Book Title: Vipak Sutram
Author(s): Gyanmuni, Hemchandra Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ।। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।। ।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। ।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।। ॥चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प ग्रंथांक:१ आराधना वीर जैन श्री महावी कोबा. अमृतं अमृत तु विद्या तु श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355 For Private And Personal Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॐत शा www.kobatirth.org For Private And Personal Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir जैनशास्त्रमाला -पञ्चमं रत्नम् * श्री विपाकसूत्रम् संस्कृत-च्छाया-पदार्थान्वय-मूलार्थोपेतम् आत्मज्ञानविनोदिनीहिन्दीभाषाटीकासहितं च - अनुवादक - श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमणसंघ के प्राचार्यप्रवर जैनधर्मदिवाकर, जैनागमरत्नाकर, साहित्यरत्न परमपूज्य श्री अात्मारामजी महाराज के सुशिष्य श्री ज्ञानमुनि जी -संशोधक - संस्कृतप्राकृतविशारद पण्डितरत्न श्री हेमचन्द्र जी महाराज - प्रकाशक - जैनशास्त्रमाला कार्यालय जैन स्थानक, लुधियाना (पंजाब) प्रथमावृत्ति १००० । महावीराब्द२४८० विक्रमाब्द २०१० लागत १०) धर्मप्रचारार्थ मूल्य ६) For Private And Personal Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राप्तिस्थान१-जैनशास्त्रमाला कार्यालय जैन स्थानक, लुधियाना (पंजाब) २-लाला गूजरमल प्यारेलाल जैन चौड़ा बाजार, लुधियाना (पंजाब) पुनर्मुद्रणादिसर्वेऽधिकाराः प्रकाशकायत्ताः All Rights reserved by the Publishers. मुद्रक १–सैण्ट्रल इलैक्ट्रिक प्रैस निजाम रोड़, लुधियाना. २-बारा इलैक्ट्रिक प्रैस लालूमल स्ट्रीट, लुधियाना. For Private And Personal Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पूज्यपाद, सद्गुणरत्नाकर, बालब्रह्मचारी, पुनीतचरित्र, मुनिपुङ्गव, परमतेजस्वी, परमयशस्वी, ज्योतिर्विद्, प्रवर्तकपदविभूपित, संघहितैषी, परमसंयमी, आदर्श मुनिराज, स्वनामधन्य, क्षमाश्रमण श्री १००८ श्री स्वामी शालिग्राम जी महाराज की सेवा में ससम्मान समर्पण * ४४४४४daka08 श्री ने मुझ वाल पर जो अनुपम उपकार किये हैं, उन्हें अक्षरों में व्यक्त करने को यह लेखनी असमर्थ है । संसार के समस्त धर्मों से विशिष्ट, विलक्षण 8 अथच प्रामाणिक जैनधर्म को प्राप्त करने का पुनीत अवसर यह अनुचर आप 5000000pac के ही मंगलमय अमृतोपदेशों से उपलब्ध कर सका है । अधिक क्या इस 00000 MAD द्विपद जन्तु को साधुता के पथ का पथिक बनाने का श्रेय भी आप ही को है। आप श्री ने इसे अन्तर्जगत को आलोकित करने वाले शास्त्राभ्यास जैसे दिव्य आलोक के दान देने का अनुग्रह किया है। आप श्री के उपकारों की कहां तक गणना की जाए ? वे संख्या की परिधि से बाहिर हैं। आप श्री के उपकारों से उऋण होने में यह अनुचर तनिक भी समर्थ नहीं है । आप के उन संस्मरणीय उपकारों का ही आभार मानता हुआ आप का यह चरणदास श्री विपाकश्रुत की 'आत्मज्ञानविनोदिनी" नामक यह हिन्दीभाषाटीका आप श्री की सेवा में सादर समर्पण कर रहा है । कृपया इसे स्वीकार कर दास को कृतार्थ करने का अनुग्रह करते हुए भविष्य में भी इसी भाँति जैन आगमों के अनुवाद करने की शक्ति प्रदान करें। प्रार्थी -ज्ञानमुनि For Private And Personal Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir महामहिम मुनिराज श्री शालिग्राम जी महाराज [जीवन और साधना की एक झाँकी] --::-- पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय गुरुदेव श्री शालिग्राम जी महाराज का जीवन एक आदर्श जीवन था। पंजाब (पैप्सू ) के भद्दलबड़ गांव में आप का जन्म हुआ था--संवत् १६२४ में । पिता श्री कालूराम जी वैश्य-वंश के मध्यवित्त गृहस्थ थे । माता मीठे स्वभाव की एक मधुरभाषिणी महिला थी। दोनों ही सहज-शांतिमय और छल-प्रपंचहीन जीवन बिताते थे । आर्थिक स्थिति साधारण थी, परन्तु संतोष और धैर्य जैसे अद्वितीय रत्नों के मालिक वे अवश्य थे। कालूराम जी तीन पुत्रों के पिता हुए। हमारे महाराज जी उन में से मझले थे। शैशवकाल में ही 'आप का नाम शालिग्राम पड़ा और समूची श्रायु आप इसी नाम से प्रख्यात रहे । उन दिनों किसे पता था कि आगे चल कर यह बालक एक विरक्त महात्मा के रूप में सर्वत्र प्रसिद्धि प्राप्त करेगा ?--बहुतेरे इस से पथप्रदर्शन पाएंगे ? छः वर्ष की आयु में बालक शालिग्राम को अपने गांव की ही पाठशाला में दाखिल कर दिया गया। विद्याग्रहण करने में आप आरम्भ से ही दत्तचित्त रहे... पहले अक्षराभ्यास, फिर आरंभिक पाठावली का अध्ययन । पढ़ाई का क्रम इस प्रकार आगे चला । शालिग्राम जी बचपन की परिधि पार कर के किशोरावस्था में आ पहुंचे ।। जैसे जैसे उम्र बढ़ती गई, ज्ञान और अनुभूति के दायरे भी उसी तरह बढ़ते गये। शालिग्राम की अन्तर्दृष्टि पाठ्यपुस्तकों अथवा अध्यापकों एवं सहपाठियों तक ही सीमित नहीं रह पायी । वह अपने आप भी बहुत कुछ सोचा करते । प्रकृति उन की उस उच्छखल आयु में भी कोमल ही थी । राह चलते समय यदि कोई कीड़ी पैर के नीचे आ जाती तो शालिग्राम की अन्तरात्मा हाय-हाय कर उठती, स्नायुओं का स्पंदन रुक सा जाता । गाड़ी में जुते बैल की पीठ पर चाबुक पड़ने की आवाज सुनकर उन का हृदय कांपने लगता। अपनी उम्र के दूसरे लड़कों पर मां-बाप की पिटाई पड़ती तो हमारे चरित्रनायक की आंखों के कोर गीले नज़र आते । लड़कों का स्वभाव चंचल होता है-मन चंचल, आंखें चचल, कान और होंठ चंचल, हाथ-पैर चंचल ! दिल और दिमाग़ चंचल ! परन्तु शालिग्राम अपनी चपलताओं पर काबू पा गये थे। इन के मुह से कभी दुर्वाच्य नहीं निकलता था ! खेल के समय भी कुत्ते या बछड़े को या साथी को कंकड़ फेंक कर इन्हों ने कभी मारा नहीं होगा! बुद्धि बड़ी तीव्र थी, पढ़ने में जी खूब लगता था । शेष समय मा-बाप की आज्ञाओं के For Private And Personal Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाकसूत्र [श्री शालिग्राम जी म० पालन में और साधुओं-संतों की परिचर्या में बीतता था । अध्यापक और पास-पड़ोस के बड़े-बूढ़े लोग भी शालिग्राम को आदर्श बालक मानते थे । उन के लिए सब के हृदय में समान स्नेह था । __ समझदार और योग्य जान कर पिता ने शालिग्राम को धंधे में लगा लिया । धंधे में वह लग तो गये लेकिन पढ़ाई का जो चस्का पड़ गया था, नहीं छूटा । स्वाध्याय और संतों की संगति'.. अवकाश का समय वह इन्हीं कामों में लगाते । आगे चल कर ज्योतिष से उन्हें काफी दिलचस्पी हो गई थी। यह अभिरुचि शालिग्राम जी महाराज के जीवन में हमने अंत तक देखी है। माता और पिता ने विवाह के लिए तरुण शालिग्राम पर बेहद दबाव डाला, परन्तु वह टस से मस नहीं हुए । इस विषय में उन्हें साथियों ने भी काफी-कुछ समझाया-बुझाया, लेकिन शालिग्राम जी ब्रह्मचर्य-पालन के अपने संकल्प से तिलमात्र भी नहीं डिगे। पीछे एक अद्भुत घटना घटी ! शालिग्राम कहीं से वापस आ रहे थे। साथ में और कोई नहीं था, भाई था। रास्ते में श्मशान पड़ता था । वहां संयोग से उस समय एक चिता जल रही थी। दोनों भाई चिता के करीब से गुज़र कर आगे बढ़े....... फिर एक अजीब-सी आवाज़ आने लगी...सू सू सू सू, फू फू फू फू...ऐसा प्रतीत हुआ कि चिता के अगारे उन दोनों का पीछा कर रहे हैं ! आगे आगे दो तरुण पथिक और उनके पीछे पीछे चिता के अनगिनित अंगारे !! आगे आगे जीवन और पीछे पीछे मृत्यु !!! शालिग्राम इस से ज़रा भी नहीं घबराये । अपने हृदय को उन्हों ने बे-काबू नहीं होने दिया। भाई लेकिन बुरी तरह डर गया था । उस के हाथ-पैर तो कांप ही रहे थे, कलेजा भी मुह को आ रहा था । चला नहीं जाता था उस से । स्थिति बड़ी विषम हो गई थी... आखिर शालिग्राम जी भाई को घर उठा लाये । कुछ दिन बाद शालिग्राम ने अपने दूसरे भाई के मुह पर मक्खियां भिनभिनाती देखी... वह समझ गये कि अब यह भी नहीं जीएगा ! इन घटनाओं का ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा कि शालिग्राम को अपने पार्थिव शरीर के प्रति घोर विरक्ति हो गई। अब शीघ्र से शीघ्र साधु हो जाने का संकल्प उन्हों ने मन ही मन ले लिया । २० वर्ष की आयु थी, समूचा जीवन सामने था । मसें भीग रहीं थी...यह विशाल और विलक्षण संसार उन्हें अपनी ओर चुमकार रहा था; पुचकार रहा था बार बार ।। __ सौभाग्य से उन्हें महामहिम वयोवृद्ध श्री स्वामी जयरामदास जी महाराज की शुभ स गति प्राप्त हो गई । महाराज जी ने इस रत्न को अच्छी तरह पहचान लिया । पहुंचे हुए एक सिद्ध को एक साधक मिला । अन्ततो गत्वा संवत् १६४६ में खरड़ (जि० अम्बाला, पंजाब) में श्री शालिग्राम जी ने जैनमुनि की दीक्षा प्राप्त की । उक्त श्री स्वामी जयराम दास जी महाराज ही आपके दीक्षागुरु हुए। For Private And Personal Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ श्री शालिग्राम जी म० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir हिन्दीभापाटीकासहित तत्पश्चात् आप का अध्ययन नये सिरे से आरम्भ हुआ । थोड़े ही समय में आपने आगमों का अनुशीलन पूरा कर लिया । मन, वचन और कर्म - सभी दृष्टियों से शालिग्राम जी भगवान् महावीर की अहिंसक एवं परमार्थी सेना के एक विशिष्ट क्षमतासंपन्न सैनिक बन गए । आपके अंदर सेवा भावना तो बिल्कुल अनोखी थी । चाहे छोटी उम्र के हों, चाहे बड़ी उम्र के सभी प्रकार के साधु आप की सेवाओं के सुफल प्राप्त करते रहे। क्या रात, क्या दिन, और क्या शाम, क्या सुबह... बीमार साधुओं की परिचर्या में आपको अपने स्वास्थ्य - अस्वास्थ्य का ध्यान नहीं रहता था । आचार्य श्री मोती राम जी महाराज और गणावच्छेदक श्री गणपति राय जी महाराज की सेवा में आपके जीवन का पर्याप्त काल व्यतीत हुआ । जैनधर्मदिवाकर, आचार्यप्रवर हमारे महामान्य शिक्षक पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज आपके ही शिष्य हैं । इन पूज्य श्री को देखकर हमें प्रातःस्मरणीय उन श्री शालिग्राम जी महाराज के अनुपम व्यक्तित्व का कुछ आभास अनायास ही मिल जाता है। कबीर ने कहा है: निराकार की आरसी, साधी ही की देह | लखो जो चाहे लख को, इन में ही लखि लेह || और मैं तो परमश्रद्धेय श्री शालिग्राम जो महाराज के ऋणों से कभी उऋण हो ही नहीं सकता । आपकी कृपा न हुई होती तो इन आंखों के होते हुए भी में आज अंधा ही रह जाता । त्याग और विराग के इस महा मार्ग पर आप ही मुझे ले आये... पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज “जीवित विश्वकोष” कहे जाते हैं, इन का अन्तेवासित्व मुझ मंदमति को आप की ही अनुकंपा से हासिल हुआ, अन्यथा मैं आज कहां का कहां पड़ा रह जाता ! महाराज जी के अंतिम दिन लुधियाना में ही बीते । कई एक रोगों के कारण आपकी अंतिम घड़ियां बड़ी कटमय गुज़रीं । पर महाराज की आंतरिक शांति कभी भंग नहीं हुई, मनोबल हमेशा अजेय रहा । इन का अंतिम क्षण प्रशांत धीरता का प्रतीक बनकर आज भी इन आंखों के सामने मौजूद है: नोदेति, नाऽस्तमायाति, सुखे दुःखे मुखप्रभा । यथाप्राप्ते स्थितिर्यस्य स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ (३) For Private And Personal इस प्रकार आप एक जीवन्मुक्त महात्मा थे। आप का शरीरान्त संवत् १६६६ में हुआ । उस समय आप की सेवा में श्रीवर्धमानस्थानाकवासी श्रमण संघ के आचार्य परमपूज्य गुरुदेव प्रातःस्मरणीय श्री आत्माराम जी महाराज और इन की शिष्यमंडली, मंत्री परमपूज्य श्री पृथ्वी चन्द जी म गणी श्री श्यामलाल जो म०, कविरत्न श्री अमरचन्द जी म० आदि मुनिराज भी उपस्थित थे । - ज्ञान मुनि Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मा प्रकाशकीय निवेदन जैन शास्त्र प्राकृत भाषा में हैं । प्रायः साधुसमाज ही इसे पढ़ता या पढ़ाता है। गृहस्थसमाज प्राकृत भाषा का जानकार न होने के कारण प्रायः शास्त्रों में प्रतिपादित जीवननिर्माण के महान् तत्त्वों के बोध से वञ्चित ही रहता है । अतः हमारे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि जैनागमों का हिन्दी भाषा में अनुवाद होना चाहिए । अनुवाद भी इतना सुन्दर, सरल एवं सरस हो कि हिन्दी का साधारण जानकार व्यक्ति भी उससे बोध प्राप्त कर सके । इस कार्य के लिये शास्त्रों के मर्मज्ञ किसी विद्वान मुनि के सहयोग की आवश्यकता थी । सौभाग्यवश हमें श्री वर्धमान स्थानकवासी श्रमणसंघ के प्राचार्य जैनधर्मदिवाकर साहित्यरत्न जैनागमरत्नाकर परमपूज्य श्री आत्माराम जी महाराज का मधुर सहयोग प्राप्त हो गया। आचार्य श्री जी ने इस पुण्यमय आगमसेवाकार्य में सहयोग देने का हमें पूरा २ विश्वास दिलाया । बस फिर क्या था ? आचार्य श्री के आशीर्वाद से काम चालू कर दिया गया। ___ हम नहीं समझ पाते हैं कि आचार्य श्री जी महाराज के चरणों में किन शब्दों में अपनी कृतज्ञता प्रकट करें?, आचाये श्री जी ने हमारी समाज पर हिन्दी भापा में नया चिन्तन प्रदान करने का जो महान अनुग्रह किया है उस के लिए हम आचार्य श्री के सदा ऋणी रहेंगे। __ हम ने जो ऊपर अपने विचारों का प्रदर्शन किया है, उन्हें कार्यरूप में परिणत हुए लगभग १८ साल हो चुके हैं। उस समय हिन्दी का क्षेत्र व्यापक नहीं था किन्तु भारत के स्वतंत्र होने के अनन्तर आज तो हिन्दी भाषा ने राष्ट्रभाषा का उच्च स्थान प्राप्त कर लिया है। परिणामस्वरूप अब हिन्दी भाषा किसी प्रान्त या जाति की भापा न रह कर समूचे भारत की भाषा बन गई है। ऐसी दशा में हिन्दी का प्रचार एवं प्रसार व्यापक होना स्वाभाविक ही है । अब हिन्दी में साहित्य के सभी तत्त्व अपना उचित स्थान प्राप्त करते जा रहे हैं । हिन्दी किसी भी दृष्टि से अब अपूर्ण नहीं कही जा सकती । हिन्दी की इस परिपूर्णता से आज उसकी लोकप्रियता पहले की अपेक्षा दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। अतः हिन्दी में प्रकाशित साहित्य ही आज अधिकतया लोकभोग्य हो सकता है, इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता। __जैन शास्त्रमाला कार्यालय को स्थापित हुए १८ वर्ष हो चुके हैं । यह कार्यालय आगमों के प्रकाशन में दिन प्रतिदिन उन्नति एवं प्रगति करता जा रहा है । यह हमारे लिए सन्तोप एवं हर्ष की बात है । शास्त्रमाला ने सर्वप्रथम श्री दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र का प्रकाशन कराया था। जैनसंसार ने उस का आशा से बढ़कर सम्मान करके हमें पर्याप्त प्रोत्साहित किया । परिणामस्वरूप शास्त्रमाला श्री अनुत्तरोपपातिकदशा, श्री उत्तराध्ययन सूत्र (तीन भाग) तथा श्री दशवैकालिक सूत्र के अनन्तर श्री विपाक सूत्र का प्रकाशन कराने में भी सफल हो सकी है । आर्थिक विपमता एवं असुविधा होने पर भी शास्त्रप्रकाशन करते रहना, जैन शास्त्रमाला कार्यालय का ही काम था । हर्प का स्थान है कि शास्त्रमाला अपने उद्देश्य की पूर्ति में आशातीत सफलता प्राप्त करती जा रही है। शास्त्रों के प्रकाशन का श्रेय हमारे शास्त्रमाला के प्रबन्धकों की अपेक्षा उन दानी महा For Private And Personal Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाकसूत्र [प्रकाशकीय निवेदन नुभावों को अधिक है जिन के सत्प्रयास एवं धन के सदुपयोग से शास्त्र प्रकाशित हो सके हैं। धन के स्वामी तो लाखों मिल सकते हैं किन्तु धार्मिक कार्यों में धन लगाने वाले कोई विरले ही होते हैं। हमें प्रसन्नता है कि वर्षों से शास्त्रमाला कार्यालय दानी महानुभावों के पुण्यमय मधुर सहयोग से आगमसेवा का लाभ उठाता आ रहा है । जैन शास्त्रमाला कार्यालय के सदस्य को ६२५ रुपये देने होते हैं । इन रुपयों द्वारा शास्त्रों का प्रकाशन होता है । प्रकाशित शास्त्र शास्त्रमाला द्वारा बेचे जाते हैं। शास्त्रविक्रय से प्राप्त धन द्वारा पुनः शास्त्रों का प्रकाशन किया जाता है । शास्त्रमाला के ये सभी काम व्यवस्थित तथा नियमबद्ध किए जाते हैं। - शास्त्रमाला द्वारा प्रकाशित शास्त्रों का कितना सम्मान हुआ और वे कितने लोकप्रिय बने ? इस का उत्तर संक्षेप में इतना ही दिया जा सकता है कि जिस काम का आरम्भ अाठ व्यत्तियों से हुआ था,आज उस में ५८ व्यक्ति अपना सहयोग दे रहे हैं, जिनमें कई एक बहिनें भी हैं। सदस्यों की संख्या का बढ़ जाना ही शास्त्रमाला की लोकप्रियता का एक ज्वलन्त उदाहरण है। शास्त्रमाला के सदस्यों के पवित्र नाम नीचे की पंक्तियों में दिए जाते हैं१ श्री खज़ाश्चीराम जी जैन, लाहौर वाले, प्रोपरा- १५ ,, तेलूराम जैन, ठेकेदार, जालंधर छावनी । इटर- मेहरचन्द लक्ष्मणदास, कूचा चेलां १६ ,, हुकुमचन्द जी जैन, प्रोपराईटर- जैन साइदरियागञ्ज, देहली। कल कम्पनी, घण्टाघर लुधियाना । २ स्वर्गीय श्री आशाराम जी जैन कसूरवाले। १७ ., रामजीदास जी जैन, प्रोपराईटर-नौहरिया३ स्वर्गीय श्री सन्तलाल जी जैन, प्रोपराइटर-ला० मल रामजीदास, लोहे वाले, मालेरकोटला । मल्लीमल सन्तलाल जैन चौड़ा बाजार लुधियाना १८ बहिन देवकी देवी जी जैन, प्रिंसिपल- जैन गर्ल ४ श्री सोहनलाल जी जैन, प्रोपराइटर- ला० हाई स्कूल, लुधियाना।। मिड्डीमल बाबूराम जैन, चौड़ा बाजार लुधियाना। चाहापामार वाचवाना। १६ श्री वलायतीराम जी जैन,प्रोपराईटर-मय्याशाह ५ स्वर्गीय बाबू परमानन्द जी वकील कसूर वाले। ऐण्ड सन्ज. रावलपिंडी वाले. न्य देहली। ६ श्री गोपीराम जी प्रोपराइटर- कन्हैयालाल २० श्री सावित्री देवी जी जैन, सुपुत्री-ला० मुन्शीराम वृजलाल, डब्बी बाजार, होशियारपुर । ७ स्वर्गीय श्री रोचीशाह जी जैन, रावलपिंडी वाले जी जैन अर्जीनवीस जीरा वाल । अब आपने श्रद्धया जैनधर्मोपदेशिका महासती श्रीचन्दाजी ८ स्वर्गीय श्री तेजेशाह जी रावलपिंडी वाले। ६ श्री शालिग्राम जी जैन, जम्मू। म के चरणों में जैनदीक्षा अङ्गीकार करली है। १० श्री बख्शीराम चिमनलाल जी जैन, जनरल २१ श्री वलायतीराम जी, प्रोपराईटर- ला० गेन्दा___ मर्चेट्स लुधियाना। मल वलायतीराम, जनरल मर्चेट्स,कनाट प्लेस, ११ श्री नन्दलाल जी जैन, दलाल, लुधियाना । न्यू देहली। १२ , धूमीराम ऐण्ड सन्स, जालन्धर छावनी। २२ श्री सावनमल जी नाहर, स्यालकोट वाले, १३ ,, मंगलसेन रोशनलाल जी जैन, भटिण्डा। बजाज, गली कर्ताराम, लुधियाना । १४ ,, लद्धशाह जी जैन; लाहौर वाले, सदर बाज़ार २३ श्री चरणदास जी जैन, प्रोपराईटर- पिक्चरदेहली। पैलेस टॅाकी, पटियाला । For Private And Personal Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकाशकीय निवेदन हिन्दीभाषाटीकासहित २४ श्री अमरनाथ जी लाहौर वाले, प्रोपराईटर-३७ स्वर्गीय श्री मुन्शीराम जी जैन रैंका, फरीदकोट। लाला चन्दशाह अमरनाथ, सदर बाजार देहली! ३८ स्वर्गीय ,, खूबचन्द जी जैन जौहरी देहली। २५ श्री हंसराज जी, प्रोपराईटर-लाला तुलसीदास ३६ स्वर्गीय ,, बांकेराय जी जैन, मंत्री-ऐस० ऐस० नगीनचन्द लाहे वाले, चौड़ावाजार लुधियाना। जैन युवकसभा लुधियाना । २६ श्री महेन्द्रकुमारी जैन, सुपुत्री लाला अतरचन्द ४० श्री अच्छरूमल जी जैन, प्रोपराईटर-ला० जी जैन गुड़गाँवां छावनी । अब आपने श्रद्धेय चाननलाल अच्छरूमल जैन पटियाला। परमपूज्य जैनधर्मापदेशिका महासती श्री चन्दा ४१ ,, चूनीशाह जी स्यालकोट वाले, प्रोपराईटरजी महाराज के चरणों में जैनदीक्षा धारण लाला चूनीशाह पन्नालाल जैन । कर ली है। आजकल आप साध्वी हैं। ४२ , कुन्दनलाल जी अग्रवाल जैन, रामामंडी २७ श्री देशराज जी जैन रईस, सुलतानपुर लोधी (पटियाला) (कपूरथला) ४३ स्वर्गीय श्री राधूशाह जी जैन लिगा, रावलपिंडी २८ श्री मुन्शीराम जी जैन, प्रोपराईटर-लाला सोहन- वाले । प्रोपराईटर- लाला काकूशाह राधूशाह ___ लाल जुगल किशोर, तालाब बाजार, लुधियाना। जैन देहली । २६ श्री शिवप्रशाद जी, प्रोपराईटर- ला० श्री चन्द ४४ बहिन श्री चन्द्रापति जी, सुपुत्री रोहतकनिवासी शिवप्रशाद जैन, अम्बाला शहर ।। - स्वर्गीय लाला शेरसिंह जी जैन । ३० श्री बनारसीदास जी ओसवाल, कपूरथला- ४५ स्वर्गीय श्री नत्थूशाह जी स्यालकोट वाले, प्रोपनिवासी की पुण्यस्मृति में उनके सुपुत्र श्री राईटर-ला० नत्थशाह मोतीशाह जैन, देहली। मानिकचन्द जी जैन ने जैनशास्त्रमाला की ४६ श्री जयदयालशाह जी नाहर, स्यालकोट वाले, सदस्यता के लिए ६२५) रुपाप दान में दिए । प्रोपराईटर- लाला शंकरदास जयदयाल, देहली ३१ श्री चुनीलाल जी आसवाल, सुपुत्र लाला बना- तथा रंगून । रसीदास जी कपूरथला । ४७ स्वर्गीय श्री हंसराज जी, प्रोपराईटर- ला. ३२ ,, दौलतराम जी जैन वकील, समराला, नन्दलाल हंसराज सराफ, होश्यारपुर । (लुधियाना) ४८ श्री मोहनलाल जी बैंकर, बनूड़ (पटियाला) ३३ श्री बालकराम जी जैन बजाज, प्रोपराईटर- ४६ श्री हरिराम जी थापर, प्रोपराईटर- लाला फैन्सी स्टोर, चौड़ा बाजार, लुधियाना। हरिराम मुलखराज बजाज, लुधियाना । ३४ श्री धनीराम जी जैन, प्रोपराईटर-ला० धनीराम '५० स्वर्गीय श्री वैष्णवदास जी जैन, प्रोपराईटर___ भगवानदास जैन, सुलतानपुर लोधी (कपूरथला) ला. वैष्णवदास लक्ष्मीचन्द जैन, बाजार ३५ श्री कुञ्जलाल जी जैन, प्रोपराईटर- ला• कुञ्ज- बीकानेरियां, अमृतसर व बम्बई । ___ लाल शीतल प्रशाद जैन, सदर बाजार, देहली। ५१ श्री मोतीलाल जी जौहरी ओसवाल जैन देहली। ३६ श्री प्यारेलाल जी जैन सराफ, प्रोपराईटर-ला० ५२ श्रीमती हुक्मदेवी जी जैन, धर्मपत्नी ला० रूपनिकामल प्यारेलाल जैन, लुधियाना। लाल जी जैन फरीदकोट वाले। इन दानी महानुभावों के चित्र जैनशास्त्रमाला के चतुर्थरत्न श्री दशवैकालिक सूत्र में दे दिए गर हैं। इन के अतिरिक्त कुछ नए सदस्य भी हैं। शास्त्रमाला के इन नए सदस्यों के चित्र आग्रम पृष्ठों पर दिए जा रहे हैं। For Private And Personal Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org (६) श्री विपाक सूत्र [प्रकाशकीय निवेदन ऊपर के छः नए सदस्यों में चार बहिनें हैं। इन बहिनों में धार्मिक अनुष्ठानों के लिए जो उत्साह दृष्टिगोचर हो रहा है, उस का श्रेय हमारी महामान्य जैनधर्मोपदेशिका बालब्रह्मचारिणी स्वनामन्या महासती स्वर्गीय श्री चन्द्रा जी महाराज की शिष्यानुशिष्याएं संस्कृतप्राकृत विशारदा, विदुपी श्री लज्जावती जी महाराज तथा तपस्विनी, समयज्ञा श्री सौभाग्यवती जी महाराज कोही है। इन ही के पावन उपदेशों से उपरोक्त बहिनों के हृदयों में धार्मिकता एवं सरित्रता का संचार हो पाया है । फलतः ये बहिनें धार्मिक प्रभावना के निमित्त धार्मिक कार्यों में यथावसर अपना पुण्य सहयोग सदा देती रहती हैं । अतः हम पूज्य महासती जी महाराज के तथा इन सभी बहिनों केन्त कृतज्ञ हैं । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir इसके अतिरिक्त विपाकसूत्र के प्रकाशन में शाहकोटनिवासी लाला रामशरणदास पद्मराज जी जैन ने २५१), पट्टीनिवासी लाला पन्नालाल टेकचन्द्र जी जैन ने १२५), सुलतानपुर निवासी श्री दुर्गादास सरदारी लाल जी जैन ने १५०), श्री रूपचन्द जी जैन ने १००) तथा भक्त श्री कर्म चन्द जी जैन ने ५) रुपए देकर श्री विपाक सूत्र की प्रेसकापी बनाने में हमें सहयोग दिया है । हम शास्त्रमाला की ओर से इन के भी धन्यवादी हैं। आदरणीय पण्डित श्री झण्डूलाल जी शास्त्री के भी हम अभारी हैं। आप का प्रूफ संशोधन में हमें सहयोग प्राप्त होता रहा है I 1 अन्त में हम उन सब महानुभावों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं, जिन्हों ने श्री विपाकसूत्र के प्रकाशन में तन से, मन से तथा धन से सहयोग देने का अनुग्रह किया है । मंत्री - जैनशास्त्रमालाकार्यालय, जैन स्थानक, लुधियाना (पंजाब) For Private And Personal Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री सत्यप्रकाश जी फगवाड़ा प्रोपराईटर ला. सांइयां मल जगन्नाथ । नवांशहर, फगवाड़ा तथा जालन्धर । श्री सन्तराम जी जैन प्रोपराईटर ला० हरनामदास सन्तराम जैन बाजार बीकानेरियां, अमृतसर TISHgans श्रीमती भाग्यवती जी जैन माता-ला० सीताराम, ओमप्रकाश, श्यामलाल जैन, लुधियाना For Private And Personal Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीमती उत्तमदेवी जी जैन । माता- लाला ताराचन्द जैन बिजली वाले जम्मू माता उत्तमीदेवी ५० साल से तपस्या में ही अपना जीवन लगा रही हैं। आप धन्य हैं । PAG Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रीमती द्रौपदी देवी जी जैन धर्मपत्नी ला० चूनी लाल जी जैन कपूरथला । श्री द्रौपदी देवी जी ला० नत्थूमल जी फगवाड़ा वालों की सुपुत्री और श्री मुन्शी राम जी की बहिन हैं । श्रीमती विष्णदेवी जी जैन माता -ला० नन्दलाल, बरकतराम, तुलसीराम जी जेतों मण्डी (पैप्सू) For Private And Personal Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir * कर्म-मीमांसा * (लेखक-पण्डितप्रवर श्री स्वामी फूल चन्द जी महाराज पंजाबी, श्रमण) जैन शास्त्रों का विषयनिरूपण सर्वांगपूर्ण है। जड़-चेतन, आत्मा-परमात्मा, दुःख-सुख, संसार-मोक्ष, आम्रव-संवर, कर्मबन्ध तथा कर्मक्षय इत्यादि समस्त विपयों का जितना सूक्ष्म गंभीर और सुस्पष्ट विवेचन जैनागमों में है अन्यत्र मिलना कठिन है। जैन विचारधारा विचारजगत में और आचार-जगत् में एक अपूर्व प्रकाश डालने वाली है। हम साधारणरूप से जिस को विचार समझते हैं वह विचार नहीं, वह तो स्वच्छन्द मन का विकल्पजाल है । जो जीवन में अद्भुतता नवीनता और दिव्य दृष्टि उत्पन्न करे वही जैन विचारधारा है। जैनसूत्र-भूले भटके भव्य प्राणियों के लिये मार्गप्रदर्शक बोर्ड हैं, उन्मार्ग से हटा कर सन्मार्ग की ओर प्रगति कराने के लिये ही अरिहंत भगवन्तों ने मार्गप्रदर्शक बोर्ड स्थापन किया है। सूत्र वही होता है जो वीतराग का कथन हो । तर्क या युक्ति से अकाट्य हो । जो प्रत्यक्ष या अनुमान से विरुद्ध न हो । कुमार्ग का नाशक हो, सर्वाभ्युदय करने वाला हो ओर जा सन्मार्ग का प्रदर्शक हो । इत्यादि सभी लक्षण श्री विपाकसूत्र में पूर्णतया पाए जाते हैं अतः जिज्ञासुओं के लिये प्रस्तुत सूत्र उपादेय है। इस सूत्र का हिन्दी अनुवाद प्रतिभाशाली पण्डितप्रवर मुनि श्री ज्ञान चन्द्र जी ने किया है । अनुवाद न अति संक्षिप्त है और न अति विस्तृत । अध्ययन करते हुए जिन २ विषयों पर जिज्ञासुओं के हृदय में संदेह का होना संभव था उन २ विषयों को मुनि जी ने अपनी मस्तिष्क की उपज से पूर्वपन उठा कर अनेकों प्रामाणिक ग्रन्थों के प्रमाण देकर शंकास्पद स्थलों को उत्तरपक्ष के द्वारा सुम्पष्ट कर दिया है । इसी से लेखक की प्रामाणिकता सिद्ध होती है । विपाकसूत्र अङ्ग सूत्रों में ग्यारहवां सूत्र है । इस सूत्र में किस विषय का वर्णन आता है ? इस का उार यदि अत्यन्त संक्षेप से दिया जाय तो "विपाक"* इस शब्द से ही दिया जा सकता है अर्थात यह शब्द सुनते ही सुज्ञजनों को विपय की प्रतीति हो सकती है । . . प्रस्तुत सूत्र के बीस अध्ययन हैं । पहिले के दस अध्ययनों में अशुभ कर्म-विपाक का वर्णन है । पिछले दस अध्ययनों में शभकर्म-विपाक वर्णित हैं। कर्मसिद्धान्त को सरल, सुगम तथा सुस्पष्ट * चूर्णीकार ने विपाकसूत्र का निर्वाचन इस प्रकार किया है : विविधः पाकः, अथवा विपचनं विपाकः कर्मणां शुभोऽशुभो वा । विपचनं विपाकः शुभाशुभकर्म परिणाम इत्यर्थः । जम्मि सुत्ते विपाको कहिज्जइ तं विपाकसुत्तं । तत्प्रतिपादक श्रुतं विपाकश्र नं । इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है नाना प्रकार से पकना, विशेष कर के कर्मों का शुभ अशुभ रूप में पकना, अर्थान् शुभाशुभ कर्मपरिणाम को ही विपाक कहते हैं, जिस सत्र में विपाक कहा जाए उसे विपाकसूत्र अथवा विपाकश्रुत कहते हैं। For Private And Personal Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (२) श्री विपाकसूत्र [कर्ममीमांसा बनाने के लिये आगमकारों ने यथार्थ उदाहरण दे कर भव्य प्राणियों के हित के लिये प्रस्तुत सूत्र में बीस जनों के इतिहास प्रतिपादन किए हैं। जिस से पापों से निवृत्ति और धर्म में प्रवृत्ति मुमुक्षु जन कर सकें। सदा स्मरणीय-जैनागमों में कृष्णपक्षी (अनेक पुद्गलपरावर्तन करने वाले) तथा अभव्य जीवों के इतिहास के लिये बिल्कुल स्थान नहीं है किन्तु सूत्रों में जहां कहीं भी इतिहास का उल्लेख मिलता है तो उन्हीं का मिलता है जो चरमशरीरी हों या जिन का संसार-भ्रमण अधिक से अधिक देश-ऊन-अर्द्ध-पुद्गलपरावर्तन शेप रह गया हो, इस से अधिक जिन की संसारयात्रा है, उन का वर्णन जैनागम में नहीं आता है । जिन का वर्णन आगम में आया है वह चाहे किसी भी गति में हो अवश्य तरणहार हैं । इस बात की पुष्टि के लिये भगवती सूत्र के १५वे शतक का गौशालक, तिलों के जीव, निरयावलिका सूत्र में कालीकुमार आदि दस भाई, विपाकसूत्र में दुःखविपाक के दस जीव इत्यादि आखीर में ये सभी मोक्षगामी हैं। एक जन्म में उपार्जित किए हुए पापकम, रोग-शोक, छेदन-भेदन, मारणपीटन आदि दुःखपूर्ण दुर्गतिगर्त में जीव को धकेल देते हैं। यदि किसी पुण्ययोग से वह सुकुल में भी जन्म लेता है तो वहां पर भी वे ही पूर्वकृत दुष्कृत उसे पुनः पापकर्म करने के लिये प्रेरित करते हैं, जिस से पुनः जीव दुःख के गर्त में गिर जाता है । इसी प्रकार दुःख परम्परा चलती ही रहती है। कर्मों का स्वरूप-कम्मुणा उवाही जायइ-आचाराङ्ग अ० ३, उ० १ । अर्थात कर्मों से ही जन्म, मरण, वृद्धत्व, शारीरक दुःख, मानसिक दुःख,संयोग वियोग, भवभ्रमण आदि उपाधियां पैदा होती हैं। किरइ जिएण हेऊहिं जेणं तो भण्णए कम्म अर्थात जो जीव से किसी हेतु द्वारा किया जाता है उसे कम कहते हैं। जब घनघातिकर्मप्रहग्रस्त अात्मा में शुभ और अशुभ अव्यवसाय पैदा होते हैं, तब उन अध्यवसायों में चुम्बक की तरह एक अद्भूत आकर्षण शक्ति पैदा होती है । जैसे चुम्बक के आसपास पड़े हुए निश्चेष्ट लोहे के छोटे २ का आकर्षण से खींचे चले आते हैं और साथ चिपक जाते हैं, एवं राग द्वेषात्मक अध्यवसायों में जो कशिश है, वह भाव अास्रव है । उस कशिश से कर्मवर्गणा के पुद्गल खींचे चले आना वह द्रव्य आस्रव है । श्रात्मा और कर्मपुद्गलों का परस्पर क्षीरनीर भांति हिलमिल जाना बन्ध कहाता है। जीव का कर्म के साथ संयोग होने को बन्ध और उसके वियोग होने को मोक्ष कहते हैं। बन्ध का अर्थ वास्तविक रीति से सम्बन्ध होना यहां अभीष्ट है । ज्यों त्या कल्पना से सम्बन्ध हाना नहीं समझ लेना चाहिए । आगे चलकर वह बन्ध चार भागों में विभक्त हो जाता है, जैसेकि-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभावबन्ध और प्रदेशबन्ध । इन में से प्रकृति तथा प्रदेश बन्ध मन, वाणी और काय के योग (परिस्पन्द-हरकत) से होता है । स्थिति और अनुभाव बन्ध कषाय से होता है। मन वाणी और काय के व्यापार को योग कहते हैं । कार्मणवर्गणा के पुद्गलों का आत्मप्रदेशों पर छा जाना, यह योग का कार्य है। उन कर्मवर्गणा के पुद्गलों का दीर्घकाल तक या अल्प काल तक ठहराना और उन में दुःख सुख देने का शक्ति पैदा करना, कटुक तथा मधुर, मन्दरम तथा तीत्र रस पैदा करना कपाय पर निर्भर है । जहां तक योग और कपाय दोनों का व्यापार चालू है, For Private And Personal Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (३) कर्ममीमांसा भापाटीकासहित वहां तक कर्म बन्ध नहीं रुकता, बन्धक्षय बिना जन्मान्तर नहीं रुकता, इसी प्रकार भवपरम्परा चलती ही रहती है। यहां एक प्रश्न पैदा होता है कि क्या भिन्न २ समय में भिन्न २ कर्मों का बन्ध होता है ? या एक समय में सभी कर्मों का बन्ध हो जाता है ? इस का उत्तर यह है कि सामान्यतया कर्मों का बन्ध इकठ्ठा ही होता है, परन्तु बन्ध होने के पश्चान सातों या आठों कर्मों को उमी में से हिस्सा मिल जाता है। यहां खुराक तथा विप का दृशान्त लेना चाहिये । जिस प्रकार खुराक एक ही स्थान से समुच्चय ली जाती है, किन्तु उस का रस प्रत्येक इन्द्रिय को पहुंच जाता है और प्रत्येक इन्द्रिय अपनी २ शक्ति के अनुकूल उसे ग्रहण कर उस रूप से परिणमन करती है, उसमें अन्तर नहीं पड़ता। अथवा किसी को सर्प काटले तो वह क्रिया तो एक ही जगह होती है, किन्तु उस का प्रभाव विपरूपेण प्रत्येक इन्द्रिय को भिन्न २ प्रकार से समस्त शरीर में होता है, एवं कर्म बन्धते समय मुख्य उपयोग एक ही प्रकृति का होता है परन्तु उस का बंटवारा परस्पर अन्य सभी प्रकृतियों के सम्बन्ध को लेकर ही मिलता है। जिस हिस्से में सर्पदंश होता है उस को यदि तुरन्त काट दिया जाय तो चढ़ता हुआ ज़हर रुक जाता है, एवं आम्रपनिराध करने से कमा का वंच पड़ता हुआ भो रुक जाता है। यथा अन्य किसी प्रयोग से चढ़ा हुआ विप औषधप्रयोग से वापिस उतार दिया जाता है तथैव यदि प्रकृति का रस मन्द कर दिया जाए तो उस का बल कम हो जाता है। मुख्यरूपेण एक प्रकृति बन्धती है, और इतर प्रकृतियां उस में से भाग लेती है, ऐसा उनका स्वभाव है। प्रश्न-पत्रों में कमबन्ध करने के भिन्न २ कारण बताए हैं, वे कारण जब सेवन किए जाएं तभी उस प्रकृति का बन्ध होता है । जैसे कि ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्मों का बन्ध होता है । जब उन में से किसी का भी सेवन नहीं किया फिर उस का बन्ध कैसे हो सकता है ? उत्तर-कमों का बन्ध तो होता ही रहता है । प्रत्येक समय में सात या आठ कर्म संसारी जीव बांधता ही रहता है । आयुष्कर्म जीवन भर में एक ही वार बांधा जाता है। शेष सात कम ममय २ में वन्धते ही रहते हैं और उन का बंटवारा भी होता ही रहता है, किन्तु कर्मबन्ध के जो मुख्य २ कारण बताए हैं उन के सेवन करने से ता अनुभागबन्ध अर्थात् फल में कटुता या मधुरता दीर्घकालिक स्थिति दोनों का बन्ध पड़ता है। यदि उन कारणों का सेवन न किया जाए तो रस में मन्दता रहती है और अल्पकालिक स्थिति होती है। प्रश्न-कर्मवर्गणा के पुल क्या बन्ध होने से पूर्व ही पुण्यरूप तथा पापरूप में नियत होते हैं या अनियत ? उत्तर-नहीं। कर्मवर्गणा के पुदल न कोई पुण्यरूप ही हैं और न पापरूप ही । किन्तु शुभ अध्यवसाय से खेंचे हुए कर्मपु दल अशुभ होते हुए भी शुभरूप में परिणमन हो जाते हैं, और अशुभ अध्यवसाय के द्वारा खेचे हुए कर्मपुद्गल शुभ होते हुए भी अशुभ बन जाते हैं । जैसे कि प्रसूता गी सूखे तृण खाती है और उस को पीयूपवन श्वेत तथा मधुर दुग्ध बना देती है। प्रत्युत उसी दग्ध For Private And Personal Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (४) श्री विपाकसूत्र किममीमांसा को कृष्णसर्प विषैला बना देता है। जैन सिद्धान्त मानता है कि वस्तु अनन्त पर्यायों का पिण्ड है । सहकारी साधनों को पाकर पर्याय बदलती है । कती शुभ से अशुभ रूप में तो कभी अशुभ से शुभ रूप में हालते बदलती ही रहती हैं, अर्थात् काल चक्र के साथ २ पर्याय चक्र भो घूमता रहता है । एवं कम पुद्गल भी सकर्मा आत्मा के शुभ अध्यवसाय को पाकर पुण्य तथा पाप रूप में परिणमन हो जाते हैं। पुण्य पाप के रस में तरतमता-शुभ योग की तीव्रता के समय पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग-रस को मात्रा अधिक होती है और पार प्रकृतियों के अनुभाग की मात्रा हीन निष्पन्न होती है । इससे उलटा अशुभ योग की तीव्रता के समय पाप प्रकृतियों का अनुभागब. अधिक होता है और पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग बन्ध न्यून होता। शुभयोग की तीव्रता में कपाय की मन्दता होती है और अशुभ योग की तीव्रता में कपाय की उत्कटता होती है, यह क्रम भी स्मरणीय है। कर्मबन्ध पर अनादि और सादि का विचार-आठों ही कम किसी विवक्षित संसारी जीव में प्रवाह से अनादि हैं। पूर्व काल में ऐमा कोई समय नहीं था कि जिस समय किसी एक जीव में आठों कर्मों में से किसी एक कर्म की सत्ता नहीं थी। पीछे से वह कर्म स्पृष्ट तथा वद्ध हुआ हो। तो कहना पड़ेगा कि आठों कों की सत्ता अनादि से विद्यमान है । कर्म मादि भी है क्योंकि किसी विवक्षित समय का बन्धा हुआ कम अपनी स्थिति के मुताबिक आत्मप्रदेशों में ठहर कर और अपना फल देकर आत्मप्रदेशों से झड़ जाता है, परन्तु बीच २ में अन्य कर्मों का बन्ध भी चालू ही रहता है । वह बन्ध नहीं रुकता जब तक कि गुणस्थानों का आरोहण नहीं होता अर्थात् जब तक जीव अात्मविकास की ओर अग्रसर नहीं होता तब तक कर्म - प्रकृतियों का बन्ध चालू ही रहता है, रुकता नहीं । तीन कार्य समय २ में होते ही रहते हैं जैसेकि कर्मों का बन्ध, पूर्व कृत कर्मों का भोग और भुक्त कर्मो की निर्जरा। अनेकान्त दृष्टि से कर्मविचार-प्रश्न-क्या कर्म आत्मा से भिन्न है ? या अभिन्न ? यदि भिन्न है तो उस का आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता । यदि अभिन्न है तो कर्म ही आत्मा का अपर नाम है, जीव और ब्रह्म की तरह ? । उत्तर-अनेकान्तबादी इसका उत्तर एक ही वाक्य में देता है, जैसे कि आत्मा से कर्म कथंचित् भिन्नाभिन्न हैं, अथवा भेदविशिष्ट अभेद या अभेदविशिष्ट भेद ऐसा भी कह सकते हैं। इस सूक्ष्म थ्योरी को समझने के लिए पहले स्थूल उदाहरण की आवश्यकता है । हम ने स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना है । सूक्ष्म से अमूर्त की ओर जाना है, अतः पहले स्थूल उदाहरण के द्वारा इस विपय को समझिए । जैसे हमारा यह स्थूल शरीर भी श्रात्मा से कथंचित भिन्नाभिन्न है । यदि स्थूल शरीर को आत्मा से सर्वथा भिन्न मानेंगे तो भिन्न शरीर जीवपरित्यक्त कलेवर की तरह सुख दुःख आदि नहीं वेद सकता, यदि स्थूल शरीर को सर्वथा अभिन्न माना जाए तो किसी की मृत्यु नहीं होनी चाहिए, अर्थात शरीर का तीन काल में भी वियोग नहीं होना चाहिये । जैसे द्रव्य से द्रव्यत्व भिन्न नहीं किया जा सकता, क्योंकि द्रव्य से द्रव्यत्व अभिन्न है । अतः स्याद्वादी का कहना है, कि सजीव स्थल शरीर आत्मा से कथंचित भिन्नाभिन्न है। उपरोक्त दोपापत्ति सर्वथा भिन्न या सर्व था अभिन्न मानने में है । For Private And Personal Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कर्ममीमांसा] भाषाटीकासहित अब इसी विषय को दसरी शैली से समझिए-निश्चय नय की दृष्टि से कर्म आत्मा से भिन्न है, क्योंकि आत्मा के गुण आत्मा में ही अवस्थित हैं, कर्मों के गुण कर्मों में स्थित हैं, परस्पर गुणों का आदानप्रदान नहीं होता । कर्मों की पर्याय कर्मों में परिवर्तित होती है, और आत्मा की पर्याय आत्मा में, इस दृष्टि से अत्मा और कर्म भिन्न २ पदार्थ है । व्यवहार नय की दृष्टि से आत्मा और कर्म में अभेद है । जब तक दोनों में अभेदभाव न नाना जाए तब तक जन्म,जरा, मरण तथा दु:ख आदि अवस्थाएं नहीं बन सकतीं । अभेद दो प्रकार का होता है- १-एक सदा कालभावी अर्थात् अनादि अनन्त, जैसे कि आत्मा और उपयोग का अभेद, द्रव्य और गुण का अभेद, सम्यक्त्व और ज्ञान का अभेद । इसे नैत्यिक सम्बन्ध भी कह सकते हैं। दूसरा अभेद औपचारिक होता है, यह अभेद अनादि सान्त और सादि सान्त यों दो प्रकार का होता है । आत्मा के साथ अज्ञानता, वासना, मिथ्यात्व और कमों का सम्बन्ध अनादि है। इन का विनाश भी किया जा सकता है, इस लिए इस अभेद को अनादि सान्त भी कहते हैं । दूध दधि और मक्खन तीनों में घृत अभेद से रहा हुआ है, इस संबन्ध को सादि सान्त अभेद भी कह सकते हैं। हमारा प्रकृत साध्य अनादि सान्त अभेद है। कर्मों का कर्ता कर्म है या जीव ?— इस के आगे अब प्रश्न पैदा होता है कि क्या कर्मों का कर्ता कर्म ही है ? या जीव है ?, इस जटिल प्रश्न का उत्तर भी नयों के द्वारा ही जिज्ञासुजन समझने का प्रयत्न करें। जैसे हिसाब के प्रश्नों को हल करने के लिये तरीके होते हैं जिन्हें गुर भी कहते हैं। एवमेव आध्यात्मिक प्रश्नों को हल करने के जो तरीके हैं उन्हें नय कहते हैं या स्याद्वाद भी कहते हैं। एकान्त निश्चय नय से अथवा एकान्त व्यवहार नय से जाना हुआ वस्तुतत्त्व सब कुछ असम्यक तथा मिथ्या है, और अनेकान्त दृष्टि से जाना हुआ तथा देखा हुआ सब कुछ सम्यक् है । अतः ये पूर्वोक्त दोनों नय जैन-दर्शन के नेत्र हैं, यदि ऐसा कहा जाए तो अनुचित न होगा। अरूपी रूपी के बन्धन में कैसे पड़ सकता है---प्रश्न-आत्मा अरूपी ( अमूर्त ) है और कर्म रूपी है । अरूपी आत्मा रूपी कर्म के बन्धन में कैसे पड़ सकता है ?, उत्तर-यह प्रश्न बड़े २ विचारकों के मस्तिष्क में चिरकाल से घूम रहा है । अन्य दर्शनकार इस उलझी हुई गुत्थी को सुलझाने में अभी तक असमर्थ रहे, किन्तु जैनदर्शनकार जिनभद्र गणी क्षमाश्रमणकृत विशेषावश्यक भाष्य की १६३६ वीं गाथा तथा वृहद्वृत्तिकार मलधारी हेमचन्द सूरि जी लिखते हैं-अहवा पच्चक्खं चिय जीवोवनिधणं जह सरीरं चिट्ठइ कम्मयमेव भवन्तरे जीवसजुत्तं । अथवा-यथेदं बाह्य स्थूलशरीरं जीवोपनिबंधनं जीवेन सह सम्बर्द्व प्रत्यक्षोपलभ्यभानमेव तिष्ठति सर्वत्र चेष्टते एवं भवान्तरं गच्छता जीवेन सह संयुक्त कार्मणशरीरं प्रतिपद्यस्व । अर्थात् जैसे-प्रत्यक्ष दृश्यमान स्थूल शरीर में आत्मा ठहरी हुई है। एवं आत्मा कर्मशरीर में अनादिकाल से बद्ध है, अबद्ध से बद्ध नहीं, और मुक्त से भी बद्ध नहीं, अर्थात अनादि से है । जैनागम तो किसी भी संसारी जीव को कथंचिनकरूपी मानता है। एकान्त अरूपी जीव तो मुक्तात्मा ही है क्योंकि वे कार्मण शरीर तथा तैजस शरीर से भी विमुक्त हैं। वैदिक दर्शनके सरूवि चेव अरूवि चेव । ठा० २, उ० पहल For Private And Personal Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रीविपाकसूत्र [कर्ममीसांसा कार भी तीन प्रकार के शरीरप्रतिपादन करते हैं, जैसेकि-स्थूलशरीर कारणशरीर, तथा सूक्ष्मशरीर । जब जीव स्थूल शरीर को छोड़ कर अन्य स्थूल शरीर को धारण करने के लिये जाता है तो उस समय भी वह कारण तथा सूक्ष्म शरीरी होता है । शरीर भौतिक ही होता है काल्पनिक नहीं । भौतिक पदार्थ रूपवान होते हैं, जैसे पृथ्वी आदि परमाणु भी सरूपी होते हैं। उन परमाणुओं का बना हुआ सूक्ष्म शरीर होता है । जहां सशरीरता है वहां सरूपता है । जहां सरूपता नहीं वहां सशरीरता भी नहीं जैसे मुक्तात्मा। शरीर से कर्म, कर्म से शरीर यह परम्परा अनादि से चली आरही है । आयुष्कर्म ने आत्मा को शरीर में जाड़ा हुआ है। आयु कर्म न सुख देता है और न दुःख किन्तु सुख दुख, वेदने के लिये जीव को शरीर में ठहराए रखना ही उस का काम है । पहले की बांधी हुई आयु के क्षीण होने से पूर्व ही अगले भव की आयु बांध लेता है। शृखलाबद्ध की तरह सम्बन्ध हो जाने पर वही आयु नवीन शरीर में आत्मा को अवरुद्ध करती है। आयुबन्ध मोहनीय कर्म के निमित्त से बांधा जाता है । आयुबंध के साथ जितने कर्मों का बंध होता है वह बन्ध प्रायः निकाचित बन्ध होता है । अतः कर्मबद्ध जीव कथंचित् सरूपी है। एकान्त अरूपी नहीं ।जो एकान्त अरूपी है, अमूर्त है, वह कदापि पौद्धलिक वस्तु के बन्धन में नहीं पड़ सकता है । यदि अरूपी अशरोरी भी कर्म के बंधन में पड़ जाए तो मुक्तता व्यर्थ सिद्ध हो जाएगी, अतः संसारी जीव पहले कभी भी अशरीरी नहीं थे । सदा काल से सशरीरी हैं। जो सशरीरी हैं वे सब बद्ध हैं। उदय अधिकार—जो कर्म परिपक्व हो कर रसोन्मुख हो जाए उसे उदय कहते हैं । उदय दो प्रकार का होता है, जैसे कि-प्रदेशोदय और विपाकोदय । प्रदेशोदय तो समस्त संसारी जीवों के प्रतिक्षण पाठों कर्मों का रहता ही है ऐसा कोई संसारी जीव नहीं जिस के प्रदेशोदय न हो । प्रदेशोदय से सुख दुःख का अनुभव नहीं होता जैसे गगनमंडल में सूक्ष्म रजःकण या जलकण घूम रहे हैं । हमारे पर भी उन का श्राघात हो रहा है लेकिन हमें कोई महसूस नहीं होता एवं प्रदेशोदय भी समझ लेना। किन्तु विपाकोदय से ही सुख दुःख का भान होता है । विपाकोदय ही विपाकसूत्र का विषय है। कर्मफल दो तरीके से वेदे जाते हैं । स्वयं उदीयमान होने से दूसरा उदीरणा के द्वारा उदयाभिमुख करने से। जैसे फल अपनी मौसम में स्वयं तो पकते ही हैं किन्तु अन्य किसी विशेष प्रयत्न के द्वारा भी पकाए जा सकते हैं। पाठक इतना अवश्य स्मरण रक्खें कि प्रयत्न के द्वारा उन्हीं फलों को पकाया जा सकता है जो पकने के योग्य हो रहे हैं। जो फल अभी बिल्कुल कच्चे ही हों वे नहीं पकाए जा सकते हैं। ठीक कर्मफल के विषय में भी यह ही दृष्टान्त माननीय है । जो कर्म उदय के सर्वथा अयोग्य है उसे उपशान्त कहते हैं। अतः उसकी उदीरणा नहीं हो सकती। __ अथवा *शास्त्रीय परिभाषानुसार-जो अन्य किसी बाह्य निमित्त की अनपेक्षा से स्वयं उदय होकर फल देवे उसे औपक्रमिक वेदना कहते हैं । जो कम स्वतः या परतः जीव द्वारा अथवा इष्ट अनिष्ट पुद्गल के द्वारा उदीरणा कर के उदीयमान हो उसे अध्यवगमिक वेदना कहते हैं। वेदना कातात्पर्य यहां फल भोगने से है वह चाहे दुःखरूप में हो या सुखरूप में । आठ कर्मों की प्रकृतियां पुद्गलविपाका *कतिविहा णं भंते ! वेयणा पएणता ?, गोयना ! दुविहा वेयणा पण्णत्ता अझोवगमियाए उपकमियाए। (प्रज्ञापना सूत्र का ३५ वां पद) For Private And Personal Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कर्ममीमांसा ] हिन्दीभाषाटीकासहित (७) हैं और कुछ जीवविपाका | पुद्गलविपाका उसे कहते हैं जो प्रकृति शरीररूप परिणत हुए पुलपरमाणुओं में अपना फल देती हैं, जैसे कि पांचों शरीर, छः संहनन, छः संस्थान इत्यादि नामकर्म की ३७ प्रकृतियां पुद्गलविपाका कहलाती हैं। जो कर्मप्रकृति जीव में ही अपना फल देती है उसे जीवविपाका कहते हैं, जैसे कि ४७ घातकर्मों की प्रकृितियां, वेदनीय, गोत्र, तीर्थंकरनाम तथा त्रसदशक तथा स्थावरदर्शक इत्यादि नामकर्म की प्रकृतियां जीवविपाका कहलाती हैं। जैसे कोई अनभिज्ञ व्यक्ति औषधिएं खाता है। उन से होने वाले हित अहित को वह नहीं जानता किन्तु उसे विपाककाल में दुःख सुख वेदना पड़ता है । इसी प्रकार कर्म ग्रहण काल में भविष्यत् में होने वाले हित अहित को नहीं जानता है । परन्तु कर्मविपाककाल में विवश होकर दुःख सुख को वेदना ही पड़ता है । दार्शनिक दृष्टि से कर्मफलविषयक प्रश्नोत्तर - प्रश्न - कर्म रूपी हैं और दुःख सुखअरूपी हैं । कारण रूपी हो और कार्य अरूपी हो, यह बात मस्तिष्क में तथा हृदय में कैसे जच सकती है ? उत्तर- - दुःख और सुख आदि आत्मधर्म हैं। आत्मधर्म होने से आत्मा ही उन का समवायी कारण है । कर्म समवायी कारण हैं। द्रव्य क्षेत्र काल और भाव निमित्त कारण हैं । दुःख सुख दि आत्मधर्म हैं, इस की पुष्टि के लिए आगमप्रमाण लीजिए -- उत्तराध्ययन सूत्र के २८वें अध्ययन में जीव का लक्षण करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं कि • जीवो उवओोगलक्खणं । नाणेणं च दसणेणं चेव सुहेण य दुहेण य ।। १० ।। अर्थात् जीव चेतना लक्षण वाला है, ज्ञान दर्शन सुख और दुःख द्वारा पहचाना जाता है | अतः दुःख सुख आत्मधर्म हैं । प्रश्न - दुःख यदि आत्मधर्म है तो कमों का सर्वथा क्षय हो जाने के पश्चात् दुःखानुभूति क्यों नहीं होती ? यदि होती है तो मुक्त होना व्यर्थ है ? 1 उत्तर- जैसे कार्य के प्रति समवायी कारण अनिवार्यतया अपेक्षित है वैसे ही असमवायी कारण निमित्त कारण भी अपेक्षित हैं । समवायी कारण तथा निमित्त कारण के बिना अर्थात् इन के सर्वथा अभाव होने पर आत्मा में दुःख अवस्तु है । क्योंकि दुःख तो केवल औदयिक अवस्था में ही होता है। कि भाव के अभाव होने पर दुःख का भी आत्मा में अभाव ही हो जाता है । औयिक भाव का और दुःख का परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है। जहां औयिक भाव है वहां दुःख है, जहां दुःख नहीं वहां औदयिक भाव भी नहीं । I प्रश्न - सुख भी आत्मधर्म है, आत्मा में सुख समवायी कारण से रहा हुआ है। उपर्युक्त समवायी कारण कर्म तथा निमित्तकारण के सर्वथा आत्यन्तिक अभाव होने पर दुःख की तरह सुख का भीमा में अभाव ही हो जाना चाहिए ?, इधर मुक्तात्मा में सुख का अभाव होना आगमसम्मत नहीं, क्योंकि आगमपाठ यह है उलं सुहं संपन्ना उवमा जस्स नत्थि उ सिध्दाणं सुहरासी सव्वागासे नमाएज्जा । For Private And Personal Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (5) श्री विपाकसूत्र [कर्ममीमांसा ऐसी स्थिति में इधर कूत्राँ उधर खाई वाली दशा होती है। उत्तर-सुख दो प्रकार का होता है, पहला औदायिक और दूसरा आध्यात्मिक । श्रौदयिक सुख के सहकारी साधन भौतिक पदार्थ हैं । इस सुख के भाजन पुण्यात्मा है । मुक्तात्मा में औदायिक सुख का तो दुःख की तरह ही आत्यन्तिक अभाव है, परन्तु आध्यात्मिक सुख अनन्त है । वह सुख एक बार आविर्भूत हो कर फिर सदाकालभावी है । केवलज्ञान व केवलदर्शन की तरह एक रस है, अक्षीण है, अपर्यवसित है, अव्यावाध है। प्रश्न-क्या मूर्तिमान पुहल अपने आहलाद, परिताप, अनुग्रह, उपघात आदि गुणों से श्रमूर्त आत्मा को प्रभावित कर सकता है ? उत्तर-हां जो आत्मा कर्म से कथंचित् अभिन्न है उस को पुद्गल अपने प्रभाव से कथंचित प्रभावित कर सकता है । जैसे सुपथ्य भोजन करने से क्षधानिवृत्तिजन्य आलादकता, अग्नि, विद्युत अहिविष श्रादि के स्पर्श से परिताप । विज्ञान, धृति, स्मृति इत्यादि आत्मधर्म होने से अमूर्त है। मदिरापान से विज्ञान का उपघात होता है । विप खाने से धृति का और पिपीलिका (भूरी कोड़ी) खाए जाने से स्मृति का उपघात होता है । जीवातु जैसी औषधि पीयूप आदि पदार्थ सेवन करने से विज्ञान विकसित होता है । विषाक्त शरीर निर्विष, दिल और दिमाग़ी ताक़त को बल देने से उपनेत्र (ऐनक) श्रादि से अनुग्रह करता है । सिद्वात्मा पर पुद्गल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि वह अशरीरी है । सशरीरी आत्मा पर ही पुद्गल का प्रभाव पड़ सकता है । ___ कर्मविपाक संसारस्थ प्राणी भोगते हैं, अतः अब संसारस्वरूप भी समझना आवश्यकीय है। जब तक किसी के स्वरूप को न समझा जाए तब तक वह पदार्थ हेय या उपादेय कदापि नहीं बन सकता है। संसार का स्वरूप _संसार शब्द मम पूर्वक, सृ गतौ धातु घत्र प्रत्यय मे बना हुआ है, जिस का अर्थ होता है--संसरण करना, स्थानान्तर होते रहना । रूपान्तर होते रहना ही संसार का उपलक्षण अर्थ है। यह संसार जन्म, मरण, जरा, रोग, शोक आदि अनन्न दुःखों से भरा हुआ। उन अनन्त द:खों के भाजन सकर्मा जीव ही बने हुए हैं । जैन सूत्रकारों ने जिज्ञासुओं की सुविधा के लिये संसार को चार भागों में विभक्त किया है । जैसे कि द्रव्यतः संसार, क्षेत्रतः संसार, कालतः संसार, भावतः संसार । १-चतुर्गति, चौरासी लाख योनि में जन्म धारण करना ही द्रव्यतः मंसार है । -१४ राजलोक में परिभ्रमण करना ही क्षेत्रतः संसार है । ३-कायस्थिति, भवस्थिति तथा कर्मस्थिति पूर्ण करना, नाना प्रकार की पर्याय धारण करना ही कालतः संसार है। ४-घनघातिकर्मों का बन्ध नथा उन का उदय ही भावतः संसार है। जो जीव द्रव्यतः संसारी हैं, वे क्षेत्रतः तथा कालतः संसारी अवश्य हैं, परन्तु भावतः संसारी व हों और न भी हों, जैसे अरिहंत देव । वे घनघाती कर्मों से सर्वथा रहित हैं। सिर्फ भवोपग्राही कर्म For Private And Personal Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir फर्ममीमांसा] हिन्दीभापाटीकासहित शेष हैं, उन से जन्मान्तर की प्राप्ति नहीं होती। यावत् आयुस्थिति है तावत् मनुष्यपर्याय है, अतः वे द्रव्यतः संसारी हैं, भावतः संसारी नहीं । यहां शंका हो सकती है कि सिद्ध भगवान को क्षेत्रतः संसारी अवश्य मानना पड़ेगा, क्योंकि सिद्धशिला से ऊपर के क्रोश के छठे भाग में सिद्ध भगवान विराजमान हैं। वह स्थान भी १४ राजूलोक के अंतर्गत ही है, फिर वे असंसारसमावर्तक कैसे रहे ? जब कि उसी स्थान में सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव भी वर्तमान हैं, उन्हें संसारी कहा है ? समाधान--...सिद्ध भगवान सदैव अचल हैं, न अपने गुणों से चलित होते हैं और नाहिं संसरण करते हैं, अर्थात् स्थानान्तर होते हैं । अतः वे सर्वथा असंसारी ही हैं। तत्रस्थ एकेन्द्रिय जीवों में घनघाती कर्म विद्यमान, हैं अतः वे सर्वथा संसारी ही हैं, जो जीव भावतः संसारी हैं। वे द्रव्यतः क्षेत्रतः तथा कालतः नियमेन संसारी ही हैं, वस्ततः वे ही क्लेश के भाजन हैं। एक जन्म में उपार्जित किए हुए पाप कर्म जीव को रोग, शोक, छेदन, भेदन, मारण पीड़न आदि दुःखपूर्ण दुर्गति में धकेल देते हैं। यदि किसी पुण्ययोग से जीव राजघराने में या श्रेष्ठिकुल में जन्म प्राप्त करता है, तो वहां पर भी वे ही पूर्वकृत पापकर्म उसे पुनः पापोपार्जन करने के लिये प्रेरित करते हैं, जिस से वह पुनः दुःखगर्त में गिर जाता है । ततो वि य उवट्टित्ता, संसारं बहुं अणुपरियटंति । बहुकम्मलेवलित्ताणं, बोही होइ सुदुल्लहा तेसिं ॥ यह गाथा माधक को सावधान बनाने के लिए पर्याप्त है । कारण से कार्य की उत्पत्ति-जो हमें इहभविक दुःख और सुखमय जीवन दृष्टिगोचर होता है, वह कार्य है । उस का कारण अन्य जन्मकृत पाप और पुण्य है, और जो इहभविक में क्रियमाण अशुभ और शुभ कर्म हैं, वे भविष्यत्कालिक जीवन में होने वाले दुःख सुख के कारण हैं । कर्मवाद का अर्थ यही होता है कि वर्तमान का निर्माण भूत के आधार पर है, और भविष्य का निर्माण वर्तमान के आधार पर निर्भर है । हमारा कोई कर्म व्यर्थ नहीं जाता । हमें किसी प्रकार का फल बिना कर्म के नहीं मिलता। कर्म और फल का यह अविच्छेद्य सम्बन्ध ही विपाकसूत्र की नींव है। धन्यवाद- प्रस्तुत सूत्र के हिन्दी अनुवादक श्रीयुत पण्डित जैनमुनि श्री ज्ञान चन्द्र जी हैं। आप की श्रुतभक्ति सराहनीय है । बेशक इस सूत्र के लेखन तथा प्रकाशन में अनेकों बाधाएं आगे आई किन्तु अाप ने एडी की जगह पर अंगूठा नहीं रत्वा, अग्रसर होते ही गए, आखिर में सफलतालदमी ने सहपे आप के कंठ में जयमाला डाली। ___ आप की विधाकसूत्र पर आत्मज्ञानविनोदिनी नामक हिन्दीव्याख्या स्थानकवासी संप्रदाय में अभी तक अपूर्व है, ऐसा मेरा विचार है । सुललित हिन्दीव्याख्या के न होने से बहुत से जिज्ञासुगण उक्त सूत्रविषयक ज्ञान से वंचित रह हुए थे । अब वह अपूर्णता अनथक प्रयास से आप ने बहुत कुछ पूर्ण करदी है । एतदर्थ धन्यवाद। For Private And Personal Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir संशोधकीय विज्ञप्ति जैनवाङ्मय में कर्मवाद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, और उस ने उस के बहुत बड़े भाग को अपना विषय बना रखा है। श्री भगवती सूत्र, श्री प्रज्ञापना सूत्र और श्री उत्तराध्ययन आदि आगमग्रंथों में कर्मसम्बन्धी गम्भीर तथा विस्तृत विवेचन किया गया है। इस के अतिरिक्त बहुत से ऐसे आगमेतर ग्रंथ भी उपलब्ध हैं, जिन में मात्र कर्मों के सम्बन्ध में ही सूक्ष्म से सूक्ष्म मीमांसा की गई है । उन में "-कर्मप्रकृति और सात हजार श्लोकप्रमाण इस की ( कर्मप्रकृति की ) चूर्णी, आठ हजार और तेरह हज़ार श्लोकप्रमाण वाली इस की दो वृत्तियां, नौ हजार श्लोकप्रमाण स्वोपज्ञ वृत्ति तथा १८८५० श्लोकप्रमाण वृहद्वत्तिसहित पञ्च संग्रह, 'छह कर्मग्रन्थ बालावबोध' इस एक ही नाम वाले तीन ग्रन्थों की तीन भिन्न २ आचार्यों द्वारा रचनाएं की गई है, जिन की श्लोकसंख्या क्रमशः दस हजार, बारह हज़ार और सतरह हज़ार है । बहत्तर हजार श्लोकप्रमाण टीकासहित 'महाकम प्राभूतपटखण्डागम' और चौरासी हजार श्लोकप्रमाण चूर्णीव्याख्यासमन्वित कपायप्राभृत-" आदि कर्मविषयक रचना अधिक प्रसिद्ध हैं। इन उपरोत विशालकाय आगभेतर ग्रन्थों में भी कर्मतत्त्व की सूक्ष्मातिसूक्ष्म चर्चा की गई है। अधिक क्या कहा जाए जैनकथानक के अधिकांश भाग में भी कमविषयक वर्णन ही उपलब्ध हो रहा है। प्रस्तुत श्री विपाकसूत्र की रचना भी कर्मतत्व को बतलाने के उद्देश्य से ही की गई है। यह तथ्य इस सूत्र के नाम और प्रतिपाद्य विषय से सहज ही अवगत किया जा सकता है। कर्मतत्त्व जैसे दुरूह विषय को जनसाधारण भी सुगमता से समझ सके, इस उद्देश्य से इस सूत्र में सरल कथानकपद्धति अपनाई गई है । - जैनसाहित्य में कर्मवाद को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है, यह कथन उपरोक्त आगमों और भागमभिन्न ग्रंथों के पर्यालोचन से स्वतः ही प्रमाणित हो जाता है। कर्मतत्व को जाने बिना जैनसिद्धान्त का यथार्थ अथच परिपूर्ण बोध नहीं हो सकता, यही कारण है कि जैनसिद्धान्त में दार्शनिक और कथानक पद्धति के द्वारा कर्मवाद से सम्बन्ध रखने वाले महत्वपूर्ण साहित्य का सर्जन किया गया है। प्रकृत श्री विपाकसूत्र के दो श्रुतस्कन्ध है। प्रथम का नाम है-दुःखविपाक और द्वितीय का नाम है-सुखविपाक । अन्याय, अत्याचार, क्रूरता, निर्दयता, चौर्थवृत्ति, कामवासना और परिग्रह के द्वारा प्राणी कैसे २ घोर कर्मों का बन्ध कर लेते हैं, तथा कर्मबन्ध के अनुरूप कैसे २ भीषण एवं रोमाञ्चकारी फलों का उपभोग करते हैं, इस प्रकार का वर्णन प्रथम श्रुतस्कन्ध में किया गया है । दाता, पात्र, द्रव्य और विधि आदि की विशेषताओं से युक्त दान करने से प्राणी नाना प्रकार के सुखों का परिभोग करते हुए अन्त में सम्यग दर्शन, ज्ञान और चारित्र के द्वारा सिद्धगति ( मोक्ष ) को प्राप्त करते हैं, इत्यादि विपय का द्वितीय श्रुस्तकन्ध में प्रतिपादन किया गया है । इस विपाकसूत्र के अनुवादक पण्डित मुनि श्री ज्ञानचन्द्र जी हैं । मुनि श्री जी ने इस For Private And Personal Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir संशोधकी विज्ञप्ति ] भाषाटीकासहित (११) अनुवाद को सर्वाङ्गपूर्ण एवं सुन्दर बनाने के लिये भरसक प्रयत्न किया है। मूल और टीका में आए प्रत्येक विषय का स्पष्ट, सरल और विस्तृत विवेचन किया गया है, यही इस अनुवाद की विशेषता है । अनुवादक मुनि श्री जी का परिश्रम सर्वथा प्रशंसनीय है । इस अनुवाद तथा संशोधन की सफलता का सर्वोपरि श्रेय तो जैनधर्मदिवाकर, जैनागमरत्नाकर, साहित्यरत्न, परमपूज्य गुरुदेव श्री श्री श्री १००८ आचार्यप्रवर श्री आत्माराम जी महाराज को ही है, जिनकी असीम कृपादृष्टि तथा आशीर्वाद से यह महान कार्य सम्पन्न हो पाया है, तथापि मुनि श्री जी के प्रेमभरे आग्रह से मैंने भी इसके संशोधन एवं सम्पादन में यथाशक्ति भाग लिया है। संशोधक का स्थान तो बहुत ऊंचा होता है, जिसके लिए मैं अपने को योग्य नहीं पाता हूं, परन्तु इस का अवश्य हर्ष है, कि इस कारण आगमसेवा का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ । प्रस्तुत श्री विपाकसूत्र कर्मवाद से सम्बन्ध रखता है, और कर्मतरत्र का निरूपण इस में कथानकों के द्वारा किया गया है। इस सूत्र के परिशीलन से मुझे ऐसा अनुभव हुआ है कि इस में वरित कई एक कथाओं का संकलन एक कठिन कार्य है। फिर भी इस ओर अनुवादक मुनि श्री जी ने जहां अधिक से अधिक ध्यान दिया है, वहां मैंने भी इसे यथाशक्य अपनी दृष्टि से ओझल नहीं होने दिया । भाषा, भाव और सङ्कलन आदि की अपेक्षा से इसे विशुद्ध बनाने के लिये पूरा २ प्रयास किया गया, फिर भी इस विशालकाय शास्त्र में त्रुटियों का रह जाना असम्भव नहीं, अतः अपनी स्खलनाओं के लिये वाचकवृन्द से विनम्र क्षमायाचना करता हुआ मैं अपनी संक्षिप्त विज्ञप्ति को समाप्त करता हूं । For Private And Personal मुनि हेमचन्द्र. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir स्वाध्याय जैनशास्त्रों के पर्यालोचन से पता चलता है कि अध्यात्म जगत में स्वाध्याय भी अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है । इस की महिमा के परिचायक अनेकानेक पद जैनागमों में यत्र तत्र उपलब्ध होते हैं । आत्मिक ज्ञानज्योति को श्रावृत करने वाले संज्ञानावरणीय कर्म का इस को नाशक बता कर आधिभौतिक, दैहिक तथा दैविक इन सभी दुःखों ** का इसे विमोक्ता बतलाया है । सारांश यह है कि स्वाध्याय की उपयोगिता एवं महानता को जैनागमों में विभिन्न पद्धतियों से वर्णित किया गया है। यह ठीक है कि स्वाध्याय द्वारा मानव आत्मविकास कर सकता है और वह इस मानव को परम्परया जन्म मरण के भीषण दुःखजाल से छुटकारा दिलाकर परम साध्य निर्वाण पद को उपलब्ध करवा देता है, परन्तु यह (स्वाध्याय) विधिपूर्वक होना चाहिए, विधिपूर्वक किया हुआ स्वाध्याय ही इष्टसिद्धि का कारण बनता है । यदि विधिशून्य स्वाध्याय होगा तो वह ***अनिष्ट का कारण भी बन सकता है । इस लिए शास्त्रों का स्वाध्याय करने से पूर्व उस की विधि अर्थात् उस के पठनीय समय असमय का बोध अवश्य प्राप्त कर लेना चाहिए। ___श्री स्थानांगसूत्र में अस्वाध्यायकाल का बड़ा सुन्दर विवेचन किया गया है। वहां बत्तीम अस्वाध्याय लिखे हैं । दश आकाशसम्बन्धी, दश औदारिकसम्बन्धी, चार महा प्रतिपदा, चार महाप्रतिपदाओं के पूर्व की पूर्णिमाएं और चार सन्ध्याएं, ये ३२ अस्वाध्याय हैं। तात्पर्य यह है कि इन में शास्त्रों का स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । अन्य ग्रन्थों में अस्वाध्यायकाल के सम्बन्ध में कुछ मतभेद भी पाया जाता है परन्तु विस्तारभय से प्रस्तुत में उसका वर्णन नहीं किया जा रहा है। प्रस्तुत में तो हमें श्री स्थानांगसूत्र के आधार पर ही बत्तीस अस्वाध्यायों का विवेचन करना है। अस्तु, बत्तीम अस्वाध्यायों का नामनिर्देशपूर्वक संक्षिप्त परिचय निम्नोक्त है (१) उल्कापात-आकाश से रेखा वाले तेजःपुञ्ज का गिरना, अथवा पीछे से रेखा एवं प्रकाश वाले तारे का टूटना उल्कापात कहलाता है । उल्कापात होने पर एक प्रहर तक सूत्र की अस्वाध्याय रहती है। * सज्झाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? सज्माएणं जावे नाणावरणिज्ज कम्म खवेइ। ___ (उत्तराध्ययन सूत्र अ० २६, सूत्र १८) ** सज्झाए वा सव्वदुक्खविमोक्खणे- (उत्तराध्ययनसूत्र अ० २६) *** अस्वाध्यायकाल में स्वाध्याय करने से होने वाली हानि को टीकाकार महानुभाव के शब्दों में-एतेषु स्वाध्यायं कुर्वतां चद्रदेवता छलनं करोति- इन शब्दों में कहा जा सकता है । इन शब्दों का भाव इतना ही है कि अस्वाध्यायकाल में स्वाध्याय करने से कोई नद्र देवता पढ़ने वाले को पीड़ित कर सकता है । For Private And Personal Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir स्वाध्याय हिन्दीभाषाटीकासहित (२) दिग्दाह-किसी एक दिशा-विशेष में मानों बड़ा नगर जल रहा हो, इस प्रकार ऊपर की ओर प्रकाश दिखाई देना और नीचे अन्धकार मालूम होना, दिग्दाह कहलाता है । दिग्दाह के होने पर एक प्रहर तक अस्वाध्याय रहती है। (३) गर्जित-बादल गर्जने पर दो प्रहर तक शास्त्र की स्वाध्याय नहीं करनी चाहिए। (४) विद्य त-बिजली चमकने पर एक प्रहर तक शास्त्र की स्वाध्याय करने का निषेध है। आर्द्रा से स्वाति नक्षत्र तक अर्थात् वर्षा ऋतु में गर्जित और विद्य त् की अस्वाध्याय नहीं होती, क्योंकि वर्षाकाल में ये प्रकृतिसिद्ध-स्वाभाविक होते हैं। (५) निर्घात-बिना बादल वाले आकाश में व्यन्तरादिकृत गर्जना की प्रचण्ड ध्वनि को निर्घात कहते हैं। निर्घात होने पर एक अहोरात्रि तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। (६) यूपक-शुक्लपक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया और तृतीया को संध्या की प्रभा और चन्द्र की प्रभा का मिल जाना, यूपक है । इन दिनों में चन्द्र-प्रभा से आवृत होने के कारण सन्ध्या की समाप्ति मालूम नहीं होती । अतः तीनों दिनों में रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करना निषिद्ध है। (७) यक्षादीप्त-कभी कभी किसी दिशा-विशेष में बिजली सरीखा, बीचबीच में ठहर कर, जो प्रकाश दिखाई देता है उसे यक्षादीप्त कहते हैं। यक्षादीप्त होने पर एक प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। (E) धृमिका-कार्तिक से ले कर माघ मास तक का समय मेघों का गर्भमास कहा जाता है। इस काल में जो धूम्र वर्ण की सूहम जलरूप धूवर पड़ती है, वह धूमिका कहलाती है। यह धूमिका कभी कभी अन्य मासों में भी पड़ा करती है । धूमिका गिरने के साथ ही सभी वस्तुओं को जल-क्लिन्न कर देती है । अतः यह जब तक गिरती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। (8) महिका-शीत काल में जो श्वेत वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धूवर पड़ती है, वह महिका कहलाती है। यह भी जब तक गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय रहता है। (१०) रज-उद्घात-वायु के कारण आकाश में जो चारों ओर धूल छा जाती है, उसे रजउद्घात कहते हैं । रजउद्घात जब तक रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ये दश आकाशसम्बन्धी अस्वाध्याय हैं। (११-१३) अस्थि, मांस और रक्त–पञ्चेद्रिय तिर्यश्च के अस्थि, मांस और रक्त यदि साठ हाथ के अन्दर हों तो संभवकाल से तीन प्रहर तक स्वाध्याय करना मना है । यदि साठ हाथ के अन्दर बिल्ली वगैरह चूहे आदि को मार डालें तो एक दिन-रात अस्वाध्याय रहता है । ___ इसी प्रकार मनुष्यसम्बन्धी अस्थि, मांस और रक्त का अस्वाध्याय भी समझना चाहिए । अन्तर केवल इतना ही है कि इन का अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन-रात का होता है । स्त्रियों के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन का एवं बालक और बालिकाओं के जन्म का क्रमशः सात और आठ दिन का माना गया है । For Private And Personal Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाकसूत्र [स्वाध्याय (१४)अशुचि-टट्टी और पेशाब यदि स्वाध्यायस्थान के समीप हों और वे दृष्टिगोचर होते हों अथवा उन की दुर्गन्ध आती हो तो वहां स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। (१५) श्मशान-श्मशान के चारों तरफ़ सौ-सौ हाथ तक स्वाध्याय न करना चाहिए । (१६) चन्द्रग्रहण- चन्द्र-ग्रहण होने पर जयन्य पाठ और उत्कृष्ट बारह प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। यदि उगता हुआ चन्द्र ग्रसित हुआ हो तो चार प्रहर उस रात के एवं चार प्रहर आगामी दिवस के इस प्रकार आठ प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। यदि चन्द्रमा प्रभात के समय प्रहण-सहित अस्त हुआ हो तो चार प्रहर दिन के, चार प्रहर रात्रि के एवं चार प्रहर दूसरे दिन के इस प्रकार बारह प्रहर तक अस्वाध्याय रखना चाहिए। पूर्ण ग्रहण होने पर भी बारह प्रहर स्वाध्याय न करना चाहिए। यदि ग्रहण अल्प-अपूर्ण हो तो आठ प्रहर तक अस्वध्यायकाल रहता है। (१७) सूर्यग्रहण- सूर्यग्रहण होने पर जघन्य बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर तक अस्वाध्याय रखना चाहिए । अपूर्ण ग्रहण होने पर बारह और पूर्ण तथा पूर्ण के लगभग होने पर सोलह प्रहर का अस्वाध्याय होता है । सूर्य अस्त होते समय ग्रसित हो तो चार प्रहर रात के और पाठ आगामी अहोरात्रि के इस प्रकार सोलह प्रहर तक अस्वाध्याय रखना चाहिए । यदि उगता हुआ सूर्य ग्रसित हो तो उस दिन रात के पाठ एवं आगामी दिन रात के आठ-इस प्रकार सोलह प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । ___ (१८) पतन-राजा की मृत्यु होने पर जब तक दूसरा राजा सिंहासनारूढ़ न हो, तब तक स्वाध्याय करना निषिद्ध है । नये राजा के हो जाने के बाद भी एक दिन रात तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। राजा के विद्यमान रहते भी यदि अशान्ति एवं उपद्रव हो जाय तो जब तक अशान्ति रहे तब तक अस्वाध्याय रखना चाहिए । शांति एवं व्यवस्था हो जाने के बाद भी एक अहोरात्रि के लिए अस्वाध्याय रखा राजमंत्री की, गाँव के मुखिया की, शय्यातर की तथा उपाश्रय के आस-पास में सात घरों के अन्दर अन्य किसी की मृत्यु हो जाय तो एक दिन रात के लिए अस्वाध्याय रखना चाहिए । (१६) राजव्युद्ग्रह-राजाओं के बीच संग्राम हो जाय तो शान्ति होने तक तथा उस के बाद भी एक अहोरात्र तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (२०) औदारिकशरीर-उपाश्रय में पंचेन्द्रिय तिर्यच का अथवा मनुष्य का निर्जीव शरीर पड़ा हो तो सौ हाथ के अन्दर स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ये दश औदारिक सम्बन्धी अस्वाध्याय हैं । चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण को औदारिक अस्वाध्याय में इसलिए गिना है कि उन के विमान पृथ्वी के बने होते हैं । (२१-२८) चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-आषाढ़ पूर्णिमा, आश्विन पूर्णिमा, कार्ति For Private And Personal Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir स्वाध्याय हिन्दीभाषाटीकासहित क पूर्णिमा और चैत्र पूर्णिमा-ये चार महोत्सव हैं । उक्त महापूर्णिमाओं के बाद आने वाली प्रतिपदा महाप्रतिपदा कहलाती है। चारों महापूर्णिमाओं और चारों महाप्रतिपदाओं में स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। (२६-३२) प्रातःकाल, दुपहर, सायंकाल और अद्ध रात्रि-ये चार सन्ध्याकाल हैं। इन संध्याओं में भी दो घड़ी तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । इन बत्तीस अस्वाध्यायों का विस्तृत विवेचन तो श्री स्थानांगसूत्र, व्यवहारभाष्य तथा हरिभद्रीयावश्यक में किया गया है । अधिक के जिज्ञासु पाठक महानुभाव वहां देख सकते हैं। आगमग्रन्थों में श्री विपाकसूत्र का भी अपना एक मौलिक स्थान है, अतः श्री विपाकसूत्र के अध्ययन या अध्यापन करते या कराते समय पूर्वोक्त ३२ अस्वाध्यायकालों के छोड़ने का ध्यान रखना चाहिए। दूसरे शब्दों में इन अस्वाध्यायकालों में श्री विपाकसूत्र का पठन पाठन नहीं करना चाहिए । इसी बात की सूचना देने के लिए प्रस्तुत में ३२ अस्वाध्यायों का विवरण दिया गया है । के- ऊपर कहे गए ३२ अत्वाध्यायों का भाषानुवाद प्रायः कविरत्न श्री अमर चन्द्र जी महाराज द्वारा अनुवादित श्रमणसूत्र में से साभार उद्धृत किया गया है। - MALAAAAAAAAI - For Private And Personal Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir "णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स" प्राक्कथन भारत के लब्धप्रतिष्ठ जैन, बौद्ध और वैदिक इन तीनों ही प्राचीन धर्मों का समानरूप से यह सुनिश्चित सिद्धान्त है कि मानव जीवन का अन्तिम साध्य उस के आध्यात्मिक विकास की परिपूर्णता और उस से प्राप्त होने वाला प्रतिभाप्रकर्षजन्य पूर्णबोध अथच स्वरूपप्रतिष्ठा अर्थात् परमकैवल्य या मोक्ष है, उस के प्राप्त करने में उक्त तीनों धर्मों में जितने भी उपाय बतलाये गये हैं, उन सब का अन्तिम लक्ष्य आत्मसम्बद्ध समस्त कर्माणुओं का क्षीण करना है । आत्मसम्बद्ध समस्त कर्मों के नाश का नाम ही कमोक्ष है । दूसरे शब्दों में आत्मप्रदेशों के साथ **कर्म पुद्गलों का जो सम्बन्ध है, उस से सर्वथा पृथक हो जाना ही मोक्ष है । सम्पूर्ण कर्मों के क्षय का अर्थ है-पूर्वबद्ध कर्मों का विच्छेद और नवीन कर्मों के बन्ध का अभाव । तात्पर्य यह है कि एक बार बांधा हुआ कर्म कभी न कभी तो क्षीण होता ही है, परन्तु कर्म के क्षयकाल तक अन्य कर्मों का बन्ध भी होता रहता है, अर्थात् एक कर्म के क्षय होने के समय **अन्य कर्म का बन्ध होना भी सम्भव अथच शास्त्रसम्मत है। इसलिये सम्पूर्ण कर्मों अर्थात् बद्ध और बांधे जाने वाले समस्त कर्मों का आत्यन्तिक क्षय, आत्मा से सर्वथा पृथक् हो जाना ही मोक्ष है। यद्यपि बौद्ध और वैदिक साहित्य में भी कर्मसम्बन्धी विचार है तथापि वह इतना अल्प है कि उस का कोई विशिष्ट स्वतन्त्र ग्रन्थ उस साहित्य में उपलब्ध नहीं होता, इस के विपरीत जैनदर्शन में कर्मसम्बन्धी विचार नितांत सूक्ष्म, व्यवस्थित और अति विस्तृत हैं। उन विचारों का प्रतिपादकशास्त्र कर्मशास्त्र कहलाता है। उस ने जैन साहित्य के बहुत बड़े भाग को रोक रक्खा है, यदि कर्मशास्त्र को जैन साहित्य का हृदय कह दिया जाए तो उचित ही होगा। कर्मशब्द की अर्थविचारणा-कर्म शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-क्रियते इति कर्म-- * कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः । (तत्त्वार्थसूत्र अ० १०, सू० ३ ।) ** जिस में रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और संस्थान हों, उसे पुद्गल कहते हैं, जो पुद्गल कर्म बनते हैं वे एक प्रकार की अत्यन्त सूक्ष्म रज अथवा धूलि होती है, जिस को इन्द्रियां स्वयं तो क्या यंत्रादि की सहायता से भी नहीं जान पातीं । सर्वज्ञ परमात्मा अथवा परम अवधि ज्ञान के धारक योगी ही उस रज का प्रत्यक्ष कर सकते हैं । जो रज कर्मपरिणाम को प्राप्त हो रही है या हो चुकी है उसी रज की कर्षपुद्गल संज्ञा होती है। * यह जीव समय २ पर कर्मों को निर्जरा भी करता है और कर्मों का वन्ध भी करता है, अर्थात् पुराने कर्मों का विच्छेद और नवीन कर्मों का बन्ध इस जीव में जब तक बना रहता है तब तक इस को पूर्णयोध-केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। For Private And Personal Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राकथन] हिन्दीभापाटीकासहित अर्थात् जो किया जावे वह कर्म कहलाता है । कर्म शब्द के लोक और शास्त्र में अनेक अर्थ उपलब्ध होते हैं । लौकिक व्यवहार या काम धन्धे के अर्थ में कर्म शब्द का व्यवहार होता है, तथा खाना पीना, चलना, फिरना आदि क्रिया का भी कर्म के नाम से व्यवहार किया जाता है, इसी प्रकार कर्मकांडी मीमांसक याग आदि क्रियाकलाप के अर्थ में, स्मात विद्वान् ब्राह्मण आदि चारों वर्णों तथा ब्रह्मचर्यादि चारों आश्रमों के लिए नियत किये गये कर्मरूप अर्थ में, पौराणिक लोग व्रत नियमादि धार्मिक क्रियाओं के अर्थ में, व्याकरण के निर्माता- कर्ता जिस को अपनी क्रिया के द्वारा प्राप्त करना चाहता हो अर्थात् जिस पर कर्ता के व्यापार का फल गिरता हो- उस अर्थ में, और नैयायिक लोग उत्क्षेपणादि पांच सांकेतिक कर्मों में कर्मशब्द का व्यवहार करते हैं और गणितज्ञ लोग योग और गुणन आदि में भी कर्म शब्द का प्रयोग करते हैं, परन्तु जैन दर्शन में इन सब अर्थों के अतिरिक्त एक पारिभाषिक अर्थ में उस का व्यवहार किया गया है, उस का पारिभाषिक अर्थ पूर्वोक्त सभी अर्थी से भिन्न अथच विलक्षण है । उस के मत में कर्म यह नैयायिकों या वैशेषिकों की भान्ति क्रियारूप नहीं किन्तु पौद्गलिक अर्थात् द्रव्यरूप है । वह आत्मा के साथ प्रवाहरूप से अनादि सम्बन्ध रखने वाला अजीव-जड़ द्रव्य है । जैन सिद्वान्त के अनुसार कर्म के भावकर्म और द्रव्यकर्म ऐसे दो प्रकार हैं । इन की व्याख्या निम्नोक्त है १- भावकर्म-मन, बुद्धि की सूक्ष्म क्रिया या आत्मा के रागद्वेषात्मक संकल्परूप परिस्पन्दन को भावकर्म कहते हैं। २- द्रव्यकर्म-कर्माणुओं का नाम द्रव्यकर्म है अर्थात आत्मा के अध्यवसायविशेष से कर्माणुओं का आत्मप्रदेशों के साथ सम्बन्ध होने पर उन की द्रव्यकर्म संज्ञा होती है। द्रव्यकर्म जैनदर्शन का पारिभापिक शब्द है इस के समझने के लिये कुछ अन्तष्टि होने की आवश्यकता है। जब कोई प्रात्मा किसी तरह का संकल्प विकल्प करता है तो उसी जाति की कार्मण वर्गणायें उस आत्मा के ऊपर एकत्रित हो जाती हैं अर्थात् उस की ओर खिंच जाती हैं उसी को जैन परिभाषा म आस्रव कहते हैं और जब ये आत्मा से सम्बन्धित हो जाती हैं तो इन की जैन मान्यता के अनुसार बन्ध संज्ञा हो जाती है। दूसरे शब्दों में आत्मा के साथ कर्मवर्गणा के अणुओं का नीर क्षीर की उत्क्षेपणापक्षेपणाकुचनप्रसारणगमनानि पंच कर्माणि-अर्थात् उत्क्षेपण-- ऊपर फैकना, अपक्षेपण--नीचे गिराना, आकुचन--समेटना, प्रसारण-फैलाना और गमन–चलना, ये पांच कर्म कहलाते हैं । नैयायिकों के मत में द्रव्यादि सात पदार्थों में कर्म यह तीसरा पदार्थ है और वह उत्क्षेपणादि भेद से पांच प्रकार का होता है । For Private And Personal Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org (१८) श्री विपाकसूत्र भान्ति लोलीभाव-हिलमिल जाना बन्ध कहलाता है । बन्ध के- १ - प्रकृतिवन्ध, २ - स्थितिबन्ध, ३-- अनुभागबन्ध और ४ प्रदेशबन्ध ये चार भेद हैं । सामान्यतया इसी को ही द्रव्यकर्म कहते हैं और इसके द्रव्यकर्म के आठ भेद होते हैं । ये आठों ही आत्मा की मुख्य २ आठ शक्तियों को या तो विकृत कर देते हैं या आवृत करते हैं । ये आठ भेद - १ - ज्ञानावरणीय, २ - दर्शनावरणीय, ३ - वेदनीय, ४-मोहनीय, ५ – आयु, ६ - नाम, ७ - गोत्र और - अन्तराय, इन नामों से प्रसिद्ध है । ये द्रव्यरूप कर्म के मूल आठ भेद हैं और इन्हीं नामों से इन का जैनशास्त्रों में विधान किया गया है । इनकी अर्थविचारणा इस प्रकार है * स्वभावः प्रकृतिः प्रोक्तः, स्थितिः कालावधारणम् । अनुभागो रसो ज्ञेयः, प्रदेशो दलसंचयः ॥ १ ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन अर्थात् स्वभाव का नाम प्रकृति है, समय के अवधारण - इयत्ता को स्थिति बहते हैं, रस का नाम अनुभाग है और दलसंचय को प्रदेश कहते हैं । प्रकृतिबन्ध आदि पदों का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है— १ - प्रकृतिबन्ध - जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्मपुद्गल में भिन्न २ स्वभावों अर्थात शक्तियों का उत्पन्न होना प्रकृतिबन्ध है । २- स्थितिबन्ध - जीव के द्वारा गृहीत कर्मपुद्गलों में अमुक काल तक अपने स्वभावों का त्याग न कर जीव के साथ लगे रहने की कालमर्यादा को स्थितिबन्ध कहते हैं । ३ - अनुभाग (रस) बन्ध-जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्मपुद्गलों में रस के तरतम - भाव का अर्थात् फल देने की न्यूनाधिक शक्ति का उत्पन्न होना रसबन्ध कहलाता है । ४ -- प्रदेशबन्ध - जीव के साथ न्यूनाधिक परमाणुओं वाले कर्मस्कन्धों का सम्बन्ध होना प्रदेशबन्ध कहलाता है । अथवा प्रकृतिबन्ध आदि पदों की व्याख्या निम्नप्रकार से भी की जा सकती है१--कर्मपुद्गलों में जो ज्ञान को आवरण करने, दर्शन को रोकने और सुख दुःख देने आदि का स्वभाव बनता है वही स्वभावनिर्माण प्रकृतिबन्ध है । २- स्वभाव बनने के साथ ही उस स्वभाव से अमुक समय तक च्युत न होने की मर्यादा भी पुद्गलों में निर्मित होती है, यह कालमर्यादा का निर्माण ही स्थितिबन्ध है । For Private And Personal ३ - स्वभावनिर्माण के साथ ही उस में तीव्रता, मन्दता आदि रूप में फलानुभव करने वाली विशेषतायें बंधती हैं, ऐसी विशेषता ही अनुभागबन्ध है। ४ - ग्रहण किये जाने पर भिन्न २ स्वभावों में परिणत होने वाली कर्मपुद्गलराशि स्वभाबानुसार अमुक २ परिमाण में बंट जाती है, यह परिमाणविभाग ही प्रदेशबन्ध कहलाता है । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन ] हिन्दी भाषाटीकासहित (१६) १ - ज्ञानावरणीय - जिस के द्वारा पदार्थों का स्वरूप जाना जाए उस का नाम ज्ञान है । जो कर्म ज्ञान का आवरण-आच्छादन करने वाला हो, उसे ज्ञानावरणीय कहते हैं । तात्पर्य यह है कि जैसे सूर्य को बादल आवृत कर लेता है, अथवा जैसे नेत्रों के प्रकाश को वस्त्रादि पदार्थ आच्छादित कर देते हैं, उसी प्रकार जिन कर्माओं या कर्म वर्गणाओं के द्वारा इस जीवात्मा का ज्ञानवृत (ढका हुआ) हो रहा है, उन कर्माओं या कर्मवर्गणाओं का नाम ज्ञानावरणीय कर्म है। २- दर्शनावरणीय — पदार्थों के सामान्य बोध का नाम दर्शन है । जिस कर्म के द्वारा जीवात्मा का सामान्य बोध आच्छादित हो उसे दर्शनावरणीय कहा जाता है। यह कर्म द्वारपाल के समान है । जैसे -द्वारपाल राजा के दर्शन करने में रुकावट डालता है ठीक उसी प्रकार यह कर्म भी आत्मा के चक्षुर्दर्शन (नेत्रों के द्वारा होने वाला पदार्थ का सामान्य बोध) आदि में रुकावट डालता है । ३ - वेदनीय -- जिस कम के द्वारा सुख दुःख की उपलब्धि हो उस का नाम वेदनीय कर्म है । यह कर्म मधुलिप्त असिधारा के समान है। जैसे - मधुलिप्त असिधारा को चाटने वाला मधु से आनन्द तथा जिह्वा के कट जाने से दुःख दोनों को प्राप्त करता है, उसी प्रकार इस कर्म के प्रभाव से यह जीव सुख और दुःख दोनों का अनुभव करता है । रसास्वाद ४ - मोहनीय- जो कर्म स्व पर विवेक में तथा स्वरूपरमण में बाधा पहुँचाता है, अथवा जो कर्म आत्मा के सम्यक्त्व गुण का और चारित्रगुण का घात करता है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं । यह कर्म मदिराजन्य फल के समान फल करता है। जिस प्रकार मदिरा के नशे में चूर हुआ २ पुरुष अपने कर्तव्याकर्तव्य के भान से च्युत हो जाता है, उसी प्रकार मोहनीयकर्म के प्रभाव से इस जीवात्मा को भी निज हेयोपादेय का ज्ञान नहीं रहता । ५ - श्रायु - जिस कर्म के अवस्थित रहने से प्राणी जीवित रहता है और क्षीण हो जाने से मृत्यु को प्राप्त करता है, उसे आयुष्कर्म कहते हैं। यह कर्म कारागार (जेल) के समान है, अर्थात् जिस प्रकार कारागार में पड़ा हुआ द| अपने नियत समय से पहले नहीं निकल पाता उसी प्रकार इस कर्म के प्रभाव से यह जीवात्मा अपना नियत भवस्थिति को पूरा किये बिना मृत्यु को प्राप्त नहीं हो सकता । ६- नाम - जिस कर्म के प्रभाव से अमुक जीव नारकी है, अमुक तिर्यच है, अमुक मनुष्य और अमुक देव है - इस प्रकार के नामों से सम्बोधित होता है, उसे नामकर्म कहते हैं । यह कर्म चित्रकार के समान है । जैसे चित्रकार नाना प्रकार के चित्रों का निर्माण करता है । उसी प्रकार नामकमे भी इस जीवात्मा को अनेक प्रकार की अवस्थाओं में परिवर्तित करता है । *नाणस्सावरणिज्जं, दंसणावरणं तहा । वेयणिज्जं तहा मोहं, आउकम्मं तहेव य ॥२॥ नामकम्मं च गोयं च, अन्तरायं तहेव य । एवमेयाई कम्पाइ, अट्ठ ेव उ समासो ॥३॥ (उत्तराध्ययनसूत्र, अ० ३३) For Private And Personal Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाकसूत्र [प्राक्कथन ७-गोत्र-जिस कर्म के द्वारा यह जीवात्मा ऊँच और नीच कुल में उत्पन्न हो अर्थात् ऊँच नीच संज्ञा से सम्बोधित किया जाए, उस का नाम गोत्रकर्म है। यह कर्म कुलाल (कुम्हार) के समान है । जैसे-कुलाल छोटे तथा बड़े भाजनों को बनाता है, उसी प्रकार गोत्रकर्म के प्रभाव से इस जीव को ऊँच और नीच पद की उपलब्धि होती है। ८-अन्तराय-जो कर्म आत्मा के वीर्य, दान, लाभ, भोग और उपभोग रूप शक्तियों का घात करता है वह कर्म अन्तराय कहलाता है । अन्तराय कर्म राजभंडारी के समान होता है। जैसे-- राजा ने द्वार पर आये हुए किसी याचक को कुछ द्रव्य देने को कामना से भंडारी के नाम पत्र लिख कर याचक को तो दिया, परन्तु याचक को भंडारी ने किसी कारण से द्रव्य नहीं दिया, या भंडारी ही उसे नहीं मिला । भंडारी का इन्कार या उस का न मिलना ही अन्तराय कम है । कारण कि पुण्यकमवशात् दानादि सामग्री के उपस्थित होते हुए भी इस के प्रभाव से कई न काई एसा विघ्न उपस्थित हो जाता है कि देने और लेने वाले दोनों ही सफल नहीं हो पाते । कर्मों की आठ मूल प्रकृतिये ऊपर कही जा चुकी हैं, इन की उत्तर प्रकृतियें १५८ हैं । ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय को ६, वेदनीय को २, मोहनीय की २८, आयु की ४, नाम की १०३, गोत्र की २ और अन्तराय की ५, कुल मिला कर +१५८ उत्तरप्रकृति या उत्तरभेद होते हैं। इन समस्त उत्तरभेदों का विस्तृत वर्णन तो जैनागमों तथा उन से संकलित किये गये कर्मग्रन्थों में किया गया है, परन्तु प्रस्तुत में इन का प्रकरणानुसारी संक्षिप्त वर्णन दिया जा रहा है (१) ज्ञानावरणीय कर्म के ५ भेद हैं, जिनका विवरण नीचे की पंक्तियों में है १-मतिज्ञानावरणीय-- इन्द्रियों और मन के द्वारा जो ज्ञान होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं । इस ज्ञान को आवरण--आच्छादन करने वाले कर्म को मतिज्ञानावरणीय अथवा मतिज्ञानावरण कहते हैं। २-श्र तज्ञानावरणीय-शास्त्रों के वाचने तथा सुनने से जो अर्थज्ञान होता है, अथवामतिज्ञान के अनन्तर होने वाला और शब्द तथा अर्थ की पर्यालोचना जिस में हो ऐसा ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है । इस ज्ञान के आवरण करने वाले कर्म को श्र तज्ञानावरलीय या श्र तज्ञानावरण कर्म कहते हैं। ३-अवधिज्ञानावरणीय-इन्द्रियों तथा मन की सहायता के बिना मर्यादा को लिये हुए रूप वाले द्रव्य का जो ज्ञान होता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं, इस ज्ञान के प्रावरण करने वाले कर्म को अवधिज्ञानावरणीय कहते हैं। ॐकर्मों के मूलभेद मूलप्रकृति और उत्तरभेद उत्तरप्रकृतियें कहलाती है। इह नाणदसणावरणवेदमोहाउनामगोयाणि । विग्धं च पणनवदुअट्ठवीसचउतिसयदुपणविहं ॥३॥ (कमग्रंथ भाग १) For Private And Personal Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (२१) प्राक्कथन] हिन्दीभाषाटीकासहित ४-मनःपर्यवज्ञानावरणीय-इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना मर्यादा को लिए हुए जिस में संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जाना जाए उसे मनःपर्यवज्ञान कहा जाता है । इस ज्ञान के श्रावरण करने वाले कर्म को मनःपर्यवज्ञानावरणीय कहते हैं। ५--केवलज्ञानावरणीय-संसार के भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान काल के सम्पूर्ण पदार्थों का युगपन-एक साथ जानना, केवलज्ञान कहलाता है । इस ज्ञान के प्रावरण करने वाले कर्म को केवलज्ञानावरणीय कहते हैं। (२) दर्शनावरणीय कर्म के ह भेद हैं । इन का संक्षिप्त विवरण निम्नोक्त है-- १--चतुर्दर्शनावरणीय-आंख के द्वारा जो पदार्थों के सामान्य धर्म का ग्रहण होता है, उसे चक्षुर्दर्शन कहते हैं, उस सामान्य ग्रहण अर्थात् ज्ञान को रोकने वाला कर्म चक्षुर्दर्शनावरणीय कहलाता है। २--अच दुर्दर्शनावरणीय-आंख को छोड़ कर त्वचा, जिला, नाक, कान और मन से पदार्थों के सामान्य धर्म का जो ज्ञान होता है, उसे अचक्षुर्दर्शन कहते हैं । इस के आवरण करने वाले कर्म को अच छुर्दर्शनावरलीय कहा जाता है। ३--अवधिदर्शनावरणीय-इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना ही आत्मा को रूपी द्रव्य के सामान्य धर्म का जो बांध होता है, उसे अवधिदर्शन कहते हैं । इस के आवरण करने वाले कर्म को अवधिदर्शनावरणीय कहते हैं। ४--विनदर्शनावरणीय-संसार के सम्पूर्ण पदार्थों का जो सामान्य अवबाथ होता है, उसे केवलदर्शन कहते हैं । इस क आवरण करने वाले कर्म को केवलदर्शनावरणीय कहा जाता है । ५--निद्रा-जा सोया हुआ जीव थोड़ी सी आवाज से जाग पड़ता है अथोत् जसे जगाने में परिश्रम नहीं करना पड़ता, उस की नोंद को निद्रा कहते हैं और जिस कर्म के उदय से ऐसा नींद आती है, उस कर्म का नाम भी निद्रा है। ६-निद्रानिद्रा-जो सोया हुआ जीव बड़े जोर से चिल्लाने पर, हाथ द्वारा जोर २ से हिलाने पर बड़ी मुश्किल से जागता है, उस की नींद को निद्रानिद्रा कहते हैं । जिस कर्म के उदय से ऐसी नींद आवे उस कर्म का भी नाम निद्रानिद्रा है। ७--प्रचला-खड़े २ या बैठे २ जिस को नींद आती है, उस की नींद को प्रचला कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसी नींद आवे उस कर्म का भी नाम प्रचला है । ८--प्रचलाप्रचला—चलते फिरते जिस को नींद आती है, उस की नींद को प्रचलाप्रचला कहते हैं । जिस कर्म के उदय से ऐसी नींद आवे उस कर्म का भी नाम प्रचलाप्रचला है । है--स्त्यानद्धि या स्त्यानगृद्धि-जो जीव दिन में अथवा रात में सोचे हुए काम को For Private And Personal Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (२२) श्री विपाकसूत्र [प्राकथन नींद की हालत में कर डालता है, उस की नींद को स्त्यानर्द्धि या स्त्यानगृद्धि कहते हैं । यह निद्रा जिसे आती है उस में उस निद्रा की दशा में वासुदेव का आधा बल आ जाता है । जिस कर्म के उदय से ऐसी नींद आती है, उस कर्म का नाम स्त्यानर्द्धि या स्त्यानगृद्धि है । (३) वेदनीय कर्म के २ भेद हैं । उन का नामनिर्देशपूर्वक विवरण निम्नोक्त है १-सातवेदनीय कर्म-जिस कर्म के उदय से आत्मा को विषयसम्बन्धी सुख का अनुभव होता है, उसे सातवेदनीय कहते हैं। ___२--असातवेदनीय कर्म-जिस कर्म के उदय से आत्मा को अनुकूल विषयों की अप्राप्ति से अथवा प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति से दुःख का अनुभव होता है, उसे असातवेदनीय कहते हैं । (४) मोहनीय कर्म के- १-दर्शनमोहनीय और २- चारित्रमोहनीय, ऐसे दो भेद हैं । जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसा ही समझना यह दर्शन है अर्थात् तत्त्वार्थश्रद्धान को दर्शन कहते हैं। यह आत्मा का गुण है । इस के घातक कर्म को दर्शनमोहनीय कहा जाता है और जिस के द्वारा आत्मा अपने असली स्वरूप को पाता है उसे चारित्र कहते हैं । इस के घात करने वाले कर्म को चारित्रमोहनीय कहते हैं । दर्शनमोहनीय कर्म के ३ भेद निम्नोक्त हैं १--सम्यक्त्वमोहनीय-जिस कर्म का उदय तात्त्विक रुचि का निमित्त हो कर भी औपशमिक या क्षायिक भाव वाली तत्त्वरुचि का प्रतिबन्ध करता है, वह सम्यक्त्वमोहनीय है। २--मिथ्यात्वमोहनीय- जिस कर्म के उदय से तत्त्वों के यथार्थरूप की रुचि न हो, वह मिथ्यात्वमोहनीय कहलाता है। ३--मिश्रमोहनीय-जिस कर्म के उदयकाल में यथार्थता की रुचि या अरुचि न हो कर दोलायमान स्थिति रहे, उसे मिश्रमोहनीय कहते हैं । चारित्रमोहनीय के कषायमोहनीय और नोकषायमोहनीय ऐसे दो भेद उपलब्ध होते हैं। १- जिस कर्म के उदय से क्रोध, मान, माया श्रादि कषायों की उत्पत्ति हो, उसे कषायमोहनीय कहते हैं, और २- जिस कर्म के उदय से आत्मा में हास्यादि नोकपाय (कपायों के उदय के साथ जिन का उदय होता है, अथवा कपायों को उत्तेजित करने वाले हास्य आदि) की उत्पत्ति हो, उसे नोकषायमोहनीय कहते हैं । कषायमोहनीय के १६ भेद होते हैं, जो कि निम्नोक्त हैं-- १--अनन्तानुबन्धी क्रोध---जीवनपर्यन्त बना रहने वाला क्रोध अनन्तानुबन्धी कहलाता है, इस में नरकगति का बन्ध होता है और यह सम्यग् दर्शन का घात करता है। पत्थर पर की गई रेखा जैसे नहीं मिटती, उसी भांति यह क्रोध भी किसी भी तरह शान्त नहीं होने पाता । २--अनन्तानुबन्धी मान-जो मान-अहंकार जीवनपर्यन्त बना रहता है, वह अनन्ता For Private And Personal Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन] हिन्दीभाषाटीकासहित नुबन्धी मान कहलाता है । यह सम्यद्गर्शन का घातक और नरकगति का कारण बनता है । जैसे-भरसक प्रयत्न करने पर भी वन का खंभा नम नहीं सकता, उसी प्रकार यह मान भी किसी प्रकार दूर नहीं किया जा सकता। ३--अनन्तानुबन्धिनी माया-जो माया जीवन भर बनी रहती है, वह अनन्तानुबन्धिनी माया कहलाती है । यह माया सम्यग्दर्शन की घातिका और नरकगति के बन्ध का कारण होती है । जैसे कठिन बांस की जड़ का टेढ़ापन किसी प्रकार भी दूर नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार यह माया भी किसी उपाय से दूर नहीं होती। ४-अनन्तानुबन्धी लोभ-यह जीवन--पर्यन्त बना रहता है । सम्यद्गदर्शन का घातक और नरकगति का दाता होता है । जैसे- मंजीठिया रंग कभी नहीं उतरता, उसी भांति यह लोभ भी किसी उपाय से दूर नहीं हो पाता।। ५-अप्रत्याख्यानी क्रोध-यह एक वर्ष तक बना रहता है, यह देशविरतिरूप चारित्र का घातक होने के साथ २ तिर्यञ्च गति का कारण बनता है । जैसे-सूखे तालाब आदि में दरारें पड़ जाती हैं, वह पानी पड़ने पर फिर भर जाती हैं, इसी भांति यह क्रोध किसी कारणविशेष से उत्पन्न होकर कारण मिलने पर शान्त हो जाता है। ६ -अप्रत्याख्यानी मान इस की स्थिति, गति और हानि अप्रत्याख्यानी क्रोध के समान है। जैसे हड्डी को मोड़ने के लिये कई प्रकार के प्रयत्न करने पड़ते हैं, उसी भांति यह मान भी बड़े प्रयत्न से दूर किया जाता है। ७-अप्रत्याख्यानी माया-इस की गति, स्थिति और हानि अप्रत्याख्यानी क्रोध की भांति है । जैसे भेड़ के सींग का टेढापन बड़ी कठिनता से दूर किया जाता है, वैसे ही यह माया बड़ी कठिनाई से दूर की जाती है। ८-अप्रत्याख्यानो लोभ-इस की गति, स्थिति और हानि अप्रत्याख्यानी क्रोध के तुल्य है । जैसे--शहर की नाली के कीचड़ का रंग बड़ी कठिनाई से हटाया जा सकता है, उसी भांति यह लोभ भी बड़ी कठिनाई से दूर किया जा सकता है। --प्रत्याख्यानी क्रोध इस की स्थिति ४ मास की है, यह सर्वविरतिरूप चारित्र का घातक होने के साथ २ मनुष्यायु के बन्ध का कारण बनता है । जैसे रेत में गाड़ी के पहियों की रेखा वायु आदि के झोंकों से शीघ्र मिट जाती है, वैसे ही यह क्रोध उपाय करने से शांत हो जाता है। १०-प्रत्याख्यानी मान-इस की स्थिति, गति और हानि प्रत्याख्यानी क्रोध के तुल्य है। जैसे काठ का खंभा तैलादि के द्वारा नमता है, उसी प्रकार यह मान कुछ प्रयत्न करने से ही नष्ट हो सकता है। ११-प्रत्याख्यानी माया-इस की गति, स्थिति और हानि प्रत्याख्यानी क्रोध के तुल्य है। For Private And Personal Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (२४) श्री विपाकसूत्र [प्राक्कथन जैसे मार्ग में चलते हुए बैल के मृत्र की रेखा धूल आदि से मिट जाती है, उसी भांति यह माया थाड़े से प्रयत्न द्वारा दूर की जा सकती है। १२-प्रत्याख्यानी लोभ-इस की गति, स्थिति और हानि प्रत्याख्यानी क्रोध के समान है। जैसे दीपक के काजल का रंग प्रयत्न करने पर ही छूटता है, उसी भांति यह भी प्रयत्न द्वारा ही दूर किया जा सकता है। १३--संज्वलन क्रोध--इस की स्थिति दो महीने की है । यह वीतरागपद का घातक होने के साथ २ देवगति के बन्ध का कारण बनता है। जैसे पानी पर खींची हुई रेखा शीघ्र ही मिट जाती है, उसी भांति यह क्रोध शीघ्र ही शान हो जाता है। १४--संज्वलन मान इस की स्थिति एक मास की है, वीतरागपद का घात करने के साथ २ यह देवगति का कारण बनता है । जैसे-तिनके को आसानी से नमाया जा सकता है, इसी प्रकार यह मान शीघ्र दूर किया जा सकता है। १५--संज्वलन माया-इस की स्थिति १५ दिन की है । गति और हानि से यह संज्वलन क्रोध के तुल्य है । जैसे उन के धामे का वल आसानी से उतर जाता है इसी प्रकार यह माया भी शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। १६-संज्वलन लोभ-इस की स्थिति अन्तमुहूर्त की है। इस की गति और हानि संज्वलन क्रोध के समान है । जैसे हल्दी का रंग धूप आदि से शीघ्र ही छूट जाता है, इसी तरह यह लाभ भी शीघ्र ही दूर हो जाता है। नोकषाय के ६ भेद होते हैं । इन का नामनिर्देशपूर्वक विवरण निम्नोक्त है १-हास्य-जिस कर्म के उदय से कारणवश अर्थात् भांड आदि की चेष्टा को देख कर अथवा बिना कारण (अर्थात् जिस हँसी में बाह्य पदार्थ कारण न हो कर केवल मानसिक विचार निमित्त बनते हैं ) हंसी आती है, वह हास्य है । २--रति-जिस कर्म के उदय से कारणवश अथवा बिना कारण पदार्थों में अनुराग हा, प्रीति हो, वह कर्म रति कहलाता है। ३-अरति-जिस कर्म के उदय से कारणवश अथवा विना कारण पदार्थों से अप्रीति हो उद्वेग हो, वह कम अरति कहलाता है। ४--शोक-जिस कर्म के उदय होने पर कारणवश अथवा विना कारण के ही शांक की प्रतीति हो,वह कर्म शाक कहा जाता है । ५-भय-जिस कर्म के उदय से कारणवश अथवा बिना कारण भय हो, उसे भय कहते हैं। ६--जुगुप्सा---जिस कर्म के उदय से कारणवश अथवा बिना कारण मला द बीभत्स पदार्थों को देख कर घृणा होती है, वह कर्म जुगुप्सा कहलाता है । For Private And Personal Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन ] हिन्दी भाषाटीका सहित (२५) ७- स्त्रीवेद – जिस कर्म के उदय से स्त्री को पुरुष के साथ भोग करने की अभिलाषा होती है वह स्त्री कहा जाता है। अभिलाषा में दृष्टान्त करीषाग्नि का है । करीप सूखे गोबर को कहते हैं, उस की आग जैसे २ जलाई जाए वैसे २ बढ़ती रहती है । इसी प्रकार पुरुष के करस्पर्शादि व्यापार से स्त्री की अभिलापा बढ़ती जाती है । पुरुषवेद – जिस कर्म के उदय से पुरुष को स्त्री के साथ भोग करने की अभिलाषा होती है, वह कर्म पुरुषवेद कहलाता है । अभिलाषा में दृष्टान्त तृणाग्नि का है। तृण की आग शीघ्र ही जलती है और शीघ्र ही बुझती है, इसी भाँति पुरुष को अभिलाषा शीघ्र होती है और स्त्रीसेवन के बाद शीघ्र ही शान्त हो जाती है । ६ - नपुंसक वेद - जिस कर्म के उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के साथ भोग करने की इच्छा होती है, वह नपुंसक वेद कर्म कहलाता है। अभिलाषा में दृष्टान्त नगरदाह का है। नगर में आग लगे तो बहुत दिनों में नगर को जलाती है और उस आग को बुझाने में भी बहुत दिन लगते हैं, इसी प्रकार नपुंसकवेद के उदय से उत्पन्न हुई अभिलाषा चिरकाल तक निवृत्त नहीं होती और विषयसेवन से तृप्ति भी नहीं हो पाती । (५) - आयुष्कर्म के ४ भेद होते हैं । जिस कर्म के उदय से देव, मनुष्य, तिर्यञ्च, नरक इन गतियों में जीवन को व्यतीत करना पड़ता है, वह अनुक्रम से १ - देवायुष्य, २ - मनुष्यायुष्य, ३–तिर्यञ्चायुष्य और ४-नरकायुष्य कर्म कहलाता है । (६) - नामकर्म के १०३ भेद होते हैं । इन का सक्षिप्त विवरण निम्नोक्त है— १ -- नरकगतिनामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव को ऐसी अवस्था प्राप्त हो, जिस से वह नारक कहलाता है । उस कर्म को नरकगतिनामकर्म कहते हैं । २- तिर्यञ्चगतिनामकर्म- - इस कर्म के उदय से जीव तिर्य कहलाता है । ३ - मनुष्यगतिनामकर्म - इस कर्म के उदय से जीव मनुष्यपर्याय को प्राप्त करता है । ४ देवगति नामकर्म- - इस कर्म के उदय से जीव देव अवस्था को प्राप्त करता है । ५_एकेन्द्रियजातिनामकर्म- - इस कर्म के उदय से जीव को केवल एक त्वगिन्द्रिय की प्राप्ति होती है । ६_द्वन्द्रियजातिनामकर्म- - इस कर्म के उदय से जीव को त्वचा और जिह्वा ये दो इन्द्रियें प्राप्त होती हैं । ७_त्रीन्द्रियजातिनामकर्म — इस कर्म के उदय से जीव को त्वचा, जिह्वा और नासिका ये तीन इन्द्रिये प्राप्त होती हैं । ८_ चतुरिन्द्रियजातिनामकर्म- -- इस कर्म के उदय से जीव को त्वचा, जिह्वा, नासिका और नेत्र ये चार इन्द्रियें प्राप्त होती हैं । For Private And Personal Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (२६) श्री विपाकसूत्र [प्राकथन _पञ्चेन्द्रियजातिनामकर्म--इस कर्म के उदय से जीव को त्वचा, जिह्वा, नासिका, नेत्र और कान ये पांच इन्द्रियें प्राप्त होती हैं। १० औदारिकशरीरनामकम-उदार अर्थात् प्रधान अथवा स्थूल पुद्गलों से बना हुआ शरीर औदारिक कहलाता है, इस कर्म से ऐसा शरीर उपलब्ध होता है। ११ वैक्रियशरीरनामकर्म-जिस शरीर से एक स्वरूप धारण करना, अनेक स्वरूप धारण करना, छोटा शरीर धारण करना, बड़ा शरीर धारण करना, आकाश में चलने योग्य शरीर धारण करना, दृश्य और अदृश्य शरीर धारण करना आदि अनेकविध क्रियाएँ की जा सकती हैं उसे वैक्रियशरीर कहते हैं । जिस कर्म के उदय से ऐसे शरीर की प्राप्ति हो वह वैक्रियशरीरनामकम कहलाता है। १२ आहारकशरीरनामकर्म-१४ पूर्वधारी मुनि महाविदेह क्षेत्र में वर्तमान तीर्थकर से अपना सन्देह निवारण करने अथवा उन का ऐश्वर्य देखने के लिए जब उक्त क्षेत्र को जाना चाहते हैं तब लब्धिविशेष से एक हाथ प्रमाण अतिविशुद्ध स्फटिक सा निर्मल जो शरीर धारण करते हैं, उसे श्राहारक शरीर कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसे शरीर की प्राप्ति हो वह आहारकशरीरनामकर्म कहलाता है। १३ तेजसशरीरनामकर्म--आहार के पाक का हेतु तथा तेजोलेश्या और शीतललेश्या के निर्गमन का हेतु जो शरीर है, वह तैजस शरीर कहलाता है। जिस कर्म के उदय से ऐसे शरीर की प्राप्ति होती हो, वह तेजसशरीरनामकर्म कहलाता है। १४ कार्मणशरीरनामकर्म-जीव के प्रदेशों के साथ लगे हुए आठ प्रकार के कर्मपुद्गलों को कार्मणशरीर कहते हैं। इसी शरीर से जीव अपने मरणस्थान को छोड़ कर उत्पत्तिस्थान को प्राप्त करता है । जिस कर्म के उदय से इस शरीर की प्राप्ति हो वह काम णशरीरनामकर्म कहलाता है। १५ औदारिकअंगोपांगनामकर्म-औदारिक शरीर के आकार में परिणत पुद्गलों से अंगोपांगरूप अवयव इस कर्म के उदय से बनते हैं। १६ वैद्रियअंगोपांगनामकर्म-इस कर्म के उदय से वैक्रियशरीररूप में परिणत पुद्गलों से अंगोपांगरूप अवयव बनते हैं। १७ आहारकअंगोपांगनामकर्म-इस कर्म के उदय से आहारक शरीर रूप में परिणत पुद्गलों से अंगोपांगरूप अवयव बनते हैं। १८--औदारिकसंघातननामकर्म-इस कर्म के उदय से प्रौदारिक शरीर के रूप में परिणत पुद्गलों का परस्पर सान्निध्य होता है अर्थात् एक दूसरे के पास व्यवस्था से स्थापित होते हैं १४-वक्रियसंघातननामकर्म--इस कर्म के उदय से वैक्रिय शरीर के रूप में परिणत पुदलों का परस्पर सामीप्य होता है। For Private And Personal Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्राकथन ] हिन्दीभापाटीकासहित (२७) २०- आहारकसंघातननामकर्म - इस कर्म के उदय से आहारक शरीर के रूप में परिणत पुलों का परस्पर सान्निध्य होता है । २१ - 2- तैजससंघातननामकर्म -- इस कर्म के उदय से तेजस शरीर के रूप में परिणत पुगलों का परस्पर सामीप्य होता है । २२- कार्मणसंघातननामकर्म -- इस कर्म के उदय से कार्मण शरीर के रूप में परिणत पुगलों का परस्पर सान्निध्य होता है । २३- श्रदारिकप्रदारिकबन्धननामकर्म - इस कर्म के उदय से पूर्वगृहीत औदारिक पुलों के साथ गृह्यमाण औदारिक पुगलों का परस्पर सम्बन्ध होता है । २४- ४- औदारिक तैजसबन्धननामकर्म -- इस कर्म के उदय से औदारिक दल का तैजस दल के साथ सम्बन्ध होता है । २५- प्रदारिककार्मणबन्धननामकर्म - इस कर्म के उदय से श्रदारिक दल का कार्मण दल के साथ सम्बन्ध होता है । २६-क्रियवैक्रियबन्धननामकर्म- - इस कर्म के उदय से पूर्वगृहीत वैकिय पुगलों के साथ गृह्यमाण वैकिय पुगलों का परस्पर सम्बन्ध होता है इसी भाँति—२७–वैक्रियतैजसबन्धननामकर्म, २८ - वैक्रियकार्मणबन्धननामकर्म, २६-आहारकग्राहारकबन्धननामकर्म, ३० - आहार कतैजसबन्धननामकर्म, ३१ - आहारककाबन्धननामकर्म, ३२ - श्रदारिकतै जसकार्मणबन्धननामकर्म ३३ - वैक्रियतैजसकार्मणबन्धननामकर्म, ३४ - आहारक जसकार्मबन्धननामकर्म, ३५ - तेजस तेजसबन्धननामकर्म, ३६-तैजसकार्मणबन्धननामकर्म, ३७ - काम कर्मबन्धननामकर्मा, इन का भी ग्रहण कर लेना चाहिये । इतना ध्यान रहे कि श्रदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीरों के पुगलों का परस्पर सम्बन्ध नहीं होता क्योंकि ये परस्पर विरुद्ध हैं । इसलिये इन के सम्बन्ध कराने वाले नामकर्म भी नहीं है। * Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३८_ वज्रर्षभनाराचसंहनननामकर्म --व का अर्थ है - कीला । ऋषभ वेष्टनपट्ट को कहते हैं। दोनों तरफ मर्कटबन्ध- अर्थ - इस का परिचायक नाराचशब्द है । मर्कटबन्ध से बंधी हुई दो हड़ियों के ऊपर तीसरी हड्डी का वेष्टन हो उसे वज्र ऋषभनाराचसंहनन कहते हैं । जिस कर्म के उदय से ऐसा संहनन प्राप्त हो, उस कर्म का नाम भी वज्र ऋषभनाराचसंहनननामकर्म है । । ३६-ऋषभनाराचसंहनननाम कर्म - दोनों तरफ़ हाडों का मर्कटबन्ध हो, तीसरे हाड का वेष्टन भी हो, लेकिन भेदने वाला हाड का कीला न हो उसे ऋषभनाराचसंहनन कहते हैं। जिस कर्म कर्म के उदय से दारिकदल का तैजस और कार्मण दल के साथ सम्बन्ध होता है । इस For Private And Personal Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (२८) श्री विपाकसूत्र [प्राक्कथन के उदय से ऐसा संहनन प्राप्त होता है उसे ऋषभनाराचसंहनननामकम कहते हैं। ४०-नाराच संहनननामकम-जिस संहनन में दोनों ओर मर्कटबन्ध हों किन्तु वेष्टन और कीला न हो, उसे नाराचसंहनन कहते हैं । जिस कर्म के उदय से ऐसा संहनन प्राप्त होता है, उसे नाराचसंहनननामकर्म कहते हैं । __ ४१-अर्धनाराचसंहनननामकर्म-जिस संहनन में एक तरफ मर्कटबन्ध हो और दूसरी तरफ कीला हो उसे अर्धनाराच संहनन कहते हैं । जिस कर्म के उदय से ऐसा संहनन प्राप्त होता है उसे अर्धनाराचसंहनननामकर्म कहते हैं। ४२-कीलिकासंहनननामकम-जिस संहनन में मर्कटबन्ध और वेष्टन न हो किन्तु कीले से हड्डियां मिली हुई हों वह कीलिकासंहनन कहलाता है । जिस कर्म के उदय से इस संहनन की प्राप्ति हो उसे कीलिकासंहनननामकर्म कहते हैं। ४३-सेवार्तकसंहनननामकम-जिस में मर्कटबन्ध, वेष्टन और कीला न हो कर यूही हड्डियां आपस में जुड़ी हुई हों वह सेवार्तकसंहनन कहलाता है। जिस कर्म से इस संहनन की प्राप्ति होती है, उसे सेवार्तकसंहनननामकम कहते हैं। ४४-समचतुरस्रसंस्थाननामकम-- पालथी मार कर बैठने से जिस शरीर के चारों कोण समान हों, अथवा सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार जिस शरीर के सम्पूर्ण अवयवलक्षण शुभ हों, उसे समचतुरस्रसंस्थान कहते हैं । जिस कर्म के उदय से ऐसे संस्थान की प्राप्ति होती है, उसे समचतुरस्रसंस्थाननामकम कहते हैं। ४५-न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननामकर्म-बड़ के वृक्ष को न्यग्रोध कहते हैं। उस के समान जिस शरीर में नाभि से ऊपर के अवयव पूर्ण हों किन्तु नाभि से नीचे के अवयव हीन हों, उसे न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान कहते हैं । जिस कर्म के उदय से इस की प्राप्ति होती है, उसे न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननामकर्म कहते हैं। ४६-सादिसंस्थाननामकम-जिस शरीर में नाभि से नीचे के अवयव पूर्ण और ऊपर के अवयव हीन होते हैं, उसे सादिसंस्थान कहते हैं। जिस कर्म के उदय से इस की प्राप्ति होती है उसे सादिसंस्थाननामकर्म कहते हैं। ४७-कुब्जसंस्थाननामकर्म-जिस शरीर के साथ पैर, सिर, गरदन आदि अवयव ठीक हो किन्तु छाती, पीठ, पेट हीन हों, उसे कुजसंस्थान कहते हैं, जिसे कुबड़ा भी कहा जाता है। जिस कर्म के उदय से इस संस्थान की प्राप्ति होती है उसे कुब्जसंस्थाननामकर्म कहते हैं । ४८-वामनसंस्थाननामकर्म-जिस शरीर में हाथ पैर आदि अवयव छोटे हों और छाती For Private And Personal Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन हिन्दीभाषाटीकासहित पेट आदि पूर्ण हों उसे वामनसंस्थान कहते हैं। जिसे वौना भी कहा जाता है । जिस कर्म के उदय से इस की प्राप्ति होती है उसे वामनसंस्थाननामकर्म कहते हैं। ४६ हुंडसंस्थाननामकर्म-जिस के सब अवयव बेढव हों, प्रमाणशून्य हों, उसे हुण्डसंस्थान कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसे संस्थान की प्राप्ति होती है उसे हुंडसंस्थाननामकर्म कहते हैं। ५०-कृष्णवर्णनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर कोयले जैसा काला होता है । ५१ नीलवर्णनामकर्म-- ,, , , तोते के पंख जैसा हरा ,। ५२ लोहितवर्णनामकर्म- , , , हिंगुल या सिन्दूर जैसा लाल ,, । ५३ हारिद्रवर्णनामकर्म- , , , हल्दी , पीला ,, । ५४-श्वेतवर्णनामकर्म- , , ,, शङ्ख , सफेद , । ५५-सुरभिगन्धनामकर्म-,, ,, जीव के शरीर की कपूर, कस्तूरी आदि पदार्थों जैसी सुगन्धि होती है। ५६-दरभिगन्धनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव के शरीर की लहसुन या सड़े पदार्थों जैसी गन्ध होती है । ५७-तिक्तरसनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव के शरीर का रस सोंठ या काली मिर्च जैसा चरचरा होता है। ५८ कटुरसनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव के शरीर का रस नीम या चरायते जैसा कटु होता है। ५६-कषायरसनामकर्म-,, , , , , आंवले या बहेड़े ,, कसैला , । ६०-आम्लरसनामकर्म-,, , , , , नींबू या इमली ,, खट्टा , । ६१-मधुररसनामकर्म- , , , , , ईख , मीठा , । ६२-गुरुस्पर्शनामकर्म- ,, ,, ,, का शरीर लोहे , भारी .. । ६३ लघुस्पर्शनामकर्म-,, , जीव का शरीर आक की रुई , हलका , । ६४-मृदुस्पर्शनामकर्म-,, ,, , , मक्खन , कोमल , । ६५-कर्कशस्पर्शनामकर्म , , , गाय की जीभ , खुरदरा , । ६६-शीतस्पर्शनामकम-, , , , कमलदण्ड या बर्फ जैसा ठण्डा होता है । ६७ उष्णस्पर्शनामकर्म-, , , , अग्नि के समान उष्ण होता है । ६८ स्निग्धस्पशनामकर्म-, , , , घृत के समान चिकना होता है । ६६-रूक्षस्पर्शनामकम, , , , राख के समान रूखा होता है । For Private And Personal Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (३०) श्री विपाकसूत्र [प्राकथन ७०-देवानपूर्वीनामकम-इस कर्म के उदय से *समणि से गमन करने वाला जीव विश्रेणिस्थित अपने उत्पत्तिस्थान देवगति को प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि सीधे जाते हुए बैलों को जैसे नाथ के द्वारा घुमा कर दूसरे मार्ग पर चलाया जाता है, उसी तरह यह कर्म भी स्वभावतः समश्रेणि पर चलते हुए जीव को घुमा कर विश्रेणिस्थित अपने उत्पत्तिस्थान देवगति को प्राप्त करा देता है। ७१-मनुष्यानपूर्वीनामकम-इस कर्म के प्रभाव से समणि से प्रस्थित जीव विश्रेणिस्थित अपने उत्पत्तिस्थान मनुष्यगति को प्राप्त करता है। ७२--तिर्यञ्चानुपूर्वीनामकर्म-इस कर्म के प्रभाव से समश्रेणी से प्रस्थित जीव विश्रेणिस्थित अपने उत्पत्तिस्थान तिर्यञ्चगति को प्राप्त करता है। ७३-नरकानपूर्वीनामकम--इस कर्म के प्रभाव से समणि से प्रस्थित जीव विश्रेणिस्थित अपने उत्पत्तिस्थान नरकगति को प्राप्त करता है। ७४-शुभविहायोगतिनामकम--इस कर्म के उदय से जीव की चाल शुभ होती है जैसे कि- हाथी, बैल, हंस आदि की चाल शुभ होती है । ७५-अशुभविहायोगतिनामक इस कर्म के उदय से जीव की चाल अशुभ होती है । जैसे कि ऊंट, गधा आदि की चाल अशुभ होती है । ७६ पराघातनामकम-इस कर्म के उदय से जीव बड़े २ बलवानों की दृष्टि में भी अजेय समझा जाता है । अर्थात् जिस जीव को इस कर्म का उदय होता है वह इतना प्रबल मालूम देता है कि बड़े २ बली भी उस का लोहा मानते हैं । राजाओं की सभा में उस के दर्शन मात्र से अथवा केवल वाकौशल से बलवान् विरोधियों के भी छक्के छूट जाते हैं। ७७-उच्छवासनामकम-इस कर्म के उदय से जीव श्वासोच्छवासलब्धि से युक्त होता है । शरीर से बाहिर की हवा को नासिका द्वारा अन्दर खींचना श्वास है और शरीर के अन्दर की हवा को नासिका द्वारा बाहिर छोड़ना उच्छवास कहलाता है । ७८-आतपनामक इस कर्म के उदय से जीव का शरीर स्वयं उष्ण न हो कर भी उष्ण प्रकाश करता है । सूर्यमण्डल के बाहिर एकेन्द्रियकाय जीवों का शरीर ठण्डा होता है, परन्तु श्रातपनामकर्म के उदय से वह उष्ण प्रकाश करता है । सूर्यमण्डल के एकेन्द्रिय जीवों को छोड़ कर अन्य *जीव की स्वाभाविक गति श्रेणि के अनुसार होती है। आकाशप्रदेशों की पंक्ति को श्रेणि कहते हैं । एक शरीर को छोड़ दूसरा शरीर धारण करने के लिये जीव जब समणि से अपने उत्पत्तिस्थान के प्रति जाने लगता है तब आनुपूर्वीनामकर्म उस को विश्रेणिपतित उत्पत्तिस्थान पर पहुंचा देता है । जीव का उत्पत्तिस्थान यदि समणि में हो तो आनुपूर्वीनामकर्म का उदय नहीं होता अर्थात् वक्रगति में आनुपूर्वी नामकर्म का उदय होता है, ऋजु गति में नहीं । For Private And Personal Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राकथन हिन्दीभाषाटीकासहित (३१) जीवों को आतपनामकर्म का उदय नहीं होता । यद्यपि अग्निकायों के जीवों का शरीर भी उष्ण प्रकाश करता है परन्तु वह आतपनामकर्म के उदय से नहीं किन्तु उष्णस्पर्शनामकर्म के उदय से है और लोहितवर्णनामकर्म के उदय से प्रकाश करता है। ७६-उद्योतनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर शीतल प्रकाश फैलाता है । लब्धिधारी मुनि जब वैक्रियशरीर धारण करते हैं तब उन के शरीर में से, देव जब अपने मूल शरीर की अपेक्षा उत्तरवैक्रिय शरीर धारण करते हैं तब उस शरीर में से, चन्द्रमण्डल, नक्षत्रमण्डल और तारामण्डल के पृथिवीकायिक जीवों के शरीर में से, जुगुनू, रत्न और प्रकाश वाली औषधियों से जो प्रकाश निकलता है, वह उद्योतनामकम के कारण होता है । ८०-अगुरुलघुनामकम-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर न भारी होता है और न हलका, अर्थात् इस कर्म के प्रभाव से जीवों का शरीर इतना भारी नहीं होता कि जिसे संभालना कठिन हो जाये और इतना हलका भी नहीं होता कि हवा में उड़ जाये। ८१-तीर्थकरनामकम-इस कर्म के उदय से तीर्थकर पद की प्राप्ति होती है। ८२-निर्माणनामकम-इस कर्म के उदय से अंगोपांग शरीर में अपनी जगह व्यवस्थित होते हैं। इसे चित्रकार की उपमा दी गई है। जैसे चित्रकार हाथ, पैर आदि अवयवों को यथोचित स्थान पर बना देता है, उसी प्रकार निर्माणनामकर्म का काम अवयवों को उचित स्थान में व्यवस्थित करना होता है। ८३-उपघातनामकम-इस कर्म के उदय से जीव अपने ही अवयवों-प्रतिजिह्वा (पड़जीभ) चौरदन्त (अोठ से बाहिर निस्सृत दांत), रसौली, छटी अंगुली आदि से क्लेश पाता है। ८४-सनामक इस कर्म के उदय से जीव को त्रसकाय द्वीन्द्रिय आदि की प्राप्ति होती है। ८५_बादरनामकम-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर बादर होता है। नेत्रादि के द्वारा जिस की अभिव्यक्ति हो सके वह बादर-स्थूल कहलाता है । ८६-पर्याप्तनामकम-इस कर्म के उदय से जीव अपनी २ पर्याप्तियों से युक्त होते हैं। पर्याप्ति का अर्थ है- जिस शक्ति के द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करने तथा उन्हें आहार, शरीर, इन्द्रिय आदि के रूप में बदल देने का काम होता है । ८७-प्रत्येकनामकम-इस कर्म के उदय से एक शरीर का एक ही जीव स्वामी बनता है । जैसे—मनुष्य, पशु, पक्षी तथा अाम्रादि फलों के एक शरीर का स्वामी एक ही जीव होता है। ८८ स्थिरनामकर्म-इस कर्म के उदय से दान्त, हड्डी, प्रीवा आदि शरीर के अवयव स्थिर अर्थात् निश्चल होते हैं। ८६-शुभनामकर्म इस कर्म के उदय से नाभि के ऊपर के अवयव शुभ होते हैं। हाथ, सिर अादि शरीर के अवयवों के स्पर्श होने पर किसी को अप्रीति नहीं होती । जैसे-कि पांव के स्पशे से होती For Private And Personal Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री विपाकसूत्र Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (३२) है, यही नाभि के ऊपर के अवयवों में शुभत्व है । ६० - सुभगनामकर्म - इस कर्म के उदय से किसी प्रकार का उपकार किये बिना या किसी तरह के सम्बन्ध के बिना भी जीव सब का प्रीतिभाजन बनता है । I ६१ - सुस्वरनामकर्म - इस कर्म के उदय से जीव का स्वर मधुर और प्रीतिकर होता है । जैसे कि कोयल, मोर आदि जीवों का स्वर प्रिय होता है । ६२ - देयनामकर्म - इस कर्म के उदय से जीव का वचन सर्वमान्य होता है । [प्राक्कथन For Private And Personal ६३ - यशः कीर्तिनामकर्म- - इस कर्म के उदय से संसार में यश और कीर्ति फैलती है । किसी एक दिशा में नाम (प्रशंसा) हो तो उसे कीर्ति कहते हैं और सब दिशाओं में होने वाले नाम को यश कहते हैं । अथवा दान, तप, आदि के करने से जो नाम होता है वह कीर्ति और शत्रु पर विजय प्राप्त करने से जो नाम होता है वह यश कहलाता है । ६४ - स्थावरनामकर्म - इस कर्म के उदय से जीव स्थिर रहते हैं। सर्दी, गर्मी से बचने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्वयं नहीं जा सकते। जैसे वनस्पति के जीव । ६५- सूक्ष्मनामकर्म - इस कर्म के उदय से जीव को सूक्ष्मशरीर (जो किसी को रोक न सके और न स्वयं ही किसी से रुक सके) प्राप्त होता है । इस नामकर्म वाले जीव ५ स्थावर हैं और ये सब लोकाकाश में व्याप्त हैं, आंखों से नहीं देखे जा सकते । ६६ - अपर्याप्तनामकर्म- इस कर्म के उदय से जीव स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण नहीं कर पाता । ६७ - साधारण नामकर्म - इस कर्म के उदय से अनन्त जीवों को एक ही शरीर मिलता है अर्थात् अनन्त जीव एक ही शरीर के स्वामी बनते हैं । जैसे आलू, मूली आदि के जीव । ६८ - अस्थिरनामकर्म - इस कर्म के उदय से कान, भौंह, जिह्वा आदि अवयव अस्थिर अर्थात् चपल होते हैं । - शुभनामकर्म - इस कर्म के उदय से नाभि के नीचे के अवयव पैर आदि अशुभ होते हैं । पैर का स्पर्श होने पर अप्रसन्नता होती है, यही इस का अशुभत्व है । १०० - दुर्भगनामकर्म - इस कम के उदय से उपकार करने वाला भी अप्रिय लगता है । १०१ - दुःस्वरनामकर्म - इस कर्म के उदय से जीव का स्वर कर्कश -सुनने में अप्रिय, लगता है । १०२ - श्रनादेयन (मकर्म - इस कर्म के उदय से जीव का वचन युक्तियुक्त होते हुए भी अनादर C णीय होता है। १०३ - यशः कीर्तिनामकर्म - इस कर्म के उदय से जीव का संसार में अपयश और अपकीर्ति फैलती है । (७) गोत्रकम के दो भेद होते हैं । इनका संक्षिप्त पर्यालोचन निम्नोक्त है १ - उच्चगोत्र - इस कर्म के उदय जीव उत्तम कुल में जन्म लेता है । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन ] हिन्दीभापाटीकासहित (३३) २ - नीचगोत्र - इस कर्म के उदय से जीव नीच कुल में जन्म लेता है । धर्म और नीति की रक्षा के सम्बन्ध से जिस कुल ने चिरकाल से प्रसिद्धि प्राप्त की है, वह उच्चकुल कहलाता है। जैसेकि इक्ष्वाकुवंश, हरिवंश, चन्द्रवंश आदि । तथा अधर्म और अनीति के पालन से जिस कुल ने चिरकाल से प्रसिद्धि प्राप्त की है वह नीचकुल कहा जाता है । जैसेकि—– वधिककुल, मद्यविक्रे तृकुल, चौरकुल आदि । (८) श्रन्तरायकर्म के ५ भेद होते हैं । इन का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है १ - दानान्तरायकर्म - दान की वस्तुएं मौजूद हों, गुणवान् पात्र आया हो, दान का फल जानता हो, तो भी इस कर्म के उदय से जीव को दान करने का उत्साह नहीं होता । २ - लाभान्तरायकर्म -दाता उदार हो, दान की वस्तुएं स्थित हों, याचना में कुशलता हो, तो भी इस कर्म के उदय से लाभ नहीं हो पाता । ३ - भोगान्तरायकर्म - भोग के साधन उपस्थित हों, वैराग्य न हो, तो भी इस कर्म के उदय से जीव भोग्य वस्तुओं का भोग नहीं कर सकता है। जो पदार्थ एक बार भोगे जाएं उन्हें भोग कहते हैं । जैसेकि - फल, जल, भोजन आदि । ४- उपभोगांत रायकर्ष – उपभोग की सामग्री अवस्थित हो, विरतिरहित हो, तथापि इस कर्म के उदय से जीव उपभोग्य पदार्थों का उपभोग नहीं कर पाता । जो पदार्थ बार २ भोगे जाएं उहें उपभोग कहते हैं। जैसेकि - मकान, वस्त्र, आभूषण आदि । ५- वीर्यान्तरायक* – वीर्य का अर्थ है - सामर्थ्य । बलवान् रोगरहित एवं युवा व्यक्ति भी इस कर्म के उदय से सत्त्वहीन की भाँति प्रवृत्ति करता है और साधारण से काम को भी ठीक तरह से नहीं कर पाता । बन्ध और उसके हेतु - पुद्गल की वर्गणाएं - प्रकार अनेक हैं, उन में से जो वर्गणाएं कर्म - रूप परिणाम को प्राप्त करने की योग्यता रखती हैं, जीव उन्हीं को ग्रहण कर के निज आत्मप्रदेशों के साथ विशिष्टरूप से जोड़ लेता है अर्थात् स्वभाव से जीव अमूर्त होने पर भी अनादिकाल से कर्म सम्बन्ध वाला होने से मूर्तयत् हो जाने के कारण मूर्त कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता है । जैसे दीपक बत्ती के द्वारा तेल को ग्रहण कर के अपनी उष्णता से उसे ज्वालारूप में परिणत कर लेता है । वैसे ही जीव कापायिक विकार से योग्य पुगलों को ग्रहण कर के उन्हें कर्मरूप में परिणत कर लेता है । आत्मप्रदेशों के साथ कर्मरूप परिणाम को प्राप्त पुगलों का यह सम्बन्ध ही बिन्ध कहलाता है । मिध्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग, ये पांच बन्धहेतु हैं । मिध्यात्व का अर्थ है - मिथ्यादर्शन | यह *कर्मों की १५८ उत्तरप्रकृतियों का स्वरूप प्रायः अक्षरशः पं० सुखलाल जी से अनुवादित कर्मग्रन्थ प्रथम भाग से साभार उद्धृत किया गया है । सिकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः । (तत्त्वा०८२) + मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगबन्ध हेतवः । (तवा०८।१) । For Private And Personal Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (३४) श्री विपाकसूत्र प्राक्कथन ] सम्यग्दर्शन से उलटा होता है। मिथ्यादर्शन दो प्रकार का होता है। पहला वस्तुविषयक यथार्थ श्रद्धान का अभाव और दूसरा वस्तु का अयथार्थ श्रद्धान। पहले और दूसरे में फर्क इतना है कि पहला बिल्कुल मुददशा में भी हो सकता है जबकि दूसरा विचारदशा में ही होता है । विचारशक्ति का विकास होने पर भी जब अभिनिवेश- आग्रह के कारण किसी एक ही दृष्टि को पकड़ लिया जाता है, तब विचार दशा के रहने पर भी अतत्व में पक्षपात होने से वह दृष्टि मिथ्यादर्शन कहलाती है । यह उपदेशजन्य होने से अभिगृहीत कही जाती है। जब विचारदृशा जागृत न हुई हो तब अनादिकालीन आवरण के भार के कारण सिर्फ सूढ़ता होती है, उस समय जैसे तत्व का श्रद्धान नहीं होता वैसे तत्व का भी श्रद्धान नहीं होता, इस दशा में सिर्फ मूढ़ता होने से तत्व का श्रश्रद्धान कह सकते हैं, वह नैसर्गिक - उपदेशनिरपेक्ष होने से अनभिगृहीत कहा गया है । दृष्टि या पन्थ सम्बन्धी जितने भी ऐकान्तिक कदाग्रह हैं वे सभी अभिगृहीत मिथ्यादर्शन हैं जो कि मनुष्य जैसी विकसित जाति में हो सकते हैं। और दूसरा अनभिगृहीत तो कीट, पतंग आदि जैसी मूच्छित चैतन्य वाली जातियों में संभव है। अविरति दोषों से विरत न होने का नाम है। प्रमाद का मतलब है- आत्मविस्मरण अर्थात् कुशल कार्यों में आदर न रखना, कर्तव्य, कर्तव्य की स्मृति के लिए सावधान न रहना । कपाय अर्थात् समभाव की मर्यादा का तोड़ना । योग का अर्थ है - मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति । ये जो * कर्मबन्ध के हेतुओं का निर्देश है वह सामान्यरूप से है । यहां प्रत्येक मूलकर्मप्रकृति के बन्धहेतुओं का वर्णन कर देना भी प्रसंगोपात्त होने से आवश्यक प्रतीत होता है (१) ज्ञानावरणीयकर्म के तत्प्रदोष, निह्नव मात्सर्य, अन्तराय, प्रसादन और 9 उपघात ये ६ बन्धहेतु होते हैं । इनका भावार्थ निम्नोक्त है— १ - ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के साधनों पर द्वेष करना या रखना अर्थात् तत्त्वज्ञान के निरूपण के समय कोई अपने मन ही मन में तत्त्वज्ञान के प्रति, उसके वक्ता के प्रति किंवा उस के साधनों के प्रति जलते रहते हैं, यही तत्प्रदोष - ज्ञानप्रद्व ेष कहलाता है । २- कोई किसी से पूछे या ज्ञान का साधन मांगे तब ज्ञान तथा ज्ञान के साधन अपने पास होने पर भी कलुषित भाव से यह कहना कि मैं नहीं जानता अथवा मेरे पास वह वस्तु है ही नहीं वह ज्ञाननिव है । * बन्ध 'के हेतुओं की संख्या के बारे में तीन परम्पराएं देखने में आती हैं। एक परम्परा के अनुसार कषाय और योग ये दोनों ही बन्ध के हेतु हैं। दूसरी परम्परा मिध्यात्व, अविरति, कपाय और योग इन चार बन्धहेतुओं की है । तीसरी परम्परा उक्त चार हेतुओं में प्रमाद को और बढ़ाकर पांच बन्धहेतुओं का वर्णन करती है। इस तरह से संख्या और उसके कारनामों में भेद रहने पर भी तात्त्विकदृष्टया इन परम्पराओं में कुछ भी भेद नहीं है । प्रमाद एक तरह का असंयम ही तो है, अतः वह अविरतिया कषाय के अन्तर्गत ही है । इसी दृष्टि से कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थों में सिर्फ चार बन्धहेतु कहे गये हैं। बाक़ी से देखने पर मिध्यात्व और असंयम ये दोनों कषाय के स्वरूप से अलग नहीं पड़ते, अतः कषाय और योग इन दोनों को ही बन्धहेतु गिनाना प्राप्त होता है । For Private And Personal Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राकथन हिनीभाषाटीकासहित (३५) ३-ज्ञान अभ्यस्त और परिपक्क हो तथा वह देने योग्य भी हो, फिर भी उस के अधिकारी ग्राहक के मिलने पर उसे न देने की जो कलुषित वृत्ति है वह ज्ञानमात्सर्य है। ४-कलुपित भाव से ज्ञानप्राप्ति में किसी को बाधा पहुंचाना ही ज्ञानान्तराय है । ५-दूसरा कोई ज्ञान दे रहा हो तब वाणी अथवा शरीर से उस का निषेध करना वह ज्ञानासादन है। ६-किसी ने उचित ही कहा हो फिर भी अपनी उलटी मति के कारण उसे अयुक्त भासित होने से उलटा उस के दोष निकालना उपघात कहलाता है । (२) दर्शनावरणीयकर्म के बन्धहेतु-ज्ञानावरणीय के बन्धहेतु ही दर्शनावरणीय के बन्धहेतु हैं, अर्थात् दोनों के बन्धहेतुओं में पूरी २ समानता है, अन्तर केवल इतना ही है कि जब पूर्वोक्त प्रद्वेष निवादि ज्ञान, ज्ञानी या उस के साधन आदि के साथ सम्बन्ध रखते हों, तब वे ज्ञानप्रदूष, ज्ञाननितव आदि कहलाते हैं और दर्शन-सामान्यबोध, दर्शनी अथवा दर्शन के साधनों के साथ सम्बन्ध रखते हों, तब वे दर्शनप्रद्वप, दर्शननिह्नव *आदि कहलाते हैं । (३) वेदनीयकर्म की मूल प्रकृतिय-सातवेदनीय और असातवेदनीय इन दो भेदों में विभक्त हैं। जिस कर्म के उदय से सुखानुभव हो वह सातवेदनीय और जिस के उदय से दुःख की अनुभूति हो वह कर्म असातवेदनीय कहलाता है । असातवेदनीय का बन्ध दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध, परिदेवन, इन कारणों से होता है । १--बाह्य या आन्तरिक निमित्त से पीड़ा का होना दःख है । २--किसी हितैषी के सम्बन्ध के टूटने से जा चिन्ता वा खेद होता है वह शोक है । ३--अपमान से मन कलुषित होने के कारण जो तीव्र संताप होता है वह ताप है । ४--गद्गद् स्वर से आँतु गिराने के साथ रोना, पीटना श्राक्रन्दन है । ५-- किसी के प्राण लेना बंध है । ६-- वियुक्त व्यक्ति के गुणों का स्मरण होने से जो करुणाजनक रुदन होता है वह परिदेवन कहलाता है। उक्त दुःखादि ६ और उन जैसे अन्य भी ताडन,तर्जन आदि अनेक निमित्त जब अपने में, दूसरे में या दोनों में ही पैदा किये जाएं तब वे उत्पन्न करने वाले के असातवेदनीयकर्म के बिन्धहेतु बनते हैं। सातवेदनीय कर्म के बन्धहेतु-भूत- अनुकम्पा, प्रत्यनुकम्पा, दान, सरागसंयमादि योग, शांति और शौच ये सातवेदनीय कर्म के बन्धहेतु हैं। इनका विवेचन निम्नीक्त है ___प्राणिमात्र पर अनुकम्पा रखना भूतानुकम्पा है अर्थात् दूसरे के दुःख को अपना ही दुःख मानने का जो भाव है वह अनुकम्पा है। अल्पांशरूप से व्रतधारी गृहस्थ और सर्वांशरूप से व्रतधारी त्यागी इन दोनों पर विशेषरूप से अनुकम्पा रखना व्रत्यनुकम्पा है । अपनी वस्तु का दूसरों को *तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघातज्ञानदर्शनावरणायोः । (तत्त्वार्थ० ६।११) +दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसवेद्यस्य । (तत्त्वा० ६।१२) For Private And Personal Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (३६) श्री विपाकसूत्र [प्राक्कथन नम्र भाव से अर्पण करना दान है । सरागसंयम आदि योग का अर्थ है - सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप इन सबों में यथोचित ध्यान देना । संसार की कारणरूप तृष्णा को दूर करने में तत्पर होकर संयम स्वीकार लेने पर भी जबकि मन में राग के संस्कार क्षीण नहीं होते तब वह संयम सरागसंयम कहलाता है। कुछ संयम को स्वीकार करना संयमासंयम है । अपनी इच्छा से नहीं किन्तु परतन्त्रता से जो भोगों का त्याग किया जाता है वह अकामनिर्जरा है । बाल अर्थात् यथार्थ ज्ञान से शून्य मिध्यादृष्टि वालों का जो अग्निप्रवेश, जलपतन, गोबर आदि का भक्षण, अनशन आदि तप है वह बालतप कहा जाता है । धर्मदृष्टि से क्रोधादि दोषों का शमन क्षांति कहलाता है । लोभवृत्ति और तत्समान दोषों का जो शमन है वह * शोच कहलाता है । (४) मोहनीयकर्म की दर्शन मोहनीय, चारित्रमोहनीय ऐसी दो मूल प्रकृतियं होती हैं । १—जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा समझना दर्शन है, और दर्शन का घात करने वाला कर्म दर्शनमोहनीय है । २ – जिस के द्वारा आत्मा अपने असली स्वरूप को प्राप्त कर लेता है, वह चारित्र है और उस का घातक कर्म चारित्रमोहनीय है । (क) दर्शनमोहनीय के बन्धहेतु - १ - केवली - प्रणवाद - केवली - केवलज्ञानी का अवर्णवाद अर्थात् केवली के असत्य दोषों को प्रकट करना । जैसे सर्वज्ञत्व के संभव का स्वीकार न करना, और ऐसा कहना कि सर्वज्ञ होकर भी उसने मोक्ष के सरल उपाय न बतला कर जिन का आचरण शक्य नहीं ऐसे दुर्गम उपाय क्यों कर बतलाये हैं ? इत्यादि । २- श्रुत का वर्णवाद - अर्थात् शास्त्र के मिथ्या दोषों को द्वेषबुद्धि से वर्णन करना, जैसे यह कहना कि ये शास्त्र अनपढ़ लोगों की प्राकृतभाषा में, किंवा पण्डितों की जटिल संस्कृतादि भाषा में रचित होने से तुच्छ हैं, अथवा इन में विविध व्रत, नियम तथा प्रायश्चित्त का अर्थहीन एवं परेशान करने वाला वर्णन है, इत्यादि । ३ - साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ के मिथ्या दोषों का जो प्रकट करना है, वह संघ - वर्णवाद कहलाता है । जैसे यों कहना कि साधु लोग व्रत नियम आदि का व्यर्थ क्लेश उठाते हैं, साधुत्व तो संभव ही नहीं, तथा उस का कुछ अच्छा परिणाम भी तो नहीं निकलता । श्रावकों के बारे में ऐसा कहना कि स्नान, दान आदि शिष्ट प्रवृत्तियां नहीं करते और न पवित्रता को ही मानते हैं, इत्यादि । ४- धर्म का वर्णवाद - अर्थात अहिंसा आदि महान् धर्मो के मिथ्या दोष बतलाना । जैसे यों कहना कि धर्म प्रत्यक्ष कहां दोखता है ? और जो प्रत्यक्ष नहीं दीखता उस के अस्तित्व का संभव ही कैसा ? तथा ऐसा कहना कि अहिंसा से मनुष्यजाति किंवा राष्ट्र का पतन हुआ है, इत्यादि । ५ - देवों का वर्णवाद - अर्थात् उन की निन्दा करना, जैसे यों कहना कि देवता तो हैं ही भूतवत्यनुकम्पा दानं सरागसंयमादियोगः क्षांतिः शौचमिति सद्वेद्यस्य । (तत्वा० ६ १३) For Private And Personal Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन हिन्दीभाषाटीकासहित (३७) नहीं और हो भी तो व्यर्थ ही हैं, क्योंकि शक्तिशाली हो कर भी यहां आकर हम लोगों की मदद क्यों नहीं *करते ?, इत्यादि। (ख) चारित्रमोहनीय के बन्धहेतुओं को संक्षेप में- कषाय के उदय से होने वाला तीव्र आत्मपरिणाम, ऐसा ही कहा जा सकता है । विस्तार से कहें तो उन्हें निम्नोक्त शब्दों में कह सकते हैं १-स्वयं कपाय करना और दूसरों में भी कवाय पैदा करना तथा कपाय के वश हो कर अनेक तुच्छ प्रवृत्ति करना। २- सत्यधर्म का उपहास करना, ग़रीब या दीन मनुष्य की मश्वरी करना, ठट्ठ बाजी की श्रादत रखना। ३-विविध क्रीड़ाओं में संलग्न रहना, व्रत, नियमादि योग्य अंकुश में अरुचि रखना। ४-दूसरों को बेचौन बनाना, किसी के आराम में खलल डालना, हल्के आदमी की संगति करना आदि। ५-स्वयं शोकातुर रहना तथा दूसरों की शोकवृत्ति को उत्तेजित करना । ६-स्वयं डरना और दूसरों को डराना । ७-हितकर क्रिया और हितकर आचरण से घृणा करना । ८-६-१०-स्त्रीजाति, पुरुषजाति तथा नपुसकजाति के योग्य संस्कारों का अभ्यास करना । (५) आयुष्कर्म की नरकायु, तिर्यश्चायु, मनुष्यायु और देवायु ये चार मूलप्रकृतियें-मूलभेद होती हैं । इन के बन्धहेतुत्रों का विवरण निम्नोक्त है--- १-जरकायुष्कर्म के बन्धहेतु-बहुत आरम्भ और बहुत परिप्रह, ये नरकायु के बन्धहेतु हैं । प्राणियों को दुःख पहुंचे ऐसी कषायपूर्वक प्रवृत्ति करना प्रारम्भ है । यह वस्तु मेरी है और मैं इसका मालिक हूं, ऐसा संकल्प रखना परिग्रह है : जब प्रारम्भ और परिग्रह वृत्ति बहुत ही तोत्र हो तथा हिंसा आदि क र कर्मों में सतत प्रवृत्ति हो, दूसरों के धन का अपहरण किया जाये किंवा भोगों में अत्यन्त आसक्ति बनी रहे, तब वे नरकायु के बन्धहेतु होते हैं । २-तिर्यंचायुष्कर्म के बन्धहेतु-माया तिर्यश्चायु का बन्धहेतु है । छलप्रपंच करना किंवा कुटिलभाव रग्वना माया है । उदाहरणार्थ-धर्मतत्त्व के उपदेश में धर्म के नाम से मिथ्या बातों को मिला कर उन का स्वार्थबद्धि से प्रचार करना तथा जीवन को शोल से दूर रखना आदि सब माया कहलाती है और यही तियश्चायु के बन्ध का कारण बनता है। ३-अनुष्यायुष्कर्म के बन्धहेतु-अल्प आरम्भ, अल्प परिग्रह, स्वभाव की मृदुता और सरलता ये मनुष्यायु के बन्धहेतु हैं । तात्पर्य यह है कि आरम्भवृत्ति तथा परिग्रहवृत्ति को कम करना, *फेवालश्र तसंघवदेवावरणवादो दशनमोहस्य । (तत्त्वा० ६।१४) कपायांदयात्तोत्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य । (तत्त्वा० ६।१५।) वहारंभपरिग्रहत्वं च नरकस्यायुषः । (तत्त्वा० ६।१६।) माया तिर्यग्योनस्य । (तत्त्वा०-६।१७) * अल्पारंभपरिग्रहत्वं स्वभावमादवमाजवं च मानुषस्य । (तत्त्वा० ६।१८।) For Private And Personal Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org (३८) श्री विपाकसूत्र [प्राकथन स्वभाव से अर्थात् बिना कहे सुने मृदुता वा सरलता का होना ये मनुष्यायुष्कर्म के बन्धहेतु हैं । ४-देवायुष्कर्म के बन्धहेतु–सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और चालतप ये *देवायु के बन्धहेतु हैं । हिंसा, असत्य, चोरी आदि महान् दोषों से विरतिरूप संयम के लेने के बाद भी कषायों का कुछ अंश जब बाक़ी रहता है तब वह सरागसंयम कहलाता है । हिंसाविरति आदि व्रत जब अल्पांशरूप में धारण किए जाते हैं तब वह संयमासंयम कहलाता है । पराधीनता के कारण या अनुसरण-अनुकरण के लिए जो अहितकर प्रवृत्ति किंवा आहारादि का त्याग है वह अकामनिर्जरा है और बालभाव से अर्थात् विवेक के बिना ही जो अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, पर्वतप्रपात, विपभक्षण, अनशन आदि देहदमन किया जाता है वह बालतप है। ६-नामकर्म की शुभनामकर्म और अशुभनामकर्म ये दो मूलप्रकृतियां है। इन के बन्धहेतुओं का विवरण निम्नोक्त है १-अशुभनामकर्म के बन्धहेतु-योग की वक्रता और विसंवाद ये अशुभनामकर्म के बन्धहेतु हैं । १-मन, वचन और काया की कुटिलता का नाम योगवक्रता है । कुटिलता का अर्थ हैसाचना कुछ, बोलना कुछ और करना कुछ । २-अन्यथा प्रवृत्ति कराना किंवा दो स्नेहियों के बीच भेद डालना विसंवादन है । २-शुभनामकर्म के बन्धहेतु-इसके विपरीत अर्थात् योग की अवक्रता और अविसंवाद शभनामकर्म के बन्धहेतु हैं। तात्पर्य यह है कि अशुभनामकर्म के सम्बन्ध में जो कुछ कहा गया है उस से उलटा अर्थात् मन, वचन और काया की सरलता--प्रवृत्ति की एकरूपता तथा संवादन अर्थात् दो के बीच भेद मिटा कर एकता करा देना किंवा उलटे रास्ते जाते हुए को अच्छे रास्ते लगा देना, ये शुभनामकर्म के बन्धहेतु हैं ।। गोत्रकर्म के नीचगोत्र और उच्चगोत्र ऐसे दो मूलभेद हैं । इनके बन्धहेतुयों का संक्षिप्त परिचय निम्नोक्त है १-नीचगोत्र के बन्धहेतु--परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणों का आच्छादन और असद्गुणों का प्रकाशन ये नीचगोत्र के बन्धहेतु हैं । दूसरे की निन्दा करना परनिन्दा है । निन्दा का अर्थ है सच्चे या झूठे दोषों को दुर्बुद्धि से प्रकट करने की वृत्ति । अपनी बड़ाई करना यह आत्मप्रशंसा है अर्थात् सच्चे या झूठे गुणों को प्रकट करने की जो वृत्ति है वह प्रशंसा है । दूसरों में यदि *सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि देवस्य । (तत्त्वा० ६।२०) योगवक्रताविसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः । (तत्त्वा० ६।२१) विपरीतं शुभस्य । (तत्त्वा० ६।२२) *परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नीचेर्गोत्रस्य (तत्त्वा० ६२४) For Private And Personal Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (३६) हिन्दीभापाटीका सहित प्राक्कथन ] गुण हों तो उन्हें छिपाना और उन के कहने का प्रसंग पड़ने पर भी द्वेष से उन्हें न कहना, वही दूसरों के सद्गुणों का आच्छादन है । तथा अपने में गुण न होने पर भी उन का प्रदर्शन करना यही निज के असद्गुणों का प्रकाशन कहलाता है । २ - उच्चगोत्र के बन्धहेतु - परप्रशंसा आत्मनिन्दा, असद्गुणोद्भावन, स्वगुणाच्छादन, नम्र प्रवृत्ति और निरभिमानता ये उच्चगोत्रकर्म के बन्धहेतु हैं । दूसरों के गुणों को देखना परप्रशंसा कहा जाता है । अपने दोषों को देखना आत्मनिन्दा है । अपने दुर्गुणों को प्रकट करना सद्गुणोद्भावन है । अपने विद्यमान गुणों को छिपाना स्वगुणाच्छादन है । पूज्य व्यक्तियों के प्रति नम्र वृत्ति धारण करना नम्रवृत्ति है । ज्ञानसम्पत्ति आदि में दूसरे से अधिकता होने पर भी उस के कारण गर्व धारण न करना निरभिमानता है । इस के अतिरिक्त गोत्र के विषय में कहीं पर जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, तपमद, लाभमद, विद्यामद और ऐश्वर्यमद इन आठ मदों को नीचगोत्र के बन्ध का कारण माना गया है और इन आठों प्रकार के मदों के परित्याग को उच्चगोत्र के बन्ध का हेतु कहा है । ८-अन्तरायकर्म के बन्धहेतु-- दानादि में विघ्न डालना अन्तरायकर्म का *बन्धहेतु है । अर्थात् किसी को दान देने में या किसी से कुछ लेने में अथवा किसी के भोग उपभोग आदि में बाधा डालना किंवा मन में वैसी प्रवृत्ति लाना अन्तरायकर्म के बन्धहेतु हैं । इस प्रकार सामान्यतया आठों ही कर्मों की मूलप्रकृतियों और बन्ध के प्रकार तथा बन्ध के हेतुओं का विवेचन करने से जैनदर्शन की कर्मसम्बन्धी मान्यता का भलीभाँति बोध हो जाता है । कर्मों के सम्बन्ध में जितना विशद वर्णन जैन ग्रन्थों में है, उतना अन्यत्र नहीं, यह कहना कोई अत्युक्तिपूर्ण नहीं है । जैनवाङ्मय में कर्मविषयक जितना सूक्ष्म पर्यालोचन किया गया है, वह विचारशील दार्शनिक विद्वानों के देखने और मनन करने योग्य है । अस्तु, कर्म सादि है या अनादि ? यह एक बहुत पुराना और महत्त्व का दार्शनिक प्रश्न है, जिस का उत्तर भिन्न २ दार्शनिक विद्वानों ने अपने २ सिद्धान्त के या विचार के अनुसार दिया है। जैन दर्शन का इस प्रश्न के उत्तर में यह कहना है कि कर्म सादि भी है और अनादि भी । व्यक्ति की अपेक्षा वह *विघ्नकरणमन्तरायस्य । ( तत्त्वा० ६ २६ ) बन्ध का स्वरूप तथा बन्धहेतुओं का जो ऊपर निरूपण किया गया है, वह जैनजगत के महान् तत्वचिन्तक तथा दार्शनिक पण्डित सुखलाल जी तत्वार्थ सूत्र से उद्धृत किया गया है। आठां कर्मों के बन्धहेतु, कर्मग्रन्थां में भिन्न २ रूप से प्रतिपादन किये हैं । नवतत्त्व में कर्म - बन्ध के कारण ८५ लिखे हैं । For Private And Personal Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (४०) श्रीं विपाक सूत्र [प्राक्कथन सादि और प्रवाह की अपेक्षा से *अनादि है। जैन सिद्धान्त कहता है कि प्राणी सोते, जागते, उठते, वैठते और चलते फिरते किसी न किसी प्रकार की चेष्टा-हिलने चलने की क्रिया करता ही रहता है, जिस से वह कर्म का बन्ध कर लेता है । इस अपेक्षा से कर्म सादि अर्थात् आदि वाला कहा जाता है, परन्तु कर्म का प्रवाह कब से चला ? इसे कोई भी नहीं बतला सकता । भविष्य के समान भूतकाल की गहराई भी अनन्त (अन्तरहित) है। अनादि और अनन्त का वर्णन, अनादि और अनन्त शब्द के अतिरिक्त और किसी तरह भी नहीं किया जा सकता। इसीलिये दार्शनिकों ने इसे बीजांकुर या बीजवृक्ष न्याय से उपमित किया है । तात्पर्य यह है कि जैसे बीज से उत्पन्न हुआ वृक्ष बीज को उत्पन्न करता है अर्थात् बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज को उत्पन्न होते देखा जाता है, तब इन दोनों में प्रथम किसे कहना ना मानना चाहिये? इस के निर्णय में सिवाय"-वे दोनों ही प्रवाह से अनादि हैं। इस की सम्बन्ध परम्परा अनादि है-"यह कहने के और कुछ नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार जीवात्मा के साथ कर्म का जो सम्बन्ध, है उस की परम्परा भी अनादि है। इस दृष्टि से विचार करने पर कर्मसम्बन्ध को अनादि ही कहना वा मानना होगा। इस विषय में कुछ विचारकों की तर्फ से यह प्रश्न होता है कि अगर कर्म और आत्मा का सम्बन्ध अनादि है, अनादिकाल से चला आता है तो उस का भविष्य में भी इसी प्रकार चलता रहेगा? तात्पर्य यह है कि जो वस्तु अनादि है, जिस का आदि नहीं तो उस का कभी अन्त भी नही होगा । और यदि कर्मों को अनादि अनन्त मान लिया जावे अर्थात् कर्म और जीव के सम्बन्ध को आदि और अन्त से शून्य स्वीकार कर लिया जावे तब तो उस का कभी विच्छेद ही नहीं हो सकेगा ? इस विषय को समाहित करने के लिये सर्वप्रथम इन पदार्थों के स्वरूप को समझना आवश्यक है । पदार्थ चार तरह के होते हैं-१-अनादि अनन्त, २-अनादि सान्त, ३-सादि अनन्त और ४-सादि सान्त । जिस का न आदि हो न अन्त हो उसे अनादिअनन्त कहते हैं । जिस का आदि न हो और अन्त हो वह अनादि सान्त कहलाता है । जिस का आदि हो और अन्त न हो वह सादि अनन्त है, और जिस का आदि भी हो और अन्त भी वह सादि सान्त कहलाता है। इन में आत्मा और पुद्गल अनादि अनन्त हैं। आत्मा और कर्मसंयोग अनादि सान है। मोक्ष सादि अनन्त और घटपट का संयोग सादि सान्त है। आत्मा और कर्म का सम्बन्ध श्रादि होने पर बीजगत उत्पादक शक्ति की तरह सान्त--अन्त वाला है। जैसे बीज में अंकुरोत्पादक शक्ति अनादि है और जब उस को (बीज को) भट्टी में भून दिया जाता है तब वह शक्ति नष्ट हो जाता है । ठीक इसी प्रकार आत्मा के साथ अनादि काल से सम्बद्ध कर्मों को जब जप, तप और ध्यानरूप अग्नि के द्वारा जला दिया जाता है, उन की निर्जरा कर दी जाती है तो कर्ममल से विशुद्ध हुई आत्मा मोक्ष में जा विराजती है। फिर उस का जन्म नहीं होता, वह सदा अपने स्वरूप में ही रमण करती रहती है । एक और उदाहरण लीजिये- देवदत्त नाम के व्यक्ति के पिता. पितामह आदि की पूर्व*संतई पप्पणाइया, अपज्जवसिया वि या। ठिई पडुच्च साइया, सपज्जवसिया वि या॥ (उत्तराध्ययन, अ० ३६, गा० १३१) For Private And Personal Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन हिन्दीभाषाटीकासहित (४१) परम्परा के प्रारम्भ का निर्णय सर्वथा अशक्य होने से वह परम्परा अनादि ही रहती है, परन्तु आज उस के सन्यासी हो जाने पर उस परम्परा का अन्त हो जाता है । इसी तरह जीव और कर्म के सम्बन्ध की अनादि परम्परा का विच्छेद भी शास्त्रविहित क्रियानुष्ठान के आचरण से हो जाता है, अन्यथा कर्मसम्बन्ध के विच्छेदार्थ किया जाने वाला सदनुष्ठानमूलक सभी पुरुषार्थ निष्फल हो जाएगा। इस लिये आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध अनादि होने पर भी अन्त वाला है । ऐसी स्थिति में जीव और कर्मों के सम्बन्ध का कभी विच्छेद नहीं होगा ? यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता । यदि संक्षेप से कहें तो आत्मा और कर्म दोनों का संयोग प्रवाह से अनादि सान्त है, परन्तु यह अनादित्व भी निखिल कमसापेक्ष्य है, किसी एक कर्म की अपेक्षा वह सादि अथच सान्त है। इसलिये आत्मकर्मसंयोग अनादि सान्त भी है और सादि सान भी। मोक्ष को सभी दार्शनिकों ने सादि अनन माना है । अमुक आत्मा का अमुक समय कर्मबन्धनों से आत्यन्तिक छुटकारा प्राप्त करना मोक्ष की आदि है और कर्मविच्छेद के अनन्तर फिर कभी उस आत्मा से कर्मों का सम्बन्ध नहीं होगा, यही मोक्ष की अनन्तता है। किसी भी भारतीय दर्शन ने मोक्षगत आत्मा का पुनरागमन स्वीकार नहीं किया । न स पुनरावर्तते, न स पुनरावर्तते-। (छां० उप० प्र० ८, खं० १५) अर्थात् जीव मुक्ति से फिर नहीं लौटता । अनावृत्तिशब्दात्- अर्थात् मुक्ति से जीव लौटता नहीं (वेदान्तसूत्र) । तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः । तदुच्छित्तिरेव पुरुषार्थः (सांख्यदर्शन) । न मुक्तस्य बन्धयोगोपि, अपुरुषार्थत्वभन्यथा, वीतरागजन्मादर्शनात् (न्यायदर्शन)। इत्यादि जैनेतर दर्शनों के भी शतशः प्रमाण इस की पुष्टि में उपलब्ध होते हैं । इसके अतिरिक्त उक्त सिद्धान्त (मोक्ष से पुनरावर्तन मानने का सिद्धान्त) युक्तियुक्त भी प्रतीत नहीं होता। कर्मविच्छेद कहो, अज्ञाननिवृत्ति कहो या अविद्यानाश कहो, इन सब का तात्पर्य लगभग समान ही है । ज्ञान से अज्ञान की निवृत्ति या अविद्या का नाश होता है । जिन कारणों से कमेबन्ध या अज्ञान अथवा अविद्या का नाश होता है, वे मोक्ष में बराबर विद्यमान रहते हैं। दूसरे शब्दों में-जन्ममरणरूप संसार के कारणों का उस समय सर्वथा अभाव हो जाता है, उन का समूलघात हो जाता है । तब मोक्ष से वापिस लाने वाला ऐसा कौन सा कारण बाकी रह जाता है, जिस के आधार पर हम यह कह सकें या मान सकें कि मुक्त हुई आत्मा कुछ समय के बाद फिर इस संसार में आवागमन करती है ? यदि वहां पर किसी प्रकार के कारण के असद्भाव से भी आगमनरूप काये को मानें तब तो-'कारणाभावे कार्यसत्वमिति व्यतिरेकव्यभिचारः-अर्थात् कारण के अभाव में कार्य का उत्पन्न होना व्यतिरेकव्यभिचाररूप दोष आता है। इसलिये मोक्षगत आत्मा की पुनरावृत्ति का सिद्धान्त जहां अशास्त्रीय है वहां युक्तिविकल भी है। कुछ लोग कहते हैं कि मोक्ष कर्म का फल है और कर्म का फल सीमित अथच नियत होने से अन्त वाला है, इसीलिये मोक्ष भी अनित्य है, परन्तु वे लोग वास्तव में यह विचार नहीं करते कि जिसे कैवल्य-मोक्ष या निर्वाण कहा जाता है, वह कर्म का फल नहीं किन्तु कर्मों के आत्यन्तिक विनाश से निष्पन्न होने वाली आत्मा की स्वाभाविक-स्वरूपस्थिति मात्र है, जिस की उपलब्धि ही कर्मों के For Private And Personal Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाकसूत्र [प्राकथन विनाश से हो उसे कर्म का फल कहना वा मानना उस के (मोक्ष के) स्वरूप से अनभिज्ञता प्रदर्शित करना है। यदि वास्तविकरूप से विचार किया जाये तो जो लोग मुक्तात्मा का पुनरावर्तन मानते हैं वे मोक्ष को मानते ही नहीं । उन के मत में स्वर्गविशेष ही मोक्ष है और वह कर्म का फलरूप होने से अनित्य भी है । जैन दर्शन इसे कल्प-देवलोक के नाम से अभिहित करता है, तथा अन्य भारतीय दर्शन भी इसी *भाँति मानते हैं । परन्तु मुक्तात्मा का- कैवल्यप्राप्त आत्मा का पुनरावर्तन किसी ने भी स्वीकार नहीं किया। ___कुछ लोग इस विषय में यह युक्ति देते हैं कि जहां २ वियोग है, वहां २ सम्बन्ध की सादिता है । अर्थात् संसार में जितनी संयुक्त वस्तुएं हैं उन का पूर्वरूप कभी वियुक्त भी था। वस्त्र क साथ मल का संयोग है और मल के संयोग से रहित अवस्था भी वस्त्र की उपलब्ध होती है। अतः संयोग और वियोग ये दोनों ही सादि हैं। अनादि संयोग कहीं पर भी उपलब्ध नहीं होता ? इस प्रश्न का समाधान निम्नोक्त है __ सिद्धान्त कहता है कि आत्मा और पुद्गल अनादि अनन्त पदार्थ हैं। जब पुद्गल आत्मा से सम्बन्धित होता है तो उस की कर्म संज्ञा होती है । आत्मा और कर्मों का सम्बन्ध प्रवाह की अपेक्षा अनादि और किसी एक कर्म की अपेक्षा सादि तथा अभव्य जीव की अपेक्षा अनन्त और भव्य जीव की अपेक्षा सान्त है । संयोग वियोगमूलक ही होता है और अनादि संयोग कहीं पर भी नहीं मिलता, यह कहना भ्रांतिपूर्ण है क्योंकि खान से निस्सृत सुवर्ण में मृत्तिका का संयोग अनादि देखा जाता है । जैसे यह संयोग अनादि है इस का अग्नि आदि के प्रयोग से वियोग उपलब्ध होता है, इसी भाँति आत्मा और कर्म का संयोग भी अनादि है । इस में किसी प्रकार की विप्रतिपत्ति नहीं हो सकती और यह भी तप जपादि के सदुष्ठानों से विनष्ट किया जा सकता है । इस के अतिरिक्त जो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आत्मा के साथ सम्बन्धित कर्मों या कर्मदलिकों का जब वियोग होता है तो क्या उन का फिर से संयोग नहीं हो सकता ?, लोक में दो विभक्त पदार्थों का संयुक्त होना और संयुक्तों का पृथक होना प्रत्यक्षसिद्ध है। इसी भाँति यह कर्मसम्बद्ध आत्मा भी किसी निमित्तविशेष से कर्मों से पृथक होने के अनन्तर किसी निमित्तविशेष के मिलने पर फिर भी कर्मों से सम्बद्ध हो सकता है। अतः मोक्ष सादि अनन्त न रह कर सादि सान्त ही हो जाता है । इस शंका का समाधान यह है- कि जहाँ २ वियोग है वहां २ सादिसंयोग है । यह व्याप्ति दूषित है अर्थात् वियुक्त पदार्थों का संयोग अवश्य होता है यह कोई नियम नहीं है । संसार में ऐसे पदार्थ भी दृष्टिगोचर होते हैं कि जहाँ संयोग का नाश तो होता है अर्थात् संयुक्त पदार्थ विभक्त तो होते हैं परन्तु विभक्तों का फिर संयोग नहीं होता। उदाहरणार्थ-- धान्य और आम्रफल आदि को उपस्थित किया जा सकता है। जैसे-धान्य पर से उस का *ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं, क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति । (भगवद्गीता) यद्गत्वा न निवर्तन्ते, तद्धाम परम मम। (भगवद्गीता) For Private And Personal Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन हिन्दीभाषाटीकासहित (४३) छिलका उतर जाने पर उस का फिर *संयोग नहीं होता। इसी प्रकार आम्रवृक्ष पर से टूटा हुआ आम्र फल फिर उस से नहीं जोड़ा जा सकता। तात्पर्य यह है कि चावल और छिलके के संयोग का नाश तो प्रत्यक्ष सिद्ध है परन्तु इन का फिर से संयुक्त होना देखा नहीं जाता। पृथक् हुआ छिलका और चावल दोनों फिर से पूर्व की भाँति मिल जावें, ऐसा नहीं हो सकता । इसीलिये आत्मा से विभक्तपृथक् हुए कर्मों का आत्मा के साथ फिर कभी सम्बन्ध नहीं हो सकता । इस के अतिरिक्त प्रात्मसम्बन्ध कर्मों का विनाश हो जाने के बाद उन को फिर से उज्जीवित करने वाला कोई निमित्तविशेष वहां पर नहीं होता । अतः आत्म कर्म सम्बन्ध-संयोग अनादि सान्त है और इन का घियोग सादिअनन्त है । दूसरे शब्दों में-उक्त सम्बन्ध के नाश का फिर नाश नहीं होता, यह कह सकते हैं आत्मा कर्मपुद्गलों को किस प्रकार ग्रहण करता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जैसे उष्ण तैल की पूरी अथवा शरीर में तैल लगाकर कोई धूलि में लेटे तो धूलि उस के शरीर में चिपक जाती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व, कषाय, योग आदि के प्रभाव से जीवात्मा के प्रदेशों में जब परिस्पन्द होता है, हलचल होती है, तब जिस आकाश में आत्मा के प्रदेश होते हैं वहीं के अनन्त पुद्गलपरमाणु जीव के एक २ प्रदेश के साथ सम्बद्ध हो जाते हैं। इस प्रकार जीव और कर्म का आपस में दूध और पानी, आग और लोहे के समान सम्बन्ध होता है । तात्पर्य यह है कि दूध और पानी तथा आग और लोहे का जैसे एकीभाव हो जाता है उसी प्रकार जीव और कर्मपुद्गल का सम्बन्ध समझना चाहिये । सुखदुःख, सम्पत्तिविपत्ति, ऊंचनीच आदि जो अवस्थायें दृष्टिगोचर होती हैं, उन के होने में काल, स्वभाव, पुरुषार्थ आदि अन्यान्य कारणों की भाँति कर्म भी एक कारण है । कर्मवादप्रधान जैनदर्शन अन्य दशनों की भाँन्ति ईश्वर को उक्त अवस्थाओं का कारण नहीं मानता । जैनदर्शन तथा वैदिकदर्शन में यही एक विशिष्ट भिन्नता है । तथा जैनदर्शन को वैदिकदर्शन से पृथक करने में यह भी एक मौलिक कारण है ।। प्रश्न-सभी प्राणी अच्छे या बुरे कर्म करते हैं। कोई भी प्राणी बुरे कर्म का फल नहीं चाहता और कर्म स्वयं जड़ होने से किसी चेतन प्रेरणा के बिना फल देने में असमर्थ हैं, अतः कर्म फल भुगताने में ईश्वर नामक किसी शक्तिविशेष की कल्पना औचित्यपूर्ण ही है। अन्यथा कर्मफल असम्भव हो जाएगा ? अर्थात् कर्मजड़ होता हुआ फल देने में कैसे सफल हो सकता है ? उत्तर-यह सत्य है कि कर्म जड़ हैं और यह भी सत्य है कि प्राणी स्वकृत कर्म का अनिष्ट फल नहीं चाहते, परन्तु यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि चेतन के संसर्ग से कमों में एक ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है कि जिस से वह अपने अच्छे और बुरे फल को नियत समय पर प्रकट कर देता *जहा दड्ढाणं बीयाणं न जायंति पुण अंकुरा। कम्मबीयेसु दड्ढेसु न जायन्ति भवांकुरा ॥ (दशाश्रुतस्कंध दशा ५) अर्थात जैसे दग्ध हुआ बीज अंकुर नहीं देता, उसी प्रकार कर्मरूप बीज के दग्ध हो जाने से मानव जन्म मरण रूप संसार को प्राप्त नहीं करता । For Private And Personal Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (४४) श्री विपाकसूत्र [प्राकथन है । कर्मवाद यह मानता है कि चेतन का सम्बन्ध होने पर ही जड़ कर्म फल देने में समर्थ होता है । कर्मवाद यह भी कहता है कि फल देने के लिये ईश्वररूप चेतन की प्रेरणा को मानने की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि सभी जीव चेतन हैं, वे जैसा कार्य करते हैं उस के अनुसार उनकी बुद्धि वैसी ही बन जाती है, जिस से बुरे कर्म के फल की इच्छा न रहने पर भी वे ऐसा कृत्य कर बैठते हैं कि जिस से उनको अपने कर्मानुसार फल मिल जाता है। कर्म करना एक बात है और फल को न चाहना दूसरी बात है । मात्र चाह न होने से कर्म का फल मिलने से रुक नहीं सकता । कारणसामग्री के एकत्रित हो जाने पर कार्य स्वतः ही होना श्रारम्भ हो जाता है। * उदाहरणार्थ एक व्यक्ति मदिरापान करता है और चाहता है कि मुझे बेहोशी न हो तथा कोई व्यक्ति धूप में खड़ा हो कर उष्ण पदार्थों का सेवन करता है और चाहता है कि मुझे प्यास न लगे । ऐसी अवस्था में वह मदिरासेवी तथा आतप और उष्णतासेवी व्यक्ति क्या मूर्च्छा और घाम से बच सकता है ? नहीं । सारांश यह है कि चाहने से कर्मफल नहीं मिलेगा, यह कोई सिद्धान्त नहीं है । इस के अतिरिक्त ईश्वर को किसी भी प्रमाण से कर्मफलप्रदाता सिद्ध नहीं किया जा सकता । प्रत्यक्ष से तो यह प्रसिद्ध है ही, क्योंकि ईश्वर को किसी भी व्यक्ति ने आजतक कर्म फल देते हुए नहीं देखा । अतः प्रत्यक्ष प्रमाण से ईश्वर कर्मफलदाता सिद्ध नहीं होता । अनुमान के लिये पक्ष, सपक्ष और विपक्ष आदि का निश्चित होना अत्यावश्यक है । कारण कि बिना इसके अनुमान नहीं बनता । यहां पर सपक्ष तो इस लिए नहीं है कि आज तक यह सिद्ध नहीं हो सका कि ईश्वर के अतिरिक्त कोई दूसरा ईश्वर फल देता है । तथा विपक्ष इस लिये नहीं कि ऐसा कोई भी स्थान नहीं है कि जहां ईश्वर कर्मफलप्रदाता न हो और जीव कर्मफल भोगते हों । जिस पक्ष के साथ सपक्ष और विपक्ष न हो वह झूठा होता है । जैसे— जहां २ धूम है वहां २ * एक और उदाहरण लीजिये - जैसे कोई व्यक्ति रसनेन्द्रिय के वशीभूत होकर अस्वास्थ्यकर भोजन करता है तो उस के शरीर में व्याधि उत्पन्न हो जाती है । वह व्यक्ति उस व्याधि का तनिक भी इच्छुक नहीं है । उसकी इच्छा तो यही है कि उसके शरीर में कोई व्याधि उत्पन्न न हो परन्तु स्वास्थ्यविरुद्ध तथा हानिप्रद भोजन करने का फल व्याधि के रूप में उस को अपनी इच्छा के विरुद्ध भोगना ही पड़ता है । इसी प्रकार मनुष्य को अपने कर्मों का फल अपनी इच्छा के न होते हुए भी भोगना ही पड़ता है । + सन्दिग्धसाध्यवान् पक्षः, यथा -- धूमवच्चे सति हेतौ पर्वतः । निश्चितसाध्यवान् सपक्षः यथा तत्रैव महानसम् । निश्चितसाध्याभाववान् विपक्ष:- :-यथा तत्रैव महाहृदः। (तर्कसंग्रहः) अर्थात् जिस में साध्य का सन्देह हो उसे पक्ष कहते हैं । जैसे - धूमहेतु हो तो पर्वत पक्ष है । अर्थात् इस पर्वत में है कि नहीं ? इस प्रकार से पर्वत सन्देहस्थानापन्न है, अतः वह पक्ष है । जिसमें साध्य का निश्चय पाया जाए वह सपक्ष कहलाता है । जैसे - महानस - रसोई । महानस में अग्निरूप साध्य सुनिश्चित है, अतः महानस संपक्ष है । जिस में साध्य के प्रभाव का निश्चय पाया जाये उसे विपक्ष कहते हैं, जैसे - महाहृद - सरोवर है । सरावर में अग्नि का अभाव सुनिश्चित है अतः यह विपक्ष कहलाता है । For Private And Personal Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन] हिन्दीभाषाटीकासहित (४५) अग्नि है और जहां आग नहीं वहां धूम भी नहीं । इस अन्वयव्यतिरेक रूप व्याप्तिगर्भित (पवतो वह्निमान् अर्थात् यह पर्वत वह्नि-अग्नि वाला है) अनुमान में, महानस सपक्ष और जलद विपक्ष तथा पर्वत पक्ष का अस्तित्व अवस्थित है। उसी प्रकार ईश्वरकर्तृत्व अनुमान में *अन्वयव्यतिरेकरूप से हेतुसाध्य का सम्बन्ध दृष्टिगोचर नहीं होता है ? क्योंकि ईश्वरवादी कोई भी ऐसा स्थान नहीं मानता जहाँ कर्मफल हो और उस में ईश्वर कारण न हो । शब्द प्रमाण भी साधक नहीं हो सकता, क्योंकि अभी तक यह भी सिद्ध नहीं हो सका कि जिस को शब्द प्रमाण कहते हैं, वह स्वयं प्रमाण कहलाने की योग्यता भी रखता है कि नहीं ? तात्पर्य यह है कि ईश्वरभापित होने पर ही शब्द में प्रामाण्य की व्यवस्था हा सकती है परन्तु जब ईश्वर ही प्रसिद्ध है तो तदुपदिष्ट शब्द की प्रामाणिकता सुतरां ही असिद्ध ठहरती है। ईश्वर जीवों को फल किस प्रकार देता है ? यह भी विचारणीय है । वह स्वयं-साक्षात् तो दे नहीं सकता क्योंकि वह निराकार है और यदि वह साकारावस्था में प्रत्यक्षरूपेण कर्मों का फल दे तो इस बात को स्वीकार करने में कौन इन्कार कर सकता है । परन्तु ऐसा तो देखा नहीं जाता। यदि वह राजा आदि के द्वारा जीवों को अपने कर्मों का दण्ड दिलाता है तो ईश्वर के लिये बड़ी आपत्तियां खड़ी हती हैं । मात्र परिचयार्थ कुछ एक नीचे दी जाती हैं १-कदाचित ईश्वर को किसी धनिक के धन को चुरा या लुटा कर उस धनिक के पूर्वकर्म का फल देना अभिमत है, तो ईश्वर इस कार्य को खुद तो आकर करेगा नहीं किन्तु किसी चोर या डाकू से ही वह ऐसा करायेगा तो इस दशा में जिस चोर या डाकू द्वारा ईश्वर ऐसा फल उस को दिलवायेगा, वह चोर ईश्वर की आज्ञा का पालक होने से निर्दीप होगा, फिर उसे दोषी ठहरा कर जो पुलिस पकड़ती है और दण्ड देती है वह ईश्वर के न्याय से बाहिर की बात होगी । यदि उसे भी ईश्वर के न्याय में सम्मिलित कर चोर को चोरी करने की सज़ा पुलिस द्वारा दिलाना आवश्यक समझा जाए तो यह ईश्वर का अच्छा अन्धेर न्याय है कि इधर तो स्वयं धनिक को दण्ड देने के लिये चोर को उस के घर भेजे और फिर पुलिस द्वारा उस चोर को पकड़वादे । क्या यह--चोर से चोरी करने की कहे और शाह से जागने की कहे-इस कहावत के अनुसार ईश्वर में दोगलापन नहीं आ जावेगा ? इसी प्रकार जो ईश्वर ने प्राणदण्ड देने के लिये कसाई, चाण्डाल तथा सिंह आदि जीव पैदा किये हैं, तदनुसार वे प्रतिदिन हजारों जीवों को मार कर उन के कर्मों का फल उन्हें देते हैं, वे भी निर्दोष समझने चाहिये, क्योंकि वे तो ईश्वर की प्रेरणा के अनुसार ही कार्य कर रहे हैं । यदि ईश्वर उन्हें निर्दोष माने तब उस के लिये अन्य सभी जीव जो कि दूसरों को किसी न किसी प्रकार की हानि पहुंचाते हैं, निर्दोष ही होने चाहिये । यदि उन्हें दोषी माने तो महान् अन्याय होगा, क्योंकि राजा की आज्ञानुसार अपराधियों को अपराध का दण्ड देने वाले जेलर, फाँसी लगाने वाले चाण्डाल आदि जव न्याय से निर्दोष माने जाते है तब ___ *साध्यसाधनयोः साहचर्यमन्वयः, तद्भावयोः साहचर्य व्यतिरेकः । अर्थात् साध्य और साधन के साहचर्य को अन्वय कहते हैं और दोनों के अभाव के साहचर्य की व्यतिरेक संज्ञा है। जैसे--जहां २ धूम (साधन) है, वहां २ अग्नि (साध्य), है, जैसे-महानस । इस को अन्वय कहते हैं और जहां वह्नि का अभाव है, वहां धूम का भी अभाव है, यथा-सरोवर । इसे व्यतिरेक कहते हैं। For Private And Personal Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (४६) श्री विपाकसूत्र [प्राक्कथन उन के समान ईश्वर की प्रेरणानुसार अपराधियों को अपराध का दण्ड देने वाले दोपी नहीं होने चाहिये ? २ ईश्वर सर्वशक्तिसम्पन्न है, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है, अतः उस के द्वारा दी हुई अशुभ कर्मों की सज़ा अलंघनीय, अनिवार्य और अमिट होनी चाहिए, किन्तु संसार में ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता । देखिये-ईश्वर ने किसी व्यक्ति को उस के किसी अशुभकर्म का दण्ड देकर, उस के नेत्र की नज़र कमजोर कर दी, वह अब न तो दूर की वस्तु साफ़ देख सकता है और न छोटे२ अक्षरों की पुस्तक ही पढ़ सकता है । ईश्वर का दिया हुआ यह दण्ड अमिट होना चाहिये था, परन्तु उस व्यक्ति ने नेत्रपरीक्षक डाक्टर से अपने नेत्रस्वास्थ्य के संरक्षण एवं परिवर्धन के लिये एक उपनेत्र (ऐनक) ले लिया, उस उपनेत्र को लगा कर उस ने ईश्वर से दी हुई सज़ा को निष्फल कर दिया । वह ऐनक से दूर की चीज़ साफ़ देख लेता है, और बारीक़ से बारीक़ अक्षर भी पढ़ लेता है। ईश्वर जापान में बार २ भूकम्प भेज कर उस को विनष्ट करना चाहता है परन्तु जापानी लोगों ने हलके मकान बना कर भूकम्पों को बहुत कुछ निष्फल बना दिया है। इसी भाँति ईश्वर की भेजी हुई प्लेग, हैजा आदि बीमारियों को डाक्टर लोग, सेवासमितियां अपने प्रबल उपायों से बहुत कम कर देते हैं। इस के अतिरिक्त कर्मों का फल भुगताने के लिये भूकम्प भेजते समय ईश्वर को यह भी ख्याल नहीं रहता कि जहां मेरी उपासना एवं आराधना होती है, ऐसे मन्दिर, मस्जिद आदि स्थानों को नष्ट कर अपने उपासकों की सम्पत्ति को नष्ट न होने दू।। ३-संसार जानता है कि चोर आदि की सहायता लोकविरुद्ध और धर्मविरुद्ध भी है। जो लोग चोर आदि की सहायता करते हैं वे शासनव्यवस्था के अनुसार दण्डित किये जाते हैं। ऐसी दशा में जो ईश्वर को कर्मफलदाता मानते हैं और यह समझते हैं कि किसी को जो दुःख मिलता है वह उस के अपने कर्मों का फल है और फल भी ईश्वर का दिया हुआ है। फिर वे यदि किसी अन्धे की, लूले लंगड़े आदि दुःखी व्यक्ति की सहायता करते हैं । यह ईश्वर के साथ विद्रोह नहीं तो और क्या है ? क्या वे ईश्वर के चोर की सहायता नहीं कर रहे हैं ? और क्या ईश्वर ऐसे द्रोही व्यक्तियों पर प्रसन्न रह सकेगा ? तथा ऐसे दया, दान आदि सदनुष्ठानों का कोई महत्त्व रह सकेगा ? उत्तर स्पष्ट है, कदापि नहीं। ४-यदि ईश्वर जीवों के किये हुए कर्मों के अनुसार उन के शरीरादि बनाता है तो कर्मों की परतन्त्रता के कारण वह ईश्वर नहीं हो सकता, जैसेकि- जुलाहा । तात्पर्य यह है कि जो स्वतंत्र है, समर्थ है, उसी के लिये ईश्वर संज्ञा ठीक हो सकती है । परतन्त्र के लिये नहीं हो सकती। जुलाहा यद्यपि कपड़े बनाता है परन्तु परतन्त्र है और असमर्थ है । इसलिये उसे ईश्वर नहीं कह सकते। ५-किसी प्रान्त में किसी सुयोग्य न्यायशील शासक का शासन हो तो उस के प्रभाव से चोरों, डाकुओं आदि का चोरी आदि करने में साहस ही नहीं पड़ता और वे कुमार्ग छोड़ कर सन्मार्ग पर चलना आरम्भ कर देते हैं । जिस से प्रान्त में शांति हो जाती है और वहां के लोग निर्भयता के साथ *कर्मापेक्षः शरीरादिर्देहिनां घटयेधदि। न चैवमीश्वरो न स्यात् पारत च्यात् कुर्विदवत् । (सृष्टिवादपरीक्षा में श्री चन्द्रसैन वैद्य) For Private And Personal Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन हिन्दीभाषाटीकासहित आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करने लग जाते हैं। इस के विपरीत यदि कोई शासक लोभी हो, कामी हो, कर्तव्यपालन की भावना से शून्य हो उस के शासन में अनेकविध उपद्रव होते हैं और सर्वतोमुखी अराजकता का प्रसार होता है, लोग दुःख के मारे त्राहि २ कर उठते हैं। स्वर्गतुल्य जीवन भी नारकीय बन जाता है, ऐसा संसार में देखा जाता है । परन्तु यह समझ में नहीं आता जब कि संसार का शासक ईश्वर दयालु भी है, सर्वज्ञ भी है तथा सर्वदर्शी भी है, फिर भी संसार में बुराई कम नहीं होने पाती। मांसाहारियों, व्यभिचारियों और चोरों आदि लोगों का आधिक्य ही दृष्टिगोचर होता है। धर्मियों की संख्या बहुत कम मिलती है। ऐसी दशा में प्रथम तो ईश्वर संसार का शासक है ही नहीं यह ही कहना होगा । यदि तुष्यतु दर्जनन्याय-से मान भी लें तो वह कोई योग्य शासक नहीं कहा जा सकता और वह ईश्वरत्व से सर्वथा शून्य एवं कल्पनामात्र है। ६-जो लोग ईश्वर को न्यायाधीश के तुल्य बतलाते हैं और कहते हैं कि जैसे न्यायाधीश अपराधियों को उन के अपराधानुसार दण्डित करता है, उसी भाँति ईश्वर भी संसार की व्यवस्था को भंग नहीं होने देता और यदि कोई व्यवस्था भंग करता है तो उसे तदनुसार दण्ड देता है । इस का समाधान निम्नोक्त है सब से प्रथम अपराधी को दंड देने में क्या हार्द रहा हुआ है ? यह जान लेना आवश्यक है । देखिये-जब कोई मनुष्य चोरी करता है तो उस पर राज्य की ओर से अभियोग चलाया जाता है। यह प्रमाणित होने पर कि उस व्यक्ति ने चोरी की है, तो न्यायाधीश उस को कारागार, जुर्माना आदि का उपयुक्त दंड देता है । वह अपराधी व्यक्ति तथा अन्य लोग यह जान जाते हैं कि उस व्यक्ति ने चोरी की थी, इसलिये उस को दंड मिला है । चोरी का अपराध तथा उसके फलस्वरूप दंड का ज्ञान होने पर वह व्यक्ति एवं साधारण जनता डर जाती है और चारी आदि कुवृत्तियों का साहस नहीं करती । यही उद्देश्य दण्ड देने में रहा हुआ है । परन्तु यदि किसी देश का शासक या न्यायाधीश किसी व्यक्ति को पकड़वा कर कारागार में डाल दे और उस पर न तो अभियोग चलावे, न यही प्रकट करे कि उसने क्या अपराध किया है ? ऐसी दशा में जनता उस व्यक्ति को निर्दोष एवं उस शासक वा न्यायाधीश को अन्यायी, स्वेच्छाचारी समझेगी। अपराध एवं उसके फलस्वरूप दंड का ज्ञान न होने से जनता कभी भी उस व्यवस्था से शिक्षित नहीं हो सकेगी, और नाहि वह अपराध करने से डरेगी। इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति मनुष्ययोनि में जन्म लेता है और जन्म से ही अन्धा, पंगु आदि दूपित शरीर धारण करता है, तो उस व्यक्ति, उस के सम्बन्धी एवं उस के देशवासियों को वह ज्ञात नहीं होगा कि उस व्यक्ति के जीव ने पूर्वजन्म में अमुक पापकर्म किया था, जिस के फलस्वरूप उस को इस जन्म में यह दूषित शरीर मिला है। इसी प्रकार जब किसी मनुष्य के शरीर में कुष्ठ आदि रोग हो जाता है तो उस व्यक्ति या अन्य मनुष्यों को यह ज्ञात नहीं होता कि उस ने अमुक २ पापकर्म पूर्व या इस जन्म में किये हैं, जिन के कारण इन की यह दुरवस्था हो रही है । इस से यह स्पष्ट हो जाता है कि दण्ड देने का यह अभिप्राय कि मनुष्य को उस के पापकर्म का ऐसा कठोर दंड दिया जाये कि जिस से वह स्वयं तथा जनसमाज ऐसा भयभीत हो जावे कि डर कर भविष्य में उस पापकर्म को न करे-मनुष्य के दैनिक कार्यों से नहीं पाया जाता । For Private And Personal Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाकसूत्र [प्राक्कथन इस के अतिरिक्त जो दंड देने का सामथ्य रखता है, उस में अपराध रोकने की शक्ति भी होनी चाहिये । यदि किसी शासक में यह बल है कि डाकुओं के दल को, उस के अपराध के दंडस्वरूप कारागृह (जेल) में बन्द कर सकता है अथवा प्राणदंड दे सकता है तो उस शासक में यह भी शक्ति होती है कि यदि उस को यह ज्ञात हो जावे कि डाकुओं का दल अमुक घर में अमुक समय पर डाका डाल कर धनापहरण एवं गृहवासियों की हत्या करेगा तो डाका डालने से पहले ही उन २ डाकुओं के दल को पुलिस अथवा सेना के द्वारा डाका डालने के महान अपराध से रोके । कर्मफलप्रदाता ईश्वर तो सर्वशक्तिसम्पन्न, दयालु, सर्वज्ञ और अन्तर्यामी है । वह जानता है कि कौन क्या अपराध करेगा ? तब उसे चाहिये कि अपराध करने वाले की भावना बदल दे अथवा उसके मार्ग में ऐसी बाधाएं उपस्थित करदे कि जिस से वह अपराध कर ही न सके । यदि वह अपराध करने वाले के इरादे को जानता है और अपराध रोकने का सामर्थ्य भी रखता है परन्तु रोकता नहीं, अपराध करने देता है, और फिर अपराध के फलस्वरूप उसे दंड देता है तो उस को दयाल वा न्यायी नहीं कहा जासकता, उसे तो स्वेच्छाचारी और कर्तव्यविमुख ही कहना होगा । ७-संसार में अनन्त जीव हैं । प्रत्येक जीव मन, वचन और काया से प्रतिक्षण कुछ न कुछ कार्य करता ही रहता है । क्षण २ को क्रियाओं का इतिहास लिखना एवं उनका फल देना यदि असंभव नहीं तो अत्यन्त दुष्कर अवश्य है । जब एक जीव के क्षण २ के कार्य का व्योरा रखना एवं उस का फल देना इतना कठिन है तो संसार के अनन्त जीवां की क्षण २ क्रियाओं का व्यारा रखना एवं उन का फल देना, उस विशेष चेतन व्यक्ति के लिये कैसे सम्भव होगा ? इस के अतिरिक्त संसार के अनन्त जीवों के क्षण २ में कृतकर्मों के फल देने में लगे रहने से उस विशेष चेतन व्यक्ति का चित्त कितना चिन्तित या व्यथित होगा और वह कैसे शान्ति और अपने आनन्दस्वरूप में मग्न रह सकेगा? इन प्रश्नों का कोई सन्तापजनक उत्तर समझ में नहीं आता । ऊपर के ऊहापोह से यह निश्चित हो जाता है कि जीवों के कर्मफल भुगताने में ईश्वर का कोई हस्तक्षेप नहीं है । प्रत्युत कर्म स्वतः ही फलप्रदान कर डालता है । जैनेतर धमशास्त्र भी इस तथ्य का पूरा २ समर्थन करते हैं। भगवद्गीता में लिखा है न कतत्वं न कमोणि लोकस्य सृजति प्रमुः। न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ (अ० ५।१४) अर्थात् ईश्वर न तो सृष्टि बनाता है और न कर्म ही रचता है और न कर्मों के फल को ही देता है । प्रकृति ही सब कुछ करती है । तात्पर्य यह है कि जो जैसा करता है वह वैसा फल पा लेता है। नादत्ते कस्यचित् पापं न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृत ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।। (अ० ५।१५) अर्थात् ईश्वर किसी का न तो पाप लेता है तथा न किसी का पुण्य ही लेता है । अज्ञान से आवृत होने के कारण जीव स्वयं मोह में फंस जाते हैं। सारांश यह है कि कर्म फलप्रदाता ईश्वर नहीं है, इस तथ्य के पोषक अनेकों प्रवचन शास्त्र For Private And Personal Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राकथन] हिन्दीभाषाटीकासहित (४६) में उपलब्ध होते हैं, और पूर्वोक्त युक्तियों के अतिरिक्त अन्य भी अनेकों युक्तियां पाई जाती हैं, जिन से यह भलीभाँति सिद्ध हो सकता है कि ईश्वर कर्म का फल नहीं देता, परन्तु विस्तारभय से अधिक कुछ नहीं लिखा जाता । अधिक के जिज्ञासुओं को जैनकर्मग्रन्थों का अध्ययन अपेक्षित है । कर्मवादप्रधान जैनदर्शन सुख दःख में मात्र कर्म को ही कारण नहीं मानता किन्तु साथ में पुरुषार्थ को भी वही स्थान देता है जो उस ने कर्म को दिया है । कर्म और पुरुषार्थ को समकक्षा में रखने वाले अनेक वाक्य उपलब्ध होते हैं। जैसेकि यथा ह्य केन चक्रण, न रथस्त्य गतिर्भवेत् । __ एवं पुरुषकारेण विना, दैवं न सिध्यति ॥१॥ अर्थात्-कर्म और पुरुषार्थ जीवनरथ के दो चक्र हैं । रथ की गति और स्थिति दो चक्रों के औचित्य पर निर्भर है । दो में से एक के द्वारा अर्थ की सिद्धि या अभीष्ट की प्राप्ति नहीं हो सकती। जैनदर्शन मात्र कर्मवादी या पुरुषार्थवादी ही है--यह कथन भी यथार्थ नहीं है । प्रत्युत जैनदर्शन कर्मवादी भी है और पुरुषार्थवादी भी । अर्थात् वह दोनों को सापेक्ष *स्वीकार करता है। जैनदर्शन के कथनानुसार ये दोनों ही अपने २ स्थान में असाधारण हैं । यही कारण है कि जैनदर्शन को अनेकान्तदर्शन भी कहा जाता है । उस के मत में वस्तु मात्र ही अनेकान्त (भिन्न २ पर्याय वाली) है और इसी रूप में उस का आभास होता है । सामान्य रूप से कर्म दो भागों में विभक्त है । शुभकर्म तथा अशुभकर्म । शुभकर्म प्राणियों की अनुकूलता (सुख) में कारण होता है और अशुभकर्म जीवों की प्रतिकूलता (दुःख) में हेतु होता है। शास्त्रीय परिभाषा में ये दोनों पुण्यकर्म और पापकर्म के नाम से विख्यात है। पुण्य के फल को सुखविपाक और पाप के फल का दुःखविपाक कहा जाता है । सुखविपाक ओर दुःखविपाक के स्वरूप का प्रतिपादक शास्त्र विपाकश्रु त कहलाता है। *समन्तभद्राचार्यकृत देवागमस्तोत्र में कर्मपुरुषार्थ पर सुन्दर ऊहापोह किया गया है। जैसेकि देवादेवार्थसिद्धिश्चेद् , दैवं पौरुषतः कथम् ? दैवतश्चेद् विनिर्मोक्षः, पौरुषं निष्फलं भवेत् ॥८॥ पौरुषार्थादेव सिद्धिश्चेत , पौरुषं दैवतः कथम् ? पौरुषाच्चेदमोघं स्यात् , सर्वप्राणिषु पौरुषम् ॥८६॥ भावार्थ--यदि दैव-कर्म से ही प्रयोजन सम्पन्न होता है तो पुरुषार्थ के बिना देव की निष्पत्ति हुई कैसे ? और यदि केवल देव से ही जीव मुक्त हो जाएं तो संयमशील व्यक्ति का पुरुषार्थ निष्फल हो जावेगा । दूसरी बात यह है कि यदि पौरुष से ही कार्यसिद्धि अभिमत है तो दैव के बिना पौरुप कैसे हुआ ? और मात्र पौरुष से ही यदि सफलता है तो पुरुषार्थी प्राणियों का पुरुषार्थ निष्फल क्यों जाता है ?, आचार्यश्री ने इन पद्यों में कर्म और पुरुषार्थ दोनों को ही सम्मिलित रूप से कार्यसाधक बतलाते हुए बड़ी सुन्दरता से अनेकान्तवाद का समर्थन किया है । For Private And Personal Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (५०) श्री विपाकसूत्र [प्राक्कथन जैनागमों की संख्या वर्तमान में पूर्वापरविरोध से रहित अथच स्वतःप्रमाणभूत जैनागम ३२ माने जाते हैं । उन में ११ अंग, १२ उपांग, ४ मूल, ४ छेद और एक आवश्यक सूत्र है । ये कुल ३२ होते हैं। उन में ११ अङ्गसूत्र निम्नलिखित हैं १-आचाराङ्ग, २-सूत्रकृताङ्ग, ३-स्थानाङ्ग, ४-समवायाङ्ग, ५-भगवती, ६-ज्ञाताधर्मकथा, ७-उपासकदशा, ८-अन्तकृद्शा , ६-अनुत्तरोपपातिकदशा, १०-प्रश्नव्याकरण, *११-विपाकश्रुत ।. १-ौपपातिक, २-राजप्रश्नीय, ३-जीवाभिगम, ४-प्रज्ञापना, ५-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ६-सूर्यप्रज्ञप्ति, ७-चद्रप्रज्ञप्ति, ८-निर्यावलिका, ६-कल्यावतंसिका, १०-पुष्पिका, ११-पुष्पचूलिका,१२-वृष्णिदशा, ये बारह उपाङ्ग कहलाते हैं। चार मूलसूत्र-१-नन्दी, २-अनुयोगद्वार, ३-दशवैकालिक, ४-उत्तराध्ययन । चार छेद सूत्र-१-वृहत्कल्प, २-व्यवहार, ३-निशीथ और ४-दशाश्रुतस्कन्ध । इस प्रकार अङ्ग, उपाङ्ग, मूल और छेद सूत्रों के संकलन से यह संख्या ३१ होती है, उस में आवश्यकसूत्र के संयोग से कुल आगम ३२ हो जाते हैं। ये ३२ सूत्र अर्थरूप से तीर्थकरप्रणीत हैं तथा सूत्ररूप से इन का निर्माण गणधरों ने किया है और वर्तमान में उपलब्ध आगम आर्य सुधर्मास्वामी की वाचना के हैं, ऐसी जैनमान्यता है । अङ्गसूत्रों में श्रीविपाकश्रुत का अन्तिम स्थान है, यह बात ऊपर के वर्णन से भलीभाँति स्पष्ट हो जाती है । अब रह गई यह बात कि विपाक श्रुत में क्या वर्णन है ? इस का उत्तर निम्नोक्त है _ विपाकश्रुत यह अन्वर्थ संज्ञा है । अर्थात् विपाकश्रुत यह नाम अर्थ की अनुलता से रखा गया है । इस का अर्थ है- वह शास्त्र जिस में विपाक-कमपल का वर्णन हो । कर्मफल का वर्णन भी हो प्रकार से होता है । प्रथम-सिद्धान्तरूप से, द्वितीय-कथाओं के रूप से । विपाकश्रुत में कर्मविपाक का वर्णन कथाओं के रूप में किया गया है, अर्थात् इस आगम में ऐसी कथाओं का संग्रह है, जिन का अंतिम परिणाम यह हो कि अमुक व्यक्ति ने अमुक कम किया था, उसे अमुक फल मिला । फल भी दो प्रकार का होता है--सुखरूप और दुःखरूप । फल के द्वैविध्य पर ही विपाकश्रुत के दो विभाग हैं। एक दुःखविपाक दूसरा सुखविपाक । दुःखविपाक में दुःखरूप फल का और सुखविपाक में सुखरूप फल का वर्णन है । दुःखविपाक के दश अध्ययन हैं । इन में दस ऐसे व्यक्तियों का जीवनवृत्तान्त वर्णित है कि जिन्हों ने पूर्वजन्म में अशुभ कर्मों का उपार्जन किया था। सुखविपाक के भी दश अध्ययन हैं। उन में दश ऐसे व्यक्तियों का जीवनवृत्तान्त अङ्कित है कि जिन्हों ने पूर्वजन्म में शुभकर्मों का उपार्जन किया था। दोनों श्रेणियों के व्यक्तियों को फल की प्राप्ति भी क्रमशः दुःख और सुख रूप हुई। दोनों के समुदाय का नाम विपाकश्रुत है । आधुनिक शताब्दी में जो विपाकश्रुत उपलब्ध है उस में तथा प्राचीन विपाकश्रुत में अध्ययनगत तथा विषयगत कितनी विभिन्नता है ? इस का उत्तर श्रीसमवायांग सूत्र तथा श्रीनन्दीसूत्र *यद्यपि अङ्गसूत्र बारह हैं इसीलिए इस का नाम द्वादशाङ्गी है, तथापि बारहवां अङ्ग दृष्टिवाद इस समय अनुपलब्ध है, इसलिये अङ्गों की संख्या ग्यारह उल्लेख की गई है। इस का दूसरा नाम कल्पिका भी है । For Private And Personal Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन] हिन्दीभाषाटीकासहित में स्पष्टरूप से दिया गया है। आगमोदयसमिति द्वारा मुद्रित श्रीसमवायांग सूत्र के पृष्ठ १२५ पर विपाकश्रुत में प्रतिपादित विषय का जो निर्देश किया गया है, वह निम्नोक्त है से किं तं विवागसुय? विवागसुए णं सुक्कडदुक्कडाणं कम्माणं फलविवागे आघविज्जइ । से समासो दुविहे पएणत्ते, तंजहा-दुहविवागे चेव सुहविवागे चेव । तत्थ णं दस दुहविवागाणि दस सुहविवागाणि । से किं तं दुहविवागाणि ? दुहविवागेसु णं दुहविवागाणां नगराइ उज्जाणाई चेइयाई वणखएडा रायाणो अम्मापियरो समोसरणाइ धम्मायरिया धम्मकहानो नगरगमणाई संसारपबन्धे दुहपरम्परायो य आघविज्जन्ति । से तं दुहविवागाणि । से किं तं सुहविवागाणि ? सुहविवागेस सुहविवागाणं नगराइ उज्जाणाईचेइयाई वणखण्डा रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाअो इहलोइयपरलोइयइड्ढिविसेसा भोगपरिच्चाया पयज्जाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाई परियागा पडिमानो संलेहणाओ भत्तपञ्चकवाणाई पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपच्चायाया पुणबोहिलाहा अन्तकिरियाना य आघविज्जन्ति । दुहविवागेसु णं पाणाइबायलियवयणचोरिक्ककरणपरदारमेहुणससंगयाए महतिव्वकसायई दियप्पमाययावप्पोयअसुहज्भवसाणसंचियाणं कम्माणं पावगाणं पावअणुभागफलविवागा णिरयगतितिरिक्खजोणिबहुविहवसणसयपरंपरापब द्वाणं मणुयत्ते वि आगयाणं जहा पावकम्मसेसेण पावगा होन्ति फलविवागा वहवसणविणासनासाकन्नु गुटकरचरणनहच्छेयणजिब्भछेयणअंजणकडग्गिदाहगयचलणमलणफालणउल्लंबणसूललयालउडलटिभंजणतउसीसगतत्ततेलकलकलअहिसिंचणकुभीपागकंपणथिरबंधणवेहबज्झकत्तणपतिभयकरकरपल्लीवणादिदारुणाणि दुक्खाणि अणोचमाणि बहुविविहपरंपराणुबद्धा ण मुञ्चन्ति पावकम्मवल्लीए अवेइत्ता हु णत्थि मोक्खो । तवेण धिइधणियबद्धकच्छेण सोहणं तस्स वा वि हुज्जा; एत्तो य सुहविवागेसु णं सीलसंजमणियमगुणतयोवहाणेसु साहूसु सुविहिएसु अणुकंपासयप्पभोगतिकालमइविसुद्धभत्तपाणाई पयमणसा हियसुहनीसेसतिव्बपरिणामनिच्छियमई पयच्छिऊणं पयोगसुद्धाई जह य निवत्तेति. उ बोहिलाभं जह य परित्तीकरेंति नरनरयतिरियसुरगमणविपुलपरियट्टअरतिभयविसायसोगमिच्छत्तसेजसंकडं अन्नाणतमंधकारचिविखल्लसुदुत्तारं जरमरणजोणिसंखुभियचक्कवालं सोलसकसायसावयपयंडचंडं अगाइय अणवदग्गं संसारसागरमिणं जह य णिबंधंति आउगं सुरगणेसु जह य अणुभवन्ति सुरगणविमाणसोक्खाणि अणोवमाणि ततो य कालन्तरे चुाणं इहेब नरलोगमागयाणं अाउवपुपुरणरूवजातिकुलजम्मआरोग्गबुद्धिमेहाविसेसा पित्तज सय For Private And Personal Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाकसूत्र [प्राकथन ............................................ रणधणधन्नविभवसमिद्धसारसमुदयविसेसा बहुविहकामभोगुब्भवाणसोक्खाण सुहविवगोत्तमेसु अणुवरयपरंपराणुबद्धा असुभाणं सुभाणं चेव कम्माणं भासिया बहुविहा विवागा विवागसुयम्मि भगवया जिणवरेण सम्वेगकारणत्था अन्ने वि य एवमाइया बहुविहा वित्थरेणं अत्थपरूवणया आघविज्जति । विवागसुअस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, जाव संखेज्जाओ संगहणीअो । से णं अंगहयाए एक्कारसमे अंगे, वोसं अज्झयणा, वीसं उद्दसणकाला, वीसं समुद्दे सणकाला, संखेज्जाइपयसयसहस्साई पयग्गेणं प० संखेज्जाणि अक्खराणि, अणंता गमा, अणंता पज्जवा जाव एवं चरणकरण परूवण्या आप्पविजंति से तं विवागसुए। इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है प्रश्न-विपाकश्रुत क्या है ? अर्थात् उस का स्वरूप क्या है ? उत्तर-विपाकश्रुत में सुकृत और दुष्कृत अर्थात् शुभाशुभ कर्मों के फल कहे गये हैं। वह कर्मफल संक्षेप से दो प्रकार का कहा गया है। जैसेकि-दुःखविपाक-दुःखरूप कर्मफल और सुखविपाकसुखरूप कर्मफल । दुःखविपाक के दस अध्ययन हैं । इसी भाँति सुखविपाक के भी दस अध्ययन हैं। प्रश्न-दुःखविपाक में वर्णित दस अध्ययनों का स्वरूप क्या है ? उत्तर-दुःखविपाक के दस अध्ययनों में दुःखरूप विपाक-कर्मफल को भोगने वालों के नगर, उद्यान, व्यन्तरायतन- व्यन्तरदेवों के स्थानविशेष, वनखण्ड- भिन्न २ भाँति के वृक्षो वाले स्थान, राजा, मातापिता, समवसरण- भगवान का पधारना और बारह तरह की सभाओं का मिलना, धर्माचार्य- धर्मगुरु, धर्मकथा, नगरगमन- गौतम स्वामी का पारणे के लिये नगर में जाना, संसारप्रबन्धजन्म मरण का विस्तार और दुःखपरम्परा कही गई हैं । यही दुःखविपाक का स्वरूप है । प्रश्न-सुखविपाक क्या है ? और उस का स्वरूप क्या है ? उत्तर-सुखविपाक में सुखरूप कर्मफलों को भोगने वाले जीवों के नगर, उद्यान, चैत्यव्यन्तरायतन, वनखण्ड, राजा, मातापिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलोक और परलोक संबन्धी ऋद्धिविशेष, भोगों का परित्याग, प्रव्रज्या-दीक्षा, श्रुतपरिग्रह-श्रुत का अध्ययन, तपउपधान-उपधान तप या तप का अनुष्ठान, पर्याय-दीक्षापर्याय, प्रतिमा-अभिग्रहविशेष,संलेखना-शरीर, कपाय आदि का शोषण अथवा अनशनव्रत से शरीर के परित्याग का अनुष्ठान,भक्तप्रत्याख्यान-अन्नजलादि का त्याग, पादपोपगमन- जैसे वृक्ष का टहना गिर जाता है और वह ज्यों का त्यों पड़ा रहता है. इसी भाँति जिस दशा में संथारा किया गया है, बिना कारण आमरणान्त उसी दशा में पड़े रहना, देवलोकगमन-देवलोक में जाना, सुकुल में- उत्तमकुल में उत्पत्ति, पुनर्वाधिलाभ-पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करना, अन्तक्रिया- जन्ममरण से मुक्त होना, ये सब तत्त्व वर्णित हुए हैं। दुःखविपाक में प्राणातिघात-हिंसा, अलीकवचन-असत्य वचन, चौर्यकर्म- चोरी, परदार For Private And Personal Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन हिन्दीभाषाटीकासहित (५३) मैथुनसंसर्ग अर्थात् दूसरे की स्त्री के साथ मैथुन का सेवन करना तथा जो महान् तीन कषाय-क्रोध,मान, माया और लोभ, इन्द्रियों का प्रमाद-असत्प्रवृत्ति, पापप्रयोग-हिंसादि पापों में प्रवृत्ति,अशुभ अध्यवसायसंकल्प होते हैं, उन सब से संचित अशुभ कर्मों के अशुभ रस वाले कर्मफल कहे गये हैं। तथा नरकगति और तिर्यचगति में बहुत से और नाना प्रकार के सैंकड़ों कष्टों में पड़े हुए जीवों को मनुष्यगति को प्राप्त करके शेष पाप कर्मों के कारण जो अशुभ फल होते हैं, उन का स्वरूप निम्नोक्त है वध-यष्टिद्वारा ताडित करना,वृषणविनाश-नपुंसक बनाना,नासिका-नाक, कर्ण-कान, ओष्ठ-होंठ, अंगुष्ठ-अंगूठा, कर-हाथ, चरण-पांव, नख-नाखुन इन सब का छेदन-काटना, जिह्वा का छेदन, अंजनतपी हुई सलाई से आंखों में अञ्जन डालना अथवा क्षारतैलादि से देह की मालिश करना, कटाग्निदाहमनुष्य को कट-चटाई में लपेट कर आग लगाना, अथवा कट-घासविशेष में लपेट कर आग लगा देना, हाथी के पैरों के नीचे मसलना, कुल्हाड़े आदि से फाड़ना, वृक्षादि पर उलटा लटका कर बांधना, शूल, लता-बैत, लकुट- लकड़ी, यष्टि- लाठी, इन सब से शरीर का भजन करना, शरीर की अस्थि आदि का तोड़ना, तपे तथा कलकल शब्द करते हुए त्रपु-रांगा, सीसक- सिक्का और तैल से शरीर का अभिषेक करना, कुम्भीपाक-भाजनविशेष में पकाना, कम्पन अर्थात् शीतकाल में शीतल जल से छींटे दे कर शरीर को कम्पाना, स्थिरबन्धन- बहुत कस कर बांधना, वेध- भाले आदि से भेदन करना, वर्धकर्तन- चमड़ी का उखाड़ना, प्रतिभयकर- पल २ में भय देना, करप्रदीपनकपड़ों में लपेट तैल छिड़क कर मनुष्य के हाथों में आग लगाना इत्यादि अनुपम तथा दारुण दुःखों का वर्णन किया गया है। इस के अतिरिन विपाकसूत्र में यह भी बताया गया है कि, दुःखफलों को देने वाली पापकर्मरूपी बेल के कारण नाना प्रकार दुःखों की परम्परा से बन्धे हुए जीव कर्मफल भोगे बिना छूट नहीं सकते, प्रत्युत अच्छी तरह कमर बांध कर तप और धीरज के द्वारा ही उस का शोधन हो सकता है । इस के अतिरिक्त सुखविपाक के अध्ययनों में वर्णित पदार्थ निम्नोक्त हैं हितकारी, सुखकारी तथा कल्याणकारी तीव्र परिणाम वाले और संशय रहित मति वाले व्यक्ति शील- ब्रह्मचर्य अथवा समाधि, संयम-प्राणतिघात से निवृत्ति, नियम- अभिग्रहविशेष, गुण- मूलगुण तथा उत्तरगुण और तप- तपस्या करने वाले, सक्रियाएं करने वाले साधुओं को अनुकम्पाप्रधान चित्त के व्यापार तथा देने की त्रैकालिक मति अर्थात् दान दंगा वह विचार कर हर्षानुभूति करना, दान देते हुए प्रमोदानुभव करना तथा देने के अनन्तर हर्षानुभव करना, ऐसी त्रैकालिक बुद्धि से विशुद्ध तथा प्रयोगशुद्ध- लेने और देने वाले व्यक्ति के प्रयोग-व्यापार की अपेक्षा से शुद्ध भोजन को आदरभाव से देकर जिस प्रकार सम्यक्त्व का लाभ करते हैं और जिस प्रकार नर-मनुष्य, नरक, तिथंच और देव इन चारों गतियों में जीवों के गमन- परिभ्रमण के विपुल-विस्तीर्ण, परिवर्तनसंक्रमण से युक्त, अरति-संयम में उद्वेग, भय, विषाद, दीनता, शोक, मिथ्यात्व- मिथ्याविश्वास, इत्यादि शैलों- पर्वतों से व्याप्त, अज्ञानरूप अन्धकार से युक्त, विषयभोग, धन और अपने सम्बन्धी आदि में आसक्तिरूप कर्दम- कीचड़ से सुदुस्तर- जिस का पार करना बहुत कठिन है, जरा-बुढ़ापा, मरण- मृत्यु और योनि- जन्मरूप संक्षुभित- विलोडित, चक्रवाल- जलपरिमांडल्य (जल का चक्रा For Private And Personal Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाकसूत्र [प्राक्कथन कार भ्रमण) से युक्त, १६ कषायरूप श्वापद- हिंसक जीवों से अत्यन्त रुद्र-भीषण, अनादि अनन्त संसार सागर को परिमित करते हैं, और देवों की आयु को बांधते हैं, देवविमानों के अनुपम सुखों का अनुभव करते हैं, वहां से च्यव कर इसी मनुष्यलोक में आये हुए जीवों की *आयु, शरीर, पुण्य, रूप, जाति, कुल, जन्म, आरोग्य, बुद्धि तथा मेधा की विशेषताएं पाई जाती हैं। इस के अतिरिक्त मित्रजन, स्वजन-पिता, पितृव्य धादि, धन, धान्यरूप लक्ष्मी-समृद्धि, नगर, अन्तःपुर, कोप-खजाना, काष्ठागार- धान्यगृह, बल- सेना, वाहन-हाथी, घोड़े आदि रूप सम्पदा, इन सब के सारसमुदाय की विशेषताएं तथा नाना प्रकार के कामभोगों से उत्पन्न होने वाले सुख ये सभी उपरोक्त विशेषताएं स्वर्गलोक से आए हुए जीवों में उपलब्ध होती हैं। जिनेन्द्र भगवान् ने संवेग- वैराग्य के लिए विपाकश्रुत में अशुभ और शुभ कर्मों के निरन्तर होने वाले बहुत से विपाकों-फलों का वर्णन किया है। इसी प्रकार की अन्य भी बहुत सी अर्थप्ररूपणाएं (पदार्थविस्तार) कथन की गई हैं । श्रीविपाकसूत्र की वाचनाएं (सूत्र और अर्थ का प्रदान अर्थात् अध्यापन) परिमित हैं । अनुयोगद्वार-व्याख्या करने के प्रकार, संख्येय (जिनकी गणना की जा सके) हैं और संग्रहणियां- पदार्थों का संग्रह करने वाली गाथाएं, संख्येय हैं। विपाकसूत्र अङ्गों की अपेक्षा ११ वां अङ्ग है इस के २० अध्ययन हैं और इस के बीस उद्देशनकाल तथा बीस ही समुद्देशनकाल हैं । पदों का प्रमाण संख्यात लाख है अर्थात् इस में एक करोड़ ८४ लाख ३२ हजार पद हैं । अक्षर-वर्ण संख्येय हैं । गम अर्थात एक ही सूत्र से अनन्तधर्मविशिष्ट वस्तु का प्रतिपादन अथवा वाच्य-पदार्थ और वाचक-पद अथवा शास्त्र का तुल्यपाठ जिस का तात्पर्य भिन्न हो, अनन्त हैं । पर्याय-समान अर्थों के वाचक शब्द भी अनन्त हैं। इसी प्रकार यावत् विपाकश्रुत में चरण-पांच महाव्रत आदि ७० बोल और करण- पिण्डविशुद्धि आदि जैनशास्त्रप्रसिद्ध *आयु की विशेषता का अभिप्राय है कि अन्य जीवों की अपेक्षा आयु का शुभ और दीर्घ होना। इसी भाँति शरीर की विशेषता है-संहनन का स्थिर- दृढ़ होना । पुण्य की विशेषता है- उस का बराबर बने रहना। रूप की विशेषता है-अति सुन्दर होना । जाति और कुल का उत्तम होना ही जाति और कुल की विशेषता है । जन्म की विशेषता का हार्द है-विशिष्ट क्षेत्र और काल में जन्म लेना । आरोग्य-नीरोगता की विशेषता उस के निरन्तर बने रहने में है। औत्पातिकी आदि चार प्रकार की बुद्धियों का चरमसीमा को प्राप्त करना बुद्धि की विशेषता है। अपूर्व श्रुत को ग्रहण करने की शक्ति की प्रकर्पता ही मेधा की विशेषता है । शिष्य के- महाराज मै कौन सा सूत्र पढ़ ? इस प्रश्न पर गुरुदेव का आचाराङ्ग आदि सूत्र के पढ़ने के लिये सामान्यरूप से कहना उद्देशन कहलाता है, परन्तु गुरु के किए गए "श्रीआचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन को पढ़ा-' इस प्रकार के विशेष आदेश को समुद्देशन कहते हैं। गुरु से आदष्ट सूत्र के अध्ययनार्थ नियतकाल को उद्देशनकाल, इसी माँ। गुरु से आदिष्ट अमुक अध्ययन के पठनार्थ नियतकाल को समुदेशन काल कहा जाता है । * पांच महाव्रत, दस प्रकार का यतिधर्म, १७ प्रकार का संयम, १० प्रकार का वैयावृत्य, For Private And Personal Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन हिन्दीभाषाटीकासहित ७० *बोलों की प्ररूपणा (विशेषरूप से वर्णन) की गई है। श्रीसमवायांगसूत्र की भाँति श्रीनन्दीसूत्र में भी श्रीविपाकसूत्रविषयक जो वर्णन उपलब्ध होता है, उस का उल्लेख निम्नोक्त है से कि तं विवागसुगं ? विवागसुए णं सुक्कडदुक्कडाएं कम्माणं फलविवागे आघविज्जइ । तत्थ ण दस दुहविवागा, दस सुहविवागा। से किं तं दुहविवागा ? दुहविवागेसु णं दुइविवागाणं नगराई उजाणाई वणसंडाई चेइयाई समोसरणाई रायाणो अम्मापियरो धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइयपरलोइया इड्ढिविसेसा निरयगमणाई संसारभवपवंचा दुहारंपराओ दुक्कुलपच्चायाईअो दुल्लहबोहिय आघविज्जइ, से तं दुहविवागा । से किं तं सुहविवागा ? सुहविवागेसु णं सुहविवागाण नगराई उज्जाणाई वणांडाई चेइयाई समोसरणाई रायाणो अम्मापियरो धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइयपरलोइया इढिविसेसा भोगपरिच्चागा पाज्जाओ परियागा सुयपरिग्गहा तवोवहाणाई संलेहणाश्रो भत्तपच्चक्खाणाई पाओवगाणाई देवलोगगाणाई सुहपरंपराअो सुकुलपच्चायाईओ पुणबोहिलामा अन्तकिरियाअो आघविज्जन्ति। विवागसुयस्स णं परित्ता वायणा संखेज्जा अणुयोगदारा, संखेज्जा वेढा,संखेज्जा सिलोगा,संखेज्जाओ निम्जुनी मो,संबेज्जात्रो संगहणीओ,संखेज्जाओ पडिवत्तिो,सेणं अंगठ्ठयाए इक्कारसमे अंगे, दो सुयखंधा, वीसं अज्झयणा, वीसं उद्दसणकाला, वीसं समुद्देसणकाला, शंखिज्जाई पयसहस्साई पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, अणंता, गमा, अणंता पज्जवा, परिचा तसा, अणंता थावरा सासयकडनिबद्धनिकाइया जिणपएणत्ता भावा आघविज्जन्ति पएणविज्जन्ति परूविज्जन्ति दंसिज्जन्ति निदंसिज्जन्ति उवदसिज्जन्ति, से एवं आया, एवं नाया एवं विएणाया एवं चरणकरणपरूवणा आघविजइ,से तं विवागसुगं। इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है प्रश्न-श्रीविपाकश्रुत क्या है ? अर्थात् उस का स्वरूप क्या है ? उत्तर-श्रीविपाकसूत्र में सुख और दुःख रूप विपाक-कर्मफल का वर्णन किया गया है और वह दश दुःख-विपाक तथा दश सुखविपाक, इन दो विभागों में विभक्त है। रहा"--दुःखविपाक के दश ६ प्रकार की ब्रह्मचर्य गुप्तियें, १ ज्ञान, २ दर्शन, ३ चारित्र, १२ प्रकार का तप, १ क्रोधनिग्रह, २ माननिहन ३ मायानिग्रह, ४ लोभनिग्रह, इन ७० बोलों का नाम चरण है। _ *चार प्रकार को पिण्डविशुद्धि, ५ प्रकार की समितियें, १२ प्रकार की भावनाएं, १२ प्रकार की प्रतिमाएं- प्रतिज्ञाएं, ५ प्रकार का इन्द्रियनिग्रह, २५ प्रकार की प्रतिलेखना, ३ प्रकार की गुप्तियां, ४ प्रकार के अभिग्रह, इन ७० बोलों को करण कहा जाता है । For Private And Personal Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाकसूत्र [प्राकथन अध्ययनों में क्या वर्णन है ? यह प्रश्न, इस का समाधान निम्नोक्त है-- दुःखविपाक के दश अध्ययनों में दुःखविपाकी-दुःवरूपकर्मफल को भोगने वाले जीवों के नगरों, उद्यानों, वनखण्डों, चैत्यों, समवसरणों, राजाओं, मातापिताओं, धर्माचार्यों, धर्मकथाओं, लोक और परलोक की विशेष ऋद्धियों, नरकगमन, संसार के भवों का विस्तार, दुःखपरम्परा, नीच कुलों में उत्पत्ति, सम्यक्त्व की दुर्लभता इत्यादि विषयों का वर्णन किया गया है । यही दुःखविपाक का स्वरूप है । प्रश्न-श्रीविपाकश्रुतसम्बन्धी सुखविपाक के दस अध्ययनों में क्या वर्णन है ? उत्तर-सुखविपाक के दस अध्ययनों में सुखविपाकी-सुखरूप कर्मफल का अनुभव करने वाले जीवों के नगर, उद्यान, वनखण्ड, चैत्य, समवसरण, राजा और मातापिता, धर्माचार्य, धर्मकथाएं, लोक और परलोक की विशिष्ट ऋद्धियें, भोगों का त्याग, प्रव्रज्याएं, दीक्षापर्याय, श्रुत-आगम का ग्रहण, तपउपधान-उपधानतप अर्थात् सूत्र वाचने के निमित्त किया जाने वाला तप अथवा तप का अनुष्ठान, संलेखना-संथारा, भक्तप्रत्याख्यान-आहारत्याग, पादपोपगमन-संथारे का एक भेद, देवलोकगमन, सुखपरम्परा, अच्छे कुल में उत्पत्ति, फिर से सम्यक्त्व की प्राप्ति, संसार का अंत करना, यह सब वर्णित हुआ है। विपाकश्रुत की परिमित वाचनाएं हैं । संख्येय-संख्या करने योग्य, अनुयोगद्वार हैं । संख्येय वेढ-छन्दविशेष हैं । संख्येय श्लोक हैं । संख्येय नियुक्तियां हैं । नियुक्ति का अर्थ है--सूत्र के अर्थ की विशेषरूप से युक्ति लगा कर घटना करना अथवा सूत्र के अर्थ की युक्ति दर्शाने वाला वाक्य अथवा प्रन्थ । संख्येय संग्रहणियां हैं। संग्रहणी संग्रहगाथा, को कहते हैं। संख्येय प्रतिपत्तियां हैं। प्रतिपत्ति का अर्थ है- श्रुतविशेष, गति, इन्द्रिय श्रादि द्वारों में से किसी एक द्वार के द्वारा समस्त संसार के जीवों को जानना अथवा प्रतिमा आदि अभिग्रहविशेष । विपाकश्रुत अंगों में ११वां अङ्ग है । इस के दो श्रुतस्कन्ध हैं। इस के बीस अध्ययन हैं। बीस उद्देशनकाल और बीस ही समुद्देशनकाल हैं । इस के पदों का प्रमाण संख्येय हज़ार है अर्थात् इस में एक करोड़ ८४ लाख ३२ हजार पद हैं। इस में संख्येय अक्षर हैं । इस में अनन्त गम हैं। अनन्त पर्याय हैं । इस में परिमित सूत्रों और अनन्त स्थावरों का वर्णन हैं । इस में जिन भगवान द्वारा प्रतिपादित शाश्वत-अनादि अनन्त और अशाश्वत अर्थात कृत (प्रयोगजन्य, जैसे घटपटादि पदार्थ) तथा विस्रसा (जो प्राकृतिक हैं, जैसे संध्याभ्रराग-सायंकाल के बादलों का रंग मादि) भाव-पदार्थ कहे गए हैं, जिनका स्वरूप प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपादित है तथा नियुक्ति, संग्रहणी आदि के द्वारा अनेक प्रकार से जो व्यवस्थापित हैं । जो सामान्य अथवा विशेषरूप से वर्णित हुए हैं, नामादि के भेद से जिन का निरूपण-कथन किया गया है, उपमा के द्वारा जिन का प्रदर्शन किया गया है । हेतु और दृष्टान्त के द्वारा जिन का उपदर्शन किया गया है और जा निगमण द्वारा निश्चितरूपेण शिष्य की बुद्धि में स्थापित किये गए हैं। इस सुखविपाकसूत्र के अनुसार आचरण करने वाला आत्मा तद्रूप अर्थात सुखरूप हो जाता है. इसी भाँति इस का अध्ययन करने वाला व्यक्ति इस के पदार्थों का ज्ञाता एवं विज्ञाता हो जाता है। सारांश यह है कि सुखविपाक में इस प्रकार से चरण और करण की प्ररूपणा की गई है । यही सुखविपाक का स्वरूप है। For Private And Personal Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन] हिन्दीभाषाटीकासहित श्री समवायांग और नन्दीसूत्र के परिशीलन से यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि आजकल जो विपाकश्रु त उपलब्ध है, वह पुरातन विपाकश्रु त की अपेक्षा अधिक संक्षिप्त तथा लघुकाय है। विपाकश्रु त के इस ह्रास का कारण क्या है ? यह प्रश्न सहज ही में उपस्थित हो जाता है । इस का उत्तर पूर्वाचार्यों ने जो दिया है, वह निम्नोक्त है ___भगवान महावीर स्वामी के प्रवचन का स्वाध्याय प्रथम मौखिक ही होता था, आचार्य शिष्य को स्मरण करा दिया करते थे और शिष्य अपने शिष्य को कण्ठस्थ करा दिया करते थे। इसी क्रम अर्थात् गुरुपरम्परा से आगमों का स्वाध्याय होता था। भगवान् महावीर के लगभग १५० वर्षों के पश्चात् देश में दुर्भिक्ष पड़ा । दुर्भिक्ष के प्रभाव से जैनसाधु भी नहीं बच पाये । अन्नाभाव के कारण, आहारादि के न मिलने से साधुओं के शरीर और स्मरणशक्ति शिथिल पड़ गई । जिस का परिणाम. यह हुआ कि कण्ठस्थ विद्या भूलने लगी । जैनेन्द्र प्रवचन के इस ह्रास से भयभीत होकर जैनमुनियों ने अपना संमेलन किया और उसके प्रधान स्थूलिभद्र जी बनाये गये । स्थूलिभद्र जी के अनुशासन में जिन २ मुनियों को जो २ आगमपाठ स्मरण में थे, उन का संकलन हुआ जोकि पूर्व की भाँति अंग तथा उपांग आदि के नाम से निर्धारित था। भगवान् महावीर स्वामी के लगभग ६०० वर्षों के अनन्तर फिर दुर्भिक्ष पड़ा। उस दुर्भिक्ष में भी जैन मुनियों का काफी ह्रास हुआ। मुनियों के ह्रास से जैनेन्द्र प्रवचन का ह्रास होना स्वाभाविक ही था । तब प्रवचन को सुरक्षित रखने के लिये मथुरा में स्कन्दिलाचार्य की अध्यक्षता में फिर मुनिसम्मेलन हुआ । उस में भी पूर्व की भाँति आगमपाठों का संग्रह किया गया । तब से उस संग्रह का ही स्वाध्याय होने लगा। काल की विचित्रता से दुर्भिक्ष द्वारा राष्ट्र फिर आक्रान्त हुश्रा । इस दुर्भिक्ष में तो जनहानि पहिले से भी विशेष हुई। भिक्षाजीवी संयमशील जैनमुनियों की क्षति तो अधिक शोचनीय हो गई । समय की इस क्रूरता से निर्ग्रन्थप्रवचन को सुरक्षित रखने के लिये श्रीदेवर्द्धि गणो क्षमाश्रमण (वीरनिर्वाण सं०६८०) ने वलभी नगरी में मुनिसम्मेलन किया । उस सम्मेलन में इन्हों ने पूर्व की भाँति आगमपाठों का संकलन किया और उसे लिपिबद्ध कराने का बुद्धिशुद्ध प्रयत्न किया । तथा उन की अनेकानेक प्रतियां लिखा कर योग्य स्थानों में भिजवादी । तब से इन आगमों का स्वाध्याय पुस्तक पर से होने लगा । आज जितने भी आगम ग्रन्थ उपलब्ध हैं वे सब देवर्द्धि गणी क्षमाश्रमण द्वारा सम्पादित पाठों के आदर्श हैं । इन में वे ही पाठ पंकलित हुए हैं जो उस समय मुनियों के स्मरण में थे । जो पाठ उन की स्मृति में नहीं रहे उन का लिपिबद्ध न होना अनायास ही सिद्ध है । अतः प्राचीन सूत्रों का तथा आधुनिक काल में उपलब्ध सूत्रों का अध्ययनगत तथा विषयगत भेद कोई आश्चर्य का स्थान नहीं रहता। यह भेद समय की प्रबलता को आभारी है । समय के आगे सभी को नतमस्तक होना पड़ता है। विपाकसूत्र में वर्णित जीवनवृत्तान्तों से यह भलिभाँति ज्ञात हो जाता है कि कर्म से छूटने पर सभी जीव मुक्त हो जाते हैं, परमात्मा बन जाते हैं । इस से-परमात्मा ईश्वर एक ही है, यह सिद्धान्त प्रामाणिक नहीं ठहरता है । वास्तव में देखा जाय तो जीव और ईश्वर में यही अन्तर है कि जीव की सभी शक्तियां आवरणों से घिरी हुई होती हैं और ईश्वर की सभी शक्तियां विकसित हैं, परन्तु जिस समय जीव For Private And Personal Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाकसूत्र [प्राक्कथन अपने सभी प्रावरणों को हटा देता है, उस समय उस की सभी शक्तियें प्रकट हो जाती हैं। फिर जीव और ईश्वर में विषमता की कोई बात नहीं रहती । जिस कर्मजन्य उपाधि से घिरा हुआ आत्मा जीव कहलाता है उस के नष्ट हो जाने पर वह ईश्वर के नाम से अभिहित होता है। इसलिये ईश्वर एक न हो कर अनेक हैं। सभी प्रात्मा तात्विक दृष्टि से ईश्वर ही हैं । केवल कर्मजन्य उपाधि ही उस के ईश्वरत्व को आच्छादित किए हुए है, उस के दूर होते ही ईश्वर और जीव में कोई अन्तर नहीं रहता। केवल बन्धन के कारण ही जीव में रूपों की अनेकता है । विपाकश्रुत का यह वर्णन भी जीव को अपना ईश्वरत्व प्रकट करने के लिए बल देता है और मार्ग दिखलाता है। समवायाङ्गसूत्र के ५५ वें समवाय में जो यह लिखा है कि-समणे भगवं महावीरे अन्तिमराइयसि पणपन्न अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाईपणपन्न अभयणाई पावफलविवागाई वागरित्ता सिद्धे बुद्धे जाव पहीणे अर्थात् पावानगरी में महाराज हस्तिपाल की सभा में कार्तिक की अमावस्या की रात्रि में चरमतीर्थकर भगवान महावीर स्वामी ने ५५ ऐसे अध्ययन-जिन में पुण्यकर्म का फल प्रदर्शित किया है और ५५ ऐसे अध्ययन जिन में पापकर्म का फल व्यक्त किया गया है,धर्मदेशना के रूप में करमा कर निर्वाण उपलब्ध किया, अथच जन्म मरण के कारणों का समूलघात किया । इस से प्रतीत होता है कि ५५ अध्ययन वाला कल्याणफलविपाक और ५५ अध्ययन वाला पापफलविपाक प्रस्तुत विवाकश्रुत से विभिन्न है । क्योंकि इन विपाकों का निर्माण भगवान ने जीवन की अन्तिम रात्रि में किया है और विपाकभुत उस के पूर्व का है । एकादश अङ्गों का अध्ययन भगवान की * उपस्थिति में होता था । अतः विपाकश्रुत उन से भिन्न है और वे विपाकश्रुत से भिन्न हैं। श्री स्थानांगसूत्र में विपाकश्रुत के प्रथम श्रुतस्कन्ध के दश अध्ययनों का वर्णन मिलता है, वहां का पाठ इस प्रकार है *कल्पसूत्र में जो यह लिखा है कि उत्तराध्ययनसूत्र के ३६ अध्ययन भगवान महावीर स्वामी ने कार्तिक अमावस्या की निर्वाणरात्रि में फरमाये थे । इस पर यह आशंका होती है कि अङ्ग सूत्रों में चतुर्थ श्रङ्गसूत्र श्री समवायाङ्गसूत्र के ३६ वें समवाय में उत्तराध्ययनसूत्र के ३६ अध्ययनों का संकलन कैसे हो गया ? तात्पर्य यह है कि जब असूत्र भगवान महावीर स्वामी के उपस्थिति में अवस्थित थे और उत्तराध्ययनसूत्र उन्हों ने अपने निर्वाणरात्रि में फ़रमाया, कालकृत इतना भेद होने पर भी उत्तराध्ययनसूत्र के अध्ययन अङ्गसूत्र में कैसे संकलित कर लिये गये ? इस प्रश्न का समाधान निम्नोक्त है-- भगवान् महावीर स्वामी के समय में : वाचनाएं चलती थीं, अन्तिम वाचना श्री सुधर्मा स्वामी जी की कहलाती है। आज का उपलब्ध अङ्गसाहित्य श्री सुधर्मास्वामी जी की ही वाचना है । पूर्व की ८ वाचनाओं का विच्छेद हो गया । अन्तिम वाचना श्री सुधर्मास्वामी तथा श्री जम्बूस्वामी के प्रश्नोत्तरों के रूप में प्राप्त होती है और महावीर स्वामी के निर्वाणानन्तर श्री सुधर्मास्वामी ने इस में श्री उत्तराध्ययन के ३६ अध्ययनों का भी संकलन कर लिया। अतः सुधर्मास्यामी की वाचना के अङ्गसूत्र में उत्तराध्ययनसूत्र के अध्ययनों का वर्णित होना कोई दोषावह नहीं है। For Private And Personal Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन] हिन्दीभाषाटीकासहित दस दसाओ प० तं०-कम्मविवागदसाओ......संखेवितदसाओ । कम्मविवागदसाओ-इस पद की व्याख्या वृत्तिकार अभयदेव सूरि ने इस प्रकार की है कर्मणः-अशुभस्य विपाकः-फलं कर्मविपाकः, तत्प्रतिपादका दशाध्ययनात्मकत्वाद् दशाः कर्मविपाकदशाः, विपाकश्रु ताख्यस्यैकादशाङ्गस्य प्रथमश्रु तस्कन्धः, द्वितीयश्रु तस्कन्धोऽप्यस्य दशाध्ययनात्मक एव, नचासाविहाभिमतः उत्तरत्र विवरियमाणत्वादितिअर्थात् अशुभ कर्मफल प्रतिपादन करने वाले दश अध्ययनों का नाम कर्मविपाकदशा है । यह विपाकश्रुत का प्रथमश्रुतस्कन्ध है । विपाकश्रुत के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के भी दश अध्ययन हैं, उन का आगे विवरण होने से यहां उल्लेख नहीं किया जाता । श्री स्थानांगसूत्र में दश अध्ययनों के जो नाम लिखे हैं, वे निम्नक्ति हैं ____कम्मविवागदसाणं दस अज्झयणा प० तं०-१-मियापुत्ते, २--गोचासे, ३-अंडे ४--सगडे इ यावरे । ५--माहणे ६--णंदिसणे य, ७--सोरिए य ८ -उदंबरे। :--सहसुद्धाहे, आमलते, १०--कुमारे लेच्छइ ति य । (स्थानांग सू० ७५५) विपाकश्रुत में इन नामों के स्थान में निम्नोक्त नाम दिये गए हैं १-मियापुत्ते य, २-उझियए, ६-अभग्ग, ४-सगड़े, ५-बहस्सई, ६--नन्दी। ७--उम्बर, ८--सोरियदरे य, ह--देवदचा य १०--अञ्जू य ॥१॥ स्थानाङ्गसूत्र में जिन नामों का निर्देश किया गया है उन नामों में से इन में आंशिक भिन्नता है। इस का कारण यह है कि श्रीस्थानाङ्गसूत्र में कथानायकों का नाम ही कहीं पूर्वजन्म की अपेक्षा से रक्खा गया है और कहीं व्यवसाय की दृष्टि से । जैसे- गोत्रास और उज्झितक । उज्झितक पूर्वजन्म में गोत्रास के नाम से विख्यात था । इसी प्रकार अन्य नामों की भिन्नता के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिए । यह भेद बहुत साधारण है अतएव उपेक्षणीय है। मांगलिक विचार प्रश्न प्रत्येक ग्रन्थ के प्रारम्भ में मङ्गलाचरण करना आवश्यक होता है; यह बात सभी आर्य प्रवृत्तियों तथा विद्वानों से सम्मत है । मङ्गलाचरण भले ही किसी इष्ट का हो, परन्तु उस का आराधन अवश्य होना चाहिये । सभी प्राचीन लेखक अपने २ ग्रन्थ में मंगलाचरण का आश्रयण करते आए है। मंगलाचरण इतना उपयोगी तथा आवश्यक होने पर भी विपाकश्रुत में नहीं किया गया, यह क्यों ? अर्थात् इसका क्या कारण है ? . उत्तर-मंगलाचरण की उपयोगिता को किसी तरह भी अस्वीकृत नहीं किया जा सकता, परन्तु यह बात न भूलनी चाहिए कि सभी शास्त्रों के मूलप्रणेता श्रीअरिहन्त भगवान् हैं । ये आगम उनकी रचना होने से स्वयं ही *मंगलरूप हैं । मंगलाचरण इष्टदेव की आराधना के लिये किया जाता ___*मंगलम् इष्टदेवतानमस्कारादिरूपम् , अस्य च प्रणेता सर्वज्ञस्तस्य चापरनमस्कार्याभावान्मंगलकरणे प्रयोजनाभावाच्च न मंगलविधानम् । गणाधराणामपि तीर्थकृदक्तानुवादित्वान्मंगलाकरणम् ।अस्मदाद्यपेक्षया तु सर्वमेव शास्त्रं मंगलम्। (सूत्रकृतांगसूत्रे शीलाङ्काचार्याः) For Private And Personal Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (६०) श्री विपाक सुत्र [प्राक्कथन है, परन्तु जहां निर्माता स्वयं इष्टदेव हो वहां अन्य मंगल की क्या आवश्यकता है ? प्रश्न यह ठीक है कि मूलप्रणेता श्री अरिहन्त भगवान को मंगलाचरण की कोई आवश्यकता नहीं है किन्तु गणधरों को तो अपने इष्टदेव का स्मरणरूप मंगल अवश्य करना ही चाहिए था ? उत्तर-यह शंका भो निमूल है । कारण कि गणधरों ने तो मात्र श्री अरिहन्त देव द्वारा प्रीतपादित अर्थरूप आगम का सूत्ररूप में अनुवाद किया है। उन की दृष्टि में तो वह स्वयं ही मंगल है। तब एक मंगल के होते अन्य मंगल का प्रयोजन कुछ नहीं रहता, अतः श्री विपाकश्रुत में मंगलाचरण नहीं किया गया । प्रस्तुत टीका के लिखने का प्रयोजन यद्यपि विपाकश्रुत के संस्कृत, हिन्दी, गुजराती और इंगलिश आदि भाषाओं में बहुत से अनुवाद भी मुद्रित हो चुके हैं, परन्तु हिन्दीभाषाभाषी संसार के लिए हिन्दी भाषा में एक ऐसे अनुवाद की आवश्यकता थी जिस में मूल, छाया, पदार्थ और मूलार्थ के साथ में विस्तृत विवेचन भी हो । जिन दिनों मेरे परमपूज्य गुरुदेव प्रधानाचार्य श्री १००८ श्री आत्मा राम जी महाराज श्रीस्थानांग सूत्र का हिन्दी अनुवाद कर रहे थे, उन दिनों मैं आचार्य श्री के चरणों में श्री विपाकश्रुत का अध्ययन कर रहा था। विपाकश्रुत की विषयप्रणाली का विचार करते हुए मेरे हृदय में यह भाव उत्पन्न हुआ कि क्या ही अच्छा हो कि यदि पूज्य श्री के द्वारा अनुवादित श्री उत्तराध्ययन और दशाश्रुतस्कन्ध आदि सूत्रों की भाँति विपाकश्रुत का भी हिन्दी में अनुवाद किया जाए । आचार्य श्री को इस के लिये प्रार्थना की गई परन्तु स्थानांगादि के अनुवाद में संलग्न होने के कारण आपने अपनी विवशता प्रकट करते हुए इस के अनुवाद के लिए मुझे ही आज्ञा दे डाली। सामर्थ्य न होते हुए भी मैंने मस्तक नत किया और उन्हीं के चरणों का आश्रय लेकर स्वयं हो इस के अनुवाद में प्रवृत्त होने का निश्चय किया । तदनुसार इस शुभ कार्य को प्रारम्भ कर दिया । प्रस्तुत विवरण लिखने में मुझे कितनी सफलता मिली है ? इसका निर्णय तो विज्ञ पाठक स्वयं ही कर सकते हैं। मैं तो इस विषय में केवल इतना ही कह सकता हूं कि यह मेरा प्राथमिक प्रयास है, तथा मेरा ज्ञान भी स्वल्प है, अतः इस में सिद्धान्तगत त्रुटियों का होना भी संभव है और भावगत विषमता भी असम्भव नहीं है। अन्त में इस ज्ञानसाध्य विशाल कार्य और अपनी स्वल्प मेधा का का विचार करते हुए अपने सहृदय पाठकों से आचार्य श्री हेमचन्द्र की जी सूक्ति में विनम्र निवेदन करने के अतिरिक्त और कुछ भी कहने में समर्थ नहीं हूं: क्वाहं पशोरिप पशुः, वीतरागस्तवः क्व च । उत्तत्तीषु ररण्यानि, पद्भ्यां पंगुरिवारम्यतः ॥७॥ तथापि श्रद्धामुग्धोऽहं, नोपालभ्यः स्खलन्नपि । विशृखलापि वाग्वृत्तिः, श्रद्दधानस्य शोभते ॥८॥ (वीतराग स्तोत्र) For Private And Personal Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राकथन ] हिन्दी भाषाटीकासहित (६१) अर्थात् कहां मैं पशुसदृश अज्ञानियों का भी अज्ञानी महामृढ और कहां वीतराग प्रभु की स्तुति ? तात्पर्य यह है कि दोनों की परस्पर कोई तुलना नहीं है । मेरी तो उस पंगु जैसी दशा है जो कि अपने पांव से जंगलों को पार करना चाहता है। फिर भी श्रद्धामुग्ध - अत्यन्त श्रद्धालु होने के कारण मैं स्खलित होता हुआ भी उपालम्भ का पात्र नही हूं, क्योंकि श्रद्धालु व्यक्ति की टूटी फूटी वचनावली भी शोभा ही पाती है। नामकरण विपाक की प्रस्तुतीका का नाम “ श्रात्मज्ञानविनोदनी" रक्खा गया है । अपनी दृष्टि में यह इसका अर्थ नामकारण । जो जीवात्मा सांसारिक विनोद में आसक्त न रह कर आध्यात्मिक विनोद की अनुकूलता में प्रयत्नशील रहते हैं तथा आत्मरमण को ही अपना सर्वोत्तम साध्य बना लेते हैं । उन के विनोद में यह कारण बने इस भावना से यह नाम रखा गया है। इस के अतिरिक्त दूसरी बात यह भी है कि यह टीका मेरे परमपूज्य गुरुदेव आचार्यप्रवर श्री आत्माराम जी महाराज के विनोद का भी कारण बने, इस विचार से यह नामकरण किया गया है । तात्पर्य यह है. कि पूज्य आचार्य श्री आगमों के चिन्तन, मनन और अनुवाद में ही लगे रहते हैं, आगमों का प्रचार एवं प्रसार ही उन के जीवन का सर्वतोमुखी ध्येय है । उन की भावना है कि समस्त आगमों का हिन्दीभाषानुवाद हो जावे । उस भावना की पूर्ति में विपाकश्रुत का यह अनुवाद भो कथमपि कारण बने । बस इसी अभिप्राय से प्रस्तुत टीका का उक्त नामकरण किया गया है । टीका लिखने में सहायक ग्रन्थ इस विपाकसूत्र की टीका तथा प्रस्तावना लिखने में ।जन २ ग्रन्थों की सहायता ली गई है, उन के नामों का निर्देश तत्तत्स्थल पर ही कर दिया गया है, परन्तु इतना ध्यान रहे कि उन ग्रन्थों के अनेकों ऐसे भी स्थल हैं जो ज्यों के त्यों उद्धृत किये गए हैं। जैसे पण्डित श्री सुखलाल जी का तत्वार्थसूत्र तथा कर्मग्रन्थ प्रथम भाग, पूज्य श्री जवाहरलाल जी म० की जवाहरकिरणावली की व्याख्यानमाला की पांचवीं किरण सुबाहुकुमार तथा श्रावक के बारह व्रत में से अनेकों स्थल ज्यों के त्यों उद्धृत किये गए हैं। जिन ग्रन्थों की सहायता ली गई है उन का नामनिर्देश करने का प्रायः पूरा २ प्रयत्न किया गया है, फिर भी यदि भूल से कोई रह गया हो तो उस के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ । आभारप्रदर्शन सर्वप्रथम मैं महामहिम स्वनामधन्य श्री श्री श्री १००८ श्रीमज्जैनाचार्य श्री अमरसिंह जी महाराज के सुशिष्य मंगलमूर्ति जैनाचार्य श्री मोतीराम जी महाराज के सुशिष्य गणावच्छेदकपदविभूषित पुण्यश्लोक श्री स्वामी गणपतिराय जी महाराज के सुशिष्य स्थविरपदविभूषित परिपूतचरण श्री जयरामदास जी महाराज के सुशिष्य प्रवर्तकपदालंकृत परमपूज्य श्री स्वामी शालिग्राम जी महाराज महाराज के सुशिष्य परमवन्दनीय गुरुदेव श्री जैनधर्मदिवाकर, साहित्यरत्न, जैनागमरत्नाकर परमपूज्य श्री वर्धमान श्रमण संघ के आचार्यप्रवर श्री आत्मारामजी महारज के पावन चरणों का आभार मानता For Private And Personal Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org (६२) श्री विपाकसूत्र [प्राक्कथन हूं। आपकी असीम कृपा से ही मैं प्रस्तुत हिंदीटीका लिखने का साहस कर पाया हूं। मैंने आप श्री के चरणों में विपाकत का अध्ययन करके उस के अनुवाद करने की जो कुछ भी क्षमता प्राप्त की है, वह सब आपश्री की ही असाधारण कृपा का फल है, अतः इस विषय में परमपूज्य आचार्य श्री का जितना भी आभार माना जाय उतना कम ही है। मुझे प्रस्तुत टीका के लिखते समय जहां कहीं भी पूछने की आवश्यकता हुई, आपश्री का ही उस के लिए कष्ट दिया गया और आपश्री ने अस्वस्थ रहते हुए भी सहर्ष मेरे संशयास्पद हृदय को पूरी तरह समाहित किया, जिस के लिये मैं आप श्री का अत्यन्तान्त अनुगृहीत एवं कृतज्ञ रहूँगा । इस के अनन्तर मैं अपने जेष्ठ गुरुभ्राता, संस्कृतप्राकृतविशारद, सम्माननीय पण्डित श्री हेमचन्द्र जी महाराज का भी आभारी हूँ। आप की ओर से इस अनुवाद में मुझे पूरी २ सहायता मिलती रही है। आप ने अपना बहुमूल्य समय मेरे इस अनुवाद के संशोधन में लगाया है और इस ग्रन्थ के संशोधन कर इसे अधिकाधिक स्पष्ट, उपयोगी एवं प्रामाणिक बनाने का महान् अनुग्रह किया है, जिस लिये मैं आपश्री का हृदय से अत्यन्तात्यन्त आभारी हूं । तथा मेरे लघुगुरुभ्राता सेवाभावी श्रीरत्नमुनि जी का शास्त्रभंडार शास्त्र आदि का ढूढ कर निकाल कर देने आदि का पद पद पर सहयोग भी भुलाया नहीं जा सकता। मैं मुनि श्री का भी हृदय से कृतज्ञ हूं। इस के अतिरिक्त *जिन २ ग्रन्थों और टीकाओं का इस अनुवाद में उपयोग किया गया है उन के कर्ताओं का भी हृदय से आभार मानता हूं । अन्त में आगमों के पण्डितों और पाठकों से मेरी प्रार्थना है कि- लुधियाना, जैनस्थानक, पौष शुक्ला १२, सं० २०१० Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गच्छतः स्खलनं क्वापि भवत्येव प्रमादतः । हसन्ति दुर्जनास्तत्र, समादधति सञ्जनाः ॥ इस नीति का अनुसरण करते हुए प्रस्तुत टीका में जो कोई भी दोष रह गया हो उसे सुधार लेने का अनुग्रह करें और मुझे उस की सूचना देने की कृपा करें । इस के अतिरिक्त निम्न पद्य को भी ध्यान में रखने का कष्ट करें - नात्रातीव प्रकर्तव्यं दोषदृष्टिपरं मनः । दोषे विद्यमानेऽपि तच्चित्तानां प्रकाशते ॥ } , For Private And Personal - ज्ञानमुनि * जिन २ ग्रन्थों का श्रीविपाकसूत्र की व्याख्या एवं प्रस्तावना लिखने में सहयोग लिया गया है, उनके नाम प्रस्तुत सूत्र के परिशिष्ट नं० १ में दिये जा रहे हैं । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रीविपाकसूत्र हिन्दीभाषाटीकासहित * विषयानुक्रमणिका * प्रथम श्र तस्कन्धीय प्रथम अध्याय पृष्ठ | विषय चम्पानगरी के पूर्णभद्र नामक उद्यान में आर्य १ । मुखवस्त्रिकासम्बन्धी विचार। ४३ सुधर्मा स्वामी जी का पधारना, तथा आर्य मृगापुत्र की भोजनकालीन दुःस्थिति को देख ४६ जम्बू स्वामी जी का उन के चरणों में कुछ कर श्री गौतम स्वामी जी के हृदय में तत्कृत निवेदन करने के लिए उपस्थित होना । दुष्कर्मों के विषय में विचार उत्पन्न होना । काल और समय शब्द का अर्थभेद । ५ | श्री गौतम स्वामी जी का मृगापुत्र के पूर्वभव ५१ चौदह पूर्वो के नाम और उन का प्रतिपाद्य विषय।