Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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_रानीलगरि स्मारक गत्य राधतिक सन्दर्भ में जनधर्मकी हत्या करने वाले व्यक्ति की अपेक्षा अधिक दोषी मानना बदले में आक्सीजन निःसृत करते हैं, जिससे प्राणियों का जीवन होगा। क्योंकि पर्यावरण के प्रदूषण का परिणाम केवल एक चलता है। पेड़-पौधों के द्वारा मनुष्य और दूसरे शाकाहारी प्राणियों व्यक्ति तक सीमित न होकर सम्पूर्ण मानवता या प्राणिजगत् पर को भोजन प्राप्त होता है और उन प्राणियों से निकले मल-मूत्र से होता है।
पेड-पौधे अपना भोजन ग्रहण करते हैं। पेड़-पौधे हमें आहार और जीवन जीने का नियम संघर्ष नहीं, सहकार :
प्राण वायु प्रदान करते हैं और हम पेड़-पौधों को आहार और
प्राणवायु प्रदान करते हैं। इस प्रकार जीवन का चक्र संघर्ष नहीं एकमात्र समाधान
सहकार पर निर्भर है। आगामी सदी में हमें जैन -आचार्यों के पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या उत्पन्न होने का मूलभूत द्वारा दी गई इस जीवन-दृष्टि को अपनाना होगा, तभी हम मानवता कारण यह था कि मनुष्य ने जीवन के विविध रूपों को मानवीय का और जीवन के विविध रूपों का संरक्षण कर सकेंगे। जीवन का एक साधन मान लिया था। वह यह मानने लगा था।
निःशस्त्रीकरण : युग की अनिवार्यता कि मनुष्य का जीवन न केवल सर्वश्रेष्ठ है, अपित उसे अपनी सुख-सुविधाओं के लिए जीवन के दूसरे रूपों को नष्ट करने का आत्मसुरक्षा के नाम पर हिंसक अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण अधिकार भी है। पाश्चात्य विकासवादियों ने जीवन का नियम एवं संग्रह की वृत्ति अतिप्राचीन काल से ही चली आ रही है। 'अस्तित्व के लिए संघर्ष' और 'योग्यतम की विजय' प्रतिपादित मनुष्य ने अस्त्र-शस्त्रों का विकास अपने अस्तित्व के संरक्षण किया था, जो एक मिथ्या धारणा पर आधारित है। यह सत्य है एवं भय से विमुक्ति के लिए किया था। किन्तु अस्त्र-शस्त्रों के कि जीवन का संरक्षण और विकास जीवन के दसरे रूपों पर निर्माण एवं संग्रह की यह वृत्ति मनुष्य में आज तक अभय का आधारित होता है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य को विकास नहीं कर सकी है। आज अस्त्र-शस्त्रों के संग्रह की इस जीवन के दूसरे रूपों को नष्ट करने का खला अधिकार है। यह वृत्ति ने मानव को बारूद के ढेर पर खड़ा कर दिया है। कब सत्य है कि मानवीय जीवन का सर्वश्रेष्ठ रूप है किन्त इसका इसका विस्फोट मानव जाति को राख का ढेर बना देगा, कोई अर्थ यह भी नहीं है कि मनुष्य को जीवन के दूसरे रूपों को नष्ट नहीं जानता है। मनुष्य ने जिसके माध्यम से अभय को खोजने करने का खुला अधिकार है। जैन-दार्शनिक यह तो स्वीकार की कोशिश की थी, आज वही भय का सबसे बड़ा कारण बना करते हैं कि एक जीवन जीवन के दूसरे रूपों पर अपने अस्तित्व हुआ है। यही कारण था कि आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व के लिए निर्भर है, फिर भी उनके अनुसार 'जीवन का नियम भगवान महावीर ने यह उद्घोष कर दिया था कि अस्त्र-शस्त्र के संघर्ष नहीं सहकार' है। जहाँ पाश्चात्य विकासवादी ने संघर्ष को सहारे मानव जाति में अभय का विकास सम्भव नहीं है। उन्होंने जीवन का नियम बताया है, वहाँ जैन-दार्शनिकों ने सहकार को आचारांग में कहा था - "अत्थि सत्थेन परंपरं, नत्थि असत्थेन जीवन का नियम बताया है। जैन-दार्शनिकों के अनसार विकास परंपरं" अर्थात् शस्त्र तो एक से बढ़कर एक हो सकते हैं. किन्त की प्रक्रिया संघर्ष में नहीं, सहयोग पर निर्भर है। जैनदार्शनिक अशस्त्र से बढ़कर तो कुछ हो ही नहीं सकता है। महावीर की उमास्वाति ने आज से २००० वर्ष पूर्व तत्त्वार्थसत्र में एक सत्र यह वाणी आज शत-प्रतिशत सत्य सिद्ध हो रही है। अस्त्र-शस्त्रों दिया था - "परस्परोपग्रहोजीवानाम"। जिसका तात्पर्य है एक के निर्माण की दौड़ में हमने एक से बढ़कर एक संहारक शस्त्रों दूसरे का सहयोग करना ही जीवन का नियम है। जीवनयात्रा का निर्माण किया और संहारक शस्त्रों के निर्माण की यह दौड पारस्परिक सहयोग के सहारे चलती है। हम जीवन के दूसरे रूपों आज उस स्थिति तक पहुँच चुकी है, जहाँ सम्पूर्ण मानवता के का विनाश करके अपने अस्तित्व को सुरक्षित नहीं रख सकते। लिए एक चिता तैयार कर ली गई है, कब और कौन उसे मुखाग्नि व्यवहार में भी हम देखते है कि जहाँ मनष्य का जीवन पेड- देकर समाप्त कर देगा, कोई नहीं जानता। अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण पौधों पर आश्रित है, वहीं पेड़-पौधों का जीवन मनष्य एवं के द्वारा जिस अभय की खोज का प्रयत्न मानव-जाति ने किया अन्य प्राणियों पर निर्भर है। वे मनुष्य एवं दसरे प्राणियों की था, वह वृथा ही सिद्ध हुई है। यदि मानव जाति में अभय का श्वांस से निकली कार्बन-डाइआक्सआइड को ग्रहण कर उसके विकास करना है तो वह शस्त्रीकरण से नहीं, निःशस्त्रीकरण से ordarsandarbarianarmadanandad y
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