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अमितगति
श्रावकाचार
आचार्य
अमितगति विचित
आचार्य अमितगति
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युग-प्रमुख, चारित्र - शिरोमणि, सन्मार्ग दिवाकर श्राचार्य श्री विमलसागरजी महाराज
हीरक जयन्ती वर्ष
के अवसर पर प्रकाशित पुष्प नं. २६
श्री अमितगति आचार्य विरचित
श्री श्रमितगतिश्रावकाचार
हिन्दी अनुवाद : पं० भागचन्द जी
संशोधन :
संघस्थ पञ्चम पट्टाचार्य श्री श्रेयांससागर जी
सानिध्य :
परमपज्य, ज्ञानदिवाकर, उपाध्याय मुनि श्री भरतसागरजी महाराज
निर्देशन :
परम पूज्या प्रार्थिका स्याद्वादमतिजी माताजीं
अर्थ सहयोगी :
श्रीमती कल्पना रिखबदास गहनकरी जैन, जालना :
प्रकाशक :
भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद्
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॥ श्री पार्श्वनाथाय नमः।
अन्य का नाम-अमितगति श्रावकाचार ग्रन्थ का प्राचार्य का नाम-श्री अमितगति प्राचार्य प्रबन्ध सम्पादक-ब. पं. धर्मचन्दजी शास्त्री, प्रतिष्ठाचार्य
कु. ब्र. प्रभा पाटणी
प्रकाशक-भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद प्रति-१०००
प्रथम संस्करण
प्राप्ति स्थान १. प्राचार्य विमलसागरजी संघ
२. अनेकांत सिद्धांत समिति, लोहारिया
जिला (बांसवाड़ा) राजस्थान ३. श्री दिगम्बर जैन मन्दिर, गुलाब वाटिका, दिल्ली ।
वीर निर्वाण सम्वत्- २५१५-१६ संवत्-२४४६-४७३ सन् १९८६
मूल्य
मुद्रक-कपूर आर्ट प्रिण्टर्स,
मनिहारों का रास्ता, जयपुर-३
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विमल वन्दना
तुभ्यं नमः परम धर्म प्रभावकाय । तुभ्यं नमः परम तीर्थ सुबन्दकाय ॥ स्यादवाद सूक्ति सरणि प्रतिबोधकाय । तुभ्य नमः विमल सिन्धु गुणार्णवाय ॥
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समर्पण
· युग प्रमुख चारित्र शिरोमणि सन्मार्ग दिवाकर
करुणा निधि वात्सल्य मति
अतिशय योगीतीर्थोद्धारक चूड़ामणिअपाय विचय धर्मध्यान के ध्याता
शान्ति-सुधामृत के दानी वर्तमान में धर्म-पतितों के उद्धारक
ज्योति पुजपतितों के पालक
तेजस्वी अमर पुञ्ज कल्याणकर्ता, दुःखों के हर्ता, समहण्टा
बीसवीं सदी के अमर सन्त परम तपस्वी, इस युग के महान साधक जिन भक्ति के अमर प्रेरणास्रोत
पुण्य पुञ्ज गुरुदेव आचार्यवर्य श्री १०८ श्री विमलसागरजी महाराज के कर-कमलों में
"ग्रन्थराज" समर्पित
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अंकगणित
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आचार्य श्री विमल सागर जी महाराज
शिक्षात्मक
सामान्य
ज्योतिष शस्त्र
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उपाध्याय श्री भरत सागर जी महाराज
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श्राशीर्वाद
उपाध्याय मुनि श्री भरतसागर जी
आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज का हीरक जयन्ती वर्ष हमारे लिए एक स्वर्णिम अवसर लेकर आया है। तीर्थंकरों की वाणी स्याद्वाद वारणी का प्रसार सत्य का प्रचार है ।
असत्य को उखाड़ना है तो असत्य का नाम भी मुख से न निकालो सत्य स्वयं ही प्रस्फुटित हो सामने आयेगा ।
वर्तमान में कुछ वर्षों से जैनागम को धूमिल करने सितारा ऐसा चमक गया कि सत्य पर असत्य की चादर है एकान्तवाद, निश्चयाभास |
वाला एक श्याम
थोपने लगा । वह
असत्य को अपना रंग चढ़ाने में देर नहीं लगती, यह कटु सत्य है । कारण जीव के मिथ्या संस्कार अनादिकाल से चले आ रहे हैं । फलत: पिछले ७०-८० वर्षों में एकान्तवाद ने जैन का टीका लगाकर निश्चयनय की आड़ में स्याद्वाद को कलंकित करना चाहा । घर-घर में मिथ्याशास्त्रों का प्रचार किया । आचार्य कुन्दकुन्द की आड़ में अपनी ख्याति चाही और भावार्थ बदल दिये, अर्थ का अनर्थ कर दिया ।
बुधजनों ने अपनी क्षमता से मिथ्यात्व से लोहा लिया पर अपनी तरफ से जनता को सत्य साहित्य नहीं दिया । प्रार्थिका स्याद्वादमती जी ने इस हीरक जयन्ती वर्ष में एक नया निर्णय आचार्यश्री व हमारे सानिध्य में लिया कि "असत् साहित्य को हटाने के पूर्व, हमारा प्रागम जन-जन के सामने रखें अनेक योजनाओंों में से एक मुख्य योजना सामने आई आचार्य प्रणीत ७५ ग्रन्थों का प्रकाशन हो। जिनागम का भरपूर प्रकाशन हो, सूर्य का प्रकाश जहां होगा श्याम सितारा वहां क्या करेगा । सत्य का मण्डन करते जाइए असत्य का खण्डन स्वयं होगा । असत्य को निकालने के पूर्व सत्य को थोपना आवश्यक है ।
ग्रन्थों के प्रकाशनार्थं जिन भव्यात्माओं ने अपनी स्वीकृतियाँ दी हैं, परोक्ष प्रत्यक्ष रूप से सहायता दी है सबको हमारा प्राशीर्वाद है ।
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संकल्प
"रगाणं पयासं सम्यग्ज्ञान का प्रचार-प्रसार केवल ज्ञान का बीज है। माज कलयुग में ज्ञान प्राप्ति की तो होड़ लगो है, पद्वियाँ और उपाधियां जीवन का सर्वस्व बन चुकी हैं परन्तु सम्यग्ज्ञान की प्रोर मनुष्यों का लक्ष्य हो नहीं है।
. . जोवन में मात्र ज्ञान नहीं सम्यग्ज्ञान अपेक्षित है। आज तथाकथित अनेक विद्वान् मपनी मनगढन्त बातों की पुष्टि पूर्वाचार्यों की मोहर लगाकर कर रहे हैं, ऊटपटांग लेखनियां सत्य की श्रेणी में स्थापित की जा रही है, कारण पर्वाचार्य प्रणीत ग्रन्थ प्राज सहज सुलभ नहीं है और उनके प्रकाशन व पठन-पाठन की जैसी और जितनी रुचि अपेक्षित है, वैसी और उतनी दिखाई नहीं देती।
असत्य को हटाने के लिए पर्चेबाजी करने या विशाल सभामों में प्रस्ताव प्रारित करने मात्र से कार्य सिद्ध होना अशक्य है। सत्साहित्य का प्रचुर प्रकाशन व पठन-पाठन प्रारम्भ होगा, असत् का पलायन होगा । अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए आज सत्साहित्य के प्रचुर प्रकाशन की महती आवश्यकता है :
यनेते विढलन्ति वादिगिरय स्तुष्यन्ति वागीश्वराः भव्या येन विदन्ति निवृतिपद मुञ्चति मोहं बुधाः ।
यद् बन्धुर्य मिनां यदक्षयसुखस्याधार भूतं मतं, - तल्लोकजपशुद्धिदं जिनवचः पुष्पाद् विवेकश्रियम् ॥
सन् १९८४ से मेरे मस्तिष्क में यह योजना बन रही थी परन्तु तथ्य यह है कि “संकल्प के बिना सिद्धि नहीं मिलती।" सन्मार्ग दिवाकर प्राचार्य १०८ श्री विमलसागर जी महाराज की हीरक जयन्ती के मांगलिक अवसर पर मां जिनवाणी की सेवा का यह सङ्कल्प मैंने प. पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री व उपाध्याय श्री के चरण सानिध्य में लिया। प्राचार्य श्री व उपाध्याय श्री का मुके भरपूर माशीर्वाद प्राप्त हुआ । फलतः इस कार्य में काफी हद तक सफलता मिली है।
इस महान कार्य में विशेष सहयोगी पं. धर्मचन्दजी व प्रभाजी पाटनी रहे। इन्हें व प्रत्यक्ष परोक्ष में कार्यरत सभी कार्यकर्तामों के लिए मेरा पज्य गुरुदेव के पावन चरण-कमलों में सिद्ध-श्रुत-प्राचार्य भक्ति पूवर्क नमोस्तुनमोस्तु-नमोस्तु । सोनागिर, ११-७-६०
-प्रायिका स्याहारमती
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प्राभार
सम्प्रत्यस्ति ने केवली किल कलौ त्रैलोक्य चूड़ामणि ।
स्तद्वाचः परमास्तेऽत्र भरतक्षेत्रे जगतिका ॥ सद्रत्नत्रयधारिणो यतिवरांस्तेषां समालम्बनं ।
तत्पूजा जिनवाचिपूजनमतः सामाज्जिनः पूजतिः ।। पद्मनंदी पं. ॥
वर्तमान में इस कार्यकाल में तीन लोक के पूज्य केवली भगवान इस भरतक्षेत्र में साक्षात् नहीं हैं तथापि समस्त भरतक्षेत्र में जगत्प्रकाशिनी केवली भगवान की वाणी मौजद है तथा उस वाणी के आधारस्तम्भ श्रेष्ठ रत्नप्रयधारी मुनि भी है इसलिए उन मुनियों की पूजन तो सरस्वती की पूजन है, तथा सरस्वती की पूजन साक्षात् केवली भगवान की पूजन है ।
आर्ष परम्परा की रक्षा करते हुए पायाम पथ पर चलना भव्यात्मामों का कर्तव्य है। तीर्थंकर के द्वारा प्रत्यक्ष देखी गई, दिव्यध्वनि में प्रस्फुटित तथा गणधर द्वारा गथित वह महान आचार्यों द्वारा प्रसारित जिनवाणी की रक्षा प्रचार-प्रसार, मार्ग प्रभावना नामक एक भावना तथा प्रभावना नामक सम्यग्दर्शन का अंग है।
युग प्रमुख प्राचार्य श्री के हीरक जयन्ति वर्ष के उपलक्ष में हमें जिनवासी के प्रसार के लिये एक अपूर्व अवसर प्राप्त हुआ है । वर्तमान युग में प्राचार्यश्री ने समाज व देश के लिए अपना जो त्याग और दया का अनुदान दिया है वह भारत के इतिहास में चिरस्मरणीय रहेगा। ग्रन्थ प्रकाशनाथं हमारे सानिध या नेतृत्व प्रदाता पूज्य उपाध्याय श्री भरतसागर जी महाराज ब निदेशिका तथा जिन्होंने परिश्रम द्वारा ग्रन्थों की खोजकर विशेष सहयोग दिया ऐसी पूज्या प्रा. स्याद्वादमतीमाताजी के लिये मैं शत-शत नमोस्तु-वन्दामि अर्पण करती हूं। साथ ही त्यागीवर्ग, जिन्होंने उचित निर्देशन दिया उनको शत-शत नमन करती हूं। तथा ग्रन्थ के सम्पादक महोदय, श्रीमान् ब्र. पं. धर्मचन्दजी शास्त्री, प्रतिष्ठाचार्य, अन्ध के संशोधक तथा अन्य प्रकाशनार्थ अनुमति प्रदाता ग्रन्थमाला एवं ग्रन्थ प्रकासनाचं अमूल्य निधि का सहयोग देने वाले द्रव्यदाता श्रीमती कल्पना
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रिखबदास गहनकरी जैन, जालना को मैं आभारी हूं। तथा यथा समय शुद्ध ग्रन्थ प्रकाशित करने वाले कपूर आर्ट प्रिण्टर्स, जयपुर के मालिक श्री कपूरचन्दजी काला प्रादि की भी में प्राभारी हूँ। अन्त में प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में सभी सहयोगियों के लिये कृतज्ञता व्यक्त करते हुए सत्य जिनशासन की जिनागम की भविष्य में इसी प्रकार रक्षा करते रहें ऐसी कामना करती हूँ।
-कु. प्रभा पाटनी संघस्थ
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प्रकाशकीय
इस परमाणु युग में मानव के अस्तित्व को ही नहीं अपितु प्राणिमात्र के अस्तित्व की सुरक्षा की समस्या है। इस समस्या का निदान "अहिंसा" अमोघअस्त्र से किया जा सकता है। अहिंसा जैनधर्म-संस्कृति की मूल प्रात्म। है । यही जिनवाणी का सार भा है ।
तीर्थंकरों के मुख से निकली वाणी को गणघरों ने ग्रहण किया और प्राचार्यों ने निबद्ध किया, जो अाज हमें जिनवाणी के रूप में प्राप्त है। इस जिनवाणी का प्रचार-प्रसार इस युग में अत्यन्त उपयोगी है। यही कारण है कि हमारे पाराध्य पूज्य आचार्य, उपाध्याय एवं साधुगण निरन्तर जिनवाणी के स्वाध्याय और प्रचार-प्रसार में लगे हुए हैं।
उन्हीं पूज्य आचार्यों में से एक है सन्मार्ग-दिवाकर, चारित्र-चूड़ामणि परम-पूज्य आचार्यवयं विमलसागर जी महाराज । जिनकी अमृतमयी वाणी प्राणीमात्र के लिए कल्याणकारी है। आचार्यवर्य की हमेशा भावना रहती है कि आज के समय में प्राचीन प्राचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रन्थों का प्रकाशन हो मोर मन्दिरों में स्वाध्याय हेतु रखे जायें जिसे प्रत्येक श्रावक पढ़कर मोह रूपी अन्धकार को नष्ट कर ज्ञानज्योति जला सके ।
जैनधर्म की प्रभावना जिनवाणी का प्रचार प्रसार सम्पर्ण विश्व में हो, आर्ष परम्परा की रक्षा हो एवं अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर का शासन निरन्तर अबाधगति से चलता रहे। उक्त भावनाओं को ध्यान में रखकर परम-पज्य, ज्ञान-दिवाकर, वाणीभूषण, उपाध्यायरत्न भरतसागरजी महाराज एवं प्रायिकारत्न स्याद्वादमती माताजी की प्रेरणा व निर्देशन में परम-पूज्य आचार्य विमलसागर जी महाराज की ७५वीं जन्मजयन्ति हीरक जयन्ति वर्ष के रूप में मनाने का संकल्प समाज के सम्मुख भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत परिषद ने लिया। इस हीरक जयन्ति वर्ष में निम्नलिखित प्रमुख योजनायें क्रियान्वित करने का निश्चय किया, तद्नुरूप ग्रन्थों का प्रकाशन किया जा रहा है। योजनान्वित ग्रन्थों की सूची इस प्रकार है :
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१. सिद्धचक विधान, २. विमल भक्ति-सग्रह, ३. रयणसार, ४. धर्ममार्गसार, ५. पाराधना कथा कोष, ६. प्रष्ट पाहुड, ७. पञ्चास्तिकाय, ८. पंच स्तोत्र, ६. तत्वानुशासन, १०. चर्चासार, ११. सुधर्म-श्रावकाचार, १२. सम्यक्त्व-कौमुदी, १३. परीक्षामुख, १४. क्षत्र-चूड़ामणि, १५. समयसार, १६. योग-सार, १७. नोतिमार समुच्चय, १८. परमात्म-प्रकाश, १६. न्याय-दोपिका, २०. शान्ति-सुधा सिन्धु, २१. इन्द्रनन्दी नीतिसार; २२. इष्टोपदेश, २३. समाधितन्त्र, २४. वरांग चरित्र, २५. भरतेश वैभव, २३. वैराग्य मणिमाला, २७. स्वरूप सम्बोधन. २८. श्रु तावतार, २६. अमितगति श्रावकाचार, ३० आत्मानुशासन, ३१. स्वयंभू स्तोत्र, ३१. द्रव्य-संग्रह, ३३. धर्म रसायन, ३४. सार-समुच्चय, ३५. प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, ३६. मालाप पद्धति, ३७. मदन पराजय, ३८. वसुनन्दी श्रावकाचार, ३६. धर्मशर्माभ्युदय, ४०. सागार धर्मामृत, ४१. बोधामृत सार, ४२. पांडवपुराण, ४३. नयचक्र, ४४. जीवक चिन्तामणि, ४५. अभयकुमार चरित्र, ४६. प्राप्तमीमांसा, ४७. मन्दरमेरु पुराण, ४८ युक्त्यानुशासन, ४६. प्रतिष्ठा पाठ, ५०. भाव-संग्रह वामदेव, ५१: लघु तत्वस्फोट, ५२. रत्नकरण्ड श्रावकाच र, ५३. अमरसे1-चरयू, ५४. रत्नकरण्ड श्रावकाचार (प्रश्नोतर), ५५. धर्मरत्नाकर, ५६. प्रमेय रत्नमाला, ५७. यशस्तिलक चम्पू, ५८. सिद्धान्त सार, ५६. तत्वार्थ वृत्ति, ६.. ज्ञानामृत, ६१. भाव फल त्रयोदशी, ६२. श्रावक धर्म प्रदीप, ६३ श्रेणिक चरित्र, ६४. अमृताशीत, ६५. अंगपण्णति, ६७. पार्श्व पुराण, ६७. मल्लिनाथ पुराण, ६८. विमलनाथ पुराण, ६६. नेमिनाथ पुराण, ७०. प्रवचन सार, ७१. सुभाशित रत्नावली, ७२. धन्यकुमार चरित्र, ७३. सिद्धिप्रिय स्तोत्र, ७४. सार-चतुर्विशितिका, ७५. जम्बूस्वामी चरित्र ।
७५ ग्रन्थों के प्रकाशन की योजना के साथ ही साथ भारत के विभिन्न नगरों में ७५ धामिक शिक्षण शिविरों का आयोजन किया जा रहा है और ७५ पाठशालाओं को स्थापना भी की जा रही है। इस ज्ञान यज्ञ में पूर्ण सहयोग करने वाले ७५ पाठशालाओं की स्थापना भी की जा रही है । इस ज्ञान यज्ञ में पूर्ण सहयोग करने वाले ७५ विद्वानों का सम्मान एवं ७५ युवा विद्वानों को प्रवचन हेतु तैयार करना तथा ७७७५ युवा वर्ग से सप्तव्यसन का त्याग कराना प्रादि योजनाएं इस हीरक जयन्ति वर्ष में पूर्ण की जा रही हैं।
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सम्प्रति प्राचार्यवर्यं पूज्य विमलसागरजी महाराज के प्रति देश एवं समाज अत्यन्त कृतज्ञता ज्ञापन करता हुआ उनके चरणों में शत-शत नमोऽस्तु करके दीर्घायु की कामना करता है । ग्रन्थों के प्रकाशन में जिनका अमूल्य निर्देशन एवं मार्गदर्शन मिला है । वे पूज्य उपाध्याय भरतसागरजी महाराज एवं माता स्याद्वादमति जी हैं । उनके लिये मेरा क्रमशः नमोऽस्तु एवं वन्दामि
है।
उन विद्वानों का भी प्राभारी हूँ जिन्होंने ग्रन्थों के प्रकाशन में अनुवादक, सम्पादक एवं संशोधक के रूप में सहयोग दिया है । ग्रन्थों के प्रकाशन में जिन दातानों ने अर्थ का सहयोग करके अपनी चञ्चला लक्ष्मी का सदुपयोग करके पुण्यार्जन किया उनको धन्यवाद ज्ञापित करता हूं । ये ग्रन्थ विभिन्न प्रेसों में प्रकाशित हुए एतदर्थं उन प्रेस संचालकों को जिन्होंने बड़ी तत्परता से प्रकाशन का कार्य किया का भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूं । अन्त में उन सभी सहयोगियों का प्राभारी हूं जिन्होंने प्रत्यक्ष परोक्ष रूप में सहयोग प्रदान किया है ।
- ब्र. पं. धर्मचन्द शास्त्री
-
अध्यक्ष
भारतवर्षीय श्रनेकान्त विद्वत् परिषद
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। श्रीवीतरागाय नमो नमः।
श्री अमितगति प्राचार्य विरवित
श्री अमितगति श्रावकाचार
प्रथम परिच्छेद
मंगलाचरण नापाकृतानि प्रभवंति भूयस्तमांसि यह ष्टिहराणि सद्यः । ते शाश्वतीमस्तमयानभिज्ञा,
जिनेंदवो वो वितरंतु लक्ष्मीम् ॥१॥ अर्थ-ते श्रीजिनरूप चन्द्रमा तुम्हारे शास्वती जो मोक्षलक्ष्मी ताहि विस्तारह । कैसे हैं जिनचन्द्र अस्त किये हैं अज्ञानी परवादी जिननें । बहरि जिनकरि शीघ्र ही दूरि किये सम्यक्दृष्टि के हरणेवाले मोह अन्धकार ते फेर न होय हैं ॥१॥
विभिद्य कर्माष्टक शृंखलं ये, गुणाष्टश्चर्यमुपेत्य पूतम् । प्राप्तास्त्रि तोकाशिखामणित्वं,
भवंतु सिद्ध। मम सिद्धये ते ॥२॥ प्रर्थ ते श्री भगवान मेरे सिद्धिके अर्थ होऊ। जे सिद्ध भगवान ज्ञानावरणादि अष्टकर्मरूप सांकलकू छेदि करि अर सम्यक्त्वादि अष्ट गुणरूप पवित्र ऐश्वर्यकौं प्राप्त होय तीन लोक के चूडामणिपर्नेकौं प्राप्त भये हैं ॥२॥
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२]
____श्री अमितगति श्रावकाचार .
ये चारयन्ते चरितं विचित्रं, स्वयं चरन्तो जनमर्चनीयाः। प्राचार्यवर्या विचरन्तु ते मे, प्रमोदमाने हृदयारविंदे ॥३॥
अर्थ-ते आचार्यवर्य कहिये आचार्यनिविर्षे प्रधान आचार्य आनंदका देनेवाला जो मेरा हृदयकमल ता विर्षे विचरहु । कैसे हैं आचार्य, जे नानाप्रकार चरित्रकौं आचरन करते सन्ते लोककौं आचरन करावें हैं याही” पूजनीक हैं।
भावार्थ-वीतरागरूप धर्म कौं आचरण करैं हैं अर दयाल होय औरनिकौं आचरन करावें है तेही वीतराग भावनिके वांछकनि करि पूजनीक हैं अर ते ही ज्ञानानंदके कारन हैं। बहुरि इनतें विपरीत अन्यरागद्वेषभावसहित हैं ते आचार्य नाही ॥३॥
ये षां तपःश्रीरनघा शरीरे, विवेचका चेतसि तत्त्वबुद्धिः। सरस्वती तिष्ठति वक्त्रपद्म,
पुनं तु तेऽध्यापकपुंगवा वः ॥४॥ अर्थ-ते उपाध्यायनिविर्षे प्रधान उपाध्याय, भगवान तुमको पवित्र करह। कैसे हैं उपाध्याय, जिनके शरीरविर्षे पापरहित तपोलक्ष्मी तिष्ठ है, अर जिनके चित्तविर्षे भेदविज्ञान करनेवाली तत्वबुद्धि तिष्ठ है, अर मुखकमलविर्षे सरस्वती कहिये जिनवाणी तिष्ठ है।
भावार्थ-मन वचन कार्यरूप तीनौं योग जिनके निर्मल भये हैं ॥४॥
कषायसेनां प्रतिवन्धिनी ये, निहत्य धीराः समशीलशस्त्रः । सिद्धि विबाधां लघु साधयंते,
ते साधवो मे वितरंतु सिद्धिम् ॥५॥ अर्थ –ते साधु हमारे अर्थि सिद्धि जो मोक्ष ताहि देहु । कैसे हैं ते साधु, जे धीर समशीलरूप शस्रनिकरि सिद्धिकी रोकनेवाली क्रोधादि
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प्रथम परिच्छेद
[ ३
कषायनकी सेनाकौं शस्त्रनितें नाशकरि अपनी सिद्धिकौं साधें हैं तैसें साघु कषायनिक क्षमादिभावनितें नाशकारे परम निराकुल अवस्थाकौं साधें हैं ॥५॥
विभूषितोऽह्वाय यया शरीरे, विमुक्तिकांतां विदधाति वश्याम् । सा दर्शनज्ञानचरित्रभूषा, चित्त मदीये स्थिरतामुपैतु ॥६॥
श्रथं - सो दर्शन ज्ञान चारित्ररूप भूषण मेरे चित्तविषें सदा स्थिरताक प्राप्त होहु । जिस आभूषणकरि भूषित जो जीव है सो शीघ्र ही मुक्तिस्त्री वश करें है ।
भावाथ - जैसे सुन्दर शृङ्गारसहित पुरुषके स्त्री वशी होय है तैसें दर्शन ज्ञानसहित आत्माके ज्ञानानंदस्वरूप अवस्था प्राप्त होय है || ६ || मातेव या शास्ति हितानि पुंसो, रजः क्षिपतीदधती सुखानि । समस्तशास्त्रार्थविचारदक्षा,
सरस्वती सा तनुतां मति मे ॥७॥
अर्थ - सो सरस्वती मेरी बुद्धिको विस्तारहु । कैसी है सरस्वती, जो पुरुषकों माताकी ज्यों हित जे कल्याणके कारण तिनहिं सिखावै है, अर रज जो अज्ञान ताहि डरावं है, अर सुखनिकौं पुष्ट करें है, अर समस्त शास्त्रनिके अर्थके विचारविषै प्रवीण है ।
मावार्थ - अनेकांतमयी जो जिनवाणी ताका नाम सरस्वती है, सो जैसे चतुर माता पुत्रकौं लौकिक हिताहितके कारण सिखावे है, अर अंगकी धूलि भार है अर सुख बढावे है । तैसें जिनवाणी मोक्षमार्गविषै हिताहित सिखाव है अर अज्ञान दूरि करे है अर ज्ञानानंद पुष्ट करें है ऐसा
जानना ॥७॥
शास्त्रांबुधेः पारमिर्यात येषां, निषेवमाणः पद्मद्मयुग्मं । गुणैः पवित्रं रवो गरिष्ठा:, कुर्वंतु निष्ठां मन ते वरिष्ठाम् ॥८॥
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४]
श्री अमितगति श्रावकाचार -
अर्थ-जिनके चरनकमलकौं ध्यावता संता पुरुष शास्त्रसमुद्रके पारकों प्राप्त होय हैं, ते पवित्र गुणनि करि गुरवे ऐसे श्री गुरु मेरे श्रेष्ठ क्रियाक करहु ॥८॥
उपासकाचारविचारसारं, संक्षेपतः शास्त्रमहं करिष्ये । शक्नोति कत्तु श्रुतके,वीलभ्यो
न व्यासतोऽन्योहि कदाचनापि ॥६॥ अर्थ-मैं जो हूँ शास्त्रकार सो श्रावकाचारके विचारका सारभूत शास्त्रकौं संक्षेपतें करूंगा । जातें श्रु तकेवलिनतें अन्य दूजा पुरुष विस्तार कहनेकू कदाचित् समर्थ नहीं है ।
भावार्थ-विस्तारसहिततो श्रुतकेवलीके सिवाय दूजा कौन कहै, मैं सो संक्षेपरूप क्षावकाचार कहूँगा ॥६॥
क्षुद्रस्वभावाः कृतिमस्तदोषां, . निसर्गतो यद्यपि दूषयंते । तथापि कुवंति महानुभावास्त्याज्या,
न यूकाभयतो हि शाटी ॥१०॥ अर्थ-जो पुनः नीचपुरुष निर्दोष कार्यकौं स्वभाहहीतें दूषन लगावें हैं तो भी महान पुरुष कार्यकों करें हैं, जातें यूकानके भयतें साडी त्यागने योग्य नाही।
भावार्थ-दष्टनिके भयतें सज्जन उत्तम कार्यकों न त्यागें जैसें लोक यूकानके भयतें वस्र न त्यागें ऐसा जानना ॥१०॥
संसारकांतारमपास्तसारं, बंभ्रम्यमाणो लभते शरीरी। कृच्छे ण नृत्वं सुखशस्यबीजं,
प्ररूढदुःकर्मशमेन भूतं ॥११॥ प्रर्थ-साररहित संसारवनविषै अतिशयकरि भ्रमता यह जीव है सो कष्टकरि मनुष्यना पावै है। कैसा है मनुष्यपना, नित्यही सुखरूप
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प्रथम परिच्छेद
[ ५
धान्यका बीजसमान, अर फैर रह्या जो पापकर्म ताके उपशम करि उपज्या ऐसा है ।
भावार्थ - इस असारसंसारविषं मनुष्यपना दुर्लभ है, बड़े पापके उपशम करि होय है, जातें इस ही करि मोक्षका कारन तपश्चरणादि होय सकै है ॥११॥
नरेषु चक्री त्रिदशेषु बज्री, मृगेषु सिंहः प्रशमो व्रतेषु । मतो महीभृत्सु सुवर्णशैलो, भवेषु मानुष्यभवः प्रधानम् ॥१२॥
श्रर्थ - जैसे मनुष्यनिविषै चक्रवर्ती प्रधान है, अर देवनिविषे इन्द्र प्रधान है, अर मृगनिविषें सिंह प्रधान है, अर व्रतनिविषें प्रशमभाव प्रधान अर पर्वतनिविषं मेरु प्रधान है; तैसें भवनिविधें मनुष्यभव प्रधान
,
॥१२॥
त्रिवर्गसारः सुखरत्नखानिर्धर्मः, प्रधानो भवतीह येन । सम्यक्त्वशुद्धाविव धर्मलाभः, प्रधानता तेन मतास्य सद्भिः ॥१३॥
अर्थ- जैसैं सम्यक्त्वकी शुद्धिता होतेसंतै धर्मका लाभ होय है तैसें इप नरभवविषै त्रिवर्ग जे धर्म अर्थ काम तिनविषै सार अर सुखरत्नकी खानि ऐसा प्रधान धर्म होय है; ता कारण करि इस नरभवकी प्रधानता संत न करि मानी है ।
मावार्थ - साक्षात् मोक्षका कारण धर्म नरभवविषं ही होय है तातें नरभव उत्तम कह्या है ।
यथा मणिर्भावगणेष्वनय,
यथा कृतज्ञो गुणवत्सु लभ्यः । न सारवत्त्वेन तथांगिवर्गः, सुखेन मानुष्यभवो भवेषु ॥ १४ ॥
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६]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ-जैसे पथरनिके समूहविर्षे अमोलक रत्न सुलभ नांहीं तथा जैसे गुनवाननविर्षे कृतज्ञ सुलभ नाहीं, तैसें सारवानपने करि सुखकरि सहित भवनिवि मनुष्यभव सुलभ नाहीं।
भावार्थ-सर्व संसारविर्षे तपश्चरणादिकके साधनपपर्ने करि सारभूत मनुष्यभव पावना अति कठिन है ॥१४॥
शमेन नीतिविनयेन विद्या, शौचेन कीत्तिस्तपसा सपर्या । विना नरत्वेन न धर्मसिद्धिः,
प्रजायते जातु जनस्य पथ्या ॥१५॥ प्रयं-जैसे शमभावविना नीति न होय, अर विनयविना विद्या न होय, अर शौच कहिये निर्लोभपना ताविना कीर्ति न होय, अर तपविना पूजा न होय; तेसैं मनुष्यपर्ने विना जीवके हितरूप धर्मकी सिद्धि कदाचित् न होय है ॥१५॥
अन्नेन गात्रं नयनेन वक्त्रं, नयेन राज्यं लवणेन भोज्यम् । धर्मेण हीनं वत जीवितव्यं,
न राजते चन्दमसा निशीथं ॥१६॥ - अर्थ-जैसे अन्न करि हीन शरीर, अर नेत्रन करि हीन मुख, अर नीतिकरि हीन राज्य, अर लवण करि हीन भोजन, अर चन्द्रमा करि हीन रात्रि न सोहै; तैसें धर्मकरि हीन जीवितव्य नही सोहै है ॥१६॥
शस्येन देश पयसाब्जखण्डं, शौर्येण शस्त्री विटमी फलेन । धर्मेण शोभामुपयाति मो, मदेन दन्ती तुरगो जबेन ॥१७॥
अर्थ-जैसे धान्यकरि देश, अर जलकरि कमलनिका वन, अर शरवोरपनें करि शस्रधारी, अर फलकरि वृक्ष, अर मद करि हस्ती, अर वेगकरि घोड़ा शोभाकौं प्राप्त होय है तैसें मनुष्य धर्मकरि शोभाकू प्राप्त होय है ॥१७॥
मानुष्यमासाद्य सुकृच्छलभ्यं, न यो विबुद्धिविदधाति धर्मम् ।
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प्रथम परिच्छेद
अनन्यलभ्यं स सुवर्णराशि, दारिद्रयदग्धो विजहाति लब्ध्वा ॥ १८ ॥
[ ७
श्रर्थ- जो बुद्धिरहित पुरुष कष्टकरि पावने योग्य जो मनुष्यपना ताहि पाय करि धर्मकौं न धारैहै सो दारिद्रयकरि पीडित नर अन्य करि न पावने योग्य ऐसी पाई जो सुवर्णकी राशि ताहि तजैहै ।
भावार्थ - न ग्रहै है ॥ १८ ॥
अनादरं यो वितनोति धर्मे, कल्याणमाला फलकल्पवृक्षे । चिन्तामणिहस्त गतं दुरापं, मन्ये स मुग्धस्तृणवज्जहाति ॥ १६ ॥
अर्थ - जो पुरुष कल्याणनिकी माला जो पंगति सोही भये फल ताके देनेकौं कल्पवृक्षसमान जो धर्म ता विषें अनादरकौं विस्तारैहै, सो मूढ़ दुःखकारी पावनें योग्य हस्तविषें आया जो चिंतामणि ताहि तृणको ज्यों तजैहै, ऐसी मैं मानू हूँ ॥ १६ ॥
दुःखानि सर्वाणि निहन्तुकामनः पीडितप्राणिगणानि धर्मः उपासनीयो विधिना विधिज्ञैरग्निहिमानीव दुरुत्तराणि ॥२०॥
अर्थ - पीड़ित किये हैं जीवनिके समूह जिनने ऐसे जे समस्त दुःख तिनहि नाश करने की है इच्छा जाकैं ऐसे पुरुषनि करि विधिसहित विधिके जाननेवाले नि करि धर्म सेवना योग्य है; जैसें दुःख करि उतरे जाय ऐसे जाडेनको नाश करनेके वांछिकनि करि अग्नि सेवन योग्य है तैसें ।
भावार्थ - जैसे शीत मेटे चाहत हैं तिनकरि अग्नि सेवनो योग्य है, तैसें मिथ्याज्ञानजनित परद्रव्यनिकी तृष्णारूप दुःखकों दूर करे चाहैं हैं तिन करि धर्म सेवना योग्य है ॥२०॥
शस्यानि बीजं सलिलानि मेघं, घृतानि दुग्धं कुसुमानि वृक्षं । कांक्षत्यहान्येष विना बिनेशं, धर्मं विना कांक्षति यः सुखानि ॥ २१ ॥
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श्री अमितगति श्रावकाचार ...........
पर्थ - जो पुरुष धर्म विना सुखानिकौं चाहै है सो यह बीज बिना धान्यनिकौं चाहै है, अर मेघविना जलनिकौं चाहै है, अर दुग्धविना घृतनि कौं चाहै है, अर वृक्ष विना फूलनिकौं चाहे है, अर सूर्य विना दिनकौं चाहै है।
भावार्थ- जैसे बीजादिक हैं ते धान्यादिकनिके कारण हैं तैसैं धर्म सुखनिका कारण है, अर कारण विना कार्य की उत्पत्ति चाहै है सो होय नांही तातै पुरुषार्थीनिकरि धर्मका संग्रह करना योग्य है ॥२१॥
पायांति लक्ष्म्यः स्वयमेव भव्यं, धर्म दधानं पुरुषं पवित्राः । प्रसूनगन्धस्थगिताखि ताशं,
सरोजिनीखण्डमिवातिमाता ॥२२॥ . अर्थ- फूलनिकी सुगन्ध करि व्याप्त करी है समस्त दिशा जाने ऐसा जो कमलनोनिका वन ता प्रति जस भौंरानिकी पंकति स्वयमेव आय प्राप्त होय है तैसें धर्मकौं धारन करता जो भव्यपुरुष ता प्रति पवित्र लक्ष्मी स्वयमेव आय प्राप्त होय है ॥२२॥ निषेवते यो विषयं निहीनो, धम निरकृत्य सुखाभिलाषी। पीयूषमत्यस्य स कालकटं, सुदुर्जरं खादति जीवितार्थी ॥२३॥
अर्थ -जो नीच पुरुष धर्मका निराकरण करि सुखका अभिलाषी विषयनिकों सेवै है सो अमृतकौं त्यागि करि जीवनेका अर्थी प्रबल कालकूट बिषकू खाय है ॥२३॥ भोगोपभोगाय करोति दीनो, दिवानिशं कर्म यथा प्रयत्नः । तथा विधत्ते यदि धर्ममेकं, क्षणं तदानीं किमु नैतिसौख्यम् ॥२४॥
अर्थ-जैसे यहु दीन भया सन्ता यत्नसहित रातदिन भोगोपभोगके अर्थ कर्म करै तैसें जा क्षणमात्र भी धर्मकौं धारै तो कहां सुखकों प्राप्त नहीं होय, होय ही हो ॥२४॥
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प्रथम परिच्छेद
ये योजयन्ते विषयोपभोगे, मानुष्यमासाद्य दुरापमज्ञाः । निकृत्य कर्पू रवनं स्फुटं ते, कुर्वति वाटी विषपादपानां ॥२५॥
अर्थ-जो अज्ञानी दुःख करि पावने योग्य जो मनुष्यपना ताहि पाय करि विषयभोगनि विर्षे लगावै हैं, ते प्रगट कर्पू रके वनकू काटि करि विषवृक्षनिकी बाडी करें हैं ॥२५॥ गृहणंति धर्म विषयाकुला ये, न भँगुरे मंक्षु मनुष्यभावे । प्रदह्यमाने भवनेऽग्निना ते, निःसारयंते न धनानि नूनं ॥२६॥
अर्थ-जे विषयनि विर्षे आकुलित जन क्षणभंगुर जो मनुष्यभव ता विर्षे शीघ्र धर्मका ग्रहण न करें हैं, ते निश्चयतें अग्नि करि घर जलते सन्तै धननिकों न निकासें हैं ॥२६॥
सर्वेऽपि भावाः सुखकारिणोऽमो, भवंति धर्मेण विना न पुंसः। तिष्ठंति वृक्षाः फलपुष्पयुक्ताः,
कालं कियंतं खलु मूलहीनाः ॥२७॥ मर्थ-पुरुषकै ये सुखकारी सब ही पदार्थ धर्म विना न होय हैं, जैसे फल फूलनि करि सहित वृक्ष जड़रहित निश्चयकरि कितनें काल तिष्ठ ? किछू भी रहै नांही ॥२७॥
मोक्षावसानस्य सुखस्य पात्रं, भवन्ति भव्या भवभीरवो ये । भवन्ति भक्त्या जिननाथवृष्टं,
धर्म निरास्वादमदूषणं ते ॥२८॥ अर्थ –जे संसारतें भयभीत भव्यजीव जिननाथ करि उपदेश्या जो धर्म ताहि भक्तिसहित सेवें हैं, ते मोक्षपर्यंत सुखके भाजन होय हैं। कैसा है धर्म, नांही है इंद्रियजनित विषयनिका आस्वाद जाविर्षे, अर रागादि दूषन करि रहित ऐसे।
भावार्थ-जे पुरुष विषयरहित निर्दोष धर्म सेवै हैं ते चक्रवर्ती इन्द्र अहमिंद्र मोक्षपर्यंत सुख पाबैं हैं ॥२८॥
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१०]
श्री अमितगति श्रावकाचार -
लक्ष्मी विधातुं सकलां समर्थ, सुदुर्लभं विश्वजनीनमेनं । परीक्ष्य गृहणंति विचारदक्षाः, सुवर्णवद्वंचनभीतचिताः ॥२६॥
अर्थ-समस्त लक्ष्मीके रचनेक समर्थ, अर महादुर्लभ, अर समस्तका हित उपजावनेवाला ऐसा जो धर्म ताहि विचार विर्षे प्रवीन अर ठिगायवे करि भयभीत हैं चित्त जिनके ऐसे पुरुष हैं ते सुवर्णकी ज्यों परीक्षा करि प्रहण करें हैं। ... भावार्थ-धर्म धर्म सब ही कहैं हैं परन्तु परीक्षाप्रधान हैं ते असाधारण लक्षणतें परखि ग्रहण करें हैं ॥२६॥ स्वर्गापवर्गामलसौख्यखानि, धर्म ग्रहीतुं परमो विवेकः । सदा विधेयो हृदये प्रविष्टबुंधस्तु तं रत्नमिवापदोषं ॥३०॥
अर्थ-स्वर्ग मोक्षके निर्मल सुखनिकी खानि जो धर्म ताहि ग्रहण करनेकौं पंडित जन करि हृदयविर्षे परम विवेक सदा करने योग्य है। बहुरि ज्ञानवान तिस धर्मकौं निर्दोष रत्नकी ज्यों ग्रहण करें हैं ॥३०॥ तं शब्दमात्रेण वदंति धर्म, विश्वेपि लोका न विचारयंते । स शब्दसाम्येऽपि विचित्रभेदविभिते क्षीरमिवार्चनीयं ॥३१॥
अर्थ-जिस धर्मकौं शब्दमात्र करि सब ही लोक कहैं हैं, अर विचार न करै हैं । बहुरि सो पूजनीक धर्म शब्दकी समानता होतें भी नाना प्रकारके भेदनि करि भेदरूए कीजिये हैं।
भावार्थ-जैसे आकका दूध गायका दूध नाममात्र तौ समान है, परन्तु गुणनि करि बड़ा भेद है, तैसैं धर्म धर्म तो सब कहैं हैं, परन्तु वीतरागभावरूप जिनधर्मविर्षे अर अन्य धर्म विषं बड़ा अन्तर है ॥३१॥ हिंसानृतस्तेयवरांगसंगग्रग्रंथग्रहा दत्तदुरंतदुःखाः। धर्मेषु येष्वत्र भवन्ति निद्यास्ते दूरतो बुद्धिमता विवाः ॥३२॥
अर्थ-इहां जिन धर्मनिविषं निंदनीक अर दिये हैं महादुःख जिननै ऐसे हिंसा झूठ चौरी मैथुन परिग्रहरूप पिशाच हैं ते धर्म बुद्विवान् करि दूरितें त्यागने योग्य है ॥३२॥
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प्रथम परिच्छेद
[ ११
निहन्यते यत्र शरीरवर्गो, निपीयते मद्यमुपास्यते स्त्री । बोभुज्यते मांसमनर्थमूलं धर्मस्य मात्रापि न तत्र नूनं ॥ ३३ ॥
"
अर्थ - जिस विषें जीवनिके समूह हनिए हैं, अर मदिरा पीइये है, अर परस्त्री भोगिए है, अर अनर्थका मूल मांस भखिये है, तहां निश्चय करि धर्मका अंश नही है ||३३||
बधादयः कल्मष हेतवो ये न सेवितास्ते वितरंति धर्मम् । न कोद्रवाः क्वापि वसुन्धरायां, निधीयमाना जनयंति शालान् ||३४||
अर्थ – जे पापके कारण हिंसादिक ते सेये सन्ते धर्मकों न विस्तरे हैं। जैसे कोंदू पृथ्वीवेषं धरे सन्ते कहूं भी धान्य न उपजावें हैं तैसें ॥३४॥
हिंसा परस्त्रीमधुमांस सेवां कुर्वति धर्माय विबुद्धयो ये । पीयूषलाभाय विवर्द्धयते, विषद्र मांस्ते विविधैरुपायैः ॥ ३५ ॥
अर्थ – जे दुर्बुद्धि धर्मके अर्थ हिंसा परस्त्री मधु मांसका सेवन करे हैं ते अमृतके अर्थि नाना उपायनि करि विषवृक्षनिको बढ़ावें हैं ॥ ३५ ॥
यैर्मद्यमांसागिबधादयोर्येनिर्माणयुक्ताः कुशलाय शास्त्रैः ।
श्राकर्णनीयानि न तानि दक्षैः, शत्रूदितानीव वचांसि जातु । ३६ ।
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अर्थ – जिन शास्त्रनि करि यहु मद्य मांस जीवहिंसादिक करि रचेभये मंगलके अर्थ कहे, ते शास्त्र शत्रूके वचननिकी ज्यों पंडितनि करि कदाचित् सुनना योग्य नांही ॥ ३६॥
पठति शृण्वंति वदंति भक्त्या, स्तुवंति रक्षति नयंति वृद्धि | ये तानि शास्त्राण्यनुमन्यमानास्ते यांति सर्वेऽपि कुयोनिमज्ञाः ॥ ३७॥ अर्थ - जे पुरुष तीन पापरूप शास्त्रनिकों नमते संते भक्ति करि
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१२]
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श्री अमितगति श्रावकाचार......
पढ़े हैं सुनें हैं स्तुति करें हैं रक्षा करें हैं वृद्धिको प्राप्त करें हैं, ते सर्व ही अज्ञानी कुगतिकों प्राप्त होय हैं, नरक तियञ्चादि गतिन में अनंतकाल भ्रमै है ॥३७॥ धर्म ददतेऽगिबधादयोऽभी, विधीयमाना यदि नाम तथ्यं । सांसारिकाचारविधौ प्रवृत्ता, न पापिनः केऽपि तदा भवंति ।३८॥
अर्थ-ये जीवहिंसा आदि करि भये जो प्रगटपर्ने सत्यार्थधर्मकों देय हैं तो लौकिक आचारकी विधि विर्षे प्रवर्तते कोई भी पापी न होय।
भावार्थ-जो हिंसादिक ही धर्म होय तौ कषाई भील धीवर इत्यादिक सर्व ही धर्मात्मा ठहरें। तातें हिंसादिक हैं ते धर्म नांही ऐसा जानना ॥३८॥
रागादिदोषाकुलमानसर्ये, ग्रंथाः क्रियन्ते विषयेषु लोलैः । कार्याः प्रमाणं न विचक्षणैस्ते,
जिघृक्षुभिर्धर्ममगर्हणीयम् ॥३६॥ प्रर्थ-रागादि दोषनि करि व्याकुल अर विषयनि विर्षे चंचल जो पुरुष तिनकरि जे ग्रंथ कहिये है ते Jथ अनिंद्य धर्म ग्रहण करनेके वांछक प्रवीण पुरुषनि करि प्रमाण करना योग्य नाहीं।
भावार्थ-रागीद्वेषीनि करि रचे शास्त्र हैं ते अप्रमाण हैं ॥३६॥ ये द्वषरागाश्रयलोभमोहप्रमादनिद्रामदखेदहीनाः। विज्ञातनिःशेषपदार्थतत्वास्तेषां प्रमाणं वचनं विधेयम् ॥४०॥
अर्थ-जे द्वेष रागके आश्रय लोभ मोह प्रमाद निद्रा मद खेद इनिकरि रहित हैं, अर जाने हैं समस्त पदार्थनिके स्वभाव जिनने तिनके वचन प्रमाण करना योग्य है।
___ भावार्थ -सर्वज्ञ वीतरागके वचन प्रमाण करना योग्य है । जातें रागी होय तौ असत्य कहै । अर सर्वज्ञ न होय तौ यथार्थ जानें विना कहा कहै ? तातें सर्वज्ञ वीतरागहीके वचन प्रमाण हैं ॥४०॥
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प्रथम परिच्छेद
[१३
रागादिदोषा न भवंति येषां, न संत्यसत्यानि वचांसि तेषां । हेतुव्यपाये न हि जायमानं, विलोक्यते किंचन कार्यमायः ॥४१॥
अर्थ-जिनके रागद्वेष नहीं हैं तिनके वचन असत्य नहीं हैं, जाते कारणके नाश भये संतें किछु कार्य बड़े पुरुषनिकरि न विलोकिए है ।
भावार्थ- जैसें माटी आदि कारणके अभाव होते हैं घटादिक कार्य न देखिए है तैसें रागादिक हैं ते असत्य वचनके कारण हैं। रागादि विना असत्य वचन न होय हैं ऐसा जानना ।। ४१।। विना गुरुभ्यो गुणनीरधिभ्यो, जानाति धर्म न विचक्षणोऽपि । निरीक्षते कुत्र पदार्थजातं,विना प्रकाशं शुभलोचनोति ॥४२॥
अर्थ-चतुर पुरुष भी गुणनिके समुद्र जे गुरु तिन विना धर्मकौं न जान है । जैसें शुभ नेत्र सहित पुरुष भी प्रकाश विना पदार्थनके समूहकों कहूं देखै है ? अपितु नाही देखै है ॥४२॥ ये ज्ञानिनश्चारुचरित्रभाजा, ग्राह्या गुरूणां वचनेन तेषाम् । सन्देहमत्यस्य बुधेन धर्मों, विकल्पनीयं वचनं परेषाम् ॥४३॥
अर्थ-जे ज्ञानवान सुन्दर चारित्रके धरनेवाले हैं तिन गुरुनिके वचन करि सन्देह छोड़ि पंडित पुरुषकरि धर्म ग्रहण करना योग्य है। बहुरि ऐसे गुरूनि विना औरनिका वचन विकल्पनीय कहिये सन्देह योग्य है ॥४३॥ भीतैर्यथा वंचनतः सुवर्ण, प्रताडनच्छेदनतापघर्षेः। तथा तपःसंयमशीलबोधैः परीक्षणीयो गुरुशब्दबोधेः ॥४४॥
अर्थ-जैसें ठिगायवेतें भयभीत जे पुरुष तिनकरि सुवर्ण जो है सो कूटना छेदना तपावना घिसना इनकरि वा गुरुवे शब्दके देवाकरि परखना योग्य है तैसें तप संयम शील निर्लोभपना इनि करि तथा गुरुके वचन निके ज्ञाननि करि धर्म परखना योग्य है। इहां "गुरुशब्दबाधैः" इस पदका अर्थ सुवर्णपक्षमैं गुरुवे भारी शब्दके ज्ञान करि ऐसा लगाय लेना ॥४४॥
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१४ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
संसारमुद्भूतकषायदोषं, विलंघयंते गुरुणा विना ये । विभीमनक्रादिगणं ध्रुवं ते, वाधि तितीर्षति विना तरंडम् ॥४५ ॥
अर्थ - जे पुरुष उपजे हैं कषायरूप दोस जातें ऐसा जो संसार समुद्र ताहि श्रीगुरु विना अतिशयकरि उलंधे चाहे हैं, ते निश्चयकरि महाभयानक है । नत्रादिकके समूह जा विषें ऐसे समुद्रकू नाव विना तैरना चाहे हैं ||४५ ॥
येषां प्रसादेन मन करींद:, क्षणेन वश्यो भवतीह दुष्टः ।
भजन्ति ये तान् गुणिनो न भक्त्या, तेभ्यः कृतघ्ना न परे भवंति । ४६ ।
अर्थ - इहां लोकविषं जिनके प्रसादकरि मनरूप गजेन्द्र क्षणमात्र करि वश होय है, तिन गुणवान गुरुनिकौं जे भक्तिसहित न सेव हैं तिनतें सिवाय और कृतघ्नी कोन है ? ॥ ४६ ॥ कृतोपकारो गुरुणा मनुष्यः, प्रपद्यते धर्मपरायणत्वम् । चामीकरस्येव सुवर्णभावं, सुवर्णकारेण विशारदेन ॥४७॥
अर्थ - गुरुनें कर्या है उपकार जापै ऐसा जो मनुष्य है सो धर्मविषे परायणपनांकौं प्राप्त होय है । जैसें चतुर सुनार करि सुवर्णकें भले वर्णका भाव होय तैसें ।
भावार्थ -- जैसें सुनारकी संगति करि सोना सोलहवानीका होय है तैसें श्रीगुरुके प्रसाद करि जीव धर्मकों प्राप्त होय है ऐसा जानना ॥४७॥ विवर्त्त मानो व्रततो गुरुभ्यो, न शक्यते वारयितुं परेण । व्यकवादी व्यवहारकायें, साक्षीकृतैरेव नियभ्यते हि ॥ ४८ ॥
अर्थ - व्रततें पराङ्मुख होता जो पुरुष सो गुरु विना और करि रोकनेकू ँ समर्थ न हूजिये है । जैसें व्यवहारकायं विषे झूठ बोलनेवाला पुरुष 'जे साक्षी करें हैं तिन करि ही निश्चयकरि रोकिए है तैसें ॥ ४८ ॥ दुग्धेन धेनुः कुसुमेन वल्ली, शीलेन भार्या सरसी जलेन ।
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प्रथम परिच्छेद
[१५
न सरिणा भाति विना व्रतास्था, __ शमेन विद्या नगरी जनेन ॥४६॥ अर्थ-दुग्धसें गाय सोहै है, अर फूलनिसें बेलि सोहै हैं, अर शीलसें स्त्री सोहे है अर जलसें अलाइ सोहै है, आचार्य विना व्रतकी स्थिति नहीं होय है, शांतिभावसें विद्या सोहै है, मनुष्यनितें नगरी सोहै है ॥४६॥ विधीयते सूरिवरेण सारो, धर्मो मनुष्ये वचनरुदारैः । मेघेन देशे सलिलैः फलाढ्ये, निरस्ततापरिव सस्यवर्गः ॥५०॥
अर्थ-जैसें दूर किया है ताप जिननें ऐसे जलनि करि फलसहित देशमें मेघकरि धान्यका समूह उपजाइए है तैसें उदार वचननि द्वारा आचार्य करि मनुष्यविषं सारभूत धर्म उपजाइए है ॥५०॥ लब्ध्वोपदेश महनीयवृत्तगुरोरनुष्ठाय विनोतचेताः। पापस्य भव्यो विदधाति नाशं,व्याधेरिव व्याधिनिषूदनस्य ॥५१॥
पर्ण-जैसें रोगी वैद्यका उपदेश ग्रहण करि वाकी बताई औषधिकों लेकरि व्याधिका नाश करहै तैसे विनययुक्त है चित्त जाका ऐसा भव्य, पूज्य है आचरण जाका ऐसे गुरुके उपदेशको प्राप्त अर वाकू अनुष्ठान करि पापका नाश करै है।
भावार्थ-जैसें रोगी वैद्यके उपदेशतें रोगकू नाश है तैसें भव्य गरुके उपदेशतें पापकों नारी है ॥५१॥ सर्वोपकारं निरपेक्षचित्तः करोति यो धर्मधिया यतीशः। स्वकार्यनिष्ठरुपमीयतेऽसौ कथं महात्मा खलु बंधु नोकः ॥५२॥
अर्थ- जो आचार्य विनास्वार्थके धर्मबुद्धिकरि सर्वका उपकार कर है सो यहु महात्मा अपने अपने कार्य साधने विषं तत्पर ऐसे बन्धुलोकनि करि कैसे बराबर हूजिए हैं ॥५२॥.
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श्री अमितगति श्रावकाचार
"
निसेब्यमाणानि वचांसि येषां जीवस्य कुर्वत्यजरामरत्वम् । नाराधनीया गुरवः कथं ते, विभीरुणा संसृतिराक्षसीतः ॥ ५३ ॥
श्रथं - जिन आचार्यनके वचन सेवन किये भए जीवकें अजरामरणना करिए हैं वे गुरु संसाररूप राक्षसीतें डरे भए पुरुष करि कैसे आरधना न किए जाय हैं, अपितु आराधना किए ही जाय हैं ॥ ५३ ॥ माता पिता ज्ञातिनराधिपाद्या, जीवस्य कुर्वत्युपकारजातम् । यत्सूरिदत्ताम धर्मनुन्ना, स्तेनेष तेभ्योतिशयेन पूज्यः ॥ ५४ ॥
१६ ]
अर्थ - माता पिता जाति राजा आदिक जे हैं ते आचार्य करि दिये हुए निर्मल धर्म से प्रेरित हुए थके जीवके उपकारनिके समूहकों करे हैं अर आचार्य विना प्रेरे हुए ही करें हैं तातें या अतिशय करि गुरु जो है सो माता पिता जाति राजादिक करि भी पूज्य हैं ॥ ५४ ॥ निषेवमाणो गुरुपादपद्मं त्यक्तान्यकर्मा न करोति धर्मम् । प्ररूढसंसारवनक्षयाग्नि, निरर्थकं जन्म नरस्य तस्य ॥५५॥
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अर्थ - छोड़े हैं अन्य कार्य जानें ऐसा गुरुके चरणकमलको ही सेवन करें ऐसा जो पुरुष, अंकुरित ऐसा जो संसार वन ताके नाश करने में अग्नि समान ऐसे धर्मौं न करें है वा पुरुषका जन्म निरर्थक है ।। ५५ ।। ये सूरयो धर्मधिया ददंति, यं बांधवः स्वार्थधिया जनानाम् । अर्थं तयोरन्तरमत्र वेषं स्ताणुमेर्वोरिव जायमानम् ॥५६॥
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अर्थ – जो अर्थकौं आचार्य तौ धर्मबुद्धिकरि मनुष्य निकौं देवें हैं अर भाई बन्धु जन स्वार्थ बुद्धिकरि देवें हैं सो यहां सत्पुरुषनिकरि इन दोऊनि में परमागु अर मेरुमें होय ऐसे अन्तर समान अन्तर जानता योग्य हैं ।
मावार्थ - आचार्य अर भाई बन्धुनिमें इतना अन्तर है जितना सुमेरु अर परमा में है ||५६।।
लक्ष्मीं करों. श्रवण स्थिरत्वां तृणाग्रतोयस्थिति जीवितव्यम् । विसृत्व यौवनिकां च दृष्टवा, धर्मं न कुर्वति कथं महांतः ॥५७॥
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...प्रथम परिच्छेद
[१७
" अर्थ-लक्ष्मीकू हाथीके कानसमान चंचल देखि करि अर तृणनिको अनीपर लग्या जलकी स्थिति समान जीवितव्य देखकरि अर यौवन अतिशयकरि जानेवाला देखि करि महंत पुरुष धर्म कैसें न करें हैं ? करेंही हैं ॥५७॥ अनश्वरी यो विदधाति लक्ष्मी, विधूय सर्वां विपदं क्षणेन । कथं स धर्मः क्रियते न, सद्धिस्त्याज्येन देहेन मलालयेन ॥५८॥
अर्थ-जो धर्म क्षणमात्रमें सर्व विपदानिकौं दूरि करि अविनश्वर लक्ष्मीकू करहै सो धर्म सत्पुरुषनिकरि मलका घर अर त्यागने योग्य ऐसे देहकरि कैसे न करिये है ॥५८।। पिंडं ददाना न नियोजयंते, कलेवरं भृत्यमिवात्मनीने । कार्ये सदा ये रचितोपकारे, ते वंचयंते स्वयमेव मूढाः ॥५६॥
अर्थ-जे पुरुष भोजन देते सन्ते अर शरीरको चाकरकी ज्यों सदाकाल कऱ्या है उपकार जानें ऐसे अपने हितरूप कार्यविषं न लगाव हैं ते मूढ़ स्वयमेव ठिगावें हैं।
भावार्थ-जैसें कोई चाकरकौं भोजनादि सामग्री तौ देवै अर अपने हितरूप कार्यमें न लगावै तब वो स्वछन्द होय है अर मालिक ठिगाया जाय है तैसें शरीरकौं भोजनादि..सामग्रीतें तो पोषेहैं अर हितरूप. तपश्चरणादि कार्य में न लगावें हैं ते ठिगाये जाय हैं ऐसा जानना ॥५६॥ गृहांगजापुत्रकलत्रमित्रस्व स्वामिभृत्यादिपदार्थवर्गे । विहाय धर्म न शरीरभाजामिहास्ति किंचित्सहगामि पथ्यम् ।६०।
अर्थ-इस लोकमें गृह, पुत्री, पुत्र, स्त्री, मित्र, धन, स्वामी चाकर आदि पदार्थनिके समूहविर्षे धर्मकौं छोड़ और किछु जीवनिके साथ जानेवाला हितकारी नाहीं।
भावार्थ-इस जीवका साथी धर्म ही है और पदार्थ साथी नाहीं ॥६०॥ घातिक्षयोद्भूतविशुद्धबोध, प्रकाराविद्योतितसर्वतत्त्वाः । भवंति धर्मेण जिनेन्द्रचन्द्रा, स्त्रि तोकनाथाचितपादपद्माः ॥६१॥
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१८]
श्री अमितगति श्रावकाचार
मर्थ-घातिया कर्मनिके क्षयतें उपज्या जो निर्मल केवलज्ञान ताके प्रकाश करि प्रकाशे हैं सर्व पदार्थ जिनने अर तीनलोकके नाथ जे इंद्र धरणेन्द्र चक्रवर्ती तिन करि पूजित हैं चरणकमल जिनके ऐसे जे जिनेन्द्रचन्द्र तीर्थकर भगवान हैं ते धर्मकरि होय है ॥६१॥ पाराध्यमानस्त्रिदशरनेकविराजते स्वः प्रतिबिंबकेर्वा । धर्मप्रारदेन निलिपराजः, सुरांगनावक्त्रसरोजमृङ्गः ॥६२॥ ____ अर्थ-धर्मके प्रसादकरि अपने प्रतिबिंब समान अनेक देवनि करि सेव्यमान देवनिका राजेन्द्र सौह है, कैसा है इन्द्र देवांगनानिके मुख कमलनि विर्षे भृङ्गसमान है।
भावार्थ- इन्द्रपद धर्म करि मिले है ऐसा जानना ॥६२॥ द्वात्रिंशदुर्वीशस्हनमूद्ध प्रसूनमालापिहिताघ्रिपमः । धर्मेण राज्यं विदधाति चकी, विलम्बमानस्त्रिदशेशलीलाम् ।६३।
ol-धर्मकरि चक्रवर्ती राज्यको धारे हैं, कैसा है चक्रवर्ती बत्तीस हजार राजानिके मस्तकनिकी जे पुष्पनिकी माला तिनकर मिले हैं चरणकमल जाके अर इन्द्रकी लीला को धरे ऐसा चक्रवर्ती धर्म करि होय है ॥५३॥ मनोमवानांतविदग्धरामा, कटानलक्षीकृतकांतकायः । दिगंगनाव्या विशुद्ध कीतिक राजा भवति प्रतापी ॥६४॥
अर्थ-कामकरि भरी अर चतुर जे स्त्री तिनके कटाक्षनि करि निसानारूप किया है दैदीप्यमान शरीर जाका अर दिशारूप स्त्रीनि विर्षे व्यापी है निर्मल कीर्ति जाकी ऐसा प्रतापी राजा धर्म करि होय है ॥६४॥
मतंगजा जंगमर्शललीलास्तुरंगमा, निजितवायुवेगाः। पदातयः शक्रस्वातिकल्पाः, रथा विवस्वद्रथसन्निकाशाः ॥६५॥
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प्रथम परिच्छेद
अर्थ - चालते पर्वतनिकी लीला धरें ऐसे हस्ती, अर जीत्या है पवनका वेग जिनमें ऐसे घोड़े, अर इन्द्रके पयादेसमान पयादे, अर सूर्य के रथके तुल्य रथ ॥ ६५॥
[ १६
योषाः स्वशोभाजितदेवयोषाः, निलिपवासप्रतिमा निवासाः । अनन्यलभ्या धनधान्यकोशाः, भवंति धर्मेण पुराजितेन ॥ ६६ ॥
अर्थ - बहुरि अपनी शोभाकरि जीती हैं देवांगना जिननें ऐसी स्त्री, अर इन्द्रके मंदिर समान महल, अर औरनिकरि न पावने योग्य ऐसे धन धान्यनिके भण्डार पूर्वोपार्जित धर्मकरि होय हैं ॥ ६६॥
परेsपि मावा भुवने पवित्रा, भवंति पुण्येन विना जनस्य । विनामृणालैः क्कचनापि दृष्टाः, संपद्यमाना न पयोजखण्डाः । ६७ ।
अर्थ - लोकविषें और भी जे पदार्थ हैं ते पुण्यविना जीवकें न होय हैं जैसे मृणाल जो कमलकी जड़ तिनविना कमलानिके वन कभी प्राप्त भए न देखे ॥६७॥
स्वपूर्वलोकानुचितोऽपि धर्मों, ग्राह्यः सतां चितितवस्तुदायी । पप्रार्थयन्ते न किमीश्वरत्वं, स्वजात्ययोग्यं जनता सदापि । ६८ ।
- अपने पूर्वलोक जे पितादिक तिनके अनुचित भी धर्म सत्पुरुafrat वांछित वस्तुका देनेवाला ग्रहण करना योग्य है, जैसें अपनी जातिके अयोग्य जो ईश्वरपना ताहि लोक कहा अतिशयकरि सदा न चाहे है ? अपितु चाही है ।
मावार्थ- कोऊ कहै हमारे कुलमें जिनधर्म नाहीं हम कैसें ग्रहण करें ताकू कहैं हैं - जो अपने कुलमें जिनधर्म नांही तो भी नवीन ग्रहण करना योग्य है । जैसें कोउकौं नवीन राज्य मिलै तौ कहा ग्रहण न करें ? ॥ ६८ ॥
त्यजंति वंशानतमप्यवद्यं संप्राप्य पुण्यं जनतार्चनीयम् । कुष्टं कुलायातमपि प्रवीणः, कल्पत्वमासाद्य परित्यजंति ॥ ६६ ॥
धर्म- जैसें सुन्दर शरीर निरोगपनांकू पायकरि प्रवीण पुरुष कुल
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२०]
श्री अमितगति श्रावकाचार
विर्षे चल्या आया भी जो कुष्ठ रोग ताहि तजेंहैं तैसें लोकपूज्य धर्मकौं पायकरि कुलमें चल्या आया भी जो पाप ताहि तजें हैं ॥६६॥ मूर्खापवादत्रसनेन धर्म, मुचंति सन्तो न बुधार्चनीयम् । ततो हि दोषः परमाणुमात्रो, धर्मव्युदासे गिरिराजतुल्यः ॥७०॥ ____ अर्थ- मूखनके अपवादक भयकरि पंडितनिकरि पूज्य जो धर्म ताहि सत्पुरुष न त्यागैहै, जातें तिस मूर्खापवादतें तो दोष परमा गुमात्र है अर धर्मनाश भए सुमेरुतुल्य दोष है ऐसा जानना ॥७०॥
निखिलसुखफलानां कल्पने कल्पवृक्षं, .... कुमतिमतविभीता ये विमुचंति धर्मम्। .......
विमलमणिनिधानं पावनं दुष्टतुष्टयै,
स्फुटमपगतबोधाः, प्राप्य ते बर्जयन्ति ॥७१॥ अर्थ-जे कुबुद्धिनिके मततें भयभीत भयेः मन्ते समस्तसुखरूप फलनिके देवेविर्षे कल्पवृक्ष तुल्य जो धर्म ताहि तजेंहैं ते अज्ञानी पवित्र निर्मल रत्नका भण्डारकों प्रगट पायकरि दुष्ट निको प्रसन्नताके अर्थ त्यागें हैं ॥७१॥
प्रमरनरविभूति यो विधायार्थनीया, नयति निरपवादां ली नया मुक्ति लक्ष्मीम् । अमितगतिजिनोक्तः, सेव्यतामेष धर्मः,
शिवपदमवद्यं लब्धकामैरफामैः ॥७२॥ अर्थ-- जो धर्म, प्रार्थना योग्य जो देवमनुष्य निकी विभूति ताहि रचि, अर लोलामात्र करि निर्दोष लक्ष्मीको प्राप्त करे है सो अमितगति जिनोक्त कहिए अनन्त है ज्ञान जाका ऐसे जिनदेव करि कह्या अथवा अमितगत्याचार्यकरि कह्या यहु धर्म पापरहित शिवपद लेने वांछक अर रहित काम जे जीव तिनकरि सेवना योग्य है ॥७२॥
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द्वितीय परिच्छेद
[२१
छप्पय
दुर्लभनरभव पाय अन्य कारज तज दीजे,
. होय विषयतें विमुख सुगुरुवचनामृत पीजे । मिथ्याभाव निवार सार जिनवर्म धार उर,
इन्द्रादि पद पाय धर्मतें होय जगतगुर ॥ कल्याणकार कलिमलहरन, धर्म परम उत्तम सरन ।
जिनराज अमितगति कथित, तसु भागचन्द बंदित चरन ॥ ऐसे श्री अमितगति प्राचार्यकृत श्रावकाचारवि
पहला परिच्छेद समाप्त भया ।
द्वितीय परिच्छेद
मिथ्यात्वं सर्वथा हेयं, धर्म बद्धं यता सता।
विरोधो हि तयोढिं, मत्युजीवितयोरिव ॥१॥ ..... -धर्मकों बढावता जो सत्पुरुष ताकरि मिथ्यात्व सर्व प्रकार त्यागना योग्य है, जातें मिथ्यात्व अर धर्म इन दोउनिका मरन अर जीवनकी ज्यों अतिशय करि बड़ा विरोध है ॥१॥
संयमा नियमाः सर्वे, नाश्यते तेन पावनाः । ...क्षयकालानलेनेव, पादपाः फलशालिनः ॥२॥
... पर्ण-जैसें प्रलयाग्नि करि फलनि करि शोभित जे वृक्ष हैं ते नाशक प्राप्त होय हैं तैसें तिस मिथ्यात्व करि पवित्र सयंम नियम सर्व नाशकौं प्राप्त होय हैं ॥२॥
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२२]
श्री अमितगति श्रावकाचार -
प्रतत्वमपि पश्यंति, तत्वं मिथ्यात्वमोहिताः । मन्यते तृषितास्तोयं, मृगा हि मृगतृष्णिकां ॥३॥
अर्थ-मिथ्यात्व करि मोहित जीव हैं ते अतत्वकौं तत्व माने हैं, जैसें तिसारा मृग हैं ते मृगतृष्णाकू निश्चय करि जल माने हैं ।।३।।
विभ्रांता क्रियते बुद्धिर्मनोमोहनकारिणा ।
मिथ्यात्वेनोपयुकेन, मद्य नेव शारीरिणः ॥४॥
मर्थ-मनकों अचेत करनेवाला उपयुक्त भया जो मिथ्यात्व ताकरि मदिराकी ज्यौं जीवकी बुद्धि विशेष भ्रांतिरूप करिये हैं ॥४॥
पदार्थानां जिनोक्तानां, तदश्रद्धान लक्षणम् । ऐकांतिकादिभेदेन, सप्तभेदमुदाहृतम् ॥५॥
अर्थ-जिन भाषित जीवादिक पदार्थनिका अश्रद्धान है लक्षण जाका ऐसा, सो मिथ्यात्व ऐकांतिक आदि भेद करि सात प्रकार कह्या है ॥५॥
अब एकांत, संशय, विनय, गृहीत, विपरीत, निसर्ग, मूढदृष्टि, ऐसे सात प्रकार मिथ्यात्व का स्परूप कहैं है,
क्षणिकोऽक्षणिको जीवः, सर्वथा सगुणोऽगुणः । इत्यादि भाषमाणस्य, तदैकांतिकमिव्यते ॥६॥
अर्थ-जीव एकान्त करि सर्व प्रकार क्षणिक ही है, वा नित्य ही है, वा निर्गुण ही है, वा सगुण ही है, इत्यादिक कहनेवाले के एकांत मिथ्यात्व कहिए ॥६॥
सर्वज्ञेन विरागेण, जीवाजीवादि भाषितम् । तय्यं न वेति संकल्पे, दृष्टि: सांशयिकी मता ॥७॥
मर्थ-सर्वग्य वीतराग करि कह्या जो जीव अजोव आदि तत्व सो सत्य हैं अथवा असत्य हैं ऐसे विकल्प होतेसंतें संशयजनित दृष्टि कही
भावार्थ-सो संशयमिथ्यात्व कह्या है ॥७॥
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द्वितीय परिच्छेद
[२३
पागमा लिगिनो देवाः, धर्माः सर्वे सदासमाः । इत्येषा कथ्यते बुद्धिः, पुंसो वैनयिको जिनैः ॥८॥
अर्थ-सर्व आगम, अर सर्वभेषी, अर सर्व देव, अर सर्व धर्म सदा समान हैं ऐसी यहु पुरुषकी बुद्धि, जिनदेवनिकरी विनयमिथ्यादृष्टि कहिए है ॥८॥
पूर्णः कुहेतुरष्टांतैर्न तत्वं प्रतिपद्यते ।
मंडलश्चर्मकारस्य, भोज्यं चर्म लरिव ॥६ अर्थ-खोटे हेतु दृष्टांतनि करि भरिया पुरुष तत्वकौं प्राप्त न होय है जैसे चमके टूकडानि करि पूर्ण चमारका कुत्ता भोजनकौं प्राप्त न होय है।
भार्ग-जैसें चमारका कुत्ता चर्मके टूकडे खाय है ताकौं भोजन न रुचे तैसें खोटे हेतु दृष्टान्तनि करि सहित मिथ्यादृष्टी तत्वकौं न पावै है सो गृहीत मिथ्यादृष्टी है ॥६॥
अतथ्यं मन्यते तथ्यं, विपरीतरुचिर्जनः । दोषातुरमनास्तिक्तं, ज्वरोव मधुरं रसम् ॥१०॥
मर्ग-जैसे वातपित्तादि दोषनि करि आतुर जो ज्वरसहित पुरुष सो मिष्टरसको कटुक मान है तैसें विपरीत है रुचि जाकें ऐसा जीव सत्यार्थको असत्यार्थ मान है, यह विपरीत मिथ्यादृष्टि जानना ॥१०॥
दीनो निसर्गमिथ्यात्वात्तत्वातत्वं न बुध्यते । सुन्दरासुन्दरं रूपं, जात्यंध इव सर्वथा ॥११॥
प्र-जैसें जनमका अन्धा पुरुष सर्वथा सुन्दर या असुन्दर रूपकौं न जान है तैसें दीन एकेन्द्रियादि अज्ञानी जीव स्वभावजनित मिथ्यात्वतें तत्व कौं न जाने हैं, ऐसा निसर्ग मिथ्यात्वका स्वरूप कहा ॥११॥
देवो रागी यतिः संगी, धर्मः प्राणिनिशुम्भनम् । मूढष्टिरिति ते, युक्तायुक्ताविवेचकः ॥१२॥
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श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ-योग्य अयोग्यके विवेकरहित मूढ है दृष्टि जाकी ऐसा पुरुष सो रागी देव अर परिग्रहधारी गुरु, जीवनिकी हिंसारूपं धर्म ऐसे कहैं हैं यह विपरीत मिथ्यादृष्टि लक्षण कहा है ॥ १२ ॥
२४ ]
सप्तप्रकार मिथ्यात्वमोहितेनेति जन्तुना ।
सर्वं विषाकुलेनेव विपरीतं विलोक्यते ॥ १३॥
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अर्थ -- ऐसे सातप्रकार मिथ्यात्वकरि मोहित जो जीव ताकरि विषाकुलकी ज्यौं सर्व विपरीत देखिए हैं ।। १३ ॥
न तत्वं रोचते जीवः कथ्यमानमपि स्फुटम् । कुधीरक्तमनुक्तं वा, निसर्गेण पुनः परम् ॥ १४॥
अर्थ - कुबुद्धि जीव प्रगट उपदेश्या तत्वकौं भी नहीं श्रद्धान करें है । बहुरि का वा विना कह्या जो अतत्व ताहि स्वभावकरि ही श्रद्धान करै है ॥१४॥
पठन वचो जैनं, मिथ्यात्वं नैव मुञ्चति । कुदृष्टिः पन्नगो दुग्धं, पिवन्नपि महाविषम् ॥१५॥
अर्थ- जैसे दुग्धको पीवता भी सर्प महाविषकों न त्यागे है तैस मिथ्यादृष्टि जीव जिनवचनकौं पढ़ता भी मिथ्यात्वको न त्याग है ॥ १५ ॥
उदये दृष्टिमोहस्य, मिथ्यात्वं दुःखकारणम् । घोरस्य सन्निपातस्य, पंचत्वमिव जायते ॥ १६ ॥
अर्थ – जैसे घोर सन्निपातके उदय होतसंत मरण होय है तैसें दर्शनमोहका उदय होतसंते दुःखका कारण मिथ्यात्व होय है ॥ १६ ॥
बहु बध्नाति यः कर्म्म, स्तोक भुक्त कुदर्शनं । -- स भवाण्यदुः खेभ्यो, विमोक्षं लक्ष्यते कथं ॥१७॥
अंजन वल्भमावस्य, पुरुषस्य दिने दिने । धानस्य गृह्णतः खारी, कहा धान्यविमुक्तता ॥ १८॥
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-द्वितीय परिच्छेद
न वक्तव्यमिति प्राज्ञैः, कदाचन यतो भवी । कर्म भुक्त बहु स्तोकं, स्वीकरोति विसंशयं ॥१६॥
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अन्यथैकेन जोवेन सर्वेषां कर्मणां ग्रहे । सर्वेषां जायतेऽन्येषां न कथं मुक्तिसंगतिः ॥ २० ॥
समस्तानां तथैकेन, पुद्गजानां ग्रहेंगिना ।
अनंतानंत कालेन न बन्धः सांतरः कथम् ॥२१॥
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अर्थ - जो मिथ्यादृष्टि बहुत कर्म बांध है अर थोड़ा कर्म भोगे है सा संसारवनके दुःखनितें मोक्ष कैसें पावैगा ||१७||
अर्थ – जैसे दिनदिन विषे धान्य की अञ्जली खातें अर खारी ग्रहण करते कैं धान्यका बीतना कदेहूनौ होय ॥ १८ ॥
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ऐसें कोऊ कहै तासें आचार्य कहें है-
बुद्धिवाननि करि " न वक्तव्यं" कहिए ऐसा कहना कदाचित् योग्य नाहीं, जातें संसारी जीव निश्चयतें बहुत कर्म भोगे है अर थोड़ा अङ्गीकार कर है ॥ १६॥
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जो ऐसे नहीं होय तौ एक जीव करि सर्व कर्मनिका ग्रहण होतेस ते बाकी और सर्व जीवनिकें मुक्ति की प्राप्ति कैसें न होय ॥२०॥
बहुरि तैसें ही एक जीवकरि सर्व पुद्गलनिका ग्रहण न होतें जीवनिकें अनन्तानन्त कालकरि अन्तरसहित बन्ध कैसें न होय ऐसा उत्तर है ॥२१॥
सस्यानीवोषरे क्षेत्रे, निक्षिप्तानि कदाचन । न व्रतानि प्ररोहंति, जीवे मिथ्यात्ववासिते ॥ २२ ॥
अर्थ- जैसे ऊपर भूमिविषे- बोए भए धान्य कदाचित् न उपजें हैं तैसें मिथ्यात्वकरि वासित जो जीव ताविषे व्रत नाहीं होय हैं ॥ २२ ॥
मिथ्यात्वेनानुबिद्धस्य, शल्येनेव महीयसा ।
समस्तापनिधानेन जायते निर्वृतिः कुतः ॥२३॥
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२६ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
प्रर्ण-जैसे महाशज्यकरि अनुबिद्ध पुरुषकै सुख कहांतें होय ? तैसें समस्त आपदानिका निधान जो मिथ्यात्व ताकरि अनुबिद्ध पुरुष के सुख काहेतें होय है ? नांहीं होय है ॥२३॥
षोढानायतनं जन्तोः, सेवमानस्य दुःखदं । अपथ्यमिव रोगित्वं, मिथ्यात्वं परिवद्धते ॥२४॥
अर्थ-जैसे अपथ्यकौं सेवन करते के रोगीपना बढ़ है तैस दुःखदायक जो छह प्रकार अनायतन ताकू सेवता जो पुरुष ताकें मिथ्यात्व बढ़े है ॥२४॥
मिथ्यादर्शनविज्ञान, चारित्रैः सहभाषिताः । तदाधारजनाः पापाः, षोढाऽनायतनं जिनः ॥२५॥
अर्थ-मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र इन तीननि करि सहित पापरूप तिन मिथ्यादर्शनादिकके आधार मनुष्य ऐसे छह प्रकार अनायतन जिनदेवनि करि कहे हैं।
भावार्थ-मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र ये तीन; अर तिनके धारक पुरुष तीन, ऐसें छह अनायतन जानना । आयतन नाम ठिकाने का है सो ये धर्म के ठिकाने नांहीं तातें अनायतन कहे हैं ॥२५॥
एकैकं न त्रयो द्वे दे, रोचन्ते न परे त्रयः । एकस्त्रीणोति जायन्ते, सप्ताप्येरो कुदर्शनाः ॥२६॥
अर्थ-तीन तो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रविर्षे एककौंन मानें हैं। अर और तीन मिथ्यादृष्टि दोयकौं न माने हैं। बहुरि एक तीननकौं न जाने है ऐसें ये सात मिथ्यादृष्टि होय हैं ॥२६॥
दवीयः कुरुते स्थानं, मिथ्यारष्टिरमीप्सितम् ।
अन्यत्र गमकारीव, घोरैमुक्तो बतैरपि ॥२७॥
अर्ण-घोर ब्रतनि करि सहित भी मिथ्यादृष्टि वांछित स्थानकौं अन्य स्थान जानेवालेकी ज्यौं अतिदूर कर है। .
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द्वितीय परिच्छेद
[२७
भाव र्थ-जैसें मारगतें अन्यत्र चलने वाला बहुत चालता भो वांछित स्थानकौं उलटा दूर करै है तैसें मिथ्या ष्टि घोर तप करता भी वांछित मोक्षपदकौं उलटा दूरि कर हे कर्म बांध है, ऐसा जानता ॥२७॥
न मिथ्यात्वसमः शत्रुर्न, मिथ्यात्वसमं विषम् । न मिथ्यात्वसमो रोगो, न मिथ्यात्वसमं तमः ॥२८॥
मर्थ-मिथ्यात्वसमान वैरो नांहीं, अर मिथ्यात्वसमान विष नाही, अर मिथ्यात्वसमान रोग नांहों, अर मिथ्यात्वसमान अन्धकार नांहीं ॥२८॥
द्विषद्विषतमोरोगर्दु :खमेकत्र दीयते । मिथ्यात्वेन दुरन्तेन, जन्तोर्जन्मनि जन्मनि ॥२६॥
अर्थ-वैरी, विष, अन्धकार रोग इन करि दुःख एक जन्मविर्षे दीजिए है । अर दूर है अन्त जाका ऐसा जो मिथ्यात्व ताकरि जी कौं जन्म जन्मविर्षे दुःख दीजिए हैं ॥२६॥
वरं ज्वालाकुले क्षिप्तो, देहिनात्मा हुताशने। . न तु मिथ्यात्वसंयुक्तं, जीवितव्यं कथंचन ॥३०॥
अर्थ-ज्वालानि करि आकुल जो अग्नि ताविषं तो आत्मा खेप्य भला परन्तु मिथ्यात्वसहित जोवना कोई प्रकार भला नाहीं ॥३०॥
पापे प्रवर्त्यते येन, येन धर्मानिवर्त्यते । दुःखे निक्षिप्यते येन, तन्मिथ्यात्वं न शांतये ॥३१॥
अर्थ-जिस मिथ्यात्व करि पापविर्षे प्रवृत्ति कराइये है, अर धर्मतें पराम्मुख करिए है, अर दुःखवि पटकिये ह सा मिथ्यात्व शातिके अथा नांहीं।
नावाय-मिथ्यात्वसेवन करि कोऊ शांति मानै सो मिथ्यात्वकरि शांति न होय है उलटा विघ्न होय है ऐसा जानना ॥३१॥
क्षेत्रस्वभावतो धोरा, निरन्ता दुःसहाश्चिरम् । विनिया दुर्वधाः श्व, कायमानससम्भवा ॥३२॥
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२८]
श्री अमितगति श्रावकाचार
दाहवाहांकनच्छेदशीतवातादिगोचराः ।... परायत्तेषु तिर्यक्षु, विवेकरहितात्मसु ॥३३॥ देनदारिद्र यदौर्भाग्य, रोग शोकपुरःसराः । आर्यम्लेच्छप्रकारेषु, मानुषेषु निरन्तराः ॥३४॥ स्वस्य हानि परस्पद्धिमीक्षमाणेषु मानिषु । योज्यमानेषु देवेषु, हठतः प्रेष्यकर्मणि ॥३५॥ मिथ्यात्वेन दुरन्तेन, विधीयन्ते शरीरिणाम् । वेदना दुःसहा भीमा, वैरिणेव दुरात्मना ॥३६॥
अथ –क्षेत्रके स्वभाव करि भयानक अर अन्तरहित दुःख करि सहे जाय ऐसे नानाप्रकार दुर्वचनतें उपजी वा शरीर मनतें उपजी बहुत कालपर्यन्त नरकवि जे दुःखवेदना होते, बहुरि विवेकरहित पराधीन तिर्यंचयोनिमें दाहदेना बांधना चिह्न करना शीत वात इत्यादिकतें उपजी पीड़ा, बहुरि आर्यम्लेच्छ है भेद जिनके ऐसे मनुष्यनिविषं निरन्तर दीनपना, दारिद्र यपना, दुर्भाग्यपना, रोग, शोक. आदि अनेक वेदना, बहुरि हठतें चाकरके कर्मविर्षे युक्त भये अर अपनी हानि अर दूसरेनकी वृद्धि देखनेते ऐसे मानी देवनिविर्षे दुःखकरि सुनी जाय ऐसी भयानकं वेदना. दष्ट वैरीकी ज्यों दूर है अन्त जाका ऐसा जो मिथ्यात्व ताकरि जीवनिके करिये है। . .. ... ... .
. .. भावार्थ-चारगति सम्बन्धी दुःखनिका मूल कारण एक मिथ्यात्व है ऐसा जानना ॥३६॥
यान्यन्यान्यपि दुःखानि, संसाराम्भोधित्तिनाम् ।। न जातु यच्छता तानि, मिथ्यात्वेन विरम्यते ॥३७॥
अर्थ संसारसमुद्रवर्ती प्राणोनिकौं और भी जो दुःख है तिनहिं देता जा मिथ्यात्व ताकरि अन्तकौं प्राप्त न हूजिये है।
भावार्थ और भी अनेक दुःखनिकी देता मिथ्यात्वं गमन न पाय है, निरन्तर दुःख देय है ॥३७॥ ।
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द्वितीय परिच्छेद
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विवेको हन्यते येन मूढता येन जन्यते । मिथ्यात्वतः परं तस्मात, दुःखदं किमु विद्यते ॥ ३८ ॥
प्रर्थ - जिस करि विवेक हनिये हैं अर अचेतपना उपजाइये है, तामिथ्यात्व सिवाय कहा और दुःख देने वाला है ? अपितु नांहि है ॥ ३८॥
लब्ध जन्मदलं तेन, सार्थकं तस्य जीवितम् । मिथ्यात्वविषमुत्सृज्य, सम्यक्त्वं येन गृह्यते ॥३६॥
[ २६
श्रथ
जिस जीव करि मिथ्यात्वविषकों त्यागिकें सम्यक्त्वक ग्रहण करिये हैं, तिस जीव करि जन्मका फल पाया, अर ताका जीवना सार्थक है प्रयोजन सहित है ॥ ३६॥
भव्य पंचेन्द्रियः पूर्णो, लब्धकालादिलब्धिकः । पुद्गलार्द्ध परावर्त्ती काले, शेषे स्थिते सति ॥४०॥
अन्तर्मुहूर्त्त कालेन, निर्मलीकृत मानसः । श्राद्यं गृह्णाति सम्यक्त्वं, कर्मणां प्रशमे सति ॥ ४१ ॥
अर्थ - भव्य जीव पंचेन्द्रिय पर्याप्तक अर पाई है कालादिलब्धि जानें अर्द्ध पुद्गल परिवर्तनकाल बाकी रहे सन्तें अन्तर्मुहूर्त्त काल करि निर्मल किया है मन जानें ऐसो जीव कर्मनिका उपशम होतेसन्तें प्रथमोपशमसम्यक्त्व को ग्रहण करें हैं ॥४०-४१।।
निशीथं वासरस्येव, निर्मलस्य मलीमसम् । पश्चादायाति मिथ्यात्वं सम्यक्त्वस्यास्य निश्चितम् ॥४२॥
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अर्थ – जैसें निर्मल दिनके पाछें अवश्य मलिन रात्रि आवै है तैसें इस प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अन्तर्मुहूर्त्त पाछें अवश्य मिथ्यात्व आवै है ॥ ४२ ॥
तस्य प्रपद्यते पश्चान्महात्मा कोऽपि वेदकम् । तस्यापि क्षायिकं कश्चिदासन्नीभूतनिर्वृतिः ॥४३॥
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३०]
श्री अमितगति श्रावकाचार
नाविकाचार
अर्थ- ताके पीछे महात्मा पुरुष वेदकसम्यक्त्वकौं प्राप्त होय है, अर कोई महात्मा पुरुष जाकें मुक्ति आसन्न है सो क्षायिकसम्यक्त्वकौं प्राप्त होय है ॥४३॥
आगें सम्यक्त्व होने का विशेष स्वरूप कहैं हैं;लब्धशुद्धपरीणामः, कल्मषस्थितिहानिकृत । अनन्तगुणया शुद्ध या, वर्द्धमानः क्षणे क्षणे ॥४४॥ प्रकृतीनामशस्तानामनुभागस्य खर्वकः । वर्द्ध कः पुनरन्यास, युक्तायुक्तविवेचकः ॥४५॥ स्थितऽतःकोटिकोटिकस्थितिके सति कर्मणि । अथाप्रवृत्तिकं नाम, करणं कुरुते पुरा ॥४६॥ अपूर्व करणं तस्मात्तस्मादप्यनिवृत्तिकम् । विधाति परीणामः, शुद्धकारी क्षणे क्षणे ॥४७॥
मर्थ-पाया है विशुद्ध परिणाम जानें, बहुरि पापप्रकृतिनिकी स्थितिकी हानि करनेवाला समय समय अनन्तगुणशुद्धि करि वर्द्धमान होता सन्ता ॥४४॥
अप्रशस्त प्रकृतिनिके अनुभाग का घटावनेवाला बहरि अन्य प्रशस्त प्रकृतिनिके अनुभागकौं बढ़ावनेवाला योग्य अयोग्य का विवेकवान् ॥४५॥
ऐसा जीव अन्तः कोटाकोटी सागर प्रमाण है स्थिति जाकी ऐसे कर्म को स्थिति होतेसन्तै प्रथम अधःप्रवृत्तिनाम करणकौं करै है ॥४६॥
बहुरि ता पीछे समय समय परिणामनिकी शुद्धि करता अपूर्वकरण करै है ता पीछे अनिवृत्तिकरणकौं करै है ॥४७॥
भावार्थ-उपशमसम्यक्त्वके अन्तर्मुहूर्त पहले अधःकरण अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण ऐसे तीन करण होय हैं । इनका विशेष स्वरूप श्रीमद्गोमट्टसारविर्षे कह्या है तहांतें जानना ।
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द्वितीय परिच्छेद
तत्राद्यकरणे नास्ति, छेदः स्थित्यनुभागयोः । अनन्तगुणया शुद्ध, या, कर्म बघ्नाति केवलम् ॥४८॥ श्रथ-तहां आदिके अधःकरणविषे स्थिति अनुभागका छेद नाहीं है अनन्तगुण विशुद्धताकरि केवल पुण्य कर्मकौं बांधे है ॥ ४८ ॥
द्वितीयं कुरुते तत्र, किंचित्स्थितिरसक्षयम् । शुभानामशुभानां च वर्द्धयन् हास्यन् रसम् ॥ ४६ ॥
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अर्थ - बहुरि तहां दूजा जो अपूर्वकरण हैं सो किछु स्थितिकांडक घात वा अनुभागकांडक घातक करें है। कैसा है सो अपूर्वकरण अतिशयकरि समय समय प्रति शुभ प्रकृतिनकौं बढ़ावे है अर अशुभ प्रकृतिनकू घटा है ॥४६॥
[ ३१
अन्तर्मुहूतं कः कालस्तेषां प्रत्येकमिष्यते ।
श्रादिमे कुरुते तस्मिनांतरं करणं परम् ॥५०॥
अर्थ – उनमें प्रत्येक का अन्तर्मुहूर्त्त काल जानना, जानें आदिके
-
प्रथममें आन्तर करणकौं कर है ॥५०॥
श्रान्तरे करणे तत्र, सहानन्तानुबंधिभिः ।
अन्तर्मुहूर्त कालेन मिथ्यात्वमपवर्तते ॥ ५१ ॥
,
थ - तिस अन्तर करणविषै अन्तर्मुहूर्त कालकरि अनन्तानुबन्धी सहित मिथ्यात्व का अपवर्तन करें है ॥५१॥
मिथ्यात्वं भिद्यते भेदः, शुद्धाशुद्धविमिश्रकैः । ततः सम्यक्त्व मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वनामभिः ॥ ५२ ॥
- ताके अन्तर शुद्ध अशुद्ध करि मिले जे सम्यक्त्व मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व हैं नाम जिनके ऐसे भेदनि करि मिथ्यात्व भेदरूप
है ।
भावार्थ - प्रथमोपशम सम्यक्त्व करि मिथ्यात्व का द्रव्य मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्वप्रकृतिरूप परिणमव है । ५२॥
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३२]
श्री अमितगति श्रावकाचार
प्रशमय्य ततो भव्यः, कर्मप्रकृतिसप्तकम् ।
प्रान्तमौ हूर्तिकं पूर्व, सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते ॥५३॥ अर्थ-ताके अनन्तर भव्यजीव सात कर्मप्रकृतिनिकौं उपशमायकरि अन्तरमुहूर्त है स्थिति जाकी ऐसा प्रथमसम्यक्त्व कौं प्राप्त होय है ।
भावार्थ-अनादि मिथ्यादृष्टितौ मिथ्यात्व अर अनन्तानबन्धी चतुष्क ऐसे पांच प्रकृतिनको अर मिथ्यादृष्टि अनन्तानुबन्धी सहित तोन प्रकृतिनकौं उपशमाय सम्यक्त्वी होय है यह विशेष है ॥५३॥ :
आगें क्षायिकसम्यक्त्वकौं कहे हैं :क्षपयित्वा परः कश्चित्कर्मप्रकृतिसप्तकम् ।
प्रादत्त क्षायिकं पूर्व, सम्यक्त्वं मुक्तिकारणम् ॥५४॥
अर्थ-बहुरि दूजो कोई जीव कर्मप्रकृतिनिका सप्तक जो अनन्तानुबन्धी च्यार कषाय अर मिथ्यान्व, मिश्र, सम्यक्त्वप्रकृति इन सात प्रकृति निकौं खिपाय करि प्रथम मुक्ति का कारण जो क्षायिकसम्यक्त्व ताहि ग्रहण कर है ॥५४॥
प्रशमे कर्मणां षण्णामुदयस्य क्षये सति ।
आदत्त वेदकं वंद्यं, सम्यक्त्वस्योदये सति ॥५॥ अर्थ-अनन्तानुबन्धी कषाय च्यारि अर मिथ्यात्व, मिश्रमिथ्यात्व इन छह कर्मनिका उपशम होतसतै अर उदय का क्षय होतसन्तै अर सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होतसन्तै वन्दनेयोग्य जो वेदक सम्यक्त्व ताहि ग्रहण करै है।
भावार्थ-वर्तमानमें उदय आवनेयोग्य निषेकनिका उदय का अभाव है लक्षण जाका ऐसा तो क्षय हो, तैं सन्तै अर ता पीछे उदय आवने योग्य निषेकते उदीरणारूप होय वर्तमानमें उदय न आवै ऐसें तिनकी सत्ता है लक्षण जाका ऐसा उपशम अर सम्यक्त्वप्रकृति देशघाती है ताका उदय होते वेदकसम्यक्त्व होय है जातें जाके उदयसै मल उपजै अर गुण का अंश भी बन्या रहै ऐसा देशघातीका लक्षण सर्वत्र कह्या है ।।५।।
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द्वितीय परिच्छेद
[ ३३
आदिमं त्रितयं हित्वा, गुणेषु सकलेष्वपि । सम्यक्त्वं क्षायिकं ज्ञेयं, मोक्षलक्ष्मीसमर्पकम् ॥५६॥
अर्थ-अदिके मिथ्यात्व सासादन मिश्र ए तीन गुणस्थाननिकों छोड़करि सर्व ही गुणस्थाननिविर्षे मोक्षलक्ष्मीका देनेवाला क्षायिक सम्यक्त्व जानना ॥५६॥
तुर्यादारभ्य विज्ञेयमुपशांतांतमादिमम् ।
चतुर्थे पंचमे षष्ठे, सप्तमे वेदकं पुनः ॥५७॥
अर्थ-चौथे गुणस्थानतें लगाय उपशांतकषाय पर्यंत आदिका उपशमसम्यक्त्व जानना । बहुरि चौथे पांचवें छठे सातवें गुणस्थान विष वेदकसम्यक्त्व जानना ॥२७॥
साध्यसाधनभेदेन, द्विधा सम्यक्त्वमिष्यते । कथ्यते क्षायिकं साध्यं, साधनं, द्वितयं परम् ॥५८॥ प्रथमायां त्रयं पृथ्व्यामन्यासु क्षायिकं विना । सम्यक्त्वमुच्यते सद्भिर्मवभ्रमणसूदनम् ॥५६॥
अर्थ-साध्य साधनके भेद करि दोय प्रकार सम्यक्त्व कहिये है, क्षायिक साधने योग्य है अर उपशम वेदक ये दोय साधन हैं।
प्रथम पृथ्वीविर्षे संसारभ्रमणके नाशक तीनों सम्यक्त्व हैं अर छह पृथ्वीनविर्षे क्षायिक विना दोय सम्यक्त्व पंडितनि करि कहिए हैं ॥५६॥
तिर्यक मानवदेवानां, सम्यक्त्वं त्रितयं मतम् । न नीलिपीतिरश्चीनां, क्षायिक विद्यते परम् ॥६०॥
अर्थ-तियंच मनुष्य देवनिक तीनों ही सम्यक्त्व कहे हैं, अर देवांगना तिर्यंचनी निकै एक क्षायिक सम्यक्त्व नाहीं है ॥६०॥
क्षायोपशमिकस्योक्ताः, षट्पष्टिजलराशयः । प्रांतमौ हूत्तिको ज्ञेया, प्रथमस्य परा स्थितिः ॥६१॥
अर्थ-क्षयोपशम सम्यक्स्व की उत्कृष्ट स्थिति छ्यासठि सागरकी कहीं, अर उपशम सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तकी जाननी ॥६१॥
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३४ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
पूर्व कोटिद्वयोपेतास्त्रयस्त्रिरान्नदीशिनः । ईषदुनास्थितिज्ञेया, क्षायिकस्योत्तमा बुधैः ॥६२॥
अर्थ – किंचित् ऊन दोय कोटि पूर्वसहित तेतीस सागर की क्षायिक सम्यक्त्व की स्थिति पंडितनि करि जाननी योग्य है ॥ ६२ ॥
अधस्तात् श्वभ्रभूषट्के, सर्वत्र प्रमदाजने । निकायत्रितयेsपूर्णे, जायते न सुदर्शनः ॥ ६३॥
अर्थ - नीचें तें लेकरि छह नरकनिविषै, सर्वत्र स्त्रीन विषै अर ज्योतिषी भवनवासी व्यन्तर इन तीन निकाय देवनिविषै अपर्याप्तमें सम्यग्दर्शन न होय हैं ॥ ६३॥
पंचाक्षं संज्ञिनं हित्वा परेषु द्वादशस्वपि । उत्पद्यते न सद्दृष्टिमिथ्यात्वव भाविषु ॥६४॥
अर्थ - पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्त अपर्याप्त, इनि दोय जीवसमास निकौं वर्जिकरि और मिथ्यात्वके बलकरि उपजनेवाले जे बादर एकेन्द्रिय सूक्ष्म एकेन्द्रिय वे इन्द्रिय त्रींद्रिय चतुरिंद्रय अर असंज्ञी पंचेंद्रिय तिनके पर्याप्त अर अपर्याप्त ऐसें बारह जीवसमासनि विषं सम्यग्दृष्टि न उपजे है ||६४||
वीतरागं सरागं च सम्यक्त्वं कथितं द्विधा ।
विरागं क्षायिकं तत्र, सरागमपरं द्वयम् ॥६५॥
-
अर्थ – वीतराग अर सराग ऐसें सम्यक्त्व दोय प्रकार कह्या है । तहां क्षायिक सम्यक्त्व वीतराग है, अर क्षयोपशम, उपशम ए दोय सम्यक्त्व सराग हैं ॥६५॥
संवेगप्रश मास्तिक्यकारुण्यव्यक्त नक्षणम् ।
सरागं पटुभिर्ज्ञेयमुपेक्षा लक्षणं परम् ॥६६॥
अर्थ – संग कहिये धर्मतें अनुराग, प्रशम कहिये कषायनिकी मंदता, आस्तिक्य कहिये आप्त आगम पदार्थनिविषै ' है ऐसे ही है' ऐसा भाव,
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द्वितीय परिच्छेद
[ ३५
कारुण्य कहिये दयाभाव, ए हैं प्रगट लक्षण जाका सो सराग सम्यक्त्व पंडितनिकरि जानना। बहुरि उपेक्षा जो वीतरागता, सो है लक्षण जाका ऐसा दूसरा वीतराग सम्यक्त्व जानना ॥६६॥
निसर्गाधिगमौ हेतू, तस्य बाझाबुदाहृतौ ।
लब्धिः कर्मशमादीनामन्तरंगो विधीयते ॥६७॥
अर्थ-ता सम्यक्त्वके निसर्ग कहिए स्वभाव, अधिगम कहिए उपदेश पावना ये दोऊ बाह्य कारण कहे हैं, अर कर्मनिके उपशमादिकनिकी जो प्राप्ति सो अन्तरंग कारण कहिये हैं ॥६७।।
सम्यक्त्वाध्युषिते जीवे, नाज्ञानं व्यवतिष्ठते । भास्वता भासिते देशे, तमसः कीदृशी स्थितिः ॥६॥
मर्थ- सम्यक्त्वकरि सहित जीव विर्षे अज्ञान न तिष्ठै हैं, जैसे सूर्यकरि प्रकाशित क्षेत्रवि अन्धकार स्थिति कैसी ?
__ भावार्थ-जैसें सूर्यके प्रकाश होते अन्धकार न होय तैसें सम्यक्त्व होत अज्ञान न होय है ॥३८॥ न दुःखबीजं शुभदर्शनक्षिती, कदाचन क्षिप्तमपि प्ररोहति । सदाप्यनुप्तं सुखबीजमुत्तमं, कुदर्शने तद्विपरीतमीक्ष्यते ॥६६॥
अर्थ-सम्यग्दर्शनरूप पृथ्वी विर्षे दुःखका बीज बोया भी कदाचित् न उग है बहुरि विना बौया भी उत्तम सुख का बीज सदा उगै है। बहुरि मिथ्यादर्शन विर्षे सो विपरीत देखिये है।
भावार्थ-सम्यग्दृष्टिके कोई दुःख का कारण पाप कर्म बंध्या होय तो सोभी सुखका कारण होय परिणमै है ऐसा जानना ॥६६॥
सम्यक्त्वमेघः कुशलांबुबन्दितं, निरन्तरं वर्षति धौतकल्मषः । मिथ्यात्वमेधो व्यसनांबुनिदितं, जनावनौ क्षालितपुण्यसंचयः ॥७०॥
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श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ - धोये हैं पापरूप मल जाने ऐसा सम्यक्त्वरूप मेघ है सो निरन्तर जनरूप भूमिविषै पूजनिक कल्याणरूप जलकों बरसै है । बहुरि मिथ्यात्वरूप मेघ, धोया है दूर किया है पुण्य का संचय जानैं सो जनरूप भूमिविषै निंदनीक कष्टरूप जलकौं बरसै है || ७०॥
३६ ]
न भीषणो दोषगणः सुदर्शने,
विगर्हणीयः स्थिरतां त्रपद्यते । निवहोऽवतिष्ठते,
भुजंगमानां
कदा निवासेऽध्युपिते गरुत्मता ॥७१॥
अर्थ - सम्यग्दर्शन के होतसन्त भयानक निन्दने योग्य जो दोषनिका समूह सो स्थिरताकौं न प्राप्त होय हैं । जैसै गरुडकरि सहित जो स्थान ताविषै सर्पनका समूह कब तिष्ठे ?
भावार्थ - सम्यग्दर्शन होतें मिथ्यात्वादि दोष न रहे हैं, ऐसा
जानना ॥ ७१ ॥
विवर्द्धमाना
यमसंयमादयः,
पवित्र सम्यक्त्वगुणेन सर्वदा ।
फ्लन्ति हृद्यानि फलानि पादपा:, घनोदकेनेव
मलापहारिणा ॥ ६२ ॥ -
अर्थ- जैसे मलका हरणेवाला जो मेघ का जल ताकरि वृक्ष हैं नफलें हैं, तै मैं विशेषपनें वर्द्धमान जे यमसंयमादिक ते पवित्र सम्यक्त्वगुण करि सदा फलें हैं ।। ७२ ।।
मनोहर
निषेवते यो विषयाभिलाषुको, निरस्य सम्यक्त्वमधीः वु दर्शनम् । स राज्यमत्यस्य भुजिष्यतां स्फुटं, बृहत्त्वकांक्षी वृणुते दुराशयः ॥७६॥
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द्वितीय परिच्छेद
अर्थ - जो विषयाभिलाषी अज्ञानी सम्यक्त्वकौं त्यागि करि मिथ्यादर्शन से है सो दुष्टचित्त बड़प्पनका वाछक प्रगट राज्यकों छोड़ि करि चाकरीat अंगीकार करें हैं ॥ ७३ ॥
आगैं संवेगादिक सम्यक्त्वके आठ गुण कहे हैं—
तथ्ये धर्मे वस्तहिंसाप्रपंचे, देवे रागद्वेषमोहादिमुक्त | साध सर्वग्रन्थसंदर्भहीने, संवेगोऽसौ निश्चलो योऽनुरागः ॥ ७४ ॥
अर्थ - नष्ट भया है हिंसा का विस्तांर जा विषै ऐसा जो सांचाधर्म ताविषै तथा रागद्वेषमोहादि करि रहित देववि तथा सर्व परिग्रहसमूह करि रहित साधुविषै जो निश्चल अनुराग सो संवेग कह्या है ॥७४॥
देहे भोगे निन्दिते जन्मवासे, कृष्टेष्वाशुक्षिप्तवाणास्थिरत्वे । यद्वराग्यं जायते निःप्रकंपं, निर्वेदोऽसौ कथ्यते मुक्तिहेतुः ॥७५॥
[ ३७
अर्थ - निंदित शरीरविषै तथा भोगविष बहुरि शीघ्र घाल्या जो वाण ता समान है अस्थिरपना जा विषै ऐसे क्लेशरूप संसारवासविषै जो निश्चल वैराग्य उपजै है सो यहु मुक्ति का कारण निर्वेद कहिये है ॥७५॥
कांतापुत्रभ्रातमित्रादिहेतोः, शिष्टद्विष्टे निर्मिते कार्य जाते ।
पश्चात्तापो यो विरक्तस्य पुंसो, निदा सोक्ताऽवद्यवृक्षस्य हन्त्री ॥ ७६ ॥
अर्थ - स्त्री पुत्र भाई मित्र आदिके कारणतं रागद्वेषरूप कार्यनिके समूहकौं रचे सन्तैं जो विरक्त पुरुष के पश्चात्ताप होय सो पापवृक्षकी नाश करनेवाली निन्दा कही है ॥७६॥
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३८ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
जाते द्वेषे द्वेषरागादिदोष-स्प्र े, भक्त्या लोचना या गुरूणां । पंचाचाराचारकाणामदोषा, सोक्ता गर्दा गर्हणीयस्य हन्त्री ॥७७॥
अर्थ--द्वेष राग आदि दोषनिकरि दोष उपजते सन्त पंचाचारके आचरण करावनेवाले जे गुरु तिनके आगे भक्ति सहित जो आलोचना करिये अपने दोष कहिये सो निंदनीक पापके रहने वाली दोष रहित गर्हा कही है ॥७७॥
रागद्वेषक्रोधलोभप्रपंचाः, सर्वानर्थावासभूता
दुरन्ताः ।
यस्य स्वांते कुर्वते न स्थिरत्वं शांतात्मासौ शस्यते भयसिंहः ॥७८॥ |
श्रथं - सर्व अनर्थनिका घरसमान, दूर है अन्त जिनका ऐसे जे राग द्वेष क्रोध लोभादिकनिके प्रपंच हैं ते जाके चित्तविषै स्थिरताकौं न करें हैं सोहु भव्य प्रधान, शान्त है आत्मा जाका ऐसा प्रशँसा रूप काजिये हैं । भावार्थ - तीव्र रागद्वेष जाके मनमें न होय सो उपशम गुण कहिये ॥ ७८ ॥
लोकाधीशाभ्यर्चनीयांघ्रिपद्य, तीर्थाधीशे साधुवर्गे सपर्या
या निर्व्याजाssरभ्यते भव्यलोकैर्भक्तिः सेष्टा जन्मकांतारशस्त्री ॥७६॥
अर्थ – लोकनिके अधीश जे नरेन्द्र नागेन्द्र देवेन्द्र तिनकरि पूजनीक हैं चरण कमल जाके, ऐसे तीर्थनाथ भए भगवान तिन विषै तथा साधुनिके समूहविषै भव्य जीवनकरि जो कपटरहित पूजा आरंभिये है सो संसार बनके छेदनेवाली भक्ति इष्टरूप कही है ॥७६॥
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द्वितीय परिच्छेद
[३६
कर्मारण्यं छत्त कामैरकामैर्धर्माधारे, व्यापृतिः प्राणिवर्गे । भैषाज्याद्य : प्रासुकैर्वद्ध य ते या,
तद्वात्सल्य कथ्यते तथ्यबोधैः ॥८॥ अर्थ-कमवनके छेदनेके वांछक, वांछकरहित ऐसे पुरुषनि करि धर्मके आधारभूत जीवनिके समूहविर्षे जो प्रासुक औषधि आदिकनिकरि वैयावृत्त्य बढ़ाइये, करिए सो सत्त्यार्थज्ञानी नि करि वात्सल्यगुण कहिये है ॥८॥
जन्मांभोधौ कर्मणा भ्रम्यमाणे, जीवग्रामे दुःखिते नैकभेदे । चित्ता त्वं यद्विधत्ते महात्मा,
तत्कारुण्यं दद्यं ते दर्शनीयैः ॥१॥ अर्थ-संमारसमुद्रविर्षे कर्मकरि भ्रमता अर दुःखित ऐसा अनेक प्रकार जो जीवनिका समूह ताविर्षे जो महापुरुष दयाभावकौं धार है सो कारुण्यभाव दर्शन करने योग्य जे आचार्यादिक तिन करि दिखाइये है।
भावार्थ-संसारी जीवनिकौं देखि जो करुणा करना सो करुणानाम सम्यक्त्व गुण कहिये हैं ॥१॥
ऐसे सम्यक्त्व के आठ गुणनिका वर्णन किया, अब तिनका फल दिखावे हैंप्रवद्ध र्य ते दर्शनमिष्टभिर्गुणः, शरीरिणोऽमीभिरपास्तदूषणः । गुरुपदेशरिव धर्मवेदनं, विधीयमानैर्ह दये निरन्तरम् ॥२॥
अर्थ-जैसे निरन्तर हृदयवि रचेभये जे श्रीगुरुनके उपदेश तिनकरि धर्मका जानपणा बढ़े है तैसें जीवकै दूषणरहित ये संवेगादि आठ गुण तितकरि सम्यग्दर्शन बड़े है ॥२॥
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४० ]
श्री अमितगति श्रावकाचार ...
अपार संसारसमुद्रतारकं, वशीकृतं येन सुदर्शनं परम् । वशोकृतास्तेन जनेन सम्पदः,
परैरलभ्या विपदामनास्पदम् ॥८३॥ अर्थ-अपार संसार समुद्र का तारने वाला अर विपदानिका अनास्पद कहिये ठिकाना नाहीं ऐसा एक सम्यग्दर्शन जाने वश किया, अङ्गीकार किया ता पुरुषकरि औरनि करि न पावने योग्य ऐसी सम्पदा वश करो ।।८३।।
सुदर्शने लब्धमहोदये गुणाः, श्रियो निवासा विकसंति देहिनि । निरस्तदोषोपचये सरोवरे,
हिमेतराशाविव पंकजाकराः ॥८४॥ अर्थ-पाया है महाउदय जानें ऐसे सम्यग्दर्शनके होतसन्तै जीवविष लक्ष्मीके निवास जे गुण ते विकासमान होय हैं, कैसा है सम्यग्दर्शन, निरस्तदोषापचये कहिये दूरि किया है शोकादि दोषनिका समूह जाने । जैसे सरोवरविष दूरि किया है दोषा जो रात्रि ताका समूह जानैं अर पाया है महा उदय जानें अर भला ह दर्शन जाका ऐसा सूर्य के होतसन्तै कमलनि के वन लक्ष्मो के निवास हैं ते विकसैं हैं ।
___ भावार्थ-लोक कहे हैं लक्ष्मी कमलनिविर्षे वसै है ऐसा अलंकार वाक्य ह । इहां एक एक सूर्यपक्षविर्षे अर दर्शनपक्ष विष समान अर्थ होय है ।।८४॥ दर्शनबन्धोर्नपरो बन्धुर्दर्शन लाभान्न परो लाभः । दर्शनमित्रान्न परं मित्रं, दर्शनसौख्यान परं सौल्यं ॥५॥
__ अर्थ-सम्यग्दर्शनरूप बांधवतै सिवाय और दूसरा बांधव नाहीं अर दर्शन के लाभतें सिवाय और और दूसरा लाभ नाहीं, अर दर्शनतें सिवाय दूसरा मित्र नाही, अर दर्शन के सुखतें सिवाय और दूसरा सुख नाहीं ॥५५॥ .