७ | के विषय में भगवान महावीर से पूछना । पांच ज्ञानों के नाम और उन का संक्षिप्त अर्थ । ६ | भगवान द्वारा पूर्वभव वर्णन करते हुए एकादि ५२ जासड्ढे जायसंसए आदि पदों का विस्तृत १२ | राष्ट्रकूट (मृगापुत्र का जीव) की अनैतिकता विवेचन । और अन्यायपूर्ण शासकता का प्रतिपादन दुःखविपाक के दश अध्ययनों का नामनिर्देश । १८ करना । मृगापुत्र और उभितककुमार आदि का २१ एकादि राष्ट्रकूट के शरीर में उत्पन्न १६ महा- ५७ सामान्य परिचय । रोगों का वर्णन। मृगापुत्र की रोमांचकारी शारीरिक दशा का २२ एकादि राष्ट्रकूट द्वारा अपने रोगों की चिकित्सा ६४ वर्णन । | के लिए नगरों में उद्घोषणा कराना और रोगों मृगापुत्र नामक नगर के राजमार्ग में एक २५ | की शांति के लिए किए गए वैद्यों के प्रयत्नों दयनीय अन्ध व्यक्ति का लोगों से वहां हो रहे । का निष्फल रहना। कोलाहल का कारण पूछना। एकादि राष्ट्रकूट का मृत्यु को प्राप्त हो कर ७४ अन्धव्यक्ति को देख कर भगवान गौतम का २६ | मृगाग्राम नगर में मृगादेवी की कुक्षि में तत्सदृश किसी अन्य जन्मान्ध व्यक्ति के सम्बन्ध में भगवान महावीर से प्रश्न करना। एकादि राष्ट्रकूट के गर्भ में आने पर मृगादेवी ७६ मृगापुत्र का शारीरिक वर्णन और श्री गौतम ३२ | के शरीर में उग्र वेदना का होना और उस स्वामी जी का उस को देखने के लिए जाना। का अपने पतिदेव को अप्रिय लगना । मृगादेवी द्वारा भूमिगृह में अवस्थित मृगापुत्र ४० | मृगादेवी का गर्भ को अनिष्ट समझ कर उसे ७७ का श्री गौतम स्वामी जी को दिखलाना। । गिराने के सिए अनेकविध प्रयत्न करना । | उत्पन्न होना। For Private And Personal Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir विषयानुक्रमणिका श्री विपाकसूत्र विषय पृष्ठ | विषय गर्भस्थ जीव के शरीर में अग्निक-भस्मक व्याधि ८० महावीर स्वामी से उस के पूर्वभव के सम्बका उत्पन्न होना । न्ध में प्रश्न करना। मृगादेवी के एक जन्मान्ध और प्राकृतिमात्र ८२ हस्तिनापुर नगर के गोमण्डप का वर्णन । १३७ बालक का उत्पन्न होना और उस को कूड़े भीम नामक कूटप्राह की उत्पला नामक भार्या १३६ कचरे के ढेर पर फेंकने के लिए दासी को | को दोहद उत्पन्न होना। आदेश देना। | दोहद का स्वरूप और उसकी पूर्ति के लिए १४१ रानी की आज्ञा के विषय में दासी का राजा ८५ | उसे पति का आश्वासन देना । से पूछना, अन्त में बालक का भूमिगृह में भाम कटग्राह के द्वारा अपनी भायो के दाहद १४६ पालन पोषन किया जाना। की पूर्ति करना। गौतम स्वामी का मृगापुत्र के अगले भवों के ८८ उत्पला के यहाँ बालक का जन्म और उस का १४६ सम्बन्ध में भगवान महावीर से पूछना। गोत्रास नाम रखना, तथा भीम कूटप्राह का भगवान का मृगापुत्र के मोक्षपर्यन्त अगले ८८ मृत्यु का प्राप्त होना। सभी भवों का प्रतिपादन करना । सुनन्द राजा का गोत्रास को कृटप्राहित्य पद पर १५३ जातिकुलकोटि शब्द की व्याख्या । स्थापित करना और गोमांस आदि प्रतिक्रमण शब्द पर विचार । के भक्षण द्वारा गोत्रास का मर कर नरक समाधि शब्द का पर्यालोचन । में उत्पन्न होना। श्री दृढ़प्रतिज्ञ का संक्षिप्त परिचय । गोत्रास के जीव का विजयमित्र नामक १५६ अथ द्वितीय अध्याय सार्थवाह की सुभद्रा नामक भार्या के यहां | बालकरूप से उत्पन्न होना और उस का द्वितीय अध्याय की उत्थानिका के साथ साथ १०४ । “उज्झितक कुमार" ऐसा नाम रखा जाना । वाणिजग्राम नामक नगर में अवस्थित काम- विजयमित्र सार्थवाह का अपने जहाज़ समेत १६१ ध्वजा वेश्या का वर्णन । समुद्र में डूबना और पतिवियोग से दुःखित ७२ कलाओं का विवेचन । १०८' सुभद्रा सार्थवाही का भी मृत्यु का प्राप्त होना। उज्झितककुमार का पारिवारिकि परिचय। ११६ उज्झितककुमार का घर से निकाल दिया जाना १६६ भगवान महावीर स्वामी का वाणिजग्राम १२१ और उस का स्वच्छन्द हो कर भ्रमण करने के नगर में पधारना और गौतम स्वामी जी का साथ २ कामध्वजा वेश्या के सहवास में पारणे के लिए नगर में जाना। रहना। भगवान गौतम का वाणिजग्राम नगर के राज- १२३ महाराज विजयमित्र की महारानी श्री- १६६ मार्ग में वध के लिये लेजाए जाते हुए उज्झितक- देवी को योनिशूल का होना तथा उज्झितककुमार को देखना । कुमार को कामध्वजा वेश्या के घर से उज्झितककुमार की दयनीय अवस्था से प्रभा- १३१ निकाल कर राजा का वेश्या को अपने महलों वित हुए अनगार गौतम का भगवा में रखना । इस के अतिरिक्त उज्झितककुमार For Private And Personal Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir विषयानुक्रमणिका हिन्दीभाषाटीकासहित (६५) विषय पृष्ठ | विषय का कामध्वजा के प्रति आसक्त होना । | का विजयसेन चोरसेनापति की स्त्री स्कन्दउज्झितककुमार का अवसर पाकर कामध्वजा १७३ / श्री के गर्भ में आना और इसकी माता को के साथ विषयोपभोग करना। एक दोहद का उत्पन्न होना। राजा द्वारा कामभोग का सेवन करते हुए १७४ स्कन्दश्री के दोहद का उत्पन्न होना और २२३ उज्झितक कुमार को देखना और अत्यन्त एक बालक को जन्म देना । क्रुद्ध हो कर उसे मरवा देना।। बालक का अभग्नसेन ऐसा नाम रखा जाना । २२८ गौतम स्वामी का उज्झितक कुमार के अग्रिम १७८ अभग्नसेन का आठ लड़कियों के साथ २३२ भवों के सम्बन्ध में पूछनो तथा भगवान विवाह का होना । महावीर का उत्तर देना। विजयसेन चोरसेनापति की मृत्यु और उस २३४ अथ तृतीय अध्याय के स्थान पर अभग्नसेन की नियुक्ति। तृतीय अध्याय की उत्थानिका और १६१ | अभग्नसेन द्वारा बहुत से ग्राम नगरादि का २३७ शालाटवी नामक चोरपल्ली तथा उस लुटा जाना तथा पुरिमताल नगरनिवासियों में रहने वाले चोरसेनापति विजय का का अभग्नसेनकृत उपद्रवों को शान्त करने वणन । के लिए महाबल राजा से विनति करने के विजय चोरसेनापति की दुष्प्रवृत्तियों का १६८ | लिए उपस्थित होना । विवेचन तथा उस की स्कन्धश्री नामक नागरिकों का राजा से विज्ञप्ति करना। २४० भार्या के अभग्नसेन नामक बालक का विज्ञप्ति सुन कर महाबल राजा का अभग्न- २४२ निरूपण । सेन के प्रति क्रुद्ध होना और उसे जीते जी पुरिमताल नगर के मध्य में श्री गौतम २०३ पकड़ लाने के लिए दण्डनायक को आदेश देना। स्वामी का एक वध्य पुरुष को देखना जिस | दण्डनायक का चोरपल्ली की ओर प्रस्थान २४५ के सामने उस के सम्बन्धियों पर अत्यधिक करना। मारपीट की जा रही थी। ५०० चोरों सहित अभग्नसेन का सन्नद्ध २४६ उस पुरुष की दयनीय अवस्था का देख कर २०६ हो कर दंडनायक की प्रतीक्षा करना ।। गौतम स्वामी को तत्कृत कर्मों के सम्बन्ध में दोनों ओर से युद्ध का होना, दंडनायक का २५१ विचार उत्पन्न होना तथा उस के पूर्वभव हारना और महाबल राजा का साम दाम के सम्बन्ध में भगवान महावीर से पूछना । आदि उपायों को काम में लाना । भगवान का पूर्वभव वर्णन करते हुए यह २११ महाबल राजा द्वारा एक महती कुटाकार- २५७ फरमाना कि इस जीव ने पूर्वभव में निर्णय शाला का बनवाना, दशरात्रि नामक उत्सव नामक अण्डवाणिज के रूप में नाना प्रकार का मनाया जाना और उस में सम्मिलित को अण्डों के जघन्य व्यापार से पापपुज होने के लिए चौरसेनापति अभग्नसेन को को एकत्रित किया था, परिणामस्वरूप यह आमन्त्रित करना । तीसरी नरक में उत्पन्न हुआ था। | आमंत्रित अभग्नसेन का अपने सम्बन्धियों २६३ नरक से निकल कर अण्डवाणिज के जीव २१७ | और साथियों समेत पुरिमताल नगर में आना और For Private And Personal Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाकसूत्र [विषयानुक्रमणिका विषय पृष्ठ | विषय राजा द्वारा उस का सम्मानित किया जाना, सुषेण मंत्री का शकटकुमार को सुदर्शना ३०२ तथा उस का कुटाकारशाला में ठहराया जाना। वेश्या के साथ कामभोग करते हुए देख राजा द्वारा नगर के द्वार बन्द करा देना २६६ कर क्रुद्ध होना । अपने पुरुषों द्वारा दोनों को और अभग्नसेन को जीते जी पकड़ लेना पकड़वाना और राजा द्वारा इन के वध की तथा राजा की आज्ञा द्वारा उस का वध आज्ञा दिलवाना। किया जाना। अनगार गौतम स्वामी का शकटकुमार के ३०६ चोरसेनापति के आगामी भवों के सम्बन्ध में २७१ आगामी भवों के सम्बन्ध में प्रश्न करना। अनगार गौतम का भगवान से पूछना भगवान महावीर का शकटकुमार के आगामी ३०७ और भगवान का उत्तर देना । भवों का मोक्षपर्यन्त वर्णन करना । अथ चतुर्थ अध्याय | मांसाहार का निषेध । ३१३ चतुर्थ अध्याय की उत्थानिका ।। २७६ साहञ्जनी नामक नगरी की सुदर्शना नामक २८० अथ पञ्चा अध्याय वेश्या तथा सुभद्र सार्थवाह के पुत्र शकट- नगरी, राजा, वृहस्पतिदत्त तथा इस के परिवार ३१७ कुमार का संक्षिप्त परिचयः ।। | का संक्षिप्त परिचय । जनसमूह के मध्य में अवकोटक बन्धन से २८४ गौतम स्वामी का राजमार्ग में एक वध्य पुरुप ३२० युक्त स्त्रीसहित एक वध्य पुरुष को देख कर को देखना और उस के पूर्वभव के विषय उस के पूर्व भव के विषय में अनगार में भगवान महावीर से पूछना । गौतम स्वामी का श्री भगवान महावीर से पूर्वभव को बताते हुए भगवान का सर्वतोभद्र ३२१ प्रश्न करना। नगर में जितशत्रु राजा के महेश्वरदत्त भगवान का यह फरमाना कि वध्य व्यक्ति २८७ पुरोहित द्वारा किए जाने वाले कर हिंसक पूर्व भव में छएिणक नामक छागलिक | यज्ञ का वर्णन करना। (कसाई) था। वह मांस द्वारा अपनी आजी- क्र रकर्म के द्वारा महेश्वरदत्त पुरोहित का ३२७ विका किया करता था तथा स्वयं भी मांसाहारी । पंचम नरक में उत्पन्न होना। था । फलतः उसका नरक में उत्पन्न होना। नरक से निकल कर कौशाम्बी नगरी में ३२८ नरक से निकल कर छरिणक छागलिक के २६३ सोमदत्त पुरोहित की वसुदत्ता नामक भार्या जीव का साहञ्जनी नगरी में सुभद्र सार्थवाह की कुक्षि में महेश्वरदत्त पुरोहित के जीव के घर में उत्पन्न होना । उस का शकटकुमार का उत्पन्न होना । जन्म होने पर उस का नाम रखा जाना । मातापिता का मृत्यु को । वृहस्पतिदत्त' यह नामकरण किया जाना । प्राप्त होना। शकटकुमार को घर से निकाल वृहस्पतिदत्त को रानी पद्मावती के साथ देना, उस का सुदर्शना वेश्या के साथ कामक्रीड़ा करते हुए देख कर उदयन राजा रमण करना । सुषेण मंत्री द्वारा शकटकुमार का उस के वध के लिए आज्ञा देना तथा को वहां से निकाल कर सुदर्शना को अपने राजाज्ञा द्वारा उस का वध किया जाना। घर में रख लेना। गौतम स्वामी का वृहस्पतिदच पुरोहित के ३३४ For Private And Personal Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir विषयानुक्रमणिका हिन्दीभाषाटीकासहित (६७) विषय पृष्ठ | विषय पृष्ठ आगामी भवों के विषय में भगवान महावीर | आगामी भनों के सम्बन्ध में भगवान महासे पूछना । भगवान द्वारा वृहस्पतिदत्त के आ- वीर से पूछना । गामी भवों का मोक्षपर्यन्त निरूपण करना। भगवान महावीर स्वामी का नन्दिषेण के ३६६ अथ षष्ठ अध्याय आगामी भवों के सम्बन्ध में मोक्षपर्यन्त छठे अध्ययन की उत्थानिका । ३३८ | वर्णन करना। मथुरा नगरी के श्रीदाम नामक राजा और ३३६, . अथ सप्तम अध्याय उस की बन्धुश्री भार्या, नन्दीवर्धन नामक सप्तम अध्याय की उत्थानिका । ३७३ राजकुमार और राजा के चित्र नामक उम्बरदत्त का संक्षिप्त परिचय । ३७४ नापित का संक्षिप्त परिचय। गौतम स्वामी का एक दीन हीन और रुग्ण ३७५ श्री गौतम स्वामी जी का मथुरा नगरी के ३४१ | व्यक्ति को देखना। राजमार्ग के चत्वर में एक पुरुष को देखना | गौतम स्वामी जी का दूसरी बार पुनः उसी ३८२ और उस के पूर्वभव के विषय में भगवान से | रोगी व्यक्ति को देखना । अन्त में भगवान पूछना, जिस को अग्नितुल्य लोहमय सिंहासन से उस के पूर्वभव के विषय में पूछना । फलतः पर बिठाकर ताम्रपूर्ण, त्रपुपूर्ण तथा कलकल भगवान का कहना। करते हुए गरम २ जल से परिपूर्ण लोहकलशों | इस जीव का धन्वन्तरि वैद्य के भव में स्वयं ३८६ के द्वारा राज्याभिषेक कराया जा रहा था। मांसाहार करना तथा दूसरों को मांसाहार का पूर्वभव का विवेचन करते हुए भगवान का ३४५ | उपदेश देना। अन्त में नरक में उत्पन्न होना। दुर्योधन नामक चारकपाल- जेलर का तथा सागरदत्त सेठ की गंगादत्ता नामक भार्या ३६६ उस के कारागृह की सामग्री का वर्णन करना। । का किसी जीवित रहने वाले बालक अथवा दुर्योधन चारकपाल द्वारा अपराधियों को दिए ३५१ बालिका को प्राप्त करने की कामना करना। जाने वाली क्रूरतापूर्ण यन्त्रणाओं का वर्णन । .. सागरदत्त सेठ की भार्या गंगादत्ता का उम्ब-४०५ दुर्योधन चारकपाल का मर कर नरक में जाना ३५६ । रदत्त नामक यक्ष की सन्तानप्राप्ति के तथा वहां से निकल कर श्रीदाम राजा के । लिए मनौती मनाना। घर उत्पन्न हो कर नन्दिषेण के नाम से धन्वन्तरि वैद्य के जीव का नरक से निकल ४०॥ विख्यात होना। नन्दिषेण राजकुमार का कर गंगादत्ता के गर्भ में पुत्ररूप से आना श्रीदाम राजा की घात करने के लिए अव- और गंगादत्ता को दोहद का उत्पन्न होना। सर की प्रतीक्षा में रहना। गङ्गादत्ता के पुत्र का उत्पन्न होना और उस ४१३ नन्दिषण का श्रीदाम राजा की हत्या के ३६३ का उम्बरदत्त नाम रखना, तथा उस बालक लिए चित्र नामक नापित के साथ मिल कर के शरीर में १६ रोगों का उत्पन्न होना । षडयन्त्र करना। नापित का इस उक्त रहस्य गौतम स्वामी का भगवान् से उम्बरदत्त के ४२० को राजा के प्रति प्रकट करना। अन्त में । आगामी भवों के सम्बन्ध में पूछना । राजकुमार का राजाज्ञा द्वारा वध किया जाना। भगवान महावीर का उम्बरदत्त के आगामी ४२१ श्री गौतम स्वामी का राजकुमार नन्दिषेण के ३६८ भवों का मोक्षपर्यन्त वर्णन करना । For Private And Personal Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाकसूत्र [विषयानुक्रमणिका विषय पृष्ठ, विषय पृष्ठ अथ अष्टम अध्याय सिंहसेन राजा का श्यामादेवी के अतिरिक्त ४८८ शौरिकदत्त का संक्षिप्त परिचय। शेष रानियों की माताओं को आमंत्रित श्री गौतम स्वामी जी का एक दयनीय व्यक्ति ४२८ करना और कूटाकारशाला में अवस्थित को देख कर भगवान् से उस के पूर्वभव के उन माताओं को अग्नि के द्वारा जला देना विषय में पूछना और भगवान का पूर्वभव अन्त में अपने दुष्कर्मों के परिणामस्वरूप विषयक प्रदिपादन करना । उस का नरक में उत्पन्न होना । श्रीयक रसोइए का मांसाहारसम्बन्धी वर्णन ४३२ सिंहसेन राजा के जीव का रोहितक नगर ४६४ करने के अनन्तर उस का नरक में उत्पन्न में दत्त सार्थवाह की कृष्णश्री भार्या के होने का निरूपण करना। यहां पुत्रीरूप से उत्पन्न होना। मदिरापान के कुपरिणामों का निरूपण । ४४० देवदत्ता का पुष्यनन्दी के लिए भार्यारूप से ४६८ नरक से निकल कर श्रीयक का समुद्रदत्ता के ४४७ मांगा जाना। यहां उत्पन्न होना और उस का शौरिकदत्त पुष्यनंदी राजकुमार का देवदत्ता के साथ ५०४ नाम रखा जाना। विवाहित हीना। शौरिकदत्त का मच्छीमारों का मुखिया ४५० | पुष्यनन्दी राजा का अपनी माता श्री देवी ५०६ मी मारने के बारे में प्रगति की अत्यधिक सेवाशुश्रूषा करना । शील होना। महारानी देवदत्ता द्वारा अपनी सास श्री- ५१३ शौरिकदत्त के गले में एक मत्स्यण्टक का ४५४ / देवी का क्रूरतापूर्ण वध किया जाना । लग जाना, परिणामस्वरूप उस का अत्यन्ता- पुष्यनंदी राजा द्वारा महारानी देवदत्ता का ५१६ त्यन्त पीड़ित होना । मातृहत्या की प्रतिक्रिया के रूप में वध शौरिकदत्त के आगामी भवों के सम्बन्ध में ४६० करवाना। देवदत्ता के अगामी भवों के सम्बन्ध में ५२२ गौतम स्वामी का भगवान से पूचना और भगवान् का उस के अग्रिम भवों का मोक्ष गौतम स्वामी का भगवान से पूछना। पर्यन्त वर्णन करना। | भगवान महावीर द्वारा मोक्षपर्यन्त देवदत्ता ५२२ के आगामी भवों का वर्णन करना । अथ नवम अध्याय गौतमस्वामी जी का एक अत्यन्त दुःखी स्त्री ४६५ अथ दशम अध्याय को देख कर भगवान महावीर स्वामी से दशम अध्याय की उत्थानिका । ५२५ उस के पूर्वभव के सम्बन्ध में पूछना । श्री गौतम स्वामी जी का एक अति दुःखित ५२६ सिंहसेन राजकुमार का संक्षिप्त परिचय । ४६६ । स्त्री को देख कर उस के पूर्व भव के सम्बन्ध सिंहसेन राजा का श्यामादेवी रानी में आसक्त ४७६ | में भगवान से पूछना । भगवान का हो कर शेष रानियों का आदर न करना। | पूर्वभव के विषय में प्रतिपादन करना। सिंहसेन राजा का शोकग्रस्त श्यामादेवी को ४८४ | इस जीव का पृथिवीश्री गणिका के भव में ५३० आश्वासन देना, तथा अपने नगर में एक व्यभिचारमूलक पाप कर्मों के कारण मर कर महती कूटाकारशाला का निर्माण कराना । नरक में जाना वहां से निकल कर अजूश्री For Private And Personal Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir विषयानुक्रमाणिका] हिन्दीभाषाटीकासहित (६६) विषय पृष्ठ विषय पृष्ठ के रूप में उत्पन्न होना तथा उस का महाराज सुमुख गाथापति के द्वारा श्री सुदत्त अनगार ६२४ विजय के साथ विवाहित होना । का आदर सत्कार करना और विशुद्ध अजूश्री महारानी की योनि में शूल का ५३५ | भावनापूर्वक मुनिश्री को आहार देना। उत्पन्न होना, परिणामस्वरूप अधिकाधिक परिणामस्वरूप उस के घर में ५ प्रकार के वेदना का उपभोग करना। दिव्यों का प्रकट होना और मनुष्यायु को अजूश्री के आगामी भवों के सम्बन्ध में ५३८ | बान्धना. मत्यु के अनन्तर हस्तिशीर्षक नगर श्री गौतम स्वामी जी का भगवान महावीर में अदीनशत्रु राजा की धारिणी रानी स्वामी से पूछना। की कुक्षि में पुत्ररूप से उत्पन्न होना, तथा भगवान महावीर का अञ्जूश्री के आगामी ५३६ / बालक ने जन्म लेकर युवावस्था को प्राप्त कर भवों का मोक्षपर्यन्त वर्णन करना । सांसारिक सुखों का अनुभव करना । द्वितीय श्र तस्कन्धीय सुबाहकुमार नामक | श्री गौतम स्वामी जी का भगवान महावीर ६३७ प्रथम अध्ययन स्वामी से सुबाहुकुमार की अनगारवृत्ति को धारण की समर्थता के विषय में पूछना। प्रथम अध्ययन की उत्थानिका । ५४६ | श्री सुबाहुकुमार जी का श्रमणोपासक होना द्वितीय श्रुतस्कन्ध में वर्णित दश महापुरुषों ५५० तथा पौषधशाला में किसी समय तेलाका नामनिर्देश, तथा प्रथम अध्ययन के पौषध करना। प्रतिपाद्य विषय को पृच्छा। श्री सुबाहुकुमार के मन में इस विचार का उत्पन्न ६४४ श्री सुबाहुकुमार जी का संक्षिप्त परिचय । ५५७ होना कि जहां भगवान महावीर विहरण श्री सुबाहुकुमार जी का भगवान् महावीर ५७० करते हैं वे ग्राम, नगर आदि धन्य हैं, जो स्वामी के पास श्रावक के बारह व्रतों को भगवान महावीर के पास अनगारवृत्ति धारण करना। अथवा श्रावकवृत्ति को धारण करते हैं श्रावक के बारह व्रतों का विवेचन। ५७६ और भगवान् की वाणी सुनते हैं वे भी चम्पानरेश कूणिक की प्रभुवीरदर्शनार्थ कृत ५६६ | धन्य हैं। यदि भगवान् अब कि यहां यात्रा का वर्णन । पधार जाएं तो मैं भी भगवान के चरणों श्री जमालिकुमार जी की वीरदर्शनयात्रा ६०२ | में अनगारवृत्ति को धारण करूगा । का वर्णन । सुबाहुकुमार के कल्याण के निमित्त श्रमण ६४६ श्री गौतम स्वामी जी का भगवान महावीर ६०५ / भगवान महावीर स्वामी का हस्तिशीर्ष स्वामी से श्री सुबाहुकुमार जी की विशाल | नगर में पधारना तथा भगवान के चरणों में मानवी ऋद्धि के विषय में पूछना। श्री सबाहुकुमार का दीक्षित होना। सुमुख गाथापति का संक्षिप्त परिचय तथा ६१६ | श्रेणिकपुत्र मेघकुमार का जीवनपरिचय। ६५५ सुदत्त अनगार का सुमुख गाथापति के घर | श्री सुबाहुकुमार द्वारा ज्ञानाभ्यास तथा तप ६६६ में पारणे के निमित्त प्रवेश करना । | का पारावन करना । अन्त में समाधिपूर्वक For Private And Personal Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (७०) श्री विपाकसूत्र [विषयानुक्रमाणिका विषय पृष्ठ | विषय काल करके सुबाहुकुमार की प्रथम देवलोक ... राजकुमार जिनदास का जीवनपरिचय । ६६१ में उत्पत्ति बतलाकर सूत्रकार का अन्त में द्वितीयश्र तस्कन्धोय षष्ठ अध्याय "-वह महाविद क्षेत्र में जन्म लेकर मुक्त | राजकुमार धनपति का जीवनपरिचय। ६६४ हो जाएगा-" ऐसा निरूपण करना । द्वितीयथ तस्कन्धीय सप्तम अध्याय अंग,उपांग आदि सूत्रों का सामान्य परिचय । ६६६ । कल्प शब्द सम्बन्धी अर्थविचारणा। ६७४ | राजकुमार महाबल का जीवनपरिचय। ६६६ द्वितीयश्रु तस्कन्धीय द्वितीय अध्याय । द्वितीयश्रु तस्कन्धीय अष्टम अध्याय द्वितीय अध्याय की उत्थानिका। ६८० राजकुमार भद्रनन्दी का जीवनपरिचय। ६६६ राजकुमार भद्रनन्दी का जीवनपरिचय तथा ६८० द्वितीयश्रु तस्कन्धीय नवम अध्याय . अतीत भव एव मोक्षपर्यन्त अनागत भवों | राजकुमार महाचन्द्र का जीवनपरिचय। ७०१ का विवेचन । ___द्वितीयथ तस्कन्धीय दशम अध्याय द्वितीयश्र तस्कन्धीय तृतीय अध्याय राजकुमार श्री वरदत्त का जीवनपरिचय । ७०४ तृतीय अध्याय की उत्थानिका । राजकुमार ६८५ विपाकमूत्रीय उपसंहार ७०८ सुजातकुमार के अतीत भव और मोक्ष- उपधान शब्द की अर्थविचारणा। पर्यन्त अनागत भवों का विवेचन। आगमों के अध्ययन के लिए आयंविल तप ७१० ... द्वितीयश्रुतस्कन्धीय चतुर्थ अध्याय की तालिका ।। चतुर्थ अध्याय की उत्थानिका। ६८८ विपाकमूत्र का परिशिष्ट भाग ७१३ राजकुमार सुवासवकुमार का जीवनपरिचय। ६८८ | परिशिष्ट नं०.१ द्वितीय तस्कन्धीय पञ्चम अध्याय परिशिष्ट नं०२ पञ्चम अध्याय की उत्थानिका। ६६१ | परिशिष्ट नं०३ ७१० ७१५ SAY For Private And Personal Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir विपाक-सूत्रम् संस्कृतच्छाया- पदार्थान्वय-मूलार्थोपेतम् आत्मज्ञानविनोदिनीहिन्दीभाषाटीकासहितं च For Private And Personal Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private And Personal Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir विपाकसूत्र हिंदीभाषाटीकासहित का दुःखविपाक नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध विनम्र विनिवेदन पाठक महानुभावों से सानुरोध निवेदन है कि वे श्री विपाकसूत्र का स्वाध्याय करने से पूर्व परिशिष्ट नं. ३ को देख कर अशुद्ध स्थलों को शुद्ध कर के पढ़ें। For Private And Personal Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir "नमोऽत्थु णं समणस्स भगवश्रो महाबोरस्स" श्री विपाक सत्र मूल-तेणं' कालेणं तेणं समएणं चंपा णामं णयरी होत्था । वएणो । पुण्णभद्दे चेइए । वएणो। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवो महावीरस्स अंतेवासी अज्ज-सुहम्मे णामं अणगारे जाइसंपन्ने, वएणो। चोद्दसपुवी चउणाणोवगए पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिखुड़े पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे जाव जेणेव पुण्णभद्दे चेहए अहापड़िरूवं जाब विहरइ । परिसा निग्गया। धम्मं सोचा निसम्म जामेव दिसं पाउव्भूया तामेव दिसं पड़िगया । तेणं कालेणं तेण समएणं अज्जसुहम्मस्स अंतेवासी अज्जजंबू णामं अणगारे सत्तुस्सेहे जहा गोयमसामी तहा जाव झाणकोट्ठोवगए विहरति । तते णं अज्जजंबू णाम अणगारे जायसड्ढे जाव जेणेव अज्जसुहम्मे अणगारे तेणेव उवागए, तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति, करेत्ता वंदति नमंसति वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासति, पज्जुवासित्ता ऐवं वयासी। पदार्थ तेणं कालेणं-उस काल में । तेणं समएणं-उस समय में। चंपा णाम-चम्पा नाम को।णयरी-नगरी। होत्था -थी। वरण प्रो-वर्णक - वर्णन ग्रन्थ अर्थात् नगरी का वर्णन औपपातिक सूत्र में किये गये वर्णन के समान जान लेना, उसनगरी के बाहिर ईशान कोण में। पुरा गभहे चेइए - पूर्णभद्र (१) छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगर्य्यभूत् । वर्णकः । पूर्णभद्रं चैत्यम् । वर्णकः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यांतेवासी आर्यसुधा नामानगारो जातिसम्पन्नः । वर्णकः । चतुर्दशपूर्वी चतुर्ज्ञानोपगतः पञ्चभिरनगारशतैः सार्द्ध संपरिवृतः पूर्वानुपूर्व्या चरन् यावद् यत्रैव पूर्णभद्र चैत्यं यथा-प्रतिरूपं यावद् विहरति परिषद् निर्गता • धर्म श्रुत्वा निशम्य यस्या एव दिशः प्रादुर्भूता तामेव दिशं प्रतिगता । तस्मिन् काले तस्मिन् समये आर्यसुधर्मणोऽन्तेवासी आर्यजम्बू मानगारः सप्तोत्तेधो यथा गौतमस्वामो तथा यावद् ध्यानकोष्ठोपगतः विहरति । ततः आजम्बू मानगारो जातश्रद्धो पाबद् यत्रैवार्यसुधर्माऽनगारस्तत्रैवोपगतः,बिरादक्षिण-प्रदक्षिणं करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा यावत् पर्युपासते, पर्युपास्य वमवदत् । (२) 'वराणो ” पद से सूत्रकार का अभिप्राय वर्णन ग्रन्थ से है अर्थात् जिस प्रकार श्री श्रौपपातिक प्रादि सूत्रों में नगर, चैत्य आदिका विस्तृत विवेचन किया गया है उसी प्रकार यहां पर भी नगरी प्रादि का वर्णन जान लेना चाहिये । For Private And Personal Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [प्रथम अध्याय नाम का एक उद्यान था। वराण प्रो-वर्णक-वर्णन-ग्रन्थ पूर्ववत् । तेणं कालेणं-उस काल में । तेणं समरणं उस समय में। समणस्स भगवो महावीरस्स-श्रमण भगवान महावीर स्वामी के । अंतेवासीशिष्य । जाइसंम्परणे - जातिसम्पन्न । चोदसपुव्वी- चतुर्दश पूर्वो के ज्ञाता। चउणाणोधगए -- चार ज्ञानों के धारक । वराणो-वर्णक पूर्ववत् । अजसुहम्मे णामं अणगारे- आर्य सुधर्मा नाम के अनगार-(अगार रहित) साधु । पंचहिं अर,गारसएहिं सद्धिं - पांच सौ साधुओं के साथ अर्थात्संपरिखुड़े - उन साधुत्रों से घिरे हुए । पुवाणुपुग्विं चरमाणे- क्रमशः विहार करते हुए । जावयावत् । पुण्णभद्दे चेइर-पूर्णभद्र चैत्य उद्यान । जेणेव - जहां पर था । अहापडिरूवं - साधु-वृत्ति के अनुरूप अवग्रह-स्थान ग्रहण करके । जाव-- यावत् । विहरइ - विहरण कर रहे हैं। परिसा - जनता। निग्गया-निकली। धम्म-धर्म-कथा। सोच्चा–सन करके । निसम्म- हृदय में धारण करके । जामेव दिसं पाउन्भूया-जिस ओर से आई थी । तामेव दिसं पडिगया - उसी ओर चली गई । तेणं कालेणं-उस काल में । तेणं समएण-उस समय में। अजसुहम्मम्स-आर्य सुधर्मा स्वामी के । अंतेवासी-शिष्य । सत्तुस्सेहे-सात हाथ प्रमाण शरीर वाले । जहा-जिस प्रकार । गोयमसामी-गौतम स्वामी, जिन का प्राचार भगवती सूत्र में वर्णित है । तहा -- उसी प्रकार के प्राचार को धारण करने वाले । जाव-यावत् । भाणकोट्ठोवगए-ध्यान रूप कोष्ठ को प्राप्त हुए । विहरति-विराजमान हो रहे हैं । तते णं-उस के पश्चात् । अजजम्बू णामं अणगारे-आर्य जम्बू नामक अनगार-मुनि । जायसड्ढे-श्रद्धा से युक्त । जाव-यावत् । जेणेव -जिस स्थान पर । अजसुहम्मे अणगारे- आर्य सुधर्मा अनगार विराजमान थे । तेणेव उवागए --उसी स्थान पर पधार गये । तिक्खुत्तो-तीन वार । आयाहिणपयाहिणं-दाहिनी ओर से प्रारम्भ करके पुनः दाहिनी ओर तक प्रदक्षिणा को । करोति- करते हैं। करता-करके । वन्दति-वन्दना करते हैं । नमंसतिनमस्कार करते हैं । वंदित्ता नमंसित्ता-वन्दना तथा नमस्कार करके । जाव -यावत् पज्जुवासति - भक्ति करने लगे। पज्जुवा सित्ता-भक्ति करके । एवं-इस प्रकार । वयासो-कहने लगे । मूलाथे—उस काल तथा उस समय में चम्पा नाम की एक नगरी था । चम्पा नगरी का वर्णन औपपातिक सूत्रगत वर्णन के सहरा जान लेना चाहिये । उस नगरो के बाहिर ईशान कोण में पूर्णभद्र नाम का एक चैत्य - उद्यान था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के शिष्य चतुर्दश पूर्व के ज्ञाता, चार ज्ञानों के धारक, जातिसम्पन्न [जिन की माता सम्पूर्ण गुणों से युक्त अथवा जिस का मातृ पन विशद्व हो ] पांचसौ अनगारों से सम्परिवृत आये सुधर्मा नाम के अनगार-मुनि क्रमशः विहार करते हुए पूर्ण-भद्र नामक चैत्य में अनगारोचित्त अवग्रह-स्थान ग्रहण कर विराजमान हो रहे हैं। धर्म कथा सुनने के लिये परिषद्-जनना नगर से निकल कर वहां आई, धर्मकथा सुनकर उसे हृदय में मनन एवं धारण कर जिस ओर से आई थी उसो ओर चली गई उस काल तथा उस समय में आर्य सुधर्मा स्वामो के शिष्य, जिन का शरीर सात हाथ का है, और जो गौतम स्वामी के समान मुनि-वृत्ति का पालन करने वाले तथा ध्यानरूप कोष्ठ को प्राप्त हो रहे हैं, आर्य *जम्बू नामक अनगार विराजमान हो रहे हैं । तदनन्तर जातश्रद्ध-श्रद्धा से *जम्बू कुमार कौन थे ? इस जिज्ञासा का पूर्ण कर लेना भी उचित प्रतीत होता है । सेठ For Private And Personal Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । सम्पन्न आर्य श्री जम्बूस्वामी श्री सुधर्मा स्वामी के चरणों आर से बाईं ओर तीन बार अञ्जलिबद्ध हाथ घुमाकर आवर्तन रूप वन्दना और नमस्कार करके उनकी सेवा करते हुए इस प्रकार बोले । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३ में उपस्थित हुए, दाहिनी प्रदक्षिणा करने के अनन्तर टीका- आगमों के संख्या बद्ध क्रम में प्रश्न व्याकरण दशवां और विपाक त ग्यारवां अंग है, अतः प्रश्न व्याकरण के अनन्तर विपाक श्रुत का स्थान स्वाभाविक ही है । वर्तमान काल में उपलब्ध प्रश्न दत्त की धर्मपत्नी का नाम धारिणी था । दम्पती सुख पूर्वक समय व्यतीत कर रहे थे । एक बार गर्भकाल में सेठानी धारिणो ने जम्बू वृक्ष को देखा । पुत्रोत्पत्ति होने पर बालक का स्वप्नानुसारी नाम जम्बू कुमार रखा गया । जम्बू कुमार के युवक होने पर आठ सुयोग्य कन्याओं के साथ इनकी सगाई कर दी गई। उसी समय श्री सुवर्मा स्वामी के पावन उपदेशों से इन्हें वैराग्य होगया, सांसारिकता से मन हटा कर साधु जीवन अपनाने के लिये अपने आप को तैयार कर लिया, तथापि माता पिता के प्रेमभरे ग्राग्रह से इन का विवाह सम्पन्न हुआ । विवाह में इन्हें करोड़ों को सम्पत्ति मितो थो । कुमार का हृदय विवाह से पूर्व ही वैराग्यतरंगों से तरङ्गित था, श्री सुधर्मा स्वामी के चरणकमलों का भ्रमर बन चुका था, इसी लिये नववधूओं के श्रृंगार, हावभाव इन्हें प्रभावित न कर सके और वे समस्त सुन्दरिये इन्हें अपने मोह - जाल में फंसाने में सफल न हो सकीं । प्रभव राजगृह का नामी चोर था । विवाह में उपलब्ध प्रीतिदान-दहेज को चुराने के लिये ५०० शूरवीर साथियों का नेतृत्व करता हुआ वह कुमार के विशाल रमणीय भवन में श्रा धमका था। ताला तोड़ देने और लोगों को सुला देने की अपूर्व विद्याओं के प्रभाव से उसे किसी बाधा का सामना नहीं करना पड़ा । भवन के प्रांगन में पड़े हुए मोहरों के ढेरों को गठरियें बांध ली गई, और भवन से बाहिर स्थित प्रभव ने साथियों को उन्हें उठा ले चलने का आदेश दिया । कुमार प्रभव इस कुकृत्य से अपरिचित नहीं थे, धन यादि की ममता का समूलोच्छेद कर लेने पर भी "चांरी होने से जम्बू साधु हो रहा है" इस लोकापवाद से बचने के लिये उन्हों ने कुछ अलोकिक प्रयास किया । भवन के मध्यस्थ सभी चोरों के पांव भूमी से चिपक गये । शक्ति लगाने पर भी वे हिल न सके । इस विकट परिस्थिति में साथियों को फंसा सुन और देख प्रभव सन्न सा रह गया और गहरे विवार- सागर में डूब गया। प्रभव विवारने लगा - मेरो विद्या ने तो कभी ऐसा विश्वास घात नहीं किया था, न जाने यह क्या सुन और देख रहा हूँ, प्रतीत होता है यहां कोई जागता अवश्य है । श्रोह ! अब समझा, विद्या देते समय गुरु ने कहा था- इस का प्रभाव मात्र संसारो जोवन पर होगा । धर्मी पर यह कोई प्रभाव नहीं डाल सकेगी। संभव है यहां कोई धर्मात्मा ही हो, जिसने यह सब कुछ कर डाना है, देखू सही । प्रभव ऊपर जाने लगा, क्या देखता है— सौंदर्य की साक्षात् प्रतिमायें आठ युवतियें सो रही है । सांसारिकता को उत्तेजक सामग्री पास में बिखरी पड़ी । परन्तु एक तेजस्वी युवक किसी विचार धारा में संलग्न दिखाई दे रहा है । प्रभव युवक का तेज सह न सका। और उससे अत्यधिक प्रभावित होता हुआ सीधा वहीं पहुंचा और विनय पूर्वक कहने लगा For Private And Personal " आदरणीय युवक ! जीवन में मैंने न जाने कितने अद्भुत श्राचर्यजनक, और साहस -पूर्ण कार्य किये हैं जिनकी एक लम्बी कहानी बन सकती है । साम्राज्य की बड़ी से बड़ी शक्ति मेरा बाल बांका Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र - [प्रथम अध्याय व्याकरण नाम का दशवां अंग दश अध्ययनो में विभक्त है. जिनमे प्रथम के पांच अध्ययनों में पांच अाश्रवों का वर्णन है और अन्त के पांच अध्ययनों में पांच सम्बरों का निरूपण किया गया है. तथा नहीं कर सकी मैंने कभी किसी से हार नहीं मानी किंतु आज मैं आपके अपूर्व विद्यावल से पराजित हो गया हूँ और अपनी विद्या शक्ति को आप के सन्मुख हतप्रभ पारहा हूँ । मैं आप का अपराधी होने के नाते दण्डनीय होने पर भी कुछ दान चाहता हूँ वह है मात्र श्राप की अपूर्व विद्या का दान । मुझ पर अनुग्रह की जए और अपना विद्यार्थी बनाइए एवं विद्यादान दी जए ___कुमार प्रभव को देखते ही सब स्थिति समझ गये और उससे कहने लगे---भाई ! में तो स्वयं विद्यार्थी बनने जारहा हूँ । सूर्योदय होते ही गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी के पास माधुता ग्रहण करना चाह रहा हूँ । संयमी बन कर जीवन व्यतीत करूगा. संसारी जीवन से मुझे धृणा है। प्रभव के पांव तले से ज़मीन निकल गई, वह हैरान था, अप्सराओं को मात कर देने वाली ये सुकुमारिये त्याग दी जायेंगी ? हंत ! कितना कठिन काम है । इन पदाथां के लिये तो मनुष्य सर धुनता है, लोक-लाज, आत्मसम्मान जैसी दिव्य आत्म-विभूति को लुटाकर मुंह काला कर लेता है और मानव होकर पशुत्रों से भी अधम जीवन यापन करने के लिये तैयार हो जाता है । पर यह युवक बड़ा निराला है जो स्वर्ग-तुल्य देवियों को भी त्याग रहा है। वाह-वाह जीवन तो यह है य द मत्य कहूं तो त्याग इसी का नाम है, त्याग ही नहीं यह तो त्याग की भी चरम सीमा है । एक मैं भी हूँ, सारा जीवन घोर पाप करते करते व्यतीत हो रहा है सर पर भीपण पापों का भार लदा पड़ा है, न जाने कहां कहां जन्म मरण के भयंकर दुःखों से पाला पड़ेगा और कहां कहां भीपण यातनायें सहन करनी होगी । अहह ! कितना पामर जीवन है मेरा । प्रभव की विचार-धारा बदलने लगी। कुमार के अनुपम श्रादर्श त्याग ने प्रभव के नेत्र खोल दिये । उसकी अंतज्योति चमक उठी । दानवता का अड्डा उठने लगा । बुराई का दैत्य हृदय से भाग निकला। वह दानव से मानव होगया-लोहे से सोना बन गया जिस अपूर्व तत्त्व पर कभी विचार भी नहीं किया था उसका सोत बह निकला । अाग के परमाणु नष्ट होने पर जल जैसे शांत हो जाता है अपने स्वभाव को पा लेता है । वैसे ही दुर्भावनायों की प्राग शांत होते ही प्रभव शांत होगया और अपने आप को पहचा ने लगा। प्रभव सोचने लगा----इतना कोमल शरीरी युवक जब साधक बन सकता है अात्ममाधना के कष्ट झेल सकता है तो क्या बड़े बड़े योद्धा का मुह मोड़ने वाला मेरा जीवन साधना नहीं कर सकेगा और उसके कष्ट नहीं झेल सकेगा ? क्यों नहीं ! मैं भी तो मनष्य हूँ, इन्हीं का सजातीय हूँ, जो ये कर सकते हैं. वह मैं भी कर सकता हूँ। यह सोच कर प्रभव बोला ----सम्माननीय युवक ! आप के न्यागी जीवन ने मुझ जैसे पापी को बदल दिया है और बहुत कुछ सोच समझ लेने के अनन्तर अप मैने यह निश्चय कर लिया है कि अाज से आप मेरे गुरु और मैं आपका शिष्य, जो मार्ग आप चुनोगे उसी का पथिक बनूगा. मैं ही नहीं अपने ५०० सौ साथियों को इसी मार्ग का पथिक बनाऊंगा। ___ चोर जैसे अधम प्राणी भी जिस संसर्ग से सुधर गये, तो भला कुमार की उन पाठ) अर्धाङ्गिनियों में परिवर्तन क्यों न होता ? वे भी बदली, काफी वाद-विवाद के अनतंर इन्दा ने भी । पति के निश्चित और स्वीकृत पय पर चलने को स्वकृति दे दी और वे दीक्षित होने के लिये तैयार हो गई । For Private And Personal Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । एकादश अंग - विपाक श्रत में सम्बर-जन्य शुभ तथा श्राश्रव-जन्य अशुभ कर्मों के विपाक - फल का वर्णन मिलता है । इस प्रकार इन दोनों में पारस्परिक सम्बंध रहा हुआ है । ५ प्रस्तुत सूत्र - " विपाक श्रुत" में आचार्य अभयदेव सूरि ने "तेणं कालेां तेणं सम" का " तस्मिन् काले तस्मिन समये" जो सप्तम्यन्त अनुवाद किया है वह दोपावायक नहीं है कारण कि अर्द्धमागधी भाषा में पती के स्थान पर तृतीया का प्रयोग भो देखा जाता है। किसी किसी आचार्य का मत है कि यहां 'ं” वाक्यालंकारार्थक है और "ते" प्रथमा का बहुवचन है जो कि यहां पर किरण अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, परन्तु दोनों विचारों में से ग्राद्य विचार का हो बहुत से आवार्य समर्थन करते हैं। आचार्य प्रवर श्री हेमचन्द्र जो के शब्दानुशासन में भी मतमी के स्थान पर तृतीया का प्रयोग पाया जाता है, यथा सप्तम्यां द्वितीया [ ८ ३ १३७ ] सतम्या: स्थाने द्वितीया भवति विज्जुज्जोय' भर रत्ति । तृतीयापि दृश्यते । तें कालेणं तेणं समएं - तमिन् काले तस्मिन् समये इत्यर्थः । जैन सिद्वान्तकौमुदी (अर्द्धमागधि व्याकरण) में शतावधान पंडित रत्नचन्द्र जी म ने सप्तमी के स्थान पर तृतीया का विधान किया है वे लिखते हैं आधारेऽपि । २ । २ । १९ क्वचिदधिकरणेऽपि वाच्ये तृतीया स्यात् । " तेां कालेतेां समर" जेणामेव सेगिए राया तेणामेव उवागन्छन् - यस्मिन्नेव श्रेणिको राजा तस्मिन्नेव उपा गच्छतीत्यर्थः । इत्यादि उदाहरणों तथा व्याकरण के नियमों से यह स्पष्टतया सिद्ध हो जाता है कि सप्तमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति का प्रयोग शास्त्र सम्मत ही है । "ते" कालेां तेां सम" इस पाठ में काल और समय शब्द का पृथक पृथक प्रयोग किया गया है जब कि काल और समय यह दोनों समानार्थक हैं, व्यवहार में भी काल तथा समय या सुकुमारियें, प्रभव चोर उसके ५ सौ साथी एवं अन्य अनेकों धर्म-प्रिय नर-नारी, जम्बूकुमार के नेतृत्व में आर्य- - प्रवर श्री सुधर्मा स्वामी जी महाराज की शरण में उपस्थित होते हैं और उनमे संयम के साधना क्रम को जान कर तथा अपने समस्त हानि लाभ को विचार कर अंत में श्री सुधर्मा स्वामी से दीक्षा-व्रत स्वीकार कर लेते हैं और अपने को मोक्ष पथ के पथिक बना लेते हैं। मूलसूत्र में जिस जम्बू का वर्णन है. ये हमारे यही जम्बू हैं जो आठ पलियों को एक अरब ९५ करोड मोहरी - स्वगमुद्राओं की सम्पत्ति को तिनके की भांति त्याग कर साधु बने थे और जिन्हो ने उग्रसाधना के प्रताप से कैवल्य को प्राप्त किया था । आज का निग्रंथ प्रवचन इन्हीं के प्रश्नों और श्री सुधर्मा स्वामी के उत्तरों में उपलब्ध होरहा है । महामहिम श्री जम्बू स्वामो ही इस असी काल के अन्तिम केवली एवं सर्वदर्शी थे । इनका गुणानुवाद जितना भी किया जाए उतना ही कम है, तभी तो कहा है- “यति न जम्बू सारिखा" । For Private And Personal 6 (१) “कालेणं” कलयति मासोऽयं सम्वत्सरोऽयं इत्यादि रूपेण निश्चन्वंति तत्त्वज्ञा यमिति कलनं - संख्यानं पाक्षिकोऽयं मासिकोऽयमित्यादिरूपेण निरूपणं कालः सोऽस्मिन्नस्तीति । कालानां समयादीनां समूह इति । कालः । वस्तुतस्तु 'वट्टणाल म्खणो कालो" इति भगवद्-वचनात् कलयति नवजीर्णादि-रूपतया प्रवर्तयति वस्तु-पर्यायमिति काल तस्मिन् । तस्मिन् हीयमानलक्षणे समये – सम- सम्यक् प्रयते गच्छतीति समयोऽवसरस्तमिन् । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [प्रथम अध्याय ये दोनों शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं, फिर यहां पर पूत्रकार ने इन दोनों शब्दों का पृथक् २ प्रयोग क्यों किया है ? इस का समाधान आचार्य अभयदेव सूरि के शब्दों में इस प्रकार है “अथ काल-समयोः को विशेषः ? उच्यते, सामान्या वर्तमानावसर्पिणी चतुर्थारक-लक्षणः कालः, विशिष्टः पुनस्तदेकदेशभूतः समयः" अर्थात् सूत्रकार को काल शब्द से सामान्य वर्तमान अवसर्पिणी काल - भेद का चतुर्थ श्रारक अभिप्रेत है. और समय शब्द से इसो अवसर्पिणी कालीन चतुर्थ श्रारक का एक देश अभिमत है। अर्थात् यहां पर काल शब्द अवसर्पिणो काल के चौथे आरे का बोधक है और समय शब्द से चोथे श्रारे के उस भाग का ग्रहण करना है जब यह कथा कही जा रही है । ___"होत्था' - यहां पर सूत्रकार ने होत्या-अभूत् यह अतीत काल का निर्देश किया है । इस स्थान में शंका होती है कि चम्पा नाम को नगरी तो अाज भी विद्यमान है, फिर यहां अतीत काल का प्रयोग क्यों ? इसका उत्तर स्पष्ट है - यह सत्य है कि चम्पा नगरी' आज भी है तथापि अवसर्पिणी काल के स्वभाव से पदार्थों में गुणों की हानि होने के कारण वर्णन ग्रन्य (अोपपातिक सूत्र) में वर्णन को हुई चम्पानगरी श्री सुधर्मा स्वामा जो के समय में जैसे थी वैसो न रहने से यहां पर अतोत का प्रयोग किया गया है जो उपयुक्त ही है। सारांश यह है कि चम्पा नगरीर थी, यह भूत कालीन प्रयोग असंगत नहीं है । __वराणो -वर्णकः' इससे सूत्रकार को जो चम्पानगरी का वर्णन ग्रन्थ अभिप्रेत है वह औपपातिक सूत्र में देख लेना चाहिये । सूत्र-कार ने मूल पाठ में “वरण ओ" पद का दोबार ग्रहण किया है । उस में प्रथम का चम्पानगरो से सम्बन्धित है और दूसरा पूर्णभद्र चैत्य के वर्णन से सम्बन्ध रखता है । पूणभद्रचैत्य का वर्णन श्रौपपातिक सूत्र में विस्तार पूर्वक किया गया है जिज्ञासु को अपनी जिज्ञासा वहां से पूर्ण करनी चाहिये । किसी किसी प्रति में “वरणो " यह द्वितीय पद नहीं है । अर्थात् कहीं कहीं “पुरणभद्दे चेइए वरण प्रो” इस पाठ के अन्तर्गत जो “वरणो ' पद है वह नहीं पाया जाता, केवल “पुराणभद्दे चेहरा" इतना उल्लेख देखने में आता है। अर्थात् - तत्त्व के ज्ञाता महीना वर्ष श्रादि रूप से जिसका का कलन (निश्चय) करते हैं उसे काल कहते हैं अथवा पखवाड़े का है महीने का है इस प्रकार के कलन ( संख्या-गिनती ) को काल कहते हैं अथवा कलाओं – समयों के समूह को कान कहते हैं परन्तु भगवान् ने निश्चय कान का वर्तना रूप लक्षण कहा है। अर्थात् जो द्रव्य को पर्यायो को नई अथवा पुरानो करता है वही निश्चय काल है। (१) नगरी शब्द की निरुक्ति इस प्रकार है नगरी न गच्छन्तीति नगाः-वृक्षाः पर्वताश्च तद्वदचलत्वादुन्नतत्वाच्च प्रालादादयोऽपि ते सन्ति यस्यां सा. इति निरुक्तिः । “नकरो” इति छायापक्षे तु न विद्यते कर: गोमहिप्यादीनामष्टादविधो राज.. ग्राह्यो भागः (महसूल) यत्र सेत्यर्थः । (२) यद्यपि इदानीमप्यस्ति सा नगरी तथाऽप्यवसर्पिणी-कालस्वभावेन हीयमानत्वाद् वस्तुस्वभावानां वर्णक - ग्रन्योक्तस्वरूपा सधर्म-स्वामिकाले नास्तीति कृत्वाऽतीतकालेन निर्देशः कृतः (वृत्तिकारः) For Private And Personal Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टोका सहित । आर्य सधर्मा स्वामी का वर्णन करते हुए सूत्रकार ने “जाइसंपराणे” इत्यादि पदों का उल्लेख किया है । “जाइ संपन्ने"-जातिसम्पन्न" शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं । (१) जिस की माता में मातृजनोचित समस्त गुण विद्यमान हों, (२) जिप का मातपक्ष विशद्ध-निर्मल हो । इससे आर्य सुधर्मा स्वामी की जाति (मातप क्ष) की उत्तमता का निरूपण किया गया है । इसके अतिरिक्त सूत्रगत “वण्ण श्रो-वर्णक" पद से ज्ञाताधर्मकथांग सूत्रगत अन्य पाठ का समावेश करना सत्रकार को अभिप्रेत है । वह सूत्र इस प्रकार है "......कलसंपन्ने, बल-रूप-विणय-णाण-दसण-चरित्त-लाघवसंपन्ने, ओयंसी, तेयंसी, बच्चंसी, जसंसी, जियकोहे, जियमाणे, जियमाए, जियलोहे. जियइंदिए, जियनिह, जियपरिसहे जीवियासमरण-भयविप्पमुक्के, तवप्पहाणे गणप्पहाणे एवं करण-चरण-निग्गह-णिच्छय-अज्जव-मद्दवलाघव--ग्वंति-गुत्ति-मुत्ति-विज्जामंत-बंभ वय-नय-नियम-सच्च-सोय-णाण-दसण-चारत्ते ओराले घोरे घोरव्वए घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढ़-सरीरे संखित्त-विजलतेउल्लेसे'......,, "चादसपुव्वी-चतुर्दशपूर्वी" इस पद से सूचित होता है कि आर्य सधर्मा स्वामी चतुर्दश पूर्वो के पूर्ण ज्ञाता थे ? श्री नन्दी सूत्र में चतुर्दश पूर्वो के नामों का निर्देश इस प्रकार किया है __"उप्पायपुव्वं (१) अग्गागीयं (२) वो रयं (३) अत्थिनस्थिप्पवायं (४) नाणप्पवायं (५) सच्चप्पवायं (६) आयपवायं (७) कम्ममवायं (८) पच्च खाणप्पवायं (९) विज्जाणुप्पवायं (१०) अवज्ज (११) पाणाऊ (१२) किरिया-विसोल (१३) लोक विंदुसारं ३ (१४) । (नन्दी सूत्र, पूर्वगत दृष्टिवाद-विचार) भावार्थ (२) उत्पादपूर्व- इस पूर्व में सभी द्रव्य और सभी पर्यायो के उत्पाद को लेकर प्ररूपणा की गई है। (१) छाया- कुलसम्पन्नः बल-रूप-विनय-ज्ञान-दर्शन-चरित्र-लाघवसम्पन्नः प्रोजस्वी तेजस्वी वचस्वी (वर्चस्वी) यशस्वी जितकोधः जितमानः जितमायः जितलोभः जितेन्द्रियः जितनिद्रः जितपरिषहः जीविताशामरणभय-विप्रमुक्तः तपःप्रधानः गुणप्रधानः एवं करणचरणनिग्रह-निश्चया-र्जव -मार्दव लाघव-क्षान्ति-गुप्तिमुक्ति-विद्यामंत्र-ब्रह्म-व्रत-नय-नियम-सत्य-शौच ज्ञान-दर्शन चरित्रः उदार: घोर: घोरव्रत: घोरतपस्वी घोरब्रह्मचर्य वासी उज्झितशरीर : संक्षिप्त-विपुलतेजोलेश्य: ........ (२) छाग-उत्पादपूर्वम् १ अग्रायणीयम् २ वीर्य ३ अस्तिनास्तिप्रवादम् ४ ज्ञान-प्रवादम् ५ सत्य-प्रवादं ६ अात्म-प्रवादम् ७ कर्म--प्रवादम् ८ प्रत्याख्यान-प्रवादम् ९ विद्यानप्रवादम् १० अवन्ध्यम् ११ प्राणायु: १२ क्रियाविशालम् १३ लोकबिंदुसारम् । (३) कलिकाल सर्वज्ञ प्राचार्य प्रवर श्री हमेचंद्र जी ने अभिधान-चिन्तामणि ग्रन्थ-रत्न के देव नामक द्वितीय-काण्ड में जो चतुर्दश पूर्वो का उल्लेख किया है वह निम्न प्रकार से है पूर्वाणि चतुर्दशापि पूर्वगते ॥ १६० ।। उत्पादपूर्वमाग्रायणीयमथ वीर्यतः प्रवादं स्यात । अस्तानात् सत्यात् तदात्मनः कर्मणश्च परम् ।। १६१ ॥ प्रत्याख्यानं विद्या-प्रवाद-कल्याण-नामधेये च । प्राणावायं च क्रियाविशालमथ लोकबिन्दुसामिति ॥१६२॥ For Private And Personal Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र | प्रथम अध्याय (२) अग्रायणीय-पूर्व- इसमें सभी द्रव्य सभी पर्याय और सभी जीवों के परिमाण का वर्णन है। (३) वीर्य-प्रवाद-पूर्व- इस में कर्मसहित और बिना कर्म वाले जीवों तथा अजीवों के वीर्य (शक्ति) का वर्णन है । (४) अस्ति-नास्ति-प्रवाद-पूर्व - संसार में धर्मा स्तिकाय आदि जो वस्तुए विद्यमान हैं तथा अाकाशकुसुम आदि जो अविद्यमान हैं उन सब का वर्णन इस पूर्व में है । (५) ज्ञान-प्रवाद-पूर्व-इसमें मति ज्ञान प्रादे ज्ञान के । भेदों का विस्तृत वर्णन है । (६) सत्य प्रवाद-पूर्व-इसमें सत्यरूप संयम या सत्य व वन का विस्तृत विवेचन किया गया है। (७) आत्म-प्रवाद-पूर्व-इसमें अनेक नय तथा मतों को अपना से आत्मा का वर्णन है । () कर्मप्रवाद-पूर्व- इसमें आठ कर्मों का निरूपण प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश आदि भेदों द्वारा विस्तृत रूप से किया गया है । (E) प्रत्याख्यान-प्रवाद-पूर्व-इसमें प्रत्याख्यानों का भेद प्रभेद पूर्वक वर्णन है । (१०) विद्यानु-प्रवाद-पूर्व-इस पूर्व में विविध प्रकार की विद्यानों तथा सिद्धियों का वर्णन है । (११) अवन्ध्य-पूर्व इसमें ज्ञान, तप, संयम आदि शुभ फल वाले तथा प्रमाद अादि अशुभफल वाले अवन्ध्य अर्थात् निष्फल न जाने वाले कार्यों का वर्णन है ।। (१२) प्राणायुष्प्रवाद-पर्व-इसमें दश प्राण और आयु या द का भेद प्रभेद पूर्वक विस्तृत वर्णन है । (१३) क्रिया-विशाल-पूर्व-इसमें कायिकी, प्राधिकरणकी अादि तथा संयम में उपकारक क्रियाओं का वर्णन है । (१४) लोक-बिन्दुःसार-पूर्व- संसार में श्रुत ज्ञान में जो शास्त्र बिंदु की तरह सब से श्रेष्ठ है, वह लोक बिदुसार है। पूर्व का अर्थ है-तीर्थ का प्रवर्तन करते समय तीर्थ-कर भगवान जिस अर्थ का गणधरों को पहले पहल उपदेश देते हैं अथवा गणधर पहले पहल जिस अर्थ को सूत्र रूप में गूथते हैं उसे पूर्व कहते हैं। व्याख्या सर्वांगेम्यः पूर्व-तीर्थकरैरभिहितत्वात् पूर्वाणि तानि यथा-सर्वद्रव्याणां चोत्पादप्रज्ञप्ति-हेतुरुत्पादम् । १ । सर्वद्रव्याणां पर्यायाणां सर्व-जीव-विशेषाणां च अग्रं परिमाणं वयते यत्र तद् अग्रायणीयम् । २ । जीवानामजीवानां च सकर्मे-तराणां च वीय प्रवदतीति वीर्य-प्रबादम । ३। अस्ताति नास्तेरुपलक्षणं, ततो यल्लोके यथाऽस्ति यथा वा नास्ति अथवा स्याद्-वादाभित्रायेण तदेवास्ति नास्तीति प्रवदात अस्ति-नास्ति-प्रबादम् । ४ । म तज्ञानादिपञ्चकं म-भेदं प्रवदतीति ज्ञान--प्रवादम् ५। सत्यं संयमः सत्यवचनं वा तत् सभेदं सप्रतिपक्षं च यत् प्रवदति तत् सत्य-प्रवादम् ।६। नयदर्शनरात्मानं प्रवदति आत्म-प्रवादम् । ७ । ज्ञानावरणाद्यष्टविधं कर्म प्रकृति-स्थित्यनुभाग-प्रदेशादिभेदरन्य श्चोत्तरभेटैभिन्न प्रवद ते कर्म प्रवादम् । ८। सर्व प्रत्याख्यान-स्वरूपं प्रवदत प्रत्याख्यान प्रवादम् . तदेकेदशः प्र-याख्यानम् , भीमवत् । ९ । विद्यातिशयान् प्रवदति विद्याप्रवादं । १० । कल्याणफल-हेतुत्वात् कल्याणम् अवन्ध्यमि ते चोव्यते । ११ । आयु:-प्राणविधानं सर्व सभेदम् अन्ये च प्राणा वर्णिता यत्र तत् प्राणावायम् । १२ । कायिक्यादय: संयमाद्याश्च क्रिया विशाला सभेदा यत्र तत् क्रिया-विशालम् । १३ । इहलोके श्रुतलोके वा बिंदुरवाक्षरस्य सर्वोत्तमं साक्षरसन्निपात-परिनिष्ठितत्वेन लोकबिन्दुसारम् । १४ । (अभिधान चिन्तामणि) For Private And Personal Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ह "चरणाणोवगर- चतुर्ज्ञानोपगतः " यह विशेषण, परम पूज्य श्रार्य सुधर्मा स्वामी को चतुर्विध ज्ञान के धारक सूचित करता है, अर्थात् उन में मति, श्रुत, अवधि और मनपर्यव ये चारों ज्ञान विद्यमान थे । इस से सूत्रकार को उन में ज्ञान - सम्पत्ति का वैशिष्ट्य बोधित करना अभिप्रेत है ? जैनागमों ਜੇ ज्ञान पांव प्रकार का बतलाया गया जैसे कि . (१) मतिज्ञान - इन्द्रिय और मन की सहायता से योग्यदेश में रही हुई वस्तु को जानने वाला ज्ञान मतिज्ञान कहलाता है । इस का दूसरा नाम अभिनिवोधिक ज्ञान भी है । श्रुतज्ञान - वाच्य वाचक भाव सम्बन्ध द्वारा शब्द से सम्बद्ध अर्थ को ग्रहण कराने वाला; इन्द्रिय मन. कारण ज्ञान श्रुततान है अथवा -- मतिज्ञान के अनन्तर होने वाला और शब्द तथा अर्थ को पर्यालोचना जिसमें हो ऐसा ज्ञान श्रुत ज्ञान कहलाता है । (३) अवधिज्ञान - इन्द्रिय और मन की सहायता के विना मर्यादा को लिये हुए रूपी - द्रव्य का बोध कराने वाला ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है । (४) मनःपर्यवज्ञान - इन्द्रिय और मन की सहायता के विना संज्ञी जीवों के मनोगतभावों को जिससे जाना जाय वह मनःपर्यव ज्ञान है। मर्यादा को लिये हुए (५) केवलज्ञान -मति आदि ज्ञान को अपेक्षा बिना, त्रिकाल एवं त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थां का युगपत् हस्तामलक के समान बोध जिस से होता है वह केवलज्ञान है । इन पूर्वोक्त पंचविध ज्ञानों में से श्रार्य सुधर्मा स्वामी ने प्रथम के चारों ज्ञानों को प्राप्त किया हुआ था । 64 . चरमाणे जाव जेणेव " इस पाठ में “जाव यावत्" पद से “गामाशुगामं दूइजमाणे सुहंसुहेण विहरमाणे " [ ग्रामानुग्रामं द्रवन् सुखसुखेन विहरन्] अर्थात् अप्रतिबद्ध विहारी होने के कारण ग्राम और अनुग्राम [* विवक्षित ग्राम के अनन्तर का ग्राम ] में चलते हुए साधुवृति के अनुसार सुखपूर्वक विहरणशील - यह जानना । "हापडिगं जाव विहरइ" इस पाठ में उल्लेख किये गये “जाब - यावत् " शब्द से - " उग्गहं उग्गिराइ अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिरिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे " [ अवग्रहं उद्गृहाति यथा- प्रतिरूपमवग्रहमुद्गृह्य संयमेन तसा आत्मानं भावयन् ] अर्थात् साधु वृत्ति के अनुकूल अवग्रह - श्राश्रय उपलब्ध कर संयम और तप के द्वारा श्रात्मा को भावित करते हुए - भावनायुक्त करते हुए विचरण करने लगेयह ग्रहण करना । तब इस समय आगमपाठ का संकलित अर्थ यह हुआ कि - उस काल तथा उस समय में जातिसम्पन्न कुलसम्पन्न और बल, रूपादिसम्पन्न, चतुर्दश पूर्वों के ज्ञाता चतुर्विध ज्ञान के धारक तथा पांचसौ साधुओं के साथ क्रमशः विहार करते हुए पूर्णभद्र नामक चैत्य में साधु- वृत्ति के अनुकूल अवग्रह (१) क - नाणं पंचविहं पण्णत्तं तंजहा - आभिणिवोहियणाणं, सुयणाणं, श्रहिणाां, मरणपज्जवणा केवलणाणं । छायः – ज्ञान पंचविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा— ग्राभिनिबोधिकज्ञानं, श्रुतज्ञानम्, अवधिज्ञानम्, मन. - पर्यवज्ञानम् केवलज्ञानम् । [ अनुयोग-द्वार सूत्र ] ख -मति श्रुतावधि मन -पर्याय- केवलानि ज्ञानम्,, [ तत्त्वार्थ सू० १ । ९ । ] * ग्रामश्चानुग्रामश्च ग्रामानुग्रामः विवक्षित - ग्रामानन्तरग्रामः तं द्रवन् गच्छन् एकस्माद् ग्रामादनन्तरं ग्राममनुल्लंघयन्नित्यर्थः । For Private And Personal Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १०] श्री विपाक सूत्र [ प्रथम अध्याय श्राश्रय ग्रहण कर विचरने लगे । आर्य सुधर्मा स्वामी के पधारने पर नगर की श्रद्धालु जनता उनके दर्शनार्थ एवं धर्मोपदेश सुनने के लिये आई और धर्मोपदेश सुनकर उसे हृदय में धारण कर चली गई । "अज्जसुहम्मरस अन्तेवासी अज्ज-जम्बू णाम अणगारे सत्तुस्से, इस पाठ से आर्य सुधर्मा स्वामी के वर्णन के अनन्तर अब सूत्र-कार उनके प्रधान शिष्य श्री जम्बूस्वामी के सम्बन्ध में कहते हैं - जम्बूस्वामी का शारीरिक मान* सात हाथ का था। सूत्रकार ने इन के विषय में अधिक कुछ न लिखते हुए केवल गौतम स्वामी के जीवन के समान इनके जीवन को बतला कर इनकी आदर्श साधुचर्या का संक्षेप में परिचय दे दिया है। श्री गौतम स्वामी के साधुजीवन की शारीरिक मानसिक और आत्म-सम्बन्धी विभूति का वर्णन श्री भवगती सत्र [श. १.उ०१, ] में किया गया है । “जायसड्ढे जाव जेणेव" इस पाठ में उल्लिखित "जाव" शब्द से निम्नलिखित इतना और जान लेने की सूचना है, जैसा कि...जायसंसर, जाय कोउहल्ले, उप्पन्नसड्ढे, उप्पन्नसंसए, उप्पन्नकोउहल्ले, संजायसड्ढे, संजायसंसर, संजायकोउहल्ले, समुत्पन्नसड्ढे, समुप्पन्नसंसए, समुप्पन्नकोउहल्ले उठाए, उट्टेइ, उठाए, उठेत्ता...... । छाया- जातसंशयः, जातकुतूहलः, उत्पन्नश्रद्धः, उत्पन्नसंशयः, उत्पन्न • जैन शास्त्रों में नापने के परिमाणों का अंगुलों द्वारा बहुत स्पष्ट वर्णन मिलता है । अगुल तीन प्रकार के होते हैं -(१) प्रमाणांगुल (२) आत्मांगुल (३) श्रोर उत्सेधांगुल । जो वस्तु शाश्वत हैजिस का नाश नहीं होता, वह प्रमाणांगुल से नापी जाती है, ऐसी वस्तु का जहां परिमाण कहा गया हो, वहां प्रमाणांगुल से ही समझना चाहिए । अात्मांगुल से तत्तत्कालीन नगर आदि का परिमाण बतलाया जाता है । इस पांचवें आरे को साढे दस हजार वर्ष बीतने पर उस समय के जो अंगुल हागे उन्हें उत्सेधांगुल कहते हैं । जम्बू स्वामी का शरीर उत्सेधांगुल से सात हाथ का था । इस प्रकार यद्यपि जम्बू स्वामी के हाथ से उन का शरीर साढे तीन हाथ का ही था परन्तु पांचवें आरे के साढ़े दस हजार वर्ष बीत जाने पर यह साढ़े तीन हाथ ही सात हाथ के बराबर होंगे, इसी बात को दृष्टि में रख कर ही जम्बूस्वामी का शरीर सात हाथ लम्बा बतलाया गया है । (१) भगवती सत्र का वह स्थल दर्शनीय एवं मननीय होने से पाठकों के अवलोकनार्थ यहां पर उद्धृत किया जाता है - _ "तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंते-वासी इदंभूती नाम अणगारे गोयमसगोरो णं सत्तुस्सेहे समचउरंस-संठाण-संठिए वाजरिसहनारायसंघयणे कणगपुलगणिग्यसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे ओराले घोरे घोरगुणे घोरतवम्सी घोरबंभचेरवासी उच्छृढ़सरीरे संखित्तविरलतेउलेसे चोद्दसपुव्वी चउणाणोवगए सव्वक्खरसन्निवाई समणरस भगवो महावीरस्स अदूरसामंते उड्ढंजारणू अहोसिरे ज्ञाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ" ॥ छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ज्येष्ठोऽन्तेवासी इन्द्रभूतिनामाऽनगारः गौतमसगोत्रः सप्तोत्सेधः सम चतुरस्रसंस्थानसंस्थितः बज्रर्षभनाराचसंहननः कनकपुलकनिकपपद्मगौरः उग्रतपाः दीप्ततपाः तप्ततपाः उदारः घोरः घोरगुणः घोरतपस्वी घोरब्रह्मचर्य वासी उच्छृढ़शरीरः संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः चतुर्दशपूर्वी चतुर्ज्ञानोपगतः सर्वाक्षरसन्निपाती श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अदूर. सामन्ते ऊर्ध्वजानुः अधःशिराः ध्यानकोष्ठोपगतः संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति । अर्थात् उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ-प्रधान अन्तेवासी-शिष्य For Private And Personal Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [११ कुतूहलः, संजातश्रदः, संजातसंशयः, संजातकुतूहलः, समुचन्नश्रद्धः, समुत्पन्नसंशयः, समुत्पन्नकुतूहलः, उत्थायोत्तिष्ठति, उत्थया उत्थाय .. .. [भगवती सू, श० १ उ० १ सू , ८ ] जैनाचार्य पूज्य श्री जवाहिर लाल जी म. ने भगवती सूत्र के प्रथम शतक पर बहुत सुन्दर व्याख्यान दिये हैं । जो ६ भागों में प्रकाशित हो चुके हैं, पूर्वोक्त पदों का वहां बड़ा सुन्दर विवेचन किया गया है । पाठकों के लाभार्थ हम वहां का प्रसंगानुसारी अंश उद्धृत करते हैं - इन्द्रभूति नामक अनगार भगवान् के पास संयम और तपस्या के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं; जो कि गौतम गौत्र वाले हैं, जिन का शरीर सात हाथ प्रमाण का है, जो पालथी मार कर बैठने पर शरीर की ऊचाई और चौड़ाई बराबर हो ऐसे संस्थान वाले हैं, जिन का बज्रर्षभनाराच संहनन है, जो सोने की रेखा के समान और पद्मपराग कमल के रज) के समान वर्ण वाले हैं, जो उग्रतपस्वी (साधारण मनुष्य जिस की कल्पना भी नहीं कर सकता उसे उग्र कहते हैं उग्र तप के करने वाले को उग्र तपस्वी कहते हैं ), दीप्ततपस्वी ( अग्नि के समान जाज्वल्यमान को दीप्तकहते हैं, कर्म रूपी गहन बन को भस्म करने में समर्थ तप के करने वाले को दीप्त तपस्वी कहते हैं), तप्ततपस्वी (जिस ता से कर्मों को सन्ताप हो-कर्म नष्ट हो जायें, उस तप के करने वाले को तप्ततपस्वी कहते हैं), महातपस्वी ( स्वर्ग प्राप्ति आदि को आशा से रहित निष्काम भावना से किये जाने वाले महान तप के करने वाले को महातपस्वी कहते हैं , जो उदार हैं, जो आत्म शत्रुयों को विनष्ट करने में निर्भीक हैं, जो दूसरों के द्वारा दुष्प्राप्य गुणों को धारण करने वाले हैं, जो घोर तप के अनुष्ठान से तपस्वी पद से अलंकृत हैं, जो दारुण ब्रह्मचर्य व्रत के धारण करने वाले हैं, जो शरीर पर ममत्व नहीं रख रहे हैं, जो अनेक योजन प्रमाण क्षेत्राश्रित वस्तु के दहन में समर्थ ऐसी विस्तीर्ण तेजोलेश्या विशिष्ठ-तपोजन्य लब्धिविशेष ) को संक्षिप्त किये हुए हैं, जो १४ पूर्वा के ज्ञाता है, जो चार ज्ञानों के धारण करने वाले हैं, जिन को समस्त अक्षर-संयोग का ज्ञान है, जिन्हों ने उत्कुटुक नाम का आसन लगा रखा है, जो अधोमु व हैं, जो धर्म तथा शुक्ल ध्यान रूा कोष्ठक में प्रवेश किये हुए हैं, तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार कोष्ठक में धान्य सुरिक्षित रहता है उसी प्रकार ध्यान रूप कोष्ठक में प्रविष्ट हुए पात्ल-वृत्तिों को सुरक्षित किये हुए हैं, अर्थात् जो अशुभ वातावरण से रहित हैं, और जो विशुद्ध चित्त वाले हैं । यहां पर परमतपस्वी और परमवचस्वी भगवान् गौतमस्वामी के साधुजीवन के साथ आर्य जम्बूस्वामी के जीवन की तुलना कर के उन का उत्कर्ष बतलाना ही सत्रकार को अभिप्रेत है । दूसरे शब्दों में कहें तो जिस प्रकार गौतमस्वामी अपना साधु-जीवन व्यतीत करते थे उसी प्रकार की जीवनचर्या जम्बूस्वामी ने को थी-यह बतलाना इष्ट है । (१) जनशास्त्रों में संहनन के छ भेद उपलब्ध होते हैं । उन में सर्वोत्तम वज्रर्षभनाराच संहनन है । ऋषभ का अर्थ पट्टा है और वन का अर्थ कीली है, नाराच का अर्थ है दोनों ओर खींच कर बंधा होना, ये तीनों बातें जहां विद्यमान हो, उसे वज्रर्षभनाराच संहनन कहते हैं । जैसे लकड़ी में लकड़ी जोड़ने के लिये पहले लकड़ो की मजबूती देखी जाती है फिर कीली देखी जाती है और फिर पत्ती देखी जाती है। अर्थात् गौतम स्वामी का शरीर हाडों की दृष्टि से सुदृढ़ एवं सबल था। For Private And Personal Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १२] www.kobatirth.org श्री विपाक सूत्र [ प्रथम अध्याय जात का अर्थ प्रवृत्त और उत्पन्न दोनों हो सकते हैं । यहां जात अर्थ, विश्वास करना श्रद्धा कहलाता है, लेकिन यहां श्रद्धा इच्छा है । तात्पर्य यह हुआ कि जम्बू' स्वामी की प्रवृत्ति इच्छा में हुई । किस प्रकार की इच्छा में प्रवृत्ति १ इस प्रश्न का समाधान यह है कि जिन तत्त्वों का वर्णन किया जायगा, उन्हें जानने की इच्छा में जम्बूस्वामी की प्रवृत्ति हुई । इस प्रकार तत्त्व जानने की इच्छा में जिस की प्रवृत्ति हो उसे जातश्रद्ध कहते हैं । जायसड्ढे ( जात श्रद्धः ) का अर्थ प्रवृत्त है । रहा श्रद्धा का Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir जातसंशय अर्थात् संशय प्रवृत्ति हुई। यहां इच्छा की प्रवृत्ति का कारण बतलाया गया है, जम्बूस्वामी की इच्छा में प्रवृत्ति होने का कारण उन का संशय है, क्योंकि संशय होते से जानने की इच्छा होती है । जो ज्ञान निश्चयात्मक न हो, जिस में परस्पर विरोधी अनेक पक्ष मालूम पड़ते हों वह संशय कहलाता है । जैसे - यह रस्सी है या सर्प ? इस प्रकार का संशय होने पर उसे निवारण करने के लिये यथार्थता जानने की इच्छा उत्पन्न होती है जम्बूस्वामी को तत्त्वविषयक इच्छा उत्पन्न हुई क्योंकि उन्हें संशय हुआ था । २ संशय संशय में भी अन्तर होता है, एक संशय श्रद्धा का दूषण माना जाता है और दूसरा श्रद्धा का भूषण । इसी कारण से शास्त्रों में संशय के सम्बन्ध में दो प्रकार की बातें कही गई हैं । एक जगह कहा है - "संशयात्मा विनश्यति " शंका-शोल पुरुष नाश को प्राप्त हो जाता है । दूसरी जगह कहा है - " न संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति । " संशय उत्पन्न हुए बिना - संशय किए बिना मनुष्य को कल्याण - मार्ग दिखलाई नहीं पड़ता । तात्पर्य यह है कि एक संशय आत्मा का घातक होता है और दूसरा संशय आत्मा का रक्षक होता है । जम्बूस्वामी का यह संशय अपूर्व ज्ञान - ग्रहण का कारण होने से आत्मा का घातक नहीं है प्रत्युत साधक है । “जायको उ हल्ले - जात कुतूहल. " । जम्बू स्वामी को कौतूहल हुआ, उत्पन्न हुई । उत्सुकता यह कि मैं आर्य श्री सुधर्मास्वामी से प्रश्न करूगा वस्तुतत्त्व समझावेंगे, उस समय उन के मुखारविन्द से निकले हुए अमृतमय वचन कितना आनंद होगा ! ऐसा विचार करके जम्बूस्वामी को कौतूहल हुआ । यहां तक "जायसड्ढे, जायसंसए" और "जायकोउहल्ले", इन तीनों पदों की व्याख्या की गई है इससे आगे कहा गया है – “उत्पन्नसड्ढे, उप्पन्न संसर, उप्पन्नको उहल्ले" अर्थात् श्रद्धा उत्पन्न हुई संशय उत्पन्न हुआ और कौतूहल उत्पन्न हुआ । उनके हृदय में उत्सुकता तब वे मुझे पूर्व श्रवण करने में (१) भगवती सूत्र में तो श्री गौतम स्वामी का और भगवान् महावीर का नामोल्लेख किया हुआ है परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में श्री जम्बू स्वामी का और श्री सुधर्मा स्वामी का प्रसंग चल रहा है, इसलिये यहां श्री जम्बू स्वामी का और श्री सुधर्मा स्वामी का नामोल्लेख करना ही उचित प्रतीत होता है । For Private And Personal (२) भगवान् महावीर का सिद्धांत है कि – “चलमाणे चलिए " अर्थात् जो चल रहा है वह चला । यहां — 'चलता है' यह कथन वर्तमान का बोधक है और 'चला' यह अतीत काल का । तात्पर्य यह है कि- 'चलता है' यह वर्तमान काल की बात है, और 'चला' यह अतीत काल की । यहां पर संशय पैदा होता है कि जो बात वर्तमान काल की है, वह भूतकाल की कैसे कह दी गई ? शास्त्रीयदृष्टि से इस विरोधी काल के कथन को एक ही काल में बतलाने से दोष आता है, तथापि वर्तमान में अतीत काल का Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ १३ यहां यह प्रश्न हो सकता है कि “जायसड्ढे" और "उप्पन्नसड्ढे" में क्या अन्तर है ? ये दो विशेषण अलग २ क्यों कहे गये हैं ? इस का उत्तर यह है कि श्रद्धा जब उत्पन्न हुई तब वह प्रवृत्त भी हुई, जो श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई इसकी प्रवृत्ति भी नहीं हो सकती । इस कथन में यह तर्क किया जा सकता है कि श्रद्धा में जब प्रवृत्ति होती है तब स्वयं प्रतीत हो जातो कि श्रद्धा उत्पन्न हुई है । अर्थात् - श्रद्धा प्रवृत्त हुई है तो उत्पन्न हो ही गई है फिर प्रवृत्ति और उत्पत्ति को अनग २ कहने को क्या आवश्यकता थी ? उदाहरण के लिये- एक बालक चल रहा है । चनते हुए उस बालक को देख कर यह तो आप ही समझ में आ जाता है कि बालक उत्पन्न हो चुका है । उत्पन्न न हुआ हो तो चलता ही कैसे ! इसी प्रकार जम्बूस्वामी की प्रवृत्ति श्रद्धा में हुई है, इसी से यह बात समझ में आ जाती है कि उनमें श्रद्धा उत्पन्न हुई थी । फिर श्रद्धा की प्रवृत्ति बतलाने के पश्चात् उस की उत्पत्ति बतलाने की क्या आवश्यकता है ? प्रयोग किया गया है, यह क्यों ? यह था भगवान् गौतम के संशय का अभिप्राय, जो टीकाकार ने भगवती सूत्र में बड़ी सुन्दरता से अभिव्यक्त किया है। परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में जम्बू स्वामी को जो संशय हुआ उससे उन को क्या अभिमत था ? इसके उत्तर में टीकाकार मौन हैं । कसना-उद्यान में पर्यटन करने से जो कल्पना-पुष्प चुन पाया हूँ, उन्हें पाठकों के कर कमलों में अर्पित कर देता हूँ। कहां तक उनमें औचित्य है ? यह पाठक स्वयं विचार करें । ___ श्री प्रश्न व्याकरण सूत्र के अनन्तर श्री विपाक सूत्र का स्थान है । प्रश्न व्याकरण में ५ श्रास्रवों तथा ५ संवरों का सविस्तर वर्णन है । विपाक सूत्र में २० कथानक हैं, जिन में कुछ अाश्रवसेवी व्यक्तियों के विषादान्त जीवन का वर्णन है और वहां ऐसे कथानक भी संकलित हैं, जिन में साधुता के उपासक सच्चरित्री मानवों के प्रसादान्त जीवनों का परिचय कराया गया है। जब श्री जम्बू स्वामी ने प्रश्नव्याकरण का अध्ययन कर लिया, उस पर मनन एवं उसे धारण कर लिया, तब उनके हृदय में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मेंने प्राप्तव और संवर का स्वरूप तो अवगत कर लिया है परन्तु मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि कौन पासव क्या फल देता है ? अानव-जन्य कर्मों का फल स्वयमेव उदय में आता है या किसी दूसरे के द्वारा ? कर्मों का फल इसी भव में मिलता है, या परभव में ? कम जिस रूप में किये हैं उसी रूप में उन का भोग करना होगा, या किसी अन्य रूप में ? अर्थात् यदि यहां किसी ने किसी की हत्या की है तो क्या परभव में उसी जीव के द्वारा उसे अपनी हत्या करा कर कम का उपभोग करना होगा, या उस कर्म का फल अन्य किसो दुःख के रूप में प्राप्त होगा ? इत्यादि विचारों का प्रवाह उन के मानस में प्रवाहित होने लगा। जिसे "जातसंशय" पद से सूत्रकार ने अभिव्यक्त किया है । "रहस्य तु केवलिगम्यम्।” श्रद्धेय श्री घासी लाल जी म० अपनी विपाकसत्रीय टीका में भी विपाकमूलक संशय का अभिप्राय लिखते हैं । उन्हों ने लिखा है जात-संशय:-जातः प्रवतः संशयो यस्य स तथा । दशमांगे प्रश्नव्याकरणसत्रे भगवत्प्रोक्तमासव-संवरयोः स्वरूपं धर्माचार्यसमीपे श्रुतं तद्विपाक-विषये संशयोत्पत्या जातसंशय इति भावः । अर्थात् श्री जम्बू स्वामी ने पहले भगवान् द्वारा प्रतिपादित दशमांग प्रश्नव्याकरण नामक सत्र में प्रासव और संवर के भाव श्री सुधर्मा स्वामी के पास सुने थे, अतः उनके विपाक के विषय में उन्हें संशय की उत्पत्ति हुई। For Private And Personal Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १४] श्री विपाक सूत्र - प्रथम अध्या इस तर्क का उत्तर यह है कि प्रवृत्ति और उत्पत्ति में कार्य कारणभाव प्रदर्शित करने के लिये दोनों पद पृथक २ कहे गये हैं । कोई प्रश्न करे कि श्रद्धा में प्रवृत्ति क्यों हुई ? तो इसका उत्तर होगा कि, श्रद्धा उत्पन्न हुई थी । कार्य' - कारण भाव बतलाने से कथन में संगतता आती है, सुन्दरता आती है, और शिष्य की बुद्धि में विशदता श्राती है । कार्यकारणभाव प्रदर्शित करने से वाक्य अलंकारिक जाता है । सादी और अलंकारयुक्त भाषा में अन्तर पड़ जाता है । अलंकारमय भाषा उत्तम मानी जाती है । अतएव कार्यकारण भाव दिखलाना भाषा का दूषण नहीं है, भूषण है । इस समाधान को साक्षी पूर्वक स्पष्ट करने के लिये साहित्य - शास्त्र का प्रमाण देखिए - प्रवृत्त - दीपामप्रवृत्तभा स्करां प्रकाशचन्द्रां बुबुधे विभावरीम्” अर्थात् जिस में दीपकों प्रवृत्ति हुई, सूर्य की प्रवृत्ति नहीं है ऐसी चन्द्रमा के प्रकाश वाली रात्रि समझी। की इस कथन में भी कार्यकारणभाव की घटना हुई है । “अप्रवृत्त - भास्करां" का बोध हो ही जाता है, क्योंकि सूर्य को जलाये जाते । ऋतः जब दीपक जलाए गए है तो सूर्य प्रवृत्त नहीं फिर भी यहां सूर्य की प्रवृत्ति का अभाव अलग कहा गया है । यह कार्यकारण भाव बतलाने के लिये ही है । कार्यकारण भाव यह कि सूर्य नहीं है अतः दीपक जलाए गये हैं । जैसे यहां कार्य कारणभाव प्रदर्शित करने के लिये अलग दो पदों का ग्रहण किया गया है, उसी प्रकार प्रस्तुत प्रकरण भी कार्यकारणभाव दिखलाने के लिये ही "जायसड्ढे " और "उप्पन्नसड्ढे” इन दो पदों का अलग २ प्रयोग किया गया है। श्रद्धा में प्रवृत्ति होने से यह स्वतः सिद्ध है कि श्रद्धा उत्पन्न हुई लेकिन वाक्यालंकार के लिये जैसे उक्तवाक्य में सूर्य नहीं है यह दुबारा कहा गया है, उसी प्रकार यहां "श्रद्धा उत्पन्न हुई" यह कथन किया गया है। Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir " प्रवृत्त - दीपाम्” कहने से प्रवृत्ति होने पर दीपक नहीं है, यह जानना स्वाभाविक है, “जायसड्ढे” और “उत्पन्नसड्ढे " की ही तरह "जायसंस” और “उत्पन्नसंसए" तथा “जायको उहल्ले” और “उत्पन्न कोउ हल्ले" पदों के विषय में भी समझ लेना चाहिये। For Private And Personal इन ६ पदों के पश्चात् कहा है- “संजायसड्ढे, संजायसंसए संजायकोउहल्ले" और "समुप्पन्नसड्ढे समुत्पन्नसंसय समुत्पन्नको हल्ले" । इस प्रकार ६ पद और कहे गये है । अर्वाचीन और प्राचीन शास्त्रों में शैली सम्बन्धी बहुत अन्तर है, प्राचीन ऋषि पुनरुक्ति का इतना ख्याल नहीं करते थे, जितना संसार के कल्याण का करते थे । उन्हों ने जिस रीति से संसार की भलाई अधिक देखी, उसी रीति को अपनाया और उसी के अनुसार कथन किया, यह बात जैनशास्त्रों के लिये ही लागू नहीं होती वरन् सभी प्रचीनशास्त्रों के लिये लागू है । गीता में अजन को बोध देने के लिये एक ही बात विभिन्न शब्दों द्वारा दोहराई गई है। एक सीधे सादे उदाहरण पर विचार करने से यह बात समझ में आ जायगी - किसी का लड़का सम्पत्ति लेकर परदेश जाता हो तो उसे घर में भी सावधान रहने की चेतावनी दी जाती है। घर बाहिर भी चेताया जाता है कि सावधान रहना और अन्तिम बार विदा देते समय भी चेतावनी दी जाती है । एक ही बात बार बार कहना पुनरुक्ति ही है लेकिन पिता होने के नाते मनुष्य अपने पुत्र को बार बार समझाता है । यही पिता पुत्र का सम्बन्ध सामने रख कर महापुरुषों ने शिक्षा की लाभप्रद बातों को बार बार दोहराया है। ऐसा करने में कोई हानि नहीं । वरन् लाभ ही होता है । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ १५ अन्तिम ६ पदों में से पहले के तीन पद इस प्रकार हैं- " संजायसड्ढे, संजायसंसए, संजायकोउ हल्ले" | इन तीनों पदों का अर्थ वैस ही है, जे कि "जाय सड्दे जायसंसंप और जायको हल्ले” पदों का बतलाया जा चुका है । अन्तर केवल यही है, कि इन पदों में 'जाय' के साथ 'सम्' उपसर्ग लगा हुआ है । 'जय' का अर्थ है प्रवृत ओर 'मम्' उसर्ग अत्यन्तता का बोधक है । जैसे मैंने कहा, इस स्थान पर व्यवहार में कहते हैं- 'मैंने खूब कहा' मैं बहुत चला' इत्यादि । इस प्रकार जैसे अत्यन्तता का भाव प्रकट करने के लिये बहुत या खूब शब्द का प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार शास्त्रीय भाषा में अत्यन्तता बतलाने के लिये 'सम्' शब्द लगाया जाता है, अतएव तीनों पदों का यह अर्थ हुआ कि-- बहुत 'श्रद्धा हुई' बहुत संशय हुआ और बहुत कौतूहल हुआ और इसी प्रकार "समुत्पन्नसड्ढे समुन्नसंस" और "समुपपन्नको हल्ले" पदों का का भाव भी समझ लेना चहिये । इन पदों के इस अर्थ में आचार्यों में किंचिद् मतभेद है । कोई श्राचार्य इन बारह पदों का अर्थ अन्य प्रकार से भी करते हैं । वे 'श्रद्धा' पद का अर्थ 'पूछने को इच्छा' करते हैं । और कहते हैं कि श्रद्धा अर्थात् 'पूछने की इच्छा' संशय से उत्पन्न होती है और संशय कौतूहल से उत्पन्न हुआ । यह सामने ऊंची सी दिखाई देने वाली वस्तु मनुष्य है या ठूठ है इस प्रकार का अनिश्चयात्मक ज्ञान संशय कहलाता है, इस प्रकार व्याख्या करके आचार्य एक दूसरे पद के साथ सम्बन्ध जोड़ते हैं । अर्थात् श्रद्धा के साथ संशय का, और संशय से कौतूहल का सम्बन्ध जोड़ते हैं । कौतूहल का अर्थ उन्हों ने यह किया है हम यह बात कैसे जानेंगे ? इस प्रकार की उत्सुकता को कौतूहल कहते हैं । इस प्रकार व्याख्या करके वे आचार्य कहते हैं कि इन बारह पदों के चार चार हिस्से करने चाहिये । इन चार हिस्सों में एक हिस्सा अवग्रह का है, एक ईहा का है, एक अवाय का है और एक धारणा का है । इस प्रकार इन चार विभागों में बारह पदों का समावेश हो जाता है । दूसरे आचार्य का कथन है कि इन बारह पदों का समन्वय दूसरी ही तरह से करना चाहिये । उनके मन्तव्य के अनुसार बारह पदों के भेद करके उन्हें अलग अलग करने की आवश्यकता नहीं हैं । जात, संजात, उत्पन्न, समुत्पन्न इन सब पदों का एक ही अर्थ है । प्रश्न होता कि एक ही अर्थ वाले इतने पदों का प्रयोग क्यों किया गया ? इसका वे उत्तर देते हैं कि करने के लिये इन पदों का प्रयोग किया गया है । भाव के बहुत स्पष्ट एक ही बात को बार बार कहने से पुनरुक्ति दोष आता है । अगर एक ही भाव के लिये अनेक पदों का प्रयोग किया गया तो यहां पर भी यह दो क्यों न होगा ? इस प्रश्न का उत्तर उन आचार्यों ने यह दिया है कि-स्तुति करने में पुनरुक्ति दोष नहीं माना जाता । शास्त्रकार ने विभिन्न पदों द्वारा एक ही बात कह कर श्री गौतमस्वामी की प्रशंसा की है अतएव बार बार के इस कथन को पुनरुक्ति दोष नहीं कहा जा सकता, इसका प्रमाण यह है वक्ता हर्ष भयादिभिराक्षिप्तमनाः स्तुवंस्तथा निंदन् । यत् पदमसकृद् ब्रूते तत्पुनरुक्तं न दोषाय ॥ अर्थात् हया भय आदि किसी प्रबल भाव से विक्षिप्त मन वाला वक्ता, किसी की प्रशंसा या निन्दा करता हुआ अगर एक ही पद को बार-बार बोलता है तो उसमें पुनरुक्ति दोष नहीं माना जाता । जिन आचार्य के मतानुसार इन बारह पदों को अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा में विभक्त किया गया है । उनके कथन के आधार पर यह प्रश्न हो सकता है कि अवग्रह आदि का For Private And Personal Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री विपाक सूत्र ―― - १६ ] यह है क्या अर्थ है ? इस प्रश्न का उत्तर इन्द्रियों और मन के द्वारा होने वाले मति अर्थात् हम जब किसी वस्तु को किसी इन्द्रिय या मन द्वारा जानते हैं, उत्पन्न होता है। यही क्रम बतलाने के लिये शास्त्रों में चार भेद कहे गये हैं । साधारणतया प्रत्येक मनुष्य समझता है कि मन और इन्द्रिय से एकदम जल्दी ही ज्ञान हो जाता है । वह समझता है मैंने आंख खोली और पहाड़ देख लिया । अर्थात् उसको समझ के अनुसार इन्द्रिय या मन की क्रिया होते ही ज्ञान हो जाता है, ज्ञान होने में तनिक भी देर नहीं लगती । किन्तु जिन्होंने श्राध्यात्मिक विज्ञान का अध्ययन किया है। उन्हें मालूम है कि ऐसा नहीं होता । छोटी से छोटी वस्तु देखने में भो बहुत समय लग जाता है । मगर वह समय अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण हमारी स्थूलकल्पना शक्ति में नहीं आता । इन्द्रिय या मन से ज्ञान होने में कितना काल लगता है, यह बात नीचे दिखाई जाती है । 1 Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir । ज्ञान के ये चार भेद हैं तो वह ज्ञान किस क्रम से [ प्रथम अध्याय जब हम किसी वस्तु को जानना या देखना चाहते हैं तब सर्व प्रथम दर्शनोपयोग होता है । निराकार ज्ञान को जिस में वस्तु का अस्तित्व मात्र प्रतीत होता है, जैनदर्शन में दर्शनोपयोग कहते हैं । दर्शन हो जाने के अनन्तर अवग्रह ज्ञान होता है । अवग्रह दो प्रकार का है (१) व्यंजनावग्रह और २) अर्थाग्रह । मान लीजिए कोई वस्तु पड़ी है, परन्तु उसे दीपक के बिना नहीं देख सकते । जब दीपक का प्रकाश उसे पड़ता है, तब वह वस्तु की प्रकाशित कर देता है इसी प्रकार इन्द्रियों द्वारा होने वाले ज्ञान में जिस वस्तु का जिस इन्द्रय से ज्ञान होता है उस वस्तु के परमाणु इन्द्रियों से लगते हैं । उस वस्तु का और इन्द्रिय सम्बन्ध व्यंजन कहलाता है। व्यंजन का वह अवग्रह -ग्रहण व्यंजावग्रह कहलाता है । यह व्यंजनावग्रह आँख से और मन से नहीं होता क्योंकि आंख और मन का वस्तु के परमाणुओं के साथ सम्बन्ध नहीं होता, ये दोनों इन्द्रियां पदार्थ का स्पर्श किए बिना ही पदार्थ को जान लेती हैं, अर्थात् अप्राप्यकारी हैं। शेष चार इन्द्रियों से ही व्यंजनावग्रह होता है अर्थात् आंख और मन को छोड़ कर शेष चार इन्द्रियों से पहले व्यंजनावग्रह ही होता है । व्यंजनावग्रह के पश्चात् अर्थावग्रह होता है । व्यंजनावग्रह द्वारा अव्यक्त रूप से जानी हुई वस्तु को "यह कुछ है" इस रूप से जानना विग्रह कहलाता है अर्थात् अर्थावग्रह व्यञ्जनावग्रह की एक चरम पुष्ट अंश ही है । अवग्रह के इन दोनों भेदों में से अर्थावग्रह तो पांचों इन्द्रियों से और मन से भी होता है अत एव उस के छ भेद हैं। व्यंजनावग्रह आंख को छोड़ कर चार इन्द्रियों से ही होता है। वह मन एवं प्रांख से नहीं हो । तात्पर्य यह है कि इन्द्रियों और मन से ज्ञान होने में पहले अवग्रह होता है । अवग्रह एक प्रकार का सामान्य ज्ञान है । जिसे यह ज्ञान होता है उसे स्वयं भी मालूम नहीं होता कि मुझे क्या ज्ञान हुआ । लेकिन विशिष्ट ज्ञानियों ने इसे भी देखा है, जिस प्रकार कपड़ा फाड़ते समय एक एक तार का टूटना मालूम नहीं होता है लेकिन तार टूटते अवश्य हैं। तार न टूटें तो कपड़ा फट नहीं सकता । इस प्रकार अवग्रह ज्ञान स्वयं मालूम नहीं पड़ता मगर वह होता अवश्य है । अवग्रह न होता तो आगे के ईहा, अवाय, धारणा आदि ज्ञानों का होना संभव नहीं था । क्योंकि बिना अवग्रह के ईहा, बिना ईहा के अवाय और बिना अवाय, के धारणा नहीं होती । ज्ञानों का यह क्रम निश्चित है । For Private And Personal वग्रह के बाद ईहा होती है । यह कुछ है इस प्रकार का वह ज्ञान जिस वस्तु के विषय में हुआ था । उसी वस्तु के सम्बन्ध में भेद के विचार को ईहा कहते हैं । यह वस्तु अमुक गुण की है, इसलिये अमुक होनी चाहिये । इस प्रकार का कुछ कुछ कच्चा या पक्का ज्ञान ईहा कहलाता है । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। ईहा के पश्चात् अवाय का ज्ञान होता है । जिस के सम्बन्ध में ईहा ज्ञान हुआ है, उसके सम्बन्ध में निर्णय-निश्चय पर पहुँच जाना अवाय है । “यह अमुक वस्तु हो है" इस ज्ञान को अवाय कहते हैं । "यह खड़ा हुआ पदार्थ ठूराठ होना चाहिय" इस प्रकार का ज्ञान ईहा और यह पदार्थ यदि मनुष्य होता है तो बिना हिले डुले एक ही स्थान पर खड़ा न रहता, इस पर पक्षी निर्भय हो कर न बैठता, इसलिये यह मनुष्य नहीं है, ठूण्ठ ही है, इस प्रकार का निश्चयात्मक ज्ञान अवाय कहलाता है। अर्थात् जो है उसे स्थिर करने वाला और जो नहीं है, उसे उठाने वाला निर्णय रूप ज्ञान अवाय है। चौथा ज्ञान धारणा है। जिस पदार्थ के विषय में अवाय हुआ है, उसी के सम्बन्ध में धारणा होती है। धारणा स्मृति और संस्कार ये एक ही ज्ञान की शाखायें हैं । जिस वस्तु में अवाय हुआ है उसे कालान्तर में स्मरण करने के योग्य सुदृढ बना लेना धारणा ज्ञान है । कालान्तर में उस पदार्थ को याद करना स्मरण है और स्मरणा का कारण संस्कार कहलाता है । तात्पर्य यह है कि अवाय से होने वाला वस्तुतत्त्व का निश्चय कुछ काल तक तो स्थिर रहता है और मन का विषयान्तर से सम्बन्ध होने पर वह लुप्त हो जाता है परन्तु लुप्त होने पर भी मन पर ऐसे संस्कार छोड़ जाता है कि जिस से भविष्य में किसी योग्यनिमित्त के मिल जाने पर उस निश्चय किए हुए विषय का स्मरण हो पाता है । इस निश्चय की सततधारा, धाराजन्य संस्कार तथा संस्कारजन्य स्मृति ये सब धारण के नाम से अभिहित किए जाते हैं । यदि संक्षेप में कहें तो अवाय द्वारा प्राप्त ज्ञान का दृढ संस्कार धारणा है। पहले प्राचार्य का कथन है कि जम्बूस्वामी को प्रथम श्रद्धा, फिर संशय और कौतूहल में प्रवृत्ति हुई । ये तीनों अवग्रह ज्ञान रूप हैं । प्रश्न होता है कि यह कैसे मालूम हुआ कि जम्बू स्वामी को पहले पहल अवग्रह हुअा ? इस का उत्तर यह है - पृथ्वी में दाना बोया जाता है। दाना, पानी का संयोग पाकर पृथ्वी में गीला होता है-फूलता है और तब उस में से अंकुर निकलता है। अंकुर जब तक पृथ्वी से बाहर से नहीं निकलता, तब तक दीख नहीं पड़ता । मगर जब अंकुर पृथ्वी से बाहिर निकलता है, तब उसे देख कर हम यह जान लेते हैं कि यह पहले छोटा अंकुर था जो दीख नहीं पड़ता था, मगर था वह अवश्य, यदि छोटे रूप में न होता तो अब बड़ा होकर कैसे दीख पड़ता ? इस प्रकार बड़े को देख कर छोटे का अनुमान हो ही जाता है । कार्य को देख कर कारण को मानना ही न्याय संगत है । बिना कारण के कार्य का होना असंभव है। इसी प्रकार कार्य कारण के सम्बन्ध से यह भी जाना जा सकता है कि जो ज्ञान ईहा के रूप में आया है वह अवग्रह के रूप में अवश्य 4 I, क्यों के बिना अवग्रह के ईहा का होना सम्भव नहीं है । जम्बस्वाभी छद्मस्थ थे । उन्हें जो मतिज्ञान होता है वह इन्द्रिय और मन से होता है। इन्द्रिय तथा मन से होने वाले ज्ञान में बिना अवग्रह के ईहा नहीं होती। ___ सारांश यह है कि पहले के "जायसड्ढे, जायसंसर" और "जायकोउहल्ले" ये तीन पद अवग्रह के हैं । “उत्पन्नसड्ढे, उप्पन्नसंसर" और "उत्पन्न कोउहल्ले" ये तीन पद ईहा के हैं । "संजायसड्ढे, संजायसंसर" और "संजायको उहल्ले" ये तीन पद अवाय के हैं । और "समुप्पन्नसड्ढे, समुप्पन्नसंसर” तथा “सप्मुन्नकोउहल्ले" ये तीनों पद धारणा के हैं। इसके आगे जम्बूस्वामी के सम्बन्ध में कहा है कि "उट्ठाए उढेई" अर्थात् जम्बस्वामी उठने के लिये तैयार हो कर उठते हैं। प्रश्न - होता है कि यहां "उट्ठाए उट्टेइ" ये दो पद क्यो दिये गये हैं ? इसका For Private And Personal Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १८] श्रो विपाक सूत्र [प्रथम अध्याय यह उत्तर है कि - दोनों पद सार्थक हैं । देखिए -पहिले पद से सूचित किया है कि जम्बूस्वामी उटने को तैयार हुए । दूसरे पद से सूचित किया है कि वे उठ खड़े हुए । दोनों पद न देकर यदि एक ही पद होता तो उठने के प्रारम्भ का ज्ञान तो होता परन्तु "उठ कर खड़े हुए" - यह ज्ञान न हो पाता । जैसे - बोलने के लिये तैयार हुए, इस कथन में यह सन्देह रह जाता है कि बोले या नहीं ?, इसी प्रकार एक पद रखने से यहां भी सन्देह रह जाता । "आर्य जम्बू स्वामी, आर्य सुधर्मास्वामी को विधिवत् बन्दना नमस्कार कर उन की सेवा में उपस्थित हुए और उपस्थित हो कर इस प्रकार निवेदन करने लगे '--इस भावार्थ को सूचित करने वाले "नमंसिता जाव पज्नुवासति पन्नुवासित्ता रवं वयासो” इस पाट में आये हुए “जाव-यावत्" शब्द को निम्नांकित पाठ का उपलक्षण समझना, जैसे कि - "अज्जसुहम्मस्स थेरस्स पच्चासरणे नातिदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुह पंजलिउड़ विणएणं' ..... [श्रार्य सुधर्मणः स्थविरस्य नात्यासन्ने नातिदूरे शुश्रूषमाणः नमस्यन् अभिमुखं प्रांजलिपुट: विनयेन......" श्री जम्बूस्वामी ने आर्य सुधर्मास्वामी के प्रति क्या निवेदन किया अब सत्रकार उसका वर्णन करते हैं - मूल-जति णं भंते ! सपणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दसमस्स अंगस्स पण्हावागरणाणं अयम? पएणते, एक्कारसमस्य णं भंते ! अंगस्स विवागसुयस्य समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठ पएणत्ते ? तते णं अज्जसुहम्मे अणगारे जंबु अणगारं एवं वयासी एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं एक्कारसमस्स अंगस्स विवागसुयस्म दो सुयखंधा पएणत्ता, तंजहा-दुह-विवागा य सुह-विवागा य । जति णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं एककारसमस्स अंगस्स विवागसु बस्स दो सुयखंधा पएणत्ता, तंजहा-दुहविवागा य सुहविवागा य । पढमस्स णं भंते ! सुयखंधस्स दुहविवागाणं समणेणं जाव संपत्तेणं कइ अझयग्णा पएणता ? तते णं अज्जसुहम्मे अणगारे जंबु अणगारं एवं वयामी-एवं खलु जम्बू ! (१) छाया- यदि भदन्त ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सम्प्राप्तेन दशमस्यांगस्य प्रश्नव्याकरणानामयमर्थः प्रज्ञप्तः । एकादशस्य भदन्त ! अंगस्य विपाकश्रुतस्य श्रमणेन यावत् सम्प्राप्लेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ?, ततः श्रार्यसुधर्माऽनगारो जम्बूमनगारमेवम वदत् - एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेनैकादशस्यांगस्य विपाकश्रतस्य द्वौ श्रुतस्कन्धौ प्रज्ञप्तौ तद्यथा-दुःखविपाकाश्च सुखविपाकाश्च । यदि भदन्त ! श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेनैकादशस्यांगस्य विपाकश्रुतस्य द्वौ श्रुतस्कन्धौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा - दुःखविपाकाः, सुखविपाकाश्च । प्रथमस्य भदन्त ! श्रुतस्कन्धस्य दुःखविपाकानां श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन कत्यध्ययनानि प्रज्ञप्तानि ? ततः आर्य सुधर्माऽनगारो जम्बूमनगरमेवमवादीत् - __ एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन दुःखविपाकानां दशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि. तद्यथा - मृगापुत्रः (१) उज्झितकः (२) अभग्नः (३) शकटः (४) बृहस्पति: (५) नन्दी (६) उम्बर. (1) शौरिकदत्तश्च (८) देवदत्ता च (E) अंजूश्च (१८) ॥ यदि भदन्त ! श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन दुःखविपाकानां दशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-मृगापुत्रो यावदश्च । प्रथमस्य भदन्त ! अध्ययनस्य दुःखविपाकानां श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? ततः सः सुधर्माऽनगारो जम्बूमगारमेवमवादीत् --- एवं खलु जम्बूः ! । For Private And Personal Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित [१९ समणेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दस अज्झयणा पएणत्ता,तंजहा–मियाउत्ते (१) उज्झियत (२) अभग्ग (३) सगड़े (४) वहस्सती (५) नंदी (६) उंबर (७) सोरियदत्ते य (८) देवदत्ता य (6) अंजू य (१०) । जति णं भंते ! समणेणं जाव सपत्तेणं दुहविव गाणं दस अझ पणा पएणता, तंजहा–मियाउत्ते जाव अंजू य । पदमस्य णं भंते ! अझयणस्स हवागाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठ पएणते ? तते णं से सुहम्मे अणगारे जंबु अणगारं एवं वयासी-एवं खलु जंबू !। पदार्थ -जति - यदि । णं-यह पद वाक्य-सौन्दर्य के लिये है, ऐसा सर्वत्र जानना । भंते !हे भगवन् ! । समणेणं जाव संपत्तेणं-यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने । पराहावागरणाणं. प्रश्न-व्याकरण । दसमस्य-दशम। अंगस्त-अंग का । अयम? -यह अर्थ . पराणते - प्रतिपादन किया है । भंते !- हे भगवन् ! । विवाग यस्स -विपाकश्रुत । एक्कारसमस्स -एकादशवें । अंगस्सअङ्ग का। जाव -यावत् । संपतेणं मोक्ष - संप्राप्त। समणेणं-श्रमण भगवान् महावीर ने । के-क्या । अटे- अर्थ । पर गत्ते-प्रतिपादन किया है । तते णं-तदनन्तर । अज्जसुहम्मे अणगारे-पाय सुधर्मा अनगार ने । जम्बु अ गारं- जम्बू नामक अनगार को । एवं - इस प्रकार । वयासी-कहा। जब!-हे जम्बू ! । खलु -निश्चय से। एवं-इसप्रकार । जाव-यावत । संपत्तेणं-- मोक्षसंप्राप्त सतणेणं-श्रमण भगवान् महावीर ने। विवागसुयस्य -विपाकश्रुत । एक्कारसमस्सएकादशवें। अंगरस-अङ्ग के। दो-दो । सुयखंधा-श्रुतस्कन्ध । पराणत्ता- प्रतिपादन किये हैं। तंजहा- जैसे कि । दुहविवागा य - दुःख-विपाक तथा । सुहविवागा य-सुखविपाक । भंते !हे भगवन् ? । जति णं - यदि । जाव - यावत् । संपत्तेणं -मोक्ष-संप्राप्त । समणेणं -श्रमण भगवान महावीर ने । विवागसुयस्य - विपाकश्रुत नामक । एक्कारसनस्स - एकादशवें । अंगस्त - अङ्ग के । दो - दो । सुयबंधा-श्रुतस्कन्ध । पराण ता - प्रतिपादन किये हैं। तंजहा- जैसे कि । दुइविवागा य-दुःखविपाक तथा। सुहविवागा य - सुखविपाक। भंते !-हे भगवान् । पढमस्सप्रथम । दुहविवागाणं-दुःखविपाक नामक । तुयखंधस्त-श्रुतस्कन्ध के । जाव - यावत् । संपत्तेणंमोक्ष को प्रात हुए । समणेण-श्रमण भगवान् महावीर ने। कइ-कितने । अज्झयणा - अध्ययन । पराणत्ता–प्रतिपादन किये हैं । तते णं-तदनन्तर । अज्जसुहम्मे अणगारे-प्रार्य सुधर्मा अनगार ने जम्बु अणगारं - जम्बू अनगार को। एवं -इस प्रकार । वयासो-कहा । जम्बू !-हे जम्बू !। खल - निश्चय से । एवं-- इस प्रकार । जात्र- यावत् । संपत्तेणं-मोक्षसम्प्राप्त । समणेणं-श्रमण भगवान् महावीर ने । दुहविवागाणं -- दुःख - विपाक के । दस-दश । अझयणा-अध्ययन । पराणता- प्रतिपादन किये हैं। तंजहा - जैसे कि । मियाउरो य -मृगापुत्र । (२) उझियते-उज्झितक । (२) अभग्ग-अभग्न । (३) सगड़े - शकट । (४) वहस्सती-वृहस्पति । (५) नंदीनन्दी । (6) उम्बर-उम्बर । (७) सोरियदत्ते य - शौरिक दत्त । (८) देवदत्ता य-देवदत्ता। (8) अंजू य -तथा अञ्जू । (१०) भंते ! - हे भगवन् ! । जति णं- यदि । जाव- यावत् । संपत्तेणंमोक्षसम्प्राप्त । समणेणं-श्रमण भगवान् महावीर ने । दुहविवागाणं-दुःखविपाक के। दस - दश अज्झयणा - अध्ययन ! पण्णता -- कथन किये हैं । तंजहा - जैसे कि । मियाउत्ते- मृगापत्र । जाव For Private And Personal Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [प्रथम अध्याय यावत् । अंज य-और अंजू । भंते ! -हे भगवन् ! । दुहविवागाणं -दुःख-विपाक के । पढमस्स - प्रथम । अझयणस्स-अध्ययन का। जाव- यावत् । संपत्तेणं-मोक्षसम्प्राप्त । समणेणं - श्रमण भगवान् महावीर ने । के अटे --क्या अर्थ । परणत्ते- कथन किया है । तते णं-तदनन्तर । से सुहम्मे अणगारे- वह सुधर्मा अनगार । जंबु अणगारं-जम्बू अनगार को। एवं - इस प्रकार । वयासी-कहने लगे। जम्बू !- हे जम्बू ! । खलु-निश्चयार्थफ है । एवं- इसप्रकार ।। मला हे भगवन् ! प्रश्नव्याकरण नामक दशम अंग के अनन्तर मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने विपाकश्रुत नामक एकाशवें अंग का क्या अर्थ फरमाया है ? तदनन्तर श्रार्य सुधर्मा अनगार ने जम्बू अनगार के प्रति इस प्रकार कहा - हे जम्बू ! मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने विपाकश्रत नामक एकादशवें अंग के दो श्रुतस्कन्ध प्रतिपादन किये हैं, जैसे कि-दुःखविपाक और सुखविपाक । हे भगवन् ! यदि मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने एकादशवे विपाकश्रुत नामक अंग के दो श्रुतस्कन्ध, फरमाये हैं, जैसे कि दुःखविपाक और सुखविपाक, तो हे भगवन् ! दुःख-विपाक नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध में श्रमण भगवान् महावीर ने कितने अध्ययन कथन किये हैं ?, तदनन्तर इसके उत्तर में आर्य सुधर्मा अनगार जम्बू अनगार के प्रति इस प्रकार कहने लगे-हे जम्बू ! मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने दुःखविपाक नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध के दश अध्ययन प्रतिपादन किये हैं जैसे कि - मृगापुत्र (१) उज्झितक (२) अभग्न (३) शकट (४) बृहस्पति (५) नन्दी (६) उम्बर (७) शौरिकदत्त (८) देवदत्ता (E) और अञ्जू (१०) । हे भगवन् ! मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने दुःखविपाक के मृगापुत्र प्रादिक दश अध्ययनों में से प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कथन किया है ? उत्तर में सुधर्मा अनगार कहने लगे हे जम्बू ! उसका अर्थ इस प्रकार कथन किया है -- । टीका-श्री जम्बू स्वामी ने अपने सद्गुरु श्रीसुधर्मा स्वामी की पर्युपासना-सेवा करते हुए बड़े विनम्र भाव से उन के श्री चरणों में निवेदन किया कि हे भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने प्रश्नव्याकरण नाम के दशवे अंग का जो अर्थ प्रतिपादन किया है वह तो मैंने अापके श्री मुख से सुन लिया है, अब आप यह बतलाने की कृपा करें कि उन्हों ने विपाकश्रुत नाम के ग्यारवें अंग का क्या अर्थ कथन किया है।। जम्बू स्वामी के इस प्रश्न में विपाकश्रुत नाम के ग्यारवें अंग के विषय को अवगत करने की जिज्ञासा सूचित की गई है, जिस के अनुरूप ही उत्तर दिया गया है। “विपाश्रत' का सामान्य अर्थ है -विपाकवर्णन-प्रधान शास्त्र । पुण्य और पापरूप कर्म के फल को विपाक कहते हैं, उस के प्रतिपादन करने वाला श्रुत - शास्त्र विपाकश्रुत कहलाता है ? सारांश यह है कि जिस में शुभाशुभ कर्मफल का विविध प्रकार से वर्णन किया गया हो उस शास्त्र या आगम को विपाकत कहा जाता है। यहां पर "समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं" इस वाक्य में उल्लेख किया गया "जाव-यावत्" यह पद भगवान महावीर स्वामी के सम्बन्ध में उल्लेख किये जाने वाले अन्य विशेषणों को सूचित करता है, वे विशेषण "आइगरेणं. तित्थगरेणं... इत्यादि हैं, जो कि श्री भगवती, समवायाज आदि सूत्रों में उल्लेख किये गये हैं, पाठक वहां से देख लेवे । प्राणि वर्ग के शुभाशुभ कर्मों के फल का प्रतिपादक शास्त्र आगम परम्परा में विपाकश्रु त के नाम से प्रसिद्ध है ', और यह द्वादशांग रूप प्रवचन-पुरुष का एकादशवां अंग होने के कारण ग्यारवें अंग के नाम (१) विपाक : ... पुण्यपापरूपकर्मफलं तत्प्रतिपादनपरं श्रुतं -- 'अागमो' विपाकश्रुतम् [अभय देव सूरिः For Private And Personal Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका महित। से विख्यात है। इसके दुखविपाक ओर मुवविपाक नाम के दो श्रुतस्कन्ध हैं । यहां प्रश्न होता है कि श्रुतस्कन्ध किसे कहते हैं । इस का उत्तर यह है कि विभाग -विशेष अतस्कन्ध है, अर्थात् आगम के एक मुपविभाग अथवा कतिपय अध्ययनों के समुदाय का नान श्रुतस्कन्ध है । प्रतुत आगम के दो श्रुतस्कन्ध है । पहले का नाम दुःख वपाक और दूसरे का सुखविपाक है । जिसमें अगुभकमों के दुखरूप विगक. परिणामविरोध का दृष्टान्त पूर्वक वर्णन हो उसे दुःखविपाक, और जिस में शुभकर्मों के सुवरूप फल-विशेष का दृष्टान्त पूर्वक प्रतिपादन हो उसे मुखविपाक कहते हैं। भगवन् ! दु:खावपाक नामक प्रथमश्रतस्कन्ध के कितने अध्ययन है जम्बू स्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में श्री सुधमास्वामी ने उस के दश अध्ययनों को नामनिर्देशपूर्वक कह सुनाया। उन के"(१) मृगापुत्र, (२) उज्झितक, (३) अभग्नसेन, (४) शकट (५) वृहस्पति (६) नन्दवर्धन (८) उम्बरदत्त, (८) शौरिकदन ९ देवदत्ता (१०) और अजू-"ये दश नाम है मृगापुत्रादि का सविस्तर वर्णन तो यथास्थान आगे किया जायेगा, परन्तु संक्षेप में यहां इन का मात्र परिचय करा देना उचित प्रतोत होता है - (१) मृगापुत्र - एक राजकुमार था, यह दुष्कर्म के प्रकोप से जन्मान्ध इन्द्रियविकल बीभत्स, एवं भस्मक आदि व्याधियों से परिपीड़त था। एकादि के भव में यह एक प्रान्त का शासक था परन्तु आततायो, निर्दयी, एवं लोलुपी बन कर इसने अनेकानेक दानवीय कृत्यों से अपनी आत्मा का पतन कर डाला था, जिसके कारण इसे अनेकानेक भीषण विपत्तिए सहनी पड़ीं । श्राज का जैनसंसार इसे मृगालोढे के नाम से स्मरण करता है (२) उज्झितक-विजय मित्र नाम के सार्थवाह का पुत्र था, गोत्रासक के भव में इसने गौ, बैल, आदि पशुओं के मांसाहार एवं मदिरापान जैसे गर्हित पाप कर्मों से अपने जीवन को पतित बना लिया था, उन्हीं दुष्ट कर्मों के परिणाम में इसे दुःसह कष्टों को सहन करना पड़ा। (३) भग्नसेन --विजय चोरसेनापति का पुत्र था, निर्णय के भव में यह अण्डों का अनार्य व्यापार किया करता था, अण्डों के भक्षण में यह बड़ा रस लेता था जिस के कारण इसे नरकों में भयंकर दुःख सहन करने पड़े । (४) शकट-मार्थवाह सुभद्र का पुत्र था । परिणक के भव में यह कमाई था. मांसहारी था, देवदुर्लभ अनमोल मानवजीवन को दूषित प्रवृत्तियों में नष्ट कर इस ने अपनी जीवन नौका को दुःखसागर में डुबो दिया था। (५) वृहस्पति राजपुरोहित सोमदत्त का पुत्र था, राजपुरो हत महेश्वर दत्त के भव में यह ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रवर्ण के हजारों जीवित बालकों के हृदयमांसपिण्डों को निकाल कर उन से हवन किया करता था, इस प्रकार के दानवो कृत्यों से इसने अपने भविष्य को अन्धकार-पूर्ण बना लिया था जिसके कारण इसे जन्म जन्मान्तर भटकना पड़ा । (६ नन्दोवर्धन मथुरानरेश श्रीदाम का पत्र था, दुर्योधन कोतबाल के भव में यह अपराधियों के साथ निर्दयता एवं पशुता पूर्ण व्यवहार किया करता था, उन के अपराधों का इसके पास कोई मापक पैमाना) नहीं था, जो इसके मन में श्राया वह इसने उन पर अत्याचार किया इसी क्र रता से इसने भीषण पापों का संग्रह किया, जिस ने इसे नारकीय दुखों से परिपीडित कर डाला (७) उम्बरदत्त - सागरदत्त सार्थवाह का पुत्र था, वैद्य धन्वन्तरी के भव में यह लोगों को मांसाहार का उपदेश दिया करता था । मांस-भक्षण-प्रचार इस के जोवन का एक अंग बन चुका था। जिस के परिणामस्वरूप नारकोय दुःख भोगने के अनन्तर भी इसे पाटलिघण्ड नगर की सड़कों पर भीपण रोगों से आक्रान्त एक कोढो के रूप में धक्के खाने पड़े थे। (८) शौरिक - समुद्रदत्त नामक मछुवे (मच्छी मारने वाले) का पुत्र था, श्रीद के भव में यह राजा का रसोईया था, मांसाहार इस के जीवन का लक्ष्य बन चुका या, अनेकानेक मूक पशुओं के जीवन का अन्त करके इसने महान पाप कर्म एकत्रित किया था, यही कारल है कि नरक के असह्य दुःख को भोगने के अनन्तर भी इसे इस भव में तड़प तड़प कर मरना पड़ा For Private And Personal Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २२] श्रो विपाक सूत्र । प्रथम अध्याय (९) देवदत्ता-रोहीतक-नरेश पुष्यनन्दी की पट्टराणी थी। सिंह सेन के भव में इस ने अपनी प्रिया श्यामा के मोह में फंस कर अपनी मातृतुल्य ४९९ देवियों को आग लगा कर भस्म कर दिया था। इस क र कर से इत ने महान् पापकर्म उपार्जित किया । इस भव में भी इसने अपनी सास के गुह्य अंग में अग्नि तुल्य देदीप्यमान लोहदण्ड प्रविष्ट करके उस के जीवन का अन्त कर दिया । इस प्रकार के नृशंस कृत्यों से इसे दुःख सागर में डूबना पड़ा (१०) अज्ज-महाराज विजयमित्र को अवांगिणी थो। पृथियोश्री गणिका के भव में इस ने सदाचारवृक्ष का बड़ी क रता से समूलोच्छेद किया था, जिस के कारण इसे नरकों में दु:ख भोगना पड़ा और यहां भी इसे योनिशूल जैसे भयंकर रोग से पीड़ित हो कर मरना पड़ा। प्रस्तुत श्रुतस्कन्ध में मृगापुत्र आदि के नामों पर हो अध्ययनों का निर्देश किया गया है । क्यों कि दश अध्ययनों में क्रमश इन्हीं दशों के जीवनवृत्तान्त की प्रधानता है । जैसे कि प्रधानरूप से राजकुमार मृगापुत्र के वृत्तान्त से प्रतिपद होने के कारण प्रथम अध्ययन मृगापुत्रीय अध्ययन के नाम से विख्यात हुआ. इसी भांति अन्य अध्ययनों के विषय में भी समझ लेना चाहिये। ____ भगवन् ! दुःखविपाक नाम के प्रथमश्रुतस्कन्ध के दश अध्ययनों में से प्रथम के अध्ययन का क्या अर्थ है अर्थात् उस में किस विषय का प्रतिपादन किया गया है ? जम्बूस्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में आर्य सुधर्मास्वामी प्रथम अध्ययनगत विषय का वर्णन प्रारम्भ करते हैं, जैसे कि -- ___ मूल-'तेणं कालेणं तेणं समएणं मियग्गामे णाम णगरे होत्था वण्ण प्रो। तस्म मियग्गामस्स बहिया उत्तरपुत्थिमे दिमीभाए चंदणपायवे णामं उज्नाणे होत्था । वएणो। मयोउय० वएणो। तत्थ णं सुहम्मस्म जक्खाययणे होत्था चिरातीए, जहा पुण्णभदं । तत्थ णं मियग्गामे णगरे विजए णाम खत्तिए राया परिवसति । वएणो । तस्स णं विजयस्स खत्तियस्म मिया णामं देवी होत्था, अहीण० । वएणो । तस्स णं विजयस्स खत्तियस्स पुत्ते मियादेवीए अत्तए मियापुत्ते नामं दारए हात्था, जाति-अन्धे, जाति-मूए, जाति-वहिरे, जातिबंगले, हुण्डे य वायवे | नत्थि णं तस्स दारगस्म हत्था वा पाया वा करणा वा अच्छी वा नासा वा केवलं से तेसि अंगोरं गाणं 'आगिई आगितिमित्ते । तते णं सा मिया देवी तं मियापुत्त दारगं रहस्सियंसि भूमिघरंसि रहस्सि तेणं भत्तपाणएणं पडिजागरमाणी विहरति । (१) छाया - तस्मिन् काले तस्मिन् समये मृगाग्रामो नाम नगरमभूत् । वर्णकः । तस्य मृगाग्रामस्य नगरस्य बहिरुत्तरपौरस्त्ये दिगभागे चन्दनपादपं नामोद्यानमभवत् । सर्वतु क. वर्णकः । तत्र सुधर्मणो यक्षस्य यता. यतनमभूत् , चिरा दकं. यथा पूर्णभद्रम्। तत्र मृगाग्रामे नगरे विजयो नाम क्षत्रियो राजा परिवसति । वर्णकः । तस्य विजयस्य क्षत्रियस्य मृगा नाम देव्यभूत् , अहीन, वर्णकः । तस्य विजयस्य क्षत्रियस्य पुत्रो मृगादेव्या श्रात्मजो मृगापुत्रो नाम दारकोऽभवत् । जात्यन्धो, जातिमूको जातियधिरो, जातिपगु लो, हुण्डश्च वायवः । न 'स्तस्तस्य दारकस्य हस्तौ वा पादौ वा कौँ वा अक्षिणी वा नापे वा । केवलं तस्य तेषामंगोपांगानामाकृतिराकृतिमात्रम् । ततः सा मृगादेवी तं मृगापुत्रं दारकं राह सके भूमिगृहे राहसिकेन भक्तपानकेन प्रतिजागरयन्ती विहति । (२) अङ्गावयवानामाकृतिराकारः, किंविवेत्याह -- प्राकृतिमात्रमाकारमात्रं नोचितस्वरूपेत्यर्थः । (१) स्तः के स्थान पर हैमशब्दानुशासन के “अस्थिस्यादिना ॥८।३।१४८ "इस सूत्र से 'अस्थि" यह प्रयोग निष्पन्न हुआ है । यहां अस्ति का अस्थि नहीं समझना । For Private And Personal Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दो भाषा टीका सहित । [ २३ पदार्थ-तेणं कालेणं- उस काल में। तेणं समएणं - उस समय में । मियग्गामे --- मगाग्राम । णाम-नामक । णगरे-नगर । होत्था-था। वरण प्रो-वकि-वर्णन प्रकरण पूर्ववत् । तस्स - उस । मिपग्गामस्त-मृगाग्राम नामक | जगरस्स-नगर के । बहिया-वाहिर । उत्तरपुरथिमे-उत्तरपूर्व ! दिलिभार-दिग्भाग अर्थात् ईशान कोण में । चंदणपायवे-चन्दनपादप । णानं नामक । उज्जाणे-उद्यान । होत्था-था । सबोउय०- जो कि सर्व ऋतु में होने वाले फल पुष्पादि से युक्त था । वराणो-वर्णक-वर्णन प्रकरण पूर्ववत् । तथ णं-उस उद्यान में । सुहम्मस्स जक्खस्ससुधर्मा नामक यक्ष का । जक्वाययणे-यक्षायतन । होत्था- था। चिरातीए-जो कि पुराना था शेषवर्णन ---जहा पुराणभई-पूर्णभद्रकी भांति समझ लेना । तत्थ णं- उस । मियागामे - मृगाग्राम णगरे - नगर में । विजए णाम - विजय नामक । खत्तिए-क्षत्रिय । राया- राजा । परिवसतिरहता था । वाण प्रो - वर्णन प्रकरण पूर्ववत् । तस्स -उप । विजयम्स -विजय नामक । खत्तियस्म-क्षत्रिय की । मिया णामं- मृगा नामक । देवी-देवी । होथा-थी अहीण:-जिसकी पांचों इन्द्रियें सम्पूर्ण अथच निर्दोष थीं। वरणओ- वर्णनप्रकरण पूर्ववत् । तस्स- उस । विजयस्म- विजय । खत्तियस्य-क्षत्रिय का । पुणे-पत्र । मियादेवीए- मृगादेवी का । अत्तए -अात्मज । मियापुत्री- मृगापुत्र । णाम- नामक । दारए - बालक । होत्था- था, जो कि । जाति अन्धे-जन्म से अन्धा । जातिमूए -जन्म काल से मूक-गूगा । जाति-वहिरे-जन्म से वहरा । जातिपंगुले - जन्म से पंगुल-लूला लंगड़ा । हुण्डे य-हुंड-जिस के शारीरिक अवयव अपने २ प्रमाण में पूरे नहीं हैं, तथा–बायो-उसका शरीर वायुपधान था। तस्स दारगस्त - उस बालक के । हत्था वा - हाथ । पाया वा -पांव । कराणा वा - कान । अच्छी वा - अांखे । नासा वा-और नाक । जत्थि णं - नहीं थी। केवल - केवल । से-- उसके । तेगि अंगोवंगाणं- उन अंगोपांगो की । श्रागिई - आकृति । श्रागितिमिने-श्राकार मात्र थी, अर्थात् उचित स्वरूप वाली नहीं थी। तते णं - तदनन्तर । सा -- वह । मियादेवी-मृगादेवी । तं--उस । मियावृत्तं - मृगापत्र । दारंग- बालक की । रहम्सियसि - गुप्त । भूमिवरंशि-भूमिगृह-भौंरे में रहस्सित्तेणं-गुप्तरूप से । भत्तपाणएणंश्राहार पानी के द्वारा । एडिजागरमाणी- सेवा करती हुई। विहरति विहरण कर रही थी। मूलार्थ- उस काल तथा उस समय में मृगाग्राम नामक एक सुप्रसिद्ध नगर था। उस मृगाग्राम नामक नगर के वाहिर उत्तर पूर्व दिशा के मध्य अर्थात् ईशान कोण में सम्पूर्ण ऋतुओं में होने वाले फल पुष्पादि से युक्त चन्द न-पादप नामक एक रमणीय उद्यान था। उस उद्यान में सुधर्मा नामक यक्ष का एक पुरातन यक्षायतन था। जिसका वर्णन पूर्णभद्र के समान जानना । उस मृगाग्राम नामक नगर में विजय नाम का एक क्षत्रिय राजा निवास करता था। उस विजय नामक क्षत्रिय राजा को मृगा नाम को राणी थी जो के सर्वांगसुन्दरी, रूप-लावण्य से युक्त थी। उस विजय क्षत्रिय का पुत्र और मृगादेवी का आत्मज मृगापुत्र नाम का एक बालक था। जो के जन्मकाल से ही अन्धा, गूगा, बहरा, पंगु, हुण्ड और वातरोगी (वात रोग से पीडित) था। उसके हस्त, पाद, कान, नेत्र और नासिका भी नहीं थी ! केवल इन अंगोपांगों का मात्र श्राकार ही था और वह आकार-चिन्ह भी उचित स्वरूप वाला नहीं था। तब मृगादेवी गुप्त भूमिगृह (मकान के नीचे का घर) में गुप्तरूप से आहारादि के द्वारा उस मृगापुत्र बालक का पालन पोषण करती हुई जीवन बिता रही थी। टीका-श्री सुधर्मा स्वामी अपने प्रधान शिष्य जम्बू स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं For Private And Personal Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २४] श्री विपाक सूत्र प्रथम अध्याय कि हे जम्बू ? जब इस अवसर्पिणी का चौथा पारा व्यतीत हो रहा था, उस समय मृगाग्राम नाम का एक नगर था. उसके बाहिर ईशान कोणा में चन्दन पादप नाम का एक बड़ा ही रमणीय उद्यान था, जोकि सवे ऋतुओं के फल पुष्पादि से सम्पन्न था । उस उद्यान में सुधर्मा नाम के यक्ष का एक पुरातन स्थान था । मृगाग्राम नगर में विजय नाम का एक राजा था । उसको पृगा देवी नाम की एक स्त्री थी ? जोकि परम सुन्दरी, भाग्यशालिनी और आदर्श प्रतिव्रता थी, उसके मृगापुत्र नाम का एक कुमार था, जो कि दुर्दैवशात् जन्म काल से ही सर्वेन्द्रियविकल और अंगोपांग से हीन केवल श्वास लेने वाला मांस का एक पिंड विशेष था । मृगापुत्र की माता मृगादेवी अपने उस बालक को एक भूमि-गृह में स्थापित कर उचित आहारादि के द्वारा उसका सरंक्षण और पाल पोषण किया करती थी। प्रस्तुत प्रागम पाठ में चार स्थान पर "वराणी -वर्णक" पद का प्रयोग उपलब्ध होता है । प्रथम का नगर के साथ, दूसरा उद्यान के साथ, तीसरा-विजय राजा और चौथा मृगादेवी के साथ । जैनागमों की वर्णन शैली का परिशीलन करते हुए पता चलता है कि उन में उद्यान, चैत्य, नगरी, सम्राट , सम्राज्ञी तथा संयमशील साधु और साध्वी आदि का किसी एक अागम में सांगोपांग वर्णन कर देने पर दूसरे स्थान में अर्थात् दूसरे ग्रामों में प्रसंगवश वर्णन की आवश्यकता को देखते हुए विस्तार भय से पूरा वर्णन न करते हुए सूत्रकार उस के लिये “वरण ओ" यह सांकेतिक शब्द रख देते हैं । उदाहरणार्थ-चम्पानगरी का सांगोपांग वर्णन औषपातिक सूत्र में किया गया है । और उसी में पूर्णभद्र नामक चैत्य का भी सविस्तर वर्णन है । विगाकत में भो चम्पा और पूर्णभद्रका उल्लेख है, यहां पर भी उन का - नगरी और चैत्य का सांगोपांग वर्णन आवश्यक है, परन्तु ऐसा करने से ग्रन्थ का कलेवर-श्राकार बढ़ जाने का भय है, इसलिये यहां "वरण प्रो" पद का उल्लेख कर के औषपातिक आदि सूत्रगत वर्णन की ओर संकेत कर दिया गया है ? इसीप्रकार सर्वत्र समझलेना चाहिये । प्रस्तुत पाठ में मृगाग्राम नाम नगर का वर्णन उसी प्रकार समझना जैसा कि औपपातिक सूत्र में चम्पा नगरी का वर्णन है, अन्तर केवल इतना ही है कि जहां चम्पा के वर्णन में स्त्रीलिंग का प्रयोग किया है वहां मृगाग्राम नामक नगर में पुल्लिंग का प्रयोग कर लेना। इसी प्रकार उद्यानादि के विषय में जान लेना । विजय राजा के साथ “वराणी ' का जो प्रयोग है उस से औ. पपातिक सत्रगत राजवर्णन समझ लेना । इसी भांती मृगादेवी के विषय में “वण्णा ” पद से औपपातिक सत्रगत राज्ञी वर्णन की ओर संकेत किया गया है । महाराणी मृगादेवी ने अपने तनुज, मृगापुत्र की इस नितान्त घोरदशा में भी रक्षा करने में किसी प्रकार की न्यूनता नहीं रक्खी, उस श्वास लेते हुए मांस के लोथड़े को एक गुप्ठ प्रदेश में सुरक्षित रक्खा और समय पर उसे खान पान पहुँचाया तथा दुर्गन्धादि से किसी प्रकार की भी घृणा न करते हुए अपने हाथों से उसकी परिचर्या की। यह सब कुछ अकारण मातृस्नेह को ही आभारी है, इसी दृष्टि से नीतिकारों ने “पितुः शतगुणा माता गौरवणातिरिच्यते" कहा है और मातदेवो भव' इत्यादि शिक्षा वाक्यभी तभी चरितार्थ होते हैं । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गर्भावास में माता पिता के जीवित रहने तक दीक्षा न लेने का जो संकल्प किया था, उसका मातृस्नेह ही तो एक कारण था । जैनागमों में जीव के छ संस्थान (आकार) माने हैं । उन में छठा संस्थान हुण्डक है । हुण्डक का अर्थ है -- जिस शरीर के समस्त अवयव बेढब हों अर्थात् जिस में एक भी अवयव शास्त्रोक्त-प्रमाण के अनुसार न हो। मृगापुत्र हुण्डक संस्थान वाला या, इस बात की बतलाने के लिए सूत्रकार ने उसे 'हुण्ड' For Private And Personal Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याया हिन्दी भाषा टीका सहित। कहा है। तात्पर्य यह है कि - जिप प्रमाण में अङ्ग' और उांग की रचना होनी चाहिये थी, उस प्रकार की रचना का उस (मृगापुत्र) के शरीर में अभाव था, जिस से उस की प्राकृति बड़ी बीभत्स एवं दुर्दर्शनीय बन गई थी। सूत्रकार ने मृगापुत्र को "वायवे-वायव' भी कहा है । वायत्र शब्द से उन का अभिप्राय 'वातव्याधि से पीडित व्यक्ति' से है। वात-वायु के विकार से उत्पन्न होने वालो व्याधि-रोग का नाम वातव्याधि है। चरकसंहिता (चिकित्सा-शास्त्र) अध्याय २०, में लिखा है कि वात के विकार से उत्पन्न होने वाले रोग असंख्येय होते हैं, परन्तु मुख्यरूप से उन को (वातजन्य रोगों की) संख्या ८० है । नखभेद, विपादिका, पादशूल. पादभ्रंश, पादसुप्ति, ओर गुल्फग्रह इत्यादि ८० रोगों में से मृगापुत्र को कौनसा रोग था ? एक था या अधिक थे ? इत्यादि प्रश्नों के उत्तर में सूत्रकार और टीकाकार दोनों ही मौन हैं । वात-व्याधि से पीडित व्यक्ति के पीठ का जकड़ जाना, गरदन का टेढ़ा होना, अंगों का सुन्न रहना, मस्तकविकृति इत्यादि अनेकों लक्षण चरक संहिता में लिखे हैं। विस्तार भय से यहां उन का उल्लेख नहीं किया जा रहा है। जिज्ञासु वहीं से देख सकते हैं। __ अब सूत्रकार मृगापुत्र का वर्णन करने के अनन्तर एक जन्मान्ध पुरुष का वर्णन करते हैं - मूल-तत्थ णं मियग्गामे नगरे एगे जातिअंधे पुरिसे परिवसति । से णं एगेणं मचवखुतेणं पुरिसेणं पुरतो दडएणं पगड्ढिज्जमाणे २ फुट्टहडाहड़सीसे मच्छियाचड़गरपहकरेणं अपिणज्जमाणमग्गे मियग्गामे णगरे गिहे गिहे कालुणवड़ियाए वित्तिं कप्पेमाणे विहरति । तेणं कालेणं तेणं समए समणे भगवं महावीरे जाव समोसरिते । जाव परिसा निग्गया । तते णं से विजए खत्तिए इमीसे कहाए लट्ठ समाणे जहा कूणिए तहा निग्गते जाव पज्जुवासति, तते णं से जाति-अन्धे पुरिसे तं महया जणसद्द च जाव सुणेत्ता तं पुरिस एवं वयासी-किरणं देवाणुप्पिया ! अज मियग्गामे इंदमहे इ वा जाव निग्गछति ? तते णं से पुरिसे तं जातिअंध-पुरिसं एवं वयासी-नो खलु देवा० ! इंदमहे जाव निग्गए, एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे जाव विहरति, तते णं एए जाव निग्गच्छन्ति । तते णं से जातिअंधपुरिसे तं पुरि एवं वयासी-गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! अम्हे वि समणं भगवं जाव पज्जुवासामो, तते णं से जाति-अंधपुरिसे पुरतो दंडएणं पगड्ढिज्जमाणे २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागते, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति, करेत्ता वंदतिनमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासति । तते णं समणे विजयस्स तीसे य धम्ममाइक्खा परिसा जाव पडिगया। विजए वि गए । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स जेट्ठ अंतेवासी (१) अंग शब्द से-१ -- मस्तक, २ - वक्षःस्थल, ३–पीठ, ४-पेट, ५,६-दोनों भुजाएं, और ७,८-दोनों पांव, इन का ग्रहण होता है, तथा उपांग-शब्द से अंग के अवयवभूत कान, नाक, नेत्र एवं अंगुली आदि का बोध होता है। (२) छाया-तत्र मृगाग्रामे नगरे एको जात्यन्धः पुरुषः परिवसति । स एकेन सचक्षुष्केण पुरुषेण पुरतो दण्डेन प्रकृष्यमाणः २ स्फुटितात्यर्थशोवों मक्षिकाप्रधानसमूहेनान्वीयमानमार्गो मृगाग्रामे नगरे गृहे गृहे का For Private And Personal Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २६] श्रो विपाक सूत्र प्रथम अध्याय इंदभूती णामं अणगारे जाव विहरति । तते णं से भगवं गोतमे तं जातिअंधपुरि पासति पासित्ता जायसड्ढे एवं वयासी-अस्थि ण भंते ! केइ पुरिसे जातिअंधे जायधारूवे ? हंता अत्यि । कहिं णं भंते! से पुरिसे जातिधे जाय अंधारूवे ? । पदार्थ- तत्थ णं--उस। मियागाने - मृगाग्रम । णगरे - नगर में। एगे - एक । जातिअंधे - जन्मान्ध । पुरिसे- पुरुष ।परिवसति- रहता था । एगणं - एक । सचक्खुतेणंचतुवाले । पुरिसेणं-पुरुष से । दंडएणं - दण्ड के द्वारा । पुरतो-पागे को । पगहिज्जमाणेलेजाया जाता हुा । फुटहड़ाहड़सीसे-जिस के शिर के बाल अत्यन्त अस्तव्यस्त बिखरे हुए थे । मच्छियाचडगरपहकरेणं-मक्षिकाओं के विस्तृत समूह से । अरिणज्जमाणमग्गे-जिस का मार्ग अनुगत हो रहा था अर्थात् जिसके पीछे मक्षिकारों के बड़े २ झुण्ड लगे रहते थे ।से-वह-जन्मान्ध पुरुष । मियग्गामे गरे-मृगाग्राम नगर में । गिहे २ -घर घर में । कालुणवडियार ... कारुण्यदैन्यवृत्ति से विति-आजीविका । कप्पेमाणे विहरति-चलाता हुआ विहरण कर रहा था। तेणं. कालेणं-- उस काल में । तेणं समएणं-उस समय में । समरणे भगवं महावीरे--श्रमण भगवान् महावीर । ग्रामानुग्राम विहार करते हुए जाव समोसरिते - यावद् मृगाग्राम नगर के चन्दनपादप उद्यान में पधार गये । जाव - यावद् । परिसा निग्गया-नगर निवसी जनता श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के दर्शनार्थ नगर से निकली । तते णं-तदनन्तर । से विजए खत्तिर-वह विजय नामक क्षत्रिय राजा । इमो से कहाए लट्ठ समाणे-भगवान् महावीर स्वामी के अागमनवृत्तान्त को जान कर । जहा- जिस प्रकार । कूणिए -- कूणिक राजा भगवान् के दर्शनार्थ गया था। तहा निग्गते-उसी प्रकार भगवान् के दर्शनार्थ रुण्यवृत्त्या वृत्तिं कल्पयन् विहरति । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरो यावत् समवस. तः । यावत् परिषद् निर्गता। ततः स विजयः क्षत्रियोऽनया कथया लब्धार्थः सन् यथा कूणिकस्तथा निर्गतो यावत् पर्युपास्ते । ततः स जात्यन्धः पुरुषस्तं महाजनशब्दं च यावत् श्रुत्वा तं पुरुषं एवमवदत् किं ननु देवानुप्रिय ! अद्य मृगाग्रामे इन्द्रमहो' वा यावन्निर्गच्छति ? ततः स परुषस्तं जात्यन्ध - पुरुष एवमवादीत्नो खलु देवा ! इन्द्रमही यावन्निर्गतः, एवं खलु देवानुप्रिय ! श्रमणो यावत् विहरति,--तत एते यावन्निगच्छन्ति । ततः स जात्यन्धः पुरुषः तं पुरुषमेवमवादीत्-गच्छावो देवानुप्रिय ! श्रावामपि श्रमणं भगवन्तं यावत् पयुपास्वहे . ततः स जात्यन्धपुरुषः, पुरतो दण्डेन प्रकृमाणो २ यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरस्तत्रैवोपागतः उपागत्य विकृत्वः श्रादक्षिणप्रदक्षिण करोति कृत्वा वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा यावत् पर्युपास्ते ततः श्रमणो विजयाय तस्यै च धर्ममाख्याति, परिषद् प्रतिगता । विजयोऽपि गतः । ततः तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य ज्येष्ठोऽन्तेवासी इन्द्रभूतिर्नामागारो यावत् विहरति । ततः स भगवान् गौतमस्तं जात्यन्धपुरुषं पश्यति, दृष्ट्वा जातश्रद्धो यावदेव मवादीत्-अस्ति भदन्त ! कश्चित्पुरुषो जात्यन्धो जातान्धकरूपः ? हन्त अस्ति । कुत्र भदन्त ! सः परुषो जात्यन्धो जातान्धकरूपः ।। (१) स्फुटितं-स्फुटितकेशसं च यत्वेन विकीर्णकेशं हडाहडं - अत्यर्थं, शीर्ष शिरो यस्येति भावः । (१) “इन्दमहे इ वा" यहां पठित ''कार वाक्यालंकारार्थक है। इस लिये इस की छाया नहीं दी गई । 'वा' पद समुच्चयार्थक है । (२) श्रादक्षिणाद् आ दक्षिणहस्ताद् आरभ्य, प्रदक्षिणः परितो भ्राम्यतो दक्षिण एवं आदि क्षणप्रदक्षिणस्तं करोतीति भाव (भगवती सत्रे वृत्तिकारः) । For Private And Personal Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्नो भाषा टीका सहित । [२७ नगर से चला । जाव पज्जुवासति-यावत् समवसरण में जाकर भगवान् की पर्युपासना करने लगा। तते ण तदनन्तर । से- वहा जाति अंधे पुरिसे-जन्मान्ध पुरुष । तं महया जणादं च-मनुष्यों के उस महान् शब्द को । जाव-यावत् । सुणेत्ता-सुनकर । तं पुरिसं उस पुरुष को एवं वयासी- इस प्रकार कहने लगा । देवाणुपिया! -हे देवानुप्रिय ! । किराणं-क्या । अज्ज - अाज । मियग्गामे - मृगाग्राम में । इंदमहे इ वा -इन्द्रमहोत्सव है जाा -यावत् । निगच्छति -नागरिक जा रहे हैं ? । तते णं तदनन्तर । से पुरिसे वह पुरुष । तं जाति प्रधपुरिम-उप जन्मान्ध पुरुष को । एवं वयासी - इस प्रकार कहने लगा देवा०! -- हे देवानुप्रिय ! । खलु -निश्चय ही । नो इंदमहे याव निग्गहे- ये लोग इन्द्रमहोत्सव के कारण बाहर नहीं जा रहे हैं किन्तु देवानुप्पिया !-हे देवानुप्रिय ! । एवं खलु -इस प्रकार निश्चय ही । समणे जाव विहरति - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधार रहे हैं । तते णं एए जाव निगाच्छंति-उसी कारण से ये लोग वहां जा रहे हैं । तते । - तदनन्तर । से - वह । जाति अंधे पुरिसे - जन्मान्ध पुरुष । तं पुरिस - उत्तम पुरुष को । एवं वयासो - इस प्रकार कहने लगा । देवाणुपिया! -- हे देवानुप्रिय ! । अम्हे वि हम दोनों भी गच्छामो - चलते हैं और चल कर सभरणं --श्रमण । भगवं - भगवान् की। जाव यावत् (हम) । पन्जुवासामो - पर्युपासना-सेवा करेंगे । तते णं - तत् पश्चात् । सेवह । जाति अन्ये पुरिसे -जन्मान्ध पुरुष । दंडरणं-दण्ड द्वारा । पुरतो-आगे को । पगढिज्जमाणेले जाया जाता हुआ । जेणेव -जहां। समणे भगवं महाबोरे-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे । तेणेव-वहां पर । उवागते-आ गया । उवागच्छित्ता - वहां आ कर वह । तिक्खुत्तो- तीन वार । आयाहिणं पयाहिणं-दक्षिण अओर से प्रारम्भ करके प्रदक्षिणा (आवर्तन)। करोति- करता है । करेत्ता - प्रदक्षिणा करके । वदति- वन्दना करता है । नमसति-नमस्कार करता है। वंदित्ता नमंसित्ता- वन्दना तथा नमस्कार कर के । जाव- यावत् । पज्जुवासति पयुपासना-सेवा में उपस्थित होता है। तते णं तत् पश्चात् । समणे श्रमण भगवान् महावीर । विजयस्स-विजय और । तीयसे-उसपरिषद् के प्रति । धम्ममाइक्खई - धर्मोपदेश करते हैं । परिसा जाव पड़िगया-धर्मोपदेश सुन कर परिषद् चली गई । विजए वि - विजय राजा भी । गए - चला गया। तेणं कालेणं-उस काल में । तेणंसमएणं- उस समय में । समणस्स श्रमण भगवान् महावीर के । जे? अंतेवासी-प्रधान शिष्य । इंदभूती णामं अणगारे-इन्द्रभूति नामक अनगार । जाव विरहति - यावत् विहरण कर रहे हैं । तते णंतदनन्तर । से वे । भगवं भगवान् । गोतमे - गौतम स्वामी । तं -- उस। जातिअंधपुरिसं-जन्मान्ध पुरुष को । पासति -- देखते हैं पासि ता-देखकर । जायसड्ढे-जातश्रद्ध-प्रवृत्त हुई श्रद्धा वाले भगवान् गौतम । जाव -- यावत् । एव वयासी-इस प्रकार बोले । भंते ! हे भगवन् !। अस्थि णं केह पुरिस- क्या कोई ऐसा पुरुष भी है, जो कि । जातिअंधे- जन्मांध हो ? । जायअन्धारूवे --जन्मान्धरूप हो ? । हता अस्थि -भगवान् ने कहा, हां, ऐसा पुरुष है । भन्ते ! - हे भदन्त ! । कहिं णं-कहां है । से पुरिसे-वह पुरुष, जो कि । जातिअंधे- जन्मान्ध तथा । जायअन्धारूवे - जन्मान्धरूप है ? । मूलार्थ - उस मृगाग्राम नामक नगर में एक जन्मान्ध पुरुष रहता था, आंखों वाला एक मनुष्य उस की लकड़ी पकड़े रहा करता था, उस लकड़ो के सहारे वह चला करता था, उस के शिर के बाल अत्यन्तात्यन्त विखरे हुए थे, अत्यन्त मलिन होने के कारण उस के पीछे मक्खिों के झुण्डों के झुण्ड लगे रहते थे, ऐसा वह जन्मान्ध परुष मृगाग्राम के प्रत्येक घर में भिक्षावृत्ति से अपनी आजीविका चला रहा था। उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी नगर के बाहर चन्दनपादप उद्यान में पधारे उन के पधारने For Private And Personal Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री विपाक सूत्र २८ ] [ प्रथम अध्याय का समाचार मिलते ही ] उनके दर्शनार्थ जनता नगर से चल पड़ी । तदनन्तर विजय नामक क्षत्रिय राजा भी महाराज कुणिक की तरह भगवान् के चरणों में उपस्थित हो कर उन की पर्युपासना-सेवा करने लगा। नगर के कोलाहलमय वातावरण को जान कर वह जन्मान्ध पुरुष, उस पुरुष के प्रति इस प्रकार बोला - हे देवानुप्रिय ! हे भद्र ! ) क्या आज मृगाग्राम में इन्द्रमहोत्सव है जिस के कारण जनता नगर से बाहर जा रही है ? उस पुरुष ने कहा - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir देवानुप्रिय ! आज नगर में इन्द्रमहोत्सव नहीं, किन्तु [बाहर चन्दन पादप नामा उद्यान में ] श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे है, वहां यह जनता उनके दर्शनार्थ जा रही है। तब उस अन्धे पुरुष ने कहा- चलो हम भी चलें, चलकर भगवान् की पयुपासना-सेवा करेंगे तदनन्तर दण्ड के द्वारा आगे को ले जाया जाता हुआ वह पुरुष जहां पर श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे वहां पर आ गया, श्राकर उस जमान्ध पुरुष ने भगवान् की तीन बार दाहिनी ओर से आरम्भ करके प्रदक्षिणा को प्रदक्षिणा कर के वन्दना और नमस्कार किया, तत्पश्चात् वह भगवान् की पर्युपासना-सेवा में तत्पर हुआ। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर ने विजय राजा और परिषद्- जनता को धर्मोपदेश दिया भगवान् की कथा को सुनकर राजा विजय तथा परिषद् चली गई । उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति नाम के नगर [ गौतम गणधर ] भी वहां विराजमान थे । भगवान् गौतम स्वामी ने अन्धे पुरुष की देखा देखकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से निवेदन किया - क्या भदन्त ! कोई ऐसा पुरुष भी है कि जो जन्मान्ध तथा जन्मान्धरूप हो ? भगवान् ने फर्माया - हां, गौतम ! है गौतम स्वामी ने पुनः पूछा- हे भदन्त ! वह पुरुष कहां है जो जन्मान्ध (जिस के नेत्रों का आकार तो है परन्तु उस में देखने की शक्ति न हो) और जन्मान्धरूप ( जिस के शरीर में नेत्रों का आकार भी नहीं बन पाया, अत्यन्त कुरूप ) है ? | टीका - प्रस्तुत सूत्र में एक जन्मान्ध व्यक्ति के जीवन का परिचय कराया गया है । सूत्रकार कहते हैं। कि मृगाग्राम नगर में वह निवास किया करता था, उस के पास एक सहायक था जो लाठी पकड़ कर उसे चलने में सहायता देता था, पथ-प्रदर्शक का काम किया करता था । उस जन्मान्ध की शारीरिक अवस्था बड़ी घृणित थं सिर के बाल अत्यन्त बिखरे हुए थे, पागल के पीछे जैसे सैंकड़ों उद्दण्ड बालक लग जाते हैं और उसे तंग करते हैं, वैसे ही उस व्यक्ति को मक्खियों के झुण्डों के झुण्ड घेरे हुए रहते थे जो उस की अन्तर्वेदना को बढ़ाने का कारण बन रहे थे। वह मृगाग्राम के प्रत्येक घर में घूम २ कर भिक्षावृत्ति द्वारा अपने दुःखी जीवन को जैसे तैसे चला रहा था । १ २ "मच्याच डगर पहकरेणं श्ररिणज्जमानमग्गे - मक्षिकाप्रधान समूहेनान्वीयमानमार्गः” यह उल्लेख तो उस अन्धपुरुष की अत्यधिक शारीरिक मलिनता का पूरा २ निदर्शक है । मानो वह अन्धपुरुष दरिद्र नारायण की सजीव चलती फिरती हुई मूर्ति ही थी । उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी चन्दनपादप नामा उद्यान में पधारे, उन के आगमन का समाचार मिलते ही नगर की जनता दर्शनार्थ नगर से उद्यान प्रस्थित हुई । इधर विजय नरेश भी भगवान् महावीर स्वामी के पधारने की सूचना मिलने पर महराजा कूणिक की भांति बड़े प्रसन्नचित्त से राजोचित महान् वैभव के साथ नगर से उद्यान की ओर की (१) वचन से स्तुति करना वन्दना है, काया से प्रणाम करना नमस्कार कहलाता है । (२) “ मच्छियाचडगर पहकरेणं ” – मक्षिकाणां प्रसिद्धानां चटकरः प्रधानो विस्तरवान् यः प्रहकरः समूहः स तथा, अथवा मक्षिकाणां चटकराणां तद् वृन्दानां यः प्रहकरः स तथा तेन "अणिज्जमाणमग्गे" अन्वीयमानमार्गोऽनुगम्यमानमार्गः मलाविलं हि वस्तु प्रायो मक्षिकाभिरनुगम्यत एवेति भाव:[वृत्तिकारः ] For Private And Personal Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। [२१ चल पड़े । उद्यान के समीप जा कर तीर्थाधिपति भगवान् वर्द्धमान के अतिशय विशेष को देखते हुए विजय नरेश अपने प्राभिषेक्य हस्तिरत्न-प्रधान हस्ती से उतर पड़े और पांच' प्रकार के अभिगम (मर्यादा विशेष, अथवा सम्मान सूचक व्यापार) से आपण भावान महावीर की सेवा में उपस्थित हर। तदनन्तर भगवान् को तीन बार दाहिनी ओर से प्रारम्भ कर के प्रदक्षिणा की और तत्पश्चात् वन्दना नमस्कर करके कायिक वाचिक और मानसिकरूप में उन की पयपासना करने लगे। "महावीरे जाव समोसरिते' यहां पर उल्लेख किये गये "जाय-यावत" पद से औपपातिक सूत्र के समस्त दशम सूत्र का ग्रहण करना। तथा 'जाव परिसा निग्गया' इस आगम पाठ में पटित "जाव-यावत्' पद से औपपातिक सूत्रीय २७ वां समग्र सूत्र ग्रहण करना चाहिये। इस सत्र में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पधारने के अनन्तर नगर में उत्पन्न होने वाले अानन्दपूर्ण शुभ वातावरण का, तथा नाना प्रकार के भिन्न २ वेष बनाकर एवं भिन्न भिन्न विचारों को लिये हुए नागरिकों का श्रमण भगवान् वीर प्रभु के चरणों में उपस्थित होने का सुन्दर रूपेण अथ च परिपूर्णरूपेण वर्णन किया गया है जो कि अवश्य अवलोकनीय है । "निग्गते जाव पज्जुवासति" यहां पर दिया गया "जाव-यावत्" पद औषपातिक सूत्र के २८ व सूत्र से ले कर ३२ वें सत्र पर्यन्त समस्त आगम पाठ का सचक है । इस पाठ में महाराजा कूणिक. अजातशत्र का प्रारम्भ से लेकर जिनेंद्र भगवान् महावीर स्वामी के चरणार्विन्दों में पूरे वैभव के साथ उपस्थित होने का सविस्तर वर्णन दिया गया है, जिस का विस्तार भय से यहां उल्लेख नहीं किया गया । "तते णं से जातिधे' इत्यादि पाठ में एक बूढे जन्मांध याचक व्यक्ति का वीर प्रभु के चरणों में पहुँचने का जो निर्देश किया है वह भी बड़ा रहस्य पूर्ण है। मानव हृदय की आन्तरिक परिस्थिति कितनी विलक्षण और अंधकार तथा प्रकाश पूर्ण हो सकती है इसका यथार्थ अनुभव किसी अतीन्द्रियदर्शी को ही हो सकता है ? आज मृगाग्राम नाम के प्रधान नगर में चारों ओर बड़ी चहल पहल दिखाई दे रही है । प्रत्येक नर नारी का हृदय प्रसन्नता के कारण उमड़ रहा हैं। प्रत्येक स्त्री पुरुष बाल वृद्ध और युवक आनंद (१) पांच प्रकार के अभिगम सम्मानविशेष का निर्देश शास्त्र में इस प्रकार किया है १-पुष्प, पुष्पमाला आदि सचित्त द्रव्यों का परित्याग करना। २ - वस्त्र, आभूषण आदि अचित्त द्रव्यों का परित्याग न करना। ३- एकशाटिका - अस्यूत वस्त्र का उत्तरासंग करना, अर्थात् उस से मुख को दांपना । ४-भगवान के दृष्टिगोचर होते ही अंजलीप्रग्रह करना अर्थात् हाथ जोड़ना। - मानसिक वृत्तियों को एकाग्र करना। (२) कायिक-पर्युपासना-हस्त और पाद को संकोचते हुए विनय पूर्वक दोनों हाथ जोड़कर भगवान् के सन्मुख सविवेक-विवेक पूर्वक स्थित होना कायिक पयुपासना कहलाती है। वाचिक पर्युपासना-जिनेन्द्र भगवान् महवीर द्वारा प्रतिपादित हुए वचनों को सुनकर, भगवन् ! आपकी यह वाणी इसी प्रकार है, यह असंदिग्ध है, यह हमें इष्ट है, इस प्रकार विनयपूर्वक धारण करना वाचिक पय पासना है। मानसिक पयुपासना- सांसरिक बन्धनों से भयरूप संवेग को धारण करना, अर्थात् धार्मिक तीव्र अनुराग को उपलब्ध करना ही मानसिक पर्युपासना कही जाती है। [ औपपातिक-सूत्र, पर्युपासनाधिकार ] For Private And Personal Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३०) श्री विपाक सूत्र [प्रथम अध्याय से विभोर होते हुए चन्दनपादा उद्य न को ओर जा रहे हैं अाज हमारे अहोभग्य से श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का इस नगर में पधारना हुआ है हमें उन के पुण्य दर्शन का अलभ्यलाभ होगा, उन का पनीत दर्शन चतुर्गति रूप संसार समुद्र से निकाल कर, कर्मजन्य दुखों से सुरक्षित कर, एवं जन्म मरण के बन्धन से छड़ा कर निष्कर्म बनादेने वाला है । उन के पनीत कथामृत का पान कर के हमारे विकल हृदयों को पूर्ण शांति मिलेगी। इस प्रकार को विशुद्ध भावना से भावित प्रत्येक नर नारी एक दूसरे से आगे निकलने का प्रयत्न कर रहा है। नगर के हर एक विभाग व मार्ग में भो यही चर्चा हो रही है, अर्थात् पुरुषसिंह, पुरुषोत्तम श्री महावीर स्वामी ग्रमानुग्राम विहार करते हुए आज नगर के बाहिर चन्दन पादप उद्यान में पधारे हैं यह हमारे नगर का परम अहोभाग्य है ! इसप्रकार जनता आपस में कह रहा है । सारांश यह है कि वीर प्रभु क पधारने का सारे नगर में आनन्दमय कोलाहल हो रहा है । दर्शनार्थ जाने वाले सद्गृहस्थों में से कई एक कहते हैं कि हम गृहस्थाश्रम का परित्याग कर अनगार (साधु) वृत्ति को धारण करेंगे । कुछ कहते हैं हम तो देशविरति (श्रावक) धर्म को अंगीकार करेंगे। क्योंकि साधु वृत्ति का आचरण अत्यन्त कठिन है । हम में उस के यथावत् पालन करने की शक्ति नहीं है तथा कितने एक भगवान् की भक्ति के कारण जा रहे हैं । कई एक शिष्टाचार की दृष्टि से पहुँच रहे हैं तात्पर्य यह है कि नगर के हर एक छोटे बड़े व्यक्ति के हृदय में भगवान् के दर्शन की लालसा बढ़ो हई है। तदनसार नागरिक स्नानादि क्रियाओं से निवृत्त हो, यथाशक्ति वस्त्राभरणादि पहन और सुगन्धित पदार्थों से सरभित हो कर पृथक पृथक यानादि के द्वारा तया पैदल उद्यान की ओर प्रस्थान कर रहे हैं। उन का मन वीर प्रभु के चरण कमलों का ग बनने के लिये अातुर हो रहा है। पाठक, अभी उस जन्मांध व्यक्ति को भूले न होंगे कि जो मृगाग्राम में भिक्षावृत्ति के द्वारा अपना जीवन निर्वाह कर रहा है। वह भिक्षार्थ नगर में घूम रहा है। उद्यान की ओर जाने वाले नागरिकों के उत्साहपूर्ण महान् शब्द को सुन कर उस ने अपने साथी पुरुष को पूछा कि महानुभाव ! क्या आज मृगाग्राम में कोई इन्द्रमहोत्सव है ? अथवा स्कन्द या रुद्रादि का महोत्सव है ? जो कि ये अनेक उग्र, उग्रपुत्र आदिक नागरिक लोग बड़ी सजवा से आनन्द में विभोर होते हुए चले जा रहे हैं ? यहां पर “जणलदं च जाव सुणेता" इस पाठ में उल्लखित “जाव-यावत्" पद से औपपातिक सत्रीय २७ वे सत्र में पठित पाठ का प्रारम्भिक अंश ग्रहण करना जिस में नगर के उत्साहपूर्ण वातावरण का सुचारु वर्णन है। "इंदमहे इ वा जाब निग्गच्छति' और "इंदमहे जाव निग्ग" इस पाठों के "जाव-पावत्" पद से श्री राजप्रश्नीय उपांग के उत्तरार्धगत १४८ वें सत्र के प्रारम्भिक पाठ का ग्रहण करना, जिस में इन्द्रमहोत्सव स्कन्दमहोत्सव, रुद्रमहोत्सव, मुकुन्दमहोत्सव इत्यादि १८ उत्सवों का निर्देश किया गया है तथा वहां उद्यान में जाने वाले नागरिकों को अवस्था का भी बड़ा सुन्दर चित्र खींचा हैं । उस जन्मान्ध व्यक्ति के उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए उस के साथ वाले पुरुष ने कहा कि महानुभाव ! ये नागरिक लोगों के झुण्ड किसो इन्द्र या स्कन्दादि महोत्सव के कारण नहीं जा रहे किन्तु आज इस नगर के बाहर चन्दननादप उद्यान में श्रमण भगवान् महावोर स्वामो का पधारना हुया है, ये लोग उन्हीं के दर्शनार्थ उद्यान को ओर जा रहे हैं ।तब तो हम भो वहां चलंगे, वहां चलकर हम भी भगवान् को पयु. पासना से अपने आत्मा को पुनोत बनाने का अलभ्य लाभ प्राप्त करेंगे, इस प्रकार उस जन्मान्ध व्यक्ति ने बड़ी उत्सुकता से अपनो हार्दिक लालसा को अभिव्यक्त किया। तदनन्तर वह अपने साथी पुरुष के साथ For Private And Personal Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। [३१ चन्दनपादप उद्यान में पहुंचा और श्रम ग भगवान महावीर स्वामो के चरणों में उपस्थित हो कर उन्हें सविधि वन्दना नमस्कार कर के उचित स्थान पर बैठ गया।। किसी भी मानवी व्यक्ति के जीवन की कीमत उस के बाहर के प्राकार पर से नहीं की जा सकती, जीवन का मूल्य तो मानव के हृदयगत विचारों पर निर्भर रहता है। जिन का साक्षात् सम्बन्ध आत्मा से है। एक परम दरिद्र और करूप व्यक्ति के आन्तरिक भाव कितने मलिन अथवा विशुद्ध है, इस का अनुमान उस की बाहरी दशा से करना कितनी भ्रान्ति है ?, यह उस जन्मान्ध व्यक्ति के जीवन वृत्तान्त से भली भांति सुनिश्चित हो जाता है. जो कि सात्विक भाव से प्रेरित होता हुआ वीर प्रभु की सेवा में उपस्थित हो रहा है। और उन की मंगलमय वाणी का लाभ उठाने का प्रयत्न कर र तदनन्तर विजय नरेश और समस्त परिषद् के उचित स्थान पर बैठ जाने पर, धर्म प्रेमी प्रजा की मनोवृतिरूप कुमुदिनी के राकेश चन्द्रमा, धमप्राण, जनता के हृदय-कमल के सूर्य, अपनी कैवल्य विभूति से जगत को आलोकित करने वाले श्रमण भावान महावीर स्वामी ने अपनी दिव्य वाणी के द्वारा विश्वकल्याण की भावना से धर्म देशना देना प्रारम्भ किया। संसार के भव्य बना देने वाली वीर प्रभु की धर्म देशना को सुन कर तथा उसे हृदय में धारण कर अत्यधिक प्रसन्न चित्त से भगवान् को विधि पूर्वक वन्दना नमस्कार करने के अनन्तर उपस्थित श्रोतृवर्ग अपने २ स्थान का तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य गौतम स्वामी ने उस जन्मांध व्यक्ति को देखा और उन्हों ने भगवान् से पूछा कि भगवन् ! कोई ऐसा व्यक्ति भी है जो कि २जन्मांध होने के अतिरिक्त जन्मधिरूप भी हो ? इस का उत्तर भगवान् ने दिया कि हां, गौतम ! ऐसा परुष है जो कि जन्मांध और जन्मांधरूप भी है। "सणे जाव विहरति' इस पाठ के अन्तर्गत "जाव-यावत' पद से औषपातिक सूत्र के दशव सूत्र का और संकेत किया गया है, उस में वीर भगवान के समुचित सदगुणों का बड़े मार्मिक शब्दों में वर्णन किया गया है। “तते णं एए जाव निगच्छंति पाठ के 'जाव-यावत्" पद से औपपातिक सत्र २७ वे सूत्र का ग्रहण अभीष्ट है । तथा "भगवं जाव पज्जुवासामो” में आये हए 'जाव-यावत्' पद से औपपातिक के दशवे सूत्र का ग्रहण करना, तथा "नमंसित्ता जाव पाडवासति" पाठ के "जाव-यावत्" पद से औपपातिक सत्र में ३२ वें सत्र के अंतिम अंश का ग्रहणा सचिन किया गया है । इसी प्रकार से "परिसा जाव. पडिगया' पाठ में उल्लिवित "जाव-यावत" पद औषपातिक के ३५ वें सत्र का परिचायक है। तथा विजय नरेश के प्रस्थान में जो कृणिक नृप का उदाहरण दिया है उस का वर्णन प्रौपपातिक के ३६ वे सूत्र में है, इसके अतिरिक्त 'इदंभूती णा आणगारे जाव विरहति" पाठ में आये हए “जाव-यावत” पद से गौतम स्वामी के साधु जीवन का वर्णन करने वाले प्रकरण का निर्देश है, उस का उल्लेख जम्बूस्वामी के वर्णन प्रसंग में कर दिया गया है । (१) भगवान् की उस धर्मदेशनारूप सुधा का पान करने की इच्छा रखने वालों को "आपपा. तिक सूत्र" के देशनाधिकार का अवलोकन तथा मनन करने का यत्न करना चाहिये। (२) जन्मांध का अर्थ है -जो जन्मकाल से अंधा हो, नेत्र ज्योतिहीन हो, और जिस के नेत्रों की उत्पत्ति ही नहीं हो पाई, उसे जन्मांध रूप कहते हैं । दोनों में अन्तर इतना होता है कि जन्मांध के नेत्रा का मात्र प्राकार होता है, उस में देखने की शक्ति नहीं होती, जब कि जन्मांधरूप के नेत्रों का आकार भी नहीं बनने पाता, इसलिये यह अत्यधिक कुरूप एवं बीभत्स होता है । For Private And Personal Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३२] श्री विपाक सुत्र [प्रथम अध्याय जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है कि वीर प्रभु की धर्म देशना को सुन कर परिषद वापिस अपने २ स्थान में लौट गई, परन्तु वह जन्मांध वृद्ध व्यक्ति अभी तक अपने स्थान से नहीं उठा । ऐसा मालुम होता है कि भगवान् के द्वारा वर्णन किये गये कर्म जन्य सुखों एवं दुःखों के विपाक पर विचार करते हुए निज की दयनीय दशा का ख्याल करके अपने पूर्वकृत दुष्कर्मों के भार से भारी हई अपनी आत्मा को धिक्कार रहा हो। उस समय चतुर्दश पूर्वो के ज्ञाता इन्द्रभूति नामा अनगार ने उसे देखा और देखते ही वे बड़े विस्मय को प्राप्त हुए। उन को उस वृद्ध व्यक्ति पर बड़ी करुणा आई, जिस के फल स्वरूप उन्हों ने भगवान् से प्रश्न किया। "जायसड्ढे-जातश्रद्ध" यह पद सूचित करता है कि उस जन्मांधपुरुष के विषय में गौतमस्वामी ने जो भगवान् से प्रश्न किया है उस में उस व्यक्ति की वर्तमान दयाजनक अवस्था की ही बलवती प्रेरणा है। वस्तुतः महापुरुषों में यही विशेषता होती है कि वे दूसरों के जोवन में उपस्थित होने वाले दुःखों को देख कर उन के मूल कारण को ढूढते हैं तथा स्वयं अधिक रूप में द्रवित होते हैं, अर्थात् उन का हृदय करुणा से एक दम भर जाता है। "जायसडढे जाव एवं" इस पाठ में दिये गये "जाव-यावत्' पद से भगवतीसत्र १ । १ । ७ । का आंशिक पाठ अभिप्रेत है । जिस की व्याख्या इसी अध्याय के पिछले पृष्ठों पर की जा चुकी है । प्रस्तुत प्रकरण में जो संशय का अभिप्राय है वह गौतमस्वामी ने स्वयं स्पष्ट करदिया है। कर्मों की विचित्रता से विस्मित हुए गौतमस्वामी ने श्रमणा भगवान् महावीर स्वामी से जन्मांध और जन्मांधरूप के जानने की इच्छा प्रकट की थी, उस के विषय में भगवान् ने उस का जो अनुरूप उत्तर दिया, अब सूत्रकार उस का उल्लेख करते हुए इस प्रकार कहते हैं। __मूल-'एवं खलु गोतमा! इहेब मियग्गामे णगरे विजयस्स पुत्ते मियादेवीए अत्तए मियाउत्ते णामं दारए जातिअंधे जातअंधारूवे णत्थि णं तस्स दारगस जाव अगितिमित्ते, तते णं मियादेवी जाव पड़िजागरमाणी २ विहरति । तते णं से भगवं गोतमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते !, अहं तुम्भेहिं अब्भणुएणाते (समाणे) मियापुत्री दास्यं पासित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया! तते णं से भगवं गोतमे समणेणं भगवया अन्मगुण्णाते समाणे हट्टतुट्ठ समणस्स भगवो अंतितातो पडिनिकाखमइ पडिनिक्खमित्ता अतुरियं जाव सोहेमाणे २ जेणेव मियग्गामे णगरे तेणेव उवागच्छति। उवागांच्छत्ता, मियग्गामं नगरं मझमज्भेणं अणुपविस्सइ । अणुप्पविस्सत्ता जेणेव मियाए देवीए गि हे तेणेव उवागच्छति । तते णं सा मियादेवी भगवं गोतमं एज्जमाणं पासति (१) छाया - एवं खलु गौतम ! इहैव मृगाग्रामे नगरे विजयस्य पुत्रः मृगादेव्या आत्मजो मृगापुत्रो नाम दारकः जात्यंधो जातान्धकरूपः, स्तस्तस्य दारकस्य यावदाकतिमात्र, ततः सा मृगादेवी यावत् प्रतिजागरयीन्त २ विहरति। ततः स भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत् इच्छामि भदन्त ! अहं युष्माभिरभ्यनुज्ञातो मृगापुत्रं दारकं द्रष्टुम् । यथासुखं देवानुप्रिय !, ततः स भगवान् गौतमः श्रमणेन भगवताऽभ्यनुज्ञातः सन् हृष्टतुष्टः श्रमणस्य भगवतोऽन्तिकात् प्रतिनिष्कामति, For Private And Personal Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ३३ पासित्ता हट्ट जाव एवं वयासी - संदिसतु णं देवाणुप्पिया ! किमागमणपयोयणं ? तते गं भगवं गोतमे मियं देविं एवं वयासी - अहरणं देवागुप्पिए ! तव पुत्तं पासित्तु हव्वमागते, तते णं सा मियादेवी मियापुत्तस्स दारगस्स अणुमग्गजायए चत्तारि पुत्ते सव्वालंकारविभूसिए करेति, करेचा भगवतो गोतमस्स पाएस पाडेति, पाडेत्ता एवं वयासी - एए गं भंते! मम पुत्ते पासह, तते गं से भगवं गोतमे मियं देवि एवं वयासी - नो खलु देवागुप्पिए ! अहं एए तव पुत्रे पासिउं हवमागए, तत्थ गं जे से तव जेट्ठ े पुत्रो मियापुत्ते दारए जातिअंधे जाव अन्धावे जणं तुमं रहस्सियंमि भूमिघरंसि रहस्मिरणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी २ विहरसि तं गं अहं पासिउं हवमागते । तते गं सा मियादेवी भगवं गोतमं एवं वयासी - से के गंगोतमा ! से तहारूवे पाणी वा तवस्सी वा जेणं तव एसपट्ट े मम ताव रह सकते तुम्भं हव्वमक्खाते जतो गं तुम्भे जाणह ? | पदार्थ - एवं - इस प्रकार । खलु - निश्चय से । गोतमा ! - हे गौतम ! । इहेव - इसी । मियग्गामे गगरे - मृगाग्राम नगर में । विजयस्स पुत्ते - विजय नरेश का पुत्र । मियादेवीप अत्तर - मृगादेवी का श्रात्मज । मियाउते - मृगापुत्र । णामं - नामक । दारण - बालक, जो कि । जातिअंधे - जन्म से अन्धा तथा जातअंधारूवे – जातान्धकरूप है । तस्स-उस । दारगस्स - शिशु के [हस्त आदि अवयव ] । नत्थि - नहीं हैं। जाव - यावत् हस्तादि अवयवों के । श्रगितिमिले - मात्र प्राकार-चिन्ह हैं । तते गं - तदनन्तर । सा मियादेवी- - वह मृगादेवी । जाव - यावत् उस की रक्षा में । पड़िजागरमा णी - - सावधान रहती हुई । विहरति - विहरण कर रही है । तते गं - तदनन्तर । से-उस । भगवं गोतमे - भगवान् गौतम ने । समणं - श्रमण | भगवं - भगवान् । महावीरं - महावीर स्वामी को । वंदति - वन्दन किया । नमसति - नमस्कार किया | वंदिता नमंसित्ता - वन्दन तथा नमस्कार करके । एवं - इस प्रकार वे । वयासी - कहने लगे । भंते हे भगवन् ! | अहं—मैं । तुब्भेहिं - आप श्री से । अब्भगुणाते समाणे - अभ्यनुज्ञात हो कर अर्थात् आप श्री से प्राज्ञा प्राप्त कर । मियापुरा - मृगापुत्र । दारयं - बालक को । पासितए - देखना । - वाक्यालंकारार्थक है । इच्छामि - चाहता हूँ ? [ भगवान् ने कहा ] । देवाशुप्पिया ! - हे देवानुप्रिय ! प्रतिनिष्क्रम्य अत्वरितं यावच्छोधमानो २ यत्रैव मृगाग्रामं नगरं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य मृगाग्रामं नगर मध्यमध्येनानुप्रविशति, अनुप्रविश्य यत्रेव मृगादेव्या गृहं तत्रैवोपागच्छति । ततः सा मृगादेवी भगवन्तं गौतममायान्तं पश्यति दृष्ट्वा दृष्ट० यावदेवमवदत् -संदिशतु देवानुप्रिय ! किमागमनप्रयोजनम् १ ततो भगवान् गौतमो मृगां देवीमेवमवदत् - अहं देवानुप्रिये ! तव पुत्रं द्रष्टुं शीघ्रमागतः । ततः सा मृगादेवी मृगापुत्रस्य दारकस्यानुमार्गजतांश्चतुरः पुत्रान सर्वालंकारविभूषितान् करोति, कृत्वा भगवतो गौतमस्य पादयोः पातयति पातयित्वैवमवदत् - एतान् भदन्त ! मम पुत्रान् पश्यत ततः स भगवान् गौतमो मृगां देवीमेवमवदत् -नो खलु देवानुप्रिये ! श्रहमेतान् तव पुत्रान् द्रष्टुं शीघ्रमागतः, तत्र यः स तव ज्येष्ठः पुत्रो मृगापुत्रो दारको जात्बन्धो यावदन्धकरूपः, यं त्वं राहसिके भूमिगृहे राहसिकेन भक्तपानेन प्रतिजागरयन्ती विहरसि, तमहं द्रष्टु ं शीघ्रमागत । ततः सा मृगादेवी भगवन्तं गौतममेवमवदत् को गौतम ! स तथारूपो ज्ञानी वा तपस्वी वा येन तवैषोऽर्थो मम तावत् ८२ स्वकृतस्तुभ्यं शीघ्रमाख्यातो यतो यूयं जानीथ १ । For Private And Personal Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २४। श्री विपाक सूत्र [प्रथम अध्याय अर्थात् हे भद्र !। श्रहासुहं-जैसे तुम को सुख हो। तते णं-तदनन्तर । से भगवं गोतमेवह भगवान् गौतम, जो कि । समणेणं भगवया-श्रमण भगवान् के द्वारा। अब्भणुराणाते समाणेअभ्यनुज्ञात-अाज्ञा प्रप्त कर चुके हैं, और । हतुढे-अति प्रसन्न हैं । समणस्त -श्रमण । भगवरोभगवान् के । अंतितातो-पास से। पडिनिक वमइ-चल दिये । पडिनिक्वमिना - चल कर । अतुरियं जाव सोहेमाणे - अशीघ्रता से यावत् ईर्या-समिति पूर्वक गमन करते हुए । जेणेव-जहां । मियग्गामे गरे-मृगाग्राम नगर था। तेणेव-उसी स्थान पर। उवागच्छति-आते हैं । उवागच्छित्ता-श्रा कर । मझमज्झण-नगर के मध्यमार्ग से । भियग्गामं णगरं-मृगाग्राम नगर में । अणुपविस्सइ-प्रवेश करते हैं। अणुप्पविस्सित्ता-प्रवेश करके । जेणेत्र -- जहां पर। मियादेवीएमृगादेवी का । गिह-घर था। तेणेव-उसी स्थान पर। उवागच्छति-पाते हैं। तते णं - तदनन्तर । सा मियादेवी-उस मृगादेवी ने । एज्जमाणं-आते हुए। भगां गोतमं-भगवान् गौतम स्वामी को । पासति-देखा, और वह उन्हें । पासित्ता-देख कर । हट्ठ०-प्रसन्न हुई। जाव - यावत् एवं वयासी- इस प्रकार कहने लगी । देवाणुप्पिया ! - हे देवान प्रिय ! अर्थात् हे भगवन् !। किमागमणपयोयणं?-आप के पधारने क्या प्रयोजन है ? । संदिसतु- वह बतलावें। तते णं-उस के अनन्तर । भगनं गोतमे -भगवान् गौतम । मियं देविं-मृगादेवी को । एनं वयासो- इस प्रकार कहने लगे। देवाणुप्पिए ! हे देवानुप्रिये ! अर्थात् हे भद्रे ! . अहं-मैं । तव-तेरे । पुतं-पुत्र को । पासित्तुदेखने के लिये । हव्वमागते--शीघ्र अर्थात् अन्य किसी स्थान पार न जाकर सीधा तुम्हारे घर, आया हूँ। तते णं- तदनन्तर । सा मियादेवी-वह मृगादेवी । मियापुत्तस्स दारगस्स-मृगापुत्र बालक के । अणुमग्गजायए-पश्चात् उत्पन्न हुए २॥ चत्तारी पुत्ते-चार पत्रों को । सव्वालंकारविभूसिर-सर्व अलंकारों से विभूषित । करेति-करती है। करेत्ता - कर के। भगवतो गोतमस्स-भगवान् गौतम स्वामी के । पाएसु चरणों में । पाति-डालती है । पाडेता-नमस्कार कराने के पश्चात् , वह । एक वयासी-इस प्रकार बोली। भंते! हे भगवन् ! एएणं-इन । मम पुरी - मेरे पुत्रों को । पासह - देख लें । तते णं - तदनन्तर । भगां गोतमे- भगवान् गौतम ने । मियं देवि- मृगादेवी को । एक वयासी -इस प्रकार कहा । देवाणुप्पिए !-हे देवानुप्रिये ! । अहं - मैं । एए तत्र पुन-तेरे इन पुत्रों को । पासित्तु देखने के लिये । नो हञ्चमागए - शीघ्र नहीं आया हूँ किन्तु । तत्थ णं - इन में । जे से तव जेठे पुगे- तुम्हारा वह ज्येष्ठ पुत्र जो कि । जातिअंधे- जन्म से अन्धा। जाव अंधारूवे-यावत् अंधकरूप है, और जो । मियापुत्ते दारए -मृगापुत्र के नाम का बालक है, तथा । जगणं तुमं-जिस को त् । रहस्सियसि भूमिघरंसि - एकान्त के भूमिगृह (भौंरे) में । रहस्सियएणं भत्तपाणेणं-गुप्तरूप से खान पान आदि के द्वारा पडिजागरमाणी विहरसि -पालन पोषण में सावधान रह रही है । तं णं-उस को । अहं-मैं । पासित्तु - देखने के लिये । हव्वमागते-शीघ्र आया हूँ । तते णं- तदनन्तर । सा मियादेवो-वह मृगादेवी । भगनं गोतम-भगवान् गौतम स्वामी के प्रति । एवं वयासो-इस प्रकार कहने लगी।' गातमा ! -- (१) “संदिसतु णं देवाणुप्पिया ! -- " तथा " -एर- भंते ! मम पुतं । इत्यादि पाठों में मृगादेवी ने भगवान् गौतम को देवानप्रिय या भदन्त के सम्बोधन से सम्बोधित किया है, परन्तु इस पाठ में उस ने “गोतमा !” इस सम्बोधन से उन्हें पुकारा है, ऐसा क्यों ?. गुरुत्रों को उन्हीं के नाम से पुकारना कहां की शिष्टता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि यहां मृगादेवी को शिष्टता में सन्देह वाली कोई बात प्रतीत नहीं For Private And Personal Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । हे गोतम ! । सेकेणं-वह कोन । तहारूवे -तथारूप - ऐसे । णाणो-ज्ञानो । तवस्ती वा-अथवा तपस्वी हैं। जेण -जिस ने। तव एसम? --आपको यह बात, जो कि । मम ताव रहस्सकते-मैंने गुप्त रक्खी थी । तुब्भं हव्वाक्खाते-तुम्हे शीघ्र ही बतलादी । जतो णं-जिस से कि । तुब्भे जाणह- तुम ने उसे जान लिया। मूलार्थ -- हे गौतम ! इसी मृगाग्राम नामक नगर में विजय नामक क्षत्रिय राजा का पुत्र मृगादेवी का आत्मज मृगापुत्र नामक बालक है जो कि जन्म काल से अंधा और जन्मांधकरूप है, उस के हाथ, पांव नेत्र आदि अंगोपांग भो नहीं हैं, केवल उन अंगोपांगों के आकार-चिन्ह ही हैं । महाराणी मृगादेवी उस का पालन पोषण बड़ी सावधानी के साथ कर रही हैं । तदनन्तर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चरणो में वंदना नमस्कार कर के उन से प्रार्थना की, कि भगवन् ! आप की आज्ञा से मैं मृगापत्र को देखना चाहता हूँ ?, इत के उत्तर में भगवान् ने कहा कि - गौतम ! जैसे तुम्हें सुख हो [वैसा करो, इस में हमारी तर्फ से कोई प्रतिबन्ध नहीं है ] | अब श्रमण भगवान् द्वारा आज्ञा प्राप्त कर प्रसन्न हुए गौतम स्वामी भगवान् के पास से मृगापुत्र को देखने चले' । ईर्यासमिति (विवेक पूर्वक चलना) का यथाविधि पालन करते हुए भगवान् गौतम स्वामी ने नगर के मध्यभाग से नगर में प्रवेश किया । जिस स्थान पर मृगादेवी का घर था, वे वहां पर पहुँच गये। तदनन्तर मृगादेवो ने गौतम स्वामी को आते हुए देखा ओर देख कर प्रसन्न-चित्त से नतमस्तक होकर उन से इस प्रकार निवेदन कियाहे देवानुप्रिय ! अर्थात हे भगवन् ! श्राप के आगमन का क्या प्रयोजन है ? अथात् श्राप किस प्रयोजन के लिये यहां पर पधारे हैं ? उत्तर में भगवान् गौतम स्वामी ने मृगादेवी से कहा-हे देवान प्रये !, अ हे भद्र !, मैं तुम्हारे पुत्र को देखने के लिये ही आया हूँ। तब मृगादेवी ने मृगापुत्र के पश्चात् उत्पन्न हुए २ पत्रों को वस्त्राभूषणादि से अलंकृत कर भगवान् गौतम के चरणों में डाल कर निवेदन किया कि भगवन् ! ये मेरे पत्र हैं इन को श्राप देख लीजिए । यह सुन कर भगवान् गौतम मृगादेवी से बोले - हे देवानुप्रिये ! मैं तुम्हारे इन पत्रों को देखने के लिये यहां पर नहीं आया हूँ, किन्तु तुम्हारा ज्येष्ठ पुत्र मृगापुत्र जो जन्मांध और जन्मांधकरूप है, तथा जिस को तुम ने एकांत के भूमिगृह में रक्खा हुआ है एवं जिस का तुम गुप्तरूप से सावधानता-पूर्वक खान पान आदि के द्वारा पालन पोषण कर रही हो, उसे देखने के लिये आया हूँ ? यह सुन कर मृगादेवी ने भगवान् गौतम से (आश्चर्यचकित हो कर) निवेदन कियाभगवन् ! वह ऐसा ज्ञानी अथवा तपस्वी कौन है ? जिस ने मेरी इस रहस्य –पूर्ण गुप्त वार्ता को आप से होती परन्तु अपने अत्यन्त गुप्त रहस्य के प्रकाश में आ जाने से मृगादेवी हक्की बाकी सी रह गई, जिस के कारण उस के मुख से सहसा 'गोतमा !” ऐसा निकल गया है, जो संभ्रान्त दशा के कारण शिष्टता का घातक नहीं कह जा सकता । हृदयगत चंचलता में यह सब कुछ संभव होता है । (१) प्रश्न चरम-तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी सर्वज्ञ थे, सर्वदर्शी थे, उन की ज्ञान ज्योति से कोई पदार्थ अोझल नहीं था। यही कारण है कि उन को वाणी में किसी प्रकार की विषमता नहीं होती थी, वह पूर्णरूपेण यथार्थ ही रहती थी । परन्तु अनगार गौतम मृगापुत्र को स्वयं अपनी आंखों से देखने जा रहे हैं जब कि भगवान् से उस का समस्त वृत्तान्त सुन लिया जा चुका है । क्या यह भगवद्-वाणी पर अविश्वास नहीं है। For Private And Personal Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [प्रथम अध्याय कहा, जिस से श्राप ने उस गुप्त रहस्य को जाना है । टोका-भगवन् ! अन्धकरूप [ जिस के नेत्रों की उत्पत्ति भी नहीं हो पाई ] मे जन्मा हुत्रा वह पुरुष कहां है ? गोतम स्वामी ने बड़ी नम्रता से प्रभु वीर के पवित्र चरणों में निवेदन किया । गौतम ! इसी मृगाग्राम नग में मृगादेवो की कुक्षि से उत्पन्न विजयनरेश का पुत्र मृगापुत्र नाम का बालक है, जो कि अन्धकरूप में ही जन्म को प्राप्त हुआ है, अतएव जन्मांध है, तथा जिसके ‘ाथ, पैर, नाक, आंख और कान भी नहीं है, केवल उन के आकार-चिन्ह ही हैं . उस की माता मृगादेवी उसे एक गुप्त भूमिगृह में रख कर गुप्तरूप से ही खान पान पहुँचाकर उन का संरक्षण कर रही है । भगवान् ने बड़ी गम्भीरता से उत्तर दिया, जिसकी यथार्थता में किसी भी प्रकार के सन्देह को अवकारी नहीं है। "दारगरस जाव आगितिमिले" तथा "मियादेवी जाव पडिजागरमाणी" इन दोनों स्थलों में पढ़े गये “जाव-यावत्" पद से पूर्व पठित अागम-पाट का ग्रहण करना ही सूत्रकार को अभिप्रेत है। "जाति-अन्धे" और "जायअन्धास्वे” इन दोनों पदों के अर्थ-विभेद पर प्रकाश डालते दुए आचार्य श्री अभयदेव सूरि जी इस प्रकार लिखते हैं "जाति-अन्धे" त्ति-जातेरारभ्यान्धो जात्यन्धः स च चक्षरुपघातादपि भवतीत्यत आह'जाय-अंधारूवे त्ति जातमुत्पन्नाधकं नयनयोरादित एवानिष्पत्तेः कुत्सिताङ्गरूपं-स्वरूपं यस्यासौ जातान्धकरूपः”-तात्पर्य यह है कि “जात्यन्धा और “जातान्धकरूप" इन दोनों पदों में प्रथम पद से तो जन्मान्ध अर्थात् जन्म से लेकर होने वाला अन्धा यह अर्थ विवक्षित है, और दूसरे से यह अर्थ अभिप्रेत है कि जो किसी बाह्यनिमित्त से अन्धा न हुआ हो किन्तु प्रारम्भ से ही जिसके नेत्रों की निष्पत्ति-उत्पत्ति नहीं हो पाई उत्तर- ऐसी बात नहीं है, भगवान् गौतम ने जब भी भगवान् महावीर से कोई पृच्छा की है तो उस में मात्र जनहित की भावना ही प्रधान रही है उन के प्रश्न सर्वजनहिताय एवं सुखाय ही होते थे अन्यथा उपयोग लगाने पर स्वयं जान सकने की शक्ति के धनी होते हुए भी वे भगवान् से ही क्यों पूछते हैं ? उत्तर स्पष्ट है, भगवान् से पूछने में उन का यही हार्द है कि दूसरे लोग भी प्रभु-वाणी का लाभ ले लेंअन्य भावुक व्यक्ति भी जीवन को समुज्ज्वल बनाने में अग्रेसर हो सके, सारांश यह है कि भगवान् की वाणी से सर्वतोमुखी लाभ लेने का उदेश्य ही अनगार गौतम की पृच्छा में प्रधानतया कारण हुअा रहा है। प्रस्तुत प्रकरण में भी उसी सद्भावना का परिचय मिल रहा है । यदि अनगार गौतम मृगापुत्र को देखने न जाते तो अधिक संभव था कि मृगापुत्र के अतीत और अनागत जीवन का इतना विशिष्ट ऊहापोह (सोच विचार) न हो पाता और नाहीं मृगापुत्र का जीवन आज के पापी मानव के लिये पापनिवृत्ति में सहायक बनता । यह इसी पृच्छा का फल है कि आज भी यह मृगापुत्र का जीवन मानवदेहधारी दानव को अशुभ कर्मों के भीषण परिणाम दिखाकर उन से निवृत्त करा कर मानव बनाने में निमित्त बन रहा है, एवं इसी पृच्छा के बल पर प्रस्तुत जीवन की विचित्र घटनात्रों से प्रभावित होकर अनेकानेक नर नारियो ने अपने अन्धकार- पूर्ण भविष्य को समुज्ज्वल बना कर मोक्ष पथ प्राप्त किया है और भविष्य में करते रहेंगे। भगवान् गौतम की किसी भी पृच्छा में अविश्वास को कोई स्थान नहीं। वे तो प्रभु वीर के परम श्रद्धालु, परम सुविनीत, आज्ञाकारी शिष्यरत्न थे। उन में अविश्वास का ध्यान भी करना उन को समझने में भूल करना है। For Private And Personal Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [३७ जन्मान्ध तो जन्मकाल से किसी निमित्त द्वारा च न के उपबात हो जाने पर भी कहा जा सकता है अर्थात् ऐसे व्यक्ति को भी जन्मांध कह सकते हैं जिस के नेत्र जन्मकाल से नष्ट हो गये तों, परन्तु जातान्धकरूप उसे कहते हैं कि निसके जन्मकाल से ही नेत्रों का असद्भाव हो -नेत्र न हों। यही इन पदों में अर्थ विभेद है जिसके कारण सूत्रकार ने इन दोनों का पृथक् २ ग्रहण किया है। तदनन्तर अज्ञानान्धकाररूप पातक समूह को दूर करने में दिवाकर (सूर्य) के समान श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को विधि पूर्वक वन्दना नमस्कार कर भगवान् गौतम स्वामी ने उनसे सविनय निवेदन किया कि भगवन् ! यदि आप मुझे आज्ञा दें तो मैं उस मृगापुत्र नामक बालक को देखना चाहता हूँ । "तुब्भेहिं अब्भणुराणाते" इस पद में गौतम स्वामी की विनीतता की प्रत्यक्ष झलक है जो कि शिष्योचित सद्गुणों के भव्यप्रसाद को मूल भित्ति है । हे देवानुप्रिय ! जैसे तुम को सुख हो, यह था प्रभु महावीर की तर्फ से दिया गया उत्तर । इस उत्तर में भगवान् ने गौतम स्वामी को जिगमिषा (जाने की इच्छा) को किसी भी प्रकार का व्याघात न पहुँचाते हुए सारा उत्तरदायित्व उन के ही ऊपर डाल दिया है, और अपनी स्वतन्त्रता को भी सर्वथा सुरक्षित रक्खा है। तदनन्तर जन्मान्ध और हुण्डरूप मृगापुत्र को देखने की इच्छा से सानन्द अाशा प्राप्तकर शान्त तथा हषित अन्तःकरण से श्री गौतम अनगार भगवान् महावीर स्वामी के पास से अर्थात् चन्दन पादपोद्यान से निकल कर ईर्यासमिति का पालन करते हुए मृगाग्राम नामक नगर की ओर चल पड़े। यहां पर गौतम स्वामी के गमन के सम्बन्ध में सूत्रकार ने 'अतुरियं जाव सोहेमाणे - अत्वरितं यावत् शोधमानः'' यह उल्लेख किया है । इस का तात्पर्य यह है कि मृगापुत्र को देखने को उत्कण्ठा होने पर भी उन की मानसिक वृत्ति अथच चेष्टा और ईर्यासमिति आदि साधुजनोचित आचार में किसी प्रकार का अन्तर नहीं आने पाया। वे बड़ी मन्दगति से चल रहे हैं, इस में कारण यह है कि उन का मन स्थिर है-मानसिक वृत्ति में किसी प्रकार का क्षोभ नहीं है। वे अंसभ्रान्त रूप से जा रहे हैं अर्थात् उन की गमन क्रिया में किसी प्रकार की व्यग्रता दिखाई नहीं देती, क्योंकि उन में कायिक चपलता का अभाव है । इसी लिये वे युगप्रमाण भूत भूभाग के मल। ईर्यासमिति पूर्वक (सम्यकतया अवलोकन करते हुए) गमन करते हैं । यह सब अर्थ "जाव'-यावत्" शब्द से संगृहीत हुआ है "सोहेमाणे-शोधमानः" का अर्थ है - युग--(साढ़े तीन हाथ) प्रमाण भूमि को देख कर विवेकपूर्वक चलना । इस में सन्देह नहीं कि महापुरुषों का गमन भी सामान्य पुरुषों के गमन से विलक्षण अथच आदर्श रूप होता है। वे इतनी सावधानी से चलते हैं कि मार्ग में पड़े हुए किसी क्षद्रजीव को हानि पहुँचने नहीं पाती, फिर भी वे स्थान पर आकर उसकी आलोचना करते हैं यह उनकी महानता है, एवं शिप्यसमुदाय को अपने कर्तव्यपालन की ओर आदर्श प्रेरणा है। ___ तदनन्तर भगवान् गौतम स्वामी मृगाग्राम नगर के मध्य में से होते हुए मृगादेवी के घर में पहुंचे तथा उन को आते देख मृगादेवी ने बड़ी प्रसन्नता में उन का विधिपूर्वक स्वागत किया और पधारने का प्रयोजन पूछा। (१) यावत्-करणादिदं दृश्यम् - अचवलमसंभंते जुगंतर-पलोयणाए दिट्ठीए पुरश्रो रिय-तत्राचपलं कायचापल्यभावात्, क्रियाविशेषणे चैते तथा असंभ्रान्तो भ्रम-रहितः, युगं यूपस्तत्प्रमाणो भूभागोऽपि युगं तस्यान्तरे मध्ये प्रलोकनं यस्याः सा तथा तया दृष्ट्या-चक्षषा “रियं' इति ई गमनं तद्विषयो मार्गोऽपीर्याऽतस्ताम् । For Private And Personal Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ==] श्री विपाक सूत्र - [ प्रथम अध्याय "पासित्ता हट्ठ० जाव क्यासी” इस पाठ में उल्लेख किय गये " जाव- यावत्" पद में भगवती - सूत्रीय १५ वें शतक के निम्नलिखित पाट के ग्रहण करने की ओर संकेत किया गया है .तट्ठचित्तमादिया, पीइमणा, परमसोमण स्सिया, हरिसवसविसप्पमाण हियया विपामेव सा श्रब्भुट्टे गोयमं अणगारं सत्तनयाई श्रणुगच्छइ २ तिक्खुतो याहिणं पयाहिणं करेति करिता वंदिना णमंसिना...... । सारांश यह है कि महाराणी मृगावती अपने घर की ओर आते हुए भगवान् गौतम स्वामी को देख अधिक हर्षित हुई, तथा प्रसन्न चित्त से शीघ्र ही श्रासन पर से उठ कर सात आठ कदम श्रागे गई, और उनको दाहिनी तर्फ से तोन वार प्रदक्षिणा दे कर वन्दना तथा नमस्कार करती है, वन्दना नमस्कार करने के अनन्तर विनयपूर्वक उन से पूछती है कि भगवन् ! फर्माइये आप ने किस निमित्त से यहां पर पधारने की कृपा की है ? । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir महाराणी मृगादेवी का गौतम स्वामी के प्रति आगमन - प्रयोजन - विषयक प्रश्न नितरां समुचित एवं बुद्धिगम्य है, कारण कि आगमन विषयक अवगति-ज्ञान होने के अनन्तर ही वह उन की इच्छित वस्तु देने में समर्थ हो सकेगो तथा उपकरण आदिक वस्तु का दान भी प्रयोजन के अन्तगंत ही होता है, इसलिये महाराणी मृगादेवी की पृच्छा को किसी प्रकार से अंसघटित नहीं माना जा सकता, प्रत्युत वह युक्तियुक्त एवं स्वाभाविक है। प्रयोजन- विषयक प्रश्न के उत्तर में गौतम स्वामी ने अपने आगमन का प्रयोजन बतलाते हुए कहा कि- देवि! मैं केवल तुम्हारे पुत्र को देखने के लिये यहां आया हूँ । यह सुन मृगादेवी ने अपने चारों पुत्रों को जो कि मृगापुत्र के पश्चात् जन्मे हुए थे - वस्त्र भूषणादि से अलंकृत कर के गौतम स्वामी की सेवा में उपस्थि हुए कहा कि भगवन् ! ये मेरे पुत्र हैं, इन्हें आप देख लीजिये मृगादेवी के सुन्दर और समलंकृत उन चारों पुत्रों को अपने चरणों में झुके हुए देखकर गौतम स्वामी बोले- महाभागे ! मैं तुम्हारे इन पुत्रों को देखने की इच्छा से यहां पर नहीं आया, किन्तु तुम्हारे मृगापुत्र नाम के ज्येष्ठ पुत्र जो कि जन्मकाल से ही अन्धा तथा पंगुला है और जिस को तुमने एक गुप्त भूमिगृह में रक्खा हुआ है तथा जिस का गुप्तरूप से तुम पालन पोषण कर रही हो–को देखने के लिये मैं यहां आया हूँ । गोतम स्वामी की इस अश्रुतपूर्व विस्मयजनक वाणी सुनकर मृगादेवी एकदम अवाक् सी रह गई ! उस ने आश्चर्यान्वित होकर गौतम स्वामी से कहा कि भगवन् ! इस गुप्त रहस्य का श्राप को कैसे पता चला ? वह ऐसा कोन सा अतिशय ज्ञानी या तपस्वी है जिस ने आप के सामने इस गुप्तरहस्य का उद्घाटन किया ? इस वृत्तान्त को तो मेरे सिवा दूसरा कोई नहीं जानता, परन्तु आपने उसे कैसे जाना १ मृगादेवी का गौतम स्वामी के कथन से विस्मित एवं आश्चर्यान्वित होना कोई अस्वाभाविक नहीं ? यदि कोई व्यक्ति अपने किसी अन्तरंग वृत्तान्त को सर्वथा गुप्त रखना चाहता हो, और वह अधिक समय तक गुप्त भी रहा हो, एवं उसे सर्वथा गुप्त रखने का वह भरसक प्रयत्न भी कर रहा हो, ऐसी अवस्था कस्मात् ही कोई अपरिचित व्यक्ति उस रहस्यमयी गुप्त घटना को यथावत् रूपेण प्रकाश में ले आवे तो सुनने वाले को अवश्य ही आश्चर्य होगा ? वह सहसा चौंक उठेगा, बस वही दशा उस समय मृगादेवी की हुई ! वह एकदम सम्भ्रान्त और चकित सी हो गई ? इसी के फलस्वरूप उस ने गौतम स्वामी के विषय में "भन्ते !" की जगह "गातमा !" ऐसा सम्बोधन कर दिया । जातिधे जाव अंधारूवे" में पठित " जाव यावत्" पद से "जातिमूप, जातिबहिरे, जातिपंगुले" इत्यादि पूर्व प्रतिपादित पदों का ग्रहण करना, जो कि मृगापुत्र के विशेषण रूप हैं । तथा 'हव्वमागए" For Private And Personal Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । इस वाक्य में उल्लेख किये गये "हव्व" पद का आचार्य अभयदेवसूरि शीघ्र अर्थ करते हैं. जैसे कि "हव्वं ति शीघ्रम्" । परन्तु उपासक - दशांग को व्याख्या में श्रद्धय श्री घासी लाल जी महाराज ने उस का “अकस्मात्” अर्थ किया है और लिखा है कि मगध देश में आज भी " हव्व हव्य" शब्द अकस्मात् ( अचानक ) अर्थ में प्रसिद्ध है । हव्यम् - अकस्मात् हव्यमित्ययं शब्दोऽद्यापि मागधे अकस्मादथं प्रसिद्धः । (पृष्ठ ११४) । स्वकीय गुप्त वृत्तान्त को श्री गोतमस्वामी द्वारा उद्घाटित हो जाने से चकित हुई मृगादेवी का गोतम स्वामो से किसी अतिशय ज्ञानी वा तपस्वी सम्बन्धो प्रश्न भो रहस्य पूर्ण है । नितान्त गुप्त अथवा अन्तःकरण में रही हुई बात को यथार्थ रूप में प्रकट करना, विशिष्ट ज्ञान पर ही निर्भर करता है, विशिष्ट ज्ञान के धारक मुनिजनां के बिना - जिन की आत्मज्योति विशिष्ट प्रकार के प्रावरणों से अनाछन्न होकर पूर्णरूपेण विकास को प्राप्त कर चुको हो - दूसरा कोई व्यक्ति अन्तःकरण में छिपी हुई बात को प्रकट नहीं कर सकता ! अत एव मृगादेवी ने भगवान् गौतम से जो कुछ पूछा है उसमें यही भाव छिपा हुआ है। मृगादेवी के उक्त प्रश्न का गौतमस्वामी ने जो उत्तर दिया व सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं। ३६ - मूल - ' तते गं भगवं गोतमे मियं देवि एवं वयासी - एवं खलु देवाप्पिए । मम धम्मायरिए समणे भगवं जाव, ततो णं श्रहं जाणामि । जावं च गं मियादेवी भगवया गोतमेणं सद्धि एयम' संलवति तावं च गं मियापुत्तस्स दारगस्स भत्तवेला जाया (१) छाया - ततो भगवान् गौतमो मृगां देवीमेवमवदत् - एवं खलु देवानुप्रिये ! मम धर्माचार्यः श्रमणो भगवान् यावत्, ततोऽहं जानामि । यावच्च मृगादेवी भगवता गौतमेन सार्द्ध मेतमर्थ संलपति तावच्च मृगापुत्रस्य दारकस्य भक्तवेला जाता चाप्यभवत् । ततः सा मृगादेवी भगवन्तं गौतममेवमवादीत् - यूयं भदन्त ! इहैव तिष्ठत, यावदहं युष्मभ्यं मृगापुत्रं दारकमुपदर्शयामि, इति कृत्वा यत्रैव भक्तपानगृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य वस्त्रपरिवर्तं करोति, कृत्वा काष्ठशकटिकां गृह्णाति गृहीत्वा विपुलेनाशनपानखादिमस्वादिना भरति भृत्वा तां काष्ठशकटिकामनुकर्षन्ती २ यत्रैव भगवान् गौतमस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य भगवन्तं गौतममेवमवदत् एत यूयं भदन्त ! मामनुगच्छत, यावदहं युष्मभ्यं मृगापुत्रं दारकमुपदर्शयामि । ततः स गौतमो मृगादेवीं पृष्ठतः समनुगच्छति । ततः सा मृगादेवी तां काष्ठशकटिकामनुकर्षन्ती २ यत्रैव भूमिगृहं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य चतुष्पुटेन वस्त्रेण मुखं बध्नाति भगवन्तं गौतममेवमवादीत् - यूयमपि च भदन्त ! मुखपोतिकया मुखं वध्नीत । ततो भगवान् गौतमो मृगादेव्या एवमुक्तः सन् मुखपोतिकया मुखं बध्नाति । ततः सा मृगादेवी परांमुखी भूमिगृहस्य द्वारं विघाटयति । ततो गन्धो निर्गच्छति । स यथा नामाहिमृतकस्य वा यावत् ततोऽपि चानिष्टतरश्चैव यावद् गन्धः प्रज्ञप्तः । (२) प्रश्न- घर आदि में अकेली स्त्री के साथ खड़ा होना और उस के साथ संलाप करना शास्त्रों में निषिध्द है । प्रस्तुत कथासंदर्भ में राजकुमार मृगापुत्र को देखने के निमित्त गये भगवान गौतम स्वामी का महारानी मृगादेवी से वार्तालाप करने का वृत्तान्त स्पष्ट ही है । क्या यह शास्त्रीय मर्यादा की उपेक्षा नहीं ? For Private And Personal + समरेषु अगारेसु, सन्धीसु य महापहे । एगो एगत्थिए सद्धिं नेव चिट्ठे न संलवे ||२६|| ( उत्तराध्ययन सूत्र, अ० १ ) Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रा विपाक सूत्र प्रथम अध्याय यावि होत्था । तते णं सा मियादेवी भगवं गोयमं एवं क्यासी-तुब्भे णं भंते ! इह चेव चिट्ठह जा णं अहं तुभ मियापुत्तं दारयं उवदंसेमि त्ति कट्ट जेणेव भत्तपाण-घरए तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता वीत्थपरियट्ट करेति, करेत्ता कटु-सगड़ियं गेण्हति २ विपुलस्स असणपाण-खातिम-सातिमस्स भरेति २ तं कटुसगडियं अणुकड्ढपाणी २ जेणेव भगवं गोतमे तेणेव उवागच्छति २ भगवं गोतमं एवं वयासी-एह णं तुम्भे भंते! ममं [मए सद्धिं ] अणुगच्छह जा णं अहं तुभं मियापुत्तं दारयं उवदंसेमि । तते णं से भगवं गोतमे मियं देविं पिट्ठो समणुगच्छति । तते णं सा मियादेवी तं कट्ठसडियं अणुकड्ढमाणी २ जेणेव भूमिघरे तेणेव उवागच्छति २ चउप्पुडेणं वत्थेणं मुहं बंधमाणी भगवं गोतम एव वयासी-तुब्भे वि य णं भंते ! 'मुहपोत्तियाए मुहं वन्धह । तते णं भगवं गोतमे मियादेवीए एवं वुत्ते समाणे मुहपोत्तियाए मुहं बंधति । तते णं सा मियादेवी पर मुही भूमीघरस्स दुवार विहाड़ेति । तते णं गंधो निग्गच्छति । से जहा नामए अहिमडे हि वा जाव ततो वि य णं अणिढ़तराए चेव जाव गंधे पएणत्ते । पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । भगवं गोतमे- भगवान गौतम स्वामी ने । मियं देविंमृगादेवी को। एवं वयासी-इस प्रकार कहा। देवाणुप्पिए !-हे देवानुप्रिये ! अर्थात् हे भद्रे ! । उत्तर- शास्त्रों में व्यवहार पांच प्रकार के कहे गये हैं। (१) आगम, (२) श्रुत, (३ आज्ञा (४) धारणा और (५) जीत । मोक्षाभिलाषी अात्मा की प्रवृत्ति का नाम व्यवहार है । केवल-ज्ञानी, मन:पर्याय-ज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी दशपूर्वी और नवपूर्वी की प्रवृत्ति को आगम व्यवहार कहा गया है आगम-व्यवहारी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसारी होते हैं । इन पर किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होता है । आगम व्यवहार के अभाव में शास्त्रों के अनुसार प्रवृत्ति करने वाले श्रुत व्यवहारी होते हैं । इनके लिये मात्र शास्त्रीय मर्यादा हो मार्ग-दर्शिका होती है । जहां शास्त्र मौन है, वहां द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावानुसारो गुरु आदि द्वारा दिया गया आदेश आज्ञा-व्यवहार है। आज्ञाव्यवहारी को गुरु चरणों द्वारा सम्प्राप्त आज्ञा का हो अनुसरण करना होता है । अाज्ञा व्यवहार की अनुपस्थिति में गुरु परम्परा से चलित व्यवहार का नाम धारणा व्यवहार है । धारणा-व्यवहारी को पूर्वजों की धारणा के अनुसार ही प्रवृत्ति करनी पड़ती है। द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव और संहनन आदि का विचार कर गीतार्थ मुनियों द्वारा निर्धारित व्यवहार जीत व्यवहार होता है , जीत व्यवहारी के लिये अतीत समाचारी मान्य होने पर भी वर्तमान संघसमाचारी का पालन करना आवश्यक होता है । भगवान गौतम आगम व्यवहारी थे । आगमव्यवहारियों पर श्रुत व्यवहार लागू नहीं होता । अतः भगवान गौतम का महारानी मृगादेवी से किया गया संलाप आदिक व्यवहार शास्त्र विरुद्ध नहीं है । (१) मुखपोतिका-मुखप्रोञ्छनिका, रजः -- प्रस्वेदादि-प्रोञ्छनाथे यद् वस्त्रखण्डं हस्ते ध्रियते सा मुखप्रोञ्छनिकेत्युच्यते । For Private And Personal Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । मम धम्मारिए-मेरे धर्माचार्य (गुरुदेव) । समणे भगवं जाव-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी हैं । ततो णं- उन से । अहं जाणामि- मैं जानता हूँ, अर्थात् प्रभु महावीर स्वामी ने मुझे यह रहस्य बताया है । जावं च णं- जिस समय । मियादेवी- मृगादेवी । भगवया गोतमेणं-भगवान् गौतम के । सद्धि - साथ । एयम- इस विषय में । संलवति-संलाप-संभाषण कर रही थी । तावं च णं- उसी समय । मियापुत्तरस- मृगापुत्र । दारगरस- बालक का । भत्त- वेला-- भोजन समय । जाया यावि होत्या-भी हो गया था। तते णं - तब । सा मियादेवी- उस मृगादेवी ने । भगवं गोयमं- भगवन् गौतम स्वामी के प्रति । एवं वयासी- इस प्रकार कहा । भन्ते ! - हे भदन्त ! अर्थात् हे भगवन् ! । तुब्ने णं- श्राप । इह चेव- यहीं पर । चिट्ठह - ठहरें । जाणं- जब तक | अहं-मैं । तुभं-आप को । मियापुत्तं-मृगापुत्र । दारयं-बालक को। उबदंसेमि त्ति- दिखलाती हूँ, ऐसे । कद्द - कह कर । जेणेव-जहां पर । भत्तपाणघरए - भोजनालय -- भोजन बनाने का स्थान, था । तेणेव-वहीं पर । उवागच्छति-पाती है । उवागच्छिात्ता-श्रा कर । वत्थपरिय- वस्त्र परिवर्तन । करेति-करती है। करेता- वस्त्रपरिवर्तन कर के । कट्ठसगडियं-काठ की गाड़ी को। गएहति--ग्रहण करतो है, ग्रहण कर के। विपुलस्स- अधिक मात्रा में । असण-पाणखातिमसातिमस्स-अशन, पान, खादिम और स्वादिम से । भरेति २- उसे भरती है, भर कर । तं कट्ठसगडियंउस काष्ठ-शकटी को । अणुकड्ढमाणी-खंचती हुई । जेणेव-जहां पर । भगवं गोतमेभगवान् गौतम थे । तेणेव-वहीं पर । उवागच्छति २-आती है, आ कर । भगतां - भगवान् । गोतमं--गौतम स्वामी के प्रति । एवं वयासी इस प्रकार बोली । भंते !- हे भदन्त !। एह णं तुब्भे-आप पधारें, अर्थात् । ममं अणुगच्छह-मेरे पीछे २ चलें। जा णं - यावत् । अहं तुभंमैं आप को। मियापुत्तं दारगं - मृगापत्र बालक को । उवदंसेमि-दिखलाती हूँ। तते णं-तत्पश्चात् । से भगां गोतमे-वे भगवान् गौतम । मियं देविं पिट्टो- मृगादेवी के पीछे । समणुगच्छति-चलने लगे तते णं-तदनन्तर । सा मियादेवी-वह मृगादेवी । तं कसगडियं-उस काष्ठ-शकटी को । अणुकड्ढमाणी -- बँचती हुई । जेणेव भूमिघरे- जहां पर भूमि-गृह था। तेणेव - वहीं पर । उवागच्छति २ आती है, अाकर । चउप्पुटेणं वाथेणं- चार पुट वाले वस्त्र से । मुहं बंधमाणी-मुख को बांधती हुईअर्थात् नाक बांधती हुई। भग- भगवान् । गोतमं-- गौतम स्वामी को । एठां वयासी- इस प्रकार कहने लगी। भंते !- हे भगवन् ! । तुम्भे वि य णं- आप भी । मुहपोत्तियार-मुख के वस्त्र से । मुहं - मुख को अर्थात् नाक को। बंधह-बांध लें । तते णं- तब । मियादेवीए- मृगादेवी के । ए-इस प्रकार । वुत्ते समाणे- कहे जाने पर । भगवं गोतमे-भगवान् गौतम । मुहपोत्तियाए मुहं बन्धति - मुख के वस्त्र के द्वारा मुख को-नाक को बान्ध लेते हैं । तते णं-तदनन्तर । सा मियादेवी - वह मृगादेवी । परंमुही-पराङ्मुख हुई २ । भूमिधरस्स दुवारं-भूमीगृह के दरवाज़ को। विहाडेति-खोलती है । ततो णं गंधो निग्गछति-उस से गन्ध निकलती है । 'से-- वह-गन्ध । जहा-जैसे । नामए-वाक्यालङ्कारार्थक है। अहिमडे इ वा जाव-यावत् मरे हुए सर्प की दुर्गन्ध होती है । ततो वि य णं-उस से भी। अगिहतरार चेव -- अधिक अनिष्ट (अवाञ्छनीय) । जाव-यावत् । गंधे पण्णत्ते--गन्ध थी। (१) “से जहा नामए” त्ति तद्यथा नामेति वाक्यालंकारे। (वृत्तिकारः) For Private And Personal Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र प्रिथम अध्याय मूलार्थ-तब भगवान् गौतम स्वानो ने मृगादेवी को कहा -- हे देवानुप्रिये ? अर्थात् हे भद्रे ! इस बालक का वृत्तान्त मेरे धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने मेरे को कहा था, इसलिये मैं जानता हूँ । जिस समय मृगादेवी भगवान् गौतम के साथ संलाप-संभाषण कर रही थी. उसी समय मृगापुत्र बालक के भोजन का समय हो गया था । तब मृगादेवी ने भगवान् गौतम स्वामी से निवेदन किया कि हे भगवन् ! आप यहीं ठहरें, मैं आप को मृगापत्र बालक को दिखलाती हूँ इतना कहकर वह जिस स्थान पर भोजनालय था वहां आती है अाकर प्रथम वस्त्र परिवर्तन करती है-वस्त्र बदलतो है, वस्त्र बदल कर काष्ठशकटी-काठ की गाड़ी को ग्रहण करती है, तथा उस में अशन, पान, खादिम और स्वादिम को अधिक मात्रा में भरती है तदनन्तर उस काष्ठशकटी को बैंचती हुई जहां भगवान् गौतम स्वामी थे वहां आती है आकर उसने भगवान् गौतम स्वामी से कहा भगवन् ! आप मेरे पीछे आएं मैं आप श्री को मृगापुत्र बालक को दिखलाती हूँ । तर भगवान् गौतम मृगादेवी के पीछे २ चनने लगे । तदनन्तर वह मृगादेवी काष्ठ-शकटी को बँचती हुई जहां पर भूमिगृह था वहां पर आई, आकर चतुष्पुट-चार पुट वाले वस्त्र से अपने मुख को - अर्थात् नाक को बान्धती हुई भगवान् गौतम स्वामी से बोली-भगवन् ! आप भी मुख के वस्त्र से अपने मुख को बांधले अर्थात् नाक बान्ध लें । तदनन्तर भगवान् गौतम स्वामी ने मृगादेवी के इस प्रकार कहे जाने पर मुख के वस्त्र से अपने मुख-नाक को बान्ध लिया। तत्पश्चात् मृगादेवी ने परांमुख हो कर (पीछे को मुख करके) जब उस भूमिगृह के द्वार-दरवाजे को खोला तब उस में से दुर्गन्ध आने लगी, वह दुर्गन्ध मृत सर्प आदि प्राणियों की दुर्गन्ध के समान ही नहीं प्रत्युत उस से भी अधिक अनिष्ट थी। टीका-मृगादेवी के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् गौतम स्वामी ने रहस्योद्घाटन के सम्बन्ध में जो कुछ कहा उसका विवरण इस प्रकार है गौतम स्वामी बोले-महाभागे ! इसी नगर के अन्तर्गत चन्दन पादप नामा उद्यान में मेरे धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान हैं, वे सर्वज्ञ अपच सर्वदर्शी हैं, भूत भविष्यत् और वर्तमान तीनों काल के वृत्तान्त को जानने वाले हैं। वहां उन की व्याख्यान-परिषद् में आये हुए एक अन्धे व्यक्ति को देखकर मैंने प्रभु से पूछा-भदन्त ! क्या कोई ऐसा पुरुष भी है जो कि जन्मान्ध होने के अतिरिक्त जन्मान्धकरूप ( जिस के नेत्रों की उत्पत्ति भी नहीं हुई है। भी हो ? तब भगवान् ने कहा हां, गौतम ! है। कहां है भगवन् ! वह पुरुष ? मैंने फिर उन्हें पूछा । मेरे इस कथन के उत्तर में भगवान् ने तुम्हारे पुत्र का नाम बतलाया और कहा कि इसो मृगाग्राम नगर के विजयनरेश का पुत्र तथा मृगादेवी का आत्मज मृगापुत्र नामक बालक है जो कि जन्मान्ध और जन्मान्धकरूप भी है इत्यादि । अतः तुम्हारे पुत्र-विषयक मैंने जो कुछ कहा है वह मुझे मेरे धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से प्राप्त हुआ है । भगवान् का यह कथन सर्वथा अभ्रांत एवं पूर्ण सत्य है. उस के विषय में मुझे अणुमात्र भी अविश्वास न होने पर भी केवल उत्सुकतावश मैं तुम्हारे उस पुत्र को देखने के लिये यहां पर आ गया हूँ । आशा है मेरे इस कथन से तुम्हारे मन का भलीभांति समाधान हो गया होगा। यह था महाराणी मृगादेवी के रहस्योद्घाटन सम्बन्धी प्रश्न का गौतम स्वामी की ओर से दिया गया सप्रेम उत्तर, जिस की कि उसे अधिक आकांक्षा अथच जिज्ञासा थी। भगवान् गौतम स्वामी और महाराणी का आपस में वार्तालाप हो ही रहा था कि इतने में मृगापुत्र के भोजन का समय भी हो गया । तब मृगदेवी ने भगवान् गोतम स्वामो से कहा कि भगवन् ! आप यहीं विराजे, मैं अभी आप को उसे (मृगापुत्र को) दिखाती हूँ, इतना कहकर वह भोजन-शाला की ओर गई, For Private And Personal Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित। वहां जाकर उस ने पहले अपने वस्त्र बदले, फिर काष्ठश कटी-लकड़ी की एक छोटी सी गाड़ी ली और उस में विपुल -अधिक प्रमाण में-प्रशन (रोटी. दाल आदि), पान (पानी), खादिम (मिठाई तथा दाख, पिस्ता आदि) और स्वादिम (पान-सुपारी आदि) रूप चतुविध आहार को ला कर भरा, तदनन्तर उस आहार से परिपूर्ण शकटी को स्वयं बवती हुई वह गौतम स्वामी के पास आई और उन से नम्रता पूर्वक इस प्रकार बोली – भगवन् ! पधारिये, मेरे साथ आइए, मैं आप को उसे (मृगापुत्र को) दिखलाती हूँ । महाराणी मृगादेवी को विनोतता पूर्ण वचनावलो को सुनकर भगवान् गौतम स्वामी भी महाराणी मृगादेवी के पीछे २ चलने लगे । काष्ठशकटो का अनुकर्षण करती हुई मृगादेवी भूमिगृह के पास अई वहां आकर उसने स्वास्थ्यरक्षार्थ चतुष्पुट-चार पुट वाले (चार तहों वाले) वस्त्र से मुख को बांधा अर्थात् नाक को बान्धा और भगवान् गौतम स्वामी से भी स्वास्थ्य की दृष्टि से मुख के वस्त्र द्वारा मुखनाक बान्ध लेने की प्रार्थना की, तदनुसार श्री गोतम स्वामी ने भी मुख के वस्त्र से अपने नाक को आच्छादित कर लिया । प्रश्न-जब भगवान् गौतम स्वामी ने मुखवस्त्रिका से अपना मुख बान्ध ही रखा था, फिर उन्हें मुख बान्धने के लिये महाराणी मृगादेवी के कहने का क्या अभिप्राय है ? उत्तर-जैसे हम जानते हैं कि भगवान् गौतम ने मुख-वस्त्रिका से मुख वान्ध रखा था वैसे महाराणी मृगादेवी भी जानती थी, इस में सन्देह वाली कोई बात नहीं है, तथापि मृगादेवी ने जो पुनः मुख बान्धने की भगवान से अभ्यर्थना की है, उस अभ्यर्थना के शब्दों को न पकड़ कर उस के हार्द को जानने का यत्न कीजिए। सर्व प्रथम न्यायदर्शन की लक्षणा जान लेनी आवश्यक है । लक्षणा का अर्थ है-'तात्पर्य (वक्ता के अभिप्राय ) की उपपत्ति-सिद्धि न होने से शक्यार्थ (शक्ति-संकेत द्वारा बोधित अर्थ ) का लक्ष्यार्थ (लक्षण द्वारा बोधित अर्थ) के साथ जो सम्बन्ध है। स्पष्टता के लिये उदाहरण लीजिए "गङ्गायां घोषः" इस वाक्य में वक्ता का अभिप्राय है कि गंगा के तीर पर घोष (आभीरों की. पल्ली ) है, परन्तु यह अभिप्राय गंगा के शक्य रूप अर्थ द्वारा उपपन्न नहीं होता, क्योंकि गंगा का शक्यार्थ है - जल-प्रवाह-विशेष । उस में घोष का होना असंभव है, इस लिये यहां गंगा पद से उस का जल-प्रवाह रूप शक्यार्थ न लेकर उस के सामीप्य सम्बन्ध द्वारा लक्ष्यार्थ - तीर को ग्रहण किया जाता है। इसी प्रकार प्रस्तुत प्रकरण में जो "मुह गोत्तियार मुहबंधह" यह पाठ आता है। इस में मुख-शब्द लक्षणा द्वारा नासिका का ग्राहक है-चोधक है । क्योंकि प्रस्तुत प्रसंग में महाराणी मृगादेवी का अभिप्राय गौतम स्वामी को दुर्गन्ध से बचाने का है । और यह अभिप्राय मुख के शक्यरूप अर्थ का ग्रहण करने से उपपन्न नहीं होता है । क्योंकि गन्ध का ग्राहक प्राण (नाक) है न कि मुख, इस लिये यहां तात्पर्य की उपपत्ति न होने से मुख शब्द द्वारा इस के शक्यार्य को न लेकर सामीप्यरूप सम्बन्ध से लक्ष्यार्थ-नाक ही का ग्रहण करना चाहिये । जो कि महाराणी मृगादेवी को अभिमत है। हमारा लौकिक व्यवहार भी ऊपर के विवेचन का समर्थक है । देखिए-कोई मित्रमण्डल गोष्ठी में संलग्न है, सामने से भीषण दुर्गन्ध से अभिव्याप्त एक कुष्ठी आ रहा है । मण्डल का नायक उसे देखते ही बोल उठता है, मित्रो ! मुख ढक लो । नायक के इतना कहने मात्र से साथी अपना २ नाक ढक लेते हैं। यह ठीक है नाक का मुख के साथ अतिनिकट का सम्बन्ध होने से मुख का ढका जाना अस्वाभाविक (१) लक्षणा शक्यसम्बन्धस्तात्पर्यानुपपत्तितः (न्यायसिद्धान्तमुक्तावली, कारिका-८२) For Private And Personal Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ×४ ] श्री विपाक सूत्र - [ प्रथम अध्याय नहीं है, परन्तु कहने वाले का अभिप्राय नाक के ढक लेने से होता है, क्योंकि नाक ही गन्ध का ग्रहण करने वाला है । ग्रहण न करके इसके शक्यार्थ का ग्रहण किया प्रश्न – यदि मुख पद के लक्ष्यार्थ का जाए तो क्या बाधा है ? उत्तर - प्रस्तुत प्रकरण में दुर्गन्ध से बचाव को बात चल रही है । गन्ध का ग्राहक प्राण है । बाण को ढके या बान्धे बिना दुर्गन्ध से बचा नहीं जा सकता । परन्तु महाराणी मृगादेवी नाक को बन्धने की बात न कह कर मुखबान्धने के लिये कह रही हैं । मुख गन्ध का ग्राहक न होने से महाराणी का यह कथन व्यवहार से विरुद्ध पड़ता है, अतः यहां तात्पर्य की उपपत्ति न होने के कारण लज्ञणा द्वारा मुबाद से नाक का ग्रहण करना ही होगा । दूसरी बात यह है कि यदि यहां मुख का शक्यार्थ ही अपेक्षित होता तो ""मुहपोत्तियाए मुहं बन्धेह" इस पाठ की श्रावश्यकता ही नहीं रहती, क्यों कि मुख को आवृत करने के लिये किसी बाह्य आवरण की आवश्यकता नहीं है. वहां तो ओंठ ही आवरण का काम दे जाते हैं । ऐसी एक नहीं अनेकों बाधायों के कारण यहां मुखपद से नाक का ग्रहण करना ही शास्त्रसम्मत है । प्रश्न- "मुहपोत्तियाए मुह ं बच्चेह" इस पाठ में जो "वन्धे" यह पद है, इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान गौतम के मुख पर मुख - वस्त्रिका नहीं थीं परन्तु उन्होंने महाराणी मृगादेवी के कहने पर बांधी थी । पहले यह कहा जा चुका है कि भगवान् गौतम के मुखवस्त्रिका बन्धी हुई थी, यह परस्पर में विरोध की बात क्यों ? उतर - सबसे पहिले जैन शास्त्रों में मुख- वस्त्रिका की मान्यता किस आधार पर है इस पर विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है । भगवती सूत्र में लिखा है - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पतितपावन भगवान् महावीर स्वामी अपनी शिष्यमण्डली सहित राजगृह नगर में विराजमान थे । भगवान् के प्रधान शिष्य अनगार गौतम भगवान् से एक बार भगवान् के चरणों में नमस्कार करने के अनन्तर हाथ जोड़कर सविनय निवेदन करने लगे - - 1 भगवन् ! शक्र देवेन्द्र देवराज सावद्य (पाप युक्त) भाषा बोलते हैं या निरवद्य (पाप रहित ) ? भगवान् बोले गौतम ! देवेन्द्र देवराज सावद्य और निरवद्य दोनों प्रकार की भाषा बोलते गौतन - भगवन् ! देवेन्द्र देवराज सावत्र ओर निरवद्य दोनों प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हैं, यह कहने का क्या अभिप्राय है ? भगवान् गौतम ! देवेन्द्र देवराज जब सूक्ष्मकाय वस्त्र अथवा हस्तादि से मुख को बिना ढक कर बोलते हैं तो वह उन की सावध भाषा होती है, परन्तु जब वे वस्त्रादि से मुख को ढक कर भाषा (१) यहां पर मुखपोतिका - मुखवस्त्रिका आदि पोंछने का काम लिया जाता है। आठ तहों उस का इतना बड़ा आकार नहीं होता कि दुर्गन्ध के पीछे ले जाकर गांठें देकर बांध दिया जाए। "बन्धे" पद का प्रयोग करते हैं । "बंधेह" का अर्थ होता है - बान्ध लें । (२) भगवती - सूत्र शतक १६ उद्ददेशक २ सूत्र ५६८ । शब्द एक वस्त्रखण्ड का बोधक है, जिस से धूलि पसीना वाली मुख वस्त्रिका का यहां पर ग्रहण नहीं, क्योंकि दुष्परिणाम से पूर्णरूपेण बचने के लिये उसे ग्रीवा के सूत्रकार “मुहपोत्तियाए मुह बंधेह" इस पाठ में For Private And Personal Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम प्रध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। का प्रयोग करते हैं तब वह निरबद्य भाषा कहलाती है । भाषा का द्वैविध्य मुख को श्रावृत करने और खुले रखने से होता है । खुले मुख से बोली जाने वाली भाषा वायुकाया के जीवों की नाशिका होने से सावद्य और वस्त्रादि से मुख को ढक कर बोले जाने वाली भाषा जीवों की संरक्षिका होने से निरवद्य भाषा कहलाती है । इस प्रकार के वर्णन से स्पष्ट है कि मुख की यतना किये बिना-मुख को वस्त्रादि से श्रावृत किये बिना भाषा का प्रयोग करना सावध कर्म होता है । सावद्य प्रवृत्तियों से अलग रहना ही साधुजीवन का महान् आदर्श रहा हुआ है, यही कारण है कि सावद्य प्रवृत्ति से बचने के लिये साधु मुख पर मुखवस्त्रिका का प्रयोग करते आ रहे हैं। अब जरा मुल प्रसंग पर विचार कीजिए -जब महाराणी मृगादेवी अपने ज्येष्ठ पुत्र मृगापुत्र को दिखाने के लिये भौंरे में जाती है, तब वहां की भीषण एवं असह्य दुर्गन्ध से स्वास्थ्य दूषित न होने पावे, इस विचार से अपना नाक बान्धती हुई, भौरे के दुर्गन्धमय वायुमण्डल से अपरिचित भगवान् गौतम से भी नाक बान्ध लेने की अभ्यर्थना करती है । तब भगवान् गौतम ने भौंरे का स्वस्थ्यनाशक दुर्गन्ध-पूर्ण वायुमण्डल जान कर और राणी की प्रेरण पा कर पसीना आदि पोंछने के उपवस्त्र से अपने नाक को बान्ध लिया। यदि यहां बोलने का प्रसंग होता और सावध प्रवृत्ति से बचाने के लिये भगवान् गौतम को मुख पर मुखवस्त्रिका लगाने की प्रेरणा की जाती तो यह शंका अवश्य मान्य एवं विचारणीय थी परन्तु यहां तो केवल दुर्गन्ध से बचाव करने की बात है । बोलने का यहां कोई प्रसंग नहीं । __"बन्धेह'' पद से जो “–संयोग वियोग मूलक होता है इसी प्रकार मुख का बन्धन भी अपने पूर्वरूप खुले रहने का प्रतीक है-'यह शंका होती है उस का कारण इतना ही है कि शंकाशील व्यक्ति मुख का शक्यरूप अर्थ ग्रहण किये हुए है जब कि यहां मुख शब्द अपने लक्ष्यार्थ का बोधक है । मुख का लक्ष्यार्थ है नाक, नाक का बान्धना शास्त्रसम्मत एवं प्रकरणानुसारी है। जिस के विषय में पहले काफी विचार किया जा चुका है। __मुख-वस्त्रिका मुख पर लगाई जाती थी इस की पुष्टि जैनदर्शन के अतिरिक्त वैदिक दर्शन में भी मिलती है। शिवपुराण में लिखा है - हस्ते पात्रं दधानाश्च तुण्डे वस्त्रस्य धारकाः । मलिनान्येव वस्त्राणि, धारयन्तोऽल्पभाषिणः ॥ [अध्याय २१ श्लोक १५] अस्तु अब विस्तार भय से इस पर अधिक विवेचन न करते हुए प्रकृत विषय पर आते हैं तदनन्तर जब महाराणी मृगादेवी ने मुख को पीछे की ओर फेर कर भूमिगृह के द्वार का उद्घाटन किया, तब वहां से दुर्गन्ध निकली, वह दुर्गन्ध मरे हुए सर्मादि जीवों की दुर्गन्ध से भी भीषण होने के कारण अधिक अनिष्ट -कारक थी। यहां पर प्रस्तुतसूत्र के - "अहिमडे इ वा जाव ततो वि' पाठ में उल्लिखित हुए “जाव-यावत्" पद से निम्नोक्त पदों का ग्रहण करना अभीष्ट है गोमडे इ'जार मयकुहिय-विण?-किमिण-वावरण-दुरभिगंधे किमिजालाउले संसत्ते असुइ (१) मृत गाय के यावत् ( अर्थात् - कुत्ता, गिरगिट, मार्जार, मनुष्य, महिष, मूषक, घोड़ा, हस्ती, सिह व्याघ्र, वृक (भेडिया), और) चीता के कुथित -- सड़े हुए, अतएव विनष्ट -शोथ आदि विकार से युक्त, कई प्रकार के कृमियों से युक्त, गीदड़ आदि द्वारा खाए जाने के कारण विरूपता को प्राप्त, For Private And Personal Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [प्रथम अध्याय विगय-विभत्थ-दरिसणिज्जे, भवेयासवे सिया ? णो इणढे समढे एत्तो अणिठ्ठतराए चेव...... । (ज्ञाताधर्मकथांग - सूत्र अ० १२, सूत्र ९१) "अणिट्टतराए चेव जाव गन्धे" पठान्तर्गत “जाव" पद से "अकंततराए चेव अप्पियतराए चेव अमणुन्नतराए चेव अमणामतरार चेव" इन पदों का भी संग्रह कर लेना चाहिये। अब सूत्रकार अग्रिम प्रसंग का वर्णन करते हुए कहते हैं - मूल-तते णं से मियापुत्ते दारए तस्स विपुल म्स असण-पाण---खाइमखाइमस्स गंधेणं अभिभूते समाणे तंसि विपुलंसि असण-पाण-खाइमसाइमंसि मुच्छिए ४ तं विपुलं असणं ४ पासएणं आहारेति २ खिप्पामेव विद्ध सेति । ततो पच्छा पूयत्ताए य सोणियत्ताए तीव्रतर दुर्गन्ध से युक्त, जिस में कोड़ों का समूह विल बिला रहा है और इसी लिये स्पर्श के अयोग्य होने से अशुचि चित्त में उद्वगोत्पत्ति का कारण होने से विकृत और देखने के अयोग्य होने से बीभत्स शरीरों से जिस प्रकार असह्य दुर्गन्ध निकलती है उस से भी अनिष्ट दुर्गन्ध वहां से निकल रही थी। (१) छाया- ततः स मृगापुत्रो दारकस्तस्य विपुलस्याशनपानखादिमस्वादिम्नो गन्धेनाभिभतः सन तरिमन् विपुले अशनपानखादिमस्वादिम न मूर्छितः ४ तं विपुलमशनं ४ श्रास्येनाहरति, आहृत्य क्षिप्रमेव विध्वं सयति । ततः पश्चात् पूयतया च शोणितया च परिणमयति । तदपि च पूयं च शोणितं चाहरति । ततो भगवतो गौतमस्य तं मृगापु दारकं दृष्ट्वाऽयमेतद्पः आध्यात्मिकः ६ समुद्पद्यत, अहो अयं दारकः पुरा राणानां दृश्चीर्णानां दुष्प्रतिक्रान्तानां अशुभानां पापानां कृतानां कर्मणां फल वृत्ति-विशेष प्रत्यनुभवन् विहरति । न मया दृष्टा नरका वा नरयिका वा, प्रत्यक्षं खल्वयं पुरुषो नरक-प्रतिरूपिकां वेदनां वेदयति इति कृत्वा मृगां देवीमापृच्छते, आपृच्छय मृगाया देव्या गृहात् प्रतिनिष्कामति प्रतिनिष्क्रम्य मृगाग्रामात गरान् मध्यमध्येन निर्गठति, निर्गम्य यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरस्तत्रैवोपागच्छ त उपागत्य श्रमण भगवन्तं महावीरं त्रिराद क्षण प्रदक्षिणं करोति कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत .. एवं खल्वहं युष्माभिःभ्यनुज्ञात: सन् मृगाग्राम नगरं मध्यमध्येनानुप्राविशम् । अनुप्रविश्य यत्रैव मृगाया देव्या गृहं तत्रैवोपागतः । ततः सा मृगादेवी मामायान्तं पश्यति दृष्ट्वा हृष्ट० तदेव सर्वे यावत् पूयं च शोणितं च हरति । ततो ममायमाध्यात्मिकः ६ समुपद्यत अयं दारक पुरा यावद् विहरति । (१) मुच्छिर' इत्यत्र 'गढिए गिद्धे अज्झोववन्ने' इति पदत्रयमन्यद् दृश्यम्, एकार्थान्येतानि चत्वार्यपी त वृत्तिकारः। (२) आध्यात्मिक पद से निम्नोक्त पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है-आध्यात्मिकः - अत्मगतः, चिन्तितः- पर्यालोचितः (पुनः पुनः स्मृतः, कल्पितः-कल्पनायुक्तः, प्रार्थितः- जिशासितः, मनोगतः-मनोवर्ती, संकल्पः-विचारः । (३) पुरा पुराणानां जरठानां कक्खड़ीभूतानामित्यर्थः, पुरा पूर्वकाले दुश्चीर्णानां -प्राणातिपा. तादिदुश्चरितहेतुकानाम् दुष्प्रतिक्रान्तानाम् - दुशब्दोऽभावार्थः, तेन प्रायश्चित्त-प्रतिपत्त्यादिनाऽप्रतिक्रान्ता. नामनिवर्तितविपाकानामित्यर्थः, अशुभानाम् - असुखहेतूनां, पापानाम् दुष्टस्वभावानाम् कर्मणाम्-ज्ञानावरणादीनाम्, पापकम् अशुभम् , फल वृत्तिविशेष—फलरूपः परिणामरूपः यो वृत्तिविशेषः-अवस्थाविशेषस्तमिति भावः । For Private And Personal Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय __ हिन्दी भाषा टीका सहित। य परिणामेइ तं पि य णं पूयं च सोणिय च श्राहारेति । तते णं भगवतो गोतमस्स तं मियापुत्तं दारयं पामित्ता अयमेयारूवे अज्झत्थिते ६ समुपज्जित्था - अहो णं इमे दागए पुरा पोराणाणं दुचिपणाणं दुप्पडिक्कताणं असुभाण पावाणं कड़ाणं कम्माणं पावगं फलवित्ति-विसेमं पच्चणुभवमाणे विहरति, ण मे दिट्ठा णरगावा णेरइया वा पच्चक्खं खलु अयं पुरिसे नरय-पडिरूविय वेयणं वेति त्ति कट्ट मियं देवि आपुच्छति २ मियाए देवीए गिहारो पडिनिक्खमति २ मियग्गामं णगरं मझमज्मेणं निग्गच्छति २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुतो आयाहिण-पयाहिणं करेति, करेत्ता वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं तुम्भेहि अमणुएणाए समाणे मियग्गाम णगरं मझमझेणं अणुपविसामि २ जेणेव मियाए देवीए गिहे तेणेव उवागते तते णं सा मियादेवी मम एज्जमाणं पासति २ हवा. तं चेव सव्वं जाव पूयं च सोणियं च आहारेति । तते णं मम इमे अज्झथिते ६ समुप्पज्जित्या, -अहो णं इमे दारए पुरा जाव विहरति । पदार्थ-तते णं- तदनन्तर । से मियापुरते दारए-उस मृगापुत्र बालक ने । तस्स विपुलस्सउस महान् । असण-पाण-खाइमसाइमस्स-अशन, पान, खादिम और स्वादिम के । गंधेणं-- गन्ध से। अभिभृते समाणे-अभिभूत-आकृष्ट तथा । तंसि विपुलंसि-उस महान् । असण-पाण-खाइमलाइ मंसि-अशन, पान, खादिम और स्वादिम में। मुच्छिए - मूर्छित हुए ने। तं विपुलं-उस महान् । असणं ४-अशन, पान, खादिम और स्वादिम का । आसपणं-मुख से । श्राहारेति-आहार किया, और । खिप्पामेव-शीघ्र ही। विद्धंसेति-वह नष्ट हो गया. अर्थात जठराग्नि द्वारा पचा दिया गया ततो पच्छा-तदनन्तर वह । पूयनाए य-पूय-पीब और । सोणियसाए-शोणित-रुधिर रूप म । परिणामेति-परिणमन को प्राप्त हो गया और उसी समय उस का उसने वमन कर दिया। त यणं-और उस वान्त । पूर्य च-पीब और । शोणियं च पि-शोणित-रक्त का भी वह मृगापुत्र । श्राहारेति - आहार करने लगा, अर्थात् उस पीब और खून को वह चाटने लगा। तते णं - उस क पश्चात् । भगवतो गातमस्स-भगवान् गौतम के । तं मियापुत्तं दारयं-उस मृगापुत्र बालक का । पासित्ता- देख कर । अयमेयारूवे- इस प्रकार के । अज्झत्थिते ६- विचार । समुप्पज्जित्था-उत्पन्न हुए। अहोणं - अहो अहह !। इमे दारए- यह बालक । पुरा-पहले । पोराणाणं-प्राचीन । दुच्चिरणाणं-दुश्चीर्ण-दुष्टता से उपार्जन किये गये । दुप्पड़िकंताणं-दुष्प्रतिक्रान्त-जो धार्मिक क्रियानुष्ठान से नष्ट नहीं किये गये हों । असुभाणं-अशुभ । पावाणं-पापमय । कडाणं कम्माणं-किये हुए कर्मों के । पावगं-पापरूप। फजविनिविसेसं-फलवृत्ति विशेष - विपाक का । पच्चणुभवमाणे- अनुभव करता हुआ । विहरति-समय व्यतीत कर रहा है । मे-मैंने । णरगा वा - नरक अथवा । णेरइया वानारकी । ण दिट्ठा-नहीं देखे । अयं पुरिसे-यह पुरुष-मृगापुत्र । नरयपडिरूवियं - नरक के प्रतिरूपसदृश । पच्चक्खं - प्रत्यक्ष-रूपेण । वेयणं-वेदना का। वेएति-अनुभव कर रहा है। ति कटु For Private And Personal Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४८] श्री विपाक सूत्र - [प्रथम अध्याय ऐसा विचार कर भगवान् गौतम । मियं देविं अति -मृगादेवी से जाने के लिये पूछते हैं । मियाए देवीर-मृगादेवी के । गिहाओ - गृह से । पडिनिकत्वमति-निकलते हैं, निकल कर । मियागामें- मृगाग्राम । णगरं-नगर के । मझमझेणं-मध्य में से हो कर उस से । निग्गच्छति२ -- निकल पड़ते हैं, निकल कर । जेणेव-जहां पर । सम्णे भगवं महावीरे - श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे। तेणेव- वहीं पर । उवागच्छति-श्रा जाते हैं । उवागच्छित्ता- श्रा कर । समणं भगवंश्रमण भगवान् । महावीरं- महावीर स्वामी की । आयाहिणपयाहिणं - दक्षिण की ओर से श्रावर्तन कर प्रदक्षिणा । करेति- करते हैं । करेत्ता-प्रदक्षिणा करने के पश्चात् । वंदति नमंसति-वन्दना तथा नमस्कार करते हैं। वंदित्ता नमंसिता -वन्दना एवं नमस्कार करके । एवं वयासो-इस प्रकार बोले एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही । अहं-- मैंने । तुन्भेहि-आर के द्वारा। अब्भणुराणाए समाणेअभ्यनुज्ञात होने पर । मियग्गामं जगरं- मृगाग्राम मगर के । मज्झमझेणं- मध्य मार्ग से हो कर, उस में । अणुपविसामि२-प्रवेश किया, प्रवेश करके । जेणेव- जहां पर । मियाए देवीए- मृगादेवी का । गिहे - घर था । तेणेव उवागते-उसी स्थान पर चला आया । तते णं - तदनन्तर । सावह । मियादेवी-मृगादेवी । मम एज्जमाणं - मुझ को आते हुए । पासति २- देखती है, देख कर । हट्ट - अत्यन्त प्रसन्न हुई और । तं चेव सव्वं-उस ने अपने सभी पुत्र दिखलाये । जाव - यावत् (पूर्व वणित शेष वर्णन समझना) । पूयं च सोणियं च- पूय-पीब और रुधिर का । आहारेतिउस बालक ने आहार किया । तते णं-तदनन्तर । मम-मुझे । इमे अज्झस्थिते६ -- ये विचार । समुपज्जित्था-उत्पन्न हुए । अहो णं-अहो-अाश्चर्य अथवा खेद है । इमे दारए-यह बालक । पुरा-पूर्वकृत प्राचीन कर्मों का फल भोगता हुआ । जाव-यावत् । विहरति-समय व्यतीत कर रहा मूलार्थ-तदनन्तर उस महान् अशन, पान, खादिम, स्वादिम के गन्ध से अभिभृत-आकृष्ट तथा उस में मूर्छित हुए उस मृगापुत्र ने उस महान् अशन पान खादिम और स्वादिम का मुख से आहार किया। और जठराग्नि से पचाया हुआ वह आहार शीघ्र ही पाक और रुधिर के रूप में परिणत--परिवर्तित हो गया और साथ ही मृगापुत्र बालक ने पाकादि में परिवर्तित उस आहार का वमन (उलटी) कर दिया, और तत्काल ही उस वान्त पदार्थ को वह चाटने लगा अर्थात् वह बालक अपने द्वारा वमन किए हुए पाक आदि को भी खा गया। बालक की इस अवस्था को देख कर भगवान् गौतम के चित्त में अनेक प्रकार की कल्पनाएं उत्पन्न होने लगीं । उन्हों ने सोचा कि यह बालक पूर्व जन्मों के (१) भगवान् गौतम ने जो महाराणी मृगादेवी से पूछा है उस का अभिप्राय केवल महाराणी को “अब मैं जा रहा हूँ" ऐसा सूचित करना है। आज्ञा प्राप्त करने के उद्देश्य से उन्हों ने राणी से यह पृच्छा नहीं की। (२) (क)-रोटी, दाल, व्यंजन, तण्डुल चावल आदिक सामग्री अशन शब्द से विवक्षित है । (ख) पेय-पदार्थों का ग्रहण पान शब्द से किया गया है । (ग) दाख, पिस्ता, बादाम आदि मेवा, तथा मिठाई आदि खाने योग्य पदाथ स्वादिम के अन्तर्गत हैं । (घ) पान, सुपारी, इलायची और लवंगादि मुखावास पदार्थ स्वादिम शब्द से गृहीत हैं । For Private And Personal Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। [४९ दुश्चीर्ण [ दुष्टना से किये गये ] दुष्प्रतिक्रान्त [जिन के विनाश का कोई उपाय नहीं किया गया | और अशुभ पाप कमों के पाप रूप फल को पा रहा है । नरक तथा नारकी मैंने नहीं देखे । यह पुरुषमृगापुत्र नरक के समान वेदना का प्रत्यक्ष अनुभव करता हुआ प्रतीत हो रहा है । इन विचारों से प्रभावित होते हुए भगवान् गौतम ने मृगादेवी से पूछ कर अर्थात् अब मैं जा रहा हूँ, ऐसा उसे सूचित कर उस के घर से प्रस्थान किया -वहां से वे चल दिये । नगर के मध्यमार्ग से चल कर जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे वहां पर पहुँच गये, पहुंच कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की दाहिनी तर्फ से प्रदक्षिणा कर के उन्हें वन्दना तथा नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार करने के अनन्तर वे भगवान् से इस प्रकार बोले भगवन् ! आप श्री की आज्ञा प्राप्त कर मैंने मृगाग्राम नगर में प्रवेश किया, तदनन्तर जहां मृगादेवी का घर था मैं वहाँ पहुँच गया। मुझे देखकर मृगादेवी को बड़ी प्रसन्नता हुई, यावत् पूय-पीब शोणित-रक्त का आहार करते हुए मृगापुत्र की दशा को देख कर मेरे चित्त में यह विचार उत्पन्न हुआ कि-अहह ! यह बालक महापापरूप कर्मा के फल को भोगता हुअा कितना निकृष्ट जीवन बिता रहा है । टोका - भोजन का समय हो चुका है, मृगापुत्र भू व से व्याकुन हो रहा होगा, जन्दो करूं, उस के लिये भोजन पहुंचाऊँ, साथ में भगवान् गौतम भी उसे देख लेंगे, इस तरह से दोनों ही कार्य मध जायेंगे इन विचारों से प्रेरित हुई महाराणी मृगादेवी ने जब पर्याप्त मात्रा में अशन (रोटी, दाल आदि) पान ( पानी आदि पेय पदार्थ) आदि चारों प्रकार का आहार एक काठ की गाड़ी में भर कर मृगापुत्र के निवास स्थान भौरे) पर पहुँचा दिया, तब भोजन की मधुर गन्ध से श्राकृष्ट (खिचा हुअा ) मृगापुत्र उम में मूछित (आसक्त) होता हुआ मुख द्वारा उस को ग्रहण करने लगा, खाने लगा, भूख से व्याकुल मानस को शान्त करने लगा। कर्मों का प्रकोप देखिए -- जो भोजन शरीर के पोषण का कारण बनता है, स्वास्थ्यवर्धक होता है, वही भोजन कर्म-डोन मृगापुत्र के शरीर में बड़ा विकराल एवं मानस को कम्पित करने वाला कट परिग म उत्पन्न कर देता है । मृगापुत्र ने भोजन किया ही था कि जठराग्नि के द्वारा उस के पच जाने पर वह तत्काल ही पाक और रक्त के रूप में परेणत हो गया। दुष्कर्मा के प्रकोप को मानो इतने में सन्तोष नहीं हश्रा. प्रत्युत वह उसे--मृगपत्र को और अधिक चिडम्बित करना चाह रहा है इसी लिये मृगापुत्र ने मानों पीब और खून का वमन किया और उस वान्त पीव एवं खून को भी वह चाटने लग गया दूसरे शब्दों में कहे तो मृगापुत्र ने जिस अाहार का सेवन किया था वह तत्काल ही पीब और रुधिर के रूप में बदल गया और साथ ही उम पाक और खून का उसने वमन किया । जैसे कुत्ता वमन को खा जाता है वैसे ही वह मृगापुत्र उस वमन (उल्टी) को खाने लग पड़ा। (१) यहां प्रश्न होता है कि मूल में कहीं ‘वमइ ऐसा पाठ नहीं है, फिर "मृगापुत्र ने पाक ओर रुधिर का वमन किया" ऐसा अर्थ किस आधार पर किया गया है ? इस का उत्तर लेने से पूर्व यह विचार लेना चाहिये कि ''वमइ” के अर्थाभाव में सूत्रार्थ संगत रहता है या नहीं। देखिए - "मृगापुत्र ने आहार ग्रहण कर लिया, शीघ्र ही उस का ध्वंस हो गया, उस के पश्चात् वह पीब और रुधिर के रूप में परिणत हो गया, एवं उस पीब तथा रुधिर को वह खाने लग पड़ा-' यह है मूलसूत्र का भावार्थ । यहां शंका होती है कि जिस भोजन को एक बार खाया जा चुका है, और जिसे जठराग्नि ने पचा डाला है एवं विभिन्न रमों में जो परिणत भी हो चका है । उस को दोबारा कैसे ग्वाया For Private And Personal Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५०] श्री विपाक सूत्र [प्रथम अध्याय __ मृगापुत्र की यह दशा कितनी बीभत्स एवं करुणा-जनक है यह कहते नहीं बनता। नेत्रादि इन्द्रियों का अभाव तथा हस्तपादादि अंगोपांग से रहित केवल मांस पिंड के रूप में अवस्थित होने पर भी उसकी ब्राहार सम्बन्धी चेष्टा को देखते हुए तो जीवोपार्जित अशुभकर्मों के विपाकोदय की भयंकरता अथवा कम-गति की गहनता के लिये अवाक रह जाने के सिवा और कोई गति नहीं है अस्तु । परम-दयनीय दशा में पड़े हुए उस मृगापुत्र को देखकर करुणालय भगवान् गौतम स्वामी के उदार हृदय में कैसे विचार उत्पन्न हुए, उस का वर्णन सूत्रकार ने "तते णं भगवतो गोतमस्स तं मियापुत्वं......पोराणाणं जाव विहरति' इन पदों द्वारा किया है। मृगापुत्र की नितान्त शोचनीय अवस्था को देख कर भगवान् गौतम अनगार अत्यन्त व्यथित हुए और सोचने लगे कि इस बालक ने पूर्व जन्मों में किन्हीं बड़े ही भयकर कर्मों का बन्ध किया है, जिन का विच्छेद या निर्जरा किसी धार्मिक क्रियानुष्ठान से भी इसके द्वारा नहीं की जा सको । उन्हीं अशुभ पाप कर्मों का फल प्राप्त करता हुआ यह बलक ऐसा जघन्यतम नारकी जीवन व्यतीत कर रहा है। भगवान् गौतम के ये विचार उन की मनोगत करुणावृत्ति के संसूचक हैं । उन से यह भली भांति सूचित हो जाता है कि उनके करुणापूरित हृदय में उस बालक के प्रति कितना सद्भावपूर्ण स्थान है उन का हृदय मृगापुत्र की दशा को देखकर विहवल हो उठा, करुणा के प्रवाह से प्रवाहित हो उठा। इसी लिये वे कहते हैं कि मैंने नरक और नारकी जीवों का तो अवलोकन नहीं किया किन्तु यह बालक साक्षात् नरक प्रतिरूप वेदना का अनभव करता हा देखा जा रहा है। तात्पर्य यह है कि इसकी वतमान शाचनीय दशा नरक की विपत्तियों से किसी प्रकार कम प्रतीत नहीं होती। इस प्रकार विचार करते हुए भगवान् गौतम महाराणी से पूछ कर अर्थात् अच्छा, देवि ! अब मैं जा रहा हूँ, ऐसा उसे सूचित कर उसके घर से चल पड़े और नगर के मध्यमार्ग से होते हुए भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में उपस्थित हुए । वहां उन्हों ने दाहिनी तर्फ से तीन बार प्रदक्षिणा कर विधिपूर्वक वन्दना तथा नमस्कार किया, उस के अनन्तर उन से वे इस प्रकार निवेदन करने लगेजा सकेगा ? व्यवहार भी इस बात की पुष्टि में कोई साक्षी नहीं देता । अर्थात् एक बार भक्षित एव रुधिरादि रूप में परिणत शरीरस्थ पदार्थ का पुनः भक्षण व्यवहार विरुद्ध पड़ता है । परन्तु सूत्रकार के "तं पि य णं पूर्य च शोणियं च आहारेति' ये शब्द स्पष्टतया यह कह रहे हैं कि मृगापुत्र ने उस रुधिर तथा पीब का आहार किया। तब सूत्रार्थ के संगत न रहने पर "सिद्धस्य गतिश्चिन्तनीया" के सिद्धान्त से "वमइ” इस पद का 'अध्याहार करना ही पड़ेगा इस पद के अध्याहार से सूत्रार्थ को संगति नितरां सुन्दर रहती है और वह व्यवहार विरुद्ध भी नहीं पड़ती। आप ने देखा होगा कि कुत्ता वमन (उल्टी) करता है फिर उसे चाट लेता है, खा जाता है। ऐसी ही स्थिति मृगापुत्र की थी उस ने भी पाकादि का वमन किया और फिर वह उसे चाटने लग पड़ा । इस अर्थ-विचारणा में कोई विप्रतिपत्ति नहीं प्रतीत होती । अथवा यह भी हो सकता है कि - सूत्र संकलन करते समय प्रस्तुत प्रकरण में "वमइ” यह पाठ छूट गया हो । रहस्यन्तु केवलिगम्यम् । ... + संदिग्ध अर्थ के निर्णय में अध्याहार का भी महत्वपूर्ण स्थान रहता है, देखिए अपकर्षेणानुसत्या वा, पर्यायेणाथवा पुनः । अभ्याहारापवादाभ्यां, क्रियते त्वर्थनिर्णयः । अर्थात् अपकर्ष (आगे का सम्बन्ध), अनुवृत्ति (पीछे का सम्बन्ध), पर्याय (क्रमशः होना अथवा विकल्प से होना) अध्याहार (असंगति दूर करने लिये संगत को अपनी ओर से जोड़ना, अपवाद ( अनेक को प्राप्ति में बलवत्प्राप्ति का नियम ) इन सब के द्वारा संदिग्ध अर्थ का निर्णय होता है। For Private And Personal Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम प्रध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । भगवन् ! आपकी आज्ञानुसार मैं महाराणी मृगादेवी के घर गया, वहां पीब और रुधिर का आहार करते हुए मैंने मृगापुत्र को देखा और देख कर मुझे यह विचार उत्पन्न हुआ कि यह बालक पूर्वकृत अत्यन्त कटुविपाक वाले पाप कर्मों के कारण नरक के समान वेदना का अनुभव करता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा है,इत्यादि। ___भगवान् गौतम अनगार का अथ से इति पर्यन्त समस्त वृत्तान्त का भगवान् महावीर स्वामी से निवेदन करना उन को साधुवृत्ति में भारण्ड पक्षी से भी विशेष सावधानता तथा धर्म के मूलस्रोत विनय की पराकाष्ठा का होना सूचित करता है । महापुरुषों का प्रत्येक आचरण संसार के सन्मुख एक उच्च आदर्श का स्थान रखता है। अतः पाठकों को महापुरुषों को जोवनो से इसी प्रकार को ही जीवनोपयोगी शिक्षारो को ग्रहण करना चाहिये तभी जीवन का कल्याण संभव हो सकता है। "हट्ठ०तं चेव सव्वं जाव पूयं च" यहां पठित और "पुरा जाव विरहति" यहां पठित "जाव.याव" पद पूर्व के पाठों का बोधक है जिन की व्याख्या पीछे की जा चुकी है। तदनन्तर गौतन स्वामी ने मृगापुत्र के विषय में जो कुछ पूछा और भगवान् ने उसके उत्तर में जो कुछ कहा, अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं - मूल-'से णं भंते ! पुरिसे पुन्वभवे के आसि १ किनामए वा किंगोत्तए वा कयरसि गामंसि वा नगरंसि वा किं वा दवा किंवा मोच्चा किंवा समायरित्ता केसि वा पुरा पोराणाणं जाव विहरति ? पदार्थ-भंते !-भगवन् ! । से णं पुरिसे-वह पुरुष-मृगापुत्र । पुत्वभवे-पूर्वभव में । के आसि ?- कौन था ?। किंनामए वा-किस नाम वाला तथा। किंगोत्तए-किस गोत्र वाला था । कयरंसिं गामंसि वा-किस ग्राम अथवा । नगरंसि वा--नगर में रहता था १ । किं वा दच्चा-क्या दे कर। किं वा भोच्चा- क्या भोगकर। किं वा समायरित्ता-क्या आचरण कर । केसि वा पुराकिन पूर्व । पोराणाणं-प्राचीन कमां का फल भोगता हुआ । जाव-यावत् । विहरति-इस प्रकार निकृष्ट जीवन व्यतीत कर रहा है ? मूलार्थ-भदन्त ! वह पुरुष [मृगापुत्र] पूर्वभव में क्या था ? किस नाम का था ? किस गोत्र का था ? किस ग्राम अथवा किस नगर में रहता था ? तथा क्या दे कर, क्या भाग कर, किन २ कर्मों का आचरण कर और किन २ पुरातन कर्मों के फल को भोगता हुआ जीवन बिता रहा है। टीका-प्रभो ! यह बालक पूर्व भव में कौन था ? किस नाम तथा गोत्र से प्रसिद्ध था ? एवं किस ग्राम या नगर में निवास करता था ? क्या दान देकर किन भोगों का उपभोग कर, क्या समाचरण कर, तथा कौन से पुरातन पापकर्मों के प्रभाव से वह इस प्रकार की नरकतुल्य यातनाओं का अनुभव कर रहा है ? यह था मृगापुत्र के सम्बन्ध में गौतमस्वामी का निवेदन, जिसे ऊपर के सूत्रगत शब्दों में सुचारु रूप से व्यक्त किया गया है। टीकाकार महानुभाव ने नाम और गोत्र शब्द में अर्थगत भिन्नता को _नाम यादृच्छिकमभिधानं, गोत्रं तु यथार्थकुलम्- " इन पदों से अभिव्यक्त किया है । अर्थात् नाम यादृच्छिक होता है, इच्छानुसारी होता है । उस में अर्थ की प्रधानता नहीं भी होती, जैसे किसी का नाम (१) छाया-स भदन्त ! पुरुषः पूर्वभवे क आसीत् ? किनामको वा किंगोत्रको वा कतरस्मिन् ग्रामे वा नगरे वा किं वा दत्त्वा किं वा भुक्त्वा किं वा समाचर्य केषां वा पुरा पुराणानां यावत् विहरति ? For Private And Personal Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५२] श्री विपाक सूत्र - [प्रथम अध्याय है - शान्ति शान्ति नाम वाला व्यक्ति अवश्य ही शान्ति (सहिष्णुता) का धनी होगा, यह आवश्यक नहीं है, परन्तु गोत्र में ऐसी बात नहीं होती, गोत्र पद सार्थक होता है, किसी अर्थविशेष का द्योतक होता है जैसे'गौतम' एक गोत्र-कुल (वंश) का नाम है । गौतम शब्द किसी (पूर्वज) प्रधान--पुरुषविशेष का संसूचक है, अतएव वह सार्थक है । "पोराणाणां जाव विहरति' यहां पठित 'जाव-यावत्' पद--"दुच्चिन्नाणं दुष्पडिक्कन्ताणं असुहाणं पावाणं कम्माणं पावगं फलविसेसं पच्चणुब्भवमाणे-"इन पदों का बोधक है । इन की व्याख्या पीछे कर दी गई है । अब भगवान् के द्वारा दिये गये उक्त प्रश्नों के उत्तर को सूत्रकार के शब्दों में सुनिये--- मूल-'गोयमा! इ समणे भगवं महावीरे भगवं गोतमं एवं वयासो एवं खलु गोतमा ! तेण कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे सयदुवारे णाम नगरे होत्या, रिद्धत्यिमिय० वएणो । तत्थ णं सयदुवारे णगरे धणवती णामं राया होत्था। तस्स णं सयदुवारस्स णगग्रस्स अदरसामंते दाहिणपुरथिमे दिसीभाए विजयवद्धमाणे णाम खेड़े होत्था रिद्ध० तस्स णं विजयवद्धमाणस्स खेडस्स पंच गामसयाई अाभोए यावि होत्था । तत्थ णं विजयवद्धमाणे खेड़े एक्काई नाम रहकूड़े होत्था, अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे । से णं ए (१) छाया- गौतम ! 