Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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२०६]
श्री अमितगति श्रावकाचार
हर्षसहित कहैं हैं, कैसा है सो देने योग्य वस्तु विष नाहीं है लोभरूप बुद्धि जाकी ॥५॥
साधुभ्यो ददता दानं, लभ्यते फलमीक्षितम् । यस्यैषा जायते श्रद्धा, नियं श्राद्ध वदंति तम् ॥६॥
मर्थ–साधुनके अर्थ दान देता जो पुरष ताकरि वांछित फल पाइए है यह जाकै नित्य ही श्रद्धा प्रतीति है ता पुरुषकों आचार्य श्रद्धावान कहैं हैं ॥६॥ द्रव्यं क्षेत्र सुधीः कालं, भावं सम्यक विविच्य यः । साधुभ्यो ददते दातं, सविज्ञानमिमं विदुः ॥७॥
अर्थ- द्रव्य क्षेत्र काल भावकौं भले प्रकार विचारकै साघूनकै अर्थ सुबुद्धि दान देय है इसकौं आचार्य स विज्ञान कहैं हैं ॥७॥
त्रिधापि याचते किंचिद्यो, न सांसारिक फलम् । ददानो योगिनां दानं, भाषते तमलोलुपम् ॥८॥
अर्थ-जो योगीनकौं दान देता सन्ता मन, वचन, काय करि भी सांसारिक फलकौं न याचे है ताहि आचार्य अलोलुप कहैं हैं ॥८॥
स्वल्पवित्तोऽपि यो दत्त , भक्तिभारवशीकृतः । स्वाढ्याश्चर्यकरं दानं, सात्विक तं प्रचक्षते ॥६॥
अर्थ-जो थोड़ा धनवान भी भक्तिके भार करि वश किया सन्ता धनवानकौं आश्चर्य करनेवाला दानकौं देय है ताहि आचार्य सात्विक कहैं हैं।
भावार्थ-जो धनरहित भी भक्ति करि दान देय है जाकौं देखक धनवान भी आश्चर्य मानै जो धन्य है यह सो ऐसा दान देय है ता पुरुषकौं सात्विक कहिए है ॥६॥
कालुष्यकारणे जाते, दुनिवारे महीयसि । यो न कुप्यति केभ्योऽपि क्षमक कथयति तम् ॥१०॥ अर्थ- क्रोधरूप मलिन परिणामका दुनिवार महान् कारण