Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार
- जो अपनी स्थिति पूर्ण रूप उदय काय करि कर्मकी निर्जरा हि आर्य है विपाकजा निर्जरा कहै है । बहुरि जो उम्र तपश्चरण करि करिए है ताहि संसार - दुःखकी नाश करनेवाली अपाक निर्जरा कहै हैं ॥५७॥
विपाकजाया मुदितस्य कर्मणो, मता परस्यामखिलस्य विच्युतिः । यतो द्वितीयाsत्र ततो विधानतः, सदा विधेया कुशलेन निर्जरा ॥ ५८ ॥
अर्थ - जातें सविपाकजा निर्जरा विणें तौ उदयकौं प्राप्त भया जो कर्म ताकी हानि होय है । वहुरि अविपाकजा विणें उदय आया अर बिना उदय आया ऐसा सर्व ही कर्मका नाश होय है तातें प्रवो ण पुरुष करि दूसरी जो अविपाक निर्जरा सो तपश्चरणादि विधानतें सदा करनी योग्य है ॥५८॥
तपोभिरुप्र : सति संवरे रजो, निषूद्यमानं सकलं पलायते । निराश्रवं वारि विवस्वदंशुभि
र्न शोष्यमाणं सरसोऽवतिष्ठते ॥५६॥
अर्थ - आगामी कर्मनिका संवर होत सन्तें उग्र तपश्चरण करि नाश किया जो कर्म सो समस्त नाशकौं प्राप्त होय है । जैसें नवीन जलके आश्रव रहित जो सरोवरका जल सो सूर्यकी किरणनि करि सोप्या भया न तिष्ठ है तैसें जानना ॥ ५६ ॥
परेण जीवस्तपसा प्रतापितो,
रभसा
प्रपद्यते । मलोऽवतिष्ठते,
विनिर्मलत्वं
सुवर्णशैलस्य
प्रताप्यमानस्य कृशानुना कथम् ॥६०॥
अर्थ - उत्कृष्ट तप करि तपाया जो जीव है सो शीघ्र निर्मलपनेकौं प्राप्त होय है । जेसें अग्निकरि तपाया जो सुवर्णका गद्दा ताकै मैल कैंसें तिष्ठै, अपितु नाहीं तिष्ठं है ।