'इति श्रमणो भगवान् महावीरो भगवन्तं गौतममेवमवदत् - एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे शतद्वारं नाम नारमभवत् , ऋद्धिस्तिमित० वर्णकः तत्र शतद्वारे नगरे धनपति म राजाऽभवत् । तस्य शतद्वारस्य नगरस्यादूरसामन्ते दक्षिणपौरस्त्ये दिग्भागे विजयवर्द्धमानो नाम खेटोऽवभत् , ऋद्ध० । तस्य विजयवर्द्धमानस्य खेटस्य पञ्च ग्रामशतान्याभोग वाप्यभवत् । तत्र विजयवर्द्धमाने खेटे एकादिर्नाम राष्ट्रकूटोऽभवद्, अधार्मिक यावत् दुष्प्रत्यानन्दः । सः एकादी राष्ट्रकूटो विजयवर्द्धमानस्य खेटस्य पञ्चानां ग्रामशतानामाधिपत्यं यावत् पालयमानो विहरति । ततः स एकादिः विजयवर्द्धमानस्य खेटस्य पञ्च ग्रामशतानि बहुभिः करैश्च भरैश्च वृद्धिभिश्च लञ्चाभिश्च पराभवैश्च देय श्च भेद्यश्च कुन्तकैश्च लंछपोषैश्चादीपनैश्च पान्थकुटै श्चावपीलयन् २ विधर्मयन् २ तर्जयन् २ ताइयन् २ निर्धनान् कुर्वन् २ विरहति . (२) मूलसत्र के रिद्धस्थिमिय० पद से सत्रकार को “रिद्ध थिमियसमिद्धे' यह पाठ अभिमत है , इस में (१) रिद्ध. (२) स्तिमित (३) समृद्ध ये तीन पद है। रिद्ध शब्द का अर्थ सम्पत्-सम्पन्न होता है, स्तिमित शब्द स्वचक्र और पर चक्र के भय से विमुक्त का बोधक है, और समृद्व शब्द से उत्तरोत्तर बढ़ते हुए धन एवं धान्यादि से परिपूर्ण का ग्रहण होता है । ये सब नगर के विशेषण हैं। (३) वरणो -वर्णकः, पद से सूत्रकार को श्रौपपातिक सूत्र के नगर-सम्बन्धी वर्णन-प्रकरण का ग्रहण करना अभिमत है। (१) वृत्तिकार ने “गोयमा ! इ, इन पदों की व्याख्या" - गौतम ! इत्येवमामन्त्र्य इति गम्यते-" इन शब्दों में की है । अर्थात हे गोतम ! इस प्रकार सम्बोधन करके, यह अर्थ वृत्तिकार को इष्ट है। परन्तु जब आगे “गोतमा !" ऐसा सम्बोधन पड़ा हो है फिर पहले सम्बोधन की क्या अवश्यकता थी ? इस सम्बन्ध में वृत्तिकार ने कुछ नहीं लिखा । मेरे विचार में तो मात्र सूत्रों को प्राचीन शैली ही इस में कारण प्रतीत होती है । अन्यथा “गोयमा ! इ' इस पाठांश का अभाव प्रस्तुत प्रकरण में कोई बाधक नहीं था। For Private And Personal Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ५३ काई कूड़े विजयवद्धमाणस्स खेडस्स पंचरहं गामसयाणं आहेबच्चं जाव पालेमाणे विहरति । तते गं से एक्काई विजयवद्धमाणस्स खेडस्स पंचगामसयाई बहूहिं ' करेहि य भरेहि य विद्धीहि य उक्कोडाहि व पराभवेहि य दिज्जेहि य भिज्जेहि य कुन्तेहि य लंछपोसेहिय आलवणेहि य पंथ कोट्टे हि य श्रोवीलेमाणे २ विहम्मेमाणे २ तज्जेमाणे २ तालेमाणे २ निद्धणे करेमाणे २ विहरति । पदार्थ - गोयमा ! इ - हे गौतम ! इस प्रकार आमंत्रण कर । समणे - श्रमण | भगवं - भगवान् । महा वीरे -- महावीर भगवं - भगवान् । गोतमं - गौतम के प्रति । एवं वयासी - इस प्रकार बोले । एवं खलुइस प्रकार निश्चय ही । गोतमा ! - हे गौतम ! । तेणं कालेणं - उस काल में । तेणं समरणं - उस समय में । इहेव - इसी । जंबुद्दीवे दीवे- जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत । भारहे वासे - भारतवर्ष में । सयदुवारेशतद्वार । गामं - नामक । नगरे नगर । होत्था - था । रिजत्थिमिते ० - जोकि गगन चुम्बी उन्नत भवनों से विभूषित, धनधान्यादि से पूर्ण तथा समृद्धिशाली और भय से रहित था । वराण प्रो - वर्णनग्रन्थ पूर्ववत् । तत्थ गं - उस । सयदुवारे - शतद्वार नामक । गगरे नगर में धणवती - धनपति नाम का रायाराजा । होत्था - था । तस्स णं - उस । सयदुवारस्स - शतद्वार । रागरस्स- नगर के । श्रदूरसामंते - थोड़ी दूर । दाहिणपुर स्थिमे -- दक्षिण पूर्व | दिलीभाए - दिग्विभाग - अग्नि कोण में । विजयवज्रमाणे - विजवर्द्धमान । णामं - नामक । खेड़ े - खेट - नदी और पर्वतों से वेष्टित नगर । होत्थाथा, जो कि । रिद्ध० - समृद्धशाली था । तस्स गं- -उस । विजयवद्धमाणस्स खेडस्स - विजय वर्द्धमान खेट का । पंच गामलयाई – पांच सौ ग्रामों का । श्रभोए - भोग-विस्तार । यावि होत्था - था । तत्थउस । विजयवद्धमाणे खेड़ - विजयवर्द्धमान खेट में । एक्काई नाम - एकादि नाम का । रकूड़ ेराष्ट्रकूट राजा की ओर से नियुक्त प्रतिनिधि । होत्था - था, जो कि । अहम्मिर अधार्मिक-धर्म रहित, अथवा धर्म-विरोधी । याव - यावत् । दुष्पड़िया खंदे -- दुष्प्रत्यानन्द - असंतोषी जो कि किसी तरह से प्रसन्न न किया जा सके। होत्या-था से गं एक्काई रहकूड़े - वह एकादि नामक राजप्रतिनिधि | विजयवद्धमाणस्स खेड़स्स--- विजयवर्द्धमान खेट के । पंचराहं गामसयाणं - पांच सौ ग्रामों का | श्राहेवच्चं - - धिपत्य कर रहा था अर्थात् विजय वर्द्धमान खेट के पांच सौ ग्राम उसके सुपुर्द किये हुए थे । जाब- यावत् । पालेमाणे - पालन - रक्षण करता हुआ । विहरति - विहरण कर रहा था । तते गं - तदनन्तर । सेएक्काई - वह एकादि । विजयवद्धमाणस्स खेडस्स - विजय वर्द्धमान नामक खेट के । पंच गामसयाई - ( १ ) करें : क्षेत्राद्याश्रित्य राजदेयद्रव्यैः, भरेः तेषां प्राचुर्यैः, वृद्धिभिः - कुटुम्बिनां वितीर्णस्य धान्यस्य द्विगुणादेर्ग्रहणैः, लञ्चाभिः घूस इति भाषा, पराभवः तिरस्कार करणैः, देयः श्रनाभवद्दातव्यैः, भेद्यःयानि पुरुषमाराद्यपराधमाश्रित्य ग्रामादिषु दण्डद्रव्याणि निपतन्ति, कौटुम्बिकान् प्रति च भेदेनोद्ग्राह्यन्ते तानि भेद्यानि तस्तैः कुन्तः एतावद् द्रव्यं त्वया देयम्' इत्येवं नियन्त्रणया नियोगिस्य देशादेर्यत् समर्पणं तैः लञ्छपोषैः - लञ्छार चौरविशेषाः संभाव्यन्ते, तेवां पोपाः पोषणाणि तैः, आदीपनकैः – व्याकुललो कानां मोषगार्थ ग्रामादिप्रदीपनकैः, पान्थकुट्ट :- पान्यानां शस्त्रापहारेण धनापहरणे, अवपीलयन् बाधयन्, विधर्मयन् स्वाचारभ्रष्टान् कुर्वन् तर्जयन् - कृतावष्टम्भांस्तर्जयन् 'ज्ञास्यथ रे ! मम इदमिदं च न दत्थ, इत्येवं भेषयन्, ताडयन् क्शचेपटादिभिरिति भावः । For Private And Personal Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५४] श्री विपाक सूत्र अध्याय] पांच सौ ग्रामों को । बहूहिं-बहुत से । करेहि-करों से ' भरेहि य-उन की प्रचुरता से । विद्धीहि यद्विगुण आदि ग्रहण करने से । उक्कोडाहि य-रिश्वतों मे । पराभवेहि य ---दमन करने से । दिज्जेहि यअधिक व्याज से। भिज्जेहि य-हननादि का अपराध लगा देने से । कुन्तेहि य --धन ग्रहण के निमित्त किसी को स्थान आदि के प्रबन्धक बना देने से । लंछपोसेहि य--चौर आदि व्यक्तियों के पोषण से । बालीवणेहि य-ग्रामादि को जलाने से। पंथकोहि य--पथिकों के हनन (मार-पीट) से । ओवीलेमाणे २-व्यथित-- पीड़ित करता हु। विहम्मेमाणे २-अपने धर्म से विमुख करता हुआ । तज्जेमाणे २तिरस्कृत करता हुआ । तालेमाणे २--कशादि से ताड़ित करता हुआ। निद्धणे करमाणे २-प्रजा को निधन -धन रहित करता हुआ । विरहति-विहरण कर रहा था- अर्थात् प्रजा पर अधिकार जमा रहा था । मूलार्थ-हे गौतम ! इस प्रकार आमंत्रण करते हुए श्रमण भावान महावीर स्वामी ने गौतम के प्रति कहा-हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवणे में शतद्वार नाम का एक समृद्धिशाली नगर था। वहां के लोग बड़ो निर्भयता से जीवन बिता रहे थे। आनन्द का वहां सर्वतोमुखी प्रसार था । उस नगर में धनपति नाम का एक राजा राज्य करता था। उस नगर के 'अदूरसामन्त-कुछ दूरी पर दक्षिण और पूर्व दिशा के मध्य अर्थात् अग्नि कोण में विजयवर्तमान नाम का एक खेट-नदी और पर्वतों से घिरा हुआ, अथवा धूलि के प्राकार से वेष्टित नगर था, जो कि ऋद्धि समृद्धि आदि से परिपूर्ण था । उस विजयवर्द्धमान खेट का पांच सौ ग्रामों का विस्तार था, उस में एकादि नाम का एक राष्ट्रकूट-राजनियुक्त प्रतिनिधि प्रान्ताधिपति था, जो कि महा अधर्मी और दुष्प्रत्यानन्दी-परम असन्तोषी, साधजनविद्वेषी अथवा दुष्कृत करने में ही सदा आनन्द मानने वाला था। वह एकादि विजय वद्धमान खेट के पांच सौ ग्रामों का आधिपत्य-शासन और पालन करता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा था। __ तदनन्तर वह एकादि नाम का राजप्रतिनिधि विजयवर्द्धमान खेट के पांच सौ ग्रामों को, करोंमहसूलों से, करसमूहों से, किसान आदि को दिये गये धान्य आदि के द्विगुण आदि के ग्रहण करने से, दमन करने से, अधिक व्याज से, हत्या आदि के अपराध लगा देने से, धन के निमित्त किसी को स्थानादि का प्रबन्धक बना देने से, चोर आदि के पोषण से, ग्राम आदि के दाह कराने-जलाने से, और पथिकों का घात करने से लोगों को स्वाचार से भ्रष्ट करता हुआ तथा जनता को दुःखित, तिरस्कृत (कशादि से) ताड़ित और निर्धन-धन-रहित करता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा था। टोका ---मृगापुत्र के पूर्वभव सम्बन्धी किये गये गौतम स्वामी के प्रश्नों का सांगोपांग उत्तर देने के निमित्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने फरमया कि गौतम ! इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारत वर्ष में शतद्वार नामक एक नगर था जोकि नगरोचित गुणों से युक्त और पूर्णरूपेण समृद्ध था। उस नगर में महाराज धनपति राज्य किया करते थे। उस नगर के निकट विजय वर्द्धमान नाम का एक खेट था जो कि वैभवपूर्ण और सुरक्षित था उसका विस्तार पांच सौ ग्रामों का था, तात्पर्य यह है कि जस तरह आज भी के अन्तर्गत अनेकों शहर कस्बे और ग्राम होते हैं। उसी भांति विजय वर्द्धमान खेट में भी पांच सौ ग्राम थे. अर्थात् वह पांच सौ ग्रामों का एक प्रान्त था । खेट के प्रधान अधिकारी का नाम-जिसे वहां के (१) जो न तो अधिक दूर और न अधिक समीप हो उसे अदूरसामन्त कहा जाता है। (२) जिस के चारों ओर धूलि-मिट्टी का कोट बना हुआ हो, ऐसे नगर को खेट के नाम से पुकारा जाता है। For Private And Personal Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय ] हिन्दी भाषी टीका सहित । ............... शासनार्थ राज्य की ओर से नियुक्त किया हुआ था, एकादी था। वह पूरा धर्म विरोधी धार्मिक क्रियानुष्ठानों का प्रतिद्वन्द्वी और साधुपुरुषों का द्वेषी अथवा पूर्ण असन्तोषी-कि ती से सन्तुष्ट न किया जाने वाला था। ___यहां पर "अहम्मिए जाव दुष्पडियाणंदे" पाठगत “जाव-यावत्" पद से--- 'अधम्माणुए, अधमिटे, अधम्मकलाई, अधम्मपलोई, अधम्मपलज्जणे, अधम्मसमुदाचारे, अधम्मेणं चेव विति कप्पेमाणे दुस्सीले दुव्यर" [छाया-अधर्मानुगः, अधर्मिष्टः, अधर्माख्यायी, अधर्मप्रलोकी, अधर्मप्ररजनः, अधर्मसमुदाचारः अधर्मेण चैव वृत्तिं कल्पयन् दुःशील दुव्रतः इन पदों का भी ग्रहण करलेना। ये सब पद उसकी - एकादि की अधार्मिकता बोधनार्थ ही प्रयुक्त किये गये है । दूसरे शब्दों में कहें तो ये सब पदं उसकी अधार्मिकता के व्याख्यारूप ही हैं, जैसे कि --- (.) अधर्मानुग-अधर्म का अनुसरण करने वाला, अर्थात् जिस में श्रुत और चारित्ररूप धर्म का सद्भाव न हो ऐसे आचार विचार का अनुयायी व्यक्ति । (२) अधर्मिष्ट-जिस को अधर्म ही इष्ट हो- प्रिय हो, अथवा जो विशेष रूप से अधर्म का अनुसरण करने वाला हो वह अधर्मिष्ट कहलाता है। (३) अधर्माख्यायी-अधर्म का कथन, वर्णन, प्रचार करने वाला। (४) अधर्मप्रलोकी --सर्वत्र अधर्म का प्रलोकन-अवलोकन करने वाला। (५) अधर्मप्ररजन-अधर्म में अत्यधिक अनुराग रखने वाला । (६) अधर्मसमुदाचार --अधर्म ही जिसका प्राचार हो, इसीलिये वह अधर्म से वृत्ति-पाजीविका को चलाने वाला, दुष्टस्वभावी और व्रतादि से शून्य-रहित होता है । एका दि नामक राष्ट्रकूट विजयवर्द्धमान खेट के अन्तर्गत पांचसौ ग्रामों का शासन अथच संरक्षण करता हुअा जीवन बिता रहा था । मण्डल (प्रान्त विशेष) से आजीविका करने वाले राज्यधिकारी को राष्ट्रकूट कहा जाता है - "राष्ट्रकूटो मण्डलोपजीवी राजनियोगिक :-वृत्तिकारः । ___"आहेवच्चं जाव पालेमाणे” इस पाठ के "जाव-यावत्' पद से . "पोरेवच्चं, सामिसं, भट्टितं महत्तर-गतं, अणाईसरसेणावच्चं, कारेमाणे" [पुरोवर्तित्वम् , स्वामित्वम् , भतृत्वम् , महत्तरकत्वम् , प्राज्ञ श्वरसेनापत्यं कारयन् ] इन पदों का भी संग्रह करना चाहिये । सूत्रकार ने प्रथम राष्ट्रकूट को अधर्मी-धर्म विरोधी कहा है, अब सूत्रकार उसके अधर्ममूलक गर्हित कृत्यों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि एकादि राष्ट्रकूट पांचसौ ग्रामों में निवास करने वाली प्रजा को निम्नलिखित कारणों द्वारा प्राचार भ्रष्ट, तिरस्कृत, ताड़ित एव पीड़ित कर रहा था जैसे कि -क्षेत्र आदि में उत्पन्न होने वाले पदार्थों के कछ भाग को कर महसूल के रूप में ग्रहण करना (२) करों-टैक्सों में अन्धाधुन्ध वृद्धि करके सम्पत्ति को लूट लेना, (३) किसान प्रादि श्रमजीवो व को दिये गये अन्नादि के बदले दुगना तिगुना कर ग्रहण करना (४) अपराधी के अपराध को दबा देने के निमित्त उत्कोच-रिश्वत लेना (५) अनाथ प्रजा की उचित पुकार अपने स्वार्थ के लिये दवा देना, अर्थात् यदि प्रजा अपने हित के लिये कोई न्यायोचित आवाज़ उठाये तो उस पर राज्य-विद्रोह के बहाने दमन का चक चलाना (६) ऋणो व्यक्ति से अधिक मात्रा में व्याज लेना (७) निर्दोष व्यक्तियों पर हत्यादि का अपराध लगाकर उन्हें दण्डित करना (८) अपने (१) पुरोवर्तित्व-अग्रेसरत्व (मुख्यत्व), स्वामित्व-नायकत्व भतृत्व-पोषणकतृत्व, महत्तरकत्वउत्तमत्व, प्राज्ञोश्वर सैनापत्य-याज्ञा की प्रधानता वाले स्वामी की सेना का नेतृत्व करता हुआ। For Private And Personal Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५६ 7 श्री विपाक सूत्र -- [अध्याय ] स्वार्थ को सिद्ध करने के लिये किसी अयोग्य व्यक्ति को किसी स्थान का प्रबन्धक बना देना, तात्पर्य यह है कि किसी योग्य पुरुष को धन लेकर किसी प्रान्त का प्रबन्धक नियुक्त कर देना (९) चोरों का पोषण करना, अर्थात् उन से चोरी करा कर उस में से हिस्सा लेना, अथवा बदमाशों के द्वारा शान्ति स्वयं भंग कराकर फिर सख्ती से नियन्त्रण करना (१०) व्याकुल जनता को ठगने के लिये ग्राम आदि को जलादेना ( ११ ) मार्ग में चलने वालों को लूटना, अर्थात् पथिकों-मुसाफिरों को मरवा कर उन के धन का अपहरण करना । दुराचारी मनुष्य अपने अचिरस्थायी सुख वा स्वार्थ के लिये गर्हित से गर्हित कार्य करने में भी संकोच नहीं करता, यही कारण है कि वह दुःख - मिश्रित मुख के लिये अनेक जन्मों में भोगे जाने वाले दुःखों का संग्रह कर लेता है। एकादि नामक राष्ट्रकूट उन्हीं पतित व्यक्तियों में से एक था, वह अपने स्वार्थ की वर्तमान कालीन सुखसामग्री को सन्मुख रखता हुआ अनाथ प्रजा को पोड़ित कर रहा था । और अपने प्रभुत्व के मद में अन्धा होता हुआ हज़ारों जन्मों में भोगे जाने वाले दुखों का सामान पैदा कर रहा था । अतः बुद्धिमान् मनुष्य का कर्तव्य है कि वह केवल अपनी वर्तमान परिस्थिति का ही ध्यान न करता हुआ अपनी भूत और भाव अवस्था का भी ध्यान रक्खें। जिस से कि जोवन क्षेत्र में आध्यात्मिक विकास को भी कुछ अवकाश मिल सके । सूत्रकार एकादि राष्ट्रकूट की पतित मानसिक वृत्तियों द्वारा उपार्जित कर्मों के फल स्वरूप भयंकर रोगों का वर्णन करते हुए इस प्रकार प्रतिपादन करते हैं मूल - तते गं से एक्काई रहकूड़े विजयवद्धमाणस्स खेडस्स बहूणं राइसर० जाव सत्थवाहाणं एसि च बहूणं गामेन्लग पुरिसाणं बहुसु कज्जेसु कारणेसु य मंतेस गुज्भेस निच्छएस य ववहारेसु सुखमाणे भणति न सुरोमि, सुणमाणे भगति सुमि, एवं परमाणे भासमाणे जेरहमाणे जागमाणे । तते गं से एक्काई रटुकूड़े एयकम्मे एयपहाणे एयविज्जे, एयसमायारे सुबहु पावं कम्मं कलिकलुस समज्जिरमाणे विहरति । तते गं तस्स ऐगाइयस्स (१) छाया - ततः स एकादी राष्ट्रकूट विजयवर्द्धमानस्य खेटस्य बहूनां राजेश्वर ० यावत् सार्थ वाहानामन्येषां च बहूनां ग्रामेयकपुरुषाणां बहुषु कार्येषु कारणेषुच मंत्रेषु गुह्येषु निश्चयेषु व्यवहारेषु च शृण्वन् भगति न शृणोमि शृण्वन् भरगति शृणोमि एवं पश्यन् भाषमाणो गृहन् जानन् । ततः स एकादी राष्ट्रकूट: एतत्कर्मा एतत्प्रधानः एतद्विद्यः एतत्समाचरः सुबहु पापं कर्म कलिकलुषं समर्जयन् वि हरति । ततः तस्यैकादे राष्ट्रकटस्य अन्यदा कदाचित् शरीरे युगपदेव षोड़श रोगातंकाः प्रादुर्भुताः तद्यथा - श्वासः १ कासः २ ज्वरः ३ दाहः ४ कुक्षिशूलम् ५ भगन्दरः ६ अशः ७ अजीर्णम् ८ दृष्टिमूर्धशूले ९ - १० अरोचकः ११ अक्षिवेदना १२ कर्णवेदना १३ कंडू १४ दकोदरः १५ कुष्ठः १६ । (१) " कज्जेसु" त्ति कार्येषु प्रयोजनेषु निष्पन्नेषु, 'कारणेसुत्ति सिषाधयिषितप्रयोजनोपायेषु विषयभूतेषु ये मन्त्रादयो व्यवहारान्तास्तेषु तत्र मन्त्राः पर्यालोचनानि, गुह्यानि-रहस्यानि, निश्चयाः वस्तुनिर्णयाः, व्यवहाराः विवादास्तेषु विषयध्विति वृत्तिकारः । (२) " एयकम्मे" त्ति एतद् व्यापारः, एतदेव वा काम्यं कमनीयं यस्य स तथा " एयपहाणे" ति एतत्प्रधानः एतन्निष्ठ इत्यर्थः । एयविज्जे" त्ति एव विद्या विज्ञानं यस्य स तथा । "पयसमायारे" त्ति एतज्जीतकल्प इत्यर्थ: । ( वृत्तिकारः ) For Private And Personal Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [५७ रहकूडस्स अण्णया कयाइ सरीरगंसि जमगसमगमेव सोलस गयातका पाउब्भूया तंजहासासे १ कासे २ जरे ३ दाहे ४ कुच्छिमूले ५ भगंदरे ६ अरिसे ७ अजीरते ८ दिट्ठी । मुद्धमूले १० अकारए ११ अच्छिवेषणा १२ करणवेय णा १३ 'कंडू १४ दोदरें १५ कोढ़े १६ ।। __ पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । से एक्काई रटुकड़े- वह एकादि राष्ट्रकूट । विजयवद्धमाणस्स : खेडस्स --विजयवर्द्धमान खेट के। बहूणं-अनेक | राइसर० जाव सत्थवाहाणं-राजा से लेकर सार्थवाह पर्यन्त । अन्नेसि च -तथा अन्य । बहू णं-अनेक । ग मेल्लगपुरिसाणं-ग्रामीण पुरुषों के | बहूसु- बहुत से । कज्जेसु-कार्यों में । कारणेसु य-कारणों-कार्यसाधक हेतुओं में । मंतेसुमन्त्रों-कर्तव्य का निश्चय करने के लिये किये गये गुप्त विचारों में । गुज्झेसु निच्छुएसु-गुप्त निश्चयो निर्णयों में तथा । ववहारसु-व्यवहारों में विवादों में अथवा व्यवहारिक बातों में । सुणमाणे-सुनता हुअा । भणति- कहता है । न सुणेमि-मैंने नहीं सुना । असुणमाणे भणति-न सुनता हुअा कहता है सुणेमि--सनता हूँ। एवं इसी प्रकार । पस्समाणे-देखता हुअा । भासमाणे-बोलता हुआ । गेरहमाणे--ग्रहण करता हुआ । जाणमाणे-जानता हुआ [भी विपरीत ही कहता है] । तते णं- तदनन्तर । से एक्काई रहकूड़े- वह एकादि राष्ट्रकट । एयकम्मे-इस प्रकार के कर्म करने वाला । पयप्पहाणे---- इस प्रकार के कर्मों में तत्पर । पयविज्जे- इसी प्रकार की विद्या-विज्ञान वाला । एयसमायारे-इस प्रकार के प्राचार बाला। सुबहुं-अत्यधिक । कलिकलुसं-कलह (दुःख) का कारणी भूत होने से मलिन । पावं कम्मं-पाप कर्म । समज्जिणमाणे-उपार्जन करता हुअा । विहरति--जीवन व्यतीत कर रहा था । तते णं-तदनन्तर । तस्स-उस । एगाइयस्स--एकादि । रकूडस्स-राष्ट्रकूट के। अराणया कयाइ- किसी अन्य समय । सरीरंगसि-शरीर में । जमगसमगमेव-युगपद्-एक साथ ही। सोलस--सोलह । रोयातंका-रोगातंक कष्ट साध्य अथवा असाध्य रोग। पाउब्भूया-उत्पन्न हो गये। तजहा --जैसे कि । सासे- श्वास । कासे-कास । जरे-ज्वर । दाहे-दाह । कुच्छिसूले-- उदरशूल । भगंदरे ---भगंदर । अरिसे- अर्श -- बवासीर । अजीरते-अजीर्ण । दिट्ठो-दृष्टिशूल-नेत्रपीड़ा मुद्धसले---मस्तकशूल-शिरोवेदना । अकारए-अरुचि-भोजन की इच्छा का न होना । अच्छिवेयणाअांख में दर्द होना । कराणवेयणा-कर्णपीड़ा। कंडू-खुजली। दोदरे–दकोदर, जलोदर-उदररोग का भेद विशेष । कोढ़े- कुष्ठरोग । मूलाथे -तदनन्तर वह राष्ट्रकट [प्रान्त विशेष का अधिपति ] एकादि विजयवर्द्धमान खेट के अनेक राजा-मांडलिक, ईश्वर-युवराज, तलवर-राजा के कृपापात्र, अथवा जिन्हों ने राजा की ओर से उच्च आसन ( पदवी विशेष ) प्राप्त किया हो ऐसे नागरिक लोग, तथा माडंबिक--मडम्ब' के अधिपति, कौटुम्बिक-कुटुम्बों के स्वामी श्रेष्ठी और सार्थवाह-सार्थनायक तथा अन्य अनेक ग्रामीण पुरुषों के कार्यों में, कारणों में, गुप्तमंत्रों-मंत्रणाओं, निश्चयों और विवादसम्बन्धी निर्णयों अथवा व्यवहारिक बातों में सुनता हुआ कहता है कि मैंने नहीं सुना, नहीं सुनता हुआ कहता है (१) जिसके निकट दो दो योजन तक कोई ग्राम न हो उस प्रदेश को मडम्ब कहते हैं । - "मडम्बं च योजनद्वयाभ्यन्तरेऽविद्यमानप्रामादिनिवेशाः सन्निवेविशेषाः प्रसिद्धाः [वृत्ति कारः] For Private And Personal Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५८] श्री विपाक सूत्र - [अध्याय कि मैंने सुना है। इसी प्रकार देखता हुआ, बोलता हुआ, ग्रहण करता हुआ और जानता हुआ भी यह कहता है कि मैंने देखा नहीं, बोला नहीं, ग्रहण किया नहीं और जाना नहीं। तथा इस से विपरीत नहीं देखे, नहीं बोले, नहीं ग्रहण किये, और नहीं जाने हुए के सम्बन्ध में कहता है कि मैंने देखा है, बोला है, ग्रहण किया है तथा जाना है। इस प्रकार के वंचनामय यवहार को उस ने अपना कर्तव्य समझ लिया था । मायाचार करना ही उसके जीवन का प्रधान कार्य था और प्रजा को व्याकुल करना ही उस का विज्ञान था, एवं उस के मत में मनमानी करना ही एक सर्वोत्तम आचरण था । वह एकादि राष्ट्रकूट कलह- दु:ख के हेतु भूत अत्यन्त मलिन पापकर्मों का उपार्जन करता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा था। तदनन्तर किसी समय उसके शरीर में एक साथ ही सोलह प्रकार के रोगातंक-जीवन के लिये अत्यन्त कष्टोत्पादक, कष्टसाध्य अथवा असाध्य रोग उत्पन्न हो गए। जैसेकि --श्वास, कास, ज्वर, दाह, कुक्षिमूल, भगंदर, अर्श, अजीर्ण दृष्टिशूल,मस्तकशूल, अरुचि, अक्षिवेदना, कर्णवेदना, कंडू - खुजली, जलोदर और कुष्ठरोग । टीका-प्रस्तुत सूत्र में एकादि राष्ट्रकूट के नैतिक जीवन का चित्रण किया गया है। वह विजयवर्द्धमान खेट में रहने वाले मांडलिक, युवराज आदि तथा अन्य ग्रामीण पुरुषों के अनेकविध कार्या, कारणों, गुप्त-निश्चयों और विवादनिर्णयों अथवा व्यवहारिक बातों की यथारुचि अवहेलना करने में प्रवृत्त था, तदनुसार सुने हुए को वह कह देता था कि मैंने नहीं सुना, और नहीं सुनने पर कहता कि मैंने सुना है, इसी प्रकार देखने, बोलने, ग्रहण करने और जानने पर भी मैंने नहीं देखा, नहीं बोला, नहीं ग्रहण किया और नहीं जाना तथा न देखने, न बोलने, न ग्रहण करने और न जानने पर कहता कि मैं देखता हूँ, बोलता हूँ, ग्रहण करता और जानता हूँ । सारांश यह है कि उस की प्रत्येक क्रिया मनमानी और प्रजा के लिये सर्वथा अहितकर थी। _ "-राईसर० जाव सत्थवाह.णं-" के " जाव - यावत्" पद से --"तलवर -माडंवियकोडु बियसत्थवाहाणं -" पाठ का ग्रहण कर लेना । इन पदों का अर्थ पदार्थ में किया जा चुका तब एवंविध कर्मों में समुद्यत, एवं पातकमय कर्मों के आचरण में निपुण वह एकादि दुःखों के उत्पादक अत्यन्त नीच और भयानक पापकमां का संचय करता हुअा जीवन बिता रहा था । परन्तु स्मरण रहे कि शास्त्रीय कथन के अनुसार किये हुए पाप कर्मों का फल भोगना अवश्य पड़ता है । कर्मों के विना भोगे उन से छुटकारा कभी नहीं हो सकता। उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान महावीर स्वामी इस बात का निम्नोक्त शब्दों द्वारा समर्थन करते हैं, जैसे कि --- तेणे' जहा सन्धिमुहे गहोए, सकम्मुणा किच्चइ पावकारी। एवं पया पेच्च इहं च लोए, कडाण कम्माण न मुक्खु अत्थि ॥ (उत्तराध्ययन सत्र अ० ४-३) अर्थात् - सेंध लगाता हुआ पकड़ा जाने वाला चोर जिस प्रकार अपने किए हुए पापकर्मों से मारा जाता है, उसी प्रकार शेष जीव भी इस लोक तथा परलोक में अपने किये हुए कर्मों को (१) छाया- स्तेनो यथा सन्धि -- मुखे गृहीतः, स्वकर्मणा कृत्यते पापकारी। एवं प्रजा प्रेत्येह च लोके, कृतानां कर्मणां न मोक्षोऽस्ति । For Private And Personal Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अन्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित भेदः -" यह अथ लिखा है. इस भोगे बिना छुटकारा नहीं पा सकते । तात्पर्य यह है कि कर्मों का फल भोगना अवश्वंभावी है, बिना भोगे कर्मों से छुटकारा नहीं हो पाता । तथा “अत्युपपुण्यपापानामिहैव फलमश्नुते” अर्थात् यह जीव अत्यन्त उग्र पुण्य और पाप का फल यहीं पर भोग लेता है-इस अभियुक्तोक्ति के अनुसार एकादि राष्ट्रकूट के शरीर में एक साथ ही सोलह रोगातंक उत्पन्न हुए। जो रोग अत्यन्त कष्टजनक हों तथा जिन का प्रतिकार कष्टसाध्य अथवा असाध्य हो उन्हें रोगातंक कहते हैं। वे निम्नलिखित हैं (१) श्वास (२) कास (३) ज्वर (४) दाह (५) कुक्षिशूल (६) भगन्दर (७) अर्श-बवासीर (८) अजीर्ण (९) दृष्टि-शूल (१०) मस्तकशूल (११) अरोचक (१२) अक्षिवेदना (१३) कर्णवेदना (१४) कण्डू - खुजली (१५) दकोदर --जलोदर (१६) कुष्ठ --कोढ़ । ये १६ रोग एकादि के शरीर में एक दम उत्पन्न हो गए । श्वास, कास आदि रोगों का सांगोपांग व्याख्यान तो वैद्यक ग्रन्थों में से जाना जा सकेगा परन्तु संक्षेप में यहां इन का मात्र परिचय करा देना आव यक प्रतीत होता है - (१) श्वास --अभिधान राजेन्द्र कोश में श्वास शब्द का--"अतिशयत ऊर्वश्वासरूपरोग खा है, इसका भाव है-तेज़ी से सांस का ऊपर उठना अर्थात्-दम का फलना, दमे की बीमारी । श्वास एक प्रसिद्ध रोग है, इसके- 'महाश्वास, ऊर्ध्वश्वास, छिन्नश्वास, तमकश्वास, और क्षुद्रश्वास ये पांच भेद कहे हैं २ जब वायु का के साथ मिलकर प्राण जल और अन्न के बहने वाले स्रोतों को रोक देता है तब अपने आप कफ से रुका हुआ वायु चारों और स्थित होकर श्वास को उत्पन्न करता है । (२) कास-कासरोग भी वात, पित्त, कफ, क्षत और क्षय भेद से पांच प्रकार का है । इस का निदान और लक्षण इस प्रकार वर्णन किया है धूमोपघाताद्रजसस्तथैव, व्यायामरूतान्ननिषेवणाच्च । विमार्गगत्वाच्च हि भोजनस्य, वेगावरोधात् तवथोस्तथैव ॥१॥ प्राणों ा दानानुगतः प्रदुष्टः, संभिन्नकांस्यस्वनतुल्यघोषः ।। निरोति वक्रात सहसा सदोषो मनीषिभिः कास' इति प्रदिष्टः ॥२॥ (माधवनिदाने कासाधिकारः) अर्थात् ... नाक तथा मुख में रज और धूम के जाने से, अधिक व्यायाम करने से, नित्य प्रति रूक्षान्न के सेवन से, कुपथ्यभोजन से, मलमूत्र के अवरोध तथा अाती हुई छींक को, रोकने से, प्राणवायु अत्यन्त दुष्ट होकर और दुष्ट उदान वायु से मिलकर कफ पित्त युक्त हो सहसा मुख से बाहर निकले, उस का (१) महोर्ध्वच्छिन्नतमकक्षुद्रभेदैस्तु: पंचधा । भिद्यते स महाव्याधिः श्वास एको विशेषत. ॥१५॥ (२) यदा स्रोतांसि संरुध्य मारुतः कफपूर्वकः । विश्वग व्रजति संरुद्धस्तदा श्वासान् करोति सः ॥१७॥ [ माधवनिदाने - श्वासाधिकार ] (३) (क) कसति शिरः कंठादूर्ध्व गच्छति वायुरिति कासः । अर्थात् जो वायु कंठ से ऊपर सिर की ओर जाय उस को कास कहते हैं। (ख) अभिधान राजेन्द्र कोष में कास शब्द का "-केन जलेन कफात्मकेन अश्यते व्याप्यते इति कासः-" ऐसा अर्थ लिखा है । इस का भाव है ---कफ का बढ़ना, अर्थात् खांसी का रोग । For Private And Personal Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६० श्री विणक सूत्र fप्रथम अध्याय शब्द फूटे कांस्य पात्र के समान हो, मनीषी-वैद्यलोग उसे कास-अर्थात् खांसी का रोग कहते हैं । (३) ज्वर - स्वोदावरोधः सन्तापः, सांगग्रहणं तथा । युगपद् यत्र रोगे तु, स ज्वरो व्यए दिश्यते ॥१४३।। [वंगसेने ज्वराधिकारः] अर्थात् — पसीना न आना, शरीर में सन्ताप का होना, और सम्पूर्ण अंगों में पीड़ा का होना, ये सब लक्षण जिस रोग में एक साथ हों उस को ज्वर कहते हैं । ज्वर के वातज्वर, पित्तज्वर, कफज्वर द्विदोषज्वर इत्यादि अनेकों भेद लिखे हैं । जिन्हें वैद्यक ग्रन्थों से जाना जा सकता है। (४) दाह--- एक प्रकार का रोग है, जिस से शरीर में जलन प्रतीत होती है । माधवनिदान आदि वैद्यक ग्रन्थों में दाइ – रोग सात प्रकार का बतलाया गया है। जैसे कि --- प्रथम प्रकार में मदिरा के सेवन करने से पित्त और रक्त दोनों प्रकुपित हो कर समस्त शरीर में दाह पैदा कर देते हैं, यह दाह केवल त्वचा में अनुभव किया जाता है । द्वितीय प्रकार में रक्त का दबाव बढ़ जाने से देह में अग्निदग्ध के समान तीव्र जलन होती है, अांखें लाल हो जाती हैं, त्वचा ताम्बे की तरह तप जाती है, तृष्णा बढ़ जाती है और मुख मे लोहे जैसी गन्ध आती है। तृतीय प्रकार में---गला, अोठ मुंह, नाक, पक जाते हैं, पसीना निद्राभाव, वमन, तीव्र अतिसार दस्त), मूर्छा, तन्द्रा, और कभी २ प्रलाप भी होने लगता है। चतुर्थ प्रकार में— प्यास के रोकने से शरीरगत अब्धातु (जल) प्रकुपित हो कर शरीर में दाह उत्पन्न करता है । गल, ओंठ और तालु सूखने लगता है एवं शरीर कांपने लग जाता है। पांचवां दाह हथियार की चोट से निसृत रक्त से जिसके कोष्ठ भर गये हैं, उस को हुआ करता है, यह अत्यन्त दुस्तर होता है । छठे प्रकार में -- मूर्छा, तृष्णा होती है, स्वर मन्द पड़ जाता है, शरीर में दाह के साथ साथ रोगी क्रियाहीनता का अनुभव करता है । सातवां दाह --मर्माभिघात होने के कारण होता है, यह असाध्य होता है । आधुनिक वैज्ञानिकों के शब्दों में यदि कहा जाए तो-कैलशियम, पैन्टोथेनेट (Calcium, Pantothenate) नामक द्रव्य की कमी के आ जाने से हाथ तथा पांव में जलन हो जाती है ----यह कह सकते हैं । (५) कुक्षिशूल--पावशूल का ही दूसरा नाम कुक्षिशूल है । शूलरोग में प्रायः वात को ही प्राधान्य प्राप्त है । वंगसेन के शूलाधिकार में लिखा है कि-वृद्धि को प्राप्त हुआ वायु हृदय, पाश्र्व, पृष्ठ, त्रिक और बस्ति स्थान में शूल को उत्पन्न करता है । वायुः प्रवृद्धो जनयेद्धिशूलं हत्पार्श्वपृष्ठत्रिकबस्तिदेशे। शूल (वायु के प्रकोप से होने वाला एक प्रकार का तेज दर्द) यह एक भयंकर व्याधि है और इसकी गणना सद्यः प्राणहर व्याधियों में है। (६) भगन्दर- गुदस्य द्वयं गुले क्षेत्र, पार्श्वतः पिटिकार्तिकृत् । भिन्ना भगन्दरो शेयः, स च पंचविधो मतः ॥१॥ (माधवनिदाने भगन्दराधिकारः ) अर्थात् --गुदा के समीप एक बाजू पर दो अंगुल ऊंची एक पिटिका-फुन्सी होती है, जिस में पीड़ा अधिक हा करती है, उस पिटिका-फुन्सी के फूट जाने के अनन्तर की अवस्था को भगन्दर कहते हैं, और वह पांच प्रकार का है । अभिधान चिन्तामणी काण्ड ३ श्लोक १२५ की व्याख्या में प्राचार्य हेमचन्द्र जी ने भगन्दर शब्द की निरुक्ति या व्युत्पत्ति इस प्रकार की है "भगं दारयतीति भगन्दरः" भग अर्थात् गुह्य और मुष्क - गुदा तथा अण्डकोष के मध्यवर्ती स्थान को जो विदीर्ण करे उस का नाम भगन्दर है । किसी किसी आचार्य का यह (१) शब्दस्तोम महानिधि कोष में भग शब्द से गुह्य और मुष्क के मध्यवर्ती स्थान का ग्रहण For Private And Personal Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित [६१ मत है कि भगाकार विदीर्ण होने से इस का नाम भगन्दर, है, अर्थात् भगाकार विदीर्ण होता है इस कारण इस को भगन्दर कहते हैं। वास्तव में ऊपर उल्लेख किये गये भगन्दर के लक्षण के साथ भगन्दर शब्द की निरुक्ति कुछ अधिक मेल खाती है। (७ अर्श - इसका आम प्रचलित नाम बवासीर है । यह ६ प्रकार की होती है - '१) वातज (२) पित्तज (३) कफज (४) त्रिदोषज (५) रक्तज (६) सहज । इस का निदान और लक्षण इस प्रकार कहा है दोषास्त्वङ् मांसमेदांसि, सन्दूष्य विविधाकृतीन् । मांसांकुरानपानादौ, कुर्वन्त्यासि ताजगुः ॥ २ ॥ (माधवनिदाने अर्शाधिकार :) अर्थात्-दुष्ट हुए वातादि दोष, त्वचा, मांस और मेद को दूषित करके गुदा में अनेक प्रकार के श्राकार वाले मांस के अंकुरों (मस्सों) को उत्पन्न करते हैं उन को अर्श-अर्थात् बवासीर कहते हैं । उक्त घडविध अर्श रोग में त्रिदोषज कष्टसाध्य और सहज असाध्य है। (८) अजीर्ण-जीर्ण अर्थात् किये हुए भोजनादि पदार्थों का सम्यक पाक न होना अजीर्ण है। यह रोग जठराग्नि की मन्दता के कारण होता है । वैद्यकग्रन्थों में ---मन्द तीक्ष्ण, विषम और सम इन मेदों से जठराग्नि चार प्रकार की 'बतलाई है। इन में कफ की अधिकता से मन्द, पित्त के आधिक्य से तीक्ष्ण, वायु की विशेषता से विषम और तीनों की समानता से सम अग्नि होती है। इन में सम अग्निवाले मनुष्य को तो किया हुआ यथेष्ट भोजन समय पर अच्छे प्रकार से पच जाता है । और मन्दाग्नि वाले पुरुष को स्वल्प मात्रा में किया हुआ भोजन भी नहीं पचता तथा जो विषमाग्नि वाला होता है उसको कभी पच भी जाता है और कभी नहीं भी पचता । तथा जो तीक्ष्ण अग्नि वाला होता है उसको तो भोजन पर भोजन. अथवा अत्यन्त भोजन भी किया हा पच जाता है । इन में जो मन्दाग्नि या विषम अग्नि वाला पुरुष होता है उसी पर अजीर्ण रोग का अाक्रमण होता है । अजीर्ण रोगके प्रधानतया चार भेद बतलाये हैं जैसे कि -(१) श्राम अजीण (२) विदग्ध अजीर्ण (३) विष्टब्ध अजीर्ण और (४) रसशेष अजीर्ण । इन की व्याख्या निम्नोक्त है - (१) श्राम --अजीर्ण में कफ की प्रधानता होती है, इस में खाया हुआ भोजन पचता नहीं है । (२) विदग्ध - अजीर्ण में पित्त का प्राधान्य होता है, इस में खाया हुआ भोजन जल जाता है । (३) विष्टब्ध- अजीर्ण में वायु की अधिकता होती है, इस में खाया हुआ अन्न बंध सा जाता है । (४) रसशेष - अजीर्ण में खाया हुअा अन्न भली भांति नहीं पचता । किया है-- भगन्दरम् - भगं गृह्यमुष्कमध्यस्थानं दारयतीति.. .. .. स्वनामाख्याते रोगभेदे- तब भगशब्द से प्राचार्य हेमचन्द्र जी को भी सम्भवतः यही अभिमत होगा ऐसा हमारा विचार है । (१) मन्दस्तीक्ष्णोऽथ विषमः, समश्चेति चतुर्विधः । कफपित्तानिलाधिक्यात्तत्साम्याजाठरोऽनल: ॥१॥ [वंगसेने अजीर्णाधिकारः] (२) श्राम विदग्धं विष्टब्धं, कफपित्तानिल स्त्रिभिः । अजीर्ण केचिदिच्छन्ति, चतुर्थ रस-शेषतः ॥ २७ ।। (बंगसेने) For Private And Personal Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६२] श्री विपाक सूत्र [ प्रथम अध्याय वैद्यक ग्रन्थों में अजीर्ण रोग की उत्पत्ति के कारणों और लक्षणों का इस प्रकार निर्देश किया हैं - अत्यम्बुपानाद्विषमा रानाच्च, संधारणात्स्वप्नविपर्ययाच्च । कालेऽपि सात्म्यं लघु चापि भुक्तमन्नं न पाकं भजते नरस्य ।। ईर्षाभयक्रोधपरिप्लुतेन लुब्धेन रुग्दैन्यनिपीडितेन ।। प्रद्वेषयुक्तेन च सेव्यमानमन्नं न सम्यक्परिपाकमेति ॥ माधवनिदान में अजीर्णाधिकार | अर्थात् - अधिक जल पीने से, भोजन समय के उलंघन से, मल मूत्रादि के वेग को रोकने से, दिन में सोने और रात्रि में जागने से, समय पर किया गया हित मित श्रीर लघ-हलका भोजन भी मनुष्य को नहीं पचता । तात्पर्य यह है कि इन कारणों से अजीर्ण रोग उत्पन्न होता है। इस के अतिरिक्त ईर्षा, भय, क्रोध और लोभ से युक्त तथा शोक और दोनता एवं द्वेष पोड़ित मनुष्य का भी खाया हुआ अन्न पाक को प्राप्त नहीं होता अर्थात् नहीं पचता। ये अजीर्ण रोग के अन्तरंग कारण हैं। और इस का लक्षण निम्नोक्त है - ग्लानिगौरवमाटोपो, भ्रमो मारुत-मूढता । निबन्धोऽतिप्रवृत्तिा , सामान्याजीर्ण-लक्षणम् ॥ (बंगसेने) अर्थात्- ग्लानि, भारीपन, पेट में अफारा और गुड़गुड़ाहट, भ्रम तथा अपान वायु का अवरोध, दस्त का न आना अथवा अधिक पाना यह सामन्य अजीर्ण के लक्षण हैं । (९) दूष्टिशल- इस रोग का निदान ग्रन्थों में इस नाम से तो निर्देश किया हुआ मिलता नहीं, किन्तु आम युक्त नेत्ररोग के लक्षण वर्णन में इसका उल्लेख देखने में आता है, जैसे कि - उदीर्णवेदनं नेत्रं, रागोद्रकसमन्वितम् । घर्षनिस्तोदशूलाश्रु युक्तमामान्वितं विदुः ।। अर्थात् जिस रोग में नेत्रों में उत्कट वेदना-पीड़ा हो. लाली अधिक हो, करकराहट हो-रेत गिरने से होने वाली वेदना के समान वेदना हो. सुई चभाने सरीखी पीड़ा हो, तथा शूल हो और पानी बहे, ये सब लक्षण आमयुक्त नेत्ररोग के जानने । (१०) मूर्ध-शूल-- मस्तक शूल की गणना शिरोरोग में है । यह-शिरोरोग ग्यारह प्रकार का होता है, जैसे कि शिरोरोगास्तु जायन्ते वातपित्तकफैस्त्रिभिः । सन्निपातेन रक्तेन क्षयेण कृमिभिस्तथा ॥१॥ सूर्यावर्तानन्त-वात-शंखकोऽविभेदकैः । एकादशविधस्यास्प लक्षणं संप्रवक्ष्यते ॥२॥ (वंगसेने) अर्थात् -- (१) वात (२) पित्त (३) कफ (४) सन्निपात (५) रक्त (६) क्षय और (७) कृमि, इन कारणों से उत्पन्न होने वाले सात तथा (८) सूर्यावर्त (९) अनन्त-बात (१०) अर्द्धावभेदक और ११) शंखक, इन चार के साथ शिरोरोग ग्यारह प्रकार का है, इन सब के पृथक पृथक लक्षण निदान ग्रन्थों से जान लेने चाहिये। यहां विस्तार भय से उनका उल्लेख नहीं किया गया । (११)अरोचक-भोजनादि में अरुचि-रुविविशेष का न होना अरोचक का प्रधान लक्षण है। वंगसेन तथा माधव निदान प्रभृति वैद्यक ग्रन्थों में लिखा है कि – वातादि दोष, भय क्रोध और अतिलोभ के कारण तथा मन को दूषित करने वाले आहार, रूप अोर गन्ध के सेवन करने से पांच प्रकार का अरोचक रोग उत्पन्न होता है, जैसे कि - वातादिभिः शोकभयातिलोभक्रोधैर्मनोनारान-रूपगंधैः अरोचकाःस्यु ...... ॥१॥ [बंगसेने] (१२) अतिवेदना--यह कोई स्वतन्त्र रोग नहीं है। किन्तु वात-प्रधान नेत्र रोग में अर्थात् - For Private And Personal Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय । हिन्ही भाषा टीका सहित। बाताभिष्यन्द में यह समाविष्ट किया जा सकता है, जैसे कि--. निस्तादनस्तंभन रोमहर्ष-संघर्षपारुष्य-शिरोभितापाः । विशुष्कभावः शिशिराश्रु ता च वाताभिपन्ने नयने भवन्ति ॥५॥ माधवनिदाने नेत्ररोगाधिकारः] अर्थात् -- बताभिष्यन्द --वातप्रधान नेत्ररोग में सूई चुभाने सरीखी पीडा या तोड़ने नोचने सरीखी पीड़ा होती है, इस के अतिरिक्त नेत्रों में स्तंभन, जड़ता, रोमांच, करकराहट --रेता पड़ने सरीखी रड़क, और रूक्षता होती है तथा मस्तकपीड़ा और नेत्रों से शीतल अांसु गिरते हैं । (१३) कर्ण वेदना-इसका अपर नाम कर्ण शूल है। इस का निदान और लक्षण इस तरह वर्णित किया गया हैसमीरण: श्रोत्रगतोऽन्यथाचरन् , समन्ततः शूलमतीव कर्णयोः। करोति दोषैश्च यथा स्वमावृतः, स कर्णशूल: कथितो दुरासदः ॥ १ ॥ माधवनिदाने कर्णरोगाधिकारः) अर्थात् – कुपित हुआ वायु कान में दोषों के साथ आवृत हो कर कानों में विपरीत गति से विचरण करे तब उस से कानों में जो अत्यन्त शूल -वेदना ( दर्द) होती है उसे कर्णशल कहते हैं । यह रोग कष्ट साध्य बतलाया गया है। (१४) कराडू - यह उपरोग है और 'पामाका अवान्तर भेद है । इसी कारण वैद्यक ग्रन्थों में इसका स्वतन्त्र रूप से नाम निर्देश न करके भी चिकित्सा प्रकरण में इसका बराबर स्मरण किया है। (१५) दकोदर-इस का दूसरा नाम जलोदर है और उसका लक्षण यह हैस्निग्धं महत्त्परिवृद्धनाभि-समाततं पूर्णमिवाम्बुना च । यथा दृतिः तुभ्यति कंपते च, शब्दायते चापि दकोदरं तत् ॥ २४ ॥ (माधवनिदाने उदररोगाधिकारः) अर्थात् - जिस में पेट चिकना, बड़ा, तथा नाभि के चारों ओर ऊंचा हो और तनासा मालूम होता तो, पानी की पोट भरी सरीखा दिखाई दे, जिस प्रकार पानी से भरी हुई मशक हिलती है उसी प्रकार हिले अर्थात् जिस तरह मराक में भरा हुआ जल हिलता है उसी प्रकार पेट में हिले, तथा गुड गुड़ शब्द करे और काम्पे उस को दकोकर अथवा जलोदर कहते हैं । यह रोग प्रायः असाध्य ही होता है। (१६) कुष्ठ-कोढ़ का नाम है । यह एक प्रकार का रक्त और त्वचा सम्बन्धी रोग है, यह संक्रामक और घिनौना होता है । वैद्यक ग्रन्थों में कुष्ठ रोग के १८ प्रकार - मेद बतलाए हैं। उन में सात महाकुष्ठ और ग्यारह क्षद्र कुष्ठ है । इन में वात पित्त और कफ ये तीनो दोष (१) पामा यह क्षुद्रकुष्ठों में परिगिणत है, इसका लक्षण यह हैसूक्ष्मा वह्वयः पिटिकाः स्राववत्यः पामेत्युक्ताः कराडूमत्यः सदाहाः अर्थात्- जिस में त्वचा पर छोटी २ साव युक्त खुजली सहित दाह वाली अनेक पिटिकाफुन्सिये हों उसे पामा कहते हैं । (२) महाकुष्ठ-(१) कपाल (२) औदुम्बर (३) मण्डल (४) ऋक्षजिव्ह (५) पुडरींक (६) सिध्म और (७) काकण, ये सात महा कुष्ठ के नाम से प्रसिद्ध हैं । और ११ क्षुद्रकुष्ठ हैं, जैसे कि For Private And Personal Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६४] श्री विपाक सूत्र [ प्रथम अध्याय कुपित होकर त्वच रुधिर मांस और शरीरस्थ जल को दूषित कर के कुष्ठ रोग को उत्पन्न करते हैं । तात्पर्य यह है कि वात पित्त, कफ, रस रुधिर मांस तथा लसीका इन सातों के दूषित होने अर्थात् बिगडने से कुष्ट रोग उत्पन्न होता । इन में पहले के तीन -- वात पित्त और कफ तो दोष के नाम से प्र.सद्ध हैं और बाकी के चारों रस रुधिर, मांस और लसीका - की दूष्य संज्ञा है। इस प्रकार संक्षेप से ऊपर वणन किये गये १६ रोगों ने एकााद नाम के राष्ट्रकूट पर एक बार ही अाक्रमण कर दिया अर्थात् ये १६ रोग एक साथ ही उसके शरीर में प्रादुभू त हो गये । वास्तव में देखा जाय तो अत्य ग्रपापों का ऐसा ही परिणाम हो सकता है। अस्तु । ___अब पाठक एका द राष्ट्रकूट की अग्रिम जीवनी का वर्णन सुनें जो कि सूत्रकार के शब्दों में इस तरह वर्णित है___ मूल-तते णं से एक्काई रहकूड़े सोलसहि रोगातकेहिं अभिभूते समाणे कोडुबियपुरिसे सद्दावेति २ एवं वयासी-गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! विजयवद्धमाणे खेड़े सिघाडगतिय-चउक्क-चच्चर-महापह-पहेसु महया २ सद्दे णं उग्घोसेमाणा २ एवं वयह-एवं खलु देवाणप्पिया ! एक्काइ० सरीरगंसि सोलस रोगातका पाउब्भूता तंजहा-मासे १ कासे २ जरे (१) चर्म (२) किटिम (३) वैपादिक (४) अलसक (५) दद्र - मंडल (६) चर्मदल (७) पामा (८) कच्छु (९) विस्फोटक (१०) शतारु (११) विचर्चिक, ये ग्यारह क्षद्र कुष्ठ के नाम से विख्यात हैं । इनके पृथक २ लक्षण, और चिकित्सा सम्बन्धी सम्पूर्ण वर्णन चरक, सुश्रुत और वागभट्ट से लेकर बंगसेन तक के समस्त आयुर्वेदीय ग्रन्थों में पर्याप्त है अत: वहीं से देखा जा सकता है । (१) छाया-ततः स एकादी राष्ट्रकूट: पोड़शभी रोगातंकरभिभूतः सन् कौटुम्बिक - पुरुषान् शब्दाययति, शब्दाययित्वा एवमवदत् --- गच्छत यूयं देवानु प्रिया: ! विजयवर्द्धमाने खेटे शृगाटकत्रिक-चतुष्क चत्वर --- महापथपथेषु महता शब्देन उद घोषयन्तः २ एवं वदत एव खलु देवानुप्रियाः! एकादि० शरीरे षोडश रोगातंकाः प्रादुभू ता:, तद्यथा-श्वास: १ कासः २ ज्वर: ३ यावत् कुष्ठः । तद य इच्छति देवानुप्रिया: ! वैद्यो वा वैद्यपुत्रो वा ज्ञायको वा ज्ञायक-पुत्रो वा चिकित्सकः चिकित्सकपुत्रो वा, एकादे राष्ट्रकूस्य तेषां षोड़शानां रोगातंकानामेकमपि रोगातंकमुपशमयितुम् तस्य एकादी राष्ट्रकूटो विपुलमर्थ-सम्प्रदानं करोति द्विरपि त्रिरपि उद्घोषयत, उद्घोष्य एतामाज्ञप्ति प्रत्यर्पयत । ततस्ते कौटुम्बिकपुरुषाः यावत् प्रत्यर्पयन्ति,ततो विजयवर्द्धमाने खेटे इमामेतद्रूपामुद्घोषणां श्रुत्वा निशम्य ववो वैद्याश्च शस्त्रकोषहस्तगता: स्वेभ्यः स्वेभ्यो गृहेभ्यः प्रतिनिष्कामन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य विजयवर्द्धमानस्य खेटस्य मध्यमध्येन यत्रैव एकादिराष्ट्रकूटस्य गृहं तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागम्य एकादिशरीर परामृशन्ति, परामृश्य तेषां रोगाणां निदानं पृच्छन्ति पृष्ठा एकादिराष्ट्रकूटस्य बहुभिरभ्यंगै रुद्रतनाभिश्च स्नेहपानश्च वमनैश्च विरेचनाभिश्च सेचनाभिश्च, अवदाहनाभिश्च अवानानैश्च, अनुवासनाभिश्च बस्तिकमभिश्च निम्हैश्च शिराबेधेश्च तक्षणश्च प्रतक्षणैश्च शिरोवस्तिभिश्च तर्पणश्च पुटपाकैश्च छल्लिभिश्च, मूलैश्च कन्दैश्च पत्रैश्च पुष्पश्च फलैश्च, बीजैश्च शिलिकाभिश्च, गुटिकाभिश्च औषधैश्च भैषज्यश्च इच्छन्ति तेषां षोड़शानां रोगातंकानामेकमपि रोगातंकमुपशमयितु नो चैव संशक्नुवन्ति उपशमयितु । ततस्ते बहवो वैद्या वैद्यपुत्राश्च ६ यदा नो संशक्नुवन्ति तेषां षोड़शानां रोगातंकानामेकमपि रोगातंकमुपशमयितु, तदा श्रान्तास्तान्ताः परितान्ताः यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतास्तामेवदिशं प्रतिगताः । For Private And Personal Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [६५ ३ जाव कोढ़े १६ । तं जो गं इच्छति देवाणुप्पिया ! वेज्जो वा वेज्जपुत्तो वा जाणओवा जापुतो वा तेइच्छित्र वा तेइच्छिय-पुत्तो वा एगातिस्स रट्ठकूडस्स तेसिं सोलसरहं रोगातंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसामित्तते, तस्स णं एक्काई रट्ठकूड़े विपुलं अत्थ संपयाणं दलयति, दोच्चं पि तच्चं पि उग्घोसेह २ त्ता एयमाणत्तियं पञ्चष्पिणेह । तते गं ते कोडु बियपुरिसा जाव पञ्चप्पिांति । तते गं से विजयवद्धमाणे खेड़े इमं एयारूवं उग्घोसणं सोचा सिम्म बहवे वेज्जाय ६ सत्यको सहत्थगया सएहिं सएहिं गेहेहिंता पड़िनिक्खमंति २त्ता विजयवद्धमाणस्स खेडस्स मज्ममज्भेणं जेणेव एगाइ — रकूड़स्स गेहे तेणेव उवागच्छति २ त्ता गाइ- सरीरयं परामुसंति २ त्ता तेसिं रोगाणं निदाणं पुच्छति २ त्ता एक्काइरट्ठक्ड़स्य बहूहिं अब्भंगेहि य उन्हवणाहि य सिणेहपाणेह य वमणेहि य विरेयणा हि य सेयणाहि य अवदाहणाहि य अवरहाणेहि य अणुवासणाहि य वत्थिकम्मे हि य निरूहि य सिरावेधेहि य तच्छणेहि य पच्छणेहि य सिरोबत्थीहि य तप्पणेहि य पुड़पागेहि य छल्लीहि य मूलेहिय कं देहि य पत्त े हि य पुष्फेहि य फलेहि य बीएहि य सिलिया हि गुलियाहि सह य भेसज्जेहि य इच्छंति तेसिं सोलसरहं रोयातंकाणं एगमवि रोयायकं उवसामित्तए, गो चैव गं संचाएंति उवसामित्तते । तते गं बहवे वेज्जा य वेज्जपुत्ताय ६ जाहे नो संचाऐति तेसिं सोलसरहं रोयातंकाणं एगमवि रोयायकं उवसामित्तए, Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir संता तंता परितंता जामेव दिसं पाउब्भूता तामेव दिसं पडिगता । पदार्थ - तते गं - तदनन्तर । सोलसहिं - उक्त सौलह प्रकार के । रोगातंकेहिंभयानक रोगों से । श्रभिभूते समाणे - खेद को प्राप्त । से एक्काई- - वह एकादि नामक कूड़ े -- राष्ट्रकूट | कोडु बियपुरिसे - कौटुम्बिक पुरुषों सेवकों को । सद्दावेति २ ता-बुलाता है, बुलाकर । एवं वयासी - इस प्रकार कहता है । देवागुलिया ! - हे देवानुप्रियो ! अर्थात् हे महानु भावो ! | तुझे गं - तुम लोग । गच्छह-- जाओ तथा । विजयवद्धमाणे खेड़े - विजय वर्द्धमान खेट के । सिंघाड़ग - त्रिकोणमार्ग । तिय-त्रिक मार्ग-जहां तीन रास्ते मिलते हों । चउक्कचतुष्क – जहां पर चार रास्ते इकट्ठे होते हों । चच्चर - चत्वर - जहां चार से भी अधिक रास्ते मिलते हों महापह — महानथ राजमार्ग - जहां बहुत से मनुष्यों का गमनागमन होता हो ओर पहेसु - सामान्य मार्गों में । महया २ सदेणं - बड़े ऊंचे स्वर से । उग्धोसेमाण २ – उद्घोषणा करते हुए । एवं - इस प्रकार । वह - कहो । देवाणुपिया ! हे महानुभावो ! एवं खनु - इस प्रकार निश्चय ही एक्काइ० - एकादि राष्ट्रकूट के । सरोरगं सि शरीर में । सोलस - सोलह । रोगांतका - भयंकर रोग | पाउब्भूता उत्पन्न हो गये है ! तंजहा जैसे कि । सासे -- श्वास १ । कासे - कास २ जरे ज्वर ३ । जाव यावत् । कोढ़े १६ - कुष्ठ । तं - इस लिये । देवाप्पिया ! हे महानुभावो ! । जे जो । वेज्जो वा - - वैद्य - शास्त्र तथा चिकित्सा में कुशल, अथवा । वेज्जपुतो वावैद्य - पुत्र अथव | जाणां वा - ज्ञायक - केवल शास्त्र में कुशल, अथवा | जाणयपुत्तो वा - - For Private And Personal T 1 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री विपाक सूत्र [ प्रथम अध्याय ६६ ] 1 - ज्ञायक - पुत्र अथवा । तेइच्छित्रो वा - चिकित्सक - केवल चिकित्सा - इलाज करने में निपुण, अथवा । इच्छितो वा - चिकित्सक पुत्र । एगातिस्स रट्ठक्रूडस्स – एकादि नामक राष्ट्रकूट के । तेसिं-उन । सोसरहं - सोलह । रोगातं कारणं - रोगातंकों में से । एगमवि रोगातंर्क-एक रोगातंक को भी । उवसामित्तते - उपशान्त करना । इच्छति - चाहता है । तस्स गं - उसको । एक्काई – एकादि । रह्कूड़ ेराष्ट्रकूट । विपुलं - बहुत सा । अत्यसंपयाणं दलयति – धन प्रदान करेगा, इस प्रकार । दोच्चं पि-दो बार तच्च पि-तीन बार । उग्घोसेह २ ता -- उद्घोषणा करो, उद्घोषणा कर के । एयमाणत्तियं पच्चपिरणह - इस आज्ञप्ति - आज्ञा का प्रत्पर्यण करो, वापिस आकर निवेदन करो, तात्पर्य यह है कि मेरी इस आज्ञा का यथाविध पालन किया गया है, इसकी सूचना दो । तते गं - तदनन्तर । ते–वे । कोडु बियपुरा - कौटुम्बिक - सेवक पुरुष | जाव - यावत् एकादि की आज्ञानुसार उद्घोषणा कर के पञ्चपिति - वापिस आकर निवेदन करते हैं अर्थात् हम ने घोषणा कर दी है ऐसी सूचना दे देते हैं । तते गं - तदनन्तर । से- उस । विजयवद्धमाणे - विजयवर्द्धमान । खेड़ े - खेट में । इमं एयारुवं - इस प्रकार की । उग्घोसणं - उद्घोषणा को । सोच्चा--सुनकर तथा । णिसम्म - अवधारण कर बहवे – अनेक । वेज्जा य ६ - वैद्य, वैद्य पुत्र, ज्ञायक, ज्ञायक -- पुत्र, चिकित्सक, - चिकित्सक - पुत्र । सत्यको सहत्थगया - शस्त्रकोष - औज़ार रखने की पेटी (बक्स) हाथ में लेकर । सरहिं सएहिं - अपने अपने । गेहेहिंतो - घरों से । पड़िनिक्खमंति- निकल पड़ते हैं । २ सा-निकल कर । विजयवद्धमाणस्स - विजय वर्द्धमान नामक | खेडस्स - खेट के । मज्मज्मेणं- मध्य भाग से जाते हुए । जेणेव - जहां । एगाइरट्ठकूटस्स- एकादि राष्ट्रकूट का । गेहे - घर था । तेणेव - वहां पर । उवागच्छंति - आते हैं । २त्ता - आकर । एगाइसरीरं - एकादि राष्ट्रकूट के शरीर का परामुति २ ता - स्पर्श करते हैं, स्पर्श करने के अनन्तर । तेसिं रोगाणं उन रोगों का । निदा निदान ( मुलकारण) । पुच्छन्ति २ त्ता - पूछते हैं, पूछ कर । एक्काइरकूडस्स – एकादि राष्ट्रकूट तेसिं - उन । सालस एहं - सोलह । रायातं कारणं - रोगातंकों में से । एगमवि - किसी एक । रोयातंर्करोगातंक को । उवसामित्तर - उपशांत करने के लिये । बहूहिं- अनेक । श्रब्भंगेहि य - अभ्यंग - मालिश करने से । उवट्टणाहि य- उद्वर्तन - वटणा वगैरह मलने से । सिणेहपाणेहि यI - स्नेहपान करानेस्निग्धपदार्थों का पान कराने से । वमणेहि य- वमन कराने से । विरेयणाहि य - विरेचन देने-म - मल को बाहर निकालने से । सेयणाहि य-सेचन - जलादि सिंचन करने अथवा स्वेदन करने से । अवदाहरणाहि य-दागने से । अवरहाणेहि य-अवस्नान - विशेष प्रकार के द्रव्यों द्वारा संस्कारित - जल द्वारा स्नान कराने से अणुवासणाहि य- अनुवासन कराने पान - गुदाद्वार से पेट मे तैलादि के प्रवेश कराने से । वत्थिकम्मे हि य - बस्ति कर्म करने अथवा गुदा में वर्ति आदि के प्रक्षेप करने से । निरुहेहि य-निरुह औषधियें डाल कर पकाए गए तेल के प्रयोग से ( विरेचन विशेष से ) तथा । सिरावेधेहि य-शिरावेध - नाही वेध करने से 1 तच्छृणेहि य-तक्षण करने - तुरक - छुरा उस्तरा आदि द्वारा त्वचा को काटने से । पच्छणेहि य- पच्छ लगाने से तथा सूक्ष्म विदीर्ण करने से । सिरोत्थीहि य- - " शिरोबस्तिकर्म से । तपणेहि य-तैलादि स्निग्ध पदार्थों के द्वारा शरीर का उपबृंहण करने अर्थात् तृप्त करने से, एवं । पुडपागेहि य-पाक विधि से निष्पन्न औषधियों से । छल्लीहि य-छालों से अथवा रोहिणी प्रभृति वन - लताओ से । मूलेहि य- वृक्षादि के मूलों - (१) मस्तक पर चमड़े की पट्टी बान्धकर उस में नाना विधि द्रव्यों से संस्कार किये गये तेल को भरने का नाम शिरोबस्तो है । 1 1 1 -- Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal - Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय] हिन्दो भाषा टीका सहित। [६७ जड़ों से। कंदेहि य-कन्दों से। पत्तोहि य-पत्रों से । पुप्फेहि य- पुष्पों से। फलेहि य-फलों से । बीएहि य - बीजों से। सिलियाहि य-चिरायता से । गुलियाहि य-गुटिकाओं - गोलियों से । श्रोसहहि य-औषधियों-जो एक द्रव्य से निर्मित हों, और । भेलज्जेहि य -भैषज्यों - अनेक द्रव्यों से निर्माण की गई औषधियों, के उपचारों से । इच्छति-प्रयत्न करते हैं, अर्थात् इन पूर्वोक्त नाना विध उपचारों से एकादि राष्ट्रकूट के शरीर में उत्पन्न हुए सोलह रोगों में से किसी एक रोग को शमन करने का यत्न करते हैं परन्तु । उव सामित्तते-उपशमन करने में वे । णो चेव-नहीं । संचाएंति -समर्थ हुए अर्थात् उन में से एक रोग को भी वे शमन नहीं कर सके। तते णं-तदनन्तर । ते-वे । बहवे -बहुत से । वेज्जा य गेज्जपुत्ता य ६-वैद्य और वैद्यपुत्र आदि । जाहे-जब । तेसिंउन । सोलसण्हं - सोलह । रोयातंकाणं-रोगातंकों में से । एगमवि रोयायंकं-किसी एक रोगातंक को भी। उवसामित्तर-उपशान्त करने में । णं-वाक्यालंकारार्थक है । णो चेव संचाएंति-समर्थ नहीं हो सके। ताहे- तब । संता-श्रान्त । (देह के खेद से खिन्न) तथा । तंता-तान्त-(मनके दुःख से दुःखित) और परितंता -परितान्त-(शरीर और मन दोनों के खेद से खिन्न) हुए २ । जामेव दिसं - जिस दिशा से अर्थात् जिधर से । पाउन्भूता-पाये थे । तामेव दिसं-उसी दिशा को अर्थात् उधर को ही। पडिगता-चले गये मूलार्थ- तदनन्तर वह एकादि राष्ट्रकूट सोलह रोग तंकों से अत्यन्त दुःखी हुआ २ कौटुम्बिक पुरुषों-सेवकों को बुलाता है बुला कर उन से इस प्रकार कहता है कि - हे' देवानुप्रियो ! तुम जाओ, और विजयवद्ध मान खेट के शृंगाटक [त्रिकोणमार्ग] त्रिक त्रिपथ (जहां तीन रास्ते मिलते हों ] चतुष्क चतुष्पथ [जहां पर चार मार्गे एकत्रित होते हों] चत्वर [ जहां पर चार से अधिक मार्गों का संगम हो ] महापथ-राज मार्ग और अन्य साधारण मार्गों पर जा कर बड़े ऊंचे स्वर से इस तरह घोषणा करो कि - हे महानुभावो ! एकादि राष्ट्र कूट के शरीर में श्वास, कास, ज्वर यावत् कुष्ठ ये १६ भयंकर रोग उत्पन्न हो गये हैं। यदि कोई वैद्य या वैद्यपुत्र, ज्ञायफ या ज्ञायक-पुत्र एवं चिकित्सक या चिकित्सकपुत्र उन सोलह रोगातकों में से (१) जैनागमों में किसी को सम्बोधित करने के लिये प्रायः देवानुप्रिय शब्द का प्रयोग अधिक उपलब्ध होता है । इस का क्या कारण है ? इस प्रश्न के समाधान के लिये देवानुप्रिय शब्द के अर्थ पर विचार कर लेना आवश्यक है । प्राकृत-शब्द-महार्णव नाम के कोष में देवानुप्रिय शब्द के भद्र, महाशय, महानुभाव, सरलप्रकृति-इतने अर्थ लिखे हैं । अर्ध मागधी कोषकार देव के समान प्रिय, देववत् प्यारा ऐसा अर्थ करते हैं । अभिधानराजेन्द्र कोष में सरल स्वभावी यह अर्थ लिखा है, यही अर्थ टीकाकार आचार्य अभय देव सूरि ने भी अपनी टीकायों में अपनाया है । कल्पसूत्र के व्याख्याकार समय -सु दर जी गणी अपनी व्याख्या में लिखते हैं"-हे देवानुप्रिय ! सुभग ! अथवा देवानपि अनुरूपं प्रीणातीति देवानुप्रियः, तस्य सम्बोधनं हे देवानुप्रिय !-" गणी श्री जी के कहने का अभिप्राय यह है कि-देवानुप्रिय शब्द के दो अर्थ होते हैं - प्रथम सुभग । सुभग शब्द के अर्थ हैं - यशस्वी, तेजस्वी इत्यादि । दूसरा अर्थ है --जो देवताओं को भी अनुरूप – यथेच्छ प्रसन्न करने वाला हो उसे देवानुप्रिय कहते हैं । अर्थात् -वक्ता देवानुप्रिय शब्द के सम्बोधन से सम्बोधित व्यक्ति का उस में देवों को प्रसन्न करने की विशिष्ट योग्यता बता का सम्मान प्रकट करता है । सारांश यह है कि देवानुप्रिय एक सम्मान सूचक सम्बोधन है, इसी लिये ही सूत्रकार ने यत्र तत्र इसका प्रयोग किया है । For Private And Personal Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६८] श्री विपाक सूत्र [ प्रथम अध्याय किसी एक रोगातंक को भी उपशान्त करे तो एकादि राष्ट्रकूट उस को बहुत सा धन देगा । इस प्रकार दो बार, तीन बार उद्घोषणा करके मेरी इस अाज्ञा के यथावत् पालन की मुझे सूचना दो। तदनन्तर वे कौटुम्बिक पुरुष एकादि राष्ट्रकूट की आज्ञानुसार विजयवद्धमान खेट में जा कर उद्घोषणा करते हैं और वापिस आ कर उस को एकादि राष्ट्रकूट को सूचना दे देते हैं । ततपश्चात् विजयवद्धमान खेट में इस प्रकार को उद्घोषणा का श्रवण कर अनेक वैद्य, वैद्य पुत्र, ज्ञायक, ज्ञायकपत्र. चिाकत्सक और चिकित्सकपुत्र हाथ में शस्त्रपेटिका [ शस्त्रादि रखने का बक्स या थैला ] लेकर अपने २ घरों से निकल पड़ते हैं निकल कर विजयबर्द्धमान खेट के मध्य में से होते हुए जहां एकादि राष्ट्रकूट का घर था वहां पर आ जाते हैं, आ कर एकादि राष्ट्रकूट के शरीर का स्पर्श करते हैं, शरीर- सम्बन्धी परामर्श करने के बाद रोगों का निदान पूछते हैं अर्थात् रोगविनिश्चयार्थ विविध प्रकार के प्रश्न पूछते हैं, प्रश्न पूछने के अनन्तर उन १६ रोगातंकों में से अन्यतम-किसी एक ही रागातंक को उपशान्त करने के लिये अनेक अभ्यंग, उद्वर्तन, स्नेहपान, वमन, विरेचन, सेचन, अथवा स्वेदन, अवदाहन, अवस्नान, अनुवासन, बस्तिकर्म, निरुह, शिर वेध, तक्षण, प्रतक्षण शिरोबस्ति, तपेण [इन क्रियाओं से तथा पुटपाक, त्वचा, मूल, कन्द, पत्र, पुष्प, फल और बीज एंव शिलिका (चिरायता) के उपयोग से तथा गुटिका, औषध, भेषज्य आदि के प्रयोग से प्रयत्न करते हैं अर्थात् इन पूर्वोक्त साधनों का रोगोपशांति के लिये उपयोग करते हैं । परन्तु इन पूर्वोक्त नानाविध उपचारों से वे उन १६ रोगों में से किसी एक रोग को भी उपशान्त करने में समथ न हो सके। जब उन वैद्य और वैद्यपुत्रादि से उन १६ रोगातंकों में से एक रोगातंक का भी उपशमन न हो सका तब वे वैद्य और वैद्य पुत्रादि श्रान्त, तान्त और परितान्त होकर जिधर से आये थे उधर को ही चल दिये । ___टीका-एकादि राष्ट्रकूट ने रोगाक्रान्त होने पर अपने अनुचरों को कहा कि तुम विजयवर्द्धमान खेट के प्रसिद्ध २ स्थलों पर जाकर यह घोषणा कर दो कि एकादि राष्ट्रकूट के शरीर में एक साथ ही श्वास कासादि १६ भीषण रोग उत्पन्न हो गये हैं, उन के उपशमन के लिये वैद्यों, ज्ञायकों और चिकित्सकों को बुला रहे हैं। यदि कोई वैद्य, ज्ञायक या चिकित्सक उन के किसी एक रोग को भी उपशान्त कर देगा तो उसको भी वह बहुत सा धन देकर सन्तुष्ट करेगा। अनुचरों ने अपने स्वामी की इच्छानुसार नगर म घोषणा कर दी। इस घोषणा को सुन कर खेट में रहने वाले बहुत से वैद्य, ज्ञायक और चिकित्सक वहां उपस्थित हुए। उन्हों ने शास्त्रविधि के अनुसार विविध प्रकार के उपचारों द्वारा एकादि के शरीरगत रोगों को शान्त करने का भरसक प्रयत्न किया, परन्तु उस में वे सफल नहीं हो पाये। समस्त रोगों का शमन तो अलग रहा, किसी एक रोग को भी वे शान्त न कर सके। तब सब के सब म्लान मुख से अात्मग्लानि का अनुभव करते हुए वापिस आ गये । प्रस्तुतसूत्र का यह संक्षिप्त भावार्थ है जो कि उस से फलित होता है । यहां पर एकादि राष्ट्रकूट का अनुचरों द्वारा घोषणा कराना सूचित करता है कि उस के गृहवेद्योंघरेलू चिकित्सकों के उपचार से उसे कोई लाभ नहीं हुआ । एकादि राष्ट्रकूट एक विशाल प्रान्त का अधपति था और धनसम्पन्न होने के अतिरिक्त एक शासक के रूप में वह वहां विद्यमान था। तब उसके वहां निजी वैद्य न हों और उन से उस ने चिकित्सा न कराई हो, यह संभव ही नहीं हो सकता। परन्तु गृह वैद्यों के उपचार से लाभ न होने पर अन्य वैद्यों को बुलाना उस के लिये अनिवार्य हो जाता है । एतदर्थ ही एकादि राष्ट्रकूट को घोषणा करानी पड़ी हो, यह अधिक सम्भव है। तथा “बहुरत्ना वसुन्धरा" इस अभियुक्तोक्ति For Private And Personal Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय } हिन्ही भाषा टीका सहित। के अनुसार संसार में अनेक ऐसे गुणी पुरुष होते हैं जो कि पर्याप्त गुणसम्पत्ति के स्वामी होते हुए भी अप्रसिद्ध रहते हैं, और बिना बुलाये कहीं जाते नहीं। ऐसे गुणी पुरुषों से लाभ उठाने का भी यही उपाय है जिसका उपयोग एकादि राष्ट्रकूट ने किया अर्थात् घोषणा करादी । सांसारिक परिस्थिति में अथ का प्रलोभन अधिक व्यापक और प्रभत्व शाली है । १“अर्थस्य पुरुषोदासः दासस्त्वर्थो न कस्यचित्" इस नीति-वचन को सन्मुख रखते हुए नीतिकुशल एकांदि ने गुणिजनों के आकरणार्थ अर्थ का प्रलोभन देने में भी कोई त्रुटि नहीं रक्खी, अपने अनुचरों द्वारा यहां तक कहलवादिया कि अगर कोई वैद्य या चिकित्सक प्रभृति गुणी पुरुष, उसके १६ रोगों में से एक रोग को भी शान्त कर देगा तो उसे भी वह पर्याप्त धन देगा, इस से यह तो अनायास ही सिद्ध हो जाता है कि समस्त रोगों को उपशान्त करने वाला कितना लाभ प्राप्त कर सकता है । अर्थात् उप के लाभ की तो कोई सीमा नहीं रहती। दो या तीन बार बड़े ऊचे स्वर से घोषणा करने का आदेश देने का प्रयोजन मात्र इतना ही प्रतीत होता है कि इस विज्ञप्ति से कोई अज्ञात न रह जाय । एतदर्थ ही उद्घोषणा स्थानों के निर्देश में शृङ्गाटक, त्रिपथ, चतुष्पथ और महापथ एवं साधारणपथ आदि का उल्लेख किया गया है । शृङ्गाटक-त्रिकोण मार्ग को कहते हैं । त्रिक-जहां पर तीन रास्ते मिलते हों । चतुष्क - चतुष्पथ, चार मार्गों के एकत्र होने के स्थान का नाम है जिसे आम भाषा में "चौक'' कहते हैं । चत्वर--चारमार्गों से अधिक मार्ग जहां पर संमिलित होते हों उसकी चत्वर संज्ञा है। महापथ-राजमार्ग का नाम है, जहां कि मनुष्य समुदाय का अधिक संख्या में गमनागमन हो । पथ सामान्य मार्ग को कहते हैं । प्रस्तुत सूत्र में वैद्य, ज्ञायक और चिकित्सक, ये तीन शब्द प्रयुक्त हुए हैं । इन के अर्थ-विभेद की कल्पना करते हुए वृत्तिकार के कथनानुसार जो वैद्यकशास्त्र और चिकित्सा दोनों में निपुण हो वह वैद्य, और जो केवल शास्त्रों में कुशल हो वह ज्ञायक तथा जो मात्र चिकित्सा में प्रवीण हो वह चिकित्सक कहा जाता है। यहां पर एक बात विचारणीय प्रतीत होती है, वह यह कि "वेजो वा बोजपुत्तो वा-" इत्यादि पाठ में वैद्य के साथ. वैद्य-पत्र का, ज्ञायक के साथ ज्ञायक-पत्र का एवं चिकित्सक के साथ चिकित्सक-पुत्र का उल्लेख करने का सूत्रकार का क्या अभिप्राय है ? तात्पर्य यह है के वैद्य और वैद्यपुत्र में क्या अन्तर है, जिसके लिये उसका पृथक २ प्रयोग किया गया है । वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि ने भी इस पर कोई प्रकाश नहीं डाला। "वैद्य पुत्र" का सीधा और स्पष्ट अर्थ है – वैद्य का पुत्र-वैद्य का लड़का । इसीप्रकार ज्ञायकपुत्र और चिकित्सकपुत्र का भी, ज्ञायक का पुत्र चिकित्सिक को पुत्र-बेटा यही प्रसिद्ध अर्थ है । एवं यद वैद्य का वैद्य पुत्र है ज्ञायक का पुत्र ज्ञायक और चिकित्सक का पुत्र भी चिकित्सक है तब तो वह वैद्य ज्ञायक एवं चिकित्सक के नाम से हो सुगृहीत हैं, फिर इस का पृथक निर्देश क्यों ? अगर उस में -- वैद्यपुत्र में (१) यह सम्पूर्ण वचन इस प्रकार है - अर्थस्य पुरुषो दासो, दासस्त्वर्थो न कस्यचित् । इति सत्यं महाराज ! बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरौः ॥१॥ कहते हैं कि दुर्योधनादि कौरवों का साथ देते हुए एक समय महारथी भीष्म पितामह से युधिष्ठर प्रभृति किसी संभावित व्यक्ति ने पूछा कि आप अन्यायी कौरवों का साथ क्यों दे रहे हो ? इसके उत्तर में उन्हों ने कहा कि संसार में पुरुष तो अर्थ का दास-धन का गुलाम है परन्तु अर्थ-धन किसी का भी दास-गुलाम नहीं, यह बात अधिकांश सत्य है, इसलिये महाराज ! कौरवों के अर्थ ने-धन प्रलोभन ने मुझे बान्ध रक्खा है । (२) "वेज्जो व" त्ति वैद्यशास्त्रे चिकित्सायां च कुशलः । “वेज्जपुत्तो व' त्ति तत्पुत्रः “जाणुप्रो व" त्ति ज्ञायक: केवल-शास्त्रकुशलः। "तेगिच्छिनोव', त्ति चिकित्सामात्रकुशलः। [अभयदेवसूरिः] For Private And Personal Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७० ] श्री विपाक सूत्र - [प्रथम अध्याय वैद्योचित गुणों का सद्भाव है तत्र तो उस का कारित करना तथा उस का वहां जाना ये सब कुछ उपहास्यास्पद ही हो जाता है । हां ! अगर "वैद्यपुत्र"" आदि शब्दों को यौगिक न मान कर रूढ़ अर्थात् संज्ञा-वाचक मान लिया जाय तात्पर्य यह है कि वैद्यपुत्र का "वैद्य का पुत्र" अर्थ न कर के “वैद्यपुत्र'' इस नाम का कोई व्यक्ति विशेष माना जाय तब तो इस के पृथक् निर्देश की कथमपि उपपत्ति हो सकती है । परन्तु इस में भी यह आशंका बाकी रह जाती है कि जिस प्रकार वैद्य शब्द से -- आयुर्वेद का ज्ञाता और चिकित्सक कर्म में निपुण यह अर्थ सुगृहीत होता है उसी प्रकार “वैद्य पुत्र" शब्द का भी कोई स्वतंत्र एवं सुनिश्चत अर्थ है ? जिसका कहीं पर उपयोग हुआ या होता हो ? टीकाकार महानुभावों ने भी इस विषय में कोई मार्ग प्रदर्शित नहीं किया तब प्रस्तुत श्रागम पाठ में वैद्य पुत्र आदि शब्दों की पृथक नियुक्ति किस अभिप्राय से की गई है ? विद्वानों को यह अवश्य विचारणीय है । पाठकों को इतना स्मरण अवश्य रहे कि हमारे इस विचार सन्दोह में हमने अपने सन्देह को ही अभिव्यक्त किया है, इस में किसी प्रकार के आक्षेप प्रधान विचार को कोई स्थान नहीं। हम अमवादी अर्थात् श्रागम प्रमाण का सर्वेसर्वा अनुसरण करने और उसे स्वतः प्रमाण मानने वाले व्यक्तियों में से हैं । इस लिये हमारे श्रागम-विषयक श्रद्धा पूरित हृदय में उस पर आगम पर आक्षेप करने के लिये कोई स्थान नहीं । और प्रस्तुत चर्चा भी श्रद्धा - पूरित हृदय में उत्पन्न हुई हार्दिक सन्देह भावना मूलक ही है । किसी आगम में प्रयुक्त हुए किसी शब्द के विषय में उसके अभिप्राय से अज्ञात होना हमारी छस्थता कोही आभारी है । तथापि हमें गुरु चरणों से इस विषय में जो समाधान प्राप्त हुआ है वह इस प्रकार है - वैद्य शब्द प्राचीन अनुभवी वृद्ध वैद्य का बोधक है और वैद्यपुत्र उनकी देखरेख में उनके हाथ नीचे काम करने वाले लघु वैद्य का परिचायक है । किसी विशिष्ट रोगी के चिकित्सा क्रम में इन दोनों की ही आवश्यकता रहती है । वृद्ध वैद्य के आदेशानुसार लघु वैद्य के द्वारा रोगी का औषधोपचार जितना सुव्यवस्थित रूप से हो सकता है उतना द्य से नहीं हो सकता | आजकल के श्रातुरालयों- हस्तपतालों में भी एक सिवल सर्जन और उसके नीचे अन्य छोटे डॉक्टर होते हैं । इसी भांती उस समय में भी वृद्ध वैद्यों के साथ विशेष अनुभव प्राप्त करने की इच्छा से शिष्य रूप में रहने वाले अन्य लघुवैद्य होते थे जो कि उस समय वैद्यपुत्र के नाम से अभिहित किये जाते थे । इसी अभिप्राय से सूत्रकार ने वैद्य के साथ वैद्यपुत्र का उल्लेख किया है । यहां पर सूत्रकार ने एकादि राष्ट्रकूट के उपलक्ष्य में उसके रुग्ण शरीर सम्बन्धी औषधोपचार के विधान में सम्पूर्ण चिकित्सा पद्धति का निर्देश कर दिया है । रोगी को रोगमुक्त करने एवं स्वास्थ्ययुक्त बनाने में इसी चिकित्सा क्रम का वैद्यक ग्रन्थों में उल्लेख किया गया है । पाठकगण. प्रस्तुत सूत्रगत पाठों में वर्णित चिकित्सा सम्बन्धी विशेष विवेचन तो वैद्यक ग्रन्थों के द्वारा जान सकते हैं, परन्तु यहां तो उस का मात्र दिग्दर्शन कराया जा रहा है. (१) अभ्यंग :- तैलादि स्निग्ध पदार्थों को शरीर पर मलना अभ्यंग कहलाता है, इसका दूसर नाम तैल-मर्दन है । सरल शब्दों में कहें तो शरीर पर साधारण अथवा औषधि सिद्ध तेल की मालिश को अभ्यंग कहते हैं । (२) उर्तन - अभ्यंग के अनन्तर उद्वर्तन का स्थान है । उबटन लगाने को उद्ववर्तन कहते हैं, अर्थात् - तैलादि के अभ्यंग से जनित शरीरगत जो बाह्य स्निग्धता है उस को एवं शरीर गत अन्य मल को दूर करने के लिये जो अनेकविध पदार्थों से निष्पन्न उवटन है उस का अंगोपांगों For Private And Personal Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । पर जो मलना है वह ही उद्वतन कहलाता है । (३) स्नेहपान-घृतादि स्निग्ध-चिकने पदार्थों के पान को स्नेह-पान कहते हैं। (४) वमन-उलटी या के का ही संस्कृत नाम वमन है । चरक संहिता के कल्प स्थान में इस की परिभाषा इस प्रकार की गई है : -तत्र दोषहरण चूर्वभागं वमनसंज्ञकम्, अर्थात् ऊर्ध्व भागो द्वारा दोषों का निकालना- मुख द्वारा दोषों का निष्कासन वमन कहलाता है। यद्यपि वैद्यक --- ग्रन्थों में वमन विरेचनादि से पूर्व स्वेदविधि का विधान' देखने में आता है, और यहां पर उस का उल्लेख वमन तथा विरेचन के अनन्तर किया गया है, इसका कारण यह प्रतीत होता है कि सूत्रकार को इन का क्रम पूर्वक निर्देश करना अभिमत नहीं, अपितु रोग - शान्ति के उपायों का नियोजन ही अभिप्रेत है, फिर वह क्रमपूर्वक हो या क्रमविकल । अन्यथा अवदाहन तथा अवस्नान के अनन्तर अनुवासनादि बस्तिकर्म का सूत्रकार उल्लेख न करते । (५) विरेचन-अधोद्वार से मल का निकालना ही विरेचन है। चरक संहिता कल्पस्थान में विरेचन शब्द की परिभाषा इस प्रकार की गई है । "अधोभागं विरेचनसंज्ञकमुभयं वा शरीरमल -- विरेचनाद् विरेचन राब्दं लभते" अर्थात् – अधो भाग से दोषों का निकालना विरेचन कहलाता है, अथवा शरीर के मल का रेचन करने से उर्ध्वविरेचन तथा अधोविरेचन इस प्रकार दोनों को विरेचन शब्द से पुकारा जा सकता है । इन में उर्ध्वविरेचन की वमन संज्ञा है और अधोविरेचन को विरेचन कहा है । संक्षेप से कहें तो मुख द्वारा मलादि का अपसरण वमन है, और गुदा के द्वारा मल निस्सारण की विरेचन संज्ञा है। (६) २स्वेदन - स्वेदन का सामान्य अर्थ पसीना देना है। (७) अवदाहन-गर्म लोहे की कोश आदि से चर्म (फोडे फुन्सी आदि) पर दागने को अवदाहन कहते हैं । बहुत सी ऐसी व्याधियें हैं जिनकी दागना ही चिकित्सा है। चरक दि ग्रन्थों में इस का कोई विशेष उल्लेख देखने में नहीं आता । (८) अवस्नान-शरीर की चिकनाहट को दूर करने वाले अनेकविध द्रव्यों से मिश्रित तथा संस्कारित जल से स्नान कराने को अवस्नान कहते हैं । (९, १०, ११) अनुवासना - बस्तिकर्म-निरुह - शाङ्गधर संहिता [अ. ५ ] में बस्ति का वर्णन इस प्रकार किया गया है (१) येषां नस्यं विधातव्यं, बस्तिश्चैवापि देहिनाम् ।। __ शोधनीयाश्च ये केचित् , पूर्व स्वेद्यास्तु ते मताः ॥१॥ अर्थात् - जिस को नस्य ( वह दवा या चूर्णादि जिसे नाक के रास्ते दिमाग में चढ़ाते हैं ) देना हो, बस्तिकर्म करना हो, अथवा वमन या विरेचन के द्वारा शुद्ध करना हो. उसे प्रथम स्वेदित करना चाहिये, उसके शरीर में प्रथम स्वेद देना चाहिए । [वंगसेन में स्वेदाधिकार ] (२) मूल में उल्लेख किये गये "सेयण' के सेचन और स्वेदन ये दो प्रतिरूप होते हैं । यहां पर सेचन की अपेक्षा स्वेदन का ग्रहण करना ही युक्ति संगत प्रतीत होता है । कारण कि चिकित्सावधि में स्वेदन का ही अधिकार है । सेचन नाम की कोई चिकित्सा नहीं। और यदि "सेचन" प्रतिरूप के लिये ही आग्रह हो तो सेचन का अर्थ जलसिंचन ही हो सकता है । उसका उपयोग तो प्रायः मूर्खा-रोग में किया जाता है । For Private And Personal Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७२] श्री विपाक सूत्र - [प्रथम अध्याय वस्तिद्धिधानुवासाख्यो-निरूहश्च ततः परम् । बस्तिभिर्दीयते यस्मात्तस्माद् बस्तिरिति स्मृतः॥१॥ अर्थात् बस्ति दो प्रकार की होती है -१-अनुवासना बस्ति, २-- निरूह बस्ति । इस विधान में यथा नियम निधारित ओषधियों का बस्ति चर्म निर्मित कोथली)द्वारा प्रयोग किया जाता है इस लिये इसे बस्त कहते हैं । तथा सुश्रुत --संहिता में अनुवासना तथा निरूह इन दोनों की निरुक्ति इस प्रकार की है "-अनुवसन्नपि न दुष्पति, अनुदिवसं वा दीयते इत्यनुवासनाबस्तिः -"जो अनुवासबासी हो कर भी दूषित न हो, अथवा जो प्रतिदिन दी जावे उसे अनुवासना- बस्ति कहते हैं 1 ... "दोषनिरणाच्छरीररोहणाद्वा निरूहः, -- [ दोषों का निहरण-नाश कराने के कारण अथवा शरीर का निःशेषतया सम्पूर्ण रूप से रोहण कराने के कारण इसे निरूह-निरूहबस्ति कहा है। आचार्य अभयदेव सूरि ने बस्ति कर्म का अर्थ चर्मवेष्टन द्वारा शिर आदि अंगों को स्निग्ध - स्नेह पुरित करना, अथवा गुदा में वर्ति आदि का प्रक्षेप करना" यह किया है । और अनुवास, कर तथा शिरो बस्ति को बस्ति कर्म का ही अवान्तर भेद माना है । इस के अतिरिक्त अनवास और निरूह बस्ति के स्वरूप में अन्तर न मानते हुए उन के प्रयोगों में केवल द्रव्य कत विशेषता को ही स्वीकार किया है तात्पर्य यह है कि अनुवासना में जिन औषधि---द्रव्यों का उप रोग किया जाता है, निरूह बस्ति में उनसे भिन्न द्रव्य उपयुक्त होते हैं। बंगसेन के बस्ति कर्माधिकार प्रकरण में बस्ति सम्बन्धी निरूपण इस प्रकार किया है - कषायक्षरितो बस्तिनिरूहः सन्निगद्यते । य: स्नेहैर्दीयते स स्यादनुवासन-संज्ञकः ॥४॥ बस्तिभिर्दीयते यस्मात्तस्माद् बस्तिरिति स्मृतः । निरूहस्यापरं नाम प्रोक्तमास्थापनं बुधैः ।।५।। निरूहो दापहरणा-द्रोहणादथवा तनोः, आस्थापयेद् वयो देहं यस्मादास्थापनः स्मृतः ।।६।। निशानुवासात् स्नेहोऽन्वासनश्चानुवासनः ॥७॥ विरक्तसम्पूर्णहिताशनस्य, आस्थाप्यशय्यामनुदायते यत् । तदुच्यते वाप्यनुवासनं च, तेनानुवासश्च बभूव नाम ।।८।। उत्कृष्टावयवे दानाद् बस्तिरुत्तरसंज्ञितः ॥९॥ इत्यादि अर्थात्-क्वाथ और दूध के द्वारा जो बस्ति दी जाती है उस को निरूह बस्ति कहते हैं । तथा घी अथवा तैलादि के द्वारा जो बस्ति दा जावे उसे अनुवासन कहा है। मृगादि के मूत्राशय की कोथली रूप साधन के द्वारा पिचकारी दी जाती है इस कारण इस पिचकारी को बस्ति कहते हैं । विद्वानों ने निरूह बस्ति का अपर नाम "प्रास्थापना" बस्ति भी कहा है । निरूह बस्ति दोषों को अपहरण करती है, अथवा देह को अारोपण करतो है, इस कारण इसकी निरूह संज्ञा है । और आयु तथा देह को स्थापन करती है इसकारण इसे आस्थापनबस्ति कहते हैं ||६|| (१) "अनुवासणाहि य” ति-अपानेन जठरे तैनप्रक्षेपणैः । “बत्थिकम्मेहि य' ति चर्मवेष्टन -प्रयोगेण शिरः प्रभृतोनां स्नेहपूरणः, गुदे वा वादिप्रक्षेपणः । “निरूहेहि य” त्ति निरूहः अनुवास एव, केवलं द्रव्यकृतो विशेषः । प्रागक्त -- बस्तिकर्माणि सामान्यानि अनुवासना - निरूह -शिरोवस्त यस्तद् भेदाः। For Private And Personal Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका महित । [७३ अनुवासनास्ति में रात्रि के समय स्नेह के अनुवा सित होने के कारण इसको अनुवासनावस्ति कहते हैं अथवा अच्छे प्रकार से विरेचन होने पर उत्तम प्रकार से पथ्य करने पर शय्या में स्थापित कर के पश्चात् यह अनुवासना दी जाती है इस लिये इसको अनुवासनावस्ति कहते हैं ॥७-८॥ तथा उत्कृष्ट अवयव में दी जाने वाली बत्ति की उत्तर संज्ञा है। ___ इस वर्णन में वस्तिकर्म के भेद और उन भेदों की निर्वचन-पूर्वक व्याख्या तथा निरूह और अनुवासना में द्रव्यकृत विशेषता आदि सम्पूर्ण विषयों का भनी भांति परिचय करा दिया गया है। तथा इस से वृत्तिकार के बस्ति -- सम्बन्धी निर्वचनों का भी अच्छी तरह से समर्थन हो जाता है। (१२) शिरावध --शिरा नाम नाड़ो का है उस का वेध - वेधन करना शिरावेध कहलाता है इसी का दूसरा नाम नाड़ी वेध है । शिरावेध की प्रक्रिया का निरूपण चक्रदत्त में बहुत अच्छी तरह से किया गया है । पाठक वहीं से देख सकते हैं। (१३, १४) तक्षण--प्रतक्षण - साधारण कर्तन कर्म को तक्षण, और विशेष रूपेण कर्तन को प्रतक्षण कहते हैं । वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि के कथनानुसार - क्षर, लवित्र - चाक आदि शस्त्रों के द्वारा त्वचा का (चमड़ी का ) सामान्य कर्तन --काटना, तक्षण कहलाता है और त्वचा का सूक्ष्म विदारण अर्थात् बारीक शस्त्रों से त्वचा की पतली छाल का विदारण करना प्रतक्षण' है । (१५) शिरोबस्ति - सिर में चर्मकोश देकर-बान्धकर उस में औषधि --- द्रव्य - संस्कृत तैलादि को पूर्ण करना-भरना, इस प्रकार के उपचार --विशेष का नाम शिरोबस्ति है [ शिरोबस्तिभि : शिरसि बद्धस्य चर्मकोशस्य द्रव्य-संस्कृत तेलाद्या पूरण लक्षणाभिरिति वृत्तिकार : 1 चक्रदत्त में शिरोबस्ति का विधान पाया जाता है, विस्तारभय से यहां नहीं दिया जाता । पाठक वहीं से देख सकते हैं। (१६) तर्पण-स्निग्ध पदाथों से शरीर के वृंहण अर्थात् तृप्त करने को तर्पण कहते हैं। चक्रदत्त के चिकित्सा प्रकरण में तर्पण सम्बन्धी उल्लेख पाया जाता है । पाठक वहीं से देख सकते हैं । (१७) पुटपाक-अमुक रस का पुट दे कर अग्नि में पकाई हुई औषधि को पुट-पाक कहते हैं । पुटपाक का सांगोपांग वर्णन चक्रदत्त के रसायनाधिकार में किया गया है । प्राकृत-शब्द-महार्णव कोश में पुटपाक के दो अर्थ किये हैं - (१) पुट नामक पात्रों से औषधि का पाक-विशेष (२) पाक से निष्पन्न औषधि-विशेष । (१८) छल्नी-स्वचा-छाल को छल्ली कहते हैं । (१९, २०) मूल, कन्द-मूली-गाजर और जिमीकन्द तथा आलू आदि का नाम है । (२१) शिलिका से चरायता आदि औषधि का ग्रहण समझना (२२) गुटिका --अनेक द्रव्यों को महीन पीस कर अमुक औषधि के रस की भावना आदि से निर्माण की गई गोलिये गुटिका कहलाती हैं । (२३, २४) औषध, भैषज्य -- एक द्रव्यनिर्मित औषध के नाम से तथा अनेक-द्रव्य संयोजित भैषज्य के नाम से ख्यात है । "संता, तंता, परितंता', इन तीनों पदों में अर्थगत विभिन्नता वृत्तिकार के शब्दों में निम्नलिखित है 'संत" त्ति श्रान्ता देह खेदेन "तंत" त्ति - तान्ता मनःखेदेन, “परितंत" ति - उभयखेदेनेति' अर्थात् शारीरिक खेद से. मानसिक खेद से, तथ दोनों के श्रम से खेदित हुए । तात्पर्य यह है (१ "तच्छणेहि य” त्ति हुरादिना त्वचस्तनूकरणैः । “पच्छणेहि य” त्ति ह्रस्वैस्त्वचो विदारणैः । (२) तर्पणः स्नेहादिभिः शरीरस्य वृंहणैः [वृत्तिकार:] For Private And Personal Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७४] श्री विपाक सूत्र [प्रथम अध्याय कि उन का शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार का श्रम व्यर्थ जाने-निष्फल होने से वे अत्यन्त खिन्नचित्त हुए और वापिस लौट गए । इस प्रकार एकादि राष्ट्रकूट के शरीर-गत रोगों की चिकित्सा के निमित्त आये हुए वैद्य, ज्ञायक और चिकित्सकों के असफल होकर वापिस जाने के अनन्तर एकादि राष्ट्रकूट की क्या दशा हुई अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं - मूल---'तते णं एक्काइ० विज्जेहि य पड़ियाइक्खिए परियारगपरिचत्ते निविएणोसहभेसज्जे सोलसरोगातंकेहिं अभिभूते समाणे रज्जे य रतु य जाव अंतेउरे य मुच्छिते रज्जं च आसाएमाणे पत्थेमाणे पीहेमाणे अहिलसमाणे अट्टहट्टवसदृ अड्ढाइज्जाई वाससयाई परमाउं पालयिता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोससागरोवमद्वितीएसु नेर: एसु णेरइयत्ताए उववन्ने । से णं ततो अणंतरं उचट्टिता इहेव मियग्गामे णगरे विजयस्स खत्तियस्स मियाए देवोए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववन्ने। पदार्थ-तते णं तदनन्तर । विज्जेहि य-वैद्यों के द्वारा । पड़ियाइक्खिए- प्रत्याख्यातनिषिद्ध किया गया। परियारगपरिचते-परिचारकों नौकरों द्वारा परित्यक्त त्यागा गया। निव्विरणोसहभेसज्जे-औषध और भैषज्य से निर्विण्ण-विरक्त, उपराम । सोलसरोगातंकेहिं-१६ रोगातंकों से । अभिभूते समाणे- खेद को प्राप्त हुआ। एक्काइ०- एकादि राष्ट्रकूट । रज्जे य-राज्य में । र? य-और राष्ट्र में। जावयावत् । अन्तेउरे य-अन्तः पुर-रणवास में । मुच्छिते-मूछित आसक्त तथा । रज्जं च-राज्य और राष्ट्र का । आसाएमाणे-आस्वादन करता हुआ । पत्थेमाणे- प्रार्थना करता हुआ। पीहेमाणे-स्पृहाइच्छा करता हुअा । अहिलसमाणे-अभिलाषा करता हुआ । अट्ट-पात - मानसिक वृत्तियों से दुःखित दुहह-दुःखात - देह से दुखी अर्थात् शारीरिक व्यथा से आकुलित । वस?- वशात --- इन्द्रियों के वशीभूत होने से पीड़ित । अड्ढाइज्जाई वाससयाई-अढाई सौ वर्ष ।परमाउं- परमायु, सम्पूर्ण आयु । पालयित्तापालन कर । कालमासे - कालमास में । कालं किच्चा- काल मृत्यु को प्राप्त कर । इमीसे-- इस रयणपहाए - रत्नप्रभा नामक । पुढवोर - पृथिवी-नरक में । उक्कोस-सागरोवहितीए.सु- उत्कृष्ट सगरोपम स्थिति वाले । नेरइएसु-नारकों में । णेरइयत्ताए-नारकरूप से । उववन्ने-उत्पन्न हुआ । तते णं-- तदनन्तर । से-वह एकादि । अणंतंर - अन्तर रहित बिना अन्तर के । उध्वहिता-नरक से निकल कर । इहेव-इसी। मियग्गामे-मृगाग्राम नामक । णगरे-नगर में । विजयस्स-विजय नामक । खत्तियस्सक्षत्रिय की। मियाए देवीए-मृगादेवी की । कुञ्छिसि - कुक्षि में-उदर में । पुत्तत्ताए-पुत्ररूप से उववन्ने- उत्पन्न हुअा। मूलार्थ- तदनन्तर वैद्यों के द्वारा प्रत्याख्यात [ अर्थात इन रोगों का प्रतिकार हमसे (१) छाया-ततः एकादिवैद्य श्च प्रत्याख्यात: परिचारकपरित्यक्तः निर्विरणौषधभैषज्यः षोड़शरोगातंकः अभिभूतः सन् राज्ये च राष्ट्र च यावद् अन्तःपुरे च मूर्छितः ४ राज्यं च आस्वदमानः प्रार्थयमानः स्पृहमाणः अभिलषमाणः अार्तदुःखार्तवशार्तः अर्द्धतृतीयानि वर्षशतानि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा, अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां उत्कृष्टसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषु नैरयिकतयोपपन्नः, स ततोऽनन्तरमुवृत्य, इहैव मृगाग्रामे नगरे विजयस्य क्षत्रियस्य मृगाया देव्याः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नः । For Private And Personal Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । ७५ नहीं हो सकता, इस प्रकार कहे जाने पर ] तथा सेवकों से परित्यक्त, औषध और भैषज्य से निर्विण्णदुःखित, सोलह रोगातकों से अभिभूत, राज्य और राष्ट्र-देश यावत् अन्तःपुर- रणवास में मूर्च्छितआसक्त, एवं राज्य और राष्ट्र का आस्वादन, प्रार्थना, स्पृहा इच्छा, और अभिलाषा करता हुआ वह एकादि आर्त - मनोव्यथा से व्यथित, दु:ग्वार्त-शारीरिक पीड़ा से पीड़ित और वशातइन्द्रियाधीन होने से परतंत्र- स्वाधीनता रहित होकर जीवन व्यतीत करके २५० वर्ष की पूर्णायु को भोग कर समय काल करके इस रत्नप्रभा पृथिवी - नरक में उत्कृष्ट सागरोपम की स्थिति वाले नारकों में नारकी रूप से उत्पन्न हुआ । तत्पश्चात् वह एकादि का जीव भवस्थिति पूरी होने पर नरक से निकलते ही इसी मृगाग्राम नगर में विजय क्षत्रिय की मृगावती नामक देवी की कुक्षि-उदर में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ । टीका- पापकर्मा का विपाक फल कितना भयंकर होता है यह एकादि राष्ट्रकूट की इस प्रकार की शोचनीय दशा से भली भांति प्रमाणित हो जाता है, तथा आगामी जन्म में उन मन्द कर्मों का फल भोगते समय किस प्रकार की असह्य वेदनाओं का अनुभव करना पड़ता है, यह भी इस सूत्रलेख से सुनिश्चित हो जाता है । एकादि राष्ट्रकूट अनुभवी वैद्यों के यथाविधि उपचार से भी रोगमुक्त नहीं हो सका, उस के शरीरगत रोगों का प्रतिकार करने में बड़े २ अनुभवी चिकित्सक भी सफल हुए, अन्त में उन्हों ने उसे जवाब दे दिया। इसी प्रकार उसके परिचारकों ने भी उसे छोड़ दिया । और उस ने भी औषधोपचार से तंग आकर अर्थात् उस से कुछ लाभ होते न देखकर औषधि सेवन को त्याग दिया । ये सब कुछ स्वोपार्जित अशुभ कर्मों की विचित्र लीला का ही सजीव चित्र है । अष्टांग हृदय नामक वैद्यक ग्रन्थ में लिखा है कि " - यथाशास्त्रं तु निर्णीता, यथाव्याधि- चिकित्सिताः । रोगा ये न शाम्यन्ति ते ज्ञेयाः कर्मजा बुधैः ॥ १॥ अर्थात् जो रोग शास्त्रानुसार सुनिश्चित और चिकित्सत होने पर भी उपशान्त नहीं होते उन्हें कर्मज रोग समझना चाहिये । इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि १६ प्रकार के भयंकर रोगों से अभिभूत थच तिरस्कृत होने पर तथा अनेकविध शारीरिक और मानसिक वेदनाओं का प्रत्यक्ष अनुभव करने पर भी एकादि राष्ट्रकूट के प्रलोभन में कोई अन्तर नहीं पड़ा। वह निरन्तर राज्य के उपभोग और राष्ट्र के शासन का इच्छुक बना रहता है। अभी तक भी उसकी काम वासनायों अर्थात् विषय वासनाओं में कमी नहीं आई । इससे अधिक पामरता और क्या हो सकती है। तब इस प्रकार के पामर जीवों का मृत्यु के बाद नरक - गति में जाना अवश्यंभावी होने से एकादि राष्ट्रकूट भी मर कर रत्न-प्रभा नाम के प्रथम नरक में गया। उसने एकादि के भव में २५० वर्ष की आयु तो भोगी मगर उसका बहुत सा भाग उसे आर्त, दुःखार्त और वशार्त दशा में ही व्यतीत करना पड़ा । तात्पर्य यह है कि उसकी आयु का बहुत सा शेष भाग शारीरिक तथा मानसिक दुःखानुभूति में ही समाप्त हुआ । रज्जेय रहय जाव अंते उरे" यहां पर उल्लेख किये गये "जाव यावत्" पद से "कोसे य कोरे लेय वाहणे य पुरे य" इन पदों का ग्रहण समझना । तथा "मुच्छिए, गढिए, गिद्धे, भवन्नं" ( मूर्च्छितः, ग्रथितः, गृद्धः, अभ्युपपन्नः ) इन चारों पदों का अर्थ समान है । इसी प्रकार “श्रासाएमाणे, पत्थे मारणे, पीहेमाणे, अहिलसमारणे" ये पद भी समानार्थक हैं । 6 "अट्ट-दुहट्ट-सट्ट े - आर्तदुःखार्तवशार्तः " की व्याख्या में श्राचार्य अभयदेव सूरि लिखते हैं कि - " आत मनसा दुखितः, दुखार्तो देहेन, वशार्तस्तु इन्द्रियवशेन पीड़ित:, अर्थात् आर्त शब्द मनोजन्य दुःख, दुखार्त शब्द देहजन्य दुःख और वशातं शब्द इन्द्रियजन्य दुख का सूचक है। इन तीनों शब्दों में कर्म - धारय समास है । तात्पर्य यह है कि ये तीनों शब्द विभिन्नार्थक होने से यहां प्रयुक्त किये गये हैं । For Private And Personal Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७६] श्रो विपाक सूत्र [प्रथम अध्याय रत्नप्रभा नाम के प्रथम नरकस्थान में उत्पन्न होने वाले जीवों की उत्कृष्ट स्थित एक सागरोपम की मानी गई है और जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है । दशकोड़ा - कोड़ी पल्योपम प्रमाण काल (जिसके द्वारा नारकी और देवता की आयु का माप किया जाता है ) की सागरोपम संज्ञा है।। ___ "ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता” इस वाक्य में प्रयुक्त हुअा "अणंतरं" यह पद सूचित करता है कि एकादि का जीव पहली नरक से निकल कर सीधा मृगादेवी की ही कुक्षि में आया, अर्थात् नरक से निकल कर मार्ग में उसने कहीं अन्यत्र जन्म धारण नहीं किया। नारक जीवन की स्थिति पूरी करने के अनन्तर ही एकादि का जीव मृगादेवी के गर्भ में पुत्ररूप से अवतरित हुअा अर्थात् मृगादेवी के गर्भ में अाया, उसके गर्भ में आते ही क्या हुआ ? अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हुए प्रतिपादन करते हैं मूल--तते णं तीसे मियाए देवीए सरीरे वेयणा पाउब्भूता, उज्जला जाव जलंता । जप्पभिति च णं मियापुत्ते दारए मियाए देवीए कृच्छिंसि गब्भत्ताए उववन्ने, तप्पभितिं च णं मियादेवी विजयस्स खत्तियस्य अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुएणा अमणामा जाया यावि होत्था । पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । तीसे-उस । मियाए देवीए-मृगादेवी के । सरीरे-शरीर में । उज्जला-उत्कट । जाव-यावत् । जलंता-जाज्वल्यमान -अति तीव्र । वयणा-वेदना । पाउब्भूता-प्रादुर्भूत-उत्पन्न हुई । णं-वाक्यालंकारार्थ में जानना । जप्पभितिं च -जब से । मियापुत्तेमृगापुत्र नामक । दारए-बालक । मियाए देवीए-मृगादेवी की। कुच्छिंसि-कुक्षि-उदर में गब्भत्ताएगर्भरूप से । उववन्ने--उत्पन्न हुआ। तप्पभिति-तब से लेकर । च णं-च समुच्चार्थ में और णंवाक्यालंकारार्थ में है । मियादेवी-मृगादेवी । विजयस्स खत्तियस्स-विजय नामक क्षत्रिय को । अनिट्ठा-अनिष्ट । अकंता- सौन्दर्य रहित । अप्पिया-अप्रिय । अमणुराणा - अमनोज्ञ- असुन्दर । अमणामा-मन से उतरी हुई। जाया यावि होत्था-हो गई अर्थात् उसे अप्रिय लगने लगी। मूलार्थ-तदनन्तर उस मृगादेवी के शरीर में उज्वल यावत् ज्वलन्त- उत्कट एवं ज, ज्वल्यमान वेदना उत्पन्न हुई-तीव्रतर वेदना का प्रादुर्भाव हुआ । जब से मृगापुत्र नामक बालक मृगादेवी के उदर में गर्भ रूप से उत्पन्न हुआ तब से लेकर वह मृगादेवी विजय नामक पत्रिय को अनिष्ट, अमनोहर, अप्रिय, सुन्दर, मनको न भाने वाली-मन स उतरी हुई सी लगने लगी। टीका-पुण्यहीन पापी जीव जहां कहीं भी जाते हैं वहां अनिष्ट के सिवा और कुछ नहीं होता । तदनुसार एकादि का जीव नरक से निकलकर जब मृगादेवी के उदर में आया तो उसके सुकोमल शरीर में तीव्र वेदना उत्पन्न हो गई । इसके अतिरिक्त उसके गर्भ में आते ही सर्व गुगण-सम्पन्न, सर्वांगसम्पूर्ण परमसुन्दरी [ जो कि विजय नरेश की प्रियतमा थी ] मृगादेवी विजय नरेश को सर्वथा अप्रिय और सौन्दर्य -रहित प्रतीत होने लगो । पुण्य-शाली ओर पा.पेष्ट अात्माओं को पुण्य और पापमय विभूति का इन्हीं लक्षणों से अनुमान किया जाता है। (१) छाया-ततस्तस्या मृगाया देव्याः शरीरे वेदना प्रादुर्भूता, उज्वला यावज्जवलंती। यत्प्रभृति च मृगापुत्रो दारको मृगाया देव्याः कक्षौ गर्भतया उपपन्नः तत्प्रभृति च मृगादेवी विजयस्य क्षत्रियस्य अनिष्टा। अकान्ता, अप्रिया, अमनोज्ञा, अमनोमा जाता चाप्यभवत् । For Private And Personal Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ७७ जाव यावत "उज्जला जाब जलता" इस वाक्य में दिये गये पद से विडला, कक्कसा, पगाढा, चंडा, दुहा, तिव्वा, दुरहियासा- " इन पदों का ग्रहण करना । अदृष्टया इन पदों में कोई विशेष भिन्नता नहीं है । इस प्रकार "अणिट्ठा, अकंता, अप्पिया, अभ्गुण्णा, अमरामा " ये पद भी समानार्थक ही समझने चाहियें । तत्पश्चात् क्या हुआ ? अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं - ર मूल - तते गं तीसे मियाए देवीए अण्णया कयाइ पुव्वरत्ता - वरत्तकालसमयं सि कुडु' बजागरियाए जागरमाणीए इमे एयारूवे अज्झत्थिते समुपपन्ने- एवं खलु अहं विजयस्स खनियस्स पुव्वि इड्डा ६ घेज्जा वेसासिया अणुमया आसि, जप्पभिति चणं मम इमे गब्भे कुच्छिसि गन्मत्ताए उववन्ने, तप्पभिति च णं विजयम्स खत्तियस्स अहं अट्ठा जाव श्रमणामा जाया यावि होत्था । नेच्छति णं विजए खत्तिए मम नामं वा गोवा गिरिहत्तते, किमंग पुण दंसणं वा परिभोगं वा । तं सेयं खलु मम एयं गब्भं वहूहिं गब्भसाड़णाहि य पाडणाहि य गालगा हि य मारणाहि य साड़े तए वा ४ एवं संपे हेति २ बहूणि खराणि 3 कडुयायि तूवराणि य गन्भसाडणाणि य खायमाणी य पीयमाणी य इच्छति तं गब्र्भ साडित्तए वा ४ नो चैव गं से गब्भे सड़इ वा ४ । तते गं सा मियादेवी जाहे नो संचाएति तंग साडित्तए वा ताहे संता तंता परिता अकामिया असयंवसा तं गब्भं दुहं- दुहे परिवहति । - ८८ पदार्थ - तते गं - तदनन्तर । पुव्वरत्तावरत्तकालसमांसि - मध्य रात्रि में । कुटुम्ब - जागरियाए - कुटुम्ब की चिन्ता के कारण । जागरमाणीए - जागती हुई । तीसे उस । मियाए देवीए - मृगादेवी को । इमे पयारूवे – यह इस प्रकार का । अज्झत्थिते - विचार । समुप्पन्ने - उत्पन्न हुआ । एवं खलु - इस प्रकार निश्चय ही । अहं मैं । पुव्विं - पहले । विजयस्स खलियम्स - विजय क्षत्रिय को इट्टा - इष्ट-प्रीतिकारक । धेज्जा- चिन्तनीय । वेसासिया - विश्वासपात्र तथा । अणुमया अनुमत 1 For Private And Personal ५ 3 (१) छाया - ततः तस्या मृगादेव्या श्रन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रासमये कुटुम्बज गर्यया जाग्रत्या अयमेतद्रूप आध्यात्मिकः ५ समुत्पन्न: - एवं खल्वहं विजयस्य क्षत्रियस्य पूर्वमिष्टा ध्येया विश्वासिता अनुमताऽऽसम् । यत् प्रभृति च ममायं गर्भः कुक्षौ गर्भतया उपपन्नः, तत्प्रभृति च विजयस्य क्षत्रियस्याहं अनिष्टा यावदमनोमा जाता चाप्यभवम् नेच्छति विजयः क्षत्रियो मम नाम वा गोत्रं वा ग्रहीतुम्, किमग पुनदर्शनं वा परिभोगं वा, तत् श्रेयः खलु ममैत गर्भं बहुभिर्गर्भशाटनाभिरच पातनाभिश्च गालनाभिश्च मारणाभिश्च शाटयितु ं वा ४ एवं संप्रेक्षते सप्रेक्ष्य बहूनि क्षाराणि च कटुकानि च, तूत्रराणि च गर्भशाटनानि ४ खादन्ती च पिवन्ती च इच्छति तं गर्भं शारयितु ं वा ४ नो चैव स गर्भः शटति वा ४ । ततः सा मृगादेवी यदा नो संशक्नोति तं गर्भ शादवितु वा ४ तदा श्रान्ता, तान्ता परितान्ता, कामा त्वयंत्रशा तं गर्भे दुःखदुःखेन परिवइति । (२) पूर्वरात्रापररात्रकालसमये, रात्रेः पूर्वभागः पूर्वरात्रः, रात्रेरपरी भागः अपररात्रः, तावेव तदुभयमिलितो यः कालः समयः स मध्यरात्रः तस्मिन्नित्यर्थः । (३) न मनसा अम्यते गम्यते पुनः पुनः स्मरणतो या सा मनोमा अर्थात् मन को अत्यन्त अनिष्ट | Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७८1 श्री विपाक सूत्र [प्रथम अध्याय सम्मत । आसि-थी, परन्तु । जप्पभितिं च णं - जब से । मम-मेरे । कुच्छिसि-उदर में । इमे-यह गब्भे--गर्भ । गम्भत्ताए - गर्भरूप से । उववन्ने-उत्पन्न हुआ है । तप्पभितिं च णं-तब से । विजयस्स खत्तियस्स- विजय क्षत्रिय को । अहं- मैं । अणिहा - अप्रिय । जाव-यावत् । श्रमणामामन से अग्राह्य । जाया यावि होत्था हो गई हूँ । विजए खत्तिए-विजय क्षत्रिय तो। मम-मेरे । नामवा-नाम तथा । गोतं वा-गोत्र का भी। गिरिहत्तते - ग्रहण करना-स्मरण करना भी। नेच्छति-- नहीं चाहते। किमंग पुण - तो फिर । दसणं वा-दर्शन तथा । परिभोगं वा-परिभोग-भोगविलास की तो बात ही क्या है ? । तं-अतः । खलु --निश्चय ही। प्रम-- मेरे लिये यही । सेय-श्रेयस्कर है --कल्याणकारी है कि मैं । एवं गब्भं - इस गर्भ को । बहूहिं-अनेकविध । गम्भसाड़णाहि य-गर्भ शातनाओं अर्थात् गर्भ को खण्ड खण्ड कर के गिराने रूप क्रियाओं द्वारा ।पाडणाह य--पातनाओं-अखण्डरूप से गिराने रूपी क्रियाओं से । गालणाहि य- गालनात्रों-द्रवीभूत करके गिराने रूप क्रियाओं से तथा । मारणाहि य-मारणा ओं-मारण रूप क्रियात्रों द्वारा । साडेत्तए वा ४ --शातना, पातना गालना, और मारणा के लिये । संपेहेइ विचार करती है. विचार करके।गब्भमाडणाणि य-गर्भ के गिराने वाली । बहणि-अनेक प्रकार की। खराणि-खर-खारी । कडुयाणि य--कटु, कड़वी । तूवराणि य-कषाय रस युक्त, कसैली औषधियों को। खायमाणी य---खाती हुई पीयमाणी य-पीती हुई। तं गभं-उस गर्भ को । साडित्तए वा४शातन, पातन, गालन और मारण करने की । इच्छति-इच्छा करती है, परन्तु । से गब्भे-उस गर्भ का। नो चेवणं- नहीं । सडइ ४-शातन, पातन, गालन और मारण हुा । तते णं-तदतन्तर । सा मियादेवी-वह मृगादेवी । जाहे-जब । तं गभं-उस गर्भ का । साडित्तए वा ४-शातनादि करने में नो संचाएति-समर्थ नहीं हुई । ताहे-तब । संता-श्रान्त -थकी हुई । तंता-मन से दुःखित हुई। ता-शारीरिक और मानसिक खेद से खिन्न हुई। अकामिया-अभिलाषा रहित हुई । असणंघसा-विवश-परतन्त्र हुई । तं गभं-उस गर्भ को। दुहं दुहेणं-अत्यन्त दुःख से । परिवहति-धारण करती है अर्थात् धारण करने की इच्छा न होते हुए भी विवश होती हुई धारण कर रही है। मूलाथे–तनन्तर किसी काल में मध्य रात्रि के समय कुटुम्ब-चिन्ता से जागती हुई उस मृगादेवी के हृदय में यह संकल्प-विचार उत्पन्न हुआ कि मैं पहले तो विजय नरेश को इष्ट-प्रिय, येय-- चिन्तनीय, विश्वास - पात्र और सम्माननीय थी परन्तु जब से मेरे उदर में यह गर्भस्थ जीव गर्भरूप से उत्पन्न हुआ है तब से विजय नरेश को मैं अनिष्ट यावत् अप्रिय लगने लग गइ हूं । इस समय विजय नरेश तो मेरे नाम तथा गोत्र का भी स्मरण करना नहीं चाहते, तो फिर दर्शन और परिभोग -भोगविलास की तो आशा हो क्या है ? अत: मेरे लिये यही उपयुक्त एवं कल्याणकारी है कि मैं इस गर्भ को गर्भपात के हेतुभूत अनेक प्रकार की शातना ( गर्भ को खण्ड २ कर के गिरा देने वाले प्रयोग ) पातना । अखंडरूप से गर्भ को गिरा देने वाले प्रयोग) गालना (गर्भ को द्रवो-भूत करक गिराने वाला प्रयोग ) और मारण! (मारने वाला प्रयोग द्वारा गिरा दू-नष्ट कर दू। वह इस प्रकार विचार करती है और विचार कर गर्भ-पात में हेतु भूत क्षारयुक्त--खारी कड़वो, और कसैली औषधियों का भक्षण तथा पान करती हुई उस गर्भ को गिरा देना चाहती है। अर्थात् शातना आदि उक्त उपायों से गर्भ को नष्ट कर देना चाहती है । परन्तु वह गर्भ उक्त उपायों से भी नाश को प्राप्त नहीं हुआ । जब वह मृगादेवी इन पूर्वोक्त उपायों से उस गर्भ को नष्ट करने में समर्थ For Private And Personal Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । नहीं हो सकी तब शरीर से श्रान्त, मन से दु ग्वित तथा शर और नन से विन्न होती हुई इच्छो न रहते हुए विवशता के कारण अत्यन्त दुःग्व के साथ उस गर्भ को धारण करने लगी। टीका-पतिपरायणा साध्वी स्त्री के लिये संसार में अपने पति से बढ़ कर कोई भी वस्तु इष्ट अथवा प्रिय नहीं होती । पतिदेव की प्रसन्नता के सन्मुख वह हर प्रकार के सांसारिक प्रलोभन को तुच्छ समझ कर ठुकर देती है। उस की दृष्टि में पतिप्रेम का सम्पादन करना ही उसके जीवन का एक मात्र ध्येय होता है, अतः पतिप्रेम से शून्य जीवन को वह एक प्रकार का अनावश्यक बोझ समझती है जिस को उठाये रखना उस के लिये असह्य हो जाता है । यही दशा पतिव्रता मृगादेवी की हुई जब कि उसने अपने आपको प्रतिप्रेम से वंचित पाया। कुछ समय पहले उसके पतिदेव का उस पर अनन्य अनुराग था। वे उसे गृहलक्षमी समझकर उसका हार्दिक स्वागत किया करते और उसकी प्रादश सुन्दरता पर सदा मुग्ध रहते । इसके अतिरिक्त हर एक सांसारिक और धार्मिक काम काज में उसकी सम्मति लेते तथा उसकी सम्मति के अनुसार हा प्रस्तावित काम काज को सनिश्चित रूप प्राप्त होता । परन्तु अाज वे उस से सर्वथा परांमुख हो रहे हैं। उसका नाम तक भी लेने को तैयार नहीं । आज वह प्रेमालाप मधुर-सभाषण एवं सांसारिक और धार्मिक विषयों की विनोदमयी चर्चा उसके लिये स्वप्न सी हो गई । ऐसे क्यों ? क्या सचमुच मुझसे ऐसी ही कोई भारी अवज्ञा हुई है, जिस के फलस्वरूप मेरे स्वामी विजय नरेश ने एक प्रकार से मुझे त्याग ही दिया है। वह तो मुझे दिखाई नहीं देती। फिर इसका कारण क्या ? इस विचार परम्परा में उलझी हुई मृगादेवी को ध्यान आया कि जब से मेरे गर्भ में यह कोई जीव अाया है तब से ही महाराज मुझ से कष्ट हुए हैं अतः उन के रोष अथ च परांमुखता का यही एक कारण हो सकता है । तब यदि इस गर्भ का ही समूलघात कर दिया जाय तो सम्भव है नहीं नहीं सुनिश्चित है । कि महाराज का फिर मेरे ऊपर पूर्ववत् ही स्नेहानुराग हो जयगा और उनके चरणों की उपासना का मुझे सुअवसर प्राप्त होगा, यह था मध्यरात्री के समय कौटुम्बिक चिन्ता में निमग्न हई मृगादेवी का चिन्ता मूलक अध्यवसाय या संकल्प, जिस से प्ररित हुई उस ने गर्भपात के हेतुभूत उपायों को व्यवहार में लाने का निश्चय किया और तदनुसार गर्भ को गिराने वाली औषधियों का यथाविधि प्रयोग भी किया, परन्तु इस में वह सफल नहीं हो पाई। उस के इस प्रकार विफल होने में विपाकोन्मख अशुभकर्म के सिवा और कोई भी मौलिक कारण दिखाई नहीं देता । अवश्यंभावी भाव का प्रतिकार कठिन ही नहीं किन्तु अशक्य अथ च अपरिहार्य होता है। यही कारण है कि सर्वथा अनिच्छा होने पर भी उसे-मृगादेवी को गर्भधारण करने में विवश होना पड़ा। "किमंग पुण" यह अव्यय- समुदाय अर्द्धमागधी-कोष के मतानुसार "- क्या कहना ? उस में तो कहना ही क्या ? अथवा सामान्य बात तो यह है और विशेष बात तो क्या करना--" इन अर्था में प्रयुक्त होता है। शातना गर्भ को खण्ड खण्ड करके गिरादेने वाली क्रिया विशेष का नाम [शातना गर्भस्य खण्डशो भवनेन पतनहेतवः] अथवा शातना गर्भ को खण्ड खण्ड करके गिरादेने वाली औषधादि का नाम है । पातना-जिन क्रियायों या उपायों से खण्डरूप में ही गर्भ का पात किया जा सके, वे पातन के नाम से प्रसिद्ध हैं। [पातना रुपाखरखण्ड एव गर्भः पतति गालना-जिन प्रयोगों से गर्भ द्रवीभूत होकर नष्ट हो जाय उन्हें गालना कहते हैं-(यैर्गों द्रवीभूय तरति) तथा गर्भ की मृत्यु के कारण भूत उपाय विशेष की मारण संज्ञा अब सूत्रकार मृगापुत्र की गर्भगत अवस्था का वर्णन करते हैं For Private And Personal Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 207 श्री विपाक सूत्र - [ प्रथम अध्याय 1 मूल :तस्स गं दारगस्स गब्भगयस्स चेव अट्ठ णाली अन्तरस्वहायो अट्ठ णालीओ वाहिरप्पवहाओ ट्ठ पूयष्पवहाओ अट्ट सोणियप्पवहाओ, दुवे दुवे करणंतरेसु दुबे २ अच्छितरेसु दुवे २ नक्कंतरेसु दुवे २ धमणि - अंतरेसु भिक्खणं २ पूयं च सोणियं च परिस्सवमाणीओ २ चेव चिट्ठति । तस्स णं दारगस्स गन्भगयस्म चैत्र अग्गिए नाम वाही पाउन्भूते । जेणं से दार आहारेति से गं खिप्पामेव विद्धमागच्छति, पूयत्ताए य सोणियत्ताए य परिणमति । तं पिय से पूयं च सोणियं च आहारेति । पदार्थ - गब्भगयस्स चेव-गर्भ गत ही । तस्स गं-- उस । दारगस्स - बालक की । अट्ठ - आठ । गालीओ -- नाड़ियें जोकि । अब्भतंरख्पवहा श्री -- अन्दर बह रही हैं तथा । अट्ठखालीओ - आठ नाडियें । बाहिरत्पवहाओ - बाहर की ओर बहती हैं उनमें प्रथम की । टु णाली - आठ नाड़ियों से । पूयप्यवहा - पूय - पीब बह रही हैं । अट्ठ-आठ नड़ियों से साख्यिपवहाश्री शोणित- रुधिर ह रहा है। दुगे २ -- दो दो । करणंतरेसु कर्ण छिद्रों में दुगे २- दो दो । अच्छितरे नेत्र छिद्रों में । दुवे २ - दो दो । नक्कंतरेसु - नासिका के छिद्रों में । दुवे २ - -दो दो। धमणी अंतरेसु धमनी नामक नाड़ियों के मध्य में । अभिक्खणं २ -- बार बार । पूयं च- - पूय और सोणियं च शोणित-रक्त का परिस्वमाणी २ -- परिस्राव करती हुई । चेव - समुच्चयार्थक है। चिति---स्थित हैं अर्थात् पूय और शोणित को बहा रहीं हैं तथा । गब्भगयम्स चेव - गर्भगत ही । तस्स णं दारगस्स - उस बालक के शरीर में । अग्गर णामं - अग्निक - भस्मक नाम की । वाही-व्याधि-- रोग विशेष का। पाउब्भूते- प्रादुर्भाव हो गया। जेणं - जिसके कारण जो कुछ । से - वह । दारए बालक । आहारेति – आहार करता है । सेणं - वह । खियामेव - शीघ्र ही । विद्ध समागच्छति - नाश को प्राप्त हो जाता है अर्थात् जठराग्नि द्वारा पचादिया जाता है तथा वह। पूयत्ताए य- - पूयरूप में और । सांणियत्ताए य- शोणितरूप में । परिण मति - परिणमन हो जाता बदल जाता है तदनन्तर से वह बालक तं पिय-उस । पूयं च पूय का तथा । सोणियं च शोणित-लहू का । आहारेति- आहार- भक्षण करता है । -- Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मूलार्थ गर्भगत उस बालक के शरीर में में से पूय और रुधिर बहता था । इस प्रकार में से पीव और रुधिर बहा करता था । इन १६ कर्ण छिद्रों में इसी प्रकार दो दो नेत्र धमनियों से बार २ पूय तथा रक्त का स्राव किया बह रहा था । और गर्भ में हो उस बोलक के उत्पन्न हो गई थी जिस के कारण वह अन्दर तथा बाहर बहने वाली आठ नाडियों शरीर के भीतर और बाहर की १६ नाडियों नाडियों में से दो दो नाड़िये कर्णं विवरोंविवरों में, दो दो नासिका विवरों और दो २ करती थीं अथात् इन से पूय और रक्त शरीर में अग्निक - भस्मक नाम की व्याधि बालक जो कुछ ग्याता वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता था, (१) छाया -- तस्य दारकस्य गर्भगतस्यैवाष्ट नाड्योऽभ्यन्तर प्रवहाः, अष्ट नाड्यो बहिष्प्रवहाः, अष्ट पूयप्रवहाः, अष्ट शोणितप्रवहाः, द्वे द्वे कर्णान्तरयोः, द्वे २ अयन्तरयोः २ नासान्तरयोः, द्वे धमन्यन्तरयोः । अभीक्ष्णं २ पूयं च शोणितं च परिस्रवन्त्यः परिस्रवन्त्यश्चैव तिष्ठन्ति । तस्य दारकस्य गर्भगतस्यैवाग्मिको नाम व्याधिः प्रादुर्भूतः । यत् दारक आहरति तत् चिप्रमेव विध्वंसमागच्छति पूयतया शोणिततया च परिणमति । तदपि च स पूयं च शोणितं चाहरति । (२) हृदयकोष्ठ के भीतर की नाडि का नाम धमनी है । For Private And Personal - Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याया हिन्दी भाषा टीका सहित । [८१ अर्थात पच जाता था तथा तत्काल ही वह पूय-पोब और शोणित-रक्त के रूप में परिणत हो जाता था । तदनन्तर वह बालक. उस पूय और शाणित को भी खा' जाता था। (१) गर्भगत जीव माता के खाए हुए आहार से पुष्टि को प्राप्त होता है, यह कथन सर्वसम्मत है परन्तु मृगापुत्र के जीव की दुष्कर्मवशात् इस से कुछ विलक्षण ही स्थिति है । मृगापुत्र का जीव माता द्वारा किये गए आहार को जहां रस के रूप में ग्रहण करता है वहां वह जठराग्नि के द्वारा रस के पचाए जाने और उस के पूय और रुधिर के रूप में परिणत हो जाने पर उस पूय और रुधिर को भी दोबारा आहार के रूप में ग्रहण करता है। जो कि स्थूल-दृष्ट्या प्रकृति-विरुद्ध ठहरता है। गर्भ के बाहिर आने पर मृगापुत्र के द्वारा गृहीत आहार का पूय और रुधिर के रूप में परिणत हो जाना, उस परिणत पदार्थ का वमन हो जाना, तदनन्तर उस वान्त पदार्थ का मृगापुत्र के द्वारा ग्रहण कर लेना तो असंगत नहीं ठहरता। क्योंकि ये सब व्यवहार-सिद्ध है हो । परन्तु गर्भस्थ जीव का दोबारा आहार ग्रहण करना कैसे संगत ठहरता है ? यह अवश्य विचारणीय है । विद्वानों के साथ ऊहापोह करने से मैं जो समाधान कर पाया हूँ, वह पाठकों के सामने रख देता हूँ। उस में कहां तक औचित्य है ? यह वे स्वयं विचार करें। ___ सर्व-प्रथम तो यह समझ लेना चाहिये कि कर्मों की विलक्षण स्थिति को सम्मुख रखते हुए मृगापुत्र के जीव का जो चित्रण शास्त्रकारों ने किया है वह कोई आश्चयजनक नहीं है, क्योंकि कर्मराज के न्यायालय में दुष्कर सुकर है, और सुकर दुष्कर । तभी तो कहा है-कर्मणां गहना गतिः। इस के अतिरिक्त गर्भगत जीव के आहार-ग्रहण में और हमारे आहार भक्षण में विशिष्ट अन्तर है। हम जिस प्रकार अाहार ग्रहण करने में मुख, जिह्वा आदि की क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं उस प्रकार की भक्षण-क्रिया गर्भगत जीव में नहीं होती। मृगापुत्र के जीवन परिचय में “–गर्भस्थ मृगापत्र के शरीर की आठ अन्दर की नाड़िये और आठ बाहिर की नाड़ियें पूय अोर रुधिर का परिसाव कर रही थीं , यह ऊपर कह ही दिया गया है। यहां प्रश्न होता है कि मृगापुत्र के शरीर की नाड़िये जो प्य और रुधिर का परिसाव कर रहीं थीं, वह कहां जाता था? मृगापत्रीय शरीर के ऊपर तो जराय का बन्धन पड़ा हुआ है जो कि प्राकृतिक है, पूय और रुधिर को बाहिर जाने का अन्य कोई मार्ग नहीं, तब वह क्या जराय में एकत्रित होता रहता था या उस के निर्गमन का कोई और साधन था ? ___ इसी प्रश्न का समाधान सूत्रकार ने -तं पि य से पूयं च सोणियं च आहारेति-इन शब्दों द्वारा किया है। अर्थात् वह मृगापुत्र का जीव उस पूय और रुधिर को आहार के रूप में ग्राण कर लेता था । ___ सूत्रकार का यह पूर्वोक्त कथन बड़ा गंभीर एवं युक्ति-पूर्ण है । क्योंकि-मृगापुत्र जो आहार ग्रहण करता है; वह तो पूय और साधर के रूप में परिणत हो जाता है; और उसके शरीर की पाठ अन्दर की और आठ बाहिर की नाडियें उस पूय और रुधिर का स्रवण कर रहीं हैं। ऐसी स्थिति में उस के शरीर का निर्माण किस तत्त्व से हो सकेगा ? यह प्रश्न उपस्थित होता है, जिस का उत्तर सूत्रकार ने यह दिया है कि नाडियों से परिस्रवित पूय और रुधिर को वह (मृगापुत्र का जीव) ग्रहण कर लेता था, जो उस के शरीर-निर्माण का कारण बनता था। रहस्यं तु केवलि-गम्यम् ।। मृगापुत्र के जीव का यह कितना निकृष्ट एवं घृणास्पद वृत्तान्त है, यह कहते नहीं बनता । For Private And Personal Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ८२] श्री विपाक सूत्र [प्रथम अध्याय टीका-अत्युग्र पापकर्मों के आचरण का क्या परिणाम होता है ? यह जानने के इच्छुकों के लिये मृगापुत्र का यह एक मात्र उदाहरण ही काफी है। गर्भावास में ही अन्दर तथा बाहिर की ओर पूय तथा रक्त का स्राव करने वाली अभ्यन्तर और बाहिर की शिरात्रों-नाड़ियों से पूय और रूधिर का बहना, शरीर में भयंकर अग्निक१भस्मक रोग का उत्पन्न होना, खाये हुए अन्नादि का उसके द्वारा शीघ्रातिशीघ्र नष्ट हो जाना अर्थात् उस का पचजाना एवं उस का पूय और रुधिर के रूप में परिणमन हो जाना और उस का भी भक्षण कर लेना ये सब इतना बीभत्स और भयावना दृश्य है कि उस का उल्लेख करते हुए लेखनी भी संकोच करती है । तब गर्भस्थ मृगापुत्र की अथवा नरक से निकल कर मृगादेवी के गर्भ में आये हुए एकादि के जीव की उपयुक्त दशा की ओर ध्यान देते हुए भातृहरि के स्वर में स्वर मिलाकर 'तस्मै नमः कर्मणे" [अर्थात् कर्मदेव को नमस्कार हो] कहना नितरां उपयुक्त प्रतीत होता है । गर्भस्थ मृगापुत्र के शरीर में भीतर और बाहिर की ओर प्रवाहित होने वाली नाड़ियों में से आठ पूय को प्रवाहित करती थीं और आठ से रक्त प्रवाहित होता था। इस प्रकार पूय और रक्त को प्रवाहित करने वाली १६ नाड़ियें थी। इनका अवान्तर विभाग इस प्रकार है दो दो कानों के छिद्रों में, दो दो नेत्रों के विवरों में, दो दो नासिका के रंध्रों में और दो दो दोनों धमनियों में, अन्दर और बाहर से पूय तथा रक्त को प्रवाहित कर रही थीं । यह-“अट्ठ णालीप्रो" से लेकर “परिस्सवमाणी यो २ चेत्र चिट्ठति" तक के मूल पाठ का तात्पर्य है । वृत्तिकार ने भी यही भाव अभिव्यक्त किया है शरीरस्याभ्यन्तर एव रुधिरादि स्रवन्ति यास्तास्तथोच्यन्ते, शरीराद्वहिः पूयादि क्षरन्ति यास्तास्तथोक्ताः । एता एव षोड़श विभज्यन्ते कथममित्याह --- वे पूयप्रवाहे द्वे च शोणितप्रवाहे । ते च क्वेत्याह-श्रोत्ररन्ध्रयोः, एवमेताश्चतस्रः, एवमन्या अपि व्याख्येयाः नवरं धमन्यः कोष्ठहड्डान्तराणि। अब सूत्रकार मृगापुत्र के जन्म सम्बन्धी वृत्तान्त का वर्णन करते हुए इस प्रकार प्रतिपादन करते हैं -- मल-तते णं सा मियादेवी अएणया कयाती णवण्ह मासाणं बहुपडिपुराणाणं दारगं पयाया जातिअंधं जाव आगितिमित्तं । तते णं सा मियादेवी तं दारयं हुडं अन्धारूवं पासति २ ता भीया ४ अम्मधाति सद्दावेति २त्ता एवं वयासी-गच्छह णं देवा० ! तुम एवं दारगं कर्मों का प्रकोप ऐसा ही भीषण एवं हृदय कम्पा देने वाला होता है । अतः सुखाभिलाषी पाठकों को पाप कर्मों से सदा दूर ही रहना चाहिये । (१) भस्मक रोग वात, पित्त के प्रकोप से उत्पन्न होने वाली एक भयंकर व्याधि है। इस में खाया हुआ अन्नादि पदार्थ शीघ्रातिशीघ्र भस्म हो जाता है - नष्ट हो जाता है। शाङ्गधर संहिता [ अध्याय ७ ] में इस का लक्षण इस प्रकार दिया गया है:--- अतिप्रवृद्धः पवनान्वितोऽग्निः, क्षणाद्रसं शोषयति प्रमह्य ।। युक्तं क्षणाद् भस्म करोति यस्मात्तरमादयं भम्मक--संज्ञकस्तु ।। अर्थात् - जिस रोग में बढ़ी हुई वायु युक्त अग्नि रसों को क्षणभर में सुखा देती है, तथा खाए हुए भोजन को शीघ्रातिशीघ्र भस्म कर देती है उसे भस्मक कहते हैं। (२) छाया-ततः सा मृगादेवी अन्यदा कदाचित् नवसु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु दारकं प्रजाता, जात्यन्धं For Private And Personal Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । एगन्ते उक्कुरुडियाए उज्झाहि । तते णं सा अम्मधाती मियाए देवीए तहत्ति एतमट्ठ पडिसुणेति २त्ता जेणेव विजए खत्तिए तेणेव उवागच्छइ २ ता करयलपरिग्गहियं जाव एवं वयासी-एवं खलु मामी : मियादेवी नवण्हं जाव आगितिमिन, तते णं सा मियादेवी तं हूंडं अन्ध पासति २त्ता भीया ममं सद्दावेति २ त्ता एवं वणसी-ग़च्छह णं तुमं देवा० ! एयं दारगं एगते उक्कुडियाए उज्झाहि, तं सन्दिसह णं सामी ! तं दारगं अहं एगते उज्झामि उदाहु मा ? __ पदार्थ-तते णं ---तदनन्तर । अराणया कयाती-अन्य किसी समय । सा मियादेवी - उसमृगादेवी ने । नवग्रहं मासाणं--नव मास। पडिपुराणाणं--परिपूर्ण होने पर । दारगं-बालक को। पयायाजन्म दिया जोकि --- । जातिअंधं-जन्म से अन्धा । जाव - यावत् । आगिति-मित-श्राकृति मात्र था। तते णं-तदनन्तर । सा मियादेवी- वह मृगादेवी । तं- उस । हुंडं- अव्यवस्थित अंगों वाले । जातिअंधं--जन्म से अंधे । दारयं-- बालक को पासति-देखती है । २त्ता- देख कर । भीया ४–भय को प्राप्त हुई, त्रास को प्राप्त हुई, उद्विग्नता एव व्याकुलता को प्राप्त हुई, और भयातिरेक से उस का शरीर काम्पने लग पड़ा । अम्माधाति-धाय माता को । सद्दावेति- बुलाती है। रत्ता-बुलाकर । एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगी . देवा०! - हे देवानुप्रिये ! । तुम-तुम , गच्छह णं-जाओ। एयं दारगं - इस बालक को। एगते - एकान्त में । उक्कुडियाए - कूडा -- कचरा डालने की जगह पर । उज्माहि-फेक दो । तते णं-- तदनन्तर । सा-वह । अम्माधाती- धाय माता । मियार देवीए-मृगादेवी के । एलमट्ट- इस अर्थ-प्रयोजन को । तहत्ति-तथास्तु-बहुत अच्छा, इसप्रकार कह कर । पडिसुणेतिस्वीकार करती है । २त्ता- स्वीकार करके । जेणेव-जहां पर । विजए खत्तिर-विजय क्षत्रिय था ।तेणेव- वहां पर । उवागच्छति २त्ता-आती है, अाकर । करयलपरिग्गहियं- दोनों हाथ जोड़ कर । एवं वयासी-इस प्रकार बोलो । एवं खलु इस प्रकार निश्चय ही । सामी!.- हे स्वामिन् ! मियादेवी-- मृगादेवी ने । नवग्रहं - नौ मास पूरे होने पर जन्मान्ध । जाव-यावत् । आगितिमित्प्राकृति मात्र बालक को जन्म दिया है। तते णं- तदनन्तर । सा मियादेवी- वह मृगादेवी । तंयावत् प्राकृतिमात्रम् । ततः सा मृगादेवी तं दारकं हुण्डमन्धकरूपं पश्यति दृष्ट्वा भीता ४ अम्बाधात्रीं शब्दयति शब्दयत्विा एवमवादीत् गच्छ त्वं देवानुप्रिये ! एतं दारकं एकान्ते अशुचिराशौ उज्झ । ततः सा अम्बाधात्री मृगाया: देव्याः 'तथेति, एतमर्थ प्रतिशृणोति प्रतिश्रत्य यत्रैव विजय: क्षत्रियः तत्रैवोपागच्छति उपागत्य करतलपरिगृहीतं यावदेवमवदत्-एवं खलु स्वामिन् ! मृगादेवी नवसु यावदाकृतिमात्रम् , ततः सा मृगादेवी तं हुण्डमन्धं पश्यति दृष्ट्वा भीता ४ मां शब्दयति शब्दयित्वा एवमवदत्-गच्छ त्वं देवानुप्रिये ! एतं दारकं एकान्ते अशुचराशौ उज्झ १ तत् सन्दिशत स्वामिन् ! तं दारकं अहमेकान्ते उज्झामि उताहो मा ? (१) "-करयल ...” इत्यत्र "करयलपरिग्गहियं दसणहं अंजलिं मत्यए कटु" इत्यादि दृश्यमिति वृत्तिकारः। (१) भीता भययुक्ता भयजनक-विकृताकारदर्शनात् , इत्यत्र त्रस्ता, उद्विग्ना, संजातभया इत्येतानि पदान्यपि द्रष्टव्यानि । त्रस्ता–त्रासमुपगता, अयमस्माक कीदृशमशुभं विधास्यतीति चिन्तनात् । उद्विग्नाव्याकुला, कम्पमानहृदयेति यावत् । संजातभया-भयजनितकम्पेन प्रचलितगात्रेति भावः । For Private And Personal Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ८४] श्री विपाक सूत्र - 1 उस । हुंड - विकृतांग - भद्दो आकृति वाले । अंध - अन्धे बालक को । पासति २ ता- देखती है, देखकर । भीया - भयभीत हुई ममं मेरे को । सहावेति २त्ता - बुलाती है बुलाकर । एवं वयासी - वह इस प्रकार कहने लगी । देवा० ! -- हे देवानुप्रिये ! तुम - तुम । गच्छह णं - जाओ । एयं दारगं - इस बालक को । एगंते - एकान्त में ले जाकर उक्कुरुडिया - कूड़े कचरे के ढेर पर । उज्झाहि - फेंक दो । तं - इसलिये सामी ! – हे स्वामिन्! । संदिसह णं- - आप श्राज्ञा दें कि क्या । श्रहं मैं । तं दारगं- उस बालक को । एगंते - एकान्त में । उज्झामि -- छोड़ दू -- फेंक दू ं । उदाहु – अथवा | मा (प्रथम अध्याय नहीं । मूलार्थ - तत्वश्चात् लगभग नौ मास पूर्ण होने पर मृगादेवी ने एक जन्मान्ध यात अवयवों की आकृति मात्र रखने वाले बालक को जन्म दिया । तदनन्तर हुड - विकृतांग तथा अन्ध रूप उस बालक को देव कर भयभीत, त्रस्त, उद्वग्न-व्याकुल तथा भय से काम्नती हुई मृगादेवी ने धायमाता को बुलाकर इस प्रकार कहा कि हे देवानुप्रिये ! तुम जाओ, इस बालक को ले जाकर एकांत में किसी कूड़े कचरे के ढेर पर फेंक आओ । तदनन्तर वह धायनाता मृगादेवी के इस कथन को तथास्तु- बहुत अच्छा, कह कर स्वीकृत करती हुई जहां पर विजय नरेश थे, वहां पर आई और हाथ जोड़ कर इस प्रकार कहने लगी कि हे स्वामिन् ! लगभग नौ मास के पूर्ण हो जाने पर मृग देवो ने एक जन्मान्ध यावत् अवयवों की आकृति मात्र रखने वाले बालक को जन्म दिया है, उस हुंडरूप - भद्दी आकृति वाले जन्मान्ध बालक को देख कर वह भयभीत हुई और उसने मुझे बुलाकर कहा कि हे देवानुप्रिये ! तुम जाओ और इस बालक को ले जाकर एकांत में किसी कूड़े कचरे के ढेर पर फेंक आओ | अतः हे स्वामिन्! आप बतलायें कि मैं उसे एकान्त में ले जा कर फेंक आऊँ या नहीं ? टीका - कर्मराज के प्रकोप से जिस बच्चे के हाथ पांव तथा श्रख कान प्रभृति कोई भी अंग प्रत्यंग सम्पूर्ण न हो, किन्तु इनकी केवल आकृति अर्थात् आकार मात्र ही हो ऐसे हुंडरूप - नितान्त भद्दे स्वरूप वाले, मात्र श्वास लेते हुए मांस पिंड को देख कर, और जिसने गर्भस्थ होते ही मुझे पतिप्रेम से भी वञ्चित कर दिया था अब न जाने इस पापात्मा के कारण कौन २ सा मेरा अनिष्ट मृगादेवी का भयभीत - भय संत्रस्त, व्याकुल तथा भय से तथा इस प्रकार के अदृष्टपूर्व, निन्दास्पद - जिसे देखकर कारण जन्म देने वाली का अपवाद हो - पुत्र को घर होगा इत्यादि विचारों से प्रेरित होती हुई कम्पित होना कुछ अस्वाभाविक नहीं है । छोटे बड़े सभी को घृणा हो और जिस के रखने की अपेक्षा बाहिर फेंक देना हो हितकर है, इस धारणा से धायमाता को बुलाकर उसे तत्काल के जन्मे हुए अंगप्रत्यंग होन केवल श्वास लेने वाले मांसपिंड मांस के लोथड़े को बाहिर लेजाकर फैंक देने को कहना भी मृगादेवी को कोई निंदास्पद प्रतीत नहीं हुआ, इसी लिये उसने धायमाता को ऐसा ( पूर्वोक्त ) आदेश दिया । For Private And Personal धामाता का मृगादेवी की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए विजय नरेश के पास जाकर सारी वस्तु स्थिति को उसके सामने रखना और उसकी अनुमति मांगना भी उसकी बुद्धिमत्ता और दीर्घदर्शिता का ही सूचक है । इसी लिये उसने बड़ी गंभीरता से सोचना आरम्भ किया कि मृगादेवी ने तत्काल के जन्मे हुए जिस बच्चे को बाहिर फेंकने का आदेश दिया है, उसके स्वरूप को देख कर तो उसका बाहिर फैंक देना ही उचित है, तक इस में प्रवृत्त होना मेरे लिये योग्य परन्तु जब तक महाराज की इसमें अनुमति न हो तब नहीं है । क्योंकि एक राजकुमार को फिर भले ही वह किसी Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित। [८५ प्रकार का भी क्यों न हो ] केवल उसकी माता के कह देने मात्र से बाहिर फैंक देना पूरा २ खतरा मोल लेना है । इस लिये जब तक इसके पिता विजय नरेश को इस घटना से अवगत न किया जाय और उनकी आज्ञा प्राप्त न की जाय तब तक इस बच्चे को फेंकना तो अलग रहा किन्तु, फैकने का संकल्प करना भी नितान्त मूर्खता है और विपत्ति को आमंत्रित करना है । इन्हीं विचारों से प्रेरित हो कर उस धायमाता ने विजय नरेश को बालक के जन्म - सम्बन्धी सारे वृत्तान्त को स्पष्ट शब्दों में कह सुनाया तथा अन्त में महाराणी मृगादेवी को उक्त आज्ञा का पालन किया जाय अथवा उस से इनकार कर दिया जाय इसका यथोचित आदेश मांगा इस सारे सन्दर्भ का तात्पर्य यह है कि राजा महागजात्रों के यहां जो धायमाताय होती थीं वे कितनी व्यवहार कुशल और नीति-निपुण हुआ करती थीं तथा अपने उत्तरदायित्व को-- अपनी जिम्मेदारी को किस हद तक समझा करती थीं यह महाराणी मृगादेवी की धायमाता के व्यवहार से अच्छी तरह व्यक्त हो जाता है ।। “जातिअंधं जाव आगितिमित्तं यहां पठित "जाव-यावत” पद से .-जाइअंधे-" से आगे के "-जाइमूए -" इत्यादि सभी पदों के ग्रहण की ओर संकेत किया गया है । तथा "हुंड' शब्द का वृत्तिकार सम्मत अर्थ है--जिस के अंग प्रत्यंग सुव्यवस्थित न हों अर्थात् जिस के शरीर गत अंगोपांग नितान्त विकृत - भद्द हो उसे हुड कहते हैं। 'हुंड' त्ति अव्यवस्थितांगाश्यवम् । तथा मूलगत "भीया' पद के आगे जो ४ का अंक दिया है उसका तात्पर्य -" भीया, तत्था, उब्विग्गा, संजायभया-भीता, त्रस्ता, उद्विग्ना, संजातभया” इन चारों पदों की संकलना से है । वृत्तिकार अभयदेव सूरि के मत में ये चारों ही पद भय की प्रकर्षता के बोधक अथच समानार्थक हैं । 'भीया, तत्था, उब्विग्गा, संजायभया' भयप्रकर्षाभिधानायैकार्थाः शब्दाः। तथा “उक्कुरुडिया” यह देशीय प्राकृत का पद है इस का अर्थ होता है अशुचिराशि, अर्थात् कूड़े कचरे का ढेर या कूड़ा करकट फैंकने का स्थान । धायमाता से प्राप्त हुए पुत्र जन्म-सम्बन्धी सम्पूर्ण वृत्तान्त को सुनकर विजय नरेश ने क्या किया अब सूत्र-कार उसका वर्णन करते हैं --- मूल-तते णं से विजए तीसे अम्म० अंतिते सोच्चा तहेव संभंते उट्ठाते उट्ठति उहत्ता जेणेव मियादेवी तेणेव उवागच्छति २ मियं देवि एवं वयासी-देवाणु० ! तुझं पढ़म-गब्भे, तं जइ णं तुमं एयं एगते उक्कुरुड़ियाए उज्झसि तो णं तुझ पया नो थिरा भविस्संति, तेणं तुमं एयं दारगं रहस्सियंसि भूमीघरंसि रहस्सितेणं भत्तपाणेणं पडजागरमाणी २ विहगहि, तो णं तुझ पया थिरा भविस्संति । तते णं सा मियादेवी विजयस्स खत्तियस्स तहत्ति एयमट्ट विणएणं पडिसुणेति २त्ता तं दारगं रह० भूमिघर० भत्त० पडि जागरमाणी विहरति । एवं (१) छापा-तत: स विजयस्तस्या अम्बा) अन्तकात् श्रुत्वा तथैव सम्भ्रान्त उत्थायोत्तिष्ठति उत्थाय यत्रैव मृगादेवी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य मृगां देवीं एवमवदत् देवानः ! तव प्रथमगर्भः, तद् यदि त्वमेतमेकान्तेऽशुचिराशावुज्झसि. ततस्तव प्रजा नो स्थिरा भविष्यन्ति । तेन त्वं एतं दारकं राहस्यिके भूमीगृहे राहसिकेन भक्तपानेन प्रतिजाग्रती २ विहर ततस्तव प्रजाः स्थिराः भविष्यन्ति । ततः सा मृगादेवी विजयस्य क्षत्रियस्य "तथेति"एतमर्थ विनयेन प्रतिशृणोति, प्रतिश्रुत्य तं दारकं राहस्यिके भूमिगृहे राहसिकेन भक्तपानेन प्रतिजाग्रती विहरति । एवं खलु गौतम ! मृगापुत्रो दारक: पुरा पुराणानां यावत् प्रत्यनुभवन् विहरति । For Private And Personal Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [प्रथम अध्याय खलु गोयमा ! मियापुत्त दारए 'पुरा पोराणाणं जाव पच्चणुभवमाणे विहरति । पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । से विजए-वह विजय नरेश । तीसे-उस । अम्म० - धाय माता के । अंतिते-पास से यह । सोच्चा -सुन कर । तहेव-तथैव अर्थात् जिस रूप में बैठा था उसी रूप में । संभंते-सम्भ्रान्त-व्याकुल हुा । उट्ठाते-उठकर । उद्वेति-खड़ा होत है । उठत्ता-खड़ा हो कर । जेणेव-जहां . मियादेवी- मृगादेवी थी । तेणेव-वहीं पर उवागच्छति-पाता है । २ त्ता--आकर । मियं देविं--मृगादेवी को । एवं वयासी-इस प्रकार कहता है । देवाणु ! - हे देवानुप्रिये ! । तुझ--तुम्हारा यह । पढमगब्भे-प्रथम गर्भ है । तं जइ णं तुम---इसलिये यदि तुम । एयं -- इस को । एगंते -- एकान्त । उक्कुरुड़ियार- कूड़े कचरे के ढेर पर । उज्झसि-फैंक दोगी। तो णं - तो । तुझ पया तेरी प्रजा ---सन्तति । नो थिरा भवि संति- स्थिर नहीं रहेंगी । तेणं- अतः । तुम -- तुम । एवं दारगं- इस बालक को। रहस्सियंसिगुप्त । भूमी-घरंसि-भूमि गृह में । रहस्सितेणं- गुप्त । भत्तपाणेणं-भक्त पान-आहारादि से । पडिजागरमाणी--सेवा-पालनपोषण करती हुई । विहराहि-विहरण करो, समय व्यतीत करो तो णं - तब । तुझ पया-तुमारी प्रजा-सन्तान । थिरा- स्थिर-चिर स्थायी। भविस्संतिरहेंगी । तते णं-- तदनन्तर । सा मियादेवी--- वह मृगादेवी । विजयस्स - विजय । खत्तियस्सक्षत्रिय के। एयमटुं- इस कथन को । तहत्ति-स्वीकृति सूचक "तथेति' (बहुत अच्छा) यह कहती हुई । विणएणं---विनय पूर्वक । पडिसुणेति--स्वीकार करती है । २ ता-स्वीकार करके । तं दारगं-उस बालक को। रह० ---- गुप्त । भूमिघर०-भूमि गृह में । भत्त०-आहारादि के द्वारा । पडिजागरमणी-पालन पोषण करती हुई । विहरति-समय व्यतीत करने लगी । गोयमा !हे गौतम ! । एवं खनु-इस प्रकार निश्चय ही । मियापुत्त-मृगापुत्र नामक । दारए - बालक पुरा-प्राचीन । पुराणाणं-पूर्व काल में किये हुए कर्मों का। जाव-यावत् । पच्चणुभवमाणे-- प्रत्यक्ष रूप से फलानुभव करता हुआ । विहरति-समय बिता रहा है। मलार्थ-तदनन्तर उस धायमाता से यह सारा वृत्तान्त सुनकर संभ्रांत-व्याकुल से हो विजय नरेश जैसे ही बैठे थे वैसे उठ कर खड़े हो गये और जहां पर मृगादेवी थी वहां पर आये आकर उस से इस प्रकार बोले कि हे भद्रे ! यह तुम्हारा प्रथम गर्भ है, यदि तुम इसको किसी एकान्त स्थान में अर्थात कूड़े कचरे के ढेर पर फिंकवा दोगी तो तुम्हारी प्रजा-सन्तान स्थिर नहीं रहेंगी, अत: फैकने की अपेक्षा तुम इस बालक को गुप्त भूमिगृह (भौंरा) में रखकर गुप्त रूप से भक्तप नादि के द्वारा इस का पालन पोषण करो । ऐसा करने से तुम्हारी भावी प्रजा-आगामी सन्तति स्थिर-चिरस्थायी रहेगी । तत्पश्चात् मृगादेवी ने विजय नरेश के इस कथन को विनय पूर्वक स्वीकार किया, और वह उस बालक को गुप्त भूमिगृह में स्थापित कर गुप्त रूप से आहार-खान पान आदि के द्वारा उस का संरक्षण करने लगी । भगवान् कहते हैं कि हे गौतम ! इस प्रकार मृगापुत्र स्वकृत पूर्व के पाप कर्मों का प्रत्यक्ष फल भोगता हुआ समय बिता रहा है। (१) "पुरा पोराणाणं' त्ति पुरा पूर्वकाले "कृतानाम्" इति गम्यम् अत एव "पुराणानां" चिरन्तनानाम् । इह च यावत्करणात् - "दुच्चिन्नाणं दुप्पडिक्कंताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्मारणं पावगं फलवित्तिविसेस-इति द्रष्टव्यमिति भावः । For Private And Personal Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [८७ टीका -- धाय माता के द्वारा सर्वांगविकल जन्मान्ध पुत्र का जन्म तथा उसे बाहिर फिकवा देने सम्बन्धी मृगादेवी का अनुरोध आदि सम्पूर्ण खेदजनक वृत्तान्त को सुनकर विजय नरेश किंकर्तव्य विमूढ़ से हो गये, हैरान से रह गये, उन का मन व्याकुल हो उठा। उन्हों ने धायमाता को कुछ भी उत्तर न देते हुए उसी समय सीधा मृगादेवी की ओर प्रस्थान किया । मृगादेवी के पास आकर उसे आश्वासन देते हुए बोले कि प्रिये ! तुम्हारा यह प्रथम गर्भ है। मेरे विचार में इसे बाहिर फेंकना तुम्हारे लिये हितकर न होगा । यदि तुम इसे बाहर फिकवाने का साहस करोगी तो तुम्हारी भावी प्रजा-अागामी सन्तति को हानि पहुंचेगी, वह चिरस्थायी नहीं होगी। अतः तुम इस बच्चे को किसी गुप्त भूमीगृह में रखकर गुप्तरूप से इसके पालन पोषण का यत्न करो ताकि इस पुण्यकर्म से तुम्हारी भावी प्रजा को चिरस्थायी होने का अवसर प्राप्त हो, मेरी दृष्टि में यह उपाय ही हितकर है । महाराज की इस सम्मति को प्राज्ञारूप समझकर महाराणी मृगादेवी ने बड़े नम्रभाव से स्वीकार किया और उनके कथनानुसार मृगापुत्र का यथाविधि पालन पोषण करने में प्रवृत्त हो गई । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम अनगार से कहा कि हे गौतम ! तुम्हारे पूर्वोक्त प्रश्न ".-- भगवन् ! यह मृगापुत्र पूर्वजन्म में कौन था ? --" इत्यादि का यह उत्तर है । इस से यह भली भांति स्पष्ट हो जाता है कि पुराकृत पापकर्मों के कारण ही कटुफल का प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करता हुआ यह मृगापुत्र अपने जीवन को बिता रहा है । इस कथा सन्दर्भ में विजय नरेश की धार्मिकता और दयालुता की जितनी सराहना की जावे उतनी ही कम है । “जीवन देने से ही जीवन मिलता है। इस अभियुक्तोक्ति के अनुसार मृगापुत्र को जीवन दान देने का फल यह हुआ कि उसके बाद मृगादेवी ने अन्य चार पुत्रों को जन्म दिया और वे सर्वांगसम्पूर्ण रूपसौन्दर्ययुक्त और विनीत एवं दीर्घायु हुए। जिस जीव ने पूर्व भव में जितना आयुष्य बान्धा है उतने का उपभोग करने में उसे कर्मवाद के नियमानुसार पूरी स्वतन्त्रता है । उस में किसी को हस्ताक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है । अयवा यूँ कहिये कि कर्मवाद के न्यायालय में आयुकर्म की ओर से इस प्राणी को। फिर वह मनुष्य अथवा पशु या पक्षी आदि कोई भी क्यों न हो] जितना जीवन मिला है उस के व्याघात का उद्योग करना मानो न्यायोचित आज्ञा का विरोध करना है, जिसके लिये कर्मवाद की ओर से यथोचित दण्ड का विधान है। इसी न्यायोचित सिद्धान्त की भित्ति पर अहिंसावाद के भव्य प्रासाद का निर्माण किया गया है । जिसके अनुसार किसी के जीवन का अपहरण करना मानों अात्म अपहरण करना ही है। क्यों कि जीवन का इच्छुक पर-जीवन का घातक कभी नहीं हो सकता । जैन परिभाषा के अनुसार भाषमूलक द्रव्यहिंसा ही कर्म बन्धन का हेतु हो सकती है, इस लिये हिंसा के भाव से हिसा करने वाला मानव प्राणी पर की हिसा करने से पूर्व अपने आत्मा का अवहनन करता है ऐसे ही प्राणी शास्त्रीय दृष्टि से अात्मघाती माने जाते हैं । विजय नरेश के अन्दर धर्म की अभिरुचि थी। महापुरुषों के सहवास में उसके विवेक चक्षु कुछ उघड़े हुए थे । अहिंसा-तत्त्व को उस ने खूब समझा हुआ था। इसी के फलस्वरूप उसने महाराणी मृगादेवी को तत्काल के जन्मे हुए उक्त बालक को बाहिर फेंकने के स्थान में उसके संरक्षण की सम्मति दी। जिस से उस के पापभीरु अात्मा को सन्तोष प्राप्त होने के अतिरिक्त मृगादेवी की आत्मा को भी भारी सान्त्वना मिली। पाठक अभी यह भूले नहीं होंगे कि भगवान महावीर स्वामी के समवसरण में उपस्थित होने वाले एक जन्मान्ध व्यक्ति को देख कर गौतम स्वामी ने भगवान् से .. - प्रभो ! क्या कोई ऐसा पुरुष भी है जो जन्मान्ध (नेत्र का आकार होने पर भी नेत्रज्योति से हीन) होने के साथ साथ जन्मान्धकरूप (नेत्राकार से रहित) भी For Private And Personal Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ८८1 श्री विपाक सूत्र (प्रथम अध्याय हो ?-" यह पृच्छा की थी। जिस के उत्तर में भगवान् ने विजय नरेश के ज्येष्ठपुत्र मृगापुत्र का नाम बताया था । उसे देखने के पश्चात् गौतम स्वामी ने भगवान् से मृगापुत्र के पूर्व जन्म का वृत्तान्त पूच्छा था। जिसको भगवान् ने सुनाना प्रारंभ किया था। एकादि राष्ट्रकूट के रूप में मृगापुत्र के पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुना देने पर भगवान् ने कहा कि हे गौतम ! यह तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है । इस से तुम्हें अवगत हो गया होगा कि मृग। पुत्र अपने ही पूर्वकृत प्राचीन कमों का यह अशुभ फल पा रहा है । इसी भाव को सूत्रकार ने "-एवं खलु गोयमा ! मियापुत्त , इत्यादि शब्दों द्वारा अभिव्यक्त किया है । वीर प्रभु से मृगापुत्र के पूर्वभव सम्बन्धी वृत्तान्त को सुनकर परम सन्तोष को प्राप्त हुए गौतम स्वामी ने उसके-मृगापत्र के आगामी भव के सम्बन्ध में भी जानकारी प्राप्त करने की इच्छा से जो कुछ भगवान् से निवेदन किया अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं - मूल-मियापुत्ते णं भंते ! दारए इओ कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिहिति ? कहिं उववज्जिहिति? पदार्थ भंते !- हे भगवन् ! । मियापुने-मृगापुत्र नामक । दारए-- बालक । णंवाक्यालंकारार्थक है । इश्रो-- यहां से । कालमासे- कालमास - मरणावसर में । कालं किच्चा - काल करके । कहिं-कहां । गमिहिति-जायगा ? और । कहिं-कहां पर । उववज्जिहितिउत्पन्न होगा ? मूलार्थ - हे भावन् ! मृगापुत्र नामक बालक मृत्यु का समय आने पर यहां से काल कर के कहां जायगा और कहाँ पर उत्पन्न होगा ? टीका-पहली नरक से निकल कर इस नारकीय अवस्था में पड़े हए मुगापत्र के आगामी जन्म के सम्बन्ध में गौतम स्वामी की ओर से वीर प्रभु के चरणों में जो प्रश्न किया गया है वह बड़ा ही महत्त्व - पूर्ण प्रतीत होता है । इस प्रकार की दुरवस्था का अनुभव करने वाले जीवों की आगामी जन्मों में क्या दश होती है ? इस विषय का ज्ञान प्राप्त करना मुमुक्षु पुरुष के लिये उतना ही आवश्यक है, जितना कि वर्तमान से अतीत अवस्था का । तात्पर्य यह है कि जीवों की वर्तमान ऊंच नीच दशा से उनके पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्मों का सामान्य रूप से ज्ञान होने पर भी विशेष रूप से ज्ञान प्राप्त करने की अभिलाषा रहती है, किसी प्रकार उसकी पूर्ति हो जाने पर भविष्य की जिज्ञासा तो और भी उत्कट हो जाती है । अथा। यदि किसी एक व्यक्ति के पूर्व जन्म का ययावत् वृतान्त किसी अतिशय ज्ञानो से प्राप्त हो जाय तो उस व्यक्ति के भविष्य के विषय में अपने आप जिज्ञासा उठती है। जिस की पूर्ति के लिये अन्त:करण लालायित बना रहता है । सद्भाग्य से उस की पति हो जाने पर विकास -गामी आत्मा को अपने गन्तव्य मार्ग को परेष्कत करने-सुधारने का साध अवसर मिल जाता है । इसी उद्देश को लेकर वीर भगवान से गौतम स्वामी ने मुगापत्र के आगामी भवों के सम्बन्ध में पूछने का स्तुत्य प्रयत्न किया है । गौतम स्वामी के प्रश्न को सुन कर उसके उत्तर में वीर प्रभु ने जो कुछ फरमया अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं - मूल--*गोतमा ! मियापुत्ते दारए छब्बीसं वामाति परमाउयं पालइत्ता कालमासे (१) छाया- मृगापुत्रो भदन्त ! दारक : इतः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति ? कुत्रोपपत्स्यते ? (२) छापा - गौतम ! मृगापुत्रो दारकः षड्विंशतिं वर्षाणि परमायु: पालयित्वा कालमासे कालं For Private And Personal Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [८९ कालं किच्चा इहेब जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयड्ढगिरिपायमूले सीहकुलंसि सीहत्ताए पच्चायाहिति । से गं तत्थ सोहे भविस्सति अहम्मिए जान साहसिते, सुबहु पावं कम्म समज्जियति २ कालमासे कालं किच्चा हमी से रयणप्पभाए पुढ़वीए उक्कोस सागरोत्रम - ट्ठिएस 'जाव उववज्जिहिति । से गं ततो अांतरं उव्वट्टित्ता सरीसवेसु उववज्जिहिति । तत्थ गं कालं किच्चा दोच्चाए पुढ़वीए उक्कोसियाए तिन्निसागरोत्रमट्टिई उनवज्जहिति । से गं ततो अनंतरं उव्वट्टित्ता पक्खीसु उववज्जिहिति । तत्थ वि कालं किच्चा तच्चाए पुढ़वीए सत्तसागरो० । ततो सीहेसु । तयाणं तरं चउत्थीए । उरगो । पंचमीए । इत्थी । छट्ठीए । म। सत्तमा । ततो अनंतरं उव्वट्टित्ता से जाई इमाई जलयरपंचिदिर्यातरिक्खजोणियाणं मच्छ - कच्छभ - गाह - मगर - सु सुमारादोणं श्रद्धतेरसजातिकुल कोडी जोणिपमुहसतसहस्साई तत्थ गं एगमेगंसि जोणीविहायसि अगसय सहस्सक्खुत्तो उदाइत्ता २ तत्थेव भुज्जो २ पच्चायाइस्सति । से गं तता उच्चट्टित्ता चउप्पएस एवं उरपरिसप्पेसु, भुयपरिसप्पे, खयरेसु, चउरिदिएसु तेइंदिएसु, बेईदिएसु वणण्फ इकडुयरुक्खेसु, कडुयदुद्धिएसु, वाउ० तेउ०, आउ०, पुढवि० अगसतसहस्स+खुत्तो० । सेय ततो अगं तरं उव्वट्टित्ता सुपतिट्ठपुरे नगरे गोणत्ताए पच्चायाहिति । से णं तत्थ उम्मुक्कबालभावे या कयाती पढ़मपाउसंसि गंगाए महागदीए खलीगमट्टियं खणमाणे तडीए पेल्लिते समाणे कालगते तत्थेव सुपरट्ठपुरे नगरे सिट्ठिकुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाइस्सति । से गं तत्थ उम्मुक्क० जाव जोव्वणमणुपपत्ते तहा-रूवाणं थेराणं अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइस्सति । से गं तत्थ अणगारे भविस्मति इरियासमिते जाव बंभयारी से णं तत्थ बहूई बासाइं सामरणपरियागं पाउणत्ता आलोइयपड़िक्कंते समाहिपचे कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववज्जहिति । से एां ततो अांतरं चयं चना महाविदेहे वासे जाई कुलाई मवंत अड्ढाई जहा दढ़पतिगणे, सा चैव वत्तत्रया कलाउ जाव सिज्झिहिति । एवं कृत्वा इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे वैताढ्यगिरिपादमूले सिंहकुले सिंहतया प्रत्यायास्यति । स सिंहो भविष्यति धार्मिको यावत् साहसिकः, सुबहु पापं कर्म यावत् समर्जयिष्यति । स तत्र कालमा से कालं कृत्वा, अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां उत्कृष्टसागरोपमस्थितिकेषु यावदुपपत्स्यते । स ततोऽनन्तरमुद्धृत्य सरीसृपेषूपपत्स्यते । तत्र कालं कृत्वा द्वितीयायां पृथिव्यां उत्कृष्टतया त्रिसागरोपमस्थितिरुपपत्स्यते । स ततोऽनन्तरमुद्धृत्य पक्षिषूपपत्स्यते । तत्रापि कालं कृत्वा तृतीयायां पृथिव्यां सप्तसागरो० । ततः सिंहेषु । तदनन्तरं चतुर्थ्याम् । उरगः । पञ्चम्याम् । स्त्री । षष्ठ्याम् । मनुजः । अधः सप्तम्याम् । ततोऽनन्तरमुद्वृत्य स यानीमानि जलचरपंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां मत्स्य कच्छप-ग्राह-मकर- स सुमारादीनां O (१) 'सागरो जाव' त्ति सागरोवमट्ठिइएस नेरइएसु नेरइयत्ताए इति द्रष्टव्यमिति वृत्तिकारः । For Private And Personal Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विधाक सूत्र [प्रथम अध्याय खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते, ति बेमि ।। ॥ पढमं अज्झयणं समत्तं ।। पदार्थ-गोतमा !- हे गौतम ! | मियापुत्ते-मृगापुत्र । दारए- बालक । छव्वीसं-२६ । वासाति-वर्ष की । परमाउयं - उत्कृष्ट आयु । पालइत्ता-पाल कर-भोग कर । कालमासे- मृत्यु का समय आने पर । कालं किच्चा-काल करके। इहेव-इसी । जंबुद्धीवे दीवे-जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत । भारहे वासे- भारत वर्ष में । वेयड्ढ गिरि-पायमूले - वैताढ्य पर्वत को तलहटी में । सीहकुअर्द्धत्रयोदश -- जाति 'कुलकोटीयोनि-प्रमुखशतसहस्राणि तत्र एकैकस्मिन् योनिविधानेऽनेकशतसहस्रकृत्वो मृत्वा २ तत्रैव भूयो भूयः प्रत्यायास्यति, स तत उद्धृत्य चतुष्पदेषु. एवं उर:परिसपेषु भुजपरिसपेषु. खचरेषु, चतुरिन्द्रियेषु, त्रीन्द्रियेषु, द्वीन्द्रियेषु, वनस्पतिकटुक वृक्षेषु, कटुकदुग्धेषु, वायुषु, तेजस्सु, अप्सु, पृथिवीषु, अनेकशतसहस्रकृत्वः ० । स ततोऽनन्तरमुढत्य, सुप्रतिष्ठपुरे नगरे गोतया प्रत्यायास्यति, स तत्रोन्मुक्त -बालभावोऽन्यदा कदाचित् प्रथमप्रावृषि गंगाया महानद्याः खलीन - मृत्तिका खनन् तस्यां (पतितायाम्) पीड़ित: सन् कालगतः, तत्रैव सुप्रतिष्ठपुरे नगरे श्रेष्ठिकुले पुत्रतया प्रत्यायास्यति । स तत्र उन्मुक्त० यावद् यौवनमनुप्राप्तः, तथारूपाणां स्थविराणामंतिके धर्म श्रुत्वा निशम्य मुण्डो भूत्वा अगारादनगारती प्रव्रजिष्यति । स तत्र अनगारो भविष्यति, ईर्यासमितो यावद् ब्रह्मचारी । स तत्र बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा आलोचित-प्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा सौधर्म कल्पे देवतयोपपत्स्यते । स ततोऽनन्तरं शरीरं त्यक्त्वा महाविदेहे वर्षे यानि कुलानि भवन्ति अाढ्यानि यथा दृढ़प्रतिज्ञः, सैव वक्तव्यता, कला यावत् सेत्स्यति । एवं खलु जम्बू ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सम्प्राप्तेन दुःख-विपाकानां प्रथमस्याध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञप्त: । इति ब्रवीमि । प्रथमाध्ययनं समाप्तम् ।। (१) लोक - प्रकाश नामक ग्रन्थ में कुलकोटि की परिभाषा निम्न प्रकार से की हैकुलानि योनि-प्रभवान्याहुस्तानि बहन्यपि । भवन्ति योनावेकस्यां नानाजातीयदेहिनाम् ॥ ६६ ।। कृमिवृश्चिककीटादि-नानाजुद्रांगिनां यथा । एक-गोमयपिण्डान्तः कुलानि स्युरनेकशः ॥ ६७ ॥ योनि की परिभाषा इस प्रकार की हैतैजसकार्मणवन्तो युज्यन्ते यत्र जन्तवः स्कन्धः । औदारिकादियोग्यैः स्थानं तद्योनिरित्याहुः ॥४३॥ व्यक्तितोऽसंख्येयभेदास्ताः संख्या र्हाः नैव यद्यपि। तथापि समवर्णादिजातिभिर्गणनां गताः ॥४४॥ (लोकप्रकाश सर्ग ३. द्रव्यलोक) अर्थात् -जो योनि में जीवसमूह पैदा होते हैं वे कुल कहलाते हैं । एक योनि में भी नानाजातीय प्राणियों के वे कुल अनेक संख्यक होते हैं ।११ २-जिस प्रकार एक गोमय पिण्ड से कृमि, वृश्चिक, कीट आदि नानाप्रकार के क्षुद्र प्राणियों के अनेक कुल होते हैं उसी प्रकार अन्यत्र भी समझ लेना चाहिए। ३-तैजस और कार्मण शरीर वाले प्राणी जहां औदारिक आदि शरीर के योग्य पुद्गलस्कन्धों से युक्त हों, वह स्थान योनि कहलाता है। ४-ये योनियां व्यक्ति --भेद से असंख्यात भेद वाली मानी जाती है अतः इन की संख्या यद्यपि नियत नहीं हैं, तथापि समान वर्ण, गन्ध, रस आदि की अपेक्षा एक जातीयता की दृष्टि से इन की गणना की गई है। For Private And Personal Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । लंसि-सिंह कुल में । सीहत्ताए- सिंह रूप से । पच्चायाहिति-उत्पन्न होगा। तत्थ-वहां पर। सेणंवह । सोहे – सिंह । अहम्मिए-अधर्मी। जाव-यावत् । साहसिते-साहसी । भविस्सति-होगा । सुबहु - अनेकविध । पावं-पापरूप । कम्म-कर्म । समज्जिणति २--एकत्रित करेगा, करके । सेवह सिंह । कालमासे मृत्यु-समय आ जाने पर । कालं किच्चा-काल कर के । इमीसे- इस रयणप्पभाए - रत्न-प्रभा नामक । पुढवीए-पृथिवी में-नरक में। उक्कोससागरोवमट्रिइएस-उत्कृष्ट सागरोपम स्थिति वाले नारकों में अर्थात् जिन की उत्कृष्ट स्थिति सागरोपम की है, उन नारकियों में । उववज्जिहिति- उत्पन्न होगा । ततो णं-- तदनन्तर । से – वह सिंह का जीव । अणंतरंअन्तर रहित, बिना व्यवधान के । उव्वट्टिना-निकल कर अर्थात् पहली नरक से निकल कर सीधा ही। सरीसवेसु-भुजाओं अथवा छाती के बल से चलने वाले तिर्यञ्च प्राणिों की योनियों में। उववज्जिहिति-उत्पन्न होगा। तत्थ णं-वहां पर । कालं किच्चा-काल करके । दोच्चाए पुढवीएदूसरी नरक में । उववज्जिहिति-उत्पन्न होगा, वहां उसकी। उक्कोसियाए-उत्कृष्ट । तिन्निसागरोवमहिई-तीन सागरोपम की स्थिति होगी ततो गं - वहां से । उठवहिता-निकल कर । अणंतरं-व्यवधान रहित-सीधा ही । पक्खीसु-पक्षियों में । उपवज्जिहिति-उत्पन्न होगा । तत्थ वि- वहां पर भी। कालं किच्चा-काल करके । सत्तसागरो०- सप्त सागरोपमस्थिति वाली। तच्चाए ---तीसरी । पुढवीएनरक में उत्पन्न होगा । ततो- वहां से । सीहेसु-सिंह-योनि में उत्पन्न होगा। तयाणंतरं-उसके अनन्तर । चउत्थीए - चतुर्थ नरक में उत्पन्न होगा, वहां से निकल कर । उरगो-सर्प होगा, वहां से मर करके । पंचमोए-पांचवीं नरक में उत्पन्न होगा, वहां से निकल कर । इत्थी-स्त्री-रूप में जन्म लेगा वहां से काल करके । छट्ठीए-छठे नरक में उत्पन्न होगा, वहां से निकल कर । मणुओं-पुरुष बनेगा, वहां पर काल करके । अहे सत्तमाए-सब से नीची सातवीं नरक में उत्पन्न होगा । ततो-वहां में । उध्वहिता-- निकल कर। अणंतर-अन्तर-व्यवधान रहित । से- वह । जाई इमाई- जो यह । जलयर--जलचर-जल में रहने वाले । पंचिंदिय - पञ्चेन्द्रिय-पांच इन्द्रियों वाले जीव जिन के अांख, कान, नाक, जिव्हा-रसना और स्पर्श ये पांच इन्द्रिय हैं, ऐसे। तिरिक्खजोणियाणं-तिर्यग योनिवाले । मच्छ-मत्स्य । फच्छभ - कच्छप कछुआ। गाह-ग्राह-नाका । मगर-मगर मच्छ । सुसुमारादीणं-सुसुमार आदि की। अद्धतेरसजातिकुल-कोडी जोणिपमुहसयसहस्साई -जाति - जलचरपंचेन्द्रिय की योनियां (उत्पत्तिस्थान) ही प्रमुख -उत्पत्तिस्थान हैं जिनके ऐसी जो कुल-कोटियां (कुल - जीवसमूह, कोटि प्रकार) हैं उन की संख्या साढ़े बारह लाख है । तत्थ णं-उन में से । एगमेगंसि-एक एक । जोणीविहाणंसि-योनिविधान में-योनि भेद १। प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद में लिखा है कि - स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों के दो भेद हैं, जैसे कि - चतुष्पद और परिसर्प । परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों के–भुजपरिसर्प और उर:परिसर्प ऐसे दो भेद होते हैं । भुजपरिसर्प शब्द से भुजाओं से चलने वाले नकुल, मूषकादि जीवों का ग्रहण होता है, और उर-परिसर्प शब्द छाती से चलने वाले सांप, अजगर आदि जन्तुयों का परिचायक है । परिसर्प का ही पर्यायवाची सरीसृप शब्द है जिस का प्रस्तुत प्रकरण में वर्णन चल रहा है। यहां लिखा है कि सिंह के रूप में आया हुअा मृगापुत्र का जीव अायु पूर्ण करके सरीसृपों की योनि में उत्पन्न हुअा, परन्तु प्रज्ञापनासूत्र के मतानुसार सरीसृप शब्द से सर्पादि और नकुलादि दोनों का बोध होता है, यहां प्रकृत में दोनों में किस का ग्रहण किया जाए ? यह विचारणीय है। (१) अभिधान राजेन्द्र कोष में “-सरीसृपःगोधादिषु भुजोरुभ्यां सर्पणशीलेषु तिर्यत -" (पृष्ठ ५६०) ऐसा लिखा है, जो सरीसृप और परिसर्प को पर्यायवाची होने की ओर संकेत करता है। For Private And Personal Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री विपाक सूत्र - [प्रथम अध्याय ९२ | 1 । श्रगसय सह स्सक्खुत्तो-लाखों बार । उद्दाइसा २ – उत्पन्न हो कर । तत्थेव - वहीं पर । भुज्जो २पुनः पुन: - बार बार । पच्चाया इस्सति - उत्पन्न होगा अर्थात् जन्म मरण करता रहेगा । ततो गं - वहां से । स - वह । उव्वहिता – निकल कर । चउप्पपलु – चतुष्पदों चौपायों में एवं इसी प्रकार । उरपरिसप्पेसु छाती के बल चलने वालों में । भुयपरिसप्पेसु भुजा के बल चलने वालों में तथा । खहयरेषु - आकाश में उड़ने वालों में चउरिदिएसु- चार इन्द्रिय वालों में । तेइंदिपसु - तीन इन्द्रिय वालों में । बेइन्दिसु - दो इन्द्रिय वालों में । वणष्फइ - वनस्पति सम्बन्धी । कड्डुयरुक्खेसु कटु – कड़वे वृक्षों में । कडुयदुद्धिपसु - कटु दुग्ध वाले श्रर्कादि वनस्पतियों में । वाउ० – वायु-काय में । तेउ० -- तेजस्काय में । ' 1 Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir उ०- अप्काय में । पुढ़वी० - पृथिवी काय में। रोग सयलहक्खुखो० - लाखों बार जन्म मरण करेगा । ततो वहां से । उन्बहित्ता – निकल कर । अांतरं - व्यवधान रहित । से - वह । सुपतिट्ठपुरे - सुप्र. तिष्ठपुर नामक | राग रे - नगर में । गोजसाए - वृषभ के रूप में । पच्चायाहिति उत्पन्न होगा । तत्थ -- वहां पर । उम्मुक्कबालभावे - त्याग दिया है बालभाव. बाल्य अवस्था को जिसने अर्थात् युवावस्था को प्राप्त होने पर । से - वह । श्रण्णया कयाती- किसी अन्य समय । पढ़मपाउसंसि - प्रथम वर्षां ऋतु में अर्थात् वर्ष के आरम्भ काल में गंगाप गंगा नामक । महानदीप - गहानदी के । खली - मट्टियं - किनारे पर स्थित मृत्तिका -मट्टी का । खणमणेि - स्वनन करता हुआ, – उखाड़ता हुआ। तड़ीएकिनारे के गिर जाने पर । पेल्लित्ते समाणे – पीड़ित होता हुआ । कालगते - मृत्यु को प्राप्त हो गया : मृत्यु प्राप्त करने के अनन्तर । तत्थेव - उसी । सुपट्ट पुरे - सुप्रतिष्ठ पुर नामक । गगरे - नगर में । सिट्ठिकुलं सि-श्रेष्ठि के कुल में | पुतताए – पुत्ररूप से । पच्चायाइस्सति - उत्पन्न होगा । तत्थ गं - बहां पर । उम्मुक्क० – बाल भाव का परित्याग कर । जाव यावत् । जोव्वणमप्पत्त े - युवावस्था को प्राप्त हुआ । से - वह । तहारूवाणं - तथारूप - साधु जनोचित गुणों को धारण करने वाले । थेराणंस्थविर वृद्ध जैन साधुत्रों के । अतिए - पास । धम्मं धर्म को । सोच्चा सुन कर | निसम्म - मननकर | मुंडे भवित्ता-मुंडित हो कर । श्रगाराश्रो- अगर से। अणगारिगं - अनगार धर्म को । पव्वइस्सति ग्रहण करेगा । तत्थ - वहां पर । से गं- वह । अणगारे - अनगार साधु । इरियासमिते 1 समिति से युक्त | जाव-यावत् । बंभयारी - ब्रह्मचारी । भविस्सति - होगा। से - वह । तत्थ - उस अनगार धर्म में : बहूई वासाई -बहुत वर्षों तक । साम्राण-परियागं - यथाविधि साधुवृत्ति का 1 पाउखित्ता- पालन करके लोइयपडिक्कते - आलोचना तथा प्रतिक्रमण कर । समाहिपते-समाधि को प्राप्त होता हुआ । कालमासे - काल मास में । कालं किच्चा - काल करके । सोहम्मे कप्पे - सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में । देवताए - देवरूप से । उववज्जिहिति - उत्पन्न होगा ततो - तत् पश्चात् । से - वह । अांतरं -- अन्तर रहित । चयं -- शरीर को । चइता - छोड़ कर — देवलोक से च्यवकर | मह विदेहे वासे - महाविदेह क्षेत्र में । जाई जो । श्रड्ढाई - श्राढ्य सम्पन्न । कुलाई - कुल । भवंति - होते हैं, उन में उत्पन्न होगा । जहा - जैसे । दढ़पतिराणे - दृढ़प्रतिज्ञ था । सा चेव - वही । वत्तव्वया - वक्तव्यता - कथन । कलाउ कलायें सीखेगा । जाव- यावत् । सिज्झिाहति - सिद्ध पद को प्राप्त करेगा अर्थात् मुक्त हो जायगा । एवं खलु जंबू ! - हे जम्बू ! इस प्रकार निश्चय ही जाव यावत् । सम्पत्तेणं - मोक्ष सम्प्राप्त | समणेणं - श्रमण | भगवया- भगवान्। महावोरेणं - महावीर ने । दुहविदागाणं - दुःख विपाक के । पढ़मस्स - प्रथम । अज्झयणस्स - अ ययन का । श्रयमट्ठ े - यह पूर्वोक्त अर्थ । पण्णत्ते प्रतिपादन किया है । त्ति - इस प्रकार । बेमि मैं कहता हूँ । पढमं - प्रथम । अज्झयणं - अध्ययन । समत्तं - समाप्त हुआ । - For Private And Personal · Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । मूलार्थ --गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान ने कहा कि -हे गौतम ! यह मृगापुत्र २६ वर्ष की पूर्ण आयु भोग कर कल--मास में काल कर के इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारत वर्ष के वैताढ्य पर्वत की तलहटी में म्हि रूप से सिंहकुल में जन्म लेगा, अर्थात यह वहां सिंह बनेगा, जोकि महा अधमी और साहसी बन कर अधिक से अधिक पाप कर्मों का उपार्जन करेगा। फिर वह सिंह समय आने पर काल करके इस रत्नप्रभा नाम की पृथिवी-पहली नरक में-जिसकी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की है, उस में उत्पन्न होगा, फिर वह वहां से निकल कर सीधा भुजाओं के बल से चलने वाले अथवा पेट के बल चलने वाले जीवों की योनि में उत्पन्न होगा। वहां से काल कर के दूसरी पृथवी-दूसरी नरक-जिसकी उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम की है-में उत्पन्न होगा । वहां से निकल कर सीधा पक्षियोनि में उत्पन्न होगा, वहां पर काल करके तीसरी नरक भूमी-जिसकी उत्कृष्टस्थिति सात 'सागरोपम की है, में उत्पन्न होगा । वहां से निकल कर सिंह की योनि में उत्पन्न शेगा। वहां पर काल करके चौथी नरक-भूमि में उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर मर्प बनेगा । वहां से पांचवीं नरक में उत्पन्न होगा, वहां से निकल कर स्त्री बनेगा । वहां से काल करके छठी नरक में उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर पुरुष बनेगी । वहां पर काल करके सब से नीची सातवां नरक-भूमी में उत्पन्न होगा । वहां से निकल कर जो ये जलचर पंचेन्द्रिय तियचों में मत्स्य, कच्छप, ग्राह, मकर और सुसुमार आदि जलचर पञ्चेन्द्रिय जाति में योनियां-उत्पत्तिस्थान हैं, उन योनियों से उत्पन्न होने वाली कुल कोटियों (कुल-जीवसमूह, कोटि-भेद) की संख्या साढ़े बारह लाख है, उन के एक एक योनिभेद में लाखों बार जन्म और मरण करता हआ इन्ही में बार २ उत्पन्न होगा अर्थात् श्रावा गमन करेगा। तत् पश्चात् वहां से निकल कर चौपायों में, छाती के बल चलने वाले, भुजा के बल चलने वाले तथा आकाश में विचरने वाले जोवों में एवं चार इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और दो इन्द्रिय वाले प्राणियों तथा वनस्पतिगत कटु वृक्षों, और कटु दुग्ध वाले वृक्षों में, वायु, तेज, जल और पृथिवी काय में लाखों बार उत्पन्न होगा ।। तदनन्तर वहां से निकल कर वह सुप्रतिष्ठ पुर नाम के नगर में वृषभ-(बैल) रूप से उत्पन्न होगा। जब वह बाल भाव को त्याग कर युवावस्था में आवेगा तब गंगा नाम की महानदी के किनारे की मृत्तिका को खोदता हश्रा नदी के किनारे के गिर जाने पर पीडित होता हुआ मृत्यु को प्राप्त हो जायगा, मृत्यु को प्राप्त होने के बाद वह वहीं सुप्रतिष्ठ पुर नामक नगर में किसी श्रेष्ठी के घर पुत्र रूप से उत्पन्न होगा वहां पर बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त करने के अनन्तर वह साधु-जनोचित सद्-गुणों से युक्त किन्हीं ज्ञान वृद्ध जैन साधुओं के पास धर्म को सुनेगा, सुनकर मनन करेगा तदनन्तर मुंडित होकर अग्गरवृत्ति को त्याग कर अनगार धर्म को प्राप्त करेगा अर्थात् गृहस्थावास से निकल कर साधु-धर्म को अंगीकार करेगा । उस अनगार-धर्म में ईयामितियुक्त यावत् ब्रह्मचारी होगा। वहां बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय-दीक्षावतका पालन कर आलोचना और प्रतिक्रमण से आत्मशुद्धि करता हुआ समाधि को प्राप्त कर समय आने पर काल करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होगा । तदनन्तर देवभव की स्थिति पूरी हो जाने पर वहां से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में, जो धनाढ्य कुल हैं उन में उत्पन्न होगा, वहां उसका कलाभ्यास, पव्रज्याग्रहण यावत् मोक्षगमन इत्यादि सब वृत्तांत दृढ़-प्रतिज्ञ की भांती जान लेना। सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि-हे जम्बू ! इस प्रकार निश्चय ही श्रमण भगवान महावीर ने For Private And Personal Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [प्रथम अध्याय जोकि मोक्ष को प्राप्त कर चुके हैं, दुःख-विपाक के प्रथम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। जिस प्रकार मैंने प्रभु से सुना है उसी प्रकार मैं तुम से कहता हूं । ॥ प्रथम अध्ययन समाप्त ॥ टीका ---- कर्म के वशीभूत होता हुआ यह जीव ससार-चक्र में घटीयन्त्र की तरह निरन्तर भ्रमण करता हुअा किन किन विकट परि स्थतियों में से गुजरता है और अन्त में किसी विशिष्ट पुण्य के उदय से मनुष्य भव में आकर धर्म की प्राप्ति होने से उसका उद्धार होता है, इन सब विचारणीय बातों का परिज्ञान मगापत्र के अगामी भवों के इस वर्णन से भली भांति प्राप्त हो जाता है। इस वर्णन में मुमन जीवों के लिये अात्मसुधार की पर्याप्त सामग्री है अत: विचारशील पुरुषों को इस वर्णन से पर्याप्त लाभ उठाने का यत्न करना चाहिये अस्तु सूत्रकार के भाव को मूलार्थ में प्रायः स्पष्ट कर दिया गया है । परन्तु कुछ ऐसे पारिभाषिक शब्द है जिन की व्याख्या अभी अवशिष्ट है अतः उन शब्दों की व्याख्या निम्न प्रकार से की जाती है वंता व्यपर्वत - भरत क्षेत्र के मध्य भाग में वैतान्य नाम का एक पर्वत है । जो कि २५ योजन ऊंचा अोर ५० योजन चौड़ा है । उस के ऊपर नव कूट हैं जिनपर दक्षिण और उत्तर में विद्याधरों की श्रेणियां हैं, उन में विद्याधरों के नगर हैं, और दो आभियोगिक देवों की श्रेणियां हैं, उन में देवों के निवास स्थान हैं। उसके मूल में दो गुफायें हैं । एक तिमिस्रा दूसरी खण्डप्रपात गुफा है। वे दोनों बन्द रहती हैं। जब कोई चक्रवर्ती दिगविजय करने के लिये निकलता है तब दण्डरत्न से उन का द्वार खोलकर क किणीरत्न से मांडला लिखकर अर्थात् प्रकाश कर अपनी सेना सहित उस गुफा में से उत्तर भारत में जाता है । इन गफानों में दो नदियां आती हैं एक उम्मगजला, दूसरी निम्मग -- जला । वे दोनों तीन तीन योजन चौड़ी हैं । चल्लहिमवन्त नामक पर्वत के ऊपर से निकली हुई गंगा और सिंधु नामक नदियां भी इन गुफाओं में से दक्षिण भारत में प्रवेश करती हैं । नरक-भमिएं शास्त्रों में सात नरक-भूमिएं (नरक-भूमि वह स्थान है जहां मरने के बाद जीवों को जीवित अवस्था में किये गये पापों का फल भोगना पड़ता है) कही हैं । उनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं – (१) त्निप्रभा (२) शकराप्रभा (३) वालुकाप्रभा (४) पंकप्रभा (५) धूमप्रभा (६) तमःप्रभा और (७) महातमःप्रभा '। इन नरकों या नरक --- भूमियों में उत्पन्न होने वाले जीवों की उत्कृष्ट स्थिति क्रमश: एक, तीन, सात दस, सत्रह, वाईस और तेतीस सागरोपम की है । इन में रत्न प्रभा नामकी पहली नरक भृमी के तीन काण्ड-हिस्से हैं, और उममें उत्पन्न होने वाले जीवों की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की बतलाई गई है और अन्त की सातवीं नरक की उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण तेतीस सागरोपम है। सागरोपम-यह जैनसाहित्य का कालपरिमाण सूचक पारिभाषिक शब्द है। जन तथा बोद्ध वाङमय के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं पल्योपम तथा सागरोपम आदि शब्दों का उल्लेख देखने में नहीं आता। (१) रत्न-राकरा-वालुका-पंकधूम-तमो-महातमःप्रभा भूमयो । घनाम्बुवाताकाराप्रतिष्ठाः सप्ताधोऽधः पृथुतराः ॥१॥ अर्थात् रत्नप्रभा, शकराप्रभा, वालुका प्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा तमःप्रभा, और महातम:प्रभा ये स.त भूमिये हैं, जो धनाम्बु, वात और आकाश पर स्थित हैं, एक दूसरी के नीचे हैं और नीचे की ओर अधिक अधिक विस्तीर्ण है। (२) इन सातों नरकों की स्थिति का वर्णन निम्नोक्त है--- "तेष्वेकत्रिसप्तद द्वाविंशति-त्रयोविंशत्-सागरोपमाः सत्वानां परा स्थितिः” अर्थात् उन नरों में रहने वाले प्राणियों की उत्कृष्ट स्थिति कम से एक, तीन, सात; देश, सत्रह, बाईस और तेतीस सागरोपम प्रमाण है। नरकाम For Private And Personal Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । सागरोपम. यह पद एक संख्याविशेष का नाम है । अंकों द्वारा इसे प्रकट नहीं किया जा सकता, अत: उसे समझाने का उपाय उपमा है उपमा द्वारा ही उस की कल्पना की जा सकती है. इसी कारण उसे उपपासंख्या कहते हैं और इसीलिये सागर शब्द के बदले सागरोपम शब्द का व्यवहार किया जाता है। सगरोपम का स्वरूप इस प्रकार है --- चार कोस लम्बा और चार कोस चौड़ा तथा चार कोस गहरा एक कूत्रां हो, कुरु-क्षेत्र के युगलिया के ७ दिन के जन्मे बालक के बाल लिये जाएं । युगलिया के बाल अपने बालों से ४०९६ गुना सूक्ष्म होते हैं उन बालों के बारीक से बारीक टुकड़े काजल की तरह कये जायें, चर्मचक्षु से दिखाई देने बाले टुकड़ों से असंख्य गुने छोटे टुकड़े हों अथवा सूर्य की किरणों में जो रज दिखाई देती हैं उस से असंख्य गने छोटे हों, ऐसे टुकड़े करके उस कूए में ठसाठस भर दिये जावें । सौ सौ वर्ष व्यतीत होने पर एक एक टुकड़ा निकाला जाय, इस प्रकार निकालते . जब वह कप खाली हो जावे तब एक पल्योपम होता है । ऐसे दस कोड़ाकोड़ी कूप जब खाली हो जाएं तब एक सागरोपम होता है । एक कोड को एक क्रोड़ की संख्या से गुना करने पर जो गुनन फल अाता है वह कोड़ाकोड़ी कहलाता हैं ।। उत्कृष्ट सागरोपम-स्थिति वाले का अर्थ है-अधिक से अधिक एक सागर पम काल तक नरक में रहने वाला । इसका यह अर्थ नहीं कि प्रथम नरक भूमी के प्रत्येक नारकी की सागरोपम की ही स्थिति होती है क्योंकि यहां पर जो नरक भूमियों की एक से क्रमशः ३३ सागरोपम तक की स्थिति बतलाई है, वह उत्कृष्ट अधिक से अधिक) बतलाई है, जघन्य तो इससे बहुत कम होती है । जैसे पहले नरक की उत्कृष्टस्थिति एक सागरोपम की और जघन्य दस हजार वर्ष की है, तात्पर्य यह है कि प्रथम नरक-भूमी में गया हुआ जीव वहां अधिक से अधिक एक सगरोपम तक रह सकता है और कम से कम १० हाजार वर्ष तक रह सकता है। - यहां पर मृगापुत्र के पहली से सातवीं नरक भूमी में जाने तथा उनसे निकल कर अमुक २ योनि में उत्पन्न होने का जो क्रम बद्ध उल्लेख है उसका सैद्धान्तिक निष्कर्ष इस प्रकार समझना चाहिये-- . असंज्ञी प्राणी मर कर पहली भूमी-नरक में उत्पन्न हो सकते हैं आगे नहीं । भुजपरिसर्प, पहली दो भूमी तक, पक्षी तीन भूमी तक, सिंह चार भूमी तक, उरग पांचवीं भूमी तक, स्त्रो छठी भूमी तक ओर मत्स्य तथा मनुष्य मर कर सातवीं नरक भूमी तक जा सकते हैं । तियेंच और मनुष्य हो नरक में उत्पन्न हो सकता है, देव और नारक नहीं। इसका कारण । यह है कि उन में वैसे अध्यवसाय का सदभाव नहीं होता। तथा नारकी मर कर फिर तुरन्त न तो नरक गति में ही पैदा होता है और न देवगतियों में, किन्तु वे मर कर सिर्फ तिर्यंच और मनुष्य गति में ही उत्पन्न हो सकते हैं। (१) दसवर्ष-सहस्राणि प्रथमायां । तत्त्वार्थसूत्र, ४-४४ । (२) असण्णी खलु पढ़मं दोच्चं पि सिरीसवा, तइयं पक्खी । सीहा जंति चउत्थि, उरगा पुण पंचमि पुढविं ॥१॥ छष्टुिं च इत्थियात्रो. मच्छा मणुत्रा य सत्तमि पुढविं। एसो परमो वारो, बोधव्वो नरगपुढ़वीणं ॥२॥ [प्रज्ञापना सूत्र, छठा पद] (३) नेरइए णं भंते ! नेरइएहितो अणंतरं उव्यट्टित्ता नेरइएसु उववज्जेज्जा ' गोयमा ! णो इण? सम? । एवं निरंतरं जाव चउरिदिएसु पुच्छा, गोमया ! नो इण? सम?। नेरइए णं भंते ! नेरइहिंतो अणंतरं उध्वट्टि त्ता पंचिंदिय-तिरिक्ख-जोणिएसु उववज्जेज्जा १ अत्थेगतिए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा......... ....... । नेरइए णं भंते ! नेरइहिंतो अणंतरं उव्वत्तिा मणुस्सेसु उववज्जेज्जा १ गोयमा ! अत्थेगतिए उववज्जेज्जा, अत्थेगतिए, णो उववज्जेज्जा । [प्रज्ञापना सूत्र २० । २५०] For Private And Personal Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [प्रथम अध्याय - 'अद्धतेरस जाति-कुजकोडी-जोणि-पमुह-सत-सहस्साई-अर्द्ध-त्रयोदश-जाति-कुल-कोटी योनि-प्रमुख-शतसहस्राणि -” इन पदों का भावार्थ है कि - मत्स्य आदि जलचर पंचेन्द्रिय जाति में जो योनियां - उत्पत्तिस्थान हैं, उन योनियों में उत्पन्न होने वाली कुनको टयों की संख्या साढ़े बारह लाख है । जति. कुलकोटि आदि शब्दों की अर्थ-विचारणा से पूर्वोक्त पद स्पष्टतया समझे जा सकेगें, अतः इन के अर्थों पर विचार किया जाता है... जाति - शब्द के अनेकों अर्थ हैं, परन्तु प्रकृत में यह शब्द एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों का परिचायक है जलचर पंचेन्द्रिय का प्रस्तुत प्रकरण में प्रसंग चल रहा है । अतः प्रकृत में जाति शब्द से जलचरपंचेन्द्रिय का ग्रहण करना है। कुलकोटी - जीवसमूह को कुल कहते हैं, और उन कुलों के विभिन्न भेदों-प्रकारों को कोटी कहते हैं । जिन जीवों का वर्ण, गन्ध आदि सम हैं , वे सब जीव एक कुल के माने जाते हैं और जिन का वर्ण गन्ध आदि विभिन्न है. वे जोवसमूह विभिन्न कुलों के रूप में माने गए हैं । __ उत्पत्तिस्थान एक होने पर भी अर्थात् एक योनि से उत्पन्न जीवसमूह भी विभिन्न वर्ण गन्धादि के होने से विभिन्न कुल के हो सकते हैं । इस को स्थूनरूप से समझने के लिये गोमय-गोबर का उदाहरण उपयुक्त रहेगा - - वर्षतु के समय उस में-गोबर में विच्छ आदि नानाप्रकार के विभिन्न प्राकार रखने वाले जीव उत्पन्न होने के कारण वह गोबर) उन जीवों को एक योनि है, उस में कृमि, वृश्चिक आदि नाना जातीय जीवसमूह अनेक कुलों के रूप में उत्पन्न होते हैं । अस्तु ।। यहां-क्या गोबर के समान मत्स्यादि की योनियों में भी विभिन्न जीव उत्पन्न हो सकते हैं ? ."यह प्रश्न उत्पन्न होता है। जिस का उत्तर यह है कि - विकलत्रय (विकलेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय. त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव जैसी स्थिति जलचर और पञ्चेन्द्रिय प्राणियों में नहीं है । वहां के कुलों में विभिन्न वर्णादि तथा विभिन्न प्राकृतियों के जलचरत्व आदि रूप ही लिये जायेंगे, हां, उन कुलों में सम्मूर्छिम (स्त्री और पुरुष के समागम के विना उत्पन्न होने वाले प्राणो) एवं गर्भज (गर्भाशय से उत्पन्न होने वाले प्राणी) की भेद विवक्षा नहीं है। समाचार पत्र हिन्दुस्तान दैनिक में एक समाच र छपा था कि एक गाय को सिंहाकार बछड़ा पैदा हुआ है। प्राकृति की दृष्टि से तो वह बाह्यत: सिंह जातीय हैं परन्तु शास्त्र की दृष्टि से वह गोजातीय हो है। यही एक योनि से उत्पन्न जीवसमूहों की कुलकोटि की विभिन्नता का रहस्य है। योनि- का अर्थ है- उत्पत्तिस्थान । तैजस कामण शरीर को तो आत्मा साथ लेकर जाता है, फलतः जिस स्थान पर आदारिक और वैफियशरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर तत्तत् शरीर का निर्माण करता है, वह स्थ न योनि कहलाता है । योनियों की संख्या नीयत नहीं है, वे असंख्य है । फिर भी जिन योनियों का परस्पर वर्ण, गन्ध रस, स्पर्श आदि एक जैसा है उन अनेक योनियों को भी जाति की दृष्टि से एक गिना जाता है, और इस प्रकार विभिन्न वर्णादि की अपेक्षा से यो नयों के ८४ लाख भेद माने जाते हैं । जैसा कि प्रज्ञापनासूत्र की वृत्ति में लिखा है - (१) इन पदों की व्याख्या टीकाकार आचार्य अभयदेव सूरी के शब्दों म निम्नोक्त है " --जातौ पंचेन्द्रियजाठौ या कुल कोटयः तास्तथा ताश्च ता योनिप्रमुखाश्च चतुर्लक्षसंख्यपञ्चेन्द्रियोत्यत्तिस्थानद्वारकास्ता जातिकुल कोटि-योनिप्रमुखाः, इ च विशेषणं परपदं प्राकृतत्वात् । इदमुक्तं भवति पञ्चेन्द्रियजातौ या योनयः तत्प्रभाः याः कुलकोट्यस्तासां लक्षाणि साद्वादश प्रज्ञप्तानि, तत्र योनिय थागोमयः , तत्र चेकस्यामपि कुलानि विचित्राकारः कृम्यादयः। For Private And Personal Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अध्याय ? www.kobatirth.org हिन्दी भाषा टीका सहित | “ -- केवलमेव विशिष्टवर्णादियुक्ताः संख्यातीताः स्वस्थाने व्यक्तिभेदेन योनयः जातिमधिकृत्य एकैव योनिर्ग रायते - " । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ग्रहण समझना - ८८ अर्थात् – जिन उत्पत्ति-स्थानों का वर्ण, गन्ध आदि सम है वे सब सामान्यतः एक योनि हैं, और जिन का वर्ण, गन्ध आदि विषम है, विभिन्न है, वे सब उत्पत्तिस्थान पृथक् २ योनि के रूप में स्वीकार किए जाते हैं अस्तु । तब इस अर्थविचारणा से प्रकृतोपयोगी तात्पर्य यह फलित हुआ कि मृगापुत्र का जीव सातवीं नरक से निकल कर तिर्यग्योनि के जलचर पञ्चेंद्रिय मत्स्य, कच्छप आदि जीवों ( जिन की कुल कोटियों की संख्या साढ़े बारह लाख है) के प्रत्येक योनिभेद में लाखों बार जन्म और मरण करेगा । [९७ "खतीण-मट्टियं खणमाणे इन पदों का अर्थ है-नदी के किनारे की मट्टी को खोदता हुआ। तापर्य यह है कि मृगापुत्र का जीव जब वृषभ रूप में उत्पन्न होकर युवावस्था को प्राप्त हुआ तब वह गंगा नदी के किनारे की मट्टी को खोद रहा था परन्तु अकस्मात् गंगा नदी के किनारे के गिर जने पर वह जल में गिर पड़ा और जल प्रवाह प्रवाहित होने के कारण वह अत्यधिक पीडित एवं दुःखी हो रहा था अन्त में वहीं उस की मृत्यु हो गई । “उम्मुक्क० जात्र जोठवण - " पाठ गत "जाव - यावत्" पद से निम्नलिखित समग्र पाठ का उम्मुकबाल - भावे, विण्णायपरिणयमित्तेर, जोन्वणमगुष्पत्ते -- उन्मुक्त - बालभावः, विज्ञकपरिणतमात्रो यौवनमनुप्राप्तः – ” अर्थात् जिसने बाल अवस्था को छोड़ दिया है, तथा बुद्धि के विकास से जो विज्ञ – हेयोपादेय का ज्ञाता एवं युवावस्था को प्राप्त हो चुका है । “ - तहारूवाणं थेराणं - " यहां पठित तथारूप और स्थविर तथोक्त शास्त्रानुमोदित गुणों को धारण करने वाले की जीवन में आगम - विहित गुण पाये जायें उसे तथारूप कहते हैं । - शब्द के अर्थ निम्नोक्त हैंतथारूप संज्ञा है, अर्थात् जिसके वय - स्थविर (२) प्रव्रज्या - स्थविर - वृद्ध को स्थविर कहते हैं । स्थविर तीन प्रकार के होते हैं (१) स्थविर और (३) श्रुतस्थविर । साठ वर्ष की आयुवाले को वय - स्थविर कहते हैं । बीस बर्ष की दीक्षापर्याय वाला प्रव्रज्या - स्थविर है और स्थानांग, समवायांग, आदि श्रागमों के ज्ञाता की श्रुत स्थविर संज्ञ है । इसी प्रकार मु ंडित भी द्रव्यमु ंडित और भावमुडित, इन भेदों से दो प्रकार के होते हैं (१) सिर का लोच कराने वाला या मुडवाने वाला द्रव्यमुण्डित ( २ ) परिग्रह आदि को त्याग कर दीक्षा ग्रहण करने वाला भाव - मुण्डित कहलाता है । तथा अगार का मतलब घर अथवा गृहस्थाश्रम से है । उस से निकल कर त्यागवृत्ति -- साधुधर्म को अंगीकार करना अनगार धर्म है । जैसा कि ऊपर भी मूलार्थ में कहा गया है कि भगवान् ने फरमाया कि गौतम ! सुप्रतिष्ठ For Private And Personal (१) खलीणमहियं- "त्ति खलीनामाकाशस्थां छिन्नतटोपरिवर्तिनीं मृत्तिकामिति वृत्तिकारः अर्थात् - गंगा नदी के किनारे की भूमी का निम्न भाग जल प्रवाह प्रवाहित हो रहा था ऊपर का अवशिष्ट भाग ज्यों का त्यों आकाश - स्थित था, जब वृषभ अपने स्वभावानुसार उस पर खड़ा हो कर मृत्तिका खोदने लगा तब उसके भार से वह आकाशस्थ किनारा गिर पड़ा जिस से वह वृषभ जल प्रवाह से प्रवाहित हो कर मृत्यु का ग्रास बन गया । (२) "विण्य परिणयमिते” – तत्र विज्ञ एव विज्ञक णामापन्न एव च विज्ञकपरिणतमात्रः [ अभयदेवसूरिः ] स चासौ परिणतमात्रश्च बुद्धयादिपरि Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ९८] श्री विपाक सूत्र - [ प्रथम अध्याय पुर नगर के श्रेष्ठ कुल में पुत्र रूप से का पालक तथा ब्रह्मचारी होगा, और और प्रतिक्रमण द्वारा समाधिस्थ होता उत्पन्न होने वाला यह मृगापुत्र का जीव दीक्षित हो कर ईर्यासमिति वहां पर अनेक वर्षों तक संयम व्रत को पाल कर आलोचना हुआ समय आने पर काल करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा । इस कथन से विकासगामी अर्थात् विकास मार्ग की ओर प्रस्थान करने वाला आत्मा एक न एक दिन अपने गन्तव्य स्थान को प्राप्त करने में सफल हो ही जाता है । यह भली भांति सूचित हो जाता है । "इरियासमिते जाव बंभयारी" इस में उल्लिखित 'जाव यावत्" पद से - "ईरियासमिया, भासासमिया, एसणासमिया, श्रयाणभंडमत्त - निक्खेवणासमिया, उच्चारपासवण - खेल सिंघाणजल्लपा रिट्ठाव गियास मिया, मणस मिया, वयसमिया कायसमिया, मणगुत्ता, वयगुत्ता, कार्यगुत्ता, गुत्ता, गुसिंदिया, गुत्तबंभयारी" ( ईर्यासमिता:, भाषासमिताः, एषणासमिताः, श्रदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासभिताः, उच्चार – प्रश्रवण - खेल सिंघाणजल्ल - परिष्ठाप निकास मिताः, मनः समिताः, वचः समिताः, कायसमिताः, मनोगुप्ता, वचोगुप्ताः, कायगुप्ताः, गुप्ताः, गुप्तेन्द्रियाः, गुप्तब्रह्मचारिणः ] इस अवशिष्ट पाठ का ग्रहण करना । " लोइयपड़िक्कते - आलोचितप्रतिक्रान्तः " - अर्थात् श्रात्मा में लगे हुए दोषों को गुरुजनों के समीप निष्कपट भाव से प्रकाशित करके उन की आज्ञानुसार दोषों से दूर हटने वाले अर्थात् प्रायश्चित करने वाले को आलोचित - प्रतिकान्त कहते हैं । आलोचना - गुरुजनों के श्रादेशानुसार पाप निवृत्ति के लिये प्रायश्चित करना । प्रतिक्रमण - - प्रमाद वश शुभयोग से गिर कर अशुभयोग को प्राप्त करने के बाद शुभ योग को प्राप्त करना अर्थात् अशुभ व्यापार से निवृत्त हो कर शुभ योगों में प्रवृत्ति करना प्रतिक्रमण है दूसरे शब्दों में- सावद्य प्रवृत्ति में जितने आगे बढ़े थे उतने ही पीछे हट जाना तथा निरवद्य प्रवृत्ति में सावधान हो जाना अथवा साधु तथा गृहस्थों द्वारा प्रातः सायं करणीय एक अत्यावश्यक अनुष्ठान को प्रतिक्रमण कहते हैं । आलोचना और प्रतिक्रमण की फलश्रुति का उल्लेख उत्तराध्ययन सूत्र [ श्रध्याय २९] में इस प्रकार है प्रश्न - हे भदन्त ! आलोचना से जीव किस गण को प्राप्त करता है ? उमर - आलोचना से यह जीव मोक्षमार्ग के विघातक, अनन्तसंसार को बढ़ाने वाले, माया, निदान और मिथ्यादर्शनरूप शल्यों को दूर करदेता है तथा ऋजुभाव सरलता की प्राप्त करता है। ऋजुभाव प्राप्त करके माया से रहित होता हुआ यह जीव स्त्रीवेद और नपुंसकवेद नहीं बान्धता और पूर्व में बन्धे निर्जरा कर देता हैं । हुए की (१) प्रतीपंक्रमण प्रतिक्रमणं, एतदुक्त भवति - शुभयोगेभ्योऽशुभयोगानुपक्रान्तस्य शुभेष्वेव गमनमिति । उक्तांच - " स्वस्थानाद् यत् परस्थानं, प्रमादस्य वशं गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ १ ॥ क्षयोपशमिकाद् भावादौदयिकस्य वशं गतः । तत्रापि च स एवार्थः प्रतिकूलगमात् स्मृतः ॥||२|| (२) आलोयगाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ १ आलोयणाएणं मायानियाणमिच्छादंसरण सल्लागं मोक्खमग्गविग्वाणं अणत - संसार - बंधणाणं उद्धरणं करेइ । उज्जुभावं च जणयइ | उज्जुभावपडिवन्ने य णं जीवे श्रमाई इत्थीवेय-नपुरंसग - वेयं च न बंधइ । पुव्वबद्ध च णं निज्जरेड || ५॥ For Private And Personal Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय) हिन्दी भाषा टाका सहित । प्रश्न - हे भगवन् ! प्रतिक्रमण से इस जीव का किस गुण की प्राप्ति होती है ? उत्तर --- 'प्रतिकमण से जीव व्रतों के छिद्रों का ढांपता है, अर्थात् ग्रहण किये हुए व्रतों को दोषों से बचाता है। फिर शुद्ध व्रतधारी होकर अत्रवों को रोकता हुया आठ प्रबचा माताओं में [ पांचसमिति और तीन गुप्ति के पालन में | सावधान होजाता है, तथा विशुद्ध – चारित्र को प्राप्त करके उससे अलग न होता हुआ समाधि पूर्वक संयम-मार्ग में विचरता है। “-समाहिपत्ते--समाधिप्राप्तः--' पद का अर्थ है समाधि को प्राप्त हश्रा । सूत्रकतांग के टीकाका श्री शीलांकाचाय के मतानुसार समाधि दो प्रकार की होती है ,१) द्रव्यसमाधि और () भाव समाधि। . . मनोहर शब्द आदि पांच विषयों की प्राप्ति होने पर जो श्रोत्रादि इन्द्रियों की पुष्टि होती है, उसे व्यसमाधि कहते हैं. अथवा परस्पर विरोध नहीं रखने वाले दो द्रव्य अथवा बहा द्रव्यों के मिलाने से जो रस बिगड़ता नहीं किन्तु उसकी पुष्टि होती है उसे द्रव्यसमाधि कहते है जैसे दूध और शक्कर, तथा दही और गुड़ मिलाने से अथवा शाकादि में नमक मिर्च आदि मिलाने से रस की पुष्टि होती है। अतः एव इस मिश्रण को द्रव्यसमाधि कहते हैं। अथवा जिस द्रव्य के खाने और पीने से शान्ति प्राप्त होती रहे उसे द्रव्य समाधि कहते हैं । अथवा तराज़ के ऊपर जिस वस्तु को चढ़ाने से दोनों बाजू समान हों उसे द्रव्यसमाधि कहते हैं। भाव समाधि, दर्शन ज्ञान, चारित्र और तप भेद से चार प्रकार की है । जो पुरुष दर्शनसमाधि मे स्थित है वह जिन भगवान के वचनों से रंगा हुआ अन्तः करण वाला होने के कारण वायु रहित स्थान में रखे हुए दीपक के समान कुबुद्धिरूपी वायु से विचलित नहीं किया जा सकता है । ज्ञान समाधि वाला पुरुष ज्यों ज्यों शास्त्रों का अध्ययन करता हैं त्यों त्यों वह भावसमाधि में प्रवृत्त हो जाता है । चारित्र समाधि में स्थित मुनि दरिद्र होने पर भी विषय-सुख से निस्पृह होने के कारण परमशान्ति का अनुभव करता है। कहा भी है कि-२ जिस के राग, मद और मोह नष्ट हो गये हैं वह मुनि तृण की शय्या पर स्थित हो कर भी जो आनन्द अनुभव करता है, उसे चक्रवर्ती राजा भी कहां पा सकता है तप समाधि वाला पुरुष भारी तप करने पर भी ग्लानि का अनुभव नहीं करता तथा क्षुधा और तृषा आदि से वह पीड़ित नहीं होता । अस्तु । प्रस्तुत प्रकरण में जो समाधि का वर्णन है वह भाव-समाधि का वर्णन ही समझना चाहिये। ___ तदनन्तर मृगापुत्र का जीव प्रथम देवलोक से च्यवकर महाविदेह क्षेत्र में दृढप्रतिज्ञ की भान्ति धनी कुलों में उत्पन्न होगा, तथा मनुष्य की सम्पूर्ण कलाओं में निपुणता प्राप्त कर दृढ़ -- प्रतिज्ञ की तरह ही प्रव्रज्या धारण कर अनगार वृत्ति के यथावत् पालन से अष्ट वध कर्मों का विच्छेद करता हुआ सिद्धगति-मोक्ष को प्राप्त करेगा। इस कथन में संसार के आवागमन चक्र में घटीयन्त्र की तरह निरन्तर भ्रमण करने वाले जीव की जीवन यात्रा अर्थात् जन्म मरण परम्परा का पर्यवसान कहां पर होता है और वह सदा के लिये सर्वप्रकार के दुखों का अन्त करके वैभाविक परिमाणों से रहित होता हुआ स्वस्वरूप में कब रमण करता छाया- आलोचनया भदन्त ! जीवः किं जनयति ? आलोचनया मायनिदान मिथ्यादर्शनशल्यानां मोक्षमार्गविघ्नानां, अनन्तसंसारवर्द्धनानामुद्धरणं करोति । ऋजुभावं च जनयति । ऋजुभावं प्रतिपन्नश्च जीवः अमायी स्त्रीवेदनपुसकवेदं च न बध्नाति, पूर्वबद्धं च निर्जरयति ॥५॥ (१) पडिक्कमणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ १ पडिक्कमणेणं वयछिद्दाणि पिहेइ । पिहियवयछिद्द पुण जीवे निरुद्धासवे असबल - चरित्ते अटुसु पवयण भायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्परिणहिए विहरइ ॥११॥ छाया-प्रतिक्रमणेन भदन्त ! जीवः किं जनयति १ प्रतिक्रमणेन व्रतछिद्राणि पिदधाति पिहितव्रतच्छिद्रः पुनर्जीवो निरुद्धास्रवोऽशबलचरित्रश्चाष्टसु प्रवचनमातृषूपयुक्तोऽपृथक्त्वः सुप्रणिहितो विहरति । (२) तृणसंस्तार-निविष्टोऽपि मुनिवरो भ्रष्टरागमदमोहः यत् प्राप्नोति मुक्तिसुखं कुतस्तत् चक्रवर्त्यपि । For Private And Personal Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री विपाक सूत्र १०० | है ? इस की स्पष्ट सूचना मिलती है । 35 १" अांतरं चयं चइता इस के दो अर्थ हैं --- (१) त्रयं - शरीर को, चइत्ता छोड़ कर, अर्थात् तदनन्तर शरीर को छोड़ कर, और दूसरा । (२) चयं - च्यवन, चइता - करके अर्थात् च्यवकर अणंतरं - सीधा - व्यवधानरहित | उत्पन्न होता है ] ऐसा अर्थ है । महाविदेह - पूर्व महाविदेह, पश्चिममहाविदेह, देवकुरु और उत्तर – कुरु इन चार क्षेत्रों की महाविदेह संज्ञा है । इन में पूर्व के दो कर्मभूमी और उत्तर के दो क्षेत्र कर्मभूमी हैं । पूर्व तथा पश्चिम महाविदेह में चौथे आरे जैसा समय रहता है और देव तथा उत्तर कुरु में पहले आरे जैसा समय रहता है, और कृषि वाणिज्य तथा तप, संयम आदि धार्मिक क्रियाओं का आचरण जहां पर होता हो उसे कर्म-भूमि कहते हैं – कृषिवाणिज्य – तपः संयमानुष्ठानादिकर्म - प्रधाना भूमयः कर्मभूमयः । जहां कृषि आदि व्यवहार न हों उसे कर्मभूमी कहते हैं । 66 अड्ढाईं ” इस पद से दित्ताई, वित्ताई, विच्छिवि उलभव ण सयणा सजाए - वाहरणाईं. बहुधणजाग्ररूवरययाई, आओगपागप उत्ताइ, विच्छड्डियपडरभत्त पागाईं, बहु- - दासीदासगो महिसागवेल गप्प भूयाई, बहुजणस्स अपरिभूया इं को अभिमत है । "" इस पाठ का ग्रहण करना ही सूत्रकार - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir -- सूत्रकार महानुभाव ने “ जहा दृढपतिसैव वक्तव्यता " इत्यादि उल्लेख में दृढ़प्रतिज्ञ नाम और श्राढ्यकुल में उत्पन्न हुए मृगापुत्र के जीव की उसी के समान बतलाया है । इस से दृढ़प्रतिज्ञ कौन था ? कहां था ? जन्म के बाद उसने क्या किया ? तथा अन्त में उस का क्या बना । इत्यादि बातों की जिज्ञासा का अपने आप ही पाठकों के मन में उत्पन्न होना स्वाभाविक है । इस लिये दृढ़प्रतिज्ञ के जीवन पर भी विहंगम दृष्टि-पात कर लेना उचित प्रतीत होता है । यथा दृढ़प्रतिज्ञ : " और " सा चैव वत्तव्वया - की किसी व्यक्ति- विशेष का स्मरण किया है अथ से इति पर्यन्त सारी जीवन-चर्या को [प्रथम अध्याय दृढ़ प्रतिज्ञ का जीव पूर्वभव में बड़ परिव्राजक सन्यासी के नाम से विख्यात था। उस को जीवनचर्या का उल्लेख औपपातिक सूत्र में किया गया है अम्बड़ परिव्राजक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का अनन्य उपासक था । वह शास्त्रों का पारगामी और विशिष्ट ग्रात्मविभूतियों से युक्त और देशविरति चारित्रसम्पन्न था । इस के अतिरिक्त वह एक सम्प्रदाय का श्राचार्य अथच अपने सिद्धान्त के प्रतिपादन में और शास्त्रार्थ करने में बड़ा सिद्धहस्त था । उस की विशिष्ट लब्धि का इससे पता चलता है कि वह सौ घरों में निवास किया करता था । उसी अम्बड़ परिव्राजक का जीव आगामी भव में दृढ़प्रतिज्ञ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ! माता के गर्भ में आते ही माता पिता की धर्म में अधिक दृढ़ता होने से उन्हों ने ऐसा गुण निष्पन्न नाम रक्खा । दृढ़ प्रतिज्ञ का जन्म एक सम्मृद्धिशाली प्रतिष्ठित होने पर विद्याध्ययनार्थ उसे एक योग्य कलाचार्य अध्यापक को सौंप दिया गया बालक का " दृढ़प्रतिज्ञ For Private And Personal कुल में हुआ, आठ वर्ष का प्रतिभाशाली दृढ़प्रतिज्ञ के वा कृत्वा, [ टीकाकारः ] ( १ ) " - अनंतरं चयं चइता - "त्ति - अनन्तर शरीरं त्यक्त्वा, च्यवनं ( २ ) " - ते गोयगा ! एवं बुच्चर - अम्मड़े परिव्वायर कंपिल्लपुरे नपरे घरसए जाव वसहिं उवेइ – ” (३) “ – इमं एयारूवं गोणं गुणणिष्फरणं नामघेज्जं कार्हिति - जम्हा णं गन्भत्थंसि चेव समाणंसि धम्मे दढ़पइरणा तं होउ णं श्रहं दारए दढ़पइरणे नामे, मापियरो णामधेज्जं करेहिंति दढ़पइण्णेति – ” । म्हं इमंसि दारगंसि तए गं तस्स दारगस्स Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [१०१ शिक्षक - गुरु ने पूरे परिश्रम के साथ उसे हर एक प्रकार की विद्या में निपुण कर दिया । वह पढ़ना लिखना गणित और शकुन आदि ७२ कलाओं में पूरी तरह प्रवीण हो गया इस के उपलक्ष्य में दृढ़पतिज्ञ के माता पिता ने भी उसके शिक्षागुरु को यथोचित पारितोषिक देकर उसे प्रसन करने का यत्न किया । शिक्षासम्पन्न और युवावस्था को प्राप्त हुए हड़प्रतिज्ञ को देखकर उसके माता पिता की तो यही इच्छा थी कि अब उसका किसी योग्य कन्या के साथ विवाह संस्कार करके उसे सांसारिक विषयभोगों के उपभोग करने का यथेच्छ अवसर दिया जाय । परन्तु जन्मान्तरीय संस्कारों से उबुद्ध हुए हड़प्रतिज्ञ को ये सांसारिक विषयभोग रमणीय (जिनके मात्र आरंभ सुखोत्पादक प्रतीत हो) और ग्रात्म बन्धन के कारण अतएव तुच्छ प्रतीत होते थे । उनके विषय भोगों के अचिरस्थायी सौन्दर्य का उस के हृदय पर कोई प्रभाव नहीं था । उस के पुनीत हृदय में वैराग्य की उर्मियें उठ रहीं थीं। संसार के ये तुच्छ विषयभोग संसारीजीवों को अपने जाल में फंसाकर उसकी पीछे से जो दुर्दशा करते हैं उस को वह जन्मान्तरीय संस्कारों तथा लौकिक अनुभवों से भली भांति जानता था, इसलिये उसने विषय भोगों की सर्वथा उपेक्षा करते हुए तथारूप स्थविरों के सहवास में रहकर आत्म कल्याण करने को ही सर्वश्रेष्ठ माना । फलस्वरूप वह उनके पास दीक्षित हो गये, और संयममय जीवन व्यतीत करते हुए, समिति और गुप्तिरूप आठों प्रवचनमाताओं की यथाविधि उपासना में तत्पर हो गये | उन्हीं के आशीर्वाद से, अष्टविध कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त करके कैवल्यविभूति को उपलब्ध करता हुआ दृढ़ प्रतिज्ञ का आत्मा अपने ध्येय में सफल हुआ । अर्थात् उस ने जन्म और मरण से रहित हो कर सम्पूर्ण दुःखों का अन्त करके स्वस्वरूप को प्राप्त कर लिया । तदनन्तर शरीर त्यागने क बाद वह सिद्धगति - मोक्षपद को प्राप्त हुआ । यह दृढ़ प्रतिज्ञ के निवृत्तिप्रधान सफल जीवन का सक्षिप्त वर्णन है । प्रतिज्ञ का जीवन वृत्तान्त ज्ञात है अर्थात् सूत्र में उल्लेख किया गया है, इसलिये उसके उदाहरण से मृगापुत्र के भावी जीवन को संक्षेप में समझा देना ही सूत्रकार को अभिमत प्रतीत होता है। एतदर्थ ही सूत्र में “जहा दढ़पतिराणे" यह उल्लेख किया गया है । यहां पर "सिमिहिति - सेत्स्यति" यह पद निम्नलिखित अन्य चार पदों का भी सूचक है । इस तरह ये पांच पद होते हैं, जैसे कि - (१) सेत्स्यति - सिद्धि प्राप्त करेगा, कृतकृत्य हो जावेगा । (२) भोत्स्यते - केवल ज्ञान के द्वारा समस्त ज्ञेय पदार्थों को जानेगा । (३) मोक्ष्यति - सम्पूर्ण कर्मों से रहित हो जावेगा । (४) परिनिर्वास्यति - सकल कर्मजन्य सन्ताप से रहित हो जावेगा । (५) सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति अर्थात् सव प्रकार के दुःखों का अन्त करदेगा | इस प्रकार मृगापुत्र के अतीत अनागत और वर्तमान वृत्तान्त के विषय में गौतमस्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए श्रमण भगवान् महावीर ने जो कुछ फरमाया उस का वर्णन करने के बाद आर्य सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे जम्बू ! मोक्षप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने दु खविपाक के दस अध्ययनों में से प्रथम अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ प्रतिपादन किया है । प्रस्तुत अध्ययन में जो कुछ वर्णन है उसका मूल जम्बू स्वामी का प्रश्न है। श्री जम्बू स्वामी (१) "सेत्स्यति" इत्यादि पदपंचकमिति, तत्र सेत्स्य'त कृतकृत्यो भविष्यति, भोत्स्यते केवलज्ञानेन सकलज्ञेयं ज्ञास्यति, मोदयति सकलकर्मवियुक्तो भविष्यति, परिनिर्वास्यति सकल – कर्म कृतसन्ताप-रहितो भविष्यति, किमुक्तं भवति - सर्वदुखानामन्तं करिष्यतीति वृत्तिकारः । For Private And Personal Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १०२) श्रो विपाक सूत्र प्रथम अध्याय ने अपने गुरु आर्य सुधर्मा स्वामी से जो यह पूछा था कि - विपाकश्रुत के प्रथम श्रतस्कन्ध के दश अध्ययनों में से प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ है १ मृगापुत्र का अथ से इति पर्यन्त वर्णन ही अार्य सुधर्मा स्वामी की ओर से जम्बू स्वामी के प्रश्न का उत्तर है । कारण कि मृगापुत्र का समस्त जीवन वृत्तान्त सुनाने के बाद वे कहते हैं कि हे जम्बू ! यही प्रथम अध्ययन का अर्थ है जिस को मैंने श्रमण भगवान् महावीर से सुना है और तुम को सुनाया है। "ति बेमि-इति ब्रवीमि" इस प्रकार मैं कहता हूँ । यहां पर इति शब्द समाप्ति अर्थ का बोधक है । तथा "ब्रवीमि” का भावार्थ है कि मैंने तीर्थंकर देव और गौतमादि गणधरों से इस अध्ययन का जैसे स्वरूप सुना है वैसा ही तुम से कह रहा हूँ इस में मेरी निजी कल्पना कुछ नहीं है । इस कथन से आर्य सुधर्मा स्वामी की जो विनीतता बोधित होती है उस के उपलक्ष्य में उन्हें जितना भी साधु-वाद दिया जावे उतना ही कम है । वास्तव में धर्मरूप कल्पवृक्ष का मूल ही विनय है । "-विणयमूलं हि धम्मो-" । सारांश- यह अध्ययन मृगापुत्रीय अध्ययन के नाम से प्रसिद्ध है । इस में मृगापुत्र के जीवन की तीन अवस्थाओं का वर्णन पाया जाता है -- अतीत वर्तमान और अनागत । इन तीनों ही अवस्थात्रों में उपलब्ध होने वाला मृगापुत्र का जीवन, हृदय-तंत्री को स्तब्ध कर देने वाला है उसकी वर्तमान दशा जो कि अतीत दशा का विपाकरूप है । को देखते हुए कहना पड़ता है कि मानव के जीवन में भयंकर से भयंकर और कल्पनातीत परिस्थिति का उपस्थित होना भी अस्वाभाविक नहीं है । मृगापुत्र की यह जीवन कथा जितनी करुणा जनक है उतनी बोधदायक भी है । उसने पूर्व भव में केवल स्वार्थ तत्परता के वशीभूत होकर जो जो अत्याचार किये उसी का परिणाम रूप यह दण्ड उसे कर्मवाद के न्यायालय से मिला है। इस पर से विचारशील पुरुषों को जीवन-सुधार का जो मार्ग प्रात होता है उस पर सावधानी से चलने वाला व्यक्ति इस प्रकार की उग्रयातनात्रों के पास से बहुत अंश में बच जाता है। अतः विचारवान पुरुषों को चाहिये कि वे अपने श्रात्मा के हित के लिये पर का हित करने में अधिक यत्न करें । और इस प्रकार का कोई प्राचरण न कर कि जिस से परभव में उन्हें अधिक मात्रा में दुःखमयी यातनाओं का शिकार बनना पड़े। किन्तु पापभीरु होकर धर्माचरण की ओर बढ़ । यही इस कथावृत्त का सार है । मृगापुत्रीय अध्ययन विशेषतः अधिकारी लोगों के सन्मुख नड़े सुन्दर मार्ग-दर्शक के रूप में उपस्थित हो उन्हें कर्तव्य वमुखता का दुष्परिणाम दिखा कर कर्तव्यपालन की ओर सजीव प्रेरणा देता है, अतः अधिकारी लोगों को अपने भावी जीवन को दुष्कर्मों से बचाने का यत्न करना चाहिए तभी जीवन को सुखी एवं निरापद बनाया जा सकेगा। ॥ प्रथम अध्ययन समाप्त ॥ For Private And Personal Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अथ द्वितीय अध्याय जीवन का मूल्य कर्तव्यपालन में है। कतव्यशून्य जीवन का संसार में कोई महत्त्व नहीं । कतव्य की परिभाषा है-सर्वज्ञ भगवान द्वारा प्रतिपादित नियमों को जीवन में लाना और उनके आचरण में प्रतिहारी की भांति सावधान रहना-किसी प्रकार का भी प्रमाद नहीं करना । कर्तव्यपालक व्यक्ति ही वास्तव में अहिंसा भगवती का अाराधक बन सकता है। अहिसा सुखों की जननी हे अथ च 'स्वर्गों को देने वाली है । अहिंसा की आराधना जीवात्मा को कर्मजन्य संसार चक्र से निकाल कर मोक्ष में पहुँचा देने वाली है। परन्तु अहिंसा का पालन आचरण-शुद्धि पर निर्भर है। आचरणहीन- आचरणशून्य जीवन का संसार में कोई मान नहीं और नाहीं उसे धर्मशास्त्र' पवित्र कर सकते हैं। आचरण - शुद्धि, आचरण की महानता एवं विशिष्टता के बोध होने के अनन्तर ही अपनाई जा सकती है, अथवा यू कहें कि आचरणशुद्धि आचरणहीन मनुष्य के कर्मजन्य दुष्परिणाम का भान होने के अनन्तर सुचारूप से की जा सकती है, और उस में ही दृढ़ता की अधिक संभावना रहती है। ___ इसी लिये सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र के उज्झितक नामक द्वितीय अध्ययन में आचरण-हीनता का दुष्परिणाम दिखाकर आचरणशुद्धि के लिये बलवती प्रेरणा की है। उस द्वितीय अध्ययन का आदिम सूत्र निम्नप्रकार है मूल-जति णं भंते । समणेणं जाव संपणं दहविवागाणं पढ़मस्स अज्झयणस्स (१) का स्वर्गदा ? प्राणभृतामहिंसा-"अर्थात् स्वर्ग देने वाली कौन है ? उत्तर -प्राणिमात्र की अहिंसा-दया। (२) आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः-अर्थात् प्राचारहीन मनुष्य को धर्मशास्त्र भी पवित्र नहीं कर सकते तात्पर्य यह है कि- आचारभ्रष्ट व्यक्ति का शास्त्राध्ययन भी निष्फल है । (३) छाया- यदि भदन्त ! श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन दुःखविपाकानां प्रथमस्याध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः । द्वितीयस्य भदन्त ! अध्ययनस्य दुखविपाकानां श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः । ततः स सुधमानगारो जम्बू-अनगारमेवमवदत् - एवं खलु जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये वाणिजग्राम नाम नगरमभूत् , ऋद्धि० तस्य वाणिजग्रामस्य उत्तर पौस्त्ये दिग्भागे दूतिपलाशं नामोद्यानमभूत तत्र दूतिपलाशे सुधर्मणो यक्षस्य यक्षायतनमभूत् । तत्र वाणजग्रामे मित्रो नाम राजाऽभवत् । वर्णकः तस्य मत्रर य राज्ञः श्री: नाम देवी अभूत् । वर्णकः । तत्र वाणिजग्रामे कामध्वजा नाम गणिका अभूत् । अहीन० यावत् सुरूपा, द्वासप्ततिकलापण्डिता, चतुःषष्टिगणिकागुणोपेता, एकोनविंशविशेषे' यां रममाणा, एकविंशति रति-गुणप्रधाना, द्वात्रिंशत्पुरुषोपचारकुशला प्रतिबोधितसुप्तनवांगा, अष्टादशदेशीभाषा-विशारदा, शृगारागारचारुवेषा, गीतरतिगान्धवनाट्यकुशला, संगतगत० सुन्दरस्तन. उच्छित वजा, सहस्रलाभा, विस्तीर्ण छत्रचामर बगलव्यजनिका, कर्णीरथप्रजाता चाप्यभवत् । बहूनां गणिका सहस्राणामाधिपत्य यावत् विहरति । + एकोनत्रिशद् विशेषाणां समाहार इति एकोनत्रिशद्-विशेषी तस्यामिति भावः । For Private And Personal Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १८४ श्री विपाक सूत्र - [प्रथम अध्याय अयम? पएणते, दोच्चस्स णं भंते! अझयणस्स दुहविवागाणं समणेणं जाव संपत्तेण के अट्ठ पएणते ? तते णं से सुहम्मे अणगारे जम्बू-अणगारं एवं वयासी-एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे णामं नगरे होत्था ऋद्धि० । तस्स णं वाणियग्गामस्स उत्तरपुरथिमे दिसिभाए दतिपलासे णामं उज्जाणे होत्था । तत्थ णं दुइपलासे सुहम्मस्स जक्खस्स जक्खायतणे होत्था । तत्थ णं वाणियग्गामे मित्ते णामं राया होत्था। वएणो। तस्स णं मित्तस्स रगणो सिरी णाम देवी होत्था । वएणो। तत्थ णं वाणियग्गामे कामज्झया णामं गणिया होत्था अहीण० जाव सुरूत्रा । पावत्तरी कलापंडिया, चउसद्धिगणियागुणोववेया, एगूणतीसविसेसे रममाणी, एक्कवीसतिगुणप्पहाणा, बत्तीसपुरिसोवयारकुसला, णवंगसुत्तपडिवोहिया, अट्ठारसदेसी-भासाविसारया, सिंगारागारचारुवेसा, गीयरति गंधवनट्टकुसला, 'संगतगत० सुदरत्थण उसियज्झया सहस्सलंभा, विदिएणछत्तचामरवालवियाणिया, कणोरहप्पयाया वावि होत्था । बहूणं गणियासहस्साणं आहेबच्चं जाव विहरति । - पदार्थ-भंते !- हे भगवन् ! । जति णं - यदि । समणेणं - श्रमण । जाव-यावत् । संपत्तणंसंप्राप्त, भगवान् महावीर ने । दुहविवागाणं-दुःख विपाक के । पढमस्स-प्रथम । अझयणस्सअध्ययन का । अयम? प्रम?-यह पूर्वोक्त अर्थ। परणत-प्रतिपादन किया है तो। भंते! हे भगवन् !। समणेणं-श्रमण । जाव . यावत् । संपत्तेणं-मोक्ष प्राप्त भगवान् महावीर ने । दुहश्विगाणं-दुःख विपाक गत । दोच्चस्स-दुसरे। अजयणस्स-अध्ययन का । के अ-क्या अर्थ। पराणत्ते कथन किया है। तते णं-तदनन्तर । से- वह । सुहम्मे अणगारे-- सुधर्मा अनगार-श्री सुधर्मा स्वामी जंबूअणगारं- जम्बू अनगार के प्रति । एवं वयासी-इस प्रकार बोले । एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। जंबू! हे जम्बू ! । तेणं कालेण-उस काल में तथा । तेण समरणं-उस समय में । वाणियग्गामे-वाणिज ग्राम । णाम-नामक नगरे-नगर । होत्था-था। रिद्ध०-जो कि समृद्धि पूर्ण था। तस्स णं - उस । वाणियग्गामस्स बाणिज ग्राम के। उत्तरपुरथिमे-उत्तर पूर्व । दिसिभाए-दिशा के मध्य भाग, अर्थात् ईशान कोण में । दूतिपलासे-दूति पलाश । णामं-- नाम का। उज्जाणे उद्यान । होत्या-था। तत्थ णं-उस । दुइपलासे-दूतिपलारा उद्यान में । सुहम्मस्स-सुधर्मा नाम के । (१) संगत -गत-हसित-भणित – विहितविलास - सललितसंलापनिपुणयुक्तोपचारकुशला, संगतेषु-समुचितेषु गतहसित-भणित-विहित-विलाससललित संलापेषु निपुणा, तत्र गतं गमनं राजहंसादिवत् , हसितं स्मित, भणितं-वचनं कोकिलवीणादिस्वरेण युक्त, विहित चेष्टितं, विलासो नेत्रचेष्टा, सललितसंलापा: वक्रोक्तयाद्यालं-- कारसहितं परस्परं भाषणं तेषु निपुणा चतुरा, तथा युक्तेषु समुचितेषूपचारेषु कुशलेति भावः (२) " -रिथिमियसमिद्धे-ऋद्धिस्तिमितसमृद्धम् " ऋद्धं-नभ.पशि - बहुन - प्रासाद - युक्त बहुजनसंकुलं च, स्तिमित - स्वचक्रपर चक्रभयरहितं,समृद्धं---धनधान्यादि -- महर्द्धिसम्पन्नम् , अत्र पदत्र. यस्य कर्मधारय: । अर्थात् नगर में गगनचुम्बी अनेक बड़े २ ऊचे प्रासाद थे. और वह नगर अनेकानेक जनों से व्याप्त था । वहां पर प्रजा सदा स्वचा पोर पर --चक के भय से रहित थी और वह नगर धन, धान्य आदि महा ऋद्धियों से सम्पन्न था । For Private And Personal Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । जक्खस्स- यक्ष का । जक्वायतणे-यक्षायंतन । हास्था-था। तत्थ णं वाणियग्गामे-उस वाणिजग्राम नामक नगर में । मित्त -- मित्र । णाम-नाम का। राया होत्था--राजा था । वराणो -वर्णक - वर्णन प्रकरण पूर्ववत् जानना । तस्स णं-उस । मित्तस्स रराणो--मित्र गजा की। सिरी णाम-श्री नाम की। देवी- देवी-पटराणी । हात्या-थी। वो -वर्णक पूर्ववत् जानना । तत्थ णं वाणियग्गामे- उस वाणिज ग्राम नगर में । अहीण- सम्पूर्ण पंचे न्द्रयों से युक्त शरीर वाली। जाव-यावत् । सुरुवा-- परम सुन्दरी। बावत्तरीकलापंडिया-७२ कलाओं में प्रवीण । च उसटिगणिया-गुणोववेया-६४ गणिका. गुणों से युक्त । एगणतीसविसेसे २९विशेषों में । रममाणी- रमण करने वाली । एक्कवीसरतिगुगप्पहाणा -२१ प्रकार के रति गुणों में प्रधान । बत्तीसपुरिसोवयारकुसला काम - शस्त्र प्रसिद्ध पुरुष के ३२ उपचारों में कुशल । णवंगसत्तपडिबोहिया --सुप्त नव अंगों से जागृत अर्थात् जिस के नौ अग दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, एक रसना-जिव्हा, एक त्वक त्वचा और मन, ये नव जागे हुए हैं । अट्ठारसदेसीभासाविसारया- अठारह देशों की अर्थात् अठारह प्रकार की भाषा में प्रवीण । सिंगारागारचारुवेसा-शृङ्गार प्रधान वेघ युक्त, जिसका सुन्दर वेष मानों शृङ्गार का घर ही हो, ऐसी। गीयरतिगं. धन्वनकुसला - गीत (संगीतविद्या, रति (कामकीड़ा) गान्धर्व (नृत्ययुक्त गीत), और नाट्य (नृत्य) में कुशल। संगतगत०-मनोहर गत-गमन आदि से युक्त । सुंदरत्थण-कुचादि गत सौन्दर्य से युक्त । सहस्सलंभा-गीत, नृत्य आदि कलाओं से सहस्र (हज़ार) का लाभ लेने वाली अर्थात् नृत्यादि के उपलक्ष्य में हज़ार मुद्रा लिया करती थी। ऊसियज्झया-जिसके विलास भवन पर ध्वजा फहराती रहती थी। विदिएणछत्तचामरबालवियाणिया-जिसे राजा की कृपा से छत्र तथा चमर एव बालव्यजनिका संप्राप्त थी । वावि-तथा। करणीरहप्पया या -कर्णीरथ नामक रथविशेष से गमन करने वाली । कामज्झया णामं (१) -जाव यावत्-" पद से " -- अहीण-पडिपुराण-पंचिंदिय-सरीरा, लक्षण-वंजण-गुणोववेया, मागुम्माणप्पमाण-पडिपुराण सुजाय-सव्वंगसुदरंगी, ससिसोमाकारा, कंता, पियदसणा, सुरुवा-इन पदों का ग्रहण करना । इन का अर्थ निम्नोक्त है____ लक्षण की अपेक्षा अहीन (समस्त लक्षणों से युक्त), स्वरूप की अपेक्षा परिपूर्ण (न अधिक ह्रस्व और न अधिक दीर्घ, न अधिक पीन और न अधिक कृश ) अर्थात् अपने २ प्रमाण से विशिष्ट पांचों इन्द्रियोंसे उस का शरीर सुशोभित था । हस्त की रेखा आदि चिन्ह रूप जो स्वस्तिक आदि होते हैं उन्हें लक्षण कहते हैं । मसा, तिल आदि जो शरीर में हुया करते हैं, वे व्यञ्जन कहलाते हैं इन दोनों प्रकार के चिन्हों से यह गणिका सम्पन्न थी । जल से भरे कुण्ड में मनुष्य के प्रविष्ट होने पर जब उससे द्रोण (१३ या ३२ सेर) परिमित जल बाहिर निकलता है तब वह पुरुष मान वाला कहलाता है, यह मान शरीर की अवगहनाविशेष के रूप में ही प्रस्तुत प्रकरण में संगृहीत हुआ है । तराजू पर चढ़ा कर तोलने पर जो अर्धभार ( परिमाण विशेष ) प्रमाण होता है वह उन्मान है, अपनी अगुलियों द्वारा एक सौ पाठ अंगुलि परिमित जो ऊचाई होती है वह प्रमाण है, अर्थात् उस गणिका के मस्तक से लेकर पैर तक के समस्त अवयव मान, उन्मान, एवं प्रमाण से युक्त थे, तथा जिन अवयवों की जैसी सुन्दर रचना होनी चाहिये, वैसी ही उत्तम रचना से वे सम्पन्न थे । किसी भी अंग की रचना न्यूनाधिक नहीं थी । इसलिये उस का शरीर सर्वांगसुन्दर था । उस का आकार चन्द्र के समान सौम्य था। वह मन को हरण करने वाली होने से कमनीय थी । उस का दर्शन भी अन्तःकरण को हर्षजनक था इसी लिये उस का रूप विशिष्ट शोभा से युक्त था । .. (२) कीरथप्रयाताऽपि, कीरथः प्रवहणविशेषः तेन -प्रयातं गमनं यस्याः सा। कर्णीरथो हि केषाञ्चिदेव ऋद्धिमतां भवति सोऽपि तस्या अस्तीत्यतिशयप्रतिपादनार्थोऽपि शब्दः । For Private And Personal Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १०६ ] श्री विपाक सूत्र - दूसरा अध्याय कामध्वजा नाम की एक । गणिया-गणिका । होत्था थी, तथा । बहूणं गणिया सहरसाणं - हज़ारों गणि काओं का । हेवच्चं - श्राधिपत्य-स्वामित्व करती हुई। जाव - यावत् । विहरति - समय व्यतीत कर रही थी । - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मूलार्थ - हे भगवन् ! यदि मोक्ष-संप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के प्रथम अध्ययन का यह ( पूर्वाक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन् ! विपाकश्रत के द्वितीय अध्ययन का मोक्षसम्प्रात श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने क्या अर्थ कथन किया है । तदनन्तर अर्थात इस प्रश्न के उत्तर में सुधर्मा अनगार ने जग्बू नगार के प्रति इस प्रकार कहा कि हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में वाणिजग्राम नाम का एक समृद्धिशाली नगर था । उस नगर के ईशान कोण में दूतिपलाश नाम का एक उद्यान था उस उद्यान में सुधर्मा नामक यक्ष का एक यज्ञायतन था । उस नगर में मित्र नाम का राजा और उसकी श्री नाम की राणी थी । तथा उस नगर में अन्यून पंचेन्द्रिय शरीर युक्त यावत सुरूपा - रूपवती, ७२ कलाओं में प्रवीण, गणिका के ६४ गुणों से युक्त, २९ प्रकार के विशेष विषय के गुणों में रमण करने वाली, २१ प्रकार के रति गुणों में प्रधान, ३२ पुरुष के उपचारों में निपुण, जिस के प्रसुप्त नव अंग जागे हुए हैं, १८ देशों की भाषा में विशारद, जिसकी सुन्दर वेष भूषा श्रृंगार रस का घर बनी हुई है एवं गीत, रति और गान्धर्व नाट्य तथा नृत्य कला में प्रवीण, सुन्दर गति - गमन करने वाली कुचादिगत सौन्दर्य से सुशोभित, गीत, नृत्य आदि कलाओं से सहस्र मुद्रा कमाने वाली, जिस के विलास भवन पर ऊंची ध्वजा लहरा रही थी, जिसको राजा की ओर से पारितोषिक रूप में, छत्र तथा चामर - चंवर, बालव्यजनिका - चंत्ररी या छोटा पंखा, मिली हुई थी, और जो कर्णीरथ में गमनागमन किया करती थी, ऐसी काम-ध्वजा नाम की एक गणिका - वेश्या जोकि हज़ारों गणिकाओं पर आधिपत्य- स्वामित्व कर रही थी, वहा निवास किया करती थी । टीका - प्रथम अध्ययन की समाप्ति के अनन्तर श्री जम्बू स्वामी ने श्रार्य सुधर्मा स्वामी से बड़ी नम्रता से निवेदन किया कि भगवन् ! जिनेन्द्र भगवान् श्री महावीर स्वामी ने दु:ख विपाक ( जिस में मात्र पाप जन्य क्लेशों का वर्णन पाया जाय ) के प्रथम | मृगापुत्र नामक ] अध्ययन का जो अर्थ प्रतिपादन किया है, उस का तो मैंने आप श्री के मुख से बड़ी सावधानी के साथ श्रवण कर लिया है परन्तु भगवान् ने इसके दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है अर्थात् दूसरे अध्ययन में किस की जीवनी का कैसा वर्णन किया है । इस से मैं सर्वथा अज्ञात हूँ, अतः आप उसका भी श्रवण करा कर मुझे अनुगृहीत करने की कृपा करें । यह मेरी आपके श्री चरणों में अभ्यर्थना है । तीव्ररुचि का संसूचक है, वहां आर्य प्रतिपादक की यही यह प्रश्न जहां जम्बूस्वामी की श्रवण - विषयक सुधर्मा स्वामी के कथन की सार्थकता का भी द्योतक है । श्रोता की श्रवणेच्छा में प्रगति हो, श्रोता की इच्छा में प्रगति का होना की कसौटी है । जिस प्रकार वक्ता समयज्ञ एवं सिद्धांत के प्रतिपादन में चाहिये, उसी प्रकार श्रोता भी प्रतिभाशाली तथा विनीत होना आवश्यक और वक्ता का संयोग कभी सद्भाग्य से ही होता है । ही, विशेषता है, कि वक्ता की विशेषता पूर्णतया समर्थ होना । इस प्रकार श्रोता इस सूत्र से भी यही सूचित होता है कि जो ज्ञान विनय-पूर्वक उपार्जित किया गया हो For Private And Personal Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय] हिन्दी भाषा टोका सहित । [१०७ वही सफल होता है. वही उत्तरोत्तर विकास को प्राप्त करता है, अन्यथा नहीं । इस लिये जो शिष्य गुरुचरणों में रह कर उन से विनय-पूर्वक ज्ञानोपार्जन करने का अभिलाषी होता है, उस पर गुरुजनों की भी असाधारण कृपा होती है । उसी के फल स्वरूप वे उसे ज्ञानविभूति से परिपूर्ण कर देते हैं। इस विधि से जिस व्यक्ति ने अपने अात्मा को ज्ञान-विभूति से अलंकृत किया है, वही दूसरों को अपनी ज्ञान - विभति के वितरण से उन की अज्ञान – दरिद्रता को दूर करने में शक्तिशाली हो सकता है। इस लिये प्रत्येक विद्यार्थी को गुरुजनों से विद्याभ्यास करते समय हर प्रकार से विनयशील रहने का यत्न करना चाहिये. अन्यथा उसका अध्ययन सफल नहीं हो सकता । जम्बू स्वामी के उक्त प्रश्न के उत्तर में श्री सुधर्मा स्वामी ने “ एवं खलु जंबू ! " इत्यादि सूत्र में जो कुछ फरमाया है, उसका विवरण इस प्रकार है हे जम्बू ! वाणिजग्राम नाम का एक सुप्रसिद्ध और समृद्धिशाली नगर था, उस नगर के ईशान कोण में दूतिपलाश नाम का एक रमणीय उद्यान था, उस उद्यान में एक यक्षायतन भी था जो कि सुधर्मा यक्ष के नाम से प्रसिद्ध था । वहां-नगर में मित्र नाम के एक राजा राज्य करते थे । जो कि पूरे वैभवशाली थे । उन की पटराणी का नाम श्री देवी था, वह भी सर्वांग-सन्दरी और पतिव्रता थी। इस के अतिरिक्त उस नगर में कामध्वजा इस नाम की एक सुप्रसिद्ध राजमान्य गणिका-वेश्या रहती थी जिस के रूपलावण्य और गुणों का अनेक विशेषणों द्वारा सूत्रकार ने वर्णन किया है । वाणिज ग्राम-इस शब्द का अर्थ, षष्ठी तत्पुरुष समास से वाणिजों-वैश्यों का ग्राम ऐसा होता है, किन्तु प्रस्तुत सूत्र में “वाणिज ग्राम" यह नगर का विशेषण है, इसलिये *व्यधिकरण बहुव्रीहि समास से उसका अर्थ यह किया जा सकता है-जिस में वाणिजों-व्यापारियों का ग्राम-समूह रहे उसे “वाणिजग्राम" कहते हैं । तथा नगर शब्द की व्याख्या निम्नलिखित शब्दो में इसप्रकार वर्णित है पुण्यपापक्रियाविः दद्यादानप्रवर्त्तकैः, कलाकलापकुशलैः सर्व-वर्णैः समाकुलम्, भाषाभिर्विविधाभिश्च युक्तं नगरमुच्यते । अर्थात् - पुण्य और पापकी क्रियाओं के ज्ञाता, दया और दान में प्रवृत्ति करने वाले, विविध कलात्रों में कुशल पुरुष, तथा जिस में चारों वर्ण निवास करते हों और जिस में विविध भाषायें बोली जाती हों उसे नगर कहते हैं । इसकी निरुक्ति निम्नलिखित है "नगरं न गच्छन्तीति नगाः वृक्षाः पर्वताश्च तद्वदचालत्वादुन्नतत्वाच्च प्रासादादयोऽपि, ते सन्ति यस्मिन्निति नगरम् । हमारे विचार में प्रथम वाणिज नामक एक साधरण सा ग्राम था। कुछ समय के बाद उस में व्यपारी लोग बाहिर से आकर निवास करने लगे । व्यापार के कारण वहां की जन-संख्या में वृद्धि होने लगी एक समय वह अाया कि जब यह ग्राम व्यापार का केन्द्र-गढ़ माना जाने लगा, और उस में जन-संख्या काफी हो गई । तब यहां राजधानी भी बन गई, उसके कारण इस का वाणिज-ग्राम नाम न रह कर वाणिजग्राम – नगर प्रसिद्ध हो गया । आज भी हम ग्रामों को नगर और नगरों को ग्राम होते हुए प्रत्यक्ष देखते है। जिस की जन-संख्या प्रथम हजारों की थी आज उसी की जन-संख्या लाखों तक पहुँच गई है। समय बड़ा विचित्र है। उसकी विचित्रता सर्वानुभव -सिद्ध है । तथा उसी विचित्रता के आधार पर ही हमने यह • वाणिजानां ग्रामः-- समूहो यस्मिन् स वाणिजग्राम इति व्यधिकरणबहुव्रीहिः । For Private And Personal Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [दूमरा अध्याय कल्पना की है। नगर का वर्णक (वर्णन-प्रकरण) प्रथम अध्ययन में कहा जा चुका है, एवं महाराज मित्र और महाराणी श्री देवी का वर्णक भी प्रथम अध्ययन कथित वर्णक के तुल्य ही जान लेना। केवल नाम भेद है, वर्णक पाठ में भिन्नता नहीं । तात्पर्य यह है कि वर्णक पद से नगर, राजा, राणी आदि के विषय में किसी नाम से भी सूत्र में एक बार जो वर्णन कर दिया गया है. उस वर्णन का सूचक यह "वरणो -वर्णकः" कामश्वजा गणिका--कामध्वजा एक प्रतिष्ठित वेश्या थी । सूत्रगत वर्णन से प्रतीत होता है, कि वह रूप लावण्य में अद्वितीय, संगीत और नृत्यकला में पारंगत तथा राजमान्य थी । इस से यह निश्चित होता है कि वह कोई साधारण बाजारु स्त्री नहीं थी किन्तु एक कलाप्रदर्शक सुयोग्य व्यक्ति की तरह प्रतिष्ठापूर्वक कलाकार स्त्री के रूप में अपना जीवन व्यतीत करने वाली स्त्री थी। उस के अंगोपांग आदि में किसी प्रकार की न्यूनता या विकृति नहीं थी, उसका शरीर लक्षण, व्यंजनादि से युक्त, मानादि से पूर्ण और मनोहर था । “बावत्तरीकलापंडिया-द्वासप्ततिकलापंडिता" अर्थात् वह कामध्वजा ७२ कलाओं में प्रवीण थी । कला का अर्थ है किसी कार्य को भली भांति करने का कौशल । पुरुषों में कलाएँ ७२ होती हैं । इन कलाओं में से. अब तक कई कलात्रों का विकास हुआ है और कई एक का विनाश । इन में कुछ ऐसी भी हैं, जिन में कई प्रकार के परिवर्तन और संशोधन हुए हैं। उन कलाओं के नाम ये हैं (१) लेखन-कला-लिखने की कला का नाम है। इस कला के द्वारा मनुष्य अपने विचारों को बिना बोले दूसरों पर भली भांति प्रकट कर सकता है। (२) गणित-कला- इस कला से वस्तुओं की संख्या और उन के परिमाण या नाप तौल का उचित ज्ञान हो जाता है ।। (३) रूपपरावर्तन-कला-- इस कला के द्वारा लेप्य, शिला, सुवर्ण, मणि, वस्त्र और चित्र आदि में यथेच्छ रूप का निर्माण किया जा सकता है। (४) नृत्य-कला- इस कला में सुर, ताल आदि की गति के अनुसार अनेकविध नृत्य के प्रकार सिखाए जाते हैं। (५) गीत-कला- इस कला से "- वि.स समय कौनसा स्वर आलापना चाहिये ? अमुक स्वर के अमुक समय बालापने से क्या प्रभाव पड़ता है ? ---" इन समस्त विकल्पों का बोध हो जाता है। (६) ताल-कला- इस कला के द्वारा संगीत के सात स्वरों ( १-षड्ज, २-ऋषभ ३- गान्धार ४ मध्यम, ५-- पंचम, ६ घेवत, ७- निषाद ) के अनुसार अपने हाथ या पैरों की गति को, ढोल, मृदंग या तबला पर या केवल ताली अथवा चुटकी बजा कर एवं जमीन पर पैर की डाट लगाकर साधा जाता है। (७) बाजिंत्र-कला- इस कला से संगीत के स्वरभेद और ताल, लाग, डांट आदि की गति को निहार कर बाजा बजाना सीखा जाता है। (८) बांसुरी बजाने की कला- इस कला से बांसुरी और भेरी अादि को अनेकों प्रकार से बजाना सिखाया जाता है। (९) नरलक्षण-कला- इस कला से " - कौन मनुष्य किस प्रक्रति वाला है? कौन मनुष्य For Private And Personal Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्राध्याग हिन्दी भाषा टीका सहित । १०९ किस पद और किस काम के लिये उपयुक्त एवं अनुकूल है ? –” इत्यादि बातें केवल मनुष्य के शरीर और उसके रहन सहन एवं उसके. बोली चाली, खान पान आदि को देख कर जानी जा सकती हैं। (१०) नारीलक्षण-कला-इस कला से नारियों की जातियां पहचानी जाती हैं और किस जाति वाली स्त्री का किस गुण वाले पुरुष के साथ सम्बन्ध होना चाहिये ?