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द्वितीय परिच्छेद
[४१
लब्धा मुहूर्तमपि ये परिवर्जयन्ते, सम्यक्त्वरत्नमनवद्यपदप्रदायि । भ्राम्यन्ति तेऽपि न चिरं भववारिराशौ,
तद्विभ्रतां चिरतरं किमिहास्ति वाच्यम् ॥८६॥ अर्थ-पापरहित पद का देनेवाला जो सम्यक्त्वरत्न ताहि एक मुहूर्त भी पापकरि जो त्याग है ते पुरुष भो संसार-समुद्रविर्षे बहुत काल नहीं भ्रमै है तो इहां तौ सम्यग्दर्शनकौं धारते पुरुषनिके कहा अतिशयकरि बहुत भ्रमण कहना योग्य है ?
भावार्थ-एक मुहूर्त भी सम्यग्दर्शन ग्रहण हो जाय तो संसार उत्कृष्ट किंचिदून अर्द्ध पुद्गलपरिवर्तनमात्र रहि जाय तो अनन्तान्तकाल अपेक्षा थोड़ा ही कहिये। बहरि जो सम्यग्दर्शनतें नहीं छटै क्षायिक सम्य-.. ग्दृष्टि होय सो बहुत कैसैं भ्रमैं ? याकै तो अतिनिकट संसार है ऐसा इहां आशय जानना ॥८६॥
पापं यजितमनेकभवदुरन्तैः, सम्यक्त्वमेतदखिलं सहसा हिनस्ति । भस्मीकरोति सहसा तृणकाष्ठराशि,
किं नोजितोज्व लशिखो दहनः समृद्धम् ॥७॥ अर्थ-जो पाप दूर है अन्त जिनका ऐसे अनेक भवनिकरि उपाा सो इस समस्त पापकौं सम्यक्त्व शीघ्र ही नाश करें है। इहां दृष्टांत कहैं हैं-बड़ी उज्ज्वल है शिखा जाकी ऐसा जो अग्नि सो वृद्धिकौं प्राप्त होता जो तण अर काष्ठनका समूह ताहि शोघ्र हो कहा भस्म न करै है ? करै ही है ॥८७॥
नवं भवस्थितिवेदिनि जीवे, दर्शनशालिनि तिष्ठति दुःखम् ।। कुत्र हिमस्थितिरस्ति हि देशे, ग्रीष्मदिवाकरदीधितिदीप्ते ॥
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श्री अमितगति श्रावकाचार
- संसारकी स्थितिका जाननेवाला अर सम्यग्दर्शनकरि शोभित ऐसा जो जीव ताविषै दुःख नहीं तिष्ठे है । जैसे ग्रीष्मके सूर्य की किरणकरितप्त जो क्षेत्र ता विषै शोतकी स्थिति कहांत होय ? अपितु नाहीं होय है ॥
४२ ]
१
भुवनजनताजन्मोत्पत्तिप्रबन्धनिषूदनी, जिनमतरुचिश्चिता मण्या यकैद्दपमीयते ।
त्रिदशसरणि ते भाषन्ते समां परमाणुना, प्रभवतिमतिमिथ्या मिथ्यादृशामथ वा सदा ॥८६॥
अर्थ - लोकके जीवनिकैं संसार की उत्पत्ति के प्रबन्ध की नाश करने वाली ऐसी जो जिनमतकी रुचि श्रद्धा सो जिनकरि चिंतामणिकरि उपमा दोजिये (जिनमतकी श्रद्धाकौं चिंतामणिकी उपमा देय हैं) ते आकाशकौं परमाणु के समान कहै हैं । अथवा मिथ्यादृष्टिकी बुद्धि सदा मिथ्यारूप होय ही हैं ताका कहा आश्चर्य है ?
अवहितनाः सद्मोत्संगं निधानमिवोत्तमं नयति हृदयं यः सम्यक्त्वं शशांककरोऽञ्जलम् ।
श्रमित गयः क्षिप्रं लक्ष्म्यः श्रयन्ति तमाहता, निरुपमगुणाः कांतं कांतं स्वयं प्रमदा इव ॥६०॥
अर्थ - जैसौं एकाग्र है मन जाका ऐसा पुरुष घर के मध्यभाग प्रति निधान कौं प्राप्तकरै तैौं जो हृदय प्रति चन्द्रमाकी किरण समान उज्ज्वल सम्यक्त्वकौं प्राप्त करे है, ता पुरुषकौं जैसे सुन्दर पतिकौं आदर सहित स्त्री हैं ते स्वयमेव शीघ्र ही सेवौ है तैौं उपमा रहित हैं गुण जिनके अर प्रमाण है ज्ञानदर्शन जिन विषै ऐसी आदर सहित इन्द्रादिपदकी लक्ष्मी स्वयमेव सेव है ||
१. 'जन्मोत्पत्ति' के स्थान पर नष्टोत्पत्ति, पाठ ठीक है ।
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तृतीय परिच्छेद
[ ४३
विपरीताभिनिवेश तजि, भजि निर्मल श्रद्धान । याके धारक अमितगति, लहत सकल कल्यान । ऐसें श्री अमितगति आचार्यकृत श्रावकाचारविर्षे
द्वितीय परिच्छेद समाप्त भया ।
तृतीय परिच्छेद
आगें सम्यग्दर्शनके विषय जे जीवादिक परार्थ तिनिका वर्णन करें
हैं
जीवाजीवादितत्वानि, ज्ञातव्यानि मनीषिणा। श्रद्धानं कुर्वता तेषु, सम्यग्दर्शनधारिणा ॥१॥
प्रर्थ-सम्यग्दर्शनका धारनेवाला अर तीन जीवादिकनिविर्षे श्रद्धानकौं करता ऐसा जो पंडितपुरुष ताकरि जीव अजीव आदि तत्व हैं ते जानने योग्य हैं।
मावार्थ--सम्यग्दर्शनकी निर्मलताके अर्थजीवादि पदार्थ विस्तारसहित जानने योग्य हैं ॥१॥
तत्र जीवा द्विधा ज्ञेया, मुक्तसंसारिभेदतः । अनादिनिधनाः सर्वे, ज्ञानदर्शन लक्षणाः ॥२॥
अर्थ-तहां जीव हैं ते मुक्त अर संसारी भेदकरि दोय प्रकार जानना। के से हैं जीव आदि, अन्त रहित हैं अर सर्व ही ज्ञानदर्शन लक्षण जिनके ऐसे हैं।
भावार्थ-द्रव्याथिक नय करि जीव अनादिनिधन है अर एक द्रियतें लगाय सिद्ध भगवानपर्यन्त सामान्य ज्ञानदर्शन बिना कोई भी जीव नाहीं। ऐसा जानना ॥२॥
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४४ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
तत्र क्षताष्ट कर्माणः, प्राप्ताष्टगुणसंपदः । त्रिलोकवेदिनो मुक्ता, स्त्रि तो काग्रनिवासिनः ॥३॥ अनंतरेषदूनांगसमानाकृतयः स्थिराः । आत्मनोनजनाभ्या , भाविनं कालमासते ॥४॥
अर्थ-तहां नष्ट भये हैं अष्ट कर्म जिनके अर प्राप्त भई है अष्टगण रूप सम्पदा जिनके, बहरि तीन लाकके जाननेवाले अर द्रव्यभावकर्मनितें मुक्त भए, बहुरि तीन लोकके उपरि बसनेवाले ॥३॥
बहुरि अन्तका किंचित् ऊन अंग प्रमाण है प्रदेशनिकी आकृति जिनकी, अर स्थिर हैं कम्परहित हैं, बहुरि आत्मज्ञानी जननि करि पूजनीक, ऐसे श्री सिद्धभगवान आगामी अनन्तकाल तिष्ठे हैं ॥४॥
संसारिणो द्विधा जोवाः, स्थावराः कथितास्त्रसाः । द्वितीयेऽपि प्रजायन्ते, पूर्णपूर्णतयाद्विधा ॥५॥
अर्थ-संसारी जीव स्थावरअर त्रस ऐसौं दोय प्रकार कहे हैं, तिन स्थावर अर त्रसनि विष भी पर्याप्त अपर्याप्तनें करि दोयप्रकार हैं ॥५॥
पाहारविग्रहाक्षाऽऽनवचोमानसलक्षणम् । पर्याप्तीनां मतं षट्कं, पूर्णापूर्णत्वकारणम् ॥६॥
अर्थ-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छास, वचन और मन ये हैं लक्षण जाके ऐसा जो पर्याप्तिनिका षटक सो पर्याप्त अपर्याप्तपञका कारण कह्या है।
भावार्थ-अपने योग्य पर्याप्ति की जाकै पूर्णता है सो पर्याप्त जीव कहिये, जाकै पूर्णता नाहीं सौ अपर्याप्त कहिये ॥६॥ . चतस्रः पंच षट् ज्ञेयास्तेषां, पर्याप्तयोंऽगिनाम् ।
एकाक्षविकलाक्षाणां, पंचाक्षाणां यथाक्रमम् ॥७॥
अर्थ-तिन पर्याप्ति सहित एकद्रिय विकलेंद्रिय पंचेन्द्रिय जीवनिक' चार, पांच, छह पर्याप्ति यथाक्रम जाननी।
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तृतीय परिच्छेद
[४५
भावार्थ-एकद्रियकै मन, वचन विना च्यार पर्याप्ति है, विकलत्रय असौनीकै पांच पर्याप्ति है, पंचेन्द्रिय सैनी के वचन मन सहित छह हैं, ऐसा जानना ॥७॥
एकाक्षाः स्थावरा जीवाः, पंचधा परिकीर्तिताः । पृथिवी सलिलं तेजो, मारुतं च वनस्पतिः ॥८॥
अर्थ-पृथ्वी १, जल २, अग्नि ३, पवन ४, अर वनस्पति ५ ऐसे पंचेन्द्रिय स्थावर जीव पांच प्रकार कहे हैं ॥८॥
भेदास्तत्र त्रयः पृथ्व्याः, कायकायिकतद्भवाः । निर्मुक्तस्वोकृतागामि, रूपा एव परेष्वपि ॥६॥
अर्थ-तहां पृथ्वीके भेद तीन हैं-पृथ्वीकाय, पृथ्वीकायिक, पृथ्वीजीव, ऐौं । तहां जीवर्ने शरीर त्यागि दिया सो तो पृथ्वीकाय है, अर जो शरीर जीवन ग्रहण किया सो पृथ्वीकायिक है, अर जो जीव पृथ्वीकायिक होनेवाला है सो अन्तरालमें पृथ्वी जीव है याही प्रकार जलादिविर्षे भी जानना॥६॥
मता द्वित्रिचतुःपंचहषीकास्त्रसकायिकाः । पंचाक्षा द्विविधास्तत्र, संजयसंज्ञिविकल्पतः ॥१०॥
अर्थ-द्वींद्रिय त्रींद्रिय चतुरिंद्रिय पंचेन्द्रिय जीव हैं ते त्रसकायिक कहे हैं । तहां पंचेन्द्रिय हैं ते सांज्ञी असांगी भेद करि दोय प्रकार हैं ॥१०॥
शिक्षोपदेशनालापग्राहिणः संजिनो मताः । प्रवृत्तमानसप्राणा, विपरीतास्त्वसंज्ञिनः ॥११॥
अर्थ-शिक्षा उपदेश अलाप इनके ग्रहण करनेवाले, प्रवर्त्या है मन जिनक, ऐसे जीव हैं ते संज्ञी कहे हैं। बहुरि विपरीत हैं ते असंज्ञी हैं ऐसा जानना ॥११॥
स्पर्वनं रसनं घ्राणं, चक्षुः श्रोत्रमितींद्रियम् । तस्य स्पर्मो रसो गन्धो, रूपं शब्दश्च गोचरः ॥१२॥
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श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ – स्पर्शन, रसन, घ्राण, नेत्र, श्रोत्र, ऐसैं पांच इन्द्रिय हैं । बहुरि तिनिका स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, शब्द, विषय है ॥ १२ ॥
४६ ]
गण्डूपदजलू काक्षकृमिशंखेद्रगोपकाः । गदिता विविधाकारा, द्विहृषीकाः शरीरिणः ॥१३॥
अर्थ - गिंडोला, जौंक, कौडी, कृमि, शंख, इन्द्रगोप ये नाना प्रकार हैं आकार जिनके ऐसे द्वोंद्रिय जीव कहे हैं ॥ १३ ॥
यूकापिपीलिका निक्षाकुन्थु मत्कुणवृश्चिकम् । त्रिहृषीकं मतं प्राज्ञै, विचित्राकारसंयुतम् ॥ १४॥
अर्थ – जूवां, कीडी, लीख, कुन्थुवा, खटमल विच्छू ये बुद्धिवाननि करि नानाप्रकार संयुक्त श्रींद्रिय कहे हैं || १४ ||
,
पतंगमक्षिकादंशम राभ्रमरादयः ।
चतुरक्षा विबोद्धव्या, विबुद्ध जिनशासनैः ॥१५॥
अर्थ - विशेषपण जाण्या है जिन शासन जिनने ऐसे पुरुषनि करि पतंग, माखो, दंश, मच्छर, भ्रमर आदि जीव हैं ते चतुरिंद्रिय जाननें ॥ १५॥
तिर्यग्योनिभवाः शेषाः, श्वाभ्रमानवनाकिनः ।
विभिन्ना विविधेर्भेदः,
अर्थ - बाकी तिर्यंचयोनिविषे उपजे तियंच बहुरि नारकी मनुष्य देव हैं ते नानाभेदनि करि भिन्न ग्रहण किये हैं पंच इन्द्रिय जिननें ऐसें
जानना ।
स्वीकृतेंद्रियपंचकाः ॥ १६ ॥
भावार्थ - एकेन्द्रिय विकलेंद्रियविना और सर्व हीं तिर्यंच अर नारकी नुष्य देव ये सब पंचेंद्रिय जानना ॥ १६ ॥
हृषीकपंचकं भाषा, कायस्वांतबत्रिकम् । श्रायुरुच्छ्वा सनिश्वास, द्वंद्वं प्राणादशोदिताः ॥१७॥
अर्थ – इन्द्रियप्राण पंच अर भाषा मन काय ऐसें बल प्राण तीन बहुरि आयु अर उच्छवासनिश्वास ये दोय ऐसें प्राण दश कहे हैं ||१७||
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तृतीय परिच्छेद
शरीराक्षायुरुच्छ्वासा, भाषिता निखिलेष्वपि । विकलासंज्ञिनां वाणी, पूर्णानां संज्ञिनां मनः ॥१८॥
प्रर्थ-शरीर इन्द्रिय आयु उच्छवास ये च्यार प्राण सर्व ही पर्याप्तनिवि कहे हैं, अर विकलेन्द्रिय अर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तनिक भाषा प्राण है, अर संज्ञी पर्याप्त निविर्षे मनप्राण है ॥१८॥
एकद्वित्रिचतुः पंचहषीकाणां विभाजिताः । तेऽन्येषां त्रिचतुष्कं च, षट्सप्तांगायुरिदिगः ॥१६॥
अर्थ-एकेन्द्रिय द्वींद्रिय त्रींद्रिय चतुरिंद्रीय पंचेन्द्रिय जीवनिके भेदरूप प्राण हैं। एकेन्द्रियके स्पर्शनइन्द्रिय शरीर आयु उच्छवास ऐसे च्यार, द्वीन्द्रियक रसनाइन्द्रिय अर वचन मिले छह, त्रीन्द्रिय घ्राण अधिक सात, चतुरिन्द्रियक नेत्र अधिक आठ, असैनी पंचेन्द्रियक श्रवण अधिक नी, संज्ञी पंचेन्द्रियक मन अधिक दश; ऐसे प्रर्याप्तनिक कहे। बहुरि ते प्राण अपर्याप्त निविर्षे एकेन्द्रियक स्पर्शन इन्द्रिय काय आयु ऐसे तीन हैं, द्वींद्रियक रसनासहि। च्चार हैं, त्रींद्रियक घ्राण सहित पांच हैं, चतुरिंद्रियक चक्षुसहित छह है, पंचेन्द्रियकै श्रोत्रसहित सात हैं ऐसा जानना।
जरायुजांडवाः पोता, गर्भजा देवनारकाः । उपपादभभवाः शेषाः, सर्वे सम्मूर्च्छना मताः ॥२०॥
अर्थ-जरायुज कहिए जालवत् प्राणीनिक शरीर ऊपरि आवरण मांस लोहू जामें विस्ताररूप पाइए ता सहित उपजै ते जरायुज. अर अण्डावि उपजै ते अण्डज, अर योनितें निकालताही चालना आदि सामर्थ्ययुक्त उपजे ते पोतज ये तीन प्रकार तो गर्भज हैं, अर देव नारकी हैं ते उपपादशय्या सो है, उपपाद जन्म जिनका ऐसे हैं, बहुरि इनि सिवाय सर्व जीव सम्मूर्छनतें है जन्म जिनका ऐसे कहे हैं ॥२०॥
श्वाभ्रसम्मछिनो जीवा, भूरिपापा नपुंसकाः । स्त्रीवेदा मता देवाः, सचिवेदितया परे ॥२१॥
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४८]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ- बहुत है पाप जिनके ऐसे नारकी अर सम्मूछन जीव हैं ते नपुंसक हैं; अर देव हैं ते स्त्रीवेदो, अर पुरुषवेदी हैं; अर बाकी और जीव तीनौं वेद सहित हैं ऐसा जानना ॥२१॥
सचित्तः संवृतः शीतः, सेतरो वा विमिश्रकः । विभेदरांतभिन्नो, नवधा योनिरंगिनाम् ॥२२॥
अर्थ-सचित अर संवत अर शीत, इनित इतर जो अचित्त विवत, उष्ण, बहरि इनकरि मिश्र कहिये सचित्ताचित्तमिश्र संवृतविवृतमिश्र अर शीतोष्णमिश्र ऐसे अन्तर भेदनि करि, भेदरूप जीवनिक नव प्रकार योनि कही है। जीव जहां उपजै ऐसे पुद्गल स्कन्धनिका नाम योनि है, तहां जीव सहित होय ते सचिव है, जीव रहित अचित्त है, गुप्तरूप होय ते संवृत है, प्रगट होय ते विवृत, शीतल होय ते शीत, उष्ण होय ते उष्ण है, अर मिले होय ते मिश्र है ऐसा जानना ॥२२॥
भूरुहेषु दश ज्ञेयाः, सप्त नित्यान्यधातुषु । नारकामरतिर्य क्षु, चत्वारो विकलेषु षट् ॥२३॥ चतुर्दश मनुष्येषु, योनयः सन्ति पिडिताः । सर्वे शतसहस्राणामशीतिश्चतुरुत्तराः ॥२४॥
अर्थ- वृक्षनिकै विर्षे दश लक्ष योनि जाननी, अर नित्यनिगोद इतरनिगोद अर धातु कहिए पृथ्वीकाय अपकाय अग्निकाय वातकाय ये च्यारि ऐसे छह स्थान निविर्षे सात लक्ष योनि जाननी, अर नारकी देव तियंच इनि विर्षे च्यारि च्यारि लक्ष योनि जाननी, विकलत्रयविर्षे छह लख योनि है, अर मनुष्य निविष चौदह लक्ष योनि है। ऐसे सर्व एकठी करी भई चौरासी लक्ष योनि हैं ये पूर्वोक्त सचित्तादि योनिन के विशेष भेद जानने ॥२३-२४॥
गतींद्रियवपुर्यो गज्ञान वेदक धादयः । संयमाहारभव्येक्षालेश्यासम्यक्त्वसंज्ञिनः ॥२५॥
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तृतीय परिच्छेद
[ ४
अर्थ - गति च्यारि, इन्द्रिय पांच, काय छह, योग पन्द्रह, ज्ञान आठ, वेद तीन, क्रोधादिक कषाय च्यार, संयम सात, आहार दोय, भव्य दोय, दर्शन च्यार, लेश्या छह, सम्यक्त्व छह, संज्ञी दोय, ऐसें चौदह मार्गणा कही हैं ॥२५॥
माग्य ते सर्वदा जीवा, यासु मार्गणको विदैः । सम्यक्त्वशुद्धये मार्ग्या, स्ताश्चतुर्दश मार्गणाः ॥२६॥
अर्थ - विचारघि प्रवीण जे पुरुष तिन करि जिन विषै जीव हैं सदा विचारिये हैं ते चतुर्दश मार्गणा सम्यक्त्वकी शुद्धि के अर्थ सदा विचारनी योग्य हैं ॥ २६॥
मिथ्यादृष्टि: सासनो मिश्रदृष्टिः,
सम्यग्दृष्टिः संयतासंयताख्यः ।
ज्ञेयावन्यौ द्वौ प्रमत्ताप्रमत्तौ, सत्रापूर्वेणानिवृत्त्यल्पलोभौ
॥२७॥
शांतक्षीणौ योग्ययोग्यौ जिनेन्द्रौ द्विः सप्त ते गुणस्थानभेदाः । त्रैलोक्याप्रारूढिसोपानमार्गा,
स्तथ्यं येषु ज्ञायते जीवतत्त्वम् ॥ २८ ॥
अर्थ - मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्रदृष्टि, सम्यग्दृष्टि बहुरि संयता - संयत है नाम जाका, प्रमत्त, अप्रमत्त दोय ये जानने योग्य हैं; अर अपूर्वकरणसहित अनिवृत्तिकरण अर सूक्ष्म लोभ अर उपशांत मोह, क्षीण मोह, संयोगीजिन, अयोगी जिन ऐसे गुणस्थाननिके चौदह भेद हैं, ते त्रैलोक्यका अग्र जो सिद्धपद ताके चढ़ने कू सोपान मार्ग हैं | जिनविषै सांचा जीवतत्व जानिये है ।।२७-२८ ।।
भावार्थ - मोहनीय आदि कर्मनिका उदय उपशम क्षय क्षयोपशम परिणाम रूप जे अवस्था विशेष तिनकौं होत संतें उत्पन्न भये जे भाव कहिए जीवके मिथ्यात्वादिक परिणाम तिनकरि जीव हैं ते "गुण्यंते” कहिए लखिए वा देखिए व लक्षित कहिए; ते जीवके परिणाम गुणस्थान संज्ञाके धारक हैं । तहां मिथ्या कहिये अतत्त्व में है दृष्टि कहिए श्रद्धान जा
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५०]
श्री अमितगति श्रावकाचार
सो मिथ्यादृष्टि है। बहरि आसादन जो विराधन ता सहित वत्त सो सासादन है सम्यग्दृष्टि जाकै सो सासादन सम्यग्दृष्टि है अथवा आसादन कहिए सम्यक्त्वका विराधन ता सहित जो वर्तमान सो सासादन सम्यग्दृष्टि है, बहुरि पूर्व भया था सम्यक्त्व तिस न्याय करि इहां सम्यग्दृष्टिपना जानना । बहुरि सम्यक्त्व अर मिथ्यात्वका मिलाप भाव सो मिश्र है । बहुरि सम्यक् कहिये समीचीन है दृष्टि कहिए तत्त्वार्थ श्रद्धान जाके सोई सम्यग्दृष्टि, अर सोही अविरत कहिये असंयमी सो अविरत सम्यग्दृष्टि है । बहुरि देशतः कहिए एक देशतें है विरत कहिए संयमी सो देश विरत है संयम असंयम करि मिच्या भाव है । इहांतें ऊपरि सर्व गुणस्थानवर्ती संयमी ही हैं, बहरि प्रमाद्यति कहिए प्रमाद कर सो प्रमत्त है, बहुरि प्रमाद न करै सो अप्रमत्त है, बहुरि अपूर्व है करण कहिए परिणाम जाके सो अपूर्वकरण है बहुरि न पाइये है निवृत्ति कहिये. विशेष रूप करण कहिए परिणाम जाके सो अनिवृत्तिकरण है, बहुरि हूक्ष्म है सांपराय कहिए लोभ कषाय जाकै सो सूक्ष्म सांपराय है; बहुरि उपशांत भया है मोह जाका सो उपशांत मोह है; बहुरि क्षीण भया है मोह जाका सो क्षीणमोह है; बहरि घातिकर्मनिकौं जीतता भया सो जिन बहुरि केवलज्ञान है जाके सो केवली, सोई केवली सोही जिन, बहुरि योग करि सहित सो सयोग सोही सयोगकेवली जिन है; बहरि योग जाकै न होय मो योगी नांही सो अयोगी सोही केवली जिन सो अयोग केवली जिन हैं। ऐसे मिथ्या दृष्टि आदि अयोगी वे वली जिन पर्यंत चौदह गुणस्थान जानना। इहां ग्रन्थ बढ़नेके भयतें नामका अर्थ मात्र स्वरूप कह्या विशेष अन्य आगमतें जानना। ऐसें जीवतत्वका वर्णन किया, आगें अजीवतत्वका वर्णन कर हैं
धर्माधर्मनभः कालपुद्गलाः परिकोत्तित: ।
अजीवाः पंच सूत्र रुपयोगविवर्जिताः ॥२६॥ अर्थ- सूत्रके जाननेवाले नर धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, कालद्रव्य पुद्गलद्रव्य ये पांच, उपयोग जो दर्शन ज्ञान ताकरि रहित अजीव कहै हैं ।।२६।।
अमूर्ती निष्क्रिया नित्याश्चत्वारो गदिता जिनैः । रूपगन्धरसस्पर्शराब्दवन्तोऽत्र पुद्गलाः ॥३०॥
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तृतीय परिच्छेद
अर्थ-धर्म अधर्मं काल आकाश ये च्यार द्रव्य अमूर्त कहिये वर्ण गंध रस स्पर्श रहित अर निःक्रिय कहिए प्रदेशनिके चलिवेकरि रहित जिनदेवनि करि कहे हैं । बहुरि इहां रूप गन्ध रस स्पर्श शब्दवान हैं ते पुद्गल हैं, रूप गन्ध रस स्पर्श है जातें सदा अनुयायी है अर शब्द है सो पर्याय है जातें पुद्नलस्कंधनितैं कदाचित उपजै है । इहां शब्द कहनें करि बंध, सूक्ष्म, स्थूल संस्थान भेद तम छाया आतप उद्योत ए सर्व पुद्गलक पर्याय जान लेना ॥ ३० ॥
लोकraint स्थितं व्याप्य, व्योमानंतप्रदेशकम् । लोकालोकौ
लोकाकाशं स्थितौ व्याप्य, धर्माधर्मौ समं ततः ॥ ३१ ॥
अर्थ – लोक अलोक दोउनिकों व्याप्त करि अनंत हैं ऐसा आकाश अवस्थित है । बहुरि लोकाकाशकौं सर्व तरफ धर्मद्रव्य अर अधर्मद्रव्य तिष्ठ है ||३२||
[ ५१
प्रदेश जाक व्याप्त करि
धर्माधकजीवानामसंख्येयाः प्रदेशकाः । अनंतानंतमानास्ते, पुद्गलानामुदाहृताः ॥३२॥
अर्थ - धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य अर एकजीवद्रव्य इनके असंख्याते प्रदेश हैं । बहुरि पुद्गलनिक प्रदेश अनंतानंन प्रमाण कहे हैं ॥ ३२ ॥
जीवानां पुद्गलानां च, गतिस्थितिविधायिनौ । धर्माद मतौ प्राज्ञैराकाशमव काशकृत् ॥३३॥
अर्थ - जीवनिकों तथा पुद्गलनिकौं गति अर स्थिति करावनेवाले धर्म अधर्मद्रव्य बुद्धिवाननि करि कहे हैं, अर आकाश है सो अवकाशका करने वाला कहिए देनेवाला है ।
भावार्थ – जेसें स्वयं चालते मच्छनकौं जल गमन सहकारी है, अर जैसे आप ही तिष्ठते पथिकनिकौं छाया तिष्ठने में सहकारी है तैसें गमन करते वा तिष्ठते जीव पुद्गलनिकौं धर्म अधर्म सहकारी हैं, कछु प्रेरणाकरि चलावते बैठावते नाहीं उदासीन कारण हैं । अर यद्यपि सर्वद्रव्यं अपने अपने स्वरूप में तिष्ठे हैं तथापि सर्व द्रव्यनिकौं अवकाश देना ये आकाशका गुण हैं ऐसा जानना ।।३३।।
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५२ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
असंख्या वनाकाभुशे, कालस्य परमाणवः । एकैका वर्तनाकार्या, मुक्ता इव व्यवस्थिताः ॥३४॥
अर्थ-लोकाकाशविर्षे वर्तना हैं कार्यलक्षण जिनका ऐसे असंख्याते कालके परमागु एक एक न्यारे न्यारे मुक्ताफलनिकी ज्यौं तिष्ठं हैं ।
भावार्थ-वर्तना हे लक्षण जिनका ऐसे असंख्याते कालाणू भिन्न लोकविर्षे तिष्ठे हैं सो तो निश्चयकाल है। अर अन्य द्रव्यनिके पर्यायकरि समयादिभेद करिए सो व्यवहारकाल है ऐसा जानना ॥३४॥
जीवितं मरणं सौख्यं, दुखं कर्वति पुद्गलाः । अणुस्कंधविभेदेन, विकल्पद्वयभागिनः ॥३५॥
अर्थ-पुद्गल जे हैं ते जीना मरण सुख दुःखकौं करें हैं, कैसे हैं पुद्गल अणु स्वन्धक भेदकरि दोय भेदक भजनेवाले हैं। इहां संसारीनिके प्राणनका संयोग सो जीवन अर तिनका वियोग सो मरण अर इन्द्रियजनित सुख दुःख इन के कारण पुद्गल करें है ऐसा जानना ॥३॥
विश्वंभरा जलं छाया, चतुरिंद्रियगोचराः । कर्माणि परमाणुश्च, षड्विधः पुद्गलो मतः ॥३६॥ स्थूलस्थूलमिदं स्थूलं, स्थूलसूक्ष्म जिनेश्वरः ।
सूक्ष्मस्थूलं मतं सूक्ष्म, सूक्ष्मसूक्ष्मं यथाक्रमम् ॥३७॥ अर्थ- पृथ्वी, जल, छाया, च्यार इंद्रियनिके विषय अर कर्म, अर परमा] ऐसे छह प्रकार पूदगल द्रव्य कह्या है ॥३६॥
बहुरि जिनेश्चरनिरि यथाक्रम कहिए पृथ्वी तो स्थूलस्थूल, अर जल स्थूल, अर छाया स्थूलसूक्ष्म, अर नेत्र विना चरिंद्रियक विषय सूक्ष्मस्थूल, अर कार्माण वर्गणा सूक्ष्म, अर परमा सूक्ष्मसूक्ष्म कह्या है ॥३७॥
ऐसे अजीव तत्वका वर्णन क्यिा; आगें आस्रवतत्वकौं कहै हैंयद्वाक्काय मनः कर्म, योगोस्वास्त्रवः स्मृतः । कर्मास्त्रवत्यनेनेति, शब्दश.स्त्रविशारदः ॥३८॥ अर्थ-जो वचन काय मन इनका कर्म वाहिये चलना सो योग है
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तृतीय परिच्छेद
[ ५३
यहु आस्रव है । शब्दशास्त्रविषै निपुण पुरुषकरि जाकरि कर्म आस्रवें सो आस्रव है ऐसा कह्या है ||३८||
शुभाशुभस्य विज्ञेयस्तत्रांन्योन्यस्य कर्मणः । कारणस्यानुरूपं हि कार्य जगति जायते ॥ ३६ ॥
अर्थ - तहां शुभयोग शुभकर्मका कारण जानना अर अशुभयोग अशुभ कर्मका; जातैं लोकविषै कारण के अनुरूप कार्य होय है ||३६||
संसारकारणं कर्म, सकषायेण गृह्यते । येनान्यथा कषायेण, कषायस्तेन वर्ज्यते ॥४०॥
अर्थ - जा कारणकरि कषायसहित जो जीव ताकरि संसारका कारण कर्म ग्रहण करिये है अर कषायरहितकरि संसार का कारण कर्म ग्रहण न करिये है ता कारण कषाय त्यागिए है ।
भावार्थ - -सांपरायिक आस्रव तौ सकषाय जीवकै होय है अर ईर्यापथिक आस्रव कषाय रहित एकादशमादि गुनस्थान निविष होय है सो केवल योगकृत है तातैं संसार का कारण नाहीं ऐसा जानना ॥ ४० ॥
ज्ञाताज्ञातामन्दमन्दादिभावैश्चित्रैश्चित्रं
जयन्ते कर्मजालं ।
नाचित्रत्वे कारणस्येह कार्य, fafafeचत्रं दृश्यते जायमानं ॥४१॥
अर्थ-ज्ञातभाव अज्ञातभाव तीव्रभाव मन्दभाव आदि शब्दकरि अधिकरण अर वीर्य इन प्रकारनि करि नानाप्रकार कर्मजाल उपजाइए है लोकविषै कारणके नानाप्रकारपना न होतें नानाप्रकार कार्य किछू उपज्या न देखिए है ।
भावार्थ - यह प्राणी हिंसनायोग्य है ऐसा जानकरि हिंसा में प्रवर्त्तना इत्यादि ज्ञातभाव है, बहुरि प्रमादतें वा मदतें विना जाने हिंसादिकमें प्रवर्त्तना सो अज्ञातभाव है, तीव्र क्रोधादिक के उदयतें होय सो तीव्रभाव है, मन्दक्रोधादिकके उदयतें होय सो मंदभाव है, बहुरि जाकै विषै हिंसादिक आधाररूप कीजिए सो अधिकरण कहिए बहुरि द्रव्यकी ज्यो निजसामर्थ्य
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५४ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार ....
सो वीर्य कहिए, इनिके नानाप्रकार तोव्रमन्दादि भेदकरि आस्रववि भी भेद है ऐसा जानना ॥४१॥
तिरस्कारमात्सर्यपैशून्यविघ्नप्रधातप्रलापादिदोषैरनेकैः । विबोधावरोधस्तयेक्षावरोधो, दुरन्तैः कृतेर्गृह्यते गर्हणीयः ॥४२॥
अर्थ-ज्ञान दर्शनके धारकनिका वा ज्ञानदर्शनका तिरस्कार करना वा मात्सर्य मद करना वाऐं शून्य चुगली खाना, वा अन्तराय करना वा घात करना वा झूठे दोष कहना इत्यादि अनेक दूर है, अन्त जिनका ऐसे करे भये दोषनि करि निंदने योग्य ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण ग्रहण कीजिए है ॥४२॥
बधाकन्ददैन्यप्रलापप्रपंचैनिकृष्टेन तापेन शोकेन सद्यः । परात्मोभयस्थेन कर्मागिवगैरसातं
सदा गृह्यते दुःखपाकम् ॥४३॥ अर्थ--प्राणनिका वियोग करना सो बध, अर अश्रुपातसहित खड़ा विलाप करना सो आक्रन्दन, अर दीनपना कहिए जाहि देखे दया उपगै, तथा प्रलाप कहिये बकवाद इनिके विस्तारनि करि, तथा परके वचन सुनि मनमे कलुषता सो ताप ता करि, यथा ताकी चिन्ता करता इष्टवियोग भये संतें निकृष्ट दुःख जो पीडारूप परिणाम ताकरि, तथा खेदरूप परिणाम जो निकृष्ट शोक ताकरि दुःखरूप है उदय जाका ऐसा जो असाता वेदनीय कर्म ताक जीवनके समूहनि करि सदा शीघ्र ग्रहण कहिए है। कसे कहैं पूर्वोक्त कारण, परविर्षे वा आपविर्षे वा पर आप दोऊनिविर्षे स्थित कहिए वत्तें है।
भावार्थ-आपविष वा परविर्षे वा पर आप दौऊनिविर्षे करे भये बन्धादिक कारण करि असाता वेदनीयका आस्रव होय है ॥४३॥
साधूपास्या प्राणिरक्षा तितिक्षा, सर्वज्ञार्चा दानशौचादियोगः ।
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तृतीय परिच्छेद
[५५
सातं कर्मोत्पद्यते शर्मपाकं, शिष्टाभिष्ट: पोषितैः सज्जन ॥४४॥
अर्थ-साधनकी सेवा अर जीवन की रक्षा अर क्षमा अर सर्वज्ञ की पूजा अर दान अर निर्लोभ परिणामादिक अर शुभध्यान इन पापरहित क्रिया का आचरण करि सातावेदनोय कर्म उपज है जैसौं उत्तम है, मनोरथ जिनके ऐसे पोषे भये सज्जननि करि सुखका परिपाक उदय होय है तैमैं, यह दृष्टांत हैं ॥४४॥
मोक्तव्येनावर्णवादेन देधे, धर्मे संघे वीतरागे श्रुते च । मद्य नेवाऽऽस्वाद्यमानेन सद्यो,
घोराकारो जन्यते दृष्टिमोहः ॥४५॥ अर्थ-देवविष तथा धर्मविर्षे तथा संघविष तथा वीतराग केवली विर्षे तथा शास्त्रविष त्यागनेयोग्य जो अवर्णवाद ताकरि खाद्य भया जो मदिरा ताकरि जैसे घोर है आकार जाका ऐसा देखने में गहलभाव उपजाइए है तैसें दर्शनमोह करि उपजाइए हैं।
भावार्थ-अन्तरङ्ग कलुषताके दोषतें न होते दोषनिका प्रगट करना सो अवर्णवाद है, तथा च्यारप्रकार देव है, तिनमें व्यन्तर मांसका सेवनकरै है इत्यादिक कहना सो देवावर्णवाद है, बहुरि जिनभाषित दश प्रकार धर्म गुणरहित है ताके सेवनवाले असुर होय है इत्यादिक कहना सो धर्मका अवर्णवाद है, बहुरि जे मुनि है ते स्नानरहित मलकरि लिपट्या है अंग जिनका ऐसे अपवित्र शूद्र हैं इत्यादिक कहना सो संघ का अवर्णवाद है बहुरि केवली कवलहारतें जीवे वा क्रमप्रवृत्त ज्ञानदर्शन सहित हैं इत्यादि कहना सो केवली का अवर्णवाद है, बहुरि मांस मच्छीका खाना, मदिरा पान सेवना, स्त्री भोगना, रात्रिभोजन इत्यादि पाप रहित हैं ऐसा कहना सो श्रुत का अवर्णवाद है; ऐसे देवादिकके अवर्णवादतें दर्शनमोहका बन्ध होय है, जाकरि संसार विर्षे अनन्त परिभ्रमण होय है ऐसा जानना ॥४५॥
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श्री अमितगति श्रावकाचार ।
सौख्यध्वंसी जन्यते निन्दनीयो, रौद्रो भावो यः कषायोदयेन । दत्त जन्तोरेष चारित्रमोहं,
विद्वेषी वा राध्यमानो निकृष्टः ॥४६॥ अर्थ-जो कषायके उदयकरि निंदने योग्य अर सुख का नाश करनेवाला रौद्रभाव उपजाइये है सो जीवकौं चारित्रमोह देय है, जैौं द्वेषभाव सहित आराध्या भया नीच पुरुष आचरणमें प्रचेतपना उपजावै तैौं।
__भावार्थ-क्रोधादिक कषायनके उदयतें जो तीव्रपरिणाम होय ताकरि जीवकै चारित्र मोहका आस्रव होय है ऐसें जानना ॥४६॥
बह्वारंभग्रन्थसन्दर्भद, रौद्राकारस्तीवकोपादिजन्यैः । श्वभ्रावासे प्राप्यते जीवितव्यं,
किंवा दुःखं दीयते नावचेष्टः ॥४७॥ अर्थ-बहुत आरम्भ कहिए हिंसा-कर्म, अर यह मेरी वस्तु, मैं याका स्वामी हैं ऐसा आत्मीय भाव सो परिग्रह, इनकी ऐसा रचनाके मदनि करि तथा भयानक है आकार जिनके ऐसे तीव्रक्रोधादिक उपजावनेवाले भावनि करि नरक निवास विष जीवितपना पाइये है, अथवा पापरूप चेष्टानि करि कहा दुःख न दीजिये है ? दीजिये ही है। भावार्थ-बहुआरंभ बहुपरिग्रहते नरकायुका आस्रव होय है ॥४७॥ नानाभेदा कटमानादिभेदै,
याऽनिष्टाऽऽराध्यमाना जनानाम् । तैर्य ग्योन जीवितव्यं विधत्ते,
किं वा दत्त वंचना न प्रयुक्ता ॥४८॥ अर्थ कट कहिये #ठ मान आदि भेदनिकरि नाना भेदस्वरूप आराध्यमान जो अनिष्ट माया सो तिर्यंच योनिप्रति जीवितपनाकौं धारै है, जैसे प्रयोगकरि ठिगवेकी जो बुद्धिक्रिया सो कहा दुःख न देय है ?
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तृतीय परिच्छेद
[५७
भावार्थ-कुटिलपने का नाम माया है सो मायाचारतें तिर्यंच आयु का आस्रव होय है ॥४८॥
अल्पारंभग्रन्थसन्दर्भदः सौम्याकारैः मन्दकोपादिजन्य । सद्यो जीवो नीयतेमानुषत्वं,
कि नो सौख्यं दीयते शांतरूपः ॥४६॥ अर्थ-मन्दक्रोधादिक कषायनिकरि उपजे अर सौम्य है आकार जिनके, ऐसे अपारंभ परिग्रह की रचना अपमान इन करि जीव जो है सो शीघ्र मनुष्यपणकौं प्राप्त करिए है जैसे शांत है रूप जिनके ऐसे पुरुषनकरि कहा सुख न दीजिए है ? दीजिए ही है।
भावार्थ-अल्प आरम्भ अल्पपरिग्रहपनेंतें मनुष्य आयु का आश्रव होय है ॥४६॥
सम्यग्दृष्टि: श्रावकीयं चरित्रम्, चित्राकामानिर्जरा रागवृत्तम् । आयुर्दैवं प्राणाभाजां ददंते,
शांता भावाः किं न कुर्वति सौख्यम् ॥५०॥ अर्थ-सम्यक्त्व अर श्रावक सम्बन्धी चारित्र अर नानाप्रकार अकामनिर्जरा अर सराग चारित्र ये जीवनकौं देव सम्बन्धी आयु देय हैं, जातें शांतभाव कहा सुख न करै है ? करै ही है।
भावार्थ-पूर्वोक्त भावनि करि देवायुका आस्रव होय है । इहां कोऊ कहै सम्यक्त्व चारित्र तो मोक्षमार्ग है इनितें आस्रव कैसे होय ? ताका उत्तर-एक आधार आत्माविर्षे सम्यक्त्व चारित्र अर रागभाव दौंऊ आधेय होतें सम्यक्त्वचारित्रत तौ निर्जरा होय है, अर रागतें बन्ध होय है ताका साहचर्य देखि उपचारतें कहिए है । सम्यक्त्व चारित्रतें देवायु बंध है, निश्चयतें सम्यक्त्व चारित्रतें निर्जरा है रागनै बन्ध है, जैसें रूढतें कहिये कि यह घृत जलावै हैं तहां घृत जलानेका कारण नाहीं घृत में अग्नि मिल्या है ताते जलै है ऐसा जानना ॥५०॥
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५८ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
संवादित्वं प्रांजना योगवृत्तिर्नानो, कारणं पूजितस्य ।
ज्ञेयं
वक्रो योगोऽवादि संवादहान्या, हेतुनिन्दनीयस्य
साद्ध
तस्य ॥५१॥
अर्थ-संवादिपना कहिये यथार्थ प्रवृर्त्तावना, कहना अर सरल मन वचनकायरूप योगनिकी परिणति सो पूजित जो शुभ नामकर्म ताका कारण जानना, अर यथार्थ कहनेकी हानि जो संवादहानि ताकरि सहित कुटिल मन वचन कायका योग सो निन्दनीक जो अशुभ नामकर्म ताका कारण है; ऐसा
जानना ।
भावार्थ - इहां नामकर्मका विशेष जो अचिन्त्य शक्तिसहित तीर्थंकर नामकर्म ताके कारण आगम अनुसार कहिए हैं, जिनभाषित निर्ग्रन्थ मोक्षमार्गविषै रुचि निःशंकितादि अष्ट अंग सहित दर्शनविशुद्धि कहिए, बहुरि ज्ञानादिकनिविषै जो परम आदर, कषायनका अभाव सो विनयसम्पन्नता कहिए, बहुरि अहिंसादिक व्रत अर तिनके पालनके अथि जे जे starfar कषायनके त्यागरूप शील तिनविषै निर्दोष प्रवृत्ति सो शीलव्रतेध्वनताचार कहिये, बहुरि ज्ञान भावनाविषै नित्य उपयुक्तपना सो अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग कहिये, बहुरि संसार के दुःखनितें भयभीतपना सो संवेग कहिए, बहुरि आपके वा परके अर्थ देना सो त्याग है, बहुरि नाहीं छिपाया है वीर्य जानें ऐसे पुरुष के मार्गतैं अविरुद्ध कायक्लेश करना सो तप है, बहुरि जैसे भांडागारमैं अग्नि उठते संतें ताका शमन करिए तैसें अनेक व्रत शील करि सहित मुनि के समूह के तपकौं कहूँतें विघ्न उठते संतैं ताका उपशम करि तप की स्थिरता करिये सो साधुसमाधि कहुिए, बहुरि गुणवानकै दुःख आए सन्तै निर्दोष विधि करि दुःख दूर कर करना सो वैयावृत्य कहिए, बहुरि अरहंत निविषे तथा आचार्यनिविष तथा बहुश्रुतनिविषै तथा प्रवचन जो जिनवाणी ताविषै भावकी शुद्धतासहित जो अनुराग सो अर्हद्भक्ति आचार्यभक्ति बहुश्रुतभक्ति प्रवचन भक्ति कहिये, बहुरि सामायकादि छह आवश्यक क्रियानिका यथाकाल करना सो आवश्यकापरिहाणि कहिए, बहुरि ज्ञान तप जिनपूजाकी विधि इन करि धर्मका प्रकाशना सो
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तृतीय परिच्छेद
[ ५६
मार्गप्रभावना कहिए, बहुरि वच्छाविषै गौकी ज्यों साधर्मी विषै जो प्रीति सो प्रवचन वात्सल्य कहिए । ऐसें यह षोडशकारण सम्यग्दर्शनसहित तीर्थंकर नामकर्मके आस्रवके कारण जानना ॥ ५१ ॥
स्वप्रशंसान्येनिदे
नीचं गोत्रं कुर्वाणोऽसत्सद्गुणोच्छादने च । प्राप्नोत्यंगी प्रार्थनीयं महिष्ठै, रुच्चैर्गोत्रं मंक्षु तद्वैपरीत्ये ॥५२॥
श्रर्थ- आपकी प्रशंसा वा अन्य की निंदा अर आपके न होते गुण प्रगट करना अर दूसरे के होते गुण ढांकना इनकौं करता सन्ता नीच गोत्रकौं प्राप्त होय है, बहुरि तिनके विपरीतपना होतसंतें बड़े पुरुषनिकरि प्रार्थने योग्य उच्च गोत्रकू शीघ्र ही पावै है ।। ५२ ।।
दानं लाभो वीर्य भोगोपभोगा,
नो लभ्यंते प्राणिना विघ्नभाजा । विज्ञायेत्थं विघ्नभीतेनविघ्नो,
नो कर्त्तव्यः पंडितेन त्रिधाऽपि ॥ ५३॥
अर्थ - विघ्न जो अन्तराय ताका करनेवाला जो जीव ताकरि दान लाभ भोग उपभोग वीर्य न पाइए है ऐमा जानि विघ्नतें भयभीत पंडितनकरि मन वचन कायतें विघ्न करना योग्य नाहीं ।
भावार्थ- परके दानादिक में विघ्न करनेतैं अन्तरायका आस्रव होय है ॥५३॥
इहां कोऊ कहै ये ज्ञानावरणादिकके नियमरूप कारण कहे ते सब ही कर्मनके आस्रव के कारण होय हैं । जाका जातैं आगमनविषै ज्ञानावरण का बन्ध होता युगपत औरन का भी बन्ध कहिए है तार्तें आस्रवके नियमका अभाव आया ताकौं कहिए है - यद्यपि पूर्वोक्त कारणकरि ज्ञानावरणादिक सर्वं कर्मनिका प्रदेशादि बन्ध का नियम नाहीं तथापि अनुभाग विशेषके नियमके हेतुपने करि न्यारे कारण कहिए हैं ऐसा जानना ।
आगे बन्ध तत्त्वका वर्णन करें हैं
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६०]
श्री अमितगति श्रावकाचार
ये गृह्यन्ते पुद्गलाः कर्मयोग्याः, क्रोधाद्याढ्यैश्चेतनै रेष बन्धः । मिथ्यादृष्टिनिवतत्वं कषायो,
योगो ज्ञेयस्तस्य बन्धस्य हेतुः ॥५४॥ अर्थ-क्रोधादिक कषायनिकरि सहित जीवनिकरि कर्म योग्य पुद्गल ग्रहण करिये है सो यह बन्ध है, बहुरि ता बन्धके बीजभूत कारण मिथ्यादर्शन, अविरत, कषाय, योग जानना योग्य है।
भावार्थ-जैसे भूखसहित जीव मुखद्वार करि आहार ग्रहण करै है तैसें मोक्षसहित जीव योगद्वारतें कार्माण वर्गणा ग्रहण कर सो बन्ध कह्या ॥५४॥
बन्धः स मतः प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदेन । पटुभिश्चतुःप्रकारो, येन भवे भ्रम्यते जीवः ॥५५॥
अर्थ-प्रकृत्ति स्थिति अनुभाग प्रदेश इन भेदनिकरि सो बन्ध प्रवीण पुरुषनिनै च्यार प्रकार कह्या है, जिस बन्ध करि जीव संसारविर्षे भ्रमाइए है ॥५॥
स्वभावः प्रकृतिः प्रोक्ता, स्थितिः कालावधारणम् । अनुभागो विपाकस्तु, प्रदेशोऽसप्रकल्पनम् ॥५६॥ ...
अर्थ-स्वभाव तौ प्रकृति कही है जैसे निंबका कटुक स्वभाव है मिश्री का मिष्ट स्वभाव है ऐसें ज्ञानावरणादिकनिका ज्ञान घातनादिक स्वभाव है सो प्रकृतिबन्ध जानना, बहुरि काल जो अवधारण मर्यादा सो स्थितिबन्ध है।
भावार्थ-तिस स्वभावका न छूटना सो स्थिति है। बहुरि विपाक जो रस सो अनुभागबन्ध है,
भावार्थ-तिस प्रकृतिक रसविशेषका नाम अनुभव है जैसे अजा गो महिषी आदिके गुग्धनिके तीव्र मन्दादि भावकरि विशेषता है तैसें बहु अंश जे परमाणु तिनकी संख्याका कल्पना सो प्रदेशबन्ध है।
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तीय परिच्छेद
[ ६१
भावार्थ
- जघन्य
अभव्यनितैं अनन्तगुणा आकृष्ट सिद्धनके अनन्तवें भाग जो समयप्रबद्ध ताका ज्ञानावरणादि रूप यथायोग्य हीनाधिक परमाणूनका बटवारा हो जाय सो प्रदेशबन्ध है ऐसा जानना ।। ५६ ।।
करोति
योगात्प्रतिप्रदेशौ स्थित्यनुभागसंज्ञौ ।
कषायतः
स्थिति न बन्धः कुरुते कषाये,
क्षीणे प्रशांते स ततोऽस्ति हेयः ॥५७॥
अर्थ - योग प्रकृति अर प्रदेशबन्धकों करै है, बहुरि स्थिति अर अनुभागपना बंधकों कषायतें करें है, बहुरि कषायकों क्षय होतमन्तें वा उपशम होतसन्तैं बन्ध स्थितिकौं न करे हैं तातें सो कषाय त्यागना योग्य है ।
भावार्थ - कषाय बिना केवल योगनत बन्ध होय है सो एक साताdearer स्थिति बन्ध है सो अनन्तर समय में खिर जाय है सो संसारका कारण नाहीं । बहुरि कषाय सहित के बन्ध होय है, सो स्थिति अनुभाग सहित होय है सो संसार का कारण है । तातैं कषाय त्यागना योग्य है ऐसा जानना ॥५७॥
स्वीकरोति स कषायमानसो,
कर्म
मुंचते च विरुषायमानसः । जन्तुरिति सूचितो, विधिबंधमोक्षविषयो विबंधनः ॥ ५८ ॥
अर्थ - कषाय सहित है मन जाका ऐसा पुरुष है सो कर्मकौं अंगी - कार कर है । बहुरि कषाय रहित है मन जाका ऐसा जीव है सो कर्मकौं त्यागे है; ऐसें बन्ध मोक्ष की विधि बन्धन रहित जे सर्वज्ञदेव तिनकरि कही है ।
भावार्थ - रागभावतें तो बन्ध है अर वीतराग भावतें मोक्ष है ऐसा सर्वज्ञका उपदेश है तातें राग त्यागि वीतराग होना योग्य है ॥ ५८ ॥
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६२ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
श्रात्रवस्य निरोधो यः, संवरः स निगद्यते । भावद्रव्यविकल्पेन, द्विविधः कृतसंवरैः ॥ ५६ ॥
अर्थ – कर्या है संवर जिनने ऐसे मुनिश्वरनिकरि आस्रवका रोकना सो संवर द्रव्य भाव के भेदकरि दोय प्रकार कहिए है ||५६ ||
क्रोध भभयमोहरोधनं भावसंवरमुरान्ति देहिनाम् । भाविकल्मष निवेशरोधनं द्रव्यसंवरमपास्तकल्मषाः ॥६०॥
अर्थ - नाश किए हैं पाप जिनने ऐसे आचार्य है ते क्रोध लोभ भय मोह इनका जो रोकना ताहि भाव संवर कहैं हैं, बहुरि आगामी कर्मके प्रवेश का रोकना ताहि द्रव्य संवर क हैं हैं ।
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भावार्थ - रागादिभाव रोकना सो भावसंवर कहिए ऐसा जानना अर निमित्त करबद्ध जे कर्मपुद्गल तिनका रोकना सो द्रव्यसंवर कहिए, ऐसा जानना ॥ ६० ॥
धार्मिकः समिति गुप्तो विनिजितपरीषहः ।
प्रक्षापरः कर्म, संघृणोति संसंयमः ॥ ६१॥
अर्थ - धर्मसहित अर समितिसहित अर गुप्तिसहित अर जीते हैं परीषह जानें, ऐसा बहुरि अनुप्रेक्षा में तत्पर अर संयमसहित ऐसा जीव है सो कर्मकौं संवरै है - रोक है ।
भावार्थ -- कषायनिके अभावरूप उत्तमक्षमादि दशधर्म अर प्रमादरहित प्रकृतिरूप पंचसमिति अर भने प्रकार मन, वचन, कायके योगनिका निग्रह रूप तीन गुप्ति, अर मार्ग न छूटने के अर्थि तथा निर्जराके अर्थ सहने योग्य क्षुधादि बाईप परोषह, बहुरि स्वभावका बारंबार चिन्तनरूप अनित्यादि द्वादशानुप्रेक्षा, बहुरि प्राणोनिकी हिंसा अर इन्द्रियनके विषय इनके त्यागरूप सामायिकादि पंचप्रकार संयम ये भाव संवरके विशेष हैं, जातैं इनिकरि रागादि आस्रव रुकै है ऐसा जानना ॥ ६१ ॥
मिथ्यात्वाव्रत कोपादियोगेः कर्म यदर्ज्यते । तन्निरस्यंति सम्यक्त्वव्रतनिग्रहरोधनैः ॥ ६२॥
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तृतीय परिच्छेद
[ ६३
- मिथ्यात्व अर अव्रत अर क्रोधादि कषाय अर योग इनकरि जो कर्म उपार्जन करिये है सो कर्म सम्यक्त्व व्रत क्रोधाधिकका निग्रह योगनिका रोकना इनि करि दूरि करिए है । मिथ्यात्वादि भावकरि द्रव्यकर्मका आस्रव होय है ताहि सम्यक्त्वादि भाव करि रोके द्रव्यसंवर हो है ॥ ६१ ॥
ऐसा द्रव्यसंवरका स्वरूप जानना, आगैं निर्जरा तत्वका वर्णन
करें हैं;
पूर्वोपाजित कर्मै कदे संक्षय क्षणा ।
सविपाकाविपाका च द्विविधा निर्जराऽकथि ॥ ६३ ॥
1
अर्थ - पूर्वोपार्जित कर्मनिकी एकदेश क्षय है लक्षण जाका ऐसी नाना प्रकार ( दोय प्रकार ) सविपाका अर अविपाका निर्जरा कही ॥ ६३॥
तिनका स्वरूप कहैं हैं; -
यथा फलानि पच्यन्ते, कालेनोपक्रमेण च ।
कर्माण्यपि तथा जन्तोरुपात्तानि विसंशयम् ॥ ६४ ॥
अर्थ – जैसैं फल हैं ते अपने कालकरि तथा पाल आदि उपक्रम करि पकें हैं तैसे जीव के ग्रहण करे कर्म हैं ते भी अपनी स्थितिरूप कालकरि तथा तपश्चरणादिककरि निःसंदेह पकै खिरैं हैं || ६४ ॥
नेहसा या दुरितस्य निर्जरा, साधारणा सा परकर्मकारिणी ।
विधीयते या तपसा महीयसा, विशेषणी सा परकर्मवारिणी ॥ ६५ ॥
श्रर्थ-ज्यो कालकरि कर्मकी निर्जरा है सो साधारण है सर्व जीवनक है अर और कर्म करनेवाली है ।
भावार्थ - सविपाक निर्जरा तो अपनी स्थिति पूरि करि समयप्रबद्ध मात्र कर्म सबही खिरैं हैं तातें साधारण हैं, अर ताके उदयतैं जीवकैं राग द्वेष होय ताकरि आगामी कर्मबन्ध होय है ।
अर जो
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६४ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
सम्यग्दर्शनादिकके प्रयोग करि विना स्थिति पूरी भये ही अनेक समयप्रबद्ध एकैं काल खिर सो अविपाक निर्जरा है, इहां जीवकें रागादिकके अभावतें आगामी कर्म न बन्धे है तातें मोक्षहीकी करनेवाली है ऐसा जानना ।। ६५।।
वितप्यमानस्तपसा
शरीरी,
शुद्धिम् ।
पुराकृतानामुपयाति निधायमानः कनकोपलः किं,
सप्ताचिषा शुद्ध यति व श्मलेभ्यः ॥ ६६ ॥
अर्थ - तप करितप्तायमान जीव है सो पूर्वकृत कर्मनकी शुद्धिताक प्राप्त होय है, जैसे अग्नि करि धम्या भया सुवर्णका पाषाण सो मलनितें कहा शुद्ध न होय ? होय ही है ॥ ६६ ॥
विनिहत्य
घातिकर्म
केवलं,
स्वीकरोति भुवनावभासकम् ।
चेतनः
सकललोकसम्मतं,
ध्वांतराशिमिव भास्करो दिनम् ॥६७॥
अर्थ - चेतन आत्मा है सो घातिकर्मनिकौं नाशकरि लोकका प्रकाशक अर समस्त लोककरि मान्या ऐसा जो केवलज्ञान, ताहि अङ्गीकार करे है । जैसे अन्धकारके समूहकौं नाशकरि सूर्य दिनक अङ्गीकार करै तैसें ॥६७॥
निर्मूलकाषं स निकृष्य कल्मषं, प्रयाति सिद्धि कृतकर्मनिर्जरः ।
विनिर्म ध्यानसमृद्ध पावके, निवेश्य दग्ध्वाऽखि नबन्धकारणम् ॥६६॥
अर्थ - विशेषकर निर्मल ध्यान जो शुक्ल ध्यान सो ही भया वृद्धि कौं प्राप्त अग्नि, ताविषै प्रवेश कराय समस्त बन्धके कारण निकौं
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तृतीय परिच्छेद
[६५
जलायकरि करी है कर्म की निर्जरा जानै ऐसा जो आत्मा सो कल्मष ज्यो समस्त कर्म ताहि निर्मूल जैसे होय तसै उखाडकरि मोक्ष अवस्थाकौं प्राप्त होय है ॥६॥
निसर्गतो गच्छति लोकमस्तकं, कर्मक्षयानन्तरमेव चेतनः । धर्मास्तिकायेन समीरतोऽनघं,
समीरणेनैव रजश्चयः क्षणात् ॥६६॥ अर्थ-कर्मक्षयके अनन्तर ही धर्मास्तिकाय करि प्रेर्या आत्मा क्षणमात्रमें निर्मल होय लोकके मस्तक परि गमन करै है। जैसैं पवन करि उडाया रजका समूह ऊपरकौं जाय तैसें ।
भावार्थ-आत्माका उर्द्ध गमन स्वभाव है, कर्म नष्ट भये निज स्वभाव प्रगट है ताकरि धर्मास्तिकायके सहायतै लोकके शिखर तांई धर्मास्तिकाय है तहां तांई जाय तिष्ठ है ताके प्रभावतें न जाय है। इहां धर्मास्तिकाय करि प्रेरणा गमनका सहकारीपना ही जानना जाते धर्मद्रव्य किछ जबरीसौं न चलावै है, स्वयमेव चलतेनकौं सहकारी कारण है ऐसा जानना ॥६६॥
निरस्तदेहो गुरुदुःखपीडितां, विलोकमानो निखिलां जगत्त्रयीम्। स भाविनं तिष्ठति कालमुज्ज्वलो,
निराकुलानन्तसुखाब्धिमध्यगः ॥७॥ अर्थ-त्याग किया है शरीर जानै ऐसा सो सिद्धात्मा महादुःख करि षीड़ित जो जगत की त्रयी कहिये तीन लोक ताहि विलोकता सन्ता आगामी काल तिष्ठ है, कैसा है। सो आत्मा, द्रव्य भावक मरहित उज्ज्वल है अर निराकुल अनन्त सुखसमुद्रके मध्य प्राप्त है ॥७०॥
यदस्ति सौख्यं भुवनत्रये परं, सुरेन्द्रनागेन्द्रनरेन्द्रभोगिनाम् ।
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६६ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अनन्तभागोऽपि न तन्निगद्यते, निरेनसः सिद्धिसुखस्य सूरिभिः ॥७१॥
अर्थ-तीन लोकविष सुरेन्द्र नागेन्द्र नरेन्द्र अर अन्य जे विषयभोगसहित हैं तिनका जौ उत्कृष्ट सुख है सो सूख कर्मरहित जो सिद्धात्मा ताके मुक्तिसुखके अनन्तवें भाग भी आचार्यनिकरि नहीं कहिए है ।
भावार्थ-तीन लोकके भोगनिका सुख एकठा करिये सो सिद्ध सुखके अनन्तवें भाग नाहीं ऐसा जानना, भोगनिका सुख तो आकुलतामय है अर सिद्धसुख है सो निराकुल है, तातें इन सुखनिको एक जाति नाहीं, परन्तु निराकूल सूख तौ संसारकी दृष्टिमें आवै नाहों अर ताकै सिद्धपद उत्कृष्ट बताया जाइए तातै उपचारतें भोगनका सुख सिद्धनका सुखतें अनन्तवें भाग भी नाहीं ऐसा जानना ॥७१॥
ऐसे मोक्षतत्वका वर्णन किया। इहां प्रयोजन ऐसा है कि चैतन्य लक्षण आपकौं जाने चेतनारहित समस्त देहादि परद्रव्यनिमें अहंकार ममकार त्यागना योग्य है, अर रागादिक आस्रव है तिनतें दुःख अवस्था स्वरूप बन्ध होय है, सो तिनकौं अहित जानि जैसे आस्रव बन्ध न होय तैसें प्रवतना योग्य है, अर वैराग्य भावना संवर है, तापूर्वक कर्मनका एकदेश नाश होना सो निर्जरा है इनकौं हितरूप जानि संवर निर्जराके कारणनि में प्रवत्ति करना योग्य है, अर सकल कर्मनितै रहित ज्ञानानन्दमयी जो आत्मा की अवस्था सो मोक्ष है आत्माका परमहित है ताहिके अथि अन्य समस्त वांछा त्यागि यत्न करना यह ही सर्व तत्व कथनका प्रयोजन है ऐसा निश्चय करना।
इमे पदार्थाः कथिता महर्षिभिर्यथायथं सप्त निवेशिताः हृदि । विनिर्मलां तत्वचि वितन्वते,
जिनोपदेशा इव पापहारिणीं ॥७२॥ पर्थ-महाऋषीनकरि कहे जे सप्त पदार्थ ते यथायोग्य हृदयविव
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तृतीय परिच्छेद
[ ६७
प्रवेशरूप किये सन्ते निर्मल पापकी हरनेवाली रुचि प्रतीतिकौं विस्तारें हैं । जैसे जिनेंद्रके उपदेश रुचि विस्तारै तैसैं ।
भावार्थ – तत्वार्थ श्रद्धानलक्षण सम्यग्दर्शन की शुद्धता इन तत्वनिके विशेष जानें अधिक अधिक होय है ऐसा जानना ॥७२॥
आगे सम्यक्त्व के निःशंकितादि अष्ट अंगनिका वर्णन करे हैं;
विरागिणा
सर्वपदार्थवेदिना,
जिनेशिने ते कथिता न वेतिः यः । करोतिशंकां न कदापिमानसे,
निःशंकितोऽसौ गदितो महामनाः ॥७३॥
अर्थ- वीतराग अर सर्वपदार्थनिका ज्ञाता जिनेन्द्र देवता करि ये सर्व पदार्थ कहैं हैं ते हैं ? वा नाहीं हैं ? ऐसी शंकाकौं जो कदाचित् मन विषै नहीं करै सो यहु महामुनि ( महामना) निःशंकित कह्यो है ।
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भावार्थ - जिन वचनमें वा आत्म स्वरूपमें संवेह न होना सो निःशंकित अंग है ऐसा जानना ॥ ७३ ॥
विधीयमानाः
शमशीलसंयमाः,
श्रियं ममेमे वितरन्तु चितिताम् । सांसारिकाने कसुखप्रर्वाद्धनीं,
निःकांक्षितो नेति करोति कांक्षणाम् ॥७४॥
जानना ||७४।
अर्थ - ये उपशम शील संयम हैं ते करे भये संसारीक अनेक सुखनिकी बढानेवाली वांछित लक्ष्मीकों मेरें विस्तारहु ऐसी वांछा, नि-कांक्षित पुरुष है सो न करें है ।
भावार्थ - कर्म के फलकी वांछा त्यागिये सो निःकांक्षित अंग
तपस्विनां
यस्तनुमस्त संस्कृति,
जिनेन्द्र धर्मं सुतरां सुदुष्करम् । निरीक्षमाणो न तनोति निन्दनं,
स भण्यते धन्यतमोऽचिकित्सकः ॥७५॥
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६८]
श्री अमितगति श्रावकाचार -
प्रर्थ-जो तपस्वीनके मलिन शरीरकू देख तथा अति कठिन जिनेन्द्रभाषित धर्मकौं देखि निंदाकौं नाहीं विस्तार है सो जीव विचिकित्सारहित अतिशयकरि धन्य कहिए है ।
भावार्थ-तपस्वीन के मलिन शरीरकू देखिकैं तथा अनशनादि घोर तप देखकरि ग्लानि नहीं करनी सो निर्विचिकित्सानाम सम्यक्त्व का अंग जानना ॥७॥
देवधर्मसमयेषु मूढता, यस्य नास्ति हृदये कदाचन । चित्रदोषकलितेषु सन्मतेः,
सोच्यते स्फुटममूढदृष्टिकः ॥७६॥ प्रर्थ-नाना प्रकार दोषन करि व्याप्त जे देव अर धर्म अर समय कहिए सर्व मत इन विष सुबुद्धिके हृदय विष कदाचित् मूढ़ता कहिये मूर्खता नहीं है सो अमूढदृष्टि कहिए हैं ।
__ भावार्थ-देवपर्नेकी आभास धरें ऐसे हरिहरादिक अर धर्माभास यज्ञादिक अर समयाभास वैष्णवमत आदिक इन विर्षे ये भी देवादिक हैं ऐसी मूढ़ताका अभाव सो अमूढदृष्टि जानना ॥७६॥
यो निरीक्ष्य यति नोकवूषणं, कर्मपाकजनितं विशुद्धधीः । सर्वथाप्यवति धर्मबुद्धितः,
कोविदास्तमुपगृहकं विदुः ॥७७॥ प्रथं-जो निर्मल बुद्धि पुरुष कर्मके उदयकरि उपज्या ज्यो यतिजननिका दूषण ताहि देख करि धर्मबुद्धिते सर्व प्रकार गोप है ताहि पंडितजन उपगूहन कहैं हैं।
भावार्थ-जो परके दोष वा अपने गुण ढांकना सो उपगृहन अंग जानना तथा इस ही अंगका नाम उपवृहण भी कहा है तहां 'आत्मशक्तिका पुष्ट करना' अर्थ ग्रहण किया है ॥७७॥ . .
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तृतीय परिच्छेद
|६०
निवर्तमानं जिननाथवर्त्मनो, निपीड्यमानं विविधैः परीषहैः । विलोक्य यस्तत्र करोति निश्चलं,
निरुच्यतेऽसौ स्थितिकारकोत्तमः॥७॥ अर्थ-जो नानाप्रकार परोषहनि करि पीडित भया सन्ता जिननाथके मार्ग” चिगते पुरुषकौं देख करि तिस जिनमार्ग विर्षे निश्चल करै सो यह स्थिति करनेवाला उत्तम कहिए है ।।
भावार्थ-जिन धर्मरौं वा आत्मस्वरूप” आपकौं वा परकौं चिगतेकौं स्थिर करना स्थितिकरण अंग कह्या है ।।७८॥
करोति संघे बहुधोपसर्ग, रुपद्र ते धर्मधियाऽनपेक्षः । चतुर्विधे व्यापृतिमुज्ज्वला यो,
वात्सल्यकारी स मतः सुहृष्टिः ॥७॥ प्रर्थ-मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका ऐसे च्यार प्रकार संघकों बहुत प्रकार उपसर्ग करि पीड़ित भये सन्ते जो वांछारहित धर्मबुद्धि करि निर्मल वैयावृत्त्याचार कर है सो सम्यग्दृष्टि वात्सल्य करनेवाला कहा है।
___ भावार्थ-जिन धर्मीन विर्षे वा आत्मस्वरूपविर्षे अति प्रीति करना सो वात्सल्य अंग जानना ॥७९॥
निरस्तदोषे जिननाथशासने, प्रभावना यो विदधाति शक्तितः। तपोदयाज्ञानमहोत्सवादिभिः,
प्रभावकोऽसौ गदितः सुदर्शनः ॥५०॥ प्रर्ष-दूरि भये हैं रागादिक दोष जाके ऐसा जो जिननाय का शासन ताविर्षे जो शक्तिसारू तप, दया, ज्ञान, महोत्सव इत्यादिकनि करि प्रभाव
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श्री अमितगति श्रावकाचार
७० ]
नाकौं कर है उद्योग करै है सो यहु सम्यग्दृष्टि प्रभावना करनेवाला कह्या है । सर्व जीव मानें कि जिनमत धन्य है तामे ऐसे तपश्चरणादि पाइए है, ऐसे तपश्चरणादिक करि जिनमत का उद्योत करना तथा निश्चयतें आत्माकू रत्नत्रय आभूषित करमा सो प्रभावना अङ्ग जानना ||८०||
गुणैरीमभि: शुभदृष्टिकं ठिकां,
दधाति बद्धां हृदि योऽष्टभिः सदा । करोति वश्याः सकलाः स संपदो, बधूरिवेष्टाः सुभगो वशंवदः ॥८१॥
अर्थ - जो पुरुष इन निःशंकितादि अष्टगुण कहिए सूत्रनि करि बंधी सम्यग्दृष्टिरूप मालाकौं हृदयविषै सदा धारै है सो समस्त सम्पदानकौं वश करें है। जैसे भले वचननिका बोलनेवाला सुन्दर पुरुष वांछित वधूदिन वश करै तैसें ।
भावार्थ- जैसे माला पहरे सुन्दर पुरुष भले वचननिका बोलनेवाला वश करें है तैसें निःशंकितादि सूत्रनि करि बन्धी सम्यग्दृष्टिरूप माला पहननेवाला जीव इन्द्रादि सम्पदाकों वशि करें हैं ऐसा
स्त्री
जानना ॥ ८१ ॥
सुदर्शनं यस्य स ना सुभाजनः, सुदर्शनं यस्य स सिद्धिभाजनः ।
सुदर्शनं यस्य स धीविभूषितः, सुदर्शनं यस्य स शी भूषितः ॥८२॥
अर्थ-जाकै सम्यग्दर्शन है सो पुरुष भला पात्र है, अर जाके सम्यदर्शन है सो सिद्धिका भजने वाला है, अर जाके सम्यग्दर्शन है सो शीलकरि भूषित है ॥८२॥
नो जायते पावने ज्ञानवृत्त े, सम्यक्त्वेन प्राणिनो वर्जितस्य । शर्माधारे कोषराज्ये न दृष्टे, नूनं क्वापि न्यायहीनस्य राशः ॥८३॥
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तृतीय परिच्छेद
[७१
अर्थ-जैसे सुखके आधार जे भण्डार अर राज्य ते न्यायरहित राजाकै निश्चयकरि कहूँ भी न देखिए तैसैं सम्यक्त्वकरि वर्जित जीवकै पवित्र ज्ञान अर चरित्र न होय हैं।
भावार्थ-सम्यक्त्व विना ज्ञानचारित्र सम्यक्पनेकौं न पावै तातें सम्यक्त्व सवनिमें प्रधान है ऐसा जानना ॥३॥
सुदर्शनेनेह विना तपस्या, मिच्छंति ये सिद्धिकरी विमूढाः । कांक्षति वीजेन विनापि मन्ये,
कृषि समृद्धां फलशालिनी ते ॥४॥ अर्थ-जो लोग इहां सम्यग्दर्शन विना सिद्धि करने वाली तपस्याकू वांछे हैं सो मैं मानूह कि ते पुरुष बीजविना फलकरि शोभित वृद्धिकौं प्राप्त ऐसी खेती कू चाहे हैं।
भावार्थ-सम्यकदर्शन विना अनशनादि क्रिया ताका विना शून्यवत, शून्य ही है तातें मम्यग्दर्शन सहित क्रिया करनी योग्य है ॥४॥ लोकालोकविलोकिनीमकलिलां गीर्वाणवर्गाचितां,
दत्ते केवलसम्पदं शमवतामानीय या लीलया। सम्यग्दृष्टिपास्तदोषनिवहा यस्यास्ति सा निश्चला,
तेन प्रापि न किं सुखं बुधजनरभ्यर्थ्यमानं चिरम् ॥८॥
अर्थ-नाश भये हैं शंकादिक दोषनिके समूह जाके ऐसी निर्दोष निश्चल सम्यग्दृष्टि जाकै है ता पुरुष करि पंडित जननि करि बहुत काल तांई प्रार्थना किया ऐसा जो सुख सो कहा न पाया? अपितु पाया ही। कैसी है सम्यादृष्टि जो लीलामात्र करि मुनिराजनिकौं केवलज्ञान की जो सम्पदा ताहि ल्याय करि देय है, कैसी है केवलज्ञान सम्पदा लोकालोककी देखनेवाली अर पापमल रहित अर देवनि के समूहनि करि पूजित ऐसी है।
भावार्थ-सम्यक्त्व भए केवलज्ञानकी प्राप्ति शीघ्र ही होय है ऐसा जनाया है ॥५॥
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७२]
श्री अमितगति श्रावकाचार
सम्यक्त्वोत्तमभूषणोऽमितगतिद्धत्ते व्रतं यस्त्रिधा,
भुक्त्वा भोगपरम्परानुपमां गच्छत्यसौ निर्वृत्तिम् । सर्वापापनिदूषिणीमपम नां चिंतामणि सेवते,
यः पुण्याभरणाचितः स लभते पूतां न कां संपदम् ॥८६॥
अर्थ-सम्यक्त्व है उत्तम आभूषण जाकै अर अमितगति कहिए न जानी जाय है महिमा जाको ऐसा जो जीव मन वचन काय करि व्रतकौं धारण करै है सो उपमारहित भोगनिको परम्पराकौं भोग करि मोक्षकौं प्राप्त होय हैं, जो पुण्य आभरण करि अजित पुण्योदय सहित पुरुष सर्व दरिद्रको नाश करनेवाली चिंतामणिकौं सेवै है सो कौन पवित्र सम्पदाकौं न पावै है ? पावै हो है ॥८६॥
ऐसे सम्यग्दर्शनके विषय सप्ततत्व सम्यक्त्वके अंगका इहां तांई निरूपण किया।
छप्पय
वीतराग सर्वज्ञ कहे जीवादि तत्व इम, करि प्रतीति वसु अंगसहित अति होय अचल जिम । यह कारण व्यवहार कार्य प्रातम लखि लीजे, षठ द्रव्यनितें भिन्न नियति सम्यक रस पीजे ॥ इस विना विफल अवगम चरण, अंकविना विदी यथा। ता सहित सार सुख भोग फिर, होय अमितगति सर्वथा ॥
इत्युपासकाचारे तृतीयः परिच्छेदः । ऐसें श्री अमितगति प्राचार्यकृत श्रवकाचारविर्षे
तृतीय परिच्छेद समाप्त भया ।
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[ ७३
चतुर्थ परिच्छेद
चतुर्थ परिच्छेद
* अन्य मतिनके एकान्त पक्षका निराकरण करि जीवादिकका वर्णन हेतुवाद सहित करेंगे । तहां हेतुके स्वरूप जाननेकू प्रथम प्रमाणका वर्णन संक्षेप मात्र करिए है । तहां आप वा अपूर्व अर्थ कहिए अनिश्चित पदार्थ इनिका निश्चय स्वरूप जो सम्यक् ज्ञान सो प्रमाण है, सो प्रत्यक्ष परोक्षके भेदकर दोय प्रकार है । सामान्य विशेषनि सहित वस्तुका स्पष्ट जानना सो प्रत्यक्ष का लक्षण है, अर सामान्य विशेष सहित वस्तुकौं अस्पष्ट व्यवधान सहित जानना परोक्षका लक्षण है । तहां सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष अर पारमार्थिक प्रत्यक्ष ऐसें प्रत्यक्ष दोय प्रकार है, तहां इन्द्रिय मनसैं उत्पन्न भए तीनसै छत्तीस भेदरूप मतिज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है जातें इनमें दो प्रकार विशदता पाइए है, अर परमार्थ प्रत्यक्ष में अवधि, मनः पर्यय देश प्रत्यक्ष हैं जातें इनमें एकदेश विशदता पाइए है अर केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है जातैं सर्वकौं विशद जाने है । बहुरि परोक्ष प्रमाण के भेद पांच हैं - स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, आगम । तहां पूर्वे अनुभव में आया वस्तुका स्मरण हो आदि भावना सो स्मृति है; अर दोऊनि एकपना अर सदृशपना आदि कोऊ रूपज्ञान होना सो प्रत्यभि ज्ञान है; बहुरि साध्य साधन की व्याप्ति जो अविनाभाव ताकौं जानैं सो तर्क है; बहुरि साधन तें साध्य पदार्थ का ज्ञान होना सो अनुमान है, ताके भेद स्वार्थानुमान, परार्थानुमान, तहां साधनतैं साध्यकौं आप ही निश्चयकरि जानै सो स्वार्थानुमान है । बहुरि परके उपदेशतें निश्चयकरि जानै सो परार्थानुमान है । ताके पांच अवयव हैं; प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमन, तहां साध्य अर साधन का आश्रय दोऊकौं पक्ष कहिये ऐसें पक्षके वचनकौं प्रतिज्ञा कहिए है तहां साध्यका स्वरूप शक्य अभिप्रेत अप्रसिद्ध ऐसें तोनरूप है । अर साध्य का आश्रय प्रत्यक्षादिक करि प्रसिद्ध होय है । बहुरि साध्यतें अविनाभाव प्राप्तिजाका होय ऐसा साधनका स्वरूप है ताका वचनकौं हेतु कहिए । बहुरि पक्ष सरीखा तथा विलक्षण अन्य ठिकाणा होय ताकू दृष्टांत कहिए
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७४ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
ताका वचनकू उदाहरण कहिए सो पक्ष सारिखेकू व्यतिरेक कहिये । बहुरि हेतुपूर्वक पक्षका नियम करि कहना निगमन है। इनका उदाहरण ऐसा है-यह पर्वत अग्निमान् है यह तो प्रतिज्ञा है; जातें यह धूमवान हैं यह हेतु है; बहुरि जो धूमवान नाहीं सो अग्निमान नाहीं। जैसे जलका निवास, यह व्यतिरेक दृष्टांत है; ऐसा वचन यह उदाहरण है । बहुरि यहु पर्वत भी वैसा ही धूमवान है यह उपनय है; बहुरि तातें यह अग्निमान है यह निगमन है। ऐसें पांच प्रयोगका परार्थानुमान है सो अव्युत्पन्न के अर्थि है अर व्युत्पन्न के अथि प्रतिज्ञा अर हेतु ऐसे दोय अवयवस्वरूप ही हैं । बहुरि आप्त जो सर्वज्ञ ताके वचननै वस्तु का निश्चय करना सो आगम प्रमाण है। ऐसे प्रमाणकी संख्या कही। बहुरि प्रमाणका विषय सामान्य विशेष स्वरूप पदार्थ है । बहुरि वीतराग का ग्रहण त्याग बुद्धि वा अपने विषयमें अज्ञानका नाश यहु कथंचित् अभिन्न कथंचित् भिन्न प्रमाण फल है।
ऐसे प्रमाणका संक्षेप स्वरूप कह्या, विशेष आक्षेप समाधान खण्डन मंडनादि प्रमाण निर्णय परीक्षामुखादि ग्रन्थनितें जानना, यहां हेतु आदि आवैगे तिनकौं यथार्थ जान लेना।
आगें चार्वाक मतवाले अपना पक्ष स्थापै हैं;केचिद्वदंति नास्त्यात्मा, परलोकगमोद्यतः। तस्याभावे विचारोऽयं, तत्वानां घटते कुतः॥१॥ विद्यते परलोकोऽपि, नाभावे परलोकिनः । अमावे परलोकस्य, धर्माधर्मक्रिया वृथा ॥२॥ इह लोक सुखं हित्वा, ये तपस्यंति दुर्षियः । हित्वा हस्तगतं प्रासं, ते लिहंति पदांगुलिम् ॥३॥ विहाय कलिला शंका, यथेष्टं चेष्टतां जनः। चेतनस्य हि नष्टस्य, विद्यते न पुनर्भवः ॥४॥
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चतुर्थं परिच्छेद
नान्य लोके मतिः कार्या, मुक्त्वा शम्मँहलौकिकम् । दृष्टं विहाय नादृष्टे कुर्वते धिषणां बुधाः ॥५॥
पृथिव्यं भोग्निवातेभ्यो पिष्टोदकगुडादिभ्यो,
,
जायते यन्त्र वाहकः । मदशक्तिरिव
[ ७५
स्फुटम् ॥६॥
पूर्वापरयोरियम् ।
जन्मपं चत्वयोरस्ति, सदा विचार्यमाणस्य, सर्वथानुपपत्तितः ॥७॥
अर्थ – कोई कहै है परलोक का आगम जो जाना ताविषै उद्यमी ऐसा जो आत्मा सो नाहीं है, अर ता आत्माके अभाव होतसंतें यहु कह्या जो तत्वनिका विचार सो काहे बने ? ॥ १ ॥
बहुरि परलोकवाले आत्मा के अभाव होतसंतैं परलोक भी नहीं है अर परलोकके अभाव होतसंत धर्म अधर्म की क्रिया वृथा है || २ ||
अब इस लोकके सुखकौं त्यागकरि जे दुर्बुद्धि तपस्या करें हैं ते हस्त मैं आए ग्रास छोडि अंगुलिकौं चाटें हैं ॥३॥
तातें पापकी शंकाकू छोडकर मनुष्य हैं ते जैसे होय तैसें चेष्टा करो, नष्ट भया जो चेतन ताका फेर जन्म नाहीं ॥४॥ -
इस लोकके सुखकों छोड़ि अन्य लोक विष बुद्धि करनी योग्य नाहीं जातें पंडित हैं ते प्रत्यक्षको छोड़ करि अप्रत्यक्ष बिषै बुद्धि न करें हैं ॥ ५ ॥
जैसे पीठी जल गुड़ इत्यादिकतैं प्रगटपने मदशक्ति उपजै है तैसें पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन इनितें चैतन्य जीव उपजै हैं ॥६॥
जन्मके अर मरणके पहलै अर पीछे जीव सदा नहीं है, जातें विचारते भए जीवकी सर्वथा अनुपपत्ति है ॥७॥ -
नास्तिक है है कि जैसैं चून गुड़ आदितें मदशक्ति उपजै है पृथ्वी आदतें चेतना उपजै है । अनादिनिधन जीव नाहीं ताका परलोक नाहीं तातं पापकी शँका छोड़ि यथेष्ट विषय निमें प्रवत्र्ती । ऐसी स्वच्छन्द प्रवृत्ति पोषी । अब आचार्य ताके वचनका खण्डन करें हैं
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७६ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
परात्मवैरिणां नैतन्नास्तिकानां कदाचन । जायते वचनं तथ्यं, विचारानुपपत्तितः ॥८॥
श्रथं - यहु परके वा आपके वैरी जे नास्तिक तिनका पूर्वेकह्या जो यहु वचन सो कदाचित् सांचा न सोय है, जातें विचार विषै अनुपपत्ति है ॥८॥
भावार्थ- पूर्वे कह्या नास्तिकका वचन विचार किये ठा
भास है—
आगे जीवका अस्तित्व साधें हैं
विद्यते सर्वथा जीवः, स्वसंवेदनगोचरः ।
सर्वेषां प्राणिनां तत्र, बाधकानुपपत्तितः ॥६॥
अर्थ – स्वसंवेदनके गोचर कहिए जाननेंमें आवे ऐसा जीव है सो सर्वथा विद्यमान है, जातें तहां सर्व जीवनिकौं बाधक प्रमाण की अनुपपत्ति है ।
-
भावार्थ - स्वसंवेदन विषै कोई प्रकार बाधा नहीं आवे है । आताही अर्थ पुष्ट करें हैं
शक्यते न निराकत्त", केनाप्यात्मा कथंचन । स्वसंवेदन वेद्यत्वात्सुखदुःखमिव
स्फुटम् ॥१०॥
अर्थ- कोऊ करि भी आत्मा है सो निराकरण करनेकू कोई प्रकार समर्थ न हूजिये है, जातै आत्माक स्वसंवेदन करि प्रगट जाननेकौं योग्यपनां है, सुख दुःखकी ज्यों ।
भावार्थ - जैसे सुख दुःख आपकरि जाननेंमें आवे है तैसें आप भी आप करि जानने में आवै हैं तातैं अभावरूप नाहीं ॥१०॥
आताही अर्थ पुष्ट करें हैं
ग्रहं दुःखी सुखी चाहमित्येषः प्रत्ययः स्फुटम् । प्राणिनां जायतेऽध्यक्षो, निर्बाधो नात्मना विना ॥११॥
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चतुर्थ परिच्छेद
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अर्ण-मैं सुखी हूँ मैं दुःखी हूँ ऐसी यह जीवनिकै प्रगट बाधारहित प्रत्यक्ष प्रतीत है सो आत्मा विना न होय है ॥११॥
__ आगें जैसे आपके शरीरमें आत्मा है तैसें परशरीरमें परके आत्माकौं सिद्ध करै हैं
स्वसंवेदनतः सिद्ध, निजे वपुषि चेतने । शरीरे परकीयेऽपि, संसिद्ध यत्यनुमानतः॥१२॥
प्रर्थ-स्वसंवेदनतें अपने शरीरमें चेतनकी सिद्धि होतसंतें परके शरीरमें अनुमानतें चैतन्य सिद्धि होय है ॥१२॥
आगे ता अनुमानकौं दिखावे हैंपरस्य जायते देहे, स्वकीय इव सर्वथा । चेतनो बुद्धिपूर्वस्य, व्यापारस्योपलब्धितः ॥१३॥
मर्थ-परके देहविर्षे चैतन्य निश्चयतै बुद्ध होय है, जातें बुद्धिपूर्वक व्यापारकी उपलब्धि है। जैसे अपने देहविर्षे बुद्धिपूर्वक व्यापार होय तैसें, यहु दृष्टांत है ॥१३॥
जन्मपंचत्वयोरस्ति, न पूर्वपरयोरयम् । नैषा गीयुज्यते तत्र, सिद्धत्वादनुमानतः ॥१४॥
अर्थ-बहुरि जन्ममरणके पहले अर पीछे यह आत्मा नहीं है ऐसी वाणी युक्त नांही जातें तहां अनुमानतें सिद्धिपना है ।
भावार्थ-जन्म मरणके पहले पीछे आत्मा सिद्ध है ॥१४॥ सोही कहैं हैंचैतन्यमादिमं ननमन्य चैतन्यपूर्वकम् । चैतन्यत्वाद्यथा मध्यमंत्यमन्यस्य कारणम् ॥१५॥
अर्थ-आदिका चैतन्य है सो निश्चयकरि अन्य चैतन्यपूर्वक है, जातें चैतन्यपना है जैसे अन्यका कारण मध्यका चैतन्य अर अन्तका चैतन्य है तैसे।
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श्री अमितगति श्रावकाचार
भावार्थ - जीवकी मनुष्यादि नवीन पर्याय उपजै हैं सो जीवद्रव्य अगली पर्याय छोड़कर नवीन धारण करें है सर्वथा असत् न उपजै है, जातें चेतनपना हैं यह हेतु है; जैसे मध्यका चैतन्य वा अन्तका चैतन्य प्रत्यक्ष अन्य चैतन्यपूर्वक हैं तैसे यह दृष्टांत है । इहां प्रयोजन ऐसा है जो अगले पर्याय अपेक्षा पहला पर्याय कारण है अर पहले पर्याय अपेक्षा सो ही कार्यरूप है, अर द्रव्यदृष्टि करि सर्व एक ही वस्तु है न्यारा नाहीं । ऐसें स्याद्वाद समझे यथार्थ ज्ञान होय है ॥ १५ ॥
७८ ]
आगे इस ही अर्थकौं पुष्ट करें हैं
तत्रैव वासरे जातः, पूर्वकेणात्मना विना । प्रशिक्षितः कथं वालो, मुखमर्ययति स्तने ॥१६॥
अर्थ - पूर्व आत्मा विना नवीन ही आत्मा होय तौं तिस ही दिन विषे भयो जो बालक सो विना सिखाया स्तन विषै मुख कैसे लगावै है ।
भावार्थ - जो प्रथम आत्मा न होय अर नवीन ही उपज्या होय तो उपज्या सन्ता ही बालक दूध कैसे चूखने लगी जाय हैं तातें मनुष्यादि पर्याय नवीन उपजै है । जीवद्रव्य तो अनादिनिधन ही है ऐसा निश्चय करना ।। १६ ।।
मूतेभ्योऽचेतनेभ्योऽयं, चेतनो जायते कथम् ।
विभिन्न जातितः कार्य, जायमानं न दृश्यते ॥१७॥
अर्थ - अचेतन जे पृथ्वी आदि भूत तिनतें चेतन कैसें उपजे है, जातें भिन्न जातितैं कार्य उपज्या न देखिए है ।
भावार्थ - जैसे माटीतें स्वजातीय घटतौ उपजे है परन्तु विजातीय जो घट सो उपज्या है नदेखिये तैसें अचेतन पृथ्वी आदितैं अचेतन शरीरादि तौ उपजै परन्तु चेतन जीव कैसे उपजै तातैं जीवकौं भूतजनित कहना मिथ्या है ॥ १७॥
आगें दोय पक्ष पूछकर जीवकै भूतजनितपनकौं निराकरण करें
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'चतुर्थ परिच्छेद
प्रत्येकं युगपद्वेभ्यो, भूतेभ्यो जायते भवी । विकल्पे प्रथमे तस्म, तावत्त्वं केन वार्यते ॥ १८ ॥
अर्थ – आचार्य पूछें हैं जीव है सो पृथ्वी आदि भूतनितें प्रत्येक न्यारे न्यारे उपजै है कि युगपत एकठा ही उपजै है; सो न्यारा न्यारा उपजै है ऐसा प्रथम विकल्प कहेगा तो तिस जोवकैं तावन्मात्रपना कौन करि निवारिए है ।
भावार्थ - पृथ्वी आदि न्यारे न्यारेनितें जीव उपजै तौ पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन इनि विष कोई एकका ही स्वभाव लीए जीव होय सो बने नाहीं ॥१८॥
विकल्पे सद्वितीयेऽपि कथमेकस्वभावकः । र्जन्यते वद चेतनः ॥ १६ ॥
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भिन्नस्वभावकैरेभि
अर्थ - बहुरि युगपत् एक ही कर उपजै है ऐसा दूसरा विकल्प ग्रहण करंगा तौभी न्यारे न्यारे है स्वभाव जिनके ऐसे पृथ्वी आदि भूत तिनकरि एक स्वभाव चेतन कैसे उपजाइए है सो कहिए ।
1
भावार्थ- पृथ्वी आदि अनेक स्वभाव हैं तिनतैं एकस्वभाव चेतन्यका उपजना बनै नाहीं । ऐसे दोय पक्ष पूछ करि निर्वेद किया ॥ १६ ॥
आगे फेर वादी कहै है
चेतनोऽचेतनेभ्योऽपि,
भूतेभ्यो त विरुध्यते । भिन्नानां मौक्तिकादीनां तोयादिभ्योऽपि दर्शनात् ॥२०॥
.
अर्थ - अचेतन जे पृथ्वी आदि भूत तिनतें चेतन हैं सो नाहीं विरोधकौं प्राप्त होय हैं, जातें भिन्न जे मुक्ता कल आदि जिनका जलादिकतें भिन्न दर्शन है ।
भावार्थ - अचेतन जे पृथ्वी आदि तिनतें चेतन के उपजने में किछू विरोध नाहीं जातें जलादि न्यारे जाति हैं तिनतें मोती न्यारे जाति उपजते देखिए है ॥२०॥
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८०] श्री अमितगति श्रावकाचार
ताकू आचार्य कहैं हैंतदयुक्तं यतो मुक्ता, तोयादीनां विलोक्यते । एका पोद्गलिकी जाति, भिन्नताऽतः कुतस्तनी ॥२१॥
जो तूने कहा कि मुक्ताफलादिक अर जलादिक इनिकी भिन्न जाति हैं सो अयुक्त है, जातें मुक्ताफल अर जल इत्यादिकनिकी एक पुद्गलसम्बधिनी जाति देखिए है इस कारणनै तिनतै भिन्नता काहेकी ।
___भावार्थ-मुक्ताफल जलादिक इत्यादिकनिकी एक जाति है, तातें पूदगलतें पुदगलका ही पर्याय भया किछ जीवतौ न उपज्यो तातें तेरा दृष्टांत विषम है ऐसा जानना ॥२१॥ "
यतः पिष्टोदकादिभ्यो, मदशक्तिरचेतना । संभूताऽचेतनेभ्योऽतो, दृष्टांतस्ते न चेतने ॥२२॥
अर्थ-जातें अचेतन चून गुड आदितै अचेतन ही मदशक्ति प्रगट होय है तातें तेरा यह दृष्टांत चेतनकै विर्षे नहीं लगि सकै है ।।२२॥
न शरीरात्मनौरक्यं, वक्तव्यं तत्ववेदिभिः । शरीरे तदवस्थेऽपि, जीवस्यानुपलब्धितः ॥२३॥
अर्थ-तत्वकौं जाननेवारे पुरुषनिकरि शरीर आत्माकू एक कहना योग्य नाहीं, जातै शरीरकौं तहां अवस्थित होतें भी बाकी अनुपलब्धि है अप्राप्ति है।
भावार्थ-जीव परलोककू जाय है तब शरीर इहां रहि जाय है अर जीव न देखिए है तातै शरीर जीव एक नाहीं ऐसा निश्चय करना ॥२३॥
आगै विज्ञानाद्वतका निषेध करै हैज्ञानं विहाय नात्मास्ति, नेदं वचनमंचितम् । ज्ञानस्य क्षणिकत्वेन स्मरणानुपपत्तितः ॥२४॥
अर्थ-ज्ञान बिना और आत्मा नाहीं ऐसा कहना सत्यार्थ नाही, . जातै ज्ञानके क्षणिकपने करि स्मरणकी अनुपपत्ति है ।
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चतुर्थ परिच्छेद
[८१
भावार्थ-पर्यायका एकांत पकडि करि विज्ञानाद्वैतवादी कहैं हैनिरंश अर क्षणिक एक ज्ञान ही है या सिवाय और आत्म वस्तु नाहीं ताकौं आचार्य ने कह्या जो ऐसा है तो “पूर्व में मैंने जान्याथा सो अब जानुहूँ" ऐसा स्मरण न ठहरैगा, तातै अनन्त धर्मका समुदायरूप अनादिनिधन आत्मा कथंचित् ज्ञानते न्यारा मानना योग्य है ॥२४॥
आगें ब्रह्माद्वैतकौं निषेधैं हैंनात्मा सर्वगतो वाच्यस्तत्स्वरूपविचारिभिः । शरीरव्यतिरेकेण येनासो दृश्यते न हि ॥२५॥
अर्थ-तिस आत्मस्वरूपके विचारनेवाले पुरुषनि करि सर्वव्यापी आत्मा कहना योग्य नाहीं जा कारण करि यह आत्मा शरीरतै न्यारा नहीं देखिए है।
भावार्थ-सर्वव्यापी आत्मा मान हैं सो मिथ्या है, जातै शरीरके बाहिर आत्मा न दीखें है ॥२५॥
आगें दोय पक्ष पूछकरि निषेध करें हैंशरीरतो बहिस्तस्य, किं ज्ञानं विद्यते न वा । विद्यते चेत्कथं तत्र, कृत्याकृत्यं न बुध्यते ॥२६॥ यदि नास्ति कुतस्तस्य, तत्र सत्तावगम्यते । लक्षणेन विना लक्ष्यं, न क्वापि व्यवतिष्ठते ॥२७॥
अर्थ-शरीरके बाहिर तिस आत्माका ज्ञान है कि नाहीं है, जो शरीरके बाहिर ज्ञान है तो तहां करनेयोग्य न करनेयोग्य क्यौं न जानिए है ॥२६॥
अर जो शरीरके बाहिर ज्ञान नहीं है तो तहां शरीरके बाहिर तिस आत्मा की सत्ता काहेरौं कहिए है जाते लक्षण बिना लक्ष्य कभी न तिष्ठै है।
भावार्थ-ज्ञान लक्षण है आत्मा लक्ष्य है सो जहां लक्षण नाहीं तहां लश्य भी नाहीं, तातें सर्वव्यापो आत्मा कहना मिथ्या है ॥२७॥
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८२]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ-बहरि सबनिका एक ही आत्मा है ऐसे कहना युक्त नाही, जातें जन्म मरण सुख दुःख इनि न्यारे न्यारेनिका उपलंभ है।
सर्वेषामेक एवात्मा, युज्यते नेति जल्पितुम् । जन्ममृत्युसुखादीनां, भिन्नानामुपलब्धितः ॥२८॥
अर्थ-बहुरि सबनिका एक ही आत्मा है ऐसे कहना युक्त नाहीं, जात जन्म मरण सुख दुःख इनि न्यारे न्यारेनिका उपलंभ है।
भावार्थ-जन्म मरण सुख दुःख इत्यादि सब निकै न्यारे न्यारे देखिए हैं तातें सबनिका एक आत्मा कहना मिथ्या है ॥२८॥
न वक्तव्योऽणुमात्रोऽयं, सर्वैर्येनानुभूयते । अभीष्टकामिनीस्पर्श, सर्वांगीणः सुखोदयः ॥२६॥
अर्थ-बहूरि यहु आत्मा अगुमात्र है ऐसा कहना. योग्य नाहीं, जा कारण करि वांछित स्त्रीके स्पर्श वि. सर्वांगते उपज्या सुखका उदय सबनिकरि अनुभव कीजिए है।
भावार्थ-स्त्रीके स्पर्श विर्षे सुखका उपजना सर्व अंगविर्षे प्रत्यक्ष देखिए है तातें अगुमात्र आत्मा कहना है सो मिथ्या है ॥२६॥
समीरणस्वभावोऽयं, सुन्दरा नेति भारती। सुखज्ञानादयो भावाः, संति नाचेतने यतः ॥३०॥
अर्थ-बहुरि वह कह है जो यहु सर्वांग सुख होना है सो पवनका स्वभाव है ताक आचार्य कहैं हैं ऐसी वाणी सुन्दर नाहीं, जातें सुख ज्ञान इत्यादि चेतनभाव हैं ते अचेतन पवनविर्षे नाहीं हैं ॥३०॥
न ज्ञानविकलो वाच्यः, सर्वथात्मा मनीषिभिः । क्रियाणां ज्ञानजन्यानां, तत्राभावप्रसंगतः ॥३१॥
अर्थ-बहुरि ज्ञानरहित आत्मा पण्डितनि करि सर्वथा कहना योग्य नाहीं जाते तिस आत्मविषै ज्ञान जनित क्रियानिका अभाव का प्रसंग ठहरै है।
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चतुर्थ परिच्छेद
[८३
भावार्थ-ज्ञानरहित आत्मा होय तौं ज्ञानजनित क्रियाका अभाव आवै अर ज्ञानजनित क्रिया आत्मावि देखिए ही है, तातै ज्ञान रहित आत्मा कहना मिथ्या है ॥३१॥
प्रधानज्ञानतो ज्ञानी, वाच्यो ज्ञानशालिभिः । अन्यज्ञानेन न ह्यन्यो, ज्ञानी क्वापि विलोक्यते ॥३२॥
अर्थ-बहुरि प्रधान ज्ञानकरि आत्मज्ञानी है ऐसा ज्ञानवन्तनि करि कहना योग्य नाहीं, जातें और केवलज्ञान करि और ज्ञानी कहूँ भी न देखिए है ॥३२॥
बहुरि कहै हैं :
न शुद्धः सर्वथा जीवो, बन्धाभावप्रसंगतः । न हि शुद्धस्य मुक्तस्य, रेश्यते कर्मबन्धनम् ॥३३॥
अर्थ-सर्वथा जीव शुद्ध नाहीं, जातै बन्धके अभावका प्रसंग आवै है, शुद्ध मुक्त जीवकै कर्मबन्धन नहीं देखिए है।
भावार्थ-सर्वथा शुद्ध जीव होय तौं बन्धका अभाव ठहरै, पुण्य पापरूप कर्मबन्ध कौनकै होय ? रागादिक भाव कौनकै होय ? तातै सर्वथा जीवकौं शुद्ध कहना मिथ्या है ॥३३॥
प्रधानेन कृते धर्मे, मोक्षभागी न चेतनः । परेण विहिते भोगे, तृप्तिभागी कुतः परः ॥३४॥
अर्थ-बहुरि वह कहै है धर्म प्रधान करै है आत्मा तौ शुद्ध अकर्ता ही है ताक आचार्य कहै हैं-प्रधानकरि धर्मकौं करते सन्ते चेतन मोक्षगामी न होय जातें और करि भोग किये सन्ते और तृप्ति भजनेवाला कैसे होय ?
भावार्थ-जैसे भोग और भौगे अर सुखी और ऐसी बने नाहीं तैसें प्रधान तो धर्म करें अर चेतनकी मोक्ष होय ऐसी बनें नाहीं ॥३४॥
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८४]
श्री अमितगति श्रावकाचार
प्रधानं यदि कर्माणि, विधते मुंचते यदि । किमात्माऽनर्थकः सांख्यैः, कल्प्यते मम कथ्यताम् ॥३५॥
अर्थ-जो प्रधान कर्मनिकौं करै है अर त्यागें है, बन्ध मोक्ष प्रधानकै होय है, तो सांख्यमतवालेनि करि निष्प्रयोजन आत्मा क्यों कपिए है ? तो मोफू कहिए ॥३५॥
न ज्ञान भात्रतो मोक्षस्तस्य जातूपपद्यते । भैषज्यज्ञानमात्रेण न व्याधिः क्वापि नश्यति ॥३६॥ .
अर्थ-सांख्यमती कहै है द्वै तरूप भ्रम करि भया जो बन्ध सो अद्वैत के ज्ञान मात्र करि नसि जाय है, ताकौं आचार्य को -तिस सांख्यके ज्ञान भावतें मोक्ष कदाचित् न प्राप्त होय है जैसे औषधिके ज्ञान करि रोग कहूँ नहीं विनर्स है।
भावार्थ-जैसे औषधिका जानना अर प्रतीति अर आचरण तीनौं ही भावनि करि रोग विनसै है सुखो होय है, अर केवल जानना वा केवल प्रतीति करना वा केवल आचरण करना इन न्यारे न्यारेनि करि रोग न विनसै है सुखी न होय है तैसें ज्ञान दर्शन चारित्र तोनौंकी एकता करि बंध नसि मोक्ष होय है ज्ञानादिक न्यारे न्यारेन करि बन्ध नमि मोक्ष न होय है ऐसा निश्चय करना ॥४६॥
आगें ज्ञानकौं प्रधानका धर्म माने हैं ताका निवेदन कर हैं:अचेतनस्य न ज्ञानं, प्रधानस्य प्रवर्तते। स्तम्भकुम्भादयो दृष्टा, न क्वापि ज्ञान योगिनः ॥३७॥
अर्थ-अचेतन प्रधानकै ज्ञान नाही प्रवतॆ है, जातै स्तम्भ घट इत्यादि अचेतन पदार्थ हैं ते ज्ञानसहित कहूँ भो न देखे ॥३७॥
फेर कहैं हैं;उक्त्वा स्वयमकरिं, भोक्तारं चेतनम् पुनः । भाषमाणस्य सांख्यस्य न ज्ञानं विद्यते स्फुटम् ॥३८॥ .
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चतुर्थ परिच्छेद
[८५
अर्थ-आप ही अचेतन कौं अकर्ता कह करि बहुरि चेतनकौं भोक्ता कहता जो सांख्य ताकू ज्ञान प्रगट नाहीं है, अज्ञानी है।
भावार्थ-सांख्य आत्माक आप ही अकर्ता कहै बहुरि ताही भोक्ता बतावै सो यहु प्रगट अज्ञान है तातै अन्य करै अन्य भोगै यह बात असम्भव है ॥३८॥
आर्गे सर्व गुणरहित होय सो मोक्ष है ऐसे श्रद्धानकू निषेधै हैं:सकलैन गुणमुक्तः, सर्वथात्मोपपद्यते । न जातु दृश्यते वस्तु, शशशृङ गमिवागुणम् ॥३६॥
पर्ण-समस्त गुणनिकरि रहित सर्वथा आत्मा न होय है जाते शशाके शृंगकी ज्यौं निर्गुण वस्तु कदापि न देखिए है।
भावार्थ-गुणका समूह ही गुणी है अर सर्वथा गुणका अभाव होते गुणीका भी अभाव है तातें गुणरहित मोक्ष कहना मिथ्या है ॥३६॥ ... आगें ज्ञानका अर ज्ञानौंका सर्वथा भेद मान है ताका निषेध करें हैं,
न ज्ञानज्ञानिनोर्भेदः, सर्वथा घटते स्फुटम् । संबंधाभावतो नित्यं, मेरुकैलाशयोरिव ॥४०॥
अर्ण-सम्बन्धके अभावतें सर्वथा सुमेरु अर कैलाशकी ज्यों प्रगटपर्ने । ज्ञान और ज्ञानीका सर्वथा भेद बने है ।
___ भावार्थ-जैसे मेरु अर कैलाश भेदरूप हैं तिनका सम्बन्धका अभाव है तैसें ज्ञानका अर ज्ञानी का भेद माने सम्बन्धका अभाव आवे है॥४०॥
वहुरि हैं हैं जो समवायकरि सम्बन्ध होय है ताका निषेध करें हैं;
समवायेन सम्बन्धः, क्रियमाणो न युज्यते । नित्यस्य व्याधिनस्तस्य, सर्वत्राप्यविशेषतः॥४१॥
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श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ - समवायकरि कर्या भया सम्बन्ध नाहीं युक्त होय है, जातें नित्य अर व्यापक जो समवाय ताका सर्वत्र अविशेष है ।
८६ ]
भावार्थ - - नैयायिक समवाय पदार्थको नित्य अर व्यापक माने है ताक आचार्य कहै है ;
,1
जो समवायकर आत्मा अर ज्ञानका सम्बन्ध होय है तो घटपटादि अचेतन पदार्थ विषै ज्ञानका सम्बन्ध क्यों न भया ? समवाय तौ नित्य अर व्यापक भया भेद रहित माने है अर घटपटादि विषै समवाय का भेद मानेगा तौ नित्य व्यापक समवाय कहना न बनेगा तातं समवाय करि सम्बन्ध मानना मिथ्या है |
आगैं आत्माकैं समवाय तिस सर्वथा नित्यपनामें वा अनित्यपनामें दूषण दिखावैं हैं ;
नित्यताऽनित्यता तस्य, सर्वथा न प्रशस्यते । श्रभावादर्थनिष्पत्त ेः क्रमतोऽक्रमतोऽपि वा ॥४२॥
अर्थ - तिस समवाय सर्वथा नित्यपना वा अनित्यपना न सराहिए हैजा क्रमसः वा युगपत अर्थकी उत्पत्तिका अभाव है ।
भावार्थ - समवायकौं सर्वथा नित्य माननेमें क्रमसें वा युगपत अर्थ क्रियाका अभाव आ है ॥४२॥
सोही दिखाइए हैं
न नित्यं कुरुते कार्य, विकारानुपपत्तितः । नानित्यं सर्वथा नष्टमारोग्यं मूतवैद्यवत् ॥४३॥
अर्थ - नित्य है सो कार्यकौं न करें हैं जातें नित्यकै अवस्था जो विकार विशेषता की अनुपपत्ति है, बहुरि अनित्य सर्वथा विनाशरूप सो भी कार्यकौं न करें है जैसे मृत वैद्य नीरोगपनेकौं न करें तैसें, जो आप ही नसि गया सो कार्य कैसे करें, ता नित्य वा अनित्य दोउ एकान्त मिथ्या है ॥४३॥
आगे अमूर्त्तीको एकांतकों निषेध करें है-
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चतुर्थ परिच्छेद
नामूर्त्त: सर्वथा युक्तः, कर्मबन्धप्रसंगतः । नभसो न ह्यमूर्त्तस्य, कर्मलेपो विलोक्यते ॥ ४४ ॥
[ ८७
अर्थ - सर्वथा आत्मा अमूर्तिक कहना युक्त नांही, जातैं कर्मबन्धका प्रसंग आ है । बहुरि अमूर्तीक आकाशकै कर्मनिका लेप न है विलोकिए है ।
मावार्थ - आकाशवत् सर्वथा संसारी जीव मुक्त होय तो जैसैं आकाशकै कर्मलेप नांही तस आत्मा के भी कर्मबन्ध न ठहरै तातैं सर्वथा अमूर्त मानना मिथ्या है ॥४४॥
स यतो बन्धतो भिन्नो, भिन्नो लक्षणतः पुनः । अमूर्तता ततस्तस्य, सर्वथा नोपपद्यते ॥४५॥
अर्थ - जातें सा आत्मा बन्धतें कथंचित् अभिन्न है बहिर लक्षण करि भिन्न है तातें तिस आत्माकै सर्वथा अमूर्त्तपना नांही सिद्ध होय है ।
भावार्थ - बन्धका लक्षण जड़ता है आत्माका लक्षण चैतन्य है ऐसे लक्षण भेद करि आत्मा अर बन्ध भिन्न है तथापि बन्ध दृष्टि करि अभिन्न है जाते बन्धका निमित्त पाय आत्मा के क्रिया होय है अर आत्माका निमित्त पाप बन्ध का परिणमन होय है, ऐसा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध देखिए है, तातैं सर्वथा संसारी जीव को अमूर्त्त मानना योग्य नांही ॥४५ ॥
निर्बाधोऽस्ति ततो जीवः स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकः । कर्त्ता भोक्ता गुणी सूक्ष्मो, ज्ञाता द्रष्टा तनुप्रमा ॥ ४६ ॥
अर्थ - तातें जीव है सो बाधारहित है, इस विशेषण करि शून्यवाद का निराकरण किया, बहुरि स्थिति उत्पत्ति विनाश स्वरूप है ।
भावार्थ - क्रमभावी पूर्व पर्यायका नाश होय है उत्तर पर्याय उपजै है भावी पर्याय करि स्थिर है ऐसें युगपत तीनों ही धर्म करि युक्त है, इस ही विशेषण करि सर्वथा नित्य कूटस्थ कहनेवालोंका निराकरण किया । बहुरि निश्चय करि चैतन्य भावनिका व्यवहार करि पुद्गल कर्मनिका कर्त्ता
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८८]
श्री अमितगति श्रावकाचार
है अर भोक्ता है इस विशेषण करि सर्वथा अकर्ता वा अभोक्ता माननेवाले का निराकरण किया । बहुरि सूक्ष्म है ग्रहणमैं न आवै है इस विशेषण करि शरीर रूप आत्मा माननेवालेनिका निराकरण किया। बहुरि जाननवाला देखनेवाला है इस विशेषण करि ज्ञान दर्शन” भिन्न आत्मा माननेवालेनिका निराकरण किया ॥४६।।
स्थिते प्रमाणतो जीवे, परेऽप्यार्थाः स्थिता यतः । क्रियमाणा ततो युक्ता, सप्ततत्वविचारणा ॥४७॥
अर्थ-जाते जीवकौं प्रमाणते सिद्ध होतसन्तें और भी पदार्थ हैं ते सिद्ध हैं ता” करी नई जो सप्ततत्वनिकी विचारणा सो युक्त है ।
भावार्थ--या प्रकार पूर्वोक्त प्रमाण” जीवकौं सिद्ध होत सन्तैं और भी पदार्थ सिद्ध होय हैं तातै जीवकै विकार हेतु अजीव है अर दोऊनके पर्याय आश्रवादि पंच तत्व और हैं ते सिद्ध भये । तब प्रथम वादीन कह्या था जो जीव ही नाही, तत्वका विचार करना निरर्थक है; ऐसे कहनेका निराकरण भया ॥४७॥
आगें सर्वज्ञका अभाव मानें हैं तिनका निराकरण करै हैं-तहां वादी अपना पक्ष कहै है
परे वदंति सर्वज्ञो, वीतरागो न दृश्यते । किचिज्ज्ञत्वादशेषाणां, सर्वदा रागवत्त्वतः ॥४८॥
अर्थ और केई कहैं हैं सर्वज्ञ वीतराग नाहीं देखिए हैं जाते सबनिकै किंचित जानपना है अर सदाकाल रागवानपना है ।
भावार्थ-कोऊ सर्वज्ञ वीतराग नाहीं जाते सब जीव अल्पज्ञ वा सरागी देखिए है ॥४८॥
आगें ताका निषेध करै हैं :-- तदयुक्तं वचस्तेषां, ज्ञानं सर्वार्थगोचरम् । न विना शक्यते कर्तुं सर्वेषु ज्ञानवारणम् ॥४६॥
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चतुर्थ परिच्छेद
[८६
समस्ताः पुरुषा येन, कालत्रितयवर्तिनः ।। निश्चिताः स नरः शक्तः, सर्वज्ञस्य निषेधने ॥५०॥
अर्थ-वो पूर्वोक्त वचन तिनका अयुक्त है जाते सर्व पदार्थ हैं विषय जाके ऐसे ज्ञान विना सवनिविर्षे ज्ञानका निषेध करनेकौं समर्थ नाही है, जानें कालत्रयवत्ती समस्त पुरुष निश्चय किये होय सो सर्वज्ञके करनेमैं समर्थ होय ।
भावार्थ-त्रिकालवर्ती समस्त पुरुषनिकौं जो जानता होय सो सर्वत्र सर्वज्ञका निषेध करै सो ऐसा जाननेवाला तू माने नाहीं, अर . मानै है तौ सोही सर्वज्ञा भया। तातै सर्वज्ञ वीतरागका निषेध करना मिथ्या है ॥५०॥
न चाभावप्राणेन, शक्यते स निषेधितुम् । सर्वज्ञऽतींद्रिये तस्य, प्रवृत्तिविगमत्वतः ॥५१॥
अर्थ-बहुरि सर्वज्ञ वीतराग है सो अभाव प्रमाणकरि भी निषेधनेक समर्थ न हजिए है, जाते अतींद्रिय जो सर्वज्ञ ता विर्षे तिस अभाव प्रमाणकी प्रवृत्तिका अभाव है। .
