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दशम अध्याय]
हिन्दी भाषा टीका सहित।
[५४३
२ (बुझिहित्ता) अगाराओ अणगारिय पव्वाहिति-से ले कर-कप्पे देवत्ताए उववज्जिहिति-इन पदों के परिचायक हैं।
-महाविदेहे जहा पढमे जाव लिझिहिति--अर्थात् अंजूश्री का जीव देवलोक से च्युत हो कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा, उस का अवशिष्ट वर्णन प्रथम अध्ययन में वर्णित मृगापुत्र की तरह समझ लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि सूत्रकार ने - "जहा पढमे- यहां प्रयुक्त -यथा तथा प्रथम इन शब्दो क ग्रहण कर प्रथमाध्ययन में वर्णित मृगापुत्र की ओर संकेत किया है, और जो "- अंज श्री के जीव का महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होने के अनन्तर मोक्षपयन्त जीवनवृत्तान्त मगापत्र की भान्ति जानना चाहिये- न भा परिचायक है। तथा महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष जाने तक के कथावृत्त को सूचित करने वाले पाठ का बोधक जाव - यावत् पद है। यावत् पद से बोधित होने वाला-वासे जाई कुलाई भवन्ति अडढाई - से ले कर-वत्तव्वया जाव-यहां तक का पाठ पृष्ठ ३१२ पर लिखा जा चुका है।
-सिज्झिहिति जाव अन्तं काहिति- यहां पठित जावत् - यावत् पद से-बुझिहिति मुच्चिहिति, परिणिवाहिति सव्वदुक्खाणं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । सिज्झिहिति इत्यादि पदों का अर्थ निम्नोक्त है
१-सिज्झिहिति-सब तरह से कृतकृत्य हो जाने के कारण सिद्ध पद को प्राप्त करेगा। २-बुझिहिति- केवल ज्ञान के आलोक से सकल लोक और अलोक का ज्ञाता होगा। ३ -मुन्चिहिति- सर्व प्रकार के ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कर्मों से विमुक्त हो जाएगा। ४-परिणिवाहिति-समस्त कमजन्य विकारों से रहित हो जायेगा ।
५-सव्वदुक्वाणमंतं काहिति-मानसिक, वाचिक और कायिक सब प्रकार के दु:खों का अन्त कर डालेगा अर्थात् अव्याबाध सुख को उपलब्ध कर लेगा।
-समणेणं जाव सम्पत्तणं - यहां पठित जाव-यावत् पद से- भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धणं पुरिसुन्मेणं पुरिससीहेणं पुरिसवर पुण्डरीएणं पुरिसवरगन्धहत्थिणा लोगुत्तमणं लोगनाहेणं लोगहिएणं लोगपईवेण लोगपज्जोयगरे अभयदए चमखुदएगो मग्गदरणं सरणइएणं जीवदरणं बोहिदएणं धम्मदपणां धम्मदेसए धम्नायएणं धम्मसारहिणा धम्मवर चउरंतचक्कवटिणा दीवो ताणं सरणं गई पइट्ठा अप्पडिहयवरनाणदंसणधरे वियदृच्छउमेणं जिणेरणं जाणएणं तिराणे तारए बुद्धण वोहएण मुत्तण मोयएण सव्वराणुणा सव्वदरिसिणा सिवम यलमरुअमण तमकाटयमव्वावाहमपुणरावित्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं - इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । श्रमण आदि पदों का अर्थ निम्नोक्त है
१-श्रमण - तपस्वी अथवा प्राणिमात्र के साथ समतामय - समान व्यवहार करने वाले को श्रमण कहते हैं।
२-भगवान् -जो ऐश्वर्य से सम्पन्न और पूज्य होता है, वह भगवान् कहलाता है।
३-महावीर-जो अपने वैरियों का नाश कर डालता है, उस विक्रमशाली पुरुष को वीर कहते हैं । वीरों में भी जो महान् वीर है, वह महावीर कहलाता है। प्रस्तुत में यह भगवान् वर्धमान का नाम है, जो कि उन के देवाधिकृत संकटों में सुमेह की तरह अचल रहने तथा घोर परीषहों और उपसर्गों के आने पर भी क्षमा का त्याग न करने के कारण देवताओं ने रखा था। आगे कहे जाने वाले आदिकर आदि सभी विशेषण भगवान् महावीर के ही हैं।
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