जिस से उनकी गृहस्थ की गाड़ी सुखपूर्वक जीवन की सड़क पर चल सके । इन समरत बातों का ज्ञान होता है। (११) गजलक्षण-कला - इस कला से हाथियों की जाति का बोध होता है और अमुक रंग, रूप. श्राकार, प्रकार का हाथी किस के घर में श्रा जाने से वह दरिद्री से धनी या धनी से दरिटी बन जायगा यह भी इसी कला से जाना जाता है । (१२) अश्व-लक्षण-कला- इस कला से घोड़ों की परीक्षा करनी सिखाई जाती है, और श्याम पैर या चारों पैर सफेद जिसके हों ऐसे घोड़ों का शुभ या अशुभ होना इस कला से जाना जा सकता है। (१३) दण्डलक्षण-कला-इस कला से-किस परिमाण की लम्बी तथा मोटी लकड़ी रखनी चाहिये १ राजाओं, मन्त्रियों के हाथों में कितना लम्बा और किस मुटाई का दण्ड होना चाहिये ? दण्ड का उपयोग कहां करना चाहिये ? इत्यादि बातों का ज्ञान हो जाता है । इस के अतिरिक्त सब प्रकार के कायदे कानूनों की शिक्षा का ज्ञान भी इस कला से प्राप्त किया जाता है। (१४) रत्न--परीक्षाकला- इस कला से-रत्नों की जाति का, उनके मूल्य का. एवं रत्न अमुक पुरुष को अमुक समय धारण करना चाहिये, इत्यादि बातों का ज्ञान हो जाता है । (१५) धातुवाद--कला- इस कला से-धातुयों के खरा खोटा होने की पहचान करना सिखाया जाता है । उन का घनत्व और आयतन निकालने की क्रिया का - ज्ञान कराया जाता है । अमुक जमीन और अमुक जलवायु में अमुक २ धातुऐं बहुतायत से बनती रहती हैं और मिलती हैं, इत्यादि अनेकों बातों का ज्ञान इस कला से प्राप्त किया जाता है । (१६) मंत्रवाद-कला- इस कला से आठ सिद्धियें और नव निधिये श्रादि कैसे प्राप्त होती हैं ? किस मन्त्र से किस देवता का श्राहबान किया जाता है ? कौन मन्त्र क्या फल देता है ? इत्यादि बातों का ज्ञान प्राप्त होता है । (१७) कवित्व-शक्तिकला-इस कला से .. कविता बनानी अाती है तथा उस के स्वरूप का बोध होता है । कवि लोग जो 'गागर में सागर' को बन्द कर देते हैं, यह इसी कला के ज्ञान का प्रभाव है । (१८) तर्क:-शास्त्र-कला-इस कला से - मनुष्य जगत के प्रत्येक कारण से उस के कारण का और किसी भी कारण से उस के कार्य को क्रमपूर्वक निकाल सकने का कौशल प्राप्त ' कर लेता है । इस कला से मनुष्य का मस्तिष्क बहुत विकसित हो जाता है । (१९) नीति-शास्त्र कला-इस कला से – मनुष्य सद असद् या खरे-खोटे के विवेक का एवं नीतियों का परिचय प्राप्त कर लेता है । नीति शब्द से राजनीति, धर्मनीति, कूटनीति, साधारणनीति और व्यवहारनीति आदि सम्पूर्ण नीतियों का ग्रहणं हो जाता है। (२०) तत्त्वविचार-धर्मशास्त्र-कला--- इस कला से - धर्म और अधर्म क्या है ? पुण्य पाप में क्या अन्तर है ? आत्मा कहां से आती है ? और अन्त में उसे जाना कहां है १ मोक्षसाधन के लिये मनुष्य को क्या क्या करना चाहिये ? इत्यादि बातों का ज्ञान हो जाता है। . For Private And Personal Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ११०] श्री विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय (२१) ज्योतिषशास्त्र-कला-इस कला से - ग्रह क्या है ? उपग्रह किसे कहते हैं ? ये कितने हैं ? कहां हैं ? और कैसे स्थित हैं ? ग्रहण का क्या मतलब है ? दिन रात छोटे बड़े क्यों होते हैं ? अतुयें क्यों बदलती हैं ? सूर्य पृथ्वी से कितनी दूर है ? गणित-ज्योतिष और फलित-ज्योतिष में क्या अन्तर है ? इत्यादि आकाश सम्बन्धी अनेकों बातों का ज्ञान होता है। (२२) वैद्यकशास्त्र-कला-इस कला से- हमारे शरीर की भीतरी बनावट कैसी है ? भोजन का रस कैसे और शरीर के कौन से भाग में तैयार होता है ? हडिडये कितनी हैं ? उन के टटने के कौन २ कारण हैं ? और कैसे उन्हें ठीक किया जाता है ? ज्वरादि की उत्पत्ति एवं उस का उपशमन कैसे होता है ? इत्यादि बातों का ज्ञान हो जाता है। (२३) षडभाषा कला ---इस कला से संस्कृत, शौरसेनी, मागधी, प्राकृत, पैशाची और अपभ्रश इन छ भाषायों का ज्ञान उपलब्ध किया जाता है। १२४) योगाभ्यास-कला-इस कला से सांसारिक विषयों से मन हटाकर परमात्म-भाव की ओर लगाए रखने का ज्ञान कराया जाता है । इस के द्वारा ८४ श्रासनों की साधना की जाती है । इस कला के द्वारा योग के आठों अंगों आदि की शिक्षा दी जाती है। (२५) रसायन-कला-इस कला से ---कई बहुमूल्य धातुऐ’, जड़ी बूटियों के संयोग से तैयार की जाती है। (२६) अंजन-कला-इस से - नेत्रज्योति में वृद्धि करने वाले तरह तरह के अंजनों को तैयार करने की विधि सिखाई जाती है । (२७) स्वप्नशास्त्र-कला--इस कला से -स्वप्न कब आते हैं। क्यों आते हैं ? इन का क्या स्वरूप है ? कितने प्रकार के होते हैं ? मध्यरात्रि के पहले और पीछे आने वाले स्वप्नों में से किस का प्रभाव अधिक होता है ? स्वप्न बुरा है, या अच्छा है? यह कैसे जाना जा सकता है ? इत्यादि अनेकों प्रकार की बातों का बोध होता है । (२८) इन्द्रजाल-कला- इस कला से-हाथ की सफाई के अनेको काम सीखना तथा दिखाना. किसी चीज के टुकड़े टुकड़े करके पीछे उसे उस के पहले के रूप में ला दिखाना, लौकिक दृष्टि में किसी परुष को निर्जीव बना करके, सब के देखते देखते फिर से उसे सजीव बना देना, किसी की दृष्टि को ऐसा बान्ध देना कि उसे जो कहा जाए वही दिखे, किसी चीज को टुकड़े २ करके मुख द्वारा खा जाना और फिर उसे उस के पूर्वरूप में ही नाक या बगल या कान की ओर से निकाल कर दिखाना, इत्यादि बातों की पूरी २ शिक्षा दी जाती है । (२९) कृषि-कम-कला-इस कला से भूमी की प्रकृति कैसी होती है ? इस भूमी में कौन सी वस्तु अधिकता से उत्पन्न हो सकती है ? अमुक वस्तु या अनाज या वृक्ष, लताएं अमुक समय में लगाएं जाने चाहियें ? उन्हें अमुक २ खाद देने से वे खूब फलते और फूलते हैं. खेती के लिये भिन्न भिन्न प्रकार के किन २ औजारों की आवश्यकता है ? इत्यादि बातों का सांगोपांग ज्ञान कृषक लोगों को कराया जाता है। (३०) वस्त्रविधि-कला-इस कला के द्वारा वस्त्र किन किन पदार्थों से बनाए जाते हैं ? उन की उपज कहां, कब और कैसे, उत्तम से उत्तम रूप में की जा सकती है ? जिस कपास के तन्तु जितने ही अधिक लम्बे अधिक निकलते हैं, वह कैसा होता है ? उत्तम या अधम कोटि के कपास, ऊन, टसर, रेशम, या पश्म की क्या पहचान है ? इत्यादि बातों का पूरा पूरा ज्ञान लोगों को कराया जोता हैं। For Private And Personal Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याया हिन्दी भाषा टीका सहित । [१११ (३१) धतकला-का शाब्दिक अर्थ है जूया । जूना भी प्राचीन काल में कलाओं में परिगणित होता था। इस का उद्देश्य केवल मनोविनोद रहता था । इस में होने वाली हार जीत शाब्दिक एवं मनोविनोद का एक प्रकार समझी जाती थी । मनो वनोद के साथ २ यह विजेता बनने के लिये बौद्धिक प्रगति का कारण भी बनता था । परन्तु ज्यों २ समय बीतता गया त्यों २ इस कला का दुरुपयोग होने लगा । यह मात्र मनोविनोद की प्रकिया न रह कर जीवन के लिये अभिशाप का रूप धारण कर गई । उसी का यह दुःखान्त परिणाम हुअा कि धर्मर राज युधिष्ठिर जैसे मेधावी व्यक्ति भी सती - शिरोमणी द्रौपदी जैसी आदर्श महिलाओं को दाव पर लगा बैठे और अन्त में उन्हें वनों में जीवन की घड़ियां व्यतीत करनी पड़ीं । नल ने भी इसी कला के दुरुपयोग से अपने साम्राज्य से हाथ धोया था। ऐसे एक नहीं अनेकों उदाहरण हैं । सारांश यह है कि पहले समय में इस कला को मनोविनोद का एक साधन समझा जाता था ।। (३२) व्यापारकला - इस कला द्वारा, विशेषरूपेण लेन देन या खरीदने बेचने का काम करना सिखाया जाता है । व्यापार में सचाई और ईमानदारी की कितनी अधिक आवश्यकता है ? सम्पत्ति के बढ़ाने के प्रधान साधन कौन २ से हैं ? कल कारखाने कहां डाले जाते हैं ? कोन सा व्यापार कहां पर सुविधा-पूर्वक हो सकता है ? इत्यादि बातों का भी इस कला द्वारा भान कराया जाता है । (३३) राजसेवा-कला-इस कला द्वारा लोगों को राजसेवा का बोध कराया जाता है । राजा को राज्य की रक्षा और हर प्रकार की उन्नति के लिये केवल बन्धे हुए टैक्स दे कर ही अलग हो जाना राजपेधा नहीं है, परन्तु राज्य पर या राजा पर कोई मामला श्रा पड़ने पर तन से, मन से और धन से सहायता पहुंचाना और उस की रक्षा के लिये अपना सर्वस्व भी लगाने में संकुचित न होने का नान राज-सेवा है । इत्यादि बातें भी इस कला के द्वारा सिखाई जाती हैं। (३४) शकुन विचार-कला-इस कला के द्वारा तरह २ के शकुन और अपशकुन को जानने की शक्ति मनुष्य में भली भांति आ जाती है। प्रत्येक काम को प्रारम्भ करते समय लोग शकुन को सोचने लगते हैं। पशु पक्षियों की बोली से उन के चलते समय दा हने या बाएं आ पड़ने से, किसी सधवा या विधवा के सन्मुख आ जाने से, इत्यादि कई बातों से शुभ या अशुभ शकुन की जानकारी इस कला के द्वारा हो जाती है। (३५) वायुस्तम्भन कला-वायु को किस तरह रोका जा सकता है । उस का रुख मनचाही दिशा में किस प्रकार घुमाया जा सकता है ? रुकी हुई वायु के बल और तोल का अन्दाजा कैसे लगाया जाता है ? उसका कितना जबदस्त बल होता है ? उससे कौन ५ से काम लिये जा सकते हैं ? इत्यादि आवश्यक और उपयोगी अनेकों बातें इस कला के द्वारा सिखाई जाती हैं। (३६) अग्निस्तम्भन कला - धधकती हुई अग्नि बिना किसी वस्तु को हानि पहुंचाए वहीं की वहीं कैसे ठहराई जा सकती है ? चारों ओर से धकधक करती हुई अग्नि में प्रवेश कर और मन चाहे उतने समय तक उस में ठहर कर बाल २ सुरिक्षत उस से कैसे निकला जा सकता सकता है ? और आग के दहकते हुए अंगारों को हाथ या मुह में कैसे रखा जा सकता है ? इत्यादि अनेकों हितकारी बातों का ज्ञान इस कला द्वारा प्राप्त किया जाता है । (३७) मेघवृष्टि-कला-मेघ कितने प्रकार के होते हैं ? उनके बनने का समय कौन सा है ? मूसलाधार वर्षा करने वाले मेव कैसे रंगरूप के होते हैं ? इन्द्र धनुष क्या है ? वर्षा के समय ही क्यों For Private And Personal Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ११२] श्री विपाक सूत्र - [दूसरा अध्याय दिखाई देता है ? अलग अलग प्रकार का क्यों होता है १ मध्याह्न में वह क्यों नहीं दीखता ? बिजली क्या है ? क्यं प्रकट होती है ? इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा किया जाता है। (३८) विलेपन-कला-विलेपन क्या है ? यह देश, काल और पात्र की प्रकृति को पहचान कर शरीर को ताजा नीरोग सुगन्धित और यथोचित गर्म या ठण्डा रखने के लिये कैसे बनाया जाता है ? किन २ पदाथा से बनता है ? इस का उपयोग कब २ करना चाहिए ? इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा होता है। ....... (३९) मर्दन या घर्षण-कला - धर्मार्थकाममोक्षाणां, शरीरं मूलसाधनम् -, के नियमानुसार यदि शरीर ही ठीक नहीं तो सारा मानव जीवन ही कि किरा है। शरीर का घर्षण करने से त्वचा के सब छिद्र कैसे खोले जा सकते हैं ? मर्दन करने की शास्त्रीय विधिये कौन २ सी है ? तैल आदि का मदन मास में अधिक से अधिक कितनी बार करना चाहिये १ हाथ की रगड़ से शरीर में विद्युत का प्रवाह कैसे होने लगता है १ तैलादि का मर्दन अपने हाथ से करने में औरों की अपेक्षा क्या विशेषता है ? इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा हो जाता है। (४०) ऊर्ध्वगमन-कला- वाष्प (भाफ) कैसे पैदा किया जाता है । उस की शक्ति का असर क्या किसी खास तर्फ ही पड़ सकता है ? या दाहिने बाएं ऊपर नीचे जिधर भी चाहें उस से काम ले सकते हैं ? उड़नखटोले और अनेकों प्रकार के अन्य वायुयानों का रचना कैसे होती है । इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा होता है। ... (४१) सुवर्ण सिद्धि-कला- इसा कला के द्वारा खान से सोना निकालने के अतिरिक्त अन्य अमुक अमुक पदार्थों के साथ २ अमुक २ जड़ी बूटियों के रस, अमुक २ मात्रा में मिला कर अमुक परिमाण की गरमी के द्वारा उस घोल को फूकने से सोना बन ने की विधि का ज्ञान प्राप्त होता है । (४२) रूपसिद्धि-कला--अपने रूप को कैसे निखारना चाहिए ? इस के लिये शरीर के भीतर किन २ पदार्थों को पहुँचाना होता है ? और बाहिर किन २ विलेपनों का व्यवहार करना चाहिये ? ताकि चर्म में अामरण झुर्रियां न पड़े, शरीर के डील डौल को सुसंगठित बनाकर उसे सदा के लिये वैसा ही गठीला और चुस्त बनाए रखने के लिये प्रति दिन किस प्रकार के व्यायाम करने चाहिये । इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा हो जाता है। (४३) घाटबन्धन-कला-घाट, पुल नदी, नालों के बांध आदि कैसे बनाए जाते हैं ? कहां बान्धना इनका आवश्यक और टिकाऊ तथा कम खर्चीला होता है ? सड़कें, नालियां, मोरियां कहां और कैसे बनाई जानी चाहिये। तरह २ के मकानों का निर्माण कैसे किया जात बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा किया जाता है। (४४) पत्रछेदन-कला- किसी भी वृक्ष के कितने ही ऊचे या नीचे या मध्य भाग वाले किसी भी निर्धारित पत्र को उस के निश्चित स्थान पर किसी भी निशाने द्वारा किसी निर्धारित समय के केवल एक ही बार में वेधने का काम इस कला के द्वारा सिखाया जाता है। (४५) मर्मभेदन कला- इस कला के द्वारा शरीर के किसी खास और निश्चित भाग को किसी आयुध द्वारा छेदन करने का काम सिखाया जाता है। (४६) लोकाचार-कला-लोकाचार-व्यवहार से अपना तथा संसार का उपकार कैसे होता है ? लोकाचार से भ्रष्ट होने पर मनुष्य का सारा ज्ञान व्यर्थ कैसे हो जाता है ? लोक-प्राचार को धर्म की नड़ कहते हैं सो कैसे ? आचार से दीर्घायु की प्राप्ति कैस होती है ? सुखी, दु:खी, पुण्यात्मा और . For Private And Personal Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय! हिन्दी भाषा टीका सहित । [११३ पापात्मा इत्यादि प्रकार के जो प्राणी संसार में पाये जाते हैं, इन में से प्रत्येक के साथ किस प्रकार का यथोचित आचार-व्यवहार किया जाए ? ये सब बातें इस कला द्वारा जानी जाती हैं । (४७) लोकरञ्जन-कला- इस कला के द्वारा पुरुषों को भांति २ से लोकरञ्जन करने की व्यवहारिक शिक्षा दी जाती है। उदाहरण के लिए - कोई आदमी लोकरञ्जनार्थ इस प्रकार कई तरह से हंसता या रोता है कि दर्शकों को तो वह हंसता या रोता हुआ नज़र आता है, पर सचमुच में वह न तो श्राप हंसता ही है और न रोता ही है। (४८) फलाकर्षण-कला-फलों का आकर्षण ऊपर. दाहिने या बाए न होते हुए पृथिवी की ओर ही क्यों होता हैं ? प्रत्येक पदार्थ पृथ्वी से ऊपर की ओर चाहे फेंका जाए, या कोई अपनी मर्जी से कितना ही ऊपर क्यों न उड़ जाए, तब भी अन्त में उसे पृथ्वी पर ही गिरना पड़ता है या उसी की अोर आना पड़ता है, यह क्यों होता है ? इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा होता है। (४९) अफल-अफलन-कला-वे चीजें जो वास्तव में फलवान होने की योग्यता रखते हुए भी फलती नहीं हैं, मुख्यतः दो भागों में विभाजित की जाती हैं-एक तो स्थावर, जैसे वृक्ष, लतायें आदि और दूसरी जंगम वस्तुयें, जो चलती फिरती हैं. जैसे मनुष्य या पशु आदि । कोई वृक्ष या लता फल ती नहीं है तो क्या कारण है ? कौन सा खाद उसे पहुँचाया जाए, तो वह फिर से फलवान् हो जाए या उस में कोई कीड़ा आदि न लग पाए ? इसी प्रकार पुरुषों के सन्तान नहीं होती है, तो इस का मूलकारण क्या है ? क्या पुरुष की जननेन्द्रिय किसी दोष से दूषित है ? या पुरुष का वीर्य सन्तानो पादन करने में अशक्त है ? अथवा स्त्रो का ही रज किसी विशेष दोष से सन्तानोत्पादन करने में असमर्थ है ? इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा किया जाता है। (५०) धार-बन्धन-कला-छुरे, भाले, तलवार आदि शस्त्रों की पैनी से पैनी धार को मन्त्र तन्त्र या प्रात्मबल आदि किसी अन्य साधन द्वारा निष्फल बना कर उस पर दौड़ते २ चले जाना या इन शस्त्रों के द्वारा किसी पर प्रहार तो करना पर उसे तनिक भी चोट न पहुंचने देना अथवा बहते हुए पानी की धार को वहीं की वहीं रोक देना अथवा धारा को दो भागों में विभक्त करके मध्य में से मार्ग निकाल लेना, इत्यादि बातों की शिक्षा इस कला द्वारा दी जाती है। काव जिन बातों को लिख कर बड़े २ विशाल ग्रन्थ तैयार कर देते हैं और पढ़े लिखे लोगों का मनोरञ्जन करते हैं एवं जीवन का पाठ पढ़ाते हैं, परन्तु उन सभी लम्बी चौड़ी बातों को एक चित्रकार चित्र के द्वारा संसार के सन्मुख उपस्थित कर देता है, जिस को देख कर अनपढ़ लोग मनोरञ्जन कर लेते हैं एवं जिस से वे अपने को शिक्षित भी कर पाते हैं इस कला में चित्र-निर्माण के सभी विकल्पों को सिखाया जाता है। (५२) ग्रामवसावन-कला-ग्राम कैसे और कहां बसाए जाते हैं ? पहाड़ों के ऊपर मरुभूमी में और दलदलों के पास ग्राम क्यों नहीं बसाये जाते १ छोटी छोटी पहाड़ियों और धारों को तलाइयां और मैदानों की भूमियां ही वस्तियों के लिये क्यों चुनी जाती है ? कौन सी बस्ती बड़ी और कौन छोटी बन जाती है ? इत्यादि बातों का बोध इस कला के द्वारा कराया जाता है। (५३) कटक-उतारण-कना-छावनियां कहां डाली जानी चाहिये १ उन की रचना कैसे करनी चा हये १ उन के रसद का प्रबन्ध कहां, कैसे और कितना करके रखना चहिये १ शत्र से कैसे सुरक्षित रहा जा सकता है ? इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा कराया जाता है। For Private And Personal Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ११४) श्री विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय (५४) शकटयुद्धकला- रथी का युद्ध रथी के साथ कैसे, कहां और कब तक होना चाहिये ? रथी को कहां तक युद्धकला से परिचित होना चाहिये ? रथ को किन किन अस्त्र, शस्त्रों से सुसज्जित रखना चाहिये ? इत्यादि बातों की शिक्षा इस कला के द्वारा दी जाती है । (५५) गरुड़-युद्ध-कला- सेना की रचना अागे से छोटी, पतली और पीछे से क्रमशः मोटी क्यों रखनी चाहिये । सेना की ऐसा रचना करने से और शत्रुयों पर छापा मारने से क्या तात्कालिक प्रभाव रहता है ? इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा कराया जाता है। (५६) दृष्टि-युद्ध-कला-अांखों से आंखें मिला कर परपक्ष के लोगों को कैसे बलहीन एवं निकम्मे बनाया जा सकता है। इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा कराया जाता है। (५७) वाग-युद्ध-कला-युक्तिवाद, तकव और बुद्धिवाद की सहायता से पर-पक्ष के विषय का खण्डन करना और स्वपक्ष का मण्डन करना और भांति भांति के सामान्य : एडन करना और भांति भांति के सामान्य और गूढ़ विषयों पर शास्त्रार्थ करना, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा कराया जाता है । (५८) मुष्टि-युद्ध-कला-हाथों को बान्धकर मुष्टि बना कर और उन के द्वारा नाना । से विधिपूर्वक घुसामारी खेल कर परपक्ष को पराजित करना, इत्यादि बातें इस कला के द्वारा सिखाई जाती हैं । (५९) बाहु-युद्ध-कला-इस में मुष्टि के स्थान पर भुजाओं से युद्ध करने की शिक्षा दी जाती है। (६०) दण्ड-युद्ध-कला- इस कला में दण्डों के द्वारा युद्ध करना सिखाया जाता है । कसे और कितने लम्बे दण्ड होने चाहिये और किस ढंग से चलाये जाने चाहिये ? ताकि शत्रु से अपने को सुरक्षित रखा जा सके ? इत्यादि बातें भी इस कला से सिखाई जाती हैं। (६१) शास्त्र-युद्धकला-इस कला के द्वारा पठित शास्त्रीय ज्ञान को खण्डन मण्डन के रूप में बोल कर या लिख कर प्रकट करने की युक्तियां सिखाई जाती हैं। (६२) सर्प-मर्दनकला-सर्प के काटे हुत्रों की संजीवनी औषधियां कौन कौन सी हैं ? वे कौनसी जड़ी बूटियां हैं जिनके सूघने या सुघा देने मात्र से भयंकर से भयंकर जहरीले सो का विष दूर किया जा सकता है ? सपा को कोल कर कैसे रखा जा सकता है ? इत्यादि बातें इस कला के द्वारा सिखाई जाती हैं । (६३) भूतादि-मर्दन-कला- भूतादि क्या हैं ? ये मुख्यतया कितने प्रकार के होते हैं ? इन में निर्बल और सबल जातियों के कौन से भूत होते हैं । इन को वश में करने की क्या रीति होती है ? कौन से मन्त्र तथा तन्त्रों के आगे इन की शक्तियां काम नहीं कर पाती १ उन्हें कैसे, कहां, कब और कितने समय तक सिद्ध करना पड़ता हैं ? इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा सिखाया जाता है। (६४) मन्त्रविधि-कला-मन्त्रों के जप जाप की कौन सी विधि है ? कौन मन्त्र, कब, कहां कैसे और कितने जप-जाप के पश्चात् सिद्ध होता है ? जाप से जब वे सिद्ध हो जाते हैं. तब सम्पूर्ण ऐहिक इच्छाओं की पूर्ति कैसे होती है ? उन से दैहिक, दैविक, श्रीर भौतिक बाधायें निमूल कैसे की जाती हैं ? इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा कराया जाता है । (६५) यन्त्रविधिकला-मुख से मन्त्रों का उच्चारण करते हुए किसी धातु के पत्रों या भोजपत्र या साधारण कागज या दीवाल आदि पर नियमित खाने बनाना और उन में परिमित अंकों का भरना यन्त्र का लिखना कहलाता है। यह यन्त्र कब लिखे जाते हैं ? मनोरथों के भेद से ये मुख्यतया कितने प्रकार के होते हैं ? इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा किया जाता है । (६६) तन्त्रविधिकला-तरह २ के टोने करना, उतारे करना और विधान के साथ उन्हें बस्तियों For Private And Personal Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [११५ के चौरास्तों पर रखना झूठी पतलों की भोजन के पश्चात् कील को खोलना, धान की मुट्ठी आदि उतार कर किसी के सिरहाने रखना आदि २ कामों की विधियां इस कला के द्वारा लोगों को बताई जाती हैं। कलाकारों का कहना है कि इस कला के द्वारा कई प्रकार की दैहिक, दैविक और भौतिक बाधायें आसानी के साथ निर्मूल की जा सकती हैं । (६७) रूप-पाक - विधिकला - अपने रूप को निखारने लिये ऋतु, काल, देश की प्रकृति और अपनी प्रकृति का मेल मिला कर कौन २ पाकों का सेवन करते रहना चाहिए १ ये पाक कैसे और कौन २ पदार्थों के कितने २ परिमाण से बनते हैं ? इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला से लोगों को कराया जाता है । (६८) सुवर्ण - पाक-विधिकला - इस कला के द्वारा पुरुष अनेक विधियों से नानाविध सुवर्ण के पाकों का निर्माण सीखा करते थे। इस में प्रथम विधिपूर्वक सोने को शोधना. फिर उस के नियमित परिमाण के साथ अन्यान्य आवश्यक पदार्थों तथा जड़ी बूटियों को मिलाकर पाक तैयार करना, तदनन्तर उस का विधि के अनुसार सेवन करना, इत्यादि बातें भी इस कला में बताई जाती हैं । (६९) बन्धनकला - किसी पर मन्त्र और दृष्टि आदि के बल से ऐसा प्रभाव डालना कि जिस से वह औरों की निगाह में बद्ध प्रतीत न हो सके परन्तु वह स्वयं को बद्ध समझता रहे । यही इस कला का उद्देश्य है । (७०) मारणकला - केवल मन्त्रों की सिद्धि और दृष्टिवल से बिना किसी भी प्रकार का किसी पुरुषविशेष से युद्ध किए, यहां तक कि बिना उसे देखे भाले केवल उस का नाम और स्थान मालूम कर एवं बिना किसी भी प्रकार के शस्त्रों का उस पर प्रयोग किए उस के सिर को धढ़ से अलग कर देना या अन्य किसी भी प्रकार से उसे मार गिराना इस कला क. काम है । (७१) स्तम्भन - कला - किसी व्यक्ति विशेष से अपने पराए किसी वैर का बदला लेने के लिये उसे किसी नियत काल तक के लिये स्तम्भित कर रखना इस कला से लोग जान पाते हैं । ( ७२ ) संजीवन - कला - किसी मृतप्राय या मृतक दिखने वाले व्यक्ति को जो अकाल में ही किसी कारण- विशेष से मृत्यु को प्राप्त होता दिखाई दे रहा हो, मन्त्र तन्त्र, यन्त्र आदि विधियों के बल या किसी भी प्रकार की संजीवनी जड़ी को उस के मृतप्राय शरीर से स्पर्श करा कर उसे पुनर्जीवित कर देना इस कला द्वारा लोग जान पाते हैं । शास्त्रों में ७२ कलायें पुरुषों की मानी जाती हैं, किन्तु प्रकृत सूत्र में उन कलाओं का एक नारी में सूचित करने का अर्थ है कि उस नारी के महान् पांडित्य को अभिव्यक्त करना, और टीकाकार का कहना है कि प्राय: पुरुष ही इन कलाओं का अभ्यास करते हैं, स्त्रियां तो प्रायः इन का ज्ञान मात्र रख सकती हैं । लेखाद्याः २ शकुनरुतपर्यन्ता गणित - प्रधाना कला प्रायः पुरुषाणामेवाभ्यासयोग्याः, (१) यह कला वर्णन स्वर्गीय, जैनदिवाकर, प्रसिद्धवक्ता, पण्डित श्री चौथमल जी महाराज द्वारा विरचित "भगवान् महावीर का आदर्श जीवन" नामक ग्रन्थ से उद्धृत किया गया है । शाब्दिक रचना में कुछ आवश्यक अन्तर रखा गया है और आवश्यक एवं प्रकरणानुसारी भाव ही संकलित किये गए हैं। कहीं वर्णन में स्वतन्त्रता से भी काम लिया गया है । (२) इस वर्णन से प्रतीत होता है कि टीकाकार श्री अभयदेवसूरि के मत में ७२ कलाओं में से प्रथम की लेखन - कला है और अन्तिम कला का नाम शकुनरुतकला है, परन्तु हमने जिन कलाओं का वर्णन ऊपर किया है, उन में पहली तो वृत्तिकार की मान्यतानुसार है परन्तु अन्तिम कला में भिन्नता है । इसका कारण यह है कि कलाओं का वर्णन प्रत्येक ग्रन्थ में प्रायः भिन्न भिन्न रूप से पाया जाता है। ऐसा क्यों है ? यह विद्वानों के लिये विचारणीय है 1 For Private And Personal Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय स्त्रोणां तु विशया एव प्राय इति । चउसहि-गणिया-गुणोववेया-चतुष्पष्टिगणिका -गुणोपेता- अर्थात् वह कामध्वजा गणिका, कामसूत्र वर्णित गणिका के ६४ गुण अपने में रखती थी। वात्स्यायन कामसूत्र में अष्टविध आलिंगन वर्णित हुए हैं, उन आठों में प्रत्येक के आठ आठ भेद होने से ६४ भेद गणिका के गुण कहलाते हैं । वात्स्यायनोकतान्यालिंगनादीन्यष्टौ वस्तूनि, तानि च प्रत्येकमष्टभेदत्वाच्चतुःषष्टिर्भवन्ति चतुःषष्ट्या गणिकागुणैरुपेता या सा तथेति वृत्तिकारः। “एगूणतीस विसेसे रममाणी–एकोनत्रिंशद्विशेष्यां रममाणा-" यहां पठित जो विशेष पद है उस का अर्थ है-विषय अथवा विषय के गुण । विषय के गुण २९ होते हैं, इन में कामध्वजा गणिका रमण कर रही थी अर्थात् गणिका विषय के २९ गुणों से सम्पन्न थी । वात्स्यायन कामसूत्र आदि ग्रन्थों में विषयगुणों का विस्तृत विवेचन किया गया है। "-एक्कवीसरतिगुणप्पहाणा-एकविंशतिरतिगुणप्रधाना-" अर्थात् कामध्वजा गणिका २१ रतिगुणों में प्रधान-निपुण थी । मोहनीयकर्म की उस प्रकृति का नाम रति है जिस के उदय से भोग में अनुरम्ति उत्पन्न होती है, अथवा मैथुनक्रीड़ा का नाम भी रति है। रति के गुण (भेद) •१ होते हैं, उन में यह गणिका निपुण थी । रतिगुणों का सांगोपांग वर्णन वात्स्यायन कामसूत्र आदि ग्रन्थों में किया गया है । ___-बत्तीस-पुरिसोवयर-कुसला-द्वाविंशत् - पुरुषोपचारकुशला-" अर्थात् पुरुषों के ३२ उपचारों में वह कामध्वजा गणिका कुशल थी । उपचार का अर्थ होता है-आदर, सत्कार अथवा सभ्योचित व्यवहार । इन उपचारों में वह गणिका सिद्धहस्त थी। उपचारों का सविस्तृत व्याख्यान वात्स्यायन कामसूत्र आदि ग्रन्थों में किया गया है। "नवंगसुत्तपडिबोहिया-प्रतिबोधितसुप्तनवांगा-"अर्थात् जगा लिये हैं सोये हुए नवांग जिसने, तात्पर्य यह है कि बाल्यकाल में सोये हुए नव अंग जिस के इस समय जागे हुए हैं अथवा जिसके नेत्र प्रभृति नव अंग पूर्णरूप से जागृत हैं । इसका भावार्थ यह है कि मानवी व्यक्ति की बाल्य अवस्था में उस के दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, एक जिह्वा, एक त्व वा और एक मन ये नौ अंग जागे हुए नहीं होते अर्थात् इन में किसी प्रकार का विकार (कामचेष्टा) उत्पन्न हुअा नहीं होता ये उस समय निर्विकार-विकार से रहित होते हैं। यहां निर्विकार की सुप्त ओर विकृत की प्रबुद्ध ---जागृत संज्ञा है । जिस समय युवावस्था का अागमन होता है, उस समय ये नौ ही अग जाग'उठते हैं, अर्थात् इन में विकार उत्पन्न हो जाता है। इस से सत्रकार ने उक्त विशेषण द्वारा कामध्वजा को नवयुवती प्रमाणित किया है। "-अट्ठारस-देसीभासा -विसारया-अष्टादशदेशीभाषा-विशारदा-' अर्थात् १-चिलात (किरात-देश), २-बर्वर (अनार्य देशविरोष), ३ -बकुश (अनार्य देश विशेष ), ४-यवन (अनार्य देशविशेष), ५-पह्नव ( अनार्य देशविशेष ). ६ - इसिन ( अनार्य देशविशेष), ७-च रुकिनक, ८-लासक (अनार्य देशविशेष), ९-लकुश ( अनार्य देशविशेष ), १०- द्रविड़ ( भारतीय देश ), ११- सिंहल द्वीप । लंका द्वीप), १२ ---पुलिंद ( अनार्य देशविशेष ), १३-अरब (अरबदेश ). १४- पक्कण ( अनार्य देशविशेष), १५-बहलो ( भारत वर्ष का एक उत्तरीय देशः, १६-मुरुण्ड ( अनार्य देशविशेष ), १७- शबर ( अनार्य देशविशेष ), १८--पारस(फारस-ईरान ) इन (१) द्वे श्रोत्रे, द्वे चक्षुषी, द्वे घ्राणे, एका जिव्हा, एक त्वक , एकं च मनः इत्येतानि नवांगानि सुप्तानीव सुप्तानि यौवनेन प्रतिबोधितानि - स्वार्थग्रहणपटुतां प्रा पतानि यस्याः सा तथा (वृत्तिकार:) For Private And Personal Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [११७ १८ 'देशों की भाषा-बोली से कामध्वजा गरिएका सुपरिचित थी, इस वर्णन मे यह स्पष्ट हो जाता है कि गणिका जहां काम - शास्त्र वर्णित विशेष रतिगण आदि में निपुणता लिये हुए थी वहां वह भाषाशास्त्र वैद्य से भी परिपूर्ण थी, और असाधरण एवं सर्वतोमुखो मस्तिष्क की स्वामिनी थी । ' - सिंगारागार चारुवेसा-शृङ्गारागारचारुवेषा - अर्थात् उस का सुन्दर वेश शृङ्गार रस का घर बना हुआ था | तात्पर्य यह है कि उस को वेष-भूषा इतनी मनोहर थी कि उस से वह शृङ्गार रस की एक जीतीजागती मूर्ति प्रतीत होती थी । “ – गीय-रति गन्धव्व - नह कुसला - गीत - रतिगान्धर्व नाट्य कुराला - अर्थात् वह गीत, रति, गान्धर्व और नाट्य आदि कलाओं में प्रवीण थी । तात्पर्य यह है कि वह एक ऊंचे दर्जे की कलाकार थी । गीत संगीत का ही दूसरा नाम है । रतिक्रीडाविशेष को कहते हैं । गान्धर्व - नृत्ययुक्त संगीत का नाम है, और केवल नृत्य की नाट्य संज्ञा है [गान्धर्व नृत्युक्तगीतम्, नाट्य तु नृत्यमेवेति वृत्तिकारः ] “ – संगत गत – " इस निर्देश से ग्रहण किया जाने वाला समस्त पाठ वृत्तिकार अभयदेव सूरि के उल्लेखानुसार निम्नलिखित है "संगय-गय- भणिय विहित-विलास सजलिय संलात्र- निउरण- जुत्तोवयार - कुसला" इनि दृश्यम् संगतान्युचितानि गीतादीनि यस्याः सा तथा सललिता प्रसन्नतोपेता ये संलापास्तेषु निपुणा या सा तथा, युक्ताः संगता ये उपचारा व्यवहारास्तेषु कुशला या सा तथा ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः " अर्थात् उस के गमन, वचन और विहित चेष्टायें, समुचित थीं, वह मन को लुभाने वाले संभाषण में निपुण थी, और व्यवहारज्ञ एवं व्यवहार कुशल थी । .. << Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सुन्दरत्थण०" आदि समग्रपाठ का वृत्ति में विवरण पूर्वक इस प्रकार निर्देश किया हैसुन्दर त्थ-जहण वयण-कर-चरण- नयण-लावरण-विलास - कलिया " इति व्यक्तम्, नवरं जघनं पूर्व: कटिभागः लावण्यमाकारस्य स्पृहणीयता, विलासः स्त्रीणां चेष्टाविशेषः " । अर्थात् उसके ર स्तन, २ जवन ( कमर का अग्रभाग), बदन (मुख), कर (हाथ), चरण और नयन प्रभृति अंगप्रत्यंग बहुत सुन्दर (१) स्वतन्त्ररूप से १८ देशों का नाम कहीं देखने में नहीं आया परन्तु राजप्रश्नीय आदि सूत्रों में १८ देशों की दामियों का वर्णन मिलता है, उसी के आधार से ये १८ नाम संकलित किये गए हैं। (२) कामी पुरुष स्त्री के स्तन, मुखादि अंगों को किन २ से उपभित करते हैं, अर्थात् इन को किस २ की उपमा देते हैं तथा ज्ञानी पुरुषों की दृष्टि में उन का वास्तविक स्वरूप क्या है ? उस के लिये भर्तृहरि जी का निम्नोक श्लोक श्रवश्य अवलोकनीय है - स्तनौ मांस-ग्रन्थी, कनक कलशावित्युपमितौ । मुखं श्लेष्मागारं तदपि च शशांकेन तुलितम् ॥ स्रवन्मूत्र- क्लिन्नं, करिवरकरस्पर्द्धि जघनम् । हो ! निन्द्यं रूपं, कविजनविशेषैः गुरुकृतम् || १ || [ वैराग्यशतक ] अर्थात् - यह कितना आश्चर्य है कि स्त्री के नितान्त गर्हित स्वरूप को कविजनों ने अत्यन्त सुन्दर पदार्थों से उपमित करके कितना गौरवान्वित कर दिया है जैसे कि उसके वक्षस्थल पर लटकने वाली मांस की ग्रन्थियों स्तनों को दो स्वर्ण घटों के समान बतलाया, श्लेष्मा बलगम के आगार रूप मुख को चन्द्रमा से उपमित किया और सदा मूत्र के परिस्राव से भीगे रहने वाले जघनों उरुत्रों को श्रेष्ठ हस्ती की संड से स्पद्धी करने वाले कहा है । तात्पर्य यह है कि कवि-जनों का यह रित पक्षपात है जो कि वास्तविकता से विचा दूर है । For Private And Personal Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ११८) श्री विपाक सूत्र [ दूसरा अध्याय थे और रूप वर्ण लावण्य प्राकृति की सुन्दरता ) हास तथा विलास (स्त्रियों की विशेष चेष्टा ) बहुत मनोहर था। -ऊसियधया-उच्छितभ्वजा-” अर्थात् कामध्वजा गणिका के विशाल भवन पर ध्वजा (छोटा ध्वज) फहराया करती थी। ध्वज किसी भी राष्ट्र की पुण्यमयी संस्कृति का एवं राष्ट्र के तथागत पुरुषों के अमर इतिहास का पावन प्रतीक हुया करता है । ध्वज को किसी भी स्थान पर लगाने का अथ है -- अपनी संस्कृति एवं अपने अतीत रासी ों के प्रति अपना सम्मान प्रकट करना तथा अपने राष्ट्र के गौरवानुभव का प्रदर्शन करना । ध्वज का सम्मान राष्ट्र के प्रत्येक निवासी का सम्मान होता है और उस का अपमान राष्ट्र के प्रत्येक निवासी के अपमान का संसूचक बनता है इसी दृष्टि को सन्मुख रखते हुए . राष्ट्रिय भावना के धनी लोग ध्वज को अपने मकानों पर लहरा कर अपने राष्ट्र के अतीत गौरव का प्रदर्शन करते हैं। सारांश यह है कि काम वजा गणिका का मानस राष्ट्रिय-भावना से समलंकृत था, वह गणिका होते हुए भी अपने राष्ट्र की संस्कृति एवं उसके इतिहास के प्रति महान् सम्मान लिये हुए थी, और साथ में वह उस का प्रदर्शन भी कर रही थी। .. "-सहस्सलंभा-सहस्त्रलाभा-” अर्थात् वह कामध्वजा गणका अपनी नृत्य, गीत आदि किसी भी कला के प्रदर्शन में हजार मुद्रा ग्रहण किया करती थी, अथवा सहवास के इच्छुक को एक सहन मुद्रा भेंट करनी होती थी अर्थात् उस के शरीर आदि का आतिथ्य उसे ही प्राप्त होता था जो हजार मुद्रा अर्पण करे। "--विदिएण-छत्त-चामरवालवियाणिया-वितीर्ण छत्रचामरबालव्यजनिका-" अर्थात् राजा की ओर से दिया गया है छत्र, चामर-चवर और बालव्यजनिका-चवरी या छोटा पंखा जिस को ऐसी, अर्थात् कामध्वजा गणिका को कलात्रों से प्रसन्न हो कर राजा ने उसे पारितोषिक के रूप में ये सन्मान सूचक छत्र, चामरादि दिये हुए थे । इन विशेषणों से कामवजा के विषय में इतना ही कह देना पर्याप्त है कि वह कोई साधारण बाजार में बैठने वाली वेश्या नहीं थी अपितु एक प्रसद्ध कलाकार तथा राजमान्य असाधारण गणिका थी। -- करणीरहप्पयाया-कर्णीरथप्रयाता-" अर्थात् वह गणिका कीरथ के द्वारा आती जाती थी, अर्थात् उस के गमनागमन के लिये कणीरथ प्रधानरथ नियुक्त था । कर्णारथ यह उस समय एक प्रकार का प्रधान रथ माना जाता था. जो कि प्राय: समृद्धि--शाली व्यक्तियों के पास होता था । "आहेवच्चं जाव विहरति" इस पाठ में उल्लिखित "जाव-यावत्" पद से सूत्रकार को क्या विवक्षित है १ उस का सविवर्ण निर्देश वृत्तिकार के शब्दों में इस प्रकार है - "-- आहेवच्च-" त्ति प्राधिपत्यम् अधिपतिकम, इह यावत्करणादिदं दृशम् " - पोरेवच्चं-" परोवर्तित्वमग्रेसरत्वमित्यर्थः । “ -भट्टितं-भतृत्वं पोषकत्वम् ...... सामित्तं.--" स्वस्वामि -- सम्बन्धमात्रम्, ' -महत्तरगत्तं -"महत्तरगत्वं शेषवेश्या-जनापेक्षा महत्तमताम् "-आणाईसरसेणावच्चं-" अाशेश्वरः आज्ञा-प्रधानो यः सेनापतिः, सैन्यनायकस्तस्य भावः कर्म वा आशेश्वरसेनापत्यम्, "-कारेमाणा -" कारयन्ती परैः " -पालेमाणा-” पालयन्ती स्वयमिति । अर्थात् वह गणिका हज़ारों गणिकाओं का आधिपत्य, और पुरोवर्तित्व करती थो । तात्पर्य यह है कि उन सब में वह प्रधान तथा अग्रेसर थी उन की पोषिका -पालन पोषण करने वाली थी । उन के साथ उस का सेविका और स्वामिनी जैसा सम्बन्ध था। सारांश यह है कि सहस्रों वेश्यायें उसकी आज्ञा में रहती थीं और वह उनकी पूरी २ For Private And Personal Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दुसरा अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । देख रेख रखती थी । संक्षेप में कहें तो कामध्वजा वागिाजग्राम नगर की सर्व-प्रधान राजमान्य और सुप्रसिद्ध कलाकार वेश्या थी । इस प्रकार से प्रस्तुत सूत्र में काम वजा गणिका के संसारिक वैभव का वर्णन प्रस्तावित किया गया है । इस में सन्देह नहीं कि स्त्री-जाति की प्रवृत्ति प्रायः संसाराभिमुखी होती है, वह सांसारिक विषय--वासनाओं की पूर्ति के लिये विविध प्रकार के साधनों को एकत्रित करने में व्यस्त रहती है । परन्तु इस में भी शंका नहीं की जा सकती कि जब उस की यह प्रवृत्ति कभी सदाचाराभिगामिनी बन जाती है और उस की हृदय --- स्थली पर धार्मिक भावनाओं का स्रोत बहने लग जाता है तो वही स्त्री. जाति संसार के सामने एक ऐसा पुनीत आदर्श उपस्थित करती है, कि जिस में संसार को एक नये ही स्वरूप में अपने आप को अवलोकन करने का पुनीत अवसर प्राप्त होता है । स्त्री जति उन रत्नों की खान है कि जिन का मूल्य संसार में अांका ही नहीं जा सकता । जिन महापुरुषों की चरण-रज से हमारी यह भारत-बम धरा पुण्य भूमि कहलाने का गौरव प्राप्त करती है उन महापरुषों को जन्म देने वाली यह स्त्री जाति ही तो है । हमारे विचारानुसार तो संसार के उत्थान और पतन दोनों में ही स्त्री-जाति को प्राधान्य प्राप्त है । अस्तु । अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में प्रस्तुत अध्ययन के नायक का वर्णन करते हैं - मूल -'तत्थ णं वाणियग्गामे विजयमित्ते नामं सत्थवाहे परिवसति अड्ढे० । तस्स णं विजमित्तस्स सुभद्दा नामं भारिया होत्था । अहीण । तस्स णं विजयमित्तस्स पुत्ते सुभद्दाए' भारियाए अत्तए उज्झितए नामं दारए होत्था, अहीण० जाव सुरूवे । पदार्थ-तत्य णं - उस । वाणियग्गामे-वाणिज – ग्राम नामक नगर में । विजयमित्तेविजय-मित्र । णाम-नाम का । सत्यवाहे-सार्थवाह-व्यापारी यात्रियों के समूह का मुखिया । परिवसति- रहता था जो कि । अड्ढे०-धनो-धनवान् था । तस्स णं-उस । विजय मित्तस्सविजयमित्र की। अहीण-अन्यून पञ्चेन्द्रिय शरीर सम्पन्न। सुभदा-सुभद्रा । नाम-नाम की । भारिया-भार्या । होत्था-थी। तम्स णं--उस । विजयमित्तस्स-विजयमित्र का । पुत्ते - पुत्र । सुभदाए भारियाए-सुभद्रा भार्या का। अतए--श्रात्मज । उज्झितए-उज्झितक । नाम- नाम का । दारए -- बालक । होत्था-था जोकि । अहीण -अन्यन पंचेन्द्रिय शरीर सम्पन्न । जाव-यावत् । सुरुवे-सुन्दर रूप वाला था । मूलार्थ-उस वाणिजग्राम नगर में विजयमित्र नाम का एक धनी सार्थवाह-व्यापारी वर्ग का मुखिया निवास किया करता था। उप विजय मित्र की सर्वांग - सम्पन्न सुभद्रा नाम की भार्या थी । उस विजयमित्र का पुत्र और सुभद्रा का आत्मज उज्झितक नाम का एक सर्वांग-सम्पन्न और रूपवान् बालक था। टीका --कामध्वजा गणिका के वर्णन के अनन्तर सूत्रकार उज्झितक के माता पिता का वर्णन कर रहे हैं। वाणिज--ग्राम नगर में विजयमित्र नाम का एक सार्थवाह (व्यापारी वर्ग के मुख्य. (१) छाया-तत्र वाणिजाग्रामे विजय - मित्रो नाम सार्थवाहः परिवसति अान्य० । तस्य विजयमित्रस्य सुमद्रा नाम भार्याऽभूत् । अहोन। तस्य विजयमित्रस्य पुत्रः सुभद्रायाः भार्याया आत्मजः उज्झितको नाम दारकोऽभूत् । अहीन. यावत् सुरूप: । For Private And Personal Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय १२० ] नायक को अथवा यात्री - समूह के प्रधान को सार्थवाह कहते हैं ) निवास किया करता था। जोकि बड़ा धनवान् था उसकी पत्नी का नाम सुभद्रा था । तथा उनके उज्झितक नाम का एक बालक था जोकि सुन्दर शरीर अथच मनोहर श्राकृति वाला था । सूत्रकार के “ _ - ग्रड्ढे ० १० – इस सांकेतिक पाठ से" - दिते, वित्थिरण- विउल-भवण-सयणासण-जाण-वाहणाइराणे, बहुधण- बहुजायरूवरयर, ओगपश्रोगसंपत्त, विच्छुड्डियविउलभतपाणे, बहुदा सीदास गाम हिसगवेल यप्पभूप, बहुजणस्स अपरिभूर - " [ छाया - दीप्तो, विस्तीर्ण- विपुल भवनशयनासन यान --वाहनाकीर्णी, बहुधन बहुजातरूपरजत, आयोगप्रयोगसंप्रयुक्तो, विच्छर्दित - विपुल- भक्तपानो, बहुदासीदास गोमहिषगवेलकप्रभूतो, बहुजनस्य अपरिभूतः | यह ग्रहण करना। इस का अर्थ निम्तोक्त है— वह विजयमंत्र सार्थवाह दीप्त तेजस्वी, विस्तृत और विपुल भवन (मकान ), शयन ( शय्या), और आसन (चौंको आदि), यान गाड़ी आदि), और वाइन (घोड़े आदि) तथा धन, सुवण और रजत ( चान्दी) की बहुलता से युक्त था. अधम ऋण लेने वाले) को वह अनेक प्रकार से व्याज पर रुपया दिया करता था। उसके वहां भोजन करने के अनन्तर भी बहुत सा अन्न बाकी बच जाता था, उसके घर में दास, दासी आदि पुरुष और गाय, भैंस और बकरी आदि पशु थे, तथा वह बहुतों से भी पराभव को प्राप्त नहीं हो पाता था अथवा जनता में वह सशक्त एवं सम्माननीय था । " श्रहीण ० - ० - " इस संकेत से वह समस्त पाठ जो कि प्रथम अध्ययन में वर्णित मृगादेवी के सम्बन्ध में वर्णित किया गया है, उसका ग्रहण समझना । “ – श्रहीण० जाव सुरुवे - " इस पाठ के " जाव यावत् " पद से " - श्रहीण पडिपुराणपंचिदियसरीरे, लक्खणवं जणगुणोववेये, माणुम्माणप्पमाण- पडिपुराणसुजायसव्वंगसुंदरंगे, ससिसा - माकारे, कंते, पियदसणे - " [ छाया - अहीन परिपूर्ण – पञ्चेन्द्रियशरीरः, लक्षणव्यंजनगुणोपेतः, मानोन्मानप्रमाणपरिपूर्ण सुजातसर्वांगसुन्दरांगः शशिसौम्याकारः, कान्तः, प्रियदर्शनः ] यह ग्रहण करना अर्थात् वह उज्झितक कुमार कैला था ? इस का वर्णन इस पाठ में किया गया है । तात्पर्य यह है कि उसकी पांचों इन्द्रियें सम्पूर्ण एव निर्दोष थीं ? और उसका शरीर लक्षण, व्यंजन और समस्त पाठ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (१) लक्षण - विद्या, धन और प्रभुत्व आदि के परिचायक हस्तगत (हाथ की रेखाओं में बने हुए) स्वस्तिक आदि ही यहां पर लक्षण शब्द से अभिप्रेत हैं । व्यंजन - शरीरगत मस्सा तिलक आदि चिन्हों की व्यंजन संज्ञा है । गुण-- विनय, सुशीलता और मेवा भाव आदि गुण कहे जाते हैं । मान - जिसके द्वारा पदार्थ मापा जाय उसे मान कहते हैं । अथवा कोई पुरुष जल से भरे [ चार आक प्रमाण For Private And Personal १ हुए कुंड में प्रवेश करे और प्रवेश करने पर यदि कुंड में से एक द्रोण १६ सेर ] प्रमाण जल बाहिर निकल जावे तो वह पुरुष मानयुक्त कहलाता है । उन्मान - मान से अधिक अथवा अर्द्धभार को उन्मान कहते हैं । प्रमाण - अपनी गुलि से १०८ इतनी ऊंचाई हो वह प्रमाणयुक्त कहलाता है । गुलि पर्यन्त ऊंचाई की प्रमाण संज्ञा है, जिस पुरुष की इस प्रकार मान, उन्मान और प्रमाण युक्त, यथा योग्य अवयवों से संघटित शरीर वाले पुरुष को सुजातसर्वांगसुन्दर कहा जाता है । प्रियदर्शन - जिस के देखने से मन में आकर्षण पैदा हो, अथवा जिस का दर्शन मन को लुभावे उसे प्रियदर्शन कहते हैं । - Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । गुणों से युक्त था, तथा मान, उन्मान और प्रमाण से परिपूर्ण, एवं अंगोपांग-गत सौन्दर्य से भरपूर था, वह चन्द्रमा के समान सौम्य (शान्त), कान्त -मनोहर और प्रियदर्शन था, अर्थात् कुमार उज्झितक में शरीर के सभी शुभ लक्षण विद्यमान थे। ___ अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के वाणिजग्राम नगर में पधारने के विषय में कहते हैं मूल-'तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढ़े । परिसा निग्गता राया निग्गो जहा कूणिो निग्गयो । धम्मो कहिओ । परिसा राया य पडिगो । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवो महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदभूती जाव लेसे छट्टछहणं जहा पराणत्तीए पढ़माए जाव जेणेव वाणियग्गामे तेणेव उवा० । वाणियग्गामे उच्चणीय. अड़माणे जेणेव रायमग्गे तेणेव अोगाढ़े। पदार्थ तेणं कालेणं-उस काल में । तेणं समएणं - उस समय में। समणे-श्रमण । भगवं-भगवान् । महावीरे-महावीर । समोसढ़े-पधारे । परिसा निग्गता-परिषद् -नगर की जनता भगवान् के दर्शनार्थ नगर से निकली। जहा-जिस प्रकार । कूणिो निग्गओ-महाराज कूणिक नगर से निकला था उसी प्रकार | राया-वाणिजग्राम का राजा मित्र भी। निग्गो -नगर से भगवान् के दर्शनार्थ निकला । धम्मो-भगवान् ने धर्मोपदेश । कहिओ-फरमाया । परिसा य और परिषद् -जनता तथा । राया-राजा । पडिगो -वापिस चले गये । तेणं कालेणं - उस काल में। तेणं समएणं-उस समय में । समणस्स-श्रमण । भगवओ - भगवान् । महावोरस्समहावीर के । जे?-ज्येष्ठ । अंतेवासी-शिष्य । इंदभूती-इन्द्रभूति । जाव-यावत् । लेसेतेजोलेश्या को संक्षिप्त किये हुए । छटुंछट्टेणं-बेले २ की तपस्या करते हुए । जहा--जिस प्रकार पराणत्तीए--श्री भगवती सूत्र में प्रतिपादन किया गया है, उसी प्रकार । पढ़माए-प्रथम प्रहर में स्वाध्याय कर । जाव-यावत् । जेणे--जहां । वाणियग्गामे-वाणिजग्राम नगर है। तेणे। वहीं पर । उवा० श्रा जाते हैं। वाणियग्गामे-वाणिजग्राम नगर में । उच्चणीय०-ऊंच, नीच सभी घरों में भिक्षार्थ अडमाणे-फिरते हुए । जेणेव-जहां । रायमग्गे -राजमार्ग-प्रधान मार्ग है। तेणेव-वहां पर श्रोगाढ़े-पधारे। मूलार्थ-उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी वाणिजग्राम नामक नगर में [नगर के बाहिर ईशान कोण में अवस्थित दूतीपलाश नामक उद्यान में पधारे। प्रजा उनके दर्शनार्थ नगर से निकली और वहां का राजा भी कूणिक नरेश की तरह भगवान के दर्शन करने को चला, भगवान् ने धर्म का उपदेश दिया, उपदेश को सुन कर प्रजा और राजा दोनों घापिस आगये । उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति नामक अनगार जो कि तेजो-लेश्या को संक्षिप्त करके अपने अन्दर धारण किये हुए हैं (१) छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरः समवसृतः । परिषद् निर्गता। राजा निर्गतो यथा कुणिको निर्गत: । धर्मः कथितः । परिषद् राजा च प्रतिगतः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महवीरस्य ज्येष्ठोऽन्तेवासी इन्द्रभूतिः यावत् लेश्यः षष्ठषष्ठेन यथा प्रज्ञप्तौ प्रथमायाँ यावत् यत्रैव वाणिजग्रामस्तत्रैवोपा. वाणिजग्रामे उच्चनीच० अटन् यत्रेव राजमार्गः तत्रैवावगाढ़ः । For Private And Personal Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १.२२/ श्री विपाक सूत्र - [ दूसरा अध्याय बेले २ पारणा करने वाले हैं, एवं भगवतो सूत्र वरित जीवनचर्या चलाने वाले हैं भिक्षा के लिये वाजिग्राम नगर में गए, वहां ऊंच नीच अर्थात साधारण और असाधारण सभी घरों में भिक्षा के निमित्त भ्रमण करते हुए राजमार्ग पर पधारे। टीका - उस काल तथा समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वाणिजग्राम के बाहिर ईशान कोण में स्थित दूतीपलाश नामक उद्यान में पधारे। भगवान् के आगमन की सूचना मिलते ही नागरिक लोग भगवान् के दर्शनार्थ नगर से निकल पड़े । इधर महाराज मित्र भी कूणिक नरेश की भांति बड़ी सजधज से प्रभुदर्शनार्थ नगर से प्रस्थान किया, तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार भगवान् महावीर के चम्पा नगरी में पधारने पर महाराज कूणिक बड़े समारोह के साथ उनके दर्शन करने गये थे उसी प्रकार मित्र नरेश भी गये । तदनन्तर चारों प्रकार की परिषद् के उपस्थित हो जाने पर भगवान् ने उसे धर्म का उपदेश दिया । धर्मोपदेश सुन कर राजा तथा नागरिक लोग वापिस अपने २ स्थान को चले गये, अर्थात् भगवान् के मुखारविन्द से श्रवण किये हुए धर्मोपदेश का स्मरण करते हुए सानन्द अपने २ घरों को वापिस गये । प्रस्तुत सूत्र में " धम्मो कहियो " इस संकेत से औपपातिक सूत्र में वर्णित धर्मकथा की सूचना देनी सूत्रकार को अभीष्ट है । यद्यपि भगवान् का धर्मोपदेश तो अन्यान्य आगमों में भी वर्णित हुआ है, परन्तु इस में विशेष रूप से वर्णित होने के कारण सूत्रों में उल्लिखित उक्त पदों से औपपातिक सूत्रगत वर्णन की ओर ही संकेत किया गया है । इसी शैली को प्रायः सर्वत्र अपनाया गया है । २ “ - इंदभूती जाव लेसे – ” पाठान्तर गत “ – जाव - यावत् - " पद से " – इन्दभूती अणगा रे गोयमसगांत " से ले कर “ संखित्तविउलतेय ले से" - पर्यन्त समग्र पाठ का ग्रहण समझना । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी - प्रधान शिष्य गौतम गोत्रीय इन्द्रभू नामक अनगार षष्ठभक्त [ बेले २ पारना करना ] की तपश्चर्या रूप तप के अनुष्ठान से आत्मशुद्धि में प्रवृत्त हुए भगवान की पर्युपासना में लगे हुए थे । समस्त वर्णन व्याख्या - प्रज्ञप्ति में लिखा गया है । व्याख्या - प्रज्ञप्ति - भगवती सूत्र का वह पाठ इस प्रकार है छणं णिक्खिणं तवोकम्मेण श्राणं भावेमाणे विहरइ, तप णं से भगवं गोयमे छट्ठ - क्खमणपारणगंसि - " इत्यादि । ' - पढमार जाव" यहां के " - जाव यावत् -" पद से “- पढमाए पोरसीए सज्झायं करेति, बीयाप पोरसीए भाणं भियाती, तइयाप पोरसीए ऋतुरियमचवलमसंभंते मुहपोत्तियं पडिलेहेति, भायणवत्थाणि पडिलेहेति, भायणाणि पमज्जति, भायणाणि उग्गाहेति, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति २ समणं ३ वंदति २ एवं वयासी- इच्छामि णं भंते ! "6 (१) औपपातिक सूत्र के ३४वे सूत्र में - इसिपरिसाए, मुणिपरिसाए, जइपरिसाए, देवपरिसाए - " ऐसा उल्लेख पाया जाता है, उसी के आधार पर चार प्रकार की परिषद् का निर्देश किया है। वैसे तो परिषद् के (१) ज्ञा (२) अजा (३) दुर्विग्धा ये तीन भेद होते हैं । गुण दोष के विवेचन में हंसनी के समान और गंभीर विचारणा के द्वारा पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को अवगत करने वाली को "ज्ञा' परिषद् कहते हैं । अल्प ज्ञान वाली परन्तु सहज में ही उददेश को ग्रहण करने में समर्थ परिषद् का नाम "अ" है । इन दोनों से भिन्न को दुर्विदग्धा कहते हैं । (२) इस समग्र पाठ के लिये देखो भगवती सूत्र, श० १, उ० १, सू० ७ । (३) अन्ते समीपे वसतीत्येवं शीलोऽन्तेवासी - शिष्यः, अन्तेवासी सम्यग आशा विधायी, इतिभावः । For Private And Personal Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय हिन्दो भाषा टोका सहित । [१२३ तुन्भेहिं अब्भणुराणाते समाणे खमणपारणगंसि वाणियग्गामे णगरे उच्चणीयमभिमकुलाई घरसमुदाणस्स भिक्वायरियाए अडित्तर । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह । तर रां भगवं गोयमे समणेणं ३ अब्भणुराणाते समाणे समणस्स ३ अंतियातो पडिनिक्खमति, अतु. रियमचवलमसंभंते जुगंतरपलोयणाते दिट्ठीए पुरयो रियं सोहेमाणे "-इस पाठ का स्मरण करना ही सत्रकार को अभिप्रेत है। इस समग्रपाठ का भावार्थ इस प्रकार है तपोमय जीवन व्यतीत करने वाले भगवान् गौतम स्वामी निरन्तर षष्ठतप-बेले २ पारना, आत्म --शुद्धि में प्रवृत्त होते हए पारणे के दिन प्रथम पहर में स्वाध्याय करते, दुसरे में ध्यानारूढ़ होते, तीसरे पहर में कायिक और मानसिक चापल्य से रहित होकर मुखवस्त्रिका की तथा भाजन एवं वस्त्रों की प्रतिलेखना करते हैं । तदनन्तर पात्रों को झोली में रख कर और झोली को ग्रहण कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की मेवा में उपस्थित होकर वन्दना नमस्कार करने के पश्चात् निवेदन करते हैं कि आप की आज्ञा हो तो मैं वेले के पारणे के निमित्त भिक्षार्थ वाणिजग्राम में जाना चाहता हूं १ प्रभु के "-जैसा तुमको सुख हो करो परन्तु विलम्ब मत करो -" ऐसा कहने पर वे-गौतम स्वामी भगवान् के पास से चल कर ईर्यासमिति का पालन करते हुए वाणिजग्राम में पहुंच जाते हैं ; वहां साधु वृत्ति के अनुसार धनी निर्धन आदि सभी घरों में भ्रमण करते हुए राजमार्ग में पधार जाते हैं । वहां पहुंचने पर गौतम स्वामी ने जो कुछ देखा अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं. मूल-तत्थ णं वहवे हत्थी पासति, सन्नवद्भवम्मियगुड़िते, उप्पीलियकच्छे, उद्दामियघंटे, णाणामणिरयणविविहगेविजउत्तरकंचुइज्जे, पडिकप्पिते, झयपड़ागवरपंचामेल आरूढ़हत्थारोहे गहियाउह पहरणे । अण्णे य तत्थ बहवे आसे पासति, सन्नद्धबद्धवम्मियगुड़िते, आविद्धगुड़े, अोसारियपक्खारे, उनरकंचुइय-प्रोचूलमुहचंडाधर-चामरथासकपरिमंडियकड़ीए, आरूढ़े अस्सारोहे, गहियाउहपहरणे । अण्णे य तत्थ बहवे पुरिसे पासति, सन्नद्धब द्ववम्मियकवए, उप्पोलियसरासण पट्टीए, पिणद्धगेवेज्जे, विमलवरबद्धचिंधष, गहियाउहपहणे । तेसि च णं पुरिसाणं मझगयं एगं पुरिसं पासति अवोडगबंधणं उक्त्तिकगणनासं, नेहत्तप्पियगत्तं, वझरकडिजुयनियत्थं, कंठे गुणरत्तमल्लदामं, चुण्ण (१) छाया-तत्र बहून् हस्तिनः पश्यति; सन्नद्धबद्धवर्मिकगुडितान् , उत्पीडितकक्षान् , उद्दामितघंटान, नानामणिरत्नविविधप्रैवेयकोत्तरकंचुकितान् , प्रतिकल्पितान्, ध्वजपताकावरपंचापीडाऽऽरूढ़हस्त्यारोहान् , गृहीतायुधप्रहरणान् । अन्यांश्च तत्र बहूनश्वान् पश्यति, सनद्धबद्धवर्मिकगुडितान् , अाविद्भगुडान्, अवसारितपक्वरान् उत्तरकंचुकिताऽवचूल कमुखचंडाधर-चामरस्थासकपरिमंडितकटिकान् , अारूढाश्वारोहान् , गृहीतायुधप्रहरणान् । अन्यां च तत्र बहून् पुरुषान् पश्यति सन्न दबद्ध वर्मितकवचान् . उत्पीडितशरासनपट्टि - कान, पिनद्धग्रैवेयकान् , विमल-वर-बद्ध-चिन्ह-पट्टान् . गृहीतायुधप्रहरणान् , तेषां च पुरुषाणां मध्यगतमेकं पुरुष पश्यति, अबकोटकबन्धनम् , उत्कृत्तकर्णनासं, स्नेहस्नेहितगात्रम् वध्य करकटियुगनिवसितं , कंठे गुणरक्तमाल्यदामानं, चूर्णगुण्डितगात्रम् , सत्रस्तं, वध्यप्राणप्रियम् । बाह्यप्रणप्रियम् ) तिलंतिलं चैव च्छिद्यमानम् , काकणीमांसानि खाद्यमानम् , पापं, कर्कशतैर्हन्यमानम् , अनेकनरनारी - संपरिवृतं चत्वरे चत्वरे खण्डपटहेनोंद्घोष्यमाणम्, इदं चैतद्पमुद्घोषणं शृणोति नो खलु देवानुप्रिया ! उज्झितकस्य दारकस्य कश्चिद् राजा वा राजपुत्रो वाऽऽपराध्यति, अात्मनस्तस्य स्वकानि कर्माण्यपराध्यन्ति । For Private And Personal Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १२४] श्री विपाक सूत्र - - [दूसरा अध्याय गुडियगत्त', बुरणयं वज्झपाणिपीयं, तिलंतिलं चैव द्विज्जमाणं, काकणिमसाई खाविर्यंत पावं, कक्करसहिं हम्ममा, अगनरनारिसंपरिवुड़, चच्चरे चच्चरे खंड पडहरणं उग्योसिज्जमाणं इमं च गं एयारूवं उग्घोसणं सुणेति – नो खलु देवाणुपिया ! उज्झियगस्स दारगस्स केई गया वा राय पुत्ते वा अवरज्झति, अप्पणी से सयाई कम्पाई अवरज्यंति । पदार्थ - तत्थ णं - वहां पर । बहवे – अनेक । हत्थी - हाथियों को । पासति - देखते हैं बो कि । सन्नद्धबद्ध-वग्मियगुडिते - युद्ध के लिये उद्यत हैं, जिन्हे कवच पहनाये हुए हैं तथा जिन्हों ने शरीर रक्षक उपकरण [ भूला ] आदि धारण किये हुए हैं । उपपोलिप-कच्छे दृढ़ उरोबन्धन - उदरबन्धन से युक्त हैं । उद्दामियघंडे -- जिन के दोनों ओर घण्टे लटक रहे हैं । णाणामणिरयर विवहगेविज्जउत्तरकं चुहज्जे- नाना प्रकार के मणि, रत्न, विविध भांति के ग्रैवेयक - ग्रीवा के भूषण तथा बखतर विशेष से युक्त । एडिकप्पिते - परिकल्पित-विभूषित अर्थात् कवचादि पूर्ण सामग्री से युक्त । झड़ागवरपंच मेलश्रारूढ हत्थारोहे - ध्वज और पताकाओं से सुशोभित, पंच शिरोभूषणों से युक्त, तथा हस्त्यारोहों - हाथीवानोंहाथी को हांकने वालों से युक्त, अर्थात् उन पर महावत बैठे हुए हैं । गहियाउहपहरणे – आयुध और प्रहरण ग्रहण किये हुए हैं अर्थात्- - उन हाथियों पर आयुध ( वह शस्त्र जो फैंका नहीं जाता, तलवार आदि ) तथा प्रहरण वह शस्त्र जो फैंका जा सकता है तीर आदि) लदे हुए हैं अथवा उन हाथियों पर बैठे हुए महावतों ने आयुधों और प्रहरणों को धारण किया हुआ है । अणे य - और भी । तत्थ वहां पर । बहवे -- बहुत से । आसे - अश्वों घोड़ों को । पासति - देखते 1 जो कि । सन्नद्धबद्रवम्मियगुडितेयुद्ध के लिए उद्यत हैं, जिन्हें कवच पहनाये गये हैं, तथा जिन्हें शारीरिक रक्षा के उपकरण पहनाये गये हैं । श्रविद्धगुड़ - सोने चांदी की बनी हुई झूल से युक्त । ओसारियपकवरे - लटकाये हुए तनुत्राण से युक्त । उत्तरकं बुझ्य श्रोचू जमुहचं डाधर- चामर - धासक परिमंडिकड़ीए:- वखतर विशेष से युक्त, लगाम से अन्वित मुख वाले, क्रोध पूर्ण अधरों से युक्त, तथा चामर, स्थासक (आभरण विशेष) से परिमंडित-विभूत्रित है कटि -भाग जिनका ऐसे । आरुढ प्रस्तारा - जिन पर अश्वारोही घुड़सवार आरूढ़ हो रहे हैं । गहिया उहपहरणे – आयुध और प्रहरण ग्रहण किए हुए हैं अर्थात् उन घोड़ों पर श्रायुध और हरण लादे हुए हैं अथवा उन पर बैठने वाले घुड़सवारों ने आयुधों और प्रहरणों को धारण किया हुआ है । अणे य - और भी । तत्थ णं-वहां पर । पुरिसे - पुरुषों को। पासति - देखते हैं, जोकि । सन्नद्धबद्धवमियकवए – कधच को धारण किये हुए हैं जो कवच दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए एवं लोहमय कलकादि से युक्त हैं । उप्पोलिय सरासणपटीए जिन्हों ने शरासनपट्टिका - धनुष खँचने के समय हाथ की रक्षा के लिये बांधा जाने वाला चर्मपट्ट चमड़े की पट्टी, कस कर बांधी हुई है पिविज्जे- जिन्हों ने ग्रैवेयक- कण्ठाभरण धारण किये हुए हैं । विमलवरबद्धचिधपट्टे - जिन्होंने उत्तम तथा निर्मल चिन्हपट्ट - निशानी रूप वस्त्र खंड धारण किए हुए हैं । गहियाउहपहरणे - जिन्हों ने आयुध और प्रहरण ग्रहण किये हुए हैं ऐसे पुरुषों को देखते हैं । तेसिं च णं - उन । पुरिसाणं = पुरुषों के । मयं मध्यगत । एर्ग- एक । पुरिसं - पुरुष को । देखते हैं, वोडगबंधणं - गले और दोनों हाथों को मोड़ कर पृष्ठभाग में दोनों हाथ रस्सी से बान्धे हुए हैं । उक्कित्तकरणनासं - जिस के कान और नाक कटे हुए हैं । हतुप्पि - यगतं - जिस का शरीर घृत से स्निग्ध किया हुआ है । वज्झकरकडिजुर्यानयत्थं - जिस के कर और कटिप्रदेश में वध्यपुरुषोचित वस्त्र-युग्म धारण किया हुआ है । अथवा बन्धे हुए हाथ जिस के कडियुग (हथ - 1 1 पासति - जिस के 1 For Private And Personal Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। कड़ियों ) पर रखे हुए हैं अर्थात् जिस के दोनों हाथों में हथकड़ियां पड़ी हुई हैं। कंठे गुणरत्न मल्लदामजिस के कण्ठ में कण्ठसूत्र-धागे के समान लाल पुष्यों की माला है । चुरागगुडियगत्तं- जिस का शरीर गेरु के चूर्ण से पोता हुआ है। बुराणयं --जो कि भय से त्रास को प्राप्त हो रहा है । वज्झपाणपीयंजिसे प्राण प्रिय हो रहे हैं अर्थात् जो जीवन का इच्छुक है। तिलं तिलं चेर छिज्जमाणं जिस को तिल तिल कर के काटा जा रहा है । काकणीमसाई खावियं-जिसे शरीर के छोटे छोटे मांस के टुकड़े खिलाये जा रहे हैं अथवा जिस के मांस के छोटे २ टुकड़े काक आदि पक्षियों के खाने योग्य हो रहे हैं । पावंपापी-पापात्मा । कक्करसरहिं -- सैंकड़ों पत्थरों से अथवा सैंकड़ों चाबुकों से। हम्ममाणं -- मारा जा रहा है। अणेगनरनारीसंपरिवुडं -- जो अनेक स्त्री पुरुषों से घिरा हुआ है। चञ्चरे चञ्चरे प्रत्येक चत्वर [जहां पर चार से अधिक रास्ते मिलते हैं उसे चत्वर कहते हैं ] में। खंडपडहएणं - फूटे हुए ढोल से। उग्धोसिज्जमाणं उद्घोषित किया जा रहा है। वहां पर । इमं च णं एयारूवं- इस प्रकार की । उग्घोसणं-उद्घोषणा को । सुणेति-सुनते हैं । एवं खलु देवाणु प्पिया ! - इस प्रकार निश्चय ही हे महानुभावो !। उभियगरस दागस्स-उझितक नामक बालक का। कई किसी। राया वा राजा अथवा । रायपुत्त वा- राजपुत्र ने । नो अवरज्झति-अपराध नहीं किया किन्तु । से-उस के । सयाईकम्माई-अपने ही कर्मों का । अवरझति-अपराध-दोष है।। मूलार्थ-वहां-राजमार्ग में उन्हों ने-भगवान् गौतम स्वामी ने अनेक हाथियों को देखा, जो कि युद्ध के लिये उद्यत थे, जिन्हें कवच पहनाए हुए थे और जो शरीररक्षक उपकरणभूल आदि से युक्त थे तथा जिन के उदर-पेट दृढ़ बन्धन से बान्धे हुए थे। जिनके भूले के दोनों ओर बड़े २ घण्टे, लटक रहे थे एवं जो मणियों और रत्नों से जड़े हुए ग्रेवेयक (कण्ठाभूषण) पहने हुए थे तथा जो उत्तरकंचुक नामक तनुत्राण विशेष एवं अन्य कवचादि सामग्री धारण किये हुए थे । जो ध्वजा, पताका तथा १ पंचविध शिरोभूषणों से विभूषित थे । एवं जिन पर आयुध और प्रहरणादि लिये हुए हाथोवान-महावत सवार हो रहे थे अथवा जिन पर आयुध और प्रहरण लदे हुए थे। इसी भांति वहा पर अनेक अश्वों को देखा, जोकि युद्ध के लिये उद्यत तथा जिन्हें कवच पहनाये हुए थे, और जिन्हें शारीरिक उपकरण धारण कराये हुए थे । जिन के शरीर पर भूल पड़ी हुई थी, जिनके मुख में लगाम दिये गये थे और जो क्रोध से अधरो-होठों की चबा रहे थे । एवं चामर तथा स्थासक-आभरण विशेष से जिन का कटिमाग विभूषित हो रहा था और जिन पर बैठे हुए घुड़सवार आयुध और प्रहरणादि से युक्त थे अथवा जिन पर आयुध और प्रहरण लदे हुए थे । . इसी प्रकार वहां पर बहुत से पुरुषों को देखा, जिन्हों ने दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलकादि से युक्त कवच शरीर पर धारण किये हुए थे। उनकी भुजा में शरासन पट्टिका --- धनुष खेंचते समय हाथ को रक्षा के निमित्त बांधी जाने वाली चमड़े की पट्टी--बंधी हुई थी । गले में आभूषण धारण किये हुए थे । और उनके शरीर पर उत्तम चिन्हपट्टिका-वस्त्र. खंडनिर्मित चिन्ह-निशानीविशेष लगी हुई थी तथा श्रायुध और प्रहरणादि को धारण किये हुए थे। (१) हाथी के शिर के पांच आभषण बतलाए गए हैं जैसे कि-तीन ध्वजाएं और उन के बीच में दो पताकाएं। For Private And Personal Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १२६ ] श्री विपाक सूत्र - दूसरा अध्याय उन पुरुषों के मध्य में भगवान् गौतम ने एक और पुरुष को देखा जिस के गले और हाथों को मोड़ कर हर भाग के साथ दोनों हाथों को रस्सी से बान्धा हुआ था । उस के कान और नाक कटे हुए थे। शरोर को घृत से स्निग्ध किया हुआ था, तथा वह वध्य-पुरुषोचित वस्त्र - युग्म से युक्त था अर्थात् उसे वध करने योग्य पुरुष के लिये जो दो वस्त्र नियत होते हैं पाये हुए थे अथवा जिस के दोनों हाथों में हथकड़ियां पड़ीं हुईं थीं, उसके गले में कष्टसूत्र के समान रक्त पुष्पों की माला थी और उसका शरोर गेरु चूर्ण से पोता गया था । at भय से संत्रस्त तथा प्राण धारण किये रहने का इच्छुक था, उस के शरीर को तिल तिल करके काटा जा रहा था और शरीर के छोटे छोटे मांस - खंड उसे खिलाये जा रहे थे अथवा जिस के मांस के छोटे २ टुकड़े काक आदि पक्षियों के खाने योग्य हो रहे थे, ऐसा वह पापी पुरुष सैकड़ों पत्थरों या चाबुकों से अवहनन किया जा रहा था और अनेकों नर नारियों से घिरा हुआ प्रत्येक चुराहे आदि पर उद्घोषित किया जा रहा था अर्थात् जहां पर चार या इससे भी अधिक रास्ते मिले हुए हों ऐसे स्थानों पर फूटे हुए ढोल से उस के सम्बन्ध में घोषणा - मुनादी की जा रहो थी । जो कि इस प्रकार थी हे महा Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ! उज्झितक बालक का किमो राजा अथवा राजपुत्र ने कोई अपराध नहीं किया किन्तु यह इसके अपने ही कर्मों का अपराध है - दोष है । जो यह इस दुरवस्था को प्राप्त हो रहा है । टीका - भिक्षा के लिये वाणिजग्राम नगर में भ्रमण करते हुए गौतम स्वामी राजमार्ग पर श्श्रा जाते हैं, वहां पर उन्होंने बहुत से हाथी, घोड़े तथा सैनिकों के दल को देखा । जिस तरह किसी उत्सव विशेष के अवसर पर अथवा युद्ध के समय हस्तियों, घोड़ों और सैनिकों को शृंगारित, सुसज्जित एवं शस्त्र, अस्त्रादि विभूषित किया जाता है उसी प्रकार वे हस्ती, घोड़े और सैनिक हर प्रकार की उपयुक्त वेषभूषा से सुसज्जित थे । उन के मध्य में एक अपराधी पुरुष उपस्थित था, जिसे वन्य भूमी की ओर ले जाया जा रहा था, और नगर के प्रसिद्ध २ स्थानों पर उसके अपराध की सूचना दी जा रही थी । प्रस्तुत सूत्र में हस्तियों घोड़ों और सैनिकों के स्वरूप का वर्णन करने के अतिरिक्त उज्झितक कुमार नाम के वध्य - व्यक्ति की तात्कालिक दशा का भी बड़ा कारुणिक चित्र खँचा गया है । - << "3 - सन्नद्धबद्धवम्मियगुडिते - सन्नद्धबद्धवर्मिकगुडितान् ' इस पद की टीकाकार निम्नलिखित व्याख्या करते हैं- “–सन्नद्धाः सन्नह्त्या कृतसन्नाहाः' तथा बद्धं वर्म - त्वक्त्राण - विशेषो येषां ते बद्धवर्माणस्ते एव बद्धवर्मिकाः तथा गुड़ा महांस्तनुत्राणविशेषः सा संजाता येषां ते गुडितास्ततः कर्मधारयोऽतस्तान् " अर्थात् सन्नद्ध - युद्ध के लिये उपस्थित होने जैसी सजावट किये हुए हैं अथवा युद्ध के लिये जो पूर्ण रूपेण तैयार है । बद्धवर्मिक – जिन पर वर्म कवच बांधा गया है उन्हें वृद्धवर्मा कहते हैं | स्वार्थ में क-प्रत्यय होने से उन्हीं को बद्धवर्मिक कहा जाता है । गुडा का अर्थ है - शरीर को सुरक्षित रखने वाला महान भूल । गुडा - भूल से युक्त को गुडित कहते हैं । सन्नद्ध, बद्धवर्मिक, और << (1) - सन्नाह" पद के संस्कृत - शदार्थ - कौस्तुभ में तीन अर्थ किये हैं (१) कवच और स्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होने की क्रिया को, अथवा (२) युद्ध करने जाते जैसी सजावट को भी सन्नाह कहते हैं ( ३ ) कवच का नाम भी सन्नाह है ( पृष्ठ ८९० ) । ሩ सन्नद्ध – ” शब्द के भी अनेकों अर्थ लिखे हैं - युद्ध करने को लैस, तैयार, किसी भी वस्तु से पूर्णतया सम्पन्न होना आदि आदि ! For Private And Personal Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [१२७ गडित इन तीनों पदों का कर्मधारय समास है। " - उप्पोलियकच्छे-उत्पीडितकक्षान् उत्पीडिता-गाढतरबद्धा कक्षा - उरोबन्धनं येषां ते तथ तान् " अर्थात् हाथी की छाती में बांधने की रस्सी को कक्षा कहते हैं । उन हस्तियों का कक्षा के द्वारा उदर-बन्धन बड़ी दृढ़ता के साथ किया हुआ है ताकि शिथिलता न होने पावे । "- उद्दामयवंटे-उद्दामित-घण्टान् , उद्दामिता अपनीतबन्धना प्रलम्बिता घण्टा येषां ते तथा तान् . " अर्थात् उद्दामित का अर्थ है बन्धन से रहित, लटकना, तात्पर्य यह है कि झूल के दोनों ओर घण्टे लटक रहे हैं । ___ "-जाणा-मणि-रयण-विविह-गेविज्ज-उतरकंबुइज्जे-नाना-सागरन विविध प्रैवेयक-उत्तरकबुकितान्. नानामणिरत्नानि विविधानि ग्रैवेयकानि ग्रीवाभरणनि उत्तरकच काश्च तनुत्राणविशेषाः सन्ति येषां ते तथा तान् -" अर्थात् वे हाथी नाना प्रकार के मणि, रत्न, विविध भांति के अवयक - ग्रीवाभरण और उत्तरकन्क - झून अादि से विभषित हैं । यदि मणि रत्न पद को व्यस्त न मानकर समस्त (एक मान) लिया जाय तो उसका अर्थ चक्रवती के २५ रत्नों में से "एक मणिरत्न" यह होगा। परन्तु उसका प्रकृत से कोई सम्बन्ध नहीं है। कंठ के भूषण का नाम ग्रैवेयक है ।। अथवा ' -णाणामणिरयणधिविहगेविज्जउत्तरकंचुइज्जे-" का अर्थ दूसरी तरह से निम्नोक्त हो सकता है । "- नानामणिरत्नखचितानि विविधzवेयकानि येषां ते, नानामणिरत्नविविधग्रेवेयकाश्च, उत्तरकंचुकाश्च इति नानामणिरत्नविविधवेय्कउत्तरकंचुकाः, ते संजाताः येषां ते, तानिति भावः -" अर्थात् – हाथियों के गले में ग्रैवेयक डाले हुए हैं, जो कि अनेकविध मणियों एवं रत्नों से खचित थे, और उन हाथियों के उत्तरकंचुक भी धारण किये हुए हैं। ___ "-पडिकप्पिए-परिकल्पितान् , कृतसन्नाहादिसामग्रीकान् -' अर्थात् परिकल्पित का अर्थ होता है सजाया हुआ । तात्पर्य यह है कि-उन हाथियों को कवचादि सामग्री से बड़ी अच्छी तरह से सजाया गया है। '-झय-पडाग-वर-पंचामेल-श्रारूढ-हत्यारोहे-ध्वज-पताका वर-पञ्चापीडारूढ - हत्त्यारोहान् , ध्वजा:-गरुडादिध्वजाः, पताकाः ---गरुडादिवर्जितास्ताभिर्वरा ये ते तथा पञ्च आमेलकाः-शेवरकाः येषां ते तथा प्रारूढा हस्त्यारोहा-महामात्रा येष ते तथा-" अर्थात जिस पर गरुड़ आदि का चिन्ह अंकित हो उसे ध्वजा और गरुड़ादि चिन्ह से रहित को पताका कहते हैं । अामेलक - फूलों की माला, जो मुकुट पर धारण की जाती है, अथवा शिरो- भूषण को भी अामेलक कहते हैं । तात्पर्य यह है कि उन हस्तियों पर ध्वजा --- पताका लहरा रही है और उन को पांच शिरो--- भूषण पहनाए हुए हैं तथा उन पर हस्तिपक (महावत) बैठे हुए हैं। ___"-गहियाउहपहरणे-" गृहीतायुधप्रहरणान , गृहीतानि श्रायुधानि प्रहरणार्थ येष, अथवा आयुधान्यक्षेप्याणि प्रहरणानि तु क्षेप्याणीति –” अर्थात् सवारों ने प्रहार करने के लिये जिन पर आयुध-शस्त्र ग्रहण किये हुए हैं। यदि गृहीत-पद का लादे हुए अर्थ करें तो इस समस्त पदका - प्रहार करने के लिए जिन पर आयुध लादे हुए हैं --" ऐसा अर्थ होता है अथवा - आयुध का अर्थ है-वे शस्त्र जो फैंके न जा सकें गदा, तलवार, बन्दूक आदि। तथा प्रहरण शब्द से फेंके जाने वाले शस्त्र, जैसे-तीर, गोला, बम्ब आदि का ग्रहण होता है । इस अर्थ - विचारणा से उक्त - वाक्य का-जिन पर आयुध और प्रहरण अर्थात् न फैके जाने वाले और फैंके जाने वाले शस्त्र लदे हुए. हैं, या सवारों से ग्रहण किये हुए हैं, -"यह अर्थ सम्पन्न होता है। For Private And Personal Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १२८] श्री विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय इस भांति गौतम स्वामी ने राजमार्ग में सब तरह से सुसज्जित किये हुए घोड़ों देखा। घोड़ों के विशेषणों की व्याख्या हाथियों के विशेषणं' के तुल्य जान लेनी चाहिये, परन्तु जिन विशेषणों में अन्तर है उन की व्याख्या निम्नोक्त है - . ... श्राविद्धगुडे --" अाविद्धगुडान् , अाविद्धा परिहिता गडा येषां ते तथा, अर्थात् उन घोड़ों को झूलें पहना रखी हैं। ऊपर के हस्तिप्रकरण में गुडा का अर्थ झूल लिखा है जो कि एक हाथी का अलंकारिक उपकरण माना जाता है परन्तु प्रस्तुत अश्वप्रकरण में भी गुहा का प्रयोग किया है जब कि यह घोड़ों का उपकरण नहीं है । व्यवहार भी इसका सादी नहीं है फिर भी यहां गुड़ा का प्रयोग किया गया है, ऐसा क्यों है ? इसका उत्तर स्वयं घृत्तिकार देते हैं "-गुड़ा च यद्यपि हस्तिनां तनुत्राणे रूढा तथापि देशविशेषापेक्षया अश्वानामपि संभवति । अर्थात् गुडा (झल) यद्यपि हस्तियों के तनुत्राण में प्रसिद्ध है, फिर भी देशविशेष की अपेक्षा से यह घोड़ों के लिये संभव हो सकता है। .--प्रासारिपक्वरे-" अवसारितपक्खरान् , अवसारिता अवलम्बिताः पक्खराः तनुत्राराविशेषा येषां ते तथा, तान् -' अर्थात् पक्खर नामक तनुत्राण-कवच लटक रहे हैं, तात्पर्य यह है कि उन घोड़ों को शरीर की रक्षा करने वाले पक्खर नामक कवच धारण करा रखे हैं। ___ "-उत्तरकंचुइय--ओचूलमुहचंडाधरचामरथासक-परिमंडियकडिए-" उत्तरकञ्चुकिन-अवचूनक-मुखचएडाधर - चामर --स्थासक-परिमण्डितकटिकान् , उत्तरकचुक: तनुत्राण विशेष एव येषामस्ति ते तथा, तथाऽवचूलकमुखं चण्डाधरं - रौद्राधरौष्ठं येषां ते तथा, तथा चामरैः स्थासकैश्च दर्पण: परिमण्डिता कटी येषां ते तथा – ” अर्थात् उत्तरकंचक एक शरीर रक्षक उपकरणविशेष का नाम है, इस को वे घोड़े धारण किये हुए है। अवचूल कहते हैं - घोड़े के मुख में दी जाने वाली वलगा लगाम । उन घोड़ों के मुख लगामों से युक्त हैं इसलिये उनके अधरोष्ठ क्रोधपूर्ण एवं भयानक दिखाई देते हैं। और उन घोड़ों के कटे भाग चामरों (चामर-चमरी गाय के बालों से निर्मित होता है) और दर्पणों से अलंकृत हैं। - आरुढ-अस्सारोहे . ' आरूढाश्वारोहान् , अारूढाः अश्वारोहाः येषु-” अर्थात् उन घोड़ों पर घुड़सवार आरूढ हैं -बैठे हुए हैं। तदनन्तर गौतम स्वामी ने नाना प्रकार के मनुष्यों को देखा। वे भी हर प्रकार से सन्नद्ध , बद्ध हो रहे है। पुरुषों के विशेषणों की व्याख्या निम्नोत है --- "-सन्नद्ध-बद्ध-वम्मिय कवर-सन्नद्धबद्ध-बर्मिकक पचान् ' की व्याख्या राज प्रश्नीय सूत्र में श्री मलय गिरि जी ने इस प्रकार की है "कवचं-तनुत्राणं, वमै लोहमय-कसूलकादिरूपं संजातमस्येति वर्मितं, सनद्धं शरीरारोपणात् बद्धं गाढ़तरबन्धन बन्धनात्, वर्मितं ककां येन स सन्नद्व-बद्ध वर्मितकवचः” अर्थात् प्रस्तुत पदसमूह में चार पद हैं । इन में कवच (लोहे की कड़ियों के जाल का बना हुआ पहनावा जिसे योद्धा लड़ाई के समय पहनते है, जिरह बक़तर) विशेष्य है और १ – सन्नद्ध, २ - बद्ध तथा ३-वर्मित ये तीनों पद विशेषण हैं । सन्नद्ध का अर्थ है -शरीर पर धारण किया हुआ। बद्ध शब्द से, दृढ़तर बन्धन से बान्धा हुआ- यह अर्थ विवक्षित है और वर्मित पद लोहमय कसलकादि से युक्त का बोधक है । सारांश यह है कि उन मनुष्यों ने कववों को शरीर पर धारण किया हुआ है जो कि मजबूत बन्धनों से बान्धे हुए हैं, एवं जो लोहमय कसूलकादि से युक्त है। For Private And Personal Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [१२९ “ – उप्पीलिय सरासरणपट्टिए - उत्पीडित- शरासन - पट्टिकान्, उत्पीडिता कृतप्रत्यचारोपणा शरासनपट्टिका - धनुर्यष्टिबहुपट्टिका वा यैस्ते तथा तान् - " अर्थात् उन पुरुषों ने धनुष की यष्टियों पर डोरियें लगा रखीं हैं अथ च शरासनपट्टिका - धनुष खैंचने के समय भुजा की रक्षा के लिये बान्धी जाने वाली चमड़े की पट्टी को उन पुरुषों ने बान्ध रखा है । शरासनपट्टिका पद की " - शरा अस्यन्ते क्षिप्यन्तेऽस्मिन्निति शरासनम्, इषुधिस्तस्य पट्टिका शरासनपट्टिका - " यह व्याख्या करने पर इस का तूणीर (तरकश ) यह अर्थ होगा अर्थात् उन पुरुषों ने तूणीर को धारण किया हुआ है । “ – पिण्द्धगेविज्जे " पिनद्धयैवेयकान् पिनद्धं परिहितं ग्रैवेयकं यैस्ते तथा तान् - " अर्थात् उन पुरुषों ने ग्रैवेयक – कण्ठाभूषण धारण किए हुए हैं । " " विमलवरबद्धचिंधपट्टे - " विमलवरबद्ध चिन्हपट्टान् विमलो वरो बद्धश्चिन्हपट्टो-नेत्रादियो यस्ते तथा तान् - " अर्थात् उन पुरुषों ने निर्मल और उत्तम चिन्ह-पट्ट बान्धे हुए हैं। सैनिकों की पहचान तथा अधिकारविशेष की सूचना देने वाले कपड़े के बिल्ले चिन्हपट कहलाते हैं । शस्त्र-अस्त्र आदि से सुसज्जित उन पुरुषों के मध्य में भगवान् गौतम स्वामी ने एक पुरुष को देखा । उस पुरुष का परिचय कराने के लिये सूत्रकार ने उस के लिये जो विशेषण दिए हैं, उनकी व्याख्या निम्न प्रकार से है " - श्रवश्रो डगबन्धणं - अवकोटकबन्धनं, रज्ज्वागलं हस्तद्वयं च मोटयित्वा पृष्ठभागे हस्तद्वयस्य बन्धनं यस्य स तथा तम् - " अर्थात् गल और दोनों हाथों को मोड़ कर पृष्ठभाग पर रज्जू के साथ उस पुरुष के दोनों हाथ बान्धे हुए हैं । इस बन्धन का उद्द ेश्य है – वथ्य व्यक्ति अधिकाधिक पीड़ित हो और वह भागने न पाए । -" उक्कित्तकराणनासं - उत्कृत्तकर्णनासम्, अर्थात् उस पुरुष के कान और नाक दोनों ही कटे हुए हैं। अपराधी के कान और नाक को काटने का अभिप्राय उसे अत्यधिक अपमानित एवं विडम्बित करने से होता है । " - नेहतुप्पियगत – स्नेहस्नेहितगात्रम्, अर्थात् उस पुरुष के शरीर को बृत से स्निग्ध किया हुआ है । वध्य के शरीर को घृत से स्नेहित करने का पहले समय में क्या उद्देश्य होता था ? इस सम्बन्ध में टीकाकार महानुभाव मौन हैं। तथापि शरीर को घृत से स्निग्ध करने का अभिप्राय उसे कोमल बना और उस पर प्रहार करके उस वध्य को अधिकाधिक पीडित करना ही संभव हो सकता है । “ – वज्झ-करक डिजुयनियत्थं - वध्य - करकटि - युग - निवसितम्, वध्यश्चासौ करयो: - हस्तयोः कटयां कटीदेशे युगं - युग्मं निवसित एव निवसितश्चेति समासोऽतस्तम् अथवा वध्यस्य यत्करटिकायुगं - निन्द्यचीवरिकाद्वयं तन्निवसितो यः स तथा तम् – " अर्थात् उस मनुष्य के हाथों और कमर में वस्त्रों का जोड़ा पहनाया हुआ था । अथवा - मृत्युदण्ड से दण्डित व्यक्ति को फांसी पर लटकाने के समय दो निन्द्य ( घृणास्पद वस्त्र पहनाए जाते हैं, उन निन्दनीय वस्त्रों को करकटि संज्ञा है । उस वध्य व्यक्ति को निन्दनीय वस्त्रों का जोड़ा पहना रखा है । तात्पर्य यह है कि प्राचीन समय में ऐसी प्रथा थी कि वध्य पुरुष को अमुक वस्त्रयुगम ( दो वस्त्र ) पहनाया जाता था । उस वस्त्रयुगम को धारण करने वाला मनुष्य वध्य-कर-कटि- युग-निवसित कहलाता था । ...."ब्रज्झ कर - कडि - जय - नियत्थं - " इस पद का अर्थ अन्य प्रकार से भी किया जा सकता हैं, जो कि निम्नोत है For Private And Personal Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १३०] श्रो विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय "बद्ध-कर-कडि-युग-न्यस्तम् बद्धो करौ कडियुगे न्यस्तो --निक्षिप्तौ यस्य स तथा तम, कडि इति लोहमयं बन्धन, हथकड़ी, इति भाषाप्रसिद्धम् -', अर्थात् उस वन्य पुरुष के दोनों हाथों में हथकडियां पड़ी हुई हैं ! "-कंठे गुणरसमल्लदामं-"कण्ठे गुणरक्त-माल्य दामानम् , कण्ठे ..... गले गुण इव कण्ठसूत्रमिव रक्तं लोहितं माल्यदाम पुष्पमाला यस्य स तथा तम् ” अर्थात् उस वध्य पुरुष के गले में गण-डोरे के समान लाल पुष्पों की माला पहनाई हुई है । जो "- यह वध्य व्यक्ति है " इस बात की संसूचिका है। "-चुराणगुडियगत्त-"चूर्णगुण्डितगात्रम् , चूर्णेन गैरिकेन गण्डितं - लिप्तं गात्रं -शरीरं यस्य स तथा तम्-" अर्थात् उस वध्य पुरुष का शरीर गैरिक --गेरु के चूर्ण से संलिप्त हो रहा है, तात्पर्य यह है कि उस के शरीर पर गेरु का रंग अच्छी तरह मसल रखा है । जो कि दर्शक को "-यह वभ्य व्यक्ति है-" इस बात की ओर संकेत करता है। "- वझपाणपीयं"-वध्य-प्राण -प्रियम्, अथवा बाह्यप्राणप्रियम् वध्या बाह्या वा प्राणा:उच्छवासादयः प्रतीता; प्रिया यस्य स तथा तम्.-" अर्थात् --जिस को वध्य-वधाई ( मृत्युदण्ड के योग्य ) उच्छवास आदि प्राण प्रिय हैं, अथवा - उच्छवास आदि बाह्य प्राण जिस को प्रिय हैं, तात्पर्य यह है कि वह वध्य पुरुष अपनी चेष्टाओं द्वारा "-मेरा जीवन किसी तरह से सुरक्षित रह जाय-" यह अभिलाषा अभिव्यक्त कर रहा है । वास्तव में देखा जाए तो प्रत्येक जीव ही मृत्यु से भयभीत है । बुरी से बुरी अवस्था में भी कोई मरना नहीं चाहता, सभी को जीवन प्रिय है । इसी जीवनप्रियता का प्रदर्शन उस वध्य-व्यक्ति द्वारा अपनी व्यक्त या अव्यक्त चेष्टानों द्वारा किया जा रहा है । "-तिलं-तिलं चेव छिज्जमाणं-तिलं -तिलं चैव छिद्यमानम् --" अर्थात् --उस वध्य पुरुष का शरीर तिल तिल करके काटा जा रहा है, जिस प्रकार तिल बहुत छोटा होता है उस के समान उस के शरीरगत मांस को काटा जा रहा है । अधिकारियों की ओर से जो वभ्य *यक्ति के साथ यह दुव्यवहार किया जा रहा है, जहां वह उन की महान निर्दयता एवं दानवता का परिचायक है वहां इस से यह भी भली भांति सूचित हो जाता है कि अधिकारी लोग उस क्थ्य व्यक्ति को अत्यन्तात्यन्त पीडित एवं विडम्बित करना चाह रहे हैं। "-काकणिमसाई खावियंतं-काकणोमांसानि खाद्यमानम्, काकणीमांसानि तदेहोत्कृत्तहस्वमांसखण्डानि खाद्यमानम्, अर्थात्-उस वध्य पुरुष के शरीर से निकाले हुए छोटे छोटे मांस के टुकड़े उसी को खिलाए जा रहे है । अथवा “-कागणी लघुतराणि मांसानि-मांसखण्डानि काकादिभिः साद्यानि यस्य स तथा तम्-" ऐसी व्याख्या करने पर तो "- उस वध्य पुरुष के बोटे २ मांस के टुकड़े काक आदि पक्षियों के खाद्य-भक्षणयोग्य हो रहे हैं ." ऐसा अथ हो सकेगा। . इस के अतिरिक्त सूत्रकार ने उसे पापी कहा है जो कि उसके अनुरूप ही है । उस की वर्तमान दशा से उस का पापिष्ट होना स्पष्ट ही दिखाई देता है । तथा उसको सैंकड़ों कंकडों से मारा जा रहा है अर्थात् लोग उस पर पत्थरों की वर्षा कर रहे थे । इस विशेषण से जनता की उसके प्रति घृणा सूचित होती है। टीकाकार ने "कस्करसरहिं हम्ममाणं" के स्थान में सवारसहि हम्ममाणं-" ऐसा पाठ मान कर उस की निम्न लिखित व्याख्या की है स्वर्खरा-अश्वोत्वासनाय चर्ममया वस्तुविशेषाः स्फुटितवंशा वा तैहन्यमानं तापमानम्' अर्थात् For Private And Personal Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [१३१ I अश्व को संत्रस्त करने के लिये चमड़े का चाबुक या टूटे हुए बांस वग़रह से उसे ताड़ित किया जा रहा है उस व्यक्ति की ऐसी दशा क्यों हो रही है ? उस के चारों ओर स्त्री पुरुषों का जमघट क्यों लगा हुआ है ? वह जनता के लिये एक घृणोत्पादक घटना - रूप क्यों बना हुआ है ? इस का उत्तर स्पष्ट है, उस ने कोई ऐसा अपराध किया है जिस के फल स्वरूप यह सब कुछ हो रहा है, बिना अपराध के किसी को दण्ड नहीं मिलता और अपराधी का दण्ड भोगे बिना छुटकारा नहीं होता, यह एक प्राकृतिक नियम है। इसी के अनुसार यह उद्घोषणा थी कि इस व्यक्ति को कोई दूसरा दण्ड देने वाला नहीं है किन्तु इस के अपने कर्म ही इसे दण्ड दे रहे हैं, अर्थात् राज्य की ओर से इस के साथ जो व्यवहार हो रहा है वह इसी के किये हुए कमां का परिणाम है I मनुष्य जो कुछ करता है उसी के अनुसार उसे फल भोगना पड़ता है है । देखिए भगवान् महावीर स्वामी ने कितनी सुन्दर बात कही है 'जं जारिसं पुव्वमकासि कम्मं तमेव आगच्छति संपराए । कर्म अर्थात् जिस जीव ने जैसा जिस ने एकान्त दुःखरूप नरक भव का Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir एगं तु दुक्खं भवमज्जरणत्ता, वेदंति दुक्खी तमरणंतदुक्खं ॥ २३ ॥ | श्री सूत्रकृतांग० अध्ययन ५, उद्द े० २ ] किया है, वही उस को दूसरे भव में प्राप्त होता है । कर्म बाधा है वह अनन्त दुःखरूप नरक को भोगता उद्घोषणा एक खण्डपटह के द्वारा की जा रही थी । खण्डपटह-फूटे ढोल का नाम है । उस समय घोषणा या मुनादि की यही प्रथा होगी और आज भी प्रायः ऐसी ही प्रथा है कि मुनादि करने वाला प्रसिद्ध २ स्थानों पर पहले ढोल पीटता या घंटी बजाता है फिर वह घोषणा करता है। इसी से मिलता जुलता रिवाज उस समय था । राजमार्ग पर जहां कि चार, पांच रास्ते इकट्ठे होते हैं यह घोषणा की जा रही है कि हे महानुभावो ! उज्झतक कुमार को जो दण्ड दिया जा रहा है इस में कोई राजा अथवा राज - पुत्र कारण नहीं अर्थात् इस में किसी राज - कर्मचारी आदि का कोई दोष नहीं, किन्तु यह सब इस के अपने ही किये हुए पातकमय कर्मों का अपराध है दूसरे शब्दों में कहें तो इस को दण्ड देने वाले हम नहीं हैं किन्तु इस के अपने कर्म ही इसे दण्डित कर रहे हैं। इस उल्लेख में, फलप्रदाता कर्म ही है कोई अन्य व्यक्ति नहीं यह भी भली भांति सूचित किया गया है । • उज्झितक कुमार की इस दशा को देखकर श्री गौतम स्वामी के हृदय में क्या विचार उत्पन्न हुआ और उस के विषय में उन्हों ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से क्या कहा । अत्र सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं - मूल तते यां से भगवत्र गोतमस्स तं पुरिसं पासिता इमे अज्झत्थिते (१) यद् यादृशं पूर्वमकार्षीत् कर्म तदेवागच्छति सम्पराये | एकान्तदुःखं भवमर्जयित्वा वेदयन्ति दुःखिनस्तमनन्तदुःखम् ॥ (२) छाया - ततस्तस्य भगवतो गौतमस्य तं पुरुषं दृष्ट्वाऽयमाध्यात्मिकः ५ समुदपद्यत, अहो श्रयं पुरुषः यावद् निरयप्रतिरूपां वेदनां वेदयति, इति कृत्वा वाणजग्रामे नगरे उच्चनीचमध्यमकुले अटन्यथापर्याप्तं समुदानं ( भैक्ष्यम् ) गृहाति गृहीत्वा वाणिजग्रामस्य नगरस्य मध्यमध्येन यावत् प्रतिदर्शयति श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत् - एवं खलु श्रहं भदन्त ! युष्मा For Private And Personal Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय समुप्पज्जित्था, अहो णं इमे पुरिसे जाव निरयपडिरूवियं वेयणं वेदेति, त्ति कट्ट वाणियग्गामे णगरे उच्चनीयमज्झिमकुले अड़माणे अहापज्जत्तं समुयाणं गेएहति २ त्ता वाणियग्गामं नगरं मझमझेणं जाव पडिदंसति. समणं भगवं महावीरं वंदति णमंसति २ एवं वयासि-एवं खलु अहं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुएणाते समाणे वाणियग्गामे तहेव जाव वेएति । से णं भंते ! पुरिसे पुत्रभवे के आसि ? जाव पच्चणुभवमाणे विहरति ? पदार्थ-तते णं- तदनन्तर । से- उस । भगवतो गोतमस्स-भगवान् गौतम को। तं पुरिसंउस पुरुष को । पासित्ता-देख कर । इमे-यह । अज्झत्थिते-आध्यात्मिक-संकल्प । समुप्पज्जित्थाउत्पन्न हुअा। अहो णं-अहह - खेद है कि । इमे पुरिसे-यह पुरुष । जाव-यावत् । निरयड़िरूवियं-नरक के सदृश। वेयणं-वेदना का । वेदेति-अनुभव कर रहा है । त्ति कह - ऐसा विचार कर । वाणियग्गामे-वाणिजग्राम नामक । णगरे-नगर में । उच्चनीयमज्झिमकुले-ऊचे नीचे-धनिक निर्धन तथा मध्य कोटी के गृहों में । अड़माणे-भ्रमण करते हुए । अहापजत्त-आवश्यकतानुसार । समुयाणंसामुदानिक-भिक्षा, गृहसमुदाय से प्राप्त भिक्षा । गएहति रत्ता - ग्रहण करते हैं, ग्रहण कर के । वाणियग्गामं नगरं-वाणिज –ग्राम नगर के । मझमझेणं-मध्य में से । जाव-यावत् । पडिदंसतिभगवान् को भिक्षा दिखलाते हैं तथा । समणं भगवं महावीर-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को । वंदति णमंसति-वन्दना और नमस्कार करते हैं, वन्दना नमस्कार करने के अनन्तर । एवं वयासीइस प्रकार कहने लगे । एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही । भंते !-हे भगवन् !। अहं-मैं । तुब्भेहिं अब्भणुराणाते समाणे-आप श्री से आज्ञा प्राप्त कर । वाणियग्गामे-वाणिजग्राम नगर में गया । तहेव-तथैव । जाव- यावत् , एक पुरुष को देखा जो कि नरक सदृश वंदना को । वेएति-अनुभव कर रहा है । भंते !- हे भगवन् ! । से णं- वह । पुरिसे-पुरुष । पुव्वभवेपूर्वभव में। के आसि-कौन था ? । जाव- यावत् । पच्चणुभवमाणे-वेदना का अनुभव करता हुआ । विहरति-समय बिता रहा है ? मूलार्थ-तदनन्तर उस पुरुष को देख कर भगवान् गौतम को यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि अहो ! यह पुरुष कैसी नरक तुल्य वेदना का अनुभव कर रहा है । तत्पश्चात् वाणिजग्राम नगर में उच्च, नीच, मध्यम अर्थात् धनिक, निर्धन और मध्य कोटि के घरों में भ्रमण करते हुए आवश्यकतानुसार भिक्षा लेकर वाणिजग्राम नगर के मध्य में से होते हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आये और उन्हें लाई हुई भिक्षा दिखलाई । तदनन्तर भगवान को वन्दना नमस्कार करके उन से इस प्रकार कहने लगे हे भगवन् ! आप की आज्ञा से मैं भिक्षा के निमित्त वाणिज--ग्राम नगर में गया और वहां मैंने नरक सदृश वेदना का अनुभव करते हुए एक पुरुष को देखा । भदन्त ! वह पुरुष पूर्व भव में कौन था ? जो यावत् नरक तुल्य वेदना का अनुभव करता हुआ समय बिता रहा है ? टीका-भगवान् से आज्ञा प्राप्त कर भिक्षा के निमित्त भ्रमण करते हुए गौतम स्वामी ने वहां भिरभ्यनुज्ञातः सन् वाणिजग्रामे तथैव यावत् वेदयति । स भदन्त ! पुरुषः पूर्वभवे कः आसीत् ? यावत् प्रत्यनभवन विहरति । For Private And Personal Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अध्याय 1 हिन्दी भाषा टीका सहित | के राजमार्ग में जो कुछ देखा और देखने के बाद उस पुरुष की पापकर्मजन्य होनदशा पर विचार करते हुए वे वापिस भगवान् की सेवा में उपस्थित हुए और लाई हुई भिक्षा दिखाकर उन को वन्दना नमस्कार करके वहां का अथ से इति पर्यन्त सम्पूर्ण वृत्तान्त भगवान् से कह सुनाया । सुनाने के बाद उस पुरुष के पूर्व -भव - - सम्बन्धी वृत्तान्त को जानने की इच्छा से भगवान् से गौतम स्वामी ने पूच्छा कि भदन्त ! यह पुरुष पूर्वभव में कौन था ? कहां रहता था ? और उस का क्या नाम और गोत्र था ? एवं किस पापमय कर्म के प्रभाव से वह इस हीन दशा का अनुभव कर रहा है ? "त्थिते ५" यहां दिये हुए ५ के क से – “कप्पिए, चितिए, पत्थिए, मणोगए, संकप्पे - " इस समग्र पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभीष्ट है । आध्यत्मिक का अर्थ श्रात्मगत होता है । कल्पित शब्द हृदय में उठने वाली अनेकविध कल्पनाओं का वाचक है । चिन्तित शब्द से बार बार किए गए विचार, - यह अभिमत है । प्रार्थित पद का अर्थ है -- इस दशा का मूल कारण क्या है इस जिज्ञासा का पुनः २ होना । मनोगत शब्द - जो विचार अभी बाहिर प्रकट नहीं किया गया, केवल मन में ही है - इस अर्थ का परिचायक है । संकल्प शब्द सामान्य विचार के लिये प्रयुक्त होता है । ८८ - अहो णं इमे पुरिसे जाव निरय--" इस वाक्य में पठित “ - जाव यावत् पद से “ – अहो णं इमे पुरिसे पुरा पोराणाणं दुच्चिन्नाणं दुप्पडिक्कं तारणं असुभारणं पावाणं कड़ाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चरणुभवमाणे विहरइ, न मे दिट्ठा नरगा वा नेरइया वा पञ्चकखं खलु अयं पुरिसे निरय-- पड़िरूवियं वेयणं वेइति कट्ट -"' इस समग्रपाठ का ग्रहण करना । इस पाठ की व्याख्या प्रथम अध्ययन के पृष्ठ ४७ पर कर दी गई है। पाठक वहीं से देख सकते हैं । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal | १३३ "" -- - जाव-यावत् " - मञ्झ मज्भेणं जाव पडिदंसति — " यहां पठित “ पद से " - -निगच्छति २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति २ समणस्स भगवओ महावीरस्स दूर सामन्ते गमागमगाए पडिक्कमइ २ एसएमसणे आलोएइ २ भचपारण- इन पदों का ग्रहण समझना । इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है # वाणिजग्राम नगर के मध्य में से हो कर निकले, निकल कर जहां भगवान् रहावीर स्वामी विराजमान थे वहां पर श्राए श्राकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के निकट बैठ कर गमनागमन का प्रतिक्रमण किया अर्थात् आने और जाने में होने वाले दोषों से निवृत्ति की, तदनन्तर एषणीय ( निर्दोष) और अनेषणीय ( सदोष ) आहार की आलोचना (विचारणा अथवा प्रायश्चित के लिये अपने दोषों को गुरु के सन्मुख निवेदन करना) की, तदनन्तर भगवान वीर को आहार पानी दिखलाया । " - तहेव जाव वेएति" यहां पठित" - तद्देव तथैव- - " पद का अभिप्राय है-भगवान से आज्ञा ले कर जैसे अनगार गौतम बेले के पारणे के लिये गये थे इत्यादि वैसा कह ना त् गौतम स्वामी भगवान् से कहने लगे- प्रभो ! आप की आज्ञा लेकर मैं वाणिजग्राम नगर के उच्च नीच और मध्य सभी घरों में भिक्षार्थ भ्रमण करता हुआ राजमार्ग पर पहुँच गया, वहां मैंने हाथी देखे इत्यादि वर्णन जो सूत्रकार पहले कर आए हैं उसी को तथैव-वैसे ही, इस पद से अभिव्यक्त किया गया है । और ८. '- जाव यावत्- पद से वर्णक - प्रकरण को संक्षिप्त किया गया है । वह वर्णकपाठ निम्नोक्त है - " 1 “ – नयरे उच्चनीयमज्झिमाणि कुलानि घरसमुदायस्स भिक्खायरियाए अडमाणे जेणेव 39 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र - [दूसरा अध्याय १३४] रायमग्गे तेणेव श्रगाढे, तत्थ रणं बहवे हत्थी पास मि सन्नद्धवद्भवम्मियगडिते से ले कर होणं इमे परिमे व निरयपडिरूत्रिय वेयरणं” यहां तक के पाठ का ग्रहण सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों की व्याख्या इसी अध्ययन के पृष्ठ १२१ से लेकर १३१ तक के पृष्ठों में कर दी गई है । 1 “ -- आसि १ जाव पच्चरणुभवमाणे - " यहां पठित " जाव यावत् - 33 पद से किंनामए वा किंगोत्तए वा कयरंसि गामंसि वा नगरांस वा किं वा दच्चा किंवा भोच्चा किंवा समयरिता केसि वापर पोरा' दुच्चिरणां दुपडिक्कन्तारणं सुहाणं पाचारण कम्माणं पावर्ग फलवित्तिविसेसं - " इन पदों का ग्रहण करना। इन पदों की व्याख्या पृष्ठ ५१ पर की जा चुकी है। समुदान- शब्द का कोषकारों ने “ – भिक्षा या १२ कुल को या उच्च कुल समुदाय की गोचरी - भिक्षा - " ऐसा अर्थ लिखा है । परन्तु श्राचाराग सूत्र के द्वित्तीय तस्कन्ध के पिराडेध्ययन के द्वितीय उद्देश में आहार - ग्रहण की विधि का वर्णन बड़ा सुन्दर किया गया है । वहां लिखा है - साधु, (१) उग्रकुल (२) भोगकुल, (३) राजन्य कुल, (४) क्षत्रियकुल, (५) ह्रदवाकुकुल, (६) हरिवंश कुल. (७) गोष्ठकुल. (८) वैश्यकुल, (९) नापितकुल, (१०) वर्धकिकुल, (११) ग्रामरक्षककुल, (१२) तन्तुवायकुल, इन कुलों और इसी प्रकार के अन्य अनिन्दय एव प्रामाणिक कुलों में भी भिक्षा के लिये जा सकता है । सारांश यह है कि अनेक से थोड़ी २ ग्रहण की गई भिक्षा' को समुदान कहते हैं। तथा " भिक्षा ला कर दिखाना " इस में विनय सूचना के अतिरिक्त शास्त्रीय नियम का भी - पालन होता है । गोचरी करने वाले भिक्षु के लिये यह नियम है कि भिक्षा ला कर वह सब से प्रथम पूजनीय रात्निक रत्नाधिक ज्ञानदर्शन और चारित्र में श्रेष्ठ, अथवा साधुत्व प्राप्ति की अवस्था से बड़ा, दीक्षा वृद्ध । को दिखावे अन्य को नहीं । दूसरे शब्दों में साधु गृहस्थों से साधुकल्प के अनुसार चारों प्रकार का भोजन एकत्रित कर सर्व प्रथम रस्नार्षिक को ही दिखावं । यदि वह गुरु आदि से पूर्व ही किसी शिष्य आदि को दिखाता है तो उसको यातना लगती है । कारण कि ऐसा करना विनय-धम की अवहेलना करना है | आगमों में भी यहीं आता है। दयाश्रुतस्कन्म सूत्र में लिखा है - (१) स्थानांग आदि सूत्रों में निन् - साधु को नौ कोटियों से शुद्ध आहार ग्रहण करने का विधान लिखा है । नौ कोटियां निम्नोक्त हैं - (१) साधु आहार के लिये स्वयं जीनों की हिंसा न करे (२) दूसरे द्वारा हिंसा न करावे (३) हिंसा करते हुए का अनुमोदन न करे अर्थात् उस की प्रशंसा न करे, (४) आहार आदि स्वयं न पकावे, (५) दूसरे से न पकवावे (६) पकाते हुए अनुमोदन न करे (७) बाहार आदि स्वयं न खरीदे. (८) दूसरे को खरीदने के लिये न कहे, (९) खरीदते हुए किसी व्यक्ति का अनुमोदन न करे । ये समस्त कोटियां मन, वचन और काया रूप तीनों योगों से ग्रहण की होती हैं । (२) " आयः सम्यग्दर्शनाथच्चाप्तिलक्षणः तस्व शातना - खण्डना इत्याह--अर्थात् जिस क्रिया के करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का ह्रास अथवा भंग होता है उस को प्राशावना कहते हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो अक्रिया असभ्यता का नाम आशातना है - यह कहा जा सकता है । For Private And Personal Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra दूसरा अध्याय ] www.kobatirth.org हिन्दी भाषा टीका सहित । सेवा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पड़िगाहित्ता तं पुत्र्वमेव सेहतरागस्स उवदंसे पच्छा रायणियस्स आसायणा सेहम्स' | [ दशाश्रुत० ३ दशा, १५] अर्थात् शिष्य, अशन पान, खादिम और स्वादिम पदर्थों को लेकर गुरुजनों से पूर्व ही यदि शिष्य आदि को दिखाता है तो उस की श्राशातना लगती है । तथा हार दिखलाने के बाद फिर आलोचना करनी भी यावश्यक है । तात्पर्य यह है कि अमुक पदार्थ अमुक गृहस्थ के घर से प्राप्त किया अमुक गृहस्थ ने इस प्रकार भिक्षा दी अमुक मार्ग में अमुक पदार्थ का अवलोकन किया एवं अमुक दृश्य को देख कर अमुक प्रकार की विचार--धारा उत्पन्न हुई इत्यादि प्रकार की आलोचना भी सर्व प्रथम रत्नाधिक से ही करे अन्यथा आशातना लगती है जिस से सम्यग दर्शन में क्षति पहुंचने की सम्भावना रहती है इसी शास्त्रीय दृष्टि को सन्मुख रख कर गौतम स्वामी ने लाया हुआ आहार सर्व प्रथम भगवान् को ही दिखलाया तदनन्तर बन्दना नमस्कार कर के अपनी गोची यात्रा में उपस्थित हुआ सम्पूर्ण दृश्य उनके सन्मुख अपने शब्दों में उपस्थित किया । तदनन्तर जिज्ञासु भाव से गौतम स्वामी ने भगवान् के सन्मुख उपस्थित हो कर उस वव्य पुरुष के पूर्वभव के विषय में पूछा । (२) उज्जुप्पन्नो Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir यहां पर सन्देह होता है कि गौतम स्वामी स्वयं चतुर्दशपूर्व के ज्ञाता और चार ज्ञान --मति, श्रुल, और मनः पर्यव के धारक थे ऐसी अवस्था में उन्हों ने भगवान् से पूछने का क्यों यत्न कियाक्या वे उस व्यक्ति के पूर्वभव को स्वयं नहीं जान सकते थे ? इस विषय में आचार्य अभयदेवसूरि ने भगवती सूत्र श० १ उद्द े ० १ में स्वयं शंका उठा कर उस का जो समाधान किया है, उस का उल्लेख कर देना ही हमारे विचार में पर्याप्त है। आप लिखते हैं' - अथ कस्माद् भगवन्तं गौतमः पृच्छति । विरचितद्वादशाङ्गतया विदितसकलभतविषयत्वेन निखिलसंशयातीतत्वेन च सर्वज्ञकल्पत्वात्तस्य श्राह च - 66 संभवे साहजं वा परो उ पुच्छेज्जा । ण य णं णाइसेसी वियाणइ एस छउमत्थो ||१|| इति नेवम् उक्तगुणत्वेऽपि छस्थतयाऽनाभोगसंभवाद् यदाह - नहि नामाऽभोगः छद्मस्थस्येह कस्यचिन्नास्ति । यस्माद् ज्ञानावरणं ज्ञानावरणप्रकृति कर्म ॥१॥ इति, अथवा जानत एव तस्य प्रश्नः संभव ति, स्वकीयबोधसंवादनार्थम्, अज्ञलोकबोधनार्थम्, शिष्याणां वा स्ववचसि प्रत्ययोत्पादनाथम्, सत्ररचनाकल्प संपादनार्थञ्च ति - " । इन शब्दों का भावार्थ निम्नोक्त है - भवे ॥ ९० ॥ १३५ प्रश्न - गौतम स्वामी के सम्बन्ध में यह प्रसिद्ध है कि द्वादशांगी के रचयिता हैं, सकलभूतविषय के ज्ञाता है, निखिल संशयों से अतीत-रहित ( जिन के सम्पूर्ण संशय विनष्ट हो चुके ) हैं तथा जो (१) छाया - शैक्षोऽशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वा प्रतिगृश्य तत्पूर्वमेत्र शैक्षतरकस्योपदर्शयति पश्चाद रात्निकस्याथातना शैक्षस्य । गुरुसमासे जं जहा महि व्विग्गों, अवक्खितेय चैसा । आलोए ( दशनैकालिक सू० ० ५२०१ ।) (३) संख्यातीतांस्तु भवान् कथयति यद् परस्तु पृच्छेत् । न चानविशेषी विजानात्येष छद्मथः ॥eti For Private And Personal Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १३६ ] श्री विपाक सूत्र - [दूसरा अध्याय सर्वज्ञकल्प अर्थात् सव जानातीति सर्वज्ञः, विश्व के भूत् भविष्यत् और वर्तमान कालीन समस्त पदार्थों का यथावत् ज्ञान रखने वाला, के समान हैं । कहा भी है कि दूसरों के पूछने पर यह छद्मस्थ (सम्पूर्ण ज्ञान से वञ्चित ) गौतम स्वामी संख्यातीत भवों-जन्मों का कथन करने वाले और अतिशय ज्ञान वाले हैं. फिर उन्हों ने अर्थात् अनगार गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर स्वामी से यह प्रश्न - कि भदन्त ! यह व पुरुष पूर्वभव में कौन था ? आदि क्यों पूछा? सारांश यह है कि छद्मस्थ भगवान् गौतम जबकि दूसरों के पूछने पर संख्यातीत भवों का वर्णन करने वाले अथ च संशयातीत माने जाते हैं तो फिर उन्हों ने भगवान् के सन्मुख अपने संशय को समाधानार्थ क्यों रखा ? उत्तर - उपरोक्त प्रश्न का समाधान यह है कि शास्त्र में गौतम स्वामी के जितने गुण वर्णन किये गये हैं उन में वे सभी गुण विद्यमान हैं, वे सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता भी हैं और संशयातीत भी हैं। ये सब होने पर भी गौतम स्वामी अभी छद्मस्थ हैं. छद्मस्थ होने से उन में अपूर्णता का होना असंभव नहीं अर्थात् छद्मस्थ में ज्ञनातिशय होने पर भी न्यूनता कमी रहती ही है, इसलिये कहा है कि छद्मस्थ नाभोग (परिपूर्णता अथवा अनुपयोग नहीं है, यह बात नहीं है. तात्पर्य यह है कि छद्मस्थ का श्रात्मा विकास की उच्चतर भूमिका तक तो पहुँच जाता परन्तु वह श्रात्मविकास की पराकष्ठा को प्राप्त नहीं होता क्योंकि अभी उस में ज्ञान को श्रावृत करने वाले ज्ञानावरणीय कर्म की सत्ता विद्यमान है, जब तक ज्ञानावरणीय कर्म का समूल नाश नहीं होता, तब तक आत्मा में तद्गत शक्तियों का पूर्ण विकास नहीं होता इसलिये चतुर्विध ज्ञान सम्पन्न होने पर भी गौतम स्वामी में छद्मस्थ होने के कारण उपयोगशून्यता का श्रंश विद्यमान था जिस का केवली - सर्वज्ञ सर्वथा अभाव होता है । · एक बात और है कि यह नियम नहीं है कि अनजान ही प्रश्न करे जानकार न करे। जो जानता है। वह भी प्रश्न कर सकता है । कदाचित् गौतम स्वामी इन प्रश्नों का उत्तर जानते भी हों तब भी प्रश्न करना संभव है । आप कह सकते हैं कि जानी हुई बात को पूछने को क्या अवश्यकता है ? इस का उत्तर यह है कि उस बात पर अधिक प्रकाश डलवाने के लिये अपना बोध बढ़ाने के लिये, अथवा जिन लोगों को प्रश्न पूछना नहीं आता, या जिन्हें इस विषय में विपरीत धारणा हो रहो है उन के लाभ के लिये, उन्हें बोध कराने के लिये गोतम स्वामी ने यह प्रश्न पूछा है । भले ही गोतम स्वामी उस प्रश्न का समाधान करने में समर्थ होंगे तथापि भगवान् के मुखारविन्द से निकलने वाला प्रत्येक शब्द विशेष प्रभावशाली और • प्रमाणिक होता है, इस विचार से ही उन्हों ने भगवान के द्वारा इस प्रश्न का उत्तर चाहा है । . तात्पर्य यह है कि गौतम स्वामी ज ́ हुए ज्ञान में विशदता लाने के लिये, शिष्यों को ज्ञान लिये यह प्रश्न कर सकते हैं। भी अनजानों की वकालत करने के लिये, अपने देते के लिये और अपने वचन में प्रतीति उत्पन्न कराने अपने वचन में प्रतीति उत्पन्न कराने का अर्थ यह है -- मान लीजिये किसी महात्मा ने किसी जिज्ञासु को किसी प्रश्न का उत्तर दिया, लेकिन उस जिज्ञासु को यह संदेह उत्पन्न हुआ कि इस विषय में भगवान् न मालूम क्या कहते १ उस ने जा कर भगवान से वही प्रश्न पूछा । भगवान् ने भी वही उत्तर दिया। श्रोता को उन महात्मा के बचनों पर प्रतीति हुई । इस प्रकार अपने वचनों की दसरों को प्रतीति कराने के लिये भी स्वयं प्रश्न किया जा सकता है। ।। इसके अतिरिक्त सूत्र रचना का क्रम गुरु शिष्य के सम्वाद में होता है। अगर शिष्य नहीं होता तो. गुरु स्वयं शिष्य बनता है । इस तरह सुधर्मा स्वामी इस प्रणाली के अनुसार भी गौतम स्वामी और भगवान् , For Private And Personal Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [१३७ महावीर के प्रश्नोत्तर करा सकते हैं । अस्तु, निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि गौतम स्वामी ने उक्त कारणों में से किस कारण से प्रेरित हो कर प्रश्न किया था। __ श्री गौतम गणधर के उक्त प्रश्न का श्रमण भगवान् महावीर ने जो उत्तर दिया, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल--'एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेब जंबुद्दीवे दोवे भारहे वासे हथिणाउरे नाम नयरे होत्था, रिद्ध० । तत्थ णं हत्थिणाउरे णगरे सुणंदे णामं राया होत्था महया हि० । तत्थ णं हत्थिणाउरे नगरे बहुमझदेसभाए महं एगे गोमंडवे होत्था, अणेगखंभसयसंनिविटे, पासाइए ४, तत्थ णं वहवे णगरगोरुवा णं सणाहा य अणाहा य णगरगावीश्रो य णगरवलोवद्दा य णगरपड्डियाओ य णगरवसभा य पउरतणपाणिया निब्भया निरुवसग्गा सुहंसुहेणं परिवसंति । - पदार्थ-एवं खलु - इस प्रकार निश्चय ही । गोतमा !- हे गौतम ! । तेणं कालेणं-उस काल में । तेणं समरणं-उस समय में । इहेत्र-इसी । जंबुद्दीवे दीव-जम्बू द्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत । भारहे वासे- भारतवर्ष में । हत्थिाणाउरे-हस्तिनापुर । नाम-नामक । गरे-नगर । होत्था-था। रिद्ध०-अनेक विशाल भवनों से युक्त, भयरहित तथा धनधान्यादि से भरपूर था। तत्य णं हत्थिाणाउरे णगरे-उस हस्तिनापुर नगर में । सुणंदे - सुनन्द । णाम-नाम का । महया हि०-महाहिमवान् -हिमालय के समान महान राया-राजा । होत्था-था । तत्थ णं हथिणाउरे णगरे-उस हस्तिनापुर नगर के । बहुमज्भदेसभाए-लग भग मध्य प्रदेश में । एगे-एक । महंमहान । अणेगखभसयसंनिविठू-सैंकड़ों स्तम्भों से निर्माण को प्राप्त हुआ। पासाइए ४-मन प्रसन्न करने वाला, जिस को देखते २ आखें नहीं थकती थीं, जिसे एक बार देख लेने पर भी पुनदर्शन की लालसा बनी रहती थी, जिस की सुन्दरता दर्शक के लिये देख लेने पर भी नवीन ही प्रतिभासित होती थी। गामंडवे-गोमण्डप - गोशाला । होत्था--था । तत्थ णं-वहां पर । बहवे-अनेक । णगरगोरुवा-नगर के गाय बैल आदि चतुष्पाद पशु । णं-वाक्यालंकारार्थक है। सणाहा य-सनाथजिस का कोई स्वामी हो । अणाहा य-और अनाथ-जिस का कोई स्वामी न हो, पशु जैसे किणगरगावीओ य-नगर की गौयें । गरबलीवदा य-नगर के बैल । णगरपड्डियाओ य-नगर की छोटी गाय या भैंसें, पंजाबी भाषा में पड्डिका का अर्थ होता है--कट्टिये या बन्छियें । णगरवसभा-नगर के सांढ । पउरतणपाणिया-जिन्हे प्रचुर घास और पानी मिलता था। निब्भयाभय से रहित । निरुवसग्गा-उपसर्ग से रहित । सुहंसुहेणं-सुख -पूर्वक । परिवसंति-निवास करते थे । (१) छाया -एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे हस्तिनापुरं नाम नगरमभूत् ऋद्धः । तत्र हस्तिनापुरे नगरे सुनन्दो नाम राजा बभूव महा हि । तत्र हस्तिनापुरे नगरे बहुमध्यदेशभागेऽत्र महानेको गोमण्डपो बभूव । अनेकस्तम्भशत – सन्निविष्ट: प्रासादीयः ४। तत्र बह्वो नगरगोरूपाः सनाथाश्च अनाथाश्च नगरगव्यश्च नगरबलीवर्दाश्च नगरपडिकाश्च नगरवृषभाश्च प्रचुरतृणपानीयाः निर्भयाः निरुपसर्गाः सुखसुखेन परिवसंति । For Private And Personal Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १३८ श्री विपाक सूत्र [दूमरा अध्याय मूलार्थ -हे गौतम ! उस पुरुष के पूर्व-भव का वृत्तान्त इस प्रकार है-उस काल तथा उस समय में इमी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारत वर्ष में हस्तिनापुर नामक एक समृद्धिशाली नगर था । उस नगर में सुनन्द नाम का राजा था जो कि महाहिमवन्त -हिमालय पर्वत के समान पुरुषों में महान था । उस हस्तिनापुर नमक नगर के लगभग मध्य प्रदेश में सैकड़ों स्तम्भों से निर्मित प्रासादीय (मन में प्रसन्नता पैदा करने वाला , दर्शनोय (जिसे बारम्बार देखने पर भी आंखे न थकं), अभिरूप (एक बार देखने पर भी जिसे पुनः देखने की इच्छा बनी रहे) और प्रतिरूप (जब भी देखा जाय तब हो वहां नवीनता प्रतिभासित हो ) एक महान गोमंडप (गोश ला)था, वहां पर नगर के अनेक सनाथ और अनाथ पशु अर्थात् नागरिक गौएं, नागरिक बैल, नगर की छोटी २ बछडिये अथवा कट्रिएं एवं सांढ सुव पूर्वक रहते थे। उन को वहा घास और पानी आदि पर्याप्त रूप में मिलता, और वे भय तथा उपसगे आदि से रहित हो कर घूमते । टीका-श्री गौतम अनगार के पूछने पर वीर प्रभु बोले गौतम ! उस व्यक्ति के पूर्व भव का वृत्तान्त इस प्रकार है इस अवस पिणी काल का चौथा आरा बीत रहा था जब कि इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष नामक भूप्रदेश में हस्तिनापुर नाम का एक नगर था जो कि पूर्णतया समृद्ध था, अर्थात् उस नगर में बड़े २ गगन -चम्बो विशाल भवन थे, धन धान्यादि से सम्पन्न नागरिक लोग वहा निर्भय हो कर रहते थे, चोरी आदि का तथा अन्य प्रकार के आक्रमण का वहां सन्देह नहीं था तात्पर्य यह है कि वह नगरोचित गुणों से युक्त और पूर्णतया सुरक्षित था । उस नगर में महाराज सुनन्द राज्य किया करते थे। "-रिद्ध०-"यहां दिये गए बिन्दु से -रिद्धस्थिमियसमद्धि, पमुइयजणजाणवये, आइएण - जणमणुस्से-से लेकर- उत्ताणणयणपेच्छणिज्जे, पासाइए, दरिसणिज्जे, अभिरुवे, पडिरूवे- यहांतक के पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन पदों में प्रथम के-- परिस्थिमियसमिद्ध-पद की व्याख्या पृष्ठ ५२ पर की जा चुकी है शेष पदों की व्याख्या औपपातिक सूत्र में वर्णित चम्पानगरी के वर्णक प्रकरण में देखी जा सकती है । ___"-महयाहि०-" यहां की बिन्दु से -महयाहिमवतमहंतमलयम दरमहिंदसारे, अच्चंतविसुद्धदीहरायकुलवंससुप्पसूप णिरंतरं-से लेकर -मारिभयविप्पमुक्क, खेम', सिवं, सुभिक्ख, पर्सतडिम्बडमरं रज्जं पसासेमणे विहरति-यहां तक के पाठ को ग्रहण करने की सूचना सूत्रकार ने दी है। इन पदों की व्याख्या औपपातिक सूत्र के छठे सत्र में देखी जा सकती है। प्रस्तुत प्रकरण में जो सूत्रकार ने -महयाहिमवंतमहंतमलयम दरमहिंदसारे-इस सांकेतिक पद का आश्रयण किया है, उस की व्याख्या निम्नोक्त है महाराज सुनन्द महाहिमवान् (हिमालय) पर्वत के समान महान् थे और मलय (पर्वतविशेष) मंदर -मेरुपर्वत महेन्द्र (पर्वत विशेष अथवा इन्द्र) के समान प्रधानता को लिए हुए थे। उसी हस्तिनापुर के लगभग मध्य प्रदश में एक गोमंडप था, जिस में सैंकड़ों खंभे लगे हुए थे और वह देखने योग्य था । (१) ऋद्धं- भवनादिभिवृद्धिमुपगतम्, स्तिमितम्-भयवर्जितम्, समृद्धम् –धनादियुक्तमिति वृत्तिकारः । (२) महाहिमवदादयः पर्वतास्तद्वत् सारः प्रधानो यः स तथेति वृत्तिकारः । For Private And Personal Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय] हिन्दी भाषा टोका सहित । [१३९ उस में नगर के अनेक चतुष्पाद पशु रहते थे, उन को घास और पानी आदि वहां पर्याप्त रूप में मिलता था, वे निर्भय थे उनको वहां किसी प्रकार के भय या उपद्रव की आशंका नहीं थी, इस लिये वे सुखपूर्वक वहां पर घूमते रहते थे । उन में ऐसे पशु भी थे जिन का कोई मालिक नहीं था, और ऐसे भी थे कि जिन के मालिक विद्यमान थे । यदि उसको एक प्रकार की गोशाला या पशुशाला कहें तो समचित ही है। गोमंडप और उस में निवास करने वाले गाय, बलीवर्द, वृषभ तथा महिष आदि के वर्णन से मालूम होता है कि वहां के नागरिकों ने गोरक्षा और पशु- सेवा का बहत अच्छा प्रबन्ध कर रक्खा था । दूध देने वाले और बिना दूध के पशुओं के पालन पोषण का यथेष्ट प्रबन्ध करना मानव समाज के अन्य धार्मिक कर्तव्यों में से एक है । इस से वहां की प्रजा की प्रशस्त मनोवृत्ति का भी बखूबी पता चल जाता है । "-पासाइए ४'' यहां दिए गए चार के अंक से "- दरिसणिज्जे, अभिस्वे, पडिरूवे"इन तीन पदों का ग्रहण करना है । इन चारों पदों का भाव निम्नोक्त है "-प्रासादीयः-मनःप्रसन्नताजनकः, दर्शनीयः-यस्य दर्शने चक्षुषोः श्रान्तिनं भवति अभिरूपः-यस्य दर्शनं पुन: पुनरभिलषितं भवति, प्रतिरूपः-नवं नवमिव दृश्यमानं रूपं यस्य-" अर्थात् गोमण्डप देखने वाले के चित्त में प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला था, उसे देखने वाले की आंखे देख २ कर थकती नहीं थीं, एक बार उस गोमण्डप को देख लेने पर भी देखने वाले की इच्छा निरन्तर देखने की बनी रहती थी, वह गोमण्डप इतना अद्भुत बना हुआ था कि जब भी उसे देखो तब ही उस में देखने वाले को कुछ नवीनता प्रतिभासित होती थी । वलीवर्द का अर्थ है-खस्सी (नपुसक) किया हुआ बेल । पड्डिका छोटी गौ या छोटी भैंस को कहते हैं । वृषभ राब्द सांड का बोधक है । जिस का कोई स्वामी न हो वह अनाथ कहलाता है, और स्वामी वाले को सनाथ कहते हैं ।। प्रस्तुत सूत्र में "गरगोरुवा" इस पद से तो सामान्य रूप से सभी पशुओं का निर्देश किया. है और आगे के "णगरगाविओ' आदि पदों में उन सब का विशेष रूप से निर्देश किया गया है। अब सूत्रकार आगे का वर्णन करते हैं, जैसे किमूल-'तत्थ णं हथियाउरे नगरे भीमो नामं कूडग्गाहे होत्था २ अधम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे । तस्स णं भीमस्स कूडग्गाहस्स उप्पला नामं भरिया होत्था, अहीण । तते णं सा उप्पला कूडग्गाहिणी अण्णया कयाती आवरणसत्ता जाया यावि होता । तते वं तीसे उप्पलाए कूड़ग्गाहिणीए तिएहं मासाणं बहुडपुराणाणं अयमेयारूवे दाहले पाउब्भते। पदार्थ-तत्थ णं-उस । हथिणाउरे-हस्तिनापुर नामक । नगरे-नगर में । भीमेभीम । नाम-नामक । कूडग्गाहे-कूटग्राह-धोके से जीवों को फंसाने वाला । होत्था- रहता था। (१) छाया-तत्र हस्तिनापुरे नगरे भीमो नाम कूटग्राहो बभूव, अधार्मिको यावत् दुष्प्रत्यानन्दः । तस्य भीमस्य कूटग्राहस्य, उत्पला नाम भार्याऽभूत्, अहीनः । ततः सा उत्पला कूटप्राहिणी अन्यदा कदाचित आपन्नसत्त्वा जाता चाप्यभवत् । ततस्तस्या उत्पलाया: कूटप्राहिण्याः त्रिषु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु अयमेतदरूपः दोहद: प्रादुर्भूतः। (२) "अहम्मिए” त्ति धर्मेण चरति व्यवहरति वा धार्मिकस्तन्निषेधादधार्मिक इत्यर्थः । (३) "-अहीण-" अहीणपडिपुरणपंचेन्दियसरीरेत्यादि दृश्यमिति वृत्तिकारः। For Private And Personal Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [ दूसरा अध्याय १४० ] जो कि | धम्म - धर्मी । जाव - यावत् । दुप्पडियाणंदे- बड़ी कठिनता से प्रसन्न होने वाला था । तस्स णं - उस । भीमस्स - भीम नामक । कूडग्गाहस्स - कूटग्राह की । उप्पला - उत्पला । नाम- - नाम की । भारिया - भार्या । होत्या - थी जो कि । श्रहीण - अन्यून पंचेन्द्रिय शरीर वाली थी । तते गं - तदनन्तर । सा- वह । उप्पला -- उत्पला नामक कूटग्गाहिणी कूटग्राह की स्त्री । अरण्या - अन्यदा । कयाती - किलो समय । श्रावरणसत्ता - गर्भवती । जाया यावि होत्या - हो गई थी। तते गं - तदनन्तर । तीसे उस । उप्पलार - उत्पला नामक । कूडग्गाहिणीए - कूटग्राह की स्त्री को । बहुपडिपुराणं - परिपूर्ण - पूरे तिरहं मासाणं - तीन मास के पश्चात् अर्थात् तीन मास पूरे होने पर । मेरूवे - यह इस प्रकार का । दोहले दोहद - मनोरथ जोकि गर्भिणी स्त्रियों को गर्भ के अनुरूप उत्पन्न होता है । पाउब्भूते - उत्पन्न हुआ | मूलार्थ - उस हस्तिनापुर नगर में महान् अधर्मी यावत् कठिनाई से प्रसन्न होने वाला भीम नाम का एक कूटग्राह [ धोखे से जीवों को फंसाने वाला | रहता था उस की उत्पला नाम की स्त्री थी जो कि न्यून पंचेन्द्रिय शरीर वाला थी । किसी समय वह उत्पला गर्भवती हुई, लगभग तोनमास के पश्चात् उसे इस प्रकार का दोहद- गर्भिणी स्त्री का मनोरथ, उत्पन्न हुआ । टीका- - उस हस्तिनापुर नगर में भीम नाम का एक कूटग्राह रहता था जो कि बड़ा अधर्मी था । धोखे से जीवों को फंसाने वाले व्यक्ति को कूटग्राह कहते हैं [ कूटेन ( कपटेन) जीवान् गृराहातीति कूटग्राहः ] तथा धर्म का आचरण करने वाला धार्मिक और धर्माविरुद्ध आचरण करने वाला व्यक्ति अधार्मिक कहलाता है । " धम्मिए, जाव दुष्पडियाणंदे" यहां पठित " जाव" पद से निम्नलिखत पदों का भी ग्रहण समझ लेना 'अम्मा, अम्मिट्ठ े, अम्मलाई, अधम्मपलोई, अधम्मपलज्जणे, अधम्मसमुदाचारे अधम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणे, दुस्सोले, दुव्वए- - " । इन पदों की व्याख्या प्रथम अध्ययन के पृष्ठ ५५ पर को जा चुकी है। उस भीम नामक कूटग्राह की उत्पला नाम की भार्या थी जोकि रूप सम्पन्न तथा सर्वांगसम्पूर्ण थी। वह किसी समय गर्भवती हो गई, तीन मास पूरे होने पर उस को आगे कहा जाने वाला दोहद उत्पन्न हुआ । तीन मास के अनन्तर गर्भवती स्त्री को उस के गर्भ में रहे हुए जीव के लक्षणानुसार कुछ संकल्प उत्पन्न हुआ करते हैं जो दोहद या दोहला के नाम से व्यवहृत होते हैं। उन पर से गर्भ में आये हुए जीव के सौभाग्य या दौर्भाग्य का अनुमान किया जाता है । जिस प्रकृति का जीव गर्भ में आता है उसी के अनुसार माता को दोहद उत्पन्न हुआ करता है । ( १ ) " - अहम्मागुए" धर्मान् पापलोकान् अनुगच्छतीत्यधर्मानिगः " - अधम्मिट्ठेअतिशयेनाधर्मो - धर्मरहितोऽधर्मिष्टः । CC - अहम्मकबाई - "अधर्म भाषणशीलः अधार्मिकप्रसिद्धिको वा "हम्म पलोई” श्रधर्मानेव परसम्बन्धिदोषानेव प्रलोकयति प्रेक्षते इत्येवंशीलोऽधर्मप्रलोकी । " - अहम्मपलज्जणे - " अधर्म एव हिंसादौ प्ररज्यते अनुरागवान् भवतीत्यधर्मप्ररजनः ". - श्रहम्मसमुदाचारो - " अधर्मरूपः समुदाचारः समाचारो यस्य स धर्मसमुदाचारः । " - हम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणे – ” अधर्मेण पापकर्मणा वृत्ति जीविकां कल्पयमानः - कुर्वाणः तच्छीलः । “ – दुस्सीले - "दुष्टशीलः । " दु० वए" अविद्यमान नियम इति । - दुप्प डियाणंदे - " दुष्प्रत्यानन्दः बहुभिरपि सन्तोष कारणैरनुत्पद्यमान सन्तोष इत्यर्थः । ( वृत्तिकारः) । 64 For Private And Personal - 33 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अध्याय ? www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir हिन्दी भाषा टीका सहित । अब सूत्रकार आगे के सूत्र में उत्पला के दोहद का वर्णन करते हैं - मूल - १ धरणाओ गं ताओ अम्मा जाव सुद्ध जम्मजीवियफले, जाओ गं बहू नगरगोरूवाणं साहारा य जाव सभाण य ऊहेहिय थणेहि य वसोहि य छिपाहि कुहिय वहिय कन्नेहि य अच्छीहि य नासाहि य जिव्हाहि य ओहि य कंबलेहि मोल्लेहि लिहि य भज्जितेहि य परिसुक्के हि य लावणिएहि य सुरं च मधु च मेरगं च जाति च सीधु च पसरणं च आसाएमाणीश्रो विसाएमाणीओ परिभाएमाणीओ परिभुजेमाणीओ दोहलं विणोत, तं जड णं अहमव बहूणं नगर जाव विज्जामि, त्ति कट्ट तसि दाहलंसि अविणिज्जमारांसि सुक्खा भुक्खा निम्मंसा उलुग्गा उग्गसरीरा नित्तेया दीण-विमण वयणा पंडुल्लइयमुही मंथियनयणवयणकमला जहोइयं पुष्पवत्थगंधमल्लालंकारहारं अपरिभुजमाणी करयलमालय व कमलमाला श्रोहय० जाव झियाति । इमं च गं भीमे क्रूडग्गाहे जेणेव उप्पला कूडग्गाहिणी तेणेव उवा० २ ० जाव पासति २ ता एवं वयासी - किरणं तुमं देवाप्पिए ! श्रोहय० जाव झियासि ? तते णं सा उप्पला भारिया भीमं कूड़० एवं वयासी – एवं खलु देवाप्पि - या ! ममं तिरहं मासाणं बहुपडि पुराणं दोहले पाउन्भूते - धरणाओ गं ४ जाओ गं बहूणं गो० ऊहेहि य० लावणिएहि य सुरं च ५ सा० ४ दोहलं विणिति । तते गं हं देवा ! तंसि दोहलंसि श्रविणिज्जमारांसि जाव कियामि । तते गं से भीमे कूड़० उपलं भारि एवं वयामी - मागं तुमं देवाण ०! ओहय० जाव झियाहि, अह णं तं For Private And Personal [ १४१ (१) छाया - धन्यास्ताः अम्बाः यावत् सुलब्धं जन्मजीवितफलम्, या बहूनां नगरगोरूपाणां सनाथानां च यावत् वृषभाणां चोघोभिश्च स्तनैश्च वृषणैश्च पुच्छश्च ककुदैश्च वश्च कर्णैश्च श्रक्षिभिश्च नासाभिश्च जिव्हाभिश्च श्रष्ठैश्च कम्बलैश्च शूल्यैश्च तलितैश्च भ्रष्टश्च परिशुष्कैश्च लावणिकैश्च सुरां च मधु च मेरकं च जाति च सीधु च प्रसन्नां च आस्वादयन्त्यो विस्वादयन्त्यः परिभाजयन्त्यः परिभुजाना दोहदं विनयन्ति तद् यद्यहमपि बहूनां नगर० यावत् विनयामि, इति कृत्वा तस्मिन् दोहदेऽविनीयमाने शुष्का बुभुक्षा निर्मांसाऽवरुग्नावरुग्णशरीरा निस्तेजस्का दीनविमनोवदना पांडुरितमुखी श्रवमथितनयनवदनकमला यथोचितं पुष्पगन्धमाल्यालंकारहारम्परिभु जाना करतलमर्दितेव कमलमालाऽपहत० यावत् ध्यायति । इतश्च भीमः कूटग्राहो यंत्रेवोत्पला कूटग्राही तत्रैवोपा० २ अपहतः यावत् पश्यति, दृष्ट्वा एवमवदत् किं त्वं देवानुप्रिये ! अपहत० यावत् ध्यायसि १ ततः सा उत्पला भार्या भीमं कूटग्राहं एवमवादीत् एवं खलु देवानुप्रिय ! मम त्रिषु मामेषु बहुपरिपूर्णेषु दोहद: प्रादुर्भूतः, धन्याः ४ या बहूनां गो० ऊधोभिश्च० लावणिकैश्च सुरां च ५ स्वा० ४ दोहदं विनयन्ति । ततोऽहं देवानप्रिय ! तस्मिन् दोहदेऽविनीयमाने यावत् ध्यायामि । ततः स भीमः कूट० उत्पलां भार्यामेवमवदत् – मा त्वं देवानुप्रिये ! अपहृत ० यावत् ध्यासीः । श्रहं तत् तथा करिष्यामि तव दोहदस्य सम्प्राप्तिर्भविष्यति । ताभिरिष्टाभिर्यावत् समाश्वासयति । ブ यथा Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १४२] श्री विपाक सूत्र - [दूसरा अध्याय तहा करिस्मामि जहा णं तब दोहलस्स संपत्ती भविस्सइ । ताहि इटाहि जाव समासासेति । पदार्थ- ताओ वे । अम्मयात्रा-मातायें । धरणाओ-धन्य हैं । जाव-यावत् । सुलद्ध-उन्हों ने ही प्राप्त किया है । जम्मजीवियफले-जन्म और जीवन के फल को । -वाक्यालंकार में है। जाप्रोणं--जो । बहूणं-अनेक । सणाहाण य ५- सनाथ और अनाथ आदि । नगरगोरूवाणं-नागरिक पशुओं । जाव- यावत् । वसभाण य-वृषभों के । ऊहेहि य-ऊध-लेवा-वह थैली जिस में दूध भरा रहता हैं । थणेहि य-स्तन । वसणेहि य-वृषण-अंडकोष । छिप्पाहि यपुच्छ - पूछ । ककुहेहि य- ककुद - स्कन्ध का ऊपरी भाग। वहेहि य - स्कन्ध । कन्नेहि य-कर्ण। अच्छीहि य-नेत्र । नासाहि य- नासिका । जिव्हाहि य-जिव्हा । ओहहि य-श्रोष्ठ । कंबले. हि य-कम्बल-सास्ना- गाय के गले का चमड़ा । सोल्लेहि य-शूल्य-शूलाप्रोत मांस । तलितेहि य-तलित-तला हुआ । भज्जेहि य-भुना हुआ । परिसुक्केहि य-परिशुष्क-स्वत: सूखा हुअा। लार्वाणएहि य - लवण से संस्कृत मांस । सुरं च- सुरा । मधुच-मधु-पुष्पनिष्पन्न सुराविशेष । मेरगं च -मेरक- मद्य विशेष जो कि ताल फल से बनाई जाती है। जातिं च-मद्य विशेष जो कि जाति कुसुम के वर्ण के समान वर्ण वालो होती है । सोधुच-सीधु-मद्य विशेष जो कि गुड़ और धातकी के मेल से निर्माण की जाती है। पसरणं च-प्रसन्ना-मद्यविशेष जो कि द्राक्षा श्रादि से निष्पन्न होती है, इन सब का। आसाएमाणीओ-आस्वाद लेती हुई । विसाएमाणाओ-विशेष आस्वाद लेती हुई । परिभाएमाणीअो-दूसरों को देती हुई । परिभुजेमाणीओ- परिभोग करती हुई। दोहलं - दोहद - गर्भिणी स्त्री का मनोरथ, को । विणेति - पूर्ण करती हैं। तं जइ णं - सो यदि । अहमवि-मैं भी। बहूणं- अनेक । नगर०-नागरिक । जाव-यावत् । विणेज्जामि-अपने दोहद को पूर्ण करू । ति कठ्ठ - यह विचार कर । तंसि-उस । दोहलंसि - दोहद के । अविणिज्जमाणंसिपर्ण न होने से । सुक्खा -सूखने लगी । भुक्खा - बुभुक्षित के समान हो गई अर्थात् भोजन न करने से बल रहित हो कर भूखे व्यक्ति के समान दीखने लगी । निम्मंसा --मांस रहित अत्यन्त दुर्बल सी हो गई । उलग्गा-रोगिणी। उलुग्गसरीरा-रोगी के समान शिथिल शरीर वाली। नितेया-निस्तेज तेज से रहित । दीणविमणवयणा-दोन तथा चिंतातुर मुख वाली । पंडुल्लइयमुही-जिस का मुख पीला पड़ गया है । ओमंथियनयणवयणकमला - जिस के नेत्र तथा मुख कमल मुझ गया । जहोइयंयथोचित । पुष्क-वत्थगंधमल्लालंकारहारं-पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माल्य-फूलों की गुथी हुई माला, अलं. कार-आभूषण और हार का । अपरिभुजमाणी उपभोग न करने वाली । करयलमलिय व्व कम लमाला- कर -- तल से मर्दित कमल - माला की तरह । ओहय-कर्तव्य और अकर्तव्य के विवेक से रहित । जाव-यावत् । झियाति-चिन्ताग्रस्त हो रही है। इमं च णं- और इधर । भीमे कडग्गाहे.. भीम नामक कटग्राह । जेणेव-जहां पर । उप्पला-उत्पला नाम की। कूटग्गाहिणी-कटग्राहिणी कटग्राह की स्त्री थी । तेणेव वहीं पर । उवा० २-आता है, श्रा कर । श्रोहय० जाव -उसे सूखी हई. उत्साह रहित यावत् किंकतव्यविमूढ एवं चिन्ताग्रस्त । पासति-देखता है। रत्ता देना एवं वयासी-उसे इस प्रकार कहने लगा। देवाणुप्पिए !- हे भद्रे!। तुम-तुम । किराणं-क्यों । ओहय० जाव-इस तरह सूखी हुई यावत् चिन्ताग्रस्त हो रही हो । झियाति-अार्तध्यान में मग्न हो रही हो? । ततेणं- तदनन्तर। सा -वह । उप्पला भारिया-उत्पला भार्या - स्त्री । भीम-भीम नामक । कूड० - कटग्राह से । एवं-इस प्रकार । क्यासी-कहने लगी। देवाणुप्पिया! --हे महानुभाव ! । एवं खल. इस प्रकार निश्चय ही । ममं- मेरे को । तिएहं मासाणं-तीन मास के । बहुपडिपुराणाणं-परि For Private And Personal Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दुसरा अध्याय 1 हिन्दी भाषा टीका सहित । १४३ पूर्ण हो जाने पर । दोहले-यह दोहद । पाउन्भूते-उत्पन्न हुआ कि । धराणाप्रोणं ४-धन्य हैं वे मातार्य जाओ-जो । बहूणं गो०-अनेक चतुष्पाद पशुओं के । ऊहेहि य०-ऊधस आदि के, तया । लावणिपहि य लवणसंस्कृत मांस और । सुरं ५-सुरा आदि का । आसा४ –आस्वादन करती हुई । दोहलंदोद । विणिंति- पूर्ण करती हैं । तते णं - तदनन्तर । देवाणु० !-हे महानुभाव ! । तंसि-उस । दोहलंमि-दोहद के । अविणिज्जमाणंसि-पूर्ण न होने से । जाव-यावत् किं कर्तव्यविमूढ़ हुई मैं ! झियामि - चिन्तातुर हो रहो हूँ । तते णं-तदनन्तर । से - वह । भोमे -भीम नामक । कूड०कूटग्राह । उप्पलं भारियं-उत्पला भार्या को। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगा। देवाणु० !- हेसुभगे तुम-तू। मा णं-मत । श्रोहय० - हतोत्साह । जाव-यावत । झियाहि --चिन्तातुर हो । अहं णंमें। तं-उस का तहा-तथा-वैसे । करिस्सानि-यत्न करूगा। जहा णं-जैसे । तव - तुम्हारे दोहलस्स-दोहद की । संपत्ती-संप्राप्ति ---पूर्ति । भविस्सइ-हो जाय । ताहिं इठ्ठाहि-उन इष्ट वचनों से । जाव - यावत् । समासासेति-उसे आश्वासन देता है। मलार्थ-धन्य हैं वे मातायें यावत उन्हों ने ही जन्म तथा जीवन को भली भांति सफल किया है अथवा जीवन के फल को पाया है जो अनेक अनाथ या सनाथ नागरिक पशुओं यावत् वृषभों के ऊधस्, स्तन, वृषण, पुच्छ, ककुद, स्कन्ध, कर्ण, नेत्र, नासिका, जिव्हा, ओष्ठ तथा कम्बल-सास्ना जो कि शूल्य [शूला -प्रोत ], तलित (तलेहुए ), भृष्ट-भुनेहुए, शुष्क (स्वयं सूखे हुए] और लवण -- संस्कृत मांस के साथ सुरा, मधु, मेरक, जाति, सोधु और प्रसन्ना-इन मद्यों का सामान्य और विशेष रूप से प्रास्वादन, विस्वादन, परिभाजन तथा परिभोग करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं। काश! मैं भी भी उसी प्रकार अपने दोहद को पूर्ण करू । इस विचार के अनन्तर उस दोहद के पूर्ण न होने से वह उत्ग्ला नामक कूट ग्राह की स्त्रिी सूख गई - [ रुधिर क्षय के कारण शोषणता को प्राप्त हो गई ] बभुक्षित हो गई, मांसहित-अस्थि शेष हो गई, अर्थात मांस के सूख जाने से शरार को अस्थियें दीखने लग गइ शरीर शिथिल पड़ गया । तेज-कान्ति रहित हो गई। दीन तथा चिन्तातुर मुग्व वाली हो गई । बदन पीला पड गया । नेत्र तथा मुग्व मुर्भा गया, यथोचित पुष्प, वस्त्र, गन्ध माल्य, अलंकार और हार अदि का उपभोग न करती हुई करतल मर्दित पुष्प माला को तरह म्लान हइ उत्साह रहित यावत् चिन्ता--ग्रस्त हो कर विचार ही कर रही थी कि इतने में भीम नामक कूटप्राह जहां पर उत्पला कूटप्राहिणी थी वहां पर श्राया और आकर उसने यावत् चिन्ताग्रस्त उत्पला को देखा, देख कर कहने लगा कि हे भद्रे! तुम इस प्रकार शुष्क, निर्मास यावत हतोत्साह हो कर किस चिन्ता में निमग्न हो रही हो ? अर्थात ऐसी दशा होने का क्या कारण है ? तदनन्तर उस की उत्पला नामक भार्या ने उस से कहा कि स्वामिन् ! लग भग तोन मास पूर होने पर यह दोहद उत्पन्न हुआ कि वे मातायें धन्य हैं कि जो चतुष्पाद पशुओं के ऊधम् और स्तन आदि के लवण -संस्कृत मांस का सुरा आदि के साथ आस्वादनादि करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं। तदनन्तर हे नाथ ! उस दोहद के पूर्ण न होने पर शुष्क और निर्मास यावत् हतोत्साह हुई मैं सोच रही हूं अर्थात् मेरी इस दशा का कारण उक्त प्रकार से दोहद की अपति - पूर्ण न होना है। तब कूटग्राह भीम ने अपनी उत्पला भार्या से कहा कि भद्र ! तू चिन्ता मत कर मैं वही कुछ करूगा, जिस से कि तुम्हारे इस दोहद की For Private And Personal Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १४४] श्री विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय पूर्ति हो जाएगी । इस प्रकार के इष्ट-प्रिय वचनों से उसने उसे आश्वासन दिया । टीका-गत सूत्र पाठ में भीम नामक कूटग्राह को अधर्मी, पतित आचरण वाला और उसकी स्त्री उत्पला को सगर्भा - गर्भवती कहा गया है । अब प्रस्तुत सूत्र में उसके दोहद का घणन करते हैं। ___ उत्पला के गर्भ को लग भग तीन मास हो पूरे जाने पर उसे यह दोहद उत्पन्न हुआ कि वे मातायें धन्य हैं तथा उन्हों ने ही अपने जन्म और जीवन को सार्थक बनाया है जो सनाथ या अनाथ अनेकविध पशुओं जैसा कि नागरिक गौओं, बैलों, पड्डिकाओं और सांढों के ऊधस, स्तन, वृषण, पर ककुद, स्कन्ध.. कणं, अक्षि, नासिका, जिव्हा अोष्ठ तथा कम्बल-सास्ना आदि के मांस. जो शूलाप्रोत. तलित (तलेहए), भृष्ट, परिशुष्क और लावणिक-लवणसंस्कृत हैं - के साथ सुरा, मधु मेरक. जाति. सीधु और प्रसन्ना आदि विविध प्रकार के मद्य विशेषों का आस्वादन आदि करती ह अपने टोडट को पूर्ण करती हैं। यदि मैं भी इसी प्रकार नागरिक पशुत्रों के विविध प्रकार के शूल्य जिलाप्रोत) आदि मांसों के साथ सुरा आदि का सेवन करू तो बहुत अच्छा हो, दूसरे शब्दों में यदि मैं भी पूर्वोक्त आचरण करती हुई उन माताओं को पंक्ति में परिग णत हो जाऊ तो मेरे लिये यह बड़े ही सौभाग्य की बात होगी । सगर्भा स्त्री को गर्भ रहने के दूसरे या तीसरे महीने में गर्भगत जीव के भविष्य के अनुसार अच्छी या बुरी जो इच्छा उत्पन्न होती है, उस को अर्थात् गर्भिणो के मनोरथ को दोहद कहते हैं । अम्मयानो जाव सुलद्ध" इस में उल्लिखित " जाव-यावत् " पद से “ पुरणाओ णं कायो अम्मयाओ, कयत्थाओ णं ताश्रो अम्मयात्रा, तासिं णं अम्मयाणं सुलद्धे जम्मजीवियफले" ने मातायें पुण्यशाली हैं, कृतार्थ हैं, तथा शुभलक्षणों वाली हैं एवं उन माताओं ने ही जन्म और जीवन का फल प्राप्त किया है ) इन पाठों का ग्रहण करना ही सूत्रकार को अभीष्ट है । सणाहाण य जाव वसभाण - " यहां पठित "-जाव -यावत्-" पद से "-- अणायणुगर-गावीण य णगरवलीबहाणं य -” इत्यादि पदों का ग्रहण अभिमत है । इन पदों की व्याख्या पीछे कर दी गई है। यस्-गो आदि पशुओं के स्तनों के उपरी भाग को उधस कहते हैं, जहां कि दूध भरा रहता है। पंजाब प्रांत में उसे लेबा कहते हैं । स्तन-जिस उपांग के द्वारा बच्चों को दध पिलाया जाता है, उस उपांग विशेष की स्तन संज्ञा है । वृषण अण्ड-कोष का नाम है। पच्छ या पूछ प्रसिद्ध ही है । ककुद-बैल के कन्धे के कुब्बड को ककुद कहते हैं, तथा बैल के कन्धे का नाम वह है । कम्बल-गाय के गले में लटके हुए चमडे की कम्बल संज्ञा है इसी का दूसरा नाम सास्ना है । शूल पर पकाया हुअा मांस शूल्य तथा तेल घृत आदि में तले हुए को तलित, भने हुए को भृष्ट, अपने आप सूखे हुए को परिशुष्क और लवणादि से संस्कृत को लावणिक कहते हैं । सुरा-मदिरा, शराब का नाम है । मधु-शहद और पुष्पों से निर्मित मदिरा विशेष का नाम मधु है । मेरक-तालफल से निष्पन्न मदिरा विशेष को मेरक कहते हैं जाति-मालती पुष्य के वर्ण के समान वर्ण वाले मद्यविशेष की संज्ञा है । सीधु-गुड़ और धातकी के पुष्पों (धव के फूलों ) से निष्पन्न हुई मदिरा सीधु के नाम से प्रसिद्ध है। प्रसन्ना-दादा आदि द्रव्यों के संयोग से निष्पन्न की जाने वाली मदिरा प्रसन्ना कहलाती है। सारांश यह है कि -सुरा, मधु, मेरक, जाति, सीधु, और प्रसन्ना For Private And Personal Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हिन्दी भाषा टोका सहित । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय ] ये सब मदिरा के ही अवान्तर भेद हैं । यद्यपि मेर आदि शब्दों के और भी बहुत से अर्थ उपलब्ध होते हैं, परन्तु यहां पर प्रकरण के अनुसार इन का मद्यविशेष अर्थ ही ग्राह्य है। अतः उसी का निर्देश किया गया है। 1 “श्रासापमाणीश्रो” आदि पदों की व्याख्या टीकाकार इस तरह करते हैं - [१४५ "आसाएमाणीउ” त्ति ईषत् स्वादयन्त्यो बहु च त्यजन्त्य इक्षुखंडादेखि | "विसाएमाणी " ति विशेषेण स्वादयन्त्योऽल्पमेव त्यजन्त्यः खजूरादेरिव । “परिभापमापीउ" त्ति ददत्यः । “परिभुजेमाणी" ति सर्वमुपभुजाना अल्पमप्यपरित्यजन्त्यः ” अर्थात् इक्षुखण्ड (गन्ना) की भांति थोड़ा सा श्रास्वादन तथा बहुत सा भाग त्यागती हुई, तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार इक्षुखण्ड गन्ने को चूस कर रस का आस्वाद लेकर शेष – [रस की अपेक्षा अधिक भाग को फैंक दिया जाता है ठीक उसी प्रकार पूर्वोक्त पदार्थों को [जिन का अल्पांश ग्राह्य और बहु - अंश त्याज्य होता है ] सेवन करती हुईं, तथा खजूर - खजूर की भांति विशेष भाग का आस्वादन और स्वादन न कर दूसरों को भी वितीर्ण करती - बांटती भाग को छोड़ती हुई, तथा मात्र स्वयं ही आहुई और सम्पूर्ण का ही आस्वादन करती हुई दोहद पूर्ण कर रही 1 प्रस्तुत सूत्र में उत्पला के दोहद का वर्णन किया गया है, उत्पला चाहती है कि मैं भी पुण्यशालिनी माताओं की तरह अपने दोहद को पूर्ण करू ं, किन्तु ऐसा न होने से वह चिन्ताग्रस्त हो कर सूखने लगी और उस का शरीर मांस के सूखने से अस्थिपञ्जर सा हो गया । तथा वह सर्वथा मुझ गई । प्रस्तुत सूत्र पाठ में - सुक्खा-शुष्का – ” आदि सभी पद उस के विशेषण रूप में निर्दिष्ट हुए हैं। उन की व्याख्या इस प्रकार है 66 1 १" - शुष्का – ११ रुधिरादि के क्षय हो जाने के कारण उस का शरीर सूख गया । २ बुभुक्षाभोजन न करने से बलहीन हो कर बुभुक्षिता सी रहती है । ३ निर्मासा - भोजनादि के प्रभाव से शरीरगत मांस सूख गया है । ४ अवरुग्णा - उदास – इक्छाओं के भग्न हो जाने से उदास सी रहती है। ५ रुग्ण शरीरा - निर्बल अथवा रुग्न शरीर वालो | ६ निस्तेजस्का - तेज - कांति रहित । ७ दोनविमनो- वदना' - शोकातुर अथच चिन्ताग्रस्त मुख वाली। यहां - दीना चासौ विमनोवदना च"ऐसा विग्रह किया जाता है । किसी २ प्रति में " - दीपविमण हीणा -" ऐसा पठान्तर मिलता हैं। टीकाकार इस विशेषण की निम्नोक्त व्याख्या करते हैं “ - दीना दैन्यवती, विमनाः शून्यचित्ता होणा च भीतेति कम धारयः - " अर्थात् बह दोनता, मानसिक अस्थिरता तथा भय से व्याप्त थी । ८ " पांडुरितनु वो" उस का मुख पीला पड़ गया था । ९ “ – श्रवमथित - नयन- वदन- कमला- " जिस के नेत्र तथा मुखरूप कमल मुर्झाया हुआ था। टीकाकर ने इस पद की व्याख्या इस प्रकार की है For Private And Personal ८८ “ - श्रधोमुखी कृतानि नयनवदनरूपाणि कमलानि यया सा तथा " अर्थात् जिस ने कमलसदृश नयन तथा मुख नीचे की ओर किये हुए हैं । इसी लिये वह यथोचित रूप से पुष्प, वस्त्र, गंध, माल्य [ फूलों की माला ] अलंकार - भूषण तथा हार आदि का उपभोग नहीं कर रही थी । तात्पर्य यह है कि दोहद की पूर्ति के न होने से उस ने शरीर का शृङ्गार करना भी छोड़ दिया था, और वह करतल मर्दित - हाथ के मध्य में रख कर हथेली से मसली गई कमल माला को भांति शोभा रहित, उदासीन और किंकर्तव्यविमूढ़ सी हो कर उत्साहशून्य एवं चिन्तातुर हो रही थी । (१) विमनस इव विगतचेतस इव वदनं यस्याः सेति भावः । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १४६] श्रो विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय "ओहय० जाव झियाति" इस वाक्य गत -जाव-यावत्-" पद से ---"- श्रोहयमणसंकप्पा " [ जिस के मानसिक संकल्प विफल हो गये हैं ] " करतलपल्हत्थमुही "[ जिस का मुख हाथ पर स्थापित हो ] अट्टज्माणोवगया- [आर्तध्यान को प्राप्त १ ] इस पाठ का ग्रहण करना चाहिए । इस का सारांश यह है कि - उत्पला अपने दोहद की पूर्ति न होने पर बहुत दुःखी हुई। अधिक क्या कहें प्रतिक्षण उदास रहती हुई आर्तध्यान करने लगी। __एक दिन उत्पला के पति भीम नामक कूटग्राह उस के पास आये, उदासीन तथा आर्त ध्यान में व्यस्त हुई उत्पला को देख कर प्रेमपूर्वक बोले-देवि ! तुम इतनी उदास क्यों हो रही हो ? तुम्हारा शरीर इतना कृश क्यों हो गया ? तुम्हारे शरीर पर तो मांस दिखाई ही नहीं देता, यह क्या हुआ ? तुम्हारी इस चिन्ता-- जनक अवस्था का कारण क्या है । इत्यादि । पतिदेव के सान्त्वना भरे शब्दों को सुन कर उत्पला बोली, महाराज ! भेरे गर्भ को लग भग तीन मास पूरे हो जाने पर मुझे एक दोहद उत्पन्न हुअा है, उस की पूर्ति न होने से मेरी यह दशा हुई है । उसने अपने दोहद की ऊपर वर्णित सारी कथा कह सुनाई । उत्पला की बात को सुनकर भीम कूटग्राह ने उसे आश्वासन देते हुए कहा कि भद्र! तू चिन्ता न कर, मैं ऐसा यत्न अवश्य करूंगा, कि जिस से तुम्हारे दोहद की पूर्ति भली भांति हो सकेगी । इस लिये तू अब सारी उदासीनता को त्याग दे । "ओहय० जाव पासति"-"श्रोहय० जाव झियासि" "गो० सुरं च ५ आसाप०४" और "अविणिज्जमाणंसि जाव झियाहि" इत्यादि स्थलों में पठित ...-जाव -यावत्-" पद से तथा बिन्दु और अंकों के संकेत से प्रकृत अध्ययन में ही उल्लिखित सम्पूर्ण पाठ का स्मरण कराना सूत्रकार को अभीष्ट है । ___ "इट्ठाहिं जाव समासासेति' वास्य के "-जाव-यावत्-" पद से "कंताहि, पियाहिं, मणुन्नाहिं मणामाहि” इन पदों का ग्रहण करना । ये सब पद समानार्थक हैं । सारांश यह है कि- नितांत उदास हुई उत्पला को सान्त्वना देते हुए भीम ने बड़े कोमल शब्दों में यह पूर्ण अाशा दिलाई कि मैं तुम्हारे इस दोहद को पूर्ण करने का भरसक प्रयत्न करूंगा । अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में उत्पला के दोहद की पूर्ति का वर्णन करते हैं - मूल :-तते णं से भीमे कूड० अड्ढरत्तकालसमयंसि एगे अवीए सरणद्ध ० (१) प्राति नाम दु:ख या पीड़ा का है, उस में जो उत्पन्न हो उसे आर्त कहते हैं, अर्थात् जिस में दु:ख का चिन्तन हो उस का नाम आर्तव्यान है। वार्तध्यान के भेदोपभेदों का ज्ञान अन्यत्र करें । (२) छाया-तत: स भीमः कूटग्राहोऽर्द्धरात्रकालसमये एकोऽद्वितीयः संनद्ध० यावत् प्रहरण: स्वस्माद गृहान्निर्गच्छति, निर्गत्य हस्तिनापुर मध्यमध्येन यत्रैव गोमंडपस्तत्रैवोपागतः, उपागत्य बहूनां नगरगोरूपाणां यावद् वृषभाणां चाप्येकेषां ऊधांसि छिनत्ति, यावद् अप्येकेषां कम्बलान् छिनत्ति, अप्येकेषामन्यान्यान्यङ्गोपांगानि विकृन्तति, विकृत्य यत्रैव स्वकं गृहं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य उत्पलाय कटग्राहिण्य उपनयति । ततः सा उत्पला भार्या तैर्बहुभिर्गोमांसैः शूल्यैः यावत् सुरां च ५ श्रास्वा० ४ तं दोहदं विनयति । ततः सा उत्पला कूटग्राही सम्पूर्णदोहदा, संमानितदोहदा, विनीतदोहदा, व्युच्छिन्नदोहदा, सम्पन्नदोहदा, तं गर्भ सुखसुखेन परिवहति । For Private And Personal Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [१४७ जाव' पहरणे मयाओ गिहारो निग्गच्छति २ हस्थिणाउरं मझमज्झणं जेणेव गोमंडवे तेणेव उवागते २ वहूणं ण गरगारूवाणं जाव वसभाण य अप्पेगइयाणं ऊहे छिंदति जाव अप्पेगइयाणं कंचलए छिदति, अप्पेगइयाणं अण्णमण्णाई अंगोवंगाई वियंगेति २ जेणेत्र सए गिहे तेणेव उवागच्छति २ उप्पलाए कूडग्गाहिणीए उवणे ति । तते णं सा उप्पला भारिया तेहिं बहूहिं गोमंसेहिं सोल्लेहि जाव सुरं च ५ आसा०४ तं दोहलं विणेति । तते णं सा उप्पला कूडग्गाही संपुगणदोहला संमाणियदोहला विणीयदोहला वोच्छिएणदोहला संपन्नदोहला तं गम्भं सुसुहेणं परिवहति । पदार्थ - तते णं - तदनन्तर । से- वह । भीमे कूड़-भीम कूटयाह । अड्ढरत्तकालसमयंसि - अद्धरात्रि के समय । एगे-अकेला । अबीए-जिस के साथ दूसरा कोई नहीं। सरणद्ध०दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसलक आदि से युक्त कवच को धारण किये । -यावत् । पहरणे- आयुध और प्रहरण ले कर । सपाओ-अपने । गिहारो - घर से । निग्गच्छति २-निकलता है, निकल कर । हथिणारं-हस्तिनापुर नामक नगर के । मज्मंमज्झेणं-मध्य में से होता हुआ । जेणे-जहां । गोमंडवे -गोमंडप-गोशाला, था। तेणेववहां पर । उवागते २-आता है आकर । बहुएं -अनेक । णगरगोरूवाणं-नागरिक पशुओं के । जाब-यावत् । वसभाप य-वृषभों के मध्य में से । अगत्याणं-कई एक के ।। ऊहे-ऊवस को । छिदति-काटता है । जाब-यावत् । अप्पेगयाणं- कइ एक के। केवलर-कम्बल-सास्ना को । छिंदति-काटता है । अप्पेगइयाणं-कई एक के । अण्ण प्राणाई-अन्यान्य । अंगोवंगाईअगोपांगों को । वियंगेति २- काटता है काट कर । जेणेव जहां पर । सर गेहे-अपना घर था । तेणेव-वहीं पर । उवागच्छति २- आता है, अाकर । कूड़ागाहिणीर-कटग्राहिणी। उप्प लारउत्पला को। उवणेति-- दे देता है । तते णं-तदनन्तर । सा उप्पला भारिया-वह उत्पला भार्या । तेहिं-उन । बहुहि-नाना प्रकार के । जाव -यावत् । सोल्तेहि-शू नाप्रोत । गोमं सेहि-गौ के मांसों के साथ । सुरं च ५ -सुरा प्रभृति मद्य विशेगों का । आता. ४-प्रास्वादन आदि करती हुई । तं दोहदं-उस दोहद को । धिणेति - पूर्ण करती है। तो णं-तदनन्तर । संपुगण होहला - सम्पूर्ण दोहद वाली । संमाणियदोहला-सम्मानित दोहद वाली । विणोयदोहला--विनीत दोहद वाली । वोच्छिन्नदाहला -व्युच्छिन्न दोहद वाली। संपन्नदोहला-सम्पन्न दोहद वाली । सा उप्पला कूडग्गाही-- वह उत्पला कूटग्राही । तं गब्भं - उस गर्भ को । सुहंसुहेणं- सुख पूर्वक । परिवहति-धारण करती है । . मूलाथे-तदनन्तर भीम कुटग्राह अद्धरात्रि के समय अकेला ही दृढ बन्धनों से बद्ध और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को धारण कर आयुध और प्रहरण लेकर घर से निकला और हस्तिनापुर नगर के मध्य में से होता हुआ जहां पर गोमण्डर था वहां पर आया आकर अनेक नागरिक पशुओं यावत् वृषभों में से कई एक के ऊवस यावत् कई एक के कम्बल-सास्ना आदि एवं कई एक के अन्यान्य अंगोपांगो को काटता है, काट कर अपने घर आता है, और आकर अपनी उत्सला भार्या को दे देता (१) "-जाव-यावत्-" पद से-सन्नद्ध -बद्ध-वम्मिय-कबए, उपालियसरासणपाट्टए पिणद्ध -गेविज्जे, विमलवरबद्धचिंधपट्ट, गहियाउहयहरणे, इन पदों का ग्रहण समझना । इन की व्याख्या इसी अध्ययन के पृष्ठ १२८ अादि पर की जा चुकी है । For Private And Personal Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १४८] श्री विपाक सूत्र - [ दूसरा अध्याय है । तदनन्तर वह उत्पला उन अनेकविध शूल्य ( शूजा - प्रोन) आदि गामांसों के साथ सुरा आदि को आस्वादन प्रस्वादन आदि करती हुई अपने दोहद को पूर्ति करती है इस भांति सम्पूर्ण दोहद वाली, सम्मानित दोहद वाली, विनीत दोहद वाली, व्यांच्छन्न दोहद वाली, और सम्पन्न दोहद वाली वह उत्पला कूटग्राही उस गर्भ को सुख पूर्वक धारण करती है । टीका - उत्पला को अपने पति देव की तर्फ से दोहद - पूर्ति का श्राश्वासन मिला जिस से उसके हृदय को कुछ सान्त्वना मिली, यह गत सूत्र में वर्णन किया जा चुका है । 1 उत्पला को दोहदपूर्ति का वचन दे कर भीम वहां से चल दिया, एकांत में बैठकर उत्पला की दोहद-पूर्ति के लिये क्या उपाय करना चाहिये १ इस का उसने निश्चय किया । तदनुसार मध्यरात्रि के समय जब कि चारों तर्फ सन्नाटा छाया हुआ था, और रात्रि देवी के प्रभाव से चारों ओर अन्धकार छाया हुआ था, एवं नगर की सारी जनता निस्तब्ध हो कर निद्रादेवी की गोद में विश्राम कर रही थी, भीम अपने बिस्तर से उठा और एक वीर सैनिक की भांति अस्त्र शस्त्रों से लैस हो कर हस्तिनापुर के उस गोमंडप में पहुंचा, जिस का कि ऊपर वर्णन किया गया है। वहां पहुँच कर उसने पशुओं के ऊधस् तथा अन्य अंगोपांगों का मांस काटा और उसे लेकर सीधा घर की ओर प्रस्थित हुआ, घर में आकर उसने वह सब मांस अपनी स्त्री उत्पला को दे दिया । उत्पला ने भी उसे पका कर सुरा आदि के साथ उसका यथारुचि व्यवहार किया अर्थात् कुछ खाया, कुछ बांटा और कुछ का अन्य प्रकार से उपयोग किया । उस से उस के दोहद की यथेच्छ पूर्ति हुई तथा वह प्रसन्न चित्त से गर्भ का उद्वहन करने लगी । सूत्रगत "एगे" और "अबीर" ये दोनों पद समानार्थक से हैं, परन्तु टीकार महानुभाव भावार्थ एकाकी - सहायक से रहित और "अबीए" इस पद का धर्मरूप सहायक से शून्य, यह अर्थ किया है [ "एगे” सि सहायताभावात् । "अबीए" त्ति धर्म रूपसहायाभावात् ] तथा "सरणद्ध० जाव पहरणे" और "गोरुवाणं जाव वसभाण" एवं "छिंदति जाव अप्पेगइयाणं - " इन स्थलों का “ - जाव यावत् -' पद प्रकृत द्वितीय अध्ययनं में ही पीछे पढ़े गये सूत्रपाठों का स्मारक है । पाठक वहीं से देख सकते है । उत्पला अपने मनोभिलषित पदार्थों को प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुई । उस के दोहद की यथेच्छ पूर्ति हो जाने उसे असीम हर्ष हुआ । इसी से वह उत्तरोत्तर गर्भ को आनन्द पूर्वक धारण करने लगी । सूत्रकार ने भी उत्पला की आंतरिक अभिलाषापूर्ति के सूचक उपयुक्त शब्दों का उल्लेख करके उस का समर्थन किया है । तथा उत्पला के विषय में जो विशेषण दिये हैं उनमें टीकाकार ने निम्नलिखित अन्तर दिखाया है "एगे" का "" ".. संपुराणदोहल ति - " समस्त - बांछितार्थ - पूरणात् । " सम्माणियदोहल त्ति" वांछितार्थसमानयनात् । “विणीयदोहल ति” वाञ्छाविनयनात् । " विद्दिन्नदोहल त्ति" विवक्षितार्थ – वांछानुत्रन्धविच्छेदात् । "संपन्नदोहल त्ति" विवक्षितार्थभोगसंपाद्यानन्दप्राप्तेरिति, अर्थात् उत्पला कूटग्राहिणी को समस्त वांछित पदार्थों के पूर्ण होने के कारण सम्पूर्ण पोहदा, इच्छित पदार्थों के समानयन के कारण सम्मानितदोहदा, इच्छा - विनयन के कारण विनीतदोहदा, विवक्षितपदार्थों की वांछा के अनुबन्ध-विच्छेद ( परम्परा - विच्छेद) के कारण व्युच्छिन्नदोहदा, तथा इच्छित पदार्थों के भोग उपलब्ध कर सानन्द होने के कारण सम्पन्नदोहदा कहा गया है। 1 For Private And Personal Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [१४९ अब सूत्रकार उत्पला के गर्भ की स्थिति पूरी होने के बाद के वृत्तान्त का वण न करते हैं - मूल--' तते णं सा उप्पला कूड़० अण्णया कयाती णवण्हं मामाणं पहुपडि पुण्णाण दारगं पयाता । तते णं तेणं दारएणं जायमेचणं चेव महया सद्दे णं विग्घु? विस्सरे आरसिते । तते णं तस्स दारगस्स प्रारसियस सोच्चा निसम्म हथियाउरे नगरे बहवे नगरगोरूबा जाव वसभा य भीया ४ उव्विग्गा सवो समंता विप्पलाइत्था। तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरे एयारूवं नामधेज्ज करेंति, जम्हा णं इमेणं दारएणं जायमेत्तणं चेव महया २ सद्दे णं विग्घु विस्सरे प्रारसिते । तते णं एयस्स दारगस्स आरसितसद्द सोच्चा निसम्म हस्थिणाउरे णगरे बहवे नगरगोरूवा य जाव भीया ४ सव्वतो समंता विप्पलाइत्था, तम्हा णं होउ अम्हं दारए गोत्तासए नामेणं । तते णं से गोत्तासे दारए उम्मुक्कबालभावे जाव जाते यावि होत्था । तते णं से भीमे कूडग्गाहे अएणया कयाती कालधम्मुणा संजुत्ते । तते णं से गोत्तासे दारए वहणं मित्तणाइनियगसयणसंबंधिपरिजणेणं सद्धि संपरिबुडे रोप्रमाणे कंदमाणे विलवमाणे भोमस्स कूडग्गाहस्स नीहरणं करेति, करेत्ता बहूई लोइयमयकिच्चाई करोति । (१) छाया-ततः सा उत्पला कट० अन्यदा कदाचित् नवसु मासेसु बहुपरिपूर्णेषु दारक प्रजाता ततस्तेन दारकेण जातमात्रेणैव महता शब्देन 'विधुष्ट विस्वरमारसितम्। तत एतस्य दारकस्य श्रारसितशब्दं श्रुत्वा निशम्य हस्तिनापुरे. नगरे बहवो नगरगोरूपाश्च यावत् भीताः ४ उद्विग्ना सर्वतः समन्तात् विपलायांचक्रिरे, ततस्तस्य दारकस्याम्बापितरौ इदमेतद्रूपं नामधेयं कुरुतः, यस्माद् आवयोरनेन दारकेण जातमात्रेणेव महता २ शब्देन विघष्टं विस्वरमारसितम् , तत एतस्य दारकस्यारसितशब्दं श्रुत्वा निशम्य हस्तिनापुरे नगरे बहवो नगरगोरूपाश्च यावत् भीताः ४ सर्वतः समन्तात् विपलायां चक्रिरे, तस्माद् भवत्ववयोर्दारको गोत्रासो नाम्ना । ततः स गोत्रासो दारक: उन्मुक्तवालभावो यावत् जातश्चाप्यभवत् । तत: स भीमः कटग्राहोऽन्यदा कदावित् काल धर्मेण संयुक्तः । ततः स गोत्रासो दारको बहुना *मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धिपरिजनेन साई संपरिवृतो रुदन कन्दन विपलन भीमस्य कटग्राहस्य नीहरणं करोति । नीहरणं कृत्वा बहूनि लौकिक- मृतकृत्यानि करोति । (२) टीकाकार श्री अभयदेविसूरि "..--महया २ सइणं विग्घुढे विस्सरे प्रारसिते-" इस पाठ के स्थान पर --महया २ विग्घुढे चिच्चीसरे प्रारसिते --" ऐसा पाठ मानते हैं । इस पाठ की न्याख्या करते हुए वे लिखते हैं "-महया २ चिच्चो प्रारसिर -" महता महता चिच्चीत्येवं चीत्कारे णेत्यर्थः । “प्रारसिय" त्ति प्रारसितमारटितमित्यर्थः । अर्थात - उस बालक ने "चिच्ची" इत्वात्मक चीत्कार के द्वारा महान् शब्द किया । (१) विघुष्टं-चीत्कृतम् , विस्वर-कर्णकटुस्वरयुक्तम् , पारसितम्--कन्दितमिति भावः। (२) मित्र, शाति आदि शब्दों को व्याख्या निम्नोक्त श्लोकों में वर्णित की गई है, जैसे किमिसयेगरूवं हियमुदिसइ पियं च वितणोइ । तुल्लायारवियारी सजाइवग्गी य सम्मया साई ।। For Private And Personal Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १५० श्री विपाक सूत्र | दूसरा अध्याय पदार्थ - तते जं- तदनन्तर । सा-उस । उप्पला - उत्पला नामक | कूड़० - कूटग्राहिणी ने । रया कयाती- - अन्य किसी समय | नवराहं मासाणं - नव मास । पडिपुराणाणं - पूरे हो जाने घर । दारगं- बालक को । पयाता - जन्म दिया । तते गं - तत्पश्चात् / जायमेोणं चेव - जन्म लेते ही । तेणं दारपणं - उस बालक ने । महया - महान | सण - शब्द से / या लिते - भयंकर आवाज़ की जो कि । विग्घुट्ठ े - चीत्कारपूर्ण एवं । बिस्सरे - कर्णकटु थी । तते गं - - तदनन्तर । रसियस - आरसित शब्द - चिल्लाहट को । साच्चा हत्यिणा उरे - हस्तिनापुर नामक । खगरे- - नगर में । जाब- यावत् । वसभा य - वृषभ । 'भीया ४समंता - चारों ओर । विप्पलाइत्था - भागने लगे । । सम्मापियरो - माता पिता, उस का । श्रयमे के Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तरस - उस | दारगरस -बालक का । सुन कर तथा । जिसम्म - अवधारण कर बहवे – अनेक । रागरगोरुवा - नागरिक पशु । भयभीत हुए । उव्विगा उद्विग्न हुए । सव्व तते ण -- तदनन्तर । तरस दारगस्स - उस बालक यारूवं - इस प्रकार का । नामधेज्जं नाम । करेति रखने लगे । जम्हा - जिस कारण । श्रहं - हमारे । जायमेत्तण' –- जन्म लेते । चेव ही । इमेण इस । दारपण - बालक ने । महया २ - - - महान । सदे - शब्द | आरसिते - भयानक आवाज़ की जो कि । विग्घुट्ठ े - चीत्कार पूर्ण थी और । विस्सरे कानों को कटु लगने वाली थी । तते गं - तदनन्तर । एयस्स- इस । दारगस्स - बालक के । रसितस - चिल्लाहट के शब्द को । सोब्चा सुन कर तथा । सिम्म - अवधारण कर । हत्थाउरे - हस्तिनापुर । गगरे - नगर में । बहवे - अनेक | गगरनोरूवा य - नागरिक पशु । जावयावत् । भोपा ४ - भयमीत हुए। सञ्प्रो समता - चारों तर्फ । विप्पल इत्था - भागने लगे । तम्हा गं - इस लिये । श्रहं - हमारा । दारए - यह बालक । गोत्तासर - गोत्रास, इस । नामेणंनाम से । होउ - हो । तते णं - तत् पश्चात् । से - वह । गात्ताले गोत्रास नामक । दाए-बालक । उम्मुकबालभात्रे - बालभाव को त्याग कर । जात्र - यावत् । जाते यावि होत्या – युवावस्था को प्राप्त 1 पतच्छाया माया पिउ-पुताई, यिगो सो पिउभायाई । सम्बन्धी ससुराई, दासाई परिजणो ओ | २ | मित्रं सदैकरूपं हितमुपदिशति प्रियं च वितनोति । तुल्याचारविचारी, स्वजातिवर्गश्च सम्मता ज्ञातिः || १ || माता- पितृ पुत्रादिनिजकः स्वजन: पितृव्यभ्रात्रादिः । सम्बन्धी श्वशुरादिदसादिः परिजनो ज्ञेयः || २ || अर्थात् मित्र सदा एक रूप रहता है, उस के मानस में कभी अन्तर नहीं आने पाता, वह हितकारी उपदेश करता है, प्रीति को बढ़ाता है । समान विचार और आचार वालों को ज्ञाति कहते हैं । माता पिता ओर पुत्र आदि निजक कहलाते हैं । पितृव्य - चाचा और भ्राता आदि को स्वजन कहते हैं । श्वशुर आदि को सम्बन्धी कहा जाता है और दास दासी आदि को परिजन कहा जाता है । (१) “ – भीया - " यहां दिया गया ४ का अंक " - तत्था, उञ्चिग्गा, संजायमया -" इन तीन पदों का संसूचक है । भीत श्रादि पदों का अर्थ निम्नोक्त है - "" - भीता - भययुक्ताः भयजनक शब्दश्रवणद्, त्रस्ताः - त्रासमुपगताः “ - कोप्यस्माकं प्रारणापहारको जन्तुः समागत:, इति ज्ञानात् उद्विग्नाः व्याकुताः - कम्पमानहृदयाः संजातमयाः - भयजनितकम्बेन प्रचलितगात्रा :- " अर्थात् हस्तिनापुर नगर के गौ, साण्ड आदि पशु भयोत्पादक शब्द को सुन कर भीत भयभीत हुए और " कोई हमारे प्राण लूटने वाला जीव यहां आगया है - " यह सोच कर त्रस्त हुए । उन का हृदय काम्पने लग पड़ा । हृदय के साथ साथ शरीर भी काम्पने लग गया । For Private And Personal - Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । हो गया । तते णं- तदनन्तर । से भीमे -- वह भीम नामक । कूडग्गाहे- कूटग्राह । अरणपा- अन्यदा कयातो-कदाचित् = किसी समय । कालधम्मुणा-काल धर्म से । संजुत्ते-संयुक्त हुअा अर्थात् कान कर गया मर गया । तते णं- तदनन्तर । से-वह । गोत्तासे-गोत्रास । दारए -- बालक । बहुणं-- अनेक । मित्तणाइणियालयणसंबंधिपरिजणेणं-भित्र-सुहृद्, ज्ञातिजन; निजक - अात्मीय पुत्रादि, स्वजन पितृव्यादि, सम्बन्धी -- श्वशुरादि, परिजन --दास दासी आदि. के । सद्धि-साथ । संपरिवुड़े-संपरिवृत-घिरा हुआ। रोप्रमाणे-रुदन करता हुया । कंदमाणे -अाक्रन्दन करता हुअा विलवमाणेविलाप करता हुआ । भीमस्स कूडग्गाहस्स-भीम कूटग्राह का । नीहरणं- नीहरण -- निकालना । करेति २ त्ता-करता है करके । बहूई - अनेक । 'लोइयमय किच्चाई--लोकिक मृतक कियाएं । करेति-करता है ॥ मूलार्थ-तदनन्तर उस उत्पला नामक कूटग्राहिणो ने किसी समय नवमास · पूरे हो जाने पर बालक को जन्म दिया । जन्मते ही उस बालक ने महान कणेकटु एवं चीत्कारपूर्ण भयंकर शब्द किया, उस के चीत्कारपण शब्द को सुन कर तथा अवधारण कर हस्तिनापुर नगर के नागरिक पशु यावत् वृषभ आदि भयभीत हुए, उद्वग को प्राप्त हो कर चारों तर्फ भागने लगे। तदनन्तर उस बालक के माता पिता ने इस प्रकार से उस का नामकरगा संस्कार किया कि जन्म लेते ही इस बालक ने महान कर्णकट और च कारपर्ण भीषण शब्द किया है जिसे सुन कर हस्तिनापुर के गौ आदि नागरिक पशु भयभीत हुए और उद्विग्न हो कर चारों तर्फ भागने लगे, इसलिये इस बालक का नाम गोत्रास [गो आदि पशुओं को त्रास देने वाला ] रकाया जाता है । तदनन्तर गोत्रास बालक ने बालभाव को त्यागकर युवास्था में पदार्पण किया । तदनन्तर अर्थात् गोत्रास के युक्क होने पर भोम कूटग्राह किसी समय कालधर्म को प्राप्त हुआ अर्थात् उस की मृत्यु हो गई । तब गोत्रास बालक ने अपने मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सबन्धी और परिजनों से परिवृत हो कर रुदन, आक्रन्दन और विलाप करते हुए कटग्राह का दाह – संस्कार किया और अनेक लौकिक मृतक क्रियाएं की, अर्थात् औद्धदैहिक कर्म किया। टीका-गर्भ की स्थिति पूरी होने पर भीम कूटग्राह की स्त्री उत्पला ने एक बालक को जन्म दिया, परन्तु जन्मते ही उस बालक ने बड़े भारी कर्णकटु शब्द के साथ ऐसा भयंकर चीत्कार किया कि उस को सुन कर हस्तिनापुर नगर के तमाम पशु भयभीत होकर इधर उधर भागने लग पड़ । प्रकृति का यह नियम है पण्यशाली जोव के जन्मते और उस से पहले गर्भ में आते हो पारिवारिक अशांति दूर हो जाती है तथा आसपास का क्षुब्ध वातावरण भी प्रशान्त हा जाता है एवं माता को जो दोहद उत्पन्न होते हैं वे भी भद्र तथा पुण्यरूर ही होते हैं। परन्तु पापिष्ट जीव के आगमन में सब कुछ इस से विपरीत होता है । उस के गर्भ में आते ही नानाप्रकार के उपद्रव होने लगते हैं। माता के दोहद भी सर्वथा निकृष्ट एवं अधर्म --पूर्ण होते हैं, प्रशान्त वातावरण में भयानक क्षोभ उत्पन्न हो जाता है और उस का जन्म अनेक जीवों के भय और संत्रास का कारण बनता है । तात्पर्य यह है कि पुण्यवान् और पापिष्ट जीव आते ही अपने स्वरूप का परिचय करा देते (१) लौकिकमृतकृत्यानि =अग्निसंस्कारादारभ्य तन्निमित्तकदानभोजनादिपर्यन्तानि कर्माणीति भाव: । अर्थात् - अग्निसंकार से लेकर पिता के निमित्त किए गए दान और भोजनादि कर्म लौकिकमृतक कृत्य शब्द से संगृहीत होते हैं । For Private And Personal Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री विपाक सूत्र -- १५२] [दूसरा अध्याय हैं इसी नियम के अनुसार उत्पला के गर्भ से जन्मा हुआ बालक हस्तिनापुर के विशाल गोमण्डप में रहने वाले गाय आदि अनेकों मूक प्राणियों के भय और संत्रास का कारण बना। जैनागमों का पर्यालोचन करने से पता चलता है कि उत्पन्न होने वाले बालक या बालिका के नाम करण में माता पिता का गुणनिष्पत्ति की ओर अधिक ध्यान रहता था, बालक के गर्भ में आते हो माता पिता को जिन जिन बातों की वृद्धि या हानि का अनुभव होता, अथच जन्म समय उन्हें उत्पन्न हुए बालक में जो विशेषता दिखाई देती, उसी के अनुसार वह बालक का नामकरण करने का यत्न करते, स्पष्टता के लिये उदाहरण लीजिए - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रमण भगवान् महावीर का परमपुण्यवान् जीव जब त्रिश्ला माता के गर्भ में आया तत्र से उन के यहां धन-धान्यादि सम्पूर्ण पदार्थों की दृद्धि होने लग पड़ी । इसी दृष्टि से उन्हों ने भगवान् का द्धमान यह गणनिष्पन्न नामकरण किया । अर्थात् उनक वर्द्धमान यह नाम रक्खा गया । इसी भांति धर्म में दृढ़ता होने से दृढ़प्रतिज्ञ और देव का दिया हुआ होने से देवदत्त इत्यादि नाम रक्खे गये । इसी विचार के अनुसार बालक के जन्म लेने पर उस के माता पिता उत्पला और भीम ने विचार किया कि जन्म लेते ही इस बालक ने बड़ा भयंकर चीत्कार किया, जिस के श्रवण से सारे हस्तिनापुर के गो वृषभादि जीव संत्रस्त हो उठे, इसलिये इस का गुणनिष्पन्न नाम गोत्रासक । गो आदि पशुओं को त्रास पहुंचाने वाला) रखना चाहिये. तदनुसार उन्हों ने उस का गोत्रास ऐसा नामकरण किया । संसारवर्ती जीवों को पुत्र की प्राप्ति से कितना हर्ष होता है ? और खास कर जिन के पहले पुत्र न हो, उन को पुत्र जन्म से कितनी खुशी होती है ? इस का अनुभव प्रत्येक गृहस्थ को अच्छी तरह से होता है। बड़ा होने पर वह धर्मात्मा निकलता है या महा अधर्मी, एवं पितृभक्त निकलता है या पितृ - घातक इस बात का विचार उस समय माता पिता को बिल्कुल नहीं होता और नाहीं इस की ओर उनका लक्ष्य जाता है किन्तु पुत्र प्राप्ति के व्यामोह में इन बातों को प्रायः सर्वथा वे विसारे हुए होते हैं। अस्तु । उत्पला और भीम भी पुत्र प्राप्ति से बड़ा हर्ष हुआ । उसका बड़ी प्रसन्नता से पालन पोषण करने लगे और बालक भी शुक्लपक्षीय चन्द्र-कलाओं की भांति बढ़ने लगा । व वह बालकभाव को त्याग कर युवावस्था में प्रवेश कर रहा है अर्थात् गोत्रास अब बालकशिशु नहीं रहा किन्तु युवक बन गया है । भीम और उत्पला पुत्र के रूप सोन्दर्य को देख कर फूले नहीं समाते । परन्तु समय को गति बड़ो विचित्र है । इधर तो भीम के मन में पुत्र के भावी उत्कर्ष को देखने की लालसा बढ़ रही है उधर समय उसे और चेतावनी दे रहा है । गोत्रा के युवावस्था में पदार्पण करते हो भीम को काल ने श्रग्रता और वह अपनी सारी आशाओं को संवरण कर के दूसरे लोक के पथ का पथिक जा बना । पिता के परलोकगमन पर गोत्रास को बहुत दु:ख हुआ, उसका ver और विलाप देखा नहीं जाता । अन्त में स्वजन सम्बन्धी लोगों द्वारा कुछ सान्त्वना प्राप्त कर उसने पिता का दाह - कर्म किया और तत्सन्बन्धी श्रर्द्धदेहिक कर्म के आचरण से पुत्रोचित कर्तव्य का पालन किया । " “ – नगरगोरूवा जाव वसभा - यहां पठित “ – जाव - यावत् -"पद से “ – णं सणाहा हाय गरगाविश्र य णगरबलीवद्दा य गगरपड्डियात्रो य रागर - " यह पाठ ग्रहण करने की सूचना सूत्रकार ने दी है । इन पदों का अर्थ पृष्ठ १३७ पर दिया जा चुका है । “गगरगोरूवा जाव भीया - "। यहां का “ – जाव - यावत् -" पद - साहा य अखाहा य - " से लेकर " - जगरवसभा य" यहां तक के पाठ का परिचायक है I For Private And Personal Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय } हिन्दी भाषा टीका सहित | " बालभावे जाव जाते - " यहां पठित " - जाव - यावत् गयमित्ते जोवणमणुपपत्त े - " इन पदों का ग्रहण होता है । इन का दिया जा चुका है । है । समान श्राचार सदा एकान्त हित का उपदेश देने वाले सखा को मित्र कहते विचार वाले जाति समूह को ज्ञाति कहते हैं । माता, पिता, पुत्र, कलत्र ( स्त्री ) प्रभृति को निजक कहते हैं । भाई, चाचा, मामा, आदि को स्वजन कहते हैं । श्वशुर, जामाता, साले, बहनोई आदि को सम्बंधी कहते हैं । मन्त्री, नौकर, दास, दासी आदि को परिजन कहते हैं । सूत्रकार गोत्रास की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हैं - [ १५३ पद से – विराणायपरिभावार्थ पृष्ठ ९७ पर मूल - ' तते गं से सुनंदे राया गोत्तासं दारयं अन्नया कयाती सयमेव कूडग्गाहत्ताए ठवेति । तते गं से गोत्तासे दारए कूडग्गाहे जाए यावि होत्या, अहम्मिए जाव दुपडियादे । तते गं से गोत्तासे दारए कूडग्गाहे कल्लाव ल्लि अड्ढरत्तकालसमयंसि एगे वीए सन्नद्ध - बद्धकवर जात्र गहियाउहपहरणे सयातो गिहाता निज्जाति, जेणव गोमंडवे तेणेव उवा, बहूणं णगरगोरूवाणं मणा० जात्र वियगेति २ जेणेव सए गिहे तेणेव उवा० । तते गं से गोत्तासे कूड० तेहि बहूहिं गोमंसेहि सोल्लेहि जाव सुरं च ५ सा० ४ विहरति । तते गं से गोत्तासे कूड़० एयकम्मे प०वि० स० सुबहु पावं कम्मं समज्जिणित्ता पंच वाससयाई परमाउं पालयित्ता दुहट्टोवगते कालमासे काल किच्चा दोच्चाए पुढ़वीए उक्कासं तिसागरो० रइयत्ताए उववन्ने । I पदार्थ - तते गं -- तदनन्तर । से सुनंदे राया- उस सुनन्द नामक राजा ने । श्रन्नया कथाति - श्रन्यदा कदाचित् - अर्थात् किसी अन्य समय पर । गोत्तासं दारयं - गोत्रास नामक बालक को । सयमेव - स्वयं अपने आप ही । कूड़ग्गा हत्तार – कूटग्राहित्वेन - कूटग्राहरूप से । ठवेति - स्थापित किया 3 (२) छाया - ततः स सुनन्दो राजा गोत्रासं दारकमन्यदा कदाचित् स्वयमेव कूटग्राहतया स्थापयति । ततः स मात्रासो दारकः कूटग्राहो जातश्चाप्यभवत् अधार्मिको यावत् दुष्प्रत्यानंदः ततः स गोत्रासो दारकः कूटग्राहः प्रतिदिनं अर्द्धरात्रकालसमये एकोऽद्वितीयः सन्नद्धबद्धकवचो यावद् गृहीतायुधप्रहरणः स्वस्माद् गृहाद् निर्याति, यत्रैव गोमंडपस्तत्रैवोवा ० बहूनां नगर गोरूपाणां सनाथानां यावत् विकृन्तति, विकृत्य यत्रैव स्वं गृहं तत्रैवोपा० । ततः स गोत्रासः कूट० तैर्बहुभिर्गोमांस : शूल्ययवत् सुरां च ५ स्वा० ४ विहरति । ततः स गोत्रासः कूट० एतत्कर्मा प्र० [ एतत्प्रधानः ] वि० [ एतदुविद्यः | स० [ एतत्समाचार: ] सुबहु पापं कर्म समय पंच वर्षशतानि परमायुः पालयित्वा आत - दुःखार्त्तापगतः कालमासे कालं कृत्वा द्वितीयायां पृथिव्यां उत्कृष्टत्रिसागरो० नैरयिकतयोपपन्नः । For Private And Personal (१) "6 "" - यावत्- पद से " - धर्मानुगः, धर्मिष्ठः, अधर्माख्यायी, अधर्मप्रलोकी, धर्मप्ररजनः, धर्मशीलसमुदाचारः, अधर्मेण चैव वृत्तिं कल्पयन् दुश्शीलः दुर्वतः - इन शब्दों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत सूत्र के पृष्ठ ५५ पर कर गई है । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १५४ श्री विपाक सूत्र | दूसरा अध्याय - अर्थात् सुनन्द राजा ने गोत्रास को कूटग्राह के पद पर नियुक्त किया । तते गं - तदनन्तर । गोत्तासे - गोत्रास नामक । दारए – बालक । कूटग्गाहे - कूटग्राह । जाए यात्रि होत्या - होगया अर्थात् कूटग्राह के नाम से प्रसिद्ध हो गया, परन्तु । श्रहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे - वह बड़ा ही अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द - बड़ी कठिनाई से प्रसन्न होने वाला था । तते गं - तदनन्तर । से - वह । कूडग्गाहे - कूटग्राह । गोत्तासेदारण – गोत्रास बालक । कल्लाकुल्लिं - प्रति दिन हर रोज़ । श्रड्ढरतकालसमयंसि - अर्द्धरात्रि के समय एगे - अकेला । अबीए - जिस के साथ दूसरा कोई नहीं । सन्नद्धबद्धकवए – सन्नद्ध सैनिक की भांति सुसज्जित एवं कवच बान्धे हुए | जाव -- यावत् । गहिया उहपहरणे - आयुध और प्रहरण लेकर । सातो - अपने । गिहातो-घर से । निज्जाति-निकलता है, निकल कर । जेणेव जहां पर । गोमंडवे - गोमंडप है । तेणेव - वहां पर । उवा० - आता है, आकर बहूणं अनेक । रागरगोरू वाणं – नागरिक पशुओं के । साह० – सनाथों के । जाव - यावत् । वियंगेति २ – अंगों को काटता है और उनके अंगों को काट कर । जेणेव - जहां पर । सर गिहे - अपना घर है । तेणेव – वहीं पर । उवा० - आ जाता है । तते णं - तदनन्तर । से गोत्तासे कूड० - वह गोत्रास कूटग्राह । तेहिं - उन बहूहिं - बहुत से । सोल्लेहिं - शूलपक्व । गोमंसेहिं जाव- गो आदि यावत् नागरिक पशुओं के मांसों के साथ । सुरं च ५ - सुरा आदि का । आसा ०४ - आस्वादन आदि लेता हुआ । विहरति - जीवन व्यतीत करता है । तते गं - तदनन्तर । से गोत्तासे कूड० – गोत्रास नामक कूटग्राह । एयकम्मे – इन कम वाला । प० - इस प्रकार के कार्यों में प्रधानता रखने वाला । वि० - इस विद्या को जानने वाला । स० - एवंविध आचरण करने वाला | सुबहु - - अत्यन्त | पावं - पाप । कम्मं - कर्म का । समज्जि णित्ता - उपार्जन कर । पंच वाससयाई - पांच सौ वर्ष की । परमाउं - परम आयु का । पालयित्ता - पालन कर अर्थात् उपभोग कर । अदुहट्टोवगते - चिन्ताओं और दुःखों से पीडित होकर कालमासे - कालमास - मरणावसर में । कालं किच्चा - काल करके । उक्कोसंतीन सागरोपम स्थिति वाली । दोच्चाए - दूसरी । पुढवीए - नरक में । ज्ववन्ने - उत्पन्न हुआ । 1 - उत्कष्ट । तिसागरां० - रइयत्ताए - नारकरूप से मूलार्थ - तत् पश्चात् सुनन्द राजा ने गोत्रास बालक को स्वयमेव कूटग्राह ( छल कपट के प्रपंच से परधन का अपहारक ) के पद पर नियुक्त कर दिया । तदनन्तर अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द वह गोत्रास कूटग्राह प्रतिदिन अर्द्धरात्रि के समय सैनिक की भांति तैयार होकर कवच पहन कर, एवं शस्त्र अस्त्रों को ग्रहण कर अपने घर से निकलता है, निकल कर गोमंडप में जाता है, वहां पर अनेक गो आदि नागरिक पशुओं के अगोपांगों को काटकर अपने घर में आ जाता है, आकर उन गो आदि पशुओं के शूल - पक्व मांसों के साथ सुरा आदि का आस्वादन आदि करता हुआ जीवन व्यतीत करता है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तदनन्तर वह गोत्रास कूटग्राह इस प्रकार के कर्मों वाला, इस प्रकार के कार्यों में प्रधानता रखने वाला, एवंविध विद्या- पापरूप विद्या के जानने वाला तथा एवंविध आचरणों वाला नाना प्रकार के पाप कर्मों का उपार्जन कर पांच सौ वर्ष की परम आयु को भोग कर चिन्ताओं और दुःखों से पीडित होता हुआ कालमास में - मरणावसर में काल कर के उत्कृष्ट तीन सागरोपम की स्थिति वाले दूसरे नरक में नारकरूप से उत्पन्न हुआ । टीका - अधर्मी या धर्मात्मा, पापी अथवा पुण्यवान् जीव के लक्षण गर्भ से ही प्रतीत For Private And Personal Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra दूसरा अध्याय 1 हिन्दी भाषा टीका सहित । [१५५ होने लगते हैं । गोत्रास का जीव गर्भ में आते ही अपनी पापमयी प्रवृत्ति का परिचय देने लग पड़ा था । उस की माता के हृदय में जो हिंसाजनक पापमय संकल्प उत्पन्न हुए उस का एकमात्र कारण गोत्रास का पाप-प्रधान प्रवृत्ति करने वाला जीव ही था । युवावस्था को प्राप्त होकर पितपद को संभाल लेने के बाद उसने अपनी पापमयी प्रवृत्ति का यथेष्टरूप से प्रारम्भ कर दिया। प्रति. दिन अर्द्धरात्रि के समय एक सैनिक की भांति कवचादि पहन और अस्त्रशस्त्रादि से लैस होकर हस्तनापर के गोमण्डप में आना और वहां नागरिक पशुओं के अंगोपांगादि को काटकर लाना, एवं तद्गत मांस को शूलादि में पिरोकर पकाना और उस का मदिरादि के साथ सेवन करना यह सब कुछ उस की जघन्यतम हिंसक प्रवृत्ति का परिचय देने के लिए पर्याप्त है। इसी लिये सूत्रकार ने उसे अधार्मिक, अधर्मानुरागी यावत् साधुजनविद्वषी कहा है, तथा पाप - कर्मों का उपार्जन करके तीनसागरोपम की उत्कृष्टस्थिति वाले दूसरे नरक में उस का नारकरूप से उत्पन्न होना भी बतालाया है। बुरा कर्म बुरे ही फल को उत्पन्न करता है । पुण्यसुख का उत्पादक और पाप दुःख का जनक है, इस नियम के अनुसार गोत्रास को उस के पापकर्मा का नरकगतिरूप फल प्राप्त होना अनिवार्य था। पापादि क्रियाओं में प्रवृत्त हुआ जीव अन्त में दु:ख-संवेदन के लिये दुर्गति को प्राप्त करता है। गोत्रास ने अनेक प्रकार के पापमय आचरणों से दुर्गति के उत्पादक कर्मों का उपार्जन किया और अ यु की समाप्ति पर अातध्यान करता हुआ वह दूसरे नरक का अतिथि बना, वहां जाकर उत्पन्न हुआ। "अट्ट-दुहट्टोवगए" इस पद की टीकाकार महानुभाव ने निम्नलिखित व्याख्या की है "श्रात, आर्तभ्यानं दुर्घट-दुःखस्थगनीयं दुर्वार(य)मित्यर्थः उपगतः-प्राप्तो यः स तथा-" अर्थात् बड़ी कठिनता से निवृत्त होने वाले आतध्यान' को प्राप्त हुअा। तथा प्रस्तुत सूत्रगत (१) अार्ति नाम दुःख का है, उस में उत्पन्न होने वाले ध्यान को 'अार्तध्यान कहते हैं । वह चार भागों में विभाजित होता है, जैसे कि - १- अमनोज्ञवियोगचिन्ता-अमनोज्ञ शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श, विषय एवं उन की साधनभूत वस्तुओं का संयोग होने पर उन के वियोग (हटाने) की चिन्ता करना तथा भविष्य में भी उन का संयोग न हो, ऐसी इच्छा का रखना अ.र्तध्यान का प्रथम प्रकार है । २-मनोज्ञ-संयोग-चिन्ता-पांचों इन्द्रियों के मनोज्ञ विषय एवं उन के साधनरूप माता, पिता, भाई, स्वजन, स्त्री, पुत्र और धन आदि अर्थात् इन स ख के साधनों का संयोग होने पर उन के वियोग (अलग) न होने का विचार करना तथा भविष्य में भी उन के संयोग की इच्छा बनाए रखना, अार्तध्यान का दूसरा प्रकार है। * ३-रोग-चिन्ता-शूल, सिरदर्द, आदि रोगों के होने पर उन की चिकित्सा में व्यग्र प्राणी का उन के वियोग के लिये चिन्तन करना तथा रोगादि के अभाव में भविष्य के लिए रोगादि के संयोग न होने की चिन्ता करना, आर्तध्यान का तीसरा प्रकार है । ४-निदान (नियाना)-देवेन्द्र, चक्रवर्ती बलदेव, वासुदेव के रूप, गुण और ऋद्धि को देख या सुन कर उन में आसक्ति लाना और यह सोचना कि मैंने जो संयम आदि धर्मकृत्य किए हैं उन के फलस्वरूप मुझे भी उक्त गुण एवं ऋद्धि प्राप्त हो, इस प्रकार निदान (किसी व्रतानुष्ठान की फलप्राप्ति की अभिलाषा ) की चिन्ता करना, आर्तध्यान का चौथा प्रकार है। (१) आर्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृति-समन्वहारः ॥३१॥ वेदनायाञ्च ॥३२॥ विपरीतं मनोज्ञानाम् ॥३३॥ निदानं च ॥३४॥ (तत्वार्थ सूत्र अ. ९.) For Private And Personal Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१५६ श्री विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय "प्प० वि० स." इन तीनों पदों से क्रमशः “श्यपहाणे" "एयविज्जे" "एयसमायारे" इन पदों का ग्रहण करना। इस तरह से- 'एतत्कर्मा, एतत्प्रधान, एतद्विद्य और एतत्समाचार ये चार पद सकलित होते हैं । __सागरोपम की व्याख्या पहले अध्ययन के पृष्ठ ९४ पर की जा चुकी है । और स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट भेद से दो प्रकार की होती है । कम से कम स्थिति को जघन्यस्थिति और अधिक से अधिक स्थिति को उतकृष्टस्थिति कहते हैं । अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में गोत्रास की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हैं - . मूल-२ तते णं सा विजयमित्तस्स सत्थवाहस्स सुभद्दा भारिया जातनिदुया यावि होत्था। जाया जायादारगा विनिहायमावजंति । तते णं से गात्तासे कूड० दोच्चायो पुढ़वीओ अणंतरं उव्वट्टिता इहेव वाणियग्गामे णगरे विजयमित्तस्स सत्थवाहस्स सुभदाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्ने । तते णं सा सुभद्दा सत्थवाही अन्नया कयाइ नवराह मासाणं बहुपडिपुराणाणं दारगं पयाया। तते णं सा सुभद्दा सत्थवाही तं दारगं जातमेत्तयं चेव एगते उक्कुरुडियाए उज्झावेति २ दो पि गेण्हावेति २ आणुपुव्वेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी संवड्ढेति । तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो ठितिपडियं च चंदसूरदंसणं च जागरियं च महया इड्ढिसक्कारसमुदएणं करेंति । तते णं तस्स दारगस्स अम्मापितरो एक्कारसमे दिवसे निव्वत्ते, संपत्ते बारसाहे अयमेयारूवं गोएणं गुणनिष्फन्नं नामधेनं करेंति । जम्हा णं अम्हं इमे दारए जायमेनए चेव एगते उवकुडियाए उज्झिते, तम्हा णं होउ अम्हं दारए उज्झियए (१) १-एतत्कर्मा-जिस का “- गो आदि पशुओं की हिंसा का और मद्यपान-क्रिया का करना -" यह एक मात्र कर्तव्य हो। . २-एतत्प्रधान-हिंसा और मद्यपानादि क्रियाओं के करने में ही जो रात दिन तत्पर रहता हो। ३-एतद्विद्य-हिंसा और मद्य-पान करना ही जिस के जीवन की विद्या (ज्ञान) हो। ४ एतत्-समाचार- गो आदिकों की हिंसा करना और मदिरा के नशे में मस्त रहना ही जिस का अाचरण बना हुआ हो।। . (२) छाया - ततः सा विजयमित्रस्य सार्थवाहस्य सुभद्रा भार्या जातनिंदुका चाप्यभवत् । जाता जाता दारकाः विनिघातमाग्द्यन्ते । ततः स गोत्रासः कटग्राहो द्वितीयातः पृथिवीतोऽनन्तरमुढत्य इहैव वाणिजग्रामे नगरे विजय मित्रस्य सार्थवाहस्य सुभद्राया भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नः । ततः सा सुभद्रा सार्थवाही अन्यदा कदाचित नवसु मासेषु बहुपरिपूणेषु दारकं प्रजाता। ततः सा सुभद्रा सार्थवाही तं दारकं जातमात्रमेव एकान्ते अशुचिराशौ उज्झयति, उज्झयित्वा द्विरपि ग्राहयति, ग्राहयित्वाऽऽनुपूर्येण संरक्षन्ती संगोपयन्ती संवर्द्धयति । ततस्तस्य दारकस्याम्बापितरौ स्थितिपतितां च चन्द्रसूर्य । दर्शनं च जागर्यां च महता ऋद्धिसत्कारसमुदयेन कुरुतः । ततस्तस्य दारकस्य अम्बापितरौ एकादशे दिवसे निवृत्त सम्प्राप्ते द्वादशाहनोदमेतद्पं गौणं गुणनिष्पन्नं नामधेयं कुरुतः । यस्माद् अावाभ्यामयं दारको जातमात्रक एवैकान्तेऽशुचिराशौ उज्झितः, तस्माद् भवत्वावयोारक उज्झितको नाम्ना। ततः स उज्झितको दारकः पञ्चधात्रीपरिगृहीतः तद्यथा-क्षीरधाच्या, मज्जन० मण्डन० क्रीडापन० अंकधाच्या यथा दृढ़प्रतिज्ञो यावत् निर्वातनिर्व्याघातगिरिकन्दरमालीन इव चम्पकपादपः सुखसुखेन परिवर्धते । For Private And Personal Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दूसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [१५७ नामे । ततेां से उज्झिए दारए पंचधातोपरिग्गहिते, तं जहा - खीरधातीए १ मज्जण० २ मंडण ० ३ कीलावण० ४ अंकधातीए ५ जहा दढ़पतिएणे जाव निव्वायनिव्वा घाय - गिरिकंदरपल्लीणे व्व चंत्रयपायवे सुहंसुहेणं परिवड्ढति । पदार्थ - तते णं - तदनन्तर । विजयमित्तस्स - विजयमित्र नामक । सत्यवाहस्स - सार्थवाह की । सुभद्दा - सुभद्रा नामक | सा वह । भारिया - भार्या । जातनिदुया - जातनिदु काजिसके बच्चे उत्पन्न होते ही मर जाते हों । यावि होत्था - थी । जाया जाया दारगा-3 - उसके उत्पन्न होते ही बालक | विनिहायमावज्जंति - विनाश को प्राप्त हो जाते थे। तते णं - तदनन्तर । से गोत्तासे - वह गोत्रास । दोच्चार - दूसरे । पुढ़वीओ- नरक से । श्रणंतरं - अन्तर रहित उव्वहित्ता – निकल कर । इहेव - इसी । वाणियग्गामे - वाण्जिग्राम नामक । गगरे - नगर में । विजय मित्तस्स - विजयमित्र । सत्यवाहस्स - सार्थवाह की | सुभद्दार भारियार - सुभद्रा भार्या की। कुछ-कुक्षि में । पुत्तत्ताए- पुत्र रूप से । उववन्ते - उत्पन्न हुआ। तते णं - तदनन्तर । सा सुभद्दा - वह सुभद्रा । सत्यवाही - सार्थवाही ने । श्रन्नया क्याइ - किसी अन्य समय में नवराहं मासाणंनवमास के । बहुपडिपुराणं - परिपूर्ण होने पर । दारंग - बालक को । पयाया - जन्म दिया । तते णं - तदनन्तर । सा सुभद्दा - वह सुभद्रा । सत्यवाही - सार्थवाही । जातमेत्तयं चेव-जातमात्र ही उत्पन्न होते ही । तं दागं उस बालक को एगंते - एकान्त अक्कुहडियाए - कूडे कर्कट के ढेर पर । उज्भावेति - - डलवा देती है। दोच्चं पि द्वितीयवार पुनः । गेरहावोत - ग्रहण करा लेती है अर्थात् वहां से उठवा लेती है और । श्रणुपुत्र्वेणं - क्रमशः । सारवमाणो - संरक्षण करती हुई । संगावेमाणीसंगोपन करती हुई । संवद डेति वृद्धि को प्राप्त कराती है । तते णं - तदनन्तर । तस्स उस । दारगस्स – बालक के । अम्मापियरो - माता पिता । डितिपडियं च - स्थिति पतित - कुलमर्यादा के अनुसार पुत्र – जन्मोचित वधाई बांटने आदि की पुत्रजन्म - क्रिया तथा तीसरे दिन | चंदसूरदंसणं च - चन्द्रसूर्य दर्शन अर्थात् तत्सम्बन्धी उत्सव विशेष जागरियं च - (छठे दिन) जागरणमहोत्सव | महया महान । इहिसक कारसमुदपणं ऋद्धि और सत्कार के साथ करेंति करते हैं । तते गं - तदनन्तर । तस्स दारगस्स - उस बालक के । अम्मापितरां - माता पिता । एक्कारसमे ग्यारहवें दिवसे । दिन के । निवसेव्यतात हो जाने पर | बारसाहे पसे बारहवें दिन के खाने पर I 1 कारण । यमेयारूवं - इस प्रकार का । 'गांणं -- गौण - गुण से सम्बन्धित । गुणनिराणं रूप । नामवेज्जं - नाम | करेंति करते हैं । जहा णं - जिल जातमात्र ही जन्मते ही । म्हं - हमारा । इमे - यह । दारए बालक । उक्कुरुडियाए - कूड़ा फेंकने की जगह पर । उज्झिते- गिरा एगंते - एकान्त । दिया गया था । तम्हा गं-- इसलिए । म्हं - हमारा यह । दारए - बालक । उज्झियर – उज्झितक । नामें - नाम से । होउ हो - प्रसिद्ध हो अर्थात् इस बालक का हम उज्झितक यह नाम रखते हैं । तते गं - तदनन्तर 1 गुण - निष्पन्न ( गुण का अनुसरण करने वाला) इन होता है कि फिर इन दोनों का एक साथ प्रयोग क्यों प्रधान भी होता करने के लिए Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - For Private And Personal गुणनिष्पन्न- गुणानुजायमेत्तर चेव - (१) गौण (गुण से सम्बन्ध रखने वाला) और दोनों शब्दों में अर्थगत कोई भिन्नता नहीं है। यहां प्रश्न किया गया । इस के उत्तर में आचार्य श्री अभयदेव सूरि का कहना है कि गौरा शब्द का अर्थ है, कोई इस का प्रस्तुत में अप्रधान अर्थ ग्रहण न कर ले इस लिए सूत्रकार ने उसे ही स्पष्ट निष्पन्न इस पृथक पद का उपयोग किया है । १ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १५८) श्री विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय से उज्झियर - वह उज्झितक । दारप. - बालक । पंचधातीपरिगहिते-पांच धायमाताओं की देखरेख में रहने लगा । तंजहा-जैसे कि अर्थात् उन धायमाताओं के नाम ये हैं- । खीरधातीए-क्षीरधात्री-दूध पिलाने वाली। मज्जण. - स्नान धात्री-स्नान कराने वाली । मंडण-मंडनधात्री-वस्त्राभूषण से अलंकृत कराने वाली । कीलावण. - क्रीडापनधात्री-क्रीड़ा कराने वाली । अकधातीए-अकधात्री गोद में खिलाने वाली, इन धायमाताओं के द्वारा । जहा-जिस प्रकार । दड्ढपतिराणे-दृढ़-प्रतिज्ञ का , जाव-यावत् , वर्णन किया है, उसी प्रकार । निस्वाय-निर्वात-वायुरहित । निव्वाघाय आघात से रहित । गिरिकंदरमल्लीणे -पर्वतीय कन्दरा में अवस्थित । चंपयपायवे--चम्पक वृक्ष की तरह। सुहंसुहेण-सुख पूर्वक। परिवड्ढइ - वृद्धि को प्राप्त होने लगा। मलार्थ-तदनन्तर विजयमित्र सार्थवाद को सुभद्रा नाम की भार्या जो कि जातनिद्का थी अर्थात् जन्म लेते ही मरजाने वाले बच्चों को जन्म देने वाली थी । अतएव उसके उत्पन्न होते ही बाजक विनाश को प्राप्त हो जाते थे । तदनन्तर वह कूटग्राह गोत्रास का जीव दूसरी नरक से निकल कर सीधा इसी याणिजग्राम नगर के विजामत्र सार्थवाह की सुभद्रा भार्या के उदर में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ-गों में आया । तदनन्तर किसी अन्य समय में नवमास परे होने पर सुभद्रा सार्थवाही ने पुत्र को जन्म दिया । जन्म देते ही उस बालक को सुभद्रा सार्थवाही ने एकान्त में कूड़ा गिराने की जगह पर डलवा दिया और फिर उसे उठवा लिया उठवा कर क्रमपूर्वक संरक्षण एवं संगोपन करती हुई वह उसका परिवर्तन करने लगी। तदनन्तर उस बालक के माता पिता ने महान् ऋद्धिसत्कार के साथ कुल मर्यादा के अनुसार पुत्र जन्मोचित वधाई बांटने आदि दी पुत्रजन्म-क्रिया और तीसरे दिन चन्द्रसूर्यदर्शन-सम्बन्धी 'उत्सवविशेष, छठे दिन कुल मर्यादानुसार जागरिका-जागरण महोत्सव किया । तथा उसके माता-पिता ने ग्यारहवें दिन के व्यतीत होने पर बारहवें दिन उसका गौण-गुण से सम्बन्धित गुणनिष्पन्न-गुणानरूप नामकरण इस प्रकार किया-चूंकि उत्पन्न होते ही हमाग यह बालक जन्मते ही एकान्त अशुचि प्रदेश में त्यागा गया था इसलिए हमारे इस बालक का उज्झितक कुमार यह नाम रखा जाता है । तदनन्तर वह उझितक कुमार क्षीरधात्री, मज्जनधात्री, मंडनधात्री, क्रीडापनधात्री, और अंधात्री इन पांच धायमातों से युक्त दृढ़प्रतिज्ञ की तरह यावत् निर्वात एवं निर्व्याघात पर्वतीय कन्दरा में विद्यमान चम्पक-वृक्ष की भांति सुख-पूर्वक वृद्धि को प्राप्त होने लगा। टीका- प्रस्तुत सूत्र में गोत्रास के जीव का नरक से निकल कर मानव भव में उत्पन्न होने का (१) पुत्रजन्म के तीसरे दिन चन्द्र और सूर्य का दर्शन तथा छठे दिन जागरणमहोत्सव ये समस्त बातें उस प्राचीन समय की कुलमर्यादा के रूप में ही समझनी चाहिये । आध्यात्मिक जीवन से इन बातों का कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता। (२) क्षीरधात्री के सम्बन्ध में दो प्रकार के विचार हैं -प्रथम तो यह कि जिस समय बालक के दुग्धपान का समय होता था । उस समय उसे माता के पास पहुँचा दिया जाता था, ध्यान रखने वाली और बालक को माता के पास पहुँचाने वाली स्त्री को क्षीरधात्री कहते हैं। दूसरा विचार यह है कि-स्तनों में या स्तनगत दूध में किसी प्रकार का विकार होने से जब माता बालक को दूध पिलाने में असमर्थ हो तो बालक को दूध पिलाने के लिए जिस स्त्री का प्रबन्ध किया जाए उसे क्षीरधात्री कहते हैं । दोनों विचारों में से प्रकृत में कौन विचार आदरणीय है ? यह विद्वानों द्वारा विचारणीय है । For Private And Personal Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय] हिन्दी भाषा टोका सहित । वर्णन किया गया है। वह दूसरी नरक से निकल कर सीधा वाणिजग्राम नगर के विजयमित्र सार्थवाह की सुभद्रा स्त्री की कुक्षि में गर्भरूप से उत्पन्न हुआ । इस का तात्पर्य यह है उस ने मार्ग में और किसी योनि में जन्मधारण नहीं किया। दूसरे शब्दों में उस का मानव भव में अनंतरागमन हुआ, परम्परागमन नहीं । ___ सुभद्रादेवी पहले जातनिदुका थी, अर्थात् उस के बच्चे जन्मते ही मर जाते थे। “जातनिंदुयाजातनिदुका" की व्याख्या टीकाकार ने इस प्रकार की है ___“जातान्युत्पन्नान्यपत्यानि निद्रु तानि निर्यातानि मृतानीत्यर्थो यस्याः सा जातनिदुता, अर्थात् जिस की सन्तान उत्पन्न होते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाय उसे जातनिंदुआ-जातनिद्रता कहते हैं । कोषकारों के मत में जातनिंदुया पद का जातनिंदुका यह रूप भी उपलब्ध होता है। नवमास व्यतीत होने के अनन्तर सुभद्रादेवी ने बालक को जन्म दिया। उत्पन्न होने के अनन्तर उस ने बालक को कूड़े कचरे में फैकवा दिया, फिर उसे उठवा लिया गया । ऐसा करने का सुभद्रा का क्या प्राशय था ? इस विचार को करते हुए यही प्रतीत होता है कि उस ने जन्मते ही बालक को इसलिए त्याग दिया कि उस को पहले बालकों की भांति उस के मर जाने का भय था। रूड़ी पर गिराने से संभव है यह बच जाए, इस धारणा से उस नवजात शिशु को रूड़ी पर फिंकवा दिया गया, परन्तु वह दीर्घायु होने से वहां-रूड़ी' पर मरा नहीं। तब उस ने उसे वहां से उठवा लिया। बालक के जीवित रहने पर उस को जो असीम आनन्द उस समय हुआ, उसी के फलस्वरूप उस ने पुत्र का जन्मोत्सव मनाने में अधिक से अधिक व्यय किया, और पुत्र का गुण निष्पन्न नाम उज्झितक रखा। नाम-करण की इस परम्परा का उल्लेख श्री अनुयोद्वार सूत्र में भी मिलता है। वहां लिखा है - से किं तं जीवियनामे १ अवकरए उक्कुरुडए उझियर कज्जवए सुप्पए से तं जीवियनामे। (स्थापना- प्रमाणाधिकार में ) (१) प्रस्तुत कथा- सन्दर्भ में लिखा है कि माता सुभद्रा ने नवजात बालक को रूड़ी पर गिरा दिया, गिराने पर वह जीवित रहा, तब उसे वहां से उठवा लिया । यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि कर्मराज के न्यायालय में जिसे जीवन नहीं मिला वह केवल रूड़ी पर गिरादेने से जीवन को कैसे उपलब्ध कर सकता है ? जीवन तो आयुष्कर्म की सत्ता पर निर्भर है । रूड़ी पर गिराने के उस का क्या सम्बन्ध ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वास्तव में गिराए गए उस नवजात शिशु को जो जीवन मिला है उस का कारण उस का रूड़ी पर गिराना नहीं प्रत्युत उस का अपना ही आयुष्कर्म है । आयुष्कर्म की सत्ता पर ही जीवन बना रह सकता है। अन्यथा -आयुष्कर्म के अभाव में एक नहीं लाखों भी उपाए किये जाएं तो भी जीवन बचाया नहीं जा सकता. एवं बढ़ाया नहीं जा सकता । रही रूड़ी पर गिराने की बात, उस के सम्बन्ध में इतना ही कहना है कि प्रचीन समय में बच्चों को लड़ी आदि पर गिराने की अन्धश्रद्धामूलक प्रथा - रूढ़ि चल रही था जिस का आयुष्कर्म की वृद्धि के साथ कोई सन्बन्ध नहीं रहता था । (२) - "से किं तं जीवियहेउ"मित्यादि इह यस्य जातमात्र किञ्चिदपत्यं जीवननिमित्तमवकरादिध्वस्यति, तस्य चावकरक;, उत्कुरुटक इत्यादि यन्नाम क्रियते तज्जीविकाहेतोः, स्थापनानामाख्यायते"सुप्पए" त्ति यः शूर्पे कृत्वा त्यज्यते तस्य शूर्पक एव नाम स्थाप्यते। शेष प्रतीतमिति - वृत्तिकारः। For Private And Personal Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १६०] श्री विणक सूत्र [दमरा अध्याय अर्थात् जिस स्त्री को सन्तान उत्पन्न होते ही मरजाती है वह स्त्री लोकस्थिति की विचित्रता से जातमात्र (जिस की उत्पत्ति अभी २ हुई है। जिस किसी भी सन्तान को जीवनरक्षा के निमित्त अवकर-कूड़ा कचरा आदि में फैंक देती है उस अपत्य का नाम अवकरक होता है। रूडो पर जाने से बालक का नाम उत्कुष्टक, छज्ज में डाल कर फैंके जाने से बालक का नाम शूर्पक, लोकभाषा में जिसे छज्जमल्ल कहते हैं, इत्यादि नाम स्थापित किये जाते हैं. इसे ही जीवितनाम कहते हैं । अवकरक आदि नाम करण में अधिकरण (आधार) की मुख्यता है और उज्झितक आदि नामकरण में क्रिया की प्रधानता जाननी चाहिए। इस के अतिरक्त पांच धायमाताओं ( वह स्त्री जो किसी दूसरे के बालक को दूध पिलाने और उस का पालनपोषण करने के लिये नियुक्त हो उसे धाय माता कहते हैं के द्वारा उस उज्झितक कुमार के पालनपोषण का प्रबन्ध किया जाना नवजात शिशु के प्रति अधिकाधिक ममत्व एवं माता पिता का सम्पन्न होना सूचित करता है। __ बालक को दूध पिलाने वाली धायमाता नीरधात्री कहलाती है ! स्नान कराने वाली धायमाता मज्जनधात्री, वस्त्राभूषण पहनाने वालो मजनधात्री, क्रीडा कराने वालो कोडापनधात्री ओर गोद में लेकर खिलाने वाली धायमाता अंधात्री कही जाती है । इन पांचों धाय माताओद्वारा, वायु तथा आघात से रहित पर्वतीय कन्दरा में विराजमान चम्पक वृक्ष की भांति सुरक्षित वह उज्झितक बालक दृढ़प्रतिज की तरह सुरक्षित होकर सानन्द वृद्धि को प्राप्त कर रहा था । दृढ़प्रतिज्ञ की बाल्यकालोन जीवन चर्या का वर्णन औपपातिक सूत्र अथवा राजप्रश्नीय सूत्र से जान लेना चाहिये । उक्त सूत्र में दृढ़प्रतिज्ञ की बाल्यकालीन जीवन-चर्या का सांगोपांग वर्णन किया गया है । "-दढपतिपणे जाव निव्वाय-, यहां पठित "-दढपतिराणे-"पद से दृढ़प्रतिज्ञ का स्मरण कराना ही सूत्र कार को अभिमत है । दृढप्रतिज्ञ का संक्षिप्त जीवन - परिचय पृष्ठ १०० पर कराया जा चुका है। तथा "-जाव-यावत्-" पद से श्री ज्ञातासूत्रीय मेघकुमार नामक प्रथम अध्ययन का पाठ अभिमत है । जो कि निम्नोक्त है -अन्नाहिं बहूहिं खुज्जाहिं चिलाइयाहिं वामणी-वडभी-बब्बरी- बउसि-जोणिय-पल्हवि-इसिणिया-चाधोरुगिणी-लासिया-लउसिय-दमिलि-सिंहलि- प्रारबि - पुलिदि-पक्कणि-बहलि-मुरुण्डि-सबरि-पारसीहिं जाणादेसोहि विदेसपरिमण्डियाहिं इंगियचिन्तिय-पत्थिय -वियाणाहिं सदेसणेवत्थगहियपवेसाहिं निउणकुसलाहिं विणीयाहिं चेडियाचक्कवालवरिसधरकंचुइअमहयरग्गवंदपरिक्वित्ते हत्याओ हत्थं संहरिज्जमाणे अंकाओ अंकं परिभुज्जमाणे परिगिज्जमाणे चालिज्जमाणे उवलालिज्जमाणे रम्मंसि मणिकोटिमतलंसि परिमिज्जमाणे-" ___इन पदों का भावाथ निम्नोक्त है अन्य बहुत सी कुब्जा-कुबड़ी, चिलाती-किरात देश के रहने वाली, अथवा भील जाति से सम्बन्ध रखने वाली, वामनी-बौनी ( जिस का कद छोटा हो ), बड़भी-पीछे या आगे का अंग जिस का बाहिर निकल आया हो अथवा जिस का पेट बड़ा हो कर आगे निकला हुआ हो वह स्त्री, बर्वरा-बर्वर देश में उत्पन्न स्त्री, बकुशा बकुशदेश में उत्पन्न स्त्री, यवना - यवनदेश में उत्पन्न स्त्री, पल्हविकापल्हवदेशोत्पन्न स्त्री, इसिनिका-इसिनदेशोत्पन्न स्त्री. धोरुकिनिका - देशविशेष में उत्पन्न स्त्री, लासिका For Private And Personal Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय हिन्दी भाषा टोका सहित । लासकदेशोत्पन्न स्त्री, लकुशिका-लकुशदेशोत्पन्न स्त्री, दमिला-द्रविड़देशोत्पन्न स्त्री, सिहंलि-सिंहल( लंका ) देशोत्पन्न स्त्री, आरबी-अरबदेशोत्पन्न स्त्री, पुलिन्दी-पुलिन्द देशोत्पन्न स्त्री, पक्कणीपक्कणदेशोत्पन्न स्त्री, बहली-बहलदेशोत्पन्न स्त्री, मुरुण्डी-मुरुण्डदेशोत्पन्न स्त्री, शवरी-शबरदेशोत्पन्न स्त्री, पारसी - फारस-(ईरानदेशोत्पन्न स्त्री), इत्यादि नानादेशोत्पन्न तथा विदेशों के परिमण्डनों (अलंकारों) से युक्त, इंगित (नयनादि की चेष्टाविशेष ) चिन्तित (मन से विचारित ) ओर प्रार्थित -अभिलषित का वि. ज्ञान रखने वाली, अपने अपने देश का नेपथ्य (परिधान आदि की रचना) और वेष पहरावा) धारण करने वाली निपुण स्त्रियों के मध्य में भी अत्यन्त कौशल्य को धारण करने वाली और विनम्र स्त्रियों से युक्त, चेटिकासमूह-दासीसमूह, वर्षधर-नपुसकविशेष, क चुकी-अन्त:पुर का प्रतिहारी, महत्तरक- अन्तपुर के कार्यों का चिन्तन करने वाला. इन सब के समूह से परिक्षिप्त-घिरा हुअा, हाथों हाथ ग्रहण किया जाता हुश्रा, एक गोद से दूसरी गोद का परिभोग करता हुआ, बालोचित गीतविशेषों द्वारा जिस का गान किया जा रहा है, जिस को चलाया जा रहा है, कीड़ा आदि के द्वारा जिस से लाड़ किया जा रहा है, एवं जो रमणीय मणियों से खचित फर्श पर चंक्रमण करता है अर्थात् बार २ इधर उधर जिसे घुयाया जा रहा है ऐसा वह बालक। प्रस्तुतसूत्र में उज्झितक कुमार की जन्म तथा बाल्य कालीन जीवन-चर्या का वर्णन किया गया है अब अग्रिम सूत्र में उस की आगे की जीवनचर्या का वर्णन किया जाता है मूल-तते णं से विजयमित्ते सत्थवाहे अन्नया कयाइ गणिमं च धरिमं च मेज्जं च परिच्छेज्जं च चउविहं भण्डगं गेहाय लवणसमुद्दपोयवहणेणं उवागते । तते णं से विजय मित्ते तत्थ लवणसमुह पोतविवत्तिए २णिव्वुड्डभंडसारे अत्ताणे असरणे कालधम्मुणा संजुचे । तते णं से विजयमित्तं सत्थवाहं जे जहा बहवे ईसर-तलवर-माडंविय-कोडविय (१) छाया-ततः स विजयमित्र: सार्थवाहः अन्यदा कदाचित् गण्यं च धार्य च मेयं च परिच्छेद्य च चतुर्विधं भाण्डं गृहीत्वा लवणसमुद्र पोतवहनेनोपागतः । ततः स विजयमित्रस्तत्र लवणसमुद्र पोतविपत्तिको निमम-भांडसारोऽत्राणोऽशरणः कालधर्मेण संयुक्तः , ततस्तं विजयमित्र सार्थवाहं ये यथा बहवे ईश्वर - तलवर-माडम्बिक-कौटुम्बिकेभ्य-श्रेष्ठिसार्थवाहा: लवणसमुद्रे पोतविपत्तिकं निमम - भांडसारं कालधर्मेण संयुक्तं एवंति, ते तथा हस्तनिक्षेपं च बाह्यभांडसारं च गृहीत्वा एकान्तमपक्रामन्ति । ततः सा सुभद्रा सार्थवाही विजयमित्र स.र्थवाहं लवणसमुद्रे पोतविपत्तिकं निमनभांडसार कालधर्मेण संयुक्तं शृणोति श्रुत्वा महता पतिशोकेनापूर्णा सती परशुनिकृत्येव चम्पकलता धसेति धरणितले सर्वांगैः सन्निपतिता । ततः सा सुभद्रा सार्थवाही मुहूर्तान्तरेण आश्वस्ता सती बहुभिर्मित्र. यावत् परिवृता रुदती' क्रन्दन्ती विलपन्ती विजयमित्रस्य सार्थवाहस्य लौकिकानि मृतकृत्यानि करोति । ततः सा सुभद्रा सार्थवाही अन्यदा कदाचित् लवणसमुद्रावतरणं च लक्ष्मी-विनाशं च पोतविनाशं च पतिमरणं च अनुचिन्तयन्ती कालधर्मेण संयुक्ता। (२) निमग्न-भाण्डसारः, निमग्नानि जलान्तर्गतानि भाण्डानि पण्यानि तान्येव साराणिधनानि यस्य स तथेति भावः। (१) रुदतो अणि मुचन्ती, क्रन्दन्ती-श्राक्रन्दं महाध्वनि कुर्वाना, विलपन्ती-आर्तस्वरं कुर्वतीति भावः । For Private And Personal Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रो विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय ------ इन्भ-सेट्ठि-सत्थवाहा लवणसमुद्दे पोयविवत्तियं निव्वुड्डभंडसार कालधम्मुणा संजुलै सुर्णेति ते तहा हत्थनिक्खेवं च बाहिरभंडसारंच गहाय 'एगंतं अवक्कमति । तते णं सा सुभद्दा सत्थवाही विजयमित्त सत्थवाहं लवणसमुद्दे पोत्तविवत्तियं निव्वुड्डमडसार काल: धम्मुणा संजुत्तं सुणेति २ ता महया पतिसोएणं अप्फुरणा समाणी परसुनियत्ता विव चम्पगलता धसत्ति धरणीतलंसि सव्वंगेहिं संनिवडिया। तते णं सा सुभद्दा सत्यवाही मुहुत्तंतरेणं आसत्था समाणी बहूहि मिन० जाव परिखुडा रोयमाणी कंदमाणी विलवमाणी विजय-मित्तस्स सत्थवाहस्स लोइयाई मयकिच्चाई करेति । तते णं सा सुभद्दा सत्थवाही अन्नया कयाती लवणसमद्दोत्तरणं च लच्छिविणासं च पोतविणासं च पतिमरणं च अणुचिंतेमाणी २ कालधम्मुणा संजुत्ता। पदार्थ-तते णं- तदनन्तर । से- वह । विजयमित्त-विजयमित्र । सत्यवाहे-साथवाह-व्यापारियों का मुखिया । अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय । पोयवहणेणं-पोतवहन-जहाज द्वारा। गणिम च-गिनती से बेची जाने वाली वस्तु, जिस का भाव संख्या पर हो, जे.से-नारियल श्रादि । धरिमं च-जो तराज़ से तोल कर बेची जाये, जैसे-घृत, गुड़ आदि । मेज्जं च-जिस का माप किया आये जैसे-वस्त्र आदि । परिच्छेज्जं च-जिस का क्रय-विक्रय परिच्छेद्य-परीक्षा पर निर्भर हो जैसे रत्न, नीलम आदि । चउविहे - चार प्रकार की । भंडं – भांड-बेचने योग्य वस्तुएं । गहाय-लेकर । लवण समुद-लवण समुद्र में। उवागते-पहुंवा। तते णं-तदनन्तर । तत्थ - उस | लवणसमुद्देलवण समुद्र में। पोतविवतिए-जहाज पर आपत्ति आने से । निव्वुडभंडसारे-जिस की उक्त चारों प्रकार की बेचने योग्य बहुमूल्य वस्तुयें जलमग्न हो गई हैं तथा । अत्ताणे-अत्राण, और । असरणे - अशरण हुअा। से-वह । विजयमित्त-विजयमित्र । कालधम्मुणा-कालधर्म - मृत्यु से । संजुतसंयक्त हश्रा, अर्थात् मृत्यु को प्राप्त हो गया। तते णं-तदनन्तर । जहा- जिस प्रकार | जे-जिन । बहवे-अनेक । ईसर- ईश्वर । तलवर-तलवर । माडम्बिय-माडम्बिक । काडुबिय- कौटुम्बिक इब्भ-इभ्य-धनी । सेट्ठि-श्रेष्ठी-सेठ । सत्थवाहा-सार्थवाहों ने । लवणसमुहे-लवण-समुद्र में । पोयविवत्तियं-जिस के जहाज पर आपत्ति आ गई है। निव्वुभंडसारे-जिस का सार-भण्ड (महा - मूल्य वाले वस्त्राभूषण आदि) समुद्र में डूब गया है ऐसा। कालयम्भुणा संजु-काल-धर्म से संयुक्त हुए। से-उस : विजयमित्ते-विजयमित्र । सत्यवाहे-सार्थवाह को । सुणेति--सुनते हैं । तहा - उस समय । ते-वे। हत्थनिक्खेवं च - जो पदार्थ अपने हाथ से लिया हुअा हो अर्थात् धरोहर । बाहिरभंडसारं च- तथा बाह्य-धरोहर से अतिरिक्त भाण्डसार-बहुमूल्य वाले वस्त्र आभूषण. श्रादि (१) एकान्तम्-अलक्षितस्थानम् अपक्रामन्ति वाणिजग्रामतः पलायित्वा प्रयान्तीत्यर्थः, अर्थात् ईश्वर और तलवर आदि लोग धरोहरादि को लेकर वाणिजग्राम से बाहिर ऐसे स्थान पर चले गये जिस का दूसरों को पता न चल सके । (२) जिस की कोई रक्षा करने वाला न हो वह अत्राण कहलाता है । (३) जिस का कोई आश्रय दाता न हो उसे अशरण कहते हैं। For Private And Personal Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय । हिन्दी भाषा टीका सहित । गहाय - ग्रहण कर । एगंतं-एकान्त में । अवक्कमंति-चले जाते हैं । तते णं - तदनन्तर । सा-वह । सुभदा सत्यवाही-सुभद्रा सार्थवाही। विजयमित्त-विजयमित्र । सत्यवाहे - सार्थवाह को जिस के। पातविवत्तियं-जहाज़ पर विपत्ति आ गई है और । निव्वुड्डभंडसारं जिस का सारभाण्ड समुद्र में निमग्न हो गया है, ऐसे उस को। लवणसमुद्दे - लवणसमुद्र में । कालधम्मुणा-काल-धर्म से । संजुनं-संयुक्त मरे हुए को। सुणेति २ त्ता-सुनती है, सुन कर । महया-महान् । पतिसोएणंपतिशोक से । अप्फुराणा समाणी-व्याप्त हुई अर्थात् अत्यन्त दुःखित हुई २ । परसुनियत्ता विव चंपगलता कुल्हाड़ी से काटी गई चम्पक ( वृक्ष विशेष, अथवा चम्पा के पेड़ ) की लता-शाखा' - की भांति धसत्ति-धड़ाम से । धरणीतलंसि -जमीन पर । सवंगेहिं - सर्व अंगों से । संनिवडिया- गिर पड़ी। तते गं - तदनन्तर । सा-वह । सुभद्दा-सुभद्रा । सत्यवाही- सार्थवाही । मुहुत्तं तरेणं-एक मुहूर्त के अनन्तर । आसत्था समाणी-आश्वस्त हुई - सावधान हुई । बहूहिं-अनेक । मित्त०-मित्र जाति आदि । जाव-यावत् संबन्धियो से । परिवुड़ा-घिरी हुई । रायमाणी-रुदन करती हुई । कदमाणी-क्रन्दन करती हुई । विलवमा णी - विलाप करती हुई । विजयमित्तस्स - विजयमित्र सत्यवाहस्स-सार्थवाह की । लोइयाई-लौकिक । मियकिच्चाई -मृतक-क्रियाओं को । करोतिकरती है । तते णं- तदनन्तर । सा - वह । सुभद्दा - सुभद्रा । सत्थवाही – सार्थवाही । अन्नया कयाती-किसी अन्य समय । लवणसमुद्दोत्तरणं -लवणसमुद्र में गमन । लच्छिविणासंच-लक्ष्मी--धन के विनाश । पोतविणासं च-जहाज़ के डूबने तथा । पतिमरणंच-पति के मरण का । अणुचिंतेमाणी-चिन्तन करती हई । कालधम्मणा-काल-धर्म से । संजत्तासंयुक्त हुई-मर गई । मूलार्थ- तदनन्तर किसी अन्य समय विजयमित्र सार्थवाह ने जहाज़ से गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेदा रूप चारप्रकार की पण्यवस्तुओं को लेकर लवणसमुद्र में प्रस्थान किया, परन्तु लवणसर में जहाज़ पर विपत्ति आने से वह विजयमित्र की उक्त चारों प्रकार की महामूल्य वाली वस्त्र, आभूषण आदि वस्तुएं जलमग्न हो गई, और वह स्वयं भी त्राणरहित एवं शरणरहित होने से कालधर्म-मृत्यु को प्राप्त हो गया। तदनन्तर ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य. श्रेष्ठी और सार्थवाहों ने जब लवणसमुद्र में जहाज़ के नष्ट तथा महामूल्य वाले क्रयाणक के जलमग्न हो जाने पर त्राण और शरण मे रहित विजयमित्र की मृत्यु का वृत्तान्त सुना तब वे हस्तनिक्षेप और बाह्य (उस के अतिरिक्त) भांडसार को लेकर एकान्त स्थान में चले गये। सुभद्रा सार्थवाही ने जिस समय लवणसमुद्र में जहाज़ पर संकट आ जाने के कारण भांडसार के जलमग्न होने के साथ साथ विजयमित्र की मृत्यु का वृत्तान्त सुना तब वह पतिवियोग (१) लता के अनेको अर्थों में से बेल यह अर्थ अधिक प्रसिद्ध एवं व्यवहार में आने वाला है । बेल का अर्थ है - वह छोटा कोमल पौधा जो अपने बल पर ऊपर की ओर उठ कर' बढ़ नहीं सकता। परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में परशु (एक अस्त्र जिस में एक डण्डे के सिरे पर अर्द्ध चन्द्राकार लोहे का फाल लगा रहता है, कुल्हाड़ी विशेष) से काटी हुई चम्पक-लता की भांति धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ी, ऐसा प्रसंग चल रहा है, ऐसी स्थिति में यदि लता का अर्थ बेल करते हैं तो इस अर्थ में यह भाव संकलित नहीं होता क्योंकि बेल तो स्वयं जमीन पर होती हैं उस का धड़ाम से जमीन पर गिरना कैसे हो सकता है ? अतः प्रस्तुत प्रकरण में लता का शाखा अर्थ ही उपयुक्त प्रतीत होता है। For Private And Personal Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ૨૬૪ } श्री विपाक सूत्र | दूसरा अध्याय जन्य महान शोक से व्याप्त हुई कुठाराहत - कुल्हाडे से कटी हुई चम्पकवृक्ष की लता- शाखा की भांति धड़ाम से पृथिवी तल पर गिर पड़ी । तदनन्तर वह सुभद्रा एक मुहूर्त के अनन्तर आश्वस्त हो तथा अनेक मित्र ज्ञाति यावत् सम्बन्धिजनों से घिरी हुई और रुदन, क्रन्दन तथा विलाप करती हुई विजयवित्र के लौकिक मृतक क्रियाकम को करती है । तदनन्तर वह सुभद्रा सार्थवाही किसी अन्य समय पर लवणसमुद्र पर पति का गमन लक्ष्मी का विनाश, पोत- जहाज़ का जलमग्न होना तथा पतिदेव की मृत्यु की चिन्ता में निमग्न हुई कालधर्म - मृत्यु को प्राप्त हो गई। टीका - प्रत्येक मानव उन्नति चाहता है और उस के लिये वह यत्न भी करता है । फिर वह उन्नति चाहे किसी भी प्रकार क्यों न हो । एक जितेन्द्रिय साधु व्यक्ति मन तथा इन्द्रियों के दमन एवं साधनामय जीवन व्यतीत करने में ही अपनी उन्नति मानता है। एक विद्यार्थी अपनी कक्षा में अधिक अंक - नम्बर लेकर पास होने में उन्नति समझता है । इसी प्रकार एक व्यापारी की उन्नति इसी में है कि उसे व्यापार- क्षेत्र में अधिकाधिक लाभ हो । सारांश यह है कि हर एक जीव इसी लक्ष्य को सन्मुख रखकर प्रयास कर रहा है। इसी विचार से प्रेरित हुआ विजयमित्र सार्थवाह आर्थिक उन्नति की इच्छा से अवसर देख कर विदेश जाने को तैयार हुआ, तदर्थ उसने अनेकविध गणिम, धरिम, मेय, और परिच्छेद्य नाम की पण्य - बेचने योग्य वस्तुओं का संग्रह किया । गिणती में बेची जाने वाली वस्तु गणिम कहलाती है, अर्थात् जिस वस्तु का भाव संख्या पर नियत हो जैसे कि नारियल आदि पदार्थ, उसकी गणिम संज्ञा है । जो वस्तु तुला - तराज़ू से तोल कर बेची जाय, जैसे घृत, शर्करा आदि पदार्थ, उसे धरिम कहते हैं । नाप कर बेचे जाने वाले पदार्थ कपड़ा फीता आदि मे कहलाते हैं तथा जिन वस्तुओं का क्रय-विक्रय परीक्षाधीन हो उन्हें परिच्छेद्य कहते हैं । हीरा पन्ना आदि रत्नों का परिच्छेद्य वस्तुओं में ग्रहण होता है । 1 विजय मित्र सार्थवाह ने इन चतुबिंध पण्य-वस्तुओं को एक जहाज़ में भरा और उसे ले कर वह लवणसमुद्र में विदेश गमनार्थ चल पड़ा । चलते २ रास्ते में जहाज़ उलट गया अर्थात् किसी पहाड़ी आदि से टकराकर अथवा तूफान आदि किसी भी कारण से छिन्न भिन्न हो गया, उस में भरी हुई तमाम चीजें जलमग्न हो गई और विजयमित्र सार्थवाह का भी वहीं प्राणान्त हो गया । कर्म की बड़ी विचित्र है । मानव प्राणी सोचता तो कुछ और है मगर होता है कुछ और । विजयमित्र ने अधिकाधिक लाभ प्राप्त करने की इच्छा से समुद्रयात्रा द्वारा विदेशगमन किया, वह समुद्र में सब कुछ विसर्जित कर देने के अतिरिक्त अपने जीवन को भी खो बैठा। इसी को दूसरे शब्दों में भावी -भाव कहते हैं, जो कि अमिट है । विजय मित्र सार्थवाह की इस दशा का समाचार जब वहां के ईश्वर, तलवर और माम्बिक आदि लोगों को मिला तब वे मन में बड़े प्रसन्न हुए, उन के लिये तो यह मृत्यु समाचार नहीं (१) यह प्रकृति का नियम है कि जहां फूल होते हैं वहां काटे भी होते हैं, इसी भांति जहां अच्छे विचारों के लोग होते हैं वहां गर्हित विचार रखने वाले लोगों की भी कमी नहीं होती । यही कारण है कि जब स्वार्थी लोगों ने विजयमित्र का परलोक-गमन तथा उस की सम्पत्ति का समुद्र में जलमग्न हो जाना सुना तो परदुःख से दुःखित होने के कर्तव्य से च्युत होते हुए उन लोगों ने अपना स्वार्थ साधना आरम्भ किया और जिस के जो हाथ लगा वह वही ले कर चल दिया। धिक्कार है ऐसी जघन्यतम लोभवृत्ति को । For Private And Personal Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दुसरा अध्याय 1 हिन्दी भाषा टीका सहित । [१६५ था किन्तु उन की सौभाग्य-श्री ने उन्हें पुकारा हो ऐसा था । उन्हों ने हस्तनिक्षेप और उस के प्रतिरिक्त अन्य सारभांड आदि को लेकर एकान्त में प्रस्थान कर दिया, सारांश यह है कि विजय मित्र की विभूति में से जो कुछ किसी के हाथ लगा वह लेकर चलता बना । । ऐश्वर्य वाले को ईश्वर कहते हैं। राजा सन्तुष्ट हो कर जिन्हें पट्टबन्ध देता है, वे राजा के समान पबन्ध से विभूषित लोग तलवर कहलाते हैं अथवा नगर रक्षक कोतवाल को तलवर कहते हैं । जो बस्ती भिन्न भिन्न हो उसे मडम्ब और उस के अधिकारी को माडम्बिक कहते हैं। जो कुटुम्ब का पालन पोषण करते हैं या जिन के द्वारा बहुत से कुटुम्बों का पालन होता है उन्हें कौटुम्बिक कहते हैं । इसका अर्थ है हाथी । हाथी के बराबर द्रव्य जिस के पास हो उसे इभ्य कहते हैं । जो नगर के प्रधान व्यापारी हों उन्हें अष्ठी कहते हैं । जो गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य रूप खरीदने और बेचने योग्य वस्तुओं को लेकर और लाभ के लिये देशान्तर जाने वालों को साथ ले जाते हैं और योग (नई वस्तु की प्राप्ति), क्षेम ( प्राप्त वस्तु की रक्षा) द्वारा उन का पालन करते हैं, तथा दुःखियों की भलाई के लिए उन्हें धन देकर व्यापार द्वारा धनवान् बनाते हैं उन्हें सार्थवाह कहते हैं । ईश्वर आदि शब्दों के प्रस्तुत सूत्र के पृष्ठ ५७ पर दिए जा चुके हैं। और अर्थ भी देखने में आते हैं। कर्मचक्र में फंसा हुआ मनुष्य चारों तर्फ से दुःखी होता है। जो मित्र होते हैं वे शत्रु बन जाते हैं और अवसर मिलने पर उस की धनसम्पत्ति को हड़प करके स्वयं धनी होना चाहते हैं । सारांश यह है कि रक्षक ही भक्षक बन जाते हैं, जिस का यह एक - विजयमित्र ज्वलन्त उदाहरण है । जिस समय सुभद्रा ने पति का मरण और जहाज़ का डूबना सुना तो वह शाखा की भांति ज़मीन पर गिर गई और उसे कोई होश नहीं रही। थोड़ी देर रोने चिल्लाने और विलाप करने लगी । इसी अवस्था उस ने पतिदेव का श्रर्द्ध - दैहिक कृत्य ( मरने के बाद किए जाने वाले कर्म, अन्त्येष्टिकर्म । किया, तथा कुछ समय बाद वह पति - वियोग की चिन्ता में निमग्न हुई मृत्यु को प्राप्त हो गई । वृक्ष से कटी हुई लता - बाद होश आने पर वह दुःखी हृदय ही दुःख का अनुभव कर सकता है । पिपासु को ही पिपासाजन्य दुःख की अनुभति हो सकती है इसी भांति पति-वियोग-जन्य दुःख का अनुभव भी असहाय विधवा के सिवा और किसी को नहीं हो सकता । विजयमित्र सार्थवाह के परलोकगमन और घर में रही हुई धन सम्पत्ति के बिनाश से सुभद्रा के हृदय को जो तीव्र आघात पहुंचा उसी के परिणाम स्वरूप उस की मृत्यु हो गई । -- प्रस्तुत सूत्र में “ - इत्थनिक्खेव हस्तनिक्षेप - " और " - बाहिर भण्डसार बाह्यभाण्डसार - इन पदों का प्रयोग किया गया है, आचार्य अभयदेव सूरि ने इन पदों की निम्नोक्त व्याख्या की है" - हत्थनिक्खेवं च त्ति हस्ते निक्षेपो न्यासः समर्पणं यस्य द्रव्यस्य तद् हस्तनिक्षेम्, बाहिरभाण्डसारं च - " ति हस्तनिक्षेपव्यतिरिक्तं च भाण्डसारमिति - " अर्थात् जो हाथ में दूसरे को सौंपा जाए उसे हस्तनिक्षेप कहते हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो धरोहर का नाम हस्तनिक्षेप है । हस्तनिक्षेप के अतिरिक्त जो सारभाण्ड है उसे बाह्यभाण्डसार कहते हैं । तात्पर्य यह है कि किसी की साक्षी hair पने हाथ से दिया गया सारभाण्ड हस्तनिक्षेप और किसी की साक्षी से अर्थात् लोगों की जानकारी में दिया गया सारभाण्ड बाह्यभाण्डसार के नाम से विख्यात है । For Private And Personal सारभण्ड शब्द से महान् मूल्य वाले वस्त्र, आभूषण श्रादि पदार्थ गृहीत होते हैं । और पुरातन वस्त्र, पात्र, आदि पदार्थों को मार भण्ड कहा जाता है। या यूं कहें कि जो पदार्थ भार में लघु-हलके हों, Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रो विपाक सूत्र (दूसरा अध्याय किन्तु मूल्य में अधिक हो, जैसे रत्न, मणि आदि इन्हें सारभाण्ड कहा जाता है, इस के विपरीत जो भार में अधिक एवं मूल्य में अल्प हो जैसे लोहा, पीतल आदि पदार्थ ये असारभाण्ड कहलाते हैं। अब सूत्रकार उज्झितक सम्बन्धी आगे का का वृत्तान्त लिखते हैंमूल-तते णं णगरगुत्तिया सुभद्द सत्थ. कालगयं जाणित्ता उज्झियगं दारगं सातो गिहातो णिच्छभंति, णिच्छभित्ता तं गिहं अन्नस्स दलयंति । तते णं से उझियते दारए सयातो गिहातो निच्छूढ़े समाणे वाणियग्गामे नगरे सिंघाडग० २जाव पहेसु, जूयखलएसु, वेसियाघरएसु, पाणागारेसु य सुहंसुहेणं विहरइ । तते णं से उज्झितए दारए अणाहट्टिर अनिवारए सच्छदमती सइरप्पयारे " मज्जप्पसंगी चारजूयवेसदारप्पसंगी जाते. यावि होत्था । तते णं से उझियते अन्नया कयाती कामज्झयाए गणियाए सद्धिं संपलग्गे जाते यावि होत्था । कामझयाए गणियाए सद्धिं विउलाई उरालाई माणस्सगाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरति । पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । त गरगुत्तिया-व नगररक्षक-नगर का प्रबन्ध करने वाले सभाह-सुभद्रा । सत्य०-सार्थवाही " को। कालगतं-मृत्यु को प्राप्त हुई । जाणित्ता-जानकर उभियगं-उज्झितक नामक । दारयं-बालक को । सातो-उसके अपने । गिहातो-घर से । शिति -निकाल देते हैं । णिच्छभित्ता-निकाल कर । तं गिहं-उस घर को । अन्नस्स अन्य को । दलयंति दे देते हैं । तते णं- तदनन्तर । से-वह । उज्झियते-उज्झितक । दारएबालक । सयातो गिहातो-अपने घर से । निच्छुढे समाणे-निकाला हुआ । वांणियग्गामे गरेवाणिजग्राम नगर में । सिंघाडग-त्रिकोणमार्ग आदि । जाव-यावत् । पहस-सामान्य मागों पर । जूयखलएसु-ध तस्थानों-जूएखानों में । वेसियाघर रासु- वेश्यागृहों में । पाणागारेस-मद्य. स्थानों शराब खानों में । सुहंसुहेणं-सुख-पूर्वक। विहरइ-परिभ्रमण कर रहा है। तते गं छाया-ततस्ते नगरगौप्तिकाः सुभद्रां सार्थवाही कालगतां ज्ञात्वा उज्झितक दारकं स्वस्माद गृहाद् निष्कासयन्ति निष्कास्य तद्गृहमन्यस्मै दापयन्ति । ततः स उज्झितको. दारकः स्वस्माद गृहाद् निष्कासितः सन् वाणिजग्रामे नगरे शृधाठक० यावत् पथेषु य तागारेषु वेश्यागृहेषु पानागारेषु च सुखसुखेन विहरति । ततः स दारकोऽनपघट्टकोऽ'निवारकः स्वच्छन्दमतिः ‘स्वैरप्रचारो मद्यप्रसंगी चोरा तवेश्यादारप्रसंगी जातश्चाप्यभवत् । ततः स उज्झितकोऽन्यदा . कदाचित् कामध्वजया गणिकयाँ सार्द्ध सप्रलग्नो जातश्चाप्यभूत्। कामध्वजया गणिकया साद्ध विपुलानुदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुजानो, विहरति । (२) जाब-यावत् -पद से-तिग-चउक्क-चचर-महापह- इन पदों का प्रहण समझना । इन पदों की व्याख्या पृष्ठ ६९ पर की जा चुकी है । (१) अनिवारकः-नास्ति निवारको, "-मवं कार्षी-रित्येवं निषेधको यस्य स तथाः प्रतिषेधकरहित हुत्यर्थः । स्वछन्दमतिः, स्ववशा स्ववशेन, वा मतिरस्येति, स्वछन्दमतिः । अत एव स्वैरपचार :- स्वैरमनिवारिततया प्रचारो यस्य स तयेति भावः । Songs For Private And Personal Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । तदनन्तर । से-वह । उकितर-उज्झितक । दारर-बाजक । अणोहट्टिए-अनपघटक बलपूर्वक हाथ आदि से पकड़ कर जिंसको कोई रोकने वाला न हो । आणबारप-अनिवारक जिस को वचन द्वारा भी कोई हटाने वाला न हो । सच्छंदमतो - स्वछंदमति - अपनी बुद्धि से ही काम करने वाला अर्थात् किसी दूसरे की न मानने वाला । सइरप्पयारे-निजमत्य नुसार यातायात करने वाला मज्जप्पसंगी मदिरा पीने वाला । चोर-चौर्य-कर्म । जूय - द्य त - ज्या तथा । वेसदारवेश्या और परस्त्री का । पतंगी -प्रसंग करने वाला अर्थात् चोरी करने, जूत्रा खेलने वेश्या - गमन और पर-स्त्रीगमन करने वाला । जाते यावि होत्या - भी हो गया । तते णं-तदनन्तर । सेवह । उझियते - उज्झितक । अन्नया-अन्य । कयाती-किसी समय । कामझयाए- कामध्वजा नामक । गणियार-गणिका के । सद्धि-साथ । संलग्गे- सप्रलग्न-संलग्न । जाते यावि होत्या-हो गया अर्थात् उसका कामध्वजा वेश्या के साथ स्नेहसम्बन्ध स्थापित हो गया, तदनन्तर वह । कामज्झयार-कामध्वजा । गणियार-गणिका–वेश्या के । सद्वि-साथ । विउलाई-महान । उरालाई - उदार - प्रधान । माणुस्सगाई - मनुष्यसम्बन्धी । भोगंभोगाई - मनोज्ञ भीगों, का भुंजमाणे-उपभोग करता हुआ । विहरति-समय बिताने लगा। मूलार्थ-तदनन्तर नगर-रक्षक पुरुषों ने सुभद्रा सार्थवाही को मृत्यु का समाचार प्राप्त कर इज्झितक कुमार को घर से निकाल दिया, और उस का वह घर किसी दूसरे को दे दिया । अपने घर से निकाला जाने पर वह उज्झितक कुमार वाणिजग्राम नगर के त्रिपथ, चतुष्पथ यावत् सामान्य मार्गों पर तथा द्यूतगृहों, वेश्यागृहों और पानगृहों में सुख-पूर्वक परिभ्रमण करने लगा। तदनन्तर बेरोकटोक स्वछन्दमति, एवं निरंकुश होता हुआ वह चौर्यकर्म, घतकर्म, वेश्यागमन और परस्त्रीगमन में आसक्त हो गया। तत्पश्चात् किसी समय कामध्वजा वेश्या से स्नेह सम्बन्ध स्थापित हो जाने के कारण वह उज्झितक उसी वेश्या के साथ पर्याप्त उदार-प्रधान मनुष्य सम्बन्धी विषय-भोगों का उपभोग करता हुआ समय व्यतीत करने लगा। . टोका-कर्मगति की विचित्रता को देखिये । जिस उज्झितक कुमार के पालन पोषण के लिये पांच धायनातायें विद्यामान थीं और माता पिता की छत्र छाया में जिसका.. राजकुमारों जैसा पानन -पोषण हो रहा था । आजे वह माता-पिता से विहीन -रहित धनसम्पत्ति से शून्य हो जाने के अतिरिक्त घर से भी निकाल दिया गया है। उसके लिये अब वाणिजग्राम नगर की गलियों, बाजारों तथा इसी प्रकार के स्थानों" में घूमने फिरने और जहां तहां पड़े रहने के सिवा और कोई चारा नहीं । उसके ऊपर अब किसी का अंकुश नहीं. रहा, बह) जिधर जी चाहे जाता है, जहां मनचाहे रहता है दुर्दैव-वशात उसे सथी भी ऐसे ही मिल गये । उन के सहवास से वह सर्वथा स्वेच्छाचारी और स्वच्छन्दमति हो गया । उसका अधिक निवास अब या तो जूएखानों में या शराबखानों में अथवा वेश्या के घरों में होने लगा। सारांश यह है कि निरंकुशता के कारण वह चीरो करने. जूआ खेलने, शराब पीने ओर पर-स्त्रीगमन श्राद के कुव्यसनों में आसक्त हो गया । (१) जिस व्यक्ति ने उज्झितक के पिता से रुपया लेना था, अधिकारी लोगों ने उज्झितक को निकाल कर रुपये के बदले उस का घर उस (उत्तमर्ण) को सौंप दिया। For Private And Personal Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १६८ ] श्री विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय " – विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः - अर्थात् विवेकहीन व्यक्तियों के पतित हो जाने के सैंकड़ों मार्ग हैं, इस अभियुक्तोक्ति के अनुसार दुर्दैववशात् उज्झितक कुमार का किसी समय वाणिजग्राम नगर की सुप्रसिद्ध वेश्या कामध्वजा से स्नेहसम्बन्ध स्थापित हो गया / उस के कारण वह मनुष्य सम्बन्धी विषय-भोगों का पर्याप्त रूप से उपभोग करता हुआ आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा । "श्रणाप" पद की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में इस प्रकार है " यो बलात् हस्तादौ गृहीत्वा प्रवर्तमानं निवारयति सोऽपघट्टकस्तदभावादनप घट्टकः” अर्थात् जो किसी को बलपूर्वक हाथ आदि से पकड़ कर किसी भी कार्य विशेष से रोक देता है वह अपघट्ट निवारक कहलाता है और इसके विपरीत जिस का कोई अपघट्टक - रोकने वाला न हो उसे अपघट्टक कहते है । इस प्रकार का व्यक्ति ही कुसगदोष से स्वच्छन्दमति और स्वेच्छाचारी हो जाता है । " वेसदारप्पसंगी " गामी और परदार - गामी तथा इस पद के वृत्तिकार ने दो' अर्थ किये हैं, जैसे कि - (१) वेश्या२ - वेश्या रूप स्त्रियां के साथ अनुचित सम्बन्ध रखने वाला । प्रस्तुत सूत्र में वेश्या और दारा ये दो शब्द निर्दिष्ट हुए हैं । इन में वेश्या का अर्थ है पराय - स्त्री अर्थात खरीदी जाने वाली बाजारू औरत । और दारा वह है जिसका विधि के अनुसार पाणिग्रहण किया गया हो । दारा शब्द की शास्त्रीय व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir " दारयन्ति पतिसम्बन्धेन पितृभ्रात्रादिस्नेहं भिन्दन्तीति दाराः " अर्थात् पति के साथ सम्बन्ध जोड़ कर जो पिता भ्राता आदि स्नेह का दारण- विच्छेद करती है वह दारा कही । जाती है । दूसरे की स्त्री को पर- स्त्री कहते हैं | साहित्य — ग्रन्थों में स्वकीया, परकीया और सामान्या ये तीन भेद नायिका - स्त्री के किये गए इन में स्वकीया स्वस्त्री का नाम है परस्त्री को परकीया और वेश्या को सामान्या कहा है । वेश्या न तो स्वस्त्री है और न परस्त्री किन्तु सर्व-भोग्य होने से वह सामान्या कहलाती है । अतः वेश्या और परस्त्री दोनों ही भिन्न २ पदार्थ हैं । वेश्या का कोई एक स्वामी-मालक या पति नहीं होता जब कि पर- स्त्री एक नियत स्वामी वाली होती है। इसी विभिन्नता को लेकर सूत्रकार ने " वेसदारम्पसंगी " इसमें दोनों का पृथक् रूप से निर्देश किया है जो कि उचित ही हैं । " भोगभोगाई" इस पद की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में "भोजनं भोगः - परिभोगः भुज्यन्त इति भोगा शब्दादयो, भोगार्हा भोगा भोग भोगाः - मनोशाः शब्दादय इत्यर्थः - इस प्रकार है, अर्थात् - भोग शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से की जा सकती है, जैसे कि - (१) परिभोग करना (२) जिन शब्दादि पदार्थों का परिभोग किया आदि भोग कहलाते हैं । प्रस्तुत प्रकरण में भोगभोग शब्द प्रयुक्त हुआ है, के भोग शब्द का अर्थ है - भोगाई - भोगयोग्य और दूसरे भोग शब्द का “ – शब्द अर्थ है । तात्पर्य यह है कि भोगभोग शब्द मनोज्ञ-सुन्दर शब्दादि का परिचायक है । सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में मित्र महापाल की महाराणी के योनि - शूल का वर्णन करते हुए उज्झितक कुमार की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हैं - (१) “ – वेसदारम्पसंगी " त्ति वेश्याप्रसंगी कलत्रप्रसंगी चेत्यर्थः, अथवा वेश्यारूपा ये दारास्त. प्रसंगीति वृत्तिकारः । For Private And Personal जाए वे शब्द, रूप जिस में से प्रथम रूप आदि - " यह Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय हिन्दी भाषा टोका सहित । [१६९ मल- तते णं तस्स मित्तस्स रएणो अन्नया कयाइ सिरीए देवीए जोणिसूले पाउन्भूते यावि होत्था । नो संचाएति विजयमित्ते राया सिरोए देवीए सद्वि उालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरित्तए । तते णं से विजयमित्ते राया अन्नया कयाइ उझिययं दाग्यं कामझयाए गणियाए गेहाप्रो णिच्छुभावेइ २ ता कामज्झयं गणियं अभितरियं ठावेति २ ता कामज्झयाए गणियाए सद्वि उरालाई जाव' विहरति । तते णं से उझियए दारए कामझपाए गणियाए गेहातो निच्छुब्भमाणे समाणे कामझयाए गणियाए मुच्छिते गिद्ध गढ़िते अज्झोववन्ने अन्नत्थ कत्थइ सुईच रति च धिति च अविंदमाणे तच्चिने तम्मणे तल्लेसे तदभवसाणे तदहावउने तयप्पियकरणे तब्भावणाभाविते कामज्झयाए गणियाए बहूणि अतराणि य छिदाणि य विवराणि य पडिजागरमाणे २ विहरति । पदार्थ-तते गं-तदनन्तर । तस्स मित्तस्स-उस मित्र नामक । रराणो-राजा की । सिरीए देवीए-श्री नामक देवी के । अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय । जोणिसले - योनि. अल अर्थात् योनि में उत्पन्न होने वाली तीव्र वेदना-विशेष । पाउब्भूते-उत्पन्न । यावि हीत्था-हो गया, तब । विजयमित राया-विजयमित्र राजा । सिरीए देवीए-श्री देवी के । सद्धिं-साथ । उरालाई-उदार-प्रधान । माणुस्सगाई-मनुष्य-सम्बन्धी । भोगभोगाई-मनोज भोगों को । भुजमाणे -- उपभोग करता हुआ । विहरित्तए-विहरण करने में । नो संचाएति-समर्थ नहीं रहा । ततेणं-तदनन्तर । अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय । से विजयमित्ते राया-वह विजयमित्र राजा | उभिययं-उज्झितक । दारयं-बालक को। कामझयाए-कामध्वजा । गणियाए- गणिका के । गिहाओ-घर से । णिच्छुभावइ -निकलवा देता है ।२त्ता-निकलवा कर । कामझयं - कामध्वजा । गणियं-गणिका को । अभितरियं-भीतर अर्थात् अन्तःपुर में। ठवेति-रखलेता है । कामज्झयाए-कामध्वजा । गणियाए-गणिका के । सद्धिं-साथ । उरालाई-उदार-प्रधान जाव-यावत् भोगों का उपभोग करता हुआ । विहरति-समय व्यतीत करता है । तते णंतदनन्तर । से उझियए दारर-वह उज्झितक कुमार बालक । काममयाए - कामध्वजा । गणियाए (१) छाया-ततस्तस्य मित्रस्य राज्ञः अन्यदा कदाचित् श्रियाः देव्याः योनिशूलं प्रादुभूतं. चाप्यभवत् । नो संशक्नोति विजयमित्रो राजा श्रिया देव्या सामुदारान् म.नुष्यकान् भोगभोगान् भुजानो विहम् । ततः स विजयमित्रो राजाऽन्यदा कदाचित उज्झितकं दारकं कामध्वजाया गणिकाया गेहाद् निष्कासयति, निष्कास्य कामध्वजां गणिकामभ्यन्तरे स्थापयति. स्थापयित्वा कामध्वजया गणिकया सार्द्धमुदारान् यावत् विहरति । ततः सः उज्झितको कामध्वजाया गणिकाया गृहाद् निष्कास्यमानः सन् कामध्वजायां गणिकायां मूञ्छितो, गृद्धो, ग्रथितोऽध्युपन्नोऽन्यत्र कुत्रापि स्मृति च रतिं च धृति चाविन्दमानस्तच्चित्तस्तन्मनास्तल्लेश्यस्तदध्यवसानस्तदर्थोपयुक्तस्तदर्पितकरणस्तद्भावनाभावित: कामध्वजाया गणिकाया बहून्यन्तराणि च छिद्राणि च विवराणि च प्रतिजागरत् २ विहरति ।। (२) "जाव-यावत्" पद से "माणुस्सगाई भोगभोगाई भुजमाणे” इन पदों का ग्रहण समझना चाहिये। For Private And Personal Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १७० श्री विपाक सूत्र [ दूसरा अध्याय गणिका के । गेहातो-घर से । णिच्छन्भमाणे समाणे-निकाला हुआ । कामझयाए गणियाएकामध्वजा गणिका में । मुच्छिते मूर्छित-उसी के ध्यान में पगला हुअा २ । गिद्धे -- गृद्ध - आकांक्षा वाला । गढिते- ग्रथित-स्नेह जाल में बंधा हुा । अज्झोववन्ने-अध्युपपन्न अर्थात् उस में आसक्त हुअा २ | अन्नत्य कथइ- और कहीं पर भी । सुईच-स्मृति -- स्मरण अर्थात् उसे प्रतिक्षण उसी का स्मरण - याद रहता है, वह किसी और का स्मरण नहीं करता । रतिं च- रतिप्रीति अर्थाद् उस वेश्या के अतिरिक्त उस का कहीं दूसरी जगह प्रेम नहीं है । धितिं च - धृति--मानसिक स्थिरता अर्थात् उस वेश्या के सानिध्य को छोड़ कर उस का मन कहीं स्थिरता एवं शान्ति को प्राप्त नहीं होता है. ऐसा वह उज्झितक कुमार स्मृति, रति और धृति को । अविंदमाणे - प्राप्त न करता हुआ। तच्चित्ते-तद्गतचित्त-उसी में - गणिका में चित्त वाला तम्मणे - उसी में मन रखने वाला । तल्लेसे-तविषयक परिणामों वाला। तदभवसाणे तविषयक अध्यवसाय अर्थात् भोगक्रिया सम्बन्धी प्रयत्न विशेष वाला । तदट्टोवउत्त-उसकी प्राप्ति के लिये उपयुक्त उपयोग रखने वाला । तयप्पियकरणे-उसी में समस्त इन्द्रियों को अर्पित करने वाला अर्थात् उसी की ओर जिस की समस्त इन्द्रियें आकषित हो रही हैं । तब्भावणाभाविते - उसी की भावना करने वाला तथा । कामझयाए-कामध्वजा । गणियाए-गणिका के । बहूणि अंतराणि य-अनेक अन्तर अर्थात् जिस समय राजा का आगमन न हो । छिदाणि य-छिद्र - अर्थात् राजा के परिवार का कोई व्यक्ति न हो। विवराणि-विवर-कोई सामान्य मनुष्य भी जिस समय न हो । पडिजाग रमाणे-ऐसे समय की गवेषणा करता हुआ । विहरति-विहरण कर रहा था । मूलार्थ-तदनन्तर उस विजयमित्र नामा महीपाल-राजा की श्री नामक देवी को योनिशूलयोनि में होने वाला वेदना-प्रधान रोग विशेष उत्पन्न हो गया। इसलिए विजयमित्र नरेश राणी के साथ उदार-प्रधान मनुष्य-सम्बन्धी काम-भोगों के सेवन में समथ नहीं रहा । तदनन्तर अन्य किसी समय उस राजा ने उम्भितक कुमार को कामध्वजा गणिका के स्थान में से निकलवा दिया और कामध्वजा वेश्या को अपने भीतर अर्थात् अन्तःपुर-रणवास में रख लिया और उसके साथ मनुष्य-सम्बन्धी उदार-प्रधान विषय-भोगों का उपभोग करने लगा। तदनन्तर कामध्वजा गणिका के गृह से निकाले जाने पर कामध्वजा वेश्या में मूच्छित --उस वेश्या के ध्यान में ही मूढ़-पगला बना हुआ, गृद्ध-उस वेश्या की आकांक्षा - इच्छा रखने वाला, ग्रथितउस गणिका के ही स्नेहजाल में जकड़ा हुआ, और अध्युपपन्न -उस वेश्या को चिन्ता में अत्यधिक व्यासक्त रहने वाला वह उज्झितक कुमार और किसी स्थान पर भी स्मृति-स्मरण, रति-प्रीति और धृतिमानसिक शांति को प्राप्त न करता हुआ, उसी में चित्त और मन लगाए हुए, तद्विषयक परिणाम वाला, तत्सम्बन्धी काम भोगों में प्रयत्न -शोल, उस की प्राप्ति के लिए उद्यत-तत्पर और तदपितकरण अर्थात् जिस का मन वचन और देह ये सब उसी के लिए अर्पित हो रहे हैं, अतएव उसी की भावना से भावित होता हुआ २ कामध्वजा वेश्या के अन्तर, छिद्र और विवरों की गवेषणा करता हुआ जीवन बिता रहा है। टीका-प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में यह वर्णन कर चुके हैं कि-वाणिजग्राम नाम का एक सुप्रसिद्ध नगर था, महाराज मित्र वहां राज्य किया करते थे। उन की महाराणी का नाम श्री देवी था। दोनों वहां सानन्द जीवन बिता रहे थे। For Private And Personal Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दूसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ १७१ आगमों में इस बात का वर्णन बड़े मौलिक शब्दों में उपलब्ध किया जाता है कि पूर्व-संचित कर्मों के आधार पर ही सुख तथा दुःख का परिणाम होता है। यदि पूर्व कर्म शुभ हों तो जीवन में श्रानन्द रहता है और यदे अशम हों तो जीवन संकटों से व्याप्त हो जाता है । जिस तर्फ भी प्रवृत्ति होती है रोग उत्पन्न होने लग जाते हैं, फिर रोग भी जिन की चिकित्सा न 1 वहां हानि ही हानि के दर्शन होते हैं। भी ऐसे कि जिन का प्रतिकार अत्यत एवं वे भी हार मान जाऐं यह सब कुछ स्वोपार्जित अशुभ कमों की ही महिमा है । कर पायें शरीर में एक से अधिक कठिन हो । अनुभवी वैद्य Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir समय की गति बड़ी विचित्र है । श्राज जो जीव सुखमय जीवन बिता रहा है । कल वहीं असह्य दुःखों का अनुभव करने लगता है । महाराणी श्री भी समय के चक्र में फंसी हुई इसी नियम को उदाहरण बन रही थी । उसे योनिशूल ने आक्रमित कर लिया । योनिगत तीव्र वेदना से वह सदा व्यथित एवं व्याकुल रहने लगी । स्त्री की जननेन्द्रिय को योनि कहते हैं, तद्गत तीव्र वेदना का योनिशूल के नाम से उल्लेख किया जाता है । यह रोग कष्टसाध्य है, अगर इस का पूरी तरह से प्रतिकार न किया जाए तो स्त्री विषयभोगों के योग्य नहीं रहती। इसी लिये विजयमित्र नरेश श्री देवी के साथ सांसारिक विषय-वासना की पूर्ति में असफल रहते । दूसरे शब्दों में कहें तो श्री देवी विजयमित्र की कामवासना पूरी करने में अस मर्थ हो गई थी । उस मानव प्राणी पर मन का सब से अधिक नियन्त्रण है, उस की अनुकूलता जितनी हितकर है कहीं अधिक नष्ट करने वाली उस की प्रतिकूलता है। अनुकूल मन मानव प्राणी को ऊंचे से ऊंचे स्थान पर जा बिठाता है, और प्रतिकूल हुआ वह मानव को नीचे से नीचे गर्त में गिरा देने से भी कभी नहीं चूकता | सारांश यह है कि मन की निरंकुशता अनेक प्रकार के अनिष्टों का सम्पादन करने वाली है। महाराज विजयमित्र का निरंकुश मन श्री देवी के द्वारा नियंत्रित न होने के कारण अशान्त, अथच व्यथित रहता था । काम-वासना की पूर्ति न होने से मित्रनरेश का मन नितान्त विकृत दशा को प्राप्त हो रहा था परन्तु उस का कर्तव्य उसे परस्त्रीसेवन से रोक रहा था । प्रतिक्षण कामवासना तथा कर्तव्य-प -परायणता में युद्ध हो रहा था । कभी कर्तव्य पर वासना विजय पाती और कभी वासना पर कर्तव्य को विजय लाभ होता 1 इस पारस्परिक संघर्ष में अन्ततो गत्वा कर्तव्य पर कामवासना को विजय-लाभ हुआ, उस के तीव्र प्रभाव के आगे कर्तव्य को पराजित - परास्त होना पड़ा। विजय नरेश के हृदय पर कर्तव्य के बदले कामवासना ने ही सर्वेसर्वा अधिकार प्राप्त कर लिया, उस के चित्त से स्वस्त्री सन्तोष के विचार निकल गये, वहां परस्त्री या सामान्यास्त्री के उपभोग के अतिरिक्त और कोई लालसा नहीं रही और तदर्थ उस ने वहां पर रहने वाले कामध्वजा के कृपापात्र उज्झितक कुमार को निकलवाया और बाद अन्तःपुर में रख लिया । अत्र वह अपनी काम वासना को कामध्वजा वेश्या के प्रत्येक मानव प्राण की यह उत्कट इच्छा रहती है कि उस का तीत हो, इसके लिये वह यथाशक्ति श्रम भी करता है परन्तु कर्म का विकराल चक्र मानव के महान् योजना दुर्ग को आन की आन में भूमीसात् कर देता है । उज्झितक कुमार चाहता था कि कामध्वजा के सहवास में ही उस का जीवन व्यतीत हो और वह निरन्तर ही मानवीय विषय - भोगों का यथेष्ट में कामध्वजा को अपने द्वारा पूरी करने लगा । समस्त जीवन सुखमय व्य For Private And Personal Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १७] श्री विपणक सूत्र अध्याय उपभोग करता रहे। परन्तु "सब दिन होत न एक समाम'' इस कहावत के अनुसार उज्झितक का वह सुख नष्ट होते कुछ भी देरी नहीं लगी। काम-वासना से वासित चित वाले मित्र नरेश ने कामध्वजा में आसक्त होते ही पांव के कांटे की तरह उसे - उज्झितक को वहां से निकलवा दिया और कामध्वजा पर अपना पूरा पूरा अधिकार कर लिया। उज्झितक कुमार गरीब निर्धन अथच असहाय था यह सत्य है और यह भी सत्य है कि मित्र नरेश के मुकाबिले में उसकी कुछ भी गणना नहीं थी । परन्तु वह भी एक मानव था और मित्र नरेश की भाति उस में भी मानवोचित हृदय विद्यमान था । प्रेम फिर वह शुद्ध हो या विक, यह हृदय की वस्तु है उस में धनाढ्य या निधन का कोई प्रश्न नहीं रहता । यही कारण था कि कामध्वजा वेश्या ने एक निर्धन अथवा अनाथ युवक को अपने प्रेम का अतिथि बनाया और राजशासन में नियंत्रित होने पर भी वह उज्झितक कुमार का परित्याग न कर सकी। कामध्वजा के निवास स्थान से बहिष्कृत किये जाने पर भी उज्झितक कुमार की कामध्वजागत मानसिक आसक्ति अथवा तद्गतप्रमातिरेक में कोई कमी नहीं आने पाई । वह निरन्तर उस की प्राप्ति में यत्नशील रहता है, अधिक क्या कहें उसके मन को अन्यत्र कहीं पर भी किसी प्रकार की शांति नहीं मिलता । वह हर समय एकान्त अवसर की खोज में रहता है। विषयासक्त मानव के हृदय में अपनी प्रेमी के लिये मोह-जन्य विषयवासना कितनी जागृत होती है। उसका अनुभव काम के पुजारी प्रत्येक मानव को प्रत्यक्षरूप से होता है । परन्तु इस विकृत प्रेम -विकृत राग के स्थान में यदि विशुद्ध प्रेम का साम्राज्य हो तो अन्धकार-पूर्ण मानव हृदय में कितना आलोक होता है ? इसका अनुभव तो विश्वप्रेमी साधु पुरुष ही करते हैं, साधारण व्यक्ति तो उससे वंचित ही रहते हैं । कामध्वजा वेश्या के ध्यान में लीन हा उज्झितक कमार उसके असह्य वियोग से पागल सा बन गया । उसकी मानसिक लग्न को व्यक्त करने के लिये सूत्रकार ने जिन शब्दों का निर्देश किया है, उनके अर्थ की भावना करते हुए वे उस की हृदयगत लग्न के प्रतिबिम्बस्वरूप ही प्रतीत होते हैं । वृत्तिकार के शब्दों में उनकी व्याख्या इस प्रकार है “मुच्छिए" मच्छितो-मूढो दोषेष्वपि गुणाध्यारोपात् ।” गिद्ध" तदाकांक्षावान् " गढिए" प्रथितस्तद्विषयस्नेहतन्तुसन्दभितः, “ अज्झोववन्ने ” आधिक्येन तदेकाग्रतां गताऽभ्युपन्न: अतएवान्यत्र कुत्रापि वस्त्वन्तरे " सुईच" स्मृति-स्मरणम् “रइंच" रतिम्-आसक्तिम्, “ घिई चधृतिं च चित्तस्वास्थ्यम् , “ अविंदमाणे" अलभमाना, “ तच्चित्ते" तस्यामेव चित्त भावमनः सामान्येन वा मनो यस्य स तथा- " तम्मणे" द्रव्यमनः प्रतीत्य विशेषोपयोगं वा। "तल्लेसे" कामध्वजागताऽशुभात्मपरिणामविशेषः लेश्या हि कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यजनित आत्मपरिणाम इति, “ तदझवसाणे" तस्यामेवाभ्यवसानं भोगक्रियाप्रयत्नविशेषरूपं यस्यस तथा। “ तदट्ठावउत्ते" तदर्थ-तत्प्राप्तये उपयुक्तः उपयागवान् यः स तथा, " तयप्पियकरणे" तस्यामेवार्पितानि-दौकितानि करणानोन्द्रियाणि येन स तथा, " तब्भावणाभाविए" तद्- (१) इस विषय में कविकुलशेखर कालीदास की निम्नलिखित उक्ति भी नितान्त उपयुक्त प्रतीत होती है कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं, दुःखमेकान्ततो वा । नोचैर्गच्छत्युपरी च दशा, चक्रनेमिक्रमेण ॥ [ मेघदूत ] For Private And Personal Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [१७३ भावनया कामध्वजाचिन्तया भावितो-वासितो यः स तथा, कामध्वजाया गणिकाया बहून्यन्तराणि च- राजगमनस्यान्तराणि "छिदाणि य” छिद्राणि राजपरिवारविरलत्वानि "विवराणि" शेषजनविरहान् , पडिजागरमाणे, गवेषयन् । इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है - अचेतनावस्था का ही दूसरा नाम मूर्छा है, अथवा दोषों में गुणों का आरोपण ही मूर्छा है । मूर्छा से युक्त मूर्छित कहलाता है । गृद्ध शब्द से लम्पट अर्थ अभिप्रेत है। अथवा यू समझे कि जिसकी जिस में अभिकांक्षा है वह गृद्ध है । किसी भी विषय में स्नेहतन्तुओं से सम्बद्ध . व्यक्ति को ग्रथित कहा जाता है । किसी भी काम में अधिक एकग्रता-प्राप्त व्यक्ति अध्ययपन्न कहलाता है । ये सारे विशेषण उज्झितक कुमार की मनोदशा के परिचायक हैं। कामध्वजा में अत्यन्त आसक्त हने से उज्झितक कुमार को अन्यत्र कहीं पर भी मानसिक विश्रान्ति उपलब्ध नहीं होती । उसका भाव तथा द्रव्यमन उसी में संलग्न हो रहा है । तद्गतचित्त और तद्गतमन इन दोनों में चित्त शब्द भाव मन का और मन शब्द द्रव्य मन का बोधक है । आत्मा का परिणाम विशेष अर्थात कृष्णादि द्रव्यों के सानिध्य से उत्पन्न होने वाले बार । के शुभ या अशुभ परिणाम को लेश्या कहते हैं, और "तल्लेश्य' शब्दगत लेश्या शब्द का अर्थ प्रकृत में अशुभ आत्म -- परिणाम है ! तात्पर्य यह है कि कामध्वजा वेश्यागत अशुभ अात्म --परिणाम है । तात्पर्य कि कामध्वजा वेश्यागत अशुभ आत्म परिणाम सम्पन्न यह है होने से उज्जितकुमार से सम्पन्न होने से उज्झितक कुमार को तल्लेश्य कहा गया है। प्रस्तुत प्रकरण में अध्यवसान का अर्थ है-भोग (सांसारिक वासना की क्रियायें-प्रयत्न विशेष । उस प्रयत्न - विशेष वाले व्यक्ति को तदभ्यवसान कहते हैं। सारांश यह है कि उज्झितक कुमार की कामध्वजा वेश्यागत तल्लीनता इतनी बढ़ी हुई है कि मानों उसने कामध्वजा वेश्या की प्राप्ति में सफलता प्राप्त करलो हो, तथा उसके साथ वह वासना-पूति में लगा हुआ हो । और उस गणिका की प्राप्ति में वह सतत सावधान रहता है, यह तदर्थोपयुक्त शब्द का भाव है । एवं उसने उसी के लिये अपनी समस्त इन्द्रिय उपण करदी हैं, इसी कारण से उसे तदर्पितकरण कहा है । इसी लिये वह कामध्व जा के प्रत्येक अंगप्रत्यंग तथा रूप, लावण्य और प्रेम की भावना से भावित हुआ तन्मय हो रहा था । उज्झितक कुमार किसी ऐसे अवसर की खोज में था जिस में उसका कामध्वजा से मेलमिलाप हो जाय । एतदर्थ वह उस समय को देख रहा था कि जिस समय कामध्वजा के पास अन्तरराजा की उपस्थिति न हो, राजपरिवार का कोई प्रादमो न हो तथा कोई नागरिक भी न हो, तात्पर्य यह है कि जिस समय किसी अन्य व्यक्ति का वहां पर गमनागमन न हो ऐसे समय की वह प्रतीक्षा कर रहा था.. और उसके लिये वह यथाशक्ति प्रयत्न भी कर रहा था । अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में उज्झितक कुमार के उक्त प्रयत्न में सफल होने का उल्लेख करते हैं - मूल-'तए णं से उझिपए दारए अन्नया कयाइ कामझयाए गणियाए अंतरं लभेति । कामझयाए गणियाए गिह रहस्सियगं अणुप्पविसइ २ ता कामझयाए गणियाए सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरति । (१) छाया-ततः स उज्झितको दारकः अन्यदा कदाचित् कामध्वजाया गणिकाया अन्तरं लभते। कामध्वजाया गणिकाया गृहं राहस्यि कम नुपविशति, अनुप्रविश्य कामध्वजया गणिकया सादमुदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुजानो विहरति । For Private And Personal Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १७४ ] श्रो विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय पदार्थ-तरणं तदनन्तर । अन्नया कयाइ--- कसी अन्य समय । से - वह । उझियएउज्झितक । दारए -बालक । कामझपाप --कामध्वजा । गणिवार-गणिका के । अंतरंअन्तर -- जित समय राजा वहां आया हुआ नहीं था उस समय को । लभात - प्राप्त कर लेता है। मझयाए-कामध्वजा । गणियाए-गणिका के । गिह-गृह में। रहस्सियगं-. गुप्त रूप से । अणुप्पविसइ-प्रवेश करता है । २ त्ता-प्रवेश कर के । कामझयाए गणियाए - कामध्वजा गणिका के । सद्धिं-साथ । उसलाई-उदार-प्रधान । माणुस्सगाई-मनुष्य-सम्बन्धी । भागभोगाई-भोगपरिभोगों का । भुजमाणे - उपभोग करता हुा । विहरति-विहरण करने लगा-सानन्द समय बिताने लगा। मूलाथे--तदनन्तर वह उज्झितक कुमार किमो अन्य समय में कामध्वजा गणिका के पास जाने का अवसर प्राप्त कर गुप्त रूप से उसके घर में प्रवेश कर के कामध्वजा वेश्या के साथ मनुष्य-सम्बन्धी उदार विषय-भोगों का उपभाग कता हा सानान समय व्यतीत करने लगा। टीका-साहस के बल से असाध्य कार्य भी साध्य हो जाता है, दुष्कर भी सुकर बन जाता है । साहसी पुरुष कठिनाइयों में भी अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता ही चला जाता है, वह सुख अथवा दःख, जीवन अथवा मरण की कुछ भी चिन्ता न करता हश्रा अपने भगीरथ प्रयत्न से एक न एक दिन अपने कार्य में सफलता प्राप्त कर लेता है । इसी दृष्टि से कामध्वजा को पुनः प्राप्त करने की धुन में लगा हा उज्झितक कमार भी अपने कार्य में सफल हश्रा। उसे कामध्वजा तक पहुंचने का अवसर मिल गया । उसकी मुआई हुई अाशालता फिर से पल्लवित हो गई। वह कामध्वजा के साथ पूर्व की भांति विषय - भोगों का उपभोग करता हुआ सानन्द जीवन बिताने लगा । अन्तर केवल इतना था कि प्रथम वह प्रकट रूप से आता जाता और निवास करता था, और अब उसका श्राना जाना तथा निवास गुप्तरूप से था । इसका कारण कामध्वजा का मित्रनरेश के अन्तःपुर में निवास था । उसी से परवश हुई कामध्वजा उज्झितक कुमार को प्रकट रूप से अपने यहां रखने में असमर्थ थी । परन्तु दोनों के हृदयगत अनुराग में कोई अन्तर नहीं था । तात्पर्य यह है कि वे दोनों एक दूसरे पर अनुरक्त थे । एक दूसरे को चाहते थे । अन्यथा यदि कामध्वजा का अनुराग न होता तो उज्झितक कुमार का लाख यत्न करने पर भी वहां प्रवेश करना सम्भव नहीं हो सकता था । अस्तु, इसके पश्चात् क्या हुआ ? अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-' इमं च णं मिचे राया बहाते जाव पायच्छिते सवालंकारविभूसिते मणुस्सवग्गुरापारक्खित्त जेणेव कामज्झयाए गणियाए गेहे तेणेव उवागच्छति २त्ता तत्थ णं उभि (१) छाया-इतश्च मित्रो राजा स्नातो यावत् प्रायश्चित्त: सर्वालंकारविभूषितः मनुष्यवागरापरिक्षिप्तो यत्रैव कामव्वजाया गणिकाया गृहं तत्रैवो पागच्छति । उपागत्य तत्रोज्झितकं दारकं कामध्वजया गणिकया सामुदारान् भोगभोगान् यावत् विहरमाणं पश्यति, दृष्ट्वा आशुरुप्त: ४ त्रिवलिक. भृकुटिं ललाटे संहृत्य उज्झितकं दारकं पुरुषैहियति ग्राहयित्वा यष्टिमुष्टिजानुकूपरप्रहारसंभममथितगात्र करोति कृत्वा अवकोटकबन्धनं करोति कृत्वा एतेन विधानेन वध्यमाज्ञापयति । एवं खलु गौतम ! उज्झितको दारकः पुरा पुराणाणां कर्मणां यावत् प्रत्यनुभवन् विहरति । For Private And Personal Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [१७५ ययं दारयं कामझयाए गणियाए सद्धिं उरालाई भोगभोगाइ 'जाव विहग्माणं पासति २ त्ता आसुरुचे ४ तिवलियभिउडि निडाले साहट्ट उझिययं दारयं पुरिसेहिं गेहाविति, गेहावित्ता अद्विमुट्ठिजाणुकोप्परपहारसंभग्गमहितग · करेति करेत्ता अवरोडगबंधणं करेति करेत्ता एएणं विहाणेणं वज्झं प्राणवेति । एवं खलु गोतमा ! उझिया दारए पुरा पोराणाणं कम्माणं २जाव पच्चणुभवमाणे विहरति । पदार्थ-इमं च णं-और इतने में । मित्त राया-मित्र राजा । राहाते-स्नान कर । जाव-यावत् । पायच्छित्त-दुष्ट स्वप्न आदि के फल को निष्फल करने के लिये प्रायश्चित्त के रूप में तिलक एवं अन्य मांगलिक कृत्य करके । सव्वालंकारविभूसिते-सम्पूर्ण अलंकारों से विभूषित हो । मणुस्सवग्गुरापरिक्खिते-मनुष्यसमूह से घिरा हुआ । जेणेव-जहां कामज्झयाएकामध्वजा । गणियाए-गणिका का । गिहे-घर था । तेणेत्र -- वहीं पर । उवागच्छति २ त्ता-आता है आकर । तत्थ णं-वहां पर । कामझयाए गणियाए-कामध्वजा गणिका के । सद्धिं -साथ । उसलाई-उदार --प्रधान । भोग-भोगाई-भोगपरिभोगों में । जाव-यावत् । विहरमाणं-विहरणशील । उज्झिययं दारयं-उज्झितक कुमार बालक को । पासति २ ता-देखता है देख कर । आसुरुत्ते-क्रोध से लाल हुआ। निडाले - मस्तक पर । तिवलियभिउडिं-त्रिवलिकातीन रेखाओं से युक्त भृकुटि (तिउड़ी) लो वन-विकार विशेष को । स हड -धारण कर अर्थात् क्रोधातुर हो भृकुटी चढ़ाकर । पुरिसेहि-अपने पुरुषों द्वारा । उझिययं दारयं-उज्झितक कुमार को । गण्हावेति-पकडवा लेता है । गण्हावेत्ता पकड़वा कर । अहि -- यष्टि लाठी । मुट्ठि-मुष्टि मुक्का, पंजावी भाषा में इसे 'घसुन्न' कहते हैं । जागु-जानु -घुटने । कोप्पर - कूर्पर कोहनी के । पहार-प्रहरणों से । संभग्ग-संभग्न-चूर्णित तथा । महित-मथित । गतं गात्र वाला । करेति-करता है । करेता-करके । अव प्रोडगबंधणं-अवकोटक बन्धन [ जिस में रस्सी से गला और हायों को मोड़ कर पृष्ठ भाग के साथ बान्धा जाता है उसे अवकोटकबन्धन कहते हैं ] से बद्ध । करेति-करता है अर्थात् उक्त बन्धन से बांधता है। करेत्ता-बांधकर । एरणं-इस । विहाणेणं - प्रकार से । वझ प्राणवेति - यह वध्य है ऐसी आज्ञा देता है । गातमा ! -- हे गौतम ! एवं - इस प्रकार । खनु-निश्चय ही । उज्झियए-उज्झितक । दारए -- बालक । पुरा-पूर्व । पोराणाणं कम्माणं - पुरातन कर्मों के विपाक – फल का । जाव-- यावत् । पच्चणुभ प्रमाणे - अनुभव करता हुा । विहरति-विहरण करता है । . मूलार्थ-इधर किसो समय मित्र नरेश स्नान य बत् दुष्ट स्वप्नों के फल को विनष्ट करने के लिये प्रायश्चित्त के रूप में मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य कर के सम्पूर्ण अलंकारों से विभूषित हो मनुष्यों से आवृत हुआ कामध्वजा गणिका के घर पर गया । वहां उसने कामध्वजा वेश्या के साथ मनुष्य-सम्बन्धो विषय -भोगों का उपभोग करते हुए उज्झितक कुमार को देग्यो, देखते ही वह क्रोध से लाल पीला हो गया, और मस्तक में त्रिवलिक (१) "-जाव- यावत्-" पद से "-भुजमाणं -" इस पद का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। (२) "-जाव-यावत्-" पद से "-दुच्चिएणाणं, दुप्पडिक्कन्ताणं असुभाणं, पावाणं, कडाणं, कम्माणं, पावगं फलवित्तिविसेसं-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभीष्ट है । इन का अर्थ पृष्ठ ४७ पर दिया जा चुका है । For Private And Personal Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १७६] श्रो विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय भृकुटि ( तीन रेखाओं वाली नि उडि ) चढ़ा कर अपने अनुचर पुरुषों द्वारा उज्झितक कुमार को पवड़वाया पकड़वा कर 'यष्टि, मुष्टि (मुक्का), जानु. और कूपर के प्रहारों से उसके शरीर को संभग्न, चूर्णित और मथित कर अवकोटक बन्धन से बान्धा और बान्ध कर पूर्वोक्त रीति से वध करने योग्य है. ऐमी आज्ञा दा । हे गौतम ! इस प्रकार उज्झितक कुमार पूर्वकृत पुरातन कर्मों का यावत् फलानुभत्र करना हा विहरण करता है-समय यापन कर रहा है। टीका-जैसा कि ऊपर बतलाया गया है कि उज्झितक कुमार को उसके साहस के बल पर सफलता तो मिली, उसे कामध्वजा के सहवास में गुप्तरूप से रहने का यथेष्ट अवसर तो प्राप्त हो गया, परन्तु उसको यह सफलता अचिरस्थायी होने के अतिरिक्त असह्य दुःख - मूलक ही निकली । उस का परिणाम नितान्त भयंकर हुआ। उज्झितक कुमार को इतना दु:ख कहां से मिला ? कैसे मिला ? किसने दिया ? और किस अपराध के कारण दिया ? इत्यादि भगवान गौतम के द्वारा पूछे गये प्रश्नों के समाधानार्थ ही सूत्रकार ने प्रस्तुत कथा सन्दर्भ का स्मरण किया है । जिस समय उज्झितक कुमार कामध्वजा के घर पर उसके साथ कामजन्य विषय-भोगों के उपभोग में निमग्न था उसो समय मित्रपरेश वहां प्राजाते हैं और वहां उझतक कुमार को देखकर क्रोध से आग बबूला होकर उसे अनुचरों द्वारा पवडवाकर खूब मारते पीटते तथा अवकोटक बन्धन से बन्धवा देते हैं और यह पूर्वोक्त रीति से वध करने के योग्य है, ऐसो आज्ञा देते हैं। -" एहाते जाव पायच्छित्ते - " यहां पर पठित " -जाव-यावत्-" पद से "-कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छिते-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन पदों में से कृतबलिकर्मा के तीन अर्थ उपलब्ध होते हैं, जैसे कि - (१) शरीर की स्फूर्ति के लिये जिसने तैल श्राद का मर्दन कर रखा है । (२) काक आदि पक्षियों को अन्नादि दानरूप बलिकर्म से निवृत्त होने वाला । (३) जिसने देवता के निमित्त किया जाने वाला कर्म कर लिया है। १) अटि-शब्द के अम्धि और यति ऐसे दो संस्कृत रूप बनते हैं । अस्थि शब्द हड्डी का परिचायक है ओर यष्टि शब्द पे लाडो का बोध होता है । यदि प्रस्तुत प्रकरण में अहि-का अस्थि यह रूप ग्रहण किया जावे तो प्रश्न उपस्थित होता है कि -इस से क्या विवक्षित है । अर्थात् यहां इस का क्या प्रयोजन है ? क्यों कि प्रकृत प्रकरणानुसारी अस्थिसाध्य प्रहारादि कार्य तो मुष्टि (मुक्का), जानु घुटनः) और कूपर (कोहनो) द्वारा संभव हो ही जाते हैं, और सूत्रकार ने भी इन का ग्रहण किया है, फिर अस्थि शब्द का स्वतन्त्र ग्रहण करने में क्या हार्द रहा हुआ है ? यदि अस्थि शब्द से अस्थि मात्र का ग्रहण अभिमत है तो मुष्टि आदि का ग्रहण क्यों ! इत्यादि प्रश्नों का समाधान न होने के कारण हमारे विचारानुसार प्रस्तुत प्रकरण में सूत्र. कार को अहि पद से यष्टि यह अथ अभिमत प्रतीत होता है। प्रस्तुत में मार पीट का प्रसंग होने से यह अर्थ अधिक संगत ठहरता है । ____ व्याकरण से भी अहि पद का यष्टि यह रूप निष्पन्न हो सकता है । सिद्धहैमशब्दानुशासन के अष्टमाध्याय के प्रथमपाद के २४५ सूत्र से यष्टि के यकार का लोप हो जाने पर उसी अध्याय के द्वितीय पाद के ३०५ सूत्र से ष्ठ के स्थान पर ठकार, ३६० सूत्र से टकार को द्वित्व और ३६१ सूत्र से प्रथम ठकार को टकार हो जाने से अट्ठि ऐसा प्रयोग बन जाता है । रहस्यं तु केवलिगम्यम् । For Private And Personal Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । "-कृतकौतुकमगलप्रायश्चित्त-" इस पद का अर्थ है - दुष्ट स्वप्न आदि के फल को निष्फल करने के लिये जिस ने प्रायश्चित्त के रूप में कौतुक-कपाल पर तिलक तथा अन्य मांगलिक कृत्य कर रखे हैं। "मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्त" इस पदकी व्याख्या वृत्तिकार ने निम्न प्रकार से की है___“ मनुष्याः वागुरेव मृगबन्धनमिव सर्वतो भवनात् तया परिक्षिप्तो यः स तथा" अर्थात् मृग के फंसाने के जाल को वागुरा कहते हैं, जिस प्रकार वागुरा मृग के चारों ओर होती है, ठीक उसी प्रकार जिसके चारों ओर श्रात्मरक्षक मनुष्य ही मनुष्य हो दूसरे शब्दों में मनुष्यरूप वा. गुरा से घिरे हुए को मनुष्यवागुरापरिक्षिप्त कहते हैं। ____"-आसुरुत-" इस पद के वृत्तिकार ने दो अर्थ किये हैं जैसे कि - “आशु-शीघ्र रुतः । क्रोयेन विमोहिता यः स आशुरुप्तः, आसुरं वा असुरसत्कं कोपेन दारुणत्वाद् उक्त भणितं यस्य स ालरोक्तः” अर्थात् 'श्राशु' इस अव्ययपद का अर्थ है - शीघ्र, और रुप्त का अर्थ है क्रोध से विमोहित तात्पर्य यह है कि जो शीघ्र ही क्रोध से विमोहित अर्थात् कृत्य और अकृत्य के विवेक से रहित हो जाय उसे प्रारुप्त कहते हैं । "आसुरुत्त" का दूसरा अर्थ है-क्रोधाधिक्य से दारुण भयंकर होने के कारण असुर राक्षस) के समान उक्त-कथन है जिस का, अर्थात् जिस की वाणी क्रोधी राक्षसों जैसी हो उसे “आशुरुक" कहा जाता है । सारांश यह है कि "आसुरुत्त" के "श्राशुरुप्तः" और "-आयुरोक्तः" ये दो संस्कृत प्रतिरूप होते हैं। इस लिए उस से यहां पर दोनों ही अर्थ विवक्षित हैं। तथा “श्रासुरुत्त" के आगे दिये गये ४ के अंक से - 'रुटे, कुविए, चंडिक्किप' और "मिसिमिसीमाणे-" इन पदों का ग्रहण कराना सूत्रकार को अभीष्ट है। इन पदों से मित्र नरेश के क्रोधातिरेक को बोधित कराया गया है । "--तिवलियभिउडि निडाले साहद्द - इन पदों की व्याख्या वृत्तिकार ने-त्रिवलिका भृकुटिं लोचनविकारविशेष ललाटे संहृत्य-विधाय-" इन शब्दों से की है । अर्थात् त्रिवलिका-तीन वलिओं-रेखाओं से युक्त को कहते हैं । भृकुटि -लोचनविकारविशेष भौंह को कहते हैं । तात्पर्य यह है कि मस्तक पर तीन रेखाओं वाली भृकुटि (तिउड़ी) चढ़ा कर। " - अवोडगबंधणं-अवकोटकबन्धनं-" की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में निम्नलिखित है . -अवकोटनेन च ग्रीवायाः पश्चाभागनयनेन बन्धनं यस्य स तथा तम् - " अर्थात् जिस बन्धन में ग्रीवा को पृष्ठ-भाग में ले जा कर हाथों के साथ बान्धा जाए उस बन्धन को अवकोटक - बन्धन कहते हैं । प्रस्तुत सूत्र में यह कथन किया गया है कि महीपाल मित्र ने उज्झितक कुमार को मथ डाला अर्थात् जिस प्रकार दही मंथन करते समय दहो का प्रत्येक कण २ मथित हो जाता है ठीक उसी प्रकार उज्झितक कुमार का भी मन्थन कर डाला तात्पर्य यह है कि उसे इतना पीटा इतना मारा कि उसका (१) इन पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में निम्नोक्त है रुष्टः राषवान्, कुपितः मनसा कोपवान् चाण्डिक्यितः दारुणीभूतः मिसिमिसीमाणो इत्यतः क्रोधज्यालया ज्वलन्निति बोध्यम् । अर्थात् -रोष करने वाला रुष्ट, मन से क्रोध करने वाला कुपित, क्रोधाधिक्य के कारण भीषणता को प्राप्त चारिडक्यित, और क्रोध की ज्वाला से जलता हुआ अर्थात् दान्त पीसता हुआ मिस मिसोमाण कहलाता है ! For Private And Personal Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [मरा अध्याय प्रत्येक अंग तथा उपांग ताड़ना से बच नहीं सका, और राजा की ओर से नगर के मुख्य २ स्थानों पर उस की इस दशा का कारण उस का अपना ही दुष्कम है, ऐसा उद्घोषित करने के साथ २ बड़ी निर्दयता के साथ उस को ताडित एवं बिडम्बित किया गया और अन्त में उसे वध्यस्थान पर ले जा कर शरीरान्त कर देने की आज्ञा दे दी गई। मित्रनरेश की इस आज्ञा के पालन में उज्झितक कुमार की कैसी दुर्दशा की गई थी, यह हमारे सहृदय पाठक प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में ही देख चुके हैं ।। पाठकों को स्मरण होगा कि वाणिजग्राम नगर में भिक्षार्थ पधारे हुए श्री गौतम स्वामी ने राजमार्ग पर उज्झितक कुमार के साथ होने वाले परम कारुणिक अथ च दारुण दृश्य को देख कर हा श्रमण भगवान महावीर स्वामी से उसके पूव-भव सम्बन्धी वृत्तान्त को जानने की इच्छा प्रकट करते हुए भगवान् से कहा था कि भदन्त ! यह इस प्रकार को दुःखमयी यातना भोगने वाला उज्झितक कुमार नाम का व्यक्ति पूर्व-भव में कौन था ? इत्यादि । अनगार गौतम गणधर के उक्त प्रश्न के उत्तर में ही यह सब कुछ वर्णन किया गया है । इसी लिये अन्त में भगवान कहते हैं कि गौतम ! इस प्रकार से यह उज्झितक कुमार अपने पूर्वोपाजित पाप-कर्मों के फल का उपभोग कर रहा है । . इस कथा-सन्दर्भ से यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित हो जाता है कि मूक प्राणियों के जीवन को लूट लेना, उन्हें मार कर अपना भोज्य बनालेना, मदरा आदि पदार्थों का सेवन करना एवं वासनापोषक प्रवृत्तियों में अपने अनमोल जीवन को गंवादेना इत्यादि बुरे कर्मों का फल हमेशा बुरा ही होता है । " एएणं विहाणेणं वझ आणवेति" यहां दिये गये "एतद्' शब्द से सूत्रकार ने पूर्व - वृत्तान्त का स्मरण कराया है । अर्थात् उज्झितक कुमार को अवकोटकबन्धन से जकड़ कर उस विधानविधि से मारने की आज्ञा प्रदान की है जिसे भिक्षा के निमित्त गए गौतम स्वामी जी ने राजमाग में अपनी आंखों से देखा था। "एतद्”- शब्द का प्रयोग समीपवर्ती पदार्थ में हुआ करता है, जैसे किइदमस्तु संनिकृष्टे, समीपतरवतिनि चैतदो रूपम् । अदसस्तु विप्रकृष्टे, तदिति परीक्षे विजानीयात् ॥ १॥ अर्थात् - इदम् शब्द का प्रयोग सन्निकृष्ट - प्रत्यक्ष पदार्थ में, एतद् का समीपतरवर्ती पदाथमें अदस शब्द का दूर के पदार्थ में और तद् शब्द का परोक्षपदार्थ के लिए प्रयोग होता है । केवलज्ञान तथा केवल दर्शन के धारक भगवान की ज्ञान -- ज्योति में उज्झितक कुमार का समस्त वर्णन समीपतर होने से यहां एतत् शब्द का प्रयोग उचित ही है। अथवा जिमे गौतम स्वामी जी ने समीपतर भूतकाल में देखा था, इस लिये यहां एतद् शब्द का प्रयोग औचित्य रहित नहीं है । अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में उज्झितक कुमार के आगामी भवसम्बन्धी जीवन-वृत्तान्त का वर्णन करते हुए कहते हैं - मूल-'उज्झियए णं भंते ! दारए इत्रो कालमासे कालं किच्ना कहिं गच्छि (१) छाया -उज्झितको भदन्त ! दारक इत: कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति ? कुत्रोपपत्स्यते ।, गौतम ! उज्झितको दारकः पञ्चविशतिं वर्षाणि परमायु: पालयित्वा अद्य व त्रिभागावशेषे दिवसे For Private And Personal Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित। [१७९ हिति ? कहिं उत्रवन्जिहिति ? गोतमा ! उझियए दारए पणवीसं वासाइपरमाउं पालइत्ता अज्जेब तिभागावसेसे दिवसे सूलभिन्ने कए समाणे कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढ़वीए णेरइयत्ताए उववजिहिति । से णं ततो अणंतर उव्वाट्टत्ता इहेव जम्बुद्दोवे दीवे भारहे बासे वेयड्ढगिरिपायमूले वानरकुलंसि वानरत्ताए उवर्वाजहिति । से णं तत्थ उम्मुक्कवालभावे तिरिय भोएसु मुच्छिते गिद्ध गड़िते अज्झाववन्ने जाते जाते वानरपेल्लए वहेहिति । तं एयकम्मे ४ कालमासे कालं किच्चा इहेव जंबुद्दीवे दावे भारडे वासे ईदपुरे नयरे गणिया-कुलंसि पुत्तचाए पच्चायाहिति । तते णं तं दारयं अम्मापियरो जायमेत्तयं वद्ध हिंति २ नपुसगकम्मं सिक्खावेहिति । तते णं तस्स दारगस्स अम्मापितरो निव्वत्तवारसाहस्स इमं एयारूवं णामधेज्जं करेहिति, होउ णं पियसेणे णाम णपुसए । तते णं से पिय सेणे णपुसते उम्मुक्कबाल भावे जोव्वणगभणप्पत्ते विएणायपरिणयमेने रूवेण य जोवणेण य लावएणेण य उक्किटु उक्किट्ठसरारे भविस्सति । तते णं से पियसेणे णपुसए इंदपुरे णगरे वहवे राईमर० जाव पभिइओ बहहिं विज्ञापयोगेहि य शूलभिन्नः कृतः सन् कालमासे कालं कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकतयोपपत्स्यते । स ततोऽनन्तरमुद वृत्येहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे वैताढ्य गिरिपादमूले वानरकुले वानरतयोपपत्स्यते । स तत्रोन्मुक्तबालभा. वस्तिम्भोगेषु मूच्छितो गृद्धो ग्रथितोऽध्युपपन्नो जातान् जातान् वानरडिम्भान् हनिष्यति तद् एतत्कर्मा ४ कालमासे कालं कृत्वा इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे इन्द्रपुरे नगरे गणिका - कुले पुत्रतया प्रत्यायास्यति । ततस्तं दारकं अम्बापितरौ जातमात्रकं वर्द्धयिष्यत: वर्धयित्वा नपुंसककर्म शिक्षयिष्यतः । ततस्तस्य दारकस्य अम्बापितरौ निवृत्तद्वादशाहस्य इदमेतदरूपं नामधेयं करिष्यतः, भवतु प्रियसेनो नाम नपुसक: तत: सः प्रियसेनो नपुसकः उन्मुक्तबालभावो यौवन कमनुप्राप्तो विज्ञानपरिणतमात्रो रूपेण च यौवनेन च लावण्येन च उत्कृष्ट उत्कृष्टशरीरो भविष्यात । ततः सः प्रियसेनो नपुसक: इन्द्रपुरे नगरे बहून् राजेश्वर० यावत् प्रभृतीन् बहुभिश्च विद्या प्रयोगश्च मंत्रचूर्णैश्च हृदयोड्डायनैश्च निवनैश्च प्रस्नवनैश्च वशीकरणैश्च आभियोगिकैश्चाभियोज्य उदारान् मानण्यकान भोगभोगान मुंजानो विहरिष्यति । ततः सः प्रियसेनो नपुसक: 'एतत्कर्मा ४ सुबहु पापं कम समय एकविंश वर्षशतं परमायु: पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकतयो पत्स्यते । ततः सरीसृपेषु, संसारस्तथैव यथा प्रथमो यावत् पृथिवी० । स ततोऽनन्तरमुद वृत्येहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे चम्पायां नगर्या महिषतया प्रत्यायास्यति । स तत्रान्यदा कदाचित् गौष्ठिकेंर्जीविताद् व्यपरोपित: सन तत्रैव चम्मायां नगर्या श्रेष्ठिकुले पुत्रतया प्रत्यायास्यति । स तत्रोन्मुक्तबालभावस्तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके केवलं बोहिं० अनगार० सौधर्मे कल्पे • य . प्रथमो यावदन्तं करिष्यतीति निक्षेपः । ॥ द्वितीयमध्ययनं समाप्तम् ॥ १) -एतत्कर्मा-इस पद के आगे दिए गए चार के अंक से - एतत्प्रधानः, एतद्विद्यः, एतत्समुदाचारः-इन पदों का ग्रहण समझना । यही जिस का कर्म हो उसे एतत्कर्मा, यही कर्म जिस का प्रधान हो अर्थात् यही जिस के जीवन की साधना हो उसे एतत्प्रधान, यही जिस की विद्या विज्ञान हो उसे एतद्विद्य और यही जिस का समुदाचार-आचरण हो अर्थात् जिस के विश्वासानुसार यही सर्वोत्तम आचरण हो उसे एतत्समुदाचार कहते हैं ।। For Private And Personal Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १८० ] श्री विपाक सूत्र 'अध्याय मंतचुएणेहि य हिपउड्डावणेहि य निण्हवणेहि य पण्हवणेहि य वसीकरणेहि य आभिप्रोगिएहि य अभियोगित्ता उरालाइ माणुस्सयाइ भोगभोगाइ भुजमाणे विहरिस्सति । तते णं से पियसेणे णपुसए ण्यकम्मे ४ सुबहुं पावं कम्मं समन्जिणित्ता एकवीसं वाससयं परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पहाए पुढ़वीए णेरइयत्तात्ते उवजिहिति, ततो सिरीसिवेसु संसारो तहेव जहा पढ़मे जाव पुढ़वी० । से णं तपो अणंतरं उव्वट्टिता इहेव जंबुद्दीवे दीवे मारहे वासे चंपाए नयरीए महिसत्ताए पच्चायाहिति, से णं तत्थ अन्नया कयाइ गोठिल्लिएहि जीवियाओ ववरोविए समाणे तत्थे व चपाए नयरीए सेट्टिकुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिति । से णं तत्थ उम्मुक्कवालभावे तहारूवाणं थेराणं अंतिते केवलं बोहिं० अणगारे० सोहम्मे कप्पे० जहा पढ़मे जाव अतं काहि ति निक्खेवो। ॥ वितियं अज्झयणं समत्त। पदार्थ-भंते !-हे भगवन् ! । उज्झियए णं-उज्झितक । दारए-बालक । इओ- यहां से । कालमासे-कालमास में-मृत्यु का समय आ जाने पर । कालं किच्चा-काल करके । कहिकहां । गच्छिहिति ।-जायगा ? । कहिं-कहां । उववजिहिति ?-उत्पन्न होगा ।। गोतमा!हे गौतम!। उज्झियए दारए-उज्झितक बालक। पणवीस-पच्चीस । वासाई-वर्ष की । परमाउं-परम श्रायु । पालइत्ता-पाल कर-भोग कर । अज्ज व-आज ही। तिभागावसेसेत्रिभागावशेष-जिस में तीसरा भाग शेष-बाकी हो । दिवसे-दिन में । सूलभिरणे कर समाणेशूली के द्वारा भेदन किये जाने पर । कालमासे-मरणावसर में । कालं किया-काल कर - मृत्यु को प्राप्त हो कर । इमीसे-इस । रयणप्पहाए - रत्नप्रभा नामक । पुढवीए-नरक में । ऐरइयत्ताए-नारकी रूप से । उववजिहिति-उत्पन्न होगा । तते णं-वहां से । अणंतरंअन्तर रहित । से-वह । उवाहिता-निकल कर । इहेव -इसी। जंबहीवे दीव जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत । भारहे वासे-भारत वर्ष में । वेयड्ढगिरिपायमूले-वैताढ्य पर्वत की तलहटीपहाड़ के नीचे की भूमि, में । वानरकुलंसि - वानर बन्दर के कुल में । वानरत्तार-वानर रूप से । उववजिहिति-उत्पन्न होगा। से णं तत्थ-वह वहां पर । उम्मुक्कबालभावे-बालभाव को त्याग कर । तिरियभोएसु-तियंच-सम्बन्धी भोगों में । मुच्छिते-मूच्छित - अासक । गिद्धे-गृद्ध-आकांक्षा वाला । गढिते-ग्रथित - स्नेहजाल में आबद्ध । अभोववन्ने-अव्युपपन्न -जो अधिक संलमता को उपलब्ध कर रहा है, हो । जाते जाते - जातमात्र । वानरपेल्लए वानरों के बच्चों को । वहेहितिमार डाला करेगा । तं-इस कारण वह । एयकम्मे ४ - इन कमा का करने वाला । कालमासे-काल . मास में । कालं किया-काल कर । इहेव - इसी । जंबुद्दीवे दोवे-जबूदीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारहे वासे- भारत वर्ष में । इंदपुरे-इन्द्रपुर नामक नपरे - नगर में । गणिया कुलंसि-- गणिका के कुल में । पुत्तताए-पुत्ररूप से । पञ्चायाहिति- उत्पन्न होगा । तते णं -तदनन्तर । अम्मापितरो-माता पिता । जायमेतयं-पैदा होने के अनन्तर अर्थात् तत्काल ही । तं-उस । दारयंबालक को । वद्धेहिंति २- वर्द्धितक -- नपुसक-करेंगे । नपुसगकम्म-नपुंसक का कर्म । सिक्खावेहिति-सिखावेंगे । तते णं -तदनन्तर । तस्स-उस | दारगस्स-चालक के । अम्मापितरो For Private And Personal Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित | - माता पिता । णिव्वत्तवारसाहस्स - बारहवें दिन के व्यतीत होने जाने पर । इमं एयारूवं - यह इस प्रकार का । णामधेज्जं - - नाम । करेहिंति करेंगे । पियसेणे - प्रियसेन णामं नामक । पुंसपपु ंसक । होउ - हो । तते णं तदनन्तर । से पियसेणे - वह प्रियसेन । पुसते – नपुंसक उम्मुकबालभावे - बाल्य अवस्था को त्याग कर । जोव्वणगमगुप्त युवावस्था को प्राप्त हुआ । 'विराणायपरिणयमेत्त - विज्ञान विशेष ज्ञान और बुद्धि आदि में परिपक्वता को प्राप्त कर । रूवेण य-रूप । जोन्वणेण य1 - यौवन से । लावणेण य - लावण्य - आकृति की सुन्दरता से । उकिट्ठे - उत्कृष्टप्रधान । उक्किट्ठसरीरे - उत्कृष्टशरीर-सुन्दर शरीर वाला । भविस्लति होगा । तते गं तदनन्तर । से पियसेणे — वह प्रियसेन । पुस- नपुंसक | इंदपुरे गयरे - इन्द्रपुर नगर में बहवे - अनेक । राईसर ० १०- राजा तथा ईश्वर । जाव - यावत् | पभित्र अन्य मनुष्यों को। बहूहिंअनेक । विज्ञापनगेहि य-विद्या के प्रयोगों से । मंत बुराणेयि - मंत्र द्वारा मन्त्रित चूर्ण भस्म आदि के योग से । हिउड्डाणेहि य- हृदय को शून्य कर देने वाले । णिएहवणेहि य - अदृश्य कर देने वाले । परावहि य- प्रसन्न कर देने वाले । वसोकरणेहि य- वशीकरण करने वाले । श्राभिश्रोगिएहि यपराधीन करने वाले प्रयोगों से । श्रभियोगिता- - वश में करके । उरालाई - उदार प्रधान | माणुस्लयाई - मनुष्यसम्बन्धी । भोगभागाई - काम - भोगों का । भुजमाणे - उपभोग करता हुआ । विहरिस्सति - विहरण करेगा । तते गं - तदनन्तर । से वह । पियसेणे - प्रियसेन । पुंसएनपुंसक । एयकम्मे ४ - इन कर्मा के करने वाला | सुबहु - अत्यन्त | पावं - पाप । कम्मं - कर्म का । समजिणित्ता - उपार्जन करके । उ एक्कत्रीसं वाससयं - १२१ वर्ष की । परमाउं - परमायु को 1 पालयिता- - भोग कर । कालमासे - कालमास में । कालं किच्चा - काल कर के । इमीसे- इस । 1 पहा रत्नप्रभा नामक | पुढ़वोष - पृथिवी - नरक में । रइयसाते - नारकी रूप से । उववजिहिति - उत्पन्न होगा । ततो वहां से निकल कर । सिरीसिवेसु - सरीसृप - पेट के बल पर सर्पट चलने वाले सर्व आदि अथवा भुजा के बल पर चलते माते नकुल आदि प्राणियों की योनि में जन्म लेगा । संसारो - संसार भ्रमण करेगा । जहा जिस प्रकार । पढमे प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है । तहेब - उसी प्रकार | जाव यावत् । पुढवी०पृथिवीकाया में उत्पन्न होगा । तत्र - वहां से । अांतरं व्यवधान रहित से - वह । उव्वहित्ता – निकल कर । इहेव इसी । जंबुद्दीवे दीवे - जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत । भारहे वासे - भारतवर्ष में । चपाए - चम्पा नाम को । गयरीए - नगरी में । महिसत्तार - महिषरूप में अर्थात् भैंसे के भव में । पच्चायाहिति- - उत्पन्न होगा। से णं - वह । तत्थ - वहां उस भव में । श्रन्नया काइ - किसी अन्य समय । गोडिल्लिएहिं - गौष्ठिकों के द्वारा अर्थात् एक मंडली के समवयस्कों द्वारा । जीविया - जीवन से । वबरोविर समाणे - रहित किया हुआ चंपाए - चम्पा नामक । णयरीए - नगरी में । सेट्ठिकुलसि - श्रेष्ठी के कुल में । तत्थेव - उसी । | पुतताए- पुत्ररूप For Private And Personal [१८१ - (१) यहां - विज्ञक और परिणतमात्र ये दो शब्द हैं । विज्ञक का अर्थ है - विशेष ज्ञान वाला और बुद्धि आदि की परिपक्व अवस्था को प्राप्त परिणतमात्र कहलाता है । (२) " - जाव - यावत् -" पद से - तलवर, माडम्बिक. कौटुम्बिक, इभ्य श्रेष्ठी और सार्थवाह, इन पदों का ग्रहण समझना । इन पदों की व्याख्या पृष्ठ१६५ पर की जा चुकी है । (३) कोई इन पदों का अर्थ २१०० वर्ष भी करते हैं । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १८२] श्री विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय से । पञ्चायाहिति-उत्पन्न होगा । तत्य-वहां पर । सेणं-वह । उम्मुक्कबालभावे-बाल्य - अवस्था को त्याग कर अर्थात् युवावस्था को प्राप्त हुआ। तहारूवाणं-तथारूप-शास्त्रवर्णित गुणों को धारण करने वाले। थेराणं - स्थविरों -वृद्ध जैन साधुओं के । अंतिके -पास । केवल-केवल -- निर्मल अर्थात् शंका. कांक्षा आदि दोषों से रहित । बाहिं०- बोधिलाभ सम्यक्त्वलाभ प्राप्त करेगा, तदनन्तर । अणगारे० .-अनगार होगा वहां से कान करके। मोहम्मे कम्य० --सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा शेष । जहा पढ़ने-जिस प्रकार प्रथम अध्याय में मृगापुत्रविषयक वर्णन किया गया है वैसे ही । जाब -यावत् । अंतं-कर्मों का अर्थात् जन्म मरण का अन्त । काहि तिकरेगा, इति शब्द समाप्ति का बोधक है । निक्खेवो-निक्षेप- उपसंहार की कल्पना कर लेनी चाहिए। वितियं -द्वितीय । अज्क्रयणं - अध्ययन । समत-समाप्त हुआ। मूलार्थ-भदन्त ! उज्झितक कुमार यहां से कालमास में-मृत्यु का समय आ जाने पर काल करके कहां जाएगा और कहां उत्पन्न होगा? गौतम ! उज्झिाक कुमार २५ वर्ष को पूर्णायु को भोग कर आज ही त्रिभागावशेष दिन में अर्थात् दिन के चौथे प्रहर में शूनी द्वारा भेद को प्राप्त होता हुआ काल-मास में काल कर के रत्नप्रभा नामक प्रथम पृथिवी-नरक में नारकी रूप से उत्पन्न होगा । वहां से निकल कर सीधा इसो जम्बूद्वीप नामक द्वोर के अन्तर्गत भारतवर्ष के वैताढ्य पर्वत के पादमूल-तलहटी (पहाड़ के नीचे की भूमि में वानर-कुल में वानर के रूप से उत्पन्न होगा । वहां पर बाल्यभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त होता हुआ वह तियग्भोगों-पशुसम्बन्धी भोगों में मूञ्छित. आसक्त, गृद्ध आकांक्षावाल', प्रथित-भोगों के स्नेहपाश से जकड़ा हुआ, और अध्युपपन्न-भोगों में ही मन को लगाए रखने वाला, हो कर उत्पन्न हुए वानर-शिशुओं का अवहनन किया करेगा। ऐसे कर्म में तल्लीन हुआ वह कालमास में काल करके इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्त - र्गत भारतवर्ष के इन्द्र पुर नामक नगर में गणिका - कुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा । माता पिता उत्पन्न हुए उस बालक को वर्द्धितक-नपुंसक करके नपुसक कर्म सिखलावेंगे । बारह दिन के व्यतीत हो जाने पर उस के माता पिता उन का “प्रियसेन " यह नामकरण करेंगे। बालकभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त तथा विज्ञ-विशेष ज्ञान रखने वाला एवं बुद्धि आदि की परिपक्क अवस्था को उपलब्ध करने वाला वह प्रियसेन नपुंसक रूप, यौवन और लावण्य के द्वारा उत्कृष्ट - उत्तम और उत्कृष्ट शरीर वाला होगा। तदनन्तर वह मियसेन नपुंसक इन्द्रपुर नगर के राजा ईश्वर यावत् अन्य मनुष्यों को अनेकविध विद्याप्रयागों से, मंत्रों द्वारा मंत्रित चूणे-भस्म आदि के योग से हृदय को शून्य कर देने वाले, अदृश्य कर देने वाले, वश में कर देने वाले तथा पराधोन -परवश कर देने वाले प्रयोगों से वशीभूत कर के मनुष्य-सम्बन्धो उदार - प्रधान भोगों का उपभोग करता हुश्रा समय व्यतीत करेगा । वह प्रियसेन नपुंसक इन पापपूण कामों को ही अपना कर्तव्य, प्रधान लक्ष्य, तथा विज्ञान एवं सर्वोत्तम आचरण बनाएगा इन दुष्प्रवृतियों के द्वारा वह अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन करके १२० वर्षे को परमायु का उपभोग कर काल-मास में काल करके इस रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में नारकी रूप से उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर सरोसूप-छातो के बल से For Private And Personal Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [१८३ चलने वाले सर्प आदि अथवा भुजा के बल से चलने वाले नकुल आदि प्राणियों की योनियों में जन्म लेगा। वहां से रस का संसार-भ्रमण जिम प्रकार प्रथम अध्ययन -गत मृगा पुत्र का वर्णन किया गया है उसी प्रकर होगा, यावत् पृथिवी-काया में जन्म लेगा । वहां से निकल वह सीधा इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष की चम्पा नामक नगरी में महिषरूप से उत्पन्न होगा । वहां पर वह किमी अन्य समय गौष्ठिकों-मित्रमंडली के द्वारा जीवनरहित हो अर्थात् उन के द्वारा मारे जाने पर उसा चम्मा नगरो के श्रोष्ठिकुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा । वहां पर बाल्यभाव को त्याग कर यौवन अवस्था को प्राप्त होता हुअा वह तथारूप-विशिष्ट संयमी स्थविरों के पास शङ्का, कांक्षा आदि दोषों से रहित बाधि - लाभ को प्राप्त कर अनगार-धर्म को ग्रहण करेगा। वहां से काल मास में काल कर के माधम नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा। शेष जिस प्रकार प्रथम अध्ययन मे मृगापुत्र के सम्बन्ध में प्रतिपादन किया गया है यावत् कर्मो का अन्त करेगा. निक्षेप की कल्पना कर लेनी चाहिये । । ॥द्वितीय अध्याय समाप्त ।। टीका-प्रस्तुत सूत्र में श्री गौतम स्वामी ने पतित - पावन वीर प्रभु से विनय-पूर्वक प्रार्थना की कि भगवन् ! जिस पुरुष के पूर्व -भव का वृत्तान्त अभी २ आप श्री ने सुनाने की कृपा की है, वह पुरुष यहां से काल कर के कहां जायगा ? और कहां उत्पन्न होगा ? यह भी बतलाने की कृपा करें। इस प्रश्न में गौतम स्वामी ने उज्झितक कुमार के अागामी भवों के विषय में जो जिज्ञासा की है, उस का अभिप्राय जीवात्मा की उच्चावच भवपरम्परा से परिचित होने के साथ साथ जीवात्मा के शुभाशुभ कर्मों का चक्र कितना विकट और विलक्षण होता है, तथा संसार-प्रवाह में पड़े हुए व्यक्ति को जिस समय किसी महापुरुष के सहवास से 'सम्यक्त्वरत्न की प्राप्ति हो जाती है, तब से वह विकास की ओर प्रस्थान करता हुआ अन्त में अपने ध्येय को किस तरह प्राप्त कर लेता है ? इत्यादि बातों की अवगति भी भली भान्ति हो जाती है । इसी उद्देश्य से गौतम स्वामी ने वीर प्रभु से उज्झितक के अागामी भवों को जानने की इच्छा प्रकट की है । गौतम स्वामी के सारगर्भित प्रश्न के उत्तर में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जो कुछ फरमाया उस पर से हमारे ऊपर के कथन का भली भान्ति समर्थन हो जाता है । अब आप प्रभ वीर द्वारा दिए गए उत्तर को सुनें । भगवान ने कहा गौतम ! जिस व्यक्ति के आगामी भव के विषय में तुम ने पूछा है उसकी पूर्ण श्रायु २५ वर्ष की है, दूसरे शब्दों में कहें तो इस उज्झितक कमार ने पूर्व भव में आयुष्कर्म के दलिक इतने एकत्रित किये हैं जिन की आत्म-प्रदेशों से पृथक होने की अवधि २५ वर्ष की है । अतः २५ वर्ष की आयु भोग कर वह उज्झितक कमार आज ही दिन के तीसरे भाग में शूली पर लटका दिया जाएगा । मृत्यु को प्राप्त हो जाने पर मानव शरीर को छोड़ कर उज्झितक कुमार का जीव रत्नप्रभा नामक (१) अनादि-कालीन संसार-प्रवाह में तरह २ के दु:खों का अनुभव करते योग्य अात्मा में कभी ऐसी परिणाम --शुद्धि हो जाती है जो उस के लिये अभी अपूर्व ही होती है, उस परिणाम - शुद्धि को अपूर्वकरण कहते हैं । उस से राग द्वेष की वह तीव्रता मिट जाती है, जो तात्त्विक पक्षपात (सत्य में आग्रह) की. बाधक है। ऐसी राग और द्वेष की तीव्रता मिटते ही आत्मा सत्य के लिये जागरूक बन जाता है । यह आध्यात्मिक जागरण ही सम्यक्त्व है। (पण्डित सुखलाल जी) For Private And Personal Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १८rj श्रो विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय प्रथम नरक में नारकी - रूप से उत्पन्न होगा । वहां की भवस्थिति को पूरी करके वह इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष के बैताह्य पर्वत की तलहटी - पहाड़ के नीचे की भूमि में वानर कुल में वानर बन्दर के शरीर को धारण करेगा । वहां युवावस्था को प्राप्त होता हुआ तिर्यच - योनि के विषय भोगों में अत्यधिक आसक्ति धारण करेगा । तथा यौवन को प्राप्त हो कर भविष्य में मेरा कोई प्रतिद्वन्द्वी न बन जाय. इस विचार धारा से या यू कहें अग्ने भावी साम्राज्य को सुरक्षित रखने के लिये वह उत्पन्न हुए वानर शिशुओं का अवहनन किया करेगा । तात्पर्य यह है कि -सांसारिक विषय -वासानाओ में फंसा हुआ वह बन्दर प्राणातिगत (हिंसा) आदि पाप कर्मों में व्यस्त रह कर महान् अशुभ कर्म - वर्गणाओं का संग्रह करेगा । वहां की भवस्थिति पूरी होने पर वानर - शरीर का परित्याग कर के इन्द्रपुर नामक नगर में गणिका के कुल में पुत्र-रूप से जन्म लेगा अर्थात् किसी वेश्या का पुत्र बनेगा जन्मते ही उस के माता पिता उसे वर्द्धितक अर्थात् नपुसक बना देंगे, और वारहवें दिन बड़े आडम्बर के साथ उस का प्रिय पेन" यह नाम करण करेंगे । प्रियसेन बालक वहां अानन्द पूर्वक बढेगा और उस के माता पिता किसी अच्छे अनुभवी योग्य शिक्षक के पास उस के शिक्षण का प्रबन्ध करेंगे और प्रियसेन वहां पर नपुसक -कम की शिक्षा प्राप्त करेगा । तात्पर्य यह है कि गाना, बजाना और नाचना आदिक जितने भी नपुंसक के काम होते हैं, वे सब के सब उसको सिख लाये जाऐंगे, और प्रियसेन उन्हें दिल लगा कर सीखेगा तथा थोड़े ही समय में वह उन कामों में निपुणता प्राप्त कर लेगा । बाल्यभाव को त्याग कर जब वह युवावस्था में पदार्पण करेगा । उस समय शिक्षा और बुद्धि के परिपाक के साथ २ रूप, यौवन तथा शरीर लावण्य के कारण सबको बड़ा सुन्दर लगने लगेगा । तात्पर्य यह है कि वह बड़ा ही मेधावी अथ च परम सुन्दर होगा । वह अपने विद्या-सम्ब. न्धी मन्त्र, तन्त्र और चूणादि के प्रयोगों से इन्द्रपुर में निवास करने वाले धनाढ्य वर्ग को अपने वश में करता हुअा अानन्द पूर्वक जीवन व्यतीत करने वाला होगा । इस प्रकार पूजीपतियों को काबू में करके वह (प्रयसेन सांसारिक विषय-वासनामो से वासित होकर, किसी से किसी प्रकार का भी भय न रखता हुआ यथेच्छरूप से विषय भोगों का उपभोग करेगा । इस भांति सांसारिक सुखों का अनुभव करता हुआ वह १२१ वर्ष की आयु को भोगेगा। आयु के समाप्त होने पर वह रत्नप्रभा नाम के प्रथम नरक में उत्पन्न होगा । वहां से निकल कर वह सरीसृपों- छाती के बल से चलने वाले सर्प आदि अथवा भुजा से चलने वाले नकुल. मूषक आदि प्राणियों की योनियो में जन्म लेगा । इस तरह से प्रथम अध्ययन में वर्णित मृगापुत्र के जीव की भान्ति वह उच्चावच योनियों में भ्रमण करता हश्रा अन्ततोगत्वा चम्पा नाम की प्रख्यात नगरी में महिष रूपेण-भैंसे के रूप में उत्पन्न होगा । यहां पर भी उसे शान्ति नहीं मिलेगी । वह गौष्ठिकों के द्वारा, अर्थात् उस नगरी की नवयुवक मण्डली के पुरुषों से मारा ज एगा और मर कर उसो चम्पा । धनाढ्य सेठ के घर पुत्ररूप से जन्म लेगा। वहां उस का बाल्यकाल बड़ा सुख - पूर्वक व्यतीत होगा और युवावस्था को प्राप्त होते ही वह तपोमय जीवन व्यतीत करने वाले तथारूप स्थविरों की सुसंगति को प्राप्त करेगा । ..उन के पास से धर्म का श्रवण करके उसे परम दुलन अथव निर्मल सम्यक्त्व की प्राप्ति For Private And Personal Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [१८५ होगी. उस के प्रभाव से हृदय में वैराग्य उत्पन्न होगा और वह साधु-धर्म को गीकार करेगा । धर्म का यथाविधि ( विधि के अनुसार ) पालन करके आयुष्कर्म की समाप्ति होने पर मानव — शरीर को त्याग कर सौधर्म देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होगा, वहां से व्यव कर महाविदेह में उत्पन्न होगा | वहां युवावस्था को प्राप्त होता हुआ संयम को ग्रहण करेगा और संयमानुष्ठान से कर्मों का क्षय करता हुआ अन्त में मोक्ष को प्राप्त कर लेगा । यह उसके आगामी भवों का संक्षिप्त वृत्तान्त है, जो कि वीर प्रभु ने गौतम स्वामी को सुनाया था। इस पर से मानव प्राणी की सांसारिक यात्रा कितनी लम्बी और कितनी विकट एवं विलक्षण होती है ? इस का अनुमान सहज ही में किया जा सकता है। " वेयड्ढगिरिपाय मूले " इस में उल्लेख किये गये वैताढ्य पर्वत का वर्णन मृगापुत्र के भावी जन्मों के वर्णन में पृष्ठ ९४ पर कर दिया गया है । उसी भान्ति यहां पर भी समझ लेना चाहिये । 1 ' ततो नंतर उव्वधित्ता " इस पाठ में उल्लेख किये गये " अणंतरं " पद का अर्थ - अनन्तर व्यवधानरहित । इसे समझने के लिये एक उदाहरण लीजिये - एक जीव पूर्वकृत पाप कर्मों के फल - स्वरूप रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में नारकीयरूप से उत्पन्न होता है । उसकी भवस्थिति पूरी होने पर वह नारकीय जीव वहां से निकल कर मनुष्यलोक में आकर मानवरूप में जन्म लेता है। वहां पर आयु समाप्त करके वह वैताढ्य पर्वत की तलहटी में जा उत्पन्न हुआ । इसी प्रकार एक दूसरा जीव है जो पहले नरक में गया और वहां से निकल कर सीधा वैताढ्य पर्वत की तलहटी में जा उत्पन्न हुआ । अब विचार कीजिये कि दोनों ही जीव वैताढ्य पर्वत की तलहटी में उत्पन्न हो रहे हैं और दोनों ही पहली नरक से निकल कर आ रहे हैं। इन में प्रथम जोव तो परम्परा से ( मध्य में मनुष्यभव करके ) श्राया हुआ है जब कि दूसरा साक्षात् सीधा ही श्राया है। नरक से उद्वर्तन – निकलना तो दोनों का एक जैसा है, परन्तु पहले का उद्ववर्तन तो अन्तर - उद्वर्तन है और दूसरे का अनन्तरउद्वर्तन कहलाता है । - हमारे पूर्व-परिचित उज्झितक कुमार प्रथम नरक से निकलकर बिना किसी और भव करने सीधे वैताढ्य पर्वत की तलहटी में जन्में, अतः इन का निकलना अनन्तर - उद्वर्तन - कहलाता है । श्रनन्तर पद का यहां पर इसी श्राशय को व्यक्त करने के लिये प्रयोग किया गया है । मति और गृद्ध आदि पदों की व्याख्या ऊपर पृष्ठ १७३ पर की जा चुकी है । पाठक वहां पर देख सकते हैं । "एकमे४" यहां पर दिया गया ४ का अंक उसके साथ के बाकी तीन पदों का ग्रहण करना सूचित करता है । वे तीनों पद इस प्रकार हैं- " एयप्पहाणे, एयविज्जे, एयसमुदायारे”। इन का भावार्थ पहले पृष्ठ १७९ के टिप्पण में लिखा जा चुका है, पाठक वहां पर देख सकते हैं । " वद्धेहिंति" इस क्रिया - पद के दो अर्थ देखने में आते हैं। प्रथम अर्थ - पालन पोषण करेंगे - यह प्रसिद्ध ही हैं और वृत्तिकार इसका दूसरा अर्थ करते हैं । वे लिखते हैं " बद्धेहिंति" त्ति वर्द्धितकं करिष्यतः" अर्थात् उसे नपुंसक बनावेंगे । दूसरे शब्दों में कहें तो “ – उसकी पुरुषत्व शक्ति को नष्ट कर डालेंगे - " यह कह सकते हैं ॥ आधुनिक शताब्दी (किसी सम्वत् के सैंकड़े के अनुसार एक से सौ वर्ष तक का समय) में उपलब्ध विपाकसूत्र की प्रतियों में “तते णं तं दारयं अम्मापितरो जायमेकं वद्धेहिंति २ For Private And Personal Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १८६] [दूसरा अध्याय नपुंसकम्मं सिखावेर्हिति । तते रणं तस्स दारगस्स श्रम्मापितरो णिव्वतबारसाहस्ल इमं tured urमधेज्जं करेईिति, होड णं पियसेणे गामं णपु सए - " ऐसा ही प्रायः पाठ उपलब्ध होता है । परन्तु हमारे विचारानुसार उस के स्थान में "तते णं तं दारयं श्रम्मापितरो जायमेत्तकं कहिंति । तते गं तस्स दारगस्स श्रम्मापितरो णिव्वत्तबारसाहस्स इमं एयारूवं णामधेज्जं करेहिति होउ णं पियसे कामं नपुंसप, तते गं तस्स दारगस्स श्रम्मापितरो तं दारगं नपुंसकम् लिक्खाहिंति" ऐसा पाठ होना चाहिये । इस का भावार्थ निम्नोक है माता पिता उत्पन्न होते उस बालक को नपुंसक - पुरुषत्व शक्ति से होन करेंगे तथा बारहवें दिन उस बालक का प्रियसेन नपुंसक ऐसा नामकरण करेंगे, तदनन्तर उसे नपुंसक का कर्म सिखलावेंगे । यदि इस में इतन परिवर्तन या संशोधन न किया जाय तो एक महान् दोष आता है । वह यह कि जिसका अभी नामकरण संस्कार भी नहीं हुआ तथा जिसने अभी माता के दूध का भी सम्पक्तया पान नहीं किया, एवं जो सर्वथा अबोध हैं, ऐसे सद्योजात शिशु को किसी स्वतन्त्र विषय का अध्ययन कैसे कराया जा सकता है ? अर्थात् नपुंसक कर्म कैसे सिखाया जा सकता है ? यदि नामकरण संस्कार के अनन्तर नपुंसक - कर्म की शिक्षा का उल्लेख हो जाए तो कुछ संगत हो सकता 1 श्री विपाक सूत्र -- उसका कारण यह है कि वहां "तते" यह पद दिया है, जिस में बड़ी गुजाइश है । "तते' का अर्थ है - तत् पश्चात् । तात्पर्य यह है कि नामकरण संस्कार के अनन्तर बाल्यावस्था के उल्लंघन से: प्रथम का काल " तत्पश्चात् ' पद से ग्रहण किया जा सकता हैं । हमारी इस कल्पना के चियानोचित्य का विशेष विचार तो श्रागमों के विशेषज्ञ तथा विचार शील सहृदय पाठकों के विचार-विमर्श ही पर निर्भर करता है। हमने अपने विचारानुसार अपने भाव अभिव्यक्त कर दिये हैं । प्रस्तुत सूत्र में प्रियसेन के द्वारा राजादि धनिकों के वश में करने श्रादि का जो उल्लेख किया गया है, उस की वृत्तिकार सम्मत व्याख्या इस प्रकार है - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 66 विद्यामन्त्र - चूर्ण – प्रयोगैः, किंविधैः इत्याह " – हियउडावणेहिं य-" त्ति हृदयोडायनः शून्यचित्तताकारकै:, “ – गिराहवणेहि य" त्ति श्रवश्यताकारकैः किमुक्तं भवति । अपहृतधनादिरपि परो धनापहारादिकं यैरपहते- -न प्रकाशयति तदपह्नवता श्रतस्तैः । “- पराहवणेहि य- " ति प्रस्नवनैयैः परः प्रस्तुतिं भजते प्रल्हत्तो भवतीत्यर्थः, “ – वसीकरणेहि य - " ति वश्यताकारकैः, किमुत' 'भवति ? "श्राभिश्रोगरहि" त्ति अभियोगः पारवश्यं स प्रयोजनं येषां ते श्राभियोगिकाः श्रतस्तैः अभियोगश्च द्वेधा यदाह 'दुविहो खलु श्रभिश्रोगो, दव्वे भावे स होइ नायव्वो । दव्वम्मि हुन्ति जोगा, विज्जा मंता य भावम्मि ॥ १ ॥ अर्थात् प्रस्तुत पाठ में विद्याप्रयोग और मन्त्रचूर्ण ये दो विशेष्य पद हैं और हृदयोड्डायन, निहवन, प्रस्तवन, वशीकरण और श्रभियोगिक ये विशेषण पद हैं। विद्या शब्द के " - शास्त्रज्ञान, विद्वत्ता इत्यादि अनेकों श्रर्थ मान्य होने पर भी प्रस्तुत प्रकरण में इस का " - देवी द्वारा अधिष्ठित अक्षर पद्धति - "यह श्रर्थ अभिमत है । अर्थात् प्रिसेन जो कुछ लिख देता था यह देवी के प्रभाव से निष्कल नहीं जाता था । विद्या का प्रयोग विद्याप्रयोग कहलाता है । मन्त्र शब्द देवता को सिद्ध करने की शाब्दिक शक्ति' का परिचायक है । चूर्ण भस्म श्रादि का नाम १ द्विविधः खल्बभियोगो, द्रव्ये भावे च भवति ज्ञातव्यः । द्रव्ये 'भवन्ति योगाः, विद्या मन्त्राश्च भावे ।। १॥ For Private And Personal Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित | [ १८७ है, तब मन्त्रचूर्ण शब्द से “ - मन्त्र द्वारा मन्त्रित चूर्ण - - " यह अर्थ बोधित होता है । अर्थात् प्रियसेन के पास ऐसे चूर्ण थे जिन्हें वह मन्त्रित करके रखा करता था और उन से अपना मनोरथ साधा करता था । विद्याप्रयोगों और मन्त्र - चूणां द्वारा प्रियसेन क्या काम लिया करता था ? इसका उत्तर सूत्रकार ने हृदयोडायन इत्यादि विशेषणों द्वारा दिया है । इन की व्याख्या निम्नोक्त है - (१) हृदयोडायन - हृदय को शून्य बना देने वाला अर्थात् हृदय का श्राकर्षण करने वाला । (२) निह्नवन-पदार्थों को अदृश्य करने वाला अर्थात् जिसके प्रभाव से अपहृत धन वाले धनिक भी अपने अपहृत धन का प्रकाश नहीं कर पाते थे। दूसरे शब्दों में कहें तो ' वे विद्याप्रयोग और मन्त्रचूर्ण ऐसे अद्भुत थे कि जिन के द्वारा किसी का धन चुराया भी गया हो, फिर भी वेधन वाले अपने धनापहार की बात दूसरों को नहीं कहते थे - " यह कहा जा सकता है (३) प्रस्नवन - दूसरों को प्रसन्न करने वाले अर्थात् प्रियसेन जिन चूर्ण का उपयोग करता वे झटिति अपने में प्रसन्नता का अनुभव करते थे . पर विद्या और मन्त्र (४) वशीकरण - वश में कर लेने वाले अर्थात् प्रियसेन जिन पर विद्या और मन्त्रचूर्ण का प्रयोग करता वे उस के वश में हो जाते थे । (५) श्रभियोगिक-अभियोग का अर्थ है - परवशता । जिन का उन्हें श्राभियोगिक कहा जाता है । अभियोग द्रव्य और भाव से दो प्रकार का औषध आदि का योग हो, उसे द्रव्याभियोग कहते हैं और जिस में विद्या वह भावाभियोग कहलाता है । एवं प्रयोजन पारवश्य हो, होता है। जिस में मन्त्र का योग हो, "6 “ - जहा पढमे जाव पुढवी० - "यहां पठित "- जाव यावत् - ' पद से प्रथम अध्ययन गत “ – उव्वज्जिहिति । तत्थ गं कालं किया दोच्चार पुढवीप उक्कोसियाए” से लेकर “ – ते उ० श्राउ० पुढविकासु श्ररोगसतसहस्सकखुत्तो उवबज्जिहिति- " यहां तक का पाठ ग्रहण करना सूत्र - कार को अभिमत है तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र की आगामी भवसम्बन्धी जीवन का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार उज्झितक के विषय में भी जान लेना चाहिये । अन्तर मात्र नाम का है, अर्थात् प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र का नाम निर्दिष्ट हुआ है जब कि इस मेंदूसरे में उज्झितक कुमार का । For Private And Personal - इस के अतिरिक्त जिस प्रकार प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र की अन्तिम जीवनी का विकास - प्रधान कथन किया गया है अर्थात् जिन जिन साधनों से श्रेष्ठी-पुत्र के भव में आकर मृगापुत्र ने अपने जीवन का उद्धार किया और वह देवलोक से व्यव कर महाविदेह के क्षेत्र में दीक्षित हो कर कर्म – रहित बना । ठीक उसी प्रकार उज्झितक कुमार ने भी तथारूप स्थविरों के पास से सम्ब क्त्व को प्राप्त कर के संयम के यथाविधि अनुष्ठान में कर्मबन्धनों को तोड़ कर निर्वाण - पद को प्राप्त किया, इन सब बातों की सूचना प्रस्तुत अध्ययन में " वोहिं० अणगारे० सोहम्मे कप्पे० " और " - जहा पढमे जाव - " इत्यादि पदों के संकेत में दे दी गई है, ताकि विस्तार न होने पावे और प्रतिपाद्यार्थ समझ में आ सके । “ – बोहिं०–” यहां दिये गये बिन्दु से “ - बोहिं बुज्झिहिति, केवलबोहिं बुज्झित्ता श्रमाराम श्रगारियं पव्वइहिति । से णं भविस्सर (अर्थात् बोधि-सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा, सम्यक्त्व को प्राप्त करके वह गृहस्थावस्था को त्याग कर अनगार - धर्म में दीक्षित हो जायेगा - Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १८८] श्रो विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय साधु बन जायेगा)-" यहां तक के पाठ का ग्रहण समझना । और "अणगारे यहां के बिन्दु से "भविस्सइ ईरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी । से णं तत्थ समिए जाव गुत्तबंभयारी । से णं तत्थ बहूई वासाई सामरणपरियागं पाउणित्ता आलोइयपडिक्कन्ते कालमासे कालं किच्चा" यहां तक का पाठ ग्रहण करना तथा "-सो. हम्मे कप्पे०-" यहां के बिन्दु से "-देवत्ताए उववन्जिहिति । से णं ततो अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेह-वासे जाई कुलाई भवन्ति अडढाई-" यहां तक का पाठ ग्रहण करना सूत्रकार को अभीष्ट है । इन पदों का अर्थ प्रथम अध्ययन के पृष्ठ ९२ पर लिखा जा चुका है । “जहा पढमे जाव अंतं " यहां पठित " जाव- यावत् ” पद से औपपातिक सूत्र के "-टित्ता विताई विलिराण-विउल-भवण-सयणासन-जाण वाहणार्ड" से ले कर "चरिमेहिं उस्सासणिस्सासेहिं सिज्झिहिति बुझिहिति मुञ्चिहिति परिणिवाहिति सव्व-दुक्खाणमंतं-" यहां तक के पाठ का परिचायक है । इस पाठ का अर्थ पाठक वहीं देख सकेंगे। पाठकों को स्मरण होगा कि प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में श्री जम्बू स्वामी ने श्री सुधर्मा - स्वामी के चरणकमलों में यह निवेदन किया था कि भगवन् ! दु:ख-विपाक के प्रथम अध्ययन का अर्थ तो मैंने समझ लिया है, अब आप कृपया यह बतलावे कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दूसरे अध्ययन में क्या अर्थ कथन किया है ? जम्बू स्वामी के उक्त प्रश्न के उत्तर में श्री सुधर्मा स्वामी ने पूर्वोक्त उज्झितक कुमार के जीवन का वर्णन सुनाना प्रारम्भ किया था। उज्झितक कुमार के जीवन का वर्णन करने के अनन्तर श्री सुधर्मा स्वामी ने श्री जम्बूस्वामी से कहा कि हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने विपाकश्रत के प्रथम स्कन्ध के दूसरे अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ कथन किया है । इस प्रकार मैं कहता हूँ, तात्पर्य यह है कि भगवान् ने मुझे जिस प्रकार सुनाया है उसी प्रकार मैंने तुम्हारे प्रति कह दिया है । मैंने अपनी ओर से कुछ नहीं कहा। इन्हीं भावों को सूचित करने के निमित्त सूत्रकार ने " निस्खेवो" इस पद का उल्लेख किया है। निक्षेप पद के कोषकारों के मत में उपसंहार ओर निगमन ऐसे दो अर्थ होते हैं । उपसंहार शब्द के "- मिला देना, संयोग कर देना, समाप्ति, भाषण या किसी पुस्तक का अन्तिम भाग जिस में उस का उद्देश्य अथवा परिणाम संक्षेप में बतलाया गया है - '' इत्यादि अनेकों अर्थों का परिचायक है, और निगमन शब्द परिणाम, नतीजा इत्यादि अर्थों का बोध कराता है । अब यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रस्तुत प्रकरण में निक्षेत्र का कौन सा अर्थ अभिमत है ? - हमारे विचारानुसार प्रस्तुत में निक्षेप का - उपसंहार—यह अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है, निगमन का अर्थ यहां संघटित नहीं हो पाता, क्योंकि प्रस्तुत में निक्षेप पद " - एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं दुहविवागाणं वि यस्स अज्झयणस्स अयमठे पराणते त्ति बेमि-" इन पदों का संसूचक है । इन पदों का प्रस्तुत द्वितीय अध्ययन में प्रति गादित कथावृत्तान्त के साथ कोइ सम्बन्ध नहीं है, तब निगमन पद का अर्थ यहां कैसे संगत हो सकता है ? हां यदि इन पदों में प्रस्तुत अध्ययन का परिणाम - नतीजा वर्णित होता तो निगमन पद का अर्थ संगत हो सकता था। उपसंहार पद का भी यहां पर-मिला देना- यह अर्थ संगत हो सकेगा, क्योंकि यहां पर सूत्रकार का आशय अध्ययन की समाप्ति पर पूर्वापर सम्बन्ध जोड़ने से है । पूर्वापर सम्बन्ध मिलाने वाले "एवं खलु जम्ब!” इत्यादि पद हैं । इन्हें ग्रहण कर लिया जाए. यह.. सूचना देने के लिए ही सूत्रकार ने 'निक्खेवो" इस पद का उपन्यास किया है । दूसरे शब्दों में निक्षेप पद का अर्थ"-- अध्ययन के पूर्वापर सम्बन्ध को मिलाने वाला समाप्ति-वाक्य --"इन शब्दों के द्वारा किया जा सकता For Private And Personal Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org T हिन्दी भाषा टीका सहित । दूसरा अध्याय ] है। रहस्यं तु केवलिगम्यम् | है जैसे कि - (१) मांसाहार प्रस्तुत अध्ययन में मुख्यतया दो बातों का उल्लेख किया गया और (२) व्यभिचार । मांसाहार यह जीव को कितना नीचे गिरा देता है ? और नरक. गति में कैसे कल्पनातीत दुःखों का उपभोग कराता है ? तथा अध्यात्मिक जीवन का कितना पतन करा देता है ? यह उज्झितक कुमार के उदाहरण से भली भान्ति स्पष्ट हो जाता है । साथ में व्यभिचार से कितनी हानि होती है । उस के आचरण से मत्यलोक तथा नरकगति' में कितनी यातनायें सहन करनी पड़ती हैं ? यह भी प्रस्तुत अध्ययनगत उज्झितक कुमार के जीवन-वृत्तान्त से भली भान्ति ज्ञात हो जाता है । सारांश यह है कि जी का हिंसामय और व्यभिचार - परायण होना कितना भयंकर है ? इस का दिग्दर्शन कराना ही प्रस्तुत अध्ययन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है । पुण्य और पाप के स्वरूप तथा उस के फल- विशेष को समझाने का सरल से सरल यदि कोई उपाय है, तो वह आख्यायिकाशैली है । जो विषय समझ में न आ रहा हो, जिसे समझने में बड़ी कठिनता प्रतीत होती हो तो वहां आख्यायिका - शैली का अनुसरण राम-बाण औषधि का काम करतो है आख्यायिका - शैली को ही यह गौरव प्राप्त है कि उस के द्वारा कठिन से कठिन विषय भी सहज में अवगत हो सकता है और सामान्य बुद्धि का मनुष्य भी उसे सुगमतया समझ सकता है। इसी हेतु से प्राचीन आचार्यों ने वस्तुतत्व को समझाने के लिए प्राय इसी आख्यायिका - शैली का श्राश्रयण किया है । आख्यान के द्वारा एक बाल- बुद्ध जीव भी वस्तुतत्त्व के रहस्य को समझ लेता है, यह इस रही हुई स्वाभाविक विलक्षणता है । प्रस्तुत सूत्र में भी इसी शैली का अनुसरण किया गया है । कहानी के द्वारा पाठकों को हिंसा के परिणाम तथा व्यभिचार के फल को बहुत अच्छी तरह से समझा दिया गया है । उज्झितक कुमार की इस कथा से प्रत्येक साधक व्यक्ति को यह शिक्षा प्राप्त करनी चाहिये कि किसी प्राणी को कभी भी सताना नहीं चाहिये और वेश्या आदि की कुसंगति से दूर रहने का सदा यत्न करना चाहिये । वेश्या की कुसंगति से उज्झितक कुमार को कितना भयंकर कष्ट सहन करना पड़ा था ? यह उसके उदाहरण से बिल्कुल स्पष्ट ही है । भर्तृहरि ने ठीक ही कहा है कि वेश्यासौ मदनज्वाला, रूपेन्धनविवर्द्धिता । कामिभिर्यत्र हूयन्ते, यौवनानि धनानि च ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अर्थात् - वेश्या यह रूपलावण्य से धधकती हुई कामदेव की ज्वाला है, इस में कामी पुरुष प्रतिदिन अपने यौवन और धन का हवन करके अपने जीवन को नष्ट कर लेते हैं । इस अध्ययन के पढ़ने का सार भी यही है कि इस में कहानी रूप से दी गई अमूल्य शिक्षात्रों को जीवन में लाकर अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाने का यथाशक्ति अधिक से अधिक यत्न करना चाहिये क्योंकि मात्र पढ़ लेने से कुछ लाभ नहीं हुआ करता । "पक्षीगण आकाश में सानन्द विचरने में तभी समर्थ हो पर भी दोनों मज़बूत और सहीसलामत हों । दोनों में से यदि एक पक्ष स्वेछा - पूर्वक आकाश में विचरण नहीं हो सकता । इस लिये उसके आकाश - विहार के लिये अत्यन्त आवश्यक है । ठीक ज्ञान और तदनुरूप क्रिया - आचरण [ १८९ सकते हैं जब कि उन के पक्ष पर दुर्बल या निकम्मा है तो उसका पक्षों का स्वस्थ और सबल होना उसी प्रकार साधक व्यक्ति के लिये दोनों की आवश्यकता है अकेला ज्ञान कुछ भी कर नहीं पाता (१) उभाभ्यामेव पक्षाभ्यां यथा खे पक्षीणां गतिः । तथैव ज्ञानकर्मभ्यां प्राप्यते शाश्वती गतिः ॥ १ ॥ For Private And Personal Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १९०] श्री विपाक सूत्र [ दूसरा अध्याय यदि साथ में क्रिया-आचरण न हो । इसी भान्ति अकेली क्रिया-आचरण का भी कुछ मूल्य नहीं जब कि उसके साथ ज्ञान का सहयोग न हो । अतः ज्ञान -पूर्वक किया जाने वाला क्रियानुष्ठान-आचरण ही कार्य-साधक हो सकता है। इसी लिये दीर्घदर्शी महर्षियों ने अपनी २ परिभाषा में उक्त सिद्धान्त का-"ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः- इत्यादि वचनों द्वारा मुक्त कण्ठ से समर्थन किया है। सारांश यह है कि पतित-पावन भगवान् महावीर स्वामी ने "-दुःखजनिका हिंसा से बचो और भगवती अहिंसा-दया का पालन करो, व्यभिचार के दूषण से अलग रहो और सदाचार के भूषण से अपने को अलंकृत करो. एवं ज्ञान-पूर्वक क्रियानुष्ठान का आचरण करते हुए अपने भीवष्य को उज्ज्वल, समुज्ज्वल एवं अत्युज्ज्वल बनाने का श्रेय प्राप्त करो -" यह उपदेश कथाओं के द्वारा संसार-वर्ती भव्य जीवों को दिया है, अतः शास्त्र-स्वाध्याय से प्राप्त शिक्षाएं जीवन में उतार कर श्रात्मा का श्रेय साधन करना ही मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य होना चाहिये । यह सब कुछ गुरु मुख द्वारा शास्त्र के श्रवण और मनन से हो सकता है । इसी लिये शास्त्रकारों ने बार २ शास्त्र के श्रवण करने पर जोर दिया है। ॥ द्वितीय अभ्याय समाप्त ॥ For Private And Personal Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra - www.kobatirth.org अथ तृतीय अध्याय संसार का प्रत्येक प्राणी जीवन का अभिलाषी बना हुआ है, इसी लिये संसार की अन्य अनेकों वस्तुएं प्रिय होने पर भी उसे जीवन सब से अधिक प्रिय होता है। जीवन को सुखी बनाना उस का सब से बड़ा लक्ष्य है, जिस की पूर्ति के लिये वह अनेकानेक प्रयास भी करता रहता है। मानव प्राणी को सुख की जितनी चाह है उस से ज़्यादा दुःख से उसे घृणा है । दुःख का नाम सुनते ही वह तिलमिला उठता है । इस से (दु.ख से ) बचने के लिये वह बड़ी से बड़ी कठोर साधना करने के लिये भी सन्नद्ध हो जाता है । तात्पर्य यह है कि सुखों को प्राप्त करने और दुःखों से विमुक्त होने की कामना प्रत्येक प्राणी में पाई जाती है । इसी लिये विचारशील पुरुष दु.ख को साधन-सामग्री को अपनाने का कभी यत्न नहीं करते प्रत्युत सुख की साधनसामग्रा को अपनाते हुए अधिक से अधिक आत्मविकास की ओर बढ़ने का निरन्तर प्रयास करते रहते हैं । संसार में दो प्रकार के प्राणी उपलब्ध होते हैं, एक तो वे हैं जो सभी सुखी रहना चाहते हैं, दुःख कोई नहीं चाहता - इस सिद्धान्त को हृदय में रखते हुए किसी को कभी दुःख देने की चेष्टा नहीं करते और जहां तक बनता है वे अपने सुखों का बलिदान करके भी दूसरों को सुखी बनाने का प्रयत्न करते हैं तथा ". -सुखी रहे सब जीव जगत के, कोई कभी न दुःख पावे - " इस पवित्र भावना से अपनी आत्मा को भावित करते रहते हैं । इस के विपरीत दूसरे वे प्राणी हैं, जिन्हें मात्र अपने हो सुख की चिन्ता रहती है, और उस की पूर्ति के लिये किसी प्राणी के प्राण यदि विनष्ट होते हों तो उन का उसे तनिक ख्याल भी नहीं आने पाता, ऐसे प्राणी अपने स्वार्थ के लिये किसी भी जघन्य आचरण से पीछे नहीं हटते, और वे पर पीड़ा और पर- दुःख को ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लेते हैं, साथ में वे बुरे कर्म का फल बुरा होता है और वह अवश्य भोगना पड़ता है, इस पवित्र सिद्धान्त को भी अपने मस्तिष्क में से निकाल देते हैं। ऐसे मनुष्य अनेकों हैं और उन में से एक श्रममपेन नाम का व्यक्ति भी है । प्रस्तुत तीसरे अध्ययन में इसी के जीवन वृत्तान्त का वर्णन किया गया है । उस का उपक्रम करते हुए सूत्रकार इस प्रकार वर्णन करते हैं - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मूल पुरिमताले गामं (१) छाया - तृतीयस्योत्क्षेपः । एवं खलु जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये पुरिमतालं नाम नगरमभवत्, ऋद्ध० । तस्य पुरिमतालस्य नगरस्योत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे अमोघदर्शि उद्यानम् । तत्र अमोघदर्शिना यक्षस्य श्रायतनमभवत् । तत्र पुरिमताले महावलो नाम राजाऽभूत् । तस्य पुरिमतालस्य नगरस्योत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे देशप्रान्ते श्रटवीसंश्रिता, शालाटवी नाम चोरपल्ल्यभवत्, विषम - गिरिकन्दर कोलम्बसंनिविष्टा, वंशी-कलंक प्राकार-परिक्षिप्ता, छिन्नशैलवित्रमप्रातपरिखोपगूढा, अभ्यन्तर पानीया, सुदुर्लभजलपर्यन्ता, अनेक खंडी, विदितजनदत्त निर्गमप्रवेशा, सुबहोरपि मोषव्यावर्तकजनस्य दुष्प्रध्वस्या चाप्यभवत् । तत्र शालाटव्यां चोरपल्ल्यां विजयो नाम चोरसेनापतिः परिवसति धार्मिको यावत्, लोहितपाणिः, बहुनगरनिर्गतयशाः शूरो, दढप्रहारः, साहसिकः, शब्दवेधी, असियष्टिप्रथम मल्लः । स तत्र शालाटव्यां चौरपल्ल्यां पञ्चानां चोरशतानामाधिपत्यं यावत् विहरति । १ ' तच्चस्स उक्खेत्रो एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समए For Private And Personal Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १९२] श्री विपाक सूत्र तीसरा अध्याय नगरे होत्था, रिद्ध०' । तस्स णं पुरिमतालस्स नगरस्स उत्तरपुरस्थिमे दिसीमाएं अमोहदंसी उज्जाणे, तत्थ णं अमोहदंसिस्स जमावस्स आयपणे होत्था । तत्थ णं पुरिमताले महब्बले णामं राया होत्था । तस्स ण पुरिमतालस्स णगरस्स उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए देसप्प ते अडवीसंठिया सालाडवी णामं चारपल्ली होत्था, विसागरिकंदरकोलंबसन्निविट्ठा, वंसीकलंकपागारपरिक्खित्ता, छिण्णसेलविसमप्पवायफरिहोवगूढा, अभितर–पाणिया, सुदल्लभजल पेरंता, अणेगखएडी, विदितजणदिएणनिग्गमप्पवेसा, सुबहुयम्स वि कूवियस्स जणस्स दुप्पहंसा यावि होत्था । तत्य णं सालाड़वीए चोरपल्लीए विजए णामं चोरसेणावती परिवसति, अहम्मिए जाव लोहियपाणी बहुणगरणिग्गतजसे, सूरे, दढप्पहारे, साहसिते, सहबेही, असिलट्ठिपढममल्ले । से णं तत्थ सालाड़वीए चोरपल्लीए पंचएहं चोरसताणं आहेवच्चजाव विहरीत ।। पदार्थ- तच्चस्स-तृतीय अध्ययन की । उक्खेवो-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् जान लेनी चाहिए । एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही । जंबू !-हे जम्बू ! । तेणं कालेणं-उस काल में तथा । तेणं समरणं-उस समय में । पुरिमताले-पुरिमताल । णाम-नामक । णगरे-नगर । होत्था-था । रिद्ध० -जोकि ऋद्ध-भवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित-भय से रहित तथा समृद्ध-धनधान्यादि से सम्पन्न, या । तस्स णं - उस । पुरिमतालस्स-पुरिमताल नामक । णगरस्सनगर के । उत्तरपुरस्थिम-उत्तर पूर्व । दिसीभार-दिग्भाग में-दिशा में अर्थात् ईशान कोण में । अमोहदंसी-अमोघदर्शी नामक । उज्जाणे-उद्यान था । तत्थ णं-वहां पर । अमोहदंसिस्सश्रमोघदर्शी नामक । जक्खस्स-यक्ष का । प्राययणे-आयतन - स्थान । होत्था-था। तत्थ णंउस । पुरिमताले-पुरिमताल नगर में । महब्बले -महाबल | णाम-नामक । राया-राजा । होथा-था । तस्स णं-उस । पुरिमतालस्स -पुरिमताल । णगरस्स -नगर के। उत्तरपुरथिमेउत्तरपूर्व । दिसीसार-दिग्भाग में अर्थात् ईशान कोण में । देसप्पंते -देशप्रान्त-सीमा पर । अडवीसंठिया - अटवी में स्थित । सालाडवी-शालाटवी । णाम-नामक । चोरपल्ली-चोर (१) " - रिद्ध०- यहां की बिन्दु से जिस पाठ का ग्रहण सूत्रकार ने सूचित किया है उस को पृष्ठ १३८ पर लिख दिया गया है । . (२) "अहम्मिए " अधर्मण चरतीत्यधार्मिकः, यावत्करणात् - अधम्मिढे " अतिशयेन निमः अधर्मिष्ट: निस्त्रिंशकर्मकारित्वात् , "अधम्मवखाई' अधर्ममाख्यातु शीलं यस्य स तथा, "अधम्माणए" अधर्मकर्तव्येऽनुज्ञा -अनुमोदनं यस्यासावधर्मानुज्ञः अधर्मानुगो वा, “ अधम्मपलोई " अधर्ममेव प्रलोकयितु शीलं यस्यासावधर्मप्रलोकी " अधम्मपलज्जणे" अधर्मप्रायेषु कर्मसु प्रकर्षेण रज्यते इति अधर्मप्ररजनः “ अधम्मसीलसमुदायारे " अधर्म एव शीलं -स्वभावः, समुदाचारश्च,-यत्किंचनानुष्ठानं यस्य स तथा, "अधम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणे” अधर्मेण - पापेन सावद्यानुष्ठानेनैव दहनाङ्कननिलाञ्छनादिना कर्मणा,वृत्ति वर्तनं, कल्पयन्- कुर्वाणो " हणछिन्दभिन्दनियतप"हन-विनाशय, छिन्दिद्विधा कुरु, भिन्द कुन्तादिना भेदं विधेहि-इत्येवं परानपि प्रेरयन प्राणिनो विकृन्ततीति हनछिन्दभिन्दविकर्तकः, हन इत्यादयः शब्दाः संस्कृतेऽपि न विरुद्धाः अनुकरणरूपत्वादेषामिति भावः । For Private And Personal Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय ] 'हिन्दी भाषा टीका सहित । [१९३ - - - पल्ली – चोरों के निवास का गुप्तस्थान | होत्था - थी, जो | विसमगिरिकन्दर-पर्वत की विषमभयानक कन्दरा गुफा के । कोलंब प्रान्तभाग - किनारे पर । सनिविट्टा - संस्थापित थी । बंसी. कलंक - बांस की जाली की बनी हुई बाड़, तद्रूप । पागार - प्राकार - कोट से । परिक्वित्ता - परिक्षितघिरी हुई थी । छिराण - विभक्त अर्थात् अपने अवयवों से कटे हुए। सेल - शैल - पर्वत के । विसम - विषम – ऊ'चे नीचे । पवाय - प्रपात - गढे, तद्रूप । फरिहोवगूढ़ा - परिखा - खाई से युक्त । श्रभिंतरपाणिया - अन्तर्गत जल से युक्त अर्थात् उसके अन्दर जल विद्यमान था । सुदुल्लभजलपेरंता - उसके बाहिर जल अत्यन्त दुर्लभ था । अणेगखंडी - भागने वाले मनुष्यों के मार्गभूत अनेकों गुप्तद्वारों से युक्त । विदितजण दिणनिगमप्पवेला - ज्ञात मनुष्य ही उस में से निर्गम और प्रवेश कर सकते थे, तथा । सुबहु व अनेकानेक । कूवियस्स - मोषव्यावर्तक – चोरों द्वारा चुराई हुई वस्तु को वापिस लाने के लिए उद्यत रहने वाले । जणस्स यावि - जन - मनुष्यों द्वारा भी । दुप्पहंसा - दुष्प्रध्वस्या अर्थात् उस का नाश न किया जा सके, ऐसी । होत्था - थी । तत्थ णं - वहां अर्थात् उस । सालाड़वीए - शाला. टवी नामक । चोरपल्लीए - चोरपल्ली में । विजय गामं - विजय नामक । चोरसेणवाती - चोरसेनापति – चोरों का नायक । परिवसति – रहता था, जो कि । अहम्मिए - धार्मिक | जाव - यावत् । लाहियपाणी – लोहितपाणि अर्थात् उस के हाथ रक्त से लाल रहते थे । बहुगरणिग्गतजसे - जिस की प्रसिद्धि अनेक नगरों में हो रही थी । सूरे - शूरवीर । दढप्पहारे - दृढ़ता से प्रहार करने वाला । साहसिते - साहसी - साहस से युक्त । सद्दवेही - शब्दभेदी अर्थात् शब्द को लक्ष्य में रख कर बाण चलाने वाला । असिलट्ठिपढममल्ले - तलवार और लाठी का प्रथममल्ल - प्रधानयोद्धा था । से गं - वह विजय नामक चोरसेनापति । तत्थ सालाडवीर - उस शालाटवी नामक | चोरपल्लीप - चोरपल्ली में । पंचराहं चोरसताणं - पांच सौ चोरों का । हेवच्चं - श्राधिपत्यस्वामित्व करता हुआ । जाव - यावत् । विहरति - समय बिता रहा था । 1 - मूलार्थ - तृतीय अध्ययन की प्रस्तावना पूर्व की भान्ति ही जान लेनी चाहिए । हे जम्बू ! उस काल और उस समय में पुश्मिताल नामक एक नगर था, जो कि ऋद्ध - भवनादि की अधिकता से युक्त, स्तिमित - स्वचक्र ( आन्तरिक उपद्रव) और परचक्र ( बाह्य उपद्रव ) के भय से राहत और समृद्ध - धन धान्यादि से परिपूर्ण था । उस नगर के ईशान कोण में अमोघदर्शी नाम का एक उद्यान था । उस उद्यान में अमोघदर्शी नामक यक्ष का एक था । पुरिमताल नगर में महाबल नाम का राजा राज्य किया करता था । आयतन - स्थान नगर के ईशान कोण में सीमान्त पर स्थित अटवी में शालाटवी नाम की एक चोर - पल्ली ( चोरों के निवास करने का गुप्त-स्थान ) थी, जो कि पर्वतीय भयानक गुफाओं के प्रान्तभाग- किनारे पर स्थापित थो, बांस की बनी हुई बाड़रूप प्राकार से परिवेष्टित घिरी हुई थी । विभक्त अपने अवययों से कटे हुए पर्वत के विषम (ऊंचे, नीचे) प्रपात - गर्त, तद्रूप परिखा खाई वाली थी । उस के भीतर पानी का पर्याप्त प्रबन्ध था और उसके बाहिर दूर दूर तक पानी नहीं मिलता था। उसके अन्दर अनेकानेक खण्डी - गुप्त द्वार (चोर दरवाजे ) थे, और उस चोरपल्ली में परिचित व्यक्तियों का हो प्रवेश अथच निर्गमन हो सकता था । बहुत से मोषव्यावर्तक - चोरों की खोज लगाने वाले अथवा चोरों द्वारा अपहृत धनादि के वापिस खाने में उद्यत, मनुष्यों के द्वारा भी उस का नाश नहीं किया जा सकता था । For Private And Personal Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १९४ श्री वपाक सूत्र - [ तीसरा अध्याय उस शालाटवी नामक चोरपल्ली में विजय नाम का चोरसेनापति रहता था, जो कि महा अधर्मी यावत् उस के हाथ खून से रंगे रहते थे, उस का नाम अनेक नगरों में फैला हुआ था । वह शूरवीर, दृढ़प्रहारी, साहसी, शब्दवेधी - शब्द पर बाण मारने वाला और तलवार तथा लाठी का प्रधान योद्धा था । वह सेनापति उस चोरपल्ली में चोरों का आधिपत्यस्वामित्व यावत् सेनापतित्व करता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा था । टीका - श्री जम्बू स्वामी ने श्री सुधर्मा स्वामी से विनम्र शब्दों में निवेदन किया कि भगवन् ! आप श्री ने विपाकसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के दूसरे अध्ययन का जो अर्थ सुनाया है, वह तो मैंने सुन लिया है। अब आप कृपया यह बतलाने का अनुग्रह करें कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने तीसरे अध्ययन का क्या अर्थ कथन किया है १, यह तीसरे अध्ययन की प्रस्तावना है, जिस को सूत्रकार ने मूलसूत्र में " तच्चस्स उक्खेवो" इस पदों द्वारा सूचित किया है । इस की वृत्तिकार–सम्मत व्याख्या " - तृतीयाध्ययनस्योत्क्षेपः प्रस्तावना वाच्या, सा चैवम् - " - "जइ णं भंते ! समं भगवया जाव संपत्तणं दुहविवागाणं दोच्चस्स उज्झयणस्स श्रयमट्ठे परणत, तच्चस्त भंते! के ट्ठे परणत १ " इस प्रकार है । अर्थात् उत्क्षेप शब्द प्रस्तावना का परिचायक है । प्रस्तावना का उल्लेख ऊपर कर दिया गया है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रस्तुत अध्ययन में श्री सुधर्मा स्वामी ने श्री जम्बू स्वामी की प्रार्थना पर जो कुछ कथन किया है, उसका वर्णन किया गया है। श्री जम्बूस्वामी की जिज्ञासा - पूर्ति के निमित्त तृतीय अध्ययनगत अर्थ का प्रतिपाद्य विषय का आरम्भ करते हुए श्री सुधर्मा स्वामी फ़रमाने लगे हे जम्बू ! जब इस अवसर्पिणी काल का चौथा आारा बीत रहा था, उस समय पुरिमताल समस्त गुणों से युक्त और वैभव - पूर्ण था उसके उद्यान था । उस उद्यान में अमोघदर्शी नाम नाम का एक सुप्रसिद्ध नगर था । जो कि नगरोचित ईशान कोण में अमोघदर्शी नाम का एक रमणीय से प्रसिद्ध एक यक्ष का स्थान बना हुआ था । पुरिमताल नगर का शासक महावल नाम का एक राजा था । महाबल नरेश के राज्य की सीमा पर ईशान कोण में एक बड़ी विस्तृत अटवी थी । उस अटवी में शालाटवी नाम की एक चोरपल्ली थी । वह चोरपल्ली पर्वत की एक विषम कन्दरा के प्रान्त भाग - किनारे पर अवस्थित थी । वह वंशजाल के प्राकार ( चारदीवारी) से वेष्टित और पहाड़ी खड्डों के विषम-मार्ग की परिखा से घिरी हुई थी। उस के भीतर जल का सुचारु प्रबन्ध था परन्तु उस के बाहिर जल का अभाव था। भागने या भाग कर छिपने वालों के लिये उस अनेक गुप्त दरवाज़े थे। उस चोरपल्ली में परिचितों को ही आने और जाने दिया जाता था । अथवा यूं कहें कि उस में सुपरिचित व्यक्ति ही आ जा सकते थे । अधिक क्या कहें वह शालाटवी नाम की चोरपल्ली चोरग्राही राजपुरुषों के लिये भी दुरधिगम थच दुष्प्रवेश थी । इस चोरपल्ली में विजय नाम का चोरसेनापति रहता था । वह बड़े क्रूर विचारों का था, उसके हाथ सदा खून से रंगे रहते थे । उस के अत्याचारों से पीड़ित सारा प्रान्त उसके नाम से कांप उठता था । वह बड़ा निर्भय, बहादुर और सब का डट कर सामना करने वाला था । उस का प्रहार बड़ा तीव्र और अमोघ निष्फल न जाने वाला था । शब्दभेदी बाण के प्रयोग में वह बड़ा निपुण था । तलवार और लाठी के युद्ध में भी वह सब में अग्रेसर था । इसी कारण वह ५०० For Private And Personal Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। [ १९५ चोरों का मुखिया बना हुआ था। पांच सौ चोर उस के शासन में रहते थे । शालाटवी का निर्माण ही कुछ ऐसे ढंग से हो रहा था कि जिस के बल से बह सर्व प्रकार से अपने को सुरिक्षत रक्खे हुए था। चोरपल्ली के सम्बन्ध में सूत्रकार ने जो विशेषण दिये हैं, उन की व्याख्या निम्नोक्त है "-विसम-गिरि-कन्दर-कोलंब-सन्निविट्ठा-विषमं यद्रेिः कन्दरं-कुहरं तस्य य: कोलम्ब:प्रान्तस्तत्र सन्निविष्टा -सन्निवेशिता या सा तथा, कोलंबो हि लोके अवनतं वृक्षशाखाप्रमुच्यते इहोपचारतः कन्दरप्रान्त: कोलबो व्याख्यातः-" अर्थात् विषम भयानक को कहते हैं । गिरि पर्वत का नाम है। कन्दरा शब्द गुफ़ा का परिचायक है । कोलम्ब शब्द से किनारे का बोध होता है । सन्निवेशित का अर्थ है-संस्थापित । तात्पर्य यह है कि चोरपल्ली की स्थापना भयानक पर्वतीय कन्दराओंगुफ़ाओं के किनारे पर की गई थी । भीषण कन्दराओं के प्रान्त-भाग में चोरपल्ली के निर्माण का उद्देश्य यही हो सकता है कि उस में कोई शत्रु प्रवेश न कर सके और वह खोजने पर भी किसी को उपलब्ध न हो सके और यदि कोई वहां तक जाने का साहस भी करे तो उसे मार्ग में अनेकविध बाधाओं का सामना करना पड़े, जिस से वह स्वयं ही हतोत्साह हो कर वहां से वापिस लौट जाए। कोलम्ब शब्द का अर्थ है-झुकी हुई वृक्ष की शाखा का अग्रभाग । परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में उपचार (लक्षणा) से कोलम्ब का अर्थ कन्दरा का अग्रभाग अर्थात् किनारा ग्रहण किया गया है। "-बंसी-कलंक-पागार-परिक्वित्ता-वंशीकलंका-वंशजालमयी वृत्तिः, सैव प्राकारस्तेन परिक्षिप्तावेष्टिता या सा तथा-"अर्थात् उस चोरपल्ली के चारों ओर एक वंशजाल (बांसों के समूह) की वृत्ति-बाड़ बनी हुई थी जो कि वहां चोरपल्ली की रक्षा के लिये एक प्राकार का काम देती थी। तात्पर्य यह है जिस प्रकार किले के चारों ओर प्राकार-कोट (चार दीवारी) निर्मित किया हुआ होता है, जो कि किले को शत्रुओं से सुरक्षित रखता है, इसी भांति चोरपल्ली के चारों ओर भी बांसों के जाल से एक प्राकार बना हुआ था जो कि उसे शत्रुओं से सुरक्षित रखे हुए था। "-छिराण-सेल-विसम-प्पवाय-फरिहोवगूढा-छिन्नो विभक्तोऽवयवान्तरापेक्षया यः शैलस्तस्य सम्बन्धिनो ये विषमाः प्रपाताः- गस्ति एव परिखा तयोपगूढा-वेष्टिता या सा तथा-"अर्थात् छिन्न का अर्थ है कटा हुआ, या यू कहें-अपने अवयवों-हिस्सों से विभक्त हुआ । शैल पर्वत का नाम है। विषम भीषण या ऊँचे नीचे को कहते हैं। प्रपात शब्द से गढ़े का बोध होता है। खाई के लिये परिखा शब्द प्रयुक्त होता है। तात्पर्य यह है कि पहाड़ों के टूट जाने से वहां जो भयंकर गढे हो जाते हैं, वे ही उस चोरपल्ली के चारों ओर खाई का काम दे रहे थे। पहले ज़माने में राजा लोग अपने किले आदि के चारों ओर खाई खुदवा दिया करते थे । खाई का उद्देश्य होता था कि जब शत्रु चारों ओर से आकर घेरा डाल दे तो उस समय उस खाई में पानी भर दिया जाए, जिस से शत्रु जल्दी जल्दी किले आदि के अन्दर प्रवेश न कर सके । इसी भान्ति चोरपल्ली के चारों ओर भी विशाल तथा विस्तृत पर्वतीय गर्त बने हुए थे, जो परिखा के रूप में होते हुए उसे (चोरपल्ली को) भावी संकटों से सुरक्षित रख रहे थे। "-अणेगखंडी-अनेका नश्यतां नराणां मार्गभूताः खण्डयोऽपद्वाराणि यस्यां साऽनेकखण्डी -" अर्थात् उस चोरपल्ली में चोरों के भागने के लिये बहुत से गुप्तद्वार थे । गुप्तद्वार का अभिप्राय चोर-दर्वाज़ों से है । चोरपल्ली में गुप्तद्वारों के निर्माण का अर्थ था कि-यदि चोरपल्ली किसी समय प्रबल शत्रुयों से आक्रान्त होजाए तब शत्रुयों की शक्ति अधिक और अपनी शक्ति कम होने के कारण For Private And Personal Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १९६] श्रो विपाक सूत्र [तीसरा अध्याय वहां से सुगमता-पूर्वक भाग कर अपना जीवन बचा लिया जाए । “विदित-जण-दिगण-निग्गम-प्पवेसा-विदितानामेव प्रत्यभिज्ञातानां जनानां दत्तो निर्गमः प्रवेश्च यस्यां सा तथा-" अर्थात् उस चोरपल्ली के अधिकारियों की ओर से वहां के प्रति हारियों को यह कड़ी श्राज्ञा दे रखी थी कि चोरपल्ली में परिचित-विश्वासपात्र व्यक्ति ही प्रवेश कर सकते है, और परिचित ही वहां से निकल सकते हैं । अधिकारियों की ऐसी आज्ञा का अभिप्राय इतना ही है कि कोई राजकीय गुप्तचर चोरपल्ली में प्रवेश न कर पाए और वहां से कोई बन्दी भी भाग न जाए । इन विशेषणों द्वारा वहां के अधिकारियों की योग्यता, दीर्घदर्शिता, रक्षासाधनों की ओर सतर्कता एवं अनुशासन के प्रति दृढ़ता का पूरा पूरा परिचय मिल जाता है । “-कूवियस्स जणस्स दुप्पहंसा-" यहां पठित " कूवियस्स" के स्थान पर “कुवियस्स" ऐसा पाठान्तर भी मिलता है । प्रथम "कृविय, पद को कोषकार देश्य पद (देश विशेष में प्रयुक्त होने वाला) बतलाते हैं और इसका-मोषव्यावर्तक अर्थात् चुराई हुई चीज की खोज लगा कर उसे लाने वाला-ऐसा अर्थ करते हैं । तथा दूसरा "कुविय" यह पद यौगिक है, जिस का अर्थ होता हैकुपित अर्थात् क्रोध से पूर्ण । तात्पर्य यह है कि उस चोरपल्ली में शस्त्र अस्त्रादि का और सैनिकों का ऐसा व्यापक बल एकत्रित किया गया था कि वह चोरपल्ली मोषव्यावर्तकों से या क्रोधित शत्रओं से भी प्रध्वस्या नहीं थी । दूसरे शब्दों में कहें तो -इन से भी उस चोरपल्ली का ध्वंस-नाश नहीं किया जा सकता था-यह कहा जा सकता है। सूत्रकार ने “कूवियस्स" का जो “ सुबहुयस्स" यह विशेषण दिया है, इस से तो चोरपल्ली के रक्षा-साधनों की प्रचुरता का स्पष्टतया परिचय प्राप्त हो जाता है। सारांश यह है कि मोषव्यावर्तकों या कोपाविष्ट व्यक्तियों की चाहे कितनी बड़ी संख्या क्यों न हो फिर भी वे चोरपल्ली पर अधिकार नहीं कर सकते थे और ना ही उसको कुछ हानि पहुँचा सकते थे । इन सब बातों से उस समय की परिस्थिति पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । ऐसी अटवियों में लोगों का आना जाना कितना भयग्रस्त और आपत्ति-जनक हो सकता था । इस का भी अनुमान सहज में ही किया जा सकता है । "अहम्मिए जाव लोहियपाणी"--यहां पठित-जाव-यावत्-पद से "अधम्मिहे, अधम्मक्खाई, अधम्माणुए, अधम्मपलोई, अधम्मपलज्जणे, अधम्मसीलसमुदायारे, अधम्मेणं चेय वित्ति कप्पेमाणे विहरइ हणछिन्दभिन्दवियत्तए'--इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । अधर्मी आदि पदों की व्याख्या निम्नोक्त है (१) अधर्मी-धर्म- (पाप) पूर्ण आचरण करने वाला। (२) अधर्मिष्ट-अत्यधिक अधार्मिक अथवा अधर्म ही जिस को इष्ट-प्रिय है। (३) अधर्माख्यायी-अधर्म का उपदेश देना ही जिसका स्वभाव बना हुआ है । (४) अधर्मानुश या अधर्मानुग-धर्म-शून्य कार्यों का अनुमोदन-समर्थन करने वाला अथवा अधर्म का अनुगमन-अनुसरण करने वाला अर्थात् अधर्मानुयायी। (५) अधर्म-प्रलोकी-अधर्म को उपादेयरूप से देखने वाला अर्थात् अधर्म ही उपादेयग्रहण करने योग्य है, यह मानने वाला। (६) अधर्म-प्ररजन-धर्म-विरुद्ध कार्यों से प्रसन्न रहने वाला। (७) अधर्मशील-समुदाचार-अधर्म करना ही जिस का शील-स्वभाव और समुदाचार For Private And Personal Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [१९७ आचार-व्यवहार बना हुआ हो। (E) अधर्मेण चैव वृत्तिं कल्पयन्– का भाव है, अधर्म के द्वारा ही अपनी वृत्ति-आजीविका चलाता हुआ । तात्पर्य यह है कि विजयसेन चोरसेनापति जहां पापपूर्ण विचारों का धनी था. वहां वह अपनी उदर-पूतिं और अपने परिवार का पालन पोषण भी हिंसा, असत्य, चौर्यकर्म आदि अधर्मपूर्ण व्यवहारों से ही किया करता था। (९) हनछिन्दभिन्दविकर्तक-इस विशेषण में सूत्रकार ने विजयसेन चोरसेनापति के हिंसक एवं आततायी जीवन का विशेष रूप से वर्णन किया है । वह अपने साथियों से कहा करता था किहन -इसे मारो, छिन्द -इस के टुकड़े २ कर दो, भिन्द -इसे कुन्त (भाला) से भेदन करो-फाड़ डालो, इस प्रकार दूसरों को प्रेरणा करने के साथ २ वह चोरसेनापति स्वयं भी लोगों के नाक और कान आदि का विकर्तक-काटने वाला बन रहा था। (१०) लोहित - पाणी-प्राणियों के अंगोपांगों के काटने से जिसके हाथ खून से रंगे रहते थे। तात्पर्य यह है कि चोरसेनापति का इतना अधिक हिंसाप्रिय जीवन था कि वह प्राय: किसी न किसी प्राणी का जीवन विनष्ट करता ही रहता था । (११) बहुनगरनिर्गतयशा-अनेकों नगरों में जिस का यश-प्रसिद्धि फैला हुआ था । अर्थात् विजयसेन चोरसेनापति अपने चोरी आदि कुकर्मों में इतना प्रसिद्ध हो गया था कि उस के नाम से उस प्रान्त का बच्चा २ परिचित था। उस प्रान्त में उस के नाम की धाक मची हुई थी (१२) शूर-वीर का नाम है । वीरता अच्छे कर्मों की भी होती है और बुरे कर्मों की भी। परन्तु विजयसेन चोरसेनापति अपनी वीरता का प्रयोग प्रायः लोगों को लूटने और दुःख देने में ही किया करता था। (१३) गुढ़-प्रहार- जिस का प्रहार (चोट पहुँचाना) दृढ़ता - पूर्ण हो, अर्थात् जो दृढ़ता से प्रहार करने वाला हो, उसे दृढ़प्रहार कहते हैं । (१४) साहसिक-वह मानसिक शक्ति जिस के द्वारा मनुष्य दृढ़ता- पूर्वक विपत्ति आदि का सामना करता है, उसे साहस करते हैं । साहस का ही दूसरा नाम हिम्मत है । साहस से सम्पन्न व्यक्ति साहसिक कहलाता है। (१५) शब्दवेधी-उस व्यक्ति का नाम है जो विना देखे हुए केवल शब्द से दिशा का ज्ञान प्राप्त कर के किसी भी वस्तु को बींधता हो। (१६) असियष्टिप्रथममल्ल - विजयसेन चोरसेनापति असि - तलवार के और यष्टि-लाठी के चलाने में प्रथममल्ल था। प्रथममल्ल का अर्थ होता है -प्रधान योदा। प्राचार्य अभयदेव सूरि के मत में १"असियष्टि" एक पद है और वे इसका अर्थ खगलतातलवार करते हैं। ___"आहेवच्चं जाव विहरति"-- यहां-पठित जाव-यावत्-पद से - "पोरेवञ्चं, सामित्तं, भहित्तं, महत्तरगत्तं, श्राणाइसरसेणावच्चं" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। आधिपत्य आदि पदों की व्याख्या इस प्रकार है (१) "सिलटि पढममल्ले" -त्ति असियष्टिः-खङ्गलता, तस्यां प्रथमः प्रायः प्रधान इत्यर्थः, मल्लो योद्धा यः स तथेति वृत्तिकारः। For Private And Personal Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १९८ ] श्री विपाक सूत्र [ तीसरा अध्याय (१) आधिपत्य-अधिपति राजा का नाम है, उसका कर्म आधिपत्य कहलाता है । अर्थात् राजा लोगों के प्रभुत्व को श्राधिपत्य कहते हैं " (२) पुरोवर्तित्व - श्रागे चलने वाले का नाम पुरोवर्ती है । पुरोवर्ती मुख्य का कर्म पुरोवर्तित्व कहलाता है, अर्थात् मुख्यत्व को ही पुरोवर्तित्व शब्द से अभिव्यक्त किया गया है । (३) स्वामित्व - स्वामी नेता का नाम है । उस का कर्म स्वामित्व कहलाता है, अर्थात् नेतृत्व का ही पर्यायवाची स्वामित्व शब्द है 1 (४) भतृत्व - पालन पोषण करने वाले का नाम भर्ता है । उसका कर्म भतृत्व कहलाता है । भतृत्व को दूसरे शब्दों में पोषकत्व से भी कहा जा सकता है । (५) महत्तरकत्व - उत्तम या श्रेष्ठ का नाम महत्तरक है । उसका कर्म महत्तरकत्व कहलाता | महत्तरकत्व कहें या श्रेष्ठत्व कहें यह एक ही बात है। (६) श्रज्ञेश्वर सैनापत्य - इस पद श्राज्ञेश्वरश्वासौ सेनापतिः श्रज्ञेश्वर सेनापतिः, श्रज्ञेश्वरस्य श्रज्ञाप्रधानस्य यत् सेनापत्यं निष्पन्न होते हैं । वे निम्नोक्त हैं Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir के - " श्राज्ञायामीश्वरः श्रज्ञेश्वरः श्राज्ञाप्रधानः, तस्य भावः कर्म वा आज्ञेश्वर सैनापत्यम् । अथवातदाज्ञेश्वर सैनापत्यम्” इन विग्रहों से दो अर्थ (१) जो स्वयं ही आज्ञेश्वर है और स्वयं ही सेनापति है, उसे र्म श्रज्ञेश्वर सैनापत्य कहलाता है । आज्ञेश्वर राजा का आज्ञेश्वर सेनापति कहते हैं । नाम है । सेना के संचालक को सेनापति कहा जाता है । (२) आज्ञेश्वर का जो सेनापति उसे आज्ञेश्वरसेनापति कहते हैं, उसका भाव अथवा कर्म शेश्वर सैनापत्य कहलाता है । प्रस्तुत प्रकरण में सूत्रकार को प्रथम अर्थ अभिमत है, क्योंकि विजयसेन चोरसेनापति स्वयं ही चोरपल्ली का राजा है, तथा स्वयं ही उसका सेनापति बना हुआ है । प्रस्तुत सूत्र में शालाटवी नामक चोरपल्ली का विवेचन तथा चोरसेनापति विजयसेन की प्रभुता का वर्णन किया गया है । अत्र अग्रिम सूत्र में विजयसेन चोरसेनापति के कुकृत्यों का वर्णन किया जाता है १ मूल - तते गं से विजए चोरसेणावती बहूणं चोराण य पारदारियाण य गंठभेगा य संधियगारा य खंडपट्टारा य अन्नेसिं च बहूणं छिन्न-भिन्न वाहिराहियाणं For Private And Personal (१) छाया - ततः स विजयः चोरसेनापतिः बहूनां चोराणां च पारदारिकाणां च ग्रन्थि - भैदकानां च सन्धिच्छेदकानां च खंडपट्टानां चान्येषां च बहूनां छिन्नभिन्नवहिष्कृतानां कुटङ्कश्चाप्यभवत् । ततः स विजयश्चोरसेनापतिः पुरिमतालस्य नगरस्योत्तरपौरस्त्यं जनपदं बहुभिर्ग्रामघातैश्च, नगरघातैश्च गोग्रहणैश्व, बन्दिग्रहणश्च, पान्थकुट्टेश्व, खत्तखननैश्चोत्पीडयन् २ विधर्मयन् २ तर्जयन् २ ताडयन् २ निःस्थानान् निर्धनान् निष्कणान् कुर्वाणो विहरति | महाबलस्य राजः अभीक्ष्णं २ कल्पायं गृह्णाति । तस्य विजयस्प चोरसेनापतेः स्कन्दश्री: नाम भार्याऽभवद् श्रहीन० । तस्य विजयचोरसेनापतेः पुत्रः स्कन्दश्रियो भार्याया श्रात्मजः श्रभमसेनो नाम दारकोऽभवद्, अहीनपरिपूर्णपञ्चेन्द्रिय- शरीरो विज्ञातपरिणतमात्रः यौवनकमनुप्राप्तः । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ १९९ कुडंगे यावि होत्था, तते णं से विजए चोरसेणावई पुरिमतालस्स णगरस्स उत्तरपुरथिमिल्लं जणवयं वहहिं गामघातेहि य नगरपातेहि य गोग्गहणेहि य बंदीग्गहणेहि य पंथकोट्ट हि य खत्तखणणेहि य ओवीलेमाणे २ विहम्मेमाणे २ तज्जेमाणे २ तालेमाणे २ नित्थाणे निद्धणे निक्कणे करेमाणे विहरति, महब्बलस्स रगणो अभिक्खणं २ कप्पायं गेण्हति । तस्स णं विजयस्स चोरसेणवहस्स खंदसिरी णामं भारिया होत्था, अहीण । तस्स णं विजयचोरसेणावइस्स पुत्ते खंदसिरीए भारियाए अत्तए अभग्गसेणे नामं दारए होत्था, अहीणपडिपएणपंचिंदियसरीरे विएणायपरिणयमित्ते जोव्वणगमणुपत्ते। ___ पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । से-वह । विजए -निजय । चोरसेणावती-चोरसेनापतिचोरों का सेनापति-नेता । वहणं-अनेक । चोराण य - चोरों । पारदारियाण य-परस्त्रीलम्पटों। गंठिभेयगाण य-ग्रन्थिभेदकों-गांठ कतरने वालों । संधिछयगाण य- सन्धिछेदकों-सान्ध लगाने वालों । खंडपट्टाण य-जिन के ऊपर पहरने लायक पूरा वस्त्र भी नहीं, ऐसे जुत्रारी, अन्यायी धूर्त वगैरह । अन्नेसिं च-अन्य । वहूणं-अनेक । छिन्न-छिन्न-जिन के हस्त आदि अवयव काटे गये हों । भिन्न-भिन्न-जिनके नासिका आदि अवयव काटे गये हों। बाहिराहियाणं- बहिष्कृतजो नगर आदि से बाहिर निकाल दिये गये हों, अथवा-जो शिष्ट मण्डली से बहिष्कृत किये गये हों, उन के लिये । कूडंगे-कुटङ्क था, अर्थात् वंशगहन (बांस के वन। के समान गोपक-रक्षा करने वाला था । तते णं - तदनन्तर । से विजए-वह विजय । चोरसेणावई-चोरसेनापति । पुरिमताल -पुरिमताल । नगरम्स-नगर के । उत्तरपुरथिमिल्लं-ईशान कोणगत । जलवयंजनपद-देश को । बहूहिं- अनेक । गामघातेहि य-ग्रामों को नष्ट करने से । नगरघातेहि यनगरों का नाश करने से । गोग्गहणेहि य-गाय आदि पशुओं के अपहरण से-चुराने से । बंदिग्गहणेहि य-कैदियों का अपहरण करने से । पंथकोहि य-पथिकों को लूटने से । खत्तखणणेहि खात (पाड़) लगा कर चोरी करने से । श्रोवीलेमाणे २-पीडित करता हुआ । विहम्मेमाणे २धर्म-भ्रष्ट करना हुआ । तज्जमाणे-तर्जित-तर्जना -युक्त करता हुआ । तालेमाणे २-चाबुक आदि से ताडित करता हुआ । नित्थाणे---- स्थानरहित । निद्धणे-निर्धन ---धनरहित । निक्कणे-निष्कणधान्यादि से रहित करता हुआ तथा । महब्बल्लस्स- महाबल नाम के । रराणो- राजा के । कप्पायंराजदेय कर - महसूल को। अभिकवणं २-बारम्बार । गेएहति-ग्रहण करता था । तस्स णं-उस विजयस्स-विजय नामक । चोरसेणावइस्स-चोरसेनापति की । खंदसिरी- स्कन्दश्री । जाम-नामक । भारिया-भार्या । होत्था-थी। अहीण-जो कि अन्यून एवं निर्दोष पञ्चेन्द्रिय शरीर से युक्त थी । तस्स णं-उस । विजयचोरसेणावइस्स-विजय नामक चोरसेनापति का । पुत्त-पुत्र । खंदसिरीए-स्कन्दश्री । भारियाए-भार्या का । अत्तए-आत्मज । अहीणपडिपुरणपंचिन्दियसरीरे - अन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रिय वाले शरीर से युक्त । अभग्गसेणे-भग्नसेन । नाम-नाम का · दारर-बालक । होत्था-था, जोकि । विराणायपरिणय मित्त-विज्ञात-विशेष ज्ञान रखने वाला एवं बुद्धि आदि को परिपक्क अवस्था को प्राप्त किये हुए था और । जोवणगमणुपत्त-युवावस्था को प्राप्त किये हुए था अर्थात् बुद्धिमान् अथव युका था । मूलाथे-तदनन्तर वह विजय नामक चारसेनापति अनेक चार, पारदारिक- परस्त्री For Private And Personal Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २०० ] श्री विपाक सूत्र - [ तीसरा अध्याय धूर्त तथा अन्य लम्पट ग्रन्थिभेदक (गांठ कतरने वाले), सन्धिच्छेदक (मांथ लगाने वाले), जुआरी, बहुत से छिन्न-हाथ आदि जिनके काटे हुए हैं, भिन्न- नासिका आदि से रहित और बहिधकृत किये हुए मनुष्यों के लिए कुटक - आश्रयदाता था । वह पुरिमताल नगर के ईशान कोणगत देश को अनेक ग्रामघात, नगरघात, गोहरण, बन्दी – ग्रहण, पथिक – जनों के धनादि के अपहरण तथा सेंध का खनन, अर्थात् पाड़ लगाकर चोरी करने से पीड़ित, धर्मच्युत, तर्जिन, ताडित-ताडनायुक्त एवं स्थान- राहत, धन और धान्य से रहित करता हुण, महाबल नरेश के राज- देय कर महसूल को भी बारम्बार स्वयं ग्रहण करके समय व्यतीत कर रहा था । उस विजय नामक चोरमेनापति की स्कन्दश्रो नाम की निर्दोष पांच इन्द्रियों वाले शरीर से युक्त परमसुन्दरी भार्या थी, तथा विजय चोरसेनापति का पुत्र स्कन्दश्री का श्रात्मज श्रभग्नसेन नाम का एक बालक था, जो कि अन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रियों से युक्त अर्थात् संगठित शरीर वाला, विज्ञात- विशेष ज्ञान रखने वाला और बुद्धि आदि की परिपक्वता से युक्त एवं युवावस्था को प्राप्त किये हुए था । टीका - प्रस्तुत सूत्र -पाठ में चोरसेनापति विजय के कृत्यों का दिग्दर्शन कराया गया है तथा साथ में उसकी समयज्ञता एवं दीघदर्शिता को भी सूचित कर दिया गया है । विजय ने सोचा कि जब तक मैं अनाथों की सहायता नहीं करूंगा तब तक मैं अपने कार्य में सफल नहीं हो पाऊंगा । एतदर्थ वह अनाथों का नाथ और निराश्रितों का आश्रय बना । उसने ङ्गोपाङ्गों से रहित व्यक्तियों तथा बहिष्कृत दीन जनों की भरसक सहायता की, इस के अतिरिक्त स्वकार्य - सिद्धि के लिए उस ने चोरों, गांठकतरों, पर - स्त्री – लम्पटों और जुनारी तथा धूर्तों को आश्रय देने का यत्न किया । इस से उस का प्रभाव इतना बढ़ा कि वह प्रान्त की जनता से राजदेय कर को भी स्वयं ग्रहण करने लगा तथा राजकीय प्रजा को पीड़ित, तर्जित और संत्रस्त करके उस पर अपनी धाक जमाने में सफल हुआ । विचार करने से ज्ञात होता है कि वह सामयिक नीति का पूर्ण जानकार था, संसार में लुटेरे और डाकू किस प्रकार अपने प्रभाव तथा श्राधिपत्य को स्थिर रख सकते हैं । इस विषय में वह विशेष निपुण था । "पारदारियाण - पारदारिकाणां ” – इत्यादि शब्दों की व्याख्या निम्नोत है " - पारदारियाण - परस्त्रीलम्पटानां- - " अर्थात् जो व्यक्ति दूसरों की स्त्रियों से अपनी वासना तृप्त करता है, या यूं कहें कि पर स्त्रियों से मैथुन करने वाला व्यभिचारी पारदारिक कहलाता है । 66 - गंठिभेयगाण - ग्रन्थीनां भेदका:-ग्रन्थिभेदकाः तेषां - ११ अर्थात् जो लोग कैंची आदि से लोगों की ग्रन्थियें – गाठें कतरते हैं, उन्हें ग्रन्थिभेदक कहा जाता है। टीकाकार श्री अभयदेव सूरि द्वारा की गई - घुघुरादिना ये ग्रन्थीः छिन्दन्ति ते ग्रन्थिभेदकाः, इस व्याख्या में प्रयुक्त घुघु' र शब्द का कोषकार - सूर की आवाज़ - ऐसा अर्थ करते हैं । इस से “ – सूअर की आवाज जैसे शब्दों से लोगों को डरा कर उनकी गांठें कतरना - " यह अर्थ फलित होता है । " - सन्धिछेयाण - ये भित्तिसन्धीन् भिन्दन्ति ते सन्धिछेदकाः " अर्थात् सन्धि शब्द के अनेकानेक अर्थ होते हैं, परन्तु प्रस्तुत - प्रकरण में सन्धि का अर्थ है - दीवारों का जोड़ । उस जोड़ का भेदन करने वाले सन्धिछेदक कहलाते हैं । For Private And Personal Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra तीसरा अध्याय ] www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir हिन्दी भाषा टीका सहित । [ २०१ “खण्डपट्टाण–खण्ड: अपरिपूर्णः पट्टः परिधानपट्टो येषां मद्यद्य तादिव्यसनाभिभूततया परिपूर्ण परिधानाप्राप्तेः ते खण्डपट्टा: — द्य तकारादयः, अन्यायव्यवहारिणः इत्यन्ये, धूर्ता इत्यपरे – ” र्थात् खण्डका अर्थ है - परिपूर्ण अपूर्ण (अधूरा ) । पट्ट कहते हैं – पहनने के वस्त्र को । मदिरा सेवन एवं जूना आदि व्यसनों में आसक्त रहने के कारण जिन को वस्त्र भी पूरे उपलब्ध नहीं होते, उन्हें खरडपट्ट कहते हैं । या यू ं कहें कि खण्डपट्ट द्यूतकार - जुआरी या मदिरासेवी शराबी का नाम है । कोई कोई आचार्य खण्डपट्ट शब्द की व्याख्या "अन्याय 'व्यवहार - व्यापार करने वाले - " ऐसी करते है, और कोई २ खण्डपट्ट का अर्थ “धूर्त" भी करते है । चालवाज़ या धोखा देने वाले को धूर्त कहा जाता है । “छिन्न भिरणबाहिराहियाणं - छिन्ना हस्तादिषु भिन्नाः नासिकादिषु “ – बाहिराहि य-' -" fa नगराद् बहिष्कृताः, अथवा ब्राह्याः स्वाचार - परिभ्रशाद विशिष्टजनबहिवर्तिनः, " अहिय" ति अहिता ग्रामादिदाहकत्वाद्, अतः द्वन्द्वस्तेषाम् - " अर्थात् इस समस्त पद में तीन अथवा चार पद है । जैसे कि - (१) छिन्न (२) भिन्न (३) वहिराहित अथवा बाह्य और (४) श्रहित । छिन्न शब्द से उन व्यक्तियों का ग्रहण होता है, जिन के हाथ आदि कटे हुए हैं। भिन्न शब्द - जिन को नासिका आदि का भेदन हो चुका है - इस अर्थ का बोधक है । नगर से बहिष्कृत - बाहिर निकाले हुए को वहिराहित कहते हैं । श्राचारभ्रष्ट होने के कारण जो शिष्ट मण्डली - उत्तम जनों से बहिर्वर्ती - बहिष्कृत हैं, वे बाह्य कहलाते हैं। हितकारी अर्थात् ग्रामादि को जला कर जनता को दुःख देने वाले मनुष्य अहित शब्द से अभिव्यक्त किये गये हैं । " कुडंग - कुटक इव कुटङ्कः - वंशगहनमिव तेषामावरकः – गोपकः " अर्थात् बांसों के बन का नाम कुटक है । कुटक प्रायः गहन (दुर्गम) होता है, उस में जल्दी २ किसी का प्रवेश नहीं हो पाता । चोरी करने वाले और गांठें कतरने वाले लोग इसी लिए ऐसे स्थानों में अपने को छिपाते हैं, जिस से अधिकारी लोगों का वहां से उन्हें पकड़ना कठिन हो जाता है । सूत्रकार ने विजयसेन चोरसेनापति को कुटंक कहा है । इस का अभिप्राय यही है कि जिस तरह बांसों का बन प्रछन्न रहने वालों के लिए उपयुक्त एवं निरापद स्थान होता है. वैसे ही चोरसेनापति परस्त्रीलम्पट और ग्रन्थिभेदक इत्यादि लोगों के लिये बड़ा सुरक्षित एवं निरापद स्थान था । तात्पर्य यह है कि वहाँ उन्हें किसी प्रकार की चिन्ता नहीं रहती थी । अपने को वहां वे निर्भय पाते थे । " गामघातेहि" - इत्यादि पदों की व्याख्या निम्नोक्त की जाती है (१) ग्रामघात - घात का अर्थ है नाश करना | ग्रामों-गांवों का घात, ग्रामघात कहलाता है । तात्पर्य यह है कि ग्रामीण लोगों की चल (जो वस्तु इधर उधर ले जाई जा सके, जैसे चान्दी, सोना रुपया तथा वस्त्रादि) और अचल - (जो इधर उधर न की जा सके, जैसे-मकानादि) सम्पत्ति को विजय सेन चोरसेनापति हानि पहुँचाया करता था । एवं वहां के लोगों को मानसिक, वाचनिक एवं कायिक सभी तरह की पीड़ा और व्यथा पहुंचाता था । (२) नगरघात -- नगरों का घात - नाश नगरघात कहलाता है, इस का विवेचन ग्रामघात की भान्ति जान लेना चाहिए । (३) गोग्रहण - गो शब्द गो आदि सभी पशुओं का परिचायक । गो का ग्रहण - अपहरण For Private And Personal Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ तीसरा अध्याय के पशुओं (४) बन्दिग्रहण - बन्दि शब्द से उस व्यक्ति का ग्रहण होता है - जिसे कैद (पहरे में बन्द स्थान में रखना, कारावास की सजा दी गई है, कैदी । बन्दियों का ग्रहण – अपहरण बन्दिग्रहण कहलाता है । तात्पर्य यह है कि विजयसेन चोरसेनापति राजा के अपराधियों को भी चुरा कर ले जाता था । (५) पान्थकुट्ट - पान्थ शब्द से पथिक का बोध होता है । कुट्ट उन को ताड़ित करना कहलाता है । तात्पर्य यह है कि विजयसेन चोरसेनापति मार्ग में आने जाने वाले व्यक्तियों को धनादि छीनने के लिये पीटा करता था । (६) खत्तखनन - खत्त यह एक देश्य- देशविशेष में बोला जाने अर्थ है - सेन्सेन्ध का खनन - खोदना खत्तखनन कहलाता है । तात्पर्य यह है लोगों के मकानों में पाड़ लगा कर चोरी किया करता था । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २०२ ] श्री विपाक सूत्र - ( चुराना) गोग्रहण कहलाता है । तात्पर्य यह है कि - विजयसेन चोरसेनापति लोगों को चुरा कर ले जाया करता था । (१) उत्पीडयन् - उत्कृष्ट पीड़ा का ग्रामघात, नगरघात, इत्यादि पूर्वोक्त क्रियाओं के द्वारा चोरसेनापति लोगों को दुःख दिया करता था । दुःख देने के प्रकार ही सूत्रकार ने - "श्रोवीलेमाणे " इत्यादि पदों द्वारा अभिव्यक्त किये हैं। उन की व्याख्या निम्नोक्त है - वाला, पद है । इस का कि विजयसेन चोरसेनापति नाम उत्पीड़ा है । अर्थात् विजयसेन चोरसेनापति लोगों को बहुत दुःख देता हुआ । (२) विधर्मयन् - धर्म से रहित करता हुआ । तात्पर्य वह है कि दानादि धर्म में प्रवृत्ति धनादि के सद्भाव में ही हो सकती है । परन्तु विजयसेन चोरसेनापति लोगों की चल और अचल दोनों प्रकार की ही सम्पत्ति छीन रहा था, उन्हें निर्धन बनाता रहता था । तब धनाभाव होने पर दानादिधर्म का नाश स्वाभाविक ही है । इसी भाव को सूत्रकार ने विधर्मयन् पद से अभिव्यक्त किया है । (३) तर्जयन् - तर्जना का अर्थ है, डांटना, धमकाना, डपटना । तात्पर्य यह है कि विजयसेन चोरसेनापति लोगों को धमकाता हुआ या लोगों को - याद रखो, यदि तुम ने मेरा कहना नहीं माना तो तुम्हारा सर्वस्व छीन लिया जाएगा, इत्यादि दुर्वचनों से तर्जित करता हुआ । (४) ताडयन् - ताडना का अर्थ है कोड़ों से पीटना | तात्पर्य यह है कि विजयसेन चोरसेनापति लोगों को चाबुकों से पीटता हुआ । "नित्थाणे” – इत्यादि पदों का भावार्थ निम्नोक्त है (१) निःस्थान - स्थान से रहित अर्थात् विजय चोरसेनापति लोगों को उन के घर आदि स्थानों से निकाल देता था । (२) निर्धन - धन से रहित अर्थात् विजय चोरसेनापति लोगों को उनकी चल और अचल दोनों प्रकार की सम्पत्ति छीन कर धन से खाली कर देता था । For Private And Personal (३) निष्कण-कण से रहित । कण का अर्थ है--गेहूं, चने आदि धान्यों के दाने । तात्पर्य यह है कि विजयसेन चोरसेनापति लोगों का समस्त धन छीन कर उन के पास दाना तक भी नहीं छोड़ता था । " कप्पायं " - पद की व्याख्या श्री अभयदेव सूरि ने - कल्पः उचितो य श्रायः - प्रजातो द्रव्यलाभः स कल्पायोऽतस्तम् - इन शब्दों द्वारा की है। अर्थात् कल्प का अर्थ है - उचित । और श्राय शब्द लाभ - आमदनी का बोधक है । तात्पर्य यह है कि राजा प्रजा से जो यथोचित कर - महसूल | Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सिहत । [२०३ आदि के रूप में द्रव्य--धन ग्रहण करता है, उसे कल्पाय कहते हैं । विजयसेन चोरसेनापति का इतना साहस बढ़ चुका था कि वह लोगों से स्वयं ही कर-महसूल ग्रहण करने लग गया था। सारांश यह है कि - प्रस्तुत सूत्र में यह स्पष्ट वर्णित है कि विजयसेन चोरसेनापति प्रजा को विपत्तिग्रस्त करने में किसी प्रकार की ढील नहीं कर रहा था। किसो को भेदनीति से, किसी को दण्डनीति से संकट में डाल रहा था, तथा किसी को स्थान-भ्रष्ट कर, किसी की गाय, भैंस आदि सम्पत्ति चुरा कर पीड़ित कर रहा था । जहां उस का प्रजा के साथ इतना कर एवं निर्दय व्यवहार था, वहां वह महाबल नरेश को भी चोट पहुंचाने में पीछे नहीं हट रहा था । अनेकों बार राजा को लूटा, उसके बदले प्रजा से स्वयं कर वसूला। यही उस के जीवन का कर्तव्य बना हुआ था। विजयसेन चोरसेनापति की स्कन्दश्री नाम की बड़ी सुन्दरी भार्या थी और दोनों को सांसारिक आनन्द बहुंचाने वाला अभग्नसेन नाम का एक पुत्र भी उनके घर में उद्योत करने वाला विद्यमान था । वह जैसा शरीर से हष्ट एवं पुष्ट था, वैसे वह विद्यासम्पन्न भी था। - अहीण-" यहां दिये गये बिन्दु से -"पडिपुराण पंचिंदियसरीरा, लक्खणवंजनगुणोववेया-, से लेकर "-पियदसणा सुरूवा-" यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन पदों की व्याख्या पृष्ठ १०५ के टिप्पणं में को जा चुकी है। ____ "विण्णाय-परिणयमित-इस पद की "-विज्ञात-विज्ञानमस्यास्तीति विज्ञातः, परिणत एवं परिणतमात्रः-परिणतिमापन्नः, विज्ञातश्चासौ परिणतमात्रः-इति विज्ञातपरिणतमात्रः। परिणतिः-अवस्थाविशेष इति यावत् -" ऐसी व्याख्या करने पर"-विशिष्ट जानवाले व्यक्ति का नाम विज्ञात है तथा अवस्थाविशेष-प्राप्त व्यक्ति को परिणतमात्र कहते हैं-" यह अर्थ होगा। प्रस्तुत प्रकरण में अवस्था-विशेष शब्द से बाल्यावस्था के अतिक्रमण के अनन्तर की अवस्था विवक्षित है । तात्पर्य यह है कि यौवनावस्था से पूर्व की और बाल्यावस्था के अन्त की अर्थात् दोनों के मध्य की अवस्था वाले व्यक्ति का नाम परिणतमात्र होता है। तथा "-विज्ञात-अवबुद्धं परिणतमात्रम्-अवस्थानन्तरं येन स तथा, बाल्यावस्थामतिक्रम्य परिक्षातयौवनारम्भ इत्यर्थः -" ऐसी व्याख्या करने से तो विज्ञातपरिणतमात्र पद का कौमारावस्था व्यतीत हो जाने पर यौवनावस्था के प्रारम्भ को जानने वाला-" यह अर्थ निष्पन्न होगा। तथा-विएणयपरिणयमित्त-ऐसा पाठ मानने पर और इस की-विज्ञ एव विज्ञकः, स चासो परिणतमात्रश्च बुद्धयादिपरिणामापन एव विज्ञकपरिणतमात्रः-ऐसी श्री अभयदेव सूरि कृत व्याख्या मान लेने पर अर्थ होगा-जो विज्ञ है अर्थात् विशेष जान रखने वाला है और जो बुद्धि श्रादि को परिणति को उपलब्ध कर रहा है । तात्पर्य यह है कि बाल्यकाल की बुद्धि आदि का परित्याग कर यौवन कालीन बुद्धि आदि को जो प्राप्त हो रहा है । अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में प्रस्तुत अध्ययन के प्रधान नायक की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हुए इस प्रकार कहते हैं मूल-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं० पुरिमताले नगरे समोसढ़े, (१) छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान्० पुरिमताले नगरे समवसतः । परिषद् निर्गता । राजा निर्गतः। धर्मः कथितः । परिषद् राजा च प्रतिगतः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ज्येष्ठोऽन्तेवासी गौतमो यावत् राजमार्ग समवगाढ़ः । तत्र. बहून् For Private And Personal Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २०४] श्री वपाक सूत्र [तीसरा अध्याय परिसा निग्गया, राया निग्गो, धम्मो कहियो, परिसा राया य पडिगो । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवो महावीरस्स जे अंतेवासी गोयमे जाव रायमग्गं समोगाढ़े तत्थ णं वहवे हत्थो पासती, बहवे आसे, पुरिसे सन्नद्धवद्धकवए, तेसिं णं पुरिसाणं मझगतं एगं परिमं पासति अवोडय० जाव उग्रोसेज्जमाणं। तते णं तं परिसं रायपरिसा पढ़मंसि चच्चरंसि निसियावेति २, अट्ठ चुल्लपिउए अग्गो घाएंति २ कसप्पहारेहि तालेमाणा २ कलुणं कागिणीमसाई खाति खावित्ता रुहिरपाणं च पाए ति । तदाणंतरं च णं दोच्चंसि चच्चसि अट्ट चुल्लमाउयानो अग्गो घाए ति २ एवं तच्चे चच्चरे अट्ट महापिउए, चउत्थे अट्ठ महामाउयाओ, पंचमे पुणे, छट्टे सुण्हाओ, सत्तमे जामाउया, अट्ठमे धूयाओ, नवमे णत्तुया, दसमे णत्ईओ, एक्कारसमे णत्तुयावई, वारसमे णत्तुइणीमो, तेरसमे पिउस्सियपतिया, चोद्दसमे पिउस्सियाओ, पएणरसमे माउसियापतिया, सोलसमे माउस्सियानो, सत्तरसमे मामियाओ, अट्ठारसमे अवसेसं पित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरियणं अग्गो घातेति २ चा कसप्पहारेहिं तालेमाणे २ कलुणं कागिणीमंसाई खाति, हिरयाणं च पाए ति । पदार्थ-तेणं कालेणं-उस काल में । तेणं समपणं-उस समय में । समणे-श्रमण भगवं.-भगवान् महावीर स्वामी। पुरिमताले णगरे-पुरिमताल नगर में। समोगाढ़े-पधारे । परिसा- परिषद्-जनता । निग्गया-निकलो । राया-राजा । निग्गयो-निकला। धम्मो-धर्म का । कहिओ-उपदेश किया । परिसा-परिषद् -जनता । राया य-और राजा । पडिगो-वापिस चले गये । तेणं कालेणं-उस काल में । तेणं समएणं-उस समय में । समणस्स-श्रमण । भगवनो-भगवान् । महावीरस्स-महावीर स्वामी के । जेह-ज्येष्ठ-प्रधान । अंतेवासी-शिष्य गोयमे-गौतम स्वामी । जाव - यावत् । रायमगं-राजमार्ग में । समोगाढ़े- पधारे। तत्थ णंवहां पर । बहवे-बहुत से। हत्यो-हिस्तयों को । पासति-देखते हैं । वहवे-अनेकों । आसेहस्तिनः पश्यति, बहूनश्वान् पुरुषान् 'सन्नद्धबद्धकवचान् । तेषां पुरुषाणां मध्यगतमेकं पुरुषं पश्यति । अवकोटक. यावद् उद्घोष्यमाणं । ततस्तं पुरुषं राजपुरुषाः प्रथमे चत्वरे निषादयन्ति, निषाद्याष्टौ तुद्रपितृनग्रतो घातयन्ति घातयित्वा कशाप्रहारैस्ताड्यमाना: करुणं काकिणीमांसांनि खादयन्ति, रुधिरपान च पार्ययन्ति । तदनन्तरं च द्वितीये चत्वरे अष्ट क्षुद्रमातृरग्रतो घातयन्ति २ एवं तृतीये चत्वरे अष्ट महापितॄन् । चतुर्थेऽष्ट महामातः । पञ्चमे पुत्रान् । षष्ठे स्नुषाः । सप्तमे जामातन । अष्टमे दुहितः । नवमे नपतन् । दशमे नपतः । एकादशे नपतृकापतीन् । द्वादशे नपतृभार्याः । त्रयोदशे पितृश्वसृपतीन् । चतुर्दशे पितृष्वसः । पंचदशे मातृश्वसुपतीन । षोडशे मातृष्वसः । सप्तदशे मातुलानीः । अष्टादशेऽवशेष मित्रज्ञाति-निजक-स्वजन-सम्बन्धि-परिजनमग्रतो घातयंति, घातयित्वा कशाप्रहारेस्ताड्यमाना २ करुणं काकिणीमांसांनि खादयन्ति, रुधिरपानं च पाययन्ति । (१) सन्नद्धवद्धकवचान्–सन्नद्धाश्च ते बद्धकवचा इति सन्नद्धबद्धकवचाः तान, सन्नदाः शास्त्रादिभिः सुसज्जिताः । बद्धाः कवचा लोहमयतनुत्राणाः यैस्ते बद्धकवचाः तानिति भावः । For Private And Personal Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२०५ अश्वों-घोड़ो को देखते हैं और । सन्न इव द्वकवर -सैनिकों की भान्ति शस्त्रादि से सुसज्जित एवं कवच पहने हुए । पुरिसे - पुरुषों को देखते हैं । तेति - उन । पुरिसाणं -- पुरुषों के । मझगतं-मध्य में । अव प्रोडय-अवकोटकबन्धन -जिस बन्धन में ग्रीवा को पृष्ठ भाग में ले जाकर हाथों के साथ बांधा जाए उस बन्धन से युक्त । जाव - यावत् । उग्घोसेजमाणं - उद्घोषित । एगं-एक । पुरिसं-पुरुष को । पासति-देखते हैं । तते णं-तदनन्तर । तं परिसंउस पुरुष को । रायपुरिसा - राजपुरुष-राजकर्मचारी । पढमंसि-प्रथम । चच्चरंसि-चन्वर चार मार्गों से अधिक मार्ग जहां सम्मिलित हों, वहां पर । निसियाति २ त्ता-बैठा लेते हैं बैठा कर । अट्ठ-आठ । चुल्लपिउए-पिता के छोटे भाई -चाचों को । अग्गओ - अागे से । घातिमारते हैं । २ त्ता-मार कर । कसप्पहारोहिं -कशा (चाबुक) के प्रहारों से । तालेमाणा - ताडित करते हुए। कलुणं-करुणा के योग्य उस पुरुष के । कागिणोमं साई-शरीर से उत्कृत्त -निकाले हुए मांस के छोटे छोटे टुकड़ों को । खावेंति-खिलाते हैं । खावित्ता-खिला कर । रुहिरपाणं च-रुधिरपान । पाए ति-कराते हैं अर्थात् उसे रक्त - खून पिलाते हैं । तदाणंतरं च-तदनन्तर । णंवाक्यालंकारार्थक है । दोच्चंसि-द्वितीय । चच्चरंसि-चत्वर पर ले जाते हैं, वहां पर । अट्ठ आठ । चुल्लमाउयाश्रो-लघुमाताओं-चाचे की पत्नियों-चाचित्रों को । अग्गो -आगे से । घाति-मारते हैं । एवं- इसी प्रकार । तच्चे-तीसरे । चच्चरे - चत्वर पर । अट्ठ-आठ । महापिउए -महापिता-पिता के ज्येष्ठ भ्राताओं-तायों को । चउत्थे -चतुर्थ चत्वर पर । अट्ठ-पाठ । महामाउयाश्रो-महामाता -पिता के ज्येष्ठ भाई की धर्मपत्नियों-ताइयों को । पंचमे - पांचवें चत्वर पर । पुत्ते-पुत्रों की । छठे-छठे चत्वर पर । सुरहानो-स्नुषाओं पुत्रवधुओं को । सत्तमे - सप्तम चत्वर पर । जामाउया-जामाताओं को। अट्टमे-अष्टम चत्वर पर । धूयाओ लड़कियों को । नवमे - नवम चत्वर पर । णन या-नप्ताओं-पौत्रों अर्थात् पोतों और दौहित्रों अर्थात् दोहताओंको । दसमे-दशमें चत्वर पर । णत्त ईओ-लड़की की पुत्रियों को और लड़के की लड़कियों को । एक्कारसमे-एकादशवें चत्वर पर । णत्त यावई - नप्तृकापति अर्थात् पौत्रियों -पोतियों- और दौहित्रियों - दोहतियों के पतियों को । वारसमे - बारहवें चत्वर पर । णत्तु इणोप्रो - नप्तृभार्या--पोतों और दोहताओं की स्त्रियों को । तेरस-तेरहवें चत्वर पर | पिउस्सियपतिया-पितृष्वसृपति - पिता की बहिनों के पतियों को अर्थात् पिता के बहनोइयों को । चोद्दसमे-चौदहवें चत्वर पर । पिउस्सियाओ- पितृष्वसा - पिता की बहिनों को । पराणरसमे - पन्द्रहवें चत्वर पर | माउसियापतिया-मातृष्वसुपति-माता की बहिनों के पतियों को । सोलसमे-सोलहवें चत्वर पर । माउस्सियाओ-मातृष्वसा - माता की बहिनों को सित्तरसमे-सतरहवें चत्वर पर । मामियानो-मातुलानी-मामियों को। अहारसने-अठारवें चत्वर पर । अवसेसं -अवशेष - बाकी बचे। मित्त-मित्र । नाइ - ज्ञातिजन - बिरादरी के लोग | नियम-निजक-माता आदि । सयप-स्वजन -मामा के पुत्र आदिक । सम्बन्धि-सम्बन्धी - श्वशुर एवं साला आदि । परियणं - परिजन-दास दासी श्रादि को । अग्गो - उस के अागे । घातेति २त्ता-मारते हैं. मार कर । कसप्यहारोहिं-कशा के प्रहारों से । तालेमाणे - ताडित करते हुए तथा ।कलुणं-दयनीय-दया के योग्य उस पुरुष को । कागिणीमसाई-उस की देह से काटे हुए मांस-खण्डा को । खावेंति-खिलाते हैं तथा । रुहिरपाणं च-रुधिर का पान । पाए ति- कराते हैं । For Private And Personal Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रो विपाक सूत्र [तीसरा अध्याय मूलार्थ-उस काल तथा उस समय में पुरिमताल नगर में श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे । परिषद्-जनता नगर से निकली तथा राजा भी प्रभु के दर्शनार्थ चला। भगवान् ने धर्म का प्ररूपण किया । धर्मोपदेश को श्रवण कर राजा तथा परिषद् वापिस अपने २ स्थान को लौट आई। - उस काल तथा उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ-बड़े शिष्य श्री गौतम स्वामी यावत् राजमार्ग में पधारे । वहां उन्हों ने अनेक हस्तियों, अश्वों तथा सोनिकों की भान्ति शस्त्रों से सुसज्जित एवं कवच पहने हुए अनेकों पुरुषों को और उन पुरुषों के मध्य में अवकोटक बन्धन से युक्त यावत् उद्घोषित एक पुरुष को देखा। तदनन्तर राजपुरुष उस पुरुष को प्रथम चत्वर पर बैठा कर उस के आगे लघुपिताओंचाचाओं को मारते हैं। तथा कशादि के प्रहारों से ताड़ित करते हुए वे राजपुरुष करुणाजनक स्थिति को प्राप्त हुए उस पुरुष को-उसके शरीर में से काटे हुए मांस के छोटे २ टुकड़ों को खिलाते हैं और रुधिर का पान कराते हैं। तदनन्तर द्वितीय चत्वर पर उस की आठ लघुमाताओंचाचियों को उस के आगे ताड़ित करते हैं, इसी प्रकार तीसरे चत्वर पर आठ महापिताओंपिता के ज्येष्ठ भ्राताओं-तायों को, चौथे पर आठ महामाताओं-पिता के ज्येष्ठ भ्राताओं की धर्मपत्नियों-ताइयों को, पांचवें पर पुत्रों को, छठे पर पुत्रवधुओं को, सातवें पर जामाताओं को, आठवें पर लड़कियों को, नवमें पर नप्ताओं को अर्थात् पौत्रों और दौहित्रों को, दसवें पर लड़के और लड़की के लड़कियों को अर्थात् पौत्रियों और दौहित्रियों को, एकादशवें पर नातृकापतियों को अर्थात् पौत्रियों और दौहित्रियों के पतियों को, बारहवें पर नप्तृभार्याओं को अर्थात् पौत्रों और दौहित्रों की स्त्रियों को, तेरहवें पर पिता की बहिनों के पतियों को अर्थात् फूफाओं को, चौदहवें पर पिता की भनियों को, पन्द्रहवें पर माता की बहिनों के पतियों को, सोलहवें पर मातृष्वसाओं अर्थात् माता को बहिनों को, सतरहवें पर मातुलानी-मामा की स्त्रियों को, अठारहवें पर शेष मित्र, ज्ञातिजन, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों को उस पुरुष के आगे मारते हैं तथा कशा (चाबुक) के प्रहारों से ताड़ित करते हुए वे राजपुरुष दयनीय-दया के योग्य उस पुरुष को, उस के शरीर से निकाले हुए मांस के टुकड़े खिलाते और रुधिर का पान कराते हैं। टीका-सूत्रकार उस समय का वर्णन कर रहे हैं जब कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पुरिमताल नगर के किसी उद्यान में विराजमान हो रहे हैं । तब वीर प्रभु के पधारने पर वहां का वातावरण बड़ा शान्त तथा गम्भीर बना हुआ था। प्रभु का आगमन सुन कर नगर की जनता में उत्साह और हर्ष की लहर दौड़ गई। वह बड़ी उत्कएठा से भगवान् के दर्शनार्थ उद्यान की ओर प्रस्थित होने लगी। उस में अनेक प्रकार के विचार रखने वाले जीव मौजूद थे। कोई कहता है कि मैं आज भगवान् से साधुवृत्ति को समझूगा, कोई कहता है कि मैं श्रावक धर्म को जानने का यत्न करूंगा, कोई कहता है कि मैं आज जीव, अजीव के स्वरूप को पूछगा, कोई सोचता है कि जिस प्रभु का नाम लेने मात्र से सन्तप्त हुआ हृदय शान्त हो जाता है, उसके साक्षात् दर्शनों का तो कहना ही क्या है ? इत्यादि शुभ विचारों से प्रेरित हुई जनता उद्यान की ओर चली जा रही थी। For Private And Personal Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । प्रजा की मनोवृत्ति से ही प्राय: राजा की मनोवृत्ति का ज्ञान हो जाया करता है । प्रायः उसी राजा की प्रजा धार्मिक विचारों की होती है जो स्वयं धर्म का आचरण करने वाला हो। पुरिमताल अगर के महीपति भी किसी से कम नहीं थे। वीर भगवान् के शुभागमन का समाचार पाते ही वे भी उठे और अपने कर्मचारियों को तैयारी करने की आज्ञा फरमाई । तथा बड़ी सजधज के साथ वीर भगवान् के दशनार्थ नगर से निकले और वीर भगवान् के चरणों में उपस्थित हुए, तथा विधिपूर्वक वन्दना 'नमस्कार करने के अनन्तर भगवान् के सन्मुख उचित स्थान पर बैठ गये। नगर की अन्य जनता भी शान्ति-पूर्वक यथास्थान बैठ गई। इस प्रकार नागरिक और नरेश श्रादि के यथास्थान बैठ जाने के बाद भगवान् ने अपनी अमृत वाणी से अनेक सन्तप्त हृदयों को शान्त किया, उन्हें धर्म का उपदेश देकर कृतार्थ किया। तदनन्तर राजा और प्रजा दोनों ही भगवान् के चरणों में हार्दिक भाव से श्रद्धांजलि अर्पण करते हुए अपने २ स्थान की ओर प्रस्थित हुए। जनता के चले जाने पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य गौतम स्वामी जो कि तपश्चर्या की सजीव मूर्ति थे, षष्ठतप-बेले के पारणे के निमित्त पुरिमताल नगर में भिक्षार्थ जाने की आज्ञा मांगने लगे। आज्ञा मिल जाने पर वे नगर की ओर प्रस्थित हुए, और पुरिमताल नगर के राजमार्ग में पहुंचे। वहां उन्हों ने निम्नोक्त दृश्य देखा बहुत से सुसजित हस्ती तथा शृगारित घोड़े एवं कवच पहने हुए अस्त्र शस्त्रों से सन्नद्ध अनेक सैनिक पुरुष खड़े हैं। उन के मध्य में अवकोटक-बन्धन से बन्धा हुआ एक पुरुष है, जिसके साथ अमानुषिक व्यवहार किया जा रहा है । उस के साथ ही उस को दिये गये दंड के कारण की- इसके अपने कर्म ही इस की इस दुर्दशा का कारण हैं, राजा आदि कोई अन्य नहीं है-इस रूप से उद्घोषणा भी की जा रही थी। उद्घोषणा के अनन्तर राजकीय अधिकारी पुरुष उसे प्रथम चत्वरचौंतरे पर बिठाते हैं, तत्पश्चात् उसके सामने उसके आठ चाचों (पिता के लघु भ्राताओं) को बड़ी निर्दयता के साथ मारते हैं, और नितान्त दयाजनक स्थिति रखने वाले उस पुरुष को काकिणीमांस-उस की देह से निकाले हुए छोटे छोटे मांस-खण्ड खिलाते तथा रुधिर का पान कराते हैं । वहां से उठ कर दूसरे चौंतरे पर आते हैं, वहां उसे बिठाते हैं, वहां उस के सन्मुख उसकी आठ चाचिओं को लाकर बड़ी क रता से पीटते हैं इसी प्रकार तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे, सातवें. आठवें, नवमें, दसवें, ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें, चौदहवें पन्द्रहवें, सोलहवें, सतरहवें, और अठारहवें चौतरे पर भी उसके निजी सम्बन्धियों को कशा से पीटते हैं । उन सम्बन्धियों के नाम का निर्देश मूलार्थ में आ चुका है। इस उल्लेख में दंड की भयंकरता का निर्देश किया गया है । दण्डित व्यक्ति के अतिरिक्त उसके परिवार को भी दंड देना, दंड की पराकाष्ठा है । -"गोयमे जाव रायमग्गं-" यहां पठितजाव-यावत्-पद से-"छक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरसीए सज्झायं करेइ-से ले कर"-रियं सोहेमाणे जेणेव पुरिमताले गरे तेणेव उवागच्छइ, पुरिमताले गरे उच्चणीयमभिमकुलाई अडमाणे जेणेव"- यहां तक के पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों की व्याख्या द्वितीय अध्ययन के पृष्ठ १२३ पर दी जा चुकी है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां वाणिजग्राम नगर का नाम समुल्लिखित है और यहां पुरिमताल For Private And Personal Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २००] श्रो विपाक सूत्र [तीसरा अध्याय नगर का। शेष वर्णन “-अवोडय० जाव उग्रोसेजमाणं-" यहां पठित "-जाव-यावत्-"पद से सूत्रकार ने सूत्रपाठ को संक्षिप्त कर के पूर्ववर्णित दूसरे अध्ययनगत "-उक्कित्तकरणनासं, नेहतुषियगतं " से लेकर "--चञ्चरे चञ्चरे खण्डपडहएणं" - यहां तक के पाठ के ग्रहण करने की सूचना दे दी है, जिस का कि प्रथम, पृष्ठ १०४ श्रादि पर उल्लेख किया जा चुका है। "-चच्चर-" शब्द का संस्कृत प्रतिरूप "चत्वर" - होता है, जो कि कोषानुमत भी है। परन्तु टीकाकार श्री अभय देव सूरि ने इसका संस्कृत प्रतिरूप "चर्चए' ऐसा माना है । “पढमंसि चञ्चरंसि, प्रथमे चर्चरे स्थानविशेषे- । . "-कलुणं'- यह पद क्रियाविशेषण है । इस की व्याख्या में वृत्तिकार लिखते हैं कि - "कलुणं त्ति करुणं करुणास्पदं तं पुरुषं, क्रियाविशेषणं चेदम्' अर्थात् करुणास्पद - करुणा के योग्य को कलुण कहते हैं। -काकिणोमांस' का अर्थ होता है, जिस को मांस खिलाया जा रहा है, उसी मनुष्य के शरीर में से अथवा किसी भी अन्य मनुष्य के शरीर में से कौड़ी जैसे अर्थात् छोटे छोटे निकाले गये मांस के टुकड़े। ऐसे मांस खण्डों को खाना -काकिणीमांसभक्षण कहलाता है। "-मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरियणं-की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में इस प्रकार है . "-मित्राणि-सुहृदाः, ज्ञातयः -समानजातीयाः. निजका:-पितामातरश्च, स्वजना:-मातुलपुत्रादयः, सम्बन्धिनः-श्वशुरशालादयः, परिजनः-दासीदासादिस्ततो द्वन्द्वः अतस्तान् तत् । अर्थात् मित्र-सुहृद् का नाम है, तात्पर्य यह है कि जो साथी, सहायक और शुभचिन्तक हो, उसे मित्र कहते हैं । ज्ञाति शब्द से समान जाति ( बिरादरी ) वाले व्यक्तियों का ग्रहण होता है । निजक पद माता पिता आदि का बोधक है । स्वजन शब्द मामा के पुत्र आदि का परिचायक है । श्वशुर, साला आदि का ग्रहण सम्बन्धी शब्द से होता है । परिजन दास और दासी आदि का नाम है । "-चुल्जमाउयाओ-” इस पद के दो अर्थ किये जाते हैं-एक तो पिता के छोटे भाइयों की स्त्रिऐं, दूसरा-माता की लघुसपत्निएँ अर्थात् पिता की दो स्त्रियां हों उन में छोटो स्त्री भी क्षुद्रमाता कहलाती है । टीकाकार के शब्दों में "-पितृलघुभ्रातृजायाः अथवा मातुर्लघुसपत्नी:- यह कहा जा सकता है । "-णसु यावई - "इस पद के भी दो अर्थ होते हैं, जैसे कि (१) पौत्री-पोती के पति और (२) दौहित्री-दोहती के पति' । ___"-अट्ठ चुल्लपिउए-" इत्यादि पदों से सूचित होता है कि वध्य व्यक्ति का परिवार बड़ा विस्तृत था और उसके साथ ही रहता था, अथवा राजा से मिलने के कारण वध्य व्यक्ति ने अपने पारिवारिक व्यक्तियों को बुला लिया हो, यह भी संभव हो सकता है । राजा से मिलने आदि का समस्त वृत्तान्त अग्रिम जीवनी के अवलोकन से स्पष्ट हो जायगा ।। वध्य व्यक्ति के सामने उसके परिवार को मारने तथा पीटने का तात्पर्य तो यह प्रतीत (१) "-जत्तु यावई" त्ति-नप्तृकापती-पौत्रीणां दौहित्रीणां वा भर्तृन्-'" (टीकाकार For Private And Personal Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२०९ होता है कि वध्य व्यक्ति की मनोवृत्ति को अधिक से अधिक आघात पहुँचाया जावे । अथवा-इस का यह मतलब भी हो सकता है कि उसके कामों में जो भी हिस्सेदार हैं, उन्हें भी दण्डित किया जाये। या यह कि उन की ताडना से दूसरी जनता को शिक्षा मिले कि भविष्य में अगर किसी ने अपराध किया तो अपराधी के अतिरिक्त उसके सगे सम्बन्धी भी दण्डित होने से नहीं बच सकेंगे। ताकि आगे को अपराध की बहुलता न होने पावे, इत्यादि । ___ अथवा -"तते गं तं पुरिसं रायपुरिसा''-इत्यादि पदों में पढ़े गये "अग्गो " पद के आगे "काउणं-कृत्वा' – इस पद का सर्वत्र अध्याहार करके यह अर्थ भी। संभव हो सकता है किउस पुरुष को राजपुरुषों ने चौंतरे पर बिठलाया, और उस के आठ चाचाओं को आगे कर लिया, तथा उनके आगे अर्थात् सामने उस वध्य पुरुष को निर्दयतापूर्वक मारा, इत्यादि । सगे सम्बन्धियों के सामने मारने या पीटने का अर्थ - दोषी या अपराधी को अधिकाधिक दःखित करना होता है । यह अर्थ इस लिए अधिक सम्भव प्रतीत होता है कि न्यायानुसार तो जो कर्म करे वही उसका फल भोगे । यह तो न्याय से सर्वथा विपरीत है कि अपराधी के साथ २ निरपराधी भी दंडित किये जाएं । वध्यव्यक्ति के पारिवारिक लोग उसके कार्यों के सहयोगी थे; अनुमोदक थे, इसलिए उन्हें उसके सामने दण्डित किया गया है। तथा-वध्यव्यक्ति को अत्यधिक दुःखित करने के लिये उसके पारिवारिक व्यक्तियों के सामने उसे मारा पीटा गया है। इन दोनों अर्थों के अतिरिक्त तीसरा यह अर्थ भी असंभव नहीं है कि महाबल नरेश ने मात्र अपने क्रोधावेश के ही कारण वध्यव्यक्ति के निर्दोष परिवार को भी मारने की कड़ी अाज्ञा दे डाली हो । रहस्यं तु केवलिगम्यम् । प्रस्तुत सूत्र में श्री गौतम स्वामी द्वारा अवलोकित करुणाजनक दृश्य का वर्णन किया गया है। अब सूत्रकार अग्रिम सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास श्री गौतम स्वामी द्वारा किये गये उक्त-विषय-सम्बन्धी प्रश्न का वर्णन करते हैं- . मूल- । तते णं से भगवं गोतमे तं पुरिसं पासति २ ता इमे एयारूवे अज्झथिए ५ समुप्पन्ने जाव तहेव णिग्गते एवं वयासी-एवं खलु अहं भंते ! तं चेव जाव, सेणं भंते ! पुरिसे पुव्वभवे के आसि ? जाव विहरति ? पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । से-वह । भगवं-भगवान् । गोतमे-गौतम । तं-उस । परिसं-परुष को । पासति-देखते हैं । २त्ता-देख कर। इमे-यह । एयारुवे-इस प्रकार का । अज्झथिए ५-श्राध्यात्मिक-संकल्प ५ । समुप्पन्ने-उत्पन्न हुअा। जाव-यावत् । तहेवतथैव-पहले की भान्ति । णिग्गते-नगर से निकले, तथा भगवान के समीप आकर । एवं-इस प्रकार । वयासी-कहने लगे । भंते ! -हे भगवन् ! । अहं-मैं । एवं-इस प्रकार आप की आज्ञा के अनुसार अाहार के लिये गया । खनु-निश्चययार्थक है । तं चेव-उस देखे हुए दृश्य का । जाव -यावत् वर्णन किया तथा पूछा कि । भंते !-हे भगवन् ! । से णं-वह । पुरिसे-पुरुष । (१) छाया-ततः स भगवान् गौतमः तं पुरुषं पश्यति दृष्ट्वा अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः ५ समुत्पन्नो यावत् तथैव निगतः एवमवदत्-एवं खलु अहं भदन्त ! तच्चैव यावत् स भदन्त ! पुरुषः पूर्वभवे कः आसीत् । यावद् विहरति । For Private And Personal Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २१०] श्री विपाक सूत्र अध्याय पुश्वभवे-पूर्व भव में । के-कौन । आसि ? -था ? । जाव -यावत् । विहरति ? - समय बिता रहा है ? मूलार्थ-तदनन्तर भगवान् गौतम के हृदय में उस पुरुष को देख कर यह संकल्प उत्पन्न हुश्रा यावत् पूर्ववत् वे नगर से बाहिर निकले तथा भगवान् के पास आ कर निवेदन करने लगे - भगवन् ! मैं आप को आज्ञानुसार नगर में गया, वहां मैंने एक पुरुष को देखा यावत् भगवन् ! वह पुरुष पूर्वभव में कौन था ? जो कि यावत् विहरण कर रहा है- कर्मों का फल पा रहा है ? टीका-पूर्वसूत्र में सूत्रकार ने एक ऐसे पुरुष का वर्णन किया है, जिसे राजकीय पुरुषों ने बेड़ियों से जकड़ रक्खा था, तथा जिस को बड़ी कठोरता से पीटा जा रहा था। उसे जब पतितपावन भगवान् गौतम ने देखा तो देखते ही उनका रोम २ करुणाजन्य पीड़ा से व्यथित हो उठा और उनके मानस में इस प्रकार के विचार उत्पन्न हुए कि अहो ! यह पुरुष कितनी भयानक वेदना को भोग रहा है । यह ठीक है कि मैंने नरकों को नहीं देखा है किन्तु इस पुरुष की दशा तो नारकिया जैसी ही प्रतीत हो रही है । तात्पर्य यह है कि जैसे नरक में नारकी जीवों को परमाधर्मियों के द्वारा दु:ख मिलता है, वैसे ही इस पुरुष को इन राजपुरुषों के द्वारा मिल रहा है। अज्ञानी जीव कर्म करते समय कुछ नहीं सोचता किन्तु जिस समय उस को उसका फल भोगना पड़ता है, उस समय वह अपने किये पर पश्चाताप करता है, रोता और चिल्लाता है । पर फिर कुछ नहीं बनने पाता इत्यादि विचारों में निमग्न हुए गौतम स्वामी पुरिमताल नगर से निकले और ईर्यासमिति- पूर्वक गमन करते हुए भगवान् महावीर स्वामी के पास पहुँचे, पहुँच कर वन्दना नमस्कार करने के बाद उन्हें उक्त सारा वृत्तान्त कह सुनाया और विनय -पूर्वक उस वध्य व्यक्ति के पूर्वभव सम्बन्धी वृत्तान्त को जानने की अभिलाषा प्रकट की। "अज्झथिए ५... यहां पर दिये गये ५ के अंक से-चिंतिए, कपि, पत्थिए, मणोगए, संकप्पे-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन पदों की व्याख्या पृष्ठ १३३ पर की जा चुकी है। "समुप्पन्ने जाव तहेव'"- यहां पठित "-जाव-यावत् -" पद से - अहो णं इमे पुरिसे पुरा पोराणाणं दुच्चिएणाणं दुप्पडिक्कन्ताणं असुभाणं पावाणं कड़ाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पञ्चणुभवमाणे विहरति । न मे दिवा नरगा वा नेरइया वा पञ्चक्खं खलु अयं पुरिसे नरयपडिरूवियं वेयणं वेएति त्ति कटु पुरिमताले गरे उच्चनीयमज्झिमकुलेसु अडमाणे अहापजत्तं समुयाणं गिण्हइ २ पुरिमतालस्स नगरस्य मज्झमज्झेणं निग्गच्छति २ जेणेव समणस्स भगवो महावीरस्स अदूरसामन्ते गमणागमणाए पडिक्कमइ २ एसणमणेसणे आलोएइ २ भत्तपाणं पडिदंसइ २ समणं भगवं महावीरं वन्दति नमंसति २-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है, इन का भावार्थ निम्नोक्त है - खेद है कि यह बालक पहले प्राचीन दुश्चीर्ण-दुष्टता से उपार्जन किये गये, दुष्प्रतिक्रान्तजो धार्मिक क्रियानुष्ठान से नष्ट नहीं किये गये हों ऐसे अशुभ, पापमय, किए हुए कर्मों के पापरूप फलवृत्तिविशेष-फल का प्रत्यक्षरूप से अनुभव करता हुआ समय बिता रहा है । नरक तथा नारकी मैंने नहीं देखे । यह पुरुष नरक के समान वेदना का अनुभव करता हुआ प्रतीत हो रहा है। For Private And Personal Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [२११ ऐसा विचार कर भगवान् गौतम पुरिमताल नगर के उच्च, नीच तथा मध्यम कुलों में भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए यथेष्ट सामुदानिक-अनेकविध घरों से उपलब्ध, भिक्षा ग्रहण कर पुरिमताल नगर के मध्य में से होकर निकलते हैं और जहां पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे वहां पाते हैं और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप बैठ कर गमनागमन का प्रतिक्रमण (दोष निवृत्ति) करते हैं । एषणोय (निर्दोष) और अनेषणीय (सदोष) की आलेचना (चिन्तन या प्रायश्चित्त के लिये दोषों को गुरु के सन्मुख रखना) करते हैं। आलोचना कर के भगवान् को श्राहार पानी दिखलाते हैं । दिखला कर प्रभु को वन्दना तथा नमस्कार कर के, वे इस प्रकार निवेदन करने लगे। "तं चेव जाव से"- यहां पठित “जाव-यावत्" पद से -तुमेहिं अब्भणुण्णार समाणे परिमताले नयरे उच्चनीयमज्झिमाणि कुलाणि घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे जेणेव रायमग्गे तेणेव समोगाढे. तत्थ णं बहवे हत्थी पासामि बहवे आसे पासामि-से लेकर - रुहिरपाणं च पाएंति, तं पुरिसं पासामि २ अयं एयारूवे अज्झथिए ५ समुप्पन्ने-अहो णं इमे पुरिसे परा पोराणं दुञ्चिराणाणं-से लेकर-नरयपडिरूवियं वेयणं वेएति-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। परन्तु इतना ध्यान रहे कि जहां पहले पाठों में "पासति" यह पाठ आया है वहां इस प्रकरण में "पासामि', इस पद की संकलना को गई है । क्योंकि पहले वर्णन में तो सूत्रकार स्वयं भगवान् गौतम स्वामी का परिचय करा रहें हैं । जब कि इस वर्णन में भगवान् गौतम स्वयं अपना वृत्तान्त प्रभु वीर के चरणों में सुना रहे हैं । ऐसी स्थिति में 'पासामि" (देखता हूँ) ऐसे प्रयोग की संकलना करनी ही होगी, तभी पूर्वापर अर्थ की संगति हो सकती है। "आसि ? जाव विहरति"- यहां पठित "जाव-यावत्" पद से-"किंनामए वा किं गोत्तए वा कयरंसि गामंसि वा नगरंसि वा किंवा दच्चा किं वा भोच्चा किंवा समायरित्ता केसिं वा पुरा पोराणाणं दुच्चिराणाणं दुप्पडिक्कन्ताणं असुहाण पावाण कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पञ्चणुभवमाणे" - इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों का भावार्थ पृष्ठ ५१ पर दिया जा चुका है। गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ कथन किया, अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं मूल-' एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे ___(१) छाया - एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे पुरिमतालं नाम नगरमभवत् , ऋद्ध० । तत्र पुरिमताले उदितो नाम राजा अभवत् महा० । तत्र च पुरिमताले निणयो नाम अण्डवाणिजोऽभूत् श्रादयो यावदपरिभूतः, अधार्मिको यावद् दुष्प्रत्यानन्दः । तस्य निर्णयस्याण्डवाणिजस्य बहवः पुरुषाः दत्तभृतिभक्तवेतना कल्याकल्यि कुदालिकाश्च पत्थिकापिटकानि च गृह्णन्ति पुरितालस्य नगरस्य परिपर्यन्तेषु बहवः काक्यंडानि च घक्यंडानि च पारापती--टिटिभी- बकीमयूरी-कुक्कुट्य डानि च, अन्येषां चैव बहूनां जलचर-स्थलचर-खचरादीनामंडानि गृह्णन्ति, गृहीत्वा च पत्थिकापिटकानि भरन्ति, भृत्वा च यत्रैव निर्णयोऽण्डवाणिजस्तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य निर्णयस्यांड. वाणिजस्योपनयन्ति । ततस्तस्य निर्णयस्यांडवाणिजस्य बहवः पुरुषाः दत्तभृति० बहूनि काक्यण्डानि च यावत् कुक्कुट्य डानि च अन्येषां च बहूनां जलचरस्थलचरखचरादीनामंडानि तवकेषु च कवल्लीषु च कन्दुषु च भर्जनकेषु चांगारेषु च तलन्ति, भृज्जन्ति, पचन्ति, तलन्तो भृज्जन्तः पचन्तश्च राजमार्गेऽन्तरापणे अण्ड For Private And Personal Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २१२] श्री विपाक सूत्र - [तीसरा अध्याय पुश्मिताले नाम नगरे होत्था, 'रिद्ध० । तत्थ णं पुरिमताले उदिए नामं राया होत्था 'महया० । तत्थ एणं पुरिमताले निएणए णाम अंडयवाणियए होत्था, अड्ढे जाव अपरिभूते, अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे। तस्स णं णिएणयम्स अंडयवाणियगस्स बहवे पुरिसा दिएणभतिभरवेयणा कल्लाकल्लिं कोदालियाओ य पत्थियापिडए य गेएहन्ति, पुरिमतालस्स नगरस्स परिपेरंतेसु वहवे काइअडए य घुइअंडए य पारेवइ-टिट्टिभि-बांग-मयूरीकुक्कुडि-अंडए य अन्नेसिं चेव बहूणं जलयर-थलयर-खहयरमाईणं अडाई गेएहति गेण्हेत्ता पत्थियापिडगाइ भरेंति २ जेणेव निएणए अडवाणियए तेणेव उवा० २ निगणयस्स अंडवाणियगस्स उवणेति । तते णं तस्स निएणयस्स अंडवाणियगस्स बहवे पुरिमा दिएणभइ० बहवे काइडए य "जाव कुक्कुडि-अंडए य अन्नेसि च बहूणं जलयर-थलयरखहयरमाईणं अडए तवएसु य कवन्लीसु य कंदुसु य भज्जणएसु य इंगालेसु य तलेंति भज्जेंति सोल्लिंति तलेता भज्जेता सोल्लंता य रायमग्गे अन्तरावणं सि अडयपणिएणं वित्तिं कप्पेमाणा विहरन्ति । अप्पणा वि य णं निएणयए अंडवाणियए तेहिं बहूहिं काइ-मंडएहि य जाव कुक्कुडि-अडएहि य सोन्लेहि तलिएहिं मज्जिएहिं सुरं च' पण्येन वृत्ति कल्पमाना विहरन्ति । अात्मनापि च स निर्णयोऽण्डवाणिजस्तैर्बहुभिः काक्यण्डेश्च यावत् कुक्कुट्यण्डैश्च पक्क स्तलितैभृष्टः सुरां च ५ आस्वादयन् ४ विहरति । ततः स निर्णयोऽएडवाणिज एतत्कर्मा ४ सुबहु पापं कर्म समय॑ एक वर्षसहस्रं परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा तृतीयायां पृथिव्यां उत्कृष्टसप्तसागारोपमस्थितिकेषु नरयिकेषु नैरयिकतयोपपन्न: । (१) " रिद्ध०-" यहां के बिन्दु से जिन पदों का ग्रहण सूत्रकार को अभिमत है, उन के सम्बन्ध में पृष्ठ १३८ पर लिखा जा चुका है । (२) “ महया० " यहां के बिन्दु से क्या अपेक्षित है ? इस का उत्तर पृष्ठ १३८ पर दिया जा चुका है। (३) "अड्ढे जाव अपरिभूते" यहां पठित-जाव-यावत्-पद से जिन पदों का आश्रयण सूत्रकार को अभिमत है उनका विवण पृष्ठ १२० पर दिया जा चुका है । (४) "अहम्मिए जाव दुप्पडियाशंदे" यहां पठित'- जाव-यावत् -' पद से ग्रहण किये जाने वाले पदों का वर्णन पृष्ठ ५५ पर किया गया है । (५) यहां पठित-जाव-यावत्-' पद से "-घूइ-अण्डए, पारेवइअण्डए, टिहिभि-अण्डए बगि-अण्डए, मयूरी-अण्डए-" इन पदों का ग्रहण सूत्रकार को अभिमत है, तथा "-काइअण्डएहि य जाव कुक्कुडि-अण्डएहि-" यहां पठित '-जाव-यावत्-' पद से पूर्वोक्त पदों का ही आश्रयण करना चाहिए, यहां मात्र प्रथमा और तृतीया विभक्ति का अन्तर है । (६)-सुरं च ५-यहां पर ५ इस अंक से "- मधुच मेरगं च जातिं च सीबुंच पसन्नं च' इन पदों का ग्रहण समझना । इन पदों की व्याख्या पृष्ठ १४४ पर की जा चुकी है। For Private And Personal Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका महित। [२१३ ५ आसाएमाणे' ४ विहरति । तते णं से निएणए अंडवाणियए २एयकम्मे ४ सुबहुं पावं कम्मं समज्जिणित्ता ऐगं वाससहस्सं परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा तच्चाए पुढवीए उक्कोससत्तसागरोवर्माद्वतीएसु णेरइएसु णेरइयत्ताए उववन्ने । पदार्थ-एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही । गोतमा !-हे गौतम ! । तेणं कालेणं-उस काल में । तेणं समएणं-उस समय में । इहेव-इसी । जम्बुद्दीवे दीवे-जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत । भारहे वासे-भारत वर्ष में । परिमताले-पुरिमताल । नाम-नामक । नगरेनगर । होत्था-था, जो कि । रिद्ध०- ऋद्ध-भवनादि के आधिक्य से पूर्ण, स्तिमित - स्वचक्र और परचक्र के भय से रहित तथा समृद्ध-उत्तरोत्तर बढते हुए धन धान्यादि से परिपूर्ण था। तत्थ णं-उस । पुरिमताले-पुरिमताल नगर में । उदिए-उदित । नाम-नामक । राया-राजा । होत्था-था । महया०-जो कि महा हिमवान् - हिमालय आदि पर्वतों के सदृश महान् था । तत्थ णं पुरिमताले-उस पुरिमताल नगर में । निराणए-निर्णय । नाम- नामक । अंडयवाणियए-अंडवाणिज-अंडों का व्यापारी । होत्था-था जो कि । अड्ढे - धनी । जाव - यावत् । अपरिभूते-अतिरस्कृत अर्थात् बड़ा प्रतिष्ठित था एवं । अहम्मिए-अधार्मिक । जाव - यावत् । दुप्पडियाणंदे-दुष्प्रत्यानन्द - जो किसी तरह सन्तुष्ट न किया जा सके, ऐसा था । तस्स-उस । णिण्णयस्स -निर्णय नामक । अंडयवाणियगस्स - अण्डवाणिज के । बहवे-अनेक । दिण्णभतिभत्तवेयणा-दत्तभृतिभक्तवेतन-जिन्हें वेतनरूपेण भृति-पैसे आदि तथा । भक्त-धृत धान्याद दिये जाते हों अर्थात् नौकर । परिसा-पुरुष । कल्लाकल्लि- प्रति दिन । कोद्दालियाओ यकुद्दाल-भूमी खोदने वाले शस्त्रविशेषों को तथा । पत्थियापिडए य-पत्थिकापिटक-बांस से निर्मित पात्रविशेषों- पिटारियों को । गेरहन्ति - ग्रहण करते हैं, तथा । पुरिमतालस्ल-पुरिमताल नगरस्स- नगर के । परिपरतेसु- चारों ओर । बहवे--अनेक । काइअंडए य-काकी-कौएकी मादा-के अंडों को तथा । घुइडए य-धूकी -उल्लूको ( उल्लू की मादा) के अंडों को । पारवह-कबूतरी के अंडों को। टिझिभि-टिटिभी-टिटिहरी के अंडों को। बगि-बकी-बगुली के अण्डों को। मयूरी-मयूरी-- मोरनी के अंडों को और । कुस्कुडिअंडर य -कुकड़ी-मुर्गी के अंडों को । अन्नेसिं चेव - तथा और । बहूणं- बहुत से । जयलर - जलचर - जल में चलने वाले । थलयरस्थलचर-पृथिवी पर चलने वाले । खहयरमाणं-खेचर-अाकाश में विचरने वाले जंतत्रों के। अंडा-अण्डों को । गेराहन्ति - ग्रहण करते हैं । गेराहेत्ता-ग्रहण कर के। पत्थिया पिडगा-बांस की पिटारियों को । भरति- भरलेते हैं । २त्ता-भर कर । जेणेव-जहां पर। निएणए -निर्णय नामक । अण्डवाणियए - अण्डवाणिज था । तेणेव-वहां पर । उवा० २त्ताआते हैं, आकर । निराणयस्स-निर्णय नामक । अंडवाणियगस्स- अण्डवाणिज को । उवणेति १)--श्रासाएमाणे ४-यहां पर दिये गये गये ४ के अंक से " -विसाएमाणे परिभाए. माणे परिभुजेमाणे -" इन पदों का ग्रहण करना चाहिए । इन की व्याख्या पृष्ठ १४५ पर की जा चकी है । परन्तु इतना ध्यान रहे कि वहां स्त्रीलिङ्ग का निर्देश है, जब कि यहां पुल्लिङ्ग है । तथापि अर्थ-विचारणा में कोई अन्तर नहीं है । (२)-एयकम्मे ४–यहां के ४ के अंक से "-एयप्पहाणे एयविज्जे-"और"- एयसमायरे"-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए । एतत्कर्मा आदि पदों का शब्दार्थ पृष्ठ १७९ की टिप्पण में दिया जा चुका है। For Private And Personal Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org निर्णय नामक अडवाणिज के रूप से वेतन ग्रहण करने वाले अनेकों पुरिमताल नगर के चारों ओर अनेक २१४] श्री विपाक सूत्र - [ तीसरा अध्याय - । जलयर -- 1 - दे देते हैं । तते णं तदनन्तर । तस्स – उस । निरणयस्स – निर्णय नामक । श्रंडवाणियगस्स -- वाणिज के । बहवे - अनेक । दिरणभइ० - जिन्हें वेतन रूप से रुपया तथा भोजन दिया जाता है ऐसे नौकर । पुरिसा - पुरुष । बहवे – अनेक । काइचंड य - काकी के अंडों को । जाव - कुक्कुडिचंड-मुर्गों के अंडों को । असि च - तथा और । बहूणं - बहुत से जलचर । थलयर - स्थलचर । खहयरमाईणं - खेचर आदि जन्तुत्रों के । अंडर-डों को । तवसु य - तवों पर । कवल्लीसु य - कवल्ली - गुड आदि पकाने का पात्र विशेष ( कडाहा ) में । कंदूसुय – कन्दु – एक प्रकार का बर्तन - जिस म मांड आदि पकाया जाता हो अर्थात् हांडे में, अथवा चने आदि भूनने की कडाही में अथवा लोहे के पात्रविशेष में भज्जण रस य - भर्जनक - भूनने का पात्रविशेष । इंगालेषु य अंगारों पर । तलेति – तलते थे । भज्जैति भूनते थे । सोल्लिंति - शूल से पकाते थे । यमग्गे - राजमार्ग के अंत रावणंसि अन्तर-मध्यवर्ती, आपणदुकान पर, अथवा राजमार्ग की दुकानों के भीतर । अंडयपणिरण - अण्डों के व्यापार से । वित्तिं कप्पेमाणा - आजीविका करते हुए । विहरति समय व्यतीत करते थे । अपणा वियणं - और स्वयं भी । से - वह । निरणए - निर्णय नामक | अंडवारियर- अण्डों का व्यापारी । तेहिउन । बहूहिं – अनेक । काहअंडरहि य - काकी के अण्डों । जाव - यावत् । कुक्कुडिअंडरहि यमुग़ के अण्डों, जो कि । सोल्लेहिं – शूल से पकाये हुए । तलिएहिं तले हुए। भज्जिएहिं भूने हुए हैं - के साथ । सुरं च ५ - पंचविध सुरा आदि मद्य वशेषों का । श्रसारमाणे४ - श्रास्वादनादि करता हुआ । विहरति - समय बिता रहा था । तते णं - तदनन्तर । से - वह । निरणपनिर्णय नामक । अंडवाणियए - अण्डवाणिज । एयकम्मे ४ - इन्हीं पाप कर्मों में तत्पर हुआ, इन्हीं पापपूर्ण कर्मों में प्रधान, इन्हीं कर्मों के विज्ञान वाला और यही पाप कर्म उस का आचरण बना हुआ था ऐसा वह निर्णय | सुबहु - अत्यधिक 1 पाव - पापरूप । कम्मं कर्म को । समज्जिशित्ता - उपार्जित करके । एग वासल हस्सं - एक हजार वर्ष की । परमाउ - परम आयु को । पालsता भोग कर । कालमासे -- कालमास में - मृत्यु का समय जाने पर । कालं किच्चाकाल कर के । तच्चाए - तीसरी । पुढवीर - पृथिवी नरक में । उक्कोस - उत्कृष्ट । सत्त - सात । सागरोवम - सागरोपम की । द्वितीयसु - स्थिति वाले । रइएसु - नारकों में । रइयत्ताए - नारकीय रूप से । उववन्ने – उत्पन्न हुआ । - - / 1 मूलार्थ - इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम ! उस काल तथा उस समय इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में पुरिमताल नामक एक विशाल भवनादि से युक्त, स्वचक्र और परचक्र के भय से विमुक्त एवं समृद्धिशाली नगर था । उस पुरिमताल नगर में उदित नाम का राजा राज्य किया करता था, जो कि महा हिमवान् - हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् था । उस पुरिमताल नगर में निर्णय नाम का एक अडवाणिज - अंडों का व्यापारी निवास किया करता था, जो कि आव्य - धनी, अपारभूत - पराभव को प्राप्त न होने वाला, धर्मो या दुष्प्रत्यानन्द - परम असन्तोषी था । -- Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अनेक दत्तभृतिभक्तवेतन अर्थात् रुपया, पैसा और भोजन के पुरुष प्रतिदिन कुहाज तथा बांस की पिटारियों को लेकर काकी ( कौए की मादा) के अ'डों को, घूकी (उल्लू की मादा) For Private And Personal Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सिहत । [२१५ के अंडों को, कबूतरी के अंडों को, टिट्रिभो (टिटिहरी) के अंडों को, बगुली के अडों को, मोरनी के अंडों को और मुर्गो के अंडों को तथा और भी अनेक जलचर, स्थलचर और खेचर आदि जन्तुओं के अडो को लेकर बांस की पिटारियों में भरते थे, भर कर निर्णय नामक अंडवाणिज के पास आते थे, आकर उस अडवाणिज को अंडों से भरी हुई वे पिटारियां दे देते थे। ___ तदनन्तर निर्णय नामक अडवाणिज के अनेक वेतनभोगी पुरुष बहुत से काकी यावत् कुकड़ी (मुर्गी) के अडों तथा अन्य जलचर, स्थलनर और खेचर आदि जन्तुओं के अण्डों को तवों पर, कड़ाहों पर, हांडों में और अंगारों पर तलते थे. भूनते थे तथा पकाते थे । तलते हुए, भूनते हुए, और पकाते हुए राजमार्ग के मध्यवर्ती आपणों-दुकानों पर अथवा- राजमार्ग की दुकानों के भीतर, अंडों के व्यापार से प्राजो विका करते हुए समय व्यतीत करते थे। . तथा वह निर्णय नामक अंडवाणिज स्वयं भी अनेक काकी यावत् कुकड़ी के अंडों जो कि पकाये हुए, तले हुए और भूने हुए थे, के साथ सुरा आदि पंचविध मदिराओं का श्रास्वादनादि करता हश्रा. जोवन व्यतीत कर रहा था । तदनन्तर वह निर्णय नामक अंडवाणिज इस प्रकार के पाप कर्मों के करने वाला, इस प्रकार के कर्मों में प्रधानता रखने बाला इन कर्मों को विद्या-विज्ञान रखने वाला, और इन्हीं कर्मों को अपना आचरण बना कर अत्यधिक पाप कमों को उपार्जित कर के एक सहस्र वर्ष की परम आयु को भोग कर कालमास-मृत्यु के समय में काल करके तीसरी पृथिवी-नरक में उत्कृष्ट सात सागरोपम स्थिति वाले नारकों में नारंकी रूप से उत्पन्न हुआ । टीका-प्रस्तत सत्र में गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हए भगवान महावीर स्वामी ने फ़रमाया कि गौतम ! भारतवर्ष में पुरिमताल नामक एक नगर था. जो व्यापारियों की दृष्टि से, शिल्पियों की दृष्टि से एवं आर्थिक दृष्टि से पूर्ण वैभवशाली था । नगर विशाल होने के साथ साथ काफ़ी चहलपहल वाला था । उस में उदित नरेश का राज्य था. जो कि महान् प्रतापी था ! उस नगर में निर्णय नाम का एक अंडवाणिज-अंडों का व्यापारी रहता था, जो कि काफ़ी धनी और अपनी जाति में सर्व प्रकार से प्रतिष्ठित माना जाता था। परन्तु धर्म-सम्बन्धी कार्यों में निर्णय पराङ मुख रहता था । उस के विचार सावध प्रवृत्ति की ओर अधिक झुके हुए थे अनाथ, मूकप्राणियों के वध करने में प्रवृत्त होने से उसके विचार अधिक कर हो गये थे। उस के अन्दर सांसारिक प्रलोभन बेहद बढ़ा हुआ था । इसीलिये उस का प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन था। सारांश यह है कि जीवहिंसा करना उसके जीवन का प्रधान लक्ष्य बना हुआ था। उसी पर उसका जीवन निर्भर था। निर्णय के अनेको नौकर थे, जिन्हें जोवन-निर्वाह के लिये उसकी तर्फ से वृत्ति-श्राजीविका दी जाती थी। कई एक को अन्न दिया जाता था, अर्थात् कई एक को भोजन मात्र और कई एक को रुपया पैसा । ये नौकर पुरुष अपने स्वामी के आदेशानुसार काम करते तथा अपनी स्वामिभक्ति का परिचय देते थे । वे प्रतिदिन प्रातःकाल उटते, कुद्दाल और बांस की पिटारियों को उठाते और नगर के बाहिर चारों तरफ़ घूमते । जहां कहीं उन्हें काकी मयूरी, कपोती और कुकड़ी आदि पक्षियों के अंडे मिलते, वहीं से वे ले लेते । इसके अतिरिक्त अन्य जलचर, स्थलचर तथा खेचर आदि जन्तुओं के अंडों की उन्हें जहां से प्राप्ति होती वहीं से लेकर वे अपनी २ पिटारियों को भर लेते थे, तथा लाकर निर्णय के सुपुर्द कर देते । यह उन का प्रतिदिन का काम था। For Private And Personal Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २१६] श्री वपाक सूत्र [ तीसरा अध्याय निर्णय ने जहां अंडों को खोज कर लाने के लिये आदमी रक्खे हुए थे, वहां साथ में उस ने ऐसे पुरुष भी रख छोड़े थे कि जो राजमार्ग में स्थित दुकानों पर बैठ. अंडों का क्रयविक्रय किया करते। अंडों को उबालकर, भून कर और पकाकर बेचते । तात्पर्य यह है कि जिस पुरुष को निर्णय ने जो रक्खा था. वह उसे पूरी सावधानी से करता था। इस वर्णन से यह पता चलता है कि निर्णय ने अंडों का व्यवसाय काफी फैला रखा था। पाठक कभी यह समझने की भूल न करें कि निर्णय का यह व्यवसाय केवल व्यापार तक ही सीमित था किन्तु वह स्वयं भी मांसाहारी था। अपने प्रतिदिन के भोजन को भी वह अ कराया करता और अनेक विधियों से अंडों का आहार करता । मांस के साथ मदिरा का निकट सम्बन्ध होने से वह इस का भी पर्याप्त उपभोग करता । इस प्रकार के सावध व्यापार तथा आहारादि से निर्णय ने अपने जीवन में पाप - कर्मों का काफ़ी संचय किया, जिस के फलस्वरूप उसे मरकर तासरी नरक में नारकी रूप से उत्पन्न होना पड़ा। यह सच है कि जघन्य स्वार्थ. मनुष्य को बुरे से बुरे काम को ओर प्रवृत्त करा देता है । स्वार्थ और मनुष्यता का अहिनकुल (सांप और नेवले) को भान्ति सहज (स्वाभाविक) वैर है। मनुष्यता की स्थिति में स्वार्थ का अभाव होता है और स्वार्थ के आधिपत्य में मनुष्यता नहीं रहने पाती। स्वार्थी जीव दूसरों के हित का नाश करने में संकोच नहीं करता, तथा निर्दोष प्राणियों के प्राणों का 'अपहरण करना उसके लिये एक साधारण सी बात हो जाती है । निर्णय नामक अंडवाणिज भी इसी स्वार्थ - पूर्ण वृत्ति के कारण अगणित प्राणियों की हिंसा कर रहा था । उसकी इस पापमय प्रवृत्ति ने उस के आत्मा को अधिक से अधिक भारी कर दिया । उसने ऐसे जघन्य कामों में पूरे एक हजार वर्ष व्यतीत किये। .. इस भयंकरातिभयंकर अपराध के कारण उसे तीसरी नरक में जाना पड़ा । तीसरी नरक की उत्कृष्ट स्थिति सात 'सागरोपम को है, अर्थात् स्वकृत कर्मों के अनुसार उस में गया हुअा जीव अधिक से अधिक सात सागरोपम काल तक रहता है । इसलिये विचारशील पुरुष को पापकर्म से पृथक रहने का ही सदा भरसक प्रयत्न करना चाहिये। "दिरणतिभत्तवेयणा" - इस समस्त पद की व्याख्या करते हुए आचार्य अभयदेव रि लिखते हैं - "दत्तं भृतिभक्तरूपं वेतनं मूल्यं येषां ते तथा, तत्र भृतिः --द्रम्मादिवर्तना, भक्त त घतकणादि-" अर्थात् वेतन शब्द से उस द्रव्य का ग्रहण होता है जो किसी को कोई काम के बदले में दिया जाए । भृति शब्द रुपए पैसे आदि का परिचायक है तथा भक्त शब्द घृत, धान्य आदि के लिये प्रयुक्त होता है। तात्पर्य यह है कि- निर्णय नामक अंडों के व्यापारी ने जिन नौकरों को रखा हुआ था, उन में से किन्हीं को वह वेतन के उपलक्ष्य में रुपया, पैसा आदि दिया करता था और किन्हीं को घृत, गेहूँ आदि धान्य दिया करता था। प्रतिदिन का दूसरा नाम कल्याकल्यि है। कल्ये कल्ये च कल्याकल्यि अनुदिनमित्यर्थ :। तथा जमीन खोदने वाला शस्त्रविशेष कुहालक कहलाता है। बांसों की बनी हुई पिटारी या टोकरी का नाम पत्थिकापिटक है । अथवा पत्थिका टोकरी और पिटक थैले का नाम है । - इसके अतिरिक्त "तवएसु" आदि पदों की तथा "तलेंति" आदि पदों की व्याख्या वृत्तिकार (१) सागरापम- शब्द का अर्थ पृष्ठ ९४ पर लिखा जा चुका है। For Private And Personal Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हिन्दी भाषा टीका सहित । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय ] के शब्दों में इस प्रकार है. " तवरसु य" - त्ति तवकानि - सुकुमारिकादितलनभाजनानि । “कवल्लीसु य" - त्ति कवल्योगुडादिपाकभाजनानि । “कंदूसु य" त्ति कन्दवो मंडकादिपचनभाजनानि " भज्जणरसु य" ति भर्जनकानि कर्पराणि धानापाकभाजनानि, अंगाराश्च प्रतीताः, 'तलेति" अग्नौ स्नेहेन " भज्जेंति" भृज्जन्ति धान्यवत् पचन्ति ; "सोल्जिति य" श्रोदनमिव राध्यन्ति, खंडशो वा कुर्वन्ति । इस पाठ का भावार्थ निम्न है। [२१७ सुकुमारिका - पूडा पकाने का लोहमय भाजन - पात्र तवा कहलाता है। गुड़, शर्करा आदि पकाने का पात्र कवल्ली कहा जाता है, हिन्दी भाषा में इसे कडाहा कहते हैं । कन्दु उस पात्र का नाम है जिस पर रोटी पकाई जाती है। भूनने का पात्र कड़ाही आदि भर्जनक कहा जाता है । दहकते हुए कोयले के लिये अंगार शब्द प्रयुक्त होता है । अर्द्धमागधी कोषकार कन्दु शब्द के लोहे का एक बर्तन, चने आदि भूनने दो अर्थ करते हैं । प्राकृतशब्द महार्णव के पृष्ठ २६७ पर ' कन्दु' का अर्थ " - जिस हुए चावलों में से निकाला हुआ लेसदार पानी) आदि पकाया जाता हो वह बर्तन लिखा है । टीकाकार महानुभाव के मत में " तबक" और "कन्दु" दोनों में प्रथम - की कड़ाही - ऐसे में माण्ड ( पकाए हाण्डा - " ऐसा पूड़ा पकाने का और दूसरा रोटी पकाने का पात्र है। - " तलेंति” – इस क्रियापद से अग्नि पर तैल आदि से तलते हैं - कड़कड़ाते हुए घी या तेल में डाल कर पकाते हैं - ऐसा अर्थ अभिव्यक्त होता है । 'भज्जैति" का अर्थ है - धाना (भूने हुए यत्र - जो या चावल) की तरह भूनते थे - आग पर रख कर या गरम बालू पर डाल कर I । “सोल्लिति" - पद के दो अर्थ होते हैं, जैसे कि – १ – चावल के समान पकाते थे, तात्पर्य यह है कि जिस तरह चावल पकाये जाते हैं, उसी तरह निर्णय के नौकर अंडों को पकाया करते थे । २ - खण्ड २ किया करते थे । परन्तु कोषकार "सोल्लिंति" इस क्रियापद का अर्थ – शूल ( बड़ा लंबा और लोहे का नुकीला काटा) पर पकाते थे – ऐसा करते हैं । - अब सूत्रकार निर्णय अडवाणिज की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हुए कहते हैंमूल - ' से ए तो अतरं उच्चट्टित्ता इहेव सालाडवीए चोरपल्लीए विजयस्स चोरसेणावइस्स, खंदसिरीए भारियाए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववन्ने । तते गं तीसे खंदसिरीए For Private And Personal (१) छाया - स ततोऽनन्तरमुद्धृत्य इहैव शालाटव्यां चोरपल्ल्यां विजयस्स चोरसेनापतेः स्कन्दश्रियो भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नः । ततस्तस्य स्कन्दश्रियो भार्यायाः अन्यदा कदाचित् त्रिषु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु अयमेतद्रूपः दोहदः प्रादुर्भूतः - धन्यास्ता अम्बाः ४ या बहुभिभिंत्र - ज्ञाति - निजक – स्वजन - संबन्धि - परिजन –महिलाभिः, अन्याभिश्वोर महिलाभिः सार्द्ध संपरिवृताः स्नाताः यावत् प्रायश्चित्ताः सर्वालंकारविभूषिताः विपुलमशनं पानं खादिमं स्वादिमं सुरां च ५ श्रास्वादयमानाः ४ विहरन्ति । जिमितभुक्तोत्तरागता:, पुरुषनेपथ्याः सन्नद्ध० यावत् प्रहरणाः फलकैः निष्कृष्टैरसिभिः सागतस्तूर्णः सजीवैर्धनुर्भिः समुत्क्षिप्तैः शरैः समुल्लासिताभिर्दामभिः लम्बिताभिरवसरिताभिरुरूवं टाभिः क्षिप्रतूरेण वाद्यमानेन महतोत्कृष्ट ० यावत् समुद्ररवभूतमिव कुर्वाणाः शालाटव्यां चोरपल्ल्यां सर्वतः समन्तादवलोकयन्त्यः २ श्राहिण्डमानाः २ दोहदं विनयन्ति । तद् यद्यहमपि यावद् विनयामि इति कृत्वा तस्मिन् दोहदे अविनीयमाने यावद् ध्यायति । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २१८] श्री विपाक सूत्र [तीसरा अध्याय भारियाए अन्नया कयाइ तिण्हं मासाणं बहुपडिपुरणाणं इमे एयारूवे दोहले पाउन्भूते, धरणाश्रो णं ताओ अम्मयाओ ४ जा णं बहुहिं मित्तणाइनियगसयणसंबंधिपरियणमहिलाहिं अन्नाहि य चोरमहिलाहिं सद्धिं संपरिखुड़ा एहाया जाव पायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिता विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च ५ प्रासादेमाणा ४ विहरति । जिमियभुत्तत्तरागयाअो पुरिसनेवत्थिया सन्नद्ध० जाव पहरणा भरिएहिं फलएहिं, णिक्किट्ठाहिं असीहिं अंसागतेहिं तोणेहि, सजीवहिं धण हिं समुश्वित्तेहिं सरेहिं समुल्लासियाहिं दामाहि लम्वियाहिं अवसारियाहिं उरुघंटाहिं छिप्पतूरेणं वजमाणेणं महया उक्किट्ट० जाव समुद्दरवभूयं पिव करेमाणीओ सालाडवीए चोरपल्लीए सव्वश्रो समंता ओलोएमाणीओ २ आहिंडेमाणीओ २ दोहलं विणेति । तं जइ णं अहं पि जाव विणि जामि, ति कट्ट तसि दोहसि अविणिजमाणंसि जाव झियाति । पदार्थ-से णं-वह–निर्णय नामक अण्डवाणिज-अण्डों का व्यापारी । तो- वहां से-नरक से । अणंतरं-अन्तर रहित । उव्वहित्ता-निकल कर । इहेव -इसी । सालाडवीए-शालाटवी नामक । चोरपल्लीए-चोरपल्ली में । विजयस्स-विजय नामा । चोरसेणावइस्स-चोरसेनापति की । खंद सरीए-स्कन्दश्री। भारियाए–भार्या की । कुञ्छिसि-कुक्षि में-उदर में । पुत्तत्साए - पुत्ररूप से । उववन्ने-उत्पन्न हुआ । तते णं-तदनन्तर । तीसे-उस । खंदसिरीए- स्कन्द - श्री। भारियाए-भार्या को । अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय । तिराहं मासाणं-तीन मास । बहुपडिपुराणाणं-परिपूर्ण होने पर । इमे- यह । एयारुवे-इस प्रकार का । दोहले-दोहद गर्भवती स्त्री का मनोरथ । पाउन्भूते-उत्पन्न हुा । तारो-वे ।' अम्प्रयाश्रो ४-मातायें ४ ॥ धरणाप्रो णं-धन्य हैं । जाणं-जो । बहूहिं-अनेक । मित्त-मित्र । गाइ-ज्ञातिजन । नियगनिजक-पिता पुत्र श्रादि । सयण-स्वजन-चाचा, भाई, आदि । सम्बन्धि - सम्बन्धी-श्वशुर, साला आदि । परियणं --परिजन-दास आदि की । महिलाहिं-स्त्रियों के तथा । अन्नाहि य-अन्य । चोरमहिलाहिं-चोर-महिलाओं के । सद्धिं-साथ । संपरिवुड़ा-संपरिवृत-घिरी हुई तथा । गहाया-नहाई हुई। जाव - यावत् । पायच्छिना-अशुभ स्वप्नों के फल को विफल करने लिये प्राय (१) “ अम्मयाओ ४"- यहां के ४ के अंक से-"सपुरणाओ ण ताश्रो अम्मयात्रो कयत्थाओ ताओ अम्मयाओ, कयपुराणाम्रो ताओ अम्मयाओ कयलक्खरणाओ, णं तारो अम्मयाओ-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन का भावार्थ निम्नोक्त है - वे मातायें सपुण्या-पुण्य वालियां हैं, वे माताएं कृतार्थ हैं-उन के प्रयोजन सिद्ध हो चुके हैं, वे मातायें कृतपुण्या हैं - उन्हों ही ने पुण्य की उपार्जना की है, तथा वे मात.ये कृतलक्षणा हैंसंपूर्ण लक्षणों से युक्त हैं । (२) " राहाया जाव पायच्छित्ता"- यहां पठित जाव-यावत् पद से "-कयबलिकम्मा कय-कोउयमंगल-" इन पदों का ग्रहण समझना चाहिये । इन पदों की व्याख्या प्रष्ठ १७६ तथा १७७ पर की जा चुकी है । For Private And Personal Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [२१९ श्चित्त के रूप में तिलक और मांगलिक कार्य करने वाली । सवालंकारभूसिता-सम्पूर्ण अलंकरणों से विभूषित हुई । विपुलं-विपुल – बहुत । असणं-- अशन - रोटी दाल आदि । पाणं-पानपानी आदि पेय पदार्थ । खाइम-खादिम-मेवा और मिष्टान्न आदि । साइमं-स्वादिम–पान सुपारी आदि सुगन्धित पदार्थों का । सुरं च ५- और पांच प्रकार की सुरा अादि का। प्रासादेमाणा ४-आस्वादन प्रस्वादन आदि करती हुई । विहरंति विहरण करती हैं । जिमियभुत्तु त्तरगयाओ-तथा जो भोजन करने के अनन्तर उचित स्थान पर आगई हैं । पुरिसनेवत्थिया-पुरुष-वेष को धारण किये हुए हैं । सन्नद्ध०-दृढ़ बन्धनों से वांधे हुए और लोहमय कसूल क आदि से संयुक्त कवच-लोहमय बखतर को धारण किये हुए हैं । 'जाव-यावत् । पहरणा-जिन्हों ने आयुध और प्रहरण ग्रहण किये हुए हैं । भरिएहिं फलिपहि-वाम हस्त में धारण किये हुए फलक -दालों के द्वारा । निक्किट्ठाहिं असोहि-कोश - म्यान ( तलवार कटार आदि रखने का खाना) से निकली हुई कृपाणों के द्वारा । अंसागतेहिं-तोणेहि-अंसागत-स्कन्ध देश को प्राप्त तूण-इषुधि ( जिस में बाण रक्खे जाते हैं उसे तूण या इषुधि कहते हैं ) के द्वारा । सजीवहिं धराहि-सजीव-प्रत्यंचा - डोरी-से युक्त धनुषों के द्वारा । समुक्विवत्तेहिं सरेहि-लक्ष्यवेधन करने के लिये धनुष पर आरोपित किये गये शरों-बाणों द्वारा । समुल्लासियाहिं दामाहि-समुल्लसित-ऊचे किये हुए पाशोंजालों अथवा शस्त्रविशेषों से । वियाहिं-लम्बित जो लटक रही हों । अवसारियाहि-तथा अवसारित–चालित अर्थात् हिलाई जाने वाली । उरुघंटाहि-जंघा में अवस्थित घंटिकाओं से । छिप्पतूरेणं वज्जमाणेणं-शीघ्रता से बजने वाले बाजे के बजाने से । महया -महान् । उक्किट्ठ०उत्कृष्ट-श्रानन्दमय महाध्वनि आदि से । जाव - यावत् । समुदरवभूयं पिव-समुद्र शब्द के समान महान् शब्द को प्राप्त हुए के समान गगनमंडल को । करमाणीप्रो-करती हुई । सालाडवीए चोरपल्लीए-शालाटवी नामक चोरपल्ली के । सव्वओ समंता-चारों तरफ का । ओलोरमाणीओ -अवलोकन करती हुई । आहिंडेमाणीओ-भ्रमण करती हुई । दोहलं-दोहद को । विणेति -पूर्ण करती हैं । तं-सो। जइ णं-यदि । अहं पि-मैं भी । जाव-यावत् । विणिज्जामि-दोहद को पूर्ण करू । त्ति कटु -ऐसा विचार करने बाद । तसि दोहलंसिउस दोहद के । अविणिज्जमाणंसि-पूर्ण न होने पर । जाव-यावत् । झियाति-पार्तध्यान करती है। . मूलार्थ-वह निर्णय नामक अण्डवाणिज नरक से निकल कर इसी शालाटवी नामक चोरपल्लो में विजयनामा चोरसेनापति की स्कन्दश्री भार्या के उदर में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ। किसी अन्य समय लगभग तीन मास पूरे होने पर स्कन्दश्री को यह दोहद (संकल्प विशेष) उत्पन्न हुआ। * वे माताएं धन्य हैं जो अनेक मित्रों की, ज्ञाति की, निजकजनों की, स्वजनों को, सम्बन्धियों की और परिजनों की महिलाओं-स्त्रियों तथा चोर-महिलाओं से परिवृत हो कर, (१) “सन्नद्ध० जाव पहरणा-यहां पठित जाव-यावत् पद से “बद्धवम्मियकवया, उप्पीलियसरासणपट्टिया"-से ले कर " गहियाउह”- इन पदों का ग्रहण सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों का शब्दार्थ पृष्ठ १२४ पर लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद द्वितीयान्त तथा पुरुषों के विशेषण हैं. जब कि यहां प्रथमान्त और स्त्रियों के विशेषण हैं। For Private And Personal Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २२०] श्री वपाक सूत्र - [ तीसरा अध्याय स्नात यावत् अनिष्टला स्वप्न को fromल करने के लिये प्रायश्चित्त के रूप में तिलक एवं मांगालिक कृत्यों को करके सर्व प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो, बहुत से अशन, पान, arre और स्वादिम पदार्थों तथा 'सुरा, मधु, मेरक, जाति और प्रसन्ना इन मादराओं का स्वादन, विस्वादन, परिभाजन और परिभोग करती हुई विचर रही हैं । सम्य तथा भोजन करके जो उचित स्थान पर आ गई हैं, जिन्हों ने पुरुष का वेष पहना हुआ है और जो दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूतक आदि से युक्त कवच - लोहमय बख्तर को शरीर पर धारण किये हुए हैं, यावत् प्रयुध और प्रहरणों से युक्त हैं तथा जो वाम हस्त में धारण किये हुए फलक-ढालों से, कोश-म्यान से बाहिर निकली हुई कृपाणों से, अंसगत – कन्धे पर रखे हुए शरधि - तरकशों से, सजीव - प्रत्यश्वा - ( डोरी) युक्त धनुषों से, कतया उत्क्षिप्त - फेंके जाने वाले, शरों-वाणों से, समुल्लसित - ऊचे किये हुए पाशों-जालों से अथवा शस्त्र विशेषों से, अवलम्बित तथा अवसारित चालित जंघाघंटियों के द्वारा, तथा क्षिप्रतूर्य (शीघ्र बजाया जाने वाला बाजा बजाने से महान् उत्कृष्ट - आनन्दमय महाध्वनि से, समुद्र के रव - शब्द को प्राप्त हुए के समान गगनमंडल को ध्वनित - शब्दायमान करती हुई, शालाटवी नामक चोरपल्ली के चारों तरफ़ का अवलोकन और उसके चारों तरफ़ भ्रमण कर दोहद को पूर्ण करती हैं । क्या ही अच्छा हो, यदि मैं भी इसी भान्ति अपने दोहद को पूर्ण करू, ऐसा विचार करने के पश्चात् दोहद के पूर्ण न होने से वह उदास हुई यावत आतेध्यान करने लगी । टीका - प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार पाठकों को पूर्व - वर्णित चोरसेनापति विजय की शालाटवी नामक चोरपल्ली का स्मरण करा रहे हैं । पाठकों को यह तो स्मरण ही होगा कि प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में यह वर्णन आया था कि पुरिमताल नगर के ईशान कोण में एक विशाल, भयंकर टवी थौ । उस में एक चोरपल्ली थी । जिस के निर्माण तथा आकारविशेष का परिचय पहले पृष्ठ १९३ पर दिया जा चुका है । हमारे पूर्व परिचित निर्णय नामक अंडवाणिज का जीव जो कि स्वकृत पापाचरण से तीसरी नरक में गया हुआ था नरक की भवस्थिति को पूर्ण कर इसी चोरपल्ली में विजय की स्त्री स्कन्दश्री के गर्भ में पुत्ररूप से उत्पन्न होता है । जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि जीव दो प्रकार के होते हैं, एक शुभ कर्म वा दूसरे अशुभ कर्म वाले। शुभ कर्म वाले जीव जिस समय माता के गर्भ में आते हैं, तो उस समय माता के संकल्प शुभ और जब अशुभ कर्म वाले जीव माता के गर्भ आते हैं तो उस समय माता के संकल्प भी अशुभ अथच गर्हित होने लग जाते हैं । निर्णय नामक डवाणिज का जीव कितने शुभ कर्म उपार्जित किये हुए था ? इसका निर्णय तो पूर्व में आये हुए उसके जीवन – वृत्तान्त से सहज ही में हो जाता है । वह नरक से निकल कर सीधा स्कन्दश्री के गर्भ में आता है, उस को गर्भ में ये अभी तीन मास ही हुए थे कि उसकी माता स्कन्दश्री को दोहद उत्पन्न हुआ । जीवात्मा के गर्भ में आने के बाद लगभग तीसरे महीने गर्भिणी स्त्री को गर्भगत जीव (१) इन शब्दों के अर्थ के लिये देखो पृष्ठ १४४ । (२) इन पदों का अर्थ पृष्ठ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १४५ पर लिखा जा चुका है ! For Private And Personal Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तीसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२२१ के प्रभावानुसार मन में जो संकल्पविशेष उत्पन्न होते हैं, शास्त्रीय परिभाषा में उन्हें दोहद कहते हैं । स्कन्दश्री को निम्नलिखित दोहद उत्पन्न हुआ वे माताएं धन्य हैं जो अपना सहेलियों नौकरानियों निजजनों, स्वजनों, सगे सम्बन्धियों तथा अपनी जाति की स्त्रियों एवं अन्य चोरमहिलाओं के साथ एकत्रित हो कर स्नानादि क्रियाओं के बाद निष्टजन्य स्वप्नों को निष्फल करने के लिये प्रायश्चित्त के रूप में तिलक और मांगलिक कार्य करके वस्त्र भूषणादि से विभूषित होकर विविध प्रकार के खाद्य पदार्थों और नाना प्रकार की मदिराओं का यथारुचि सेवन करती हैं। तथा जो इच्छित भोज्य सामग्री एवं मदिरापान के अनन्तर उचित स्थान में आकर पुरुष के वेष को धारण करतीं हैं, और अस्त्र शस्त्रादि से सुसज्जित हो सैनिकों की तरह जिन्हों ने कवचादि पहने हुए हैं, बायें हाथ में दालें और दाहिने में नंगी तलवारें हैं। जिनके कन्धे पर तरकश प्रत्यञ्च - डोरी से सुसज्जित धनुष हैं और चलाने के लिये बाणों को ऊपर कर रक्खा है. और जो वाद्यध्वनि से समुद्र के शब्द को प्राप्त हुए के समान श्राकाशमंडल को गुजाती हुई तथा शालाटवी नामक चोरपल्ली का सर्व प्रकार से निरीक्षण करती हुई अपनी इच्छाओं की पूर्ति करती हैं। वे माताएं धन्य हैं, उन्हीं का जीवन सफल है 1 सारांश यह है कि स्कन्दश्री के मन में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि जो गर्भवती महिलायें अपनी जीवन – सहचरियों के साथ यथारुचि सानन्द खान पान करती हैं, तथा पुरुष का वेष बनाकर कवि शस्त्रों से सैनिक तथा शिकारी की भांति तैयार होकर नाना प्रकार के शब्द करती हुई बाहिर जंगलों में सानन्द बिना किसी प्रतिबन्ध के भ्रमण करती हैं, वे भाग्यशालिनी हैं और उन्हों ने ही अपने मातृजीवन को सफल किया है, क्या ही अच्छा हो यदि मुझे भी ऐसा करने का अवसर मिले और मैं भी अपने को भाग्यशालिना समभू । - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir विचार : - परम्परा के विश्रान्त स्त्रोत में प्रवाहित हुआ मानव प्राणी बहुत कुछ सोचता है और अनेक तरह की उधेड़बुन में लगा रहता है । कभी वह सोचता है कि मैं इस काम को पूरा करलू तो अच्छा है, कभी सोचता है कि मुझे अमुक पदार्थ मिल जाये तो ठीक है । यदि आरम्भ किया काम पूरा हो जाता है तो मन में प्रसन्नता होती है, उसके अपूर्ण रहने पर मन उदासीन हो जाता है । परन्तु सफलता और विफलता, हर्ष और विषाद तथा हानि और लाभ ये दोनों साथ साथ ही रहते हैं । वीतरागता की प्राप्ति के बिना मानव में हर्ष, विषाद, हानि और लाभ जन्य क्षोभ बराबर बना रहता है । स्कन्दश्री भी एक मानव प्राणी है. उस में सांसारिक प्रलोभनों की मात्रा साधारण मनुष्य की अपेक्षा अधिक है । इसलिये उस में हर्ष अथवा विषाद भी पर्याप्त है । उसके दोहद - इच्छित संकल्प की पूर्ति न होने से उस में विषादकी मात्रा बढ़ी और वह दिन प्रतिदिन सूखने लगी तथा दीर्घकालीन रोगों से व्याप्त होने की भान्ति उस की शरिरिक दशा चिन्ताजनक हो गई । उस का सारा समय ध्यान में व्यतीत होने लगा । w " जिमियभुत्त तरागया श्री " - इस की व्याख्या करते हुए वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि इस प्रकार लिखते हैं " जेमिताः - कृतभोजनाः, भुक्तोत्तरं - भोजनानन्तरं श्रागता उचितस्थाने यास्ता तथा-" अर्थात् जिसने भोजन कर लिया है, उसे जेमिन कहते हैं। भोजन के पश्चात् को कहते हैं - भुक्तोत्तर | भोजन करने के अनंतर उचितस्थान में उपस्थित हुई महिलायें - "जेमितभुक्कोत्तरागता" कहलाती हैं । For Private And Personal Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २२२१ इस के अतिरिक्त " में इस प्रकार है - www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र - [ तीसरा अध्याय भरिएहि फलिएहिं " इत्यादि पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों - " भरिएहिं - हस्तपाशितैः, फलरहिं – १ स्फटिकैः, निक्किट्ठाहिं – कोषकादाकृष्टैः, सिहि, खङ्गः, सागपहिं – स्कन्धदेशमागतः - पृष्ठदेशे बन्धनात्, तोणेहिं- शरधिभिः, सजीवेहिं- सजीवै:कोट्यारोपितप्रत्यञ्चः, धरहिं - कोदण्डकैः, समुक्विन्होहिं सरेहिं - निसर्गार्थमुत्क्षिप्तैः वाणैः समुल्लासयाहिं- समुल्लसिताभिः, दामाहिं - पाशकविशेषैः, दाहाहिं – इति क्वचिद् – तत्र प्रहरणविशेषैर्दीर्घवंशाग्रन्यस्तदात्ररूपैः श्रोसारियाहिं - प्रलम्बिताभिः, उरुघंटाहि - जंघाघंटाभिः, छिप्पतूरेणं वज्जमाणेणं द्रुतं - तूर्येण वाद्यमानेन, " महया उक्किट्ठ०" इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यम् - "महया उक्किट्टसीहनाय बोलकत्तकलरवेणं” – तत्रोत्कृष्टश्चानन्दमहाध्वनिः सिंहनादश्च प्रसिद्धः, बोलश्च वर्णव्यक्तिवर्जितो ध्वनिरेव कलकलश्च व्यक्तवचनः स एव तल्लक्षणो यो रवः स तथा तेन " समुद्दरवभूयं पिव" - जलधिशब्द - प्राप्तमिव तन्मयमिवेत्यर्थ: "गगनमंडलं” इति गम्यते । इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है , (१) भरित - हस्तरूप पाश (जाल) से गृहीत अर्थात् हस्तबद्ध, (२) फल - स्फटिक मणि के समान, (३) निष्कृष्ट - म्यान से बाहिर निकाली हुई, (४) असि - तलवार, (५) सागतपृष्ठभाग पर बांधने के कारण कन्धे पर रखा हुआ, (६) तूरा - इषुधि-तीर रखने का थैला, (७) सजीव - प्रत्यञ्चा (डोरी) से युक्त, (८) धनुष – फलदार तीर फैंकने का वह अस्त्र जो बांस या लोहे के लचीले डण्डे को झुकाकर उसके दोनों छोरों के बीच, डोरी बांधकर बनाया जाता है, (९) समुत्क्षिप्त - - लक्ष्य पर फैंकने लिये धनुष पर आरोपित किया गया, (१०) शर - धार वाला फल लगा हुआ एक छोटा अस्त्र जो धनुष की डोरी पर खींच कर छोड़ा जाता है-बाण (तीर), (११) समुल्लासित - ऊंची की गई, (१२) दाम - पाशक विशेष अर्थात् फंसाने की रस्सियां अथवा शस्त्रविशेष । - पर " दाहाहिं" ऐसा पाठ • वृत्तिकार के मत से किसी २ प्रति में " दामाहिं " के स्थान भी पाया जाता । उस का अर्थ है - " वे प्रहरणविशेत्र जो एक लंबे बांस पर लगे हुए होते हैंढांगे वगैरह जो कि पशु चराने वाले ग्रामीण लोग जंगल में पशु चराते हुए अपने पास वृक्षों की शाखायें काटने या किसी वन्य जीव का सामना करने के लिए रखते हैं । (१३) लम्बिता प्रलंबित- लटकती हुई, (१४) श्रवसारिता - हिलाई जाने वाली अथवा ऊपर को सरकाई जाने वाली, (१५) क्षिप्रतूर्य - शीघ्र शीघ्र बजाया जाने वाला वाद्य, (१६) वाद्यमान बजाया जा रहा । " महया उक्किट्ठ० जाव समुद्दरव" यहां पठित जाव- यावत् पद से सिंहनाद के, बोल के, कलकल के शब्दों से इन पदों का ग्रहण करना सूत्र कार को अभिमत है । उत्कृष्ट आदि पदों का अर्थ इस प्रकार है - 61 6 (१) वृत्तिकार को 16 फलप"ि इस पाठ का - स्फटिक (स्फटिक रत्न की कान्ति के के समान कान्ति वाली तलवारें ) - यह अर्थ अभिप्रेत है । परन्तु हैमशब्दानुशासन के " स्फटिके लः । ८ / १ / १९७ । स्फटिक टस्य लो भवति । फलिहो । और "निकषस्फटिकचिकुरे हः । ८/१/१८६ | सूत्र से स्फटिक के ककार को हकार देश हो जाता है, इस से स्फटिक का फलिह यह रूप बनता है । प्रस्तुत सूत्र में फलन पाठ का श्राश्रयण है । इसी लिये हमने इसका फलक (दाल) यह अर्थ किया है । For Private And Personal Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ २२३ (१) उत्कृष्ट - श्रानन्दमय महाध्वनि । (२) सिंहनाद - सिंह का नाद गर्जना । (३) बोलवर्णों की अव्यक्त ध्वनि अर्थात् जिस आवाज़ में वर्णों की प्रतीति न हो कलकल - वह ध्वनि जिस में वर्णों की अभिव्यक्ति - प्रतीति होती है । । ( ४ ) उत्कृष्ट, सिंहनाद, बोल और कलकल रूप जो शब्द हैं, उनके द्वारा समुद्र के शब्द को प्राप्त हुए के समान गगनमण्डल - श्राकाशमण्डल को करती हुई । “श्रमवि जाव विणिज्जामि” – यहां पठित “ – जाव- यावत् - " पद से "बहूहिं मित्तणा - नियगसयणसंबन्धिपरियणमहिलाहिं अन्नाहि य चोरमहिलाहिं सद्धिं संपरिवुडा” – से लेकर "चोरपल्लीप सव्वश्रो समंता ओलोपमाणीश्रो २ श्रहिण्डेमाणीओ दोहलं " यहां तक के पाठ का ग्रहण समझना चाहिए। इन पदों का अर्थ पृष्ठ २१८ तथा २१९ पर कर दिया गया है । "प्रविणिज्जमारांसि जाव भियाति" - यहां पठित- जाव यावत - पद से “ – सुक्खा, भुक्खा निम्मंसा श्रलुग्गा श्रलुग्गसरीरा नित्तया दीणविमणवयणा पंडुइयमुही मंथियनयण - वयणकमला जहोइयं पुष्फवत्थगन्धमल्लालंकारहारं अपरिभुजमाणी करयलम लिय व्व कमलमाला, हयमणसंकप्पा” – इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों का अर्थ पृष्ठ १४५ पर दिया जा चुका है। प्रस्तुत सूत्र में निर्णय का नरक से निकल कर स्कन्दश्री के उदर में आने का तथा स्कन्दश्री को उत्पन्न दोहद का वर्णन सूत्रकार ने किया है। अब उसके दोहद की पूर्ति और बालक के जन्म का अग्रिम सूत्र में वर्णन करते हैं - मूल - १ तते गं से विजए चोरसेगावती खंदसिरिं भारियं श्रहत० जाव पासति २ एवं वयासी किरणं तुमं देवा ! ओहत० जाव झियासि ? तते गं सा खंदसिरी विजयं एवं वयासी एवं खलु देवाणु ! मम तिरहं मासाणं जाव कियामि । तते गं से विजए चोरसेगावती खंदसिरीए भारियाए अंतिते एवमट्ठ सोच्चा निसम्म खंदसिरिं भारियं एवं वयासी - हासुहं देवाप्पिए ! ति एयमट्ठ पडिसुखेति । तते गं मा खंदसिरी भारिया विजएणं चोरसेणावतिणा भरणाया समाणी हट्ट० बहूहिं मित्त० जाव अन्नाहि य (१) छाया - ततः सं विजयश्वोरसेनापतिः स्कन्दश्रियं भार्यामपहत० यावत् पश्यति दृष्ट्वा एवमवदत् किं त्वं देवानुप्रिये ! अपहृत० यावद् ध्यायसि ? ततः सा स्कंदश्री: विजयमेवमवादीत्एवं खलु देवानु० ! मम त्रिषु मासेषु यावद् ध्यायामि । ततः स विजयश्वोर सेनापतिः स्कन्दश्रियः भार्यायां श्रन्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य स्कन्दश्रियं भार्यामेवमवादीत् यथासुखं देवानुप्रिये ! इत्येतमर्थं प्रतिशृणोति । ततः सा स्कन्दः भार्या विजयेन चोरसेनापतिना अभ्यनुज्ञाता सती हृष्ट बहुभिमिंत्र० यावदन्याभिश्च बहुभिश्चौर महिलाभिः सार्द्ध संपरिवृता स्नाता यावद् विभूषिता विपुलमशनं ४ सुरां ५ स्वादयन्ती ४ विहरति । जिमितभुक्कोत्तरागता पुरुषनेपथ्या सन्नद्धबद्ध० यावदाहिंडमाना दोहदं विनयति । ततः सा स्कन्दश्री भार्या सम्पूर्णदोहदा, संमानित दोहदा, विनीतदोहदा, व्युच्छिन्नदोहदा, सम्पन्नदोहदा तं गर्भं सुखसुखेन परिवहति । ततः सा स्कन्दश्री: चोरसेनापत्नी नवसु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु दारकं प्रयाता । For Private And Personal Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २२४] श्री विपाक सूत्र [तीसरा अध्याय बहूहि चोरमहिलाहिं सद्धिं संपरिवुड़ा एहाया जाव विभूसिता विपुलं असणं ४ सुरं च ५ आसादेमाणी ४ विहरति । जिमियभुत्तुत्तरोगया पुगिसणेवत्थिया सन्नद्धबद्ध० जाव आहिंडेमाणी दोहलं विणेति, तते णं सा खंदसिरी भारिया संपुगणदोहला संमाणियदोहला षिणीयदोहला वोछिएणदोहला संपन्नदोहला तं गब्भं सुहसुहेणं परिवहति । तते णं सा खंदसिरी चोरसेणावतिणी णवण्ह मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारगं पयाना ।। पदार्थ-तते ण-तदनन्तर । से-वह । विजए -विजय नामक । चोरसेणावती-चोर. सेनापति-चोरों का नायक । खंदसिरिं भारियं-स्कन्दश्री स्त्री को जो कि । ओहत.कर्तव्य और अकर्तव्य के विवेक से विकल । जाव~-यावत् अार्तध्यान से युक्त है। पासति २देखता है, देखकर । एवं -इस प्रकार । वयासो-कहने लगा । देवाणु०! -हे सुभगे ! । तुमत् । किराण-क्यों । ओहत - कर्तव्य और अकतव्य के भान से शून्य हो कर । जाव'-यावत् । झियासि -अार्तध्यान कर रही हो ? । तते ण- तदनन्तर । सा-वह । खंदसिरि - स्कन्दश्री । विजयं-विजय के प्रति । एवं-इस प्रकार । क्यासी-कहने लगी । एवं खलु इस प्रकार निश्चय ही । देवाणु०!-हे देवानुप्रय ! अर्थात् हे स्वामिन् ! । मम-मुझे गर्भ धारण किए हुए । तिराहं मासाणं-तीन मास हो गए हैं, अब मुझे एक दोहद उत्पन्न हुआ है, उस की पूर्ति न होने से में कर्तव्याकर्तव्य के विवेक से रहित हुई । जाव - यावत् । झियामि-अार्तध्यान कर रही हूँ । तते ण-तदनन्तर । से विजए - वह विजय । चोरसेणावती-चोरसेनापति । खंदसिरीए भारियाए -स्कन्दश्री भार्या के । अंतिते =पास से । एयमढें-इस बात को । सोच्चा-सुन कर तथा । णिसम्म-हृदय में धारण कर । खंदसिरिं भारियं-स्कन्दश्री नामक भार्या को । एवं - वयासी-इस प्रकार कहने लगा। देवाणुप्पिए ! हे देवानुप्रिये ! अर्थात् हे सुभगे ! । अहासुहं त्ति-जैसा तुम को सुख हो वैसा करो, इस प्रकार से । एयमटुं- उस बात को । पडिसुणेति- स्वीकार करता है, तात्पर्य यह है कि विजय ने स्कन्दश्री के दोहद को पूर्ण कर देने की स्वीकृति दी । तते णं (१) श्रोहत० जाव पासति- यहां पठित जाव-यावत् – पद से - ओहतमणसंकप्पं- इसका ग्रहण समझना । इस पद के दो अर्थ पाये जाते हैं, जोकि निम्नोक्त हैं ---- १-अपहतमन:संकल्पा -अपहतो मनसः संकल्यो यस्याः सा -अर्थात् संकल्प विकल्प रहित मन वाली । तात्पर्य यह है कि जिसके मन के संकल्प नष्ट हो चुके हैं, वह स्त्री ।। (२) अपहतमनःसंकल्पा-कर्तव्याकर्तव्यविवेकविकला-अर्थात् कर्तव्य । करने के योग्य ) और अकर्तव्य (न करने योग्य) के विवेक से रहित स्त्री । प्रस्तुत में-ओहतमणसंकप्पं - यह पद द्वितीयान्त विवक्षित है, अतः यहां द्वितीयान्त अर्थ ही ग्रहण करना चाहिये। (२) "मासाणं जाव झियामि -.' यहां पठित जाव-यावत् -पद से "बहुपडिपुराणाण इमे एयारूवे दोहले पाउब्भते, धराणा प्रो ताओ अम्मया प्रो-से लेकर -तं जइ णं अहमवि जाव विणिज्जामि त्ति कटु तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाण सि सुक्खा भुक्खा- से लेकर - श्रोहयमणसंकप्पा- यहां तक के पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन पदों में मे बहपडिपराणाण-से लेकर--अविणिज्जमाण सि-यहां तक के पदों का अर्थ पृष्ठ २१८ तथा २१९ पर और सुक्खा -- इत्यादि पदों का अर्थ पृष्ठ १४२ पर किया जा चुका है । For Private And Personal Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । २२५] तदनन्तर । सा-वह । खंदसिरी-स्कन्दश्री । भारिया-भार्या । विजएणं- विजय नामक । चोरसेणावतिणा-चोरसेनापति के द्वारा। अब्भणुराणाया समाणी-अभ्यनुज्ञात होने पर अर्थात् उसे आज्ञा मिल जाने पर । हट्ठ० - बहुत प्रसन्न हुई और । बहूहिं- अनेक । मित्त० - मित्रों की । जाव-यावत् । अन्नाहि य-और दूसरी । बहूहिं-बहुत सी । चोरमहिलाहिं-चोर-महिलाअ' के । सद्धिं-साथ । संपरिवुड़ा-संपरिवृत हुई - घिरी हुई । राहाया-स्नान कर के । जावयावत् । विभूसिता- सम्पूर्ण अलंकारों -आभूषणों से विभूषित हो कर । विपुलं - विपुल - पर्याप्त । असणं ४ = अशनादि खाद्य पद्वार्थों । सुरं च ५-और सुरा आदि पंचविध मद्यों का । प्रासादेमाणी ४ - आस्वादन, विस्वादन आदि करती हुई । विहरति-विहरण कर रही है। जिमियभुत्त त्तरागया-भोजन करने के अनन्तर उचित स्थान पर आकर । पुरिसणेवत्थिया-पुरुष के वेष से युक्त । सन्नद्धबद्ध० - दृढबन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच-लोहमय बखतर विशेष को शरीर पर धारण किये हुए । जाव--यावत् । आहिंडेमाणी-भ्रमण करती हुई। दोहलं दोहद को । विणेति-पूर्ण करती है । तते ण- तदनन्तर । सा खंदसिरी भारिया-वह स्कन्दश्री भार्या । संपराणदोहला-संपूर्णदोहदा अर्थात् जिस का दोहद पूर्ण हो गया है । संमाणियदोहलासम्मानितदोहदा अर्थात् इच्छित पदार्थ ला कर देने के कारण जिस के दोहद का सन्मान किया गया है । विणीयदोहला - विनीतदोहदा अर्थात् अभिलाषा के निवृत्ति होने से जिस के दोहद की निवृत्ति हो गई है । वोच्छिन्नदोहला-व्युच्छिन्नदोहदा अर्थात् दोहद -इच्छित वस्तु की प्रासक्ति न रहने से उस का दोहद व्युच्छिन्न (आसक्ति-रहित) हो गया है । सम्पन्नदोहला-सम्पन्नदोहदा अर्थात् अभिलषित अर्थ-धनादि और भोग–इन्द्रियों के विषय से सम्पादित अानन्द की प्राप्ति होने से जिस का दोहद सम्पन्न हो गया है । तं-उस । गभं-गर्भ को। सुहंसुहेणसुख - पूर्वक । परिवहति-धारण करने लगी । तते ण-तदनन्तर । सा-उस । खंदसिरीस्कन्दश्री । चोरसेणावतिणी-चोरसेनापति की स्त्री ने । नवराहं मासाण-नव मास के । बहुपडिपुराणाण - परिपूर्ण होने पर । दारगं-बालक को । पयाता-जन्म दिया ।। मूलार्थ-तदनन्तर विजयनामक चोरसेनापति ने आर्तध्यान करती हुई स्कन्दश्री को देख कर इस प्रकार कहा हे सुभगे ! तुम उदास हुई भार्तध्यान क्यों कर रही हो? स्कन्दश्री ने विजय के उक्त प्रश्न के उत्तर में कहा कि स्वामिन् ! मुझे गर्भ धारण किये हुए तीन मास हो चुके हैं, अब मुझे यह (पूर्वोक्त) दोहद (गर्भिणी स्त्री का मनोरथ) उत्पन्न हुआ है, उसके पूर्ण न होने पर, कर्तव्य और अकर्तव्य के विवेक से रहित हुई यावत् मैं आर्तध्यान कर रही हूं। तब विजय चोरसेनापति अपनी स्कन्दश्री भार्या के पास से यह कथन सुन और उस पर विचार कर स्कन्दश्री भार्या के प्रति इस प्रकार कहने लगा कि -हे प्रिये ! तुम इस दोहद को यथारुचि पूर्ति कर सकती हो और इसके लिये कोई चिन्ता मत करो। पति के इस वचन को सुन कर स्कन्दश्री को बड़ी प्रसन्नता हुई और वह हर्षातिरेक से अपनी सहचरियों तथा अन्य चारमहिलाओं को साथ ले स्नानादि से निवृत्त हो, सम्पर्ण अलंकारों से विभूषित हो कर, विपुल अशन पानादि तथा सुरा आदि का आस्वादन, विस्वाद - आदि करने लगी। इस प्रकार सव के साथ भोजन करने के अनन्तर उचित स्थान पर आकर For Private And Personal Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २२६] श्री वपाक सूत्र [ तीसरा अध्याय पुरुषवेष से युक्त हो तथा दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को शरीर पर धारण कर के यावत् भ्रमण करती हुई अपने दोहद की पूर्ति करती है। तदनन्तर वह स्कन्दश्री दोहद के सम्पूर्ण होने, समानित होने, विनीत होने, व्युच्छिन्नअनुबन्ध-(निरन्तर इच्छा-आसक्ति) रहित अथच सम्पन्न होने पर अपने उस गर्भ को सुखपूर्वक धारण करती है । तत्पश्चात् उस चोरसेनापत्नी स्कन्दश्री ने नौ मास के पूर्ण होने पर पुत्र को जन्म दिया। टीका-किसी दिन चोरसेनापति विजय जब घर में आया तो उसने अपनी भार्या स्कन्दश्री को किसी और ही रूप में देखा, वह अत्यन्त कृश हो रही है, उस का मुखकमल मुर्भा गया है, शरीर का रंग पीला पड़ गया है और चेहरा कान्तिशून्य हो गया है । तथा वह उसे चिन्ताग्रस्त मन से आतध्यान करती हुई दिखाई दी। स्कन्दश्री की इस अवस्था को देख कर विजय को बड़ा आश्चर्य हुआ । उसने बड़े अधीर मन से उसकी इस दशा का कारण पूछा और कहा कि प्रिये ! तुम्हारी ऐसी शोचनीय दशा क्यों हुई ? क्या किसी ने तुम्हें अनुचित वचन कहा है ? अथवा तुम किसी रोगविशेष से अभिभूत हो रही हो ! तुम्हारे मुखकमल की वह शोभा, न जाने कहां चली गई ? तुम्हारा रूपलावण्य सब लुप्त सा हो गया है । प्रिये ! कहो, ऐसा क्यों हुआ ? क्या कोई आन्तरिक कष्ट है ? पतिदेव के इस संभाषण से थोड़ी सी आश्वसित हुई स्कन्दश्री बोली, प्राणनाथ ! मुझे गर्भ धारण किये तीन मास हो चुके हैं, इस अवसर में मेरे हृदय में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि - वे मातायें ही धन्य तथा पुण्यशीलनी हैं कि जो अपनी सहचरियों के साथ यथारूचि सानन्द सहभोज करती हैं और पुरुष - वेष को धारण कर सैनिकों की भांति अस्त्र शस्त्रादि से सुजित हो नाना प्रकार के शब्द करती हुई आनन्द पूर्वक जंगलों में विचरती हैं, परन्तु मैं बड़ी हतभाग्य हूं, जिसका यह संकल्प पूरा नहीं हो पाया। प्राणनाथ ! यही विचार है जिस ने मुझे इस दशा को प्राप्त कराया । खाना मेरा छूट गया, पीना मेरा नहीं रहा, हंसने को दिल नहीं करता, बोलने को जी नहीं चाहता, न रात को नींद है, न दिन को शान्ति । सारांश यह है कि इन्हीं विचारों में अोतप्रोत हुई मैं आर्तध्यान में समय व्यतीत कर रही हूँ । स्कन्दश्री के इन दीनवचनों को सुनकर विजय के हृदय को बड़ी ठेस पहुँची । कारण कि उस के लिये यह सब कुछ एक साधारण सी बात थी, जिसके लिये स्कन्दश्री को इतना शारीरिक और मानसिक दुःख उठाना पड़ा । उसका एक जीवन साथी उसकी उपस्थिति में इतना दुःखी और वह भी एक साधारण सी बात के लिये, यह उसे सर्वथा असह्य था। उसे दुःख भी हुआ और आश्चर्य इस लिये कि उसने स्कन्दश्री की ओर पर्याप्त ध्यान देने में प्रमाद किया. और आश्चर्य इसलिये कि इतनी साधारण सी बात का उसने स्वयं प्रबन्ध न कर लिया । अस्तु, वह पूरा २ आश्वासन देता हश्रा अपनी प्रिय भार्या स्कन्दश्री से बोला कि प्रिये ! उठो, इस चिन्ता को छोड़ो, तुम्हें पूरी २ स्वतन्त्रता है तुम जिस तरह चाहो, वैसा ही करो । उस में जो कुछ भी कमी रहे, उसकी पूर्ति करना मेरा काम है । तुम अपनी इच्छा के अनुसार सम्बन्धिजनों को निमंत्रण दे सकती हो, यहां की चोरमहिलाओं को बुला सकती हो, और पुरुष के वेष में यथेच्छ विहार कर सकती हो । अधिक क्या कहूँ, तुम को अपने इस दोहद को यथेच्छ पूर्ति के लिये For Private And Personal Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तोसग अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित। [२२७ पूरी पूरी स्वतन्त्रता है, उस में किसी प्रकार का भी प्रतिबन्ध नहीं होगा। जिस २ वस्तु की तुम्हें आवश्यकता होगी वह तुम्हें समय पर बराबर मिलती रहेगी। इस सारे विचार–सन्दर्भ को सूत्रकार ने "अहासुहं देवाणुप्पिए !" -इस अकेले वाक्य में अोतप्रोत कर दिया है। इस प्रकार पति के सप्रेम तथा सादर आश्वासन को पाकर स्कन्दश्री की सारी मुझाई हुई आशालताएं सजीव सी हो उठीं । उसे पतिदेव की तरफ़ से आशा से कहीं अधिक अाश्वासन मिला। पति देव की स्वीकृति मिलते हो उसके सारे कष्ट दूर हो गये । वह एकदम हर्षातिरेक से पुलकित हो गई । बस, अब क्या देर थी । अपनी सहचरियों तथा अन्य सम्बन्धिजनों को बुला लिया। दोहद - पूर्ति के सारे साधन एकत्रित हो गये। सब से प्रथम उसने अपनी सहेलियों तथा अन्य सम्बान्धजनों की महिलाओं के साथ विविध प्रकार के भोजनों का उपभोग किया । सहभोज के अनन्तर सभी एकत्रित होकर किसी निश्चित स्थान में गई। सभी ने पुरुष –वेष से अपने आप को विभूषित करके सैनिकों की भान्ति अस्त्र शस्त्रादि से सुसज्जित किया और सैनिकों या शिकारी लोगों की तरह धनुष को चढ़ा कर नाना प्रकार के शब्द करती हुई वे शालाटवी नामक चोरपल्ली के चारों अोर भ्रमण करने लगीं । इस प्रकार अपने दोहद की यथेच्छ पूर्ति हो जाने पर स्कन्दश्री अपने गर्भ का यथाविधि बड़े आनन्द और उत्साह के साथ पालन पोषण करने लगी। तदनन्तर नौ मास पूरे हो जाने पर उसने एक सुन्दर बालक को जन्म दिया। इस कथा-सन्दर्भ में गर्भवती स्त्री के दोहद की पूर्ति कितनी आवश्यक तथा उसकी अपूर्ति से उसके शरीर तथा गर्भ पर कितना विपरीत प्रभाव पड़ता है-इत्यादि बातों के परिचय के लिये पर्याप्त सामग्री मिल जाती है। "समाणी हट्ठ० वहूहिं"- यहां के बिन्दु से - तुट्ठचित्तमाणं दिया, पीइमणा, परमसोमणस्सिया, हरिसवसविसप्पमाणहियया, धाराहयकलंबुगं पिव, समुस्ससिअरोमकूवा-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन का भावार्थ निम्नोक्त है - (१) हठ्ठतुचित्तमाणंदिया-हृष्टतुष्टचित्तानन्दिता, हृष्ट हर्षितं हर्षयुक्त दोहदपूर्त्या - श्वासनेन अतीव प्रमुदितं, तुष्टं सन्तोषोपेतं, धन्याऽहं यन्मे पति: मदीयं दोहदं पूरयिष्यतीति कृतकृत्यम्, हृष्टं तुष्टं च यञ्चित्तं तेनानन्दिता, हृष्टतुष्टचित्चानंदिता-अर्थात् विजयसेन चोरसेनापति द्वारा दोहद की पूर्ति का आश्वासन मिलने से दृष्ट और "-मैं धन्य हूँ जो मेरे पतिदेव मेरे दोहद की पूर्ति करेंगे-" इस विचार से सन्तुष्ट चित्त के कारण वह स्कन्दश्री अत्यन्त आनन्दित हुई। अथवा-हर्ष को प्राप्त हृष्ट और सन्तोष को उपलब्ध तुष्ट-कृतकृत्य चित्त होने के कारण जो अानन्द को प्राप्त कर रही है, उसे हृष्टतुष्टचित्तानन्दिता" कहते हैं । चित्त के हृष्ट एवं तुष्ट होने के कारण यथा-प्रसङ्ग भिन्न २ समझ लेने चाहिए। . अथवा-हष्टतुष्ट-अत्यन्त प्रमोद से युक्त चित्त होने के कारण जो आनन्दानुभव कर रही है, उसे "दृष्टतुष्टचित्तानन्दिता' कहते हैं। (२) पीइमणा-प्रीतिमनाः, प्रीतिस्तृप्तिः उत्तमवस्तुप्राप्तिरूपा सा मनसि यस्याः सा प्रीतमना.तृनचित्ता-अर्थात् जिस का मन अभिलषित उत्तम पदार्थों की प्राप्तिरूप तृप्ति को उपलब्ध कर रहा है, उस स्त्री को प्रीतमना कहते हैं। For Private And Personal Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २२८] श्री विपाक सूत्र - [ तीसरा अध्याय (३) “ – परमसोमण स्सिया - परमसौमनस्थिता, सातिशयप्रमोदभावमापन्ना – ” अर्थात् अत्यन्त हर्षातिरेक को प्राप्त परमसौमनस्थिता कही जाती है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (४) हरिसवसविसप्पमाण हियया - हर्षवशविसर्पद्धृदया, हर्षवशाद् विसर्पद् विस्तारयायि हृदयं – मनो यस्याः सा हर्षवशविसर्पद्धृदया – ” अर्थात् हर्ष के कारण जिस का हृदय विस्तृत – विस्तार को प्राप्त हो गया है । तात्पर्य यह है कि हर्षाधिक्य से जिसका हृदय उछल रहा है, उस स्त्री को हर्ष - वश-विसर्पद्- हृदया कहते हैं । (५) धाराहयकलम्बुगं पिव समुस्ससियरोमकूवा - धाराहत कदम्बकमिव समुच्छ्वसितरोमकूपा, धाराभिः मेघवारिधाराभिः श्राहतं यत् कदम्बपुष्पं तदिव समुच्छ्वसितानि समुत्थितानि रोमाणि कूपेषु - रोमरंध्रेषु यस्याः सा - अर्थात् मेघ - जल की धाराओं से आहत कदम्ब - ( देवताड़ नामक वृक्ष के ) पुष्प के समान जो हर्ष के कारण रोमाञ्चित हो रही है । 66 - मित० जाव अण्णाहि - "यहां पठित जाव यावत् पद से - गाइ- नियग-सयण-संवन्धिपरियण - महिलाहिं- - इन पदों का ग्रहण समझना चाहिये । ज्ञाति आदि पदों की व्याख्या पृष्ठ १५० के टिप्पण में कर दी गई है। 1 “ - राहाया जाव विभूसिता - "यहां पठित जाव यावत् पद से " कयबलिकम्मा कयको - जयमंगलपायच्छत्ता, सव्वालंकार - " इन पदों का ग्रहण अभिमत है । कृतबलिकर्मा और कृतकौ - तुकमंगल प्रायश्चित्त इन दोनों पदों की व्याख्या पृष्ठ १७६ और १७७ पर कर दी गई है। सर्वालंकारविभूषित पद का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है । " - सन्नद्धबद्ध जाव हिंडेमाणी- यहां पठित जाव यावत् पद से " - वम्मियकवया, उप्पीलियस रासणपट्टिया - से ले कर -‍ - गहियाउहपहरणा भरिएहिं फलपहिं - " से लेकर "चोरपल्लीए सव्व समन्ता श्रोलोरमाणी- इन पदों का ग्रहण समझना चाहिये । सन्नद्धबद्धवम्मियकवया इत्यादि पदों की व्याख्या पृष्ठ १२४ तथा भरिएहिं इत्यादि पदों की व्याख्या पृष्ट २१९ पर कर दी गई है। प्रस्तुत सूत्र में “ – संपुरणदोहला, संमाणियदोहला, विसीयदोहला, वोच्छिणदोहला संपन्न दोहला - " ये पांच पद प्रयुक्त हुए हैं । यदि इन के प्रथां पर कुछ सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाये तो ये समानार्थ से ही जान पड़ते हैं, इन में अर्थ - भेद बहुत कम है, इन का उल्लेख दोहद की विशिष्ट पूर्ति के सूचनार्थ ही दिया हो, ऐसा अधिक सम्भव है । तथापि इन में जो अर्थगत सूक्ष्म भेद रहा हुआ है, उसे पदार्थ में दिखला दिया गया है। 1 अब सूत्रकार उत्पन्न बालक की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हैं मूल - तते गं विजए चोरसेणावती तस्स दारगस्स महया इड्ढीसक्कारसमुदयगं (१) छाया - ततः विजयश्वोर सेनापतिस्तस्य दारकस्य महता ऋद्धिसत्कारसमुदयेन दशरात्रं स्थितिपतितं करोति । ततः स विजयश्वोरसेनापतिस्तस्य दारकस्यैकादशे दिवसे विपुलमशनम् ४ उपस्कारयति, मित्रज्ञाति० श्रामन्त्रयति, श्रामन्त्र्य यावत् तस्यैव मित्रज्ञाति० पुरत एवमवादीत् यस्मादस्माक - मस्मिन् दारके गर्भगते सति अयमेतद्रूपो दोहद० प्रादुभूतः । तस्माद् भवतु श्रस्माकं दारकोऽभमसेनो नाम्ना; ततः सोऽभग्नसेनः कुमारः पंचधात्री ० यावत् परिवर्द्धते । For Private And Personal Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [२२९ दसरत्तं ठितिवडियं करेति । तते णं से विजए चोरसेणावती तस्स दारगस्स एक्कारसमे दिवसे असणं ४ उवक्खडावेति, मित्तनाति० आमंतेति २ जाव तस्सेव मित्तनाति० पुरो एवं वयासी-जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि गमगयंसि समाणंसि इमे एयारूवे दोहले पाउन्भूते, तम्हा णं होउ, अम्हं दारए अभग्गसेणे णामेणं । तते णं से अभग्गसेणे कुमारे पंचधाई० जाव परिवड्ढांत । पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । विजए-विजय नाम । चोरसेणावती - चोरसेनापति । तस्स-उस । दारगस्स-बालक का । महया-महान । इड्ढीसक्कारसमुदएणं-ऋद्धि - वस्त्र सुवर्णादि, सत्कार- सम्मान के समुदाय से । दसर-दस दिन तक । ठिइवडियं-स्थिति-पतितकुलक्रमागत उत्सव-विशेष । करेति-करता है । तते णं-तदनन्तर । से- वह । विजएविजय । चोरसेणावती-चोरसेनापति । तस्स दारगस्स-उस बालक के । एक्कारसमे-एकादशवें । दिवसे-दिन । विपुलं-महान् । असणं ४ - अशन, पान, खादिम तथा स्वादिम को । उवक्खडावेति- तैयार कराता है, तथा । मित्तनाति०-मित्र, ज्ञाति, स्वजन आदि लोगों को । आमंतेति-आमंत्रित करता है । जाव' - यावत् । तस्सेव-उसी । मित्तनाति०-मित्र और ज्ञाति (१)-मित्तनाति० आमंतेति जाव तस्सेव - यहां के बिन्दु से-णियगसयणसंबन्धिपरियणं- इस पाठ का ग्रहण करना और जाव-यावत्-से "-तो पच्छा रहार कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाई मंगलाई पवराइं परिहिए अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे भोयणवेलाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए तेणं मित्तनाइनियगसंबन्धिपरिजणेणं सद्धिं तं विउलं असणपाणखाइमसाइमं आसाएमाणे रिसाएमाणे परिभुजेमाणे परिभाएमाणे विहरति, जिमिअभुत्तु त्तरागए वि अणं समाणे आयंते चोक्खे परमसुइभूए तं मित्तनाइनियगसयणसम्बन्धिपरिजणं विउलेणं पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेति सम्माणेति सक्कारिता सम्माणित्ता तस्सेव मित्तनाइनियगसयणसंवन्धिपरिजणस्स-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन का अर्थ निम्नोक्त है उसके अनन्तर उस ने स्नान किया, बलिकर्म किया, दुष्ट स्वप्नों के फल को निष्फल करने के लिए प्रायश्चित्त के रूप में मस्तक पर तिलक और अन्य मांगलिक कार्य किये, शुद्ध तथा सभा आदि में प्रवेश करने के योग्य, मंगल -- पवित्र एवं प्रधान --उत्तम वस्त्र धारण किये और मूल्य में अधिक और भार में हलके हों, ऐसे आभूषणों से शरीर को अलंकृत-विभूषित किया, तदनन्तर भोजन के समय पर भोजन-मण्डप (वह मण्डप जहां भोजन का प्रबन्ध किया गया था) में उपस्थित हो कर वह विजय उत्तम एवं सुखोत्पादक आसन पर बैठ गया और उन मित्रों२, ज्ञातिजनों, निजजनों सम्बन्धिजनों और परिजनों के साथ विपुल (पर्याप्त) अशनदाल रोटी आदि. पान -पानी आदि पेय पदार्थ, खादिम --श्राम सेव आदि और मिठाई आदि पदार्थ तथा स्वादिम-पान सुपारी श्रादि पदार्थ का प्रास्वादन (थोड़ा सा खाना और बहुत सा छोड़ देना, इक्ष खण्ड गन्नेकी भांति), विस्वादन (वहत खाना और थोड़ा छोड़ना. जैसे खजर श्रादि परिभोग (जिस में सर्वांश खाने के काम अाए, जैसे रोटी आदि) और परिभाजन (एक दूसरे को देना)करता हुमा विहरन करने लगा। भोजन करने के (१) वलिकर्म-शब्द की व्याख्या पृष्ठ १७६ पर कर दी गई है । (२) मित्र, ज्ञाति --आदि पदों के अर्थ के लिए देखो पृष्ठ-१५०। For Private And Personal Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २३०] श्री विपाक सूत्र - [तीसरा अध्याय जनों के । पुरो - सामने । एवं - इस प्रकार । वयासी - कहने लगा । जम्हा गं - जिस कारण । अहं - हमारे । इमंसि - इस दारगंसि – बालक के । गब्भगयंसि समाणंसि - गर्भ में आने पर | - इमे - - यह । यारूवे – इस प्रकार का । दोहले - दोहद – गर्भिणी स्त्री का मनोरथ । पाउब्भूते - उत्पन्न हुआ और वह सब तरह से अभग्न रहा । तम्हा णं - इस लिए । श्रहं - हमारा । दारपबालक । श्रभग्गसेणे - अभग्नसेन । नामेणं - इस नाम से । होउ - हो अर्थात् इस बालक का " श्रभग्नसेन " यह नाम रखा जाता है । तते णं-- तदनन्तर । से वह । श्रभग्ग सेणे - अभग्नसेन । कुमारे-कुमार । ' पंचधाई० जाव - ५ धायमाताओं यावत् अर्थात् क्षीरधात्री - दूध पिलाने वाली मज्जनधात्री - स्नान कराने वाली, मंडनधात्री - अलंकृत करने वाली, क्रीडापनधात्री - खेल खिलाने वाली और धात्री - गोद में रखने वाली इन पांच धाय माताओं के द्वारा पोषित होता हुआ वह । परिवड्ढति - वृद्धि को प्राप्त होने लगा । मूलार्थ - विजय नामक चोरसेनापति ने उस बालक का दशदिन पर्यन्त महान् वैभव के साथ स्थितिपतित – कुल क्रमागत उत्सव - विशेष मनाया | ग्यारहवें दिन विपुल अनादि सामग्री का संग्रह किया और मित्र, ज्ञाति, स्वजन आदि लोगों को आमंत्रित किया और उन्हें सत्कार - - पूर्वक जिमाया। तत्पश्चात् यावत् उनके समक्ष कहने लगा कि - भद्र पुरुषो ! जिस समय यह बालक गर्भ में आया था, उस समय इस की माता को एक दोहद उत्पन्न हुआ था ( जिस का वर्णन पीछे कर दिया गया है ) । उस को भग्न नहीं होने दिया गया, तात्पर्य यह है कि इस बालक की माता को जो दोहद उत्पन्न हुआ था, वह अभग्न रहा अर्थात् निर्विघ्नता से पूरा कर दिया गया । इसलिये यह नामकरण किया जाता है । तदनन्तर वह अभग्नसेन बालक माताओं के द्वारा पोषित होता हुआ यावत् वृद्धि को प्राप्त होने लगा । इस बालक का " प्रभग्नसेन ” क्षीरधात्री आदि पांच घाय टीका - पुत्र का जन्म भी माता पिता के लिये अथाह हर्ष का कारण होता है। पिता की अपेक्षा माता को पुत्र प्राप्ति में और भी अधिक प्रमोदानुभूति होती है, क्योंकि पुत्र-प्राप्ति के लिये वह (माता) तो अपने हृदय को दृढ़ बना कर कभी २ असंभव को भी संभव बना देने का भगीरथ प्रयत्न करने से नहीं चूकती । ऐसी माता यदि अपने विचारों को सफलता के रूप में पाए तो वर्षा के अनन्तर विकसित कमल को भान्ति पुलकित हो उठती है, और वह स्वाभिमान में फूली नहीं समाती । प्रसन्नता का कारण उस की बहुत दिनों से गुथी हुई विचारमाला का गले में पड़ जाना यथोचित स्थान पर आया और आकर आचान्त - श्राचमन (शुद्ध जल के द्वारा मुखादि की शुद्धि) किया, चोक्ष - मुखगत लेपादि को दूर करके शुद्धि की इसी लिए परमशुद्ध हुआ वह विजय चोरसेनापति उन मित्रों, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों का बहुत से पुष्पों वस्त्रों, सुगन्धित पदार्थों. मालाओं और अलंकारों - आभूषणों के द्वारा सत्कार एवं सम्मान करता है, तदनन्तर उन मित्रों, ज्ञातिजनों आदि लोगों के सामने इस प्रकार कहता है । * (१) " - पंचधाई ० जाव परिवड्ढति – ” यहां पठित - जाव - यावत् १ पद से ' - परिग्गहिते तंजहा - खीरधातीए मज्जण० से ले कर '- चंपयपायवे सुहंसुहेणं तक के पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन पदों का अर्थ पृष्ठ १५८ पर दिया जा चुका - यहां है For Private And Personal 1 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra विजय सेनापति के इस सब ने "अभग्नसेन" इस नाम की देते हुए अपने २ घरों को चले गये । www.kobatirth.org तीसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२३१ है, जिनका हृदय प्रफुल्लित सरोज की का अवलोकन करके प्रसन्नता के खुशी मनाई जा रही है । ही समझना चाहिये । श्राज स्कन्दश्री भी उन्हीं महिलाओं में से भान्ति प्रसन्न है । स्कन्दश्री अपने नवजात शिशु की मुखाकृति मारे फूली नहीं समाती । पुत्र के जन्म से सारे घर में तथा परिवार में आज विजय के हर्ष की भी कोई सीमा नहीं बधाई देने वालों को वह जी खोल कर द्रव्य तथा वस्त्र भूषणादि दे रहा है और बालक के जन्म दिन से लेकर दस दिन पर्यन्त उत्सव मनाने का आयोजन भी बड़े उत्साह के साथ किया जा रहा है । जन्मोत्सव मनाने के लिये एक विशाल मण्डप तैयार किया गया. सभी मित्रों तथा सगे सम्बन्धियों को आमन्त्रित किया गया । सभी लोग उत्साहपूर्वक नवजात शिशु के जन्मोत्सव में संमिलित हुए और सब ने विजय को बधाई देते हुए बालक के दीर्घायु होने की शुभेच्छा प्रकट की । तदनन्तर विजय चोरसेनापति ने ग्यारहवें दिन सब को सहभोज दिया अर्थात् विविध भान्ति के ' अशन पान खादिम और स्वादिम पदाथा से अपने मित्रों, ज्ञातिजनों तथा अन्य पारिवारिक व्यक्तियों को प्रेम पूर्वक जिमाया। इधर स्कन्दश्री की सहचरियों ने भी बाहिर से आई हुई महिलाओं के स्वागत में किसी प्रकार की कमी नहीं रक्खी। भोजनादि से निवृत्त होकर सभी उत्सव मण्डप में पधारे और यथास्थान बैठ गये। सत्र के बैठ जाने पर विजय सेनापति ने श्रागन्तुओं का स्वागत करते हुए कहा - आदरणीय बन्धु ! आप सज्जनों का यहां पर पधारना मेरे लिये बड़े गौरव और सौभाग्य बात है. तदर्थ मैं पका अधिक से अधिक आभारी हूँ । विशेष बात यह है कि जिस समय यह बालक गर्भ में आया था उस समय इस की माता स्कन्दश्री को एक दोहद उत्पन्न दुआ था । ( इसके बाद उसने दोहद – म्बन्धी सारा वृत्तान्त कह सुनाया ) । उसकी पूर्ति भी यथाशक्ति कर दी गई थी, दूसरे शब्दों में- उस दोहद को भग्न नहीं होने दिया गया अर्थात् स्कन्दश्री का वह दोहद अंभग्न रहा । इसी कारण - दोहद के अभग्न होने से आज मैं इस बालक का "अभग्न सेन" यह नामकरण करता हूँ, आशा है आप सब इस में सम्मत होंगे और किसी को कोई विप्रतिपत्ति नहीं होगी । