Book Title: Vipak Sutram
Author(s): Gyanmuni, Hemchandra Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 787
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । श्रावकधमे भगवान से अंगीकार करना और गणधर देव का भगवान् से उस का पूर्वभव पूछना तथा भगवान का प्रतिपादन करते हुए कहना कि गौतम मणिपुर नाम का एक नगर था । वहां नागदत्त नामक ग्रह पति रहता था, उस ने इन्द्रदत्त नाम के अनगार को निर्मल भावनाओं के साथ शुद्ध आहार के द्वारा प्रतिलाभित किया तथा मनुष्य आयु का वध करके वह यहां पर महाबल के रूप में उत्पन्न हुआ । तदनन्तर उस ने साधुधर्म में दीक्षित हो कर यावत् सिद्ध पद को-मोक्ष को प्रान किया। निक्षेप को कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिये। ॥ सप्तम अध्ययन समाप्त ॥ टोका-छठे अध्ययन के अनन्तर सप्तम अध्ययन का स्थान है । सप्तम अध्ययन में श्री महाबलकुमार का जीवन वृत्तान्त संकलित हुआ । महाबल कुमार महापुर-नरेश महाराज बल के पुत्र थे, इन की माता का नाम सभद्रा देवी था । माता पिता ने महाबल का शिक्षण सुयोग्य कलाचार्यों की छत्रछाया तले करवाया था। युवक महाबल का ५०० श्रेष्ठ राजकुमारियों के साथ विवाह सम्पन्न हश्रा था। ५०० रानियों में मुख्य रानी श्रीमती रक्तवती जी थीं जो कि परम सुन्दरी अथच पतिपरायणा थीं। ___एक दिन चरम तीथ कर पतितपावन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का महापुर नगर के रक्ताशोक नामक उद्यान में पधारना हुआ। नागरिक तथा राजा एवं महाबलकुमार भगवान् के चरणों में उपस्थित हुए। भगवान् ने धर्मोपदेश किया। उपदेश सुनने के अनन्तर राजा तथा नागरिकों के चले जाने पर महाबल ने श्रावकोचित व्रतों का नियम ग्रहण किया। गणधर देव के पूछने पर भगवान् ने उसके पूर्व भव का वणन करते हुए कहा कि वह पूर्वभव में मणिपुर नगर का गाथापति था । उस ने इन्द्रदत्त नाम के एक तपस्वी अनगार को आहारादि से प्रतिलाभित करके मनुष्यायु का बन्ध किया था, वहां की आयु समाप्त कर यह बलनरेश की धमपत्नी सुभद्रा देवी के गर्भ से महाबल के रूप में उत्पन्न हुआ । तथा इस भव में मुनिधर्म के अनुष्ठान से सुबाहुकुमार की भांति सब प्रकार के कर्मबन्धनों का विच्छेद कर के इसी जन्म में मोक्षगामी बनेगा। उत्क्षेप शब्द प्रस्तावना का बोधक है । प्रस्तावना सूत्रकार के शब्दों में -जइ णं भन्ते ! समणेणंभगवया महावीरेणं जाव संपत्तणं सुहविधागाणं छठ्ठस्त अज्झयणस्स अयम? पराणत्त, सत्तमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेण जाव संपत्त के अट्टे पगणते ?, अर्थात् जम्बू स्वामी अपने परमपूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी से निवेदन करने लगे कि भगवन् ! यदि यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक के छठे अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन् ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक के सप्तम अध्ययन का क्या अर्थ फरमाया है ? - इस प्रकार है । तथा निक्षेप शब्द उपसंहार का सूचक है। उपसंहाररूप सूत्रपाठ निनोक्त है एवं खलु जम्बू ! समणे भगवया महावीरेण’ जाव संपत्तां सुहविवागाणं सत्तनस्स अज्झयणस्स अयम? परणत्त । तिबेमि । अर्थात् श्री सुधर्मा स्वामो कहने लगे कि हे जम्बू ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के सप्तम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ फरमाया है। इस प्रकार मैं कहता हूं । अर्थात् हे जम्बू ! मैंने जो कुछ कहा है वह प्रभु वीर के कथनानुसार ही कहा है, इस में मेरी अपनी ओर से कोई कल्पना नहीं की गई है। -तित्ययरागमणं जाव पुठवभवो-यहां पठित जाव-यावत् पद-तीर्थकर भगवान् के आने के पश्चात् बलनरेश तथा जनता एवं महाबल कुमार आदि का आना, उपदेश सुनना, उपदेश सुनने के अनन्तर For Private And Personal

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