिस प्रकार मानव संस्कृति के प्रथम निदर्शक और संसार में साहित्य के आदिम ग्रन्थ ऋग्वेद में ऋषियों ने मनुष्य जाति के इतिहास को लक्ष्य करके पूछा है कि को ददर्श प्रथमं जायमानम् ? 'सबसे प्रथम उत्पन्न होने वाले को किसने देखा है ? उसी प्रकार आज बीसवीं शताब्दी के तत्त्वज्ञानी भी ऐसे ही प्रश्न पूछ रहे हैं। जगत के प्रादुर्भाव के विषय में जिस प्रकार सतयुगीन नासदीय सूक्त का रचयिता महर्षि जानने की इच्छा करता था कि को अद्धा वेद क इह प्रवोचत्, कुत आ जाताः कुत इयं विसृष्टि । 'इस जगत का पसारा कहाँ से आया है और कहाँ से निकला है, यह कोई जानता है ? अथवा कोई बतलाता है ?' उसी प्रकार आज इस कलियुग के तत्त्वजिज्ञासु भी ऐसे ही प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए तड़प रहे हैं । ऐसा यह जगत-तत्त्व अतिगूढ़ और अगम्य है। गुजराती भक्त कवि अखा के शब्दों में सचमुच यह एक अँधेरा कुआ है जिसका भेद आज तक कोई पा नहीं सका है। फिर भी, मानवी-जिज्ञासा और ज्ञानशक्ति ने इस 'अन्ध-कूप' की ग्रन्थि को सुलझाने के लिए भगीरथ प्रयत्न किया है। इस कुए के गहरे पानी पर छाई हुई घनी नीली शैवाल को जहाँ-तहाँ से हटाकर इसके जल कणों का आस्वाद करने के लिए बड़ी-बड़ी आपत्तियाँ उठाई हैं । गूढ़तर और गूढ़तम ज्ञात होने वाले इस जगत् के कुछ रूपों को मनुष्य ने पहचाना है। सृष्टि के स्वाभाविक नियमानुसार वर्षा ऋतु में आकाश पर उमड़ते-घुमड़ते हुए बादलों, उनके यम MARArma-h-AtAAAAAAAAA A AAnam.nihintansaAAJayemamaAQUADAadival आधिप्रभिआचार्यप्रवaअभी श्रीआनन्दाअन्ध५ श्रीआनन्दप्रसार movie Priyana Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Yorr-.-.--- १६० इतिहास और संस्कृति गर्जन तथा बिजली की चमक व कड़कड़ाहट को देखकर जिस प्रकार हमारे वेदकालीन पूर्वज महाभयभीत हो जाते थे और प्रकृति के इस महान् उपयोगी कार्य को बड़ी भारी आपत्ति समझते थे उस प्रकार आज हम नहीं मानते; अपनी ही असावधानी के कारण प्रज्वलित हुई अग्नि में भस्म होती हुई अपनी पर्णकुटी को देखकर इस दृश्य को अपने पर कुपित हुए किसी देव अथवा राक्षस का अग्निरूप में आगमन मानते हुए दूर खड़े होकर जिस प्रकार हमारे पूर्वज प्रार्थना करने लगते थे वैसा हम नहीं करते। वायु के वेग से उड़ी हई झौंपड़ी अथवा घास के ढेर को देखकर किसी अदृष्ट चोर के भय से आक्रान्त हमारे पुरखा जिस तरह उस चोर को दण्ड देने के लिए इन्द्र की स्तुति करने लगते थे वैसा भी हम आज नहीं करते हैं। हमारे पूर्वजों में और हममें इस फेरफार (अन्तर) का कारण क्या है ? वेदकालीन आर्यों के बाद उनकी सन्तति द्वारा की गई प्रकृति के गूढ़ तत्त्वों की शोध-खोज ही इसका कारण है। विश्व के रहस्य को समझने के लिए जैसे-जैसे ही उत्तरकालीन मनुष्य विशेष बुद्धिपूर्वक विचार करते गये वैसे-वैसे ही सृष्टि के ये साधारण नियम उनकी समझ में आते गये। उन्हीं लोगों ने मेघ के स्वरूप को जाना, अग्नि के स्वभाव को समझा और वायु की प्रकृति को पहचाना और फिर इनसे निर्भय एवं निश्चिन्त होने के उपायों की योजना की। इससे भी आगे बढ़कर आधुनिक युग के मनुष्य प्राणियों ने प्रकृति की इन स्वच्छन्द शक्तियों के आन्तरिक मर्म को समझा, उनको वश में किया और उनसे कैसे-कैसे काम लेने लगे हैं यह हम लोग प्रत्यक्ष देख रहे हैं और अनुभव कर रहे हैं। मनुष्य अपने इन्द्रियबल से केवल अपने संसर्ग में आने वाले समसामयिक और अनुभवगम्य विषयों का ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है। संसर्गातीत एवं अनभवातीत विषयों का ज्ञान मनुष्य को उसकी इन्द्रियों द्वारा प्राप्त नहीं हो सकता। फिर भी, हम जितने विश्वास के साथ आज के विषयों की चर्चा किया करते हैं उतने ही विश्वास के साथ हजारों लाखों वर्ष पूर्व की बातों की भी चर्चा करते हैं। शिवाजी, प्रताप, अकबर अथवा अशोक को हमारे युग के किसी मनुष्य ने प्रत्यक्ष नहीं देखा है, फिर भी हम इनके अस्तित्व के विषय में उतने ही विश्वस्त हैं जितने अपने में। जिस प्रकार आज हम अपने बीच में बिचरते हुए किसी महात्मा के आदर्श में पूर्ण श्रद्धा रखते हैं उसी प्रकार आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व उत्पन्न होने वाले तीर्थंकर अथवा बुद्ध के आदर्शों में भी उतनी ही श्रद्धा रखते हैं । जिस प्रकार भगवद्गीता के रहस्यकार लोकमान्य तिलक को प्रथम श्राद्ध तिथि हमने मनाई थी उसी प्रकार आज से पांच हजार वर्ष पूर्व जन्म लेने वाले और भगवद्गीता के मूल उपदेष्टा भगवान श्रीकृष्ण की पुन्य जन्मतिथि आने पर भी हम उत्सव मनाते हैं। इन अनुभवातीत और समयातीत विषयों का ज्ञान कराने वाला कौन है ? कौन-से साधनों द्वारा हमने इन भूतकाल की बातों को जान लिया है ? कहने की आवश्यकता नहीं है कि हमको इन बातों का ज्ञान कराने वाला इतिहास शास्त्र है। ऐतिहासिक साहित्य द्वारा ही हम भूतकाल की बातों को जान सकते हैं ? इतिहास जितना ही यथार्थ और विस्तृत होगा उतना ही हमारा भूतकालीन ज्ञान भी यथार्थ और विस्तृत होगा, यह स्वतः सिद्ध है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे पूर्वजों द्वारा रचित हमारे देश का यथार्थ और विस्तृत इतिहास उपलब्ध नहीं है । जगत की अन्य प्राचीन प्रजाओं को उनके देश में प्राचीन और विस्तृत इतिहास उपलब्ध नहीं है । जगत की अन्य प्राचीन प्रजाओं को उनके देश में जितना प्राचीन और विस्तृत इतिहास मिल E Pos - Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातत्त्व मीमांसा १६१ सका है उतना हमारे इस विश्ववृद्ध आर्यावर्त का इतिहास प्राप्त नहीं हो सका है। प्राचीन और विस्तृत इतिहास तो दूर रहा, हम लोगों में तो हम से तीन पीढ़ी पूर्व का इतिहास ही दुर्लभ्य है। वर्तमान शताब्दी से पहले की शताब्दी का ही पूर्ण वृत्तान्त हम नहीं जानते । और तो क्या, जिन राष्ट्रीय शका:द और सम्वत् का प्रयोग हमारे पूर्वज अनेकों शताब्दियों से करते आये हैं और जिन पर हमारी सम्पूर्ण मध्यकालीन कालगणना अवलम्बित है, उनके प्रवर्तक कौन थे यह भी आज तक अज्ञात एवं अनिश्चित है। ऐसी स्थिति में पुरातत्त्व संशोधन ही हमारे इतिहास निर्माण का मुख्य स्तम्भ है। हमारा इतिहास जूनी पूरानी वस्तुओं की शोध खोज के परिणाम के आधार पर रचा गया है और रचा जायगा। यों तो संसार के किसी भी प्राचीन प्रदेश की पुरातन परिस्थितियों को जानने के लिए, जब इतिहास रूपी दूरदर्शक यन्त्र उनके दर्शन में सफल नहीं होता है तो, वहाँ की जूनी पुरानी वस्तुएँ ही आधारभूत होती हैं; परन्तु भारतवर्ष में तो हमारे जन्मदिवस से लेकर ठेठ युग के आरम्भ तक की परिस्थितियों को जानने के लिए जूनीपुरानी वस्तुओं पर अवलम्बित रहना पड़ता है। कारण कि शास्त्रीय पद्धति से जिसको हम इतिहास कहते हैं वैसा तो कोई छोटा-मोटा भी इतिहास भारतवासियों ने लिखा नहीं, अथवा वह कहीं उपलब्ध नहीं होता । इतिहास-निर्माण में काम आने वाली जूनी पुरानी वस्तुओं में प्राचीन ग्रन्थ, शिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्के तथा धातु पात्र, मन्दिर, मस्जिदें, जलाशय, कीर्ति स्तम्भ, तथा अन्य इमारतें व खण्डहर आदि गिने जाते हैं। हमारे पूर्वजों ने इतिहास के स्वतन्त्र ग्रन्थों का तो निर्माण नहीं किया परन्तु इतिहास के साधन तो बहुत से निर्मित किये हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है। परन्त, हम तो इतना भी नहीं जानते, न जानने की आवश्यकता ही समझते कि इन साधनों की किस प्रकार छानबीन करके इतिहास का निर्माण करें । यह पाठ हमको पाश्चात्यों ने सिखाया है। पाठ ही सिखाया हो-इतना ही नहीं, वरन् अनेक प्रकार के कष्टों को झेलकर और परिश्रम करके उन्होंने हमारे लिए इतिहास के अनेक अध्याय भी तैयार किये हैं। यह आनुषङ्गिक बात लिखकर अब मैं अपने निबन्ध के मुख्य प्रतिपाद्य विषय पर आता हूँ। प्रारम्भ में कहा जा चुका है कि मनुष्य विशिष्ट बुद्धिशाली ज्ञानवान प्राणी है इसलिए उसमें प्रत्येक वस्तु को विशेष रूप से जानने की जिज्ञासा का रहना स्वाभाविक ही है । इनमें से जो मनुष्य अन्य साधारण मनुष्यों की अपेक्षा अधिक ज्ञानवान होते हैं, उनमें यह जिज्ञासा अधिक उत्कट मात्रा में होती है। ऐसे मनुष्यों का जब कभी नवीन समागम किसी अपरिचित प्रदेश अथवा मानव समाज से होता है तो उनमें वहाँ के धर्म, समाज, इतिहास आदि के विषय में जानने की तीव्र इच्छा उत्पन्न होती है । इसी ज्ञानपिपासा से प्रेरित होकर वे मनुष्य उन बातों की शोध-खोज में पड़ते हैं। वे उस अपरिचित प्रदेश की भाषा सीखते हैं, उसके ज्ञान भण्डार को खोजने का प्रयत्न करते हैं और फिर उनके द्वारा प्राप्त ज्ञान का अपने देश बन्धुओं को लाभ प्राप्त कराने के लिए उस ज्ञान भण्डार को अपनी भाषा में अवतरित करने का उपक्रम करते हैं। भारतवर्ष में पैसा कमाकर पेट पूजा के निमित आये हुए अंग्रेज इसी प्रकार हमारे देश की शोध-खोज करने में प्रवृत्त हुए । ईसवीय सन १७५७ में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने प्लासी की प्रसिद्ध लड़ाई के बाद, धीरे-धीरे बंगाल पर अधिकार प्राप्त करना आरम्भ कर दिया था। १७६५ ई० में अंग्रेजों ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी हस्तगत कर ली ; १७७२ ई० में बंगाल के नवाब से बहुत से अधिकार प्राप्त कर A AAAAAAAAAAAAAAAAjnaariniwamiAAAAARAKrsnabranRJARJAAAAA animirmiranmassamAIABAJALGAN आप्रवास POE-NE साचा प्रवास अभिक आनन्दन श्रीआनन्दग्रन्थ manawwamiAyanamamwamMMAamannaristamineeri Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ بهره برد و در تمام م دت معبععنفه رحمت من حممعمسيحققه را فراموقف فيه ممفیعیعلمن علم आपायप्रवर अभिELप्रवर आभार श्रीआनन्दन्थिश्रीआनन्द vavevi ६. १६२ इतिहास और संस्कृति लिए और फिर तुरन्त १७७४ ई० में नवाब को सम्पूर्णतः पदच्युत करके अपना गवर्नर जनरल नियुक्त कर दिया। अंग्रेजों के लिए अब यह स्वाभाविक ही था कि वे इस देश के धर्म, समाज आदि का ज्ञान प्राप्त करें। जिस देश के साथ व्यापार करके उन्होंने करोड़ों ही नहीं अरबों रुपये कमाये, और हजारों ही नहीं लाखों वर्ग मील भूमि पर अधिकार प्राप्त किया उसी देश की अमूल्य ज्ञान सम्पत्ति प्राप्त करने के प्रशस्त लोभ ने भी कितने ही विद्वान अंग्रेजों को घेर लिया । कम्पनी की ओर से जो विद्या प्रेमी अंग्रेज भारत का शासन कार्य चलाने के लिए नियुक्त किये जाते थे प्रायः वे ही इस कार्य में अग्रसर बनते थे । बाद में तो फ्रांस और जर्मनी के विद्वानों ने भी भारतीय पुरातत्त्व में बहुत से महत्वपूर्ण कार्य किये और भारतीय साहित्य की बड़ी-बड़ी सेवाएँ कों परन्तु इस कार्य में पहल करने का श्रेय तो अंग्रेजों को ही है। सबसे पहले सर विलियम जेम्स ने इस मंगलमय कार्य का आरम्भ किया था आर्य साहित्य के संशोधन कार्य के साथ सर जेम्स का नाम सदैव जुड़ा रहेगा। सर जेम्स को भारतीय लोग म्लेच्छ मानते थे इसलिए संस्कृत भाषा सीखने में उनको बहुत सी अड़चनें आई। ब्राह्मणों की कट्टरता के कारण उनको अपना संस्कृत अध्ययन चालू रखने में जो जो कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी उनका मनोरंजक वर्णन उन्होंने अपने जीवन वत्तान्त में लिखा है । अन्त में, वे इन कठिनाइयों को पार कर गये और अपेक्षित संस्कृत ज्ञान प्राप्त करके उन्होंने तुरन्त ही शाकुन्तल और मनुस्मृति का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया। इस अनुवाद को देखकर यूरोपीय विद्वानों में भारतीय सभ्यता का ज्ञान प्राप्त करने की उत्कट जिज्ञासा उत्पन्न हुई। जो प्रजा ऐसे उत्कृष्ट साहित्य का निर्माण कर सकती है उसका अतीत काल कितना भव्य रहा होगा, यह जानने की आकांक्षा उनमें जाग उठी । सन् १७७४ के जनवरी मास की पन्द्रहवीं तारीख को तत्कालीन गवर्नर जनरल वॉरन हेस्टिङ्गज की सहायता से एशिया खण्ड (महाद्वीप) के इतिहास, साहित्य, स्थापत्य, धर्म, समाज, विज्ञान आदि विशिष्ट विषयों की शोध-खोज करने के लिए सर विलियम जेम्स ने एशियाटिक सोसाइटी नामक संस्था की शुभ स्थापना की। इस संस्था के साथ ही भारत के इतिहास के अन्वेषण का युग आरम्भ हुआ, यह हमको उपकृत होते हुए स्पष्टतया स्वीकार करना चाहिए । इससे पहले हमारा इतिहास विषयक ज्ञान कितना अल्प और सामान्य था, यह एक भोज प्रबन्ध जैसे लोकप्रिय निबन्ध को पढ़ने से ही ज्ञात हो जाता है। इस प्रबन्ध में भोज से अनेक शताब्दियों पूर्व भिन्न-भिन्न समयों में होने वाले, कालिदास, बाण, माघ आदि कवियों का भोज के दरबारी कवियों की रीति से वर्णन करते हुए उन्हें एक ही साथ ला बैठाया गया है। सिन्धुराज वाक्पतिराज की मृत्यु के पश्चात् राज्य का स्वामी बना था ; इसके बदले इस प्रबन्धकार ने वाक्पतिराज को सिन्धु राज की गद्दी पर बैठाकर पिता को पुत्र बना डाला है। जब भोज जैसे प्रसिद्ध राजा के इतिहास लेखक को ही उसके वंश एवं समय के विषय में ऐसी अज्ञानता थी तो फिर सर्व साधारण की बेजानकारी के लिए तो कहा ही क्या जा सकता है ? अशोक जैसे प्रतापी सम्राट की तो लोगों को सामान्य कल्पना भी नहीं थी । यद्यपि हिन्दुस्तान की इतिहास सम्बन्धी बहत सी पुस्तकें व अन्य साधन मुसलमानों के समय में नष्ट हो गये थे परन्तु फिर भी बौद्धकालीन अनेक स्तूप, स्तम्भ, मन्दिर गुफाएँ, जलाशय आदि स्थान, धातु और पाषाण निर्मित देवी देवताओं की मूर्तियां और दरवाजों, शिलाओं व ताम्रपत्रों इत्यादि पर उत्कीर्ण असंख्य लेख तो जो इतिहास के सच्चे और मुख्य साधन समझे जाते हैं, Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातत्त्व मीमांसा १६३ अभी तक तो बहुत बड़ी संख्या में विद्यमान थे। इन्हीं के आधार पर यदि इतिहास के तथ्य खोज कर निकालने के प्रयत्न किये जाते तो आज की तरह उसी समय हमारे इतिहास के बहत से अध्यायों की रचना हो गई होती परन्तु, इस ओर किसी की दृष्टि ही नहीं गई और फिर बाद में देश में ज्यों-ज्यों अज्ञानता और अराजकता फैलती गई त्यों-त्यों ही लोग प्राचीन लिपि एवं तत्सम्बन्धी स्मतियों को भूलते गये और इस प्रकार पर्याप्त साधनों के होते हुए भी उनका कोई सम्यक उपयोग नहीं हो पाया । सन् १३५६ ई० में दिल्ली का सुल्तान फीरोजशाह तुगलक टोवरा और मेरठ से अशोक के लेखों वाले दो बड़े स्तम्भों को बड़े उत्साह और परिश्रम के साथ दिल्ली लाया था (जिनमें एक फीरोजशाह के कटेरे में और दूसरा 'कुश्क शिकार' के पास खड़े किये गये हैं)। इन स्तम्भों पर खुदे हुए लेखों में क्या लिखा है यह जानने के लिए उस बादशाह ने बहुत परिश्रम किया और बहुत से पण्डितों को बुलवा कर उनको पढ़वाने का प्रयत्न किया परन्तु उनमें से कोई भी उन लेखों को पढ़ने में सफल नहीं हुआ। इससे अन्त में बादशाह को बहुत निराशा हुई । अकबर बादशाह को भी इन लेखों का मर्म जानने की प्रबल जिज्ञासा थी परन्तु कोई मनुष्य उसको पूर्ण न कर सका । प्राचीन लिपियों की पहचान को भूल जाने के कारण, जब कभी कोई पुराना लेख अथवा ताम्रपत्र मिलता तो, लोग उसके विषय में विविध प्रकार की कल्पनाएँ करते । कोई उनको सिद्धिदायक यन्त्र बतलाता, कोई देवताओं का लिखा हुआ मन्त्र मानता तो कोई उन्हें पृथ्वी में गड़े हुए धन का बोजक समझता। ऐसी अज्ञानता के कारण लोग इन शिलालेखों और ताम्रपत्रों आदि का कोई मूल्य ही नहीं जानते थे। टूटे-फूटे जीर्ण मन्दिरों आदि के शिलालेखों को तोडफोड़ कर साधारण पत्थर के टुकड़ों की तरह उपयोग किया जाता था ; कोई उनको सीढ़ियों में चुनवा लेता था तो कोई उन्हें भाँग घोंटने व चटनी बाँटने के काम में लेता था। अनेक प्राचीन ताम्रपत्र साधारण तांबे के भाव कसेरों के बेच दिये जाते थे और वे उन्हें गला जलाकर नये बर्तन तैयार करा लेते थे। लोगों की नासमझी अभी भी चाल है। मैंने अपने भ्रमण के समय कितने ही शिलालेखों की ऐसी ही दुर्दशा देखी है। कितने ही जैन मन्दिरों के शिलालेखों पर से चिपकाया हआ चना मैंने अपने हाथों से उखाड़ा है। कुछ वर्ष पहले की बात है. खम्भात के पास किसी गाँव का रहने वाला एक ब्राह्मण तीन चार ताम्रपत्र लेकर मेरे पास आया। उसकी जमीन के बारे में सरकार में कोई केस चल रहा था इसलिए घर में पड़े हए ताम्रपत्रों में उस जमीन के सम्बन्ध में कुछ लिखा होगा यह समझ कर उन्हें मेरे पास पढ़वाने को लाया था। उनमें से एक पत्र के बीचों-बीच दो इन्च व्यास वाला एक गोल टुकड़ा कटा हुआ था जिससे उस लेख का बहुत सा महत्वपूर्ण भाग जाता रहा था। इस सम्बन्ध में पूछने पर उसने मुझे बताया कि कुछ महिनों पहले एक लोटे का पैदा बनवाने के लिए वह टुकड़ा काट लिया गया था। ऐसी अनेक घटनाएँ आज भी देखने को आती हैं। ऐसी ही दुर्दशा हमारे प्राचीन ग्रन्थों की हुई है। कितने ही युगों से बिना सार-सम्हाल के कोटड़ियों में पड़े हुए हजारों हस्तलेखों को चूहों ने उदरसात कर लिया है तो कितने ही । ग्रन्थ छप्परों में से पड़ते हए पानी के कारण गलकर मिट्टी में मिल गये हैं। अनेक गुरुओं के अयोग्य चेलों के हाथों भी हमारे साहित्य की कम दुर्दशा नहीं हुई है। RASI जया awnamaAAJanamaAAAAAAAAAALAAMNAGIMAaiawaiiaasandramaANJANASAMAnummaranMASAIRAAJAMAASARAISA आचारबरात्रिआचारबराबरका श्राआवर अनाआन व आई MINIYAmwainm YINN Yie YATH vtaMINIMNPy Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रवर Bhol ST62 इतिहास और संस्कृति एक उदाहरण देता हूँ । इन्दौर में गोरजी नामक एक विद्वान था । उसने शिष्य बनाने के लिए दो लड़कों को पाला-पोसा था। इस गोरजी की मृत्यु के पश्चात् वे छोकरे उसके विशाल पुस्तक भन्डार में से नित्य हजार, दो हजार पत्र ले जाकर हलवाई को दे आते और उनके बदले पाव आध सेर गरमागरम जलेबी का नाश्ता कर आते और मजे उड़ाते । जब मुझे इस बात की खबर हुई तो उस हलवाई के पास जाकर बहुत से पत्ते तलाश किए, जिनमें पाँच सौ वर्ष पुराने लिखे हुए दो तीन जैन सूत्र तो मुझे अखण्ड रूप से मिल गए। पाटण के जैन भण्डारों में सिद्धराज कुमारपाल और उनसे भी पहले के लिखे हुए ताड़पत्रीय ग्रन्थों को तम्बाकू के पत्ते की तरह चूर्ण हुई अवस्था में मैंने अपनी इन चर्मचक्षुओं से देखा है । इस प्रकार हम ही लोगों ने अपनी अज्ञानता के कारण हमारे इतिहास के बहुत से साधनों को भ्रष्ट कर डाला है । इतना ही नहीं, पारस्परिक मतान्धता और साम्प्रदायिक असहिष्णुता के विकार के वश होकर भी हमने अपने साहित्य को कई तरह से खंडित और दुषित किया है। शैवों ने वैष्णवों के साहित्य का निकन्दन किया है, वैष्णवों ने जैनों के स्थापत्य को दूषित किया है, दिगम्बरों ने श्वेताम्बरों के लेखों को खंडित किया है तथा 'लोको' ने 'तपाओं' की नोंध को बिगाड़ डाला है । इस प्रकार एक दूसरे ने एक दूसरे को बहुत नष्ट किया है। शोध-खोज के वृत्तान्तों में ऐसे अनेक उदाहरण देखने में में आते हैं । अन्त में, मुसलमान भाइयों ने हिन्दुओं के स्वर्गीय भवनों को तोड़-फोड़कर मैदान कर दिया है और उनके पवित्र धामों के लेखों को जमींदोज कर दिया है । ऐसी संकटापन्न परम्पराओं में भी जो बच रहे उनको सुरक्षित रखने के लिए, जो अर्द्ध मृत अवस्था में थे, उनसे कुछ जान लेने के लिए और विस्मृति और अज्ञानता की सतह के नीचे सजड दबे हुए भारत के अतीत काल का उन्हीं के द्वारा उद्धार करने के लिए उपरिवर्णित एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना हुई थी। इस सोसाइटी की स्थापना के दिन से ही हिन्दुस्तान के ऐतिहासिक अज्ञानान्धकार का धीरे-धीरे लोप होने लगा । इस संस्था के उद्देश्य की पूर्ति के निमित्त अनेक अँग्र ेज विभिन्न विषयों का अध्ययन करने लगे और उन पर लेख लिखने लगे । इन लेखों को प्रकट करने के लिए 'एशियाटिक रिसचेंज' नामक ग्रन्थमाला प्रकाशित की गई । सन् १७८८ में इस माला का प्रथम भाग प्रकाश में आया । सन् १७६७ ई० तक इसके पाँच भाग प्रकाशित हुए । सन् १७९८ ई० में इसका एक नवीन संस्करण चोरी से इंग्लैण्ड में छपाया गया । उससे इन भागों की इतनी मांग बढ़ी कि ५-६ वर्षों में ही उनकी दो-दो आवृत्तियाँ प्रकाशित हो गई और एम०ए० लँबॉम नामक एक फ्रेन्च विद्वान ने 'रिसचेंज एशियाटिक्स' नाम से उनका फ्रेञ्च अनुवाद भी प्रकट कर दिया । सोसाइटी की इस ग्रन्थमाला में दूसरे विद्वानों के साथ-साथ सर विलियम जेम्स ने हिन्दुस्तान के इतिहास सम्बन्धी अनेक उपयोगी लेख लिखे हैं । सबसे पहले उन्हीं ने अपने लेख में यह बात प्रकट की थी कि मेगस्थनीज द्वारा उल्लिखित सांड्रोकोटस् और चन्द्रगुप्त मौर्य ये दोनों एक ही व्यक्ति थे, पाटलीपुत्र का अपभ्रष्ट रूप पालीोथा है और उसी का आधुनिक नाम पटना है। कारण कि पटना के पास में बहने वाला सोननद हिरण्यबाहु कहलाता है और मेगस्थनीज का 'एरोनोवाओं हो हिरण्यबाहु का अपभ्रष्ट रूप है । इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य का समय सबसे पहले जेम्स साहब ही ने निश्चय किया था । सबसे पहले संस्कृत भाषा सीखने वाले अंग्रेज का नाम चार्ल्स विल्किन्स था । उसी ने सर्व प्रथम देवनागरी और बंगाली टाइप बनाए थे । बदाल के पास वाला लेख सबसे प्रथम इसी ने खोदकर १६४ Jaan Jatatatatasacate ग्रन्थ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातत्त्व मीमांसा १६५ निकला था । इसके अतिरिक्त, एशियाटिक रिसचेंज के प्रथम भागों में दूसरे कितने ही ताम्रपत्रों और शिलालेखों पर इनकी टिप्पणियां प्रकाशित हुई थीं । भगवद्गीता का भी सर्वप्रथम अंग्रेजी अनुवाद इसी अंग्रेज ने किया था । सन् १७६४ ई० में सर जेम्स की मृत्यु हुई। उनके पश्चात् हैनरी कोलब्रुक की उनके स्थान पर नियुक्ति हुई । कोलब्रुक अनेक विषयों में प्रवीण थे । उन्होंने संस्कृत साहित्य का खूब परिशीलन किया था । मृत्यु के समय सर जेम्स सुप्रसिद्ध पण्डित जगन्नाथ द्वारा सम्पादित "हिन्दू और मुसलमान कायदों का सार" नामक संस्कृत ग्रन्थ का अनुवाद कर रहे थे। इस अधूरे अनुवाद को पूर्ण करने का कार्य कोलव क साहब को सौंपा गया। कितने ही पण्डितों की सहायता से सन् १७६७ ई० में यह कार्य पूरा किया। इसके पश्चात् उन्होंने 'हिन्दुओं के धार्मिक रीति-रिवाज,' 'भारतीय माप का परिमाण', 'भारतीय वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति', 'भारतवासियों की जातियाँ' आदि विषयों पर गम्भीर निवन्ध लिखे । तदनन्तर १८०१ ई० में "संस्कृत और प्राकृत भाषा", "संस्कृत और प्राकृत छन्दः शास्त्र" आदि लेख लिखे । फिर उसी वर्ष में दिल्ली के लोहस्तम्भ पर उत्कीर्ण विशालदेव की संस्कृत प्रशस्ति का भाषान्तर भी इसी अंग्रेज विद्वान ने प्रकाशित किया। सन् १८०७ में वे एशियाटिक सोसाइटी के सभापति बने और उसी वर्ष उन्होंने हिन्द ज्योतिष, अर्थात् खगोल विद्या पर एक ग्रंथ लिखा तथा जैन धर्म पर एक विस्तृत निबन्ध प्रकट किया। कोलन क ने वेद, सांख्य, मीमांसा, न्याय, वैशेषिक, वेदान्त, बौद्ध आदि भारतीय विशिष्ट दर्शनों पर तो बड़े-बड़े निबन्ध लिखे ही थे, साथ ही कृषि, वाणिज्य, समाजव्यवस्था, साधारण साहित्य, कानून, धर्म, गणित, ज्योतिष, व्याकरण आदि अनेक विषयों पर भी खूब विस्तृत निबन्ध लिखे थे । उनके ये लेख, निबन्ध, प्रबन्धादि आज भी उसी सम्मान के साथ पढ़े जाते हैं । बेवर, बूहलर और मैक्समूलर आदि विद्वानों द्वारा निश्चित किए हुए कितने ही सिद्धान्त भ्रमपूर्ण सिद्ध हो गए हैं । परन्तु कोलब्रुक द्वारा प्रकट किए हुए विचार बहुत कम गलत पाए गए हैं। यह एक सौभाग्य ही की बात थी कि आरम्भ ही में हमारे साहित्य को एक ऐसा उपासक मिल गया जिसने हमारे तत्त्व ज्ञान और प्राचीन साहित्य को निष्पक्षपात पूर्वक मूल स्वरूप में यूरोप निवासियों के सम्मुख उपस्थित किया और जिसने संसार का ध्यान हमारी प्राचीन संस्कृति की ओर सहानुभूति पूर्वक आकर्षित किया । यदि उन्होंने ऐसा अपूर्व परिश्रम न किया होता तो आज यूरोप में संस्कृत का इतना प्रचार न हो पाता । कोलब्रुक जब भारत छोड़कर इंग्लैण्ड गए तो वहाँ भी उन्होंने रायल एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की, अनेक विद्वानों को संस्कृत का अध्ययन करने के लिए उत्साहित किया और आँखों से अन्धे होते हुए भी अनेक उपायों द्वारा संस्कृतसाहित्य की सतत सेवा करते रहे । जहाँ एक ओर कोलब्रुक साहब संस्कृत साहित्य के अध्ययन में मग्न हो रहे थे वहाँ दूसरी ओर कितने ही उनके जाति बन्धु हिन्दुस्तान के भिन्न-भिन्न प्रान्तों के पुरातत्त्व की गवेषणा में व्यस्त थे । सन् १८०० ई० में माक्विस् वेल्जली साहब ने मंसूर प्रान्त के कृषि आदि विभागों की तपास करने के लिए डॉक्टर बुकनन की नियुक्ति की । उन्होंने अपने कृषि विषयक कार्य के साथ-साथ उस प्रान्त की जूनीपुरानी वस्तुओं का भी बहुत-सा ज्ञान प्राप्त कर लिया। उनके कार्य से सन्तुष्ट होकर कम्पनी ने १८०७ श्री आनन्द अन्थ श आयाय प्रवदतु आम श्री 2019 फ्र ww Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रव Mo 卐 आयायप्रवर अभिन्दन ग्रन्थ ३२ १६६ इतिहास और संस्कृति ई० में उनको बंगाल प्रान्त में एक विशिष्ट पद पर नियुक्त किया । सात वर्षों तक उन्होंने बिहार, शाहाबाद, भागलपुर, गौरखपुर, दिनाजपुर, पुरनिया, रङ्गापुर, और आसाम में काम किया । यद्यपि उनको प्राचीन स्थानों आदि की शोध-खोज का कार्य नहीं सौंपा गया था फिर भी उन्होंने इतिहास और पुरातत्त्व की खूब गवेषणा की। उनकी इस गवेषणा से बहुत लाभ हुआ । अनेक ऐतिहासिक विषयों की जानकारी प्राप्त हुई । पूर्वीय भारत की प्राचीन वस्तुओं की शोध-खोज सर्वप्रथम इन्होंने की थी । पश्चिम भारत की प्रसिद्ध केनेरी ( कनाड़ी) गुफाओं का वर्णन सबसे पहले साल्ट साहब ने और हाथी गुफाओं का वर्णन रस्किन साहब ने लिखा । ये दोनों बॉम्बे ट्रांजेक्शन नामक पुस्तक के पहले भाग में प्रकाशित हुए । इसी पुस्तक के तीसरे भाग में साइकस साहब ने बीजापुर (दक्षिण) का वर्णन लोगों के सामने रखा । अन्त में, डेनिअल साहब ने दक्षिण हिन्दुस्तान का हाल मालूम करना आरम्भ किया । उन्हीं दिनों कर्नल मैकेञ्जी ने भी दक्षिण में पुरातत्त्व विद्या का अभ्यास शुरू किया। वे सर्वे विभाग में नौकर थे । उन्होंने अनेक प्राचीन ग्रन्थों और शिलालेखों का संग्रह किया था। वे केवल संग्रहकर्त्ता ही थे, उन ग्रन्थों और लेखों को पढ़ नहीं सकते थे परन्तु उनके बाद वाले शोधकों ने इस संग्रह से बहुत लाभ उठाया । दक्षिण के कितने ही लेखों का भाषान्तर डॉ० मिले ने किया था। इसी प्रकार राजपूताना और मध्यभारत के अधिकांश भागों का ज्ञान कर्नल टॉड ने प्राप्त किया और इन प्रदेशों की बहुत सी जूनी- पुरानी वस्तुओं की शोध-खोज उन्होंने की । इस प्रकार विभिन्न विद्वानों द्वारा भारत के भिन्न-भिन्न प्रान्तों विषयक ज्ञान प्राप्त हुआ और बहुत सी वस्तुएँ जानकारी में आई, परन्तु प्राचीन लिपियों का स्पष्ट ज्ञान अभी तक नहीं हो पाया था अतः भारत के प्राचीन ऐतिहासिक ज्ञान पर अभी भी अन्धकार का आवरण ज्यों का त्यों पड़ा हुआ था । बहुत से विद्वानों ने अनेक पुरातन सिक्कों और शिलालेखों का संग्रह तो प्राचीन लिपि - ज्ञान के अभाव में वे उस समय तक उसका कोई उपयोग न कर सके थे । अवश्य कर लिया था परन्तु भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास के प्रथम अध्याय का वास्तविक रूप में आरम्भ १८३७ ई० में होता है । इस वर्ष में एक नवीन नक्षत्र का उदय हुआ जिससे भारतीय पुरातत्त्व विद्या पर पड़ा हुआ पर्दा दूर हुआ । एशियाटिक सोसाइटी के स्थापना के दिन से १८३४ ई० तक पुरातत्त्व सम्बन्धी वास्तविक काम बहुत थोड़ा हो पाया था, उस समय तक केवल कुछ प्राचीन ग्रन्थों का अनुवाद ही होता रहा था। भारतीय इतिहास के एकमात्र सच्चे साधन रूप शिलालेखों सम्बन्धी कार्य तो उस समय तक नहीं के बराबर ही हुआ था । इसका कारण यह था कि प्राचीन लिपि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त होना अभी बाकी था । ऊपर बतलाया जा चुका है कि संस्कृत भाषा सीखने वाला पहला अंग्रेज चार्ल्स विल्किन्स् था और सबसे पहले शिलालेख की ओर ध्यान देने वाला भी वही था। उसी ने १७८५ ई० में दीनाजपुर जिले में बदाल नामक स्थान के पास प्राप्त होने वाले स्तम्भ पर उत्कीर्ण लेख को पढ़ा था । यह लेख बंगाल के राजा नारायणपाल के समय में लिखा गया था । Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातत्त्व मीमांसा १६७ । उसी वर्ष में, राधाकांत शर्मा नामक एक भारतीय पण्डित ने टोवरा वाले दिल्ली के अशोकस्तम्भ पर खुदे हए अजमेर के चौहान राजा अनलदेव के पुत्र वीसलदेव के तीन लेखों को पढ़ा। इनमें से एक लेख की मिति 'संवत् १२२० वैशाख सुदी ५' है । इन लेखों की लिपि बहुत पुरानी न होने के कारण सरलता से पढ़ी जा सकती थी। परन्तु उसी वर्ष जे० एच० हेरिंग्टन ने बुद्ध गया के पास वाली नागार्जनी और बराबर गुफाओं में से मौखरी वंश के राजा अनन्त वर्मा के तीन लेख निकलवाए जो उपर्वणित लेखों की अपेक्षा बहुत प्राचीन थे। इनकी लिपि बहुत अंशों में गुप्तकालीन लिपि से मिलती हुई होने के कारण उनका पढ़ा जाना अति कठिन था । परन्तु, चार्ल्स विल्किन्स ने चार वर्ष तक कठिन परिश्रम करके उन तीनों लेखों को पढ़ लिया और साथ ही उसने गुप्तलिपि की लगभग आधी वर्णमाला का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया। गुप्तलिपि क्या है, इसका थोड़ा-सा परिचय यहाँ कराये देता हूँ। आजकल जिस लिपि को हम देवनागरी अथवा बालबोध लिपि कहते हैं उसका साधारणतया तीन अवस्थाओं में से प्रसार हुआ है। वर्तमान काल में प्रचलित आकृति से पहले की आकृति कुटिल लिपि के नाम से कही जाती थी। इस आकृति को समय साधारणतया ई० सन् की छटी शताब्दी से १० वीं शताब्दी तक माना जाता है। इससे पूर्व की आकृति गुप्तलिपि के नाम से कही जाती है। सामान्यतः इसका समय गुप्तवंश का राजत्व काल गिना जाता है। इससे भी पहले की आकृति वाली लिपि ब्राह्मी लिपि कहलाती है। अशोक के लेख इसी लिपि में लिखे गये। इसका समय ईसा पूर्व ५०० से ३५० ई. तक माना जाता है । सन् १८१८ ई० से १८२३ ई० तक कर्नल जेम्स टॉड ने राजपूताना के इतिहास की शोध खोज करते हुए राजपूताना और काठियावाड़ में बहुत से प्राचीन लेखों का पता लगाया। इनमें से सातवीं शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी तक के अनेक लेखों को तो उक्त कर्नल साहब के गुरु यति ज्ञानचन्द्र ने पढ़ा था। इन लेखों का सारांश अथवा अनुवाद टॉड साहब ने अपने "राजस्थान" नामक प्रसिद्ध इतिहास में दिया है। सन् १८२८ ई० में बी० जी० वेविङ्गटन ने मामलपुर के कितने ही संस्कृत और तामिल लेखों को पढ़कर उनकी वर्णमाला तैयार की। इसी प्रकार वाल्टर इलियट ने प्राचीन कनाड़ी अक्षरों का ज्ञान प्राप्त करके उसकी विस्तृत वर्णमाला प्रकाशित की। सन् १८३४ ई० में केपटेन ट्रायर ने प्रयाग के अशोक स्तम्भ पर उत्कीर्ण गुप्तवंशी राजा समुद्रगुप्त के लेख का बहुत सा अंश पढ़ा और फिर उसी वर्ष में डॉ० मिले ने उस सम्पूर्ण लेख को पढ़कर १८३७ ई० में भिटारी के स्तम्भ वाला स्कन्धगुप्त का लेख भी पढ़ लिया। १८५३ ई० में डब्ल्यू० एम० वॉथ ने वलभी के कितने ही दानपत्रों को पढ़ा । १८३७-३८ में जेम्स प्रिंसेप ने दिल्ली, कमाऊँ और एरण के स्तम्भों एवं अमरावती के स्तूपों तथा गिरनार के चट्टानों पर खुदे हुए गुप्त लिपि के बहुत-से लेखों को पढ़ा। सांची स्तूप के चन्द्रगुप्त वाले जिस महत्वपूर्ण लेख के सम्बन्ध में प्रिंसेप ने १८३४ ई० में लिखा था कि 'पुरातत्त्व के अभ्यासियों को अभी तक भी इस बात का पता नहीं चला है कि सांची के शिलालेखों में क्या लिखा है।' उस विशिष्ट लेख को यथार्थ अनुवाद सहित १८३७ ई० में करने में वही प्रिंसेप साहब सम्पूर्णतः सफल हुए। AKAAMANABAJALNAAAAAAdmuv6 आगावरान आगाशाजनक मिनन्द आश्राआनन्द Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . .. t AJA. . e .. ........... . ........ w .. . - : LALAnandida सा आचार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्द अन्य श्रीआनन्दग्रन्थ १६८ इतिहास और संस्कृति इस प्रकार केप्टन ट्रायर, डॉ० मिले और जेम्स प्रिंसेप के सतत परिश्रम से चार्ल्स विल्किन्स् द्वारा तैयार की हुई गुप्तलिपि की अपूर्ण वर्णमाला पूरी हो गई और गुप्तवंशी राजाओं के समय तक के शिलालेखों, ताम्रपत्रों तथा सिक्कों आदि को पढ़ने में पूरी-पूरी सफलता और सरलता प्राप्त हो गई। अब, बहत सी लिपियों की आदि जननी ब्राह्मी लिपि को बारी आई। गुप्तलिपि से भी अधिक प्राचीन होने के कारण इस लिपि को एक दम समझ लेना कठिन था। इस लिपि के दर्शन तो शोधकर्ताओं को १७९५ ई० में ही हो गए थे। उसी वर्ष सर चार्ल्स मैलेट ने इलोरा की गुफाओं के कितने ब्राह्मी लेखों की नकलें सर विलियम जेम्स के पास भेजीं। उन्होंने इन नकलों को मेजर विल्फोर्ड के पास, जो उस समय काशी में थे, इसलिए भेजी कि वे इनको अपनी तरफ से किसी पण्डित द्वारा पढ़वावें। पहले तो उनको पढ़ने वाला कोई पण्डित मिला नहीं, परन्तु फिर एक चालाक ब्राह्मण ने कितनी ही प्राचीन लिपियों की एक कृत्रिम पुस्तक बेचारे जिज्ञासु मेजर साहब को दिखलाई और उन्हीं के आधार पर उन लेखों को गलत-सलत पढ़कर खूब दक्षिणा प्राप्त की। विल्फोर्ड साहब ने उस ब्राह्मण द्वारा कल्पित रीति से पढ़े हए उन लेखों पर पूर्ण विश्वास किया और उसके समझाने के अनुसार ही उनका अंग्रेजी भाषान्तर करके सर जेम्स के पास भेज दिया। इस सम्बन्ध में मेजर विल्फोर्ड ने सर जेम्स को जो पत्र भेजा उसमें बहुत उत्साह पूर्वक लिखा है कि "इस पत्र के साथ कुछ लेखों की नकलें उनके सारांश सहित भेज रहा है। पहले तो मैंने इन लेखों के पढ़े जाने की आशा बिलकुल ही छोड़ दी, क्योंकि हिन्दुस्तान के इस भाग में (बनारस की तरफ) पुराने लेख नहीं मिलते हैं, इसलिए उनके पढ़ने की कला में बुद्धि .. का प्रयोग करने अथवा उनकी शोध-खोज करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। यह सब कुछ होते हुए भी और मेरे बहुत से प्रयत्न निष्फल चले जाने पर भी अन्त में सौभाग्य से मुझे एक वृद्ध गरु मिल गया जिसने इन लेखों को पढ़ने की कुन्जी बताई और प्राचीनकाल में भारत के विभिन्न भागों में जो लिपियाँ प्रचलित थीं, उनके विषय में एक संस्कृत पुस्तक मेरे पास लाया । निस्सन्देह, यह एक सौभाग्य सूचक शोध हुई है जो हमारे लिए भविष्य में बहुत उपयोगी सिद्ध होगी।" मेजर विल्फोर्ड की इस 'शोध' के विषय में बहुत वर्षों तक किसी को कोई सन्देह नहीं हुआ. क्योंकि सन् १८२० ई० में खण्डगिरि के द्वार पर इसी लिपि में लिखे हुए लेख के सम्बन्ध में मि० स्टलिङ्ग ने लिखा है कि, 'मेजर विल्फोर्ड ने प्राचीन लेखों को पढ़ने की कुन्जी एक विद्वान ब्राह्मण से प्राप्त की और उनकी विद्वत्ता एवं बुद्धि से इलोरा व शालसेट के इसी लिपि में लिखे हुए लेखों के कुछ भाग पढ़े गए। इसके पश्चात् दिल्ली तथा अन्य स्थानों के ऐसे ही लेखों को पढ़ने में उस कुन्जी का कोई उपयोग नहीं हुआ। यह शोचनीय है।" सन् १८३३ ई० में मि० प्रिन्सेप ने सही कुन्जी निकाली। इससे लगभग एक वर्ष पूर्व उन्होंने मेजर विल्फोर्ड की कुन्जी का उपयोग न करने की बाबत दुःख प्रकट किया। एक शोधकर्ता जिज्ञासु विद्वान् को ऐसी बात पर दुःख होना स्वाभाविक भी है । परन्तु, उस विद्वान ब्राह्मण की बताई हुई कुन्जी का अधिक उपयोग नहीं हुआ, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार शोध-खोज के दूसरे कामों में मेजर विल्फोर्ड की श्रद्धा का श्राद्ध करने वाले चालाक ब्राह्मण के धोखे में वे आ गए, इसी Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातत्त्व मीमांसा १६६ - HAM CLIRL प्रकार इस विषय में भी वही बात हई। कुछ भी हआ हो, यह तो निश्चित है कि मेजर विल्फोर्ड के नाम से कहलाने वाली सम्पूर्ण खोज भ्रमपूर्ण थी । क्योंकि उनका पढ़ा हुआ लेखपाठ कल्पित था और तदनुसार उसका अनूवाद भी वैसा ही निर्मल था-युधिष्ठिर और पाण्डवों के वनवास एवं निर्जन जंगलों में परिभ्रमण की गाथाओं को लेकर ऐसा गड़बड़ गोटाला किया गया है कि कुछ समझ में नहीं आता। उस धर्त ब्राह्मण के बताए हए ऊटपटाँग अर्थ का अनुसंधान करने के लिए विल्फोर्ड ने ऐसी कल्पना कर ली थी। कि पाण्डव अपने वनवास काल में किसी भी मनुष्य के संसर्ग में न आने के लिए वचनबद्ध थे। इसलिए विदुर, व्यास आदि उनके स्नेही सम्बन्धियों ने उनको सावधान करने की सूचना देते रहने के लिए ऐसी योजना की थी कि वे जंङ्गलों में, पत्थरों और शिलाओं (चट्टानों) पर थोड़े-थोड़े और साधारणतया समझ में न आने योग्य वाक्य पहले ही से निश्चित की हुई लिपि में सकेत रूप से लिख-लिखकर अपना उद्देश्य पूरा करते रहते थे । अंग्रेज लोग अपने को बहुत बुद्धिमान मानते हैं और हँसते-हँसते दुनिया के दूसरे लोगों को ठगने की कला उनको याद है परन्तु वे भी एक बार तो भारतवर्ष की स्वर्गपुरी मानी जाने वाली काशी के 'वृद्ध गुरू' के जाल में फंस ही गए, अस्तु एशियाटिक सोसाइटी के पास दिल्ली और इलाहाबाद के स्तम्भों तथा खण्डगिरि के दरवाजों पर के लेखों की नकलें एकत्रित थीं परन्तु विल्फोर्ड साहब की 'शोध' निष्फल चली जाने के कारण कितने ही वर्षों तक उनके पढ़ने का कोई प्रयत्न नहीं हुआ। इन लेखों के मर्म को जानने की उत्कट जिज्ञासा को लिए हुए मिस्टर जेम्स प्रिंसेप ने.१८३४-३५ ई० इलाहाबाद, रधिया और मथिआ के स्तम्भों पर उत्कीर्ण लेखों की छापें मँगवाई और उनको दिल्ली के लेख के साथ रखकर यह जानने का प्रयत्न किया कि उनमें कोई सरीखा है या नहीं। इस प्रकार उन चारों लेखों को पास-पास रखने से उनको तुरंत ज्ञान हो गया कि ये चारों लेख एक ही प्रकार के हैं । इससे प्रिसेप का उत्साह बढ़ा और उनकी जिज्ञासापूर्ण होने की आशा बँध गई। इसके पश्चात उन्होंने इलाहाबाद स्तम्भ के लेख के भिन्न-भिन्न आकृति वाले अक्षरों को अलग-अलग छाँट लिया। इससे उनको यह बात मालूम हो गई कि गुप्तलिपि के अक्षरों की भांति इसमें भी कितने ही अक्षरों के साथ स्वरों की मात्राओं के भिन्न-भिन्न पाँच चिन्ह लगे हुए हैं। इसके बाद उन्होंने पाँचों चिन्हों को एकत्रित करके प्रकट किया। इससे कितने ही विद्वानों का इन अक्षरों के यूनानी अक्षर होने सम्बन्धी भ्रम दूर हो गया । अशोक के लेखों की लिपि को देखकर साधारणतया अंग्रेजी अथवा ग्रीक लिपि की भ्रान्ति उत्पन्न हो जाती है। टॉम कोरिएट नामक यात्री ने अशोक के दिल्ली वाले स्तम्भलेख को देखकर एल व्हीटर को पत्र में लिखा था "मैं इस देश के दिल्ली नाम 6 नगर में आया हूँ कि जहाँ पहले अलैजॅण्डर ने हिन्दुस्तान के पोरस नामक राजा को हराया था और अपनी विजय की स्मति में एक विशाल स्तम्भ खड़ा किया था जो आज भी यहां पर मौजूद है।" पादरी एडवर्ड टेरी ने लिखा है कि "टाम कोरिएट ने मुझे कहा था कि उसने दिल्ली में ग्रीक लेख वाला एक स्तम्भ देखा था जो अलेक्जण्डर महान् की स्मृति में वहाँ पर खड़ा किया गया था।" इस प्रकार दूसरे भी कितने ही लेखकों ने इस लेख को ग्रीक लेख ही माना था। उपर्युक्त प्रकार से स्वर चिन्हों को पहचान लेने के बाद मि० जेम्स प्रिसेंप ने अक्षरों को पहचानने APP प्रभाव आनन प्राआनन्दग्रन्थश्राआनन्दअन्य Mammomamewomnanamannawwamir Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रव G 麗 顅 3112 यथा आनन्द अभिने अन् १७० इतिहास और संस्कृति का उद्योग आरम्भ किया। उन्होंने पहले प्रत्येक अक्षर को गुप्तलिपि के अक्षरों के साथ मिलाने और मिलते हुए अक्षरों को वर्णमाला मे शामिल करने का क्रम अपनाया । इस रीति से बहुत से अक्षर उनकी जानकारी में आ गये । पादरी जेम्स स्टीवेन्सन ने भी प्रिंसेप साहब की तरह इसी शोधन में अनुरक्त होकर क' 'ज' 'थ 'प' और 'व' अक्षरों को पहचाना और इन्हीं अक्षरों की सहायता से पूरे लेखों को पढ़कर उनका अनुवाद करने का मनोरथ किया, परन्तु कुछ तो अक्षरों की पहचान में भूल होने के कारण, कुछ वर्णमाला की अपूर्णता के कारण और कुछ इन लेखों की भाषा को संस्कृत समझ लेने के कारण यह उद्योग पूरा पूरा सफल नहीं हुआ। फिर भी, प्रिंसेप को इससे कोई निराशा नहीं हुई । सन् १८३५ ई० में प्रसिद्ध पुरातत्त्वज्ञ प्रो० लॅस्सन ने ऑस्ट्रिअन ग्रीक सिक्के पर इन्हीं अक्षरों में लिखा हुआ अँ गॅ थॉ किलस का नाम पढ़ा। परन्तु १८३७ ई० के आरम्भ में मि० प्रिंसेप ने अपनी अलौकिक स्फुरणा द्वारा एक छोटा-सा 'दान' शब्द शोध निकाला जिससे इस विषय की बहुत-सी ग्रन्थियाँ एक दम सुलझ गईं। इसका विवरण इस प्रकार है । ई० स० १८३७ में प्रिंसेप ने सांची स्तूप आदि पर खुदे हुए कितने ही छोटे-छोटे लेखों की छापों को एकत्रित करके देखा तो बहुत से लेखों के अन्त में दो अक्षर एक ही सरीखे जान पड़े और उनके पहले 'स' अक्षर दिखाई पड़ा जिसको प्राकृत भाषा की छठी विभक्ति का प्रत्यय (संस्कृत 'स्य' के बदले) मानकर यह अनुमान किया कि भिन्न-भिन्न लेख भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा किये हुए दानों के सूचक जान पड़ते हैं । फिर उन एक सरीखे दीखने वाले और पहचान में न आने वाले दो अक्षरों में से पहले के साथ ' आ की मात्रा और दूसरे के साथ """. ' - अनुस्वार चिन्ह लगा हुआ होने से उन्होंने निश्चय किया कि यह शब्द 'दान' होना चाहिए । इस अनुमान के अनुसार 'द' और 'न' की पहचान होने से आधी वर्णमाला पूरी हो गई और उसके आधार पर दिल्ली, इलाहाबाद, सांची, मेथिया, रधिया, गिरनार, धौरली आदि स्थानों से प्राप्त अशोक के विशिष्ठ लेख सरलता पूर्वक पढ़ लिए गये । इससे यह भी निश्चित हो गया कि इन लेखों की भाषा, जैसा कि अब तक बहुत से लोग मान रहे थे, संस्कृत नहीं है वरन् तत्तत्स्थानों में प्रचलित देशभाषा थी ( जो साधारणतया उस समय प्राकृत नाम से विख्यात थी ) । इस प्रकार ब्राह्मीलिपि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ और उसके योग से भारत के प्राचीन से प्राचीनतम लेखों को पढ़ने में पूरी सफलता मिली । अब उतनी ही पुरानी दूसरी लिपि की शोध का विवरण दिया जाता है । इस लिपि का ज्ञान भी प्रायः उसी समय में प्राप्त हुआ था। इसका नाम खरोष्ठी लिपि है । खरोष्ठी लिपि आर्यलिपि नहीं है। अर्थात् अनार्य लिपि है, इसको सेमेटिक लिपि के कुटुम्ब की अरमेईक् लिपि से निकली हुई मानी जाती समान है अर्थात् यह दाँयें हाथ से बायीं ओर लिखी शताब्दी में केवल पंजाब के कुछ भागों में ही है । इस लिपि को लिखने की पद्धति फारसी लिपि के जाती है । यह लिपि ईसा में पूर्व तीसरी अथवा चौथी प्रचलित थी । शाहाबाजगढी और मन्सोरा के चट्टानों पर अशोक के लेख इसी इसके अतिरिक्त शक, क्षत्रप, पार्थिअन और कुशानवंशी राजाओं के समय के बाक्ट्रिन, ग्रीक, शक, क्षत्रप, आदि राजवंशों के कितने ही सिक्कों में यही लिपि उत्कीर्ण हुई मिलती है । लिपि में उत्कीर्ण हुए हैं । कितने बौद्ध लेखों तथा Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल य पुरातत्त्व मीमांसा १७१ इसलिए भारतीय पुरातत्त्वज्ञों को इस लिपि के ज्ञान की विशेष आवश्यकता थी। कर्नल जेम्स टॉड ने । वाक्ट्रिअन, ग्रीक, शक, पार्थिअन् और कुशानवंशी राजाओं के सिक्कों का एक बड़ा संग्रह किया था। इन सिक्कों पर एक ओर ग्रीक और दूसरी ओर खरोष्ठी अक्षर लिखे हुए थे। सन् १८३० ई० में जनरल बेंटुरों ने मानिकिआल स्तूप को खुदवाया तो उसमें से खरोष्ठी लिपि के कितने ही सिक्के और दो लेख प्राप्त हुए । इसके अतिरिक्त अलेक्जेण्डर, बन्स् आदि प्राचीन शोधकों ने भी ऐसे अनेक सिक्के इकट्ठे किये थे जिनमें एक ओर के ग्रीक अक्षर तो पढ़े जा सकते थे परन्तु दूसरी ओर के खरोष्ठी अक्षरों के पढ़े जाने का कोई साधन नहीं था। इन अक्षरों के विषय में भिन्न-भिन्न कल्पनाएँ होने लगीं। सन् १८२४ ई० में कर्नल टॉड ने कफिसे स् के सिक्के पर खुदे इन अक्षरों को 'ससेनिअन्' अक्षर बतलाया। १८३३ ई० में अपोलोडोट्स के सिक्के पर इन्हीं अक्षरों को प्रिंसेप ने “पहलवी" अक्षर माने। इसी प्रकार एक दूसरे सिक्के की इसी लिपि तथा मानिकिऑल के लेख की लिपि को उन्होंने ब्राह्मी लिपि मान लिया और इसकी आकृति कुछ टेढ़ी होने के कारण अनुमान लगाया कि जिस प्रकार छपी हई और बही में लिखी हई गुजराती लिपि में अन्तर है उसी प्रकार अशोक के दिल्ली आदि के स्तम्भों वाली और इस लिपि में अन्तर है परन्तु, बाद में स्वयं प्रिंसेप ही इस अनुमान को अनुचित मानने लगे। सन् १८३४ ई० में केप्टन कोर्ट को एक स्तूप में से इसी लिपि का एक लेख मिला जिसको देखकर प्रिंसेप ने फिर इन अक्षरों के विषय में 'पहलवी' होने की कल्पना की । परन्तु उसी वर्ष में मिस्टर मेसन नामक शोध कर्ता विद्वान ने अनेक ऐसे सिक्के प्राप्त किये जिन पर खरोष्ठी और ग्रीक दोनों लिपियों में राजाओं के नाम अंकित थे। मेसन साहब ने ही सबसे पहले मिडौ, आपोलडोटो, अरमाइओ, वासिलिओ और सोटरो आदि नामों को पढ़ा था, परन्तु यह उनकी कल्पनामात्र थी। उन्होंने इन नामों को प्रिंसेप साहब के पास में भेजा । इस कल्पना को सत्य का रूप देने का यश प्रिंसेप के ही भाग्य में लिखा था। उन्होंने मेसन साहब के संकेतों के अनुसार सिक्कों को बांचना आरम्भ किया तो उनमें से बारह राजाओं और सात पदवियों के नाम पढ़ निकाले। इस प्रकार खरोष्ठी लिपि के बहत से अक्षरों का बोध हुआ और साथ ही यह भी ज्ञात हुआ कि यह लिपि दाहिनी ओर से बांई ओर पढ़ी जाती है। इससे यह भी निश्चय हुआ कि यह लिपि सेमेटिक वर्ग की है, परन्तु इसके साथ ही इसकी भाषा को, जो वास्तव में ब्राह्मी लेखों की भाषा के समान प्राकृत है, पहलवी मान लेने की भूल हुई । इस प्रकार ग्रीक लेखों की सहायता से खरोष्ठी लिपि के बहत से अक्षरों की तो जानकारी हुई परन्तु भाषा के विषय में भ्रान्ति होने के कारण पहलवी के नियमों को ध्यान में रखकर पढ़ने से अक्षरों को पहचानने में अशुद्धता आने लगी जिससे थोड़े समय तक इस कार्य में अड़चन पड़ती रही। परन्तु १८३८ ई० में दो बाक्ट्रिअन् ग्रीक सिक्कों पर पालि लेखों को देखकर दूसरे सिक्कों की भाषा भी यही होगी यह मानते हुए उसी के नियमानुसार उन लेखों को पढ़ने से प्रिसेप का काम आगे चला और उन्होंने एक साथ १७ अक्षरों को खोज निकाला। प्रिंसेप की तरह मिस्टर नॉरिस ने भी इस विषय में कितना ही काम किया और इस लिपि के ७ नये अक्षरों की शोध की। बाकी के थोड़े से अक्षरों को जनरल कनिङ्घम ने पहचान लिया और इस प्रकार खरोष्ठी की सम्पूर्ण वर्णमाला तैयार हो गई। यह भारतवर्ष की पुरानी से पुरानी लिपियों के ज्ञान प्राप्त करने का संक्षिप्त इतिहास है । उपर्युक्त AnnuwasanaAIADAANVARJANASALALAMALAYAJAMIADABADMADuramALABIBADAINIAAAAAAAAAAASAILAAJRAIADMAALAAJAS आचाफ्रिजमायाफ्राशाजनक श्रीआनन्द अनादीन्दा अशा rNNYYY.IN PoornvterwhetitivertvMartavinayamay. win-inmorrow Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PAARAamariKAAwnP.AAAAAAJNANA M AMANANANNADAARADAIASABAATAARAARIALADAKI33- 2 oACano ORY आचार्यप्रवी सभाचार्यप्रवभिः श्राआनन्दग्रन्थश्राआनन्द .COM OMGN Pravemaramrnvironmenvir १७२ इतिहास और संस्कृति वर्णन से विदित होगा कि लिपि विषयक शोध में मिस्टर प्रिसेंप ने बहुत काम किया है । एशियाटिक सोसाइटी की ओर से प्रकाशित "सैन्टीनरी रिव्यू' नामक पुस्तक में "एन्श्यएट् इण्डिअन अलफावेट" शीर्षक लेख के आरम्भ में इस विषय पर डॉ० हानली लिखते हैं कि 'सोसाइटी का प्राचीन शिलालेखों को पढ़ने और उनका भाषान्तर करने का अत्युपयोगी कार्य १८३४ ई० से १८३६ ई० तक चला। इस कार्य के साथ सोसाइटी के तत्कालीन सेक्रेटरी, मि० प्रिसेंप का नाम, सदा के लिए संलग्न रहेगा; क्योंकि भारत विषयक प्राचीन लेखनकला, भाषा और इतिहास सम्बन्धी हमारे अर्वाचीन ज्ञान की आधारभूत इतनी बड़ी शोध-खोज इसी एक व्यक्ति के पुरुषार्थ से इतने थोड़े समय में हो सकी।" प्रिसेंप के बाद लगभग तीस वर्ष तक पुरातत्त्व-संशोधन का सूत्र जेम्स फग्र्युसन मॉर्खम किट्टो, एडवर्ड टॉमस अलेक्जेण्डर कनिङ्गम, वाल्टर इलियट, मेडोज टेलर, स्टीवेन्सन, डॉ. भाऊदाजी आदि के हाथों में रहा। इनमें से पहले चार विद्वानों ने उत्तर हिन्दुस्तान में, इलियट साहब ने दक्षिण भारत में और पिछले तीन विद्वानों ने पश्चिमी भारत में काम किया। फग्र्युसन साहब ने पुरातन वास्तु विद्या का ज्ञान प्राप्त करने में बड़ा परिश्रम किया और उन्होंने इस विषय पर अनेक ग्रन्थ लिखे । इस विषय का उनका अभ्यास इतना बढ़ा चढ़ा था किसी भी इमारत को केवल देखकर वे सहज ही में उसका समय निश्चित कर देते थे। मेजर किट्टो बहुत विद्वान तो नहीं थे परन्तु उनकी शोधक बुद्धि बहुत तीक्ष्ण थी। जहाँ अन्य अनेक विद्वानों को कुछ जान न पड़ता था वहाँ वे अपनी गिद्ध जैसी पैनी दृष्टि से कितनी ही बातें खोज निकालते थे। चित्रकला में वे बहत निपुण थे । कितने ही स्थानों के चित्र उन्होंने अपने हाथ से बनाये थे और प्रकाशित किये थे। उनकी शिल्पकला विषयक इस गम्भीर कुशलता को देखकर सरकार ने उनको बनारस के संस्कृत कॉलेज का भवन बनवाने का काम सौंपा । इस कार्य में उन्होंने बहत परिश्रम किया जिससे उनका स्वास्थ्य गिर गया और अन्त में इंग्लैण्ड जाकर वे स्वर्गस्थ हए । टॉमस साहब ने अपना विशेष ध्यान सिवकों और शिलालेखों पर दिया। उन्होंने अत्यन्त परिश्रम करके ई० स० पूर्व २४६ से १५५४ ई० तक लगभग १८०० वर्षों के प्राचीन इतिहास की शोध की। जनरल कनिङ्गम ने प्रिसेंप का अवशिष्ट कार्य हाथ में लिया। उन्होंने ब्राह्मी तथा खरोष्ठी लिपियों का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया । इलियट साहब ने कर्नल मेकेजी के संग्रह का संशोधन और संवर्द्धन किया । दक्षिण के चालुक्य वंश का विस्तृत ज्ञान सर्व प्रथम उन्हींने लोगों के सामने प्रस्तुत किया। टेलर साहब ने भारत की मूर्ति निर्माण विद्या का अध्ययन किया और स्टीवेन्सन ने सिक्कों की शोध-खोज की। पुरातत्त्व-संशोधन के कार्य में प्रवीणता प्राप्त करने वाले प्रथम भारतीय विद्वान् डॉक्टर माउदाजी थे। उन्होंने अनेक शिलालेखों को पढ़ा और भारत के प्राचीन इतिहास के ज्ञान में खूब वृद्धि की । इस विषय में दूसरे नामांकित भारतीय विद्वान् काठियावाड़ निवासी पण्डित भगवानलाल इन्द्रजी का नाम उल्लेखनीय है, जिन्होंने पश्चिम भारत के इतिहास में अमूल्य वृद्धि की है। उन्होंने अनेक शिलालेखों और ताम्रपत्रों को पढ़ा है परन्तु उनके कार्य का सच्चा स्मारक तो उनके द्वारा उड़ीसा के खण्ड गिरि-उदयगिरि वाली हाथी गुफा में सम्राट खारवेल के लेखों का शुद्ध रूप से पढा जाना ही है। बंगाल के विद्वान डॉ० राजेन्द्रलाल मित्र का नाम भी इस विषय में विशेष रूप से उल्लेख करने योग्य है । उन्होंने नेपाल के साहित्य का विशिष्ट ज्ञान प्राप्त किया है। Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातत्त्व मीमांसा १७३ NATUR अब तक इतना कार्य विद्वानों ने अपनी ही ओर से शोध-खोज करके किया था, सरकार की ओर से इस विषय में कोई विशेष प्रबन्ध नहीं हुआ था। परन्तु यह कार्य इतना बड़ा महाभारत है कि सरकार की सहायता के बिना इसका पूरा होना अशक्य है । सन् १८४४ ई० में लन्दन की रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से प्रार्थना की कि सरकार को इस कार्य में सहायता करनी चाहिए। अतः सन् १८४७ ई० में लार्ड हाडिज के प्रस्ताव पर बोर्ड आफ डायरेक्टर्स ने इस कार्य के लिए खर्चा देने की स्वीकृति दे दी ; परन्तु १८५० ई० तक इसका कोई वास्तविक परिणाम नहीं निकला । सन् १८५१ ई० में संयुक्त प्रान्त के चीफ एन्जीनियर कर्नल कनिङ्घम ने एक योजना तैयार करके सरकार के पास भेजी और यह भी सूचना दी कि यदि गवर्नमेंट इस कार्य की ओर ध्यान नहीं देगी तो जर्मन और फ्रेञ्च लोग इस कार्य को हथिया लेंगे और इससे अंग्रेजों के यश की हानि होगी। कर्नल कनिङ्कम की इस सूचना के अनुसार गवर्नर जनरल की सिफारिश से १८५२ ई० में ऑकियॉलॉजिकल सर्वे नामक विभाग स्थापित किया गया और कर्नल कनिङ्कम ही इस विभाग का नियमन करने के लिए, २५० रु० मासिक अतिरिक्त वेतन पर, डाइरेक्टर नियुक्त हुए। यह एक अस्थायी योजना थी। सरकार की यह धारणा थी कि बड़े-बड़े और महत्वपूर्ण स्थानों का यथातथ्य वर्णन, तत्सम्बन्धी इतिहास एवं किम्बदन्तियों आदि का संग्रह किया जावे । नौ वर्षों तक सरकार की यह नीति चालू रही और तदनुसार कनिङ्कम साहब ने भी। अपनी नौ रिपोर्ट प्रकाशित की। सन् १८७१ ई० से सरकार की इस धारणा में कुछ फेरफार हुआ । कनिङ्कम की रिपोर्टों से सरकार को यह लगा कि सम्पूर्ण हिन्दुस्तान महत्त्वपूर्ण स्थानों से भरा पड़ा है और उनकी विशेष रूप से शोध-खोज होने की आवश्यकता है । अतः समस्त भारत की शोध-खोज करने के लिए कनिङ्घम साहब को डायरेक्टर जनरल बनाकर उनकी सहायता करने के लिए अन्य विद्वानों को नियुक्त किया गया । परन्तु १८७४ ई० तक कनिङ्घम साहब उत्तरी हिन्दुस्तान में ही काम करते रहे इसलिए उसी वर्ष दक्षिणी भाग की गवेषणा करने के लिए डॉक्टर वर्जेस की नियुक्ति की गई। इस विभाग का कार्य केवल प्राचीन स्थानों की शोध करने का था और उनके संरक्षण का कार्य प्रान्तीय सरकारों के आधीन था, परन्तु इन सरकारों द्वारा इस ओर पूरा ध्यान न देने के कारण उचित संरक्षण के अभाव में कितने ही प्राचीन स्थान नष्ट होने लग गये थे। इस दुर्दशा को देखकर लार्ड लिटन ने १८७८ ई० में "क्यूरेटर ऑफ एनश्यण्ट मॉन्यूमण्टस्" नामक पद पर एक नवीन अधिकारी की नियुक्ति करने का विचार किया। उस अधिकारी के लिए प्रत्येक प्रान्त के संरक्षणीय स्थानों की सूची बनाकर उनमें से कौन-कौन से स्थान मरम्मत करने लायक तो नहीं परन्तु पूर्ण रूपेण नष्ट नहीं हुए हैं और कौन-कौन से स्थान पूरी तरह नष्ट हो चुके हैं इत्यादि बातों का विवरण तैयार करने का कार्य निश्चित किया गया, इस योजना के अनुमार 'सेक्रेटरी आफ स्टेट' को लिखा गया परन्तु उन्होंने लार्ड लिटन के प्रस्ताव को अस्वीकरके यह मार डायरेक्टर जनरल के ही ऊपर डाल देने के लिए लिखा। परन्तु १८८० ई० में भारत सरकार ने भारत मंत्री को फिर लिखा कि डायरेक्टर जनरल को इस कार्य के लिए अवकाश नहीं मिलता है और दूसरे प्रबन्ध के बिना बहुत से महत्व के स्थान नष्ट होते जा रहे हैं । तब १८८१ ई० से १८८३ ई० तक मेजर कोल आ० ई० की नियुक्ति क्यूरेटर के पद पर हई और उन्होंने इन तीन वर्षों में "प्रीज aanadaanasantANA आचार्यप्रवर अभिशापार्यप्रवर आभः श्रीआनन्द श्रीआनन्द अन्य | Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ इतिहास और संस्कृति वेशन आफ नेशनल मॉन्यूमण्टस आफ इण्डिया" नाम की तीन रिपोर्ट प्रकाशित की। इसके पश्चात यह पद कम कर दिया गया। सन् १८८५ ई० में कनिङ्कम साहब अपने पद से निवृत्त हुए। १८६२ से १८८५ ई. तक उन्होंने २४ रिपोर्ट प्रकाशित की, जिनको देखने से उनके अलौकिक परिश्रम का अनुमान लगाया जा सकता है। इतनी योग्यता के साथ इतने बड़े कार्य को बहुत थोड़े ही मनुष्य कर सकते हैं । कनिङ्घम के बाद डायरेक्टर जनरल के पद पर वर्जेस साहब की नियुक्ति हुई। गवेषणा के अतिरिक्त संरक्षण का कार्य भी उन्हीं के अधिकार में सौंपा गया। सर्वे करने के लिए हिन्दुस्तान को पांच भागों में विभक्त किया गया और प्रत्येक भाग में एक-एक सर्वेअर नियुक्त किया गया। बम्बई, मद्रास, राजपूताना और सिन्ध तथा पंजाब. मध्यप्रदेश और वायव्यप्रान्त मध्यभारत, और आसाम तथा बंगाल, इस प्रकार पाँच भाग नियत किये गये परन्तु सर्वेअरों की नियुक्ति केवल उत्तर भारत के तीन भागों में ही की गई; बम्बई तथा मद्रास प्रान्तों का कार्य डॉ० वर्जेस के ही हाथ में रहा ।। परन्तु, अब तक भी सरकार की इच्छा इस विभाग को स्थायी बनाने की नहीं हुई थी। वह यह समझे हए थी कि पाँच वर्ष में यह कार्य पूरा हो जावेगा; इसलिए प्राचीन लेखों को पढ़ने के लिए एक यूरोपियन विद्वान की नियुक्ति करने, साथ ही कुछ स्थानीय विद्वानों की सहायता लेने का निश्चय किया। सन १८८६ ई० में डॉ० वर्जेस भी अपने पद से विलग हुए, इसलिए अब इस विभाग की दशा बिगड़ने लगी । सरकार ने एतद विभागीय हिसाब की जाँच करने के लिए एक कमीशन नियुक्त किया, जिसने अपनी रिपोर्ट में खर्चे की बहुत सी काट-छाँट करने की सिफारिश की। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि ऐसी काट-छाँट और कमी की सिफारिशें सरकार स्वीकार कर ही लेती है। डॉ० वर्जेस के बाद डायरेक्टर जनरल का पद खाली रखा गया और बंगाल व पंजाब के सर्वेअरों को भी छड़ी मिली। यह काट-छाँट करने के उपरान्त सरकार ने इस योजना को केवल पाँच ही वर्ष चालू रखने का मन्तव्य प्रकट किया । परन्तु सरकारी आज्ञा मात्र से एकदम काम कैसे हो सकता है ? १८६० ई० से १८६५ ई० तक के पाँच वर्षों में इस विभाग की दशा बहुत शोचनीय रही और काम पूरा न हो सका । १८६५ ई० से १८९८ ई० तक सरकार यह विचार करती रही कि इस विषय में क्या किया जावे ? फिर, १८९८ ई० में यह विचार हुआ कि अभी इस विभाग से शोध-खोज का काम बन्द करके केवल सरक्षण का ही काम लेना चाहिए। इस नये विचार के अनुसार निम्नलिखित पाँच क्षेत्र निश्चित किये गये--- (१) मद्रास और कुर्ग । (२) बम्बई, सिन्ध और बरार । (३) संयुक्तप्रान्त और मध्यप्रदेश । (४) पंजाब, ब्रिटिश बल्चिस्तान और अजमेर । (५) बंगाल और आसाम । सन १८६६ ई. के फरवरी मास की पहली तारीख को लॉर्ड कर्जन ने एशिआटिक सोसाइटी के Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातत्त्व मीमांसा १७५ •iaCEN समारम्भ में इस विभाग को खूब उन्नत करने का विचार प्रकट किया। इसके पश्चात् १६०१ ई० में इस विभाग के लिए एक लाख रुपया वार्षिक खर्चे की स्वीकृति हुई और डायरेक्टर जनरल की फिर से नियुक्ति की गई। सन् १६०२ ई० में नए डायरेक्टर जनरल मार्शल साहब भारत में आये और तभी से इस विषय का नया इतिहास आरम्भ होता है, जिसके बारे में आज कुछ कहना मेरा विषय नहीं है। जब इस विषय पर अपना कुछ अधिकार होगा तभी इसका विवेचन किया जावेगा। अंग्रेज सरकार का अनुकरण करते हुए कितने ही देशी राज्यों ने भी अपने यहाँ ऐसे विभागों की स्थापना की। भावनगर संस्थान के कितने ही पण्डितों ने काठियावाड़, गुजरात और राजपूताने के अनेक शिलालेखों और दानपत्रों की नकलें प्राप्त करके "भावनगर प्राचीन शोध संग्रह" नामक पुस्तक में प्रकाशित की। काठियावाड़ के भूतपूर्व पोलिटिकल एजेन्ट कर्नल वाटसन् का प्राचीन वस्तुओं पर बहुत प्रेम था अतः वहाँ के कुछ राजाओं ने मिलकर राजकोट में "वाटसन् म्यूजियम" नामक "पुराण वस्तु संग्रहालय" की स्थापना की जिसमें अनेक शिलालेखों, ताम्रपत्रों, पुस्तकों और सिक्कों आदि का अच्छा संग्रह हुआ है। मैसूर राज्य में भी एक संग्रहालय की स्थापना हुई और साथ ही आकिऑलॉजिकल डिपार्टमेण्ट भी स्वतंत्र रूप से खोला गया है, जिसके द्वारा आज तक अनेक रिपोर्ट, पूस्तकें और लेखसंग्रह आदि छपकर प्रकाश में आए हैं। यहाँ से एथिग्राफिआ कर्नाटिका नाम की एक सिरीज प्रकाशित होती है जिसमें हजारों शिलालेख, ताम्रपत्र इत्यादि निकल चुके हैं। इसी प्रकार त्रावणकोर, हैदराबाद और काश्मीर राज्यों में भी स्वतंत्र रूप से कार्य होता है। इसके अतिरिक्त उदयपुर, झालावाड़, भोपाल, बड़ौदा, जूनागढ़, भावनगर आदि राज्यों में भी स्थानीय संग्रहालय बनते जा रहे हैं। ब्रिटिश राज्य में सरकार और अन्य संस्थाओं तथा व्यक्तियों द्वारा संग्रहित पुरानी वस्तुओं को बम्बई, मद्रास, कलकता, नागपुर, अजमेर, लाहोर, लखनऊ, मथुरा, सारनाथ, पेशावर आदि स्थानों के पदार्थ सग्रहालयों में सुरक्षित रखा जाता है; इन्ही में से बहुत सी वस्तुएँ लन्दन के ब्रिटिश म्यूजियम में भी भेज दी जाती हैं। इन विशिष्ट वस्तुओं का वर्णन विभिन्न संस्थाएँ अपनी-अपनी रिपोर्टों और सूचीपत्रों (कैटेलाग्स्) द्वारा प्रकाशित करती रहती हैं। शिलालेखों, ताम्रपत्रों और सिक्कों आदि विभिन्न विषयों की अलग-अलग विशेष पुस्तकें और ग्रन्थमालाएँ निकलती रहती हैं। जिस प्रकार हिन्दुस्तान में पुरातत्त्व की गवेषणा का कार्य चालू हआ उसी प्रकार यूरोप में भी चला । फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रिया, इटली, रूस आदि राज्यों ने इस विषय के लिए अपने यहाँ स्वतंत्र सोसाइटियां एकेडेमियां आदि स्थापित की और वहां के विद्वानों ने भारतीय साहित्य एवं इतिहास को प्रकाश में लाने के लिए अत्यन्त परिश्रम किया। हमारे नष्टप्रायः हजारों ग्रन्थों का संग्रह करके, उनको पढ़कर तथा प्रकाशित करके उद्धार किया है। संस्कृत और प्राकृत साहित्य को प्रकाश में लाने के लिए जितना काम जर्मन विद्वानों ने किया उतना दूसरों ने नहीं किया। तुलनात्मक भाषाशास्त्र पर जर्मनों ने जितना अधिकार प्राप्त किया है उतना दूसरों ने नहीं। अन्यान्य विषयों पर भी बहत सी विशिष्ट मौलिक शोधे जर्मन विद्वानों के हाथों हुई हैं। अग्रजों का तो भारत के साथ विशेष सम्बन्ध था, बस, इसीलिए उन्होंने थोड़ा बहुत कार्य करने का उपक्रम किया था। अस्तु । AE ALMARAALAALAA % WIMPPeranaam aanwarmiNavnawrtainmewamivorwom Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ इतिहास और संस्कृति इस प्रकार देश में और विदेश में व्यक्तियों और संस्थाओं द्वारा किये गये पुरातत्त्वानुसंधान से हमारी प्राचीन संस्कृति के बहुत से अज्ञात अध्याय सामने आये हैं। शिशूनाग, नन्द, मौर्य, ग्रीक, शातकर्णी, शक, पार्थीअन्, कुशाण, क्षत्रप, आभीर, गुप्त, हण, योधेय, वैस, लिच्छवी, परिव्राजक, वाकाटक, मौखरी, मैत्रक, गुहिल, चावड़ा, चालुक्य, प्रतिहार, परमार, चाहमान, राष्ट्रकूट, कच्छवाह, तोमर, कलचुरी, त्रेकुटक, चन्देला, यादव, गुर्जर, मिहिर, पाल, सेन, पल्लव, चोल, कदम्ब, शिलार, सेन्द्रक, काकतीय, नाग, निकुम्भ, वाण, मत्स्य, शालंकायन, शैल, भषक आदि अनेक प्राचीन राजवंशों का एक विस्तृत इतिहास जिसके विषय में हमें एक अक्षर भी ज्ञात नहीं था, इन्हीं विद्वानों के प्रयत्नों से प्राप्त हुआ है। अनेक जातियों, धर्मों, सम्प्रदायों धर्माचार्यों, विद्वानों, धनिकों, दानियों और वीर पुरुषों के वृत्तान्तों का परिचय मिला है और असंख्य प्राचीन नगरों, मन्दिरों, स्तूपों और जलाशयों आदि की मूल बातें विदित हुई हैं । सौ वर्ष पूर्व हमें इनमें से किसी वस्तु के बारे में कुछ भी मालूम नहीं था। उपर्युक्त विवरण से स्पष्टतया प्रतीत होता है कि पुरातत्त्वसंशोधन का कितना अधिक महत्व है । यह देश के इतिहास को शुद्ध और सम्पूर्ण बनाता है । इससे प्रजा के भूतकाल का यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है और भविष्यत् में हमें किस मार्ग का अवलम्बन करना है, इसका सच्चा मार्गदर्शन होता है। विद्वानों का कहना है कि भारतवर्ष में जो पुरातत्त्व सम्बन्धी कार्य अब तक हुआ है वह देश की विशालता एव विविधता को देखते हुए केवल बाल-बोध पुस्तक के प्रथम पृष्ठ का उद्घाटन मात्र हुआ है । उनके ऐसा कहने में कोई अत्युक्ति नहीं है । क्योंकि इस देश में अभी तक इतनी अधिक वस्तुएँ छिपी, गड़ी और दबी हई पड़ी हैं कि सैकड़ों विद्वान कितनी ही शताब्दियों तक परिश्रम करके ही उनको प्रकाश में ला सकते हैं। भारत के राष्ट्रीय जीवन के नवीन इतिहास सम्बन्धी कोरी पुस्तक में "श्री गणेशाय नमः" लिखने का विशिष्ट श्रेय गुजरात ही को प्राप्त होगा, ऐसा ईश्वरीय संकेत दिखाई पड़ता है। अतः हमारी ऐसी भावना होनी चाहिए कि राष्ट्रीय इतिहास के प्रत्येक अध्याय के आदि में गुजरात का प्रथम उल्लेख हो और तदनुसार ही हमको प्रगति करनी चाहिए, और ऐसे ही किसी अज्ञात संकेत के आधार पर हमारे राष्ट्रीय शिक्षण मन्दिर के साथ पुरातत्त्व मन्दिर की भी स्थापना हुई है। इसको सफल बनाने का लक्ष्य हमारे प्रत्येक विद्यार्थी में प्रभु उत्पन्न करें इमी अभिलाषा के साथ में अपना व्याख्यान समाप्त करता हूँ। पुनश्च कोई ३५ वर्ष पूर्व, मैंने अपना यह व्याख्यान लिखा था और उस समय भारत के पुरातात्त्विक संशोधन के इतिहास के बारे में जो खास-खास बातें जानने जैसी थीं, उनका संक्षेप में-केवल दिग्दर्शन रूप वर्णनमात्र इस व्याख्यान में किया था। गुजरात विद्यापीठ के, महाविद्यालय (कालेज विभाग) में अध्ययन करने वाले स्नातकों को, अपने देश के प्राचीन इतिहास की साधन सामग्री का अन्वेषण और अनुसन्धान कैसे किया गया- इसका कुछ आभास मात्र कराने का वह प्रयत्न था। विदेशी शासन की पराधीनता से भारत को मुक्त कराने का महात्मा गांधीजी ने जो दृढ़ संकल्प Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातत्त्व मीमांसा १७७ किया और उसके लिए राष्ट्रव्यापक जो विशाल कार्यक्रम उन्होंने बनाया, सद्भाग्य से उस कार्यक्रम के एक प्रमुख अंग की सेवा में सर्व प्रथम समायोग देने का सुयोग मुझे मिला । सन् १९२० में नवजीवनोन्मुख गुजरात में, मेरे ही क्षुद्र निमित्त एवं प्रयत्न से 'गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर' की स्थापना हुई थी और लगभग ३० वर्ष के बाद, १६५० में नूतन संघटित सुविशाल राजस्थान में भी, उसी प्रकार के कार्य की प्रगति और प्रवृद्धि के निमित्त, इसी जन के प्रयत्न से, 'राजस्थान पुरातत्त्व मन्दिर' की स्थापना होकर इसकी सेवा में भी सर्वप्रथम योग देने का सौभाग्य मुझको मिला। अपने जीवन की दृष्टि से, मुझे यह भी कोई ऐतिहासिक विधान-सा मालूम देता है । सन् १९२० में, जब गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर की स्थापना हुई, तब भारत सब प्रकार से पराधीन था । उस पराधीनता से भारत को कैसे मुक्ति मिले और कैसे यह पुरातन - गरिमा- गौरवशाली दिव्य देश स्वतन्त्र होकर संसार में अपना गुरुपद प्राप्त करे उसकी उत्कट आकांक्षा से प्रेरित होकर, अहिंसा एवं सत्य के सर्वश्रेष्ठ तत्त्वदर्शी महर्षि स्वरूप महात्माजी ने देश के सन्मुख अहिंसात्मक सत्याग्रह रूप अद्भुत संग्राम का उद्घोष किया। इस सत्वगुणी संग्राम में अनेक प्रकार के अहिंसक आक्रमण - प्रत्याक्रमण होने के बाद, अन्त में सन् १९४७ के अगस्त की १५वीं ता० को, भारत ने सर्व - प्रभुत्व-सम्पन्न स्वतन्त्रता प्राप्त की । इस प्रकार अहिंसक संघर्ष द्वारा सार्वभौम स्वातन्त्र्य प्राप्त करने की घटना भी संसार के इतिहास में एक विस्मयकारिणी घटना है और हमारे लिये नहीं सारे संसार के लिये वह इतिहास की अद्भुत अनुभूति होती जा रही है । सम्भव है आगामी पीढ़ियों के लिये यह भी एक सबसे महत्त्व का पुरातात्त्विक संशोधन का विषय बन जाय । भारत की इस स्वातन्त्र्य प्राप्ति वाली राष्ट्रीय महाक्रान्ति में कुछ अन्यान्य आन्तरिक महाक्रान्तिसूचक घटनायें भी हुईं, जिनमें दो घटनाएँ सबसे मुख्य हैं। इनमें एक तो यह कि इतिहास के आदिकाल से लेकर आज तक पुण्यभूमि भारत का कभी कोई अंग भंग नहीं हुआ था; पर इस महाक्रान्ति में अनादि स्वरूप अखण्ड भारत का अंग भंग होकर उसका इतिहास प्रसिद्ध एवं संस्कृति समृद्ध आर्यावर्त का मूलभूत अंग पृथक हो, पाकिस्तान के रूप में घटित हो गया । गान्धार, पञ्चनद, सिन्धु-सौवीर जैसे इस पुण्यभूमि के प्राचीनतम पवित्र प्रदेश, इससे विलग होकर, भिन्न धर्मीय और भिन्न जातीय संस्कृति के केन्द्र बनने जा रहे हैं । इसका दूरगामी ऐतिहासिक परिणाम क्या होगा और समग्र भारतीय संस्कृति का भावी रूप कैसा बनेगा - यह तो भावी इतिहासकार ही के अन्वेषण का विषय होगा दूसरी महाक्रान्ति सूचक घटना है— भारत में इतिहासातीत काल से अपना अस्तित्व बताने वाली सब प्रकार की छोटी बड़ी राजसत्तायें - जिनकी संख्या कई सैकड़ों में थी, बिल्कुल शांतिपूर्ण और सहानुभूतिमय ढंग से विलुप्त होकर, सम्पूर्ण भारत में, जनसत्तात्मक लोकहितकारी सुदृढ़ शासन तन्त्र की स्थापना होना । संसार के किसी भी राष्ट्र में इस प्रकार के जनसत्तात्मक शासनतन्त्र की ऐसी अद्भुत रीति से, शान्तिमय स्थापना नहीं हुई है । भारत के भावी इतिहास में यह भी एक बहुत अद्भुत घटना उल्लिखित होगी । 