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir व्याख्या करते प्रस्ताव का सभी उपस्थित सभ्यों ने खुले दिल से समर्थन किया और उद्घोषणा की। तथा सब लोग बालक अभग्नसेन को शुभाशीर्वाद तदनन्तर कुमार प्रभग्नसेन की सारसंभाल के लिये पांच धाय मातायें नियुक्त कर दी गईं । वह उनके संरक्षण में शुक्लपक्ष की द्वितीया के चन्द्रमा की भान्ति बढ़ने लगा । की - प्रस्तुत सूत्रगत – “इड्ढिस कारसमुदपणं" तथा "दसरत्तं ठितिवडियं" इन दोनों आचार्य अभयदेव सूरि इस प्रकार लिखते हैं हुए “ऋद्धया - वस्त्रसुवर्णादिसम्पदा, सत्कार:- पूजा विशेषस्तस्य समुदयः समुदायो यः स तथा । दशरात्रं यावत् स्थितिपतितं - कुलक्रमागतं पुत्रजन्मानुष्ठानं तत्" । अर्थात् ऋद्धि शब्द से वस्त्र तथा सुवर्णादि सम्पत्ति अभिप्रेत है और पूजा विशेष को सत्कार कहते हैं, एवं समूह का नाम समुदाय है । कुलक्रमागत- कुल परम्परा से चले आने वाले पुत्रजन्मसंबन्धी अनुष्ठान विशेष को स्थितिपतित कहते हैं, जोकि दश दिन में संपन्न होता है । (१) इन पदों का अर्थ पृष्ठ ४८ के टिप्पण लिखा जा चुका है । For Private And Personal Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २३२] श्री वपाक सूत्र [ तीसरा अध्याय अब सूत्रकार कुमार अभग्नसेन की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हैंमूल-- तते णं से अभग्गसेणकुमारे उम्मुक्कवालभावे यावि होत्था, अट्ठ दारियो जाव अट्ठा दायो उप्पिं० भुजति । पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । से-वह । अभग्गसेणकुमारे--अभग्नसेनकुमार । उम्मुक्कवालभावे यावि होत्था-बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त हो गया था तब उस का । अट्ठ दारयाओ-आठ लड़कियों के साथ । जाव- यावत् विवाह किया गया, तथा उसे । अट्टओ-आठ प्रकार का । दाओ - प्रीतिदान-दहेज प्राप्त हुआ, वह । उप्पिं० - महलों के ऊपर । भुजति-उन का उपभोग करने लगा । मूलार्थ- तदनन्तर कुमार अभग्नसेन ने बालभाव को त्याग कर युवावस्था में प्रवेश किया, तथा आठ लड़कियों के साथ उस का पाणिग्रहण-विवाह किया गया । उस विवाह में आठ प्रकार का उसे दहेज मिला और वह महलों में रह कर सानन्द उस का उपभोग करने लगा । टीका-पतितपावन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी श्री गौतम से कहते है कि गौतम ! इस प्रकार पांचों धायमाताओं के यथाविधि संरक्षण में बढ़ता और फलता फूलता हुआ कुमार अभग्न बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त हा तो उस का शरीरगत सौन्दर्य और भी चमक उठा । उस को देख कर प्रत्येक नरनारी मोहित हो जाता, हर एक का मन उस के रूपलावण्य की ओर आकर्षित होता और विशेष कर युवतिजनों का मन उस की ओर अधिक से अधिक खिंचता । उसी के फलस्वरूप वहां के आठ प्रतिष्ठित घरों की कन्याओं के साथ उस का पाणिग्रहण हुा । और आठों के यहां से उस को आठ २ प्रकार का पर्याप्त दहेज मिला, जिस को ले कर वह उन आठों कन्याओं के साथ अपने विशाल महल में रह कर सांसारिक विषय-भोगों का यथारुचि उपभोग करने लगा । अथवा यूं कहिये कि उन आठ सुन्दरियों के साथ विशालकाय भवनों में रह कर आनन्द - पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा । यहां एक शंका हो सकती है, वह यह कि - जब अभग्नसेन के जीव ने पूर्व जन्म में भयंकर दुष्कर्म किये थे, तो उन का फल भी बुरा ही मिलना चाहिये था, परन्तु हम देखते हैं कि उसकी शैशव तथा युवावस्था में उस के लालन पालन का समुचित प्रबन्ध तथा प्रतिष्ठित घराने की रूपवती अाठ कन्याओं से उस का पाणिग्रहण एवं दहेज में विविध भान्ति के अमूल्य पदार्थों की उपलब्धि और उन का यथारुचि उपभोग, यह सब कुछ तो उस को महान पुण्यशाली व्यक्ति प्रमाणित कर रहा है। ___ यह शंका ऊपराऊपरि देखने से तो अवश्य उचित और युक्तिसंगत प्रतीत होती है, परन्तु जरा गम्भीर - दृष्टि से देखेंगे तो इस में न तो उतना औचित्य ही है और न युक्तिसंगतता । यह तो सुनिश्चित ही है कि इस जीव को ऐहिक या पारलौकिक जितना भी सुख या दुःख उपलब्ध होता है, वह उस के पूर्व संचित शुभाशुभ कर्मों का परिणाम है । और यह भी (१) छाया-तत: सोऽभग्नसेनकुमारः उन्मुक्तबालभावश्चाप्यभवत् , अष्ट दारिका, यावदष्टको दायो, उपरि० भुक्ते । For Private And Personal Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२३३ यथार्थ है कि संसारी आत्मा अपने अध्यवसाय के अनुसार शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्मों का बन्ध करता है । सत्तागत कर्मों में शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म होते हैं । उन में से जो कर्म जिस समय उदय में आता है, उस समय वह फल देता है । अगर शुभ कर्म का विपाकोदय हो तो इस जीव को सुख तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है और अशुभ कर्म के विपाकोदय में दुःख तथा दरिद्रता की उपलब्धि होती है । हम संसार में यह प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं कि एक ही जन्म में अनेक जीव समय २ पर सुख तथा ऐश्वर्य और दुःख तथा दरिद्रता दोनों को ही प्राप्त कर रहे हैं । एक व्यक्ति जो आज हर प्रकार से दुःखी है कल वही सर्व प्रकार से सुखी बना हुआ दिखाई देता है और जो श्राज परम- सुखी नज़र आता है कल वही दुःख से घिरा हुआ दृष्टिगोचर होता है । यदि यह सब कुछ कर्माधीन ही है तो यह मानना पड़ेगा कि जीव के स्वोपार्जित कर्मों में से शुभाशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म अपने २ विपाकोदय में फल देते हैं और स्थिति पूरी होने पर फल दे कर निवृत्त हो जाते हैं । भग्नसेनको शिशु - काल में जो सुख मिल रहा है, वह उसके प्राक्तन किसी शुभ कर्म का फल है, और युवावस्था में उस को जो सांसारिक सुखों के उपभोग की विपुल सामग्री मिली है, वह भी उसके सत्तागत कमों के उदय में आये हुए किसी पुण्य' का ही परिणाम है । इसके अनन्तर पुण्यकर्म के समाप्त हो जाने पर जब उसके अशुभ कर्म का विपाकोदय होगा, तो उसे दुःख भी अवश्य भोगना पड़ेगा । कर्म शुभ हो या अशुभ एक बार उस का बन्ध हो जाने पर अगर उस की निर्जरा नहीं हुई तो वह फल अवश्य देगा और देगा तब जब कि वह उदय । अतः अभग्नसेन ने (१) किसी भी व्यक्ति की मात्र पापमयी प्रवृत्ति के दिग्दर्शन कराने का यह अर्थ नहीं होता कि उस के जीवन में पुण्यमयी प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव ही रहता है निर्णय के भव में मात्र पापकर्म की ही उपार्जना की थी, पुण्य का उसके जीवन में कोई भी अवसर नहीं आने पाया, अथवा निर्णय से पूर्व के भवों में उसके जीवन में सत्तारूपेण पुण्यकर्म नहीं था, यह नहीं कहा जा सकता। यदि ऐसा ही होता तो अभग्नसेन के भव में उसे देवदुर्लभ मानव भव और निर्दोष पांचों इन्द्रियों का प्राप्त होना, पांच घाय माताओं के द्वारा लालन पालन, आठ कन्याओं का पाणिग्रहण, एवं अन्य मनुष्य – सम्बन्धी ऐश्वर्य का उपभोग इत्यादि पुण्यलब्ध सामग्री की प्राप्ति न हो पाती। अतः अभमसेन के कर्मों में सत्तारूपेण पुण्य प्रकृति भी थी, यह मानना ही होगा । . हां, यह ठीक है कि जब पुण्य उदय में और पाप सत्तारूप में होता है तब पुण्य के प्रभाव से व्यक्ति का जीवन बड़ा वैभवशाली एवं श्रानन्दपूर्ण बन जाता है, इसके विपरीत जब पुण्य सत्तारूप में और पाप उदय में रहता है, तो वह पाप भीषण दुःखों का कारण बनता है । एक बात और भी है कि अभग्नसेन ने निर्णय के उन का दण्ड उसे पर्याप्त मात्रा में तीसरी नरक में के बड़े लम्बे काल तक नारकीय भीषण यातनाओं का उपभोग करना पड़ा था, तब दुष्कर्मों का दण्ड भोग लेने के कारण होने वाली उसकी कर्म - निर्जरा भी उपेक्षित नहीं की जा सकती, फिर भले ही वह निर्जरा देशतः (आशिक) भी क्यों न हो । भव में जिन दुष्कर्मों की उपार्जना की थी मिल चुका था, वहां उसे सात सागरोपम For Private And Personal Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २३४] श्री विपाक सूत्र - [ तीसरा अध्याय में आवेगा । इसी सिद्धान्त के अनुसार कुमार अभग्नसेन के शिशु कालीन सम्बन्धी सुख तथा युवावस्था सुगमता से समाहित हो जाता है । श्रश्र दाश्रो - " इन पदों से अभिप्रेत पदार्थ का वर्णन करते हुए वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि इस प्रकार लिखते हैं के ऐश्वर्योपभोग का प्रश्न बड़ी " दारिश्रो जाव " दारिया त्ति" अस्यायमर्थः: - तप णं तस्स भग्ग सेणस्स अम्मापियरो अभग्गलेणं कुमारं सोहरांसि तिहिकरण नक्खत्तमुहुत्तसि श्रहिं दारियाहिं सद्धि एगदिवसेगं पाणि गेहर्विसु ति । यावत्करणाच्चेदं द्वश्यं - तर णं तस्स अभग्ग सेणकुमारस्स सम्मावियरो इमं पयारूवं पीइयाणं दलयन्ति ति । “ओ दाउ त्ति" श्रष्ट परिमाणमस्येति श्रष्टको दायोदानं 'वाच्य' इति शेषः । स चैवं " - ऋट्ठ हिरणकोडीओ ट्ठ सुवरणकोडीओ - इत्यादि यावद् - 'ट्ठ पेसण- कारिया अन्नं च विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तिय संख सिलप्पवातरत्तरयणमा इयं संतसारसावपज्जं" । अर्थात् - मूलसूत्र में पठित - श्रट्ठ दारियाश्रो - यह पाठ सांकेतिक है, और वह - अभग्नसेन के युवा होने के अनन्तर माता पिता ने शुभ तिथि नक्षत्र और करणादि से युक्त शुभ मुहूर्त में अभग्नसेन का एक ही दिन में आठ कन्याओं से पाणिग्रहण - विवाहसंस्कार करवाया - इस का संसूचक है । — जाव- यावत्-पद-आठ लड़कियों के साथ विवाह करने के अनन्तर भग्नसेन के माता पिता उस को इस प्रकार का ( निम्नोक्त) प्रीतिदान देते हैं- इस अर्थ का परिचायक है । जिसका परिमाण आठ हो उसे श्रष्टक कहते हैं। दान को दूसरे शब्दों में दाय कहते हैं और वह इस प्रकार है आठ करोड़ का सोना दिया जो कि आभूषणों के रूप में परिणत नहीं था। आठ करोड़ का वह सुवर्ण दिया जोकि आभूषणों के रूप में परिणत था, इत्यादि से लेकर यावत् आठ दासियें तथा और भी बहुत साधन नक- सुवर्ण, रत्न, मणि, मोती शंख, शिलाप्रवाल- मूंगा, रक्तरत्न और संसार की उत्तमोत्तम वस्तुयें तथा अन्य उत्तम द्रव्यों की प्राप्ति अभग्नसेन को विवाह के उपलक्ष्य में हुई । इन भावों को ही अभिव्यक्त करने के लिये सूत्रकार ने श्री दाम्रो - ये सांकेतिक पद संकलित किए हैं। "उपिं० भुजति" इन पदों का अर्थ टीकाकार के शब्दों में " - उप्पि० भुजति त्ति" -- श्रस्यायमर्थः:- "तए णं से अभग्ग सेणे कुमारे उप्पि पासायवर गए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थपहिं वरतरुणी संपत्तहिं बत्तीसइबद्धेहिं नाडपहिं उवगिजमाणे विउले माणुस्सर कामभोगे पञ्चरणुभवमाणे विहरइ" - इस प्रकार है । इस का तात्पर्य यह है कि विवाह के अनन्तर कुमार अभग्नसेन उत्तम तथा विशाल प्रासाद - महल में चला जाता है, वहां मृदंग बजते हैं, वरतरुणियें - युवति स्त्रियें बत्तीस प्रकार के नाटकों द्वारा उसका गुणानुवाद करती हैं । वहां अभग्नसेन उन साधनों से सांसारिक मनुष्य - सम्बन्धी कामभोगों का यथेष्ट उपभोग करता हुआ सुख - पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा । तदनन्तर क्या हुआ, अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं - मूल -- तते गं से विजय चोरसेणावती अन्नया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते । (१) पेसणकारिया - इस पद के तीन अर्थ पाये जाते हैं। यदि इस की छाया “प्रोषणकारिका" की जाए तो इसका अर्थ- संदेशवाहिका - दूती होता है। और यदि इसकी छाया "पेषणकारिका" की जाए तो -- चन्दन घिसने वाली दासी, या 'गेहूं आदि धान्य पीसने वाली" यह अर्थ होगा । (२) छाया - ततः स विजयश्वोरसेनापतिः अन्यदा कदाचित् कालधर्मेण संयुक्तः । ततः For Private And Personal Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra तीसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित | [ २३५ तते गं से अभग्गसेणे कुमारे पंचहिं चोरसतेहिं सद्धिं संपरिवुडे रोयमाणे कंदमाणे विलवमाणे विजयस्स चोरसेगावइस्स महया इड्ढी सक् कारसमुदपणं णीहरण करेति २ बहू लोइयाई मयच्चाई करेति २ केवइयकाले अप्पसोए जाते यावि होत्था, तते गं ताई पंच चोरसाई' अन्नया कयाइ अभग्ग सेणं कुमारं सालाड़वोए चोरपल्लीए महया २ इड्ढी ० चोरसेणा वताए अभिसिचंति । तते गं से अभग्ग से कुमारे चोरसेणावती जाते हम्म जान कप्पायं गेरहति । १ - www.kobatirth.org पदार्थ - तते गं - तदनन्तर । से वह । विजय-विजय नामक । चोरसेगावतीचोरसेनापति । अन्नया कयाइ - किसी अन्य समय । कालधम्मुरणा - कालधर्म से । संजुत्ते - संयुक्त हुआ, अर्थात् मृत्यु को प्राप्त हो गया । तते गं - तदनन्तर । से - वह । अभग्गसेणे कुमारेभमसेन कुमार | पंचहिं चोरसतेहिं - पांच सौ चोरों के । सद्धिं - साथ । संपरिवुड़े - संपरिवृत - घिरा हुआ । रोयमाणे- रुदन करता हुआ । कंदमाणे - आक्रन्दन करता हुआ, तथा 1 विलवाणे विलाप करता हुआ । विजयस्स - विजय । चोरसेणा वइस्स - चोरसेनापति का । महया २ इड्ढोसक्कारसमुदपणं - अत्यधिक ऋद्धि एवं सत्कार के साथ । गोहरणं - निस्सरण | करेति - करता है, अर्थात् अभमसेन बड़े समारोह के साथ अपने पिता के शव को श्मशान भूमि में पहुंचाता है, तदनन्तर । बहूहिं अनेक । लोइयाई - लौकिक । मयकिच्चाई - मृतकसम्बंधी कृत्यों को अर्थात् दाहसंस्कार से ले कर पिता के निमित्त करणोय दान, भोजनादि कर्म । करेति - करता है, तदनन्तर । केवइ - कितने । कालेणं - समय के बाद । अप्पसर जाते यात्रि होत्था - वह अशोक हुआ अर्थात् उस का शोक कुछ न्यूनता को प्राप्त हो गया था । तते ं - तदनन्तर | ताई - उन । पंच चोरसयाई पांच सौ चोरों ने । अन्नया कयाइ किसी अन्य समय । अभग्गसेणं - अभग्नसेन । कुमारं कुमार का । सालाडवीए - शालाटवी नामक | चोरपल्लीए - चोरपल्ली में | महया २ इड्ढी० अत्यधिक ऋद्धि और सत्कार के साथ । चोरसेणावतार अभिसिचंति - चोरसेनापतित्व से उस का अभिषेक करते हैं, अर्थात् अभग्नसेन को चोरसेनापति के पद पर नियुक्त करते हैं । तते गं -- तदनन्तर अर्थात् तब से । से भग्गसेणे - वह भग्नसेन । सोऽभग्नसेनः कुमारः पंचभिश्चोरशतैः सार्द्ध संपरिवृतो रुदन् क्रन्दन् विलपन् त्रिजयस्य चोरसेनापतेर्महता २ ऋद्धिसत्कारसमुदयेन नीहरणं करोति कृत्वा बहूनि लौकिकानि मृतकृत्यानि करोति कृत्वा कीय कालेन अल्पशोको जातश्चाप्यभवत् । ततस्तानि पंचचोरशतानि अन्यदा कदाचित् श्रभग्नसेनं कुमारं शालाटव्यां चोरपल्ल्यां महता २ ऋद्धिसत्कारसमुदयेन चोरसेनापतितयाभिषिञ्चन्ति । ततः सोऽभग्नसेनः कुमारः चोरसेनापतितोऽधार्मिको यावत् कल्पायं गृह्णाति । - — Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal - (१) " अहम्मिर जाव कप्पायं " यहां पठित जाव- यावत् पद से " - अधम्मिट्ठे, अधम्मक वाई, अधम्मागुर, अधम्मलाई से लेकर - तज्जेमाणे २ तालेमाणे २ नित्याणे निद्धणे निककणे - इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का भावार्थ पृष्ठ १९३ से ले कर १९९ तक दिया गया है। अन्तर केवल इतना है कि वहां विजय चोरसेनापति का नाम है, जब कि प्रस्तुत प्रकरण में अभमसेन का | अतः इस पाठ में अभमसेन के नाम की भावना कर लेनी चाहिए । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २३६ श्री वपाक सूत्र [तीसरा अध्याय कुमारे-कुमार । चोरसेणावती-चोरसेनापति । जाते-बन गया, जो कि । अहम्मिए - अधर्मी । जाव-यावत् । कप्पायं-उस प्रान्त के राजदेय कर को । गएहति-स्वयं ग्रहण करने लगा। मूलार्थ-तत्पश्चात् किसी अन्य समय वह विजय चोरसेनापति कालधर्म-मृत्यु को प्राप्त हो गया । उस की मृत्यु पर कुमार अभग्नसेन पांच सौ चोरों के साथ रोता हुआ। आक्रन्दन करता हुआ और विलाप करता हुआ अत्यधिक ऋद्धि-वैभव एवं सत्कार - सम्मान अर्थात् बड़े समरोह के साथ विजय सेनापति का निस्सरण करता है । तात्पर्य यह है कि बाजे आदि बजा कर अपने पिता के शव को अन्त्येष्टि कर्म करने के लिए श्मशान में पहुंचाता है और वहां लौकिक मृतककाय अर्थात दाह-संस्कार से ले कर पिता के निमित्त किये जाने वाले दान भोजनादि कार्य करता है। कुछ समय के बाद अभग्नसेन का शोक जब कम हुआ तो उन पांच सौ चोरों ने बड़े महोत्सव के साथ अभग्नसेन को शालाटवी नामक चोरपल्लो में चोरसेनापति की पदनी से अलंकृत किया । चोरसेनापति के पद पर नियुक्त हुआ अभग्नसेन अधर्म का आचरण करता हुआ यावत् उस प्रान्त के राजदेय कर को भी स्वयं ग्रहण करने लग पड़ा । टीका-- संसार की कोई भी वस्तु सदा स्थिर या एक रस नहीं रहने पाती, उस का जो अाज स्वरूप है कल वह नहीं रहता, तथा एक दिन वह अपने सारे ही दृश्यमान स्वरूप को अदृश्य के गर्भ में छिपा लेती है । इसी नियम के अनुसार अभग्नसेन के पिता विजय चोरसेनापति भी अपनी सारी मानवी लीलाओं का संवरण करके इस असार संसार से प्रस्थान कर के अदृश्य की गोद में जा छिपे । सुख और दुःख ये दोनों ही मानव जीवन के सहचारी हैं, सुख के बाद दुःख और दुःख के अनन्तर सुख के आभास से मानव प्राणी अपनी जीवचर्या की नौका को संसार समुद्र में खेता हुआ चला जाता है । कभी वह सुख-निमग्न होता है और कभी दुःख से अाक्रन्दन करता है, उस की इस अवस्था का कारण उसके पूर्वसंचित कर्म हैं । पुण्य कर्म के उदय से उस का-मानव का जीवन सुखमय बन जाता है और पाप कर्म के उदय से जीवन का समस्त सुख दु:ख के रूप में बदल जाता है, तथा जीवन की प्रत्येक समस्या उलझ जाती है । पाप के उदय होते ही भाई, बहिन का साथ छूट जाता है, सम्बन्धिजन मुख मोड़ लेते हैं । और अधिक क्या कहें, इसके उदय से ही इस जीव पर से माता पिता जैसे अकारण बन्धुत्रों एवं संरक्षकों का भी साया उठ जाता है । पितृविहीन अनाथ जीवन पाप का ही परिणामविशेष है। __ अभग्नसेन भी आज पितृविहीन हो गया, उसके पिता का देहान्त हो गया । उस की सुखसम्पत्ति का अधिक भाग लुट गया, अभग्नसेन पिता की मृत्यु से अत्यन्त दुःखी होता हुआ, रोता, चिल्लाता और अत्यधिक विलाप करता है और सम्बन्धिजनों के द्वारा ढ़ाढ़स बंधाने पर किसी तरह से वह कुछ शान्त हुआ और पिता का दाहकर्म उसने बड़े ठाठ से और पूरे उत्साह से किया । एवं मृत्यु के पश्चात् किये जाने वाले - लौकिक कार्यों को भी बड़ी तत्परता के साथ सम्पन्न किया। कुछ समय तो अभग्नसेन को पिता की मृत्यु से उत्पन्न हुआ शोक व्याप्त रहा, परन्तु ज्यों For Private And Personal Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । २३७] ज्यों समय बीतता गया त्यों त्यों उस में कमी आती गई और अन्त में वह पिता को भूल ही गया । इस प्रकार शोक -विमुक्त होने पर अभन्न पेन अपनी विशाल आटवी चोरपल्ली में सुख-पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा। पाठक यह तो जानते ही हैं कि अब चोरपल्ली का कोई नायक नहीं रहा । विजयसेन के अभाव से उसकी वही दशा है जोकि पति के परलोक-गमन पर एक विधवा स्त्री की होती है। चोरपल्ली की इस दशा को देख कर वहां रहने वाले पांच सौ चोरों के मन में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि जहां तक बने चोरपल्ली का कोई स्वामी- शासनकर्ता शीघ्र ही नियत कर लेना चाहिये । कभी ऐसा न हो कि कोई शत्रु इस पर आक्रमण कर दे और किसी नियन्ता के अभाव में हम सब मारे जायें । यह विचार हो ही रहा था कि उन में से एक वृद्ध तथा अनुभवी चोर कहने लगा कि चिन्ता की कौनसी बात है ? हमारे पूर्व सेनापति विजय की सन्तान ही इस पद पर आरूढ़ होने का अधिकार रखती है। यह हमारा अहोभाग्य है कि हमारे सेनापति अपने पीछे एक अच्छी सन्तान छोड़ गये हैं । कुमार अभग्नसेन हर प्रकार से इस पद के योग्य हैं. वे पूरे साहसी अथच नोतिनिपुण हैं । इसलिये सेनापति का यह पद उन्हीं को अर्पण किया जाना चाहिये । अाशा है मेरे इस उचित प्रस्ताव का आप सब पूरे ज़ोर से समर्थन करेंगे । बस फिर क्या था, अभमसेन का नाम आते ही उन्हों ने एक स्वर से वृद्ध महाशय के प्रस्ताव का समर्थन किया, और बड़े समारोह के साथ सबने मिल कर शुभ मुहूर्त में अभग्नसेन को सेनापति के पद पर नियुक्त करके अपनी स्वामी भक्ति का परिचय दिया। तब से कुमार अभग्नसेन चोरसेनापति के नाम से विख्यात हो गया और वह चोरपल्ली का शासन भी बड़ी तत्परता से करने लगा । तथा पैतृक सम्पत्ति और पैतृक पद लेने के साथ २ अभग्नसेन ने पैतृक विचारों का भी आश्रयण किया. इसी लिये वह अपने पिता की भान्ति अधर्मी, पापी एवं निर्दयता--पूर्वक जनपद (देश) को लटने लगा । अधिक क्या कहें वह राजदेय कर-महसूल पर भी हाथ फेरने लगा। अब सूत्रकार अभग्नसेन की अग्रिम जीवनचर्या का वर्णन करते हुए कहते हैंमूल-' तते णं जाणवया पुरिसा अभग्गसेणेण चोरसेणावतिणा बहुग्गामघायावणाहिं ताविया समाणा अन्नपन्न सद्दाति २ एवं वयासी-एवं खलु देवाणु० ! अभग्गसेणे चोर (१) छाया-ततस्ते जानपदा: पुरुषा: अभन्न सेनेन चोरसेनापतिना बहुग्रामघातनाभिस्तापिताः संत: अन्योन्यं शब्दाययन्ति २ एवम बदन् –एवं खलु देवानु० ! अभग्नमेनश्वोरसेनापति: पुरिमतालस्य नगरस्यौताराहं जनपदं बहुभिामघातर्यावद् निर्धनान् कुर्वन् विहरति । तच्छ यः खलु देवानुप्रियाः ! पुरिमताले नगरे महाबलस्य राज्ञः एतभर्थ विज्ञपयितु , ततस्ते जानपदपुरुषाः एतमर्थमन्योऽन्यं प्रतिशृण्वन्त २ महाथ महाघ महाहै राजाह प्राभृतं गृह्णन्ति २ यत्रैव पुरिमतालं नगरं यत्रैव महाबलो राजा तत्रैवोपागताः २ महाबलाय राजे तद् महार्थ यावत् प्राभृतमुपनयन्ति २ करतल० अंजलिं कृत्वा महाबलं राजानं एवमवदन् । For Private And Personal Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २३८) श्रो विपाक सूत्र [ तीसरा अध्याय सेणावतो पुरिमतालस्स ण गरस्स उत्तरिल्लं जण वयं वहहिं गामघातेहिं । जाव निद्धणे करेमाणे विहरांत, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! पुरिमताले णगरे महब्बलस्स रगणो एतमट्ट विनवित्तते, तते णं ते जाणवयपुरिसा एतम अन्नमन्न पडिसुणेति २ महत्थं महग्धं महरिहं रायरिह पाहुडं गेएहति २ ता जेणेव पुरिमताले णगरे जेणेव महब्बले राया तेणेव उवागते २ महब्बलम्स रएणो तं महत्थं जाव पाहुडं उवणेति २ करयल०३ अंजलि कट्ट महब्बलं रायं एवं वयासी । पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । ते-वे । जाणवया-जनपद-देश में रहने वाले । परिसा-पुरुष । अभग्गसणेण-अभमसेन । चोरसेणावतिणा-चोरसेनापति के द्वारा । बहुग्गामघायावणाहिं-बहुत से ग्रामों के घात - विनाश से । ताविथा-संतप्त -दुःखी । समाणा-हुए । अन्नमन्नं-एक दूसरे को । सदावेति २-बुलाते हैं, बुलाकर । एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगे । एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही । देवाणु• ! - प्रिय बन्धुश्रो ! । अभग्गसणे-अभग्नसेन । चोरसेणावती- चोरसेनापति । पुरिमतालस्स-पुरिमताल । णगरस्स - नगर के । उत्तरिल्लंउत्तर-दिशा के । जणवयं - देश को । बहूहिं - अनेक । गानघातेहिं - ग्रामों के विनाश से । जाव-यावत् । निधणे-निर्धन -धनरहित । करमाणे-करता हुआ । विहरति-विहरण कर रहा है। देवाणुपिया !-हे भद्र पुरुषो । तं-इस लिए । खलु-निश्चय ही । सेयं-हम को योग्य है अथवा हमारे लिये यह श्रेयस्कर है - कल्याणकारी है कि हम । पुरिमताले- पुरिमताल । णगरे–नगर में । महब्बजस्स-महाबल नामक । रराणो-राजा को। एतमट्ट-यह बात या इस विचार को । विन्नवित्तते-विदित करें अर्थात् अवगत करें । तते णं-तदनन्तर । ते -वे । जाणवयप रिसाजानपदपुरुष अर्थात् उस देश के रहने वाले लोग । एतम₹- यह बात या इस अन्नमन्नं - परस्पर - आपस में । पडिसुणेति २- स्वीकार करते हैं, स्वीकार कर के । महत्थं-महा प्रयोजन का सूचन करने वाला । महग्धं-महाघ-बहु मूल्य वाला । महरिहं - महाह - महत् पुरुषों के योग्य, तथा । रायरिहं - राजाई - राजा के योग्य । पाहुडं-प्राभृत-उपायन-. भेंट । गेराहति २-ग्रहण करते हैं, ग्रहण करके । जेणेव · जहां । पुरिमताले-पुरिमताल । णगरेनगर था और । जेणेव-जहां पर । महब्बले राया-महाबल राजा था। तेणेव-वहीं पर । उवागते २आगये, आकर । मब्बलस्स - महाबल । रराणो-राजा को । तं - उस महत्थं--महान् प्रयोजन वाले। जाव- यावत् । पाहुडं--प्राभृत -भेंट । उवणेति २- अर्पण करते हैं. अर्पण कर के । करयल० (१) " गामघातेहिं जाव निद्धणे-" यहां पठित जाव-यावत्-पद से-नगरघाते. हि य गोग्गहणेहि य बंदिग्गहणेहि य पंथकोहि य खत्तखणणेहि य श्रोत्रीलेमाणे २ विहम्मेमाणे २ तज्जमाणे २ तालेमाणे २ नित्थाणे-' इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन पदों का शब्दार्थ १९९ पृष्ठ पर लिख दिया गया है ।। (२) “-महत्थं जाव पाहुडं-" यहां पाठत जाव-यावत् पद से "-महग्धं महरिहं रायरिहं-इन पदों का ग्रहण समझना चाहिये । (३) "-करयल० अंजलि --" यहां के बिन्दु से " - करयलपरिग्गहियं दसणहं मत्थए-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन का अर्थ पदार्थ में दिया जारहा है । For Private And Personal Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२३९ अंजलि कट्टु - दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजली करके । महब्वलं -महाबल । रायंराजा को । एवं वयासी - इस प्रकार कहने लगे । मूलार्थ - तदनन्तर अभग्नसेन नामक चोरसेनापति के द्वारा बहुत से ग्रामों के विनाश से सन्तप्त हुए उस देश के लोगों ने एक दूसरे को बुला कर इस प्रकार कहा हे बन्धुओ ! चोरसेनापति अभग्नसेन पुरिमताल नगर के उत्तर प्रदेश के बहुत ग्रामों का विनाश करके वहां के लोगों को धन, धान्यादि से शून्य करता हुआ विहरण कर रहा है। इसलिये हे भद्रपुरुषो ! पुरिमताल नगर के महाबल नरेश को इस बात से संसूचित करना हमारा कर्तव्य बन जाता है । तदनन्तर देश के उन मनुष्यों ने परस्पर इस बात को स्वीकार किया और महार्थ, महार्घ, महार्ह और राजार्ह प्राभृत- भेंट लेकर, जहां पर पुरिमताल नगर था और जहां पर महाबल राजा विराजमान थे, वहां पर आये और दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि रख कर महाराज को वह प्राभृत- भेंट अर्पण की तथा अर्पण करने के अनन्तर वे महाबल नरेश से इस प्रकार बोले 1 टोका- प्राप्त हुई वस्तु का सदुपयोग या दुरुपयोग करना पुरुष के अपने हाथ की बात होती है । एक व्यक्ति अपने बाहुबल से अत्याचारियों के हाथों से पीड़ित होने वाले अनेक अनाथों, निर्बलों और पीड़ितों का संरक्षण करता है और दूसरा उसी बाहुबल को दीन अनाथ जीवों के विनाश में लगाता है। बाहुबल तो दोनों में एक जैसा है परन्तु एक तो उस के सदुपयोग से पुण्य का संचय करता है, जबकि दूसरा उसके दुरुपयोग से पापपुञ्ज को एकत्रित कर रहा है । चोरपल्ली में रहने वाले चोरों के द्वारा सेनापति के पद पर नियुक्त होने के बाद अग्रसेन ने अपने बल और पराक्रम का सदुपयोग करने के स्थान में अधिक से अधिक दुरुपयोग करने का प्रयास किया । नागरिकों को लूटना, ग्रामों का जलाना, मार्ग में चलते हुए मनुष्यों का सब कुछ खोंस लेना और किसी पर भी दया न करना, उसके जीवन का एक कर्तव्यविशेष बन गया था । सारे देश में उसके इन क्ररता - पूर्ण कृत्यों की धाक मची हुई थी। देश के लोग उस के नाम से कांप उठते थे । लोग वहां के प्रसिद्ध २ भग्नसेन ने तो अत्याचार एक दिन उसके अत्याचारों से नितान्त पीड़ित हुए देश पुरुषों को बुला कर आपस में इस प्रकार विचार करने लगे कि चोरसेनापति की अति ही कर दो है, वह जहां जिसको देख पाता है वहां लट लेता भी उस की लूट से कोई बचा हुआ दिखाई नहीं देता, उसने तो को जलाना ओर घर में रहने वालों पर अत्याचार करना तो उसके लिये एक साधारण सी बात बन गई है। अधिक क्या कहें उसने तो हमारे सारे देश का नाक में दम कर रक्खा है। इसलिये हमको इसके प्रतिकार का कोई न कोई उपाय अवश्य सोचना चाहिये । अन्यथा हमें इससे भी अधिक कष्ट सहन करने पड़ेंगे और निर्धन तथा कंगाल होकर यहां से भागना पड़ेगा । है। नगरों, ग्रामों और शहरों में भी नहीं छोड़ा। घरों गरीबों को इस प्रकार परस्पर विचार-विनिमय करते हुए अन्त में उन्हों ने यह निश्चय किया कि इस आपत्ति के प्रतिकार का एक मात्र उपाय यही है कि यहां के नरेश महाबल के पास जाकर अपनी सारी आपत्ति का निवेदन किया जाये और उन से प्रार्थना की जाये कि वे हमारी इस दशा में पूरी २ सहायता करें। तदनन्तर इस सुनिश्चित प्रस्ताव के अनुसार उन में से मुख्य २ लोग राजा के For Private And Personal Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २४० श्री विपाक सूत्र [तीसरा अध्याय योग्य एक बहुमूल्य भेंट लेकर पुरिमताल नगर की ओर प्रस्थित हए और महाबल नरेश के पास उपस्थित हो भेट अर्पण करने के पश्चात् अभग्नसेन के द्वारा किये गये अत्याचारों को सुनाकर उन के प्रतिकार की प्रार्थना करने लगे । राजा' वैद्य और गुरु के पास खाली हाथ कभी नहीं जाना चाहिये । तथा ज्योतिषी आदि के पास जाते समय तो इस नियम का विशेषरूप से पालन करना चाहिये, कारण यह है कि फल से ही फल की प्राप्ति होती है । तात्पर्य यह है कि यदि इनके पास सफल हाथ जाएगे तो वहां से भी सफल हो कर वापिस आवेंगे । इन्हीं परम्परागत लौकिक संस्कारों से प्रेरित हुए उन लोगों ने राजा को भेंट रूप में देने के लिए बहुमूल्य भेण्ट ले जाने की सर्वसम्मति से योजना की । . "महत्थं महग्धं महरिहं" - इन पदों की व्याख्या आचार्य अभयदेव सूरि के शब्दों में "-महत्थं-"त्ति महाप्रयाजनम् , “ महग्धं" ति महा(बहु)मूल्यम् , “महरिहं " ति महतो योग्यमिति-इस प्रकार है । महार्थ आदि ये सब विशेषण राजा को दी जाने वाली भेंट के हैं । पहला विरोषण यह बतला रहा है कि वह भेएट महान् प्रयोजन को सूचित करने वाली है । वह भेण्ट बहुमूल्य वाली है, यह भाव दूसरे विशेषण का है, तथा वह भेण्ट असाधारण-प्रतिष्ठित मनुष्यों के योग्य है अर्थात् साधारण व्यक्तियों को ऐसी भेण्ट नहीं दी जा सकती, इन भावों का परिचायक तीसरा विशेषण है । राजा के योग्य जो भेण्ट होती है उसे राजाई कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में अभग्नसेन के दुष्कृत्यों से पीडित एवं सन्तप्त जनपद में रहने वाले लोगों के द्वारा महाबल नरेश के पास अपना दुःख सुनाने के लिए, किये गये आयोजन आदि का वर्णन किया गया है । अब सूत्रकार लोगों ने राजा से क्या निवेदन किया उस का वर्णन करते हैं मूल-3एवं खलु सामी ! सालाड़वीए चोरपल्लीए अभग्गसेणे चोरसेणावती (१) रिक्तपाणिर्न पश्येत् , राजानं भिषजं गुरुम् । निमित्तझं विशेषेण, फलेन फलमादिशेत् ॥१॥ (२) गुरु के सामने रिक्तहाथ (खाली हाथ) न जाने की मान्यता ब्राह्मण संस्कृति में प्रचलित है, परन्तु श्रमण संस्कृति में एतद्विषयक विधान भिन्न रूप से पाया जाता है, जोकि निम्नोक्त है गुरुदेव से साक्षात्कार होने पर-(१) सचित्त द्रव्यों का त्याग, (२) अचित्त का अपरित्याग (३) वस्त्र से मुख को ढकना, (४) हाथ जोड़ लेना, (५) मानसिक वृत्तियों को एकाग्र करना इन मर्यादाओं का पालन करना गृहस्थ के लिये आवश्यक है। इतना ध्यान रहे कि यह पांच प्रकार का अभिगम (मर्यादा-विशेष) आध्यात्मिक गुरु के लिये निर्दिष्ट किया गया है । अध्यापक आदि लौकिक गुरु का इस मर्यादा से कोई सम्बन्ध नहीं है। ३) छाया- एवं खलु स्वामिन् ! शालाटव्याश्चोरपल्ल्याः अभमसेनश्चोरसेनापतिः अस्मान् बहुभिभिवातैश्च यावद् निर्धनान् कुर्वन् विहरति । तदिच्छामः स्वामिन् ! युष्माकं बाहुच्छायापरिगृहीता निर्भया निरुद्विमाः सुखसुखेन परिवस्तुम् , इति कृत्वा पादपतिता: प्राञ्जलिपुटा: महाबलं राजानमेनमर्थ विज्ञपयन्ति । For Private And Personal Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [२४१ अम्हे बहूहिं गामघातेहि य 'जाव निद्धणे करेमाणे विहरति । तं इच्छामो णं सामी ! तुब्भं बाहुच्छायापरिग्गहिया निब्भया णिविग्गा सुहंसुहेणं परिवमित्तए चि कट्ट, पादपडिया पंजलिउडा महब्बलं रायं एतमट्ठ विएणति । पदार्थ-एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। सामी!-हे स्वामिन् ! । सालाडवीएशालाटवी नामक । चोरपल्लीए-चोरपल्ली के। अभग्गसेणे-अभमसेन नामक । चोरसेणावतीचोरसेनापति । अम्हे-हम को । बहूहिं–अनेक । गामघातेहि य-ग्रामों के विनाश से । जाव-यावत् । निद्धणे-निर्धन । करमाणे-करता हुश्रा । विहरति-विहरण कर रहा है । तं-इस लिये । सामी!-हे स्वामिन् ! । इच्छामो गं-हम चाहते हैं कि । तुब्भं-आप की । बाहुच्छायापरिगहिया -भुजाओं की छाया से परिगृहीत हुए अर्थात् श्राप से संरिक्षत होते हुए । निब्भयानिर्भय । णिरुव्विग्गा-निरुद्विम - उद्वेगर हित हो कर हम । सुहसुहेणं-सुख-पूर्वक । परिवसित्तएबसें-निवास करें । ति कहु -इस प्रकार कह कर वे लोग । पायपडिया -पैरों में पड़े हुए तथा । पंजलिंउडा-दोनों हाथ जोड़े हुए । महब्बलं-महाबल । रायं-राजा को । एतम९-यह बात । विरणवैति-निवेदन करते हैं । मूलार्थ-हे स्वामिन् ! इस प्रकार निश्चय ही शालाटवी नामक चोरपल्ली का चोरसेनापति अभन्नसेन हमें अनेक ग्रामों के विनाश से यावत् निधन करता हुआ विहरण कर रहा है। परन्तु स्वामिनाथ ! हम चाहते हैं कि आप को भुनाओं की छाया से परिगृहीत हुए निर्भय और उद्वेग रहित होकर सुख-पूर्वक निवास करें । इस प्रकार कह कर पैरों में गिरे हुए और दोनों हाथ जोड़े हुए उन प्रान्तीय पुरुषों ने महाबल नरेश से अपनी बात कही। टोका-महाबल नरेश की सेवा में उपस्थित होकर उन प्रान्तीय मनुष्यों ने कहा कि महाराज! यह आप जानते ही हैं कि हमारे प्रान्त में एक बड़ी विशाल अटवो है, उस में एक चोरपल्ली है जोकि चोरों का केन्द्र है। उस में पांच सौ से भी अधिक चोर और डाकू रहते हैं । उन के पास लोगों को लटने के लिये तथा नगरों को नष्ट करने के लिये काफ़ी सामान है। उनके पास नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र हैं । उनसे वे सैनिकों की तरह सन्नद्ध हो कर इधर उधर घूमते रहते हैं । जहां भी किसी नागरिक को देखते हैं, उसे डरा धमका कर लूट लेते हैं । अगर कोई इन्कार करता है, तो उसे जान से ही मार डालते हैं। उन के सेनापति का नाम अभग्नसेन है, वह बड़े कर तथा उग्र स्वभाव का है। लोगों को संत्रस्त करना, उन की सम्पत्ति को लट लेना, मार्ग में आने जाने वाले पथिकों को पीड़ित करना एवं नगरों तथा ग्रामों के लोगों को डरा धमका कर उनसे राज्यसम्बन्धी कर-महसूल वसूल करना, और न देने पर घरों को जला देना, किसानों के पशु तथा अनाज आदि को चुरा और उठा ले जाना आदि अनेक प्रकार से जनता को पीड़ित करना, उस का इस समय प्रधान काम हो रहा है । आप की प्रजा उसके अत्याचारों से बहुत दुःखी हो रही है और सबका जीवन बड़ा संकटमय हो रहा है। भय के मारे कोई बाहिर भी नहीं निकल सकता । महाराज! आप हमारे स्वामी हैं, आप तक ही हमारी पुकार है। हम तो इतना ही चाहते हैं कि आप की सबल और शीतल छत्र -छाया के तले निर्भय होकर सुख और शान्ति-पूर्वक जीवन व्यतीत (१) जाव-यावत्-पद से विवक्षित पदों का वर्णन पृष्ठ १९९ पर किया गया है । For Private And Personal Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २४२) श्री विपाक सूत्र [ तोसरा अध्याय करें । परन्तु हमारे प्रान्त में तो इस समय लुटेरों का राज्य है। चारों तरफ अराजकता फैली हुई है, न तो हमारा धन सुरक्षित है और न ही प्रतिष्ठा-प्राबरू । हमारा व्यापार धंधा भी नष्ट हो रहा है। किसान लोग भी भूखे मर रहे हैं । कहां तक कहें, इन अत्याचारों ने हमारा तो नाक में दम कर रखा है। कृपानिधे! इसी दुःख को ले कर हम लोग आप की शरण में आये हैं। यही हमारे आने का उद्देश्य है। राजा प्रजा का पालक के रूप में पिता माना जाता है, इस नाते से प्रजा उस की पुत्र ठहरती है। संकटग्रस्त पुत्र की सबसे पहले अपने सबल पिता तक ही प्रकार हो सकती है. उसी से वह त्राण की अाशा रखता है। पिता का भी यह कर्तव्य है और होना चाहिये कि वह सब से प्रथम उसकी पुकार पर ध्यान दे और उसके लिये शीघ्र समुचित प्रबन्ध करे । इसी विचार से हमने अपने द:ख को आप तक पहुंचाने का यत्न किया है। हमें पूर्ण आशा है कि आप हमारी संकटमय स्थिति का पूरी तरह अनुभव करेंगे और अपने कर्तव्य की ओर ध्यान देते हए हमें इस संकट से छुड़ाने का भरसक प्रयत्न करेंगे। यह थी उन प्रान्तीय दुःखी जनों की हृदय - विदारक विज्ञप्ति । जिसे उन्हों ने वहां के प्रधान शासक महाबल नरेश के आगे प्रार्थना के रूप में उपस्थित किया। जनता की इस पुकार का महीपति महाबल पर क्या प्रभाव हुआ ? तथा उसकी तरफ से क्या उत्तर मिला ? और उसने इसके लिये क्या प्रबन्ध किया ? अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-'तते णं से महब्बले राया तेसिं जाणवयाणं पुरिसाणं अन्तिए एयमट्ठ सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसीमाणे तिवलियं भिउडिं निडाले साहट्ट दंड सद्दावेति २ एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! सालाडविं चोरपल्लिं विलुपाहि २ अभग्गसेणं चोरसेणावई जीवग्गाहं गेल्हाहि २ मम उवणेहि, तते णं से दंडे तह त्ति विणएणं एयम पडिसुणेति । तते णं से दंडे बहूहिं पुरिसेहिं सन्नद्ध० जाव पहरणेहिं सद्धिं संपरिवुड़े मगइएहिं फलएहिं जाव छिप्पतूरेणं वज्जमाणेणं महया उक्किट्ठ० जाव करेमाणे पुरिमतालं णगरं मझमग्झेणं निग्गच्छति २ ता जेणेव सालाडवी चोरपल्ली तेणेव पहारेत्थ गमणाए । पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । से-उस । महब्बले-महाबल । राया-राजा ने । तेसिंउन । जाणवयाणं-जानपद-देश में रहने वाले । पुरिसाणं पुरुषों के । अन्तिए-पास से । एयमट्ट-इस बात को । सोच्चा -सुनकर कर तथा । निसम्म-अवधारण कर वह । आतुरुत्ते (१) छाया-ततः स महाबलो राजा तेषां जानपदानां पुरुषाणामन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य अाशरुप्तो यावत् मिसमिसीमाणः (क्र धा ज्वलन् ) त्रिवलिकां भृकुटिं ललाटे संहत्य दण्डं शब्दाययति २ एवमवादीत् -- गच्छ त्वं देवानुप्रिय ! शालाटवीं चोरपल्ली विलुम्प २ अभग्नसेनं चोरसेनापति जीव - ग्राहं गृहाण २ मह्यमुपनय । ततः स दंडः तथेति विनयेन एतमर्थ प्रतिशृणोति । तत: स दण्डो बहुभिः पुरुषः सन्नद्ध० यावत् प्रहरण: सार्द्ध संपरिवृतो हस्तपाशितैः (हस्तबद्धः) फलकैः यावत् क्षिप्रतूरेण वाद्यमानेन महतोत्कृष्ट० यावत् कुर्वन् पुरिमतालनगरात् मध्य – मध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव शालाटवी चोरपल्ली तत्रैव प्रादीधरद (प्रधारितवान् ) गमनाय । For Private And Personal Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२४३ शुरुप्त - शौघ्र क्रोध से परिपूर्ण हुआ । जाव - यावत् । मिसिमिसीमाणे - क्रोधातुर होने पर किये जाने वाले शब्दविशेष का उच्चारण करता हुआ अर्थात् मिसमिस करता हुआ दांत पीसता हुआ । तिवलियं भिउडिं त्रिवलिका - तीन रेखाओं से युक्त भृकुटि - - भ्र भंग को । निडाले - मस्तक पर । साहहु – धारण कर के । दंडं' – दंडनायक - कोतवाल को । सेावेति २ - बुलाता है, बुला कर । एवं वयासी - इस प्रकार कहता है । देवाणुपिया ! – हे देवानुप्रिय ! अर्थात् हे भद्र ! तुमं - तुम । गच्छुह णं—जाओ, जाकर सालाडविं- शालाटवी । चोरपल्लिं - चोरपल्ली को । विलु पाहि२ - नष्ट कर दो - लूट लो लूट कर के । अभग्गसेणं - मनसेन नामक । चोरसंणावई - चोरसेनापति को । जीवग्गा हूं - जीते जी गेरहाहि २ – पकड़ लो, पकड़ कर मम मेरे पास उवणेहिउपस्थित करो । तते णं तदनन्तर । से दंडे - वह दण्डनायक । विणपणं - विनयपूर्वक । तह त्ति-तथा 1 - 1 ऽस्तु - ऐसे ही होगा, कह कर । एयमहं - इस आज्ञा को । पडिसुखेति - स्वीकार करता है । तते गं - तदनन्तर । से दराडे - वह दण्डनायक । सन्नद्ध० - दृढ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को धारण किये हुए। जाव - यावत् । पहरणेहिं = श्रायुधों और प्रहणों को धारण करने वाले । बहूहिं - अनेक । पुरिसेहिं - पुरुषों के । सद्धि - साथ । संपरिवुडे - सम्परिवृत - घिरा हुआ। मगइरहिं - हाथ में बान्धी हुई । फलरहिं – फलकों - ढालों से । जाव - यावत् । छिप्पतूरेणं वज्जमाणेणं - क्षिप्रतूर्य नामक वाद्य को बजाने से । महया - महान् । उक्किट्ट० - उत्कृष्ट - श्रानन्दमय महाध्वनि तथा सिंहनाद आदि शब्दों द्वारा | जात्र- यावत् - समुद्र के शब्द को प्राप्त हुए के समान आकाश को शब्दायमान । करेमाणे - करता हुआ । पुरिमतालं - पुरिमताल | गगरं - नगर के । मज्झमज्भेणं - मध्य में से । निग्गच्छति २ त्ता- निकलता है, निकल कर । जेणेव - जिधर । सालाडवी - शालाटवी । चोरपल्ती - चोरपल्ली थी । 1 तेणेव - उसी तरफ उसने । पहारेत्थ गमणाए - जाने का निश्चय किया । मूलार्थ - महाबल नरेश अपने पास उपस्थित हुए उन जानपदीय - देश के वासी पुरुषों के पास से उक्त वृत्तान्त को सुन कर क्रोध से तमतमा उठे तथा उस के अनुरूप मिसमिल शब्द करते हुए माथे पर तिउड़ी चढ़ा कर अर्थात क्रोध को सजीव प्रतिमा बने हुए दण्डनायक - कोतवाल को बुलाते हैं, बुला कर कहते हैं कि हे भद्र ! तुम जाओ, और जा कर शालाटवी चोरपल्ली को नष्ट भ्रष्ट कर दो-लूट लो और लूट करके उस के चोर सेनापति अभग्नसेन को जीते जी पकड़ कर मेरे सामने उपस्थित करो । दण्डनायक महाबल नरेश की इस आज्ञा को विनय - पूर्वक स्वीकार करता हुआ दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को धारण कर यावत् श्रयुधों और प्रहरणों से लैस हुए अनेक पुरुषों को साथ ले कर, हाथों में फलक - ढाल बांधे हुए यावत् क्षिप्रतूर्य के बजाने से और महान उत्कृष्ट - आनन्दमय महाध्वनि, सिंहनाद आदि शब्दों द्वारा समुद्र के शब्द को प्राप्त हुए के समान आकाश को करता हुआ पुरिमताल नगर के मध्य में से निकल कर शालाटवी चोरपल्ली की ओर जाने का निश्चय करता है । टीका- - करुणा – जनक दुःखी हृदयों की अन्तर्ध्वनि को व्यक्त शब्दों में सुन कर महाबल (१) "दंड " शब्द का अर्थ अभयदेवसूरि " दण्डनायक" करते हैं और पण्डित मुनि श्री घासीलाल जी म० " दण्ड नामक सेनापति " ऐसा करते हैं । कोषकार दण्डनायक शब्द के - ग्रामरक्षक, कोतवाल तथा दण्डदाता, अपराध-विवार - कर्ता, सेनापति और प्रतिनियत सैन्य का नायकऐसे अनेकों अर्थ करते हैं । For Private And Personal Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २४४] श्री वपाक सूत्र - [ तीसरा अध्याय और धिक्कार है मुझे अब तो मैं इन इन को सुखी इन के घर जलाये हैं, इन को निर्धन और पूरी शिक्षा न कर लूंगा, तक चैन से तब नरेश बड़े गहरे सोच विचार में पड़ गये । वे विचार करते हैं कि मेरे होते हुए मेरी प्रजा इतनी भयभीत और दुःखी हो, सुख और शान्ति से रहना उसके लिये अत्यन्त कठिन हो गया हो. यह किस प्रकार का राज्य - प्रबन्ध १ जिस राजा के राज्य में प्रजा दुःखों से पीड़ित हो, अत्याचारियों के अत्याचारों से भयसंत्रस्त हो रही हो, क्या वह राजा एक क्षणमात्र के लिए राज्य सिंहासन पर बैठने के योग्य हो सकता है ? धिक्कार है मेरे इस राज्य – प्रबन्ध को ? जिस ने स्वयं अपनी प्रजा की देखरेख में प्रमाद किया ? अस्तु, कुछ भी हो, दुःखियों के दुःख को दूर करने का भरसक प्रयत्न करूगा | हर प्रकार से बनाऊंगा । जिन श्रातताइयों ने इन को लूटा है, कंगाल बनाया है, उन अत्याचारियों को जब तक नहीं बैठूंगा । इस प्रकार की विचार - परम्परा में कुछ क्षणों तक निमग्न रहने के बाद महाराज महाबल ने अपने आये हुए नागरिकों का स्वागत करते हुए सप्रेम उन्हें आश्वासन दिया और उनके कष्टों को शीघ्र से शीघ्र दूर करने की प्रतिज्ञा की और उन्हें पूरा विश्वास दिला कर विदा किया । आये हुए पीडित जनता के प्रतिनिधियों को बिदा करने के बाद अभग्नसेन के क्रूरकृत्यों से पीडित हुई अपनी प्रजा का ध्यान करते हुए महाबल के हृदय में क्षत्रियोचित आवेश उमड़ा । उन की भुजाएं फड़कने लगीं, क्रोध से मुख एक दम लाल हो उठा और कोपावेश से दान्त पीसते हुए उन्होंने अपने दण्डनायक - कोतवाल को बुलाया और पूरे बल के साथ चोरपल्ली पर आक्रमण करने, उसे विनष्ट करने, उसे लूटने तथा उस के सेनापति अभग्नसेन को पकड़ लाने का बड़े तीव्र शब्दों में आदेश दिया । दण्डनायक ने भी राजाज्ञा को स्वीकार करते हुए बहुत से सैनिकों के साथ चोरपल्ली पर चढ़ाई करने के लिए पुरिमताल नगर में से निकल कर बड़े समारोह के साथ चोरपल्ली की ओर प्रस्थान करने का निश्चय किया । - " सुरुत े जाव मिसमिसीमाणे” – यहां पठित जाव- यावत् पद से - कुविए चरिsक्किए - इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । शीघ्रता से रोषाक्रान्त हुए व्यक्ति का नाम शुरु है । मन से क्रोध को प्राप्त व्यक्ति कुपित कहलाता है । भयानकता को धारण करने वाला चारिsक्ति कहा जाता है । मिलिमिसीमाण शब्द - क्रोधाग्नि से जलता हुआ अर्थात् दान्त पीसता हुआ, इस अर्थ का परिचायक है। " सन्नद्ध० जाव पहरणेहिं" - यहां के जाव यावत् पद से - बद्धवम्मियकवएहिं उप्पी लिपसरासणपट्टिएहिं पिणद्धगेविज्जेहिं विमलवरचिंधपट्टहिं गहियाउह – इन पदों का ग्रहण समझना चाहिये । इन पदों का अर्थ पृष्ठ १२४ पर लिख दिया गया है। - - "फलरहिं जाव छिप्पतुरेणं" - यहां पठित जाव यावत् पद से णिक्किट्ठाहिं सीहिं सागतेहिं - से लेकर - श्रवसारियाहिं ऊरुघण्टाहि यहां तक के पाठ का ग्रहण समझना । इन पदों का अर्थ पृष्ठ २१९ पर लिखा जा चुका है । - - "उक्किह० जाव करेमाणे” – यहां पठित जाव यावत् पद से सीहनाय बोलकलकलरवेण समुदभूयं पिव-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन पदों का अर्थ पृष्ठ २२२ तथा २२३ पर दिया जा चुका है । For Private And Personal Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । तदनन्तर क्या हुआ ? अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं - मूल-' तते णं तस्स अभग्ग० चोरसेणावइस्स चारपुरिसा इमीसे कहाए लट्ठा समाणा जेणेव सालाडवी चोरपल्ली जेणेव अभग्गसेणे चोरसेणावई तेणेव उवागच्छंति २ करयल० जाव एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया ! पुरिमताले नगरे महब्बलेणं रएणा महया भड़ चड़गरेणं दंडे आणत्ते-गच्छह णं तुमे देवाणु० ! सालाडवि चोरपल्लिं विलुपाहि २ ता अभग्गसेणं चोरसेणावतिं जीवग्गाहं गेण्हाहि २ ता ममं उवणेहि । तते णं से दंडे महया भड़चड़गरेणं जेणेव सालाडवो चोरपल्ली तेणेव पहारेत्थ गमणाए । पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । तस्स-उस । अभग०-अभग्नसेन । चोरसेणावइस्सचोरसेनापति के । चारपुरिसा-गुप्तचर पुरुष । इमीसे कहाए-इस (सारी) बात से । लट्ठा समाणा-अवगत-परिचित हुए । जेणेव-जहां पर । सालाडवी-शालाटवी नामक । चोरपल्ली-चोरपल्ली थी और । जेणेव-जहां पर । अभग्गसणे- अभग्नसेन ' । चोरसणावईचोरसेनापति था। तेणेव-वहां पर । उवागच्छंति २त्ता-आते है आकर । करयल० जाव-दान जोड़ कर, यावत अर्थात मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि कर के। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगे । देवाणुप्पिया ! -हे स्वामिन् ! । एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही । पुरिमताले णगरे-पुरिमताल नगर में । महब्बलेणं रराणा-महाबल राजा ने । महया-महान । भड़चड़गरेणं-योद्धाओं के समुदाय के साथ । दंडे-दण्डनायक-कोतवाल को। आणत्ते--आज्ञा दी है कि । देवाणुप्पिया !हे भद्र ! । तुमे-तुम । गच्छह णं-जाओ, जाकर । सालाडविंशालाटवी । चोरपल्लिं-चोरपल्ली को । विलुपाहि२ त्ता-विनष्ट कर दो-लट लो, लूट कर के । अभग्गसेणं-अभग्नसेन । चोरसेणावति-चोरसेनापति को । जोवगाह -जीते जी । गेण्हाहि २ ता-पकड़ लो, पकड़ कर । ममं-मेरे सामने । उवणेहि-उपस्थित करो । तते णं-तदनन्तर । से-उस । दंडे - दण्डनायक ने । महया-महान् । भड़बड़गरेणं -सुभटों के समूह के साथ । जेणव-जहां पर। सालाडवीशालाटवी । चोरपल्ली-चोरपल्ली थी। तेणेव-वहीं पर । पहोरत्थ गमणाए -जाने का निश्चय किया है । मूलार्थ - तदनन्तर अभग्नसेन चारसेनापति के गुप्तपुरुषों को इस सारी बात का पता लगा तो वे शालाटवी चोरपल्ली में जहां पर अभग्नसेन चोरसेनापति था, वहां पर आये और दोनों हाथ जोड़ कर मस्तक पर दस नखों वाली अजलि करके भग्नसेन से इस प्रकार बोले कि हे स्वामिन ! पुरिमताल नगर में महाबल राजा ने महान सभटों के समुदाय के साथ दण्डनायक कोतवाल को बुला कर आज्ञा दी है कि तुम लोग शोघ्र जाओ, जाकर शालाटवी चारपल्ली का विध्वंस कर दो-लूट लो, और उसके सेनापति अभग्नसेन को जोते जो पकड़ लो, और पकड़ कर (१) छाया-ततस्तस्याभमसेनस्य चोरसेनापतेश्वारपुरुषाः अनया कथया लब्धार्थाः सन्तो यत्रैवाभमसेनश्वोरसेनापतिस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य करतल. यावदेवमवादिषुः - एवं खलु देवानुप्रिय ! पुरिमताले नगरे महाबलेन राजा महता भटवृन्देन दण्डः श्राज्ञप्तः । गच्छ त्वं देवानुप्रिय ! शालाटवीं चोरपल्ली विलुम्प २ अभग्नसेनं चोरसेनापतिं जीवप्राहं गृहाण, गृहीत्वा मह्यमुपनय । ततः स दण्डों महता भटवृदेन यत्र व शालाटवी चोरपल्ली तत्र व प्रादीधरद् गमनाय । For Private And Personal Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - २४६ ] श्री विपाक सूत्र - [ तोमरा अध्याय मेरे सामने उपस्थित करो । राजा की आज्ञा को शिरोधार्य कर के दण्डनायक ने योद्धाओं के वृन्द के साथ शालाटवी चोरपल्ली में जाने का निश्चय कर लिया है । - टीका प्रस्तुत सूत्र पाठ में अभग्नसेन के गुप्तचरों की निपुणता का दिग्दर्शन कराया गया है । इधर महाबल नरेश चोरसेनापति प्रभग्रसेन को पकड़ने तथा चोरपल्ली को विनष्ट कर के. करके - लूट वहां की जनता को सुखी बनाने का आदेश देता है और उस आदेश के अनुसार दण्डनायक - कोतवाल अपने सैन्य बल को एकत्रित करके पुरिमताल नगर से निकल कर चोरपल्ली की ओर प्रस्थान करने का निश्चय करता है, इधर अभमसेन के गुप्तचर (जासूस) इस सारी बात का पता लगा कर चोरसेनापति के पास आकर वहां का अथ से इति पर्यन्त सारा वृत्तान्त कह सुनाते हैं । उन्हों ने अपने सेनापति से जानपदीय - देशवासी पुरुषों का महाबल नरेश के पास एकत्रित हो कर जाना, उस के उत्तर में राजा की ओर से दिये जाने वाले आश्वासन तथा दण्डनायक को बुला कर चोरपल्ली को नष्ट करने एवं सेनापति को जीते जी पकड़ कर अपने सामने उपस्थित करने और तदनुसार दण्डनायक के महती सेना के साथ पुरिमताल नगर से निकल कर चोरपल्ली पर आक्रमण करने के लिये प्रस्थान का निश्चय करने का सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया । अन्त में उन्हों कहा कि स्वामिनाथ ! हमें जो कुछ मालूम हुआ वह सब आप की जानकारी के लिये आप की सेवा में निवेदन कर दिया, अब आप जैसा उचित समझें, वैसा करें । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 66 - करयल० जाव एवं " यहां पठित जाव - यावत् पद से " - करयुलपरिग्गहियं दस ह अंजलि मत्थर क ' अर्थात् दोनों हाथों को जोड़ कर और मस्तक पर दस नखों वाली अजली ( दोनों हथेलियों को मिला कर बनाया हुआ सम्पुट ) को करके इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । गुप्तचरों की इस बात को सुन कर अभमसेन चोरसेनापति ने क्या किया ? अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल - ' तते गं से अभग्गसेणे चोरसेणावती तेसिं चार पुरिसाणं सोच्चा निसम्म पंच चोरसताई सद्दावेति सद्दावेत्ता एवं वयासी, एवं खलु पुरिमताले गरे महब्धलेणं जाव तेणेत्र पहारेत्थ गमणाय । तते गं पंच चोरसता एवं वयामी- तं सेयं खलु देवाप्पिया ! अहं तं For Private And Personal अंतिए एयमट्ठ देवाणुप्पिया ! भग्ग सेणे ताई दंडं सालाडविं 9 (१) छाया - ततः सोऽभग्नसेनश्चोरसेनापतिः तेषां चारपुरुषाणामन्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य पंच चोरशतानि शब्दाययति, शब्दाययित्वा एवमवादीत् एवं खलु देवानुप्रियाः । पुरिमताले नगरे महाबलेन यावत्तेनैव प्रादीधरद् गमनाय । ततः सोऽभग्नसेनस्तानि पंच चोरशतान्येवमवदत् - तत् श्रेयः खलु देवानुप्रियाः ! अस्माकं तं दण्डं शालाटवीं चोरपल्लीमसम्प्राप्तमंतरेव प्रतिषेद्धुम् । ततस्तानि पंच चोरशतानि अभमसेनस्य चोरसेनापतेः " तथा " इति यावत् प्रतिशृण्वन्ति । ततः सोऽभमसेनश्वोर सेनापतिः विपुलमशनं, पानं, खादिमं स्वादिममुपस्कारयति, उपस्कार्य पंचभिः चोरशतैः सार्द्ध स्नातो यावत् प्रायश्चित्तो भोजनमंडपे तं विपुलमशनं ४ सुरां च ५ आस्वादयन् ४ विहरति । जिमितभुक्कोत्तरागतोऽपि च. सन् श्राचान्तश्चोक्षः परमशुचिभूतः पञ्चभिश्चोरशतैः सार्द्धमाद्रं चर्म दूरोहति २ सन्नद्ध० यावत् प्रहरणाः यावत् रवेण पूर्वापराह्नसमये शालाटवीतश्चोरपल्लीतो निर्गच्छति २ विषमदुर्गगहने स्थितो गृहीतभक्तपानीयस्तं दंडं प्रतीक्षमाणस्तिष्ठति । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तोसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२४७ चोरपल्लि असंपत्तं अंतरा चेव पडिसेहित्तए । तते णं ताई पंच चोरसताई अभग्गसेणस्स चोरसेणावइस्स तह चि जाव पडिसुणेति । तते णं से अभग्गसेणे चोरसेणावती विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेति २ ता पंचहिं चोरसतेहिं सद्धि राहाते जाव पायच्छित्ते भोयणमंडवंसि तं विपुलं असणं ४ सुरं च ५ आसाएमाणे ४ विहरति जिमियभुत्तत्तरागते वि य णं समाणे आयंते चोक्खे परमसुइभूते पंचहि चोरसतेहिं सद्धि अल्लं चम्मं दुरूहति २ ता सन्नद्ध० जाव पहरणं 'मगइएहि जाव रवेणं समुद्दरवभूय पिव करेमाणे पुव्वावरणहकालसमयंसि सालाडवीवो चोरपल्लीओ णिग्गच्छति २ ता विसमदुन्गगहण ठिते गहियभत्तपाणिए तं दंडं पाडवालेमाणे चिट्ठति । . पदार्थ-तते णं- तदनन्तर । से- वह । अभग्गसेणे- अभग्नसेन । चोरसेणावती-चोरसेनापति । तेसिं चारपुरिसाणं-उन गुप्तचरों के । अंतिए-पास से । एयम- इस वृत्तान्त को। सोचा-सुनकर। निसम्म-अवधारण कर । पंच चोरसताई-पांच सौ चोरों को । सद्दावेति-बुलाता ना-बला कर । एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगा । एवं- इस प्रकार । खल-निश्चय से । देवाणुप्पिया !-हे भद्र पुरुषो ! । पुरिमताले गरे-पुरिमताल नगर में । महब्बलेणंमहाबल ने । जाव-यावत् । तेणेव-वहीं अर्थात् चोरपल्ली में । पहरेत्थ गमणाए-जाने का निश्चय कर लिया है । तते एं-तदनन्तर । से अभग्गसेणे- वह अभग्नसेन । ताई - उन । पंच चोरसताईपांच सौ चोरों के प्रति । एवं-इस प्रकार । वयासी- कहने लगा । देवाणुप्पिया !-हे भद्र पुरुषो!। अम्हं-हम को । तं-यह । सेयं खलु-निश्चय ही योग्य है कि ।सालाडविं - शालाटवी । चोरपल्लि-चोरपल्ली को । असंपत्तं - असंप्राप्त अर्थात् जब तक चोरपल्ली तक न पहुँचें, तब तक । तं - उस । दंडं - दंडनायक को। अंतरा चेव-मध्य में ही रास्ते में ही । पडिसेहित्तए - निषिद्ध करना-रोक देना, । तते णं- तदनन्तर । ताई-वे । पंच चोरसताई-पांच सौ चोर । अभग्गसणस्स-अभग्नसेन । चोरसेणावइस्स-चोरसेनापति के उक्त कथन को। तह त्ति-तथेति"बहुत ठीक" ऐसा कह कर । जाव - यावत् । पडिसुणोत-स्वीकार करते हैं । तते णं- तदनन्तर । से अभग्गसणे- वह अभमसेन । चोरसणावती-चोरसेनापति । विपुलं-बहुत । असणं-अशन । पाणं-पान । खाइम-खादिम । साइमं-स्वादिम वस्तुओं को । उक्खडावेति २ त्ता-तैयार कराता है, तैयार करा के। पंचहिं चोरसतेहि-पांच सौ चोरों के। सद्धिं-साथ । राहाते - स्नान करता है । जाव-यावत् । पायच्छित्त-दुष्ट स्वप्न आदि के फल को विफल करने के लिये प्रायश्चित्त के रूप में किये गये मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य करके । भोयणमंडवंसि- भोजन के मंडप में । तं-उस । विपुलं-विपुल । असणं ४ - अशन, पान, खादिम और स्वादिम वस्तुत्रों का । सुरं च ५- तथा पंचविध सुरा आदि का । आसाएमाणे ४.-आस्वादन, विस्वादन आदि करता हुआ। विहरति-विहरण करने लगा । जिमियभुत्त त्तरागते विय णं समाणे-भोजन के अनन्तर उचित स्थान पर आकर । श्रायंते-श्राचमन किया। चोक्खे लेप आदि को दूर करके शुद्धि को (१) मगइपहिं-त्ति हस्तपाशितैर्यावत्करणात् फलहएहीत्यादि दृश्यमिति वृत्तिकार: For Private And Personal Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २४८] श्री विपाक सूत्र तीसरा अध्याय इसी लिये । परमसुइभूते-परमशुचिभूत -परमशुद्ध हुआ वह अभग्नसेन । पंचहिं चोरसतेहिं-पांच सौ चोरों के । सद्धिं - साथ । अल्लं- 'आर्द्र-गीले। चम्म-चमड़े पर । दुरूहति-आरूढ़ होता है चढ़ता है । २त्ता-बारूढ हो कर । सन्नद्ध०-दृढ़ बंधनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को धारण करके । जाब -यावत् । पहरणे-श्रायुधों और प्रहरणों से युक्त । मगइए हिं-हस्तपाशित-हाथों में बांधे हुए । जाव-यावत् । रवेणं । महान् उत्कृष्ट आदि के शब्दों द्वारा ।समुदरवभूयं पिव-समुद्र -शब्द को प्राप्त हुए के समान गगनमंडल को शब्दायमान । करमाणेकरता हुआ । पुवावराहकालसमयंसि - मध्याह्न काल में । सालाडवीओ- शालाटवी । चोर. पल्लीओ- चोरपल्ली से । णिग्गच्छति-निकलता है ।२ ता-निकल कर । विसमदुग्गगहणंविषम ऊंचा नीचा, दुर्ग-जिस में कठिनता से प्रवेश किया जाए ऐसे गहन - वृक्षवन जिस में वृक्षों का आधिक्य हो, में । ठिते-ठहरा । गहियभत्तपाणिए- भक्त पानादि खाद्य सामग्री को साथ लिये हुए । तं-उस । दंड- दण्डनायक - कोतवाल की । पडिवालेमाणे- प्रतीक्षा करता हुअा। चिट्ठति- ठहरता है। __ मूलार्थ -तदनन्तर अभग्नसेन चोरसेनापति ने अपने गुप्तचरों (जासूस ) की बात को सुन कर तथा विचार कर पांच सौ चोरों को बुला कर इस प्रकार कहा हे महानुभावो! पुरिमताल नगर के राजा महाबल ने आज्ञा दी है कि यावत् दंडनायक ने शालाटवी चोरपल्ली पर आक्रमण करने तथा मुझे पकड़ने को वहां (चोरपल्ली में) जाने (१) अभग्नसेन, और उस के साथियों ने जो आई चर्मपर आरोहरणं किया है उस में उन का क्या हार्द रहा हुआ है अर्थात् उन के ऐसा करने का क्या प्रयोजन है ? इस प्रश्न के उत्तर में तीन मान्यताएँ उपलब्ध हीती हैं, वे निम्नोत हैं (१) प्रथम मान्यता आचार्य श्री अभयदेव सूरि के शब्दों में - "अल्लचम्म दुरूहति, त्ति श्राद्र चारोहति मांगल्यार्थमिति'- इस प्रकार है । इसका भाव है-कि अभमसेन और उसके साथियों ने जो, आर्द्र चर्म पर आरोहण किया है, वह उन का एक मांगलिक अनुष्ठान था, तात्पर्य यह है कि- "विघ्नध्वंसकामो मंगलमाचरेत् -अर्थात् अपने उद्दिष्ट कार्य में आने वाले विघ्नों के विध्वंस के लिये व्यक्ति सर्वप्रथम मंगल का आचरण करे । इस अभियुक्तोक्ति का अनुसरण करते हुए अभमसेन और उस के साथियों ने दण्डनायक को मार्ग में ही रोकने के लिये किये जाने वाले प्रस्थान से पूर्व मंगलानुष्ठान किया था । मंगलों के विभिन्न प्रकारों में से आर्द्रचर्मारोहण भी उस समय का एक प्रकार समझा जाता था । (२) दूसरी मान्यता परम्परानुसारिणी है । इस में यह कहा जाता है कि आर्द्र चर्म पर आरोहित होने का अर्थ है-अपने को "-विकट से विकट परिस्थिति के होने पर भी पांव पीछे नहीं हटेगा, प्रत्यत-"काय वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्" -अर्थात् कार्य की सिद्धि करूगा अन्यथा उसी की सिद्धि में देहोत्सर्ग कर दूगा, की पवित्र नीति के पथ का पथिक बनूगा-" इस प्रतिज्ञा से श्राबद्ध करना । (३) तीसरी मान्यता वालों का कहना है कि जिस प्रकार आर्द्र चर्म फैलता है, वृद्धि को प्राप्त होता है उसी प्रकार इस पर प्रारोहण करने वाला भी धन, जनादि वृद्धिरूप प्रसार को उपलब्ध करता है इसी महत्त्वाकांक्षापूर्ण भावना को सन्मुख रखते हुए अभमसेन और उस के ५०० साथियों ने आर्द्र चर्म पर प्रारोहण किया था । For Private And Personal Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। २४९] का निश्चय कर लिया है । अतः उस दंडनायक को शालाटवी चोरपल्ली तक पहुंचने से पहले ही रास्ते में रोक देना हमारे लिये उचित प्रतीत होता है । अभन्नसेन के इस परामर्श को चोरों ने "तथेति” (बहुत ठीक है, ऐसा ही होना चाहिये) ऐसा कह कर स्वीकार किया । तदनन्तर अभग्नसेन चोरसेनापति ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम वस्तुओं को तैयार कराया तथा पांच सौ चोरों के साथ स्नान से निवृत्त हो कर, दुस्वप्न आदि के फल को विफल करने के लिये मस्तक पर तिलक तथा अन्य मांगलिक कृत्य करके, भोजनशाला में उस विपुल अशनादि वस्तुओं तथा पांच प्रकार की मदिराओं का यथारुचि आस्वादन. विस्वादन आदि करना आरम्भ किया । भोजन के अनन्तर उचित स्थान पर आकर आचमन किया और मुव के लेपादि को दूर कर अर्थात् परमशुद्ध हो कर पांच सौ चोरों के साथ आद्र चर्म पर आरोहण किया । तदनन्तर दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को धारण करके यावत् आयुधों और प्रहरणों से सुसज्जित हो कर, हाथों में ढालें बांध कर यावत् महान् उत्कृष्ट और सिंहनाद आदि के शब्दों द्वारा समुद्रशब्द को प्राप्त हुए के समान गगनमंडल को शब्दायमान करते हुए अभग्नसेन ने शालाटवी चोरपल्लो से मध्याह्न के समय प्रस्थान किया और वह खाद्यपदार्थों को साथ लेकर विषम और दुर्ग गहन-वृक्षवन में स्थिति करके उस दण्डनायक की प्रतीक्षा करने लगा। टीका-प्रस्तुत सूत्र में सेनापति अभमसेन की ओर से दण्डनायक के प्रतिरोध के लिये किये जाने वाले सैनिक आयोजन का दिग्दर्शन कराया गया है ।। अपने गुप्तचरों की बात सुनकर तथा विचार कर अभग्नसेन ने अपने पांच सौ चोरों को बुलाया और उन से वह सप्रेम बोला कि महानुभावो! मुझे आज विश्वस्त सूत्र से पता चला है कि इस प्रान्त के नागरिकों ने महाबल नरेश के पास जाकर हमारे विरुद्ध बहुत कुछ कहा है, जिस के फलस्वरूप महाबल नरेश को बड़ा क्रोध आया और उसने अपने दण्डनायक-कोतवाल को बुला कर चोरपल्ली पर आक्रमण कर उसे विध्वंस करने-लूटने तथा मुझे जीवित पकड़ कर अपने सामने उपस्थित करने आदि का बड़े उन शब्दों में आदेश दिया है । तब यह आदेश मिलते ही दण्डनायक ने भी तत्काल ही बहुत से सुभटों को अस्त्रशस्त्रादि से सुसज्जित कर के पुरिमताल नगर से निकल कर शालाटवी चोरपल्ली की ओर प्रस्थान करने का निश्चय कर लिया है । ___ उस के आक्रमण की सूचना तो हमें मिल चुकी है । अब हम को चोरपल्ली की रक्षा का विचार करना चाहिये । हमारी इस समय एक बलवान् से टक्कर है, इस लिये अधिक से अधिक बल का संचय कर के उसका प्रतिरोध करना चाहिये । इस के लिये मैंने तो यह सोचा है कि शीघ्र ही शस्त्रादि से सन्नद्ध हो कर दण्डनायक को मार्ग में ही रोकने का यत्न करना चाहिये। सेनापति अभमसेन के इस विचार का सब ने समर्थन किया और वे अपनी २.तैयारी में लग गये । इधर अभमसेन ने भी खाद्यसामग्री को तैयार कराया तथा सब के साथ स्नानादि कार्य से निवृत्त हो कर दुस्स्वप्न आदि के फल को विनष्ट करने के लिये मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य करके भोजनशाला में उपस्थित हो सब के साथ भोजन किया अर्थात् स्वयं जिमा और सब को जिमाया । भोजन के अनन्तर विविध भान्ति के भोज्यपदार्थों तथा सुरादि मद्यों का For Private And Personal Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २५० ] श्री विपाक सूत्र - [ तीसरा अध्याय यथारुचि उपभोग कर वह अभमसेन बाहिर आया और आकर श्राचमनादि द्वारा परम- - शुद्ध हो कर पांच सौ चोरों के साथ आर्द्र चर्म पर उसने आरोहरण किया और ठीक मध्याह्न के समय अस्त्र शस्त्रादि से सन्नद्ध-बद्ध होकर युद्धसम्बन्धी अन्य साधनों को साथ लेकर तथा पुरिमताल नगर के मध्य में से निकल कर शालाटवी की ओर प्रस्थान किया, तदनन्तर मार्ग में विषम एवं दुर्ग वृक्षवन में मोर्चे बना कर बैठ गया और दण्डनायक के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा । " - विसमदुग्गगहणं " इस पद की व्याख्या वृत्तिकार ने " विषमं - निम्नोन्नतं, - दुर्ग - दुष्प्रवेशं यद् गहनं वृक्षगह्वरम् इन शब्दों में की है इस पद में विषम और दुर्ग ये दो पद विशेषण ऊचे और नीचे भाव का बोधक विषम पद है और दुर्ग शब्द सके, ऐसे अर्थ का परिचायक है, एवं गहन पद वृक्षवन का बोध पाई जाए उसे वृक्षवन कहते हैं । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir · इन का भाव निम्नोक्त हैऔर गहन यह पद विशेष्य है । कठिनाई से जिस में प्रवेश किया जा कराता है । जिस में वृक्षों की बहुलता हैं " - महब्बलेणं जाव तेणेव " - यहां पठित जाव यावत् पद से - रराणा महया भडचडगरेणं दण्डे प्राण - गच्छह णं तुमे देवाणुप्पिया ! सालाडविं— से लेकर - जेणेव सालाडवी - इन पदों का ग्रहण समझना । इन का भावार्थ पृष्ठ २४५ पर दिया जा चुका है। - " तह सि जाव पडिसुर्णेति" - यहां पठित जाव यावत् पद से- श्राणाप विणणं वयणं - इन पदों का ग्रहण समझना । तह त्ति आणाए विसरणं पडिसुर्णेति- इन पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में - तह तिति नान्यथा, श्राज्ञया - भवदादेशेन करिष्याम इत्येवमभ्युपगमसूचनमित्यर्थः, विनयेन वचनं प्रतिभ्टरवन्ति अभ्युपगच्छन्ति इस प्रकार है। इन पदों का भाव है - तथेति - जैसा आप कहेंगे वैसा ही करेंगे, इस प्रकार विनय - पूर्वक उसके वचन को स्वीकार करते हैं । For Private And Personal 39 - "राहाते जाव पायच्छित्त' - यहां पठित जात्र यावत् पद से - कयबलिकम्मे कयकोउयमंगल- - इन पदों का ग्रहण सूत्रकार को अभिमत है । इन का अर्थ पृष्ठ १७६ तथा १७७ पर किया गया है । असणं ४- - यहां के ४ के अंक से -पाणं खाइमं साइमं इन पदों का और -सुरं च ५यहां ५ के अंक से - मधुं च मेरगं च जातिं च सीधुं च पसरणं च - इन पदों का, और:- आसा. एमाणे ४ - यहां के ४ के अंक से - विसापमाणे, परिभापमाणे, परिभुजेमाणे – इन पदों का और सन्नद्ध० जाव पहरणे - यहां के जाव - यावत् पद से - बद्धवम्मियकत्रए, उप्पीलिय सरास पट्टिए, पिण्द्धगेविज्जे, विमलवरबद्धचिंधपट्टे, गहियाउह - इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । और- मगाइएहिं जाव खेणं - यहां के जाव यावत् पद से फल एहिं निक्किट्ठाहिं, सीहिं सागरहिं तोणेहिं सजीवेहिं धरमूर्हि - से लेकर - महया २ उक्किसीहनायवोलकलकल-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है 1 (१) इन के अर्थ के लिये देखो पृष्ठ ४८ का टिप्पण । (२) अर्थ के लिये देखो पृष्ठ १४४ । (३) के लिये देखो पृष्ठ १४५ । (४) अर्थ के लिये देखो पृष्ठ १२४, परन्तु इतना ध्यान रहे कि वहां ये द्वितीयान्त हैं और यहां पर प्रथमान्त हैं, तथापि अर्थगत कोई भिन्नता नहीं । (५) अर्थ के लिये देखो पृष्ठ २२२ ॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra तीसरा अध्याय ] www.kobatirth.org हिन्दी भाषा टीका सहित | तदनन्तर क्या हुआ, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं 9 मूल- -" तते गं से दंडे जेणेव भग्ग सेणे चोरसेणावती तेणेव उवागच्छति २ ता अभग्गसेणेणं चोरसेणावइणा सद्धिं संपलग्गे यावि हात्था, तते गं से अभग्ग सेणे चोरसे० तं दण्डं खिप्पामेव हयमहिय० जाव पडिसेहेति । तते गं से दण्डे अभग्ग० चोरसे० इय० जाव पडिसेहिते समाये अथामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्जमिति कट्ट जेणेव पुरिमताले गरे जेणेव महब्बले राया तेणेव उवा० २ करयल० जाव एवं वयासी एवं खलु सामी ! अभग्ग सेणे चोरसे० विसमदुग्गगहणं ठिते गहितभत्त- पाणिए नो खलु से सक्का केइ सुबहुएणा वि आसवलेण वा हरिथबलेण वा जोहबले रहवलेण वा चाउरंगेणं वि उरंउरेगं गेरिहत्तते । ताहे ( महब्बले राया ) सामेण य भेदेण य उवपदाणेण य वीसंभमाणेउं पयते यावि होत्था । जे वि य से अभिंतरगा सीसगभमा मिचनातिनिय गयण संबन्धिपरियणा ते वि य गं विपुलेणं धरण कण गरयण संतसारसावतेज्जेणं दिति । श्रभग्ग सेणस्स य चोरसे० अभिक्खणं २ महत्थाई महग्घाई महरिहाई' रायारिहाई' पाहुडाइ पेसेति । अभग्गसेणं च चोरसे० बीसंभमाणेइ । पदार्थ - तते गं - तदनन्तर । से दंडे - वह दण्डनायक - कोतवाल । जेणेव - जहां । भग्गसेणे - अभमसेन । चोरसेणावती - चोरसेनापति था । तेणेव - वहां पर । उवागच्छति २ त्ता-आता है, आकर । श्रभग्ग सेणेण - अभनसेन । चोरसेणावइणा - चोरसेनापति के । सद्धिं - साथ | संपलग्गे यावि होत्या- युद्ध में प्रवृत्त हो गया । तते गं - तदनन्तर । से भग्गसेणे - वह अभमसेन । चोरसे० - चोरसेनापति । तं उस | दंड दण्डनायक को । खिप्पामेव - शीघ्र ही । हयमहिय० - इतमथित कर अर्थात् उस दण्डनायक की सेना का हनन किया - मारपीट की (१) छाया - ततः स दण्डो यत्रव अभमसेनश्चोरसेनापतिस्तत्र वोपागच्छति, उपागत्य श्रभ - मसेनेन चोरसेनापतिना सार्द्ध 'संप्रलमश्चाप्यभवत् । ततः सोऽभग्नसेनश्चोरसेनापतिः तं दण्डं क्षिप्रमेव हतमश्रित यावत् प्रतिषेधयति । ततः स दण्डोऽभन्न पेनेन चोरसेनापतिना इत० यावत् प्रतिषिद्धः सन् अस्थामा अवलः अवीर्य : अपुरुषकारपराक्रमः अधारणीयमिति कृत्वा यत्रैव पुग्मितालं नगरं यत्रव महालो राजा तत्रोपागच्छति उपागत्य करतल० यावद् एवमवादीत् – एवं खलु स्वामिन्! अभमसेनश्चीसेनापतिः विषमदुर्गगहने स्थितः गृहीतभक्तपानीयः नो खलु स शक्यः केनचित् सुबहुनापि अश्वबलेन वा हस्तिलेन वा योधत्रलेन वा रथवलेन वा चतुरंगेणापि साक्षाद् ग्रहीतुम् । तदा ( महाबलो राजा ) साम्ना च भेदेन च उपप्रदानेन च विश्रम्भमानेतु ं प्रवृत्तश्चाप्यभवत् । येऽपि च तस्याभ्यन्तरकाः शिष्यकभ्रमा मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धिपरिजनास्तानपि च विपुलेन धनकनकरत्नसत्सारस्वापतेयेन भिनत्ति । अभग्नसेनस्य च चोरसेनापतेः अभीक्षणं २ महार्थानि महाणि महार्हाणि राजार्हाणि प्राभृतानि प्रेषयति । श्रभग्नसेनञ्च चोरसेनापतिं विश्रम्भमानयति । (१) सम्प्रलग्नः - योद्धु ं समारब्धः श्रर्थात् युद्ध करना आरम्भ कर दिया । For Private And Personal Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ― [ २५१ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org -- २५२] श्री विपाक सूत्र - तीसरा अध्याय । पडिसेहेति - भगा देता जाव 1 1 और उस दण्डनायक के मान का मन्थन - मर्दन कर । जाव- यावत् है । तते णं तदनन्तर । से- वह । दंडे - दण्डनायक । श्रभग्ग० - अभमसेन । चोरसे० - चोरसेनापति के द्वारा । हय० - हृत | जाव- यावत् । पडिसेहिते - प्रतिषिद्ध । समाणे - हुग्रा अर्थात् भगाया गया । अथामे - तेजहीन । अबले - बलहीन । श्रवीरिए - वीर्यहीन । अपुरिसक्कापरक्कमे - पुरुषार्थ तथा पराक्रम से हीन हुआ । अधारणिज्जमिति कट्टु – शत्रु सेना को पकड़ना कठिन है - ऐसा विचार कर । जेणेव - जहां। पुरिमताले रागरे - पुरिमताल नगर था और । जेणेव - जहां पर । महब्बले राया - महाबल राजा था। तेणेव - वहां पर । उवा० २ - आता है, आकर | करयल० दोनों हाथ जोड़ यावत् अर्थात् मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके । एवं - इस प्रकार । व्यासीकहने लगा । एवं खलु - इस प्रकार निश्चय ही । सामी ! – हे स्वामिन् ! | भग्ग सेणे - अभमसेन । चोरसे ० - चोर सेनापति । विसमदुग्गगहणं - विषम – ऊंचा नीचा, दुर्ग - जिस में कठिनता से प्रवेश किया जा सके ऐसे गहन वृक्षवन ( वह स्थान जहां वृक्षों की प्रचुरता हो ) में । गहितभत्तपाणिए - भक्त पानादि को साथ में लिये हुए । ठिते-स्थित हो रहा है अत: । केइ - किसी । सुबहु वि - बहुत बड़े । सबलेण वा - अश्वबल से । हत्थिबलेण वा - हाथियों के बल से । वा - श्रथवा । जोहबलेण – योद्धाओं - सैनिकों के बल से । वा अथवा । रहबलेण - रथों के बल से । वा – अथवा । चतुरंगेणा वि - १ चतुरंगिणी सेना से भी । से वह । उरंउरेणं - साक्षात् । गेरिहत्ते -- ग्रहण करने - पकड़ने में। नो-नहीं खलु - निश्चय से । सक्का - समर्थ है अर्थात् वह ऐसे विषम और दुर्गम स्थान में बैठा हुआ है कि वहां पर उसे जीते जी किसी प्रकार से पकड़ा नहीं जा सकता । ताहे- तब वह महाबल राजा उसे - अभग्नसेन को । सामेणय - सामनीति से । भेदेण य-भेदनीति से अथवा । उवप्पदाणेण य - उपप्रदान से - दान की नीति से । वीसंभमाणेउं - विश्वास में लाने के लिये । पयत्त यावि होत्था - प्रयत्नशील होगया जे वि य - और जो भी । से उसके – मनसेन के । श्रभिंतरगा - अंतरंग - समीप में रहने वाले मंत्री आदि । सीसगभमा - शिष्यकभ्रम – जिन को वह शिष्य समान मानता था, वे लोग अथवा शीर्षक भ्रम - जिन को वह शरीररक्षक होने के कारण शिर अथवा शिर के कवच के समान मानता था ऐसे गरक्षक लोग तथा उस के जो । मित्तणाइनियगलयण संबन्धिपरिजणा य मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजन थे । ते वि य णं उनको भी । विपुलेणं - विपुल - बहुत से धरणकणगरण - धन, सुवर्ण, रत्न तथा । संतसारसावतेज्जेणं- - उत्तम सारभूत द्रव्य अर्थात् उत्तमोत्तम वस्तुओं तथा रुपये पैसे से । भिदति भेदन करता है- अलग करता है । य- और । अभग्ग सेणस्स - श्रभमसेन । चोरसे० - चोरसेनापति को । अभिक्खणं २ - बार बार । महत्थाई महार्थ - महा प्रयोजन वाले । महग्घाइ - महार्घ - विशेष मूल्यवान् और । महरिहाई - महार्ह किसी बड़े पुरुष को देने योग्य | रायारिहाई - : - राजा के योग्य । पाहुडाहिं- - प्राभृतभेंट। पेसेति - भेजता है । भग्ग सेणं च चोरसे० - और अभमसेन चोरसेनापति को । वीसंभमाणेइ - विश्वास में लाता है । - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मूलार्थ -- तदनन्तर वह दण्डनायक जहां पर अभग्नसेन चोरसेनापति था, वहां पर आता (१) गज, अश्व, रथ और पदाति-- पैदल, इन चार अंगों विभागों वाली सेना चतुरंगिणी सेना कहलाती है । For Private And Personal Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीमग अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । २५३ है, आकर उसके साथ युद्ध में संप्रवृत्त हो जाता है परन्तु अभग्नसेन चोरसेनापति के द्वारा हतमथित यावत् प्रतिषेधित होने से तेजहीन. बलहीन, वीर्यहीन, एवं पुरुषार्थ और पराक्रम से हीन हुआ वह दण्डनायक, शत्रुसेना को पकड़ना अशक्य समझ कर पुन: पुरिमताल नगर में महाबल नरेश के पास आकर दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके इस प्रकार कहने लगा। स्वामिन् ! अभग्नसेन चोरसेनापति विषम-ऊ'चे नीचे और दुर्ग गहन-वृक्षवन में पर्याप्त खाद्य तथा पेय सामग्री के साथ अवस्थित है, अत: बहुत से अश्वबल, हस्तिबल, योधबल और रथवल, तथा कहां तक कहूं - चतुरंगिणी सेना के बल से भी वह साक्षात् जीते जी पकड़ा नहीं जा सकता । दण्डनायक के ऐसा कहने पर महाबल नरेश साम, भेद और उपप्रदान-दान की नीति से उसे विश्वास में लाने के लिए प्रवृत्त हुआ-प्रयत्न करने लगा । तदर्थ वह उसके शिष्यतुल्य अंतरंग-समीप में रहने वाले मंत्री आदि पुरुषों को अथवा जिन अंगरक्षकों को वह शिर या शिर के कवच के समान मानता था उनको तथा 'मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों को धन, सुवर्ण, रत्न और उत्तम सारभूत द्रव्यों तथा रुपये, पैसे के द्वारा अर्थात् इन का लोभ देकर उस से भिन्न-जुदा करने का यत्न करता है और अभग्नसेन चोरसेनापति को भी बार २ महार्थ, महाघ, महार्ह तथा राजाह उपहार भेजता है, भेज कर उस अभमसेन चोरसेनापति को विश्वास में ले आता है। टीका--पाठकों को यह तो स्मरण ही होगा कि महाबल नरेश की आज्ञा से सेनापति दंडनायक ने चुने हुए सैनिकों के साथ शालाटवी चोरपल्ली पर आक्रमण करने के लिये पुरिमताल नगर से निकल कर उस ओर प्रस्थान करने का निश्चय कर लिया था । अपने निश्चय के अनुसार सेनापति दंडनायक जब पर्वत के समीप पहुँचा तो क्या देखता है ? कि वहां अभग्नसेन भी अपने सैन्यबल के साथ उसके अवरोध के लिये बिल्कुल तैयार खड़ा है। दूर से दोनों की चार अांखें हुई और एक दूसरे ने एक दूसरे को ललकारा । बस फिर क्या था, दोनों तरफ से आक्रमण आरम्भ हो गया और एक दूसरे पर अस्त्र शस्त्रादि से प्रहार होने लगा। दंडनायक की सेना नीचे से और अभग्न सेन की सेना ऊपर से-पर्वत पर से प्रहार करने में प्रवृत्त हो गई। दोनों तरफ से गोलियों और बार होने लगी। परन्तु जितनी अनुकूलता प्रहार करने के लिये अभग्नसेन के सैनिकों को थी, उतनी दंडनायक के सैनिकों को नहीं थी। कारण यह था कि दण्डनायक के सैनिक पर्वत के नीचे थे और अभग्नसेन के पवत के ऊपर । वे गोलियां और बाण मार कर वहीं छिप जाते थे जबकि इन को छिपने के लिये कोई स्थान नहीं था। इस लिये दंडनायक की सेना को इस युद्ध में सब से अधिक क्षति पहुंची। परिणामस्वरूप वह चोरसेनापति की मार को न सह सका। उसके बहुत से सैनिक मारे गये और वह स्वयं भी इस युद्ध में अत्यधिक विक्षुब्ध हुअा और परास्त होकर पीछे पुरिमताल राजधानी को लौट गया । ___ हयमहिय० जाव पडिसहेति''- यहां पठित जाव-यावत् पद से - हयमहियपवरवीरघाइविवडियचिन्धझयपडागं दिसो दिसिं-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों की वृत्तिकार - सम्मत व्याख्या इस प्रकार है (१) इन पदों की अर्थावगति के लिये देखो पृष्ठ १५८ का टिप्पण । For Private And Personal Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २५४] श्रो विपाक सूत्र [तीसरा अध्याय हतः-सैन्यस्य हतत्वात्, मथितो-मानस्य मन्थनात् प्रवरवीराः-सुभटा: घातिताःविनाशिताः यस्य स तथा, विपतिताश्चिह्नवजा गरुडादिचिह्नयुक्तकेतवः पताकाश्च यस्य स तथा, ततः पदचतुष्टयस्य कर्मधारयः । अतस्तं सर्वतो रणाद् निवर्तयति' अर्थात् जाव-यावत्-पद से विवक्षित पाठ में दण्डनायक के हत, मथित आदि चार विशेषण हैं । इन का अर्थ निम्नोक्त है (१) हत-जिस के सैन्यबल को आहत कर दिया, अर्थात् जख्मी बना डाला है । (२) मथित-जिस के मान का मन्थन -मर्दन किया गया है । (३) प्रवरवीरघातित- जिस के प्रवर-अच्छे २ वीरों-योद्धाओं का विनाश कर दिया गया है। (४) विपतितचिन्हभ्वजपताक -जिस की गरुडादि के चिन्हों से युक्त ध्वज और पताकार्ये (झण्डिएं) गिरा दी गई हैं । -"दिसो दिसिं-इस पद के दो अर्थ उपलब्ध होते हैं । जैसे कि – (१) रणक्षेत्र से सर्वथा हटा देना-भगा देना। (२) सामने की दिशा से अर्थात् जिस दिशा में मुख है उस से अन्य दिशाओं में भगा देना। पुरिमताल राजधानी की ओर लौटने के बाद दण्डनायक महाबल नरेश की सेवा में उपस्थित हुआ । अभग्नसेन द्वारा पराजित होने के कारण वह निस्तेज, निर्बल और पराक्रमहीन हो रहा था । उसने बड़े विनीत भाव से निवेदन करते हुए कहा, कि महाराज ! बड़ी विकट समस्या है। चोर. सेनगपति अभग्नसेन जिस स्थान में इस समय बैठा हुआ है, वहां उस पर आक्रमण करना, और उसे पकड़ कर लाना कठिन ही नहीं किन्तु असम्भवप्राय: है । उसके तथा उसके सैनिकों के प्रहार अमोघ-निष्फल न जाने वाले, हैं । उसके सैनिकों के भयंकर आक्रमण ने हमें वापिस लौटने पर विवश ही नहीं किया अपितु हम में फिर से अाक्रमण करने का साहस ही नहीं छोड़ा। महाराज ! मुझे तो आज यह दृढ़ निश्चय हो चुका है कि उसे घुड़सवार सेना के बल से. मदमस्त हस्तियों के बल से, और शूरवीर योद्धाओं तथा रथों के समूह से भी, नहीं जीता जा सकता। अधिक क्या कहूँ, यदि चतुरंगिणी सेना लेकर भी उस पर आक्रमण किया जाये तो भी वह जीते जी पकड़ा नहीं जा सकता । आज का दिन महाबल नरेश के लिये बड़ा ही दुर्दिन प्रमाणित हुआ । ज्यों ज्यों वे दण्डनायक सेनापति के आक्रमण और महान असफलता को सूचित करने वाले शब्दों पर ध्यान देते हैं त्यों त्यों उनके हृदय में बड़ा तीत्र आघात पहुंचता है ओर चिन्ताओं का प्रवाह उस में ठाठ मारने लगता है। उन के जीवन में यह पहला ही अवसर है कि उन्हें युद्ध में इस प्रकार के लजास्पद पराजय का अनुभव करना पड़ा, और वह भी एक लुटेरे से । एक तरफ़ तो वे नागरिकों को दिये हुए रक्षासम्बन्धी अाश्वासन का ध्यान करते हैं और दूसरी तरफ अभग्न सेन पर किये गये आक्रमण को निष्फलता का ख्याल करते हैं । इन दोनों प्रकार के विचारों से उत्पन्न होने वाली आन्तरिक वेदना ने महाबल नरेश को किंकर्तव्य -विमढ सा बना को इस पराजय का स्वप्न में भी भान नहीं था। इस समय जो समस्या उपस्थित हुई है उसे किस प्रकार सुलझाया जाए? यह एक विकट प्रश्न था। अगर अभग्नसेन का दमन करके उस के अत्याचारों से पीड़ित प्रजा का संरक्षण नहीं किया जाता तो फिर इस शासन का अर्थ ही क्या है ? और वह शासक ही क्या हुआ कि जिस के शासन काल में उसकी शान्त प्रजा अन्यायियों और अत्याचारियों के नृशंस कृत्यों से पीड़ित हो रही हो ? इस प्रकार की उत्तरदायित्वपूर्ण विचार - परम्परा ने महाबल नरेश के हृदय को बहत व्यथित कर दिया, और वे चिन्ता के गहरे समुद्र में गोते खाने लगे। For Private And Personal Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ती मग अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । कुछ समय के बाद विचारशील महाबल नरेश ने अपने सुयोग्य मन्त्रियों से विचार विनिमय करना प्रारम्भ किया । मन्त्रियों ने बड़ी गम्भीरता से विचार करने के अनन्तर महाबल नरेश के सामने एक प्रस्ताव रखा । वे कहने लगे महाराज ! नीतिशास्त्र की तो यही अाज्ञा है कि जहां दण्ड सफल न हो सके वहां साम, भेद, दानादि का अनुसरण करना चाहिये । अतः हमारे विचारों में यदि आप उसे -अभग्नसेन को पकड़ना ही चाहते हैं तो उसके साथ दण्डनीति से न काम ले कर साम, भेद अथवा उपप्रदान की नीति से काम लें और इन्हीं नीतियों द्वारा उसे विश्वास में ला कर पकड़ने का उद्योग करें । मन्त्रियों की इस बात का महाबल नरेश के हृदय पर काफी प्रभाव पड़ा और उन्हें यह सुझाव सुन्दर जान पड़ा तब उन्होंने मन्त्रियों के बतलाये हुए नीति - मार्म के अनुसरण की ओर ध्यान दिया और उस में उन्हें सफलता की कुछ अाशाजनक झलक भी प्रतीत हुई। इसी लिये दण्डनीति के प्रयोग की अपेक्षा उन्होने साम, दान और भेद नीति का अनुसरण ही अपने लिये हितकर समझा और तदनुसार अभमसेन को प्रसन्न करने का तथा उसे विश्वास में लाने का आयोजन प्रारंभ कर दिया और उसके विश्वासपात्र सैनिकों तथा अन्य सम्बन्धिजनों को वे अनेक प्रकार के प्रलोभनों द्वारा उस से पृथक करने का उद्योग भी करने लगे । एवं अभमसेन की प्रसन्नता के लिये समय समय पर उसे विविध प्रकार के बहुमूल्य पुरस्कार भी भेजे जाने लगे जिस से कि उस के साथ मित्रता का गाढ सम्बन्ध सूचित हो सके । सारांश यह है कि अभग्नसेन के हृदय से यह भाव निकल जाये कि महाबल नरेश की उस के साथ शत्रुता है, प्रत्यत उसे यही आभास हो कि महाबल नरेश उस का पूरा २ मित्र है, इसके अतिरिक्त उसे यह भी भान न हो कि जिन सैनिकों तथा मंत्रीजनों के भरोसे पर वह अपने आप को एक शक्तिशाली व्यक्ति मान रहा है और जिन पर उसे पूर्ण भरोसा है वे अब उस के आज्ञानुसारी नहीं रहे अर्थात् उसके अपने नहीं रहे और समय आने पर उस की सहायता के बदले उस का पुरा २ विरोध करेंगे। महाबल नरेश तथा उनके मन्त्री श्रादि ने जिस नीति का अनुसरण किया उस में वे सफल हुए और उन के इस नोतिमूलक व्यवहार का अभनपेन पर यह प्रभाव हा कि वह महाबल नरेश को शत्र के स्थान में मित्र अनुभव करने लगा। “अथामे"-इत्यादि पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में - "अथामे, तथाविधस्थामवर्जितः "-अबले ति"- शरीरबलवर्जितः, “- अवीरिए ति"-जीववीयरहितः" - अपरिसक्कारपरक्कमे त्ति'- पुरुषकार : पौरुषाभिमान : स एव निष्पादितस्वप्रयोजनः पराक्रमः, तयोनिषेधादपुरुषकारपराक्रमः । "अधारणिज्जमिति कह"-अधारणीयं धारयितुमशक्यं, परबलं स्थातु वा शक्य- मिति कृत्वा इति हेतो : । इस प्रकार है अर्थात् अस्थामा इत्यादि चारों पद दण्डसेनापति के विशेषण हैं । इम का अर्थ अनुक्रम से निम्नोक्त है (१) अस्थामा-तथाविध-युद्ध के अनुरूप स्थाम - मनोबल से रहित । (२) अबल-शारीरिक शक्ति से रहित । (३) अवीर्य-जीववीर्य-आत्मबल से विहीन । (४) -अपरुषकारपराक्रमपुरुषत्व का अभिमान-मैं पुरुष हूं, मेरे आगे कौन ठहर सकता है, इस प्रकार का आत्माभिमान, पुरुषकार कहलाता है, उस से जो स्वकार्य में सफलता होती है, उस का नाम पराक्रम है. तब पुरुषकार और पराक्रम से हीन व्यक्ति अपुरुषकारपराक्रम कहा जाता है। तथा “ अधारणिज्जं" इस पद के दो अर्थ होते हैं-(१) शत्रु की सेना अधारणीय-पकड़ में न आने वाली (२) शत्रु की सेना के सन्मुख ठहरा नहीं जा सकता । इति क्रत्वा का अर्थ है For Private And Personal Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २५६] श्री विपाक सूत्र [तीसरा अध्याय इस कारण से । ___"-करयल० जाव एवं-" यहा पठित जाव-यावत् पद से और साथ में उल्लेख किये गये बिन्द से जो पाठ विवक्षित है, उस को पृष्ठ २४६ पर लिखा जा चुका है । "उरंउरेणं" यह देश्य -देशविशेष में बोला जाने वाला पद है । इस का अर्थ साक्षात् - सन्मुख होता है। उरउरेणं त्ति साक्षादित्यर्थः । शास्त्रों में नीति के, “सामनीति, दाननीति, भेदनीति और दण्डनीति" ये चार भेदप्रकार बतलाये गये हैं. इस में अन्तिम दण्डनीति है, जिस का कि अन्त में ही प्रयोग करना नीतिशास्त्र - सम्मत है, और तभी वह लाभप्रद हो सकता है । महाबल नरेश ने पहले की तीनों नीतियों की उपेक्षा कर के सब से प्रथम दण्डनो ते का अनुसरण किया जो कि नीतिशास्त्र की दृष्टि से न नहीं था । अतः इसका जो परिणाम हा वह पाठका के समक्ष ही है। तब महाबल श ने अभग्नसेन के निग्रहार्थ दण्डनीति को त्याग कर पहली तीन साम, दान और भेद नीतियों के अनुसरण करने का जो आचरण किया वह नातिशास्त्र की दृष्टि से उचित ही कहा जायेगा । साम आदि पदों का अर्थ निम्नोक्त है (१) प्रेमोत्पादक वचन साम कहलाता है । (२) राजा का सैनिकी में और सैनिकों का राजा में विश्वास उत्पन्न करा देने का नाम भेद है । (३) दान का ही दूसरा नाम उपप्रदान है, उस का अर्थ है-अभेतार्थ दान अर्थात् इच्छित पदार्थों का देना । इन तीनों से जहां कार्य की सिद्धि न हो सके वहां पर चौथी अर्थात् दण्डनीति (दण्ड दे कर अर्थात् पीडित करके शासन में रखने की राजाओं को नीति) का प्रयोग किया जाता है । ऐसा नीतिज्ञों का श्रानु. भविक आदेश है। "जे वि य से अभितरगा सोसगभमा ,- इन पदों की व्याख्या प्राचार्य अभयदेव सरि ने इस प्रकार की है येऽ पिच 'से' तस्याभग्नसनेस्याभ्यन्तरका आसन्ना मंत्रिप्रभृतय : किम्भूता : "सीसगभम त्ति' शिष्या एव शिष्यकास्तेषां भ्रमो-भ्रान्तिर्येषु ते शिष्यभ्रमा :, विनीततया शिष्यतुल्या इत्यर्थ : अथवा शीर्षकं शिर एव शिर : कवचं वा तस्य भ्रमोऽव्यभिचारितया शरीररक्षकत्वेन वा ते शीर्षकभ्रमाः-अर्थात् प्रस्तुत सूत्र में अभ्यन्तरक शब्द से - अभग्नसेन के मन्त्री आदि सहचर, यह अर्थ ग्रहण किया गया है, और "सीसगभमा" इस के "शिष्यकभ्रमाः" और "शीर्षकभ्रमाः” ऐसे दो संस्कृत प्रतिरूप होते हैं । इन दोनों प्रतिरूपों को लक्ष्य में रख कर उक्त पद के तीन अर्थ होते हैं । जैसे कि-(१) शिष्य अर्थ को सूचित करने वाला दूसरा शब्द शिष्यक है जिस में शिष्यत्व की भ्रान्ति हो, उसे शिष्यकभ्रम कहते हैं अर्थात् जो विनीत होने के कारण शिष्यतुल्य हैं, उन्हें शिष्यकभ्रम कहा जाता है (२) शरीररक्षक होने के नाते जिन को शरीर के तुल्य समझा जाता है वे शीर्षकभ्रम कहे जाते हैं (३) शिर का रक्षक होने के कारण जिन पर कवच का भ्रम किया जा रहा है अर्थात् जो शिर के कवच की भान्ति शिर की रक्षा करते हैं, वे भी शीर्षकभ्रम कहलाते हैं । (१) साम-प्रेमोत्पादकं वचनम् । भेदः-स्वामिनः पदातिषु पदातीनां च स्वामिनि अविश्वासोत्पादनम् । उपप्रदानम्-अभिमतार्थदानमिति टीकाकारः For Private And Personal Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra तीसरा अध्याय ] www.kobatirth.org 66 हिन्दी भाषा टीका सहित । [ २५७ -धरणकणगरयण सन्तसारसावतेज्जेणं - " इस समस्त पद में धन, कनक, रत्न, सत् - सार, स्वापतेय, ये पांच शब्द हैं । धन सम्पत्ति का नाम है । कनक रत्न का अर्थ है - वह छोटा, चमकीला वहुमूल्य खनिज पदार्थ, जिस का में जड़ने के लिये होता है । सत्सार शब्द दुनियां की सब से उत्तम वस्तु के लिये प्रयुक्त होता है और स्वापतेय शब्द रुपए पैसे आदि का परिचायक है । सुवर्ण को कहते हैं । उपयोग आभूषणों आदि, महत्थाई - इत्यादि पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में निम्नोक्त है Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - " - महत्थाई - " महाप्रयोजनानि " महग्घाई" महामूल्यानि "महरिहाइ" महतां योग्यानि महं वा - - पूजामर्हन्ति महान् वा, ग्रहः पूजा येषां तानि तथा एवं विधानि च कानिचित् केषांचित् योग्यानि भवन्तीत्यत श्राह - "रायारिहाई” राज्ञामुचितानि । अर्थात् जिस का कोई महान् प्रयोजन - उद्देश्य हो उसे महार्थ कहते हैं, और अधिक मूल्य वाले को महार्घ कहा जाता है । महाई पद के तीन अर्थ होते हैं, जैसे कि – (१) विशेष व्यक्तियों के योग्य वस्तु महाई कही जाती है । ( २ ) जो पूजा के योग्य हो उसे महाई कहते हैं । ( ३ ) जिन की महती पूजा हो वे महाई कहलाते हैं महार्थ महार्घ और महाई ये वस्तुएं तो अन्य कई एक के योग्य भी ही सकती हैं, इस लिये महावल नरेश ने अभग्नसेन की मान प्रतिष्ठा के लिये उसे राजाई - राजा लोगों के योग्य उपहार भी प्रेषित किये । प्रस्तुत सूत्र में दंडनायक के युद्ध में परास्त होने पर मन्त्रियों के सुझाव से प्रभग्नसेन के निग्रह के लिये महाबल नरेश ने जो उपाय किया और उस में उन्हों ने जो सफ़लता भी प्राप्त की उस का वर्णन किया गया है । अब अग्रिम सूत्र में महाबल नरेश द्वारा अभग्नसेन के निग्रह के लिये किये जाने वाले उपायविशेष का वर्णन करते हैं गरे एगं महं मूल - १ तते गं से महब्चले राया अन्नया कयाइ पुरिमताले महतिमहालियं कूड़ागारसालं करेति, अणेगखं भसतसंनिविट्ठ पासाइयं ४ । तते गं से महब्बले राया अन्नया कयाइ पुरिमताले नगरे उस्सुक्कं जाव दसरतं पमोयं उग्घोसावे ति (१) छाया - ततः स महाबली राजा अन्यदा कदाचित् पुरिमताले नगरे एकां महतीं महातिमहालिकां (महातिमहतीं ) कूटाकारशालां करोति, अनेकस्तम्भशतसंनिविष्टां प्रासादीयां ४ । ततः स महाचलो राजा अन्यदा कदाचित् पुरिमताले नगरे उच्छुल्कं यावद् दशरात्रं प्रमोदमुद्घोषयति २ कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति २ एवमवादीत् - गछत यूयं देवानुप्रियाः ! शालाटव्यां चोरपल्ल्यां, तत्र यूयं अभग्नसेनं चोरसेनापतिं करतल० यावदेवं वदत - एवं खलु देवानुप्रिया ! पुरिमताले नगरे महाबलेन राज्ञा उच्छुल्को यावत् दशरात्रः प्रमोदः उद्घोषितः तत् किं देवानुप्रियाः ! विपुलमशनं ४ पुष्पवस्त्रगंधमाल्यालंकारं चेह शोघ्रमानीयताम्, उताहो स्वयमेव गमिष्यथ १ ततः कौटु त्रिकपुरुषाः महाबलस्य राज्ञः कर० यावत् पुरिमतालाद् नगराद् प्रतिनिष्क्रामति २ नातिविकृष्ट : अध्वाने: (प्रयाणकैः) सुखैः वसतिप्रातराशैः, य शालाटवी चोरपल्ली तत्रैवोपागताः २ भग्नसेनं चोरसेनापतिं करतल • यावदेवमवादिषुः - एवं खलु देवानुप्रिया ! पुरिमताले नगरे महाबलेन राज्ञा उच्छुल्को यावत्, उताहो स्वयमेव गमिष्यथ । ततः सोऽभग्नसेनश्वोरसेनापतिस्तान् कौटुम्बिकपुरुषान् एवमवदत् - श्रहं देवानुप्रिया ! पुरिमतालं नगरं स्वयमेव गच्छामि । तान् कौटुबिकपुरुषान् सत्कारयति २ प्रतिविसृजति । For Private And Personal Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र - [ तीसरा अध्याय २५८] २ त्ता कोडु बियपुरिसे सद्दावेति २ एवं वयासी - गच्छह गं तुब्भे देवाणु० ! सालाडवीए चोरपल्लीए, तत्थं गं तुब्भे श्रभग्गसेणं चोरसे० करयल० जाव एवं वयह - एवं खलु देवा ! पुरिमताले गरे महब्बलेण ररणा उस्सुक्के जाव दसरत्ते पमोदे उग्घोसिते । तं किरणं देवा ! विउलं असणं ४ पुफ्फवत्थगंधमल्लालंकारे य इहं हव्वमाज्जा उयाहु सयमेव गच्छज्जा ? तते गं कोड बियपुरिसा महब्बलस्स रणो कर० जाव परिमताला बगराओ पडिनिक्खमंत २ खातिविकिड हिं श्रद्धाणेहिं 'सुहेहिं वसहिपायरासेहिं जेणेव सालाडवी चोरपल्ली तेणेव उवा० २ भगसेणं चोरसेणावतिं करयल ० जाव एवं वयासी – एवं खलु देवाणु ० ! पुरिमताले गगरे महब्बलेण रण्णा उस्सुक्के जाव उदाहु सयमेव गच्छिज्जा तते गं से अभग्ग० चोरसे ते कोड बियपुरिसे एवं वयासीअहरणं देवा ! पुरिमतालं रागरं सयमेव गच्छामि । ते कोड बियपुरिसे सक्कारेति २ पडिविसज्जेति । ' 1 पदार्थ - तते णं - तदनन्तर । से- -उस । महब्बले - महाबल । राया - राजा । श्रन्नया कयाइ–किसी अन्य समय । पुरिमताले - पुरिमताल । गगरे - नगर में । एगं - एक । महं - प्रशस्त । महतिमहालियं - अत्यन्त विशाल । कूडागारसालं - २ कूटाकारशाला - षड्यंत्र के लिये बनाया हुआ घर । करेति – बनवाई | अणेगखंभसतसंनिविट्ट - जो कि सैंकड़ों स्तम्भों से युक्त । पासाइयं ४-१ प्रासादीयमन को हर्षित करने वाली, २ दर्शनीय - जिसे बारम्बार देखने पर भी आंखें न थर्के, ३ अभिरूप – जिसे एक बार देख लेने पर भी पुनः देखने की लालसा बनी रहे और ४ प्रतिरूप – जिसे जब भी देखा जाय तब भी वहां नवीनता ही प्रतीत हो, ऐसी थी । तते गं - तदनन्तर । से-उस । महब्बले - महाबल । राया - राजा ने । अन्नया कयाइ - किसी अन्य समय । पुरिमताले - पुरिमताल । गगरे - नगर में । उस्सुक्कं - उच्छुल्क – जिस में राजदेय भाग - महसूल माफ कर दिया हो । जाव - यावत् । दसरत्तं - दस दिन पर्यन्त । पमोयं - प्रमोद -- उत्सव की । उग्घोसावेति २ त्ता-: I - उद्घोषणा कराई, उद्घोषणा करा कर । कोडु'बियपुरिसे - कौटुम्बिक पुरुषों को । सद्दावेति२ - बुलाता है, बुला कर । एवं - इस प्रकार । वयासी - कहने लगा । देवाणु० ! - हे भद्र पुरुषो ! | तुब्भे- तुम । सालाडवीए - शालाटवी । चोरपल्लीए – चोरपल्ली में । गच्छह णं - जाओ । तत्थ जं-वहां पर । तुब्भे – तुम । श्रभग्गसेणंअभग्नसेन । चोरसे० - चोरसेनापति से । करयल० जाव - दोनों हाथ जोड़ यावत् अर्थात् मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके । एवं- - इस प्रकार । वयह - कहो । देवाणु० ! - हे महानुभाव ! । एवं - इस प्रकार । खलु – निश्चय से । पुरिमताले - पुरिमताल । गगरे-न - नगर में । महब्बलेणं - महाबल । I 1 (१) सुखैः सुखकारकैः शुभैर्वा - प्रशस्तैः, वसतिप्रातराशेः - मार्गविश्रामस्थानः पूर्वाह्नवर्तिलघुभोजनैश्च मार्गे सुखपूर्वकं निवसनं, यमद्वयमध्ये भोजनं चेत्येतद्द्द्वयं पथिकाय परमहितकारकमिति भावः । (२) कूटस्य शिखरस्य (स्तूपिकायाः) इव श्राकाशे यस्याः शालायाः गृहविशेषस्य सा कूटाकारशाला - अर्थात् जिस भवन का आकार पर्वत के शिखर-चोटी के समान है उसे कूटाकारशाला कहते हैं । For Private And Personal Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२५९ रराणा- राजा ने। उस्तुक्के-उच्छुल्क । जाव-यावत् । दसरत-दस दिन का। पमोदे - प्रमोदउत्सव । उग्घोसिते-उद्घोषित किया है, । तं-इस लिये । देवाणु० !-हे महानुभाव ! । किरणं-क्या । विपुलं-विपुल । असणं ४-अशन, पान, खादिम और स्वादिम तथा । पुष्फ-पुष्प । वत्थ-वस्त्र । गंध-सुगंधित द्रव्य । मल्लालंकारे-माला और अलंकार-भूषण । इह-यहां पर ही। हव्वमाणेज्जाशीघ्र लायें । उयाहु-अथवा । सयमेव-आप स्वयं ही । गच्छिज्जा - पधारेंगे । । तते णं तदनन्तर । कोड बियपुरिसा-कौटुम्बिक पुरुषों ने । महब्बलस्स-महाबल । रराणो-राजा की, उक्त आज्ञा को। कर- दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके । जाव-यावत् स्वीकार किया और वे। परिमतालाओ-पुरिमताल । णगराओ-नगर से । पडिनिक्खमंति २-निकलते हैं, निकल कर। जातिविकिडेहि-नातिविकृष्ट- जोकि ज़्यादा लम्बे नहीं, ऐसे । श्रद्धाणेहिं- प्रयाणकों-यात्राओं से । सुहेहि-सुखजनक । वसहिपायरासेहिं-विश्रामस्थानों तथा प्रातःकालीन भोजनों द्वारा । जेणेव-जहां। सालाडवी-शालाटवी । चोरपल्ली-चोरपल्ली थी । तेणेव-वहां पर । उवा०२-श्रा जाते हैं, अाकर । अभग्गसेणं-अभग्नसेन । चोरसेणावति-चोरसेनापति को । करयल० जाव-दोनों हाथ जोड़ यावत् अर्थात् मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके अर्थात् विनयपूर्वक । एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगे। एवं इस प्रकार । खलु-निश्चय से । देवाणु० ! हे महानुभाव ! । पुरिमताले-पुरिमताल । णगरेनगर में । महब्बलेण-महाबल । रराणा- राजा ने । उस्सुक्के-उच्छुल्क । जाव-यावत् दश दिन का प्रमोद-उत्सव आरंभ किया है, तो क्या आप के लिये अशनादिक यहां पर लाया जाये । उदाहु-अथवा। सयमेव-आप स्वयं ही वहां । गच्छिज्जा !-पधारेंगे।। तते णं-तदनन्तर । से-वह । अभग्गअभग्नसेन । चोरसे०-चोरसेनापति । कोडुबियपुरिसे-उन कौटुम्बिक पुरुषों को। एवं वयासी-इस प्रकार बोले । देवाणु० !-हे भद्र पुरुषो !। अहरणं-मैं। पुरिमतालं णगरं-पुरिमताल नगर को । सयमेव-स्वयं ही । गच्छामि-चलगा, ऐसे कह कर । ते-उन । कोडुबियपुरिसे-कौटुम्बिक पुरुषों का । सक्कारेति २-सत्कार करता है, करके । पडिविसज्जेति-उन को बिदा करता है। मूलार्थ-तदनन्तर किसी अन्य समय महाबल नरेश ने पुरिमताल नगर में प्रशस्त एवं बड़ी विशाल और १ प्रासादोय-मन में हर्ष उत्पन्न करने वाली, २ दर्शनीय-जिसे देखने पर भी आखें न थकें, ३ अभिरूप-जिसे देखने पर भी पुनः दर्शन की इच्छा बनी रहे और ४ प्रतिरूप-जिसे जब भी देखा जाय, तब ही वहां कुछ नवीनता प्रतिभासित हो, ऐसो सैकड़ों स्तम्भों वाली एक कूटाकारशाला बनवाई । तदनन्तर महाबल नरेश ने किसी समय पर (उस के निमित्त) उच्छुल्क यावत् दशदिन के उत्सव की उद्घोषणा कराई और कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर वे कहने लगे, हे भद्रपुरुषो! तुम शालाटवी चोरपल्ली में जाओ, वहां अभग्नसेन चोरसेनापति से दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि कर के इस प्रकार निवेदन करो हे महानुभाव ! पुरिमताल नगर में महाबल नरेश ने उच्छुल्क यावत् दस दिन पर्यन्त प्रमाद-उत्सवविशेष की उद्घोषणा कराई है तो क्या आप के लिये विपुल अशनादिक और पुष्प, वस्त्र, माला तथा अलंकार यहीं पर उपस्थित किये जाएं अथवा आप स्वयं वहां पधारेंगे ? तदनन्तर वे कौटुम्बिक पुरुष महाबल नरेश की इस आज्ञा को दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके अर्थात् विनयपूर्वक सुन कर तदनुसार पुरिमताल नगर से निकलते हैं और छोटी छोटी यात्राएं करते हुए तथा सुखजनक विश्रामस्थानों एवं प्रातःकालीन भोजनों For Private And Personal Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २६० श्री विपाक सूत्र [तीसरा अध्याय आदि के सेवन द्वारा जहां शालाटवी नामक चोरपल्ली थी वहां पहुंचे और वहां पर उन्हों ने अभग्नसेन चोरसेनापति से दोनों हाथ जोड़ कर मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके इस प्रकार निवेदन किया महानुभाव ! पुरिमताल नगर में महाबल नरेश ने उच्छुल्क यावत् दस दिन का प्रमोद उद्घोषित किया है, तो क्या आप के लिये अशनादिक यावत् अलंकार यहां पर उपस्थित किये जाएं अथवा आप वहां पर स्वयं चलने की कृपा करेंगे? तब अभग्नसेन चौरसेनापति ने उन कौटुम्बिक परुषों को उत्तर में इस प्रकार कहा हे भद्र पुरुषो ! मैं स्वयं ही पुरिमताल नगर में आऊंगा। तत्पश्चात् अभग्नसेन ने उन कौटुम्बिक पुरुषों का उचित सत्कार कर उन्हें बिदा किया-वापिस भेज दिया ।। टीका-एक दिन नीतिकुशल महाबल नरेश ने स्वकार्य सिद्धि के लिये अपने प्रधान मंत्र को बुलाकर कहा कि परिमताल नगर के किसी प्रशस्त विभाग में एक कटाकारशाला का निर्माण कराओ, जो कि हर प्रकार से अद्वितीय हो और देखने वालों का देखते २ जी न भर सके । उस में स्तम्भों की सजावट इतनी सुन्दर और मोहक हो कि दर्शकों की टिकटिकी बन्ध जावे। नृपति के आदेशानुसार प्रधान मंत्री ने शालानिर्माण का कार्य प्रारम्भ कर दिया और प्रान्त भर के सर्वोत्तम शिल्पियों को इस कार्य में नियोजित कर दिया गया। मंत्री की प्राज्ञानुसार बड़ी शीघ्रता से कूटाकार- शाला का निर्माण होने लगा और वह थोड़े ही समय में बन कर तैयार हो गई । प्रधान मंत्री ने महारज को उसकी सूचना दी और देखने की प्रार्थना की । महाबल नरेश ने उसे देखा और वे उसे देख कर बहुत प्रसन्न हुए । द्रव्य में बड़ी अद्भुत शक्ति है, वह सुसाध्य को दुसाध्य और दुस्साध्य को सुसाध्य बना देता है पुरिमताल नगर की यह कुटाकारशाला अपनी कक्षा की एक थी । उस का निर्माण जिन शिल्पियों के हाथों से हुअा वे भारतीय शिल्प – कला तथा चित्रकला के अतिरिक्त विदेशीय शिल्पकला में भी पूरे २ प्रवीण थे। उन्हों ने इस में जिस शिल्प और चित्र कला का प्रदर्शन कराया वह भी अपनी कक्षा का एक ही था । सारांश यह है कि इस कूटाकारशाला से जहां पुरिमताल नगर की शोभा में वृद्धि हुई वहां महाबल नरेश को कीति में भी चार चांद लग गये । तदनन्तर इस कुटाकार-शाला के निमित्त महाबल नरेश ने दस दिन के एक उत्सव का आयोजन कराया, जिस में आगन्तुकों से किसी भी प्रकार का राजदेय कर महमूल वगैरह लेने का निषेध कर दिया गया था । महाबल नरेश ने अपने अनुचरों को बुला कर जहां उक्त उत्सव में सम्मिलित होने के लिये अन्य प्रान्तीय प्रतिष्ठित नागरिकों को आमंत्रित करने का आदेश दिया, वहां चोरपल्ली के चोरसेनापति अभग्नसेन को भी बुलाने को कहा । अभग्नसेन के लिये महाराज राजा महाबल का खास आदेश था । उन्होंने अनुचरों से निम्नोक्त शब्दों में निवेदन करने की आज्ञा दी महाराज ने एक अतीव रमणीय और दर्शनीय कुटाकारशाला तैयार कराई है, वह अपनी कक्षा की एक ही है । उस के उपलक्ष्य में एक वृहद् उत्सव का आयोजन किया गया है, जो कि दस दिन तक बराबर चाल रहेगा उस में और भी बहुत से प्रतिष्ठित सज्जनों को आमंत्रित किया गया है और वे पधारेंगे भी । तथा आप को आमंत्रण देते हुए महाराज ने कहा है कि For Private And Personal Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तीसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२६१ आप के लिये इस उत्सव विशेष के उपलक्ष्य अशनादिक सामग्री यहीं पर उपस्थित की जाय या आप स्वयं ही पधारने का कष्ट उठायेंगे । तदनन्तर वे लोग महाबल नरेश के इस आदेश को लेकर चोरपल्ली के सेनापति प्रभग्न सेन के पास पहुंचे और उन्होंने विनीत शब्दों में राजा की ओर से दिये गये सन्देश को कह सुनाया । अभग्नसेन ने उन का यथोचित सत्कार किया और पुरिमताल नगर में कूटकारशाला के निमित्त आरम्भ किये गये महोत्सव में स्वयं वहां उपस्थित हो कर सम्मिलित होने का वचन दे कर उन्हें वापिस लौटा दिया । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पाठक यह तो समझते ही हैं कि महाबल नरेश का चोरपल्ली के सेनापति भग्नसेन को पुरिमताल में बुलाने का क्या प्रयोजन है ? और कौन सी नीति उस में काम कर रही है ? तथा उस में विश्वासघात जैसे निकृष्टतम व्यवहार का कितना हाथ है १ बड़े से बड़ा योद्धा और वीरपुरुष भी विश्वास में श्राकर नितान्त कायरों (बुज़दिलों) के हाथ से मात खा जाता है । जिस नीति का अनुसरण महाबल नरेश ने किया है वह नीतिशास्त्र की दृष्टि से भले ही आचरणीय हो परन्तु वह प्रशंसनीय तो नहीं कही जा सकती और धर्मशास्त्र की दृष्टि से तो उस की जितनी भी भर्त्सना की जाये, उतनी ही कम है । सूत्रगत " - महं महतिमहा लियं" इत्यादि पदों की व्याख्या प्रकृत सूत्र के व्याख्याकार श्री अभयदेव सूरि के शब्दों में- "महं महतिमहालियं कूडागारसालं ति- महतीं प्रशस्तां, महती चासौ अतिमहालिका च गुर्वी महातीमहालिका ताम् अत्यन्तगुरुकामित्यर्थः । " कूडागारसालं ति कूटस्येव पर्वतशिखरस्येवाकारो यस्याः सा तथा, स चासौ शाला चेति समासः तम् । इन पदों की व्याख्या निम्नोक्त है - महती का अर्थ है- प्रशस्त - सुन्दर । महातिमहालिका शब्द अत्यधिक विशाल का परिचायक है । कूट पर्वत के शिखर - चोटी का नाम है । कूट के समान जिस का श्राकार - बनावट हो उसे कूटाकारशाला कहते हैं । कोषकार महतिमहालियं पद का संस्कृत रूप ' - महातिमहतीं ऐसा --' भी बतलाते है । - " उस्तुक जाव दसरतं - यहां पठित जाव यावत पद से “उवकरं श्रभडप्पवेसं, दंडिमकुदंडिमं धरिमं, अधारणिज्जं, अणुद्धूयमुयंगं, अमिलायमल्लदामं, गणिकावर नाडइज्जकलियं, अरोगतालाचराणुचरियं, पमुइयपक्कीलियाभिरामं, जहारिहं- इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । उच्छुल्क आदि पदों की व्याख्या निम्नोक्त है - (१) उच्छुल्क - जिस उत्सव में आई हुई किसी भी वस्तु पर राजकीय शुल्क - महसूल नहीं लिया जाता उसे उच्छुल्क कहते हैं । (२) उत्कर - जिस उत्सव में दुकानों के लिये ली गई ज़मीन का कर - भाड़ा तथा क्रयविक्रय के लिये लाये गये गाय आदि पशुओं का कर - महसूल न लिया जाए, उसे उत्कर कहते हैं । (३) भटप्रवेश जिस उत्सव में राजपुरुष किसी के नाम प्रवेश है। तात्पर्य यह है कि उस उत्सव में किसी नहीं ली जा सकती । (४) द रिडम कुदरिडम राज्य की व्यवस्था को बनाए रखने के लिये सजा दी जाती है उसे दण्ड कहते हैं और न्यूनाधिक कमती बढ़ती सज़ा को - For Private And Personal घर में प्रवेश नहीं कर सकते. उस का राजपुरुष द्वारा किसी घर की तलाशी अपराध के अनुसार जो कुदंड कहा जाता है । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ૨૬૨] श्री विपाक सूत्र - [ तीसरा अध्याय दण्ड से निवृत्त-उत्पन्न द्रव्य दरिडम और कुदण्ड से निवृत्त द्रव्य कुदंडिम कहलाता है । इन दोनों का जिस उत्सव में अभाव हो उसे प्रदरिडम कुदरिडम कहते हैं । सकेगा । (५) अधरिम - धरिम शब्द ऋणद्रव्य ( कर्जा) का परिचायक है । जिस उत्सव में कोई किसी से अपना कर्जा नहीं ले सकता वह अधरिम कहलाता है । तात्पर्य यह है कि इस उत्सव में कोई किसी को ऋण के कारण पीड़ित नहीं कर (६) अधारणीय - जिस उत्सव में दुकान आदि लगाने के लिये राजा की ओर से आर्थिक सहायता दी जावे उसे अधारणीय कहते हैं । तात्पर्य यह है कि यदि किसी को काम करने के लिये रूपये की आवश्यकता हो तो वह किसी से कर्ज़ा नहीं लेगा, प्रत्युत राजा अपनी ओर से उसे रुपया देगा जोकि फिर वापिस नहीं लिया जायेगा । ऐसी व्यवस्था जिस उत्सव कहा जाता है । I में हो उसे अधारणीय (७) अनुद्धत मृदंग - जिस उत्सव में वादकों बजाने वालों ने, मृदङ्ग - तबलों को बजाने के लिये ठीक ढंग से ऊंचा कर लिया है। अथवा जिसमें बजाने वालों ने बजाने के लिये मृदंगों को परिगृहीत- ग्रहण किया हुआ हो, उस उत्सव को अनुद्भूतमृदंग कहा जाता है । (८) अम्लानमाल्यदामा - जिस उत्सव में अम्लान- प्रफुल्लित पुष्प और पुष्पमालाओं का प्रबन्ध किया गया हो, उसे अम्लानमाल्यदामा कहते हैं । (९) गणिकावर नाटकीयकलित जो उत्सव प्रधान वेश्याओं और अच्छे २ नाटक करने वाले नटों से युक्त हो, अर्थात् जिस उत्सव में विख्यात वेश्याओं के गान एवं नृत्यादि का और चित्ताकर्षक नाटकों का विशेष प्रबन्ध किया गया हो, उसे गणिकावर नाटकीयकलित कहते हैं । (१०) अनेकता लाचरानुचरित -तालाचर - ताल बजा कर नाचने वाले का नाम है । जिस उत्सव में ताल बजाकर नाचने वाले अनेक लोग अपना कौशल दिखाते हैं, उस उत्सव को अनेकतालाचरानुचरित' कहते हैं । (११) प्रमुदितप्रक्रीडिताभिराम – जो उत्सव प्रमुदित - तमाशा दिखाने वाले और प्रक्रीडितखेलें दिखाने वालों से श्रभिराम मनोहर हो, उसे प्रमुदितप्रक्रीडिताभिराम कहते हैं । (१२) यथाई – जो उत्सव सर्व प्रकार से योग्य - आदर्श अथवा व्यवस्थित हो उसे यथार्ह कहते हैं । तात्पर्य यह है कि यह उत्सव अपनी उपमा स्वयं ही रहेगा । इस की आदर्शता एवं व्यवस्था 1 अनुपम होगी । C4 ' - करयल• जाव एवं "यहां पठित जाव यावत् पद से विवक्षित पदों का विवर्ण पृष्ठ २४६ पर लिखा जा चुका है। “ – वसहिपायरासेहिं " इस पद का अर्थ वृत्तिकार के शब्दो में - वासकप्रातर्भोजनैः इस प्रकार है । यहां वसति शब्द वासक - पड़ाव का बोधक है और प्रातराश शब्द प्रातःकालीन भोजन का 1 परिचायक है, जिसको कलेवा या नाश्ता भी कहा जाता है । महाबल नरेश के भेजे हुए अनुचरों को सप्रेम उत्तर देकर बिदा करने के बाद अभग्नसेन क्या करता है ? और पुरिमताल नगर में जाने पर उसके साथ क्या व्यवहार होता है ? अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में उस का वर्णन करते हैं - For Private And Personal Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२६३ - मूल-' तते गं से भग्ग सेणे चोरसे० बहूहिं मित्त० जाव परिवुड़े रहाते जाव पायच्छिते सव्वालंकारभूसिते सालाडवी ओ चोरपल्लीओ पडिनिक्खमति २ ता जेणेव पुरिमताले गरे जेणेव महब्बले राया तेणेव उवा० २ चा करयल० महब्बलं रायं जपणं विजएणं बद्धावेति वद्धावेत्ता, महत्थं जाव पाहुडं उवणेति । तते ग से महब्वले राया भग्गसेस्स चोरसे ० तं महत्थ जाव पडिच्छति । अभग्ग सेणं चोर सेणावतिं सक्कारेति २ संमाणेति २ पडिविसज्जेति । कूडागारसालं च से अवसहं दलयति । तते गं से भग्गसेणे चोरसेणावती महले रणा विसज्जिते समाणे जेणेव कूडागारसाला तेणेव उवागच्छति । तते गं से महब्बले या कोडु बियपुरिसे सदावेति २ ता एवं वयासी-गच्छह णं तुब्भे देवाणु० ! विउलं असणं ४ उवक्खडावेह २ तं विउलं असणं ४ सुरं च ५ सुबहु पुष्पवत्थगंधमल्लालंकारं च अभग्गसेणस्स चोर से ० कूड़ागारसालाए उवरोह । तते गं कोड बियपुरिसा करयल० जाव उवर्णेति । तते गं से अभग्ग सेणे चोर सेणावई बहूहि मित्त० सद्धि संपरिवुड़े एहाते जाव सव्वालंकाराविभूसिते तं विउलं असणं ४ सुरं च ५ आसाएमाणे ४ पमत्ते विहरति । 1 पदार्थ - तते गं - तदनन्तर । से- वह । श्रभग्ग सेणे - अभग्नसेन । चोरसे० - चोर - सेनापति । बहूहिं - बहुत से । मित्त० - मित्रों से । जाव- यावत् । परिवुडे परिवृत - घिरा हुआ ! राहाते - नहाया । जाव - यावत् । पायच्छत्ति - दुष्ट स्वप्नादि के फल को नष्ट करने के लिये प्रायश्चित्त के रूप में मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य किए हुए । सव्वालंकार - विभूसिते - सब आभूषणों से अलंकृत हुआ । सालाडवीश्री - शालाटवी नामक । चोरपल्लीश्रोचोरपल्ली से । पडिनिकखमति २ त्ता- निकलता है, निकल कर । जेणेव - जहां पर । पुरिमताले - पुरिमताल । गगरे - नगर था और । जेणेव - जहां पर । महब्बले - महाबल । राया - राजा - (१) छाया - ततः सोऽभग्नसेनश्वोर सेनापतिर्बहू भिमिंत्र० यावत् परिवृतः स्नातो यावत् प्रायश्वित्तः सर्वालंकारभूषितः शालाटवीतश्चोरपल्लीतः प्रतिनिष्क्रामति २ यत्रेव पुरिमतालं नगरं यत्रैव महाबलो राजा तत्रैवोपागच्छति । करतल० महाबलं राजानं जयेन विजयेन वर्धयति, वर्धयित्वा महार्थं यावत् प्राभृतमुपनयति । ततः स महाबलो राजाऽभग्नसेनस्य चोरसेनापतेस्तद् महार्थं यावत् प्रतीच्छति । For Private And Personal भग्नसेनं चोरसेनापतिं सत्कारयति २ संमानयति २ प्रतिविसृजति । कूटाकारशालां च तस्यावसथं दापयति । ततः सोऽभग्नसेनश्चोरसेनापतिः महाबलेन राज्ञा विसर्जितः सन् यत्रैव कूटाकारशाला तत्रैवोपागच्छति । ततः स महाबलो राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति एवमवादीत् - गच्छत यूयं देवानुप्रिया ! विपुलमशनं ४ उपस्कारयत २ तद् विपुलमशनं ४ सुरां च ५ सुबहु पुष्पवस्त्रगंधमाल्यालंकारं च भग्नसेनस्य चोरसे० कूटाकारशालायामुपनयत । ततस्ते कौटुबिकपुरुषाः करतल० यावदुपनयन्ति । ततः सोऽभग्नसेनश्चोरसेनापतिः बहुभि: मित्र० सार्द्धं संपरिवृतः स्नातो यावत् सर्वालंकार विभूषितस्तद् विपुल - मशनं ४ सुरां च ५ श्रास्वादयन् ४ प्रमत्तो विहरति । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २६४] श्री वपाक सूत्र अध्याय था । तेणेव-वहां पर । उवा० २ ता-आजाता है, आकर । करयल०-दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अजली कर के । महब्बलं -महाबल । गयं-राजा को । जएणं-जय एवं । विजएण-विजय शब्द से । वद्धावेति- बधाई देता है । वद्धावेत्ता - बधाई देकर । महत्थं- महार्थ । जाव-यावत् । पाहुडं - प्राभूत-उपहार को । उवणेति - अर्पण करता है । ततेणं-तदनन्तर । से-उस । महब्धले - महाबल । राया-नरेश | अभग्गसेस्स -अभग्नसेन । चोरसे०-चोरसेनापति के । तं-उस । महत्थं-महार्थ । जाव-यावत् प्राभृत-भेंट को। पडिच्छति-स्वीकार किया और । अभग्गसेणं - अभग्नसेन । चोरसेणावति-चोरसेनापति का। सक्कारेति २ संमाणेति २- सत्कार किया और सम्मान किया, सत्कार सम्मान करके उसे । पडिविसज्जेति-प्रतिविसर्जित किया -बिदा किया । च-और । से-उसे । कूडागारसालंकुटाकारशाला में । श्रावसहं-ठहरने के लिये स्थान । दलयति -दिया। तते णं-तदनन्तर । सेवह । अभग्गसेणे-अभग्नसेन । चोरसे गावती - चोरसेनापति । महब्बलेणं-महाबल । रगणाराजा से । विसज्जिते समाणे - बिदा किया हुआ । जेणेव-जहां पर । कूड़ागारसाला-कूटाकारशाला थी। तेणेव-वहां पर । उवागच्छति-पाता है और अाकर वहां ठहर जाता है । तते णं- तदतन्तर | से-उस । महब्बले - महाबल । राया--राजा ने । कोडुवियपुरिसे-कोटुम्बिकपुरुषों को । सद्दावेति २ त्ता-बुलाया और बुलाकर वह । एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगा। देवाणु० !- हे भद्र पुरुषो!। तुब्भे- तुम । गच्छह णं- जाओ, जाकर । विउलं-विपुल । असणं ४-अशन, पान, खादिम और स्वादिम को । उवक् वाडावेह २-तैयार कराओ, तैयार करा कर । तं-उस । विउलं - विपुल । असणं ४-अशनादिक सामग्री । सुरं च ५--और सुरादिक पांच प्रकार के मद्यों को तथा । सुबहु-अनेकविध । पुष्क-पुष्प । वत्थ-वस्त्र । गंध-सुगंधित द्रव्य । मल्लालंकारं च -और माला तथा अलंकारादि को । अभग्गसेणस्स -अभग्नसेन । चोरसे०-चोरसेनापति को । कूडागारसालाए-कूटाकारशाला में । उवणेह-पहुँचानो। ततेतदनन्तर । ते-वे । कोडुबियपुरिसा-कौटुम्बिक पुरुष । करयल०-दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि कर के । जाव-यावत् । उवणेति - उन सब पदार्थों को वहां पहुंचा देते हैं । तते णं-तदनन्तर । से-वह । अभग्गसेणे-अभग्नसेन । चोरसेणावई-चोरसेनापति बहूहिं-अनेक । मित्त०-मित्रादि के । सद्धिं-साथ । संपरिवुड़े-संपरिवृत - घिरा हुआ । एहायास्नान किये हुए । जाव-यावत् । सव्वालंकारविभूसिते-सम्पूर्ण अलंकारों से विभूषित हुआ । तं-उस । विउलं-विपुल । असणं ४-अशनादिक । सुरं च ५-सुरादिक-पञ्चविध-मद्यों का। आसाएमाणे ४-आस्वादन, विस्वादन आदि करता हुआ । पमत्त-प्रमत्त हो कर। विहरतिविहरण करता है। मूलार्थ-तदनन्तर मित्र आदि से घिरा हुआ वह अभग्नसेन चोरसेनापति स्नान से निवृत्त हो, यावत् अशुभ स्वप्न का फल विनष्ट करने के लिए प्रायश्चित्त के रूप में मस्तक पर तिलक और अन्य मागिलक कार्य करके समस्त प्राभूषणों से अलंकृत हो शालाटवी चोरपल्ली से निकल कर जहां पुरिमताल नगर था और जहां पर महाबल नरेश था वहां पर आता है आकर दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नम्खों वाली अंजलि करके महाबल नरेश को जय एवं विजय शब्द से बधाई देता है, बधाई दे कर महार्थ यावत् राजा के योग्य प्राभृत-भेण्ट For Private And Personal Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२६५ अपण करता है । तदनन्तर महाबल नरेश अभग्नसेन चोरसेनापति द्वारा अर्पण किये गये उस उपहार को स्वीकार करके उसे सत्कार और सन्मान पूर्वक अपने पास से बिदा करता हश्रा कूटाकारशाला में उसे रहने के लिए स्थान दे देता है। तदनन्तर अभग्नसेन चोरसेनापति महाबल नरेश द्वारा सत्कारपूर्वक विसर्जित हो कर कूटाकारशाला में जाता है और वहां पर निवास करता है। इधर महाबल नरेश ने कौट बिक परुषों को बुला कर कहा कि तुम लोग विपल अशनादिक सामग्री को तैयार कराओ और उसे, तथा पांच प्रकार को मदिराओं एवं अनेकविध पुष्पों, मालाओं और अलंकारों को कुटाकारशाला में अभग्नसेन चोरसेनापति की सेवा में पहुंचादो । कौटम्बिक पुरुषां ने राजा की आज्ञा के अनुसार विपुल अशनादिक सामग्री वहां पहुचा दी । तदनन्तर अभग्नसेन चोरसेनापति स्नानादि से निवृत्त हो, समस्त आभूषणों को पहन कर अपने बहुत से मित्रों और ज्ञाति ननों के साथ उस विपुल अशनादिक तथा पंचविध सुरा आदि का सम्यक् आस्वादन, विस्वादन आदि करता हुआ प्रमत्त हो कर विहरण करने लगा। टोका-महाबल नरेश द्वारा प्राप्त निमंत्रण को स्वीकार करने के अनन्तर चोरपल्ली के सेनापति अभग्नसेन ने अपने साथियों को बुला कर महाबल नरेश के निमंत्रण का सारा वृत्तान्त कह सनाया और साथ में यह भी कहा कि मैंने निमंत्रण को स्वीकार कर लिया है. अत: हमें वहां चलने की तैयारी करनी चाहिये १ क्योंकि महाराज महाबल हमारी प्रतीक्षा कर रहे होंगे । यह सुन सब ने अभग्नसेन के प्रस्ताव का समर्थन किया और सब के सब अपनी २ तैयारी करने में लग गये । स्नानादि से निवृत्त हो और अशुभ स्वप्नादि के फल को विनष्ट करने के लिए मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य करके सब ने समस्त आभूषण पहने और पहन कर अभग्नसेन के साथ चोरपल्ली से परिमताल नगर की ओर प्रस्थान किया । अपने साथियों के साथ अभग्नसेन बड़ी सजधज के साथ महाबल नरेश के पास पहुँचा, पहुँच कर महाराज को "-महाराज की जय हो, विजय हो-" इन शब्दों में बधाई दी और उन को राजोचित उपहार अर्पण किया। महाराज महाबल नरेश ने भी अभग्नसेन की भेएट को स्वीकार करते हुए, साथियों समेत उस का पूरा २ सत्कार एवं सम्मान किया और उसे कूटाकारशाला में रहने को स्थान दिया, तथा अपने पुरुषों द्वारा खान पानादि की समस्त वस्तुएं उस के लिए वहां भिजवा दी । इधर अभग्न सेन भी उस का ययारुचि उपभोग करता हुआ अपने अनेक मित्रों और जातिजनों के साथ आमोद प्रमोद में प्रमत्त हो कर समय व्यतीत करने लगा, अर्थात् महाबल नरेश ने खान पानादि से उस की इतनी आवभगत की कि वह उस कूटाकारशाला को अपना ही घर समझ कर मन में किसी भी प्रकार का भविष्यत्कालीम भय न करता हुआ अर्थात् निर्भय एव निश्चिन्त अपने आप को समझता हुआ, आमोद प्रमोद में समय बिताने लगा । इन्हीं भावों को अभिव्यक्त करने के लिए सूत्रकार ने पमत्त-प्रमत्त, इस पद का प्रयोग किया है। __--मित्त. जाव परिवुडे-"यहां के जाव-यावत् पद से –णाइ-णियगसयण -सम्बन्धि-परिजणेणं सद्धि सं-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। मित्र आदि पदों की व्याख्या पृष्ठ १५० की टिप्पण में कर दी गई है । "-एहाते जाव पायच्छित्त-"यहां पठित जाव-यवात् पद से विवक्षित पदों का वर्णन For Private And Personal Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २६६] श्री विपाक सूत्र [तीसरा अध्याय पृष्ठ १७६ तथा १७७ पर किया जा चुका है । तथा-करयल०-यहां की बिन्दु से विवक्षित पाठ पीछे पृष्ठ २४६ पर लिखा जा चुका है । तथा-महत्थं जाव पाहुडं - यहां पठित जाव-यावत् पद से-महग्धं महरिहं रायारिहं-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन पदों की व्याख्या पीछे पृष्ठ २४० पर की जा चुकी है । तथा-महत्थं जाव पडिच्छति- यहां के जाव-यावत् पद से -महग्धं-आदि पदों का ही ग्रहण करना चाहिये ।। -असणं ४-तथा-सुरं च ५-एवं-आसाएमाणे ४-यहां के अकों से विवक्षित पदों की व्याख्या क्रमशः पृष्ठ ४८ तथा पृष्ठ १४४ एवं पृष्ठ १४५ पर की जा चुकी है । महाबल नरेश के द्वारा चोरसेनापति अभग्नसेन का इतना सत्कार क्यों किया गया। इस का उत्तर स्पष्ट है । यह सब कुछ उसे विश्वास में लाकर पकड़ने का ही उपाय -विशेष है । इसी विषय से से सम्बन्ध रखने वाला वर्णन अग्रिमसूत्र में दिया गया है, जो कि इस प्रकार है मूल--' तते णं से महब्बले राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेति २ एवं वयासी - गच्छह णं तुम्भे देवाणु० ! पुरिमतालस्स णगरस्स दुवाराई पिधेह २ अभग्गसेणं चोरसेणा० जीवग्गाहं गेएहह २ ममं उवणेह । तते णं ते कोड विय० करयल० जाव पडिसुणेति २ पुरिमतालस्स णगरस्स दुवाराई पिहेंति । अभग्गसेणं चोरसे० जीवग्गाहं गेएहति २ महब्बलस्स रगणा उवणेति । तते णं से महब्बले राया अभग्गसेणं चोरसे० एतेणं विहाणेणं वझं आणवेति । एवं खलु गोतमा ! अभग्गसेणे चोरसेणावती पुरा पुराणाणं जाब विहरति । पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । से-उस । महब्बले-महाबल । राया-राजा ने । कोड बियपुरिसे-कौटुम्बिक पुरुषों को । सद्दावेति २ ता-बुलाया, बुला कर । एवं-इस प्रकार । वयासी-कहा। देवाणु० !- हे भद्र पुरुषो! । तुब्भे-तुम लोग । गच्छह णं - जागो । पुरिमतालस्सपुरिमताल । णगरस्स- नगर के । दुवाराई-द्वारों को। पिधेह२ - बन्द कर दो, बन्द करके । अभग्गसणंअभग्नसेन । चोरसे०-चोरसेनापति को । जीवग्गाहं-जीते जी । गण्हह २-पकड़ लो, पकड़ कर । ममं-मेरे सामने । उवणेह-उपस्थित करो । तते णं - तदनन्तर । ते-वे । कोडुबिय०-कौटुम्बिक पुरुष । करयल० जाव- दोनों हाथ जोड़ यावत् अर्थात् मस्तक पर दम नखों वाली अंजलि करके राजा के उक्त आदेश को। पडिसुणेति २ त्ता- स्वीकार करते हैं, स्वीकार कर । पुरिमतालस्स - पुरिमताल । णगरस्स-नगर के । दुवाराई - द्वारों को। पिहेंति –बन्द कर देते हैं और | अभग्गसणं-अभग्नसेन । चोरसेणा०-चोरसेनापति को । जीवग्गाहं - जीते जी । गेण्हंति २- पकड़ लेते हैं, पकड़ कर । (१) छाया -तत: स महाबलो राजा कौटुम्धिकपुरुषान् शब्दयति २ एवमवादीत् --गछत यूयं देवानुप्रियाः ! पुरिमतालस्य नगरस्य द्वाराणि पिधत्त २ अभग्न पेनं चोरसेनापति जीवग्राहं गृह्णीत २ मह्यमुपनयत । ततस्ते कौटुम्बिक० करतल. यावत् प्रतिशृण्वन्ति २ पुरिमतालस्य नगरस्य द्वाराणि पिदधति । अभग्नसेनं चोरसेनापति जीवग्राहं गृह्णन्ति २ महाबलाय राज्ञे उपनयन्ति । ततः स महाबलो राजा अभग्नसेनं चोरसेनापति एतेन विधानेन वध्यमाज्ञापयति । एवं खलु गौतम ! अभग्नसेनः चोरसेनापतिः पुरा पुराणानां यावत् विहरति । For Private And Personal Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । २६७ महब्बलस्त-महाबल । रराणो-राजा के पास । उवणे ति-उपस्थित कर देते हैं । तते णं-तदनन्तर महब्बले-महाबल । राया-राजा । अभग्गसेणं-अभग्नसेन । चारसे०-चोरसेनापति को । एतेणं विहाणेणं - इस (पूर्वोक्त) विधान -प्रकार से । वज्झ-यह मारा जाए-ऐसी । आणवेति-राजपुरुषों को आज्ञा देता है । एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही । गोतमा!-हे गौतम ! | अभग्गसेणे-अभग्नसेन चोरसेणावती-चोरसेनापति । पुरा-पूर्वकृत । पुराणाणं जाव-पुराने दुष्कर्मा का यावत् प्रत्यक्ष फल भोगता हुआ । विहरति - जीवन बिता रहा है । मूलार्थ- तदनन्तर अभग्नसेन को सत्कारपूर्वक कूटाकारशाला में ठहराने के बाद महाबल नरेश ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर इस प्रकार कहा कि हे भद्र पुरुषो! तुम लोग जाओ, जाकर पुरिमताल नगर के दर्वाजों को बन्द कर दो और चोरपल्ली के चोरसेनापति को जीते जी (जीवित दशा में ही) पकड़ लो, पकड़ कर मेरे पास उपस्थित करो। तदनन्तर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने राजा की इस आज्ञा को दोनों हाथ जोड़ कर मस्तक पर दस नखों वाली अजलि करके शिरोधार्य किया और पुरिमताल नगर के द्वारों को बन्द करके चोरसेनापति को जीते जी पकड़ कर महाबल नरेश के सामने उपस्थित कर दिया। तदनन्तर महाबल नरेश ने अभग्नसेन नामक चोरसेनापति को इस (पूर्वोक्त पृष्ठ २०६ पर लिखे) प्रकार से यह मारा जाए-ऐसी आज्ञा प्रदान कर दी। ___ श्रमण भगवान महावीर स्वामी कहते हैं कि हे गौतम ! इस प्रकार निश्चित रूप से वह चोरसेनापति अभग्नसेन पूर्वोपार्जित पुरातन पापकर्मों के विपाकोदय से नरक-तुल्य वेदना का प्रत्यक्ष अनुभव करता हुआ समय बिता रहा है। टीका-प्रस्तुतसूत्र में चोरपल्ली के सेनापति अभमसेन से युद्ध में दण्डनायक सेनापति के पराजित हो जाने पर मन्त्रियों के परामर्श से साम, दान और भेदनीति का अनुसरण करके महाबल नरेश ने अभग्नसेन का जिस प्रकार से निग्रह किया, उस का दिग्दर्शन मात्र कराया गया है । महाबल नरेश ने जो कुछ किया वह धार्मिक दृष्टि से तो भले ही अनुमोदना के योग्य न हो परन्त राजनीति की दृष्टि से उसे अनुचित नहीं कह सकते । एक आततायी अथच अत्याचारी का निग्रह जिस तरह से भी हो, कर देने की नीतिशास्त्र की प्रधान आज्ञा है। अभग्नसेन जहां शरवीर और साहसी था, वहां वह लुटेरा, डाकू और आततायी भी था, अतः जहां उसे वीरता के लिये नीतिशास्त्र के अनुसार प्रशंसा के योग्य समझा जाए वहां उस के अत्याचारों को अधिक से अधिक निन्दास्पद मानने में भी कोई आपति नहीं हो सकती । नीतिशास्त्र का. कहना है कि जो राजा निरपराध और आततायियों के अत्याचारों से पीडित प्रजा की पुकार को सुन कर उस के दुःख निवारणार्थ अत्याचार करने वालों को शिक्षा नहीं करता, नहीं देता. वह कभी भी शासन करने के योग्य नहीं ठहराया जा सकता । इसी लिये नीति के मर्मज्ञ महाबल नरेश ने अभमसेन चोरसेनापति का निग्रह करने के लिये राजपुरुषों को बुला कर आज्ञा दी कि भद्रपुरुषो ! अभी जाओ और जा कर पुरिमताल नगर के द्वार बन्द कर दो तथा कुटाकारशाला में अवस्थित अभग्नसेन चोरसेनापति को बन्दी बना कर मेरे सामने उपस्थित करो, परन्तु इतना ध्यान रखना कि तुमारा यह काम इतनी सावधानी और तत्परता से होना चाहिए कि अभग्नसेन जीवित ही पकड़ा जाए, कहीं वह अपने को असहाय पा कर आत्महत्या न कर डाले। For Private And Personal Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २६८ श्री वपाक सूत्र [तोसरा अध्याय अथवा उसकी पकड़धकड़ में कहीं उस पर कोई मार्मिक प्रहार न कर देना जिस से उस का वहीं जीवनान्त हो जाए अर्थात उसे जोवित हो पकड़ना है. इस बात का विशेष ध्यान रखना. ताकि प्रजा को पीडित करने के फल को वह तथा प्रजा अपनी आंखों से देख सके । अाज्ञा मिलते ही महाराज को नमस्कार कर राजपुरुष वहां से चले और पुरिमताल नगर के द्वार उन्हों ने बन्द कर दिए, तथा कुटाकारशाला में जा कर अभग्नसेन चोरसेनापति को जोते जो पकड़ लिया एवं बन्दी बना कर महाराज महाबल के सामने उपस्थित किया । बन्दी के रूप में उपस्थित हुए अभग्नसेन चोरसेनापति को देख कर तथा उस के दानवीय कृत्यों को याद कर महाबल नरेश क्रोध से तमतमा उठे और दान्त पीसते हुए उन्होंने मंत्री को आज्ञा दी कि पुरिमताल नगर के प्रत्येक चत्वर पर बैठा कर इसे तथा इस के सहयोगी सभी पारिवारिक व्यक्तियों को ताड़नादि द्वारा दण्डित करो एव विडम्बित करो, ताकि इन्हें अपने कुकृत्यों का फल मिल जाए और जनता को-चोरों एवं लुटेरों का अन्त में क्या परिणाम होता है १ - यह पता चल जाए तथा अन्त में इसे सूली पर चढ़ा दो । मंत्री ने महाबल नरेश की इस अाज्ञा का जिस रूप में पालन किया उस का दिग्दर्शन पृष्ठ २०६ पर कराया जा चुका । पाठक वहीं देख सकते हैं । प्रस्तुत कथा-सन्दर्भ में एक ऐसा स्थल है जो पाठकों को सन्देह-युक्त कर देता है। पूज्य श्री अभयदेव सूरि ने इस सम्बन्ध में विशिष्ट ऊहापोह करते हुए उसे समाहित करने का बड़ा ही श्लावनीय प्रयत्न किया है। प्राचार्य अभयदेव सूरि का वह वृत्तिगत उल्लेख इस प्रकार है - "ननु तीर्थकरा यत्र विहरन्ति तत्र देशे पंचविंशतेोजनानाम्, आदेशान्तरेण द्वादशानां मध्ये तीर्थकरातिशयाद् न वैरादयोऽनर्था भवन्ति, यदाह 'पुवुप्पन्ना रोगा पसमंति ईइवइरमारीओ, अइबुट्ठी अणावुट्टी न होइ दुब्भिक्खं डमरं च ॥१॥ __तत्कथं श्रीमन्महावीरे भगवति पुरिमतालनगरे व्यवस्थित पवाभग्नसेनस्य पूर्ववर्णितो व्यतिकरः सम्पन्न इति ? अत्रोच्यते-“सर्वमिदमानर्थजातं प्राणिनां स्वकृतकर्मणः सकाशादुपजायते, कर्म च द्वेधा-सोपक्रमं निरुपक्रम च, तत्र यानि वैरादोनि सोपक्रमकर्मसंपाद्यानि तान्येव जिनातिशयादुपशाम्यन्ति, सदोषधात् साध्यव्याधिवत् । यानि तु निरुपक्रमकर्मसम्पाद्यानि तानि अवश्यं विपाकतो वेद्यानि, नोपक्रमकारणविषयाणि, असाभ्यव्याधिवत् । अत एव सर्वातिशयसंपत्समन्विताना जिनानामप्यनुपशान्तवैरभावा गोशालकादय उपसर्गान् विहितवन्तः" । इन पदों का भावार्थ निम्नलिखित है शास्त्रकारों का कथन है कि जिस राष्ट्र, देश वा प्रान्त में तथा जिस मंडल, जिस ग्राम और जिस भूमि में तीर्थकर२ देव विराजमान हों, उस स्थान से २५ योजन की दूरी तक अर्थात् २५ योजन के मध्य में तीर्थकरदेव के अतिशय-विशेष से अर्थात उन के आत्मिकतेज से वैर तथा दुर्भिक्ष श्रादिक अनर्थ नहीं होने पाते । जैसे कि कहा है (१) पूर्वोत्पन्ना रोगा: प्रशाम्यन्ति ईतिवैरमार्यः। अतिवृष्टिरनावृष्टिर्न भवति दुर्भिक्ष डमरं च ॥१॥ . (२) साधु सान्वी और श्रावक श्राविका रूप चतुर्विध संघ को तीर्थ कहते हैं, उसके संस्थापक का नाम तीर्थकर है। For Private And Personal Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तोरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित | [ २६९ तीर्थंकर देव के अतिशयविशेष से २५ योजन के मध्य में पूर्व उत्पन्न रोग शान्त हो जाते हैं— नष्ट हो जाते हैं और भविष्य में सात उपद्रव भी उत्पन्न नहीं होने पाते । सात उपद्रवों के नाम हैं - (१) ईति (२) र (३) मारी (४) अतिवृष्टि ( ५ ) अनावृष्टि (६) दुर्भिक्ष और (७) डम ति आदि पदों का भावार्थ निम्नोक्त है (१) ईति - खेती को हानि पहुंचाने वाले उपद्रवों का नाम वृष्टि - वर्षा का अधिक होना, (२) अनावृष्टि - वर्षा का अभाव, (४) चूहा लगना, (५) तोते आदि पक्षियों का उपद्रव, (६) दूसरे छः प्रकार का होता है ' । ईति है और वह (१) अति( ३ ) टिड्डीदल का पडना, राजा की चढाई - इन भेदों से 66 33 स्वचक्रमय अर्द्धमागधीकोषकार ईति शब्द का अर्थ भय करते हैं और वह उसे सात प्रकार का मानते हैं । छः तो ऊपर वाले ही हैं, सातवां उन्हों ने अधिक माना । तथा प्राकृतशब्द महार्णवकोषकार ईति शब्द का धान्य वगैरह को नुकसान पहुँचाने वाला चूहा आदि प्राणिगण - ऐसा अर्थ करते हैं । परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में ईति शब्द से खेती को हानि पहुंचाने वाले चूहा, टिड्डी और तोता श्रादि प्राणिगण, यही अर्थ अपेक्षित है क्योंकि अतिवृष्टि आदि का सात उपद्रवों में स्वतन्त्ररूपेण ग्रहण किया गया है । (२) वैर - शत्रुता, (३) मारी - संक्रामक भीषण रोग, जिस से एक साथ ही बहुत से लोग मरें, मरी, प्लेग आदि । (४) अतिवृष्टि - अत्यन्त वर्षा, (५) नावृष्टि - वर्षा का अभाव, (६) दुर्भिक्ष - ऐसा समय जिस में भिक्षा या भोजन कठिनता से मिले - अकाल, (७) डमर - राष्ट्रविप्लवराष्ट्र के भीतर या बाहिर उपद्रव का होना । सारांश यह है कि जहां पर तीर्थकर भगवान विराजते या विचरते हैं वहां पर उनके आस पास २५ योजन के प्रदेश में ये पूर्वोक्त उपद्रव नहीं होने पाते, और अगर हों तो मिट जाते हैं, यह उनके अतिशय का प्रभाव होता है । तब यदि यह कथन यथार्थ है तो पुरिमताल नगर में जहां कि श्री वीर प्रभु स्वयं विराजमान है, चोरसेनापति प्रभमसेन के द्वारा ग्रामादि का दहन तथा अराजकता का प्रसार क्यों ? एवं उसे विश्वास में लाकर बन्दी बना लेने के बाद उस के साथ हृदय को कंपा देने वाला इतना कठोर और निर्दय व्यवहार क्यों ? जिस महापुरुष के अतिशय विशेष से २५ योजन जितने दूर प्रदेश में भी उक्त प्रकार का कोई उपद्रव नहीं होने पाता, उनकी स्थिति में - एक प्रकार से उन के सामने, उक्त प्रकार का उपद्रव होता दिखाई दे, यह एक दृढ़ मानस वाले व्यक्ति के हृदय में भी उथलपुथल मचा देने वाली घटना है । इस लिये प्रस्तुत प्रश्न पर विचार करना आवश्यक ही नहीं नितान्त आवश्यक हो जाता है । उत्तर - इस प्रकार की शंका के उत्पन्न होने का कारण हमारा व्यापक बोध है । जिन महानुभावों का शास्त्रीय ज्ञान परिमित होता हैं, उन के हृदय में इस प्रकार के सन्देह को स्थान प्राप्त होना कुछ आश्चर्यजनक नहीं है । अस्तु, अब उक्त शंका के सभाधान की ओर भी पाठक ध्यान दें For Private And Personal संसार में अनुकूल या प्रतिकूल जो कुछ भी हो रहा है, उस का सब से मुख्य कारण जीव का स्वकृत शुभाशुभ कर्म है । शुभाशुभ कर्म के बिना यह जीव इस जगत् में कोई भी (१) अतिवृष्टिरनावृष्टिः शलभा मूषकाः शुकाः । प्रत्यासन्नाश्च राजानः षडेते इतयः स्मृताः ।। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २७० श्रीविपाक सूत्र [तोसरा अध्याय व्यापार नहीं कर सकता। वह शुभ या अशुभ कर्म दो प्रकार का होता है। पहला -सोपक्रम और दसरा निरुपक्रम । (१ किसी निमित्तविशेष से जिन कर्मों को क्षय किया जा सके वे कर्म सोपक्रम (सनिमित्तक) कहलाते हैं । (२) तथा जिन कर्मों का नाश बिना किसी निमित्त के अपनी स्थिति पूर्ण होने पर ही हो, अर्थात् जो किसी निमित्तविशेष से विनष्ट न हो सके, उन कर्मों को निरुपक्रम (निनिमित्तक) कहते हैं। तब जो वैरादि उपद्रव सोपक्रमकर्मजन्य होते है वे तो तीर्थंकरों के अतिशयविशेष से उपशान्त हो जाते हैं और जो निरुपक्रमकर्मसम्पादित होते हैं वे परम असाध्य रोग की तरह तीर्थकर देवों की अतिशय -परिधि से बाहिर होते हैं । अब इसी विषय को एक उदाहरण के द्वारा समझिये - ___ व्याधिये दो प्रकार की होती हैं । एक साध्य और दूसरी असाध्य । जो व्याधि वैद्य के समुचित औषधोपचार से शान्त हो जाये वह साध्य और जिस को शान्त करने के लिये अनुभवी वैद्यों की रामबाण औषधिये भी विफल हो जायें. वह असाध्य व्याधि है । तब प्रकृत में सोपक्रमकमजन्य विपाक तो साध्यव्याधि की तरह तीर्थकर महाराज के अतिशय से उपशान्त हो जाता है परन्तु जो विपाक - परिणाम निरुपक्रमकर्मजन्य होता है, वह असाध्य रोग की भान्ति तीर्थंकर देव के अतिशय से भी उपशान्त नहीं हो पाता । इसी भाव को विशेष रूप से स्पष्ट करने के लिये यदि यू कह दिया जाए कि निकाचित कर्म से निष्पन्न होने वाला विपाक-फल तीर्थकरों के अतिशय से नष्ट नहीं होता किन्तु जो विपाक अनिकाचित - कर्म - सम्पन्न है उसका उपशमन तीर्थंकरदेव के अतिशय से हो सकता है । यदि ऐसा न हो तो सम्पूर्ण अतिशयसम्पति के स्वामी श्रमण भगवान् महावीर जैसे महापुरुषों पर गोशाला जैसी व्यक्तियों के द्वारा किये गये उपसर्गप्रहार कभी संभव नहीं हो सकते । इस से यह भली भान्ति प्रमाणित हो जाता है कि तीर्थकर देवों का अतिशयविशेष सोपक्रमकर्म की उपशान्ति के लिये हैं न कि निरुपक्रमक का भी उस से उपशमन होता है । यदि निरुपक्रमकम भी कोथकरातिशय से उपशान्त हो जाय तो सारे ही कर्म सोपक्रम ही होंगे, निरुपक्रम कर्म के लिये कोई स्थान ही नहीं रह जाता । तथा ईति भीति आदि जितने भी उपद्रव-विशेष हैं ये सब सोपक्रमकर्मसम्पति के अन्तभूत हैं। इस लिए उन का उपशमन भी संभव है। तब इस सारे सन्दर्भ का सारांश यह निकला कि -चोरसेनापति अभमसेन द्वारा पुरिमताल के प्रान्त में जो उपद्रव मचाया जा रहा था अर्थात् जो अराजकता फैल रही थी तथा उसके स्वरूप उसे जो दण्ड प्राप्त हुश्रा, यह सब कुछ उन प्रान्तीय जीवों तथा अभमसेन के पूर्वबद्ध निकाचित कर्मों का ही परिणामविशेष था, जोकि एक परम असाध्य व्याधि की तरह किसी उपायविशेष से दूर किये जाने के योग्य नहीं था । तात्पर्य यह है कि - तीर्थंकरदेव के अतिशय की क्षेत्र-परिधि से (१) एक और उदाहरण देखिए - सेर प्रमाण की एक अोर रूई पड़ी है दूसरी ओर सेर प्रमाण का लोहा है । वायु के चलने पर रुई तो उड़ जाती है जब कि लोहे का सेर - प्रमाण अपने स्थान में पड़ा रहता है । तीर्थंकरों का अतिशय वायु के तुल्य है । सोपक्रमकर्म-सेर प्रमाण रूई के तुल्य हैं और निरुपक्रमकर्म मेर प्रमाण लोहे के तुल्य है । For Private And Personal Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तोसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२७१ यह बाहिर की वस्तु थी। अथवा इस प्रश्न को दूसरे रूप से यूभी समाहित किया जा सकता है कि वास्तव में उक्त घटनाविशेष का सम्बन्ध तो राजनीति से है. इस को उपद्रवविशेष कहा ही नहीं जा सकता । उपद्रवविशेष तो ईति भीति आदि हैं, जिन का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है, वे उपद्रव तीर्थंकर देव के अतिशय विशेष से अवश्य दूर हो जाते हैं परन्तु अपराधियों को दिये गये दण्ड का उपद्रवों में संकलन न होने के कारण, उसका तीर्थकरदेव के अतिराय के साथ कोई सम्बन्ध नहीं: "-करयल जाव पडिसुणेति- यहां पठित जाव -यावत पद से विवक्षित पदों का निर्देश पृष्ठ २४६ पर किया जा चुका है। ___ "-एतेणं विहाणेणं-"यहां पठित एतद् शब्द से भिक्षा को गए भगवान् गौतम स्वामी ने पुरिमताल नगर के राजमार्ग पर जिस विधान-प्रकार से एक पुरुष को मारे जाने की घटना देखी थी, उस विधान का स्मरण कराना ही सूत्रकार को अभिमत है । तथा एतद् -शब्द - विषयक अधिक ऊहापोह पृष्ठ १७८ पर किया गया है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां उज्झितक कुमार का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में अभग्नसेन का । शेष वर्णन सम है । -पुरा जाव विहरति-यहां के जाव-यावत पद से -पोराणाणं दुच्चिराणाणं दुप्पिडिक्कन्ताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणे- इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन का शब्दार्थ पृष्ठ ४७ पर किया जा चुका है। श्री गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर से जो प्रश्न किया था, उस का उत्तर भगवान् ने दे दिया । अब अग्रिम सूत्र में गौतम स्वामी की अपर जिज्ञासा का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूल-'अभागसेणे णं भंते ! चोरसेणावती कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववज्जिहिइ ? गोतमा ! अभग्गसेणे चोग्से० सत्ततीसं वासाई परमाउयं पालइत्ता अज्जेब तिभागावसेसे दिवसे मूलभिन्ने कते समाणे कालगते इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसे० नरेइएसु उवविज्जिहिइ । से णं ततो अणंतरं उचट्टित्ता, एवं संसारो जहा पढमे जाव पुढवीए० । ततो उच्चट्टित्ता बाणारसीए णगरीए मयरत्ताए पच्चायाहिति, से णं तत्थ सोयरिएहिं जीवियाउ ववरोविए समाणे तत्थेव बाणारसीए णगरीए सेडिकुलसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिति, से णं तत्थ उम्मुबालभावे, (१) छाया-अभग्नसेनो भदन्त ! चोरसेनापति: कालं कृत्या कुत्र गमिष्यति ? कुत्रोपपस्यते । गौतम ! अभग्नसेनश्वोरसेनापतिः सप्तत्रिंशतेवर्षाणि परमायुः पालयित्वा अद्य व त्रिभागावशेषे दिवसे शूलभिन्नः कृतः सन् कालगतोऽस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां उत्कर्षेण नैरयिकेधूपपत्स्यते । ततोऽनन्तर. मुद्धृत्य, एवं संसारो यथा प्रथमो यावत् पृथिव्याम् । तत उदृत्य वाराणस्यां नगर्या शूकरतया प्रत्यायास्यति स तत्र शौकरिकैजीर्वनाद् व्यपरोपितः सन् तत्रैव वाराणस्यां नगर्यां श्रेष्ठिकुले पुत्रतया प्रत्यायास्यति । स तत्रोन्मुक्तबालभावः, एवं यथा प्रथम: यावदन्तं करिष्यतीति निक्षेपः । । तृतीयमध्ययनं समाप्तम् ॥ For Private And Personal Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री विपाक सूत्र - २७२] एवं जहा पढमे, जाव अंतं काहिति निक्खेवो । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥ ततियं अज्झयणं समत्तं ॥ - पदार्थ - भंते! - हे भगवन् ! । श्रभग्गसेणे - श्रभग्नसेन । चोरसेणावती - चोरसेनापति । कालमासे - कालमास में मृत्यु के समय । कालं किव्वा - काल करके । कहिं-कहां । छ ? - जायेगा ? । कहिं - कहां पर । उववज्जिहिर १ - उत्पन्न होगा ? । गोतमा ! - हे गौतम! | भाणे - अभग्नसेन । चोरसे० - चोरसेनापति । सतातीसं - सैंतीस ३७ । वासाई -वर्षा की । परमाउयं - परमायु । पालइत्ता - पाल कर भोग कर । अज्जेव आज ही । तिभागावलेलेत्रिभागावशेष अर्थात् जिस का तीसरा भाग बाकी हो ऐसे । दिवसे - दिन में । सूलभिन्नेसूली से भिन्न । कते समाणे – किया हुआ । कालगते - काल-मृत्यु को प्राप्त हुआ । इमीसेइस । रयणप्पभाए – रत्नप्रभा नामक | पुढवीर. - नरक में । उक्कोसे० – जिन की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की है, ऐसे । नेरइएसु- नारकियों में । उववज्जिहि - उत्पन्न होगा । ततोवहां से नरक से । श्रणंतरं व्यवधान रहित । उव्वहिता निकल कर । से गं - वह । एवंइसी प्रकार | संसारो - संसारभ्रमण करता हुआ I जहा - - जैसे । पढमे - प्रथम अध्ययनगत मृगापुत्र का वर्णन किया है। जाव- यावत् । पुढवी५० - पृथ्वीकाया में लाखों वार उत्पन्न होगा । ततोवहां से । उव्वहित्ता- निकल कर । वाणारसीए बनारस नामक । णगरीए नगर में I सूयरत्ताण -- शुकर रूप में । पच्चायाहिति- - उत्पन्न होगा । तत्थ - वहां पर । से णं - वह । सोयरिप-िशकर का शिकार करने वालों के द्वारा । जीवियाउ - जीवन से । ववरोविए समाणे - रहित किया हुआ । तत्थेव – उसी । वाणारसीर - बनारस नामक | गरीब - नगरी में । सेकुलसि - श्रेष्ठ - कुल में । पुत्तताए - पुत्र रूप से । पच्चायाहिति - उत्पन्न होगा | तत्थ - वहां पर । से णं - वह । उम्मुकबालभावे - बालभाव - बाल्यावस्था को त्याग कर । जहा - जिस प्रकार । पढमे - - प्रथम अध्ययन में प्रतिपादन किया गया । एवं उसी प्रकार यावत् । तं - जन्म मरण का अन्त । काहि — करेगा अर्थात् जन्म मरण से रहित हो जावेगा । त्तिइति शब्द समाप्त्यर्थक है । निकखेत्रो - निक्षेत्र अर्थात् उपसंहार पूर्ववत् जान लेना चाहिये । ततियं - तृतीय । श्रज्झयणं - अध्ययन । समत्तं - समाप्त हुआ । 1 जाव - -- - [ तीसरा अध्याय For Private And Personal -- - १ मूलार्थ - भगवन् ! अभग्नसेन चोरसेनापति कालावसर में काल करके कह जाएगा तथा कहां पर उत्पन्न होगा ? गौतम ! अभग्नसेन चोरसेनापति ३७ वर्ष की परम आयु को भोग कर आज ही त्रिभागावशेष दिन में सूली पर चढ़ाये जाने से काल करके रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में नारकी रूप से - जिसकी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम को है, उत्पन्न होगा । तदनन्तर प्रथम नरक से निकले हुए का शेष संसारभ्रमण प्रथम अध्ययन में प्रतिपादित मृगापुत्र के संसार - भ्रमण की तरह समझ लेना, यावत् पृथ्वीकाया लाखों बार उत्पन्न होगा । वहां से निकल कर बनारस नगरी में शूकर के रूप में उत्पन्न होगा, वहां पर शौकरिकोंशूकर के शिकारियों द्वारा आहत किया हुआ फिर उसी बनारस नगरी के श्रेष्ठकुल में पुत्र रूप से उत्पन्न होगा । वहा बालभाव को त्याग कर कर युवावस्था को प्रत होता हुआ, यावत् निर्वाणपद को प्राप्त करेगा - जन्म और मरण का अन्त करेगा । निक्षेप - उपसंहार की कल्पना पूर्व की भांति कर लेनी चाहिये । ॥ तृतीय अध्ययन समाप्त ॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तीसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२७३ टीका - प्रस्तुत सूत्र में गौतम स्वामी के प्रश्न तथा भगवान् की ओर से दिये गये उस के उत्तर का वर्णन किया गया है । भगवन् ! श्रभग्नसेन चोरसेनापति यहां से काल करके कहां जायेगा ? और कहां पर उत्पन्न होगा ? और अन्त में उसका क्या बनेगा ? ये गौतम स्वामी के प्रश्न हैं, इनके उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फ़रमाया वह निम्नोत है - गौतम ! अभमसेन चोरसेनापति अपने अनुभव करेगा और पुरिमताल नगर के महाबल के उपलक्ष्य में सूली पर चढ़ादेंगे । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पूर्वोपार्जित दुष्कर्मों के प्रभाव से महती वेदना का नरेश उसे आज ही अपराह्नकाल में उसके अपराधों प्रस्तुत कथा सन्दर्भ में जो यह लिखा है कि अभग्नसेन को अपराह्नकाल में सूली पर चढ़ाया जावेगा, इस पर यहां एक अशंका होती है कि प्रभग्नसेन की - पुरिमताल नगर के प्रत्येक चत्वर पर बैठा कर चाबुकों के भीषण प्रहारों से निर्दयतापूर्वक ताड़ित करना, उसी के शरीर में से निकाले हुए मांसखण्डों का उसे खिलाना, तथा साथ में उसे रुधिर का पान कराना, वह भी एक स्थान पर नहीं प्रत्युत अठारह स्थानों पर इस प्रकार की भीषण एवं मर्मस्पर्शी दशा किये जाने पर भी वह जीवित रहा, उस का वहां पर प्राणान्त नहीं हुआ, यह कैसे ? अर्थात् मानवी प्राणी में इतना बल कहां है कि जो इस प्रकार पर नरकतुल्य दुःखों का उपभोग कर लेने पर भी जीवित रह सके ? इस आशंका का उत्तर निम्नोक्त है - शारीरिक बल का आधार संहनन ( संघयन) होता है । हड्डियों की रचना विशेष का नाम संहनन है । वह छः प्रकार का होता है, जो कि निम्नोक्त है - (१) वज्रऋषभनाराचसंहनन - वज्र का अर्थ कील होता है । ऋषभ वेष्टनपट्ट (पट्टी) को कहते हैं । नाराच शब्द दोनों ओर के मर्कटबन्ध (बन्धनविशेष) के लिये प्रयुक्त होता है । अर्थात् जिस संहनन में दोनों ओर से मर्कटबन्ध द्वारा जुड़ी हुई दो हड्डियों पर तीसरी पट्ट की श्राकृति वाली हड्डी का चारों ओर से वेष्टन हो और जिस में इन तीनों हड्डियों को भेदन करने वाली वज्र नामक हड्डी की कील हो उसे वज्रऋषभनाराचसंहनन कहते हैं । यह संहनन सब से अधिक बलवान होता है । (२) ऋषभनाराचसंहनन - जिस संहनन में दोनों ओर से मर्कटबन्ध द्वारा जुड़ी हुई दो हड्डियों पर तीसरी पट्ट की आकृति वाली हड्डी का चारों ओर से वेष्टन हो, पर तीनों हड्डियों का भेदन करने वाली वज्र नामक हड्डी की कील न हो उसे ऋषभनाराचसंहनन कहते हैं । यह पहले की अपेक्षा कम बलवान होता है । (३) नाराचसंहनन - जिस संहनन में दोनों ओर से मर्कटबन्ध द्वारा जुड़ी हुई हड्डियां हों पर उन्हीं के चारों तरफ वेष्टनपट्ट और वज्र नामक कील न हो उसे नाराचसंहनन कहते हैं । यह दूसरे की अपेक्षा कम बलवान होता है । (४) अर्धनाराचसंहनन - जिस संहनन में एक ओर तो मर्कटबन्ध हो और दूसरी ओर कीली हो उसे अर्धनाराचसंहनन कहते है । यह तीसरे की अपेक्षा कम बल वाला होता है । (५) कीलिकासंहनन - जिस संहनन में हड्डियां केवल कील से जुड़ी हुई हों उसे कीलिकासंहनन कहते हैं । यह चौथे की अपेक्षा कम बल बाला होता है । (६) सेवार्तक संहनन - जिस संहनन में हड्डियां पर्यन्त भाग में एक दूसरे को स्पर्श करती हुई रहती हैं तथा सदा चिकने पदार्थों के प्रयोग एवं तैलादि की मालिश की अपेक्षा रखती For Private And Personal Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २७४ श्री विपाक सूत्र [ तोसरा अध्यय है, उसे सेवार्तक संहनन कहते हैं । यह सब से कमजोर संहनन होता है । इस संहनन .. वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीरगत सबलता एवं निर्बलता संहनन के कारण ही होती है । संहनन यदि सबल होता है तो शरीर भी उसके अनुरूप सबल होता है इसके विपरीत यदि संहनन निर्बल है तो शरीर भी निर्बल होगा । अतः अभमसेन इतना भीपण संकट सह लेने पर भी जो जीवित रहा. अर्थात् उस का प्राणान्त नहीं होने पाया तो इस में केवल संहननगत बलवत्ता को ही कारण समझना चाहिये । आज भी संहननगत भिन्नता के कारण व्यक्तियों में न्यूनाधिक बल पाया जाता है । अपनी छाती पर शिला रखवा कर उसे हथौड़ों से तुड़वाने वाले तथा अपने वक्षस्थल पर हाथी को चलवाने वाले एवं चलते इंजन को रोकने का साहस रखने वाले वीराग्रणी राममूर्ति को कौन नहीं जानता ? सारांश यह है संहननगत वलबत्ता के सन्मुख कुछ भी असम्भव नहीं है। रहस्यं तु केवलिगम्यम् । अभग्नसेन चोरसेनापति कुल १ सैन्तीस वर्ष की आयु भोग कर शूली के द्वारा काल - मृत्यु को प्राप्त कर पूर्वकृत दुष्कर्मों से रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में उत्पन्न होगा, नरक में भी उन नारकियों में उत्पन्न होगा, जिन की उत्कृष्ट अायु एक २सागरोपम की है। एवं नानाविध नरकयातनाओं का (१) प्रस्तुत कथासन्दर्भ में लिखा है कि अभमसेन के आगे उसने लधुपिताओं (चाचा), महापिताओं - तायों, पोतो, पोतियों, दोहतों तथा दोहतियों आदि पारिवारिक लोगों को ताडित किया गया । साथ में अभमसेन की आयु ३७ वर्ष की बतलाई है । यहां प्रश्न होता है कि इतनी छोटी आयु में दोहतियों आदि का होना कैसे सम्भव हो सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में दो प्रकार के मत पाए जाते हैं। जो कि निम्नोक्त हैं - १-अभग्नसेन के पिता विजय चोरसेनापति का परिवार अभग्नसेन के अपने पितृपद पर अोरूड़ हो जाने के कारण उसे उसी दृष्टि से अर्थात् पिता की दृष्टि से देखता था और अभग्नसेन भी उस पितृपरिवार का पिता की भान्ति पालन पोषण किया करता था । इसी दृष्टि से सूत्रकार ने विजय चोरसेनापति के परिवार को अभग्नसेन का परिवार बतलाया है। २- अभमसेन चोरसेनापति के ज्येष्ठ भाई की सन्तति भी उसके पोता दोहता आदि सम्बन्धों से कही जा सकती है। अतः यहां जो अभमसेन के पोते, दोहते आदि पारिवारिक लोगों का उल्लेख किया गया है, उस में किसी प्रकार का अनौचित्य नहीं है। (२) एक योजन (चार कोस) गहरा, एक योजन लम्बा, एक योजन विस्तार वाला कूप हो, उसमें युगलियों के केश-बाल अत्यन्त सूक्ष्म किये हुए अर्थात् जिनके खण्ड का और खण्ड न हो सके, भर दिये जाएं, तथा वे इतने ठोसकर भरे जावें कि जो एक वज्र की भान्ति घनरूप हो जावें, तथा जिन पर चक्रवर्ती की सेना (३२ हज़ार मुकुटधारी राजा, ८४ लाख हाथी, ८४ लाख घोड़े, ८४ लाख रथ तथा ६६ करोड़ पैदल सेना) भ्रमण करती हुई चली जाए तब भी एक केशखण्ड मुड़ने नहीं पावे । अथवा गंगा, यमुनादि नदियों का जल उस कूप पर से बहने लग जाए, तब भी एक बाल बहाया या आर्द्र न किया जा सके, एवं जिस कूप पर उल्कापात आदि की अग्नि की वर्षा ज़ोरों के साथ होवे तब भी उन केशों में से एक भी केश दग्ध न हो सके, ऐसे ठोंस कर भरे हुए उस कूप में से सौ २ वर्ष के बाद एक २ केशखण्ड निकाला जाये । इसो भान्ति निकालते २ जितने काल में वह कूप खाली हो जाए, उतने काल की एक पल्योपम संज्ञा होती है। ऐसे दस कोडाकोडी (दस For Private And Personal Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । अनुभव करेगा। पाठकों को स्मरण होगा कि श्री विपाक सूत्र के प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र की जीवनी का उल्लेख किया गया है । सूत्रकार उसी बात का स्मरण कराते हुए लिखते हैं -एवं संसारो जहा पढमे-' अर्थात् जैसा कि प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र का संसारभ्रमण कथन कर आये हैं, ठीक उसी तरह पृथिवीकायोत्पत्तिपर्यन्त प्रस्तुत अध्ययन में भी अभमसेन चोरसेनापति के जीव का संसारभ्रमण जान लेना चाहिये । दूसरे शब्दों में कहे तो-जैसे मृगापुत्र संसार में गमनागमन करेगा उसी प्रकार अभग्नसेन का जीव भी चतुर्गतिरूप संसार में जन्म मरण करेगायह कहा जा सकता है। दोनों में जो विशेष अन्तर है, उसका निर्णय सूत्रकार ने स्वयं कर दिया है । मृगापुत्र का जीव तो नरक से निकल कर प्रतिष्ठानपुर नगर में गोरूप से उत्पन्न होगा जब कि अभग्नसेन का जीव बनारस नगरी में शूकर रूप से जन्म लेगा । भगवान् कहते हैं कि गौतम ! शूकर रूप में जन्मा हुअा अभग्नसेन का जीव शिकारियों के द्वारा मारा जाकर फिर बनारस नगरी में ही एक प्रतिष्ठित कुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा। वहां जन्म लेकर वह अपने जीवन को उन्नत बनाने का प्रयत्न करेगा । युवावस्था को प्राप्त होने पर एक संयमशील मुनि के सहवास से मानवजीवन के महत्त्व को समझेगा । तथा आध्यात्मिक विचारधाराओं के बढते २ अंततोगत्वा वह साधुवृत्ति को अंगीकार करेगा और उसके यथाविधि पालन से सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होगा । देवोचित सुखों का उपभोग कर के वहां से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा । वहां युवावस्था को प्राप्त हो कर अनागार -वृत्ति को अंगीकार करेगा । उसके सम्यक् अनुष्ठान से कर्मरूप इन्धन को तपरूप अग्नि से जलाकर आत्मगत कर्ममल को भस्मसात् करता हुआ परम कल्याणरूप निर्वाण-पद को प्राप्त कर लेगा । तात्पर्य यह है कि सर्वप्रकार के कर्मों का अन्त करके जन्म मरण से रहित होता हुआ शाश्वत सुख को प्राप्त करेगा, आत्मा से परमात्मपद को ग्रहण कर लेगा । -उक्कोसे० - यहां का बिन्दु - उक्कोससागरोवमट्टिइएसु-इस समस्त पद का परिचायक है। इस पद का अर्थ पदार्थ में किया जा चुका है। "-जहा पढमे जाव पुढवीए० – यहां पठित जाव--यावत् पद से -सरीसवेसु उववजिहिइ तत्थ णं कालं किच्चा -से ले कर-तेउ• आउ० -यहां तक के पदों का ग्रहण समझना । इन पदों का शब्दार्थ पृष्ट ९३ पर दिया जा चुका है । तथा-पुढवीए०-यहां के बिन्दु से -अणेगसतसहस्सक्खुत्तो उववजिहिति-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । अर्थात् लाखों बार पृथिवीकाया में उत्पन्न होगा। --पढमे जाव अंतं- यहां के-जाव-यावत् पद से-विराणायपरिणयमित्त जोव्वण - करोड़ को दस करोड़ से गुणा करने पर जो अंक हो वह) पल्योपमों का एक सागरोपम होता है। सारांश यह है कि अंकों द्वारा न बताई जाने वालो बड़ी भारी आयु को सूचित करने के लिये सागरोपम शब्द का आश्रयण किया जाता है। (१) नरक में किस तरह की कल्पनातीत यातनायें भोगनी पड़ती हैं ? इस विषय का शास्त्रीय अनुभव प्राप्त करने के इच्छुकों को श्री उत्तराध्ययन सूत्र के १९ वें अध्ययन में वर्णित मृगापुत्र की जीवनी का साद्योपान्त अवलोकन करना चाहिये । क्योंकि मृगापुत्र ने अपने माता पिता को स्वयं भोगी गई नरक-सम्बन्धी वेदनाओं का अपने जातिस्मरण ज्ञान के द्वारा बोध कराया था । जोकि नरकसम्बन्धी सामान्य ज्ञान प्राप्त करने के लिये पर्याप्त है। For Private And Personal Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २७६]] श्री वपाक सूत्र [तीसरा अध्याय मणुप्पत्त-से लेकर-सिज्झिहिति मुच्चिहिति परिणिव्वाहिति सव्वदुक्खाण-यहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन पदों का अर्थ प्रथम अध्ययन के अन्त में किया जा चुका है । -निक्खेवो-'निक्षेप-को दूसरे शब्दों में उपसंहार कहते हैं । लेखक जिस समय अपने प्रतिपाद्य विषय का वर्णन कर चुकता है तो अन्त में पूर्वभाग को उत्तरभाग से मिलाता है । उसी भाव को सूचित करने के लिये प्रकृत अध्ययन के अन्त में "-निक्खेवो-" यह पद दिया गया है । इस पद से अभिव्यञ्जित अर्थात् प्रस्तुत तृतीय अध्ययन के पूर्वापर सम्बन्ध को मिलाने वाला पाठ निम्न प्रकार से समझना चाहिये ___ "एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तसं दुहविवागाणं ततियस्स अज्मयणस्स अयम? परणते त्ति बेमि" । पाठकों को स्मरण होगा कि चम्या नगरी के पूर्णभद्र नामक उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के अन्तेवासी-शिष्य श्री सुधर्मा स्वामी तथा इन्हीं के शिष्य श्री जम्बू स्वामी विराजमान है। वहां श्री जम्बू स्वामी ने अपने पूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी से यह प्रार्थना की थी कि भगवन् ! विपाकश्रुत के अन्तर्गत दु:खविपाक के द्वितीय अध्ययन के अर्थ को तो मैं ने आप श्री से सुन लिया है, परन्तु श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उसके तीसरे अध्ययन में किस अर्थ का वर्णन किया है ? अर्थात् उस में किस विषय का प्रतिपादन किया है ? यह मैंने नहीं सुना, अतः आप श्री उस का अर्थ सुनाने की भी मुझ पर कृपा करें - यह प्रश्न प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में किया गया था । उसी प्रश्न के उत्तर में आर्य सुधर्मा स्वामी अभग्नसेन का जोवनवृत्तान्त सुनाने के अनन्तर कहते हैं कि हे जम्बू ! इस प्रकार मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के तीसरे अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ प्रतिपादन किया है। तथा हे जम्बू ! जो कुछ मैंने कहा है उस में मैंने अपनी तरफ़ से कुछ नहीं कहा किन्तु भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में निवास कर जो कुछ मैंने उनसे सुना, वही तुम को सुना दिया-यह –एवं खलु जम्बू!- इत्यादि पदों का भावार्थ है । प्रस्तुत तृतीय अध्ययन में सूत्रकार ने मानव जीवन के कल्याण के लिये अनेकानेक अनमोल शिक्षाएं दे रखी हैं । मात्र दिग्दर्शन के लिए, कुछ नीचे अंकित की जाती हैं - (१) कुछ रसना-लोलुपी लोग अंडों में जीव नहीं मानते हैं । उन का कहना है कि अण्डा वनस्पति का ही रूपान्तर है, परन्तु उन्हें प्रस्तुत तृतीय अध्ययन में वर्णित निर्णय अंडवाणिज के जीवनवृत्तान्त से यह समझ लेना चाहिये कि अण्डा मांस है, उस में भी हमारी तरह से प्राणी निवास करता है और जिस तरह से हम अपना जीवन सुरक्षित एवं निरापद बनाना चाहते हैं, वैसे उनमें भी अपने जीवन को सुरक्षित एवं निरापद रखने के अध्यक्क अध्यवसाय अवस्थित हैं। तथा जिस तरह हमें किसी के पीड़ित करने पर दुःखानुभव एवं सुख देने पर सुखानुभव होता है (१) निक्षेप शब्द का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ १८८ पर किया जा चुका है। (२) श्री दशवकालिक सूत्र के चतुर्थ अध्ययन में जहां त्रस प्राणियों का वर्णन किया है वहां अण्डज को त्रस प्राणी माना है । अण्डे से पैदा होने वाले पक्षी, मछली आदि प्राणी अण्डज कहलाते हैं। से जे पुण इमे प्रणेगे बहवे तसा पाणा, तंजहा-अण्डया पोयया......। कुछ लोग यह आशंका करते हैं कि जब अण्डे को तोड़ा जाता है तो वहां से किसी प्राणी के निकलने की For Private And Personal Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२०७ उसी तरह उसे भी दुख देने पर दुःखानुभूति और सुख देने पर सुखानुभूति होती है । फिर भले ही उसकी सुखानुभूति एवं दुःखानुभूति की सामग्री हमारी दुःखसामग्री एवं सुखसामग्री से भिन्न हो । परन्तु अनुभव की अवस्थिति दोनों में बराबर चलती है। अतः अण्डों को नष्ट कर देना या खा जाना एवं उसके क्रयविक्रय का अर्थ है - प्राणियों के जीवन को 'लूट लेना । किसी के जीवन को लूट लेना पाप है जो कि मानवता के लिये सब से बड़ा अभिशाप है । पाप दुःखों का उत्पन्न करने वाला होता है, एवं श्रात्मा को जन्म मरण के परम्परा - चक्र में धकेलने का प्रबल एवं अमोघ (निष्फल न जानेवाला) कारण बनता । तभी तो अभग्न सेन के जीव को निर्णय अण्डवाणिज के भव में किये गये अंडों के भक्षण एव उन के श्रनार्य एवं अधमपूर्ण व्यवसाय के कारण ही सात सागरोपम जैसे लंबे काल तक नरक में नारकीय स एवं भीषणाति भीषण दुःखों का उपभोग करना पड़ा था अतः सुखाभिलाषी एवं विचारशील पुरुष को प्रस्तुत अध्ययन में दी गई शिक्षा से अपने को शिक्षित करते हुए अण्डों का पाप - पूर्ण भक्षण एवं उनके हिंसक और अनार्य व्यवसाय से सदा दूर रहना चाहिये, अन्यथा निर्णय वाणिज के जीव की भान्ति नारकीय भीषण यातनाओ से अपने को बचाया नहीं जा सकेगा । । (२) धन जनादि के अभिमान से मत्त हुए अज्ञानी जीव जिस समय पापकों का आचरण करते हैं तो वे उस समय बड़ी खुशियां मनाते हैं और सत्पुरुषों के अनेकों बार समझाए जाने पर भी उन पाप कर्मों के दुःखद परिणाम - फल की ओर उनका तनिक भी ध्यान नहीं जाने पाता, प्रत्युत पापपूर्ण प्रवृत्तियों को ही अपने जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य बनाते हुए रातदिन पापाचरणों में संलग्न रह कर वे अपने इस देवदुर्लभ मानवभव को नष्ट कर देने पर तुले रहते हैं, परन्तु जब उन्हें उन हिंसा - पूर्ण दुष्प्रवृत्तियों से उत्पन्न पापक्रमों का कटु कल 'भुगतना पड़ता है, तब वे त्राण एवं अशरण होकर रोते हैं, चिल्लाते हैं और अत्यधिक दुर्दशा को प्राप्त करने के साथ २ अन्त में नरकों में नाना प्रकार के भीषण दुःखों का उपभोग करते हैं । पुरिमताल नगर के प्रत्येक चत्वर पर बन्दी बने हुए अभग्नपेन चोरसेनापति के साथ जो बजाय तरल पदार्थ निकलता है। ऐसी स्थिति में यह कैसे कहा जा सकता है कि अण्डे में जीव है ? इस आशंका का उत्तर निनोक्त है - डे से निसृत पदार्थ तरल है इस लिये उस में जीव नहीं है, यह कोई सिद्धान्त नहीं है, क्योंकि अण्डे जैसी ही स्थिति मनुष्य के गर्भ की भी होती है। तात्पर्य यह है कि यदि एक दो या तीन मास के गर्भ का पतन किया जाए तो गर्भाशय से मात्र रक्त का ही स्राव होता है, तथापि ऐसे रक्तस्वरूप गर्भ का पात करना जहां आध्यात्मिक दृष्टि से पञ्चेन्द्रियवध है महापाप है, वहां कानून ( राजनियम ) की दृष्टि से वह निषिद्ध एवं दण्डनीय है । गर्भपात का निषेध इसी लिये किया जाता है कि कुछ काल के अनन्तर उस गर्भ में से किसी प्राणी का विकसित एवं परिवृद्ध रूप उपलब्ध होना था। ठीक इसी प्रकार अण्डे से भी समयान्तर में किसी गतिशील एवं सांगोपांग प्राणी का प्रादुर्भाव अनिवार्य होता है । तब यह कहना कि अण्डे में जीव नहीं होता, यह एक भयंकर भूल है । वैज्ञानिक लोग बतलाते हैं कि यदि सूक्ष्म पदार्थों का निरीक्षण करने वाले यन्त्रों द्वारा के भीतर के तत्व का निरीक्षण किया जाए तो उस में जीव की सत्ता का अनुभव होता है। For Private And Personal Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २७८] श्री विपाक सूत्र [तीसरा अध्याय अमानुषिक व्यवहार किया गया है, तथा उसे जो हृदयविदारक दण्ड दिया गया है, वह सब उसके अपने ही निर्णय अण्डवाणिज के भव में किये गये मांसाहार एवं अनार्य व्यवसाय से उत्पन्न कर्मों के कारण तथा इस भव में ग्रामों का जलाना, नगरों को दग्ध करना, पथिकों को लूट कर उनके प्राणों का अन्त कर डालना तथा उन्हें दाने २ का मोहताज बना देना इत्यादि भयानक दानवीय पाप कर्मों का ही कटु परिणाम है । इस लिये प्रत्येक सुखाभिलाषी पुरुष को मांसाहार और उसके हिंसापूर्ण व्यवसाय से विरत रहने के साथ २ ग्रामघातदि दुष्कर्मों से अपने आप को सदा बचाना चाहिये और जहां तक बन सके दुःखितों के दुःख को दूर करना, निराश्रितों को आश्रय देना आदि सत्कार्यों में अधिकाधिक भाग लेना चाहिये । तभी मानव जीवन की सफलता है एवं कृतकृत्यता है। ॥ तृतीय अभ्याय समाप्त ॥ For Private And Personal Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अथ चतुर्थ अध्याय ब्रह्म अर्थात् आगम-धर्मशास्त्र अथवा परमात्मा में आचरण करना 'ब्रह्मचर्य कहलाता है। तात्पर्य यह है कि परमात्मध्यान में तल्लीन होना तथा धर्मशास्त्र का सम्यक् स्वाध्याय करना, अर्थात् उसमें प्रतिपादित शिक्षाओं को जीवन में उतारना ब्रह्मचर्य कहा जाता है। ब्रह्मचर्य का यह व्युत्पत्तिलभ्य यौगिक अर्थ है जोकि आजकल एक विशिष्ट अर्थ में रूढ़ हो चुका है। आजकल ब्रह्मचर्य का रूढ़ अर्थ-मैथुन का निरोध है, अर्थात् स्त्री का पुरुष के सहवास से पृथक रहना और पुरुष का स्त्री के संपर्क से पृथक रहना ब्रह्मचर्य कहलाता है। प्रकृत में हमें इसी रूढ़ अर्थ का ही ग्रहण करना इष्ट है। ब्रह्मचर्य -मैथुन निवृत्ति से कितना लाभ सम्भव हो सकता है , यह जीवन को उन्नति के शिखर तक पहुँचाने के लिये कितना सहायक बन सकता है , तथा आत्मा के साथ लगी हुई विकट कर्मार्गलाओं को तोड़ने में यह कितना सिद्धहस्त रहता है ।, तथा इसके प्रभाव से यह आत्मा अपनी ज्ञान-ज्योति के दिव्य प्रकाश में कितना विकास कर सकता है ? इत्यादि बातों का यदि अन्वय दृष्टि की अपेक्षा व्यतिरेक दृष्टि से विचार किया जाए तो अधिक संगत होगा। तात्पर्य यह है कि ब्रह्मचर्य के यथाविधि पालन करने से साधक व्यक्ति में जिन सद्गुणों का संचार होता है उन पर दृष्टि डालने की अपेक्षा यदि ब्रह्मचर्य के विनाश से उत्पन्न होने वाले दुष्परिणाम का दिग्दर्शन करा दिया जाये तो यह अधिक संभव है कि साधक ब्रह्मचर्य – सदाचार के विनाश - जन्य कटु परिणाम से भयभीत होकर दुराचार से विरत हो जाये और सदाचार के सौरभ से अपने को अधिकाधिक सुरभित कर डाले। __ इसी दृष्टि को सन्मुख रखकर प्रस्तुत चतुर्थ अध्ययन में ब्रह्मचर्य के विनाश अर्थात् मैथुनप्रवृत्ति की लालसा में आसक्त व्यक्ति के उदाहरण से ब्रह्मचर्य - विनाश के भयंकर दुष्परिणाम का दिग्दर्शन करा कर उससे पराङ मुख होने की साधक व्यक्ति को सूचना देकर मानव जीवन के वास्तविक कर्तव्य की ओर ध्यान दिलाया गया है । उस अध्ययन का आदिम सत्र इस प्रकार है (१) ब्राणि चरणम् --श्राचरणमिति ब्रह्मचर्यम् । (२) निम्नलिखित गाथाओं में अब्रह्मचर्य-दुराचार की निकृष्टता का दिग्दर्शन कराया गया है - अबभचरिअंघोरं पमायं दुरहिट्ठिअं । नायान्ति मुणी लोर भेाययणवज्जिणो ॥ १६ ॥ छाया-अब्रह्मचर्य घोरं प्रमादं दुरधिष्ठितम् । नाचरन्ति मुनयो लोके भेदायतन-वर्जिनः ॥ मूलमेयमहमस्स महादोस-समुस्सयं । तम्हा मेहुणसंसग्गं निग्गंथा वज्जयन्ति णं ॥१७॥ छाया-मूलमेतद् अधर्मस्य महादोषसमुच्छ्यं । तस्माद् मथुनसंसर्ग निर्ग्रन्थाः वजयन्ति ॥ (दशवकालिक सत्र अ. ६) अर्थात् यह अब्रह्मचर्य अनंत संसार का वर्धक है, प्रमाद का मूल कारण है और यह नरक आदि रौद्र गतियों में ले जाने वाला है, इसलिये संयम के भेदक रूप कारणों के त्यागी मुनिराज इसका कभी सेवन नहीं करते हैं ॥ १६ ॥ यह अब्रह्मचर्य सब अधर्मों का मूल है और महान् से महान् दोषों का समूह रूप है । इसीलिये निग्रंथ-साधु इस मैथुन के संसर्ग का सर्वथा परित्याग करते हैं ॥ १७ ॥ For Private And Personal Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २८०] श्री विपाक सूत्र - [चतुर्थ अध्याय I मूल' - १ च उत्थस्स उक्खेवो । एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं साहंजणी णामं गगरी होत्था, रिद्धत्थिमिय० । तीसे गं साहंजणीए गयरीए बहिया उत्तरपुरात्थमे दिसीभाए देवग्मणे णामं उज्जाणे होत्था । तत्थ णं अमोहस्स जक्खस्स जक्खायतणे होत्था पुराणे । तत्थ गं साहंजणीए गयरीए महचंदे णामं राया होत्था, महता० । तस्स गं महचंदस्सरणो सुपेणे णामं अमच्चे होत्था । सामभेयदण्ड० निग्गहकुसले, तत्थ गं साहंजणीए रायरीए सुदरिसणा गामं गणिया होत्था । वरणओ । तत्थ गं साहंजणीए गयरीए सुभगा सत्थवाहे होत्या, अड्ढे ० । तस्स णं सुमद्दस्त सत्थवाहस्स भद्दा णामं भारिया ही । तस्स गं सुमद्दस्स सत्यवाहस्स पुत्ते भद्दाए भारियाए अ सगड़े नाम दार हात्था ही ० । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पदार्थ - चउत्थस्स - चतुर्थ अध्ययन का । उक्खेवो - उत्क्षेप प्रस्तावना पूर्ववत् जान लेना चाहिये । एवं खलु - इस प्रकार निश्चय ही । जंबू ! - हे जम्बू ! | तेणं कालेणं उस काल में । तेणं समरण - उस समय | साहंजणी - साहंजनी । णामं - नाम की | गगरी नगरी । होत्था - थी, जो कि । रिद्धत्थिमिय० - ऋद्ध भवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमितस्वचक और परचक्र के भय से रहित, समृद्ध - धन तथा धान्यादि से परिपूर्ण थी । तीसे गं- -उस । साहंजणीए - साहंजनी । खयरीएनगरी के । बहिया - बाहिर । उत्तरपुरत्थिमे - उत्तर तथा पूर्व दिसीभाए -दिशा के मध्य भाग में अर्थात् ईशान कोण में | देवरमणे - देवरमण । सामं - नाम का । उज्जाणे - उद्यान । होत्था - था । - उस उद्यान में । श्रमोहस्स - अमोघ नाम के । जक्खस्स - यक्ष का । जक्खायतणे - यज्ञायतनतत्थ - स्थान । होत्था - था । पुराणे० - जो कि पुरातन था । तत्थ णं - उस | साइंजणीए - साइंजनी | गयरीए - नगरी में । महचंदे - महाचन्द्र । गामं - नामक । राया- राजा होत्था था । महता० - जो कि हिमालय आदि पर्वतों के समान दूसरे राजाओं की अपेक्षा महान् था । तस्स जं-उस । महचदस्त - महाचन्द्र । रराणो- -राजा का साम - सामनीति । भेय - भेदनीति | दंड० - दंड नीति का प्रयोग करने वाला और न्याय अथवा नीतियों की विधियों को जानने वाला, तथा । निग्गह - निग्रह करने में । कुसले - प्रवीण सुसेणे - सुषेण । णामं नाम का । श्रमचे -- श्रमात्य - मंत्री होत्था - था । - उस । साहंजणीए - साहजनी । रायरीए नगरी में । सुदरिसणा-सुदर्शना । णामं - नाम की । गणिका – गणिका - वेश्या । होत्था - थी । वराणश्रो - वर्णक - वर्णनप्रकरण पूर्ववत् जान लेना I तत्थ - 9 (१) छाया - चतुर्थस्योत्क्षेपः । एवं खलु जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये साहजनी ( साभांजनी) नाम नगरी श्रभवत् ऋद्धस्तिमित० । तस्याः साहजन्या नगर्याः बहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे देवरमणं नामोद्यानमभवत् । तत्रामोघस्य यक्षस्य यज्ञायतनमभूत् पुराणम्० । तत्र साजन्यां नगर्या महाचन्द्रो नाम राजाऽभूत् महता० । तस्य महाचन्द्रस्य राज्ञः सुषेणो नामामात्योऽभूत् सामभेददण्ड ० निग्रहकुशलः तत्र साहजन्यां नगर्यां सुदर्शना नाम गणिकाऽभवत् । वर्णकः । तत्र साह जन्यां नगर्यां सुभद्रो नाम सार्थवाहोऽभूदाढ्यः । तस्य सुभद्रस्य सार्थवाहस्य भद्रा नाम भार्याऽभूदहीन । तस्य सुभद्रस्य सार्थवाहस्य पुत्रः भद्राया भार्याया श्रात्मजः शकटो नाम दारकोऽभूदहीन० । For Private And Personal Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित। २८१ चाहिये । तत्थ णं-उस । साहंजणीए.-साहजनी। एयरीए-नगरी में। सुभद्दे-सुभद्र । णाम-नाम का। सत्यवाहे-सार्थवाह । होत्था-था, जो कि । अड्ढे०- धनी एवं बड़ा प्रतिष्ठि त था । तस्स णंउस । सुभहस्स-सुभद्र । सत्यवाहस्स - सार्थवाह की । भद्दा- भद्रा । नाम-नाम की। भारियाभार्या । होत्था-थी, जो कि । अहीण-अन्यून एवं निर्दोष पञ्चेन्द्रिय शरीर वाली थी। तस्स णं-उस । सुभद्दस्स-सुभद्र । सत्थवाहस्स-सार्थवाह का । पुत्त-पुत्र और । भद्दाए-भद्रा। भारियाएभार्या का । अत्तएं- आत्मज । सगडे-शकट । नाम-नाम का। दारए-बालक । होत्था-था, जो कि । अहीण. -- अन्यून एवं निर्दोष पंचेन्द्रिय' शरीर से 'युक्त था । । मूलार्थ-जम्बू स्वामी के "- हे भदन्त ! यदि तीसरे अध्ययन का इस प्रकार से अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन् ! चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ वर्णन किया है ?-" इस प्रश्न के उत्तर में श्री सुधर्मा स्वामी फरमाने लगे कि हे जम्बू ! उस काल और उस समय में साहजनी नाम की एक ऋद्ध, स्तिमित एवं समृद्ध नगरी थी। उसके बाहिर ईशान कोण में देवरमण नाम का एक उद्यान था, उस उद्यान में अमोघ नामक यक्ष का एक पुरातन यक्षायतन- स्थान था । उस नगरी में महाचन्द्र नाम का राजा राज्य किया करता था जोकि हिमालय आदि पर्वतों के समान अन्य राजाओं की अपेक्षा महान् तथा प्रतापी था। उस महाचन्द्र नरेश का सुषेण नाम का एक मंत्री था , जोकि सामनीति, भेदनीति और दण्डनीति के प्रयोग को और उसकी अथवा न्याय की विधियों को जानने वाला तथा निग्रह में बड़ा निपुण था । उस नगरी में सुदर्शना नाम की एक सुप्रसिद्ध गणिका-वेश्या रहती थी। उस के वैभव कावर्णन द्वितीय अध्ययन में वर्णित कामध्वजा नामक वेश्या के समान जान लेना चाहिये, तथा उस नगर में सुभद्र नाम का एक सार्थवाह रहता था, उस सुभद्र सार्थवाह, अर्थात् सार्थ-व्यापारी मुसाफिरों के समूह का मुखिया, की भद्रा नाम की एक अन्यून एवं निर्दोष पंचेन्द्रिय शरीर वाली भार्या थो, तथा सुभद्र सार्थवाह का पुत्र और भद्रा भार्या का आत्मज शकद नाम का एक बालक था, जोकि अन्यून एवं निर्दोष पंचेन्द्रिय शरीर से युक्त था। टीका-शास्त्रों के परिशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनगारपुगव श्री जम्बू स्वामी आचार्यप्रवर श्री सुधर्मा स्वामी के चरणों की पर्युपासना करते हुए साधुजनोचित त्यागी और तपस्वी जीवन व्यतीत करते हुए, नित्यकर्म के अनन्तर उन से भगवत्-प्रणीत निम्रन्थ प्रवचन का भी प्रायः निरन्तर श्रवण करते रहते थे । पाठकों को स्मरण होगा कि श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी को पहले प्रकरणों में उनके प्रश्नों का उत्तर दे चुके हैं । दूसरे शब्दों में-श्री जम्बू स्वामी ने विपाकश्रुत के तीसरे अध्ययन के श्रवण की इच्छा प्रकट की थी । तब श्री सुधर्मा स्वामी ने उन्हें तीसरे अध्ययन में चोरसेनापति अभग्नसेन का जीवनवृत्तान्त सुनाया था, जिसे श्री जम्बू स्वामी ने ध्यानपूर्वक सुना और चिन्तन द्वारा उसके परमार्थ को अवगत किया था, अब उनके हृदय में चतुर्थ अध्ययन के श्रवण की उत्कंठा हुई । वे सोचने लगे कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने चतुर्थ अध्ययन में क्या प्रतिपादन किया होगा ? क्या उस में भी चौर्यकर्म के दुष्परिणाम की वर्णन होगा या अन्य किसी विषय का ? इत्यादि हृदयगत ऊहापोह करते हुए अन्त में उन्हों ने श्री सुधर्मा स्वामी के चरणों में चतुर्थ अध्ययन के श्रवण की प्रार्थना की । For Private And Personal Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २८२] श्री विपाक सूत्र [ चतुर्थ अध्याय पाठकों को स्मरण रहे कि श्री जम्बू स्वामी ने अपनी भाषा में जो कुछ श्री सुधर्म स्वामी से प्रार्थनारूप में निवेदन किया था, उसी को सूत्रकार ने “ उक्खेवो-उतक्षेपः" शब्द से सूचित किया है । उत्क्षेप को दूसरे शब्दो में प्रस्तावना कहा गया है। सम्पूर्ण प्रस्तावनासम्बन्धी पाठ इस प्रकार से है- जति णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं तच्चस्स अज्झयणस्स अयम? पराणत्त, चउत्थस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अटे पराणत्तो-अर्थात् श्री जम्बू स्वामी ने श्री सुधर्मा स्वामी से विनयपूर्वक निवेदन किया कि भदन्त ! यदि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दु:खविपाक के तृतीय अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन् ! उन्हों ने दुःखविपाक के चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ वर्णन किया है १ . जम्बू स्वामी के उक्त प्रश्न का उनके पूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी ने जो उत्तर देना प्रारम्भ किया उसे ही सूत्रकार ने “ एवं खलु जम्ब! तेणं कालेणं तेणं समएणं......” इत्यादि पदों में वर्णित किया है, जिन का अर्थ नीचे दिया जाता है - श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा कि हे जम्बू ! इस अवसपिणी काल का चौथा बारा व्यतीत हो रहा था, उस समय साहंजनी नाम की एक सुप्रसिद्ध वैभवपूण नगरी थी । उस के बाहिर ईशान कोण में देवरमण नाम का एक परम सुन्दर उद्यान था । उस उद्यान में अमोघ नामक यक्ष का एक पुरातन यक्षातन-स्थान था, जो कि पुराने जमाने के सुयोग्य अनुभवी तथा निपुण शिल्पियों - कारीगरों के यशःपुज को दिगंतव्यापो करने में सिद्धहस्त था । दूसरे शब्दों में कहें तोअमोघ यक्ष का स्थान बहुत प्राचीन तथा नितान्त सुन्दर बना हुआ था --यह कहा जा सकता है। साहजनी नगरी में महाराज महाचन्द्र का शासन चल रहा था। महाराज महाचन्द्र हृदय के बड़े पवित्र और प्रजा के हितकारी थे । उन का अधिक समय प्रजा के हित-चिन्तन में ही व्यतीत होता था । प्रजाहित के लिये अपने शारीरिक सुखों को वे गौण समझते थे । शास्त्रकारों ने उन्हें हिमा. चल और मेरु पर्वत आदि पर्वतों से उपमित किया है, अर्थात् जिस प्रकार हिमालय आदि पर्वत निप्रकप तथा महान् होते हैं, ठीक उसी प्रकार महाराज महाचन्द्र भी धैर्यशील और महा प्रतापी थे, तथा जिस प्रकार पूर्णिमा का चन्द्र षोडश कलाओं से सम्पूर्ण और दर्शकों के लिये श्रानन्द उपजाने वाला होता है, उसी प्रकार महाचन्द्र भी नृपतिजनोचित समस्त गुणों से पूर्ण और प्रजा के मन को आनन्दित करने वाले थे। ... महाचन्द्र के एक सुयोग्य अनुभवी मंत्री था जो कि सुषेण के नाम से विख्यात था । वह साम, भेद, दण्ड और दाननीति के विषय में पूरा २ निष्णात था, और इन के प्रयोग से वह विपक्षियों का निग्रह करने में भी पूरी २ निपुणता प्राप्त किये हुए था । इसी लिये वह राज्य का संचालन बड़ी योग्यता से कर रहा था और महाराज महाचन्द्र का विशेष कृपापात्र बना हुआ था। प्रियवचनों के द्वारा विपक्षी को वश में करना साम कहा जाता है। स्वामी और सेवक के हृदय में विभन्नता उत्पन्न करने का नाम भेद है। किसी अपराध के प्रतिकार में अपराधी को पहुंचाई गई पीड़ा या हानि दण्ड कहलाता है। अभिमत पदार्थ के दान को दान या उपप्रदान कहते हैं । निग्रह शब्द - दण्डित करना या स्वाधीन करना - इस अर्थ का परिचायक है, यह छल, कपट एवं दमन से साध्य होता है। साम, भेद आदि पदों के भेदोपभेदों का वर्णन आचार्य श्री अभयदेव सूरि ने श्री For Private And Personal Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२८३ स्थानाङ्ग सूत्र के तीसरे स्थान और तीसरे उद्देशक में बड़ी सुन्दरता से किया है। पाठकों की जानकारी के लिये वह स्थल नीचे दिया जाता है (१) 'साम-पांच प्रकार का होता है, जैसे कि १-परस्पर के उपकारों का प्रदर्शन करना, २-दूसरे के गुणों का उत्र्कीतन करना, (३) दूसरे से अपना पारस्परिक सम्बन्ध बतलाना, (४) आयति (भविष्यत्-कालीन) अाशा दिलाना अर्थात् अमुक कार्य करने पर हम को अमुक लाभ होगा, इस प्रकार से भविष्य के लिये अाशा बंधाना, ५-मधुर वाणी से-मैं तुम्हारा ही हं - इस प्रकार अपने को दूसरे के लिये अर्पण करना। ... (२) भेद-तीन प्रकार का होता है, जैसे कि १-स्नेह अथवा राग को हटा देना अर्थात् किसी का किसी पर जो स्नेह अथवा राग है उसे न रहने देना । २-स्पर्धा-ईर्षी उत्पन्न कर देना। -मैं ही तुम्हें बचा सकता हं-इस प्रकार के वचनों द्वारा भेद डाल देना (३) दण्ड- तीन प्रकार का होता है जैसे कि १--वध-प्राणान्त करना । २-परिकलेशपीड़ा पहुंचाना। ३-जुरमाना के रूप में धनापहरण करना। (४) दान-पाच प्रकार का होता है, जैसे कि १-दूसरे के कुछ देने पर बदले में कुछ देना। ग्रहण किये हए का अनुमोदन-प्रशंसा करना । ३-अपनी ओर से स्वतन्त्ररूपेण किसी अपूर्व वस्तु को देना । ४-दूसरे के धन को स्वयं ग्रहण कर अच्छे २ कामों लगा देना । ५-ऋण को छोड़ देना । इसके अतिरिक्त उक्त नगरी में सुदर्शना नाम की एक गणिका-वेश्या भी रहती थी जो कि अपनी गायन और नृत्य कला में बड़ी प्रवीण तथा धनसम्पन्न कामिजनों को अपने जाल में फंसाने के लिये बड़ी कुशल थी । उस की रूज्वाला में बड़े २ धनी, मानी युवक शलभ-पतंग की भान्ति अपने जीवनसर्वस्व को अर्पण करने के लिये एक दूसरे से आगे रहते थे। तथा साहजनी नगरी में सुभद्र नाम के एक सार्थवाह भी रहते थे, वे बड़े धनाढ्य थे । लक्ष्मीदेवी की उन पर असीम कृपा थी । इसी लिये वे नगर में तथा राजदरबार में अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त किये हुए थे । उन की सहधर्मिणी का नाम भद्रा था। जोकि रूपलावण्य में अद्वितीय होने के अतिरिक्त पतिपरायणा भी थी। जहां ये दोनों सांसारिक वैभव से परिपूर्ण थे वहां इनके (१) सामलक्षणमिदम् -परस्परोपकाराणां दर्शनं १ गुणकीर्तनम् २ । सम्बन्धस्य समाख्यानं ३ श्रायत्याः संप्रकारानम् ४ ॥१॥ वाचा पेरालया साधु तवाहमिति चार्पणम्। इति सामप्रयोगज्ञैः साम पंचविधं स्मृतम् ॥ २ ॥ अस्मिन्नेवं कृते इदमावयोर्भविष्यतीत्याशाजननमायतिसम्प्रकाशनमिति । भेदलक्षणमिदम् - स्नेहसमापनयनं १ संहर्षोत्पादनं तथा २ । सन्तर्जनं ३ च भेदज्ञः भेदस्तु विविधः स्मृतः ॥ ३ ॥ संहर्षः स्पर्धा, सन्तजनं च अस्यास्मिन्मित्रविग्रहस्य परित्राणं मत्सो भविष्यतोत्यादिकरूपमिति । भेदलक्षण मिदम्-वधश्चैव १ परिक्लेशो २, धनस्य हरणं तथा ३ । इति दण्डविधानझंदण्डोऽपि त्रिविधः स्मृतः ॥ ४ ॥ प्रदानलक्षणमिदम्-१ यः सम्प्राप्तो धनोत्सर्गः उत्तमाधममभ्यमाः। प्रतिदानं तथा तस्य २ गृहीतस्यानुमोदनम् ॥ १॥ द्रव्यदानमपूर्व च ३ स्वयंग्राहप्रवर्तनम् ४ । देयस्य प्रतिमोक्षश्च ५ दानं पंचविधं स्मृतम् ॥२॥ धनोत्सर्गो-धनसम्पत्, स्वयंग्राहप्रवर्तनं-परस्वेषु, देयप्रतिमोक्षः ऋणमोक्ष इति । (स्थानांगवृत्तितः)। For Private And Personal Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २८४] श्री विपाक सूत्र [चतुर्थ अध्याय विशिष्ट सांसारिक सुख देने वाला एक पुत्र भी था। जो कि शकट कुमार के नाम से प्रसिद्ध था। शकट कुमार जहां देखने में बड़ा सुन्दर था वहां वह गुण - सम्पन्न भी था । उसकी बोल चाल बड़ी मोहक थी। -रिद्धत्थिमिय०- यहां के बिन्दु से जो पाठ विवक्षित है उस की सूचना पृष्ठ १३८ पर दी जा चुकी है। तथा-पुराणे--यहां के बिन्दु से औपपातिक सूत्रगत-सद्दिए, वित्तिप कित्तिए-इत्यादि पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन पदों का अर्थ वहीं प्रौपपातिक सूत्र में देख लेना चाहिये । तथा-महता०- यहां के बिन्दु से विवक्षित पाठ की. सूचना भी पृष्ठ १३८ पर दी जा चुकी है। .. -सामभेयदंड० -- यहां के बिन्दु से - "उवप्पयाणनीतिसुप्पउत्त-णय -विहिन्नू ईहा हमग्गणगवेसणअत्थसत्थमइविसारए उप्पत्तियाए वेणइयाए, कम्मियाए पारिणामिश्राप चउब्धिहाए बुद्धिए उववेए- इत्यादि औपपातिकसूत्रगत पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन पदों की व्याख्या औपपातिक सूत्र में देखी जा सकती है। प्रस्तुत प्रकरण में जो सूत्रकार ने - सामभयदंडउवप्पयाणनीतिसुप्पउत्तणयविहिन्नू - यह सांकोतिक पद दिया है । इसकी व्याख्या निम्नोत है साम, भेद, दण्ड और उपप्रदान (दान) नामक नीतियों का भली प्रकार से प्रयोग करने वाला तथा न्याय अथवा नीतियों की विधियों का ज्ञान रखने वाला सामभेदटराडोपप्रदाननीतिसप्रयुक्तनयविधिश कहलाता है। -बएणो -पद का अर्थ है-वर्णक अर्थात् वर्णनप्रकरण । सूत्रकार ने वर्णक पद से गणिका के वर्णन करने वाले प्रकरण का स्मरण कराया है। गणिका के वर्णनप्रधान प्रकरण का उल्लेख प्रस्तुत. सूत्र के दूसरे अध्ययन के पृष्ठ १०४ पर किया जा चुका है। ___ -अडढे०- यहां के बिन्दु से जो. पाठ विवक्षित है उस का उल्लेख पृष्ठ १२० पर किया जा चुका है । तथा--अहीण- यहां के बिन्दु से विवक्षित पाठ का वर्णन पृष्ठ १०५ की टिप्पण में किया जा चका है तथा दूसरे-अहीण-के बिन्दु से अभिमत पाठ का वर्णन पृष्ठ १२० पर किया गया है । ....... प्रस्तुत सूत्र में प्रस्तुत अध्ययन के मुख्य २ पात्रों का मात्र नाम निर्देश किया गया है । इन का विशेष वर्णन आगे किया जायेगा । अब सूत्रकार निम्न लिखित सूत्र में भगवान् महावीर स्वामी के पधारने और भिक्षार्थ गये हुये गौतम स्वामी के दृश्यावलोकन के विषय का वर्णन करते हैं - मूल-' तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे, परिसा राया य निग्गते, धम्मो कहियो, परिसा पडिगया राया वि णिग्गयो । तेणं कालेणं २ समणस० जेद्र अंतेवासी जाव रायमग्गे ओगाढे । तत्थ णं हत्थी, आसे, पुरिसे० तेसि च ण पुरिसाणं मझगतं पासति एगं सइत्थियं पुरिसं अवओड़गबंधणं उक्खित्तकगणनासं, जाव उग्धोसण (१) छाया- तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरः समवसृतः । परिषद् राजा च निर्गत: । धर्म कथितः। परिषद् प्रतिगता, राजापि निर्गतः । तस्मिन् काले २ श्रमणस्य. ज्येष्ठोऽन्तेवासी यावदु राजमार्गेऽवगाढः । तत्र हस्तिनोऽश्वान् पुरुषान्०, तेषां च पुरुषाणां मध्यगतं पश्यति एक सस्त्रीकं पुरुषं, अवकोटकबंधनम्, उत्कृत्तकर्णनासं, यावद् उद्घोषणं, चिंता तथैव यावद भगवान् व्याकरोति । For Private And Personal Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२८५ विता तहेब जाव भगवं वागरेति । पदार्थ-तेणं कालेणं-उस काल में । तेणं समरणं-उस समय मैं। समणे-श्रमण । भगवं-भगवान् । महावीरे- महावीर स्वामी । समोसढे-पधारे । परिसा य-परिषद् - जनता तथा । राया-राजा, नगर से । निग्गते-निकले । धम्मो-धर्म का । कहिओ-प्ररूपण किया । परिसा-परिषद् । पडिगया-चली गई । राया-राजा । वि-भी । णिग्गओ- चला गया। तेणंकालेणं २-उस काल तथा उस समय में । समणस्स० - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के । जे?-ज्येष्ठ–प्रधान । अंतेवासी-शिष्य । जाव - यावत् । रायमग्गे- राजमार्ग में । श्रोगाढेगये । तत्थ णं-वहां पर । हत्थी-हस्तियों को । आसे- अश्वों को, तथा । पुरिसे०-पुरुषों को देखते हैं । तेसिं च-और उन । पुरिसाणं-पुरुषों के | मझगतं- मध्य में । सइथियं-स्त्री से सहित । अवोडगबंधणं-अवकोटकबंधन अर्थात् जिस बंधन में गल और दोनों हाथों को मोड़ कर पृष्ठभाग पर रज्जु के साथ बांधा जाए उस बंधन से युक्त । उक्खित्तकराणनासं-जिस के कान और नासिका कटे हुए हैं । जाव- यावत् । उग्घोसणं-उद्घोषणा से पुक्त । एगं-एक पुरिसं-पुरुष को । पासति-देखते हैं, देखकर । चिंता-चिन्तन करने लगे । तहेव-तथैव । जाव- यावत् । भगवं-भगवान् महावीर स्वामी । वागरेति- प्रतिपादन करने लगे । मूलाथ-उस काल तथा उस समय साहजनी नगरी के बाहिर देवरमण उद्यान में श्रमण भगवान महावीर स्वामो पधारे । नगर से भगवान के दर्शनार्थ जनता और, राजा निकले । भगवान् ने उन्हें धर्मदेशना दी । तदनन्तर धर्म का श्रवण कर जनता और राना सब चले गये। तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामो के ज्येष्ठ शिष्य था गौतम स्वामी यावत. राजमार्ग में पधारे। ___ वहां उन्हों ने हाथियों, अश्वों और पुरुषों को देखा, उन पुरुषों के मध्य में अंवकोटकबन्धन से युक्त, कान और नासिका कटे हुए उद्घोषणायुक्त तथा सस्त्रीक-स्त्रीसहित एक पुरुष को देखा, देख कर गौतम स्वामी ने पूर्ववत् विचार किया और भगवान् से आकर निवेदन किया तथा भगवान उत्तर में इस प्रकार कहने लगे टीका- साहंजनी नगरी का वातावरण बड़ा सुन्दर और शान्त था । वहां की प्रजा अपने भूपति के न्याययुक्त शासन से सर्वथा प्रसन्न थी । राजा भी प्रजा को अपने पुत्र के समान समझता था । जिस प्रकार शरीर के किसी अंग में व्यथा होने से सारा शरीर व्याकुल हो उठता है ठीक उसी प्रकार महाराज महाचन्द्र भी प्रजा की व्यथा से विकल हो उठते और उसे शान्त करने का भासक प्रयत्न किया करते थे । वे सदा प्रसन्न रहते और यथासमय धर्म का अाराधन करने में समय व्यतीत किया करते थे । आज उन की प्रसन्नता में आशातीत वृद्धि हुई, क्यों कि उद्यानपालमाली ने आकर इन्हें देवरमण उद्यान में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पधारने का शुभ संदेश दिया। .... माली ने कहा-पृथिवीनाथ ! आज मैं आप को जो समाचार सुनाने आया हूं, वह आप को बड़ा ही प्रिय लगेगा । हमारे देवरमण उद्यान में ब्राज पतितपावन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अपने शिष्यपरिवार के साथ पधारे हैं । बस यही . मंगल समाचार आप को सुनाने के लिये मैं आप की सेवा में उपस्थित हुश्रा. हूं, ताकि अन्य जनता की तरह आप भी उनके पुण्यदर्शन का सौभाग्य प्राप्त करते हुए अपने प्रात्मा को कृतकृत्य बनाने का सुअवसर उपलब्ध कर सकें। For Private And Personal Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २८६] श्रो विपाक सूत्र [चतुर्थ अध्याय उद्यानपाल के इन कर्णप्रिय मधुर शब्दों को सुन कर महाराज महाचन्द्र बड़े प्रसन्न हुए । तथा इस मंगल समाचार को सुनाने के उपलक्ष्य में उन्हों ने उद्यानपाल को भी उचित पारितो. षिक देकर प्रसन्न किया, तथा स्वयं वीर प्रभु के दर्शनार्थ उन की सेवा में उपस्थित होने के लिये बड़े उत्साह से तैयारी करने लगे । इधर श्रमण भगवात् महावीर स्वामी के देवरमण उद्यान में पधारने का समाचार सारे शहर में विद्यु त्प्रकाश की भान्ति एक दम फैल गया । नगर की जनता उन के दर्शनार्थ वेगवती नदी के प्रवाह की तरह उद्यान को ओर चल पड़ो , तया महाराज महाचन्द्र भी बड़ी सजवज के साथ भगवान् के दर्शनार्थ उद्यान की ओर चल पड़े ओर उद्यान में पहुंच कर वीर प्रभु के जी भर कर निनिमेष दृष्टि से दर्शन करते हुए उनकी पयपासना का लाभ लेने लगे , तथा प्रभु-दशनों की प्यासी जनता ने भी प्रभु के यथारुचि दर्शन कर अपनी चिरंतन पिपासा को शान्त करने का पूरा २ सौभाग्य प्राप्त किया । अाज देवरमण उद्यान की शोभा भी कहे नहीं बनती । वीर प्रभु की कैवल्य विभूति से अनुप्राणित हुए उस में आज एक नये ही जीवन का संचार दिखाई देता है। उसका प्रत्येक वृक्ष, लता और पुष्प मानों हर्षातिरेक से प्रफुल्लित हो उठा है, तथा प्रत्येक अङ्ग प्रत्यङ्ग में सजीवता अथच सजगता आ गई है । दर्शकों को अांखें उसकी इस अपूर्व शोभाश्री को निर्निमेष दृष्टि से निहारती हुई भी नहीं थकतीं । अधिक क्या कहें, वीर प्रभु के आतिथ्य का सौभाग्य प्राप्त करने वाले इस देवरमणोद्यान की शोभाश्री को निहारने के लिये तो आज देवतागण भी स्वर्ग से वहां पधार रहे हैं। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उनके दर्शनार्थ देवरमण उद्यान में उपस्थित हुई जनता के समुचित स्थान पर बैठ जाने के बाद उसे धर्म का उपदेश दिया। उपदेश क्या था ? साक्षात् सुधा की वृष्टि थी, जो कि भवतापसन्तप्त हृदयों को शान्ति -प्रदान करने के लिये की गई थी । उपदेश समाप्त होने पर वीर प्रभु को भक्तिपूर्वक वन्दना तथा नमस्कार करके नागरिक और महाराज महाचन्द्र आदि सब अपने २ स्थानों को चले गये। तत्पश्चात् संयम और तप की सजीव मूर्ति श्री गौतम स्वामी भगवान् से आज्ञा लेकर पारणे के निमित्त भिक्षा के लिये साहजनी नगरी में गये । जब वे राजमार्ग में पहुँचे तो क्या देखते हैं ? कि हाथियों के झुड, घोड़ों के समूह और सैनिक पुरुषों के दल के दल वहां खड़े हैं। उन सैनिकों के मध्य में स्त्रीसहित एक पुरुष है, जिस के कर्ण, नासिका कटे हुये हैं, वह अवकोटकबन्धन से बंधा हुआ है , तथा राजपुरुष उन दोनों को अर्थात् स्त्री और पुरुष को कोड़ों से पीट रहें है, तथा यह उद्घोषणा कर रहे हैं कि इन दोनों को कष्ट देने वाले यहां के राजा अथवा कोई अधिकारी आदि नहीं है, किन्तु इन के अपने दुष्कर्म ही इन्हें यह कष्ट पहुंचा रहें हैं। राजकीय पुरुषों के द्वारा की गई उस स्त्री पुरुष की इस भयानक तथा दयनीय दशा को देख कर करुणा के सागर गौतम स्वामी का हृदय पसीज उठा और उनकी इस दुर्दशा से वे बहुत दुःखित भी हुए। भगवान् गौतम सोचने लगे कि यह ठीक है कि मैंने नरकों को नहीं देखा किन्तु फिर भी श्रुत शान के बल से जितना उनके सम्बन्ध में मुझे ज्ञान है उस से तो यह प्रतीत होता है कि यह बालक नरक के समान हो यातना -दुःख को प्राप्त कर रहा है। अहो ! यह कितनी कर्मजन्य बिडम्बना है ? इत्यादि विचारों से युक्त हुए वापिस देवरमण उद्यान में आये, श्राकर प्रभु को वन्दना की ओर राजमार्ग के दृश्य का सारा वृत्तान्त कह सुनाया तथा उस दृश्य के अवलोकन से अपने For Private And Personal Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्याय 1 हिन्दी भाषा टीका सहित। [२८७ हृदय में जो संकल्प उत्पन्न हुए थे, उन का भी वणन किया। तदनन्तर उस सस्त्रीक व्यक्ति के विषय में उसके कष्ट का मूल जानने की इच्छा से उसके पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनने की लालसा रखते हुए भगवान् गौतम ने वीर प्रभु से विनम्र निवेदन किया कि भगवन् ! यह पुरुष पूर्वभव में कौन था ? और उसने पूर्वजन्म में ऐसा कौन सा कर्म किया था जिसके फलस्वरूप उसे इस प्रकार के असह्य कष्टों को सहन करने के लिये वाधित होना पड़ा ? इस प्रश्न के उत्तर में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जो कुछ फ़रमाया , उसका वर्णन अग्रिम सूत्र में दिया गया है। -समणस्स०-यहां के बिन्दु से -भगवओ महावीरस्स-इन पदों का ग्रहण समझना, और - अन्तेवासी जाव रायमग्गे -- यहां के जाव-यावत् पद से-इन्दभूती नामं अमगारे गोयम - सगोत्तणं- 'से लेकर-संखित्तविउलतेउलेसे छठंछट्टणं अणिक्खेित्तणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, तए णं से भगवं गोयमे छक्वमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए- से लेकर दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणे-यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। -पुरिसे०- यहां के बिन्दु से-पासति सन्नद्धबद्धवम्मियकवए-से लेकर-गहियाउहपरणेयहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभीष्ट है । इन पदों का शब्दार्थ पृष्ठ १२४ पर दिया जा चुका है। "-उकिावत्तकराणनासं जाव उग्घोसणं-" यहा का जाव-यावत् पद -नेहतुप्पिय. गरां-से लेकर-इमं च एयारूवं-यहां तक के पाठ का परिचायक है । इन पदों का शब्दार्थ पृष्ठ १२६ तथा १२५ पर दिया गया है। -चिंता तहेव जाव-यहां पठित चिन्ता शब्द से-तते णं से भगवश्रो गोतमस्स तं पुरिसं पासित्ता इमे अज्झत्थिते ५ समुप्पज्जित्था-अहो णं इमे पुरिसे जाव निरयपडिरूवियं वेयणं वेदेति-इन पदों का ग्रहण कराना सूत्रकार को अभिमत है । इन पदों का अर्थ पृष्ठ १३२ पर लिखा जा चुका है। तथा तहेव-पद से जो विवक्षित है उस का उल्लेख पृष्ठ १३३ पर किया गया है । तथा-जाव-यावत् पद से-साजणीए नगरीए उच्चनीयमज्झिमकुले-से लेकरपच्चणुभवमाणे विहरति- यहां तक के पाठ का ग्रहण करना अभिमत है । इन का अर्थ पृष्ठ १३२ पर लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां वाणिजग्राम नगर का उल्लेख है जब कि यहां साहजनी नगरी का । अवशिष्ट वर्णन समान ही है । अब सूत्रकार गौतम स्वामी के उक्त प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फरमाया, उस का वर्णन करते हैं मूल-एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेणं तेणं समरणं इहेव जंबुद्दोवे दीवे भारहे (१) इन समस्त पदों का वर्णन पृष्ठ १० पर किया गया है। (२) समस्त पद जानने के लिये देखो पृष्ठ १९२ : (३) छाया-एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जंबूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे छगलपुरं नाम नगरमभवत् । तत्र सिंह गिरिः नाम राजाभूत् , महता० । तत्र छगलपुरे नगरे छरिणको नाम छागलिकः परिवसति, श्रादयः०, अधार्मिको यावत् दुष्प्रत्यानन्दः । तस्स छरिणकस्य' For Private And Personal Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २८८] श्री वपाक सूत्र [चतुर्थ अध्याय वासे छगलपुरे णामं णगरे होत्था । तत्थ सीहगिरी णामं राया होत्था, महया० । तत्थ णं छगलपुरे णगरे छपिणए णामं छागलिए परिवसति, अड्ढे०, अहम्मिए जाव दुप्पड़ियाणंदे । तस्स णं छएिणयस्स छालियस्स वहवे अयाण य एलाण य रोज्माण य वसभाण य ससयाण य पसयाण य सूयराण य सिंघाण य हरिणाण य मऊराण य महिसाण य सतबद्धाणि य सहस्सबद्धाणि य जहाणि वाडगंसि सन्निरुद्धाई चिट्ठति । तत्थ बहवे पुरिसा दिएणभइभत्तवेयणा बहवे अए य जाव महिसे य सारक्खमाणा संगोवेमाणा चिट्ठति । अन्ने य से बहवे पुरिसा अयाण जाल महिसाण य गिर्हसि निरुद्धा चिट्ठति । अन्ने य से बहवे पुरिसा दिएण भतिभत्तवेयणा बहवे अए य जाच महिसे य सयए य सहस्सए जीविताओ ववरोति २ मंसाई कप्पणीकप्पियाई करेंति २ छरिणयस्स छागलियस्स उवणेति, अन्ने य से बहवे पुरिसा ताई वहुयाई अयमंसाइं जाव महिसमंसाई य तवएसु य कवल्लीसु य कंदसु - य भज्जणएमु य इंगालेसु य तलेंति य भज्जेंति य सोल्लिंति य तलंता य ३ रायमग्गसि वित्ति कप्पेमाणा विहरति । अप्पणा वि य णं से छरिणयए छागलिए तेहिं वहहिं अयमंसेहि य जाव महिसमंसेहि य सोल्लेहिं तलिएहिं सुरं च ५ आसेदेमाणे ४ विहरति । तते णं से छरिणए छागलिए एयकम्मे एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबहुं पावं कम्म कलिकलुसं समज्जिणिचा सत्तवाससयाई परमाउं पालइला कालमासे कालं किच्चा चउत्थीए पुढवीए उक्कोसेणं दससागरोवठितिएस णेरडएस णेरइयत्ताए उववन्ने । छागलिकस्य बहूनि अजानां चैडानां च गवयानां च वृषभाणां च शशकानां च मृगशिशनां च शकराणां च सिंहानां च हरिणानां च मयूराणां च महिषाणां च शतबद्धानि च सहस्त्रबद्धानि च यथानि वाटके संनिरुद्धानि तिष्ठन्ति । तत्र बहवः पुरुषाः दत्तभृतिभक्तवेतना: बहूनजांश्च यावद् महिषांश्च संरक्षन्तः संगोपयन्तस्तिष्ठन्ति । अन्ये च तस्य बहवः पुरुषाः अजानां च यावद् महिषाणां च गृहे निरुद्धास्तिष्ठन्ति । अन्ये च तस्य बहवः पुरुषाः दत्तभृतिभक्तवेतना बहूनजांश्च यावद् महिषांश्च शतानि च सहस्राणि जीविताद् व्यपरोपयन्ति २ मांसानि कर्तनीकृत्तानि कुर्वन्ति २ छरिणकाय छागलि - कायोपनय न्त । अन्ये च तस्य बहवः पुरुषाः तानि अजमांसानि च यावद् महिषमांसानि च तवकेषु च कवल्लीषु च कन्दुषु च भर्जनकेषु च अंगारेष च तलंति च भृज्जति च पचन्ति च । तलन्तश्च ३ राजमार्गे वृत्तिं कल्पयन्तः विहरन्ति । आत्मनापि च स छरिणकः - छागलिकः तः बहुभिरजमांसैश्च पक्वैस्तलितेभृष्टः सुरां च ५ अास्वादयन् ४. विहरति । ततः स छरिणकः. छागलिकः एतत्कर्मा एतत् - प्रधानः एतद्विद्यः एतत्समाचारः सुबहु पापं. कर्म कलिकलुषं समय सप्तवर्षशतानि परमायुः पाल'यत्वा चतुर्थी पृथिव्यां उत्कर्षेण दशसागरोपमस्थितिकेष नरयिकेषु नेरयिकतयोपपन्नः । For Private And Personal Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२८९ पदार्थ-एवं खलु -इस प्रकार निश्चय ही । गोतमा !-हे गौतम ! । तेणं कालेणं-उस काल में । तेणं-उस । समरणं -समय में । इहेव -इसी । जंबुद्दीवे दीवे-जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत । भारहे वाले-भारतवर्ष में । छगनपुरे-छगलपुर । णाम-नाम का | गगरेनगर । होत्या -था। तत्थ-वहां । सीहगिरी-सिंहगिरि । णाम-नामक । राया-राजा। होत्थाथा । महया०--जो कि हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् था। तत्थ णं-उस । छगलपुरेछगलपुर । णगरे-नगर में । छरिणए-छणिक । णाम-नामक । छागलिए-छागलिकछागों-बकरों के मांस से आजीविका करने वाला वधिक-कसाई । परिवसति-रहता था, जोकि । अड्ढे०धनी तथा अपने नगर में बड़ा प्रतिष्ठित था और । अहम्मे-अधर्मी । जाव-यावत् । दुप्पड़ियाणंदेदुष्प्रत्यानन्द अर्थात् बड़ी कठनाई से प्रसन्न होने वाला था । तस्स गं-उस । छरिणयस्स-छरिण. एक । छागलियस्स-छागलिक के। वहवे - अनेक । अयाण य-अजों-बकरों। एलाण य-भेड़ों। रोज्माण य - रोझों- नीलगायों । वसभाण य- वृषभो । ससयाण य-शशकों - खरगोशों । पसयाण यमृगविशेषों अथवा मृर्गाशशुयों । सूयराण य-शूकरों- सूयरों । सिंहाण य - सिंहों । हरिणाण य-हरिणों। मऊराण य-मयूरों और । महिसाण य -महिषों-भैंसों के । सतवद्धानि- शतबद्ध - जिस में १०० बन्धे हुए हों । सहस्सबद्धानि-सहस्रबद्ध - जिस में हजार बंधे हुए हों, ऐसे । जूयाणि-यूथ -समूह । वाडगंसिवाटक -बाडे में अर्थात् बाड़ आदि के द्वारा चारों ओर से घिरे हुए विस्तृत खाली मैदान में । सन्निरुद्धाई -सम्यक प्रकार से रोके हुए । चिट्ठन्ति-रहते थे । तत्थ - वहां । बहवे-अनेक । पुरिसा -पुरुष । दिण्णभइभत्तवेयणा-जिन्हें वेतन के रूप में भृति - रुपये पैसे और भक्त-भोजनादि दिया जाता हो, ऐसे पुरुष । बइवे -अनेक । अए य-अजों-बकरों का । जाव-यावत् महिसे य - महिषों का । सारक वमाणा- संरक्षण तथा । संगोवेमाणा - संगोपन करते हुए । चिट्ठति-रहते थे । अन्ने य-और दूसरे । बहवे-अनेक । पुरिसा-पुरुष । अयाण य-अजों को । जाव-यावत् । महिसाण य -महिषों को । गिहंसि-घर में । निरुद्धा-रोके हुए। चिटुं. ति-रहते थे, तथा । अन्ने य -और दूसरे । से-उस के। बहवे -अनेक । पुरिसा-पुरुष । दिएणभतिभत्तवेयणा -जिन को वेतन के रूप में भृति--रुपया, पैसा तथा भक्त-भोजन दिया जाता हो । बहवे-अनेक । अए य -अजों । जाव-यावत् । महिसे य -महिषों को, जो कि । सयर य-सैंकड़ों तथा । सहस्सर - हज़ारों की संख्या में थे । जीवियाउ-जोवन से । ववरोवंति २रहित किया करते थे, करके। मंसाई-मांस के । कप्पणीकप्पियाई-कर्तनी - कैंची अथवा छुरी के दाग टुकड़े । करेंति-करते हैं । २त्ता-कर के । छरिणयस्त - छरिणक । छालयस्स-छागलिक को । उवणेति-ला कर देते थे । अन्ने य -और दूसरे । से-उस के । बहवे-अनेक । पुरिसापुरुष । ताई-उन । बहुयाई- बहुत से । अयमंसाई - बकरों के मांसों । जाव - यावत् । महिसमसाई-महिषों के मांसों को । तवरलु य-तवों पर । कवल्लीलु य-कड़ाहों में । कंदसुय-कन्दुओं पर अर्थात् हांडों में, अथवा कड़ाहियों में, अथवा लोहे के पात्र-विशेषों में। भज्जणएसु य-भर्जनकों-भूनने के पात्रों में, तथा । इंगालेसु य-अंगारों पर । तलति-तलते थे । भज्जे ति-भजते थे ।सोल्लिंति-शूल द्वारा पकाते थे । तलंता य ३-तल कर, भज कर और शूल से पका कर । रायमग्गंसि-राजमार्ग में । वित्ति कप्पेमाणा-आजीविका करते हुए। विहरन्ति-समय व्यतीत किया करते थे । अप्पणा वि य णं-और स्वयं भी । से-वह । छरिणयए . For Private And Personal Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २००] श्री वपाक सूत्र [चतुर्थ अध्याय छरिणक । छागलिए - छागलिक । तेहिं-उन । बहू हिं-अनेकविध । अयमंसेहि य-बकरों के मांसों । जाव - यावत् । महिसमंसेहि य-महिषों के मांसों, जो कि । सोल्लेहि-शूल के द्वारा पकाये हुए। तलिएहिं-तले हुए, और । भज्जिएहिं- भूने हुए हैं, के साथ । सुरं व ५--पंचविध सुरात्रों-मद्यविशेषों का। श्रासादेमाणे ४- आस्वादन, विस्वादन आदि करता हुआ । विहरति-जीवन बिता रहा था। तते णं-तदनन्तर । से--वह । छरिणए - छरिणक। छागलिए - छागलिक । एयकम्मे - इस प्रकार के कर्म का करने वाला । एयप्पहाणे-- इस कर्म में प्रधान । एयविज्जे-इस प्रकार के कर्म के विज्ञान वाला तथा । एयसमायारे-इस कर्म को अपना सर्वोत्तम आचरण बनाने वाला । कलिकनुसं--क्लेशजनक और मलिन- रूप । सुबहु-अत्यधिक । पावं - पाप । कम्म-कर्म का । समज्जिणित्ता-उपार्जन कर । सत्तवाससयाई-सात सौ वर्ष की । परमाउं-परम आयु । पालइत्ता-पाल कर-भोग कर । कालमासे-कालमास अर्थात् मरणावसर में । कालं-काल । किच्चा-कर के। उक्कोसेणं-उत्कृष्ट । दससागरोवमठितिपसु-दश सागरोपम स्थिति वाले । णेरइएसु-नारकियों में । णेरइयत्ताएनारकी रूप से । चउत्थीए-चौथी । पढवीए - पृथिवी-नरक में । उववन्ने - उत्पन्न हुआ । मूलार्थ-हे गौतम ! उस काल तथा उस समय इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तगत भारतवर्ष में छगलपुर नाम का एक नगर था । वहां सिंहगिरि नामक राजा राज्य किया करता था, जो कि हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् था । उस नगर में छरिणक नामक एक छागलिक-छागादि के मांस का व्यापार करने वाला वधिक रहता था, जो कि धनाढ्य, अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द था। उस छणिक छागलिक के अनेक अजों, बकरों, भेडों, गवयों, वृषभों, शशकों. मृगविशेषों या. मृगशिशुओं, शूकरों, सिंहों, हरिणों, मयूरों और महिषों के शतबद्ध एव सहस्त्रबद्ध अर्थात् सौ २ तथा हज़ार २ जिन में बन्धे रहते थे ऐसे यूथ वाटक-बाड़े में सम्यक् प्रकार में रोके हुए रहते थे । वहां उसके जिनको वेतन के रूप में रुपया पैसा और भोजन दिया जाता था, ऐसे पुरुष अनेक अजादि और महिषादि पशुओं का संरक्षण तथा संगोपन करते हुए उन-अजादि पशुओं को घरों में रोके रखते थे। छणिक छागलिक के रुपया और भोजन लेकर काम करने वाले अनेक नौकर पुरुष सैकड़ों तथा हजारों अजों यावत् महिषों को मार कर उन के मांसों को कर्तनी से काट कर परिणक को दिया करते थे, तथा उस के अनेक नौकर पुरुष उन -मांसों को तवों, कल्लियों भर्जनकों और श्रगारों पर तलते, भूनते और मूल द्वारा पकाते हुए उन--मांसों को राजमार्ग में वेच कर भाजीविका चलाते थे । , छणिक छागलिक स्वयं भी तले हुए, भूने हुए और शूल द्वारा पकाये हुए उन मांसों के साथ सुरा आदि पंचविध मद्यों का आस्वादनादि करता हुआ जीवन बिता रहा था । उसने अजादि पशुयों के मांसों को खाना तथा मदिराओं का पोना अपना कर्तव्य बना लिया था। इन्हीं पापपूर्ण प्रवृत्तियों में वह सदा तत्पर रहता था, यही प्रवृत्तिएं उस के जीवन का विज्ञान बनी हुई थी और ऐसे ही पाप-पूर्ण कामों को उस ने अपना सर्वोत्तम आचरण बना रखा था, तब क्लेशजनक और मलिनरूप अत्यधिक पाप कर्म का उपार्जन कर सात सौ वर्ष की पूर्णायु पाल कर कालमास में काल करके चतुर्थ नरक में, उत्कृष्ट दस सागरोपम स्थिति वाले नारकियों में नारकीय रूप से उत्पन्न हुआ । For Private And Personal Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२९१ ____टीका-छगलपुर नगर में भिक्षार्थ गये हुए गौतम स्वामी ने राजमार्ग में जिस दृश्य का अवलोकन किया था उस के सम्बन्ध में पूछने पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम स्वामी की जिज्ञासानुसार दृष्ट व्यक्ति के पूर्वभव का वर्णन कह सुनाया । उस वर्णन में छगिणक नामक छागलिक की सावद्य जीवनचर्या का जो स्वरूप दिखलाया गया है, उस पर से उसको अधार्मिक. अधर्माभिरुचि, अधर्मानुगामी और अधर्माचारी कहना सर्वथा उपयुक्त ही है । छार्गालक-पद के दो अर्थ किये जाते हैं, जैसे कि-(१) छागों के द्वारा आजीविका चलाने वाला, अर्थात् बकरों को बेच कर अपना जीवन-निर्वाह करने वाला (२) बकरों का वध करने वाला-कसाई अर्थात् बकरों को मार कर या बकरों को मार उनके मांस को बेच कर अपना जीवन चलाने वाला । परन्तु सूत्रकार को प्रस्तुत प्रकरण में छागलिक का अर्थ कसाई अभिमत है। - आत्मा का उपभोग - स्थान शरीर है, शरीर तभी रहता हैं जब कि शरीर की रक्षा के साधन पूरे २ उपस्थित हों । शरीर को समय पर भोजन भी दिया जाये ओर पानी भी दिया जाये तथा अन्य उपयोगी सामग्री भी दी जाये. तब कहीं शरीर सुरक्षित रह सकता है । इस के विपरीत यदि शरीर की सारसंभाल न की जाय तो वह-शरीर ठीक २ काम नहीं दे सकता । शरीर मनुष्य का हो या पशु का हो, उस के ठीक रहते ही उस में आत्मा का निवास संभव हो सकता है, अन्यथा नहीं । छरिणक इन बातों को खूब समझने वाला था, इस लिये उसने बाड़े में बन्द किये जाने वाले अजादि पशुत्रों की रक्षा का पूरा २ प्रबन्ध कर रखा था । उन पशुओं के खाने और पीने आदि की व्यवस्था के लिये उसने अनेकों नौकर रख छोड़े थे। वे उन अजादि पशुओं को समय पर चारा श्रादि देते और पानी पिलाते तथा शीतादि से सुरक्षित रखने का भी पूरा २ प्रबन्ध करते । संरक्षण और संगोपन इन दोनों पदों में पालन पोषण से सम्बन्ध रखने वाली सारी कियात्रों का समावेश हो जाता । . सारांश यह है कि छगिणक छागलिक के वाड़े में अज, भेड़, गवय, वृषभ, शशक, मृगशिशु या मृगविशेष शूकर' सिंह, हरिण, मयूर ओर महिष इन जातियों के सैंकड़ों तथा हजारों पशु बन्धे पा बन्द किये रहते थे, और इन की पूरी २ देख रेख की जाती थी, जिस के लिये उसने अनेक नौकर रख छोड़े थे ।। इस के अतिरिक्त उस पशु और मांसविक्रय संबन्धी कारोबार को चलाने के लिये उसने जो नौकर रक्खे हुए थे, उन्हें चार भागों में विभक्त किया जा सकता है, जैसे कि (१) वे नौकर जो केवल पशुओं का पालन पोषण करते अर्थात् उन को बाहिर ले जाना. बाहों में बन्द करना, घास चारा आदि देना और उन की पूरी २ देखरेख करना । (२) वे नौकर जो अपने घरों में अजादि पशुओं को रखते थे तथा अवश्यकतानुसार छरिणक को देते थे । (३) वे नौकर जो मांस के विक्रयार्थ अजादि पशुओं का वध करके उनके मांस को खण्डश: (टुकड़े २) कर के छरिणक के सुपुर्द कर देते थे । (४) वे अनुचर जो मांस को लेकर नाना प्रकार से तल कर, भून कर और शूल द्वारा पका कर बेचते । तथा छरिणक छागलिक केवल मांसविक्रता ही नहीं या आपतु वह स्वयं भी उसे भक्षण किया करता था, वह भी नाना प्रकार की मदिरात्रों के साथ | इस प्रकार मांसविक्रय और मांसभक्षण के द्वारा उसने जिन पापकर्मों का उपार्जन किया, उन के फल स्वरूप ही वह चौथी नरक For Private And Personal Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २९२] श्रीविपाक सूत्र [चतुर्थ अध्याय में नारकीयरूप से उत्पन्न हुआ और वहां वह भीषणातिभोषण नारकीय असह्य दुःखों को भोगता हुआ अपनी करणी का फल पाने लगा । प्रस्तुत कथासंदर्भ में जो अजादि पशुओं के शतबद्ध तथा सहस्त्रबद्ध यूथ वाड़े में बन्द रहते थे, ऐसा लिखा है । इस से सूत्रकार को यही अभिमत प्रतीत होता है कि यूथों में विभक्त अजादि पशु सैंकड़ों तथा हजारों की संख्या में बाड़े में अवस्थित रहते थे । यहां यूथ शब्द का स्वतन्त्र - रूप से अज आदि प्रत्येक पद के साथ अन्वय नहीं करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि अजों के शतबद्ध तथा सहस्त्रबद्ध यूथ, भेडों के शतबद्ध तथा सहस्रबद्ध यूथ, इसी प्रकार गवय आदि शब्दों के साथ यूथ पद का सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिए, क्योंकि सब पदों का यदि स्वतन्त्ररूपेण यूथ के साथ सम्बन्ध रखा जाएगा, तो सिंह शब्द के साथ भी यूथ पद का अन्वय करना पड़ेगा, जो कि व्यवहारानुसारी नहीं है, अर्थात् ऐसा देखा या सुना नहीं गया कि हजारों की संख्या में शेर किसी बाड़े में बंद रहते हों । व्यवहार तो - १ सिंहों के लेहंडे नहीं-इस अभियुक्तोक्ति का समर्थक है । अतः प्रस्तुत में-यूथों में विभक्त अजादि पशुओं की संख्या सैंकड़ों तथा हज़ारों की थी - यह अर्थ समझना चाहिये । इस अर्थ में किसी पशु को स्वतन्त्र संख्या का कोई प्रश्न नहीं रहता । रहस्यं तु केवलिगम्यम् । कोषकारों के मत में पसय शब्द देशीय भाषा का है, इस का अर्थ-मृगविशेष या मृगशिशु होता है । अन्य पशुश्री के संसूचक शब्दों का अर्थ स्पष्ट ही है । तथा “ -दिएणभतिभत्तवेयणा-की व्याख्या पृष्ठ २१६ पर कर दी गई है। -महया०- यहां के बिन्दु से विवक्षित पाठ का वर्णन पृष्ठ १३८ पर दिया जा चुका है तथा-अड्ढे- यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ पृष्ठ १२० पर लिख दिया गया है। तथा -अहम्मिए जाव. दुपिडियाणंदे - यहां के जाव-यावत् पद से अभीष्ट पदों का वर्णन पृष्ठ ५५ पर किया गया है । तथा-अए जात्र महिसे - यहां के जाव -यावत् पद से --एले य रोज्झे य वसमे य ससए य पसए य सूयरे य सिंबे य हरिणे य मऊरे य-इन पदों का ग्रहण करना अभिमत है। इसी प्रकार-अयाण य जाव महिसाण - यहाँ का जाव-यावत् पद – एलाण य रोज्झारण य वसभाण य ससयाण य- इत्यादि पदों का, तथा-अयमसाइजाव महिसाई- यहां का जाव-यावत् पद -एलमंसाई य रोज्झमसाई य वसभमंलाइ य -इत्यादि पदों का परिचायक है । इन में मात्र विभक्तिगत भिन्नता है, तथा मांस शब्द अधिक प्रयुक्त हुआ है। तवक, कवल्ली, कन्दु और भर्जनक आदि शब्दों की व्याख्या पृष्ठ २१७ पर की जा चुकी है, तथा-सुरं च ५- यहां दिये गये ५ के, और-आसादेमाणे ४ - यहां दिये गाये 6 के अक से अभिमत पाठ पृष्ठ २५० पर लिखा जा चुका है ।। प्रस्तुत सूत्र में भगवान् , हावीर स्वामी ने गौतम स्वामी को यह बतलाया कि जिस दृष्ट व्यक्ति के पूर्वभव का तुम ने वृत्तान्त जानने की इच्छा प्रकट की है, वह पूर्वजन्म में छरिणक नामक छागलिक था, जो कि कि नितान्त सावद्यकर्म के आचरण से उपार्जित कर्म के कारण चतुर्थ नरक को प्राप्त हुआ था। वहां की भवस्थिति को पूरा करने के बाद उस ने कहां जन्म लिया १ अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं (१) सिंहों के लेहंडे नहीं, हंसों की नहीं पांत । लालों की नहीं बोरियां, साध न चले जमात ॥ (कबीरवाणी में से) For Private And Personal Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२९३ मूल-' तते णं सा सुभद्दस्स सत्थवाहस्स भद्दा मारिया जायणिंदुया यावि होत्था । जाता जाता दाग्गा विणिहायमावज्जति । तते णं से छरिणए छागलिए चउत्थीए पढ़वीए अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव साहंजणोए णयरीए सुभद्दस्स सत्थवाहस्स भद्दाए मारियाए कुच्छिंसि पुत्तलाए उववन्ने । तते णं सा भद्दा सत्यवाही अन्नया कयाइ णवण्हं मासाणं बहुपडिपुराणाणं दारगं पयाया, तते णं तं दारगं अम्मापियरो जायमेत्तं चेव सगड़स्स हेट्टो ठवेति २ दोचपि गेहाति २ आणुपव्वेणं सारक्खंति सगोवेति, संवड्ढेति जहा उझियए, जाव जम्हा णं अम्हं इमे दारए जायमेत्तए चेव सगडस्स हेट्ठा ठविते, तम्हा णं होउ णं अम्हं दारए सगड़े नामेणं, सेसं जहा उज्झियए । सुभद्दे लवणे समुद्दे कालगओ माया वि कालगता, से वि मयाओ गिहारो निच्छूढे । तते णं से सगड़े दारए साओ गिहामो निच्छूढ़े समाणे सिंघाडग० तहेव जाव सुदरिसणाए गणियाए सद्धि संपलग्गे यावि होत्था, तते णं से सुसेणे अमच्चे तं सगडं दारयं अन्नया कयाइ सुदरिसणाए गणियाए गिहाओ निच्छुभावेति २ सुदरिसणं दंसाणयं गणियं अभिंतरए ठावेति २ सुदरिसणाए गणियाए सद्धि उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइ भुजमाणे विहरति । पदार्थ-तते णं.-तदनन्तर । तस्स- उस । सुभदस्स - सुभद्र। सत्यवाहस्स-सार्थवाह की । सा- वह । भद्दा-भद्रा । भारिया --भार्या । जातनिंदुया - जानिन्दुका-जिस के बच्चे उत्पन्न होते ही मर जाते हों, ऐसी । यावि होत्था-थी, उसके । जाता जाता-उत्पन्न होते २ । दारगा-बालक । विणिहायमावज्जंति-विनाश को प्राप्त हो जाते थे। तते णं-तदनन्तर । से-वह । छरिणएछरिणक नामक । छागलिए - छागलिक - कसाई । चउत्थीए-चौथी । पुढवीए-पृथ्वी-नरक से । उध्वहित्ता-निकल कर । अणंतरं - व्यवधान रहित-सीधा ही । इहेव - इसी । साहंजणोए-सा हंजनी । गयीर - नगरी में । सुभद्दस्स - सुभद्र । सत्यवाहस्स–सार्थवाह की ! भहाए-भद्रा । भारियाए (१) छाया-ततः सा तस्य सुभद्रस्य साथवाहस्य भद्रा भार्या जातनिंदुका चाप्यभवत् । जाता जाता दारका विनिघातमापद्यन्ते । तत: स छगणकः छागलिक: चतुथ्योः पृथिव्या अनन्तरमुवृत्त्य इहव साहं जन्यां नगर्यां सुभद्रस्य सार्थवाहस्य भद्राया भार्यायाः कुक्षो पुत्रतयोपपन्नः । ततः सा भद्रा सार्थवाही अन्यदा कदाचित् नवसु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु दारकं प्रयाता । ततस्तं दारकमम्बापितरौ जातमात्रं चैव शकटस्याधः स्थापयतः २ द्विरपि गृहीत: २ श्रानुपूर्येण संरक्षत. संगोपयत: सवर्धयतः यथोज्झितकः यावद् यस्मादस्माकमयं दारको जातमात्रकश्च व शकटस्याधः स्थापित: तस्माद् भवत्वस्माकं दारकः शकटो नाम्ना। शेषं यथोज्झितकः सुभद्रो लवणे समुद्र कालगतः । मातापि कालगता। सोऽपि स्वाद् गृहाद् निष्कासितः । ततः स शकटो दारक: स्वाद् गृहाद् निष्काशितः सन् घाटक, तथैव यावत् सुदर्शनषा गणिकया सार्द्ध संप्रलमश्चाप्यभवत् । ततः स सुषेणोऽमात्यः तं शकटं दारकमन्यदा कदाचित् सुदर्शनाया गणिकायाः गृहाद् निष्कासयति २ सुदर्शनां दर्शनीयां गणिकामभ्य तरे स्थापयति २ सुदर्शनया गणिकया सामुदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुजानो विहरति । For Private And Personal Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २९४] श्री विपाक सूत्र [चतुर्थ अध्याय भार्या की । कुञ्छिसि -कुक्षि में । पुत्तत्तार-पुत्ररूप से । उववन्ने –उत्पन्न हुआ। तते णं-तदनन्तर । सा भद्दा-उस भद्रा । सत्यवाही-सार्थवाही ने । अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय । णवरह-नव । मासाणं-मासों के। बहुपडिपुराणाणं-लगभग पूर्ण हो जाने पर । दारगं-बालक को। पयाया-जन्म दिया। तते णं-तदनन्तर । तं दारगं-उस बालक को । अम्मापियरो - माता पिता ने । जायमेत चेवउत्पन्न होते ही। सगड़स्स-शकट - छकड़े के । हेप्रो-नीचे । ठवेति २-स्थापित कर दिया - रख दिया, रख कर | दोच्चं पि-दूसरी बार, वे। गेराहावेति २-उठा लेते हैं, उठा कर । आणुपब्वेणंअनुक्रम से । सारक्वंति–संरक्षण करने लगे । संगोवंति-संगोपन करने लगे। संवडढेति-संवर्धन करने लगे। जहा- जिस प्रकार । उझियर-उज्झितक कुमार का वर्णन है । जाव-यावत् । जम्हा णं-जिस कारण । अम्हं-हमारे । इमे-इस । जायमेत्तए चेव -जातमात्र ही । दारए -बालक को । सगडस्सशकट के । हेहओ-अधस्तात् - नीचे । ठविते- स्थापित किया गया है। तम्हाणं-इस कारण से । अम्हंहमारा । दारए - बालक । सगडे-शकट । नामेणं - नाम से । होउ-हो, अर्थात् इस बालक का शकटकुमार यह नाम रखा जाता है। णं - वाक्यालंकारार्थक है । सेसं-शेष । जहा-जिस प्रकार । उझियए-उज्झितक कुमार का वर्णन है, उसी प्रकार इस का भी जान लेना चाहिये । सुभद्दे - सुभद्र सार्थवाह । लवणसमुद्दे-लवण समुद्र में । कालगो-काल को प्राप्त हुआ, तथा शकट कुमार की। माया वि-माता भी। कालगता - मृत्यु को प्राप्त हो गई । से वि-वह शकट कमार भी। गिहारो-घर से । निच्छुढे-निकाल दिया गया । तते णं-तदनन्तर । सयाओ- स्वकीय-अपने। गिहारो-घर से। निच्छूढे समाणे-निकाला हुआ। से-वह । सगड़े-शकट कुमार । दारए-बालक । सिंघाडग०शृघाटक-त्रिकोण मागं । तहेव-तर्थव - उसी प्रकार । जाव-यावत् । सुदरिसणार-सुदर्शना । गणियाए-गणिका के। सद्धिं-साथ । संपलग्गे-संप्रलग्न–गाढ सम्बन्ध से युक्त । यावि होत्था-भी हो गया था। तते णं-तदनन्तर । से-वह । सुसेणे-सुषेण । अमचे अमात्य-मंत्री। तं उस । सगडं-शकट कुमार । दारयं-बालक को। अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय । सुदरिसणारसुदर्शना । गणियाए-गणिका के। गिहारो-घर से । निच्छुभावेति २-निकलवा देता है,-निकलका कर । दंसणीयं-दर्शनीय-सुन्दर । सुदरिसणं-सुदर्शना । गणियं-गणिका को। अन्भिरिए-भीतर अर्थात् पत्नीरूप से । ठावेति-स्थापित करता है अर्थात् रख लेता है, और । सुदरिसणाए-सुदर्शना। गणियाए-गणिका के। सद्धिं-साथ । उरालाई-उदार- प्रधान । माणुस्सगाई- मनुष्यसम्बन्धी । भोगभोगाई-विषयभोगों का । भुजमाणे - उपभोग करता हुआ, वह । विहरति -विहरण करने लगा। मूलार्थ-तदनन्तर सुभद्र सार्थवाह की भद्रा नाम की भार्या जातनिन्दुका थी, उस के उत्पन्न होते ही बालक मर जाते थे । इधर छणिक नामक छागलिक -वधिक का जीव चौथी नरक से निकल कर सोधा इसी साहजनी नगरी में सुभद्र सार्थवाह की भद्र। भार्या के गर्भ में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ। लगभग नौ मास पूरे हो जाने पर किसी समय सुभद्रा सार्यवाही ने बालक को जन्म दिया । उत्पन्न होते ही माता पिता उस बालक को शकर-छकड़े के नोचे स्थापित करते हैं और फिर उठा लेते हैं । उठा कर उस का यथाविधि संरक्षण, संगोपन और संवर्द्धन करते हैं। - उज्झितक कुमार की तरह यावन् जातमात्र-उत्पन्न होता ही हमारा यह बालक शकट-छकड़े के नीचे स्थापित किया गया था इस लिये इसका-शकट कमार-ऐला नामकरण किया जाता है अर्थात माता For Private And Personal Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । (२९५ पिता ने उस का शकट कुमार यह नाम रक्खा । उस का शेष जीवन उज्झितक कुमार के जीवन के समान जान लेना चाहिये। जव सुभद्र सार्थवाह लवण समुद्र में काल धर्म को प्राप्त हुआ एवं शकट की मा. ता भद्रा भो मृत्यु को प्राप्त हो गई, तब उस शफट कुमार को राजपुरुषों के द्वारा घर से निकाल दिया गया । अपने घर से निकाले जाने पर शकट कुमार साहजनो नगरी के शृंगाटक (त्रिकोण मार्ग) आदि स्थानों में घूमता, तथा जुआरियों के अड्डों और शराबवानों में रहता । किसी समय उसकी सुदर्शना गाणका के साथ गाढ प्रीति हो गई और वह उसी के वहां रह कर यथारूचि कामभोगों का उपभोग करता हुआ सानन्द समय बिताने लगा । तदनन्तर महाराज सिंहगिरि का अमात्य -मंत्री सुषेण किसी अन्य समय उस शकट कुमार को सुदर्शना वेश्या के घर से निकलवा देता है और सुदर्शना को अपने घर में रख लेता है । घर में स्त्रीरूप से रकावी हुई उस सुदर्शना के माथ मनुष्यसम्बन्धी उदार-विशिष्ट कामभोगों का यथारुचि उपभोग करता हश्रा समय व्यतीत करता है। टीका - प्रस्तुत अध्ययन के प्रारंभ में सूत्रकार ने साहजनी नगरी का परिचय कराया था, साथ में वहां यह भी उल्लेख किया गया था कि उस में सुभद्र नाम का एक सार्थवाह- मुसाफिर व्यापारियों का मुखिया, रहता था । उस की धर्मपत्नी का नाम भद्रा था जोकि जातनिंदुका थी अर्थात् उसके बच्चे उत्पन्न होते ही मर जाया करते थे । इसलिये संतान के विषय में वह बहुत चिन्तातुर रहती थी। पति के आश्वासन और पर्याप्त धनसम्पत्ति का उसे जितना सुख था, उतना ही उस का मन सन्तति के अभाव से दु:खी रहता था। मनोविज्ञान शास्त्र का यह नियम है कि जिस पदार्थ की इच्छा हो उस की अप्राप्ति में मानसिक व्यग्रता अशांति बराबर बनी रहती हैं। यदि इच्छित वस्तु प्रयत्न करने पर भी न मिले तो मन को यथाकथंचित् समझा बुझा कर शान्त करने का उद्योग किया जाता है, अर्थात् प्रयत्न तो बहुत किया, उद्योग करने में किसी प्रकार की कमी नहीं रखी, उस पर भी यदि कार्य नहीं बन पाया, अर्थात् मनोरथ की सिद्धि नहीं हुई तो इस में अपना क्या दोष ? यह विचार कर मन को ढाढस बंधाया जाता है । यले कृते यदि न सिध्यति, कोऽत्र दोषः । परन्तु जिस वस्तु की अभिलाषा है, वह यदि प्राप्त हो कर फिर चली जाए - हाथ से निकल जाए तो पहली दशा की अपेक्षा इस दशा में मन को बहुत चोट लगती है । उस समय मानस में जो क्षोभ उत्पन्न होता है, वह अधिक कष्ट पहुँचाने का कारण बनता है। सुभद्र सार्थवाह की स्त्री भद्रा उन भाग्यहीन महिलाओं में से एक थी जिन्हें पहले इष्ट वस्तु की प्राप्ति तो हो जाती हो, परन्तु पीछे वह उन के पास रहने न पाती हो । तात्पर्य यह है कि भद्रा जिस शिशु को जन्म देती थी, वह तत्काल ही मृत्यु का ग्रास बन जाता था, उसे प्राप्त हुई अभिलषित वस्तु उसके हाथ से निकल जाती थी, जो महान् दुःख का कारण बनती थी। स्त्रीजात को सन्तति पर कितना मोह और कितना प्यार होता है । यह स्त्रीजाति के हृदय से पूछा जा सकता है । वे अपनी सन्तान के लिये शरीरिक और मानसिक एवं श्रार्थिक तथा अपने अन्य स्वार्थी का कितना बलिदान करती है ? यह भी जिन्हें मातृहृदय की परख है, उन से छिपा हुआ नहीं है, अर्थात् सन्तान की प्राप्ति की स्त्रीजाते के हृदय में इतनी लग्न और लाल. For Private And Personal Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २९६] श्रो विपाक सूत्र चितुर्थ अध्याय सा होती है कि उस के लिये वे असह्य से असह्य कष्ट झेलने के लिये भी सन्नद्ध रहती है । और यदि उसे सन्तान की प्राप्ति और खास कर पुत्र सन्तान की प्राप्ति हो जाये तो उस को जितना हर्ष होता है उसकी इयत्ता - सीमा कल्पना को परिधि से बाहिर है। इस के विपरीत सन्तान का हो कर निरन्तर नष्ट हो जाना तो उसके असोम दुःख का कारण बन जाता है । सन्तति का वियोग स्त्री - जाति को जितना असह्य होता है, उतना और किसी वस्तु का नहीं । यही कारण है कि भद्रादेवो निरन्तर चिन्ताग्रस्त रहती है । उसे रात को निद्रा भी नहीं आती, दिन को चैन नहीं पड़ती । आज तक उस को जितनो सन्तान हुई सब उत्पन्न होते ही काल के विकराल गाल में सदा के लिये जा छिपी हैं । उसने अपने आज तक के सारे जीवन में किसी शिशु को दूध पिलाने या जी भर कर मुख देखने तक का भी सोभाग्य प्राप्त नहीं किया । इसी आशय को प्रस्तुत सूत्र में भद्रादेवी को जातनिन्दुका कह कर व्यक्त किया गया है। जातनिन्दुका का अर्थ हैजिस के बच्चे उत्पन्न होते हो मर जावें । भद्रादेवी की भी यही दशा थी, उसके बच्चे भी उत्पन्न हो कर नष्ट हो जाते थे । कार्यनिष्पति के कारण समवाय में समय को अधिक प्राधान्य प्राप्त है । इसकी अनुकूलता और प्रतिकूलता पर संसार का बहुत कुछ कार्यभार निर्भर रहता है । जब समय अनुकूल होता होता है तो अभिलषित कार्यों की सिद्धि में भी देरी नहीं लगती । एवं जब समय प्रतिकूल होता है तो बना बनाया खेल भी बिगड़ जाता है । मानव की सारी योजनाएं छिन्न भिन्न हो कर लुप्त हो जाती हैं । इसी लिये नितिकारों ने समय एव करोति बलाबलम्।' यह कह कर उसकी बलवत्ता को अभिव्यक्त किया है । - सुभद्र सार्थवाह की भद्रा देवी भी पूर्वोजित अशभ कर्मों के विपाक-फल से प्रतिकूल समय के ही चक्र में फसी हुई सन्तति के वियोग -जन्य द:ख को उठाती रही, परन्तु आज उस के किसी शुभ कर्म के उदय से उसके दुर्दिनों का अर्थात् प्रतिकूल समय का चक्र बदल गया और उसके स्थान में अब अनुकून समय का शुभागमन हुा । तात्पर्य यह है कि शुभ समय ने उसके जीवन में एक नवीन झांकी से अप्रत्याशित -असभावित आशा का संवार किया और उस से उस को कुछ थोड़ा सा अश्वासन मिला । इधर छरिणक छागलिक -वधिक का जीव अपनी नरक -सम्बन्धी भवस्थिति को पूर्ण कर के वहां से निकल कर इसी भद्रा देवी के उदर में पुत्ररूप से अवतरित हुआ । उस के गर्भ में आते ही भद्रा देवी की मुर्भाई हुई आशालता में फिर से कुछ सजगता आनी प्रारम्भ हुई । ज्यों २ गर्भ बढ़ता गया त्यों २ उसके हृदयाकाश में प्रकाश की भी मन्द सी रेखा दिखाई देने लगी । अन्त में लगभग नव मास पूरे होने पर किसी समय उसने एक सुन्दर शिश को जन्म दिया। लोक में ऐसी किंवदन्ती आबालगोपाल प्रसिद्ध है कि 'पयसा दग्धः पुमान् तक्रमपि फूत्कृत्य पिबति' अर्थात् दूध का जला हुआ पुरुष छाछ को भी फू के मार मार कर पीता है । इसी भांति सुभद्रा देवी भी बहुत से बालकों को जन्म दे कर भी उन से वंचित रह रही थी । उस ने पुत्र के होते ही उसे एक गाडे के नीचे रख दिया और फिर से उठा कर अपनी गोद (१) समय एव कराति बलाबलम्, प्रणिगदन्त इतीव शरीरीणाम् । शरदि हंसरवाः परुषीकृत - स्वरमयूरमयू रमणीयताम् ॥