भावार्थ-निषेधने योग्य अर न निषेधने योग्य वस्तुका आधार इन दोउनिका जाके ज्ञान होय सो आधारविर्षे आधेयकौं न देखि आधेयकौं निषेध अभावप्रमाणकरि करै है, जैसे कोऊ पृथ्वी अर घट दोऊनिकौं जान है सो पृथ्वी विर्षे घटकौं न देखि अभाव प्रमाणकरि घटका निषेध करै जो इहां पृथ्वीविर्षे घट नाहीं, सो सर्वज्ञ अतींद्रिय है ता विषं ऐसे अभाव प्रमाणकी प्रवृत्ति नाहीं, ऐसे अभाव प्रमाणकरि सर्वज्ञका निषेध करना मिथ्या है ॥५१॥
प्रमाणाभावतस्तस्य, न च युक्त निषेधनम् ।
अनुमानप्रमाणं हि साधकं तस्य विद्यते ॥५२॥
अर्थ-बहुरि प्रमाणके अभावतें तिस सर्वज्ञका निषेध योग्य नाही, जाते तिस सर्वज्ञका साधनेवाला अनुमान प्रमाण है ।
भावार्थ-सर्वज्ञाभाववादी कहै है - प्रत्यक्ष प्रमाणका विषय सर्वज्ञ नाहीं जातें इन्द्रियकरि सो जान्या जाय नाहीं। बहुरि अनुमानका भी विषय नाहीं जातै सर्वज्ञका. लिंग किछु दीखै नाहीं। बहुरि
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९०]
श्री अमितगति श्रावकाचार
आगमभी ताका सद्भाव न साधे हैं जातें आगम है सो तौ कर्मकांड हीका कथन कर है ताकै सर्वज्ञके जाननेका अयोग है अर अनादि आगम सादि पुरुषका कहनेवाला बनें नाहीं। बहुरि अनित्य आगम सर्वज्ञको साधै है सो तिस सर्वज्ञकरि कहे आगमके सर्वज्ञके निश्चय विना प्रमाणताका अनिश्चय है, बहुरि आगमकी प्रमाणता होते सर्वज्ञकी प्रमाणता होय अर सर्वज्ञकी प्रमाणता होते आगमकी प्रमाणता होय ऐसें इतरेतराश्रय दूषण भी आवै है, बहुरि सर्वज्ञप्रणीत अप्रमाणभूत जो आगम ताकौं सर्वज्ञ कहना अत्यन्त असम्भव है। बहुरि सर्वज्ञ समान अन्य पदार्थका ग्रहणका असम्भव है तातें उपमानप्रमाण भी सर्वज्ञका जनावनेवाला नाहीं। तातें पांचौं ही प्रमाणका विषय न होतें अभाव प्रमाणहीकी प्रवृत्ति है तातै ताका अभाव ही आवे है, ताकौं आचार्य कहै है ऐसे निषेध करना युक्त नाहीं जाते सर्वज्ञका साधक अनुमान विद्यमान है ॥२५॥
सो ही अनुमान दिखावै हैवीतरागोऽस्ति सर्वज्ञः, प्रमाणावाधितत्वतः ।
सर्वदा विदितः सद्भिः, सुखादिकमिव ध्रुवम् ॥५३॥
अर्थ-संतनि करि सर्वदा जान्या ऐसा वीतराग सर्वका जाननेवाला है, जात प्रमाण करि अबाधितपना है निश्चय करि सुखादिककी ज्यौं।
भावार्थ-जैसे सुखादिक स्वसंवदन गोचर निर्वाध सिद्ध है तैसे सर्वज्ञ वीतराग भी प्रमाण सिद्ध है ॥५३॥
सो ही कहै हैक्षीयते सर्वथा रागः, क्वापि कारणहानितः । ज्वलनो हीयते क्लिन्नः, काष्ठादीनां वियोगतः ॥५४॥
अर्थ-कोई आत्माविष कारणकी हानित सर्व प्रकार भी राग क्षीण होय है; जैसैं काष्ठादिकके वियोगते क्लेशरूप अग्नि क्षीण होय है।
भावार्थ-जैसैं काष्ठादिकके अभावतें अग्निका अभाव होय है तैसें कर्मनिके अभावते रागका अभाव होय है। इहां अतिशायक हेतु
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चतुर्थ परिच्छेद
[ ६१
दिया है कि कोइकै किचित् कर्मके अभावतें किछ रागादिकका अभाव देखिए है तौ कोइकै सर्व कर्मके अभावतें सर्व रागकामी अभाव होयगा, ऐसे निश्चय किया है ।।५४।।
आगें सर्वज्ञपनेंका निश्चय करावै है;- प्रकर्षस्य प्रतिष्ठानं, ज्ञानं क्कापि प्रपद्यते ।
परिमाणमिवाकाशे, तारतम्योपलब्धितः ॥५५॥
अर्थ-ज्ञान है सो कोई आत्मा विर्षे प्रकर्ष जो वृद्धि ताकी प्रतिष्ठाकौं प्राप्त होय है जाते तारतम्यकी उपलब्धि है जैसैं आकाश विषं परिमाणकी वृद्धिकी हदकौं प्राप्त होय है तैसें ।
मावार्थ- जो तारतम्य पाइए हे सो वृद्धिकी सीमाकौं प्राप्त भया भी पाइए तातें अनुमान किया कि ज्ञानका अंश वधती वधती है तो ज्ञान अपनी वृद्धिकी हद्दकौं प्राप्त भया भी होयगा, जैसें परमाणु एक प्रदेशमात्रतें बंधती है ताका उत्कृष्टपना सर्व आकाश विर्षे है, यह दृष्टांत दिया है ऐसा जानना ॥५५॥
प्रकर्षावस्थितियंत्र, विश्वदृश्वा स गीयते । प्रणेता विश्वतत्त्वानां, कषिताशेषकल्मषः ॥५६॥
अर्थ-बहुरि जाविषं ज्ञानके बंधनेकी अवस्थिति है हद है सो विश्वदर्शी कहिये कैसा है सो समस्त तत्वनिका जाननेवाला है अर नाश किये हैं समस्त रागादिक जानें ऐसा है ॥५६॥
बोध्यमप्रतिबन्धस्य, बुध्यमानस्य न श्रमः । बोधस्य दहतो दह्य, पावकस्येव विद्यते ॥५७॥
अर्थ-जैसे दहने योग्य जो काष्ठादिक ताहि दहता जो अग्नि ताकै श्रम नाहीं है तैसें ज्ञेयको जानता जो आचरणरहित ज्ञान ताकै श्रम नाहीं है ॥५७॥ ....अनुपदेशसंवादि, लाभालाभादिवेदनम् । ___ समस्तज्ञमृतेऽन्यस्य, मिलिंगे शोभते कथम् ॥५॥ अर्थ-अंतरीक्ष दूरवर्ती पदार्थ अर लाभ अलाभ इत्यादिकका
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२]
श्री अमितगति श्रावकाचार
जानना सर्वज्ञविना औरकै उपदेशविषै कैसे सोहै, न सोहै है ॥ ५८ ॥ आवादी हैं हैं अपौरुषेयवेदतें सर्वका उपदेश है । ताका निषेध
कर है;
-
अपौरुषेयतो युक्तमेतदागमतो न च । युक्त्या विचार्यमाणस्य सर्वथा तस्य हानित: ॥५६॥
अर्थ - बहुरि यह सर्वथा उपदेश है सो अपौरुषेय आगमतें युक्त
नाहीं जातें युक्तिकरि विचारया भया तिस आगमकी सर्वथा हानि है ।
"
भावार्थ - युक्ति करि अपौरुषेय आगम खंड्या जाय है ॥५६॥ सोही दिखावै है:
ग्रामोऽकृत्रिमः कश्चिन कदाचन विद्यते ।
तस्य
कृत्रिमतस्तस्माद्विशेषानुपलम्भतः ॥ ६०॥
अर्थ - काई आगम विना किया कदाच न होय हैं, जातें ताकै तिस करि भए आगमतें विशेषका अनुपलम्भ है ।
भावार्थ – जे शब्द वेदविषै हैं तेही अन्य कृत्रिम आगमविषै हैं दोऊनिमैं किछू भेद दीसँ नाहीं तातैं वेदकौं अकृत्रिम कहना मिथ्या है ॥६०॥
आगैं फेर कहै है—
पश्यंतो जायमानं यत्तात्वादिक्रमयोगतः ।
वदत्यकृत्रिमं चेदमाश्चर्यं किमतः परम् ॥ ६१॥
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- तालु आदिके क्रमके योगतें उपजतेकौं देखते वेदकौं अकृत्रिम कहै है इसतें दूजा और कहा आश्चर्य है ।
भावार्थ - प्रत्यक्षक भी और प्रकार कहैं या सिवाय और आश्चर्य कहा ॥ ६१ ॥
आगे वादी कहै है, अक्षर तौ त्रिलोकव्यापी नित्य ही हैं परन्तु जब तिनकी प्रगट करनेवाली वायु प्रगटै है तब वर्ण प्रगट होय है । ताका आचार्य निषेध कर है
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चतुर्थ परिच्छेद
[६३
त्रिलोकव्यापिनो वर्णा, व्यज्यंते व्यंजकैरिति । न समा भाषिणी भाषा, सर्वव्यक्तिप्रसंगतः ॥६२॥
अर्थ-तीन लोकविष व्यापक जे अक्षर हैं ते व्यंजक जे प्रगट करने वाले वाय तिनकरि प्रगट करिए है ऐसी बानी यथार्थ कहनेवाली नाही, जातें सर्व अक्षरनिकी व्यक्ति का प्रसंग आवै है ।
भावार्थ-त्रिलोकव्यापक जे सर्व वर्ण तिनकौं अभिव्यंजक वायु प्रगट करै है तौ जब वायु प्रगटै तब सर्व ही अक्षर सुनिवेमैं आए चाहिए सो बनै नाहीं, तातें तू कहै है सो मिथ्या है ॥६२॥
एकत्र भाविनः केचित्, व्यज्यंते नापरे कथम् । न दीपव्यज्यमानानां, घटादीनामयं नमः ॥६३॥
अर्थ-बहुरि एक ठिकाने वर्त्तते जे वर्ण ते केई प्रगट करिए है और प्रगट क्यौं न करिए हैं, जातें दीपक करि प्रगट होते जे घटादिक तिनकै यह क्रम नाहीं।
भावार्थ-दीपक है सो एकस्थानवर्ती घट पट आदि सर्वहीकौं प्रकास है स नाहीं जो घटकौं प्रकासै पटकौं न प्रकासै तैमें वायु अक्षरनिकौ प्रकास है तौ सर्व ही कौं प्रकास, इहा तो कोई अक्षर सुनिए है कोई न सुनिए है। तातें वायु अक्षरनिकौं प्रकास है ऐसा कहना बनै नाहीं ॥६३॥
फेर कहै है,व्यंजकव्य तिरेकेण, निश्चीयन्ते घटादयः । स्पर्शप्रभृतिभिर्जातु, न वर्णाश्च कथंचन ॥६४॥
अर्थ-घटादि पदार्थ है ते स्पर्शादिकनि करि व्यंजक विन निश्चय कर है, बहुरि वर्ण हैं ते कदाचित् कोई प्रकार नाहां निश्चय कीजिए हैं।
भावार्थ-घटादि पदार्थ हैं ते प्रगट करनेवाले विना ही स्पर्शादि करि निश्चय करिए है, अर सर्वव्यापी वर्ण नित्य हैं तिनका निश्चय कदाच कोई प्रकार भी न होय है। तातें -सर्वव्यापक नित्य अक्षरनकौं मानना मथ्यिा है ॥६४॥
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६४]
श्री अमितगति श्रावकाचार
व्यज्यन्ते व्यंजकैर्वर्णा, न जन्यन्ते पुन, वम् । इत्यत्र विद्यते काचिन्न प्रमा वेदवादिनः ॥६५॥
अर्थ-व्यंजक कहिये प्रगट करने वाले जे वायु तिनकरि वर्ण हैं ते प्रकट करिए हैं, बहुरि निश्चय करि उपजाइए नाहीं है ऐसी वेदवादीकी प्रमाणता कोई इहां नाहीं विद्यमान होय है ॥६५॥
आगें फेर कहै हैविना सर्वज्ञदेवेन, वेदार्थः केन कथ्यते । स्वयमेवेति नो वाच्यं, संवादित्वाप्रसंगतः ॥६६।
अर्थ-आचार्य कहैं है सर्वत्र देव विना वेदका अर्थ कौनकरि कहिए है । स्वयमेव कहिए हैं एसा कहना युक्त नाहीं जातें भले वक्तापनका अप्रसंग आवै है।
भावार्थ-पर्वज्ञ विना वेदका अर्थ कहना बनै नाहीं जातै सर्वज्ञ विना औरका ज्ञान प्रमाण नाहीं और कौं और कहि देय, अर वेद आप ही अर्थ कहै है तौ ताका कोई वक्ता न ठहरा, तब यह अर्थ है यह अर्थ नहीं है ऐसी कौन कहैं जाते वेद तौ जड़ है तातें स्वयमेव अर्थ कहना मिथ्या
न पारंपर्यतो ज्ञानं, सर्वज्ञानां प्रवर्तते । समस्तानामिवांधानां, मूलज्ञानं विना कृतम् ॥६७॥
अर्थ-बहरि वह कहै हैं जो असर्वज्ञनिका ज्ञान परम्परायतें सत्यार्थ प्रवत्तें है । ताकू आचार्य कहै है-जो सर्व असर्वज्ञनिका ज्ञान परम्परायतें न प्रवत्तें है, जैसे समस्त अन्धेनिका मूलज्ञान कह्या विना कार्य प्रवत्तै तैसैं ।
भावार्थ-बहत भी अन्धे पुरुष परम्परायतें चलैं तौभी मूलज्ञान बिना वांछित स्थान पावै नाहीं तैसैं परम्परायतें भी अल्पज्ञानीनिको वचन प्रमाण नाहीं ॥६७॥
कृत्रिमेष्वप्यनेकेषु, न कर्ता स्मर्यते यतः । कर्तृ स्मरणतो वेदो, युक्तो नाकृत्रिमस्ततः ॥६॥
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चतुर्थ परिच्छेद
। ६५
अर्थ-बहुरि वह कहै है जो वेदकौं कर्ता काहूकै स्मरण नाहीं तातें वेद अकृत्रिम है । ताकू आचार्य कहै है जो ऐसा नाहीं जातें अनेक करे पदार्थनिविष भी कर्ता स्मरण न कीजिए है, अथवा ताके कर्ताके स्मरणतें वेद कृत्रिम युक्त है।
भावार्थ-कोई कहै वेदके कर्त्ताको याद नाहीं तातें अकृत्रिम है, तकू कह्या है । जो ऐसे तो पुराने मन्दिर वा करे भए मोती इत्यादिकका भी कर्ताकी याद नाहीं ते भो अकृत्रिम ठहरै। बहुरि वेदके तौ कर्ता भी ब्रह्मादिक कहे हैं तातें भी कृत्रिम वेद ठहरै । तातें अकृत्रिम वेद कहना मिथ्या है ॥६॥
हिंसादिवादकत्वेन, न वेदो धर्मकांक्षिभिः । वृकोपदेशवन्ननं, प्रमाणीक्रियते बुधैः ।। ६६॥
अर्थ-धर्मके वांछक पंडितनि करि हिंसादिकके उपदेशपनें जो खारपट ताके उपदेशकी ज्यौं वेद हे सो प्रमाण करना योग्य नाहीं ॥६६॥
वीतरागश्च सर्वज्ञो, जिन एवावशिष्यते । अपरेषाम रोषाणां, रागद्वेषादिष्टितः ॥७० ।
अर्थ-वीतराग अर सर्वज्ञ ऐसा जिनेन्द्र ही एक न्यारा कीजिए है जातें और सर्वनिकै रागद्वेषादि दीस है ॥७०॥
न विरागा न सर्वज्ञा, ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः । रागद्वषमदनोधलोभमोहादियोगतः ॥७१॥
अर्थ-ब्रह्मा विष्णु महेश्वर हैं ते न वैरागी हैं न मर्वज्ञ हैं, जाते रग द्वष मद क्रोध लोभ मोह इत्यादिक सहित हैं तातें ॥७१॥
रागवन्तो न सर्वज्ञा, यथा प्रकृतिमानवाः । रागवन्तश्च ते सर्वे, न सर्वज्ञास्ततः स्फुटम् ॥७२॥
अर्थ-रागसहित हैं सर्वज्ञ नाहीं जैसे संसारी मनुष्य हैं तैसे बहुरि जे ब्रह्मादिक हैं ते सर्व रागसहित हैं याते ते प्रगटपर्ने सर्वज्ञ नांही ॥७२॥
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श्री अमितगति श्रावकाचार
प्राश्लिष्टास्तेऽखिलैर्दोषैः, कामकोपभयादिभिः । श्रायुधप्रमदा भूषाकमण्डल्वा दियोगतः ॥७३॥
- ब्रह्मादिक हैं ते कामक्रोधमय इत्यादिक समस्त दोषनि करि युक्त हैं, जातें आयुध स्त्री आभूषण कमण्डल इत्यादि सहित हैं ।। ७३ ।।
६६ ]
द्वेषमायुधसंग्रहः ।
प्रमदा भाषते कामं, प्रक्षसूत्रादिक मोहं, शौचाभावं कमंडलुः ॥ ७४ ॥
अर्थ - स्त्री तौ कामकौं कहै है अर आयुधका धारण द्वेषभावकों जनावै है अर माला यज्ञोपवीतादिक मोहकौं दिखावै है अर पवित्रपनेंके अभावक कमण्डलु दिखावै है |
भावार्थ - जो कामादिक विकार न होय तौ स्त्री आदि काहेकौं राखै, तातें स्त्री आदि हैं ते कामादिविकारनिकौं ब्रह्मादिकनिमैं प्रगट दिखावै है ऐसा जानना ॥७४॥
आगे पुरुषाद्वैतवादी कहै है ताका निषेध कर हैपरमः पुरुषो नित्य:, सर्वदोषैरपाकृतः । तस्मैतेऽवयवाः सर्वे, रागद्वेषादिभाजिनः ॥७५॥
नवाधिरोचते भाषा, विचारोद्यतचेतसाम् । afrasarवानां हि, नीरागोऽवयवी कुतः । ७६ ।
अर्थ - परवादी कहै हैं जो पुरुष नित्य है सो सर्व दोषनि करि रहित है वहुरित ये ब्रह्मादिक सर्व अंग हैं ते रागद्वेष भजने वाले हैं ।।७५।।
ताकू आचार्य कहै है - यह वाणी विचार विषै उद्यमी है चित्त जिनके ऐसे पुरुषनकौं नहीं रुचै है, जातै अंगनिकै रागीपना होते अंगी वीतराग कैसे होय ॥७६॥
आगे वैशेषिक लोकका कर्त्ता ईश्वरकों माने हैं ताका निषेध करें है । तहां वह अपना पक्ष कहै है
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चतुर्थ परिच्छेद
[९७
बुद्धि मंद्ध तुकं विश्व, कार्यत्वात्कलशादिवत् । बुद्धिमांस्तस्य यः कर्ता, कथ्यते स महेश्वरः ॥७७॥ न विना शंभुना नून, देहद्र मनगादयः । कुलालेनेव जायन्ते, विचित्राः कलशादयः ॥७॥ ततोऽस्ति जगतः कर्ता, विश्वदृश्वा महेश्वरः । वचनं युज्यते नेदं, चित्यमानं विचक्षणः ॥७॥ अर्थ-विश्व है सो बुद्धिमान है हेतु (कारण) जाका ऐसा है ।
भावार्थ-बुद्धिमान के निमित्ततें उपज्या है, जातै लोकके कार्यपना है, जो जो कार्य है सो सो बुद्धिमानके निमित्तत्तै उपजै है जैसे घटादिक । बहुरि ता लोकका जो बुद्धिमान कर्ता है सो महेश्वर कहिए है ॥७७॥
जैसे कुम्हार विना विचित्र घटादिक न उपजै तैसे ईश्वर बिना शरीर वृक्ष पर्वत इत्यादिक है ते निश्चय करि न उपजै है ॥७॥ __तातै जगतका कर्ता सर्वदर्शी महेश्वर है। अब ताकू आचार्य कहै है-यह वचन पंडितनिकरि विचाप्या भया युक्त न होय है ॥६६॥
सो ही कहैं हैं--- कार्य त्वादित्यय हेतुस्तस्य साधयते यथा । बुद्धिमत्त्वं तथा तस्य, देहवत्वमपि ध्रुवम् ॥२०॥ नाशरीरी मया रष्टः, कुम्भकारः क्वचित् यतः । कुलालस्तस्य दृष्टांतस्ततो ब्रूते स्देहताम् ॥८१॥ सदेहस्य च कर्तृत्वे, सोऽस्मदादिसमो यतः । दृश्यतां प्रतिपद्यत, कुम्भकारादिवत्ततः ॥१२॥ भुवनं क्रियते तेन, विनोपकरणः कथम् । कृत्वा निवेश्यते कुत्र, निरालम्बे बिहायसि ॥३॥
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६८]
श्री अमितगति श्रावकाचार
विचेतनानि भूतानि, सिसृक्षावशतः कथम् । विनिर्माणाय विश्वस्य, वर्तते तस्य कथ्यताम् ॥४॥
अर्थ ---आचार्य कहै है जो ऐसा यह कार्य हेतु है सो तौ ईश्वरके जैसे बुद्धिमानपना साधै है तैसे देहवानपना भी निश्चयकरि माधै है ॥२०॥
जातें कुम्भकार मैंने कहूँ शरीररहित न देख्या तातें कुलाल दृष्टांत है सो ता ईश्वरकै संदेहपर्नेकौं कहै है ।।८१॥
बहुरि देहसहितकै कर्त्तापनी होत सन्तै हम आदि सरीसा भया जातें सो ईश्वर कुम्भकारादिककी ज्यों देखने योग्यपनेकौं प्राप्त भया तातें ॥२॥
बहुरि उपकरणविना ताकरि लोक कैसे करिए है, बहुरि करिक निराधार आकाशविर्षे कहां धरिए है ॥८३॥ .
बहुरि वह कहै है:--जो ताकी उपजावेकी इच्छा होते पृथ्वी आदि हैं ते लोककौं रचे हैं, ताकू कहिए है;-जो ताको उपजायवेकः इच्छाके वशतें पृथ्वी आदि भूत अचेतन हैं ते लोकके वनावनेके अथि कैसे प्रवर्ते है सो कहि । तातै लोकका कर्ता ईश्वर मानना मिथ्या है ।।८४॥
आगें बौद्ध का निषेध करै है :बुद्धोऽपि न समस्तज्ञः, कथ्यते तथ्यवादिभिः । प्रमाणादिविरुद्धस्य, शून्यत्वादेनिवेदनात् ॥८॥
अर्थ-बहुरि तथ्यवादीनि करि बुद्ध भी सर्वज्ञ न कहिए है, जातें प्रमाणादि करि विरुद्ध ऐसा शून्यपना आदि जनावै है ताते ॥८५॥
प्रमाणेनाप्रमाणेन, सर्वशून्यत्वसाधने । सर्वस्यानिश्चित सिद्ध येत्तत्वं केन निषिध्यते ॥८६॥ ..
अर्थ-सर्वकै शून्यपना साधनेमैं प्रमाणकरि वा अप्रमाणकरि सर्वक अनिश्चित तत्त्व सिद्ध होय, निषेध कौनकरि करिए।
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चतुर्थ परिच्छेद
[EE
भावार्थ-सर्व शून्य मानें तब प्रमाण अप्रमाण भी न ठहरै, तब सर्वक अनिश्चित ही तत्त्वसिद्धि होय प्रमाण विना संशयका निषेध काहे करि करें तातें सर्व शून्य मानना मिथ्या है ॥८६॥
सर्वत्र सर्वथा तत्वे, क्षणिके स्वीकृते सति । फ्लेन सह सम्बन्धो, धार्मिकस्य कुतस्तनः ॥७॥
अर्थ- सर्व जायगा। सर्व प्रकार तत्वकौं क्षणिक अंगीकार करे सन्ते धर्मात्मा जीवक फलकरि सहित सम्बन्ध कहांत होय ।
भावार्थ-सर्व प्रकार तत्वकौं क्षणिक अंगीकार करे सन्तै धर्मात्मा जीवकै फलकरि सम्बन्ध कहांत होय। सर्वप्रकार तत्वकौं क्षणिक मानें धर्मात्मा जीव धर्मका फल न पावै जातें वह तौं क्षणमैं ही विनसि गया। बहरि ऐसे होते धर्मका साधन निरर्थक ठहर या। तातें सर्वथा क्षणिक मानना योग्य नाहीं ॥७॥
वधस्य वधको हेतुः, क्षणिके स्वीकृत कथम् । प्रत्यभिज्ञा कथं लोकव्यवहारप्रवर्तनी ॥१८॥
प्रर्ण-बहुरि क्षणिककौं अंगीकार करे सन्तें हिंसक जीव है सो हिंसा का कारण कैसे होय । बहुरि लोकमें व्यवहार चलावनेवाली प्रत्यभिज्ञा कैसे होय।
भावार्थ-क्षणिक माने हिंसा करनेवाला हिंसक न ठहरै जाते वह तो वा ही क्षण विनसि गया, बहुरि बालक था जो जवान भया; इसपर मेरा लेना है सो लेऊँ, देना है सो देऊँ इत्यादिक लोकव्यवहार चलावनेवाली प्रत्यभिज्ञाका भी अभाव ठहरै, जाते वह तो वाही क्षण विनसि गया व्यवहार काहेका चले तातें क्षणिक मानना मिथ्या है ॥८८॥
व्याघ्रयाः प्रयच्छतो देहं, निगद्य कृमिमंदिरम् । दातृदेहविमूढस्य, करुणा वत कीहशी ॥८६॥
अर्थ-यह शरीर लटनिका घर है ऐसा कहकै शरीरकौं बधेरीके अर्थि देय ऐसे दाता अर देहमें मूर्ख ऐसे के करुणा कैसी है ? यहु बड़े खेदकी बात है ॥८६॥
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१०० ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
बहुरि क है है
जननी जगतः पूज्या, हिंसिता येन जन्मनि । मांसोपदेशिनस्तस्य, दया शौद्धोदनेः कथम् ॥६०॥
प्रथ-- जगत के पूजने योग्य जो माता सो जानें जन्मविषै मारी ता मांस के उपदेश करनेवाले बुद्ध कै दया कैसे होय ।
भावार्थ -- बौद्धमत मैं कह्या है कि बुद्ध माता का उदर फाड़कर निकल्या है अर मांस भक्षण मैं दोष नाहीं ताकू आचार्यनैं कह्या ऐसे बुद्ध के दया काकी ॥०॥
ऐसें बुद्धका निराकरण किया, आगें कपिलका निराकरण
करे है
यो ज्ञानं प्राकृतं धर्म, निर्गुणो निष्क्रियो मूढः,
भाषतेऽसौ निरर्थकः ।
सर्वज्ञः कपिलः कथम् ॥ १ ॥
भावार्थ - कपिल ज्ञानकौं तो प्रकृतिका धर्म कहे है अर आत्माकौं निर्गुणक्रिया रहित प्रयोजनरहित अज्ञान कहैं है ताकू आचार्यने कह्या जो ऐसा सर्वज्ञ कपिल कैसें होय । तातें कपिल का मत मिथ्या है ॥ ६१ ॥
आगे और भी कुदेवादिक हैं तिनका निषेध कर हैआर्यास्कंदाननादित्यसमीरणपुरः सराः । निगद्यन्ते कथं देवाः, सर्वदोषपयोधयः ॥६२॥
- सर्वदोषनिके समुद्र ऐसे जे देवी स्कन्द कहिए स्वामिकार्तिकेय अग्नि सूर्य वायु इत्यादिक हैं ते देव कैसें कहिए है ।
भावार्थ - राग द्वेषादि दोष जिनमें पाइये ऐसे कुदेवनिकों देव कंसें कहिए ||२||
आगे फेर कहैं हैं
गूथमश्चानि या हंति, खुरशृंगैः शरीरिणः । सा पशुगौं : कथं वंद्या, वृषस्यन्ती स्वदेहजम् ॥६३॥
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चतुर्थ परिच्छेद
[ १०१
अर्थ – जो गौ भ्रष्टा खाय है अर प्राणीनिकौं खुरसींगनिकरि हन है सो ऐसी पशु अज्ञान गौ कैसें वन्दनेयोग्य
अर अपने पुत्रसें काम से वे है, होय ॥६३॥
चेदुग्धदानतो वंद्या, महषी किं न वन्द्यते ।
विशेषो दृश्यते नास्यां, महिषीतो मयाधिकः ॥ ६४ ॥
- बहुरि वह कहै जो गौ दुग्ध देय है तातें वन्दनेयोग्य है तो महिषी क्यों न वंदिए, जाते इसके महिषीतें अधिक विशेष मो करिन देखिए है, दुग्ध देने मैं दोनों समान हैं ॥६४॥
या तीर्थ मुनिदेवानां सर्वेषामाश्रयः सदा ।
,
दुह्यते हन्यते सा गौमूं दैविक्रीयते कथम् ॥ ६५ ॥
अर्थ - जो गौ तीर्थ मुनि देवनिका सबनिका सदा आश्रय सो गौ मूढनि करि कैसे पीडिए है अर हानिए है अर वेचिए है, तातें गौकौं पूजना मिथ्या है || ६ ||
आगे और भी कहै हैं
मुशलं बेहली चुल्ली, पिप्पलश्चंपकोजलम् । देवा यैरभिधीयन्ते वर्ण्यन्ते तैः परेऽत्रके ॥ ६६ ॥
अर्थ – मूसल देहली चूल्हा पीपल चम्पा जल इनकौं जिनकरि देव afहिए है तिनकरि इहां कौन वर्जिए है ।
भावार्थ- जो मूसलादिक जड अर पापके कारण जिनविषै देवपना का लेश भी नांही तिनकौं भी पूजै है तो वे और कौंनकों न पूजै है ? सर्वकौं ही पूज है ॥६६॥
आगें अधिकारकौं संकोचे है
इत्थं विविच्य परिमुच्य कुदेववर्ग, गृह्णांति यो जिनपत भजते स तत्त्वम् । गृह्णांति यः शुभमतिः परिमुच्य काचं चिन्तामणि स लभते खलु किं न सौख्यम् ॥७॥
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१०२]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ-ऐसें जो विचार करि कुदेवनिके समूहकौं त्यागिक जिनेन्द्रदेव को ग्रहण करै है सो पुरुष परमतत्वकौं भजै है, सेवै है, इहां दृष्टांत कह है-जो बुद्धिमान काचकौं छोडकरि चिन्तामणि रत्न को ग्रहण करै है सौ कहा निश्चयकरि सुखकौं न पावै है, पावै ही है ॥७॥
मिथ्यात्वदूषणमापस्य विचित्रदोषं, संरूढसंसृविवधूपरितोषकारि । सम्यक्तरत्नममलं हृदि यो विधत्ते,
मुक्तयंगनामितगतिस्तमुपैति सद्यः ॥६८।। अर्थ-वृद्धिकौं प्राप्त जो संसारवधू ताका परितोष करनेवाला, प्रसन्न करने वाला अर अनेक दोषस्वरूप ऐसा मिथ्यात्व रूप दूषणकौं त्यागकरि जो पुरुष निर्मल सम्यक्तरत्नकौं हृदय विर्षे धारै हैं, ता पुरुष प्रति अनंती है ज्ञान जाकै ऐसी मुक्तिस्त्री है सो शीघ्र प्राप्त होय है ।
भावार्थ-मिथ्यात्वकौं त्यागकरि जो सम्यक्त धारै है ताकू मुक्तिक प्राप्ति शीघ्र होय है ॥१८॥
छप्पय । पोषत विषयकषाय पक्ष एकांत चित्तरखि,
नास्तिकादि मत एम सकन मिथ्यात्वस्वरूप लखि । हरिहरादि सबही कुदेव रागादिचिह्नयुत, ___ त्यागि, भजहु सर्वज्ञदेव रागादिदोषच्युत ॥ संसारहेतु मिथ्यात्व इम त्यागि सुदर्शन जे धरें। तै जीव अमितगति शीघ्रही भागचन्द शिवतिय वरें।
इत्युपासकाचारे चतुर्थः परिच्छेदः । इस प्रकार श्री अमितगति आचार्यकृत श्रावकाचारविर्षे
चतुर्थ परिच्छेद समाप्त भया ।
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पंचम परिच्छेद
पंचम परिच्छेद
आगे व्रतनिका वर्णन करें हैं,
मद्यमांसमधुरात्रिभोजनं, क्षीरवृक्षफलवर्जनं
त्रिधा ।
कुर्वते व्रतजिघृक्षया बुधास्तत्र, पुष्यति निषेविते व्रतम् ॥१॥
है ॥२॥
श्रर्थ - पण्डित हैं ते ब्रतग्रहणकी इच्छा करि मदिरा मांस अर मधु अर रात्रिविषे भोजन अर क्षीरवृक्ष कहिये जिनमें दूध निकसें ऐसे वड़ पीपर ऊमर इत्यादिकनिके फल इनका त्याग मन वचन कायकरि करें है जातें तिनके त्याग का सेवन करे संतें व्रत पुष्ट होय है ।
भावार्थ - जाकै व्रत की चाह है सो प्रथम मदिरादिकनिका त्याग
अवश्य करें इनके त्यागे व्रत पुष्ट होय है ॥१॥
आगें प्रथम ही मदिरा का निषेध कर है—
पलायतें,
दूरतः ।
महोदयं, गुरुवाक्यमोचिनः ॥ २ ॥
अर्थ - जैसे दरिद्री पुरुष की स्त्री भाग जाय है तैसें मदिरा पीनेवाले की बुद्धि भाग जाय है, बहुरि निंदा वृद्धिको प्राप्त होय है जैसें गुरुके वचन न माननेवालेकै दुःख वृद्धि को प्राप्त हो जाय हैं तैसें ।
भावार्थ - मदिरा पीनेवालेकी बुद्धि बिगड़ जाय है अर निंदा होय
[ १०३
मद्यपस्य
धिषणा
दुर्भगस्य वनितेव वनितेव
निद्यता च लभते
क्लेशितेव
3
विह्वलः स जननीयति प्रियां, मानसेन जननीं प्रियीयति ।
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१०४ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
किंकरीयति निरीक्ष्य पार्थिवं,
पार्थिवीयति कुधीः स किंकरम् ॥३॥ अर्थ सो मदिरापानी मन करि विह्वल भया संता स्त्रीकौं मातावत् आचरै हैं अर माता कौ स्त्रीवत् आचरण करै है। बहुरि सो कुबुद्धि राजाकौं देखकरि चाकरवत आचरै है अर चाकरकौं राजावत आचरै है। भाव र्थ-मदिरापानी सर्व पदार्थनिकौं विपरीत देखै हैं ॥३॥
सर्वतोऽप्युपहसंति मानवा, वाससी व्यपहरन्ति तस्कराः । मूत्रयन्ति पतितस्य मण्डला,
विस्तृते विवरकांक्षया मुखे ॥४॥ अर्थ-बहुरि मद्यपानी की सर्व ही तरफतै मनुष्य हास्य करें है अर चौर वस्त्र हरै है, बहुरि स्वान हैं ते पड़ेके विस्ताररूप मुखविर्षे छिद्रकी वांछा करि मूतै है ॥४॥
मंक्षु मर्छति विभेति कंपते, पूत्करोति रुदति प्रछर्दति । खिद्यते स्खलति विक्षते दिशो,
रोदिति स्वपिति जक्षितीय॑ति ॥५॥ अर्थ-बहुरि मदिरापानी शीघ्र ही मूर्छित होय है, डरपै है, कांपै है, पूत्कार करै है, रोवै है, वमन करै है, खेदरूप होय है, गिर पड़े है, दिशानकू देखे है, रुदन करै है, सोवै है, जकड़ी लगिजाय है, ईर्ष्या करै है। भावार्थ-मदिराकरि नाना कुचेष्टा उपज है ॥५॥
ये भवन्ति विविधाः शरीरिणस्तत्र सूक्ष्मवपुसो रसांगिकाः । तेऽखिला झटिति यांति पंचतां, निंदितस्य सरकस्य पानतः ॥६॥
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पंचम परिच्छेद
[१०५
अर्थ - तिस मदिराविषै सूक्ष्म हैं शरीर जिनके ऐसे जे रसकरि उपजे नाना प्रकार जीव हैं ते समस्त निंदनीक मदिराके पानतें शीघ्र मरणकौं प्राप्त होय है ।
भावार्थ - मदिरा पानीकै द्रव्यहिंसा भी तीव्र होय है ॥ ६ ॥
वारुणी निहितचेतसोऽखिलाः, यान्ति कांतिमतिकीत्तिसम्पदः । वेगतः परिहरन्ति योषितो, वीक्ष्य कांतमपरांगनागतम् ॥७॥
अर्थ-जैसे स्त्री है ते परस्त्री प्रति गए पतिकौं देख करि शीघ्र ही परिहरें है तैसें मदिराविषै लग्या है चित्त जाका ऐसा जो पुरुष ताकी समस्त कांति बुद्धि कीत्ति सम्पदा जाती रहै है |
भावार्थ - मदिरापानीकी कांति, बुद्धि, कीर्ति, सम्पदा सर्व बिगड़ि जाय है ||७||
गायति भ्रमति वक्ति गद्गदं, रौति धावति विगाहते क्लमम् । हंति हृष्यति बुध्यते मद्यमोहितमतिविषीदति
हितं,
॥५॥
अर्थ-मदिरा करि मोहित है बुद्धि जाकी ऐसा पुरुष है सो गाव है, भ्रम है, गद्गद वचन बोलै है, रोवे है, दौड़े है, कष्टकौं अवगाहे है, हिंसा कर है, हर्ष कर है, हितकौं न जाने है, विषादरूप होय है ।
भावार्थ- मद्य पानीके नाना कुचेष्टा होय है ||८||
तोतुदीति भविनः सुरारतो, वावदीति वचनं विनिदितम् । परवित्तमस्तधी, भुजीति परकीयकामिनीम् ॥६॥
मोमुषीति
न
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१०६ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ-मदिराविर्षे आशक्त पुरुष है सौ जीवनकौं पीड़ा उपजा है, निदित वचन बोलै है अर परधन चौर है अर अज्ञानी परकी स्त्रीकौं भोग है। भावार्थ-मदिरा पीवै है सो हिंसादि सर्व पाप करै है ॥६॥
नाणटोति कृतचित्र वेष्टितो, तन्नमीति पुरतो जनं जनम् । लोलुठीति भुवि रप्सभोपमो,
रारटीति सुरया विमोहितः ॥१०॥ अर्थ-मदिरा करि मोहित पुरुष है सो करी है नाना प्रकार चेष्टा जानें ऐसा नाचै है, अर आगेरौं जन जन प्रति नमै है, अर गर्दभ समान पृथ्वी विर्षे लोटे है अर शब्द करै है ॥१०॥ सीधुलालसधिया वितन्वते, धर्मसंयमविचारणां यके । मेरुमस्तक निविष्टमूर्त यस्ते स्पृशंति चरण( स्तलम् ॥११॥
अर्थ-जैसे कोई पुरुष मदिरादिकी लालसासहित बुद्धि करि धर्मका वा संयमका विचार विस्तारै हैं ते मेरुके मस्तक परि तिष्ठते चरणन करि पृथ्वीतलकौं स्परौं है ।
भावार्थ-जैसैं मेरुपर बैठकरि कोई पृथ्वीकौं चरण करि स्पर्श चाहै सो मूर्ख हैं तैसें मदिरा पीवता सन्ता धर्मादिकका विचार करै है सो मूर्ख है, ऐसा जानना ॥११॥ दोषमेवमवगम्य वारुणी, सर्वथा न हि धयंति पंडिताः । कालकूटमववुध्य दुःखदं, भक्षयन्ति किमुजीवितार्थिनः ॥१२॥
अर्थ-या प्रकार दौषकौं जान करि पंडित हैं ते सर्वथा मदिराकौं नाहीं पीवें हैं जैसे जीनेंके वांछक जीव दुःखदाई कालकूट विषकौं जान करि कहा भक्षण करै है ? अपितु न करै है ॥१२॥ मांसभक्षणविषक्तमानसो, यः करोति करुणां नरोऽधमः । भूतले कुलिशवह्नितापिते, नूनमेष वितनोति वल्लरीम् ॥१३॥
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पंचम परिच्छेद
अर्थ- मांस विषै आशक्त है चित्त जाका ऐसा जो नीच पुरुष करुनाकौं कर है सो यह निश्चयकरि वज्राग्निकरि तन जो पृथ्वी ताविषै वेलिकौं विस्तार है ।
भावार्थ - अग्नि करितप्त पृथ्वी विष जैसे बेल न होय तैसे मांस भक्षककै दया न होय ऐसा जानना || १३||
जायते न पिशितं जगत्रये,
प्राणिघातनमृते
यतस्ततः ।
मंक्षु
मूलमुदखानि खादता,
हि दया झटिति धर्मशाखिनः ॥ १४ ॥
अर्थ - जातैं तीन लोकमैं मांस है सो जीवनिकी हिंसा बिना न उपजै है तातें मांस भक्षक पुरुष करि तोड्या जो निश्चय करि धर्मवृक्ष ताका मूल जो दया सो शीघ्र खोद्या ।
[ १०७
भावार्थ-जीव हिंसा बिना मांस न उपजै तातें जानें मांस खाया तानें दयामूल जो धर्म ताका नाश किया || १४ ||
है ॥ १५ ॥
देहिनो भवति
पुण्यसंचयः,
शुद्ध, या न कृपया विया ध्रुवम् ।
दृश्यते न लतया विना मया, सार्द्रया
जगति पुष्प संचयः ॥ १५॥
अर्थ - इस दयाविना जीवकै निश्चय करि पुण्य का संचय न होय है जैसे मोकरि लोक विष हरित बेल बिना पुष्पनिका संचय न देखिए हैं
तैसें ।
भावार्थ - जैसे बेल बिना पुष्प न होय हैं तैसें दया विना व्रत न होय
भक्षयन्ति पिशितं दुराशयाः, स्वकीयबलपुष्टकारिणः ।
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१०८]
श्री अमितगति श्रावकाचार
घातयन्ति भवभागिनस्तके,
खादकेन न विनास्ति घातकः ॥१६॥ अर्थ-जे अपने बलके पुष्ट करनेवाले दुष्टचित्त मांसकौं भखें हैं ते जीवनकौं घातें हैं जातें खानेवाले विना घातनेवाला नांही है।
भावार्थ-कोउ कहै मांस खानेमें तो हिंसा नाही ताको कह्या है । जो मांस खावै है सो अवश्य हिंसा करै है ॥१६॥
हन्ति खादति पणायते पलं, मन्यते दिशतिसंस्कारोति यः । यान्ति ते षडपि दुर्गति स्फुटं,
न स्थितिः खलु परत्र पापिनाम् ॥१७॥ अर्थ-जो मांसकौं हनें है जीव मारे है अर खाद्य है, बेचे है, भला माने हैं, उपदेश करै है, संस्करोति कहिए मांसका वा मांस भक्षीनका संस्कार करै है। ते पूर्वोक्त छह प्रकारके जीव परजन्मविर्षे दुर्गतिकौं प्राप्त होय है. जातें पापीनकी निश्चयकरि स्थिरता नाही ॥१७॥
अत्ति यः कृमिकुलाकुलं पलं, पूयशोणितवसादिमिश्रितम् । तस्य किंचन न सारमेयतः, शुद्धबुद्धिभिरवेक्ष्यतेऽतरम् ॥१८॥
प्रर्थ-जो पुरुष लटनके समूहकरि भर्या अर दुर्गन्ध रुधिर वसा आदि करि मिश्रित ऐसा जो मांस ताहि भखै है ताकै स्वानतें किछू अन्तर शुद्धबुद्धिनकरि न देखिए है।
भावार्थ-मांस खाय है सो कुत्ता समान है किछ विशेष नांहो, जातें वह भी निन्द्य वस्तु खाय हैं अर यह भी निन्द्य वस्तु खाय है; ग्लानि दोऊनिकै नांहीं ॥१८॥
मामिषासनपरस्य सर्वथा, विद्यते न करुणा शरीरिणः । पापमर्जति तया विना परंः वंभ्रमीति भवसागरे ततः ॥१६॥
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पंचम परिच्छेद
[१०६
अर्थ-मांसके खाने विषं तत्पर जो पुरुष ताकें जीवकी करुणा सर्वथा न होय है। वहरि ता दया विना बड़ा पाप उपजावै है ता पापते अतिशयकरि संसारसमुद्रवि भ्रमैं है ॥१६॥ नास्ति दूषणमिहामिषाशने, यह षीक वशगैनिगद्यते । व्याघ्रशूकरकिरातधीवरा, स्तैनिकृष्टहृदयगुरुकृताः ॥२०॥
अर्थ-जिन इन्द्रियनके आधीन भये पुरुषनि करि "मांसभक्षणविर्षे दूषण नाही' ऐसा कहिये है तिन नीचचित्तनकरि व्याघ्र शूकर भील ढीमर है ते गुरुकी ज्यों करे।
भावार्थ-जे मांस भक्षणकौं निर्दोष बतावै हैं तो तिनके मांसभक्षी सिंहादिक पूज्य ठहरै । तातें मांसभक्षण सर्वथा भला नाहीं ॥२०॥
मांसवल्भन निविष्ट चेतसः, संतिपूजिततमा नरा यदि । गूथमूतकृतदेहपुष्टयः,
शूकरा न नितरां तदा कथम् ॥२१॥ अर्थ-मांसके भक्षणविर्षे लगाया है चित्त जिननें ऐसे पुरुष जो पूजने योग्य होय तो विष्टा अर मूत्र करि करी है देहपुष्टि जिननें ऐसे शूकर पूज्य कैसे न होय ॥२१॥ भक्षयंति पलमस्तचेतनाः, सप्तधातुमयदेहसम्भवम् । यद्वदंति च शुचित्वमात्मनः, कि विडंवनमतः परं बुधाः ? ॥२२ ।
अर्थ-जो बुद्धिरहित सप्तधातुमय देहतै उपज्या जो मांस ताहिखाय है अर आत्माकै पवित्रपना कहै है सो हे पंडित हो ! यासिवाय और विडंबना कहां है ? अपि तु या सिवाय और विडम्बना नांही है ॥२२॥
भुजते पलमघौधकारि--थे, ते व्रजन्ति भवदुःखमूजितम् ।
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११०]
श्री अमितगति श्रावकाचार
ये पिवन्ति गरलं सुदुर्जरं,
ते श्रयन्ति मरणं किमद्भुतम् ॥२३॥ अर्थ-जे पापके समूहका करनेवाला जो मांस ताहि भखें हैं ते तीव्र संसारके दुःखकौं प्राप्त होय हैं । इहां दृष्टांत कहैं हैं-जे पुरुष दुखतें है जरना उतरना जाका ऐसा जो विष ताहि पीवै हैं ते मरणकौं प्राप्त होय सो कहा आश्चर्य है। भावार्थ-मांसभक्षक संसार में भ्रमैं ताका अचरज नाही ॥२३॥
चित्र दुःखसुखदान , पंडिते, ये वदन्ति पिशिताशने समे। मृत्युजीवितविबर्द्ध नोद्यते,
ते वदन्ति सदृशे विषामृते ॥२४॥ अर्थ-नानाप्रकारके दुःख अर सुख के देने में प्रवीण जे मांस अर भोजन तिनहिं समान कहै हैं ते मरण अर जीवन के वढावने विष उद्यमी जे विष अर अमृत तिनहि समान कहे हैं।
भावार्थ-जे मांस खाना अर अन्न खाना समान कहै हैं ते विष अर अमृत समान कहै हैं । ते समान नाही जात मांस खाने में तो तीव्रराग है अर अन्न खानेमैं मन्द राग है तातें बड़ा भेद है ऐसा जानना ॥२४॥
जायते द्वितयलोक दुःखदं, भक्षितं पिशितमंगसंगिनाम् । भक्षितं द्वितयजन्मशर्मदं,
जायतेऽशनमपास्त दूषणम् ॥२५॥ । अर्थ-जीवनि मांस खाय सन्ता इस लोक विर्षे अर परलोक विर्षे दुःखदायक होय है, अर दूषण रहित भोजन खाया भया इस लोक परलोक विर्षे सुखदायक होय है ॥२५॥
मांसमित्थमवबुध्य दूषितम्, त्यज्यते हितगवेषिणा त्रिधा ।
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पंचम परिच्छेद
मन्दिरं न विदता निषेव्यते, तीव्रदृष्टिविषपन्न
गाकुलम् ॥२६॥
अर्थ-हित के हरने वाले पुरुष करि या प्रकार मांसकौं दूषित जान करि सदा त्याग करिए है । इहां दृष्टांत कहैं हैं -- जानता जो पुरुष ताकरि तीव्र दृष्टि विष सर्वकरि व्याकुल जो घर सो न सेईए है ||२६||
ऐसें मांस का निषेष किया, आगे मधुका निषेध करें हैंमाक्षिकं विविध जन्तुघातजं, खादयन्ति बहुदुःखकारि ये । स्वल्पजन्तुविनिपातिभिः समास्ते
कथमत्र ख। दिकैः ।।२७।'
भवन्ति
अर्थ - जे पुरुष नानाप्रकार जीवनकै घाततें उपज्या अर महादु:ख का देनेवाला ऐसा जो मधु ताहि खाय है ते थोड़े जोवनके घातक जे खटीक तिनकरि समान कैसे होय हैं ।
जानना ||२७||
[ १११
भावार्थ - मधु खानेवाला खटीकतें भी महापापी है ऐसा
ग्रामसप्तकविदाहरेपसा, तुल्यता न मधुभक्षिरेपसः । तुल्य मंजनजलेन कुत्रचिनिम्नगापतिजलं न जायते ॥ २८ ॥ - सात ग्रामके जलावने के पाप करि मधुभक्षक के पाप की समानता नाही, जातें अंजलिके जल करि समुद्रका जल असंख्यात गुण है तैंसें सात ग्रामके दाहके पाप भी असंख्यातगुणा पाप मधु भक्षण करनेमें बताया है ||२८||
अर्थ:
म्लेच्छ लोक मुख लालयाविलं, मद्यमांसचितभाजनास्थितम्
सारघं गतघृणस्य _खादतः, कीदृशं भवति शौचमुच्यताम् ॥२६॥
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११२]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ-म्लेच्छ भील लोकनिके मुख की लाल करि मलिन अर मद्य मांस जामैं संचय कीये ऐसे भाजनमैं धरया अर पुण्यकौं नाश करनेवाला जो मधु ताहि ग्लानि रहित खाते पुरुषकै पवित्रपना कैसा है सो कहि ॥२६॥
यश्चिखादिषति सारघं कुधीर्मक्षिकागणविनाशनस्पृहः । पापकर्दमनिषेधनिम्नगा,
तस्य हन्त करुणा कुतस्तनी ॥३०॥ अर्थ--मक्षिकानके समूहके विनाशनेकी है इच्छा जाके ऐसा जो कुबुद्धि मधु खाने की इच्छा करै है, बड़े आश्चर्य की बात है ताके करुणा काहेकी, कैसी है करुणा पापरूप कीचके दूर करनेकौं नदी समान है ॥३०॥
भक्षितो मधुकणोऽपि संचितं, सूदते झटिति पुण्यसंचयम् । काननं विषमशोचिषः कणः,
किं न भक्षयति वृक्षसंकटम् ॥३१॥ प्रर्थ -मधुका कणा भी भक्षण किया संता निश्चय करि पुण्यके समूह कौं शीघ्र नाश करै है । इहां दृष्टांत कहे है--अग्निका जो कणा है सो वृक्षनिका है समूह जा विर्षे ऐसे वनको कहा नहीं भक्षण करै है (नहीं ढहै है) ? दहै ही है ॥३१
योऽत्ति नाम मधु भेषजेच्छया, सोऽपि याति लघु दुःखमुल्वणम् । किं न नाशयति जीवितेच्छया,
भक्षितं, झटिति जीवितं विषम् ॥३२॥ अर्थ-जो औषधकी इच्छा करि भी प्रसिद्ध मधु को खाय है सो भी तीव्र दुःखकौं शीघ्र प्राप्त होय है। इहां दृष्टांत कहे है-जीवनेंकी इच्छा करि खाय जो विष सा कहा शीघ्र जोवनेकौं न नाशै है ? नाशै ही है ॥३२॥
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पंचम परिच्छेद
[ ११३
घोरदुःखदमवेत्य कोविदा, वर्जयन्ति मधु शर्मकांक्षिणः । कुत्र तापकमवत्य पावकं,
गृह्यते शिशिरलोलमानसाः ॥३३॥ अर्थ-सुख के वांछक पंडित जन हैं ते घोर दुःखदायक जानि मधुकौं त्याग कर है। ताका दृष्टांत कहै हैं-शीतलपनेंमैं है लालसा जिनकै ऐसे पुरुष हैं ते अग्निकौं तापकरि जानकरि कहा ग्रहण करै है, नहीं करै
ऐसे मधुका निषेध किया, आगे नवनीतका निषेध करै है;
संसजन्ति विविधाः शरीरिणो, यह सूक्ष्मतनवो । निरन्तराः। तद्ददाति नवनीतमंगिनां,
पापतो न परमत्र सेवितम् ॥३४॥ अर्थ-जा विष सूक्ष्म हैं शरीर जिनके ऐसे नाना प्रकार जीव हैं ते निरन्तर उपज है सो लणी घी सेया सन्ता जीवनिकौं सो पाप देय है, जा पापते लोक विर्षे और पाप नाही ॥३४॥ चित्रजीवगणसूदनास्पदं, यविलोक्य नवनीतमद्यते । तेषु संयमलवो न विद्यते, धर्मसाधन परायणा कुतः ॥३५॥
मर्म-जिन पुरुषनि करि नाना प्रकार जीवनिके समूहके विनाशका ठिकाणा देख करि लौणी खाय है तिन पुरुषनि विर्षे संयम का अंश भी नांही है, धर्मसाधन विर्षे तत्परता काहेते होय ? नाही होय ॥३५॥
यन्मुहूर्त युगतः परः सदा, मूर्च्छति प्रचुरजीवराशिभिः । तभिलंति नवनीतमत्र ये, ते व्रजन्ति खलु को गति मृताः ॥३६॥
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११४ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ - जो लूणी दोय मुहूर्त पाछें प्रचुर जीवनिके समूहनि करि मूच्छित होय है सन्मूर्च्छन जीव जा विषै सो लुणी इहां जे खाय है ते मरे भए निश्चय करि कौन गतिकौं जाय हैं, तिनकी कहा गति होय है जैसी आचार्यनें आशंका कर है ।
भावार्थ - इहां दोय मुहूर्त लुणी की मर्यादा कही सो तपावनेको अपेक्षा है, किछू खाने की अपेक्षा न कही है, जातैं रागादिकके कारनपनेतें खाना तौ प्रकार योग्य नाही ऐसा जानना ॥ ३६ ॥
ये जिनेन्द्रवचनानुसारिणो, घोरजन्मवनपातभीरवः । तैश्चतुष्टयमिदं विनिदितं जीवितावधि विमुच्यते त्रिधाः ॥ ३७॥
अर्थ - जे जीव संसार वनके पाततैं भयभीत हैं अर जिनेन्द्रके वचनके अनुसारा है तिन करि निन्दनीक मद्य मांस मधु लोणी ये चार हैं ते जीवन पर्यंत मन, वचन काय करि त्यागिए है || ३७॥
मद्यमांसनवनीत सारधं, यैश्चतश्कमिदमद्यते सदा । गृद्धिरागवध संग हकं, तैश्चतुर्गतिभवो विगाह्यते ॥ ३८ ॥
अर्थ -- जिन करि अति आसक्तता राग हिंसा के संगके बढ़ावनेवाले मद्य मांस मधु लौणी ए च्यार सदा खाइए हैं तिन करि चतुर्गति संसार अवगाहिए है ( भ्रमिए है ) ।
निषेवतेऽधमो,
यः सुरादिषु निद्यमेकमपि
लोलमानसः ।
सोऽपि
जन्मजलधावताडयते,
कथ्यते किमिह सर्वभक्षिणः ॥ ३६ ॥
अर्थ - जो चञ्चल चित्त नीच पुरुष मदिरादिकनिविषे निन्दनीक एककौं भी सेवन करे सो भी संसार समुद्र विषै भ्रमण करें है, तो इहां सर्व के खानेवाले की कहा कहिए ॥ ३६ ॥
ऐसें मदिरादिक च्यार महाविकृतिका निषेध करे है;
यत्र राक्षसपिशाचसंचरो, यत्र जन्तुनिवहो न दृश्यते । यत्र मुक्तमपि वस्तु भक्ष्यते, यत्र धारतिमिरं विजृंभते ॥ ४० ॥
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पंचम परिच्छेद
[११५
यत्र नास्ति यतिवर्गसंगमो, यत्र नास्ति गुरुदेवपूजनम् । यत्र संयमविनाशि भाजनं, यत्र संसजति जीवभक्षणम् ॥४१॥ यत्र सर्वशुभकर्मवर्जनं यत्र सास्ति गमनागमकिया। तत्र दोषनिलये दिनात्थये, धर्मकर्मकुशला न भुञ्जते ॥४२॥
__अर्थ-जा विष राक्षस पिशाचनिका संचार होय हैं, अर जा विर्षे जीवनिका सम्ह न देखिए है, अर जा विर्षे छोड्या भी वस्तु भक्षण करिए है अर जा विर्षे घोर अन्धकार फैले है ॥४०॥ .
अर जा विर्षे यतीनके समूहका संगम नाही, अर जाविर्षे गुरु देवका पूजन नांही, अर जाविषं संयम का करनेवाला भोजन होय है अर जाविर्षे जीवनका भक्षण उपजै है ॥४१॥
___ अर जा विर्षे सर्व शुभ कर्मका वर्जन होय है, अर जा विर्षे गमनागमन क्रिया नांही है। ऐसा दोषनिका ठिकाना दिनका अभाव रूप रात्रि ताविर्षे धर्म कर्म में प्रवीण पुरुष हैं ते भोजन न करै है ॥४२॥
भुजते निशि दुराशया यके, गृद्धिदोषवशतिनो जनाः । भूतराक्षसपिशाच शाकिनी,
संगतिः कथभमीभिरस्य ॥४३॥ अर्थ–जे दुष्टचित्त लोलुपतारूप दोषके वशीभूत जन रात्रि विर्षे भोजन करै हैं तिन करि भूत राक्षस पिशाच शाकिनीकी संगति कैसे त्यागिए है।
भावार्थ-रात्रिभोजन करै हैं तिनके भूतादिककी संगति अवश्य होय है ॥४३॥ बल्भते दिननिशीथयोः सदाः, यो निरस्तयमसयमक्रियः । शृगपुच्छशफसंगजितो, भण्यतेपशुरयं मनीषीभिः ॥४४॥ ___ अर्थ-जो पुरुष दूर करी है यम, संयम, क्रिया जानें ऐसा रात्रि दिन विर्षे सदा खाय है सो यह पंडितनि करि सीग पूछ रहित पशु कहिए है ॥४४॥
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११६]
श्री अमितगति श्रावकाचार
आमनन्ति दिवसेषु भोजनं; यामिनीषु शयनं मनोषिणः । ज्ञानिनामवसरेषु जल्पनं,
शांतये गुरुषु पूजनं कृतम् ॥४५॥ अर्थ--पंडित है ते दिवसनि विर्षे भोजनकौं सुखके अथि कहै हैं, और रात्रिनि विषं सोवना शांतिके अर्थ कहै हैं, अर ज्ञानीनिके अवसर विष बोलना शांतिके अर्थ कहै हैं, गुरुनविर्षे का पूजन शांति के अर्थ कह हैं ॥४५॥
भुज्यते गुणवतैकदा सदा, मध्यमेन दिवसे द्विरुज्ज्वले । येन रात्रिदिवयोरनारतं, भुज्यते स कथितो नरोऽधमः ॥४६॥
अर्थ-गुणवान उत्तम पुरुष करि सदा एकबार भोजन करिए हैं अर मध्यम पुरुष करि उज्ज्वल दिन विर्षे दोयबार भोजन करिए है अर जा करि दिनरात निरन्तर भोजन करिए है सो मनुष्य अधम नोच कह्या है ॥४६॥
ये विवयं वदनावसानयो,
सरस्य घटिकाद्वयं सदा । भुंजते जितहषीकवाजिन,
स्ते भवन्ति भवभारजितः ॥४७॥ अर्थ--जे पुरुष दिनके आदि अर अन्त विर्षे सदा दोय घडीक वर्ज करि भोजन करै हैं ते जीते हैं इन्द्रिय रूप घोड़े जिननें संसारके भार करि रहित होय हैं मुक्त होय हैं ॥४७॥
ये विधाय गुरुदेवपूजनं, . भुजतेऽह्नि विमले निराकुलाः ।
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पंचम परिच्छेद
[११७
ते विधूय लघु मोहतामसं,
सम्भवन्ति सहसा महोदयाः ॥४८॥ अर्थ--जे पुरुष निर्ग्रन्थ गुरु का अर्हन्त देवका पूजन करके निर्मल दिवस विर्षे निराकूल भये सन्ते भोजन करैं हैं ते शीघ्र मोह अन्धकारकौं नाश करि सहसा महान् उदयरूप होय हैं, केवलज्ञानकौं पावें हैं ॥४८॥
यो विमुच्य निशि भोजनं त्रिधा, सर्वदापि विदधाति वासरे । तस्य याति जननार्द्ध मंचितं,
भुक्तिवजितमपास्तरेपसः ॥४६॥ अर्थ-जो पुरुष मन वचन काय करि सदा रात्रि विषै भोजन त्याग करि दिन विर्षे भोजन करै है तिस पापरहित पुरुषका भुक्ति रहित उपवास रूप आधा जन्म व्यतीत होय है .।४६॥
यो निवृत्तिमविधाय वल्भनं, वासरेषु वितनोति मूढधीः । तस्य किंचन न विद्यते फलं,
भाषिन न विना फलन्तराम् ॥५०॥ अर्थ--जो मूढ बुद्धि पुरुष दिननि विर्षे निवृत्ति जो व्रत ताहि न करि रात्रि विर्षे भोजन करै है ताकै किछु फल न होय है, जातें जिनभाषित विना अतिशय करि फल न होय है।
भावार्थ-कोऊ कहै कि दिन विर्षे भोजन न करना अर रात्रि विर्षे करना यह भी व्रत है ताकू कहा है कि ऐसा मार्ग नांहीं, जातें रात्रि भोजन विर्षे द्रव्यभाव हिंसाकी विशेषतातें ऐसे व्रततै किछु फल नाही, पाप ही होय है । जैसे कोऊ अन्न छोड़ करि मांस भक्षण कर तैसे ऐसा व्रत पापहीके अर्थ जानना ॥५०॥
ये व्यवस्थितमहःसु सर्वदा, शर्वरीषु रचयन्ति भोजनम् ।
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११८]
श्री अमितगति श्रावकाचार :
निम्नगामि सलिलं निसर्गत,
स्ते नयन्ति शिखरेषु शाखिनाम् ॥५१॥ अर्थ--जे पुरुष स्थाप्या है दीपकादि प्रकाश जिन विष ऐसी रात्रिनि विर्षे भोजनको रचै है ते स्वभावतें नीचेको चलनेवाला जो जल ताहि शिखरनि विर्षे वृक्षनकौं प्राप्त करै है।
भावार्थ--इहां ऐसा है कि कोऊ कहै हम रात्रि विर्षे दीपकादि करि हिंसा निवारि लेइंगे ताकू कह्या है। रात्रि विर्षे हिंसा अनिवार्य होय है, जातें भोजनके आश्रय जीव वा दोपकादि करि और जीव अवश्य घाते जाय हैं, अर रागादिककी तीव्रता होय है, तातें रात्रि विष हिंसा अवश्य है सो निवारी न जाय । ताका दृष्टांत दिया है कि जल का स्वभाव नीचे पड़नेका है सो ऊपर चढ़े ऐसा कोई प्रकार होय सकै, ऐसा जानना ॥५१॥
सूचयन्ति सुखदायि येगिनां, रात्रिभोजनमपास्तचेतनाः । पावकोद्धतशिखाकरालितं,
ते वदन्ति फलदायि काननम् ॥५२॥ अर्थ--जे अज्ञानी रात्रि भोजन जीवनकौं सुखदायक कहैं हैंते अग्निकी उद्धत शिखा करि जल्या जो बन ताहि फलदायक कहै है, सो हाय नाही ॥५२॥
ये ब्रुवन्ति दिनरात्रिभोगयो, स्तुल्यतां रचितपुण्यपापयोः । ते प्रकाशतमसोः समानतां,
दर्शयन्ति सुखदुःखकारिणोः ॥५३।। अर्थ-रचे हैं पुण्य अर पाप जिननें ऐसे जे दिन विर्षे भोजन अर रात्रि विष भोजन दोऊनकों समान कहै हैं ते सुख अर दुःखके करनेवाले ऐसे प्रकाश और अन्धकार दोऊनिकौं समान दिखावै है।
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पंचम परिच्छेद
[११६
भावार्थ--दिनमैं भोजन धर्मरूप है अर रात्रि भोजन पापरूप हैं जैसे प्रकाश अर अन्धकार समान कदाच नाही ॥५३॥
रात्रिभोजनमधिश्रयन्ति ये, धर्मबुद्धिमधिकृत्य दुधियः । ते क्षिपन्ति पविवह्निमण्डलं, .
वृक्षपद्धतिविवृद्धये ध्रुवम् ॥५४॥ अर्थ-जे धर्मबुद्धि करि रात्रि भोजनकौं सेवन कर हैं ते निश्चय करि वृक्षनिकी पद्धति की वृद्धि के अर्थ वज्राग्निके समूहकौं खेपे हैं। .
भावार्थ-कोई मिथ्यादृष्टि दिनमैं व्रत कर है रात्रि विष भोजन कर है ताकू कह्या है--जैसे अग्नितें कोई प्रकार वृक्षनिकौं वृद्धि न होय तसे रात्रि भोजन विर्षे कोई प्रकार धर्म नाही, अधर्म ही है ऐस जानना ॥५४॥
ये विधृत्य सकलं विनं क्षुधां, भुजते सुकृतकांक्षया निशि । ते विवृध्य फलशालिनी लतां,
भस्मयन्ति फलकांक्षया पुनः ॥५५॥ अर्थ-जे जीव पुण्यकी वांछा करि सर्वदिन क्षुधाकौं धारि रात्रिविर्षे भोजन कर है ते फल करि शोभित लताकौं बठाय फेर फल की वांछा करि भस्म करै हैं ॥५५॥
ये सदापि घटिकाद्वयं विधा, कुर्वते दिनमुखांतयोव॒धाः । भोजनस्य नियमं विधीयते,
मासि तैः स्फुटमुपोषितद्वयम् ॥५६॥ - अर्थ जे पण्डित पुरुष सदा ही दिनके आदि अर अन्त विर्षे दोयस घड़ी भोजनका नियम कर हैं तिन करि प्रगटपर्ने एक मासमैं दोय उपवा करिए है।
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१२० ]
श्रो अमितगति श्रावकाचार
भावार्थ--दिन वि. दोय दोय मुहर्त भोजनका त्याग भये मासमें साठि मुहर्तका त्याग होते दोय उपवास का फल होय है ॥५६॥
रोग शोककलिराटिकारिणी, राक्षसीव भयदायिनी प्रिया । कन्यका दुरितापकसंभवाः,
रोगिता इव निरन्तरापदाः ॥५७॥ देहजा व्यसनकर्मपंडिताः, पन्नगा इव वितीर्णभीतयः । निर्धनत्वमनपायि सर्वदापात्रदानमिव दत्तवृद्धिकम् ॥५॥ संकटं सतिमिरं कुटीरकं, नीचवित्तमिव रंघ्नसंकुलम् । नीचजातिकुलकर्मसंगमः, शीलशौचशमधर्मनिर्गमः ॥५६॥ व्याधगो विविधदुःखदायिनो, दुर्जना इव परापकारिणः । सर्वदोषयणपीड्यमानता, रात्रिभोजनपरस्य जायते ॥६०॥
अर्थ--रात्रि भोजन विर्षे तत्पर जो पुरुष ताकै ऐसी सामग्री होय है स। कहै हैं--राग अर शोक अर कलह अर राड़ इनकी करनेवाली अर राक्षसीकी ज्यौं भय देनेवाली स्त्री मिले है, अर महापापतें उपजा अन्तराय सहित सदा दुःख देनेवाली कन्या होय है। बहुरि दिया हं भय जिनमैं ऐसे पापकर्म विर्षे प्रवीण सपै की ज्यौं पुत्र होय है, बहुरि दई ह वृद्धि जानें ऐसा अपात्र दानकी ज्यौं निर्धनपना विनाश रहित सदा होय है।
भावार्थ--जैसें अपात्र दान निरन्तर वृद्धि कर तैसें रात्रि भोजन निर्धनपना नित्य बढ़ावै ऐसा दृष्टांत दिया ह। बहुरि छिद्रनि करि व्याप्त नीच पुरुषके वित्तकी ज्यौं संकटरूप अन्धकार रहित घर मिले हैं, अर नीच जाति कुलकर्म इनका संगम होय है, अर शील निर्लोभता समभाव धर्म इनका निर्गम होय है, अभाव होय है, अर परके बुरे करनेवाले दुर्जनकी ज्यौं दुःख देनेवाली व्याधि होय है, अर सर्व दोषनके समूहकरि पीड्यमानपना, दुखीपना होय है। ऐसे रात्रिभोजन करनेवाले के दोषनिकी उत्पत्ति होय है ।। ५७-५८-५९-६०॥
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पंचम परिच्छेद
[ १२१
आगें रात्रिभोजन त्यागनेवालेके गुण कह हैं--
पद्मपत्रनयनाः प्रियंवदाः, श्रीसमः प्रियतमा मनोरमाः । सुन्दरा दुहितरः कलालयाः,
पुण्यपंक्तय इवात्तविग्रहाः ॥६१॥ भ्रंशितव्यसनवृत्तयोऽमलाः, पावना हिमकरा इवांगजाः । शकमंदिरमिवास्ततामसं, मंदिरं प्रचुररत्नराजितम् ॥६२॥ लब्धचितितपदार्थमुज्ज्वलं, भूरिपुण्यमिव वैभवं स्थिरम् । सर्वरोगगणमुक्तदेहता, सर्वशर्मनिवहाधिवासिता ॥६३॥ ज्ञानदर्शनचरित्रभूतयः सर्बयाचितविधानपंडिताः । सर्व लोकपतिपूजनीयता, रात्रिमुक्तिविमुखस्य जायते ॥६॥
अर्थ-कमलके पत्रसमान है नयन जिनके अर प्रिय वचन बोलनेवाली लक्ष्मीके समान रमावनेवाली ऐसी स्त्री होय है, अर कला विद्यानिको स्थान अर पुण्यकी पंकतिसमान ग्रहण किया है शरीर जिननें ऐसो सुन्दर कन्या होय है ॥५१॥
अर दूर करी है व्यमनकी प्रवृत्ति जिन पवित्र निर्मल चन्द्रमा समान पुत्र होय हैं, अर इंद्रके मंदिर समान अन्धकार रहित प्रचुर रत्ननि करि शोभित ऐसा मंदिर मिले है ।।६२॥ . .
अर पाया है वांछित पदार्थ जाते एसी उज्ज्वल महा पुण्य समान स्थिर वैभव होय है, अर सर्व रोगनके समूह करि रहित देहपना अर सर्व सुखनके समूहका आधारपना ॥६३॥
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१२२ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर सर्व वांछित रचनेमैं प्रवीण ऐसी ज्ञान दर्शन चरित्रको सम्पत्ति अर सबलोकपतिन करि पूजनीकपना ये रात्रिभोजनतैं जो विमुख है ताक होय है ।
भावार्थ- पूर्वोक्त गुण रात्रि भोजनके त्यागी सर्व होय है ऐसा
जानना ।। ६४ ।
शूकरी शेवरी वानरी धावरी, रोहिणी मंडली शोकिनी क्लेशिनी ।
दुर्भगा निःसुता निर्धवा निर्धना, शर्वरीभोजिनी जायते भामिनी ॥ ६५ ॥
अर्थ - - रात्रि विषै भोजन करनेवाली स्त्री है सो सूकरी भीलनी वानरी धीवरी रोहिणी कुत्ती शोकसहित केल्शसहित दुर्भग पुत्र रहित पति रहित धन रहित ऐसी होय है ।। ६५ ।।
बांधवैरंचिता देहजैर्वदिता, भूषणैर्भूषिता व्याधिभिर्वजिता । श्रीमती हीमती धर्मिणी, वासरे जायते भुक्तितः शर्मणी ॥ ६६ ॥
अर्थ - बांधवनि करि युक्त अर पुत्रनि करि वंदित अर आभूषणनि करि भूषित अर रोगनि करी वर्जित लक्ष्मीवान लज्जावान बुद्धिवान धर्मात्मा ऐसी सुखरूप स्त्री है सो दिनविषै भोजन तैं होय है ।
मावार्थ - जो रात्रि विषे भोजन त्याग है सो पूर्वोक्त गुणसहित होय है ॥ ६६ ॥ रात्रिभोजनविमोचिनो गुणा, ये भवंति भवभागिनां परे । तानपास्य जिननाथमीशतें, वक्तुमत्र न परे जगत्रये ॥६७॥
-
अर्थ – जीवनिक रात्रि भोजन त्यागके उत्कृष्ट गुण हैं तिनहि तीनलोक विषे जिनराज सिवाय और कोई कहनेकौं समर्थ नांहीं है ॥६७॥
ऐसें रात्रि भोजनका निषेध किया, आगें पंच उदंबर फलनिका निषेध कर है
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पंचम परिच्छेद
। १२३
यत्र सूक्ष्मतनवस्तनू भृतः, संभवंति विविधाः सहस्रशः । पंचधा फलमुदुंबरोद्भवं, तन्न भक्षयति शुद्धयति शुद्धमानसः।६८।
अर्थ-जाविर्षे सूक्ष्म हैं शरीर जिनके ऐसे जोव नानाप्रकार हजारां उपजै है तिस पांच प्रकार उदंबर जनित फलकौं शुद्ध है मन जाका ऐसा पुरुष है सो न खाय है। ।
भावार्थ-ऊमर, कठऊमर, पाकरफल, बड़, पीपर ये पांच उदम्बर फल हैं ते त्रसजीवनिके उपजने के ठिकाने हैं तातें बुद्धिवान इनका सर्वथा परित्याग करै है ॥६॥ क्षीरभूरुहफलानि भुजते, चित्रजीवनिचितानि येऽधमाः । जन्मसागरनिपातकारणं, पातकं किमिह ते न कुर्वते ॥६६॥
अर्थ-जे पापी पुरुष असंख्यात जीवनि करि भरे हुए क्षीरी वृक्षनिके फलनिकौं खाय है ते संसार सागरमैं डूबनेको कारण कौनसा पापकौं इहां न करै हैं, अपितु सव ही पाप करै हैं ।।६।। असंख्यजीवव्यपघातवृत्तिमिन, धीवरैरस्ति समं समानता । अनंतजीवव्यपरोपकारिणामुदुंबराहारविलोलचेतसाम् ॥७॥
अर्थ-अनन्त जीवनके नाश करनेवाले पंच उदंबरके आहार विर्षे है लोलुप चित्त जिनका तिनकी असंख्य जीवनके घातरूप है आजीविका जिनकी ऐसे ढीमरनि करि साथ समानता नाहीं है।
भावार्थ-उदम्बरके खानेवालेकै ढीमरनतें भी अधिक पापीपना यहां दिखाया ऐसा जानना ॥७०॥
ये खादंति प्राणिवर्ग विचित्रं, दृष्ट्वा पंचोदुबराणा फलानाम् । श्वभ्रावासंयांति ते घोरदुःखं,
कि निस्त्रिशैः प्राप्यते वा न दुःखम् ॥७१॥ अर्थ-जे नाना प्रकार जीवनिके समूहकौं देख करि पंच उदंबर
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१२४ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
फलनिकौं खाय हैं ते घोर दुःखरूप नरकवासकौं प्राप्त होय है, अथवा निर्दय जीवनि करि कहा दुःख न पाइए है, सर्व ही पाइए है ।।७१।। अघप्रदायोनि विचित्य धर्मधीरुदुंबराणां, न फलानि वल्भते । विधातुमिष्टे सुखदे प्रयोजने, करोति कस्तद्विपरीतमुत्तमः ॥७२॥
अर्थ-धर्मबुद्धी पुरुष है सो उदम्बरनिके फलनिकौं पापके देनेवाले जानि नहीं खाय है, जातै सुखदायक कार्य करनेकौं इष्ट होतसन्तै कौन उत्तम पुरुष है सो तातै विपरीत करै है, अपितु नाहीं कर है ।।७२॥
आदावन्ते स्फुटमिह गुणा निर्मला धारणीयाः, पापध्वंसि व्रतमपमलं कुर्वता श्रावकीयम् । कुर्त शक्यं स्थिरगुरुतरं मंदिरं गर्त पूरं, न स्थेयोभिई ढतस्मृते निर्मितं ग्रावजालैः ॥७३॥
अर्थ-पापका नाश करनेवाला श्रावक सम्बन्धी निर्मल व्रतकौं करता जो पुरुष ता करि आदि अन्त विष प्रगटपनें इहां निर्मल गुण धारणा योग्य है। इहां दृष्टांत कहै है-जैसे अत्यंत थिर जे पत्थरनके समूह तिनकरि दृढ़ किया जो गर्त पूर कहिए नींव ताविना स्थिर अर अतिभारी मंदिर करनेकौं समर्थ नाहीं तैसैं ।
भावार्थ-जैसे दृढ़ मूल बिना निश्चल मंदिर न होय है तैसे पंच उदम्बर तीन मकारके त्यागरूप मूलगुण बिना निर्मल व्रत न होय है तातें आदितै लगाय अन्त पर्यंत प्रथम मूलगुण धारणा योग्य है ॥७३॥
दातुं दक्षः सुरतरुरिव प्रार्थनीयं जनानां, चित्त येषामोति गुणकणो निश्चलत्वं वित्ति । भुक्त्वा सौख्यं भुवनमहितं चितितावाप्तभोगं, ते निर्वाधाममितगतयः श्रेयसी यांति लक्ष्मीम् ।।७४।।
अर्थ-जीवनिकौं वांछित देनेकौं कल्पवृक्षसमान प्रवीण ऐसा यह गुणनिका समूह जिनके चित्त विर्षे निश्चलपनेकौं धार हैं ते पुरुष चिंतत
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षष्टम परिच्छेद
[१२५
प्राप्त है भोग जावि ऐसे लोक पूजित सुखकौं भोग करि अनन्त है ज्ञान जिनके ऐसे भये संते निर्वाध मोक्षलक्ष्मीकौं प्राप्त होय है ॥७४॥ मद्य मांस मधु पंच उदंवर, फल त्रसजीवनिके आधार ।
लौंणी निशिभोजन इत्यादिक, तीव्र पाप त्याग दुखकार ॥ विमल मूलगुण प्रथम धरत हम, सब व्रत शोभा पावै सार । तातै भोगि सार सुख क्रमतें, होय अमितगति जगसिरदार ॥ इति श्री अमितगति प्राचार्यकृत श्रावकाचारविर्षे
पंचम परिच्छेद समाप्त भया ।
षष्ठम परिच्छेद
आगें द्वादश अगुव्रतका वर्णन करें हैं;मद्यादिभ्यों विरतानि, कार्याणि शक्तितो भव्यः । द्वादश तरसा छेत्त, शस्त्राणि शितानि भववृक्षम् ॥१॥
अर्थ-मद्यादिकनि विरक्त जे भव्यपुरुष तिन करि शक्ति सारू द्वादश व्रत करणा योग्य है । ते व्रत संसारवृक्षकौं वेग करि छेदनकौं तीक्ष्ण शस्त्रकी ज्यौं हैं ॥१॥
अणुगुणशिक्षाद्यानि व्रतानि गृहमेधिनां निगद्यते । पंचत्रिचतुः संख्यासहितानि द्वादश प्राज्ञैः ॥२॥
अर्थ-पंडितनि करि श्रावकनिके अगवत गुणव्रत शिक्षाव्रत क्रमसैं पांच तीन च्यार संख्या सहित द्वादश कहे हैं।
भावार्थ-पांच अणुव्रत तीन गुणव्रत च्यार शिक्षाव्रत ऐसे बारह व्रत श्रावकनिके कहै हैं ।।२।।
__ आगै अगुव्रतनिकौं कहैं हैं;--
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श्री अमितगति श्रावकाचार
हिंसा सत्य स्तेयाब्रह्मपरिग्रहनिवृत्तिरूपाणि । ज्ञेयान्यणुव्रतानि, स्थूलानि भवंति पंचात्र ॥३॥
१२६ ]
अर्थ -- इहां स्थूल हिंसा झूठ चौरी अब्रह्म परिग्रह इनितं निवृत्तिरूप पांच अणुव्रत जानना योग्य हैं || ३ ||
तहां स्थूल हिंसात्याग व्रतकौं कहै हैं;
द्वधा जीवा जैनैर्मतास्त्र, संस्थावरप्रभेदेन ।
तत्र सरक्षायां तदुच्यतेऽणुव्रत प्रथमम् ॥४॥
प्रर्थ - जैनीनिनैं स स्थावरके भेद करि दोय प्रकार जीव कहै है तहां सजीवनकी रक्षा होतसंतै सो प्रथम अणुव्रत कहिए है || ४ || स्थावरघाती जीवस्त्रससंरक्षी, विशुद्धपरिणामः ।
योऽक्षविषयान्निवृत्तः, सः संयतासंयतो ज्ञेयः ॥ ५॥
अर्थ - जो जीव स्थावरघाती है स्थावरकी हिंसा त्यागनेकौं असमर्थं है, अर सजीवनिका भले प्रकार रक्षा सहित है अर विशुद्ध है परिणाम र इन्द्रिय विषयनित विरक्त है सो संयतासंयत कहिए देशव्रतका
धारक श्रावक जानना । ५ ।
हिंसा द्वेधा प्रोक्ताऽरंभानारंभजत्वतोदक्षैः । गृहवासतो निवृत्तो द्वेधापि त्रायते तां च ॥ ६॥
गृहवाससेवनरतो मन्दकषायः प्रवृत्तितारंभाः । आरम्भजां स हिंसा शक्नोति न रक्षितुं नियतम् ॥७॥
अर्थ -- पंडित करि आरम्भ अर अनारंभतै उपजवे पने करि हिंसा सो कही है दोय प्रकार गृहवासतें निवृत्त जो मुनि सो तौ दोय प्रकार हिंसा बचा है || ६॥
अर जो गृहवासके सेवने मैं रत श्रावक मन्द कषाय स्वरूप वर्त्ताया है आरम्भ जानें सो निश्चय करि आरम्भ जनित हिंसाके त्यागनेकौं समर्थ न होय है ।
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षष्ठम परिच्छेद
[१२७
भावार्थ--मन्द कषायरूप चारित्रमोह के उदयतें अवशपर्ने व्यापार आरम्भ विष सो तो आरम्भजनित हिंसा कहिए, अर विना ही प्रयोजन चला करि आप ही तीव्र कषायरूप हिंसा करना सो अनारंभजनित हिंसा कहिए सो इनि दोऊ प्रकार हिंसानिका त्याग तो मुनीश्वरनिकै होय है, अर गृहस्थके शक्तिहीनपनाते निर्दोष व्यापारादि जनित हिंसाका त्याग न होय सकै है परन्तु परिणामनि विर्षे सर्व हिंसातें महा अरुचि है, निन्दा गर्हा आपकी करै हैं ऐसा जानना ॥७॥
शमिताद्यष्टकषायः प्रवर्तते यः परत्र सर्वत्र । निंदागर्हाविष्टः सः संयमासंयम धत्ते ॥८॥
अर्थ--उपसमाएँ हैं आदिके अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान रूप क्रोधादि अष्ट कषाय जानें अर सर्व ठिकानै निन्दा गर्दा युक्त जो प्रवर्ते है सो संयमासंयम जो देशव्रत ताहि धारै है ॥८॥
कामासूयामायामत्सरपैशून्यमदहीनः । धीरः प्रसन्नचित्ताः प्रियंवदो वत्सलः कुशलः ॥६॥ हेयादेयपटिष्टो गुरुचरणाराधनोद्यतमनीषः । जिनवचनतोयधौतस्वांतकलंको भवविभीरुः ॥१०॥ सम्यक्तरत्नभूषो मन्दीकृतसकलविषयकृतगृद्धिः । एकादशगुणवर्ती निगद्यते श्रावकः परमः ॥११॥
अर्थ--विषय निकी वांछा अदेखसका भाव मायाचार मत्सरता चुगलीखाना दीनपना जात्यादि मद इनकरि रहित होय अर प्रसन्नचित्त होय अर प्रिय वचन कहनेवाला होय धीर होय प्रीतियुक्त अर प्रवीण होय ॥६॥ ___बहुरि त्यागने योग्य ग्रहण करने योग्य विर्षे पंडित होय अर गुरु चरणनिके आराधने विष उद्यमरूप बुद्धियुक्त होय, अर जिनवचनरूप जल करि धोया है मनका कलंक जानें ऐसा होय, अर संसारतें भयभीत होय ॥१०॥
बहुरि सम्यक्तरूप रत्नके आभूषण करि सहित होय, अर मन्द करि है समस्त विषयनि करि लोलुपता जानैं ऐसा होय ।
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१२८ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
बहुरि एकादश गुण जे ग्यारह प्रतिमा तिन विषै प्रवर्तनेवाला होय सो परम श्रावक कहिए है ॥ ११ ॥
संरंभ समारंभारंभैर्योगकृतकारितानुमतैः । सकषायैरभ्यस्तैस्तरसा संपद्यते हिंसा ॥ १२ ॥ त्रित्रित्रिचतुः संख्यैः संरंभाद्यः परस्परं गुणितैः । अष्टोत्तरशतभेदा हिंसा संपद्यते नियतम् ॥१३॥
अर्थ - संरम्भ समारम्भ आरम्भ अर मन वचन काय अर कृत कारित अनुमोदन अर कोध मान माया लोभसहित गुणे भए निकरि वेग करि हिंसा उपजे है ॥ १३ ॥
संरम्भादिक तीन अर योग तीन अर कृत कारित अनुमत ये तीन अर कषाय च्यार इनतैं परस्पर गुणो भएनि करि एकसौ आठ भेदरूप हिंसा निश्चयतें उपजै है |
भावार्थ - संरम्भ कहिए हिंसा करनेका श्रद्धान विचार अर समारम्भ कहिये हिंसा उपकरण मिलावना अर आरम्भ कहिए जीवनिका मारना ये तीनों मन वचन काय करि गुणे भए तिनकौं कृत कारित अनुमोदना करि गुणे सत्ताईस भए तिनकौं क्रोधादि च्यार कषायनितें गुणे एकसौ आठ भए । इनसे एकसे आठ भंगनिकी पलटन कैसे होय है सो कहिए है । प्रथम संरम्भ मन करि करया क्रोध सहित ऐसा दूसरा भँग भया, बहुरि समारम्भ मन करि कर्या क्रोध सहित ऐसा तीसरा भँग भया, ऐसें प्रथम भेद समाप्त भए योगरूप दूसरा भेद पलटै जैसे मन कह्या तहां वचन कहना, बहुरि ताकू भी पूर्ण होतें तीसरा भेद पलटै, जैसे कृत कह्या था तहां कारित कहना ताकू भी पूर्ण होतें चौथा भेद पलटै जैसे क्रोध कह्या तहां मान कहना । जैसें भँग पलटनेत एकसौ आठ भेद हिंसाकेहोय हैं ऐसा
जानना ।। १३ ।।
जीवत्राणेन विना व्रतानि कर्माणि नो निरस्यति । चन्द्र ेण विना नक्षैर्हन्यन्ते, तिमिरजालानि ॥१४॥ अर्थ - जीवनिकी दया विना व्रत हैं ते कर्मनिका नाश नाही
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षष्ठम परिच्छेद
[ १२६
करे है जैसे चन्द्रमा विना नक्षत्रनि करि अन्धकारका समूह नाहीं हनिए है तैसें
I
भावार्थ - सब व्रतन मैं जीवदया प्रधान है ऐसा जानना || १४ || तिष्ठति व्रतनियमा नाहिंसामंतरेण सुखजनकाः । पृथिवीं न विना दृष्टास्तिष्ठन्तः पर्वताः क्कापि ॥ १५ ॥
अर्थ – सुखके उपजावने हार व्रत अर नियम हैं ते दया विना नांहीं तिष्ठे हैं, जैसे पृथ्वी विना तिष्ठते पर्वत कहूं भी न देखे तैसें ।
भावार्थ - सब ब्रतनियमनिका आधार दया है ऐसा जानना ।। १५ ।। निघ्नानेनहिंसामात्माधारां निपात्यते नरके । खाधारां न हि शाखां, छिदानः किं पतति भूमौ ॥ १६ ॥
जो
अर्थ - आत्माका आधाररूप जो अहिंसा दया ताहि विनासता पुरुष ता करि आत्मा नरक विषै पटकिए है, इहां दृष्टांत कहिए है, अपने आधाररूप जाय बैठ्या ऐसी जो शाखा डाली ताहि छेदता सन्ता पुरुष है सो पृथ्वी विष कहा नाहीं पड़े है ? पड़े ही है ॥ १६ ॥
स मतो विरताविरतः स्वल्पकषायो विवेकपरमनिधिः । रक्षति यत्रसदशकं प्राणहितं स्थावरचतुष्कम् ॥१७॥
अर्थ - जो बेइ द्रियत्रींद्रिय चतुरिंद्रिय पंचेन्द्रिय सैनी असैनी इनके पर्याप्त अपर्याप्त भेद करि दश भेद भए, यह जो त्रस दशक ताकी रक्षा कर है, अर एकेन्द्रिय बादर सूक्ष्म ताके पर्याप्त अपर्याप्त भेद करि च्यार भेद ऐसा स्थावर चतुष्क ताका हित वांछे है, अवशर्तें तिनकी हिंसा होय है तो भी अनुमोदना नाही करे है, मन्द है कषाय जाकै अर विवेकका परमनिधान सो विरताविरत श्रावक कह्या है ॥ १७ ॥
सर्वविनाशी जीवनसहननं, त्याज्यते यतो जैनः | स्थावरहननानुमतिस्ततः कृता तैः कथं भवति ॥ १८ ॥
,
अर्थ - यातें जीव है सो सबका हिंसक है तातें जैनीनि करि
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१३०]
श्री अमितगति श्रावकाचार।
त्रस हिंसाका त्याग करिए है तिन करि स्थावरकी हिंसा विर्षे अनुमोदना कैसे करिए है।
___ भावार्थ-कोउ कहै श्रावकके त्रस हिंसाका त्यागकै ऐसे उपदेश मैं स्थावर हिंसामैं अनुमोदना आई ताक कह्या है । जीव सर्वही का हिंसक है ताकै सर्व हिंसा छटती न जानि त्रस हिंसा छुड़ाई है किछ स्थावरकी हिंसा करनेका उपदेश नाहीं तातें स्थावर हिंसामें अनुमोदना नाहीं ऐसा जानना ॥ १८ ॥
त्रिविधा द्विविधेन मता, विरतिहिंसादितो गृहस्थानां । त्रिविधा त्रिविधेन मता, गृहचारकतो निवृत्तानाम् ॥१६॥
अर्थ-गृहस्थनिकै हिंसादिकनितें विरति कहिए त्यागभाव सो दोय प्रकार सहित तीन प्रकार । बहुरि गृह त्यागनिकै तीन प्रकार सहीत तीन प्रकार है।
भावार्थ-करै नाहीं करावै नाहीं मन वचन काय कर ऐसे छह प्रकार के त्याग है । अनुमोदना सहित नवकोटी त्याग नाहीं जा हिंसादिक मैं अनुमोदनका प्रसंग बन रहा है, ऐसा गृहस्थनिकै जानना। बहुरि जे गहाचार के त्यागी हैं तिनकै कृत कारित अनुमोदना सहित मन वचन काय करि नवकोटी का त्याग हैं, ऐसा जानना ॥ १६ ॥
जीववपुषोरभेदो येषामेक्रांतिको मतः शास्त्रे । कायविनाशे तेषां जीवविनाशः कथं वार्यः ॥ २० ॥
अर्थ-जिनके शास्त्र विष जोवका अर शरीरका एकांतरूप अभेद कह्या है तिनके शरीर के विनाश होत संतें जीवका कैसे न भया ।। २० ।।
आत्मशरीरविभेदं वदंति, ये सर्वथा गतविवेकाः । कायवधे हन्त कथं, तेषां संजायते हिंसा ॥ २१ ।।
अर्थ-जो विवेक रहित आत्माका अर शरीरका सर्वथा भेद कहै है तिनके शरोरके वध होत संत हिंसा कैसे होय यह बड़े आश्चर्य की बात है।
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षष्ठम परिच्छेद।
[१३१
इहां भावार्थ ऐसा है:- जौ पहिले श्लोक में तो सर्वथा जीवकै अर शरीरक अभेद मानें हैं तिनके शरीर विनाश होतें अवश्य जीवका नाश आया तब स्वयमेव हिंसा आई, अर जे सर्वथा जीवको अर शरीर कौं भेद मान है तिनके शरीरके नाशमैं हिसा न ठहरी तब ते भी स्वच्छन्द होते हिंसक ही भये। तातें दोऊ ही एकांती है ते हिंसक हैं, ऐसा जानना ॥ २१ ॥
भिन्नाभिन्नस्य पुनः पीडा संपद्यतेतरां घोरा। देहवियोगे यस्माकेस्मादनिवारिता हिंसा ॥ २२॥
अर्थ-जातें देहते कोई प्रकार भिन्न कोई प्रकार अभिन्न ऐसा जो जीव ताकै शरीरका वियोग होत संते अतिशय करि घोर पीड़ा उपजै हैं तातें अनिवारित हिंसा होय है ।
मावार्थ-लक्षण भेदकरि जीव शरीर भिन्न हैं तथापि बन्धदृष्टि करि अभेद है तातें जीवके शरीरके वियोग करने मैं अवश्य हिंसा होय है, ऐसा जानना ॥ २२॥
तत्पर्यायविनाशे दुःखोत्पत्तिः परश्च संक्लेशः। यः सा हिंसा सन्दर्वर्जयितय्यिा प्रयत्नेन ॥ २३ ॥
अर्थ-तिस पर्यायके विनाश होतसन्तै दुःखकी उत्पत्ति होय है अर जो महासंक्लेश होय है सो हिंसा संतनि करि यत्न सहित वर्जन करना योग्य है ॥ २३ ॥
प्राणी प्रमादकलितः, प्राणव्य परोपणं यदा धत्ते ।
सा हिंसाऽकथि दक्षर्भववृक्षनिषेकजलधारा ॥ २४ ॥ . अर्थ-जो प्राणी प्रमादकरि व्याप्त भय संता शरीरादि प्राणनिका व्यपरोपणा करं है घात करै है सो पंडितनि करि हिंसा कही है, कैसीई हिंसा संसार वृक्षके सींचनेकौं जलधारा समान है।
भावार्थ-कषाय सहित आफ्के वा परके प्राणनिका नाश करना सो हिंसाका लक्षण कह्या है ॥ २४ ॥ ..
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१३२ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार |
त्रियतां मा मृत जीवः प्रमादबहुलस्य निश्चिता हिंसा । प्राणव्यपरोपेऽपि प्रमादहीनस्य सा नास्ति ।। २५ ।।
अर्थ - जीव मरो चाहै न मरो तीव्र प्रमाद सहित जीवकै निश्चय रूप हिंसा है, बहुरि प्राणनिका नाश होतें भी प्रमाद रहितकै सो हिंसा नाहीं है ।
भावार्थ - हिंसाका मूल कारण प्रमाद है ताके होतैं वाह्य प्राणव्यपरोपण होते वा न होतें हिंसा अवश्य होय है, अर ता विना अप्रमत्त मुनीराजकै अवश्यतै प्राणव्यपरोपण होतें भी हिंसा नाहीं कही है ।। २५ ।।
यो नित्योsपरिणामी तस्य, न जीवस्य जायते हिंसा ।
न हि शक्यते निहंतु,
अर्थ - जो नित्य परिणाम रहित कूटस्थ है ताकै जीवकी हिंसा न होय है, जातें, कोऊ करि कदाचित् आकाश हनिवेकू समर्थ न जिए हैं ।
केनापि कदाचनाकाशम् ॥ २६ ॥
भावार्थ - जो सर्वथा नित्य कूटस्थ आत्माकौं मानें है ताके हिंसाका जानना न ह्य तब ताका त्याग भी न होय है, तातैं नित्यपनेका एकांत मिथ्या दिखाया है ॥ २६॥
क्षणिको यो व्ययमानः क्रियमाणा तस्य निष्प. ला हिंसा ।
चलमानाः पवमानो न,
चाल्यमानः फलं कुरुते ॥ २७ ॥
अर्थ - जो क्षणिक नाश होता सन्ता जीव है ताकी करी भई, हिंसा निष्फल है । जैसैं चालता जो पवन सो चलता सन्ता फलकौं न करें है तैसें ।
भावार्थ - जे जीवकौं क्षणिक मान हैं तिनकै क्षण क्षण आपहीका नाश भया ताकी हिंसा निष्फल भई जैसे पवन आपही चालें सो चलाया सन्ता फल कहा करै तातें क्षणिक मानना भी मिथ्या हैं ।। २७ ।।
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षष्ठम परिच्छेद
[१३३
यस्मानित्यानित्यः काय वियोगे निपीड्यते जीवः । तस्माद्य क्ता हिंसा प्रचुरकलिलबन्धवृद्धिकरी ॥२७॥
अर्थ-जातें कथंचित् नित्य कंथचित अनित्य स्वरूप जीव है सो शरीर के वियोग होतसन्तै पीडिए है दुखी होय है, तातै प्रचुर पापको बन्ध करनेवाली शरीरके हिंसायुक्त है।
भावार्थ-स्याद्वाद करि नित्य वा अनित्य स्वरूप जीव मान है तिनहीकै हिंसाका ज्ञान होय हैं, तब तिनहीकै त्याग होय है, एकातीकै हिंसाका जाने बिना त्याग नांही। ऐसा इहां आशय जानना ॥ २८ ॥
देवातिथिमन्त्रौषधपित्रादिनिमित्ततोऽपि सम्पन्ना । हिंसा धत्त नरके किं पुनरिह नान्यथा विहिता ॥ २६ ॥
अर्थ-देव गुरु मंत्र औषध पितर इत्यादिकनिके निमित्तत भी प्रात्त भई हिंसा है सो नरकमैं धरै है तो इहां फेर और प्रकार करी भई हिंसा नरक विर्षे न धरै है ? धरै ही है ॥ २६ ॥
आत्मवधो जीववधस्तस्य च, रक्षात्मनो भवति रक्षा । आत्मा न हि हंतव्यस्तस्य, वधस्तेन भोक्तव्यः ॥ ३० ॥
अर्थ-जीवका वध है सो आत्माका वध है अर जीवकी रक्षा है सो आत्माकी रक्षा है, बहुरि आत्मा हनिवे योग्य नाहीं ता कारण तिस जीवका वध त्यागना योग्य है।
भावार्थ-जीवनके घात विर्षे कषाय भाव होय है तिन कषाय भावनि करि स्वभाव घात होतें आत्माही का घात भया, अर जीवनिकी रक्षा करनेतै कषाय घटै तब आयुहीकी रक्षा भई। बहुरि आत्म-घात करना योग्य नाहीं । तातें हिंसा त्यागना योग्य है ॥ ३०॥
सर्वोविरतिः कार्या विशेषयित्वातिचारभीतेन । पौर्वापर्यं दृष्टवा सूत्रार्थ तत्त्वतो कुत्रवा ॥ ३१ ॥ अर्थ-अतीचार करि भयभीत पुरुष करि सर्वा विरतिः कहिए
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१३४ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार -
सर्वप्रकार त्याग पूर्वापर देख करि भाषित सूत्रके अर्थकौं निश्चयतें जान करि सो विशेषता करि करना योग्य है ।
भावार्थ-त्याग करना सो या प्रकार मेरे त्याग हे ऐसे विशेषणसहित पूर्वापर विचारकै अर सूत्र के अर्थकौं जान करि, बहुरि मत कदाच प्रतिज्ञा भंग होय ऐसैं मनमैं भय रख करि करना। बिना विचार करना योग्य नाही ॥ ३१ ॥
शक्तयनुसारेण वुर्धविरतिः सर्वापि युज्यते कर्तु। तामन्यथा दधानो भंगं, यति प्रतिज्ञायाः ॥ ३२॥
अर्थ-पंडितनि करि शक्ति अनुसार सर्व हो त्याग करना योग्य है, वहरि ता त्यागकौं अन्यथा कहिए शक्ति बिना ही करता जो पुरुष सो प्रतिज्ञा के भंगकौं प्राप्त होय है।
भावार्थ-व्रत धारणमैं शक्ति छिपावनी नाही अर शक्ति सिवाय भी न करना ऐसा इहां कह्या है ॥ ३२ ॥
आगें मिथ्यादृष्टि जोव केई प्रकार हिंसा थाप हैं तिनका निराकरण करिए है
केचिद्वदंति मूढा हंतव्या, जीवधातिनो जीवाः । परजीवरक्षणार्थ, धर्मार्थ पापनाशार्थम ॥ ३३ ॥
अर्थ-केई मूढ मिथ्यादृष्टि कहै हैं कि परजीवनको रक्षाके अर्थ वा धर्मके अर्थ वा पापके नाशके अर्थ जीवनके मारनेवाले जे हिंसक जीव ते मारने योग्य हैं
तिनसें आचार्य कहैं हैंयुक्तं तन्वं सति हिंस्रत्वात्प्राणिनामशेषाणाम् । हिंसायाः कः शक्तो, निषेधने जायमानायाः ॥ ३४॥
अर्थ-ऐसा कहना युक्त नाही जाते या प्रकार माने सन्तै हिंसकपनेतें समस्त जीवनिकी उपजी जो हिंसा ताके निषेध करने विष कौन समर्थ है।
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षष्ठम परिच्छेद
[ १३५
भावार्थ - हिंसक जीवनिकी हिंसा योग्य होय तौ हिंसकजीव तौ सब ही हैं सब होकी हिंसा ठहरै तातें हिंसक जीवनिकी भी हिंसा करना योग्य नाही ।। ३४ ।।
आगे वानैं कह्या था जो धर्मके अर्थ हिंसा करनी ताका निषेध करें हैं
धर्मोऽहिंसा हेतुहिं सातोः
जायते कथं तथ्यः ।
न हि शालिः शालिभवः, कोद्रवतो दृश्यते जातः ॥ ३५॥ |
अर्थ - धर्म है सो अहिंसा हेतु है अहिंसातें उपजै है सो तैसा सत्यार्थ धर्म हिंसा कैसे उपजै । इहां दृष्टांत कहै है, -धानतें उपज्या जो चावल सो कोंदू तैं उपज्या न देखिए है ।
भावार्थ-दया है कारण जाका ऐसा धर्म हिंसाते कदाच न होय है, जातैं कारणानुरूप कार्य होय है, तातै धर्मके अर्थ भी हिंसा करना योग्य नाही ॥ ३५ ॥
आगें पहले वानै कह्या था जो पापके नाशके अर्थ हिंसकनकी हिंसा करनी ताका निषेध करें है, -
पापनिमित्तं हि वधः पापस्य विनाशने न भवति शक्तः । छेदनिमित्तं परशु; शक्नोति लतां न वर्द्ध यितुम् ।। ३६ ।।
अर्थ - पापका कारण जो जीवनिका घात सो पापके विनाशने विषै समर्थ न होय है | जैसे छेदनेका कारण फरसी सो लताके बढ़ावनेको समर्थ न होय तैसैं ।। ३६ ।।
आगे हिंसक जीवfनकी हिंसा धर्मके अर्थ मानै ताका निषेध कर है; -
हिस्राणां यदि घाते धर्मः, संभवति विपुलफलदायी । सुखविघ्नस्तर्हि गतः, परजीवविघातिनां घाते ॥ ३७ ॥
अर्थ – जो हिंसक जीवनिके घात विषै बडा फलका देनेवाला धर्म संभवें है तो पर जीवनिकी हिंसा करनेवालेनिके धात मैं सुख विषै विषै विघ्न आया ।
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१३६ ] .
