Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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-यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म
है। आचार्य हरिभद्र ने इसे ७०२ संस्कृत श्लोकों में निबद्ध किया है। वहाँ अनेकान्तवादप्रवेश सामान्य व्यक्ति हेतु अनेकान्तवाद को बोधगम्य यह कृति आठ स्तबकों में विभक्त है । प्रथम स्तबक में सामान्य उपदेश बनाने के लिये लिखा गया है । यह ग्रन्थ भी संस्कृत भाषा में निबद्ध है। के पश्चात् चार्वाक मत की समीक्षा की गयी है । द्वितीय स्तबक में भी इसकी विषय-वस्तु अनेकान्तजयपताका के समान ही है । चार्वाक मत की समीक्षा के साथ-साथ एकान्त-स्वभाववादी आदि मतों की समीक्षा की गयी है । इस ग्रन्थ के तीसरे स्तबक में आचार्य हरिभद्र न्यायप्रवेश-टीका ने ईश्वर-कर्तृत्व की समीक्षा की है। चतुर्थ स्तबक में विशेष रूप से सांख्य हरिभद्र ने स्वतन्त्र दार्शनिक ग्रन्थों के प्रणयन के साथ-साथ अन्य मत की और प्रसंगान्तर से बौद्धों के विशेषवाद और क्षणिकवाद का खण्डन परम्परा के दार्शनिक ग्रन्थों पर भी टीकाएँ लिखीं हैं। इनमें बौद्ध दार्शनिक किया गया है। पञ्चम् स्तबक बौद्धों के ही विज्ञानवाद की समीक्षा प्रस्तुत दिङ्नाग के न्याय-प्रवेश पर उनकी टीका बहुत ही प्रसिद्ध है । इस ग्रन्थ करता है । षष्ठ स्तबक में बौद्धों के क्षणिकवाद की विस्तार से समीक्षा की में न्याय-सम्बन्धी बौद्ध मन्तव्य को ही स्पष्ट किया गया है । यह ग्रन्थ गयो है । सप्तम स्तबक में हरिभद्र ने वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता और हरिभद्र की व्यापक और उदार दृष्टि का परिचय देता है । इस ग्रन्थ के स्याद्वाद की प्रस्थापना की है। साथ ही इस स्तबक के अन्त में वेदान्त की माध्यम से जैन-परम्परा में भी बौद्धों के न्याय-सम्बन्धी मन्तव्यों के अध्ययन समीक्षा भी की गयी है । अष्टम् स्तबक में मोक्ष एवं मोक्ष-मार्ग का विवेचन की परम्परा का विकास हुआ है। है। इसी क्रम में इस स्तबक में प्रसंगान्तर से सर्वज्ञता को सिद्ध किया है। इसके साथ ही इस स्तबक में शब्दार्थ के स्वरूप पर भी विस्तार से चर्चा धर्मसंग्रहणी उपलब्ध होती है। इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें न्याय-वैशेषिक, यह हरिभद्र का दार्शनिक ग्रन्थ है। १२९६ गाथाओं में निबद्ध सांख्य, बौद्ध आदि दर्शनों की समीक्षा होते हुए भी उनके प्रस्थापकों के प्रति इस ग्रन्थ में धर्म के स्वरूप का निक्षेपों द्वारा निरूपण किया गया है। विशेष आदर-भाव प्रस्तुत किया गया है और उनके द्वारा प्रतिपादित मलयगिरि द्वारा इस पर संस्कृत टीका लिखी गयी है । इसमें आत्मा के सिद्धान्तों का जैन दृष्टि के साथ सुन्दर समन्वय किया गया है । इस सन्दर्भ अनादि-अनिधनत्व,अमूर्त्तत्व, परिणामित्व ज्ञायक-स्वरूप, कर्तृत्व-भोक्तृत्व में हम विशेष चर्चा हरिभद्र के व्यक्तित्व एवं अवदान की चर्चा के प्रसंग में और सर्वज्ञ-सिद्धि का निरूपण किया गया है। कर चुके हैं, अत: यहाँ इसे हम यहीं विराम देते हैं।
