Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
सप्तम परिच्छेद
[ १५६
आगे अप्रशस्त निदानकौं कहैं हैं;
भोगाय मानाय निदानमीशेर्यदप्रशस्तं द्विविधं तदिष्टम् । विमुक्तिलाभ प्रतिबन्ध हेतोः, संसारकांतारनिपातकारि ॥ २५॥
अर्थ – आचार्य नैं जो अप्रशस्त कहिए खोटे निदान है सो भोग के अर्थ अर मानके अर्थ ऐसा दोय प्रकार इष्ट किया है, कैसा है, अप्रशस्त निदान मुक्तिके लाभके रोकनेकौं कारण संसार मैं पटकनेवाला ऐसा है ।
भावार्थ -- पंचेन्द्रियनिके बिषयनिकी अभिलाषा सो भोगार्थ निदान कहिए अर अपनी महंतताके अर्थ वांछा सो मानार्थ निदान कहिए सो खोटे निदान संसारके कारणके है ऐसा जानना ||२५|| संति दोषा भुवनांतराले, तानंगभाजां वितनोति भोगः । के asuराधा जननिन्दनीया, न दुर्जनो यान् रभसा करोति ॥ २६ ॥
ये
अर्थ -- विषय भोग हैं सो जीवनिकै लोकविषै जो दोष हैं तिनहिं विस्तर है । इहां दृष्टांत कहैं हैं – जननि करि निंदनीक ते कौन अपराध हैं जिनहिं दुष्टजन जबर्दस्ती न करें हैं, सर्व ही करें हैं ॥ २६ ॥
ये पीडयन्ते परिचर्यमाणाः ये मारयन्ते बत पोष्यमाणाः । ते कस्य सौख्याय भवन्ति भोगा, जनस्य रोगा इव दुर्निवाराः ॥२७॥ अर्थ--आचार्य कहैं हैं बड़े
खेदकी बात है जे भोग आचरन करे सन्ते से सन्ते पीड़ा उपजावै है अर पुष्ट करे सन्ते मारैं हैं ते भोग रोगनि समान दुर्निवार कौन मनुष्यकै सुखके अर्थ होय हैं, अपितु नाहीं होय हैं ऐसा जानना ॥२७॥
विनश्चरात्मा
गुरुपंककारी, मेघो जलानीव विवर्द्धमानः । ददाति यो दुःखशतानि कृष्ण, स कस्य भोगी विदुषा निषेव्यः ॥ २८ ॥