श्री अमितगति श्रावकाचार
भावार्थ - हिंसक जीवन की हिंसा करने वाले नैं उनके सुख में विघ्न कर्या सोई हिंसा भई, धर्म काहेका; ऐसा जानना ॥ ३७ ॥
यस्माद्गच्छंति गति निहता, गुरुदुःखसंकटां हित्राः । तस्माद्दुःखं ददतः पापं, न भवति कथं घोरम् ॥ ३८ ॥
अर्थ-जाते हिंसक हैं ते मारे भये महादुःखका हे संकट जा विषै सी गतिकौं जाय हैं तातें दुःख देने वाले बारपाकैसैं न
भया ॥ ३८ ॥
आगे दुःखी जीवनकी हिंसा का निषेध करे :
दुःखवतां भवति वधे धर्मों नेदमपि युज्यते वक्तम् । मरणे नरके दुःखं घोरतरं वार्यते केन ॥ ३६ ॥ अर्थ – दुःखी जीवनी के घात विषै धर्म होय है ऐसा भी कहना योग्य नाहीं, जातें तरण होतसंतें नरक विषै अत्यन्त घोर दुःख कौन करि निवारिए है । भावार्थ- कोई कहै कि दुःखी जीवनिकी हिंसा मैं धर्म होय है जातैं वो वाका दुःख दूर भया ताकू कह्या है - यह जीव मरकै नरक गया तहां महा दुःख कैसें निवारैगा तातैं अधिक दुःख देनेतैं पाप ही है धर्म नाहीं ॥ ३६ ॥
सुखितानामपि घाते पापप्रतिषेधने परो धर्मः । जीवस्य जायमाने निषेधितुं शक्यते केन ॥ ४०॥
- कोऊ कहै कि, सुखी जीवन के घात विषै भी विषय सुखरूप पाप का निषेध होतें बड़ा धर्म है, ताकू कह्या है - ऐसा नाहीं, जातें जीवनि के उपजते संतें पाप निषेधनेकौं कौन करि समर्थ हूजिए है ।
भावार्थ - वह जीव अन्यत्र उपजैगा तहां पाप करैगा तातें उल्टा सिवाय पाप करवाने मैं धर्म नाही, पाप ही है ॥ ४० ॥
पौर्वापर्यविद्ध' सम्यक्तमहीध्रपाटने वज्रम् ।
इत्थं विचार्य सद्भिः परवचनं सर्वथा हेयम् ॥ ४१ ॥
अर्थ - पंडितनि करि या प्रकार विचारकै पूर्वापर विरुद्ध अर
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षष्ठम परिच्छेद
[१३७
सम्यक्त पर्वत के तोडनेकौं वज्र समाज जो मिथ्या दृष्टीनिका वचन सो सर्वथा त्यागना योग्य है ।। ४१ ॥
अज्ञानतो यदेनो जीवानां भायते परमधोरम् । तच्छक्यते निहंतु ज्ञानव्यतिरेकतः केन ॥ ४२ ॥
अर्थ-जो जीवनिकै अज्ञानतें महा घोर पाप उपजै है सो पाप ज्ञान विना कौन करि हनिवेकू समर्थ हूजिए है ।
भावार्थ-अज्ञानजनित पाप ज्ञानही मिटै औरनितें न मिटै है, ऐसा जानना ॥ ४२ ॥
यो धर्मार्थं छित्ते हिंस्राहिंस्रसुखदुःखिनो भविनः । पीयूषं स्वीकत्त स हंति, विषविटपिनो नूनम् ॥ ४३ ॥
प्रर्थ-जो जीव धर्मके अर्थ हिंसक वा अहिंसक सुखी वा दुखी जीवनिकौं मारे है सो निश्चय करि अमृतके अंगीकार करनेकौं विषवृक्षनिकौं हने है, ताडे है; तहां अमृत काहेका ॥ ४३ ॥
मनसा वचसा वपुषा हिंसां, विदधाति यो जनो मूढ़ः। जन्मवनेऽसौदीर्घे दीर्घ, चंचूर्यते दुःखी ॥ ४४ ॥
अर्थ-जो मूढ़ जन मन करि वचन करि कायकरि हिंसा करै है तो यह दुःखी भया सन्ता दीर्घ संसार वन विर्षे बहत काल तांई अतिशय करि चूर्ण कीजिए है ॥ ४४ ॥
इहां तांई अहिंसा अगुवृतका वर्णन किया। आगै सत्य अणुवृतका वर्णन करै है
यम्लेच्छेष्वपि गर्दा, यदनादेयं जिघृक्षतां धर्मम् । यदनिष्टं साधुजनैस्तद्वचनं नोच्यते सद्भिः ॥ ४५ ॥
अर्थ-जो वचन म्लेच्छनि विषं भी निंदनीक अर धर्मकौं ग्रहण करनेके वांछक जे पुरुष तिनके अनादरने योग्य अर साधुजननि करि इष्ट नाहीं ऐसा जो असत्य वचन सो संतजननि करि नाही' बोलिए है ॥ ४५ ॥
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श्री अमितगति श्रावकाचार
कामक्रोधक्रीडाप्रमादमदलोभमोहविद्वेषैः । वचनमसत्यं सन्तो, निगदंति न धर्मरतचित्ताः ॥ ४६ ॥
अर्थ - धर्मविषं रत हैं चित्त जिनके ऐसे संतजन हैं ते काम क्रोध क्रीड़ा प्रमाद लोभ मोह द्वेष इन भावनि करि असत्य वचनकौं न बोहैं || ४६ ।।
सत्यमपि विभोक्तव्यं, पखीडारंभतापभयजनकम्
पापं विभोक्तुकामैः, सुजनैरिव पापिनां वृत्तम् ।। ४७ ।।
अर्थ - पाप छोड़ने की है वांछा जिनके ऐसे पुरुषनि करि पर जीवनके पीड़ा आरम्भ सन्ताप भय इनका उपजावनेवाले सत्य वचन भी त्यागना योग्य है ।। ४७ ।।
भाषते नासत्यं चतुः, प्रकारमपि संसृतिविभीतः । विश्वासधर्मदहनं, विषादजननं बुधावमतम् ॥ ४८ ॥
अर्थ – संसारतें भयभीत पुरुष हैं ते असदुद्भावन, भूतनिहव, विपरीत निंद्य ऐसे चारू हो प्रकार असत्यकौं न बोलै है, कैसा असत्य वचन विश्वास प्रतीति रूप धर्मकौं जलावनेवाला अर विषाद उपजानेवाला अर पंडितनि करि करी है अवज्ञा जाकी ऐसा है ॥ ४८ ॥
प्रथम असदुद्भावनं असत्यकौं क है है
असदुद्भावनमाद्यं वचनमसत्यं निगद्यते सद्भिः ।
एकांतिका : समस्त भावा, जगतीति तत् ज्ञेयम् ॥ ४६ ॥
अर्थ – जगत विषै सकल पदार्थ हैं ते एकांतस्वरूप हैं ऐसें असत् कहिये' अविद्यमानका उद्भावन कहिये प्रकट करना सो, संतन करि प्रथम असत्य वचन जानना योग्य है ॥ ४६ ॥
आगे भूतिनिहक्कों कहै है
सदलपनं द्वितीयं वितथं कथयंति तथ्यविज्ञानाः । सृष्टिस्थितिलययुक्त, किंचिन्नास्तीति तदभिहितम् ॥ ५० ॥ प्रथं - उत्पाद स्थिति नाश सहित किछू भी नाहीं है ऐसा कहना
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षष्ठम परिच्छेद
[ १३९
सो सदलपन कहिए भूतनिहव विद्यमान वस्तुका अभाव कहना ताहि सांचा है ज्ञान तिनका ऐसे पंडित हैं ते दूसरा असत्य कहैं हैं ॥ ५० ॥
आगें विपरीत असत्यकौं कहैं हैंविपरीतमिदं ज्ञेयं तृतीयकं, वद्वदंति विपरीतम् । सग्रन्थं निम्रन्थं निम्रन्थमपोह सग्रन्थम् ॥ ५१ ॥
अर्थ-परिग्रह सहित हैं सो तो निग्रंथ है, अर परिग्रह रहित हैं सो भी इहां सग्रन्थ हैं ऐसा जो विपरोत उलटा बोल है सो यह तीसरा असत्य विपरीत जानना ॥ ५१ ॥
आगें निंद्य नामा असत्यकौं कहैं हैंसावद्याप्रियगा प्रभेदतो, निद्यमुच्यते त्रेधा। वचनं वितथं दक्षैर्जन्माधिनिपातने कुशलम् ॥ ५२ ॥
अर्थ-पंडितनि करि सावद्य अर अप्रिय अर गए इन भेदनि करि निद्य वचन तीन प्रकार कहिए है, कैसा है यह असत्य वचन संसारसमुद्र विर्षे पटकने मैं प्रवीण है ॥ ५२ ॥
आगें निंद्य वचनके तीन भेदनिमें प्रथम सावद्य वचनकौं कहैं हैंआरम्भाः सावद्या विचित्रभेदा यतः प्रवर्तन्ते । सावद्यमिदं ज्ञेयं चचनं, सावद्यवित्रस्तः ॥ ५३ ॥
अर्थ-जाते नाना प्रकार हैं भेद जिनके ऐसे पाप सहित आरम्भ प्रवतें है सो यह सावध वचन है सो सावद्यतै भयभीत पुरुषनि करि जानना योग्य है ॥ ५३ ॥
आगै अप्रिय वचनकौं कहैं हैंकर्कशनिष्ठुरभेदनविरोधनादिबहुभेवसंयुक्तम् । अप्रियवचनं प्रोक्तं, प्रियवाक्यप्रवणवाणीकैः ॥५४ ॥
अर्थ-प्रिय बोलने मैं चतुर हैं वाणी जिनकी ऐसे पुरुषनि करि कर्कश कहिए फठोर वचन, बहुरि निठुर वचन, बहुरि औरनमै भेद करि देय ऐसा वचन, बहुरि परस्पर विरोध उपजाय देय ऐसा वचन इत्यादि अनेक भेवन करि संयुक्त अप्रिय वचन कह्या है ॥ ५४ ॥
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१४० ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
आगें गद्य वचनकौं कहैं हैंहिंसनताडनभीषणसर्वस्वहरणपुरः सरविशेषम् । गर्दा वचो भाषते गोजिज्झतवचनमार्गज्ञाः ॥ ५५ ॥
अर्थ-हिसारूप ताडनारूप भयानक सर्वद्रव्य हरण स्वरूप इत्यादिक हैं भेद जाके ऐसा जो निंद्य वचन ताहि निंद्यपना करि रहित वचनके मार्ग जानने वाले हैं ते गह्यं वचन कहैं हैं ॥ ५५ ॥
अर्थ्य पथ्यं पथ्यं श्रव्यं, मधुरं हितं वचो वाच्यम् । विपरीतं मोक्तव्यं जिनवचनविचारकैनित्यम् ॥ ५६ ॥
अर्थ-जिनेन्द्रके वचनके विचार करने वाले पुरुष हैं तिन करि नित्य ही प्रयोजनरूप सुखकारी जैसा का तैसा सुनने योग्य मधुर हितरूप ऐसा वचन कहना योग्य है, अर इनतें विपरीत उल्टा वचन है सो त्यागने योग्य है ॥ ५६ ॥
वैरायासाप्रत्ययविषादकोपादयो महादोषाः । जन्यतेऽनृतवचसा, कुभोजनेनैव रोगगणाः ॥ ५७ ॥
अर्थ-जैसे खोटे भोजन करि निश्चयतें रोग उपजै है तैसे असत्य वचन करि वैरभाव भ्रम अप्रतीति विषाद् क्रोध इत्यादि महादोष हैं ते उपजै हैं ॥ ५७ ॥
वचसावृतेन जन्तोब तानि, सर्वाणि जटिति नाश्यते । विपुलफलवंति महत्ता, दवानलेनेव विपिनानि ॥ ५८ ॥
अर्थ-जैसे महान् दावानल करि बड़े फलनि करि सहित जे वन हैं ते नाश कीजिए हैं तैसें असत्य वचन करि जीवके सर्व व्रत हैं ते शीघ्र नाश कीजिए है ॥ ५८ ॥
इहां तांई असत्य त्याग अणुव्रतका वर्णन किया। आगें अचौर्य व्रतका वर्णन करै हैं--
क्षेत्रे ग्रामेऽरण्ये रथ्यायां, पथि गृहे खले धोषे । ग्राह्य न परद्रव्यं नष्टं, भ्रष्टं स्थितं वाऽपि ॥ ५६ ॥
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षष्ठम परिच्छेद
[ १४१
अर्थ -- खेत विषं ग्राम विषें वन विषें गली विषे घर विषें घूरे विषें समूह विषे दूसरेका द्रव्य पड़ा होय वा भूला होय वा धरया होय सो भी ग्रहण करना योग्य नाहीं ॥ ५६ ॥
गायनके
तृणमात्रमपि द्रव्यं, परकीर्य धर्मकांक्षिणा पुंसा । प्रवितीर्णं नाssदेनं वह्निसमं मन्यमानेन ॥ ६० ॥
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अर्थ - धर्म का वांछक जो पुरुष ता करि विना दिया पराया द्रव्य अग्नि समान मानता करि तृणमात्र भी ग्रहण करना योग्य नाहीं ॥ ६० ॥ यो यस्य हरति वित्तं स तस्य जीवस्य जीवितं हरति । प्रश्वासकरं बाह्य, जीवाना जीवितं वित्तम् ॥ ६१ ॥ अर्थ - जो जाका धन हरै सो ताका प्राण हरे है जातें जीवन के थिरता बधावने वाला धन है सो बाह्य प्राण है ॥ ६१ ॥ सदृशं पश्यंति बुधाः, परकीयं कांचनं तृणं वाऽपि । संतुष्टा निजवित्तैः परतापविभीखो नित्यम् ॥ ६२ ॥ श्रर्थ--पंडित हैं ते पराये सुवर्णकौं वा तृणकौं समान देखे हैं, कैसे है ते अपने धननि करि संतुष्ट अर परकौं सन्ताप उपजावनें में भयभीत हैं ॥ ६२ ॥
तैलिकलुब्धकखरिकमार्जारव्याघ्रधोवरादिभ्यः ।
स्तनः कथितः पापी, संततपरतापदानरतः ।। ६३ ।।
अर्थ - तेली वहेलिया खटीक विलाव वाघ ढीमर इन तें चोर हैं सो अधिक पापी का है, चौर निरन्तर परजीवनकौं दुःख देनें में तत्पर है ।। ६३ ।।
ऐसे अचौर्य अणुव्रतका वर्णन किया। आगे परदारा त्याग अणुव्रतकौं कहै हैं-
स्वसृमातृदुहितृसदृशीः दृष्ट्वा, परकामिनीः पटीयांसः । दूरं विवर्जयन्ते भुजगीमित्र, घोरदृष्टिविषाम् ॥ ६४ ॥
अर्थ - पंडित हैं ते परकी स्त्रीकौं बहनिसमान अर बड़ीकौ माता समान अर छोटीकौ बेटी समान देख करि भयानक दृष्टि विषें सर्पणीकी ज्यौं दूर त्यागें हैं ।। ६४॥
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श्री अमितगति श्रावकाचार - ..
न निव्या परनारी, मदानलतापितैरपि त्रेधा । क्षुत्क्षामैरपि पुरुषैर्न, भक्षणीयं परोत्सृष्टम ।। ६५ ॥
अर्थ-काम अग्नि करि तप्तायमान जीवनि करि भी मन वचन काय करि परस्त्री सेवना योग्य नाही, जैसे क्षुधा करि दुर्बल चतुर पुरुषनि करि भी पराई औठ खाना योग्य नाही तैसें ॥ ६५ ॥ विषवल्लीमित्र हित्वा, पररामां सर्वथा त्रिधा दूरम् । सन्तोषः कर्त्तव्यः स्वकलत्रेणैव बुद्धिमता ॥ ६६ ॥
प्रार्थ-परस्त्रीकौं विषवेलकी ज्यौं सर्वथा मन वचनकाय करि दूर त्यागकें बुद्धिमान पुरुष करि अपनी स्त्री करि ही सन्तोष करना योग्य
नाशयत्या सेवंते भार्यां, स्वमपि मनोभवाकुलिताः । वन्हिशिखाप्याशक्या, शीतातैः सेविता दहति ॥ ६७ ॥
अर्थ-कामकरि व्याकुल भए संतै आशक्ति जो गृद्ध ता करि अपनी भार्याकौं भी न सेवे है जैसे शीतकरि पीडित पुरुषनि करि भी आशक्ति कर सेई भई अग्निी की शिखा है सो कहा न दहै है ? दहै ही है ॥ ६७ ॥ दृष्टा स्पृष्टा श्लिष्टा दृष्टिविया, याऽहिमूत्तिरिव हति । तां पररामां भव्यो मनसापि, न सेवते जातु ॥ ६८ ॥
अर्थ-ज्यों परस्त्री देखी वा स्पर्शी वा आलिंगी सन्ती दृष्टिविणे सर्प की मूर्तिकी ज्यों हन है तिस परस्त्रीकौं भव्यजीव है सो मन करि भी कदाच न सेवे है ॥ ६८ ॥
दीप्ताकारा तप्ता स्पृष्टा, दहति पावकशिखेव । मारयति योपभुक्ता, प्ररूढविषविटपिशाखेव ॥ ६६ ॥
अर्थ-जो परस्त्री दीप्त है आकार जाका अर तप्तायमान सो स्पर्शी भई अग्निकी शिखाकी ज्यों दहै है, अर जो भोगी भई फैल रही विषवृक्ष की शाखाकी ज्यों मारे है ॥ ६६ ॥
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षष्ठम परिच्छेद
[१४३
मोहयति झटिति चित्तं, निषेव्यमाना सुरेव या नितरां । या गलमालिगंती, निपीडयति गंडमालेव ॥ ७० ।।
अर्थ----जो परस्त्री सेई भई मदिराकी ज्यौं अतिशय करि जल्दी चित्तकौं मोहै है । बहरि जो गलेकौं आलिगन कत्ती लिपटी गंडमाला नाम रोग की ज्यों पीड़ा उपजावै है ।। ७० ॥ व्याघ्रीव याऽऽमिषाशा, विलोक्य रभसा जनं विनाशयति । पुरुषार्थपरैः सद्भिः परयोषा, सा त्रिधा त्याज्या ॥ ७१ ॥
अर्थ-जो परस्त्री मांसभखनी व्याघ्रीकी ज्यौं पुरुषकौं देख करि जबर्दस्ती विनाश करै हैं सो ८ रस्त्री पुरुषार्थ मैं तत्पर जे सन्तपुरुष तिनकरि मन वचन कायतें त्यागनी योग्य है ॥ ७१ ॥ मलिनयति कुलद्वितयं दीपशिखेवोज्वलापि मलजननी । पापोपयुज्यमाना परवनिता तापने निपुणा ॥ ७२ ॥
पर्थ-जो परस्त्री दीप की लोय समान उज्ज्वल भी मैल की उपजावने वाली है, वह कज्जल उपजावै है यह रागद्वेष उपजावै है बहुरि पापिनी उपज्यमाना कहिये संयोगकौं प्राप्त करी संताप करने विौं प्रवीण है ॥ ७२ ॥
ऐसे परस्त्रीत्याग अणुव्रतका वर्णन किया । आरौं परिग्रहप्रमाण नामा अणुव्रतकौं कहैं है
वास्तु क्षेत्रं धनं धान्यं दासीदासं चतुष्पदं भांडं । परिमेयं कर्त्तव्यं सर्व संतोषकुशलेन ॥ ७३ ॥
अर्थ- संतोषविष प्रवीण जो पुरुष ताकरि वास्तु कहिए हाट हवेली क्षेत्र कहिए खेती का क्षेत्र धन कहिए सुवर्ण रूपादिक धान्य कहिए चावल गेहँ आदिक बहरि दासी दास आदि द्विपद अर चतुष्पद कहिये घोड़ा गौ इत्यादिक भांड कहिए बासन वस्त्रादिक इन सबका परिमाण करना योग्य है।
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१४४ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
भावार्थ - जीवकै तीन लोकके पदार्थन की तृष्णा है सो सब छूटती न जानि तृष्णा घटनेकौं पदार्थनिका परिमाण कराया है ॥ ७३ ॥ विध्यापयति महात्मा लोभं दावाग्निसन्निभं ज्वलितम् । भुवनं तापयमानं सन्तोषोद्गाढसलिलेन ॥ ७४ ॥
अर्थ -- महापुरुष है सो दावानल समान चलता जो लोभ ताहि संतोष रूप महाजल करि बुझावै है कैसा है लोभ जैसे अग्नि लोककौं सन्ताप उपजावै है ऐसा है ।। ७४ ।।
सर्वारंभालोके सम्पद्यते, परिग्रहनिमित्ताः ।
स्वल्पयते यः संगं स्वल्पयति सः सर्वमारंभम् ॥ ७५ ॥
अर्थ - लोकविषै सर्व हिंसादिक आरम्भ हैं ते परिग्रह के निमित्त होय है अथवा परिग्रहत होय है इस कारणतैं जो परिग्रहकों घटावे है सो सर्व आरंभकौं घटावै है ।। ७५ ।।
ऐसें परिग्रह परिमाण अणुव्रतका वर्णन किया। आगे दिग्विरति नाम गुणव्रतकौं कहै हैं
ककुवष्टकेऽपि कृत्वा मर्यादां, यो न लंघयति धन्यः । दिग्विरतिस्तस्य जिनैर्गुणव्रतं कथ्यते प्रथमम् ॥ ७६ ॥
"
अर्थ - जो धन्य पुरुष दिशानके अष्टक विषै मर्यादाकौं करिकै नाही उलंघे है ताकै जिनदेवनि करि दिग्विरतिनामा गुणव्रत कहिए है । पूर्वादि आठौं दिशा तथा उपलक्षणतैं नीचे ऊपर ऐसे दशौं दिशानके प्रसिद्ध नदी पर्वतादिकनतें जो मर्यादा कर ताके इसतें परे मैं गमनादि नाही करूँगा सो प्रथम दिगविरतिनामा गुणव्रत जानना ॥ ७६ ॥
"
सर्वारम्भनिवृत्त स्ततः परं तस्य जायते पूतम् । पापापायपटीयः, सुखकारि महाव्रतं पूर्णम् ॥ ७७ ॥
अर्थ - तिस दिग्विरतिधारी पुरुषकै तिस मर्यादतें परैं सर्व आरम्भ की निवृत्ति कहिए त्याग तातैं सुखकारी अर पापके नाश करने मैं प्रवीण ऐसा पूर्ण महाव्रत होय है ।। ७७ ।।
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षष्ठम परिच्छेद
[ १४५
आगे देश विरतिक कहै हैंarrafsafe कृत्वा यो, नाक्रामति सदा पुनस्त्रधा । देशविरतिद्वितीय, गुणव्रतं तस्य जायेत ॥ ७८ ॥
अर्थ - बहुरि देशकी मर्यादाकौं भी करकै जो फेर मन वचन काय करि नाही उलंघँ है ताकै देशविरतिनामा दूसरा गुणव्रत होय है ।
भावार्थ- तिस करि भई दिशानिकी मर्यादा विषै भी ग्राम दुकान घर बगीचा गली इत्यादिक निकालके नियमरूप मर्यादा करनी सो देशव्रत जानना ॥ ७८ ॥
काष्ठेनैव हुताशं लाभेन, विवर्द्ध मानमतिमात्रम् ।
प्रति दिवस या लोभं, निषेधयति तस्य कः सदृशः ॥ ७६ ॥
अर्थ -- जैसे काष्ठकरि अग्नि सिवाय बढ़ता होय तैसे पदार्थनके लाभ करि तृष्णा बढ़ती होय है । बहुरि जो प्रतिदिन लोभकौं त्यागे है ताक समान और कहा है । ७९ ॥
आगैं अनर्थदण्ड विरतिनामा गुणव्रतकौं कहै हैंयोऽनर्थं पंचविध परिहरति, विवृद्धशुद्धधर्ममतिः ।
सोऽनर्थदण्डविरति गुणव्रतां नयति परिपूत्तिम् ॥ ८० ॥
अर्थ--विशेषपनें बढ़ती है शुद्ध धर्म विषै बुद्धि जाकी ऐसा जो पुरुष पांच प्रकार अनर्थकौं त्यागे है सो अनर्थदण्ड विरति नाम गुणव्रतकौं पूर्णताक प्राप्त कर है ॥ ८० ॥
आगे पांच अनर्थ पापके नाम हैं हैं
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पंचानर्था दुष्टाध्यानं, पापोपदेशनाशक्तिः ।
हिंसोपकारि दानं प्रमादचरणं श्र तिर्दुष्टा ।। ८१ ॥
अर्थ -- दुष्ट ध्यान कहिए शिकार तथा काहूकी जीत काहूकी हार तथा संग्राम तथा परस्त्रीगमन तथा चौरी इत्यादिक का चिन्तवन करना । बहुरि चित्रामादिक विद्या अर व्यापार लिखना, खेती करना, चाकरी करना इत्यादि हिंसादिक आरम्भ के उपदेश विषै आशक्तिता सो पापोप
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श्री अमितगति श्राकवाचार
देशनाशक्ति कहिए छुरी विष अग्नि तरवार धनुष इत्यादि हिंसाके उपकरण देना सो हिंसोपकरणदान कहिए । बहुरि पृथ्वी खोदना, वृक्ष मोडना, घास काटना, जल सींचना इत्यादि प्रमाद चरण कहिए। रागादि बढ़ावने वाली खोटी कथा सुननी इत्यादि दुष्ट श्रुति कहिए। ऐसें पांच अनर्थ पाप का त्याग करना सो अनर्थदण्ड विरति जानना ॥ ८१ ॥
बहुरि ताहीके विशेष कहै हैं:-- मंडलविडालकुक्कुटमयूरशुकसारिकादयो जीवाः । हितकामैन ग्राह्याः, सर्वे पापोपकारपराः ॥ ८२॥
अर्थ-हितके वांछक जे पुरुष तिनकरि कुत्ता, बिलाव, मुर्गा और सुवा सारी इत्यादिक सर्व पाप के करावनें विौं तत्पर जीव है ग्रहण करना नाहीं ॥ ८२ ॥ लोहं लाक्षा नीली कुसुम्भ, मदनं विषं शणः शस्त्रम् । संधानक च पुष्पं, सर्वं करुणापरहें यम् ।। ८३ ॥ ___ अर्थ-दया में तत्पर जे पुरुष तिनकरि लोहै लाख नील कुसुम्भ विष सण शस्त्र संधारना पुष्प सर्व त्यागना योग्य है । ॥ ८३ ॥ नीली सूरणकन्दो दिवसहितयोषिते च दधिमथिते । विद्धं पुष्पितमन्नं कालिगं, द्रोणपुष्पिका त्याज्या ॥ ८४ ॥
अर्थ-नील अर सूरण अर कन्द अर दोय दिनके वासे दही अर छाछ बहुरि बीधा अर फूलसहित टपकी लग्या अन्न अर कलीदा अर राई ये त्यागना योग्य हैं ।। ८४ ॥
जैसे अनर्थदण्ड विरतिका वर्णन किया। और आगें सामायिक व्रतकौं कहै हैं
आहारो निःशेषो, निजस्थभावादन्यभावमुपयातः । योऽनंतकायिकोऽसौ, परिहर्तव्यो दयालीः ॥२५॥
अर्थ-जो समस्त आहार अपने स्वभावतें अन्य भावको प्राप्त भया चलितरस भया, बहुरि जो अनन्तकाय सहित है सो बहु दयासहित पुष्प. निकरी त्यागना योग्य है । ८५॥
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षष्ठम परिच्छेद
[१४७
त्यक्तात रौद्रयोगो भक्त्या, विद्धाति निर्मलध्यानः । सामायिक महात्मा सामायिक संयतो जीवः ॥८६॥
अर्थ-त्यागे' हैं आर्त रौद्र ध्यान जानें अर निर्मल है ध्यान जाक ऐसा महात्मा रागद्वेषके त्याग तैं भले प्रकार यत्नसहित जीवै है सो सामायिककौं धारै है।
भावार्थ-रागद्वेष त्यागते आत्मविर्षे "सं" कहिए एकरूप होय करि "अयनं' कहिए परिणाम सो समय है; अर समयका जो भाव सामायिक कहिए सो ऐसे सामायिकके काल समस्त सावध योगके त्यागतें श्रावककौं भी उपचारतें महाव्रत कह्या है इतना यह विशेष जानना ॥१॥ कालत्रितये वेधा कर्तव्या देववन्दना सद्भिः । त्यक्ता सर्वारम्भ भवमरणविभीतचेतस्कः ॥ ८७ ॥
अर्थ- जन्ममरणतै भयभीत हैं चित जिनके ऐसे सत्पुरुषनि करि प्रभात अर मध्याह्न अर अपराह्न इन तीनों काल विर्षे मन वचन काय करि अरहन्तादि देवनिकी वन्दना करनी योग्य है ॥८७॥
आग प्रोषधोपवासकौं कहै हैं - सदनारम्भनिवृत्तैराहारचतुष्टयं सदा हित्वा । पर्वचतुष्के स्थेय संयमयमसाधनोद्य क्तः ॥ ८८ ।।
अर्थ--गृह के आरम्भ” रहित अर यावज्जीव त्यागरूप सयम अर थोड़े काल त्यागरूप यम इन विणै उद्यमी पुरुषनि करि पर्व चतुष्क कहिए एक मास मैं दोय अष्टमी दोय चतुर्दशी इन विौं आहार चतुष्टय कहिए खाद्य स्वाद्य असन ( लेह्य ) पेय इनकौं त्यागकरि सदा तिष्ठना योग्य है।
भावार्थ-गहारम्भ त्यागकै अर आहार त्यागकै संयम रूप पर्वत विौं सदा तिष्ठना सो प्रोषधोपवास व्रत जानना ।। ८८ ॥
तांबूलगन्धमाल्यास्नानाभ्यंगादिसर्वसंस्कारम् । ब्रह्मवतगतचित्तैः, स्थातव्यमुपोषितैस्त्यत्क्ता ॥ ६ ॥ मर्थ-तांबूल माला स्नान उवटना इत्यादि सर्व संस्कारकौं त्याग
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१४८ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
करि ब्रह्मचर्य विषै प्राप्त हुवा है चित्त जिनका ऐसे पोसहसहित पुरुषनि करि तिष्ठना योग्य है ॥ ८६ ॥
उपवासानुपवासकस्थानेष्वेकमपि विधत्ते यः । शक्त्यनुसार परोऽसौ प्रोषधकारी जिनैरुक्त: ॥६०॥
अर्थ - उपवास अर अनुपवास अर एकस्थान विषै एककौं भी जो शक्ति अनुसार धारै है सो यहु पोसह करनेवाला जिनदेवनि करि कह्या है ||६||
उपवासं जिननाथा, निगदंति चतुविधाशनं त्यागम् । सजलमनुपवासममी, एकस्थानं सुकृद्भुक्तिम् ॥ ६१ ॥ अर्थ — च्यार प्रकार आहारका जो त्याग ताहि ये जिननाथ उपवास कहै हैं अर जलसहितको अनुपवास कहै हैं अर एकवार भोजनकौं एकस्थान है हैं ।
भावार्थ - इहां जलमात्र लेय ताकौं अनुपवास कह्या सो उपवासका अभाव रूप अर्थ न लेना किंचित् उपवास है ऐसा अर्थ ग्रहण करना ॥ ६१॥ श्रागें भोगोपभोगपरिणाम व्रतकौं कहैं हैं :
भोगोपभोगसख्या विधीयते, येन शक्तितो भक्त्या । भोगोपभोग संख्या शिक्षाव्रतमुच्यते सद्भिः ॥ २ ॥ अर्थ - जा करि शक्तिसारू भोग अर उपभोगकी संख्या करिए है सो भोगोपभोग संख्या नामा शिक्षा व्रत सन्तन करि कहिए है || २ ||
श्रागें भोगोपभोग का स्वरूप कहै है :
तांबूल गंधलेपनमज्जनभोजनपुरोगमो भोगः । उपभोगो भूषा स्त्रीशयनासनवस्त्रावाहाद्याः ॥६३॥
अर्थ -- तांबूल सुगन्धलेपन स्नान भोजन इत्यादिक तो भोग हैं अर भूषण स्त्री शयन आसन वस्त्र वाहन इत्यादिक उपभोग हैं । एकवार भोगन में आवैं सो भोग अर वार वार भोगने में आवै सो उपभोग ऐसे जानना || ३ ||
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सप्तम परिच्छेद
[१४६
आगें अतिथि संविभाग व्रतकौं हैं :परिकल्प संविभागं, स्वनिमित्तकृताशनोषधादीनाम् ।
भोक्तव्यं सागारैरतिथिव्रतपालिभिनित्यम् ॥४॥
अर्थ-अतिथि व्रतके पालनेवाले श्रावकनि करि अपने अर्थ करे जे भोजन औषधादिक तिनका भलेप्रकार विभाग करिक पात्रकौं देकै भोजन करना योग्य है ॥६४॥
अतति स्वयमेव गृहं, संयममविराधननाहूतः । यःसोऽतिथिरुद्दिष्टः, शब्दार्थविचक्षणैः पुरुषः ॥६॥
अर्थ-शब्दार्थ विष विचक्षण जे पुरुष तिन करि सो साधु अतिथि कह्या है, सो कौन ? जो संयमकौं नांही विराधता सन्ता विना बुलाया स्वयमेव गृहिप्रति अतति कहएि गमन करै है, आवै है ॥६५॥
अशनं पेयं स्वाद्य खाद्यमिति, निगद्यते चतुर्भेदम् । अशनमतिथेविधेयो, निज शक्त्या संविभागोऽस्य ॥६६॥
अर्थ-अशन पेय स्वाद्य खाद्य ऐसे च्यार प्रकार आहार कहिए ताका विभाग कहिए वांटा अपनी शक्ति सारू इस अतिथि पात्रकं करणा योग्य है।
__ भावार्थ-अपने अर्थ किया आहार तामैसें पात्रकै अथि शक्तिमाफिक देना योग्य है ॥६६॥
मुद्गौदनाद्यमशनं क्षीरजलाद्य जिनः पेयम् । तांबूलदाडिमाद्यं स्वाद्य, खाद्यं च पूपाद्यम् ॥७॥
अर्थ-मूग भात इत्यादि अशन कहिए अर दूध जल आदिककौं जिनदेवनै पेय कह्या है अर तांबूल दाडिमादिकौं स्वाद्य कहा है अर पूवा आदिकौं खाद्य कह्या है ऐसा जानना ॥७॥ प्रागै सल्लेखनाका वर्णन करें हैं
ज्ञात्वा मरणागमनं, तत्त्वमति निवारमति गहनम् । पृष्ट्वा बांधव वर्ग, करोति सल्लेखनां धीरः ॥८॥
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१५० ]
श्री अमितगति श्रावकाचार --
प्रर्थ-दुनिवार अर अतिगहन कहिए भयानक ऐसा जो मरनका आगमन ताहि जानि करि निश्रयरूप है मति जाकी ऐसा धीर पुरुष है सो बांधवनके समूहकौं पूछ के मोह छडायकै आगम प्रमाण सल्लेखनाविधिको श्रावक मांडै है, ऐसा जानना ॥८॥
आराधनां भगवती हृदये विधत्ते, सज्ञानदर्शनचरित्रतपोमयीं यः । निर्धू कर्ममलपंकमसौ महात्मा,
शर्मोदकं शिवसरोवरमेति हंसः ॥६६॥ अर्थ-जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तपमयी जो आराधना भगवती ताहि हृदय विर्षे धारै है सो यहु महात्मा हंस मोक्षसरोवरकौं प्राप्त होय है, कैसा है मोक्ष सरोवर नाश भया है कर्ममल रूप कीच जाका अर सुखरूप है जल जा विर्षे ऐसा है ।
भावार्थ-जो सन्यास मरन करै है सो थोडे ही कालमैं मोक्षकों प्राप्त होय है, ऐसा नियम जानना ॥६६
प्रागै अधिकारकौं संकोचै है
जिनेश्वरनिवेदितं मननदर्शनालंकृतं, द्विषविडधमिद व्रतं विपुलबुद्धिभिर्वारितम् । विधाय नरखेचरत्रिदशसंपदं पावनी, ददाति मुनिपुंगवामितगतिस्तुतां निव॒तिम् ॥१००॥
मर्थ-जिनेश्वर देवनें कह्या अर ज्ञानदर्शन करि शोभित अर महाबुद्धीनकरि धर्या ऐसा यह द्वादश प्रकार व्रत हैं सो मनुष्य विद्याधर देव इनकी पवित्र संपदाकौं प्राप्त कराकै निर्वाण अवस्थाकौं देय है कैसी है निर्वाण अवस्था अप्रमाण है महिमा जिनकी ऐसे मुनिन विर्षे श्रेष्ठ मुनि तिनकरि स्तुतिगोचर करी है।
भावार्थ-मुनीन्द्र जाकी स्तुति कर ऐसी मुक्तिकों प्राप्त कर है ॥१०॥
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सप्तम परिच्छेद
[१५१
सवैया तेईसा। . पांच अणुव्रत तीन गुणव्रत शिक्षाव्रत पुनि निर्मल च्यार । सम्यग्दर्शन ज्ञान सहित जो, धार तीव्र प्रमाद निवार ॥ नर विद्याधर अमर सम्पदा, अद्भुत भोगि भोग जगसार । लहै अमितगति सुखमय शिवपद वंदू चरण तास अविकार ।
इति श्रीमदमितगत्याचार्यकृते श्रावकाचारे षष्ठ परिच्छेदः । इति श्री अमितगति आचार्यकृत श्रावकाचारविर्षे
षष्ठ (छठा) परिच्छेद समाप्त भया।
सप्तम परिच्छेद
प्रागै व्रतनिकी महिमा दिखावै हैव्रतानि पुण्याय भवन्ति जंतोर्न सातिचाराणि निषेवितानि । सस्यानि कि क्वपि फलंति लोके मलोपलीढानि कदाचनापि ॥१॥
अर्थ-जीवकै अतीचर सहित सेये भए व्रत हैं ते पुण्यके अर्थ होय हैं, इहां दृष्टांत कहै हैं जैसे विना नींदे कडा सहित मल सहित लोक विर्षे सस्य हैं ते कहां कहूं भी कदाचित भी फल हैं? अपि तु नाहीं फल है ॥१॥
मत्वेति सद्भिः परिवर्जनीयाः, व्रते व्रते ते खलु पंच पंच । उपेयनिष्पत्तिमपेक्षमाणा, भवंत्युपाये सुधियः सयात्नः ॥२॥
अर्थ-ऐसी मान करि पंडितनि करि व्रत व्रत विर्षे ते पांच पांच अतीचार त्यागने योग्य हैं, जातें उपेय कहिए जाके अर्थ उपाय करिए ऐसा कार्य ताकी उत्पत्तिकौं वांछते पंडित हैं ते उपाय जो ताका कारण ताविर्षे यत्न सहित होय हैं।
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१५२ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
भावार्थ - - व्रत तौ उपेय है अर अतिचार त्याग उपाय है जो व्रतनकी वांछे है तो अतीचार त्याग करहु, ऐसा उपदेश जानना ||२||
अहिंसाव्रत के प्रतीचार कहै हैं
भारातिमात्रव्यपरोपघातछेदान्नपानतिषेधबंधाः ।
अणुव्रतस्य प्रथमस्य दक्षैः पंचापराधाः प्रतिषेधनीयाः ॥ ३ ॥
अर्थ – भारका प्रमाणतें उलङ्घ करि धरना, अर घात कहिए पीड़ाका कारण लाठी वैत आदितैं मारना इहां प्राणके नाशरूप घातका अर्थ नहीं ग्रहण करना जातें वह तो अनाचार स्वरूप ही है, बहुरि छेद कहिए कान नासिकादिक अगनिका छेदना, बहुरि अन्न जलका रोकना अर बन्ध कहिए वांछित स्थानकौं न जाने देना रस्सादिकतें बांधना सो बन्ध कहिए | ये प्रथम अणुव्रतके पांच अतीचार पंडितनि करि त्यागना योग्य है ॥३॥
आगे सत्य अणुव्रत प्रतीचार कहे हैं
न्यासापहारः परमन्त्रभेदो मिथ्योपदेशः परकूटलेखः । प्रकाशना गुह्यविचेष्टितानां पंचातिचाराः कथिता द्वितीये ॥४॥
अर्थ -- न्यासापहार कहिए कोऊनें द्रव्य सौप्या था ताकू वह भूलक थोड़ा मांगें तब कहै इतना ही है, बहुरि पर मन्त्र भेद कहिए अ ंगविकारादिकतैं परके अभिप्रायकों जानिईर्षातें ताका प्रकाशना, वहुरि . स्वर्ग मोक्षके कारण क्रिया विशेषनिमैं अन्यथा प्रवर्त्तावना सो मिथ्यापदेश कहिए, बहुरि दूसरे के कहनेतें ठगने के अर्थ झूठ लिखना सो कूटलेख क्रिया है, बहुरि स्त्री पुरुषादिकके गुप्त चरित्रका प्रकाश करना सो रहोभ्याख्यान कहिए | ये पांच अतीचार दूसरे सत्य अणुव्रत विषै कहे हैं ॥४॥
श्रा प्राचार्य अणुव्रत के प्रतीचर कहैं हैं :
व्यवहारः कृत्रिमकः स्तेननियोगस्तदाहृतादानम् । ते मानवैपरीत्यं विरुद्धराज्यव्यतिक्रमणम्
॥५॥
अर्थ - झूठें सुवर्णादि बनावना सो कृत्रिम व्यवहार कहिए, बहुरि चौरको चौरीमैं लगावना सो स्तेन प्रयोग कहिए, बहुरि चोर करि कल्याण
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सप्तम परिच्छेद
[१५३
द्रव्यका ग्रहण करना सो तदाहृतादान कहिए बहुरि बड़े मानतें लेना छोटे मानतें देना सो मानवैपरीत्य कहिए, बहुरि राजनियमका उल्लंघन करना महसूल आदि चोरना सो विरुद्व राज्यातिक्रमण कहिए । ये तीसरे अणुव्रतके पांच अतिचार कहे ॥५॥
आग परस्त्री त्याग अणुव्रतके अतीचार कहै हैं -- आत्तानुयात्तत्वरिकांग संगा-वनंगसंगो मदनातिसंगः । परोपयामस्य विधानमेते, पंचातिचारा गदिताश्चतुर्थे ॥६॥
अर्थ-पर करि ग्रहण करी बहुरी नाहीं ग्रहण करी ऐसी व्याभिचारिणी स्त्री के अंगकासंग करना तिनप्रति गमन करना, बहुरि अनंगसंग कहिए हस्तादिकतै क्रीड़ा करणा, बहुरि कामका तीव्र परिणाम, अर दूसरेका विवाह करावना। ये पाच अतीचार अगुव्रतके कहे हैं ॥६॥
प्रागै परिग्रह परिणाम अनुव्रतके अतीचार कहैं हैंक्षेत्रवास्तुधनधान्यहिरण्य-स्वर्ण कर्मकरकुप्यकसंख्याः । योऽतिलंघति परिग्रहलोभ-स्तस्य पंचकमवाचि मलानाम् ॥७॥
अर्थ-क्षेत्र कहएि खेतीका स्थान वास्तु कहिए घर इन दोऊनका एक स्थान, अर हिरण्य कहिए सोना इनका एक स्थान अर धन गौ आदि अर धान्य गेहं आदि इनका एक स्थान अर, कर्म कर दासी दास, अर कप्प कहिए वस्त्रादि इन पांचनकी संख्याकौं जो परिग्रहके लोभसहित उलंधैं है ताके अतीचारनिका पंचक कहा ॥७॥ प्रागें दिग्विरतिके पांच प्रतीचार कहै हैं :स्मृत्यंतरपरिकल्पनमूर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमाः प्रोक्तः ।
क्षेत्रविवृद्धिः प्राज्ञैरतिचाराः पंच दिग्विरते ॥८॥
अर्थ-जो योजनादिकका परिमाण करया था ताक भूल अ र सुरत करना, अर ऊपर नीच तिरछा इन तीनू निका उलंघना कहिए पर्वतादि चढ़ना कूपादिमैं उतरना विलादिमैं घुसना ऐसें तीन भए, बहरि लोभके वशतें क्षेत्रकी वृद्धि वांछना। ये दिग्विरतिके पांच अतिचार पंडितनिनें कहे हैं ॥८॥
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१५४]
श्री अमितगति श्रावकाचार
• आगें देशविरतिके अतीचार कहैं हैं :
आनयनयोज्ययोजनपुद्गलजल्पनशरीरसंज्ञाख्याः। अपराधाः पंच मता देशवतें गोचराः सद्भिः ॥६॥
अर्थ--मर्यादा बाहिर खानयन कहएि बुलावना, बहुरि मर्यादा बाहिर योज्य योजन कहिए प्रयोग, बहुरि मर्यादा बाहिर लोष्ठादिकतें कार्य करावना सो पुद्गलक्षेप कहिए, अर मर्यादा बाहिर पुरूषते वचन बोलना अर मर्यादा आदि शरीरकी समस्यातें कार्य करावना। वे पांच अतीचार देशव्रत सम्बन्धी संतननैं कहे हैं ॥६॥
आगें अनर्थ दण्डविरतिके अतीचार कहैं हैंअसमीक्षितकारित्वं प्राहु गोपभोग नरर्थ्यम् । कन्दर्प कौत्कुच्यं मौखर्यमनर्थदण्डस्य ॥१०॥
अर्थ--विना विचारे प्रयोजनतें अधिक करना, बहुरि भोग . उपभोगनिका निःप्रयोजन संचय करना, बहुरि तीव्ररागके उदयतें हास्य मिल्या अयोग्ग वचन कहना सो कन्दर्प कहिए, बहुरि ते तीव्रराग अर अयोग्य वचन दोऊ पर विर्षे शरीरके कर्म करि युक्त होय सो कोत्कुच्य कहिए, बहुरि ढीटपणां सहित असमीचीन बहुत प्रलाप करना सो मोखर्य कहिए । ये पांच अनर्थदण्ड विरतिके अतीचार हैं ॥१०॥
आगै सामायिकके अतीचार कहैं हैंयोगा दुःप्रणिधाना स्मृत्यनुपस्थान मादराभावः ।
सामायिकस्य जैनैरतिचाराः पंच विज्ञेयाः ॥११॥
अर्थ-दुःप्रणिधान कहिए पापरूप अथवा अन्यथा यौगरूप जे मन वचनकाय तीन तौ ये भये, बहुरि सुरत भूल जाना अर आदरका अभाव, ये पांच अतीचार सामायिकके जैनीन करि जानने योग्य हैं ॥११॥ आग पोसहके अतीचार कहैं हैं
या गतोपयोगा उत्सर्गादानसंस्तरकविधाः । उपवासे मुनिमुल्यैरनादरः स्मृत्यसमवस्था ॥१२॥
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सप्तम परिच्छेद
[१५५
अर्थ--गतोपयोग कहिए विना देखे वा विना प्रतिलेखन करे भूमिमै मलमूत्र तजना वा अहंतादिकनिकी पूजाके उपकरण गन्धमाल्यादिक वा आपके औढना आदिके अर्थ वस्त्रादिक इनका ग्रहण करना, बहुरि सांथरा बिछावना, तीन तौ ये भए बहरि अनादर कहिए आवश्यकनिमैं उत्साहका अभाव अर पोसहकी सुरत भूल जाना, ए पांच अतीचार मुख्य आचार्यनिनें पोसह विर्षे कहे हैं ॥१२॥
आगे भोगोपभोग विरतिके पांच अतीचार कहै हैंसहचित्त संबद्ध मिश्र दुःखपक्कमभिषवाहारः । भोगोपभोगविरतरतिचाराः पंच परिवाः ॥१३॥
अर्थ--सचित्त वस्तु तथा सचित्त वस्तु करि स्पर्शित वस्तु तथा सचित्त करि मिल्या वस्तु बहुरि दुःखतें पचै ऐसा वस्तु बहुरि काम बढ़ावनेवाला वस्तुका आहार, ये भोगोपभोगविरतिके पांच अतीचार त्यागने योग्य हैं ॥१३॥
आगे दानके अतीचार कहैं हैंमत्सरकालातिकमसचित्तनिक्षेपणा विधानानि । दानेऽन्यव्यपदेशः परिहर्तव्या मलाः पंच ॥१४॥
अर्थ-दानादिसें अनादर भाव सो मात्सर्य कहिए, बहुरि योग्य कालका उल्लंघन करना, बहुरि सचित्त कमलपत्रादि विषं भोजन धरना, बहरि सचित्ततें ढाकना, बहरि अन्यपै आज्ञा करि दिवावना, ये दानमैं पांच अतीचार त्यागना योग्य है ॥१५॥
आगे सल्लेखनाकें अतीचार कहैं हैंजीवितमरणाशंसानिदानमित्रामुराग सुखशंसा । सन्यासे मलपंच कमिदमाहुविदितविज्ञेयाः ॥१५॥
अर्थ यह शरीर अवश्य अनित्य है सो यह कैसे रहैं ऐसी अभिलाषा सो जीवितशंसा कहिए, बहुरि रोगके उपद्रवतें आकुलितपने करि मरण वांछना सो मरणशंसा कहिए, बहुरि परलोकमैं भोगनिकी वांछा करना सो निदान, बहुरि पूर्व मित्रनसू क्रीड़ा करी थी ताका स्मरण करना सो
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१५६ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार -
मित्रानुराग कहिए, बहुरि पहले भोगे सुखनिका चितवन करणा सो सुखशंसा कहिए । यह संन्यास विर्षे अतीचारनिका जो पंचक ताहि जान्या है जानिवे योग्य जिननैं ऐसे अहंतादिक हैं ते कहैं है ॥१६॥
आगें सम्यग्दर्शनके अतीचार कहैं हैं -
शंकाकांक्षा निदा परशंसासंस्तवा मला पंच । परिहर्तव्याः सद्भिः सम्यक्तविशोधिमिः सततम् ॥१६॥
अर्थ-जिन वचनमें शंका करणी, वा भोगनिकी वांछा करणी, वा धर्मात्मानमैं निंदा करणी ग्लानि करणी, मिथ्यादृष्टिनकी प्रशंसा करणी, स्तुति करणी; ये पांच अतीचार हैं ते सम्यक्त विशोधन करनेवाले जे सत्पुरुष तिन करि निरंतर त्यागना योग्य हैं ॥१६॥
आगें अतीचारनके कथनकौं संकोचै हैसप्तति परिपहंति मलानामेवमुत्तमधियो ब्रतशुद्धयै । श्रावका जगति ये शुभचित्तास्ते भवंति भुवनोत्तमनाथा॥१७॥
अर्थ-या प्रकार लोकमैं उत्तमबुद्धि श्रावक हैं जे अतिचारनिकी सप्तति कहिए सत्तरका समूह ताहि त्यागें हैं ते शुभचित लोकके उत्तम नाथ होय हैं ॥१७॥
आणु शल्यनिका निषेध करै हैंनिदानमायाविपरीतहष्टी राचपंक्तोरिष दुःखकीः । ये वर्जय तेसुखभागिनस्ते, निःशल्यता शर्मकरी हि लोके ॥१८॥
अर्थ-जे पुरुष वाननकी पंक्ति समान दुःख करनेवालो जो भोगनिकी वांछारूप निदान अर कुटिल भावरूप माया अर विपरीत दृष्टि कहिए मिथ्यादृष्टि इन तीनोंको त्यागे हैं ते सुखके भोगनेवाले हैं, जाते लोक विर्षे निःशल्यपना सुखकारी है ऐसा जानना ॥१८॥
यस्यास्ति शल्य हृदये विधेय, वतानि नश्यत्यखिलानि तस्य ।
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सप्तम परिच्छेद
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स्थिते शरीरं ह्यबगाह्य कांडे,
जनस्य सौख्यानि कुतस्तनानि ॥१६॥ अर्थ-जाके हृदय विर्षे तीन प्रकार यह शल्य है ताके समस्त व्रत नाशकौं प्राप्त होय हैं, जाते मनुष्यके शरीरको व्यापक वाणको तिष्टते संते काहेते सुख होय ? नहीं होय है ॥१६॥
प्रशस्तमन्यच्च निदानमुक्त्तं, निदानमुक्तौ तिनामृषीन्द्रः । विमुक्तिसंसारनिमित्तभेदाद्विधा
प्रशस्तं पुनरभ्यधायि ॥२०॥ अर्थ--निदान रहित जे मुनीन्द्र है तिन करि व्रतीनके निदान है सो प्रशस्त अर अप्रशस्त ऐने दोय प्रकार कह्या है, बहुरि प्रशस्त निदान मुक्तिका संसारका निमित्त इन भेदनितें दोय प्रकार क ह्या।
भावार्थ-निदानके भेद दोय, एक प्रशस्त निदान दूजा अप्रस्त निदान ; तहां प्रशस्त निदानके भेद दोय, एक मुक्ति निमित्त, एक संसार निमित्त, ऐसा जानना ॥२०॥ आगें मुक्ति निमित्त निदानकौं कहैं हैं--
कर्मव्यपायं भवदुःखहानि बोधि समाधि जिनवोधसिद्धिम् ।
आकांक्षतः क्षीणकषावृत्तेविमुक्तिहेतुः
कथितं निदानम् ॥२१॥ अर्थ--कर्मनिका अभाव अर संसारके दुःखकी हानि अर दर्शन ज्ञान तपस्वरूप वोधि अर समाधि कहिए ज्ञानसहित मरण अर जीवनकै ज्ञानकी सिद्धि इनकौं वांछता क्षीण कहिए मन्द है कषाय निकी प्रवृति जाकै ऐसा जो पुरुष ताकै मुक्तिका हेतु निदान कह्या है।
भावार्थ-निदान नाम वांछाका है सो मुक्तिहीकी वांछा है, जातें मुक्ति विना कर्मादिकका अभाव होय नाहीं तातै सो निदान मुक्ति हेतु कह्या, ऐसा जानना ॥२१॥
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श्री अमितगति श्रावकाचार
आगे संसार निमित्त प्रशस्त निदानकौं कहैं हैंजातिं कुलं बांधववर्जितत्वं दरिद्रतां वा जिनधर्मसिद्धद्य । प्रयाचमानस्य विशुद्धवृत्तेः संसारहेतुर्गदितं जिनेन्दः ॥२२॥
अर्थ - जिन धर्मकी सिद्धिके अर्थ जातिकौं वा कुलकौं वा बांधवनि करि रहितपनेकौं वा दारिद्रपनेकौं वांछता जो निर्मल है प्रवृत्ति जाकी ऐसा पुरुष ताके जिनेन्द्र संसारके निमित्त प्रशस्त निदान का है ।
भावार्थ - कोऊ चाहै कि जाति कुल भला मिलै तामैं जिनधर्म सधै तथा बांधवादि आकुलताके हेतु हैं इन करि रहित होऊ जातें धर्म सधै सो ऐसी बांछा धर्मके आशयतें कथंचित् भली है तथापि जाति आदि संसार विना होय नाहीं, तातै संसार हेतु प्रशस्त निदान का ||२२||
उत्पत्तिहीनस्य जनस्य नूनं, लाभो न जातिप्रभृतेः कदाचित् । उत्पत्तिमा हुर्भवमुद्धबोधा,
भवं च संसारमनेककष्टम् ॥२३॥
अर्थ - उत्पत्तिरहित जो जीव ताकै निश्रयतें जाति आदिका लाभ कदाच होय नाहीं, बहुरि उद्धत है ज्ञान जिनका ऐसे ज्ञानी पुरुष हैं ते उत्पत्तिकौं भव हैं है । बहुरि भव है सो अनेक दुःखरूप संसार है ।
भावार्थ - जाति आदि संसार विना नाहीं तातें आत्मादिककी वांछा है, ऐसा जानना ॥ २३॥
संसारलाभो विदधाति दुःखं, शरीरिणां मानसमांगिकं च । यतस्ततः संसृतिदुःखभीतैस्त्रिधा निदानं न तदर्थमिष्टम् ॥ २४ ॥
अर्थ - जातै संसार लाभ है सो जीवनिकौं शरीर सम्बन्धी वा मन सम्बन्धी दुःख कर है तातें संसारके दुःखनतें भयभीत पुरुषनि करि संसारके अर्थ निदान है सो मन वचन काय करि नाहीं ईच्छिये है ऐसा जानना ||२४||
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सप्तम परिच्छेद
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आगे अप्रशस्त निदानकौं कहैं हैं;
भोगाय मानाय निदानमीशेर्यदप्रशस्तं द्विविधं तदिष्टम् । विमुक्तिलाभ प्रतिबन्ध हेतोः, संसारकांतारनिपातकारि ॥ २५॥
अर्थ – आचार्य नैं जो अप्रशस्त कहिए खोटे निदान है सो भोग के अर्थ अर मानके अर्थ ऐसा दोय प्रकार इष्ट किया है, कैसा है, अप्रशस्त निदान मुक्तिके लाभके रोकनेकौं कारण संसार मैं पटकनेवाला ऐसा है ।
भावार्थ -- पंचेन्द्रियनिके बिषयनिकी अभिलाषा सो भोगार्थ निदान कहिए अर अपनी महंतताके अर्थ वांछा सो मानार्थ निदान कहिए सो खोटे निदान संसारके कारणके है ऐसा जानना ||२५|| संति दोषा भुवनांतराले, तानंगभाजां वितनोति भोगः । के asuराधा जननिन्दनीया, न दुर्जनो यान् रभसा करोति ॥ २६ ॥
ये
अर्थ -- विषय भोग हैं सो जीवनिकै लोकविषै जो दोष हैं तिनहिं विस्तर है । इहां दृष्टांत कहैं हैं – जननि करि निंदनीक ते कौन अपराध हैं जिनहिं दुष्टजन जबर्दस्ती न करें हैं, सर्व ही करें हैं ॥ २६ ॥
ये पीडयन्ते परिचर्यमाणाः ये मारयन्ते बत पोष्यमाणाः । ते कस्य सौख्याय भवन्ति भोगा, जनस्य रोगा इव दुर्निवाराः ॥२७॥ अर्थ--आचार्य कहैं हैं बड़े
खेदकी बात है जे भोग आचरन करे सन्ते से सन्ते पीड़ा उपजावै है अर पुष्ट करे सन्ते मारैं हैं ते भोग रोगनि समान दुर्निवार कौन मनुष्यकै सुखके अर्थ होय हैं, अपितु नाहीं होय हैं ऐसा जानना ॥२७॥
विनश्चरात्मा
गुरुपंककारी, मेघो जलानीव विवर्द्धमानः । ददाति यो दुःखशतानि कृष्ण, स कस्य भोगी विदुषा निषेव्यः ॥ २८ ॥
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१६० ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ- सो विषय भोग कौनकें पंडितजन करि सेयवे योग्य होय अपितु नाहीं होय । कैसा है विषय भोग जो वर्द्ध मान भया सन्ता जैसे मेघ जलनिकौं देय है तैसे दुःखनिके सैंकड़ानिकों देय है । कैसा है मेघ विनशनशील है स्वरूप जाका सो यह भोग भी विनसनशील है बहुरि मेघ महाकीचका करनेवाला हैं । बहुरि मेघ काला है, सो यह भोग भी मलीन है ऐसा जानना ||२८||
यो वाधते शक्रममेय शक्ति, सः कस्य बाधा कुरुते न कामः । यः प्लोषते पर्वतवर्ग मग्निः समुचते कि तृणकाष्ठ राशिम् ॥ २६ ॥
अर्थ - जो काम अप्रमाण है शक्ति जाकै ऐसा जो इन्द्र ताहि पीडै है सो काम कौनके बाधा न करे है ? सर्वहीकै कर है । इहां दृष्टांत कहै है, जो अग्नि पर्वतन के समूहको जलावे है सो अग्नि कहा तृणकाष्ठ के समूहको छोड़े है, अपितु नाहीं छोडै है; ऐसा जानना ॥ २६ ॥
समीरणाशीव
विभीमरूप:,
पररंध्रवर्ती |
कोपस्वभावः श्रनात्मनीनं परिहत्त कामैर्न
याचनीयः कुटिलः स भोगः ॥३०॥
अर्थ- आपके अर्थ अहित ऐसा जो दुःख ताके त्यागने की है वांछा जिनके ऐसे पुरुषनि करि सो विषयभोग चाहना योग्य नाहीं । कैसा है भोग, सर्प समान है भयानकरूप जाका, कैसा है सर्प क्रोधरूप है स्वभाव जाका सो यह मोग भी क्रोधका अभिप्राय लिये है । बहुरि सर्प पराये विलमैं तिष्ठ है तैसें भोग भी स्त्री आदि परद्रव्यमैं वर्त्ते है, बहुरि सर्प कुटिल है तैसे भोग भी मायाचार सहित है, ऐसा जानना । ऐसें भोग निंद्य जानिकै ताके अर्थ निदान करना योग्य नाहीं ॥ ३० ॥ आगे मानका निषेध करें हैं
देवं गुरु धार्मिकमर्चनीयं, मानाकुलात्मा परिभूय भूयः । पाथेयमादाय कुकसंजालं, नीचां गतिं गच्छति नीचकर्मा ॥३१॥
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सप्तम परिच्छेद
अर्थ – मानकरि आकुल है आत्मा जाका ऐसा जो पुरुष है सो देवका गुरुका धर्मात्माका पूजनीकका वारंबार तिरस्कार अपमान करके अर नीचकर्म जीव पापकर्मके समूहरूप वटसारीको ग्रहण कारे नीच गतिक जाय है ।
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भावार्थ - मानी जीव गुरुका भी अविनय करै है अर पापकर्म बांधि तिर्यंचादि गतिकौं प्राप्त होय है ऐसा जानना ॥३१॥
वामनः पामनः कोपनो वंचनः, कर्कशो रोमशः सिध्मलः कश्मलः । कोलिको मलिकः शालिकच्छपकः, fred लुब्धको मुग्धकः कुष्ठिकः ॥३२॥ चित्रक: कौकिशो मूषितो जाहको, वंजुलो मंजुलः पिप्पलः पन्नगः ।
कुक्कुरस्तित्तिरो रासभो वायसः, कुक्कुटो मर्कटो मानतो जायते ॥३३॥
अर्थ – मानतें जीव जो नीच पर्याय पावै है सो क है है - वामन होय है, मगर होय है, क्रोधी होय है, ठिग होय है, कठोर होय है, रोमश कहिए बड़े रोमका धारो होय है, सिध्मल कहिये भूरा होय है, पापी होय है कोली होय है, माली होय है, सिलावट होय है, छींपा होय है, चाकर होय है पराधीन लोभी होय है, मूढ़ होय है, कोढ़ी हो है ॥ ३२ ॥
चीता होय है, घूघू होय है, मूसा होय है, जाहक होय है, बहुरि वंजुल मंजुल पिप्पल कोई नीच तिर्यंच विशेष है सो होय है, बहुरि सर्प अर कुत्ता अर तीतर अर गधा अर कागला अर मुर्गा अर बन्दर इत्यादि नीच मनुष्य तिर्यंचन पर्याय जीव मानते पावै है तातें मान त्यागना योग्य हैं, यहु तात्पर्य है ॥३३॥
लक्ष्मीक्षमा कीर्तिकृपा सपर्या
निहत्य सत्या जनपूजनीयाः । निषेव्यमाणो रभसेन मानः
श्वभ्रालये निक्षिपतीति घोरे ॥ ३४ ॥
अर्थ - सेया भया मान है सो सत्यार्थ रूप अर लोकनि करि पूजनीक
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१६२ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
ऐसी जो लक्ष्मी अर क्षमा अर कीर्ति अर दया अर पूजा इनकौं नासकें अर जबरदस्ती घोर नरकवास विषै पटकै है ||३४||
अनन्तकालं
समवाप्य नीचां
यद्येकदा याति जनोऽयमुच्चाम् ।
तथाप्यनंता बत याति जातिरुच्चो
गुणः कोऽपि न चात्र तस्य ॥३५॥
अर्थ - जीव है सो अनन्तकाल तांई नीच जातिकौं पाय करि एक काल उच्च जातिकौं प्राप्त होय है, आचार्य कहैं हैं, बड़े खेदकी बात है तो भी जीव अनन्त जातिनकौं प्राप्त होय है । बहुरि ता जीवकै इहां ऊँचा गुण कोई भी न देखिए है ।
भावार्थ - जीव अनंतकाल निगोदादि नीचपर्यायनिमें बसे है, कदाच क्षत्रियादि उच्च कुल में उपजै है सो तहां भी अनंतवार भया तातें संसारमें ॐच गुण किछू भी न देखिए है, तातें मान करना वृथा है ऐसा
जानना ||३५||
उच्चासु नीचासु च हंत जंतोर्लब्धासु नो योनिषु वृद्धिहानी । उच्चो व नीचोऽहमपास्त बुद्धि:, स मन्यते मानपिशाचवश्यः ॥३६॥
अर्थ - ॐच जातिनकौं वा नीच जातिनकौं पाए संत जीवकी हानि वृद्धि नाहीं है, बहुरि मान पिशाचके वशीभूत अज्ञानी जीव है सो "मैं ऊँचा हूं नीचा नाहीं" ऐसा मान है ये बड़े खेद की बात है ॥ ३६ ॥
उच्चोऽपि नीचं स्वभवेक्षमाणो, नीचस्य दुःखं न किमेति घोरम् । नीचोऽपि पश्यति यः स्वमुच्चं, स सौख्यमुच्चस्य न किं प्रयाति ॥३७॥
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सप्तम परिच्छेद
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उच्चत्वनीच त्वविकल्प एष, विकल्प्यमानः सुखदुःखकारी। उच्चत्वनीचत्वमयी न योनिर्ददाति
दुःखानि सुखानि जातु ॥३८॥ अर्थ-ऊँचा है सो भी आपको नीचा देखता सन्ता कहा नीचके घोर दुःखकौं न प्राप्त होय है, होय ही है। बहुरि नीचा है सो भी आपको ऊँचा देखता संता कहा ऊँचा पुरुषके सुखकौं न पावै है, पावै ही है ॥६७॥ यह ऊँचपना नीचपनाका विकल्प है सो कल्प्या भया संता दुःख करने वाला है। बहुरि ऊँचपना नीचपना मयी जाति है सो सुखनिकौं वा दुःखनिकों कदाचित् न देय है ॥३८॥
भावार्थ-कोऊ पुरुष और नतें आप बड़ा है सो आपते बडेको देखि आपको दुखी मान है । बहरि कोई पुरुष और नितें छोटा है सो भी आपतें छोटेनिकौं देखि आपको बडा मान सुख मानै है। तातें मोही जीवको मिथ्या मानने में सुख दुःख है किछु बाह्य जाति आदि सुख दुःखका कारन नाहीं। ऐसा जानि जात्यादिकका गर्व न करना ऐसा इहां प्रयोजन जानना ॥३७-३८॥
हिनस्ति धर्म लभते न सौख्यं, कुबुद्धि रुच्चत्वनिदानकारी। उपति कष्टं सिकतानिपीडी,
पलं न किंचिज्जननिन्दनीयः ॥३६॥ अर्थ-ॐचपनेका निदान करने वाला कुबुद्धि पुरुष है सो धर्मका नाश करै है अर सुखकौं न पावै है । इहां दृष्टांत कहै हैं, जैसे लोक विष निंदनीक मूर्ख पुरुष वालू रेतका पेलनेवाला कष्टकौं प्राप्त होय है अर किछु फलकौं नहीं प्राप्त होय है तैसें ।
भावार्थ-निदान करे सुख न मिले है, जातें सुख तो पुण्योदयके आधीन हैं, अर पुण्यके आशयतै पुण्य होय नाहों तातें जैसे बाल रेत पेले किछु तेल न कढै उलटा कष्ट होय है तैसा निदान भी जानना ॥३९।।
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श्री अमितगति श्रावकाचार
यशांसि नश्यंति समानवृत्तं गंदातुरस्येव सुखानि सद्यः । विवद्ध ते तस्य जनापवादो, विषाकुलस्येव मनोविमोहः ॥४०॥
अर्थ – जैसें रोग करि पीड़ित पुरुषके सुख शीघ्र नाशको प्राप्त ही है तैसें मानसहित है प्रवृति जाकी ऐसा जो पुरुष ताके यश शीघ्र नाशकौं प्राप्त होय है । बहुरि ताका लोकापवाद बढ़े है जैसे विषकरि आकुल है चित्त जाका ऐषः जो पुरुष ताके मनमैं अचेतपना बड़े तैसें, ऐसा जानना ॥ ४० ॥
हुताशनेनेव तुषार शिविनश्यतेऽलं विनयो मदेन ।
नैवानुरागं विनयेन होनो, लोके शमेनैव चरित्रमेति ॥ ४१ ॥
अर्थ – जैसे अग्निकरि तुषारकी राशि विनाशकों प्राप्त होय है तैसें मानकरि विनय नाशकौं प्राप्त होय हैं । बहुरि विनय करि हीन है सो लोक में प्रीति भावकौं न पावै हैं, शमभाव करि ही चारित्रकों पाव है, ऐसा जानना ॥४१॥
पूता गुणा गर्ववतः समस्ता भवन्ति वंध्या यम संयमाद्याः । प्ररोप्यमाणा विधिना विचित्रा: किमूषरे भूमिरुहाः फलन्ति ॥ ४२ ॥
अर्थ - गर्वसहित पुरुषकै यम कहिए कालकी मर्यादारूप नियम अर संयम कहिए इंद्रिय विषय अर हिंसाका त्याग इत्यादि पवित्र गुण हैं ते स्वर्गादि फल रहित होय हैं। इहां दृष्टात क है हैं, ऊषर भूमिविष विधिसहित लगाये नाना प्रकार वृक्ष हैं ते कहा फलै हैं, अपितु नाहीं फलै है ॥४२॥
मानेन निदानमित्थं
न जातु करोति दोषं परिचित्य चित्रं । प्राणापहारं न वि नोकमानो विषेण तृप्ति वितनोति कोऽपि ॥ ४३ ॥
अर्थ - या प्रकार मानके नानाप्रकार दोषकौं विचारिकै मानसहित निदानकौं कदाच भी न करें है । जैसैं प्राणके नाशकौं देखता पुरुष कोई भी विकरि तृप्तिक न विस्तारै है तैसें ||४३||
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सप्तम परच्छेद
[१६५
यो घातकत्वादि निदानमज्ञः करोति कृत्वा चरणं विचित्रं । हि वयित्वा फलदानदक्ष,
स नन्दनं भस्मयते वराकः ॥४४॥ अर्थ-जो नाना प्रकार चारित्र्यकौं करकै अर अज्ञानी धातकपना आदिका निदान करै है सो बावरा पुरुष फल देने में प्रवीण ऐसा जो नन्दन वन ताहि बढ़ाय करि भस्म करै है।
भावार्थ-जो चारित्रधारी द्वीपायनकी ज्यौं मारने आदिका निदान करै है सो चरित्रका नाश करै है, अनन्त संसारी होय है ऐसा जानना ॥४४॥
यः संयमं दुष्करमादधानो, भोगादिकांक्षां वितनोति मूढः । कंठे शिलामेष निधा य गुर्वी,
विगाहते तोयमलभ्य मध्यम् ॥४५॥ अर्थ-जो मूढ दुःखकर संयमकौं धारता संता भोगादिककी वांछाकौं विस्तारै है सो कंट विर्षे बड़ी शिलाकौं धारिक नाहीं मिलने योग्य है मध्य जाका ऐसा औंडा जलकौं अवगाहै है ॥४५॥
त्रिधा विधेयं न निदानमित्थं, विज्ञाय दोषं चरणं चरद्भिः । अपथ्यसेवां रचयंति सन्तो ,
विज्ञातदोषा न कृतौषधेच्छाः ॥४६॥ अर्थ-अणुव्रतादिरूप चारित्रकौं आचरन करते जे पुरुष तिनकरि या प्रकार निदानके दोषकौं जानिकै निदान है सो मन वचन काय करि करना योग्य नाहीं। जैसे करी औषधकी इच्छा जिननें अर जान्या है अपथ्यका दोष जिननें ऐसे सज्जन हैं ते अपथ्यका सेवन न करें हैं।
भावार्थ-संसार रोगकी औषध चारित्र है अर निदान संसार रोग बढ़ानेवाला कुपथ्य है । जे चास्त्रिधार हैं अर निदानकों बुरा जानें हैंनिदान न करें हैं, ऐसा जानना ॥४६॥
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श्री अमितगति श्रावकाचार ............
ऐसा निदानशल्यका वर्णन किया। आगै मायाशल्यका वर्णन करै है :प्रायासविश्वासनिराशशोकषावशादश्रमवैरभेदाः ।
भवंति यस्यामवनाविवागाः, सा कस्य माया न करोति कष्टम् ॥४७॥ अर्थ-जैसे भूमिमै वृक्ष होय तैसे प्रयास अर विश्वासका अभाव अर शोक अर द्वेष अर श्रम अर वैर इत्यादि भेद हैं ते जिस माया विर्षे होय हैं सो कोनकै कष्ट न करै, सर्वहीकै करै ॥४७॥
स्वल्पापि सर्वाणि निषेव्यमाणा, सत्यानि माया क्षणतः क्षिणोति । नाल्पा शिखा कि दहतींधनानि,
प्रवेशिता चित्ररुचेश्चितानि ॥४८॥ अर्थ-थोड़ो भी सेई भई माया क्षण मात्रमें सर्व सत्यका नाश करै है ।इहां दृष्टांत कहै हैं ;-अग्निकी अल्प ज्वाला प्रवेश करी भई कहा संचय रूप धननकों नाहीं दहै है ? दहै ही है ॥४८॥
निकत्तितुं वृत्तवनं कुठारी, संसारवृक्ष सवितुं धरित्री । बोधप्रभाध्वंसयितुं त्रियामा,
माया विवा कुशलेन दूरम् ॥४६।। अर्थ-प्रवीण पुरुष करि माया दूर त्यागनी योग्य है । कैसी है, माया चारित्र वनके काटनेकौं कुल्हाडी समान है, अर संसार रूप वृक्षके उपजावनेकौं पृथ्वी समान है, अर ज्ञानरूप प्रभा प्रकाशके नाशनेकौं रात्रि समान है । ऐसा जानना ॥४६॥
हिनस्ति मैत्री वितनोत्यमैत्री, तनोति पापं वितनोति धर्मम् । पुष्णाति दुःखं विधुनोति सैख्यंः न वंचना किं कुरुते विनिंद्यम् ॥५०॥
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सप्तम परिच्छेद
[१६७
अर्थ-माया है सो मैत्री कहिए प्रीति ताका नाश कर है अर अप्रीतिकौं विस्तारै है, पापकौं विस्तारै है अर धर्मका विध्वंस कर है, दुःखकौं पुष्ट करै है अर सुखका अभाव करै है । बहुरि सो माया कौन निंदने योग्य है ताहि न करै है, सर्व ही करै है ॥५०॥
ऐसे मायाका वर्णन किया। आगें मिथ्यात्व शल्यका बर्णन करै हैं ;
न बुध्यते तत्त्वमतत्वमंगी, विमोह्यमानो रभसेन येन । त्यति मिथ्यात्वविषं पटिष्ठाः,
सदा विभेदं बहुदुःखदायि ॥५१॥ अर्थ-जिस मिथ्यात्वविष करि जबरदस्ती अचेत भया संता जीव है सो तत्व अतत्वकौं न जानै है तिस बहुत भेदरूप मिथ्यात्व विषकों पंडित जन हैं ते त्यागें हैं । कैसा है मिथ्यात्व विष बहुत दुःखका देनेवाला है, ऐसा जानना ॥५१॥ आगें मिथ्यात्वके अभिप्रायका वर्णन करें हैं
वदन्ति केचित् सुखदुःखहेतुर्न, विद्यते कर्मशरीरभाजाम् । मानस्य तस्मिन्निखिलस्य
हानेर्मानव्यपेतस्य न चास्ति सिद्धिः ॥५२॥ अर्थ-कोई कहै है-जीवनिकै सुख दुःखका कारण कम नाहीं है, जाते तिस कर्म बिर्षे समस्त प्रमाणनिकी हानि है । बहुरि प्रमाण रहितकी सिद्धि नाहीं।
भावार्थ-कोई कहैं हैं सुख दुःखका कारण कर्म नाहीं तातें कर्म इन्द्रियनिके गोचर नाहीं अर ताका लिंग कोऊ दीस नाहीं बहुरि कर्म-समान और पदार्थ दीसें नाहीं, बहुरि कर्म विना न होय ऐसे पदार्थकी अप्राप्ति है, बहुरि हमारे आगममें भी कर्मका अभाव कह्या है; ऐसे सर्व
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१६८]
श्री अमितगति श्रावकाचार -
प्रमाणके अगोचर है । बहुरि जो प्रमाणमैं न आवै सो वस्तु नाहीं, तातै कर्म नाहीं है ॥५२॥ बहुरि फेर कहैं हैं
सत्त्वेऽपि कतुन सुखादिकार्य, तस्यास्ति शक्तिर्गतचेतनत्वात् । प्रवर्तमानाः स्वयमेव दृष्टाः,
विचेतनाः कापि मया न कार्ये ॥५३ अर्थ-जीवविर्षे सुखादि कार्यके दूर करनेकी ता कर्मके शक्ति नाही, जातें कर्मके अचेतपना है । मैंने कोई कार्य विष अचेतन पदार्थकौं स्वयमेव प्रवर्तते न देखे ।
भावार्थ--जीवकै सूख ज्ञानादि घात करनेकौं कर्म समर्थ नाहीं जात आप अचेतन है। लोकमें अचेतन पदार्थ कार्य करते न देखे हैं, ऐसा तानं कर्मका अभाव साध्या ॥५३॥ अब आचार्य कहैं हैं
एषा महामो चवश्यर्न, युज्यते गीरभिधीयवाना। प्रमाणमस्माकमवध्यमानं,
यतोऽस्य सिद्धावनुमानमस्ति ॥५४॥ अर्थ-महा मोहरूप पिशाचके वशीभूत जे मिथ्यादृष्टि तिनकरि कही यह वाणी युक्त नाहीं, जातें इस कर्मकी सिद्धि विष हमारा अबाधित अनुमान प्रमाण है ॥५४॥
सो ही अनुमान दिखावे हैं-- · रागद्वेषमदमत्सरशोकक्रोधलोभभयमन्मथ मोहाः ।। सर्वजन्तुनिवतैरनुभूताः, कर्मणा किमु भवन्ति विनते ॥५५।।
अर्थ-सर्व जीविनिके समूहनि करि अनुभव किए ऐसे जे रागद्वेष, मद, मत्सर, शोक, क्रोध, लोभ, भय, काम, मोह इत्यादि विकार भाव हैं ते कर्म विना ये कैसे होय।।
भावार्थ-संसारी जीवनिकै कर्म बन्धै है जाते कर्मनिके उदयका कार्य जोरागादि भाव हैं ते सर्व जीवनि करि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष करि
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सप्तम परिच्छेद
[१६६
जानिए है, कर्मोदय विना रागादिक कैसे होय; जाकै कर्म बंध नाहीं सो रागादि सहित नाहीं जैसे मुक्त जीव। इहां कार्यलिंगतें अनुमान किया है ॥५५॥ आगें फेर आशंकाका उत्तर करै हैं ;
ते जीवजन्याः प्रभवंति नूनं, नैषापि भाषा खलु युक्तियुक्ता । नित्यप्रसक्तिःनथमन्यथैषां,
संपद्यमाना प्रतिषेधनीया ।५६॥ अर्थ-वादी कहै है कि ते रागादिभाव जीवहीतें उपजै हैं; ताकौं आचार्य कहैं हैं—कि ऐसी वाणी निश्चय करि युक्त नाहीं, जातें ये रागादि जीवहीतें उपजे होय तौ इन रागादिकनिकी नित्य सम्बन्धता आई सो कैसे निषेध करने योग्य होय। ।
भावार्थ--रागादि भाव आत्माके स्वभाव होय तौ स्वभावका अभाव होनेत सर्व अवस्थामैं रहे चाहिए तब जीवकै मोक्ष कैसैं होय तात रागादिक हैं ते कर्मोदयके निमित्त विना न होय है, ऐसा जानना ॥५६॥ आगें फेर कहैं हैं--
नित्येजीवे सर्वदा विद्यमाने, कादाचित्का हे तुना केन संति । निर्मुक्त्तानां जायमाना निषेद्ध,
ते शक्यंते केन मुक्त्तिश्च तेभ्यः ॥५७॥ अर्थ-सदाकाल विद्यमान जो नित्य जीव ता विष कही होय कहीं न होय ऐसे कदाच होनेवाले जे रागादिक ते कौन कारणकरि होय हैं अर मुक्त जीवनिकै उत्पन्न भए जे रागादिक ते काहे करि निषेधनेकौं समर्थ हजिए अर तिनतें मुक्ति काहेकरि होय ।
भावार्थ--जैसैं फटिकमणि निर्मल तो सदा है तांमैं काला पीला आदि जैसा डांक लगे तैसा परिणमैं सो परिणमन कदाचित् होय है ताते ताकौं कादचित्क कहिए तैसें आत्मा तो नित्य है ताक मोहादि कर्मका निमित्त मिले रागादिरूप परिणमन होय है सो कादचित्क है, अर ते रागादि कर्म निमित्तविना होय तो रागादिक नित्य स्वभाव ठहर तब तिनका मुक्त जीवक भी अभाव केसैं होय अर. तिनते कैसे छूट, तातें कर्मका अस्तित्व : मानना योग्य है ॥५७॥
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श्री अमितगति श्रावकाचार
आगें फेर कहैं हैं
तुल्यप्रतापोद्यमसाहसानां केचित्रभंते निजकार्यसिद्धिम् ।
परे न तामत्र निगद्यतां मे, कर्मास्ति हित्वा यदि कोऽपि हेतुः ॥ ५८ ॥
केई
अर्थ - समान है प्रताप अर उद्यम जिसके ऐसे पुरुषनिकै मध्य पुरुष अपने कार्यकी सिद्धिकों पावैं हैं । बहुरि और केई ता कार्यकी सिद्धिकी न पावै हैं; सो इहां कर्म सिवाय और कोई भी कारण होय तौ मोमैं कहि ।
भावार्थ - समान पुरुष समान उद्यम करै तहां कोईकै सिद्धि होय कोईकै न होय सो इहां कर्म सिवाय और कारण नाहीं, ऐसा
जानना ॥ ५८ ॥
आगें फेर कहै हैं
विचित्रदेहाकृति वर्णगंधप्रभावजातिप्रभवस्वभावाः ।
केन क्रियते सुनेंगवर्गाश्चिरन्तनं कर्म निरस्य चित्राः ॥ ५६ ॥
अर्थ – लोक विषै नानाप्रकार शरीर वर्ण गंध वीर्य जाति इनके उपजावने रूप हैं स्वभाव जिनके ऐसे जे अनेक जीवनिके समूह ते पहला पुरातन कर्म विना कौन करि करिए है ।
भावार्थ - पहला कर्म न होय तो आगामी नाना शरीर का हेतै उपजे, ता प्राचीन कर्म मानना यौग्य है ॥ ५६ ॥
विवद्धयं मासान्नव गर्भमध्ये, बहुप्रकारैः कलिलादिभावैः । उद्वर्त्य निष्कासयते सवित्र्या को गर्भतः कर्म विहाय पूर्वम् ॥ ६० ॥
अर्थ- गर्भ विषै नव मास तांई नानाप्रकार रुधिरादि भावनि माताके गर्भ तैं पूर्व कर्म बिना कौन
करि बढ़ायकै अर पलटकै
निकास है ।
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सप्तम परिच्छेद
भावार्थ - पहला कर्म न होय तो गर्भमैं वृद्धि होना अर मुख पलटकें गर्भ तैं निकासना इत्यादि कार्य कैसे होय, तातें पूर्व कर्म अवश्य मानना ॥ ६० ॥
आगे वादीने कही थी कर्म अचेतन है सो कार्य कैसे करें ताका उत्तर करें है :
विलोकमानाः
स्वयमेव शक्ति
विकारहेतु
विषमद्यजाताम् ।
अचेतनं कर्म करोति कार्यं
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कथं वदंतोति कथं विदग्धाः ॥ ६१॥
अर्थ - विष वा मदिरा इन अचेतनतें उपजी जो विकारकी कारण शक्ति ताहि आपही देखते संते चतुर पुरुष हैं ते " अचेतन जो कर्म सो कार्यकौं कैसे करै है” ऐसी कैसे कहैं हैं ।
भावार्थ - मदिरादि अचेतन वस्तु है सो जैसें गहलपना उपजावै है तैसै कर्म भी अचेतन है सो अपना कार्य करें है, यामैं शंका कहां, प्रत्यक्ष अचेतनका कार्य देखिए है ॥ ६१ ॥
आगे फेर कहैं हैं :
नानाप्रकारा भुवि वृक्षजातीविधूय पत्राणि पुरातनानि । अचेतनः किं न करोतिकालः प्रत्यग्रपुष्पप्रसवादिरम्याः ||६२ ॥
अर्थ – पृथ्वीविषै अचेतन जो काल है सो नानाप्रकार वृक्षकी जो जाति ताहि पुराने पत्रनकौं झड़ाय करि नवीन पुण्य पत्रादिकनि करि मनोहर कहा न करै है ? कर ही हैं ।
भावार्थ - जैसें अचेतनकाल है सो वृक्षनिके पहले पत्र भड़ाय नवीन पत्रादि करें है तैसें अचेतन कर्म भी अपना कार्य कर है, ऐसा
जानना ||६२ ||
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१७२]
श्री अमितगति श्रावकाचार
आगें फेर कहैं है :
यनिःशेषं चेतनामुक्तमुक्त, कार्याकारि ध्वस्त कार्यावबोधैः । धर्माधर्माकाशकालादि सब,
द्रव्यं तेषां निष्फलत्वं प्रयाति ।६३।। अर्थ-जिन पुरुषनि करि चेतना रहित अचेतन द्रव्य है सो सर्वथा कार्यका करनेवाला नाहीं ऐसा कह्या तिनकै धर्म अधर्म आकाश काल आदि सर्व द्रव्य निष्फलपनेकौं प्राप्त होय हैं, कैसे हैं ते पुरुष नष्ट भया है कार्यका ज्ञान् जिनकै।
भावार्थ-जे सर्वथा अचेतनकौं कार्यका करनेवाला न मान हैं तिनकै धर्मादि द्रव्य अचेतन हैं ते निष्फल ठहरै तातें तिनके कार्य कारणपनेका ज्ञान नाहीं। यद्यपि धर्मादि द्रव्य प्रेरक कर्ता नाहीं तथापि निमित्त नैमित्तिक, भाव मांत्र परस्पर कार्यकारणपना है, सो स्याद्वादतें अविरोध सधै है ॥६३॥
__ आगै कोऊ कहै कि अमूर्त जीवकै मूर्तीक कर्म नहीं बन्धे है, ताका समाधान कर है
जीवैरमूत्त: सह कर्म मूत, संवध्यते नेति वचो न वाच्यम् । अनादिभूतं हि जिनेन्द्र चन्द्राः,
कर्मोगिसम्बन्ध मुदा हरंति ॥६४॥ अर्थ-अमूर्तीक जीवनि सहित मूर्तीक कर्म न बन्धे है ऐसा कहना योग्य नाहीं; जातें जिनेन्द्रचन्द्र हैं ते कर्म अर जीवनिका अनादितें सम्बन्ध कहैं हैं।
भावार्थ-जीव कर्मका अनादि सम्बन्ध है सो अनादि स्वभाव में तक नाहीं, ऐसा जानना ॥६४॥
आगें इस कथनको संकोचे हैं
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सप्तम परिच्छेद
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इत्यादि मिथ्यात्वमनेकभेदं, यथार्थतत्वप्रतिपत्तिसूदि । विवर्जनीयं त्रिविधेन सद्भिर्जनं घ्रते रयिनमवाश्रभिः ॥६५॥
अर्थ-संतन करि इत्यादिक मिथ्यात्व नानाप्रकार यथार्थ तत्वज्ञानका नाश करनेवाला है सो मन वचन काय करि त्यागना योग्य है । कैसे हैं सत्पुरुष जिन भगवानके व्रतकौं रत्नकी ज्यौं सेव हैं ॥६५॥
आगें एकादश प्रतिमानका वर्णन करें हैंएकादशोक्ता विदितार्थतत्त्वैरुपासकाचारविविभेदाः । पवित्रमारोढुमनन्यलभ्य सोपानमार्गा इव सिद्धिसौधम् ॥६६॥
अर्थ-जाने हैं पदार्थनि के स्वरूप जिननें ऐसे अहंतादिकनि करि श्रावकके आचारकी विधिके भेद ग्यारह कहै हैं, ते भेद पवित्र मोक्ष महलके चढनेकौं सिवाणके मार्ग समान हैं, कैसा है मोक्ष महल अन्य सामान्य जनकरि नाहीं पावने योग्य है, ऐसा जानना ॥६६॥ आगें ग्यारह प्रतिमानमैं प्रथम दर्शन प्रतिमाकौं कहै हैं
यो निर्मलां दृष्टिमनन्यचित्तः, पवित्रवृत्तामिव हारयष्टिम् । गुणाव नद्धां हृदये निधत्ते,
स दर्शनी धन्यतमोऽभ्यधायि ॥६७॥ ___ अर्थ नाहीं है और ठिकाने चित्त जाका ऐसा जो पुरुष पवित्र अर गोल हारकी लडी समान निर्मल दृष्टिकौं हृदयमैं धारै है। सो दर्शनसहित पुरुष अतिशय करि धन्य कह्या है। कैसी है हारकी लड़ी गुण जे डोर तिन करि बन्धी है, अर निर्मल दृष्टि वात्सल्य आदि गुण कर वन्धी है ऐसा जानना ॥६७॥ आगें व्रत प्रतिमाकौं कहै हैं
विभूषणानीव दधाति धीरो, व्रतानि यः सर्वसुखाकराणि । प्राकष्टुमीशानि पवित्रलक्ष्मी, तं वर्णयन्ते अतिनं वरिष्ठाः ॥६॥
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श्री अमितगति श्रावकाचार
__ अर्थ- सर्व सुखनिके स्थान जे बारह व्रत तिनहि जो आभूषणनिकी ज्यों धारै है ता पुरुषकौं आचार्य व्रती हैं हैं । कैसे हैं बारह व्रत पवित्र लक्ष्मी जो स्वर्ग मोक्षकी लक्ष्मी ताके प्राप्त करनेकौं समर्थ हैं, ऐसा जानना ॥६॥ आगै सामायिक प्रतिमाकौं कहै हैं :
रौद्रात मुक्तो भवदुःखमोची, निरस्तनिःशेषकषायदोषः । सामायिकं यः कुरुते त्रिकालं,
सामायिकस्थः कथितः सतथ्यम् ॥६६॥ अर्थ-आर्त रौद्र खोटे ध्यानान करि रहित अर संसार दुःखनिका त्यागनेवाला अर त्यागे हैं समस्त क्रोधादि कषाय जानें ऐसा जो पुरुष त्रिकाल सामायिककौं व.रै है सो पुरुष सत्यार्थ सामायिक विष तिष्ट्या कह्या है ॥६६॥ आगें प्रोषध प्रतिमाकौं कहैं हैं:--
मन्दीकृताक्षार्थ सुखाभिलाषः, करोति य: पर्वचतुष्टयेऽपि । सदोपवासं परकर्म मुक्त्वा ,
सः प्रोषधी शुद्धधियामभीष्ट: । ७०॥ अर्थ-मंद करी है इद्रिय विषय जनित सुखकी अभिलाषा जानें ऐसा जो पुरुष पर्वचतुष्टय कहिये एक मासकी दोय अष्टमी दोय चतुर्दशी इन चारिनि विष आरम्भ छोड़करि निश्चयरि सदा उपवास करें है सो प्रोषध प्रतिमाधारी शुद्धबुद्धीनके अभीष्ट वांछित है ।।७०॥ आगें सचित्तत्याग प्रतिमाकौं कहै हैं :--
दया चित्तो जिनवाक्यवेदी, न वल्भते किंचन यः सचित्तम् । अनन्यसाधारण धर्मपोषी, सचित्तमोची स कषायमोची ॥७१॥
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सप्तम परिच्छेद
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अर्थ-दया करि भोज्या है चित्त जाका अर जिनेन्द्रके वचननिका जाननेवाला ऐसा जो पुरुष कछ भी सचित्तकौं न खाय है सो औरके समान नाहीं, ऐसे असाधरण धर्मका पुष्ट करनेवाला कषायरहित सचित्तत्यागी कह्या है ॥७१॥
आगें रात्रिभोजनका त्याग वा दिनमैं अब्रह्म त्याग प्रतिमाकौं
निषेवते यो दिवसे न नारी-मुद्दामकन्दर्पमदापसारी। कटाक्षविक्षेपशरीरविद्धो, बुधैर्दिन ब्रह्मचरः स बुद्धः ॥७१॥
अर्थ-जो पुरुष तीव्र कामके मदका दूर करनेवाला दिवस विर्षे नारीकौं न सेवै है, सो पंडितनि करि स्त्री कटाक्षका चलावना रूप वाणनि करि नाहीं वींध्या दिन विषं तो ब्रह्मचारी कह्या है। दिन विष तो स्त्रीका न सेवना सो दिन ब्रह्मचारी है वा यहु रात्रिभोजनका भी त्यागी है, तातें याहीका नाम रात्रिभोजन त्यागी भी कह्या है; ऐसा जानना ॥७२॥ आगें ब्रह्मचर्य प्रतिमाकौं कहैं हैं :--
यो मन्यमानो गुणरत्नचौरी, विरक्तचित्तस्त्रीविधेन नारीम् । पवित्रचारित्रपदानुसारी,
स ब्रह्मचारी विषयापहारी ॥७३॥ अर्थ-जे विरक्त पुरुष स्त्रीकौं मन, वचन, काय करि गुणरत्नकी चोरनेवाली मानता सन्ता पवित्र चरित्रके पदका अनुसारी विषयनका त्यागी सो ब्रह्मचारी कह्या है ॥७३॥
आगै आरम्भ त्याग प्रतिमाकौं कहै हैं :-- विलोक्य षङ्गीवविघातमुच्चरारम्भमत्यस्यति यो विवेकी । प्रारम्भमुक्त्तः स मतो मुनीन्द्रवि रागिक: संयमवृक्षसेकी ॥७४॥
अर्थ-अतिशयकरि षट्कायिक जीवनि घात देखक जो विवेकी । आरम्भकौं त्याग है सो मुनींद्रनिकरि आरम्भ रहित कहा है, कैसा है सो विरागी संयम वृक्षका सींचनेवाला है ।।७४।।
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श्री अमितगति श्रावकाचार
आगें परिग्रह त्याग प्रतिमाकौं कहैं हैं --
यो रक्षणोपार्जननश्वरत्वैर्ददाति, दुःखानि दुरुत्तराणि , विमुच्यते येन परिग्रहोऽसौ,
गीतोऽपसंगैरपरिग्रहोऽसौ ॥७॥ अर्थ-जो परिग्रह रक्षा करना उपार्जन करना विनसना दुःखतें उतरे जाय ऐसे दुःख निकौं देय है, ऐसा यह परिग्रह जाकरि त्यागिए सो यह परिग्रह रहित जे मुनींद्र तिन करि अपरिग्रह क ह्या है ॥७॥
अर्थ-आरम्भ की रचना करि हीन है चित्त जाका अर धर्मका अनुमोदन करनेवाला ऐसा जो पुरुष पापकार्यनि विर्षे हिंसकरूप मारी समान जो अनुमति कहिए सलाह ताहि न देवै सो नाहीं अनुमति करनेवालेनिमैं प्रधान कहिए है।
भावार्थ- पाप कर्मकी अनुमोदनाका त्याग करै सो अनुमति त्यागी दशम प्रतिमाधारी कहिए, ऐसा जानना ॥७६।। आगे उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाकौं कहै है
यो वन्धुराबंधुरतुल्यचित्तो, गह्णाति भोज्यं नवकोटिशुद्धम् । उद्यिोष्टवर्जी गुणिभिः स गीतो,
विभीलुकः संसृति मातुधान्याः ॥७७॥ अर्थ -जो पुरुष भले बुरे आहार मैं समान है चित्त जाका ऐसा जो पुरुष नवकोटि शुद्ध कहिए मन, वचन, काय करि करया नाहीं कराया नाहीं करे हुएकौं अनुमोद्या नाहीं ऐसे आहारकौं ग्रहण करै सो उद्दिष्ट त्यागी गुणवन्तनिनै कह्या है, कैसा है, सो संसाररूप राक्षसीसैं विशेष भयभीत है ॥७७॥
ऐसे ग्यारह प्रतिमाका वर्णन किया। इहां संक्षेप ऐसा हैं, जो मिथ्यात्व अर अनन्तानुबन्धी कषाय इनके उदयका अभाव तौ सम्यग्दर्शन होते ही भया । बहुरि अप्रत्याख्यानावरणके उदयके अभावतें देशविरतनामा
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सप्तम परिच्छेद
[ १७७
पंचम गुणस्थान होय हैं ताकै दर्शन प्रतिमास लगाय ऊपर ऊपर विशुद्धताकी अधिकतातै ग्यारह भेद कहै हैं । सम्यक्सहित बारह व्रतनिहीकी ऊपर ऊपर निर्मलता होती जाय है, ऐसा जानना । इहां कोऊ कहै कि देशव्रतका घातक जो अप्रत्याख्यानावरण कषाय ताके उदयका तो अभाव भया अब ही अधिक विशुद्धता किस कर्मके उदयतें होय है ताका उत्तर - यद्यपि इहां अप्रत्याख्यानावरण कषायका उदय नाहीं तथापि प्रत्याख्यानावरण कषायका मन्द तीव्र उदयतें हीन अधिक विशुद्धिका होय है जैसे- प्रख्याख्यान कषायका अभाव होतें षष्टमादि गुणस्थान मैं हीनाधिक विशुद्धता संज्वलनके तीव्र मन्द उदय होय है तैसें, ऐसा जानना ॥७७॥ क्रमेणाश्चित्त निदधति मुदैकादश गुणा
नलं निदा गर्हानिहितमनसो येऽस्ततमसः । भवान् द्वित्रान् भ्रांत्वाऽमर मनुजयोभू रिमहसोविधुतैनोबंधाः परमपदवीं यांति सुखदाम् ॥७८॥
अर्थ - दूर भया है अज्ञान अन्धकार जिनका, बहुरि निंदा गर्हा विषै लगाया है मन जिनने ऐसे पुरुष अतिशय करि हर्ष सहित इन पूर्वोक्त ग्यारह गुणनकौं चित्त विषे धार हैं ते पुरुष बड़े हैं तेज जिनके ऐसे देव मनुष्यनि विषं दोय तीन भव भ्रमण करि बहुरि नाश किये है पापबंध जिनन ऐसे ते सुरूकी देनेवाली परमपदवी जो मुक्ति ताहि प्राप्त होय हैं ।
मावार्थ - जे सम्यग्दृष्टी ग्यारह प्रतिमाकौ धार हैं। आपकी निंदा गर्दा करें हैं ते दो तीन भव देवादिकके सुख भोगकै सिद्ध होय हैं, ऐसा जानना ॥७८॥
इदं धत्त भक्त्या ग. हिजनहितं योऽत्र चरितं मदक्रोधायासप्रमदमदनारम्भमकरम् ।
भवांभोधि तीवजननमरणावर्त्त निचितं ब्रजत्येषोऽध्यात्मामितगतिमतं निर्वृ तिपदम् ॥७६॥
अर्थ – जा पुरुष इहां भक्ति सहित ये गृहस्थ जनका हितरूप चारित्रको धार है सो यहु आत्मा ज्ञानी संसार - समुद्रकौं तिरके सर्वज्ञ देवकरि का जो शिवपद ताहि प्राप्त होय है । कैसा है संसार - समुद्र क्रोध स्वेद हर्ष काम आरंभ ये ही है मगर जा विषै, बहुरि जन्म मरणरूप भौंरनिकरि व्याप्त है ॥ ७६ ॥
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१७८]
श्री अमितगति श्रावकाचार
कवित्त छन्द । दर्शन व्रत सामायिक प्रोषध, सचित रात्रिभोजन परिहार । ब्रह्मचर्य आरंभ परिग्रह, अनुमतिविरति दसम सुखकार ॥ पुनि उद्दिष्टत्याग पडिमा, इम धारत जो श्रावक दुखहार । सो स्वर्गादि सम्पदा लहिक, होय अमितगति पद अविकार ॥
ऐसें श्री अमितगति आचार्यविरचित श्रावकाचारवि
सप्तम परिच्छेद समाप्त भया ।
अष्टम पच्छेिदः।
आगें छह प्रकार आवश्यककौं कहे हैं :जिनं प्रणम्य सर्वीयं, सर्वज्ञ सर्वतो मुखम् ।
आवश्यकं मया षोढा, संक्षेपेण निगद्यते ॥२॥
प्रयं-जिनदेवकौं नमस्कार करिकै मोकरि छह प्रकार संक्षेपकरि आवश्यक कहिए है। कैसे हैं जिनदेव सर्वीयं कहिए सर्वज्ञ याकार रूप परिणया जो ज्ञान ता स्वरूप है, बहुरि सर्वका जाननेवाला है बहुरि सर्व तरफ है मुख जाका ऐसा है।
भावार्थ-सर्वदर्शी है ॥१॥ प्रागमोऽनन्तपर्यायौ, यतो जनो व्यवस्थितः ।
अभिधातुं ततः केन, विस्तरेण स सक्यते ॥२॥
अर्थ--जाते जिनभाषित आगम है सो अनन्तभेद स्वरूप तिष्ट है तातें विस्तार सहित कौन करि कहनेकौं समर्थ हूजिए है ॥२॥
पत्तोऽपि संति ये बालाश्चिमाकारेषु जन्तुषु । अस्यायबोवतस्तेषामुपकारो भविष्यति ॥३॥
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अष्टम परिच्छेद
[ १७६
अर्थ - नाना प्रकार जीवनिक होत सन्तें भी जे अज्ञानी है तिनका इसके ज्ञान उपकार होयगा ।
भावार्थ - आगमतौं अनन्त है सो सर्व कौन कहि सकै परन्तु इहां संक्षेपमात्र आवश्यकका स्वरूप कहिए है, जाकै जाने मोतें भी जे मंदज्ञानी है तिनका उपकार होयगा, ऐसा जानना है ॥ ३ ॥
आवश्यकं न कर्त्तव्यं, नै: फल्यादित्यसाम्प्रतम् । प्रशस्ताध्यवसायस्य, फलस्यात्रोपलब्धितः ॥४॥ प्रशस्ताध्यवसायेन, संचितं कर्म नाश्यते ।
काष्ठ niष्ठान्तनेव, दीप्यमानेन निश्चितम् ॥५॥
1
अर्थ – कोऊ कहें कि आवश्यक करना योग्य नाहीं, जातें ताके फल रहितपना है ताकौं आचार्य क है हैं- सो कहना अयुक्त है, जातें इस आवश्यक विषै प्रशस्त परिणामनिकी प्राप्ति है ||४|| बहुरि प्रशस्त परिणाम करि संचयरूप जो कर्म सो निश्चयतें नाशिए है जैसें जाज्वल्यमान अग्निकरि काठ नाशिए तैसे ||५||
अर्थ- कोऊ कहै कि आवश्यक कता विछू फल नाहीं तातें आवश्यक न करना, ताकौं कह्या है कि आवश्यक किया करनेतें भले परिणाम होय हैं तिन तें कर्मका नाश होय है तातें आवश्यक क्रिया निष्फल नाहीं ॥४-५॥
जायते न स सर्वत्र, न वाच्यमिति कोविदैः ।
स्फुटं सम्यक्कृते तत्र तस्य सर्वत्र सम्भवात् ॥६॥
"
अर्थ- सो आवश्यक क्रिया सर्व जायगा न होय है ऐसे पंडितनिकरि कहना योग्य नाहीं, जातें आवश्यक क्रियाकौं भले प्रकार करते सन्ते सब जायगा सम्भवै है ।
भावार्थ — कोऊ कहै कि आवश्यक सर्वत्र न होवें हैं ताकू आचार्य ने कह्या है कि भले प्रकार करें सर्वत्र होय है, यामैं संदेह न करना ॥ ६ ॥
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१८०]
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श्री अमितगति श्रावकाचार
न सम्यक्करणं तस्य, जायते ज्ञानतो विना।
शास्त्रतो न विना ज्ञानं, शास्त्रं तेनाभिधीयते ॥७॥
अर्थ-आवश्यक क्रियाका भले प्रकार करना तिसके ज्ञान विना न होय है। बहुरि शास्त्र विना ज्ञान नाहीं ता कारण करि शास्त्र कहिए है ॥७॥
लाभपूजायशोऽथित्वे, तस्य सम्यक्कृताधषि ।
प्रशस्ताध्यवसायस्य, संभवो नोपलध्यते ॥६॥
अर्थ--लाभ पूजा यशके अर्थीपने करि वांछा सहित तिन आवश्यक क्रियाकौं भले प्रकार करे संत भी प्रशस्त परिणामका होना न पाइए है ॥८॥
तदयुक्त यतो नेदं, सम्यककरणमुच्यते ।
अत एवात्र मृग्यंते, सम्यकृत्यधिकारिणः ॥६॥
अर्थ-सो लाभ पूजादिककी वांछा सहित कारण योग्य नाहीं जाते वांछा सहित यहु कारण भला न कहिए है, इस ही तें इहां भले करने योग्यके अधिकारी हेरिए हैं।
भावार्थ-भले प्रकार आवश्यक क्रियाका करनेवाला पुरुषका स्वरूप कहिए है ॥६॥
संसारदेहभोगानां, योऽसारत्वमवेक्षते । कषायेंद्रिययोगानां, जयनिग्रहरोधकृत् ॥१०॥
अर्थ-जो पुरुष संसार देह भोगनिका असारपना देखे है अर कषाय, इद्रिय, योग, इनका यथाक्रम, जय, निग्रह, रोध करै है ।
भावार्थ-कषायनकौं जीते है इन्द्रियनिकौं दमैं है, मन वचन कायके योगनकौं रोक है सो आवश्यक क्रियाका अधिकारी है ॥१०॥
आगें ताका विशेष स्वरूप कहैं हैंअनेकयोनिपाताले, विचित्रगतिपत्तने । जन्ममृत्युजरावत, भूरिकल्मषपाथसि ॥११॥
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अष्टम परिच्छेद
संसारसागरे भीमे, दुःख कल्लोलसंकुले । रागद्वेषमहान, रौद्रव्याधिभाषाकुले ॥ १२ ॥ चिरं वंभ्रम्यमाणानां जिनेन्द्रपद वंदना | दुराया जायतेऽत्यर्थमिति यो हृदि मन्यते ॥ १३॥
अर्थ – अनेक जोनि हैं पाताल जा विषै, बहुरि नानाप्रकार गति ही है पत्तन कहिए पुर जा विषै, अर जन्म मृत्यु जरा ही है आवर्त्त कहिए भौंरे जामैं अर महापाप ही है जल जा विषै अर दुःख रूप लहरन करि व्याप्त अर रागद्वेष ही हैं बडे न जा विषै अर भयानक रोगरूप मच्छनि करि भर्या ऐसा जो भयानक संसार - समुद्र ता विषै बहुत कालतें अतिशय करि भ्रमते जे जीव तिनकौं जिनेंद्रके चरणनिकी जो वंदना सो अतिशय करि दुर्लभ है ऐसा जो पुरुष हृदय विषै माने है ॥ ११-१२-१३ ॥
-
बहुरि कहैं हैं -
अनर्थकारिणः कांता जननी जनकादयः ।
स्वस्योपकारिणो योऽलं बुध्यते परमेष्ठिनः ॥ १४ ॥
अर्थ - स्त्री माता पितादिकनिकौं अनर्थके करनेवाले मानें हैं अर आपके उपकार करनेवाले पंच परमेष्ठीनकौं मानें है ॥ १४ ॥
बहुरि कैसे हैं
सर्वाणि गृहकार्याणि परकार्याणि पश्यति । शुद्धधधर्मकार्याणि, निजकार्याणि यः सदा ॥ १५॥ यौवनं जीवितं धिष्णमैश्वर्यं जनपूजितम् । नश्वरं वीक्षते सर्व, शरदभ्रमिवानिम् ॥ १६॥
[ १८१
दर्शनज्ञानचारित्रत्रितयं भवकानने । जानीते दुर्लभं भूयो भ्रष्टं रत्नमिवांबुधौ ॥ १७॥
मयूरस्थेष मैघौये, वियुक्तस्येव वांधवे । तृषार्तस्येव पानीये, विषद्धस्येव मोक्षणे ॥ १८ ॥
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१८२]
श्री अमितगति श्रावकाचार.
सव्याधेरिव कल्पत्वे, विहष्टेरिव लोचने । जायते यस्य सन्तोषो, जिनवकविलोकने ॥१६॥ परीषहवहः शांतो जिनसूत्रविशारदः । सम्यग्दृष्टिश्नाविष्टो, गुरुभक्तः प्रियंवदः ॥२०॥ आवश्यकमिदं धीरः, सर्वकर्मनिषूदनम् । सम्यक्कत क्मसौ योग्यो, नापरस्यास्ति योग्यता ॥२१॥
अर्थ-बहुरि जो सर्व गृह सम्बन्धी कार्यनकौं परके कार्य मान है, अर सुबुद्धी धर्म कार्यनकौं सदा अपने कार्य मानै है ॥१५॥
बहरि जो योवनकौं जीवनकौं घरकौं अर लोकमान्य ऐश्वर्यकौं सबकौं शरदके मेघ समान निरन्तर विनाशिक देखे है ॥१६॥
बहुरि संसार वनमैं दर्शनज्ञान चारित्रके त्रितयकौं जैसै समुद्र विर्षे पड्या रत्न फेर दुर्लभ है तैसैं मानै है ॥१७॥
बहरि मेघनके समूह विर्षे मयूरनके हर्ष होय तथा विछरे पुरुषकै बांवत विर्षे हर्ष होय तथा प्यासकरि पीडित पुरुषकै जल विर्षे हर्ष होय वा बंधेकै छूटने विर्षे हर्ष होय ॥१८॥
वा रोग सहितकै नीरोगपने मैं हर्ष होय अन्धेकै नेत्र विर्षे हर्ष होय तैसें जाकै जिनेन्द्रके मुख देखने विर्षे हर्ष होय है ॥१६॥
बहरि क्षधादि परीषहनिका सहनेवाला होय शांत होय जिनसूत्र विष प्रवीण होय सम्यग्दृष्टि होय मानरहित होय गुरुभक्त होय प्रिय बोलनेवाला होय ॥२०॥
सो यहधीर पुरुष सर्व कर्मका नाश करनेवाला जो यह आवश्यक ताहि करने योग्य है, और पुरुषकै आवश्यक करनेकी योग्यता नाहीं; ऐसा जानना ॥२१॥ आगें फेर कहैं है ;
औचित्यवेदकः श्राद्धो, विधान करणोद्यतः । कर्मनिर्जरणाकांक्षी, स्ववशीकृतमानसः ॥१२॥
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अष्टम परिच्छेद
भक्तिको बुद्धिमानर्थी, बहुमानपरायणः । पठन श्रवणे योभ्यो, विनयोद्यमभूषितः ॥ २३॥
अर्थ - उचितपने का जाननेवाला होय ।
भावार्थ - यह कालादिक आवश्यकके उचित है ऐसा जाकै ज्ञान होय, बहुरि श्रद्धावान होय, अर आवश्यकके विधान करने मैं उद्यमो होय, अर कर्मकी निर्जराका वांछक होय, अर अपने वश किया है मन जानें ऐसा होय || २२||
बहुरि भक्तिमान् होय, बुद्धिमान होय, धर्मार्थी होय महाविनयमैं तत्पर होय, अर पढ़ने विषै सुनने विषै योग्य होय, अर विनय सहित आवश्यकके उद्यम करि भूषित होय ॥ २३ ॥
आगे फेर कहैं हैं ;
होय है ।
[ १८३
गुणाय जायते शांते, जिनेन्द्रवचामृतम् । उपशांतज्वरे पूतं, भैषज्यमिव योजितम् ॥ २४ ॥
अर्थ - राग द्वेषकी मंदता शांतभया जो पुरुष ताविषै जिनेन्द्रका वचनामृत गुणके अर्थ होय है, जैसें उपशांत भया है ज्वर जाका ऐसा पुरुष विषै योजित किया औषध जैसे गुणकै अर्थ होय तैसें ॥२४॥
अयोग्यस्य वचो जैनं जायतेऽनर्थहेतवे ।
1
यतस्ततः प्रयत्नेन मृग्यो योग्यो मनीषिभिः ॥ २५॥
अर्थ - जातैं अयोग्य पुरुषकै जिनेन्द्रका वचन अनर्थ निमित्त
भावार्थ - मिथ्यादृष्टी जिन वचनका प्रयोजन न जानि उलटा rain पकड़ अपना बिगाड़ करें है तातें पंडितनि करि यत्नसहित योग्य पुरुष हेरना योग्य है ||२५||
,
कषायाकुलिते व्यर्थं जायते जिनशासनम् । सन्निपातज्वरालीढे, दत्तं पथ्यमिवौषधम् ॥२६॥
अर्थ - कषाय करि आकुलित पुरुष विन जिनशासन निरर्थक
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१८४]
श्री अमितगति श्रावकाचार
होय है, जैसे संनिपात ज्वरसहित पुरुष वि दिया हितरूप औषध व्यर्थ होय तैस ।
भावार्थ-तीव्र कषायीकौं जिन वचन न रुचै है, ऐसा जानना ॥२६॥ . आगें आवश्यक करनेवाले चिह्न कहैं हैं :
सत्कथा श्रवणानन्दो, निंदाश्रवणवर्जनम् । अलुब्धत्वमना लस्यं, निंद्यकर्मव्यपोहनम् ॥२७॥ कालकम व्युदासित्वमुपशांतत्वमार्दवम् । विज्ञ यानीति चिह्नानि, षडावश्यककारिणः ।,२८।।
अर्थ-भली कथाके सुननें मैं तो आनंद, अर परिनिंदाके सुननेका त्याग, अर निर्लोभपना, अर आलस्य रहितपना, अर निंद्य कर्मका त्याग ॥२७॥
अर कालके उलंघनेका त्यागीपना, अर मान रहितपना, इत्यादिक चिह्न हैं ते षट् आवश्यकका करनेवाला जो पुरुष ताके जानने योग्य हैं ॥२८॥
आगें छह आवश्यकके नाम कहैं हैं :सामायिकं स्तवः प्राज वन्दना सप्रतिकमा।
प्रत्याख्यानं तनूत्सर्गः, षोढावश्यकमीरितम् ॥२६॥
अर्थ-सामायिक १, स्तवन १, वन्दना १, प्रतिक्रमण १, प्रत्याख्यान १, कायोत्सर्ग १ ऐसे छह प्रकार आवश्यक पंडितनि करि कह्या है ॥२६॥ '... द्रव्यतः क्षेत्रतः सम्यक्कालतो भावतो बुधैः। ..
नामतो न्यासतो ज्ञात्वा, प्रत्येकं तन्नियुज्यते ॥३०॥ - अर्थ-द्रव्यतै, क्षेत्रतें, कालतें, भावतें, नामतै, स्थापनातें भलेप्रकार जानकर सो आवश्यक एक एक प्रति लगाइए है।
भावार्थ-सामायिकादि छहौं क्रियानमैं नामादिक छह छह लगाइए है, जैसे-द्रव्यसामायिक, क्षेत्रसामायिक, कालसामायिक, भावसामायिक नामसामायिक, स्थापनासामायिक । ऐसें ही स्तवादि विर्षे लगाय लेना ॥३०॥
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अष्टम परिच्छेद
[१८५: .
आगें सामायिकका स्वरूप कहैं हैं :जीविते मरणे योगे, वियोगे विप्रिये प्रिये ।
शत्रौ मित्रे सुखे दुःखे, साम्यं सामायिकं विदुः ॥३१॥
अर्थ-जीवनेमैं अर मरनं मैं, संयोगमैं अर वियोगमें, अप्रियमैं अर ... प्रियमें, शत्रुमैं अर मित्रमैं, सुखमैं, अर दुःखमैं, समभावकौं सामायिक कहैं हैं।
भावार्थ-सर्व ही जीवना मरणा आदिको ज्ञेयपने समान जान करि रागद्वेष न करना सो सामायिक कहिए ॥३१॥
आगें स्तवका स्वरूप कहैं हैं ;जिनानां जितजेयाना, मनंतगुणभागिनाम् । स्तवोऽस्तावि गुणस्तोत्रं, नामनिर्वचनं तथा ॥३२॥
अर्थ-जीते हैं जितने योग्य कर्म जिननें ऐसे जे जिन अर्हन्त तिनका जो गुणनिका स्तोत्र तथा नामकी निरुक्ति करना सो स्तव कह्या है, कैसे है जिन अनन्त गुणके भजनेवाले ऐसे हैं।
भावार्थ-जिनदेवके अनंतज्ञानादि गुणनिका स्तोत्र पढ़ना "तथा कर्म वैरी निकौं जीतै सो जिन" इत्यादि नामनिकी निरुक्ति करना सो स्तव कहिए ॥३२॥
आगें वन्दनाका स्वरूप कहै हैंकारण्यहुताशानां, पंचानां परमेष्ठिनाम् । प्रणतिवंदनाऽवादि, त्रिशुद्धया त्रिविधा बुधैः ॥३३॥
अर्थ-कर्मवनकौं अग्नि समान जे पंचपरमेष्ठी तिनकौं नमस्कार करना सो मन, वचन, कायकी शुद्धि ताकरि तीन प्रकार वन्दना पंडितनि करि कही।
भावार्थ--पंचपरमेष्ठीकौं प्रमाण करना सा वन्दना कहिए ॥३३॥ आगें प्रतिक्रमणका स्वरूप कहैं हैं
द्रव्यक्षेत्रादिसम्पन्नदोषजालविशोधनम् । निंदागर्दा कियालीढं, प्रतिक्रमणमुच्यते ॥३४॥..
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१८६]
श्री अमितगति श्रावकाचार ।
अर्थ-द्रव्य क्षेत्र आदि शब्दतै काल अर भाव इन विषं लगे जे दोष तिनके समूहका विशेष शोधना निन्दा गर्दादि क्रिया सहित सो प्रतिक्रमण कहिए है।
___ भावार्थ-निंदा गर्हास हित लगे दोषनकौं याद करि निराकरण करन सो प्रतिक्रमण करना सो प्रतिक्रमण कहिए ॥३४॥
आगें प्रत्याख्यानका स्वरूप कहैं हैं - नामादीनामयोग्यानां, षण्णां त्रेधा विवर्जनम् । प्रत्याख्यानं समाख्यातमागम्यागोनिषिद्धये ॥३५॥
अर्थ-अयोग्य जे नामादिक कहिए नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल भाव छहौंनकौं आगामी पापके निषेधके अर्थ मन, वचन, काय करि त्याग करना सो प्रत्याख्यान कह्या है ।
भावार्थ-आगामी पापका त्याग करनेकै अथि अयोग्य द्रव्यादिका त्याग करना सो प्रत्याख्यान कहिए ॥३५॥
आर्ग कायोत्सर्गकौं कहैं हैं
आवश्यकेषु सर्वेषु, यथाकालमनाकुलः । कायोत्सर्गस्तनूत्सर्गः, प्रशस्तध्यानवर्धकः ॥३६॥
अर्थ-सर्व आवश्यक क्रियान विर्षे जिन काल चाहिए तिस ही काल आकुलता रहित शरीर विर्षे ममत्वका त्याग सो प्रशस्त ध्यानका बढ़ावनेवाला कायोत्सर्ग है।
भावार्थ-सामायिकादि क्रियानि विर्षे यथाकाल शरीरसैं ममत्व त्यागना सो कायोत्सर्ग कहिए ॥३६॥ ..''आगै आवश्यक क्रियानिमैं आसनादिकका विधान कहैं हैं
शेयस्तत्रासनं स्थानं, कालो मुद्रा तनत्सृतिः । नामावलप्रभा दोषा, षडावश्यककारिभिः ॥३७॥
मर्थ-छह आवश्यक करनेवाले पुरुषनि करि तहां आसन १ स्थान, १ काल, १ मुद्रा, १ कायोत्सर्ग, १ प्रणाम, १ आवत, १ प्रमाण दोष इतनी वस्तुका जानना योग्य है ॥३७॥
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अष्टम परिच्छेद
[१८७
आगै आसनका वर्णन करें हैं;आस्थते स्थीयते यत्र, येन वा वंदनोद्यतः । तदासनं विवोद्धव्यं, देशपद्मासनादिकम् ॥३८॥
अर्थ-वन्दना करने मैं उद्यमी जे पुरुष तिनकरि जाविर्षे वा जाकरि आस्यते कहिये स्थिररूप हूजिए सो देश कहिए क्षेत्र अर पद्मासनादिक आसन जानने योग्य हैं । ऐसे आसन शब्दकी निरुक्ति करी ॥३८॥
आगें आवश्यक करनेके अयोग्य क्षेत्रनिकौं कहै हैं :संसक्तः प्रचुरच्छिद्रस्तुणपांश्वादिदूषितः । विक्षोभको हृषीकाणं, रूपगन्धसादिभिः ॥३६॥ परीषहकरो दंशशीतवातातपादिभिः । असंबद्धजनालापः सावद्यारम्भगहितः ॥४०॥ प्रार्द्राभूतो मनोऽनिष्टः समाधाननिषूदकः । योऽशिष्ट जनसंचारः प्रदेशं तं विवर्जयेत् ॥४१॥
अर्थ-संसक्त कहिये स्त्रीपुरुष नपुंसकादिकनिकी भीड़ जहां होय । बहुरि बहुत छिद्रनकरि युक्त होय, अर तृण धूलि आदि करि दूषित होय, बहुरि रूप गन्धरस इत्यादिकनि करि इन्द्रियनिकौं विशेष क्षोभ करनेवाला होय ॥३८॥ बहुरि शीत बात दंश आताप आदि करि परीषहका करनेवाला होय, बहरि असंबद्ध कहिए सम्बन्धरहित निःप्रयोजन मनुष्यनिका जहां वचनालाप होय, बहुरि पापसहित आरम्भ करि निंदित होय ॥४०॥ चालो होय, मनको अनिष्ट होय, समाधानका नाश करनेवाला होय, अर नीच लोकका जहां संचार होय ऐसा होय ता क्षेत्रकौं त्यागें ॥४१॥ ....