'राजस्थान पुरातत्त्व मन्दिर' की स्थापना भी इसी ऐतिहासिक घटना का एक परिणाम है । राज अभिनंदन आज नव आगन्दे आभनन्दन ग्रन्थ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्द ग्रन्थ श्री आनन्द* ग्रन्था 32 १७८ इतिहास और संस्कृति स्थान प्रदेश, प्राचीनकाल से छोटी-बड़ी अनेक राजसत्ताओं का एक विशिष्ट केन्द्र रहा है। समूचे भारत के भूतकालीन इतिहास पर इस केन्द्र का बड़ा भारी प्रभाव रहा है। पिछली १५ शताब्दियों से इस केन्द्र ने भारत के गौरव, स्वातन्त्र्य, स्वधर्म और स्व जातीय संस्कृति की रक्षा में जैसा प्रबल योग दिया है और जो सर्वस्व त्याग किया है वह सर्वथा अनुपम और अद्भुत है । राजस्थान केन्द्र के उन भूतकालीन गौरवशाली राजवंशों की सन्तानों ने भी सद्भाव पूर्वक अपनी राजसत्ताएँ, भारत के एकात्मक जनतन्त्र को समर्पण कर भूतकालीन अपने पुण्य नाम पूर्वजों की ही तरह, नूतन भारत के पुनरुत्थान में, अपनी राष्ट्रभक्ति प्रदर्शित की है; और इस प्रकार अब यह विशाल राजस्थान नामक जनतन्त्रात्मक राज्य प्रदेश बनकर समग्र भारत का अविभाज्य एवं अनन्य रूप अंग बन गया है । 'राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर' इसी विशाल राजस्थान की पुरातत्त्व विषयक सब प्रकार की साधन सामग्री का अन्वेषण, अनुसन्धान, संग्रह, संरक्षण, सम्पादन, प्रकाशन आदि कार्य करने की दृष्टि से स्थापित हुआ है और विगत कई वर्षों से यह यथासाधन, एवं यथायोग्य कार्य उत्साह पूर्वक कर रहा है। मैंने ऊपर मुद्रित अहमदबाद वाले व्याख्यान में सन् १९२० से पूर्व, भारतीय पुरातत्त्व विषयक विकास क्रम के बारे में जो विशिष्ट बातें जानने जैसी थीं, उनका कुछ दिग्दर्शन किया है । उसके बाद पिछले ३०-४० वर्षों में जो कुछ नई बातें जानने जैसी हुई हैं उनका भी कुछ थोड़ा सा यहाँ उल्लेख कर दिया जाय तो उपयुक्त होगा, यह सोचकर मैंने यह अनुपूर्ति लिखने का प्रयत्न किया है । संसार के पुरातत्त्ववेत्ताओं ने यह तो बहुत पहले ही स्वीकार कर लिया था कि भारतीयों का प्राचीन साहित्य जो संस्कृत भाषा में उपलब्ध है, वह संसार का सबसे प्राचीन उपलब्ध वाङ् मय है; पर उसमें ग्रथित ऐतिहासिक अनुश्रुतियों के आधार पर तथ्यपूर्ण इतिहास का संकलन करना सम्भव नहीं माना जाता । पुराणों में जो प्राचीन राजवंशों की वंशावलियाँ दी गई हैं उनके अनुसार तो भारत का प्राचीन इतिहास, बीसों हजार वर्ष पहले से प्रारम्भ होता है पर इतिहास के मुख्य आधारभूत जो अन्यान्य साधन जैसे शिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्के, पाषाण घटित मूर्ति, मृणमयपत्र आदि माने जाते हैं । उनके आधार से तो भारत के प्राचीन इतिहास का प्रारम्भ विक्रम या ईस्वी सन् के प्रारम्भ से पूर्व कोई १०००-१५०० वर्ष के अन्दर अन्दर ही अनुमानित किया जाता है । इससे अधिक प्राचीनकाल के निश्चायक कोई वैसे प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। इस अभिप्रायानुसार, सन् १९२० तक, पुरातत्त्ववेत्ताओं के मत में भारत की प्राचीन संस्कृति का उद्गम कोई ३०००-३५०० वर्ष से अधिक पुरातन नहीं माना जाता था । सन् १९२१ में, पश्चिमी पंजाब के मांटगोमरी जिले के हडप्पा नामक स्थान में पुराने टीले की खुदाई करते हुए, भारतीय पुरातत्त्वज्ञ दयाराम साहनी को जमीन में से कुछ ऐसे पुरातन अवशेष प्राप्त हुए, . जो पुरातत्त्ववेत्ताओं की परिभाषा के अनुसार 'कल्कों लिथिक' 'प्रस्तर - ताम्रयुग' समय के सूचक हैं । उसके दूसरे वर्ष (१९२२) में सिन्ध के मोहें-जो-दड़ो नामक स्थान में भी उसी प्रकार के अनेकानेक पुरातन अवशेष, प्रसिद्ध इतिहासज्ञ राखालदास बेनर्जी को मिले। इन विशिष्ट प्रकार के अवशेषों की विशेष प्रकार से, छानबीन करने पर और बलूचिस्तानादि में प्राप्त उनसे मिलते-जुलते वैसे ही अवशेषों का तुलनात्मक अध्ययन एवं अनुसन्धान करने से, पुराविदों का निश्चित मत बना कि भारत में प्राप्त प्रागति Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातत्त्व मीमांसा १७६ हासिक अथवा आद्य ऐतिहासिक सामग्री में यह सबसे अधिक प्राचीन सामग्री है । इस सामग्री की प्राप्ति से भारतीय इतिहास का प्राचीनतम समय कोई ५००० वर्ष से भी अधिक पुरातन माना जाने लगा है । हड़प्पा और मोहें-जो-दड़ो में जो प्रागैतिहासिक अवशेष मिले हैं उनका विश्लेषण करने पर पुराविदों का Safe बना है कि ये अवशेष किसी ऐसे – जन समूह विशेष से सम्बन्धित हैं, जो आर्यों के भारत में आने के पूर्व उस प्रदेश में निवास करता था । सिन्धु नदी के निकटस्थ प्रदेश में इन अवशेषों की प्राप्ति होने से विद्वानों ने इसको 'सिन्धु सभ्यता' या 'सिन्धु संस्कृति' के नाम से आलेखित करना उचित माना है । इस सिन्धु सभ्यता की खोज से भारत के प्रागैतिहासिक अथवा आद्य ऐतिहासिक समय के बारे में अनेक नये मन्तव्य और नये ज्ञातव्य प्रकाश में आ रहे हैं। देश और विदेश के अनेक विद्वानों द्वारा इस विषय पर अनेक बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे गये हैं और लिखे जा रहे हैं । पर यह सारा विषय, अभी तक अनुमान प्रमाणाधीन है। निश्चित तथ्यज्ञापक कोई वस्तु प्रस्तुत नहीं हो सकी है। मोहें-जो-दड़ो में कुछ ऐसी सामग्री भी उपलब्ध हुई है जिस पर संकेतात्मक कुछ रेखाचिन्ह अंकित हैं । पुराविद् इन चिन्हों को किसी लिपि विशेष के संकेत मान रहे हैं । एक प्रकार की कोई चित्रलिपि के द्योतक ये संकेत समझे जाते हैं। देश और विदेश के कई विद्वानों ने इस लिपि के संकेतों का रहस्योद्घाटन या अर्थ ज्ञान प्राप्त करने के भी नाना प्रकार के प्रयत्न किये हैं । पर उसमें सर्वसम्मत सफलता अभी तक किसी को प्राप्त नहीं हुई है । और जब तक इस लिपि का निर्भ्रान्त ज्ञान न हो जाय तब तक इस विषय पर निश्चयात्मक मन्तव्य प्रस्तुत नहीं किया जा सकता, यह स्वाभाविक है । पर इसमें तो कोई शंका की बात नहीं है कि सिन्धु सभ्यता की शोध ने भारत के प्राचीन इतिहास की कालमर्यादा को कई हजार वर्ष पूर्व प्रस्थापित कर दिया है । इस प्रकार पिछले ३०-३५ वर्ष दरम्यान भारत के पुरातात्विक संशोधन के विषयों में 'सिन्धुसभ्यता' का आविष्कार सबसे महत्व का विषय बना है । इस 'सिन्धु सभ्यता' की खोज का क्षेत्र भी दिनप्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। मोहें-जो-दड़ो और हड़प्पा (जो अब तो भारत के अधिकार प्रदेश में भी नहीं रहे और पाकिस्तान के आधीन हो गये हैं) के अतिरिक्त, पंजाब के अम्बाला जिले में रूपड़ नामक स्थान में, तथा सौराष्ट्र (गुजरात) के रंगपुर नामक स्थान में भी 'सिन्धु सभ्यता' के सूचक पुरातत्त्व अवशेष प्राप्त हुए हैं। राजस्थान के बीकानेर प्रदेश में भी पुरातन नामावशेष घग्घर नदी के तीरस्थ भूभाग में 'सिन्धु सभ्यता' के परिचायक अवशेष उपलब्ध होते जा रहे हैं । भारत अब सर्व प्रभुत्वसम्पन्न महागणराज्य है । संसार में इसकी प्रतिष्ठा दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है । विश्व के सभी लोग हमारे देश की प्राचीन संस्कृति के बारे में अधिकाधिक रुचि और जिज्ञासा रख रहे हैं । १६२० में भारत का सरकारी पुरातत्त्व विभाग (आर्कियॉलॉजिकल डिपार्टमेंट) विदेशी सत्ता के नियन्त्रण में था । उस समय इसके कार्यकलाप के विषय में कोई विशेष आशाजनक बात कहने में, हमें वैसा उत्साह नहीं था । अतः इस बात को लक्ष्य कर हमने ऊपर उल्लिखित यह वाक्य कहा था कि 'जब इस विषय पर अपना कुछ अधिकार होगा तभी इसका विवेचन किया जायेगा' । उक्त वाक्य लिखते समय ( १९२० में) यह कोई कल्पना नहीं थी, कि हमें अपने ही जीवनकाल में ऐसा सुदिन भी 卐 CARAAAAA आय प्रवर अभिनंद अभिनंदन श्री आनन्द श्री आनन्द Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Marwasenaw marsuramanarsanaraaaaaauremarriawaaonounswomadiseonainaasaadalabadlabarsaseccidenside view MarwwwimwarwwwvivatmarAmAvie १८० इतिहास और संस्कृति देखने को मिल जायगा, जिसमें हमारी मन:कामना पूर्ण होकर रहेगी, और भारत का पुरातत्त्व विभाग, स्वतन्त्र भारत के सार्वभौम अधिकार के नीचे, अपना गौरव प्रस्थापक अन्वेषणात्मक कार्य, उत्साहवर्धक स्थिति में करता हुआ देखने को मिलेगा। स्वतन्त्रता की प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने अपने पुरातत्त्व विभाग को मी सुव्यवस्थित और सुसंगठित करने का प्रयत्न किया है। इस विभाग की ओर से १९५३ में, सन् १९०२ से लेकर १९५० तक के ५० वर्षों का 'आकियॉलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया' के कार्य का विवरण प्रकाशित किया है, जिसमें भारत के पुरातत्त्व विषयक अन्वेषण, अनुसन्धान, संरक्षण, समुत्खनन आदि कार्यों के बारे में यथाप्राप्त विवेचन लिखा गया है। साथ में अब भविष्य में क्या-क्या काम किये जाने चाहिए, इसका भी कुछ दिग्दर्शन कराया गया है। आशा है इस 'राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर' द्वारा भी इस कार्य में यथायोग्य ज्ञानवृद्धि करने-कराने का अभीष्ट प्रयत्न होता रहेगा। Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aslisa 10 श्रीमती निरूपमादेवी खण्डेलवाल, एम० ए० (हिन्दी साहित्य) लेखिका तथा रेडियो वार्ताकार NA रा जैन-संस्कृति में संगीत का स्थान संगीत शब्द की व्युत्पत्ति 'संगीत' शब्द 'गीत' में 'सम' उपसर्ग लगाकर बना है, जिसका अर्थ होता है गीतसहित । नृत्य और वादन के साथ किया गया गीत संगीत कहलाता है । संगीत के आदिप्रवर्तक तीर्थङ्कर ऋषभदेव जैन संस्कृति और वाङमय में बहुत प्राचीनकाल से ही संगीतकला का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। जैन परम्परा उसे अनादि-निधन मानती है। जैन साहित्य में कर्मयुग के आदि विधाता प्रजापति ऋषभदेव ने सर्वप्रथम अपने पुत्र वृषभसेन को संगीत की शिक्षा दी। आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में लिखा है 'विभव षभसेनाय गीतवाद्यार्थ संग्रहम् । गन्धर्वशास्त्रमाचल्यो यत्राध्यायाः परः शतम् ॥' ___'मनुकुलतिलक ऋषमदेव ने अपने पुत्र वृषभसेन को गीत, वाद्य तथा गान्धर्व विद्या का उपदेश दिया, जिस शास्त्र के सौ अध्याय से ऊपर हैं।' ऋषभदेव अलौकिक ज्ञान और बुद्धि के स्वामी थे। उन्हीं से अंक और अक्षर कला प्रकट हुई और उन्होंने प्रजा को असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प का उपदेश तथा शिक्षण दिया । संगीतोपनिषद्सारोद्धार में बताया है कि तुर्य, वाद्य और नाटक की उत्पत्ति ऋषभपुत्र चक्रवर्ती भरत की नव-निधियों में से अन्तिम शंख से हुई थी। संगीत की निष्पत्ति हर से हुई और यहाँ हर का आशय ऋषभदेव है । पापों का नाश करने के कारण वे 'हर' कहलाते हैं । शिवपद (मोक्ष) के प्रदाता होने के कारण वे शिव भी कहलाते हैं। संगीत के आचार्य मतंग नामक आचार्य का 'बृहद्देशी' ग्रन्थ प्रथम बार राग का उल्लेख करता है । इनका समय ईसवी की चौथी-पांचवीं शताब्दी है। دفاع دفاع आचावरत आनआचार्यप्रवर आमा श्रीआनन्द अन्य श्रीआनन्द Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .....aamann a . .-...-AANEE LA nta r B AL -: -3 .... . . ........ .. . . ........ ... - - आचार्यप्रसाचाuaraUMAN श्रामानन्द अभिग पथप्रामानन्दसाग्रस १८२ इतिहास और संस्कृति 'संगीत समयसार' आचार्य पार्श्वदेव का दसवीं शती ईसवी का ग्रन्थ माना जाता है । इसमें संगीत का शास्त्रीय ढंग से संस्कृत की कारिकाओं में प्रामाणिक वर्णन मिलता है। इसमें संगीत की शुद्ध पद्धति का विवेचन हुआ है । यथा प्रबन्धा यत्र गीयन्ते, वाद्यन्ते च यथाक्षरम् । यथाक्षरं च नृत्यन्ते, सा चित्रा शुद्धपद्धतिः ॥ ७।२३० 'जहाँ प्रबन्धकाव्यों का गायन किया जाता हो, उनके अक्षरों के अनुसार ही वाद्य बजाये जाते हों और उन्हीं के अनसार नृत्य होता हो, वह चित्रपद्धति कही जाती है और वही पद्धति शुद्ध है।' संगीत में 'गीत' प्रमुख है, वाद्य और नृत्य सहायक हैं । वाद्य संगीत का और नृत्य वाद्य का अनुसरण करता है। तीनों मिलकर जिस लय को जन्म देते हैं वह 'श्रोत्रनेत्र महोत्सवाय' होती है। उसमें श्रोत्रनेत्र एक महोत्सव में डूब जाते हैं। आचार्य पार्श्वदेव ने संगीत की परिभाषा में गीत, वाद्य और नृत्य तीनों का समावेश किया है । 'संगीत रत्नाकार' में तो स्पष्ट लिखा है गीतं वाद्य तथा नत्यं त्रयं संगीतमुच्यते । वराहोपनिषद में भी संगीत में गीत, वाद्य तथा नत्य की अन्विति मानते हुए लिखा है संगीतताललयवाद्यवशं गतापि मौलिस्थकुम्भपरिरक्षणधीनटीव । महाकवि कालिदास ने भी 'मेघदूत' नामक गीतिकाव्य में गीत, वाद्य तथा नृत्य तीनों को संगीतार्थ के उपादानों के रूप में प्रस्तुत किया है। नाद संगीत का माध्यम नाद है। संगीत समयसार के अनुसार नाद से सम्पूर्ण वाङमय-वागविस्तार की उत्पत्ति होती है। कण्ठ आदि भेद से जो नाद स्फुट रूप से स्फुरित होता है, उसी को तद्विज्ञ (नाद-पण्डित) आरोही क्रम से 'ध्वनि' कहते हैं--- कण्ठादिस्थान भेदेन यो नादः स्फुरति स्फुटम् । आरोहिक्रमतस्तज्ज्ञः स एव ध्वनिरुच्यते ।। संगीत भक्तिरस का सहायक है । 'सागारधर्मामृत' में जिन-भक्ति में संगीत को श्रेष्ठ साधन बताया गया है एकवास्तु जिनेभक्तिः किमन्यैः स्वेष्टसाधनैः । या दोग्धि कामनुच्छिद्य सद्योऽपाया नशेषतः ॥ संगीत और भक्ति का घनिष्ठ सम्बन्ध स्वतःसिद्ध है। संगीत के योग से भक्तिभाव में तीव्रता आती है, लालित्य की वृद्धि होती है और हृदय द्रवित होकर तदाकार वृत्ति में स्थित हो जाता है। आत्मा में शान्ति का स्रोत उत्पन्न करने में संगीत अत्यन्त महत्वपूर्ण है। संगीत हृदय का उच्छवास है । मानव की भव्य भावनाओं की सहज, सरल एवं मधुर अभिव्यक्ति है। संगीत जीवन की वह कमनीय कला है, जिसके अभाव में जीवन नीरस है। महरि ने संगीतकला से अनभिज्ञ मनुष्य को पशु की संज्ञा प्रदान की है Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-संस्कृति में संगीत का स्थान १८३ साहित्य-संगीत कला विहीनः । साक्षात् पशुः पुच्छविषाणहीनः ।।-नीतिशतक महात्मा गाँधी का कथन है कि 'संगीत के बिना तो सारी शिक्षा अधूरी लगती है, चौदह विद्याओं में संगीत एक प्रमुख विद्या मानी गई है । संगीत में जितनी सहजता, सरलता एवं मधुरता है, उतनी अन्य कलाओं में नहीं है । माधुर्य ही संगीत-कला का प्राण है जो जादू की तरह अपना प्रत्यक्ष प्रभाव दिखलाता है। संगीत का सौन्दर्य श्रवण की मधुरता में है। श्रीकृष्ण ने नारद जी से कहा है नाहं वसामि वैकुण्ठे, योगिनां हृदये न च । मद्भक्ता यत्र गायन्ति, तत्र तिष्ठामि नारद । 'मेरा निवास वैकुण्ठ में नहीं है और न मैं योगियों के हृदय में भी रहता हूँ। हे नारद ! मैं तो वहाँ रहता हूँ जहाँ पर मेरे भक्त तन्मय होकर सुमधुर स्वरलहरी से गाते हैं।' संगीत की मधर स्वरलहरी भाषा को भी द्रवित करने में प्रथम है। संगीत हृदय की वह भाषा है जो राग-रागिनियों के माध्यम से व्यक्त होती है । इसका मूल आधार राग है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की टीका में आचार्य विमल गिरि ने 'पद-स्वर-तालवधनात्मक गान्धर्व को गीत कहा है।' गीत शब्द से पूर्व 'सम्' उपसर्ग लगने से संगीत शब्द बना है, जिसका अर्थ सम्यक् प्रकार से लय, ताल और स्वर आदि के नियमों के अनुसार पद्य का गायन है। राग की परिभाषा सभी मूर्धन्य मनीषियों ने प्रायः एक ही प्रकार की है कि 'जो ध्वनि विशेष स्वर, वर्ण से विभूषित हो, जनचित्त को अनुरञ्जन करने वाली हो, वह राग' है।' धर्म और संगीत संगीत मानव के चंचल मन को कीलित करने का एक सुन्दर साधन है। आठ रस मन को और अधिक चंचल बनाने वाले हैं । एक भक्तिरस जिसका स्थायीभाव अनुराग है, जो शान्तरस के निर्वेद नामक स्थायीभाव पर निर्भर है, शान्ति प्रदान करने वाला है। वीतराग भगवान के चिन्तन में संगीत, गायन के द्वारा हम अपने में वीतराग भाव उत्पन्न करने का प्रयत्न करते हैं। इस प्रकार श्रमण-संस्कृति में संगीत का विशेष महत्व सिद्ध होता है। जैनागमों में संगीत ___ जैन कला एवं दर्शन के मूल स्रोत 'आगम' हैं । इनमें 'गीत' शब्द का विभिन्न दृष्टि से निरूपण हुआ है। यह निरूपण कहीं कला की दृष्टि से है, कहीं विषय प्रतिपादन की दृष्टि से और कभी प्रभाव की दृष्टि से । प्रभाव की दृष्टि से इसका विवेचन विरक्ति के प्रसंग में हुआ है। जिन प्रमुख आगम ग्रन्थों में 'गीत' शब्द की व्युत्पत्ति एवं विवेचन मिलता है, वे ये हैं-जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति, प्रश्नव्याकरण, जीवाभिगम, ज्ञातृधर्मकथा, समवायाङ्ग, बृहत्कल्प, स्थानाङ्ग और अनुयोगद्वार । __ कल्पसूत्र के अनुसार भगवान् श्री ऋषभदेव ने प्रजा के हितार्थ, अभ्युदयार्थ एवं जन-जीवन में सुख और शान्ति के संचारार्थ कलाओं का उपदेश दिया। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुसार उन कलाओं में MAMACONDA MEMAIाय: प्रध५ श्रीआनन्दन . mamimaraweimeron Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रवास अभिगमन भागप्रवर आभा श्रीआनन्द अन् श्रीआनन्द अन्य५ १८४ इतिहास और संस्कृति HAR बहत्तर कलाएँ पुरुष के लिये तथा चौसठ स्त्रियों के लिए थीं। उनमें पुरुष कलाओं में गीत का पांचवां स्थान है और स्त्री-कलाओं में ग्यारहवाँ । ज्ञातृधर्मकथा में मेघकुमार का वर्णन करते हुए उसका विशेषण 'गीतरतिगांधर्वनाट्य कुशल' दिया है। दशाश्रुतस्कन्ध में भोगकुल और उग्रकुल के पुत्रों का वर्णन करते हुए लिखा है कि वे नाट्य, गीत, वादित्र, तंत्री, ताल, त्रुटित, घन, मृदंग आदि वाद्य यन्त्रों से युक्त थे। आभिजात्य और सामान्य दोनों ही वर्गों में समान रूप से संगीत प्रचलित था। उत्तराध्ययन के अनुसार चित्र और सम्भूत नामक मातंग पुत्र तिसरय, वेणु और वीणा को बजाते हुए नगर से निकलते थे तो लोग उनके गायन-वादन पर मुग्ध हो जाते थे। कौमुदी एवं इन्द्र महोत्सव पर भी संगीत का आयोजन किया जाता था। राज उदयन के अलौकिक संगीत नैपुण्य की चर्चा आवश्यकणि में मिलती है। उसने एक बार मदोन्मत्त बने हुए हाथी को संगीत के द्वारा वश में कर लिया था। सिन्धु-सौवीर के राजा उद्रायण भी संगीत-कला में निपुण थे और स्वयं वीणा बजाते थे । आवश्यकचूणि के अनुसार उनकी रानी सरसों के ढेर पर नृत्य करती थी। स्थानाङ्ग में काव्य के चार प्रकारों में संगीत की गणना की गई है। काव्य के चार प्रकार ये हैं-वाद्य, नाट्य, गेय और अभिनय । उसमें वीणा, ताल, तालसय और वादिन्त्र को मुख्य स्थान दिया है । नाट्यशास्त्र के रचयिता आचार्य भरत ने भी नाट्य में संगीत का महत्व प्रतिपादित किया है सर्वेषामेव लोकानां, दुःखशोक विनाशनम् । यस्मात्संदृश्यते गीतं, सुखदं व्यसनेष्वपि ॥ अर्थात् 'संगीत संसार के सभी प्राणियों के दुःख, शोक का नाशक है और आपत्तिकाल में भी सुख देने वाला है।' गीत के प्रमुख प्रकार समवायाङ्ग और स्थानाङ्ग में गीत के तीन प्रकार माने हैं, किन्तु जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में उसके चार प्रकार बताये हैं । स्थानाङ्ग में कथन है कि सात स्वर हैं और वे नाभि से समुत्पन्न होते हैं और शब्द ही उनका मूल स्थान है। छन्द के प्रत्येक चरण में उच्छ्वास ग्रहण किये जाते हैं और गीत के तीन प्रकार हैं-गीत प्रारम्भ में मृदु होता है, मध्य में तीव्र और अन्त में पुन: मन्द होता है । गीत के छह दोष इस प्रकार हैं (१) भीतं-भयभीत मन से गायन । (२) द्रुतं-जल्दी-जल्दी गायन। (३) अपित्थं--श्वासयुक्त शीघ्र गाना अथवा ह्रस्व स्वर तथा लघुस्वर से गायन । (४) उत्तालं- अति उत्ताल स्वर तथा अवस्थान ताल से गायन । (५) काक-स्वर-कौए की तरह कर्ण-कटु शब्दों से गायन, तथा (६) अनुनासिकम् -अनुनासिका से गायन । गीत के गुण स्थानाङ्ग में गीत के आठ गुण बताये हैं पुन्नं रत्तं च अलंकियं च वत्त तहा अविघुळं। मधुरं समं सुकुमारं, अठ्ठगुणा होति गेयस्स ॥ ७/३/२४ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति में संगीत का स्थान १८५ (१) पूर्ण-स्वर, लय और कला से युक्त गायन । (२) रक्त-पूर्ण तल्लीनतापूर्वक गायन । (३) अलंकृत-स्वर विशेष से अलंकृत गायन । (४) व्यक्त-स्पष्ट रूप से गायन, जिससे स्वर और अक्षर स्पष्ट ज्ञात हो सकें। (५) अविघुष्ट—अविपरीत स्वर से गायन । (६) मधुर--कोकिल जैसा मधुर गायन । (७) सम-तालवंश तथा स्वर से समत्व गायन । (८) सुललित-कोमल स्वर से गायन । स्थानाङ्ग में संगीत-कला के आठ अन्य गुण भी बतलाये गये हैं, यथा 'उरकंठ सिरपसत्थं च, गेज्जं ते मउरिभिअपदबद्ध । समतालपडुक्खेवं सत्तसर सोहर गीयं ॥ ७/३/२५ अर्थात् 'उरोविशुद्ध, कण्ठविशुद्ध, शिरोविशुद्ध, मृदुक, रिङ्गित, पदबद्ध, समताल और सप्तस्वरसीमर-ये आठ गुण गायन में होते हैं। अनुयोगद्वार के अनुसार अक्षरादि सम सात प्रकार के होते हैं, यथा-अक्षरसम, पदसम, तालसम, लय सम, ग्रहसम, निश्वसितोच्छ्वसितसम, संचारसम । स्थानाङ्ग में गेयगीत के अन्य आठ गुण इस प्रकार बताये हैं निहोसं सारवंतं च हेउजुत्तमलंकियं । उवणीय सोवयारं च, मियं मधुरमेव य ॥ अर्थात् 'निर्दोष, सारवन्त, हेतुयुक्त, अलंकृत, उपनीत, सोपचार, मित और मधुर ।' स्थानाङ्ग में सप्तस्वरों का सुन्दर विवेचन मिलता है। ये सप्तस्वर इस प्रकार हैं(१) षड्ज-जो नासिका, कण्ठ, छाती, तालु, जिला और दाँत इन छह स्थानों से उत्पन्न होता है। (२) वृषभ-जब वायु नाभि से उत्पन्न होकर कण्ठ और मूर्धा से टक्कर खाकर वृषभ के शब्द की तरह निकलता है। (३) गांधार-जब वायु नाभि से उत्पन्न होकर हृदय और कण्ठ को स्पर्श करता हुआ सगन्ध निकलता है। (४) मध्यम- जो शब्द नाभि से उत्पन्न होकर हृदय से टक्कर खाकर पुनः नाभि में पहुंच जाता है अर्थात् अन्दर ही अन्दर गूंजता रहता है। (५) पञ्चम–नाभि, हृदय, छाती, कण्ठ और सिर, इन पाँच स्थानों से उत्पन्न होने वाला स्वर। (६) धंवत-अन्य सभी स्वरों का जिसमें सम्मिश्रण हो, इसका अपर नाम रैवत है। Minaimeomammmmmmmm MmmmmmnionnewIMMermainawinimnavam Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MACADATAaws.com AGAANABAJALJALAnnua.dachARAR DAD A A ..., दृ HAL या १८६ इतिहास और संस्कृति (७) निषाद---जो स्वर अपने तेज से अन्य स्वरों को दबा देता है और जिसका देवता सूर्य हो। स्थानांग अभयदेव वत्ति में इन सप्तस्वरों की व्याख्या संस्कृत श्लोकों में की गई है। स्थानांग में स्वर परिज्ञान भी है यथा-मयूर षड़जस्वर में आलापता है, कुक्कुट ऋषभ स्वर में बोलते हैं, हंस के स्वर से गांधार ध्वनि निश्रत होती है । गवेलक के स्वर से मध्यम, कोयल के स्वर से पंचम, सारस और क्रौंच के स्वर से धैवत तथा अंकुश से प्रताडित हस्ती की चिंघाड़ से निषाद स्वर परिज्ञात होता है। इसी प्रकार अचेतन पदार्थों से भी सप्तस्वरों का परिज्ञान होता है, यथा ढोल से षड्ज, गोमुखी से वृषभ, शंख से गांधार, झल्लरी से मध्यम, तबले से पंचम, नगाड़े से धैवत और महाभेरी से निषाद स्वर जाना जाता है। ___ आगमों में इन स्वरों का फल भी बताया गया है। स्थानांग में लिखा है कि जो मानव षड़जस्वर से बोलता है, वह आजीविका प्राप्त करता है। उसके प्रत्येक कार्य सिद्ध होते हैं। उसे गायें, पुत्र तथा मित्र प्राप्त होते हैं तथा वह कान्ताप्रिय होता है । वृषभ स्वर का प्रयोग करने वाला ऐश्वर्य, सेना, सन्तान, धन, वस्त्र, अलंकार आदि प्राप्त करता है। गांधार स्वर से गाने वाला आजीविका के सभी साधन उपलब्ध करता है, तथा अन्य कलाओं का भी ज्ञाता होता। मध्यम स्वर से गाने वाला सुखी जीवन व्यतीत करता है। पञ्चम स्वर से गाने वाला पृथ्वीपति, बहादुर, सग्राहक और गुणज्ञ होता है । रैवत स्वर से गाने वाला दुःखी, प्रकृति का नीच और अनार्य होता है । वह प्रायः शिकारी, तस्कर और मल्लयुद्ध करने वाला होता है । निषाद स्वर से गाने वाला कलहप्रिय, घुमक्कड़, भारवाही, चोर, गोघातक और आवारा होता है। स्थानांग में सप्तस्वरों के तीन ग्रामों का विशद वर्णन मिलता है। ये तीन ग्राम इस प्रकार हैं(१) षड्जग्राम (२) मध्यमग्राम (३) गांधारग्राम । इन तीनों ग्रामों में प्रत्येक में सात-सात मुर्छनाएँ होती हैं । इस प्रकार कुल इक्कीस मूर्च्छनाएँ होती हैं। स्थानांग और अनुयोगद्वार के आधार पर ही पार्श्वदेव ने 'संगीतसार' और सुधाकलश ने 'संगीतोपनिषद्' का निर्माण किया । इस प्रकार जैनागमों में संगीत का विशद विवेचन मिलता है । जैन संगीत का चरम लक्ष्य मोक्षमार्ग है। उसमें त्याग-वैराग्य की भव्य भावना को प्रमुख स्थान दिया गया है। जैन-संगीत धर्मशिक्षा का एक अंग रहा है। भक्ति और अध्यात्म दोनों ही क्षेत्रों में इसका समान महत्व रहा है। IAADI FASTD - Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dडा. कस्तूरचन्द कासलीवाल [निदेशक : साहित्य शोध विभाग, महावीर भवन, जयपुर-३] ग्रन्थों की सुरक्षा में राजस्थान के जैनों का योगदान THIS सारे देश में हस्तलिखित ग्रन्थों का अपूर्व संग्रह मिलता है। उत्तर से दक्षिण तक तथा पूर्व से पश्चिम तक सभी प्रान्तों में हस्तलिखित ग्रन्थों के भण्डार स्थापित हैं । इसमें सरकारी क्षेत्रों में पूना का भण्डारकर-ओरियन्टल इन्स्टीट्यूट, तंजौर की सरस्वती महल लायब्ररी, मद्रास विश्वविद्यालय की ओरियन्टल मैनास्क्रप्टस लायब्ररी. कलकत्ता की बंगाल एशियाटिक सोसाइटी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । सामाजिक क्षेत्र में अहमदाबाद का एल० डी० इन्स्टीट्यूट, जैन सिद्धान्त भवन आरा, पन्नालाल सरस्वती भवन बम्बई, जैन शास्त्र भण्डार कारंजा, भिम्बीडी, सूरत, आगरा, देहली आदि के नाम लिये जा सकते हैं। इस प्रकार सारे देश में इन शास्त्र भण्डारों की स्थापना की हुई है। जो साहित्य संरक्षण एवं संकलन का एक अनोखा उदाहरण है। लेकिन हस्तलिखित ग्रन्थों के संग्रह की दृष्टि से राजस्थान का स्थान सर्वोपरि है। मुस्लिम शासन काल में यहां के राजा महाराजाओं ने अपने निजी संग्रहालयों में हजारों ग्रन्थों का संग्रह किया और उन्हें मुसलमानों के आक्रमण से अथवा दीमक एवं सीलन से नष्ट होने से बचाया है । स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात सरकार ने जोधपुर में जिस प्राच्यविद्या शोध प्रतिष्ठान की स्थापना की थी उसमें एक लाख से भी अधिक ग्रन्थों का संग्रह हो चुका है जो एक अत्यधिक सराहनीय कार्य है । इसी तरह जयपुर, बीकानेर, अलवर जैसे कुछ भूतपूर्व शासकों के निजी संग्रह में भी हस्तलिखित ग्रन्थों की सर्वाधिक संख्या है। लेकिन इन सबके अतिरिक्त भी राजस्थान में जैन ग्रन्थ भण्डारों की संख्या सर्वाधिक है और उनमें संग्रहीत ग्रंथों की संख्या तीन लाख से कम नहीं है। राजस्थान में जैन समाज पूर्ण शान्तिप्रिय एवं भावक समाज रहा । इस प्रदेश की अधिकांश रियासतें जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, उदयपुर, बूंदी, डूगरपुर, अलवर, भरतपुर, कोटा, झालावाड़, सिरोही में जैनों की घनी आबादी रही । यही नहीं शताब्दियों तक जैनों का इन स्टेटस् की शासन व्यवस्था में पूर्ण प्रभुत्व रहा तथा वे शासन के सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित रहे। MADAAAAAAAAAmainaswinAMADAINARuamniaaisamunawrAAAAAADAINIAAJAJAJARIADRIKAJAIABASABAIADMAnnainmaanaasalas SVIUI HAL प्रवर अनि श्राआनन्दा TO. amM Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nainamaAMJALABAJRIWANATASATANAMANABARABANARANANJABANNADABADAAN N NAINALANADAIANARAIADABANANASANBARABANKA A MASALALARAJADAM 1523ाम आचा प्रवास श्रीआनन्द ग्रन्थ meRA १८८ इतिहास और संस्कृति और इसी कारण साहित्य संग्रह के अतिरिक्त राजस्थान जैन पुरातत्त्व एवं कला की दृष्टि से उल्लेखनीय प्रदेश रहा ।। ग्रंथों की सुरक्षा एवं संग्रह की दृष्टि से राजस्थान के जैनाचार्यों, साधुओं, यतियों एवं श्रावकों का प्रयास विशेष उल्लेखनीय है । प्राचीन ग्रंथों की सुरक्षा एवं नये ग्रंथों के संग्रह में जितना ध्यान जैन समाज ने दिया उतना अन्य समाज नहीं दे सका । ग्रंथों की सुरक्षा में उन्होंने अपना पूर्ण जीवन लगा दिया और किसी भी विपत्ति अथवा संकट के समय ग्रथों की सुरक्षा को प्रमुख स्थान दिया । जैसलमेर, जयपुर, नागौर, बीकानेर, उदयपुर एवं अजमेर में जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथ भण्डार हैं वे सारे देश में अद्वितीय हैं तथा जिनमें प्राचीनतम पाण्डुलिपियों का संग्रह है। इन शास्त्र भण्डारों में ताड़पत्र एवं कागज पर लिखी हुई प्राचीनतम पाण्डुलिपियों का संग्रह मिलता है । संस्कृत भाषा के काव्य चरित, नाटक, पुराण, कथा एवं अन्य विषयों के ग्रंथ ही इन भण्डारों में संग्रहीत नहीं हैं किन्तु प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषा के अधिकांश ग्रंथ एवं हिन्दी राजस्थानी का विशाल साहित्य इन्हीं भण्डारों में उपलब्ध होता है। यही नहीं कुछ ग्रंथ तो ऐसे हैं जो इन्हीं भण्डारों में उपलब्ध होते हैं, अन्यत्र नहीं। ग्रंथ भण्डारों में बड़े-बड़े पण्डित लिपिकर्ता होते थे जो प्रायः ग्रंथों को प्रतिलिपियाँ किया करते थे। जैन महारवों के मुख्यालयों पर ग्रथ लेखन का कार्य अधिक होता था। आमेर, नागौर, अजमेर, सागवाडा, जयपर, कामा आदि के नाम विशेष रूप में उल्लेखनीय हैं। ग्रंथ लिखने में काफी परिश्रम करना पड़ता था। पीठ भुके हुए कमर एवं गर्दन नीचे किये हुए, आँखें झुकाये हुए कष्ट पूर्वक ग्रन्थों को लिखना पड़ता था। इसलिए कभी-कभी प्रतिलिपिकार निम्न श्लोक लिख दिया करते थे जिसमें पाठक, ग्रंथ की स्वाध्याय करते समय अत्यधिक सावधानी रखे "भग्न पृष्ठि कटि ग्रीवा वक्रवृष्टिरधोमुखम् । कष्टेनलिखितं शास्त्रं यत्नेन परिपाल्यताम् ॥" बद्ध मुष्टि कटि ग्रीवा मददृष्टिरधोमुखम् । कष्टेनलिखितं शास्त्र यत्नेन परिघातयेत ॥ लघु दीर्घ पद हीण वंजण हीण लखाणुहुई । अजाण पणई मूढ पणह पंडत हई ते करि भणज्यो । राजस्थान के जैन शास्त्रभण्डार प्राचीनतम पाण्डुलिपियों के लिए प्रमुख केन्द्र हैं । जैसलमेर के जैन शास्त्रभण्डार में सभी ग्रन्थ ताड़पत्र पर हैं जिसमें सम्बत् १११७ में लिखा हुआ ओघ नियुक्ति वृत्ति सबसे प्राचीनतम ग्रन्थ है। इसी भण्डार में उद्योतन सूरि की कृति कुवलयमाला सन् १०८२ की कृति है। राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में यद्यपि ताड़पत्र एव कागज पर ही लिखे हुए ग्रन्थ मिलते हैं लेकिन कपड़े एवं ताम्रपत्र पर लिखे हुए ग्रन्थ भी मिलते हैं । जयपुर के एक शास्त्र भण्डार में कपड़े पर १. सम्वत् १११७ मंगलं महाश्री ॥ छ । पाहिलेन लिखित मंगलं महाश्री ॥ छ । २. सम्वत् ११३६ फाल्गुन वदि १ रवि दिने लिखितमिद पुस्तकमिति ।। Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थों की सुरक्षा में राजस्थान के जैनों का योगदान लिखे हुए प्रतिष्ठा-पाठ की प्रति उपलब्ध हुई है जो १७वीं शताब्दि की लिखी हुई है और अभी तक पूर्णतः सुरक्षित है। कपड़ों पर लिखे हुए इन भण्डारों में चित्र भी उपलब्ध होते हैं जिनमें चार्टस् के द्वारा विषय प्रायः प्रत्येक मन्दिर में ताम्रपत्र एवं सप्तधातु पत्र भी उपलब्ध होते हैं । लेखक के गुणों का भी वर्णन मिलता है जिसके अनुसार इसमें निम्न गुण । प्रतिपादन किया गया है इन भण्डारों में ग्रन्थ होने चाहिये — सर्वदेशाक्षराभिज्ञः सर्वभाषा विशारदः । लेखकः कथितो राज्ञः सर्वाधिकरणुषु वै ॥ मेधावी वाक्पटु धीरो लघुहस्तो जितेन्द्रियः । परशास्त्र परिज्ञाता, एवं लेखक उच्येत ॥ ग्रन्थ लिखने में किस-किस स्याही का प्रयोग किया जाना चाहिये इसकी भी पूरी सावधानी रखी जाती थी। जिसमें अक्षर खराब नहीं हों, स्याही नहीं फूट तथा कागज एक दूसरे के नहीं चिपके । ताड़पत्रों के लिखने में जो स्याही काम में ली जाने वाली है उसका वर्णन देखिये सहवर-भृंग: त्रिफाना, कार्तासं लोहमेव तीली । समकरजाल बोलपुता, भवति मषी ताडपत्राणां ॥ प्राकृत भाषा में निबद्ध इस ग्रंथ में २५४ पत्र हैं । इसी तरह महाकवि दण्डी के काव्यादर्श की पाण्डुलिपि सन् ११०४ की उपलब्ध है जो इस ग्रन्थ की अब तक उपलब्ध ग्रन्थों में सबसे प्राचीन है । ' जैसलमेर के इस भण्डार में और भी ग्रन्थों की प्राचीनतम पाण्डुलिपियाँ हैं, जिनके नाम निम्न प्रकार हैं अभयदेवाचार्य की विपाकसूत्र कृति सन् १९२८ जयकीर्तिसूरिका छन्दोनुशासन सन् १९३५ अभयदेवाचार्य की भगवती सूत्र कृति सन् ११३८ १८६ विभत्नसूरि द्वारा विरचित पउम चखि की सन् १९४१ में लिखित प्राचीन पाण्डुलिपि भी इसी भण्डार में संग्रहीत है ।" यह पाण्डुलिपि महाराजाधिराज श्री जयसिंह देव के शासन काल में लिखी गयी थी । वर्द्धमानसूरि की व्याख्या सहित उपदेशपढ़प्रकरण की पाण्डुलिपि जिसका लेखन अजमेर सम्बत् १२१२ में 'हुआ था इसी भण्डार में संग्रहीत है । संवत् १२१२ चैत्र सुदि १३ गुरौ अधेट श्री अजयमेरू दुर्गे समस्त राजकवि विराजित परम भट्टारक महाराजाधिराज श्री विग्रह देव विजय राज्ये उपदेश टीका लेखिति । चन्द्रप्रभस्वामी चरित ( यशोदेवसूरि ) की भी प्राचीनतम पाण्डुलिपि इसी भण्डार में सुरक्षित है जिसका लेखन काल सन् १९६० है तथा जो ब्राह्मण गच्छ के पं० अभयकुमार द्वारा लिपिबद्ध की गयी थी । 3 १. सम्वत् १९६१ भाद्रपदे । २. सम्वत् १९६८ कार्तिक वदि १३ ।। छ । महाराजाधिराज श्री जयसिंघ विजय देव राज्ये भृगु कच्छ समवस्थितेन लिखितेयं मिल्लणेन ॥ ३. सम्वत् १२१७ चैत्र वदि ९ बुधो ॥ छ ॥ ब्राह्मणगच्छे पं० अभयकुमारस्व प्रव अभि आचार्य प्रभ श्रीभन्दा अन्थ 52 श्री आनन्द व्यक 3 MIN 10 Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAJAKKuaainian R ASAIRAMAaisecrediJAIADAmarosainararanevaadamiMAIADABADASANABADreatALADAMADre म आचार्यप्रवचन चापाप्रवन अभिनत श्राआनन्दमश्रीआनन्दग्रन्थ miwwwmarine M ernmmcomaaamain १६० इतिहास और संस्कृति इसी तरह भगवती सूत्र सम्वत् १२३१ लिपिकर्ता हाणचन्द्र । व्यवहार सूत्र सम्वत् १२३६ लिपिकर्ता जिनबंधुर । महावीर चरित्र गुणचन्द्रसूरि सम्वत् १२४२ । भवभावनाप्रकरण-मलधारि हेमचन्द्रसूरि सम्वत् १२६० की भी प्राचीनतम प्रतियाँ इसी भण्डार में संग्रहीत हैं। ताड़पत्र के समान कागज पर उपलब्ध होने वाले ग्रन्थों में भी इन भण्डारों में प्राचीनतम पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध होती हैं, जिनका संरक्षण अत्यधिक सावधानी पूर्वक किया गया है । नये मन्दिरों में स्थानान्तरित होने पर भी उनको सम्हाल कर रखा गया तथा दीमक, सीलन आदि में बचाया गया। इस हष्टि से मध्य युग में होने वाले भट्टारकों का सर्वाधिक योगदान रहा। जयपुर के दि० जैन तेरह पंथी बड़ा मन्दिर के शास्त्र भण्डार में समयसार की संवत १३२६ की पाण्डुलिपि है जो देहली में गयासुद्दीन बलवन के शासन काल में लिखी गयी थी। योगिनीपुर जो देहली का पुराना नाम था उसमें इसकी प्रतिलिपि की गयी थी। सन् १३३४ में लिखित महाकवि पुष्पदन्त के महापुराण के द्वितीय भाग उत्तर पुराण की एक पाण्डुलिपि आमेर शास्त्र भण्डार जयपुर में संग्रहीत है। यह पाण्डुलिपि भी योगिनीपुर में मोहम्मद साह तुगलत के शासन काल में लिखी गयी थी । इसकी प्रशस्ति निम्न प्रकार है___संवत्सरे स्मिन् श्री विक्रमादित्य गताबदाः सम्वत् १३६१ वर्षे ज्येष्ठ बुदि ६ गुरुवासरे अधेह श्री योगिनीपुरे समस्त राजावलि शिरोमुकट माणिक्य खचित नखरश्मौ सुरत्राण श्री मुहम्मद सहि नाम्नी महीं विभ्रति सति अस्मिन राज्ये योगिनीपुरस्थिता ...... । यहाँ एक बात और विशेष ध्यान देने की है और वह यह है कि जैनाचार्यों एवं श्रावकों ने अपने शास्त्र भण्डारों में ग्रन्थों की सुरक्षा में जरा भी भेदभाव नहीं रखा । जिस प्रकार उन्होंने जैन ग्रन्थो की सुरक्षा एवं उनका संकलन किया उसी प्रकार जैनेतर ग्रन्थों की सुरक्षा एवं संकलन पर भी विशेष जोर दिया। घोर परिश्रम करके जैनेतर ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ या तो स्वयं ने की अथवा अन्य विद्वानों से उनकी प्रतिलिपि करवायीं । आज बहत से ऐसे ग्रन्थ हैं जिनकी केवल जैन शास्त्र भण्डारों में ही पाण्डलिपियाँ मिलती हैं। इस दृष्टि से आमेर, जयपुर, नागौर, बीकानेर, जैसलमेर, कोटा, बूंदी एवं अजमेर के जैन शास्त्र भण्डारों का अत्यधिक महत्व है। जैन विद्वानों ने जैनेतर ग्रन्थों की सुरक्षा ही नहीं की किन्तु उन कृतियाँ, टीका एवं भाष्य भी लिखे । उन्होंने उनकी हिन्दो में टीकायें लिखीं और उनके प्रचार । प्रसार में अत्यधिक योग दिया। राजस्थान के इन शास्त्र भण्डारों में काव्य, कथा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष, गणित विषयों पर सैकड़ों रचनायें उपलब्ध होती हैं । यही नहीं स्मति, उपनिषद एवं संहिताओं का भी भण्डारों में संग्रह मिलता है । जयपुर के पाटौदी के मन्दिर में ५०० ऐसे ही ग्रन्थों का संग्रह किया हुआ उपलब्ध है। IENDRA १. सम्वत १३२६ चैत्र बुदी दसम्यां बुधवासरे अधेह योगिनीपुरे समस्त राजावलि सयालंकृत श्री गयासुद्दीन राज्ये अत्रस्थित अग्रोतक परमश्रावक जिनचरनकमल । Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थों की सुरक्षा में राजस्थान के जैनों का योगदान १६१ मम्मट के काव्यप्रकाश की सम्वत् १२१५ की एक प्राचीनतम पाण्डुलिपि जैसलमेर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है । यह प्रति शाकंभरी के कुमारपाल के शासन काल में अणहिल पहन में लिखी गयी थी । सोमेश्वर कवि की काव्यादर्श की सन् ११२६ की एक ताडपत्रीय पाडुलिपि भी यहीं के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है । कवि रुद्रट के काव्यालंकार की इसी भण्डार में सम्वत् १२०६ आषाढ़ बदी ५ को ताड़पत्रीय पाण्डुलिपि उपलब्ध होती है । इस पर नमि साधु की संस्कृत टीका । इसी विद्वान द्वारा लिखित टीका की एक प्रति जयपुर के आमेर शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है । इसी तरह कुत्तक कवि का वक्रोक्ति जीवित वासन कवि का काव्यालंकार, राजशेखर कवि का काव्यमीमांसा, उद्भट कवि का अलंकारसंग्रह, की प्राचीनतम पाण्डुलिपियाँ भी जैसलमेर, बीकानेर, जयपुर, अजमेर एवं नागौर के शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत हैं । कालिदास, माघ, भारवि, हर्ष, हलायुध एवं भट्टी जैसे संस्कृत के शीर्षस्थ कवियों के काव्यों की प्राचीनतम पाण्डुलिपियाँ भी राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत हैं। यही नहीं इन भण्डारों में कुछ काव्यों की एक से भी अधिक पाण्डुलिपियाँ हैं। किसी किसी भण्डार में तो यह संख्या २० तक भी पहुँच गयी है । जैसलमेर के शास्त्र भण्डार में कालिदास के रघुवंश की १४वीं शताब्दि की प्रति है । इन काव्यों पर गुणारतन सूरि, चरित्रवर्द्धन, मल्लिनाथ, समयसुन्दर, धर्म भैरु, शान्तिविजय जैसे कवियों की टीकाओं का उत्तम संग्रह है । किरातजुनीय काव्य पर प्रकाश वर्ष की टीका की एक मात्र प्रति जयपुर के आमेर शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है । प्रकाश वर्ष ने लिखा है कि वह काश्मीर के हर्ष का सुपुत्र है । 1 उदयनाचार्य की किरणावली की एक प्रति टीका सहित, आमेर शास्त्र भण्डार जयपुर में उपलब्ध है । सांख्य सप्तति की पाण्डुलिपि भी इसी भण्डार में संग्रहीत है । जो सम्वत १४२७ की है । इसी ग्रन्थ की इसी प्राचीन पाण्डुलिपि जिसमें भाष्य भी है, जैसलमेर के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है, और वह सम्वत् १२०० की ताड़पत्रीय प्रति है । इसी भण्डार में सांख्यतत्वकौमुदी ( वाचस्पति मिश्र) तथा ईश्वरकृष्ण की सांख्य सप्तति की अन्य पाण्डुलिपियाँ भी उपलब्ध होती हैं । इसी तरह पातञ्जल योग दर्शन भाष्य ( वाचस्पति हर्षमिश्र) की पाण्डुलिपि भी जैसलमेर के Post में सुरक्षित है । प्रशस्तपादभाष्य की एक १२वीं शताब्दि की पाण्डुलिपि भी यहीं के भण्डार में मिलती है । अलंकार शास्त्र के ग्रन्थों के अतिरिक्त कालिदास, मुरारी, विशाखदत एवं भट्ट नारायण के संस्कृत नाटकों की पाण्डुलिपियाँ भी राजस्थान के इन्हीं मण्डारों में उपलब्ध होती हैं । विशाखदत्त का मुद्राराक्षस नाटक, मुरारी कवि का अनर्घ राघव, कृष्ण मिश्र का प्रबोधचन्द्रोदय नाटक, महाकवि सुबंधु की वासवदत्ता आख्यायिका की ताड़पत्रीय प्राचीन पाण्डुलिपियाँ जैसलमेर के भण्डार में एवं कागज पर अन्य शास्त्रभण्डारों में संग्रहीत हैं । १. देखिये – जैन ग्रन्थ भण्डार्स इन राजस्थान, पृष्ठ संख्या २२० । २. वही । 30 आचार्य प्रव श्री आनन्द अन्थ 99 श्री आनन्द अथ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ داعیه عموم ملاع منعقادي هو موقع غير محكوم عرفی SAARJAAAAAAAAAAAAAAAAAAEasranAmasalasamalaiJABAJRAAJABISARJAINALAAIASA आपाप्रअभिसाप्रवाह श्रीआनन्दान्-श्रीआनन्दा V.IN NINom ६२ इतिहास और संस्कृति Pe अपभ्रंश का अधिकांश साहित्य जयपुर, नागौर, अजमेर एवं उदयपुर के शास्त्र भण्डारों में मिलता है। महाकवि स्वयंभू का पउमचरिउ एवं रिद्धणौमिचरिउ की प्राचीनतम पाण्डुलिपियाँ जयपुर एवं अजमेर के शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत हैं। पउमचरिउ की संस्कृत टीकायें भी इन्हीं भण्डारों में उपलब्ध हुई हैं। महाकवि पुष्पदन्त का महापुराण, जसहरचरिउ, णम्यकुमार चरिउ की प्रतियाँ भी इन्हीं भण्डारों में मिलती हैं। अब तक उपलब्ध या पाण्डुलिपियों में उत्तरपुराण की सम्वत १३९१ की पाण्डुलिपि सबसे प्राचीन है और वह जयपुर के ही एक भण्डार में संग्रहीत है।' महाकवि नयनन्दि की सूदसण चरिउ की जितनी संख्या में जयपुर के शास्त्र भण्डारों में पाण्डुलिपियाँ संग्रहीत हैं उतनी अन्यत्र कहीं नहीं मिलतीं। नयनन्दि ११वीं शताब्दि के अपभ्रंश के कवि थे । इसका एक अन्य ग्रन्थ समल विहिविहाण काव्य की एक मात्र पाण्डुलिपि जयपुर के आमेर शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। इसमें कवि ने अपने से पूर्व होने वाले कितने ही कवियों के नाम दिये हैं। इसी तरह शृगार एवं वीर रस के महाकवि वीर का जम्बू सामी चरिउ भी राजस्थान में अत्यधिक लोकप्रिय रहा था और उसकी कितनी ही प्रतियाँ जयपुर एवं आमेर के शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध होती हैं। अपभ्रंश में सबसे अधिक चरित काव्य लिखने वाले महाकवि रइधू के अधिकांश ग्रन्थ राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध हए हैं। रइध कवि ने इस भाषा में २० से भी अधिक चरित्र काव्य लिखे थे और उनमें आधे से अधिक तो विशालकाय कृतियां हैं। इसी तरह अपभ्रंश के अन्य कवियों में महाकवि यशःकीति, पंडित लाख, हरिषेण, श्रुतकीर्ति, पद्य्न कीति, महाकवि श्रीधर, महाकवि सिंह, धनपाल, श्री चन्द, जयमिपहल, नरसेन, अमरकीति, गणिदेवसेन, माणिक्कराज एवं भगवतीदास जैसे पचासों कवियों की छोटी बड़ी सैकड़ों रचनायें इन्हीं भण्डारों में संग्रहीत हैं । १८वीं शताब्दि में होने वाले अपभ्रंश के अन्तिम कवि भगवतीदास की कृति मृगांकलेखाचरित की पाण्डुलिपि भी आमेर शास्त्र भण्डार, जयपुर में संग्रहीत है। भगवतीदास हिन्दी के अच्छे विद्वान थे, जिनकी २० से भी अधिक रचनायें उपलब्ध होती हैं। अपभ्रंश भाषा में निबद्ध मृगांकले-खाचरित सम्वत् १७०० की कृति है। संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश के समान ही जैन ग्रन्थ भण्डारों में हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा के ग्रन्थों की पूर्ण सुरक्षा की गयी। यही कारण है कि राजस्थान के इन ग्रन्थ भण्डारों में हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा की दुर्लभ कृतियाँ उपलब्ध हुई हैं और भविष्य में और भी होने की आशा है। हिन्दी के बहचित ग्रन्थ पृथ्वीराज रासो की प्रतियाँ कोटा, बीकानेर एवं चुरू के जैन भण्डारों में उपलब्ध हुई हैं। इसी तरह वीसलदेव रासो की भी कितनी ही पाण्डुलिपियाँ अभयग्रन्थालय, बीकानेर एवं खरतरगच्छ जैन शास्त्र भण्डार, कोटा में उपलब्ध हो चुकी हैं। प्रसिद्ध राजस्थानी कृति कृष्ण रुक्मणि बेलि पर जो टीकायें उपलब्ध हुई हैं वे भी प्राप्त सभी जन भण्डारों में संरक्षित हैं। इसी तरह बिहारी सतसई, रसिकसिया, जैतसीरासो, वैताल पच्चीसी, विल्हण चरित चौपई की प्रतियाँ राजस्थान के विभिन्न शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत हैं। हिन्दी की अन्य रचनाओं में राजसिंह कवि की जिनदत्त चरित (सम्बत् १३५४), साघास १. देखिये प्रशस्ति संग्रह-डा० कस्तूर चन्द कासलीवाल । २. वही Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थों की सुरक्षा में राजस्थान के जैनों का योगदान १६३ कवि का प्रद्युम्नचरित (सम्वत् १४११ ) की दुर्लभ पाण्डुलिपियाँ भी जयपुर के जैन शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत हैं । ये दोनों ही कृतियाँ हिन्दी के आदिकाल को कृतियाँ हैं, जिनके आधार पर हिन्दी साहित्य के इतिहास की कितनी ही विलुप्त कड़ियों का पता लगाया जा सकता है। कबीर एवं गोरखनाथ के अनुयायियों की रचनायें भी इन भण्डारों में संग्रहीत हैं, जिनके गहन अध्ययन एवं मनन की आवश्यकता है । मधुमालती कथा, सिंहासन बत्तीसी, माधवानल प्रबन्ध कथा की प्राचीनतम पाण्डुलिपियाँ भी राजस्थान के इन भण्डारों में संग्रहीत हैं । वास्तव में देखा जावे तो राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों ने जितने हिन्दी एवं राजस्थानी ग्रन्थों को सुरक्षित रखा उतने ग्रन्थों को अन्य कोई भी भण्डार नहीं रख सके हैं। जैन कवियों की सैकड़ों गद्य पद्य रचनायें इनमें उपलब्ध होती हैं जो काव्य, चरित, कथा, रास, बेलि, फागु, ढमाल, चौपई, दोहा, बारहखड़ी, विलास, गीत, सतसई, पच्चीसी, बत्तीसी, सतावीसी, पंचाशिका, शतक के नाम से उपलब्ध होती हैं । १३वीं शताब्दि से लेकर १६वीं शताब्दि तक निबद्ध कृतियों का इन भण्डारों में अम्बार लगा हुआ है, जिनका अभी तक प्रकाशित होना तो दूर रहा वे पूरे प्रकाश में भी नहीं आ सके हैं । अकेले 'ब्रह्म जिनदास' ने पचास से भी अधिक रचनायें लिखी हैं जिनके सम्बन्ध में विद्वत् जगत अभी तक अन्धकार में ही है । अभी हाल में ही महाकवि दौलतराम की दो महत्वपूर्ण रचनाओं - जीवन्धर स्वामी चरित एव विवेक विलास का प्रकाशन हुआ है । कवि ने १८ रचनायें लिखी हैं और वे एक-से-एक उच्चकोटि की हैं । दौलतराम १८वीं शताब्दि के कवि थे और कुछ समय उदयपुर भी महाराणा जगतसिंह के दरबार में रह चुके थे ।' पाण्डुलिपियों के अतिरिक्त इन जैन भण्डारों में कलात्मक एवं सचित्र कृतियों की भी सुरक्षा हुई है । कल्पसूत्र की कितनी ही सचित्र पाण्डुलिपियां कला की उत्कृष्ट कृतियाँ स्वीकार की गयी हैं । कल्पसूत्र कालकाचार्य की एक ऐसी ही प्रति जैसलमेर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है । कला प्रेमियों ने इसे १५वीं शताब्दि की स्वीकार की है । आमेर शास्त्र भण्डार जयपुर में एक आदिनाथ पुराण की सम्वत १४६१ (सन् १४०४ ) की पाण्डुलिपि है । इसमें १६ स्वप्नों का जो चित्र है वह कला की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है । इसी तरह राजस्थान के अन्य भण्डारों में आदिपुराण, जसहरचरिउ, यशोधर चरित, भक्तामर स्तोत्र णमोकार महात्म्य कथा की जो सचित्र पाण्डुलिपियाँ हैं वे चित्र कला की उत्कृष्ट कृतियाँ हैं। ऐसी कृतियों का संरक्षण एवं लेखन दोनों ही भारतीय चित्रकला के लिए गौरव की बात है । १. देखिये - दौलतराम कासलीवाल — व्यक्तित्व एवं कृतित्व - डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल । २. जैन ग्रंथ भण्डार्स इन राजस्थान - डा० के० सी० कासलीवाल । आचार्य प्रव आचार्य प्रवर One excitaver अति अन So Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwaitasamunacceaniasiSSADALocadaNAGAR श्री गणेशप्रसाद जैन मथुरा का प्राचीन जैन-शिल्प Opn उत्तर भारतीय प्राचीन जैन-कला केन्द्रों में 'मथुरा' का स्थान अग्रगण्य था। 'ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी से लेकर 'ईसा' की ११वीं शताब्दी तक 'मथरा' नगरी जैन-धर्म और कला का प्रधान केन्द्र रही है। 'कंकाली-टीला' तथा अन्य निकटवर्ती स्थलों से प्राप्त सैकड़ों जैन-तीर्थकर-मूर्तियाँ व मांगलिक चिन्हों से अंकित आयागपट्ट, देव-किन्नरों आदि से वन्दित स्तम्भ, स्तूप, अशोक, चम्पक, नागकेशर आदि वृक्षों के नीचे आकर्षक-मुद्राओं में खड़ी शालिमंजिकाओं से युक्त सुशोभित वेदिकाओं के स्तम्भ, कलापूर्ण शिलापट्ट, शिरदल आदि यह घोषित करते हैं कि 'मथुरा' के शिल्पियों की तुलना में अन्य स्थलों के शिल्पियों की क्षमता अत्यधिक न्यून थी। उपर्युक्त अवशेषों से यह भी स्पष्ट होता है कि तत्कालीनजनता में जैन-धर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा थी। जैन-कला के प्राप्त अवशेष ई० पूर्व दूसरी शताब्दी से लेकर ११ वीं शताब्दी तक के हैं। आगे की शोधों में उनसे भी प्राचीनतम प्रमाण मिलने की सम्भावना है । कंकाली-टीले से प्राप्त शिला-लेखों के आधार पर डॉ० 'बुल्हर' का मत है कि-ईसा की दूसरी शताब्दी के पूर्व कंकाली-टीलों में जैनों का एक बहुत बड़ा प्रासाद या देवालय था । (Epilnd. Vol II. P. 319) इसी के एक सौ वर्षों पश्चात उसी स्थान पर एक दूसरे प्रासाद का निर्माण किया गया । 'शुंग-काल' में देव-स्थानों को प्रासाद कहा जाता था। जैसा कि 'बेस' नगर से प्राप्त शिलालेखों में है। (A.S.R. 1913-14, P. 190)। ___'मथुरा' भारत के कतिपय उन प्राचीन नगरों में है, जो जैन-धार्मिक नगरों के तथ्यों को प्रागैतिहासिक काल तक ले जाते हैं। भारत ही नहीं, ईरान, यूनान और मध्य एशिया की संस्कृतियों से भी इस नगर का सम्बन्ध रहा है। यही कारण है कि यहाँ की 'वास्तु कला, मूर्ति-कला एवं लोक-जीवन' में इन सभी संस्कृतियों की अद्भुत झाकियाँ मिलती हैं। ___ 'मथुरा' के कंकाली-टीले की खुदाई १८५३ ई० में जनरल सर 'अलेक्जेन्डर' ने, सन् १८७१ ई० में जनरल 'कनिंघम' ने, सन् १८७५ ई० में मि०'गौस ने और सन् १८८७ ई० से लेकर सन् १८६६ ई० तक डा० 'फुहरर' और डा० 'बैनर्जी ने करायी है। इन खदाइयों में एक प्राचीन स्तूप, ११० शिलालेख, य Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथरा का प्राचीन जैन-शिल्प १६५ और अनेक जैन-मूर्तियाँ (तीर्थंकरों की) तथा अन्य महत्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई है। ये प्राप्त ध्वंसावशेष ८८ से १८९१ ई० तक लखनऊ व इलाहाबाद के पूरातत्त्व संग्रहालयों से भेजे गये हैं। जो शेष रह गये वह 'मथरा' नगर में ही गोदामों में सुरक्षित हैं। यदि यह प्राप्त सामग्री (भग्नावशेष आदि) एक ही स्थान पर एकत्रित रहती तो अध्ययन करने वालों को विशेष सुविधा होती। कुछ ही मास पूर्व "जैन-कला-प्रदर्शनी" उत्तर-प्रदेश राज्य-संग्रहालय द्वारा लखनऊ में आयोजित की गयी थी। जिसमें तीन कक्षों में ७८ जैन-कलात्मक वस्तुओं का प्रदर्शन था। प्रवेश द्वार पर 'जिनमस्तक' प्रथम-द्वितीय शताब्दी ई० का स्थापित था। (जे० १८६) । दाहिनी ओर के कक्ष में जैन-उपासना के प्रतीक देवता, जैन-कथाएँ आदि मूर्ति-विज्ञान की सामग्री थी । दूसरे कक्ष में 'पाषाण-कला' के सुन्दर नमूने थे जो उत्तर-प्रदेश और मध्य-भारत से प्राप्त हुए हैं । तीसरे कक्ष में 'धातु-मूर्तियाँ, चित्र, तथा हस्तलिखित ग्रन्थ' रखे गये थे। जैन-कला की यह अनुपम सामग्री 'ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक' की थी। इनमें 'जैन-तीर्थंकर के शीर्ष, जैन स्तूप के चित्र, वेदिका-स्तम्भ, तीर्थंकर युक्त आयागपट्ट शिला-फलक व शिलापट्ट, नेगमेषिन, ध्यानमुद्रा को तीर्थंकर-मूर्तियाँ, सर्वतोभद्र-प्रतिमाएं, धर्म-चक्र आदि अध्ययन की अनेक सामग्रियाँ थीं । ऐसी प्रदर्शिनियों का अपना औचित्य है । सर्व साधारण में ये कौतूहल पैदा करती हैं, और उनके अवलोकन से उनमें रुचि पैदा होती है, तथा धर्म के प्रति श्रद्धा भी उत्पन्न होती है। पुरातत्त्व-संग्रहालयों में विशेष रुचि के लोग ही जाते हैं। 'जैन-कला' पाषाण, धातु, ताडपत्र, कागज आदि विविध माध्यमों से विकसित हुई है। इसका प्रारम्भ 'सिन्धु-सभ्यता' तक पहुँच चुका है। मौर्य-काल से निर्विवाद रूप में क्रम-बद्ध सिलसिला तो उपलब्ध है ही। "जैन-कलाकारों" ने आयागपट्ट, चैत्य-स्तम्भ, चैत्यवृक्ष, स्तूप, मांगलिक-चिन्ह आदि प्रतीकों से प्रारम्भ कर खड़ी व बैठी तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ, सर्वतोभद्रिका या चौमुखी-मूर्तियाँ, सरस्वती, अम्बिका, चक्रेश्वरी, नेगमेष, बलभद्र, क्षेत्रपाल आदि देवताओं की सुन्दर मूर्तियाँ गढ़ी हैं । 'जैन कला' का यह विशाल-क्षेत्र 'पाषाण-कला, धातुकला और वास्तुकला' में अनुपम निधि के रूप में प्राप्त है और नवीनशोधों द्वारा प्राप्त होता जा रहा है। _ 'पाषाण-कला' की अनुपम-निधि बिहार के 'लोहानीपुर' नामक स्थान से प्राप्त तीर्थकर प्रतिमा है । सम्भवत: वह पाषाण-कला की सर्व प्रथम कृति है । यह जैन-प्रतिमा है । ईस्वी सन् के कई शताब्दी पूर्व से जो यह परम्परा प्रारम्भ हुई, वर्तमान तक चली आ रही है । कई शताब्दियों पूर्व (सम्भवतः ६-७) उत्तर प्रदेश का 'मथुरा' नगर मूर्तिकला का विशिष्ट केन्द्र बन चुका था । उन दिनों वहाँ जैनों का एक विशाल स्तूप 'बौदू-स्तूप' के नाम से प्रख्यात था। इस स्तूप में अनेक छोटी बड़ी जैन-तीर्थंकर-प्रतिमाओं के अतिरिक्त अनेक जैन देव-देवियों की मूतियां भी स्थापित थीं। ये प्रतिमाएँ कुषाण-काल की मानी गयी हैं । अनेक तो पूर्व की भी लगती हैं। 'स्तूप से प्राप्त प्रतिमाएँ अचेल (नग्न) हैं। कायोत्सर्ग (खड़ी) अथवा पद्मासन में है । जैन-प्रतिमाओं के यही दो आसन होते हैं । छाती में श्री वत्स चिन्ह है। मस्तक के झलने वाले केश केवल तीथंकर ट IPIU maniaamirsuumaanasrinkinaJABALAJIAnamnainaaraaamMDABAALALAAMANARASMAAAJANABAJARAawasad a arddada सागाaHIVाचाfOERNET श्रीआनन्थाश्रीआनन्द अन्य UYG HINirma niawways Manavin wwwmarwanamosv Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्द अन्य ग्रन्थ डॉ डॉ. श्री आनन्द अन्थ : 92 १६६ इतिहास और संस्कृति 'श्री आदिनाथ' (ऋषभनाथ) की प्रतिमाओं पर ही अंकित मिलते हैं । कुषाण काल तक की प्रतिमाओं में तीर्थंकरों का लांछन चिन्ह नहीं होता था । केवल भगवान ऋषभदेव' आदिनाथ का बैल (वृषभ), 'श्री पद्मप्रभु का 'कमल', 'श्री पार्श्वनाथ' का 'सर्प' और 'श्री महावीर' का 'सिंह' लांछन रूप में प्रयोग होता था । सर्वतोभद्रका (चौमुखी) प्रतिमाओं में आदि तीर्थंकर "श्री ऋषभनाथ, बाइसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ, (श्रीकृष्ण के चचेरे भाई), २३ वें श्री पार्श्वनाथ और २४ वें श्री महावीर” का अंकन होता था । तीर्थंकर मूर्तियों के साथ कुषाण काल तक शासन देवताओं का अंकन नहीं होता था । पश्चात् की कला में उनका निर्माण हुआ है । प्रारम्भिक मूर्तियों में चरण चौकी पर ' धर्म चक्र" के पूजन का दृश्य तथा अभिलेख दिखलाई पड़ता है, जिसमें "मूर्ति की प्रतिष्ठा, तिथि, दाता का नाम तथा गुरु परम्परा" आदि का उल्लेख रहता है । मध्यकाल तक पहुँचते-पहुँचते तीर्थंकर मूर्तियों में शासन-देवताओं के अतिरिक्त अन्य कई अभिप्रायों का अंकन होने लगा । जैसे तीन छत्र, छत्रों के ऊपर ढोलक बजाता देव, हाथियों द्वारा अभिषेक इत्यादि । जिस तीर्थंकर प्रतिमा की पृष्ठ- पट्टिका पर अन्य तेइस तीर्थंकरों का अंकन रहता है, उसे सम्पूर्ण मूर्ति' या चतुर्विंशतिका अथवा चौबीसी कहते हैं । जैन प्रतिमाएं उत्तर-प्रदेश, तथा पश्चिमी भारत में विपुलता से प्राप्त हैं । दक्षिण भारत भी उनके दर्शन होते हैं । पूर्वी भारत में उनकी संख्या अधिक नहीं है । ५७ फुट ऊँची पाषाण गोम्मट्टेश्वर-मूर्ति रानी से 'भरत और ६६ पुत्र तथा एक आदि तीर्थंकर ऋषभदेव की दो पत्नियाँ थीं। प्रथम ब्राह्मी नाम की पुत्री थी। दूसरी रानी के गर्भ से एक पुत्र वाहुबलि और पुत्री सुनन्दा' थी । 'ऋषभदेव' ने प्रव्रज्याग्रहण करते समय ज्येष्ठ पुत्र 'भरत' को उत्तरापथ का और बाहुबलि को दक्षिणापथ का शासन सौंपा था । 'भरत' की राजधानी अयोध्या थी और बाहुबलि की पोदनपुर । -: महाराजा 'भरत' महत्वाकांक्षी थे, उन्होंने चक्रवर्तित्व के लिए दिग्विजय की दुदुभि बजायी । दसों दिशाओं में अपनी सत्ता स्थापित कर जब भरत अपनी राजधानी अयोध्या वापस लौटे तो 'चक्र - रत्न' नगर के प्रवेश द्वार पर अटक गया। जैन-पुराणों के अनुसार एक भी शत्रु के रहते 'चक्र - रत्न' राजधानी में प्रवेश नहीं करता है। मंत्रणा से ज्ञात हुआ कि छोटे 'बाहुबलि' ने सम्राट भरत की आधीनता स्वीकार नहीं की है । वह अपने को स्वतन्त्र - शासक घोषित करते हैं । ऐसी स्थिति में युद्ध अनिवार्य था । दोनों बन्धुओं की सेनाएँ युद्ध भूमि में उतर आयीं । मन्त्रियों ने निर्णय दिया, "इस बन्धु-युद्ध में सेनाएँ तटस्थ रहेंगी । दोनों भाई युद्ध कर अपना निर्णय कर लें । विजयी चक्रवर्ती घोषित होगा । "नेत्र - युद्ध, जल-युद्ध और मल्ल युद्ध द्वारा जय-पराजय का निर्णय होना था। तीनों युद्धों में 'बाहुबलि' विजयी रहे । विजयी 'बाहुबलि' को आघात तब को अन्तर्दर्शन हुआ, और उन्होंने चक्र को ग्रहण कर ली। राज्य सम्पदा भरत को अर्पित कर दी । महाराजा 'भरत' चक्रवर्ती बने । उनके नाम पर देश का नाम भारत पड़ा। उनकी बहन ब्राह्मी लगा जब भरत ने उन पर 'चक्र' चला दिया । इससे बाहुबलि रोकने के लिये ऊपर उठाये हाथों से केश-लुचन कर 'दीक्षा' Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरा का प्राचीन जैन-शिल्प १९७ शा को जो लिपि श्री ऋषभदेव जी ने पढ़ाई थी, वह ब्राह्मी लिपि के नाम से प्रसिद्ध हई । चक्रवर्ती भरत ने बाहुबलि की तपस्या-भूमि पर उनकी अनुकृति का निर्माण कराया था, किन्तु काल के थपेड़ों से वह नष्ट हो गयी। उसी भमि पर गंग नरेश 'राजमल्ल' के प्रधान सेनापति वीरवर श्री 'चामुण्डराय' ने कल्कि संवत ६०० में विभव संवत्सर चैत्र शुक्ल ५, बार रवि, कुम्भ-लग्न, सौभाग्य-युग, मृगशिरा-नक्षत्र में मूर्ति की स्थापना कर मस्तकाभिषेक कराया। गणितज्ञ-विद्वानों के अनुसार वह २३ मार्च १०२८ ई० का दिन था। 'मस्तकाभिषेक' की परम्परा में प्रत्येक १२ वर्षों पर वहाँ मेला होता है। 