Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
View full book text
________________
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - पूर्व के महान पुण्य से इतनी अनुकूलताएँ तो मिल चुकी हैं - कहा जाता है। उत्कृष्टतम तीर्थंकर नाम कर्म और अब सोचें कि अब और कौन सा पुय करें? श्रद्धा और संयम की वजभाषमनाराचसंहनन भी हों तो भी आत्मशुद्धि तो आत्म के ही आराधना तो आत्मा को स्वयं करना है। आत्मा के ज्ञानादि अनन्त ज्ञान-दर्शन-चरित्र गुणों से ही हो ही होगा। गणों को प्रकट करना हैं तो वे भी आत्मा के ही ज्ञानादि गणों से ही
शुद्ध निमित्त मिलें तो मैं भी शद्ध बनं ऐसा क्यों सोचें? शुद्ध प्रकट होंगे।
बनूं - ऐसा दृढ़ निश्चय करें तो तद्नुकूल निमित्त मिलेगा ही मिलेगा। सोचें कि अब ओर क्या करें, क्या बनें? चक्रवर्ती बनने का निमित्त क्या कर सकता है ? मात्र 'ऊंगली दर्शन'। माँ बच्चे को पुण्य करें। चक्रवर्ती बन जाएँ ओर कुछ विशेष कुरु, सभी चक्रवता ऊंगला के इशारे से ऊपर-आकाश में चन्द्रमा दिखाती है, बच्चा माँ छ: खण्ड साधते हैं, मैं सातवां साधुं तो सातवी नारकी में जाता है। और उसकी ऊंगली को देखना बंद करे तो चन्द्रमा दिखे। निमित्त जीव साक्षात् प्रभु तीर्थंकर के समोशरण में चला जाए पर उनके की (पुण्य के फल से आए निमित्त की) आवश्यकता मात्र इतनी भीतर में रहे हुए अनन्त ज्ञानादि गुणों पर अन्नर दृष्टि नहीं हो और ही है, वह दिखाता नहीं, देखने में निमित्त बनता है, देखता व्यक्ति बाहर के (आठ महाप्रति हर्यादि) वैभव को देखकर, चमत्कृत, स्वयं है। ऐसे ही पुण्य प्रकृतिरूप जितनी अनुकूल साममियाँ हैं वे होकर वाह-वाह करता हुआ लोट आए तो, अनन्त (पूर्ण) पुण्य- मात्र निमित्त हैं, कर्ता नहीं, कर्त्ता तो आत्मा स्वयं है, आत्म को ही उपार्जित किए (जिससे तीर्थंकर का सानिध्य मिला) वे भी निष्फल आत्मारूप करना है और जब आत्मा हो गए। बाहर में मिले हुए, पुण्य के फल स्वरूप सभी अनुकूल हुए अनन्त ज्ञानादि गुणों का कर्ता होता है, भोक्ता होता है तब सारे प्रसंग उपादन की अक्षमता (निर्बलता) से अफल हो जाते हैं। वे निमित्त बाहर तो जाते हैं (उनके बाहर हुए बिना अनन्त ज्ञानादि ग्रज शुद्धतम निमित्ति भी काम नहीं आए।
सम्पन्नता आती ही नहीं है) जब आत्मा अपने ही ज्ञानादि गुणों का ४२ ही पुण्य प्रकृतियाँ आत्मसाधना नहीं करवा सकती,
कर्ता-भोक्ता होता है तब आत्मा मात्र ज्ञाता दृष्टा होता है, न कर्ता न आत्मसाधना तो आत्म को ही, आत्म (के ज्ञानादि) द्वारा ही करना
भोक्ता, मात्र होता है, अपने आप में होता है, मैं आप जो भी ऐसा होगा और तब ये (पुण्य प्रकृतियाँ) निमित्त (सहायक) बनीं ऐसा
होने का दृढ़ निश्चय करेंगे होना चाहेगें - अवश्य होंगे।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org