१॥ (शिशुपालवध में से) For Private And Personal Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२९७ में ले लिया । ऐसा करने का अभिप्राय सम्भवतः यही होगा कि यह चिरंजीवी रहे । अस्तु, कुछ भी हो, इस नवजात शिश के कुछ काल तक जीवित रहने से उसके हृदय में कुछ ढाढस अवश्य बन्ध गई और वह उस के पालन पोषण के निमित्त पूरी २ सावधानी रखने लगी तथा उसके संरक्षणार्थ नियत की गई धायमाताओं के विषय में भी वह बराबर सचेत रहती । इस प्रकार उस नवजात शिशु का बड़ी सावधानी के साथ संरक्षण, संगोपन और सम्वर्धन होने लगा। आज उस के नाम रखने का शभ दिवस है, इस के निमित्त सुभद्र सार्थवाह ने बड़े भारी उत्सत्र का आयोजन किया । अपने सगे सम्बन्धियों के अतिरिक्त नगर के अन्य प्रतिष्ठित व्यक्तियों को भी आमंत्रित किया और सब का खान पानादि से यथोचित स्वागत करने के अनन्तर सब के समक्ष उत्पन्न बालक के नाम-करण करने का प्रस्ताव उपस्थित करते हुए उन से कहा कि प्रिय बन्धुरो ! हमारा यह बालक उत्पन्न होते ही एक शकट – गाडे के नीचे स्थापित किया गया था, इसलिये इस का नाम शकट कुमार रखा जाता है । उपस्थित लोगों ने भी इस नाम का समर्थन किया और उत्पन्न बालक को शुभाशीर्वाद देकर वे बिदा हुए । सूत्रकार ने शकट कुमार के जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त की सारी जीवनचर्या को द्वतीय अध्ययन में वर्णित उज्झितक कुमार के समान जानने की सूचना करते हुए "सेसं जहा उज्झियए" इतना कह कर बहुत संक्षेप से सब कुछ कह दिया है। जहां जहां कुछ नामादि का भेद है, वहां २ उसका उल्लेख भी कर दिया है, जोकि सूत्रकार की वर्णनशैली के सर्वथा अनुरूप है। इसके अतिरिक्त उसका यहां पर यदि सारांश दिया जाय तो यह कहना होगा कि-जब पांचों धायमाताओं से पोषित हुआ शकट कुमार युवावस्था को प्राप्त हुआ तब पिता ने अर्थात् सुभद्र सार्थवाह ने विदेश-यात्रा की तैयारी की। दुर्दैववशात् समुद्रयात्रा में उसका जहाज़ समुद्र में डूब (१) यहां प्रश्न होता है कि जब आत्मा के साथ आयुष्कर्म के दलिक ही नहीं तो गाड़े के नीचे रख देने मात्र से बालक चिरंजीवी कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वास्तव में बालक के चिरंजीवी होने का कारण उस का अपना ही आयुष्कर्म है । गाड़े और जीवनदृद्धि का परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि जिस का आयुष्कर्म पर्याप्त है, उसे चाहे गाडे के नीचे रखो य न रखो उसे तो यथायु जीवित ही रहना है, परन्तु जिसका आयुष्कर्म समाप्त हो त हो रहा है वह गाडे आदि के नीचे रखने पर भी जीवित नहीं रह सकता। भद्रा की सन्तति उत्पन्न होते ही मर जाती थी, इससे वह हतोत्साह हो रही थी। उसने सोचा - बहुत उपाय किये जा चुके हैं, परन्तु सफलता नहीं मिल सकी, अतः अब कि बार नवजात शिशु को गाडे के नीचे रख कर देखले, संभव है कि इस उपाय से वह बच जाये । इधर इस का ऐसा विचार चल रहा था और उधर गर्भ में आने वाला जीव दीर्घजीवन लेकर आ रहा था। परिणाम यह हा कि गाडे के नीचे रखने पर नवजात बालक मरा नहीं । ऊपराऊपरी देखने से तो भले ही गाडा उस में कारण जान पड़ता हो परन्तु वास्तविकता इस में नहीं है। वास्तविकता तो अायुष्कर्म की दीर्घता ही बतलाती है । क्यों कि गाडे के नीचे रखना ही यदि जीवन वृद्धि का कारण होता तो अपने को गाडे के नीचे रख कर प्रत्येक व्यक्ति मृत्यु से बच जाता, और मृत्यु की अचलता को चलता में बदल देता। (२) नामकरण की इस परम्परा का उल्लेख श्री अनुयोगद्वार सूत्र में पाया जाता है, जिसका उल्लेख पृष्ठ १५९ पर किया जा चुका है। For Private And Personal Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २९८] श्री वपाक सुत्र [चतुर्थ अध्याय गया और वह वहां परलोक को सिधार गया । शकट कुमार ने उसका सम्पूर्ण और्द्धदैहिक कर्म किया। तदनन्तर उसकी माता भी पतिवियोगजन्य दुःख को अधिक काल तक न सह सकी। परिणाम - स्वरूप वह भी इस असार संसार से चल बसी। उस समय प्रायः व्यापार करने वालों का यह नियम होता था कि जिस समय व्यापार को बढ़ाते थे अथवा यू' कहिये कि व्यापार के निमित्त जब अपने देश को छोड़ कर विदेश में जाना होता था तो अपना सारा धन और हो सके तो अन्य नागरिकों से पर्याप्त ऋण लेकर अपने जहाज़ को माल से भर लेते और व्यापार के लिये प्रस्थान कर देते। __ सुभद्र नामक सार्थवाह ने भी ऐसा ही किया था। उसने वहां के धनियों से काफ़ी ऋण ले रक्खा था। इसलिये सुभद्र सेठ और भद्रादेवी की मृत्यु ने उन सब को सचेत कर दिया, वे अपने दिये हुए धन को किसी न किसी रूप में प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगे। जिस को जो कुछ मिला वह ले गया। इसी में सुभद्र सेठ की सारी चल सम्पत्ति समाप्त हो गई। अवशेष उस की जो स्थावर सम्पत्ति थी, उसके लिये लेनदारों ने न्यायालय की शरण ली और राजाज्ञा के अनुसार सुभद्र की स्थावर सम्पत्ति पर भी अपना अधिकार कर लिया। इसके परिणामस्वरूप शकट - कुमार को अपने घर से भी निकलना पड़ा। घर से निकल जाने पर मातृपितृविहीन शकट कुमार निरंकुश हाथी या बेलगाम घोड़े की तरह स्वछन्द फिरने लगा। उसकी बैठक ऐसे पुरुषों में हा गई जो कि जुआरी, शराबी और परस्त्रीलम्पट थे। उनके सहवास में आकर शकट कुमार भी उन्हों दुगुणों का भाजन बन गया। उसके रहने का न तो कोई नियत स्थान था और न कोई योग्य व्यक्ति उसे किसी प्रकार का श्राश्रय देता था । वह प्रथम जितना धन-सम्पन्न, सुखी और प्रतिष्ठाप्राप्त किये हुए था, उतना ही निर्धन, दुःखी और प्रतिष्ठाशून्य हो रहा था। यह तो हुई शकट कुमार की बात । अब पाठक साहजनी नगरी की स प्रसिद्ध सदर्शना वेश्या की ओर भी ध्यान दें। _ वह एक निपुण कलाकार होने के अतिरिक्त रूपलावण्य में भी अद्वितीय थी । कामवास मावासित अनेक धनी, मानी युवक उसका अातिथ्य प्राप्त करने की लालसा से धन की थैलियां ले कर उसके दर्वाज़े पर भटका करते थे। परन्तु उसके पास जाने या उससे बातचीत करने और सहवास में आने का अवसर तो किसी विरले को ही प्राप्त होता था। इधर शकट कुमार को माता और पिता छोड़ गये, धन सम्पत्ति ने उससे मुख मोड़ लिया । परन्तु उसके शरीरगत स्वाभाविक सौन्दर्य एवं सभ्यजनोचित व्यवहार – कुशलता ने उस का साथ नहीं छोड़ा था। वह एक दिन सदर्शना के विशाल भवन की ओर जाता हुआ उसके नीचे से गुज़रा । ऊपर झरोखे में बैठी हुई सुदर्शना की जब उस पर दृष्टि पड़ी तो वह एक दम मुग्ध सी हो गई, और उसे ऐसा भान हुआ कि मानों रूप लावण्य की एक सजीव मूर्ति अपने आप को फटे पुराने वस्त्रों से छिपाये हुए जा रही है। जिसे प्राप्त करने के लिये वह ललचा उठी। उसने अपनी एक चतुर दासी को भेज कर उसे ऊपर आने की प्रार्थना की। जैसे कि प्रथम भी बतलाया जा चुका है कि प्रेम हृदय की वस्तु है । प्रेम के साम्राज्य में धनी और निर्धन का कोई प्रश्न नहीं होता । धन-हीन व्यक्ति भी अपने अन्दर हृदय रखता है, उस का हृदय भी तृषातुर जीव की तरह प्रमोदक का पिपासु होता है । जिस सुदर्शना की भेंट के लिये नगर के अनेकों युवक धन की थैलिये लुटा देने को तैयार रहने पर भी उस की For Private And Personal Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । भेंट से वंचित रहते, वही सुदर्शना एक गरीब निर्धन को अपने पास बुलाने और उस से प्रेमालाप करती हुई आत्मसमर्पण करने को सन्नद्ध हो रही है । इस में इतना अन्तर अवश्य है कि यह प्रेम देहाध्यासयुक्त और अप्रशस्त राग से पूर्ण होने के कारण सुगतिप्रद नहीं है । अस्तु, दासी के द्वारा आमंत्रित शकट कुमार ऊपर गया और दोनों की चार आंखें होते ही एक दूसरे में समागये । इसी भाव को सूत्रकार ने-संपलग्गे-शब्द से बोधित किया है। कहते हैं कि मानव के दुर्दिनों के बाद कभी सुदिन भी जाते हैं। सुदर्शना के प्रेमा. तिथ्य ने शकटकुमार के जीवन की काया पलट दी, वह अब उस मानवी वैभव का यथारुची उपभोग कर रहा है, जिस का उसे प्राप्त होना स्वप्न में भी सुलभ नहीं था । परन्तु उस का यह सुख - मूलक उपभोग भी चिरस्थायी न निकला । राज्यसत्ता के अधिकार ने उसे छिन्न भिन्न कर दिया। शासन और सम्पत्ति में बहुत अन्तर है । दूसरे शब्दों में - शासक और धनाढ्य दोनों भिन्न २ पदार्थ हैं । धनाढ्य व्यक्त कितना ही गौरवशाली क्यों न हो परन्तु शासक के सामने आते ही उसका सब गौरव राहुग्रस्त चन्द्रमा की तरह ग्रस्त हो जाता है। शासन में बल है, अोज है और निरंकुशता है । इधर धन में प्रलोभन के अतिरिक्त और कुछ नहीं । राजकीय वर्ग का एक छोटा सा व्यक्ति, जिस के हाथ में सत्ता है, वह एक बड़े से बड़े धनी मानी गृहस्थ को भी कुछ समय के लिये नीचा दिखा सकता है । तात्पर्य यह है कि सत्ता के बल से मनुष्य कुछ समय के लिये जो चाहे सो कर सकता है ।। सुदर्शना के रूप लावण्य की धाक सारे प्रांत में प्रसृत हो रही थी। वह एक सप्रसिद्ध कलाकार वेश्या थी । धनिकों को भी विवाह शादी के अवसर पर पर्याप्त द्रव्य व्यय कर के उस के संगीत और नृत्य के अतिरिक्त केवल दर्शन मात्र का ही अवसर प्राप्त होता था । इस का कारण यही था कि वह कोई साधारण वेश्या नहीं थी । पाठकों ने सषेण मंत्री का नाम सुन रक्खा है और सूत्रकार के कथनानुसार वह चतुविध नीति के प्रयोगों में सिद्धहस्त था, अर्थात् साम, दान, भेद और दण्ड इन चतुर्विध नीतियों का कब और कैसे प्रयोग करना चाहिये ? इस विषय में वह विशेष निपुण था । इसी लिये महाराज महाचन्द्र ने उसे प्रधान मंत्री के पद पर नियुक्त किया हुआ था, और नरेश का उस पर पूर्णविश्वास था । परन्तु प्रधान मंत्री सुषेण में जहां और बहुत से सद्गुण थे वहां एक दुर्गण भी था। वह संयमी नहीं था । ऐसे संभावित व्यक्ति का स्वदार-सन्तोषी न होना निस्सन्देह शोच. नीय एवं अवांछनीय है । उस की दृष्टि हर समय सुदर्शना वेश्या पर रहती, उस का मन हर समय उस की ओर आकर्षित रहता, परन्तु वह उसे प्राप्त करने में अभी तक सफल नहीं हो पाया। वह जानता था कि सुदर्शना केवल धन से खरीदी जाने वाली वेश्या नहीं है । उस से कई गुणा अधिक धन देने वाले वहां से विफल हो कर आ चुके हैं । इस लिये नीतिकुशल सुषेण ने शासन के बल से उस पर अधिकार प्राप्त किया और उसके प्रेमभाजन शकट कुमार को वहां से निकाल दिया और स्वयं उसे अपने घर में रख लिया । परन्तु इतना स्मरण रहे कि सुषेण मंत्री ने अपनी सत्ता के बल से सदर्शना के शरीर पर अधिकार प्राप्त किया है न कि उस के हृदय पर । उस के हृदय पर सर्वेसर्वा अधिकार तो शकट कुमार का है, जिसे उसने वहां से निकाल दिया है । "-जायणिंदुया-" के स्थान पर "-जाइजिंदुया-" ऐसा पाठ भी उपलब्ध होता है । For Private And Personal Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३००] श्री विपाक सूत्र - [चतुर्थ अध्याय दोनों पदों का अर्थगत भेद निम्नोक्त हैं - (१) जातनिंदुका-उत्पन्न होते ही जिस की सन्तति मृत्यु को प्राप्त हो जाए उसे जातनिंदुका कहते हैं । (२) जातिनिंदुका-जाति-जन्म से ही जो निंदुका - मृतवत्सा है, अर्थात् जन्मकाल से ही जो मृतवत्सात्व के दोष से युक्त है । तथा निंदुका शब्द का अर्थ कोषकारों के शब्दों में-निंद्यते अप्रजात्वेनाऽसौ निंदुः, निदुरेव निंदुका-इस प्रकार है । अर्थात् सन्तान के जीवित न रहने से जिस की लोगों द्वारा निंदा की जाए वह स्त्री निंदुका कहलाती है । "-गणिर अभिंतरए ठवेति-इस वाक्य के दो अर्थ उपलब्ध होते हैं जैसे कि (१) गणिका को अभ्यन्तर -भीतर स्थापित कर दिया अर्थात् गणिका को पत्नीरूप से अपने घर में रख लिया । (२) गणिका को भीतर स्थापित कर दिया अर्थात् उसे उसके घर के अन्दर ही रोक दिया, जिस से कि उस के पास कोई दूसरा न जा सके । इन अर्थों में प्रथम अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है । क्योंकि आगे के प्रकरण में एवं खलु सामी ! सगड़े दारए ममं अन्तेउरंसि अवरद्ध -ऐसा उल्लेख मिलता है । इस पाठ में स्पष्ट लिखा है कि मंत्री ने राजा के पास शिकायत करते हुए अपने अन्तःपुर का वर्णन किया है, जोकि ऊपर के पहले अर्थ का समर्थक ठहरता है । तथा जो आगे - जेणेव सुदरिसणागणियाए गिहे तेणेव- ऐसा लिखा है। इससे सूत्रकार को यही अभिमत है कि सुदर्शना जहां रहता था, वहां । तात्पर्य यह है कि जब सुषेण मन्त्री ने गणिका को अपनी अर्धांगिनी ही बना लिया, तब सूत्रकार ने-जहां सुदर्शना का घर था - ऐसा उल्लेख क्यों किया ?, ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये । क्योंकि इससे सूत्रकार को मात्र जो सुदर्शना को निवास करने के लिये स्थान दे रखा था, वही सूचित करना अभिमत है। -उज्झियर, जाव जम्हा - यहां पठित जाव-यावत् पद से-तए णं दस्स दारगस्स अम्मापियरो ठिइवडियं च चंदसूरदसणं - से लेकर –गोरणं गुणनिष्फन्नं नामधेज्जं करति--इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का अर्थ पृष्ठ १५७ पर दिया जा चुका है । मात्र नाम की भिन्नता है। वहां उज्झितक कुमार का नाम है जब कि यहां शकट कुमार का।। -सिंघाडग० तहेव जाव सुदरिसणार- यहां का बिन्दु-तिग-च उक-चच्चर महापहपहेसु-इन पदों का तथा-जाव-यावत् पद -जूयखलएसु वेसियाघरपसु-से ले कर -- अनया कयाइ--यहां तक के पाठ का परिचायक है । इन पदों का अर्थ पृष्ठ १६६ तथा १६७ पर दिया गया है। अन्तर केवल इतना है कि प्रस्तुत में शकट कुमार का वर्णन है जब कि वहां उज्झितक कुमार का। -भदाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उयवन्ने - इस पाठ के अनन्तर श्रद्धेय पण्डित मुनि श्री घासी लाल जी म. सार्थवाही भद्रा के दोहद का भी उल्लेख करते हैं । वह दोहदसम्बन्धी पाठ निम्नोक्त है -तए णं तीसे भद्दार सत्यवाहीए अन्नया कयाइ तिराहं मासाणं बहुपडिपुराणाणं इमे एयारूवे दोहले पाउन्भूए-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, सपुरणाश्रो णं कयत्या या णं जाव सुलद्ध तासिं माणुस्सए जम्मजीवियफले जाओ णं बहूणं णाणाविहाणं नयरगोरूवाणं पसूण य जलयरथलयर-खहयरमाईणं परवीण य बहूहिं मंसेहि तलिएहिं भज्जिरहिं सोल्लेहिं सद्धिं सुरं च महुं च मेरगं च जाइ च सीहुं च पसन्नं च आसाएमाणीओ विसा For Private And Personal Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चतुर्थ अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ३०१ पाणी परिभुजेमाणीश्रो परिभाषमाणीश्रो दोहलं विर्णेति । तं जइ णं श्रहमवि बहूणं जाव विणिज्जामि, त्ति क तंसि दोहलंसि प्रविणिज्जमा ंसि सुक्का भुक्खा जाव झियाइ | तणं ते सुभद्दे सत्थवाहे भहं भारियं श्रोहय० जाव पासति २ एवं वयासी किं गं तुमं देवाप्पिया ! हय जाव झियासि १, तर णं सा भद्दा सत्यवाही सुभद्दे सत्यवाहं एवं वयासी - एवं खलु देवागुपिया ! मम तिराहं मासागं जाव कियामि । तए गं से सुभहे सत्यवा भद्दा भारिया एयमहं सोच्चा निसम्म भदं भारियं एवं वयासी एवं खलु देवारंणुप्पिया ! तुह गर्भसि हा पुत्रकयपावप्यभावे के ग्रहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे जीवे यरिए तेणं एयारिसे दोहले पाउब्भूप, तं होउ णं पयस्स पसायणं, ति कट्टु से सुभद्दे सत्थवाहे के वि उवारणं तं दोहलं विणेइ । तर गं सा भद्दा सत्यवाही संपुराणदोहला संमाणियदोहला विणीयदोहला वोच्छिन्नदोहला सम्पन्न दोहता तं गम सुहंसुहेणं परिवहइ । इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है 6 Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तदनन्तर उस भद्रा सार्थवाही के गर्भ को जब तीन मास पूर्ण हो गये, तब उसको एक दोहद उत्पन्न हुआ कि वे मातायें धन्य हैं, पुण्यवती हैं, कृतार्थ हैं उन्हों ने ही पूर्वभव में पुण्योपार्ज' - न किया है, वे कृतलक्षण हैं अर्थात् उन्हों के ही शारीरिक लक्षण फलयुक्त हैं, और उन्होंने ही अपने वैभव को सफल किया है, एवं उन का ही मनुष्यसम्बन्धी जन्म और जीवन सफल है, जिन्होंने बहुत से अनेक प्रकार के नगर गोरूपों अर्थात् नगर के गाय आदि पशुओं के तथा जलचर स्थलचर और खेचर आदि प्राणियों के बहुत मांसों, जो कि तैलादि से तले हुए, भूने हुए और शूल द्वारा पकाये गये हों, के साथ सुरा', मधु, मेरक जाति, सीधु और प्रसन्ना इन पांच प्रकार की मदिरात्रों का आस्वादन, विस्वादन बार २ आस्वादन), परिभोग करती हुई और दूसरी स्त्रियों कोटती हुई अपने दोहद ( दोहला ) को पूर्ण करती हैं । यदि मैं भी बहुत से नगर के गाय आदि पशुओं के और जलचर आदि प्राणियों के बहुत से और नाना प्रकार के तले, भूने और शूलपक्व मांसों के साथ पांच प्रकार की मदिराओं को एक बार और आर २ श्रास्वादन करू. परिभोग करू और दूसरी स्त्रियों को भी बांटू. इस प्रकार अपने दोहद को पूर्ण करू, तो बहुत अच्छा हो, ऐसा विचार किया परन्तु उस दोहद के पूरा न होने से वह भद्रा सूखने लगी, चिन्ता के कारण अरुचि होने से भूखी रहने लगी, उस का शरीर रोगग्रस्त जैसा मालूम होने लगा और मुंह पीला पड़ गया तथा निस्तेज हो गया, एव रात दिन नीचे मुंह किये हुए आतंध्यात करने लगी । एक दिन सुभद्र सार्थवाह ने भद्रा को पूर्वोक्त प्रकार से श्रार्तध्यान करते हुए देखा, देख कर उसने उससे कहा कि भद्रे ! तुम ऐसे श्रार्तध्यान क्यों कर रही हो १ सुभद्र सेट के ऐसा पूछने पर भद्रा बोली स्वामिन्! मुझे तीन मास का गर्भ होने पर यह दोहद उत्पन्न हुआ है कि मैं नगर के गाय आदि पशुओं और जलचर आदि प्राणियों के तले, भूने और शूलपक मांसों के साथ पंचविध सरा आदि मदिराओं का आस्वादन. विस्वादन और परिभोग करू और उन्हें दूसरी स्त्रियों को भी दूं । मेरे इस दोहद के पूर्ण न होने के कारण मैं आर्तध्यान कर रही हूँ। भद्रा की इस बात को सुन कर तथा सोच विचार कर सुभद्र सार्थवाह भद्रा से बोले - भद्रे ! तुम्हारे इस गर्भ में अपने पूर्वसंचित पापकर्म के कारण से ही यह कोई अधम यावत् (१) इन पदों का अर्थ पृष्ठ १४४ पर दिया जा चुका है। For Private And Personal Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [चतुर्थ अध्याय दुष्प्रत्यानन्द अर्थात् बड़ी कठिनाई से प्रसन्न होने वाला जीव अाया हुआ है, इसलिये तुम्हें ऐसा पापपूर्ण दोहद उत्पन्न हुआ है। अच्छा. इस का भला हो, ऐसा कहकर उस सुभद्र साथवाह ने किसी उपायविशेष से अर्थात् मांस और मदिरा के समान आकार वाले फलों और रसो को देकर भद्रा के दोहद को पूर्ण किया । तब दोहद के पूर्ण होने पर वाञ्छिा वस्तु की प्राप्ति हो जाने के कारण, उसका सम्मान हो जाने पर. समस्त मनोरथों के पूर्ण होने से अभिलाषा की निवृत्ति होने पर तथा इच्छित वस्तु के खा लेने पर प्रसन्नता को प्राप्त हुई भद्रा सार्थवाही उस गर्भ को सखपूर्वक धारण करने लगी। प्रस्तुत सूत्र में छरिणक छागलिक के जीव का सुभद्रा के गर्भ में आना, उसका जन्म लेने पर शकट कुमार के नाम से प्रसिद्ध होना तथा माता पिता के देहान्त एवं घर से निकालने तथा सुदर्शना के घर में प्रविष्ट होने और वहां से निकाले जाने वादे का सविस्तर वर्णन किया गया है। सुषेण मंत्री के द्वारा सुदर्शना के वहां से निकाले जाने पर शकट कुमार की क्या दशा हुई और उसने क्या किया तथा उसका अन्तिम परिणाम क्या निकला । अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं - मल-' तते णं से सगड़े दारए सुरिसणाए गिहाओ निच्छूढे समाणे अन्नत्थ कत्था सुई वा ३ अलभमाणे अन्नया कयाइ रहस्सियं सुदरिसणागिह अणुपविसति २, सुदरिसणाए सद्धि उरालाई भोगभागाई भुजमाणे विहरति । इमं च णं सुसेणे अमच्चे एहाते जाव सव्वालंकारांवभूसिते मणुस्सवागुराए परिक्खित्ते जेणेव सुदरिसणागणियाए गिहे तेणेव उवागच्छति २ सगडं दारयं सुदरिसणाए गणियाए सद्धिं उरालाई भोगभागाई भजमाणं पामति २ आसुरुत्ते जाव मिसिमिसीमाणे तिवलियं भिउडिं णिडाले साहट्ट सगडं दारयं पुरिसेहिं गेएहावेति २ अद्वि० जाव महियं करेति २ अवोडगबंधणं कारेति २ जेणेव महचंदे राया तेणेव उवागच्छति २ करयल० जाव एवं वयासी-एवं खलु सामी! सगडे दारए ममं अंतेउरसि अवरद्ध । तते णं महचंदे राया सुसेणं अमच्चं एवं वयासी (१) छाया-तत: स शकटो दारकः सुदर्शनाया गृहाद् निष्कासितः सन् अन्यत्र कुत्रचित् स्मृति वा ३ अलभमानोऽन्यदा कदाचिद् राहस्यिक सुदर्शनागृहं अनुप्रविशति २ सुदर्शनया सार्द्ध मुदारान् भोगभोगान् भुजानो विहरति । इतश्च सुषेणोऽमात्य: स्नातो यावद सर्वालंकारविभूषितो मनुष्यवागुरया परिक्षिप्तो यत्रैव सुदर्शनागणिकाया गृहं तवैवोपागच्छति २ शकटं दारकं सुदर्शनया गणिकया सार्द्धमुदारान् भोगभोगान् भुजानं पश्यति २ अाशुरुतो यावत् मिसि मसीमाण: (धा ज्वलन् ) त्रिवलिकां भृकुटिं ललाटे संहृत्य शकटं दारकं पुरुषः ग्राहयति २ यष्टि० यावत् मथितं कारयति २ अवकोटकबंधनं कारयति २ यत्रैव महाचंद्रो राजा तत्रैवोपागच्छति २ करतल . यावद् एवमवादीत् -एवं खलु स्वामिन् ! शकटो दारकः ममान्तःपुरेऽपराधः। ततः स महाचंद्रो राजा सुषेणममात्यमेवमवादीत्-त्वमेव देवानुप्रिय ! शकटस्य दारकस्य दण्डं वर्त्तय । तत: स सुषेणोऽमात्यः महाचन्द्रेण राजाऽभ्यनुज्ञातः सन् शकटं दारकं सुदर्शनां च गणिकां एतेन विधानेन वध्यमाज्ञापयति । तदेवं खलु गौतमः ! शकटो दारकः पुरा पुराणानां दुश्चीर्णानां यावद् विहरति । For Private And Personal Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org -- चतुर्थ अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [३०३ तुमं चैव देवाणु ! सगडस्स दारगस्स दण्डं वतेहि । तए गं से सुसेणे मच्चे महचंदे रणा अन्भपुरणाए समाणे सगडं दारयं सुदरिसणं च गणियं एएवं विहाणेणं वज्यं वेति । तं एवं खलु गोतमा ! सगड़े दारए पुरा पोरायाणं दुचिणा जाव विहति । इस - साथ | पदार्थ - तते णं - तदनन्तर । से- वह । सगडे - शकटकुमार । दारए - बालक । सुदरिमाए - सुदर्शना के । गिहाओ - घर से । निच्छूढे समाणे - निकाला हुआ । अन्नत्थ - अन्यत्र | कत्थइ – कहीं पर भी । सुई वा ३ - स्मृति को अर्थात् वह उस वश्या के अतिरिक्त और किसी का भी स्मरण नहीं कर रहा था, प्रतिक्षण उस के हृदय में उसी की याद बनी रहती थी और रति - प्रीति अर्थात् उस वेश्या को छोड़ कर और कहीं पर भी उसकी प्रीति नहीं थी वह उसी के प्रेम में तन्मय रहा था, एवं घृति - धीरज अर्थात् वेश्या के बिना किसी भी स्थान पर उस को धैर्य नहीं आता था, प्रतिक्षण उस का मन उस के वियोग में अशांत रहता था, तरह वह शकट कुमार स्मृति, रति और धृति को । अलभमाणे - प्राप्त न करता हुआ । अन्नया कयाइ - किसी अन्य समय । रहस्लियं राहसिक - गुप्तरूप से । सुदरसणागि - सुदर्शना के घर में पविसति २ – प्रवेश करता है प्रवेश करके । सुदरिसणार - सुदर्शना के । सद्धिं - उरालाई - - उदार प्रधान । भोग भोगाइ भोगभोगों का अर्थात् मनोज्ञ शब्द रूप आदि का । भुजमाणे – उपभोग करता हुआ । विहरति - सानन्द समय बिताने लगा। इमं च गं - और इधर । सुसेणे मच्चे- सुषेण श्रमात्य - मंत्री । राहाते - स्नान किए हुए । जाव - यावत् । सव्वालंकाविभूसिते - सब प्रकार के अलंकारों - आभूषणों से विभूषित । मस्वग्गुराए - मनुष्यवागुरा - मनुष्य समुदाय से । परिकिवत - परिवेष्टित हुप्रा । जेसे जहां । सुदरिसणागणियाए - सुदर्शना गणिका विहे -- --घर था । तेणेव वहीं पर । उवागच्छति २ ना जाता है, चाकर । सुदरिस - - सुदर्शना । गणियाए - गणिका के । सद्धि-साथ । उगलाई - उदार - प्रधान । भोगभोगाइ - काम - भोगों का । भुजमाण - उपभोग करते हुए सगड़ दायं - शकटकुमार बालक को । पासति २ - देखता है, देख कर । सुरुत े - आशुरुन्त अत्यन्त क्रुद्ध हुआ । जाव - यावत् । मिलिमिलीमाणे - मिस २ करता हुआ, अर्थात् दांत पीसता हुआ । खिलाड़- - मस्तक पर 1 तिवलियं भिउडिं - तीन वल वाली भृकुटी (तिउड़ी) को । साहट्टु -चढा कर । पुरिसेहिं - अपने पुरुषों के द्वारा । सगडं शकटकुमार । दारयं बाल का । गेराहावेति २ - कड़ा लेता है. पकड़ा कर । ट्टि - यष्टि से । जाब - यावत उस को । महियं - मथित अत्यन्तात्यन्त ताडित | करेति करता है । वोड़गबंधण अवको टकबन्धन - जिस बन्धन में ग्रीवा को पृष्ठ भाग में ले जाकर हाथों के साथ बान्धा जाए, उस बंधन से युक्त । के । जेणेत्र - जहां पर । महचंदे राया - महाचन्द्र राजा था: ते शेव - वहीं पर उवागच्छति २श्राता श्राकर । करयज० जाव दोनों हाथ जोड़ यावत् अर्थात् मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि कर के । जाव - यावत् । एवं - इस प्रकार । वयासी कहने लगा । एवं खलु - इस प्रकार निश्वय ही । सामी ! – हे स्वामिन् ! | सगड़े- शकटकुमार | दारय- बालक ने । ममं - मेरे । अंतेउरंसि श्रन्त: पुर - रणवास में प्रविष्ट होने का । श्रवरद्ध - अपराध किया है । तते णं - तदन(१) अट्ठ – इस पद का रूप र्याष्ट किस कारण से किया गया है ? इस का उत्तर पृष्ठ १७६ की टिप्पण में दिया गया है । का पाप । कारेति २ – कराता है, करा 1 -- ➖➖ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal - Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३०४ श्री विपाक सूत्र [चतुर्थ अध्याय न्तर । महचंदे-महाचन्द्र । राया-राजा । सुसेणं-सुषेण । अमचं -अमात्य को । एवंइस प्रकार । वयासी-कहने लगा । देवाणु ! -हे महानुभाव !। तुमं चेव णं-तुम ही । सगड़स्स- शकटकुमार । दारगस्स-बालक को । दंडं - दण्ड । वत्त हि - दे डालो । तए णं-तत्पश्चात् । महचंदेण- महाचन्द्र । रराणा-राजा से । अब्भणुराणाते-अभ्यनुज्ञात अर्थात् अाज्ञा को को प्राप्त । समाणे -हुआ । से - वह । सुसेणे-सुषेण । अमच्चे-मंत्री । सगड़े दारयंशकट कुमार बालक । च-और । सदरिसणं-सुदर्शना। गणियं-गणिका को । एएण-इस (पूर्वोक्त)। विहाणेण-विधान -- प्रकार से । वझ-ये दोनों मारे जाए, ऐसी । आणवेति-आज्ञा देता है । गोतमा ! - हे गौतम ! । तं -इस लिये । एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही । सगड़े-शकट - कुमार । दारए-बालक । पुरा-पूर्वकृत । पोराणाणं - पुरातन, तथा । दुच्चिराणाणं- दुश्चीर्णदुष्टता से किये गये । जाव-यावत् कर्मों का अनुभव करता हुआ । विहरति-समय बिता रहा है। मूलार्थ-सुदर्शना के घर से मन्त्री के द्वारा निकाले जाने पर वह शकट कुमार अन्यत्र कहीं पर स्मृति, रति, और धृति को प्राप्त न करता हुआ किसी अन्य समय अवसर पाकर गुप्तरूप से सुदर्शना के घर में पहुंच गया और वहां उसके साथ यथारुचि कामभोगों को उपभोग करता हुआ सानन्द समय व्यतीत करने लगा ।। इधर एक दिन स्नान कर और सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो कर अनेक मनुष्यों से परिवेष्टित हुआ सुषेण मन्त्री सुदर्शना के घर पर आया, आकर सुदर्शना के साथ यथारुचि कामभोगों का उपभोग करते हुए उसने शकट कुमार को देखा और देख कर · वह क्रोध के मारे लालपीला हो, दांत पीसता हुआ, मस्तक पर तीन वल वाली भृकुटि (तिउड़ी) चढ़ा लेता है और शकट कुमार को अपने पुरुषों से पकड़वा कर उस को याष्ट से यावत् मथित कर उसे अवकोटकबन्धन से जकड़वा देता है । तदनन्तर उसे महाराज महाचन्द्र के पाम ले जा कर महाचन्द्र नरेश से दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि कर के इस प्रकार कहता है स्वामिन् ! इस शकट कुमार ने मेरे अन्तःपुर में प्रवेश करने का अपराध किया है। इसके उत्तर में महाराज महाचन्द्र सुषेण मन्त्री से इस प्रकार बोले - हे महानुभाव ! तुम ही इस के लिए दण्ड दे डालो अर्थात् तुम्हें अधिकार है जो भी उचित समझो, इसे दण्ड दे सकते हो । तत्पश्चात् महाराज महाचन्द्र से आज्ञा प्राप्त कर सुषेण मन्त्री ने शकट कुमार और सुदर्शना वेश्या को इस (पूर्वोक्त) विधान-प्रकार से मारा जाये, ऐसी आज्ञा राजपुरुषों को प्रदान की। इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम ! शकट कुमार बालक अपने पूर्वोपार्जित पुरातन तथा दुश्चीर्ण पापकर्मों के फल का प्रत्यक्ष अनुभव करता हुआ समय बिता रहा है । टीका - मनुष्य जो कुछ करता है अपनी अभीष्ट सिद्धि के लिये करता है. उस के लिये वह दिन रात एक कर देता है । महान् परिश्रम करने के अनन्तर भी यदि उस का अभीष्ट सिद्ध हो जाता है तो वह फूला नहीं समाता और अपने को सब से अधिक भाग्यशाली समझता है। परन्तु उस अल्यज्ञ प्राणी को इतना भान कहां से हो कि जिसे वह अभीष्ट सिद्धि समझ कर प्रसन्नता से फूल रहा है, वह उस के लिये कितनी हानिकारक तथा अहितकर सिद्ध होगी? For Private And Personal Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ३०५ शकट कुमार अपनी परमप्रिया सुदर्शना को पुनः प्राप्त कर अत्यन्त हर्षित हो रहा है, तथा अपने सद्भाग्य की सराहना करता हुआ वह नहीं थकता। परन्तु उस विचारे को यह पता नहीं था कि यह प्रसन्नता मधुलिप्त असिधारा से भी परिणाम में अत्यन्त भयावह होगी और उसका यह हर्ष भी शोकरूप में परिणत हुअा ही चाहता है। पाठकों को स्मरण होगा कि मंत्री सुषेण ने अपने सत्ताबल से सुदर्शना गणिका के घरसे उसकी इच्छा के बिना ही शकट कुमार को बाहिर निकाल कर उसे अपने घर में अपनी स्त्री के रूप में रख लिया था । परन्तु शकट कुमार अवसर देखकर गुप्तरूप से सुदर्शना के पास पहुंच गया और पूर्व की भान्ति गुप्तरूप से उसके सहवास में रहता हुआ यथारुचि विषय-भोगों में आसल हुआ सानन्द समय यापन करने लगा। । इधर एक दिन सुषेण मंत्री जब सुदर्शना के घर में पहुंचा तो उसने वहां शकट कुमार को देख लिया। उसे देखते ही मत्री के क्रोध का पारा एक दम ऊपर जा चढ़ा। क्रोध के मारे उस का मुख और नेत्र लाल हो उठे। उसने दान्त पीसते हुए क्रोध के आवेश में आकर अपने अनुचरों को उसे-शकट कुमार के पकड़ने और पकड़ कर बांधने तथा अधिक से अधिक पीटने की आज्ञा दी। तदनुसार पकड़ने, बांधने और मारने के बाद उसे महाराज महाचन्द्र के पास है जाया गया । महाराज महाचन्द्र के मन्त्री को ही दण्डसम्बन्धी समस्त अधिकार दे देने पर तथा मन्त्री के द्वारा महान् अपराधी ठहरा कर एवं सारे शहर में फिरा कर उसके वध करा डालने का आयोजन किया गया। जैसा कि प्रथम बतलाया गया है कि जिस व्यक्ति के हाथ में सत्ता हो और साथ में वह कामी एवं विषयी भी हो तब उससे जो कुछ भी अनर्थ बन पड़े वह थोड़ा है। कामी पुरुष का ऐसा करना स्वाभाविक ही है । जिस व्यक्ति पर वह आसक्त हो रहा है उसका कोई ओर प्रेमी उसे एक अांख भी नहीं भाता । फिर यदि उसके हाथ में कोई राजकीय सत्ता हो तब तो वह उसे यमालय में पहुँचाये बिना कभी छोड़ने का ही नहीं । कामी पुरुषों में ईर्षा की मात्रा सबसे अधिक होती है। कामासक्त व्यक्ति अपने प्रेम -भाजन पर किसी दूसरे का अणुमात्र भी अधिकार सहन नहीं कर सकता है और वास्तव में एक वस्तु के जहां दो इच्छुक होते हैं वहां पर सर्वदा एक के अनिष्ट की संभावना बनी ही रहती है। दोनों में जो बलवान् होता है उसका ही उस पर अधिकार रहा करता है। निर्बल व्यक्ति यातो द्वन्द्व से परास्त हो कर भाग जाता है अथवा प्राणों की श्राहति दे कर दूसरों के लिये शिक्षा का आदर्श छोड़ जाता है। मंत्री सुषेण कब चाहता था कि जिस रमणी के सहवास के लिये वह चिरकाल से आतुर हो रहा था, उसमें कोई दूसरा भी भागीदार बने । इसी कारण उसने शकट कुमार और साथ में शकट कुमार को तिरस्कृत न करके प्रत्युत उसके सहवास से अानन्दविभोर होने के अपराध में सदर्शना को भी कठोर से कठोर दंड दिया जिस का वणन ऊपर किया जा चुका है। तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम स्वामी से कहा कि गौतम ! इस प्रकार यह छरिणक छार्गालक का जीव अपने पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों का फल भोगने के लिये चौथी नरक में गया और वहां भीषण नारकीय यातनाएं भोग लेने के अनन्तर भी शकट कुमार के रूप में अवतीर्ण होकर इस दशा को प्राप्त हो रहा है। सारांश यह है कि इस समय उस के साथ जो कुछ हो रहा है वह उसके पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों का ही परिणाम है। For Private And Personal Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [चतुर्थ अध्याय -राहाते जाव सव्वालंकारविभूसिते-यहां पठित जाव-यावत् पद से अपेक्षित-कयबलिकम्मे-इत्यादि पदों का उल्लेख पृष्ठ १७६ पर किया जा चुका है। तथा-आसुरुत्त जाव मिसिमिसीमाणे-यहां पठित जाव-यावत् पद से -रु? कुविए चण्डिस्किर-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन की व्याख्या पृष्ठ १७७ की टिप्पण में की जा चुकी है । तथा-अहि० जाव महियं-- यहां के जाव-यावत् पद से—मुहि-जाणु-कोप्पर- पहार-संभग्ग-इन पदों का ग्रहण करना, अर्थात् सुषेण 'त्री शकट कुमार को यष्टि-लाठी, मुष्टि, जानु -घुटने, कूपर-कोहनी के प्रहारों से संभन चूर्णित तथा मथित कर डालता है। दूसरे शब्दों में- जिस प्रकार दही मंथन करते समय दही का प्रत्येक कण मथित हो जाता है ठीक उसी प्रकार शकट कुमार का भी मन्थन कर डालते हैं तात्पर्य यह है कि उसे इतना पीटा, इतना मारा कि उस का प्रत्येक अंग तथा उपांग ताड़ना से बच नहीं सका। तथा-करयल० जाव एवं-यहां के जाव-यावत् पद से अभिमत पाठ का उल्लेख पीछे पृष्ठ २४६ पर किया जा चुका है। -दुच्चिराणाणं जाव विहरति-यहां के जाव-यावत् पद से-दुप्पडिक्कन्ताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पञ्चणुभवमाणे - इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभीष्ट है। इन पदों का अर्थ पृष्ठ ४७ पर किया गया है। गतसूत्रों तथा प्रस्तुत सूत्र में शकट कुमार के विषय में पूछे गये प्रश्न का उत्तर वर्णित हुआ है । अब अग्रिम सूत्र में इसी सम्बन्ध को लेकर गौतम स्वामी ने जो जिज्ञासा की है उस का वर्णन किया जाता है - मूल-'सगड़े णं भन्ते ! दारए कालगते कहिं गच्छिहिति ? कहिं उववन्जिहिति । ___ पदार्थ-भंते! -हे भगवन् ! । सगड़े-शकट कुमार । दारए-बालक । णं-वाक्यालंकारार्थक है । कालगते-कालवश हुआ । कहिं-कहां। गच्छिहिति ?-जायेगा ? । कहिं-कहां पर । उववज्जिहिति-उत्पन्न होगा । मूलार्थ-हे भगवन् ! शकट कुमार बालक यहाँ से काल करके कहां जायेगा और कहां पर उत्पन्न होगा ? टीका-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से शकट कुमार के पूर्वभव का वृत्तान्त सुन लेने के पश्चात् गौतम स्वामी को उसके आगामी भवों के सम्बन्ध में विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने की लालसा जागृत हुई तदनुसार उन्होंने भगवान् से उसके आगामी भवों के सम्बन्ध में भी पूछ लेने का विचार किया । वे बड़े विनीतभाव के द्वारा वीर प्रभु से पूछने लगे कि हे भदन्त ! शकट कुमार यहां से काल करके कहां जायेगा ? और कहां पर उत्पन्न होगा ? मनोविज्ञान का यह नियम है कि जिस विषय में मन एक बार लग जाता है, उस विषय का अथ से इति पर्यन्त बोध प्राप्त करने की उस में लग्न सी हो जाती है। इसी नियम के अनुसार गौतम स्वामी भी पुन: भगवान् से पूछ रहे हैं । उन का मन शकट कुमार के जीवन को अथ से इति पर्यन्त समझने की लालसा में व्यस्त है, वह उसके आगामी जीवन से भी अवगत होना चाहता है। यही रहस्य गौतम स्वामी के प्रश्न में छिपा हुआ है । (१) छाया-शकटो भदन्त ! दारक: कालगतः कुत्र गभिष्यति ? कुत्रोपपत्स्यते । For Private And Personal Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ३०७ गौतम स्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फरमाया तथा शकट कुमार को भवपरम्परा का अन्त में क्या परिणाम निकला ? इत्यादि विषय का अग्रिम सूत्र में वर्णन किया जाता है १ मूल - गोतमा ! सगड़े गं दारए सत्तावरणं वासाई परमाउं पालइत्ता अज्जेव तिभागावसेसे दिवसे एगं महं प्रयोमयं तत्तं समजोइभूयं इत्थिपडिमं श्रवयासाविए समाणे कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रइयत्ताए उववज्जिहिति । सेणं ततो तर उचट्टित्ता रायगिहे गरे मातंगकुलंसि जमलत्ताए पच्चायाहिति, तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णिव्वत्तवारसाहगस्स इमं एयारूवं णामधेज्जं करिस्सन्ति, होउ णं दारए सगड़े नामेणं, होउ णं दारिया सुदरिसणा । तते गं से सगड़े दारए उम्मुक्कवाल भावे जोव्वण ० भविस्सति । तए णं सा सुदरिसणा वि दारिया उम्मुक्कबालभावाविण्य० जोव्वणगमणुपपत्ता रूवेण जोन्वणेण य लावणेण य उक्ट्ठिा उक्किट्ठेसरीरया भविस्सति । तए गं से सगड़े दारए सुदरिसाए रूवेण य जोव्वणेण य लावणे यमुच्छिते ४ सुदरिसणाए भइणीए सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोग भोगा भुजमाणे विहरिस्सति । तते गं से सगड़े दारए अन्नया कयाई सयमेव कूडगाहत्तं उपसंपज्जित्ता गं विहरिस्पति । तते गं से सगड़े दारए कूडग्गाहे भविस्सति श्रहम्मिए जाव (१) छाया - गौतम ! शकटो दारकः सप्तपञ्चाशतं वर्षाणि परमायुः पालयित्वाऽद्य व त्रिभागावशेषे दिवसे एकां महतीमयोमयां तप्तां ज्योतिस्समभूतां स्त्रीप्रतिमां अवयासितः सन् कालमासे कालं कृत्वाऽस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकतयोपपत्स्यते । स ततोऽनन्तरमुद्धृत्य राजगृहे नगरे मातंगकुले यमलतया प्रत्यायास्यति । ततस्तस्य दारकस्य श्रम्वापितरौ निवृत्तद्वादशाहस्य इदमेतद्रूपं नामधेयं करिष्यतः - भवतु दारकः शकटो नाम्ना । भवतु दारिका सुदर्शना नाम्ना । ततः स शकटो दारकः उन्मुक्तबालभावः यौवन भविष्यति । ततः सा सुदर्शनापि दारिका उन्मुक्तबालभावा विज्ञक० यौवनमनुप्राप्ता रूपेण च यौवनेन च लावण्येन चोत्कृष्टा उत्कृष्टशरीरा भविष्यति । ततः स शकटो दारकः सुदर्शनाया रूपेण च यौवनेन च लावण्येन च मूर्छितः ४ सुदर्शनया भगिन्या सार्द्धमुदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहरिष्यति । ततः स शकटो दारकः अन्यदा कदाचित् स्वयमेव कूटग्राहत्वमुपसम्पाद्य विह रिष्यति । ततः स शकटो दारकः कूटग्राहो भविष्यति, अधार्मिको यावत् दुष्प्रत्यानन्दः । एतत्कर्मा ४ बहु पापकर्म समय कालमासे कालं कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकतयोपपत्स्यते, संसार-स्तथैव यावत् पृथिव्याम्० स ततोऽनन्तरमुद्धृत्य वाराणस्यां नगर्यां मत्स्यतयोपपत्स्यते । स तत्र मत्स्यवधिकैर्वधितः तत्रैव वाराणस्यां नगर्यां श्रेष्ठिकुले पुत्रतया प्रत्यायास्यति । बोधिं०, प्रव्रज्या ०, सौधर्मे कल्पे, " महाविदेहे ०, सेत्स्यति ५ निक्षेप: । ॥ चतुर्थमध्ययनं समाप्तम् ॥ (२) योमयं - तियोमयीम्, तत्त-त्ति तप्ताम् कथमित्याह - समजोइभूयं - त्ति समा तुल्या ज्योतिषा-वहिना भूता या सा तथा ताम् । श्रवयासाविए- त्ति श्रवयासितः - श्रालिङ्गितः । For Private And Personal Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra img....... ३०८] श्री विपाक सूत्र [चतुर्थ अभ्याय दुप्पडियाणंदे। एयकम्मे ४ सुबहुं पावकम्मं समज्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयत्ताए उववज्जिहिति, संसारो तहेव जाव पुढवीए० । से णं ततो अणंतरं उबट्टित्ता वाणारसीए णयरीए मच्छत्ताए उववज्जिहिति । से णं तत्थ मच्छवधिएहिं वधिए तत्थेव वाणारसीए णयरीए सेटिकुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिति । बोहिं०, पव्वज्जा०, सोहम्मे कप्पे०, महाविदेहे०, सिज्झिहिति ५ निक्खेवो । ॥ चउत्थं अज्झयणं समत्तं ॥ पदार्थ-गोतमा!-हे गौतम ! । सगड़े णं-शकट नामक । दारए-बालक । सत्तावगणं वासाई - ५७ वर्ष की । परमाउ-परम आयु । पालइत्ता-पाल कर--भोग कर । अज्जेवअाज हो । तिभागावसेसे-त्रिभागावशेष अर्थात् जिस में तीसरा भाग शेष रहे ऐसे । दिवसेदिन में । एगं-एक । महं-महान् । अयोमयं-लोहमय । तत्त-तप्त । समजोइभूयं-अग्निके समान देदीप्यमान । इत्थिपडिमं-स्त्री की प्रतिमा से । अवयासाविए - अवयासित -प्रालिङ्गित। समाणे-हुा । कालमासे--कालमास में अर्थात् मृत्यु का समय आजाने पर । कालं किच्चाकाल करके । इमीसे-इस । रयणप्पभाए - रत्नप्रभा नामक । पुढवीए -पृथिवी - नरक में । पर. इयत्ताए - नारकीय रूप से । उववज्जिहिति-उत्पन्न होगा । तते णं - तदनन्तर अर्थात् वहां से। अणंतरं-- अन्तररहित । उव्वट्टित्ता-निकल कर । से- वह, शकरकुमार का जीव । रायगिहे-राजगृह नामक | गरे-नगर में । मातंगकुलोस - मातंगकुल में अर्थात् चांडाल कुल में । जमलसाए - युगलरूप से । पच्चायाहिति-उत्पन्न होगा, अर्थात् कन्या और बालक दो का जन्म होगा । तते णं-तदनन्तर । तस्स-उस । दारगस्स-बालक के । अम्मापियरो - माता पिता । णिवत्तबारसाहगस्स- जन्म से बारहवें दिन उस का । इमं- यह । एयारुवं - इस प्रकार का । नामधेज्जनाम । करिस्संति-रक्खेंगे । दारए-यह बालक । सगड़ ----शकट । णामेणं-- नाम से होऊ णंहो अर्थात् इस बालक का नाम शकट कुमार रखा जाता है तथा । दारिया- यह कन्या । सुदरिसणा-सुदर्शना नाम से । होऊणं-हो, अर्थात् इस बालिका का नाम सुदर्शना रखा जाता है । तते -तदनन्तर । से वह । सगडे-शकट नामक । दारए-बालक । उम्मुक्कबालभावे-बालभाव को त्याग कर । जोवण -युवावस्था को प्राप्त होता हुआ भोगोपभोग में समर्थ । भविस्सति-होगा । तए णं - तदनन्तर । से-वह । सुदरिसणा वि दारिया - सुदर्शना बालिका भी । उम्मुक्कवालभावा-बाल भाव को त्याग कर । विए गय. -विशिष्ट ज्ञान को प्राप्त तथा बुद्धि श्रादि की परिपक्वता को उपलब्ध हो । जोव्वणगमणुप्पत्ता- यौवन को प्राप्त हुई । रूवेण - रूप से । जोव्वणे ग य -और यौवन से । लावण्णण य-तथा लावण्य-आकृति की सुन्दरता, से । उक्किट्टा-उत्कृष्ट - उत्तम तथा । उक्किट्ठसरीरया-उत्कृष्ट शरीर वाली । भविस्सति-होगी। तए णं-तदनन्तर । से-वह सगड़े-शकट । दारर- बालक । सुदरिसणार-सुदर्शना को । स्वेण य-रूप और । जोव्वणेण य-यौवन तथा । लावगणेण य- लावण्य में । मुच्छिते ४-' मूर्छित, गृद्ध, प्रथित और अध्युपपन्न हुआ । सुदरिसणाए-सुदर्शना । भइणीए-बहिन के । सद्धिं-साथ । उरालाईउदार-प्रधान । माणुस्सगाई-मनुष्यसम्बन्धी । भागभोगाइ-विषय भोगों का । भुजमाणे --उपभोग करता (१) मूर्छित, गृद्ध आदि पदों की अथर्वावगति के लिये देखो पृष्ठ १७३ । For Private And Personal Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra - www.kobatirth.org चतुर्थ अध्याय ] वह । सगड़ े - शकट । दारण। कूडग्गाहन्त - कूटग्राहित्व - को उवसंपज्जित्ता गं - संप्राप्त वह । सगड़ े - शकट । दारण 1 जीवों को वश में करने वाला । भविस्सति होगा. - हुत्रा । विहरिष्यति - विहरण करेगा । तते गं - तदनन्तर । मे बालक । अन्नयाकया - किसी अन्य समय । समेत्र स्वयं ही कूट - कपट से अन्य प्राणियों को अपने वश में करने की कला कर के । विहरिस्सति - विहरण करेगा । तते णं - तदनन्तर । से चालक । कूडग्गाहे - कूटग्राह अर्थात् कपट से जो कि 1 श्रम्मिए अधर्मी । जाव - यावत् । दुष्पडियाणंदे - दुष्प्रत्यानन्द – कठिनता से प्रसन्न होने वाला होगा । एकम्मे ४ - एतत्कर्मा – इन कर्मों के करने वाला, एतत्प्रधान -इन कर्मों में प्रधान, एतद्विद्य इस विद्या - विज्ञान वाला और एतत्समाचार - इन कर्मों को ही अपना सर्वोत्तम श्राचरण बनाने वाला वह । सुबहु – अत्यधिक । पावकम्मं - पाप कर्म को । समज्जिखित्ता - उपार्जित कर । कालमासे - कालमास मृत्यु का समय आने पर । कालं किच्चा - काल कर के । इमीसे इस । रयणप्पभाए - रत्नप्रभा नामक पुढवीए पृथिवी - - नरक में । रइयत्ताए - नारकी रूप से । उववज्जिहिति - उत्पन्न होगा। तहेव - तथैव । संसारो - संसारभ्रमण । जाव - यावत् । पुढवीए० - पृथिवीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा । ततो- वहां से । से गं - वह । उव्वहित्ता — निकल कर । अतरं— अन्तररहित । वाणारसोए - वाराणसी - बनारस 1 रायरीए - नगरी में । मच्छत्ताए - मत्स्य के रूप में । उववज्जिहिति उत्पन्न होगा । से गं - वह । तत्थ - वहां । मच्वधिएहिमत्स्यवधिकों मछली मारने वालों के द्वारा । वधिए - हनन किया हुआ । तत्थेव - उसी । वाणारसीए बनारस । णयरीप नगरी में । सेट्ठिकुलंसि श्रेष्ठिकुल में । पुत्तत्ताए- पुत्ररूप से । पच्चायाहिति उत्पन्न होगा, वहां । बोहि० – सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा । पवज्जा० – प्रवज्या – साधुवृत्ति गीकार करेगा । सोहम्मे कप्पे० - सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा वहां से । महाविदेहे ० - महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा, वहां पर संयम के सम्यक् श्राराधन से व्यव कर । सिज्झिहिति ५सिद्धि प्राप्त करेगा अर्थात् कृतकृत्य हो जायेगा, केवल ज्ञान प्राप्त करेगा, कर्मों से रहित होगा, कर्मजन्य संताप से विमुक्त होगा और सब दुःखों का अंत करेगा । निक्खेवो - निक्षेप - उपसंहार की कल्पना पूर्ववत् कर लेनी चाहिए । चउत्थं - चतुर्थ । श्रभयणं - अध्ययन । समतं - सम्पूर्ण हुआ । मूलार्थ - हे गौतम! शकट बालक ५७ वर्ष को परम आयु को पाल कर - भोग कर दिन में एक महान् लोहमय तपी हुई अग्नि के समान देदीप्य - कराया हुआ मृत्यु समय में काल करके रत्नप्रभा नाम की पहली नरक में नारकी रूप से उत्पन्न होगा । 1 आज ही तीसरा भाग शेष रहे मान स्त्रीप्रतिमा से अलिंगित पृथिवी वहां से निकल कर सीधा राजगृह नगर में मातंग - चांडाल के कुल में युगलरूप से उत्पन्न होगा, उस युगल ( वे दो बच्चे जो एक ही गर्भ से साथ उत्पन्न हुए हों ) के माता पिता बारहवें दिन उन में से बालक का शकटकुमार और कन्या का सुदर्शना कुमारी यह नामकरण करेंगे। शकट कुमार बाल्यभाव को त्याग कर यौवन को प्राप्त करेगा । सुदर्शना कुमारी भी बाल्यभाव से निकल कर विशिष्ट ज्ञान तथा बुद्धि आदि की परिपक्वता को प्राप्त करती हुई युवावस्था को प्राप्त होगी । वह रूप में, यौवन में और लावण्य में उत्कृष्ट - उत्तम एवं उत्कृष्ट शरीर वाली होगी । तदनन्तर सुदर्शना कुमारी के रूप, यौवन और लावण्य - आकृति की सुन्दरता में - हिन्दी भाषा टीका सहित । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal - (३०९ - Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३१०] श्री वपाक सूत्र [चतुर्थ अध्याय मूछित-उस के ध्यान में पगला बना हुआ, गृद्ध - उसको इच्छा रखने वाला, प्रथित-उसके स्नेहजाल से जकड़ा हुआ और अध्युपपन्न - उसी को लग्न में अत्यन्त व्यासक्त रहने वाला वह शकट कुमार अपनी बहिन सुदर्शना के साथ उदार-प्रधान मनुष्यसम्बन्धी कामभोगों का सेवन करता हुआ जीवन व्यतीत करेगा ।' तदनन्तर किसी समय वह शकट कुमार स्वयमेव कूटग्राहित्व को प्राप्त कर विहरण करेगा, तब कूटग्राह ( कपट से जीवों को वश करने वाला ) बना हुआ वह शकट महा अधर्मो यावत दुष्प्रत्यानन्द होगा , और इन कर्मा के करने वाला, इन में प्रधानता लिए हुए तथा इन के विज्ञान वाला एवं इन्हीं पापकर्मों को अपना सर्वोत्तम आचरण बनाए हुए अधर्मप्रधान कर्मों से वह बहुत से पाप कर्मों को उपार्जित कर मृत्यु- समय में काल करके रत्न-प्रभा नामक पहली पृथिवी-नरक में नारकी रूप से उत्पन्न होगा । उस का संसारभ्रमण पूर्ववत् ही जानलेना यावत् पृथिवीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा तदनन्तर वहां से निकल कर वह सोधा वाराणसी नगरी में मत्स्य के रूप में जन्म लेगा. वहां पर मस्य-घातकों के द्वारा वध को प्राप्त होता हुआ वह फिर उसी वाराणसी नगरी में एक श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा । वहां वह सम्यक्त्व को तथा अनगारधर्म को प्राप्त करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देवता बनेगा. वहां से च्यव कर वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा, वहां पर साधुवृत्ति का सम्यक्तया पालन करके वह सिद्धि - कृतकृत्यता प्राप्त करेगा, केवल ज्ञान द्वारा समस्त पदार्थों को जानेगा, सम्पूर्ण कर्मों से रहित हो जावेगा और सर्व दःखों का अन्त करेगा । निक्षेप --उपसंहार की कल्पना पूर्ववत् कर लेनी चाहिये । ॥ चतुर्थ अध्ययन समाप्त ॥ टीका-शकटकुमार के भावी जीवन के विषय में श्री गौतम स्वामी के द्वारा प्रार्थना के रूप में व्यक्त की गई जिज्ञासा की पूर्ति के लिये परम दयालु श्रमण भगवान् महावीर ने जो कुछ फ़रमाया वह निम्नोक्त है हे गौतम ! शकट कुमार की पूरी आयु ५७ वर्ष की है अर्थात् उसने पूर्व भव में जितना आयुष्य कर्म बान्ध रखा था, उसके पूरे हो जाने पर वह आज ही दिन के तीसरे भाग में अर्थात् अपराह्न समय में कालधर्म को प्राप्त करेगा। पूर्वोपार्जित पापकों के प्रभाव से उस की मृत्यु का साधन भी बड़ा विकट होगा । जिस समय राजकीय पुरुष प्रधान मंत्री सुषेण की आज्ञा से निदयता - पर्वक ताड़ित करते हुए शकट कुमार को वधस्थल पर ले जाकर खड़ा करेंगे, उस समय प्रधान मंत्री के आदेश से एक लोहमयी स्त्रीप्रतिमा लाई जावेगी और आग में तपाकर उसे लाल कर दिया जावेगा, उस लोहमयी अग्नितुल्य संतप्त और प्रदीप्त प्रतिमा के साथ शकट कुमार को बलात् चिपटाया जावेगा । उसके साथ प्रालिंगित कराये जाने पर शकट कुमार 'काल को प्राप्त होगा । (१) प्रस्तुत कथा सन्दर्भ में जो यह लिखा है कि शकट कुमार को वध्यस्थल पर ले जाकर अपराह्न काल में लोहमयी तप्त स्त्रीप्रतिमा से बलात् आलिङ्गित कराया जायेगा और वहां उसकी मृत्यु हो जायेगी, इस पर यह आशंका होती है कि जब साहजनी नगरी के राजमार्ग पर शकट कुमार के साथ बड़ा निर्दय एवं क्रूर व्यवहार किया गया था, उसके कान और नाक काट लिये गये थे, उसके शरीर में से मांसखण्ड निकाल का उसे खिलाए जा रहे थे, और चाबुकों के भीषण प्रहारों से उसे मारा भी जा रहा था, तब ऐसी स्थिति में उसके प्राण कैसे बच पाए ? अथात् मानव प्राणी For Private And Personal Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुथं अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । इस प्रकार काल को प्राप्त होकर वह रत्नप्रभा नाम की पहली नरक में जाकर जन्म लेगा। वहां पर नरकजन्य तीव्र वेदनायों का अनुभव करेगा। नरक की भवस्थिति को पूरा करने के बाद वह वहां से निकल कर राजगृह नगर के एक चांडालकुल में युगलरूप में उत्पन्न होगा अर्थात मातंग की स्त्री के गर्भ से दो जीव उत्पन्न होंगे, एक बालक दूसरी कन्या। उनके माता पिता बालक का नाम शकट और कन्या का सदर्शना रक्खेंगे । जब दोनों बालभाव को त्याग कर युवावस्था में आवेंगे तो उनका शरीरगत सौंदर्य अथच रूप--लावण्य नितान्त आकर्षक होगा । उसमें भी सदर्शना का यौवन-विकास इतना अधिक स्फुट और मोहक होगा कि उसके अद्वितीय रूप-सौन्दर्य से मोहित हुअा उसका सहोदर ही उसे अपनी सहधर्मिणी बना कर काम – वासना को उपशान्त करने का नीचतम उद्योग करेगा। तात्पर्य यह है कि सुदर्शना के रूप-लावण्य में अत्यधिक मूञ्छित हुया शकट कुमार परम पुनीत भगिनीसम्बन्ध का भी उच्छेद कर डालेगा। संक्षेप में या दूसरे शब्दों में कहें तो-बाल्य-काल के भाई बहिन यौवन-काल में पति पत्नी के रूप में अाभासित होंगे। तदनन्तर इस प्रकार के सभ्यजन विगर्हित कार्यों को करता हुआ शकट कुमार स्वयं कूटग्राही अर्थात् धोखे से जीवों को फंसाने वाला, बन बैठेगा । कटग्राही बन जाने के बाद शकट कमार की पापपूर्ण प्रवृत्तियों में और भी प्रगति होगी, तथा अन्त में अधिक सावध व्यवहार से उपाजित किये पापकमा के प्रभाव से वह रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में जन्म लेगा। पाठकों को स्मरण होगा कि सूत्रकार प्रस्तुत सूत्र के प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र का वर्णन कर आये हैं. तब सूत्रकार ने प्रकृत सूत्र को संक्षिप्त करने के उद्देश्य से पूर्व वर्णित सूत्रपाठ का स्मरण कराने के लिये "संसारो तहेव जाव पुढवीए०" यह उल्लेख कर दिया है । इसका तात्पर्य यह है कि शकट कुमार का संसारभ्रमण अर्थात् नरक से निकलकर अन्यान्य गतियों में गमनागमन करना इत्यादि तथैव- उसी प्रकार जान लेना अर्थात् मृगापुत्र की भान्ति समझ लेना। शेष जो अन्तर है उसे सूत्रकार स्वयं ही "ततो अणंतरं उहित्ता, इत्यादि शब्दों में कह रहे हैं । अर्थात् शकट कुमार का जीव नरक से निकल कर वाराणसी नगरी में मत्स्य के रूप में अवतरित होगा, वहां मत्स्यविघातकों के द्वारा मारा जाने पर वह उसी नगरी के एक श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा। वहां समुचित रीति से पालन पोषण और संवर्द्धन को प्राप्त होता हुआ वह युवावस्था में किसी स्थविर-वृद्ध जैनसाधु के सहवास में आकर सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा और वैराग्यभावित अन्तःकरण से अनगारवृत्ति को धारण कर अन्त में सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां की देवभव - सम्बन्धी स्थिति को पूरा कर वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा, और वहां पर यथाविधि संयम के अाराधन से अपने समस्त कर्मों का अन्त करके परम दुलभ निर्वाण पद को उपलब्ध करेगा। मानव प्राणी की यात्रा कितनी लम्बी और कितनी विकट तथा उसका पर्यवसान कहां और किस प्रकार से होता है ? यह सब शकट कुमार के कथासंदर्भ से भली भान्ति विदित हो जाता है । में इतना शारीरिक बन कहां है कि वह इस प्रकार के नरकसदृश दुःखों का उपभोग कर लेने पर भी जीवित रह सके ? इस आशंका का उत्तर पृष्ठ २७३ पर दिया गया है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां अभनसेन के सम्बन्ध में विचार किया गया है जबकि प्रस्तुत में शकट कुमार के सम्बन्ध में । For Private And Personal Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३१० श्रो विपाक सूत्र - चितुर्थ अध्याय । प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में यह बतलाया गया था कि श्री जम्बू स्वामी ने श्री सुधर्मा स्वामी से विपाकश्रुत के चतुर्थ अध्ययन का अर्थ सुनने की इच्छा प्रकट की थी। आर्य सुधर्मा स्वामी ने श्री जम्बू स्वामी की इच्छानुसार प्रस्तुत चौथे अध्ययन का वर्णन कह सुनाया, जो कि पाठकों के सन्मुख है । इस पूर्वप्रतिपादित वृत्तान्त का स्मरण कराने के लिये ही सूत्रकार ने निक्खेवो- निक्षेप यह पद दिया है। निक्षेप शब्द का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ १८८ पर कर दिया गया है । प्रस्तुत में निक्षेप शब्द से सूत्रकार को जो सूत्रांश अभिमत है, वह निम्नोक्त है "एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं दुहविवागाणं चउत्थस्स अज्झयणस्स अयमढे पराणत्ते ति बेमि"- अर्थात् हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के चतुर्थ अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है । इस प्रकार मैं कहता हूँ । तात्पर्य यह है कि जैसा भगवान से मैंने सुना है वैसा तुमें सुना दिया है। इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं है। -जोव्वण भविस्सति- यहां के बिन्दु से -जोव्वणगमणुप्पत्ते अलंभोगसमत्थे यावि इस अवशिष्ट पाठ का बोध होता है । इस का अर्थ है --युवावस्था को प्राप्त तथा भोग भोगने में भी समर्थ होगा। .. --विरणय. जोव्वणगमणुप्पत्ता--यहां का बिन्दु -परिणयमेना - इस पाठ का परिचायक है। इस पाठ का अर्थ पृष्ठ २०३ पर लिखा जा चुका है अन्तर मात्र इतना है कि वहां यह एक बालक का विशेषण है, जब 'क यहां एक बालिका का। ..... -अहम्मिर जाव दुप्पडियाणंदे -यहां के जाव-यावत् पद से संसूचित पाठ पृष्ठ ५५ पर लिखा जा चुका है। तथा-पयकम्मे ४ - यहां दिये गये ४ के अंक से विवक्षित पाठ पृष्ठ १७९ के टिप्पण में किया गया है। -तहेव जाव पुढवीए०-यहां का जाव-यावत् पद पृष्ठ ८९ पर दिये गये-से णं ततो अणंतरं उज्वहिता सरीसवेसु उववज्जिहिति, तत्थ णं कालं किच्चा दोच्चाए पुढवीए उक्कोसियाए-से लेकर--वाउ० तेउ० आउ०- इत्यादि पदों का परिचायक है । तथा पुढवीए०-यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ पृष्ठ २७५ पर लिखा जा चुका है । ___" - वोहिं, पव्वज्जा०, सोहम्मे कप्पे, महाविदेहे०, सिज्झिहिति ५-इन पदों से -बुझिहिति २ अगाराश्रो अणगारियं पव्वइहिति । से णं भविस्सइ अणगारे इरियासमिते भासासमिते एसणासमिते आयाणभण्डमत्तनिक्खेवणासमिते उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणपरिठ्ठावणियासमिते मणसमिते वयसमिते कायसमिते मणगत वयगत कायगत गुत्त गुतिंदिर गुत्तबं. पारी से णं तत्थ बहई वासाई सामराणपरियागं पाउणित्ता. आलोइपडिक्कन्ते समाहि पत्त कालमासे कालं किन्चा सोहम्मे कप्पे देवताए उववज्जिहिति । से गं ततो अणंतर चइत्ता महाविदेहे वासे जाई कुलाई भवन्ति अड्ढाई दित्ताईवित्ताई विच्छिण्णविउलभवणसयणासणजाणवाहणाई बहुधणजायरूवरययाई आरोगपोगसंप उत्ताइ विच्छड्डियपउरभत्तपाणाई बहदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभयाई बहु जणस्स अपरिभूयाई जहा दृढपतिराणे, सा चेव वत्तव्वया कलाउ जाव सिझिहिति बुज्झिहिति मुग्चिहिति परिणव्वाहिति सव्वदुक्खाणमंतं करिहिति-" इन पदों की ओर सकेत कराना सूत्रकार को अभिमत है, इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है ___ बोधि - सम्यकत्व को प्राप्त करेगा, प्राप्त कर के गृहस्थावास को छोड़ कर साधुधर्म में For Private And Personal Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [३१३ दीक्षित हो जायेगा और वह ईर्यासमित-यतनापूर्वक गमन करने वाला, भाषासमित – यतनापूर्वक बोलने वाला, एषणासमित-निदोष आहार-पानी ग्रहण करने वाला, श्रादानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमित- वस्त्र. पात्र और पुस्तक आदि उपकरणों को उपयोगपूर्वक ग्रहण करने और रखने वाला, उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्ल-सिंघाण-परिष्ठापनिकासमित -- अर्थात् मल मूत्र, थूक, नासिकामल और पसीने का मल इन सब का यतनापूर्वक परिष्ठापन करने वाला अर्थात् परठने वाला, मनसमित-मन के शुभ व्यापार वाला, वचःसमित-वचन के शुभ व्यापार वाला, कायसमित-काया के शुभ व्यापार वाला, मनोगुप्त-मन के अप्रशस्त व्यापार को रोकने वाला, वचोगुप्त-वचन के अशुभ व्यापार को रोकने वाला, कायगुप्त - काया के अशुभ व्यापार को रोकने वाला, गुप्त - मन, वचन वा काया को पाप से बचाने वाला, गुप्तेन्द्रिय-इन्द्रियों का निग्रह करने वाला, गुप्तब्रह्मचारी-ब्रह्मचर्य का संरक्षण करने वाला अनगार होगा । और वह साधुधर्म में बहुत वर्षों तक साधुधर्म का पालन कर आलोचना (गुरु के सन्मुख अपने दोषों को प्रकट करना', तथा प्रतिक्रमण (अशभयोग से निवृत्त हो कर शुभयोग में स्थिर होना) कर समाधि -(चित्त की एकाग्रतारूप ध्यानावस्था) को प्राप्त होकर मृत्यु का समय आने पर काल करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होगा। वहां से वह बिना अन्तर के व्यव कर महाविदेह क्षेत्र में निम्नोक्त कुलों में उत्पन्न होगा - वे कुल सम्पन्न - वैभवशाली, दीप्त – तेजस्वी, वित्त – प्रसिद्ध (विख्यात), विस्तृत और विपुल मकान, शयन (शय्या), आसन यान (रथ आदि) वाहन । घोड़ा आदि अथवा नौका जहाज आदि ), धन, सुवर्ण और रजत - चांदी की बहुलता से युक्त होंगे । उन कुलों में द्रव्योपार्जन के उपाय प्रयुक्त किये जायेंगे अथवा अधमर्षों ( कर्जा लेने वालों) को व्याज पर रुपया दिया जाएगा । उन कन्नों में भोजन करने के अनन्तर भी बहुत सा अन्न बाक़ी बच जाएगा । उन कुलों में दास दासी आदि पुरुष और गाय, भैस तथा बकरी आदि पशु प्रचुर संख्या में रहेंगे तथा वे कुल बहुत से लोगों से भी पराभव को प्राप्त नहीं हो सकेंगे । शकट कुमार का जीव महाविदेह क्षेत्र में इन पूर्वोक्त उत्तम कुलों में उत्पन्न होकर दृढ़ - प्रतिज्ञ की भान्ति ७२ कलायें सीखेगा और युवा होने पर तथारूप स्थविरों के पास दीक्षित हो संयमाराधन कर के सिद्धि को प्राप्त करेगा, कर्मजन्य संताप से रहित हो जाएगा और सर्वप्रकार के जन्म मरण जन्य दुःखों का अन्त कर डालेगा। दृढ़प्रतिज्ञ का संक्षिप्त जीवनपरिचय पृष्ठ १०० तथा १०१ पर दिया जा चुका है ।। प्रस्तुत चतुर्थ अध्ययन में सूत्रकार ने जीवन - कल्याण के लिये दो बातों की विशेष प्रेरणा कर रखी है । प्रथम तो मांसाहार के त्याग की और दूसरे ब्रह्म व्यं के पालन की । मांसाहार गर्हित है, दुःखों का उत्पादक है तथा जन्म मरण को परम्परा का बढ़ाने वाला है । यह सभी धर्मशास्त्रों ने पुकार २ कर कहा है । साथ में उस के त्याग को बड़ा सुखद प्रशस्त एवं सुगतिप्रद माना है । मांसाहार से जन्य हानि और उस के त्याग से होने वाला लाभ शास्त्रों में विभिन्न प्रकार से वर्णित हुआ है । पाठकों की जानकारी के लिये कुछ शास्त्रीय उद्धरण नीचे दिये जाते हैं - जैनागम श्री स्थानांग सूत्र के चतुर्थ स्थान में नरक-आयु -बन्ध के निम्नोक्त चार कारण लिखे हैं (१) महारम्भ-बहुत प्राणियों की हिंसा हो, इस प्रकार के तीव्र परिणामों से कषायपूर्वक For Private And Personal Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [चतुर्थ अध्याय प्रवृत्ति करना महारम्भ कहलाता है । (२) महापरिग्रह-वस्तुओं पर अत्यन्त मूर्छा -आसक्ति महापरिग्रह कहा जाता है। (३) पञ्चेन्द्रियवध -५ इन्द्रियों वाले जीवों की हिंसा करना पंचेन्द्रियवध है। (४) कुणिमाहार-कुणिम अर्थात् मांस का आहार करना कुणिमाहार कहलाता है। इन कारणों में मांसाहार को स्पष्टरूप से नरक का कारण माना है, और उसो सूत्र के आय बन्धकारणप्रकरण में प्राणियों पर की जाती दया और अनुकम्पा के परिणामों को मनुष्याय के बन्ध का कारण माना है । जैनशास्त्रों में ऐसे एक नहीं, अनेकों उदाहरण उपलब्ध होते है. जिन में मांसाहार को दुर्गतिप्रद बता कर उसके निषेध का विधान किया गया है और उसके त्याग को देवदुर्लभ मानवभवं का तथा परम्परा से निर्वाणपद का कारण बता कर बड़ा प्रशंसनीय संसूचित किया है। जैनधर्म की नींव ही अहिंसा पर अवस्थित है । किसी प्राणी की हत्या तो दूर की बात है वह तो किसी प्राणी के अहित का चिन्तन करना भी महापाप बतलाता है । अस्तु, 'जैनशास्त्र तो मांसाहार के त्याग की ऐसी उत्तमोत्तम शिक्षाओं से भरे पड़े हैं किन्तु जैनेतर धर्मशास्त्र भी इस का अर्थात मांसहार का पूरे बल से निषेध करते हैं । उन के कुछ प्रमाण निम्नोत हैं- । (१) नकिर्देवा मिनीमसी न किरा योपयामसि । (ऋग्वेद-१०-१३४-७) अर्थात् हम न किसी को मारें और न किसी को धोखा दें । (२) सर्वे वेदा न तत्कुयुः सवें यज्ञाश्च भारत! । सवें तीर्थाभिषेकाश्च, यत् कुर्यात् प्राणिनां दया ॥१॥ (महा० शा० पर्व प्रथमपाद) अर्थात् हे अजुन ! जो प्राणियों की दया फल देती है वह फल चारों वेद भी नहीं देते और न समस्त यज्ञ देते हैं तथा सम्पूर्ण तीर्थों के स्नान भी वह फल नहीं दे सकते है। अहिंसा लक्षणो धर्मो, ह्यधर्मः प्राणिनां वधः।। तस्माद् धर्माथिभिर्लोकः, कर्तव्या प्राणिनां दया ॥२॥ अर्थात् दया ही धर्म है और प्राणियों का वध ही अधर्म है। इस कारण से धार्मिक पुरुषों को सदा दया ही करनी चाहिये, क्योंकि विष्ठा के कीड़ों से लेकर इन्द्र तलक सब को जीवन की अाशा और मृत्य से भय समान है। यावन्ति पशुरोमाणि, पशुगात्रेषु भारत ! । तावद् वर्षसहस्राणि, पच्यन्ते पशुधातकाः ॥ ३ ॥ अर्थात् हे अर्जुन ! पशु के शरीर में जितने रोम होते हैं, उतने हज़ार वर्ष पशु का घात करने वाले नरकों में जाकर दुःख पाते हैं । लोके यः सर्वभूतेभ्यो, ददात्यभयदक्षिणाम् । स सर्वयझेरीजानः प्राप्नोत्यभयदक्षिणाम् ॥४॥ अर्थात् इस जगत में जो मनुष्य समस्त प्रणियों को अभयदान देता है वह सारे यज्ञों का अनुष्ठान कर चुकता है और बदले में उसे अभयत्व प्राप्त होता है। (४) वर्षे वर्षे अश्वमेधेन, यो यजेत शतं समाः । मांसानि न च खादेत् , यस्तयोः पुण्यफलं समम् ॥५३॥ (मनु० अध्या. ५) For Private And Personal Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चतुर्थ अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । अर्थात् वर्ष २ में किये जाने वाले अश्वमेध यज्ञ को जो सौ वर्ष तक करता है, अर्थात् सौ वर्ष में जो लगातार सौ यज्ञ कर डालता है उसका और मांस न खाने वाले का पुण्य फल समान होता है । (५) प्राणिधातात्तु यो धर्ममाहत मूढमानसः । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir | ३१५ ......... स वाञ्छति सुधावृष्टिं कृष्णाहिमुखकोटरात् ॥ १२॥ (पुराण) अर्थात् प्राणियों के नाश से जो धर्म की कामना करता है वह मानों श्यामवर्ण वाले सर्प के मुख से अमृत की वृष्टि चाहता है । (६) एकतः काञ्चनो मेरु, बहुरत्ना वसुंधरा । For Private And Personal एकतो भयभीतस्य, प्राणिनः प्राणरक्षणम् ॥१॥ अर्थात् - [- एक और मेरु पर्वत के समान किया गया सोने और महान् रत्नों वाली पृथ्वी का दान रक्खा जाए तथा एक और केवल प्राणी की गई रक्षा रक्खो जाए, तो वे दोनों एक समान ही है। (७) तिलभर मछली खाय के, करोड़ गऊ करे दान । काशी करवत लै मरे, तो भी नरक निदान ॥ १ ॥ मुसलमान मारे करद से, हिन्दू मारे तलवार । ( कबीरवाणी ) कहे कबीर दोनों मिली, जायें यम के द्वार ॥ २ ॥ (८) जे रस लागे कापड़, जामा होए पलीत | जो रक्त पीवे मानुषा, तिन क्यों निर्मल चीत ॥ १ ॥ (सिक्ख शास्त्र) अर्थात् यदि हमारे वस्त्र से रक्त का स्पर्श हो जाए, तो वह वस्त्र अपवित्र हो जाता है । किन्तु जो मनुष्य रक्त का ही सेवन करते हैं, उनका चित्त निर्मल कैसे रह सकता है ? अर्थात् कभी नहीं । इत्यादि अनेकों शास्त्रों के प्रमाण उपलब्ध होते हैं. जिन में स्पष्टरूप से मांसाहार का निषेध पाया जाता है । श्रतः सुखाभिलाषी विचारशील पुरुष को मांसाहार जैसे दानवी कुकर्म से सदा दूर रहना चाहिये । अन्यथा परिणक नामक छागलिक - कसाई के जीव की भांति नरकों में अनेकानेक भीषण यातनायें सहन करने के साथ २ जन्म मरण जन्य दुस्सह दुःखों का उपभोग करना पडेगा । (२) प्रस्तुत अध्ययन में वर्णित कथासन्दर्भ से दूसरी प्रेरणा ब्रह्मचर्य के पालन की मिलती है । ब्रह्मचर्य की महिमा का वर्णन करना एक अल्पज्ञ व्यक्ति के वश की बात नहीं है । सर्वज्ञ भगवान् द्वारा प्रतिपादित शास्त्र इस की महिमा पुकार २ गा रहे हैं। श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्र के छठे अध्याय में लिखा है तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं अर्थात् तर नाना प्रकार के होते हैं, ही सर्वोत्तम तप है । ब्रह्मचर्य की महिना महान है। मन वचन और काया के चर्य पालने से मुक्ति के द्वार सहज में ही खुल जाते हैं । देवदाणवगन्धव्वा, जक्खरक्स किन्नरा | बम्भयारिं नमसंति, दुक्करं जे करेन्ति ते ॥ १६ ॥ (उत्तराध्ययन सूत्र श्र० १६ ) अर्थात् देवता ( वैमानिक और ज्योतिष्क देव), दानव ( भवन पतिदेव ), गन्धर्व (स्वरविद्या परन्तु सभी तपों में ब्रह्मचर्य द्वारा विशुद्ध ब्रह्म Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री वपाक सूत्र [चतुर्थ अध्याय के जानने वाले देव), यक्ष (व्यन्तर जाति के देव), रावल (मांस की इच्छा रखने वाले देव ) और किन्नर (व्यन्तर देवों की एक जाति) इत्यादि सभी देव उस ब्रह्मचारी के चरणों में नतमस्तक होते है, जो इस दुष्कर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता है । वास्तव में देखा जाये तो यह प्रवचन अक्षरशः सत्य है । इस में अत्युक्ति की गन्ध भी नहीं है, क्योंकि इतिहास इस का समर्थक है । ब्रह्मचर्य के ही प्रभाव से स्वनामधन्या सतीधुरीणा जनक सुता सीता का अग्नि को जल बना देना, सती सुभद्रा का कच्चे सूत के धागे से बन्धी हुई छलनी के द्वारा कूप से निकाले हुए पानी से चम्पा नगरी के दरवाज़ों का खोलदेना तथा धर्मवीर सेठ सुदर्शन का शूली को सिंहासन बना देना, इत्यादि अनेकों उदाहरण इतिहास में उपलब्ध होते हैं। हुकार मात्र से पृथ्वी को कंपा देने वाले बाहुबलि तथा महाभारत के अनुपम वीर भीष्मपिताह तथा महामहिम श्री जम्बू स्वामी एवं मुनिपुगव श्री स्थूलि भद्र जी महाराज इत्यादि महापुरुष ज़मीन फोड़ कर या आसमान फोड़ कर नहीं पैदा हुए थे। वे भी अन्य पुरुषों की भान्ति अपनी २ माताओं के गर्भ से ही उत्पन्न हुए थे । परन्तु यह उनके ब्रह्मचर्य के तेज का प्रभाव है कि वे इतने महान् बन गये तथा यह भी उनके ब्रह्मचर्य की ही महिमा है कि आज उनका नाम लेने वाला मलिनहृदय व्यक्ति भी अपनी मलिनता दूर होती अनुभव करता है, तथा उनके जीवन को अपने लिये पथप्रदर्शक के रूप में पाता है। ब्रह्मचर्य मानव जीवन में मुख्य और सारभूत वस्तु है । यह जीवन को उच्चतम बनाने के अतिरिक्त संसारी आत्मा को कर्मरूप शत्रुओं के चंगुल से छुड़ाने में एक बलवान् सहायक का काम करता है । अधिक क्या कहें संसार में परिभ्रमण करने वाले जीवात्मा को जन्म मरण के चक्र से छुड़ा कर मोक्ष-मन्दिर में पहुंचाने तथा सम्पूर्ण दुःखों का नाश करके उसे-आत्मा को नितान्त सुखमय बनाने का श्रेय इसी ब्रह्मचर्य को ही है, और इसके विपरीत ब्रह्मचर्य की अवहेलना से संसारी आत्मा का अधिक से अधिक पतन होता है, तथा सुख के बदले वह दुःख का ही विशेषरूप से संचय करता है । तात्पर्य यह है कि जहां ब्रह्म वयं सारे सद्गुणों का मूल है वहां उस का विनाश समस्त दुगुणों का स्रोत है । ब्रह्मचर्य के विनाश से इस जीव को कितने भयंकर कष्ट सहने पड़ते हैं, ? यह प्रस्तत अध्ययन-गत शकट कुमार के व्यभिचारपरायण जीवनवृत्तान्तों से भलीभान्ति ज्ञात हो जाता है। मानव की हिंसाप्रधान और व्यभिचारपरायणप्रवृत्ति का जो दुष्परिणाम होता है, या होना चाहिये, उसी का दिग्दर्शन कराना हो इस चतुर्थ अध्ययन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है । अतः विचारशील पाठक इस अध्ययन के कथासंदर्भ से -हिंसा से विरत होकर भगवती अहिंसा के आराधन की तथा वासनापोषक प्रवृत्तियों को छोड़े कर सदाचार के सौरभ से मानस को सुरभित करने की शिक्षाएं प्राप्त कर अपने को दयालु अथच संयमी बनाने का श्लाघनीय प्रयत्न करेंगे, ऐसी भावना करते हुए हम प्रस्तुत अध्ययन के विवेचन से विराम लेते हैं। ॥ चतुर्थ अध्याय समाप्त ।। For Private And Personal Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अथ पञ्चम अध्याय जिस प्रकार जड़ को सींचने से वृक्ष की सभी शाखा प्रशाखा और पत्र आदि हरे भरे रहते हैं, ठीक उसी तरह ब्रह्मचर्य के पालन से सभी अन्य व्रत भी आराधित हो जाते हैं अर्थात् इस के श्राराधन से तप, संयम आदि सभी अनुष्ठान सिद्ध हो जाते हैं । यह सभी व्रतों तथा नियमों का मूल जड़ है, इस तथ्य के पोषक वचन श्री प्रश्नव्याकरण आदि सूत्रों में भगवान् ने अनेकानेक कहे हैं । 1 इत्यादि । जैसे ब्रह्मचर्य की महिमा का वर्णन करना सरल नहीं है, उसी तरह ब्रह्मचर्य के विपक्षी मैथुन से होने वाली हानियां भी आसानी से नहीं कही जा सकती हैं । वीर्यनाश करने से शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक सभी प्रकार की शक्तियों का ह्रास होता है । बुद्धि मलिन हो जाती है एवं जीवन पतन के गढ़े में जा गिरता है, यह अनुभव सिद्ध बात है कि जहां सूर्य की किरणें होंगी वहां प्रकाश अवश्य होगा और जहां प्रकाश का अभाव होगा वहां अन्धकार की अवस्थिति सुनिश्चित होगी । इसी भांति जहां ब्रह्मचर्य का दिवाकर चमकेगा, वहां आध्यात्मिक ज्योति की किरण जगमगा उठेंगी । इसके विपरीत दुराचार का जहां प्रसार होगा वहां अज्ञानान्धकार का भी सर्वतोमुखी साम्राज्य होगा । आध्यात्मिक प्रकाश में रमण करने वाला आत्मा कल्याणेन्मुखी प्रगति की ओर प्रयाण करता है, जब कि अज्ञानान्धकार में रमण करने वाला श्रात्मा चतुर्गतिरूप संसार में भटकता रहता है । गत चतुर्थ अध्ययन में शकट कुमार नाम के व्यभिचारपरायण व्यक्ति के जीवन का जो दिग्दर्शन कराया गया है, उस पर से यह बात अच्छी तरह से स्पष्ट हो जाती है । प्रस्तुत पांचवें अध्ययन में भी एक ऐसे ही मैथुनसेवी व्यक्ति के जीवन का परिचय कराया गया है, जो कि शास्त्र और लोक विगर्हित व्यभिचारपूर्ण जीवन बिताने वालों में से एक था । सूत्रकार ने इस कथासंदर्भ से मुमुक्ष – जनों को व्यभिचारमय प्रवृत्ति से सदा पराङमुख रहने का व्यतिरेक दृष्टि से पर्याप्त सदूबोध देने का अनुग्रह किया है । इस पांचवें अध्ययन का श्रादिम सूत्र इस प्रकार है - मूल - 'पंचमस्स उक्खेवो, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसंबी णामं नगरी होत्था, रिद्ध० । वाहिं चंदोत्तरणे उज्जाणे, सेयभद्दे जक्खे । तत्थ (१) छाया - पञ्चमस्योत्क्षेपः । एवं खलु जम्बू : ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये कौशाम्बी नाम नगर्यभवत्, ऋद्ध० । बहिश्चन्द्रावतरणमुद्यानम् । श्वेतभद्रो यक्ष: । तत्र कौशाम्ब्यां नगर्यां शतानीको नाम राजाऽभवत्, महा० । मृगावती देवी । तस्य शतानीकस्य पुत्रो मृगावत्या श्रात्मजः उदयनो नाम कुमारोऽभूदहीन० युवराजः । तस्योदयनस्य कुमारस्य पद्मावतो नाम देव्यभवत् । तस्य शतानीकस्य सोमदत्तो नाम पुरोहितोऽभूत्, ऋग्वेद० । तस्य सोमदत्तस्य वसुदत्ता नाम भार्याऽभूत् । तस्य सोमदत्तस्य पुत्रो वसुदत्ताया आत्मजो वृहस्पतिदत्तो नाम दारकोऽभूदहीन० । For Private And Personal Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३१८] श्रो विपाक सूत्र [पश्चम अध्याय कोसंबीए णगरीए सयाणीए णामं राया होत्था, महया० । मियावती देवी । तस्स णं सयाणियस्स, पुने मियावतीए अत्तए उदयणे णामं कुमारे होत्था, अहीण. जवराया । तस्स णं उदयणस्स कुमारस्स पउमावती णामं देवी होत्था । तस्स णं सयाणियस्स सोमदचे नाम पुरोहिए होत्था, रिउव्वेय० । तस्स णं सोमदत्तस्स पुरोहियस्स वसुदत्ता णामं भारिया होत्था । तस्स णं सोमदत्तस्प पुत्तं वसुदत्ताए अत्तए वहस्सइदचे नाम दारए होत्था, अहीण० । पदार्थ-पंचमस्स-पंचम अध्ययन का । उक् वेवो -उत्क्षेप- प्रस्तावना पूर्व की भान्ति जान लेना चाहिए । एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही । जम्बू!-हे जम्बू! । तेणं कालेणं - उस काल में, तथा । तेणं समरण-उस समय में । कोलंबो -कौशाम्बो । णाम - नाम की । णगरी-नगरी । होत्था-थी । रिद्ध०–जो कि ऋद्ध-विशाल भवनादि के आधिक्य से युक्त थी, स्तिमित-आन्तरिक और बाह्य उपद्रवों के भय से रहित तथा समृद्-धन धान्यादि से परिपूर्ण थी । बाहि-नगरी के बाहिर । चन्दोत्तरणे-चन्द्रावतरण नामक । उज्जाणे-उद्यान था। सेयभद्दे-श्वेतभद्र नामक । जक्खे-यक्ष था । तत्थ णं-उस । कोसंबीए-कौशाम्बी णयरीएनगरी में । सयाणीए-शतानीक । णाम-नामक । राया - राजा । होत्था -- था । महया०जो कि महान् हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् था । मियावती - मृगावती । देवी-देवीराणी थी । तस्स णं-उस । सयाणियस्स -शतानीक का । पुत्त -पुत्र । मियावतीए -मृगावती का । अत्तए-अात्मज । उद्यणे --उदयन । णाम-नामक । कुमारे - कुमार । होत्था-था, जो कि । अहीण - अन्यून एवं निर्दोष पञ्चेन्द्रिय शरीर वाला तथा । जुवराया-युवराज था । तस्स णं-उस । उदयणस्स-उदयन । कुमारस्स -कुमार की । पउमावती-पद्मावती । णामनाम की । देवी-देवी । होत्था-थी । तस्त णं-उस । सयाणियस्स -शतानोक का । सोमदत्त -सोमदत्त । णाम-नामक । पुरोहिए- पुरोहित । होत्था - था, जो कि । रिउन्वेय:ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञाता था । तस्स णं-उस । सोमदत्तस्स-सोमदत्त। पुरोहियस्स-पुरोहित की । वसुदत्ता-वसुदत्ता । णाम-नाम की । भारिया-भार्या । होत्थाथी। तस्स णं-उस । सोमदत्तस्स-सोमदत्त का । पुत्त - पुत्र । वसुदत्ताय - वसुदत्ता का । अत्तए-आत्मज । वहस्सइदत्ते-वृहस्पतिदत्त । णाम-नामक । दारए -बालक । होत्था-था । जो कि । अहीण-अन्यून एवं निर्दोष पञ्चेन्द्रिय शरीर वाला था । मूलार्थ-पंचम अध्ययन के उत्क्षेप-प्रस्तावना की भावना पूर्ववत् कर लेनी चाहिये। हे जम्बू ! इस प्रकार निश्चय ही उस काल तथा उस समय कौशाम्बी नाम की ऋद्धभवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित-आन्तरिक और बाह्य उपद्रवों के भय से शून्य, और समृद्धि से परिपूर्ण नगरी थी । उसके बाहिर चन्द्रावतरण नाम का उद्यान था, उसमें श्वेतभद्र नामक यक्ष का स्थान था । उस कौशाम्बी नगरी में शतानोक नामक एक हिमालय आदि पर्वों के समान महान् प्रतापी राजा राज्य किया करता था । उस को मृगावती नाम की देवी-राणी थी। उस शतानीक का पुत्र और मृगावती का आत्मज उदयन नाम का एक कुमार था जो कि सर्वेन्द्रियसम्पन्न अथच युवराज पद से अलंकृत था । उस उदयन कुमार की पद्मावती नाम For Private And Personal Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org पश्चम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित। की एक देवी थी। उस शतानीक का सोमदत्त नाम का एक पुरोहित था जोकि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का पूर्ण ज्ञाता था । उस सोमदत्त पुरोहित की वसुदत्ता नाम की भार्या थी। तथा सोमदत्त का पुत्र और वसुदत्ता का आत्मज वृहस्पति दत्त नाम का एक सर्वांगसम्पन्न और रूपवान् बालक था । टीका-विपाकश्रत के प्रथम श्रुतस्कन्ध के चतुर्थ अध्ययन की समाप्ति के अनन्तर अब पांचवें अध्ययन का आरम्भ किया जाता है । इस का उत्क्षेप अर्थात् प्रस्तावना का अनुसंधान इस प्रकार है श्री जम्बू स्वामी ने अपने गुरुदेव श्री सधर्मा स्वामी की पुनीत सेवा में उपस्थित हो कर कहा कि भगवन् ! श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामी ने निस्संदेह संसार पर महान् उपकार किया है । उन की समभावभावितात्मा ने व्यवहारगत ऊंच नीच के भेदभाव को मिटा कर सर्वत्र आत्मगत समानता की ओर दृष्टिपात करने का जो आचरणीय एवं आदणीय आदर्श संसार के सामने उपस्थित किया है वह उन की मानवसंसार को अपूर्व देन है । प्रतिकूल भावना रखने वाले जनमान्य व्यक्तियों को अपने विशिष्ट ज्ञान और तपोबल से अनुकूल बना कर उनके द्वारा धार्मिक प्रदेश में जो समुचित प्रगति उत्पन्न की है वह उन्हीं को आभारी है, एवं परस्पर विरोधी साम्प्रदायिक विचारों को समन्वित करने के लिए जिस सर्वनयगामिनी प्रामाणिक दृष्टि-अनेकान्त दृष्टि का अनुसरण करने को विज्ञ जनता से अनुरोध करते हुए उस की भ्रान्त धारणाओं में समुचित शोधन कराने का सर्वतोभावी श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त है। भगवन् ! श्राप को तो उनके पुनीत दर्शन तथा मधर वचनामृत के पान करने का सौभाग्य चिरकाल तक प्राप्त होता रहा है । इसके अतिरिक्त उन की पुण्य सेवा में रह कर उनके परम पावन चरणों को धूलि से मस्तक को स्पर्शित करके उसे यथार्थरूप में उत्तमांग बनाने का सद्भाग्य भी आप को प्राप्त है । इस लिये श्रार कृपा करें और बतलायें कि उन्होंने विपाकश्रत के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पांचवें अध्ययन का क्या अर्थ वर्णन किया है ? क्योंकि उसके चतुर्थ अध्ययनगत अर्थ को तो मैंने श्राप श्री से श्रवण कर लिया है। अब मुझे श्राप से पांचवें अध्ययन के अर्थ को सुनने की इच्छा हो रही है । श्री जम्बू स्वामी ने अपनी जिज्ञासा की पूर्ति के लिये श्री सुधर्मा स्वामी से जो विनम्र निवेदन किया था, उसी को सूत्रकार ने उक्खेवो-उत्क्षेप-पद से अभिव्यक्त किया है । उत्शेप पद का अर्थ है-प्रस्तावना । प्रस्तावना रूप सूत्रपाठ निम्नोक्त है जति णं भन्ते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तणं दुहविवागाणं च उत्थस्स अझ यणस्त अयम? परणस, पचमस्स णं भन्ते ! अज्झयणस्त के अटे पएणत" इन पदों का अर्थ ऊपर की पंक्तियों में लिखा जा चुका है । जम्बू स्वामी की सानुरोध प्रार्थना पर श्री सुधर्मा स्वामी ने श्री वीरभाषित पंचम अध्ययन का अर्थ सुनाना प्रारम्भ किया. जिस का वर्णन ऊपर मूलार्थ में किया जा चुका है, जो कि अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता । -रिद्ध० - यहां के बिन्दु से संसूचित पाठ तथा –महया० - यहां के बिन्दु से अभिमत For Private And Personal Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री विपाक सूत्र ३२०] पाठ भी १३८ पृष्ठ पर सूचित कर दिया गया है । तथा अपेक्षित - हीण - पडिपुराण - पंचिदिय - सरीरे से ले कर पर लिखा जा चुका है । पाठक वहीं पर देख सकते हैं । - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [पम अध्याय - श्रहीण० जुवराया- यहां बिन्दु से - सुरुवे - यहां तक का पाठ पृष्ठ १२० - रिउत्र्वेय० - यहां के बिन्दु से - जजुव्वेय - सामवेय – अथव्व गवेय - कुसले - इस पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । अर्थात् सोमदत्त पुरोहित ॠग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञाता था । [ सूत्रकार कौशाम्बी नगरी के बाहिर चन्द्रावतरण उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पधारने आदि का वर्णन करते हुए इस प्रकार कहते हैं मूल- १ तेणं कालेणं २ समणे भगवं महावीरे समोसरिए । तेणं कालेां २ भगवं गोतमे तत्र जाव रायमग्गं श्रगाढे । तहेव पासति इत्थी, आसे, पुरिसे मज्झे पुरिसं । चिंता । तव पुच्छति । पुव्वभवं भगवं वागरेति । पदार्थ - तेणं कालेणं २ – उस काल में तथा उस समय में । समणे - श्रमण । भगवं - भगवान् । महावीरे - महावीर स्वामी । समोसरिए - पधारे । तेणं काले २ - उस काल और उस समय । भगवं - भगवान् । गोतमे - गौतम । तहेव - तथैव – उसी भान्ति । जाव - यावत् । रायमग्गं - राजमार्ग में। श्रगाढे – पधारे । तहेव - तथैव – उसी तरह । हत्थी - हाथियों को । श्रासे - घोड़ों को । पुरिसे - पुरुषों को, तथा उन पुरुषों के । मज्भे– मध्य में । पुरिसं - एक पुरुष को । पासति - देखते हैं । चिन्ता - तद्दशासम्बन्धी चिन्तन करते हैं। तहेव - तथैव-उसी प्रकार । पुच्छति - पूछते हैं । भगवं - भगवान् । पुग्वभवं - पूर्वभव का । वागरेति - वर्णन करते हैं । मूलार्थ - उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी कौशाम्बी नगरी के बाहिर चन्द्रावतरण नामक उद्यान में पधारे । उस समय भगवान् गौतम स्वामी पूर्ववत् कौशाम्बी नगरी में भिक्षार्थं गये और राजमार्ग में पधारे । वहां हाथियों, घोड़ों और पुरुषों को तथा उन पुरुषों के मध्य में एक वध्य पुरुष को देखते हैं, उसको देख कर मन में चिन्तन करते हैं और वापिस आकर भगवान् से उसके पूर्वभव के सम्बन्ध में पूछते हैं । तब भगवान् उसके पूर्वभव का इस प्रकार वर्णन करने लगे । टीका - प्रस्तुत सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के उद्यान में पधारने पर उनके पुण्य दर्शन के लिये नगर की भावुक जनता और शतानीक नरेश आदि का आगमन, तथा वीर प्रभु का उनको धर्मोपदेश देना, एवं गौतम स्वामी का भगवान् से आज्ञा लेकर कौशाम्बी नगरी में भिक्षार्थ पधारना और वहां राजमार्ग में श्रृंगारित हाथियों, सुसज्जित घोड़ों तथा शस्त्रसन्नद्ध सैनिकों और उनके मध्य में अवकोटकबन्धन से बन्धे हुए एक अपराधी पुरुष को देखना तथा उसे देख कर मन में उस की दशा का चिन्तन करना, और भिक्षा लेकर वापिस आने पर भगवान् से उक्त (१) छाया - तस्मिन् काले २ श्रमणो भगवान् महावीरः गौतमः, तथैव यावद् राजमार्गमवगाढः । तथैव पर्यात हस्तिनः, चिन्ता । तथैव पृच्छति । पूर्वभवं भगवान् व्याकरोति । For Private And Personal समवसृतः । तस्मिन् काले २ भगवान् अश्वान् पुरुषान्, मध्ये पुरुषम् । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पञ्चम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । घटना और उससे उत्पन्न होने वाले अपने मानसिक संकल्प का निवेदन करना, एवं निवेदन करने के बाद उक्त पुरुष के पूर्व भव को जानने की इच्छा का प्रकट करना, आदि सम्पूर्ण वर्णन पूर्व अध्ययनों में दिये गये वर्णन के समान ही जान लेना चाहिये । सारांश यह है कि पूर्व के अध्ययनों में यह सम्पूण वर्णन विस्तार - पूर्वक आ चुका है। उसी के स्मरण कराने के लिये यहां पर तहेव- इस पद का उल्लेख कर दिया गया है। जिस से प्रतिपाद्य विषय की अवगति भो हो जाय और विस्तार भी रुक जाय, एवं पिष्टपेषण भी न होने पावे । - तहेव जाव रायमगं- यहा के जाव-यावत् पद से विवक्षित पाठ की सूचना पृष्ठ २०७ पर कर दी गई है। परन्तु इतना ध्यान रहे कि वहां पुरिमताल नगर का नामोल्लेख है, जब कि यहां कौशाम्बी नगरी का । शेष वर्णन सम ही है। मूल में पढ़े गए चिन्ता शब्द से "-तते णं से भगवो गोतमस्त तं पुरिसं पासित्ता इमे अज्झत्थिर ५ समुपज्जित्था, अहो णं इमे पुरिसे जाव निरयपडिरूवियं वेयणं वेदेति- इन पदों का परिचायक है। इन पदों का अर्थ पृष्ठ १३२ पर लिखा जा चुका है । तथा तहेव- पद से जो विवक्षित है उस का उल्लेख पृष्ठ १३३ पर किया जा चका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां वाणिजग्राम नगर का उल्लेख है जब कि यहां कौशाम्बी नगरी का। तथा वहां श्री गौतम स्वामी ने वाणिजग्राम के राजमार्ग पर देखे दृश्य का वर्णन भगवान् को सुनाया था जब कि यहां कौशाम्बी नगरी के राजमार्ग पर देखे हुए दृश्य का । शेष वर्णन समान ही है। ___ अब सूत्रकार गौतमस्वामी द्वारा कौशाम्बी नगरी के राजमार्ग पर देखे गये एक वथ्य व्यक्ति के पूर्वभवसम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फ़रमाया उसका वर्णन करते हैं - मूल-'एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेणं २ इहेब जम्बुद्दोवे दीवे भारहे वासे सव्वोभद्दे णाम णगरे होत्था, रिद्ध० । तत्थ णं सव्वोभद्दे णगरे जितसत्तू णाम राया होत्था । तस्स णं जितसत्तस्स रएणो महेसरदत्ते नाम पुरोहिए होत्था । रिउव्वेय-जजुब्वेयसामवेय-अथव्वणवेय-कुसले यावि होत्था । तते णं से महेसरदत्ते पुरोहिते जितसत्तस्स रएणो रज्जवलविवद्धणट्ठाए कल्लाकल्लिं एगमेगं माहणदारगं एगमेगं खत्तियदारगं (१) छाया-एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले २ इहैव जम्बूद्रोपे द्वीपे भारते वर्षे सर्वतोभद्रं नाम नगरमभवत्, ऋद्ध० । तत्र सर्वतोभद्रे नगरे जितशत्रुनौम राजाऽभूत् । तस्य जितशत्रोः राज्ञः महेश्वरदत्तो नाम पुरोहितोऽभूत् ऋग्वेद - यजुर्वेद – सामवेद -अथर्वणवेदकुशलश्चाप्यभवत् । तत: स महेश्वरदत्तः पुरोहितः जितशत्रोः राजः राज्यबलविवर्धनार्थं कल्याकल्यि एकैकं ब्राह्मणदारकम्, एकैकं क्षत्रियदारकम् , एकैकं वैश्यदारकम् , एकैकं शूद्रदारक ग्राहयति २ तेषां जीवतामेव हृदयमांसपिंडान् ग्राहयति २ जितशत्रोः राज्ञः शान्तिहोमं करोति । ततः स महेश्वरदत्तः पुरोहितः अष्टमीचतुर्दशीषु द्वौ २ ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्रदारको , चतुर्यु मासेषु चतुरः २, षट सु मासेषु अष्ट २. संवत्सरे षोडश २ । यदा कदापि च जितशत्रु : राजा परबलेनापि युध्यते तदा तदापि च स महेश्वरदत्त: पुरोहितः अंष्टशतं ब्राह्मणदारकाणाम् , अष्टशतं क्षत्रियदारकाणाम् , अष्टशतं वैश्यदारकाणाम्, अष्टशतं शूद्रदारकाणाम् पुरुषेहियति २ तेषां जीवितामेव हृदयमांसपिंडान् ग्राहयति २ जितशत्रो: राज्ञः शान्तिहोमं करोति । ततः स परबलं क्षिप्रमेव विध्वंसयति वा प्रतिषेधयति वा । For Private And Personal Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३२२] श्री वपाक सूत्र [पञ्चम अध्याय ऐगमेगं वइस्सदारगं एगमेगं सुद्ददारगं गेएहावेति २ तेसिं जीवंतगाणं चेव हिययउंडए गेण्हावेति २ जितसत्तुम्स रगणो संतिहोमं करेति, तते णं से महेसरदत्ते पुरोहिते अट्ठमीचउद्दसीसु दुवे २ माहण-खत्तिय-वेस्स-सुद्द-दारगे, चउएहं मासाणं चत्तारि २, छएहं मासाणं अट्ठ २, संवच्छरस्स सोलस २ । जाहे वि य णं जितसत्त राया परवलेणं अभिजुज्झति ताहे ताहे वि य णं से महेसरदत्त पुरोहिए अट्ठसयं माहणदारगाणं, अट्ठसयं खत्तियदारगाणं, अदुसयं वइस्सदारगाणं, अट्ठसयं सुद्ददारगाणं पुरिसेहिं गिराहावेति २ तेहिं जावंतगाणं चेव हिययउंडए गेण्हावेति २ जितसत्तुस्स रगणो संतिहोमं करेति, तते णं से परवलं खिप्पामेव विद्धसेति वा पडिसेहिज्जति वा । पदार्थ-एवं खलु-इस प्रकार निश्चय हो । गोतमा !-हे गौतम ! । तेणं कालेणं-उस काल और उस समय । इहेव-इसी । जंबुद्दीवे दीवे-जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत । भारहे वासे-भारत वर्ष में । सव्वोभहे-सर्वतोभद्र । णाम-नामक । णगरे-नगर । होत्था-था। रिद्ध०'-जो ऋद्ध -भवनादि की बहुलता से युक्त, स्तिमित-आन्तरिक और बाह्य उपद्रवों के भय से रहित तथा समृद्ध -धन धान्यादि की समृद्धि से परिपूर्ण. था । तत्थ र्ण-उस । सव्वो . भद्दे-सर्वतोभद्र । णगरे-नगर में । जितसत्त -जितशत्रु । णाम-नामक । राया - राजा । होत्या-था । तस्स णं-उस । जितसत्तु स्स-जितशत्रु । रराणो-राजा का । महेसरदत्तमहेश्वरदत्त । णाम-नामक । पुरोहिए-पुरोहित । होत्था-था, जो कि । रिउव्वेद-जजुब्वेय- सामवेय-अथव्वणवेय-कुसले यावि-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वणवेद में भी कुशल । होत्थाथा । तते णं-तदनन्तर । से-वह । महेसरदत्त -महेश्वरदत्त । पुरोहिते-पुरोहित । जितसत्तु स्स - जितशत्रु । रराणो-राजा के । रज्ज - राज्य, तथा । बल -बल-शक्ति। विवद्धट्ठाएविवद्धन के लिये । कल्लाकल्लिं-प्रतिदिन । एगमेग-एक २ । माहणदारग-ब्राह्मण बालक । एगमेग-एक २ । खत्तियदारग-क्षत्रिय बालक । एगमेग-एक २। वइस्मदारग - वैश्य बालक । एगमेग--एक २ । सुद्ददारग- शूद्र बालक को। गेराहावेति-पकड़वा लेता है । २त्तापकड़वा कर । तेसिं---उन का । जीवंतगाणं चेत्र-जीते हुों का ही । हिययउंडर - हृदयों के मासपिंडों को । गेराहावेति २-ग्रहण करवाता है, ग्रहण करवा के । जितसतु म्स - जितशत्रु । रगणा-राजा के निमित्त । संति होम-शांतिहोम । करोति-करता है । तते णं - तदनन्तर । से वह । महेसरदत्त -महेश्वरदत्त । पुरोहिते - पुरोहित । अट्ठमोव उद्दसी - अष्टमी और चतुर्दशी को । दुवे २-दो दो । माहण-ब्राह्मण । खत्तिय-क्षत्रिय । वेस्ल-वैश्य, तथा । सुददारगे-शूद्र बालकों को । चउगह मासाणं-चार मास में । चत्तारि २-चार २ । छएहं मासाणं-छः मास में । अट्ठ २-आठ २ । संवच्छरस्त-वर्ष में। सोलस २-सोलह २ । जाहे जाहे वि य णंऔर जब २ भी । जितसत्त राया-जितशत्रु राजा । परबलेणं-परबल - शत्रुसेना के साथ । अभिजुज्झति - युद्ध करता था । ताहे ताहे वि य णं-तब तब ही । से-वह । महेसरदत्त-महेश्वरदत्त। (१) रिद्ध०- यहां के बिन्दु से संसूचित पाठ की सूचना पृष्ठ १३८ पर दी जा चुकी है। For Private And Personal Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पश्चम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [३२३ पुरोहिते-पुरोहित । अट्ठसयं-१०८ । माहणदारगाणं-ब्राह्मण बालकों । अट्ठसयं-१०८ । खत्तियदारगाणं-क्षत्रिय बालकों । अठ्ठसयं-१०८ । वइस्सदारगाणं-वैश्य बालकों तथा । अट्ठसयं१०८ । सुददारगाणं-शूद्र बालकों को । पुरिसेहिं-पुरुषों के द्वारा । गेराहावेति २ - पकड़वा लेता है, पकड़वा कर । जीवंतगाणं चेव-जीते हुए । तेसिं-उन बालकों के । हिययउंडएहृदयसम्बन्धी मांसपिंडों का । गण्हावेति २-ग्रहण करवाता है, ग्रहण करवा के। जितसत्तु स्सजितशत्रु । रराणो-राजा के लिये । संतिहोम-शांतिहोम । करेति-करता है । तते णं-तदनन्तर। से-वह-जितशत्रु नरेश । परबलं-परबल-शत्रुसेना का । खिप्पामेव-शीघ्र ही । विद्धंसेतिविध्वंस कर देता था। वा-अथवा । पडिसेहिज्जति वा-शत्रु का प्रतिषेध कर देता था, अर्थात् उसे भगा देता था। मूलार्थ-इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम ! उस काल तथा उस समय इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारत वर्ष में सर्वतोभद्र नाम का एक भवनादि के आधिक्य से युक्त, आन्तरिक और बाह्य उपद्रवों से रहित तथा धन धान्यादि से परिपूर्ण नगर था । उस सर्वतोभद्र नामक नगर में जितशत्रु नाम का एक महा प्रतापी राजा राज्य किया करता था । उस जितशत्रु राजा का महेश्वरदत्त नाम का एक पुरोहित था जो कि ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद और अथर्ववेद इन चारों वेदों का पूर्ण ज्ञाता था । महेश्वरदत्त पुरोहित जितशत्रु राजा के राज्य और बल की वृद्धि के लिये प्रतिदिन एक २ ब्राह्मण बालक, एक एक क्षत्रिय बालक, एक २ वैश्य बालक और एक एक शूद्र बालक को पकड़वा लेता था, पकड़वा कर जीते जो उन के हदयों के मांसपिंडों को ग्रहण करवाता था, ग्रहण करवा कर जितशत्रु राजा के निमित्त उन से शान्तिहोम किया करता था । तदनन्तर वह पुरोहित अष्टमो और चतुर्दशी में दो दो बालकों, चार मास में चार २ बालकों, छः मास में आठ २ बालकों और संवत्सर में सोलह २ बालकों के हृदयों के मांसपिंडों से शान्तिहोम किया करता । तथा जब २ जितशत्रु नरेश का किसी अन्य शत्र के साथ यद्ध होता तब २ वह-महेश्वरदत्त पुरोहित १०८ ब्रह्म [ बालको, १०८ क्षत्रिय बालकों, १०८ वैश्य बालकों और १०८ शूद बालकों को अपने पुरुषों के द्वार। पकड़वा कर उन के जीते जी हृदय - गत मांस-पिंडों को निकलवा कर जितशत्रु नरेश के निमित्त शान्तिहोम करता । उस के प्रभाव से जितशत्रु नरेश शोघ्र ही शत्रु का विध्वंस कर देता या उसे भगा देता । टीका-जिज्ञासा की पूर्ति हो जाने पर जिज्ञासु शान्त अथच निश्चिन्त हो जाता है। उस की जिज्ञासा जब तक पूरी न हो ले तब तक उसकी मनोवृत्तिये अशान्त और निर्णय की उधेड़बुन में लगी रहती हैं । भगवान् गौतम के हृदय की भी यही दशा थी । राजमार्ग में अवलोकित वध्य पुरुष को नितान्त शोचनीय दशा की विचार-परम्परा ने उन के हृदय में एक हलचल सी उत्पन्न कर रक्खी थी । वे उक्त पुरुष के पूर्वभव-सम्बन्धी वृत्तान्त को जानने के लिये बड़े उत्सुक हो रहे थे, इसी लिये उन्हों ने भगवान् से सानुरोध प्रार्थना की, जिस का कि ऊपर वर्णन किया जा चुका है। तदनन्तर गौतम स्वामी की उक्त अभ्यर्थना की स्वीकृति मिलने में अधिक विलम्ब नहीं हुअा। परम दयालु श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अपने परमविनीत शिष्य श्री गौतम अनगार की जि. For Private And Personal Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३२४] श्री विपाक सूत्र - [ पश्चम अध्याय ज्ञासापूर्ति के निमित्त उक्त वध्य पुरुष के पूर्व भव का वर्णन इस प्रकार आरम्भ किया । भगवान् बोले गौतम ! इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में सर्वतोभद्र नाम का एक समृद्धिशाली सुप्रसिद्ध नगर था । उस में जितशत्रु नाम का एक महा प्रतापी राजा राज्य किया करता था । उसका महेश्वरदत्त नाम का एक पुरोहित था जोकि शास्त्रों का विशेष पण्डित था । वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का विशेष ज्ञाता माना जाता था । महाराज जित - शत्रु की महेश्वरदत्त पर बड़ी कृपा थी । राजपुरोहित महेश्वर दत्त भी महाराज जितशत्रु के राज्यविस्तार और बलवृद्धि के लिये उचितानुचित सब कुछ करने को सन्नद्ध रहता था । इस सम्बन्ध में वह धर्माधर्म या पुण्यपाप का कुछ भी ध्यान नहीं किया करता था । 9 संसार में स्वार्थ एक ऐसी वस्तु है कि जिस की पूर्ति का इच्छुक मानव प्राणी गति से गर्हित आचरण करने से भी कभी संकोच नहीं करता । स्वार्थी मानव के हृदय में दूसरों के हित की मात्र जरा भी चिन्ता नहीं होती; अपना स्वार्थ साधना ही उस के जीवन का महान् लक्ष्य होता है । क्या कहें, संसार में सब प्रकार के अनर्थों का मूल ही स्वार्थ है। स्वार्थ के वशीभूत होता हुआ मानव व्यक्ति कहां तक अनर्थ करने पर उतारू हो जाता है १, इस के लिये महेश्वर दत्त पुरोहित का एक ही उदाहरण पर्याप्त है । उस के हाथ से कितने अनाथ, सनाथ बलकों का प्रतिदिन विनाश होता ? और जितशत्रु नरेश के राज्य और बल को स्थिर रखने तथा प्रभावशाली बनाने के निमित्त वे कितने बालकों की हत्या करता १ एवं जीते जी उन के हृदयगत मांसपिंडों को निकलवा कर निकुड में होमता हुआ कितनी अधिक क्रूरता का परिचय देता है ? यह प्रस्तुत सूत्र में क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जाति के बालकों के वृत्तान्त से भली भान्ति के अतिरिक्त जो व्यक्ति बालकों का जीते जी कलेजा निकाल कर उसे लिये उपयोग में लाता है, वह मानव है या राक्षस ? इस का निर्णय उल्लेख किये गये, ब्राह्मण जाना जा सकता है । इस अपने किसी स्वार्थ की पूर्ति के विज्ञ पाठक स्वयं कर सकते हैं । सूत्रगत वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय मानव प्राणी का जीवन तुच्छ पशु के जीवन जितना भी मूल्य नहीं रखता था और सब से अधिक आश्चर्य तो इस बात का है कि इस प्रकार की पापपूर्ण प्रवृत्ति का विधायक एक वेदज्ञ ब्राह्मण था । चारों वर्णां में से प्रतिदिन एक २ बालक की अष्टमी, और चतुर्दशी में दो दो, चतुर्थ मास में चार २ तथा छठे मास में आठ २ और सम्वत्सर में सोलह २ बालकों की बलि देने वाला पुरोहित महेश्वरदत्त मानव था या दानव इस का निर्णय भी पाठक स्वयं हो करें । उस की यह नितान्त भयावह शिशुघातक प्रवृत्ति इतनी संख्या पर समाप्त नहीं हो जाती थी किन्तु जिस समय अजातशत्रु नरेश को किसी अन्य शत्रु के साथ युद्ध करने का अवसर प्राप्त होता तो उस समय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि प्रत्येक वर्ण के १०८ बालकों के हृदयगत मांसपिंडों को निकलवा कर उन के द्वारा शान्तिहोम किया जाता । इस के अतिरिक्त सूत्रगत वर्णन को देखते हुए तो यह मानना ही पड़ेगा कि ऐहिक स्वार्थ के चंगुल में फंसा हुआ मानव प्राणी भयंकर से भयंकर अपराध करने से भी नहीं भिकता । फिर भविष्य में उसका चाहे कितना भी अनिष्टोत्पादक परिणाम क्यों न हो १ तात्पर्य यह है कि नीच स्वार्थी से जो कुछ भी अनिष्ट बन पड़े, वह कम है । For Private And Personal Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir यश्चम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [३२५ ____ महेश्वरदत्त के इस हिंसाप्रधान होम– यज्ञ के अनुष्ठान से जितशत्र नरेश को अपने शत्रु ओं पर सर्वत्र विजय प्राप्त होती, और उस के सन्मुख कोई शत्रु खड़ा न रह पाता था। या तो वहीं पर नष्ट हो जाता या परास्त हो कर भाग जाता । इसी कारण महेश्वरदत्त पुरोहित जितशत्रु नरेश का सर्वाधिक सन्मानभाजन बना हुअा था, और राज्य में उस का काफी प्रभाव था । यहां पर सम्भवतः पाठकों के मन में यह सन्देह अवश्य उत्पन्न होगा कि जब शास्त्रों में जीववध का परिणाम अत्यन्त कटु वर्णित किया गया है, और सामान्य जीव की हिंसा भी इस जीव को दुर्गति का भाजन बना देती है तो उक्त प्रकार की घोर हिंसा के आचरण में कार्य-साधकता कैसे ? फिर वह हिंसा भी शिशुओं की एवं शिशु भी चारों वर्गों के ? तात्पर्य यह है कि जिस आचरण से यह मानव प्राणो परभव में दुर्गति का भाजन बनता है । उस के अनुष्ठान से ऐहिक सफलता मिले अर्थात् अभीष्ट कार्य की सिद्धि सम्पन्न हो, यह एक विचित्र समस्या है ? जिस के असमाहित रहने पर मानव हृदय का संदेह को दलदल में फंस जाना अस्वाभाविक नहीं है । यद्यपि सामान्य दृष्टि से इस विषय का अवलोकन करने वाले पाठकों के हृदय में उक्त प्रकार के सन्देह का उत्पन्न होना सम्भव हो सकता है, परन्तु यदि कुछ गम्भीरता से इस विषय की ओर ध्यान दिया जाय तो उक्त संदेह को यहां पर किसी प्रकार का भी अवकाश नहीं रहता। हिंसक या सावद्य प्रवृत्ति से किसी ऐहिक कार्य का सिद्ध हो जाना कुछ और बात है तथा हिंसाप्रधान अनुष्ठान का कटु परिणाम होना, यह दूसरी बात है। हिंसा---प्रधान अनुष्ठान से मानव को अपने अभीष्ट कार्य में सफलता मिल जाने पर भी हिंसा करते समय उस ने जिस पाप कर्म का बन्ध किया है उस के विपाकोदय में मानव को उस के कटु फल का अनुभव करना ही पड़ेगा । उस से उस का छुटकारा बिना भोगे नहीं हो सकता। अयुर्वेदीय प्रामाणिक ग्रन्थों में राजयक्ष्मा - तपेदिक श्रादि कतिपय रोगों की निवृत्ति के लिये कपोत प्रभृति कितनेक जांगल जीवां के मांस का विधान किया गया है । तथा वहां-उक्त जीवों के मांसरस के प्रयोग करने से रोगी का रोग दूर हो जाता है --ऐसा भी लिखा है । परन्तु रोगमुक्त हो जाने पर भी उन जीवों की हिसा करने से उस समय रोगी पुरुष ने जिस प्रकार के पाप कर्म का बन्ध किया है, उस का फल भी उसे इस भव या परभव में अवश्य भोगना पड़ेगा । इसी प्रकार महेश्वरदत्त के इस हिंसाप्रधान पापानुष्ठान से जितशत्रु को परयल में विजयलाभ हो जाने पर भी उस भयानक हिंसाचरण का जो कटुतम फल है, वह भी उसे अवश्य भोगना पड़ेगा। इसलिये कार्यसाधक होने पर भी हिंसा, हिंसा ही रहती है और उस के विधायक को वह नरकद्वार का अतिथि बनाये बिना कभी नहीं छोड़ती। जिस का प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत अग्रिम सूत्र में महेश्वरदत्त का मृत्यु के अनन्तर पांचवीं नरक में जाना वणित है ।। .. दूसरे शब्दों में कहें तो साधक को हिंसामूलक प्रवृत्ति जहां उस के ऐहिक स्वार्थ' को सिद्ध करती है वहां उस का अधिक से अनिष्ट भी सम्पादन करती है। हिंसाजन्य वह कार्य सिद्धि उसी व्यवसाय के समान है कि जिस में लाभ एक रुपये का और हानि १०० रुपये की होती है । कोई भी बुद्धिमान व्यापारी ऐसा व्यवसाय करने के तैयार नहीं हो सकता, जिस में लाभ की अपेक्षा नुकसान सौ गुना अधिक हो । तथापि यदि कोई ऐसा व्यवसाय करता है वह या तो नितान्त मूख और जड़ है, या वह उक्त व्यवसाय से प्राप्त होने वाली हानि से सर्वथा अज्ञात है । सांसारिक For Private And Personal Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र - [पचम अध्याय ३२६] अन्धे हुए २ क्या प्रभाव विषय-वासना के विकट जाल में उसके हुए संसारी जीव अपने नीच स्वार्थ में यह नहीं समझते कि जो काम हम कर रहे हैं, इस का हमारी आत्मा के ऊपर होगा ? अगर उन्हें अपनी कार्य-प्रवृत्ति में इस बात का भान हो जाए तो वे कभी भी उस में प्रवृत्त होने का साहस न करें। विष के अनिष्ट परिणाम का जिसे सम्यग ज्ञान है, वह कभी उसे भक्षण करने का साहस नहीं करता, यदि कोई करता भी है तो वह कोई मूर्ख शिरोमणि ही हो सकता है प्रस्तुत सूत्र में - सन्तिहोमं - शान्ति होमम् – इस पद का प्रयोग किया गया है । शान्ति के लिये किया गया होम शान्तिहोम कहलाता है । होम का अर्थ है - किसी देवता के निमित्त मंत्र पढ़ कर घी, जौ, तिल आदि को अग्नि में डालने का कार्य । I प्रस्तुत कथा - संदर्भ में लिखा है कि महेश्वरदत्त पुरोहित शान्ति - होम में ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्ण के अनेकानेक बालकों के हृदयगत मांस - विंडों की आहुति डाला करता था, जो उस के उद्द ेश्य को सफल बनाने का कारण बनती थी। यहां यह प्रश्न होता है कि शान्तिहोम जैसे हिंसक और धर्म पूर्ण अनुष्ठान से कार्यसिद्धि कैसे हो जातो थी, अर्थात् हिंसापूर्ण होम का और जितशत्रु नरेश के राज्य और बल को वृद्धि तथा युद्धगत विजय का परसर में क्या सम्बन्ध रहा हुआ है १ इस प्रश्न का उत्तर निम्नोक्त है - शास्त्रों के परिशीलन से पता चलता है कि कार्य की सिद्धि में जहां अन्य अनेकों कारण उपस्थित होते हैं, वहां देवता भी कारण बन सकता है। देव दो तरह के होते हैं - एक मिथ्यादृष्टि और दूसरे सम्यग्दृष्टि । सम्यग्दृष्टि देव सत्य के विश्वासी और अहिंसा, सत्य आदि अनुष्ठानों में धर्म मानने वाले जब कि मिथ्यादृष्टि देव सत्य पर विश्वास न रखने वाले तथा अधर्मपूर्ण विचारों वाले होते है । मिध्यादृष्टि देवों में भी कुछ ऐसे वाणव्यन्तर आदि देव पाए जाते हैं जो अत्यधिक हिंसाप्रिय होते हैं और मां आदि की बलि से प्रसन्न रहते हैं । ऐसे देवों के उद्देश्य से जो पशुओं या मनुष्यों की बलि दो जाती है, उस से वे प्रसन्न होते हुए कभी कभी होम करने वाले व्यक्ति की अभीष्ट सिद्धि में कारण भी बन जाते हैं । फिर भले ही उन देवों की कारणता तथा तज्जन्य कार्यता भीषण दुगति को प्राप्त कराने का हेतु ही क्यों न बनती हो । महेश्वरदत्त पुरोहित भी इसी प्रकार के हिंसाप्रिय एवं मांसप्रिय देवताओं का जितशत्रु नरेश के राज्य और बल की वृद्धि के लिये आराधन किया करता था और उन की प्रसन्नता के लिये ब्राह्मण क्षत्रिय आदि चारों वर्ण के अनेकानेक बालकों के हृदयगत मांसपिंडों की बलि दिया करता था । यह ठीक है कि उस होम द्वारा देवप्रभाव से वह अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त कर लेता था, परन्तु उसकी यह सावद्यप्रवृत्तिजन्य भौतिक सफलता उस के जीवन के पतन का कारण बनी और उसी के फल - स्वरूप उसे पांचवीं नरक में १७ सागरोपम जैसे बड़े लम्बे काल के भीषणातिभीषण नारकीय यातनायें भोगने के लिये जाना पड़ा । लिये मर्त्यलोक में भी शासन के आसन पर विराजमान रहने वाले मानव के रूप में ऐसे अनेकानेक दानव अवस्थित हैं, जो मांस और शराब को बलि ( रिश्वत ) से प्रसन्न होते हैं, और हिंसापूर्ण प्रवृत्तियों में अधिकाधिक प्रसन्न रहते हैं। ऐसे दानव भी प्रायः मांस आदि की बलि लेने पर ही किसी के स्वार्थ को साधते हैं । जब मनुष्य संसार में ऐसी घृणित एवं गर्हित स्थिति उपलब्ध होती है तो दैविक संसार में अन्यायपूर्ण विचारों के धनी देव-दानवों में इस प्रकार की जघन्य स्थिति का होना कोई आश्चर्यजनक नहीं है । प्रस्तुत सूत्र में इस कथासंदर्भ के संकलन करने का यही उद्देश्य प्रतीत होता है कि For Private And Personal Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पश्चम अध्याय 1 हिन्दी भाषा टीका सहित। [ ३२७ प्रधान. मानव प्राणी नीच स्वार्थ के वरा होता हुआ ऐसी जयन्यतम हिंसापूर्ण प्रवृत्तियों से सदा अपने को विरत रखे और भल कर भी अधर्मपूर्ण कामों को अपने जीवन में न लाए, अन्यथा महेश्वरदत्त पुरोहित की भान्ति भीषण नारकीय दुःखों का उपभोग करने के साथ २ उसे जन्म मरण के प्रवाह में प्रवाहित होना पड़ेगा । हिययउंडए-यहां प्रयुक्त उण्डए यह पद देशीय भाषा का है। वृत्तिकार ने इसका अर्थहृदययसम्बन्धी मांसपिण्ड-ऐसा किया है, जो कि कोषानुमत भी है । हिययउंडए त्ति-हृदयमांसपिण्डान् । प्रस्तुत सूत्र में जितशत्रु नरेश के सम्मानपात्र महेश्वरदत्त नामक पुरोहित के जघन्यतम पापाचार का वर्णन किया गया है । अब सूत्रकार उसके भयंकर परिणाम का दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं मूल-'तते णं से महेसग्दत्त पुरोहिते एयकम्मे ४ सुबहु पावकम्मं समज्जिणित्ता तीसं वाससयाई परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा पंचमीए पुढवीए उक्कोसेणं सत्तरससागरोवमद्वितिए नरगे उववन्ने । पदार्थ -तते णं-तदनन्तर । से-वह । महेसरदत्ते- महेश्वरदत्त । पुरोहिते-पुरोहित । पयकम्मे ४-एतत्कर्मा - इस प्रकार के कर्मों का अनुष्ठान करने वाला. एतत्प्रधान - इन एतद्विद्य -इन्हीं कर्मों की विद्या जानने वाला और एतत्समाचार - इन्हीं पाप कर्मों को अपना सर्वोत्तम आचरण बनाने वाला, । सुबहु - अत्यधिक । पावकम्मं-पाप कर्म को । समज्जिणित्ता-उपार्जित कर । तीसं वाससयाई-तीन हजार वर्ष की । परमा-परमायु को । पालइत्ता-पाल कर-भोग कर। -कालावसर में। कालं किच्चा-काल करके। पंचमीर-पांचवीं। पढवीर-पृथिवी-नरक में । उक्कोसेणं -उत्कृष्ट-अधिक से अधिक । सत्तरससागरोवमट्ठितिए-सप्तदश सागरोपम की स्थिति वाले । नरगे-नरक में । उववन्ने- उत्पन्न हुआ। ___ मूलार्थ-तदनन्तर २एतत्कर्मा, एतत्प्रधान, एतद्विज्ञान और एतत्समाचार वह महेश्वरदत्त पुरोहित नाना प्रकार के पापकर्मों का संग्रह कर तोन हजार वर्षे की परमायु पाल कर-भोग कर पांचवीं नरक में उत्पन्न हुआ, वहां उसकी स्थिति सतरह सागरोपम की होगी। टीका-"हिंसा" यह संस्कृत और प्राकृत भाषा का शब्द है । इस का अर्थ होता है-मारना, दुःख देना तथा पीड़ित करना । हिंसा करने वाला हिंसक मानव प्राणी हिंसा के आचरण द्वारा जहां इस लोक में अपने जीवन को नष्ट कर देता है, वहां वह अपने परभव को भी बिगाड़ लेता है। तात्पर्य यह है कि शुभ गति का बन्ध करने के स्थान में वह अशुभ गति का बन्ध करता है, और पंडितमरण के स्थान में बालमृत्यु को प्राप्त होता है। ____ महाराज जितशत्रु नरेश का पुरोहित महेश्वरदत्त भी उन्हीं व्यक्तियों में से एक है. जो हिंसामूलक जयन्य प्रवृत्तियों से अपनी आत्मा का सर्वतोभावो पतन करने में अग्रेसर होता है । ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर नीच चाण्डाल के समान कुकृत्य करने वाला राजपुरोहित (१) छाया - ततः स महेश्वरदत्तः पुरोहितः एतत्कर्मा ४ सुबहु पापकर्म समयं त्रिंशतं वर्षरातानि परमायुः पालयित्वा पञ्चम्यां पृथिव्यामुत्कर्षेण सप्तदशसागरोपमस्थितिके नरके उपपन्नः । (२) इन पदों का अर्थ पृष्ठ १७९ के टिप्पण में लिखा जा चुका है । For Private And Personal Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३२८ श्रो विपाक सूत्र [पञ्चम अध्यय महेश्वरदत्त अपनी घोरतम हिंसक प्रवृत्ति से विविध भान्ति के पापकर्मों का उपार्जन करके ३००. वर्ष की आयु भोग कर मृत्यु के अनन्तर पूर्वोपार्जित पापकर्मा के प्रभाव से पांचवीं नरक में उत्पन्न हुअा। जोकि उसके हिंसाप्रधान आचरण के सर्वथा अनुरूप ही था। इसी लिये उसे पांचवीं नरक में सतरह सागरोपम तक भीषण यातनात्रों के उपभोग के लिए जाना पड़ा है। . . महेश्वरदत्त पुरोहित का पापाचारप्रधान जीव पांचवीं नरक की कल्पनातीत वेदनाओं का अनुभव करता हुअा नरकायु की अवधि समाप्त होने के अनन्तर कहां पर उत्पन्न हुआ ? तथा वहां पर उसने अपनी जीवनयात्रा को कैसे बिताया ? अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं मूल-1 से णं ततो अणंतरं उव्यट्टित्ता इहेव कोसंबीए णयरीए सोमदत्तस्स पुराहितस्स वसुदनाए भारियाए पुत्तत्ताए उववन्ने । तते णं तस्स दारगस्स अम्मापितरो निव्वत्तवारसाहस्स इमं एयारूवं नामधिज्ज करति । जम्हा रणं अम्हं इमे दारए सोमदत्तस्स पुरोहियस्स पुत्ते वसुदत्ताए अत्तए तम्हा णं होउ अम्हं दारए वहस्मतिदचे नामेणं । तते णं से वहस्सतिदने दारए पंचधातीपरिग्गहिते जाव परिवड्ढति । तते णं से वहस्सांतदत्ते उम्मुक्कबालभावे जोव्वणगमणुप्पत्ते विएणायपरिणयमेचे होत्था, से णं उदयणस्स कुमारस्त पियवालवयं से यावि होत्या, सहजायए, सहब ड्ढिए, सहपंसुकीलियए । तते णं से सयाणीए राया अन्नया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते। तते णं से उदयणे कुमारे बहुहि राईसर० जाव सत्थवाहप्पभितीहिं सद्वि संपरिवडे रोयमाणे, कंदमाणे विलवमाणे सयाणोयस्स रएणो महया इढिसक्कारसमुदएणं (१) छाया-स ततोऽनन्तरमुढत्य इहैव कौशाम्ब्यां नगर्या सोमदत्तस्य पुरोहितस्य वसुदत्तायां भार्यायां पुत्रतयोपपन्नः । ततस्तस्य दारकस्याम्बापितरौ निवृत्तद्वादशाहस्य इदमेतद्पं नामधेयं कुरुत:यस्मादस्माकमयं दारक: सोमदत्तस्य पुरोहितस्य पुत्रो वसुदत्ताया आत्मजः तस्माद् भवत्वस्माकं दारको वहस्पतिदत्तो नाम्ना । ततः स वृहस्पतिदत्तो दारकः पंचधात्रीपरिगृहीतो यावत् परिवर्धते । तत: स वृहस्पतिदत्तः उन्मुक्तबालभावो यौवनकमनुप्राप्त: विज्ञात-परिणत मात्रः अभवत् । स उदयनस्य कुमारस्य प्रियवालवयस्यश्चाप्यभवत् , सहजात:, सहबद्धः सहपांसुकीडितः । ततः स शतानीको राजा अन्यदा कदाचित कालधर्मेण संयुक्तः । ततः तत: स उदयनः कुमारो बहुभिः राजेश्वर० यावत् सार्थवाहप्रभृतिभिः सार्द्ध संपरिवतः रुदन् कदन् विलयन् शतानीकस्य राज्ञो महता ऋद्धिसत्कारसमुदयेन नीहरणं करोति २ बहान लौकिकानि मृतकृत्यानि करोति । ततस्ते बहवो रजेश्वर० यावत् सार्थवाहा: उदयनं कुमार महता २ राजाभिषेकेणाभिषिञ्चन्ति । ततः उदयन: कुमारो राजा जातो महा० । तत: स वृहस्पतिदत्तो दारक: उदयनस्य राज्ञः पुरोहितकर्म कुर्वाणः सर्वस्थानेषु सर्वभूमिकासु अन्त:पुरे दत्त विचारो जातश्चाप्यभवत् । ततः वृहस्पतिदत्त: पुरोहित: उदयनस्य राज्ञोऽन्तःपुरं वेलासु चावेलासु च, काले . चाकाले च रात्रौ च त्रिकाले च प्रविशन् . अन्यदा कदाचित् पद्मावत्या देव्या सार्द्धमुदारान् • भुजानो विहरति । इतश्च उदयनो राजा स्नातो यावद् विभूषितः यत्रैव च पद्मावती देवी तत्रैवोपागच्छति २ वृहस्पतिदत्तं पुरोहितं. पद्मावत्या देव्या सामुदारान्० भुजान पश्यति २ आशुरुसस्त्रिवलिकां भृकुटिं ललाटे संहृत्य वृहस्पतिदत्तं पुरोहितं पुरुषैहियति २ यावदेतेन विधानेन वध्यमाज्ञापयति । एवं खलु गौतम ! वृहस्पतिदत्त: पुरोहित: पुरा पुराणाणं यावद् विहरति । For Private And Personal Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पश्चम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । __ [३२९ णीहरणं करेति २ वहहिं लाइयाइ मयकिच्चाई करेति । तते णं ते वहवे राईसर० जाव सत्थवाहा उदयणं कुमारं महया २ रायाभिसेगेणं अभिसिंचंति । तते णं से उदयणे कुमारे राया जाते महया० । तते णं वहस्सतिदत्ते दारए उदयणस्स रएणो पुरोहियकम्म करेमाणे सबढाणेसु, सव्वभूमियासु, अंतेउरे य दिएणवियारे जाते यावि होत्था । तते णं से वहस्सतिदत्ते परोहिते उदयणस्स रएणो अंतेउरं वेलासु य अवेलासु य काले य अकाले य राम्रो य वियाले य पविसमाणे अन्नया कयाइ पउमावतीए देवीए सद्धि उरालाई० भुजेमाणे विहरति । इमं च णं उदयणे राया एहाए जाव विभूसिए जेणेव पउमावती देवी तेणेव उवागच्छइ २ वहस्सतिदत्तं पुरोहितं पउमावतीए देवीए सद्धि उरालाई . भुजेमाणं पासति २ आसुरुचे तिवलियं णिडाले साहट्ट वहस्सतिदत्तं पुरोहितं परिसेहिं गेण्हावेति २ जाव एतेणं विहाणेणं वझ प्राणवेति । एवं खलु गोतमा ! वहस्सतिदने पुरोहिते पुरा पुराणाणं जाव विहरति । पदार्थ-से णं-वह – अर्थात् महेश्वरदत्त पुरोहित का जीव । ततो-वहां से अर्थात् पांचवीं नरक से । अणंतरं-व्यवधानरहित । उज्वहित्ता-निकल कर । इहेव-इसी। कोसंबीए-कौशाम्बी । जयरीए -नगरी में । सोमदत्तस्स-सोमदत्त । पुरोहितस्स -पुरोहित की । वसुदत्ताए-वसुदत्ता । भारियाएभार्या के । पुत्तत्ताए-पुत्ररूप से । उववन्ने-उत्पन्न हुआ। तते णं-तदनन्तर अर्थात् उत्पन्न होने के पश्चात् तस्स-उस । दारगस्स-बालक के । अम्मापितरो-माता पिता । णिवत्तबारसाहस्स-बालक के जन्म से लेकर बारहवें दिन । इमं-यह। एयारूवं-इस प्रकार का । नामधिज्ज-नाम । करति-करते हैं । जम्हा णं-जिस कारण । अम्हं-हमारा । इमे-यह । दारए -बालक । सोमदत्तस्स- सोमदत्त । पुरोहियस्स-पुरोहित का । पुत्त -पुत्र, और । वसुदत्ताए - वसुदत्ता का । अत्तए - आत्मज है । तम्हा णं--इस कारण । अम्हं -हमारा यह । दारए - बालक । वहस्सतिदत्त - वृहस्पतिदत्त । नामेणं-नाम से । होउ -हो । तते णं -तदनन्तर । से-वह । वहस्सतिदत्ते-वृहस्पतिदत्त । दारए-बालक । पंचधातीपरिग्गहिते-पांच धाय माताओं से परिगृहीत हुा । जाव-यावत् । परिवडढति-वृद्धि को प्राप्त होने लगा । तते णं-तदनन्तर । से-वह । वहस्सपतिदत्ते-वहस्पतिदत्त बालक । उम्मुक्कबालभावे - बालभाव को त्याग कर । जोव्वणगमणुप्पत्त-यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ, तथा । विगणायपरिणयमेत्त - विज्ञातपरिणतमात्र - जिस का विज्ञान परिपक्व अवस्था को प्राप्त हो चुका है, । होत्या-था । से णं- वह - वहस्पतिदत्त। उदयणस्त - उदयन । कुमारस्स-कुमार का । पियबालवयंसे -प्रिय बालमित्र अर्थात् वहस्पतिदत्त उदयन कुमार को प्यारा था और उसका वह बाल्यकाल का मित्र । यावि होत्था- भी था, कारण कि । सहजायर'दोनों का जन्म एक साथ हुआ । सहवढ़िए -दोनों एक साथ हो वृद्धि को प्राप्त हुए। सहपंसुकीलियए-साथ ही पांसुक्रीडा - धूलिक्रीडा अर्थात् बालक्रीड़ा किया करते थे। तते णं-तदनन्तर । (१) सहजातक:-समानकाले उत्पन्नः, सहवर्धितकः-सहैव वृद्धि प्राप्तः, सहपांसुक्रीडितः - सहैव कृतबालक्र.डः। For Private And Personal Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री वपाक सूत्र [पश्चम अध्याय से-वह । सयाणीए-शतानीक । राया- राजा । अन्यया कयाइ---किसी अन्य समय। कालधम्मुणा-कालधर्म को । संजुत्त-प्राप्त हुआ। तते णं-तदनन्तर अर्थात् शतानीक के मृत्युधर्म को प्राप्त हो जाने पर । से-वह। उदयणे-उदयन । कुमार-कुमार । बहुहि-अनेक । राईसर-राजामाण्डलीक अर्थात् किसी प्रान्त या मण्डल (जिला या बारह राज्यों का समूह) की रक्षा या शासन करने वाला, ईश्वर -धन समति आदि के ऐश्वर्य से युक्त । जाव-यावत् । सत्यवाह-सार्थवाह –यात्री व्यापारियों का मुखिया अथवा संघनायक । प्पभितीहि-त्रादि के । सद्धिं-साथ । संपरिवुडे - संपरिवृत - घिरा हुआ । रोयमाणे - रुदन करता हुआ। कंदमाणे - आक्रौंदन करता हुआ । विलवमाणे-विलाप करता हुआ । सयाणीयस्स-शतानीक रराणो-राजा का । महया-महान् इड्ढिसक्कारसमुदएणं-ऋद्धि तथा सत्कार समुदाय के साथ । णीहरणं- निस्सरण-अर्थी निकालने की क्रिया । करेति २-करता है, निस्सरण करके । बहू - अनेक । लोइयाइं- लौकिक । मयकिच्चाई-मृतकसम्बन्धी क्रियाओं को । करेति--करता है। तते णं-तदनन्तर । बहवे - बहुत से । राईसर०-राजा । जाव-यावत् । सत्यवाहा-सार्थवाह, ये सब मिल कर। उदयणंउदयन । कुमार-कुमार को । महया २-बड़े समारोह के साथ । रायाभिसेगेणं-राजयोग्य अभिषेक से । अभिसिंचंति-अभिषिक्त करते हैं अर्थात् उस का राज्याभिषेक करते हैं । तते णं-तदनन्तर । से-वह । उदयणे-उदयन । कुमारे-कुमार । राया-राजा । जाते - बन गया । महया० - हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् प्रतापशाली हो गया । तते जं-तदनन्तर । से-वह । वहस्सतिदत - वृहस्पतिदत्त । दारए-बालक । उदयणस्ल-उदयन । रगणो-राजा का । पुरोहियकम्मे-पुरोहितकर्म । करेमाणे-करता हुआ । सम्वट्ठाणे - सर्वस्थानों-- अर्थात् भोजनस्थान आदि सब स्थानों में । सव्वभूमियासु-सर्वभूमिका--प्रासाद-महल की प्रथम भूमिका - मन्ज़िल से लेकर सप्तम भूमि तक अर्थात् सभी भूमिकाओं में। अंतेउरे य-और अन्त:पुर में । दिएणवियारे यावि-दत्तविचार -अप्रतिबद्ध गमनागमन करने वाला अर्थात् जिस को राजा की ओर से सब स्थानों में यातायात करने की आज्ञा उपलब्ध हो रही हो, ऐसा। जाते यावि होत्था-हो गया था । तते णं-तदनन्तर । से-वह । वहस्सतिदत्त - वृहस्पतिदत्त । पुरोहिते-पुरोहित । उदयणस्स-उदयन । रराणो-राजा के । अन्तेउरं-अन्तःपुर में - रणवास में । वेलासु यवेला-उचित अवसर अर्थात् ठीक समय पर । अवेलासु-अवेला --अनवसर –बेमौके अर्थात् भोजन शयनादि के समय । काले य-काल अर्थात् प्रथम और तृतीय प्रहर आदि में । अकाले य-और अकाल में अर्थात् मध्याह्न आदि समय में । राम्रो य-रात्रि में । वियाले य-और सांयकाल में । पविसमाणे-प्रवेश करता हुआ । अन्नया-अन्यदा । कयाइ -किसी समय । पउमावतीएपद्मावती । देवीए-देवी के । सद्धिं-साथ । संपलग्गे-संप्रलग्न-अनुचित सम्बन्ध करने वाला ! यावि होत्था-भी हो गया । पउमावतीए - पद्मावती । देवीए - देवी के । सद्धिं साथ । उरालाई-उदार-प्रधान मनुष्यसम्बन्धी विषयभोगों का । भुजमाणे- उपभोग करता हुआ । विहरति-समय व्यतीत करने लगा । इमं च णं-और इधर । उदयणे - उदयन । राया- राजा। एहाए-स्नान कर । जाव-यावत् । विभूसिते-सम्पूर्ण आभूषणों से अलंकृत हुआ । जेणेवजहां ।पउमावती-पद्मावती । देवी-देवी थी तेणेव-वहीं पर । उवागच्छइ २-श्राता है, अाकर । वहस्सतिदत्तं-वृहस्पतिदत्त । पुरोहितं-पुरोहित को । पउमावतीए -पद्मावती । देवीर - देवी के । सद्धिं-साथ । उरालाइ०-उदार - प्रधान काम-भोगों का । भुजमाणं- सेवन करते हुए For Private And Personal Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पश्र्चम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ३३१ - को । पासति २ – देखता है, देख कर । श्रासुरुत्त े - क्रोध से लाल पीला हो । तिवलियं - त्रिवलिकतीन वल वाली । भिउडि - भृकुटि - तिउड़ी । णिडाले - मस्तक पर । साहहु – चढ़ा कर । वहस्पतिदतं - बृहस्पतिदत्त | पुरोहितं पुरोहित को । पुरिसेहि- पुरुषों के द्वारा । गेरहावेति २ – पकड़वा लेता है. पकड़वा कर । जाब- यावत् । एतेणं - इस । विहाणेणं - विधान से । वज्भं यह मारने योग्य है, ऐसी । श्राणवेति- आज्ञा देता है । एवं खलु - इस प्रकार निश्चय ही । गोतमा ! – हे गौतम ! वहस्सतिदत्त े – वृहस्पतिदत्त । पुरोहिते - पुरोहित । पुरा - पूर्वकाल में किये हुए । पुराणाणं - पुरातन | जाव - यावत् कमां के फल का उपभोग करता हुआ । विहरति समय व्यतीत कर रहा है । मूलार्थ - - तदनन्तर महेश्वरदत्त पुरोहित का पापिष्ट जीव उस पांचवीं नरक से निकल कर सीधा इसी कौशाम्बी नगरी में सोमदत्त पुरोहित की वसुदत्ता भार्या के उदर में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ । तदनन्तर उत्पन्न हुए बालक के माता पिता ने जन्म से बारहवें दिन नामकरण संस्कार करते हुए सोमदत्त का पुत्र और वसुदत्ता का आत्मज होने के कारण उसका वृहस्पतिदत्त यह नाम रखा । तदनन्तर वह वृहस्पतिदत्त बालक पांच धाय माताओं से परिगृहीत यावत् वृद्धि को प्राप्त करता हुआ तथा बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त होता हुआ, एवं परिपक्व विज्ञान को उपलब्ध किए हुए वह उदयन कुमार का बाल्यकाल से ही प्रिय मित्र था, कारण यह था कि ये दोनों एक साथ उत्पन्न हुए, एक साथ बढे और एक साथ ही खेले थे । आक्रन्दन तदनन्तर किसी अन्य समय महाराज शतानीक कालधर्म को प्राप्त हो गए । तब उदयन कुमार बहुत से राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि के साथ रोता हुआ, तथा विलाप करता हुआ शतानीक नरेश का बड़े आडम्बर के साथ निस्सरण तथा मृतकसम्बन्धी सम्पूर्ण लौकिक कृत्यों को करता है । तदनन्तर उन राजा ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि लोगों ने मिल कर बड़े समारोह के साथ उदयन कुमार का राज्याभिषेक किया । तब से उदयन कुमार हिमालय आदि पर्वत के समान महाप्रतापी राजा बन गया । तदनन्तर बृहस्पति बालक उदयन नरेश का पुरोहित बना और पौरोहित्य कर्म करता हुआ वह सर्वस्थानों, सर्वभूमिकाओं तथा अन्तःपुर में इच्छानुसार बेरोकटोक गमनागमन करने लगा । तदनन्तर वह वृहस्पतिदत्त पुरोहित का उदयन नरेश के अन्तःपुर में समय, समय, काल, अकाल तथा रात्रि और संध्याकाल में स्वेच्छापूर्वक प्रवेश करते हुए किसी समय पद्मावती देवी के साथ अनुचित सम्बन्ध भी हो गया । तदनुसार पद्मावती देवी के साथ वह उदार - यथेष्ट मनुष्यसम्बन्धी काम-भोगों का सेवन करता हुआ समय व्यतीत करने लगा । safir समय उदयन नरेश स्नानादि से निवृत्त हो कर और समस्त श्रभूषणों से अलंकृत हो कर जहां पद्मावती देवी थो वहां पर आया, आकर उसने पद्मावती देवी के साथ कामभोगों का भोग करते हुए वृहस्पतिदत्त पुरोहित को देखा, देख कर वह क्रोध से तमतमा उठा और मस्तक पर तीन वल बाली विउड़ी चढ़ा कर वृहस्पतिदत्त पुरोहित को पुरुषों के द्वारा पकड़वा कर यह - इस प्रकार वध कर डालने योग्य है - ऐसी राजपुरुषों को आज्ञा दे देता है । For Private And Personal Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३३२ श्री विपाक सूत्र [पञ्चम अध्याय __ हे गौतम ! इस तरह से वृहस्पतिदत्त पुरोहित पूर्वकृत दुष्टकर्मों के फल को प्रत्यक्षरूप से अनुभव करता हुआ जीवन बिता रहा है। टीका- प्रस्तुत सूत्र में स्वोपार्जित हिंसाप्रधान पापकों के प्रभाव से पांचवीं नरक को प्राप्त हुए महेश्वरदत्त पुरोहित को वहां की भवस्थिति पूरी करके कौशाम्बी नगरी के राजपुरोहित सोमदत्त की वसुदत्ता भार्या के गर्भ से पुत्ररूप से उत्पन्न होने तथा सोमदत्त का पत्र और वसुदत्ता का आत्मज होने के कारण उस का वहस्पतिदत्त ऐसा नामकरण करने तथा शतानीक नरेश की मृत्यु के बाद राज्यसिंहासन पर आरूढ हुए उदयन कुमार का पुरोहित बनने के अनन्तर उदयन नरेश की सहधर्मिणी पद्मावती के साथ अनुचित सम्बन्ध करने अर्थात् उस पर आसक्त होने का दिग्दर्शन कराया गया है, और इसी अपराध में उदयन नरेश की तर्फ से उसे पूर्वोक्त प्रकार से वधस्थल पर ले जा कर प्राण -दण्ड देने के आदेश का भी जो उल्लेख कर दिया गया है वह अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता। ___ प्रस्तुत सूत्र में वृहस्पतिदत्त के नामकरण में जो "--यह बालक सोमदत्त का पुत्र तथा वसुदत्ता का आत्मज है, इसलिये इस का नाम वृहस्पति दत्त रखा जाता है-” यह कारण लिखा है वह उज्झितक और अभमसेन एवं शकटकुमार की भान्ति संघटित नहीं हो पाता, अर्थात् जिस तहर उज्झितक आदि के नामकरण में कार्य कारण भाव स्पष्ट मिलता है वैसा कार्य कारण भाव वृहस्पति दत्त के नामकरण में नहीं बन पाता, ऐसी आशंका होती है । इस का उत्तर यह है कि पहले जमाने में कोई सोमदत्त पुरोहित और उसकी वसुदत्ता नाम की भार्या होगी, तथा उन के वृहस्पति दत्त नाम का कोई बालक होगा । उस के आधार पर अर्थात् नाम की समता होने से माता पिता ने इस बालक का भी वृहस्पति दत्त ऐसा नाम रख दिया हो । अथवा सूत्रसंकलन के समय कोई पाठ छूट गया हो यह भी संभव हो सकता है। रहस्यन्तु केलिगम्यम् । इस कथासन्दर्भ से प्रतीत होता कि वृहस्पतिदत्त पुरोहित को उदयन नरेश की तर्फ से जो दण्ड देना निश्चित किया गया है, वह नीतिशास्त्र की दृष्टि के अनुरूप ही है । जो व्यक्ति पुरोहित जैसे उत्तरदायित्व-पूर्ण पद पर नियुक्त हो कर तथा नरेश का पूर्ण विश्वासपात्र बन कर इतना अनुचित काम करे उस के लिये नीतिशास्त्र के अनुसार इस प्रकार का दण्ड विधान अनुचित नहीं समझा गया है । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी श्री गौतम अनगार से कहते हैं कि हे गौतम ! यह वृहस्पतिदत्त पुरोहित अपने किये हुए दुष्कर्मों का ही विपाक - फल भुगत रहा है । तात्पर्य यह है कि यह पूर्व जन्म में महान् हिंसक था और इस जन्म में महान् व्यभिचारी तथा विश्वास -- घाती था। इन्हीं 'महा अपराधों का इसे यह उक्त दंड मिल रहा है। यह इसके पूर्वजन्म का वशान्त के लिये अनेकानेक मानव प्राणियों का वध किया हो वह कर्मसिद्धान्त के अनुसार इसी प्रकार के दण्ड का पात्र होता है । -विराणायपरिणयमित्ते-" इस पद का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ २०३ पर किया जा चुका है । परन्तु वहां उल्लिखित अर्थ के अतिरिक्त कहीं " -विज्ञातं विज्ञानं तत्परिणतमात्र यत्र स विज्ञातपरिणतमात्रः परिपक्यविज्ञान इत्यर्थः-" ऐसा अर्थ भी उपलब्ध होता है । अर्थात् विज्ञात यह पद विशेष्य है और परिणतमात्र यह पद विशेषण है और दोनों में बहुव्रीहि समास है। For Private And Personal Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पश्चम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । विज्ञात विज्ञान-विशेष ज्ञान का नाम है और परिणतमात्र पद परिपक्व अर्थ का परिचायक है । तात्पर्य यह है कि जिस का विज्ञान परिपक्व अवस्था को प्राप्त हो चुका है उसे विज्ञातपरिणतमात्र कहते हैं । - पंचधातीपरिग्गहिते जाव परिवड्दति- यहां के जाव-यावत् पद से “- तंजहा-वीरधातीए १, मज्जण०-से ले कर-चंपयपायवे सुहंसुहेणं-" यहां तक के पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का अर्थ पृष्ठ १५८ पर लिखा जा चुका है। - - राईसर जाव सत्यवाहप्पभितीहिं- यहां पठित जाव-यावत् पद से-तलवरमाडम्बियकोडुम्बिय इब्म--सेटि इन पदों का ग्रहण होता है । तलवर आदि का अर्थ पृष्ठ १६५ पर लिखा जा चुका है। तथा माया- यहां के बिन्दु से अपेक्षित पाठ की सूचना पृष्ठ १३८ पर कर दी गई है -सव्वट्ठाणेसु- इत्यादि पदों की व्याख्या निनोक्त है - (१) सर्वस्थान- यह शब्द सब जगह अर्थात् शयनस्थान, भोजनस्थान, मंत्रणा - (विचार) स्थान, आय अर्थात् आमदनी और महसूल आदि के स्थानों के लिये प्रयुक्त होता है। (२) सर्वभूमिका शब्द का अर्थ है - राजमहल की सभी भूमिकाएं । भूमिका शब्द मंज़िल का परिचायक है, और टीकाकार अभयदेय सूरि के मतानुसार - राजमहलों की अधिक से अधिक सात भूमिकाएं मानी गई हैं। उन सभी भूमिकाओं में वृहस्पतिदत्त का आना जाना बेरोकटोक था । सयभूमि यासु त्ति, प्रासादभूमिकासु सप्तभूमिकावसानासु । अथवा - सर्वभूमिका शब्द अमात्य आदि सभी पदों के लिये भी प्रयुक्त होता है। तात्पर्य यह है कि अमात्य मंत्री आदि बड़े से बड़े अधिकारी तक भी उस वृहस्पतिदत्त की पहुँच थी। (३) अन्तःपुर - वह स्थान है जहां राजा की राणिये रहती हैं -रणवास । वेला शब्द उचित अवसर - योग्य समय अर्थात् मिलने आदि के लिये जो समय उचित हो उसका बोध कराता है । अनुचित अवसर अर्थात् भोजन, शयन आदि के अयोग्य समय का परिचायक अवेला शब्द है । प्रथम और तृतीय प्रहर आदि का बोध काल शब्द से होता है । अकाल शब्द मध्याह्न आदि के समय के लिये प्रयुक्त होता है। रात्रि रात का नाम है। संध्याकाल को विकाल कहते हैं । -उरालाई०- यहां का बिन्दु माणुस्सगाई भोगभोगाई - इन पदों का परिचायक है। तथा -रहाण जाब विभूसिए-यहां का जाव-यावत् – पद -कयवलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्त सवालंकार - इन पदों का संसूचक है । कपबलिकम्मे, आदि पदों की व्याख्या पृष्ठ १७६ और १७७ पर की जा चुकी है । तथा सव्वालंकार - का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है। -गिगहावेति २ जाव एतेणं- यहां पठित जाव-यावत् पद - अढि-मुट्टि-- जाणुकोप्पर-पहार-संभग्ग-महियगत्तं करोति २ अवोडगवन्धणं करेति करेत्ता- इन पदों का परिचायक है। इन का अर्थ पृष्ठ १७५ पर लिखा जा चुका है । तथा एतद् शब्द से जो अभिमत है उस का वर्णन पृष्ठ १७८ पर किया जा चुका है । तथा -- पोराणाणं जाव विहरति - यहां पठित जाव-यावत् पद से अपेक्षित पाठ का वर्णन पृष्ठ ५२ पर किया जा चुका है। भगवान् के मुख से इस प्रकार का भावपूर्ण उत्तर सुनने के अनन्तर गौतम स्वामी के चित्त में जो और जिज्ञासा उत्पन्न हुई अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं For Private And Personal Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३३४] श्री विपाक सूत्र [पश्चम अध्याय मूल-' वहस्सतिदत्ते णं भंते ! पुरोहिते इओ कालगते समाणे कहिं गच्छिहिति ? कहिं उववन्जिहिति? पदार्थ-भते! -हे भदन्त !, अर्थात् हे भगवन् ! । वहस्सतिदत्त णं- वृहस्पतिदत्त । परोहिते -पुरोहित । इओ - यहां से । कालगते-काल को प्राप्त । समाणे-हुा । कहिं-कहां । गच्छिहिति ?-जायेगा ? । कहिं -कहां पर । उववन्जिहिति १-उत्पन्न होगा ? । मूलार्थ-हे भदन्त ! वृहस्पतिदत्त पुरोहित यहां से काल करके कहां जावेगा ? और कहां पर उत्पन्न होगा ? । टीका-गौतम स्वामी की " - वृहस्पतिदत्त पुरोहित पूर्व जन्म में कौन था और उसने ऐसा कौन सा घोर कम किया था, जिस का फल उसे इस जन्म में इस प्रकार मिल रहा है ? -" इस जिज्ञासा को तो भगवान् ने पूर्ण कर दिया. परन्तु जो व्यक्ति पूर्वोपार्जित अशभ कर्मों के फलस्वरूप इस प्रकार की असह्य वेदना का अनुभव करता हुअा मृत्यु को प्राप्त होगा । उस का अागामी जन्म में क्या बनेगा अर्थात् वह आगे को कहां और किस रूप को प्राप्त करेगा ? इत्यादि बातों के जानने की इच्छा का उत्पन्न होना भी अस्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत इसे जानने की विशेष उत्कण्ठा हो हो जाती है । इसी कारण से गौतम स्वामी ने वृहस्पतिदत्त के आगामी *वों के विषय में भगवान् से पूछने का प्रस्ताव किया है । इस के उत्तर में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जो कुछ फरमाया अब सूत्रकार उस का वर्णन करते है मल२.-गोतमा ! वहस्सतिदत्त णं पुरोहिते चउसद्धिं वासाई परपाउं पालइत्ता अज्जेव तिभागावसेसे दिवसे मूलभिएणे कते समाणे कालमासे कालं किंचा इमीसे रयणप्यभाए. ससारो तहेव जाव पढवोए । तता हथिणाउरे णगरे मियत्ताए पच्चायाइस्सति । से णं तत्थ वाउरिएहिं वहिते समाणे तत्थेव हथिणाउरे णगरे सेट्टिकुलंसिं पुत्तत्ताए। बोहिं० सोहम्मे० महाविदेहे० सिज्झिहिति ५ । णिक्खेवो। ॥ पञ्चमं अज्झयणं समत्तं ॥ पदार्थ - गोतमा ! – हे गौतम ! । वहस्सतिदत्त-वृहस्पतिदत्त । पुरोहिते-पुरोहित । णं-वाक्यालकारार्थक है । चउसडिं-चौसठ -६४ । वासाई-वर्षों की । परमाउं-परमायु । पालइत्ता-पाल कर-भोगकर । अज्जेव-आज ही । तिभागावसेस-त्रिभागावशेष अर्थात् जिस में तीसरा भाग शेष हो, ऐसे । दिवसे-दिन में । सूलभिरणे -सूली से भेदन । कते समाणेकिया हुआ । कालमासे - कालावसर में । कालं किच्चा-काल करके। इमोसे-इस । रयणप्पभाए (१) छाया वहस्पतिदत्तो भदन्त ! पुरोहित. इतः कालगतः कुत्र गमिष्यति ? कुत्रोपत्पस्यते ? (२) छाया-गौतम ! वहस्पतिदत्तः पुरोहितः चतुःषष्टिं वर्षाणि परमायुः पालयित्वा अद्य व त्रिभागावशेषे दिवसे शूलभिन्नः कृतः सन् कालमासे कालं कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां संसारस्तथैव यावत् पृथिव्याम्, ततो हस्तिनापुरे नगरे मृगतया प्रत्यायास्यति । स तत्र वागुरिकैः वधितः सन् तत्र व हस्तिनापुरे नगरे श्रेष्ठिकुले पुत्रतया० बोधि० सौधर्मे० महाविदेहे० सेत्यति ५ । निक्षेपः । ॥ पञ्चमध्ययनं समाप्तम् ॥ For Private And Personal Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पश्चम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [३३५ रत्नप्रभा नामक पृथिवी-नरक में उत्पन्न होगा । संसारो-संसारभ्रमण । तहेव- तथैव-वैसे ही अर्थात् पहले की भांति समझना । जाव-यावत् । पढवीए०-पृथिवीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा, वहां से निकलकर । हत्थिणाउरे-हस्तिनापुर । रणगरे-णगर में । मियत्ताएमृगरूप से । पञ्चायाहिति-उत्पन्न होगा । से णं-वह । तत्थ-वहां पर । वाउरिएहिवागरिकों_शिकारियों के द्वारा । अहिले समाणे-मारा जाने पर । तत्येव-उसी । हस्थिणाउरेहस्तिनापुर । णगरे-नगर में । सेटिकुलसि-श्रेष्ठिकुल में । पुत्तत्ताए० -पुत्ररूप से उत्पन्न होगा । बोहिं०-सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा, वहां से । सोहम्मे०-सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां से च्यव कर । महाविदेहे-महविदह क्षेत्र में उत्पन्न होगा, तथा वहां से । सिज्झिहिति ५-सिद्धि प्राप्त करेगा ५ । णिक्खेवो-निक्षेप-उपसंहार पूर्व की भान्ति जान लेना चाहिए । पंचम - पांचवां । अज्झयणं-अध्ययन । समत्तं-सम्पूर्ण हुआ । मूलार्थ-हे गौतम ! वृहस्पतिदत्त पुरोहित ६४ वर्ष की परमायु को पाल कर आज ही दिन के तीसरे भाग में सूली से भेदन किये जाने पर कालावसर में काल कर के रत्नप्रभा नामक प्रथम पृथिवी-नरक में उत्पन्न होगा, एवं प्रथम अध्यनगत मृगापुत्र की भांति संसारभ्रमण करता हुआ यावत् पृथिवोकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा, वहां से निकल कर इस्तिनापुर नगर में मृगरूप से जन्म लेगा । वहां पर वागुरिकों - जाल में फंसाने का काम करने वाले व्याधों के द्वारा मारा जाने पर इसी हस्तिनापुर नगर में श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूपेण जन्म धारण करेगा। वहां सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा और काल करके सौधर्म नामक प्रथन देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा, तथा वहां अनगारवृनि को धारण कर संयमाराधन के द्वारा क्रमों का क्षय करके सिद्धिपद को प्राप्त करेगा । निक्षेप - उपंसहार पूर्ववत् जान लेना चाहिये। ॥ पंचम अध्ययन समाप्त ।। टीका-प्रस्तुत सूत्र में बृहस्पतिदत्त के आगामी भवों का वर्णन किया गया है । तथा मानवभव में बोधिलाभ के अनन्तर उसने जिस उत्क्रान्ति मार्ग का अनुसरण किया और उस के फलस्वरूप अन्त में उसे जिस शाश्वत सुख की उपलब्धि हुई उस का भी सूत्रवणनशैली के अनुसार संक्षेप से उल्लेख कर दिया गया है । ___ गौतम स्वामी के सम्बोधित करते हुए वीर प्रभु ने फरमाया कि गौतम ! वृस्पतिदत्त पुरोहित के जीव की आगामी भवयात्रा का वृत्तान्त इस प्रकार है - उस की पूर्ण अयु ६४ वर्ष की है । आज वह दिन के तीसरे भाग में सूली पर 1) प्रस्तत कथासन्दर्भ में जो यह लिखा है कि वृहस्पतिदत्त को दिन के तीसरे भाग में सूली पर चढ़ा दिया जायगा । इस पर यह अ.शंका होती है कि जब कोशाम्बी नगरी के राजमार्ग पर उस के साथ बड़ा क र एव निर्दय व्यवहार किया गया था । अवकोटकबन्धन से बान्ध कर, उसी के शरीर में से निकाल कर उसे भांसखण्ड खिलाए जा रहे थे । तथा चाबुकों के भीषणातिभीषण प्रहारों से उसे मारणान्तिक कष्ट पहुंचाया गया था तब वहां उस के प्राण कैसे बचे होंगे १ अर्थात् मानवी जीवन में इतना बल कहां है कि वह इस प्रकार के भीषण नरक-तल्य संकट झेल लेने पर भी जीवित रह सके ? इस आशंका का उत्तर पृष्ठ २७३ पर दिया जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां अभ्रमसेन चोरसेनापति का वर्णन है कि जब कि प्रस्तुत में वृहस्पतिदत्त का । For Private And Personal Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र पश्चम अध्याय चढ़ाया जावेगा, उस में मृत्यु को प्राप्त हो कर वह रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में उत्पन्न होगा, वहां की भवस्थिति को पूरी करने के अनन्तर उस का अन्य संसारभ्रमण मृगापुत्र की भान्ति ही जान लेना चाहिये अर्थात् नानाविध उच्चावच योनियों में गमनागमन करता हुआ यावत् पृथिवीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर हस्तिनापुर नगर में मृग को योनि में जन्म लेगा । वहां पर भी वागुरिकों-शिकारियों से वध को प्राप्त होकर वह हस्तिनापुर नगर में ही वहां के एक प्रतिष्ठित कुल में जन्म धारण करेगा । यहां से उस का उत्कान्ति मार्ग प्रारम्भ होगा, अर्थात् इस जन्म में उसे बोधिलाभ - सम्यकत्व की प्राप्ति होगी और वह मृगापत्रादि की भाति हो विकास मार्ग की ओर प्रस्थान करता हुआ. अन्त में निर्वाण पद को प्राप्त करके जन्म मरण से रहित होता हुआ शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेगा। "-रयणप्पभाए० संसारो तहेव जाव पुढवीर०-" यहां के बिन्दु से पृष्ठ ८९ पर पढ़े गये "- पुढवीए उक्कोससागरोवमाठुइएसु जाव उववज्जिहिति- इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । तथा-संसार शब्द ".-संसारभ्रमण -" इस अर्थ का परिचायक है और तहेव पद " मृगापुत्र की भान्ति संसारभ्रमण करेगा-" इस अर्थ का बोध कराता है । मृगापुत्र के संसारभ्रमण का वर्णन पृष्ठ ९३ पर किया जा चुका है । उसी संसारभ्रमण के संस्चक पाठ को जाव-यावत् पद से सूचित किया गया है । अर्थात् यावत् पद पृष्ठ ८९ पर पढ़े गए - से णं ततो अणंतरं उध्वहिता सरीसवेसुसे ले कर-वाउ, तेउ० आउ०- यहां तक के पदों का परिचायक है । तथा" पुढवीए०-" यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ की सूचना पृष्ठ २७५ पर की जा चुकी है । तथा-पुत्तत्ताए०- यहां के बिन्दु से "-पच्चायाहिति से णं तत्थ उम्मुक्कवालभावे तहारुवाणं थेराणं अंतिते केवल-" इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए । इन का अर्थ पृष्ठ १८२ दर दिया जा चुका है। . "- बोहिं, सोहम्मे महाविदे हे० सिझिहिति ५ " इन पदों से विवक्षित पाठ का वर्णन चौथे अध्ययम के पृष्ठ ३१२ पर किया जा चुका है । पाठक वहीं से देख सकते हैं। प्रस्तुत कथा-संदर्भ में वृहस्पतिदत्त के पूर्व और पर भवों के सक्षिप्त वर्णन से मानवप्राणी की जीवनयात्रा के रहस्यपूर्ण विश्रामस्थानों का काफी परिचय मिलता है । वह जीवन की नीची से नीची भूमिका में विहरण करता करता, जिस समय विकासमार्ग की ओर प्रस्थान करता है और उस पर सतत प्रयाण करने से उस को जिस उच्चतम भूमिका की प्राप्ति होती है, उस का भी स्पष्टीकरण वृहस्पतिदत्त के जीवन में दृष्टगोचर हाता है । इस पर से मानव. प्राणी को अपना कर्तव्य निश्चित करने का जो सुअवसर प्राप्त होता है, उसे कभी भी खो देने की भूल नहीं करनी जाहिये । प्रारम्भ में श्री जम्बू स्वामी ने पांचवें अध्ययन के अर्थ को को सुनने के लिये श्री सुधर्मा स्वामो से जो प्रार्थना की थी, उस की स्वीकृतिरूप ही यह प्रस्तुत पांचवां अध्ययन प्रस्तावित हुआ है। इसी भाव को सूचित करने के लिये मूल में णिवेबो यह पद प्रयुक्त किया गया है। मिक्षेप शब्द का अर्थसम्बन्धी विचार पृष्ठ १८८ पर किया जा चुका है । पाठक वहीं देख सकते हैं । प्रस्तुत अध्ययन में निक्षेप पद से जो पाठ अपेक्षित है वह निम्नोक्त है "-एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं दुहविवागाणं पंचमस्स अज्झयणस्स अयमह पएणते त्ति बेमि - " अर्थात् हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःख - For Private And Personal Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पञ्चम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । (३३७ विपाक के पांचवें अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया गया है । इस प्रकार मैं कहता हूँ अर्थात् मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से जैसा सुना है वैसा तुम्हें सुनाया है। इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं है। प्रस्तुत अध्ययनगत पदाथ के परिशीलन से विचारशील सहृदय पाठकों को अन्वय-व्यतिरेक से अनेक प्रकार की हितकर शिक्षाए उपलब्ध हो सकती हैं । जिन को जीवन में उतारने से उन्हें अधिक से अधिक लाभ सम्प्राप्त हो सकता है । उन में से कुछ शिक्षाए निम्नोक्त हैं (१) यदि किसी को कोई अधिकार प्राप्त हो जाय तो उसे चाहिये कि वह महेश्वर दत्त पुरोहित की तरह उस का दुरुपयोग न करे। महेश्वरदत्त पुरोहित ने राज्य में उचित अधिकार प्राप्त करने के अनन्तर भी अपनी हिंसक भावना से जो जो अनर्थ किये, उस का दिग्दर्शन ऊपर कराया जा चुका है । तथा उस से प्राप्त होने वाली नरकयातनाद्रों के उपभोग का भी ऊपर वर्णन आ चुका है । इसलिये इस प्रकार के जीवन से अधिकारी वर्ग तथा अन्य सामान्यवर्ग को सर्वथा परांमुख रहने का सदा यत्न करना चाहिये । (२) संसार में हिंसा के बाद जवन्य पापों में विश्वासघात का स्थान है । मित्रद्रोह या विश्वासघात एवं मित्रपत्नी से अनुचित सम्बन्ध, यह सब कुछ घोर पाप में परिगणित होता है। इस पाप का आचरण करने वाला आत्मा इस लोक और परलोक दोनों में ही दुर्गति का भाजन बनने योग्य होता है । महेश्वर दत्त के जीव ने वृहस्पति दत्त के भव में इस जघन्य आचरण से अपने आत्मा को निकृष्ट कर्ममल से कितना दूषित बनाया ? और किस सीमा तक उस के कटु विपाक का अनुभव किया ? इस का भी ऊपर दिग्दर्शन कराया जा चुका है । उस पर से विचारशील पाठक समझ सकते हैं कि उन्हें इस प्रकार के पापानुष्ठान से कहां तक पृथक रहने का यत्न करना चाहिये ? और कहां तक कर्तव्यपालन के लिये जागरूक रह कर अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि सदनुष्ठानों को जीवन में उतार कर आत्मश्रेय साधना चाहिये । ॥ पंचम अध्याय समाप्त ॥ (१) मित्रद्रोही कृतघ्नश्च, यश्च विश्वासघातकः । ते जरा नरकं यान्ति, यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥१॥ अर्थात् - मित्रद्रोही-मित्र से द्रोह करने वाला, कृतघ्न--किए गए उपकार को न मानने वाला, और विश्वास का घात करने वाला, ये सब मर कर नरक में जाते हैं, और वहां पर जब तक चन्द्र और सूय हैं तब तक रहते हैं, तात्पर्य यह है कि मित्रद्रोही श्रादि अत्यधिक काल तक अपने दुष्कर्मों का फल भोगने के लिए नरकों में रहते हैं, और वहां दु:ख पाते हैं। For Private And Personal Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अथ पष्ठ अध्याय मानव के जीवन का निर्माण उस के अपने विचारों पर निर्भर हुआ करता है। विचार यदि निर्मल हों, स्वच्छ हों एवं धर्मपूर्ण हों तो जीवन उत्थान अथच कल्याण की अोर प्रगति करता है । इस के विपरीत यदि विचार अप्रशस्त हो, पापोन्मुखी हों तो जीवन का पतन होता है, और वे जन्म मरण की परम्परा को वढाने का कारण बनते हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो-गिरते है जब ख्याल तो गिरता है आदमी । जिस ने इन्हें संभाल लिया वह संभल गया - यह कहा जा सकता है। उन्नत तथा अवनत विचारों के आधार पर ही तत्त्वार्थ सूत्र के भाष्य की संबंधकारिका में आचार्यप्रवर श्री उमास्वाति सम्पूर्ण मानव जगत को छः विभागों में विभक्त करते हैं । वे छ: विभाग निम्नोक्त हैं (१) उत्तमोत्तम'-जो मानव अात्मतत्त्व का पूर्ण प्रकाश उपलब्ध कर स्वयं कृतकृत्य हो चुका है, पूर्ण हो चुका है, तथापि विश्वकल्याण की पवित्र भावना से दूसरों को पूर्ण बनाने के लिये, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य आदि उत्तम धर्म का उपदेश देता है, वह उत्तमोत्तम मानव कहलाता है। इस कोटि में अरिहन्त भगवान् आते हैं । अरिहन्त भगवान् केवल ज्ञान का प्रकाश प्राप्त कर निष्क्रिय नहीं हो जाते, प्रत्युत निःस्वार्थ भाव से संसार को धर्म का मधुर एवं सरस सन्देश देते हैं और सपथगामी बनाकर उस को आत्मश्रेय साधने का सुअवसर प्रदान करते हैं। (२) उत्तम-जिस मानव की साधना लोक और परलोक दोनों की असक्ति से सर्वथा रहित एवं विशुद्ध आत्मतत्त्व के प्रकाश के लिये होती है । भौतिक सुख चाहे वर्तमान का हो अथवा भविष्य का, लोक का अथवा परलोक का, दोनों ही जिस की दृष्टि में हेय होते हैं । जिस का समग्र जीवन एक मात्र अात्मतत्त्व के प्रकाश के लिये सर्वथा बन्धन से मुक्त होने के लिये गतिशील रहता है । संसार का भोग चाहे चक्रवर्ती पद का हो अथवा इन्द्र पद का, परन्तु जो एकान्त निस्पृह एवं अनासक्त भाव से रहता है। संसार का कोई भी प्रलोभन जिसे वीतराग भाव की साधना के पवित्र मार्ग से एक क्षण के लिये भी नहीं भटका सकता. ऐसा मानव उत्तम कहलाता है। यह उत्तम पद उत्तम मुनि और उत्तम श्रावक में पाया जाता है। (३) मध्यम-जो लोक की अपेक्षा परलोक के सुखों की अधिक चिन्ता करता है। परलोक को सुधारने के लिये यदि इस लोक में कुछ कष्ट भी उठाना पड़े, सुख सुविधा भी छोड़नी पड़े. तो इसके लिये जो सहर्ष तैयार रहता है । जो परलोक के सुख की आसक्ति से इस लोक के सुख की आसक्ति का त्याग कर सकता है। परन्तु वीतरागभाव की साधना में परलोक की सुखासक्ति का त्याग नहीं कर सकता। संसार की वर्तमान मोहमाया जिसे भविष्य के प्रति लापरवाह नहीं बना सकती। जो सुन्दर वर्तमान और सुन्दर भविष्य के चुनाव में सुन्दर भविष्य को चुनने का (१) कविरत्न पण्डित मुनि श्री अमर चन्द्र जी म. द्वारा अनुवादित श्रमण सूत्र में से । For Private And Personal Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित ही अधिक प्रयत्न करता है परन्तु जिस का वह सुन्दर भविष्य सुखासतिरूप होता है, अनासक्ति - रूप नहीं, ऐसा मानव मध्यम कहा जाता है। (४) विमध्यम-जो लोक और परलोक दोनों को सुधारने का प्रयत्न करता है । लोक और परलोक के दोनों घोड़ों पर सवारी करना चाह रहा है, परन्तु परलोक के सुखों के लिये यदि इस लोक के सुख छोड़ने पड़े तो उसके लिये जो तैयार नहीं होता । जो सुन्दर भविष्य के लिये सन्दर वर्तमान को निछावर नहीं कर सकता । जो दोनों ओर एक जैसा मोह रखता है। जिस का सिद्धान्त है-माल भी रखना, वैकुण्ठ भी जाना । ऐसा मानव विमध्यम कहलाता है। ५-अधम-जो परस्त्रीगमन, चोरी आदि अत्यन्त नीच आचरण तो नहीं करता परन्तु वि. षयासक्ति का त्याग नहीं कर सकता । जो अपनी सारी शक्ति लगा कर इस लोक के ही सन्दर सुखोपभोगों को प्राप्त करता है और उन्हें पाकर अपने को भाग्यशाली समझता है । ऐसा जीवन धर्म को लक्ष्य में रख कर प्रगति नहीं करता प्रत्युत मात्र लोकलज्जा के कारण ही अत्यन्त नीच दुराचरणों से बचा रहता है, तथा जिस की भोगासक्ति इतनी तीव्र होती है कि धर्माचरण के प्रति किसी भी प्रकार की श्रद्धाभक्ति जागृत नहीं होने पाती, ऐसा मानव अधम कहलाता है। ६-अधमाधम-मनुष्य वह है जो लोक परलोक दोनों को नष्ट करने वाले अत्यन्त नौच पापा. चरण करता है । न उसे इस लोक की लज्जा तथा प्रतिष्ठा का ख्याल रहता है और न परलोक का ही। वह परले सिरे का नास्तिक होता है । धर्म और अधर्म के विधिनिषेधों को वह ढोंग समझता है। वह उचित और अनुचित किसी भी पद्धति का ख्याल किये बिना एकमात्र अपना अभीष्ट स्वार्थ ही सिद्ध करना चाहता है। वह मनुष्य वेश्यागामी, परस्त्रीसेवन करने वाला, मांसाहारी, चोर, दुराचारी एवं सब जीवों की निर्दयतापूर्वक सताने वाला होता है । ऐसा मनुष्य अपना नीच स्वार्थ सिद्ध करना ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लेता है । भले ही फिर उस स्वार्थ की पूर्ति में किसी के जीवन का अन्त भी क्यों न होता हो। प्रस्तुत छठे अध्ययन में एक ऐसे ही अधमाधम व्यक्ति का जीवन संकलित किया गया है, जो राज्यसिंहासन के लोभ में अपने पूज्य पिता जैसे अकारण बन्धु को भी मारने की गति एवं दुष्टतापूर्ण प्रवृत्ति में अपने को लगा लेता है । सूत्रकार ने इस अध्ययन में अधमाधम व्यक्ति के उदाहरण से संसार को अधमाधम जीवन से विरत रहने की तथा अहिंसा सत्य आदि धार्मिक अनुष्ठानों के अाराधन द्वारा उत्तम एवं उत्तमोत्तम पद को प्राप्त करने के लिये बलवती पवित्र प्रेरणा की है । उस अध्ययन का आदिम सूत्र निम्नोत है मूल- 1 छट्ठस्स उक्खेवो। एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं सपएणं महुरा णगरी । भंडीरे उज्जाणे । सुदरिसणे जक्खे । सिरिदामे राया । बन्धुसिरी भारिया । पुत्ते (१) छाया-षष्ठस्योत्क्षपः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये मथुरा नगरी। भंडीरमुद्यानम् । सुदर्शनी यक्षः । श्रीदामा राजा । बन्धुश्रीः भार्या । पुत्रो नन्दीवर्धनो नाम दारकोऽभवत् , अहीन. यावद् युवराजः । तस्य श्रीदाम्न: सुबन्धु मामात्योऽभवत् , सामभेददण्ड० तस्य सुबंधोरमात्यस्य बहुमित्रापुत्रो नाम दारकोऽभवत् अहीन० । तस्य श्रीदाम्नो राज्ञः चित्रो नाम अलंकारिकोऽभवत् । श्रीदाम्नो राज्ञः चित्रं बहुविधमलंकारिकं कर्म कुर्वाणः सर्वस्थानेषु सर्वभूमिकासु अन्तःपुरे च दत्तविचारश्चाप्यभवत् । For Private And Personal Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [षष्ठ अभ्याय दिवद्धणे णाम कुमारे अहीण जाव जुवराया । तस्स सिरिदामस्स सुबंधू नामं अमच्चे होत्था सामभेददण्ड० । तस्स णं सुबन्धुस्स अमच्चस्स बहुमित्तापुत्ते नामं दारए होत्था अहीण । तस्स णं सिरिदामस्स रएणो चित्त बहुविहं अलंकारियकम्मं करेमाणे सव्वट्ठाणेसु सव्वभूमियासु अंतेउरे य दिएणवियारे यावि होत्था । __ पदार्थ-छट्ठस्स उक्खेवो-छठे अध्ययन के उत्क्षेप-प्रस्तावना की कल्पना पूर्व की भांति कर लेनी चाहिये । एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही । जम्बू !-हे जम्बू ! । तेणं-उस । कालेणंकाल में । तेणं समएणं-उस समय में । महुरा-मथुरा । णगरी-नगरी थी। भंडीरे-भंडीर नाम का । उज्जाणे-उद्यान था, उस में । सुदरिसणे-सुदर्शन नाम का । जक्खे-यक्ष था, अर्थात् उस का स्थान था । सिरिदामे-श्रीदाम नाम का । राया-राजा था, उसकी । बंधुसिरी-बंधुश्री । भारिया-भार्या थी । पुत्त-पुत्र । णंदिवद्धणे-नन्दीवर्धन । णाम-नामक । कुमारे-कुमार था, जो कि । अहीण-अन्यून-न्यूनतारहित तथा निर्दोष पंचेन्द्रिय शरीर से युक्त । जाव-यावत् । जुवराया-युवराज (राजा का वह सबसे बड़ा लड़का, जिससे आगे चल कर राज्य मिलने वाला हो) था । तस्स-उस । सिरिदामस्स-श्रीदाम का । सुबन्धू-सुबन्धु । नाम-नाम का । अमच्चेअमात्य-मंत्री । होत्था-था, जो कि । सामभेददंड-साम, भेद दण्ड, और दान नीति में बड़ा कुशल था। तस्स णं-उस । सुबन्धुस्स-सुबन्धु । श्रमच्चस्स-अमात्य का । बहुमित्तापुत्त - बहुभित्रापुत्र । णाम-नाम का । दारए-दारक -- बालक । होत्था-था, जो कि । अहीण. - अन्यूनसम्पूर्ण और निर्दोष पंचेन्द्रिय - युक्त शरीर वाला था । तस्स एं- उस । सिरिदामस्स- श्रीदाम । रगणो-राजा का । चित्त-चित्र । णाम-नाम का । अलंकारिए-अलंकारिक-नाई । होत्थाथा। सिरिदामस्स-- श्रीदाम । रराणो- राजा का । चित्त-चित्र-आश्चर्यजनक । बहुविहंबहुविध । अलंकारियकम्म-केशादि का अलंकारिक कर्म-हजामत । करमाणे-करता हुआ । सव्वट्ठाणेसु-सर्वस्थानों में, तथा । सव्वभूमियासु-सर्वभूमिकाओं में, तथा । अन्तेउरे य-अन्तःपुर में । दिएणवियारे-दचविचार - अप्रतिषिद्ध गमनागमन करने वाला । यावि होत्या-भी था। मूलार्थ-छठे अध्ययन के उत्क्षेप-प्रस्तावना की कल्पना पूर्ववत कर लेनी चाहिये । हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में मथुरा नाम की एक सुप्रसिद्ध नगरी था । वहां भण्डीर नाम का एक उद्यान था। उस में सुदर्शन नामक यक्ष का यक्षायतन-स्थान था । वहां श्रीदाम नामक राजा राज्य किया करता था, उस की बन्धुश्री नाम की राणी थी । उन का सर्वांगसम्पूर्ण और परम सुन्दर युवराज पद से अलंकृत नन्दोवर्धन नाम का पुत्र था । श्रीदाम नरेश का साम, भेद, दण्ड और दान नीति में निपुण सुबन्धु नाम का एक मन्त्री था। उस मन्त्री का बहुमित्रापुत्र नाम का एक बालक था जो कि सर्वांगसम्पन्न और रूपवान् था । तथा उस श्रीदाम नरेश का चित्र नाम का एक अलंकारिक- केशादि को अलंकृत करने वाला -नाई था। वह राजा का अनेकविध आश्चर्यजनक अलंकारिकर्म-क्षौरकर्म करता हुआ राजाज्ञा से सवस्थानों में सर्वभूमिकाओं तथा अन्तःपुर में प्रतिबन्धरहित यातायात किया करता था। टीका-उपक्रम या प्रस्तावना को उत्क्षेप कहते हैं, और प्रस्तुत प्रकरणानुसारी उस का स्वरूप शा. For Private And Personal Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हिन्दी भाषा टीका सहित । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्याय ] स्त्रीय भाषा में निम्नोक्त हैं “ – जति गं भंते ! समणेां भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तणं दुहविवागाणं पंचम harer श्रयमठ्ठे पण्णत्तो, छट्टस् गं भंते ! अभयणस्स दुहविवागाणं सम भगवया महावीरेणं जाव संपत्त के अहे पण ते १-" इन पदों का अर्थ निम्नोक्त है यदि भगवन् ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के पञ्चम अध्ययन का यह ( पूर्वोक्त ) अर्थ फरमाया है, तो भगवन् ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःख - विपाक के छठे अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? [ ३४१ जम्बू स्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में उनके पूज्य गुरुदेव श्रीसुधर्मा स्वामी ने जो कुछ कहना आरम्भ किया उसी को सूत्रकार ने एवं खलु जम्बू १ इत्यादि पदों द्वारा अभिव्यक्त किया है । जिन का अर्थ मूलार्थ में दिया जा चुका है और जो अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता । “ अलंकारिक " इस पद का अर्थ सजाने वाला भी होता है, परन्तु वृत्तिकार ने " - अलंका रियकम्मं - " का क्षुरकर्म- क्षौरकर्म ( हजामत आदि बनाना) यह अर्थ किया है। इस पर से ज्ञात होता है कि चित्र नाम का एक नापित नाई था जो कि श्रीदाम नरेश के यहां रहता था और श्रीदाम नरेश का बड़ा कृपापात्र था । महाराज श्रीदाम चौरकर्म उसी से करवाया करते थे, इसीलिये चित्र को राजभवन में हरएक स्थान पर जाने आने की स्वतन्त्रता थी । वह बिना रोकटोक के जहां चाहे वहां जा आ सकता था । शय्यास्थान, भोजनस्थान मंत्रस्थान और श्रायस्थान आदि स्थानों तथा प्रासादादि की हर एक भूमिका - मंज़िल आदि में अपनी इच्छा के अनुसार श्राता जाता था अर्थात् उसे किसी प्रकार की रोकटोक नहीं थी । 66 है " सर्वस्थान, सर्वभूमिका और अन्तःपुर इन पदों का अर्थ पीछे पृष्ठ ३३३ पर लिखा जा चुका । तथा - दिरणावियारे ” ' इस पद की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में " - राज्ञानुज्ञातसंच. रणः, अनुज्ञातविचारणो वा -' इस प्रकार है अर्थात् दत्नविचार के दो अर्थ होते हैं, जैसे कि १. १ - जिस को राजा की ओर से आने तथा जाने की आज्ञा मिली हुई हो । २- जिस को हर किसी से विवारविनिमय अथवा वार्तालाप करने की पूर्ण श्रज्ञा प्राप्त हो रही हो । i ८. “ अहोण० जाव जुवराया " यहां पठित जाव यावत पद से "- -पंडिपुराणपंचिंदियसरीरे से ले कर " कन्ते पियदसणे सुरूवे " यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन का अर्थ पृष्ठ १२० पर दिया गया है । " - सामभेद दंड० - " यहां के बिन्दु से उवप्पयाणनीति सुष्प उत्तणयविहिन्नु - "इत्यादि पदों का परिचायक है। इन का वर्णन पृष्ठ २८४ पर किया जा चुका है। तथा मंत्रिपुत्र के सम्बन्ध में दिए गए “– अहोण० –”के बिन्दु से विवक्षित पाठ का वर्णन भी पृष्ठ १२० पर किया जा चुका है । प्रस्तुत सूत्रपाठ में मथुरा नगरी तथा भंडीर उद्यान आदि का नाम निर्देश किया गया है । इन से सम्बन्ध रखने वाला विशेष वर्णन अग्रिम सूत्र में किया जाता है - मूल - ' तेणं कालेणं तेणं समरणं सामी समोसढे । पारसा गया य निराश्रो जान गया For Private And Personal (१) छाया -- तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी समवसृतः । परिषद् राजा च निर्गतो यावद् गता, राजापि निर्गतः । तस्मिन् काले २ श्रमणस्य ज्येष्ठो यावद् राजमार्गमवगाढः, तथैव हस्तिन: अश्वान् पुरुषान्, च पुरुषाणां मध्यगतमेकं पुरुषं पश्यति यावद् नरनारीसंपरिवृतम् । ततस्तं पुरुषं राजपुरुषाः तेषां Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३४२] www.kobatirth.org श्री विपाक सूत्र - w राया विणिग्गओ । तेणं कालेणं २ समणस्स जेट्ठ े जाव रायमग्गं श्रगाढे । तहेव हत्थी, से, परिसे, तेसि च णं पुरसाणं मज्झगयं एवं पुरिसं पासति जाव नरनारिसंपरिवुर्ड । तते णं तं पुरिसं रायपुरिसा चच्चरंसि तसि अयोमयंसि समजोइभूयांस सिहासास निसावेंति । तयाणंतरं च गं पुरिसाणं मज्झगयं पुरिस बहूहिं अयकलसेहि तहि समजो भूतेहिं अप्पेगइया तंबभरिएहि अप्पेणइया तज्यभरिएहिं गया सीसग भरिएहि, अप्पेगइया कलकल भरिएहिं अप्पेगइया खारतेल्लभरिएहिं महयाभिसे अभिसिचंति । तयाणंतरं च णं तत्तं योमयं समजोतिभूयं श्रमयसंडास एवं गहाय हारं पिद्धति । तयाणंतरं च गं अद्धहारं जाव पट्ट मउडं । चिंता तहेव जाव वागरेति । । 1 पदार्थ - ते कालेणं तेगं समपणं - उस काल तथा उस समय में । सामी - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी । समोसढे - पधारे । परिसा - परिषद् - जनता । राया य-तथा राजा । निग्गश्रोनगर से निकले । जाव - यावत् । गया - चली गई। राया - राजा । विभी । णिग्गश्रो चला गया । तेणं कालेणं २ – उस काल तथा उस समय में । समणस्स - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के । जेट्टे - प्रधान शिष्य गौतम स्वामी । जाव यावत् । रायमग्गं - राजमार्ग में । ओगाढे – पधारे । तहेव - तथैव । हत्थी - हस्तियों को । से अश्वों को । पुरिसे - पुरुषों को । तेसिं च णं - और उन । पुरिसाएं पुरुषों के । मझगयं - मध्यगत । जात्र - यावत् । नरनारिसंपरिवुडं - - नर नारियों से परिवृत - घिरे हुए । एगं - एक । पुरिसं तुरुप को । पासति - देखते हैं । तते णं - तदनन्तर | रायपुरिसा राजपुरुष । तं पुरिसं उस पुरुष को । चच्चरंसि - चत्वर अर्थात् जहां अनेक मार्ग मिलते हों ऐसे स्थान पर । ततसि तप्त । श्रयोमयंसि - अयोमय - लोहमय । समोभूयंसि अत्रि के समान देदीप्यमान- अग्नि जैसे लाल । सिंहासरांसि - सिंहासन पर । निसार्वोति बैठा देते हैं। तयाांतरं च णं - और तत्पश्चात् । पुरिसाएँ - पुरुषों के । मज्भगयं पुरिसं - मध्यगत उस पुरुष बहूहिं - अनेक । तत्तहिं - तप्त - तपे हुए । कलसेहिं - लोहकलशों से । समनोइभूतेहि- जो कि अग्नि के समान देदीप्यमान हैं तथा । अप्पेगइया - कितने एक | तंबभरिएि ताम्र से परिपूर्ण हैं । अप्पेगइया - कितने एक । तउय - भरिएत्रिपु - रांगा से परिपूर्ण हैं । अगइया कितने एक । लीलगभरिएहिं सीसक – सिक्के से परिपूर्ण हैं । इया-- कितने एक । कलकलभरिएहिं - चूर्णक आदि से मिश्रित जल से परिपूर्ण हैं, अथवा कलकल शब्द करते हुए उष्णात्युष्ण पानी से परिपूर्ण है । प्गइया - कितने एक । खारतेल्लभरिएहिं क्षारयुक्त तैल से परिपूर्ण हैं, इन के द्वारा महया - महान् । रायाभिसेचत्वरे तप्तेऽयोमये समज्योति ते सिंहासने निषीदति । तदानन्तरं च पुरुषाणां मध्यगतं पुरुषं बहुभिः अयःकलशैः तप्तैः समज्योतिभूतैः, अप्येके ताम्रभृतैः, अप्येके त्रपुभृतैः, अप्येके सीसकभृतैः, अप्येके कल को -- Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ षष्ठ अध्याय - For Private And Personal TH : कलभृतैः अप्येके क्षारतैलभृतैः महाभिषेकेणाभिचिन्ति तदानन्तर च तप्तमयोमयं समज्योतिर्भूतमयोमयसं-दशकेन गृहीत्वा हारं पिनाहयन्ति । तदानन्तर चार्द्धहारं यावत् पट्ट, मुकुटम् । चिन्ता तथैव यावत् व्याकरोति । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित [ ३४३ एणं- राज्ययोग्य अभिषेक से । अभिसिचंति-अभिषिक्त करते हैं । तयाणंतरं च णं-और तत्पश्चात् । समजोइभूयं-अमि के समान देदीप्यमान । तत-तप्त । अयोमयं-लोहमय । हारं-हार को । अनोमय-लोहमय । संडासरणं-संडासी से । गहाय - ग्रहण कर के । पिणद्धति-पहनाते हैं । तयाणंतरं च णं-और तदनन्तर । प्रद्वहारं -अहार को। जाब-हावत् । पढें -मस्तक पर बांधने का पट्ट-वस्त्र अथवा मस्तक का भूषणविशेष । मउडं--और मुकुट (एक प्रसिद्ध शिरोभूषण जो प्रायः राजा आदि धारण किया करते हैं-ताज) को पहनाते हैं । यह देख गौतम स्वामी को । चिन्ता--विचार उत्पन्न हुआ । तहेव-तथैव-पूर्ववत् । जाव-यावत् । वागरेति-भगवान् प्रतिपादन करने लगे । मूलार्थ-उस काल तथा उस समय में ( मथुरा नगरी के बाहिर भंडीर नामक उद्यान में ) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे । परिषद् और राजा भगवदर्शनार्थ नगर से निकले यावत् वापिस चले गये ।। उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य गौतम स्वामी भिक्षार्थ गमन करते हुए यावत् राजमार्ग में पधारे । वहां उन्हों ने हाथियों, घोड़ों और पुरुषों को तथा उन पुरुषों के मध्यगत यावत् नर नारियों से घिरे हुए एक पुरुष को देखा। राजपरुष उस पुरुष को चत्वर-जहां बहुत से रास्ते मिलते हों, ऐसे स्थान में अग्नि के समान तपे हुए लोहमय सिंहासन पर बैठा देते हैं, बैठा कर उस को ताम्रपूर्ण त्रपुपूर्ण, सीसकपूर्ण तथा चूर्णक आदि से मिश्रित जल से पूर्ण अथवा कलकल शब्द करते हुए गर्म पानी से परिपूर्ण और क्षारयुक्त तैल से पूर्ण, अग्नि के समान तपे हुए लोहकलशोंलोहघटों के द्वारा महान राज्याभिषेक से अभिषिक्त करते हैं । तदनन्तर उसे लोहमय संहास-सण्डासी से पकड़ कर, अग्नि के समान तपे हुए अयोमय हार-अठारह लड़ियों वाले हार को, अर्द्धहार-नौ लड़ी वाले हार को तथा मस्तक के पट्टवस्त्र अथवा भूषणविशेष और मुकुट को पहनाते हैं । यह देख गौतम स्वामी को पूर्ववत् चिन्ता-विचार उत्पन्न हुआ, यावत् गौतम स्वामी उस पुरुष के पूर्वजन्मसम्बन्धी वृत्तान्त को भगवान से पूछते हैं, तदनन्तर भगवान उस के उत्तर में इस प्रकार प्रतिपादन करते हैं। ____टीका-प्रस्तुत सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पधारने से लेकर गौतम स्वामी के नगरी में जाने और वहां के राजमार्ग में हस्ती आदि तथा स्त्री तुरुषों से घिरे हुए परुष को देखने आदि के विषय में सम्पूर्ण वर्णन प्रथम की भान्ति जान लेने के लिये सूत्रकार ने प्रारम्भ में कुछ पदों का उल्लेख कर के यत्र तत्र जाव -यावत् शब्दों का उल्लेख भी कर दिया है। मथुरा नगरी के राजमार्ग में गौतम स्वामी ने जिस पुरुष को देखा. उस के विषय में प्रथम के अध्ययनों में वर्णित किये गये पुरुषों की अपेक्षा जो विशेष देखा वह निम्नोक्त है उसे श्रीदाम नरेश के अनुचर एक चत्वर में ले जाकर अग्नि के समान लालवर्ण के तपे हुए एक लोहे के सिंहासन पर बैठा देते हैं और अग्नि के समान तपे हुए लोहे के कलशों में पिघला हुआ तांबा, सीसा-सिक्का और चूर्णादि मिश्रित संतप्त जल एवं संतप्त क्षारयुक्त तेल आदि को भर कर उन से उस पुरुष का अभिषेक करते हैं अर्थात् उस पर गिराते हैं. तथा अमि के समान तपे हुए हार अर्द्धहार तथा मस्तकपट्ट एवं मुकुट पहनाते हैं ।। __ उस की इस दशा को देख कर गौतम स्वामी का हृदय पसीज उठा तथा उस की दशा का ऊहापोह करते हुए भगवान् गौतम वहां से चल कर भगवान् के पास आए और आकर For Private And Personal Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३४४] श्री विपाक सूत्र [षष्ठ अध्यार उन्हों ने दृष्ट व्यक्ति का सब वृत्तान्त भगवान को कह सुनाया तथा साथ में उसके पूर्वभव के सम्बन्ध में पूछा, श्रादि सम्पूर्ण वृत्तान्त पूर्व की भान्ति ही जान लेना चाहिये । तदनन्तर भगवान् ने गौतम स्वामी द्वारा किए गए उक्त पुरुष के पूर्व भवसम्बन्धी प्रश्न का उत्तर देना प्रारम्भ किया । . ताम्र ताम्बे को कहते हैं । त्रपु शब्द रांगा, कलई, टीन, जस्ता (जिस्त) के लिये प्रयुक्त होता है । सीसक नीलापन लिये काले रंग की एक मूल धातु का नाम है, जिस को सिक्का कहा जाता है । कलकल शब्द का अर्थ टोकाकार अभय देव सूरि के शब्दों में “- कनक नायते इति कलकलं चूर्णकादिमिश्रितजलं-" इस प्रकार है अर्थात् चूर्णक आदि से मिश्रित गरम २ जल का परिचायक कलक। शब्द है । तथा. कहीं कलकल शब्द का - कलकल शब्द करता हुआ गरम २ पानी, यह अर्थ भी उपलब्ध होता है । क्षार-तैन - उस तेल का नाम है जिस में क्षार वाला चूर्ण मिला हुआ हो । निग्गओ जाव गया - यहां का जाव-यावत् पद "--धम्मो कहिओ परिसा पडि-" इन पदों का परिचायक है, अर्थात् भगवान् ने धर्म का उपदेश किया और परिषद् -जनता सुन कर चली गई। -जाव रायमग्ग-" यहां का जाव-यावत् पद "-अन्तेवासी गोयमे छहकाखमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए-" इत्यादि पदों का परिचायक है । जिन के सम्बन्ध में पृष्ठ २०७ पर लिखा जा चुका है। "-पासति जाव नरनारिसंपरिवुर्ड-"यहां पठित जाव-यावत् पद -अवबोडगवन्धणं उक्कितकराणनासं नेहत्तु प्पियगत- से ले कर -कक्करसरहिं हम्ममाणं अणेग-" इन पदों का संसूचक है । इन पदों का अर्थ पृष्ठ १२४ तथा १२५ पर दिया जा चका है। "-श्रद्धहारं जाव पट्ट-" यहां के जाव यावत् पद से "--तिसरयं पिणद्धति, पालंब पिणद्धति, कडिसुत्तयं पिणद्धति-" इत्यादि पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । अर्द्धहार आदि पदों का अर्थ निम्नोक्त है १-अर्द्धहार- जिस में नौ सरी-लड़ी हों उसे अर्द्धहार कहते हैं । २- त्रिसरिक-तीन लड़ों वाले हार को त्रिसरिक कहा जाता है । -३ प्रालम्ब – गले में डालने की एक लम्बी माला के लिये प्रालम्ब शब्द प्रयुक्त होता है । ४-कटिसूत्र-कमर में पहनने के डोरी को कटिसूत्र कहते हैं । -चिन्ता तहेव जाव वागरेति-" यहां पठित चिन्ता शब्द का अभिप्राय चतुर्थ अध्ययन के पृष्ठ २८७ पर लिखा जा चुका है । तथा – तहेव पद का अभिप्राय भी पृष्ठ १३३ पर लिख दिया गया है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां वाणिजग्राम नगर का उल्लेख है जब कि प्रस्तुत में मथुरा नगरी का । तथा वहां भगवान् गौतम ने वाणिजग्राम के राजमार्ग पर देखे दुए दृश्य का वृत्तान्त भगवान महावीर को सुनाया था जब कि यहां मथुरा नगरी के राजमार्ग पर देखे का, एवं दृष्ट दृश्य के वर्णन करने वाले पाठ को तथा मथुरा नगरी के राजमार्ग पर अवलोकित व्यक्ति के पूर्वभव पृच्छासम्बन्धी पाठ को संक्षिप्त करने के लिये सूत्रकार ने जाव यावत् पद का आश्रयण किया है। जाव यावत् पद से विवक्षित पाठ निम्नोक्त है -त्ति कटु महुराए नगरीए उच्चनीयमज्झिमकुले अडमाणे अहापज्जत्तं समुया गेएहति २ महुराणयरिं मझमज्झेण जाव पडिदंसति, समणं भगवं महावीरं वन्दति, नर्म For Private And Personal Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित [ ३४५ | सति २ एवं वयासी - एवं खलु श्रहं भंते! तुब्भेहिं अब्भगुरसाते समाणे महुराणयरीए तहेव adra | से भंते ! पुरिसे पुग्वभवे के आसि १ जाव पच्चरणुभवमाणे विहरति । - इन पदों का अर्थ पृष्ठ १२२ पर दिया जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां वाणिजग्राम नगर का उल्लेख है जब कि यहां मथुरा नगरी का शेष वर्णन समान ही है । वागरेति – का भावार्थ वृत्तिकार के शब्दों में ' “ – कोऽसौ जन्मान्तरे श्रासीत् ? इत्येवं गौतमः पृच्छति, भगवांस्तु व्याकरोति - कथयति – " इस प्रकार है । अर्थात् श्री गौतम स्वामी ने भगवान से. पूछा कि भगवन् ! वह पुरुष पूर्वजन्म में कौन था ?, इसके उत्तर में भगवान् उस के पूर्वजन्म का वर्णन करते हैं । अब सूत्रकार भगवान् महावीर स्वामी द्वारा बताए गए उस पुरुष के पूर्वजन्मसम्बन्धी वृत्तान्त का वर्णन करते हैं ू - मूल - ' एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जम्बूद्दीवे दीवे मारहे वासे सहपुरे खामं णगरे होत्था, रिद्ध० । तत्थ गं सीहपुरे गरे सीहरहे णामं राया होत्था । तस्स णं सीहरहस्स रणो दुज्जोहणे णामं चारगपाले होत्था, अहम्मिए जाव दुप्पड - " यादे | तस्स गं दुज्जोहणस्स चारगपालस्स इमे एयारूवे चारगभंडे होत्था । तस्स गं दुज्जोहणस्स चारगपालस्स बहवे यकु डीओ अप्पेगतिया तंबभरिया, अप्पेगतियात्र तउयभरिया, श्रप्पेगतिया सीसगभरिया, अप्पेगतिया कलकलभरिया, अप्पे " (१) छाया - एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे सिंहपुरं नाम नगरमभूत् ऋद्ध० । तत्र सिंहपुरे नगरे सिंहरथो नाम राजाभूत् । तस्य सिंहरथस्य राज्ञो दुर्योधनो नाम चार कपालोऽभूदधार्मिको यावत् दुष्प्रत्यानन्दः । तस्य दुर्योधनस्य चारकपालस्य इदमेतद्रूपं चारकभांडमभवत् । तस्य दुर्योधनस्य चारकपालस्य बहवोऽयः कुण्ड्योऽप्येकास्ताम्रभृताः, अप्येकास्त्रपुभृताः, अप्येकाः सीसकभृताः, अप्येकाः कलकलभृताः, अप्येकाः चारतलभृताः, अग्निकाये श्रादग्धास्तिष्ठति । तस्य दुर्योधनस्य चारकपालस्य बह्यः उष्ट्रिका: श्रश्वमूत्रभृताः, अप्येकाः हस्तिमूत्रभृताः, श्रप्येकाः उष्ट्रमूत्रभृताः अप्येकाः गोमूत्रभृताः, अप्येकाः महिषमूत्रभृताः अप्येकाः अजमूत्रभृता: श्रप्येकाः एडमूत्रभृता: बहुपरिपूर्णा स्तष्ठन्ति । तस्य दुर्योधनस्य चार कपालस्य बहवो हस्तान्दुकानां च पादान्दुकानां च हडीनां च निगडानां च श्रृंखलानां च पुजा निकराश्च संनिक्षिप्तास्तिष्ठन्ति । तस्य दुर्योधनस्य चारकपालस्य बहवो वेणुलतानां च वेत्रलतानां च चिंचालतानां च छिवाणां (इलक्ष्णचर्मकशानां ) च कशानां च वल्करश्मीनां च पुजा निकराश्च तिष्ठन्ति । तस्य दुर्योधनस्य चारकपालस्य बहवः शिलानां च लकुटानां च मुद्गराणां च कनङ्गराणां च पुत्रजा निकराइच तिष्ठन्ति तस्य दुर्योधनस्य चारकपालस्य बहवः तंत्रीणां च वरत्राणां च वल्करज्जूनां च वाल रज्जूनां च सूत्ररज्जुनां च पंजा निकराश्च सन्निक्षिप्ता स्तिष्ठन्ति । तस्य दुर्योधनस्य चारकपालस्य बहवः असिपत्राणां च करपत्राणां च क्षरपत्राणां च कदम्बचीरपत्राणां च पु'जा निकराश्च तिष्ठन्ति । तस्य दुर्योधनस्य चारकपालस्य बहवो लोहकीलानां च कटशर्कराणां च (वंशशलाकानां च चर्मपट्टानां च अलपट्टानां च पुजा निकराश्च तिष्ठन्ति । तस्य दुर्योधनस्य चारकपालस्य बहवः सूचीनां च दम्भनानां च कौटिल्यानां च पुजा निकराश्च तिष्ठन्ति । तस्य दुर्योधनस्य चारकपालस्य बहवः शस्त्राणां च पिप्पलानां च कुठाराणां च नखच्छेदनानां च दर्भाणां च पुजा निकराश्च तिष्ठन्ति । For Private And Personal Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३४६] श्री विपाक सूत्र [षष्ठ अध्याय गतियानो खारतेल्लभरियाओ, अगणिकार्यसि अद्दहियाओ चिट्ठन्ति । तस्स णं दुज्जोहणस्म चारगपालस्स वहवे उट्टियानो आममुत्तभरियाओ, अप्पेगतियात्रो हत्थिमुत्तभरियाओ, अप्पेगतियानो उट्टमुत्तभारयाश्रो, अप्पेगतियाो गोमुत्तरियाओ, अप्पेगतियात्रो महिसमुत्तभरियाओ, अप्पेगतियाओ अयमुत्तभारयाओ, अप्पेगतियाश्रो एलमुत्तभरियाओ, बहुपडिपुण्णाश्रो चिट्ठन्ति । तस्स णं दुज्जोहणस्स चारगपालस्स बहवे हत्थंदुयाण य पायंदुयाण य हडीण य नियलाण य संकलाण य पुजा निगरा य सरिणक्खित्ता चिट्ठन्ति । तस्स णं दुज्जोहणस्स चारगपालस्स बहवे वेणुलयाण य वेत्तलयाण य विंचालयाण य शिवाण य कसाण य वायरासीण य पुजा णिगरा य चिट्ठन्ति । तस्म णं दुज्जोहणस्म चारगपालस्स बहवे सिलाण य लउडाण य मुग्गराण य कणंगराण य पुजा णिगरा य चिट्ठन्ति । तस्स णं दुज्जोहणस्म चारगपालस्म बहवे तंतीण य वरत्ताण य वागरज्जूण य बालरज्जूण य सुत्तरज्जूण य पुजा णिगरा य चिट्ठन्ति । तस्स णं दुज्जोहणस्स चारगपालस्स बहवे असिपत्ताण य करपताण य खुरपत्ताण य कलंबचारपत्ताण य पुजा णिगरा य चिट्ठन्ति । तस्स णं दुज्जोहणस्स चारगपालस्स वहवे लोहखीलोण य कडसक्कराण य चम्मपट्टाण य अलपट्टाण य पुजा णिगरा य चिट्ठन्ति । तस्स णं दुज्जोहणस्स चारगपालस्स बहवे सूईण य डंभणाण य कोट्टिल्लाण य पुजा णिगरा य चिन्ति । तस्स णं दुज्जोहणस्स चारगपालस्स बहवे सत्थाण य पिप्पलाण य कुहाड़ाण य नहछेयणाण य दब्भाण य पुजा णिगरा य चिट्ठन्ति । पदार्थ एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। गोतमा !- हे गौतम ! । तेणं कालेणं तेणं समएणंउस काल तथा उस समय में। इहेव-इसी । जम्बूद्दीवे-जम्बूद्वीप नामक । दीवे-द्वीप के अन्तर्गत । भारहे वासे-भारतवर्ष में । सोहपरे-सिंहपुर । णाम-नाम का । णगरे–नगर । होत्थाथा. बो कि । रिद्ध०- ऋद्ध-भवनादि की बहुलता से युक्त, स्तिमित-आन्तरिक और ह्य उपद्रवों से रहित तथा समृद्ध-धन धान्यादि से परिपूर्ण, था । तत्थ णं-उस । सीह पुरे- सिंहपुर । णगरेनगर में । सीहरहे -सिंहरथ । णाम-नाम का । राया- राजा । होत्था-था। तस्स णं-उस । सीहरहस्स-सिंहरथ । रगणा-राजा का । दुज्जोहणे-दुर्योधन । णाम-नाम का । चारगपाले-चारकपाल अर्थात् कारागाररक्षक-जेलर । होत्था-था, जो कि । अहम्मिए-अधर्मी। जावयावत् । दुप्पडियाणंदे-दुष्प्रत्यानन्द-बडी कठिनाई से सन्तुष्ट होने वाला था । तस्स णं-- उस । दुज्जाहणस्स-दुयधिन । चारपालस्स-चारकपाल का । इमे-यह । एयारूवं-इस प्रकार का। चारगभण्डे-चारकभाण्ड -कारगारसम्बन्धी उपकरण । होत्था-था । बहवे-अनेक । अयकुएडीओ - लोहमय कुएडियां थीं, जिन में से । अप्पेगतियाओ-कितनी एक। तंबभरियायो- ताम्र से भरी हुई अर्थात् पूर्ण थीं । अप्पेगतियाओ-कितनी एक। तउयभरिया ओ=त्रपु - रांगा से पूर्ण थीं । अप्पेगतिया प्रो-कई एक । सीसगभरियाओ-सीसक -सिक्के से पूर्ण थीं। अप्पेगतिया प्रो-कई एक । कलकलभरियाो -चूर्णकादि मिश्रित जल से अथवा कलकल करते हुए अर्थात् उबलते हुए अत्युष्ण जल से For Private And Personal Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित [ ३४७ भरो हुई थीं। अप्पेगनिया प्रो-कितने एक । खारतेल् तभरिया प्रो-क्षारयुक्त तैल से परिपूर्ण थीं, जो कि । अगणिकायंसि-अनिकाय-आग पर । अदहियारो-स्थापित की हुई । चिट्ठन्ति-रहती थीं । तस्त णं-उस । दुज्जोहणस्त-दुर्योधन । चारगपालस्स -चारकपाल के । बहवे - बहुत से । उहियाओ-ऊट के पृष्ठ भाग के समान बड़े २ वतन-मटके थे, जिन में से । अप्पेगतियाप्रो-कई एक तो । श्रासमुत्तभरियाओ-घोडों के मूत्र से भरे हुए थे। अप्पेगतियाओ-कई एक । हत्यिमुत्तभरियाओहाथियों के मूत्र से भरे हुए थे । अयेगतियाप्रो-कई एक । उमुतभारया रो-उष्ट्रों के मूत्र से भरे हुए थे । अप्पेगतिया प्रो-कई एक । गोमुत्तभरियाओ-गोमूत्र से भरे हुए थे। अप्पेगतियाओ-कई एक । अजमुत्तभरिया प्रो-अजों - बकरों के मूत्र से भरे हुए । अप्पेगतियाओ-और कितनेक । एलमुतभरियाओ-भेडों के मूत्र से भरे हुए थे, ये सब मटके । बहुपडिपुग्णाओ-सर्वथा परिपूण, अर्थात् मुह तक भरे। चिट्ठन्ति-रहते थे । तस्स णं - उस । दुज्जोहणस्स - दुर्योधन । चारगपालस्त-चारकपाल के। बहवे-अनेक । हत्थंदयाण य-हस्तान्दक-हाथ बांधने के लिये काष्ठ-निर्मित बन्धन-विशेष । पायदुयाण य-पादान्दुक-पादबन्धन के लिये काष्ठमय बंधनविशेष । हडीण य-हडि – काष्ठमय बन्धनविशेष - काठ की बेडी । नियलाण य-निगड़=पांव में डालने की लोहमय बेड़ी । संकलाण यशृखला -सांकल अथवा पांव के बांधने के लोहमय बन्धन, उन के । पुजा-पुज - शिखरयुक्त राशि । निगरा य -शिखररहित राशि - ढेर । सरिणक्वित्ता-एकत्रित किये हुए । चिन्ति-रहते थे । तस्स णं-उस । दुजोहणस्स-दुर्योधन । चारगपालस्स-चारकपाल के पास । बहवे-अनेक । वेणु नयाण य-वेणुलता-बांस के चाबुक । वेत्तलयाण य–वेत्रलता-वैत के चाबुकों। चिंचालयाणइमली वृक्ष के चाबुकों। छिवाण य-चिक्कण चर्म के कोडे । कसाण य-चर्मयुक्त चाबुक । वायरासोण य-वल्करश्मि अर्थात् वृक्षों की त्वचा से निर्मित चाबुक, उन के । पुजा -समूह तथा । णिगरा य-ढेर । चिट्ठन्ति-पड़े रहते थे । तस्स णं-उस । दुज्जोहणस्त - दुर्योधन । चारगपालस्स- चारकपाल के पास । बहवे-अनेकविध । सि ताण य-शिलाओं। लउडाण य-लकड़ियों । मुगराण य-मुद्गरों। कणंगराण य-कनंगरों-जल में चलने वाले जहाज आदि को स्थिर करने वाले शस्त्रविशेषों के । पुजा-पुजशिखरबद्ध राशि । णिगरा य-निकर-शिखररहित ढेर। चिन्ति -रक्खे हुए थे | तस्त णं- उस । दुज्जोहणस्त-दुर्योधन । चारगपालस्स- चारपालक के पास । बहवे-अनेक । तंतीण य-तंत्रियोंचमड़े की डोरियों । वरत्ताण य-एक प्रकार की रस्सियों । वागरज्ज य-वल्करज्जुत्रों-वृक्षों की त्वचा से निर्मित रस्सियों । वा जरज्जूण य-केशो से निर्मित रज्जुओं । सुत्तरज्जूण य-सूत को रस्सियों के। पंजा -पुज । णिगरा य-निकर -ढेर । सरिण क्खित्ता- रक्खे । चिट्ठन्ति-रहते थे । तस्त णंउस । दुज्जोहणस्त-दुर्योधन । चारगपालस्त-चारकपाल के पास । बहवे-अनेक । असिपत्ताग यकृपाणों । करपत्ताण य-बारों । खुरपत्ताण य-तुरकों - उस्तरों । कलम्ब वीरप ताण य-और कलंबचीरपत्र नामक शस्त्रविरोधों के । पुजा-पुज। जिगरा य-और निकर-ढेर। चिट्ठन्ति - रहते थे । तस्स णं-उस । दुज्जोहणस्स --दुर्योधन । चारगपालस्स -- चारकपाल के पास । बहवे-अनेक । लोहखोलाण य- लोहे के कीलों । कडसक्कराण य-बांस की शलाकाओं - सलाइयों तथा । चम्मपहाण यचर्मपट्टों-चमड़े के पट्टों । अलपहाण य-और अलपट्टों अर्थात् विच्छू की पूछ के आकार जैसे शस्त्रविशेषों के । पुजा-सशिखर समूह । णिगरा य-सामान्य समूह । चिट्ठन्ति-रहते थे । तस्स णं-उस । दुज्जोहणस्स - दुर्योधन । चारगपालस्स-चारकपाल के । बहवे-अनेक । सू. For Private And Personal Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३४८ ] श्री विपाक सूत्र - [ षष्ठ अध्याय । रहते थे । ईय - सुइयों के, तथा । डंभणाण य - दम्भनों अर्थात् अग्नि में तपा कर जिन से शरीर में दाग दिया जाता है - चिन्ह किया जाता है, इस प्रकार को लोहमय शलाकाओं के, तथा कोहिल्लाणयकौटिल्यों - लघु मुद्गर - विशेत्रों के पुजा - पुञ्ज । णिगरा य और निकर । चिहन्ति-रहते थे । तस्स णं उस | दुज्जोहणस्स - दुर्योधन । चारगपालस्स – चार कपाल के । बहवे – अनेक । सत्थाण यशस्त्रविशेषों । पिप्पलाण य-पिप्पलों छोटे २ कुरों । कुहाड़ाण - कुठारों- कुल्हाड़ों । नहळेपणाण य-नखच्छेदकों - नहेरनों । दब्भाण य और दभ - डाभों अथवा दर्भ के अग्रभाग की भांति तीक्ष्ण हथियारों के । पुजा - पुज । गिरा य - निकर | चिट्ठन्ति मूलार्थ - हे गौतम ! उस काल तथा उस समय में इसो जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारत वर्ष में सिंहपुर नाम का एक ऋद्ध, स्तिमित, और समृद्ध नगर था । वहां सिंहस्थ नाम का राजा राज्य किया करता था । उसका दुर्योधन नाम का एक चारकपाल - कारागृहरक्षक - जेलर था । जो कि अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द - कठिनाई से प्रसन्न होने वाला था । उसके निनोक्त चारकभांड - कारागार के उपकरण थे 1 अनेकविध लोहमय कुडियां थीं, जिन में से कई एक ताम्र से पूर्ण थीं, कई एक त्रपु से परिपूर्ण थीं, कई एक सीसक-सिक्के से पूर्ण थीं, कितनी एक चूर्ण मिश्रित ' जल से भरी हुई र कितनी एक क्षारयुक्त तैल से भरी हुई थीं जोकि अग्नि पर रक्खी रहती थीं । तथा दुर्योधन नामक उस चारकपाल- जेलर के पास अनेक उष्ट्रों के पृष्ठभाग के समान बड़े २ बर्तन (मटके) थे, उन में से कितने एक अश्वमूत्र से भरे हुए थे, तथा कितने एक हस्तिमूत्र से भरे हुए थे, कितने एक उष्ट्रमूत्र से, कितने एक गोमूत्र से कितने एक महिष - मूत्र से, कितने एक अजमूत्र और कितने एक भेडों के मूत्र से भरे हुए थे। तथा दुर्योधन नामक उस चारकपाल के अनेक हस्तान्दुक (हाथ में बांधने का काष्ठ - - निर्मित बन्धनविशेष ), पादान्दुक (पांव में बांधने का काष्ठनिमित बन्धनविशेष) हडि - काठ की बेड़ी, निगड़ - लाहे की बेड़ी और श्रृंखला - लोहे की जंजीर के पुंज ( शिवरयुक्त राशि ) तथा निकर ( शिखरहत ढेर ) लगाये हुए रक्खे थे । 1 तथा उस दुर्योधन चारकपाल के पास अनेक गुलताओं-बांस के चाबुकों, बेंत के च, चिंचा- इमली के चाबुकों, कोमल चर्म के चाबुकों तथा सामान्य चाबुक (कोडाओं) और वल्कलरश्मियों - वृक्षों को त्वचा से निर्मित चाबुकों के पुज और निकर रक्खे पड़े थे । तथा उस दुर्योधन चारकपाल के पास अनेक शिलाओं, लकड़ियों, मुद्गरों और कनंगरों के पुंज और निकर रक्खे हुए थे । तथा दुर्योधन के पास अनेकविध चमड़े की रस्सियों, सामान्य रस्सियों, वल्कलरज्जु - वृक्षों की त्वचा - छाल से निर्मित रज्जुओं, केशरज्जुओं और सूत्र की रज्जुओं के पुरंज और निकर रक्खे हुए 1 तथा उस दुर्योधन के पास असिपत्र (कृपा), करपत्र (आरा), क्षुरपत्र (उस्तरा ) और कदम्बची पत्र ( शस्त्रविशेष) के पुंज और निकर रक्खे हुए थे । For Private And Personal (१) चूर्णमिश्रित जल का अभिप्राय यह प्रतीत होता है कि ऐसा पानी जिस का स्पर्श होते ही शरीर में जलन उत्पन्न हो जाय और उस के अन्दर दाह पैदा कर दे । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्याय 1 हिन्दी भाषा टीका सहित [ ३५९ ____ तथा उस दुर्योधन चारकपाल के पास अनेकविध लोहकोल, वंशशलाका, चर्मपट्ट, और अलण्ड के पुज और निकर लगे पड़े थे। तथा उस दुर्योधन कोतवाल के पास अनेक सूइयों, दंभनों, और लघु मुद्गरों के पुज ओर निकर रक्खे हुए थे। ___ तथा उस दुर्योधन के पास अनेक प्रकार के शस्त्र, पिप्पल (लघु छुरे), कुठार, नग्दच्छेदक और दर्भ-लाभ के ज और निकर रक्खे हुए थे। टीका - प्रस्तुत अध्ययन में प्रधानतया जिस व्यक्ति का वर्णन करना सूत्रकार को अभीष्ट है, उसके पूर्वभव का बत्तान्त सुनाने का उपक्रम करते हुए भगवान् कहते हैं कि हे गौतम ! इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारत वर्ष में सिंहपुर नाम का एक सुप्रसिद्ध और हर प्रकार की नगरोचित समृद्ध से परिपूर्ण नगर था। उसमें सिंहस्थ नाम का एक राजा राज्य किया करता था जो कि राजोचित गुणों से युक्त अत:एव महान् प्रतापी था । उसका दुर्योधन नाम का एक चारकपाल - कारागार का अध्यक्ष (जेलर) था, जोकि नितान्त अधर्मी, पतित और कठोर मनोवृत्ति वाला अर्थात् भीषण दंड दे कर भी पीछा न छोड़ने वाला तथा परम असन्तोषी और साधुजनविद्वेषी या । उसके कारागार के अन्दर - जेलखाने में दण्ड विधानार्थ नाना प्रकार के उपकरणों का संचय कर रखा था। उन उपकरणों को १० भागों में बांटा जा सकता है । वे दश भाग निनोक्त है - (१) लोहे की अनेकों कुडिए थीं, जो श्राग पर धरी रहती थीं । जिन में ताम्र, पु, सीसक, कलकल और क्षारयुक्त तेल भरा रहता था। (२) अनेकों उष्ट्रिका - बड़े २ मटके थे. जो घोड़ों, हाथियों, ऊंटों, गायों, भैंसों, बकरों तथा भेडों के मूत्र से परिपूर्ण अर्थात् मुंह तक भरे रहते थे । ३) हस्तान्दुक, पादान्दुक, इडि, निगड और शृखला इन सब के पुज और निकर एकत्रित किये हुए रहते थे । (४) वेणुलता, वेत्रलता, चिंचालता, छिवा- इलक्षण चर्मकशा, कशा और वल्करश्मि, इन सब के युज और निकर रखे रहते थे । (५। शिला, लकुट, मुद्गर और कनं गर इन सब के पुज और निकर रखे हुए रहते थे । (६) तन्त्री, वरत्रा, वल्करज्जु वालरज्जु और सूत्रज्जु इन सब के पुज और निकर रखे रहते थे। (७) असिपत्र, करपत्र, क्षुरपत्र और कदम्बचीरपत्र इन सब के पुज और निकर रखे रहते थे। (८) लोहकोल, वंशशलाका, चर्मपट्ट और अलपट्ट इन सब के पु ज और निकर रखे रहते थे । (९) सूची. दम्भन और कौटिल्य इन सब के पुज और निकर रखे रहते थे । (१०) शस्त्रविशेष, पिप्पल, कुठार, नखच्छेदक और दर्भ इन सब के पुज और निकर रखे रहते थे। ऊपरोक्त तात्र श्रादि शब्दों का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है - ताम्र, त्रपु, सीसक. कलक न, क्षारतेल इन शब्दों का अर्थ पीछे पृष्ठ ३४४ पर लिखा जा चुका है । उष्ट्रिका का अर्थ है-''- उप्रस्याकारः पृष्ठावयवः इवाकारो यस्याः सा-" अर्थात् ऊंट के आकार का लम्बी गर्दन वाला बर्तन । हिन्दी में जिसे मटका - माट कहा जाता है । हस्तान्दुक-हाथ बांधने के लिये काठ आदि के बन्धनविशेष - हथकड़ी को कहते हैं : पादान्दुक का अर्थ है-पाद बांधने का काष्ठमय उपकरण -पांव की बेड़ी । हडि-शब्द काष्ठमय बंधन विशेष के लिए अर्थात् काठ की बेड़ी इस अर्थ में For Private And Personal Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३५०] श्री विपाक सूत्र [षष्ठ अध्याय प्रयुक्त होता है । निगड़-पांव में डालने की लोहमय बेड़ी का नाम है । ला--सांकल को अथवा लोहे का बना हुआ पादबन्धन–बेड़ी को कहते हैं । शिखर -चोटो वाली राशि -- ढेर को पंज, और बिना शिखर वाली राशि को निकर कहते हैं । तात्पर्य यह है कि बहुत ऊंचे तथा विस्तृत ढेर का पुज शब्द से ग्रहण होता है और सामान्य ढेर को निकर शब्द से बोधित किया जाता है । स्थल में उत्पन्न होने वाले बांस की छड़ी या चाबुक का नाम वेणुलता, तथा जल में उत्पन्न बांस की छड़ी या चाबुक को वेत्रलता कहते हैं । चिंचा-इमली का नाम है उसकी लकड़ी की लता- छड़ी या चाबुक को चिंचालता कहते हैं । छिवा यह देश्य-देशविशेष में बोला जाने वाला पद है, इस का अर्थ लक्षण कोमल चर्म का चाबुक -- कोड़ा होता है। सामान्य चर्म युक्त यष्टिका चाबुक का नाम कशा है । वल्कश्मि इस पद में दो शब्द हैं, एक वल्क दूसरा रश्मि । वल्क पेड की छाल को कहते हैं और रश्मि चाबुक का नाम है, तात्पर्य यह है कि वृक्षों की त्वचा से निमित चाबुक का नाम वल्करश्मि होता है। चौड़े पत्थर का नाम शिला है। लकुट लाठी, छड़ी, लक्कड़ और डण्डे का नाम है । मदगर एक शस्त्रविशेष को कहते हैं । कनगर पद की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में_"के पानीये ये नगरा वोधिस्थनिश्चलीकरण पाषाणास्ते कनङ्गराः, कानङ्गराः वा ईषन्नगरा इत्यर्थः" इस प्रकार है। अर्थात् क नाम जल का है और नगर उस पत्थर को कहते हैं जो समुद्र में जहाज़ को निश्चल -स्थिर करता है । तात्पर्य यह है कि समुद्र में जहाज़ को स्थिर करने वाला एक प्रकार का पत्थर कनगर कहलाता है, जिसे आजकल लंगर कहा जाता है । टीकाकार के मत में कानगर शब्द भी प्रयुक्त होता है और उस का अर्थ – जहाज़ को स्थिर करने वाले छोटे २ पत्थर - ऐसा होता है। तंत्री शब्द चमड़े की रस्सी के लिये प्रयुक्त होता है। बरत्रा शब्द का पद्मचन्द्रकोषकार हस्तिकक्षस्थ रज्जु अर्थात् हाथी की पेटी तथा अर्धमागधीकोषकार-चमड़े की रस्सी, तथा प्राकृतशब्दमहार्णवकोषकार – रस्सी और पण्डित मुनि श्री घासीलाल जी म० वरत्रा का-कपास के डोरों को मिला कर बटने से तैयार हुए मोटे २ रस्से अथवा चमड़े का रस्सा-ऐसा अर्थ करते हैं । परन्तु प्रस्तुत में रज्जुप्रकरण होने के कारण वरत्रा शब्द चर्ममय रस्सी, या सामान्य रस्सी या कपास आदि का रस्सा-इन अर्थों का परिचायक है । वृक्षविशेष की त्वचा से निर्मित रज्जु का नाम वल्करज्जु है । केशों से निर्मित रज्जु वालरज्जु और सूत्र की रस्सी को सूत्ररज्जु कहते हैं । अलिपत्र तलवार को, करपत्र पारे ( लोहे की दांतीदार पटरी, जिससे रेत कर लकड़ी चीरी जाती है, उसे आरा कहते हैं) को, क्षरपत्र - उस्तरे (बाल मूडने का औज़ार) को, और कदम्बचीरपत्र -शस्त्रविशेष को कहते हैं। अलिपत्र का अर्थ टीकाकार ने तलवार लिखा है । परन्तु इस में एक शंका उत्पन्न होती है कि असि शब्द ही जब तलवार अर्थ का बोध करा देता है तो फिर असि के साथ पत्रशब्द का संयोजन क्यों? इस का उत्तर १स्थानांग सूत्रीय टीका में दिया गया है। वहां लिखा है (१) पत्राणि पर्णानि तद्वत् प्रतनुतया यानि अस्यादीनि तानि पत्राणि इति, असि :-खड्ग :, स एव पत्रमसि पत्रं, करपत्रं-क्रकवं येन दारु छिद्यते, तुर :-छुर :, स एव पत्रं तुरपत्रं, कदम्बचीरिकेति शस्त्रविशेष इति । (स्थानांगसूत्रटीका, स्थान ४, उ०४ ) For Private And Personal Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org षष्ठ अध्याय ] [ ३५१ जो तलवार पत्र के समान प्रतनु ( पतली ) होती है, वह असिपत्र कहलाती है, अर्थात् मात्र असि शब्द से तो सामान्य तलवार का बोध होता है जब कि उस के साथ प्रयुक्त हुआ पत्र यह शब्द उस में (तलवार में) पत्र के सदृश - समान प्रतनुता का बोध कराता है । इसी प्रकार करपत्र, क्षुरपत्र और कदम्बवीरपत्र के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिये । लोहे की कील – मेख को लोहकील कहते | वंशलाका का अर्थ बांस की सलाई होता है । अर्धमागधीकोषका कक्करा - इस पद का संस्कृत प्रतिरूप " कटशर्करा ऐसा मानते हैं । परन्तु प्राकृतशब्दमहार्णवकोषकार के मत में - कड़सक्करा - यह देश्य - देशविशेष में बोला जाने वाला पद है । चर्मपट्ट - चमड़े के पट्टे का नाम है । अल शब्द बिच्छू के पूछ के आकार वाले शस्त्र विशेष के लिए अथवा बिच्छू की पूंछगत डंक के समान विषाक्त ( ज़हरीले ) शस्त्रविशेष के लिये प्रयुक्त होता है । हिन्दी भाषा टीका सहित Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - सूची सूई का नाम है । दम्भन शब्द का अर्थ वृत्तिकार के शब्दों में – “ – यैरग्निप्रदीप्तैर्लोहशलाकादिभिः परशरीरेऽङ्क उत्पाद्यते तानि दम्भनानि - " इस प्रकार है, अर्थात् जिन संतप्त लोहशला - कार्यों के द्वारा दूसरे के शरीर में चिन्ह किया जाये उन्हें दस्तन कहते हैं । स्वाथ में कप्रत्यय हो जाने पर दम्भनक शब्द का भी व्यवहार होता है। कौटिल्य शब्द छोटे मुद्गरों लिये प्रयुक्त होता है । शस्त्र उस उपकरण को कहते हैं जिस से किसी को काटा या मारा जाए, अथवा गुप्ती ( वह छड़ी जिस के अन्दर गुप्तरूप से किरच या पतली तलवार हो) आदि को शस्त्र कहा जाता है । पिप्पल छुरी को कहते हैं । कुल्हाड़े का नाम कुठार है । नहरनी (नाइयों का एक औज़ार जिस से नाखून काटे जाते हैं ) का नाम नवच्छेदन है । दर्भ-दर्भ ( बारीक घास) को कहते हैं अथवा दर्भ के प्रभाग की तरह तीक्ष्ण हथियार का नाम भी दर्भ होता है । " - रिद्ध० " यहां के जाव दुष्पडियानंदे - " यहां के जा चुका है। पाठक वहीं से देख बिन्दु से विवक्षित पाठ को पृष्ठ १३८ पर तथा “ - हिम्म जाव - यावत् पद से विवक्षित पाठ को पृष्ठ ५५ पर लिखा सकते हैं । प्रस्तुत सूत्र में चारकपाल दुर्योधन के कारगारसम्बन्धी उपकरण सामग्री का निर्देश किया गया है, अब अग्रिम सूत्र में उस के कृत्यों का वर्णन किया जाता है - मूल -- तते गं से दुज्जोहणे चारगपाले सीहरहस्स रणो बहवे चोरे य For Private And Personal (१) छाया - ततः सः दुर्योधनः चारकपालः सिंहरथस्य राज्ञोऽपकारिणश्च ऋणधारकांश्च बालघाति. नश्च विश्रम्भघातिनश्च द्यूतकारांश्च धूर्तांश्च पुरुषग्रहयति ग्राहयित्वा उत्तानान् पातयति, लोहदंडेन मुखमुद्घाटति, उद्घाटय प्येकान् तप्तताम्र पाययति, अप्येकान् त्रपुः पाययति अप्येकान् सीसकं पाययति प्रत्येकान् कलकलं पाययति, अप्येकान् क्षारतैलं पाययति । श्रप्येकेषां तेनैवाभिषेकं कारयति । श्रप्येकानुत्तानान् पातयति २ अश्वमूत्र पाययति श्रप्येकान् हस्तिमूत्र पाययति यावदेडमूत्र पाययति । श्रध्येका नोमुखान् पाययति २ घलघलं वमयति २ अप्येकेषां तेनैवावपीडं दापयति । अन्येकान् हस्तान्दुकैर्ब्रन्धयति अप्येा पादान्दुकैः बन्धयति, अप्येकान् हडिबंधनान् करोति, प्रध्येकान् निगड़बन्धनान् करोति, श्रप्येकान् संकोचिताम्रेडितान् करोति, अप्येकान् श्रृंखलाबन्धनान् करोति, अप्येकान् छिन्नहस्तान् करोति, यावच्छस्त्रोत्पाटितान् करोति, प्येकान् वेणुलताभिश्च यावद् वल्करश्मिभिश्च घातयति । श्रप्येकानुत्तानान् कारयति, उरसि शिलां दापयति २ लकुटं क्षेपयति, पुरुषैरुत्कम्पयति । अप्येकान् तन्त्रीभिश्च यावत् सूत्रर Th Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र - [ षष्ठ अध्याय ३५२ ] पारदारिए य गंठिभेदेय रायावगारी य अणधारए य बालघाती य वीसंभघाती यजूतकारे य खंडपट्ट े य पुरिसेहिं गेरहावेति गेरहावेत्ता उत्तारणए पाडेति २ लोहदंडेय मुहं विहाडेति २ अप्पेगतिए तत्ततंबं पज्जेति अप्पेगतिए तउयं पज्जेति अप्पेगतिए सीसगं पज्जेति, अप्पगतिए कलकलं पज्जेति अप्पेगतिए खारतेल्लं पज्जेति । श्रप्पेगतियाणं तेणं चेत्र अभिसेगं कारेति । अप्पेगतिए उत्ताणे पाडेति २ श्रासमुक्तं पज्जेति, हत्थिमुत्तं पज्जेति जाव एलमुत्तं पज्जेति । पेगतिर हेड्डामुहे पाडेति २ घलघलस्स वम्मावेति २ अप्पेगतियाणं तेण a rai दलयति । अप्पेगतिए हत्थ दुयाहिं बंधावे, अप्पेगतिए पाय दुयाहिं बन्धावेद, अप्पेगतिए हडिबंधणे करेति अप्पेगतिए नियलबंधणे करेति अप्पेगतिए संकोडियमोडियर करेति अप्पेगतिर संकलबंधणे करेति अप्पेगतिए हत्थछिन्नए करेति जाव सत्थोवाडिए करेति अप्पेगतिए वेणुलयाहि य जाव वायरासीहि य हणावेति । अंगतिए उत्ताराए कारवेति, उरे सिलं दलावेति २ लउलं छुभावेति २ पुरिसेहि उक्कं पावेति । अप्पेगतिए तंतीहि य जाव सुत्तरज्जूहि य हत्थेसु य पादेसु य बंधावेति २ अगसि उच्चूलं बोलगं पज्जेति । अप्पेगतिए असिपत्तेहि य जाव कलंबचीरपत्तेहि य पच्छावेति खारतेल्लेणं अभंगावेति अप्पेगतियाणं णिडालेसु य अवसु य कोप्परेसु य जागुसु य खलुसु य लोहकीलए य कडसक्कराओ य दवावेति, अलए भंजावेति I अप्पेगतियाणं सूईओ य दंभणाणि य हत्थंगुलियासु य पाथंगुलियासु य कोट्टिएहिंडावेति २ भूमिं कंड्यावेति । अप्पेगतियार्णा सत्थएहिं य जाव नहच्छेद एहि य गं पच्छावे, दब्भेहि य कुसेहि य उल्लचम्मेहि य वेढावेति, आयवंसि दलयति २ सुक्खे समाणे चड़चड़स्स उप्पाडेति । तते गं से दुज्जोहणे चारगपालए एयकम्मे ४ सुबहुं पावं कम्मं समज्जिणित्ता एगतीसं वाससताई परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा छट्ठी पुढवीए उक्कोसेणं बावीससागरोवमट्ठितिएस नेरइएस उन्ने । पदार्थ - तते गं - तदनन्तर । से- वह । दुज्जोहणे - दुर्योधन । चारगपाले - चारकपाल अर्थात् कारागृह का प्रधान अधिकारी - जेलर । सी हर हस्त - सिंहरथ । रराणो -- राजा के । बहवे अनेक ज्जुभिश्च हस्तेषु च पादेषु च बन्धयति २ अवटेऽवचूलं ब्रोडनं पाययति । अप्येकान सिपत्रश्च यावत् कदम्बचीरपत्रश्च प्रतक्षयति क्षारतैलेनाभ्यंगयति । अप्येकेषां ललाटेषु च अवटुषु च कूपरेषु च जानुषु च गुल्फेषु च लोहकीलकान् वंशशलाकांश्च दाभ्यति, 'लानि भंजयति ( प्रवेशयति ) । अप्येकेषां सूचीश्च दम्भनानि च हस्तांगुलिषु च पादांगुलिषु च कौटिल्यैराखोटयति २ भूमि कंडुयति । श्रप्येकेषां शस्त्रकैश्च यावत् नखच्छेदनैश्चांगं प्रतक्षयति । दर्भैश्च कुशैश्चार्द्रचर्मभिश्च वेष्टयति, श्रातपे दापयति, शुष्के सति चडचडमुत्पाटयति । ततः स दुर्योधनः चारकपालः एतत्कर्मा ४ सुबहु पापं कर्म समय एकत्रिंशतं वर्षशतानि परमायुः पलयित्वा कालमासे कालं कृत्वा षष्ठ्यां पृथिव्यामुत्कर्षेण द्वाविंशतिसागरोपमःस्थितिकेषु नैरयिकेषूपपन्नः । (१) अलानि भञ्जयति वृश्चिककण्टकान् शरीरे प्रवेशयतीत्यर्थः । (वृत्तिकारः ) For Private And Personal Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पञ्चम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [३५३ चोरे य-चोरों को । पारदारिए य-परस्त्री-लम्पटों को । गठिभेदे य-गांठकतरों को । रायावगारी य-राजा के अपकारियों -- शत्रुओं को, तथा । अणधारए य-ऋणधारकों - कर्जा नहीं देने वालों को अर्थात् जो ऋण लेकर उसे वापिस नहीं करते हैं, उन को। बालघाती य-बालघातियों-बालकों की हत्या करने वालों को । वीसंभघाती य-विश्वास-घातकों को । जतकारे य-जुबारियों को अर्थात् जुवा खेलने वालों को । खण्डप य'-और धूतों को । पुरिसेहि-पुरुषों के द्वारा। गेराहावेति गेराहावेत्ता -पकड़वाता है, पकड़वा कर । उत्ताणए -ऊर्ध्वमुख-सीधा, पंजाबी भाषा में जिसे चित्त कहते हैं । पाडेति -गिराता है, तदनन्तर । लोहदंडेण-लोहदण्ड से । मुहं -मुख को । विहाडेति २-खुलवाता है, खुलवा कर । अप्पेगतिए-कई एक को । तत्तं तंबं-तप्त - पिघला हुआ ताम्र – ताम्बा । पज्जेति-पिलाता है । अप्पेगतिए-कई एक को । तउयं-त्रपु-रांगा। पज्जे. ति-पिलाता है । अप्पेर्गातए-कितने एक को । सीसग- सीसक-सिक्का । पज्जेति- पिलाता है । अप्पेगतिर-कितने एक को । क नकल-चूर्ण मश्रित जल को अथवा कलकल शब्द करते हुए गरम २ पानी को । पज्जेति - पिलाता है। अप्पेगतिए-कितने एक को । खारतेल्लं-क्षारयुक्त तेल को पज्जेति-पिलाता है । अप्पेगतियाणं-कितनों का । तेणं चेव-उसी तैल से । अभिसेगं कारेतिअभिषेक-स्नान कराता है । अप्पेगतिर-कितनों को । उत्ताणे -ऊर्ध्वमुख-सीधा । पाडेति २गिराता है, गिरा कर । आसमुत्त-अश्वमूत्र । पज्जेति-पिलाता है। अप्पेगतिए-कितनों को। हत्थिमुत्तं- हस्तीमूत्र । पज्जेति-पिलाता है। जाव-यावत । एलमत्त-एडमूत्र-भेडों का मूत्र । पज्जेतिपिलाता है । अप्पेगतिर-कितनों को। हेट्टामुहे-अधोमुख –ोंधा । पाडेति २-गिराता है, गिरा कर । घलयलस्स-घल घल शब्द पूर्वक । वम्मावेति-वमन कराता है । अप्पेगतियाणं-कितनों को । तेणं चेव-उसी वान्त पदाथ से । श्रोवीनं-पीडा । दलयति-देता है। अप्पेगतिए-कितनों को। दुयाहिं- हस्तान्दुकों-हाथ में बांधने वाले काष्ठनिर्मित बन्धनविशेषों, से । बंधावेइ-बंधवाता है । अप्पेगतिए-कितनों को । पायंदुयाहि-पादान्दुको-पांव में बांधने योग्य काष्ठनिर्मित बंधनविशेषों से । बंधावेइ-बंधवाता है, तथा । अप्पेगइए-कितनों को। हडिबंधणे - काष्ठमय बंधन (काठ की बेडी) से युक्त। करेति - करता है । अप्पेगतिर-कितनों के । नियलबंधणे-निगडबंधन-लोहमय पांब की बेडी से युक्त । करेति-करता है । अप्पेगतिए-कितनो के अगों का। संकोडियमोडियए करेति-संकोचन और मरोटन करता है, अर्थात् अंगों को सिकोडता ओर मरोडता है । अप्पेगतिए-कितनों को । संकलबंधणे करेति-सांकलों के बंधन से युक्त करता है अर्थात् सांकलों से बांधता है । अप्पेगतिए -कितनों को । हत्थछिराणए करेति - हस्तच्छेदन से युक्त करता है अर्थात् हाथ काटता है । जाव - यावत् । सत्थोवाडिए करेति - शास्त्रों से उत्पाटित- विदारित करता है अर्थात् शस्त्रों से शरीरावयवों को काटता है । अप्पेगतिए-कितनों को । वेणुलयाहि य-वेणुलताओं -- बैंत को छड़ियों से । जावयावत् । वायरासीहि य-वत्कल - वृक्षत्वचा के चाबुको से। हणावेति-मरवाता है । अप्पेगतिएकितनों को । उत्ताणए - अर्ध्वमुख । कारवेति २-करवाता है, करवा कर । उरे- छाती पर । सिलं -- शिला को । दलावेति २-धरवाता है. धरवाकर । ल उलं-लकुट -लक्कड़ को । छुभावेति २रखवाता है, रखवा कर । पुरिसेहिं-पुरुषों द्वारा । उक्कंपावेति-उत्कम्पन करवाता है । अप्पेगतिए (१) खण्डपट्ट शब्द का विस्तार-पूर्वक अर्थ पृष्ठ २०१ पर लिखा जा चुका है ।। (२) इस पद के स्थान में कहीं-छडछडस्स-ऐसा, तथा-बलस्स-ऐसा पाठ भी मिलता है। "-छडछस्स-"का अर्थ है - छड २ शब्द पूर्वक, तथा"-बलस्स-"का-बलपूर्वक - ऐसा अर्थ होता है। For Private And Personal Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३५४7 श्री विपाक सूत्र [षष्ठ अभ्याय कितनों को । तंतीहि य-चर्म की रस्सियों के द्वारा । जाव-यावत् । सुत्सरज्जुहि य-सूत्ररज्जुओं से । होस य-हाथों को, तथा । पादेसु य - परों को । बंधावेति २-- बंधवाता है, बंधवाकर । अगड'सि-अवट-कूप में अथवा कूप के समीप गौ, भैंस आदि पशुओं को जल पिलाने के लिये बनाए गए गर्त में । उच्चूल-अवचूल-अधासिर अर्थात् पैर ऊपर और सिर नीचे कर खड़ा किये हुए का । बोलग मज्जन । पज्जेति-- कराता है अर्थात् गोते खिलाता है । अप्पेगतिए -कितनों को। असिपत्त हि य-असिपत्रों - तलवारों से । जाव- यावत् । कल बचीरपत्तहि य-कलंबचीरपत्रों- शस्त्रविशेषों से । पच्छावेति २- तच्छवाता है, तच्छवा कर । खारतेल्लेण-क्षामिश्रित तैल से । अभंगावेति-मर्दन कराता है। अप्पेगतियाणं-कितनों के । णिडालेसु य-मस्तकों में, तथा । अवडूसु य-- कंठमणियों-घंडियों में, तथा । कोप्परेसु य- कूपरों-कोहनियों में । जाणुसु य-जानुयों में, तथा । खलुएसु य-गुल्फों -गिट्टों में । लोहकीलए य-लोहे के कीलों को । कड़सक्कराओ य-तथा बांस की शलाकारों को । दवावेति-दिलवाता है - ठुकवाता है । अलए -वृश्चिककंटकों- बिच्छु के कांटों को । भजावेति-शरीर में प्रविष्ट कराता है । अप्पेगतियाणं - कितनों के । हत्थंगुलियासु य-हाथों की अंगुलियों में, तथा । पायंगुलियासु य-पैरों की अंगुलियों में । कोहिल्लरहिमुद्गरों के द्वारा । सूइश्रो य- सूइऐं । दंभणाणि य - दंभनों अर्थात् दागने के शस्त्रविशेषों को । आयोडावेति २--प्रविष्ट कराता है, प्रविष्ट करा कर । भूमि-भूमि को । कडूयावेति-खुदवाता है । अप्पेगइयाणं-कितनों के। सत्थएहिं-शस्त्रविशेषों से । जाव - यावत् । नखच्छेदणपहि यमखच्छेदनक - नेहरनों के द्वारा । अंग-अंग को । पच्छावेइ - तच्छवाता है। दभेहि य-दर्भोमूलसहित कुशाओं से । कुसेहि य-कुशाओं-मूल रहित कुशाओं से । उल्लवम्महि यआर्द्रचर्मों से । वेढावेति २-बंधवाता है, बंधवाकर । आयवंसि-आतप - धूप में । दलयति २-~ डलवा देता है, डलवाकर । सुक्खे समाणे-सूखने पर । चड़चड़स्स-चड़चढ़ शब्द पूर्वक, उनका । उप्पाडेति-उत्पाटन कराता है । तते णं-तदनन्तर । से-वह । दुज्जोहणे-दुर्योधन । चारगपालएचारकपाल - कारागाररक्षक । एयकम्मे ४-एतत्कर्मा -यही जिस का कर्म बना हुआ था, एतप्रधान- यही कर्म जिसका प्रधान बना हुआ था, एतद्विद्य- यही जिस की विद्या-विज्ञान था, एत - त्समाचार-यही जिस के विश्वासानुसार सर्वोत्तम आचरण था, ऐसा बना हुआ । सुबहुं-अत्यधिक । पावं कम्म-पाप कर्म का । समज्जिणित्ता-उपार्जन कर के । एगतीसं वाससयाई-३१ सौ वर्ष की। परमाउ-परम आयु को । पालइत्ता- पाल कर - भोग कर | कालमासे- कालमास में अर्थात् मृत्यु का समय आ जाने पर। काल किच्चा -काल कर के । छठ्ठीए पुढवीए-छठी नरक में। उक्कोसेणं-उत्कृष्टरूप से । वावीससागरोवमट्टितिएसु - बाईस सागरोपम की स्थिति वाले । नेरइएसु-नारकियों में । उववन्ने-उत्पन्न हुआ । . मूलार्थ-तदनन्तर वह दुर्योधन नामक चारकपाल-कारागार का प्रधान नायक अर्थात् जेलर सिंहरथ राजा के अनेक चोर, पारदारिक, ग्रन्थि भेदक, राजापकारी, ऋणधारक, बालघाती, (१) इस स्थान में-पाणग-ऐसा पाठ भी उपलब्ध होता है, जिस का अर्थ है - पानी। तात्पर्य यह है कि दुर्योधन चारकपाल अपराधियों को कूप में लटका कर उन से उस का पानी पिलवाता था। (२) एक प्रकार के घास का नाम दर्भ या कुशा है । वृत्तिकार की मान्यतानुसार जब कि वह घास समूल हो तो दर्भ कहलाता है और यदि वह मूलरहित हो तो उसे कुगा कहते हैं । For Private And Personal Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित [३५५ विश्वासघाती, जुपारी और धूर्त पुरुषों को राजपुरुषों के द्वारा पकड़वा कर ऊर्ध्वमुख गिराता है गिरा कर लोहदंड से मुख का उद्घाटन करता है अर्थात् खोलता है, मुख खोल कर कितने एक को तप्त -ढला हुआ ताम्र-तांवा पिलाता है, कितने एक को त्रपु, सीसक, चूर्णादि मिश्रित जल अथवा कलकल करता हुआ उष्णात्युष्ण जल और क्षारयुक्त तैल पिलाता है, तथा कितनों का उन्हीं से अभिषेक कराता है। कितनों को ऊध्वमुख अर्थात् सीधा गिरा कर उन्हें अश्वमूत्र, हस्तिमत्र यावत् एडों-भेडों का मूत्र पिलाता है । कितनों को अधोमुख गिरा कर घलघल शब्द पूर्वक वमन कराता है, तथा कितनों को उसी के द्वारा पीड़ा देता है । कितनों को हस्तान्दुकों, पादान्दुकों, हडियों, तथा निगड़ों के बन्धनों से युक्त करता है । कितनों के शरीर को सिकोड़ता और मरोड़ता है । कितनों को शृंखलाओं- सांकलों से बान्धता है। तथा कितनों का हस्तच्छेदन यावत् शस्त्रों से उत्पाटन कराता है। किननों को वेणुलताओं यावत् वल्करश्मियों-वृक्षत्वचा के चाबुकों से पिटवाता है। कितनों को उध्वमुख गिरा कर उनके वक्षःस्थल पर शिला और लक्कड़ धरो कर राजपुरुषों के द्वारा उस शिता तथा लक्कड़ का उत्कंपन कराता है। कितनों के तंत्रियों यावत् सूत्ररज्जयों के द्वारा हाथों और पैरों को बंधवाता है बन्धवा कर कूर में उलटा लटकाता है, लटका कर गोते खिलाता है तथा कितनों का असिपत्रों यावत् कलम्बचीरपत्रों से छेदन कराता है और उस पर क्षारयक्त तैल की मालिश कराता है। कितनों के मस्तकों, अवटुयों-घंडियों, जानुयों और गुल्फों-गिट्रों में लोहकीलों तथा वंशशलाकाओं को ठुकवाता है, तथा वृश्चिककण्टकों-विच्छू के कांटों को शरीर . प्रविष्ट कराता है । कितनों की हस्तांगुलियों और पादांगुलियों में मुद्गरों के द्वारा सूइय और दम्भनों को प्रविष्ट कराता है तथा भूमी को खुदवाता है । कितनों का शस्त्रों यावत् नहेरनों से अंग छिलवाता है और दर्भो-मूलसहित कुशाओं, कुशाओं-विना जड़की कुशाओं तथा आर्द्रचर्मों के द्वारा बंधवा देता है । तदनन्तर धूप में गिरा कर उन के सूखने पर चड़चड़ शब्द पूर्वक उनका उत्पादन कराता है। . इस प्रकार वह दुर्योधन चारकपाल इन्हों निर्दयतापूर्ण प्रवृत्तियों को अपना कर्म बनाये हुए, इन्हीं में प्रधानता लिये हुए, इन्हीं को अपनी विद्या-विज्ञान बनाए हुए तथा इन्हीं दूषित प्रवृत्तियों को अपना सर्वोत्तम आचरण बनाये हुए अत्यधिक पाप कर्मों का उपार्जन करके ३१ सौ वर्ष की परमायु को भोग कर कालमास में काल करके छठी नरक में उत्कृष्ट २२ सागरोपम की स्थिति वाले नारकियों में नारकी रूप से उत्पन्न हुआ । टीका-शास्त्रों के परिशीलन से यह पता चलता है कि आध्यात्मिक जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को उपलब्ध करना होता है । मोक्ष का एक मात्र साधन मार्ग है-धर्म । धर्म के दो भेद होते हैं। पहले का नाम सागार धर्म है और दसरे का नाम है-अनगार धर्म । सागार धर्म गृहस्थ धर्म को कहते हैं और अनगार धर्म साधुधर्म को । प्रस्तुत में हमें गृहस्थ-धर्म के पालक के सम्बन्ध में कुछ विचार करना इष्ट है । अहिंसा आदि व्रतों के पालन का विधान शास्त्रों में गृहस्थ और साधु दोनों के लिये पाया जाता है, परन्तु गृहस्थ के लिए इन का सर्वथा पालन करना अशक्य होता है, गृहस्थ संसार में निवास करता है, अतः उस पर परिवार, समाज और राष्ट का उत्तरदायित्व रहता है। उसे अपने विरोधी-प्रतिद्वन्द्वी लोगों से संघर्ष करना पड़ता है, जीवन-यात्रा के लिए सावद्य मार्ग अपनाना होता है। परिग्रह का जाल बुनना होता है । न्याय मार्ग पर चलते हुए भी अपने व्यक्तिगत या सामाजिक स्वार्थों के लिए कहीं For Private And Personal Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३५६] श्री विपाक सूत्र [षष्ठ अध्याय न कहीं किसी से टकराना पड़ जाता है। अतः वह पूर्णतया निरपेक्ष स्वात्मपरित रूप अखण्ड अहिंसा आदि व्रतों का पालन नहीं कर सकता । तथापि गृहस्थ इन्द्रियों का गुलाम नहीं होता, उन्हें वश में रखने में प्रयत्नशील रहता है । स्त्री के मोह में वह अपना अनासक्त मार्ग नहीं भूलता । महारंभ और महापरिग्रह से दूर रहता है । भयंकर से भयंकर संकटों के आने पर भी अपने धर्म से भ्रष्ट नहीं होता । लोकरूढ़ि का सहारा ले कर वह भेडचाल नहीं अपनाता प्रत्युत सत्य के आलोक में अपने हिताहित का निरीक्षण करता रहता है । श्रेष्ठ एवं निर्दोष धर्माचरण की साधना में किसी प्रकार को भी लज्जा एवं हिचकिचाहट नहीं करता । अपने पक्ष का मिथ्या आग्रह कभी नहीं करता । परिवार आदि का पालन पोषण करता हुश्रा भी अन्तर हृदय से अपने को अलग रखता है। पानी में कमल बन कर रहता है । अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति में कर्तव्य को नहीं भूलने पाता । विवेक उसके जीवन का संगी होता है । उसके बिना जीवन के पथ पर वह एक पग भी आगे नहीं सरकता । ऐसा गृहस्थ अपने वर्तमान को जहां सुखद तथा सफल बनाता है, वहां अपने भविष्य को भी उज्ज्वल समुज्ज्वल एवं अत्युज्ज्वल बना डालता है । विवेकी जीवन पाप का बन्ध नहीं करता, जब कि अविवेकी पाप के बोझ से व्याकुल हो उठता है। इसी लिए शास्त्रकारों ने विवेक को अपनाने पर और अविवेक के छोडने पर जोर दिया है । विवेकपूर्ण प्रवृत्तियें पापबन्ध का कारण नहीं होती, यह एक उदाहरण से समझिये एक डाक्टर किसी रोगी का अपरेशन (Operation ) करता है । रोगी रोता है, चिल्लाता है, पर डाक्टर अपना काम किये जाता है । वह स्वास्थ्यसंवर्धन के विचारों से उस के व्रणों में से पीव निकालता हुआ उसके रोने पर तनिक ध्यान नहीं देता । ऐसी स्थिति में वह अपना कर्तव्य निभाने का पुण्योत्पादक स्तुत्य प्रयास कर रहा है। इसके विपरीत जो डाक्टर लोभ के कारण या किसी द्वषादि के कारण रोगी के रोग का उपशमन नहीं करता या उसे बढ़ाने का प्रयास करता है तो वह पाप का बन्ध करता है । इन्हीं सदसद् प्रवृत्तियों के कारण मनुष्य विवेकी और अविवेकी बन कर पुण्य और पाप का बन्ध कर लेता है । एक और उदाहरण लीजिये-कल्पना करो कि एक व्यक्ति को थानेदार बना दिया गया, थानेदार बन जाने के अनन्तर उस व्यक्ति का कर्तव्य हो जाता है कि वह चोर डाकू आदि को पकड़ कर उसे उसके अपराध का दण्ड दिलावे । परन्तु यदि किसी प्रकार के लालच में आकर उसे छोड़ दे या उसके अपराध की अपेक्षा उसे अधिक दण्ड दिलाये तो वह अपने कर्तव्य का पालन या अधिकार का उचित उपयोग नहीं करता । उस का यह व्यवहार अवश्य निन्दनीय, अवांछनीय एवं विवेकशून्य है, और इस आचरण से वह अवश्य ही पाप कर्म का बन्ध करेगा । तात्पर्य यह है कि लोभादि के किसी भी कारण से अपने कर्तव्य को भुला कर अन्याय में रत रहने से मनुष्य पाप कर्म का बन्ध करता है । दुर्योधन कारागृहरक्षक-जेलर के जीवन में इसी प्रमादजन्य अविवेक की अधिक मात्रा दिखाई देती है । अपराधियों को दण्ड देने के लिए उसने जिस साधन-सामग्री को अपने पास संचित कर रक्खा है, उस को देखते हुए प्रतीत होता है कि अपराधियों को दण्ड देने में उस के परिणाम अत्यन्त कठोर और अमर्यादित रहते थे, तथा महाराज सिंहस्थ के राज्य में जो For Private And Personal Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित [ ३५७ लोग चोरी करते, दूसरों की स्त्रियों का अपहरण करते, लोगों की गांठ कतर कर धन चुराते, राज्य को हानि पहुँचाने का यत्न करते तथा बालहत्या और विश्वासघात करते, उन को दुर्योधन कोतवाल जो " दण्ड देता उस पर से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि दुर्योधन चारकपाल के सन्मुख अपराधी के अपराध और उसके दंड का कोई मापदण्ड नहीं था । उस की मनोवृत्ति इतनी कठोर और निर्दय बन चुकी थी कि थोड़े से अपराध पर भी अपराधी को अधिक से अधिक दण्ड देना ही उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य बन चुका था, और इसी में वह अपने जीवन को सफल एवं कृतकृत्य मानता था । अपराधी को दंड न देने का किसी धर्मशास्त्र में उल्लेख नहीं है । शासन व्यवस्था और लोकमर्यादा को कायम रखने के लिये दण्डविधान की आवश्यकता को सभी नीतिज्ञ विद्वानों ने स्वीकार किया है, परन्तु उसका मर्यादित आचरण जितना प्रशंसनीय है, उतना ही निन्दनीय उसका विवेकशून्य मर्यादित आचरण है। जोकि भीषणातिभीषण नारकीय दुःखों के उपभोग कराने का कारण बनता हुआ आत्मा को जन्म मरण के परंपराचक्र में भी धकेल देता है । दुर्योधन चारकपाल ने दण्डविधान में जो प्रमादजन्य अथच मनमाना आचरण किया, उसी के फलस्वरूप उस को छठी नरक में २२ सागरोपम के बड़े लम्बे काल तक नारकीय भीषण यातनाओं का अनुभव करने के अतिरिक्त यहाँ पर नन्दीषेण के भव में भी स्वकृत पापकर्मजन्य अशुभ विपाक - फल का भयानक अनुभव करना पड़ा है । “ – अप्पेगतियाणं तेण चेव श्रोवीलं दलयति - " इन पदों की व्याख्या वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि के शब्दों में “ - तेनैव वान्तेन श्रवपीड शेवर, मस्तके तस्यारोपणात् उपपीडां वा वेदनां दलयति त्ति करोति" इस प्रकार है । अर्थात् पूर्व कराई हुई वमन को अपराधी के सिर पर रख कर उसे पीडित करता था, अर्थात् अधिक से अधिक अपमानित करता था । परन्तु श्रद्धेय पण्डित मुनि श्री घासी लाल जी म० “ - श्रप्पेगतियाणं तेणं चैव श्रोवीलं दलयति" इन पदों का अर्थ निम्नोक्त करते हैं " अप्येकान् तेन वान्ताशनादिना पुनरपि श्रवपीडां वेदनां दापयति कारयतीत्यर्थः -- " अर्थात् कई एक को वमन कराता था पुनः उसी वान्त पदार्थ को उन्हें खिलाता था, इस प्रकार वह दुर्योधन चार कपाल कई एक को प्राणान्तक कष्ट पहुँचाया करता था । "सत्थोवाडिए – ” पद का अर्थ है - शस्त्र से उत्पादित अर्थात् खड्ग आदि शस्त्रों से कई एक का विदारण कर डालता था, उन्हें फाड़ देता था । “ – श्रगडीस उच्चूलं बोलगं पज्जेति - " इन पदों में प्रयुक्त अगड़-शब्द के कूप अथवा कूप के समीप पशुओं को जल पिलाने के लिये जो स्थान बनाया जाता है, वह " ऐसे दो अर्थ होते हैं । श्रवचल का अर्थ है - सर को नीचे और पांव को ऊपर करके लटका हुआ । बोलग - यह देश्य - देशविशेष में बोला जाने वाला पद है। जिस का अर्थ डूबना होता है और पज्जेति का अर्थ - पिलाता है । परन्तु प्रस्तुत में - बोलगं पज्जेति - यह लोकोक्ति-मुहावरा है जो गोते खिलाता (१) दुर्योधन चारकपाल जिस विधि से अपराधियों को दण्डित एवं fasम्बित किया करता था, उस का वर्णन मूलार्थ में पृष्ठ ३५५ पर किया जा चुका है । (२) नन्दीषेण के सम्बन्ध में कुछ पहले पृष्ठ ३४३ पर मूलार्थ में बतलाया जा चुका शेष आगे बतलाया जायगा । For Private And Personal तथा Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३५८] श्री विपाक सूत्र [षष्ठ अध्याय है । इस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । तात्पर्य यह है कि अपराधियों को सर नीचे और पांव ऊंचे करके दुर्योधन चारकपाल कूपादि में गोते खिला कर अत्यधिक पीडित किया करता था । - उरे सिलं दलावेइ-की व्याख्या. टीकाकार ने "- उरसि पाषाणं दापयति तदुपरि लगुड दापयति, ततस्तं पुरुषाभ्यां लगुडोभयप्रतिनिविष्टाभ्यां लगुडमुत्कंपयति, अतीव चालयति यथाऽपराधिनोऽस्थीनि दल्यन्ते इति भावः-इस प्रकार है, अर्थात् अपराधी को सीधा लिटा कर उस की छाती पर एक विशाल शिला रखवाता है और उस पर एक लम्बा लक्कड़ धरा कर उस के दोनों ओर पुरुषों को बिठाकर उसे नीचे ऊपर कराता है, जिस से अपराधी के शरीर की अस्थिय टूट जावें और उसे अधिक कष्ट पहुंचे । सारांश यह है कि अपराधी को अधिक से अधिक भयंकर तथा अमर्यादित कष्ट देना ही दुर्योधन के जीवन का एक प्रधान लक्ष्य बन चुका था ।। ... "- भनि कडूयाति -" इन पदों का अर्थ वृत्तिकार के शब्दों में "-अंगुलीप्रवेशितसूचीकः हस्तभूमिकडूयने महादुःखमुत्पद्यते इति कृत्वा भूमिकडूयनं 'कारयतीति-" इस प्रकार है अर्थात् हाथों की अंगुलियों में सूइयों के प्रविष्ट हो जाने पर भूमि को खोदने में महान् दुःख उत्पन्न होता है । इसी कारण दुर्योधन चारकपाल अपराधियों के हाथों में सुइएं प्रविष्ट करा कर उन से भूमि खुदवाया करता था। -दब्भेहि य कुसेहि य अल्जवम्मेहि य वेढावेति, आयवंसि दलयति २ सुक्खे समाणे चडचडस्स उप्पाडेति-अर्थात् शस्त्रादि से अपराधियों के शरीर को तच्छवा कर, दर्भ (मूलसहित घास), कुशा (मूलरहित घास) तथा आर्द्र चमड़े से उन्हें वेष्टित करवाता है, तदनन्तर उन्हें धूप में खड़ा कर देता है जब वे दर्भ, कुशा तथा आर्द्र चमड़ा सूख जाता था तब दुर्योधन चारकपाल उन को उनके शरीर से उखाड़ता था। वह इतने ज़ोर से उखाड़ता था कि वहां चड़चड़ शब्द होता था और दर्भादि के साथ उन की चमड़ी भी उखड़ जाती थी। इस प्रकार के अपराधियों को दिये गए नृशंस दण्ड के वर्णन से भली भान्ति पता चल जाता है कि दुर्योधन चारकपाल का मानस बड़ा निर्दयी एव करतापूर्ण था । वह अपराधियों को सताने में, पीड़ित करने में कितना अधिक रस लेता था ? यह ऊपर के वर्णन से स्पष्ट ही है । उन्हीं पापमयी एवं करतामयी दूषित प्रवृत्तियों के कारण उसे छठी नरक में जाकर २२ सागरोपम तक के बड़े लम्बे काल के लिये अपनी करणी का फल पाना पड़ा । इस पर से शिक्षा ग्रहण करते हुए सुखाभिलाषी पाठकों को सदा करतापूर्ण एवं निर्दयतापूर्ण प्रवृत्तियों से विरत रहने का उद्योग करना चाहिये, और साथ कर्तव्य पालन की ओर सतत जागरूक रहना चाहिये। - (१) पण्डित मुनि श्री घासी लाल जी म०- कण्डूयावेति - का अर्थ-कण्डावयति भूमी घर्षयतीत्यर्थः । करचरणांगुलिषु सूचीः प्रवेश्य करचरणयोभूमौ धर्षणेन महादु:समुत्पादयतीति भावः - इस प्रकार करते हैं । अर्थात् कंडूयावेति-का अर्थ है---भूमी पर घसीटवाता है । तात्पर्य यह है कि हाथों तथा पैरों की अंगुलियों में सूइयों का प्रवेश करके उन्हें भूमि पर घसीटवा कर महान् दुःख देता है। . अर्धमागधीकोषकार - कण्डूयन शब्द के खोदना, खड्डा करना, ऐसे दो अर्थ करते हैं । परन्तु प्राकृतशब्दमहार्णव नामक कोष में कंड्रयन शब्द का अर्थ खुजलाना लिखा है। For Private And Personal Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जा चुका है। षष्ठ अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ३५९ उहमुत्तं, गोमुत्तं महिसमुत्तं - पज्जेति जाव एलमुत्तं - यहां पठित जाव यावत् पद से श्रयमुखं इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन पदों का अर्थ स्पष्ट ही हैं । करेति जाव सत्थोवाडिए यहां के जाव-यावत पद से - पायचिन काछिन्नए, नक्कछिन्नए, उनिए, जिन्भद्दिन्नर, सीसछिन्नए - इत्यादि पदों का ग्रहण करना चाहिये । जिस के पांव काटे गये हैं उसे पादछिन्नक, जिसके कान काटे गये हों उसे कर्णछिन्नक, जिस का नाक काटा गया हो उसे नासिकाछिन्नक, जिसके होंठ काटे गये हैं उसे श्रोष्ठछिनक जिस की जिह्वा काटी गई है उसे जिहवाछिन्नक और जिस का शिर काटा गया है उसे शीर्ष छिनक कहते हैं । - वेणुलयाहि य जाव वायरासीहि-यहां के जाब- यावत् पद से - वेत्तलयाहि य चिञ्चालयाहि य छिवाहि य कसाहि य इन पदों का तथा- - तंतीहि य जाव सुत्तरज्जूहि ययहां के जाव यावत् पढ़ से - वरताहि य वागरज्जूहि य वालरज्जूहि य - इन पदों का, तथा - असिपत्रोहि य जाव कलंबचीरपत्तेहि य- यहां के जाव यावत् पद से - करपत्ते हि य खुरपत्तहि य - इन पदों का, तथा — सत्थरहिं जाव नहछेदणएहि - यहां के जाव यावत् पद से पिप्पलेहि कुहाडेहि य- इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन सब का अर्थ पृष्ठ ३५० तथा ३५१ पर किया जा चुका है । - एयकम्मे ४ - यहां दिये गए ४ के अंक से विवक्षित पाठ का वर्णन पृष्ठ १७९ के टिप्पण में किया Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रस्तुत कथासन्दर्भ के परिशीलन से जहां " - दुर्योधन चारकपाल निर्दयता की जीती जागती मूर्ति थी, उसका मानस अपराधियों को भीषण दंड देने पर भी सन्तुष्ट नहीं हो पाता था, श्रतः एव वह अत्यधिक क्रूरता लिये हुए था - " इस बात का पता चलता है, वहां यह श्राशंका भी उत्पन्न हो जाती है कि दुर्योधन चरकपाल से निर्दयतापूर्ण दण्डित हुए लोग उस दण्ड को सहन कैसे कर लेते थे १ मानवी प्राणी में इतना बल कहां हैं जो इस प्रकार के नरकतुल्य दुःख भोगने पर भी जीवित रह सके ? उत्तर - अपराधियों के जीवित रहने या मर जाने के सम्बन्ध में सूत्रकार तो कुछ नहीं बतलाते, जिस पर कुछ दृढ़ता से कहा जा सके । तथापि ऐसी दण्ड – योजना में अपराधी का मर जाना कोई असंभव नहीं कहा जा सकता और यह भी नहीं कहा जा सकता कि अपराधी अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त कर लेते थे, क्योंकि दृढ़ संहनन वालों का ऐसे भीषण दण्ड का उपभोग कर लेने पर भी जीवित रहना संभव है । कैसे संभव है १, इस के सम्बन्ध में पीछे पृष्ठ २७३ पर विचार किया गया है। पाठक वहां देख सकते हैं । इतना ध्यान रहे कि वहां अभमसेन से सम्बन्ध रखने वाला वर्णन है, जब कि प्रस्तुत में अपराधियों से सम्बन्ध रखने वाला अव सूत्रकार उसके भावी जीवन का निम्नलिखित सूत्र में उल्लेख करते हैंमूल- से गं ततो तर उच्चट्टित्ता इहेव महुगण रायरीए सिरिदामस्स रणो -9 (१) छाया - स ततोऽनन्तरमुद् नृत्येहैव मथुरायां नगर्यां श्रीदाम्नो राज्ञो बन्धुभयो देव्याः कुक्षौ पुत्रartyraः । ततो बन्धुश्रीः नवसु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु दारकं प्रयाताः । ततस्तस्य दारकस्याम्बापितरौ निवृत्ते द्वादशाहे इदमेतद्रूपं नामधेयं कुरुतेः - भवत्वस्माकं दारको नन्दिषेणो नाम्ना । ततः नन्दिषेणः कुमारः पंचधात्रीपरिगृहीतो यावत् परिवर्द्धते । ततः सनन्दिषेणः कुमारः उन्मुक्तबालभावो यावद् विहरति यावद् युवराजो जातश्चाप्यभवत् । ततः स नन्दिषेणः कुमारो राज्ये च यावदन्त पुरे For Private And Personal Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३६०] श्री विपाक सूत्र - [ षष्ठ अध्याय 1 - अम्मा पितरो - माता बंधुसिरीए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्ने । तते गं बन्धुसिरी नवरहं मासाणं बहुपपुराणं दारगं पयाया । तते गं तस्स दारगस्स अम्मापितरो णिव्वते बारसाहे इमं एयारूवं णामघेज्जं करेंति, होउ णं अहं दारगे गं दिसेणे नामेण । तते गं से दिसेणे कुमारे पंचधातीपरिग्गहिते जाव परिवड्ढति । तते गं से गं दिसेणे कुमारे, उम्मुकवालभावे जाव विहरति जाव जुवराया जाते यावि होत्था । तते गं से गं दिसे कुमारे रज्जेय जाव अंते उरे य मुच्छिते ४ इच्छति सिरिदामं रायं जीविताश्रो ववरोवित्ता सयमेव रज्जसिरिं कारेमाणे पालेमाणे विहरिए । तते गं से गंदिसेणे कुमारे सिरिदामस्स रणो बहूणि अन्तराणि य छिद्दाणि य विरहाणि य पडिजागरमाणे विहति । पदार्थ - से गं - वह । ततो- वहां से । श्रणंतरं - अन्तर रहित । उवहित्ता – निकल कर । इहेव - इसी । महूराए - मथुरा । नयरीप - नगरी में । सिरिदामस्स - श्रीदाम । रराणो- -राजा की । बंधु सिरिए - बन्धुश्री । देवीप - देवी की । कुच्छिसि - कुक्षि- - उदर में । पुत्तत्ताए- पुत्र - रूप से । उववन्ने – उत्पन्न हुआ । तते गं - तदनन्तर । बंधुसिरी - बन्धुश्री ने । नवराहं -नव । मासाणं - मास के । बहुपडिपुराणाणं - लगभग पूर्ण होने पर । दारयं -- बालक को । पयाया - जन्म दिया । तते णं - तदनन्तर । तस्स - उस । दारगस्स – बालक के । I पिता । णिव्वत्ते बारसाहे - जन्म से बारहवें दिन । इमं - यह । पयारूवं णामधेज्जं - नाम | करेंति - करते हैं । श्रहं - हमारा । दारए - बालक नामे - नाम से । होउ णं- हो । तते गं - तदनन्तर । से - वह । कुमारे - कुमार | पंचधातीपरिग्गहिते - पांच धाय वत् । परिवड्ढति - वृद्धि को प्राप्त होने लगा । नन्दिषेण । कुमारे-कुमार । उम्मुक्कवालभावे - विहरति - विहरण करने लगा । जाव - यावत् । जुबराया यावि-युवराज पद को भी। जातेप्राप्त । होत्या - हो गया था । तते गं - तदनन्तर । से- वह कुमारे-कुमार । रज्जे य-राज्य में । जाव- यावत् मूच्छित अर्थात् राज्यादि के ध्यान में पगला बना हुआ, में बन्धा हुआ और अभ्युपपन्न - श्रासक हुआ २ । सिरिदामं श्रीदाम । ताओ - जीवन से । ववरोवित्ता-व्यपरोपित कर मार कर । सयमेव राज्यश्री - राज्य की लक्ष्मी को । कारेमाणे - कराता हुआ अर्थात् अमात्य आदि के द्वारा बढाता हुआ । पालेमाणे – पोषण करता हुआ । विहरित - विहरण करने की इच्छति इच्छा करता । तते णं - तदनन्तर । से - वह । णं दिसे–नन्दिषेण । कुमारे कुमार । सिरिदामस्स - श्रीदाम । रराणो - राजा के । बहूणि अनेक । अन्तराणि य - अन्तर - अवसर । छिद्दाणि यछिद्र - अर्थात् जिस समय पारिवारिक व्यक्ति अल्प हो । विरहाणि य - विरह - अर्थात् कोई भी पास च मूच्छितः ४ इच्छति श्रीदामानं राजानं जीविताद् व्यपरोष्य स्वयमेव राज्यश्रियं कारयन् पालयन् विहतुम् । ततः स नन्दिषेणः कुमारः श्रीदाम्म्रो राज्ञो बहून्यन्तराणि च छिद्राणि च विरहांश्च प्रतिजागरयन् विहरति । माताओं से परिगृहीत हुआ तते गं - तदनन्तर । से - वह बालभाव को त्याग कर । जाव यावत् । । 