'श्रमण-बेल-गोला' आज केवल जैनियों का ही तीर्थ नहीं रहा । बल्कि विश्व के पर्यटकों व सैलानियों के सभी आकर्षण का वह स्थान है। नित्य प्रति सैकडों यात्री उस पहाड़ी की चोटी पर भगवान गोम्मट्टे श्वर की उस आश्चर्यमयी-प्रतिमा के दर्शन कर कृत्य-कृत्य होते हैं। विन्ध्यगिरि-पर्वत के दक्षिण प्रसार में दोड्डवेट्ट (इन्द्रगिरि) तथा चिक्कवेट (चन्द्रगिरि) पहाड़ियों की तलहटी में कल्याणी-सरोवर के निकट की बस्ती का नाम 'श्रमण-बेल-गुल' है। यह शब्द 'कन्नड़ भाषा' का है, और इसका भावार्थ है- 'जैन-साधुओं का धवल-सरोवर"। इस भूमि पर अतीतातीतकाल से जैन-श्रमणों ने तपस्या कर समाधि-मरण द्वारा मुक्ति प्राप्त की है। इसे 'दक्षिण काशी, जैन बदरी, देवलपुर और गोम्मटपुर" भी कहा जाता है। प्राप्त शिलालेखों के आधार पर यह ईसा से ३०० वर्षों के पूर्व का इतिहास प्रगट होता है। मैसर विश्वविद्यालय के शोध विभाग में प्रदेश के ५०० शिलालेखों का संग्रह है। जिनका उल्लेख एपिग्राकिया कर्नाटिका में पूर्ण विवरण सहित प्रकाशित है। शिलालेख सम्राट चन्द्रगुप्त से सम्बद्ध हैं। इनमें जन-धर्म के अनुयायियों की गुण-गाथा, दक्षिण-भारत के जैनाचार्यों की परम्परा, जैन राजवंशों का परिचय आदि प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। संसार की बेजोड़ ५७ फुट ऊँची प्रतिमा पर्वत शिखर पर बिना आधार के स्थित है। जो आश्चर्यप्रद कला-निर्माण का डंका हजारों वर्षों से गुन्जित कर रही है । बाहुवलि सुन्दर होने के कारण 'मन्मथ' की संज्ञा से विभूषित थे। कन्नड़-भाषा में कामदेव को गोम्मट्ट कहा जाता है । अतएव बाहुवलि की मूर्ति का नाम भी गोमटेश्वर ही प्रचलित हो गया। धातु-प्रतिमायें--अब तक की प्राप्त धातु-प्रतिमाओं में ईसा पूर्व एक शताब्दी के आस-पास की निर्मित तेइसवें तीर्थकर श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्राचीनतम मानी गयी है। यह बिहार राज्य के 'चौसा' नामक ग्राम से प्राप्त हुई है। कुछ प्रतिमाएँ कुषाण-काल से सम्बन्धित हैं। शेष गुप्त तथा गुप्तोत्तर काल की हैं। पश्चिम तथा दक्षिण भारत में आकोटा, बसन्तगढ़, खम्भायत, बापटला, श्रवणवलेगोला. पडड कोट्टई आदि विविध स्थानों में जैन-धर्म की सहस्रों मूर्तियाँ बिखरी हैं। ये प्रतिमाएँ ठोस और पोली दोनों प्रकारों की हैं । मूर्ति-निर्माण में अधिकतर पीतल और ताम्बे का ही प्रयोग किया जाता था। सोने. चाँदी व विभिन्न रत्नों की भी मूर्तियाँ उपलब्ध हैं । धातु प्रतिमाओं में अभिलेखों का स्थान अधिकतर मूर्ति के पृष्ठ भाग में ही होता था। मूतियों की छाती पर श्रीवत्स, चौकी पर लाच्छन, शासन-देवताओं तथा अन्य महत्त्वपूर्ण अभिप्रायों का अंकन होता था। AAAAAAAAAAAAALMAALANAS आचार्यप्रवर अभिआचार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्द अन्याआनन्दका अनशन Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयायप्रवर अभिनंदन PC To १६८ AAAAAAABaaaaaa आचार्य प्रवास अभ ग्रन्थ इतिहास और संस्कृति वास्तु कला - 'जैन वास्तु कला' के प्राचीनतम नमूने मौर्य सम्राट अशोक और दशरथ के समय में निर्मित, बिहार राज्य के राजगिरि की सोन भण्डार, नागार्जुनी और बराबर पहाड़ियों की गुफाएँ, तथा उड़ीसा की खण्डगिरि और उदयगिरि गुफाएँ शुंग - काल की सम्पदा हैं । 'मथुरा' का देवनिर्मित बोदू - स्तूप' या 'बौद्धस्तूप' भी कुषाण काल का अपने पूरे वैभव का प्रमाण है । गुप्त कालीन नमूने बहुत अल्प मात्रा में उपलब्ध हैं । परन्तु मध्यकालीन अनेक मन्दिर जैसे राजस्थान में ओसियां जी और आबू के, उत्तर- प्रदेश में खुजुराहो, सोनागिरि आदि अपनी महत्ता का गौरव आज भी संजोये अपनी कहानी कहने में सक्षम हैं । चित्रकला - जैन-चित्र- कला का प्रारम्भ भी ई० पूर्व पहली शती से होता है । इस समय के कुछ चित्र उड़ीसा के उदयगिरि तथा खण्डगिरि की गुफाओं में हैं । तामिलनाडु की सित्तन्नवासल गुफाओं की चित्रकारी उत्तर - गुप्तकाल (६००-६२५ ई०) की है। एलोरा के कैलास मन्दिर की दीवालों पर वी से १३वीं शती के कुछ चित्र हैं । इसी प्रकार के चित्र तेरापुर की गुफाओं में भी हैं । उत्तर- मध्यकाल में लघु चित्रकला विशेष रूप से पश्चिम भारत में पनपी । ताड़ पत्र पर सन् ११०० में लिखी निशीथ - चूर्णी पोथी के चित्र प्राचीनतम हैं। इसके बाद ताड़पत्र तथा कागज की ही पोथियों में जैनचित्र मिलते हैं। महापुराण, कल्पसूत्र, कालकाचार्य - कथा, महावीर चरित्र, उत्तराध्ययन, स्थानांग सूत्र, शालिभद्र चउपई आदि अनेक चित्रित ग्रन्थ उपलब्ध हैं । ग्रन्थों पर लगी लकड़ी की तख्तियाँ भी सुन्दर चित्रों से अलंकृत हैं । कपड़े पर चित्रों का एक अच्छा उदाहरण सन् १४३३ ई० की जैन- पंच-तीर्थी का है । अनेक विज्ञप्ति-पत्र जो गृहस्थों द्वारा जैनाचार्यो को वर्षावास के निमन्त्रण के लिए भेजे जाते थे, चित्रों से अलंकृत हैं। श्री मद्भागवत जैसे ब्राह्मण ग्रन्थों में भी कहीं-कहीं जैन विषयों का चित्रण प्राप्त होता है । मध्य कालीन जैन चित्रों में लाल रंग की पार्श्वभूमि, मुख्यतः सफेद, काले, नीले, हरे, और मजीठे रंग का प्रयोग वास्तु-कला का सीमित चित्रण विशेष दर्शनीय है । मुगल-कला के प्रभाव में इनमें सोने का प्रयोग भी बहुलता से होने लगा था । मूर्तियों का प्रारम्भिक निर्माण-काल : जैन तीर्थंकरों की उपलब्ध मूर्तियों से प्रमाणित होता है कि- ईसा की दो शताब्दी पूर्व से ही इनका निर्माण प्रारम्भ हो गया था । खारवेल के हाथी-गुम्फा के लेख (१६५ ई० के लगभग) में देवतायतन संस्कार तथा 'जिन - सन्निवेश' का वर्णन है । खारवेल ने कलिंग देश के अधिष्ठाता 'जिन' की प्राचीन प्रतिमा प्राप्त का सन्निवेश कर स्थापना कराया था। इसी लेख में 'चक्क' का भी वर्णन है । समान ही 'धम्म चक्क ' धर्म का एक प्रमुख चिन्ह था । कंकाली - टीले से के बारे में यह निर्णायक रूप में अभी तक नहीं कहा गया कि उनमें कितनी किन्तु प्रासादों के तोरण और उपान्त भागों के टूटे हुए खण्ड अवश्य ही शुंगकाल के हैं । यह 'चक्क' बौद्धों के बहुत जिन - प्रतिमाओं कुषाण काल के पूर्व की हैं । 'मथुरा' के प्राचीन शिल्पियों ने जैन तीर्थंकरों की जिन मूर्तियों का जैसा प्रारम्भिक रूप दिया: वही परम्परा निरन्तर विकसित होती रही । जैन प्रतिमाएँ मुख्य रूप में तीन प्रकार की हैं — १, खड्गासन, २. पद्मासन, और ३ सर्वतोभद्र ( चौमुखी) । प्राचीन तीर्थंकरों की मूर्तियों पर उष्णीष नहीं होते थे । अनेकों Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरा का प्राचीन जैन-शिल्प १६९ AIRAT गातारा की छाती पर 'श्रीवत्स' चिन्ह है, अनेकों पर नहीं भी है। किन्तु लांछनों का सर्वथा अभाव है । लांछनचिन्ह का प्रयोग सातवीं शताब्दि से प्रारम्भ हुआ लगता है। चौकी पर अंकित लेखों से ही तीर्थंकरों का परिचय मिलता था। आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव हैं, जिन्हें जैन-धर्म के प्रवर्तक होने के नाते श्री 'आदिनाथ' भी कहा जाता है, के मस्तक की लौ कन्धों तक कुछ प्रतिमाओं में अंकित हैं । सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ, तथा तेइसवें श्री पार्श्वनाथ की मूर्तियों में सर्प-फण का टोप निर्मित है। खड्गासन-मूर्तियां 'कायोत्सर्ग' मुद्रा की होती हैं। इनमें 'दिगम्बरत्व' प्रत्यक्ष रहता है। इनके हाथ लता-हस्त मुद्रा में होते हैं । पद्मासन-मूर्तियों के दोनों हाथ एक के मध्य एक दूसरी हथेली पर हथेली रखे होते हैं, इनकी उपमा प्रफुल्ल कमल से दी जाती है। मस्तक, ग्रीवा, नेत्र, और ऊर्ध्वकाय भाग ध्यानमुद्रा का होता है। सर्वतोभद्र प्रतिमाएँ खड़गासन व पद्मासन दोनों रूपों में होती हैं। ये चारों दिशाओं में चार होती हैं, किन्तु एक पाषाण-खण्ड या धातु में ढली होती हैं। इनमें प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव, सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ, तेइसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ और अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर श्री महावीर का अंकन रहता है। इनकी चौकी पर पार्श्व में सिंह और धर्म-चक्र-स्तूप की पूजा का अंकन रहता है। भक्त गृहस्थ परिवार सहित पूजा करते चित्रित रहता है। 'कला' की दृष्टि से जैन-तीर्थंकर-प्रतिमाओं में समाधिजन्य स्थिरता और ऊर्ध्वता पायी जाती है। बाहरी ओर उनका आकर्षण नहीं होता। सौम्य ध्यानस्थ शान्तमुद्रा की प्रतिमाएँ मानव को संसार की 'अनित्यता' का दर्शन कराती हैं। किन्तु इन विरागी-मूर्तियों के निर्माता 'शिल्पी' जो प्रतिमाओं के अंकन में अपनी इतनी समाधान-प्रवृत्ति का परिचय देते हैं, वही जब तोरण और वेदिका-स्तम्भों के निर्माण में अपनी छैनी और हथौड़ी का प्रयोग कर जीवन-सम्बन्धी तथ्यों को दृश्यों में अंकित करने लगते हैं, तब वे अपनी गहन चिन्ताओं का, ऊँचे कलात्मक-सौष्ठव का उनमें प्राण डाल देते हैं। उदाहरण रूप आयागपट्टों पर अंकित शिल्प-माधुर्य मन को वशीभूत किये बिना नहीं रहता। 'मथुरा' के कलाकारों की श्रेष्ठ कुशलता के प्रमाणिक' तथ्य हैं। मथुरा के शिल्प का प्रसार, मूति-शिल्प जैनों की देन है : 'मथरा' का वास्तु-शिल्प-वैभव अपनी कला की श्रेष्ठता के कारण दूर-दूर तक फैला है। यहाँ के शिल्पियों की कर्मशालाएँ रात्रि-दिवस 'परमख' जैसी विशालकाय मूर्तियों के निर्माण में व्यस्त रहने लगीं थीं। ये कहावर-मतियाँ अपने सभी अंगों से पूर्ण सन्तुलित शंग-युग में प्रचुरता से निर्माण होने लगी थीं। इसी परम्परा में कुषाण-युग में बोधिसत्त्वों, बुद्धों और अन्य यक्ष-यक्षियों, देवताओं की महाकाय मूर्तियों का निर्माण होता रहा। साँची, सारनाथ, कौशाम्बी, श्रावस्ती, पंजाब, राजस्थान का बैराट प्रदेश, बंगाल, अहिच्छत्रा एवं कोसम आदि स्थलों में मथरा के लाल चकत्तेदार-पत्थरों की मूर्तियों उपलब्ध होती हैं । इन मूर्तियों के निर्माण के लिए सुन्दर मंजीठिया रंग का पत्थर रूपबास और सीकरी की खदानों से लाया जाता था। 'मथरा' शिल्प-वैभव का स्वर्ण-युग कुषाण-सम्राट कनिष्क, हुविष्क और वासुदेव के राज्यकाल तक था। इस युग में कला परम उत्कृष्टता को प्राप्त हुई । यहाँ शिल्पियों ने भरहुत और सांची के कला भाचाफारसाआचार्यasan virynviryiwww TVVVPw.rY Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mAIDANCaswamaAAmWEAssamanaraaaaaaaaaaaawRINACIAAIAARABIAASABAIKAMANAIDABADASAdarsanbroatiane SINRNIचार्य IF LF yo श्राआनन्दाअन्५ श्रीआनन्दन्थ wimmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwwwood २०० इतिहास और संस्कृति के आचार्यों की बारीकी वाली चुटकियों को केवल अपनाया ही नहीं, बल्कि उसे विकसित भी किया। कला नये रूप में, नये विषय और नयी शैली से फैली। सौंन्दर्य को उत्कीर्ण करने में 'मथुरा के शिल्पियों' ने अद्भुत गौरव प्राप्त किया था। बाह्य-रूप के निर्माण के साथ-साथ आन्तरिक-भावों की अभिव्यक्ति के समन्वय में इनकी कुशलता चरम-सीमा पर पहुंच चुकी थी। इसकी तुलना ही सम्भव नहीं है । इन हाथों में कला, 'ललित-कला' बनी। कला का माप-दण्ड छोटा पड़ गया। "वृक्ष, वनस्पति, कमलों के फुल्ले और लतर, पशु-पक्षी" आदि के रूप में जो शोभा के लिए प्राचीन-काल से प्रयुक्त होते चले आ रहे थे उसे उन्होंने अपनाते हुए उनमें नवीन विषयों का समावेश कर उनमें जीवन प्रतिष्ठापित कर दिया। मानवों की प्रसन्नता व्यक्त करने के लिए प्रकृति का चित्रण और उद्यानक्रीड़ायें, एवं जल-क्रीड़ाओं के दृश्यों को स्वच्छन्दतापूर्वक वेदिका-स्तम्भों में उत्कीर्ण कर एक उदाहरण उपस्थित किया है । 'मथुरा' जैसे ललित वेदिका-स्तम्भ अन्यत्र दुर्लभ हैं। शोभनार्थ अलकारों की संख्या में वृद्धि हुई, उनमें अनेक पूर्व समागत थे, अनेकों की नूतन कल्पनायें भी हुई। सब से प्राचीन जैनप्रतिमाएँ, स्तूप, आदि 'मथुरा से ही प्राप्त हैं।। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि-'मूर्ति-शिल्प' बौद्धों के पूर्व अतिप्राचीन काल से जैनों की धरोहर रहा है । कुषाण-युग से पूर्व की कोई बुद्ध प्रतिमा अभी तक नहीं प्राप्त हुई है। बोधगया, साँची और भरत की विपुलकला-सामग्री में कहीं भी तथागत की (बुद्ध की) मूर्ति का चित्रण नहीं मिलता, बुद्धदेव के प्रतीकों हाथी, बोधिवृक्ष, धर्मचक्र और स्तूप आदि चिन्हों द्वारा उनका मान होता रहा। ये चारों प्रतीक क्रमशः बुद्ध के जीवन की घटनाओं से ही सम्बन्धित रहे हैं। 'हाथी' जन्म से, 'बोधिवक्ष' सम्बोधि से, 'धर्मचक्र' प्रथम उपदेश से, और 'स्तूप' परिनिर्वाण का सूचक माना गया है। इन प्रतीकों का सम्बन्ध लुम्बिनी, बोधगया, सारनाथ और कुशीनारा से माना जाता है। भारतवर्ष में निर्मित विशालकाय-प्रतिमाओं में केवल 'दस यक्ष'प्रतिमाएँ प्राप्त हई हैं, जिनमें अधिक संख्या में मथुरा से ही प्राप्त हैं। प्रथम प्रतिमा जो 'परखम' यक्ष की है, वह 'मथुरा' से ही प्राप्त हुई है। मथुरा के ही 'बरोदा' नाम के स्थान से दूसरी भी विशालकाय यक्ष प्रतिमा मिली है। तीसरी भी 'मथुरा' के ही एक गाँव में पूजी जाने वाली 'मनसादेवी' यक्षिणी की है। चौथी 'मथुरा के ही 'अचिर' गाँव से प्राप्त हुई है। कंकाली-टीले के दक्षिण पूर्व भाग में डॉ० वर्जेस को खुदाई में जो एक 'सरस्वती' की प्रतिमा प्राप्त हुई थी, उसे लोहे का काम करने वाले एक लोहिका-कारुक गोप ने स्थापित कराया था। इसी स्थान पर धनहस्ति की धर्मपत्नी और गुहदत्त की पुत्री ने 'धर्मार्थी' नामक श्रमण के उपदेश से एक शिलापट्ट दान किया था, जिस पर स्तूप की पूजा का सुन्दर दृश्य अंकित है। जयपाल, देवदास, नागदत्त और नागदत्ता की जननी 'श्राविकादत्ता' ने आर्य संघ सिहे की प्रेरणा से 'वर्धमान'-प्रतिमा को ईस्वी सन् ६८ में दान किया था। स्वामी महाक्षत्रप 'शोडास' के राज्य संवत्सर ४२ में श्रमण-श्राविका अमोहिनी ने अयंवती की प्रतिमा का दान किया था। तपस्विनी विजयश्री ने जो राज्यवसु की पत्नी देविल की माता और विष्णभव की दादी थीं, एक मास का उपवास करने के पश्चात् संवत ५० (१२८ ई०) में वर्धमान-प्रतिमा की E Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरा का प्राचीन जैन-शिल्प २०१ वटा स स्थापना की थी। इस प्रकार से जैन-संघ के इतिहास के अन्तर्गत अनेक श्रमण-श्राविकाओं के पुण्य कार्यों का विवरण 'मथुरा' के अभिलेखों में प्राप्त है। उपरोक्त 'सरस्वती' की प्रतिमा की स्थापना संवत ५४ में हई है। मूर्ति के बायें हाथ में पुस्तक है। अब तक की प्राप्त 'सरस्वती-प्रतिमाओं में यह सबसे प्राचीन है। जैन-धर्म में अति प्राचीन काल से ही 'सरस्वती और लक्ष्मी' दोनों देवियों की मान्यता बौद्धिक ही नहीं, आध्यात्मिक रूप में भी रही है। एक अन्य उल्लेखनीय प्रतिमा 'देवी आर्यवती' की है। जो क्षत्रय “शोडास" के राज्य-काल में संवत् ४२ में स्थापित की गयी थी। क्षत्र और चंवर लिए दो पार्श्वचर स्त्रियाँ आर्यवती की सेवा कर रही हैं । इससे उसका राजपद सूचित होता है । सम्भवत: 'आर्यवती देवी' का यह अंकन महावीर की माता 'त्रिशला देवी' का हो। 'अर्हन्त-नन्द्यावर्त' अर्थात् अठारहवें तीर्थकर भगवान श्री 'अरहनाथ' की चौकी पर खुदे एक लेख में कोट्रियगण वज्री शाखा के वाचक आर्य 'वृद्धहस्ती' की प्रेरणा से एक श्राविका ने देव निर्मित स्तूप में अर्हत की प्रतिमा स्थापित की थी। (एपिग्राफिआ इण्डिका भाग २, ले० २०१)। यह लेख संवत् ८६ अर्थात् कुषाण सम्राट वासुदेव के राज्यकाल ई० सन् १६७ का है। कुषाण-कालीन-मूर्तियों पर अनेक अभिलेख हैं। इन लेखों की लिपि 'ब्राह्मी' है, और भाषा संस्कृतप्राकृत का मिश्रण है। इनके द्वारा तत्कालीन जैन-धर्म सम्बन्धी अत्यधिक जानकारी प्राप्त होती है। कंकाली-टीले से प्राप्त मूर्तियाँ जो 'मथुरा और लखनऊ' आदि संग्रहालयों में स्थित हैं, कुषाण संवत् ५ से ९५ तक की हैं। बाद में इन मूर्तियों का स्थापना क्रम ग्यारहवीं शताब्दी तक बराबर मिलता है। कला की दृष्टि से गुप्त-काल की पद्मासन-मूर्तियाँ श्रेष्ठ हैं। __अनेक वेदिका-स्तम्भों पर सूचीदलों की सुन्दर सजावट, आभूषण संभारों से उन्नतांगी रमणियों के सुखमय जीवन का अमर वाचन है। अशोक, वकुल, आम्र तथा चम्पक के उद्यानों में पुष्प मंजिका-क्रीड़ाओं में आसक्त, कन्दुक, खड़गादि नृत्यों में प्रवीणता की बोधक, स्नान और प्रसाधन में संलग्न पौरांगनाओं को देखकर जिस सजीवता का आभास होता है, वह अवर्णीय है। भक्ति-भाव पूरित पूजन के लिए पुष्पमालाओं का उपहार लाने वाले उपासक-वृन्दों की शोमा विलक्षण है। सुपर्ण और किन्नर सदृश देव भी पूजा के इन श्रद्धामय कृत्यों में बराबर भाग लेते हुए अंकित हैं। ये सभी दृश्य मात्र भाव-गम्य हैं, इनका वर्णन सम्भव है ही नहीं। "आयागपट्ट"-मथुरा "जैन आयागपट्ट" विशेष रूप से गौरव-शाली हैं। इसमें प्रायः बीच में तीर्थक र-मूर्ति तथा चारों ओर विविध प्रकार के मनोहर अलंकरण मिलते हैं। स्वस्तिक, नंदावर्त, वर्धमानक्य, श्रीवत्स, भद्रासन, दर्पण, कलश, मीनयुगल, और 'अष्ट-मंगल-द्रव्यों, का आयागपट्टों पर सुन्दर आलेखन है। एक में तो आठ दिक्कुमारियाँ एक दूसरे का हाथ पकड़े हए आकर्षक-मुद्राओं में नृत्य में संलग्न हैं। मण्डल का चक्रवाल अभिनय का उल्लेख "रायपसेनिय-सत्त" में आया है। एक दूसरे आयागपद पर तोरण-द्वार तथा वेदिका की अत्यन्त कलात्मक सर्जना है । ये सभी वस्तुएँ कला के उत्कृष्ट नमूने हैं । इनमें अधिकांश अभिलिखित हैं, जिन पर ब्राह्मी लिपि में लगभग ई० सन् पूर्व १०० से लेकर ई० Pro DAIADHANAGALADISLAanandane JawasarammariawaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaDASARAN सामाज . श्रीआन भलाया 123RE 16A ग्रन्थ श्राआनन्काग्रन्थ NAVNINMAHARYANAVARAN manoraminwwimmmmmmmmonwanemamariwimwomemaina Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ damaramanawwacAAORALIAMALALADARiseDASABAL o adMADAJAananamodPawanSAAMKARANEPALKARANA.:.. आचार्यप्रवर आचार्यप्रवरआन श्रीआनन्दग्रन्थश्राआनन्दाअन्य २०२ इतिहास और संस्कृति गया Ple प्रथम शताब्दी के मध्य तक के हैं। शुग-काल से लेकर गुप्त-काल तक की ऐसी मूल्यवान जैन-सामग्री कदाचित ही अन्यत्र मिले। इसके द्वारा विभिन्न युगों की वेश-भूषा, आमोद-प्रमोद तथा सामाजिक-जीवन के अन्तरंग भावों पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। स्तूप के प्रांगण में इस प्रकार के पूजा-शिलापट्ट या आयागपट्ट ऊँचे स्थलों पर स्थापित किये जाते थे । दर्शक उनकी पूजा अर्चना करते थे। 'मथुरा की जैन-शिल्प-कला' में आयागपट्रों को महत्वपूर्ण भूमिका है। अनेक उच्च-कला के जैन-आयागपट्ट लखनऊ संग्रहालय में संग्रहीत हैं। (जे० नं० २४६) । यह सिंहनादिक द्वारा स्थापित हैं। इनके ऊपर नीचे अष्ट-मांगलिक अंकित हैं। दोनों पावों में एक ओर चक्रांकित-ध्वज और दूसरी ओर गजांकित स्तम्भ है, बीच में चार त्रिरत्नों के मध्य में तीर्थकर प्रतिमा पद्मासन में विराजमान है। दूसरे आयागपट्ट (जे० नं० २५०) में मध्य में एक बड़ा स्वस्तिक अंकित है, उसके गर्भ में एक छोटी तीर्थंकर मूर्ति है। स्वस्तिक के आवेष्टन के रूप में सोलह देवकुमारियों से अलंकृत एक मण्डल है, जिसके चार कोनों पर चार मनोहर मूर्तियाँ है। नीचे की ओर अष्ट मांगलिक-चिन्हों की बेल हैं। इस प्रकार के पूजा-पट्ट को प्राचीन भाषा में स्वस्तिक-पट्ट कहा जाता था। तीसरे 'आयागपट्ट' (जे० २४८) के मध्य में षोडस-धर्म-चक्र की आकृति अंकित है । उसके चारों ओर तीन-मंडल हैं । प्रथम में १६ नन्दिपद, दूसरों में 'अष्ट-दिक्कुमारियाँ', और तीसरे में कुण्डलित पुष्पकर स्रज कमलों की माला है, और चार कोनों पर चार मनोहर मूर्तियां हैं। इस पूजा-पट्ट को प्राचीन काल में चक्र-पट्ट कहा जाता था। आयागपट्ट (जे० नं० २५५) की स्थापना फाल्गुयश नर्तक की पत्नी 'शिवयशा' ने अर्हत-पूजा के लिए की थी। इस पर प्राचीन मथुरा जैन-स्तूप की आकृति अंकित है, जिसके एक ओर तो तोरण, वेदिका और सोपान भी दिया है। मथुरा संग्रहालय में भी एक दूसरा भी आयागपट्ट (क्यूर) है जिसकी स्थापना गणिका 'लावण्य शौभिका' की पुत्री श्रमण-श्राविका वसू ने अर्हतों के मन्दिर में अहंत-पूजा के लिये की है। इस पर भी स्तूप, तोरण, वेदिका और सोपान अंकित हैं। "वेदिकाएँ"-"वेदिका-निर्माण" वास्तु-कला विन्यास का उत्कृष्ट कर्म था। उसमें "उर्वस्तम्भ, आड़ी सूचियों, उष्णीष, आलम्बश, तोरण द्वारों के मुख्य पट्ट', पुष्पाधनी या पुष्पग्रहणी, सोपान, उतारचढ़ाव की छोटी-छोटी पार्श्वगत वेदिकाएँ और ध्वज, स्तम्भ आदि नाना प्रकार की शिल्प-सामग्रियाँ सम्मिलित कर उन्हें उत्कृष्टता प्रदान की जाती थी। इनमें स्तूपों के रूपों का भी सम्पादन मनोरम ढंग से किया जाता रहा । वेदिका-स्तम्भों पर निर्मित शालभंजिका मूर्तियाँ वैसी ही मुद्राओं में हैं, जैसी बुद्ध-स्तूपों में । वस्तुतः स्तूप के चतुर्दिक-वेदिका स्तम्भों का जैसा सुन्दर-विधान 'मथुरा-कला' में उदभित है, वह सराहनीय ही नहीं अतुलनीय है। 'शुंग-काल' में तीन विशेष परिवर्तन हुए—प्रथम में मूल स्तूप पर शिलापट्टों का आच्छादन चढ़ाया गया। दूसरे में उसके चारों ओर चार तोरण द्वारों से संयुक्त एक भव्य-वेदिका का निर्माण हुआ। इस JAINED वन 卐 Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरा का प्राचीन जैन - शिल्प २०३ after के जो अनेक स्तम्भ प्राप्त हुए हैं, उन पर कमल के अनेक फूलों की अत्यन्त सुन्दर सजावट है । इस आधार पर वह वेदिका 'पद्मवर वेदिका' का नमूना जान पड़ती है, जिसका उल्लेख 'रायपसेनीय- सुत्त' में आया है । सम्भव है कि धनिक उपासक सचमुच के खिले कमलों द्वारा इस प्रकार की पुष्पमयी वेदिका निर्मित कराकर विशेष अवसरों पर स्तूप की पूजा करते रहे हों । कालान्तर में उन कमल पुष्पों की आकृति काष्ठमय वेदिका स्तम्भों पर उत्कीर्ण की जाने लगी, और सबसे अन्त में पत्थर के स्तम्भों पर कमल-पुष्पों की वैसे ही अलंकरण और सजावट युक्त बेल उकेरी जाने लगी । ऐसी ही 'पद्मवर- वेदिका' का एक सुन्दर उदाहरण ‘मथुरा' के देव निर्मित जैन- स्तूप की खुदाई में प्राप्त शुंग-कालीन स्तम्भों पर सुरक्षित रह गया है । वेदिका स्तम्भों आदि पर स्त्री-पुरुषों, पशु-पक्षियों, लता-वृक्षों, आदि का चित्रण किया जाता था । कंकाली-टीले से प्राप्त जैन - वेदिका स्तम्भों पर ऐसी बहुत सी मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं, जिनमें तत्कालीन आनन्दमय लोक-जीवन की सुन्दर झाँकियाँ मिलती हैं । इन मूर्तियों में विविध आकर्षक - मुद्राओं मैं खड़ी स्त्रियों के चित्रण अधिक हैं । किसी स्तम्भ पर कोई वनिता उद्यान में पुष्प चुनती दिखलाई देती है, तो किसी में कंदुक-क्रीड़ा का दृश्य है । कोई सुन्दरी झरने के नीचे स्नान का आनन्द ले रही है, तो कोई दूसरी स्नान करने के उपरान्त वस्त्र परिधान कर रही है । किसी पर युवती गीले केशों को सुखाती है तो किसी पर वालों के सँवारने में लगी है । किसी के कपोलों पर लोध्र-चूर्ण मलने का, तो किसी पर पैरों में आलता भरने का तो अन्य किसी पर पुष्पित-वृक्ष की छाया मैं बैठकर वीणा वादन की तल्लीनता अंकित है । अनेक पर नारियों का अंकन नृत्य - मुद्रा में है । इस अंकन में प्रकृति और मानव जगत की सौन्दर्य - राशि के साथ ही नारी-जीवन भी प्राणवान दीखता है । जैन-धर्म के प्राचीन इतिहास पर मूल्यवान उल्लेख कल्पसूत्र में ( ग्रन्थ में) हुआ है, उससे जब हम प्राचीन-मथुरा के प्राचीन शिलालेखों ''शिलालेख' - 'मथुरा' से प्राप्त अनेक 'शिलालेख' प्रकाश डालते हैं । जैन संघ के जिस विपुल संघटन का सम्बन्धित गण, कुल और शाखाओं का वास्तविक रूप में पाते हैं, तो यह सिद्ध हो जाता है कि 'कल्पसूत्र' की स्थिविरावली में उल्लिखित इतिहास प्रामाणिक हैं । जैन संघ के आठ गणों में से चार का नामोल्लेखन मथुरा के लेखों में हुआ है । अर्थात् कोट्टियगण, त्रारणगण, उद्दे हिकगण, और वेशकाटिका गण । इन गणों से संबंधित जो कुल और शाखाओं का विस्तार था, उनमें से भी लगभग बीस नाम मथुरा के लेखों में विद्यमान हैं । इससे प्रमाणित होता है कि जैन भिक्षु सघ का बहुत ही जीता जागता केन्द्र 'मथुरा' में विद्यमान था, और उसके अन्तर्गत अनेक श्रावक-श्राविकाएँ धर्म का यथावत पालन करती थीं । I 'देवपाल' श्रेष्ठि की कन्या 'श्रेष्ठिसेन' की पत्नी 'क्षुद्रा' ने किया था । श्रेष्ठि वेणी की पत्नी पट्टिसेन की माता कुमार मित्रा ने सर्वतोभद्रका प्रतिमा की स्थापना करायी थी । वज्री शाखा के के शिष्य थे, इनके गुरु थे । मणिकार जयभट्ट की दुहिता लोह वीणाज फल्गुदेव की पत्नी मित्रा ने कोट्टि - गण के अन्तर्गत बृहद दासिक कुल के वृहन्त वाचक गणि जैमित्र के शिष्य आर्य ओदा के शिष्य गणि आर्य भगवान वर्धमान की प्रतिमा का दान आर्या वसुला का उपदेश सुनकर एक वाचक आर्यं मातृदत्त जो आर्य वलदत्त Jite आद्यान व आत सामान व आमद Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAmiraramanawwaraamananAACARBAinarssardaroodaiauARNATABASANAamaaranandnsaAAAnnorseen आचार्यप्रकट आचार्यप्रवरआ श्रीआनन्दा ग्रन्थ श्रीआनन्द rammarAWN २०४ इतिहास और संस्कृति पाल के श्रद्धास्पद, वाचक आर्यदत्त के शिष्य वाचक आर्यसिंह की प्रेरणा से एक विशाल जिन प्रतिमा का दान किया था । आचार्य बलदत्त की शिष्या आर्या कुमारमित्रा तपस्विनी को शिलालेखों में संशित, मस्वित, बोधित, कहा गया है । यह भिक्षुणी हो गयी थी। किन्तु उसके पूर्वाश्रम के पुत्र गंधिक कुमार भट्टिय ने एक जिन प्रतिमा का दान किया था। यह मूर्ति कंकाली टीले के पश्चिमी भाग में स्थित दूसरे देव प्रासाद में भग्नावेश के रूप में प्राप्त हुई हैं। पहले देव प्रासाद की स्थिति इस मन्दिर के कुछ पूर्व के ओर थी। ग्रामिक जयनाग की कुटुम्बिनी और ग्रामिक जयदेव की पुत्रबधु ने संवत ४० में शिला स्तम्भ का दान किया था । श्रमण-श्राविका 'वालहस्ति' ने अपने माता-पिता और सास ससुर की पुण्यवृद्धि के लिए एक बड़े तोरण की स्थापना की थी। कंकाली टीलों की खुदाई में ही मिली एक तीर्थकर मूर्ति की भग्न-चौकी भी है, जिस पर ई० दूसरी शताब्दी का एक ब्राह्मी लेख उत्कीर्ण है । इस लेख में लिला है कि शक संवत ७६ (१५० ई०) में भगवान श्री मुनिसुव्रत नाथ की इस प्रतिमा को देवताओं के द्वारा निर्मित वोदू-स्तुप में प्रतिष्ठित कराया गया। "स्तप"-पूर्व-कालीन विद्वानों की धारणा थी कि भारतवर्ष में सब से पहले बौद्ध-स्तुपों का निर्माण हुआ था, किन्तु प्रस्तुत तथ्यों के द्वारा यह धारणा भ्रान्त सिद्ध हो चुकी है और अब विद्वान लोग मानने लगे हैं कि बौद्ध-स्तूपों के निर्माण से पूर्व ही जैन-स्तूपों का निर्माण होता रहा । इसकी पुष्टि साहित्यिक प्रमाणों से भी होती है, जिन्हें वुल्हर और स्मिथ आदि ने (पाश्चात्य विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। सबसे प्रथम वुल्हर ने 'जिनप्रभ चरित तीर्थ कल्प' नाम के ग्रन्थ की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया, जिसमें प्राचीन प्रमाणों के आधार पर 'मथरा' के देव निर्मित स्तूप की नींव पड़ने तथा उसके जीर्णोद्धार का वर्णन है । इस ग्रन्थ के अनुसार यह स्तूप पहले स्वर्ण का था और उस पर मूल्यवान जवाहिरात जड़े हुए थे। सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा के लिए इस स्तूप का निर्माण 'कुबेरादेवी' ने कराया था। बाद में तेइसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ के काल में इसका जीर्णोद्धार ईटों से हुआ, पश्चात् चौबीसवें तीर्थकार श्री 'महावीर' के ज्ञान प्राप्ति के तेरह सौ वर्षों पश्चात् वप्पभट्ट सूरि ने इसका जीर्णोद्धार कराया। सूरि जी का समय ईसा की आठवीं शताब्दी है। उपरोक्त तथ्य यह प्रमाणित करते हैं कि 'मथुरा' के साथ जैन-धर्म का सम्बन्ध सप्तम तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के काल से ही बराबर बना रहा है और वह जैनों का श्रद्धा स्थल बराबर रहा है। मथुरा से ही प्राप्त दो जैन-स्तूपों में पहला शुंग-काल का है और दूसरा कुषाण-काल का है। सौभाग्यवश कंकाली टीला नामक स्थान से इन दोनों स्तूपों के विषय पर सहस्राधिक शिलावशेष प्राप्त हुए हैं। इन स्तूपों को देव निर्मित माना गया है। अर्थात् यह अति प्राचीन काल का है, और इसका निर्माण देवों द्वारा हुआ है । देव-निर्मित विशेषण सभिप्राय है। जैसा रायपसे नियसूत्त में देवों द्वारा एक विशाल स्तूप के निर्माण का वर्णन है । कुछ इसी प्रकार की कल्पना मथुरा के कंकाली टीले के इन स्तूपों के लिए की जाती है। तिब्बती-विद्वान बौद्ध इतिहासकार 'तारानाथ ने अशोक-कालीन शिल्प निर्माताओं को यक्ष लिखा है । और मौर्य-कालीन शिल्प-कला को 'यक्षकला' की संज्ञा दी है जिससे यह धारणा बनी की उस युग के पूर्व की कला देवनिर्मित मानी जाती थी। उपरोक्त ध्वनि यह स्पष्ट करती है कि-'मथुरा' का देव निर्मित जैन-स्तुप मौर्यकाल से पूर्व Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथरा का प्राचीन जैन-शिल्प २०५ अर्थात लगभग ५वीं या ६वीं शताब्दी ईसा पूर्व का होगा। बुल्हर, स्मिथ आदि प्राच्यविदों ने लिखा है कि उस समय स्तूप के वास्तविक निर्माणकर्ताओं के विषय में लोगों को विस्तृत ज्ञान रहा होगा । और वह जैन-स्तूप इतना प्राचीन माना जाने लगा कि उसके लिए देव-निर्मित कल्पना भी सम्भव हो सकी । यह तथ्य यह प्रमाणित करता है कि बौद्ध स्तूपों के निर्माण पूर्व से ही जैन-स्तूपों का निर्माण बराबर होता रहा है। जैन-स्तूपों के मध्य में बुबुदाकार बड़ा और ऊँचा थूहा होता था, और उसके चारों ओर वेदिका और चारों दिशाओं में चार तोरणद्वार होते थे। उनके ऊपर हामिका और छत्रावली का विधान होता था। यह वेदिका सहित त्रिमेधियों पर बनाया जाता था। उसके चारों पावों और वेदिका-स्तम्भों पर शालमंजिका मूर्तियों की रचना की जाती थी। इनके बहुत से नमूने कंकाली टीले से प्राप्त हुए हैं, जो लखनऊ संग्रहालय में स्थित हैं। __ जैनधर्म के विविध केन्द्र-'मथुरा' से प्राप्त लेखों से यह सिद्ध होता है कि पुरुषों की अपेक्षा दानदाताओं में नारियों की बहुलता रही है। मथुरा के अतिरिक्त उत्तर-भारत में जैन-धर्म के अन्य अनेक केन्द्र भी थे, जिनमें उत्तर गुप्त-काल तथा मध्य काल में जैन-कला का विस्तार होता रहा । वर्तमान बिहार व उत्तर-प्रदेश में अनेक स्थान तीर्थंकरों के जन्म, तपस्या, तथा निर्वाण के तीर्थ रहे हैं । अतः यह स्वाभाविक था कि इन स्थलों पर धर्म, कला तथा शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की जाय, कौशाम्बी प्रभास, श्रावस्ती, कम्पिला, अहिक्षेत्र, हस्तिनागपूर, देवगढ़, राजगृह, वैशाली, मन्दारगिरि, पावापुरी ऐसे क्षेत्र थे। उपरोक्त स्थलों से जैन कला की जो प्रभूत सामग्री प्राप्त हुई है, उससे पता चलता है कि जैनधर्म ने अपनी विशेषताओं के कारण भारतीय लोक जीवन को कितना अधिक प्रभावित किया था। जैन धर्म की अजस्रधारा केवल उत्तर भारत तक ही सीमित नहीं रही, अपितु वह भारत के अन्य भागों को पूर्ण रूपेण अपनाये हए थी। मध्य-भारत में ग्वालियर, चन्देरी, सोनागिर, खजुराहो, अजयगढ़, कुण्डलपुर, जरखो, अहार, और रामटेक एवं राजस्थान तथा मालवा में चन्द्राखेड़ी, आबूपर्वत, सिद्धवरकूट तथा उज्जैन, प्रसिद्ध केन्द्र रहे हैं । इसी प्रकार गुजरात, सौराष्ट्र तथा बम्बई प्रदेश में गिरनार, वलभी, शवजय, अणहिल्ल (ल) दिलवाड़ा, एलोरा और वादामी, तथा दक्षिण में वेलूर, श्रमणवेलगोला, तथा हेलवीड, इत्यादि स्थलों में जैन मूर्ति-कला और चित्रकला दीर्घकाल तक अपना प्रभाव और अस्तित्त्व वनाये रही। भारत के अनेक राजवंशों ने भी जैन-कला के उन्नत होने में योग दिया है। गुप्त-शासकों के पश्चात् चालुक्यराष्ट्र, कलचुरि, गंग, कदम्ब, चोल, तथा पांड्य आदि वंशो के अनेक राजाओं का जैन-कला को संरक्षण और प्रोत्साहन पर्याप्त रूप में रहा है। इन वंशों में अनेक राजा जैन-धर्म के अनुयायी भी थे। सिद्धराज, जयसिंह, कुमारपाल, अमोघवर्ष, अकालवर्ष तथा गंग-वंशीय मानसिंह (द्वितीय) का नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। . कला के अवशेष-मध्य काल के पश्चात मुस्लिम-काल में भारतीय-कला-क्षेत्र का जो ह्रास हुआ, उससे जैन-कला भी नहीं बच सकी। उत्तर भारत के उपर्युक्त सभी कला केन्द्र नष्ट हो गये, और कला का प्रवाह जो अतिप्राचीन काल से अजस्र रूप में चला आ रहा था, अवरुद्ध हो गया। यद्यपि पश्चिम तथा दक्षिण भारत में इस झंझावात के पूरे चपेट में न आ सकने के कारण वहाँ स्थापत्य और मूर्तिकला AAAAWAAAAAAAAAAAJAAN/AAAMANAN JAAAAAAAJA आआआधाआनन्दप्रसन्न आचार्यप्रवट आभिआचार्यप्रवर अभिनय Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ عره ها را به ع هده همه مجموعه ی مه عهدهاعري یه عمره عامه معنع عنهم دوره ها را ما يهمني هعهعهعععععقعقاع مع مرهفهعنعن عريع معرفی Movie Amaviv a avYYY २०६ इतिहास और संस्कृति जीवित बच गई किन्तु उसमें भी वह सजीवता और स्वाभाविकता नहीं रही, जिसके दर्शन हमें प्रारम्भिक युगों में होते रहे हैं । पाषाण और धातु की अनेक जैन-मूर्तियाँ तेरहवीं से अठारहवीं शताद्वी तक की हैं, जिनमें अनेक पर अभिलेख भी हैं, इनमें प्रायः विक्रम संवत के साथ दातारों के नाम, गोत्र, कुल आदि का परिचय भी है। उत्तर-भारत में तो बहुत ही कम ऐसे प्राचीन स्थान होगे, जहाँ जन-कला के अवशेष न हों। विजनौर जिले का पारसनाथ किला ही कई मीलों तक विस्तृत अरण्य-प्रदेश बना पड़ा है। इसमें ही कितनी जैन-कलाकृतियां विखरी पड़ी हैं। बुदेलखण्ड और राजस्थान के इलाकों में ही चारों ओर मूर्तियाँ इधर उधर लावारिस रूप में विखरी पड़ी हैं। इन अमूल्य निधियों को जैन-ध्वंसावेशों को एकत्र करना, इनकी सुरक्षा करना परम आवश्यक है। अभी भी बहुत सामग्री धरती के गर्भ में है। वर्तमान मथुरा और जैन-धर्मः-वर्तमान 'मथुरा' नगर का सर्व प्रधान-तीर्थ चौरासी है। चौरासी अन्तिम केवली भगवान श्री जम्बूस्वामी की निर्वाण-भूमि है । अन्तिम तीर्थंकर महावीर के पश्चात् केवल तीन केवली हुए, प्रथम गौतम गणधर (इन्द्रभूति) का कैवल्य-काल १२ वर्ष रहा । दूसरे केवली भगवान सुधर्मा स्वामी थे, इनका भी कैवल्य-काल १२ वर्ष ही रहा । तीसरे केवली भगवान 'जम्बूस्वामी' का कैवल्य-काल ३८ वर्ष रहा । इस प्रकार भगवान महावीर के पश्चात् ६२ वर्षों में तीन केवली भगवान् हए । केवली भगवान श्री जम्बूस्वामी का निर्वाण आज से २४३७ वर्ष पूर्व इसी चौरासी क्षेत्र में हुआ है। ऐसा प्रख्यात है कि उस काल में इस क्षेत्र पर ७२ वन और १२ उपवन थे। कुल मिलाकर ८४ होने के कारण ही इसे चौरासी कहा जाता था। यह भी प्रसिद्ध है कि केवली भगवान श्री जम्बूस्वामी का ५४ वर्ष की आयु में निर्वाण हुआ, इसीलिए यह क्षेत्र चौरासी कहलाया। कुछ ठोस प्रमाण के आधार पर ८४ नाम की प्रामाणिकता उपलब्ध नहीं है। काल के थपेड़ों ने इस स्थल को 'श्री हीन बना दिया था। दोसौ वर्षों पूर्व यहाँ केवल एक टूटी सी छतरी और एक वेर का वृक्ष ही इस क्षेत्र की सम्पदा रह गये थे। नगरसेठ श्री लक्ष्मीचन्द्रजी के मुनीम 'श्री मनीराम' जी ने यहाँ एक विशाल-मन्दिर निर्माण कराया है। 'वृन्दावन' के मार्ग में 'धौरेरहा' स्थल से तेइसवें ती० श्री पार्श्वनाथ' की दो हजार वर्ष प्राचीन प्रतिमा वि० सं० १८६ की पं० हुकुमचन्द्र जी को प्राप्त हुई थी, जो यहाँ विराजमान है। दूसरी प्रतिमा द्वितीय जैन ती० श्री 'अजितनाथ' की है । यह ग्वालियर की खुदाई में प्राप्त हुई है। इतनी बड़ी खड़गासन प्रतिमा सम्भवतः भारतवर्ष में अन्यत्र नहीं है। दोनों प्रतिमाएँ अतिशय प्रधान होने के कारण ही इस क्षेत्र-भूमि को अतिशय-क्षेत्र कहा जाता है। 'मथुरा' की अतीतातीत-काल से जन-धर्म और कला को जो देन रही है, उससे यह ज्ञात होता है कि-उस क्षेत्र में अभी भी उत्खनन और संग्रह की शोध में अनेक वस्तुएँ ऐसी प्राप्त होंगी जो जैन-धर्म के अस्तित्व को और भी प्राचीनकाल तक पहुंचायेंगी । इस वर्ष भगवान श्री महावीर के पच्चीससौवें निर्वाण-महोत्सव के कार्यक्रम के अन्तर्गत जैनों का एक बड़ा शोध संस्थान (पूर्ण भारत वर्ष की एक संस्था) स्थापित कर वहाँ पुरातत्त्वविदों का सहयोग प्राप्त कर जिधर-जिधर हमारे बिखरे अवशेष हैं, उन्हें एकत्र किया जाना आवश्यक है। Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रा० अ० अस० मोरे, एम० ए० [प्राकृत विभाग प्रमुख, दयानन्द महाविद्यालय, सोलापुर] जैन साहित्यातील काही प्रमुख आचार्य त्यांचे प्रमुख ग्रन्थ % 3 Ala जैन साहित्य अती विशाल आणि महान आहे । भारतीय साहित्यात त्याचे एक विशिष्ट स्थान असून, भारतीय साहित्याचे ते एक अविभाज्य अंग मानले जाते । जैन आचार्यांनी व साहित्यकारांनी विविध भाषांमधन ग्रंथरचना करून भारतीय साहित्याला विविधता प्राप्त करून दिली आहे व भारतीय साहित्य समृद्ध करण्याच्या दृष्टीने आटोकाट प्रयत्न केले आहेत । जैन धर्माच्या इतिहासाचे अवलोकन केले तर, जैन धर्माने भारतीय समाज जीवन विकसित व सुदृढ़ करण्यास किती मदत केली आहे हे सहजपणे लक्षात येईल । शिवाय या धर्माने समाज जीवनाचा विचार संकुचित दृष्टिकोन ठेवून केलेला नाही । जैन धर्माचे कार्य एका राष्ट्रीय भमिकेतून झाल्यामुले त्यात सदैव उदार व उच्च विचारसरणीचा अवलंब केला गेला आहे । जैनाचार्या नी आपले बरेचसे जीवन साहित्य रचण्यातच व्यतीत केले आहे। त्यांनी आपल्या जैन दर्शन व तर्क शास्त्र, जैन तत्त्वविद्या आणि पौराणिक कथा, जैन सिद्धांत व नीतिशास्त्र तसेच अन्य साहित्यिक रचनांनी जैनधर्माचे यथार्थ दर्शन घडविले आहे। जैनधर्मात अनेक प्रकांड पंडित व विद्वान आचार्य झाले । त्यातील काही महान तार्किक, व्याकरणकार, तत्त्ववेत्ते व न्यायाचार्य होऊन गेले काही आचार्यांनी काव्य, नाटक, कथा, टीका, शिल्प, मंत्रतंत्र, वास्तु, वैद्यक इत्यादी विषयांवर देखील पुष्कल साहित्य लिहिलेले आहे। जर्मन विद्वान डॉ० विंटरनिटज यांच्या मते 'जैन साहित्य हे भारतीय भाषांच्या इतिहासाच्या दृष्टीने अती महत्वपूर्ण आहे।' धर्म प्रचारासाठी म्हणून जैनधर्माने तत्कालीन लोकभाषांचाच स्वीकार केला आहे । आज जे जैन साहित्य उपलब्ध आहे, ते भ० महावीरांच्या परंपरेशी संबंधित आहे । भ० महावीरांचे प्रथम गणधर गौतम इंद्रभूती होते । भ० महावीरांचा उपदेश लक्षात ठेऊन तो बारा अंग व चौदा पूर्वाच्या रूपाने विभागला । अंग व पूर्वांग ज्ञानात ते निपुण होते त्यांना श्रुतकेवली म्हटले जात असे । जैन परंपरेत 'केवलज्ञानी' व 'श्रुतकेवली' ही दोन पदे अत्यत महत्त्वाची मानली जात । 'केवलज्ञानी' समस्त चराचर -AAAAAJAL na n danRJAJALAnnanAANAS आचार्यप्रवर अभिआचार्यप्रवभिनी श्रीआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्दन्थ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ guunt ada 311 312 ग्रन्थ SI फ्र Ve २०८ इतिहास और संस्कृति जगाला प्रत्यक्ष जाणतात व पाहतात । त्याचप्रमाण श्रुतकेवलीही शास्त्रात कथन केलेला प्रत्येक विषय श्रुतज्ञानाने स्पष्टपणे जाणत । श्री आनन्द भ० महावीरांच्या निर्वाणानंतर तीन केवलज्ञानी व पाच श्रुतकेवली झाले । त्यातील भद्रबाहु हे शेवटचे श्रुतकेवली होते । पुढे दुष्काल व इतर काही आपत्तीमुले साधूचारात बरीचशी शिथिलता आली । भद्रबाहूच्या गैरहजेरीत जे साहित्य लिहिले गेले ते एकपक्षी होते । त्यांना इतरांनी मान्यता दिली नाही व यामुलेच जैनधर्माचे श्वेतांबर व दिगंबर हे दोन संप्रदाय निर्माण झाले । प्रस्तुत लेखामध्ये श्वेतांबर व दिगंबर या दोन्ही संप्रदायातील अगदी प्रमुख पाच आचार्य व त्यांचे प्रमुख ग्रन्थ यांचा आढावा घेण्यात आला आहे । यातील बहुतेक आचार्यांना दिगंबर आणि श्वेतांबर या दोन्ही संप्रदायांची मान्यता आहे । ते आचार्य पुढील प्रमाणे १. आ० उमास्वाति, २. आ० हरिभद्रसूरि, ३. भट्टाकलंक, ४. आ० नेमिचंद्र, ५. आ० हेमचंद्र | आचार्य उमास्वाति व तत्वार्थसूत्र आ० उमास्वाति है विक्रम सं तिसऱ्या शतकात होऊन गेले । ते कुंदकुंदाचे पट्टशिष्य असून त्यांनी जैन सिद्धांत संस्कृत साहित्यात निबद्ध करून 'तत्वार्थ सूत्र' नामक महान ग्रंथाची रचना केली । श्वेतांबर व दिगंबर या दोन्ही संप्रदायांची या आचार्यांना मान्यता आहे । दिगंबर परंपरेत त्यांना 'उमास्वामी' म्हटले असून, श्वेताबर परंपरेत त्यांना 'उमास्वाती' असे म्हटले आहे । या आचार्यांनी कमीत कमी लिहून जास्तीजास्त प्रसिद्धि मिलविली आहे । आ० उमास्वातीचा परिचय आपणाला श्वेतांबरी तत्त्वार्थाधिगम' या ग्रंथात मिलतो | त्यांचा जन्म न्यग्रोधिका नामक नगरीत झाला असून त्यांच्या पित्याचे नाव स्वाति आणि मातेचे नाव वात्सी असे होते । गोत्राने ते कौभिषिणी होते । त्यांना गृध्रपिच्छाचार्य या नावाने देखील संबोधिले जाते । गावोगाव विहार करीत असताना ते एकदा कुसुमपूर नगरात आले । तेथे तुच्छ शास्त्रामुले हतबुद्धि झालेल्या लोकांच्या विषयी अनुकंपा निर्माण होऊन व त्यांना मार्गदर्शन करण्याकरिता तत्वार्थसूत्राची रचना केली असावी, अशी एक कथा दिली जाते । तर सिद्धय नावाच्या विद्वानाला मोक्षाचे स्वरूप समजावून देण्यासाठी तत्वार्थसूत्र या ग्रंथाची रचना केली असावी, अशी दुसरी कथा सांगितली जाते अर्थात संस्कृतमध्ये सूत्ररचना करणारे हे प्रथम जैन आचार्य मानले जातात । शेकडो ग्रंथांचा सार काढून आ० उमास्वातीनी 'तत्वार्थसूत्र' या महान ग्रंथाची रचना केली । या ग्रंथाला दूसरे नाव 'मोक्षशास्त्र' असेही दिले आहे । वैदिक दर्शनात जे महत्व गीतेस, मुस्लिम धर्मात जे महत्व कुराणास, ख्रिस्ती लोकांत जे महत्व बायबल या ग्रंथास आहे, तच महत्व जैन परंपरेत 'तत्वार्थसूत्र' या ग्रंथास दिले गेले आहे । 'तत्वार्थ सूत्र' द्रव्यानुयोगातील एक प्रमुख ग्रंथ म्हणून गणला जातो । हा ग्रन्थ एकूण दहा अध्यायात विभागला आहे । त्याचे प्रामुख्याने ज्ञानमीमांसा, ज्ञ ेयमीमांसा व चारित्रमीमांसा या तीन भागात विभाजन केले असून, या ग्रंथात जवल जवल एकूण ३५७ इतकी सूत्रसंख्या आहे । 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग' या अतिशय महत्वपूर्ण सूत्राने या ग्रंथाची सरूवात झाली आहे । ज्ञानमीमांसेच्या पहिल्या Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहा जैन साहित्यातील काही प्रमुख आचार्य व त्यांचे प्रमुख ग्रन्थ २०६ मागात नय व प्रमाणानुसार मति, श्रुति, अवधि, मनपर्याय व केवल हे प्रकार सांगून ज्ञानाचे कूमति, कुश्रुति, कुअवधि इ वाईट प्रकार सांगितले आहेत. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यकचारित्र या तिन्हींची एकता होणे म्हणजेच मोक्षमार्गाची प्राप्ति होण असे कथन केले आहे । ज्ञयमीमांसेत जगातील जीव अजीव या दोन जगतमूल गोष्टींचे विवेचन कोले आहे तिसत्या अध्यायात अधो, मध्य व ऊर्ध्व लोकाचे विवेचन केले आहे अर्थात येथे भौगोलिक वर्णन अधिक देण्याचा प्रयत्न केला आहे चौध्या अध्यायात देवसृष्टीचे वर्णन केले असून पाचव्या अध्यायात द्रव्यविषयक चर्चा केली आहे ।। चारित्र मीमांसेत ६ ते १० अध्यायांचा सामावेश असून कर्मविषयक चर्चा केली आहे वाईट अथवा चांगल्या प्रवृत्तींचे विवेचन करून, शेवटी केवलज्ञानाचा हेतू, मोक्षाचे स्वरुप व मुक्ती इ गोष्टीचे सुन्दर विवेचन केले आहे. मोक्ष हा सर्व प्राण्यानां इष्ट असून सर्व प्राण्यांची त्यासाठी खटपट चाल असते. इतर दर्शनातून देखील मोक्षविषयक बरीचशी चर्चा केली गेली आहे मोक्ष हा सर्वमान्य असून तो प्राप्त करण्याचे प्रकार मात्र विविध सांगितले आहेत तत्वार्थसूत्रातील काही सूत्रे म्हणजे जण रत्नांची खाणच आहे, 'गागर में सागर' या उक्ती प्रमाणे कमी शब्दात अधिक मौल्यवान गोष्टींचे विवेचन केले आहे। आ० उमास्वातिकृत 'तत्वार्थसूत्र' या ग्रंथाचे वैशिष्ट्य म्हणजे या ग्रंथावर अनेक महान विद्वानांनी व आचार्यांनी अनेक टीका लिहिल्या आहेत, त्यापैकी काही प्रमुख टीका पुढीलप्रमाणे आहेत, आ० समंतभद्रकृत गंधहस्तिमहाभाष्य, आ० पूज्यपादरचित सर्वार्थ सिद्धि, आ० अकलंकदेवकृत राजवातिक, आ० विद्यानंदीकृत श्लोकवार्तिक, श्री अभयनंदसूरिकृत तत्वार्थटीका इ० आ० उमास्वातींची लेखनशैली अत्यंत सरल, सुबोध र व संक्षिप्त आहे । त्यांनी आपली ग्रंथरचना संस्कृतभाषेतच केली आहे, आचार्यांच्या सूत्ररूपी शैलीचा पुढच्या अनेक आचार्याच्यावर प्रभाव पडलेला दिसून येतो, त्यांनी जैनागमातील भूगोल, खगोल, तत्वज्ञान, तर्कशास्त्र इ० विविध गोष्टींचा सूत्ररूपाने तत्वार्थसूत्रात उल्लेख केला आहे जैनेतर दर्शनांचे खंडन कल्यासाठी उमास्वातीनी न्याय, वैशेषकि सांख्य योग बौद्ध इ० इतर दर्शनांचा अभ्यास केलेला दिसतो. आ० उमास्वातींची रचना अध्यात्मतत्त्वांनी मुक्त आहे, प्रसन्न, सरल संक्षिप्त व शुद्ध भाषाशैलीवरूनच त्यांचे अगाध पांडित्य आपले मन आकषित करून घेते। खरोखर हतबुद्ध, ज्ञानाची अत्यंतिक तलमल असणान्या लोकांना मार्गदर्शनपर 'तत्वार्थसूत्र' सारखा महान ग्रंथ लिहून जैन धर्मावर अगाध उपकार केले आहेत हे, कदापि विसरता येणार नाहीं। आ० हरिभद्रसूरि व षड्दर्शनसमुच्चय जैन साहित्यातील काही प्रमुख आचार्य व त्यांचे कार्य पहात असताना आ० हरिभद्रांच्या कार्याकडे दुर्लक्ष करून चालणार नाही : आ० हरिभद्र हे श्वेतांबर परंपरेचे मानले असून आठव्या शतकातील ते एक 'युगप्रधान लेखक' म्हणून गणले जातात. हरिभद्रांचा जन्म ब्राह्मण कुलात झाला. त्यांच्या पित्याचे नाव शंकरभट्ट व मातेचे नाव गंगा असे होते. त्यांचा जन्म चितौड मधील 'ब्रह्मपुरी' या गावी झाला असावा त्यांचा जीवनकाल साधारणपणे वि० सं०७५७ ते ८२७ इतका मानला जातो. ब्राह्मण 卐 आचार्गप्रशसभागायफ्रतारनाशक श्रीआनन्द श्रीआनन्द Pramommmmmmmmmmmmmmmonommmmmmmmmm Amrenmoosmaroommmmmmmameriwala Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रव श्री आनन्दन Fo 康 अभिनंदन आचार्य प्रव ग्रन्थ 32 श्री आनन्द २१० इतिहास और संस्कृति परंपरेनुसार त्यांनी प्रथम संस्कृतचा गाढा अभ्यास करून संस्कृतमध्येच ग्रंथरचना केली, प्राकृत तथा जैनशास्त्राचा अभ्यास करावयाचा असलेतर, जिनदीक्षा घ्यावी लागेल ही अट असल्यामुले त्यानी जैनदीक्षा स्वीकारली, आपल्या ज्ञानाच्या गर्वामुले 'ज्याचे वचन मला कलणार नाही त्याचे भी शिष्यत्व पत्करेन' असे शब्द कोरलेला एक सुवर्णपट गलयात अडकवून त बिहार करीत होते पण पुढे त्यांचा 'चक्किदुगं हरिपणग' .. या श्लोकामुले पराजय झाला अर्थात तो पराजय याकिनी महत्तरेने केला होता, म्हणूनच पुढे ते स्वत:ल 'या किनीसुत' अथवा 'धर्मतो याकिनीमहत्तरासून' या विशेषणात स्वतःला धन्य मानीत | अभिनेत ग्रन्थ 32 आ० हरिभद्रसूरि जैनधर्मातीलच नव्हे तर भारतातील एक महान आचार्य होऊन गेले त्यांच्या ज्ञानविषयक ग्रंथांना दोन्ही संप्रदायांची मान्यता आहे प्रो किल्हॉर्न हयुलार, हयुलर पिटर्सन, जेकोबी इ० पाश्च्यात्य विद्वानांनी त्यांच्या ग्रंथभांडाराचे मूल्यांकन करण्याचा प्रयत्न केला तर विंटरनिट्स, जेकोबी, लायमन, सुवाली व शूब्रिंग इ० विद्वानांनी त्यांच्या ग्रंथाविषयी व जीवनविषयक पुष्कल चर्चा केली आहे, पाश्चात्य विद्वानांच्या विद्वत्तेवा एक विषय होऊन बसणे, यावरूनच हरिभद्र सूरोची प्रतिभा किती महान असेल हे स्पष्ट होते । हरिभद्रसूरीना 'भव विरह' या दुस-या विशेषणाने संबोधिले जाते अर्थात हे विशेषण त्यांच्या प्रत्येक ग्रंथकृतीच्या शेवटी दिलेल आढलत हे विशेषण त्यांना पुढीत तीन कारणावरून मिलाले असावे धर्मस्वीकार प्रसंगी, शिष्यांच्या वियोगाप्रसंगी, याचकांच्या आशिर्वाद प्रसंगी, आ० हरिभद्रसूरी उद्योतनाचे गुरु असून जिनभट्टाचे शिष्य होते, त्यांनी १४०० प्रकरण ग्रंथ रचले होते, असे म्हटले जाते, त्याचे षड्दर्शन समुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय, अनेकान्तवाद प्रवेश अनेकान्त जयपताका इ० ग्रन्थ प्रसिद्ध, आहेत, संस्कृत प्राकृत दोन्ही भाषेवर त्यांचे पूर्ण प्रभुत्व होते, योगाविषयक योगाबिंदू व योगशास्त्र हे दोन ग्रंथ लिहिले तर, समराइच्चकहा व धूर्ताख्यान हे दोन अतिप्रसिद्ध कथाग्रंथ लिहिले, अर्थात साहित्याच्या प्रत्येक क्षेत्रात त्यानी संचार, केलेला दिसतो प्रस्तुत ठिकाणी त्यांच्या 'षड्दर्शन समुच्चय' या महत्वाच्या ग्रंथाची थोडीफार माहिती देण्यात आली आहे । भारतीय दर्शनचे प्रतिपादन करणारी सर्व प्रथम जैन ग्रंथरचना आ० सिद्धसेन दिवाकर यानी केलेली दिसते, त्यांच्या नंतरच आ० हरिभद्रसूरींचे नाव घेतले जाते, हरिभद्राने षड् दर्शनसमुच्चय या ग्रंथात सहा दर्शनांचे विवेचन केले आहे, हे सर्व विवेचन पद्यबद्ध आहे, सिद्धसेन दिवाकर आचार्यांच्या मानाने हरिभद्रसूरिने अगदी साध्या व सरल रीतिने दर्शनांचे विवेचन केले आहे, षड्दर्शन समुच्चय हा ग्रंथ इतका महत्वपूर्ण मानला जातो की, हरिभद्रसूरिनंतर या ग्रंथाचा उल्लेख सर्वसिद्धांत प्रवेशक, सर्वसिद्धांत संग्रह, सर्वदर्शन संग्रह, जैनाचार्य राजशेखरकृत षड्दर्शन समुच्चय व माधवसरस्वतीकृत सर्वदर्शन कौमुदी या पाच ग्रन्थामध्ये केला गेला आहे । 'षड्दर्शन समुच्चय' या ग्रंथातील ८७ श्लोक अनुष्टुप छंदात आहेत, हरिभद्रसूरींनी देवता आणि तत्व या मूल भेदावरून बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक व जैमिनीय या सहा दर्शनाचा विचार केल आहे, या सहा दर्शनानुसार या सहा ग्रंथातील प्रथमच्या ११ श्लोकामध्ये बौद्ध दर्शनाची चर्चा केली असून Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्यातील काही प्रमुख आचार्य व त्यांचे प्रमुख ग्रन्थ २११ १२- ३२ मध्ये नैयायिक दर्शनाची, ३३ ते ४३ सांख्य दर्शनाची ४४ ते ५८ मध्ये जैन दर्शनाची ५६ ते ६७ वैशेषिक दर्शनाची व ६८ ते ७७ श्लोकां मध्ये जैमिनीय दर्शनाची माहिती दिली आहे । वैशेषिक दर्शनाचा खुलासा करताना, सुखातीलाच महले आहे की, देवतांच्या अपेक्षेने नैयायिक दर्शन व वैशेषिक दर्शन यांत विशेष भेद नाहीं, दोन्ही दर्शनात महेश्वराला सृष्टिकर्ता व संहारक म्हटले आहे । तत्वविषयक जो भेद आहे तो त्यांनी स्पष्ट केला आहे । बरीच दर्शने नैयायिक दर्शन व वैशेषिक दर्शन यात विशेष भेद मानीत नाहीत. दोन्ही दर्शनांना एकाच दर्शनांर्तगत मानले आहे । अशप्रकारे पूर्व उल्लेख केलेली ५ अस्तिक दर्शनात एक नास्तिक दर्शन अर्थात चार्वाक दर्शनाची वाद करून एकूण सहा संख्या पुरी केली आहे । शेवटी ८० ते ८७ श्लोकात लोकायत दर्शनाची देखील माहिती दिली आहे । येथे विशेष नमूद करण्यासारखी गोष्ट म्हणजे आ० हरिभद्रसूरीनी कोणत्याही दर्शनाची टीका केली नाही । केवल कोणत्या दर्शनाची कोणती मान्यता आह याची चर्चा केती आहे । 'षट्दर्शन समुच्चय' ग्रंथावर गुणरत्नसूरि ( वि० सं० १४००-७५) रचित एक 'तर्क रहस्यदीपिका' नावाची टीका आहे । अर्थात् दर्शनाविषयक माहिती देणारा 'षट्दर्शन समुच्चय ७ हा आ० हरिभद्रचा एक महान ग्रन्थ आहे । त्यांच्या लेखन शैलीचा प्रभाव नंतरच्या अनेक विद्वानांच्यावर पडलेला दिसतो । आचार्य भट्टाकलंक व तत्वार्थराजवार्तिक आ० भट्टाकलंक है, व्या शतकातील एक प्रकांड पंडित होऊन गेले. जैन वाङमयात त्यांचे स्थान अनुपमेय असे आहे. त्यांना श्वेतांबर व दिगंबर या दोन्ही संप्रदायांची मान्यता असून, त्यांनी जैन न्यायास यथार्थ स्वरूप दिले होते, जैन न्यायास त्यांनी जे यथार्थ रूप दिले त्यावरच पुढच्या जैन ग्रंथकारांनी आपनी न्यायविषयक ग्रंथरचना केली. ते एक महान विद्वान, धुरंधर शास्त्रार्थी व उत्कष्ट विचारक होऊन गेले. त्यांची ग्रंथरचना विद्वान दार्शनिक पंडितांना देखील समजण्यास कठीण अशी आहे. त्यांना जैन न्यायाचे 'सर्जन' असे म्हटले आहे. त्यांच्चा नावावरूनच जैन न्यायास श्लेषात्मकरित्या 'अकलंक न्याय' असे म्हटले आहे. स्वामी समतभद्र व पुज्यपाद यांच्यानंतर त्यांनीच जैन वाङमय समृद्ध बनविलेले दिसते आणि म्हणनच भट्टाकलक यांचे नाव ऐकताच जैन धीमयांचे मस्तक श्रद्धेने नत होते । बौद्ध धर्माचा प्रसार अति जोरात चालला असता व इतर सर्व दर्शनांच्या प्रसाराला आला बसत चालला असतानाच, आ० भट्टाकलंकाचा जन्म झाला बौद्ध दार्शनिकांच्या बरोबर त्यांनी बऱ्याच वेला चर्चा करुन शेवटी अनेकांत विजय ची पताका फडकविलेली दिसते याविषयीची माहिती आपणाला कथाकोश ग्रंथात व राजवलीकथेनुसार मिलते एवढेच नव्हेतर, त्यांच्या विद्वत्तची प्रशंसा अनेक शिलालेखातून व विविध ग्रंथकारांच्या ग्रंथातून मिलते । आ० भट्टाकलंकांच्या जीवनाविषयीची निश्चित माहिती आपणाला मिलू शकत नाही जी माहिती उपलब्ध आहे त्या माहितीनुसार ते 'लघुहब्व' राजाचे पुत्र असून, आजन्म ब्रह्मचारी असलेला दिसतात त्यांच्या एका भावाचे नाव निकलंक असल्याचे सांगितले आहे. ज्ञानप्राप्तीसाठी अकलक व निकलंक या श्री आनन्द जन् श्री आनन्द फ्र ग्रन्थ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMARDASARAMINISssamriddainautaJABANAANImaanaananua ARNATAJATAIAINIAMJANABAJAAIMEJAADru आचार्यप्रवभिनय अनाजाचाव अभिनि श्रीआनन्दपाश्रीआनन्द अन्य २१२ इतिहास और संस्कृति दोघा भावांनी परदेशगमन केल्याची व खूप कष्ट सोसल्याची माहिती कथाकोशात व इतर काही ग्रंथातून मिलते। आ० भट्टाकलंकांचे स्मरण अनेक ग्रंथकारांनी त्यांच्या ग्रंथातून केलेले दिसते. महाकवि वादिराजसूरीने पार्श्वनाथचरितात, त्यांचा उल्लेख केला असून, पांडवपुराण व महापुराण या ग्रंथातूनही त्यांचा उल्लेख आढलतो. त्यांना अनेक विद्वानांनी विविध विशेषणांनी देखील विभूषित केले. आहे महाकवि वादिराजाने 'ताकिकलोक मस्तकमणि,' प्रभाचंद्राने 'इतरमतावलम्बीवादिरूप', लघुसमंतभद्रांनी 'सकलताकिकचूडामणिमारीचिमेचकितचरणनखकिरणो भगवान भट्टाकलंकदेवः' देवसुरिंनी 'प्रकटिततीर्थान्तरीम कलङ्कोऽकलङ्गः' मर पध्नप्रभमलधारिदेवाने 'तर्काब्जार्क' (तर्करूपी कमलांना विकसित करणारे सूर्य) या विविध विशेषणांनी भूषविले आहे. या त्यांच्या विविध उल्लेखावरूनचते किती गाढे विद्वान असतील याची आपणाल सहज कल्पना येते. अर्थात त्यांनी आपल्या सर्व न्यायग्रंथातून स्वमताचे प्रतिपादन व परमताचे व्यवास्थितरीत्या खंडन केलेले दिसून येते. आ० भट्टाकलंक यांची अगाध विद्वत्ता, तार्किकता, तथा लेखन शैली इत्यादि विषयी माहिती करुन ध्यावयाची असेलतर त्यांच्चा साहित्यरूपी गंगोत्रीत स्नान करणे तथा निमग्न होणे अत्यावश्यक आहे. त्यांचे लेखन गद्य असो वा पद्य असो ते सूत्रांच्यामाणे अतिसंक्षिप्त असून गहन व अर्थबहुलतेने युक्त आहे. स्वतःहाच्या ग्रंथावर त्योनी स्वत:च भाष्य लिहिले आहे. आ० भट्टाकलंक यांच्या साहित्यावर टीका लिहिणारे स्याद्वादपति विद्यानन्दी व अनंतवीर्य हे दोन महान आचार्य होऊन गेले।। आ० भट्टाकलंक यानी भाष्य आणि स्वतन्त्र ग्रंथरचना अशा दोन प्रकारे आपले साहित्य लिहिले आहे. भाष्या मध्ये तत्त्वार्थराजवातिक व अष्टशती हे दोन प्रमुख ग्रंथ होत त्याशिवाय लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह, स्वरूपसंबोधन, वहतत्रय, न्यायचूलिका, अकलंकस्त्रोत्र, अकलंक प्रायश्चित, व अकलंकप्रतिष्ठापाठ इत्यादी त्यांची स्वतन्त्र ग्रंथरचना आहे अर्थात यातील काही ग्रंथ अद्याप उपलब्ध झालेले नाहीत. मात्र त्यांचीही महानग्रंथरचना इतर साहित्यकाराना अत्यंत उपयोगी पडली याची प्रचीती वरचेवर येतें प्रस्तुत ठिकाणी आ० भट्राकलक यांच्या 'तत्त्वार्थराजवातिक' या महान व प्रसिद्ध ग्रंथांचा थोडक्यान परिचय करुन देण्याचा प्रयत्न केला आहे। 'तत्वार्थराजवातिक' ही उमास्वातींनी लिहिलेल्या तत्वार्थसत्रावरील टीका आहे या ग्रंथातील महानता व गंभीरता या दोन गुणामुले या ग्रंथाला 'तत्वार्थराज' या आदरणीय नावाने संबोधिले आहे उमास्वातींचा 'तत्वार्थसत्र' हा ग्रन्थ १० अध्यायात विभागला असून राजवतिकात देखील तो दहा अध्यायात विभागला आहे या ग्रन्थाची शैली अतिप्रौढ आणि गहन अशी आहे या ग्रंथाद्वारे आ० अकलंक दार्शनिक, सैद्धातिक, व महाव्याकरणकार या तीन स्वरूपात प्रकट झालेले आहेत त्यांचे सर्वांगीण पांडित्य मात्र ग्रंथावरून प्रकट झालेले दिसते या ग्रंथाची विशेषता म्हणजे जैनदर्शनाचा प्राण असलेल्या अनेकांतवादाला या ग्रंथात अधिक व्यापक स्वरूप दिले आहे जैनेतर सर्व वादांचे निराकरण प्रस्तुत ग्रंथात कोले आहे त्यांच्या प्रत्येक सूत्राच्या कारकानशैलीतून दार्शनिक दृष्टिकोन प्रकट झालेला दिसतो मा अथातील प्रथम अध्यायात सांख्य, वैशेषिक आणि बौद्ध यांच्या मोक्षाचे विवेचन केले असून, दुसऱ्या अध्यायाच्या दरम्यान Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्यातील काही प्रमुख आचार्य व त्यांचे प्रमुख ग्रन्थ २१३ शरीरांचे तुलनात्मक विवेचन केले आहे । तिस-या अध्यायात अधोलोक, मध्यलोक यांचे विस्तृत विवेचन केले असून च्यौथ्या अध्यायाच्या दरम्यान स्वर्गलोकाचे पूर्ण विवेचन केले आहे पाचव्या अध्यायात षट्द्रव्यांचे विवेचन केले असून, सहाव्या अध्यायात विविध कर्माच आश्रव व त्यांचा परिणाम सांगितला आहे सातव्या अध्यायात जैनगृहस्थीचा आचार कथन केला असून, आठव्या अध्यायात कर्मसिद्धांत मांडला आहे ६ व्या अध्यायात जैनमुनिआचार कथन केला असून १० का अध्यायात मोक्षाचे विवेचना केले आहे । अन्य मतांच्या विवेचनासाठी पतंजलीचे महाभाष्य, वैशेषिक सूत्र, न्यायसूत्र, वसुबंधुचा अभिधर्मकोश इत्यादि ग्रंथातील उद्धरणे उधृत केली आहेत । खरोखर आ० अकलंकांच्या महान साहित्य कृतींचे अंतरंग डोकावून पाहिलेतर त्यांच्या असामान्य व्यक्तित्वाची छाप आपल्या मनावर सहज पडते ते तर्कप्रधान व विचारप्रधान असे महान विद्वान असून स्वतः अल्पभाषी व सतत विचार जागृती बालगणारे महान आचार्य होऊन गेले । आचार्य नेमिचंद्र व गोम्मटसार आचार्य नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती हे वि० संवत १९ व्या शतकात होऊन गेले, जैन सिद्धांत साहित्याचे ते एक महान पंडित होते । त्यांना 'सिद्धांत चक्रवर्ती' ही महान पदवी प्राप्त झाली होती । ते नंदिसंघ देशीय गाणचे आचार्य असून राजा श्री राजमल्लदेव, चामुंडराय, श्री राजाभोज यांचे गुरु होते । यावरूनच ते गंगवंशीम राजा मारसिंह व चामुंडराय यांच्चा कालात होऊन गेले असावेत | गंगवंशीयांचा राज्यकाल म्हणजे जैनधर्माच्या दृष्टीने तो एक सुवर्णकाल मानला जातो । कारण जैन धर्माला या गंगवंशीय राजांनी बराच राजाश्रम दिन होता । नेमिचंद्रांच्चा विद्वत्तेला अशा राजांची साथ मिलाली असेल हे सहजशक्य आहे । ते एक चतुर विद्वान व सिद्धांत साहित्यातील प्रकांड पंडित होऊन गले । ते स्वतःहविषयी लिहितात जइ चक्केण य चक्की छह खंड साहियं अविग्घेण । तह मइचक्केण मया छह खंड साहियं सम्मं ॥ ३६७ (गो० क० ) अर्थात 'ज्याप्रमाणे चक्रवर्ती सम्राट आपल्या चक्ररूपी अस्त्राने भरताच्या सहा खंडांना स्ववश करतो, त्याप्रमाणे मी ( नेमिचंद्राने ) आपल्या बुद्धिरूपी चक्राने आद्य सिद्धांत साहित्याचे सहा खंड म्हणजे षट- खंड - आगमाची साधना केली ।' ०नेमिचंद्राच्चा गुरु-शिष्य परंपरेविषयी आपणाला त्यांच्या 'त्रिलोकसार' ग्रंथातून माहिती मिलते । नेमिचंद्रांनी अभयनंदीलाच आपले परमगुरु मानले असून वीरनंदि, इंद्रनंदि यांना ज्येष्ठबंघूवत् नमस्कार केला आहे । कनकनंदीला देखील त्यांनी आपले गुरु मानले आहे । ही गोष्ट त्यांच्चा कालनिर्णयावरून देखील स्पष्ट होते । आ० नेमिचंद्राचा काल साधारणपणे ११ व्या शतकाच्या पूर्वार्धातच मानला आहे । आ० नेमिचंद्रांनी राजा मारसिंह व चामुंडराय या महान भक्तांच्यावर अनुग्रह करण्यासाठीच ग्रंथरचना केली आहे । एवढेच नव्हे तर चामुंडराय राजाच्या निमित्तानेच त्यांनी 'गोम्मटसार' या प्रसिद्ध ग्रंथाची रचना केली आहे । ॐo CURRICU 30 श्रीआनन्द आम दें- आआनन्द अन अभि Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ وعقعقعة مع مرمت ورد ورود به معترفع وتمتعهعهعهعععاع عقد من معه مو مریمرغيفقعوا دردی کے مرهقرعید معرفیع عرقعا २१४ इतिहास और संस्कृति आ० नेमिचंद्र सिद्धांतिदेव व आ० नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवती हे दोन्ही आचार्य भिन्न भिन्न असावेत की एकच असावेत याविषयी विद्वानांच्यात अजन मतभेद आहेत .आ० नेमिचंद्र सिद्धांतिदेव यांनी 'बहद द्रव्यसंग्रह' या ग्रंथाची रचना केल्याचे मानले जाते तर, आ० सिद्धांत चक्रवर्ती नेमिचंद्रांनी 'गोम्मटसार' ग्रंथाची रचना केल्याचे मानले आहे । या दोन्ही आचार्याची माहिती आपणाला पं० जुगलकिशोर मुख्तार यांच्या पुरातन वाक्य सूची मध्ये, बृहदद्रव्यसंग्रह लेखक अजितकुमार जैन यांच्या प्रस्तावनेत, सन्मतिज्ञानप्रसारक मंडल सोलापूर संपादित द्रव्यसंग्रह, व भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' इत्यादि ग्रंथातून पाहावयास मिलते । आगदी आलिकडे प्रसिद्ध झालेतया जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ग्रंथात हे दोन्ही ग्रंथ एकाच नेमिचंद्र आचार्याचे मानले आहेत (प्र० खंड पृ० नं०६२३) । या दोन ग्रंथकर्त्या विषयी विशेष सखोल विचार करणे येथे शक्य नाही। आ० नेमिचद्रांनी विपुल ग्रंथरचना केली नसलीतरी, जी ग्रंथरचना केली आहे ती अत्यंत महत्वपूर्ण आहे । त्यांच्या ग्रंथाच्या शैलीविरुनच त्यांची अगाध विद्वत्ता सहजपणे आपणाला दिसून येते। जैन सिद्धांतशास्त्रावर गाढ प्रभुत्व असलेते नेमिचंद्राचार्यासारखे आचार्य अगदी अल्पच दिसून येतात । सिद्धांतशास्त्रावर त्यांनी आपली रचना अगदी अधिकार वाणीने केली आहे । त्यांची ग्रंथरचना पुढीलप्रमाणे मानण्यात आली आहे । १. गोम्मटसार २. लब्धिसार ३. क्षपणसार ४. त्रिलोकसार इ। प्रस्तुत ठिकाणी आ० नेमिचंद्रांच्या 'गोम्मटसार' या प्रसिद्ध ग्रंथाविषयी संक्षिप्त व महत्वपूर्ण माहिती देण्याचा प्रयत्न केला आहे। गोम्मटसार' या ग्रंथनिर्मितीविषयी एक कथा सांगितली जाते। आचार्य श्री सिद्धांत चक्रवर्ती एकदा सिद्धांत ग्रंथाचा स्वाध्याय करीत असताना, चामुडराय यांनी पाहिले । व त्यांच्या दर्शनास गेले तेव्हा आचार्यश्रीनी चटकन शास्त्रवाचन बंद केले । चामुंडरायांनी कारण विचारताय ते म्हणाले, 'श्रावकांनी सिद्धांत ग्रंथ वाचू नयेत । असे शास्त्र आहे । त्यातील गूढाशयाचे नीट आकलन न झाल्यास काही विपरीत घटना घडण्याची शक्यता असते ।' पण तत्वजिज्ञासू चामुंडरायाने पुनःपुनः विनवणी केल्यावर, त्यांनी श्रावकांच्या स्वाध्यायाला योग्य होईल अशा त-हेने 'पंचसंग्रह' या ग्रंथाची रचना केली । नेमिचंद्रांनी आपल्या या तत्त्वजिज्ञासू व महान धर्मप्रभावक शिषयाच्या गौरवार्थ या ग्रंथाला 'गोम्मटसार' असे नाव दिले ।' शिवाय ग्रंथकर्ता गोम्मटदेवतेचे भक्त होते आणि गोम्मट राजा आचार्या चा भक्त होता । 'गोम्मटसार' ग्रंथाचे जीवकांड व कर्मकांड असे दोन विभाग आहेत । सिद्धांतशास्त्रातील विस्तृत विषयांचे विवेचन या ग्रंथात संक्षिप्त रूपाने घेतले आहे । महाकर्मप्राभूत सिद्धांतातील जीवट्ठाण, खुद्दाबध, बंधस्वामी, वेदनाखंड, वर्गणाखंड, या पाच महान सिद्धांत शास्त्रातील विषयांचे संक्षिप्त संकलन या 'गोम्मटसार' ग्रंथात केले आहे । यामुलेच या ग्रंथाचे दुसरे नाव 'पचसंग्रह' असेही दिले आहे। 'गोम्मटसार' ग्रंथातील जीवकांडात संसारी जीवांच्या कर्माच्या कमी अधिक आवरणाप्रमाणे होणा-या विविध अवस्थांचे वर्णन केले आहे । गति, जाति, पर्याप्ति, कषाय, लेश्या, वेद इत्यादि चौदा मार्गणाद्वारे कर्माधीन जीवांच्या विविध उच्च नीच अवस्थांचे वर्णन या भागात केले आहे । 