भावार्थ-आवश्यक करनेवाला पूर्वोक्त क्षेत्रकौं चित्तकौं क्षोभकारी जानि परित्याग करै ।।
आणे आवश्यक योग्य स्थानकौं कहै हैंविविक्तः प्रासुकः सेव्यः, समाधानविवर्धकः । देवर्जु दृष्टिसंपातजितो, देवदक्षिणः ॥४२॥ ......
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१८८
श्री अमितगति श्रावकाचार -
जनसंचारनिर्मुक्तो, ग्राह्यो देशो निराकुलः । नासन्नो नातिदूरस्थः, सर्वोपद्रवर्जितः ॥४३॥
अर्थ-एकांत होय, अर प्रासुक होय, सेव्य कहिए वतीनके सेवने योग्य होय, अर समाधानका वढ़ावनेवाला होय, अर देव कहिए जिन चैत्यादिक तिनकी सूधी दृष्टिके पड़नेकरि रहित होय।।
भावार्थ-प्रतिमादिकके सन्मुख न होय, अर जिन चैत्यादिकके दाहना होय ॥४२॥ अर मनुष्यनिके आने जानेकरि रहित होय अर न अति निकट न अति दूर होय, सर्व उपद्रव करि वर्जित होय, ऐसा निराकूल क्षेत्र ग्रहण करना योग्य है।
भावार्थ-ऐसे क्षेत्रमैं सामायिक करै ॥४३॥ आगे जा बैठे ताका स्वरूप कहै हैंस्थेयोऽछिद्रं सुखस्पर्श, विशब्दकमजतुकम् । तृणकाष्ठादिकं ग्राह्यं विनयस्योपवृहकम् ॥४४।
अर्थ-थिर होय, छिद्र रहित होय, सुखरूप होय स्पर्श जाका ऐसा होय, शब्द रहित होय, जीवरहित होय, वैराग्यका बढावनेवाला होय, ऐसा तृणकाष्ठादिकका साथस ग्रहण करना योग्य है ॥४४॥ . आगे आसनका स्वरूप कहैं हैं
जंघाया जंघयाश्लेषे, समभागे प्रकीतितम् । .. पद्मासनं सुखाधायि, सुसाध्यं सकलैर्जनैः ॥४५॥
' अर्थ-समभाग विर्षे जंघाकरि जंघाका आश्लेष कहिए गाढा चिपटना होय सो सुखका आधार समस्त जननि करि सुखतें साधने योग्य सा पद्मासन कह्या है ॥४५॥
बुधरुषर्यधोभागे, जंघयोरुभयोरपि ।
समस्तयोः कृते ज्ञेयं पर्यकासनमासनम् ॥४६॥
अर्थ-सर्व दोऊ जंघानको ऊपर अर अधोभागमैं करे संते पंडितजननिकरि पर्यकासन नामका आसन जानने योग्य है ॥४६॥
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अष्टम परिच्छेद
[१८६
ऊर्वोपरि निक्षेपे, पादयोविहिते सति । वीरासनं जिरं कर्त्त शक्यं वीरन कातरैः ॥४७॥
अर्थ-दोऊ चरणनिकौं ऊरू कहिए जांघ ऊपरि धरे संते वीरासन आसन होय है। या वोरासनकौं बहुत काल तांई वीर पुरुष ही करनेकौं समर्थ हैं, कायर समर्थ नही है; ऐसा जानना ॥४७॥
युतपाणिभवे योगे, स्मृतमुत्कु टुकासनम् । गवासनं जिनरुक्तमार्याणां यतिवंदने ॥४८॥
अर्थ-दोऊ एडीनके योग में उत्कुटकासन जानना। बहुरि आर्यिका जब मुनिनकौं वन्दना करै है तब जिनभगवान करि गवासन नामका आसन कह्या है ॥४८॥
विनयासक्तचितानां, कृतिकर्मविधायिनाम् ।...
न कार्यव्यतिरेकेण, परमासनमिष्यते ॥४६॥ - अर्थ-विनयविर्षे आसक्त चित्त जिनका ऐसे जे कृतिकर्म करनेवाले पुरुष तिनको कार्य बिना और आसन न कहिए है। .
भावार्थ - पद्मासन और कायोत्सर्ग इन आसननि विना अर आसन किछु कार्य विशेष होय तौ करै, कार्य विना दोय ही आसन करना जोग्य है, ऐसा मानना ॥४६॥
ऐसौं आसन का वर्णन किया । आगै स्थानका स्वरूप कहै हैं :स्थीयते येन तत् स्थानं, द्विःप्रकारमुदाहृतम् । वन्दना क्रियते यस्मादूर्वीभूयोपविश्य वा । ५०॥
अर्थ-जा करि स्थिर हूजिए सो स्थान दोय प्रकार कह्या है तातें बन्दना है, सो खड़े रहकरि वा बैठकरि करिये है ।
भावार्थ-खड़े रहना वा बैठना ऐसा दोय प्रकार स्थान जानना ॥५०॥
आगें कालका स्वरूप कहै हैं
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१६.]
श्री अमितगति श्रावकाचार
घटिकानां मतं षट्क, संध्यानां त्रितये जिनैः । कार्यस्यापेक्षया कालः, पुनरन्यो निगद्यते ॥५१॥
अर्थ-संध्यानिका कालत्रय कहिए प्रभात, मध्याह्न, सायंकाल इन तीनों संध्यानविष छह घड़ी काल जिनदेवनिनें आवश्यकका कहिए है। बहुरि कार्यकी अपेक्षा करि और कहिए है ।
भावार्थ-मुख्य काल तौ छह घड़ी ही काल कह्या है, बहुरि कार्यकी अपेक्षा करि दोय घड़ी आदि भी कह्या है ॥५१॥
आगें मुद्राका स्वरूप कहै हैंजिनेन्द्रवन्दनायोगमुक्ताशुक्तिविभेदतः ।
चतुर्विधोदिता मुद्रा, मुद्रामार्गविशारदैः ॥५२॥ अर्थ-जिनेन्द्रमुद्रा १ वन्दना मुद्रा १ योगमुद्रा १ मुक्ताशुक्तिमुद्रा १ इन भेदनिकरि मुद्राके मार्गविर्षे प्रवीण जे पुरुष तिन करि च्यार प्रकार मुद्रा कही है ॥५२॥
आगें जिनमुद्राका स्वरूप कहै हैंजिनमुद्रांसरं कृत्वा, पादयोश्चतुरंगुलम् ।
अर्द्ध जानोरवस्थानं, प्रलंवितभुजद्वयम् ।।५३॥ मर्थ-दोउ पादनका चार अंगुल अन्तर करिके घुटनेंके ऊपर स्थित ऐसी लम्बायमान दोऊ भुजा जानै सो जिनमुद्रा जानना ॥५३।।
आगें वन्दना मुद्राका स्वरूप कहै हैंमुकुलीभूतमाधाय, जठरोपरि कर्पूरम् । स्थितस्य वन्दना मुद्रा, करद्वन्द्व निवेदितम् ॥५४॥
पर्ण-मुकुलीभूत कहिए कमलको डोडी समान अर पेटके ऊपर है कूटनी जाविर्षे, ऐसे विनती करनेवाला हस्त यूगलकौं धारिक तिष्टया जो पुरुष ताकं वन्दना मुद्रा कही है ॥५४॥ .. आगें योग मुद्राका स्वरूप कहैं हैं
जिनाः पद्मासनादीनामंकमध्ये निवेशनम् । उत्तानकरयुग्मस्य, योगमुद्रां वभाषिरे ॥५५॥
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अष्टम परिच्छेद ।
अर्थ – ऊँचा है हथेलीनका मुख जाका ऐसा हस्त युगलकौं पद्मासनादिकनिकी ओलीके मध्य विषै जो धारना ताहि जिन जे अहंतादिक ते योगमुद्रा कहैं हैं ॥ ५५ ॥
आगे मुक्ताशुक्तिमुद्रा का स्वरूप कहैं हैं
[ १६१
मुक्ताशुक्तिर्मता मुद्रा, जठरोपरि कूर्परम् ।
ऊर्द्ध जानो कर द्वन्द्व, संलग्नांगुलि सूरिभिः ॥५६॥
अर्थ – पेटके ऊपर है कूर्पर कहिए कुहनी जाविषै अर वुलनेनके ऊपर हैं हस्त युगल जाके अर भले प्रकार लग रही है अंगुली जाकी सो मुक्तामुक्तिमुद्रा आचार्यनि करि कही है ॥ ५६ ॥
आगैं कायोत्सर्ग का स्वरूप कहैं हैं-
त्यागो देहममावस्य तनन्सृतिरुदाहृता । उपविष्टोपविष्टादिविभेदन चतुविधा ॥ ५७॥
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अर्थ - शरीर के ममत्वका जो त्याग सो कायोत्सर्ग उपविष्ठोपविष्टादि भेद करि च्यार प्रकार कह्या है ||५७||
तहां प्रथम उपविष्टोपविष्ट कायोत्सर्गकौं कहैं हैंयस्यामुपविष्टेन चित्ते ।
श्रार्शरौद्रद्वयं उपविष्टोपविष्टाख्या, कथ्यते सा तन्त्सृतिः ॥ ५८ ॥
अर्थ - जाविषै आर्त्त रौद्रध्यान दोनों बैठ करि चितिए सो उपविष्टोपविष्ट नामा कायोत्सर्ग कहिए है ।
भावार्थ - जा मैं जीवके परिणाम वा शरीर दोनों पड़ते हैं तातें उपविष्टोपविष्ट कह्या है ।। ५८ ।।
आगे उपविष्टोत्थित कायोत्सर्गकौं कहैं हैंधर्मशुक्लद्वयं यस्यामुपविष्टेन चित्यते ।
उपविष्टोत्थितां संतस्तां वदन्ति तन्त्सृतिम् ॥ ५६ ॥
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अर्थ - जाविषै धर्म अर शुक्ल दोनों बैठ करि चितिए ताहि सन्त जन उपविष्टो स्थित कायोत्सर्ग कहैं हैं ।
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१६२ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
भावार्थ-इसमें शरीर तो बैठा है अर परिणाम चढते हैं, तातें . उपविष्टोत्थित कह्या है ॥५६॥
आरौं उत्थितोपविष्ट कायोत्सर्ग कहैं हैंप्रातरौद्रद्वयं यस्यामुत्थितेन विधीयते । तामुत्थितोपविष्टाह्वां, निगदंति महाधियः ॥६०॥
अर्थ-जाविर्षे आत रौद्र ध्यान ठाडे होय करि करिए ताक महाबुद्धि पुरुष उत्थित पविष्ट नाम कायोत्पर्ग कहैं है
भावार्थ-जा विर्षे परिणाम तो पड़ते हैं अर शरीर खड़ा है, तातें उत्थितोपविष्ट कह्या है ॥६०॥
आगै उत्थितोस्थित कायोत्सर्ग कहें हैं धर्मशुक्लद्वयं यस्यामुत्थितेन विधीयते ।
उत्थितोत्थितनामानं, तं भाषते विपश्चितः॥६१॥
अर्थ-जा विर्षे धर्म शुक्ल दोनों ध्यान ठाढे होय करि करिए ताकौं उत्थितोत्थित कायोत्सर्ग कहैं हैं
भावार्थ-जा विर्षे परिणाम चढत हैं अर शरीर भी खडा है तातें उत्थितोत्थित कह्या है, ऐसा जानना ॥६१॥
एकद्वित्रिचतुः पंचदेहांशप्रतेर्मतः । प्रणामः पंचधा देवः, पादानतनरामरैः ॥६२॥
अर्थ-एक दोय तीन च्यार पाँच जे शरीरके अंग तिनके नमनतें पाँच प्रकार प्रणाम जिनदेवनिनें कह्या है, जिनदेव कैसे हैं जिनके चरननकौं सर्व तरफतै देव अर मनुष्य नमैं है ।।६२॥
एकांगः शिरसो नामे, सन्यं गः करयोर्द्व योः । त्रयाणां मूर्ख हस्तानां, सव्यंगो नमने मतः ॥६३॥ चतुर्णो करजानूना, नमने चतुरंगकः । करमस्तकजानूनां पंचागः पंचक्ष नते ॥६४॥
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अष्टम परिच्छेद
[ १६३
अर्थ - एक मस्तकही के नमावने विषै एकांग नमस्कार कहिए अर दोऊ हाथनके नमावने मैं द्वयंग कहिए दोय अंगनि करि नमस्कार कहिए, अर मस्तक अर दोय हाथके नमावन मैं त्र्यंग कहिए तीन अंग करि नमस्कार का है ||६३ || अर दोय हाथ अर दोय घुटने इन च्यारौं नमन मैं च्यार अंगनिकरि नमस्कार कह्या है, अर दोय हाथ अर एक मस्तक अर दोय घू ंटे इन पांचनकौं नमाये संते पंचांग नमस्कार है । ऐसा जानना ||६४||
आगें आवर्त्त कका स्वरूप कहैं हैं
कथिता द्वादशावर्त्ता, वपुर्वचनचेतसाम् । स्तव सामायिकाद्यं तपरावर्त्तन लक्षणाः
॥६५॥
अर्थ - शरीर वचन चित्त इनका स्तवन अर सामायिकके आदि अंतमैं आवर्त्तन कहिए फेरना है लक्षण जिनका ऐसे बारह आवर्त्त
कहै हैं ।
भावार्थ – सामायिकादिकके आदि अंत मैं मन वचन कायके योग हाथ जोडिकै तीन बार भक्ति सहित पलटना तब एक बार मस्तक नमावना, ऐसें च्यार बार मस्तक नमावने मैं बारह आवर्त्त जानना ।। ६५ ।
आगें कायोत्सर्गकी संख्या कहैं हैं
भ्रष्टविंशति संख्यानाः, कायोत्सर्गा मता जिनैः । अहोरात्रगताः सर्वे, षडावश्यककारिणाम् ॥६६॥
अर्थ - छह आवश्यक करनेवालेनके रात्रिदिन विषै सर्व अठ्ठाईस कायोत्सर्ग जिनदेवनैं कहे हैं ॥ ६६ ॥
आगें ते अठ्ठाईस कायोत्सर्ग कहां कहां होय हैं तिनका स्वरूप कहें हैं
स्वाध्याये द्वादश प्राज्ञवंदनायां षडीरिताः ।
अष्टौ प्रतिक्रमे योगभक्तौ तौ द्वावुदाहृतौ ॥६७॥
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१६४ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ - पंडितनिने स्वाध्याय विषै बारह कायोत्सर्ग कहे हैं, अर वंदना मैं छह कहे हैं अर प्रतिक्रमण विषै आठ कहे हैं अर योगभक्ति विषै ते दोय कायोत्सर्ग कहे हैं । ऐसें सर्व अठ्ठाईस कायोत्सर्ग करनेका अवसर जानना ॥६७॥
आगे कौन कायोत्सर्ग कितने उच्छ् वास ताईं करना ताका प्रमाण कहैं हैं
अष्टोत्तरशतोच्छ्वासः, कायोत्सर्गः प्रतिक्रमे ।
सांध्ये प्राभातिके वार्द्ध मन्यस्नत्सप्तविंशतिः ॥ ६८ ॥
अर्थ -- एकसौ आठ उछ्वासमात्र कायोत्सर्ग संध्या सम्बन्धी प्रतिक्रमण मैं कह्या है, अर प्रभात सम्वन्धी प्रतिक्रमण में अर्द्ध कहिए चौवन उच्छ् वास मात्र कायोत्सर्ग कह्या है, बहुरि और कायोत्सग सत्ताईस उछ् वास मात्र कह्या है ॥ ६८ ॥
सप्तविंशतिरुच्छ् वासाः, संसारोन्मू नक्षमे ।
संति पंचनमस्कारे, नवधा चितिते सति ॥ ६६ ॥ ॥
अर्थ संसार के नाश करने मैं समर्थ जो पंचनमस्कार मंत्र ताका नव प्रकार चितवन करे संते सत्ताईस उच्छ् वास होय है ।
भावार्थ - एक णमोकार मंत्र का जाप तीन उच्छवास में करें ऐसे
नव णमोकार जाप मैं सत्ताईस उच्छ् वास जानना ॥ ६६ ॥
प्रतिक्रमद्वयं प्राज्ञः, स्वाध्यायानां चतुष्टयम् ।
त्रितयं
वन्दना
योगभक्तिद्वितयमिष्यते ॥७०॥
अर्थ - प्रतिक्रमण दोय, स्वाध्याय च्यार, वन्दना तीन, योगभक्ति दोय पंडितनि करि कहिए हैं ||७० ||
उत्कृष्ट श्रावकेणैते विधातव्याः प्रयत्नतः ।
अन्यैरेते यथाशक्ति संसारांते यियासुभिः ॥ ७१ ॥
अर्थ - जे प्रतिक्रमणादि पूर्वे कहे ते उत्कृष्ट श्रावक करि भले प्रकार जन्नतें करना योग्य है, बहुरि और जे संसार के पार जानें के
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अष्टम परिच्छेद
जानना ॥७२॥
इच्छुक हैं तिन करि प्रतिक्रमणादिक जैसी शक्ति होय तैसें करना योग्य है ॥७१॥
इच्छाकारं समाचारं संयमासंयमस्थितिः । विशुद्धवृत्तिभिः साद्ध, विदधाति प्रियंवदाः ॥७२॥
अर्थ - संयमासंयम विषै है स्थिति जाकी, भावार्थ - एक ही समय सहिंसाका त्यागी अर स्थावर हिंसाका त्यागी ऐसा देशव्रती, प्रिय वचनका वोलनेवाला, सो निर्मल है प्रवृत्ति जिनकी ऐसे जे आचार्यादिक तिनके साथ इच्छाकार नामा समाचारकौं कर है ।
भावार्थ - श्रावक है सो आचार्यदिकके उपदेश में इच्छा करें है, कहै हैं कि हे भगवन् ! आप कह्या सो मैं इच्छू हूँ । ऐसा
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वेराग्यस्य परां भूमि, संयमस्य निकेतनम् । उत्कृष्ट: कास्यत्येष, मुंडनं तुंडमुंडयोः ॥७३॥
प्रथं - उत्कृष्ट श्रावक है सो वैराग्यकी परम भूमिका अर संयमका ठिकाना ऐसा, तुरंड कहिये मुख डाढ़ी मूंछका अर मुंड कहिए मूंडके वालका मु ंडन जो मूंडना ताहि करावे ही है ।
भावार्थ - ग्यारह प्रतिमाका धारी उत्कृष्ट श्रावक डांढ़ी मूछके बाल कतरा हैं, ऐसा जानना ॥७३॥
केवलं वा वस्त्रं वा, कौपीनं स्वीकरोत्यसौ । निदगपरायणः ॥७४॥
एकस्थानान्नपानीयो,
अर्थ - यहु उत्कृष्ट श्रावक है सो केवल कौपीन वा वस्त्रसहित कौपीनको अंगीकार करै है, कैसा है यहु एक स्थान विषै ही है अन्नपानीका लेना जाकै अर आपको निंदा अर गर्दा विषै तत्पर है ॥ ७४ ॥
स धर्मलाभशब्देन, प्रतिवेश्म सुधोपमम् ।
सपात्रो याचते भिक्षां, जरामरणसूवनीम् ॥ ७५ ॥
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१६६ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ – सो श्रावक पात्रसहित घर घर प्रति अमृत समान धर्मलाभ शब्द करि जरा मरणकी नाश करनेवाली भिक्षाकौं याचें है, ऐसा
जाना ॥७५॥
आगे वन्दनाके बत्तीस दोषनिका वर्णन करें हैं समस्तादरनिम् क्तो, मदाष्टक वशीकृतः । प्रतीक्ष्य पोडताकारी, कर्चमूर्द्ध जकु चक्रः ॥ ७६ ॥
चलयन्निखिलं कायं, दोलारूढ इवाभितः । अग्रतः पार्श्वतः पश्चाद्रिषन् कूर्म इवाभितः ॥७७॥ करटी वांकुशारूढः कुर्वन् मूर्ख नतोन्नती । क्षिप्रं मत्स्य इवोत्प्लुत्य परेषां निपतन् पुरः ॥७८॥ कुर्वन् वक्षोभुजद्वंद्व, विज्ञप्तीं द्राविडीमिव । पूज्यात्मासादनाकारी, गुर्वादिजनभोषितः ॥७६॥
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भय सप्तकवित्रस्तः, परिवारद्विगवतः । समाजतो वहिर्भूय किंचिल्लज्जाकुलाशयः ॥८०॥ प्रतिकूलो गुरोर्भूत्वा कुर्वाणो जल्पनादिकम् । कस्यचिदुपरि क्र ुद्धस्तस्याकृत्वा क्षेमा त्रिधा ॥ ८१ ॥ ज्ञास्यते वंदनां कृत्वा भ्रमयंस्तर्जनीमिति । हसनोद्धहने कुर्वन, भुकुटी कुटिलालकः ॥८२॥ निकटीभूय गुर्वादे, राचार्यादिमिरीक्षितः । करदानं गणेर्मत्वा कृत्वा दृष्टिपथं गुरोः ॥८३॥ लब्ध्वोपकरणादीनि तेषां लाभाशयापि च ।
संपूर्ण विधानेन,
सूत्रीदितपिधायकम् ॥ ८४ ॥
कुर्वन् मूक इवात्यर्थं, हॅ कारादि पुरः सरः । वंदारूणां स्वशब्देन परेषां छादयन् ध्वनिम् ॥ ८५॥
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अष्टम परिच्छेद
गुर्वादेरग्रतो भूत्वा मूर्द्धापरिक्रमभ्रमी । द्वात्रिंशदिति मोक्तव्या दोषा वंदनकारिणाम् ॥ ८६ ॥
[ १६७
अर्थ – समस्त आदर रहित क्रियाकर्म करना सो अनादृत दोष है । १ - बहुरि जात्यादि अष्टमदके वशीभूत भया वंदना करें सो स्तब्ध दोष है, २ - बहुरि प्रतीक्ष्य कहिए देखकर अंगनकौं पीडे दाबै सो पीडित दोष है, ३ - बहुरि डाढ़ीके वा मूछके सिरके वालनकौं मरोड सो कुचित दोष है, ४ – बहुरि डोलामैं बैठेकी ज्यों समस्त शरीर चलावतासंता वेदना करै सो दोलायित दोष है, ५ - बहुरि आगे पसवाडेत पीछेतैं कछवेकी ज्यौं तरफसैं चेष्टा करें अंग संकोच वा विस्तारै सो कच्छपैं गित दोष हे, ६ - बहुरि हाथके अंगूठाकौं मस्तक विषै अंकुशकी ज्यों लगाय करके बाकी ज्यों मस्तककौं नीचा ऊँचा करै सो अंकुशित दोष है, ७ - बहुरि मच्छकी ज्यौं उछलकर औरनके आगे पडै वा मछलीकी ज्यौं तडफडावै सो मत्स्योद्वर्त्त दोष हैं, 5बहुरि द्रविड देशके पुरुषकी विनती समान वक्षस्थलपैं दोऊ हाथ करके वंदना करै सो द्राविडी विज्ञप्ति दोष है तथा याहीका नाम वेदिकाबद्ध दोष है, ह - बहुरि आचार्यादिक पूज्य पुरुषनकी विराधना करता वंदना करै सो आसादना दोष है, १० - बहुरि गुरु आदिक के भयतें वंदना करै सो विभीत दोष है, ११ - बहुरि जो मरणादिक सात भयकरि भयभीत भया वंदना करें सो भय दोष है, १२ - बहुरि परिवारऋद्धि करि गर्वित भया संता वंदना करै सो ऋद्धिगौरव दोष है, १३ - बहुरि साधर्मीन के समाजतैं बाहिर होय करि मानौं लज्जातें किंचित् आकुल भया वंदना करै सो लज्जित दोष है, १४ - बहुरि गुरुकै प्रतिकूल होय करि वंदना करें सो प्रतिकूल दोष है, १५ - बहुरि वचनालाप आदि करता संता वंदना करै सो शब्ददोष है, १६ - बहुरि काहूकै ऊपर क्रोधरूप भया तामैं मन वचन काय करि क्षमा न करायकै वंदना करै सो प्रदुष्ट दोष है, १७ - बहुरि कोई जाणैगा ऐसें
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१६८ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
वंदना करि अंगुली भमावै सो मनो दुष्ट दोष है, १८ बहुरि हंसना, अर अंग घिसना इनकौं करता संता वन्दना करै सो हंसनोद्धघ्न दोष हैं, १६ - बहुरि भौंह टेडी करि वन्दना करे सो भृकुटीकुटिल दोष है, २० - बहुरि गुरु आदिकनिके अतिनिकट होय करि वंदना करे सो प्रविष्ट दोष है, २१ - बहुरि आचार्यादिकनि करि देख्या संता बन्दना करें, -
भावार्थ - आचार्यादिकनिकै आगें तौ भले प्रकार करे अन्यथा यद्वा तद्वा करे सो दृष्टदोष है, २२ - संघविषै करदान मानकरि वन्दना करे, संघके खुशी रहनेके अर्थ वा संघतें भक्त्यादिककी वांछा करि वन्दना करे सो करमोचन दोष है, २३ - बहुरि गुरुनकी आंख्यां छिपाय वन्दना करै सो अदृष्ट दोष है, २४ - बहुरि उपकरणादि पाय करि वन्दना करै सो आलब्ध दोष है, २५ - बहुरि तिन उपकरणादिकनके भिलने के वांछा करि वन्दना करै सो अनालब्ध दोष है, २६ - बहुरि असम्पूर्ण विधान करि कहिए काल शब्द अर्थ इत्यादिक करि हीन वन्दना करै सो हीन दोष है, २७ - बहुरि सूत्रके अर्थकौं ढांक करि वन्दना करै सो पिधायिक दोष है, २८ - बहुरि गूगेकी ज्यौं अतिशय करि हुंकारादि करता वन्दना करै सो मूक दोष है, २६ - बहुरि और बन्दना करनेवालेनके शब्दनको ढांपक वन्दना करै, सो दर्दु र दोष है ३० - बहुरि गुरु आदिक निकै आगे होय करि वन्दना करै सो अग्र दोष है, ३१ - बहुरि अन्त मैं वन्दनाकी चूलिकामै क्रम भूलि जलदी करै ।
भावार्थ - जब वन्दना थोड़ीसी बाकी रहै तब जलदी जलदी करें क्रम भूलि जाय सो उत्तर चूलिक दोष है, ३२ - या प्रकार बत्तीस दोष वंदना करनेवालेनौं त्यागने योग्य हैं || ८६ ॥
क्रियमाणा प्रयत्नेन, क्षिप्रं कृषिरिवेप्सितम् । निराकृतमला दत्त, वन्दना फलमुल्वणम् ॥८७॥
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अष्टम परिच्छेद
[ १६६
___ अर्थ-दूर करै हैं मल जाके ऐसी यत्नसें करि भई जो वन्दना सो वांछित महाफलकौं देय है, जैसे दूर करै है तृण कण्टकादि मल जाके ऐसी यत्न करि करी भई खेती महाफल देय तेसैं, ऐसा जानना ॥७॥
आगें कायोत्सर्गके बत्तीस दोष कहैं हैंस्तब्धाकृतैकपादस्य, स्थानमश्चपतेरिव । चलनं वातधताया, लताया इव सर्वतः ॥१८॥ श्रयणं स्तंभकुट्यादेः, पहकाद्य परिस्थितिः । उपरि मालमालंव्य, शिरसावस्थितिः कृता ॥८॥ निगडेनेव बद्धस्य, विकटांघ्रिखस्थिति । कराभ्यां जघनाच्छादः, किरातयुवतेरिव ॥१०॥ शिरसो नमनं कृत्वा, विधायोन्नमनस्थितिः । उन्नमय्य स्थितिर्वक्षः, शिशोर्धाव्या इव स्तनम् ॥१॥ काकस्येव चलाक्षस्य, सर्वतः पार्श्ववीक्षणम् । उधिः कम्पनं मुर्धनः, खलीनात हरेरिव ॥२॥ स्कंधारूढ़गजस्येव, कृतग्रीवानतोन्नती। सकपित्थकरस्येव, मुष्टिबन्धनकारिणः ॥३॥ कुर्वतः शिरसः कम्पं, मूकसंज्ञाविधायिनः । अंगुलीगणनादीनि, भ्र नृत्यादिककल्पनम् । ६४॥ मदिराकुलितस्येव घूर्णनं दिगवेक्षणम् । ग्रीवोद्ध नयनं भूरि, ग्रीवाधोनयनादिकम् ॥४॥ निष्ठीवनं बहुस्पर्शः, प्रपंचबहुला स्थितिः । सूत्रोदितविधेर्नू नं, वयोपेक्षा विवर्जनम् ॥६६॥
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२०० ]
श्री अमितगति श्रावकाचार |
कालापेक्षव्यतिक्रांति, व्याक्षेपा उक्तवित्तता । लोमाकुलितचित्तत्वं, पापकार्योद्यमः परः ॥६७॥
कृत्याकृत्यविमूढत्वं, द्वात्रिंशदिति सर्वथा ।
कायोत्सर्गविधेर्दोषास्त्या ज्या निर्जरणार्थिभिः ॥ ६८ ॥
अर्थ - घोड़े की ज्यौं एक पांव उठाय करि खड़े रहना सो घोटक दोष है, १ - बहुरि पवनकरि हली जो लता वाकी ज्यौं सर्व तरफ चलना सो लता दोष है, २ - बहुरि थम्भभीत आदिका आसरा लेना सा स्तम्भकुड्य दोष है, ३ - बहुरि पाट आदिके ऊपर तिष्ट करि कायोत्सर्ग करें सो पट्टिका दोष है, ४ - बहुरि सिरके ऊपर माताकौं अवलम्बकें तिष्टना सो माला दोष है ।
५- बहुरि बेडीकरि बन्धे पुरुषकी ज्यौं टेढे चरण धारि तिष्टना सो निगड दोष है, ६ - बहुरि भीलकी स्त्रीकी ज्यौं हाथन करि जंघानकौं ढांपना सो किरात युवति दोष है, ६- बहुरि शिरकौं नमाय करि तिष्टना सो शिरोनमन दोष है, ८- बहुरि ऊँचा शिर करकै तिष्टना सो उन्नमन दोष है, ६ - बहुरि बालककौं धायके स्तनकी ज्यों छातीकौं ऊँची करके तिष्टना सो धात्री दोष है ।
१०- बहुरि कागलाकी ज्यौं चचंल नेत्रका सवं तरफ पसवाडेनका देखना सो वायस दोष है, ११ - बहुरि लगाम करि पीडित घोडेकी ज्यौं ऊपर नीचें मस्तकका नमावंना सो खलीन दोष हैं, १२ - बहुरि कंधापर आरूढ है पुरुष जाकै ऐसे गजगी ज्यौं ग्रीवाका नमावना ऊँचा करना सो गज दोष है वा याहीका नाम युग दोष है, १३ - बहुरि कैंथ सहित हस्तकी ज्यौं मूठी बंधन करनेवालेके सो कपित्थ दोष है. १४ - बहुरि सिरका कंपावना सो शिरः प्रकंपित दोष है ।
१५ - बहुरि गूगेकी ज्यौं नासिकादि अंगनिकी सैनानी करनेवालेकै दोष है, १६ - बहुरि कायोत्सर्गमैं भृकुटी नचावना आदि करै सो दोष
मूक
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अष्टम परिच्छेद
[ २०१
है, १८-बहुरि मदिरा करि आकुलित पुरुषकी ज्यौं घूमै सो मदिरा पायी दोष है, १६-बहुरि कायोत्सर्गमैं दशौं दिशान प्रति देखना सो दिगवेक्षण दोष है ॥२०॥
२०-बहुरि ग्रीवाकौं बहुत ऊपर करना सो ग्रीवोद्ध नयन दोष है, २१-बहुरि ग्रीवाकौं नीची करना इत्यादि ग्रीवाधोनयनादि दोष हैं, २२-बहुरि खकारना सो निष्टीवन दोष है, २३- बहुरि अगका स्पर्शना सो वपुःस्पर्शन दोष है. २४-बहुरि माया करि बहुत प्रपंच सहित तिष्टना प्रपंचबहुल दोष है, २५-बहुरि सूत्रभाषित विधिकी हीनता करनी सो विधिन्यून दोष है, २६-बहुरिवृद्धादि वयको अपेक्षादिकका त्यागना ।
___ भावार्थ-अपनी अवस्था बिना देखे कायोत्सर्ग करना सो वयोपेक्षादिवर्जन दोष है, २७- बहुरि कालकी अपेक्षाका उल्लंघन करना कायोत्सर्गके काल कायोत्सर्ग न करना सो कालापेक्ष व्यतिकात दोष है, २८- बहुरि चित्तकी विक्षिप्तता के कारणमैं आसक्त चित्तपनां सो आक्षेप सक्तचित्तता दोष है, २६-बहुरि लौभ करी आकुलित चित्तपनां सो लोभाकुलित दोष है, ३०-बहुरि कायोत्सर्ग विर्षे पाप कार्य मैं परम उद्यम करना सो पापकार्योंद्यम दोष, ३१ बहुरि करने योग्य न करने योग्य विर्षे मूढपना सो मूढ दोष है, ३२-या प्रकार कायोत्सर्ग की विधिके बत्तीस दोष हैं, ते निर्जराके अर्थी जे पुरुष है तिनकरि सर्वथा त्यागना योग्य है ॥६७-६८॥
समाहितमनोवृत्तिः, कृतद्रव्यादिशोधनः । विविक्तं स्थानमास्थाय, कृतेर्यापथशोधनः ॥६॥ गुर्वा दिवंदनां कृत्वा, पर्यकासनमास्थितः । विधाय वंदनामुद्रां, सामान्योक्तनमस्क तिः ॥१०॥ ऊ : सामायिकस्तोतं, समुक्तमुक्तामुद्रकः । पठित्वा वत्तितावों, विदधाति तनत्सृतिम् ॥१०१॥
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२०२ ]
श्री अमितगति श्रावकाचारं
С
क. त्वाजैनेश्वरीं मुद्रां, ध्यात्वा पंचनमस्क तिम् । उस्का तीर्थंकरस्तोत्रमुपविश्य यथोचितम् ॥ १०२ ॥ चैत्यभक्त समुच्चार्य, भूयः कृत्वा तनूत्सूतिम् । उका पंचगुरुस्तोत्रं कृत्वा ध्यानं यथाबलम् ॥१०३॥
विधाय वंदनां सूरेः कतिकर्मपुरः सराम् । गृहीत्वा नियमं राक्त्या, विधत्ते साधुवंदनाम् ॥१०४॥ आवश्यकमिदं प्रोक्त नित्यं व्रतविधायिनाम् । नैमित्तकं पुनः कार्यं यथागममतं द्रितैः ॥१०५॥
अर्थ – एकाग्र है मनकी वृत्ति जाकी अर करि है द्रव्यादिकनकी सोधना जानें सो एकांत स्थानपैं तिष्ठकरि कर्या है ईर्यापथका शोधन जानें ॥६॥
गुरु आदिकनिकी वन्दना करके पर्यंकासनपरि तिष्ठ्या वन्दना मुद्राकौं रचिकै सामान्यपर्ने कह्या है नमस्कार जानें ॥ १६०॥
ता उपरांत सामायिक स्तोत्रकौं भले प्रकार कहिकै छोड़ी है मुद्रा जानें सो पाठ पढकै जान्या है आवर्त्ती जानें ऐसा पुरुष सो कायोत्सर्गकौं करे है ॥१०१॥
बहुरि जैनश्वरी मुद्राकौं करिकै अर पंच नमस्कार मंत्रका ध्यान करकै अर तीर्थंकरनिका स्तोत्र कहिकै यथायोग्य बैठकरि ॥ १०२ ॥
चैत्य भक्तिका उच्चारन करि फेर कायोत्सर्ग करिकै बहुरि पंच गुरुनि स्तोत्र कहिकै बहुरि जैसा बल होय तैसा ध्यान करिकै ॥ १०३ ॥ बहुरि कृतिकर्म पूर्वक आचार्यकी वन्दनाक करिकैं फेर शक्ति माफिक नियमकौं ग्रहण करि साधु वन्दनाकौं करें ॥ १०४ ॥
यहु आवश्यक व्रत करनेवालेनकौं नित्य कहा । आलस्य रहित पुरुषनि करि नैमित्तिक कहिए पूर्व आदिका निमित्त पाया सो जैसा आगममैं का तैसा करना योग्य है ॥ १०५ ॥
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अष्टम परिच्छेद
[ २०३
भावार्थ--एकाग्र चित्त होयकै अर द्रव्यक्षेत्रादिक शोधन करि एकांत स्थानमैं तिष्ठकै प्रथम ईर्यापथ दंडक पढ़े, फेर गुरु आदिकनिकी वन्दना करकै पर्यंकासन तिष्ठिकै पूर्वोक्त वंदना मुद्रा रचिकै कायोत्सर्ग करै, फेर पूर्वोक्त जैनेश्वरी मुद्रा करिक पंचनमस्कारका ध्यान कर फेर तीर्थंकरनिका स्तोत्र पढ़के यथायोग्य बैठे, फेर पंचपरमेष्ठी निका स्तोत्र पढकै शक्तिसारू ध्यान करें फेर नमस्कार शिरोनति आवर्त्तपूर्वक आचार्य वन्दना कर फेर शक्तिसारू नियमकौं ग्रहण करि साधु वन्दना कर; या प्रकार यह आवश्यक तौ नित्य ही करै। बहुरि अष्ठमी चतुर्दशी आदि पर्व विषं तथा और भी निमित्त पाय जेसैं आगममैं कह्या तैसें आवश्यक करना योग्य है ।।६ ६. १०५।।
येन केन स सम्पन्न, कालुष्यं दैवयोगतः । क्षमयित्वैव तं त्रेधा, कर्तव्याऽऽवश्यकक्रिया ॥१०६॥
अर्थ-कर्मयोगतै जिस किसी पुरुष करि परिणामनिमैं मलिनपना कलुषपना उपज्या होय ता पुरुषसौं मन वचन कायकरि क्षमा आदि आवश्यक क्रिया करनी योग्य है ।।१०६॥
कियां पक्षभवां मूढश्चतुर्मासभवां च यः । विधत्ते ऽक्षमपित्वासौ, न तस्याः फलमश्नुते ॥१०७।।
अर्थ--जो मूढ़ विना क्षमा कराये पक्षजनित क्रियाकौं बहुरि चतुर्मासजनित क्रियाकौं करै है सो यहु ता क्रियाके फलकौं न पावै है।
भावार्थ-पंदरह दिनमैं प्रतिक्रमणादि करिए सो पक्षकी क्रिया कहिए, चार महिनामै करिए सो चातुर्मासिक क्रिया कहिए सो इन क्रियानकौं जासैं कलुषता भई होय तासैं क्षमा कराये विन करै तो परिणामनिकी शल्यतें क्रियाके फलकौं न पावै ॥१०७॥ देवनराद्य : कृतमुपसर्ग, वन्दनकारी सहति समस्तम् । कम्पनमुक्तो गिरिरिव धीरो, दुष्कृतकर्मक्षपणमवेक्ष्य ॥१०८॥
अर्थ-वन्दना करनेवाला मनुष्य है सो पाप कर्मकी निर्जराकौं विचारिक देव मनुष्यादिकनि करि कर्या समस्त उपसर्गकौं सहे है, कैसी है? पर्वतकी ज्यों कम्परहित है धीर है ॥१०॥
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२०४]
श्री अमितगति श्राकवाचार.
आगे अधिकार संकोच है
इत्थमदोषं सततमननं, निर्मलचित्तो रचयति नूनम् । यः कृतिकर्मामितगतिदृष्टं याति स नित्यं पद्मनदृष्टम् ॥१०६ ॥
"
अर्थ -- जो निर्मलचित्त पुरुष या प्रकार निर्दोष न्यूनता रहित निरंतर कृतिकर्म कहिए आवश्यक क्रिया ताहि कर हैं सो नित्य अर देखने में न आवै ऐसा जो मोक्षपद ताहि प्राप्त होय है, कैसा है कृतिकर्म अमितगति कहिए अनंत है ज्ञान जाका ऐसा जो सर्वज्ञ देवता करि कह्या है; ऐसा जानना ॥ १०६ ॥
डिल्ल छन्द ।
रागद्वेष तजि सामायिक भजि, कीजे तीर्थंकर गुणगान । पंच परमगुरु चरण वन्दि, नित पूर्वदोषको करि अवसान || आगामी अत्याग देहसौं, ममताभाव निवारि सुजान । षट आवश्यक साधि जीव इम, लहै अमितगति पद निरवान ||
ऐसें श्री अमितगति आचार्यविरचित श्रावकाचार विषै अष्टम परिच्छेद समाप्त भया ।
नवम परिच्छेद
दानं पूजा जिने, शीलमुपवाश्वतुविधः । श्रावकाणां मतो धर्मः संसारारण्यपावकः ॥ १॥
अर्थ- दान १ पूजा २ शील ३ उपवास ४ यहु संसारवनको अग्नि
समान चार धर्म श्रावकनिका जिनदेवनिनैं कह्या है ।
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नवम परिच्छेद
[२०५
तहां प्रथम ही दानका स्वरूप कहै हैं :---- दानं वितरता दाता, देवं पात्रं विधिर्मतिः । फ्लैषिणाऽववोद्धव्यानि, धीमता पंच तत्त्वतः ॥२॥
अर्थ-फलका वांछक अर बुद्धिसहित ऐसा जो दान देनेवाला पुरुष ताकरि दाता १ देने योग्य वस्तु २ पात्र ३ विधि ४ मति ५ ये पांच स्वरूप सहित जानना योग्य हैं।
भावार्थ दान देनेवाले वरि पूर्वोक्त पंच वस्तुका स्वरूप जानना योग्य है ॥२॥ __ तहां दाताका स्वरूप कहै हैं
भाक्तिकं तौष्टिक श्राद्ध, सविज्ञानमलोलुपम् । सात्विक क्षमक सन्तो, दातारं सप्तथा विदुः ॥३॥
अर्थ-संतजन है ते दाताकौं सात प्रकार कहै हैं; सात कौन ? प्रथम तौ भक्ति सहित १ अर प्रसन्नचित्त २ अर श्रद्धासहित ३ अर विज्ञान सहित ४ अर लोलुपता सहित ५ अर सात्विक कहिये शक्तिमान ६ अर क्षमावान ७ ऐसा जानना ।।३।।
आगें भाक्तिक आदिका स्वरूप कहै हैं - यो धर्मधारिणां धत्त, स्वयं सेवापरायणः । निरालस्योऽशठः शांतो, भक्तिकः स मतो बुधैः ॥४॥
अर्थ- जो पुरुष धर्मके धारनेवाले नकी सेवामै तत्पर भयासंता स्वयं कहिये अपेक्षा रहित आप ही घारै है सो पंडितनि करि आलस्यरहित बुद्धिमान शांतचित्त ऐसा भाक्तिक कहिये भक्तिसहित कह या है ।
मावार्थ-धर्मात्मानकी सेवा करै सो भाक्तिक कहिए ॥४॥ तुष्टिदत्तवतो यस्य ददतश्च प्रवर्तते। देयासक्तमतेः शुद्धास्तमाहुस्तौष्टिकं जिनाः ॥५॥
अर्थ--जिसके आगे देता भया ताक वा वर्तमानमै देतेकै हर्ष प्रवत्त है ताहि कर्ममल रहित जे शुद्ध जिनदेव हैं ते तौष्टिक कहिए
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२०६]
श्री अमितगति श्रावकाचार
हर्षसहित कहैं हैं, कैसा है सो देने योग्य वस्तु विष नाहीं है लोभरूप बुद्धि जाकी ॥५॥
साधुभ्यो ददता दानं, लभ्यते फलमीक्षितम् । यस्यैषा जायते श्रद्धा, नियं श्राद्ध वदंति तम् ॥६॥
मर्थ–साधुनके अर्थ दान देता जो पुरष ताकरि वांछित फल पाइए है यह जाकै नित्य ही श्रद्धा प्रतीति है ता पुरुषकों आचार्य श्रद्धावान कहैं हैं ॥६॥ द्रव्यं क्षेत्र सुधीः कालं, भावं सम्यक विविच्य यः । साधुभ्यो ददते दातं, सविज्ञानमिमं विदुः ॥७॥
अर्थ- द्रव्य क्षेत्र काल भावकौं भले प्रकार विचारकै साघूनकै अर्थ सुबुद्धि दान देय है इसकौं आचार्य स विज्ञान कहैं हैं ॥७॥
त्रिधापि याचते किंचिद्यो, न सांसारिक फलम् । ददानो योगिनां दानं, भाषते तमलोलुपम् ॥८॥
अर्थ-जो योगीनकौं दान देता सन्ता मन, वचन, काय करि भी सांसारिक फलकौं न याचे है ताहि आचार्य अलोलुप कहैं हैं ॥८॥
स्वल्पवित्तोऽपि यो दत्त , भक्तिभारवशीकृतः । स्वाढ्याश्चर्यकरं दानं, सात्विक तं प्रचक्षते ॥६॥
अर्थ-जो थोड़ा धनवान भी भक्तिके भार करि वश किया सन्ता धनवानकौं आश्चर्य करनेवाला दानकौं देय है ताहि आचार्य सात्विक कहैं हैं।
भावार्थ-जो धनरहित भी भक्ति करि दान देय है जाकौं देखक धनवान भी आश्चर्य मानै जो धन्य है यह सो ऐसा दान देय है ता पुरुषकौं सात्विक कहिए है ॥६॥
कालुष्यकारणे जाते, दुनिवारे महीयसि । यो न कुप्यति केभ्योऽपि क्षमक कथयति तम् ॥१०॥ अर्थ- क्रोधरूप मलिन परिणामका दुनिवार महान् कारण
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नवम परिच्छेद
[ २०७
उपजे सन्तै जो किसी” भी क्रोध न करें है ताहि आचार्य क्षमावान कहैं हैं ॥१०॥
आगें उत्तम मध्यम जघन्य दातानिका स्वरूप कहैं हैं :--- सर्वैरलंकृतो वर्यो, जघन्यो वजितो गुणैः । मध्यमोऽनेकवाऽवाचि, दाता दानविचक्षणः ॥११॥
अर्थ--पूर्वोक्त भक्ति तुष्टि आदि गुण वा आगै क हैंगे तिन सर्व गुणनि करि भूषित है सो तो उत्कृष्ट दाता है अर तिन गुणनि करि रहित है सो जघन्य दाता है । बहुरि दान विर्षे विचक्षण जे पुरुष तिन करि मध्यमदाता अनेक प्रकार कह या है ॥११॥
आगै दाताका विशेष गुण कहै हैं :विनीतो धार्मिकः सेव्यस्तत्कालक्रमवेदकः । जिनेशशासनाभिज्ञो भोगनिस्पृहमानसः ॥१२॥ दयालुः सर्वजीवानां रागद्वेषादिवजितः । संसारासारतावेदी समदर्शी महोद्यमः ॥१३॥ परीषहसहो धीरो निजिताक्षो विमत्सरः । वरात्मसमयाभिज्ञः प्रियवादी निरुत्सुका ॥१४॥ वासितो वतिनां पतैः परासाधारणैर्गुणैः । लोकलोकोत्तराचारविचारी संघवत्सलः ॥१५॥ आस्तिको निरहंकारो वैयावृत्यपरायणः । सम्यकालंकृतो दाता जायते भुवनोत्तमः ॥१६॥
प्रर्थ-विनयवान होय, धर्मात्मा होय, क्रूरतादिक के अभावतें औरन करि सेवने योग्य होय, तत्काल क्रमका जाननेवाला होय ।
भावार्थ-जिस कालमैं जैसी वस्तु आदि चाहिये तैसा जानता होय; अर जिनेन्द्रके उपदेशका ज्ञाता होय, बहुरि भोगनि विर्षे वांछा रहित चित्त जाका ऐसा होय ॥१२॥ सर्व जीवनि पर दया सहित होय,
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२०८ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
रागद्वेषादि रहित होय, संसारकी असारताका जाननेवाला होय, अर समान देखने वाला होय,
भावार्थ- कोऊका दृष्टानिष्टपनें करि हीनाधिक देखनेवाला न होय, अर उद्यमी होय ॥ १३ ॥ परीषहनिका सहन करनेवाला होय, धीर होय, अर जीती हैं इन्द्रिया जानें ऐसा होय, बहुरि मत्सरता रहित होय अर श्रेष्ठ अध्यात्म शास्त्रका जाननेवाला होय, प्रियवचन बोलनेवाला होय, विषयनिकी वांछा रहित होय ॥१४॥ बहुरि व्रतीनके और निविषै न पाइए ऐसे असाधारण पवित्र गुणनिकरि पवित्र गुणनिकरि वासित होय ।
भावार्थ - व्रती के गुणनि मैं अनुरागी होय, बहुरि लौकिक आचार वा लोकोत्तर कहिए परमार्थ आचार ताना विचार सहित होय, अर च्यार प्रकार संघ विषै वच्छासे गौकी ज्यों प्रीति सहित होय || १५ || बहुरि अस्तिक कहिए परलोकादिक हैं ऐसी अस्ति बुद्धि सहित होय ।
भावार्थ- परलोक नाहीं पुण्य नाहीं इत्यादिक जो नास्तिक बुद्धि ता करि रहित होय, अहंकार रहित होय, धर्मात्मानकी टहल चाकरीमैं तत्पर होय अर सम्यक्त करि भूषित होय ऐसा दाता लोक विषै उत्तम होय है,
भावार्थ - पूर्वोक्त गुणनिसहित होय सो उत्तमदाता जानना ॥१६॥ आगे और भी कहैं हैं
श्रात्मीयं मन्यते द्रव्यं, यो दत्तं व्रतवत्तनाम् ।
शेषं पुत्रक नत्राद्यं स्तस्करै रिव लुंठितम् ॥१७॥
अर्थ - जो दाता व्रतीनिकू दिया जो द्रव्य ताहि अपना मान है बहुरि बाकी रह, या जो द्रव्य ताहि पुत्र स्त्री चौरन करि मानौ लूट लिया तैसा मान है ।
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भावार्थ- पात्रनिकू दानमैं जो धन लग्या सो तो पुण्यवंध के कारण तैं इस भवमैं वा पर भवमैं आपको सुखदायी हैं तातें अपना है अर पुत्र स्त्री आदिकनिने सो पाप बंध के कारण दोऊ भवमें 'दुख
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नवम परिच्छेद
[२०६
दायी है तातें अपना नाही चौरन करि लूट लिए समान है, ऐसा जानना ॥१७॥
साह है " --Aniकते मम साधवः । धनं - यो "3 बांधवा दारुणं दुःखमिति पश्यति चेतसा ॥१८॥
अर्थ-ये साधुजन हैं ते मेरे इस भव विर्षे वा परभव विष सखकौं करै हैं अर बांधव हैं ते भयानक दुःखकौं करें हैं, ऐसा दाता मन विर्षे विचार है ॥१८॥
योऽत्रैव स्थावरं वेत्ति, गृहकार्ये नियोजितम् । सहगामि परं वित्त, धर्मकार्ये यथोचितम् ॥१६॥
अर्थ----जो पुरुष घरके कार्यमैं लगाया जो द्रव्य ताहि इहांही रहनेवाला मान है अर केवल धर्म कार्यमैं लगाया योग्य द्रव्य ताहि संग जानेवाला मान हैं।
भावार्थ-... विवाहादि कार्यमैं द्रव्य लगाया सो तो इस लोकमैं रह्या बाकी धर्म कार्य में लगाया सो द्रव्य पुण्यबंधके कारणनै आपके साथ जाय है ऐसा जानना ॥१६॥
शरदभ्रसमाकारं, जीवितं यौवनं धनम् ।
यो जानाति विचारज्ञो, दत्ते दानं स सर्वदा ॥२०॥
अर्थ- जो पुरुष शरदकालके बादले समान अथिर जीवनकों अर जोबनकौं अर धनकौं जान है सो विचारका जाननेवाला सदाकाल दानकौं देय है ॥२०॥
यो न दत्ते तपस्विभ्यः, प्रासुकं दानमंजसा ।। न तस्याऽऽत्मभरेः, कोऽपि विशेषो विद्यते पशोः ॥२१॥
अर्थ--जो पुरुष तपस्वीनके अथि प्रासुक दानकौं भले प्रकार न देय है तिस आपापोषीकै अर पशूकै किछू विशेष नाहीं है।
भावार्थ-दान न देय है सो पशु समान है जातें अपना उदर तो पशु भी भर लेय है, मनुष्यपनेकी विशेषता तो दानहीतें हैं ॥२१॥
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२१० ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
गृहं तदुच्यते तुंगं, तायंते यत्र योगिनः । निगद्यते परं प्राज्ञः शारदं घनमंडलम् ॥२
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दान
अर्थ - जिस विषै योगीश्वर तृप्त काधिक दीजिए है सो ऊँचा घर कहिए है अर दान रहित केवल घर है सो पंडित निरि सरदकालके बादलानिका मंडल कहिए है ||२२|| धौतपादांभसा सिक्तं, साधूनां सौधमुच्यते ।
अपरं कर्दमा लिप्तं, मर्त्यचारकबंधनम् ॥ २३॥
अर्थ – साधूनके धोये जे चरण तिनके जलकरि सींच्या जो घर ताहि सौध कहिए है, अर सिवाय दूजाघर है सो कीचकरि लिप्या मनुष्यरूप चरनेवालेका बंधन है ||२३||
स गेही मन्यते भव्यो, यो दत्त दानमंजसा ।
न परो गेहयुक्तोऽपि, पतत्रीव कदाचन ॥२४॥
अर्थ -- जो भले प्रकार दान देय है सो भव्य पंडितनिकरि गृही मानिये है अर दान रहित गृह सहित भो पक्षीकी ज्यों गृही न मानिए है ।
भावार्थ - दान देय सो गृहस्थ है अर दान रहित केवल घर तो पक्षी भी होय है, तातें दान विना गृहहीते गृहस्थ न कहिये ऐसा जानना ||२४||
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किं द्रव्येण कुबेरस्य किं समुद्रस्य वारिणा । किमन्धसा गृहस्थस्य, भूक्तिर्यत्र योगिनाम् ॥ २५॥
अर्थ- जहां योगीश्वरनिका भोजन नाहीं तिस कुबेरके द्रव्य करि कहा अर समुद्रके जलकरि वहा अर गृहस्थ के भोजन करि कहा भावार्थ- जहां दान नाहीं तिन बहुत द्रव्यादिकनि करि कहा साध्य है किछु साध्य नाहीं, ऐसा जानना ||२५||
ध्यानेन शोभते योगी, संयमेन तपोधनः ।
सत्येन वचसा राजा, गृही दानेन चारुणा || २६॥
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नवम परिच्छेद
[२११
अर्थ-योगी तो ध्यानकरि सोहै है अर तपोधन जो तपस्वी है सो संयमकरि सोहै है अर सत्य वचन करि राजा सोहै है अर गृहस्थ सुन्दर दानकरि सोहै है ॥२६॥
तपोधनं गृहायात यो न गृह्णाति भक्तितः । चिन्तामणि करप्राप्तं स, कुनीस्त्यजति स्फुटम् ॥२७॥
अर्थ--घर प्रति आया जो तपोधन साधु ताहि जो भक्तितें न पडगाहै सो कुबुद्धि हस्तविर्षे आया जो चिन्तामणि ताहि प्रकटपर्ने तजै है ॥२७॥
विद्यमानं धनं धिष्ण्ये, साधुभ्यो यो न यच्छति ।
स वंचयति मूढात्मा, स्वयमात्मानमात्मना ॥२८॥
अर्थ- घर विष विद्यमान जो धन ताहि जो साधुनके अर्थ न देय हैं सो मुढात्मा आप ही आपकरि आपकौं ठग है । घरमें वन होतें मुनीनकौं आहारादि दान न देय है सो आपकौं ठग है ॥२८॥
स भण्यते गृहस्वामी, यो भोजयति योगिनः । कुर्याणो गृहकर्माणि, परं कर्मकरं विदुः ॥२६॥
अर्थ- जो योगीनकौं भोजन करावै है सो घरका स्वामी कहिये है अर दान विना केवल घरके कार्यकौं करै हैं ताहि पंडित हैं ते गुलाम कहैं है, ऐसा जानना ॥२६॥
यः सर्वदा क्षुधां धृत्वा, साधुवेलां प्रतीक्षते । स : साधूनामलाभेऽपि, दानपुण्येन युज्यते ॥३०॥
अर्थ-जो सदा क्षुधा धारणकरि साधूनिके आहारकी बेलांकी प्रतीक्षा करै हैं अर आहार बेला टले पीछे भोजन करे है सो पुरुष सांधूनका अलाभ होतें भी दानके पुण्यकरि युक्त होय है ॥३०॥
भवने नगरे ग्रामे, कानने दिवसे निशि ।
यो धत्त योगिनश्चित्तं, दत्तं तेऽभ्योऽमुना ध्रुवम् ॥३१॥ अर्थ--जो पुरुष घरविर्षे नगरविणे ग्रामविर्षे वनविष दिवस विर्षे
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श्री अमितगति श्रावकाचार
२१२ ]
रात्रि विषै योगीश्वरनिकों चित्तविषै धारें है, सो इस पुरुष करि निश्चयतें मुनि के अर्थ दान दिया ।
भावार्थ - जो सदा मुनीश्वरनिकी भक्तिका परिणाम राखे है ताकै मुनीनका मिलना न होतें भी भावनाकी शुद्धितातें दानका पुण्य होय है ॥३१॥
"
यः सामान्येन साधूनां दानं दातुं प्रवर्त्तते । त्रिकालगोचरास्तेन योगिनो भोजिताः स्तुताः ॥३२॥
1
अर्थ - जो सामान्यपने करि साधूनके दान देनेकों प्रवत्त है ता पुरुषकरि भूत भविष्यत वर्तमान कालके सर्व योगीश्वर जिमाए अर स्तुतिगोचर किये ।
भावार्थ - जाके मुनिमात्रके दानमें हर्ष है प्रकृति है सर्व ही मुनीनिकी भक्ति होनेतें सर्वकौं दान दिया अर सर्वहीकी स्तुति करी, ऐसा जानना ॥ ३२॥
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दत्ते दूरेऽपि यो गत्वा विमृश्य व्रतशालिनः । सः स्वयं गृहमायाते कथं दत्ते न योगिनि ॥३३॥
अर्थ - जो दूर जायकरि भो व्रतीनकौं हेर करि दान देय है सो आप ही योगीश्वरनिकों घर आये सन्ते दान कैसें न देय है ? देय ही है ||३३||
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रुद्रव्याद्रव्ययोमध्ये यः पात्रं प्राप्य भक्तितः । दनानः कथ्यते दाता, न दाता भक्तिवजितः ||३४||
अर्थ - एक तो द्रव्य सहित पुरुष अर एक द्रव्य रहित पुरुष इन दोउनिके मध्य जो पात्रकौं पायकै भक्ति दान देय है सो दाता कहिये है अर भक्तिरहित है सो दाता न कहिए हैं, ऐसा जानना || ३४॥
पात्रे ददाति योऽकाले, तस्य दानं निरर्थकम् । क्षेत्र ऽप्युप्तं विना कालं कुत्र बीजं प्ररोहति ॥३५॥
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नवम परिच्छेद
[ २१३
अर्थ-बहरि जो अकालमैं पात्रि विषै दान देय है ताका दान निष्प्रयोजन है। जैसे विना काल क्षेत्र विष बोया भी बीज कहं ऊगै है ? नाहीं ऊगै है, ऐसा जानना ॥३५।।
काले यदाति योऽपात्रे, वितीर्ण तस्य नश्यति । निक्षिप्तमूषरे वीजं, कि कदाचिदवाप्यते ॥३६॥
अर्थ-बहुरि जो दानके काल में भी अपात्र वि. दान देय है ताका दान नाशकौं प्राप्त होय है । जैसैं ऊसर भूमि विर्षे बोया बीज कहा कहीं पाइए है अपितु नाहीं पाइए है ॥३६॥
प्रक्रमेण विना वंध्यं, वितीर्ण पात्रकालयोः । फलाय किमसंस्कारं, निक्षिप्तं क्षेत्रकालयोः ॥३७॥
अर्थ-बहरि पात्र अर काल इन दोऊन विष दिया दान भी दानकी विधि विना निष्फल है। जैसैं सुन्दर क्षेत्र अर योग्यकाल विष भी धरतीका जोतना आदि संस्कार रहित बोया बीज है सो कहा फलके अर्थ होय है ? अपितु नाहीं होय है ॥३७॥ . कालं पात्रं विधि ज्ञात्वा, दत्तं स्वल्पमपि स्फुटम् ।
उप्तं वीजमिव प्राविधत्ते, विपुलं फलम् ॥३८॥ अर्थ-कालकौं पात्रकौं अर विधिकौं जानिकै थोड़ा भी दिया जो दान है सो बोये बीजकी ज्यों प्रकटपणे विस्तीर्ण फलकौं धारन करै है, ऐसा जानना ॥३८॥
देयं स्तोकादपि स्तोकं, व्यपेक्षो न महोदयः । . इच्छानुसारिणी शक्तिः, कदा कस्य प्रजायते ॥३६॥
अर्थ थोडेत भी थोडा देना योग्य है अर महा उदयकी अपेक्षा करनी योग्य नाहीं जातें इच्छानुसारिणी शक्ति कहीं कोईक होय है ? अपितु नाहीं होय है। . भावार्थ-आपकै थोड़ा भी धन होय है थोडेमैंसे थोडा धन दानमै लगावना। ऐसी न विचारना जो हमारे बहुत धन हो गया जब दान
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श्री अमितगति श्रावकाचार
करेंगे, जातें जितनी इच्छा है तितना धन तो कहीं कोईकै होय नाहीं; ऐसा जानना ॥३६॥
श्रुत्वा दानमतिर्वयों, भण्यते वीक्ष्य मध्यमः । श्रुत्वा दृष्ट्वा च यो दत्ते, न दानं स जघन्यकः ॥४०॥
अर्थ-दान देतेकौं सुनकरि दान देनेमैं जाको बुद्धि होय सो उत्कृष्ट पुरुष है अर दान देते देखकरि जाकी दान देनेकी बुद्धि होय सो मध्यम पुरुष है अर सुनकरि देवकरि भो जो दान न देय है सो जघन्य पुरुष कहिए अधम है ॥४०॥
ताडनं पीडनं स्तेयं, रोषणं दूषणं भयम् ।
यः कृत्वा ददते दानं, स दाता न मतो जिनः ।।४१॥
अर्थ-जो और जीवनिकी ताडना करिके वा पीडना करिके वा चोरी करिकै वा रोष करिकै वा तृष्णादि षण करिकै वा भय करिकै जो दानकौं देय है सो जिन देवनिन दाता नाहीं कह्या है ॥४१॥
यहीयसा सदा दानं, प्रदेयं प्रियवादिना । प्रियेण रहितं दत्त, परमं वैरकारणम् ॥४२ ।
अर्थ-प्रिय वचन सहित बुद्धिमान पुरुष करि सदा दान देना योग्य है जातें प्रिय वचन विना दिया बहुत दान हे सो वैरका कारण है।
भावार्थ-दान देना सो मीठे वचनसहित देना अर मीठे वचन विना दान भी वैरका कारण है, जातें कटुक वचन सबकौं बुरा लाग है ॥४२॥
यः शमायाकृतं वित्त, विश्राणयति दुर्मतिः ।
कलि गृहाति मूल्येन, दुनिवारमसो ध्रुवम् ॥४२॥
अर्थ-जो दुर्बुद्धि पुरुष समभाव रहित धनका देय हे सो यहु निश्चयतें मोल करि दुनिवार कहिये दुःख से निवारण करिने योग्य पापकों ग्रहण करै है।
___ भावार्थ-क्रोधसहित दान देने में उलटा पापबन्ध होय है तातें . समतासहित दान देना योग्य है ॥४३॥
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नवम परिच्छेद
[२१५
आगें दान देना योग्य वस्तुकौं सामान्यपनै कहै है :जीवा येन निहन्यते, पात्रं विनश्यते । रागो विवर्द्ध ते येन, यस्मात संपद्यते भयम् ॥४४॥ प्रारम्भा येन जन्यन्ते, दुखितं यच्च जायते । धर्मकामैन तद्देयं, कदाचन निगद्यते ॥४५॥
अर्थ-जा करि जीव हनिये अर जाकरि पात्रजनका नाश कीजिए अर जा करि राग बढ़ाईए अर जातें भय उपजै ॥४४॥ अर जाकरि आरम्भ उपजै अर जातें दुखी होय सो वस्तु धर्मके वांछक पुरुषनि करि देने योग्य, कदाच नाहीं कहिये है ॥४५॥
आगें तिन न देने योग्य वस्तुनिके विशेष कहै हैं :-- हलविदार्य माणानां, गभिण्यामिव योषिति । नियन्ते प्राणिनो यस्यां, सा भूः किं ददते फलम् ॥४६॥
अर्थ-हलनि करि विदारी भई गर्भिणी स्त्री विष जैसे जाविष प्राणी मरै है सो पृथ्वी कहा फल देय अपितु नाहीं देय हैं।
भावार्थ-जैसैं गर्भिणी स्त्रीके गर्भमैं बालक है तैसे पृथ्वीके गर्भमैं अनेक जीव बसै है ता पृथ्वीकौं हलनि करि अनेक जीवनिकी हिंसा होय तातें भूमिदानमैं पुण्य नाही, पाप ही है। ऐसा जानना ॥४६॥
सर्वत्र भ्रमता येन, कृतांतेनेव देहिनः । विपाद्य ते न तल्लोहं वत्तं कस्यापि शांतये ॥४७॥
अर्थ-जा करि सर्व जायगा भ्रमण करने करि यमकी ज्यौं जीव धिनाशिये हैं सो लोह दिया भया कोईके भी शांतिक अर्थ नाहीं।
भावार्थ-लोह जहां ही जाय तहां ही हिंसा होय तातै लोहदान पुण्यके अर्थ नाहीं पापहीके अर्थ है ॥४७॥
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२१६]
श्री अमितगति श्रावकाचार -
यदर्थं हिंस्यते पात्रं, यत्सदा भयकारणम् । संयमा येन हीयंते, दुष्कालेनेव मानवाः ॥४८॥ राग द्वषमदक्रोध, लोभमौहमनोमवाः । जन्यंते तापका येन, काष्ठेनेव हुताशनाः ॥४६॥ तो नाष्टापदं यस्य, दीयते हितकाम्यया । स तस्याष्टापदं मन्ये, दत्ते जीवितशांतये ॥५०॥
अर्थ-जिसके अर्थ पात्रकी हिंसा की जिए अर जौ सदा भयका कारण अर दुर्भिक्ष करि मनुष्य जैसे हीन होय तैसें जा करि संयम हीन होय ॥२८॥ अर जैसे काष्ठ करि आग्नि उपजै है तैसें संतापकारी राग-द्वेष, मद, क्रोध, लोभ, मोह, काम जा करि उपजै हैं ॥४६॥ सो अष्टापद कहिये सुवर्ण जा करि जिसकौं हितकी वांछा करि दीजिए सो तिसकी जीवनेकी शांतिके अर्थ अष्टापदनामा क्रूर हिंसक जीव ताने दिया ऐसा मैं मानू हूं।
भावार्थ-जैसे कोऊ जीवनेके अर्थ काहूकौं अष्टापद नाम हिंसक जीवकौं देय तो ताका मरन ही होय है तैसें धर्मके अर्थ मिथ्यादृष्टीनकौं दिया जो सुवर्ण तातै हिंसादिक होनेते परके वा आपके ही पाप होय, ऐसा जानना ॥५०॥
संसजंत्य गिनो येषु, भूरिशस्त्रसकायिकाः । फलं विश्राणने तेषां, तिलानां कल्मषं परम् ॥५१॥
अर्थ-जिन विष घने त्रसकायिक जीव उपजै है तिन तिलनके देने विष फल केवल पाप है।
भावार्थ-तिल देने में त्रसकायिक जीवनिकी हिंसातें केवल पाप ही है पुण्य नाहीं ॥५१॥
प्रारंभा यत्र जायते, चित्राः संसारहेतवः । तत्सम ददतो घोरं, केवलं कलिलं फलम् ॥५२॥
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नवम परिच्छेद
[२१७
अर्थ-जिस विर्षे संसार के कारण नाना प्रकार आरम्भ होय है तिस घरके देनेवालेके फल केवल घोर पाप होय है ॥५२॥
पीडा संपद्यते यस्या, वियोगे गोनिकायतः । पया जीवा निहन्यंते, पुच्छशृङ्गखुरादिभिः ॥५३॥ यस्यां च दुह्यमानायां, तर्णकः पीड्यतेतराम् । तां गां वितरता श्रेयो, लभ्यते न मनागपि ॥५४॥
अर्थ-जिसकौं गौनके समूहत वियोग होने की पीडा उपज है अर जाकरि पूछ सींग खर आदिकनि करि जीव हनिए हैं अर जाका दुहे संतें वच्छा अतिशय करि पीडिए है तिस गौके देनेवाले पुरुष करि किछ भी पुण्य न पाइए है।
भावार्थ--गौ देने मैं पुण्यका अंश भी नाही, पाप ही होय हे ॥५३-५४॥
या सर्वतीर्थदेवानों, निवासीमूतविग्रहा। दीयते गृह्यते सा गौः, कथं दुर्गतिगामिभिः ॥५५॥
अर्थ-जो गौ सर्व अर देवनिके बसनेका स्थान है शरीर जाका सो गौ दुर्गतिके जानेवालेन करि कैसे दीजिए है और कैसे ग्रहण करिय है।
भावार्थ-मिथ्यादृष्टि गौके शरीर में सर्व तीर्थ अर देव बसते मानें हैं, ऐसी गौ कौं पापी कैसे देय हैं अर कैसे लेय है; ऐंसी तर्क करी है ॥५५॥
तिलधेनु घृतधेनु, कांचनधेनुं च रुक्मधेनुं च । परिकल्प्य भक्षयंत, श्चांडालेभ्यस्तरां पापाः ॥५६॥
अर्थ-तिलनिकी गौ घृतकी गों सुवर्णकी गौ रूपेकी गौ बनाथ बनाय करि जे भखें हैं ते चांडालतें भी अधिक पापी हैं।
भावार्थ-चांडाल गौ तो न खाय है अर इन मिथ्यादृष्टिनमैं तिलादिककी बनाय करी गौ भी खाय लीनी तातें ते चांडालतें भी सिवाय पापी हैं, ऐसा जानना ॥५६॥
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२१८]
श्री अमितगति श्रावकाचार -
या धर्मवनकुठारी, पातकवसतिस्तपोदया चौरी। वैरायासासूया विषादशो श्रमक्षोणी ॥५७॥ यस्यां सक्ता जीवा दुःखतमान्नोत्तरंति भवजलधेः। क: कन्यायां तस्यां, दत्तायां विद्यते धर्मः ॥१८॥
अर्थ-जो कन्या धर्मवनके काटनेकौं कुल्हारी समान अर पापकी वसती अर तपश्चरण दया की चौरनेवाली अर वैर प्रयास ईर्षा शोक खेद इनकी भूमिका है ॥५७॥ अर जा विर्षे आसक्त जीव हैं ते अतिशय करि दुःखस्वरूप जो संसारसमुद्र तातें न उतरें हैं तिस कन्याकौं दिये संतें कहा धर्म होय है ? पाप ही होय हैं ।
भावार्थ- कन्यादानतें पूर्वोक्त पापनिका संतान बढ़े है तातें पाप ही है धर्म नाहीं, ऐसा जानना ॥५८॥
सर्वारम्भकरं ये वीवाहं, कारयन्ति धर्माय । ते तरुखण्डविवृद्धय, क्षिपंति वह्नि ज्वलज्ज्वालम् ॥५६॥
अर्थ--जो पुरुष सर्व हिंसादिक आरम्भका करनेवाला जो विवाह ताहि धर्मके अर्थ करावै है ते वृक्षनके वनकौं बढ़ावनेके अर्थि जाज्वल्यमान है ज्वाला जाकी ऐसी अग्निकौं खेप हैं।
भावार्थ-जैसैं अग्नितें वन बड़े नाही उलटा जल जाय तैसें विवाहु कराये धर्म नाहीं धर्मका नाश ही है ॥५६॥
यः संक्रांती ग्रहणे वारे, वित्तं ददाति मूढमतिः। सम्यकवनं छित्त्वा, मिथ्यात्ववनं वपत्येषः ॥६०॥
अर्थ-जो मूढबुद्धी पुरुष संक्रांति विर्षे आदित्यवारादि वार विर्षे धनकौं देय है सो सम्यक्त वनकौं छेदिक मिथ्यात्व बनकौं बोवै है ॥६०॥
ये ददते मृततृप्तये बहुधा, दानानि नूनमस्तधियः। ' पल्लवयितुं तरं ते, भस्मीभूतं निषिचंति ॥६१॥
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- नवम परिच्छेद
[२१६
अर्थ--जे निर्बुद्धि पुरुष मरे जीवकी तृप्तिके अर्थ बहुत प्रकारदान देय है ते निश्चय करि अग्नि करि भस्मरूप भए वृक्षकों पत्रसहित करनेकौं सींचें है।
भावार्थ -जैसे भस्म भए वृक्षकौं सींचे फेर हरा न होय सींचना निष्फल है तैसें मरे पितरनकी तृप्ति के अर्थ दान देना वृथा है, मिथ्यात्व पुष्ट होने” पाप ही है ॥६१॥
विप्रगणे सति भुक्त, तृप्तिः संपद्यते यदपि नृणाम् । नान्येन घृते पीते, भवति तदान्यः कथं पुष्टः ॥६२॥
अर्थ-ब्राह्मणके समूहकौं भोजन कराये सन्ते जो पितरके तृप्तिता होय तो आर करि घी पिये सन्नैं और पुष्ट कैस न होय ॥६२॥
दाने दत्ते पुत्रर्मुच्यते, पापतोऽत्र यदि पितरः । विहिते तदा चरित्रे, परेण मुक्ति परो याति ॥६३॥
अर्थ--पुत्रनि करि दान दिये सन्त जो पितर पापतें छूटें हैं तो और करि चारित्र करे संत और मुक्तिकौं प्राप्त होय ॥६३॥ गंगागतेऽस्थिजाले भवति, सुखी यदि मृतोऽत्र चिरकालं । भस्मीकृतस्तदांभः सिक्तः, पल्लवयते वृक्षः ॥६४॥
अर्थ-हाड़नके समूहकौं गंगानदी विर्षे गये सन्तै जौ यहु प्राणी बहुत सुखी होय है तो भस्म कर्या वृक्ष सींच्या भया हा होय है । ६४॥
उपयाचंते देवान्नष्टधियो, ये धनानि दवमानाः। ते सर्वस्वं दत्त्वा नूनं, कोणंति दुःखानि ॥६॥
अर्ग-जे नष्ट बुद्धि दान देते सन्ते देवनि प्रति धननिकौं याचें हैं ते निश्चयकरि सर्व अपना धन देकरि दुःखनिकां खरीदें हैं ॥६५॥
पूर्णेकाले देवैर्न रक्ष्यते, कोऽपि नूनमुपयातैः । चित्रमिदं प्रतिबिंवरचेतन, रक्ष्यते तेषाम् ॥६६॥ .
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२२० ]
श्री अमितगति श्रावकाचार-..
अर्थ-कालकौं पूर्ण भये सन्ते निश्चय करि कोई भी पुरुष निकट आये जे देव तिन करि नाहीं रक्षिए है, बहरि तिन देवनिके अचेतन प्रतिबिम्बनि करि रक्षा मानिये सो यह बड़ा आश्चर्य है ।
___ भावार्थ-कोई मिथ्यादृष्टि कुदेवनिकी प्रतिमा बनाय तिनकै आगें अपना जीवना बांछे है तहां आचार्य कहैं हैं कि आयु पूर्ण भये साक्षात देव भी रक्षा न करि सके है तो तिनके अचेतन प्रतिबिंबनित जीवितव्य वांछना यह बड़े आश्चर्यकी बात है ॥६६॥
मांसं यच्छन्ति ये मूढा, ये च गृह्णति लोलुपाः । द्वये वसन्ति ते श्वभ्र, हिंसामार्गप्रवत्तिनः ॥६७॥
अर्थ-जे मूढ़ मांसकौं देय है अर जे लोलुपी मांसका ग्रहण करें हैं ते दोऊ हिंसा मार्गके प्रवर्त्तावनहारे नरक वि. वास करें हैं ॥६७॥
धर्मार्थ दवते मासं, ये नूनं मूढ़बुद्धयः । जिजीविषंति ते दीर्घ, कालकूटविषाशने ॥६॥
अर्थ- जे मूढ़बुद्धी धर्मके अर्थ मांसकौं देय है ते निश्चयकरि कालकूट विषकौं खाय करि जिये चाहैं हैं ॥६॥
तादृशं यच्छतां नास्ति, पापं दोषमजानताम् । यादृशं गृह्णन्तां मांस, जानतां दोषमूर्जितम् ॥६६॥
अर्थ-दोषके स्वरूपकौं न जानते ऐसे दानके देनेवाले तिनकौं तसा पाप नाही जैसा महापाप दोषकौं जानते जे मांसकौं ग्रहण करनेवाले तिनकौं है।
भावार्थ-कुदानका देनेवाला अज्ञानतें धर्म जानि दान देय है सो पापी तो है ही परन्तु जो जानकरि दोष सहित दान ग्रहण कर है सो ताहू ते महापापी है तातें भोले जीवतें जानिकै प्रपंच करै ताकै कषाय अधिक है, ऐसा जानना ॥६६॥ · · दाता दोषमजानानो, दत्त धर्मधियाऽखिलम् । ..
यः स्वीकरोति तद्दानं, पात्रं तत्र न सर्वथा ॥७॥
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नवम परिच्छेद
[२२१
अर्थ-दाता है सो तो दोषकौं न जानता संता धर्मबुद्धिकरि सर्व दान देय है अर जो ता कुदानकौं अंगीकार करै हैं सो सर्वथा पात्र नाहीं ॥७॥
वहूनि तानि दानानि, विधेयैषा न शेमुषी । विपद्यतेतरां प्राणी, भूरिभिर्भक्षितविषैः ॥७१॥
अर्थ-पूर्वे कहे ते बहुत प्रकार दान हैं ऐसी यह वाणी कहना योग्य नाहीं, जातें बहुत खाये भये जे विष तिनकरि जीव है सो अतिशयकरि नाश कीजिए है।
भावार्थ-पहले कहे जे बहत कूदान ते दान हैं ऐसे कहना भी योग्य नाहीं बहुत कुदान किये पाप ही है जैसे बहुत विष खाये प्राणीका विशेषते मरण ही है तैसें ॥७१॥
अल्पं जिनमतं दानं, वदतीमं न कोविदाः । पीयूषेणोपभुक्त न, किं नाल्पेनापि जीव्यते ॥७२॥
अर्थ-यह जिनमतका कहा दान है सो अल्प है ऐसे पंडितजन न कहैं हैं, जातै खाया भया थोड़ा भी अमृत करि कहा न जिवाइए है जिवाइए ही है।
भावार्थ- कोई कहै कि जैनमतका दान तो थोड़ा है जातें कहा भला होय ताकौं आचार्यनै कह्या है जो सुदान थोड़ा भी महापुण्य उपजावे है, जैसे अमृत थोड़ा है सो भी जिवाव है तैसै जिनभाषित दान थोड़ा न जानना ॥७२॥
ग्रहीतुः कुरुते सोख्यं दानस्तेरखिलैर्यतः । पुण्यभागी ततो दाता नेदं वचनमंचितम् ॥७३॥ आपाते लभ्यते सौख्यं विपाके दुःखमुल्वणम् । अपथ्यरिव तैर्दानैर्दु जरैनिंदितैः ॥७४॥ आपाते सुखदैः पुण्यमंते दुःखवितारिभिः । भूमिदानादिभिर्दत्तनं किं पाप लैरिव ॥७॥
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२२२ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ – जातें पहले ६ हे जे समस्त दान तिनकरि दान ग्रहण करनेवाले सुख करिए हैं तातें दाता पुण्यका भजनेवाला होय है ऐसा वचन योग्य नाहीं ॥ ७३ ॥ जातै वर्त्तमानमैं तो तिन कुदाननि करि कुपथ्यकी ज्यों सुख पाइए है अर तिनके विपाकविषै अत्यंत दुःख होय है, कैसे है कुपथ्य दुःख कर है पचना जिनका अर लोक्करि निंदित है तैसेही कुदान है ऐसा जानना ||७४ || वर्तमान मैं सुखदायक अर अन्तमें दुःख के बढ़ावनेवाले ऐसे किपाप फल समान जे दिये गये बहुत कुदानादि तिनकरि पुण्य नाही होय है ।
भावार्थ -- कोऊ कहै कि पृथ्वीदानादि लेनेवाला सुखी होय है तातें दाताक पुण्य होय है ताकौं कह्या है कि जैसे कुपथ्य वर्त्तमान मैं तो मीठा लागै परन्तु प्राण ही हरै है अर किपाक्का फल खाते तो मीठा लागै पाछै प्राण हरे है तैसें पृथ्वी आदि दाननिविषै वर्त्त मान मैं सुखसा भा परन्तु आगामी हिंसादिक योगतें नरकादिक मैं लेनेवालेकौं तीव्र दुःख उपजायै है, तातें देनेवाले पुण्य नाहीं पाप ही है ॥ ७५ ॥
प्रचुरोऽपात्रसंघाते मर्दचित्वाऽपि पोषिते ।
पाये संपद्यते धर्नो, नैषा भाषा प्रशस्यते ॥७६॥
अर्थ - जीवनके समूहकों नाशकैं भी पात्रकौं पोखे संते प्रचुर धर्म होय है ऐसी वाणी सराहने योग्य नाहीं ॥ ७६ ॥
ताका दृष्टान्तः-
निहत्य मेकसंबभ यः प्रीणाति भुजंगमम् ।
सोश्नुते यादृशं पुण्यं नूनमन्योऽपि तादृश्यम् । ७७॥
अर्थ - मीडंकानिके समूहकौं हनिकैं जो सर्पकौं पोखै है सो पुरुष जैसा पुण्यकौं ग्रहण करें है तैसा ही पुण्य निश्चयकरि और भी ग्रहण कर है ।
भावार्थ--जैसे अनेक मीडॅकानिकौं हनिकै कोई सर्पकौं पोखै ताकै पाप होय तैसें और जीवनकौं मारकं ब्राह्मणादिकनिके पोषनेते पाप होय है, पुण्य नाहीं ; ऐसा जानना ॥७७॥
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नवम परिच्छेद
[ २२३
प्रात्मीकरोति यो दानं, जीवमईन सम्भवम् ।. .. आकांक्षन्नात्मनः सौख्यं, पात्रता तस्य कीदृशी ॥७॥
अर्थ-जो आपकै सुख वांछता संता जीवनिके घाततें उपज्या जो दान ताहि ग्रहण करै हैं, ताकै पात्रता कैसी।
भावार्थ-अयोग्य दान लेय सो पाप काहेका, वह तो अपाप ही है ॥७॥
न सुवर्णादिक देयं न, दाता तस्य दायकः । न च पात्रं ग्रहीतास्य, जिनानामीति शासनम् ॥७॥
अर्थ-सुवर्णादिक तो देने योग्य वस्तु नाहीं अर तिस सुवर्णादिकका देनेवाला दाता नाहीं अर इस दानका ग्रहण करनेवाला पात्र नाही, या प्रकार जिनदेवनिका शासन कहिए आज्ञा है ।।७६ ।।
पात्रं विनाशितं तेन, तेनाधर्मः प्रवर्तितः । येन स्वर्णादिकं दत्त, सर्वानर्थविधायकम् ॥१०॥
अर्थ- तिमनैं पात्रका तौ विनाश किया अर तिसनें अधर्म प्रवर्तीया जाकरि सर्व अनर्थनिका करनेवाला सुवर्णादिक दिया तामैं ।
भावार्थ-- सुवर्णादिकतै हिंसादिक पाप उपजै है तातें लेनेवालेका तो नाश किया अर अधर्म प्रवर्तीया, तातै कुदान देना योग्य नाहीं ॥८०॥
आगें देनेयोग्य वस्तुका वर्णन करै है:रागो निषद्यते येन येन धर्मो विवद्धर्यते । संयमः पोष्यते येन विवेको येन जन्यते ॥१॥ आत्मोपशम्यते येन येनोपक्रियते परः । न येन नाश्यते पात्रं तद्दातव्यं प्रशस्यते ॥२॥
प्रथ-जाकरि राग नाशकौं प्राप्त होय अर जाकरि धर्म वृद्धिकौं प्राप्त होय अर जाकरि संयम पुष्ट होय अर जाकरि विवेक उपजे ॥१॥
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२२४ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर जाकर आत्मा उपशांत होय अर जाकरि परका उपकार होय अर करि पात्रका बिगाड़ न होय सो देने योग्य वस्तु सराहिए है ॥ ८२ ॥ आगे देनेयोग्य वस्तुके विशेष कहैं हैंश्रभयान्नौषधज्ञानभेदतस्तश्चतुविधम् ।
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दानं निगद्यते सद्भिः प्राणिनामुपकारकम् ॥८३॥
अर्थ - अभयदान १ अन्नदान २ औषधदान ३ ज्ञानदान ४ इन भेदनितें प्राणिनिका उपकार करनेवाला दान सन्तन करि च्यार प्रकार कहिए है ||८३ ||
धर्मार्थकाममोक्षाणां जीवितव्ये यतः स्थितिः । तद्दानतस्ततो दत्तास्ते, सर्वे संति देहिनाम् ॥ ८४ ॥
अर्थ--जा कारण धर्म अर्थ काम मोक्ष इनकी स्थिति जीवतव्य होत सन्तै होय है तातें जीवनकौं जीवितव्यके दानतै धर्म अर्थ काम मोक्ष सर्व दिये ।
भावार्थ - जानें जीवनकौं अभयदानादि दिया तानें धर्म अर्थ काम मोक्ष दिये तातैं धर्मादिकका आधार जीवना ही है तातें ॥ ८४ ॥
देवैरुक्तो वृणीष्वैकं त्रैलोक्यप्राणितव्ययोः । त्रैलोक्यं वृणुते कोऽपि न परित्यज्य जीवितम् ॥८५॥
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अर्थ-तीन लोक अर जीवितव्य इन दोऊनि मैं सें एक ग्रहण कर ऐसें देवनिकरि का पुरुष जीवितव्यकों छोड़ करि कहा तीन लोककों ग्रहण करें है, अपितु नाहीं कर है ।
भावार्थ - जीवितव्यकें आग तीन लोककी सम्पदा कछू नाहीं जानें जीवितव्य छोड़कर कोऊ भी तीन लोकको न चाहे है ॥८५॥
त्रैलोक्यं न यतो मूल्यं, जीवितव्यस्य जायते ।
तद्रक्षता ततो दत्त, प्राणिनां किं च कांक्षितम् ॥ ८६ ॥
अर्थ-जातैं जीवितव्यका माल तीन लोक न होय हैं तातें जीवितव्यकी रक्षा करता जो पुरुष ताकरि प्राणीनिकों कहा वांछित वस्तु न दिया, अपितु सर्व हो दिया || ८६ ॥
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नवम परिच्छेद
[२२५
नाभीतिदानतो दानं, समस्ताधारकारणम् । महीयो निर्मलं नित्यं, गगनादिव विद्यते ॥७॥
अर्थ-आकाश की ज्यौं समस्त आधार का कारण अर बड़ा अर निर्मल अर नित्य ऐसा अभयदानकै सिवाय और कोऊ दान नाहीं है ।। ८७ ॥
आगें आहारदानका वर्णन करें हैंपाहारेण विना पुंसां, जीवितव्य न तिष्ठति । आहारं यच्छता दत्तं, ततो भवति जीवितम् ॥८८ ।
अर्थ- आहार बिना पुरुषनिका जीवितव्य न तिष्ठ है, तातें आहारकौं देता जो पुरुष ताकरि जीवितव्य दिया ही होय हैं ।। ८८ ॥
नेत्रानंदकरं सेव्यं, सर्वचेष्टाप्रत्तिनम् । अनधस धार्यते देहं, जीवितेनेव जन्मिनाम् ॥८६॥
अर्थ-जैसे नेत्रनिकौं आनन्दकारी सेवने योग्य चेष्टाका प्रवर्तन करनेवाला आयुकरि जीवनिकै देह वारिये है तैसें भोजनकरि देह धारिए हैं ॥८६॥
कांतिः कोतिर्मतिः क्षांतिः शांति !तिर्गती रतिः । उक्तिः शक्तिद्य तिःप्रीतिः प्रतीतिः श्रीर्व्यवस्थितिः ॥६०॥ आहारजितं देहं सर्वे मुचन्ति तत्वतः । द्राविणापाकृतं मत्य वैश्या इव मनोरमाः ॥६१॥
अर्थ-कांति, कीर्ति, बुद्धि, क्षांति, शान्ति, नीति, गति, रति, वाणी, शक्ति, दीप्ति, प्रीति, प्रतीति, लक्ष्मी, स्थिरता ये सर्व आहार रहित देहकौं निश्चयतें छोड़े हैं, जैसे मनकौं प्यारी जे वेश्या ते द्रव्य रहित पुरुषकौं छोडै है ।। ६०-६१ ॥
शमो दमो दया धर्मः, संयमो विनयो नयः । तपो यशो वचोदाक्ष्य, दीयतेऽन्नप्रदायिना ॥२॥
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२२६ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ - कषायनकी मंदतारूप शम अर इंद्रियनिका दमन अर दया अर धर्म संयम अर विनय अर नय अर तप अर वचनका चतुरपना ये सर्व अन्न देनेवाले पुरुषकरि दीजिए है ।। ६२ ।।
क्षुद्रोगेण समो व्याधिराहारेण समौषधिः । नासीन्नास्ति न चाभावि, सर्वव्यापारकारिणी ॥ ६३ ॥
अर्थ - क्षुधारोग समान तो रोग अर भोजन समान औषधि सर्व व्यापारकी करावनेवाली न तौ आगें भई अर न है अर न होगी ।। ६३ ।।
दुर्गंधिकुथितं शीर्णं, विवर्णं नष्टचेष्टितम ।
भोजनैन विना गात्रं जायते मृतकोपमम ॥६४॥
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अर्थ - दुर्गंधरूप बिगड़ा सड़ा और वर्णकौं प्राप्त भय अर नष्ट भई है चेष्टा जाकी ऐसा शरीर है सो भोजन विना मृतक समान होय है ॥ ६४ ॥
न पश्यति न जानाति, न श्रणोति न जिघ्रति ।
न स्पृशति न वा वक्ति, भोजनेन विना जनः ॥६५॥ अर्थ - भोजन विना मनुष्य है सो न देखे है न जाने है न सुन है न सू है न स्पर्शे है अर न बोलै है सर्व चेष्टा नष्ट होय है ॥ ६५ ॥ प्रविक्रीयान्न कृच्छेषु, कांता कन्यातनूभुवः । आहारं गृह्णते लोका, वल्लभानपि निश्चितम् ॥१६॥
अर्थ – अन्न के कष्ट होने करि लोक हैं ते स्त्री कन्या पुत्र इन प्यारे भी बेचकर आहारकौं निश्चयतें ग्रहण करें है ।। ६६ ॥ यया खादत्यभक्ष्याणि, क्षुध्या क्षपिता जनः सा हन्यतेऽशनेनैव, राक्षसीव भयंकरा ॥६७॥
अर्थ - जिस क्षुधाकर पीड़ित जन है ते अभक्षकौं खाय है सो क्षुधा राक्षसीकी ज्यों भयंकर भोजन करि ही नाश कीजिए है ॥ ६७ ॥
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नवम परिच्छेद
यश्चैवाहारमात्रेण शरीरं रक्ष्यते नृणाम् । चामीकरस्य कोटीभिर्वीभिरपि नो तथा ॥ ६८ ॥
अर्थ – जैसी आहारमात्र करि मनुष्यनिके शरीरकी रक्षा करिए है तैसी बहुत कोटि सुवर्ण करि भी रक्षा न करिए है ॥ ६८ ॥ क्षिप्रं प्रकाश्यते सर्व माहारेण कलेवरम् ।
नभो दिवाकरेणैव,
तमोजालावगुंठितम् ॥६६॥
अर्थ – जैसैं अन्धकार करि व्याप्त जो आकाश सो सूर्यकरि प्रकाशिये है तैसे सर्व शरीर आहारकरि शीघ्र प्रकाशिए है ॥ ६६ ॥
न शक्नोति तपः कत्त, सरोगः संयतो यतः ।
ततो रोगापहारार्थं देयं प्रासुकमौषधम् ॥ १०० ॥
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[ २२७
अर्थ - जातें रोग सहित संयमी है सो तप करनेकौं समर्थ न होय है ता रोग दूर करनेके अर्थ प्रासुक औषधि देना योग्य है ॥ १०० ॥
न देहेन विना धर्मो न धर्मेण विना सुखम् ।
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यतो तो देहरक्षार्थं, भैषज्यं दीयते यतेः ॥१०१॥
अर्थ - जातें देह बिना धर्मं नाहीं अर धर्म विना सुख नाहीं
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जातें देहकी रक्षाके अर्थ साधुकों औषध देना योग्य है ।। १०१ ॥ शरीरं संयमाधारं रक्षणीयं तपस्विनाम् । प्रासुकैरौषधैः पुंसा, यत्नतो मुक्तिकांक्षिणा ॥ १०२ ॥
अर्थ – संयमका आधार जो तपस्वीनका शरीर सो मुक्तिका वांछक जो पुरुष ताकरि यत्नतें प्रासुक औषधनि करि रक्षा करनी योग्य है ।। १०२ ॥
आगे शास्त्रदानका वर्णन करें हैं ।
विवेको जन्यते येन संयमो येन पाल्यते ।
धर्मः प्रकाश्यते येन मोहो येन विहन्यते ॥ १०३ ॥ मनो नियम्यते येन रागो येन निकृत्यते ।
तहय भव्यजीवानां शास्त्रं निर्धूतकल्पषम् ॥ १०४ ॥
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२२८]
श्री अमितगति श्रावकाचार.......
अर्थ--जाकरि विवेक उपजाइए अर जाकरि संयम पालिए अर जाकरि धर्म प्रकाशिए अर जाकरि मोह हनिए ॥ १०३ ॥ अर जाकरि मन निश्चल कीजिए अर जाकरि छेदिए तो नाश किया है पाप जानें ऐसा शास्त्र भव्यजीवनिकौं देना योग्य है ।। १०४ ॥
विवेको न विना शास्त्रं, तमते न तपो यतः । ततस्तपोविधानाथ देयं, शास्त्रमनिदितम् । १०५॥
अर्थ-जाते शास्त्रविना विवेक नाहीं अर विवेकविना तप नाहीं तात तप करनेके अर्थि अनिंदित शास्त्र देना योग्य है ।। १०५ ॥
आग और भी दान देनेयोग्य वस्तुनिकौं कहें हैं ; वस्त्रापात्राश्रयादीनि पराण्यपि यथोचितम् । दातव्यानि विधानेन रत्नत्रितयवृद्धथे ॥१०६॥. वर्य मध्यजघन्यानां पात्राणामुपकारकम् । दानं यथायथं देयं वैयावृत्यविधायिना ।।१०७॥
अर्थ-वस्त्र पात्र अर वसतिका इत्यादि कभी रत्नत्रयकी वृद्धिके अर्थ विधानसहित यथायोग्य देनायोग्य है ॥१०६ ॥ वैयावृत्त्यका करनेवाला जो पुरुष ताकरि उत्तम मध्यम जघन्य पात्रनिका उपकार करनेवाला दाय यथायोग्य देनायोग्य है ।। १०७ ।।
भावार्थ-पंच महाव्रतके धारक साधु तो उत्तम पात्र हैं, अर देशव्रती श्रावक मध्यम पात्र हैं, अर अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र हैं सो इनकौं यथायोग्य दान कहिए साधनकौं साधनके योग्य आहारादिक देना, श्रावकनकौं तथा अविरत सम्यग्दृष्टि नकौं योग्य वस्त्रपात्रादिक देना । ऐसें जा पद मैं जो वस्तु देनायोग्य होय सो देना, ऐसा जानना ॥ १०८ ॥
आगें अधिकारकौं संकोचे हैं; पोष्यन्ते येन चित्राः सकलसुखफलस्तोमरोपप्रवीणाः,
सम्यक्त्वज्ञानचर्यायमनियमतपोवृक्षजातिप्रवंधाः । .