लोकतत्त्वनिर्णय अनेकान्तजयपताका
लोकतत्त्वनिर्णय में हरिभद्र ने अपनी उदार दृष्टि का परिचय दिया जैनदर्शन का केन्द्रीय सिद्धान्त अनेकान्तवाद है। इस सिद्धान्त है। इस ग्रन्थ में जगत्-सर्जक-संचालक के रूप में माने गए ईश्वरवाद के प्रस्तुतीकरण हेतु आचार्य हरिभद्र ने संस्कृत भाषा में इस ग्रन्थ की की समीक्षा तथा लोक-स्वरूप की तात्त्विकता का विचार किया गया है। रचना को । चूँकि इस ग्रन्थ में अनेकान्तवाद को अन्य दार्शनिक सिद्धान्तों इसमें धर्म के मार्ग पर चलने वाले पात्र एवं अपात्र का विचार करते हुए पर विजय प्राप्त करने वाला दिखाया गया है, अत: इसी आधार पर सुपात्र को ही उपदेश देने के विचार की विवेचना की गयी है। इसका नामकरण अनेकान्तजयपताका किया गया है । इस ग्रन्थ में छः अधिकार है- प्रथम अधिकार में अनेकान्तदृष्टि से वस्तु के सद्-असद् दर्शनसप्ततिका स्वरूप का विवेचन किया गया है। दूसरे अधिकार में वस्तु के नित्यत्व इस प्रकरण में सम्यक्त्वयुक्त श्रावकधर्म का १२० गाथाओं में
और अनित्यत्व की समीक्षा करते हुए उसे नित्यानित्य बताया गया है। उपदेश संगृहीत है । इस ग्रन्थ पर श्री मानदेवसूरि की टीका है। तृतीय अधिकार में वस्तु को सामान्य अथवा विशेष मानने वाले दार्शनिक मतों की समीक्षा करते हुए अन्त में वस्तु को सामन्य- ब्रह्मसिद्धिसमुच्चय विशेषात्मक सिद्ध करके अनेकान्तदृष्टि की पुष्टि की गयी है। आगे चतुर्थ
आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित इस संस्कृत ग्रन्थ में कुल ४२३ पद्य अधिकार में वस्तु के अभिलाप्य और अनभिलाप्य मतों की समीक्षा करते ही उपलब्ध हैं। आद्य पद में महावीर को नमस्कार कर ब्रह्मादि के स्वरूप हुए उसे वाच्यावाच्य निरूपति किया गया है। अगले अधिकारों में बौद्धों को बताने की प्रतिज्ञा की है। इस ग्रन्थ में सर्वधर्मों का समन्वय किया के योगाचार-दर्शन की समीक्षा एवं मुक्ति सम्बन्धी विभिन्न मान्यताओं की गया है। यह ग्रन्थ अपूर्ण प्रतीत होता है। समीक्षा की गयी है । इस प्रकार इस कृति में अनेकान्त दृष्टि से परस्पर विरोधी मतों के मध्य समन्वय स्थापित किया गया है ।
सम्बोधप्रकरण
१५९० पद्यों की यह प्राकृत-रचना बारह अधिकारों में विभक्त अनेकान्तवादप्रवेश
है। इसमें गुरु, कुगुरु, सम्यक्त्व एवं देव का स्वरूप, श्रावकधर्म और जहाँ अनेकान्तजयपताका प्रबुद्ध दार्शनिकों के समक्ष अनेकान्तवाद प्रतिमाएँ, व्रत, आलोचना तथा मिथ्यात्व आदि का वर्णन है । इसमें के गाम्भीर्य को समीक्षात्मक शैली में प्रस्तुत करने हेतु लिखी गयी है, हरिभद्र के युग में जैन-मुनि-संघ में आये हुए चारित्रिक पतन का सजीव
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