'कर्मकांड' विभागात अष्ट प्रकारची कर्म, कर्माचे स्वरूप, कर्माचा स्थितिकाल, कर्माची फलदायक GION MPA Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्यातील काही प्रमुख आचार्य व त्यांचे प्रमुख ग्रन्थ २१५ शक्ती, कर्मपरमाणूची संख्या इ० जडकर्माच्या अवस्थांचे वर्णन केले आहे । थोडक्यात या ग्रंथात जीवा - त्म्याचे मूलस्वरूप, या जीवात्म्याच्या कर्मजन्य विविध संसारी अवस्था, जीवात्म्याचे अंतिम ध्येय, त्या ध्येयमार्गात येणारे भावकर्मरूपी अनेक अडथले, ते कसे टालावेत यांचे मार्गदर्शन अत्यंत व्यवस्थितरीत्या केले आहे । हा ग्रंथ अत्यंत उपयोगी असून नित्य स्वाध्याय करण्यास योग्य आहे । या ग्रंथावर चार टीका लिहिल्या गेल्या आहेत । १. चामुंडरायकृत पंजिकास्वरूप कन्नड भाषेतील टीका । २. अभयचद्र सैद्धांतीकृत टीका ३. केशववर्णीकृत कन्नड टीका ४. ज्ञानभूषण नेमिचंद्राचार्याकृत जीवतत्त्वप्रदीपिका । सिद्धातशास्त्राचे निरूपण करणारे आ० नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती एक महान आचार्य होऊन गेले । त्यांनी 'गोम्मटसार' सारख्या ग्रंथाची रचना करून मुमुर लोकावर महान उपकार केले आहेत । आ० हेमचंद्र व सिद्धहेमशब्दानुशासन आ० हेमचंद्र ११ व्या शतकातील एक महान विद्वान होऊन गेले । ते श्वेतांबर परंपरेतील एक अनन्यसाधारण विद्वान मानले जातात । त्यांना तत्कालीन 'ज्ञानदीप' असे मानले जाते । भारतीय जैनसाहित्याच्या प्रांगणात सर्वश्रेष्ठ विभूतींच्या मध्ये आ० हेमचंद्र ही एक दिव्य, अलौकिक व महान विभूती होऊन गेली । त्यांची महान बुद्धी, अलौकिक प्रतिभा, गंभीर ज्ञान या गोष्टींच्याविषयी अनुमान करणे, सर्वसाधारण माणसाला अत्यंत कठीण आहे । त्यांनी आपल्या महान मंगलमय ग्रंथरचनेने विद्वानांन मोहवून टाकले आहे । भ० महावीर स्वामींच्या गूढ सिद्धांताचे स्पष्टीकरण सर्वसामान्यासाठी सुलभ करुन देण्याचे महान कार्य त्यांनी केले | आ० हेमचंद्रांचा जन्म गुजराथमधील धुंधका गावी सन १०८८ मध्ये झाला । त्यांच्या पित्याचे नाव चाचादेव व मातेचे नाव पाहिनीदेवी होते । ते जातीने मोढ महाजन असून त्यांचे जन्मनाव चंगदेव असे होते । बालवयातच त्यांची चाणाक्ष बुद्धि पाहून देवेंद्रसूरिंनी त्यांना जैनधर्माची दीक्षा दिले | देवेंद्रमूरच्या सानिध्यात असतानाच त्यांनी तत्त्वज्ञान, न्याय, काव्य, तर्क, लक्षण व आगम साहित्य याचे सखोल ज्ञान मिलविले । सरस्वती आणि लक्ष्मी एकाच ठिकाणी नांदू शकत नाहीत असे म्हणतात, परंतु हेमचंद्राच्या बाबतीत हे विपरीत घडल्याचे दिसते । त्यांच्या जिव्हेवर तर सरस्वती जणू नाचत होती; आणि शिवाय तिल लक्ष्मीची साथ म्हणून की काय त्यांना चालुक्यवंशी सिद्धराज जयसिंहाचा राजाश्रय मिलाला होता राजा जयसिंहाला व्याकरणाची फार आवड होती । राजाने हेमचंद्रांना व्याकरण लिहित्याविशयी विनती केली । हेमचंद्रांनी एका महान व्याकरण ग्रंथाची रचना केली । ती पाहून राजाला अत्यानंद झाला । हेमचंद्राच्या उपदेशावरून राजाच्या मनात जैनधर्माविषयी प्रीती उत्पन्न झाली व त्याने त्याच नगरात विशाल जिनमंदिरे उभारली । त्याने आ० हेमचंद्रांना आपले राजगुरु, धर्म-गुरु व दीक्षागुरु मानले । व जैनधर्मतत्त्वांच्या प्रसाराला सुरुवात केले । आ० हेमचंद्रांची ग्रंथरचना विशाल आणि समृद्ध आहे । त्यांनी आपल्या प्रतिमेचे वैभव दाखविले नाही असा साहित्याचा एकही विभाग आपणाला दाखविता येणार नाही । न्याय, व्याकरण, काव्य, कोश, छंद, रस, अलंकार नीती, योग, मंत्र, कथा, चरित्र इ० लौककि, अध्यात्मिक दार्शनिक इ० विविध विष आर्य श्री आनन्द आचार्य प्रव26 ग्रन्थ JO LUNDLE ग्रन्थ Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ansaniniaww anmaaniwwAMANANJAANABAJapadaanadaarewHIANASAAMARIAAAAAAAMANABAAAAAIAIMJABARABANASABArsatanAmABADABABA आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवभिला श्रीआनन्द अन्यश्राआनन्दाअन्श2 Www.niwwmom wriNAVIN इतिहास और संस्कृति . यांवर हेमचंद्रांचे ज्ञानाने परिपूर्ण असे महान ग्रंथ आहेत । त्यांनी आपल्या बहुमोल जीवनात साढ़े तीन कोटी श्लोकांची रचना केली असल्याचे मानले जाते । त्यांची विविध ग्रंथरचना पुढीलप्रमाणे आहे। १. सिद्धहेमशब्दानुशासन । २. द्वयाश्रय महाकाव्य । ३. अभिधान चिंतामणि, अनेकार्थसंग्रह, देशीनाममाला, निघंटुशेष (कोष साहित्य), ४. काव्यानुशासन, ५. छंदोनुशासन ६. प्रमाणमीमांसा, अन्ययोगव्यवच्छेदिका, अयोगव्यवच्छेदिका (न्यायाविषयक) ७. योगशास्त्र (शास्त्रविययक), ८. वीतरागस्त्रोत्र ६. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र (चरित्र साहित्य) इ। आ० हेमचंद्राच्या सर्व ग्रंथांची माहिती देणे शक्य में । येथे फक्त त्यांच्या 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' या व्याकरण ग्रंथाची संक्षिप्त माहिती देण्यात येत आहे आ० हेमचंद्र एकदा विहार करीत असताना, अणहिल्लपुर पाटण नगरात येऊन पोहचले । तेथे चालुक्यवंशी सिद्धराज जयसिंह राजाचा त्यांना राजाश्रम मिलाला। या राजाला व्याकरणाची फार आवड होती । व या राजाच्या विनंतीनुसारच आ० हेमचंद्र यांनी 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' या महान व्याकरण ग्रंथाची रचना केली । ती पाहून राजाला अत्यानंद झाला मा व्यावरण ग्रंथाची हत्तीवरून मिखणक काढली व पुढे त्याच राजाच्या मनात जैनधर्माविषयी श्रद्धा उत्पन्न झाले। 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' या व्याकरण ग्रंथात एकूण ८ अध्याय असून त्यातील पहिले ७ अध्याय संस्कृत भाषेच्या व्याकरणाविषयी आहेत । शेवटचा अध्याय प्राकृत भाषेच्या व्याकरणाबाबत आहे या अध्यायात हेमचंद्रांनी महाराष्ट्री, शौरसेनी, पैशाची, चूलिका पेंशाची, अपभ्रंश या भाषांच्या व्याकरणाची माहिती दिली आहे। त्यांचे व्याकरण विस्तृत व प्रमाणभूत आहे। आठव्या अध्यायाचे त्यांनी चार पाद केले असन चौल पादात अपभ्रंश भाषेची लक्षणे सांगितली आहेत । खरोखरच 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' हा व्याकरण ग्रंथ अत्यंत महत्वपूर्ण असून, हेमचंद्रांच्या उत्तरावर्ती व्याकरणकारांना तो अत्यंत उपयोगी पडला अनेक ग्रंथातुन प्रस्तुत ग्रंथाचा उल्लेख कलेला आपणाला दिसून येतो। आ० हेमचंद्रांची लेखणी जैनसाहित्याच्या प्रत्येक साहित्याशी निगडति आहे। त्यांचे दूरदर्शिता व व्यवहारदक्षता इ० गुण पाहूनच विद्वानांनी त्यांना 'कलिकालसर्वज्ञ' या उपाधीने विभषित, केले आहे। तर पीटर्सन सारख्या पाश्चात्य विद्वानांनी त्यांना "Ocean of knowledge" अर्थात 'ज्ञानमहासागर' या सार्थ उपाधीने भूषविले आहे । आ । हेमचंद्रांची विषय वर्णन शैली सुस्पष्ट, प्रसादगुणांनी युक्त व हृदयस्पर्शी आहे । वाचकांना आपल्या ग्रंथरचनेतील शैलीने मंत्रमुग्ध करून टाकण्याची एक वेगलीच कला आहे। त्यांच्या प्रकांड पांडित्यामुलेच त्यांचे तत्कालीन विद्वानात अत्यंत मानाचे स्थान होते। साधारणपणे महान प्रतापी राजा विक्रमादित्याच्या राजदरबारात महाकवी कालिदासाचे, गुणज्ञ राजा हर्षाच्या शासन कालात जे स्थान लेखक पंडित प्रवर बाणभट्टाचे, स्थान होते तसेच राजा सिद्धराज जयसिंहाच्या राजदरबारात आ० हेमचंद्राचे स्थान होते । अर्थात यावरूनच आ० हेमचंद्र हे सर्वकलागणसंपन्न एक महान आचार्य होऊन गेले हे स्पष्ट होते। 'जैन साहित्यातील काही प्रमुख आचार्य व त्यांचे प्रमुख ग्रंथ' या नावाखाली लिहिलेल्या या लेखामध्ये उल्लेखिलेले, आ० उमास्वाति, आ । हरिभद्रसूर, आ० भट्टाकलंक, आ० नेमिचंद्र व आ हेमचंद्र या पाचही आचार्यांचे जैनधर्मात अतिशय महत्त्वपूर्ण व उच्च असे स्थान आहे। या महान आचार्यानी च्या शाजदरबारन गेले Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । जैन साहित्यातील काही प्रमुख आचार्य व त्यांचे प्रमुख ग्रन्थ २१७ अत्यंत प्रभावशाली अशी ग्रंथरचना करून जैनसाहित्याला समृद्ध केले आहे । या आचार्यांच्या ग्रंथरचनेला विशेष म्हणजे दिगबर-श्वेतांबर या दोन्ही संप्रदायांची मान्यता आहे। थोड़ा फार फरक असेल तर तो दुर्लक्ष करण्यासारखा आहे । जैन साहित्यातील आचार्य परंपरा महान आहे। अनेक आचार्यांनी जैन धर्म वृद्धीसाठी आपले सर्वस्व जीवन झिजविले आहे। आणि त्यांचेच अनंत उपकार म्हणूनच की काय आजचा जैनधर्म विषयाचा अभ्यास करणारा अभ्यासू त्यांच्या ग्रंथरूपी गंगोत्री मध्ये स्वछंदपणे डुबत अस ना दिसतो आहे। संक्षिप्त स्वरूपात माहिती दिलेल्या बरील पाच जैनाचार्या पैकी आ०. उमास्वाती हे जैनसिद्धांत शास्त्रात, आ० हरिभद्रसूरि जैन दार्शनिक शास्त्रात, आ० भट्टाकलंक जैन न्यायशास्त्रात, आ० नेमिचंद्र जैनभूगोल व सिद्धांतशास्त्रात, तर आ० हेमचंद्र व्याकरण, न्याय इ० साहित्यातील सर्व क्षेत्रात निपुण होते । या सर्व आचार्यांची ग्रंथरचना म्हणजे जैनसाहित्यातील महान संपत्तीच होय । या ग्रंथ आजच्या विद्वानांनी चिकित्सक रसिकतेने अवलोकन करून, त्यांचे विचार पारखून व समजाऊन घेऊन ते नव्या तुलनात्मक दृष्टिने पुनः समाजपुढे ठेवणे अत्यावश्यक आहे। त्यामुले जैन समाजाच्या सांस्कृतिक व धार्मिक उन्नतीचा मुख्य हेतू सफल होण्यास बरीचशी मदत होईल, अशी शुभेच्छा व्यक्त करण्यास काहीच हरकत नाही। संदर्भ ग्रंथाची यादी १. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश-पं० जुगलकिशोर मुख्तार। . .. २. प्राकृत साहित्य का इतिहास-जगदीशचंद्र जैन । ३. जैन लक्षणावली-सं० बालचद्र सिद्धांतशास्त्री (प्रथमभाग) ४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन प्रथम भाग। ५. जैनधर्म-जीवराज जैन ग्रंथमाला सोलपूर । ६. जैन साहित्य और इतिहास-नाथूराम प्रेमी। ७. तत्वार्थसूत्र-पं सुखलालजी। ८. समदशी आचार्य हरिभद्र-प्र० राजस्थानी पुरातन ग्रंथमाला। ६. न्यायकुमुदचंद्र-पं० महेद्रकुमार न्यायशास्त्री । १०. गोम्मटसार-प्र० श्रीमद् राजचंद्र जैन शास्त्रमाला । ११. द्रव्यसंग्रह-जीवराज जैन ग्रंथमाला सोलापूर । १२. अपभ्रंश साहित्य-पं० गुलेरी शर्मा । १३. सिद्धहेमानुशासन-प्यारचदंजी । ADMAASALAAAA A AAAAAAAAAAAAADAmrawasana w AGARMASALAIJAanarasRNAMANABAJARAJEmadarsaiduowwe आचार्यप्रवास श्रीआनन्थ मायामप्रकारतराज श्राआनन्द-न्य M womenimammmmamyammmmmmmmmmmindianmmmmmmmarwarimmmmmmmmmm Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ camwaANJanvarAAAAM NERALAMAAJMetuper आगप्रवर आमाआनन्द अन्य आचार्यप्रवरात्रिन आचार्गप्रय अभय mariawwwr -MAR D श्री कुन्दन ऋषि [संस्कृत प्राकृत के अभ्यासी आचार्य प्रवर के अन्तेवासी] ऋषि सम्प्रदाय के पाँच सौ वर्ष श्रमण भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात करीब एक हजार वर्ष तक संघ व्यवस्था सुव्यवस्थित रीति से चलती रही। इसके बाद तात्विक सिद्धान्तों में एकरूपता रहने पर भी आचारिक दृष्टि से अनेक प्रकार की विभिन्नताएँ आ गई। इन्हीं आचार-क्रियाओं के मतभेद को लेकर अनेक गच्छ बन गये और उनमें भी धीरे-धीरे शिथिलता फैलती गई। श्रमण वर्ग में चैत्यवाद का व्यापक प्रसार हो गया। मठों की तरह साधु जन उपाश्रय बना कर रहने लगे। ज्योतिष, गणित, मन्त्र-तन्त्र का भी आश्रय लेकर यश-प्रतिष्ठा प्राप्त करने का प्रयत्न होने लगा। साधुओं ने छड़ी, पालकी आदि बाह्य वैभव को अपनाने के साथ-साथ अपने को 'यति' कहना प्रारम्भ कर दिया। सारांश यह है कि वेशतः साधु रहने पर भी श्रवण वर्ग में आचारिक शिथिलता आने के साथ-साथ वैचारिक दृष्टिकोण बदल गया और कनककामिनी का त्यागी वर्ग भी किसी न किसी रूप में लक्ष्मी का उपासक बन गया। भगवान महावीर के निर्वाण के बाद लगभग एक हजार वर्ष का यह मध्य काल जैन शासन के इतिहास में काफी धुंधला है। इस काल में श्रमण संघ का विकास अवरुद्ध तो हुआ ही साथ ही वह अवनति की ओर भी जा रहा था। इसी समय में धर्मप्राण क्रान्तिकारी लोकाशाह का जन्म हुआ। बाल्यकाल से आप प्रतिभाशाली और मेधावी थे। पन्द्रह वर्ष की आयु में शास्त्रों के अध्ययन में अच्छी प्रवीणता प्राप्त कर ली और जैसे-जैसे शास्त्रों की गहराई में उतरे तो स्पष्ट होने लगा कि शास्रोक्त साधु-आचार और प्रचलित यति-आचार में कोई तालमेल ही नहीं है। आकाश-पाताल जैसा अन्तर है। धार्मिक क्षेत्र की इस बिरूपता को देखकर लोंकाशाह के मन में एक संकल्प जाग्रत हुआ कि हमारे श्रमण वर्ग की यह वर्तमान स्थिति महावीर शासन को मलिन बना रही है। यदि इसका परिमार्जन नहीं किया गया तो भविष्य में जैनत्व का नामशेष ही रह जायेगा। जनसाधारण तो धार्मिक भावनाओं से विमुख हो ही रहा है और हमारा पूज्य श्रमण वर्ग भी अपने पद के अनुकूल नहीं रहा तो जैन धर्म, दर्शन-संस्कृति और साहित्य के जानकार भी नहीं रहेंगे। इस स्थिति से छुटकारा पाने का एक ही उपाय है कि आगमोक्त सिद्धान्तों से जनता को परिचित करवाया जाये। ह Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषि सम्प्रदाय के पांच सौ वर्ष २१६ इस संकल्प को कार्यान्वित करने के लिए क्रान्तिदूत लोकाशाह ने आगमोक्त आचार-विचारों का प्रतिपादन करना प्रारम्भ कर दिया। बुद्धिजीवी वर्ग ने आपके कथन पर चिन्तन-मनन किया और धीर-धीरे अनेक व्यक्ति उनके अनुयायी बने। महावीर के शूद्ध संयम मार्ग का जोर-शोर से प्रचार करने लगे । प्रचार के साथ-साथ आपके विरोधियों द्वारा षड़यन्त्रों की परम्परा चालू हो गई, लेकिन अपने आत्मबल, सत्यनिष्ठा के द्वारा सब प्रकार के संकटों का मुकाबला करते हुए आप अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त करने लगे और आपके सदुपदेश से प्रेरित होकर एक साथ ४५ मुमुक्षुजनों ने साधु-दीक्षा अंगीकार करने की इच्छा व्यक्त की एवं आपके परामर्शानुसार श्री ज्ञान ऋषि जी महाराज के पास दीक्षा ली। बाद में इन ४५ महात्माओं ने अपने उपकारक महापुरुष के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करने के लिए अपने गच्छ का नाम लोंकागच्छ रखा। इन ४५ महापुरुषों से प्रारम्भ हुआ लोकागच्छ दिनों दिन प्रगति करता गया। शुद्धआचारविचारों के समर्थक श्रावक-श्राविकाओं की संख्या-वृद्धि के साथ साधुओं की संख्या में भी आशातीत वृद्धि हुई और करीब ७०-७५ वर्ष के अल्पकाल में ही साधुओं की संख्या ११०० तक पहुँच गई। किन्तु सत्रहवीं शताब्दी के प्रथम चरण के पश्चात् पुनः चारित्रिक शिथिलता के कारण लोंकागच्छ में ह्रास प्रारम्भ हो गया और आपसी फूट भी पड़ गई। इसके कारण पुनः धार्मिक स्थिति श्री लोकाशाह के पूर्व जैसी बन गई और इस स्थिति को सुधारने के लिए पुनः संयमपरायण महापुरुष की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। ऐसे समय में श्री लवजी ऋषि जी महाराज धार्मिक क्षेत्र में एक क्रान्तिकारी के रूप में अवतीर्ण हुए। इन महापुरुष ने अनेक उपसर्गों का सामना करते हुए संयम मार्ग का उद्धार किया। आप श्री ऋषि सम्प्रदाय के आप संस्थापक हैं। उनके द्वारा प्रारम्भ की गई क्रियोद्धार की परम्परा आज तक अबाध गति से चल रही है। पूज्य श्री लवजी ऋषि जी महाराज विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में गुर्जर देशीय लोंकागच्छ के पाट पर श्री बजरंग ऋषि जी महाराज विराजमान थे। सूरत निवासी धार्मिक-आचार विचार सम्पन्न कोट्याधीस श्री वीर जी बोरा आपके परम भक्त और अनुरागी थे। आपके एक सुपुत्री थी। उसका नाम फूलाबाई था। फुलाबाई का विवाह सूरत के ही एक श्रेष्ठि पुत्र से हुआ था, लेकिन दैवयोग से युवावस्था में ही फूलाबाई के पति का देहावसान हो गया। आपके एक होनहार सुपुत्र था । जिसका नाम लवजी था। पति वियोग के पश्चात् फूलाबाई पिता के यहाँ रहने लगीं। माता एवं नाना के धार्मिक संस्कारों का बालक पर पूरा प्रभाव पड़ा । सात वर्ष की उम्र में ही सामायिक, प्रतिक्रमण के पाठों को कठस्थ कर लिया लेकिन इसकी जानकारी किसी को भी नहीं होने दी। किसी एक दिन फूलाबाई बालक लवजी को लेकर श्री बजरंगजी महाराज के दर्शन करने आई और बालक को सामायिक, प्रतिक्रमण आदि की शिक्षा देने की विनती की। बालक लवजी को भी गुरु महाराज के दर्शन करने एवं सामायिक, प्रतिक्रमण के पाठ सीखने की शिक्षा दी। आचाप्रसनभायामप्रसार श्रीआठस्य श्रीआनन् LO wimmommmmmmmanmayanamamarina Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ maaaaaaawaranandaCANKAIADAAAAAAASABAJANADADAJaswantIDABASAKinaaaaaaamaAJANASARABASADACHIKIAASANABALRAJARAMA आचार्यप्रवअभिनय श्राआनन्दान्थ५श्राआनन्द: OK २२० इतिहास और संस्कृति १८ माता की बात सुनकर बालक लवजी ने बताया कि माताजी सामायिक, प्रतिक्रमण तो मुझे याद है। इसको सुनकर और पूरी जानकारी होने पर माता के हर्ष का पार न रहा । श्री बजरंग स्वामी बालक की प्रतिभा, स्मरण शक्ति आदि को देखकर कुलाबाई से बोले कि यह बालक कुशाग्र बुद्धि का है, इसे जैनागमों का अभ्यास कराओ। माता ने इसके लिए अपनी अनुमति प्रदान कर दी। फूलाबाई की प्रार्थना अंगीकार करके श्री बजरंग स्वामी ने बालक लवजी को जैनागमों का अभ्यास कराना प्रारम्भ कर दिया और थोड़े से समय में ही दशवकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, निशीथ, दशाश्रुतस्कन्ध, वृहत्कल्प आदि शास्त्रों का तलस्पर्शी अभ्यास कराया। शास्त्रों के पढ़ने और उनका मर्म समझ लेने से बालक लवजी को संसार से वैराग्य हो गया। गुरुजी भी बालक की इस मनोवृत्ति को समझ गये। वीराजी और फूलाबाई को लवजी की विद्वत्ता की जानकारी हुई तो उन्होंने अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए श्री बजरंग ऋषि जी का बहुत आदर-सत्कार किया। श्री लवजी शास्त्र ज्ञाता थे और तत्कालीन साधु आचार को देखकर बार-बार विचार करते तो हृदय में खेदखिन्न हो जाते थे। साधुसंस्था में व्याप्त शिथिलताचार कैसे दूर हो और पुनः आगमानुकल आचार का प्रसार हो, इसके लिए विचार करते थे। अन्त में इस निश्चय पर पहुंचे कि शिथिलाचारी साधुओं को सुधारने का सर्वोत्तम मार्ग यही है कि मैं स्वयं साधु दीक्षा अंगीकार करके आदर्श उपस्थित करूँ। अपनी भावना को नानाजी व माताजी के सामने रखा। उन्होंने आपको अनेक प्रलोभन दिये, समझाया, परीक्षा ली और अन्त में श्री बीरजी को मानना पड़ा कि अब लवजी को दीक्षा लेने से रोकना ठीक नहीं है। लेकिन इसके साथ यह शर्त रखी कि दीक्षा श्री बजरंग जी के पास लेनी होगी। बीरजी की उक्त शर्त सुनकर श्री लवजी श्री बजरंग ऋषिजी महाराज से मिले और भविष्य के सम्बन्ध में स्पष्टता कर ली कि अगर आपके और मेरे बीच आचार-विचार सम्बन्धी मतभेद नहीं उत्पन्न हुआ और ठीक तरह से आगमानुसार निभाव होता रहा तो आपकी सेवा में रहेंगा अन्यथा दो वर्ष बाद मैं स्वतन्त्र पृथक रूप से विचरण कर सकूँगा। श्री बजरंग ऋषिजी ने इस शर्त को स्वीकार किया। आपने सं० १६६२ में श्री बजरंग ऋषि जी से दीक्षा अंगीकार की। श्री बजरंग ऋषिजी ने आपको शास्त्रों का और अधिक अभ्यास कराया। तत्वज्ञान की प्रौढ़ता के साथ आचार भिन्नता, शिथिलता के प्रति आपकी विरक्ति बढ़ती गई। गुरुदेव से इस शिथिलता को दूर करने के लिए निवेदन किया, किन्तु वे अपनी वृद्धावस्था के कारण इसके लिए कुछ कर सकने में उदासीन ही रहे और श्री लवजी ऋषिजी को क्रियोद्धार करने की आज्ञा दी। . गुरुदेव की आज्ञा पाकर श्री लवजी ऋपिजी अपने साथ श्री थोभण ऋषिजी और श्री भानुऋषि नामक दो सन्तों को लेकर सूरत से खंभात पधारे । प्रतिदिन व्याख्यान होते और जनता में आपकी वाणी का प्रभाव फैलने लगा। खंभात के प्रमुख श्रेष्ठियों, प्रभावशाली व्यक्तियों और अन्य भाई-बहनों ने आपके TOY MPA Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषि सम्प्रदाय के पाँच सौ वर्ष २२१ उपदेशों की प्रशंसा करते हुए धर्म प्रचार में तन, मन, धन से सहयोग देने का निवेदन किया। श्री लवजी ऋषिजी महाराज ने भी उनके भावों को जानकर कहा कि मेरी भावना भी सिद्धान्तानुसार शुद्ध क्रिया के पालन करने की है और आप लोग क्रियोद्धार के कार्य में सहायक हों तो मैं पुनः शुद्ध संयम ग्रहण करके क्रिया का उद्धार करूँ। इसी के लिए मैं गुरुजी से पृथक हुआ हूँ । इस कथन को सभी ने स्वीकार किया। - इसके अनन्तर श्री लवजी ऋषिजी, श्री थोभण ऋषिजी और श्रीभानु ऋषिजी महाराज ठाणा ३ खंभात नगर के बाहर एक बगीचे में पधारे और पूर्व दिशा के सन्मुख खड़े होकर श्री संघ की साक्षी पूर्वक पुनः भागवती दीक्षा अंगीकार की और शास्त्रानुसार आचार पालन करने-कराने का निश्चय किया। खम्भात से विहार कर विभिन्न क्षेत्रों में धर्म के स्वरूप को बतलाते हुए आपने शिथिलाचार के उन्मूलन का कार्य प्रारम्भ कर दिया। इधर यति वर्ग में आपके प्रचार से खलबली मच गई थी। उनके षड्यन्त्रों के फलस्वरूप खम्भात के नवाब द्वारा आपको नजर कैद भी किया गया लेकिन अन्त में धर्म के प्रभाव से आप मुक्त हुए । खम्भात के बाद विहार करते हुए आप अहमदाबाद पधारे । वहाँ भी जिन मार्ग का रहस्य समझाना प्रारम्भ कर दिया, फलस्वरूप अनेक प्रभावशाली व्यक्ति आपके अनुयायी बने । यहीं पर लोकागच्छीय यतिशिवजी ऋषि के शिष्य श्री धर्मसिंह जी महाराज से मिलाप हुआ और वे भी आपके मार्ग को सत्य मानकर क्रियोद्धार के मार्ग में सहयोगी बन गये । र अहमदाबाद से बिहार कर गुजरात, काठियावाड़, मारवाड़, मेवाड, मालवा आदि में धर्म-प्रचार द्वारा भव्य जीवों को बोध देते हुए पुनः गुजरात में पधारे और सूरत में चातुर्मास किया। सूरत के लिए आप अपरिचित नहीं थे । जनता आपसे अत्यन्त प्रभावित हुई। इस चातुर्मास काल में श्री सखिया जी भंसाली को भागवती दीक्षा प्रदान की। अब आप चार ठाणा हो गये थे। चातुर्मास समाप्ति के पश्चात आप पुन: अहमदाबाद पधारे और यहाँ पर २३ वर्षीय सुश्रावक श्री सोमजी को सं० १७१० में भागवती दीक्षा प्रदान की। यहीं पर यतियों के षड्यन्त्र से मुनि श्री भानु ऋषिजी को तलवार से मार डाला गया। इस हत्या का पता भी लग गया लेकिन आपके समझाने से श्रावकों ने हत्या का बदला लेने के लिए राज्याश्रय नहीं लिया। गुजरात काठियावाड़ को स्पर्शते हुए एक बार आप बुरहानपुर पधारे । यहाँ यतियों का काफी जोर था। यतियों के बहकावे में आकर श्रीलवजी ऋषिजी महाराज के अनुयायी श्रावकों को जाति बहिष्कृत करवा दिया । उनका कॅओं से पानी भरना तक बन्द करवा दिया। इस की फरियाद बादशाह तक पहुँच गई और यतियों के सभी प्रकार के षड्यन्त्रों का भण्डाफोड़ हो गया। लेकिन यति अपने कृत्यों से बाज नहीं आ रहे थे । अन्त में ऐसा समय आया कि बुरहानपुर में रंगारिन के हाथ से विषमिश्रित लड्ड को बहराने का षड्यन्त्र रचाकर आप श्री की हत्या कर दी गई। . N पूज्य श्री लवजी ऋषिजी का पार्थिव देह नहीं रहा किन्तु आपने जो क्रान्ति का बीज AAAJABAAdar ananAAAABAJALA MahanAJALAKRAMM ARIAL Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ inAmarrimanawarasa masudevanadawonloadmundaruwaormaniawaariwartainmAsarSANS-Saamanaraatarwaimercad. A आचार्यप्रजिन आचार्यप्रaa आननग्रन्थ vimhwITRAM A MMANCYNANG २२२ इतिहास और संस्कृति बोया वह दिनोंदिन फलता-फूलता ही गया और पाटानुपाट प्रभावक आचार्यों ने जिन शासन की दीप्ति को तेजस्विनी बनाया। पूज्य श्री सोमजी ऋषिजी महाराज आप पूज्य श्री लवजी ऋषिजी महाराज से दीक्षित हुए थे और उनके बाद आप उनके उत्तराधिकारी आचार्य बने । अहमदाबाद में पूज्य श्री धर्मसिंह जी महाराज से आपका समागम हुआ और अनेक शास्त्रीय बातों पर चर्चा हुई। पूज्य श्री धर्मसिंह जी की धारणा थी कि अकाल में आयुष्य नहीं टूटता है तथा श्रावक की सामायिक आठ कोटि से होती है। पूज्य श्री सोमजी ऋषिजी म० का समाधान युक्तिसंगत प्रतीत हुआ और मुनि श्री अमीपालजी और श्रीपालजी, पूज्य श्री धर्मसिंह जी से पृथक होकर पूज्य श्री सोमजी ऋषिजी के शिष्य बन गये। इसके बाद लोंकागच्छ की ही एक शाखा कुंवरजी गच्छ के श्री ऋषि प्रेमजी, बड़े हरजी, छोटे हरजी म० भी पूज्य श्रीधर्मसिंह जी महाराज को छोड़कर पूज्य श्री सोमजी ऋषिजी म० की नेश्राय में विचरने लगे । इधर मारवाड़ के नागौरी लोंकागच्छ के श्री जीवाजी ऋषिजी भी पुनः म अंगीकार कर आपकी आज्ञा में विचरने लगे। इसी प्रकार श्री हरदासजी महाराज भी लाहौर में उत्तराद्ध लोकागच्छ का त्याग करके आपके अनूगामी बने । पूज्य श्री सोमजी ऋषिजी म० के व्यापक प्रचार, प्रभाव का देश के सभी स्थानों पर असर हुआ और अनेक सन्तों ने शुद्ध संयम मार्ग अंगीकार किया एवं बहत से श्रावकों ने भी भागवती दीक्षा अंगीकार की, जिससे शासन प्रभावना को वेग मिला । पूज्य श्री सोमजी ऋषिजी म. २७ वर्ष तक संयम पालन करके ५० वर्ष की आयु में स्वर्गवासी हो गये । आपके बाद पूज्य पदवी कहानजी ऋषिजी म० को प्रदान की गई। पूज्य श्रीसोमजी ऋषिजी प्रभावक सन्त थे। आपका शिष्यत्व अनेक भव्यात्माओं ने स्वीकार किया और अपने-अपने क्षेत्र में विशेष प्रभावशाली होने से कहीं पर सन्तों के नाम से, कहीं क्षेत्र के नाम से वे शाखाएँ जानी पहचानी जाती थीं। जैसे श्री गोधाजी म० की परम्परा, श्री परशराम जी म० की । परम्परा, कोटा सम्प्रदाय, पूज्य श्री हरदास ऋषिजी म० की सम्प्रदाय (पंजाब शाखा) आदि । इन शाखाओं में अनेक प्रभावशाली आचार्य हुए और अपने तपोपूत संयम द्वारा जैन शासन की महान सेवाएँ की और कर रहे हैं। इन सब शाखाओं की विशेष जानकारी विभिन्न सम्प्रदायों के इतिहासों में दी गई है। पूज्यश्री कहान ऋषिजी महाराज आपका जन्म सूरत में हुआ था। स्वभाव से सरल और धार्मिक आचार-विचार वाले थे। आपने सं० १७१३ में सूरत में पूज्य श्री सोमजी ऋषिजी म. से भागवती दोक्षा अंगीकार की। अच्छा ज्ञानाभ्यास किया और पूज्य श्री लवजी ऋषिजी म. के कार्य का व्यापक रूप से विस्तार किया। Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषि सम्प्रदाय के पाँच सौ वर्ष २२३ Rial ४९। गुजरात में धर्म प्रचार करते हुए आप मालवा में पधार गये और आज भी मालवा में ऋषि सम्प्रदाय के सन्त सती पूज्यश्री कहानजी ऋषिजी म० के ही माने जाते हैं। आपके श्री ताराऋषिजी म० श्री रणछोड़ ऋषिजी म० आदि प्रभावक शिष्य थे। आपके देहोत्सर्ग के पश्चात श्री रणछोड़जी ऋषिजी म. और श्री तारा ऋषिजी म. क्रमश: गुजरात, काठियावाड़ में और मालवा में विचरे और दोनों को पूज्य पदवी प्रदान की गई। ऋषि सम्प्रदाय इतनी विस्तृत हो गई थी कि पहचान के लिए भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के नाम पर उनके नाम पड़ गये । इन सभी शाखाओं के पूज्यों और सन्तों ने क्रियोद्धार कर धर्म का खूब उद्योत किया। पूज्यश्री तारा ऋषिजी म० के बाद खम्भात शाखा में क्रमश: श्री मंगल ऋषिजी म., श्री रणछोड़ जी म०, श्री नाथा ऋषिजी म०, श्री बेचरदास जी म०पूज्य पदवी पर आसीन हुए। - इसके बाद श्री माणक ऋषिजी म., श्री हरखचन्द जी म०, श्री भानजी ऋषिजी म०, श्री छगनलाल जी म० आदि पूज्य बने । पूज्य श्री ताराऋषि म. के समय में ऋषि सम्प्रदाय खम्भात और मालवीय शाखा में विभक्त हो गया था। मालवीय शाखा के पूज्य श्री काला ऋषिजी म० हुए । पूज्य श्री काला ऋषिजी म. के मालवा क्षेत्र में विहार होने से अनेक मुमुक्षओं ने संयम ग्रहण किया और उनमें से अनेक ज्ञानी ध्यानी प्रभावक सन्त रहे हैं। मालवीय शाखा का विहार क्षेत्र मालवा, मेवाड़, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश के अनेक गाँव और नगर रहे हैं। मालवीय शाखा में अनेक विद्वान संत हुए हैं। जिनमें से कुछ एक नाम इस प्रकार हैं--पूज्य श्री वक्षुऋषिजी म०, श्री पृथ्वी ऋषिजी म०, श्री सोमजी ऋषिजी म०, श्री भीमजी ऋषिजी म०, तपस्वी श्री कुंवर ऋषिजी म०, श्री टेकाऋषिजी म., श्री हरखाऋषिजी म०, श्री कालू ऋषिजी म०, श्री रामऋषिजी म०, श्री मिश्री ऋषिजी म०, श्री जसवन्त ऋषिजी म०, श्री चम्पक ऋषिजी म०, श्री हीरा ऋषिजी म०, श्री भैरव ऋषिजी म०, श्री दौलत ऋषिजी म० (छोटे), श्री सुखाऋषिजी म०, श्री अमीऋषिजी म०, श्री रमाऋषिजी म., श्री रामऋषिजी म०, श्री ओंकार ऋषिजी म., श्री धोगाऋषिजी म०, श्री देवऋषिजी म०, श्री माणक ऋषिजी म. आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। उन सबका यहाँ परिचय देना सम्भव नहीं होने से कतिपय प्रमुख यशस्वी सन्तों का यहाँ परिचय देते हैं। पं० रत्न श्री अमीऋषिजी महाराज आपका जन्म सं० १९३० में दलौद (मालवा) में हुआ था। पिता श्री का नाम श्री भेरूलालजी और मातु श्री का नाम प्याराबाई था। मगसिर कृष्णा ३ सं० १९४३ को श्री सुखाऋषिजी म. के पास मगरदा (भोपाल) में आपने भागवती दीक्षा अंगीकार की थी। आपकी बुद्धि और धारणाशक्ति अत्यन्त तीव्र थी। शास्त्रों के अच्छे ज्ञाता थे । शास्त्रीय और दार्शनिक चर्चा में आपको विशेष रुचि थी । आप जितने तत्वज्ञ थे उतने ही सुयोग्य लेखक भी थे। आप द्वारा २३ ग्रन्थ रचे गये जो आपकी विद्वता की स्पष्ट झलक बतलाते हैं। आपकी काव्य शैली अनूठी थी। साहित्यिक दृष्टि से आपने अनेक चित्र-काव्यों आचार्यप्रवरब अभिभाचार्यप्रवर आमा Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्द आआनंदाही आमदनी आमा भ २२४ इतिहास और संस्कृति की रचना की है जिनमें से अनेक ग्रन्थ श्री अमोल जैन ज्ञानालय धूलिया से प्रकाशित भी हो चुके हैं । कुंजर आपकी बड़ी ही सुन्दर रचना है । मालवा, मेवाड़, मारवाड़, गुजरात, महाराष्ट्र आदि क्षेत्रों में विहार कर जिन शासन का उद्योत किया है । सं० १९८२ में आप महाराष्ट्र में पधारे और ऋषि सम्प्रदाय के संगठन के लिए बहुत प्रयत्न किया । आपने ४५ वर्ष तक संयम पाला, सं० १९८८ वैशाख शुक्ला १४ को आप शुजालपुर ( मालवा ) में कालधर्म को प्राप्त हुए । मालवा प्रान्त में आप द्वारा अनेक भागवती दीक्षाएँ सम्पन्न हुई । CO 疏 पूज्य श्री देवऋषिजी म० आपके पिताश्री का नाम श्री जेठाजी सिंघवी और माता का नाम श्रीमती मीराबाई था । ग्यारह वर्ष की उम्र में मातुश्री का अवसर पर ऋषि सम्प्रदाय की सं० १९२६ दीपमालिका के पुण्य दिवस पर आपका जन्म हुआ था । वियोग हो गया। सूरत में आपकी भागवती दीक्षा सम्पन्न हुई । इसी खम्भात शाखा के सन्त सतियों का सम्मेलन भी हुआ । २३ वर्षों में १ से लेकर ४१ आप महान तपस्वी थे । सं० १६५८ से लेकर सं० १९८१ तक दिन की कड़ीबन्द और प्रकीर्णक तपस्यायें कीं । आपका विहार भारत के सभी प्रान्तों में हुआ । विशेषकर महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में विहार कर आपने जैन धर्म की प्रभावना की । सं० १९८६ में ऋषि सम्प्रदाय के संगठन और आचार्य पदवी महोत्सव के निमित्त आप इन्दौर पधारे। आपके वरदहस्त से आगमोद्धारक पं० २० मुनि श्री अमोलक ऋषिजी म० को आचार्य पद की चादर ओढ़ाई गई । सं० १९६३ में आपका चातुर्मास नागपुर में था । इसी बीच धूलिया में पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी म० सा० का देवलोक हो गया था । सं० १९९३ माघ कृष्णा ५ को आपको भुसावल में पूज्य पदवी की चादर ओढ़ाई गई । आप काफी वृद्ध थे अतः आपने उसी समय स्पष्ट कर दिया कि मैं इस गुरुतर भार को वहन करने में असमर्थ हूँ अतः सम्प्रदाय के संचालन का उत्तरदायित्व पं० २० श्री आनन्द ऋषिजी म० को सौपा जाता है और उन्हें युवाचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया जाता है । सं० १६६६ का चातुर्मास करने आप नागपुर इतवारी पधारे। शरीर काफी वृद्ध हो गया था लेकिन स्वास्थ्य साधारणतया ठीक ही था । अकस्मात लकवे की शिकायत हो गई जो आयुर्वेदिक चिकित्सा से कुछ ठीक हो गई । इसी समय इतवारी में साम्प्रदायिक दंगा हो जाने से श्रावकों की विनती पर आप सदर बाजार पधार गये । चातुर्मास काल में तबियत नरम ही रही । मगसिर कृष्णा ४ को आपको घबराहट काफी बढ़ गई। सभी सन्त सतियों एवं युवाचार्य श्री आनन्द ऋषिजी म० को सम्प्रदाय की व्यवस्था सम्बन्धी समाचार श्रावकों के माध्यम से भिजवा दिये । मगसिर कृष्णा ७ को तबियत में और अधिक बिगाड़ आ गया। दूसरे दिन आपने उपवास किया और नवमी को संलेखना सहित चौ विहार प्रत्याख्यान कर लिया । नवमी की रात्रि को आपने इस नश्वर शरीर का परित्याग कर दिया । Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषि सम्प्रदाय के पाँच सौ वर्ष पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी म० ( आगमोद्धारक) आपके पूर्वज मेडता ( मारवाड़) के निवासी थे। लेकिन वर्षों से भोपाल (म० प्र०) में बस गये थे । आपके पिताश्री का नाम केवलचन्दजी और माता का नाम हुलासाबाई था। आपका जन्म सं० १९३४ में हुआ था । आपके एक छोटा भाई था। जिसका नाम अमीचन्द था । बाल्यकाल में माता का वियोग हो जाने से आप दोनों भाई मामा के यहाँ रहने लगे और पिताजी ने मुनिश्री पूनम ऋषिजी म० के पास भागवती दीक्षा ले ली थी । एक बार आप अपने मामाजी के मुनीम के साथ अपने पिता श्री जी ( श्री केवलऋषिजी म० ) के दर्शनार्थ इच्छावर के निकट खेड़ी ग्राम में दर्शनार्थ आये । आप बाल्यकाल से धार्मिक वृत्ति वाले थे ही और पिताजी को साधुवेष में देखकर आपकी धार्मिकता को और वेग मिला । आपने भी दीक्षा अंगीकार करने का निश्चय कर लिया। पारिवारिक जनों ने रुकावट डालने का प्रयास भी किया लेकिन सफल नहीं हो सके । सं० १६४४ फाल्गुन कृष्णा २ को श्री रत्न ऋषिजी म० ने आपको दीक्षित किया। आप बहुत ही प्रभावशाली, प्रखर बुद्धि और शास्त्रज्ञ विद्वान थे । आपने ऋषि सम्प्रदाय को सबल बनाया और सबसे महत्वपूर्ण कार्य ३२ आगमों को हिन्दी अनुवाद एवं शुद्ध पाठ सहित सम्पादित करना है । यह आगमोद्धार का कार्य आपने तीन वर्ष के अल्पकाल में ही पूरा कर दिया था । साहित्य सम्पादन के अतिरिक्त आपने ७० स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे हैं । इनमें से कई ग्रन्थों की गुजराती, मराठी, कन्नड़, उर्दू भाषा में भी आवृत्तियाँ हुई हैं। पूज्य श्री ने कुल मिलाकर करीब ५० हजार पृष्ठों में साहित्य की रचना की है। आपके १२ शिष्य हुए । २२५ आप पंजाब, दिल्ली, कोटा, बूंदी, इन्दौर आदि क्षेत्रों को फरसते हुये धूलिया पधारे और सं० १९९३ का चातुर्मास धूलिया में किया । इस चातुर्मास काल में आपके कान में तीव्र वेदना हो गई । अनेक उपचार कराने पर भी वह शान्त नहीं हुई । अन्त में प्रथम भाद्रपद कृ० १४ को आपने संथारा पूर्वक इस भौतिक देह का परित्याग कर दिया। आपकी पुण्य स्मृति में मुनि श्री कल्याणऋषि जी म० की सत्प्रेरणा से श्री अमोल जैन ज्ञानालय की धूलिया में स्थापना हुई । जिसके द्वारा साहित्य प्रकाशन का कार्य चल रहा है । कविकुल भूषण पूज्यपाद श्री तिलोकऋषि जी महाराज आपकी जन्मभूमि रतलाम है । सं० १९०४ चैत्र कृ० ३ को आपका जन्म हुआ था । पिताश्री का नाम श्री दुलीचन्द जी सुराना और माता का नाम नानूबाई था। आप तीन भाई और एक बहिन थी । आपका नाम तिलोकचन्द जी था । सं० १९१४ में श्री अयवन्ताऋषि जी म० रतलाम पधारे। आपका वैराग्यरस से परिपूर्ण उपदेश सुनकर माता नानूबाई का वैराग्य भाव जाग्रत हो उठा । माताजी के दीक्षित होने के भाव जानकर बहिन हीराबाई भी दीक्षित होने को तैयार हो गई । माता और बहिन के दीक्षा लेने के विचार को आयश्वरुष अभिय MATIANASANT as Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रवभिन्न मिनापार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्दप्रसन्थ श्रीआनन्द iharvawwar . M २२६ इतिहास और संस्कृति जानकर तिलोकचन्द जी को भी संसार से उदासीनता हो गई। इस प्रकार परिवार के तीन सदस्यों को दीक्षा लेने का जानकर आपके ज्येष्ठ भ्राता श्री कुंवरमल जी ने सोचा कि मुझे इनसे पीछे नहीं रहना चाहिए। ऐसा सुअवसर फिर मिलने वाला नहीं और आप भी दीक्षा लेने को तत्पर हो गये। इस प्रकार एक ही परिवार के चार मुमुक्षुओं के संयम मार्ग को अंगीकार करने की जानकारी से रतलाम संघ में हर्ष छा गया। संघ ने बड़े ही उत्साह से इस मंगल कार्य को पूर्ण करने का निश्चय किया और सं० १६१४ माघ कृ० १ को यह जनेश्वरी दीक्षाएँ सम्पन्न हुई। श्री तिलोकचन्द जी श्री तिलोक ऋषि के नाम से सन्त-मण्डली में विख्यात हो गये। दीक्षा के समय आपकी उम्र दश वर्ष की थी। प्रतिभा विलक्षण होने से करीब १८ वर्ष की उम्र तक आते-आते आपने अनेक आगम कंठस्थ कर लिए एवं संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी आदि भाषाओं में निपुणता प्राप्त कर ली। सं० १९२२ में आपके गुरुदेव श्री अयवंता ऋषि जी म. के देहावसान से आपको मार्मिक ब्यथा हई, लेकिन संसार के स्वरूप से परिचित थे अत: और अधिक गम्भीरता से ज्ञानाभ्यास में लीन हो गये। मालव प्रदेश के विभिन्न नगरों और ग्रामों में धर्म प्रभावना करते हुए सं० १९३५ में दक्षिण प्रान्त में पधारने की विनती के कारण आपने ठा० ३ से दक्षिण की ओर विहार किया और चैत्र वदी १ को आप घोड़नदी पधार गये। दक्षिण प्रान्त में जैन सन्तों के पदार्पण का यह वर्तमान युग में प्रथम अवसर था। उधर के श्री संघों में अपूर्व आनन्द और उत्साह व्याप्त हो रहा था। अहमदनगर की धर्मशीला बहिन श्रीमती रम्भाबाई पीतलिया ने पूज्यपाद श्री तिलोक ऋषि जी म० के अहमदनगर पधारने की सूचना देने वाले भाई को तो अपना सोने का कड़ा ही बधाई में दे दिया था। सं० १९४० का चातुर्मास अहमदनगर में था । स्वास्थ्य सब प्रकार से अनुकूल था। लेकिन अकस्मात स्वास्थ्य गड़बड़ हो गया और श्रावण कृष्णा २ को आप कालधर्म को प्राप्त हो गये । इस थोड़े से समय में आपने समाज, साहित्य और आचार-विचार, सिद्धान्त के क्षेत्र में जो भी कार्य किये, उनका इतिहास की दृष्टि से मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है । पूज्यपाद रचित साहित्य अनूठा है । बहुत से ग्रन्थ प्रकाशित भी हो चुके हैं, फिर भी अनेक ग्रन्थ अप्रकाशित हैं। कवित्व शक्ति तो आपकी अनूठी ही थी जिसकी 'कहत तिलोक रिख' धुन जन साधारण की वाणी द्वारा बार-बार गूंज उठती है। 'ज्ञानकुजर' और 'चित्रालंकार' काव्य तो आपकी विद्वत्ता, कवित्व प्रतिभा के अनूठे ही ग्रन्थ हैं। कवि के अलावा आप सुलेखक थे । दशवकालिक सूत्र पूर्ण एक पन्ने में एवं डेढ़ इन्च जगह में पूरी आनुपूर्वी लिखकर आपने अपनी लेखन-कला की पराकाष्ठा का परिचय दिया है। आप द्वारा रचित शीलस्थ आपकी चित्रकला के कौशल को प्रकट कर देता है। आपकी सभी कलाओं का एकमात्र लक्ष्य धर्मकला ही था । मात्र ३६ वर्ष के अल्प आयुकाल में आपने जो कीति, धर्मज्ञान एवं योग्य प्राप्त की थी वह सत्र पुण्य का ही परिपाक माना जायेगा। ARE - Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषि सम्प्रदाय के पाँच सौ वर्ष २२७ पूज्यपाद श्री रत्नऋषि जी महाराज आप वोता (मारवाड़) के मूल निवासी थे। लेकिन आपके पिताश्री स्वरूपचन्द जी (जिन्होंने आपके साथ सं० १६३६ में पूज्य श्री तिलोक ऋषि जी म. के पास भागवती दीक्षा अंगीकार की थी) अहमदनगर जिला के मानक दोंडी ग्राम में व्यापारार्थ रहते थे । वहीं आपकी माताजी श्रीमती धापूबाई का स्वर्गवास हो गया था। अपने परिवार में आप और आपके पिता यही दो सदस्य रह गये थे। माताजी के देहावसान के समय आपकी उम्र करीब १२ वर्ष की थी। आपके पिताजी संसार से उदासीन जैसे रहते थे और पुत्र को सुयोग्य बनाने की भावना रखते थे। इन्हीं दिनों सं० १६३५ में पूज्य श्री तिलोक ऋषि जी म० के धोड़नदी पधारने के समाचार मिले और इससे आपके पिताजी के हर्ष का पार न रहा और अपने पुत्र के साथ धोड़नदी आ गये और वहीं अपना निवास स्थान बनाकर रहने लगे। सं० १९३६ में श्री गम्भीरमल जी लोढ़ा की धर्मपत्नी और पुत्री की घोड़नदी में भागवती दीक्षा हुई । आपके पिता श्री स्वरूपचन्द जी भी विरक्त थे ही और वे भी दीक्षा लेने के लिए तत्पर हुये। आप भी पिताश्री के अनुगामी बनने के लिए अग्रसर हो गये। पिता-पुत्र ने पूज्यपाद श्री त्रिलोक ऋषि जी म० के समक्ष अपनी भावना व्यक्त की । कुटुम्बी जनों ने अनेक प्रलोभन दिये लेकिन उन्हें दीक्षित होने से विचलित नहीं कर सके । अन्त में उन्होंने पिता व पुत्र को दीक्षा अंगीकार करने की स्वीकृति दे दी और सं० १६३६ आषाढ़ शु० ई० ६ को दोनों की भागवती दीक्षा सम्पन्न हुई। श्री स्वरूपचन्द जी का नाम श्री स्वरूप ऋषि जी म० और आपका नाम श्री रत्नऋषि जी म० रखा गया। आपको दीक्षित हुए चार वर्ष भी नहीं हुए थे कि गुरुदेव श्री तिलोक ऋषि जी म० का सं० १९४० में स्वर्गवास हो गया। श्री रत्नऋषि जी म० युवा थे, प्रतिभाशाली और विद्वान थे, लेकिन उन दिनों दक्षिण में दूसरे विद्वान संतों के न रहने से आपको लेकर महासती श्री हीरा जी मालवा में आई और योग्य शिक्षा का प्रबन्ध कराया और शुजालपुर में विराजमान स्थविर मुनिश्री खूबऋषि जी म० के पास रहकर शास्त्राभ्यास प्रारम्भ कर दिया। शास्त्राभ्यास से आपकी व्याख्यान शैली भी सुन्दर हो गई। मालवा में विहार कर आपने अच्छा शास्त्राभ्यास कर लिया था और प्रवचन शैली में प्रवीण होने से जनसाधारण में भी प्रसिद्ध हो चुके थे। लेकिन आपका लक्ष्य प्रसिद्धि प्राप्त करना नहीं था। मालवा में विहार करने के अनन्तर आपने गुजरात की ओर विहार किया और वहाँ विराजित अनेक प्रभावशाली विद्वान सन्तों, आचार्यों आदि से आपका सम्पर्क हुआ । गुजरात में कुछ समय विचरने के बाद आप पुनः महाराष्ट्र में पधार गये । महाराष्ट्र में आकर आपने जैन संघ की स्थिति का गम्भीरता से निरीक्षण किया । यद्यपि आर्थिक दृष्टि से जैन समाज की स्थिति साधारणतया ठीक थी, लेकिन अंधश्रद्धा, अशिक्षा और बेकारी के कारण जैन नवयुवकों में शून्यता फैल रही थी । अनेक क्षेत्रों में विहार और चातुर्मास होने से सब कुछ जानकारी कर ली गई थी। इसके प्रतिकार के लिए आपने सं० १९७७ के I JamaraaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaMANASANASABALANKARANAADAAMAJAIADABADALDAmarneeroJANAS आचार्यप्रवभिभापार्यप्रवास आभार श्राआनन्द श्रीआनन् mamirmirimirmimammmmmmmmmmmmmmwimweirmanamammine Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रव Mill STY so २२८ AAAAAAAA आचार्य प्रव काही 232 इतिहास और संस्कृति अहमदनगर चातुर्मास में श्री संघ को संकेत किया और जैन ज्ञान फंड की स्थापना की गई ! पश्चात सं० १६८० में श्री तिलोक जैन पाठशाला की पाथर्डी में स्थापना हुई जो आज हाईस्कूल के रूप में चल रही है । अंधश्रद्धा के उन्मूलन के लिए तो आपने प्रत्येक क्षेत्र में प्रयत्न किया । इसका परिणाम यह हुआ कि जैनत्व के संस्कारों का दिनोंदिन विकास होता गया और अनेक स्थानों पर शिक्षण शालाएँ, स्वधर्मी फंड आदि स्थापित हुए । अभिनन्दन पाथर्डी में आज जो भी संस्थाएँ चल रही हैं या नवीन स्थापित हुई हैं, उन सब के मूल में आपकी प्रेरणा, आशीर्वाद रहे हैं । ये सभी संस्थाएं जनता में सद्धर्म का प्रसार कर जैनत्व की कीर्ति को व्यापक बना रही हैं । महाराष्ट्र में आज स्थानकवासी जैन समाज में जो साहित्यिक और सांस्कृतिक चेतना है, शिक्षा क्षेत्र में जो प्रगति हो रही है उसका श्रेय यदि किसी को दिया जाना है तो वह श्री पूज्यपाद श्री रत्नऋषि जी म० को ही मिलेगा । आपके हाथों में श्रमण संघ के वर्तमान ज्योतिर्धर आचार्य प्रवर श्री आनन्द ऋषिजी म० का जीवन पुष्प खिला है, इस महिमाशाली व्यक्तित्व का निर्माण इन्हीं हाथों ने किया है जो आपकी कीर्ति का जीता-जागता प्रमाण है । आप श्री ने श्रावकों को सुसंस्कृत बनाने के साथ-साथ सन्तों को भी योग्य विद्वान बनाने की ओर ध्यान दिया । योग्य विद्वानों का सहयोग लेकर अपने शिष्यों को शिक्षा दिलाई। उन्हें तात्विक ज्ञान के साथ प्राच्य भाषाओं में भी निपुण बनाने की ओर ध्यान दिया । सं० १९८३ का चातुर्मास भुसावल में हुआ । निकटवर्ती क्षेत्रों में विहार करते हुए हिंगनघाट की ओर पधारे । रास्ते में कानगाँव के निकट आपको साधारण सा बुखार हो गया, दूसरे दिन अलीपुर ग्राम में दाहज्वर हो गया । परिस्थितियों को देखकर आपने वहीं एक मन्दिर में सागारी संथारा कर लिया और सं० १९८४ जेष्ठ कृष्णा ७ के मध्याह्न इस नश्वर देह का परित्याग कर दिया । पूज्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज आप श्री का परिचय सर्व विश्रुत है । आपकी विद्वता, ज्ञानगरिमा और संयमसाधना से समग्र जैन शासन गौरवान्वित है । संक्षेप आपके परिचय के लिये इतना ही कहा जा सकता है कि पूज्यपाद श्री त्रिलोक ऋषिजी म०, पूज्यपाद श्री अमोलक ऋषिजी म०, पूज्यपाद श्री रत्न ऋषिजी म० इन तीनों महापुरुषों के सभी गुण आप में पुंजीभूत होकर साकार हो रहे हैं । आपने चतुविध संघ की उन्नति में जो योगदान दिया और इस वृद्धावस्था में भी उत्साहपूर्वक तत्पर हैं, वह एक धर्माचार्य के आदर्श में तो वृद्धि कर ही रहा है, जन साधारण को भी मानव जीवन सफल बनाने का मार्ग बतलाता है । आपश्री at विशेष परिचय अन्यत्र प्रकाशित है अतः कुछ लिखना पुनरावृत्ति मात्र होगा। हाँ, इतना ही कह सकते हैं कि आपने अपने उच्चतर व्यक्तित्व, उत्कृष्ट आचार और विशद् विचारों से जो आदर्श चतुविध संघ के समक्ष रखा है, उसका हम सभी अनुसरण कर स्वपर कल्याण करते रहें और आपश्री दीर्घजीवी होकर हमें मार्ग-दर्शन कराते रहें । Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषि सम्प्रदाय के पाँच सौ वर्ष क CORDS ve आचार्य प्रवर के तत्त्वावधान में आज ऋषि सम्प्रदाय के अनेक तेजस्वी, धीर, गम्भीर प्रभावशाली मुनिवर धर्मोद्योत कर रहे हैं—विद्वद्वर श्री मोहन ऋषि जी म०, प्रवर्तक श्री विनय ऋषि जी म०, पं० श्री कल्याण ऋषि जी म० आदि सन्तों का समूह ऋषि परम्परा को ज्योतिर्मान कर रहा है। ऋषि सम्प्रदाय की महासतियाँ इतिहास की यह एक कमी रही है कि उसमें पुरुष वर्ग के कार्यों का तो अंकन होता रहा वहाँ महिला वर्ग को उपेक्षणीय जैसा माना है। यही कारण है कि पुण्यश्लोका महिलाओं के बारे में हमारी जानकारी नहीं जैसी है। ऋषि सम्प्रदाय के महर्षियों का इतिवृत्त तो यत्किचित रूप से सं० १६६२ से मिलता है, लेकिन महासतियों में उस समय कौन विराजमान थे यह जानना कठिन है। किन्तु प्रतापगढ़ भण्डार से प्राप्त एक प्राचीन पत्र से ज्ञात हुआ कि सं० १८१० वैशाख शुक्ला ५ मंगलवार को पंचेश्वर ग्राम में चार सम्प्रदायों का सम्मेलन हुआ था, उसमें ऋषि सम्प्रदाय की तरफ से सन्तों में पूज्य श्री ताराऋषि जी म. और सतियों में श्री राधाजी म० उपस्थित थे। ऋषियों के इतिवृत्त से स्पष्ट है कि पूज्य श्री लवजी ऋषि जी म० के पाट पर क्रमशः पूज्य श्री सोमऋषि जी, पूज्य श्री कहानजी ऋषि जी, पृ० श्री तारा ऋषिजी म. विराजे थे । महासती श्री राधाजी म० का परिचय तो प्राप्त नहीं है। किन्तु इनके बारे में इतना ही कहा जा सकता है आप अपने समय की प्रभावक सतियों में से एक थीं। चतुर्विध संघ के संगठन एवं महिलावर्ग की जागृति में महान योग दिया था। आपकी अनेक शिप्याएँ थी जिनमें महासती श्री किसना जी प्रसिद्ध थीं। महासती श्री किसना जी म० की शिष्याएँ भी जोता जी म० और उनकी शिष्या श्री मोता जी म० हई। श्री मोता जी म० की अनेक शिष्याओं में श्री कुशालकुंवर जी म० का नाम विशेष उल्लेखनीय है । उन्होंने जैन धर्म की विशेष प्रभावना की । अत: यहाँ महासती श्री कुशाल कुँवर जी म. से लेकर कुछ एक सतियाँ जी का परिचय दिया जा रहा है। महासती श्री कुशलकुँवर जी महाराज आप मालवा प्रान्त में बागड़देशीय हावड़ा ग्राम की थीं। आपने श्री मोता जी म० के पास उत्कृष्ट वैराग्य भाव से दीक्षा ग्रहण की थी। आप प्रभावक एवं संयमनिष्ठ सती थीं। आपके व्याख्यान सुनने बड़ेबड़े राजा, जागीरदार आदि भी आया करते थे। एक बार पूज्य श्री धनऋषि जी म० की उपस्थिति में सन्त सतियों ने एकत्रित होकर समाचारी रचना की थी। (उस समय ऋषि सम्प्रदाय में करीब १२५ सन्त और १५० सतियाँ विचरती थीं)। इनके ज्ञान और चारित्रिक धर्म से प्रभावित होकर सभी सन्त सतियों में आपको अग्रणी रखा और प्रवर्तिनी के पद से सुशोभित किया । आपकी २७ शिष्यायें हुई थीं। उनमें से लिखित चार सतियां जी के नाम उपलब्ध होते हैं १. महासती श्री सरदाराजी म०, २. श्री धन कँवरजी म० ३. श्री दयाजी म०,४. लक्षमाजी म० 卐 AN ANABAJAJAN aaaavan.inindAAAABAJRANAMAAJAGAL आपार्यप्रवर अभिसाार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्दा ग्रन्थापन Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAJAAAAAAAINAMrmatrinamaAINAJASALAIMANASABASAALAAIADABANABAJANASAIRAKAanAmAL HAPAAAAAAADHAASANAMATABATALARAM आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवर श्रीआनन्दान्थश्राआनन्दीअन्य इतिहास और संस्कृति AMM mmummy इनमें से महासती श्री दयाजी म० और महासती श्री लक्षमाजी म० की ही शिष्य परम्परा चली। महासती श्री सरदारा जी म० आपने प्रवर्तिनी श्री कुशलकवर जी म० से दीक्षा ग्रहण की थी। महासती श्री रंभाजी म. से बहुत स्नेह रखती थीं और दोनों साथ-साथ विचरण किया करती थीं । प्रकृति से आप सरल, भद्र परिणामी थीं । धार्मिक और शास्त्रीय ज्ञान अनूठा था। जनता आपके व्याख्यान सुनकर मुग्ध हो जाती थी। महासती श्री धनकंवर जी म० आपका अधिक समय अपनी गुरुणी जी प्रवर्तिनी श्री कुशलकवर जी म० की सेवा में बीता। मालवा, मेवाड़ में विचरण कर आपने धर्मोपदेश द्वारा जनता को सन्मार्ग का दर्शन कराया । आप तपस्वनी सती थीं। आपकी शिष्याएँ कितनी थीं इसका क्रमबद्ध इतिहास नहीं मिलता है। एक नाम मिलता हैमहासती श्री फूलकुँवर जी म० । इनके शिष्य परिवार में महासती श्री सरसा जी म०, श्री केसर जी म०, श्री रंभा जी म० हुए हैं। इनका भी परिचय प्राप्त नहीं है। महासती श्री दयाकंवर जी म० आप श्री कुशलकंवर जी म० की शिष्या थीं। शास्त्रीय ज्ञान से ओत-प्रोत होने के कारण आपका व्याख्यान प्रभावशाली होता था। आपका विहार क्षेत्र मालवा, मेवाड़, बागड़ आदि प्रान्त रहे हैं। जीवन के अन्तिम दिनों में आप रतलाम विराजती थीं। एक दिन रात्रि में तीसरे पहर जागकर आपने अपनी विदुषी महासती श्री गेंदा जी म० से पूछा कि रात्रि कितनी शेष है। तीसरा प्रहर बीतने की बात जानकर तथा अपने शारीरिक लक्षणों में अपना अन्तिम समय जानकर संथारा लेने का कहा और यह भी कह दिया कि यह संथारा २५ दिन चलेगा। तब सती श्री गेंदाजी के खाचरौद में विराजित महासती श्री गुमान कंवर जी म. आदि ठा० को समाचार देने का निवेदन करने पर आपने कहा कि वे तीन दिन में रतलाम आ जायेंगी, समाचार देने की जरूरत नहीं है। हुआ भी ऐसा ही ठीक पच्चीसवें दिन संथारा सीझा और खाचरौद से सतियाँ जी तीसरे दिन रतलाम पधार गई। आपकी शिष्याओं में महासती श्री घीसा जी, श्री झमक जी, श्री हीराजी, श्री गुमाना जी, श्री गंगाजी, श्री मानकंवर जी म० प्रसिद्ध हैं। इनमें से श्री झुमकू जी म०, श्री गंगाजी म०, श्री हीराजी म०, श्री गुमाना जी म० की शिष्य परम्परा आगे चली । महासती श्री झुमकू जी म० आप पिपलोदा निवासी श्री माणकचन्द जी नांदेचा की सुपुत्री थीं। सं० १९२१ में आपको दीक्षा के उपलक्ष में इनकी बड़ी माताजी ने रतलाम में साहू बाबड़ी के समीप एक धर्म स्थानक भेंट दिया था। आपके द्वारा मालवा और दक्षिण में अच्छा धर्म प्रचार हुआ। आपकी १६ शिष्याएँ हुई। इन शिष्य सतियों की उत्तरवर्ती काल में शिष्य परम्परा चल रही है। MOTIRLIDER Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषि सम्प्रदाय के पाँच सौ वर्ष २३१ A SIL VUL महासती श्री हीरा जी म. आप ऋषि सम्प्रदाय की सती मंडल में हीरे के समान प्रभावशाली और दीप्तिमान उज्ज्वल हैं । आपका जन्म-स्थान रतलाम और पिता का नाम श्री दुलीचन्द जी सुराना और माता का नाम नानूबाई था । बाल्यावस्था में आपकी सगाई हो चुकी थी। माताजी को दीक्षा लेने के लिए प्रवृत्त देकर आप भी दीक्षा लेने को तैयार हई । परिवार वालों की ओर से प्रलोभन दिये जाने पर भी आप विचलित नहीं हई। अच्छा शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त किया। सं० १९३५ में जावरा चातुमांस पूर्ण कर जब पूज्य श्री तिलोक ऋषि जी म० दक्षिण की ओर पधारे, तब आपने भी दक्षिण में विचरने के लिए प्रस्थान किया। सं० १९४० में पूज्य श्री तिलोक ऋषिजी म. का देवलोक हो जाने पर आपकी प्रेरणा से पूज्य श्री रत्नऋषि जी म. ज्ञानाभ्यास के लिए मालवा में पधारे और अल्पवय में ही पूज्यश्री अच्छे शास्त्रज्ञाता और विद्धान बने । आपकी १३ शिष्याएँ हुई। ऋषि सम्प्रदाय के विकास में आपका योगदान सदैव स्वर्णाक्षरों में अंकित किया जायेगा। प्रतिनी श्री सिरेकंवर जी म. आपका जन्म सं० १९३५ में येवला निवासी श्री रामचन्द जी की धर्मपत्नी श्रीमती सेरुबाई को कुक्षि से हुआ था। आप राहुरी निवासी श्री ताराचन्द जी बाफणा के साथ विवाहित भी हई किन्तु सौभाग्य अल्पकाल का रहा। आपने सं० १६५४ आषाढ़ कृष्णा ४ को पूज्य श्री रत्नऋषि जी म. से मागवती दीक्षा अंगीकार की। आप प्रकृति से भद्र और विदुषी थीं। सं० १९६१ चैत्र कृष्णा ७ को पूना में आयोजित ऋषि सम्प्रदाय के सती सम्मेलन में आपको प्रवर्तिनी पद से अंलकृत किया गया था। अधिकतर आपका विहार दक्षिण में हुआ। सं० २०२१ में आपका घोड़नदी में स्वर्गवास हो गया। पंडिता प्र. श्री सायरकंवर जी म० जेतारण (मारवाड़) निवासी श्री कुन्दनमल जी बोहरा की धर्मपत्नी श्री श्रेयकंवरजी की कुक्षि से सं० १९५८ कार्तिक वदी १३ को आपका जन्म हुआ था। सिकन्द्रबाद निवासी श्री सुगालचन्द जी मकाना के साथ आपका विवाह हुआ। गृहस्थ जीवन में आपकी प्रकृति विशेषतया धर्म की ओर झुकी हुई रही। सं० १६८१ फागुन कृष्णा २ को मिरी में पूज्य श्री अमोलक ऋषि जी म० के मुखारविन्द से ३२ वर्ष की उम्र में आपने दीक्षा ग्रहण की और तपस्विनी जी महासती श्री नन्दू जी म० की नेश्राय में शिष्या हुई। आपकी धारणा शक्ति अच्छी थी । अत: अल्पकाल में अनेक सूत्र, थाकड़ कंठस्थ कर लिए । ज्ञान चर्चा में विशेष रुचि रखती थीं। प्रभावक व्यक्तित्व के कारण अनेक कुव्यसनियों को कुव्यसनों से मुक्त कराया। आपका अधिकतर विहार दक्षिण और मद्रास प्रान्त में हुआ, वहाँ आपके सदुपदेश से अनेक धार्मिक संस्थाएँ स्थापित हुई। HANDE AamarindianAAWAJALRA..LA...AURA श्रीआनन्द अन्य-श्रीआनन्द Yoxvimaravvyurm... Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAJAAAAAJanuarandardaraMASABANANALANDredrocessonamusamaAAAAAAAAAwaseewanataramananesamirsasargreenamrosa Nil आचार्य प्रकार अभिन्न अध्या श्रीआनन्द अन् श्रीआनन्द २३२ इतिहास और संस्कृति सं० २००१ में प्रवर्तिनी श्री सिरेकवर जी म० के देवलोक हो जाने से हैदराबाद में मुनि श्री कल्याण ऋषि जी म० की उपस्थिति में आपको प्रवर्तिनी पद से अलंकृत किया गया। धार्मिक, शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना के लिये आप सदैव प्रेरणा देती रहती हैं। महासती श्री रामकंवर जी महाराज आपके पिताजी का नाम घोड़नदी (पूना) निवासी श्री गम्भीरमल जी लोढ़ा था और माता का नाम चम्पाबाई । आपका लौकिक नाम छोटीबाई था। अठारह वर्ष की उम्र में आपके पति का वियोग हो गया । आप माता-पिता की इकलौती सन्तान थीं और उसके भी विधवा हो जाने से उन्हें विशेष दुख था। वे दोनों संयम मार्ग पर अग्रसर होने के विचार में रहते थे। इसके लिए वे मालवा में आये लेकिन दक्षिण की ओर सन्त सतियों ने मार्ग की बीहड़ता के कारण विहार करने में असुविधा बतलाई। जावरा में विराजित पूज्य श्री तिलोक ऋषि जी महाराज से भी अपनी भावना जताई। आपने दक्षिणकी ओर विहार करने की स्वीकृति दी। सं० १६३६ अषाढ़ शु० ६ को माता सहित आपकी दीक्षा सम्पन्न हुई और महासतीजी श्री हीराजी म० के नेश्राय में शिष्या हुई। दीक्षा के बाद आपकी माताजी श्री चम्पाजी म. के नाम से विख्यात हुई । आपका नाम महासती श्री रामकंवर जी रखा गया। आपने अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया। स्वभाव नम्र और सेवाभावी था। दक्षिण प्रान्त में पूज्य श्री तिलोक ऋषिजी म. द्वारा जैनधर्म के प्रचार का जो कार्य प्रारम्भ किया गया था उसे पूज्य श्री रत्नऋषि जी म० ने अपने प्रयत्नों से अनेक गुना विकसित कर दिया । आपका संयमी जीवन ५३ वर्ष तक रहा। शारीरिक शिथिलता के कारण चार वर्ष धोड़नदी में स्थिरावास किया। यहीं सं० १९८९ कार्तिक कृष्णा २ को मध्य रात्रि के बाद पाँच प्रहर के अनशन पूर्वक इस भौतिक शरीर का त्याग किया। आपकी २३ शिष्याएँ हुई। विदुषी महासती श्री सुमतिकंवर जी म० आपका जन्म सं० १६७३ चैत्र शु० १० को घोड़नदी में हुआ था। पिता-माता के नाम क्रमश: श्री हस्तीमल जी दुगड़ और श्रीमती हुलासबाई था। आपने बाल्यकाल से ही महासती श्री रामकंवर जी म. से धार्मिक शिक्षा प्राप्त की थी। आप जन्मजात मेधावी और प्रतिभाशालिनी हैं। आप बाल्यकाल से ही दीक्षा लेने की प्रवृत्ति रखती थीं। विवाह के १८ माह बाद ही पति का देहावसान हो जाने के पश्चात तो आपका एकमात्र लक्ष्य संयम ग्रहण करने का हो गया। इसके लिए आपको पितृ पक्ष और श्वसुरपक्ष से आज्ञा प्राप्त करने में काफी समय लगा, अन्त में स्वीकृति मिल गई। सं० १९६२ पौष शुक्ला २ को कोंडेगव्हाण ग्राम में आपकी दीक्षा सम्पन्न हुई और महासती श्री शान्तिकंवर जी म० की नेश्राय की शिष्या बनी । नाम सुमतिकंवर रखा गया। दीक्षा के बाद आपने संस्कृत प्राकृत, न्याय, व्याकरण, आगम साहित्य आदि का अच्छा अध्ययन किया। आपकी विद्वता का सभी क्षेत्रों में प्रभाव पड़ता है। जहाँ भी विहार या चातुर्मास होता है, जनता आप की विद्वता सेलाभ उठाती है। देश के सभी क्षेत्रों में आपने विहार किया है और आज भी अपनी Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषि सम्प्रदाय के पाँच सौ वर्ष मानामा on संयम साधना एवं विद्वता से जनता को धार्मिकता का संदेश दे रही हैं। आपके समान ही आपकी शिष्याएँ भी विद्वान और प्रभावशाली हैं। विदुषीरत्न प्रवर्तिनी श्री उज्ज्वलकंवर जी म० आप अपनी मातुश्री चंचल बहिन (महासती श्री चन्दनबाला जी म०) के साथ-साथ दीक्षित हुई थीं । सुशिक्षिता माता की सुपुत्री होने एवं बाल्यकाल से ही कुशाग्र बुद्धि होने के कारण आपने अच्छा अध्ययन किया। दीक्षित होने के पश्चात आपका अध्ययन निरन्तर विकसित होता रहा और न्याय, व्याकरण, तत्वज्ञान आदि विविध विषयों एवं जैन आगमों का गम्भीर अध्ययन किया। पाँच भाषाओं का पूर्णतया ज्ञान है । अंग्रेजी में तो आप धाराप्रवाह बोलती हैं। रवीन्द्र साहित्य का खूब पर्यालोचन किया है। आपकी विद्वत्ता से आबालवृद्ध प्रभावित हैं। समग्र जैन समाज के साध्वी वर्ग में ही क्या, किन्तु श्रमणवर्ग में भी आप जैसी विदूषी प्रतिभाशालिनी एवं प्रवचनकुशल प्रतिभाएँ विरल ही हैं। सं० १९६६ फागुन शुक्ला ५ को खामगाँव में आपको प्रवर्तिनी पद से विभूषित किया गया। आपका विहार क्षेत्र प्रायः दक्षिण रहा है। आजकल स्वास्थ्य अनुकुल न होने से अहमदनगर धोड़नदी आदि क्षेत्रों में प्रायः विचरती हैं। आपकी शिष्याएं भी विदुषी और अनेक भाषाओं में प्रवीण हैं। जो दूर-दूर क्षेत्रों में धर्म प्रचार कर रही हैं। पूर्वोक्त साध्बी वृन्द के अतिरिक्त अन्य अनेक महान् भाग्यशालिनी महासतियाँ ऋषि सम्प्रदाय की गौरव-गरिमा को उज्ज्वल बना रही हैं । सभी अपनी संयम साधना और विद्वता से जिन शासन की सेवा में संलग्न हैं । स्थानाभाव से यहाँ उन सबका परिचय देना शक्य नहीं है। अत: पाठकगण क्षमा करेंगे। उपसंहार पूर्व में ऋषि सम्प्रदाय के कतिपय महाभाग सन्तों और सतियों के परिचय की रूपरेखा प्रस्तुत की गई है। उस परिचय में अधूरापन भी रहा होगा । लेकिन इतना तो मानना ही होगा कि ऋषि । सम्प्रदाय के सन्त एवं सतियों ने भगवान महावीर के शासन की प्रभावना को चारों दिशाओं में व्याप्त किया है। ___ इसके साथ ही ऋषि सम्प्रदाय की सबसे बड़ी देन है-शिथिलाचार के विरुद्ध क्रान्ति । साध्वाचार के विपरीत होने वाली प्रवृत्तियों के उन्मूलन के लिए क्रान्तिवीर लोंकाशाह ने जो शंखनाद किया था, उसको पूज्य श्री लवजी ऋषि जी म० जैसे महापुरुषों ने अनेक परिषहों को सहन करते हुए सुरक्षित रखा और इन पाँच सौ वर्षों में उसे जन-जन के मानस में प्रतिष्ठित कर दिया है। ऋषि सम्प्रदाय के सन्तों का विहार भारत के कोने-कोने में हुआ है। प्रारम्भ में तो गुजरातकाठियावाड़ ही इस सम्प्रदाय का प्रधान केन्द्र रहा, लेकिन उसके बाद पूज्य श्री सोमजी ऋषि जी म० की आज्ञा से पं० श्री हरदास जी म० ने पंजाब में, पूज्य श्री कहान जी ऋषि जी म० ने मालवा में, पू० श्री तिलोक ऋषि जी म. ने महाराष्ट्र में, पूज्य श्री अमोलक ऋषि जी म. ने कर्णाटक में, पूज्य श्री देवजी AAD गया بعث مع مدافع ع आचार्यप्रवभिनआचार्यप्रवभिनी श्रीआनन्दपाश्राआडन्ट 14 ग्रन्थ Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्वत आनन्द- आआनन्द आचार्य प्रवर vio COM म छ बा - 5 s अन्य अभिनंट २३४ इतिहास और संस्कृति ऋषि जी म० ने छत्तीसगढ़, सी० पी० में सर्वप्रथम पदार्पण करके नये क्षेत्रों में स्थानकवासी परम्परा को सुदृढ किया है । आचार्य प्रवर श्री आनन्द ऋषि जी म० का विहार क्षेत्र तो सम्पूर्ण भारत रहा है। राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि भारत का अधिकतम क्षेत्र आपकी धर्म यात्राओं से प्रभावित हो चुका है । ज्ञान प्रचार और साहित्य सेवा की दृष्टि से ऋषि सम्प्रदाय के सन्तों एवं आचार्यों के प्रयत्न अपना अनूठा स्थान रखते हैं। पं० रत्न श्री अमीऋषि जी म०, पूज्य श्री तिलोक ऋषि जी म० के पदों की गूंज तो हम प्रतिदिन सुनते ही हैं। पूज्य श्री अमोलक ऋषि जी म० द्वारा किये गये आगम साहित्य के सम्पादन एवं प्रकाशन के लिए कृतज्ञता व्यक्त करना हमारा एक अल्प प्रयास सा माना जायेगा । आज भी उन महाभागों की परम्परा निर्वाह करते हुए पूज्य आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी म० ज्ञान प्रचार एवं साहित्य सेवा में संलग्न हैं और उनके अन्तेवासी शिष्य भी । ऋषि सम्प्रदाय प्रारम्भ से ही संगठन का हिमायती रहा है। एक समाचारी, एक संगठन बनाने के लिए सबै प्रयास किये गये और उसमें सफलता मिली। सादड़ी वृहत् साधु सम्मेलन आज के युग के संगठन का एक स्मरणीय प्रयास था । इस सम्मेलन को सफल बनाने में ऋषि सम्प्रदाय के सन्तों, सतियों एवं आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी म० ने पूरा योग दिया था। एक श्रमण संघ के निर्माण के लिए अपने सम्प्रदाय का विलीनीकरण कर चतुविध संघ के समक्ष आदर्श उपस्थित किया था । श्रमण संघ के प्रधानमंत्री पद पर आसीन होकर आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी म० ने साधु संस्था को ज्ञान, संयम, साधना का सफल प्रयास किया और अब आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होकर संघ सेवा कर रहे हैं । संघ एवं शासन की संक्षेप में कहा जा सकता है कि ऋषि सम्प्रदाय के सन्तों एवं सतियों ने चिरस्मरणीय अनुकरणीय सेवा करते हुए साधुता के स्तर को सदैव उच्च से उच्चतम रखकर उसके शास्त्रीय आदर्शों को उजागर किया है। O Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रांग्ल-भाषा खंड Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Satish Kumar Jain, M.A. Jain Bhawan, Jullandbur City Achārya Anand Rishijee-"A Redeemer of The Modern Wasteland” J. S. Eliot in “The Wasteland”, means over the loss of old religious values which have made the world a chaotic and dismal wasteland where people are burning in the sterile fire of lust, abhorrence and other evil passions ; where society presents a grim and nightmarish picture of Godless Society whose ethical scruples have become "a heap of broken images”; life appears to be spiritually impoverished, intellectuly degenerated, emotionally barren and mentally retarded. The so-called advanced yet God-Killing Society adorates the false and hypocritical gods of Mammon and Secularism. In utter contemptuous tone the poet depicts the pollusion of sex by the modern westelanders who have made the sanctified, sex perverted, debased, vulgarised and even commercialised to makes the "hollowmen" whimpered in despair finding no way to spiritual salvation. At the end of the poem, the poet, being a radical reformer, delivers the goods for tiding over the grave and sinister problem of spiritual-impotency and aridity caused in the Modern Westeland by referring to the source of the Indian Legend of the Thunder in the sacred book 'BRIHAD-ARANYAKA UPNISHDA'. The fable runs as. Once there was a drought over the holy antique land of India. The grief-stricken gods of the three races met the Prajapati' who spoke to them thrice in the divine Voice of Thunder in one Sanskrit word 'DA'interpreted as 'DA-Dattā (to give), 'DA'-Daydharam [to Sympathise] -and 'DA?