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नवम परिच्छेद
[ २२६
भव्यक्षोणीषु तद्यः क्षतनिखिलमलं मुंचते दानतोयं, तुल्यस्तस्योपकारी मधुर प्रकृतो भव्यमेघस्य नान्यः ॥ १०८ ॥
अर्थ--समस्त सुखरूप फलनिके समूहके धारणे मैं प्रवीण जे नानाप्रकार ऐसा सम्यक्त ज्ञान चारित्र यम नियम तप रूप वृक्षनिकी जातिनके प्रबंध ते जाकरि पुष्ट कीजिए हैं, ऐसा जो दानरूप जल ताहि जो भव्यजीवरूप पृथ्वी निविषै त्यागें है वरसे है कैसा है जल नाश किये हैं समस्त मल जानैं ऐसा, सो उपकारी पुरुष मधुर शब्द करनेवाला जो मेघ ताके समान है अन्य ताके समान नाहीं ।
भावार्थ - दान देनेवाला पुरुष मेघके समान है पूर्वोक्त मेघके विशेषण दाताके सम्भव है अन्य कृपणके न सम्भव हैं, ऐसा जानना ॥ १०८ ॥
वात्सल्यासक्तचित्तो नयविनयपरो दर्शनालंकृतात्मा । dard fafear वितरति विधिना यो यतिभ्योऽत्र दानं ॥ कति कुन्दावदाताममितगतिमतां पूरयन्ती त्रिकोकम् । लब्ध्वा क्षिप्रं प्रयाति क्षपितभवभयं मोक्षमक्षीणसौख्यं ॥ १०६ ॥
अर्थ - वात्सल्य कहिए प्रोतिभाव तामैं है आसक्त चित्त जाका बहुरि नीति अर विनय विषै परायण अर सम्यग्दर्शन करि भूषित है आत्मा जाका ऐसा जो पुरुष देने योग्य न देने योग्य वस्तुकौं जानकरि विधिसहित तीनके अर्थ दान देय है सो इस भवविषै तीनलोककौं पूरती ऐसी अनंतज्ञानीनि करि कही जो कुन्दके फूलसमान निर्मल कीर्ति ताहि पाय करि शीघ्र मोक्षकों प्राप्त होय है, कैसा हैं मोक्ष दूर किया है संसारका भय जानें अर अक्षीण है सुख जाविषै ।
भावार्थ - दानी पुरुष इन भवमैं तौ निर्मल कीर्ति पावै है अर परंपराय मोक्षकों प्राप्त होय है यह दानका फल है ऐसा जानना ॥ १०६॥
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२३०]
श्री अमितगति श्रावकाचार
छप्पय
धर्म मांहि अतिप्रीति विनयजुत रीतिनीतिमति ।
___ सम्यग्दर्शनविमलरत्नभूषित पुनीत अति ॥ जोग अजोग विचार देत जो दानसहितविधि ।
साधु जननिके अर्थि देखि गुणमणिअपारनिधि । सो तीनलोकमैं विमलजस पाय अगितगति जिनकथित । पुनि लहै मोक्षपद अखयसुख ज्ञानमयी भवभयरहित ।
इत्युपासकाचारे नवमः परिच्छेदः । एवं श्री अमितगति आचार्यविरचित श्रावकाचारविष
नवम परिच्छेद समाप्त भया।
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दशम परिच्छेद ।
आगै पात्र कुपात्र अपात्रकौं कहै हैं:पात्रकुपात्रापात्राण्यवबुद्धयः फलाथिना सदा देयम् । क्षेत्रमनवबुद्धयोप्तं बीजं न हि फलति फलमिष्टम् ॥१॥
अर्थ-फलका अर्थी जो पुरुष ताकरि पात्र कुपात्र अपात्र इनकौं जानकरि सदा दान देना योग्य है, तातें क्षेत्रकौं बिना जाने बोया जो बीज सो बांछित फलकौं नाहीं फले है ॥१॥
तहां पात्रनिका स्वरूप कहै हैं:पात्रं तत्वपटिष्ठरुत्तममध्यमजघन्यभेदेन । वेधा क्षेत्रमिवीक्तं विविधफ लनिमित्तत्तो ज्ञात्वा ॥२॥
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दशम परिच्छेद
[२३१
अर्थ-तत्वज्ञानीनतें तीनप्रकार फलके कारणतें जानकरि उत्तम मध्यम जघन्य भेदकरि क्षेत्रकी ज्यों पात्र तीन प्रकार कह्या है ॥२॥
उत्तममुत्तमगुणतो मध्यमगुणतोऽथ मध्यमं पात्रम् । विज्ञेयं बुद्धिमता जघन्यगुणतो जघन्यं च ॥३॥
अर्थ-बुद्धिमान पुरुषकरि उत्तम गुणतें उत्तमपात्र जानना योग्य है, बहुरि मध्यमगुणतें मध्यम पात्र जानना योग्य है, अर जघन्य गुणतें जघन्य पात्र जानना योग्य है ॥३॥
तत्रोत्तम तपस्वी विरताविरतश्च मध्यमं ज्ञेयम् । सम्यग्दर्शनभूषः प्राणी पात्रं जघन्यं च ॥४॥
अर्थ-तहां तपस्वी साधु तो उत्तम पात्र जानना योग्य है अर विरतावरित श्रावक मध्यम पात्र जानना योग्य है, अर सन्यग्दर्शन युक्त प्राणी है सो जघन्य पात्र जानना ॥४॥ __आगें उत्तम पात्र का स्वरूप कहैं हैं--- जीवगुणमार्गणविधि विधानतो यो विवुद्धय निःशेषम् । रक्षति जीवनिकायं सवितेव परोपकारपरः ॥५॥ पथ्यं तथ्यं श्रव्यं वचनं हृदयंगमं गुणगरिष्ठम् । यो ते हितकारी परमानसतापतो भीतः ॥६॥ निर्माल्पकमिव मत्वा पर वित्तं यस्त्रिधापि नाऽऽदत्त । दन्तांतरशोधनमपि पतितं दृष्ट्वाप्यदत्तमतिः ॥७॥ तिर्गङ मानवदेवाचेतनभेदां चतुर्विधां योषाम् । परिहरति यः स्थिरात्मा मारीमिव सर्वथा घोराम् ॥८॥ त्रिविधं चेतनजातं संगं चेतनमचेतनं त्यक्त्वा । यो नाऽऽदत्ते भूयो वांतमिवान्न त्रिधा धीरः ॥६॥ त्रिविधालंवनशुद्धिः प्रासुकमार्गेण यो दयाधारः । युगमात्रांतरदृष्टिः परिहरमाणोंऽगिनो याति ॥१०॥
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२३२ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
हृदयं विभूषयन्ती वाणी तापापहारिणीममलाम् । मुक्तानामिव मालां यो ब्र ते सूत्रसंवद्धाम् ॥११॥ षष्ट्वत्वारि शद्दोषापोढां यो विशुद्ध नवकोटीम् । मृष्टामृष्टसमानोभुक्ति विदधाति विजिताक्षः ॥१२॥ दव्यं विकृतिपुरः सरमंगिग्रामप्रपालनासक्तः । गृह्णाति यो विमुचति यत्नेन दयांगमाश्लिष्टः ॥१३॥ निजतुकेऽविरोधे दूरे गूढे विसंकटे क्षिपति । उच्चारप्रश्रवणश्लेष्माद्य यः शरीरमलम् ॥१४॥ जिनवचनपंजरस्थं विधाय बहुदुःखकारणं क्षिप्रम् । विदधाति यः स्ववश्यं मर्कटमिव चंचलं चित्तम ॥१५॥ यो वचनौषधमनघं जरामरणरोगहरणपरम । बहुशो मौनविधायी ददाति भव्यांगिनां महितम् ॥१६॥ कायोत्सर्गविधायी कर्मक्षयकारणाय भवभीतः । कृत्याकृत्यपरो यः कार्यं वितनाति सूत्रमतम् ॥१७॥ यस्येत्थं स्थेयस्य सम्यग्व्रतसमितिगुप्तयः संति । प्रोक्तः स पात्रमुत्तमगुणभाजनं जैनैः ॥१८॥
अर्थ-जोजीवस्थान गुणस्थान मार्गणास्थानके भेदनकौं विधानते जानकरि जीवनके समूहकी रक्षा करै है अर सूर्यकी ज्यौं पराये उपकारमें तत्पर है।
भावार्थ-जो जैसे सूर्य अपेक्षारहित जोवनिकौं प्रकाश कर हैं तै अपेक्षा बिना जो परके उपकारमैं तत्पर है ॥५॥ बहरि जो हितरूप सत्यार्थ सुननेयोग्य हृदयकौं प्यारा गुण निकरि गरुवा ऐसे वचनकौं बोले है, कैसा है सो हितका करनेवाला अर परके मनकौं ताप उपजावनेतें भयभीत है ॥६॥ बहुरि जो परधनकौं निर्माल्यवत मानकरि दांतनका अन्तर शोधन मात्र तणादिक भी मन वचन काय
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दशम परिच्छेद
[२३३
करि ग्रहण नाहीं करै है कैसा है सो पड़े द्रव्यकौं देखकर भी अदत्तकी है बुद्धि जाकै।
पड़ी वस्तुकौं भी देखकर अदत्त मानकर ग्रहण न करै है ॥७॥ बहुरि थिर हैं आत्मा जाका ऐसा जो तिर्यंचणी मनुष्यणी देवांगना अचेतन पुतली आदि भेदरूप ऐसी च्यार प्रकार स्त्रीकौं भयानक मारी रोगकी ज्यों सर्वथा त्याग है ॥८॥ बहुरि जो धीर नाना प्रकार चेतनतें उपज्या चेतन परिग्रह स्त्री पूत्रादिक अर अचेतन परिग्रह धन धान्यादिक ताहि त्याग करि फेरि वमन किये अन्नको ज्यौं ग्रहण नाहीं करै है ॥६॥ वहुरि प्रासुक मार्ग करि जीवनिकौं बचावता गमन करै है कैसा है सो तीन प्रकार मन, वचन, कायके आलंवनतें है शुद्धि जाकै, बहुरि दयाका आधार, युग प्रमाण आंतरै है दृष्टि जाकी।
च्यार हाथ तांई क्षेत्र देखकरि चाल है ऐसा है ॥१०॥ बहुरि जो हृदयकौं भूषित करती अतापाकौं हरनेवाली अर सूत्रकरि भले प्रकार बन्धी ऐसी मोतीनकी माला समान जो वानी ताहि बोल है।
.: मोतीकी माला हृदयकौं शोभित करै है सो यह वाणी भी हृदय जो चित्त ताकौं शोभित करै है अर माला आताप हरै है अर माला सूत्र कहिये डोरा तासू बन्धी है अर वाणी जिनभाषित सूत्रसू बंधी है ऐसी समान उपमा जाननी ॥११॥
बहुरि जो छयालीस दोष रहित अर नवकोटी शुद्ध आहार ताहि ग्रहण कर है, भले बुरे आहार में है समान बुद्धि जाकी अर जीती है इन्द्रिय जानें ॥१२॥ बहुरि जो विकृति कहिये हस्त धोवनादि कार्यके अर्थ भस्म अर आदि शब्द करि पीछी कमंडलु सांथरा इत्यादि वस्तुकौं यत्नसहित ग्रहण करै है, जीवनके समूहके पालनेमैं आसक्त है चित्त जाका अर दयाके अंग प्रति लिपट रह्या है ॥१३॥
. बहुरि जो जीवरहित अर विरोध रहित बहुरि दूर गुप्त अर संकट रहित विस्तीर्ण ऐसे क्षेत्र विर्षे मल मूत्र कफ आदि शरीरके मलकौं
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२३४ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
क्षेपे हैं ||१४|| बहुरि जो बहुत दुःखका कारण वादरा समान चंचल जो चित्त ताहि जिन वचन रूप पींजरे में बैठाय करि शीघ्र अपने वश करै है ॥१५॥
बहुरि जो जन्मजरामरणरूप रोगके हरणे में तत्पर ऐसी निर्दोष अर पूजित जो वचनरूप औषधि ताहि भव्यजीवनकौं देय है सो बहुधा मौनका धरनेवाला है ।
भावार्थ - मुख्यपने तौ मौन ही धार है अर कदाच बोल है, तौ सबका हितकारी वचन बोलै है । ऐसा जानना || १६ || बहुरि जो कर्मनिके क्षयके अर्थ कायोत्सर्ग कर है अर संसारतै भयभीत है अर जो करनेयोग्य न करने योग्यका ज्ञाता जिनसूत्रभाषित कार्यकौं करे है ॥१७॥ जा मुनिकै या प्रकार सम्यक् पंच महाव्रत पंच समिति तीन गुप्ति है सो उत्तम पात्र उत्तम गुणनिका भाजन जैनीनि करि कह्या है ॥१८॥
इन तेरह श्लोकनिमैं तेरह प्रकार चारित्रका वर्णन किया, जो इनकों धारे है सो उत्तम पात्र जानना, आगे इस ही उत्तम पात्रका विशेष स्वरूप कहैं हैं
राग द्वेषो मोहो लोभः क्रोधो मदः स्मरो माया । ये परिहरति दूरं दिवाकरमिवांधकारचया ॥१६॥
अर्थ – जैसे सूर्यको अंधकारके समूह दूर त्यागें है तैसें जा मुनिकों राग द्वेष मोह क्रोध लोभ मान काम माया दूर परिहरें है ।
भावार्थ - जाकै रागादिकका अभाव भया ॥१६॥
दर्शनबोधचरित्रत्रितयं यस्यास्ति निर्मलं हृदये । श्रनंदितभव्यजनं विमुक्तिलक्ष्मीवशीकरणम् ॥२०॥
अर्थ- जाके 'हृदय विषं निर्मल दर्शनज्ञान चारित्रका त्रितय है, कैसा है दर्शन ज्ञानचारित्रका त्रितय आनंदक प्राप्त किये है भव्यजीव जानें अर मुक्तिलक्ष्मीका वश करनेवाला है ॥२०॥
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दशम परिच्छेद
[२३५
यस्यानवद्यवृत्तेजंगममिव मंदिरं तपोलक्ष्भ्याः । कायक्लेशरुन वशीकृतं राजते गात्रम् ॥२१॥
अर्थ-बहुरि जिस मुनिका शरीर उग्र कायक्लेशनि करि कृश किया चालता तप लक्ष्मीका मन्दिर समान सोहै है, कैसा है सो मुनि पाप रहित है प्रवृत्ति जाकी ॥२१॥ यविजिता जगदीशा, विविधा विपदः सदा प्रपद्यन्ते । तानींद्रियाणि सद्यो, महीयसा येन जीयन्ते ॥२२॥
अर्थ-जिन इन्द्रियनि करि जीते जे इन्द्रादिक ते नाना प्रकार विपदानकौं सदा प्राप्त होय है ते इन्द्रिय जिस महात्मा करि तत्काल जीतिए है।
मावार्थ-वे साधू इन्द्रियनिके बस करनेवाले हैं ॥२२॥ पूजायामपमाने सौख्ये, दुःखे समागमे विगमे । क्षुभ्यति यस्य न चेतो, पात्रमसावुत्तमः साधुः ॥२३॥
अर्थ-पूजा विष तथा अपमानविर्षे, सुखविष अर दुःखविर्षे, लाभविर्षे अलाभविषै, जाका चित्त रागद्वेषकौं न प्राप्त हाय है सो यह साधु उत्तम पात्र है ॥२३॥
यस्य स्वपरविमागो न विद्यते निर्ममत्वचित्तस्य।. निर्वाधबोधदीपप्रकाशिताशेषतत्वस्य ॥२४॥
अर्थ-जिस मुनिक स्वपरका विभाग नाहीं है कैसा है सो मुनि पर वस्तूमैं ममता रहित है चित्त जाका अर बाधारहित ज्ञान दीपक करि प्रकाशे हैं समस्त पदार्थ जानें ।
भावार्थ-जिस मुनिकै मोहके अभावसे परद्रव्यमैं यह मेरा है यह पराया है ऐसा भेद नाहीं सबनिकौंज्ञेय मात्र करि जान है ॥२४॥
संसारवनकुठारं दातुं, कल्पद्रु मफलमभीषम् । यो धत्त निरवयं क्षमादिगुणसाधनं धर्मम् ॥२५॥ मर्थ-जो मुनि निर्दोष क्षमादि गुण है साधन जाके ऐसे
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२३६ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार ।
धर्मकौं धरि है, कैसा है धर्म संसार बनके छेदनको कुठार समान है, अर बांछित फल देनेकौं कल्पवृक्ष समान है ||२५||
लोकाधारनिवृत्तः कर्म महाशत्रुमर्दनोद्य क्तः । यो जातरूपधारी संयतपात्रं मतं वर्यम् ॥ २६ ॥
श्रर्थ - जो मुनि लौकिक आचारतें निवृत्त है अर कर्मरूप महाशत्रुके नाश करने मैं उद्यमी है अर जातरूप कहिए माताके गर्भतै जैसा उपज्या तैसा नग्नरूपका धारी मुनि उत्तम पात्र कह्या है ||२६||
ऐसें उत्तम पात्रका स्वरूप कह्या, आगे मध्यम पात्रका स्वरूप कहैं हैं
राकाशशांकोज्ज्वलदृष्टिभूषः, प्रवर्द्ध मानव्रतशी ललक्ष्मीः । सामायिका रोपितचित्तवृत्ति, निरन्तरोपोषितशोषितांगः ||२७|| सचेतनाहारनिवृत्तचित्तो, वैरंगिको मुक्तदिनव्यवायः । निरस्त शश्वद्वनितोपभोगो निराकृतासंयमकारि कर्मा ॥ २८ ॥ निवारिताशेषपरिग्रहेच्छः, सावद्यकर्मानुमतेरकर्त्ता । प्रौद्द शिकाहारनिवृत्तबुद्धि, दुरंत संसारनिपातभीतः ॥ २९ ॥ उपासकाचारविधिप्रवीणो, मंदीकृताशेषकषायवृत्तिः । उत्तिष्ठते यो जननव्यपाये, तं मध्यमं पात्रमुदाहरन्ति ॥३०॥
अर्थ - पूर्णमासीके चन्द्रमा समान निर्मल जो सम्यग्दर्शन सोही है आभूषण जाकै, बहुरि वर्द्धमान हे पंच अगुव्रत अर सात शील इनकी लक्ष्मी जाकै, बहुरि सामायिकविषै आरोपित करी है चित्तकी पृत्ति तानें अर सदा प्रोषधोपवास करि सोख्या है अंग जानें ||२७|| सचित्त आहारतें निवृत्त है चित्त जाका अर विमुक्तरूप है, तथा छोड़या है दिनविषै मैंथ न जानें, अर दूर किया है निरन्तर स्त्रीका उपभोग जानें अर दूर किये हैं असंयम के करनेवाले कार्य जानें ॥ १८॥ बहुरि विनाशी है समस्त परिग्रहकी इच्छा जानें, बहुरि पाप सहित कार्यमैं अनुमोदननाकौं नाहीं करें है । बहुरि आपके उद्देश्यकरि किया जो आहार ता विषै निवृत्त है बुद्धि जाकी ऐसा जो संसार ताके
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दशम परिच्छेद
[ २३७
पडनेतें भयभीत है ॥२६॥ उपासकाचारको विधिमैं प्रवीण अर मंद करी है समस्त कषायनिकी प्रवृत्ति जाने ऐसा जो पुरुष संसारके नाश विर्षे उद्यमी है ताहि मध्यम पात्र कहैं हैं ॥३०॥
भावार्थ-इति दर्शनादि उद्दिष्टाहारविरतिपर्यंत ग्यारह प्रतिमानकू जो धारै सो श्रावक मध्यम पात्र जाननां। इहां इतना और जानना। पहली दर्शन प्रतिमा तो अवश्य चाहिए ताके होते वाकी दोय प्रतिमा आदि ग्यारह प्रतिमा पर्यंत श्रावक ही है ॥२७-३०॥
ऐसें मध्यम पात्रका स्वरूप कह्या, आगें जघन्य पात्रका स्वरूप कहैं हैंकुमुदबांधवदीधितिदर्शनो, भवजरामरणातिविभीलुकः । कृतचतुर्विध संघहिते हितो, जननभोगशरोरविरक्तधीः ॥३१॥ भवति यो जिनशासनभासकः, सततनिंदनगर्हणचंचुर । स्वपरतत्वविचारण कोविदो, व्रतविधाननिरुत्सुकमानसः ॥३२॥ जिनपतिरिततत्वविचक्षणो, विपुलधर्मपलेक्षणतोषितः । सकलजन्तुदयादितचेतन, स्तमिह पात्रमुशंति जघन्यकम् । ३३॥
अर्थ--चन्द्रमाकी किरण समान निर्मल है सम्यग्दर्शन जाका बहुरि जन्म जरा मरणको पीडातें भय है अर करया है च्यार प्रकार संघके हितविष हित कहिये प्रीतिरूप भव जानें अर संसारके भोग शरीरविर्षे विरक्त है बुद्धि जाकी ॥३१॥
बहरि जो जिन शासनका प्रकाशक है, अर निरन्तर अपनी निंदा गर्दा विर्षे प्रवीण है, बहुरि आत्मतत्व अर परतत्व इनके विचारमैं पंडित है, बहुरि व्रतनिके आचरणविष निरुत्सुक है मन जाका। भावार्थ व्रत न धार सकै है ॥३२॥ बहुरि जिनभाषित तत्वविर्षे विचक्षण है, अर बड़ा जो धर्मका फल ताके देखनेते सन्तुष्ट है ।
भावार्थ-धर्मका मुख्य फल जो मोक्ष ता सिवाय अन्य फल न चाहै है, अर समस्त प्राणीनिकी दया करि भीज रहा है चित्त जाका ऐसा जो अविरत सम्यग्दृष्टी ताहि इहां जघन्यपात्र कहैं हैं ।।३३।।
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२३८ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
आगैं कुपात्रका रुवरूप कहैं हैंचरति यश्चरणं परदुश्चरं, विकटघोरकुदर्शनवासितः । सकल सत्वहितोद्यतचेतनो, वितथकर्कशवाक्यपराङमुखः ||३४|| धनकलत्रपरिग्रहनिस्पृहो, नियमसंयमशीलविभूषितः ।
"
कृतकषायहृषीकविनिर्जयः प्रणिगदंति कुपात्रमिमं बुधाः ॥ ३५ ॥ अर्थ - जो परकौं कठिन है आचरण जाका ऐसे आचरणको आचरै है, अर विकट अर भयानक ऐसे मिथ्यादर्शन करि वासित है, बहुरि सर्व जीवनिके हित मैं उद्यमी है मन जाका, अर झूठ अर कठोर ऐसे वचनतें पराङ्मुख है ||३४|| बहुरि धन स्त्री परिग्रह निस्पृही है, अर नियम संयमशील इन करि भूषित है, बहुरि करया है कषाय अर इंद्रियनिका पराजय जानें ऐसा है, इस पुरुषकौं पंडितजन हैं ते कुपात्र कहैं हैं ॥ ३५ ॥ भावार्थ - जो कायक्लेशादि करै है अर व्रत धारै अर कषाय इंद्रियनिक भी जीते है अर सम्यक्त रहित है सो कुपात्र है ऐसा
जानना ।। ३४-३५॥
आगैं अपात्रका स्वरूप कहैं हैं
गतकृपाः प्रणिहन्ति
शरीरिणौ,
वदति यो वितथं परषं वचः । हरति वित्तमदत्तमनेकधा,
मदनवाणहतो भजतेंऽगनाम् ॥३६॥ विविधदोषविधायिपरिग्रहः,
पिवति मद्यमयंत्रितमानसः । कृमिकुलाकुलितै प्रसते पलं, कलिकर्मविधानविशारदः
कटु बपरिग्रहपंजरः, प्रशमशीलगुणव्रतवर्जितः । गुरुकषायभ' जगमसेवित', विषयलोलमपात्रमुशंति तम् ॥ ३८ ॥
॥३७॥
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दशम परिच्छेद
अर्थ - जो दयारहित जीवनकौं हनै है, बहुरि झूठ अर कठोर वचनको बोलै है, अर बिना दिये धनकौं अनेक प्रकार हरै है, अर कामबाण करि पीड़ित भया सन्ता स्त्रीकों से है ||३६|| अर नाना दोषनिका करनेवाला जो परिग्रहता सहित है, अर नाहीं है वशीभूत मन जाका ऐसा भया सन्ता मदिराकों पीवै है, अर कीड़ाके समूहकरि व्याप्त जो मांस ताहि अर पाप कर्म करणे विषं प्रवीण है ||३७|| अर दृढ़ कुटुम्ब परिग्रहके
जरा सहित है, बहुरि समताशील गुणव्रत इन करि वर्जित है तिस विषयलोलुपीक आचार्य अपात्र कहैं हैं, कैसा है सो तीव्र - कषायरूप सर्पकरि सेवित हैं ॥ ३८॥
अपात्र है ।
भावार्थ – सम्यक्त अर व्रतादिक इन दोऊनि करि रहित है सो
विबुद्धय पात्र विशुद्धबुद्धया
| २३६
बहुषेति पंडितै, गुणदोषभाजनम् ।
परिगृह्य पावनं,
विहाय गह्यं शिवाय दानं निधिना
वितीर्यते ॥३६॥
अर्थ - या प्रकार पंडितकरि निर्मल बुद्धिकरि गुण अर दोषनिका भाजन जो बहुत प्रकार पात्र ताहि जानकै अर निंदनीककौं त्यागिकै अर पवित्रकौं ग्रहण कर मोक्षके अर्थ विधि सहित दान दीजिए ।
भावार्थ - या प्रकार गुण दोषन पात्र अर अपात्रकौं जानिक मोक्ष अर्थ अपात्रनिकों त्यागकै पात्रनिकौं दान देना योग्य है ॥ ३६॥
आगे उत्तम पात्रनिक आहार देनेकी विधि कहैं हैं
कृतोत्तरासंगपवित्रविग्रहो, निजालयद्वारगतो निराकुलः ।
ससंभ्रमं स्वीकुरुते तपोधनं, नमोऽस्तु तिष्ठेति कृतध्वनिस्ततः ॥४०॥
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२४० ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अनेक जन्मार्जितकर्मक सिन, स्तपोनिधेस्तत्र पवित्रवारिणा । स सादरः क्षालयते पदद्वयं विमुक्तये मुक्तिसुखाभिलाषिणः ॥४२
प्रसूनगन्धाक्षतदीपकादिभि, प्रपूज्य मत्यमरवर्गपूजितम् ।
मुदा मुमुक्षोः पदपंकजद्वय,
सः वंदते मस्तकपाणिकुङ मलः ॥४३॥
मनो वचः कायविशुद्धिमंजसा, विधाय विध्वस्तमनोभवद्विषः ।
चतुविधाहारमहार्य निश्चयो, ददाति सः प्रासुकमात्मकल्पितम् ॥४४॥
अर्थ - कर्या है उज्जवल धोवती दुपट्टा सहित पवित्र शरीर जानें, बहुरि अपने घर के द्वारमें प्राप्त भया आकुलता रहित ऐसा भया सन्ता मुनिराज अंगीकार करे है, कैसा है सो नमस्कार होऊ, हे मुनीन्द्र इहां तिष्ठौ ऐसे कर्या है शब्द जानें ||४०|| बहुरि ता पीछे प्रकार भले किया है संस्कार जाका ।
भावार्थ - दया सहित लगा है चौका आदि जहां ऐसे अतिशय करि प्रशंसा योग्य घर के भीतर तपस्वीकौं विधानतें स्थापित करें, कैसा है तपस्वी वांछित अनेक फलका देनेवाला है, अर दूषण रहित रत्नकी ज्यों भले प्रकार दुर्लभ हैं ||३१|| अनेक जन्मकरि उपार्जे जे कर्म तिनका काटनेवाला ऐसा जो तपोधन मुनि ताके तहां पवित्र जल करि सो आदर सहित चरण युगलकौं मुक्तिके अर्थ प्रक्षालन करें है, कैसे हैं मुनि मुक्तिके सुखकी है अभिलाषा जाकै ॥ ४२ ॥ बहुरि मनुष्य अर देवनके समूहकरि पूजित जो मोक्षाभिलाषी मुनिका चरणयुगल ताहि पुष्प गन्ध अक्षत दीपक इत्यादि द्रव्यनि करि हर्ष सहित वंदे है, अर मस्तक से लगाए हैं हस्तकमल
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दशम परिच्छेद
[२४१
जानें ॥४३॥ बहुरि नाश किया है कामरूप वैरी जानें ऐसे मुनिकौं मन, वचन, कायकी विशुद्धिता भले प्रकार आपके अर्थ किया जो चार प्रकार प्रासुक आहार ताहिं देय है, कैसा है सो पुरुष नाही हरणे योग्य है निश्चय जाका।
भावार्थ - दृढ़ है श्रद्धान जाका ऐस है ॥४४॥ :: अनेन दत्तं विधिना तपस्विनां,
महाफलं स्तोकमपि प्रजायते । बसुन्धरायां वटपादपस्य किं,
न बीजमुप्तं परमेति विस्तरम ॥४५॥ अर्थ-इस विधि सहित तपस्वीनकौं थोड़ा दिया जो दान सा महाफल उपजावै है । जैसे पृथ्वीविर्षे बोया जो वटवृक्षका बीज सों कहा उत्कृष्ट विस्तारकौं प्राप्त न होय है, होय ही है ॥४५॥
निवेशितं वीजमिलातलेऽनघे, विना विधानं न फलावहं यथा । तथा न पात्राय वितीर्णमंजसा,
ददाति दानं विधिना विना फलम् ॥४६॥ अर्थ-जैसे निर्दोष पृथ्वीतल वि. बोया भया बीज है सो विधान जो जतन आदि क्रिया ता बिना फलदाता न होय है तैसें पात्रके अर्थ भले प्रकार दिया भया दान है सो विधि जो पडगाहन आदि ता विना फलकौं न देय है ॥४६॥
सदाऽतिथिभ्यो विनयं वितन्वता, निजं प्रदेयं प्रियजल्पिना धनम् । प्रजायते कर्कशभाषिणः स्फुटं,
धनं वितीणं गुरुवेरकारणम् ॥४७॥ अर्ग-विनयको विस्तारता अर मिष्ट वचन बोलता जो पुरुष ताकरि पात्रनिके अर्थ अपना धन कहिये यथायोग्य अहारादि वस्तु देना
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श्री अमितगति श्रावकाचार
२४२ ]
योग्य हैजा कठोर वचन बोलनेवालेकै दिया भया वस्तु है सो प्रकटपने महावरका कारण होय है ||४७ ||
निगद्य यः
कर्कशमस्तचेतनो,
निजं ज दत्ते द्रविणं शठत्वतः ।
सुखाय दुःखोदयकारणं परं,
मूल्येन गृह्णाति स दुर्मनः कलिम् ॥४८॥
अर्थ- -जो निर्बुद्धी कठोर वचनको बोलके अर मूर्खपनातें अपना द्रव्य देय है सो दुष्टचित सुखके अर्थ केवल दुःखके उदयका कारण जो पाप कलह ताहि मूल्य ग्रहण करें है ।
भावार्थ- जो खोटा वचन बोलके दान देय है सो उलटा पाप बन्ध कर है ॥४६॥
सम्यग्भक्त कुवंतः संयतेभ्यो, द्रव्यं भावं कालमालोक्य दत्तम । दातुर्दानं भूरि पुष्यं विधत्ते, सामग्रीतः सर्वकार्य प्रसिद्धिः
॥४६॥
प्रर्थ - भले प्रकार भक्तिकौं करता जो दाता ताके द्रव्य भाव काल इनकों विचारके दिया भय। दान है सा घने पुन्यकों उपजावै है जातें सर्व कार्यकी प्रसिद्धि है सो सामग्रीतें होय है ।
भावार्थ - भक्ति सहित द्रव्यादिक पूर्व कहे प्रमाण विचारकं पात्रनिके अर्थ थोड़ा भी दिया दान है सो बहुत पुण्य बन्धकों करे है, इहां द्रव्य भाव काल तो कहे अर क्षेत्र पात्रनिकों जान लेना ||४६ ||
बलाहका देकर सं
विनिर्गतं,
यथा पयो भूरिरसं निसर्गतः । विचित्रमाधारमवाप्य जायते,
तय स्फुटं दानमपि प्रदातृतः ॥ ५० ॥
अर्थ जी मजा स्वप गयो नाक
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दशम परिच्छेद
नाना प्रकार आधारकौं पाय करि अनेक रसरूप होय है तैसें दातातें निकस्या दान भी प्रकटपने नाना प्रकार पात्रनिकौं पाय अनेक प्रकार रूप परिणम है ।
भावार्थ - जैसें पात्रकौं दान दीजिए तैसा ही कर्मबन्ध स्वयमेव होय है, ऐसा जानना ॥५०॥
घटे यथाssमे सलिलं निवेशितं, पलायते क्षिप्रमसौ च भिद्यते ।
तथा वितीर्णं विगुणाय निष्फलं ः । प्रजायते दानमसौ च नश्यति ॥५१॥
[ २४३
अर्थ – जैसे काचे घट विषै घरया जो जल है सो शीघ्र निकल जाय है अर घट भी फूट जाय है तैसें गुण रहित पुरुषके अर्थ दिया भया दान है सो निष्फल होय है अर वो लेनेवाला भी नाशकौं प्राप्त होय है, पापबंध कर है, ऐसा जानना ॥ ५१ ॥
विना विवेकेन यथा तपस्विता,
यथा पटुत्वेन विना सरस्वती ।
तथा विधानेन विना वदान्यता,
न जायते शर्मकरी कदाचन ।।५२॥
अर्थ – जैसे विना विवेक तपस्वीपना अर चातुर्यपना बिना सरस्वती कदाचित् सुखकारी न होय है तैसें पूर्वोक्त विधान विना दान देना कदाच सुखकारी नाहीं ॥ ५२ ॥
यथा वितीर्णं भुजङ्गाय पावनं, प्रजायते प्राणहरं विषं पयः । भवत्यपात्राय धनं गुणोज्जवलं, तथा प्रदर्श बहदोषकारणम्
।।५३॥
अर्थ- जैसे सर्व अर्थ दिया गया जो पवित्र दूध सो प्राणनका हवाला विषय दिया भय
र उज्वल जो धन सौ
प। अन
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२४४]
श्री अमितगति श्रावकाचार
वितीर्य यो दानमसंयतात्मने, जनः फलं कांक्षति पुण्यलक्षणम् । वितीर्य वीजं ज्वलिते स पावके,
समीहते सस्यमपास्तदूषणम ॥५४॥ अर्थ-जो मनुष्य असंयत मनुष्यके अर्थ दान देकरि पुण्य है लक्षण जाका ऐसे फलकौं चाहै है सो जलती अग्नि विषं बीजकौं बोय करि दूषण रहित धान्तकौं वांछ है।
भावार्थ-विषय कषायनि सहित मदोन्मत्त मिथ्यादृष्टीनकों दान देकै पूण्य चाहै सो नाहीं होय है । बहुरि इहां असंयमीकौं दान निषेध्या सो दुःखित जीवनिकौं करुणा दान नाहीं निषेध्या है, ऐसा जानना ॥५४॥
विमुच्य यः पात्रमवद्यविच्छिदे, कुधीरपात्राय ददाति भोजनम् । स कर्षित क्षेत्रमपोह्य सुन्दरं,
फ्लाय बीजं क्षिपते बतोपले ॥५५॥ अर्थ-जो पुरुष पापके नाशके अर्थ पात्रकौं छोड़कै अपात्रकौं भोजन देय है तहां आचार्य कहैं हैं बड़े खेदकी बात है, जो सुन्दर जोते भये खेतकौं छोड़करि पत्थर विषं बीजकौं खेपे है ।।५५।।
यथा रजोधारिणि पुष्टिकारणं । विनश्यति क्षीरम लावुनि स्थितम्। प्ररूढमिथ्यात्वमलाय देहिने,
तथा प्रदत्तं द्रविणं विनश्यति ॥५६॥ अर्थ-जैसे पुष्टिकारी जो दूध सो धूरकी धारनेवाली जो तू बडी ताविर्षे धरया भया नाशकौं प्राप्त होय है तैसें फैल रह्या है मिथ्यात्वरूप मल जाकै ऐसे प्राणीकौं दिया भया द्रव्य है सो नाशकौं प्राप्त होय है।।
__ भावार्थ-जैसे धूल भरी कटुक लबडी विष भरया दुध नाशकौं प्राप्त होय अर कटुक परिणमैं तैसें मिथ्यादृष्टीकौं दिया धन नाशकौं प्राप्त होय है अर पापबन्ध करै है, ऐसा जानना ॥५६॥ ।
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दशम परच्छेद
[२४५
नो दातारं मन्मथानान्तचितः, संसारातेः पाति पापावलीढः । अभ्भोराशेर्दुस्तरा ल्लाहमय्या,
नावा लोहं तार्यमाणं न दृष्टम् ॥५७॥ प्रर्भ-कामकरि व्याप्त है चित्त जाका ऐसा पापरूप पुरुष सो दाताकौं संसारकी पीडातें न बचावै है, जाते दुस्तर समुद्रतें लोहमयी नावकरि लोह तिराया न देख्या है ॥५७॥
ग्रन्थारम्भकोधलोभादि पुष्टो, ग्रन्थारम्भकोधलोभादिपुष्टम् । जन्माराते रक्षितुं तुल्यदोषो,
नूनं शक्तो नो ग्रहस्थो गृहस्थम् ॥५॥ अर्थ--आचार्य तर्क करि कहैं हैं अहो ! जो परिग्रह आरम्भ क्रोध, लोभ इत्यादिकनि करि पुष्ट है, परिग्रहकरि गुरु है सो परिग्रह आरम्भ क्रोध लोभ आदि करि पुष्ट जो गृहस्थ ताहि संसार वैरीतें रक्षा करनेकौं समर्थ नाहीं, कैसा है सौ गुरु गृहस्थ समान है दोष जा विर्षे।
भावार्थ-परिग्रहादि दोषनि करि तैसा दाता तैसा ही पात्र सो दोष सहित पात्रका कैसैं भला करै ऐसी आचार्यनै तर्क करी है, ऐसा जानना ॥५॥
लोभमोहमदमत्सरहीनो, लोभमोहमदमत्सरगेहम् । पातिजन्मजलधेरपरागो,
रागवन्तमपहस्तितपापः ॥५६॥ अर्थ-दूर किया है पाप जानै ऐसा वीतराग लोभ मोह मद भावकरि रहित पात्र है सो लोभ मोह मद मत्सर भावनिका घर जो रागी पुरुष ताहि संसार-समुद्रतें रक्षा कर है ।
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२४६ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार -
भावार्थ रागी जीवनकौं तारनेकौं वीतराग ही समर्थ है अन्य नाहीं, ऐसा जानना ॥५६॥
सर्वदोषनिचिताय फलार्थी, यो ददाति धनमस्तविचारः । तद्दधाति स मलिम्लुचहस्ते,
कानने पुनरपि ग्रहणाय ॥६०॥ अर्थ-जो विचारहित पुरुष फलका अर्थी दोषनि करि व्याप्त पुरुषके अर्थ धनकौं देय है सो वन विर्षे चौंरनके हाथमैं फेर पाछा लेनेकै अर्थ धन सौंपै है ॥६०॥
दानं यतिभ्यो ददता विधानतो, मतिविधेया भवदूःखशांतये । दुरंतसंसारपयोधिपातिनी,
न भोगबुद्धिर्सनसाऽपि धीमता ॥६१॥ अर्थ--विधान सहित यतीनके अथि दान ताकरि संसार दुःखकी शांतिके अथि बुद्धि करनी योग्य है, अर दूर है अन्त जाका ऐसा जो संसार-समुद्र ताविर्षे पटकनेवाली जो भोगनिकी बुद्धि सो बुद्धिवानकरि मनकरि भी करनी योग्य नाहीं। ___, भावार्थ-दान देकरि परमार्थहीकी बुद्धि करनी, भोगनिकी अभिलाषा न करनी ॥६१॥
प्रदाय दानं वतिनां महात्मनां, यो याचते भोगमनर्थकारणम् । मनीषितानेकसुखप्रदं मणि,
प्रदाय गृह्णाति स दुर्जरं विषम् ॥६२॥ अर्थ-जो पुरुष महात्मा ब्रतीनकौं दान देकरि अनर्थका कारण जो भोग ताहि वांछ है सो वांछित अनेक सुखका देनेवाला जो रत्न ताहि देकरि दुर्जर विषकौं ग्रहण करै है ॥६२॥
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दशम परिच्छेद
पन्नागानामिव प्राणिवित्रासिना, मर्जने रक्षणे पोषणे सेवने । यातिघोराणि दुःखानि येषां जनः, संति भोगाः कथं ते मतः धीमताम् ॥६३॥
अर्थ - प्राणीनकों दुःख देनेवाले सर्पनके समान जो भोग तिनके उपजाने विषे रक्षणविष पोषणविष सेवनेविषै भयानक दुःखनिकौं जीव प्राप्त होय. है ते भोग बुद्धिवाननिके मनें भए कैसे होय ।
भावार्थ - भोगनिक बुद्धिमान सुखकारी कैसें माने, अपितु नाहीं मानं ॥ ६३ ॥
श्रीयमाणा श्रपि
वंचयंते,
निषेव्यमाणा ग्रपि मारयंते ।
[ २४७
ये पोष्यमाणा श्रपि पीडयंते,
-
ते संति भोगाः कथमर्थनीयाः ॥ ६४ ॥
·
पर्थ - जे भोग प्रीति करे भए भी ठिगे हैं अर सेये भये भी मारे है
अर पोषे भए भी पीडा उपजावै है ते भोग कैसे वांछने योग्य होय हैं, अपितु नाहीं होय हैं ॥ ६४॥
उत्पद्यमाना निलयं स्वकीयं, ये हव्यवाहा इव धार्यं माणाः । हृदयं ज्वलंत, स्टो याचनीयाः कथमद्रियार्थाः ॥ ६५ ॥
प्रप्लोषयंते
प्रनं- जैसें जाज्वल्यमान उपजी भई अग्नि हैं ते अपने स्थानको जलावें तैसें वे भोग इच्छा करि धरेभए मन विषे जलते संते हृदयकौं जलाव है ते इंद्रियनिके भोग कैसें बांधने योग्य होय ॥ ६५ ॥
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२४८]
श्री अमितगति श्रावकाचार -
दत्तप्रलापभ्रमशोकमूर्छाः, संतापयतः सकलं शरीरम ये दुनिवारां जनयंति तृष्णां,
ज्वरा इबैते न सुखाय. मंति ॥६६॥ अर्थ दिया है प्रलाप कहिए वृथा वकवाद अर भ्रमक हिये औरका और जानना अर शोक अर अचेतनपना जिननें, बहुरि समस्त शरीरकौं संताप उपजावते अर दुनिवार तृष्णाकौं उपजावै हैं ऐसे ज्वरनिके समान जे भौग ते सुखके अर्थ नाहीं हैं ॥६६॥ .
विश्राण्य दानं कुधियो यतिभ्यो,
ये प्रर्थयंते विषयोपभोगम् , ते लांगलैगः खलु कांचनीय,
विलिख्य किपाकवनं वपंति ॥६७॥ अर्थ-जे कुबुद्धि यतीनके अर्थ दान देकरि विषयभोगकौं चाहैं हैं ते पुरुष सुवर्णमयी हलनि करि पृथ्वीकौं जीत करि किपाकनिके वनकौं बोवें हैं।
भावार्थ-किंपाकका फल खानेमैं तौ प्रिय लागै है अर पाछै प्राण हरै है तैसै विषय भी भोगते त्तौ नीके लागें हैं अर परिपाकमैं महादःख देय हैं, तातें यह दृष्टांत दिया है ॥६७॥ ... र भिन्दन्ति सूत्राय मणि महर्घ,
काष्ठाय ते कल्पतरु लुनन्ति । । नावं च लोहाय विपाटयन्ते,
भोगाय दानं ननु ये "ददन्ते ॥६॥ पर्ण-आचार्य तर्क करै हैं जो जे पुरुष अर्थ दान देय है ते डोराके अर्थ महामोल रत्नकौं फोड़े है, अर काष्ठके अर्थ कल्पवृक्षकौं काट हैं अर लोहके अर्थ जहाजकौं ताड़ हैं ॥ ६८॥...
'परैरशक्य दर्भितेन्द्रियाश्चा, श्चरन्ति धर्म विषयाथिनो ये। पाषाणमाधाय . गले... महान्तं, . विशन्ति ते तीरमलभ्यपारम् ॥६६॥
....
.
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दशम परिच्छेद ।
अर्थ – दमे है इन्द्रिय रूप घोड़े जिनने ऐसे जे पुरुष औरनि करि अशक्य जो धर्म ताहि विषयार्थी भए सन्ते आचरें है ते बड़े बड़े पाषाणकों गले विषे धारकें नाहीं लेने योग्य है पार जाका ऐसा जो जल ता प्रति प्रवेश कर है ।। ६६ ॥
दिने दिने ये
परिचर्यमाणा, परिपीडयन्ते ।
विवर्द्धमानाः
ते कस्य रोगा इव सन्ति भोगा, विनिंदनीया
विदुषोऽर्थनीयाः ॥७०॥
[ २४६
अर्थ - जे भोग दिन दिनविषें परिचार किये भए बर्द्धमान भए सन्ते जैसें रोग पीड़ा उपजावै तैसें पीड़ा उपजावें हैं ते निंदने योग्य भाग कौन पंडित जनकौं वांछने योग्य होय है, अपितु नाहीं होय है ॥७०॥ प्रयच्छन्ति सौख्यं सुराधीश्वरेभ्यो,
न ये जातु भोगाः कथं ते परेभ्यः ।
निशुं मन्ति ये मत्तमत्र द्विपेन्द्र, न कंठीरवास्ते कुरंगं त्यजन्ति ॥ ७१ ॥
अर्थ - जे भोग सुरनिके नायक जो इन्द्र तिनके अर्थ ही कदाचित् सुख न देय हैं ते औरनके अर्थि सुख कैसें देय । इहां दृष्टांत कहै हैजे सिंह इहां लोकमैं मतवारे गजेन्द्रकौं मारें हैं ते हिरणकौं नाहीं छोड़े हैं ॥ ७१ ॥
याचनीयाविदुषेति दोषं,
भोगाः ।
न
विज्ञाय रोगा इव जातु प्राणहारित्वमवेक्षमाणो, जिजीविषुः खादति कालकूटम् ॥७२॥
किं
अर्थ- - या प्रकार दोषकौं जानिकें पंडितजन करि रोग समान जें भोग ते कदाचित् वांछने योग्य नाहीं । इहां दृष्टांत कहैं हैं - प्राणहारीपणेकौं देखता जीवनेका बांछक जो पुरुष है सो कहा कालकूटकौं खाय है, अपि तु नाहीं खाय है ||७२ ||
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२५० ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
भोगाः संपद्यमानाः सुरमनुजभावाश्चितितप्राप्त सौख्या याच्यंते लब्धुकामैः कथमपविपदं धर्मतो मुक्तिकांताम् । सस्यं स्वीकत्तकामाः क्षुदुरुतरतमस्कांडविच्छेददक्षं । स्वीकत्त" कि पलालं फलममलधियः कुर्वते कर्षणं हि ॥७३॥
अर्थ - धर्मतें मुक्ति स्त्रीकौं प्राप्त होनेकी है इच्छा जिनके ऐसे पुरुषनि करि वांछित प्राप्त किये हैं सुख जिनमें ऐसे प्राप्त भए जे देव मनुष्य जनित भोग ते विपदा रूप कोई प्रकार याचिए है अपितु नाहीं याचिए है; जातें धान्यकौं अंगीकार करनेके वांछक जे निर्मल बुद्धि पुरुष है ते कहां ख्यार फलकौं अंगीकार करनेकौं खेती करें हैं, अपितु नाहीं करें: हैं, कैसा है धान्य पीड़ा रूप जो बड़ा अन्धकारका समूह ताके छेदनें विषे प्रवीण है ।
भावार्थ - जैसें खेतीमैं मुख्य फल तो धान्य है अर पियार आदि स्वयमेव उपजै है तैसें धर्मका फल तौ मोक्ष है । इन्द्रादिक पद तौ विना चाहे शुभोपभोगतें स्वयमेव उपजै है, तातें इन्द्रादिक पदके योग्य धर्मका वांछना योग्य नाहीं ॥७३॥
त्यक्ता भोगाभिलाषं भवमरणजरारण्यनिम्मूं लनार्थं दत्ते दानं मुदायो नयविनयपरः संयतेभ्यो यतिभ्यः । भुक्ता भोगानरोगानमरवरवधूलोचनांभोजभानुनित्यां निर्वाणलक्ष्मोममितगतियतिप्रार्थनीयां स याति ॥ ७४ ॥
अर्थ - नीति अर विनयविषै तत्पर भया जो पुरुष जन्म जरा मरणरूप बनके नाशके अर्थ भोगनिकी वांछाक त्यागिकै हर्ष सहित संयमी मुनीश्वरनिके अर्थ दान देय है सो देवांगनाके नयनकमलकौं सूर्य समान देव होय रोग रहित भोगनिकौं भोगि मोक्ष लक्ष्मीकौं प्राप्त होय है, कैसी है मोक्ष लक्ष्मी अविनाशी है अर अप्रमाण है ज्ञान जिनका ऐसे यतीन करि वांछने योग्य है ॥७४॥
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एकादश परिच्छेद
दोहा ।
भोग चाह तजि साधुकौं, देत दान जो जीव. सुरसुख सब लहि अमितगति, होय मोक्षतिय पीव ॥
इत्युपासकाचारे दशमः परिच्छेदः
इस प्रकार अमितगति आचार्यविरचित श्रावकाचारविषै दशवां परिच्छेद पूर्ण भया ।
[२५१
एकादश परिच्छेदः ।
फलं नाभयदानस्य, वक्तु केनाऽपि पार्यते । trissarपं मुखे जिह्वा, व्याप्रियन्ते सहस्रशः ॥ १ ॥
अर्थ – अभयदानके फलकौं कहनेकौं कोऊ करि भी समर्थ हूजिए है, अपितु नाहीं हूजिए है; जिसके कहनेकौं कल्पकाल पर्यंत हजारौं जीभ मुखविषे व्यापार कीजिए है तौ भी अभयदान के फल कहनेकौं कोऊ करि भी समर्थ न हूजिए है ॥१॥
धर्मार्थकाममोक्षाणां जीवितं मूलमिष्यते ।
,
तद्रक्षता न किं दत्तं हरता तन्न कि हृतम् ॥२॥
अर्थ — धर्म अर्थ काम मोक्ष इन
-
च्यारों ही पुरुषार्थ निकामूल जीवना कहिए हैं तातें तिस जीवनेकौं रक्षा करता जो पुरुष ताकरि कहा नदिया अरता जीवनेकौं रक्षा हरता जो पुरुष ताकरि कहा न नाश किया,
सर्व ही नाश किया ॥२॥
गोवालब्राह्मणस्त्रीतः पुण्यभागी यदीष्यते ।
सर्वप्राणिगणत्रायी, नितरां न तदा कथम् ॥३॥
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२५२ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार |
अर्थ - जो गौ बालक ब्राह्मण स्त्री इनकी रक्षातें पुण्यवान जीव मानिए है तो समस्त प्राणीनिके समूहका रक्षा करनेवाला पुरुष है सो अधिक पुण्यवान कैसें नाहीं ॥३॥
त्रायमाणाः
कमेकदा जीवं प्रपूज्यत । न तदा सर्वदा सर्वं त्रायमाणः कथं बुधैः ॥४॥
अर्थ - जो एक काल एक जीवकौं रक्षा करता सन्ता पुरुष है सो " पूजिए है तौ सदा काल सर्व जीवक रक्षा करता सन्ता पुरुष है सो पंडित नि करि कैसें नाहीं पूजिए है, पूजिए ही है ॥४॥
चामीकरमयी मुर्वी ददानः पर्वतैः सह । एकजीवाभयं नूनं ददानस्य समः कुतः ॥५॥
अर्ण आचार्य तर्क करें हैं- पर्वतनि सहित सुवर्णमयी पृथ्वीकों देता पुरुष है सो एक जीवकी रक्षा करता जो पुरुष ताके समान कहां होय, अपितु नाहीं होय ||५||
गुणानां दुखा पानामचितानां महात्मभिः । दयालुर्जीयते स्थानं मणीनामिव सागरः ॥ ६ ॥
अर्थ – बड़े पुरुषनि करि पूजित ऐसे जे दुर्लभ गुण तिनका दयालु स्थानक होय है, जैसें रत्ननिका स्थान समुद्र होय है तैसें ॥ ६ ॥
संयमा नियमाः सर्वे दयालोः सन्ति देहिनः । जायमाना न दृश्यन्ते भूरुहा धरणीमृते ॥७॥
अर्थ- दयावान जीवकें संयम नियम सर्व होय है, जातें पृथ्वी बिना वृक्ष हैं ते उपजे न देखे ||७||
कारणं सर्ववैराणां प्राणिनां विनिपातनम् ।
तत्सदा त्यजतस्त्रेधा कुत्तो वैरं प्रवर्त्तते ॥ ८ ॥
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एकादश परिच्छेद
[२५३
अर्थ-प्राणीनिकौं घात है सो सर्व वैर भावनिका कारण है, ताते प्राणीके घातकौं मन वचन काय करि त्यागता जो पुरुष ताकै वैरभाव कहां प्रवत्त ॥८॥
मनोभूरिव कांतांग सुवर्णाद्रिरिव स्थिरः । शरस्वानिव गम्भीरो बिबस्वानिव भास्करः ॥६॥ प्रादेयः सुभगः सौम्यस्त्यागी भोगी यशोनिधिः । भवत्यभयनदानेन चिरजीवी निरामयः ॥१०॥
अर्थ-अभयदान करि कामदेव समान सुन्दर शरीर होय है, अर मेरुसमान स्थिर होय है, अर समुद्र समान गम्भीर होय है, अर सूर्यसमान प्रभावान होय है ।६॥ सबनिकै प्यारा होय है, सुन्दर होय है, सौम्य होय है, त्यागी होय है, भोगी होय है. यशनिका भंडार होय है, बहुत काल जीवें है, रोगरहित होय है, ये सर्व अभयदानके फल कहै ॥१०॥
तीर्थकृच्चक्रिदेवानां सम्पदो बुधवन्दिताः ।
__ क्षणेनाभयदानेन दीयन्ते दलितापदः ॥११॥ ___ अर्थ--अभयदान करि तीर्थंकर चक्रवर्ती देव इनिकौं सम्पदा क्षणमात्र करि दीजिए है, कैसी है सम्पदा पण्डितनि करि वंदित है, अर नाश करी है आपदा जिनमैं ऐसी हैं ।।११।।
तदस्ति न सुखं ल के न भूतं न भविष्यति । यन्न सम्पद्यते सद्यो जन्तोरभयानतः ॥१२॥
अर्थ-लोक विर्षे सो सुख वर्तमानमैं नाहीं है अर न भया अर न होयगा सो सुख जीवकौं शीघ्र अभयदानतं नाहीं प्राप्त होय है, सर्व ही सुख प्राप्त होय है ॥१२॥
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२५४ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
शरीरं धियते येन शममेव महाव्रतम् । कस्तस्याभयदानस्य फलं शक्नोति भाषितुम् ॥१३॥
अर्थ ---- जिस अभयदान करि जीवनिका शरीर पोषिए है, जैसें समभाव करि महाव्रत पोषिए तैसें सो, जिस अभयदानके फल कहनेकौं समर्थ हो है ॥ १३॥
ऐसें अभयदानका वर्णन किया ।
आगे आहार दानका वर्णन करें हैं:
प्रहारेण विना कायो न तिष्ठति कथंचन ।
भास्करेण विना कुच्च वासरो व्यवतिष्ठते ॥ १४ ॥
अर्थ- जैसे सूर्य विना दिन कहांते तिष्ठै, दिन न होय तैसें आहार विना शरीर कोई प्रकार न तिष्ठै है || १४ ||
शमस्तपो दया धर्मः संयमो नियमो दमः ।
सर्वे तेन वितीर्यते येनाऽहारो वितीर्यते ॥१५॥
अर्थ - जो पुरुष करि आहार दोजिए है ताकरि शमभाव तप धम संयम नियम इन्द्रियनिका दमन ये सर्व दीजिए है ॥ १५ ॥
चितितं पूजित भोज्यं क्षीयते तस्य नालये । आहारो भक्तितो येन दीयते व्रतवर्तिनाम् ॥१६॥
अर्थ - जो पुरुष करि भक्तितै व्रतीनकौं आहारदान दीजिए है ताके घर विषै वांछित अर प्रशंसा योग्य जो भोजन सो क्षीण नाहीं होय है ॥ १६ ॥
कल्याणानामशेषाणां भाजनं स प्रजायते । सािनामिवाभोधिर्येनाहारा वितीर्यते । १७ ।।
अर्थ जो पुरुष करिअ दान दीजिए है सो पुरुष जस जलनिका भाता समुद्र हो त समस्त कनिका नाजन होय
112!
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एकादश परिच्छेद
[ २५५
स्वयमेव श्रियोऽन्विष्य धन्यं दातारमन्धसः । पायांति तरसा श्रेष्ठाः सुभगं वनिता इव ॥१८॥
अर्थ-आहारदान देनेवाले पुरुषकौं बेगि करि लक्ष्मी है ते स्वयमेव श्रेष्ठ आय प्राप्त होय है । जैसें श्रेष्ठ स्त्री है ते सुन्दर पुरुषकौं आय प्राप्त होय तैसें ॥१८॥
सम्पदस्तीर्थकतणां चक्रिणामर्द्धचक्रिणाम् । भजन्त्यशनदं सर्वाः पयोधिमिवनिम्नगाः ॥१६॥
अर्थ-तीर्थंकरनिकी चक्रवर्तीनिकी अर्द्धचक्रवर्तीनिकी सर्व संपदा हैं ते आहार देनेवाले पुरुषकौं सेवे हैं जैसे नदी समुद्रकों सेवै तैसें ॥१६॥
प्रक्षीयन्ते न तस्यर्था, ददानस्यापि भूरिश । ददाना जनतानन्दं, चन्द्रस्येव मरीचयः ॥२०॥
अर्थ-जैसे लोचनकौं आनन्द दैती जे चन्द्रमाकी किरण ते क्षीण न होय हैं तंसें बहुत दान देनेकी भी सम्पदा क्षीण न होय है ॥२०॥
तत्फलं ददतः पृथ्वी, प्रासुकं यच्च भोजनम् । अनयोरन्तरं मन्ये, तृणाब्धिजलयोरिव ॥२१॥
अर्थ-पृथ्वीकौं देता जो पुरुष ताका जो फल है। बहुरि प्रासुक भोजनकौं देते पुरुष ताका जो फल है, इनि दोऊनिका अन्तर तृणकी अणीका जल अर समुद्रका जठ इनि दोऊनिका अन्तर है तंसें मायूँ हूँ।
भावार्थ -- पृथ्वी दानका नौ लोकम प्रयंपा मात्र फल : अर पाप बडा, अनज दानव। कोउ भयक सुख की पल : नात इनिया बारा
01..
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२५६]
श्री अमितगति श्राकवाचार
अन्नदानप्रसादेन यत्र यत्र प्रजायते । ततोज्इयते भोगै भास्वानिव रश्मिभिः ॥२२॥
अर्थ-जैसे सूर्य जहां जहां जाय तहां तहां किरणनिकरि न छोड़िए है तैसें अन्नदानके प्रसाद करि जहां जहां जीव जाय तहां भोगनि करि नाहीं छोडिए है ॥२२॥
ददानोऽशनमानं यत्फलं प्राप्नोति मानवः । दानात्सुवर्णकोटीनां न कदाचन तद्ध वम् ॥२३॥
अर्थ-भोजनमात्र देता जो पुरुष सो जिस फलकौं पावै है सो कोड . सुवर्णकौं देता जो पुरुष सो निश्चयतें कदाच न पावं है ॥२३॥
विना भोगोपभोगेभ्यश्चिरं जीवति मानवः । न विनाऽऽहारमात्रेण तुष्टिपुष्टि प्रदायिना ॥२४॥
अर्थ –भोग उपभोग विना तो मनुष्य बहुत काल जीव है । बहुरि संतोष अर पुष्टपनाकौं देनेवाला जो भोजन ताविना न जीवै है ॥२४॥
केवलज्ञानतो ज्ञानं निर्वाणसुखतः सुखम् ।
पाहारदानतो दानं नोत्तमं विद्यते परम् । २५॥
अर्थ- केवलज्ञानते और दूजा उत्तम ज्ञान नाहीं, अर मोक्ष सुखतें और दूजा सुख नाहीं, अर आहारतें और दूजा उत्तम दान नाहीं ॥२५॥
अंधसा क्रियते यावानुपकारः शरीरिणः ।। न तावान् रत्नकोटिभिः पुंजिताभिरपि स्फुटम् ॥२६॥
अर्थ - प्राणीका जितना उपकार भोज न करि करिये हैं तितना उपकार एकठे किये कोड्यां रत्नानि करि भी प्रगटपने नहीं करिये है ॥२६॥
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एकादश परिच्छेद
[ २५७
हीयंते निखिलाश्चेष्टा विना भोजनमात्रया। गुप्तयो व्यवतिष्ठते विना कुत्र तितिक्षया ॥२७॥
अर्थ- भोजनरूप मात्रा विना समस्त चेष्टा नाशकौं प्राप्त होय है । जैसैं क्षमा विना मन वचन कायकी गुप्ति हैं ते कहां तिष्ठे हैं, कहू' भी न तिष्ठे हैं ॥२७॥
सीर्यते तरसा गात्रं जन्तोर्वजितमंधसा । विना नीरं क्व सस्यस्य कोमलस्य व्यवस्थितिः ॥२८॥ अर्थ-प्राणीका शरीर है सो भोजन विना जलदी क्षीण होय हैं। जैसैं जल विना कोमल धान की स्थिरता कहां होय, अपितु कहूं भी न होय है, ऐसा जानना ॥२८॥
यथाऽऽहारः प्रियः पुंसां न तथा किंचनापरम् । :: विक्रीयन्ते प्रियाः पुत्रास्तदर्थं कथमन्यथा ॥२६॥
अर्थ-पुरुषनिकौं जैसा भोजन प्रिय है तैसा और किछु प्रिय नाहीं; - जो ऐसें न होय तौ प्यारे पुत्र तिस आहारके अथि कैसें बेचिये है, तातें आहार सर्वतें प्यारा है ॥२६॥
यत्किचित्सुन्दरं वस्तु दृश्यते भुवनत्रये । तदन्नदायिना क्षिप्रं लभ्यते लीलयाऽखिलम् ॥३०॥
अर्थ-जो किळू वस्तु तीन लोकविर्षे सुन्दर देखिये है सो सर्व : वस्तु अन्न दान करता जो पुरुष ता करि लोला मात्र करि शीघ्र पाइये है ॥३०॥
वहुनाऽत्र किमुक्त न .. विना सकलवेदिना। पलं नाऽऽहारदानस्य परः शक्नोति भाषितुम् ॥३१॥
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२५८]
श्री अमितगति श्रावकाचार -
अर्थ- इहां बहुत कहने करि कहा है, आहारदानका फल सर्वज्ञ बिना और दूजा कहनेकौं समर्थ नाहीं ॥३१।।
ऐसें आहारदानका फल वर्णन किया, आगें औषधिदानका वर्णन करें हैं
रक्ष्यते वतिनां येन शरीरं धर्मसाधनम् ।
पार्यते न फलं वक्तं तस्य भैषज्यदायिनः ॥३२॥
अर्थ-जिस औषधदान करनेवाले करि धर्मका साधन जो वतीनका शरीर ताकी रक्षा कीजिये है तिस औषधदानीके फल कहनेकौं समर्थ न हूजिये है ॥३२॥
येनौषधप्रदस्येह वचनैः कथ्यते फलम् ।
चुलुकैर्मीयते तेन पयो नूनं पयोनिधेः ॥३३॥ प्रर्थ-आचार्य क्हैं हैं मैं ऐसा मानू हूँ कि जिस करि इस लोकमैं औषध देनेवालेका फल वचन करि कहिये है, ताकरि समुद्रका जल चलूनि करि मापिये है ॥३३॥
वातपित्तकपोत्थानै रोगैरेष न पीड्यते । दावैरिव जलस्थायी भेषजं येन दीयते ॥३४॥
अर्थ-जा पुरुष करि औषध दीजिए है सो पुरुष जैसें दावानल करि जल विर्षे तिष्ठ्या पुरुष न पीड़िए तैसें वात पित्त कफ करि उठे रोगनि करि न पीड़िए है ॥३४॥
रोगनिपीडितो योगी न शक्तो व्रतरक्षरणे। नास्वस्थैः शक्यते कत्त, स्वस्थकर्म कदाचन ॥३५॥
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एकादश परिच्छेद
न होय है ।
अर्थ - रोगनि करि पीडित जो साधु सो व्रतनिकी रक्षा विषं समर्थ . वहुरि आकुलता सहित जीवनि करि निराकुल कार्य कदाच करनेकौं समर्थ न हूजिये है ||३५||
न जायते सरोगत्वं जन्तोरौषधदायिनः ।
पावकं सेवमानस्य तुषारं हि पलायते ॥ ३६॥
अर्थ - औषध देनेवाले पुरुषकै सरोगपना न होय है, जातें अग्निक पुरुषका शीत दूर भागे है ||३६||
सेवते
श्राजन्म जायते यस्य न व्याधिस्तनुतापकः ।
किं सुखं कथ्यते तस्य सिद्धस्येव महात्मनः ॥ ३७॥
[ २५६
अर्थ-जाकै जन्मतें लगाय शरीरकौं ताप उपजावनेवाला रोग न होय है तिस सिद्ध समान महात्माका सुख कहां कहिए । इहां सिद्ध समान का सो जैसें सिद्धनिकौं रोग नाहीं तैसें याकै भी रोग नाहीं, ऐसी समानता देखि उपमा दीनी है, सर्व प्रकार सिद्ध न जान लेना ॥३७॥
निधानमेष कांतीनां कीर्तिनां कुलमन्दिरम् । लावण्यानां नदीनाथो भेषज्यं येन दीयते ॥ ३८ ॥
अर्थ - जा पुरुष करि औषध दीजिए है सो यहु पुरुष कांति कहिये दीप्तिनिकां तौ भण्डार होय है, अर कीर्तिनिका कुलमन्दिर होय है जामैं यश कीर्ति सदा वसै है, बहुरि सुन्दरतानिका समुद्र होय है जानना ||३८||
ध्वांतं दिवाकरस्येव शोतं चित्ररुचेरिव ।
भैषज्यदायिनो देहाद्रोगित्वं प्रपनायते ॥ ३६ ॥
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२६० ]
श्री अमितगति श्रावकाचार .
अर्थ-जैसे सूर्यके शरीरनै अन्धकार दूरि भागै है अर अग्निके शरीरतें शीत दूरि भाग है तैसें औषध देनेवाले पुरुषके देहतें रोगीपना दूरि भागे है ।।३६॥
प्रारोग्यं क्रियते येन योगिनां योगमुक्तये ।
तदीयस्य न धर्मस्य समर्थः कोऽपि वर्णने ।४०॥
अर्थ-जाकरि योगीश्वरके मन वचन कायकी मुक्तिके अथि रोगरहितपना कीजिए है ताके धर्मके वर्णन विर्षे कोई भी समर्थ नाहीं । ४१॥
चारित्रं दर्शनं ज्ञानं स्वाध्यायो विनयो नयः । सर्वेऽपि विहितास्त न दत्तं येनौषधं सताम् ॥४१॥
अर्थ-जानें साधूनिकों औषधदान दिया ताने चारित्र दर्शनज्ञान विनय नीति ये सर्व ही किये।
भावार्थ-औषधत शरीर निरोग होय तब सर्व धर्मका साधन वनै है. ऐसा जानना ॥४१॥ __ऐसें औषधदानका वर्णन किया; आगें शास्त्रदानकौं कहैं हैं
संसृतिश्छिद्यत येन निर्वृतिर्थेन दीयते । मोहो विघूयते येन विवेको येन जन्यते ॥४२॥ कषायोर्मद्यत येन मानसं येन शम्यते । अकृत्यं त्याज्यते येन कृत्ये येन प्रवर्त्यते ॥४३॥ तत्वां प्रकाश्यते येन येनातत्वं निषिध्यत । संयमः क्रियते येन सम्यक्तं येन पोष्यते ॥४४॥ देहिभ्यो दीयत ये न तच्छास्त्रं सिद्धि लब्धये । कस्तन सदृशो धन्वो विद्यते भुवनत्रये ॥४५॥
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एकादश परिच्छेद
[२६१
अर्थ-जाकरि संसार छेदिए है, अर जाकरि मोक्ष दीजिए है, अर जाकरि मोह छड़ाइए है, अर जाकरि विवेक उपजायिए है ॥४२॥ अर जाकरि क्रोधादिक कषाय नाश कीजिए है, अर जाकरि मन शान्त कीजिए है, अर जाकरि अकार्य छुड़ाइए है, अर जाकरि कृत्यमें प्रवर्ताइए है ॥४३॥ अर जाकरि पदार्थनिका सांचा स्वरूप निषेधिये है, अर जाकरि पदार्थनिका अन्यथा स्वरूप निषेधिये है, अर जाकरि संयमभाव करिए है, अर जाकरि सम्यक्त पोषिए है ॥४४॥ ऐसा जो शास्त्र प्राणनिकौं जाकरि मुक्तिके अथि दीजिए है तासमान तीनलोक विष धन्य पुरुष कौन है, अपितु कोई नाहीं ॥४५॥
मुक्तिः प्रदीयते येन शास्त्रदानेन पावनी । लक्ष्मी सांसारिकी तस्य प्रददानस्य कः श्रमः ॥४६॥
अर्थ-जिस शास्त्रदान करि पवित्र मुक्ति दीजिए हे ताके संसारकी लक्ष्मी देतेके कहा श्रम है।
भावार्थ-जाकरि मुक्ति पाइए ताकरि इन्द्रादिक पद दुर्लभ नाहीं ॥४६॥
लभ्यते केवलज्ञानं यतो विश्वावभासकम् ।
अपरज्ञानलाभेषु कीशी तस्य वर्णना ॥४७॥ अर्थ-जा शास्त्रज्ञानते विश्वका प्रकाशक केवलज्ञान पाइए है तो और मतिज्ञान आदिके पावने विर्षे ताकी कथनी कैसी, और ज्ञान पावना तौ सहज ही है ॥४७॥
मामरश्रियं भुक्त्वा भुवनोत्तमपूजिताम् । ज्ञानदानप्रसादेन जीवो गच्छति निर्वृतिम् ॥४॥
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२६२ ]
अमितगति श्रावकाचार
अर्थ- ज्ञानदानके प्रसाद करि जीव है सो लोक विष उत्तम अर पूजित ऐसी मनुष्यनिकी अर देवनिकी लक्ष्मीको भोगकै मुक्तिकौं प्राप्त होय है ॥ ४८ ॥
चतुरंगं फलं येन दीयते शास्त्रदायिना | चतुरंगं फलं तेन लभ्यते न कथं स्वयम् ॥४६॥
अर्थ - जिस शास्त्र के देनेवाले पुरुष करि चतुरंग कहिए धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ये च्यार पुरुषार्थरूप फल दीजिए है ताकरि धर्म, अर्थ, काम मोक्ष रूप फल स्वयमेव कैंसें न पाइए है ॥ ४६ ॥
शास्त्रदायी सतां पूज्यः सेवनीयो मनीषिणाम् । वादी वाग्मी कविर्मान्यः ख्यातशिक्षः प्रजायते ॥५०॥
श्रर्थं— शास्त्रकौं देनेवाला पुरुष संततिके पूजनीक होय है अर safe सेवन होय है, अर वादीनिकों जीतनेवाले हैं वचन जाके ऐसा वादी होय है, वहुरि वाग्मी कहिए सभाकौं रंजायमान करनेवाला वक्ता होय है, अर कवि कहिये नवीनग्रन्थ रचनावाला होय है, अर माननेयोग्य होय है, अर विख्यात है शिक्षा जाकी ऐसा होय है ॥ ५० ॥
ऐसे शास्त्रदानका वर्णन किया। आगे वसतिका दानकौं क है हैंविचित्ररत्ननिर्माणः प्रोत हो बहुभूमिकः । लभ्यते वासदानेन वासश्चन्द्रकरोज्ज्वलः ॥ ५१ ॥
अर्थ - वसतिका दान करि चन्द्रमाकी किरण समान उज्ज्वल विचित्ररत्न करि रच्या महाऊँचा बहुत खणनिका महल पाइये है ।
आगे वस्त्रदानकौं कहें हैं:
कोमलानि महार्घ्याणि विशालानि धनानि च ।
वासोदानेन वासांसि सम्पद्यन्ते सहस्रशः ॥ ५२ ॥
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एकादश परिच्छेद
[ २६३
अर्थ – वस्त्रदानकरि कोमल अर महामोल अर सघन ऐसे हजारों वस्त्र पाइए है ।
भावार्थ - आर्जिका श्रावक, श्राविका इत्यादिकनिकौं वस्त्रदान करें ताका फल इहां कहा है ॥५२ ||
ददति जनतानन्दं चन्द्रकांतिरिवामला ।
जायते पानदानेन वाणी तापपनोदिनी ॥ ५३ ॥
अर्थ - पान कहिये पीवने योग्य वस्तु ताके दान करि चन्द्रकांति मणि समान निर्मल लोकनिक आनन्द देनेवाली तापकी नाश करनेवाली ऐसी वाणी होय है ॥ ५३॥
ददानः प्रासुकं द्रव्यं रत्नत्रितयव हकम् । कांक्षितं सकलं द्रव्यं लभते परदुर्लभम् ॥५४॥ अर्थ – रत्नत्रयका बढ़ावनेवाला ऐसा जो प्रायुक्त द्रव्य है ताहि देता
पुरुष औरनिकौं दुर्लभ ऐसा बांछित सकल पदार्थ पावै है || ५४ ॥ विश्राणयति यो दानं सेवमानस्तपस्विनः । सेव्यते भुवनाधीशः स सदा सुखकांक्षिभिः ॥ ५५ ॥ अर्थ - जो पुरुष तपस्वनिकों सेवता संता दान देय हैं सो पुरुष सुखके वांछक जे इन्द्रादिक तिनकरि सदा सेइए है ॥ ५५ ॥
यः प्रशंसापरी नत्वा दानं यच्छति योगिनाम् । प्रशस्य स सदा सद्भिर्जिनेन्द्र इव नम्यते ॥ ५६ ॥
अर्थ - जो पुरुष मुनीनकौं प्रशंसा मैं तत्पर भया दान देय है सो पुरुष सदा प्रशंसा योग्य होय है, अर सत्पुरुष जैसें तीर्थंकर देवकों नमैं तैसें ताहि मैं हैं ॥५६॥
दत्त शुभ षयित्वा यो दानं संयमशालिनाम् । शुभ ष्यते बुधैरेष भक्त्या गुरुशिवानिशम् ॥५७॥
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. २६४ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ -- जो शुश्रुषा करिकें संगमी मुनीनकौं दान देय है सो यहु पंडितनि करि निरन्तर जैसें गुरुनिकी शुश्रूषा कीजिए तैसें ताकी शुश्रूषा कीजिए है ॥५७॥
प्राहत्य दीयते दानं साधुभ्यो येन सर्वदा । आदरेणैष लोकेन निधानमिव गृह्यते । ५८ ॥
अर्थ- जो पुरुष करि आदर सहित साधुनके अर्थ सदा दान ये है सो यहु पुरुष लोककरि निधानकी ज्यौं आदर सहित ग्रहण कीजिए है ॥ ५८ ॥
पूजापरायणः स्तुत्त्वा यो यच्छति महात्मनाम् । त्रिदशैस्तीर्थकारीव स्तावं स्नावं स पूज्यते ॥५६॥
अर्थ - जो पुरुष पूजाविषै तत्पर स्तुति करिकैं साधु पुरुषनिकौं दान देय है सो पुरुष देवनि करि जैसें तीर्थंकर देवकौं पूजिए तैसें स्तुति करि करिकै पूजिए है ||५||
यद्यद्दानं सतामिष्टं तपः संयमपोषकम् । तत्तद्वितरता भक्त्या प्राप्यते फलमीक्षितम् ॥ ६०॥
अर्थ - जो जो दान तप संयमका पुष्ट करनेवाला सत्पुरुषनिनें मान्या है सो सो दान भक्ति सहित देता जो पुरुष ताकरि वांछित फल पाइए है ॥ ६० ॥
दानानीमानि यच्छन्ति स्तोकान्यपि महाफलम् । बीजानीव बटादीनां निहितानि विधानतः ॥ ६१ ॥
अर्थ - पूर्वं कहे ते दान विधान सहित थोड़े भो महाफलकौं दे हैं, जैसे बड़ आदि वृक्षनिके बीज हैं ते विधानते बोए भए वड़े फलकौं देय हैं ॥ ६१ ॥
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एकादश परिच्छेद
[२६५
पात्रेभ्यो यः प्रकृष्टेभ्यो मिथ्याष्टिः प्रयच्छति । स याति भोगभूमीषु प्रकृष्टासु महोदयः ॥६२॥
अर्थ-जो मिथ्यादृष्टि: उत्कृष्ट पात्रनिके अर्थ दान देय है सो महान् है उदय जाका ऐसा उत्कृष्ट भोगभूमिकौं जाय है ॥६२॥
क्रोशत्रय वपुस्तत्र त्रिपल्योपमजीवितः । चिताकल्पितसान्निध्यं स भोगसुखमश्नुते ।।६३।।
अर्थ--तहां उत्कृष्ट भोगभूमिविर्षे तीन कोशको शरीर अर तीन पल्यकी आयु जाकी सो चिंताकरि कल्प्या ही निकट प्राप्त भया ऐसा भोगनिका सुख भोगै है ॥६३॥
सदा मननुकूलाभिः सेव्यमाना दिवाऽनिशम् । नारीभिर्न गतं कालं जानते भोगभूभुव : ॥६४॥
अर्थ- मनके अनुकूल जे स्त्री तिनकरि सदा सेये भये ते भोगभूमिया गये कालकौं न जाने हैं॥६४॥
मध्यमानां स पात्राणां दानतो याति मध्यमाम । कारणस्यानुरूपं हि कार्यं जगति जायते ॥६५॥
अर्थ- सो दाता मध्यम पात्रनिके दानतें मध्यम भोगभूमिकौं प्राप्त होय है, जातें लोकविर्षे जैसा कारण होय तैसा ही कार्य निपजै है ॥६५॥
द्विकोशोच्छ्यदेहोऽसौ द्विपल्यायुनिरामयः । स तत्रास्ते महावासः कांताक्षांभोजषट्पदः ॥६६॥ .
अर्थ-सो यहु मध्यम भोगभूमिया दोय कोश ऊँचा है दह जाका, अर दोय पल्य आयु, रोगरहित, बड़ा है आवास कहिये स्थान जाका, अर स्त्रीके नेत्रकमलनिकौं भ्रमर समान सो तहां तिष्ठ है ॥६६॥
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२६६ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
जघन्येभ्यः स पात्रेऽभ्यो जघन्यां याति दानतः । भूमि मेकपल्यो मस्थितिः ॥६७॥
एककोशोच्छ्रयं
अर्थ - बहुरि सो दाता जघन्य पात्रनके अर्थ दिया जो दान तातें जघन्य भोगभूमिकौं प्राप्त होय है, एक कोश ऊँचा अर एक पल्की है स्थिति जाकी ।।६७ ||
वरदामलकविभीतकमात्रं त्रिद्वयेकवासरैः क्रमतः । श्राहारं कल्याणं दिव्यरसं भुंजते धन्याः ॥ ६८ ॥
अर्थ - ते पुण्यवान भोगभूमिया बेर आमला बहेडा इन प्रमाण क्रमतैं कल्याणरूप दिव्य है स्वाद जाका ऐसा आहारकौं तीन दोय एक दिन करिखाय है ।
भावार्थ - उत्तम भोगभूमिया तीन दिन मैं वेर प्रमाण आहार करे हैं, मध्यम भोगभूमिया दोय दिनमैं आंबले प्रमाण आहार करै हैं, धन्य भोगभूमिया एक दिन मैं बहेडे प्रमाण आहार करै हैं ऐसा
जानना ॥ ६८ ॥
विश्राणयन् यतीनामुत्तममध्यमजघन्यपरिणामः । दानं यच्छति भूमीरुत्तममध्यमजघन्या वा ॥ ६६ ॥
अर्थ - पहले तो तीन प्रकार पात्रनके अर्थ दानतें तीन प्रकार ही भोगभूमि मिले है ऐसा कह्या; अब कहै है कि दूजा प्रकार यह भी है कि यतीनकौं उत्तम मध्यम जघन्य परिणामनि करि दान देता जो सो पुरुष उत्तम मध्यम जघन्य भोगभूमिकौं पावै है ||६६ ॥
सर्वे
परित्यक्ताः सर्वे क्लेश विवर्जिताः ।
सर्वे यौवनसंपन्नाः सर्वे संति प्रियंवदा ॥७०॥
अर्थ – ते सर्व भोगभूमिया आजीविकाके द्वंद्व करि रहित हैं अर सर्व ही क्लेशवर्जित हैं अर सर्व ही यौवन सहित है, अर सर्व ही प्रिय वचन बोलनेवाले हैं ॥७०॥
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एकादश परिच्छेद
[२६७
मददैन्यश्रमायासक्रोधलोभमदक्लमाः । मुक्तानामिव नो तेषां नाप्यन्यत्र गमागमः ॥७१॥
अर्थ-मद दीनता श्रम प्रयास क्रोध लोभ मद क्लेश ये सर्व मुक्त आत्मानकी ज्यौं तिनके नाहीं अर और जायगा तिनका गमनागमन नाहीं । इहां मुक्त आत्माका दृष्टांत दिया सो प्रगटपनें मदादिकके कार्य भोगभूमिमैं नाहीं तातै उपचारतें कह्या है, सर्वथा वीतराग मुक्त आत्माकी ज्यौं न जान लेना ॥७१॥
अयमेव विशेषोऽस्ति देवेभ्यो भोगभोगिनाम् । यत्त यांति मृता नाकं देवास्तिर्यङनरत्वयोः ॥७२॥
अर्थ-देवनितें भोगभूमियानका यही भेद है जातें भोगभूमिया मरे भये स्वर्गकौं प्राप्त होय हैं अर देव हैं ते तिर्यंच मनुष्य गतिकौं प्राप्त होय है ॥७२॥
यतो मन्दकषायास्ते ततो यांति त्रिविष्टपम् । उक्त तीवकषायत्वं दुर्गतेः कारणं परम् ॥७२॥
अर्थ-जाकारणते ते मन्द कषाय हैं ता कारणते ते स्वर्गकौं प्राप्त होय हैं। तोत्र कषायपना है सो केवल दुर्गतिका कारण कह्या है ॥७३॥
दीयन्ते चितिता भोगा येषां कल्पमही हैः । दशांगः कः सुखं तेषां शक्तो वर्णयितुं गिरा ॥७४।।
अर्थ-जिन भोगभूमियानकौं दशभेदरूप कल्पवृक्षनि करि वांछित भोग दीजिए है तिन भोगभूमियानके सुखकौं वाणी करि वर्णन करनेकौं कौन समर्थ है ॥७४॥
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२६८]
श्री अमितगति श्रावकाचार
श्री अनि
न वियोगः प्रियः सार्द्धन संयोगोऽप्रियैः सह। न व्रतं न तपस्तेषां न वैरं न पराभवः ॥७॥
अर्थ-तिन भोगभूमियानके इष्टपदार्थ न करि साथ वियोग नाहीं, अर अनिष्ट वस्तुनि सहित संयोगता नाहीं, अर तिनके व्रत नाहीं तप नाहीं वैर नाहीं अनादर नाहीं ॥७५।।
यतः स्वस्वामिसम्बन्धस्तेषां नास्ति कदाचन । परछन्दानुवत्तित्वं ततस्तेषां कुतस्तनम् ॥७६॥
अर्थ-जाते तिन भोगभूमियानके स्वस्वामि कहिये सेवक ईश्वरपनेंका सम्बन्ध कदाचित् नाहीं तातै पराधीन प्रवर्तना तिनकै काहेका होय ॥७६॥
नाऽपूर्णे समये सर्वे ते म्रियन्ते कदाचन । रचयन्ति न पैशून्य सुखसागरमध्यगाः ॥७७॥
अर्थ--ते सर्व भोगभूमिया आयुके अपूर्ण काल विष कदाच न मर है, अर सुखसमुद्रके मध्य प्राप्त भये ते ईर्षा भावकौं नाहीं करें हैं ॥७७॥
प्रायासेन विना भोगी नीरोगीभूतविग्रहः । क्षुतेन पुरुषस्तत्र म्रियते जूभयांगना ॥७॥
अर्थ-खेद विना भोगनि करि सहित अर रोगरहित है शरीर जाका ऐसा भोगभूमिका पुरुष तौ छींक करि मरे है अर जंभाई करि स्त्री मर है ॥७॥ . ते जायन्ते कलालापा मकरध्वजसंनिभाः। सर्वे भोगक्षमाः रम्याविनानां सप्त सप्तकैः ॥७॥
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दशम परिच्छेद
अर्थ - ते सर्व भोगभूमिया दिननके सात सतक कहिये गुणचास दिनन करि उपजै हैं, कैसे हैं ते भोगभूमिया, सुन्दर है शब्द जिनका अर कामदेव समान हैं रूप जिनका अर भोगनिविष सामर्थ्य सहित रमणीक ऐसे हैं ॥७६॥
कोमलालापया कान्तः कान्तयाssर्यो निगद्यते । कांसेनाssर्या पुनः कांता चित्रचा दुविधायिना ॥ ८०॥
[ २६६
अर्थ — कोमल है शब्द जाका ऐसी स्त्री करि आर्य जो भोगभूमिया अपना पति सो कहिए है ।
भावार्थ - स्त्री कोमलवचन सहित पतिसौं बोलै है । अर नाना प्रकार खुशामद करनेवाला जो पति ता करि भोगभूमियाकी स्त्री सो कहिए है, पति शुश्रू षाके वचन सहित स्त्रीसौं बोलै है ||८०||
श्रादेयाः सुभगा : सौम्याः सुन्दरांगा वशंवदाः । रमन्ते सह रामाभिः स्वसमाभिभियो मुदा ॥८१॥
अर्थ – आदर करने योग्य अर सुन्दर अर सौम्य अर सुन्दर हैं अङ्ग जिनके अर भले वचन बोलनेवाले ऐसे ते भोगभूमिया अपने समान जे स्त्री तिनकरि सहित परस्पर हर्ष करि रमैं हैं ॥ ८१ ॥
युग्ममुत्पद्यते सार्द्ध युग्मं यत्र विपद्यते । शोकाक्रन्दादयो दोषास्तत्र संति कुतस्तनाः ॥८२॥
अर्थ --- जहां स्त्री-पुरुषका युगल साथ उपजै है अर साथ ही युगल मरे है तातें शोक अर रोवना इत्यादि दोष है ते कहांतें होय, नाहीं होय हैं ॥ ८२ ॥
करिकेसरिणौ यत्र तिष्ठन्तौ बांधवामिव ।
एकत्र सर्वदा प्रीत्या सख्यं तत्र किमुच्यते ॥ ८३ ॥
अर्थ - हाथी अर सिंह जहां बांधवनिकी ज्यौं एक जायगी सदा
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श्री अमितगति श्रावकाचार
प्रीति सहित तिष्ठे हैं तहां वैरभाव कैसे कहिए, अपितु नाहीं कहिए ऐसा
जानना ॥ ८३ ॥
२७० ]
कुपात्रदानतो याति कुत्सितां भोगमेदिनीम् । उप्ते कः कुत्सिते क्षेत्रे सुक्षेत्रफलमश्नुते ॥८४॥
अर्थ - कुपात्रके दानतै जीव कुभोगभूमिकौं प्राप्त होय है, इहां दृष्टांत हैं हैं - खोटा क्षेत्रविषं बीज बोये संते सुक्षेत्रके फलकौं कौन प्राप्त होय है, अपितु कोई न होय है ॥ ८४॥
तरद्वीपजाः संति ये नरा म्लेच्छखंडजाः । कुपात्रदानतः सर्वे ते भवंति यथायथम् ॥ ८५ ॥
अर्थ-जे अन्तरद्वीप कहिए लवणसमुद्रविषै वा कालोद समुद्रविषै छयानवें कुभोगभूमिके टापू परे हैं तिनविषै उपजे मनुष्य हैं अर म्लेच्छ खण्डविषै उपजे मनुष्य हैं ते सर्व कुपात्रदानतें यथायोग्य होय हैं ॥ ८५ ॥
वर्य मध्यजघन्यासु तिर्यंच: संति भूमिषु । कुपात्रदानवृक्षोत्थं भजते तेऽखिलाः फलम् ॥ ८६ ॥
अर्थ – उत्तम मध्यम जघन्य भोगभूमिन विषे जे तिर्यंच हैं ते सर्व
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कुपात्र दानरूप वृक्षतें उपज्या जो फल ताहि खाय हैं ॥ ८६ ॥
दासीदास द्विपम्लेच्छसारमेयादयोऽत्र ये ।
कुपात्रदानतो भोगस्तेषां भोगवतां स्फुटम् ॥८७॥
अर्थ - इहां आर्यखण्डमैं जे दासीदास हाथी म्लेच्छ कुत्ता इत्यादि भगवंत जीव हैं तिनकौं जो भोगे है सो प्रगटपने कुपात्र दानतें है, ऐसा जानना ॥८७॥
दृश्यं ते नीचजातीनां ये भोगा भोगिनामिह ।
सर्वे कुपात्रदानेन ते दीयं ते महोदयाः ॥८८॥
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दशम परिच्छेद
[ २७१
अर्थ -- इहां आर्यखण्डविषें नीच जातिके भोगी जीवनिकेजे भोग महा उदयरूप देखिए है ते सर्व कुपात्रदानकरि दीजिए हैं ॥ ८८ ॥ अपात्राय धनं दत्तं व्यर्थं संपद्यतेऽखिलम् । ज्वलिते पावके क्षिप्तं बीजं कुत्रांकुरीयति ॥ ८६ ॥
अर्थ - अपात्र अर्थि दिया जो धन है सो वृथा होय है । इहां दृष्टांत कहैं हैं-जलती अग्निमैं क्षेप्या बीज है सो कहां अंकुर सहित होय है, अपितु नाहीं होय है ॥ ८६ ॥
पात्रदानतः किंचिन्न प लं पापतः परम् ।
लभ्यते हि फलं खेदो वालुकापं जपीडने ॥६०॥
अर्थ - अपात्र दानवें फल पापतें दूसरा किछू नाहीं होय है । जातें वालू रेतके समूहके पेलने मैं केवल खेद ही होय, सो ही फल है ॥६०॥
विश्राणितमपात्राय विधरोऽनर्थमूजितम् ।
अपथ्यं भोजनं दत्ते व्याधिं किं न दुरुत्तरम् ॥ ६१ ॥
अर्थ-- अपात्रके अर्थि दिया दान है सो बड़े अनर्थकौं कर है जैसें अपथ्य भोजन है सो दूर है उतरन जाका ऐसे रोगकौं कहा न देय है, देय ही है ॥ ६१ ॥
संस्कृत्य सुन्दरं भोज्यं येनापात्राय दीयते ।
उत्पाद्य प्रबलं धान्यं दह्यते तेन दुधिया । ६२॥
अर्थ- सुन्दर भोजन बनायक जिस पुरुष करि अपात्र के अर्थ दीजिए
है ता दुर्बुद्धी करि पुष्टिकारी धान्य उपजायकें जलाइये है ॥६२॥
शीघ्र पात्रेण संसारादेकेनापि गरीयसा । तायंते बहवो लोकाः पोतेनेव पयोनिधेः ॥९३॥
अर्थ - जैसे जहाजकरि समुद्रतें तारिये तैसें एक ही गरिष्ठ पात्र करि घने लोक संसारतें तारिये हैं ||३|| .
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२७२ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
जगदुत्पाद्यते सर्वमेकेनापि विवस्वताः । नक्षत्रनिवहः सरुर्वेदितैरपि नो पुनः ॥४॥
अर्थ-एक सूर्य करि ही समस्त जगत् प्रकाशरूप कीजिए है । बहुरि उदय भये भी सर्व नक्षत्रनिके समूह तिनकरि प्रकाशित न कीजिए है ॥१४॥
एकेनापि सुपात्रेण तीयते भवनीरधेः । सहस्त्रेरप्यपात्राणां पुजितैर्न पुनर्जनः ॥६५॥
अर्थ-उपरि दृष्टांत कह्या था ताका दृष्टांत कहिए है :-तैसे एक भी सुपात्र करि जीव संसार-समुद्रतै तारिये है, बहुरि एकटठे किये अपात्रनिके सहस्त्रनि करि भी संसार-समुद्रतें न तारिये है, ऐसा जानना ॥६५॥
अपात्रदानदोषेभ्यो विभ्यता पुण्यशालिना। विबुद्धय यत्नतः पात्रं देयं दानं विधानतः ॥६६॥
अर्थ-अपात्रके दोषते डरता पुण्यवान जो पुरुष ताकरि यत्नतें पात्रकौं जानिक विधानतें दान देना योग्य है ॥६६॥
अपात्राय धनं दत्ते यो हित्वा पात्रमुत्तमम् । साधु विहाय चौराय तदर्पयति सः स्फुटम् ॥६७ । अर्थ-जो पुरुप उत्तम पात्रकौं छोडिकै अपात्रके अथि धन देय है सो प्रगट साधुकौं छोडिकै चौरके अथि ता धनकौं देय है, ऐसा जानना ॥१७॥
अपात्रमिव य: पात्रं विवृद्धिरव गोकते । चितामणिमसौं मन्ये मन्यते लोष्ठसन्निभम् ॥८॥
अर्थ जो निर्बुद्धि पात्रकौं अपालकी ज्यों अवत्रोक है सो यहु चिंतामणी रत्नकौं लोह समान मात्रै है, ऐसा मैं मानू हूं ॥६॥
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एकादश परिच्छेद
[२७३
त्यक्ता शर्मप्रदं पात्रममात्रं स्वीकरोति यः । स कालकूटमादत्त मुक्ता पीयूषमस्तधीः ॥६६
अर्थ-सुखदायक पात्रकौं छोडिक जो अपात्रकौं अंगीकार कर है सो निर्बुद्धि अमृतकौं छोडिक कालकूट विषकौं ग्रहण करै है ॥६६॥
पात्रापात्रविभागेन मिथ्यादृष्टेरिदं फलम् । उदितं दानजं प्राज्यं सम्यग्दष्टेर्वदाम्यतः ॥१०॥
अर्थ-यह दानतें उपज्या फल पात्र अपात्रके भेदकरि मिथ्यादृष्टीकौं कह्या बहुरि इस पीछे सम्यग्दृष्टीके दानतें उपज्या जो महाफल ताहि कहूं हूँ ॥१०॥
दानं त्रिविधदात्राय सम्यग्दृष्टिर्यथागमम् । ददानो लभते याच्या कल्याणानां परम्पराम् ॥१०१२॥
अर्थ-सम्यग्दृष्टी जीव है सो तीन प्रकार पात्रनिके अथि शास्त्रोक्त दान देता सन्ता मांगनेयोग्य कल्याणनिकी परम्पराकौं पावै है ॥१०१॥
पात्राय विधिना दत्त्वा दानं मृत्त्वा समाधिना । अच्युतांतेषु कल्पेषु जायन्त शुद्धदृष्टयः ॥१०२॥
अर्थ-पात्रके अथि दान देकरि समाधि सहित मरकें सम्यग्दृष्टी जीव है ते अच्युत पर्यंत स्वर्गनि विर्षे उपजै हैं ॥१०२॥
उत्पद्योत्पादशय्यायां देहोद्योतितपुष्कराः ।
सुप्तोत्थिता इव क्षिप्रमुत्तिष्ठति दिवौकसः ॥१०३॥
अर्थ-तहां स्वर्ग विर्षे उत्पादशय्या विर्षे उपजके देव हैं ते जैसें सोयकरि उठे तैसे उठे हैं, कैसे हैं देव देहकरि उद्योतरूप किया है आकाश जिननें ऐसे हैं ॥१०३॥
निषण्णैस्तत्र शय्यायां तैरीक्ष्यन्त समन्ततः । निकाया देवदेवीनां रचितांजलिकुङ मलाः ॥१०४॥
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२७४ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ-तहां शय्या विषं तिष्ठते देवनि करि च्यारों तरफतें रची है हस्तांजलि जिननें ऐसे देवदेवीनके समूह देखिए है ॥१०४।।
स्तुवानामां स्ततैः श्रव्य व्याभरणभासुराः । मूर्ताः केऽमी विलोक्यंते पुण्यपुजा इवाभितः ॥१०॥
पर्थ-सुनने योग्य स्तोत्रनि करि स्तुति करते अर सुन्दर आभूषणनकरि देदीप्यमान मूर्तीक पुण्यके समूह समान ये च्यारों तरफ कौन देखिए है ऐसें नवीन देव विचार हैं ।।१०५॥
रम्याः रामा ममेमाः काश्चित्रचाटुपरायणाः । लावण्यांनिधेर्वेला लोकंत कलनिस्वनाः ॥१०६।।
अर्थ- रमने योग्य अर नाना प्रकार खुशामदमैं तत्पर अर सुन्दरताके समुद्रकी वेला सुन्दर हैं शब्द जिनके ऐसी स्त्री मोकौं देखे हैं ॥१०६॥
किमिदं दृश्यत स्थानं रामणीयकमन्दिरम् । कथमत्राहमायातः किं स्वप्नोऽयमुतान्यथा ॥१०७॥
अर्थ-सुन्दरताका मन्दिर ये कौन स्थान दीखै है। इहां मैं कैसे आया अथवा कहां यह स्वप्न है ।।१००॥
किमकारि मया पुण्यं जातो येनात्र बंधुरे । न पुण्यव्यतिरेकेण लभ्यते सुखसंपदा ॥१०८॥
अर्थ- अथवा मैं कहा पुण्य करत भया जाकरि इस सुन्दर स्थान विर्षे उपज्या । पुण्य विना सुखसंपदा न पाइए है ॥१०८।।
इत्यं चितयतां तेषां भवकारणकोऽवधिः । संपद्यते तदां दीप्तः पूर्वसंबंधसूचकः ॥१०॥
अर्थ-या प्रकार विचारते जे देव तिनकै भव ही है कारण जाक ऐसा भवप्रत्यय अवधि अतिशयकरि देदीप्यमान पहले सम्बन्धका सूचक उपजै है ॥१०॥
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एकादश परिच्छेद
[२७५
ज्ञानेन तेन विज्ञाय दानपुण्यप्रभावतः । त्रिदशीभूतमात्मानं ते भजन्ति सुखासिकाम् ॥११०॥
अर्थ-तिस ज्ञानकरि दानके पुण्यके प्रभावतें आपकौं देव भया . जानिक ते देव सुखरूप समाधानताकौं भजे हैं ॥११०॥
प्रीतेनामरवर्गेण स्वसंबंधेन सादरम् । क्रियमाणास्ततस्तुष्टा भजन्ते जननोत्सवम् ॥१११॥
अर्थ-तापीछे आपके सम्बन्धी जो प्रीतियुक्त देवनिका समूह ताकरि प्रसन्न करे भये जन्मोत्सवकौं भजे हैं ॥१११॥
ज्ञात्वा धर्मप्रभावेन तत्र प्रभवमात्मनः । पूजयंति जिनार्चास्ते भक्त्या धर्मस्य वृद्धये ॥११२॥
अर्थ-धर्मके प्रसाद करि तहाँ स्वर्गमैं आपकौं जानिक ते देव धर्मकी वृद्धिके अथि जिन भगवानकी प्रतिमानकौं भक्ति सहित पूजें हैं ॥११२॥
सुखवारिनिमग्नास्ते सेव्यमानाः सुधाशिभिः । सर्वदा व्यवतिष्ठते प्रतिविबैरिवात्मनः ॥११३॥
अर्थ-ते देव सुखजल विष डूबै अर अपने प्रतिबिंब समान देवनि करि सेये भये सदा काल तिष्ठे हैं ॥११३॥
ते सर्वक्लेशनिर्मुक्ता द्वाविंशतिमुदन्वताम् । आसते तत्र भुजाना दानवृक्षफलं सुराः ॥११४॥
अर्थ ते देव सर्वक्लेश रहित दानरूप वृक्षके फलकौं भोगते संते तहां बाईस सागर तिष्ठ हैं ॥११४॥
तेषां सुखप्रमां वक्ति बचोभिर्यो महात्मनाम् । प्रयाति पदविक्षेपैर्गगनांतमसौ ध्रुवम् ॥११॥ अर्थ-तिन महात्मा देवनिके सुखके प्रमाणकौं जो पुरुष
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२७६ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
वचननि करि है सो यह निश्चय करि पावनके उठावने धरने करि आकाशके अन्तकौं जाय है।
भावार्थ-तिन देवनिका सुख वचनतें न कह्या जाय है, ऐसा जानना ॥११॥
नवयौवनसम्पन्ना दिव्यभूषणभूषिताः । ते वरेण्याद्यसंस्थाना जायन्तेऽन्तर्मुहूर्ततः ॥११६॥
मर्थ- नवयौवनसहित अर दिव्य आभूषणनि करि भूषित अर श्रेष्ठ आदिका समचतुरस्त्र है संस्थान जिनका ऐसे अन्तर्मुहूर्त में उपजे हैं ॥११६॥
तेषां खेदमलस्वेदजरारोगादिवंजिताः ।
जायते भास्कराकाराः स्फाटिका इव विग्रहाः ॥११७॥
अर्थ-तिन देवनिके खेद मल पसेव जरा रोग इत्यादि करि ददीप्यमान हैं आकार जिनके मानौं स्फाटिकमणिके है ऐसे शरीर उपज हैं ॥११७॥
राजत हृदये तेषां हारयष्टिविनिर्मला । निसर्गसम्भवा मूर्ती सम्यग्दृष्टिरिव स्थिता ॥११७॥
अर्थ-तिन देवनिके हृदयविर्षे विशेष निर्मल हारकी लडी सोहै है, मानौं स्वभावकरि उपजी मूर्तिवन्त सम्यग्दृष्टी तिष्ठी है ॥११८॥
मुकुटो मस्तके तेषामुद्योतित दिगन्तरः । निषधानाभिवादित्यस्तमोध्वंसीय भासते ॥११॥
अर्थ-जैसे निषधाचलनके ऊपरि अन्धकारका नाश करनेवाला सूर्य सोहै हैं तैसें तिन देवनिके मस्तकविर्षे उद्योतरूप किया है दिशानका अन्तर जानें ऐसा मुकुट सोहै है ॥११॥
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एकादश परिच्छेद
[२७७
निधुवनकुशलाभिः पूर्णचन्द्राननाभिः
स्तनभरवनिताभिर्मन्मथाध्यासिताभिः । पृथुत्तरजघनाभिर्वधूराभिर्वधूभिः
समममलवचोभिः सर्वदा ते रमन्ते ॥१२०॥ अर्थ-सुन्दर स्त्रीन करि निर्मल वचन सहित ते देव सदा रमैं हैं, कैसी हैं ते स्त्री कामसेवन विर्षे प्रवीण है अर पूर्णचन्द्रमा समान है मुख जिनका अर स्तननके भारकरि नम्रीभूत है अर कामकरि व्याप्त है अर विस्तीर्ण है जघन स्थान जिनका ऐसी देवीन सहित ते देव रमैं है ॥१२०॥ दिवोऽवतीोजितचित्तवृत्तयो
महानुभावा भुवि पुण्य शेषतः । भवन्ति वंशेषु बुधाचितेषु
विशुद्धसम्यक्त्वधना नरोत्तमाः ॥१२१॥ अर्थ-ते देव स्वर्गतें अवतरिकै बाकीके पुण्यतें पृथ्वीविर्षे पंडितनिकरि पूजित वंशनिविर्षे नरनिविर्षे उत्तम चक्रवर्त्यादिक होय हैं, कैसे है ते उदार है चित्तकी परणति जिनकी ऐसे अर महानुभाव अर निर्मल सम्यक्त है धन जिनकै, ऐसे होय है ॥१२१॥ अवाप्यते चक्रधरादिसम्पदं
मनोरमामत्र विपुण्यदुर्लभाम् । नयंति कालं निखिलं निराकुलाः
न लभ्यते किं खलु पात्रदानतः ॥१२२॥ अर्थ-ते जीव इस लोकविर्षे पुण्यरहित जीवनकौं दुर्लभ ऐसी सुन्दर चक्रवर्ती आदिकनिकी सम्पदाको प्राप्त होयकै निराकुल भये सन्ते समस्त कालकौं व्यतीत करै हैं, जातें पात्रदानतें कहा न पाइए है ? सर्व ही पाइए है, ऐसा जानना ॥१२२॥
निषेध्य लक्ष्मीमिति शर्मकारिणी, प्रथीयसी द्वित्रिभवेष कल्मषम् ।
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२७८ ]
प्रदह्यते श्रयन्ति
श्री अमितगति श्रावकाचार
ध्यानकृशानुनाऽखिलं, सिद्धि विधुतापदं सदा ॥ १२३ ॥
अर्थ - याप्रकार सुखी करनेवाली महान लक्ष्मीकौं भोगकै दोय तीन भवनिविषं समस्त कर्मनिकौं ध्यान अग्नि करि जरायके ते जीव
आपदा रहित मोक्ष अवस्थाकौं सदा से हैं ॥ १२३॥
विधाय सप्ताष्टभवेषु वा स्फुटं, जघन्यतः कल्मषकक्षकर्त्तनम् । ग्रजंति सिद्धि मुनिदानवासिता, व्रतं चरन्तो चरन्तो जिननाथभाषितम् ॥ १२४ ॥
अर्थ - अथवा मुनिराज निके दानकी है वासना जिनके ऐसे जीव हैं ते जिनभाषित व्रतकौं आचरते सन्ते जघन्यपनें सन्तें सात आठ भवविषें कर्मवनकौं काटकै निश्चयकरि मुक्तिकौं प्राप्त होय हैं, ऐसा जानना ।। १२४ ।।
पात्रदानमहनीयपादपः, शुद्धदर्शनजलेन वद्धितः । यद्ददाति फलमचितं सतां,
तस्य को भवति वर्णने क्षमः ।। १२५ ।।
अर्थ – निर्मल सम्यग्दर्शनरूप जलकरि वृद्धिकौं प्राप्त भया ऐसा
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पात्रदानरूपी पूजनीक वृक्ष है सो सत्पुरुषनिके पूजित ऐसा जो फल देय है
ताके वर्णनविषै कौन समर्थ है, अपितु कोई समर्थ नाहीं ॥ १२५ ॥ गणेशिनाऽमितगतिना यदीरितं,
न दानजं फलमिदमीर्यते परैः ।
विभासितं दिनमणिना यदंवरं,
न भास्यत कथमपि दीपकैरिदम् ॥ १२६ ॥
अर्थ - अपरिमित हैं ज्ञान जिनके ऐसे गणधर देवनि करि यहु दानजनित फल का सो फल और करि न कहिए है । जैसें जो आकाश सूर्य करि प्रकाशित किया सो यहु दीपकनि करि कोई प्रकार भी नहीं प्रकाशिये है, ऐसा आनना ॥ १२६ ॥
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एकादश परिच्छेद
[२७६
छप्पय छन्द पात्र कुपात्र अपात्र भेद भाष्यो इम जिनपति ।
त्याग कुपात्र अपात्र करहु नितपात्रदानरति ॥ जा प्रसाद सब भोग भोगि फिर होय महायति ।
ध्यान धारि अरि टारि लहै शिवरमा अमितगति ॥ तिहि काल अनन्तानन्त निजरूप मांहि अविचल रहै।
तसु ध्यानसलिलतें जीवका तुरत सकल कलिमलव है ॥ . ऐसे श्री अमितगति आचार्यविरचित श्रावकाचारविर्षे
ग्यारहवां परिच्छेद समाप्त भया।
द्वादशम परिच्छेद भावद्रव्यस्वभावैयैरुन्नताः कर्मपर्वताः। विभिन्ना ध्यानवज्रण दुःखव्यालालिसंकुलाः ॥१॥ कर्मक्षयभवाः प्राप्तः मुक्तिदूतीरघच्छिदः । नव केवललब्धीर्ये पंचकल्याणभागिनः ॥२॥ सर्वभाषामयी भाषा बोधयन्ती जगत्रयीम् । प्राश्चर्यकारिणी येषां ताल्वोष्ठस्पंदवजिता ॥३॥ प्रातिहार्याष्टकं कृत्वा येषां लोकातिशायिनीम् । सपर्या चक्रिरे सर्वे सावरा भुवनेश्वराः ॥४॥ वचांसि तापहारीणि पयांसीव पयोमुचः । क्षिपन्तो लोकपुण्येन भूतले विहरंति ये ॥५॥ येषामिद्राज्ञया यक्षः स्वर्गशोभाभिमाविनीम् । करोत्यास्थायिकों कीर्णा लोकत्रितयजंतुभिः ॥६॥
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२८०]
श्री अमितगति श्रावकाचार
आद्य संहतिसंस्थाना निःस्वेदा क्षीरशोणिता। राजते सुन्दरा येषां सुगन्धिरमला तनुः ॥७॥ येषां द्विष्टः क्षयं याति तुष्टो लक्ष्मी प्रपद्यते । न रुष्यंति न तुष्यंति ये तयोः समवृत्तयः ॥८॥ लक्ष्मी सातिशयां येषां भुवनत्रयतोषिणीम् । अनन्यभावनी शक्तो वक्तुं कश्विन्न विद्यते ॥६॥ रागद्वषमदकोधलोभमोहादयोऽखिलाः । यैषु दोषा न तिष्ठति तप्तेषु न कुला इव ॥१०॥ शक्तितो भक्तितोऽर्हतो जगतीपतिपूजिताः।। ते द्वधा पूजया पूज्या द्रव्यभावस्वभावया ॥११॥
अर्थ-जिन करि भाव द्रव्य स्वभावनि करि सहित ऊँचे जे कर्मपर्वत ते ध्यानरूप वज्र करि भेदे हैं, कैसे हैं कर्मपर्वत दुःखरूप सर्पनिकी पंक्ति करि आकुल है।
भावार्थ-जिन भगवान भावकर्म रागादिक द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादिक पुद्गल स्कन्ध ते ध्यान करि नाश किये हैं ॥१॥ बहुरि जे गर्भादि पंचकल्याणके भोक्ता तीर्थंकर देव कर्मके क्षयतें उपजी पापके करनेवाली अर मुक्तिकी दूती समान ऐसी नव केवललब्धिनकौं प्राप्त भए हैं ॥२॥ वहुरि जिनकी आश्चर्य उपजावनेवाली सर्व भाषामयी ताल वा होठके चलने करि रहित ऐसी दिव्यध्वनि तीन जगतकौं ज्ञान करती सन्ती है ॥३॥ बहुरि जिनके छत्र चमरादि अष्ट प्रातिहार्य रचिकै सर्व लोकके नायक जो इन्द्रादिक हैं ते आदर सहित लोक विर्षे अतिशय उपजावनेवाली जो पूजा ताहि करते भए ॥४॥
बहुरि जैसे मेघ जलनिकौ बरसावते लोकमैं विचरै तैसें सन्ताप हरनेवाले वचननको फैलावते सन्ते जे भगवान जीवनके पुण्य करि
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एकादश परिच्छेद
[२८१
पृथ्वोतल विर्षे विहार कर हैं ॥५॥ बहुरि इन्द्रको आज्ञा करि कुबेर जिनकी समवसरण भूमिकाकौं करै हैं, कैसी है समवसरण भूमिका स्वर्गकी शोभाकौं जीतनेवाली अर तीन लोकके जीवनि करि भरी ऐसी है ॥६॥ बहुरि जिनकी देह सुन्दर सुगन्धरूप निर्मल सोहै है, केसी है देह आदिका वज्रवृषभनाराच "है संहनन जा विषं अर आदिका समचतुरस्र है संस्थान जाका अर पसेवरहित अर दूध समान श्वेत है रुधिर जाका ऐसी है ॥७॥ बहुरि जिनका द्वेष करनेवाला पुरुष क्षयकौं प्राप्त होय है अर भक्ति करनेवाला लक्ष्मीकौं प्राप्त होय है, बहुरि ते भगवान न द्वेष करै हैं न राग करै तिन दोऊन विष समान परणति है ॥८॥
जिनकी अतिशय रहित अर तीन भुवनकौं संतोष करनेवाली अर अन्य हरिहरादि विष न पाइए ऐसी जो लक्ष्मी ताहि कहनेकौं कोऊ समर्थ नाहीं है ॥६॥ बहुरि राग द्वेष मद क्रोध लोभ मोह इत्यादिक समस्त दोष हैं ते न तिष्ठै हैं जैसैं तप्त भूमिमैं नोले नहीं रहै हैं ॥१०॥ इंद्रादिकनि करि पूजित ते अहंत भगवान शक्ति माफिक भक्तितै द्रव्य भाव स्वभावरूप दोय प्रकार पूजा करि पूजने योग्य हैं ॥११॥
वचोविग्रहसंकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते । तत्र मानससंकोचो भावपूजा पुरातनः ॥१२॥
अर्थ-वचनका अर शरीरका जो संकोच कहिए और क्रियानित रोकि जिनेन्द्र सन्मुख करना सो द्रव्यपूजा कहिए हैं, अर मनका संकोच कहिए अन्य तरफतै रोकि जिनभक्तिमै लगावना सो पुराणे पुरुषनि करि भावपूजा कहिए है ॥१२॥
गंधप्रसूनसानाशदीपधूपाक्षताविभिः । क्रियमाणाय वा ज्ञेया द्रव्यपूजा विधानतः ॥१३॥
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२८२ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
पुष्प
अर्थ - अथवा गंध भई द्रव्यपूजा जाननी ॥१३॥
नैवेद्य दीप
'अक्षतनिकरि विधानतें करी
धूप
व्यापकानां विशुद्धानां जिनानामनुरागतः । गुणानां यदनुध्यानं भावपूजेयमुच्यते ॥१४॥
अर्थ - बहुरि जिनराजके गुणनिका अनुरागतैं वारंवार चितवन करना सो यह भावपूजा कहिए है । कैसे हैं जिन व्यापक कहिए सर्वके जाननेवाले अर रागदि रहित विशुद्ध हैं ||१४||
द्वै धापि कुर्वतः पूजां जिनानां जितजन्मनाम् ।
न विद्यते द्वये लोके दुर्लभं वस्तु पूजितम् ॥१५॥
अर्थ - जीत्या है संसार जिनने ऐसे जिनदेवनिकी द्रव्य भाव करि ही प्रकार पूजा करता जो पुरुष ताकौं इसलोक परलोक विषे उत्तम वस्तु दुर्लभ नाहीं ॥ १५ ॥
यैः कल्मषाष्टकं प्लुष्ट्वा विशुद्धध्यानतेजसा । प्राप्तमष्टगुणैश्चर्यमात्मनीनमनव्ययम्
॥१६॥
क्षुधा तृषा भ्रम स्वेदनिद्रातोषाद्यभावतः । अन्नपानाशनस्नानशयनाभरणादिभिः
।।१७।।
क्षुधादिनोदनैर्येषां नास्ति जातु प्रयोजनम् । सिद्ध हि वांछिते कायें कारणान्वेषणं वृथा ॥ १८ ॥ कर्मव्यपायतो येषां न पुनर्जन्म जायते । विलयं हि गते वीजे कुतः संपद्यतें कुरः ॥१६॥ रागद्वेषादयो दोषा येषां संति न कर्मजाः । निमित्तरहितं कापि न नैमित्तं विलोक्यते ॥२०॥
न निर्वृत्तिममी मुक्ता पुनरायांति संसृतिम् । शर्मदं हि पदे हित्वा दुःखदं कः प्रपद्यते ॥२१॥
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द्वादशम परिच्छेद
| २८३
सुखस्य प्राप्यते येषां न प्रमाणं कदाचन । श्राकाशस्यैव नित्यस्य निर्मलस्य गरीयसः ॥२२॥ पश्यंति ये सुखी भूता लोकाग्रशिखरस्थिताः । लोकं कर्मभ्रं कुशेन नाट्यमानमनारतम् ॥२३॥
येषां स्मरणमात्रेण पुंसा पापं पलायते ।
ते पूज्या न कथं सिद्धा मनोवाक्कायकर्मभिः ॥ २४ ॥
अर्थ - जिनमें निर्मल ध्यान अग्नि करि अष्टकर्मकौं जलायकै आत्माका हित अर अविनाशी ऐसा सम्यक्तादि अष्ट गुणरूप ऐश्वर्य पाया ||१६|| बहुरि क्षुधा तृषा भ्रम पसेव निद्रा हर्ष इत्यादिकके अभावतें क्षुधादिकके दूर करनेवाले जे अन्नपान आसन स्थान सोवना आभूषण इत्यादिकनि करि जिनसिद्धनिके कदाचित् प्रयोजन नाहीं, जानें वांछित कार्यकी सिद्धि भये कारणका ढूढ़ना वृथा है ।
भावार्थ - लोक मैं क्षुधादिककी पीड़ा होय है तब अन्नादिक हेरिए है । बहुरि सिद्ध भगवानके क्षुधादिक दोष ही रहे नाहीं तब अनादिrat हैरना काहेकौं चहिए, वह तौ सहज ज्ञानानंदविषै मग्न हैं ।। १७ - १८ ।। बहुरि जिनके कर्म निके अभावतें फेर जन्म न होय है, जातें बीजकौँ नाश भये सन्ते अंकुर कहितें होय, अपितु नाहीं होय ।
जन्म होनेका कारण कर्म है सो तिनकै अष्ट कर्मका अभाव भया अब जन्म कैसे होय ॥ १६ ॥ बहुरि कर्मजनित रागद्वेषादि दोष जिनक नहीं हैं जातें निमित्त रहित कहूँ भी न अवलोकिए है ।
मोहादि कर्म निमित्त पाय नैमित्तिक रागादि होय है । अब सिद्धी - निकै मोहादि कर्म निमित्त रह्या नाहीं नैमित्तिक रागादि काहेतें होय अपितु नाहीं होय ||२०|| बहुरि ये सिद्ध भगवान मोक्ष अवस्थाकौं
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२८४ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
छोड़िकै फेर संसारमें नाहीं आवै है, जातें सुखदायक ठिकानेकौं छोड़िक दुःखदायक ठिकानेकौं कौन प्राप्त होय अपितु कोई भी न होय || २१|| बहुरि जिनका आकाशकी ज्यौं नित्य अर निर्मल अर बड़ा जो सुख ताका प्रमाण कदाचित् भी न पाइये है || २२ || बहुरि जे सुखरूप लोकके अग्र शिखर परि तिष्ठे सन्ते कर्मरूप नटवा करि निरन्तर नचाया जो लोक ताहि देखें हैं ।
कर्मकरि जीवनिकी नाना अवस्था होय है तिनकौं अवलोकै है परन्तु रागादिकके अभावतैं आप सुखरूप तिष्ठे हैं ||२३|| बहुरि जिनके स्मरण मात्र करि पुरुषनिका पाप भागी जाय है ते सिद्ध भगवान् मन वचन कायकी क्रिया करि कैसें पूजने योग्य नाहीं, अपितु पूजने ही योग्य है ॥२४॥
चारयंत्यनुमन्यते
पंचाचारं चरंति ये ।
जनका इव सर्वेषां जीवानां हितकारणम् ॥ २५ ॥ येषां पादपरामर्शे जीवा मुंचंति पातकम् सलिलं हिम रश्मीनां चन्द्रकांतोपला इव ॥ २६ ॥ उपदेश: स्थिरं येषां चारित्रं क्रियतेतराम् । से पूज्य' से त्रिधाssचार्या पदं वर्य यियासुभिः ॥२७॥ अर्थ - जे दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तप आचार, वीर्याचार ये जो पंच आचार सर्व जीवनिक आचरण करावे है अर आप आचरण करें हैं जैसें पिता हितका आचरण करावं तैसें ॥२५॥ बहुरि जिनके चरणका स्पर्श होत सन्तें जीव पापकों त्यागे है जैसें चन्द्रमाकी किरणनिका स्पर्श होत सन्तें चन्द्रकांत पत्थर जलकौं छोड़े तैसें ॥२६॥ बहुरि जिनके उपदेशनि करि चारित्र अतिशय करि स्थिर कीजिए है ते आचार्य श्र ेष्ठपद जो मोक्षपद ताहि जानेकी है वांछा जिनके ऐसे पुरुषनिकरि मन वचन कायतें पूजिए हैं ॥२७॥
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द्वादशम परिच्छेद
[२८५
उन्नतेभ्यः ससत्वेभ्यो येभ्यो दलितकल्मषाः । जायंते पावना विद्यः पर्वतोश्य इवाऽऽ५ गाः ॥२८॥
अर्थ--जिनतें, नाश किया है पाप जिनमें ऐसी पवित्र विद्या उपजै है । जैसें पर्वतनतें नही उपज तैसें, कैसे हैं। ते बड़े हैं अर पराक्रम सहित हैं ॥२८॥
चरन्तः पंचधाचारं भवारण्यदवानलम् । द्वादशांगश्रुतस्कन्धं पाठयंति पठन्ति ये ॥२६॥
प्रर्थ-बहरि जे संसार वनकौं दावानल समान जो पंचाचार ताहि आचरण करै हैं । बहुरि जो बारह अंगरूप थि त स्कन्धकौं पढ़ावे हैं अर पढ़े हैं ॥२६॥
यषां वचो हदि स्नाता न संति मलिना जनाः । तेऽयंते न कथं दक्षरुपाध्याया विरेपसः ॥३०॥
अर्थ-जिनके वचनरूप सरोवर विर्षे न्हाये जन हैं ते मलिन न होय हैं ते पापरहित उपाध्याय भगवान चतुर पुरुषनि करि कैसे न पूजिए, पूजिए ही है ॥३०॥
औरनंगानलस्तीवः संतापितजगत्रयः । विध्यापितः शमांभोभिः पापपंकायसारिभिः ॥३१॥ दिधक्षवो भवारण्या ये कुर्वति तपोऽधनम् । निराकृताखिलग्रन्था निस्पृहाः स्वतनावपि ॥३२॥ निधानमिव रक्षतियेरत्नत्रयमाहताः । ते सद्धिर्वरिवस्यते साधवो भव्यबांधवाः । ३३॥
अर्थ-संतापकौं प्राप्त किये हैं तोन लोक जानें ऐसी जो कामरूप तीव्र अग्नि सो जिननें पापरूप कीचके दूर करनेवाले जे शांत भावरूप जल तिन करि उड़ाया है ॥३१॥ बहुरि जे संसारवनकौं दग्ध करनेके वांछक पापरहित तपकौं करें हैं। कैसे हैं ते साधु निराकरण किया है समस्त अन्तरङ्ग बहिरङ्ग परिग्रह जिननें बहुरि अपने
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२८६ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
शरीरविर्षे भी वांछा रहित हैं ॥३२॥ बहुरि जे आदर सहित भण्डारकी ज्यौं दर्शन ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रयकौं रक्षा करै हैं ते भव्य जीवनके बांधव जे साधु भगवान ते सत्पुरुषनि करि आराधिए है ॥३३॥
अर्चयद्धयस्त्रिधां पुभ्यः पंचेति परमेष्ठिनः । नश्यति तरसा विध्ना विडालेभ्य इवाऽऽखवः ॥३४॥
अर्थ-या प्रकार पंच परमेष्ठीनकौं पूजते जे पुरुष तिनतें विघ्न शीघ्र नाशकौं प्राप्त होय हैं, जैसें बिलावनतें मूसा नसें तैसें ।
भावार्थ-पंच परमेष्ठीनके पूजनादिकतें शुभ परिणाम बन्धे हैं तातें अन्तरामकर्म का अनुभाग हीन होय है, तब विघ्न न होय है, ऐसा जानना ॥३४॥
पूजयति न ये दोना भक्तितः परमेष्ठिनः । संपद्यते कुतस्तेषां शर्म निदितकर्मणाम् ॥३५।।
अर्थ-जे दोन अज्ञानी पुरुष पंच परमेष्ठीनकौं न पूजे हैं तिन नीच कर्मीनके सुख कहांत होय, अपितु नाहीं होय, ऐसा जानना ॥३५॥
इन्द्राणां तीर्थकत्तणां केशवानां रथांगिनाम् । संपदः सकलाः सद्यो जायते जिनपूजया ॥३६॥
अर्थ-इन्द्रनिकी तीर्थंकरनिकी नारायणनिकी चक्रवत्तिनकी जे समस्त संपदा हैं ते जिनपूजा करि शीघ्र होय हैं ॥३६।।
मानवैर्मानवावासे त्रिदर्शस्त्रिदशालये । खेचरैः खेचरावासे पूज्यते जिनपूजकाः ॥३७॥
अर्थ- जिनदेवकी पूजा करनेवाले पुरुष हैं ते मनुव्यलोक विर्षे तो मनुष्यनि करि पूजिये हैं अर देवलोकविष देवनि करि पूजिये है
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द्वादशम परिच्छेद
[२८७
अर विद्याधरनिके लोकविष विद्याधरनि करि पूजिये है ॥३७॥
सकामा मन्मथालापा निविडस्तनमंडलाः। रमण्यो रमणीयांगा रमयं ति जिनाचिनः ॥३८॥
अर्थ-जिनदेवकी पूजा करनेवाले पुरुषकौं रमणीक जे स्त्री रमाबें हैं ते स्त्री कामसहित हैं अर मधुर है शब्द जिनके अर कठोर है कुचमण्डल जिनके अर सुन्दर हैं अंग जिनके ऐसी हैं।
भावार्थ-जिनपूजा विर्षे पुण्यबन्ध होय है ताकरि देवादि पद विष अनेक स्त्री मिलै है ॥३८॥
पवित्रं यन्निरातंक सिद्धानां पदमव्ययम् । दुष्प्राप्य विदुषामर्थ्य , प्राप्यते तज्जिनार्चकैः ॥३९॥
अर्थ-जिनदेवके पूजक जे पुरुष तिनकरि मुक्त जीवनका पद जो मोक्षसुख सो पाइये है । कैसा है मुक्त जीवनिका पद रागादि मलरहित है पवित्र हैं अर संसार रोगरहित है अर अविनाशी है अर दुर्लभ है अर ज्ञानीनिकरि वांछने योग्य है ऐसो पद जिनपूजक पावै हैं ।
भावार्थ- जिनपूजाके परिणामके निमित्त पाय परम्पराय रत्नत्रय आराधकै मोक्ष होय है ॥३६॥
जिनस्तवं जिनस्नानं, जिनपूजां जिनोत्सवम् । कुर्वाणो भक्तितो लक्ष्मों लभते याचितां जनः ॥४०॥ .
अर्थ-जिनदेवका स्तवन जिनदेवका अभिषेक जिनदेवकी पूजा महा उत्सव इनकौं भक्तितें करता संता मनुष्य है सो वांछित लक्ष्मीकौं पावै हैं ॥४०॥ इहां तांई पूजाका वर्णन किया । आगें शीलका वर्णन करै हैं :_ संसारारातिभीतस्य, व्रतानां गुरुसाक्षिकम् ।
गृहीतानामशेषाणां, रक्षणं शीलमुच्यते ॥४१॥
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२८८ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ - संसार वंरीते भयभीत जो पुरुष ताकै गुरुकी साखि ग्रहण करे जे समस्त व्रत तिनकी रक्षा करना सो शील कहिए है ॥४१॥
साक्षीकृता व्रतादाने कुर्वते परमेष्ठिनः ।
भूपा इव महादुःखं विचारे व्यभिचारिणः ॥४२॥
अर्थ - व्रत ग्रहण विषै साक्षी किये जे परमेष्ठी हैं ते विचार विषे व्यभिचार करता जो पुरुष ताकौं राजानकी ज्यों महान् दुःख करे हैं ।
भावार्थ–जैसें राजाकै आगे किछु प्रतिज्ञा करै अर तामैं भूल जाय तो दण्ड पावै तैसें अहंतादिकनिकै आगें लीनी जो आंकडी तामैं भंग होय तो महादुःख पावै । यद्यपि अर्हतादिक वीतराग हैं उनके दुःख देनेका किछु प्रयोजन नहीं तथापि अपने ही परिणामनिकी मलिनतातें पाप बांधि नरकादि दुःख भोगं है, ऐसा जानना ॥ ४२ ॥
एकदा ददते दुःखं नरनाथास्तिरस्कृताः । गुरवो न्यक्कृता दुःखं वितरंति भवे भवे ॥४३॥
अर्थ - तिरस्कार किये भए राजा हैं ते तो एकवार ही दुःख देय हैं अर निराकरण भये गुरु हैं ते भव भव विषे दुःख देय हैं ।
भावार्थ - गुरूनके अनादर करि महापाप बंध होय है तातें जीव नरकादिविषे महादुःख पाव है ||४३||
भक्षयित्वा विषं घोरं वरं प्राणा विसर्जिताः । न कदाचितं भग्नं गृहीत्वा सूरिसाक्षिकम् ॥ ४४ ॥
अर्थ - भयानक विषकौं साध करि त्यागे भये प्राण हैं ते श्रेष्ठ हैं अर आचार्यकी साखि व्रतकौं ग्रहण करि भंग करना श्रेष्ठ नाहीं ।
भावार्थ - मरण होय तो हो परन्तु आंकड़ी भंग करना योग्य नाहीं ॥४४॥
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द्वादशम परिच्छेद
[२८६
वसनभूषण_नः सकलैरपि शोभते ।
शोलेन बुधपूज्येन न पुनर्वजितो जनः ॥४५॥
अर्थ-सर्व वस्त्रनकरि आभूषणन करि रहित भी पुरुष सोहै हैं । बहुरि पंडितनि करि पूजनीक जो शील ताकरि रहित पुरुष न सोहै है ॥४५॥
सहजं भूषणं शीलं शीलं मंडनमुत्तनम् । पाथेयं पुष्कलं शीलं शीलं रक्षणमूजितम् ॥४६॥
अर्थ-शील है सो स्वभावरूप आभूषण है अर शील उत्तम मंडन है अर शील है सो घणी वटसारी है अर शील है सो बड़ा रक्षा करना है। शील ही जीवनिकी रक्षा करै है ॥४६॥
* शीलेन रक्षितो जीवो न केनाऽप्यभिभूयते ।
महाहृदनिमग्नस्व किं करोति दवानलः ॥४७॥ - अर्थ--जो पुरुषकी शील करि रक्षा कीजिए है सो काहूकरि भी तिरस्कारकौं प्राप्त नहीं होय है। जैसे बड़े सरोवरवि डूब्या पुरुषका दावानल क्या करि सके है तैसें ॥४७॥
बान्धवाः सुहृदः सर्वे निःशीलस्य पराङ मुखाः । शत्रवोऽपि दुराराध्याः संमुखाः सति शीलनः ॥४८॥
अर्थ-बांधव जन हैं ते तथा मित्र हैं ते सर्व शीलरहित पुरुषके परांगमुख होय है अर दुःखकरि आराधे जाय ऐसे शत्रु भी शीलवान पुरुषके सहायक होय हैं ॥४८॥
शीलतो न परो बन्धुः शीलतो न परः सुहृत् । शीलतो न परा माता शीलतो न परः पिता ॥४६
* यह लोक मूलप्रतिमें ४७ के नम्बर पर है और वचनिकाकी प्रतिमें ४६ के नम्बर पर है। .
