Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यप्रवभिनय आनन्थ
अन्यश्रीआनन्दाअन्ध५१ १५२ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सच्चा आत्मार्थी या मोक्षार्थी कहला सकता है। ज्ञान प्राप्ति के इच्छुक को सदैव विनय और उसके साथ विवेक को अपने हृदय में जागृत रखना चाहिये।
विनय की अद्भुत शक्ति
विनय में अद्भुत शक्ति है। जो व्यक्ति विनय गण से संपन्न है वह अपने क्रोधी-से-क्रोधी गुरु को, माता-पिता को या अन्य जो भी व्यक्ति सामने हो उसे झका देता है और अविनीत व्यक्ति उलटा उन्हें कुपित करता है, किन्तु परिणाम क्या होता है ? यही कि वह स्वयं हानि में रहता है। संत तुकारामजी इसी बात को एक उदाहरण द्वारा समझाते हैं
'महा पूरे झाड़ें जाती ते थे लोहाले वाचती।' नदी में बाढ़ आने पर उसका पानी दोनों किनारों को उलांघ जाता है। उस समय किनारे पर खड़े वृक्ष अपनी उंचाई के अहंकार में रहकर जल का स्वागत नहीं करते । फलस्वरूप पानी उनकी जड़ों में रही हुई सारी मिट्टी को बहा ले जाता है और मिट्टी न रहने पर जड़ें कमजोर हो जाती हैं और जल के दूसरे धक्के से ही वे विशाल वृक्ष धराशायी हो जाते हैं ।
दूसरी ओर नदी में एक घास होती है जो कमर या छाती तक ऊंची होती है, उसमें अत्यन्त नम्रता होती है और जल-प्रवाह के आते ही झक जाती है। जल इसके ऊपर से निकल जाता है। उस वनस्पति को तनिक भी हानि नहीं पहुँचाता ।
तो नदी के पूर में जहाँ बड़े-बड़े दरख्त अपने अहंकार के कारण टूटकर बह जाते हैं वहाँ छोटी-सी वनस्पति अपनी विनीतता के कारण सुरक्षित रहकर फलती-फूलती है।
इसी विषय में किसी कवि ने बड़ी ही सुन्दर बात कही है
नमे सो आमा आमली नमे सो दाडम दाख । एरंड विचारा क्या नमे जिसकी ओछी साख ।
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इस बात से स्पष्ट है कि विनय से केवल व्यक्ति का ही नहीं अपितु वंश का उत्कर्ष भी सिद्ध होता है। कहा भी है
'विनयो वंशमाख्याति ।' विनय के द्वारा वंश का भी अनुमान लगाया जाता है । व्यक्ति यदि विनीत है तो वह कुलीन माना जाता है, अविनीत है तो अकुलीन । इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपना व्यवहार, वाणी, आचार और विचार सभी उत्तम और विनयपूर्ण रखने चाहिये, ताकि उसका वंश बदनाम न हो।
उच्चवंशीय तथा कुलीन व्यक्ति में स्वभावतः विनय और नम्रता होती है। इसीलिये वह मर्वत्र सम्मान पाता है । जैसे स्वर्ण की सलाखा चाहे जितनी भारी हो, उसे मोड़ना चाहेंगे तो तुरन्त मुड़ जायेगी, किन्तु लोहे की कील चाहे जितनी भी पतली क्यों न हो, लाख प्रयत्न करने पर भी नहीं मुड़ेगी । फल यह होता है कि स्वर्ण तोले के भाव बिकता है और लोग उसके आभूषण गौरव के साथ पहनते हैं और लोहे की कीलों को हथौड़े से ठोका जाता है। ऐसा क्यों? इसलिए कि स्वर्ण में नम्रता है और कील में कठोरता । नम्रता को सम्मान मिला और कठोरता को तिरस्कार तात्पर्य यही है कि जो अहंकार और गरूर में चूर रहकर अपने स्वाभाविक गुण विनय को खो देता है। उसकी अंत में दुर्दशा होती है।
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