-Damyat' (to control). However the poem concludes on an optimistic not by suggesting that if a man obeys the triple injunction of the Prajapati, he may succeed in putting his own house in perfect order and will gain ultimately his release from a living death. The turbulent and fretful world today needs a redeemer who can save this burning Westeland by sprinkling chilly cold waters of his holy deliverances of true faith and true knowledge. "What the eye does not admire/The heart do's not desire." The significance of this old English rhyme is realised fully when the hungry eye of an ever hankering soul of a devotee encounters the very beautiful living image of a Massaiha-a Healer who is regarded as a unique model of eternal bliss and beauty. To my mind above mentioned idea is to be said exactly about a great saint Jain Acharya Anand Rishi. UP Pn SO Julga2n A Buiz9a2f318 97131Toy Strengendstely 51699 Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA 9az? Jul 943 31 श्रीआनन्दा अन्यश्रीआनन्दग्रन्थ 2 Satish Kumar Jain Venerable Acharya Anand Rishi, the 75 years old, the successor to Late great Acharya Sh. Atama Ram Ji Maharaj, birth-celebate turned spiritual gaint has deservedly won credit as the Redeemer-Acharya who has imparted a dynamic and staunch leadership to. The All India Sthanakvasi Jain Sråmana Sangb, popular with the masses assisted by a young band of literate saints, the uncrowned king of the vast realms of the Spirit, the neculeus of devotion and reverence of rank and file, a source of wisdom and knowledge, a revealer of truth, Divinity incarnate, perfection of the Divine in Man endowed with innate greatness invested with perfections innumerable effulgence of pure spirit, independant, fearless, immutable, immaculate, philosopher and Guide, the best of the best certainly he is as towering a personality as the six foot two inches of a person. Rev. Acharya Anand Rishi is really a wonderful man, the prophet of the new era, a smithy of his soul certainly ranks the chief among a shining galaxy of the bearers of Light. Perhaps asceticism comes naturally to his genius ; had from an early age he is a meticulous observer of JIN VANI (The Divine Voice). In his childhood he was never naughty who carried fictitious tales, Soberiety and Stoicity were seen conspiculously in him. He often sat like a Yogi in state of transcendental meditation in the preaching Hall. The organisers were flabbergasted to scan his unfailing devotion in religion and his immutable sitting at the preaching Hall led them to foretell the glamourous extraordinary future of this would be redeemer of the suffering mankind. The people generally equated him with tender-aged Ayvanta Kumar of Jainistic World and also thought him to be a reversed-image of Dhruva in Vaidic World. He achived the holy Acharyaship by the sheer force of a magnificent godly halo of his pious personality, by his astute recondite scholarship, by his untired and dauntless devotion to hard work and by his astounding competence and talent. He represents the soul of India yearning for peace and harmony. He is in the line of great sevants and seers of the Sramana Heritage who have acted as the saviours of confused humanity. He raises his voice to reinforce the intrinsic values and high ideals expounded by Lord Mahavir in a new idiom to combat disintegration and decadence set in by the oppressive wordly situations. It was the hey-day in the annals of the Sramana Heritage when he was placed on the highest seat of Acharya. His is the supermost seat of honour for that he is the patron and soverign. Honourable Acharya is an errant Karma Yogi. Almost the whole of India has been conscectrated with a hallow touch of his lotusfeet. He has been propagating enthusiastically the holy commandments of Lord Mahavira untiringly and incessently for the last so many years on the length and breadth of India. The people of every state in India is a true devotee of the sacred feet. of Acharya Anand Rishi, where ever he goes people flock there to catch the holy sight of his divine figure, the whole spiritual community hails him with warm recepetion accords a big ovation of their sincere homage at his divine feet. Incidentally, I am reminded of a sumptuous yet sober welcome Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Anand Rishijee-"A Redeemer of the Modern Wasteland" presented to him during his tour to PUNJAB when he paid a holy visit to Jullundur City for the first time. There was a big maddening crowd which received him in sombre robes and bare-footed. The special articles and editorials were published in his honour by the leading papers of the city. The grandeur and splendour of the Morning Prayers' were beyond description. A mammoth congregation was seen diving deep in the sea of Bhakti at his holy. feet in the preaching hall during his stay in the city. He is Par-excellence in the art of rhetoric. His holy discourses contain mellifluous voice with a dignified calmness of his liberal vision. He has the knack of creating an hyponotique effect on the audience by the virtue of his sugary-sweet voice. His utterances contain the kernels of sagacious wisdom. His thoughts are perspicuous in tone which are packed with scintillating epigrams along with its aphoristic terseness. He dislikes verbosity and superfluous hair-splilting in his formal talk. His intelligentsia never suffers from the fog of dogmatic rituals. He always speaks in idioms and expressions easily intelligible to the lowest and the humblest members of the community and his, religious sermons, least hackneyed and sterotyped, are brought home to the very hearts of his followers in homely phrases and anecdotes culled from the world wide knowledge and experiences. He never passes bitter, harsh sarcastic remarks on others, Men assemble to listen to his divine voice. His speech is like the "voice of many waters" that can be heard from a great distance which is termed as Jinavani (The voice of God.) Lord Mahavira preached and propagated his holy instructions in Prakrit, A gigantic store of the Jain Scripture is found written mainly in Prakrit. Like aged old ancestor-Acharyas, Acharya Anand Rishi is also an aspirant preacher of this divine language which has largely been enriched, rejuvenated and renovated and by his skilful erudition. His literary works in Prakrita must be classed with the greatest literary out put of Acharyas of the antiquity. The posterity will always enlogise and felicit his literary contribution to Prakrit in good respect. Acharya Anand Rishi is also a reputed author, a prolific writer, fully enlightened enchanting singer of the tune of Universalism. He has a stern command over a half-dozen languages. Near about fifteen of the books have been written as well as adapted in to translations which is one of the greatest ventures on his esteemed part. By writing books he has opened the new vistas of our knowledge. His classical masterpieces have been largely commended by the scholars for his versatile knowledge of Scriptures and the stylish way of expression in them. Being a devotee of the goddess of learning he has founded two and a half score of Vidaya Mandirs '(The temples of spiritual learning) throughout in the country where spiritual instructions are imparted to innumerable seekers after renunications the glorious traditions set by him in the efforescence and promulgation of the spiritual knowledge through these Vidaya Mandirs can not be under rated in the parochiol confinements of the inedquate expression. The inner qualitative divine being of his personality appears to be characterised by a deep seated considency. Neither by any novel way of life, as we know, does he ever strive to give himself the airs of Saint or an inspired зичилавк श्री आनन्दऋ 3 B 龍 CINE 噩 55 乖 噩 Ариунча, 31. ge F 262922131GEGER 269 Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Niugaza HAS Bulgaz in 2013 dice S 13TG Thy Stela 4 Satish Kumar Jain special messenger of God our reply will be in emphatic 'No'. He is not only great UPASAKA and seer of the Jain religion and philosophy but also a great promoter and messenger of Universal love and world peace. In a true, sense he is a true votary of humanistic and ethical values. His visible personality is as impressive as that of a celestial being. His countenance is resplendent like a thousand suns shining glisteningly in one place, his eyes "a flame of fire," his feet resemble "fine brass" as if they burned in a furnace, his voice bubbles in the "honeyed sap" of docile-meekness--a perfect living embodiment of mercy, piety, suavity, humility, magnanimity and simplicity. In the fire of penance burning the fuel of KARMAS he attains eternal gift of in exhaustible joy. He is an apostle of Ahimsa and Peace. He is preaching Truth, Non-violence, nonpossession, non-stealing, celebacy-in a nutshell the religious path. The gist of his preaching sermons rests on the triple path of right faith, right knowledge and right conduct. In his pure soul appears the quartenary of Infinite-knowledge, Conation, Power and Bliss. He is distributing endlessly the light of knowledge extravagantly and generously amongst the people. His teachings are guiding stars in the forlon darness of the worldly night. Being the torch bearer of true path unlike an introvert he became the great Acharya of the great religion. Acharya Anand Rishi is the incarnation of indescribable glory. Before him Venom, anger, violence, passions all sins fly away and forgiveness, nonviolence and self control all merits sway whose many sided views, logic saves all quarrels of universe leads to truth and peace removing complete delusion, and devestation. He is a harbinger and herald of harmony between life and light, wisdom and work, devotion and deed, idealism and activity. He has waged war against hatred and evil passions. He is free from pride, deceit, aversion and infatuation. His knowledge of reality for pious persons is like a speech nectar for subsiding wealth, pride and passion. He is the propounder of the law prised by the best of semigods and men, the benefactor of universe who has made the best use of human birth really glorifies the radiant and pure place of Acharya. His is an image of Equanimity who has extracted the poisonous fangs from the serpent of self and rode the elephant of ego victory-victory over best and vice. Acharya Anand Rishi possesses a titan like indomitable spirit, contains steelish might in his feet. Omniscient perfection in his sayings, his endless and rampant Pad Vihar (travelling on foot) all the more an active spokesman of the doctrine of Ahimsa and Peace endeavouring to vanish the mist of superstition appeared in this world. Along with his rigourous path of penance, unflinching faith in moral and ethical values he has no peer in his astute knowledge of the obscure jainistic Scripture. His interior godly pious being is replete with multifold natural qualities viz.-Earth like Mercy, Moon like Coolness, Ocean like Serenety and Perseverence, Mountain like firmness, Diamond like rigidity, flower like suppleness etc. His pious and noble heart is the fountain of spontaneous over flows of unbounded-righteousness and modesty, incomparable debonair amiability. He is phelgmatic in nature, Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Anand Rishijee-"A Redeemer of the Modern Wasteland” 5 humble and save in mutual intercourse, having sanguine and sanemind with panoramic stretchability of the Vision, altruistic in outlook who so ever comes to lay his needs before this benovelent healer himself becomes the source of all Goodness and Good. A true Jainistic spirit pervades his mind and soul. Love, kindness, friendliness, delight, sympathy, self-endurance, compassion with an attitude of toleration and indifference are the cardinal tenets of his soul. Being a never centre of social welfare-Unity of the Sangha is his breath, uplift of masses is his adherent devotion, unhampering growth of the community is his rock like firm determination. Acharya Anand Rishi -a Reformer Saint is an emancipator of troubled humanity whose great teachings are the panacea for the ills and grievances of the modern Wastelanders. It is true that he is born to redeem the world. He is of our life's anchor help us in crossing the tumultuous sea of our life. We now all seek shelter at thy feet dedicating our minds and souls. All troubles are ended by the mere mention of thine holy name. May the whole Sthanakvasi Jain Sraman Sangha illuminate the horizon of SPIRIT with its pride and prosperity, unity and strength, purity and peace under the holy banner of his inspiring and accomplishing spiritual headship. A commemoration Volume in honour of Rey. Acharya is a very nice idea and it will go a long way to encourage such spiritual luminaries in the pursuits of the establishment or re-establishment of fundamental values of the life such as Truth, Peace and Non-Violence. The felicitations to be offered to the scholar Rishi and the Commemoration volume to be offered to him on the auspicious occassion of his Gracious 75th Birth day in appreciation of his profound intellectual knowledge and priceless services. May he win many more laurels and distinctions for his meritorious services and be with us for many a year for guiding and stimulating the seekers after Truth and Non-Violence. Acharya Anand Rishi is a palpably historical personality whose words ring so familiar today will also sound in the ears and hearts of millions of humble folk after the lapse of centuries. It is my ardent prayer that his glorious message of Truth, Non-Violence, peace, good-will and fraternity among mankind may take firm roots in and reign over human hearts and minds all over the globe for ages to come. a ) BALAAAAAAAAAA e GS gunez, JC 95mm SRETAGET STE9100311achely 517292 Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAUJAAAAAAAANAALALALAWA NAA NANAAAAALAAAAAAAAAAAAAA 013T660R Street YYYYYYYYYYN Dr. A. N. Upadhye, Mysore University TA PER Religious Awakening th ON Man is a complex being. He has to attend to the needs of his body, to the demands of his mind and also to the yearning of his spirit. If his pursuits in the three directions are properly balanced, then alone he can lead a life not only of contentment, but also of happiness. Eating, sleeping, protecting oneself and satisfying biological instincts these are more or less common to all the animals. But, if a man or a woman claims him herself to be a superior animal, naturally these needs will have to be properly channelised with restraint : and they should not be allowed to overpower and destroy the dignity of the individual. Even if all the physical needs are satisfied, a man cannot be happy. He is gifted with intellect, and naturally he would like to have - some intellectual pursuit. It may take the form of study, of devetion to some art like singing, painting or some creative activity, in some field or the other. If a man was all by himself, he should have been satisfied with the above two pursuits. But he is a social being. He lives in a society. His environments have obliged him, and naturally he owes something to the society and to the humanity at large. This consciousness is possible in a man only if he recognises the spirit in himself as well as the communion of this spirit with all others in the society. Such a communion is possible only with what may be called Religious Consciousness or awakening. Here, the man tries to keep under restraint his physical needs, to channelise his intellectual pursuits in a healthy manner, and then to keep himself awakened for satisfying his spiritual needs. If we reflect in this background, we can try to understand modern friends in religious thinking, especially in our Indian society. The aspirations of the spirit are fulfilled in various ways according to the intellectual levels of the man. Ordinary people find religious consolation in rituals, in devotional functions, etc. They feel thereby that they are lifted up to better levels. The intellectual, however, tries to satisfy his spirit by philosophical speculations, by understanding the complicacies of life and by finding out ways and means to make himself more contented and more happy. On an intellectual plane, there is a limit to all this. Some people want to contain themselves within themselves and try to realise their spirit as something higher and as something nobler. Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Religious Awakening 7 Now-a-days, in affluent societies, the individual is attending more and more to his physical needs, and the pressure of life is so heavy that even his intellectual pursuits are an escape from the druggery of the daily routine. Science and technology have put him in abundance and given him plenty of leisure. For such people, there come moments of mental vacantness and of frustration. They try to find consolation by addicting themselves to some unhealthy habits. Thus today, Religious Thinking has fallen on a low ebb in affluent societies. But it is to be hoped that even affluent people would come, one day or the other, to feel that there is something like a spiritual pursuit, which can be satisfied only by Religion, understand in its best form. Go 1. LE Den Laci LAT Pe Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L AAAAAABAANAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA TAVN V YMMVN O Dr. N. M. Kansara, M. A., Ph.D. [Prof. of Sanskrit & Head of the Department of Sanskrit, Prakrit and Marathi, Gujrat College, Ahmedabad-6] The Vedic Gayatri Mantra & Its Metamorphosis in the Jainism (i) THE IMPORTANCE OF THE GĀYATRI The famous Sanskrit mystic formulae, popularly known as Gāyatri or Sāvitrī, is originally a Vedic verse occuring in the Samhitās of the Rgveda, Yajurveda and the Sāmaveda, as also in some of the Brāhmaṇas, Āranyakas and the Upanişads. These latter works, and along with them the Mahābhārata and the Rāmāyaṇa, the Sutra treatises, the Smộtis, the Tantras and the Purāņas contain several references to the mystic significance and the great occult importance of this formulae. It has been extolled as the 'golden text' of the whole Rgveda, and the most sacred of all the vedic stanzas, comparable to John III, 16 in the Bible, the Kalmā in Islam, and the threefold refuge of the Buddhist creed.? The connection of Sāvitri with the sun is fairly close, and is preserved from the earliest times in the repetition of the Sāvitri verse, when in the morning the orthodox Indian householder salutes the rising sun with the words : 'That desirable glory of the god Savitar we meditate, that he may inspire our thoughts.94 A Brhamin child in the eighth year from conception or birth, a Kștriya in the eleventh and a Vaiśya in the twelfth, was expected to be received as a student by a teacher who initiated him in the studies by imparting the Sāvitri formulae ;5 the limit was optionally extended to sixteen, twenty-two and twenty-four years respectively, but after that a youth lost the right to initiation into the formuale. Not only that, such a non-initiated youth was deemed unsuitable to be associated with, nor worthy to be taken as a pupil, nor was he permitted to sacrifice and consequently was held ineligible for being accepted as a son-in-law.? If the Sāvitri was lost for three generation, the right of sacraments was lost, and could only be regained by the performance of the Srauta rite called the Vrātya Stomas. Its muttering formed a vital part of the daily worship offered by the Brahmins ; it has been regarded so for ages long from remote times to the present day. Indian tradition holds that the Vedic hymn, Rgveda III, 62, of which this formulae happens to be the tenth Rc., was discovered by the celebrated Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Vedic Gayatri Mantra & Its Metamorphosis in the Jainism 9 FO CIAORIAL Vedic seer Viśvāmitra, originally the son of king Gāthin (Gādhi) Kuśika of Kānyakubja.10 The text of the formulae is as follows: Ornibhūr/bhuvah svah tat savitur varen yar bhargo devasya dhimahi/dhiyo yo nah pracodayät// Herein God Savitar's power is invoked in order to stimulate one's thought-power. The God's power of stimulation is tranferred to the spiritual world, and he becomes the inspirer and quickener of thought ; as Savitar awakens the world to do its work, so he awakens the spirit of man : the morning glow is an emblem of the inward illumination which the earnest worshipper or student desires for himself at the beginning of the day, or in the post-Vedic period at the beginning of the Vedic study. 11 (II) THE VEDIC INTERPRETATION (A) One of the earliest authentic Upanishdic extolment of the Gāyatri has been preserved by the Vedic tradition in the Chāndogya Upanişad,12 where the nomenclature "Gāyatri' is derived from the two roots Ugai and trai, meaning literally, 'that which, singing, protects'.13 The meaning of the formulae as a whole stands thus : OM! The earthly, atmospheric and celestial spheres (bhur bhuvaḥ svah)! Let us contemplate the wondrous solar spirit of the Divine Creator (tat savitur devasya varenyam bhargo dhimahi)! May he direct our minds (yo naḥ dhiyaḥ pracodayāt) !14 (B) The Gāyatri-vyākaraṇa of Yogi Yajñavalkya explains it in the following way: "Tat, means that. Tat is apparently here treated as in the objective case, agreeing with varenyam, etc., but others holding that the vyāhrtiBhūr bhuvah svah--forms part of, and should be linked with, the rest of the Gāyatri treat that as part of a genitive compound connected with the previous vyāhști (in which case it is teşām). The word yat, “which" is to be understood (it may, however, be said that yat is there in yo nah). Savituḥ is the possessive case of Savits, derived from the root Vsu, "to bring forth". Savits is, therefore, the Bringer-forth of all that exists. The Sun (Sürya) is the cause of all that exists, and of the state in which it exists. Bringing forth and creating all things, it is called Savitr......By Bhargah is meant the Aditya-devatā, dwelling in the region of the Sun (Surya-inandala) in all His might and glory. He is to the Sun what our spirit (Ātmā) is to our body. Though He is in the region of the Sun, in the outer or material sphere, He also dwells in our inner selves. He is the light of the light in the solar circle, and is the light of the lives of all beings....... In short, that Being whom the Sādhaka realizes in the region of his heart is the Aditya in the heavenly firmament. The two are one. The word is derived in two ways: (1) From the root Bhrj, “to ripen, mature, destroy, reveal, shine." In this derivation Surya is He who matures and transforms all things. He Himself shines and reveals all things by His light. And it is He who at the final Dissolution (Pralaya) will in His form of destructive Fire (Kālāgni) destroy all things. (2) From bha "dividing all things into different classes"; ra "colour, for He produces the colour of all created objects"; ga "constantly IK C A NAALALALALA AALLLAAALALALALAMARALAJASAASA A AAAAAAAAAAAA VT zuzgan 314125757 TOY STO &iseY QA Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 Dr. N. M. Kansara going and returning." The Sun divides all things, produces the different colours of all things and is constantly going and returning. Devasya is genitive of Deva, agreeing with Savituh. Deva is the radiant and playful (lilamaya) one. Sürya is in constant play with creation (Srsti), existence (Sthiti), and destruction (Pralaya), and by His radiance pleases all. (Lila, as applied to the Brahman, is the equivalent of Māyā). Varen yam=varaniyam or adorable. He should be meditated upon and adored that we may be relieved of the misery of birth and death. Those who fear rebirth, who desire freedom from death and seek liberation, and who strive to escape the three kinds of pain (tāpa-traya), which are Ādh yātmika, Ādhidaivika, and the Ādhibhautika, meditate upon and adore the Bharga, wbo, dwelling in the region of the Sun, has in Himself the three regions called Bhūr-loka, Bhuvar-loka and Svar-loka Dhimahi=dhyā yema (from the root v dhyai), we meditate upon, or let us meditate upon. Pracodayāt ==may He direct. The Gayatri does not so expressly state, but it is understood that such direction is along the Catur-varga, or four-fold path, which is Dharma, Artha, Kāma, and Moksa (piety, wealth, desire and its fulfilment, and liberation). The Bhargah is ever directing our inner faculties (Buddhi-vrtti) along these paths.'15 (C) One of the finest, though later, traditional elaborations of the Gayatri is found in the Agni-pūrāņa, where the formulae is explained in the following manner : It is called "Gāyatri" as it protects the body and the vital breaths and the students as they recite it.16 It is known as "Savitri" as it reveals the Sun.17 It is also called “Sarasvati" as it is in the form of a spoken word. The word “Tat" indicetas the Supreme Light, the Brahman.19 The word "Bhargah”, being derived from the roots ✓ bhā (to shine), v bhrasj(to ripen, to nature) and bhrājr (to radiate), in accordance with the Paninian dictum 'Bahulam chandasi' (P. Sa. V, ii, 122). means 'light' 'effulgence'.20 The adjective "varenyam”, derived from the roots Vvị (to cover) and Vvị (to choose), means 'the best and the desirable one', and denotes the Brahman is of the nature of eternal, pure, intelligent, unique truth, and, therefore, is the highest state of being to be preffered by those who desire to attain the heaven or the final emancipation.21 The verb “dhimahi", derived from the roots Vdhyai (to meditate upon) and vdhā (to hold), meaning 'we meditate upon', 'we keep in mind', 22 refers to "Tat" which stands of the Almighty Lord Vişnu, the Supreme Light, the Supreme Cause of the creation, sustenance and destruction of the universe.23 Some call him Siva, some Sakri, others Sūrya, while still others call him Agni.24 The subordinate clause, viz., "yah" ('which', implying "bhargah”) "nah" ('ours', i. e., of all the living beings) "dhiyah" (intelligences') "pracodayāt" (*may inspire, impel, stimulate'),25 contains the prayer proper. The adjectives "devasya" and "savituh" are to be construed with "bhargaḥ". 26 Thus, the Vedic interpretation refers unanimously the prayer to the Sun and extend the symbolical significance to the impersonal Brahman on the one hand, and to the personal deity which may be taken as Vişnu, Siva, Sakti, Agni, and etc., on the other hand, as the underlying consciousness permeating the universe. Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Vedic Gayatri Mantra & Its Metamorphosis in the Jainism :. CERT ES rn (111) THE CONCEPT OF WORSHIP' IN JAINISM Jainism, which like Buddhism was mainly a reform movement in India's spiritual life, accepted all the gods of the orthodox tradition and rejected the authoritativeness of the Vedas and the utility of sacrifices.27 The orthodox Jainas believe that their religion is eternal and has been revealed again and again in every one of the endless succeeding cycles of the universe by the Tirtharkaras, all of whom have attained to the Kevala-jñäna in their lifetime and became finally liberated from the cycle of rebirths at their death.28 The Jainas do not believe in a personal god, nor even in a universal spiritual principle, but build temples for their ancient religious leaders (tirthankaras) and worship them as veritable "Gods.29 The raison d'etre underlying this practice is quite logical as well as practical. The images of the Jaina saviors--the "Makers of the River Crossing" (tirtharkaras) are worshipped for the effect of their 'darśana', rather from any hope that the great being himself might condescend to assist a worshipper ; such a hope is illogical as the saviours dwell in a supernal zone at the ceilling of the universe, beyond the reach of prayer; there is no possibility of their assistance descending from that high and luminous place to the clouded sphere of human effort. In the popular phases of the Jaina household cult, therefore, the usual Hindu gods or their Jain equivalents are implored for minor boons, like prosperity, long life, male offspring, etc.,30 while the supreme objects of Jaina contemplation, the Tirthankaras, are worshipped as a constant reminders of the supreme goal of human existence, the final liberation. The contemplation of their state as represented in their curiously arresting images, coupled with the graded, progressively rigorous exercises of Jaina ascetic discipline,--and exemplified in daily life in the lives of their ascetics (munis) teachers (upādhyâyas) and pontifs (ācāryas),brings the individual through the course of many lifetimes gradually past the needs and anxieties of human prayer, past even the deities who respond to prayer, and beyond the blissful heavens in which those gods and their worshippers abide, into the remote, transcendent, "cut-off” zone of pure, unaffected existence to which the Crossing-Makers, the Tirthankaras, have cleaved the way.31 The Jaina concept of 'worship'as outlined above has basically directed the thought-process underlying the adoption of some of the useful elements of the orthodox Vedic tradition, such as the mystic syllable OM, the idea of Pañca-parameșjhins, the Tantric symbolism, the mythological pantheon, and so on. The Jaina interpretation of the Gayatri formulae is also in line with the same mode of thinking, although it has been undertaken merely as a scholarly pastime,rather than as an attempt to adopt and ingratiate the Gāyatriworship in the daily religious routine of a Jaina householder. (IV) THE JAINISTIC INTERPRETATION Although the Jainistic interpretation of the mystic symbol OM, might date back of the times of the Digambara jaina Acarya Samantabhadra, alias Pujyapāda, and perhaps even prior to that, that of the Vedic Gāyatri most probably does not go beyond the times of the Svetāmbara Jaina Ācārya Jina WAAAAAAAAAAA AAAA AAAAAA 34urzf9427 E nguyi922 3 gioice 2016 Gala1 3349 Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयाम प्रवरुप अभिनंदन आनन्द 31 모르 श्री 鱷 STR थ 31513-41 12 Dr. N. M. Kansara prabhasūri (V. Sam. 1327-1389), who seems to have indicated the process to Upadhyaya Subhatilaka, who has fully explored the motif in his yet unpublished work entitled the "Gayatri-vivaraṇam." The Jainistic interpretation of the Vedic Gayatri Mantra elaborated below is in the light of the above work. The mystic syllable "OM" denotes the Five Supremes (Pañca-parameşthi), viz., Arhat, Asarira (i. e. Siddha), Acarya, Upadhyaya, and Muni. The syllable OM is symbolically constituted by the conjunction of the initial vowels of the first four names, and the initial consonant of the last one; thus, A+A+A+U+M-OM," The body of the formulae is to be split up as follows: OM BHUR-BHUVAH-SVAS-TAT/SAVITUR VARENYAM / BHARGODE VASI ADHIMAHI/DHIYOYO NAH PRACA UDAYAT// The syllables 'Bhah', 'Bhuvah' and 'Svah' combine to form a Dvandva compound Bhür-bhuvaḥ-svaḥ denoting the totality of the three worlds, viz., the hell, the earth, and the heaven. It is further combined with the root √tan (to spread, stretch, pervade), to form an Upapada Tatpurusa compound, viz., BHORBHUVAH-SVAS-TAT, meaning 'the one who pervades all the three worlds". This adjectival compound qualifying the mystic syllable, grammatically the substantive, Om, primarily refers to the first two of the five Supremes, viz., the Arhat and the Siddha, both of whom, being possessed of the cmniscience, are capable of fathoming all the things of the three worlds through the means of their Kevala-jñāna.35 The rest of the Supremes, viz., the Acarya, the Upadhaya, and the Muni may also be deemed to be secondarily included in this category in view of their possibility of such an attainment sometime in future, especially as they have already embarked upon the path of the former two categories of the Supremes. Tr The phrase SAVITUR VARENYAM primarily qualifies the substantive 'Om and is secondarily to be construed with the adjectival compound Bharbhuvah-svas-tat. It means 'preferrable to the Sun." The five Supremes are far superior to the Sun in point of effulgence, since the light of the Supremes, being of the nature of knowledge, penetrates and pervades the whole universe, while the physical light of the Sun pervades only a part of the physical world.38 The phrase BHARGODE VASI ADHIMAHI is a construction in the locative absolute. The word Bhargode is the locative form of a Dvandva compound constituted from the words Bharga (the creator), U (the sustainer) and Da (the destroyer), thus denoting the trinity Brahma-Vism-Isvara. Vasi is the locative form of Vas meaning 'One who dwells in', i. e. 'One who is engrossed in. Adhimahi is a peculiar indeclinable in the locative. It is formulated first by constituting a Genitive Tatpurusa compound Imahl from the words (i. e., Kama) and 'Mahi' (earth, i. e., place or object), thus meaning "the objects of passions'; it is further compounded the gerund Adhikrtya (with reference to) as the initial member; the final meaning of Adhi-i-mahi is, thus, 'with reference to the objects of passions', i. e. 'so far as women are concerned.'40 Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Vedic Gayatri Mantra & Its Metamorphosis in the Jainism The whole phrase is, thus, taken to embody an oblique suggestion to the inferiority of the celestial trinity of Brahma, Visnu and Mahesa in comparision to the Arhats etc., in that the latter are above all passions, while the former are known, from the Vedic-Brähmanic Purāņas. to have been such to the enchantment of the fair sex.41 13 N DHIYOYO, NAH, and PRACA are the vocative forms of the words Dhiyoyu, Nr and Praca, respectively. The word Dhiyoyu is taken to be an Ablative Tatpuruşa compound with the retention of the case affix, thus, Dhiyahayu. The word Ayu is a denominative from the root vyu (to mix, to separate); the Nañ compound of it being 'A-yu.' The adjective Dhiyoyu denotes. 'One who is non-separated from the intelligence,' i. e. 'One who is endowed with a sense of discrimination'. Praca is a Pradi Tatpuruşa compound formulated by combining Pra and Cara, the latter word being a denominative from the root Vcar (to move, to behave). The adjectival compound, thus, means 'One who has been conducting oneself on the proper path'. The whole vocative expression Dhiyoyo naḥ praca means 'O Man! who has been endowed with a sense of discrimination, and who has been conducting yourself on the proper (ethical and spiritual) path!" UDAYAT is a verb in the aorist, derived from the root vUd-+ Vya (to rise, to excel, to stand supreme), and means 'Has been standing supreme' or 'Has ever excelled.'45 The end-result of the above discussion can be summed up as follows: Since Brahma, Visnu and Iśvara are subject to the passion for women (bhargode vasi adhimahi), O Man of discrimination and proper conduct (dhiyoyo praca nah)! the five Supremes (Om), which pervades the three-fold universe (bhür-bhuvaḥ-svas-tat), (and) which excels (the effulgence of the Sun), has come up supreme (udayat). By itself, this is a matter-of-fact statement, which may be analyzed as follows: (1) Since the holy trinity of the Brahmanico-puranic deities like Brahma, Visnu and Mahesa held in high adoration by the Vedists and the adherents of other systems of Indian religious philosophies like Sämkhya Vaisnava and etc,, are subject to the erotic onslought of the objects of personal enjoyment like women, they cannot possibly be relied upon as a steadfast sheetanchor by those who aspire to rise past the passions and temptations and cannot, therefore, attain to final liberation from the cycle of rebirth. (2) The only worthy objects of supreme devotion and worship are the five Supremes of Jainism, as they excel the very Sun by their omniscience through which they pervade all the objects of the whole of the three-fold universe. (3) As a devotee, O Man, you are endowed with the power of discrimination so that you can decide for yourself between the good and bad, between the one that can lead you to the final liberation and the one that cannot. (4) As a devotee, O Man, you have an innate tendency to follow proper path of behaviour, CHORD FE F j BRALE зичилавк अभिनंदन आनन्दका श्री आनन्दक 21311 31222131de4 Злучая за винаги знаха Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 HT ty 14 Dr. N. M. Kansara From the above four aspects of the factual statement, the conclusion that is automatically implied is this: (5) As a dicriminating devotee given to the path of good conduct, it is your duty to avoid adherence to the deities of the Trinity, etc., since, being themselves subject to human weaknesses, they cannot help you to rise above them ; on the other hand, you must positively put your faith in, worship, and follow the path chalked out by, the five Supremes of the Jainism, as these latter have already attained to omniscience that pervades the whole three-fold universe, and have by their effulgence of all-pervading omniscience surpassed the Sun whose physical light covers only a part of the physical world ; they are, therefore, the only ones capable of ever inspiring you to strive for your spiritual wellbeing culminating in the final emanciation. (V) THE EPILOGUE The above Jainistic interpretation of the Vedic Gāyatri would look ludicrous, not quite convincing, contextually quite unwarranted, and so on, at first sight. But, the commentator has undertaken it in good faith as a worthy scholastic exercise calculated to fetch merit, resorts to a Mantra in the light of the Tantric tradition that one, who keeping in mind the underlying truth, supporting one's interpretation with due authorities and arguments, would qualify for highest esteem among the learned ones.46 And when we find that the commentator has interpreted the mystic formulae not only from the Jainstic view-point, but also from the points of view of the Naiyāyikas, the Vaiścşikas, the Sāṁkhyas, the Vaisnavas, the Bauddhas, the Jaiminiyas, and finally from an angle common to all the philosophical systems, we can have nothing but pure admiration for his thorough academic interest and erudite performance. And, from a strictly Tantric view-point, a Mantra is not a mere collocation of letters bearing on their face a particular meaning or in the case of Bīja Mantras apparently no meaning at all; to the Sadhaka it is a very mass of radiant Tejas or energy.47 It would, therefore, be capable of carrying a significance that would not go counter to the essential underlying goal of final liberation from the cycle of rebirth. UZCU References : 1. Cf. Rv. III, 62, 10; YV. XVI, 3 ; Sv. XIII, 4, 6, 3, 10, 2; Madh. Sam. 3,5 ; 22,9 ; 30, 2; 36, 3 ; Vāj. Sam. 3, 35; Tait. Sam. 1, 5, 6, 4; 4, 1, II, 1; and Tait. Āran. 1, 11, 2. Cf. Tait. Brāh. 3, 9, 4, 6; Gop. Brāh. 2, 5, 3; Sat. Brāh. 4, 2, 4, 20; Jaim. Up. Brāh. 4, 17; Tait. Āran. 1, 11, 2; BỊh. Āran. Up. 5, 14,5; Brah. Sû. 1, 1, 25; Bhag. G. 10, 35; M. bh. Aşv. Par. 99, 24; 99, 3237 ; 115, 27-29; op. cit., Kar. Par. 24, 292 ; op. cit., Anu. Par. 152, 1420 ; Man. Sṁr. 2. 82; Pdm. Pur. Sr. Kh. 16-17; op. cit., Utr. Kh. 113; Agn. Pur. 215-217; Skd. Pur. (Venk. Ed.) 13, 12 ; Kür. Pur. 1, 20, 50 ; Mats. Pur. 1, 17, 24 ; Var. Pur. 2, 74 ; Mah. Nir. Tan. 3, 2 ; Gandh. Tan. 2; 3, 76, and etc., 3. GRISWOLD, The Rel. of the Rv. (1971), p. 277: also Ibid., ft. nt. 3. Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Vedic Gayatri Mantra & Its Metamorphosis in the Jainism 15 IS Jen 4. KEITH, The Rel. & Phil. of the Ved. & the Up. s, (1925), Vol. I, p. 65. 5. Gobh. Gr. Sü. ii, 5; Bhārad, Gș. sü, i, 1-10; Āśv. Gr. Sū. i, 9; Sāńkh, Gr. Sü. ii, 1; Pāras. Gs. Sû. ii, 2 ; Baudhā. Gr. Sū. ii, 5; Āpast. Gr. Sū. xi ; Hirany. Gļ Sū. i, 1; Jaimini. Gr. Sū. i. 12-13; Mān. Gr. Sû. i. 21ff. 6. RAJ BALI PANDEY, Hindu Saṁskāras (1949), p. 203 ; P. V. KANE, History of Dharmaśāstra, Vol. II, Pt. I (1941), pp. 274-276. 7. KEITH, op. cit., Vol. II, p. 369 ; R. B. PANDEY, op. cit., pp. 204-205 ; KANE, op. cit., pp. 376-385. 8. KEITH, Ibid. ; PANDEY, ibid. ; KANE, op. cit., pp. 385-387. 9. B. A. PARAB, The Miraculous and Mysterious in Vedic Literature (1952), p. 132. SIDDHESHVAR SHASTRI CITRAV, Prācīna Caritra Kośa (Marathi), Pt. I (1968), p. 313. 11. GRISWOLD, op. cit., pp. 277-278. 12. Cf. Chặn. Up. 11, 12-13. 13. Cf. Ibid., III, 12, 1: Gāyatri vā idań sarvam bhūtam, yadian kiń ca, vāg vai gāyatri, vāg vā idaṁ sarvam bhūtam gāyati ca trāyate ca. 14. PRATYAGATMANANDA SARASVATI & WOODROFF, Sadhana for Self-realization, Madras (1963), p. 34. 15. PRATYGATMANADA SARASVTI & WOODROFF, op. cit., pp. 34-35. 16. Agn. Pur. 216, lcd, 2a ; Gāyan śişyān yatas träyetkāyaḥ prāņas tathaiva ca/Tataḥ smsteyam gāyatri.../ 17. Ibid., vs. 2 bcd ; Sāvitri iyam tato yataḥ / Prakāśapāt sā savituh.../ 18. Ibid., vs 2 d : ... Vāg-rūpatvät sarasvati // 19. Ibid , vs. 3 ab ; Taj jyotiḥ paramam brahma.../ 20. Ibid., vss. 3cd, 4 : Bhā-diptāv iti rūpam tu bhrasja pāke 'that at smsātam // Osadhyādikar pacati bhrasja dīptau tathā bhavet / Bhargaḥ syäd bhasjata iti bahulam chanda iritam // Ibid., vss. 5-6 abc : Varenyam sarva tejebhyaḥ śreştham vai paramam padam/Svargāpavargakāmair vā varaniyaṁ sadaiva hi // Vļņoter varanárthatvā jāgrat-svapnādi-varjitam/Nityam śuddam budhamekam satyam...! Ibid., vs. 12ab : Dadhāter vā dhîmahīti manasā dhāra yemahi/ Ibid., vss. 60, 7: ... Tad dhimahīśvaram || Ahaṁ brahma paraṁ jyotir dhyāyemahi vimuktaye / Taj jyotir bhagavān vişņur jagaj-janmadi-kāra ņam il 24. Ibid., 8 : Sivam kecit pathanti sma sakti-rūpam pathanti ca/Kecit sūryam kecidagniṁ vedagā agni-hotriņaḥ 11 25. Ibid., vss. 12cd, 13 : No 'smākaṁ yaś ca bhargaś ca sarveşāṁ prāņinām dhiyaḥ // Godayāt preraye buddhir bhoktļņām sarva-karmasu / Drsțād rşta-vipākeşu vişnu-sūryāgni-rūpavān // 26. Ibid., vs. 17. 27. P. T. RAJU, The Philosophical Traditions of India, London (1971), p. 113. 12 21. 22. 23. UNU Montenero Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANAALALALAAAAAABAAAAAAAAAALALALALAMANCANTALAINAASATABAAAAAAAAAAAAAAAA 315/1chey ST&D973TAG Hey 5709 . VVVN 16 Dr. N. M. Kansara 37. 28. S. N. DAS GUPTA, A Hist. of Ind. Phil., Vol., I, Cambridge (1957), p. 169. 29. RAJU, op. cit., p. 112: DAS GUPTA, op. cit., p. 170. 30. HEINRICH ZIMMER, Philosophies of India, (Meridian Books, New York, 1957), p. 181. 31. ZIMMER, op. cit., p. 182. 2. Cf. SUBHATILAKA, Gayatri-vivaranam, quoted from Ms. (No. 6073, L. D. Institute of Indology, Ahmedabad): Cakre śrī-subhatilakopāddhyāyaiḥ sva-mati-şilpa-kalpanayā / Vyakhyanam gayatrāḥ kriļā-mätro payogam idam / 33. It is contributed to 'Sambodhi' for publication in the April, 1974 issue. 34. SUBHATILAKA, op. cit.; Arhanta ityādyaksaram aḥ ! Aśarirā iti siddhas tadadyaksaram aḥ | Ācārya ityadyakşaram aḥ / Upadhyāya ityādyakşaram ,uh / Munityādyakşaram m asvaram / Sandhivaśāt om/ Padaikadeşe' pi pada-samudāyopacārād evam uktiḥ // 35. SUBHATILAKA, op. cit.; Prasiddhā “rhat-siddhānam sarva-dravya paryāya-vişayeņa kevala-jñānātmanā lokatraya-vyäptiḥ, jñānātmanoh syād-abhedāt.../ 36. Ibid. ; Seșa-trayasyā' pi śraddhāna-vişayatayā, “savva-gayam sammaltam" iti vacanāt, sāmänya-rüpataya jñānād vā.../ Ibid. ; ... Sahasra-raśmeh sakāśāt pradbānataram.../ 38. Ibid. ; ... Tad-udyotasya desa-visayatvāt, prastuta-pancakasambandhino bhāvodyotasya sarva-vişayatvāt ... 39. Ibid. ; ... Bharga iti īśvaraḥ, ur iti brahmā, dayate pālayati jagad iti do vişnuh ... Bhargaś ca uś ca daś ca iti bhargodam..., tasmin.../ Ibid. ; ... I kõmah, tasya mahyo bhūmayaḥ kāminyaḥ, tã adhikstya, adhimahi / Strișu tişthamāne stryāyattātmani ityasyāśayah / 41. Ibid. ; Pratita caitad iśvara-brahmā-vişnusu kämini-paravaśakatvam, pārvatyanunayārtham iśvarasya tāndavādambara-śrteh, brahmānam adhikstya vede 'pyuktam' Prajapatiḥ svāṁ duhitaram akāmayat iti, visnos tu gopyādi-vallabhatvopadarśaka-tattad-vacanāt ... / Ibid. , Yuk miśrane ityayaṁ parair amiśraşe ca ityadhīyate / Ato yauti pệthag bhavati iti yuh ... / Na yur ayuḥ ... Tasyāmantrane, he ayo aprthag-bhūta / Kasyāḥ ? Dhiyo buddhitaḥ...) buddhimān prekṣā-pūrva kāri.../ 43. lbid. ; Prakṣstam carati iti pracaḥ, prakṛṣtācāro mārgānusāri-pravșttir iti yāvat/ 44. Ibid. ; Bhoh puruşa ! jnänavat ! prakrstācāra !.../ 45. Ibid. ; Udayāt, udayam prāptam, ananya-sāmānya-guņātiśaya-sampadā pratisthitam.../ 46. Ibid. ; Mantran ca sa-pramāņa-koți sa-țankam ātikate yah, sarva-pārsado bhavati ... iti sarvadarśanābhiprāyeņa gāyatri-vyākhyānāyopakramyate / 47. PRATYAGATMANANDA SARASVATI & WOODROFF, op. cit., pp. 29-30. 40. Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Prof. M. S. Ranadive D9UI The Jaina Idea of Universe Virk tras In metaphysics, man through different ages and stages of philosophy has observed the self and the non-self. He has always tried to give importance to the one or the other, or to strike a sort of compromise between the two. He has formulated either one substance, like the Brhma of the Vedāntist, or the matter of the materialist, or many substances of the Sānkhya. Jainism takes its stand upon a common-sense basis, which can be varified by every one for himself. Jaina metaphysics divides the universe into two everlasting, uncreated, coexisting but independent categories-(i) Jīva (the soul) and (ii) Ajīva (the non-soul). Logically it is a perfect division and unassailable. The soul is the higher and the only responsible category. Except in its perfect condition in the find stage of Nirvāņa (liberation), it is always in combination with matter. The body (the non-soul-Ajīva) is the lower category, and must be subdued by the soul. According to Jainism, the Universe is uncreated and existing from eternity though undergoing modifications. Any object of knowledge that exists is called Artha which must be associated with Dravya (substance), Guņa (quality) and Paryāya (modification). A substance exists in its own nature and has its own attributes and modifications. Moreover, it is united with Utpāda or Sambhava (origination), Vyaya or Nāśa (destruction) and Dhrauvya or Sthiti (permanence), which are at one and the same time. One modification of a substance originates and other one vanishes; but the substance remains the same. Viz. the golden ring is changed into a new form called an earing, one form vanishes and the other one originates; but the substance gold remains the same. Substance is divided into (I) Jiva (soul) and (II) Ajīva (non-soul).3 1. Jiva-Soul is the central theme in the Jaina system. The soul is not created by anybody, nor is anybody created by the soul. It is essentially an unit of Cetană (consciousness) and Upayoga (conation). The soul is eternal but not of a definit size, since it contracts or expands according to the demension of the body in which it is incorporated for the time being. Souls are classified under two principle heads : Samsāri (mundane) and Mukta (liberated). M CATATAALA ANALA MANAMAROSA . .... .. AA NAAAAAAA gunsgaz NS-TECER 516299 izzf9d26 37 .129 3135 Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A 18 Prof. M. S. Ranadive II. Liberated souls will be embodied no more ; they have accomplished absolute purity; they dwell in the state of perfection in Nirvānna at the top of the universe and have no more to do with worldly affairs. Mundane souls are the embodied souls of living beings in the world and still subject to the Cycle of Birth. Mundane souls are Sthāvara (immobile) and Trasa (mobile). Being caused by Asubha (inauspicious) and Subha (auspicious) Karman, they wander in the cycle of the four grades of existence, i. e. Nāraki (denizens of hell), Tiryanca (lower animals), Manuja (men) and Deva (gods). Ajiva--Non-soul is looking of sentiency and it comprises five substances : matter, principle of motion, principle of rest, space and time.? Pudgala--Matter is non-sencient concrete principle. It is either in the form of Paramāņu (primary atom) or Skandha (aggregates) These Skandhas are the lumps of Paramāņus. The aggregatory process is going on because of their inherent qualities of Snigdha (cohesiveness) and Ruksa (aridity). It possesses the four qualities as touch, taste, fregrance and colour. They are grasped by sense organs. Matter also possesses origination, destruction and permanence. Dharma - It is the principle of motion. It assists the movement of moving souls and matters as water helps the fish to move. 11 Adhamra-It is the principle of rest. It serves as the medium of rest as the shadow helps the travellers to rest, or like the earth to the falling bodies. We see around us things moving, coming to rest, again moving and so on. There must be some media to help the moving and resting things. If there were no medium of motion, all things in the universe will be at a stand still. There will be universal cosmic paralysis. It there were no medium of rest, the things in the world will be scattered and flying about in the space and instead of cosmos, there will be only chaos. Hence, the existence of these substances is postulated. Ākāśa--Space gives accommodation to all the five substances. It is eternal, perva sīve and formless and it includes our world (Loka) and beyond (Aloka). (v) Käla-Time is a substance characterised by Vartanã (continuity), being an accessory cause of change. The moments of time are individually separate like jewels in a heap of jewels.14 of these matter alone is corporal or concrete (Mürta) and the rest including soul, are incorporal or non-concrete (Amūrta), i. e. devoid of sense qualities and hence cannot be grasped by sense perception. Time is devoid of Pradeśa (space-points), while the remaining five substances have innumerable space-points, and therefore they are called Astikāyas (magnitudes). AO Je (iv) Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Jaina Idea of Universe 19 IST It is not maintained these six causes created the world at some particular time ; but they are eternally existing, uncreated and with no beginning in time. As substances, they are eternal and unchanging ; but their modifications are passing through a flux of changes. Their mutual co-operation and inter action explain all that we imply by term 'creation. There are always two causes in any event, namely, the Upādāna (substantial cause) and the Nimitta (instrumental cause). Viz. fire would be the instrumental cause determining water to boil, water being the substantial cause of the event 'boiling'. Each of the above named six substances or realities is both substantial cause and instrumental cause, each act upon the others and is itself acted upon by the others. Each has the power of originating new states, destroying old ones and keeping permanent. The basic substance with its qualities is something that is permanent, while the modes or accidental characters appear and disappear. Viz. the soul is eternal with its inseperable character of consciousness; but at the same time it is subjected to accidental characters like pleasure and pain and super-imposed modes such as body, etc. both of which changing constantly. This power is called 'satta.' It is not a separate entity existing outside these six realities. It is a power inherent in them and inseparable from them. The modern metaphysics also proved “Nothing new is created, nothing is destroyed, only 'modifications appear. Nothing comes out of nothing, nothing altogether goes out of existance ; but only substances are modified." As Jainism is a dynamic realism, its doctrine is similar to the views held by the philosophers in the West, especially those belonging to the Realistic School. The Jaina conception of Dravya, Guņa and Paryāya is approximately similar to Spinoza's view of substance, attributes and modes, though he uses the terms 'attribute' with a technical meaning, while in Jaina metaphysics it means qualities. Hegal had a conception of reality similar to the Jaina concep. tion of Dravya. Sattā and Dravya are one and the same as Hegal maintained. Thing-in-itself and experience are not absolutely distinct. Dravyas refer to facts of experience and Sattă refers to existence or reality. The French philosopher Bergson also recognised substance as a permanent thing existing through change. The position is the same in Jainism and Sānkhya so far as the initial start is concerned. One accepts the thesis and antithesis of Jiva and Ajiva and the other of Purusa and Praksti. Thus, both are dualistic or even pluralistic in view. But in Jaina System, Jiva is an active agent, while in Sänkya system Puruşa is always Udāsina (indifferent) and is only a passive spectator. Jainism is a realistic religion with a philosophical background, while Sankhya remained till the end only a system of intellectual pursuit. Jainism and Mimāṁsakas agree in holding that Atman is constituted of Caitanya and that there is a multitude of separate souls. But according to Jainism, pleasure and pain come to be experienced because of Karmic association; while Mimāṁsakas simply say that they are changes in the soul. In the condition of liberation, the soul, according to Mimāṁsakas, exists without 5 MAMARAAAAA ansveg a r AAAAAAAAAAY'ABASA Buitg9q2R PA Budit9220 371 073170C 516292O3T26124 3773899 Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रद зичназя श्रीआनन्दकः ग्रन्थ श्री आनन्द 37.23 20 Prof. M. S. Ranadive cognition; but Jainism holds that the liberated soul is an embodiment of entire cognition (Ananta Darśana), omniscience (Ananta Jnñāna), injinite energy (Ananta Virya) and the infinite bliss (Ananta Sukha). The Jaina Atman is a permanent individuality and will have to be distinguished from Buddhistic Vijäänas which rise and disappear, one set giving to a corresponding set. Unlike in the Nyaya system the soul in Jainism is not phisically allpervading but of the same size as that of the body which it comes to occupy. Jainism does not accept any idea like the individual souls being drawn back into some Higher soul Brahman or Isvara, periodically. 