Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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- पतीन्द्र सूरिस्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार --- पारमिताओं का वर्णन किया गया है, उनमें से एक पारमिता दान भी कल्याण हो और ग्रहीता का भी कल्याण हो। दाता स्वार्थ - को भी माना गया है। दान के सम्बन्ध में बुद्ध ने 'दीघनिकाय' में रहित होकर दे और पात्र भी स्वार्थशून्य होकर ग्रहण करे। वह कहा है कि 'सत्कारपूर्वक दान दो, अपने हाथ से दान दो, मन से दान, जिसके देने से दाता के मन में अहं-भाव न हो और लेने दान दो, दोषरहित पवित्र दान दो' इस प्रकार के दान को पवित्र वाले के मन में दैन्यभाव न हो। इस प्रकार का दान विशुद्ध दान दान कहा गया है। बुद्ध ने कहा है कि श्रद्धा से दिया गया दान है। यह दान ही वस्तुतः मोक्ष का कारण है। न देने वालों पर प्रशस्त दान है। यदि दान में श्रद्धा-भाव नहीं है, तो वह दान तुच्छ किसी प्रकार का भार और न लेने वालों को किसी प्रकार की दान है। धर्म का दान सब दानों से बढ़कर है। धर्म का रस सब ग्लानि। यह भव बंधन काटने वाला दान है। यह भव-परम्परा रसों से श्रेष्ठ है।
का अंत करने वाला दान है। जैन-परम्परा में भी दान को एक सत्कर्म माना गया है। इसी प्रकार ब्राह्मण और आरण्यक-साहित्य में भी दान जैन-धर्म न एकांत क्रियावादी है न एकांत ज्ञानवादी है और न को विशेष महत्त्व दिया गया है। रामायण, महाभारत एवं संस्कृत एकांत श्रद्धावादी ही है। श्रद्धा, ज्ञान और आचरण इन तीनों के महाकाव्यों में भी दान के विषयों में काफी विस्तार से वर्णन करते समन्वय से ही मोक्ष की संप्राप्ति होती है, फिर भी जैन धर्म को हुए दान की महिमा का उल्लेख किया है। सभी ने दान को उत्कृष्ट आचार-प्रधान कहा जा सकता है। ज्ञान कितना भी ऊँचा हो, दान कहा है। कवि कालिदास, तुलसी, कबीर, रहीम आदि कवियों यदि साथ में उसका आचरण नहीं है, तो जीवन का उत्थान नहीं ने भी दान की महिमा सुन्दर ढंग से कही है। हो सकता। जैन परम्परा में सम्यग् दर्शन सम्यग् ज्ञान और
भारत के धर्मों के समान बाहर से आने वाल धर्मों -
भारत के धर्मों के समान ब सम्यग चारित्र को मोक्ष-मार्ग कहा गया है। दान का सम्बन्ध ईसाई और मस्लिम धर्मों में भी दान का बडा ही महत्त्व माना चरित्र से ही माना गया है। आहारदान, औषधिदान और अभयदान
गया है। इन धर्मों में दान की महिमा का ही वर्णन नहीं किया आदि अनेक प्रकार के दानों का वर्णन विविध ग्रंथों में उपलब्ध
गया, बल्कि दान पर बल भी दिया गया है। दान के अभाव में होता है। भगवान महावीर ने 'सूत्रकृतांग' में अभयदान को सबसे
ईसा मनुष्य का कल्याण नहीं मानते। बाइबिल में दान के विषय श्रेष्ठ दान कहा है।
में कहा गया है कि तुम्हारा दायाँ हाथ जो देता है, उसे बायाँ हाथ 'अभयदान' ही सर्वश्रेष्ठ दान है। दूसरे के प्राणों की रक्षा ही न जान सके, ऐसा दान दो। कुरआन में दान के सम्बन्ध में बहुत अभयदान है। आज की भाषा में इसे ही जीवनदान कहा गया है। ही सुन्दर कहा गया है कि प्रार्थना ईश्वर की तरफ आधे रास्ते भगवान महावीर ने कहा है कि 'मेघ चार प्रकार के होते हैं - एक तक ले जाती है। उपवास महल के द्वार तक पहुँचा देता है और गर्जना करता है, पर वर्षा नहीं करता। दूसरा वर्षा करता है, पर दान से हम अन्दर प्रवेश करते हैं । जिसमें दान देने की शक्ति है। गर्जना नहीं करता। तीसरा गर्जना भी करता है और वर्षा भी उसके पास देने को कुछ भी नहीं और जिसमें देने की शक्ति न करता है। चौथा न गर्जना करता है और न ही वर्षा करता है। मेघ हो, वह सब कुछ देने को तैयार रहता है। अत: दान देना उतना के समान मनुष्य भी चार प्रकार के होते हैं - कुछ बोलते हैं, देते सरल नहीं है, जितना समझ लिया जाता है। दान से बढ़कर नहीं। कुछ देते हैं, किन्तु कभी बोलते नहीं। कुछ बोलते भी हैं और अन्य कोई पवित्र धर्म नहीं है। एक कवि ने बहुत ही सुन्दर कहा देते भी हैं। कुछ न बोलते हैं, न देते ही हैं। इस कथन से दान की है कि दान से सभी प्राणी वश में हो जाते हैं, दान से शत्रुता का महिमा एवं गरिमा स्पष्ट हो जाती है। जैनपरम्परा में धर्म के चार नाश हो जाता है। दान से पराया भी अपना हो जाता है। दान अंग स्वीकार किए गये हैं - दानशील, तप एवं भाव। इनमें दान ही महिमा सभी विपत्तियों का नाश कर देता है। इस प्रकार समस्त मुख्य एवं प्रथम है। 'सुखविपाकसूत्र' में दान का ही गौरव गाया साहित्य दान से भरा पड़ा है। दान की परम्परा संसार में भूतकाल में गया है।
भी थी। वर्तमान में भी है और भविष्य में भी हमेशा विद्यमान रहेगी। भगवान महावीर ने बहुत सुन्दर शब्दों का प्रयोग किया है। जैन-परम्परा में आचार्य अमितगति के द्वारा लिखा गया 'मधादायी' और 'मधाजीवी'। दान वही श्रेष्ठ है, जिससे दाता का एक ग्रंथ 'अमितगति-श्रावकाचार' में बड़े विस्तार के साथ दान
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