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तीसरा अध्याय]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
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आचार-व्यवहार बना हुआ हो।
(E) अधर्मेण चैव वृत्तिं कल्पयन्– का भाव है, अधर्म के द्वारा ही अपनी वृत्ति-आजीविका चलाता हुआ । तात्पर्य यह है कि विजयसेन चोरसेनापति जहां पापपूर्ण विचारों का धनी था. वहां वह अपनी उदर-पूतिं और अपने परिवार का पालन पोषण भी हिंसा, असत्य, चौर्यकर्म आदि अधर्मपूर्ण व्यवहारों से ही किया करता था।
(९) हनछिन्दभिन्दविकर्तक-इस विशेषण में सूत्रकार ने विजयसेन चोरसेनापति के हिंसक एवं आततायी जीवन का विशेष रूप से वर्णन किया है । वह अपने साथियों से कहा करता था किहन -इसे मारो, छिन्द -इस के टुकड़े २ कर दो, भिन्द -इसे कुन्त (भाला) से भेदन करो-फाड़ डालो, इस प्रकार दूसरों को प्रेरणा करने के साथ २ वह चोरसेनापति स्वयं भी लोगों के नाक और कान आदि का विकर्तक-काटने वाला बन रहा था।
(१०) लोहित - पाणी-प्राणियों के अंगोपांगों के काटने से जिसके हाथ खून से रंगे रहते थे। तात्पर्य यह है कि चोरसेनापति का इतना अधिक हिंसाप्रिय जीवन था कि वह प्राय: किसी न किसी प्राणी का जीवन विनष्ट करता ही रहता था ।
(११) बहुनगरनिर्गतयशा-अनेकों नगरों में जिस का यश-प्रसिद्धि फैला हुआ था । अर्थात् विजयसेन चोरसेनापति अपने चोरी आदि कुकर्मों में इतना प्रसिद्ध हो गया था कि उस के नाम से उस प्रान्त का बच्चा २ परिचित था। उस प्रान्त में उस के नाम की धाक मची हुई थी
(१२) शूर-वीर का नाम है । वीरता अच्छे कर्मों की भी होती है और बुरे कर्मों की भी। परन्तु विजयसेन चोरसेनापति अपनी वीरता का प्रयोग प्रायः लोगों को लूटने और दुःख देने में ही किया करता था।
(१३) गुढ़-प्रहार- जिस का प्रहार (चोट पहुँचाना) दृढ़ता - पूर्ण हो, अर्थात् जो दृढ़ता से प्रहार करने वाला हो, उसे दृढ़प्रहार कहते हैं ।
(१४) साहसिक-वह मानसिक शक्ति जिस के द्वारा मनुष्य दृढ़ता- पूर्वक विपत्ति आदि का सामना करता है, उसे साहस करते हैं । साहस का ही दूसरा नाम हिम्मत है । साहस से सम्पन्न व्यक्ति साहसिक कहलाता है।
(१५) शब्दवेधी-उस व्यक्ति का नाम है जो विना देखे हुए केवल शब्द से दिशा का ज्ञान प्राप्त कर के किसी भी वस्तु को बींधता हो।
(१६) असियष्टिप्रथममल्ल - विजयसेन चोरसेनापति असि - तलवार के और यष्टि-लाठी के चलाने में प्रथममल्ल था। प्रथममल्ल का अर्थ होता है -प्रधान योदा।
प्राचार्य अभयदेव सूरि के मत में १"असियष्टि" एक पद है और वे इसका अर्थ खगलतातलवार करते हैं।
___"आहेवच्चं जाव विहरति"-- यहां-पठित जाव-यावत्-पद से - "पोरेवञ्चं, सामित्तं, भहित्तं, महत्तरगत्तं, श्राणाइसरसेणावच्चं" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। आधिपत्य आदि पदों की व्याख्या इस प्रकार है
(१) "सिलटि पढममल्ले" -त्ति असियष्टिः-खङ्गलता, तस्यां प्रथमः प्रायः प्रधान इत्यर्थः, मल्लो योद्धा यः स तथेति वृत्तिकारः।
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