2K门 鱷 九 L 噩 Fi Soul's inherent qualities cognition (Darśana) and knowledge (Jñāna) are similar to that of Kant's view of sensibility and understanding. The Jaina conception that Jīvas are potentially divine and are found in different states of existence is echoed in the following lines of the Sufi Mystic: 'God sleeps in the minerals Dreams to consciousness in animals To self-consciousness is man And to God consciousness in Man made perfect." Matter in Jainism is concrete, gross, common place stuff amenable to multifarious modifications and realistic; while Sänkhya Prakṛti, though it involves much that is gross as well as subtle, stands for what is ordinary termed as undeveloped permordial matter; and it is an idealistic concept. Some Buddhist heretics known as Vätsiputriyas too, as Santarakṣita says, take Pudgala equal to Atman. That body, mind and speech are material corresponds to the Sankhya view according to which they are all evolved from Prakrti. The four kinds of Ahankaras: Vaikärika, Taijasa, Bhūtādi and Karmätmana remind us of the four bodies in Jainism: Aharaka, Vaikriyika, Jaijasika and Karmaņa. In explaining the phenomenon of Sañsära, the Karmic matter plays the same part in Jainism as Māyā or Avidya in the Vedanta system. The Karma doctrine, as an aspect of Jaina notion of matter, is complex and elaborated subject by itself. The Jainas and Vaišeṣikas agree in holding that an atom is beyond senseperception. According to Nyaya-Vaiśeşika, it is the will of God, the creating agency, that produces motion in the atom, and so they combine Dvyanukas, Tryanukas and so forth, till masses of earth, water, fire and air (Prthvi, Apa, Teja and Vayu), the four elements are produced. The NyayaVaiseşika ideas and hair-splitting discussions of Dvyanukas and Tryanukas have no place in Jaina exposition. The Jaina Paramāņu is similar to the atoms recognised by Lencippus and Democritus in its basic conception that it is an eternal and indivisible minute particle or matter, that it is beyond sense-perception, that it is made of Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Jaina Idea of Universe 21 the same substance and that there are no four classes of atoms corresponding to elements; but the varying size and form of atoms with corresponding sourness, etc. accepted by them is not possible Jainism. Ās in Jainism, Dharma and Adharma are never used as the medium of motion and rest anywhere else. The Sankhya idea that Dharma leads upwards and Adharma downwards is merely the ethico-religious idea quite usual in Gita and other works. In Jainism, they are non-corporal and homogeneous-whole substances. Dr. Hermann Jacobi holds this as mark of antiquity of Jainism. The function of Adharma Dravya corresponds to Newton's theory of gravitation. Like the Jainas, the European mathematicians Cantor, Peano and Frege have accepted the reality of Space and Time. Jainism and Nyāya-Vaiśesika agree in holding Ākāśa as all pervading and eternal, but Jainism does not accept that sound is a quality of Ākāśa; but it is produced only when molecules strike against one another. This view is held by the modern science also. The realistic philosopher Bertrand Russell also says that though time is the existent subsbance; still it is not merely experienced. Jainism holds that time is unilateral and in mathematical language it is called munodimentional. Considering the above discussion, I now conclude my article in H. Wasren's Words: “The power which creates and destroys things is not extra-cosmic outside the above named six realities, the power is inherent in the things themselves, and is found in both the intelligent and in the nonintelligent realities. This power is not called God in Jainism. That is the Jain position." References: 1 तं परयाणहि दवु तुहँ जं गुणयज्जय जुत्तु । सहभुव जाण हि ताहें गुण कमभुव पज्जउ वुत्तु । -परमात्मप्रकाश, I-75 2 दव्वं संलक्खणियं उप्पादव्वयधूवत्तसंजुत्तं । गुणपज्जायासयं वा जं तं भण्णंति सब्वण्णू ।। -पञ्चास्तिकाय:, 10 3 जीवमजीवं दव्वं । -द्रव्यसंग्रह, 1 4 जीवो पुण चेदणोवओगमओ। -प्रवचनसार, II-35 5 अप्पा देहपमाणु मुणि । -परमात्मप्रकाश, I-51 6 संसारिणो मुक्ताश्च ।। -तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् II-10 7 जीतु सचेयगु दवु मुणि पंच अचेयणा अण्ण । पोग्गलु धम्माहम्मु णहु काले सहिमा भिण्ण ॥ ---परमात्मप्रकाश, II-17 8 अणवः स्कन्धाश्च । -तत्वार्थाधिगमसूत्रम् V-25 9 स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः । -Ibid. V-32 आपाप्रवनवअभिनआचार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्दन्थश्रीआनन्दमन Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMAMANAJIJAJARAPARRAIMILARIAAIL.MANANASALAIJANAJalalAdaladae SI आपाय GAD MaraMoryamirrow 22 Prof. M. S. Ranadive 10 स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गला । ----Ibid. V-23 11 गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाण गमणसहयारी। तोयं जह मच्छाणं अच्छंता णेय सो जेइ । -द्रव्यसंग्रह, 17 12 ठाणजुदाण अधम्मो पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी । छाया जह पहियाणं गच्छंते णेय सो धरई ।। -Ibid. 18 13 आकाशस्यावगाहः । -तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् V-18 14 कालु मुणिज्जहि दवु तुहँ बट्टणलक्खणु एउ । रयणहँ रासि विभिण्ण जिम तसु अणूयहँ तह भेउ ।। -परमात्मप्रकाश, II-21 Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dr. Bashishtha Narain Tripathi, M.A., D.Phil. [U. G. C. Senior Fellow, Deptt. of Philosophy, Kashi Vidyapeeth, Varanasi J Human Nature and Destiny in Jainism In the course of evolution, life emerges out of matter. Man, as spirit, as the highest self-conscious, rules the universe with the aid of Karma. "Life becomes what is does." There, in five words, is the essence of the law. It follows that human history, from one point of view, is nothing but a record of the Karma of Humanity, working itself out according to the good or evil of our rational, national and personal deeds. Karma neither rewards nor punishes: it only restores lost harmony. He who suffers deserves suffering, and he who has reason to rejoice is reaping where he has caused it, there is no excuse for callous indifference to their suffering, by those more 'fortunate.' Once the law of Karma is understood, it will be seen that there is no such thing as luck, good or bad, but the subsequents follow antecedents by a bond of inner consequence, it is not merely numerical sequence of arbitrary and isolated units but a rational interconnection. Nor is the doctrine of Karma equivalent to the doctrine of Predestination or Determinism still less is it Fatalism. The latter implies a blind course of some still blinder power, but man is a free agent during his stay on earth, free i. e., within the working of the Law. For, viewed from one life, the 'operative Karma of life' is equivalent to the Greek Nemesis or Destiny. But this destiny is not the decree of a wrathful God but the product of Man's imagining. Esoterically, from the spiritual point of view, Karma is the law of moral retribution, whereby not only does every cause have an effect; but he who puts the cause in action suffers the effect. To all intents and purposes, this is a very knotty subject puzzling the best intellectuals from time immemorial. One school of thought contends that there is no scope for free will and everything happens according to plan; another school contends that there is no scope for Destiny (Prarabdha) and everything happens according to one's own exertions, while a third school contends that both destiny and free will work side by side in human activities. In the midst of these conflicting theories, it becomes very difficult for an ordinary person to have a clear idea of the subject to help him conduct himself in the given environment. In the context of freedom and spiritual 3523623221de зичнаяад श्री आनन्दवर Be Ji FE 九 31 32 3 TC9 COREY 噩 Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रवास अमिर देन प्रामानन्द अन्थ કાવાયાઅમ ST2 Dr. Bashishtha Narain Tripathi, M.A., D. Phil. M 57 Th 5 24 discipline, the entire range of Indian thought can be classified under three main heads : (1) There were thinkers who did not accept freedom or antonomy of spirit in any form. The Chārvāka denied the existence of the individual self apart from the physical body and rediculed the very notion of salvation. piece of nature and constituted by a conglomeration of natural ingredients, conscious or man, can have on value other than gross bodily pleasures. The question of freedom does not arise. This theory culminates in a rigorous form of determinism (Niyativäda) and has been condemned as pernicious and inimical to the spiritual life. (2) There were philosophers and religious man, such as Buddha and Mahavira, who accepted what we might call immanent freedom as felt and exercised in human environment. Every man's suffering is evidence of this freedom. The Budha, took his stand, like Kant, on the moral act, the immanent freedom implicit in man's endeavour to better his condition. The emphasis is on our self-effort and right exercise of one's volition. The Mahāvīra as well as Buddha were led to deny two opposed standpoints; one was naturalism (Svabhava-vada) or nihilism (uccheda-vāda), which totally denied, as is done by the Chārvāka or Ajivikās, the Moral Law (free act and its results, Karma and Karma-phala), and reduced man to a fortuitous coglomeration of natural forces; the other opposed standpoint was that of eternalism (Sásvatavada), which stood for the transcendent freedom of God (and even of an unchanging soul or ätman), who is above the moral law (Karma). The Buddha characterised both uccheda-väda and śäsvata-väda as specimens of inactivism (akriyavāda). (3) The third class is represented by the Hindu (Brahmanical) which is some form or other accepted a free, transcendent Being (God) besides the finite selves. It is not that this free being achieved his freedom after destroying his previous bondgge, but he is eternally free (Sadaiva-muktaḥ) and transcendent. (Sadaiva-Isvarah). If for Jainism and Buddhism the fundamental is the moral consciousness and the spiritual urge for purifying the mind of its passions, the fundamental of Hinduism is God-consciousness; and the God is exaltation and deitification. The Vedas which are the fountain source of all form of Hinduism, are intoxicated with the idea of God, of a transcendent Being, ever free and ever Lord. Religion, for them was not laboured suppression of passion, of control and regiment as Buddhism, but a relationship with the transcendent through prayer and devotion. According to the Jain philosophy, the jiva or the living individual is cetana (conscious), pure and perfect. "What knows and perceives the various objects, desires, pleasures, and dreads, pains acts beneficially or harmfully and experiences the fruits thereof that is Jiva". The soul is associated with various kinds of Karmas. The Karmas obstruct the various capacities of the soul and keep it tied to the wheel of wordly existence. The soul loses its luminosity due to its contact with Karmic matter. From the empirical standpoint it comes Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Human Nature and Destiny in Jainism 25 to possess passion (Kaşāyas) due to the influence of nescience (avidyā) which is as much beginningless, as the Jiva itself. Both jiva and avidyā, being beginningless, it is not easy to say when the jiva came in contact with avidyā. In fact, their contact is also beginningless. So, due to the influence of passions, the jīva gives up its intrinsic nature and falls into bondage. These passions are supported by what is known as 'Yoga', that is, the vibrations or activities of body, of speech and of manas. In fact, these two, that is Kasāya and Yoga, are regarded as the main causes of bondages.2 "Now the principle of Bandha or bondage", says a Digamabara Jain, Mr. Lathe,"is defined as the mutual entrance into each other's spheres of the soul and the Karman. When the soul is attached by the passions like anger and love, it takes on the Pudagal (material) particles fit for the bondage of the Karmas, just as a heated iron ball takes up water-particles in which it is immersed. This is bondage of the Karma." Being associated with attachment and aversion, the Jiva takes in such Pudagalas as are capable of producing Karman. This taking in of the Karman is bondage. The Siva is intrinsically formless (amūrta), but due to its connection with Kaşāya and Karman from time immemorial, it appears murta (with form) and so, it takes in only mūrta-karma-Pudagalas, and those very karmaPudagalas appear as Karmans later on. This is what is called 'bondage.' Kundakunda says that Mithyātva (perversity), ajñāna (nescience), and avirati (intense attachment) are the three beginningless forms of the consciousness informed with moha. According to Nemicandra it is of five kinds: (1) Ekānta, (2) Viparīta, (3) Vinaya, (4) Saṁsaya, (5) Ajñāna. The fourth Karmagrantha, however, notices these five varieties : (1) ābhigrāhika, (2) anābhigrāḥika. (3) ābhiñiveșika, (4) sāniśayika, and (5) apābhoga. Attachment to a view inspite of the knowledge that it is wrong is abhinivesika. To keep a doubtful attitude even towards what is wellestablished is sāniśayika. What is due to the incapacity of the mind to think and is found in such organisms as have not developed all the sense-organs is anābhogamithyādarśana.6 Mithyādarśana' (perverse view) lies at the root of all evils, and whatever misery there is in the life of a soul is ultimately due to it.? Dr. Tatia rightly observes thus, "It is the darkest period of a soul's life when there is unhindered working of this mithyātva. The soul gropes in the darkness, formulates wrong views about truth, and trades upon many a path, none leading to the region of light. The mithyātvakarman lies heavy on it, it blockades all paths leading to light. Saniyaktva or samyaka-darśana dawn only when the potency of this mithyātvakarma is reduced and made ineffective to an appreciable extent in course of time naturally or due to the influence of the instructions of persons who know the truth." The next kind of bondage is Avirati, meaning non-abstinence or lack of control against dosas. It is also of five kinds-(1) Hiṁsā (injury), (2) Ansta (falsehood), (3) Caurya (stealing), (4) Abrahm incontinence) and (5) Pariagraha (attachment towards a thing which has not been given to him). From a different standpoint these are forty-two varieties of this cause of bondage. U LAARNAALAAAAAAAAAAAAxue S AJARA ALAN AN KALAU ADINAMA sua vidi Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AADHAAA A ALAARAAAAAAA giud922 31 Rosa Or SICERY ST2N3116GBey Stage 26 Dr. Bashishtha Narain Tripathi The third cause of bondage is ‘Pramāda'. This is of fifteen kinds. They tend towards giving pleasures and pains etc. 10 It is not easy to give a clear-cut analysis of all the peculiarities which Jiva possesses after coming in the grip of karma-Pudagalas, because of their subtle nature, but even then they have been somehow classified under eight heads : (1) Jñăñavarniya, (2) Darśanāvarniya, (3) Vedaniya, (4) Mohaniya, (5) Āyusabandha, (6) Nāmabandha, (7) Gotrabandha, and (8) Antarābandha. Besides this, there are ninety-seven divisions and sub-divisions of these, mentioned in Tattvārthasūtra. 11 The flowing of the karma-Pudagalas into the Jiva, through the activities of body, speech, and manas is called in Jainism, 'Āśrava'. 12 Aśrava may be said to be something like a hole, a means, through which, for instance, water flows into the boat on the river, Dravyasangraha presents an elaborate divisions and sub-divisions of Aśravas.13 Further on, we can also classify the causes of bondage into-these three, in general, viz., Mithyadarśana (perverse view), mithya-jñana (perverse knowledge) and mithya-carita (perverse-conduct). The man lies bound in the grip of these three perverted states. In other words, emancipation is possible only on the removal of these three bonds. Clarifying the reason why the selfsome mati-jñāna, Srcuti-jñāna and avadhi-jñāna become matya-ajñāna, śrutā-ajñāna and avadhya-ajñana (or vibhanga) Umasväti says: "These (mati, śruti and avadhi), when informed with mithya-darśana (wrong attitude) comprehend the thing as it is not, and thus are ajñāna (wrong cognition)."}4 According to Jainism, like other system of Indian philosophy, the aim of life is to get freedom from bondage, to get bliss from sorrow. But so long as the Jiva remains in the grip of worldly entanglements final release is not possible. Hence, it is, most essential to have a check upon the flux of karman and its causes into jīva. The stoppage of the flux of karma is called sāmvara. Like Āśrava, first there is the checking of the modifications in the form of attachment, hatred and delusion of the Jiva. This is called "Bhāva-sāṁvara'. In this purified state, we witness ‘Bhāva-pūnyasāṁvara', when the auspicious bhāvas are stopped to function, and 'Bhava-papa-sāmvara' when the inauspicious bhāvas have been stopped to produce any change in the nature of the jiva. In this way, when the actual flow of the karmic-Pudagalas into the jīva through the channel of 'Yoga' or sense-organs is stopped, it is called 'Dravyasāṁvara'.16 Sāṁvara plays important role in the scheme of Jain ethics. It shows the means to realise liberation. Now the next but the most essential step towards the attainment of liberation is to destroy the Pudagalas which have already entered into the Jivas. This is obtained through what is called 'Nirjarā', meaning, the destruction of Karman. Kundakunda says: "He who is equipped with 'Sāṁvara' and meditates upon the real nature of the Atman after having cut off all his thoughts from the outside world, casts off all the dust of Karman acquired by him before."'16 This is the stage of sound meditation and serious reflection. "At this stage, in the progress of the Jiva towards the attainment, in him there Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Human Nature and Destiny in Jainism 27 LE חחח flares up a fire of meditation which burns the auspicious and inauspicious Karmans. While in meditation, the ascetic should have his firm activites of consciousness diverted towards the pure nature of the Ātman.'? Ethics and mataphysics go band in hand. They are inseparably connected. In other words, it can be said that one is complement to other. Here a question arises. Is it possible to get freedom only through knowledge ? Or is it not possible to be free from worldly obstacles by performing ethical doctrines ? Jain thinkers have solved this problem patiently and sympathetically. Dr. Tatia observes: “The Jaina philosophers gave much importance to carita (conduct) as to jñāna (knowledge) and darśana (predilection for truth). If Samyaka-darśana turns the soul in the right direction and samyaka-jñāna illumines the path, samyaka-carita (right conduct or rectified will) leads to the goal."18 Jain thinkers have unshakable confidence in gradual enlightenment and spiritual uplift. So long as the Jiva is bound by karma, it can never attain complete deliverance; but they hold that there are fourteen leaders which lie in the way of liberation, by which the Jiva may mount to Mokșa. In other words, these are the stages of spiritual development of aspirant. These are : (1) Mithyādşştiguņasthāna, (2) Sāsvādana Saryagdýsti, (3) Samyagmithyādịşti, (4) Aviratisamyagdịști, (5) Deśvrata or samyogdrsti, (6) Pramattaguņa sthāva, (7) Apramattagunasthāna, (8) Niyatibadra or Apurvakarņa, (9) Anivșttibādarasämparāya, (10) Suksamasāṁparāya, (11) Upasāntamoha, (12) Kșinakaṣāya, (13) Sanyagkevaligunasthāna, and (14) Ayogikevaligunasthāna. The ethical background of Jainism is by all means serious and practicable which deserves our attention. The essential characteristic of a jiva is consciousness, purity and bliss but through the beginningless chain of karma, bondage is there and the jivas enjoy weal (Punya) or woe (pāpa). Pünya is produced by our auspicious bhāvas (activities). The auspicious bhāvas are said to consist of freedom from delusion, acquirement of right faith and knowledge, practice of reverence, observance of the five vows, etc. The manifestation of punya consists in sātāvedaniya (feeling of pleasure), śubha-āyus (auspicious life), śubha-nāman (auspicious physique) and subha-gotra (auspicious heredity).19 Pāpa is produced by inauspicious bhāvas. These bhāvas consist of delusion, wrong faith and knowledge, violence, falsity, stealing, greed etc. The manifestation of pāpa consists in asat-vedaniya (feeling of pain), aśubhaāyus (inauspicious life), aśubha-naman (inauspicious body) and aśubha-gotia (inauspicious heredity).20 It has been observed by Umāsvāti that pūnya and pāpa are nothing but the auspicious and inauspicious influx of Karmas.21 The essence of religion lies in the immediate experience of the divine. This experience presupposes as its essential condition, various forms of discipline. In the sphere of religion, yoga-sādhanā (spiritual discipline) leads to the attainment of the spiritual experience which is regarded as the summum AB HOOT SA Jan pu APARAAAALAU PA N AMAANAAAAAAAAAAAAAAAALAAAA viurdiaB31HERREN ST. idi9220 A aigizga2 13TECER 31693992 Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NA dif9a331 disgaz. 316175 SIBANERY ST&.92973/1015 Eely 51&2 On 28 Dr. Bashishtha Narain Tripathi bonum (the highest good or siddhi ; i. e., couplition and perfection) of existence. Sadhanā includes all the religions practices and ceremonies that are helpful to the realisation of the spiritual experience, and therefore may be regarded as the practical side of religion. A men's value in the sphere of religion is always judged by the quality and the intensity of his religions experience, and the utility of the manifold practices always consists in their leading up to and helping the energence of the spiritual experience. This is why the moral life is the indispensable preliminary discipline to the religions, and this is the central teaching of all forms of Sadhana in Jainism. Sādhanā really begins with purificatory discipline. The awakening of the higher self, the flashing of the divine spark in man, forms the initial step in the course of Sadhana. Jainism, like the other systems of Indian thought, attaches supreme importance to dhyāna (concentration of mind) as a means to spiritual realisation. Along with its purification, the soul develops the capacity for self-concentration. Acharya Kundakunda and, following him, pūjapāda and Yogindudeva have very thoroughly discussed this method of self-realisation in their respective works viz., Mokşaprābhsta, Samadhitantra and Parmātmaprakāśa. They distinguish three states of self, viz. the exterior self (bahirātman), the interior self (entarātman), and the transcendent self (paramātman). The Jaina thinkers define dhyāna as 'the concentration of the thought on a particular object."22 The mind is capable of the threefold functions of concentration (bhāvanā), contemplation (anuprekṣā), and thought (cintā). Dhyāna is broadly classified into two categories viz., inauspicious or evil (apraśasta) and auspicious or good (praśasta). What leads to the inflow and bondage of bad karmic matter is inauspicious concentration, and what leads to the dissociation or destruction of karmic matter is auspicious concentration. The second category of Dhyāna is divided into two types viz., dharmadhyāna and śūkla-dhyāna. (A) Dharma-dhyāna : The sthānangasutra expounds dharma-dhyāna in these four-fold aspects viz. (1) its objects, (2) the signs (laksana) of a soul possessed of this dhyāna, (3) its conditions (ālambana), and (4) its afterthoughts.23 The immaculate and infalliable nature of the revelation (ājñā), the fact of universal suffering (apaya) and its conditions, the nature of the fruition (vipāka) of various karmans, and the structure (samsthāna) of the universe are the four objects of the dharma-dhayāna. The concentration of thought on account of the meditation (vicaya) on these objects is called dharma-dhyāna. The characteristic sign of a soul capable of this type of concentration is its natural love for and faith in the path it has selected to tread upon and the system of thought which it has been initiated in. Exposition (vācanā), critical inquiry (pratipracchana), repeated study (parivartenā), and reflection (anupreksā) are the conditions that lead to such concentration of mind. The mind muses upon the following subjects when it retires to the normal state after the concentration : the loneliness of the self in its wanderings, the reflecting nature of the wordly things, the absence of spiritual well-being in the world of morality, and the nature of the world as an endless motion (saṁsāra). Jinbhadra expounds this dhyāna from a few other stand Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Human Nature and Destiny in Jainism 29 points as well. Thus, for instance, he states the four prerequisite practices: (1) the regular study (jääna) for the achievement of steadiness and purification of the mind, (2) the purification of the attitude (darśana) for the sake of removing the delusion (moha), (3) the right conduct (caritra) for the purpose of stopping the inflow of new karmic matter and the destruction of the accumulated one, and (4) non-attachment (vairāgya) for acquiring steadfastness-for qualifying oneself for dharma-dhyana. Umäsväti defines dharmadhyāna as the collection of scattered thought (smrti-samanvähära, literally collection of the memory) for the sake of meditation upon the revelation, suffering, karmic fruition, and the structure of the universe, Subhacandra prescribes the practice of fourfold virtues of maitri (friendship with the creatures), pramoda (appreciation of the merits of others). Karuna (compassion and sympathy), and mädhyasthya (indifference for the untruely) as the pre-requisite condition of dharmaedhyäna. The slumber of delusion disappears and the quiescence of ecstasy (Yoga) sets in, and finally the truth reveals itself, when one has perfectly practised these virtues.29 As regards the selection of a proper place, it is held that one should be very careful about it, and avoid the bad place. Acharya Hemcandra presents a glorious record of Yoga. Yoga, according to him, is the cause of final emancipation and consists in the threefold jewels of right knowledge, right attitude and right conduct. Hemcandra has elaborately discussed the nature of right conduct." He says that it is the self of the ascetic that is right knowledge, right attitude and right, conduct." They are nothing but the comprehension of the self in the self, by the self on account of the disappearance of the eternal delusion. Consequently, the emancipation is nothing but the conquest of the passions and the senses. Now let us consider the state of Sakla-dhyan. In brief, forbearance, humility, straight forwardness, and freedom from greed are the conditions of the Sukladhyāna. In the dharma-dhyāna, the mind concentrates upon the general features of worldly existence. But in the Śukla-dhyana, the mind gradually shortens its field of concentration. The mind now concentrates upon atom and becomes steady and motionless. And on the attainment of omniscience, the functions of mind are completely annihilated,36 Acarya Hemcandra has presented satisfactory accounts in the field of yoga by his works named Yogabindu and Yogadrştisamuccaya, According to him, all spiritual and religious activities that lead towards final emancipation are considered as Yoga. Besides this, he pays special attention in his Yogavimhsikä, to these five kinds of activities. (1) practice of proper posture (sthāna), (2) correct utterance of sound (úrna), (3) proper understanding of the meeting (artha), (4) concentration of the image of a tirthankara in his full glory (alambana), and (5) concentration on his abstract attributes (analambana). Of these five, the first two constitute external spiritual activity (karmayoga) and the last three internal spiritual activity (jñānayoga)." These activities can be properly practised only by those individuals who have attained to the fifth or a still higher stage of spiritual development (gupasthana). Haribhadra says श्री आनन्दक Hoge B B 562 91213 . जीआनन्त B CCTC FE ST C FE TCOM Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAANSER NAMA ALAMA NASASAADA Bunga BA 35 vulgaz 37€ 6292 Is O SLI aart wy M 30 Dr. Bashishtha Narain Tripathi SE4 that there are some primary defects of the mind which are to be removed before practising the yogic processes. He enumerates them as eight viz., inertia (kheda), anxiety (udvega), unsteadiness (kşepa), distraction (utthāna), lapse of memory (bharānti), attraction for something else (anyamud), mental disturbance (ruk), and attachment (asanga).38 The mind of a yogin should always be free from these defects. He then asks the enquirers to keep thin minds open and investigate the truth with perfect detachment and freedom from prejudices. He suggests eight virtues thus : freedom from prejudice (adveșa), inquisitiveness (jijñāsā), love for listening (suśrusa), attentive hearing (śravana), comprehension (bodha), critical valuation (mimāṁsā), clear conviction (parisuddhāpratipatti), and earnest practice (pravstti) for self-realisation.39 Furthermore, Haribhadra lays down these five steps as a complete course of Yoga : adhyātma or contemplation of truth accompanied by moral conduct, bhāvanā or repeated practice in the contemplation accompanied by the steadfastness of the mind, dhyānā or concentration of the mind, samatā or equainimity, and vịttisarkşaya or the annihilation of all the traces of karman.40 Haribhadra, in his famous work entitled yogaděştisamuccaya, distinguishes eight stages of Yogic development. The soul undergoes gradual purification and along with the purification its drști (love of truth) becomes progressively steady and reaches consummation in the realisation of the truth. These stages are mitrā, tārā, balā, diprā, sthira, käntä, prabhā, and parä.41 Prof. Radhakrishnan observes that the ethical system of the Jainas is more rigorous than that of the Buddhists. It looks upon patience as the highest good and pleasure as a source of sin.43 Man should attempt to be indifferent to pleasure and pain. True freedom consists in an independence of all outer things. “That jīva, which through desire for outer things experiences pleasurable or painful states, loses his hold on self and gets bewildered, and led by outer things. He becomes determined by the other."1 "That jiva, which being free from relations to others and from alien thoughts through its own intrinsic nature of perception and understanding perceives and knows its own eternal nature to be such, is said to have conduct that is absolutely self determined."'45 “Man ! Thou art thine own friend; why wishest thou for a friend beyond thyself ?!?46 We do not have absolute fatalism, for though karma decides all, our present life, which is in our power, can modify the effects of the past. It is possible for us to evade the effects of karma by extraordinary exertions. Nor is there any interference by God. The austere heroes are blessed not because of the uncertain whims of a capricious God, but by the order of the universe of which they themselves are a part. While Buddhism repudiates suicide, Jainism holds that it "increaseth life." If asceticism is hard to practise, if we cannot resist our passions and endure austerities, suicide is permitted. It is sometimes argued that after twelve years of ascetic preparation one can kill himself, since nirvāṇa is assured. As usual with the systems of the time, women are looked upon as objects of temptation"? In common with other systems of Indian thought and belief, Jainism believes in the possibility of non-Jainas reaching the goal if only they follow the ethical rules laid down. Ratnasekhara in the Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Human Nature and Destiny of Jainism 31 opening lines of his sambodhasattari says: "No matter whether he is a Svetämbara or a Digambara, a Buddhist or a follower of any other creed, one who has reached the self sameness of the soul. i.e., looks on all creatures as his own self, attains salvation." The Jainas are not opposed to the caste system, which they try to relate to character. "By one's actions one becomes a Brahmana or a Ksatriya, or a Vaisya, or a Sudra...... Him who is exempt from all karmas we call a Brahmana." "48 "The Jains and the Buddhists use the word Brahmin as a honorific title, applying it even to persons who did not belong to the caste of Brahmana." The exclusiveness and pride born of caste are condemned by the Jainas. The Sütrakṛtänga denounces the pride of birth as one of the eight kinds of pride by which man commits sin. The Jain Sangha, or community, is fourfold, containing monks and nuns, lay-brothers and lay-sisters. With the Buddhists the lay-members were not organically connected with the clergy. With a smaller constituency than that of Buddhism, with no missionary zeal, Jainism has survived in India, while Buddhism has passed away. Mrs. Stevenson offers an explanation for this fact. "The character of Jainas was such as to enable it to throw out tentacles to help it in its hour of need. It had never, like Buddhism, cut itself off from the faith that surrounded it, for it had always employed Brahmins as its domestic chaplains, who presided at its birth rites, and often acted as officiants at its death and marriage caremonies and temple worship. Then, too, amongst its chief heroes it had found niches for some of the favourites of the Hindu pantheon, Räma. Krisna and the like. Mahāvīras genius for organisation also stood Jainism in good stead now, for he had made the laity an integral part of the community, whereas in Buddhism they had no part nor lot in the order. So, when storms of presecution swept over the land, Jainism simply took refuge in Hinduism, which opened its capacious bosom to receive it; and to the conquerors it seemed an indistinguishable part of that great system."50 Further Dr. Radhakrishnan observes that the materialist view of Karma leads to the Jains to attribute more importance than the Buddhists, to the outer act in contrast to the inner motive. Both Buddhism and Jainism admit the ideal of negation of life and personality. To both life is a calamity to be avoided at all costs. They require us to free ourselves from all the ties that bind us to nature and bring us sorrow. They glorify poverty and purity, peace and patient suffering. Hopkins caricatures the Jaina system when he calls it, "a religion in which the chief points insisted upon are that one should deny God, worship man and nourish vermin." The remarkable resemblance between Jainism and Buddhism, in their ethical aspects, is due to the fact that they both borrow from the same Brahmanical sources. "The Brahmin ascetic was the model from which they borrowed many important practices and institutions of ascetic life." The concept of Moksa in Jainism is nothing but a ceaseless quest for purification, enlightenment and omniscience. Nirvana or deliverance is not annihilation of the soul, but its purity into a blessedness that has no end. It is an escape from the body, though not from existence. "The liberated is not long 靼 39284 ST2 Знчалага श्री आनन्द CLO 乖 lac H& FE 卐寮 श्री आनन्द अन्थ Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ untMAAARAAAAAAAAA AAAAAAAAAAA zudisf9a26 3161 Bulu 922 317 au 01767 EN 11763 10R ST329013100 gel 3T22 VEVO 32 Dr. Bashishtha Narain Tripathi FOR che nor small...... nor black, nor blue, nor bitter, nor pungent : neither cold nor hot...... without body, without rebirth...... he perceives, he knows, but there is no analogy, (whereby we can know the nature of the liberated soul) ; its essence is without form ; there is no condition of the unconditioned."51 The siddha state is not the cause or the effect of the samsāra series. It is absolutely unconditioned.55 Causality has no hold on the redeemed soul. "Know that from the ordinary point of view, perfect faith, knowledge and conduct are the causes of liberation, while in reality one's own soul consisting of these three (is the cause of liberation).':56 Complete deliverance or moksa has been defined in Jainism as the annihilation of all Karmic matter, 57 or the final dissociation from the body58 meaning, of course, not only the gross body but also that made of the karmic stuff. Thus, final deliverance implies the emancipation both of soul and of matter. 59 The soul gives up all the passions and evil thoughts and enjoys ingate attributes of the soul like jñāna and luminosity. Thus, the Jainas do not believe that for the liberation Divine Grace is essential. According to them, the man himself is the architect of his own destiny. "Their religion of self-help, without God or His Grace, is unique in the history of the world.”60 In fact, the Jain Moksa has been defined as the eternal upward movement of the soul.61 After the fall of the body, the liberated soul shoots up to the end of the world called Siddhasiā or alokākāśa, which is absolutely void and empty, and abyss of nothingness.62 "In explanation of this upward movement of the liberated soul, it is said that the momentum of its previous actions, the removal of the forces which bound it down to the world of matter, its native upward gravity, urdhvagaurava, will carry the soul to its destination in a trice. This movement has been likened to the upward rush in a water of an empty submerged gourd, originally smeared thickly with mud.63 'Though Jainism denies God, it does not deny Godhead. Every liberated soul is a God. The Tirthankaras who were mortal being like us, but obtained salvation by dint of personal endeavours, are always there to inspire entire human beings. God is only a symbol of all that is great and good, moral and virtuous. He is not, in any case, responsible for the destiny of the universe or the individual.: Thus, the conception of God in Jaina philosophy inspires the entire humanity to get up and be on the alert. It warns us to believe in ourselves and strive for freedom. Achäranga Sutra presents an elaborate description of the concept of liberation and the state of liberated being in the following lines. "The matchless sage likes to live on alms, inspite of social dis-grace, though not recognised properly by the worldly people, he stands unshakable and firm in determination like an elephant in the battle.65 His position has been compared with a firm rock. He never thinks of giving any blow to any living being by thought, action and will, even in dream. He tolerates every pain and suffering patiently and quietly. “As a lustre of burning flame increases, so increases the austerity, wisdom and glory of a steadfast sage who, with vanquished desires, meditates on the supreme place of virtue, thought suffering pain." We can clearly witness the mystical and spiritual parallel conceptions of reality as well as of salvation in Jainism and in URA Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Human Nature and Destiny of Jainism 33 Upanişads. Their final attempts in determining the reality and Moksa are almost the same to some extents. We witness certain glimpses of negative descriptions of in scattered forms. Ācārangasūtra declares : All sounds recoil thence where speculations have no room; nor does the mind penetrate there. The Saint knows well that which is without support.66 Besides this, the liberated sage has positive descriptions too. Prof. Radhakrishnan rightly observes, "Though not quite consistently, positive descriptions are given of the freed soul as that it has infinite consciousness, pure understanding, absolute freedom and eternal bliss.67 It can perceive and know, since perception and knowledge are functions of the soul and not of the sense organs. The freed soul has a beginning but no end, while a bound soul has a beginning but has no end. These freed souls enjoy a kind of interpenetrating existence on account of their oneness of status. Their soul substance has a special power by which an infinity of souls could exist without mutual exclusion. The identity of the saved is determined by the living rhythm retaining the form of the last physical life and by the knowledge of the past. This ideal of freedom is manifested in the most perfect degree in the lives of the twenty-four Jain tirthankaras."68 Now, let us give a critical estimate to the problems which lie unsolved in Jaina philosophy regarding soul and its destiny, bondage and liberation. The approach of Jainism towards life and its problems seems at first sight, realistic one, and consequently the spirit alongwith matter are real. However, they hold that bondage is real too. Fortunately our everyday experience is a proof to this fact. But Jaina thinkers forget this hard and fast assumption that if a thing is real then it cannot be negated. Under this metaphysical error liberation is not possible. In this respect, under ultimate analysis, both cannot be regarded as real because truth cannot be refuted. What is removed or concealed is not truth about anything on being liberated, but one's own nescience or avidyā. And this nescience lies in the way of not knowing the nature of our true self. "The change in the attainment of liberation is only in our thought and not in the world outside. Thus, the transition from bondage to liberation is only epistemological and not ontological. What is required is only transvaluation of phenomena and not transformation of it." To be frank on this topic it can be said openly without any hesitation that no religions or metathysical system of Indian philosophy can determine the exact time, exact moment ; regarding the origin of nescience or avidyā i.e. bondage. If the soul is beginningless, then naturally merit and demerit which surround it might be beginningless too. Here the objection is not against the origin of ignorance or bondage but about the nature of bondage. Bondage can, in no case, be regarded as real because the nature of reality is as Bradley rightly says, “Ultimate Reality is such that it does not contradict itself.69 Then, what is negated is only one's own ignorance which itself is not real ultimately. This type of ignorance can be about the nature of one's own self, nature of the world, nature of the reality. Thus, transition from bondage to liberation is only in the world of knowledge. Pluralism of soul in Jainism creates a large number of philosophical e SAMIAJAMAAAAAAAAAAAAAA A AAAAAAA پر علاقه فغرقوا ماعرف فيها عدد منع Vidi IS Un D ifi 99312 311093 Rely 516 Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PALAR LAAAAA Buyurgaz 317E vidis943 31419 915 TOEGERI ST&T913171Gzey Streda Twit 34 Dr. Bashishtha Narain Tripathi errors. Though this system admit this plurality quantitatively, yet still, looking with other view-points it is quantitatively. This error may be avoided by accepting this plurality empirically. They ought to welome monism as the final logic (śuddha-naya) noumenal unity of the soul. Dr. C. D. Sharma is more consistent on this point when he holds that “When Jainism has rejected all qualitative differences in souls as well as in atoms, why should it inconsistently stick to numerical differences which are only nominal and not real. No attempt is made to synthesise jiva and Pudagala, spirit and matter, subject and object, into a higher unity."70 Jainism holds that the jivas are infinite not only in bondage but also in liberation. They make no sincere attempt to synthesise the plurality of the liberated souls like orthodox schools of Indian philosophy. In the absence of a divine ruler, the Siddhasilā gets failure in giving us a picture of the Society of the liberated. The Jaina thinkers have endeavoured to replace the notion of God (īśvara) by having an 'Arhan', a Jiva who has achieved the highest stage, endowed with all such attributes as we find in Iśvara. But ‘Arhan' is after all, a jīva, or a human being and there can be many 'Arhans', at the same time, through Sadhana. But, a jīva, eveu after it has achieved the Isvaratva, will remain a jiva. This is why Prof. Radhakrishanan observes, "Since the severally simple religion of the Jainas did not admit grace or forgiveness, it could not appeal to the masses."71 Jainism is characterised by a profound and absolute pessinism with respect to the nature of the world. Matter is not finally a transformation of spirit but a permanently existing substance, concrete and ineradicable, made up of atoms and capable (like clay) of taking many forms. Different form matter, imprisoned within it and working upon it from within are souls. The goal of Jaina religions practice is to release these jīvas from their entanglement with matter. Man is fettered because he goes on acting and doing, every deep bringing an accumulation of new entanglements; the way to victory, therefore, resides in absolute in action. The jīva then breaks free into absolute release (kaivalya) perfect isolation. This condition is not regarded by the Jainas as reabsorption into any ultimate universal substance. On the contrary, the individual jīva, the Monad, simply ascends, like a free baloon, to the Zenith of the organism of the universe, there to remain for ever and ever, together with all baloons-each absolutely self-existent and self-contained, immobile, against the ceiling of the world. The space occupied by each of the perfected ones is boundless. The perfected ones are all-aware. References : 1 Pancāstikāya-Samayasāra, Qd. in Indian Philosophy: S. Radhakrishnan ; Volume 1, P. 314. 2 Tattvārthasūtra, VIII. I. 3 A. B. Lathe : An Introduction to Jainism, Bombay, 1905, pp. 9 ff. 4 Tattvārthasūtra, VIII, 2-3. 5 Uvaogassa anāri parināmi mohajuttassa micchattam aņņānam aviradibhāvo ya nādavvo. Samaya sāra, 96. Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Human Nature and Destiny of Jainism 6 Fourth Karmagrantha, 51. See also the Svopajña commentary. 7 Cf. Sathsaramüla-bljarh micchattam-Bhattaparinnaya, IV. 59. 8 Nathmala Tatia: Studies in Jain Philosophy, pp. 145-146. 9 Tattvärthasutra. VII. 8-12. 10 Ibid, VIII. 4-14. 11 Ibid, VIII. 3-4. 12 Ibid, VI. 1-2. 13 Dravyasangraha; pp. 78-80. 14 Mithyadarsana-parigrahäda viparita-grähakatvam etesăm tasmād ajñāņāni bhavanti-Bhasya, Tattväthasūtra, 1, 32. 15 Pañcästikäya, 142. 16 Ibid, 144-145. 35 17 Ibid, 146. 18 Nathmala Tatia: Studies in Jain Philosophy, p. 149. 19 Sadvedyaśubhay urnämagoträni pünyam. Tattvärthasutra, VII. 25 quoted in M. L. Mehta: Jain Philosophy, p. 76. 20 Atonyat papam-Tattvärtha-sütra, VIII. 26. 21 Subhah punyasya; aśubhah papasya-Ibid, VI. 3-4. 22ekagra-cinta-nirodhe dhyanamh-Tattvärtha-Sütra, IX. 27. 23 Sthanangasūtra, IV. 1. 247. 24 Dhyanasataka, 28-29. 25 Ibid., 30-34. 26 Pujyapada interprets it as (well regulated) thought stream (cintaprabandha) -Sarvärthasiddhi, Tattvärthadhigam-sütra, IX. 30. 27 Tattvärthadhigam-sütra, IX. 37. 28 Jñänarnava, XXVII, 4-15. 29 Yoganidra sthitimh dhatte mohanidrä, pasarpati su samyak praṇītāsu syan munes tattva-niścayah. Ibid., XXVII. 18. 30 Ibid., XXVII. 22-34. 31 C. Caturvarge' gramr mokṣa yogas tasya ca kāraņam jñāna-śraddhanacaritra-rupa ratna-trayamh ca sab-Yogasastra, 1. 15. 32 Ibid., I-III. 33 Atmai' va darśana-jñānacariträṇy athava yateh Ibid., IV. I. 34 Cf. ätmanam atmană vetti mohatyāgād ya ätmani tadeva tasya caritramh taj jñanamh tac ca darśanam. Ibid., IV. 2. 35 Cf. aha khaniti-maddava-jjava-mhüttio jinamayāpahāņão alambanah jehirh sukha-jjhanamh samaruhai. Dhyanaśataka, 69. 36 Dhyanašataka, 70. 37 Yogavithsika, 1-2; Sodasaka-Prakarna, XIII. 4; for Salambana and nirālambana yoga, see Sodasprakarna, XIV. I. 38 Sodasakas, XIV. 2-3. 39 Ibid., XVI. 14. 40 Yogabindu, 31. 41 Quoted in fragments from Nathmal Tatia: Studies in Jain Philosophy, pp. 281-300. ji 30 ST הזיז JE श्रीमान व आमदन आमा अभिनंदन Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 903 319 Buyigaz 378 ore 21 Tage 313TH STÅL 1689 36 Dr. Bashishtha Narain Tripathi 42 S. Radhakrishnan : Indian Philosophy Vol. I, p. 326-29. 