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२९० ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ - शील सिवाय और बन्धु नाहीं, शीलतें सिवाय और मित्र नाहीं, शीलतें सिवाय और माता नाहीं, शीलतें सिवाय और पिता नाहीं । भावार्थ - जीवका हितकारी शीलसिवाय और नाहीं ॥ ४६ ॥
उपकारो न शीलस्य कर्त्ता मन्येन शक्यते । कल्पद्र मफलं दत्ते परः कुत्र महीरुहः || ५० ॥
प्रर्थ - शीलसमान उपकार करनेकौं और समर्थ न हूजिए है, जैस कल्पवृक्ष फल देय है सो और कहां वृक्ष फल कहां देय है, कहूँ भी न देय है ॥५०॥
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तापेऽपि सुखितः शीली शीलमोची पुनर्जनः चित्रं जनांगुलिच्छायो स्थितोऽपि परितप्यते ॥ ५१ ॥
अर्थ – आचार्य कहै हैं बड़ा आश्चर्य है । देखो - शीलवान जीव है सो ताप कहिए धाम विषे भी सुखी है । बहुरि शीलका त्यागने - वाला है सो मनुष्य निकी अंगुलीकी छाया विषें तिष्ठ्या भी तप्तायमान हो है ॥ ५१ ॥
कदाचन न केनापि सुशीलः परिभूयते ।
न तिरस्त्रियते यो हि श्लाध्यते तस्य जीवितम् ॥ ५२ ॥
अर्थ - जो सुशील पुरुष कोऊ करि भी चलायमान न कीजिए है अर तिरस्कार न कीजिए है ताका जीवन सराहिए है ||५२ ||
भंगस्थान परित्यागी व्रतं पालयतेऽमलम् । तस्करैर्लु ट्यते कुत्र दूरतोऽपि पलायितः ॥ ५३ ॥
अर्थ - भंगस्थान कहिये जिस स्थान में शील भंग होय एसा स्थानका त्यागनेवाला पुरुष है सो निर्मल व्रतकौं पालै है । जैसे दूर हीते भाग्या जो पुरुष है सो चौरन करि लूटिए है, अपितु नाहीं लूटिए है ।
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द्वादशम परिच्छेद
भावार्थ - जैसैं चोरनिकौं दूरहीतें त्यागै तौ पुरुष लूटै नाहीं तैसे: व्रतभंगके कारण स्थानादिक त्यागे ताका व्रत निर्मल पलै है ॥५३॥
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आगैं- शीलभंगके कारण जे द्यूतादिक तिनका निषेध करें हैं, तहां प्रथम द्यूतका निषेध कर हैं:
नानानर्थकरं द्यतं मोक्तव्यं शीलशालिना ।
शीलं हि नाश्यते तेन गरलेनेव जीवितम् ॥ ५४ ॥ ॥
अर्थ - शील करि शोभित जो पुरुष है ताकरि अनेक अनेक अनर्थनिका करनेवाला जो जूवा है सो त्यागना योग्य है, जातैं निश्चय सेती ताकरि शील नाशिए है जैसें विष भक्षण करि जीवन नाशिए है ॥५४॥
विषादः कलहो राटिः कोपो मानः श्रमो भ्रमः । पेशून्यं मत्सरः शोकः सर्वे द्य तस्य बांधवाः ॥ ५५॥
अर्थ - विषाद कलह राड क्रोध मान खेद संशय चुगली मत्सर भाव, शोक, ये सर्व जूवाके बन्धुजन हैं ।
भावार्थ - जहां जूवा होय है तहां पूर्वोक्त सर्व कुभाव अवश्य होय हैं ।। ५५ ।।
दुःखानि तेन जन्यन्ते जलानीवांबुवाहिना । व्रतानि तेन धूयन्ते रजांसीव चरणयुना ॥५६॥
अर्थ - तिस जूवा करि जैसे बादले करि जल उपजाइये है तैसें दुःख उपजाइए हैं अर जस पवन करि रज उडाइए है तैसें जूवा करि व्रत उडाइए है ।
भावार्थ -जवा करि नाना दुःख होय हैं अर व्रतनिका लेश भी न रहै है ॥५६॥
न श्रियस्तत्र तिष्ठत - द्यतं यत्र प्रवर्त्तत े ।
न वृक्षजातयस्तत्र विद्यन्त े यत्र पावकाः ॥५७॥
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२६२ ]
श्रीअमितगति श्रावकाचार |
अर्थ - जैसे जहां अग्नि होय है तहां वृक्षनकी जाति उत्पन्न न होय है तैसे जहां जूवा प्रवत्त है तहां लक्ष्मी न तिष्ठै है ||५७॥
मातुरध्युत्तरायं या हरते जनपूजितम् ।
कर्तव्य परं तस्य कुर्वतः कीदृशी या ॥ ५८ ॥
अर्थ – जो जूवा खेलनेवाला पुरुष सो लोक मैं मान्य जो माताका लुगड़ा ताकौं भी हर लेय है तिसके और अकार्य करतेकै कैसी लज्जा । भावार्थ – कोऊ भी अकार्य करने मैं जूवावालेकै लज्जा नाहीं, ऐसा
जानना || ५८ ॥
सम्पदं सकलां हित्वा स गृह्णाति महाऽऽपदम् । स्वकुलं मलिनीकृत्य वितनोति च दुर्यशः ॥ ५६ ॥
अर्थ – सो जूवा खेलनेवाला पुरुष समस्त सम्पदाकौं त्याग करि महा आपदा ग्रहण करे है, बहुरि अपने कुलकौं मलिन करकै खोटा यश विस्तारै है ||५||
नारकैरपरैः क्रुद्धेर्नारकस्येव मस्तके |
निखन्य कितवैस्तस्य दुर्ज्यालो ज्वाल्यतेऽनलः ॥ ६० ॥
अर्थ - जैसे अन्य क्रोधायमान भए जे नारकी तिन करि नारकी मस्त विषै थापि करि दुःखकारी है ज्वाला जाकी ऐसा अग्नि जलाइये है तैसें जुबान करि जुवारीके सिर परि अग्नि जलाइए है ।। ६० ।।
कर्कशं दुःश्रवं वाक्यं जल्पतो वंचिताः परे । कुर्बति द्य तकारस्य कर्णनासादिकर्त्तनम् ॥ ६१ ॥
अर्थ - जिनका धन ठिगलिया ऐसे जे अन्य द्यूतकार हैं ते कठोर अर कानानिको दुःखदाई वचन बोलते सन्ते जुवा खेलनेवाले के कान नासिका आदि अंगनिकों का हैं ॥ ६१ ॥
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द्वादशम परिच्छेद
[२६३
विज्ञायेति महादोषं तं दोव्यति नोत्तमाः । जानानाः पावकोष्णत्वं प्रविशंमि कथं बुधाः ॥६२॥
अर्थ-या प्रकार जूवाकौं महादोषरूप जान करि उत्तम पुरुष नाहीं खेले है जैसे अग्निका उष्णपना जाणते सन्ते पंडित जन हैं ते अग्निमें प्रवेश कैसे करें, अपितु नाहीं करै हैं ॥६२॥
आगे-वेश्याका निषेध करें हैं:वितनोति दृशो रागं या वात्येव रजोमयो । विध्वंसयति या लोकं शर्वरीव तमोमयी ॥६३॥ या स्वीकरोति सर्वस्वं चौरीवार्थपरायणा । छलेन याति गृह्णाति शाकिनीवामिषप्रिया ॥६४॥ वह्निज्वालेव या स्पृष्टा संतापयति सर्वतः । शुनीव कुरुते चाटु दानतो याऽति कश्मला ॥६५॥ विमोहयति या चित्तं मदिरेव निषेविता। .
सा हेया दूरतो वैश्या शीलालंकारवारिणा ॥६६॥
अर्थ जो वैश्या नेत्रनि विर्षे जैसे धूलि सहित पवन राग विस्तारै तैसें राग विस्तार है बहरि या लोकका जैसे अन्धकारमयी राग नाश कर है तैसें नाश करै है ॥६३॥ वहुरि जो वेश्या धनमैं तत्पर चोरी करनेवालाकी ज्यौं सर्व धनकौं गृहण कर है। बहुरि जो छलकरि मांस है त्रिय जाकौं ऐसी शाकिनिकी ज्यौं मनुष्यकौं अतिशय करि अंगीकार करै है ॥६४॥ बहुरि जो वैश्या अग्निकी ज्वाला समान स्पर्शी भई सर्व तरफतें संताप उपजावै है । बहुरि धनके दवात जो अत्यन्त पापिनी कुत्तीकी ज्यौं खुशामद विस्तारें है ॥६५॥ बहुरि जो मदिराकी ज्यों सेई गई चित्तकौं मोह उपजावै है सो वेश्या शीलरूप आभूषणका घारी जो पुरुष ताकरि दूरतें त्यागनी योग्य है ॥६६॥
सत्यं शौचं शमं शीलं संयम नियनं यम । प्रविशंति बहिर्मुक्ता विटाः पण्यांगनागृहे ॥६७॥
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२६४]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ-व्यभिचारी पुरुष हैं ते सत्य शौच शम शील संयम नियम यम इत्यादि सर्व धर्मके अंगनिकौं बाहर छोडिकरी वेश्या के घर में प्रवेश कर है।
भावार्थ-वेश्याके घरमें प्रवेश करते ही सर्व धर्मका नाश होय है ॥६॥
तपो व्रतं यशो विद्या कुलीनत्वं दमो दया । छिद्यन्ते वेश्यया सद्यः कुठार्येवाऽखिला लताः ॥६८॥
अर्थ-जैसे कुल्हाडी करि सर्व लता शीघ्र छेदिए है तैसें वेश्या करि तप व्रत यश विद्या कुलीनपना इन्द्रियनिका दमन दया ये सर्व शीघ्र छेदिये हैं ॥६॥ .. जननी जनको भ्राता तनयस्तनया श्वसा ।
न संति वल्लभास्तस्य दारिका यस्य वल्लभा ॥६६॥ : अर्थ-जा पुरुषकै वेश्या प्यारी है ता पुरुषकै माता पिता भाई पुत्र पुत्री बहन ये प्यारे नाहीं ॥६६॥
... न तस्मै रोचते सेव्यं गुरूणां वचनं हितम् । . सशर्करामिव क्षीरं मित्ताकुलितचेतसे ॥७०॥
अर्थ–वेश्या सेवनेवाले पुरुषकौं सेवने योग्य जो गुरुनका हितरूप वचन सो नहीं रुच है। जैसे पित्तकरि आकुलित है चित्त जाका ऐसा जो पुरुष ताकै अर्थ मिश्री सहित दूध नाहीं रुचै हैं तैसैं ।
भावार्थ-वेश्यासक्तकौं गुरु वचन नहीं सुहावै है ॥७०॥ - वेश्यावक्रगतां निद्यां लालां पिवति योऽधमः । ...
शुचित्वं मन्यते स्वस्य काऽपरातो विडम्बना ॥७१॥ .
अर्थ-जे अधम पुरुष वेश्याके मुख विष प्राप्त जो निंदनीक लाल ताहि पीवें है अर आपकै शुचिपनां मान है या सिवाय और कहां विडम्बना है ॥७१॥ ..
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द्वादशम परिच्छेद
[२६५
यो वेश्यावदनं निस्ते मूढो मद्या दिवासितम् । मद्यमांसपरित्यागवतं तस्य कुतस्तनम् ॥७२॥
प्रर्थ-जो मूढ मदिरा करि वासित जो वेश्याका मुख ताहि चूमैं है ताकै मदिरा मांसके त्यागरूप व्रत काहे ॥७२॥
वदनं जघनं यस्या नीचलोकमलाविलम् ।
गणिकां सेवमानस्य तां शौचं वद कीहशम् ॥७३॥
अर्थ-जो वेश्याका मुख अर जघन नीच लोकके मल करि मलिन है ता गणिकाकौं सेवता जो पुरुष ताकै पवित्रपना कैसा, कोई प्रकार पवित्रपना नाहीं ॥७३॥
या परं हृदये धत्ते परेण सह भाषते । ३ परं निषेवते लुब्धा परमाह्वयते हशा ॥७४॥
अर्थ-या वेश्या मनमैं अन्य पुरुषकौं धारै है अर औरके साथ बोले है अर लोभनी ीरकौं सेवै है अर दृष्टि करि औरकौं बुलावै है ॥७४॥
सरलोऽपि सदक्षोऽपि कुलीनोऽपि महानपि । ययेक्षुरिव निःसारः सुपर्वापि विमुच्यते ॥७॥
अर्थ-जा वेश्या करि मायाचारहित सरल भी अर चतुर भी अर कुलीन भी अर बड़ा भी अर सुपर्वा कहिये सुन्दर अंग सहित भी निःसार कहिये द्रव्य रहित होय सो सांठेकी ज्यौं त्यागिए है।
भावार्थ-जैसे सूधा भी भला भी अर कुलीन कहिये पृथ्वी विर्षे लीन भी बड़ा भी अर सूपर्वा कहिये भली है मुठोर जाकी ऐसा भी सांठा है सो सार रहित त्यागिए है तैसें वेश्या करि निःसार मनुष्य त्यागिए है ॥७॥
न सा सेव्या विधा वेश्या शीलरत्नं बियासता । जानानो न हि हिंस्त्रत्वं व्याघ्रों स्पृशति कञ्चन ॥७६॥
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२६६ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ-शील रत्नको रक्षा करते जो पुरुष ताकरि सो वेश्या मन वचन काय करि सेवनी योग्य नाहीं जातें हिंसकपनेकौं जानता संता कोई भी पुरुष है सो व्याघ्रीकौं नाहीं स्पर्शी है ॥७६॥
आगे-परस्त्री सेवनका निषेध करै हैं;तिरश्ची मानुषी देवी निर्जीवा च नितंबिनी।
परकीबा न भोक्तव्या शीलरत्नवता त्रिधा ॥७७॥
अर्थ-तिर्यंचणी मनुष्यणी देवी ये तो चेतन अर अचेतन ऐसी काष्ठ पाषाणादिककी ऐसी च्यार प्रकार परस्त्री है सो शीलरत्न सहित पुरुष करि मन वचन काय करि सेवनी योग्य नाहीं ॥७७॥
जीवितं हरते रामा परकीया निषेधिता । प्लोषते सर्पिणो दृष्टा स्पृष्टा हष्टिविषा न किम् ॥७७॥
अर्थ--परस्त्री सेई भई जीवितव्यकौं हरै हैं जैसें जाके देखे ही विष चढे ऐसी दुष्ट सर्पिणी स्पर्शी सन्ती कहां न जलावै, अपितु जलावै ही है ॥७॥
यच्चेह लौकिकं दुःखं परनारीनिषेवने । तत्प्रसानं मतं प्राजनरकं - दारुणं फलम् ॥७॥
अर्थ-जो परनारी सेवने विर्षे इस लोक सम्बन्धी दुःख है सो तो ताका फल है अर नरक सम्बन्धी भयानक दुःख हैं सो ताका फल पंडितनिने कह्या है ॥७९॥
स्वजनैः रक्षमाणायास्तस्या लाभोऽतिदुष्करः ।
तापस्तु चित्यमानायां सर्वांगीणो निरन्तरः ॥१०॥
अर्थ-स्वजननिकरि रक्षा करी भई परस्त्री है ताका लाभ अति दुष्कर है। बहुरि ताका चितवन करै सन्ते निरन्तर सर्व अंगमैं ताप उपजै है ॥८॥
. ताप
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द्वादशम परिच्छेद
[२९७
प्राप्यापि कष्टकष्टेन तां देशे यत्र तत्र वा। किं सुखं लभते भीतः सेवमानस्त्वरान्वितः ॥१॥
अर्थ-बहुरि जिस तिस क्षेत्र वि कष्ट कष्ट करि परस्त्रीकौं पायकरि भी भयभीत आतुरता सहित सेवता संता कहां सुख पावै है ? किछू भी सुख न पावें है ॥८३॥
या हिनस्ति स्वकं कांतं सा जारं न कथं खला। विडाली याऽत्ति पुत्रं स्वं सा कि मुंचति मूषिकाम् ॥१२॥
अर्थ-जो स्त्री अपने पतिकौं मारै है सो दुष्टनी यारकौं कैसें नाहीं मार है जैसे जो विलाई अपने पुत्रकौं खाय है सो मूसेकौं न खाय ? खाय ही है ॥२॥
यावद्दर्श कुचेतस्रकाः किं वृण्वंति परांगनाम् ।
न पापतः परो लाभः कदाचित्तत्र विद्यते ॥३॥ ___अर्थ-ऐसी परस्त्रीकौं खोटे हैं चित्त जिनके ऐसे पुरुष हैं ते क्यों भोग हैं ? जातें परस्त्री सेवन विर्षे पाप समान और लाभ नाहीं . है ॥३॥
या स्वं मुंचति भर्तारं विश्वासस्तत्र कीदृशः ।
को विश्वासमते स्नेहः किं सुखं स्नेहतो विना ॥४॥ अर्थ-जो स्त्री अपने भरतारकौं छोडै ता विषं विश्वास कैसा? अर विश्वास बिना स्नेह बिना सुख कहां ॥४॥
वधो बंधो धनभ्रंशस्तापः शोकः कुलक्षयः । प्रायासः कलहो मृत्युः पारदारिक बांधवाः ॥८॥
अर्थ-वध कहिए नाम अर बन्ध बन्धन अर धनका नाश अर सन्ताप अर शोक अर कुलका क्षय अर खेद अर कलह अर मरण ये परस्त्री सेवनेबालेके बांधव हैं।
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२६८]
श्री अमितगति श्रावकाचार ।
भावार्थ -परस्त्री सेवनेवालेके वध बन्धनादि सर्व ही होय है ॥८॥
लिंगच्छेदं खरारोपं कुलालकुसुमार्चनम् ।
जननिंदामभोगत्वं लभते पारदारिकः ॥८६॥
अर्थ-परस्त्रीका सेवनेवाला पुरुष है सो लिंगका छेदना गधापै बैठावना अर कुलालकुसुम कहिए छैनां कंडा तिनकरि पूजन कहिए मारना अर लोकनिंदा अर भोगरहितपना इत्यादि पावै है ॥८६॥
लब्ध्वा विडम्बनां गुर्वीमत्र प्राप्तः स पंचताम् । श्वभ्रे यदुःखमाप्नोति कस्तद्वर्णयितुं क्षमः ॥१७॥
अर्थ-सो परस्त्री सेवनेवाला इस लोक विषं बडी विडम्बनाकौं पाय करि मरणकौं प्राप्त भया नरक विर्षे जो दुःख पावै है ताहि वर्णन करनेकौं कौन समर्थ है ? ॥८७॥
एकांते यौवनध्वांते नारों नेदीयसी सतीम् । दृष्ट्वा क्षुभ्यति धीरोऽपिका वार्ता कातरे नरे ॥१८॥
अर्थ-एकांतमैं यौवनरूप अंधकार विर्षे शीलवंत वृद्धानारीकौं देखि करि धीर पुरुष भी क्षोभकौं प्राप्त होय है तो कायर पुरुष विर्षे कहा वार्ता है, वह तो क्षोभकौं प्राप्त होय ही होय ॥१८॥
जल्पनं हसनं कर्म* क्रीडा वक्रावलोकनम् । प्रासनं गमनं स्थानं वर्णनं भिन्न भाषणम् ॥८६॥ नार्या परिचयं साद्धं कुर्वाणः परकीयया ।
वृद्धोऽपि दूष्यते प्रायस्तरुणो न कथं पुनः ॥६०॥
अर्थ-परस्त्री के साथ बोलना हसना कार्य करना क्रीडा करना मुख देखना बैठना गमन करना ठाडे रहना वर्णन करना एकांत
* संस्कृत प्रतियोमें “कर्म" इसके स्थानमैं "नर्म" ऐसा पाठ है ।
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द्वादशम परिच्छेद
[ २६६
वि बोलना इत्यादि परिचय करता संता वृद्ध पुरुष भी बाहुल्य पनै दूषिष होय है तौ तरुण पुरुष कस दूषित न होय ? होय ही होय ॥ ८६-६० ॥
विवुद्धयेति महादोषं पररामा मनीषिभिः । विवा दूरतः सद्भिर्भु जगीव भयंकरा ॥१॥
अर्थ-या प्रकार महादोष जानिकें बुद्धिवान सत्पुरुषनि करि परस्त्री भयंकर सर्पिणीकी ज्यौं दूरतें त्यागनी योग्य है ॥६१॥
आगें-शिकारका निषेध करै हैं - नामापि कुरुते यस्या गृहीतं गुरु कल्मषम् । मृगया सा त्रिधा हेया भवदुःखविभीरुणा ॥२॥
अर्थ-जाका नाम भी बड़ा पाप करै है सो शिकार खेलना संसारत भयभीत जो पुरुष ताकरि मन वचन कायतें त्यागने योग्य है ॥२॥ - त्रस्यन्ति सर्वदा दोनश्चलतः पर्णतोऽपि ये।
हिंस्यन्ते तेऽपि यैर्जीवास्तेभ्यः के निघृणाः परे ॥३॥
अर्थ-जे दीन जीव चालते पत्तासें भी सदाकाल त्रासकौं प्राप्त होय हैं ते भी मृगादिक जीव तिन शिकारीन करि मारिए है तिनतें सिवाय और निर्दयी कौन है ॥६३॥
निरागसः पराधीना नश्यन्तो भयविह्वलाः ।
कुरंगामनिहन्यन्ते पापिष्ठा न परे ततः ।।६४॥ __ अर्थ-अपराध रहित अर पराधीन अर भय करि व्याकुल नाशकौं प्राप्त होते भागते ऐसे हरिण जिनकरि मारिए है तिनके सिवाय और दूसरे पापी नाहीं ॥१४॥
गृह्णतोऽपि तृणं दन्तैर्देहिनो-मारयन्ति ये । व्याघ्रभ्यस्ते दुराचारा विशिष्यते कथं खलाः ॥
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३०० ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ - जो दांतनि करि तृण ग्रहण करे हैं ऐसे मृगादिक जीवनीकों जे मारे हैं ते दुराचारी दुष्ट जीव व्याघ्रनितें न्यारे कंसें कहिए है ।
भावार्थ - व्याघू भी मृगादिकक मारे है अर शिकारी भी मारे है। तातें दोनों समान ही हैं ||५||
ये मारयन्ति निस्त्रिशा ये मार्यते च विह्वलाः । तेषां परस्परं नास्ति विशेषस्तत्क्षणं विना ॥ ६६ ॥
अर्थ - जे निर्दयी मारे है अर जे विह्वल जीव मारिए है तिनकें परस्परता समयविना विशेष नाहीं ।
भावार्थ - वर्तमान समयतें तौ मारनेवाला अर जिनको मारै है ते जीव हीनाधिक हैं बहुरि आगे नरकादिक मैं परस्पर मारे है हां हीनाधिक नाहीं ॥६॥
स्वमांसं पहमांसेर्ये पोषयन्ति दुराशयाः । स्वमांसमेव खाद्यन्ते हठतो नारकैरिमे ॥७॥
अर्थ- जो दुष्टचित्त परजीवनके मांसनकरि अपना मांस पोषै है सो ये हठतें अपने मांसहीकौं नारकीन करि खवावें है ॥ ६७॥
स्वल्यायुर्किकलो रोगी विचक्षुर्वधिरः खलः । वामनः पामनः षंढो जायते स भवे भवे ॥ ६८ ।।
अर्थ - अल्प आयु अंगविकल रोगी नेत्ररहित बड़ा दुष्ट वामन कुष्टरोगी नपुंसक सो मांसभक्षी भव भव विषै होय है ॥ ६८ ॥
दुःखानि यानि दृश्यन्ते दुःसहानि जगत्त्रये । सर्वाणि तानि लभ्यन्ते प्राणिमर्दनकारिणा ॥ ६६ ॥ अर्थ - तीन लोक विषै जे दुःसह दुख देखिए हैं ते सर्व दुःख प्राणीनकी हिंसा करने वाले करि पाइए है ॥६६॥
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द्वादशम परिच्छेद
[३०१
इति दोषवती मत्त्वा, मृगया हितकांक्षिणा। नानानर्थकरी त्याज्या, राक्षसीब विभीषणा ॥१०॥
अर्थ--या प्रकार दोष सहित जानिकै हितका वांछक जो पुरुष ताकरि अनेक अनर्थनकी करनहारी राक्षसी समान भयकारी जो शिकार सो त्यागना योग्य है ।।१६६॥
भोजनं कुर्वता का,यं मौनं शीलवता सदा । सन्तोषित्वमिवानिय, भक्ष्यशुद्धिविधायिना ॥१०१॥
अर्थ जैसे भिक्षाशुद्धिका आचरण करनेवाला जो मुनि ताकरि अनिंद्य सन्तोषीपना करना योग्य है तैसैं भोजन करता जो शीलवान सत्पुरुष ताकरि मौन करना योग्य है ॥१०१।।
सर्वदा शस्यते जोषं, भोजने तु विशेषतः । रसायनं सदा श्रेष्ठं, सरो गित्वे पुनर्न किम् ॥१०२॥
अर्थ-मौन सदाकाल सराहिए है अर भोजनमैं तो विशेष सराहिए है। जैसे औषध सदा भली है बहरि सरोगीपने विर्षे कैसें भली न होय ॥१०२॥
सन्तोषो भाव्यते तेन, वैराग्यं तेन दृश्यते । संयमः पोष्यते तेन, मौनं येन विधीयते ॥१०३॥
अर्थ-जाकरि मौन करिए है ताकरि सन्तोष भाइए है ताकरि वैराग्य देखिए है ताकरि संयम पोषिए है ॥१०३॥
वाचो व्यापारतो दोषा, ये भवंति दुरुत्तराः । ते सर्वेऽपि निवार्यते, मौनव्रतविधायिना ॥१०४॥
अर्थ-वचनके व्यापारते जे दुःखसै उतरे जाय ऐसे दोष हैं ते सर्व ही मौन व्रतके धारक पुरुष करि निवारिए है ॥१०४॥
सागरोऽपि जनो येन, प्राप्यते यतिसंयमम् । मौनस्य तस्य शक्यंते, केन वर्णयितुंगुणाः ॥१०॥
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३०२]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ-जिस मौन व्रत करि गृहस्थ भी यतिके संयमकौं प्राप्त कीजिए है तिस मौनके गुण कौन करि वर्णन करनेकौं समर्थ हूजिए है, अपितु नाहीं हूजिए है ॥१०॥
पोषेण विशता रोधः, कल्मषस्य विदीयते । बलिष्ठेन मपिष्ठेन, सलिलस्येव सेतुना ॥१०६॥
अर्थ-जैसे बलवान अर बड़ा जो सेतु कहिए पाल ताकरि जलका रोध करिए तैसें प्रवेश करता जो पाप ताका रोध मौनकरि कीजिए है ॥१०६॥
हुंकारांगुलिखात्कारभ्र मूर्द्ध चलनादिभिः । मौनं विदधता संज्ञा, विधातव्या न गृद्धये ॥१०७॥
अर्थ-मोनकौं धारता जो पुरुष ताकरि हकार करना अंगुली उठावना खंकार करना भकूटी चलावना मस्तक चलावना इत्यादि करि गृद्धि जो अति चाह ताके अर्थि संज्ञा करना योग्य नाहीं ॥१०७॥
सार्वकालिकमन्यच्च, मौनं द्वधा विधीयते । भक्तितः शक्तितो भव्यर्भवभ्रमणभीरुभिः ॥१०८॥
अर्थ-संसार भ्रमणतै भयभीत जे भव्य जीव तनिकरि भक्तितै शक्तिसारू एक तौ सार्वकालिक कहिए मरण पर्यंत दूजा असार्वकालिक कहिए कालकी मर्यादारूप ऐसे दोय प्रकार मौन कीजिए है ।।१०८।।
भव्येन भक्तितः कृत्वा, मौनं नियतकालिकम् । जिनेन्द्र भवने देया, घंटिका समहोत्सवम् ॥१०६॥
अर्थ- भव्य जीव करि भक्तिसैं कालकी मर्यांदारूप मौन करिकै जिनेन्द्रके मंदिर विर्षे महोत्सव सहित जैसें घंटिका देनी योग्य है ।
भावार्थ-मौनव्रत पूर्ण होय तब उद्यापन करै तामैं जिन चैत्यालयमैं घंटा चढ़ावै, ऐसा जानना ॥१०६।।
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द्वादशम परिच्छेद
[ ३०३
नसार्वकालिके मौने, निर्वाहव्यतिरेकतः । उद्योतनं परं प्राज्ञैः, किंचनापि विधीयते ॥११०॥
प्रर्थ -सार्वकालिक कहिए यावज्जीव मौनविर्षे निर्वाह विना (निर्वाहक सिवाय) पंडितनि करि किछ भी उद्योतन न करिए है ॥११०॥
आवश्यके मलक्षेपे, पापकार्ये विशेषतः । मौनी न पीड्यते पापैः, सन्नद्धः सायकैरिव ॥१११॥
अर्थ-सामायिकादि आवश्यक क्रिया विष, मलके क्षेपण विर्षे, बहुरि पाप कार्य जो मैथुन सेवन आदि ता विर्षे मौनका धारी जीव है सो पाप करि न पीडिए है। जैसे वख्तर पहरे योद्धा है सो बाणनि करि न पीड़या जाय है तैसें मौनी पापनि करि न बन्धै है ॥१११॥
कोपादयो न संक्लेशा, मौनव्रतफलार्थिना। पुरः पश्चाच्च कर्तव्याः, सद्यते तद्धितः कृतः ॥११२॥
अर्थ-मौनव्रतके फलका वांछक जो पुरुष ताकरि आगें बा पीछे क्रोधादि कषाय करना योग्य नाहीं, जातें करे जे क्रोधादि कषाय तिन करि मौन व्रत नाश कीजिए है।
मावार्थ-मौनके पहले वा पीछे कषाय न करना । कषायतें मौन व्रत निष्फल होय है ॥११२॥
वाचं यमः पवित्राणां, गुणानां सुखकारिणाम् । सर्वेषां जायते स्थानं, मणीनामिव नीरधिः ॥११३॥
अर्थ-वचनका संयम है सो पवित्र अर सुखकारी जे सर्वगुण तिनका स्थान होय है जैसे रत्ननिका स्थान समुद्र होय है तैसें।
भावार्थ-वचनका संयम है सो सर्व गुणनिका स्थान है, ऐसा जानना ॥११३॥
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३०४ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
वाणी मनोरमा तस्य शास्त्रसंदर्भगमिता । श्रादेया जायते येन, क्रियते मौनमुज्ज्वलम् ॥ ११४॥
अर्थ -जा पुरुष करि निर्मल मौन करिये हैं ताकि शास्त्ररचना करि युक्त मनकौं प्यारी आदर करने योग्य वाणी होय है ।।११४ ॥ पदानि यानि विद्यन्ते, वन्दनीयानि कोविदैः ।
सर्वाणि तानि लभ्यन्ते, प्राणिना मौनकारिणा ॥ ११५ ॥
अर्थ - जे पंडितनि करि वन्दनीक पद हैं ते सर्व पद मौन करनेवाला जो जीव ताकरि पाइए है ॥ ११५ ॥
निर्मलं केवलज्ञानं, लोकालोकावलोकनम् ।
लीलया लभ्यते येन, किं तेतान्यन्न कांक्षितम् ॥ ११६॥
श्रर्थ - लोकालोक का देखनहारा ऐसा निर्मल केवलज्ञान जा करि लीलापात्र करि पाइए ताकरि और वांछित वस्तु कहां न पाइए, अपि तु पाइए ही है ।। ११६ ॥
ऐसें मौन व्रतका वर्णन किया । आर्ग-उपवासका वर्णन करें हैं रागो निवार्यते येन, धर्मो येन विवद्धर्यते । पापं निहन्यते येन, सयमो येन जन्यते ॥ ११७ ॥ अनेक भय संबद्ध कर्मकाननपावकः ।
उपवासः स कर्त्तव्यो नीरागीभूतचेतसा ॥११८॥
-:
श्रर्थ - जाकरि रागभाव निवारिए है अर धर्म बढ़ाइए है अर पाप नाशिए है अर संयम भाव उपजाइए है ।। ११७।। सो उपवास रागरहित भया है चित्त जाका ऐसे पुरुष करि करना योग्य है, कैसा है उपवास अनेक भवमैं बन्धे जे कर्म सो ही भया वन ताकौं अग्नि समान है ॥११८॥
उपेत्याक्षाणि सर्वाणि, निवृत्तानि स्वकार्यतः 1
वसंति यत्र स प्राज्ञपरुपवासो विधीयते ॥११॥
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द्वादशम परिच्छेद ।
[३०५
अर्थ-जा बि सर्व स्पर्शनादि इन्द्रिय है ते अपना अपना कार्य जो स्पर्शादि विषयनिमैं प्रवत ना तातें रहित भए सन्ते आत्माके निकट प्राप्त होयकरि वसिए सो उपवास कहिए ॥११६॥
स सार्वकालिको जैनैरेकोऽन्योऽसार्वकालिकः । द्विविधः कथ्यते शक्तों, हषीकाश्वनियन्त्रणे ॥१२०॥
अर्थ-सो उपवास एक तौ सार्वकालिक कहिए यावज्जीव धारणा, दूजा असार्वकालिक कहिए कालके प्रमाणरूप, ऐसे दोय प्रकार जैनीन करि कहिए है, कैसा है उपवास इन्द्रियरूप घोडेनके रोकनेमें समर्थ है ॥१२०॥
तत्राद्यो म्रियमाणस्य, वर्तमानस्य चापरः । कालानुसारतः कार्य, क्रियमाणं महाफलम् ॥१२१॥
अर्थ-तहां आदिका सार्वकालिक उपवास है सौ जाका मरण निकट होय संन्यास धरै ताकै होय है, बहुरि दूसरा असार्वकालिक उपवास है सो वर्तमान पुरुषके चतुर्दशी आदि पर्वके कालविर्षे मर्यादारूप होय है, जातें कालके अनुसारतें किया भया कार्य है सो महाफलरूप होय है ॥१२१॥
वर्तमानो मतस्त्रेधा, स वर्यो मध्यमोऽधमः। कर्तव्यः कर्मनाशाय, निजशक्त्यनुगृहकैः ॥१२२॥ अर्थ-सो वर्तमान कहिए कालका नियमरूप उपवास है सो उत्तम, मध्यम, अधम ऐसें तीनप्रकार कह्या है सो अपनी शक्तिकौं न छिपावनेवाले ऐसे जे पुरुष तिन करि कर्मके नाशके अर्थि करना योग्य है।
भावार्थ-शक्तिसारू उपवास कर्मकी निर्जराहीके अर्थ करना योग्य है, ख्ताति लाभ पूजादिकके अर्थ न करना ऐसा अभिप्राय है ॥१२२॥
चतुर्णां तत्र भुक्तीनां, त्यागे वर्यश्चतुर्विधः । उपवास: सयानीयस्त्रिविधो मध्यमो मताः ॥१२३॥
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३०६ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
भुक्तिद्वयपरित्यागे, विविधो गदितोऽधमः । उपवासस्त्रिधाप्येषः, शक्तित्रिवयसूचकः ॥१२४॥
अर्थ-तहां च्यार प्रकार आहारका त्याग करिए सो चतुर्विध नामा उत्तम उपवास है, बहुरि पानी सहित है सो त्रिविध नामा मध्यम उपवास कह्या है ॥१२३।। बहुरि दोय वेला प्रकार भोजनका त्याग होत सन्ते त्रिविध नामा अधम उपवास है, यह उत्तम, मध्यम, जघन्य तीनों प्रकारहीका उपवास उत्तम, मध्यम, जघन्य तीनौं शक्तिका सूचक है, जैसी जा पुरुषमैं शक्ति होय तैसा ही उपवास धारै ॥१२४।।
भावार्थ--धारणे पारणे एकबार भोजन करै अर च्यार प्रकार आहारका त्याग करै सो चतुर्विध नामा उत्तम उपवास कहिए है, अर धारणे पारणे एक मुक्ति करै अर उपवासमैं जल लेय सो मध्यम त्रिविध नामा उपवास है, अर धारणे पारणे अनेकबार खाय अर उपवासविर्षे पानी भी लेय सो अधम त्रिविधनामा उपवास कहिए, यामैं एकदिनमैं दोय भोजनकी वेला होय है तिन दोऊ वेलामें भोजन त्याग्या तातें दोऊ भोजनका त्याग किया, ऐसा जानना ॥१२३-१२४।।
आगें उपवास करने का विधान कहै हैं:प्रहर द्वितीये भुक्त्वा समेत्याचार्यसन्निधिम् । वंदित्वा भक्तितः कृत्वा, कायोत्सर्ग यथाक्रमम् ॥१२५।। पंचांगप्रति कृत्वा, गृहीत्वा सूरिवाक्यतः । उपवासं पुनः कृत्वा, कायोत्सर्ग विधानतः ॥१२६॥ प्राचार्य स्तवतः स्तुत्त्वा, वंदित्वा गणनायकम् । दिनद्वयं ततो नेयं स्वाध्यायासक्तचेतसा ॥१२७।। विधाय साक्षिणं सूरि गृहसाणः पटीयसा । संपद्यतेतरामेष व्यवहार इव स्थिरः ॥१२८॥
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द्वादशम परिच्छेद
कर्त्त व्या महीपृष्ठे प्रासुके
सर्वभोगोपभोगानां, शयितव्यं
विहाय सर्वमारंभमसंयमविवर्द्ध कम् । विरक्तचेतसा स्थेयं, यतिनेव पटीयसा ॥१३०॥
विरतिस्त्रधा ।
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कृतसंस्तरे ॥ १२६॥
तुतीये वासरे कृत्वा सर्वमावश्यकादिकम् । भोजयित्वाऽतिथिं भक्त्या भोक्तव्यं गृहमेधिना ॥ १३१ ॥ उपवासः कृतोऽनेन विधानेन विरागिणा । हिनस्त्ये कोऽपि रेपांसि, मांहीव दिवाकरः ॥१३२॥
श्रर्थ -- धारणेके दिन दोय प्रहर विषै भोजन करके आचार्य निके निकट जायकरि भक्तितें वंदना करकें आगम अनुसार कायोत्सर्ग करके ।। १२५ ।। बहुरि पंचांग नमस्कार करके आचार्यके वचनतै उपवासकौं ग्रहण करके फेरि विधान तें कायोत्सर्ग करकें ॥। १२३ ।। आचार्यकौं स्तवनतें स्तुति करकै अर गणधर देवकौं वंदिकै ताकै अनन्तर दोय दिन कहिए सोलह प्रहर स्वाध्याय मैं आमक्त जो मन ताकरि व्यतीत करना योग्य है ।
भावार्थ- सोलह प्रहर स्वाधाय मैं लीन रहे ॥ १२७ ॥ बुद्धिवान ताकरि आचार्यकौं साक्षिकरि ग्रह्या जो उपवास सो अतिशय करि निश्चल होय है । जैसे व्यवहार कार्य बडेनके साक्षीभूत किया स्थिर होय है तैसें गुरु की साक्षी धार्या उपवास निश्चल होय है ॥१२८॥ बहुरि उपवास मैं सर्वं भोग उपभोगनिका त्याग मन वचन काय करि करना योग्य है, अर कर्या है तृणादिकका संस्तर जहां ऐसे प्रासुक पृथ्वीतल पर सोवना योग्य है || १२ || असंयमका बढावनेवाला जा सर्व आरम्भ ताहि त्यागिकैं मुनिकी ज्यों विरक्तचित्त होयकै बुद्धिवान करि तिष्ठना योग्य है ॥ १३० ॥ बहुरि तीसरे दिन सर्व आवश्यक क्रिया करके अतिथिको भक्ति करि भोजन करायकै श्रावककरि भोजन करना योग्य हैं ॥१३१॥ इस विधान करि
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३०८]
श्री अमितगति श्रावकाचार
विरागी पुरुष करि किया जो उपवास सो एक भी जैसैं सूर्य अन्धकारकौं हरे तैसें पापकौं हरै है ॥१३२॥
उपवासं विना शक्तो, न परः स्मरमर्दने । सिंहेनेव विदार्यते, सिंधुरा मदमंथराः ॥१३३॥
अर्थ-जैसे मदोन्मत्त हस्ती हैं ते सिंहकरि विदारिए हैं तैसे उपवास बिना कामके नाश करने विर्षे और समर्थ नाहीं ॥१३३।।
उपवासेन संतप्ते, क्षिप्रं नश्यति पातकम् ।
ग्रीष्मार्काच्यासिते तोयं, कियत्तिष्ठति भूतले ॥१३४॥
अर्थ-उपवास करि तप्तायमान भया जो पुरुष ता विर्षे पाप शीघ्र ही नाशकौं प्राप्त होय है। जैसे ग्रीष्मके सूर्यकरि व्याप्त जो पृथ्वीतल ता बिष जल कितना तिष्ठै शीघ्र ही सूखि जाय तैसे उपवासते पाप नसि जाय है ॥१३४॥
नित्यो नैमित्तिकश्चेति, द्वधाऽसौ कथितो बुधैः । प्राषधे स मतो नित्यो, बहुधाऽन्यो व्यवस्थितः ॥१३५॥
अर्थ–सो यह उपवास पंडितनिकरि नित्य अर नैमित्तिक ऐसे दोय प्रकार कह्या है सो प्रोषध जो अष्ठमी चतुर्दशीपर्व ता विष तौ नित्य कह्या है अर अन्य जो नैमित्तिक सो बहुत प्रकार व्यवस्थित है ॥१३॥
उपवासा विधीयन्ते, ये पंचम्यादिगोचराः।
उक्ता नैमित्तिकाः सर्वे, ते कर्मक्षपणक्षमाः ॥१३६॥
अर्थ-जे पंचमी आदि विषं उपवास करिए हैं ते सर्व कर्मके नाश करने मैं समर्थ नैमित्तिक उपवास कहे हैं ॥१३६॥
गुरुतरकर्मजालसलिलं भववृक्षकरं, बहुपरिणाममेघनिवहप्रभवं प्रसभम् । क्षपयति सर्वमुनमुपवासपयोजपतिविरचितसंवृतनिखिलदेहितडागततेः ॥१३७॥
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द्वादशम परिच्छेद
-[३०६
अर्थ-रच्या है संवर जानें ऐसा जो पुरुष ताकै उपवासरूपी जो उग्र सूर्य है अतिबड़ा जो ज्ञानावरणादि जालरूप जल ताहि बलात्कारते क्षेप है सोख है, कैसा है कर्म जालरूप जल संसार-वृक्षका करनेवाला है अर नानाप्रकार रागादि भावरूप मेघनिके समूहतें उपज्या है बहुरि समस्त संसारी जीवरूप सरोवरविषभ र्या है।
भावार्थ-संवर सहित उपवासतें कर्मनिकी निर्जरा अधिक होय है, ऐसा जानना ॥१३७॥
जनयति यद्विधूय विपदं रभसोपचिति, घटयति संपदं त्रिदशमानववर्गमताम् । विधिविहितस्य तस्य पुरुषः श्रुतकेवलिनो,
वदति फलं न कोऽप्यनशनस्य परो भुवने ॥१३८॥ अर्थ-जो उपवास संचयरूप भई जो विपदा ताहि नाश करि बलात्कारतें देवमनुष्यके समूहकरि मानित संपदाकौं रचै है, ऐसा विधिपूर्वक कर्या जो उपवास ताके फलकौं केवली कहैहैं और पुरुष लोकविर्षे न कहै है ॥१३॥
रचयति यस्त्रिधा व्रतमिदं महितं महितेरमिगतगतिश्चतुर्विधमनन्यमनाः पुरुषः। भवशतसन्चितं कलिलमेष निहत्य घनं, शिवपदमेति शाश्वतमपास्तसमस्तमलम् ॥१३६॥
अर्थ-जो पुरुष यहु च्यार प्रकार व्रतकों मन वचन काय करि करै है सो अनेक जन्म करि संचय किया जो सघन पाप ताहि नाश करि समस्त कर्ममलरहित शास्वता जो शिवपद ताहि प्राप्त होय है, कैसा है पूजनीक पुरुषनिकरि पूजनीक है, बहुरि कैसा है वह पुरुष अपार है ज्ञान जाका अर नाहीं है व्रतसिवाय अन्यविर्षे मन जाका, ऐसा है ॥१३॥
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३१० ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
दोहा
मन वच काय विशुद्ध करि, जो धारै व्रत शुद्ध । नाशि कर्म - मल मोक्षपद, पार्व सो अविरुद्ध ॥ ए श्री अमितगति आचार्यविरचित श्रावकाचार विषै द्वादशमां परिच्छेद समाप्त भया ।
त्रयोदश परिच्छेद । शशांकामसम्यको, व्रत्ताभरणभूषितः । शीलरत्नमिवाखानिः पवित्रगुणसागरः ॥१॥
अर्थ - शशांकादिमलरहित चन्द्रमासमान निर्मल है सम्यक्त जाका अर व्रतरूप आभूषण करि शोभित अर शीलरत्नके उपजायवेकौं खानिसमान अर निर्मल गुणनिका समुद्र ऐसा है ॥ १ ॥
ऋजुभूतमनोबुद्धिर्गुरुशुश्रूषणोद्यतः ।
जिनप्रवचनाभिज्ञः श्रावकः सप्तधोत्तमः ॥ २ ॥ ॥
अर्थ- - अर सरल है मनसम्बन्धी बुद्धि जाकी अर गुरुकी सेवा विषै उद्यमी है अर जिनागमका जाननेवाला है ऐसा उत्तम श्रावक सातप्रकार
जानना ॥२॥
"
निसर्गजरुचौ जन्तावेकांत रुचिराजिते । असहाय महाप्राज्ञे सदायतन सेवके ॥३॥ कृतानायतनत्यागे परदृष्ट्यविमोहिते । सासनासादनाहीने जिनशासन ह ॥४॥
सोपानं सिद्धिसौधस्य कल्मषक्षपणक्षमम् । ज्ञानचारित्रयोर्हेतुः स्थिरं तिष्ठति दर्शनम् ॥५॥
अर्थ - ऐसे पुरुष विषें सम्यग्दर्शन निश्चल तिष्ठे है जो स्वभावजनित रुचि जाकै अर निश्चय प्रतीति करि शोभित अर सहायरहित महाबुद्धिवान सदा आयतन जो अहंतादि तिनका सेवक अर किए हैं
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त्रयोदश परिच्छेद
[ ३११
अनायतन कहिए कुदेवादिकका त्याग जाने अर अन्यमती करि विमोहित है अर जिनशासनकी विराधना करि हीन है अर जिनधर्मका बढ़ावनेवाला है | कैसा है सम्यग्दर्शन मोक्षमहलका सोपान है अर पापके नाश करने में समर्थ है अर ज्ञानचारित्रका कारण है ।
भावार्थ- - सम्यक्त होतें सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र नाम पावै ऐसा हैं ।। ३-४-५॥
न निरस्यति सम्यक्त, जिनशासनभावितः । गृहीतं वन्हिसंतप्तो, लोहपंड इवोदकम् ॥६॥
अर्थ - जिनशासन करि भावित कहिए जानें जिनागम भाया है सो पुरुष ग्रहण किया जो सम्यक्त ताहि न छोड़े है, जैसें अग्निकरि तत जो लोहका पिंड सो जलकौं न छोड़े है || ६ ||
दर्शनज्ञानचारित्रतपः सुविनयं परम् । करोति परमश्रद्धस्तितीर्षु भववारिधिम् ॥७॥ जिनेशानां विमुक्तानामाचार्याणां विपश्चिताम् । साधूनां जिनचैत्यानां चिनराद्धांतवेदिनाम् ॥८॥ कर्त्तव्या महती भक्तिः सपर्या गुणकीर्त्तनम् । अपवादतिरस्कारः संभ्रमः शुभदृष्टिता ॥६॥ अर्थ - उत्कृष्ट हे श्रद्धान जाकैअर संसार - समुद्रकौं तिरवेकी है इच्छा जाकं ऐसा सम्यक्ती पुरुष दर्शन ज्ञान चारित्र तप इनिमैं विनय करें है । जिनदेव निकी तथा विमुक्त कहिए सिद्धभगवाननिकी तथा आचार्य निकी नथा जैनश्रुतके पाठकनिकी तथा साधूनिकी तथा जिन प्रतिमानिकी तथा जैन सिद्धांतके ज्ञातानिकी बड़ी भक्ति करनी, पूजा करनी, गुण गावना, अपवाद दूर करना, हर्ष करना, शुभ दृष्टिपना करना यह विनय 119-5-211
श्रागमाध्ययनं कार्यं कृतकालादिशुद्धिमा । विनयारूढिचित्तेन, बहुमानविधायिना ॥१०॥
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३१२]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ-करी है कालादिककी शुद्धिता जानें ऐसा जो पुरुष ताकरि आगमका अध्ययन करना योग्य है, कैसा है सो विनय विर्षे युक्त है चित्त जाका अर बहुमानका करनेवाला है।
भावार्थ-कालादिककी शुद्धिता करि विनय सहित बहुत मानसें जिनवाणीका अभ्यास करना योग्य है ॥१०॥
कुर्वताऽवग्रहं योग्यं, सूरुिनिन्हवमाचिना ।
परमां कुर्वता शुद्धि, व्यन्जनाथद्वयस्थिताम् ॥११॥
अर्थ-सूरिनिह्नवमोची कहिए आचार्यका नाम न छिपावनेवाला अर योग्य अवग्रह कहिये प्रतिज्ञा करनेवाला अर व्यंजनशुद्धि अर्थशुद्धि दोऊ उत्कृष्ट करता ऐसा जो पुरुष ताकरि ज्ञान विनय करिये है ॥११॥
संयमे संयमाधारे संयमप्रतिपादिनि ।
प्रादरं कुर्वतो ज्ञेयश्चारित्रविनयः परः ॥१२॥ अर्थ- संयम विर्ष अर संयमके आधार जे मुनि तिनि विर्षे तथा संयमके उपदेश करनेवाले विर्षे आदर करता जो पुरुष ताकै उत्कृष्ट चारित्र विनय जानना योग्य है ॥१२॥
महातपः स्थिते साधौ, तपः कार्ये ससंयमे । भक्तिमात्यंतिकी प्राहुस्तपसो विनयं बुधाः ॥१३॥
प्रर्थ--महातप विर्षे तिष्ठया जो साधू ता विर्षे अर संयम सहित तप कार्य विर्षे जो अत्यन्त भक्ति ताहि तपका विनय पंडितजन कहैं हैं ॥१३॥
सम्यक्तचरणज्ञानतपांसीमानि जन्मिनाम् । निस्तारणसमर्थानि, दुःखोर्मे भवनीरधेः ॥१४॥
अर्थ-ये सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तप हैं ते जीवनिकौं दुःख रूप है लहर जामैं ऐसा जो संसारसमुद्र तातें तारने विषं समर्थ हैं ॥१४॥
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त्रयोदश परिच्छेद
चतुरंगमिद साधोः, पोष्यमाणमहनशम् । सिद्धि साधयते सद्यः, प्रार्थितां नृपतेरिव ॥ १५ ॥
अर्थ - यह च्यार भेदरूप मुनिराजका आचरण निरन्तर पोष्या भया शीघ्र ही वांछित मोक्षकों साधे है जैसें राजाकी चतुरंग सेना पोषी भई वांछित सिद्धिकौं साधै है स ||१५||
सिसाधयिषते सिद्धि, चतुरंगमृतेऽत्र यः ।
स पौतेन विना मूढ़स्तितीर्षति पयोनिधिम् ॥१६॥
अर्थ - जो सूढ़ दर्शन ज्ञान चारित्र पत इनि च्यार कारण विना मोक्षकौं साधे चाहै है सो मूढ़ जहाज विना समुद्रकौं तिरया चाह है ॥१६॥
लोकद्वयेऽपि सोख्यानि दृश्यंते यानि कानिचित् । जन्यं ते तानि सर्वाणि चतुरंगेण देहिनः ॥१७॥
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अर्थ - - निश्चयकरि इस लोकमैं अर परलोकमैं जे केई सुख देखिए हैं ते सर्व जीवकै दर्शन ज्ञान चारित्र तपरूप चतुरंग करि उपजाइए है ॥ १७॥
निरस्यति रजः सर्वं ज्ञेयं सूचयते हितम् ।
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[ ३१३
मातेव कुरुते किं न चतुरंगनिषेवणा ॥१८॥
अर्थ – सर्वं रज जो पाप ताहि दूर करै है अर हित बतावें है ऐसें ऐसें माताकी ज्यौं दर्शन ज्ञारित्र तपकी सेवा कहा न करे है, सर्व ही हित करें है ॥ १८ ॥
चतुरंगमपाकृत्य कुर्वते कर्म ये परम् । कल्पद्र ुममपाकृत्य, ते भजंति विषद्र मम्
॥१६॥
अर्थ - जे पुरुष दर्शन ज्ञानचारित्र तप इनि च्यार कारणनिकों तागकै और क्रियाकर्म करें है सा कल्पवृक्षकों छोड़कों विषवृक्षकों सेव है ॥१६॥
चतुरंगं सुखं दत्त, यत्तत्कर्म परं कथम् । यत्करोति सुहृत्कार्यं तन्न वैरी कदाचन ॥२०॥
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श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ - सम्यग्दर्शन ज्ञानादि च्यार कारण जो सुख देय हैं सो और कर्म सुख कैसें देया जैसें जो मित्र कार्य करै सो वेरी कदाच नाहीं करै ॥२०॥
३१४]
ये संति साधवो धन्याश्चतुरंगविभूषणाः । विधेयो विनयस्तषां मनोवाक्कायकर्मभिः ॥२१॥
अर्थ – जे धन्य साधु पुरुष दर्शन ज्ञान चारित्र तप ये च्यार अग ही है भूषण जिनके ऐसे हैं तिनका विनय मन वचन कायकरि करना योग्य है ॥२१॥
गुणनामनवहानां तदीयानामनारतम् ।
चितनीय पटोयोभिरूपबृ ंहणकारणम् ॥२२॥
- तिन साधूनके निर्मल गुणनिका निरंतर बुद्धिवाननिकरि चितवन करना योग्य है कैसा हैं साधूनके गुणका चितवन धर्म aढावका कारण है ॥२२॥
ध्यायतो योगिनां पथ्यमपथ्यप्रतिषेधनम् ।
मानसो विनयः साधोर्जायते सिद्धिसाधकः ॥ २३ ॥
अर्थ - योगीश्वरनका हितरूप अर अहितका निषेध करनेवाला कार्य ताहि ध्यावता जो पुरुष ता साधुकै मौक्षका साधक मानसिक विनय होय है ॥२३॥
यश्चितयति साधूनामनिष्टं दुष्टमानसः ।
सर्वानिष्टख निर्मूढो, जायते स भवे भवे ॥२४॥
अर्थ- जो दुष्ट साधुनका अनिष्ट विचारै सो मूढ़ सर्व अनिष्टनिकी खानि भव भव विषें होय है ||२४||
दुर्भगो विकलो मूर्खो, निविवेको नपुंसकाः । कोचकर्मकरो नीचो, याति दूषण चिंतक ॥। २५शा
अर्थ - यतीनके दूषणका चितवन करनेवाला पुरुष है सो दुर्भग होय है विकलांग होय है मूर्ख होय विवेक रहित होय नपुंसक होय नीच कर्मका करनेवाला नीच होय ||२५||
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त्रयोदश परिच्छेद
[३१५
विज्ञायेति महाप्राज्ञा;, संयतानामरेपसाम् । संचितय ति नानिष्टं, त्रिविधेन कदाचन ॥२६शा
अर्थ-ऐसें जानकरि महाबुद्धि है ते पापरहित जे मुनिराज तिनका अनिष्ट मन, वचन, कायकरि कदाच न चिन्तवै है ॥२६॥ ... श्रवणीयमनाक्षेपं, सपर्याप्रतिपादकम् ।
अनवज्ञापरं तश्यं, मधुरं हृदयंगमम ॥२७॥
अर्थ -सुनने योग्य सन्देह रहित पूजाका उपजावनेवाला अर अनिंदामैं तत्पर सत्यार्थ मधुर हृदयकौं प्यारा ॥२७॥
वचनं वदतः पथ्य, रागद्वेषाद्यनाविलम् ।
वाचिको विनयोऽवाचि, वचनीय निखर्वकः ॥२८॥ . अर्थ- रागद्वषादि करि मलीन नाहीं ऐसा हितरूप बोलता जो पुरुष ताकै वचन सम्बन्धी दोषनिका दूर करनेवाला वचन सम्बन्धी विनय जानना ॥२८॥
अभ्याख्यानतिरस्मारकारकं गुणदूषकम् । न वाच्यं वचनं भक्त स्तपोधनविनिंदकम् ॥२६॥
अर्थ-जातें साधूनके दोष प्रकट होय ऐसा वचन तथा अनादर करनेवाला वचन तथा गुणकादूषक वचन तथा साधूनिका निंदकवचन श्रावकनि करि बोलना योग्य नाहीं ॥२६॥
वदंति दूषणं दीना, ये साधूनामनेनसाम् । ते भवंति दुराचारा, दूष्या जन्मनि जन्मनि ॥३०॥
अर्थ-जे अझानी पापरहित साधूनके दूषण कहै हैं ते दुराचारी जन्म जन्म विष दूषणकौं भजें हैं ॥३०॥
अनादेयगिरो गाः, क्लेशिनः शोकिनो जडाः । यतिनिदापराः सन्ति, जन्मद्वितयदूषिताः ॥३१॥
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३१६ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ – जे पुरुष साधूनिकी निन्दामैं तत्पर हैं ते इस भवमैं अर परभवमैं दूषित होय हैं, नाहीं आदरने योग्य है, वाणी जिनकी अर निन्दने योग्य अर क्लेश सहित अर शोकवान अर अज्ञानी ऐसे होय हैं ॥ ३१ ॥
किं चित्रमपरं तस्माद्यदौदासीन्यचेतसाम् ।
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वन्दका वंदितास्तेषां निन्दकाः सन्ति निंदिताः ॥३२॥
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अर्थ – जातें उदासीन है चित्त जिनका ऐसे साधूनके वंदनेवाले तसबनि करि बंदनीक होय हैं अर निंदक हैं ते निंदक होय हैं, तातें या मैं सिवाय आश्चर्य कहां है, किछू भी नाहीं ||३२||
आग - ऊपर दाष्टति कह्या ताका दृष्टान्त कहैं हैं-यादृशः क्रियते भाव:, फलं तत्रास्ति तादृशम् ।
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यादशं चर्यं ते रूपं तादृशं दृश्यतेऽब्दके ॥ ३३ ॥ अर्थ -- जैसा भाव करिए तहां तैसा फल होय है जैसे दर्पण में जैसा रूप करिए तैसा ही देखिए है ।
भावार्थ - साधु तौ वीतराग है तिनमें जैसा भक्ति रूप वा द्वेष रूप परिणाम करे तैसा ही शुभ अशुभ फल पावै । जैसें दर्णप तौ निर्मल है वामैं जैसा रूप करै तैसा ही दीखै ऐसा जानना ॥३३॥
व्रतिनां निन्दकं वाक्यं, विबुद्धयेति न सर्वदा ।
मनोवाक्काययोगेन वक्तव्य हितमिच्छता ॥ ३४ ॥
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अर्थ -- या प्रकार साधूनकी निंदामें महापाप जान करि हितका बांछक जो जीव ताकरि व्रतोनका निंदक मन वचन कायके योगकरि सदाकाल ही कहना योग्य नाहीं ||३४||
अभ्युत्थानासनत्यागप्रणिपातांजुलिक्रिया ।
श्रायाते संयते कार्या, यात्यनुव्रजनं पुनः ॥३५शा
अर्थ – संजमी मुनिका आगमन होत सन्तें उठना आसनका त्यागना नमस्कार करना अंजुलि क्रिया कहिए हाथ जोड़ना क्रिया करनी योग्य है, बहुरि संजमीकौं गमन करते सन्तें पीछें चालना योग्य है ||३५||
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त्रयोदश परिच्छेद
श्रायांतं ये तपोराशि, विलोक्यपि न कुर्वते । अभ्युत्थानासनत्यागो, नैभ्यः संत्यधमाः परे ॥३६॥
अर्थ - जो पुरुष आवता जो तपका समूह मुनि ताहि देख कर भी 'उठबैठना अर आसनत्यागना रूप विनय नाहीं करें हैं इनतें सिवाय और नीच कोऊ नाहीं ॥ ३६ ॥
यत्र यत्र विलोक्य ते, संयतायतमानसाः ।
तत्र तत्र प्रणतव्या, विनयोद्यतमानसैः ॥३७॥
अर्थ-यत्न सहित है मन जिनका ऐसे संयमी मुनि जहां जहां देखिए तहां तहां बिनय मैं उद्यमी है मन जिनका ऐसे पुरुषनि करि नमस्कार करना योग्य है ॥ ३७॥
शय्योपवेशनस्थानगमनादीनि सर्वदा ।
विधातव्यानि नीचानि
संयताराधनापरैः ॥ ३८ ॥
[ ३१७
अर्थ - संयमीनकी आराधना विषें तत्पर जे पुरुष तिनकरि सोवनेकी शय्या अर बैठना अर खड़े रहना गमन करना इत्यायिक सदाकाल नीचे करना योग्य है ।
भावार्थ - जहां महन्त पुरुष विराजे होय ता स्थानतें शय्यादिक नीचे स्थान करना ऊँची जगह न करना, ऐसा जानना ||३८||
पुण्यवन्तो वयं येषामाज्ञां यच्छंति योगिनः । मन्यमानैरिति प्राज्ञैः कर्तव्यं यतिभाषितम् ॥ ३६ ॥
अर्थ - हम पुण्यवन्त हैं जिन योगीश्वर आज्ञा करें हैं ऐसे मानते जे पंडित तिनकरि यतीनका कह्या करना योग्य है ।
भावार्थ - यतीश्वर आज्ञा करै सो सुबुद्धीनकौं करना योग्य है, अपने मन मैं ऐसी मानना जो हम धन्य हैं जिनमें गुरुनकी आज्ञा भई ऐसें आज्ञा मैं हर्ष करना, ऐसा जानना ||३६||
निष्ठीवनमवष्टंभं, जंभणं गात्रभंजनम् ।
असत्यभाषणं नर्म, हास्य पादप्रसारणम् ॥४०॥
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३१८]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अभ्याख्यानं करस्फोटं, करेण करताडनम् । विकारमंगसंस्कार, वर्जयेद्यतिसन्निधौ ॥४१॥
अर्थ-यतीनके निकट विनयवान इतने कार्य न करे, ते कार्य बतावै हैं-थुक नाहीं अर सारा लेय प्रमाद सहित न बैठे, जम्भाई न लेय, अंग न तोडे, असत्य न बोलै, मजाख रागरूप हास्य वचन न बोलै, पाव न पसारै, लज्जाकौं कारण गुप्त बात प्रकट करि न कहै, हाथकी चुटकी न बजावै, हाथ करि हाथ न ताडै, विकार रूप चेष्ठा न करै, अंगकौं संवारै नाहीं इत्यादि और भी प्रमादरूप आचरण महंत पुरुषनिके निकट करना योग्य नाहीं ॥४०-४१॥
उच्चस्थानस्थितैः कार्या, वन्दना न तपस्विनः । न गति वामतः कृत्वा, विनीतैर्न च पृष्ठतः ॥४२॥
अर्थ-ऊँचे स्थानपरि तिष्ठतेनकरि तपस्वीनकी वन्दना करनी योग्य नाहीं अर विनयवाननि करि वाई तरफतें गमन करकै पाछतें वन्दना करनी योग्य नाहीं।
भावार्थ-मुनिनके दक्षिण तरफतें प्रदक्षिणारूप गमन करके वन्दना करनी, वाई तरफतें जायकरि पाछैतें वन्दना न करनी ॥४२॥
विधेति विनयोऽध्यक्षः, करणीयो मनीषिभिः । परोक्षेऽपि स साधूनामाज्ञाकरण लक्षणः । ४३॥
अर्थ-ऐसें मन वचन काय करि तीन प्रकार प्रत्यक्ष विनय करना योग्य है अर मुनिनकौं परोक्ष होते तिनकी आज्ञा करना है लक्षण जाका ऐसा परोक्ष विनय करना योग्य है ।।४३॥
संघे चतुर्विधे भक्त्या, रत्नत्रितयराजिते । विधातव्यो यथायोग्य, विनयो नयकोविदः ॥४४।।
प्रर्थ-नीति विषं चतूर जे पूरुष तिनकरि रत्नत्रयकरि शौभित जो मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका ऐसा च्यार प्रकार संघ ता विर्षे यथायोग्य विनय करना योग्य है ॥४४॥
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' त्रयोदश परिच्छेद
[३१६
विनयेन विहीनस्य, व्रतशीलपुरः सरा। निष्फलाः संति निःशेषा, गुणा गुणवता मताः ॥४५॥
अर्थ-विनय करि हीन जो पुरुष ताके व्रत शील आदि समस्त गुण हैं ते निष्फल गुणवाननिके कहैं हैं ॥४५॥
विनश्यति सभस्तानि, व्रतानि विनयं विना । सरोरुहाणि तिष्ठति, सलिलेन विना कुतः ॥४६॥
अर्थ--सर्व व्रत हैं ते विनय विना नाशकौं प्राप्त होय हैं। जैसे जल विना कमल हैं ते कहां तिष्ठे, अपि तु नाहीं तिष्ठं है तैसे जानना ॥४६॥
निर्व तिस्तरसाऽवश्या, विनयेन विधीयते । पात्मनीनसुखाधारा, सौभाग्येनेव कामिनी ॥४७॥
अर्थ-विनय करि आत्माका हितरूप सुखकी आधारभूत जो मुक्ति अवस्था सो वेग करि कीजिए है। जैसे सोभाग्य पने करि स्त्री वश कीजिए तैसें विनय करि मुक्ति वश होय है ॥४७।।
सम्यग्दर्शनचारित्रतपोज्ञानानि देहिना । अवाप्यते विनीतेन, यशांसीव विपश्चिता ॥४८॥
अर्थ-जैसें पंडितजन करि यश पाईए है तैसें विनयवान पुरुष करि सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तप ये पाईए है ॥४८॥
तस्य कल्पद्र मो भत्यस्तस्य चितामणिः करे । तस्य सन्निहितो यक्षो, विनयो यस्य निर्मलः ।।४।।
अर्थ-जा पुरुषकै निर्मल विनय है ताका कल्पवृक्ष किंकर है अर ताके पाके हाथ विर्षे चिंतामणि है अर यक्ष ताके निकटवर्ती है ।
भावार्थ-विनयतें शुभ परिणामके वशतें पुण्यबंध होय है ताके उदयतें सर्व कल्पवृक्षादि पदार्थ सुखदाई होय परिणमै है ॥४६॥
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३२० ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
श्राराध्य तेऽखिला येन, त्रिदशाः सपुरंदराः । संघस्याराधने तस्य, विनीतस्यास्ति कः श्रमः ॥ ५० ॥
अर्थ - इंद्रनिसहित समस्त देव जा विनयवान करि आराधिए है ताकि संघ के आराधन विषें कहाँ श्रम है ||५० ॥
क्रोधमानादयो दोषाश्छिद्यं ते येन वैरदाः ।
न वैरिणो विनीतस्य तस्य संति कथंचन ॥५१॥ अर्थ -जा विनयवान करि वैरभाव के देनेवाले ऐसे जे क्रोधमानादिक परिणाम ते नाश कीजिए है ताकै कोई प्रकार भी वैरी न होय है । भावार्थ - विनयवानतें कोई वैर राखे नाहीं ॥ ५१ ॥
--
कालत्रयेsपि ये लोके विद्यते परमेष्ठिनः
ते विनीतेन निःशेषाः, पूजिता वंदिताः स्तुताः ॥ ५२ ॥
अर्थ - - लोक मैं भूत भविष्यत् वर्त्तमान ऐसें तीनों काल विषें भी जे अर्हतादि परमेष्ठी विद्यमान है ते समस्त विनयवान पुरुष करि पूजे अर वंदे अर वचन करि गोचर किये ।
भावार्थ - जाकै विनय है ताकं समस्त परमेष्ठीनकौं भक्ति है ॥ ५२ ॥
गर्यो निखर्व्यते तेन जन्यते गुरुगौरवम् 1
प्रार्जवं दर्श्य ते स्वस्य, प्रश्रयं वितनोति यः ॥ ५३ ॥
अर्थ -- जो पुरुष विनयकौं विस्तारै है ता पुरुष करि आपका कषाय नाश कीजिए है अर गुरुनका मान उपजाइए है अर सरलभाव प्रवर्त्ताइए है ॥५३॥
विनीतस्यामला कीर्तिर्वभ्रमीति महीतले ।
सुखयं तीजनं सेव्या, कांतिः शीतरुचेरिव ॥५४॥
अर्थ -- विनयवान पुरुषकी निर्मल कीर्ति पृथ्वीतल विषे अतिशय करि भ्रम है, सर्व जगत में फैले है, कैसी हैं कीर्ति लोककौं सुख उपजावती है अर चन्द्रमाकी कांति समान निर्मल है ॥ ५४ ॥
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त्रयोदश परिच्छेद
[३२१
विनयः कारणं मुक्तविनयः कारणं श्रियः । विनयः कारणं प्राविनय: कारणं मतेः ॥५५॥
अर्थ-विनय है सो मुक्तिका कारण है अर विनय है सो लक्ष्मीका कारण है अर विनय है सो प्रीतिका कारण है अर विनय है सो बुद्धिका कारण है ॥५५॥
विनयेन विना पुसो, न सन्ति गुणसम्पदः ।
न वीजेन विना क्वापि, जायन्ते सस्यजातयः ॥५६॥
अर्थ-जैसे बीज बिना कहुँ भी धान्यकी जाति नाहीं उपजै है तैसें विनय बिना गुणरूप सम्पदा न होय है ॥५६॥
प्रश्रयेण विना लक्ष्मी, यः प्रार्थयति दुर्मनाः ।
स मूल्येन विनानूनं, रत्नं स्वीकत्तमिच्छति ॥५७॥
अर्थ-जो दुष्टचित्त पुरुष विनय विना लक्ष्मीकौं बांछ है सो पुरुष निश्चय करि मोल बिना रत्नकौं अंगीकार करनेकौं इच्छे है ॥५७॥
का संपदविनीतस्य, का मैत्री चलचेतसः ।
का तपस्या विशीलस्य, का कीर्तिः कोपवर्तिनः ॥५॥ अर्थ-विनयरहित पुरुषकी संपत्ति कहां, अर चलायमान है चित्त जाका एंसे पुरुषकी मित्रता कहां, अर शीलरहित पुरुषकी तपस्या कहां अर क्रोधी पुरुषकी कीर्ति कहां ॥५८।।
न शठस्येह यस्यास्ति, तस्यामुरु कथं सुखम् । न कच्छे कर्कटीयस्य, गृहे तस्य कुतस्तनी ॥५६॥
अर्थ-जा पुरुषकै इस लोक मैं संतोषरूप सुख नाहीं ताक परलोकमें सुख कैसै होय । जसैं जाकी वाड़ीमैं ककड़ी नाहीं ताके घरमैं काहे की होय, अपितु नाहीं होय ॥५६॥
लाभालाभौ विबुद्धयेति, भो विनीताविनीतयोः । विनीतेन सदा भाव्यं, विमुच्याविनयं त्रिधा ॥६०॥
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३२२ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ---या प्रकार विनयवानकै अर विनयरहितकै लाभ अलाभ जानि करि भो शिष्य ! मन वचन कायतें अविनयकौं त्यागकै विनयसहित होना योग्य है ॥६०॥
ऐसें विनयका वर्णन किया। आगे-वैयावृत्यका वर्णन करै हैं:कृतांतरिव दुर्वारः, पीड़ितानां परीषहैः ।
वैयावृत्यं विधातव्यां, मुमुक्षूणां विमुक्तये ॥६१॥
अर्थ-काल समान दुःखतें निवारण जिनका ऐसे जे रोगादि परिषह तिनकरि पीड़ित जे मोक्षके अभिलाषी आचार्य आदि तिनका वैयावृत्य कहिए टहल चाकरी करना योग्य है, काहेकै अथि-मुक्तिके अर्थि ।
__ भावार्थ - लौकिक कार्यकी वांछा रहित मुक्तिहीके अथि वैयावृत्य करना ॥६१॥
दुभिक्षे मरके रोगे, चौरराजाद्य पद ते । कर्मक्षयाय कर्तव्या, व्यावृतिर्वतवत्तिनाम् ॥६२॥
अर्थ-दुभिक्ष विर्षे अर मरी विषं अर रोगविर्षे अर चौर राजादिकतें उपसर्ग विर्षे करनिकै नाशके अथि व्रतीनकी टहल चाकरी करनी यौग्य है ॥६२॥
प्राचार्गेऽध्यापके वृद्ध, गक्षरक्षे प्रवर्तके । शैक्ष्ये तपोधने संघे, गणे ग्लाने दशस्वपि ॥६३॥ प्रासुकैरोषधैर्योग्ौर्मनसा वपुषा गिरा। विधेया व्यावृतिः, सद्भिर्भवभ्रांतिजिहासुभिः ॥६४॥
अर्थ-जाते व्रतनिका आचरण करिए सो आचार्य कहिए, बहुरि जाके निकट शास्त्राध्ययन करिए सो उपाध्याय कहिए, वहुत कालके दीक्षित होय सो वृद्ध कहिए, अर गणकी रक्षा करै सो गणरक्ष कहिए अर संघकौं प्रवर्त्ता सो प्रवर्तक कहिए, अर शास्त्रके सीखने में तत्पर होय सो शैक्ष्य कहिए अर महोपवासादिके करनेवाले तपस्वी कहिए, अर च्यार मुनिनका समूहकों संघ कहिए, अर बड़े मुनिकी संतानकौं गण कहिए, अर
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त्रयोदश परिच्छेद
[ ३२३
रोगादिक करि क्लेशरूप शरीर जाका होय सो ग्लान कहिए, ऐसे दश प्रकार मुनिनविषें सत्पुरुषनि करि योग्य कहिए, व्रतीन के लेने योग्य प्राक औषधनि करि तथा मन, वचन, काय करि टहल चाकरी करनीयोग्य है कैसे हैं वेयावृत्य करनेवाले पुरुष संसारभ्रमणके त्याग करनेके वांछक हैं ॥६३-६४॥
तपोभिर्दुष्करं रोगैः, वीड्यमानं तपोधनम् ।
यो दृष्ट्वोपेक्षते शक्तो, मिधर्मा न ततः परः ॥ ६५ ॥
अर्थ - दुःखकरि करे जांय ऐसें तपानि करि रोगनिकरि पीड़ित जो साधु ताहि देखकर जो शक्तिसहित पुरुष उपेक्षित कहिए किछू इलाज न कर है देखता है रहि जाय है ता सिवाय और अधर्मी नाहीं ॥ ६५ ॥
गृहस्थोऽपि यतिज्ञेयो, वैयावृत्यपरायणः । वैयावृत्यविनिर्मुक्तो, न गृहस्थो न संयतः ॥ ६६ ॥
अर्थ - जो वैयावृत्य विषं तत्पर है सो गृहस्थ भी यति समान जानना । बहुरि वैयावृत्यकरि रहित है सो न गृहस्थ है न मुनि है || ६६ ॥
वैयावृत्यपरः प्राणी, पूज्यते सम्यतैरपि ।
लभते न कृतः
पूजामुपकारपरायणः ॥६७॥
अर्थ - वैयावृत्यविषं तत्पर जीव है सो संयमीन करि भी पूजिए है, जातें उपकार विषै परायण जे पुरुष ते किसतें पूजा न पावें सर्व हीतें पावे ॥६७॥
संयमो दर्शनं ज्ञानं, स्वाध्यायो विनयो नयः । सर्वेऽपि तेन दीयन्ते, वैयावृत्त्यं तनोति यः ॥ ६८ ॥
अर्थ -- जो पुरुष वैयावृत्यकौं विस्तार है ताकरि संयम सम्यग्दर्शन ज्ञान, स्वाध्याय, विनय, नीति ये सर्वही दीजिए है ।
भावार्थ - वैयावृत्य करनेतें व्रती स्वस्थ होय तब संयमादि निर्विघ्न सधै, तातें जो व्रतीनकी टहल चाकरि करै ताकरि संयमादिक सर्व दिये कहिए ॥ ६८ ॥
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३२४]
श्री अमितमति श्रावकाचार
निर्वृतिर्वीयते येन, तेन धर्मो विधाप्यते ।
प्रागमोऽध्याप्यते तेन, क्रियते तेन वा न किम् ॥६६॥
अर्थ-जो पुरुषकरि धर्मात्मा जीवनिकों सुख दीजिए है ताकरि धर्म कराइए है अर आगम पढ़ाइए है अथवा ताकरि कहा उत्तम कार्य न कीजिए है सर्व ही कीजिए है।
भावार्थ-धर्मात्मा निराकुल होय तब धर्मसाधन करै शास्त्राध्यापन कर और भी धर्मकार्य करै जातें जो धर्मात्माकौं निराकुल करै ताकरि धर्मादिक सर्व उत्तम कार्य किए कहिए ॥६६॥
समाधीविहितस्तेन, जिनाज्ञा तेन पालिता। धर्मो विस्तारितस्तेन, तीर्थं तेन प्रवत्तितम् ॥७०॥
अर्थ-जो वैयावृत्य करै है तातें समाधि जो शुभ ध्यान सो किया अर जिनराजकी आज्ञा पाली अर तातें धर्म विस्तार्या अर तीर्थ जो रत्नत्रय सो प्रवर्तीया ॥७॥
दुष्प्रापं तीर्शकत त्वं, त्रैलोक्यक्षोभणक्षमम् । प्राप्यते व्यावृतर्यस्या, तस्या: कि न परं फलम् ॥७१॥
अर्थ--तीन लोककौं क्षोभ उपजावने विर्षे समर्थ जाके प्रभावतें इन्द्रादिकनिके आसन कम्पनादि क्षोभ उपजै ऐसा तीर्थक रपना जा वैयावृत्य भावनाका फल पाईए तथा और फल कहां न पाइए; सर्व ही पाइए ॥७१॥
परस्योपाते दुखं, मदा येनोपकुर्वता । संपद्यते कथं तस्य, क्व कार्यं कारणं विना ॥७२॥
अर्थ-जिसपर उपकार करनेवाले पुरुष करि परका दुःख दूर कीजिए है ताकै दुःख कैसे होय. जाते कारण बिना कार्य कैसे होय ?
भावार्थ-दुःखका कारण अशुभ भाव है सो परोपकारीकै अशुभ भाव नाहीं तब आप दुःखी कैसें होय, ऐसा जानना ॥७२॥
सेव्यो दीर्घायुरादेयो, नोरोगो निरुपद्रवः । वदान्यः सुन्दरो दक्षो, जायते स प्रियंवदः ॥७३॥
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त्रयोदश परच्छेद
[ ३२५
अर्थ-सो वैयावृत्य करनेवाला सेवने योग्य होय है, दीर्घायु होय है, आदर करने योग्य होय है, उपद्रव रहित होय है सुन्दर अर प्रवीण अर प्रियवादी होय है ॥७३॥
स धार्मिकः स सदृष्टिः, स विवेको स कोविदः । स तपस्वी स चारित्रा, व्यावृति विदधाति यः ॥७४॥
अर्थ-जं वैयावृत्य करै है सो धर्मात्मा होय है, सो सम्यग्दृष्टि है सो विवेकी है सो पंडित है सो तपस्वी है सो चारित्रवान है।
भावार्थ-वैयावृत्य होत सन्तै सर्व धर्मके अंग होय हैं जाते वैयावृत्य नामा तप सब तपनिका सारभूत कह्या है ।।७४॥
ऐसें वैयावृत्रा तपका वर्णन किया। आगे-प्रायश्चित नामा तपका वर्णन करै है
आश्रित्य भक्तितः सूरि, रत्नत्रितयभूषितम् । प्रायश्चितं विधातव्यं, गृहीत्वा व्रतशुद्धये ॥७॥
अर्थ-दर्शन ज्ञानचारित्र रूपी रत्नमय करि भूषित ऐसा जो आचार्य ता प्रति भक्तितै प्राप्त होय करि व्रतनिकी शुद्धताके अथि प्रायश्चित ग्रहण करि आचरण करना योग्य है ॥७॥
न सदोषः क्षमः कतुं, दोषाणां व्यपनोदनम् । कर्दमाक्तं कथं वासः, कर्दमेन विशोध्यते ॥७६॥
अर्थ-सदोष पुरुष है सो दोष दूर करनेकौं समर्थ नाहीं, जैसे कीच करि लिपट्या वस्त्र कीचकरि कैसे सोधिये ।
भावार्थ-निर्दोष गुरु ही दोष दूर करके शुद्ध करै है, सदोष गुरुतै दोष दूर होय नाहीं ॥७६॥
दोषमालोचितं ज्ञानी, सूरिरीशो व्यपोहितुम् ।
अज्ञानेन न वैद्य न, व्याधिः क्वापि चिकित्स्यते ॥७॥
पर्थ-आलोचित कहिए शिष्यनें कह्या जो दोष ताहि ज्ञानवान् आचार्य दूर करनेकौं समर्थ है, जातें अज्ञानी वैद्य करि रोगका इलाज कहाँ न कीजिए है, रोगका ज्ञाता होयगा सो इलाज करैगा ॥७७॥
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३२६]
श्री अमितगति श्रावकाचार
आलोच्यर्जुस्वभावेन, ज्ञानिने संयतात्मने । तदीयवाक्यतः कार्ग, प्रायश्चितं मनीषिणा ॥७॥
प्रर्ण-संयम सहित है आत्मा जाका ऐसा ज्ञानवान जो आचार्य ताके अर्थ सरल स्वभावतें अपने दोषनिकौं कहकै तिस आचार्य के वचननै बुद्धिवान करि प्रायश्चित करना योग्य है ॥७८॥
प्रांजलीभूय कर्तव्यः, सूरे रालोचनस्त्रिधा।
विपाके दुखदं कार्ग, वक्रभावेन निर्मितम् ॥७॥ .. अर्थ--आचार्यसैं मन वचन कोय करि सरल होयके आलोचना करनी योग्य है। जातें कुटिलभाव करि किया कार्य है सो विपाकमैं दुःखदाई है।
भावार्थ-अपनें दोषनिकौं गुरूनतें कहना ताका नाम आलोचना है अर तीनौं योगनिकी सरलतातें करना । कुटिलतातें करें तो उलटा दुःखदाई होय ॥७९॥
फलाय जायते सो, न चारित्रमशोधितम् । · मलग्रस्तानि शस्यानि, कीदृशं कुर्वते फलम् ॥८०॥
मर्थ-विना सोध्या चारित्र है सो पुरुषके फलके अर्थ न होय है जैसे मल जो कडा ताकरि ग्रसे जे सस्य धान्य ते कैसें फल निपजावें, अपि तु नाहीं उपजावें ॥८॥
ऐसे प्रायश्चितका वर्णन किया, आर्गे-स्वाध्याय नामा तपका वर्णन कर हैं
वाचना पृच्छनाऽऽम्नायानुप्रेक्षा धर्मदेशना । 2. स्वाध्यायः पंचधा कृत्यः, पंचमी गतिमिच्छता ॥१॥
अर्थ-पंचमी गति जो सिद्ध अवस्था ताहि इच्छता जो पुरुष ता करि पांच प्रकार स्वाध्याय करना योग्य है, स्वयं कहिए आत्माके अध्यायरूप जो पढ़ना अथवा सु कहिए भलेप्रकार शास्त्रका अध्ययन कहिए वाचनादिक करना सो स्वाध्याय है, सो पांच प्रकार है-तहां निर्दोष ग्रंथ अर्थ उभय इनिका जो भव्य जीवनिकौं देना सिखावना सो तौ वांचना है, बहुरि संशयके दूर करनेकौं निर्वाधननिश्चयके पुष्ट करनेकौं
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त्रयोदश परिच्छेद
[३२७
ग्रंथ अर्थ उभयका प्रश्न करना सो प्रच्छना है। जो आपकी उच्चताके अर्थ परकौं ठगनेंके अथि नीचा पाड़नेके अथि परकी हास्य करनेकौं इत्यादि खोटे खोटे आशयतें पूछ सो प्रच्छनातप नाहीं। वहरि जिस पदार्थ स्वरूप जान्या ताका मनकै विर्षे बारंबार चितवन करना सो अनुप्रेक्षा है । बहुरि पाठकौं शुद्ध घोकना सो आम्नाय है। बहुरि धर्मकथा आदिका अंगीकार उपदेश देना सो धर्मोपदेश है; ऐसे पंच प्रकार जानना ॥१॥ तपौंऽतरानन्तरभेदभिन्न, तपोविधौ किंचन पापहारि । स्वाध्यायतुल्यं न विलोक्यतेऽन्यत्, हृषीकदोषप्रशमप्रवीणम् ॥२॥
अर्थ-अंतरंग अर बहिरंग भेद करि भिन्न जो बारह प्रकार तपका विधान ता विषे स्वाध्याय समान पापकों हरनेवाला और तप न देखिए है, कैसा है स्वाध्यायनामा तप इन्द्रियनिका दोष जो इष्टानिष्ट विषयनिमैं रागद्वेष करना ताके उपसमावनेमें प्रवीण है ॥२॥ स्वाध्यायमत्यस्य चलस्वभावं, न मानसं यन्त्रपितुं समर्थः । शक्नोति नोन्मूलयितुं प्रवृद्ध, तमः परो भास्करमन्तरेण ॥३॥
प्रर्थ-चंचल है स्वभाव जाका ऐसा जो मन ताके रोकनेकौं स्वाध्याय बिना और समर्थ नाहीं, जैसे वृद्धिकौं प्राप्त भया जा अन्धकार ताके नाशकौं सूर्य विना और समर्थ नाहीं तैसें ॥३॥
यः स्वाध्यायः पापहानि विधत्ते, कृत्वैकाग्रयं नोपवासः क्षमस्ताम् ।
शक्तः कत्त संवृतानां न काय, . लोके दृष्टोऽसंवृत्तौ दुष्टचेष्टः ॥४॥
मर्थ-स्वाध्याय नामा तप एकाग्रपना करि जो पापकी हानि कर है ता पापकी हानिके करनेकौं केवल उपवास समर्थ नाहीं, लोक विर्षे संवर रहित अर दुष्ट है चेष्टा जाकी ऐसा पुरुष संवरसहित जीवनिके करने योग्य जो कार्य है ताहि करनेकौं समर्थ नाहीं।
भावार्थ-स्वाध्याय विर्षे संवर होय है तातें कर्मकी निर्जरा होय है अर स्वाध्याय बिना केवल उपवास ही करें सो संवर रहित दुष्टः चेष्टा विष प्रवत्तै ताकै पापकी निर्जरा होय नाहीं ॥४॥
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३२८ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
विज्ञातनिः शेष पदार्थजातः कर्मास्रवद्वारपिधानकारी । भूत्वा विद्यते स्वपरोपकारं, स्वाध्यायवर्त्ती बुधपूजनीयः ॥ ८५ ॥
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अर्थ – स्वाध्याय विषै प्रवर्त्तनेवाला पुरुष है सौ जाने हैं श्रुतज्ञानके बलतें सकल पदार्थ जानें अर आश्रव आवनेके द्वार जे मिथ्यात्वादिक तिनका रोकनेवाला ऐसा होय करि आपका वा परका उपकार करे है कैसा है स्वाध्याय करनेवाला पुरुष पंडितनि करि पूजने योग्य है ॥८५॥ यद्द्बुद्धतत्त्वो विधुनोति सद्यो विध्वंसिताशेषहृषीकदोषः । तपोविधानैर्भव कोठिलक्षैर्नूनं तदज्ञो न धुनीति कर्मः ॥ ८६ ॥
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अर्थ- - जान्या है वस्तुका स्वरूप जानें अर नाश किये हैं समस्त इन्द्रियनिके दोष जानें ऐसा पुरुष है सो जा कर्मकौं निर्जरा करै है ता कर्मकौं अज्ञानी अनेक जन्मनिकरि तपके आचरण करि भी निश्चय करि नाहीं निर्जरा है ।
भावार्थ - निर्जरा होय है सो श्रुत ज्ञानके अभ्यासतें भई जो विशुद्धता तातें होय है, केवल कायक्लेशतें विशेष निर्जरा होय नाहीं तातें ज्ञानाभ्यास ही मुख्य है ऐसा जानना ॥ ८६ ॥
निरस्त सर्वाक्षकषाय वृत्तिविधीयते येन शरीरिवर्गः । प्ररूढजन्मांकुरशोषपूषा, स्वाध्यायतोऽस्ति ततो न योगः ॥८७॥
अर्थ - जा स्वाध्याय करि नष्ट भई है सर्वं इन्द्रिय अर कषायरूप परिणति जाकी ऐसा जीवतिका समूह कीजिए है ।
भावार्थ - विषय कषायरहित जीव कीजिए है तातें स्वाध्यायतें न्यारा योग कहिए ध्यान नाहीं ।
भावार्थ - श्रुतके अभ्यास होतें ध्यान होय है ज्ञान बिना ध्यान नाहीं, कैसा है स्वाध्यायतप विस्तारकौं प्राप्त भया जो संसाररूप अंकुर ता सोषनेकौं सूर्य समान है ॥८७॥
गुणाः पवित्राः शमसंयमाद्या, विवोधहीनाः क्षणतश्चलंति ।
कालं कितं दलपुष्पपूर्णास्तिष्ठति वृक्षाः क्षतमूलबंधाः ॥८८॥
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त्रयोदश परिच्छेद
[३२६
अर्थ--कषायनिकी मंदतारूप शमभाव अर संयमभाव इत्यादिक जे पवित्र गुण हैं ते ज्ञानरहित क्षणमात्रमैं चलायमान होय हैं जैसे पत्र अर पुण्यनिकरि भरे ऐसे वृक्ष हैं ते नष्ट भया है जड़का बंधन जिनका ऐसे कितने काल तिष्ठ है, किछ भी न तिष्ठ हैं।
भावार्थ-सब गुणनिका मूल ज्ञान है सो ज्ञान बिना और गुण होय नाहीं, ऐसा जानना ॥८॥ जानात्यकृत्यं न जनो न कृत्यं, जैनेश्वरं वाक्यमबुद्धयमानः । करोत्यकृत्यं विजहाति कृत्यं, ततस्ततो गच्छति दुःखमुग्रम् ॥८॥
अर्थ-जिनराज के वचनकौं न जानता जो जीव है सो न करने योग्यकौं वा करने योग्यकौं न जाने है तातें अकार्य जो हिंसादिक ताहि कर है अर कार्य जो वैराग्यादिक ताहि त है तातें तीव्र दुःखकौं प्राप्त होय है ॥८६॥ अनात्मनीनं परिहत्त कामा, प्रहीतुकामाः पुनवात्मनीनम् । . पठंति शश्वज्जिननाथवाक्यं, समस्तकल्याणविधायि संतः ॥१०॥
अर्थ-सन्त पुरुष हैं ते निरन्तर जिनराजके वचनकौं पढ़े हैं। कैसा है जिनवचन समस्त कल्याण करनेवाला है कैसे हैं जिनवचन के पढ़नेवाले पुरुष आत्मा के हितरूप नाहीं ऐसे मिथ्यात्वादिक भाब तिनके दूर करनेके वांछक है। बहुरि आपके अर्थि हित जे सम्यक्तादि भाव तिनके ग्रहण करनेके बांछक हैं ॥१०॥
सुखाय ये सूत्रमपास्य जैन, मूढाः श्रयन्ते वचनं परेषाम् । तापच्छिदे ते परिमुच्य तोयं,
भजन्ति कल्पक्षयकालवह्निम् ॥१॥ अर्थ-जे मूढ़ जिनराजके वचनको त्यागकै सुखके अथि अन्य मिथ्यादृष्टिनिके वचन सेवे है ते ताप दूर करनेके अर्थि जलकौं छोड़कै प्रलयकालके अग्निकौं सेवै है ।।६१॥
विहाय वाक्यं जिनचन्द्रहष्टं, परं न पीयूषमिहास्ति किंचित् ।
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३३० ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
मिथ्यादृशां वाक्यमपास्य नूनं,
पश्यामि नो किंचन कालकटम् ॥२॥ . अर्थ-इस लोक विचे जिनराज करि कह्या जो वचन ता सिवाय और अमृत नाहीं अर मिथ्यादृष्टिनिके वचन विना और कालकूट विषमैं निश्चय करि किछु नाहीं देखू हूं ॥१२॥
विधीयते येन समस्तमिष्टं, कल्पद्र मेणेव महाफलेन ।
आवर्यतां विश्वजनीनवृत्ति, ..
मुक्त्वा परं कर्म जिनागमोऽसौ ॥३॥ . अर्थ-जा करि महाफल सहित कल्पवृक्षकी ज्यौं सर्व मनोवांछित कीजिए ऐसा यहु जिनागम सर्व लोकके हितरूप परिणति सिवाय और कार्यका वर्जन करहु।
भावार्थ-जिन वचनके अभ्यासतें हमारे लौकिक कार्यकी वांछा मत होउ; स्वपरके उपकाररूप परिणति होउ ॥१३॥
. ऐसें स्वाध्याय नामा तपका वर्णन कियापरेऽपि ये सन्ति तपोविशेषा, जिनेन्द्रचन्द्रोदितसूत्रहष्टाः । स्वशक्तितस्ते निखिला विधेयाः, विधानतः कर्मनिकर्तनाय ॥४॥
. अर्थ-स्वाध्याय पर्यंत तप तो पहले कहै अर ध्यान तप आगें कहेंगे। बहरि और भी जे तपके भेद सिंहानिःक्रीडितादि जिनभाषित सूत्रने दिखाए ते अपनी शक्तिसारू समस्त विधानपूर्वक कर्मनकी निर्जराके अथि करना योग्य है ॥१४॥
सौख्यं स्वस्थं दीयते येन नित्यं, रागावेशश्छिद्यते येन सद्यः । येनानन्दो जन्यते याचनीयस्तं,
सन्तोषं कुर्वते के न भव्याः ॥६॥ अर्थ-जाकरि निराकुल सुख नित्य दीजिए है अर रागका उदय शीघ्र ये दिए है अर जाकरि वांछनेयोग्य मुक्तिपदको आनन्द उपजाइए है ऐसा जो सन्तोष सो कौन भव्य न करै, सर्व ही करें।
भावार्थ-सब तपनिमैं तपका मुख्य लक्षण इच्छा निरोध है इच्छा
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त्रयोदश परिच्छेद
[ ३३१
निरोध अर सन्तोष एक ही तातें सन्तोष सब तपनिमैं प्रधान है सो ही परम तप है, ऐसा जानना ॥६५॥
नेष्टं दातुं कोऽप्युपायः समर्थः, सौख्यं नृणामस्ति सन्तोषतोऽन्यः । अंभोजानां कः प्रबोधं विधातु,
शक्तो हित्वा भानुमन्तं हि दृष्ट: ॥६६॥ अर्थ-मनुष्यनिकौं वांछित सुख देनेकौं सन्तोष सिवाय और कोई भी उपाय नाहीं। जैसे लोकमैं कमलनिके प्रफुल्लित करनेको सूर्य सिवाय ओर कोई समर्थ न देख्या तैसें सन्तोष बिना सुख नाहीं ॥६६॥ विमुच्य संतोषमपास्तबुद्धिः, सुखाय यः कांक्षति कंचनान्यम् । दारिद्रय हानाय स कल्पवृक्षं, निरस्य गृह्णाति विषद्र मं हि ॥१७॥
अर्थ-जो अज्ञानी सुखके अर्थि संतोषकौं त्यागकै अन्य कामभोगादिककौं इच्छे है सो दारिद्रयके नाशके अथि संतोषकौं त्यागकै विषवक्षकौं ग्रहण कर है ॥१७॥ क्रोधलोभमदमत्सरशोका, धर्महानिपटवः परिहार्याः । व्याधयो न सुखधातपटिष्ठाः, पोषयंति कृतिनः सुखकांक्षाः ॥१८॥
अर्थ-क्रोध, लोभ, मान, मत्सर, शोक इत्यादिक धर्मकी हानि करनेमैं प्रवीण जे भाव ते त्यागने योग्य हैं जातें सुखके वांछक जे भाग्यवान पुरुष हैं ते सुखके नाश करने मैं प्रवीण जे रोग तिनहि पुष्ट न करै है।
भावार्थ-क्रोधादिभाव हैं ते आकुलतामय है तातें सुखके घातक हैं ते त्यागने योग्य है अर सन्तोष है सो सुखमय है सो ही सुखार्थीनि करि सेवने योग्य है ॥१८॥
सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोद, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभावो विपरीतहष्टी,
सदा विधेयो विदुषा शिवाय ॥६॥ अर्थ –एकेंद्रियादि सर्व जीवनि विर्षे मैत्रीभाव कहिए कोई भी जीव दुःखी मत होऊ ऐसी भावना, बहुरि सम्यग्दर्शनादि गुणसहित पुरुषमि
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३
२]
श्री अमितगति श्रावकाचार..
वि अति हर्ष, अर रोगादि ल्लेश करि सहित जीव हैं तिन विर्षे करुणाभाव, अर विपरीत है श्रद्धा जाकी ऐसे पुरुष विर्षे माध्यस्थ्यभाव कहिए विपरीत पुरुषकौं देखक विचारना जो यह उपदेश योग्य नाहीं या रागद्वेष कहिकौं करना, या प्रकार चार भावना ज्ञानवान करि मोक्षके अर्थि सदा करना योग्य हैं ॥६६ अनश्वरश्रीप्रतिवन्धकेषु, प्रभूतदोषोपचितेषु नित्यम् । विरागभावः सुधिया विधेयो, भवांगभोगेषु विनश्वरेषु ॥१०॥
अर्थ-ज्ञानी जीवकरि संसार देह भोगनिविर्षे सदा वैराग्यभाव करना योग्य है, कैसे हैं संसार देह भोग अविनाशी लक्ष्मीके रोकनेवाले हैं बहुरि अनेक दोषनिकरि युक्त हैं, विनाशीक हैं ॥१०॥
श्रावकधर्म भजति विशिष्टं, योऽनधचित्तोऽमितगति हष्टम् । गच्छति सौख्यं विगलितकष्टं,
स क्षपयित्वा सकलमनिष्टम् ॥१०१॥ अर्थ-जो पुरुष अमितगति कहिए अनन्त है, ज्ञान जाका ऐसा जो जिनराज तानें दिखाया अथवा अमितगति आचार्यने दिखाया जो श्रावकका धर्म ताहि सेवै है सो पुरुष सब अनिष्टनिका नाश करके नाहीं है कष्ट जहां ऐसा सुखरूप जो मोक्ष ताहि प्राप्त होय है, कैसा है धर्म विशिष्ट कहिए अन्य धर्मनितें न्यारा है लक्षण जाका ऐसा है, बहुरि कैसा है सो पुरुष पाप रहित है चित्त जाका ऐसा है ॥१०१॥
सवैया । श्रावक धर्म कह्यो जिनराज, यथाविधि ताहि अखंडित धारै । सो अतिनिर्मलचित्त सुधी, भवकष्ट अनिष्टसमह निबारै॥ स्वर्गनिके सुख भोगि तथा, नर होय महाव्रत भाव सम्हारै । आतम ध्याय विभाव नसाय, महासुखसागर धाम सिधार ॥ ऐसे श्री अमितगति आचार्यविरचित श्रावकाचारविर्षे
__ त्रयोदशमा परिच्छेद समाप्त भया।
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चतुर्दश परिच्छेद
[ ३३३.
चतुर्दश परिच्छेद आगें द्वादश अनुप्रक्षाका वर्णन करै हैं, तहां प्रथम ही अनित्यानुप्रक्षाका स्वरूप क हैं हैंयौवनं नगनदी स्पदोपम, शारदांबुदविलासजीवितम् । स्वप्नलब्धधनवि भ्रमं धनं, स्थावरं किमपि नास्ति तत्त्वतः ॥१॥
अर्थ--यौवन तौ पर्वतकी नदीका चलना समान है, निरन्तर चल्या जाय है । बहुरि जीवना है सो सरदकालके मेघके विलास समान है, क्षण मात्रमैं विलय जाय है। बहुरि धन है सो स्वप्नमैं पाया जो धन तासमान झूठा है विछ भी (२.२ थिर नाहीं ॥१॥ विग्रहा गदभुजंगमालयाः, संगमा विगमदोष दूषिताः। संपदोऽपि विपदाकटाक्षिता, नास्ति किंचिदनुपद्रवं स्फुटम ॥२॥
अर्थ-शरीर तौ रोगरूपी सर्पनिका घर है, अर मिलाप है सो वियोगरूपी दोषिनिकरि दूषित है, वहरि संपदा हैं ते विपदाकरि देखी है (सहित है), प्रकटने किया भी वस्तु उपद्रवरहित नाहीं ॥२॥ प्रीतिकीत्तिमतिकांति भूतयः, पाकशासनशरासनास्थिराः । अध्वनीनपथिसंगसंगमाः, संति मित्रपितपुत्रबांधवाः ।.३॥
अर्थ-प्रीति अर कीर्ति अर बुद्धि अर कांति अर संपदा ये सर्व इंद्रधनुष समान अथिर हैं। बहुरि मित्र पिता पुत्र बांधव ये सर्व पंथीजननिका मार्गमैं संयोग होय तासमान है, सर्व शीघ्र ही विछरि जांग हैं। मोक्षमेकमपहाय कृत्रिमं, नास्ति वस्तु किमपीह शाश्वतम् । किंचनापि सहगामी नात्मनो, ज्ञानदर्शनमपास्य पावनम् ॥४॥
अर्थ-इस लोकमैं एक मोक्ष सिवाय अन्य करी भई वस्तु किछ भी नित्य नाहीं। बहरि निर्मल ज्ञान दर्शन सिवाय और किछ भी आत्माके साथ जानेवाला नाही, ज्ञानदर्शन ही सदा संग रहै है और शरीर तौ तहां तहां ही रहैं हैं ॥४॥ संति ते त्रिभुवने न देहिनो, ते न यांति समवत्तिमंदिरम् । शकचापखचिता हि कुत्र ते, ये भजति न विनाशांबुदाः ॥५॥
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३३४]
श्री अमितगति श्रावकाचार |
अर्थ-तीन भवन विर्षे ते शरीरके धारी जीव नाहीं जे यमके मन्दिरकौं न जाय-सब ही मरणकौं प्राप्त होय हैं। जैसे इंद्रधनुष करि रचे जे बादले ते ऐसे कहां हैं जे नष्ट न होय, सर्व ही नसें हैं ॥५॥ देहपंजरमपास्य जर्जरं, यत्र तीर्थपतयऽतिपूजिताः। यांति पूर्णसमये शिवास्पदं, तत्र के जगति नात्र गत्वराः ॥६॥
अर्थ-जिस संसार विर्षे अत्यंत पूजनीक जे तीर्थंकर देव ते भी आयुके पूर्णसमय जर्जरे देह पींजराको त्यागकै सिद्धालयकौं पधारे हैं तहां इस जगत विर्षे और कौन जानेवाले नाही, सर्व ही परलोककौं जाय हैं ॥६॥
ऐसें अनित्य भावना कही । आर्ग-अशरण भावनाकौं कहैं हैंयं करोति पुरतो यमराजा, भक्षणाय भुवने क्षुधितात्मा । कानने मृगमिव द्विपवैरी, तस्य नास्ति शरणं भुवि कोऽपि ॥७॥
___ अर्थ-क्षुधा सहित है आत्मा जाका ऐसा जमराज सो जीवकों भक्षण करनेके अथि आगै कर है ता जीवका लोक विर्षे कोई भी शरण नाहीं । जैसे वनमें मगकौं सिंह भक्षण करनेकौं होय तब ताकौं कोई शरण नाहीं तैसें ॥७॥ अंतकेन यदि विग्रहभाजः, स्वीकृतस्य समपत्स्यत पाता। रक्षितः सुखरैरमरिष्यन्नो तदा सुखधूनिकुरंवः ॥८॥
अर्थ-कालतें ग्रह्या जो प्राणी ताकी मरणतें जो रक्षा होय तो इंद्रादिक देवनिकरि रक्षित जो देवांगनानिका समूह सो न मरता।
भावार्थ-मरणतें रक्षा होय तौ इंद्र अपनी देवांगनानिकौं न मरने देय तातें मरण होतें जीवकै शरण नाहीं ॥८॥ यं निहंतुममरा न समर्था, हन्यते न स परैः समवर्ती । यो द्विपर्न समदरपि भग्नो, भज्यते हि शशकैर्न स वृक्षः ॥६॥
अर्थ-जा जमराजके हनिवेकौं देव समर्थ नाहीं सो जीवनिकरि कैसे हनिए।
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चतुर्दश परिच्छेद
[ ३३५
भावार्थ-जो इन्द्रादिक देव भी मरणकौं न निवारि सक तौ औरनकी कहां कथा । जैसें मतवारे हाथिन करि भी जो वक्ष भग्न न भया तो सुस्सानि करि भङ्ग कैसें कीजिए। स्यन्दनद्विपदातितुरंगमंत्रितन्त्रजपपूजनहोभैः। शक्यते न खलु रक्षितुमङ्गी, जीवितव्यपगमे म्रियमाणः ॥१०॥
अर्थ-रथ हाथो प्यादे घौडे निकरि तथा मन्त्र तन्त्र जप पूजन होम इन करि आयुके नाश भये जो मरता जीव सो राखनेकौं समर्थ न हूजिए है ॥१०॥ मे धरन्ति धरणी सह शैलैर्ये क्षिपन्ति सकलं ग्रहचकम् । ते भवन्ति भुनने न स कश्चिद्यो निहन्ति तरसा यमराजम् ॥११॥
अर्थ-जे जीव समस्त पर्वतनिसहित पृथ्वीकौं धारै हैं अर सकल ग्रहचक्रकौं क्षेपं हैं ऐसे पुरुष तौ लोकविर्षे हैं परन्तु सो कोई पुरुष नाहीं जो वेगकरि यमराजको नाश करै है ॥११॥ यो निहन्ति रभसेन बलिष्ठानिन्द्रचन्द्ररविकेशवरामान् । रक्षको भवति कश्चन मृत्य निघ्नतो भवभूतो न ततोऽत्र ॥१२॥
अर्थ-जो यमराज वेगकरि वलवान जे इन्द्र चन्द्र सूर्य नारायण बलभद्र तिनहि हन है तातें इस लोकविष जीवनिका नाश करता जो यम तातें बचावनेवाला कोऊ नाहीं।
भावार्थ-अन्यमती यमको देव माने हैं सो मिथ्या है अर आयुका जो पूर्ण भये दोऊ राखनेकौं समर्थ नाहीं, सम्यकदर्शनादिक वा अरहंतादिक शरण हैं जातें वस्तुका स्वरूप जाने मरणका भय रहै नाहीं, अर सिद्धपद पावै तहां फेर मरण होय नाहीं, तातें पर कोऊ शरण नाहीं, आपका आप ही शरण है ॥१२॥
__ या प्रकार अशरण भावना कही । आर्गे-संसार भावनाकौं कहै हैं-- चित्रजीवाकुलायां तनभागिना, कुर्वता चेष्टितं सर्वदा मोहिना। गल्ता मुंचता विग्रहं संभृतो, नर्तकेनेव रङ्गक्षितौ भ्रम्यते ॥१३॥
अर्थ-इस मोही जीवकरि एकेंद्रियादि नाना जीवनिकरि भरी नृत्य करनेकी भूमिसमान जो यह संसारपरिणति ताविषे नटवाकी ज्यों
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श्री अमितगति श्रावकाचार
भ्रमिए है । कैसा है संसारी जीव सदा अनेक चेष्टा करें है अर शरीरक ग्रहण करै है अर छोडे है || १३||
३३६ ]
श्वसति
स्वपिति
रोदिति सीदति खिद्यते, रुप्यति तुष्यति ताम्यति । लिखति दीव्यति सोथति नृत्यति, भ्रमति जन्मवने कलिलाकुलः ॥१४॥
अर्थ - पापकर्मकरि व्याकुल यहु जीव संसारवनविषै भ्रम है, उछ्वास लेय है, रोव है, पीडित होय है, खेदखिन्न होय है, सोवें है, रोष करै है, राग करें है, तप्तायमान होय है, लिखे है. क्रीड़ा करें है, व्यवहार कर है, सीवै है, नृत्य करें है, वा प्रकार अनेक चेष्टा करै है ॥१४॥ जनकस्तनयस्तनयो जनको, जननी गृहिणी गृहिणी जननी । भगिनी दुहिता दुहिता भगिनी, भवतीति बतांगिगणी बहुशः ॥ १५ ॥
अर्थ - पिता पुत्र होय है पुत्र पिता होय है माता स्त्री होय है स्त्री माता होय है बहन पुत्री होय है पुत्री बहन होय है सो बड़े खेदकी बात है । यहु जीव पूर्वोक्त प्रकार अनेकवार भ्रमै है ||१५|| कलिलजालवशः स्वयमात्मनो भवति यत्र सुतौ निजमातरि । किमपरं बत तत्र निगद्यते, विविधदुःखखनौ जननार्णवे ॥ १६ ॥
*
अर्थ - जा संसार समुद्र विष पापके समूह करि वश भया सन्ता जीव आप आपका पुत्र अपनी माताके गर्भ विषै होय बड़े खेदकी बात है ता संसार विषै और व्यवस्था कहा कहिए, कैसा है भवसमुद्र, नाना दुःखनिके उपजायवे की खान है ॥ १६ ॥
किमपि वेत्ति शिशुनं हिताहितं विरहदुःखमुपैति युवा पर । विकलतां भजते स्थविरस्तरां, भवति शर्म कदा बत संसुतौ ॥ १७॥
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चतुर्दश परिच्छेद
[३३५
अर्थ- अहो संसार विर्षे सुख कब होय है। बालक तौ किछ हिताहितकौं न जाने है, बहुरि जवान तीव्र कामके दुःखकौं प्राप्त होय है । बहुरि बूढ़ा हैं सो अतिशय करि विकलताकौं भज है शक्तिर हित हो जाय है इच्छा बढ़ जाय है ऐसें सुख कोई अवस्थामें नाहीं, दुःख ही हैं ॥१७॥
न सोऽस्ति सम्बन्धविधिर्जगत्त्रये, समं समस्तैरपि देहधारिभिः । अवापि यो न भ्रमता भवार्णवे,
शरीरिणा कर्मनियंत्रितात्मना ॥१८॥ अर्थ-तीन लोक विष सो सम्बन्धका विधान नाहीं जो जीवनै समस्त देहधारीन करि सहित अनेकवार न पाया, कैसा है जीव संसार-समुद्र विर्षे भ्रमता है अर कर्मनिकरि बंध्या है आत्मा जाका ऐसा है ॥१८॥ यत्र चित्रविवर्तः परावर्त्यते, कर्मणानारतं भ्रम्यमाणो जनः । दुःखहं दुर्वचं मानसं कायिक, तत्र दुखं कि संसृतावश्नुते ॥१९॥
अर्थ-जिस संसारसमुद्र विषे कर्म करि निरन्तर भ्रमाया ऐसा जो जीव सो नाना प्रकार पर्यायनि करि उलट पलट कीजिए है ता संसार विर्षे दुर्वचन सम्बन्धी मन सम्बन्धी शरीर सम्बन्धी दुःसह दुःख कहा न भोगिए है, भोगिए ही है। ऐसा संसारका स्वरूप जाणि मोक्षका यत्न करना ॥१६॥
या प्रकार संसार भावना कहीं। आगें-एकत्व भावना कहैं हैंदेहबांधवनिमित्तमंगिना, पापकर्म विविधं विधीयते । ऐककेन बृहति विषह्यते, नारकी गतिमुपेपुषा व्यथा ॥२०॥
अर्थ-शरीर अर बन्धुजननिके पोषणेके अथि जीव करि पाप कर्म नानाप्रकार कीजिए है। बहुरि ताके फलतें नरकगतिकौं प्राप्त भया एक आप ताकरि ही पीड़ा सहिए है, शरीर कुटुम्बादिक कोऊ भेला हाय नाहीं ॥२०॥
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३३८]
श्री अमितगति श्रावकाचार
पनपत्रनयना मनोरमाः, कारयंति दुरितं दुरुत्तरम् । दुर्गति विकटदुःखसंकटा, मेककस्य शरणं न गच्छतः ॥२१॥
अर्थ-कमलके पत्र समान हैं नेत्र जिनके ऐसी मनकौं रमावनेवाली जे स्त्री है ते दुस्तर पापकौं करावें हैं। बहुरि दुःखनि करि व्याप्त जो दुर्गति ता प्रति अकेले जानेकौं शरण कोऊ नाहीं ॥२१॥ मातृतातसुतदारबांधवाः, सर्वदा मम मुधेति तप्यते । कर्म पूर्वमपहाय विद्यते, नात्र कोऽपि सुखदुःखकारकः ॥२२॥
___ अर्थ- माता पिता पुत्र स्त्री बांधव ये सदा मेरे हैं ऐसी मानि करि सदा खेद करै है। बहुरि पूर्व कर्म विना इस लोक विषे सुख दुःखका करनेवाला कोऊ नाहीं ॥२२॥ वेदनां गतवतः स्वकर्मजा-मत्र यो न विदधाति किंचन । किं करिष्यति परत्र यत्नतो, देहजादिनिवहः स पालितः ॥२३॥
अर्थ-जो पाल्या पोष्या ऐसा पुत्रादिकनिका समूह सो अपने कर्मोदयतें उपजी जो रोगदिककी वेदना ताकौं प्राप्त भया जो जीव ताका इस लोकमैं उपाय करि किछ न करै है सो परलोक विर्षे कहा करेगा, किछ भी करैगा नाहीं ॥२३॥ एकको भ्रमति जन्मकानने, याति निर्व तिनिवासमेककः । एककः श्रयति दुःखमेककः, शर्म याति न परोऽस्य विद्यते ॥२४॥
अर्थ-यह जीव संसारवन विर्षे एकला भ्रमै है। बहुरि मोक्ष धामकौं एकला जाय है । बहुरि दुःखकौं अकेला भोगें है, सुखको अकेला प्राप्त होय है, इसका दूजा साथी नाहीं ॥२४॥ जन्ममृत्युरतिकीत्तिसंपदा-मोकको भवति भाजनं सदा । नास्ति कोऽपि सचिवः शरीरिणो, द्रव्यमुक्तिमपहाय तत्त्वतः॥२५॥
अर्थ-जन्म मरण प्रीति यश सम्पदा इनका भाजन सदा
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चतुर्दश परिच्छेद
[३३६
अकेला ही है, जन्मदिककौं अकेला ही पावै है, निश्चयतें मोक्ष अवस्था विना जीवका साथी कोऊ नाहीं ॥२५॥
ऐसें एकत्व भावनाका वर्णन किया। आगे-अन्यत्व भावनाकौं कहैं हैं :
अनादिरात्माऽनिधनः सचेतनो, विधायकः कर्मफलस्य भोजकः । हिताहितादानविमोक्षकोविद,
स्ततः शरीरं वितरीतमात्मनः ॥२६॥ अर्थ-आत्मा अनादि है, अनंत है, चेतन सहित है, कर्ता है, कर्मफलका भोक्ता है, हितका ग्रहण करनेवाला अहितका त्यागनेवाला है तातें ज्ञानस्वरूप आत्मातें शरीर विपरीत है ।
भावार्थ-शरीर नवीन उपज्या है, विनाशकिं है, जड़ है, ताहीतें कर्मका कर्ता नाहीं अर भोक्ता नाहीं अर हित अहितका ग्रहण करनेवाला नाहीं, ऐसे आत्माका अर शरीरका लक्षण न्यारा है, एक नाहीं ॥२६॥
सदापि यो यत्नशतैः प्रपाल्यते, न यत्र कार्यऽपि निजः स देहिनः । परः स्वकीयं किमु तत्र विद्यते,
प्रवर्त्तते यत्र ममेति मोहितः ॥२७॥ अर्थ-जिस संसार विषं जो शरीर अनेक उपायनिकरि सदा ही पालिए है सो शरीर भी जीवकै आपका नाहीं तहां और वस्तु आपकी कैसे होय जहां यहु मोहित भया “ये वस्तु मेरी है" ऐसें प्रवर्ते है ॥२७॥
विमुच्य जन्तोरुपयोगमंजसा, न दर्शनज्ञानमयं निजं परम । परत्र सर्वत्र ममेति शेमुषी,
प्रवर्तते मोहपिशाचनिमिता ॥२८॥ अर्थ-जीवका दर्शनज्ञानमय उपयोग विना निश्चयतें और पर पदार्थ आपका नाहीं, बहुरि सर्व पदार्थ विर्षे ये मेरे है ऐसी बुद्धि मोहरूप पिशाचकरि भई प्रवत्त है ॥२८॥
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३४०]
श्री अमितगति श्रावकाचार
भवन्ति ये कार्मणयोगसम्भवाः, परेऽत्र भावा वपुरात्मजादयः । विहाय ते दुःख परम्परां,
परं न किचिद्विपरीतमीशते ॥२६॥ अर्थ- इस लोक विष कर्मनिके संयोगते निपजे शरीर पुत्रादिक जे पदार्थ हैं ते केवल दुःखकी परम्पराय विना और किछु दुःखतें विपरीत जो सुख ताहि करवे समर्थ नाहीं।
भावार्थ- शरीरादिक परपदार्थमैं आपाकी बुद्धि है सो दुःखहीका कारण है सुखका कारण नाहीं ॥२६॥
अनात्मनीना भवदुःखहेतवो, विनश्वराः कर्मभवा यतोऽखिलाः । ततो न बाह्यषु विशुद्धबुद्धयो,
ममेति बुद्धि मनसाऽपि कुर्वते ।।३०। अर्थ-जातें कर्मणके उदयतें भये समस्त शरीरादिक पदार्थ हैं ते आत्माके अथि हितरूप नाहीं अर संसार द:खके कारण हैं अर विनाशीक हैं तातें बाह्या पदार्थनि विर्षे "यह मेरे हैं" ऐसी बुद्धिकौं मन करि भी न करें हैं ॥३०॥
न विद्यते यत्रकलेवरं निजं, स्वकीयबुद्धया मनसि व्यवस्थितम । तदीयसम्बन्धभवाः सुतादयः,
परे कथं तत्र निजा निगद्यताम ॥६१॥ अर्थ-जहां आपकी बुद्धि करि मन विषं तिष्ठ्या जो शरीर सो आपका नाहीं तहां तो शरीरके सम्बन्धतें उपजे जे अन्य पुत्रादिक ते कहो, आपके कैसें होय ? ॥३१॥
करोति बाह्यषु ममेति शेमुषों, परश्वयं यावदनर्थकारिणीम् । न निर्गमस्तावदमुष्य संसृते, रिति त्रिधा सा विदुषा विम च्यतान ॥३२॥
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चतुर्दश परिच्छेद
अर्थ - जहां ताई बाह्य पर पदार्थनि विषै ये मेरे हैं ऐसी अनर्थ करनेवाली बुद्धि है तहां ताई इस जीवका संसारतें निकसना नाहीं इस कारण सो बुद्धि मन वचन काय करि त्यागना ||३२||
ऐसें अन्यत्वभावना कही । आगे - अशुचित्वभावनाकौं कहै हैंक्षणादमेध्याः शुचयोऽपि भावाः, संसर्गमात्रेण भवंति यस्य 1
शरीरतः सन्ततिपूतिगन्धेः परं किचन
[ ३४१
नास्त्यचौक्ष्यम् ॥३३॥
अर्थ - जा शरीरके संसर्गमात्र करि क्षणमात्र मैं पवित्र पदार्थ भी अपवित्र होय है, तातें निरन्तर दुर्गंधरूप जो शरीर तातें अन्य किछू अपवित्र नाहीं ॥ ३३ ॥ बहुप्रकाराशुचिराशिपूर्ण, शुक्रासृजाते शुचिता क्क काये । श्रमेध्य पूर्णः किममेध्य कुम्भो, दृष्टो हि मेध्यत्वमुपाददानः ॥ ३४ ॥
अर्थ – अनेक प्रकार विष्टादिक अपवित्र वस्तुनि करि भय्या अर वीर्य अर रुधिरतें उपज्या ऐसा जो शरीर ताविषें पवित्रता कहूँ नाहीं, जातें व्रिष्टा करि भर्या अपवित्र कुम्भ पवित्रताकौ धारता कहूँ देख्या नाहीं ॥ ३४ ॥ मज्जास्थि मेदोमलमांसखानि, विगर्हणीयं कृमिजालगेहम् ।
देहं दधानः शुचिताभिमानं, मूर्खो विधत्ते न विशुद्धबुद्धिः ॥ ३५॥ अर्थ- - मज्जा अर हाड अर मेद अर मल विष्टादिक इनके उपजनेकी खानि अर निन्दने योग्य अर कीडानिके समूहका घर ऐसा जो देह ताहि धारता सन्ता पवित्रपनेका अभिमान मूर्ख घारै है, निर्मल बुद्धि न धारै ॥ ३५॥ वनवस्त्रातृविचिगूय, यो वारिणा शोधयते शरीरम् ।
अह्नाय दुग्धेन निघृष्य मन्ये, विशुद्धमंगारमसौ विधत्तं ॥ ३६ ॥
अर्थ- जो भरें है नव द्वारानितै नाना प्रकार मल जातें ऐसा जो शरीर ताहि जल करि पवित्र करे है सो मैं ऐसा मानू हूँ ये कोयलाकों दूध घसके जल्दी विशुद्ध करे है || ३६ ||
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न हन्यते तेन जलेन पापं विषद्धयते येन विवद्धर्य रागम् । यस्य वर्णप्रभवे समर्थ, तत्तस्य दृष्टं न विनाशकारि ॥३७॥
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३४२]
श्रीअमितगति श्रावकाचार।
अर्थ-जा जलकरि रागादिभाव बढ़ाय करि हिसादिक पाप बढ़ाइए है ता जलकरि पाप कैसे नाश कोजिए, जातें जो वस्तुका वर्ण उपजावे विष समर्थ है सो ताका नाश करनेवाला न देख्या ॥३७॥ विनाश्यते चेत्सलिलेन पापं, धर्मस्तदानीं क्रियते किमर्थम । प्रारोहणं कोऽपि करोति वृक्षे, फले हि हस्तेन न लभ्यमाने ॥३८॥ _अथ–जो जलकरि पाप नाशिए तौ तपश्चरणादि धर्म काहेके अर्थि करिए जाते हाथमैं फल आये संते कोई वृक्षप चढ़े नाहीं ॥३८॥ माघेन तीवः क्रियते शशांको, ग्रीष्मेण भानुर्यदिनाम शीतः । देहस्तदानीं पयसा विशुद्धो, विधीयते दुर्वचगूथयूथः ॥३६॥
अर्थ-जो माघ मास करि चन्द्रमा तप्त कीजिए अर ग्रोष्म करि सूर्य शीतल कीजिए तौ जल करि शरीर विशुद्ध कीजिए। कैसा है शरीर निंदनीक विष्टादिक मलका पुज है ॥३६॥ सज्ञानसम्यक्तचरित्रतोयैविगाह्यमानैर्मनसाऽपि जीवः । विशोध्य मानस्तरसा पवित्रैर्न शुद्धिमभ्येति भवांतरेऽपि ॥४०॥
अर्थ-मन करि भी अवगाहे जे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप पवित्र जल तिन करि शीघ्र निमल किया जो जीव सो जन्मांतर विषं भी अशुद्धिताकौं प्राप्त नाहीं होय है।
भावार्थ-जलादि परद्रव्य नितें मिथ्यादृष्टि शुद्धिता मान है सो मिथ्या है तातै जीव तौ सम्यग्दर्शनादि आत्मपरिणामहीते शुद्ध होय है ॥४०॥
रन्ध्र रिवांबुविततेरुदधौ तरंडे, जीवे मनोवचनकायविकल्पजालैः। जन्मार्णवे विशति कर्म विचित्ररूपं, सद्योनिमज्जनविधाधि सुदृनिवारम् ॥४१॥
..
