Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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अष्टम परिच्छेद
संसारसागरे भीमे, दुःख कल्लोलसंकुले । रागद्वेषमहान, रौद्रव्याधिभाषाकुले ॥ १२ ॥ चिरं वंभ्रम्यमाणानां जिनेन्द्रपद वंदना | दुराया जायतेऽत्यर्थमिति यो हृदि मन्यते ॥ १३॥
अर्थ – अनेक जोनि हैं पाताल जा विषै, बहुरि नानाप्रकार गति ही है पत्तन कहिए पुर जा विषै, अर जन्म मृत्यु जरा ही है आवर्त्त कहिए भौंरे जामैं अर महापाप ही है जल जा विषै अर दुःख रूप लहरन करि व्याप्त अर रागद्वेष ही हैं बडे न जा विषै अर भयानक रोगरूप मच्छनि करि भर्या ऐसा जो भयानक संसार - समुद्र ता विषै बहुत कालतें अतिशय करि भ्रमते जे जीव तिनकौं जिनेंद्रके चरणनिकी जो वंदना सो अतिशय करि दुर्लभ है ऐसा जो पुरुष हृदय विषै माने है ॥ ११-१२-१३ ॥
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बहुरि कहैं हैं -
अनर्थकारिणः कांता जननी जनकादयः ।
स्वस्योपकारिणो योऽलं बुध्यते परमेष्ठिनः ॥ १४ ॥
अर्थ - स्त्री माता पितादिकनिकौं अनर्थके करनेवाले मानें हैं अर आपके उपकार करनेवाले पंच परमेष्ठीनकौं मानें है ॥ १४ ॥
बहुरि कैसे हैं
सर्वाणि गृहकार्याणि परकार्याणि पश्यति । शुद्धधधर्मकार्याणि, निजकार्याणि यः सदा ॥ १५॥ यौवनं जीवितं धिष्णमैश्वर्यं जनपूजितम् । नश्वरं वीक्षते सर्व, शरदभ्रमिवानिम् ॥ १६॥
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दर्शनज्ञानचारित्रत्रितयं भवकानने । जानीते दुर्लभं भूयो भ्रष्टं रत्नमिवांबुधौ ॥ १७॥
मयूरस्थेष मैघौये, वियुक्तस्येव वांधवे । तृषार्तस्येव पानीये, विषद्धस्येव मोक्षणे ॥ १८ ॥