43 Acärangasūtra, Sacred Books of the East, XXII., p. 48 ; See also p. 76-77. 44 Ibid, p. 163. 45 Ibid., p. 165. 46 Sacred Books of the East : XXII, p. 33. 47 Ibid., XXII. p. 48. 48 Ibid , XIV. p. 140. 49 Ibid., XXII., p. XXX. 50 Mrs. Stevenson : The Heart of Jainism, pp. 18-19. 51 Hopkins : The Religions of India, p. 297. 52 Sacred Books of the East : XXII, p. XXIV. 53 S. Radhakrishnan : Indian Philosophy Vol. I. p. 332-333. 54 Sacred Books of the East : XXII. p. 52. 55 Ibid, p. 36. 56 Dravayasaṁgraha, 39 ; See also 40. 57 TAS. X. 3. 58 Ātyantikodehaviyogah. S. DS. SI. 52. 59 Studies in Jain Philosophy, p. 228. 60 J. N. Sinha : History of Indian Philosophy, Vol. II. p. 277. 61 Nityordhvagamanam muktih. Qd in S. Radhakrishnan I. P. Vol. I. p. 333. 62 Encyclopaedia of Religion And Ethics : Vol. VII. p. 468. 63 TAS. X. 6; Quoted in Concept of Mukti in Advaita Vedānta : A. G. Krishna Warrier ; p. 178. 64 Tatia SJP, p. 268. 65 Acaranga sūtra, p. 21. 66 Sacred Books of the East : XXII. p. 52. 67 Dravyasangrah, p. 28. 68 S. Radhakrishnan, I. P. Vol. I. p. 333. 69 Bradley : Appearance and Reality, p. 120. 70 C. D. Sharma : 1. P., p. 81. re Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O Dr. J. C. Sikdar, M. D. Institute of Indology, Ahmedabad-9 A Reflection on the Life of Tirthankara Mahāvira Upe Lord Mahāvisā appeared as a great ascetic, a religious teacher, a philosopher, religious reformer and the last of the twenty four Tīrthankaras, wandering with the retinue of his monk,--disciples from village to village, from town to town, from city to city, throughout North India, extending from West Bengal up to the united kingdom of Sindhu-Sauvirā, and preaching religion to the people of all social grades, belonging to heterogeneous faiths, expounding and interpreting developing and systematizing the metaphysical aspects of Nirgrantha Dharma by refuting the arguments of his own followers and those of the people at large on the religious and abstruse philosophical doctrines through his holy teachings, partly in the forms of questions and answers, partly in that of dialogues, legends, numerous parables, familiar similies, analogies and incidents of their daily lives. He has developed and systematized the fundemental principles of the doctrines Nirgrantha Dharma laid down by his predecessors on a firm ground by making some improvements on them, as their moral precepts demanded a deeper metaphysical foundation necessitated by the religous conditions of his time. There was no fundamental difference between the Laws preached by Lord Pārsvanātha and Lord Mahāvīra, because both of them pursued the same end. So the development of the metaphysical side of Nirgrantha Dharma was a historical necessity due to the existence of strong oppositions of heterodox religious sects, having different faiths, such as, Brāhmaṇisam, Ājivikism, Buddhism, Caravākism Parivrajakism, Vānaprasthism, those of Anyatirthikas, etc. and the followers of Lord Pārsvanātha and that of Jamalin his own disciple. In such a condition of religious firmament Lord Mahāvīra reformed and consolidated the entire Nirgrantha Sangha on a solid foundation of metaphysical principles by absorbing the followers of Lord Pārsvanatha, into his Sangha and strengthemed it bp converting, initiating and admitting those of other sects and common people to his order. NAALAAAA AAAAAAAAAAA 0151129 ST.3191131 dagey 5th Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JANRL A AAAA AAALALALALALAN NALA NAAALAAAAAABata BIU A . Hath Stre9113-116cey Stage YANMWW Jen 2c 38 Dr. J. C. Sikdar In this respect he only followed in the footsteps of his predecessor and erected a great edifice of Nirgrantha Dharma on the foundation laid by the latter. He persisted in carrying out his mission with his best effort and attention and courage and brought it to a successful conclusion and passed away with glory, entrusting his work to be continued by his dvoted followers to perfection. A Reflection on his ascetic life Vairagya (detachment) of Mahavira If the thought on Kāmini-Kancana (woman and wealth) goes away from the mind of anyone, then it will be devoted to the realization of paramātmā (Supreme Soul) and then he who is bound by Karmas can be free, but he who is averse to paramātmā is bound by Karmas, so one must be anāsakta (detached from the worldly life). If there is no vairagya (detachment) in anybody, he appears to be a straw and vulture like person. The study of the life of Tirthankara Mahāvīra reveals that a strong divine feeling of detachment and dispassionateness to the worldly life arose in his soul, so he renounced the world at the age of thirty. He became free from the attachment of Kāmini-Kancana of the royal family. He was dispassionate, his soul became anxious to realize the divine knowledge, truth and reality and paramātma like a mother with intense love for her child. He did not want anything but the attainment of spiritual relization of paramātmā, The world appeared to him as well and he felt that he was sinking down into it. He regarded his relatives as foreign people from whose association he desired to flee away, and actualiy he left the world'. He did not think at all that he would first, make all provision for his family, then he would leave the world and practise austerity and meditation on Supreme Soul. Like a good and industrious farmer he made all efforts to irrigate his field of spiritual life and next he took rest at night, on the rise of his divine feeling for renouncing the worldly life, and he did not look back to his relatives and home, etc. with a feeling of attachment. He tore up all worldly ties and practised severe austerities and meditation for the attainment of Kevalajñana and Kevaladarśana (Omniscience and Omni-self-awareness). The worldly people die in the nets of their own Karmas like the silkworms. So long as one does not know paramātma the world is falsc and noneternal. Then the man who forgets paramātmā and always says: “This is mine, this is mine", sinks down into the world, being enmeshed in the nets of Kāmini and Kāñcana with their alluring charm. He becomes so ignorant in Māyā (illusion) that he cannot fly away from the worldly bondage of Karma, although there is a path for flight. After realizing paramātmā, if one leads a worldly life, the world is not agitya (non-eternal). Tirthankara Mahavira became free from the nets of the worldly attachment to Karma by renouncing the world and realized parmātmā by practising severe austerities and meditation for twelve years at Tțmbhaga gaon on the bank of Rjukula." It is difficult to practise austerity in the worldly life as there are many hindrances on the way to spiritual realization. That is why Mahävira went to lonely and quiet places to practise austerity and meditation and exerted himself Jen ac Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A Reflection on the Life of Tirthankara Mahāvīra 39 TECH Sick 20. Jan to attain Kevalajñāna and Kevaladarśana. He was a true monk, for his life was dedicated and devoted to the realization of paramātmā after his renunciation of the worldly life beset with Kāmini-Käncana. He had eagerness (vyākulatā) for spiritual realization, so it was possible for him to attain Kevalajñana and Kevaladarśana. In the ascetic life Sadhusanga (association with monks), Vivekajñana (knowledge of making distinction between sat and asat-eternal being and non-eternal being) and Sadguru (good preceptor) are essential for the spiritual progress. Tirthankara Mahāvirä had all these three factors in himself. Asecticism of Mahavira Mahāvīra thought it necessary to get cured of the disease-vikāra (mental persversion) by observing austerity and meditation, having gone to a lonely place, after giving up the Kāmini-Kancana, as there was no danger from them there. So he became successful in his ascetic life.10 In the first stage of asceticism one must practise austerity and meditation to attain spiritual strength and power from paramātmā, then only he can lead the worldly life ; at that stage Kāmini-Kāñcana or Rāga and Dveşa" (attachment and aversion) cannot do anything harmful to him. Curd must be made in a lonely place, then butter can be made out of it by churning process; it will float on water if thrown into water, but milk-like mind gets mixed up with water, being involved in the worldly affairs. He realized this danger, so he left the world for spiritual realization. He held paramātmā with both hands, having renounced the worldly life, not like the worldly being, holding one foot of God with one hand, while keeping another in the family life. Meditation must be practised in mind, in the corner of the house and in the forest. Lonely place is necessary for the observance of tapaḥ (austerity), As long as the seedling of a plant is there, there should be raised a fence around it to protect it, otherwise cows and goats, buffalos, etc. will eat it up. If the trunk of the tree becomes big enough, then there is no need for fencing it any more. Even if an elephant is tied to it, the tree will not break down. If one can make the trunk of the tree strong, there is nothing to worry for its destruction. Lord Mahāvīra first protected his ascetic life in this way by putting up fencing of moral conduct and became strong enough like a big tree after his attainment of Kevalajñāna and Kevaladarśaņa on the bank of Rjuküla.12 He first tried to attain vivekajñāna by making distinction between sat (real entity) and asat (unreal entity). Paramātmā is sat (eternal and real) and all others are asat (non-eternal and unreal). He attained this viveka and knew paramatma as real entity and all others as unreal! There arose the awakening of this idea or thought of viveka in him, so he had the desire to know paramātmā. Vivekajñāna arises due to the distinction of sat and asat. The Supreme Soul or Dravya (Substance) is sat' and other things are asat. If there is nivịtti (cessation) of desire for worldly objects in mind, there arise viveka and consequently the knowledge of tattvas (reals or principles of reals) in it. And mind CEC an ADNAN ARSALAAAAAAA Nuus2310 S logaz 317 DIET STAG291324 516 Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAAR LAAAAAAAIA SANAAALAAALAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA Zuigizada 31 Bulgaz 33€ 15 T RY STAR410731776GFRI STA92 40 Dr. J. C. Sikdar travels to the sphere of paramātma. If one desires to have the shadow of it, mind easily attains the fruits-dharma (religion), artha (means-object), Kāma (desire-material satisfaction) and moksa (liberation). It is the moral duty of a monk to withdraw his mind from attachment and aversion (Räga and Dveşa), for Kāmini and Kär.cana are non-eternal. To know paramatmā is knowledge, not to know him is ignorance. So there must be earnestness on the part of the Yogin for the realization of the Supreme Soul. Tirthankara Mahāvīra had both vivekajñāna and eagerness (vyākulata) and other potential factors in him to attain knowledge of paramātmā and to have its vision (darśana).14 If anyone likes a sat, such as, physical pleasure, popularity, respect, money, etc. then there does not arise any desire in him to know paramātma. If there takes place or is an analysis of sat and asat, there is a desire to do so. Mahāvira had vivekajñāna of sat and asat 15, so he had the desire to know and realize paramātmā. If anyone acquires real knowledge, he will feel the presence of paramātmā within himself. If the realization of paramātmā takes place in one self, his dehātmabuddhi (the thought that body is real) goes aways ; he moves as Jivanmukta (free even in this life). Mahāvīra had no dehātmabuddhi, as he attained the state of paramātmā himself. It is stated in the Āgamas that he became insensitive to the physical sufferings, when the wooden wedge was driven by a milkman into his cars and he withstood the bodily pains caused to him by various elements during his ascetic life.16 There is fire in wood. (1) First work is to take than out fire from it by lighting it and then to cook food with it and to consume the same and (2) finally to get contentment are two things. The master had this belief in the existence of spiritual fire in himself. He took it out by him austerity and meditation and cooked him inner stuff of religious thoughts and ideas with it. Finally he consumed it with spiritual knowledge and became content with his spiritual realization.17 There is no end of divine paramātmāhood. One should advance farther and farther, then he will realize it more and more. If anyone prays and meditates in a lonely place, he can realize paramātmā. One may sense the existence of it by studying the sacred books. But if he does not go deep into the sea of conscious by meditation, he cannot realize it. Mahāvīra meditated on para. mātmā in lonely places in his ascetic life and realized the same. He plunged deep into the sea of consciousness by the practice of austerities and meditation, consequently he realized it. Thus, paramātmā revealed itself to him and he became one with it. One can read and recite thousands of religious verse from memory (Sahasrāvadhāmi) but if he does not go deep into meditation with earnestness, he cannot realize paramātmä. He can befool the people by his pedantry and scholarship, but he will not realize it. The scriptures and religious books do not help him at all in the attainment of spiritual knowledge and power. How much one will study the scriptures? What is the use of vicara (discussion) 2C does not so be fool the peo and religiouwer. How Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A Reflection on the Life of Tirthankara Mahāvīra only? One should exert himself to attain paramåtmähood and do something. having faith in guruvakya (the words of his guru). If there is no guru, there should be prayer with devotion and meditation on the self. One will realize paramātmā how it is. So long as one is not in the market. he will hear the noises or sounds coming from it. If he reaches it, he will clearly hear the words of the people, "take potatos, give me money, etc." There is sound or noise in the sea. If one goes near it, he will see how many ships are going or sailing, how many birds are flying over there, etc. Therefore, one cannot realize paramätmä by studying the canonical works and other religious books. There is a great difference between the act of hearing and that of seeing. After the realization of paramätmã, the books, scriptures, sciences, etc. appear to be as straws. Mahavira attained the divine power of Kevalajñāna and Kevaladarśana by observing austerity and meditation thus he realized paramātmā but not by studying books." He was honoured by the people everywhere because of the power of paramåtmä as manifested in and through himself. 41 Mahavira attained mahabhava or Samadhi (highest spiritual state or condition) as the manifestation of paramätmä in his self on the bank of Rguküla23 after twelve years of austerity." Without the realization of the Supreme Self there cannot be bhava or mahābhāva. If a big fish comes out of deep water, it moves and splits up water, just like that Tirthankara Mahāvīra attained different stages of spiritual development (Gupasthanas) in his attainment of highest spiritual realization. In conclusion of one's spiritual life Karma or Sadhana (act of austerity) is necessary to realize paramātmā. Meditation, recitation of religious verses, devotional songs, donation of gifts and sacrifice also are karmas. If one wants butter, he must make curd first out of milk in a lonely undisturbed place, then only he can churn out butter from it. There must be karma (act of austerity) and meditation for the spiritual realization paramatmå in a lonely place with great devotion. Mahāvīra observed austerities and meditation in quite places and realized paramātmā. As samhsăratyägin (world renouncer) Mahavira became pure like Mallika flower without spot and attained purņajñāna (i. e. Kevalajñāna), having the nature of simplicity of a child of five years, so he had no discrimination between man and woman. Mahavira knew caitanya (Consciousness) by attaining it. So there took place his samadhi (Sailesī stage) in his meditation. Consequently he forgot the care of his body and physical pleasures and did not have any attachment for Kāminī or Käma and Kancana, he did not like anything but the Supreme Self. He fell distress when he listened to worldly affairs. When he realized paramātmā by the act of austerities and meditation there did not remain vicara (argumentation) in himself, but there took place spiritual sleep-Samadhi, Divine simplicity is the fruit of austerity of many births. If there is deceitfulness, it is not possible for anyone to realize the spiritual power. The man who has realized the Supreme Soul is childlike in simplicity. The study आगास प्रवर अगद, आअनिन्दकः श्री ग्रन्थ J 4 E 57 프리스트로서 31732 Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.eventiva etus, S iu B 9.2 3 Buyigaz 317 ERTT&I91081110R 3 T he Stre 42 Dr. J. C. Sikdar mert of the life account of Mahāvīra reveals that he had divine simplicity. He was above all the three guņas-Sattva (essence), rajas (enrrgy) and tamas (inertia or mass) or all lesyds ; purity and impurity were equal to him, as he was childlike in simplicity and behaviour. He dressed like a fashionable man when he was prince, then he became nude28 as ascetic and moved as a free man ; sometimes he sat quite in meditation as an insentient thing in his ascetic life. Pride or ego goes away in Samadhi stage only, but if an iron sword becomes a golden sword by touching a touch-stone, it is ineffective to kill anybody, for there is then only the form of it, but not sharpness. Just like that pride or ego of Mahavira went away with the attainment of his Kevalajñāna and Kevaladarśana. Ego and pride consistute illusion or deceitfulness (māyā) Mahāvira had no ego. With the attainment of his Kevalajñāna and Kevaladarśaņa it fled away, than there followed then attainment of his Samadhi stage. It is difficult to achieve this stage, there must not be vişayabuddhi (thought on worldly objects) of a person, but there must be cittaśuddhi (purification of heart or soul) for this objective of a Yogin. After the attainment of Kevalajñāna and Kevaladarśana or Samadhi, the body of the yogin does not often remain in this life, but the bodies of some yogins remain in the world for some time for imparting holy teachings to the people. The body of Tirthankara Mahāvīra and those of other Tīrthařkaras or the Avatāras survived for the benefit of the world even after the attainment of their Kevalajñāna and Kevaladarśaņa. After digging a well, some destroy or sell out the baskets, spades, etc., while others preserve them on this consideralion that their neighbours may need them for the same purpose. Such a great man like Tirthankara Mahāvīra who was compassionate for the suffering beings in the case of their miseries could not be selfish with this thought that he had attained his Kevalajñāna and Kevaladarsana, so nothing should be done for the suffering humanities.30 An ordinary man is afraid of imparting holy teachings to the people in religion. There must be spiritual power as possessed by Tīrthankara Mahāvira like an Avatāra. Ordinary wood floats on water anyhow, but even when a bird sits on it, it sinks down into water under the physical weight of this small creature. But Bāhāduri wood itself floats on water and carries many people, even elephants also, to the opposite shore of the river when filled as a ford. Tirthańkara Mahāvīra was the ford like Bahadurī wood for the suffering people in the sea of the human world to carry them over to the shore of liberation. The paid or appointed Acāryas cannot deliver the goods to the people in their spiritual aspiration. They are themselves sectarian baddhajīvas (Captive beings). If the guru (preceptor) is raw in knowledge, it is trouble for the guru as well as the śişya (pupil), the pride of the latter does not go away, consequently the tie of the worldly karmas does not get destroyed. Mahāvīra had equal compassion (dayā) for all beings, 31 but not māyā (attachment or illusion) for his own relatives.32 He had not this pride or ego that he was the guru33 ; he was desireless. He always thought of paramātmā and Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A Reflection on the Life of Tirthankara Malāvīra 43 REVOL rendered a great service to humanity, having known that paramātmā is in all beings. As it is very hard to attain Tirthankaraship, so it is harder and more difficult to impart holy teachings to the people in religion. The study of the life of Mahāvīra slows that if the spiritual power dawns on the ascetic life of a monk and commands him to preach religion, then it is possible to do so. Mahāvira attained Kevalajñana and Kevaladarśaņa by observing serve austerities and meditation ; so he could instruct the people in religion 34 like Nārada, Sukadeva, Lord Buddha and other Indian holy Divines. Nobody will listen to the holy teachings of any preacher of religion who is not endowed with the spiritual power. The people are generally emotional, they may attend any religious congregation in lakhs, but they will forget very soon the teachings of the man devoid of spiritual knowledge and power. If paramātmā manifests itself in and through Jivātmā (finite soul) and converses with it, then only there will be the manifestation of divine power. There is force in it. Here lectures of the hired logicians and the so-called intellectuals devoid of spiritual power are useless. For some days the people will hear them, then they will forget them very quickly. They will not act according to the speech delivered by the so-called preachers of religion. But in the case of Tirthankara Mahāvira endowed with spiritual knowledge and power it is observed that lakhs of people were attracted by his religious discourses35 in his time and they accepted Sramanadharma 36 in latter and spirit. Without the possession of spiritual knowledge and power nobody can preach religion and teach the people in it. The preacher will be a laughing stock, if he is devoid of spiritual power. How could the person who himself did not attain any spiritual knowledge and power teach others in religion ? This will be like the showing of path by one blind man to another blind man for advancing forward, if he does so. If the realization of spiritual power takes place in anyone, the inner spiritual vision opens up in him automatically. Without this power, if any body imparts the religious teachings to the people, pride arises in his mind that "I am teaching the people". This pride occurs due to ignorance. In ignorance it appears to him. "I am the subject." But really paramātmā or enlightened soul is the subject. It has done everything, "I am not doing anything'. If this sense arises in a man, he becomes Jivanmukta. Kevalin Mahāvīra was Jivanmuktas (free in this worldly life) after the attainment of his Kevalajñāna and Keveladarśana. He acquired these great qualities, so he taught religion to the people with his spiritual power in his time. The world is big enough. How can one render service to the world without spiritual power, as it is not small, First he should realize the spiritual power in himself by observing austerity and meditation. If he can attain it, then only he can do good to the world, otherwise not. Until and unless the worldly business becomes less and less one forgets the spiritual aspect of life and he may think. “I am doing nişkāma karma (desireless work)." But it becomes sakāmā karma (work with a desire), as he gets involved in Karma and awnts to be respected. Nişkāma karma is very difficult to be performed with DASARNAAAAAAAAAALAIN A MAANAAAAAAAAA gaz, 31 Fuenteaza 915 Toey S76299973110 Rey 5158.92 Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HUMANA NINI Ap a k. 31 YNTIORY ST60229131TIGTRY Stre 44 Dr. J. C. Sikdar 2 2 Uran out spiritual power. Who will listen to him who has no spiritual power ? Really speaking, karma is to be done for the realization of spiritual knowledge and power, then only one can do his desireless work. Mahavira first left the worldly life and worked hard for spiritual realization in himself. After the attainment of his Kevalajñana and Kevaladarśana by observance of severe austerities and meditation, he had done his desireless work of preaching religion to the people for their spiritual welfare with his spiritual power. That is why he could build up śramaņic tradition on the basis of five principles-non-violence, truthfulness, non-stealing, chastity and non-possessions on the metaphysical foundation. Mahāvīra who had spiritually known and seen paramātmā by his Kevalajñāna and Kevaladarśana respectively did not write the Sāstras (Scriptures). He was absorbed in his own spiritual thoughts. The Gañadhara scholars, having listened to his holy teachings, transmitted them from the ācāryas to the acāryas and later on the ācārya-scholars had written down the oral scriptures passed by guru paramparā according to their own intellect and learning, while going to reduce them to writing at Mathura and Balabhi Councils or elsewhere. There must be the capacity in the preacher of religion for lokaśikṣā (people's education) in religion. Like the steamship Mahāvira crossed the sea of the world and took others also over to the shore of liberation. What is the capacity of a man to liberate others from the worldly bondage. Only paramātmă can emancipate Jivātma from the worldly illusion. There is no other alternative saccidananda guru like Mahāvīra, Buddha, Ramakršna, etc. Mahāvira was the able mature guru. That is why he could liberate many people by enlightending them with his teachings in religion.'' If there is divine command, there is nothing wrong in imparting holy teachings to the people. Nobody can lose them in such a case, if they are given by a spiritual teacher. If the ray of power comes to any one from the goddess of learning, such a power gets generated in bim that the great pandits become small like earth worms before him, for the so-called pandits devoid of conscience are not pandits at all. Mahavira was self-illuminated light which enlightened many people with his spiritual knowledge and power. If a lamp is lighted, many insects come to it in flights. There is no necessity to call them. Similarly, if there is the light of divine command in anyone, no call for the people is necessary that there will be his lectures at such a place and at such a time. Because of his magnetic attraction the people will flock to him in thousands and lakhs. The kings, the so-called Maharājas princes and the aristocrats all come to him in groups and batches. And they earnestly request him to know what he will accept from them whether fruits, sweets, rupees etc. But the Siddhapurusa says, "take them away, I don't want that, I don't like that.” Mahävira was the perfect spiritual guru having divine command, so the common people, kings, lords and others came to him in thousands and lakhs without any propaganda call for the religious congregation because Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A Reflection on the Life of Tirthankara Mahāvirā of his magnetic spiritual power of attraction in order to attend his religious discourses at many places in his life time.40 He did not accept any presents from the people except, of course, alms for his physical needs. 45 Does the magnetic stone say to the iron piece? "You come to me", it is not necessary to say so, the iron-piece itself comes to it of its own accord. The people came to Mahavira of their own accord because of his magnetic spiritual attraction, such a great man was not a so-called pandit. But one should not think that there was deficiency in his knowledge in any way. Can anybody attain red knowledge by studying books only? There is no end of knowledge in him who has attained the spiritual realization and divine command. The knowledge which comes from paramātmā does not get exhausted, Mahavira had inexhaustible knowledge, it came to him from paramatma us a result of his spiritual realization attained by austerity and meditation. If the person is not good, there will be no effect of his lecture or preaching on the people, in case he preaches religion. If an ordinary man delivers religious sermons, there does not take place any impact on the minds of the people. There must be the stamp of spiritual knowledge and power. The man who imparts the holy teachings to the multitudes of people must have the spiritual power. What Mahavira or the Buddha or Rāmakṛṣṇa did in the past, does anything of it exist in its original form at present? There is no benefit from his lecture, who has not attained the divine command. Mahāvīra possessed it, so he could make a great impact of his holy teachings on the minds of the people in his time. He led his followers to the path of jñāna (knowledge), darśana (self-awareness) and caritra (conduct) to attain perfection. Renunciation of Mahavira A true ascetic must not possess wealth nor save it for his use. If there is divine love for paramātmā, there takes place the renunciation of karma. If there is shame, hate, fear, like and dislike (ragadvesa), passions (kaşaya), etc., in oneself, there is no possibility for him to attain spiritual power. Shame, fear, like and dislike, pride of caste, secret desire, passions etc.-all these are the ties for the worldly life; if they go away, then only one attains spiritual emancipation. Mahavira became completely free from all these bondages of karmas -physical and psychial karmas, so he attained spiritual emancipation. Karma of Mahavira Karma is adikanda (first event) in the evolution of life. There cannot be any attainment or spiritual realization of Kevalajñāna and Kevaladarsana or of paramātmā without sattvaguna, i. e, bhakti (devotion or faith), vivekajñana (knowledge of distinction) between real and unreal entities, vairagya (detachment) and daya (compassion). Mahävira was endowed with all these qualities. There is grandeur in rajaguna; tamahguna arises from it. Too much envolvement in work leads one to forget paramätmã, for Kamini-Kañcana. inrease attachment (raga) in oneself. But it is not possible to give up karma. (action) one's nature will force him to work whether he wants it or not. So it is said that work must be done with-non-attachment to the worldly objects, ST CREATE आयाय व अब अभिनंदन श्री आनन्द ग्रन्थ "સાપા વરત સામ ST2 ११ Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A N ASASAKALA MAAAAAAAAAAAAAA Narva Asuulla, 371 SIEMey Tre1983TGEtely 3558 46 Dr. J. C. Sikdar i. e., not to expect fruit of action. Worship and meditation are not to be made for becoming lokamañya (to be respected by the people) nor for merit (punya). Mahāvīra practised austerities and meditation for not becoming celebrated nor for punya, but for Kevalajñāna and Kevaladarśana. Work as such is karmayoga, but it is difficult to be done. Only the man who has realized paramātmā can do work with non-attachment. Mahāvīra worked as such after his attainment of Kevalajñana and Kevaladarśana. It is not possible for an ordinary man to give up karma ; thought and action like "I think, I meditate"; also are karmas. Paramātmā is real, all other things are unreal, it is the subject, if it is realized, many social welfare works can be performed. So karma is adikāņda. Just as the flower drops down after the fertilization of the ovary and the birth of the fruit in a plant, just so karmas of Mahāvīra got dissociated after his attainment of Kevalajñāna and Kevaladarśana. He meditated on his self, realized paramàtma, went ahead, plunged deep into the sea of consciousness to attain it, the light of knowledge and emerged from it with spiritual knowledge and power and vision. He attained consciousness and did not go out of step nor he renounced or destroyed karmas by counting one by one. He had so much divine love for paramātmā that the work which he did was meritorious. He had two marks of divine love, viz. (1) he forgot the world; he was insensitive to the outside world and (2) his dehatmabuddhi (thought of body as real) went away, i. e. he had no love for his own physique. Without spiritual insight, divine love does not arise in oneself. There are symptoms of attainment of paramātmāhood, wealth of divine love, viz. viveka, vairagya, daya, sādhusevā or sādhuvaivartya (service to ascetics), sådhusanga (association with ascetics), devotional recitation to paramātmā and truthfulness. Love for soul removes the sensual pleasures. Mahāvīra had love for soul, so he was free from the sensual pleasures. 11 He was modest,"2 hence he was high and noble, just as cultivation of crops is possible in the open low land, but not on high land, for water gets accumulated in the low land, just so he was modest in all respects in his ascetic life, even when he was provoked and charged by Gosala Mankhaliputta with censure at Sravasti.43 He enlightened the temple of his body with the lamp of his spiritual knowledge as a result of the union of his jīvātma with paramātmā. He realized the truth “You are I and I am you, you eat, I eat, everywhere there is the existence of paramātma, while house, family and sons, etc. are non-eternal."41 The Master knew that the world was karmabhumi (field of action) so something must be done. Sadhana (austerity) is necessary, after this one takes rest just like a goldsmith after melting his gold in a melting pot. Mahāvira had tenacity for sādhanā and firm determination, he kept his mind fixed on paramātmā by withdrawing it from Kamini-Kañcana; he thought of paramatma only and enjoyed spiritual honey like a bee from flower to flower. First, purity of heart is necessary in a sādhaka (practiser of austerity and meditation), then sādbanā (austerity) is essential, next knowledge will arise Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A Reflection on the Life of Tirthankara Mahavira 47 in him as a result of purity of heart and practice of austerity. Many people think that knowledge and learning cannot be acquired without studying books. But the listening to the holy teachings is better than the study of books, the seeing of an object with one's own eyes is better than the hearing about it from some body. Mahāvīra had purity of heart and he practised austerity to attain Kevalajñāna and Kevaladarśana. He saw the vision of the realities of the universe as a result of his austerity and meditation. He became the great Tirt hankara by attaining spiritual knowledge and power through austerity and meditation without studying books in his ascetic life. All Āgamas were bis teachings issued from his mouth. Many persons make long talk and say that they have performed all actions according to the sastras. But their mind is attached to the worldly objects, wealth, honour and physical pleasure. They are busy with there objects. One may teach them religion thousand times. If time is not ripe for them, there will not be any success in these efforts to reach them religion. Pandits and Spiritual Men. Just as the kites and the vultures soar high up in the sky, but their eyes are fixed on carcass (sava deva), just so the so-called pandits soar high up in the intellectual horizon, but their minds are set on Kāmini and Kancana. Only pendantry is unreal and useless similarly wealth, richness, honour and social position are also unreal and false. The words and teachings of those who are only pandits but have no faith in religion and paramātmā are confusing. Mahāvira was not like the so-called pandits, for he had spiritual realization of knowledge and power. So his holy teachings were clear and concise and easily comprehensible to the people. Classes of Men There are two classes of men, viz. baddhajīvas (men in worldly bondage) and muktajivas (liberated men). The latter is not attached to any illusion nor to any worldly object. The ascetic who is born free because of the knowledge and consciousness attained in his previous birth has his spontaneous flow of devotion, detachment to worldly objects and divine love in him like a fountain suddenly opened up from its concealed state by a little effort. Mahāvīra attained Kevalajñāna and Kevaladarśana by observing austerity and meditation as he had some progress in the path of his spiritual knowledge and consciousness acquired in his previous birth. Pilgrimage and Mahavira Mahāvīra never made pilgrimage for attaining punya (merit) like householder. He realized the truth that there was no need of going to the places of pilgrimage, if one acquired faith in his heart about reality i.e., paramātmā. At these places there existed the same trees with the same leaves as are found at other places. If one cannot attain bhakti (faith) by making pilgrimage, what is the utility of going there ? Faith is only real and essential element for spiritual knowledge and truth. Mahāvīra had samyag darśana (right attitude of mind or faith) which led him to samyagjñana (right knowledge) and samyag-caritra (right conduct). Niy9D2A 319 Buyigazo IS11G STAGEN3Tel 516 Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAAAA Arvu ti VAA AAAAAAA NO 48 Dr. J. C. Sikdar Mahāvīra as Religious Teacher Tirthankara Mahāvīra had no desires to be honoured by the people nor the desire for liberation nor the fear to be bound by the nets of Karma. He was the real renouncer of the worldly desires and objects, so he could impart the holy teachings to the people in religion, but it was not possible for the worldly people to do so. Although he had the finite non-eternal body after the attainment of Kevalitva, nevertheless, he was always in the state of Yoga ; he attained Kevalajñāna and Kevaladarśana, even then he could come down to the worldly people and enlighten them in religion. Without renouncing the world and achieving the spiritual power one cannot perform the function of Acārya as such. The people will say that this man is worldly and he enjoys KāminiKancana secretly but instructs others that paramātmā is real, the world is dreamlike and unreal. So they will listen only to the teachings of a Sarvatyāgin (renouncer of all worldly desires and objects). Mahāvira was sarvatyāgin, that is why the people listened to his holy teachings and accepted him as a true Tirthankara, having attended his religious congregations in thousands and lakhs. Forbearance of Mahāvīra The mental and physical forbearance of Mahāvīra was like that of the anvil of a blacksmith. Hundreds of blows of the hammer fall on it every day, still it is undisturbed and unreacting in nature. Like this the intellect of Mahavira is absolute (Kūțastha). The bad people abused and tortured him in many ways during his ascetic life, even then he led quite unperturbed and peaceful life by practising austerities and meditations. He remained calm and observed forbearance in the different stages of his ascetic life with his unmoving mind like a steady and still rays of light of a lamp towards paramātmā. He was beyond ajñāna (ignorance) and jñāna (knowledge) as he attained Kevalajñana (Ominiscience). Nirvana (Liberation) of Mahavira Just as the dice can be preserved or broken by a goldsmith after making a golden image out of it, just so the body of a monk can be preserved for sometime or given up by himself. The body of Mahavira was given up by himself, while delivering religious sermons at Rajjagpha of king Hastipala of Pava* in his last religious congregation with his followers, after the attainment of spiritual knowledge and power and the completion of his glorious mission of life as the Tirthankara to a successful consummation, having left his immortal life to be worshipped by mankind. References : 1 Bhagavati Sūtra 15. 1. 541 ;Kcārānga Sūtra 1. 158. 15. 17 Kalpasūtra, Fifth Lecture 109, 110, 111, 112, SBE XXU. 2 According to the Svetambara tradition, Mahävirā married Yaśodā (Ācārānga 15) but left the world later on due to his detachment to the worldly life. Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A Reflection on the Life of Tirthankar Mahāvira 49 LA 3 Bhagavati Sutra, 15. 1. 541. See Avasyaka Malayagirivstti; Mahāvīra Cariyam, Guņa Candra, Pra 4 ; Trişathiếalākāpuruşa, 10. 3. 2. 4 Bhagavâti Sūtra, 15. 1. 541. 5 Ascetic life of Mahāvīra as depicted in the Āgamas-- Ācārānga, Bhagavati, Kalpasūtra, Avaśyakacurni, etc. reveals that he first attained spiritual reali zation and Kevalajñāna and Kevaladarśana. 6 Kalpasūtra, 120, p. 186. Tiloyapannatti, Pt. 1; 701, p. 230, 678, p. 227 ; Ācārānga, 1/9/417. 7 Chattheņa egayā bhumje aduvā atthameņa dasamenań I duvālasameņa egayā bhumje pehamāṇe samāhim-apadinne l" Ācārânga, 1.9. 417. 8 Kalpasūtra 120, p. 186 ; Tiloyapaņņatti, pt. I, 701, p. 230. 9 Ibid. 10 Refer to his ascetic life of twelve years as depicted in the Āgamas. 11 Bhagavati Sūtra 9. 33. 385. "Siddhimajjhe pithanahi ragadosamalle taveņa." 12 Tiloyapannatti Pt. 701, p. 230 ; See Ācārānga Sūtra 1. 9. 417. 13 Bhagavati Sūtra, 2. 10. 118-119-20, 13. 4. 481 ; 20. 2. 665, etc. 14 Saddravyalakṣaṇam Tattvārthasútra, v. 29. 15 Mahāvira attained Kevalajnana and Kevaladarśana, so he attained the knowledge of paramātmā and consequently the vision of it. As Sarvajña (Omniscient) he could know and see all entities--life and the Universe. 16 Bhagavati Sūtra, 1. 3. 3. and its comm. 17 Sabbesu Kira uvaşaggesu duvvihaha Kalare? Kadapūyanāsāyiyam Kalacak kam etam ceva sallam Kaddhijjamtaṁ Ahavā jahannagāna uvari Kadupuyanasitam I Majjhimāņam, Kālacakkam, ukkosāgañam uvari salluddharaņam 1." ---Āvaśyakacūrni, Prathama bhāga, p. 322. 18 At Rādhadeśa (Burdwa, West Bengal) Mahāvīra was greeted by the people with disrespect, censure, threat and beating, etc. “Aha duccara Lādha-macäri" Ācārānga, Adhyayana 1, Uddesa 3, gātha 2, Ist Srutaskandha. "Duccarāņi tattha Lādhehiń" Ācārānga, Adhyayana 6, Uddesa 3, găthā 6, etc. 19 Bhagavati Sūtra, 15.1.541. 20 Bhagawati Sūtra, 15. 1. 541. Mahāvīra realized paramātmāhood on the bank of Rjuküla after twelve years' austerity and meditatation. Acārānga, 1/9/ 417 ; Kalpasūtra, 120, p. 186; Tiloyapaņņatti, pt. 1, 701, p. 230. DATA d A LA AAAAAAA 3uidigaen 3 uu9a26 37 N ote IT&CONTAChely 5189 www Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA uusfIAZ JAS 9 a3 3761 915:1dokley T&929231doney 3T 92 50 Dr. J. C. Sikdar Por 21 No reference is found in regard to the study of the scriptures by him in his ascetic life, although there is reference to the existence and study of the pūrvas and the Angas by the monks in his Sangha. 22 Chatthena egayā bhurje aduvā atthamena dasamenam Iduvalasamena egaya bhuộje pehamane samāhim apadiņne Ācārānga 1/9/419. 23 Tiloyopaņņatti, Pt. I, v. 701, p. 230. 24 Ibid. v. 678, p. 227; Ācārānga 1/9/417. 25 Ācārānga Sūtra 1/9/417. 26 Ācāranga Sutra 1/9/417. 27 As it is found in the case of Mahāvīra in his entire ascetic life. 28 Mahāvīra became a nude ascetic by giving up his devadusya. See Āvasyaka, Malayagiri vịtti. 29 Āvasyaka, gatha III ; Malayagirivrtti, page 267. Mahāvīra was calm, silent and emersed in meditation as an insentient thing at Kūrmarāgaon (Kāmanchapra) in Bihar, when one husbandman charged him without finding out his pair of bullocks that he was intent upon steal ing them. 30 After the attainment of his Kevalajñana and Kevaladarśana Mahāvīra went to Madhyamanagari from Jțmbhaka gaon and delivered religious sermons in a great assembly attended by thousands of men and women. Avasyaka, Malayagirivịtti, prathama bhaga, p. 300/1, ff. 31 He observed ahimsa strictly in the case of all beings as he had equal compas sion for them. Ahimsa contains Daya. Bhagavati Sūtra 2. 1. 92, 95. 32 He left his relatives and took to asceticism by cutting off the tie of maya for is relatives. 33 Once Mahāvira told Gautama Indrabhūti that the latter and he would be as equal after the attainment of liberation. 34 He delivered his religious sermous to the great assembly of Madhyamā only after the attainment of his spiritual knowledge and power. 35 Bhagavatti Sūtra 11. 12. 436. ; 9, 33. 380, 382, 383, 385, etc. 36 Ibid., etc. 37 As Jivanmukta purusa he lived and preached his religion to the people. Its evidence is the continuation of Jainadharma upto the present day. 38 Bhagavati Sutra 2. 1. 92, 95. 39 See the Bhagavati Sūtra and other Agamas for the reference to his making the people enlightened in religion. VEC hen Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A Reflection on the Life of Tirthankar Mahāvīra 40 King Seniya and queen Cellana attended the religious discourses of Mahāvīra together with their rotinue and thousands of people when Mahāvīra delivered his sermons at Guṇaśilaka Caitya in Rajagṛha. See Bhagavati Šutra, 1.1.6. etc. 41 He was tempted by many ladies in his ascetic life, but he was free from sensual pleasures due to the firmness of his moral character. See Avasyaka Niryukti, gāthā 461/2, p. 267; Avaśyaka, Malayagirivṛtti, p. 268/1; Mahavira Cariyam, Gunacandra pra. 5, pp. 145-146. 42 He was very modest in his ascratic life, even when censured, tortured and provoked by other persons. He even tolerated the arrogant behaviour of Gośalā Mānkhali with calmness. 43 Bhagavati Sütra, 15, Sataka. 44 Bhagavati deals with the non-eternality of worldly objects and life at many places. 45 Mahavira imparted his holy teachings in the language of the people, Ardhamagadhi so that they could follow and understand them easily. 46 Kalpasutra 122, p. 198. 51 श्री आनन्द ग्रन्थ श्री आनन्द ᄆ HO CAST.CO 1626 www.jainelibrary.or Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OSIMY Stoerengi IS Dr. Ajay Mitra Shastri [ Reader, Ancient Indian History and Culture and Archaeology, Nagpur University, Nagpur ] en Varahmihira and Bhadrabahu -- Varāhamihira is justly reckoned as a doyen of astronomers and astrologers of ancient India. He surpassed all other fellow workers in the field by composing standard works, both copious and abridged, on all the three branches of Jyotisa, viz., (i) tantra (mathematical astronomy), (ii) hora (horoscopy), and (iii) sakha or samhita (natural astrology). Several of his writings have come down to us. Unfortunately we possess very meagre information regarding his life and time. From what he himself tells us we know that he was the son as well as a pupil of one Adityadāsa and a resident of Avanti and obtained a boon from the Sun god at a place called Käpitthaka. His Panca-siddhantika (1.8) specifies the Saka year 427 (=505 A. D.) which evidently has a reference to the date of the composition of the work. We also have some evidence to indicate that he was a Sun-worshipping Maga Brāhmana. His son Pșthuyasas was also an astrologer and his work, Satpancasika, is still extent.3 Some late Jaina writers, however, narrate stories which seek to establish some relationship between Varāhamihira and Bhadrabāhu. Thus, the Prabandha-cintamani tells us that in the city of Paraliputra there lived a Brāhmaņa boy named Varāha who was, ever since his birth, devoted to the study of astrology. But because of poverty he had to subsist by tending cattle. Once he drew a horoscope (lagna) on the surface of a rock but forgot to efface it before returning home in the evening On remembering it he went back to the spot in the night, where he found a lion sitting over it; but he effaced the drawing fearlessly by putting his hand under the lion's belly. The lion gave up his animal mask and appeared as the Sun god and told him to ask a boon. Varāha requested him to show him the entire circle of stars and planets whereupon the god had him seated in his transport and enabled him to examine closely the movements of all the heavenly bodies. When he returned after a year he be ac Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TARTA Varāhamihira and Bhadrabāhu 53 came famous as Varāhmihira in allusion to the favour of the Sun god (Mihira), was patronised by King Nanda and composed a treatise on astrology named Vārāhi Samhita. Once when a son was born to him, he closely examined the moment and from his intimate personal knowledge of the planets profesied a hundred year life for the newborn babe. All but his couterine younger brother, the Jaina teacher Bhadrabāhu, came to him with presents and participated in the festivities marking the occasion. Varāha complained to the Jaina minister Sakatāla about it. On being told about it, Bhadrabāhu said that he had not attended the function as according to his culculation the child would meet death from a cat on the 20th day. And notwithstanding all the efforts to prevent the calamity the prediction came out true and the child expired in the night as an iron chain bearing an engraved figure of a cat fell on his head. Varähamihira was utterly despaired and was about to consign all the books to fire when Bhadrabāhu came to console him and prevented him from doing so. But being envious of Bhadrabāhu, Varāhamihira took recourse to black magic and troubled some and caused the death of some others of his (Bhadrabāhu's) lay followers whereupon Bhadrabāhu composed a new hymn (stotra) called Uvasagga-hara Pāsa with the object of averting these disturbances. The same episode, with some minor differences and elaboration of details, is related by Rājasekharasūri in his Prabandha-kośa, also known as Caturvimśáti-Prabandha. It may be summarised as follows: Two, poor but intelligent Brāhmaṇa boys named Bhadrabāhu and Varāha lived at Pratişthāpapura in Dakşiņāpatha. Once the Jaina patriarch Yaśobhadra, who knew the fourteen Pūrvās, came over there. Bhadrabāhu and Varäha heard his sermon and became Jaina monks. Bhadrabāhu acquired the knowledge of the fourteen Pūrvās and possessed thirty-six qualities. He attained great fame as the composer of the niryuktis (commentaries) on the ten canonical works, to wit. Daśava ikālika-sútra, Uttarādhyayana-sülra, Daśaśrutaskandha, Kalpa-sūtra, Vyavahāra-sūtra, Āraśyaka-sútra, Suryaprajñāpti, Sutrakrtānga, Acārānga-sutra and Rși-bhășită, and also composed a work called Bhädrabåhavi Saṁhitā. After the passing away of Yaśobhadrasūri, both Bhadrabāhu and Sambhūtivijaya, who also possessed knowledge of the fourteen Pūrvās, lived affectionately and wandered independently. Varāha, who too was a scholar, wanted his brother Bhadrabāhu to confer on him the status of sūri. Bhadrabāhu declined the request as Varāha, though learned, was puffed up with pride. Thereupon Varāha gave up the vow and again lived the life of a Brāhmaṇa. On the basis of his study of the sciences when he was a Jaina monk he composed a number of new works including the Vārāha-sarhitā and circulated the rumour of his acquisition of the knowledge of astrology by the favour of the Sun god as nar MAAALAAAA A AAAAAAAAABAAEAAweer Bu yaz Bunga 24 25 915-11gRey 512329 Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयार्यप्रवर अभिनंदन आआनन्द สมยอม 38:21 श्री आनन्द 54 Dr. Ajay Mitra Shastri rated in the above story from the Prabandha-cintamani and thereby attained great celebrity. Pleased with his learning. Satrujit, king of Pratisthānpura, appointed him his priest. Varaha hurled abuses on the Svetambaras who were upset and sent for Bhadrabahu. In the meantime Varähmihira was blessed with a son for whom he predicted a full 100 years' life, and the occasion was fittingly celebrated. Varahamihira complained that Bhadrabähu, albeit his couterine brother, did not participate in the festivities. On hearing it, Bhadrabahu explained away his action by predicting the child's death from a cat on the seventh day. The incident took place and Bhadrabahu consoled his brother exactly as narrated in the Prabandha-cintāmaņi. But a Jaina layman, reminded of the earlier insult of his faith by Varahamihira, condemmed the letter in the harshest possible words. On knowing the whole episode and being introduced to Bhadrabahu, the king, who had come to console Varahamihira, embraced Jainism. Thereupon Varähamihira began to hate Jainism and caused a lot of trouble to the Jaina laity. To avert this calamity Bhadrabahu compiled a prayer entitled Uvasaggahara Pasa comprising five stanzas. The story ends with the statement that Bhadrabahu's successor, Sthulabhadra, who also had the knowledge of the fourteen Purvas, destroyed other faiths." 