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४३८ अमरकोषः ।
[तृतीयकाण्डे१ पुंसि कोष्ठोऽन्तर्जठरं कुमूलोऽन्तर्गृहं तथा ॥ ४० ॥ २ निष्ठा निष्पत्तिनाशान्ताः ३ काष्ठोत्कर्ष स्थिती दिशि । ४ त्रिषु ज्येष्ठोऽतिशस्तेऽपि ५ कनिष्ठोऽतियुवाल्पयोः ।। ४१ ।।
इति ठान्ताः शब्दाः।
अथ डान्ताः शब्दाः। ६ दण्डोऽस्त्री लगुडेऽपि स्याद् ७ गुडो गोलेशुपाकयोः। ८ सर्पमांसात्पशू व्याडौ ९ गोभूवाचस्विडा इलाः ॥ ४२ ॥ १० क्ष्वेडा वंशशलाकापि ११ नाडी नालेऽपि षटक्षणे।
१ 'कोष्ठः' (पु) के कोष्ट (पेटके भीतरका एक भाग), कोठिला या बखार, घरका भीतरी भाग, ३ अर्थ हैं ।
२ 'निष्ठा' (स्त्री), के निप्पत्ति ( सिद्धि ), नाश, आखीर, ३ अर्थ हैं । ३ 'काष्ठा' (स्त्री) के वृद्धि, मर्यादा, पूर्व आदि दिशा, ३ अर्थ हैं ॥
४ 'ज्येष्ठ.'(त्रि)के बहुत उत्तम, बड़ा भाई आदि, वृद्ध, ३ अर्थ और 'ज्येष्ठः' (पु) का ज्येष्ठ महीना, 1 अर्थ है ॥ ५ 'कनिष्ठः' (त्रि) बालक, छोटा भाई आदि,थोड़ा ३ अर्थ हैं ।
इति ठान्ताः शब्दाः।
अथ डान्ता शब्दाः । ६ 'दण्ड: (पुन) के डण्डा, सजा, २ अर्थ हैं ॥ ७ 'गुडः (पु) के मिट्टीकी गोली, गुड, २ अर्थ हैं ॥ ८ 'प्याड' (पु) के साँप, बाघ, २ अर्थ हैं ॥ . ९ 'इडा, इला' (२ स्त्री) के गौ, पृथ्वी, वचन, बुधकी स्त्री, ४ अर्थ हैं ।
१. 'श्वेडा' (स्त्री) के पिंजड़ा-दौरी आदि बनाने के लिये बाँस आदिको छीलकर चिकनी और पतली की हुई शलाका, सिंहकी गर्जना, २ अर्थ हैं ।
'नारी' (स्त्री) के छः क्षण (एक घटी या २४ मिनट) का समयविशेष, नादी (नस), नाल (डंठल ), ३ अर्थ हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org