Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्य प्रदर श्री आनन्द
ॐ.
१३२
उपयाय प्रवद अभिनंदन
श्री
ग्रन्थ
इतिहास और संस्कृति
मति सम्पदा के चार भेद हैं
(१) अवग्रह - मति-सम्पदा
(३) अवाय मति सम्पदा
(२) ईहा-मति सम्पदा
(४) धारणा-मति सम्पदा
क्रम के ये चार सोपान हैं। सबसे पहले
अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-मति ज्ञान के परिणति ज्यों ही इन्द्रिय किसी पदार्थ का साक्षात्कार करती है, तब उस (पदार्थ) का अति सामान्य ज्ञान होता है। अवग्रहमति सम्पदा - सामान्य का तात्पर्य उस बोध से है, जहाँ पदार्थ के स्वरूप नाम, जाति आदि की कल्पना नहीं रहती, वे अनिर्दिष्ट रहते हैं वह मनःस्थिति अवग्रह कही जाती है। अवग्रह को प्रशस्त क्षमता का होना अवग्रह-सम्पदा है। आचार्य में सहज ही यह विशेषता होती है।
ईहा-मति सम्पदा अवग्रह में ज्ञेय पदार्थ विषयक अस्पष्ट मनःस्थिति रहती है तब निश्चयोन्मुख जिज्ञासा का स्पन्दन होता है। मन तदनुरूप चेष्टोन्मुख बनता है। अवग्रह द्वारा गृहीत स्वरूपादि के वैश से रहित अति सामान्य ज्ञान के पश्चात् विशेष ज्ञान की ओर ईहा -- मननात्मक चेष्टा ज्ञान की निर्णीत स्थिति की ओर बढ़ते क्रम का रूप है। ऐसी उदात्त स्फुरणा का होना ईहा सम्पदा कहा जाता है। आचार्य उत्कृष्ट ईहा मति-सम्पदा से युक्त होते हैं ।
अवाय मति सम्पदा ईहा का उत्तरवर्ती क्रम अवाय है। ईहा चेष्टात्मक है, अवश्य निश्वयात्मक निर्णेय पदार्थ के साधक और बाधक प्रमाण या गुणागुण-विश्लेषण के माध्यम से जो निश्चित मनःस्थिति बनती है, वह अवाय है। रज्जू और सर्प के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। अँधेरे में सहसा निश्चय नहीं हो पाता कि जिज्ञासित पदार्थ सर्प है या रज्जू जब साधक प्रमाण द्वारा या स्पष्टता करने वाले हेतु द्वारा यह निश्चित रूप से अवगत हो जाता है कि यह रज्जू है, तब अवाय की स्थिति आ जाती है अवाय तक सूक्ष्मतापूर्वक पहुंचना या यथावत् अवायात्मक- निश्चयात्मक स्थिति अधिगत कर लेने की विशिष्ट क्षमता अवाय सम्पदा के नाम से अभिहित होती है, जो आचार्य में स्वभावतः होती है।
धारणा-मति सम्पदा अवाय क्रम में ज्ञान जिस निश्चिति में पहुंचता है, उसका टिकना, स्थिर रहना, स्मरण रखना धारणा है । इसे वासना या स्मृति भी कहा जाता है । यह संस्करात्मक है । मन के स्मृति-पट पर उस ज्ञान का एक भावात्मक रूप अंकित हो जाता है । दूसरे किसी समय वैसे पदार्थ को देखते ही पहले के पदार्थ की स्मृति जाग उठती है यह जागने वाली स्मृति उसी संस्कार का फल है, जो उस पदार्थ के मत्यात्मक मनन क्रम में मन पर अंकित हो गया था। धारणा, वासना या स्मृति का वैशिष्ट्य या वैभव धारणा-मतिसम्पदा है। आचार्य इसके धनी होते हैं।
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जिसकी मननात्मक क्षमता जितनी अधिक विकसित होती है, उसे मति के इस उत्थान क्रम में उतना ही वैशिष्ट्य प्राप्त रहता है। आचार्य में यह क्षमता अपनी विशेषता लिए रहती है। उदात्त व्यक्तित्व की दृष्टि से आचार्य के लिए ऐसा होना आवश्यक भी है ।
प्रयोग-सम्पदा
किसी विषय पर प्रतिवादी के साथ वाद या विचार करना यहाँ प्रयोग शब्द से अभिहित किया
१. दशाश्रुतस्कन्धसूत्र, अध्ययन ४, सूत्र ७
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