九 Th F This story with minor changes is narrated in some other works also. Thus, in the Sukha-bodhini commentary on the Kalpa-sutra the same anecdote as found in the Prabandha-cintamani is related with the only difference that here the eipsode centres round the son of Varähamihira's royal patron, and not round Varähamihira's own son." A comparative analysis will reveal that there are some minor differences between the versions of the story as found in the Prabandha-cintamani and the Prabandha-kośa. In the former the venue of the episode is located at Pataliputra, while the letter places it at Pratisthäna. While the former makes out the episode as occuring during the reign of king Nanda, the latter gives the name of the king as Satrujit. Merutunga does not mention, like Rajasekharasüri, the anecdote of Varahamihira's first becoming a Jaina ascetic and then reverting to the life of a Brahmana out of jealousy of his brother Bhadrabahu and leaves the impression that while Bhadrabahu became a Jaina monk Varähamihira throughout led the life of a Brahmana astrologer. Again, whereas the Prabandha-kola speaks of Bhadrabahu as a pupil of Yasobhadra, a contemporary of Sambhütivijaya and as the teacher of Sthülabhadra, no such statement is found in the Prabandha-cintamani. Likewise, while the Prabandha-kosa describes Yasobhadra, Bhadrabahu, Sambhütivijaya and Sthalabhadra as possessing the knowledge of the fourteen Purvas (caturdala-pürvin), the Prabandha-cintamani does not make any such explicit statement. And lastly, the death of Varáhamihira's son according to Bhadrabahu's prediction took place on the Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Varahamihira and Bhadrabahu 55 20th day according to the Probandha-cintamani, while this event is placed on the 7th day by the other work which further adds that as a result of this incident Varähamihira's royal patron got himself converted to Jainism. Obviously, the Prabandha-kosa version, although composed only forty-four years. after the Prabandha-cintamani, marks a great elaboration of the original story and overplays the rivalry between Varähamihira and bhadrabahu in particular and between Jainism and Brahmanical Hinduism in general. But fundamentally there is no difference between these versions. By placing the incident during the reign of king Nanda, Merutunga also identifies Bhadrabahu, the central figure of his story, with the homonymous caturdasapurvin Jaina patriarch. If any historical value were to be attached to the above story, Varāhamihira will have to be regarded as a contemporary, nay even brother, of the famous Jaina patriarch Bhadrabähu who, according to the Jaina tradition, was the last of the śruta-kevalins and flourished a few centuries before Christ. There is no unanimity among the Jainas about the date of śruta-kevalin Bhadrabahu. The Digambara tradition as incorporated in the Tiloya-papannatti, Dhavala, Jayadhavala and other works unanimously gives 162 years as the total period of the pontifficate of the three kevalins and five śruta-kevalins after Mahavira's nirvana. According to the Svetämbara tradition recorded in Hemacandra's Parisista-parvan and other works, on the other hand, Bhadrabahu passed away when 170 years had elapsed since Mahavira's nirvana." Although some Jaina works place the end of the rule of the Nanda dynasty which coincided with the close of the pontifficate of Sthulabhadra 215 years after the nirvāṇa of Mahavira and thereby make Bhadrabahu flourish in the Nanda period which is said to have lasted for 155 years, the tradition recorded by Hemacandra which places Candragupta Maurya's accession 155 years after Mahavira's death and the evidence of some Jaina writers' and inscriptions from Mysore11 which make out a case for the contemporaneity of Bhadrabahu and Candragupta Maurya appears more trustworthy. And what is most pertinent in the present context, while the Digambara and Svetämbara traditions considerably differ between themselves as regards the order and names of the spritual succesors of Mahavira and the exact length of the period covered by their pontificate," the date they assign to the druta-kevalin Bhadrabahu falls in the fourth century B. C. Thus, he lived over eight centuries before Varahamihira who, as we have seen above, can be definitely assigned to the sixth century A. D. on the basis of the internal evidence of his own writings. 14 In view of the above discussion of the relative chronological position of the caturdasa-purvin Bhadrabahu and Varahamihira, the tradition recorded by Merutunga and Rajasekharasuri which represents them as contemporaries आपाय वर आमन्देन श्रा आनन्द थ 21316 प्रव 21:2 Τ प 卍 B Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA Niiga 23 1999 3 3111 ISATGE STA90311 Geely 515242 56 Dr. Ajay Mitra Shastri must be set aside unceremoniously. It must be pointed out in this connection that while there may be a substratum of truth in some of the near contemporary episodes related by these two Jaina writers of the fourteenth century A.D.,15 they evince an uttar lack of historical sense as regards the earlier period. Not to speak of very ancient times, even the stories narrated by Merutunga about Bhoja, the Paramāra king of Malwa, who fiourished in the eleventh century A. D., are an amalgum of incredible legends and brook no anachronism. To cite only a few examples, he would have us belive that the celebrated poets Bāņa and Mayūra, who are known to have lived in the first half of the seventh century A. D. and enjoyed the patronage of the Pusyabhūti king Harşavardhana, actually adorned the court of Bhoja, the Parmāra king of Malwa. 16 Likewise, he relates an amusing story about the friendship of poet Māgha, who is known on independent grounds to have flourished in the latter half of the same century, and king Bhoja. Then again he speaks of a place called Kalyāņakataka as the capital town (rājadhāni-nagara) of the country of Kānyakubja which is said to have comprised thirty-six lacs villagers.18 This statement is very curious in as much as Kanyakubja itself enjoyed the status of the imperial capital first of the Maukharis and Harşavardhan and then of the Ayudhas and the Imperial Pratihāras and no town named Kalyāņakațaka is known from any other source to have existed in the proximity of Kannauj. Similar is the case with the Prabandha-kośa. It refers to king Sātavāhana as the founder of an era (samvatsara),19 evidently the so-called Salivāhana-Saka which actually owes its origin to the Sakas after whom it was known for a long time.20 Then again it attributes the Sārasvata-vyākarana to the same king 1 whereas a more popular tradition assigns it to Sarvavarman. Likewise, it mentions Meghachandra as the son and successor of Jayantacandra (i.e., Jaya. ccandra) who himself is represented as the son and successor of Govindacandra, king of Vārāṇasi, evidently the famous Gāhadavāla ruler of the name 22 This is an illustration of the most flagrant distortion of near contemporary history, for we learn from numerous Gahadavāla inscriptions that after Govindacandra came his son Vijayacandra and after the latter his son Jayaccandra who was followed by his son Hariscandra.23 These examples picked at random would suffice to show that even as regards the near contemporary events no great historical value attaches to the statements of these two authors not to speak of episodes said to have taken place several centuries before their own time. It would, therefore, not be surprising if the story concerning Bhadrabāhu and Varāhamihira is totally unhistorical and baseless. It is, however, pertinent to note in this connection that the available evidence indicates the existence of more than one Jaina teachers named Bhadrabāhu who were separated from one another by a few centuries. The śrutakevalin Bhadrabāhu who, as shown above, flourished in the socond century Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Varahamihira and Bhadrabahu 57 after the passing away of the last Jaina Tirthankara may be conveniently referred to as Bhadrabahu I. As he lived prior to the division of the Jaina church between the Svetämbara and Digambara sects, he was honoured by the followers of both the sects and is consequently mentioned in the literary traditions of both of them. As the later teachers of this name belonged only to one or the other of the two main sects, they are referred to in the literary works emanating only from the followers of the concerned sect. Thus, the Digambara Pattavalls belonging to the Nandi-sangha and the Sarasvatigaccha mention two Bhadrabahus, first of whom was the last śruta-kevalin and is said to have been the disciple of the fourth śruta-kevalin, Govardhana, and expired 162 years after Mahavira's nirvana.25 The second Bhadrabahu is spoken of as having flourished 492 years after the death of Mahavira, that is, in V. S. 22 or 35 B. C., and is described as the pupil of Yasobhadra. His pontifficate is said to have covered twenty-three years, i.e., 35-12 B. C. The pattavali of the Nandi Amnaya of the Sarasvati-gaccha begins with him. It must be pointed out in this connection that the famous Digambara author Kundakunda describes himself in his Chappahuda (Sat-prabhrta) as a pupil of Bhadrabahu, who is generally identified with the second teacher of this name known to the Digambara tradition. There is, however, a serious difficulty in accepting this identification. This Bhadrabahu is spoken of as well-versed in the twelve Angas and fourteen Purvas," a description applicable only to the first Bhadrabahu. It is also noteworthy that Kundakunda refers to Bhadrabahu as gamayaguru (gamaka-guru) or traditional teacher, and not as ordinary teacher. Kundakunda had, thus, nothing to do with Bhadrabähu 11. 26 As shown above, a late Svetambara tradition recorded by authors of fourteenth and subsequent centuries of the Christian era mentions a certain Bhadrabahu who is spoken of as a brother and rival of astronomer-astrologer Varâhamihira. Although he is represented as caturdasa-purvin, his alleged contemporaneity with Varahamihira, whose flourishing period is know from his own works, seems to point to the existence of yet another Bhadrabahu who lived in the sixth century A.D. We may call him Bhadrabâhu III. This Bhadrabahu is credited with the authorship of a number of works including niryaktis on ten works of the Jaina canon, an astrological treatise entitled Bhadrabahavi Samhita and a stotra consisting a five verses called Uvasagga-hara Pasa. It is pertinent to note here that a much earlier unanimous Svetambara tradition recorded in the niryuktis", bhasyas and the curnis" of the Jaina canon attributes the authorship of the Cheda-sütras " to the caturadasa-purva-dhara Bhadrabahu. A critical analysis of the above data would reveal that from fairly early times some confusion prevailed about the personages bearing the name Bhadrabahu and the activities of one Bhadrabahu were often attributed to another bearer of this name. Thus, while both the Digambara and Svetämbara tradi 36 A נוגע आयाय प्रवरुप अगर द- आअनिन्दा अन्य श्री अन्थ Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આવા श्री आनन्द आशाआनन्द अभिनंदन 31/12/20 273 52 +3 337 JT 59 58 Dr. Ajay Mitra Shastri tions are unanimous in representing Bhadrabahu of the fourth century B. C. as the possessor of the knowledge of the twelve Angas and fourteen Purvas, the Digambara Pattavalls alone clearly distinguish him from Bhadrabahu II who was separated from the former by an interval of about three centuries. Again, the Digambaras do not give either of these Bhadrabähus the credit of composing either the niryukris or the Bhadrabahavi Samhita. On the other hand, the Svetämbaras clearly mention only one Bhadrabahu, the sruta-kevalin one, who is said to have passed away 170 years after Mahavira's nirvana. But while the earlier tradition speaks of him as the author of the Cheda-sutras only, some late writers credit him with the authorship of the miryuktis, the Bhadrabahari Samita and the Uvasagga-hara Pasa also. The earliest writher to represent him as the author of the niryuktis is Silanka who lived in the eighth century A. D. and speaks of him both as niryukti-kara and caturdasa-purva-dhara in one and the same breath35. The same belief is re-iterated by some later writers like Säntisüri, Dronācārya, Maladhari Hemacandra, Malayagiri and Ksemakirti. But they do not utter a single word about Bhadrabahu's mastery over astrology. It was left to some late authors of the fourteenth and following centuries to lay stress on this aspect. Nay, we may even ever that an excessive emphasis on this aspect relegates all other religious and literary activities to background. Thus was brought into being the fully developed personality of Bhadrabahu which is an article of faith with the generality of the Svetämbaras today. But this belief involves serious anachronism. The overwhelming internal evidence of the niryuktis themselves leaves no room. for doubt that they were composed much later than the fourth century B. C. when the sruta-kevalin Bhadrabahu is reputed to have flourished. To cite only a few illustrations. The Avasyaka-niryukri refers to later Jaina acaryas like Bhadragupta, Arya Sithhagiri, Vajrasvamin, Tosaliputra, Aryarakṣita, Phalguraksita, Arya Suhastin, etc. by name and alludes to events connected with them.37 The Uttaradhyayana-sutra-niryukti not only mentions Sthulabhadra with respect (he is styled bhagavat) but also narrates the story of Kalakācārya who is well known in connection with the legends centring round Vikramaditya and thus assignable to the first century B. C. The Pinda-niryukti names Pädalipta and Vajrasvamin's maternal uncle Samita and relates the ordination of the Tapasas of Brahmadvipa and the origin of the Brahmadvipika sakha." And lastly, the Ogha-niryukti represents its author as paying obeisance not only to saints possessing the knowledge of the fourteen Pürvas but also to those versed in ten Purvas and eleven Angas, which can refer only to post-sruta-kevalin period and would be anachronistic if the niryuktis were to be regarded as camposed by caturdasa-purvin Bhadrabahu. Not that the commentators of the niryuktis were not aware of these anachronisms, but the pressure of tradition weighed so heavily that they attempted to explain away these A Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Varahamihira and Bhadrabāhu 59 FE anachronistic trends by resorting to some ingenious devices. Thus, śāntisūri in his gloss on the Uttaradhyayana-sutra observes that the presence in the nir yuktis of illustrations alluding to later events should not lead one to suppose that they were composed by some other person, for that illustrious srutakevalin possessing the knowledge of fourteen Purvas was capable of perceiving anything relating all the three times, viz., past, present and future.42 Likewise, referring to the obeisance of the author of the niryuktis to those knowing ten Pūrvas, etc. Dronācārya in his commentary on the Ogha-niryukti states that there is no harm in Bhadrabāhu saluting them, for though inferior to him in point of knowledge, they possessed more virtues. But such explanations can hardly succeed to bring a modern reader round the traditional view that the niryuktis emanate from sruta-kevalin Bhadrabahu. And than the niryukti on the Dasa-sruta-skandha commences with a salutation to Bhadrabāhu himself, described as the author of the Dasa, Kalpa and Vyavahara, 4 which should more than suffice to dismiss the belief as a fiction of imagination. The only solution which can satisfactorily explain all the relevant facts is that the niryuktis were composed by a later Bhadrabāhu who was, as pointed out by Muni Punyavijaya, 46 confused with his sruta-kevalin predecessor bearing the same name because of the identity of name. When did this Bhadrabahu flourish? We have stated above that the Digambaras know of a second Bhadrabahu who is assigned to the latter half of the first century B. C. The Svetāmbara tradition, which appears to have no knowledge of a Bhadrabāhu in the first century B. C., mentions another Bhadrabāhu who from his alleged contemporaneity with Varāhamihira seems to have flourished in the sixth century A. D. It should be noted, however, that there is considerable similarity between the details of personal life narrated in connection with these personages. Thus, both are described as pupils of Yaíobhadra and their knowledge of astrology is also emphasised. These similarities are two gseat to be set aside as incidental. We also know that the late Svetāmbara tradition, which speaks of Bhadrabāhu and Varāhamihira as contemporaries, does not distinguish the former from the sruta-kevalin Bhadrabāhu and is full of many other anachronisms. Thus, in. spite of the alleged association with Varahamihira we would not be quite unjustified if we conclude that the niryukti-kara and astrologer Bhadrabāhu of the Svetāmbara authors is probably no other than Bhadrabāhu II of the Digambara tradition. But if any value is to be attached to the reported association of Bhadrabāhu with Varāhamihira described by late Svetămbaras writers, he will have to be regarded as Bhadrabāhu III. Some scholars accord the credit of composing the niryuk tis to Bhadrabāhu II" and others to Bhad. rabāhu 111.48 Both these suggestions are equally probable. And accordingly WA MAHALAAN NAARYANA zuurgaz HAS Bing22637 915/10 R 511942903110129 556899 Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SUAMVANNA LALUARGAAN N922 1 2 Buyiga 2A 31 READ 3291BIGGER TO 3 W haver Dr. Ajay Mitra Shastri as we accept one or the other of these views, the composition of the niryuktis will have to be placed in the first century B. C. or sixth century A. D. Muni Punyavijayaji goes a step further and suggests that the same Bhadrabāhu who composed the niryuktis about the sixth centuary A. D. was also responsible for the composition of the astrological treatise known as Bhadrabahvi Samhita after his own name and the Upasarga-hara-stotra. As regards the latter work we have nothing to say. But it is difficult to accept his suggestion about the authorship of the former work some manuscripts whereof have come down to us and form the basis of the published editions.49 A cursory examination of the relevant evidence would not be out of context. in the colophons of its various chapters the work in variously called Bhadrabahu Nimitta, Bhadrabahu-nimittasastra, Bhadrabahuka Naimitta, Bhadrabahu-viracita-nimitasastra, Bhadrabahu-viracita-Mahani (or nai) mittasastra and Bhadrabahu-Samhita. Taken at their face value, these names will lead one to the conclusion that it emanates from Bhadrabahu which is quite in conformity with the late Jaina tradition. But this claim is belied by an examination of the internal evidence of the work itself. It begins in the Pauranic fashion and we are told that once upon a time when Bhadrabāhu, the possessor of the knowledge of the twelve Angas, was seated on the Pāņdugiri hill near RājagȚha in Magadha during the reign of king Senajit, he was requested by his pupils to impart in brief the knowledge of astrological phenomena for the benefit of kings, Jay followers and particularly ascetics. Bhadrabāhu thereupon agreed to explain them everything both in brief and detail.60 This statement is vitiated by some grave anachronisms. It is well-known that during the time of Bhadrabāhu, well-versed in the twelve Angas, Cändragupta Maurya was practically the ruler of the whole of India includiug Magadha whereas no ruler of Magadha named Senajit is known from any other source.61 Then again, Pātaliputra, not Rājagsha, was the capital of Magadha during the reign of Bhadrabāhu's royal patron Candragupta Maurya. Rājagļha had long ceased 10 occupy this position. Evidentily in his eagerness to give a halo of antiquity to the work its compiler lost sight of all historical facts. This introductory portion, wherein Bhadrabahu is styled mahatman and bhagavat, clearly indicates that the work could not have emanated from any Bhadrabāhu, neither the srutakevalin one nor any of his later namesakes. This conclusion is also supported by some other considerations. Thus, at one place we are told that an intelligent person should decide the prospects of rainfall after hearing the words of Bhadrabāhu (xi. 52). At another place it is stated that Bhadrabāhu had described the prospects of fluctuation of prices after observing the auspicious and inauspicious vogas of the planets and stars (xxv.50). Then again, the expression “these are the words of Bhadrabāhu" (Bhadrabahu-vaco vatha) Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Varāhamihira and Bhadrabāhu 61 is met with repeatedly through out the work.62 Secondly, the Cheda-sütras attributable to Bhardrabāhu I and the niryuk tis and the Uvasagga-hara-Pasa of a later Bhadrabāhu are all in Prakrit, and it is reasonable to assume that even if any of these Bhadrabābus really composed a Samhita it should also have been in the same language whereas the extant Bhadrabahu-samhita is in Sanskrit. Thirdly, Merutunga and Rājasekharasūri represent Bhadrabāhu as a superior rival of Varāhamihira, and we shall not be unjustified in expecting Bhadrabāhu's Samhita, intended to complete with his rival Varāhamihira's Brhatsamhita, 53 to excel the latter work in point of contents and presentation. The case is, however, just the opposite. The Bhadrabahu-samhita Jacks unity of authorship. A majority of chapters begin with a verse stating that the author would delineate such and such a subject.54 No such statement is, however, found at the commencement of some chapters.55 In the introductory portion the author promises to deal with every topic in brief (samasatah) as well as in detail (vyasatahi, 56 but he keeps this promise only in a few cases. 67 Then, at the beginning of the Svapnādhyāya (Ch. xxvi) there is a fresh mangalacarana58 which shows that originally it did not form part of the work and was added to it in later times, probably because the topic is mentioned in the list of contents given in the opening chapter (i. 17). The same is the case with ch. xxx called parisiştādhyāya.58 The chapters are not arranged in a scientific manner. To give only a few instances. No intelligible system is adopted in the delineation of planetary movements (graha-cara) which form the subjectmatter of chapters xv-xxii. The movements of Venus, which receive the most elaborate treatment, claim the first place (ch. xv) and are followed by those of Saturn (ch. xvi). One would naturally expect it to be followed by the treatment of the ramaining planets from Sun to Jupiter in their fixed serial order. But such is not the case, and an arbitrary order is adopted. After Saturn comes Jupiter (ch. xvii) to be followed by Mercury, Mars, Rahu, Ketus, the Sun and the Moon (chs. xviii-xxiii). The case is not very different regarding the arrangement of other chapters.59 In some cases, part of one topic is dealt with in one chapter while another part of the same subject is reserved for treatment in a stanza of a subsequent chapter intervened by a large number of verses. To cite only one example, the quantum of the effects of two of the five kinds of ulka, viz., Tärā and Dhişnya, is described in verse 9 of chapter 2, while that of the three remaining kinds, viz., Asani, Vidyut and Ulkā, is specified in verse 12 of the following chapter. Then, there are numerous repititions not only of ideas but even of words, sometimes in one and the same chapser. Verse 7 of chapter 13 is, for instance, repeated once again after an interval of just sixteen verses (xiii. 23).60 Although minor defects of language, metres and grammar are not uncommon in texts dealing NAMAMVw AAAAAAAAAASLANE Niudad20 3151 Buygaz 31 ONE The Stre91311AGE 316892 AN Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANNAAAAA AAAA AANALA WALAAAAALAAAAAAA Zuzga ega di922 01511429 5T8291311Jay 51292 MYYN 62 Dr. Ajay Mitra Shastri with technical subjects like astrology-astronomy, medicine and philosophy, the Bhadrabahu-samhita is vitiated by these defects in an unprecedentedly serious proportion which many a time hamper a proper understanding of the text.61 As against this, the Brhat-samhita is distinguished by well-knit chapters arranged scientifically, succient but self-sufficient delineation of relevant topics, variety of metres which are skilfully used, clarity of expression, general correct ness of language which varies according to the requirements of the topics dealt with, originality and poetic talent, qualities conspicuous by their absence in the work allegedly composed by Bhadrabāhu. The Bhadrabahu-samhita cannot thus stand comparison with Varāhamihira's work, not to speak of surpassing it which was the avowed purpose of composing it. But this is not all. Many statements of Varahamihira are repeated in the Bhadrabahu-samhita, sometimes with the only diffrence that while the former employs only a few words the latter says the same thing in so many words. To mention only a few examples, ch. xxxiji of the Brhat-samhita and chs. ii-iii of the Bhadrabahusamhita deal with ulka. Varāhamihira defines ulka and names its five varieties in xxxiii. 1 which is reiterated in so many words in Bhadrabahu-samhita, ii.5-6. The quantum of the effects of the five kinds of ulka is described in a single stanza by Varahamihira (xxxiii. 3) and the same is repeated by Bhadrabāhu in two verses (ii. 9; iii 12) in somewhat similar words. There is a surprising degree of similarity of words and ideas between the two works in many other places, also.cla Bhadrabahu-samhita, xxvii. 1 is adapted from Brhat-samhita, ix.38, and xxvii. 2-3 of the former are literally the same as ix. 3) and v. 97 of the latter62 Then again, verses 183-185 of the Parisistādhyāya the Bhadrabahusamhita are borrowed ad verbatim from Brhat-samhita, Ixx. 1-7, 9-13, 8. We shall, therefore, not be unjustified in concluding that not only is the Bhadrabahu-samhita inferior to the Varahi Samhita but is alse indebted to it for many ideas and verses and consequently later than it.63 Although the extent Bhadrabahu-samhita is thus later than the Brhatsamhita of Varahamihira, it is not possible to ascertain its date precisely in the present state of insufficient information. In the absence of definite evidence on the point, scholars have naturally offered diverse suggestions. The oldest manuscript of the text was copied on Tuesday. the 5th of the white half of Caitra in (Vikrama) Samvat 1504 or in c. 1447 A. D.61 But Muni Jinavijaya opines that the work is probably a Sanskritised version of Bhadrabāhu's work which was composed in Prakrit and that even the Sanskrit version is at least as old as the 11th of 12th century of the Vikrama era.664 At one place A. S. Gopani says that the above-mentioned dated manuscript shows that the work cannot be later than the 16th century of Vikrama5 while later he avers that it was composed after the 15th century of vikrama.66 It is difficult to accept either or these views. While we need not deny that Bhadrabāhu did NEA ha Uzu Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Varāhamihira and Bhadrabāhu 63 really compose a work on astrology, the internal evidence of the extent work, discussed above, clearly proves that it is neither based on nor is a Sanskrit verson of Bhadrabāhu's work. So also the 11th-12th century date suggested by Jinavijayaji can at best be regarded as a pure surmise. The dated manuscript indicates that the work must have been in existence or some time prior to the date of its copying, V. S. 1504. This rules out Gopani's suggestion that it came into existence after the 15th century of Vikrama. It is impossible that the episode of Bhadrabahu and Varāhamihira found in the Prabandha-cintamani and the Prabanda-khosa may have an important bearing on the present question. Although the former work is fully aware of Bhadrabāhu's mastery over astrology, it does not contain any allusion to the Bhadrabahu-Samhita which is first mentioned in the latter work. There is, of course, no reason to doubt that the Bhadrabahavi-Samhita known to Rajasekharasuri was the same as the extent Bhadrabahu-Samhita. Can we, on this basis, conclude that the available Bhadrabahu-Samhita, came into existence some time during the gap between the dates of these two works, i. e., between V. S. 1361 and 1405 ? It will be clear from the foregoing discussion that the work now known as Bhadrabahu-Samhita has nothing to do with any of the Bhadrabāhus and is quite a recent compilation, and an unintelligent one at that, dating from about the middle of the persent millennium. Its compiler, who was a man of ordinary calibre, ascribed it to Bhadrabāhu, evidently with the object of giving it sanctity, popularity and authoritativeness. His knowledge of Bhadrabāhu's traditional mastery of astrology 67 must have emboldened him to do so. This was not uncommon in ancient India as a number of comparatively late texts ascribed to traditionally reputed astrologers and astronomers are known to exist even now.68 The extent Bhadrabahu-Samhita is thus a very late compilation forged in the name of the renouned Jaina patriarch Bhadrabahu.69 The text of the Bhadrabahu-Snhita as it has come down to us bears the appearance of a Jaina work of the Digambara school. It begins with a salutation to Jina Vira, i.e., Mahāvīra,70 and, as we have seen above, is represented to have been composed by Bhadrabahu in response to the request of his pupils. The object of its composition, among other things, was to enable the Jaina monks to know in advance the places to be visited by calamities and to take refuge in other prosperous countries (i. 11). Bhadrabāhu is styled Nirgrantha (i. 6) and described as sky-clad (Digcvasas, ii. 1). The work is said to have been based on the words of Sarvajña (1. 11. 14) or Jina (is. 2), and a statement found in it is represented to be from the Nirgrantha-sasana or the sayings of the Nirgrantha (iv. 28).71 In the colophons of individual chapters the title of the work, i.e., Bhadrabahuka Nimitta or Bhadrabahu-nimitta-sastra, is generally qualified by the adjective Nirgrantha, i. e., belonging to the Nirgranthas.72 Tben again at the end of some of the chapters the monks are advised to leave one country giuZAGOGODET 15. 1 2 u9233 T2329115JITO T6 MA Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SNAK 64 Dr. Ajay Mitra Shastri and seek shelter in another if the former was to be afflicted by certain disasters (xii. 38; xiv. 181; xv. 230; xxv. 49).73 But a close examination of the contents reveals a number of Brahmanical elements which tells us quite a different tale. Thus, speaking of the importance of the nimittas while undertaking a military expedition it is said that even the gods had taken the nimittas into account (xiii. 23). We are further told in the same vein that neither the Vedas nor the Angas (i. e., Vedāngas) nor the sciences (Vidyas), taken individually, can meet those requirements which are met with by a well-told nimitta.74 One would normally expect a Jaina text to enumerate the various branches of learning begining with the Jaina cannon and not with the Vedas which were an object of reverence only for the followers of Brahmanical Hinduism. It cannot be argued that the word anga may have reference to the Jaina cannon comprising twelve Angas, for, as the word is preceded by reference to the Vedas, it can denote only the Vedāngas. Considerable space is devoted to the description of portents taken from fire while performing homa (offerings to fire) on the eve of a military march xiii. 52-60). The Brahmanical practice of regarding the naksatras as presided over by various gods and referring to them by the names of respective divinities is also followed (iii. 38-39 ; xiii. 96-97). As a means of warding off certain evil portents the author recommends the worship of gods, Brāhmaṇas initiated for the performance of Vedic sacrifices (diksita), elderly people and Brahmacārins, for the sins of the kings are extinguished by their penances (xiii. 116). Referring to the duties of a king after the conquest of a new territory, the work recommends that he should worship the gods, elderly people, Brahmaņa ascetics or Brahmacārins (lingastha), Brāhmaṇas and teachers and make revenuefree land grants (xiii, 181).748 No mention is made in this connection of Jaina monks which would be reasonably expected of a Jaina author. Again, while dealing with the utpatas relating to divine images, the author first names Brāhmaņa-gods and goddesses like Vaiśravaņa, Candra, Varuna, Rudra, Indra, Baladeva, 25 Vāsudeva, Pradyumpa, Sürya, Śri, Viśvakarman, Bhadrakāli, Indraņi, Dhanvantari, Jāmadagnya, Rāma (Paraśurāma) and Sulasă (xiv. 62-81) and it is only while summarising the whole thing again that mention is made of the images of the Arhats (xiv. 82). One would be justified in expecting a Jaina author to accord Tirthankara images place of honour and others a secondary place. The case is, however, just the opposite. And lastly, the author is not only familiar with but gives great importance to the Brahmanical system of the four Varņas. Thus, while describing the effects of astrological phenomena on wordly life he generally begins with the mention of the four castes in the prescribed order. He also appears to believe in the traditional association, colours and castes, and frequently refers to white, red, yellow and black phenomena as particularly affecting the Brāhmaṇas, Kșatriyas, JE Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Varāhamihira and Bhadrabāhu 65 Vaisyas and Sūdras respectively. These few instances picked up at random appear to reveal that the extent Bhadrabahu-Samhita probably originated out of a Brahmanical text which was later converted to Jainism by introducing a few changes and additions such as the introductory portion associating the work with Bhadrabāhu, concluding stanzas at the end of some chapters referring to the utility of the predictions for the Jaina monks and occasional references to the worship of Jina images and such other kindred elements.79. But the garb is transparent enough to reveal its original character which is quite eloquent. Did then Bhadrabāhu not compose any work on astrology? As we have noted above, he was traditionally reputed to have been well-versed in astrology (nimitas), and it is quite possible that he may have composed some work on the subject. But, if he really did so, unfortunately we know neither its title nor the exact nature and extent of its contents. But it was probably not known as Bhadrabahu-Samhita, for this name is not met with in the extensive Jaina literature prior to about the middle of the fourteenth century A. D. This title was obviously imitated from Varahamihira's Samhita which, in addition to BrhatSamhita, was also popularly known as Varahi Samhita after his own name, with the motive of highlighting the alleged competition of Varāhamihira and Bhadrabāhu which was a creation of wild imagination on the part of some late Jaina authors. And just as the statement of the author of the Prabandha-kosa about Bhadrabāhu writting a Samhita alleged to have been christened after his own name is untrustworthy, so also must be his alleged contemporaniety and relationship with Varahamihira. Thus, the Varāhamihira-Bhadrabāhu episode narreted by Merutunga and Rājasekharasuri does not appear to possess any historical value and as such need not be taken into account in any historical study. It is noteworthy in this connection that this anecdote is not found mentioned in any work datable before the fourteenth century A. D. To sum up. (i) The contemporaniety of Sruta-kevalin Bhadrabāhu and Varāhamihira contemplated by Merutunga and Rājasekharasūri must be rejected as it goes squarely against the internal evidence of Varāhamira's own works. (ii) It is possible, however, that the episode may have referance to a leter Bhadrabāhu who composed the niryuktis and was confounded with his earlier namesake because of the sameness of thier names. (ii) An examination of the available Bhadrabahu-Samhita proves that it has nothing to do with any of the personages bearing the name Bhadrabāhu and that it is inferior to and later than Varahamihira's Brhat-Samhita to which it is indebted for many an idea and stanza. In fact, it is an unintelligent AARNAAAA AveovaMAEAAAAAAAAAA Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAA ANWALA A . . . . ... 66 Dr. Ajay Mitra Shastri compilation of about the middle of the present millennium attributed to Bhadrabābu with the object of according it a respectable position. (iv) The text of the Bhadrabahu-Samhita as it has come down to us appears to belong to the Digambara sect of Jainism. But a critical appraisal or its contents reveals that in all probability the text was originally a Brāhmanical one and was later given a Jaina appearance by adding a few Jainistic elements here and there. (v) Although Bhadrabāhu may have composed a work on astrology, it was probably not known as Bhadrabahu-Samhita, which name is met with for the first time in the fourteenth century A. D. (vi) As shown by a critical examination of the contents of the Prabandhacintamani and the Prabandha-kosa, also called Caturvimsati-prabandha, their authots, Merutunga and Rājasekharasūri, had no historical sense, and the Varāhaminira-Bhadrabahu episode recorded by them must be dismissed as of no historical value whatsoever. ber References 1 These include the Brhat-saṁhitā, Brhaj-játaka. Laghu-jätaka, Yogayatrā, Tikanikayatrå, Brhadyātrā, Pancasiddhantika and Vivāha-pašala. Of these, the Vivāha-pasala still remains unpublished. For a collection of the available fragments of the Samāsa-Sarhitā, vide my paper in Bharatiya Vidyā, vol. xxiii, pp. 23-39. 2 Byhaj-jätaka, xxviii, pp. 9. 3 For a full discussion of Varāhamihira's life, date and works see Ch. I of my India as seen in the Brhat-saṁhită of Varahamihira, Delhi, 1969. 4 Prabandha-cintāmaņi, edited by Jinavijaya Muni, Singhi Jaina Series, No. 1, Santiniketan, 1933, Prakāsa V. pp. 118-119. 5 Prabandhakośa, edited by Jinavijaya Muni, Singhi Jaina Series, No. 6, Santiniketan, 1935, Bhadrabāhu-Varāha-Prabandha, pp. 2-4. 6 Tribhuvandas L. Shah, Ancient India, vol. iv, Baroda, 1941, pp. 338-339. On the basis of the Jaina evidence Shah avers that the Vārāhasarnhitā was composed 156 years after Mahāvīra's nirvana (Ibid., p. 339). 7 The Prabandha-cintamani, as stated in its colophone (p. 125), was comple ted in V. 1361 expired corresponding to A.D. 1306, while Rājasekhara süri finished his Prabandha-kośa in V. 1405 (p. 131) or A.D. 1349. 8 For a full discussion, see Kailash Chandra Shastri, Jaina Sāhityakā Itihāsa : Pürvápīțhikā, Varanasi, Vira Nirvāņa year 2489, pp. 337-339. 9 Ibid., pp. 339f. Also vide, M. Winternitz. A History of Indian Literature, vol. ii, Calcutta, 1933, pp, 462, 476. 10 CF. Harişena's: Brhat-katha-kośa (Singhi Jain Series, Bombay, 1943). San 2c Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Varāhamihira and Bhadrabāhu 67 VA JU 11 B. Lewis Rise, Mysore and Coorg from Inscriptions (London, 1909), pp.3-4. 12 For a discussion of the whole question, vide Kailash Chandra Shastri, op. cit., pp. 342-346. Also see V. A. Smith, Early History of India (Oxford, 1957), p. 154 ; Oxford History of India (Oxford, 1923), pp. 75-76 ; N. C. Raychaudhuri, Political History of Ancient India (6th edition, Calcutta, 1953), pp. 294-295. 13 Kailash Chandra Shastri, op. cit., pp. 339-340. 14 For a detailed discussion of Varāhamihira's date see my India as seen in the Brhatsaṁhită of Varahamihira, pp. 4-18. 15 The stories appertaining the Caulukyas come under this category. 16 Prabandha-cintamani, Prakāśa 2, pp. 44-45. 17 Ibid , Prakāśa 2, pp. 34-36. 18 Ibid., Prakāśa 1, p. 11. 19 Prabandha 15, p. 68. 20 G. H. Ojha, Bharatiya Pracina Lipimala (Delhi, V. S. 2016), pp. 170-173; D. C. Sircar, Indian Epigraphy (Delhi, 1965), pp. 258-267. 21 Prabandha-kośa, Prabandha 15, p. 72. 22 Ibid., Prabandha 11, p. 54. 23 R. C. Majumdar and A. D. Pusalkar (editors), The Struggle for Empire (second edition, Bombay, 1966), pp. 54-55. 24 This reminds one of the Buddhist councils only first two of which are known to the undivided Buddhist church whereas subsequent ones, being of sectarian nature, are mentioned only in the works of the respective sects. 25 As stated above, the Svetāmbaras place his death 170 years after Mahā vira's passing away. 26 H. Jacobi, The Kalpasutra of Bhadrabahu, introduction, pp. 10ff.; IA, vol. ii, p. 245 ; vol. xxi, pp. 57ff. This Bhadrabāhu is mentioned only in the Pațţāvalis, other texts remaining reticent about him. According to some scholars, the episode of the migration of the Jaina community to South India recorded in literature and some late inscriptions from Mysore was connected with Bhadrabāhu II (vide J. F. Fleet in TA. vol. xii, pp. 158ff. ; Kailash Chandra Shastri, op. cit., pp. 350-351). This suggestion is, however, not well-based. 27 Sat-prabhrta (edited with a Hindi translation by Surajbhan Vakil, Vara nasi, 1910), Bodha-pada, versa 62. 28 M. Winterniz, A History of Indian Literature, vol. ii, pp. 476-477, 577. 29 Barasa Anga-viyanam cauddasa Puvvanga-viula vittharanam, Suyanani Bhadrabahu gamaya-guru bhayavao jayau. 30 Prabandha-cintamani, Prakasa 5, pp. 118-119; Prabandha-kosa, Prabandha 1, pp. 2.4. MAINAN MAALAAANAA SNIUI S > ANA udaft SA R22 Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAAAAAAAAAAA AVM 68 Dr. Ajay Mitra Shastri 31. The niryukti on the Dasasrutaskandha-sutra mentions Bhadrabāhu as the author of the Dasasrutaskandha, kalpa and Vyavahara. For the text of the veise, see Brhat-Kalpa-sutra with the niryukti, a bhasya by Sanghadasagani Kşamāśramaņa and a commentary by Malayagiri and Ksemakirti, edited by Muni Caturvijaya and Muni Punyavijaya, Vol. VI (Bhavnagar, 1942), Gujarati Introduction, p. I. 32 The author of the Pancakalpa-mahabhasya also refers to Bhadrabāhu as the composer of the Dasa, Kalpa and Vyavahara and repeatedly styles him suttakara. For original text, vide Ibid., p. 2. The churni on the Pancakalpa-bhasya gives Bhadrabāhu and the credit of composing the Acaraprakalpa or Nisitha-sutra, Dasa, Kalpa, and Vyava hara. For the text, see Ibid., p. 3. 34 The Dasa-sruta-skandha, Kalpa, Vyavahara, Nisitha, Mahanisitha and Pancakalpa are known as Cheda-sūtras. 35 Anuyoga-dayinah Sudharmasvami-prabhrtayah yāvad=asya bhagava to niryukti-kārasya Bhadrabāhusvāmihaś=caturdaśa-pūrva-dharasyācāryo=tas=tan sarvān=iti. Sīlānka's commentary on Ācārānga-sútra. Quoted in Ibid., p. 4. 36 For citations, vide Ibid., pp. 4-5. 37 Ibid , pp. 5-7, 8. 38 For original text, see Ibid., pp. 7-8. 39 Ibid., p. 7. 40 Arahaṁte Vamdittā, caudasa-puvvī, tah-eva dasa-purvi, Ekkārasāmga suttattha-dharae, savva-sāhū yā. Quoted from Ibid., p. 7. 41 For some other anachronisms, see Ibid., pp. 5-14. 42 Na ca kesāncid=ih-odāharaṇānāṁ niryukti-kālād=arvāk-kāla-bhävitā ity-any-oktatvam-āśānkaniyam, sa hi bhagavāṁś=caturdasa-pūrva-vit śruta-kevali kāla-traya-visayam vastu paśyaty-ev-eti katham=anya-kstatv āśankā iti. Quoted from Ibid., p. 4. no. 2. 43 Gun-adhikasya vandanam karttavyam na tv-adhamasya, yata uktam - gun ābie vamdanayam. Bhadrabāhusvāmins=caturdeśa-pūrva-dharatvāddaśapūrva-dharādinām nyūnatvāt kim leşām. namaskāram=asau karoti iti Atr-ocyate gun-ādhikā eva te, avyavacchitti-gun-adhikyāt, ato na dosa iti Quoted from Ibid., p. 4, no. 3. Vamdāmi Bhaddabāhum, pāinaṁ carima-sagala-suyanānim, Suttassa kāragam=isim Dasásu kappe ya Vavahāre. Quoted from Ibid., p. 13. 45 Ibid., pp. 1-17. It must be remembered in this connection that a late tradition met with in the Jyotirvid-abharana makes Varāhamihira one of the nine gems of the court of Vikramaditya who is credited with the institution of the Vikrama era of 57 B.C. In case it is held that Merutunga and Rajasekharasuri followed this tradition which was quite popular in their time, the identification of the two Bhadrabāhus will have to be regarded as a certainty. 44 46 Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Varābamihira and Bhadrabāhu 69 47 K. A. Nilkantha Sastri (editor), Comprehensive History of India, Vol. II (Calcutta, 1957, p. 662. 48 Punyavijaya, op. cit., Introduction, pp. 1-17. 48(a) Ibid, pp. 15-17. In support of his proficiency in astrology Punyavijaya invites attention to some statements with astrological implications found in the niryuktis and to the fact that the Surva-prajnapati was one of the texts chosen by Bhadrabahu for writing his niryuktis. 49 A Gujarati translation by Pandit Hiralal Hamsaraj was published from Bombay in V. S. 1959 and the text was published a few years later by the same Pandit from Jamnagar. The text critically edited from four manuscripts and with an enlightening introduction by Dr. Amritlal S. Gopani and a foreword by Muni Jinavijaya was published in the Singhi Jain Series No. 26, Bombay, 1949. Later, Dr. Nemichandra Shastri edited it from two manuscripts with an introduction and Hindi translation (Varanasi, 1959). Gopani's edition contains twenty-six chapters and that of Shastri twenty-seven chapters and an additional chapter called Parisist-adhyaya. Unless otherwise stated, references in the psesent paper pertain to Gopani's edition. 50 Bhadrabahu-samhita,, i. 1-20; ii. 1-2. 51 Unless, of course, he is identified with Seniya Bimbisära. Prasenajit of Kosala is out of question. 52 Ibid., iii. 31, 64; vi. 17; vii. 19; ix. 26, 62 ; x, 16, 44 ; xi. 26, 30; xiii. 37; xiii. 74, 100, 178 ; xiv. 54, 136 ; xv. 36, 72, 145, 166, 178 : xviii. 24 ; xx. 14 ; xxiji. 28 ; xxiv. 23 ; xxvi 42. 53 Called Varahi Samhita in the Prabandha-cintamani and Prabandha-kosa. 54 In some cases the concluding verse of a chapter mentions the subject dealt with in the following chapter.. 55 Cf. chs. iii, xix, xxii. xxiii, xxv, xxvii. 56 Bhadrabahu-samhita, ii. 2. 57 Thus, ulka is described in brife in ch. ii and in detail in ch. iii. This practice is not followed in respect of other topics. 58 Namaskrtya-Mahaviram sur-asura-janair-natam. Sva pn-adhyayam pravaksvami subha-asubha samiritam xxvi. 1. 58a Srimad --Vira-jinam natva Bharatin=ca Pulindinim Smrtya nimittani vaksye sv-atmanah karya-siddhaye parisiştādhyāya, verse 2. 59 Clouds, rainfall and connected matters are dealt with in four chapters (vi, viii, x, xii) which are separated from one anothher by chapters dealing with other topics like twilight (vii), winds (ix) and gandharva nagara (xi). 60 This has reference to Nemichandra Shastri's edition. WANAWANAUMONAALAALWAUAPARA N AGLALALA To DIS ICFO UICY TAN YO CQ Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAAAPARAAPIRAALAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA Marte . wwwlv 70 Dr. Ajay Mitra Shastri 63 hen e 61 For some such defects, see Gopani, op. cit., introduction, pp. 19-20. 61a Cf. Brahat-samhita, xxxiii. 4,8 and Bhadrabahu-samhita, ii. 8-9; Brahat samhita, xxxiii. 9-10, 12, 15-16, 18-19 and Bhadrabahu-samhita, iii. 5, 9, 16, 18-19. For a detailed comparison between the two works, see Gopani (editor), Bhadrabahu-samhita, introduction, pp. 6-19, 22-32. As pointed out above, ch. xxvii is found only in Nemichandra Shastri's edition. Nemichandra Shastri's view that the first twenty-five, particularly fifteen, chapters, were probably composed earlier than Varahāmihira (introduction, pp. 55-56) is contradicted by his own statement that the work may have been compiled in the 8th-9th century A. D. (Ibid., p. 55). As pointed out by him, the mention of Durga's work on the ristas in Bhadrabahusamhita, Parisistädhāyaya, verse 10, clearly shows that at least this chapter is later than 1032 A. D. (ibid., p. 54). 64 See the puspika on p. 70 of Gopani's edition. 64a Ibid., Jinavijaya's foreword, pp. 3-4. 65 Ibid., author's introduction, p. 6. 66 Ibid., p. 20. 67 Nemittio (naimittika) is known to have been employed as one of the syno nyms used for Bhadrabāhu. See Punyavijaya, op. cit., p. 15, fn. 3. Such are, for example the works attributed to Brahma, Vasistha, Surya, Maya, Garga, Kaśyapa, etc. Similar works exist in the field of Dharma śāstra, Āyurveda and Silpaśāstra also. 69 As an analogy may be mentioned the fact that as works supposed to have been composed by the ganadharas were regarded as more authoritative than those composed by others, in later times the tendency to attribute even late works to them came into existence. Thus, some of the Chedasūtras and even some Purānas came to be ascribed to the gunadharas. Vide Dalsukh Malwania, ganadhara vada ki Prasta vana, pp. 8-12; Nisihatha Eka Adhayayana. pp. 18-20. 70 This verse is found only in Shastri's edition. The opening verse of ch. xxvi also pays obeisance to Mahävira. 71 According to xx. 1, the movement of Rāhu dealt with in ch. xx is also basad on teachings of the Nirgranthas well-versed in the twelve Angas. Likewise, xiii. 428 (Shastri's edition) proclaims that the nimittas dealt with in the chapter are actually those spoken by the Jina (Jinu-bhasita). 72 Occasionally we find the use of the word Nirgrantha which is evidently an error for Nairgrantha. 73 Also Cf. xiv, 182; xxi. 58; xxiii. 58; xxiv. 43. 74 Na Vedā n-āpi c-angani na vidyāśca prthak 'prthak Prasādhyanti tāni == arthān nimittam yat subhāsitam xiii. 38. 68 * ) 1 Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Varahamihira and Bhadrabāhu 74a Cf. xxii. 54 which recommends the worship, among others, of persons initiated for the performance of Vedic sacrifices manes and Brahmanas for warding off the effects of the appearance of evil comets. 75 The reading in the relevant verse is balandeve (xiv. 68) and there is also a variant, bale kascin, which give no sense. The correct reading, particularly as Vasudeva is mentioned in the following stanza, must be Baladeva, which has been corrupted into Balande ve in the interest of the correctness of the metre. 76 The mention of Vasudeva after Baladeva points to the earlier peried when Vira-worship was popular. The verse in question (xiv. 69), as well as the preceding one, therefore, appears to have been taken from some early text. 77 Copani's edition gives the reading bhadrastali (xiv. 75), which is obviously a mistake for Bhadrakali which is given by Shastri. 78 E. g., xiv. 22-23; 31, 58; 99-101; xx. 2, 57; also cf. xiv. 57 (association of certain trees and castes); xxiv. 18-21 (association of certain tithis and castes). 79 Cf. xiii.76; Parisistadhyaya, verses 30, 143, 158, etc. 71 NASA. J Th W70 आचार्य प्रवास अभि 182.53 उपायप्रवरख आनन्द आआनन्द ग्रन्थ 2131 52 FH Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : श्री महाराष्ट्र स्थानकवासी जैन संघ साधना मदत, नानापैत, पूना-२ Jain Educa t ion FOR PF www.ininelibrary.oro _आवरण पृष्ठ के मद्रक "शैल प्रिन्टर्स." नाला भैरों, बेलनगज, आगर।