Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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उपयायप्रवर अभिनंदन श्री आनन्द अन्थ श्री आनन्द
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आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि: व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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यह सारी करामात श्रद्धा की है। श्रद्धा के न होने पर मनुष्य कितनी भी विद्वत्ता क्यों न पा ले उसका कोई भी लाभ नहीं होता। श्रद्धावान विद्वान न होने पर अपना कर्मनाश करके संसार-सागर को पार कर लेता है और था के बिना विद्वान् उसमें गोते लगाता रहता है। एक आचार्य ने लिखा है-अश्रद्धा परमं पापं श्रद्धा पापमोचिनी । जहाति पापं श्रद्धावान् सर्पोजीमिव स्वचम् ॥
अथवा घोर पाप है और थद्धा समस्त पापों का नाश करने वाली है। श्रद्धालु पुरुष समस्त पापों का उसी प्रकार त्याग कर देता है, जिस प्रकार सर्प अपनी केंचुली को छोड़ देता है ।
अभिप्राय कहने का यही है कि अगर मनुष्य अपने जीवन में किसी भी प्रकार की सिद्धि प्राप्त करना चाहता है तो उसे सर्वप्रथम श्रद्धावान बनना चाहिए। श्रद्धा के बिना उसमें दृढ़ता, संकल्प, शक्ति और साहस कदापि उत्पन्न न होगा और इन सबके अभाव में सिद्धि कोसों दूर रह जायेगी। इसीलिए संसार के सभी धर्म और धर्म ग्रंथ था पर बल देते हैं महाभारत में कहा है
श्रद्धामयोऽयं पुरुष: यो यच्छद्धः स एव सः ।
यह आत्मा श्रद्धा का ही पुतला है। जिसकी जैसी श्रद्धा होती है वह वैसा ही बन जाता है । सिक्य धर्म कहता है
निश्चल निश्चय नित चित जिनके ।
वाहि गुरु सुखदायक तिनके ॥
वे ही मनुष्य सुख की प्राप्ति कर सकते हैं, जिनके हृदय श्रद्धा से परिपूर्ण हैं ।
ईसाई धर्म कहता है
'एक श्रद्धाहीन मानव अपने समस्त कृत्यों में चलायमान रहता है। उसके दिल या दिमाग किसी में भी स्थिरता नहीं होती ।'
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जैनशास्त्र तो श्रद्धा को धर्म का मूल ही मानते हैं। वे कहते हैं
सद्धा परम दुल्लहा ।
श्रद्धा अत्यन्त दुर्लभ है, जिसने अतिशय पुण्यों का उपार्जन किया हो और जिसने पूर्व में अत्यधिक साधना की हो उसी को श्रद्धा की प्राप्त होती है । भयंकर कष्ट भी श्रद्धालु को साधना से विचलित नहीं कर पाते ।
उपासक दशांग सूत्र में कामदेव धावक का वर्णन आया है। उसकी श्रद्धा कितनी प्रगाढ़ थी ? देवता ने उसे धर्म से विचलित करने के लिए क्या नहीं किया ? नाना प्रकार की भयंकर धमकियां दीं और उन्हें कार्यरूप में परिणत भी किया किन्तु कामदेव अपने सत्पथ या धर्मपथ से रंचमात्र भी च्युत नही हुआ । अगर उसके हृदय में दृढ़ श्रद्धा का वास न होता तो वह अपने मार्ग से विचलित हो जाता । श्रद्धा ने ही उसके चित्त में अजेय शक्ति और साहस का आविर्भाव किया।
पर आज कहाँ है ऐसी प्रगाढ़ श्रद्धा ? आज तो एक-एक पाई के लिये लोग धर्म को बेच देने के लिए तैयार हो जाते हैं पैसे पैसे के लिये भगवान और धर्म की कसम खा जाते हैं। जरा-सी बीमारी आई या बेटे पोतों के लिए भैरों, भवानी, बालाजी, हनुमान जी के आगे मस्तक टेकते हैं। पर अंत में उनके हाथ क्या आता है ? कुछ भी नहीं, केवल पश्चात्ताप ।
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इस अंधश्रद्धा का कारण यही उसे पूर्व और पश्चात् जन्म, किये हुए
है कि आज के मनुष्य में श्रद्धा का कर्म के फल की प्राप्ति आदि पर
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सर्वथा अभाव हो गया है । विश्वास नहीं रहा है । आत्मा
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