. जीते
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चतुदश परिच्छेद
[ ३४३
अर्थ--जसैं समुद्रमैं नाव विषं विस्ताररूप छिद्रनि करि जल प्रवेश करै है संसार-समुद्र विर्षे मन, वचन, कायके विकल्प जालतें नानाप्रकार कर्म आश्रवें हैं ताकरि जीव दुःख करि निवारण करने योग्य जलदी डूबनेकौं प्राप्त होय हैं ॥४१॥
चित्रेण कर्मपवनेन नियोज्यमान, प्राणिप्लवो बहुविधोऽसुखभांडपूर्णः । संसारसागरमसारमलभ्यपारं,
भूरिभ्रमं भ्रमति कालमनंतमानम ॥४२॥ अर्थ-तीव्र मंदादि भेदनिसहित नानाप्रकार जो कर्मपवन ताकरि प्ररया भया यह जीवरूप नौका संसार-समुद्र विर्षे अनंतकाल भ्रमै है। कैसा है जीवरूपी नावनाना प्रकार दुःखरूप भांडनि करि भरया है। बहरि कैसा है संसार-समुद्र असार है जामैं आत्महित नाहीं पावने योग्य है पार जाका ऐसा अपार है अर बहुत हैं भौंर जा विर्षे ऐसा है ॥४२॥
कर्मादधाति यदयं भविनः कषायः, संसारदुःखमविधाय न तद्वयपैति । यबंधनं विदधाति विपक्षवर्ग,
स्तन्नाम कस्य विरचय्य सुखं प्रयाति ॥४३॥ अर्थ-जो यह कषायभाव जीवकै कर्मबन्ध करै है सो कर्मवन्ध दुःख दिये विना नाश नाहीं होय है। जैसे वैरीनिका समूह जो बन्धन बाँध है सो बन्ध कौनकौं सुख करिक जाय है, दुःख करिक ही जाय है।
भावार्थ-कषायकरि बंध्या जो कर्म ताका छूटना महाकठिन है तामै मुख्य आश्रवका कारण जो कषाय सो करना योग्य नाहीं ॥४३॥
भेदाः सुखासुखविधानविधौ समर्था, ये कर्मणो विविधबंधरसा भवति । जन्तोः शुभाशुभमनः परिणामजन्या, स्तै म्यते भववने चिरमेष भीगे ॥४४॥
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३४४ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
. अर्थ-जीवके नाना प्रकार जे चित्तके परिणाम तिनकरि उपजे जे सुख दुःख करनेकी विधि विषं समर्थ नाना प्रकार बन्धके अनुभागभेद तिन करि यह जीव भयंकर संसार वन विर्षे बहुत काल भ्रमाइए है।
भावार्थ-कर्मनिका तीव्र मंद अनुभाग तीव्र मंद कषायतें होय है ताकरि जीव नरकादि पर्याय निमैं भ्रम है ॥४४॥
गृह्णाति कर्म सुखदं शुभयोगवृत्या, दुःखप्रदायि तु यतोऽशुभयोगवृत्या । प्राद्या सुखाथिभिरतः सततं विधेया,
हेया परा प्रचुरकष्टनिधानभूता ॥४५॥ अर्थ-जातें शुभ योगकी परणति करि जीव सुखदायक कर्मका ग्रहण कर है, बहुरि अशुभ योगकी परिणति करि दुःखदायक कर्मका ग्रहण करै है, इस कारणतें सुखके अर्थी जे जीव तिनकरि आदिकी जो शुभ परणति सो निरन्तर करनी योग्य हैं । बहुरि प्रचुर दुःखके निधान समान जो अशुभ योगकी परणति सो त्यागनी योग्य है ॥४५॥ ।
एकप्रकारमपि योगवशादुपेतं, कुर्वति कर्म विविधं विविधाः कषायाः । एकस्यभावमुपगस्य जलं घनेभ्यः ,
प्राप्य प्रदेशमुपयाति न कि विभेदम ॥४६॥ . पर्ण-योगनिके वशकरि एक प्रकार ग्रहण किया भी कर्म कषाय नाना प्रकार करै है।
भावार्थ-योगद्वार समयप्रबद्ध ग्रहण कियौ सो तो एक प्रकार ही है परन्तु जैसा तीव्र मंद कषाय होय तैसा ही नाना प्रकार तीव्र मंद शक्ति लिये होय है । जैसें मेघनितें जल है सो एक स्वभावकौं प्राप्त होयके निंब आदि प्रदेशकौं प्राप्त होय करि कहा विचित्र भेदकौं नाहीं प्राप्त होय है, होय ही है ॥४६॥
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चतुर्दश परिच्छेद ।
[३४५
मिथ्यात्वदोवृत्त्यकषाययोग, प्रमाददोषा विविधप्रशाराः । कर्माश्रवाः सन्ति शरीरभाजां,
जलाश्रवा वा सरसां प्रवाहाः ॥४७॥ अर्थ-मिथ्यात्व अर अविरत अर कषाय अर योग अर प्रमाद ये दोष स्वरूप नाना प्रकार जीवनिकै कर्माश्रवके कारण हैं, जस सरोवरनिके जलके आश्रवके कारण प्रवाह हैं तैसें ।
__भावार्थ-मिथ्यात्वादिक भाव कर्मबन्धके कारण हैं तातें इनकौं त्यागना, यह तात्पर्य है ॥४७॥
संवरणं तरसा दुरिताना, माश्रवरोधकरेषु नरेषु ।
आगमनस्य कृते हि निरोधे,
कुत्र विशन्ति चलानि सरः सुः ॥४८॥ अर्थ-मिथ्यात्वादिक आश्रवनिकौं जे सम्यक्त्वादि भावनि करि रोकनेवाले पुरुष हैं तिनकै शीघ्र कर्मनिका रुकना रूप संवर होय है। जैसें जलनिके आवनका द्वार रोके सन्ते सरोवरनि विर्षे जल कहांतें आवै कहतें भी न आवै है ॥४८॥
नश्यति कर्म कदाचन जन्तोः, संवरणेन विना न गृहीतम् । शुष्यति कुत्र जलं हि तडागे,
संगमने बहुधाऽभिनवस्य ॥४६॥ अर्थ-जीवकै ग्रहण किया भया जो कर्म है सो संवर बिना कदाच नाश न होय है, जैसे सरोवर विर्षे बहुत प्रकार नवीन जलका आगम होतसन्तै जल कहातें सूखै, अपि तु नाहीं सूखे है तैसें जानना ॥४६॥ योगनिरोधकरस्य सुरष्टे, रस्तकषायरिपोविरतस्य । यत्नपरस्य नरस्य समस्तं, संवृतिमृच्छति नूतनमेनः ॥५०॥
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३४६ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
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अर्थ – मन वचन कायका रोकनेवाला अर सम्यग्दृष्टि अर नाश किये हैं कषाय वैरी जानें अर हिंषादिकतें विरक्त अर यत्नाचारमै तत्पर ऐसा जो पुरुष ताकै समस्त नवीन कर्म रुकै है ।
भावार्थ - मिथ्यात्वादिके प्रतिपक्षी जे सम्यक्त्वादि भाव तिनकरि संवर होय है ॥५०॥
धर्मधरस्य परीषहजेतु-, वृत्तवतः समितस्य सुगुप्तेः । श्रागमवासितमानसवृत्तेः, संगतिरस्ति न कर्मरजोभिः ॥ ५१ ॥
अर्थ – उत्तम क्षमादि दश प्रकार धर्मका धरनेवाला अर क्षुधादि परीषनिका जीतने वाला अर सामायिकादि चारित्रका धारी अर यत्नाचार रूप समितिनिकरि मुक्त अर भले प्रकार योगनिका निग्रहरूप है गुप्ति जाकै ऐसा जो पुरुष ताकै कर्मरूपी रजनी करि संगति नाहीं होय है ।
भावार्थ - इनके होतसंतें द्रश्यसंवर होय है, ऐसा जानना ॥ ५१ ॥ दर्शनबोधचरित्रतपोभिश्चेतसिकल्मषमेति न जुष्टे । शूरतरैः पुरुषैः कृतरक्षे, शत्रुबलं विशति क्व पुरे हि ॥ ५२ ॥ अर्थ – दर्शन ज्ञान चारित्र तप इनकरि सहित जो चित्त ता विणें पापकर्म नाहीं प्राप्त होय है ! जैसें शूरवीर पुरुषनिकरि करी है रक्षा जाकी ऐसा जो नगर ताविषें शत्रुकी सेना कहां प्रवेश करें, अपितु नाहीं करें है ।। ५२ ।।
पातकमाश्रवति स्थिररूपं, संभृतिमात्मवतां न यतीनाम् । वर्मंधरान नरान् रणरंगे, क्वापि भिनति शिलीमुखजालम् ॥५३॥
अर्थ - स्थिररूप आत्माका अनुभव करते जे आत्मज्ञानी यतीश्वर तिनके कर्म नही आश्रवै है । जैसें रणभूमि विषे वक्त बकतरके धरनेवाले पुरुष तिनहि वाणनिका समूह कहू भी भेदे नाहीं ॥ ५३ ॥ कामकषायहृषीकनिरोधं, यो विद्धाति परैरसुसाध्यम् । केवल लोकविलोकित लोको, याति च मुक्तिपुरीं दुखापाम् ||५४||
अर्थ – ज्यो पुरुष काम अर कषाय अर इन्द्रिय इनिका निरोध कर है सो पुरुष मुक्तिपुरीकौं प्राप्त होय है, कैसा है कामादिकका निरोध और सामान्य पुरुषनि करि असाध्य है । बहुरि कैसा है वह पुरुष केवलज्ञान
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चतुर्दश परिच्छेद
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रूपी प्रकाश करि देख्या है लोक जानें। कैसी है मुक्तिपुरी दुःख करि है पावना जाका बड़े बड़े मुनीश्वर जाके अथि खेद करें हैं तो भी न पावै हैं।
भावार्थ-जे कामादिकका संवर करें हैं ते केवली होय मुक्तिपुरीकौं पावें हैं इस बिना कोटि कष्टतें भी मुक्ति न होय है ऐसा तात्पर्य है ॥५४॥
दृढीकृतो याति न कर्मपर्वतः, शरीरिणां निर्जरया विना क्षयम् । न धान्यपुंजः प्रलयं प्रपद्यते,
व्ययं विना क्वापि विद्धितश्चिरम् ॥५५॥ अर्थ-जीवनीकै दृढ़ किया जो कर्मरूपी पर्वत सो निर्जरा विना क्षयकौं प्राप्त न होय हैं। जैसें वहुत कालतें वृद्धिकौं प्राप्त किया जो धान्यका समूह सो खरच करै बिना कहू भी नाशकौं प्राप्त न होय है तैसें ।
___ भावार्थ-जितना कर्म बन्धे तितना ही उदय देय खिरै तौ अनादिकालके संजयरूप कर्म नसें नाहीं। बहरि जब तपश्चरणादिक अनेक कालके बांधे कर्म एक कालमैं खिप तब कर्मका नाश होय तातें तपश्चरणादिकमैं प्रवर्त्तना योग्य है, यहु तात्पर्य है ॥५५॥
निरन्तरानेकभवाजितस्य या, पुरातनस्य क्षतिरेकदेशतः । विपाकजापाकजभेदतो द्विधा,
यतीश्वरास्तां निगदंति निर्जराम् ॥५३॥ अर्थ-निरन्तर अनेक भवनि विर्षे उपाा जो कम ताकी एकदेश जो हानि ताहि यतीश्वर निर्जरा कहै हैं सो निर्जरा सविपाक अविपाक भेदतें दोय प्रकार है ॥५६॥ आरौं सविपाक निर्जराका स्वरूप कहै हैं
अनेहसा या कलिलस्प निर्जरा, . विपाकजां तां कथयन्ति सूरयः । अपाकजां तां भवदुःखखविणी, विधीयते - या तपसा गरीयसा ।।५७॥
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३४८ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
- जो अपनी स्थिति पूर्ण रूप उदय काय करि कर्मकी निर्जरा हि आर्य है विपाकजा निर्जरा कहै है । बहुरि जो उम्र तपश्चरण करि करिए है ताहि संसार - दुःखकी नाश करनेवाली अपाक निर्जरा कहै हैं ॥५७॥
विपाकजाया मुदितस्य कर्मणो, मता परस्यामखिलस्य विच्युतिः । यतो द्वितीयाsत्र ततो विधानतः, सदा विधेया कुशलेन निर्जरा ॥ ५८ ॥
अर्थ - जातें सविपाकजा निर्जरा विणें तौ उदयकौं प्राप्त भया जो कर्म ताकी हानि होय है । वहुरि अविपाकजा विणें उदय आया अर बिना उदय आया ऐसा सर्व ही कर्मका नाश होय है तातें प्रवो ण पुरुष करि दूसरी जो अविपाक निर्जरा सो तपश्चरणादि विधानतें सदा करनी योग्य है ॥५८॥
तपोभिरुप्र : सति संवरे रजो, निषूद्यमानं सकलं पलायते । निराश्रवं वारि विवस्वदंशुभि
र्न शोष्यमाणं सरसोऽवतिष्ठते ॥५६॥
अर्थ - आगामी कर्मनिका संवर होत सन्तें उग्र तपश्चरण करि नाश किया जो कर्म सो समस्त नाशकौं प्राप्त होय है । जैसें नवीन जलके आश्रव रहित जो सरोवरका जल सो सूर्यकी किरणनि करि सोप्या भया न तिष्ठ है तैसें जानना ॥ ५६ ॥
परेण जीवस्तपसा प्रतापितो,
रभसा
प्रपद्यते । मलोऽवतिष्ठते,
विनिर्मलत्वं
सुवर्णशैलस्य
प्रताप्यमानस्य कृशानुना कथम् ॥६०॥
अर्थ - उत्कृष्ट तप करि तपाया जो जीव है सो शीघ्र निर्मलपनेकौं प्राप्त होय है । जेसें अग्निकरि तपाया जो सुवर्णका गद्दा ताकै मैल कैंसें तिष्ठै, अपितु नाहीं तिष्ठं है ।
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चतुर्दश परिच्छेद
[३४६
भावार्थ-सम्यग्दर्शन ज्ञानादिकतें जीवका मलिन भाव मिट तब सिद्धपदकौं प्राप्त होय तातें सम्यग्दर्शनादि आराधना योग्य है ॥६०॥
ऐसें निर्जरा भावना कही । आगें लोकभावनाकौं कहै हैंव्योममध्यगमकृत्रिमं स्थिरं, लोकमंगिनिवहेन संकुलम् । सप्तरज्जुधनसम्मितं जिना, वर्णयन्ति पवमानवेष्टितम् ॥६१॥
अर्थ-जिनराज हैं ते लोककौं ऐसा वर्णन करै हैं, कैसा है लोक अनंतानंत जो आकाश ताके मध्य प्राप्त है, बहुरि काहूका कर्या भया नाहीं। बहुरि जीवनिके समूहनिकरि भर्या है । बहुरि सात राजूका धन जो तीनसै तेतालीस राजू ता प्रमाण है । बहुरि बातवलयनि करि वेष्टित है, ऐसा है ॥६१॥
जन्ममृत्युकलितेन जन्तुना, कर्मवैरिवशतिना सता । यो न यत्र बहुशो विगाहितो,
विद्यते न विषयः स कश्चन ॥६२॥ अर्थ-ता लोक वि सो क्षेत्र नाहीं जो जीवनें बहुत बार नाहीं अवगाया। कैसा है जीव जन्म मरणकरि व्याप्त है। बहुरि कर्म वैरीके वशवर्ती हैं अर अस्तित्वरूप है ।
भावार्थ-तीनसै तेतालीस राजू मैं ऐसा क्षेत्र नाहीं जहां यह जीव न उपज्यां अर न मर्या ऐसा वैराग्यके अर्थि विचारना ॥६२॥
भूरिशोऽत्र सुखदुःखदायिनीः, भूतिजातिगतियोनिसम्पदाः । यत्रितो विविधकर्मश खलः,
का न निर्विशति चेतनश्चिरम् ॥६३॥ अर्थ-नाना प्रकार कर्मरूप सांकलनि करि बंध्या यह जीव है सो बारबार सुखदुःखकी देनेवाली विभूति जाति देवादिक गति योनि सम्पदा कौनसीकौं प्राप्त न होय है ? सर्वहीकौं प्राप्त होय है ।
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३५०]
श्री अमितगति श्रावकाचार
भावार्थ-इस लोकमैं या जीवकौं सुखदुःखके कारण अनेकवार प्राप्त होय है तिनमैं हर्ष विषाद करना वृथा है, ऐसा विचारना ॥६३॥
बांधवा भवति शत्रवोऽपि वा, कोऽत्र कस्य निजकार्यवजितः । बंधुरेष मम शत्रुरेष वा,
शेमुषीमिति करोति मोहितः ॥६४॥ अर्थ-इस लोकमैं कार्य करि रहित कौन किसीका भाई बन्धु वा शत्रु होय है ? कोई भी न होय है, तातें यहु मेरा भाई है, यह मेरा बैरी है ऐसी बुद्धिकौं मोही जीव करै है यहु बुद्धि मिथ्या है ऐसा जानना ॥६४॥
देवमर्त्यपशुनारकेष्वयं, दुःखजालकलितेष्वनारतम् । कामकोपमदलोभवासितो, वर्त्तते भवविपर्ययाधुलः ॥६॥
अर्थ-दुःखनिके समूह करि भरे जे देव मनुष्य तिर्यच नारकी तिन विष यह काम, क्रोध, मद, लोभ इत्यादि विभावनि करि वासित जीव निरन्तर प्रवत्र्त है। कैसा है यह संसार विषं विपर्यय बुद्धि करि आकुल है, संसारमैं तो इष्टानिष्ट वस्तु नाहीं अर यहु काहूकौं इष्ट मानें है काहूकौं अनिष्ट मानें है तातें दुःखी है ॥६५॥ जन्मत्तिनिवहो वियोज्यते, योज्यते स्वकृतकर्मभिः पुनः । शुष्कपत्रनिकरः परस्परं, मारुतैरिव विभीमवृत्तिमिः । ६६।। ___ अर्थ-आप करि किए जे कर्म तिनकरि संसारी जीवनिका समूह कह परस्पर वियोगरूप कीजिए है कहं संयोगरूप कीजिए है । जैसें उग्रवेगसहित जो पवन तिनकरि पत्तानिका समूह कहू मिलाइए है कहूं बिछुराइए है सूखे "संयोग वियोगका कारण कर्म है कोऊ परवस्तु नाहीं" ऐसा विचारना ॥६६॥ एष वेष्टयति भोगकांक्षया, कोशकार इव लालया स्वयम् । कर्मवीजभवया विनिंद्यया, धोरमृत्युभयदानदक्षया ॥६७॥
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चतुर्दश परिच्छेद
[ ३५१
अर्थ-जैसें कोशकार जो कुसेरा सो अपनी लीला करि आपहीकौं बांध है तैसें यह जीव भोगनिकी बांछाकरि आप ही आपकौं बांधै है । कैसी है भोगनिकी बांछा कर्मबीज करि उपजी होदय जनित है, स्वभावतें नाहीं। वहुरि विशेषपनें निंद्य हैं अर भयानक मृत्युके देनेमैं प्रवीण हैं अनन्तवार मरण करावें है ऐसी है ॥६७।।
चेतसीति सततं वितन्वतो, लोकरूपमुपजायते परा। राक्षसीत इव संसृतेः स्फुटं, धर्मकर्मजननी विरक्तता ॥६॥
अर्थ-या प्रकार जो लोकका स्वरूप चित्तविर्षे विचार है ताकै धर्म कर्मकी उपजावनेवाली संसारतें परम उदासीनता प्रगट उपजै है, जैसे राक्षसीतें भय उपगै तैसै संसारतें भय उपजै है ॥६॥
या प्रकार लोकभावना कहीं। आगे-बोधिदुर्लभभावनाकौं कहै हैं:देशजातिकुलरूपकल्पता, जीवितव्यवलवीर्यसम्पदः । देशनाग्रहणबुद्धिधारणाः, संति देहिनिवहस्य दुर्लभाः ॥६६॥
अर्थ-मुक्ति होने योग्य भरतादिक्षेत्र अर क्षत्रियादि जाति अर कुल, बहुरि सुन्दर रूप अर नीरोगता। बहरि दीर्घ आयु अर शरीर सम्बन्धी बल अर आत्मा सम्बन्धी वीर्य अर सम्पदा अर जिनवाणीका उपदेश अर ताकै जाननेकी बुद्धि । बहुरि जानकरि ताकी धारणा राखनी यह वस्तु जीवनिके समूहकौं पावना दुर्लभ है बड़े भाग्यके उदयतें मिलै है ॥६६॥ हन्त ! तासु सुखदानकोविदा, ज्ञानदर्शनचरित्रसंगतिः । लभ्यते तनुमताऽतिकृच्छतः, कामिनीष्विव कृतज्ञता सती ॥७॥
अर्थ-आचार्य खेदकरि कहैं हैं-अहो तिन पूर्वोक्त सामग्रीनि विर्षे भी सुखदेनमैं प्रवीण ऐसी जो ज्ञानदर्शन चारित्रकी संगति सो जीवकरि कष्टतै पाइए है । जैसैं स्त्री नि वि सुन्दर कृतज्ञता कष्टतें पाइए तैसें पूर्वोक्त सामग्रीनिमैं बोध पावना दुर्लभ है ।।७०॥
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३५२]
श्री अमितगति श्रावकाचार।
साधुलोकमहिता प्रमादतो, बोधिरत्र यदि जातु नश्यति । प्राप्यते न भविना तदा पुन, !रधाविव मनोरमो मणिः ॥७१॥ . अर्थ–इस लोकमैं साधु पुरुषनिकरि पूजित ऐसी सम्यक्तादिककी प्राप्ति रूप जो बोधि सो कदाचित् प्रमादतें नसि जाय तौ फेरि जीवनी करि न पाइए है। जैसें समुद्र विर्षे पड़ी सुन्दर मणि न पाइए मैते बोधि पावना दुर्लभ है ॥७॥ हन्त ! बोधिमपहाय शर्मणे, योऽधमो वितनुते धनार्जनम् । जीविताय विषवल्लरीं स्फुटं, सेवतेऽमृतलतामपास्य सः ॥७२॥
___ अर्थ-अहो ब खेदकी बातडे है ! जो अधम पुरुष सम्यक्तादिककी प्राप्ति रूप बोधिकौं छोड़ करि सुखके अथि धन उपार्जन करै है सो जीवनेके अथि अमृतवेलकौं छोड़क प्रगटपर्ने विषवेलिकौं सेवै है ॥७२॥ योऽत्र धर्ममुपलभ्य मुंचते, क्लेशमेष लभतेऽतिदारुणम् । यौं निधानमनधं व्यपोहते, खिद्यते स नितरां किमद्भुतम् ॥७३॥
अर्थ-जो पुरुष धर्मकौं पायकरि छोड़े है सो यहु अति भयानक क्लेशकौं पावें है। जैसें जो निर्मल भण्डारकौं छोड़े सो अत्यन्त खेदखिन्न होय ही होय, यामैं कहा आश्चर्य है ॥७३॥
मुंचता जननमृत्युयातना, गृह्णता च शिवतातिमुत्तमाम् । शाश्वती मतिमता विधीयते,
बोधिरदिपतिचूलिका स्थिरा ॥७४॥ अर्थ-जो जीव जन्म मरणकी तीव्र वेदनाकौं त्यागता है। बहुरि शाश्वती कन्याणकी संततिकौं ग्रहण करता है ता बुद्धिमान पुरुष करि दर्शनादिककी प्राप्ति रूप जो बोधि सो सुमेरुकी चूलिका समान स्थिर, कीजिए है।
भावार्थ-जो जीव दुःखकौं त्यागि सुखी भया चाहै सो सम्यग्दशंनादिककौं दृढ़ राखै यहु तात्पर्य है ॥७४।।
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चतुर्दश परिच्छेद
[ ३५३
ऐसें बोधि भावना कही। आगे-धर्म भावनाका वर्णन करें हैं
निरुपमनिरवद्यशर्ममूलं, हितमभिपूजितमस्तसर्वदोषम् । भजति जिननिवेदितं स धर्म,
भवति जनः सुखभाजनं सदा यः ॥७॥ अर्थ-जो पुरुष जिनभाषित धर्मकौं सेवे है सो सदा सुखका भाजन होय है, कैसा है जिनभाषित धर्म उपमा रहित अर पाप रहित सुखका मूल है। बहरि हितस्वरूप है अर सबनिकरि पूजित है अर नष्ट भये हैं पूर्वापर विरुद्ध आदि दोष जाके ऐसा है ॥७॥
व्यपनयति भवं दुरन्तदुःखं, वितरति मुक्तिपदं निरामयं यः । भवति कृतधिया त्रिधा विधेयः,
सकलसमीहितसाधनः स धर्मः ॥७६॥ अर्थपूर्ण है बुद्धि जाकी ऐसे पुरुष करि सो धर्म मन वचन कायकरि करना योग्य हैं, कैसा है धर्म सकल वांछित वस्तुका साधन है जातें समस्त इष्ट पदार्थ मिले हैं। वहुरि जो धर्म-दूर है, अन्त जाका ऐसा है दुःख जामैं ऐसा जो संसार ताहि दूर करै है, अर निर्दोष मुक्तिपदकौं देय है ॥७६॥
मनुजभवमवाप्य यो न धर्म, विषयसुखाकुलितः करोति पथ्यम् । मणिकनकनगं समेत्य मन्ये,
पिपतिषति स्फुटमेष जीवितार्थी ॥७७॥ अर्थ-मनुष्य जन्मकौं पायकै विषयनिसे सुखनि विर्षे आकुलित जो पुरुष हितरूप धर्मकौं न करै है सो मैं ऐसा मानहूँ कि यह रत्न सुवर्णके पर्वतकौं प्राप्त होय करि प्रगटपने जीवनेका अर्थी पढ़नेकौं इच्छै है, मनुष्यभव पाय करि तौं धर्म करना ही योग्य है ॥७७॥
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३५४ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
कलुषयति कुधीनिरस्तधर्मा, भवशतमेकभवस्य कारणं यः । अभिलषितफलानिदातुमीशं,
त्यजति तृणार्थितया सकल्पवृक्षम् ॥७॥ अर्थ-जो त्यागा है धर्म जानें ऐसा कुबुद्धि पुरुष एक भवके अर्थ अनेक भव बिगाडे है सो फलनिके देवे समर्थ जो कल्पवृक्ष ताहि त्यागे है अर तृणके अर्थि अभिलाषा करै है।
भावार्थ-जो एक भव सम्बन्धी किंचित् विषय सुखके अर्थ धर्म छोडै है सो अनेकबार निगोदादि पर्याय निमैं भ्रमै है, तातें अनेक भव बिगाड़ना कह्या है, ऐसा जानना ॥७॥
शमयमनियमवताभिरामं, चरति न यो जिनधर्ममस्तदोषम् । भवमरणनिपीडितो दुरात्मा,
भ्रमति चिरं भवकानने स भ.मे ॥७॥ अर्थ-जो पुरुष दूर किये है हिंसादि दोष जाने ऐसा जो जिनधर्म ताहि नाहीं आचरण करै है सो जन्म मरण करि दु:खित दुरात्मा बहुत काल ताई भयानक संसारवन विषे भ्रम है, कैसा है जिनधर्म कषायके अभावरूप शमभाव पर यावज्जीव त्यागरूप यम अर कालकी मर्यादारूप नियम अर अहिंसादि व्रत इनकरि सुन्दर है युक्त है ॥७६।।
विगलितकलिलेन येन युक्तो, भवति नरो भुवनस्य पूजनीयः । शुचिवचनमनः शरीरवृत्त्या,
भजति बुधो न कथं तमत्र धर्मम् ॥८०॥ अर्थ-जो पापरहित धर्म करि युक्त मनुष्य है सो लोककें पूजनीक होय है ता धर्मकौं इसलोकमैं पवित्र मन वचन कायकी परणति करि कौन पंडित जन न सेवै है ? सेवै ही है ॥८॥
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चतुर्दश परिच्छेद
[ ३५५
क्षांतिर्दिवमार्जवं निगदितं सत्यं शुचित्य, तपस्त्यागोऽकिंचनता मुमुक्षुपतिभिर्बावतं संयमः। धर्मस्येति जिनोदितस्य दशधा निर्दूषणं, कुर्वाणो भवयन्त्रणाविरहितो मुक्तांगनां श्लिष्यति ॥१॥
अर्थ-क्रोधकषायके अभावरूप क्षमा अर मानके अभावरूप मार्दव अर मायाके अभावरूप आर्जव अर सत्य वचन अर लोभके अभावरूप शुचिपना अर अनशनादि तप अर शक्तिसारू त्याग अर निष्परिग्रहता अर ब्रह्मचर्य अर संयम ऐसें दशप्रकार लक्षण जिनधर्मका मुनीश्वरनि करि कह्या ताहि जो आचरण करै है सो संसारबंधनकरि रहित भया सन्ता मुवितस्त्रीकौं आलिंग है ॥१॥ ऐसे धर्मानुप्रेक्षा कही । आगें अधिकारकौं संकोचे है
योऽनुप्रेक्षा द्वादशापीति नित्यं, भव्यो भक्त्या ध्यायति ध्यानशीलः । हेयादेयाशेषतत्त्वावबोधी,
सिद्धि सद्यो याति स ध्वस्तकर्मा ॥२॥ अर्थ-या प्रकार जो पुरुष द्वादश अनुप्रेक्षानिकौं ध्यान रूप है स्वभाव जाका ऐसा भव्य भक्ति करि नित्य ही ध्यावें है विचार है सो हेय उपादेय तत्वका जाननेवाला शीघ्र ही मुक्तिपदकौं प्राप्त होय है कैसा है सो नाश किये हैं कर्म जानें ऐसा है ।
भावार्थ-जो द्वादश अनुप्रेक्षा भावै है सो मुक्तिकौं प्राप्त होय है ऐसा भावनाका फल दिखाया है ।।२।। सूचिततत्त्वं ध्वस्तकुतत्वं, भवभयविदलनदभयमकथनम् । यो हृदि धत्त पापनिवृत्ते, शुचिरुचिचिरं जिनपतिवचनम् ॥३॥ केवल लोकालोकितलोकोऽमितगतित्तिपतिसुरपतिमहिताम् । याति स सिद्धि पावनशुद्धि, सकलितकलिमलगुणमणिसहिताम् ॥४॥
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३५६ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ-जो पुरुष जिनराजके वचनकौं पापरहित हृदयवित्र धारै है सो पुरुष मोक्षकौं प्राप्त होय है, कैसा है, जिनराजका वचन सूचित किया है (बताया है) वस्तुका स्वरूप जानें । बहुरि नाश किया है अन्यथा वस्तुका स्वरूप जानें (वस्तु तो जैसा अनेकांत स्वरूप है तैसा ही है परन्तु अन्यथा मानने रूप मिथ्या अभिप्रायका जाने नाश किया है ऐसा है) बहुरि संसार भयका नाश करनेवाला है इन्द्रियनिका दमन अर संयमका कथन जाविर्षे, बहुरि पवित्र रुचिकरि सुन्दर है रुचिकारी है, बहुरि कैसा है सो जिन वचनकौं हृदयमै धारनेवाला पुरुष केवलज्ञान दर्शनरूपी प्रकाश करि देख्या है लोक जानें।
भावार्थ-जिन वचनके अभ्यासतें केवली होय है, कैसी है मुक्ति अनन्त है महिमा जिनकी ऐसे जे गणधरादिक अर देवनिके इन्द्र तिन करि पूजित है । बहुरि रागादि दोषरहित अत्यन्त पवित्र है । बहुरि खण्डित किये हैं पापरूप मैल जिननें ऐसे सम्यक्त्वादि गुण रत्न करि पूजित है युक्त है, ऐसा जानना ॥८३-८४॥
सवैया इक्तीसा जग है अनित्य तामै सरन न वस्तु कोय,
तातें दुःखरासि भववासकौं निहारिए । • एक चित्त चिह्न सदा भिन्न परद्रव्यनितें,
अशुचि शरीरमैं न आपाबुद्धि धारिए । रागादिक भाव करै कर्मको बढ़ाव तातें,
संवरस्वरूप होय कर्मबन्ध डारिए । तीन लोक मांहि जिनधर्म एक दुर्लभ है,
तातें जिनधर्मकौं न छिनहू विसारिए ।
.. दोहा . ऐसें द्वादश भावना, भाषी अमितगतीस ।
जो भावै सो सुख लहै, कर्म महागिरि पीस ॥ ऐसे श्री अमितगति आचार्यविरचित श्रावकाचारविर्षे
चतुर्दशमा परिच्छेद समाप्त भया।
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पञ्चदश परिच्छेद
[३५७
पञ्चदशः परिच्छेदः।
नियम्य करणग्रामं व्रतशीलगुणारतैः । सर्वो विधीयते भव्यविधिरेष विमुक्तये ॥१॥ न सा संपद्यते जंतोः सर्वकर्मक्षयं विना । रजोपहारिणो दृष्टिर्व लाहकमिवोजिता ॥२॥ समस्तकर्मविश्लेषो ध्यानेनैव विधीयते । न भास्करं विनाऽन्येन हन्यते शार्वरं तमः ॥३॥ यत्नः कार्यों बुधाने कर्मभ्या मोक्षकांक्षिभिः । रोगेभ्यो दुःखकारिभ्यो व्याधितैरिव भैषजम् ॥४॥
अर्थ-व्रत अर शील गुणनिमैं किया है आदर जिननें ऐसे भव्य जीवनि करि इंद्रियनिके समूहकौं रोकि करि यह सर्व पूर्वोक्त व्रतादि आचरण मुक्तिके अर्थि कीजिए है ॥१॥
सो मुक्ति सर्व कर्मनिके क्षयविना जीवकै न होय है जैसैं मेघविना रजकी उपसमावनेवाली वृष्टि न होय तैसें ॥२॥
बहुरि समस्त कर्मका नाश ध्यान ही करिए है जैसे सूर्य विना और करि रात्रि सम्बन्धी अन्धकार न निवारिए तैसें ॥३॥
तातें कर्मनतें मोक्षके वांछक जे पंडितजन तिनकरि ध्यान विर्षे यत्न करना योग्य है। जैसे रोगनतें छटनेके वांछक जे रोगी तिनिकरि औषधका यत्न करना योग्य है तैसें ॥४॥
आगै ध्यानका सामान्य लक्षण कहैं हैं:प्राधत्रिसंहतः साधरांतमौ हत्तिकं परम् ।
वस्तुन्येकत्र चित्तस्य, स्थैर्य ध्यानमुदीर्यते ॥५॥ ...अर्थ-आदिके वज्रवृषभनाराच वज्रनाराच अर्द्धनाराच ये तीन
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३५८ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
संहनन जिनके पाइए ऐसे जे ध्यानके साधनेवाले पुरुष तिनि करि एक वस्तु विषै उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त मनकी थिरता कीजिए सो ध्यान कहिए है ॥ ५ ॥
तदन्येषां यथाशक्ति, मनोरोधविधायिनाम् । एकद्वित्रिचतुः पंच, षडादिक्षणगोचरम् ॥६॥
अर्थ - बहुरि सो ध्यान, मनके रोकनेवाले निकैं यथाशक्ति एक दोय तीन च्यार पांच छह आदि समयनिकैं गोचर है ।
भावार्थ - उत्कृष्ट ध्यान उत्तम संहननवालेकै अन्तर्मुहुर्त्तका है औरनि यथाशक्ति एक आदि समय भी ध्यान होय है, ऐसा जानना ॥ ६ ॥ साधकः साधनं साध्यं, ५. लं चेति चतुष्टयम् । विवोद्धव्यं विधानेन, बुधैः सिद्धि विवित्सुभिः ॥७॥
अर्थ - मोक्षके जानने वा प्राप्त होनेके वांछक जे पंडित जन तिनकरि साधन करनेवाला साधक, अर जाकरि साधिए सो साधन, बहुरि साधनेयोग्य होय सो साध्य, अर साधनाका फल यह च्यार बात विधान सहित जानना योग्य है ||७||
सोही हैं हैं
संसारी साधको भव्यः, साधनं ध्यानमुज्व नम् ।
निर्वाणं कथ्यते साध्यं, फलं सौख्यमनश्वरम् ||८||
अर्थ- संसारी भव्य जीव तौ साधनेवाला साधक है । बहुरि निर्मल ध्यान है सो साधन है । बहुरि मोक्ष साधने योग्य साध्य है । बहुरि अविनाशी सुख है सो ध्यानका फल है ऐसा जानना ||८||
आ ध्यानके भेद हैं हैं
आत रौद्र मतं धर्म्यं, शुक्लं चेति चतुविधम् । ध्यानं ध्यानवतां मान्यैर्भवनिर्वाणकारणम् ॥६॥
अर्थ- - ध्यानवान जे मुनीश्वर तिनि करि मानने योग्य जे गणधरादिक तिनि करि आर्त्त, रौद्र, धर्म, शुक्ल ऐसें च्यार प्रकार को ध्यान संसारका अर निर्वाणका कारण कया है ॥६॥
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पंचदश परिच्छेद
संसारकारणं पूर्वं परं निर्वृतिकारणम् । इत्याद्यं द्वितयं त्याज्यमादेयमपरं बुधः ॥ १० ॥
[ ३५६
अर्थ - पहले आर्तरौद्र तौ संसारके कारण हैं । बहुरि पर जे धर्म शुक्ल ते मोक्षके कारण हैं इस हेतुतैं पंडितनिकरि आदिके आई, रौद्र दोनों त्यागने योग्य हैं । बहुरि और जे धर्म शुक्ल ते ग्रहण करना योग्य हैं ॥१०॥
तहां प्रथम ही आर्त्तध्यानके भेद कहैं हैं
प्रिययोगाऽप्रियायोगपीडा लक्ष्मीर्वािचितनम् । प्रात चतुविधं ज्ञेयं, तिर्यग्गतिनिबन्धनम् ॥११॥
अर्थ - इष्ट वस्तुका वियोग अर अनिष्ट वस्तुका संयोग अर रोगादिककी पीड़ा अर लक्ष्मीकी अभिलाषारूप जो विचार सो च्यार प्रकार आर्तध्यान तिर्यंच गतिका कारण जानना ॥ ११ ॥
आगें रौद्रध्यानका स्वरूप कहैं हैं
रौद्र हिंसा नृतस्तेयभोगरक्षणचतनम् ।
ज्ञेयं चतुविधं शक्त, श्वभ्रभूमिप्रवेशने ॥ १३ ॥
अर्थ – हिंसा अर झूठ अर चोरी अर विषयनिकी रक्षा इनिविषै हर्षरूप जो चितवन सो च्यार रौद्रध्यान नरकभूमि विषें प्रवेश करावने विषं समर्थ जानना योग्य है ||१२||
आगे धर्मध्यानके भेद कहैं हैं
श्राज्ञापायविपाकानां चितनं लोकसंस्थितेः ।
चतुर्षाऽभिहितं धम्यं, निमित्तं नाकशर्मणः ॥ १३ ॥
अर्थ - सर्वज्ञ वीतरागकी आज्ञा अर संसार दुःखका नाश अर कर्मनिका उदय इनका विचारना अर लोकके आकारका विचारना ऐसें च्यार प्रकार धर्मध्यान स्वर्गसुखका कारण कह्या है ॥ १३ ॥
आगे शुक्लध्यानके भेदनिकौं कहैं हैं
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३६० ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
शुक्लं पृथक्तवीतर्कवीचारं प्रथमं मतम् । जिनरेकत्ववीतकोऽवीचारं च द्वितीयकम् ॥१४॥ अन्यत्सूक्ष्मनियं तुर्य, समुच्छिन्नक्रियं मतम् । इत्थं चतुर विधं शुक्ले, सिद्धि सोधप्रवेशकम् ॥१५॥
अर्थ-जिनदेवनि करि पृथक्त्ववितर्कवीचार पहला शुक्लध्यान कह्या है पृथक्त्व कहिये भिन्न भिन्नपने करि वितर्क जो श्रुत ताका विचार कहिए अर्थ शब्द अर योगकी पलटना ताकौं पृथक्त्ववितर्क विचार कहिये । बहरि एक पनांकरि श्रुतका जामैं चितवन होय पलटन न होय सो एकत्त्ववितर्क वीचार कह्या है । बहुरि योगनिकी क्रिया जामैं सूक्ष्म होय सो सूक्ष्मक्रिया तीसरा है । बहुरि नष्ट भई है योगनिकी क्रिया जामैं सो समुच्छिन्नक्रिय है, ऐसें च्यार प्रकार शुक्लध्यान मुक्ति महलके प्रवेश करावनेवाला कह्या है ।।१५।।
आगे ध्यानके स्वामी कहैं हैंआतं तनूमतां ध्यानं, प्रमत्तातगुणाश्रितम् । संयतासंयतांतानां, रौद्रं ध्यानं प्रवर्तते । १६॥
अर्थ--जीवनकै आर्तध्यान है सो छट्ठा प्रमत गुणस्थान पर्यन्त तिष्ठे है अर संयतासंयत जो पंचम गुणस्थान तहां ताई रौद्रध्यान प्रवर्त्तते है ॥१६॥
अनपेतस्य धर्मस्य, धर्मतो दशभेदतः। ..
चतुर्थः पंचमः षष्ठः, सप्तमश्च प्रवर्तकः । १७॥ अर्थ- आज्ञादिक दश प्रकार धर्म जो स्वभाव ताकरि युक्त जो धर्मध्यान ताका प्रवर्तावनेवाला-ध्यावने वाला चतुर्थ पंचम षष्ठम् सप्तम् गुणस्थानवी जीव जानना।
भावार्थ -यद्यपि चतुर्थादि गुणस्थाननिमैं परिणाम निकी निर्मलता वा वस्तु विचारमैं लीनता अधिक-अधिक है तथापि सामान्यपर्ने सर्व धर्मध्यान ही कह्या है ।।१७।।
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पंचदश परिच्छेद
[३६१
ससमर्थ निर्मलीकत्त, शुक्लं रत्नशिखास्थिरम् ।
अपूर्वकरणादीनां, मुमूक्षणां प्रवर्तते ॥१८।।
अर्थ-निर्मल करनेकौं समर्थ ऐसा जो शुक्ल ध्यान है सो अपूर्वकरण आदि सात गुणस्थानवाले मोक्षके वांछक जे आत्मा तिनके प्रवर्ते है। कैसा है शुक्ल ध्यान रत्नकी शिखा समान स्थिर है, जैसे रत्नकी शिखा पवनादिकतें न चले तैसें शुक्ल ध्यान रागादिकतें न चलै है ॥१८॥
अह्वायोद्ध यते सर्व, कर्म ध्यानेन संचितम् । वृद्ध समीरणेनेव, वलाहककदंबकम् ॥१६॥
अर्थ--संचय किया जो सर्व कर्म है सो ध्यानकरि शीघ्र उडाइए हैं तैसें ॥१६॥
ध्यानद्वयेन पूर्वेण, जन्यंते कर्मपर्वताः ।
वज्रणेव विभिद्यते, परेण सहसा पुनः ॥२०॥
अर्थ-पहले दोय ध्यान जे आर्तरौद्र तिनकरि कर्मरूपी पर्वत उपजाइए है। बहुरि पिछले जे दोय धर्मध्यान शुक्ल ध्यान तिन करि कर्म-पर्वत शीघ्र ही भेदिए है।
भावार्थ-आर्तरौद्रतै कर्म बंधे हैं अर धर्म शुक्लनितें कर्मनिका नाश होय है, ऐसा जानना ॥२०॥
यो ध्यानेन विना मूढः, कर्मच्छेदं चिकीर्षति ।
कुशिलेन विना शैलं, रफुटमेष विभित्सति ॥२१॥
अर्थ जो मूढ ध्यान विना कर्मनिका नाश करनेकौं इच्छे है सो प्रगट यह वज्रविना पर्वतके छेदनेकौं इच्छै है ॥२१॥
ध्यानेन निर्मलेनाऽऽशु, हन्यते कर्मसंचयः ।
हुताशनकणेनापि, रनुष्यते किं न काननम् ॥२२॥ ___ अर्थ-निर्मल ध्यान करि शीघ्र कर्मनिका समूह नाश कीजिए है। जैसे अग्निके कण करि भी कहा वन न जलाइए हैं, जलाइए ही है॥२२॥
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३६२ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
१ कहह
ध्यानं विधित्सता ज्ञेय, ध्याता ध्येय विधिः फलम् । विधेयानि प्रसिद्धयंति, सामग्रीतो विना न हि ॥२३ ।
अर्थ-ध्यान करनेकौं इच्छता जो पुरुष ताकरि ध्याता कहिए ध्यानका करनेवाला अर ध्येय कहिए ध्यावने योग्य वस्तु विधि कहिए ध्यानका विधान अर ध्यानका फल ये जानने योग्य हैं, ते सामग्री विना सिद्ध होय नाहीं। ध्याता आदिका स्वरूप जानें तो ध्यानकी सिद्धि होय ॥२३॥
आगै ध्याताका स्वरूप कहैं हैंनिसर्गमार्दवोपेतो, निष्कषायो जितेंद्रियः । निममो निरहंकारः, पराजितपरीषहः ॥२४॥ हेयोपादेयतत्वज्ञो, लोकाचारपराङमुखः । विरक्तः कामभोगेषु, भवभ्रमणभीलुकः ॥२५॥ लाभेऽ नाभे सुखे दुःखे, शत्रौ मित्रे प्रियेऽप्रिये । मानापमानयोस्तुल्यो मृत्युजीवितयोरपि ॥२६॥ निरालस्यो निरुद्व गो जितनिद्रो जितासनः । सर्वव्रतकृतान्यासः सन्तुष्टो निष्परिग्रहः ॥२७॥ सम्यक्त्कालंकृतः शांतो रम्यारम्यनिरुत्सुकः । निर्भयो भाक्तिकः श्राद्धो, वीरो वैरंगिकोऽशठः ॥२८॥ निनिदानो निरापेक्षो विभंक्षुर्देहपंजरम् । भव्यः प्रशस्यते ध्याता यियासुः पदमव्ययम् ॥२६॥
अर्थ-स्वभाव करि ही कोमल परिणाम करि युक्त होय, कषायरहित होय (तीव्र कषायो न होय) अर जीते हैं इद्रिय जानें एसा होय, बहरि परद्रव्य निमैं ममकार २ हित हाय, अहंकार रहित होय (परद्रव्य मेरे हैं ऐसी बुद्धि सो तो ममकार कहिये, पर हैं सो ऐसो बुद्धिकौं अहंकार कहिए इन करि रहित होय) अर जीते हैं क्षुधादि परिषह जानें ऐसा होय ॥२४॥
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पंचदश परिच्छेद
अर त्यागर्ने योग्य अर ग्रहण करने योग्य जे तत्व तिनका ज्ञाता होय अर लौकिक आचारत अपूठो होय, अर काम भोगने विर्षे विरक्त होय, अर संसार-भ्रमणतें भयभीत हाय ॥२५।।
लाभ अलाभ, सुख दुःख, शत्रु मित्र, प्रिय वस्तु अप्रिय वस्तु, मान अपमान, अर मरण जीवन विषं भी समान होय ।
भावार्थ-सर्वकौं ज्ञेयपना करि समान जानि इष्टानिष्टबुद्धि नाहीं करै ॥२६॥
निरालसी होय, उद्वेग रहित होय, जीती हैं इन्द्रियां जानें, अर जीत्या है आसन जानें, आसन बांधनेमैं हलै चलै नाहीं, अर सर्व अहिंसादि व्रतनिका करया है अभ्यास जानें, अर सन्तोष सहित प्रसन्नचित्त होय, अर परिग्रह रहित होय है ॥२७॥
अर सम्यग्दर्शनकरि शोभित होय, शांतपरिणामी होय, अर सुन्दर चित्तकौं रमावनेवाली वस्तु तिनमैं उत्साहरहित होय, निर्भय होय, देव गुरु धर्म विर्षे भक्त होय, कर्म वैरीके जीतनेकौं सुभट होय, वैरागी होय, पण्डित होय ॥२८॥
निदान रहित होय, काहूकी अपेक्षा लिये न होय, देहरूपी पीजरेके भेदने का इच्छुक होय, भव्य होय ऐसा अविनाशी स्थानके जानेका इच्छुक ध्याता सराहिये है ॥२६॥
ऐसें ध्याताका स्वरूप कह्या । आग-ध्येयकौं कहै हैं-- ध्येयं पदस्थपिण्डस्थरूपभेदतः । ध्यानस्थलङ्घनं प्राज्ञैश्चतुर्विधमुदाहृतम् ॥३०॥
अर्थ-ध्यानका आलङ्घन कहिए जाकौं ध्यानवि चिन्तिए ऐसा ध्येय, पदस्थ १ पिण्डस्थ २ रूपस्थ ३ अरूप ४ इन भेदनिकरि बुद्धिमाननिनै च्यार प्रकार कह्या है ॥३०॥
तहां प्रथम ही पदस्थका स्वरूप कहै हैं:
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३६४]
श्री अमितगति श्रावकाचार
यानि पंचनमस्कारपददादीनि मनीषिणा। पदस्थं ध्यातुकामेन तानि ध्येयानि तत्वतः । ३१॥
अर्थ-जे पंचनमस्कारपद आदि अक्षरनिके समूह रूप पद हैं ते पदस्थ ध्यावनेका वांछक जो बुद्धिमान पुरुष ताकरि निश्चयतें ध्यावने योग्य है।
भावार्थ-पदस्थमैं पंचनमस्कार मंत्र आदि पद ध्यावना ॥३१॥ आगे मंत्रनिका विधान कहे हैंमरुत्सशिखो वर्णो भूतांतः शशि शेखरः ।
आद्यध्वादिको ज्ञात्वा ध्यातुः पापं निषूदते ॥३२॥ स्थितो ऽ सि उ सा मन्त्रश्चतुष्पत्रे कृशेशये । ध्यायमानः प्रयत्नेन कर्मोन्मू नयतेऽखि नम् ॥३३॥ तन्नाभौ हृदये वक़ ललाटे मस्तके स्थितम् । गुरुप्रसादतो बुद्ध वा चिन्तनीयं कृशेशयम् ॥३४॥
अयुयवित्यमी वर्णाः स्थिताः पद्म चतुर्दले। विश्राणयंति पंचापि सम्यग्ज्ञानानि चिन्तिताः ॥३५ । स्थितपंचनमस्काररत्नत्रयपदैर्दलैः । अष्टभिः कलिते पद्म स्वरकेसरराजिते ॥३६ ।
ह्रीं ॐ ह्रीं ॐ
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यंत्र
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अ इ उ य उ ।
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पंचदश परिच्छेद
स्थितोऽह मित्ययं मन्त्रो ध्यायमानो विधानतः । ददाति चिन्तितां लक्ष्मों कल्पवृक्ष इवोजिताम् ॥३७॥ हसती कारस्तोमः सोऽहं मध्यस्थितो विगतमूर्द्धा । पार्श्वप्रणवचतुष्को ध्येयो द्विप्रांतकृतमायः ॥३८॥ सहस्रा द्वादश प्रोक्ता जपहोमविचक्षणः । ॐ जोगेत्यादिमन्त्रस्य तद्भागो दशम: पुनः ॥३६॥
ॐ जोग्ने मग्ने तच्चे भूदे भव्वे भविस्से अक्वे पश्वे जिणपारस्से स्वाहा। अयं मंत्रः, जाप्यं द्वादशसहस्र १२०००, होम: द्वादशशतं १२०० ।
चकस्योपरि जापेन जातीपुष्यैर्मनोरमैः । विद्या सूचयते सम्यक् स्वप्रे सर्वं शुभाशुभम् ॥४०॥ ॐ ह्रीं कारद्वयांतस्थो हंकारो रेफभूषितः । ध्यातव्योऽष्टदले पद्म कल्मषक्षपणक्षमः ॥४१॥ सप्ताक्षरं महामंत्र ॐ ह्रीं कारपदानतम् । विदिग्दलगतं तत्र स्वाहांतं विनिवेशयेत् ॥४२॥ xदिशि स्वाहांतमों ह्रीं हैं नमो ह्रीं ह पदोत्तमम् । तत्र स्वाहांतमों ह्रीं है कणिकायां विनिक्षिपेत् ॥४३॥ तत्पद्मं त्रिगुणीभूत मायावीजेन वेष्टयेत् । विचितयेच्छुचीभूतः स्वेष्टकृत्यप्रसिद्धये ॥४४॥ पद्मस्योपरि यत्नेन देयोपादेयलब्धये । मंत्रेणानेन कर्तव्यो जपः पूर्वविधानतः ॥४५॥
. दूसरी संस्कृत प्रति में यह श्लोक इस प्रकार हैदिशि स्वाहांतमों ह्रीं ह्रीं नमों ह्रीं है पदोत्तमम् । तत्र स्वाहा ह्रीं हैं. कर्णिकायां विनिक्षिपेत् ॥
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३६६ ।
श्री अमितगति श्रावकाचार
ॐ ह्रीं नमो हैं णमो अरहताणं ह्रीं नमः इति मूलमंत्रः । जाप्य १०००० होम: १०००।
सव्येनाप्रतिचक्रण फडिति प्रत्येकमक्षरम् । कोणषत विचकाय स्वाहा वाह्य ऽपसव्यतः ॥४६॥ निविश्य विधिना दक्षो मध्ये तस्य निवेशयेत् । भूतांतं बिदुसंयुक्त चितयेच्च विशुद्ध धीः ॥४७॥ विधाय वलयं बाह्य तस्य मध्ये विधानतः । णमो जिणाणमित्याद्य : पूरयेत्प्रणवादिकः ॥४८॥
ॐ णमो जियाणं १-ॐ णमो परमोधि जिणाणं २-ॐ णमो सव्वोधि जिणाणं ३--ॐ णमो अणंतोधि जिणाण . ४-ॐ णमो कोठुबुद्धीणं ५-ॐ णमो बीजबुद्धीणं ६-ॐ णमो पादानुसारीणं ७-ॐ णमो संभिण्णसोदराणं ८-ॐ णमो उज्जुमदीणं ह-ॐ णमो विउलमदीणं, १०-ॐ णमो दसपुन्वाणं ११-ॐ णमो चौद्दसपुवीणं १२ॐ णमो अठ्ठ गणिमित्तकुसलाणं १३-ॐ णमो विगुव्वणइटिपत्ताणं १४-ॐ णमो विज्जाहराणं १५-ॐ णमो चारणाणं १६-ॐ णमो पण्णसमणाणं १७-ॐ णमो आगासगामीणं १८-ॐ ब्रौं झौं श्री ह्री धृति कीर्ति बुद्धि लक्ष्मी स्वाहा इतिपदैलयं पूरयेत् । एवं पंचनमस्कारेण पंचांगुलीन्यस्तेन सकली क्रियते; ॐ णमो अरहंताणं ह्राँ स्वाहा अंगुष्ठे, ॐ णमो सिद्धाणं ह्रीं स्वाहा तर्जन्यां, ॐ णमो आयरियाणं ह्र स्वाहा मध्यमायां, ॐ णमो उवज्झायाणां ह्रीं स्वाहा अनामिकायां, ॐ णमो लोए सव्वसाहूणं कनिष्ठकायां, एवं वारत्रयमंगुलीषु विन्यस्य मस्तकस्योपरि पूर्वदक्षिणापरोत्तरेषु विन्यस्य जपं कुर्यात् ।
इहां तांई यहु मन्त्रविधान वा यन्त्ररचना वा क्रिया-विशेष
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पंचदश परिच्छेद
[ ३६७
आदि वर्णन किया सो वाका अर्थ हमकौं यथार्थ सर्व प्रतिभास्या नाहीं तातें न लिख्या है, विशेष बुद्धि जिनकौं मन्त्र शास्त्रका ज्ञान होय ते यथार्थ समझ लीज्यो।
अभिधेया नमस्कारपर्देय परमेष्ठिनः । पदस्थास्ते विधीयंते, शब्देऽर्थस्य व्यवस्थितेः ॥४६॥
अर्थ-जे अर्हतादि परमेष्ठी नमस्कार पदनिकरि कहने योग्य हैं ते पदस्थ कहिए है, जातै शब्द विर्षे पदार्थकी व्यवस्थिति है।
भावार्थ-शब्दके अर अर्थके वाच्यवाचक भाव सम्बन्ध है, तातें शब्द मैं अर्थ तिष्ठै है इस हेतुते नमस्कार आदि शब्दनिके ध्यानकौं पदस्थ कह्या है ॥४६॥
आगें पिंडस्थ ध्यानकौं कहैं हैं .. अनंतदर्शनज्ञानसुखवीर्यैरलंकृतम् प्रातिहार्याष्टकोपेतं नरामरनमस्कृम् ॥५०॥ शुद्धस्फटिकसंकाशशरीरमुरुतेजसम् । घातिकर्मक्षयोत्पन्न नवकेवल लब्धिकम् ॥५१॥ विचित्रातिशयाधारं लब्ध कल्याणपंचकम् । स्थिरधीः साधुरहतं ध्यायत्येकाग्रमानसः ॥५२॥
अर्थ-स्थिर धी बुद्धि जाकी ऐसा एकाग्रचित्त साधु है सो अहंतदेवकौं ध्यावै है. कैसा है अहंत देव अनंतदर्शन अनंतज्ञान अनंतसुख अनंतवीर्य करि शोभित है । बहुरि अशोकवृक्ष पुष्पवृष्टि दिव्यध्वनि चमर सिंहासन भामंडल देवदुदुभि छत्र इनि अष्ट प्रातिहार्यनिकरी युक्त है। बहुरि मनुष्य देवनिकरि किया है नमस्कार जाकौं ऐसा है । बहुरि निर्मल स्फटिकमणि समान है परमौदारिक शरीर जाका, बहुरि घातिकर्मके क्षयतें उपजी है नव केवल लब्धि जाकै, बहुरि नानाप्रकारके अतिशय कहिए जिनकौं देखि-लौकिक जीवनिके चित्तकौं आश्चर्य उपजै ऐसे
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३६८]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अतिशयनि करि युक्त है । बहुरि पाया है पंचकल्याणक जानें ऐसा है । ५०-५१-५२ ॥
पिंडस्थो ध्यायते यत्र, जिनेन्द्रो हृतकल्मषः । तत्पिडपंचकध्वंसि, पिंडस्थं ध्यानमिष्यते । ५३॥
अर्थ-नाश किया है कल्मष कहिए पाप जानें ऐसा जो जिनेन्द्र सो पिंड जो परमौदारिक शरीर ताविषं तिष्ठया ध्याईए सो पिंडस्थ ध्यान कहिए । बहुरि कैसा है पिंडस्थ ध्यान औदारिकादि पंच शरीरनिका नाश करनेवाला है, सिद्धपदकौं देने वाला है ॥५३।।
आगें रूपस्थ ध्यानकों क हैं हैं - प्रतिमायां समारोप्य, स्वरूपं परमेष्ठिनः । ध्यायतः शुद्धचित्तस्य, रूपस्थं ध्यानमिष्यते ॥५४॥
प्रर्थ-परमेष्ठिका स्वरूप प्रतिमा विर्षे भले प्रकार आरोपण करके ध्यान करता शुद्ध है चित्त जाका ऐसा जो पुरुष ताके रूपस्थ ध्यान कहिए है ॥५४।।
आगें अरूपस्थ घ्यानकौं कहैं हैंसिद्धरूपं विमोक्षाय, निरस्ताशेषकल्मषम् । जिनरूपमिव ध्येयं, स्फटिकप्रति विवितम् ॥५५॥ . अरूपं ध्यायति ध्यानं, परं संवेदनात्मक्म् । सिद्धरूपस्य लाभाय, नीरूपस्य निरेनसः ॥५६ ।
अर्थ-दूर भये हैं समस्त कर्म जाके ऐसा सिद्ध भगवानका स्वरूप जैसा स्फटिक विषे प्रतिबिंबित जिनराजका स्वरूप,
भावार्थ-स्फटिकमणि जैसा जिनबिंब होय तैसा ध्यावना; वर्ण गंध रस स्पर्श रहित ऐसा अमूर्तीक अर सर्व कर्म रहित ऐसा जो सिद्धभगवानका स्वरूप ताकी प्राप्तिके अथि केवलज्ञान स्वरूप अरूप ध्यानकौं ध्यावै है ॥ ५५-५६ ।।
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पंचदश परिच्छेद
[ ३६६
आगें परमात्माका ध्यान कैसे करना, सो कहैं हैं
बहिरंतः परश्चेति, त्रिधात्मा परिकीत्तितः । प्रथमं द्वितीयं हित्वा, परात्मानं विचितयेत् ॥५७॥
अर्थ- बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा ऐसे आत्मा तीन प्रकार कह्या है । तहां बहिरात्मा अर अन्तरात्माकौं छोड़के परमात्माका चितवन करे ॥५७॥
बहिरात्मात्मविभ्रांतिः, शरीरं मुग्धचेतसः ।
या चेतस्यात्मविभ्रांतिः, सोऽतंरात्मा विधीयते । ५८॥ २. अर्थ-जो मूढ़बुद्धिकै शरीर विर्षे आत्माकी भ्रांति है शरीर मैं आपो मानै है सो बहिरात्मा है । बहुरि चैतन्यके विकार जे रागादिक तिन विर्षे आपौ मान है सो अन्तरात्मा कहिए है ॥
इहां प्रश्न-जो और ग्रंथनिमैं तौ मिथ्यादृष्टिकौं बहिरात्मा कह्या है अर सम्यग्दृष्टिकौं अन्तरात्मा कह्या है इहां ऐसा कैसे कह्या ।
ताका उत्तर-देहमैं आपा मानना सो बहिरात्मा अर रागादिकमैं आपा मानना सो अन्तरात्मा ऐसे इहां तौ दोऊ त्यागने योग्य कहे। अर जहां अन्तरात्मा सम्यग्दृष्टिकौं कह्या तहां उपादेय कह्या, किछ आशयमैं विरोध नाहीं वक्ताकी इच्छातें अर्थभेद ही है, ऐसा जानना।
आगें बहिरात्माका स्वरूप कहैं हैं:श्यामोगौरःकृशःस्थूलःकाणःकुंठोऽव तो कती ।' वनिता पुरुषः षंढा विरूपो रूपवानहम् ॥५६॥ जातदेहात्मविभ्रांतेरेषा भवति कल्पना । विवेकं पश्यतः पुंसो न पुवर्देहदेहिनोः ॥६०॥ अर्थ-मैं काला हूँ, गौरा हूँ, पतला हूँ, मोटा हूँ, काणा हूँ,
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३७० ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
हीन हूँ, बलवान हूँ, निर्बल हूँ, स्त्री हूँ, पुरुष हूँ, नपुंसक हूँ, विरूप हूँ, रूपवान हूँ, ऐसी यहु कल्पना है सो उपजी है शरीर मैं आत्माकी भ्रांति जाकै जो शरीर ही आत्मा है ऐसें मिथ्यादृष्टिकें होय है जातें काला गौरा आदि देहके धर्म हैं आत्मा के नाहीं, बहुरि जो पुरुष शरीरका अर आत्माका भेद देखे है श्रद्धा करें है ताकै यह कल्पना न होय है ।।५-६०।।
शत्रु मित्र पितृभ्रातृमातृकांतासुतादयः ।
देहसम्बन्धतः संति, न जीवस्य निसर्गजाः ॥ ६१ ॥
अर्थ – देहका अपकार करनेवाला सो शत्रु अर देहका उपकार करनेवाला सो मित्र अर देहका उपजावनेवाला सो पिता अर जहां देहकी उत्पत्ति तहां ही जाकी उत्पत्ति होय सो भाई अर देहकौं उपजावै सो माता अर देहकौं रमावै सो स्त्री, देहतें उपज्या सो पुत्र इत्यादि सर्व जीवकै शत्रु आदिक देहके संम्बंधतें हैं, स्वभाव जनित नाहीं ॥ ६१ ॥ *
श्वाभ्रास्तिर्यङ नरो देवो, भवामीति विकल्पना | श्वाभ्रातिर्यङ नृदेवांग संगतो न स्वभावतः ॥६२॥
अर्थ- मैं नारकी हूँ, तिर्यंच हूँ, मनुष्य हूँ, देव हूँ, ऐसी यहु कल्पना है सो नारक तिर्यंच मनुष्य देवनिके शरीरके संगतें हैं स्वाभावतें नाहीं ॥६२॥
बालकोऽहं कुमारोऽहं तरुणोऽहमहं जरी ।
एता देहपरिणामजनिताः, संति कल्पना: ॥ ६३ ॥
अर्थ - मैं बालक हूँ, मैं कुमार हूँ, मैं तरुण हूँ, मैं वृद्ध हूँ ऐसी
जे कल्पना हैं ते शरीरके परिणाम करि उपजी हैं ॥ ६३ ॥
विदग्धः पंडितो मूर्खो, दरिद्रः सधनोऽवनः । कोपनोऽसूयको मूढो, द्विष्टस्तुष्टा शठोऽशठः ॥६४॥
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पंचदश परिच्छेद
सज्जनो दुर्जनो दीनो, लुब्ध मत्तोऽपमानितः । जातचित्तात्मसंभ्रांतेरेषा भवति शेमुषी ॥६५॥
[ ३७१
प्रथं - मैं चतुर हूँ, पंडित हूँ, मूर्ख हूँ, दरिद्री हूँ, धनवान हूँ, निर्धन हूँ, क्रोधी हूँ ईर्ष्यायुक्त हूँ, मोही हूँ, द्वेषी हूँ, रागी हूँ, अज्ञानी हूँ, ज्ञानी हूँ, सज्जन हूँ दुर्जन हूँ, दीन हूँ, लोभी हूँ प्रमादी हूँ, अपमान सहित हूँ ऐसी यहु बुद्धि उपजै हैं रागादिक भावनि मैं आपकी भ्रांति जा ऐसा जो पुरुष ताकै होय है ॥ ६४॥
मिथ्याबुद्धि सम्यक् बुद्धिका फल कहैं हैं
देहे यात्ममतिर्जंतोः सा वर्द्धयति संस्थितिम् श्रात्मन्यात्ममतिर्या सा, सद्यो नयति निर्वृतिम् ॥६६॥
अर्थ - जो देह विषै आपेकी बुद्धि है सो जीवकै संसार बढ़ावै । बहुरि जो आत्मा विषै आत्म बुद्धि है सो शीघ्र मुक्तिकौं प्राप्त करे हैं ॥६६॥
यो जागत्यत्मिनः कार्ये, कायकार्यं स मुंचति ।
यः स्वरित्यात्मनः कार्ये, कायकार्यं नरोति सः ॥ ६७ ॥
सो
अर्थ – जो पुरुष आत्माके कार्य मैं जागे है अपने हित में सावधान है। पुरुष शरीर के कार्यकौं त्याग है, शरीर सम्बन्धी क्रिया मैं उदासीन रहैं है बहुरि जो आत्माके कार्य विषै सोवे है आत्माके हित मैं उद्यमी नाहीं सा शरीर सम्बन्धी क्रियाकौं करै है || ६७ ॥
ममेदमहमस्यास्मि, स्वामी देहादिवस्तुनः ।
यावदेषा मतिर्बाह्य तावद्धय ने कुतस्तनम् ॥६८॥
,
अर्थ – ये शरीरादि परद्रव्य मेरा है अर मैं शरीरादि परवस्तुका स्वामी हूँ ऐसी बुद्धि जहां ताई बाह्य परद्रव्य विषै है तहां ताई ध्यान कहांतें होय ॥६८॥
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३७२]
श्री अमितगति श्रावकाचार -
नाहं कस्यापि मेकश्चिन्न, भावोऽस्ति बहिस्तनः । यदेषा शेमुषी साधोः, शुद्धध्यानं तदा मतम् ॥६६॥
अर्थ-मैं कोई बाह्य पदार्थका नाहीं अर बाह्य पदार्थ मेरा कोई नाहीं ऐसी यहु बुद्धि जब साधुकै होय तब शुद्ध ध्यान कह्या है ॥६१॥
रागद्वषमदक्रोध लोभमन्मथमत्सराः । न यस्य मानसे संति, तस्य ध्यानेऽस्ति योग्यता ॥७॥
अर्थ जाके मन विर्षे राग अर द्वष अर क्रोध अर लोभ अर मत्सर अर काम अर ईर्षाभाव ये नाहीं ता पुरुषकै ध्यान विष योग्यता है ॥७०॥
* रागद्वेषादिभिः क्षिप्तं, मनः स्थैर्य प्रचाल्यते । कांचनस्येव काठिन्यं, दीप्यमानहुं ताशनैः ।७१॥
प्रर्थ-रागद्वेषादि करि आक्षिप्त ऐसी मनकी स्थिरता चलायमान हो जाय है। जैसें देदीप्यमान अग्निकरि सुवर्णका कठिनपना चलायमान हो जाय तैसें।
भावार्थ- मन चाहे जेता स्थिर होय परन्तु रागद्वेषादि करि चलायमान हो ही जाय है ॥७१॥
विद्यमाने कषायेऽस्ति मनसि स्थिरता कथम् । कल्पांतपवनैः स्थैर्य, तृणं कुत्र प्रपद्यये ॥७२॥
अर्थ- जैसे प्रलयकालकी पवन विर्षे तृण है सो थिरताकौं कैसे प्राप्त होय तैसें कषाय भाव विद्यमान होत सन्तै मनकी थिरता कैसे होय ॥७२॥
अक्षय्यकेवलालोकविलोकितचराचरम् । अनन्तवीर्यशर्माणममूर्त मनुपद्रवम् ॥७३॥
* यह श्लोक क्चनिकाकी प्रतिमैं नहीं है, संस्कृत प्रतिसे लिखकर वचनिका कर दी है।
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पंचदश परिच्छेद
[ ३७३
निरस्तकर्मसम्बन्धं, सूक्ष्मं नित्यं निरास्त्रवम् । ध्यायतः परमात्मानमात्मनः कर्मनिर्जरा ॥७४।।
अर्थ-अविनाशी जो केवल दर्शन केवल ज्ञान तिनकरि देखे वा जाने हैं चराचर समस्त वस्तु जानें । बहुरि अनंत है स्वरूपते न चलने रूप वीर्य अर निराकुलतारूप आनंद जाके, अर वर्णादि रहित अमूर्तिक है, अर रोगादि उपद्रव रहित है, अर दूर किया है समस्त कर्मका सम्बन्ध जानें, बहुरि जाकौं मनः पर्ययज्ञानी भी देख सकै नाहीं ऐसा सूक्ष्म है, नित्य है, अर रागादिकके अभावतें निराश्रव है ऐसा जो परमात्मा सिद्ध भगवान ताहि ध्यावता जो पुरुष ताकै आपके कर्मनिकी निर्जरा होय है ॥७३-७४।।
आत्मानमात्मना ध्यायन्नात्मा भवति निर्वृतः । घर्षपन्नात्मनाऽऽत्मानं पावकी भवति द्रुमः ॥७॥
अर्थ-जैसे वृक्ष है सो वृक्षकरि घिस्या संता अग्निके भावकौं प्राप्त होय है तैसें आत्मा है सो आपकरि आपकौं ध्यावता संता सुखी होय है, सिद्ध स्वरूप होय है ।।७।।
न यो विविक्तमात्मानं, देहादिभ्यो विलोकते। स मज्जति भवांभोधौ, लिंगस्थोऽपि दुरुत्तरे ॥७६।।
अर्थ-जो पुरुष देहादि परद्रव्य नितें आपकौं न्यारा नाहीं देखै है नांहीं श्रद्धान करै है सो पुरुष मुनि श्रावकके बाह्य लिंगमैं तिष्ठ्या भी दुस्तर संसार समुद्र विर्षे डूबै है, द्रव्यलिंगी मुनि श्रावक भी संसारी ही रहे है तब और जीवनिकी कहा कथा है ।।७६॥
सविज्ञानमविज्ञानं, विनश्वरमनश्वरम् । सदानात्मीयमात्मीयं, सुखदं दुःखकारणम् ॥७७॥ अनेकमेकमंगादि, मन्यमानो निरस्तधीः । जन्ममृत्युजरावत, वंभ्रमीति भवोदधौ ॥७८।।
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३७४]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ - जो अज्ञानी पुरुष शरीरादि जे अचेतन पदार्थ तिनकों चेतन मानता अर विनाशीककौं अविनाशी मानता अर सदा आपका नाहीं ताक आपका मानता अर दुःखका कारण तार्कों सुखदायी मानता अर एक नाहीं ताकौं एक मानता सो जीव संसार - समुद्र विषै अतिशयकरि भ्रम है । कैसा है संसार - समुद्र जन्म मरण जरारूप हैं मोरे जा विषै ।।७७-७८॥
श्रात्मनो देहतोऽन्यत्वं, चितनीयं मनीषिणा । शरीरभारमोक्षाय, सायकस्येव कोशतः ॥७६॥
अर्थ- जैसैं तरकशतैं तीरकौं न्यारा देखिए तैसें बुद्धिमान पुरुष करि शरीरका भार त्यागने के अर्थि मोक्ष होनेके अर्थि शरीरतें आत्माका भिन्नपना चितवना योग्य है ॥ ७६ ॥
या देहात्मैकताबुद्धिः, सा मज्जयति संसृतौ ।
सा प्रापयति निर्वाणं, या देहात्मविभेदधीः ॥ ८० ॥
अर्थ – जो देह मैं अर आत्मामें एकताकी बुद्धि है सो संसार मैं डुबो है अर जो शरीरकी अर आत्माकी भिन्न दुद्धि है सो मोक्षकों प्राप्त कर है ॥८०॥
यः शरीरात्मनोरैक्यं, सर्वथा प्रतिपद्यते ।
पृथक्त्व शेमुषी तस्य, गूथमाणिक्ययोः कथम् ॥ ८१ ॥
अर्थ --जो देह अर आत्मा विषै सर्वथा एकपना मान है ताकै विष्टा अर माणिक्य रत्न विषै भिन्नपनेकी बुद्धि कैसे होय !
भावार्थ - आत्मा तौ रत्न समान पवित्र है अर देह विष्टा समान अपवित्र है सो कारणवश विष्टामैं तिष्ठता जो रत्न ताहि जैसैं भूर्ख एक मान तैसें कर्मोदयके वश शरीर मैं तिष्ठता जो आत्मा ताहि मिथ्यादृष्टि एक मान है ऐसा जानना ॥ ८१ ॥
देहचेतनयोर्भेदो, भिन्नज्ञानापलब्धितः ।
सर्वदा विदुषा ज्ञेयश्चक्षुः प्राणार्थयोरिव ॥ ८२॥
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पंचदश परिच्छेद
[३७५
अर्थ-ज्ञानवान करि देहका अर चेतनका भेद जानना योग्य है जातें भिन्न ज्ञान करि जानने मैं आवे है। जैसे नेत्र इद्रिय अर नासिका इंद्रियके विषय जे रूप गंध ते भिन्न ज्ञान करि जाननेमैं आवें हैं तातै भिन्न
भावार्थ-देहतौ इन्द्रिय ज्ञानकरि दीसै हैं अर आत्मा स्वसंवेदन करि दीस है, इन्द्रिय ज्ञानकरि आत्मा न दीसै है अर स्वसंवेदन करि शरीर न आवै है, ऐसे न्यारे ज्ञानकरि जाने जाय हैं तातें शरीर अर आस्मा भिन्न है; जसें रूप नेत्र करि जान्या जाय है, गंध नासिका करि जानिए है; रूप नासिका करि न जानिए है अर गंध नेत्रकरि न जानिए है; तातें गंध रूप भिन्न भिन्न है ऐसा अनुमान दिखाया है ॥ २॥
न यस्य हानितो हानिर्न वृद्धिर्वृद्धितो भवेत् । जीवस्य सह देहेन, तेनैकत्वं कुतस्तनम् ॥३॥
अर्थ-जा शरीरकी हानितें जीवक हानि नाहीं अर जा शरीरकी वृद्धितें जीवकी वृद्धि नाहीं होय है, तातें जीवक देहके साथ एकपना काहेका ? ॥३॥
तत्वतः सह देहेन, यस्य नानात्वमात्मनः । कि देहयोगजस्तस्य, सहैकत्वं सुतादिभिः ॥२४॥
मर्ग-परमार्थतें जिस आत्माकै देहके साथ भिन्नपना है ताके देहके संयोगतें उपजे जे पुत्रादिक तिनकरि एकपना कसें होय ॥८४॥
ममत्वधिषणा येषां, पुत्रमित्रादिगोचरा । साऽऽत्मरूपपरिच्छेदछेदिनी मोहकल्पिता ॥५॥
अर्थ-जिनके पुत्र मित्रादि विर्षे जो ये मेरे हैं ऐसी ममत्व बुद्धि है तिनके ऐसी बुद्धि आत्म ज्ञानकी नाश करनेवाली मोहकरि भई।
भावार्थ-मिथ्यात्वके उदयकरि कल्पना मात्र है सत्यार्थ नाहीं॥ पत्तनं काननं सौधमेषा नात्मधियांमतिः । निवासो हष्टतत्वानामात्मै वास्त्यक्षयोऽमलः ॥८६ ॥
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३७६ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ – मैं नगर मैं बसू हूँ बनमैं बसू हूँ ऐसी यहु बुद्धि आत्मज्ञान रहित मिथ्यादृष्टीनिकै होय है । बहुरि देख्या है तत्व जिननें ऐसे सम्यग्दृष्टी निकै अविनाशी, नित्य, निर्मल ऐसा जो आत्मा सो ही निवास है ॥८६॥
शुद्धस्य जीवस्य निरस्तमूत्त:
सर्वे विकाराः परकर्मजन्याः ।
मेघादिजन्या इव तिग्मरश्मेविनश्वराः
संति विभास्वरस्य ॥८७॥
अर्थ - अमूर्त्तीक जो शुद्ध आत्मा ताकं समस्त विकार हैं तें कम दयतें उपजै हैं ।
भावार्थ - द्रव्यदृष्टि करि देखिए तौ विकार कर्मजनित है किछु आत्माके स्वभाव नाहीं; जैसें देदीप्यमान जो सूर्य ताके विनाशीक विकार ( हूँ थोड़ा प्रकाश होना कहूँ बहुत प्रकाश होना इत्यादिक) वादला आदिके निमित्तसें होय है, स्वभावज नित नाहीं ॥ ८७ ॥ दृष्टात्मतत्वो द्रविणादिलक्ष्मीं,
न मन्यते कर्मभवां स्वकीयाम्
विपक्षलक्ष्मीं भुवने विवेकी,
प्रपद्यते चेतसि कः स्वकीयाम् ॥८८॥
अर्थ- देख्या है आत्माका स्वरूप जानें ऐसा पुरुष है सा कर्मोदय करि उपजी जे धनधान्यादिकी लक्ष्मी ताहि आपकी न मान | लोक विषै ऐसा कौन विवेको है जो शत्रुकी लक्ष्मीकौं चित्त विषे आपकी मानं ॥ ८८ ॥
ज्ञानदर्शनमयं निरामयं मृत्युसंभवविकारवजितम् । श्रामनंति सुधियोऽत्र चेतनं, सूक्ष्ममव्ययमपास्त कल्मषम् । ८६ ॥
अर्थ - लोक विषं पंडित हैं ते आत्माकौं ऐसा माने हैं:
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पंचदश परिच्छेद
[ ३७७
आत्मज्ञानदर्शनमयी है अर रोग रहित है अर मरण उपजने आदि विकार रहित है अर नष्ट भया है पाप जाका ऐसा निर्मल है अविनाशी है सूक्ष्म है ॥८६॥
विग्रहं कृमिनिकायसंकुलं, दुःखदं हृदि विचितयंति ये । गुप्तिबद्धमिव ते सचेतनं, मोचयंति तनुयंत्रमंत्रितम् ॥०॥
अर्थ - कीड़ानिके समूह करि भर्या दुःखदायी ऐसा जो शरीर ताहि हृदय विषे जे पुरुष भिन्न विचारें हैं ते पुरुष शरीर रूप पंच करि वंध्या ऐसा जो आत्मा ताका मानौं गुप्ति बन्धन खोलैं हैं ।
भावार्थ -- जे शरीर अर आत्माकौं भिन्न भावें हैं तिनकैं कर्मबन्धकी निर्जरा होय है ॥ ६१ ॥
स्थित्वा प्रवेशे विगतोपसर्गे, पर्यंकबंधस्थितपाणिपद्मः । नासाग्र संस्थापित दृष्टिपातो, मन्दीकृतोच्छा सविवृद्धवेगः ॥ ६१॥ विधाय वश्यं चपल स्वभावं, मनोमनीषी विजिताक्षवृत्तिः । विमुक्तये ध्यायति ध्वस्तदोषं विविक्तमात्मानमनन्यचित्तः ॥ ६२ ॥
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अर्थ - नाहीं अन्य वस्तु विषें चित्त जाका ऐसा ज्ञानी पुरुष मुक्ति अर्थ रागादि दोष रहित समस्त परद्रव्यनितें भिन्न जो आत्मा ताहि ध्यावे है । कैसा है सो पुरुष दंशमशकादिकी बाधा रहित क्षेत्र विषें तिष्ठ करि पर्यंकासन विषे धरे हैं हस्तकमल जानें । बहुरि नासिकाके अग्र विषे थाप्या है दृष्टिका पड़ना जानें बहुरि वृद्धिकौं प्राप्त भया ऐसा श्वासोच्छ्वासका वेग सो मन्द किया है । बहुरि चञ्चल है स्वभाव जाका ऐसा जो मन ताहि वश करिकै जीती है इन्द्रियनिकी परणति जानें ऐसा पुरुष आत्माको ध्यावे है ॥६१-६२ ॥
श्रभ्यस्यतो ध्यानमनन्यवृत्त रित्थं विधानेन निरन्तरायम् । व्यपैति पापं भवकोटिबद्ध, महाशमस्येव कषायजालम् ॥६३॥
अर्थ - या प्रकार पूर्वोक्त विधान करि अन्तराय रहित निरन्तर
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३७८ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
ध्यानको अभ्यास करता अर नाहीं है पर परणति जाकै ऐसा जो पुरुष तार्क कोटि भवकर बांध्या जो पाप सो नाशकौं प्राप्त होय है, जैसें उपशम भाव सहित पुरुषकै कषायनिका समूह नाश होय तैसें ॥६३॥ ध्यानं पटिष्ठेन विधीयमानं, कर्माणि भस्मीकुरुते विशुद्धम् । कि प्रर्यमाणाः पवनेन नाग्निश्चितानि सद्योदहतींधनानि ॥९४॥
अर्थ - ज्ञानी पुरुषकरि कर्या भया निर्मल ध्यान है सो कर्मनिकौं भस्म कर है । जैसें पवनकरि प्रेर्या भया अग्नि है सो संचयरूप जे ईंधन तिनहि शीघ्र कहा नाहीं दग्ध करें है ? करै ही है ॥६४॥
त्यागेन हीनस्य कुतोऽस्ति कीत्तिः, सत्येन हीनस्य कुतोऽस्ति पूजा । न्यायेन हीनस्यकुतोऽस्ति लक्ष्मी, ध्यानेन हीनस्य कुतोऽस्ति सिद्धिः ॥६५॥
अर्थ - दानकरि हीन जो पुरुष ताकी कीर्ति कैसें होय, अर सत्य करि हीन पुरुषकी पूजा कैसें होय, अर न्यायकरि हीन पुरुषकै लक्ष्मी कैसें होय, अर ध्यान करि हीन जो पुरुष ताकै सिद्धि जो मोक्ष सो कैसें होय ||५||
तपांसि रौद्राण्यनिश विधत्तां, शास्त्राण्यधीतांमखिलानि नित्यम् । धत्तां चरित्राणि निरस्ततन्द्रो, न सिध्यति ध्यानमृते तथाऽपि ॥ ६६ ॥
अर्थ - घोर तपनिकौं निरन्तर धारै है तो धारो । बहुरि समस्त शास्त्रनिकों पढ़े है तो पढ़ो, आलस्य रहित चारित्रनिकौं आचर है तो आचरो, तौ भी ध्यान विना सिद्धि न पावै है । सर्व धर्मके अगनिमैं ध्यान मुख्य है ॥६॥
ध्यानं यवहृाय ददाति सिद्धि, न तस्य खेवः परमर्शदाने । क्षयानलं हंति यदावूदें, न तस्य खेदः परवह्निघाते ॥ ६७॥
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पंचदश परिच्छेद
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___ अर्थ-जो ध्यान शीघ्र ही सिद्धपदकौं देय है ता ध्यानकैं और अहमिंद्रादि पदके देनेमैं खेद नाहीं, जैसें जो मेघका समूह प्रलयकालकी अग्निका नाश करै ताकै और अग्नि बुझायवे विर्षे खेद नाहीं ॥१७॥ तपोंऽतरानन्तरभेदभिन्न, तपोविधाने द्विविधे कदाचित् । समस्तकर्मक्षपणे समर्थ, ध्यानेन शुद्ध न समं न दृष्टम् ॥८॥
अर्थ-अन्तरंग वहिरंग भेद करि भिन्न जो दोय प्रकार तपका विधान ता विर्षे निर्मल ध्यान समान सकल कमेनिके नाश करनेमै समर्थ और तप न देख्या।
भावार्थ-और तप तो ध्यानके साधन हैं अर ध्यान मोक्षका साधन है, तातें ध्यान सबनिमैं मुख्य है ॥१८॥
ध्यानस्य दृष्टेति फलं विशालं, मुमुक्षुणाऽऽलस्यमपास्य कार्यम् । कार्ये प्रमाद्यं ति न शक्तिमन्तो,
विलोकमानाः फलभूरिलाभम् ॥६६ अर्थ-या प्रकार ध्यानका बड़ा फल देखिकै मुक्तिका वांछक जो पुरुष ता करि आलस्यकौं छोडिकै ध्यान करना योग्य है, जातें अधिक फलरूप लाभकौं देखते जे सामर्थ्यवान पुरुष हैं ते कार्य विषं आलस्य नाहीं करें हैं ॥६॥ तपोविधानबहुजन्मलो दह्यते संचितकर्मराशिः । क्षणेन स ध्यानहुताशनेन, प्रवर्त्तमानेन विनिर्मलेन ॥१०॥
__ अर्थ-अनेक लाख जन्मनिमैं उपवासादि तपनि करि जो संचयरूप कर्मनिका समूह नाश कीजिए सो कर्मनिका समूह वा जो निर्मल ध्यानरूप अग्नि ता करि क्षण मात्रमैं दग्ध कीजिए है ॥१०॥ निर्वाणहेतोर्भवपातमीताने प्रयत्नः परमो विधेयः । यियासुभिर्मुक्तिपुरोमबाधामुपायहीना न हि साध्यसिद्धिः ॥१०॥
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श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ – संसारमैं पडते भयभीत अर बाधा रहित अर मुक्तिपुरीके जानेंके इच्छुक ऐसे जे पुरुष तिनकरि मोक्षके अथि ध्यान विषें उद्यम करना योग्य है, जाते उपाय विना कार्यकी सिद्धि नाहीं । मोक्षका उपाय ध्यान ही है ॥ १०१ ॥
देहात्मनोरात्मवता
वियोगो,
मनः स्थिरीकृत्य तथा विचित्य: ।
३८० ]
हेतुर्भवानार्थ
परंपरायाः,
स्वप्नेऽपि योगो न यथाऽस्ति भूयः ॥ १०२ ॥
अर्थ - आत्मज्ञानी पुरुषकरि चित्तकौं थिर करकै देहका अर आत्माका वियोग कहिये निन्नपना तैसें चितवना योग्य है जैसैं संसार दुःखकी परंपराका कारण जो देहका संयोग सो स्वप्न विषें भी फेर न होय ॥ १०२ ॥ |
जानें |
निरस्तसर्वेन्द्रिय कार्यजातो,
यो देहकार्यं न करोति किंचित् । स्वात्मीय कार्योद्यतचित्तवृत्तिः,
स ध्यानकार्यं विदधाति धन्यः ॥१०३॥
अर्थ - नाश किया है स्पर्शनादि सर्व इन्द्रियनिके कार्यनिका समूह
भावार्थ - जानें स्पर्शादि विषयनिमैं इन्द्रियनिका राग सहित परिणमन रोक्या है । बहुरि अपने आत्माके कार्य विषें उद्यम सहित है चित्तकी परणति जाकी ऐसा जो धन्य पुरुष है सो ध्यानरूप कार्यकौं करै है ॥१०३॥
fasमानं
जगदंतराले,
धत्त न शक्यं मनुजामरेंद्र :
तन्मानसं यो विदधाति वश्यं,
ध्यानंस धीरो विदधात्यवश्यम् ॥ १०४ ॥
अर्थ- जो जगत विषें हीडता डोलता नरेन्द्र देवेंद्रनिकरिन।
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पंचदश परिच्छेद
रोकने योग्य ऐसा जो मन ताहि वश करें है सो धीर पुरुष निश्चय सेती
ध्यानकौं करै है |
है ॥ १०४ ॥
[ ३८१
भावार्थ- जाके वशीभूत मन है सो ही ध्यान करनेकौं समर्थ
बाणैः समं पंचभिरुग्रवेगंधिद्धस्त्रिलोकस्थितजीववर्गः ।
न मन्मथस्तिष्ठति यस्य चित्त े, विनिश्चलस्तिष्ठति तस्य योगः ॥ १०५ ॥
अर्थ - तीन लोक मैं तिष्ठया जो जीवनिका समूह सो जानें उग्र तिन करि एकें काल वेध्या ऐसा तिष्ठै है ताकै ध्यान निश्चल तिष्ठे
है वेग जिनका ऐसे जे पंच बाण जो काम सो जाके चित्त विषं न है ।। १०५।।
रोषो न तोषो न मोषो न दोषो, न कामो न कम्पो न दम्भो न लोभः । न मानो न माया न खेदो न मोहः,
यदीयेऽस्ति चित्तं तदीयेस्ति योगः ॥ १०६॥
अर्थ - जा पुरुषके चित्तमें क्रोध नाहीं, राग नाहीं, चोरी नाहीं अन्यायादि दोष नाहीं, काम नाहीं, भय नाहीं, दम्भ नाहीं, लोभ नाहीं, मान नाहीं, माया नाहीं, खेद नाहीं, मोह नाहीं ता पुरुषकै ध्यान होय हैं । के रागादि विकार हैं ताकै ध्यान न होय है ॥ १०६ ॥
प्रवर्द्ध मानोद्धतसेवनायां,
जीवस्य गुप्ताविव मन्यते यः ।
शरीरकुट्यां वर्षांत महात्मा, हानाय तस्या यतते स शीघ्रम् ॥ १०७ ॥
अर्थ - वर्द्धमान है तीव्र दुःखरूप परणति जा विषं ऐसा जो शरीररूप कुट्टी ताविषें बन्दीखानेकी वसती समान वसतीकौं जो मान है
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३८२]
श्री अमितगति श्रावकाचार
सो महात्मा तिस शरीरकुट्टीके नाशके अथि शीघ्र ही यत्न करै है, मोक्ष होनेका उपाय करै है ऐसा जानना ॥१०७॥
समाधिविध्वंसविधौ पटिष्ठं, न जातु लोकव्यवहारपाशम् । करोति यो निष्पृहचित्तवृत्तिः,
प्रवर्तते ध्यानमनुष्य शुद्धम् ॥१०॥ अर्थ-जो पुरुष एकाग्रचित्तके नाश करने में प्रवीण जो निंद्य लोकव्यवहार ताहि कदाचित् नाहीं करै है अर वांछारहित है चित्तकी परणति जाकी ऐसे पुरुषके निर्मल ध्यान प्रवर्ते है ॥१०८।। विधीयते ध्यानमवेक्षमाणैर्यद्ध तबोधैरिह लोककार्यम् रौद्रं तदात्तच वदन्ति सन्तः, कर्मद् भच्छेदनबद्धकक्षाः ।१०। _अर्थ-जो इस लोकसम्बन्धी कार्यकौं वांछते जे अज्ञानी पुरुष तिनकरि ध्यान करिए है तौ ध्यानकौं सन्तपुरुष रौद्र या आर्त कहै है । कैसे है संत पूरुष कर्मवृक्षके छेदनेकौं बांधी है कमर जिननें ॥१०॥ सांसारिक सौख्यमवाप्तुकामानं विधेयं न विमोक्षकारि । न कर्षणं सस्यविधायि लोके, पलाललाभाय करोति कोऽपि ।११०॥
अर्थ-मोक्षका कर्ता जो ध्यान सो संसारके सुखकी वांछा करि करना योग्य नाहीं, जातें लोकमैं धान्यकी उपजावनेवाली जो खेती सो पलालके लाभके अर्थि कोई भी करै नाहीं। धान्यके अर्थि जो खेती करेगा ताकै पलाल तौ स्वयमेव ही होयगा। तैसें मोक्षके अथि जो ध्यान करै है ताकै संसारसुख तौ यावत् शुभ राग है तावत् स्वयमेव होय है । बहुरि विषय सुखकी वांछा करै तौ उलटा रोद्रध्यान होय संसारसुखकी वांछा सहित ध्यान करना युक्त नाहीं ॥११०॥
अभ्यस्यमानं बहुधा स्थिरत्वं, यथैति दुर्योधमपीह शास्त्रम् । नूनं तथा ध्यानमपीति मत्वा,
ध्यानं सदाऽभ्यस्यतु मोक्त कामः ॥१११॥ पर्ण-जैसे दुःखतें है जानना जाका ऐसा कठिन शास्त्र भी
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पंचदश परिच्छेद
[३८३
बहत अभ्यास किया भया स्थिरताकौं प्राप्त होय है। तैसे ध्यानाभ्यास भी किया हुआ मोक्षकौं प्राप्त करै है, तातें मुक्त होनेका इच्छुक पुरुष निश्चयतें ध्यानाभ्यास करो ॥१११॥
अवाप्य मानुष्यमिदं सुदुर्लभं, करोति यो ध्यानमनन्यमानसः । भनक्ति संसार दुरंतपनरं,
स्फुटं स सद्यो गुरु दुःखमंदिरम् ॥११२॥ प्र-जो यह दुर्लभ मनुष्यपनेकौं पायकरि नांही है अन्य वस्तु विर्षे मन जाका ऐसा ध्यान कर है सो पुरुष दूर है अन्त जाका ऐसा जो संसाररूपी पीजरा बड़े दुःखनिके वसनेका घर है ॥११२॥
यो जिनरष्टं शमयमसहितं, ध्यानमपाकृतसकलविकारः । ध्यायति धन्यो मुनिजनहितं,
चित्तनिवेशितपरमविचारः ॥११३॥ मर्ग-जो पुरुष जिनराजकरि कह्या जो कषायनिके अभावरूप शमभाव अर जन्मपर्यन्त पाप क्रियाका त्यागरूप यमभाव तिनकरि सहित जो ध्यान ताहि ध्यावै है सो पुरुष धन्य है। कैसा है ध्यान मुनिजननि करि पूजित है। बहुरि कैसा है सो ध्यानी पुरुष दूर किये हैं रागादि सकल विकार जानें, बहुरि चित्तविष निवेशित कहिए उपज्या है परम विचार कहिए आत्माका विचार जाकै ऐसा है ॥११३॥ नाकिनिकायस्तुतपदकमलो, दीर्णदुरुत्तरभवभयदुःखाम् । याति स भव्योऽमितगतिरनघां, मुक्तिमनश्वरनिरुपमसौख्याम्११४
पर्व-सो पूर्वोक्त ध्यान करनेवाला भव्य पुरुष अविनाशा अर अनुपम है सुख जा विर्षे ऐसी जो निर्मल मुक्ति अवस्था ताकौं प्राप्त होय है, कैसी है मुक्ति अवस्था विदारे हैं नाश किये हैं दुस्तर संसारके भय दुःख जानें। बहुरि कैसा है सो पुरुष देवनिके समूहनि करि स्तुत हैं चरण कमल जाके, बहुरि अमर्यादरूप है ज्ञान जाका।
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३८४]
श्री अमितगति श्रावकाचार
भावार्थ - ऐसें ध्यानका फल मुक्ति अवस्था कही ॥ ११४ ॥
सवैया तेईसा ।
ध्यानस्वरूप को जिनराज व्रतादि समाजसमेत विचार,
चित्त वसै परमारथमें सब रागविरोध विकार विडारै । सो सुरपूजितपादसरोज अनंतगुणातम रूपनिहारै
मत्त रहै सुखवारिधमें नहिं जन्म भवावलिमें फिर धारै ॥
ऐसें श्री श्रमितगति श्राचार्यविरचित श्रावकाचारविषैपंद्रहमां परिच्छेद समाप्त भया ।
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पंचदश परिच्छेद
अब आचार्य अपने गुरुकी परिपाटी कहैं हैं
अभूत्समो यस्य न तेजसेनः, स शुद्धबोधोऽजनि देवसेनः । मुनीश्वरो निर्जितकर्मसेनः पादारविदप्रणतेंद्रसेनः ॥ १ ॥
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कत्त: प्रशस्तिः ।
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प्रार्थनिर्मल है ज्ञान जाका ऐसा सो देवसेन नामा आचार्य मुनिनका ईश्वर प्रगट होता भया तेज करि सूर्य जाके समान न होता भय कैसा है सो आचार्य जीती है कामकी सेना जानै, बहुरि चरणकमलति विषे नम्रीभूत भए हैं इंद्रनिकी सेवा कहिए देवनिका समूह जाकै ऐसा
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दोषांधक रपरिमर्दनवद्धकक्षो, भूतस्ततोऽमितगतिर्भुवनप्रकाशः ।
तिग्मद्य तैरिव दिन : कमलावबोधी, मार्गप्रबोधनपरो बुधपूजनीयः ॥ २ ॥
अर्थ- तिस देवसेन आचार्यका शिष्य लोककौं प्रकाश करनेवाला अमितगतिनामा आचार्य भया, कैसा है सो मिथ्यात्वादि दोषरूपी अन्धकारके नाश करनेकौं बांधी है कमर जानें सौ जैसें सूर्यंतें कमलनिका प्रफुल्लित करनेवाला अर मार्गकौं प्रगट करने मैं तत्पर ऐसा पंडितनि करि पूजनीक दिन प्रगटै तैसें देवसेन आचार्य के शिष्य अमितगति सो भी कमला कहिए लक्ष्मी ताकौं प्रफुल्लित करनेवाला अर मोक्षमार्गका प्रगट करनेवाला अर पंडितनि करि पूजनीक होता
भया ॥२॥
विद्वत्समूहाचित चित्रशिष्यः, श्रीनेमिषेणोऽजनि तस्य शिष्यः । श्रीमाथुरानूकनभः शशांक, सदा विधूताऽऽर्हततत्वशंकः ॥ ३॥
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३८६]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ-ता अमितगति मुनिका शिष्य श्री नेमिषेण आचार्य होता भया कैसा है सो पंडितनिके समूह करि पूजित है अनेक शिष्य जाके । बहुरि श्रीमाथुरसंप्रदायरूप आकाशविर्षे प्रकाश करने तें चन्द्रमा समान है, बहुरि सदा नाश करी है अहंतभाषित तत्त्वनि विर्षे शंका जानें ॥३॥ माधवसेनोऽजनि महानीयः, संयतनाथो जगति जमीयः । जीवनराशेरिव मणिराशी, स्म्यतमोऽतोऽखिलतिमिराशी ॥४॥
अर्थ-तिस नेमिसेनके पद विर्षे जगत विर्षे पूज्य संयमीनका नाथ श्री माधवसेन आचार्य प्रगट होता भया। कैसा है सो संसारी जीवनिका हितकारी है अर युन्दर रत्ननिकी राशि ज्यौं समस्त मिथ्याभावरूप अन्धकारका नाश करनेवाला ऐसा माधवसेन आचार्य भया ॥४॥
विजितनाकिनिकायमवज्ञया, जयति यो मदनं पुरुविक्रमम् । त्यजति मां किमयं परनाशघी,
रिति कषायगणो विगतो यतः ॥५॥ प्रर्थ-जीत्या है देवनिका समूह जानें ऐसा महापराक्रमी जो काम ताहि तिरस्कार करि जो जीते है सो यहु आचार्य मौकों कैसे छोड़ेगा मौकौं भी जीतेगा। ऐसी विचारिकै जिस माधवसेन आचार्यतें कषायनिका समूह भगि गया, कैसा है कषायनिका समूह अन्य जीवननिके नाशवेकी है बुद्धि जाकै।
भावार्थ-काम विकार जाका नशि गया ताके कोषादि कषाव भी नशि जाय हैं । परद्रव्यनिकी बांछा सहित जीवहीकों कषाय पीड़े है ऐसा जानना ॥५॥
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पंचदश परिच्छेद
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तस्मादजायत नयादिव साधुवादः शिष्टाचितोऽमितगतिर्जगति प्रतीतः । विज्ञातलौकिकहिताहितकृत्यवृत्तराचार्यपदवीं
दिधतः पवित्रम् ॥६॥ अर्थ-जैसें न्यायतें सत्य बोलना उपजै है तैसें तिस माधवसेन आचार्यतें शिष्यनिकरि पूजित लोक विर्षे प्रतीतिरूप श्री अमितगति आचार्य होता भया। कैसा है माधवसेन आचार्य जानी है लोक सम्बन्धी हिताहित कार्यकी प्रवृत्ति जानें, अर पवित्र श्रेष्ठ आचार्यकी पदवीकौं धारै है ॥६॥ अयं तडित्वानिव वर्षणं घनो, रजोपहारी घिषणांपरिस्कृतः । उपासकाचारमिमं महागनाः, परोपकाराय महोन्नतोऽकृतः ।७।
अर्थ-यहू अमितगति आचार्य इस उपासकाचार शास्त्रकौं करता भया जैसे मेघ वर्षा हरै, मेघ तो बिजली सहित है आचार्य वुद्धिकरि युक्त है मेघ धूलकौं करै है आचार्य पापरजकौं हरै है मेघ लोकके उपकारकौं बरसै है आचार्यने भी परोपकारहीके अर्थ शास्त्र रच्या है यह आचार्य भी ज्ञानादिगुणनि करि ऊँचा है, मेघ ऊँचा है ऐसे मेघ समान उपयुक्त अमितगतिसूरि यह शास्त्र रचते भए ॥७॥
यदत्र सिद्धांतविरोधी भाषितं, विशोध्य सद्ग्राह्यमिमं मनीषिभिः । पलालमत्यस्य न सारकांक्षिभिः,
किमत्र शालिः परिगृह्यते जनः ॥८॥ अर्थ-इस शास्त्र विषं जो किछू सिद्धांत विरोध कह्या होय ताहि सोधिकें बुद्धिवाननिकरि यह शुद्ध ग्रहण करना योग्य है, जातें लोक विर्षे सादके वांछक जे पुरुष तिनकरि पलाल छोडिक कहा चांवल ग्रहण न कीजिए है ? कीजिए ही है ।।८।।
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३८८ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
(काव्य) यावत्तिष्ठति शासनं जिनपतेः पापापहारोद्यतम्, यावद्ध्वंसयते हिमेतररुचिविश्वं तमः शार्वरम् । यावद्धारयते महीघ्रधरवचित्त वातत्रयी विष्टपं, तावच्छास्त्रमिदं करोतु विदुषामभ्यस्यमानं मुदम् ॥
अर्थ-पापके हरनैमें उद्यमी जो जिनराजका मत सो जहां ताई तिष्ठ है अर जहां ताई सूर्य रात्रि सम्बन्धी सकल अन्धकारकौं हरै है । बहुरि जहां ताई पर्वतनिकरि जड़ित जो लोक ताहि तीनौं वातवलय धार है तहां ताई यह श्रावकाचार शास्त्र अभ्यास किया सन्ता ज्ञानीजीवनिकौं आनन्द करहु; ऐसे आचार्यने आशीर्वाद दिया है ॥६॥
इति ग्रन्थकत : प्रशस्तिः ।
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