1 For Private And Personal Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अंतेउरे य गृद्ध - श्राकांक्षा इस प्रकार का । | जंदिसेणे - नन्दिषेण । दिसेणे नन्दिषे । - - - | । । 1 मंदि सेणे - नन्दिषेण अन्तःपुर में । मूच्छिते ४– वाला ग्रथित स्नेहजाल रायं राजा को । जीविस्वयं ही । रज्जसिरि जाव - या - दिसेणे - Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित। न हो, राजा अकेला हो. इस प्रकार, अवसर, छिद्र और विरह की । पडिजागरमाणे -प्रतीक्षा करता हुआ । विहरति-विहरण करने लगा । : मूलार्थ-तदनन्तर वह दुर्योधन चारकपाल नरक से निकल कर इसो मथुरा नगरी में श्रीदाम राजा की बन्धुश्री देवी को कुक्षि - उदर में पत्ररूप से उत्पन्न हुआ। तदनन्तर लगभग नवमास पारपूण होने पर बन्धुश्री ने बालक को जन्म दिया । तदनन्तर बारहवें दिन माता पिता ने उत्पन्न हुए बालक का नन्दिषेण यह नाम रक्खा । नदनन्तर पांच धाय माताओं के द्वारा सुरक्षित नन्दिषेण कुमार वृद्धि को प्राप्त होने लगा, तथा जब वह बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त हुआ तब इसके पिता ने इस को यावत् युवराज पद प्रदान कर दिया. अर्थात् वह युवराज बन गया । तत्पश्चात् राज्य और अन्तःपुर में अत्यन्त आसक्त नन्दिषेण कुमार श्रीदाम राजा को मार कर उसके स्थान में स्वयं मन्त्री आदि के साथ राज्यश्री-राज्यलक्ष्मी का सम्वर्धन कराने तथा प्रजा का पालन पोषण करने की इच्छा करने लगा । तदर्थ कुमार नन्दिषेण महाराज श्रीदाम के अनेक अन्तर. छिद्र तथा विरह की प्रतीक्षा करता हुआ विहरण करने लगा। टीका-प्रस्तुत सूत्र में दुर्योधन चारकपाल - कारागाररक्षक-जेलर का नरक से निकल कर मथुरा नगरी के सुदाम नरेश की बन्धुश्री भार्या के उदर में पुत्ररूप से उत्पन्न होने, और समय पाकर जन्म लेने तथा माता पिता के द्वारा नन्दिषेण - यह नामकरण के अनन्तर यथाविधि पालन पोषण से वृद्धि को प्राप्त होने का उल्लेख करने के पश्चात् युवावस्थासम्पन्न युवराज पद को प्राप्त हुए नन्दिषेण की पिता को मरवा कर स्वयं राज्य करने की कुत्सित भावना का भी उल्लेख कर दिया गया है। युवराज नन्दीषण राज्य को शीघ्रातिशीघ्र उपलब्ध करने के लिये ऐसे अवसर की ताक में रहता था कि जिस किसी उपाय से राजा की मृत्यु हो जाए और वह उस के स्थान में स्वयं राज्यसिंहासन पर श्रारूढ हो कर राज्यवैभव का यथेच्छ उपभोग करे । इस कथा -सन्दर्भ से सांसारिक प्रलोभनों में अधिक आसक्त मानव की मनोवृत्ति कितनी दूषित एवं निन्दनीय हो जाती है १, यह समझना कुछ कठिन नहीं है । पिता की पुत्र के प्रति कितनी ममता और कितना स्नेह होता है , तथा उस के पालन पोषण और शिक्षण के लिये वह कितना उत्सुक रहता है ।, तथा उसे अधिक से अधिक योग्य और सुखी बनाने के लिये वह कितना प्रयास करता है , इस का भी प्रत्येक संसारी मानव को स्पष्ट अनुभव है। श्रीदाम नरेश ने पितृजनोचित कर्तव्य के पालन में कोई कमी नहीं रक्खी थी। नन्दिषेण के प्रति उस का जो कर्तव्य था उसे उसने सम्पूर्णरूप से पालन किया था। इधर युवराज नन्दिषेण को भी हर प्रकार का राज्यवैभव प्राप्त था । उस पर सांसारिक सुख. सम्पत्ति के उपभोग में किसी प्रकार का भी प्रतिबन्ध नहीं था । फिर भी राज्यसिंहासन पर शीघ्र से शीघ्र बैठने की जघन्यलालसा ने उस को पुत्रोचित कर्तव्य से सर्वथा विमुख कर दिया । वह पितृभक्त होने के स्थान में पितृघातक बनने को तैयार हो गया । किसी ने - ऐहिक जघन्य महत्वाकांक्षाएं मनुष्य का महान पतन कर डालती हैं, यह सत्य ही कहा है । __ "-पंचधातीपरिग्गहिते जाव परिवड्ढति-" यहां पठित जाव -यावत् पद से पृष्ठ १५७ पर पढ़े गए -तंजहा खौरधातीर १ मज्जण. २ मण्डण ३ कोलावण-से लेकर--सुईसुहेणं-" यहां तक के पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। For Private And Personal Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३६२] श्री विपाक सूत्र [षष्ठ अध्याय "-उम्मुश्कबालभावे जाव विहरति-" यहां पठित जाव - यावत् पद से "-जोव्वगगमणुप्पत्त विन्नायरिणयमेत्त-" इन पदों का ग्रहण करना चाहिए | इन पदों का अर्थ पंचम अध्ययन के पृष्ठ ३२९ पर लिखा जा चुका है ।। "-अन्तराणि-" इत्यादि पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में "- अन्तराणि, श्रवसरान् छिद्राणि-अल्पपरिवारत्वानि, विरहाणि-विजनत्वानि-" इस प्रकार है, अर्थात् अन्तर अवसर का नाम है, छिद्र शब्द अल्पपरिवार का होना-इस अर्थ का बोधक है । अकेला होना-इस अर्थ का परिचायक विरह शब्द है। “-बन्धुसिरीए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्ने-" इस पाठ के अनन्तर पण्डित मुनि श्री घासी लाल जी म० बन्धुश्री देवी के दोहदसम्बन्धी पाठ का भी उल्लेख करते हैं, वह पाठ निम्नोक्त है "-तए णं तीसे वन्धुसिरीए देवीए तिण्हं मासाणं बहुपडिपुराणाणं इमे एयासवे दोहले पाउन्भूते-धन्नारो णं ताओ अम्मयाओ जाव जाओ णं अप्पणो पइस्स हिययमसेण जाव सद्धि सुरंच ५ जाव दोहलं विणेति । तं जइ णं अहमवि जाव विणिज्जामि त्ति का तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि जाव झियाइ । रायपुच्छा । बन्धुसिरीभणणं । तए णं से सिरिदामे राया तीसे बन्धुसिरीए देवीए तं दोहलं केण वि उवाए विणेइ। तए णं सा वन्धुसिरी देवी सम्पुरणदोहला ५ तं गब्भं सुहंसुहेणं परिवहइ-"। इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है गर्भस्थिति होने के अनन्तर जब बन्धुश्री देवी का गर्भ तीन मास का हो गया तब उसे इस प्रकार का दोहद (गर्भिणी स्त्री का मनोरथ) उत्पन्न हुआ कि वे माताए धन्य है, यावत् अर्थात् पुण्यवती हैं, कृतार्थ हैं, कृतपुण्य हैं, उन्होंने ही पूर्वभव में पुण्योपार्जन किया है, कृतलक्षण हैं-वे शुभ लक्षणों से युक्त हैं और कृतविभव अर्थात् उन्होंने ही अपने विभव-सम्पत्ति को दानादि शुभकार्यों में लगा कर सफल किया है, उन्हीं का मनुष्यसम्बन्धी जन्म और जीवन सफल है, जो अपने २ पति के मांस यावत् अर्थात जो तलित, भर्जित और शूल पर रख कर पकाया गया हो, के साथ 'सुरा, मधु, मेरक, जाति, सीधु और प्रसन्ना, इन छः प्रकार की मदिराओं का एक बार श्रास्वादन करतीं, बार बार स्वाद लेती, परिभोग करती और अन्य स्त्रियों को देती हुई दोहद को पूर्ण करती हैं । सो यदि मैं भी यावत अर्थात् इसी प्रकार से श्रीदाम राजा के हृदय के मांस का छः प्रकार की मदिराओं के साथ उपभोग आदि करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करूं, तो अच्छा हो । ऐसा सोच कर वह उस दोहद के अपूर्ण रहने पर यावत् अर्थात् सूखने लगी. मांसरहित, निस्तेज, रुग्ण, और रोगग्रस्त शरीर वाली एवं हताश होती हुई आर्तध्यानमूलक विचार करने लगी । ऐसी स्थिति में बैठी हुई उस बन्धुश्री को एक समय राजा ने देखा और इस परिस्थिति का कारण पूछा । तब उस बन्धुश्री ने अपना सब वृत्तान्त कह सुनाया । तदनन्तर मथुरानरेश श्रीदाम ने उस बन्धुश्री देवी के उस दोहद को किसी एक उपाय से अर्थात् जिस से वह समझ न सके इस प्रकार अपने हृदयमांस के स्थान पर रखी हुई मांस के सदृश अन्य वस्तुओं के द्वारा पूर्ण किया. फिर बन्धुश्री देवी ऐसा करने से उस दोहद के सम्पूर्ण होने पर, सम्मानित होने (१) सुरा, मधु आदि पदों का अर्थ पृष्ठ १४४ पर लिखा जा चुका है । For Private And Personal Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्याय 1 हिन्दी भाष, टीका सहित पर, इष्ट वस्तु की अभिलाषा के परिपूर्ण हो जाने पर उस गर्भ को धारण करने लगी । अस्त अब नन्दिषण ने स्वयं राज्यसिंहासन पर आरूढ़ होने के लिये, अपने पिता श्रीदाम को मरवाने के लिये जो षड्यन्त्र रचा और उस में विफल होने से उस को जो दंड भोगना पड़ा, उस का वर्णन अग्रिम सूत्र में किया जाता है मल- तते णं से णंदिसेणे कुमारे सिरिदामस्स रएणो अंतरं अलभमाणे अन्नया कयाइ चित्तं अलंकारियं सदावेति २ एवं वयासी-तुमं णं देवाणुप्पिए ! सिरिदामस्स रगणो सव्वट्ठाणेसु सव्वभूमियासु अन्तेउरे य दिएणवियारे सिरिदामस्स रएणो अभिक्खणं २ अलंकारियं कम्मं करेमाणे विहरसि, तं णं तुमं देवाणुप्पिए । सिरिदामस्स रएणो अलंकारियं कम करेमाणे गीवाए खुरं निवेसेहि । तए णं अहं तुम अद्धरज्जियं करिस्सामि, तुमं अम्हेहिं सडिं उराले भोगभोगे भुञ्जमाणे विहरिस्ससि । तते ण से चित्ते भलंकारिए एंदिसेणस्स कुमारस्स वयणं एयमट्ठ पडिसुणेति, तते णं तस्स चित्तस्स अलंकारियस्स इमे एयारूवे जाव समुप्पज्जित्था-जति णं ममं सिरिदामे राया एयमट्ट श्रागमेति, तते ण ममं ण णज्जति केणइ असुभेणं कुमारेणं मारिस्सति ति कट्ट भीए ४ जेणेव सिरिदामे राया तेणेव उवागच्छइ २ सिरिदामं रायं रहस्मियं करयल० जाव एवं वयासी-एवं खलु सामी! णंदिसेणे कुमारे रज्जे जाव मुच्छिते ४ इच्छति तुम्भे जीविताओ ववरोवेत्ता सयमेव रज्जसिरि कारेमाणे पालेमाणे विहरितए । तते णं से सिरिदामे राया चित्तस्स अलंकारियस्स अंतिए एयम सोचा निसम्म प्रासुरुत्ते जाव साइट्ट दिसेणं कुमारं पुरिसेहि गेएहावेति २ एएणं विहाणेणं वझं प्राणवेति । तं एवं खलु गोतमा ! णंदिसेणे पुत्ते जाव विहरति । (१) छाया-ततः स नन्दिषेण: कुमारः श्रीदाम्नो राज्ञः अन्तरमलभमानोऽन्यदा कदाचित् चित्रमलंकारिक शब्दयति २ एवमवादीत् -त्वं खलु देवानुप्रिय ! श्रीदाम्रो राज्ञः सर्वस्थानेषु सर्वथामकासु अन्तःपुरे च दत्तविचारः श्रीदाम्नो राज्ञोऽभीक्ष्णम् २ अलंकारिक कर्म कुर्वाणो विहरसि, तत् त्वं देवानुप्रिय ! श्रीदाम्नो राज्ञः अलंकारिकं कर्म कुर्वाणो ग्रीवायां तुरं निवेशय । ततोऽहं त्वामदराज्यिकं करिष्या'म, त्वमस्माभिः सामुदारान् भोगभोगान् भुजानो विहरिष्यसि । ततः स चित्र अलंकारिको नंदिषेणस्य कुमारस्य वचनमेतदर्थ प्रतिशृणोति, ततस्तस्य चित्रस्यालंकारिकस्य अयमेतद्रपो यावत् समुदपद्यत - यदि मम श्रीदामा राजा एनमर्थमागच्छति, ततो मम न ज्ञायते, केनचिद् अशुभेन कुमारेण मारयिष्यति. इति कृत्वा भीतो ४ यत्रैव श्रीदामा राजा तत्रेवोपागच्छति, उपागत्य श्रीदामा राजानं राहस्यिकं करतल. यावद् एवमवादीत्-एवं खलु स्वामिन् ! नन्दिषेण: कुमारो राज्ये यावद् मूञ्छितः ४ इच्छति युष्मान् जीविताद् व्यपरोप्य स्वयमेव राज्यश्रियं कारयन् पालयन् विहतुम् । तत: स श्रीदामा राजा चित्रस्थालंकारिकस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य, अाशरुतः यावत् संहृत्य नन्दिषेणं कुमारं पुरुषेहियति २ एतेन विधानेन वध्यमाज्ञापयति । तदेवं खलु गौतम ! नन्दिषेणः पुत्र' यावद् विहरति । For Private And Personal Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३६४] श्री विपाक सूत्र अध्याय पदार्थ-तते ण- तदनन्तर । से-वह । दिसेणे-- नन्दिषेण । कुमारे - कुमार । सिरिदामस्स-श्रीदाम । रराणो-राजा के । अंतरं-मारने के अवसर को । अलभमाणे-प्राप्त न करता हुआ । अन्नया-अन्यदा । कयाइ - कदाचित् । चित-चित्र नामक । अलंकारियंअलंकारिक - नाई को । सद्दावीत २ ता-बुलाता है, बुला कर । एवं- इस प्रकार । क्यासीकहने लगा । देवाणुप्पए !-हे भद्र ! । तुम ण-तुम । सिरिदामस्स-श्रीदाम । रराणो-राजा के। सव्वट्ठाणेसु - शयनस्थान, भोजनस्थान आदि सर्व स्थानों में। सव्वभमियासु-सर्व भूमिकाओं अर्थात् राजमहल की सभी भूमिकाओं - मंजिलों में । य-तथा । अन्तेउरे-अन्तःपुर में। दिएणवियारे - दत्तविचार हो अर्थात् राजा की ओर से जिस को आने जाने की आजा मिली हुई हो, ऐसे हो, तथा । सिरिदामस्स-श्रीदाम । रराणो-राजा का । अभिक्खण २-पुनः २ । अलंकारियं कम्म- अलंकारिक कर्म-क्षौरकर्म । करमाणे- करते हुए । विहरसि- विहरण कर रहे हो । तरण - इस लिये । देवाणुप्पिए!-हे महानुभाव! । तम-तुम ने । सिरिदामस्स. - श्रीदाम । रराणोराजा का । अल कारियं कम्म-अलंकारिक कर्म । करमाणे-करते हुए, उसकी । गीवार - ग्रीवा -- गरदन में । खुर-तुर - उस्तरे को । निवेसेहि-प्रविष्ट कर देना । तगणं - तो। अहंमैं । तुम-तुम को । अद्वरज्जियं करिस्लामि-अर्द्धराज्य से युक्त कर दूंगा अर्थात् तुम्हें आधा राज्य दे डालूगा । तुम-तुम । श्रम्हहिं - हमारे । सद्धि-साथ । उराले - उदार-प्रधान । भोगभोगे - काम भोगों का । भु'जमाणे-उपभोग करते हुए । विहरिस्ससि-विहरण करोगे । तते णं - तदनन्तर । से-वह । चित्त-चित्र नामक । अलंकारिए-अलंकारिक-नाई । णंदिसेणस्सनन्दिषेण । कुमारस्स-कुमार के । एयम8-एतदर्थक --उक्त अर्थ वाले । वचनं - वचन को । पडिसुणेति- स्वीकार करता है । तते णं-तदनन्तर । तस्स-उस । चित्तस्स - चित्र नामक । अलंकारियस्स-अलंकारिक को । इमे- यह । एयारूवे-इस प्रकार के । जाव-यावत् विचार। समुप्पज्जित्था-उत्पन्न हुए । जति णं-यदि । सिरिदामे-श्रीदाम राजा । मम-मेरी। एयमइस बात को । आगमेति-जान ले । तता णं-तो । ममं-मुझे । ण णज्जति-न जाने अर्थात् यह पता नहीं कि वह । केणइ-किस । असुभेणं-अशभ । कुमारेणं-कुमौत-कुत्सित मार से । मारिस्सति-मारेगा । त्ति कह -ऐसे विचार कर । भीए ४-भीत-भयभीत हुआ, त्रस्त अर्थात् यह बात मेरे प्राणों की घातक होगी, इस विचार से त्रस्त हुआ, उद्विग्न -प्राणघात के भय से उस का हृदय काम्पने लगा, संजातभय अर्थात् मानसिक कम्पन के साथ २ उस का शरीर भी कांपने लगा, इस प्रकार भीत, त्रस्त, उद्विग्न और संजातभय हुआ वह । जेणेव - जहां पर । सिरिदामेश्रीदाम । राया.-राजा था । तेणेव-वहीं पर । उवागच्छइ २ ता-श्रा जाता है, अाकर । सिरिदाम-श्रीदाम । रायं-राजा को । रहस्सियं-एकान्त में । करयल० – हाथ जोड़ । जावयावत् अर्थात् मस्तक पर दस नखों वाली अंजली रख कर | एवं-इस प्रकार । वयासी- कहने लगा । एवं-इस प्रकार । खलु-निश्चय ही | सामी!-हे स्वामिन् ! । गंदिसेणे-नन्दिषेण । कुमारे-कुमार । रज्जे-राज्य में । जाव-यावत् । मुच्छिते. ४ - मूछित, गृद्ध ग्रथित और अध्पुपपन्न हुआ । तुन्भे-आप को । जीविताओ-जीवन से । ववरोवेत्ता- व्यपरोपित कर अर्थात् आप को मार कर । सयमेव-स्वयं ही । रज्जसिरिं-राज्यश्री- राजलक्ष्मी का । कारेमाणेसंवर्धन कराता हुआ । पालेमाणे-पालन करता हुआ । विहरित्तए - विहरण करने की । इच्छतिइच्छा रखता है । तते णं-तदनन्तर । से-वह । सिरिदामे-श्रीदाम । राया--राजा । चित्त For Private And Personal Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित [३६५ स्स-चित्र । अलंकारियस्स -- अलंकारिक के । अंतिए-पास से । एयमg-इस बात को। सोच्चासुन कर, एवं । निसम्म-अवधारण-निश्चित कर। आसुरुत्ते - क्रोध से लाल पीला होता हुआ । जाव-यावत् । साहद-मस्तक में तिउड़ी चढ़ा कर अर्थात् अत्यन्त कोधित होता हुआ । णंदिसेणंनन्दिषेण । कुमारं-कुमार को । पुरिसेहि- पुरुषों के द्वारा । गेराहावेति २ त्ता- पकड़वा लेता, है, पकड़वा कर । एएणं - इस । विहाणेणं-विधान-प्रकार से । वझ- वह मारा जाये ऐसी राजपुरुषों को । प्राणवेति-प्राज्ञा देता है । एवं खनु-इस प्रकार निश्चय ही । गोतमा !- हे गौतम ! । णंदिसेणे नन्दिषेण । पत्त-तुत्र । जाव- यावत् अर्थात् स्वकृत कर्मों के फल का अनुभव करता हुआ । विहरति-विहरण कर रहा है । मूलार्थ-तदनन्तर श्रीदाम नरेश के वध का अवसर प्राप्त न होने से कुमार नन्दि. षेण ने किसी अन्य समय चित्र नामक अलंकारिक-नाई को बुना कर इस प्रकार कहा-कि हे महानुभाव ! तुम श्रीदाम नरेश के सर्वस्थानों, सर्वभूमिकाओं तथा अन्तःपुर में स्वेच्छापूर्वक श्रा जा सकते हो और श्रीदाम नरेश का बार २ अलंकारिक कर्म करते रहते हो, अत: हे महानुभाव ! यदि तुम नरेश के अलंकारिक कर्म में प्रवृत्त होने के अवसर पर उसकी ग्रीवागरदन में उस्तरा घोंप दो अर्थात इस प्रकार से तुम्हारे हाथों यदि नरेश का वध हो जाए तो मैं तुम को आधा राज्य दे डालूगा। तदनन्तर तुम हमारे साथ उदार -प्रधान (उत्तम) कामभोगों का उपभोग करते हुए मानन्द समय व्यतीत करोगे।। तदनन्तर चित्र नामक अलंकारिक ने कुमार नन्दिषेण के उक्त विचार वाले वचन को स्वीकृत किया, परन्तु कुछ ही समय के पश्चात् उस के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि यदि किसी प्रकार से इस बात का पता श्रीदाम नरेश को चल गया तो न मालूम मुझे वह किस कुमौत से मारे-इस विचार के उद्भव होते ही वह भयभीत, त्रस्त, उद्विग्न एवं संजातभय हो उठा और तत्काल ही जहां पर महाराज श्रीदाम थे वहां पर आया । एकान्त में दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नाखुनों वालो अंजली करके अर्थात् विनयपूर्वक श्रीदाम नरेश से इस प्रकार बोला हे स्वामिन् ! निश्चय ही नन्दिषेण कुमार राज्य में मूच्छित गृद्ध, ग्रथित और अध्युपपन हो कर आपके वध में प्रवृत्त होना चाह रहा है । वह आप को मार कर स्वयं राज्यश्री राज्यलक्ष्मी का संवर्धन कराने और स्वयं पालन पोषण करने की उत्कट अभिलाषा रखता है । इसके अनन्तर श्रीदाम नरेश ने चित्र अलंकारिक से इस बात को सुन कर उस पर विचार किया और अत्यन्त क्रोध में आकर नन्दिषेण को अपने अनुचरों द्वारा पकड़वा कर इस (पूर्वोक्त) विधान-प्रकार से मारा जाए ऐसा राज पुरुषों को आदेश दिया। भगवान कहते हैं कि हे गौतम ! यह नन्दियेण पुत्र इस प्रकार अपने किए हुए अशुभ कर्मों के फल को भोग रहा है। टीका-राज्यशासन का प्रलोभी नन्दिषण हर समय इसी विचार में रहता था कि उसे कोई ऐसा अवसर मिले जब वह अपने पिता श्रीदाम नरेश की हत्या करने में सफल हो जाय । परन्तु उसे अभी तक ऐसा अवसर प्राप्त नहीं हो सका। तब एक दिन उसने उपायान्तर सोचा और तदनुसार (१) मूर्च्छित, गृद्ध आदि पदों का अर्थ पृष्ठ १७३ लिखा जा चुका है। For Private And Personal Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३६६] श्री विपाक सूत्र अध्याय महाराज श्रीदाम के चित्र नामक अलंकारिक को बुलाकर उसने कहा - कि महानुभाव ! तुम महाराज विश्वस्त सेवादार हो । तुम्हारा उन के पास हर समय बेरोकटोक आना जाना है । तुम्हारे लिये वहां किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है, तब यदि तुम मेरा एक काम करो तो मैं तुम्हें आधा राज्य दे डालंगा । तुम भी मेरे जैसे बन कर मानन्द अनायासप्राप्त राज्यश्री का यथेच्छ उपभोग करोगे । तम जानते हो कि मैं इस समय युवराज हूँ । महाराज के बाद मेरा ही इस राज्यसिंहासन पर सर्वे - अधिकार होगा। इसलिये यदि तम मेरे काम में सहायक बनोगे तो मैं भी तुम को हर प्रकार में सन्तुष्ट करने का यत्न करूंगा। दसरी बात यह है कि महाराज को तम पर पूर्ण विश्वास है, वह अपना सारा निजी काम तुम से ही कराते हैं । इस के अतिरिक्त उन का शारीरिक उपचार भी तुम्हारे ही हाथ से होता है, इसलिये मैं समझता हूँ कि तुम ही इस काम को पूरा कर सकते हो, और मुझे भी तुम पर पूरा भरोसा है। इसलिये मैं तुम से ही कहता हूं कि तुम जिस समय महाराज का क्षौर-हजामत बनाने लगो तो उस समय इधर उधर देख कर तेज़ उस्तरे को महाराज की गरदन में इतने जोर से मारो कि उन की वहीं मृत्यु हो जाए, इत्यादि । चित्र ने उस समय तो नन्दिषेण के इस अनुचित प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, कारण कि उस के सामने जो उस समय श्राधे राज्य का प्रलोभन रक्खा गया था. उस ने उस के विवेक चक्षुओं पर पट्टी बांध दी थी और वह आधे राज्य के शासक होने का स्वप्न देख रहा था। परन्तु जब वह वहां से उठ कर आया तो दैवयोग से उस के विवेकचा खुल गये और वह इस नीचकृत्य से उत्पन्न होने वाले भयंकर परिणाम को प्रत्यक्ष देखने लगा। देखते ही वह एक दम भयभीत हो उठा । तात्पर्य यह है कि उस के अन्त:करण में वहां से आते ही यह आभास होने लगा कि इतना बड़ा अपराध । वह भी सकारण नहीं किन्तु एक निरापराधी अन्नदाता की हत्या, जिस ने मेरे और राजकुमार के पालण पोषण में किसी भी प्रकार की त्रुटि न रक्खी हो, उस का अवहनन क्या मैं राजकुमार के कहने से करू १, क्या इसी का नाम कृतज्ञता है ?, फिर यदि इस अपराध का पता कहीं महाराज को चल गया, जिस की कि अधिक से अधिक सम्भावना है, तो मेरा क्या बनेगा ।, इस विचार-परम्परा में निमग्न चित्र सीधा राजभवन में महाराज श्रीदाम के पास पहुँचा और कांपते हुए हाथों से प्रणाम कर थथलाती हुए जबान से उस ने महाराज को राजकुमार नन्दिषेण के विचारों को अथ से इति तक कह सनाया । शास्त्रों में कहा है कि जिस का पुण्य बलवान् है, उसे हानि पहुँचाने वाला संसार में कोई नहीं। प्रत्युत हानि पहुंचाने वाला स्वयं ही नष्ट हो जाता है। कुमार नन्दिषेण ने अपने पिता महाराज श्रीदाम को मारने का जो षडयंत्र रचा, उसमें उसको कितनी सफलता प्राप्त हुई है, यह तो प्रत्यक्ष ही है । वह तो यह सोचे हुए था कि उसने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया, परन्तु उसे यह ज्ञात नहीं था कि | जितने तारे गगन में, उतने दुश्मन होय । । कृपा रहे पुण्यदेव की, बाल न बांका होय ॥ | महाराज श्रीदाम के पुण्य के प्रभाव से राजकुमार नन्दिषेण के पास से उठते ही चित्र नापित के विचारों में एकदम तूफान सा आ गया । उस को महाराज के वध में चारों ओर अनिष्ट ही अनिष्ट दिखाई देने लगा । फलस्वरूप वह घातक के स्थान में रक्षक बना । नीतिकारों ने For Private And Personal Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्याय 1 हिन्दी भाषा टीका सहित। [ ३६७ "- रक्षन्ति पुण्यानि पुरा कृतानि" । अर्थात् पूर्वकृत पुण्य ही रक्षा करते हैं । यह सत्य ही कहा है। तात्पर्य यह है कि पुण्य के प्रभाव से चित्त स्वयं भी बचा और उसने महाराज श्रीदाम को भी बचाया। चित्त की बात को सुनकर पहले तो श्रीदाम नरेश एकदम चमके पर थोड़े ही समय के बाद कुछ विचार करने पर उन्हें चित्र की बात सर्वथा विश्वसनीय प्रतीत हई । कारण कि जब से राज कुमार युवराज बना है तब से लेकर उसके व्यवहार में बहुत अन्तर दिखाई देता था और उसकी ओर से श्रीदाम नरेश सदा ही शंकित से बने रहते थे। चित्र को सरल एवं निर्व्याज उक्ति से महाराज श्रीदाम बहुत प्रभावित हुए तथा अपने और नन्दिषेण के कर्तव्य का तटस्थ बुद्धि से विचार करते हुए वे एकदम क्रोधातुर हो उठे और फलस्वरूप नीतिशास्त्र के नियमानुसार उन्हों ने उसे वध कर डालने की आज्ञा प्रदान करना ही उचित समझा। पाठकों को स्मरण होगा कि पारणे के निमित्त मथुरा नगरी में भिक्षा के लिये पधारे हुए गौतम स्वामी ने राजमार्ग में जिस वध्य व्यक्ति को राजपुरुषों के द्वारा भयंकर दुर्दशा को प्राप्त होते हुए देखा था तथा भिक्षा लेकर वापिस आने पर उस व्यक्ति के विषय में जो कुछ प्रभु महावीर से पूछा था, उसी का उत्तर देने के बाद प्रभु वीर कहते हैं कि गौतम ! यह है उस व्यक्ति के पूर्वभवसहित वर्तमान भव का परिचय, जो कि वर्तमान समय में अपने परम उपकारी पिता का अकारण घात करके राज्यसिंहासन पर आरूढ़ होने की नीच चेष्टा कर रहा था । तात्पर्य यह है कि जिन अधमाधम प्रवृत्तियों से यह नन्दिषेण नामक व्यक्ति इस दयनीय दशा का अनुभव कर रहा है यह उसी का वृत्तान्त तुम को सुनाया गया है। प्रश्न-दुर्योधन कोतवाल के करकर्मों का फल यह हुआ कि उसे · नरक में उत्पन्न होना पड़ा, परन्तु नरक से निकल कर भी तो उसे किसी बुरे स्थान में ही जन्म लेना चाहिये था ? पर वह जन्म लेता है एक उत्तम घराने में अर्थात् श्रीदाम नरेश के घर में, ऐसा क्यों? उत्तर- बुरे स्थान में तो वह मनुष्य जन्म लेता है, जिसने पूर्व जन्म में बुरे ही क किये हों, अथवा अभी जिसके बुरे कर्म भोगने शेष हों । यदि किसी ने बुरे कर्मों का फल भोग लिया हो तब उसके लिये यह आवश्यक नहीं कि वह बुरे स्थान में ही जन्म ले । दुर्योधन ने बुरे कर्म किये उन का फल उसने छठी नरक में नारकीरूप में प्राप्त किया, वह भी एक दो वर्ष नहीं किन्तु बाईस सागरोपम के बड़े लम्बे काल तक। कहने का तात्पर्य यह है कि जब उसके बुरे कर्मों का अधिक मात्रा में क्षयोपशम हो गया अर्थात् जो कर्म उदय को प्राप्त हुए, उन का क्षय और जो उदय में नहीं आए उन का उपशमन हो गया, अथवा उसके पूर्वकृत किसी अज्ञात पुण्य के उदय में आने से वह एक उत्तम राजबुल में जन्मा तो इस में कुछ भी विसंवाद नहीं है। .. शास्त्रों में लिखा है कि शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म जीवन के साथ होते हैं, जो कि अपने २ समय पर उदय में आकर फलोन्मुख हो जाते हैं । अाज भी प्रत्यक्ष देखने में आता है कि एक व्यक्ति राजकुल में जन्म लेता है, राजा बनता है, परन्तु कुछ ही समय के बाद वह दर दर की खाक छानता है और खाने को पेटभर अन्न भी प्राप्त नहीं कर पाता। यही तो कमगत वैचित्र्य है, जिसे देख कर कभी २ विशिष्ट बुद्धिबल रखने वाले व्यक्ति भी आश्चर्य मुग्ध हो जाते (१) पृष्ठ २३२ तथा ५३३ पर अभग्नसेन के सम्बन्ध में इसी प्रकार के प्रश्न का विस्तृत उत्तर दिया जा चुका है। अधिक जिज्ञासा रखने वाले पाठक वहां देख सकते हैं । अन्तर मात्र इतना है कि वहां अभग्न सेन का नाम है जबकि प्रस्तुत में नन्दिषेण का । 100 For Private And Personal Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३६८ ] श्री विपाक सूत्र - [ षष्ठ अध्याय हैं। अतः दुर्योधन के जीव का नन्दिषेण के रूप में अवतरित होना कोई आश्चर्यजनक नहीं है । " एयारूवे जाव समुप्पज्जित्था " यहां का जाव - यावत् पद " - श्रज्मत्थिते कपिए चिन्तिर पत्थिए मणोगए संकप्पे -" इन पदों का परिचायक है। इन का अर्थ पृष्ठ १३३ पर किया जा चुका है । तथा-भीए ४ - यहां पर दिये गये ४ के अंक से - तत्थे उग्विग्गे संजातभए - " इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है । " Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir +6 - करयल० जाव एवं - " यहां के बिन्दु तथा जाब - यावत् पद से संसूचित पाठ को पृष्ठ २४६ पर लिखा जा चुका है। तथा " - रज्जे जाव मुच्छिते ४ – यहां पठित जाब - यावत् पद से " - रट्ठे य कोले य कोट्टागारे य बले य वाहणे य पुरे य अन्तेउरे य-" इन पदों का ग्रहण करमा सूत्रकार को इष्ट है। राज्य शब्द बादशाहत का बोधक है । किसी महान् देश का नाम राष्ट्र है । कोष खजाने को कहते हैं । धान्यगृह अथवा भाण्डागार का नाम कोष्ठागार है । बल सेना को कहते हैं । वाहन शब्द रथ आदि यान और जहाज़, नौका आदि के लिये प्रयुक्त होता है । पुर नगर का नाम है। अन्तःपुर रणवास को कहते हैं । तथा - मुच्छिते ४ - यहां दिये गये • के अंक से " - गिद्धे. गढ़िए, श्रज्भोववन्ने – ” इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इनका अर्थ पृष्ठ १७३ पर दिया गया है । "C " - श्रातुरुत्ते जाव साहहु – " faster faafai भिउडिं निडाले सुरु - इत्यादि पदों का अर्थ पृष्ठ “– एएणं विहाणेणं " यहां पठित जाव - यावत् पद से - रुट्ठे, कुविए, च" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । - १७७ पर कर दिया गया है । यहां प्रयुक्त एतद् शब्द उस विधान - प्रकार का परिचायक है, जिसे भिक्षा को गये भगवान् गौतम स्वामी ने मथुरा नगरी के राजमार्ग पर देखा था । तथा एतद्शब्द - सम्बन्धी विस्तृत विवेचन पृष्ठ १७८ पर किया गया है । है कि वहां उज्झितक कुमार का वर्णन है, जब कि " - पुते जाव विहति - " यहां पठित पाठक वहां देख सकते हैं । अन्तर मात्र इतना प्रस्तुत में नन्दिषे का। जाव - यावत् पद पृष्ठ ४७ पर पढ़े गये सुभाणं - " इत्यादि पदों का परिचायक है । 66 - पुरा पोराणाणं दुच्चिराणा, दुप्पक्किन्ताणं गत सूत्रों में भगवान् गौतम के प्रश्न के उत्तर का वर्णन किया गया है । अत्र सूत्रकार अनगार गौतम की अग्रिम जिज्ञासा का वर्णन करते हैं - १ मूल - ' दिसेणे कुमारे इत्र चुते कालम से कालं किच्चा कहिं गच्छहिति ? कहिं उववज्जिह्निति १ पदार्थ - णं दिसेणे – नन्दिषेण । कुमारे-कुमार । इओ यहां से । चुते व्यव कर मर कर । कालमासे - कालमास में । कालं किच्चा - काल करके । कहि- कहां । गच्छिहिति १ - जायेगा ?, और कहिं - कहां पर । उववज्जिहिति १ – उत्पन्न होगा ? | कुत्रोपपत्स्यते ? मूलार्थ गौतम स्वामी ने भगवान् से फिर पूछा कि भगवन् १ नन्दिषेण कुमार यहां से मृत्युसमय में काल करके कहां जायगा ? और कहां पर उत्पन्न होगा ? - ( १ ) - छाया - नन्दिषेणः कुमारः इतश्च्युतः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति १ For Private And Personal Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित (३६९ टीका-भावी जन्मों की पृच्छा के सम्बन्ध में पहले पृष्ठ ८८, तथा १८३, तथा ३०६ पर काफी लिखा जा चुका है । अन्तर मात्र नाम का है, कहीं मृगापुत्र का नाम है, कहीं उज्झितक कुमार का तथा कहीं शकट कुमार का। शेष वर्णन समान ही है । अत: पाठक वहीं पर देख सकते हैं। गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फ़रमाया वह निम्नोक्त हैमूल-' से गोतमा ! णंदिसेणे कमारे सद्धिं वासाई परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए० संसारो तहेब जाव पुढवीए० । ततो हत्थिणाउरे णगरे मच्छत्ताए उववजिहिति । से णं तत्थ मच्छिएहिं वहिते समाणे तत्थेव सिट्टिकुले० बोहिं० सोहम्मे० महाविदेहे० सिज्झिहिति, बुज्झिहिति, मुच्चिहिति, परिनिव्वाहिति, सव्वदुक्खाणं अंतं करेहिति । णिक्खेवो। || छट्ट अज्झयणं समनं ।। पदार्थ-गोतमा!-हे गौतम ! । से-वह । णंदिसेणे-नन्दिषेण । कुमारे-कुमार । सढ़ि-साठ । वासाई-वर्षों की । परमाउ-परमायु को । पालइत्ता-पालकर - भोग कर । कालमासे-मृत्यु के समय में । कालं किच्चा-काल कर के । इमीसे-इस । रयणप्पभाए- रत्नप्रभा नाम की । पुढवीए०-पृथिवी में - नरक में उत्पन्न होगा तथा अवशिष्ट । संसारो-संसारभ्रमण । तहेव-पूर्ववत् जान लेना चाहिये । जाव-यावत् । पुढवीए० -पृथिवीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा । ततो-वहां से अर्थात् पृथिवीकाया से निकल कर । हथिणाउरे-हस्तिनापुर। गगरे-नगर में । मच्छत्ताए-मत्स्यरूप से । उववज्जिहिति-उत्पन्न होगा । से णं-वह । तत्थ-वहां पर । मच्छिएहिं-मात्स्यिकों - मत्स्यों का वध करने वालों से । वहिते समाणे - वध को प्राप्त होता हुआ । तत्थेव-वहीं पर । सिटिकुले-श्रेष्ठिकुल में उत्पन्न होगा, वहां पर । बोहिं० -बोधिलाभ अर्थात् सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा, तथा । सोहम्मे० - सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा । वहां से च्यव कर । महाविदेहे ०-महाविदेहक्षेत्र में जन्मेगा वहां पर चारित्र का अाराधन कर । सिज्झिहिति- सिद्ध होगा । बुज्झिहिति - केवल ज्ञान को प्राप्त कर सकल पदार्थों को जानने वाला हागा । मुच्चिहिति- सम्पूर्ण कर्मों से मुक्त होगा। परिनिव्वाहिति - परम निर्वाण पद को प्राप्त करेगा। सम्बदुकावाणं- सर्व प्रकार के दुःखों का । अंतं - अन्त । करेहिति -- करेगा । गियो -नि क्षेत्र - उपसंहार पूर्ववत् जान लेना चाहिये । छठं-छठा । अझयणं-अध्ययन । समतसम्पूर्ण हुआ । मूलार्थ-हे गौतम ! वह नन्दिषेण कमार साठ वर्ष की परम आयु को भोग कर मत्यु के सम। में काल करके इस रत्नप्रभा नामक पृथिवी-नरक में उत्पन्न होगा । उस का शेष संसारभ्रमण पूर्ववत् समझन! अर्थात् प्रथम अध्ययनगत वर्णन को भाति जान लेना, यावत् वह पथिवीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा। (१) छाया --स गौतम ! नन्दिषेणः कुमारः षष्टिं वर्षाणि परमायु: पालयित्वा कालमासे काल कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां० संसारस्तथैव यावत् पृथिव्याम् । ततो हस्तिनापुरे नगरे मत्स्यतयोपपत्स्यते । स तत्र मात्स्यिक धितः सन् तत्रैव श्रेष्ठिकुले० बोधि० सौधर्मे महाविदेहे० सेत्स्यति, भोत्स्यते, मोक्ष्यते, परिनिर्वास्यति सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति । निक्षेपः । ॥ षष्ठमध्ययनं समाप्तम् ॥ For Private And Personal Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३७०] श्री विपाक सूत्र - [ षष्ठ अध्याय पृथिवीकाया से निकलकर हस्तिनापुर नगर में मत्स्यरूप से उत्पन्न होगा, वहां मच्छीमारों के को प्राप्त होता हुआ फिर वहीं पर हस्तिनापुर नगर में एक श्रेष्ठिकूल में उत्पन्न होगी । asia सम्यत्व को प्राप्त करेगा, वहां से सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा और वहां से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा । वहाँ पर चारित्र ग्रहण करेगा और उस का यथाविधि पालन कर उस के प्रभाव से सिद्ध होगा, बुद्ध होगा, मुक्त होगा, और परम निर्वाण पद को प्राप्त कर सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त करेगा । निक्षेप की कल्पना पूर्ववत् कर लेनी चाहिये । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir || छठा अध्ययन समाप्त || टीका- गौतम स्वामी द्वारा किए गए नन्दिषेण के आगामी जीवन सम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में वीर प्रभु ने जो कुछ फरमाया उस का वर्णन मूलार्थ में कर दिया गया है । वर्णन सर्वथा स्पष्ट है । इस पर किसी प्रकार के विवेचन की आवश्यकता नहीं है । 1 पाठकों को स्मरण होगा कि प्रस्तुत अध्ययन के आरम्भ में श्री जम्बू 'स्वामी ने श्री सुधर्मा स्वामी के चरणों में छठे अध्ययन को सुनने की इच्छा प्रकट की थी । जिस को पूर्ण करने के लिये श्री सुधर्मा स्वामी ने प्रस्तुत छठे अध्ययन को सुनाना प्रारम्भ किया था । अध्ययन सुना लेने के अनन्तर श्री सुधर्मा स्वामी श्री जम्बू ! स्वामी से फ़रमाने लगे - जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के छठे अध्ययन का यह ( पूर्वोक ) अर्थ प्रतिपादन किया है । मैंने जो कुछ प्रभु वीर से सुना है, उसी के अनुसार तुम्हें सुनाया है, इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं है । इन्हीं भावों को अभिव्यक्त करने के लिये सूत्रकार ने " - निक्खेवो - निक्षेप:- "यह पद प्रयुक्त किया है । निक्षेप शब्द का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ १८८ पर किया जा चुका है । परन्तु प्रस्तुत में निक्षेप शब्द से जो सूत्रांश अभिमत है, वह निम्नोक्त हैएवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तणं दुहवित्रागाणं छट्टस्स ज्यणस्स श्रयमट्ठे परागत 'त्ति बेमि--इन पदों का भावार्थ ऊपर की पंक्तियों में लिखा जा चुका है । - “ - पुढवीए० संसारो तहेव जाव पुढवी ९० " यहां का बिन्दु पृष्ठ ८९ पर पढ़े गये “ – उक्को ससागरोव मट्ठिएसु जाव उववज्जिहिति- इन पदों का परिचायक है । तथा संसारशब्द संसारभ्रमण का बोध कराता है। तहेव का अर्थ है - वैसे ही तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र का संसारभ्रमण वर्णित हुआ है, उसी प्रकार नन्दिषेण का भी समझ लेना चाहिये । और उसी संसारभ्रमण के संसूचक पाठ को जाव-यावत पद से अभिव्यक्त किया गया है । जाव - यावत् पद से विवक्षित पदों तथा - पुढवी ५० - के बिन्दु से अभिमत पाठ की सूचना पृष्ठ ३१२ पर दी जा चुकी है। " - सिहकुले० वोहिं० सोहम्मे० महाविदेहे ० - इत्यादि पदों से जो सूत्रकार को अभिमत है, वह चतुर्थ अध्ययन में पृष्ठ ३१२ पर लिखा जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां शकटकुमार का वर्णन है, जब कि प्रस्तुत में नन्दिषेण का । विशेष अन्तर वाली कोई बात नहीं है । प्रस्तुत अध्ययन में नन्दिषेण के निर्देश से मानव जीवन का जो चित्र प्रदर्शन किया गया (१) 'वेमि' त्ति ब्रवीम्यहं भगवतः समीपेऽमुळे व्यतिकरं विदित्वेत्यर्थः (वृत्तिकारः) । For Private And Personal Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित [३७१ है, उस पर से उस की विकट परिस्थितियों का खासा अनुभव हो जाता है । मानव जीवन जहां अधिक से अधिक अन्धकारपूर्ण होता है वहां उस की नितान्त उज्ज्वलता भी विस्पष्ट हो जाती है । इस जीवनयात्रा में मानव प्राणो किस २ तरह की उच्चावच परिस्थितियों को प्राप्त करता है ? तथा सुयोग्य अवसर प्राप्त होने पर वह अपने साध्य तक पहुंचने में कैसे सफलता प्राप्त करता रहता है ? इस विषय का भी प्रस्तुत अध्ययन में अच्छा अनुगम दृष्टिगोचर होता है । राजकुमार नन्दिषेण के जीवन का अध्ययन करने से हेयोपादेय रूप से वस्ततत्त्व का त्याग और ग्रहण करने वाले विचारशील पुरुषों के लिये उस में से दो शिक्षाएं प्राप्त होती है। जैसे कि (१) प्राप्त हुए अधिकार का दुरुपयोग नहीं करना चाहिये । (२) किसी भी प्रकार के प्रलोभन में आकर अपने कर्तव्य से कभी परांमुख नहीं होना चाहिये। आज का मानव यदि सच्चे अर्थों में उत्तम तथा उत्तमोत्तम मानव बनना चाहता है तो उसे इन दोनों बातों को विशेषरूप से अपनाने का यत्न करना चाहिये । दुर्योधन चारकपाल -कारागृह के रक्षक – जेलर की भान्ति प्राप्त हुए अधिकार का दुरुपयोग करने वाला अधम व्यक्ति अपनी कर एवं निर्दय वृत्ति से मानवता के स्थान में दानवता का अनुसरण करता है । जिस का परिणाम प्रात्म-पतन के अतिरिक्त और कुछ नहीं । इसी प्रकार नन्दिषेण की भान्ति राज्य जैसे तछ सांसारिक प्रलोभन (जिस का कि पिता के बाद उसे ही अधिकार था) में आकर पितृघात जैसे अनथ करने का कभी स्वन में भी ध्यान नहीं करना चाहिये । तात्पर्य यह है कि आत्मा को पतन की ओर ले जाने वाले अधमाधम दष्कृत्यों से सदा पृथक् रहने का यत्न करना तथा उत्तम एवं उत्तमोत्तम पद को उपलब्ध करना ही मानव जीवनका प्रधान लक्ष्य होना चाहिये । ।। षष्ठ अध्याय समाप्त । For Private And Personal Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कि इस में सर्वश्रेष्ठता किस बात बल पर यह इतना श्रेष्ठ बन अथ सप्तम अध्याय मानव संसार का सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोत्तम प्राणी माना जाता है, परन्तु जरा विचार कीजिये की है ? अर्थात् मानव के पास ऐसी कौन सी वस्तु है कि जिस के गया है १ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir क्या मानव के पास शारीरिक शक्ति बहुत बड़ी है या यह पू ंजीपति है ? जिस के कारण यह मानव सर्वश्रेष्ठता के पद का भाजन बना हुआ है ? नहीं नहीं इन बातों में से कोई भी ऐसी बात नहीं है जो इस की महानता का कारण बन रही हो । क्योंकि संसार में हाथी आदि ऐसे अनेकानेक विराटकाय प्राणी अवस्थित हैं. जिन के सन्मुख मानव का शारीरिक बल कुछ भी मूल्य नहीं रखता, यह उन के सामने तुच्छ है, नगण्य है । धन मानव की उत्तमता का कारण नहीं बन सकता, क्योंकि भारत के ग्रामीण लोगों का “ – जहां कोई बड़ा सांप रहता है, वहां अवश्य कोई धन का बड़ा खजाना होता है - " यह विश्वास बतलाता है कि धन से चिपटने वाला मानव सांप ही होता है, मनुष्य नहीं । इसके अतिरिक्त धन के कुपरिणामों के अनेकानेक उदाहरण इतिहास में उपलब्ध होते हैं । रावण के पास कितना धन था ? सारी लंका सोने की बनी हुई थी । यादवों की द्वारका का निर्माण देवताओं के हाथों हुआ था, वह भी हीरे पन्ने आदि जवाहरात से । भारत के धन वैभव पर मुग्ध हुए यूनान के सिकन्दर ने लाखों मनुष्यों का संहार किया । मन्दिरों को तोड़ करोड़ों का धन भारत से लूटा। उसे अपने ऐश्वर्य का कितना महान् घमंड था ?, ऐसे ही दुर्योधन के, कोणिक के आदि अनेकों उदाहरण दिये जा सकते हैं, परन्तु हुआ क्या १, सोने की लका ने रावण को राक्षस बना दिया और स्वर्ण और रत्नों से निर्मित द्वारिका ने यादवों को नरपशु । सिकन्दर धनवैभव से देश संत्रस्त हो उठा था दुर्योधन महाभारत के भीषण युद्ध का मूल बना कोणिक ने अपने पूज्य पिता श्रेणिक को पिंजरे का दो बना डाला था। सारांश यह है कि धन के अतिरेक ने इन सब को अन्धा बना दिया था, उन के विवेक चतु ज्योतिर्विहीन हो चुके थे । मात्र धन के आधिक्य ने मानव को सर्वश्रेष्ठ प्राणी बनाया है, यह बात नहीं कही जा सकता । इसी भान्ति परिवार आदि के अन्य अनेकों बल भी इसे महान् नहीं बना सकते । । फिर वही प्रश्न सामने आता है कि मानव के सर्वश्रेष्ठ कहलाने का वास्तविक कारण क्या है ? इस प्रश्न का यदि एक ही शब्द में उत्तर दिया जाये तो वह है - मानवता । भगवान् महावीर ने या अन्य अनेकों महापुरुषों ने जो मानव की श्रेष्ठता के गीत गाए हैं. मानवता के गहरे ग से रंगे हुए सच्चरित्र मानवों के ही गए हैं । मानव के हाथ, पैर पा लेने से कोई मानव नहीं बन जाता, प्रत्युत मानव बनता है - मानवता को अपनाने से । यों तो रावण भी मानव था, परन्तु लाखों वर्षों से प्रतिवर्ष उसे मारते आरहे हैं, गालियां देते आरहे हैं. जलाते आरहे हैं | यह सब कुछ क्यों ? इसी लिये कि उस ने मानत्र हो कर मानवता का काम नहीं किया, फलत: वह मानव हो कर भी राक्षस कहलाया । शास्त्रों में मानवता की बड़ी महिमा गाई है। जहां कहीं भी मानवता का वर्णन है वहां For Private And Personal Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [३७३ उसे सर्वश्रेष्ठ और दुर्लभ बतलाया गया है । वास्तव में यह बात सत्य भी है। जब तक मानवता की प्राप्ति नहीं होती, तब तक यह जीवन वास्तविक जीवन नहीं बन पाता । जीवन के उत्थान का सब से बड़ा साधन मानवता ही है - यह किसी ने ठीक ही कहा है ।। '-आत्मवत् सर्वभूतेषु-" की भावना ही मानवता है । यदि मनुष्य को दूसरे के हित का भान नहीं तो वह मनुष्य किस तरह कहा जा सकता है ।. सारांश यह है कि मनुष्य वही कहला सकता है जो यह समझता है कि जिस तरह मैं सुख का अभिलाषी हूँ, प्रत्येक प्राणी मेरी तरह ही सुख की अभिलाषा कर रहा है । तथा जैसे मैं दुःख नहीं चाहता, उसी तरह दूसरा भी दुःख के नाम से भागता है । इसी प्रकार सुख देने वाला जैसे मुझे प्रिय होता है और दुःख देने वाला अप्रिय लगता है, ठीक इसी भान्ति दूसरे जीवों की भो यहो दशा है । उन्हें सुख देने वाला प्रिय और दुःख देने चाला अप्रिय लगता है । इसी लिये मेरा यह कतव्य हो जाता है कि मैं किसी के दुःख का कारण न बनू । यदि बनू तो दूसरों के सुख का ही कारण बनू । इस प्रकार के विचारों का अनुसरण करने वाला मानव प्राणी ही सच्चा मानव या मनुष्य हो सकता है और उसी में सच्ची मानवता या मनुष्यता का निवास रहता है । इस के विपरीत जो व्यक्ति अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये दूसरों के प्राण तक लूटने में भी नहीं सकुवाता, वह मानव व्यक्ति मानव का आकार तो तो अवश्य धारण किये हुए है किन्तु उस में मानवता का अभाव है । वह मानव हो कर भी दानव है । वस्तुत: ऐसे मानव व्यक्ति ही संसार में नाना प्रकार के दुःखों के भाजन बनते है, और दुर्गतियों में धक्के खाते हैं । प्रस्तुत सातवें अध्ययन में एक ऐसे व्यक्ति के जीवन का वर्णन प्रस्तावित हुआ है, जो कि मानव के आकार में दानव था । मांसाहारी तथा मांसाहार जैसी हिंसा एवं अधर्म पूर्ण पापमय प्रवृत्तियों का उपदेष्टा बना हुआ था, तथा जिसे इन्हीं नृशंस प्रवृत्तियों के कारण नारकीय भीषण यातनायें सहन करने के साथ २ दुगतियों में भटकना पड़ा था । उस अध्ययन का आदिम सूत्र इस प्रकार हैमूल-' सत्तमस्स उक्खेवो। पदार्थ - सत्तमस्स- सप्तम अध्ययन का । उक्खेवो-उत्क्षेप- प्रस्तावना पूर्ववत् जानलेना चाहिये । मलार्थ - सनम अध्ययन के उत्क्षेप की भावना पहले अध्ययनों की भान्ति कर लेना चा िये । टीका-शास्त्रों के परिशीलन से यह पता चलता है कि प्रभवाणीरसिक श्री जम्बू स्वामी "- सोचना जाणइ कल्लाणं. सोच्चा जाणइ पावगं -” अर्थात् मनुष्य प्रभुवाणी को सुनकर कल्याणकारी कर्म को जान सकता है और सुन कर ही पापकारी मार्ग का ज्ञान प्राप्त कर सकता है-" इस सिद्धान्त को खूब समझते थे । समझने के साथ २ उन्हों ने इस सिद्धांत को जीवन में भी उतार रखा था . इसी लिये अपना अधिक समय वे अपने परम पूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी के पावन चरणों में बैठ कर प्रभवाणी के सुनने में व्यतीत किया करते थे । पाठकों को यह तो स्मरण ही है कि श्रार्य सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी की (१) छाया - सप्तमस्योत्क्षेपः । (२; सुनियां सेती जानिए, पुण्य पाप की बात : बिन सुनयां अन्धा जांके, दिन जैसी ही रात ॥१॥ For Private And Personal Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३७४ ] श्री विपाक सूत्र [म अध्याय " ~~~33 प्रार्थना पर विपाकश्रुत के दुःखविपाक नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों का वर्णन सुना रहे हैं । उन में छठे अध्ययन का वर्णन समाप्त हो चुका है । इस की समाप्ति पर आर्य जम्बू स्वामी फिर पूछते हैं कि भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के छठे अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है जिस का कि वणन आप फ़रमा चुके हैं, तो उन्हों ने सातवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? इस प्रश्न को सूत्रकार ने " - सत्तमस्स उक्खेबोइतने पाठ में गर्भित कर दिया है। तात्पर्य यह है कि छठे अध्यय का अर्थ सुनने के बाद श्री जम्बूस्वामी ने जो सातवें अध्ययन के अर्थ - श्रवण की जिज्ञासा की थी, उसी को सूत्रकार ने दो पदों द्वारा संक्षेप में प्रदर्शित किया है । उन पदों से अभिव्यक्त सूत्रपाठ निम्नोक्त है - जइ णं भंते ! सणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तणं दुहविवागाणं हट्ठस्स अज्झयणस्स श्रयमट्टे पण्णत्तो, मत्तमस्स णं भंते! अभयास्स के अहे पण ते १ - " इन पदों का अर्थ ऊपर की पंक्तियों में लिखा जा चुका है । आर्य जम्बूस्वामी के उक्त प्रश्न के उत्तर में श्री सुधर्मा स्वामी ने जो कुछ फुरमाना आरम्भ किया, अव निम्नलिखित सूत्र में उस का उल्लेख करते हैं— मूल - १ एवं खलु अबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं पाडलिसंडे गरे । वणसंडे उज्जाणे । उम्बरदत्त जखे । तत्थ गं पडलिमंडे रागरे सिद्धत्थे राया । तत्थ णं पाडलिसंडे सागरदत्ते सत्थवाहे होत्था, अड्डे ० । गंगादत्ता भारिया, तस्स गं सागरदत्तस्स पुत्ते गंगादत्ताए भाग्यिाए अत्तए उबग्दत्ते नामं दारए होत्था, ही ० । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओो समोसरणं, परिसा जान गयो । पदार्थ - एवं खलु - इस प्रकार निश्चय ही । जम्बू ! - हे जम्बू ! । तेणं कालेणंउस काल में । तेणं समपर्ण -उस समय में । पाडलिसंडे - पाटलिपंड । गगरे- - नगर था । वणसंडे - वन षंड नामक । उज्जाणे - उद्यान था. वहां । उम्बरदत्त - उम्बरदत्त नामक । जक्खे - यक्ष था अर्थात् उसका स्थान था । तत्थ णं - उस | पाडलिसंड े - पाटलिपण्ड । गरे- - नगर में । सिद्धत्थे - सिद्धार्थ नामक । राया - राजा था। तत्थ गं - -उस । पाडलिसंडे - पाटलिपण्ड नगर में । सागरदन्त सागरदत्त नाम का । सत्थवाहे - सार्थवाह - यात्री व्यापारियों का नायक । होत्था- - था । अ० जो कि धनाढ्य यावत् अपने नगर में बड़ा प्रतिष्ठित था । गंगादता भारिया - उस की गंगादत्ता नाम की भार्या थी । तस्स - - उस | सागरदत्तस्स - सागरदत्त सार्थवाह का । पुन्ते - पुत्र । गंगादत्ताए भारियाए - गंगादत्ता भार्या का । अत्तर = श्रात्मज - पुत्र | उंबरदरा - उम्बरदत्त | नामनामक । दारए – बालक । होत्था - था, जो कि । श्रहीण० - अन्यून एवं निर्दोष पंचेन्द्रियशरीर से विशिष्ट था । तेणं कालेणं २ उस काल और उस समय में । समणस्स - श्रमण । भगवत्रीभगवान महावीर स्वामी का । समोसरणं - समवसरण हुआ अर्थात् भगवान् वहां उद्यान में पधारे । (१) छाया - एवं खलु जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये पाटलिषंडं नगरं । वनघण्डमुद्यानम् । उम्बरदत्तो यक्ष: । तत्र पाटलिषंडे नगर सिद्धार्थो राजा । तत्र पाटलिषंडे सागरदत्तः सार्थवाहोऽभूद्, आढ्यः० । गंगादत्ता भार्या । तस्य सागरदत्तस्य पुत्रो गंगादत्तायाः भार्यायाः श्रात्मजः, उम्बरदत्तो नाम दारकोऽभूदहीन० । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतः समवसरणं, परिषद् यावत् गतः । For Private And Personal Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । ३७५ परिसा-परिषद् । जाव-यावत् । गो-नागरिक और राजा चला गया । मूलार्थ-इस प्रकार निश्चय हो हे जम्बू ! उस काल और उस सयय में पाटलिपंड नाम का एक सुप्रसिद्ध नगर था। वहां वनषंड नामक उद्यान था। उस उद्यान में उम्बरदत्त नामक यक्ष का स्थान था। उस नगर में महाराज सिद्धार्थ राज्य किया करते थे । पाटलिपंड नगर में सागरदत्त नाम का एक धनाट्य, जो कि उस नगर का बड़ा प्रतिष्ठित व्यक्ति माना जाता था, सार्थवाह रहता था । उस की गंगादत्ता नाम की भार्या थी । उनके अन्यून एवं निर्दोष पञ्चेन्द्रिय शरीर गला उम्बरदत्त नाम का एक बालक था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी वनषंड नामक उद्यान में पधारे । नागरिक लोक तथा राजा उन के दर्शनार्थ नगर से निकले और धर्मोपदेश सुन कर सब वापिस चले गये। टीका-प्रस्तुत सूत्र में सप्तम अध्ययन के प्रधान नायकों के नामों का निर्देश किया गया है। उन में नगर, उद्यान और यक्षायतन, उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का पधारना, उनके दर्शनार्थ नगर की जनता और नरेश के श्रागमन तथा धर्मश्रवण आदि के विषय में पूर्व वणित अध्ययनों की भान्ति ही भावना कर लेनी चाहिये । नामगत भिन्नता को सूत्रकार ने स्वयं ही स्पष्ट कर दिया है। बिन्दु से विवक्षित पाठ की सूचना पृष्ठ १२. पर दी जा चुकी है। तथा-बहीण-यहां के बिन्द से अभिमत पाठ भी पृष्ठ १२० पर लिख दिया गया है। तथा समोसरणं परिसा जाव गो-यहां के जाव-यावत् पद से-निग्गया, राया निग्गो , धम्मो कहिओ, परिसा राया य पडि --इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन का अर्थ पृष्ठ २०४ पर लिखा जा चुका है। श्रमण भगवान महावीर स्वामी के उपदेशामृत का पान करने के अनन्तर राजा तथा जनता के अपने अपने स्थानों को वापिस लौट जाने के पश्चात् क्या हुआ? अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं - मूल-'तेणं कालेणं २ भगवं गोतमे तहेव जेणेव पाडालसंडे णगरे तेणेव उवागच्छति २ पाडलिमंड णगरं पुर्गथमिल्लेणं दारेणं अणुप्पविति, तत्थ णं पासति (१) छाया- तस्मिन् काले २ भगवान् गौतमस्तथैव यत्रैव पाटलिपंडं नगरं तत्रैवोपागच्छति २ पाटलिषंडं नगरं पौरस्त्येन द्वारेणानुप्रविशति । तत्र पश्यत्येकं पुरुषं कच्छूमन्तं कुष्ठिकं दकोदरिक भगंररिकमर्शसं' कासिकं श्वासिकं शोफवन्तं शूनभुखं शून हस्तं शूनपादं शटितहस्तांगुलिक टितपादांगुलिकं शटितकण नासिकं रसिकया च पूयेन च थिविथिवायमानं व्रणमुरूकृम्युत्तामानप्रगलत्पूयरुधिर लालाप्रगलत्कर्णनासम्, अभीक्ष्णं २ पूयकवलाँच रुधिर कवलाँच कृमिकवलाँश्च वमन्तं कष्टानि करुणानि विस्वराणि कूजन्तं मक्षिकाप्रधानसमूहे नगन्बीयमानमार्गे स्फुटितात्यर्थशीर्षे दंडिखंडवर में खंडमल्लकखंडघट. कहस्तगतं गेहे २ देहिबलिकया वृत्ति कल्पयन्तं पश्यति २ तदा भगवान् गौतमः उच्चनीचमध्यमकुलान्यटति यथापर्याप्त गृह्णाति २ पाटलिपंडात् प्रतिनिष्कामति २ यत्रैव श्रमणो भगवान्ः भक्तपानमालोचयति भक्तपानं प्रतिदशयति २ श्रमणेनाभ्यनुज्ञातो सन बिलमिव पन्नगभूतः अात्मनाऽऽहारमाहारर्यात, संयमेन तपसा, आत्मानं भाव यन् विहरति । (२) अासि अस्य विद्यन्ते इति अर्शसः तमितिभावः । अर्थात् बवासीर का रोगी । For Private And Personal Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३७६ ] श्री विपाक सूत्र - [ सप्तम अध्याय एगं पुरिसं कच्छुल्लं कोढियं दायरियं भगंदरियं अरिसिल्लं कासिल्लं सामिल्लं मोसिल्लं सूयमुहं सूत्थं सूपायं सांडयहत्थंगुलियं सडियपायंगुलियं सांडयकरण ना सयं रसियाए य पूरणय थिविथिवतं वणमुहकिमिउत्तयं तपगलं तपूयरु हिरं लालापगलं तक एणना सं अभिक्खणं २ पूयकवले य रुहिरकवले य किमिकवले य वममाणं कट्ठाई कलुगाई वीसाईं कूयमाणं मच्छियाचडगरपहगरेणं णिज्जमाणमग्गं फुट्टहडाहडसीसं दंडिखंडवसणं खंड मल्लयखंडघड़गहत्थगयं गेहे २ देहं बलियाए विचि कप्पेमाणं पासति २ तदा भगवं गोयमे उच्चणीयमज्झिमकुलाई अति, अहापज्जत्तं गेएहति २ पालि० पडिनि० जेणेव समणे भगवं० भत्तपाणं आलोएति, भत्तपाणं पडिदंसेति २ समां अमरणाते रुमाणे बिलमिव पन्नगभूते अप्पाणेणं आहारमा हारेइ संजमेणं तवसा अप्पा भावेमाणे विहरति । पुरिसं - एक पुरुष को । 1 पदार्थ - तेणं कालेनं २ – उस काल, और उस समय में । भगवं - भगवान् । गोतमेगौतम । तहेव - तथैव अर्थात् पूर्व की भान्ति । जेणेव - जहां- जिधर । पाडलिसंडे - पाटलिपंड गरे- - नगर था । तेणेव -वहां । उवागच्छति २-३ -आते हैं, आकर । पाडलिसंड- पाटलिषंड । जगरं - नगर में । पुरत्थिमेणं - पूर्व दिशा के । दारेणं- - द्वार से । श्रणुष्पविसति – प्रवेश करते हैं । तत्थ णं-वहां पर । एगं पासति - देखते हैं जो कि । कच्छुल्लं – कंटू - खुजली के रोग से युक्त । कोढियं- कुष्ठी - कुष्ठरोग वाला । दायरियं-- जलोदर रोग वाला । भगंदरियं - भगंदर का रोगी । श्ररिसिल्लं - अर्शस - बवासीर का रोगी । कासिल्लं - कास का रोगी । सासिल्लं - श्वास रोग वाला । सासिल्लं शोफयुक्त अर्थात् शोफ – सूजन का रोगी । सूयमुहं शूनमुख जिस के मुख पर सोजा पड़ा हुआ हो । सूयइत्थं सूजे हुए हाथों वाला | सूयपाय सूजे हुए पांव वाला । सडियहत्थंगुलिये - जिस के हाथों की अंगुलिये सड़ी हुई हैं । डिपायंगुलिये - जिस के पैरों की अंगुलियें सड़ी हुई हैं । सडियकरणनासियं-जिस के कान और नासिका सड़ गये हैं । रसियाए य रसिका व्रणों से निकलते हुए सफेद गन्दे पानी से । पूपण य-तथा पीच से । थिविधिवंत - थिवथिव शब्द से युक्त । वणमुह किमि उत्तयंत पगलंत पूयरुहिरं - कृमियों से उत्तुद्यमान अत्यंत पीडित तथा गिरते हुए पूय - पीव और रुधिर वाले मुख से युक्त । लालापगलंतकरणनासं- जिस के कान और नाक क्लेदतन्तुओं- फोड़े के बहाव की तारों से गल गये हैं । अभिकखणं २ - पुन: पुन: - बार बार पूयकवले य-पूय पीत्र के कवलों - यासों का । रुहिरकवले य - रुधिर के कवलों का । किमिकवले य - कृमिकवलों का । ममाणं - वमन करता हुआ । कट्ठाई - दुःखद कलुगाई - करुणोत्पादक । वीसराई - विस्वर - दीनता वाले वचन । कूयमाणं बोलता हुआ । मच्छियाचडगरपहगरेणं - मक्षिकाओं के विस्तृत समूह से मक्षिकाओं के धिय से । अणिज्जमाणमग्गं - अन्वीयमानमार्ग अर्थात् उस के पीछे और आगे मक्षिकाओ के झुण्ड के झुण्ड लगे हुए थे । फुट्टइड्राइडसीसं - जिस के सिर के केश नितान्त बिखरे हुए थे । दंडिखंडवसणं - जो टाकियों वाले दस्त्रों को धारण किए हुए था। खंडमल्जयखंडघडग हत्थायंभिक्षापात्र तथा जलपात्र जिस के हाथ में थे । गेहे २ - घर २ में । देबलियाए - भिक्षावृत्ति से । वित्ति.. T For Private And Personal Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित [३७७ आजीविका । कप्पेमाणं - चला रहा था, उस पुरुष को । पासति - देखते हैं । तदा-तब । भगवं- भगवान् । गोयमे - गौतम स्वामी । उच्चणीयमज्झिमकुलाई – ऊँच (धनी), नीच (निर्धन ) तथा मध्यम (न ऊँच तथा न नीच अर्थात् सामान्य ), घरों में । जाव - यावत् । श्रति-भ्रमण करते हैं । अहापज्जन्त्त - पर्याप्त र्थात् यथेष्ट आहार । गेराहति २ ता - ग्रहण करते हैं, ग्रहण करके । पाडलि० - पाटलिषंड नगर से । पडिनि० – निकलते हैं, निकल कर । जेणेव जहां | समणे - श्रमण 1 I | भगवं० - भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहां आते हैं आकर । भक्तपाणं - भक्तपान की । लोपति - श्रालोचना करते हैं, तथा । भत्तपाणं – भक्तपान को । पडिदंसेति २ – दिखलाते हैं, दिखाकर । सम णेणं – श्रमण भगवान् से । श्रब्भपुराणाते समाणे - श्राज्ञा को प्राप्त किए हुए । अप्पा - आत्मा से अर्थात् स्वयं । विलमिव पन्नगभूते - बिल में जाते हुए पन्नक – सर्प की भान्ति । श्राहारमाहारेइ - आहार का ग्रहण करते हैं, तथा । संजमेणं - संयम, और तवसा - तप से । अप्पा - - श्रात्मा को । भावेमाणे – भावित - वासित करते हुए । विहरति- विचरते हैं । मूलार्थ - - उस काल तथा उस समय भगवान् गौतम स्वामी जी षष्ठतप-बेले के पारणे के निमित्त भिक्षा के लिए पाटलिषण्ड नगर में जाते हैं, उस पाटलिषण्ड नगर में पूर्व दिशा के द्वार से प्रवेश करते हैं। वहां एक पुरुष को देखते हैं। जिस की दशा का वर्णन निम्नोक्त है वह पुरुष कण्डू रोग वाला, कुष्ठ रोग वाला, जलोदर रोग वाला, भगंदर रोग वाला, अर्शवासीर का रोगी, उस को कास और श्वास तथा शोथ का रोग भी हो रहा था, उस का मुख सूजा हुआ था, हाथों और पैरों फूले हुए थे, हाथ और पैर की अंगुलिएँ सड़ी हुईं थीं, नाक और कान भी गले हुए थे, रसिका और पीब से rिafra शब्द कर रहा था, कृमियों से उत्तद्यमान - अत्यन्त पीडित तथा गिरते हुए पीब और रुधिर वाले व्रणमुखों से युक्त था, और न क्लेदतन्तुओं से गल चुके थे, बार २ पूयकवल, रुधिरकवल तथा कृमिकल का मन कर रहा था, और जो कष्टोत्पादक, करुणाजनक एवं दीनतापूर्ण शब्द कर रहा था, उस के पीछे मक्षिकाओं के झुण्ड के झुण्ड चले जा रहे थे, सिर के त्यन्त बिखरे हुए थे. टाकियों वाले वस्त्र उसने ओह रखे थे । भिक्ष का पात्र तथा जल का पात्र हाथ में लिए हुए घर २ में भिक्षावृत्ति के द्वारा अपनी आजीविका चला रहा था । भगवान गौतम स्वामी ऊँच नीच और मध्यम घरों में भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए यथेष्ट भिक्षा लेकर पाटलिषंड नगर से निकल कर जहां श्रमण भगवान महावीर स्वामी विराजमान थे, वहां पर आये, आकर भक्त-पान की आलोचना की और लाया हुआ भक्तपान-आहार पानी भगवान को दिखलाया, दिखलाकर उन की आज्ञा मिल जाने पर बिल में प्रवेश करते हुए भान्ति बिना चबाये अर्थात् बिना रस लिये ही आहार करते हैं और संयम तथा तप से अपने आत्मा को भावित-वासित करते हुए कालक्षेप कर रहे हैं । टीका - संयम और तप की सजीव मूर्ति भगवान् गौतम स्वामी सदैव की भान्ति आज भी षष्ठतप- - बेले के पारणे के निमित्त पाटलिषण्ड नगर में भिक्षार्थ जाने की प्रभु से आज्ञा मांगते हैं । आज्ञा मिल जाने पर उन्हों ने पाटलिषंड नगर में पूर्वदिशा के द्वार से प्रवेश किया एक ऐसे व्यक्ति को देखा कि जो कंडू, जलोदर, अर्श, भगंदर, कास, श्वास और शोथादि रोगों में अभिभूत हो रहा था । उस के हाथ पांव और मुख सूजा हुआ था । इतना ही नहीं किन्तु उ For Private And Personal Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३७८] श्री विपाक सूत्र सप्तम अध्याय के हाथ पांव की अंगुलिये तथा नाक और कान आदि अंग प्रत्यंग भी गल सड़ चुके थे । सारा शरीर वणों से व्याप्त था, व्रणों में कृमि-कीड़े पड़े हुए थे, उन में से रुधिर और पीब बह रहा था। मक्षिकाश्रों के झुण्ड के झुण्ड उस के चारों ओर चक्र काट रहे थे, वह रुधिर, पूय और कृमियों-कीड़ों का वमन कर रहा था । उस के हाथ में भिक्षापात्र तथा जलपात्र भी था और वह घर २ में भिक्षा के लिये घूम रहा था, तथा वह अत्यन्त कष्टोत्पादक, करुगााजनक एवं दीनतापूर्ण शब्द बोल रहा था । इस प्रकार की दशा से युक्त पुरुष को भगवान् गौतम स्वामी ने नगर में प्रवेश करते ही देखा, देख कर वे आगे चले गये और धनिक तथा निर्धन आदि सभी गृहस्थों के घरों से आवश्यक भिक्षा ले कर वे वापिस वनषंड उद्यान में प्रभु महावीर के पास आये और यथाविधि अालोचना कर के प्रभु को भिक्षा दिखला कर उनकी आज्ञा से बिल में प्रवेश करते हुए सर्प की भान्ति उस का ग्रहण किया और पूर्व की भान्ति संयममय जीवन व्यतीत करने लगे। यह प्रस्तुत सूत्रगत वर्णन का संक्षिप्त सार है । भगवान गौतम द्वारा देखे हुए उस पुरुष की दयनीय दशा से पूर्वसंचित अशुभ कर्मों का विपाक - फल कितना भयंकर और कितना तीव्र होता है ?, यह समझने के लिये अधिक विचार की आवश्यकता नहीं रहती । इस उदाहरण से उस का भली भान्ति अनुगम हो जाता है । ___"-कच्छुल्लं कोढियं---" इत्यादि पदों की व्याख्या निम्नोक्त है १-कच्छूमान् - कच्छू-खुजली का नाम है । खुजली रोग से आक्रान्त व्यक्ति कच्छमान् कहलाता है । कच्छू का ही दूसरा नाम कण्डू है । कण्डू के सम्बन्ध में कुछ बिचार पृष्ठ ६३ पर भी किया जा चुका है। २-कुष्ठिक-कुष्ठ कोट का नाम है । कोढ के रोग वाला व्यक्ति कुष्टिक कहलाता है। कष्ठ रोग का विवेचन पृष्ठ ६३ तथा ६४ पर किया जा चुका है । ३–दकोदरिक–दकोदर जलोदर रोग का नाम है । उस रोग वाले व्यक्ति को दकोदरिक कहते हैं । जलोदर रोग का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ ६३ पर किया गया है । -दाओयरियं-के स्थान पर-दोउयरियं- ऐसा पाठ भी उपलब्ध होता है। इसका अर्थ है-द्वयोदरिकं-द्व उदरे इव उदरं यस्य स तथा तं जलोदररोगयुक्तमित्यर्थ:-अर्थात् उदर - पेट में जल अधिक होने के कारण जिस का उदर दो उदरों के समान प्रतीत होता हो उसे द्वयादरिक कहते हैं । दूसरे शब्दों में द्वयोरिक को जलोदरिक कहा जा सकता है । ४-भगंदरिक- भगंदर रोगविशेष का नाम है। जिस की व्याख्या पृष्ठ ६० तथा ६१ पर की जा चुकी है । भगंदर रोग वाला व्यक्ति भगंदरिक कहा जाता है । ५-अर्शस-अर्श बवासीर का नाम है। इस के सम्बन्ध में पृष्ठ ६१ पर अर्थसम्बन्धी ऊहापोह किया जा चुका है । अर्श का रोगी अर्शस कहलाता है । ६-कासिक - कास के सम्बन्ध में विचार पृष्ठ ५६ तथा ६० पर किया जा चका है। कास रोग वाले व्यक्ति को कासिक कहते हैं । __७-श्वासिक-श्वास का अर्थ पृष्ठ ५९ पर लिखा जा चुका है । श्वास वाले रोगी का नाम श्वासिक है।। ८-शोफवान्-शोफ- सूजन के रोग से अाक्रान्त व्यक्ति का नाम शोफवान है । ९--शनमुख-जिस का मुख सूजा हुअा हो उसे शनमुख कहते हैं । For Private And Personal Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित १ – शूनहस्त - जिस के हाथ सूजे हुए हों वह शूनहस्त कहलाता है । ११ - शूनपाद - जिस के पांव सूजे हुए हों उस को शूनपाद कहा जाता है । १२ - शटितहस्तांगुलिक - जिस के हाथों की अंगुलियां सड़ गई हैं, उसे शक्तिहस्तांगुलिक कहा जाता है । सड़ने का अर्थ है - किसी पदार्थ में ऐसा विकार उत्पन्न होना कि जिस से उस में दुगंध आने लग जाये । 1 १३- शतगुलिक जिस के पांव की अंगुलियां सड़ जावें, वह शटितपादांगुलिक कहलाता है । १४ - शटितकर्णनासिक - जिस के कर्ण - कान और नासिका - नाक सड़ जाऐं उसे शटितकनासिक कहते हैं । [३७९ १५ - रसिका और पूय से थिविधिवायमान - अर्थात् व्रण से निकलता हुआ दुर्गन्धपूर्ण श्वेत खून रसिका कहलाता है । पूय-पी का नाम है । थिवथिव शब्द वा व्यक्ि थिविथिवायमान कहलाता है । तात्पर्य यह है कि रसिका और पूय के बहने से वह व्यक्ति थिव २ शब्द कर रहा था । १६ - प्रणमुखकृम्युत्त द्यमानप्रग लत्पूयरुधिर - इस समस्त पद के व्रणमुख, कृमि-उत्तु -- द्यमान, प्रगलत्पूयरुधिर, ये तीन विभाग किये जा सकते हैं । व्रण- घाव - ज़ख्म का नाम है । मुख प्रभाग को कहते हैं । तब व्रणमुख शब्द से व्रण का अग्रभाग - यह अर्थ फलित हुआ । कृमियोंकीड़ों से उत्तुद्यमान- पीड़ित, कृम्युक्त द्यमान कहा जाता है । जिस के पूथ - पीब और रुधिर - खून कह रहा है, उसे प्रगलत्पूयरुधिर कहते हैं । अर्थात् उस व्यक्ति के कीड़ों से अत्यन्त व्यथित व्रण - मुखों से पीव और रुधिर बह रह रहा था । व्रणमुखानि कृमिभिरुतुद्यमानानि ऊर्ध्वं व्यथ्यमानानि प्रगलत् पूयरुधिराणि च यस्य स तथा तमिति वृत्तिकारोऽभयदेवसूरिः । कहीं पर - वणमुहकिमि उन्नुयं तपगलं तपूयरुहिरं - ( व्रणमुखकम्युन्नुदत्प्रगलत्पूय रुधिरम्, व्रणमुखात् कृमयः उन्नुदन्तः प्रगलन्ति पूयरुधिराणि च यस्य स तथा तम् । इदमुक्तं भवति - यस्य मुखात् कृमयो बहिर्निःसरन्ति उत्पत्य पतन्ति पूरुधिराणि च प्रगजन्ति तमित्यर्थः) - ऐसा पाठान्तरे भी उपलब्ध होता है। इस का अर्थ है - जिस के घावों के अग्रभाग से कीड़े गिर रहे थे और पीत्र तथा रुधिर भी बह रहा था । १७ - 'लाला प्रगलत्कर्णनास – इस पद में प्रयुक्त हुए लाला शब्द का कोषों में यद्यपि मुंह का पानी (लार) अर्थ किया गया है, परन्तु वृत्तिकार के मत में उसका क्लेदतन्तु यह अर्थ पाया जाता है । जो कि उपयुक्त ही प्रतीत होता है । कारण कि - कलेदतन्तु यह समस्त शब्द है । इस में क्लेद का प्रयोग - नमी (सील), फोड़े का बहाव और कष्ट - पीडा, इन तीन अर्थों में होता है । तथा तन्तु शब्द का - डोरा, सूत, तार, डोरी, मकडी का जाला, तांत, सन्तान, जाति, जलजन्तुविशेष, इत्यादि अर्थों में होता है । प्रकृत में कलेद शब्द का "फोड़ े का बहाव” यह अर्थ और तन्तु का "तार" यह अर्थ ही अभिमत है। तत्र क्लेदतन्तु का प्रण - फोड़े के बहाव की तारें" यह अर्थ निष्पन्न हुआ, जोकि प्रकरणानुसारी होने से उचित ही है, क्योंकि लार तो मुंह से गिरती हैं, नाक और कान से नहीं । फोड़ों के बहाव की तारों से जिसके कान और नासिका गल गये हैं, For Private And Personal (१) लालाभि: क्लेदतन्तुभिः प्रगलन्तौ कर्णौ नासा च यस्य स तथा तमिति वृत्तिकारः । (२) देखो - संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ - पृष्ठ ३४७ (प्रथम संस्करण) । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३८०] श्री विपाक सूत्र [सप्तम अध्याय उसे लालाप्रगलत्कर्णनास कहते हैं। कहीं पर - लालामुहं पगलंतकरणनासं-ऐसा पाठान्तर भी मिलता है। इस का अर्थ निम्नोक्त है १-लालामुख - जिस का मुख लाला अर्थात् लार से युक्त रहता है, उसे लालामुख कहते हैं । तात्पर्य यह है कि उस व्यक्ति के मुख से लारें बहुत टपका करती थीं। २-प्रगलत्कर्णनास-जिस के कान और नासिका बहुत गल चुके थे, ऐसा व्यक्ति प्रगलत्कर्णनास कहलाता है। १८-पूयकवल-पय-पीब को कहते हैं । कवल शब्द-१-उतनी वस्तु जितनी एक बार में खाने के लिये मुंह में रखी जाये, ग्रास, तथा २-पानी आदि उतना पदार्थ जितना मुंह साफ़ करने के लिये एक बार मुंह में लिया जाये कुल्ली, इन दो अर्थों का परिचायक है । पीब के कवल को पूयकवल और इसी भान्ति रुधिर-खून के कवल को रुधिरकवल, तथा कृमियों - कीड़ों के कवल को कृमिकवल कहते हैं। १९- कष्ट-क्लेशोत्पादक -- इस अर्थ का बोध कराने वाला कष्ट शब्द है। २०-करुण-करुणा शब्द उस मानसिक दुःख का परिचायक है जो दूसरों के दुःख के ज्ञान से उत्पन्न होता है और उनके दुख को दूर करने की प्रेरणा करता है । अर्थात् दया का नाम करुणा है । करुणा को उत्पन्न कराने वाला करुण कहलाता है। २१-विस्वर-दीनतापूर्ण वचन विस्वर कहलाता है, अथवा खराब आवाज़ को विस्वर कहा जाता है, अर्थात् उस पुरुष को अावाज़ बड़ी दीनतापूर्ण थी अथवा बड़ी कर्णकटु थी। प्रस्तुत में-कट्ठाई कलुणाइ वीसराई- इन पदों के साथ - वयणाई - इस विशेष्य पद का अध्याहार किया जाता है । तब-कष्टोत्पादक वचन, करुणोत्पादक वचन एवं विस्वर वचन -- कूजत् अर्थात् अव्यक्त रूप से बोलता हुआ, यह अर्थ निष्पन्न होता है । २२-मक्षिकाओं के चडगर पहगर से अन्धीयमानमार्ग-अर्थात् मक्षिका मक्खी का नाम है। चडगर और पहगर ये दोनों शब्द कोषकारों के मत में देश्य - देशविशष में बोले जाने वाले हैं। इन में चडगर शब्द प्रधानार्थक और पहगर शब्द समूहार्थक है। अन्धीयमानमार्ग शब्द-जिस के पीछे २ चल रहा है वह, -इस अर्थ का परिचायक है । अर्थात् जिस के पीछे २ मक्षिकात्रों का प्रधान-विस्तार वाला समूह चला आ रहा है वह, अथवा मक्षिकाओं के वृन्दों- समूहों. के पहकर-समूह जिस के पीछे चले आ रहे हैं वह । तात्पर्य यह है कि उस व्यक्ति के पीछे मक्षिकाओं के झुण्ड के झुण्ड लगे हुए थे । २३-फुद्दहडाहडसीसे-इस पद को व्याख्या अभय देवसूरि के शब्दों में -फुट-त्ति स्फुटितकेशसंचयत्वेन विकीर्ण केशं "हडाहर्ड" ति अत्यर्थ शी शिरो यस्य स तथा- इस प्रकार है । अर्थात् केशसंचय (वालों की व्यवस्था) के स्फुटित-भंग हो जाने से जिस के केश बहुत ज़्यादा बिखरे हुए हैं, उस को स्फुटितात्यर्थशीर्ष कहते हैं । हडाहड-- यह देश्य – देशविशेष में बोला जाने वाला पद है, जो कि अत्यर्थ का बोधक है। श्रद्धेय पं० मुनि श्री घासीलाल जी म. के शब्दों में इस पद की व्याख्या-स्फुटद् हडाहङ (१) मक्षिकाणां प्रसिद्धानां चटकरः प्रधान: विस्तारवान् यः प्रहका: समूहः स तथा, अथवा-मक्षिकाणां चटकराणां तद्वृन्दानां यः प्रहकरः स तथा, तेन । अन्वीयमानमार्गमनुगम्यमानमार्गम् । मलाविलो हि वस्तु प्रायो मतिकाभिरनुगम्यत एवेति भावः । (वृत्तिकारः)। For Private And Personal Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय 1 हिन्दी भाषा टीका सहित [३८१ शोर्षः शिरोवेदनया व्यथितमस्तक:-- इस प्रकार है । अर्थात् भयंकर शिर की पीड़ा से जिस का मस्तक मानों फूा जा रहा था वह । २४- 'दंडिखण्डवसन-जिस के वस्त्र थिगली वाले हैं । थिगली का अर्थ है वह टुकड़ा जो किसी फटे हुए कपड़े आदि का छेद बन्द करने के लिये लगाया जाए, पैबन्द । पंजाबी भाषा में जिसे टाकी कहते हैं । अर्थात् उस पुरुष ने ऐसे वस्त्र पहन रखे थे जिन पर बहुत टाकिये लगी हुई थीं। अथवा-दण्डी-कथा (गुदड़ी को धारण करने वाले भितुविशेष की तरह जिसने वस्त्रों के जोड़े हुए टुकड़े प्रोढ रखे थे वह दण्डिखण्डवसन कहलाता है। २५ - खण्डमल्लकखण्डघटकहस्तगत-खण्डमल्लक भिक्षापात्र या फूटे हए प्याले का नाम है । भिक्षु के जलपात्र या फूटे हुए घड़े को खण्डघटक कहा जाता है । जिस पुरुष के हाथ में खण्डमल्लक और खण्डघटक हो उसे खण्डमल्लक वण्डघटकहस्तगत कहते हैं । ___ कहीं- 3 वराडमल्लखण्डहत्थगय -- ऐसा पाठान्तर भी उपलब्ध होता है । इस का अर्थ है - जिस ने खाने और पानी पीने के लिये अपने हाथ में दो कपाल – मिट्टी के बर्तन के टुकड़े ले रखे थे। २६-देहविलका- का अर्थ कोष में भिक्षावृत्ति -- भीख द्वारा आजीविका ऐसा लिखा है । किन्तु वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि जी इस का अर्थ "- देहि बलिं इत्यस्याभिधानं प्राकृतशैल्या देहबलिया तीए देहंबलियार -" इस प्रकार करते हैं । इस का सारांश यह है, कि मुझे बलि दो-भोजन दो, ऐसा कह कर जो "- वित्तिं कप्पेमाणं -" आजीविका को चला रहा है, उस को- यह अर्थ निष्पन्न होता है, और बलि शब्द का प्रयोग-देवविशेष के निमित्त उत्सर्ग किया हुआ कोई खाद्य पदार्थ, और उच्छिष्ट - इत्यादि अर्थों में होता है। प्रकृत में तो बलिराब्द से खाद्य पदार्थ ही अभिप्रेत है । फिर भले ही वह देव के लिये उत्सर्ग किया हुआ हो अथवा उच्छिष्टरूप से रक्खा हुआ हो । कहीं पर देहबलियार इस पाठ के स्थान पर ... देहबलियार-देहबल्किया-ऐसा पाठान्तर भी उपलब्ध होता है। देह- शरीर के निर्वाह के लिये बलिका-आहार का ग्रहण देहबलिका कहलाता है। कच्छमान्, कष्ठिक-इत्यादि पदों को प्रथमान्त रख कर उन का अर्थ किया गया है, परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में ये सब पद द्वितीयान्त तथा देहबोलका शब्द तृतीयान्त है। अतः अर्थ -- संकलन करते समय मूलार्थ की भान्ति द्वितीयान्त तथा तृतीयान्त की भावना कर लेनी चाहिये । "-गोतमे तहेव जेणेव-" यहां पठित तहेव-तथैव पद पृष्ठ ५२२ तथा १२३ पर पढ़े गये "-छठंछट्टणं अणिक्षितणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणे विहरइ. तए गणं से भगवं गोयमे छट्टक्खमणपारणगंसि पढमाए पारिसीए सज्झायं करेति २ वीयाए पोरिसीए झाणं झियाति-" से लेकर "-दिट्ठीए पुरा रियं सोहेमाणे-" इन पदों का परिचायक है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां वाणिजग्राम नगर का वर्णन है, जब कि प्रस्तुत में पाटलिषण्ड नगर का । "-पाडलिक' तथा ' पडिनि० जेणेव समणे भगवं0- "इन बिन्दुयुक्त पाठों से क्रमश: (१) दण्डिखण्डानि - स्यूतजीर्ण पटनिर्मितानि वसनानि एव वसनानि वस्त्राणि, यस्य स दण्डिखण्डवसनः, तमिति भवः । (२) दण्डिखण्डवसनं-दण्डी कन्थाधारी भिक्षुविशेषः तद्वत् खण्डवसनयुक्तम् । (३) खण्डमल्लखण्डहस्तगतम् - अशनपानार्थ शरावखण्डद्वययुक्तहस्तम् । For Private And Personal Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३८२] श्रो विपाक सूत्र [ सप्तम अभ्याय " - पाडनिसंडाओ' नगराओ, पडिनिक्खमइ, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ गमणागमणाए पडिक्कमइ-" इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए। और “ बिलमिव पन्नगभूर अप्पाणणं आहा आहारेति' इन पदों की व्याख्या वृतिकार के शब्दों में निम्नोक्त है ___ आत्मनाऽऽहारमाहारयति, किंभूतः सन्नित्याह --पन्नगभूतः, नागकल्पो भगवान् श्राहारस्य रसोपलम्भार्थमचर्वणात, कथंभूतमाहारं ? बिलमिव असंस्पर्शनात् नागो हि विलमसंस्पृन्नात्मानं तत्र प्रवे रायति, एवं भगवानपि आहारमसंस्पृशन् रसो. पलम्भादनपेक्षः सन् आहारयतोति --" अर्थात् जिस तरह सांप बिल में सीधा प्रवेश करता है और अपनी गरदन को इधर उधर का स्पर्श नहीं होने देता तात्पर्य यह है कि रगड़ नहीं लगाता, किन्तु सोधा ही रखता है, ठीक उसी तरह भगवान् गौतम भी रसलोलुपी न होने से आहार को मुख में रख कर बिना चबाए ही अन्दर पेट में उतार लेते थे । सारांश यह है कि भगवान् गौतम भी बिल में प्रवेश करते हुए सर्प की भान्ति सीधे ही ग्रास को मुख में डाल कर बिना किसी प्रकार के चर्वण से अन्दर कर लेते थे । इस कथन से भगवान् गौतम में रसगृद्धि के प्रभाव को सूचित करने के साथ २ उनके इन्द्रियदमन और मनोनिग्रह को भी व्यक्त किया गया है, तथा आहार का ग्रहण भा वे धर्म के साधनभूत शरीर को स्थिर रखने के निमित्त ही किया करते थे. न कि रसनेन्द्रिय की तृप्ति करने के लियेइस बात का भी स्पष्टीकरण उक्त कयन से भलीभान्ति हो जाता है । इस के अतिरिक्त यहां पर इस प्रकार आहार ग्रहण करने से अजीणता की आशंका करना तो नितान्त भूल करना है । भगवान् गौतम स्वामी जैसे तपस्विराज के विषय में तो इस प्रकार की संभावना भी नहीं की जा सकती । अजीर्ण तो उन लोगों को हो सकता है जो इस शरीर को मात्र भोजन के लिये समझते हैं, और जो शरीर के लिये भोजन करते हैं, उन में अजीणता को कोई स्थान नहीं है, और वस्तुतः यहां पर शास्त्रकार को अचर्वण से रसास्वाद का त्याग ही अभप्रेत है, न कि चर्वण का निषेध ।। प्रस्तुतसूत्र में पाटलिपंड नगर के पूर्वद्वार से प्रविष्ट हुए गौतम स्वामी ने एक रोगसमूहग्रस्त नितान्त दीन दशा से युक्त पुरुष को देखा -- इत्यादि विषय का वर्णन किया गया है। अब अग्रिमसूत्र में उक्त नगर के अन्य द्वारों से प्रवेश करने पर गोतम स्वामी ने जो कुछ देखा, उस का वर्णन किया जात' है मूल- २ तते णं से भगवं गोतमे दोच्चं पि छट्टक्खमण पारणगंसि पढमाए पोरि (१) भगवान गौतम पाटलिपण्ड नगर से निकलते हैं और जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहां पर आते हैं, आकर ऐर्यापथिक --गमनागमन सम्बन्धी पापकम का प्रतिक्रमण (पाप से निवृत्ति) करते हैं। (२) छाया-ततः स भगवान् गौतमो द्वितीयमपि षष्ठक्षमणपारणके नथमायां पौरुष्यां यावत् पाटलिपंडं नगरं दाक्षिणात्येन द्वारणानु प्रविशति, तमेव पुरुषं पश्यति, कच्छूमन्तं तथैव यावत् संयमेन० विहरति । ततः स गौतमस्तृतीयमपि षष्ठ० तथैव थावत् पाश्चात्येन द्वारेणानुप्रविशन् तथैव पुरुष कच्छू० पश्यति । चतुर्थमपि षष्ठ. उत्तरेण० । अयमाध्यात्मिक: ५ पमुत्पन्नः -- अहो ! अयं पुरुषः पुरा पुराणानां यावदेवमवदत्-एवं खल्वहं भदन्त ! षष्ठस्य पारणके यावत् रीयमानो यत्रैव पाटलिपंडं तत्रैवोपागच्छामि २ पाटलिपुत्रे पौरस्त्येन द्वारेणानुप्रविष्ट: , तत्रैकं पुरुषं पश्यामि कच्छूमंतं यावत् कल्पयन्तम् । ततोऽहं For Private And Personal Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [३८३ सीए जाव पाडलिसंडं णगरं दाहिणिल्लेणं दुवारेणं अणुप्पविसति, तं चेव पुरिसं पासति कच्छुल्लं तहेव जाव संजमे० विहरति । नते णं से गोतमे तच्चं पि छट्ठ० तहेव जाव पच्चत्थिमिन्लेणं दुवारेणं अणुप्पविसमाणे तं चेव पुरिसं कच्छु० पासति । चउत्थं पि छट्ट० उत्तरेणं०, इमे अज्झथिए ५ समुप्पन्ने-अहो ! णं इमे पुरिसे परा पोराणाणं जाव एवं वयासी-एवं खलु अहं भंते ! छहस्स पारणयंसि जाव रीयंते जेणेव पाडलिसंडे तेणेव उवागच्छामि २ पाडलिपुत्ते पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुप्पविट्ठ । तत्थ णं एगं पुरिसं पासामि कच्छुल्लं जाव कप्पेमाणं । तए णं अहं दोच्चं पिछ?क्खमणपारणए दाहिणिल्लेणं दारेणं तहेव । तच्च पि छक्खमण पारणए पच्चत्थिमेण तहेव । तर णं अहं चउत्थं पिछट्टखमणपारणे उत्तरदारेण अणुप्पविसामि, तं चेव पुरम पासामि कच्छुन्लं जाव वित्तिं कप्पेमाणे विहरति । चिंता ममं । पुन्वभवपुच्छा । वागरेति । . पदार्थ-तते ण-तदनन्तर । से- वह । भगवं- भगवान् । गोतमे-गौतम । दोच्चं पिदूसरी बार । छक्खमणपारणगंसि- षष्ठ क्षमण के पारणे में भी अर्थात् लगातार दो दिन के उपवास के अनन्तर पारणा करने के निमित्त । पढमाए–प्रथम । पोरिसीए-पौरुषी-प्रहर में। जाव-यावत् । पाटलिसंडं- पाटलिषंड । रणगरं-नगर में । दाहिणिल्लेण-दक्षिण दिशा के । दुवारेण-द्वार से । अणुप्पविसति-प्रवेश करते हैं। तं चेव-और उसी । कच्छुल्लं - कंडूयुक्त । पुरिसं-पुरुष को। पासति-देखते हैं । तहेव तथैव-पूर्व की भान्ति । जाव-यावत् । संयमे० - संयम और तप से आत्मा को भावित-वासित करते हुए । विहरति-विहरण करते हैं, विचरते हैं । तते ण-तदनन्तर । सेवह । गोतमे- गौतम स्वामी । तच्चं पि-तीसरी बार । छठ्ठ० - षष्ठक्षमण के पारणे में भी। तहेव- तथैवपूर्ववत् । जाव -- यावत् । पञ्चस्थिमिल्लेण-पश्चिम दिशा के । दुवारेणं-द्वार से। अणुप्पविसमाणे - प्रवेश करते हुए । तं चेव - उसी । कच्छु-कंडू के रोग से युक्त । पुरिसं-पुरुष को । पासति - देखते हैं। चउत्थं पि-चौथी बार भी। छट्ठ० - षष्ठक्षमण के पारणे में । उत्तरेण- उत्तर दिशा के द्वार से प्रवेश करते हुए वहां उसी पुरुष को देखते हैं, तब उन को । इमे – यह । अज्झस्थिए ।आध्यात्मिक - संकल्प ५ । समुप्पन्ने -- उत्पन्न हुआ। अहो- श्राश्चर्य है। ---वाक्यालंकारार्थक है। इमे पुरिसे - यह पुरुष । पुरा-पूर्वकृत । पोराणाण पुरातन पापकर्मों के फल का उपभोग कर रहा है । जाव--यावत् भगवान् के पास आकर । एव-इस प्रकार। वयासी- कहने लगे । भंते ! -हे भगवन् ! । एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही । अहं - मैं । छट्ठस्स - षष्ठक्षमण षष्ठतप के । पारणयंसि-पारणे के निमित्त (भिक्षार्थ) । जाव - यावत् । रीयंते भ्रमण करता हुआ । जेणेव-जहां । पाडलिसंडं-पाटलिषंड । गगरं - नगर था । तेणेव- वहां । उवागच्छामि --गया । 'पाडलिपुत्ते - द्वितीयमपि षष्ठक्षमणपारण के दाक्षिणात्येन द्वारेण तथैव । तृतीयमपि षष्ठक्षमणपारणके पाश्चात्येन तथैव । ततोऽहं चतुर्थमपि षष्पक्षमणपारणे उत्तरद्वारेणानुप्रविशामि, तमेव पुरुषं पश्यामि कच्छुमन्तं यावद् वृत्ति कल्पयन् चिहति । चिन्ता मम । पूर्वभवपृच्छा । व्याकरोति ।। (१) इस पाठ से यह प्रमाणित होता है कि पाटलिपुत्र -- यह पाटलिपंड का अपर नाम है । For Private And Personal Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - ३८४] श्री विपाक सूत्र - [ सप्तम अध्याय 1 1 | 1 पाटलिपुत्र नगर के । पुरथिमिल्लेण - पूर्व दिशा के । दारेणं- -द्वार से, मैंने । अणुप्पविट्ठे – प्रवेश किया तो । तत्थ - वहां पर एगं- एक पुरिसं पुरुष को । पासामि - मैंने देखा, जोकि । कच्छुल्लं - कंडू के रोग से युक्त | जाव- यावत् | कपेमाणं- भिक्षावृत्ति से आजीविका चला रहा था। तए णं - तदनन्तर । अहं मैं । दोचं पि- दूसरी बार । छट्ठक्खमणपारणए - पष्ठक्षमण के पारणे के लिये, पाटलिषंड नगर के । दाहिणिल्लेणं-दक्षिण दिशा के । दारेणं-द्वार से प्रवेश किया, तो मैंने । तहेव - तथैव पूर्ववत् अर्थात् उसी पुरुष को देखा । तच्चं पि- तीसरी बार । छट्टक्खमणपारणए - षष्ठक्षमण के पारणे में । पच्चत्थिमेां - उसी नगर के पश्चिम दिशा के द्वार से प्रवेश किया । तहेव - तथैव पूर्व की भांति । तए - तदनन्तर । श्रहं - मैं । चउत्थं पि छुट्टकखमणपारणे - चौथी बार षष्ठक्षमण के पारणे के निमित्त भी । उत्तरदारेणं - पाटलिषंड के उत्तर दिशा के द्वार से । श्रगुप्पविसामि प्रविष्ट हुआ तो । तं चेव - उसी । पुरिसं - पुरुष को पासामि देखता हूँ, जोकि । कच्छुल्लं - कंडू के रोग से अभिभूत हुआ । जाव - यावत् । वित्ति कप्पेमाणे - भिक्षावृत्ति से आजीविका करता हुआ | विहरति - समय बिता रहा था, उसे देखकर । ममं - मुझे चिंता - विचार उत्पन्न हुआ, तदनन्तर । पुन्वभवपुच्छा - गौतम स्वामी ने उसके पूर्वभव को पूछा अर्थात् भगवन् ! यह पुरुष पूर्व जन्म में कौन था ?, इस प्रकार का प्रश्न गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से किया, इस के उत्तर में भगवान् । वागरेति - कहने लगे । मूलार्थ - तदनन्तर भगवान् गौतम स्वामी ने दूसरी बार षष्ठक्षमण - बेले के पारणे के निमित्त प्रथम पौरुषी प्रथम पहर में यावत् भिक्षार्थ गमन करते हुए पाटलिषड नगर में दक्षिण दिशा के द्वार से प्रवेश किया तो वहां पर भी उन्होंने कंडू आदि रोगों से युक्त उसी पुरुष को देखा और वे भिक्षा ले कर वापिस आए। शेष सभी वृत्तान्त पूर्व की भान्ति जानना अर्थात् आहार करने के अनन्तर वे तप और संयम के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं । तदनन्तर भगवान् गौतम तीसरी बार षष्ठक्षमण के पारणे के निमित्त उक्त नगर में पश्चिम दिशा के द्वार से प्रवेश करते हैं, तो वहां पर भी वे उसी पुरुष को देखते हैं । इसी प्रकार चौथी बार षष्ठक्षमण के पारणे के लिये पाटलिषंड के उत्तरदिग्द्वार से प्रवेश करते हैं, तब भी उन्हों ने उसी पुरुष को देखा, देखकर उन के मन में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि ग्रहो ! यह पुरुष पूर्वकृत अशुभ कर्मों के कटु विपाक को भोगता हुआ कैसा दुःखपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा है ? यावत् वापिस आकर उन्हों ने भगवान् से जो कुछ कहा, वह निम्नोक्त है - 1 - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भगवन् ! मैंने षष्ठक्षमण के पारणे के निमित्त यावत् पाटलिषंड नगर की ओर प्रस्थान किया और नगर के पूर्वदिग्द्वार से प्रवेश करते हुए मैंने एक पुरुष को देखा, जो कि कण्डूरोग से प्राक्रान्त यावत् भिक्षावृत्ति से आजीविका कर रहा था। फिर दूसरी बार पष्ठक्षमण के पारणे के निमित्त भिक्षा के लिये उक्त नगर के दक्षिण दिशा के द्वार से प्रवेश किया तो वहां पर भी उसी पुरुष को देखा । एवं तीसरी बार जब पारणे के निमित्त उस नगर के पश्चिमदिशा के द्वार से प्रवेश किया तो वहां पर भी उसी पुरुष को देखा और चौथी बार जब मैं बेले का पारणा लेने के निमित्त पाटलीपुत्र में उत्तरदिग्द्वार से प्रविष्ट हुआ तो वहां पर भो कंडू के रोग से युक्त यावत् भिक्षावृत्ति करते हुए उसी पुरुष को देखता हूं । उसे देख कर मेरे मानस में यह विचार उत्पन्न हुआ कि अहो ! यह पुरुष पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों का फल पा रहा है, इत्यादि । भगवन् ! यह पुरुष पूर्व भव में कौन था १ जो इस प्रकार के भीषण रोगों से For Private And Personal Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सानम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित [३८५ आक्रान्त हुआ जीवन बिता रहा है। गौतम स्वामी के इस प्रश्न को सुन कर भगवान महावीर स्वामी उस का उत्तर देते हुए प्रतिपादन करने लगे । टीका-हम पूर्वसूत्र में देख चुके हैं कि 'षष्ठक्षमण-बेले के पारणे के निमित्त पाटलिपंड नगर में भिक्षार्थ गये हुए गौतम स्वामी ने पूर्व दिग्द्वार से प्रवेश करते हुए एक ऐसे व्यक्ति को देखा था, जिस की घृणित अवस्था का वर्णन करते हुए हृदय कांप उठता है। प्रस्तुत सूत्र में भी पूर्व की भान्ति गौतम स्वामी के दूसरी बार दक्षिण दिशा, तीसरी बार पश्चिमदिशा और चौथी बार उत्तरदिशा के द्वारों से नगर में प्रवेश करते समय उसी पुरुष को देखने का उल्लेख किया गया है। . पाटलिपंड नगर के चारों दिशाओं के द्वारों से प्रवेश करते हुए गौतम स्वामी को चौथी बार अर्थात् उत्तरदिग-द्वार से प्रवेश करने पर भी जब उसी पुरुष का साक्षात्कार हुआ तब उस की नितान्त दयनीय दशा को देख कर उनका दयालु मन करुणा के मारे पसीज उठा। वे उस की भयंकर अवस्था को देखकर उस के कारणभूत प्राक्तन कर्मों की ओर ध्यान देते हुए मन ही मन में कह उठते हैं कि अहो ! यह व्यक्ति पूर्वकृत अशुभ कर्मों के प्रभाव से कितनी भयंक यातना को भोग रहा है ?, इस में सन्देह नहीं कि नरकग ति में अनेक प्रकार की कल्पनातीत भीषण यातनात्रों का उपभोग करना पड़ता है, परन्तु इस मनुष्य की जो इस समय दशा हो रही है. वह भी नारकीय यातनाओं से कम नहीं कही जा सकतो, इत्यादि। इस प्रकार उस मनुष्य के करुणाजनक स्वरूप से प्रभावित हुए गौतम स्वामी नगर से आहारादि सामग्री लेकर वापिस आते हैं और उसी दुःखी व्यक्ति की दशा का वर्णन करने के अनन्तर उस के पूर्वभव का वृत्तान्त जानने की इच्छा से प्रेरित हुए भगवान् से उसे सुनाने की अभ्यर्थना करते हैं, तथा गौतम स्वामी को इस अभ्यर्थना को मान देते हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी उस व्यक्ति के पूर्वभव का वर्णन करते हैं । यह प्रस्तुत सूत्रगत वर्णन का सारांश है। "-पढमार पोरिसीए जाव पाडलिसंडं-" इस पाठ में उल्लिखित जाव-यावत पद से पृष्ठ १२२ तथा १२३ पर पढ़े गए " -सज्झायं करेइ, बोयार पोरिसीर झाणं झियाति. तइयार पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभंते मुहपोत्तियं पडिलेहेइ- " इत्यादि पाठ का ग्रहण समझना चाहिये । अन्तर मात्र इतना है कि वहां वाणिजग्राम नामक नगर का उल्लेख है जब कि प्रस्तुत में पाटलिषंड नगर का । शेष वर्णन समान ही है । "-कच्छुल्लं तहेव जाव संजमे विहरति-" यहां पठित तहेव-तथैव पद उसी तरह अर्थात् जिस तरह पहले पूर्व दिशा के द्वार से प्रवेश करते हुए भगवान् गौतम ने एक कच्छूमान् पुरुष को देखा था, उसी तरह दक्षिण दिशा के द्वार से प्रवेश करते हुए भी उन्होंने उस कच्छूमान् पुरुष को देखाइस भाव का परिचायक है । तथा जाव-यावत् पद से पृष्ठ ३७६ पर लिखे गए"--कोढियं दाश्रोयरियं भगंदरिअं-" से लेकर "--आहारमाहारेइ -" यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । तथा "-संजमे० --" यहां के बिन्दु से भी पृष्ठ ३७६ पर पढे गए "-णं तवसा अप्पाणं भावमाणे-" इन पदों का ग्रहण समझना चाहिये। __--छट्ट- यहां के बिन्दु से "-क्वमणपारणगंसि-" इस पद का ग्रहण समझना चाहिये। तथा-तहेव जाव पच्चस्थिमिल्लेणं - यहां पठित तहेव-तथैव यह पद पृष्ठ १२३ पर संसूचित किए गए (१) लगातार दो दिनों के उपवास को षष्ठतमण कहते हैं । जैन संसार में यह बेले के नाम से विख्यात है । इसे षष्ठतप भी कहा जाता है । For Private And Personal Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३८६) श्री विपाक सूत्र [सप्तम अध्याय " _ उसी तरह अर्थात् बेले के पारणे के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करते हैं, द्वितीय प्रहर में ध्यान करते हैं-श्रादि भावों का परिचायक है । तथा जाव-यावत् पद से पृष्ठ १२२ तथा १२३ पर लिखे हुए "-पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ-से लेकर-पुरओ रियं सोहेमाणे- इत्यादि पदों का ग्रहण समझना चाहिये। -कच्छ-तथा-चउत्थं पिछट्ट०-यहां का प्रथम बिन्दु पृष्ठ ३७६ पर उल्लिखित हुए_ल्लं कोढियं- इत्यादि पदों का संसूचक है । तथा दूसरे बिन्दु से संसूचित पाठ ऊपर लिखा जा चुका है । तथा-उत्तरेणं० - यहां के बिन्दु से-दुवारेणं अणुप्पविसमाणे तं चेव पुरिसं कच्छुल्लं जाव पासति पासित्ता-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । -अज्झथिए ५ समुप्पन्ने – यहां पर दिये गये ५ के अक से विवक्षित पाठ की सचना पृष्ठ १३३ पर की जा चुकी है । तथा-पोराणाणं जाव एवं वयासी- यहां पठित जावयावत् पद पृष्ठ २१० पर लिखे गये-दुच्चिराणाणं दुप्पडिक्कन्ताण-इत्यादि पदों का परिचायक है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां पुरिमताल नगर का उल्लेख है, जब कि प्रस्तुत में पाटलिपंड का । "-पारणयंसि जाव रीयन्ते-" यहां पठित जाव-यावत् पद से - तुब्भेहिं अब्भणुराणाए समाणे पाडलिसंडे णगरे उच्चनीयमज्झिमाणि कुलाणि घरसमुदाणस्स भिवायरियाए-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । अर्थात् यावत् पद-आप श्री से अाज्ञा प्राप्त किया हुआ मैं पाटलिषंड नगर के उच्च-धनी, नीच-निर्धन और मध्यम-न नीच तथा न उच्च अर्थात् साधारण कुलों के सभी घरों में भिक्षा के लिये-इन भावों का परिचायक है। "-कच्छुल्लं जाव कप्पेमाणं-" यहां पठित जाव- यावत् पद से पृष्ठ ३७६ पर पढ़े गए"- कोढियं दाोयरियं-" से लेकर " -देहंबलियाए वित्ति-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। तथा "-चिन्ता-" शब्द से पृष्ठ २५० पर पढ़े गये "-- अहो ण इमे पुरिसे पुरा पोराणाणं दुच्चिरणाणं दुप्पडिक्कन्ताणं-" से ले कर "-नरयपडिरूवियं वेयणं वेति - " यहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिये । - पव्वभवपच्छा-" यह पद पृष्ठ ५१ पर पढ़े गए "-से गं भते ! पुरिसे पुथ्वभवे के आसि १-" से लेकर "-पुरा पोराणाणं जाव विहरति-" यहां तक के पदों का परिचायक है । अब गौतम स्वामी के पूर्वभवसम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फ़रमाया है । अग्रिमसूत्र में उस का वर्णन किया जाता हैमूल-'एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेब जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे (१) छाया-एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे विजयपुरं नाम नगरमभूद् , ऋद्धः । तत्र विजयपुरे नगरे कनकरथो नाम राजाऽभूत् । तस्य कनकरथस्य राज्ञो 'धन्वन्तरि म वैद्योऽभूत् , अष्टांगायुर्वेदपाठक: , तद्यथा-१-कौमारभृत्यं, २-शालाक्यं, ३- शाल्यहत्यं, ४ - कायचिकित्सा, ५ - जांगुलं, ६-भूतविद्या, ७ - रसायनं, ८-वाजीकरणम् । २शिवहस्तः , शुभहस्त:, (१) धनुः शल्यशास्त्र, तस्य अन्तं पारम् , दयति गच्छतीति धन्वन्तरिः । अर्थात् धनु शल्यशास्त्र (अस्त्रचिकित्सा का विधायक शास्त्र ) का नाम है । उस के अन्त-पार को उपलब्ध करने वाला व्यक्ति धन्वन्तरि कहलाता है। (सुश्रुतसंहिता ) (२) शिवहस्त:-शिवं कल्याणं आरोग्यमित्यर्थः, तद् हस्ते यस्य स तथा, तस्य हस्तस्पर्शमात्रण रोगीरोगमुक्तो भवतीति भावः। शुभहस्त:-सुखहस्तो वा, शुभं सुखं वा हस्ते हस्तस्परों यस्य स तथा । लघहस्तः-लघः-व्रणचीरणशलाकादिक्रियास दक्षो हस्तो यस्य स तथा. हस्तलाघवसम्पन्नः । For Private And Personal Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित विजयपुरे णाम णगरे होत्था, रिद्ध० । तत्थ णं विजयपुरे णगरे कणगरहे णाम राया होत्था । तस्स णं कणगरहस्स रगणो धन्नतरी णामं वेज्जे होत्था, अटुंगाउव्वेदपाढए तंजहा–१कोमारभिच्चं,२- सालागे, ३-सल्लहत्ते, ४- कायतिगिच्छा, ५ –जंगोले,६-भूयविज्जा, ७- रसायणे, ८-वाजिकरणे । सिवहत्थे सुहहत्थे लहुहत्थे । तते णं से धन्नतरी वेज्जे विजयपुरे णगरे कणगरहस्स रएणो अन्ते उरे य अन्नेसि च बहूणं राईसर० जाव सत्थवाहाणं अन्नेसिं च बहूणं दुब्बलाण य गिलाणाण य वाहियाण य रोगियाण य सणाहाण य अणाहाण य समणाण य माहणाण य भिक्खुयाण य कप्पडियाण य करोडियाण य आउराण य अप्पेगतियाणं मच्छमंसाई उवदिसति अप्पेगतियाणं कच्छभमंसाई अप्पेगतियाणं गाहमंसाइं अप्पेगतियाणं मगरमंसाई अप्पेगतियाणं सुसुमारमंसाई अप्पेगतियाणं अयमसाई एवं एल-राज्झ-सूयर-मिग-ससय-गो-महिसमसाई, अप्पेगतियाणं तित्तरमंसाई, वट्टा-लावक-कवोत- कुमकुड-मयूरमंसाइं अन्नेसिं च वहणं जलयर-थलयर-खहयरमादीणं मंसाई उवदिसति । अप्पणा वि य णं से धन्नंतरी वेज्जे तेहिं बहूहिं मच्छमंसेहि य जाव मयूरमंसेहि य अन्नेहिं बहूहिं य जलयर-थलयर-खहयरमसेहि य मच्छरसेहि य जाव मयूररसेहि य सोल्लेहि य तलिएहिं य भज्जिएहि य सुरं च ५ आसाएमाणे ४ विहरति । तते णं से धन्नंतरी वेज्जे एवकम्मे ४ सुबहुं पावं कम्मं समज्जिणित्ता बत्तीसं वाससताई परमाउपालइत्ता कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं वावीससागरोवढिइएसु नेरइएसु नेरइत्ताए उववन्ने । __पदार्थ-एवं खलु -इस प्रकार निश्चय ही । गोतमा! हे गौतम! । तेणं कालेणं तेणं समरणंउस काल तथा उस समय । इहेव-इसी । जंबुद्दीवे-जम्बूद्वीप नामक । दीवे-द्वीप के अन्तर्गत । भारहे वासे-भारत वर्ष में । विजयपुरे-विजयपुर । णाम-नामक । णगरे-नगर । होत्थाथा, जो कि। रिद्ध०-ऋद्ध -भवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित - स्वचक्र और परचक्र के भय से रहित, एवं समृद्ध -धन धान्यादि से परिपूर्ण था । तत्थ णं-उस । विजयपुर-विजयलघुहस्तः । ततः स धन्वन्तरिर्वेद्यो विजयपुरे नगरे कनकरथस्य राज्ञः अंत:पुरे च अन्येषां च बहूनां रजेश्वर. यावत् सार्थवाहानामन्येषां च बहूनां दुर्बलानां च ग्लानानां च व्याधितानां च रोगिणां च सनाथानां च अनाथानां च श्रमणानां च ब्राह्मणानां च भिक्षुकाणां च करोटिकानां च कार्पटिकानां च अातुराणामप्येकेषां मत्स्यमांसानि उपदिशति, अप्येकेषां कच्छपमांसानि, अप्येकेषां ग्राहमांसानि, अत्येकेषां मकरमांसानि, अप्येकेषां सुसुमारमांसानि अप्येकेषामजमांसानि, एवमेल-गवय शूकर-मृग-शशक-गो-महिषमांसानि, अप्येकेषां तित्तिरमांसानि वर्तक-लावककपोत-कुक्कुट-मयूरमांसानि, अन्येषां च बहूनां स्थलचर-जलचर -खचरादीनां मांसानि उपदिशति । आत्मनापि च स धन्वन्तरिवैद्यः तेर्बहूभिः मत्स्यमांसैश्च यावद् मयूरमांसैश्च, अन्यश्च बहुभिजलचर-स्थलचर-खचरमांसैश्च, मत्स्यरसैश्च यावद् मयूररसैश्च शूल्यैश्च तलितैश्च भर्जितैश्च सुरां च ५ आस्वादयन् ४ विहरति । ततः स धन्वन्तरिवैद्यः एतत्कर्मा ४ सुबहु पापं कर्म समयं द्वाविंशतं वर्षशतानि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा षष्ठ्यां पृथिव्यामुत्कर्षेण द्वविंशतिसागरोपमस्थितिकेषु नैर यिकेषु नैरयिकतयोपपन्नः । For Private And Personal Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३८०] श्री विपाक सूत्र सप्तम अध्याय पुर । णगरे- नगर में । कणगरहे-कनकरथ । णाम-नाम का। राया-राजा । होत्या - था । तस्स णं-उस । कणगरहस्स - कनकरथ । रराणो-राजा का । धन्नंतरी - धन्वंतरि । णामं नामक । वेज्जे-वैद्य । होत्था-था, जो कि । अटुंगाउब्वेयपाढए - अष्टांग आयुर्वेद का अर्थात् आयुर्वेद के आठों अंगों का पाठक- ज्ञाता-जानकार था । तंजहा--जैसे कि । १-कोमारभिच्चं-१-कौमारभृत्य - आयुर्वेद का एक अंग जिप्त में कुमारों के दुग्धजन्य दोषों का उपशमनप्रधान वणन हो । २-सालागे-२-शालाक्य - चिकित्साशास्त्र - आयुर्वेद का एक अंग जिस में शरीर के नयन, नाक आदि ऊध्र्वभागों के रोगों की चिकित्सा का विशेषरूप से प्रतिपादन किया गया हो । ३ - सल्लहत्त - ३-शाल्यहत्य - आयुर्वेद का एक अंग जिस में शल्य -कण्टक, गोली आदि निकालने की विधि का वर्णन किया गया हो। ४-कायतिगिच्छा -४--कायचिकित्सा-शरीरगत रोगों की प्रतिक्रिया-इलाज तथा उसका प्रतिपादक आयुर्वेद का एक अंग। ५-जंगोले -५-आयुर्वेद का एक विभाग जिस में विषों की चिकित्सा का विधान है। ६ -- भूयवेज्जे-६ - भूतविद्या-आयर्वेद का वह विभाग जिस में भूतनि ग्रह का प्रतिपादन किया गया है। ७ – रसायणे -७-रसायन - आयु को स्थिर करने वालो और व्याधि - विनाशक औषधियों के विधान करने वाला प्रकरणविशेष । ८-वाजीकरणे-८- वाजीकरण --- बलवीर्यवर्द्धक औषधियों का विधायक आयुर्वेदका एक अंग । तते णं-तदनन्तर । से- वह । धन्नंतरी-धन्वंतरि । वेज्जे-वैद्य, जो कि । सिवहत्थे-शिवहस्त - जिस का हाथ शिव - कल्याण उत्पन्न करने वाला हो । सुहहत्थे-शुभहस्त -- जिस का हाथ शु अथवा सुख उपजाने वाला हो। लहहत्थे लघुहस्त -जिस का हाथ कशलता से युक्त हो । विजयपुरे-विजयपुर । णगरे-नगर में । कणगरहस्स-कनकरथ । रगणो - राजा के। अंतेउरे यअन्तःपुर में रहने वाली राणी, दास तथा दासी आदि । अन्नेसिं च -और अन्य । बहूणं -- बहुत से । राईसर०-राजा-प्रजापालक, ईश्वर - ऐश्वर्य वाला । जाव~यावत् । सत्थवाहाणं-सार्थवाहों -- संघ के नायकों को तथा । अन्नेसिं च-और अन्य । बहूणं-बहुत से। दुब्व ना ग य - दुबलों तथा । गिलाणाण-ग्लानों -ग्लानि प्राप्त करने वालों अर्थात किसी मानसिक चिन्ता से सदा उदास रहने वालों । य-और रोगियाणरोगियों य-तथा । वाहियाण य - व्याधिविशेष से आक्रान्त रहने वालों तथा । सणाहाण - सनाथों । यऔर । अणाहाण-अनाथों। य-और । समणाण-श्रमणों। य - तथा । माहणाण - ब्राह्मणों । यऔर । भिक्खुयाण-भिक्षुकों। य-तथा। करोडियाण -- करोटिक -- कापालिकों-भिक्षुविशेषों । यऔर । कप्पडियाण-कार्पटिकों-भिखमंगों अथवा कन्थाधारी भिक्षुयों। य - तथा । श्राउराण य-आतुरों की (चिकित्सा करता है, और इन में से।। अप्पेगतियाणं - कितनों को तो मच्छमसाई- मत्स्यों के मांसो का अर्थात् उनके भक्षण का। उवदिसति-उपदेश देता है । अप्पेगतियाणं-कितनों को । कच्छभमंसा. ई-कच्छपमांसों का कच्छुओं के मांसों को भक्षण करने का। अप्पेगांतयाणं-कितनों को। गाहमंसाईग्राहों-जलचरविशेषों के मांसों का। अप्पेगतियाणं-कितनों को । मगरमसाई-मगरों-जलचरविशेषों के मांसों का। अप्पेगतियाणं-कितनों को । सुमारमसाई-सु सुमारों-जलचर विशेषों के मांसों का । अप्पेतियाणं - कितनों को। अयमसाइ-अजों-बकरों के मांसों का । एवं- इसी प्रकार । एल-भेड़ों । रोज्झ-गक्यों अर्थात् नीलगायों । सूयर -शूकरों -सूयरों। मिग- मृगों - हरिणों । ससय-शशकों अर्थात् खरगोशों । गो-गौत्रों । महिसमसाइ-और महिषों - भैंसों के मांसों का (उपदेश देता है)। अप्पेगतिया. णं-कितनों को । तित्तिरमंसाई-तित्तरों के मांसों का। वट्टक-बटेरों । लावक- लावकों-पक्षिविशेषों । कवोत -कबूतरों । कुक्कुड-कुक्कड़ों - मुर्गों । मयूरमसाई-और मयूरों-मोरों के मांसों का उपदेश देता है। च-तथा। अन्नेसिं--अन्य । बहूणं-बहुत से । जलयर-जलचरों-जल में चलने वाले जीवों। For Private And Personal Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम.अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित। [३८९ थायर-स्थलचरों - स्थल में चलने वाले जीवों । खहयरभादीणं - और खेचरों - आकाश में चलने वाले जीवों के । मंसाई- मांसों का । उव दिसति-उपदेश देता है । अप्पणा वि य -तथा स्वयं भी । से-वह । धन्नंतरी-धन्वन्तरि । वेज्जे-वैद्य । तेहिं उन । बहूहिं-अनेकविध । मच्छ - मंसहि य - मत्स्यों के मांसों। जाव -यावत् । मयूरभंसेहि य-मयूरों के मांसों तथा । अन्देहि - अन्य । बहहिं य-बहुत से । जलयर - जलचर । थलयर-स्थलचर । खहयरसेहि य - खेचर जीवों के मांसों से तथा । मच्छरसेहि य - मत्स्यरसों । जाव-यावत् । मयूररसेहि य मयूररसों से, जो कि । सोल्लेहिं य. पक ये हुए । तलिहिं य-- तले हुए । भज्जिएहिं य-और भूने हुए हैं. उन के साथ । सुरं च ५- सुरा आदि छः प्रकार की मदिराओं का । आसाएमाणे ४-आस्वादन, विस्वादनादि करता हुआ । विहरतिविचरता है - जीवन व्यतीत करता है । तते - तत्पश्चात् । से-वह । धनंतरी - धन्वन्तरि । वेज्जे - वैद्य । एयकामे ४ - एतत्कर्मा -- ऐसा ही पाप पूर्ण जिस का काम हो, एतत्प्रधान – यही कर्म जिस का प्रधान हो अर्थात् यही जिस के जीवन की साधना हो, एतद्विद्य - यही जिस की विद्या - विज्ञान हो और एतत्समाचार --जिस के विश्वासानुसार यही सर्वोत्तम आवरण हो, ऐसा वह । सुबहुं - अत्यधिक । पावं कम्मं-पाप कर्मों का । समज्जिणित्ता = उपार्जन कर के । बत्तीसं वाससताई - बत्तीस सौ वर्षों की । परमाउं-परमायु को । पालइत्ता-पाल कर। काजमासे-कालमास में । कालं किच्चा. काल कर के । छटोर - छठी । पुढवीए-पृथिवी नरक में । उक्कोसेणं-उत्कृष्ट । बावीससागरोवमट्टिइएसु-२२ सागरोपम की स्थिति वाले । णेरइएसु-नारकियों में। रयत्ताए-नारकीरूप से । उववन्ने-- उत्पन्न हुआ। मूलार्थ-इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में विजयपुर नाम का एक ऋद्ध, स्तिमित, एवं समृद्ध नगर था । उस में कनकरथ नाम का राजा राज्य किया करता था। उस कनकरथ नरेश का आयुर्वेद के आठों अंगों का ज्ञाता धन्वन्तरि नाम का एक वैद्य था । आयुर्वेद - सम्बन्धी आठों अंगों का नामनिर्देश निम्नोक्त है (१) कौमारभृत्य (२) शालाक्य (३) शाल्यहत्य (४) कायचिकित्सा (५) जांगुल (६) भूतविद्या (७) रसायन और (८) वाजीकरण । शिवहस्त, शुभहस्त और लघुहस्त वह धन्वन्तरि वैद्य विजयपुर नगर में महाराज कनकरथ के अन्त:पुर में निवास करने वाली गणियों और दास दासी आदि तथा अन्य बहुत से राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाहों, इसी प्रकार अन्य बहुत से दुर्बल, ग्लान, व्याधित या बाधित और रोगी जनों एवं सनाथों, अनाथों तथा श्रमणों, ब्राह्मणों, भिक्षकों, करोटकों, कापेटिकों एवं आतुरों की चिकित्सा किया करता था, तथा उन में से कितनों को तो मत्स्यमांसों का उपदेश करता अर्थात् मत्स्यमांसों के भक्षण का उपदेश देता और कितनों को कच्छुयों के मांसों का, कितनों को पाहों के मांसों का, कितनों को मकरों के मांसों का, कितनों को सुसुमारों के मांसों का और कितनों को अजमांसों का उपदेश करता । इसी प्रकार भेडों, गवयों, शकरों, मृगों, शशकों, गौओं और महिषों के मांसों का उपदेश करता। कितनों को तित्तरों के मांसों का तथा बटेरों, लावकों, कपोतों, कुक्कुटों और मयूरों के मांसों का उपदेश देता । इसी भान्ति अन्य बहुत से जलचर, स्थलचर, और खेचर आदि जीवों के मांसों का उपदेश करता और स्वयं भी वह धन्वन्तरि वैद्य उन अनेकविध मत्स्यमांसों यावत् For Private And Personal Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३९०] ओ विपाक सूत्र [ सप्तम अध्याय मयूररसों तथा अन्य बहुत से जलचर, स्थलचर और खेचर जोवों के मांसों से तथा मस्त्यरसों यावत् मयूररसों से पकाये हुए, तले हुए और भूने हुए मांसों के साथ छः प्रकार की सुरा आदि मदिराओं को स्वादन, विस्वादन आदि करता हुआ समय व्यतीत करता था । इस पातकमय कर्म में निपुण, प्रधान तथा इसी को अपना विज्ञान एव सर्वोत्तम आचरण बनाये हुए वह धन्वन्तरि नामक वैद्य अत्यधिक पाप कर्मों का उपार्जन करके ३२ सौ वर्ष की परमायु को भोग कर कालमास में काल करके के छठी नरक में उत्कृष्ट २२ सागरापम की स्थिति वाले नारकियों में नारकीरूप से उत्पन्न हुआ । टीका- "कारण से कार्य की उत्पत्ति होती है" यह न्यायशास्त्र का न्यायसंगत सिद्धान्त है । सुख और दुःख ये दोनों कार्य हैं किसी कारण विशेष के, अर्थात् ये दोनों किसी कारणविशेष से ही उत्पन्न होते । जैसे अग्नि के कार्यभूत धूम से उस के कारणरूप अग्नि का अनुमान किया जाता है ठीक उसी प्रकार कार्यरूप सुख या दुःख से भी उस के कारण का अनुमान किया जा सकता है । फिर भले ही वह कारणसमुदाय विशेषरूप से अवगत न हो कर सामान्यरूप से ही जाना गया हो, तात्पर्य यह है कि कार्य और कारण का समानाधिकरण होने से इतना तो बुद्धिगोचर हो ही जाता है कि जहां पर सुख अथवा दुःख का संवेदन है वहाँ पर उस का पूर्ववर्ती कोई न कोई कारण भी अवश्य विद्यमान होना चाहिये, परन्तु वह क्या है ?, और केसा है ।, इसका अनुगम तो किसी विशिष्ट ज्ञान की अपेक्षा रखता है। कर्मवाद के सिद्धान्त का अनुसरण करने वाले आस्तिक दर्शनों में इस विषय का अच्छी तरह से स्पष्टीकरण कर दिया गया है कि आत्मा में सुख और दुःख की जो अनुभूति होती है वह उस के स्वोपार्जित प्राक्तनीय कर्मों का ही फल है, अर्थात् कर्मबन्ध की हेतभत सामग्री अध्यवसायविशेष से यह आत्मा जिस प्रकार के शुभ अथवा अशुभ कर्मों का बन्ध करता है. उसी के अनुरूप ही इसे विपाकोदय पर सख अथवा दुःख की अनुभूति होतो है । यह कर्मवाद का सामान्य अथच व्यापक सिद्धान्त है। इसी सिद्धान्त के अनुसार किसी सुखी जीव को देख कर उस के प्रागभवीय शुभ कर्म का और दःखी जीव को देखने से उस के जन्मांतरीय प्रशभ कर्म का अनमान किया जाता है। शास्त्रचक्षु छद्मस्थात्मा की सीमित बुद्धि की पहुँच यहीं तक हों हो सकतो है. इस से आगे वह नहीं जा सकती। तात्पर्य यह है कि अमुक दुःखी व्यक्ति ने कौन सा अशुभ कर्म किया ?, और किस भव में किया?, किस का फल इसे इस जन्म में मिल रहा है, इस प्रकार का विशेष ज्ञान शास्त्रचनु छद्मस्थ आत्मा की ज्ञानपरिधि से बाहिर का होता है । इस विशेषज्ञान के लिये किसी परममेधावी दूसरे शब्दों में-किसी अतीन्द्रिय ज्ञानी की शरण में जाने की आवश्यकता होती है । वही अपने आलोकपूर्ण ज्ञानादर्श में इसे यथावत् प्रतिबिं. बित कर सकता है । अथवा यूं कहिये कि उसी दिव्यात्मा में इन पदार्थों का विशिष्ट आभास हो सकता है, जिस का ज्ञान प्रतिबन्धक आवरणों से सर्वथा दूर हो चुका है । ऐसे दिव्यालोकी महान् आत्मा प्रकृत में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी हैं। भगवान् गौतम द्वारा दृष्ट दु:खी व्यक्ति के दुःख का मूलस्रोत क्या है ?, इसका विशेष - रूप से बोध प्राप्त करने के लिये उसके पूर्वभवों के कृत्यों को देखना होगा, परन्तु उन का द्रष्टा तो कोई सर्वज्ञ आत्मा ही हो सकता है । बस इसी उद्देश्य से गौतम स्वामी ने सर्वज्ञ आत्मा वीर प्रभु के सन्मुख उपस्थित होकर सामान्य ज्ञान रखने वाले भव्यजीवों के सुबोधार्थ पूर्व दृष्ट For Private And Personal Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित। [३९१ दु:खी व्यक्ति के पूर्वभव की पृच्छा की है। प्रस्तुत सूत्र में विजयपुर नगर के नरेश कनकरथ के राजवैद्य धन्वन्तरि के आयुर्वेदसम्बन्धी विशदज्ञान के वर्णन के साथ २ उसकी चिकित्साप्रणाली का उल्लेख करने बाद उसकी हिसा - परायण मनोवृत्ति का परिचय करा दिया गया है। जिस मनुष्य में हिंसक मनोवृत्ति की इतनी अधिक और व्यापक मात्रा हो, उस के अनुसार वह कितने क्रिष्ट कर्मों का बन्ध करता है ! यह समझना कुछ कठिन नहीं है। धन्वन्तरि के जीव ने अपने हिसांप्रधान चिकित्सा के व्यवसाय में पुण्योपार्जन के स्थान में अधिक से अधिक मात्रा में पापपुज को एकत्रित किया अर्थात् २मत्स्य आदि अनेक जाति के निरपराध मूकप्राणियों के प्राणों का अपहरण करने का उपदेश देकर और उनके मांसपिंड से अपने शरीरपिंड का संवर्द्धन करके जिस पापराशि का संचय किया, उसका फल नरकगति की प्राप्ति के अतिरिक्त और हो ही क्या सकता है ?, इसीलिये सूत्रकार ने मृत्यु के बाद उसका छठी नरक में जाने का उल्लेख किया है। सूत्रकार ने धन्वन्तरि वैद्य का जो मांसाहार तथा मांसाहारोपदेश से उपार्जित दुष्कर्मा के फलस्वरूप २२ सागरोपम तक के बड़े लम्बे काल के लिये छठी नरक में नारकीय रूप से उत्पन्न होने का कथानक लिखा है, इस से यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि मांसाहार दुर्गतियों का मूल है और नाना प्रकार के नारकीय अथच भीषण दुःखों का कारण बनता है, अतः प्रत्येक सुखाभिलाषी मानव का यह सर्वप्रथम कर्तव्य बन जाता है कि वह मांसाहार के जघन्य तथा दुर्गतिमूलक आचरण से सर्वथा विमुख एवं विरत रहे । मांसाहार दुःखों का स्रोत होने से जहां हेय है, त्याज्य है, वहां वह शास्त्रीय दृष्टि से गहित है, निंदित है एवं उसका त्याग सुगतिप्रद होने से अादरणीय एवं आचरणीय है, यह पूर्व पृष्ठ ३१३ से ले कर ३१५ में बतलाया जा च का है । इस के अतिरिक्त मांस मनुष्य का प्राकृतिक भोजन नहीं है अर्थात् प्रकृति ने मनुष्य को निगमिषभोजी बनाया है, न कि आमिषभोजी । निरामिषभोजी तथा आमिषभोजी (१) प्रस्तुत कथासन्दर्भ में जिस धन्वन्तरि वैद्य का वर्णन किया गया है और वैद्यकसंसार के लब्धप्रतिष्ठ वैद्यराज धन्वन्तरि ये दोनों एक ही थे ? या भिन्न २ १, यह प्रश्न उत्पन्न होता है । इसका उत्तर निम्नोक्त है यह ठीक है कि नाम दोनों का एक जैसा है, परन्तु फिर भी यह दोनों भिन्न २ थे, क्योंकि इन दोनों के काल में बड़ी भिन्नता पाई जाती है । महाराज कनकरथ के राजवैद्य धन्वन्तरि अपने हिंसापूर्ण एवं करतापूर्ण मांसाहारोपदेश अोर मांसाहार तथा मदिरापान जैवी जयन्यतम प्रवृत्तियों के कारण छठी नरक में २२ सागरोपम' जैसे बड़े लम्बे काल तक नारकीय भीषणातिभीषण यातनात्रों का उपभोग कर लेने के अनन्तर पाटलिषंड नगर के सेठ सागरदत्त की सेठानी गंगादत्ता के उदर से उम्बरदत्त के रूप में उत्पन्न होते हैं. जब कि वैदिक मान्यतानुसार देवों और दैत्यों के द्वारा किए गये समुद्रमन्थन से प्रादुर्भूत हुए वैद्यकसंसार के वैद्यराज धन्वन्तरि को अभी इतना काल ही नहीं होने पाया। इस लिए दोनों की नामगत समानता होने पर भी व्यक्तिगत भिन्नता सुतरां प्रमाणित हो जाती है । (२) मत्स्य आदि पशुओं के नाम तथा उन मांसों के उपदेश का सविस्तर वर्णन मूलाथ पृष्ठ ३८९ तथा ३९० पर किया जा चुका है । (१) सागरोपम शब्द की व्याख्या पृष्ठ २७४ तथा २७५ की टिप्पण में की जा चुकी है । For Private And Personal Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३९२] श्री विपाक सूत्र [सप्तम अध्याय प्राणियों की शारीरिक बनावट और उनके स्वभाव में एवं जीवन चर्या में जो महान अन्तर है, वह यत्किचित् नीचे की पंक्तियों में दिखलाया जाता है - (१) मनुष्य के पंजे, पेट की नालियां और प्रान्तें उन पशुयों के समान बनी हुई है जो मांसाहार नहीं करते हैं। किंतु मांसाहारी पशुयों के इन अंगों की रचना निरामिषभोजी पशों से सर्वथा भिन्न प्रकार की होती हैं । उदाहरण के लिये जैसे गौ, घोड़ा, बन्दर आदि पश मांसाहारी नहीं हैं और शेर, चीता आदि पशु मांसाहारी है । जो शारीरिक अवयव गौ आदि पशुयों के होते हैं, शेर आदि के वैसे अवयव नहीं होते । मनुष्य के शरीर की रचना भी मांसाहारी पशुयों की शरीररचना से सर्वथा भिन्न पाई जाती है। अतः मांसाहार मानव का प्राकृतिक भोजन नहीं है। (२) मांसाहारी पशुयों की आंखें वतु लाकार-गोल होती हैं जबकि मनुष्य की ऐसी नेत्ररचना नहीं पाई जाती। (३) मांसाहारी पशु कच्चा मांस खाकर उसे पचाने में समर्थ होता है, जब कि मनुष्य की ऐसी स्थिति नहीं होती। (४) मांसाहारी पशुयों के दान्त लम्बे और गाजर के श्राकार के तीक्षण (पेने) होते हैं, और एक दूसरे से दूर २-पृथक् २ होते हैं, परन्तु फलाहारी पशुयों के दान्त छोटे २ चौड़े २ और परस्पर मिले हुए होते हैं। मनुष्य के दान्तों का निर्माण फलाहारी पशुओं के समान पाया जाता है। (५) मांसाहारी पशुयों के नवजात बच्चों की आंखें बन्द होती हैं, जबकि मनुष्य के बच्चे की ऐसी स्थिति नहीं होती। (६) मांसाहारी पशु जिहवा से चाट कर पानी पीते हैं जब कि मनुष्य गाय, बकरी आदि पशुयों के समान घूएट भर २ कर पानी पीता है। (७) मांसाहारी पशुओं तथा पक्षियों का चमड़ा कठोर होता है और उस पर घने बाल होते हैं, जब कि मनुष्य के शरीर में ऐसी बात नहीं होती है । (८) मांसाहारी पशुयों के शरीर से पसीना नहीं आता, जब कि मनुष्य के शरीर से पसीना निकलता है। (९) मांसाहारी पशुयों के मुख में थूक नहीं रहता, जब कि अन्नाहारी और फलाहारी मनुष्य तथा गौ आदि पशुयों के मुख से थूक निकलता है। (१०) मांसाहारी पशु गरमी से हांपने पर जिहवा बाहिर निकाल लेता है जब कि मनुष्य ऐसा नहीं करता। (११) मांसाहारी पशु रात्रि के समय दूसरे प्राणियों का शिकार करते हैं और दिन को सोते हैं । जब कि मनुष्य की ऐसी स्थिति नहीं होती, वह रात्रि को सोता है । (१२) मांसाहारी जीवों को गरमी बहुत लगती है और सांस शीघ्रता से आने लगता है परन्तु अन्नाहारी एवं फलाहारी जीवों को न इतनी गरमी लगती है और न ही सांस तीव्रता से चलता है । मनुष्य की गणना ऐसे ही जीवों में होती है । (१३) मांसाहारी पशुओं का जीवननिर्वाह फलों से नहीं हो सकता, जब कि मनुष्य मांस के बिना ही अपने जीवन को चला सकता है । (१४) मनुष्य को यदि मनोरंजन के लिये किसी स्थान में जाने की भावना उठे तो वह बागों, फुलवाड़ियों और वनस्पति से लहलहाते हुए स्थानों में जाता है, किन्तु मांसाहारी जीव वहां For Private And Personal Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सत्रा अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित जाते है, जहां मृतक शरीरों की दुर्गन्ध से वायुमण्डल व्याप्त हो रहा हो । (१५) मनुष्य को यदि ऐसे स्थान में बहुत समय तक रखा जाए कि जहां मृतक शरीरों की दुर्गन्ध से वायुमण्डल परिपूर्ण हो रहा हो तो वह शीघ्र ही रोगी हो कर जीवन से हाथ धो बैठेगा, किन्तु मांसाहारी पशुओं की इस अवस्था में भी ऐसी स्थिति नहीं होती, प्रत्यु त वे ऐसे दुगन्धपूर्ण स्थानों में जितना काल चाहें ठहर सकते हैं, और उन के स्वास्थ्य को किसी भी प्रकार की हानि नहीं होने पाती। ऐसी और अनेकानेक युक्तयां भी उपलब्ध हो सकती हैं परन्तु विस्तारभय से वे सभी यहां नहीं दी जा रही हैं । सारांश यह है कि इन सभी युक्तियों से यह स्पष्ट प्रमाणित एवं सिद्ध हो जाता है कि मांसाहार जहां शास्त्रीय दृष्टि से त्याज्य है, वहां वह मानव की प्रकृति के भी सर्वथा विपरीत है तथा मानव की शरीर - रचना भी उसे मांसाहार करने की आज्ञा नहीं देती। अतः सुखाभिलाषी प्राणी को मांसाहार की जघन्य प्रवृत्ति से सवथा दूर रहना चाहिये । अन्यथा धन्वन्तरि वैद्य की भांति नारकीय दुःखों का उपभोग करने के साथ साथ जन्ममरण के प्रवाह में प्रवाहित होना पड़ेगा । प्रस्ततसूत्र पाठ में धन्वन्तरि वद्य को आयुर्वेद के आट अंगों के ज्ञाता बतलाते हुए पाठ अंगों के नामों का भी निर्देश कर दिया गया है। उन में से प्रत्येक की टीकानुसारिणी व्याख्या निम्नलिखित है (१) कौमारभृत्य-जिस में स्तन्यपायी बालकों के पालन पोषण का वर्णन हो, तथा जिस में दूध के दोषों के शोधन का और दूषित स्तन्य - दुग्ध से उत्पन्न होने वाली व्याधियों के शामक उपायों का उल्लेख हो, ऐसे शास्त्रविशेष की कौमारभृत्य संज्ञा होती है । कुमाराणां बालकानां भृतौ पोषणे साधु कौमारभृत्यम् , तद्धि शास्त्रं कुमारभरणस्य क्षीरस्य दोषाण संशोधनार्थ दुष्पस्तन्यनिमित्तान व्याधीनामुपशमनार्थ चेति । (२) शालाक्य-जिस में शलाका - सलाई से निष्पन्न होने वाले उपचार का वर्णन हो और जो धड़ से कार के कान, नाक, और मुख आदि में होने वाले रोगों को उपशान्त करने के काम में आये, ऐसा तंत्र-शास्त्र शालाक्य कहलाता है । शलाकायाः कर्म शालाक्यम् , तत्प्रतिपादक तंत्रमपि शालाक्यम् , तद्धि ऊर्ध्वजन्तुगतानां रोगाणां श्रवणवदनादिसंश्रितानामुपशमनार्थम् ।। (३) शाल्यहत्य-जिस शास्त्र में शल्योद्धार - 'शल्य के निकालने का वर्णन हो, अर्थात् उस के निकालने का प्रकार बतलाया गया हो. उसे शाल्यहत्य कहते हैं । शल्यस्य हत्या हननमुद्वार इत्यर्थः शल्यहत्या, तत्प्रतिपादक शास्त्रं शाल्यहत्यमिति । (४) काचिकित्सा-जिस में काय अर्थात् ज्वरादि रोगों से ग्रस्त शरीर की चिकित्सा - रोगप्रतिकार का विधान वर्णित हो, उस शास्त्र का नाम कायचिकित्सा है । इस में शरीर के मध्यभाग में होने वाले ज्वर तथा अतिसार -विरेचन प्रभृति रोगों का उपशान्त करना वर्णित होता है। कायस्य ज्वरादिरोगग्रस्त शरीरस्य चिकित्सा रोगप्रतिक्रिया यत्राभिधीयते तत् कायचिकित्सैव, तत्तत्रं हि म. भ्यांगसमाश्रितानां वरातिसारादीनां शमनार्थ चेति ।। (५) जांगुल-जिस में सर्प, कीट, मकड़ा, आदि विषले जन्तुओं के अष्टविध विष को उ. तारने - दूर करने तथा विविध प्रकार के विषसंयोगों के उपशान्त करने की विधि का वर्णन हो, उसे (१) शल्प-द्रव्य और भाव से दो प्रकार हाता है । द्रव्यरात्य-कांटा, भाला आदि पदार्थ हैं. तथा माया (छल कपट), निदान (नियाना) और मिथ्यादर्शन (मिथ्याविश्वास) ये तीनों भावराल्य कहलाते हैं । प्रकृत में शल्यशब्द के द्रव्य राल्य का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है। For Private And Personal Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३९४] श्री विपाक सूत्र [सप्तम अध्याय जांगुल कहते हैं । विषविघातक्रियाभिधायक जंगोलमगदतंत्रम् , तद्धि सर्पकोटलूताद्यष्टविषविनासार्थम् , विविधविषसंयोगोपशमनार्थ चेति । (E) भतविद्या - जिस शास्त्र में भूतों के निग्रह का उपाय वर्णित हो, उसे भूतविद्या कहते हैं । यह शास्त्र देव, असुर, गन्धर्व, यक्ष और राक्षस आदि देवों के द्वारा किये गये उपद्रवों को शान्ति - कर्म और बलिप्रदानादि से उपशान्त करने में मार्गदर्शक होता है । भूतानां निग्रहार्था विद्या, सा हि देवासुरगंधर्वयक्षरातसाधुपसृष्टचेतसां शान्तिकर्मबलिकरणादिभिर्ग्रहोपशमनार्थ चेति। (७) रसायन - प्रस्तुत में रस शब्द अमृतरस का परिचायक है। प्रायन प्राप्ति को कहते हैं । अमृतरस आयुरक्षक, मेधावर्धक और रोग दूर करने में समर्थ होता है, उस की विधि आदि के वर्णन करने वाले शास्त्र को रसायन कहते हैं। रसोऽमृतरसस्तस्यायनं प्राप्तिः रसायनम् , तद्धि वयःस्थापनम् , आयुर्मेधाकरम् , रोगापहरणसमर्थ च, तदभिधायक तंत्रमपि रसायनम् । (4) वाजीकरण अशक्त पुरुष को घोड़े के समान शक्तिशाली बनाने के साधनों का जिस में वर्णन किया गया हो, अर्थात् वीर्यवृद्धि के उपायों का जिस में विधान किया गया हो, उस शास्त्र को वाजीकरण कहते हैं । यह शास्त्र अल्पवीर्य को अधिक तथा पुष्ट करने के लिये उपयुक्त होता है । अवाजिनो वाजिनः करणं वाजीकरणं शुक्रवद्धनेनाश्वस्येव करणमित्यर्थः, तदभिधायक शास्त्र वाजिकरणं, तद्धि अल्पतीणविशुष्करतसामाप्यायनप्रसादोपजनननिमित्तं प्रहर्षजननार्थ चेति । इस के अतरिक्त मूल पाठ में धन्वन्तरि वैद्य के लिये-शिवहस्त शुभहस्त और लघुहस्त ये तीन विशेषण दिये हैं। इन विशेषणों से ज्ञात होता है कि रोगियों की चिकित्सा में वह बड़ा ही कुशल था। जिस रोगी को वह अपने हाथ में लेता, उसे अवश्य ही नीरोग - रोगरहित कर देता था, इसी लिये वह जनता में शिवहस्त- कल्याणकारी हाथ वाला, शुभहस्त - प्रशस्त और सुखकारी हाथ वाला, और लघुहस्त-फोड़े आदि के चीरने फाड़ने में जो इतना सिद्धहस्त था कि रोगी को चीरने एवं फाड़ने के कष्ट का अनुभव नहीं होने पाता था, ऐसा, अथवा जिस का हाथ शीघ्र काम या आराम करने वाला हो, इन नामों से विख्यात हुआ। तथा राजवैद्य धन्वन्तरि के पास छोटे, बड़े, धनिक और निर्धन सभी प्रकार के व्यक्ति चिकित्सा के निमित्त उपस्थित रहते, जिन में महाराज कनकरथ के रणवास की रानियों के अतिरिक्त मांडलिक राजा, प्रधानमंत्री, नगर के सेठ साहूकार - बड़े महाजन या व्यापारी, भी रहते थे । दुर्बल, ग्लान आदि पदों की व्याख्या निम्नोक्त है - (१) दुर्बल-कृश अर्थात् बल से रहित व्यक्ति का नाम है । २- २ग्लान-शोकजन्य (१) काशी नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से प्रकाशित संक्षिप्त हिन्दी शब्दसागर में ---रसायन शब्द के-११) वैद्यक के अनुसार वह औषध जिस के खाने से आदमी बुड्ढा या बीमार न हो (२) पदार्थों के तत्त्वों का ज्ञान (३) वह कल्पित योग जिस के द्वारा तांबे से सोना बनना माना जाता है --- इतने अर्थ लिखे हैं, और रसायन शास्त्र शब्द का-वह शास्त्र जिस में यह विवेवन हो कि पदार्थों में कौन कौन से तत्त्व होते हैं और उन के परमाणुओं में परिवर्तन होने पर पदार्थों में क्या परिवर्तन होता है ? - ऐसा अर्थ पाया जाता है। परन्तु प्रस्तुत में रसायन शब्द का टीकानुसारी ऊपर लिखा हुअा अर्थ ही सूत्रकार को अभिमत है। (२) गिलाणाणं-त्ति क्षीणहर्षाणां शोकजनितपीडानामित्यर्थः । For Private And Personal Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सनम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित [३९५ पीड़ा से युक्त अर्थात् जिस का हर्ष क्षीण हो चुका हो, उसे ग्लान कहते हैं । ३ – १ व्याधितचिरस्थायी कोट आदि व्याधियों से युक्त व्याधित कहलाता है । अथवा - सद्यप्राणघातक - शीघ्र ही प्राणों का नाश करने वाले ज्वर, श्वास, दाह, अतिसार अर्थात् विरेचन यादि व्याधियों से युक्त व्यक्ति व्याधित कहा जाता है । यदि वाहियाणं – इस पद का बाधितानां - ऐसा संस्कृत प्रतिरूप मान लिया जाए तो उसका अर्थ होगा - उष्ण - गरमी आदि की बिमारी से बाधित - पीड़ित व्यक्ति । ४ - रोगी चिरस्थायी - देर तक न रहने वाले ज्वर आदि रोगों से युक्त व्यक्ति रोगी कहलाता है । अथवा चिरघाती अर्थात् देर से विनाश करने वाले ज्वर, अतिसार आदि रोगों से युक्त व्यक्ति रोगी कहलाता है । जिन का कोई नाथ - स्वामी हो वह सनाय तथा जिन का कोई स्वामी- रक्षक न हो वह नाथ कहलाता है । गेरु रंग वस्त्र धारण करने वाले परिव्राजक सन्यासी का नाम श्रमण है । चारों वर्णों में से पहले वर्ण वाले को ब्राह्मण कहते हैं । अथवा - याचक विशेष को ब्राह्मण कहते हैं । भिक्षुकभिक्षावृत्ति से आजीविका चलाने का नाम है । हाथ में कपाली - खोपरी रखने वाले सन्यासी के लिये कटक शब्द प्रयुक्त होता है । कार्पेटिक शब्द जीर्ण कंथा - गोदड़ी को धारण करने वाला, अथवा भिखमं गा - इन अर्थों का परिचायक है । श्रातुर- जिस को अन्य वैद्यों ने चिकित्सा के अयोग्य ठहराया हो, अथवा - जिसे असाध्यरोग हो रहा हो उसे श्रातुर कहते हैं । इस के अतिरिक्त यहां पर इतना और ध्यान रहे कि मूल में मत्स्यादि जलचर और कुक्कुटादि स्थलचर एवं कपोतादि खेचर जीवों के नामोल्लेख करने के बाद भी " - जलयर - थलयर - " आदि पाठ दिया है, उस का तात्पर्य यह है कि पहले जितने भी नाम बताये गए हैं, उनका संक्षेपतः वर्णन कर दिया गया है और उनके अतिरिक्त दूसरों का भी ग्रहण उक्त पाठ से समझना चाहिये । इसलिये यहां पर पुनरुक्ति दोष की श्राशंका नहीं करनी चाहिये । - रिद्ध० - यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ का वर्णन पृष्ठ १३८ पर किया जा चुका है । तथा “ – राईसर० जाव सत्थवाहाणं " यहां पठित जाव - यावत् पद से “ – तलवर- माटुंबिय कोडु' बिय- इब्भ - सेट्ठि --" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । राजा प्रजापति का नाम है । ईश्वर आदि शब्दों की व्याख्या पृष्ठ १६५ पर लिखी जा चुकी है । - मच्छमंसेहिं य जाव मयूरमं सेहिं - यहां पठित जाव - यावत् पद से कच्छभमंसेहिं य, गाहमंसेहिं य, मगरमंसेहिं य, सुसुमारमंसेहिं य, अयमंसेहिं य, एलमंसेहिं य, रोज्कमंसेहिं य, सूरमंसेहिंय. मिगमंसेहिं य, ससयमंसेहिं य, गोमंसेहिं य, महिसमंसेहिं य. तित्तिरमंसेहिं य. वहकमंसेहिं य, लावकमंसेहिं य, कवोतमंसेहिं, य, कुक्कुडमंसेहिं य-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। मांस आदि पदों का अर्थ पृष्ठ ३८८ पर लिखा जा चुका है । अन्तर मात्र विभक्ति का है. प्रकृत्यर्थ में कोई भेद नहीं हैं। (१) वाहियाणं - ति व्याधिश्चिरस्थायी कुष्ठादिरूपः स संजातो येषां ते व्याधिताः । वाधिता वा उष्णादिभिरभिभूताः अतस्तेषाम् । अथवा - व्याधितानां – सद्योघाति – ज्वरश्वासकासदाहातिसार भगंदरशूलाजीर्णव्याधियुक्तानामित्यर्थः । (२) रोगियाण - यत्ति संजाताचिरस्थायिज्वरादिदोषाणाम्, अथवा चिरघातिज्वरातिसारादिरोगयुक्तानामित्यर्थः । (३) – समणणय, त्ति - गैरिकादीनाम् । (४) आउराण य - चिकित्साया विषयभूतानाम् अथवा असाध्य रोगपीडितान ( मित्यर्थः । For Private And Personal Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र सप्तम अध्याय "-मच्छरसेहि य जाव मयूररसेहि य-"यहां पठित जाव-यावत् पद से भी ऊपर की भांति कच्छभरसेहि य-इत्यादि पदों का ही ग्रहण करना चाहिये । अन्तर मात्र मांस और रस, इन दोनों पदों का है । __"-सुरं च ५-तथा-आसाएमाणे ४, एवं-- एयकम्मे ४-- यहां दिये गये अंकों से ग्रहण किये गये पदों का विवर्ण पृष्ठ २५०, तथा पृष्ठ १७९ पर किया जा चुका है। प्रस्तुतसूत्र में धन्वन्तरि वैद्य के पूर्वभव का प्रारम्भ से समाप्ति तक का वर्णन कर दिया गया है। अब सूत्रकार उसके अग्रिम जीवन का वर्णन करते हैं - मूल-तते णं सा गंगादत्ता भारिया जायणिदु या यावि होत्था, जाता जाता दारगा विणिघायमावज्जंति । तते णं तोसे गंगादत्ताए सत्थवाहीए अन्नया कयाइ पुनरत्तावरत्त कुडुम्बजागरियाए जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए ५ समुपन्ने-एव खलु अहं सागरदत्तेणं सत्थवाहेणं सद्धिं वहुई वासाइं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुजमाणी विहरामि, णों चेत्र णं अहं दारगं वा दारियं वा पयामि, तं धरणाओ णं ताओ अम्मयात्रओ, सपुण्णाओ तारो अम्मयात्रो, कयत्थाओ ए ताओ अम्मयानो कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयात्रो सुलधणं तासिं अम्मयाणं माणुस्सए जम्मजीवियफले, जासिं मन्ने नियगकुच्छिसंभूयाई थणदुद्धलुद्धगाइं महुरसमुल्लावगाई मम्मणपयंपियाई थणमृता काखदेसभागं अतिसरमाण (१) छाया- तत: सा गंगादत्ता भार्या जातनिद्रता चाप्यभवत् । जाता जाता दारका विनिपातमापद्यन्ते । ततस्तस्या गंगादत्तायाः सार्थवाह्याः अन्यदा कदाचित पूर्वरात्रापररात्रकटुम्बजागरिकया जाग्रत्या अयमेतद्रप आध्यात्मिकः ५ समुत्पन्न: -एवं खल्वहं सागरदत्तेन सार्थवाहेन साद्ध बहनि वर्षाणि उदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुजाना विहरामि, नो चैवाहं दारकं वा दारिकां वा प्रजन्ये, तद्धन्यास्ता अंबाः सपुण्या - स्ता अवाः, कृतार्थास्ता अवा:, कृतलक्षणास्ता अंधाः, सुलब्धं तासामम्बानां मानुष्यकं जन्मजीवितफलम् , यासां मन्ये निजकुक्षिसंभतानि स्तनदुग्धलुब्धकानि मधुरसमल्लापकानि मन्मनप्रजातानि स्तनमूलात् कक्षदेशभागमतिसरन्ति, मुग्धकानि, पनश्च कोमलकमलोपमाभ्यां हस्ताभ्यां गृहीत्वोत्संगनिवेशितानि ददति समल्लापकान् समधुरान् पुनः पुनमंजुलप्रभणितान् । अहमधन्या, अपुण्या, अकृतपुण्या एतेषामेकतरमपि न प्राप्ता । तच्छ यः खलु मम कल्यं यावज्ज्वलति. सागरदत्तं सार्थवाहमापृच्छय सुबहु पुष्पवस्त्रगन्धमाल्यालकारं गृहीत्वा बहुभि: मि. त्रज्ञातिनिजकस्वजनसंबन्धिपरिजनमहिलाभिः साई पाटलिषंडात् नगरात् प्रतिनिष्कम्य बहिः पत्रेवोम्बादत्तस्य यक्षस्य यक्षायतनं तत्रैवोपागत्य, तत्रोम्बरदत्तस्य यक्षस्य महाहं पुष्पार्चनं कृत्या 'जानुपादपतितयोपयाचितुयद्यह देवानुप्रिय ! दारकं वा दारिकां वा प्रजन्ये, तदाहं तुभ्यं यागं च दायं च भागं च अक्षयनिधिं चानुवर्धयि -- ध्यामि, इति कृत्वोपयाचितमुपयाचितुम् । एवं स प्रेक्षते सम्प्रेक्ष्य कल्यं यावज्ज्वलति यत्रैव सागर दत्तः सार्थवाहस्तत्रैवोपागच्छति उपागत्य सागरदत्त सार्थवाहमेवमवादोत् – एवं खल्वहं देवानुप्रिय ! युष्माभिः साद्धं यावत् न प्राप्ता, तदिच्छामि देवानुप्रिय ! युष्माभिरभ्यनज्ञाता यावदुपयाचितुम् । ततः स सागरदत्तो गंगादत्तां भार्यामेव मवदत्-ममापि च देवानुप्रिये ! एष चैव मनोरथ:. क्थं त्वं दारकं वा दारिकां वा प्रजनिष्यति । गंगादत्तां भार्यामेतदर्थमनुजानाति । ११) जानुभ्यां - जानुनी भूमौ निपात्येत्यर्थः, पादयोः यक्ष चरणयोः पतितायाः- नताया., उपागल्य कार्यसिद्धौ सत्यां प्राभृतार्थे मानसिक संकल्पं कतु मित्यर्थः । For Private And Personal Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। [३९७ गाई मुद्धगाई पुणो य कोमलकमलोवमेहिं हत्थेहि गरिहऊण उच्छंगनिवेसियाई दिति समुल्लावए सुमहुरे पणो पुणो मंजुलप्पभणिते । अहं णं अधण्णा अपुरणा अकयपुण्णा एत्तो एक्कतरमवि न पत्ता । तं सेयं खलु ममं कल्लं जाव जलंते सागरदत्तं सत्थवाहं आपुच्छित्ता सुबहुपुष्फवत्थगंधमल्लालंकारं गहाय बहहि मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणमहिलाहिं सद्धिं पाडलिसंडात्रो णगराओ पडिणिक्खमित्ता चहिया, जेणेव उम्बग्दत्तस्स जस्खस्स जक्खायतणे तेणेव उवाच्छित्ता, तत्थ उंबरदत्तस्स जक्खस्स महरिहं पुष्फच्चणं करेत्ता जाणुपादपडियाए उचयाइत ए-जति णं अहं देवाणुप्पिया ! दारगं वा दारियं वा पयामी, तो णं अहं तुभं जायं च दायं च भागं च अक्खयणिहिं च अणुवड्ढेस्सामि, त्ति कट्ट प्रोवाइयं उवाइणित्तए । एवं संपेहेति संहिता कल्लं जात जलते जेणेव सागरदत्ते सत्थवाहे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता सागरदत्तं सत्थवाहं एवं वयासी-ए' खलु अहं देवाणप्पिए ! तुम्भेहि सद्धिं जाव न पत्ता, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिए ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाता जाव उवाइणित्तए । तते णं से सागरदत्ते गंगादत्तं भारियं एवं क्यासीमम पि णं देवाणुप्पिए ! एस चेव मणोरहे, कहं णं तुमं दारगं वा दारियं वा पयाएज्जासि । गंगादत्तं भारियं एयपट्ट अणुजाणेति ।। पदार्थ-तते णं- तदनन्तर । सा--वह । ग गादत्ता-- गंगादत्ता । भारिया--भार्या । जायणिद्द या-जातनिद्रुता - जिस के बालक जीवित न रहते हो । यावि होत्था-भी थी, उस के । जाता २-उत्पन्न हए २ । दारगा - बालक । विणिवायमावज्जति - विनाश को प्राप्त हो जाते । तते णं-तदनन्तर । तीसे-उस । गगादत्ताए -गंगादत्ता । सत्थवाहीए-सार्थवाही को, जो कि । पुश्वरत्तावरत्तकुडुबजागरियार-मध्यरात्रि के समय कुटुम्बसंबन्धी जागरिका-चिन्तन के कारण । जागरमाणीए - जागती हुई के । अन्नया-अन्यदा । कयाइ-कदाचित् - किसी समय । अयमेयारूवे-यह इस प्रकार का । अज्झथिए ५-आध्यात्मिक- संकल्पविशेष ५ । समुप्पन्ने-उत्पन्न हुा । एवं--इस प्रकार । खलु-निश्चय हो । अहं - मैं । सागरदत्तणं-सागरदत्त । सत्थवाहेणं- सार्थवाह – मुसाफिर व्यापारियों का मुखिया या संघ का नायक, के । सद्धि- साथ । उरालाईउदार-प्रधान । मा गुस्लगाई-मनुष्यसम्बन्धी । भागभोगाई -कामभोगों का । भुजमाणी-- सेवन करती हुई । विहरामि-विहरण कर रही हूं, परन्तु । अहं.- मैने आज तक एक भी । दारगं वा-बालक अथवा । दारियं वा- बालिका को। णो चेव-नहीं। पयामि-जन्म दिया अर्थात मैंने ऐसे बालक या बालिका को जन्म नहीं दिया जो कि जीवित रह सका हो। तं- इस लिये। धरा धन्य हैं। तारो-वे । अम्मयाओ-मातायें तथा। सपराणा श्रोणं-पुण्यशालिनी हैं। तारो-वे । श्रम या प्रो-माताऐ। कयत्था या गां-कृतार्थ हैं । ता या वे। अम्मया रो-मातायें । कयलकवणाओं णंकृतलक्षणा हैं। ताना-वे । अम्मयाओ--मातायें। तासिं -उन । अम्मयाणं-माताओं ने । सलद्ध -प्राप्त कर लिया है। माणुस्सए -मनुष्यसन्वन्धी । जम्मजीवियफले--जन्म और जीवन का फल । जाति-जिन के । नियाल्छिसंभूयाई-अपनी कुक्षि - उदर से उत्पन्न हुई संताने हैं, जो कि । थणदुद्धनुदगाई-स्तनगत दुग्ध में लुब्ध हैं । महुरसमुल्लावगाई-~ For Private And Personal Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३९८] श्री विपाक सूत्र [सप्तम अध्याय जिन के संभाषण अत्यंत मधुर हैं । मम्मणपयंपियाई --जिन के प्रजल्पन-वचन मन्मन अर्थात् अव्यक्त अथच स्वलित हैं । थणमूला - स्तन के मूलभाग से । कक्खदेसभागं - कक्ष (कांख) प्रदेश तक । अतिसरमाणगाई- सरक रहीं हैं । मुद्धगाई-जो मुग्ध - नितान्त सरल हैं, और फिर । कोमल - कमलोवमेहि-कमल के समान कोमल-सुकुमार । हत्थेहिं - हाथों से । गेरिहऊण - ग्रहण कर -पकड़ कर । उच्छंगनिवेसियाई-उत्संग में - गोदी में स्थापित की हुई है। पुणो पुणो- बार बार । सुमहुरेसुमधुर । मंजुलप्पभणिते - मजुलप्रभणित-जिन में प्रभणित - भणनारंभ अर्थात् बोलने का प्रारम्भ मंजुल- कोमल है, ऐसे । समुल्लावए- समुल्लापों-वचनो को । दिति-सुनाते हैं, सारांश यह है कि जिन माताओं की ऐसी संतानें हैं उन्हीं का जन्म तथा जीवन सफल है, ऐसा मैं । मन्नेमानती हूं. परन्तु । अहं णं-मैं तो अधन्ना-अधन्य हूँ। अपुरणा - पुण्यहीन हूँ। अकयपुगणाअकृतपुण्य हूँ अर्थात् जिसने पूर्वभव में कोई पुण्य नहीं किया. ऐसी हूँ । एत्तो - इन उक्त चेष्टाओं में से । एक्कतरमवि-एक भी । न पत्ता-प्राप्त न हुई अर्थात् बालसबन्धी उक्त चेष्टाओं में से मुझे एक के देखने का भी आज तक सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। तं- इसलिये। खलु-निश्चय ही। ममं - मेरे लिये यही। सेयं - कल्याणकारी है, कि | कल्यं जाव - प्रात:काल यावत् । जलंते- सूर्य के देदीप्यमान हो जाने पर अर्थात् सूर्योदय के बाद । सागरदत्तं - सागरदत्त । सत्यवाहं-सार्थवाह को । श्रापुच्छित्तापूछ कर । सुबहुं-बहुत ज़्यादा । पुष्कवत्थगंधमल्लालंकारं- पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला, तथा अलंकार ये सब पदार्थ । गहाय-लेकर । बहूहि-बहुत से । मित्तणाइनियासयणसंबंधिपरिजणमहिलाहिंमित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजन की महिलाओं के । सद्धिं-साथ । पाडतिसंडाओ -- पाटलिषंड । णगरानो- नगर से । पडिनिक्वमित्ता--निकल कर । बहिया - बाहिर । जेणेवजहां पर । उबरदत्तस्स- उम्बरदत्त नामक । जक्वस्त-यक्ष का । जक्वायतणे - यक्षायतन -स्थान था । तेणेव-वहां पर । उवागच्छित्ता-जाकर । तत्थ णं-वहां पर । उंबादत्तस्स - उम्बरदत्त । जक्खस्स-यक्ष की। महरिहं-महाई - बड़ों के योग्य । पुष्फच्चणं - पुष्पार्चन-पुष्पों से पूजन । करेसाकरके । जाणुपादपडियाए-घुटने टेक उनके चरणों पर पड़ी हुई । उवयाइत्तए - उन से याचना करू कि । देवाणुप्पिया!- हे महानुभाव ! । जति गं-यदि । अहं - .मैं । दारगं-एक भी (जी. वित रहने वाले) बालक, अथवा । दारियं- (जीवित रहने वाली) बालिका को । पयामि-जन्म दू। तो णं-तो। अहं- मैं । तुब्भं-आप के । जायं च-याग – देवपूजा । दायं च -दान- देय अंश । भागं च-भाग-लाभ का अंश तथा । अक्षयणिहिं च -अझयनिधि – देवभंडार की। अणुवडहे - स्सामि-वृद्धि करूंगी । नि कह --- इस प्रकार कह कर के । अोवाइयं-उपयाचित - इष्टवस्तु की । उवाइणित्तए- प्रार्थना करने के लिये। एवं-इस प्रकार । संपेहेति संपेहित्ता-विचार करती है, विचार कर । कल्लं जाव-प्रात:काल यावत् । जलते-सूर्य के उदित होने पर । जेणेव-जहां पर । सागरदत्तेसागरदत्त । सत्यवाहे-सार्थवाह था । तेणेव -वहीं पर । उवागछति उवागच्छित्ता-आती है, आकर । सागरदत्तं-सागरदत्त । सत्यवाहं-सार्थवाह को । एवं-इस प्रकार । वयासो-कहने लगी । एवं खलु - इस प्रकार निश्चय ही । देवाणुप्यिया !-हे महानुभाव ! । अहं - मैं ने । तुम्भेहि-श्राप के । सद्धिं-साथ । जाव-यावत् अर्थात् उदार - प्रधान काम भोगों का सेवन करते हुए भी आज तक । एक भी जीवित रहने वाले पुत्र या पुत्री को । न पत्ता - प्राप्त नहीं किया । तं- इसलिये । देवाणुप्पिए! हे महानुभाव ! । इच्छामि णं-मैं चाहती हूं कि । तुब्भेहिं-आप से । अभणुराणाता. अभ्यनुज्ञात हुई-अर्थात् आज्ञा मिल जाने पर । जाव-यावत् अर्थात् इष्टवस्तु की प्राप्ति के लिये उम्ब For Private And Personal Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । रदत्त यक्ष की । उवाइणित्तए -प्रार्थना करू' अर्थात् मनौती मनाऊ । तते णं-तदनन्तर । सेवह । सागरदत्त - सागरदत्त । गंगादत्त - गङ्गादत्ता । भारियं - भार्या के प्रति । एवं वयासी-इस प्रकार बोला । देवाणुप्पिए !-हे महाभागे ! । ममं पिय -मेरा भी । एस चेव-यही । मणोरहे- मनोरथ-कामना है कि । कहं णं - किसी तरह भी । तुम-तुम । दारगं वा-जीवित रहने वाले बालक अथवा । दारियं वा - बालिका को । पयाएज्जासि - जन्म दो, इतना कह कर । गंगादत्त भारियं-गंगादत्ता भार्या को । एयम - इस अर्थ - प्रयोजन के लिये। अणुजाणेति-आज्ञा दे देता है, अर्थात् उस के उक्त प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है। मूलार्थ- उस समय सागरदत्त की गंगादत्ता भार्या जातनिद्र ता थी, उस के बालक उत्पन्न होते ही विनाश को प्राप्त हो जाते थे । किसी अन्य समय मध्यरात्रि में कुटुम्बसम्बन्धी चिन्ता से जागती हुई उस गंगादत्ता साथवाही के मन में जो संकल्प उत्पन्न हुआ, वह निम्नो क्त है मैं चिरात से सागरदत्त सार्थवाह-संघनायक के साथ मनुष्यसम्बन्धी उदारप्रधान कामभोगों का उपभोग करतो रहो हूं, परन्तु मैंने आज तक एक भी जीवित रहने वाले बालक अथवा बालिका को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त नहीं किया । अतः वे माताएं हो धन्य हैं तथा वे माताएं ही कृतार्थ अथच कृतपुण्य हैं एवं उन्होंने ही मनुष्यसम्बन्धी जन्म और जीवन को सफल किया है, जिन की सनगत दुग्ध में लुब्ध, मधुरभाषण से युक्त. अव्यक्त अथच स्खलित वचन वाली, स्तनमूल से कक्षप्रदेश तक अभिमरणशील, नितान्त सरल, कमल के समान कोमल - सुकुमार हाथों से पकड़ कर अंक-गोदी में स्थापित की जाने वाली और पुनः पुन: सुमधुर, कोमल प्रारंभ वाले वचनों को कहने वालो अपने पेट से उत्पन्न हुई सन्ताने हैं। उन माताओं को मैं धन्य मानती हूं। मैं तो अधन्या, अपुण्या-पुण्यरहित हूं, अकृतपुण्या हूं' क्योंकि मैं इन पूर्वोक्त बालसुलभ चेष्टाओं में से एक को भी प्राप्त नहीं कर पाई । अतः मेरे लिये यही श्रेय-हितकर है कि मैं कल प्रातःकाल सूर्य के उदय होते ही सागरदत्त सार्थवाह से पूछ कर विविध प्रकार के पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला और अलंकार लेकर बहुत सी मित्रों', ज्ञातिजनों, निजकों. स्वजनों सम्बन्धीजनों और परिजनों की महिलाओं के साथ पाटलिपंड नगर से निकल कर बाहिर उद्यान में जहां उम्बरदत्त यक्ष का यक्षायतन- स्थान है वहां जाकर उम्बर,त्त यक्ष की महार्ह पुष्पार्चना करके और उसके चरणों में नतमस्तक हो इस प्रकार प्रार्थना करू_ हे देवानुप्रिय ! यदि मैं अब जीवित रहने वाले बालक या बालिका को जन्म दू तो मैं तुम्हारे याग, दान, भाग-लाभग्रंश और देवभंडार में वृद्धि करूंगी । तात्पर्य यह है कि मैं तुम्हारी पूजा किया करूंगो या पूजा का संवर्द्धन किया करूगी, अर्थात् पहले से अधिक पूजा किया करूंगी। दान दिया करूगी या तुम्हारे नाम पर दान किया करूंगी या तुम्हारे दान में वृद्धि करूगी अर्थात् पहले से ज्यादा दान दिया करूंगी। भाग-लाभांश अर्थात् अपनी प्राय के अंश को दिया करूंगी या तुम्हारे लाभांश- देवद्रव्य में वृद्धि करूगी । तथा तुम्हारे अक्षयनिधि-देवभंडार में वृद्धि करूगी, उसे भर डालूगी । (१) मित्र, ज्ञाति आदि पदों का अर्थ पृष्ठ १५० की टिप्पण में किया जा चुका है। For Private And Personal Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४००] श्री विपाक सूत्र - [ सप्तम अभ्याय इस प्रकार उपयाचित- ईप्सित वस्तु की प्रार्थना के लिये उसने निश्चय किया। निश्चय करने के अनन्तर प्रात:काल सूर्य के उदित होने पर जहां पर सागरदत्त सार्थवाह था वहां पर आई आकर सागरदत्त सार्थवाह से इस प्रकार कहने लगी-हे स्वामिन् ! मैंने तुम्हारे साथ मनुष्यसम्बन्धी सांसारिक सुग्गे का पर्याप्त उपभोग करते हुए आजतक एक भी जीवित रहने वाले बालक या बालिका को प्राप्त नहीं किया। अतः मैं चाहती हूं कि यदि आप अाज्ञा दें तो मैं अपने मित्रों, ज्ञातिजनों, निज कजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों की महिलाओं के साथ पाटलिषंड नगर से बाहिर उद्यान में उम्बरदत्त यक्ष की महार्ह पुष्पार्चना कर उसकी पुत्रप्राप्ति के लिये मनोतो मनाऊ ?, इसके उत्तर में सागरदत्त स थेवाह ने अपनो गंगादत्ता भार्या से कहा कि-भद्र ! मेरी भी यही इच्छा है कि किसी प्रकार से भी तुम्हारे जीवित रहने वाले पुत्र या पुत्री रत्पन्न हो । ऐसा कह कर उसने गंगादत्ता के उक्त प्रस्ताव का समर्थन करते हुए उसे स्वीकार किया। टीका- पाटलिषंड नगर में सिद्धार्थ नरेश का शासन था, उस के शासनकाल में प्रजा अत्यन्त सुखी थी । उसी नगर में सागरदत्त नाम का एक प्रसिद्ध व्यापारी रहता था । उस की स्त्री का नाम गंगादत्ता था, जो कि परम सुशीला एवं पतिव्रता था । इत्यादि वर्णन प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में किया जा चुका है। इसी बात का स्मरण कराते हुए भगवान् महावीर श्री गौतम स्वामी से कहते हैं कि हे गौतम ! जिस समय धन्वन्तरि वैद्य (पूर्ववर्णित) नरक को वेदनाओं को भोग रहा था, उस समय सागरदत्त सार्थवाह की गंगादत्ता भार्या जातनिद्रतावस्था में थी । उस के जो भी संतान होती वह तत्काल ही विनष्ट हो जाती थी। इस अवस्था में गंगादत्ता को बहुत दुःख हो रहा था । पतिगृह में सांसारिक भोगविलास का उसे पर्याप्त अवसर प्राप्त था, परन्तु किसी जीवित रहने वाले पुत्र या पुत्री की माता बनने का उसे आजतक भी सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। वह रात दिन इसी चिन्ता में निमग्न रहती थी। एक दिन अर्धरात्रि के समय कुटुम्बसम्बन्धी चिन्ता में निमग्न गंगादत्ता अपने गृहस्थजीवन पर दृष्टिपात करती हुई सोचने लगी कि मुझे गृहस्थ जीवन में प्रवेश किये काफ़ी समय व्यतीत हो चुका है। मैं अपने पतिदेव के साथ विविध प्रकार के सांसारिक सुखों का उपभोग भी कर रही हूँ, उनकी मुझ पर पूर्ण कृपा भी है, जो चाहती हूँ सो उपस्थित हो जाता है। इतना अानन्द का जीवन होने पर भी मैं अाज सन्तान से सर्वथा वंचित हूं, न पुत्र है न पुत्री । वैसे होने को तो अनेक हुए परन्तु सुख एक का भी न प्राप्त कर पाई । पुत्र न सही पुत्री ही होती, परन्तु मेरे भाग्य में तो वह भी नहीं। धिक्कार हो मेरे इस जीवन को। वे माताएं धन्य हैं, जिन्हें अपने जीवन में नवजात शिशुओं के लालन पालन का सौभाग्य प्राप्त है, तथा पुत्रों को जन्म देकर उनकी बालसुलभ अद्भुत क्रीड़ाओं से गद्गद् होती हुई सांसारिक आनन्द के पारावार में निमग्न हो कर स्वर्गीय सुख को भी भूल जाती हैं । स्तनपान के लिये ललचायमान शिशु के हावभाव को देखना, उसकी अव्यक्त अथच स्खलित तोतली वाचा से निकले हुए मधुर शब्दों को सुनना, स्तनपान करते २ कक्ष – काँख की ओर सरकते हुए को अपने हाथों से उठा कर गोद में बिठाना, उनकी अटपटी अथच मंजुलभाषा को सुनने की उत्कण्ठा से उसके साथ उसी रूप में संभाषण आदि करने का सद्भाग्य निःसन्देह उन्हीं माताओं को प्राप्त हो सकता For Private And Personal Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ४० १ है, जिन्होंने पुत्र को जन्म दे कर अपनी कुक्षि को सार्थक बनाया है १, परन्तु मैं कितनी हतभागिनी हूं, कि जिसे इन में से श्राज तक कुछ भी प्राप्त नहीं हो पाया, इस से अधिक मेरे लिये दुःख की और क्या बात हो सकती है १, अस्तु, अब एक उपाय शेष है, जिस पर मुझे विशेष आस्था है, मैं अव उसका अनुसरण करूंगी। संभव है कि भाग्य साथ दे जाए। कल प्रातःकाल होते ही सेठ जी से पूछ कर तथा उनसे श्राज्ञा मिल जाने पर मैं नाना प्रकार की पुष्प, वस्त्र, गंध, माल्य तथा अलंकार यदि पूजा की सामग्री लेकर बाहिर उद्यानगत उम्बरदत्त यक्षराज के मन्दिर में जाकर उनकी उक्त सामग्री से विधिवत् पूजा करूंगी और तत्पश्चात् उनके चरणों में पड़कर प्रार्थना करूंगी, मनौती मनाऊंगी कि यदि मेरे गर्भ से जीवित रहने वाले पुत्र अथवा पुत्री का जन्म हो तो मैं आपकी विधिवत् पूजा किया करूंगी, आप के नाम से दान दिया करूंगी और आपके लाभांश में तथा आप के भंडार में वृद्धि कर डालूंगी । सूत्रकार ने - जायं, दार्य, भागं - और वयणिहिं- ये चार द्वितीयांत पद देकर एक वड्डेस्सामि यह क्रियापद दिया है। सभी पदों के साथ इसका सम्बन्ध जोड़ने से “ - याग - देवपूजा में वृद्धि करूगी, अर्थात् जितनी पहले किया करती थी, उस से और अधिक किया करू ंगी, या दूसरों से करवाया करूंगी। दान में वृद्धि करूगी अर्थात् जितना पहले देती थी उससे अधिक दान दिया करूंगी या दूसरों से दान करवाया करूंगी | भाग - लाभांश में वृद्धि करूंगी अर्थात् उसमें और द्रव्य डाल कर उस की वृद्धि करूंगी या दूसरों से कराऊंगी। अक्षयनिधि की वृद्धि करूगी या दूसरों से कराऊंगी - " यह अर्थ फलित होता है । परन्तु यदि बड्डेस्लामि - इस क्रियापद का सम्बन्ध केवल क्यणिहिं – इस पद के साथ मान लिया जाए और जायं तथा दायंइन दोनों पदों के आगे – काहिमि - करिष्यामि - इस क्रियापद का श्रव्याहार कर लिया जाए तो अर्थ होगा – पूजा किया करूंगी. दान दिया करूंगी, एवं भागं - इस पद के आगे दाहिमि - दास्यामि – इस क्रियापद का अध्याहार करने से - लाभांश का दान दुरंगी अर्थात् अपनी आय का एक अंश दान में दिया करूगी, ऐसा अर्थ भी निष्पन्न हो सकता है, अस्तु । - यह है श्रेष्ठभार्या गंगादत्ता के हार्दिक विचारों का संक्षिप्त सार, जिसे प्रस्तुत सूत्र में वर्णित किया गया है । गंगादत्ता के इन्हीं विचारों के उतार चढ़ाव में सूर्य देवता उदयाचल पर उदित हो जाते हैं। और सेठानी गंगादत्ता अपने शय्यास्थान से उठ खड़ी होती है और सेठ सागग्दत्त के पास श्राकर यथोचित शिष्टाचार के पश्चात् रात्रि में सोचे हुए विचार को ज्यों का त्यों सुना देती हैं । सेठानी गंगादत्ता के विचारों को सुनकर सेठ सागरदत्त उस से सहमत होने के साथ २ बोले कि प्रिये ! मैं तो तुम से भी पहले इस विचार में निमन था कि कोई ऐसा उपाय सोचा जाए कि जिस के अनुसरण से तुम्हारी गोद भरे और तुम्हें चिरकालाभिलषित माता बनने तथा मुझे पिता बनने का सुअवसर प्राप्त हो, अतः मैं तुम्हें इस की आज्ञा देता हूं. और उस के लिये जिस २ वस्तु की तुम को आवश्यकता होगी. उस का सम्पादन भी शीघ्र से शीघ्र कर दिया जावेगा, तुम निश्चिन्त हो कर अपनी कामनापूरक सामग्री जुटान । इरु कथा - संदर्भ से नारीजीवन के मनोगत संकल्पों का भलीभान्ति परिचय प्राप्त हो जाता है । सन्तान के लिये नारीजगत् में कितनी उत्कण्ठा होती है १, तथा उस की प्राप्ति के लिये वह कितनी तुरा अथच प्रयत्नशीला बनती है १, यह भी इस से अच्छी तरह जाना जा सकता है | For Private And Personal Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४०२] www.kobatirth.org श्री विपाक सूत्र - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय प्रश्न - णो चेव णं श्रहं दारगं वादारियं वा पयामि – (अर्थात् मैंने किसी भी बालक या बालिका को जन्म नहीं दिया ) – इस पाठ का, तथा “ – जाता जाता दारगा विणिघायमा वज्र्ज्जति - " (अर्थात् जन्म लेते ही उसे के बच्चे मर जाया करते थे ) इस पाठ के साथ विरोध आता है। प्रथम पाठ का भावार्थ है - सन्तान का सर्वथा अनुत्पन्न होना और दूसरे का अर्थ है - उत्पन्न हो कर मर जाना । यदि उत्पन्न नहीं हुआ तो उत्पन्न हो कर मरना, यह कैसे सम्भव हो सकता है ९, इसलिये ये दोनों पाठ परस्पर विरोधी से प्रतीत होते हैं १ उत्तर - नहीं, अर्थात् दोनों पाठों में कुछ भी विरोध नहीं है। प्रथम पाठ में जो यह कहा गया है कि मैंने किसी बालक या बालिका को जन्म नहीं दिया । उसका अभिप्राय इतना ही है कि मैंने आज तक किसी बालक को दूध नहीं पिलाया, उस को जीवित अवस्था में नहीं पाया, उस का मुख नहीं चूमा, उस की मीठी २ तोतली बातें नहीं सुनो और मुझे कोई मां कह कर पुकारने वाला नहीं - इत्यादि तथा उसने उन्हीं माताओं को धन्य बतलाया है जो अपने नवजात शिशुश्रों से पूर्वोक्त व्यवहार करती हैं, न कि जो जन्म मात्र देकर उन का मुख तक भी नहीं देख पातीं, उन्हें धन्य कहा है। इसलिये इन दोनों पाठों में विरोध की कोई आशंका नहीं हो सकती दूसरी बात यह है कि कहीं पर शब्दार्थ प्रधन होता है, और कहीं पर भावार्थ की प्रधानता होती है । सो यहां पर भावार्थ प्रधान है। भावार्थ की प्रधानता वाले अन्य भी अनेकों उदाहरण शास्त्रों में उपलब्ध होते हैं, जिनका विस्तारभय से प्रस्तुत में उल्लेख नहीं किया जाता । तथापि मात्र पाठकों की जानकारी के लिए एक उदाहरण दिया जाता है श्री स्थानांग सूत्र के प्रथम उद्द ेश्य में - चउत्पतिहिते कोहे - (चतुषु' प्रतिष्ठितः क्रोधः ऐसा उल्लेख पाया जाता है । परन्तु चौथा भेद - पतिहिते (अप्रतिष्ठितः) यह किया गया है। अब देखिये दोना मं क्या सम्बन्ध रहा ? जब चारों स्थानों में क्रोध स्थित होता है तो वह अप्रतिष्ठित कैसे १, सारांश यह है कि यहां पर भी भावार्थ की प्रधानता है न कि शब्दार्थ की । वृत्तिकार भी लिखते है किआक्रोशादिकारण निरपेक्षः केवल क्रोधवेदनीयोदयाद् यो भवति सोऽप्रतिष्ठितः, श्रयं च चतुर्थभेदः जीवप्रतिष्ठितोऽपि श्रात्मादिविषयेऽनुत्पन्नत्वादप्रतिष्ठितः उक्तो न तु सर्वथाऽप्रतिष्ठितः, चतुःप्रतिष्ठितत्त्वस्याभावप्रसंगात सूत्र २४९ ) – अर्थात् यह चौथा भेद यद्यपि जीव में ही प्रतिष्ठत - अवस्थित होता है, तथापि इसे प्रतिष्ठित कहने का यही कारण है कि यह किसी श्रात्मादि का अवलम्बन कर उत्पन्न नहीं होता, किन्तु दुर्वचनादि कारण की अपेक्षा न रखता हुआ केवल क्रोधवेदनीय के उदय से उत्पन्न होने के कारण इसे अप्रतिष्ठित कहा गया है । परन्तु सर्वथा यह भेद अप्रतिष्टिन नहीं है, क्योंकि यदि यह सर्वथा अप्रतिष्ठित हो जाए तो कोव में चतुः प्रतिष्ठितत्व का अभाव हो जाएगा अर्थात् क्रोध को चतुः प्रतिष्ठित कहना असंगत ठहरेगा, जो कि सिद्धान्त को इष्ट नहीं है। For Private And Personal प्रस्तुत सूत्र में - जायनिया - आदि पढ़े गए पदों की व्याख्या निम्नोक्त है १ - जायनिघ्या - जातनिद्र् ता, - " अर्थात् जिस की सन्तान उत्पन्न होते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाए, उसे जातनिद्रुता कहते हैं । - २ - पुत्ररत्तावरतकुड्डु बजागरियाए पूर्वरात्रापरात्र कुटुम्ब जागरिकया ” अर्थात् पूर्वरात्रापररात्र शब्द मध्यरात्रि आधीरात के लिये प्रयुक्त होता है । कुटुम्ब – परिवार सम्बन्धी जारिका - चिन्तन, कुटुम्बजागरिका कहा जाता है । आधीरात के समय की गई कुटुम्बजागरिका पूर्वरात्रापररात्रकुटुम्बजारिका कहलाती है । प्रस्तुत में यह पद तृतीयान्त होने से - आधीरात में किए गए परिवारसम्बन्धी चिन्तन के कारण - इस अर्थ का परिचायक है । -- - Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सप्तम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ४०३ ३ - सपुराणाश्रो- सपुण्याः - " अर्थात् पुण्य से युक्त स्त्रियां सपुण्या कहलाती हैं । ४ – कयत्था - कृतार्थाः - " अर्थात् जिन के अर्थ - प्रयोजन निष्पन्न - सिद्ध हो चुके हैं, उन्हें कृतार्था कहा जाता है Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५- कयलक्खाओ कृतलक्षगा:-" अर्थात् कृत - फलयुक्त हैं लक्षण- सुखजन्य हस्तादिगत शुभ रेखाऐं जिन की, उन्हें कृतलक्षणा कहते हैं । ६ नियम कुच्छि संभूयाई - निजस्य कुक्षौ उदरे संभूतानि समुत्पन्नानीति – निजकुक्षि - संभूतानि निजात्यानीत्यर्थः " अर्थात् निज - अपने उदर - पेट से संभूत- उत्पन्न हुई अपत्य - सन्तानें निजकुक्षिसंभूत कहलाती हैं । स्तनों के ७ - थणदुद्धलुगाई - स्तनदुग्धे लुब्धकानि यानि तानि स्तनदुग्धलुब्धकानि - " अर्थात् दूध में लुब्धक अभिलाषा रखने वालीं अपत्य - स्तनदुग्धलुब्धक कहलाती हैं । -महुरसमुल्लावगाईं - समुल्लापः बालभाषणं स एव समुल्लापकः, मधुरः समुल्तान को येषां तानि मधुरसमुल नायकानि " अर्थात् मधुर:- सरस समुल्तापक-बालभाषण करने वालीं अपत्य मधुरस मुल्लापक कही जाती हैं । ८- ९ - मम्मण पयंपियाई - मन्मनम् - इत्यव्यक्तध्वनिरूपं प्रजल्पितं भाषणं येषां तानि मन्मनप्रजल्पितानि - " अर्थात् मन्मन इस प्रकार के अव्यक्त शब्दों के द्वारा बोलने वालीं अपत्य - मन्मनप्रजल्पित कही जाती हैं । १० - थणमूना कक्खदेखभागं अतिसरमा गाई - स्तनमूलात् कक्षदेराभागमभिसर त्रि- अर्थात् जो स्तन के मूलभाग से ले कर कज्ञ (काँख) तक के भाग में अभिसरण करते रहते हैं वे । भरण का अर्थ है निर्गम - प्रवेश अर्थात् जो अपत्य कभी स्तनमूल से निकल कर कक्षभाग में प्रवेश करती है और कभी उस से निकल जाती हैं । ११ - मुद्रगाई – मुग्धकानि, सरल हृदयानि - " अर्थात् सरल हृदय छल कपट से रहित एवंविशुद्ध हृदय वालीं अपत्य मुग्धक कहलाती हैं । १२ - पुणो य कोमलकमलोवमेहिं हत्थेहिं गोरिहउ उच्डंगनिवेसिया - पुनश्व कोमलं यत्कमलं तेनोपमा ययोस्ते तथा ताभ्यां हस्ताभ्यां गृहीत्वा उत्संगनिवेशितानि के स्थापितानि - " अर्थात् जो कमल के समान कोमल हाथों द्वारा पकड़ कर गोदी में बैठा रखी हैं, अथवा वे अपत्य जिन्हें उन्हीं के कमल - सदृश हाथों से पकड़ कर गोदी में बैठा रखा है । तात्पर्य यह है कि माता कई बार प्रेमातिरेक से बच्चों को गोदी में लेने के लिये अपनी भुजाओं को फैलाती हैं, प्रसूत भुजाओं को देख कर बालक अपनी लड़खड़ाती टांगों से लुढकता हुआ या चलता हुआ माता की ओर बढ़ता है, तत्र माता झटिति उसे अपने कमलसदृश कोमल हाथों से छाती से लगा लेती है और गोदी में बैठा लेती है, अथवा बालकों के २ हाथों को पकड़ चलाती हुई उन्हें गोदी में बैठा लेती है, इन्हीं भावों को सूत्रकार महानुभाव द्वारा ऊपर के पदों में अभिव्यक्त किया गया है। पकड़ कर एवं उठा कर कमलसमान कोमल छोटे १३ - दिति समुल्लावर सुमहुरे पुणो पुणो मंजुलप्पभणिते इन पदों की व्याख्या में दो मत पाये जाते हैं, जो कि निम्नोक्त हैं - (१) प्रथम मत में समुल्लापक के सुमधुर और मंजुलप्रभणित- ये दोनों पद विशेषण माने गए हैं। तब - सुमधुर और मंजुलप्रभणित जो समुल्लापक उनको पुनः २ सुनाते हैं - यह अर्थ होगा । सुमधुर For Private And Personal Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४०४] श्री विपाक सूत्र [सप्तम अध्याय अत्यन्त मधुर-सरस को कहते हैं । मंजुलप्रभणित शब्द - मंजुल -चित्ताकर्षक प्रभणित-भणनारम्भ है जिस में ऐसे - इस अर्थ का परिचायक है | समुल्लापक - बालभाषण का नाम है । (२) दूसरे मत में-समुल्लापक-को स्वतन्त्र पद माना है और सुमधुर शब्द को मंजुल-प्रभणित का विशेषण माना गया है, और साथ में. प्रभणित - शब्द का-मां मां, इस प्रकार के कर्णप्रिय शब्द - ऐसा अर्थ किया गया है । १४ अधन्ना-अधन्या, अप्रशंसनीया-" अर्थात् जो प्रशंसा के योग्य न हो, वह व्यक्ति अधल्या-कहलाती है । तात्पर्य यह है कि स्त्री की प्रशंसा प्रायः सन्तान के कारण ही होती है । संतानविहीन स्त्री आदर का भाजन नहीं बनने पाती -- इन्हीं विचारों से किसी जी वत सन्तति को न प्राप्त करने के कारण गंगादत्ता अपने को अधन्या कह रही है । १५-अपुराणा-अविद्यमानपुण्या अथवा अपूर्णा- अपूर्णमनोरथत्वात् - "अर्थात् जो पुण्य से रहित हो वह अपुण्या कहलाती है । तथा-अपुरणा-इस पद का संस्कृत प्रतिरूप अपूर्णा - ऐसा भी उपलब्ध होता है । तब-अपुराणा- इस पद का जिस के मनोरथों- मानसिक संकल्पों की पूर्ति नहीं होने पाई, वह अपूर्णा कहलाती है, ऐसा अर्थ भी हो सकेगा । १६-अकयपुराणा - अविहितपुण्या-" अर्थात जिस ने इस जन्म अथवा पूर्व के जन्मों में पुण्यकर्म का उपार्जन नहीं किया हो वह अकृतपुण्या कही जाती है । ___ १७-जायं- पागम् देवपूजाम् - " अर्थात् याग शब्द देवों की पूजा-इस अर्थ का बोधक है । १८-दायं-पर्वदिवसादौ दानम्-" अर्थात् पर्व के दिवसों में किये जाने वाले दान को दाय कहते हैं । अथवा किसी भी समय पर दीन दुःखियों को अन्नादि का देना या अन्य किसी सत्कर्म के लिए द्रव्यादि का देना दान कहलाता है । १९-भागम् -लाभांशम्-" अर्थात् मन्दिर के चढ़ावे (वह सामग्री जो किसी देवता को चढ़ाई जावे से होने वाले लाभ के अंश को भाग कहते हैं । तात्पर्य यह है कि मन्दिर में जो चढ़ावा चढ़ाया जाता है, उस से जो मन्दिर को लाभ होता है, उस लाभांश को भाग कहा जाता है । २०-अवयणिहिं-- अव्ययं भांडागारम् , अक्षयनिधि वा मूलधनं येन जीर्णीभूतदेवकुलस्योद्धारः क्रियते-" अर्थात् नष्ट न होने वाले देवभण्डार का नाम अक्षयनिधि है, अथवामूलधन देवद्रव्य) जो कि जीणे हुए देवमन्दिर के उद्धार के लिये प्रयुक्त होता है. को भी अक्षयनिधि कहते हैं। २१-उववाइयं-उपयाच्यते मृग्यते स्म यत्तत् उपयाचितम् - ईप्सितं वस्तु-" अर्थात् जिस वस्तु की प्रार्थना की जाय वह उपयावित कही जाती है । तात्पर्य यह है कि जो वस्तु ईप्सित-इष्ट हो वह उपयाचित कहलाती है। प्राकृतशब्दमहार्णव नामक कोष में उपयाचित शब्द के १-प्रार्थित, अभ्यर्थित, २ -मनौतीअर्थात् किसी काम के पूरा होने पर किसी देवता की विशेष आराधना करने का मानसिक संकल्पऐसे दो अर्थ लिखे हैं। २२- उवाइणित्तए - उपयाचितु प्रार्थयितुम्-" अर्थात् 'उपयाचितु- यह क्रियापद प्रार्थना करने के लिये, इस अर्थ का बोध कराता है। अज्झथिए ५-- यहां पर दिये ५ के अंक से विवक्षित पाठ का वर्णन पृष्ठ १३३ For Private And Personal Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित पर किया जा चुका है । कल्लं जाव जलन्ते- यहां पठित जाव-यावत पद से-पाउप्पभायाए रयणीयफुल्लुप्पल. कमल - कोमलुम्मीलियम्मि अहापण्डुरे पभाए रत्तासोग - पगास - किंसुय-सुअमुह-गु जद्धरागबन्धुजीवग-पारावयचलण-नयण -परहुअ-सुरत्तलोअण-जासुमण-कुसुम--जलिय जलण-तवणिज-कलस-हिंगुलय-निगर - रुवाइरेग-रेहन्त-सस्सिरीए दिवागरे अहक्कमेण उदिए तस्स दिणगरकरपरंपरावयारपारद्धम्मि अंधयारे बालातवकुकुमेणं आंचय व्व जीवलोए लोयणविसयाण्यासविगसंतविसददसियर्याम्म लोए कमलागरसण्डवोहए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिरिम दिणयरे तेअसा- इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है। इन पदों का भावार्थ निनोक्त है - जिस में प्रभात का प्रकाश हो रहा है, ऐसी रजनी- रात के व्यतीत हो जाने पर अर्थात् रात्रि के व्यतीत और प्रभात के प्रकाशित हो जाने पर, विकसित पद्म और कमल -- हरिणविशेष का कोमल उन्मीलन होने पर अर्थात् कमल के दल खुल जाने पर और हरिण की आंखें खुल जाने, पर अथ-अनन्तर अर्थात् रजनी के व्यतीत होजाने के पश्चात् प्रभात के पाण्डुर - शुक्न होने पर, रक्त अशोक-पुष्पविशेष की कान्ति के समान, किंशुक – केसू, शुकमुख - तोते की चोंच, गुजार्द्ध - भाग-गुंजा का रक्त अद्ध भाग, बन्धुजीवक (जन्तुविशेष), पारापत —कबूतर के चरण और नेत्र, परभृत-कोयल के सुरक्त – अत्यंत लाल लोचन, जपा नामक वनस्पति के पुष्प फूल, प्रज्वलित अग्नि. सुवर्ण के कलश, हिंगुल-सिंगरफ की राशि -- ढेर, इन सब के रूप से भी अधिक शोभायमान है स्व - स्वकीय श्री अर्थात् वर्ण की कान्ति जिस की ऐसे दिवाकर -- सूर्य के यथाक्रम उदित होने पर, उस सूर्य की किरणों की परम्परा-प्रवाह के अवतार से अर्थात् गिरने से अन्धकार के प्रनष्ट होने पर बालातप-उगते हुए सूर्य की जो आतप --धूप तद्र कुंकुम (केसर । से मानो जीवलोक - ससार के खचित - व्याप्त होने पर, लोचनविषय के अनुकाश -विकास (प्रसार) से लोक विकास पान (वर्धमान) अर्थात् अंधकारावस्था में संसार संकुचित प्रतीत होता है और प्रकाशावस्था में वही वधमान-बढ़ता हुअा सा प्रतीत होता है, एवं विशद – स्पष्ट दिखलाए जाने पर कमलाकर - हृद (झील) के कमलो के बोधक - विकास करने वाले, हज़ार किरणों वाले, दिन के करने वाले, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के उत्थित होने पर अर्थात् उदय के अनन्तर की अवस्था को प्राप्त होने पर । -सद्धिं जाव न पत्ता- यहां के जाव-यावत् पद से पृष्ठ ३९६तथा ३९७ पर पढे गये - बहू वासाइ उसलाई माणुस्सगाई-से लेकर-अकयपुराणा एत्ता एक्कतराव न- यहां तक के पदों का परिचायक है । तथा – अब्भणराणाता जाव उवाइणि तर - यहां का जाव यावत् पदों पृष्ठ ३९७ पर पढ़े गये -सुबहुं पुष्फवस्थगंधमल्लालंकारं गहाय-स लेकर -अणु डढेस्सामि ति क श्रोवाइयंयहां तक के पदों का परिचायक है। प्रस्तुत सूत्र में श्रेष्ठिभार्या गंगादत्ता के मनौती - मानतसम्बन्धी विचारों का उल्लेख किया गया है। अब अग्रिम सूत्र में उन की सफलता के विषय में वर्णन करते हैं मूल-तते णं मा गंगादत्ता भारिया मागरदत्तसत्थना हेणं. एतमट्ट अभ (१) छाया - ततः सा गंगादत्ता भार्या सागरदत्तसार्थवाहेनैतमर्थमभ्यनुज्ञाता सती सुबहु पुष्प मित्र० महिलाभिः साई स्वस्माद् गृहात् प्रतिनिष्कामति प्रतिनिष्क्रम्य पाटलिपंडात् नगराद् मध्यमध्येन निर्गच्छति For Private And Personal Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४०६] श्री विशाक सूत्र [ सप्तम अध्याय णुगणाता समाणी सुबहु पुष्फ० मित्त० महिलाहिं सद्धि सातो गिहातो पडिणिक्खमति पांडनिक्खमिचा पालिसंडं णगरं मझमज्झेणं निग्गच्छइ निग्गच्छिचा जेणेत्र पुक्खरिणीए तीरे तेणेव उवागच्छति उवागच्छिता पुक्खरिणोए तारे सुबहु पुष्फवत्थगन्धमल्लालंकारं ठवेति ठवित्ता पुरिणि ओगाहेति श्रोगाहित्ता जलमज्जणं करेति, जलकिड्ड करेति करित्ता एहाया कयकोउयमंगला उल्लपड नाडिया पुचरिणोए पच्चुत्तरति पच्चुत्तरित्ता तं पुष्फ० गेएहति गरिहत्ता जेणेव उम्बरदत्तस्म जाखस्म जक्खायतणे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता उंवरदत्तस्स जक्खस्स आलोए पणामं करेति करिता लोपहत्थं पराप्नुसति परामुसित्ता उम्बरदत्तं जक्खं लोमहत्थएण पमज्जति पमज्जित्ता दगवाराए अम्मुक्खेति अमुक्खिता पम्हन० गायलट्टि श्रोलूहेति ओलूहित्ता सेयाइ वत्थाइ परिहेति परिहित्ता महम्हिं पुप्फारुहणं, वत्थारुहणं, गंधारुहणं, चुण्णाहणं करेति करित्ता धूवं डहति डहित्ता जाणुपायपडिया एवं वयासीजति णं अहं देवाणुप्पिया ! दारगं वा दा रिगं वा पयामि ता णं जाव उवाइणति उवाइणित्ता जामेव दिसं पाउब्भूता तामेव दिसं पड़िगता। पदार्थ-तते णं - तदनन्तर । सा-वह । गंगादत्ता भारिया -- गंगादत्ता भार्या । सागरदत्तसथवाहेणं- सागरदत्त सार्थवाह से । एतमढें-इस प्रयोजन के लिये । अब्भणुराणाता समाणी-अभ्यनुज्ञात हुई अर्थात् आज्ञा प्राप्त करके । सुबहुं- बहुत से । पुष्फ०-पुष्प, वस्त्र, गन्ध-सुगन्धित द्रव्य, माला और अलंकार लेकर । मित्त - मित्रों, शातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों एवं परिजनों की। महिलाहिं-महिलाओं के । सद्धिं-साथ । साता-अपने । गिहातो-घर से। पडिणिक्वमति प. डिनिक्खमित्ता-निकलती है, निकल कर । पानिसंड-पाटलिपंड । णगरं-नगर के । मझमझेणंमध्यभाग से । निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता-निकलती है, निकल कर । जेणेव-जहां पुक्खरिणीए -पुष्करिणी- बावड़ी का । तीरे- तट था। तेणेव- वहां पर । उवागच्छति उवागच्छित्ता-आजाती है,आकर । पक्परिणोए तीरे- पुष्करिणी के किनारे - तट पर । सुबहुँ - बहुत से। पुप्फवस्थगंधमल्वालंकारपुष्पों, वस्त्रों, गन्धों, मालाओं और अलकारों को। ठवेति ठविता-रख देती है, रख कर । पुक्खरिणिंबावड़ी में । ओगाहेति श्रोगाहित्ता-प्रवेश करती है, प्रवेश करके । जनमज्जणं-जलमज्जन -जल में गोते लगाना । करेति-करती है, तथा। ज तकिड्ड -जलक्रीड़ा । करेति-करती है। एहाया -स्नान किये हुए । कयको उयमंगला कौतुक - मस्तक पर तिलक तथा मांगलिक कृत्य करके। उल्लपड़साडिया-आद्र निर्गत्य पुष्करिण्यास्तीरं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य पुष्करिण्यास्तीरे सुबहु पुष्पवस्त्रगंधमाल्यालंकारं स्थापयति स्थापयित्वा पुष्करिणीमवगाहते अवताह्य जलमजनं करोति, जलक्रीडां करोति कृत्वा स्नाता कृतकौतुकमंगला, श्रार्द्रपटशाटिका पुष्करिण्या: प्रत्यवतरति प्रत्यवतीर्य तं पुष्प० गृह्णाति गृहीत्वा यत्रैवोम्बरदत्तस्य यक्षस्य यक्षायतनं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य उम्बरदत्तस्य यक्षस्यालोके प्रणाम करोति लोमहस्तं परामृशति परामृश्य उम्बरदत्तं यक्षं लोमहस्तेन प्रमार्टि प्रमार्य दकधारयाभ्युक्षति अभ्युक्ष्य पक्ष्मल० गात्रयष्टिमवरूक्षयति (शुष्कं करोति प्रोञ्छतीत्यर्थः) अवरूक्ष्म श्वेतानि वस्त्राणि परिधापयति परिधाप्य महाहं पुष्पारोहण, वस्त्रारोहणं, माल्यारोहणं, गन्धारोहणं, चूर्णारोहणं करोति कृत्वा धूपं दहति दग्ध्वा जानुपादपतिता एवमवादीत्-यद्यहं देवानुप्रियाः ! दारकं वा दारिका वा प्रजन्ये ततो यावदुपयाचति उपयाच्य यस्या एव दिशः प्रादुर्भूता तस्या एव दिश: प्रतिगता। For Private And Personal Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । - 1 पट तथा शारिका पहने हुए। पुक्खरिणीप- पुष्करिणी से । पच्चुत्तरति पच्चुत्तरित्ता बाहिर आती है, बाहिर श्राकर । तं - उस । पुष्फ० - पुष्प वस्त्रादि को । गेण्हति गेरिहत्ता - ग्रहणं करती है, ग्रहण कर । जेणेव - जहां | उ बरदत्तस्स - उम्बरदत्त । जक्खस्स - यक्ष का जक्खायतणे - यज्ञायतन - स्थान था । तेणेव वहां पर । उवागच्छइ उवागच्छित्ता - श्रा जाती है, आ कर । उम्बरदत्तस्स उम्बरदत्त । जक्वस्स यक्ष का । आलोप - अवलोकन कर लेने पर । परणामं प्रणाम । करेति करिता-करती है, प्रणाम करके । लोमहत्थं - लोमहस्त - मोरपिच्छी को । परामुसति - ग्रहण करती है । परा मुसित्ता प्रहण कर । उंबरदतं जलं - उम्बरदत्त यक्ष की । लोमहत्थपणं - लोमहस्तक से मयूरपिच्छनिर्मित प्रमार्जिनी से । पमज्जति पमज्जित्ता - प्रमार्जना करती है, उस का रज दूर करती है, प्रमार्जन कर | दगधारा - जलधारा मे I श्रब्भुक्खेति श्रब्भुक्खित्ता-स्नान कराती है, स्नान करा कर पम्हल०- पक्ष्मयुक्त - रोमों वाले तथा कषाय रंग से रंगे हुए सुगंधयुक्त सुन्दर वस्त्र से । गायलट्ठि - गात्रयष्टि को उस के शरीर को । ओलूहेति प्रोलूहित्ता - पोंछती हैं, पोछ कर । सेयाइ - श्वेत । वत्थाई वस्त्रों को । परिहेति परिहिता पहनाती है, पहना कर महरिहं - महार्ह - बड़ों के योग्य । पुष्कारुहणं - पुष्पारोहण – पुष्पार्पण करती है, पुष्प चढाती है । वत्थारुहणं – वस्त्रारोहण - वस्त्रार्पण | मल्लारुहणं - मालार्पण | गंधारुहणं - गन्धार्पण और चुराणारुहणं - चूर्ण (नैवेद्यविशेष अर्थात् देवता को अर्पण किये जाने वाले केसर आदि पदार्थ ) को अर्पण | करेति करिता-करती है, करके । धूवं- धूप को । डहति डहित्ता - जलाती है, जलाकर । जाणुषायपडिया-घुटनों के बल उस यक्ष के चरणों में पड़ी हुई । एवं - इस प्रकार । वयासी कहती है । देवापिया ! - हे देवानुप्रिय ! । जति णं - यदि । अहं - मैं । दारगं वा जीवित रहने वाले बालक अथवा । दारिगं वा बालिका का पयामि-जन्म दूं । तो णं - तो मैं जाब - यावत् । उवाइर्णाति उवाइणिता-याचना करती है अर्थात् मन्नत मनाती है, मन्नत मनाकर । जामेव दिसं-जिस दिशा से । पाउब्भूता - आई थी। तामेव दिसं-उसी दिशा की ओर। पडिगता - चली गई । मूलार्थ - - तब सागरदत्त सार्थवाह से अभ्यनुज्ञात हुई अर्थात् आज्ञा मिल जाने पर वह गंगादत्ता भार्या विविध प्रकार के पुष्प वस्त्रादि रूप पूजासामग्री ले कर मित्रादि की महिलाओं के साथ अपने घर से निकली और पाटलिषण्ड नगर के मध्य से होती हुई एक पुष्करिणीवापी के समीप जा पहुंची, वहां पुष्करिणी के किनारे पुष्पों, वस्त्रों, गन्धों, माल्यों और अलंकारों को रख कर उसने पुष्करिणी में प्रवेश किया, वहां जलमज्जन और जलक्रीडा कर कौतुक तथा मंगल ( मांगलिक क्रियायें ) करके एक आर्द्र पट और शाटिका धारण किए हुए वह पुष्करिणी से बाहिर आई, बाहिर आकर उक्त पुष्पादि पूजासामग्री को लेकर उम्बरदत्त यक्ष के यज्ञायतन के पास पहुंची और वहां उसने यक्ष को नमस्कार किया, फिर लोमहस्तकलेकर उसके द्वारा यक्षप्रतिमा का प्रमार्जन किया, तत्पश्वात् जलधारा से उस 1 For Private And Personal - | ४०७ को (यक्ष प्रतिमा को ) स्नान कराया, फिर कषाय रंग वाले - गेरू जैसे रंग से रंगे हुए सुगन्धित एवं सरोमसुकोमल वस्त्र से उसके अंगों को पोंछा, पोंछ कर श्वेत वस्त्र पहनाया, वस्त्र पहिना कर महाईasों के योग्य पुष्पारोहण, वस्त्रारोहण, गन्धारोहण, माल्यारोहण और चूर्णारोहण किया । तत्पश्चात् धूप धुखाती है, धूप धुखा कर यक्ष के आगे घुटने टेक कर पांव पड़ कर इस प्रकार निवेदन करती है हे देवानुप्रिय ! यदि मैं एक भी (जीवित रहने वाले ) पुत्र या पुत्री को जन्म Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४०८] श्री विपाक सूत्र [सप्तम अध्याय दू' तो य वत् याचना करती है अर्थात् मन्नत मनातो है. मन्नत मना कर जिधर से अ थी उधर को चली जाती है। टीका - जिस समय श्रेष्ठिभार्या गंगादत्ता को उस के विचारानुसार कार्य करने की पतिदेव की तर्फ से आज्ञा मिल गई और उपयुक्त सामग्री ला देने का उसे वचन दे दिया गया, तब गंगादत्ता को बड़ी प्रसन्नता हुई तथा हर्षातिरेक से वह प्रफुल्लित हो उठी । उस ने नानाविध पुष्पादि की देवपूजा के योग्य सामग्री एकत्रित कर तथा मित्रादि की महिलाओं को साथ ले पाटलिपंड नगर के बीच में से होकर पुष्करिणी - बावड़ी ( जो उद्यानगत यक्षमदिर के समीप ही थी ) की ओर प्रस्थान किया । पुष्करिणी के पास पहुंच कर उस के किनारे पुष्पादि सामग्री रखकर वह पुष्करिणी में प्रविष्ट हुई और जलस्नान करने लगी, स्नानादि से निवृत्त हो, 'मांगलिक क्रियाएं कर भीगी हुई साड़ी पहने हुए तथा भीगा वस्त्र ऊपर अोढे हुए वह पुष्कारेणी से बाहिर निकलती है, निकल कर उस ने रक्खी हई देवपूजा की सामग्रो उठाई. और उम्बरदत्त यन के मंदिर की। वहां आकर उसने यक्ष को प्रणाम किया। तदनन्तर यक्ष - मंदिर में प्रवेश कर उस ने यक्षराज क पुष्पादि सामग्री द्वारा विधिवत पूजन किया । प्रथम वह रोमहस्त-मोर के पंखो से झाड. से यक्षप्रतिमा का प्रमाजन करती है, तदनन्तर जलधारा से उस को स्नान कराती है. स्नान के बाद अत्यन्त कोमल सुगन्धित कषायरंग के वस्त्र से उस के अंगों को पोंछती है, पोंछ कर श्वेतवस्त्र पहनाती है, तदनन्तर उस पर पुष्प और मालाए चढ़ाती है एव उस के अागे चूर्ण -नैवेद्य रखती है और फिर घूप धूखाती है । इस प्रकार पूजाविधि के समाप्त हो जाने पर यक्षप्रतिमा के आगे घुटने टेक और चरणों में सिर झुकाकर प्रार्थना करती हुई इस प्रकार कहती है कि हे देवानुप्रिय ! आप के अनुग्रह से यदि मैं जीवित बालक अथवा बालिका को जन्म देकर माता बनने का सद्भाग्य प्राप्त करू, तो मैं आप के मन्दिर में आ कर नानाविध सामग्री से आप की पूजा किया करूंगी, और श्राप के नाम से दान दिया करू गी तथा आप के देवभण्डार को पूर्णरूप से भरदूगी, इस प्रकार उम्बरदत्त यक्ष की मन्नत मानकर वह अपने घर को वापिस आजाती है । यह सूत्र वर्णित कथावृत्त का सार है। -'कयकोउयमंगला उल्लपडसाडिया -'' इन पदों का व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में - "- कौतुर्कानि मषीपुडादीनि मालानि दध्यक्षतादीनि उल्नण्डसाडिय त्ति पट: प्रावरणम् शाटको निवसनम् -” इस प्रकार है । तात्पर्य यह है कपाल-मस्तक में किये जाने वाले तिलक का नाम कौतुक है और मंगल शब्द दधि तथा अक्षत -बिना टूटा हुआ चावल आदि का बोधक है । प्राचीन काल में काम करने से पूर्व तिलक का लगाना और दधि एवं अक्षत आदि का खाना मांगलिक कार्य समझा जाता था । एवं पट शब्द से ऊपर अोढने का वस्त्र और शाोटका से नीचे पहरने की धोती का ग्रहण होता है । "- पुष्फ० मिन० महिलाहिं-" यहां का बिन्दु- वत्थगन्धमल्लाल कारं गहाय बहूहिं मित्तणाइणियगसयणसंबन्धिपरिजण - इन पदों का परिचायक है । इन पदो का अर्थ पृष्ठ ३९८ पर लिखा जा चुकी है। (१) यहां पर इतना ध्यान रहे कि श्रेष्ठभार्या गंगादत्ता ने मांगलिक क्रियाए बावड़ी के पानी में स्थित होकर नहीं की थीं, किन्तु बाहिर आकर बावड़ी की चार दीवारी पर बैठकर की थीं। तदनन्तर वह उस वापी की चार दीवारी से नीचे उतरती है. ऐसा अर्थ समझना चाहिये । For Private And Personal Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [४०९ चाहिये । इस का भावार्थ निम्नोक्त है पक्ष्म शब्द -अक्षिलोम अांख के वाल तथा सूत्र आदि का अल्पभाग एवं केश का अग्रभागइत्यादि अर्थों में प्रयुक्त होता है । पक्ष्म से युक्त पक्ष्मल कहलाता है, तब उक्त पद का - सुकोमल पचमल - रोम वाली सुगन्धित तथा कषायरंग से रंगी शाटिका . धोती के द्वारा यह अर्थ फलित होता है । तात्पर्य यह है कि जिस वस्त्र से देव की प्रतिमा को पोंछा गया था वह कषाय रंग का तथा बड़ा कोमल था, एवं उसमें से सुगन्ध श्रा रही थी । --तो ण जाव उवाइणति-- यहां पठित जाव-यावत् पद से पृष्ठ ३ ७ पर पढ़े गये -- अहं तुब्भं जायं दायं च भागं च अक्वयणिहिं च अणुवडढेस्लामि, त्ति कट्ट प्रोवाइयं- इन पदों का संसूचक है । इस प्रकार यक्षदेव की पूजा को समाप्त कर उस की मन्नत मानने के बाद यथासमय गंगादत्ता सेठानी को गस्थिति हुई, इत्यादि वर्णन निम्नोक्त सूत्र में किया जाता है. मूल- तते णं से धन्नंतरी वेज्जे नतो नरगाओ अणंतरं उबट्टित्ता इहेव पाडलिसंडे णगरे गंगादलाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उक्वन्ने । तते णं तीसे गंगादत्ताए भारियाए तिएहं मासाणं बहुपडि एणाणं अयमेयारूवे दोहले पाउब्भूते-धन्नाओ णं ताओ अम्पयाओ जाव फले, जाओ णं विउलं असणं ४ डबक्खडाति २ बहूहि मिन० जाव परिवडाओ तं विपुलं असणं ४ सुरं च ६ पुष्फ० जाव गहाय पाडलिसंडं णगरं मन्मंमज्मेणं पडिनिक्खमंति २ जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छन्ति २ पुक्खरिणिं ओगाहंति २ एहाया जाव पान्छिताओ तं विउलं असणं ४ वहणं मित्तनाति० सद्धि प्रासादेति ४ दोहलं विणेन्ति, एवं संपेहेति संपेहित्ता कल्लं जाव जलते जेणेव सागरदत्ते सत्थवाहे तेणेव उवागच्छति २ सागरदत्तं सत्थवाहं एवं वयामी-धन्नाओ णं ताो जाव विणेति. तं इच्छा (१) छाया-ततः स धन्वन्तरिः वैद्यः ततो नरकादनन्तरमुढत्येदेव पाटलिपंडे नगरे गंगादत्तायाः भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नः । ततस्तस्या गंगादत्ताया भार्यायास्त्रिषु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु अयमेतद्पो दोहद: प्रादुभूत:-धन्यास्ता अम्बा यावत् फले, याः विपुलमशनं ४ उपस्कारयन्ति २ बहुभिः मित्र० यावत् परिवृताः तद् विपुलमशनं ४ सुरां च ६ पुष्प० यावद् गृहीत्वा पाटलिषंडाद् नगराद् मध्यमध्येन प्रतिनिष्कामन्ति २ यत्रैव पुष्करिणी तत्रैवोपागच्छति २ पुष्करिणीमवगाहन्ते २ स्नाता यावत् प्रायश्चित्ताः तद् विपुल मशनं ४ बहुभिः मित्रज्ञाति० साद्ध मास्वादयन्ति । दोहदं विनयन्ति, एवं संप्रेक्षते संप्रेक्ष्य कल्यं यावज्ज्वलति यत्रव सागरदत्त: सार्थवाहस्तत्रैवोपागच्छति २ सागरदत्तं सार्थवाहमेवमवादीत् –धन्यास्ताः यावद् विनयन्ति, तदिच्छामि यावद् विनेतुम् , तत: सागरदत्तः सार्थवाही गंगादत्ताया भार्या या एतमर्थमनुजानाति । ततः सा गंगादत्ता सागरदत्तेन सार्थवाहेनाभ्यनुज्ञाता सती विपुलमशनं ४ उपस्कारयति २ तद् विपुलमशनं ४ सुरां च ६ सबहु० पुष्प० परिग्राहयति २ बहुभिर्यावत् स्नाता कृत० यत्रैवोम्बरदत्तयक्षायतनं यावद् धूपं दहति २ यत्रैव पुष्करिणी तत्रैवोपागता । ततस्ता मित्र. यावद् महिला गंगादत्तां सार्थवाही सर्वालंकारविभूषितां कुर्वन्ति । तत: सा गंगादत्ता ताभिः मित्र. अन्याभिश्च बहुभिर्नगरमहिलाभि: सार्द्ध तद् विपुलमशनं ४ सुरां च ६ आस्वादयन्ती दोहदं विनयति २ यस्याः एव दिशाः प्रादुर्भता तामेव दिशं प्रतिगता । तत: सा गंगादत्ता भार्या संपूर्ण दोहदा ४ तं गर्भ सुखसुखेन परिवहति । For Private And Personal Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४१०] श्री विपाक सूत्र [सप्तम अध्याय मि णं जाव विणित्तए । तते णं से सागरदचे सत्यवाहे गगादत्ताए भारियाए एयमट्ट अणुजाणेति । तते णं सा गंगादत्ता सागरदत्तेणं सत्थवाहेणं अभणुगणाता समाणी विउलं असणं ४ उवक्खडावेति २ तं विउलं असणं ४ सुरं च ६ सुबहुँ पुप्फ० परिगण्हावेति २ बहूहिं जाव रहाया कय० जेणेव उंबरदत्तजक्खाययणे जाव धूवं डहति २ जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागता । तते संतानो मित्त० महिलामो गंगादत्तं सत्यवाहि सव्वालंकारांवभूसियं करेंति । तते णं सा गंगादत्ता ताहि मित्त० अन्नाहिं य यहूहि ण गरमहिलाहिं सद्धि तं विउलं असणं ४ सुरं च ६ आसाएमाणी ४ दोहलं विणेति २ जामेव दिसं पाउन्भूता तामेव दिलं पडिगता । तते णं सा गंगादना भारिया संपुण्णदोहला ४ तं गम्भं सुहंसहेणं परिवहति । पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । से-वह । धन्नं तरी-धन्वन्तरि । वेज्जे-वैद्य । ततो-उस । गरगाओ--नरक से । अणंतरं-अन्तररहित - सीधा । उवहित्ता-निकल कर । इहेव- इसी । पाडलिसंडे-पाटलिषण्ड । णगरे-नगर में । गंगादत्ताए - गंगादत्ता। भारियाए -भार्या की। कुच्छिसि - कुक्षि-उदर में । पुत्तत्ताए-पुत्ररूप से । उववन्ने- उत्पन्न हुआ। तते णं - तदनन्तर । तीसे-उस । गंगादत्ताए-गंगादत्ता । भारियाए - भार्या के । तिरह-तीन । मासाणं-मासो के । बहुपडिपुराणाणं-लगभग पूर्ण होने पर । अयमेयारुवे--यह इस प्रकार का । दोहले-दोहद – गर्भिणी स्त्री का मनोरथ । पाउन्भूते- उत्पन्न हुआ। ताओ अम्मयाओ-वे माताएं । घण्णाओ णं-धन्य हैं । जाव-यावत् । फले- उन्हों ने ही जीवन के फल को प्राप्त किया हुआ है । जाओ णं-जो । विउलं-विपुल । असणं ४-अशन पानादिक । उवरखडार्वति २-तैयार कराती हैं, करा कर । वहूहिंअनेक । मित्त०-मित्र, ज्ञातिजन आदि की । जाव- यावत् महिलाओं से। परिवुड़ाओ- परिवृत-घिरी हुई। तं-उस । विउलं-विपुल । असणं ४ - अशनादिक चतुर्विध अाहार तथा। सुरं च ६६ प्रकार के सुरा आदि पदार्थों और । पुष्फ० -- पुष्यों । जाव-यावत् अर्थात् वस्त्रों, सुगन्धित पदार्थों, मालाओं और अलंकारों को । गहाय-लेकर । पाडलिसंडं- पाटलिपंड । णगरं - नगर के । मझमज्भेणंमध्य भाग में से। पडिणिक्वमंति २ -- निकलता हैं, निकल कर । जेणेव- जहां । पुक्वरिणीपुष्करिणी है । तेणेव-वहां । उवागच्छन्ति - आती हैं, अाकर । पुक्वरिणिं-पुष्करिणी का। ओगाईति २- अवगाहन करती है-उस में प्रवेश करती हैं, प्रवेश करके । राहाया-स्नान की हुई। जाव-यावत् । पायच्छित्ताओ-अशुभ स्वप्नादि के फल को विफल करने के लिये मस्तक पर तिलक एवं मांगलिक कार्य की हुई । तं-उस । विउलं-विपुल । असणं ४ -अशनादि का । बहूहि-अनेक मित्र, ज्ञातिजन आदि की महिलाओं के । सद्धि - साथ । प्रासादेंति ४-आस्वादनादि करती हैं, अपने। दोहलं-दोहद को । विणंति -पूर्ण करती हैं । एवं- इस प्रकार । संपेहेति २ --विचार करती है, विचार करके। कल्लं- प्रात:काल । जाव-यावत् । जलंते-देदीप्यमान सूर्य के उदित हो जाने पर । जेणेव-जहां । सागरदत्त -सागरदत्त । सत्थवाहे - सार्थवाह-संघनायक था। तेणेव --वहां पर। उवागच्छति २-आती है, आकर । सागरदत-सागरदत्त | सत्यवाई-सार्थवाह को। एवं- इस प्रकार | वयासी-कहने लगी। धन्नाप्रोणं-धन्य हैं । ताओ अम्मयात्रो-वे माताएं । जार-यावत् । विणेति - दोहद की पूर्ति करती हैं । तं-इस लिए । इच्छामि णं-मैं चाहती हूँ। जाव-यावत् । विणित्तर --अपने दोहद की पूर्ति करना । तते णं-तदनन्तर । से- वह । सागरदत्ते-सागरदत्त । सत्थवाहे --- सार्थवाह । गंगादत्ताए-गंगादत्ता । भारियाए-भार्या को। एयम8-इस अर्थ - प्रयोजन के लिये । अणुजाणेति - For Private And Personal Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । आज्ञा दे देता है। तते णं-तदनन्तर । सा-वह । गंगादत्ता-गंगादत्ता । सागरदत्तेणं-सागरदत्त । सत्यवाहेणं- सार्थवाह से । अब्भणुए णोया समाणी -अभ्यनुज्ञात हुई अर्थात् आजा प्राप्त कर के । विपुलं - विपुल । असणं ४ - अशमादिक । उवक्वड़ावेति २- तैयार कराती है, तैयार करा कर । तं-उस। विपल - विपुल । असण ४ - अशनादिक और । सुरच ६ -सुरा आदि छः प्रकार के मद्यों का। सुबहुं-बहुत ज़्यादा। पुफ्फ. पुष्पादिक को । परिगेराहावेति २- ग्रहण कराती है, कराकर । बहूहि-अनेक । जाव यावत् । राहाया - स्नान कर कय -अशुभ स्वप्नादि के फल को विफल करने के लिये मस्तक पर तिलक तथा अन्य मांगलिक कार्य करके । जेणेव-जहां पर । उंबरदत्त. जक बाययणे-उम्बरदत्त यक्ष का आयतन - स्थान था । जाव - यावत् । धूवं-धूप । डहति २जलाती है, जला कर । जेणेव-जहां । पुक्वरिणी-पुष्करिणी थी । तेणेव-वहां पर । उवागता-श्रा गई । तते ण-तदनन्तर । ताप्रो-वे। मित्त०-मित्रादि की। जाव - यावत् । महिलाओ - महिलाएं। गंगादत्तं-गंगादत्ता। सत्यवाहि-सार्थवाही को । सव्वालंकारविभूसियं-सर्व प्रकार से आभूषणों द्वारा अलंकृत । करेंति-करती हैं । तते ण- तदनन्तर । सा-वह । गंगादत्ता-- गंगादत्ता । ताहिउन। मित्त-मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों की । च-तथा। अन्नाहि-अन्य । बहूहि-बहुत सी । णगरमहिलाहिं-नगर की महिलाओं के । सद्धिं-साथ । तंउस । विपुलं-विपुल । असणं ४-अशनादिक चतुर्विध आहार । च-तथा । सुर६-छः प्रकार की सुरा आदि का। प्रासाएमाणी ४-आस्वादनादि करती हुई । दोहदं -दोहद को। विणेति-पूर्ण करती है, दोहद की पूर्ति के अनन्तर । जामेव दिसं जिस दिशा से । पाउन्भूता-आई थी। तामेव दिसंउसी दिशा को । पडिगता--चली गई । तते णं- तदनन्तर । सा गंगादत्ता-वह गंगादत्ता। भारियाभार्या । संपुण्णदोहला ४ – सम्पूर्णदो दा--जिसका दोहद पूर्ण हो चुका है, सम्मानितदोहदा -- सम्मानित दोहद वाली, विनीतदीहदा विनीत दोहद वाली, व्युच्छिन्नदोहदा - व्यछिन्न दोहद वाली तथा सम्पन्नदोहदासम्पन्न दोहद वाली । तं-उस । गभं-गर्भ को । सुहसुहेण-सुखपूर्वक । परिवहति-धारण कर रही है, अर्थात् गर्भ का पोषण करतो हुई सुखपूर्वक समय बिता रही है। मूलार्थ-तदनन्तर वह धन्वन्तरि वैद्य का जीव नरक से निकल कर इसी पाटलिषण्ड नगर में गंगादत्ता भार्या को कुति- उदर में पत्ररूप से उत्पन्न हुअ अथात् पुत्ररूप से गंगादत्ता के गर्भ में आया । लगभग तीन मास पूरे हो जाने पर गंगादत्ता श्रष्ठिभार्या को यह निम्नोक्त दोहद - गर्मिणी स्त्री का मनोरथ उत्पन्न हुआ धन्य हैं वे माताए यावत् उन्होंने ही जोवन के फल को प्राप्त किया है जो महान् अशनादिक तैयार करवाती हैं और अनेक मित्र ज्ञाति आदि की महिलाओं से परिवृत हो कर उस विपुल अशनादिक तथा पुष्पादि को साथ ले कर पाटलिषण्ड नगर के मध्य में से निकल कर पुष्करिणी पर जाती हैं, वहां-पुष्करिणो में प्रवेश कर जलस्नान एवं अशुभ स्वप्नादि के फल को विफल करने के लिए मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य करके उस विपुल अशनादिक का मित्र, ज्ञातिजन आदि को महिलाओं के साथ आस्वादनादि करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं। इस तरह विचार कर प्रातःकाल तेज से देदीप्यमान सूर्य के उदित हो जाने पर वह सागरदत्त माताएं के पास आती है, आकर सागरदत्त सार्थवाह से इस प्रकार कहने लगी कि हे स्वामिन् ! वे सार्थवाह धन्य हैं, यावत् जो दोहद को पूर्ण करती हैं। अतः मैं भी अपने दोहद को पूर्ण करना For Private And Personal Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४१२] श्री विपाक सूत्र सप्तम अध्याय चाहती हूं। तब सागरदत्त सार्थवाइ इस गत के लिए अर्थात् दोहद की पूति के लिए गंगादत्ता को आज्ञा दे देता है। सागरदत्त सेठ से आज्ञा प्राप्त कर गंगादत्ता पर्याप्त मात्रा में अशनादिक चतुर्विध आहार की तैयारी करवाती है और उपस्कृत आहार एवं ६ प्रकार की सुरा आदि पदार्थ तथा बहुत सी पुष्यादिरूप पूजा मामग्रो ले कर मित्र, ज्ञातजन आदि की तथा और अन्य महिलाओं को साथ लेकर यावत् स्नान एवं अशुभ स्वप्नादि के फल को विनष्ट करने के लिए मस्त पर तिलक एवं अन्य मांगलिक अनुष्ठान करके उम्बरदत्त यक्ष के मन्दिर में आ जातो है । वहां पूर्व की भान्ति पूजा कर धूप धुवाती है । तदनन्तर परिणी- बावड़ी में आ जाती है। वहां पर साथ में अग्ने वाली मित्र ज्ञाति आदि की महिलाएँ गंगादत्ता को सर्व अलंकारों से विभूषित करती हैं, तत्पश्चात् उन मित्रादि की महिलाओं तथा अन्य नगर को महिलाओं के साथ उस विपुल अशनादिक तथा पड्विध सुरा आदि का आस्वादनादि करती हुई गंगादत्ता अपने दोहद की पूर्ति करती है। इस प्रकार दोहद को पूर्ण कर वह वापिस अपने घर को आगई । तदनन्तर सम्पूणेदोहदा, सम्मानितदोहदा, विनीतदोहदा, व्युच्छिन्नदोहदा, सम्पन्नदाहदा वह गंगादत्ता उस गर्भ को सुग्वपूर्वक धारण करतो हुई सानन्द ममय बिताने लगो । टीका- भगवान् महावीर स्वामी कहने लगे कि गौतम ! जिस समय गंगादत्ता उक्त प्रकार का संकल्प करती है, उस समय वह धन्वन्तरि वैद्य का जीव नरकसम्बन्धी दुःसह वेदनात्रों को भोगकर नरक की आयु को पूर्ण करके वहां से सीधा निकल कर इसी पाटलिषंड नगर में, नगर के प्रतिष्ठित सेठ सागरदत्त की गंगादत्ता भार्या के गर्भ में पुत्ररूप में उत्पन्न हुअा, और वह वहां पुष्ट होना लगा, अथच वृद्धि को प्राप्त करने लगा। सेठानी गंगादत्ता की कुक्षि में आये हुए धन्वन्तरि वैद्य के जीव को जब तीन मास होने लगे तो उसे जो दोहद उत्पन्न हुआ उस का तथा उसकी पूर्ति का उल्लेख मूलार्थ में कर दिया गया है । जो कि अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता । गर्मिणी स्त्री को गर्भ के अनुरूप जो संकल्पविशेष उत्पन्न होता है, उसे शास्त्रीय परिभाषा में दोहद कहते हैं । "-ताओ अम्मयानो जाव फले -” यहां पठित जाव-यावत् पद पृष्ठ ३९६ पर पड़े गये "-सपुराणाओ णं ताओ अम्मया रो, कयत्थाओ णं तारो अम्मया रो, कयलक्षणाओ णं तारो अम्मयामो तासिं च अम्मयाणं सुनद्ध जम्मजीविय-" इन पदों का परिचायक है । -मित्त. जाव परिवडायो - यहा पठित जाव-यावत पद से -गाइ-णियग सयणसम्बन्धि-परिजण-महिलाहिं- इन पदों का ग्रहण समझना चाहिये । इन का अर्थ है मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों एवं परिजनों की महिलाओं से । तथा – मित्र श्रादि पदों की व्याख्या पृष्ठ १५० के टिप्पण में की जा चुकी है।। -पुष्फ० जाव गहाय – यहां पठित जाव-यावत् पद से - वत्थगन्धमल्लालंकारं --- इस पाठ का तथा - राहाया जाव पायच्छित्ताओ- यहां पठित जाव - यावत् पद से - कयबलिकम्मा कयकोउयमंगल - इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । -कयबलिकम्मा -आदि पदों का अर्थ पृष्ठ १७६ तथा १७७ पर किया जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद एक पुरुष के विशेषण हैं, जब कि प्रस्तुत में अनेक स्त्रियों के। अतः लिंगगत तथा वचनगत अर्थभेद की भावना कर लेनी चाहिये है । For Private And Personal Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [४१३ -प्रासादन्ति ४- यहां पर दिये गए ४ के अंक से-विसापन्ति, परिभाएन्ति परिभुज्जेन्ति-इन पदों का ग्रहण समझना चाहिये । अर्थात् आस्वादन (योड़ा खाना, बहुत छोड़ना इक्षुखण्ड. गन्ने की भान्ति ), विस्वादन (अधिक खाना, थोड़ा छोड़ना, खजूर की भान्ति), परिभाजन- दूसरों को बांटना तथा परिभोग-( सब खा जाना, रोटी आदि की भांति ) करती हैं। -कल्लं जाव जलन्ते-यहां पठित जाव-यावत् पद से विवक्षित पाठ पृष्ठ ४०. पर लिखा जा चुका है । तथा-ताओ जाव विणेति- हां पठित जाव -यावत् पद से पृष्ठ ४०९ पर पढ़े गये -अमया मोजाले , जाप्रो गां विउलं असणं ४ उपक्वडावेति २ बहहिं मित्त जाव परिवुडा. श्रो-से लेकर -प्रासादति ४ दोहलं- यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । -बहूहिं जाव रहाया- यहां के जाव-यावत् पद मे पृष्ठ ४०९ पर पढ़े ग्रये-मित्त. जाव परिखुडा पो तं विउलं असणं ४ सुरं ६ पुष्फ० जाव गहाय पाडलिसंड णगर मझमझगां पडिनिक्खमन्ति २ जेणेव पुक वरिणी तेणेव उवागच्छन्ति २ पुक्वरिणिं ओगाहंति २ - इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। __ - कय. यहां के बिन्दु से – कोउयमंगलपायच्छित्ता- इस पाठ का ग्रहण करना चाहिये । इस का अर्थ पदार्थ में किया जा चुका है। "-उम्बरदत्तजक्खाययणे जाव धूवं - यहां पठित जाव-यावत् पद से पृष्ठ ४०६ पर पड़े गये "-तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता उंबरदत्तस्स जक्वस्त आलोए पणामं करोति २ लोमहत्थं परामुसति परामुसित्ता उवरदत्तं जक्खं लोमहत्थएणं पमज्जति पमज्जित्ता दगधाराए अब्भुक्खेति अब्भुक्खित्ता पम्हल. गायलहि अालू ऐति अोलूहित्ता सेयाई वत्थाईपरिहेति परिहित्ता महरिहं पुप्फारुहण, वत्थारुहरण, गंधारुहणं, चुराणारुहणं करोति करित्ता- इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। "- असणं ४ - तथा-सुरं च ६-यहां के अंकों से विवक्षित पाठ का विवर्ण पृष्ठ २५० पर किया जा चुका है। तथा श्रासाएमाणी ४- यहां पर दिये ४ के अक से - विसाएमाणी, परिभाएमाणी, परिभुजेमाणी --इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन पदों का अथ पृष्ठ १४५ पर दिया जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये शब्द वहुवचनान्त हैं जब कि प्रस्तुत में एकवचनान्त । अतः अर्थ में एकवचन की भावना कर लेनी चा हये । __-सम्पुरणदोहला ४- यहां पर दिये गये ४ के अक से विवक्षित - सम्माणियदोहला, विणीयदोहला, वोच्छिन्नदोहला सम्पन्नदोहला - इन पदों की व्याख्या पृष्ठ १४८ पर की जा चुकी है । प्रस्तुत सूत्र में सेठानी गंगादत्ता के द्वारा देवपूजा करना तथा उसके गर्भ में धन्वंतरि वैद्य के जीव का आना, एव दोहद की उत्पत्ति और उस की पूर्ति द्रादि का वर्णन किया गया है । अब सूत्रकार अग्रिम सूत्र में गर्भस्थ जीव के जन्म आदि का वर्णन करते हैं - मूल- तते णं सा गंगादशा णवण्हं मामाणं बहुपडिपुराणाणं दारगं पया । (१) छाया-ततः सा गङ्गादत्ता नवसु मासेषु बहुपरिपूर्णषु दारकं प्रयाता । स्थिति० यावद् नामधेयं कुरुतः, यस्मादस्माकमयं दारकः उम्बरदत्तस्य यक्षस्योपयाचितलब्धः तद् भवतु दारकः उम्बरदत्तो नाम्ना । तत: स उम्बरदत्तो दारकः पञ्चधात्रीपरिगृहोतः यावत् परिवर्द्धते । ततः स सागरदत्तः साथबाहो यथा विजयामेत्रः कालधर्मेण संयुक्तः । गङ्गादत्तापि । उम्बरदत्तोऽपि निष्कासितो यथोज्झितकः । For Private And Personal Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org श्री विपाक सूत्र [सप्तम अध्याय ठिति० जाव नामधेन्जं करेंति- जम्हा णं अम्हं इमे दारए उबरदत्तस्स जक्खस्स उवाइयलद्धए, तं होउ णं दारए उबरदत्ते नामेणं । तते णं से उबरदत्ते दारए पंचधातीपरिग्गहिते जाव परिवड्ढति । तते णं से सागरदत्ते सत्थवाहे जहा वियमित्त कालधम्मुणा संजुत्ते, गंगादत्ता वि, उम्वरदत्ते वि निच्छूढे जहा उझियए । तते णं सम्म उम्बरदत्तस्स अन्नया कयाइ मरीरगंसि जमगसमगमेव सोलस रोगायंका पाउब्भूया, तंजहा-१-सासे, २-खासे, जाव १६-कोढे । तते णं से उम्बरदत्ते दारए मोलसहि गेगायंकेहिं अभिभूते समाणे सडियहत्य. जाव विहरति । एवं खलु गोतया ! उम्बरदत्ते दारए पुग जाव विहर्गत । पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । सा-उस । गंगादत्ता - गङ्गादत्ता ने । णवण्हं मासानवमास । बहुपडिपुराणाणं-लगभग परिपूर्ण होने पर । दारगं-बालक को । पयाया--जन्म दिया। ठिति०-माता पिता ने स्थितिपतिता - पुत्रजन्मसम्बंधी उत्सवविशेष । जाव - यावत् । नामधेज्जं करोति-नामकरण संस्कार किया । जम्हार-जिस कारण । अम्हं-हमारा । इमे बालक । उम्बरदत्तस्स- उम्बरदत्त । जक वस्स - यक्ष की । उवाइयजए-मन्नत मानने से उपलन्ध हुआ है - प्राप्त हुआ है । तं-अत.। होउ - हो। दारए - हमारा यह बालक । उम्बरदत्त-उम्बरदत्त । नामेणं · नाम से । तते णं - तदनन्तर । से वह । उम्बरदत्त ---उम्बरदत्त । दारए-बालक । पंचधातीपरिग्गहिते - पंच धाय माताओं से परिगृहीत हुा । परिवड्ढतिवृद्धि को प्राप्त करने लगा । तते णं-तदनन्तर । से-वह । सागरद-सागरदत्त । सत्यवाहेसार्थवाह -- संघनायक | जहा-जिस प्रकार । विजयमित्रो - विजयमित्र का वर्णन किया है, तद्वत् । कालधम्मुणा- कालधर्म से संयुक्त हुअा अर्थात् मर गया गंगादत्ता वि-गङ्गादत्ता भी कालधर्म को प्राप्त हुई । उम्बरदत्ते वि-उम्परदत्त भी। निच्छू घर से बाहिर निकाल दिया गया। जहा - जैसे । उज्झियए-उज्झितक कुमार अर्थात् उस का घर से निकलना द्वितीय अध्ययन में वर्णित उज्झितक कुमार के समान जान लेना चाहिये। तते णं-- तदनन्तर । अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय । तस्स - उस । उम्बरदत्तस्स-उम्बरदत्त के सरीरगंसि शरीर में । जमगसमगमेव-एक ही समय में सालस - सोलह प्रकार के रोगायंका रोगातक -- भय कर रोग । पाउन्भता-प्रादुभूत हुए -- उत्पन्न हो गये । तंजहा-जैसे कि । -सासे-१ - श्वास । २-खासे -२-कास --खांसी जाव यावत्। १६-कोहे - १६ - कुष्ठ रोग तते णं- तदनन्तर । से-वह । उम्बरदत्त-उम्बरदत्त । दारय - बालक । सोलसहि-सोलह प्रकार के । रोगायंकेहि-रोगातंकों से । अभिभूते समाणे-अभिभूत हुश्रा । सडियहत्थ० -ग़ले हए हस्तादि से युक्त । जाव यावत् । विहरति --समय व्यतीत कर रहा है । एवं खल-इस क्य ही । गोतमा!- हे गौतम! । उम्बरदत्त दारए उम्बरदत्त बालक । पग-परातन । जाव - यावत् कर्मों को भोगता हुअा । विहरति - समय बिता रहा है। मूलार्थ-तत्पश्चात लगभग नव मास पारपूर्ण हो जाने पर गंगादत्ता ने एक बालक को जन्म दिया। माता पिता ने स्थितिपतिता नामक उत्सव विशेष मनाया और बालक उबमदत्त यक्ष की मन्नत ततस्तस्योम्बरदत्तस्यान्यदा कदाचित् शरीरे युगपदेव षोडश रोगातंकाः प्रादुर्भूताः। तद्यथा-१-श्वासः, २-कास: यावत् १६-कुष्ठः । ततः स उम्बरदत्तो दारक: षोडशभी रोगांतकैरभिभूत: सन् शटितस्त. यावद् विहरति । एवं खलु गौतम ! उम्बरदत्तो दारकः पुरा यावद् विहरति । For Private And Personal Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सप्तम अध्याय 7 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir हिन्दी भाषा टीका सहित मानने से हुआ है, इस लिए उन्हों ने इस का उम्बरदत्त यह नाम रखा, अर्थात् माता पिता ने उस का उम्बरदत्त नाम स्थापित किया । तदनन्तर उम्बरदत्त बालक पांच घाय माताओं से सुरक्षित हो कर वृद्धि को प्राप्त करने लगी । तदनन्तर अर्थात् उम्बरदत्त के युवा हो जाने पर विजयमित्र की भान्ति सागरदत्त सार्थवाह समुद्र में जहाज के जलनिमग्न हो जाने के कारण कालधर्म को प्राप्त हुआ तथा गंगादशा भी पतत्रियोगजन्य असह्य दुःख से दुखी हुई कालधर्म को प्राप्त हुई, तथा उस्तिक कुमार की तरह उम्बरदत्त को भी घर से बाहिर निकाल दिया गया । [ ४१५ तत्पश्चात् किसी अन्य समय उम्बरदत्त के शरीर में एक ही साथ सोलह प्रकार के रोगान्तक उत्पन्न हो गये, जैसेकि - १ - श्वास, २ – कास यावत् १६ – कुष्ठ रोग । इन सोलह प्रकार के रोगान्तकों —भयंकर रोगों से अभिभूत-व्याप्त हुआ उम्बरदत्त यावत हस्तादि के सड़ जाने से दुःखपूर्ण जीवन जा रहा है । भगवान् कहते हैं कि हे गौतम ! इस प्रकार उम्वरदत्त बालक पूर्वकृत अशुभ कर्मों का यह भयकर फल भोगता हुआ इस भान्ति समय व्यतीत कर रहा है । टीका - शास्त्रों में गर्भस्थिति का वर्णन लगभग सवा नौ महीने का पाया जाता है, इतने समय में गर्भस्थ प्राणी के अंगोपांग पूर्णरूप से तैयार हो जाते हैं और फिर वह जन्म ले लेता है । श्रेष्ठभार्या गंगादत्ता के गर्भ का भी काल पूर्ण होने पर उसने एक नितान्त सुन्दर बालक को जन्म दिया। बालक के जन्मते ही सेठ सागरदत्त को चारों ओर से बधाइयां मिलने लगीं। सागरदत्त को भी पुत्रजन्म से बड़ो खुशी हुई और गंगादत्ता की खुशी का तो कुछ पारावार ही नहीं था । दम्पती ने पुत्र-जन्म की खुशी में जी खोलकर धन लुटाया | कुलमर्यादा के अनुसार बालक का जन्मोत्सव बड़े समारोह के साथ मनाया गया और जन्म से बारहवें दिन जब नामकरण का समय आया तो सेठ सागरदत्त ने अपनी सारी जाति को तथा अन्य सगे सम्बन्धियों एवं मित्रादियों को आमंत्रित किया और सबको प्रीतिभोजन कराया। तत्पश्चात् सभी के सन्मुख बालक के नाम की उद्घोषणा करते हुए कहा कि प्रियबन्धुत्रो ! मुझे यह बालक अन्तिम आयु में मिला है और मिला भी उम्बरदत्त यक्ष के अनुग्रह से है अर्थात् उसको मन्नत मानने के अनन्तर ही यह उत्पन्न हुआ है अतः मेरे विचारानुसार इसका उम्बरदत्त (उम्बर का दिया हुआ ) नाम रखना ही समुचित है । सागरदत्त के इस प्रस्ताव का सबने समर्थन किया और तब से नवजात बालक उम्बरदत्त के नाम से पुकारा जाने लगा । For Private And Personal चालक उम्बरदत्त १ – दूध पिलाने वाली, २- स्नान कराने वाली, ३ – गोद में उठाने वाली, ४ क्रीड़ा करने वाली, और ५ - श्रृंगार कराने वालो - शरीर को सजाने वाली इन पांच धाय माताओं के प्रबन्ध में पालित और पोषित होता हुआ बढ़ने लगा । शनैः २ शैशव अवस्था का कम करके युवावस्था में पदार्पण करने लगा । तात्पर्य यह है कि बालभाव को त्याग कर वह युवावस्था को प्राप्त हो गया । शास्त्रों में लिखा है कि कर्मों का प्रभाव बड़ा विचित्र होता है शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म समय पर अपना पूरा २ प्रभाव दिखलाते हैं। इस संसारी जीव के जिस समय शुभ कर्म उदय में आते हैं तब वह हर प्रकार से सुख का ही उपभोग करता है । उस समय वह यदि मिट्टी को भी हाथ डालता है तो वह भी सोना बन जाती है, और इसके अशुभ कर्म के उदय Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४१६] श्री विपाक सूत्र - [ सप्तम अध्याय में आने पर सुखी जीव भी दुःखों का केन्द्र बन जाता है । उसको चारों ओरं दु:ख के सिवा और कुछ दिखाई नहीं देता । वह यदि सुवर्ण को छू ले तो वह भी उसके अशुभ कर्म के प्रभाव से मिट्टी बन जाता है । सारांश यह है कि प्राणि मात्र की जीवनयात्रा कर्मों से नियंत्रित है. उस के अधीन हो कर ही उसे अपनी मानवलोला का सम्बरण या विस्तार करना होता है । शुभाशुभ कर्मों के अनुसार ही संसार में सुख और दुख का चक्र भ्रमण कर रहा है अर्थात् सुख के बाद दु.ख और दु.ख के अनन्तर सुख यह चक्र बरावर नियमित रूप से चलता रहता है बालक उम्बर दत्त अभी पूरा युवक भी नहीं हो पाया था कि फलोन्मु व हुए अशुभ कर्मों ने उसे श्रा दबाया। प्रथम तो सेठ सागरदत्त का समुद्र में जहाज़ के जलमग्न हो जाने के कारण अकस्मात् ही देहान्त हो गया और उसके बाद पतिविरह से अधिकाधिक दुःखित हुई सेठानी गंगादत्ता ने भी अपने पतिदेव के मार्ग का ही अनुसरण किया। दोनों ही परलोक के पथिक बन गये तत्पश्चात् अनाथ हुए उम्बरदत्त की पतक जंगम तथा स्थावर सम्पत्ति पर दुसरों ने अधिकार जमा लिया और र.ज्य की सहायता से उसको घरसे बाहिर निकाल दिया गया। कुछ दिन पहले उम्बरदत्त नाम का जो बालक अनेक दास और दासियों से घिरा रहता था । आज उसे कोई पूछता तक नहीं । अशुभ कमां के प्रभाव की उष्णता अभी इतने मात्र से हो ठंडी नहीं पड़ी थी किन्तु उसमें और भी उत्त जना प्रा गई। उम्बरदत के नीरोग शरीर पर रोगों का अाक्रमण हा वह भी एक दो का नहीं किन्तु सोलह का और वह भी क्रमिक नहीं किन्तु एक बार ही हश्रा। गोग भी सामान्य रोग नहीं किन्तु म रोग उत्पन्न हुए। १ .श्वास, २ कास और 1- भगंदर से लेकर १६ - कुष्ठपर्यन्त १६ प्रकार के महारोगों के एक बार ही आक्रमण से उम्बरदत्त का कांचन जैसा शरीर नितान्त विकृत अथच नष्टप्राय हो गया। उसके हाथ पांव गल सड़ गये । शरीर में से रुधिर और पूय बहने लगा। कोई पास में खड़ा नहीं होने देता, इत्यादि । देखा कर्मों का भयंकर प्रभाव !, कहां वह शैशवकाल का वैभवपूर्ण सुखमय जीवन और कहां यह तरूणकालीन दुःखपूर्ण भयावह स्थिति ?, कमदेव । तुझे धन्य है __भगवान् महावीर बोले . गौतम ! यह सेठ सागरदत्त और सेठानी गंगादत्ता का प्रियपुत्र उम्बरदत्त है, जिसे तुमने नगर के चरों दिगद्वारों में प्रवेश करते हुए देखा है, तथा जिसे देख कर करुणा के मारे तुम कांप उठे हो। प्रमादी जीव कर्म करते समय ना छ विचार करता नहीं और जब उन के फल देने का समय आता है तो उसे भोगता हुअा रोता और चिल्लाता है परन्तु इस रोने और चिल्लाने को सुने कौन ?, जिस जीव ने अपने पूर्व के भवों में नानाप्रकार के जीव जन्तुओं को तड़पाया हो, दुखी किया हो तथा उन के मांस से अपने शरीर को पुष्ट किया हो, उस को अागामी भवों में दुःख - पूर्ण जीवन प्राप्त होना अनिवार्य होता है । यह जो आज रोगक्रान्त हो कर तड़प रहा है, वह इसी के पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों का प्रत्यक्ष फल है। ठिति० जाव नामाधज्जं-" यहां पठित जाव -यावत् पद से पृष्ठ १५६ पर पढ़े गए "--ठितिपडियं च चन्दसूरदसणं च जागरियं च महया इढिसक्का समुदए करेति, तते गं तस्स दारगस्स अम्मापितरो एक्कारसमे दिवसे निव्वत्त संपत्ते वारसाहे अयमेयारूव गोगणं गुणनिष्फन्नं-" इन पदों का ग्रहण करना चाहिये। "-पंचधातीपग्ग्गिहिते जाव परिवड्ढति - " यहां पठित जान - यावत् पद से पृष्ठ १५७ पर पढ़े गए -तंजहा-खीरधातीर १ मज्जण- से ले कर -सुहंसुहेणं- यहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिये । For Private And Personal Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित [४१७ तथा प्रकृत सूत्रपाठ में उल्लेख किये गये – “जहा विजयमित्त कालधम्पुणा संजुत्त गंगादत्ता वि-" तथा "- उम्बग्दत्त वि पिच्छ्र जहा उफ्रियर- इन पदों से दुखविपाक के उज्झितक नाम के दूसरे अध्ययन का स्मरण कराया गया है । तात्पर्य यह है कि उम्बरदत्त के विषय में माता पिता का देहान्त और घर से निकाला जाना -यह सब वर्णन उज्झितक कुमार की तरह जान लेना चाहिये । तथा "-१-सासे, २-खासे जाव१६-कोढे -" यहां पठत जाव-यावत् पद से प्रथम अध्ययनगत पृष्ठ ५७ पर पढ़े गए "-३-जरे, ४ --दाहे. ५-कुच्छिसूले, ६-भग दरे, ७- अरि से, ८-अजीरते, ९ दिट्टी, १०-मुद्रसूले, ११ --अकार ए, १२ -अच्छिवेयणा, १३ - कराणवेयणा, १४- कराडू, १५ - द प्रोदरे ..." इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन पदों की व्याख्या पृष्ठ ५९ से लेकर पृष्ठ ६४ तक की जा चुकी है। -सडियहत्थ जाव विहरति-- यहां के -जाव-यावत्-पद से पृष्ठ ३७६ पर पड़े गए लिएसडियपारंगलिएसडियराणनासिर-से ले कर देहबजियार वित्ति का यहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिए । अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद द्वितीयान्त हैं, जब कि प्रस्तुत में एकवचनांत पदों का ग्रहण करना अपेक्षित है । अतः अर्थ में एकवचनान्त पदों की भावना कर लेनी चाहिये । -पुरा जाब विहरति- यहां पठित जाव-यावत -पद से विवक्षित पाठ पृष्ठ २७१ पर लिखा जा चुका है । ___प्रस्तुत कथासन्दर्भ में जो यह लिखा है कि सेठ सागरदत्त तथा सेठानो गंगादत्ता ने बालक का नाम उम्वरदत्त इसलिये रखा था कि वह उम्बरदत्त यक्ष के अनुग्रह से अर्थात् उस की मनौती मानने से संप्राप्त हुआ था, इस पर यह आशंका होती है कि कर्मसिद्धान्त के अनुसार जो नारी किसी भी जीवित संतति को उपलब्ध नहीं कर सकती, फिर वह एक यक्ष की पूजा करने या मनौती मानने मात्र से किसी जीवित संतति को कैसे उपलब्ध कर लेती है ?, क्या ऐसी स्थिति में कमसिद्धान्त का व्याघात नहीं होने पाता ?, इस आशंका का उत्तर निम्नोक्त है - शास्त्रों में लिखा है कि जो कुछ भी प्राप्त होता है वह जीव के अपने पूर्वोपार्जित कर्मों के कारण ही होता है। कमहीन प्राणी लाख प्रयत्न कर लेने पर भी अभिलषित वस्तु को प्राप्त नहीं कर सकता, जब कि कर्म के सहयोगी होने पर वह अनायास ही उसे उपलब्ध कर लेता है। अतः गंगादत्ता सेठानी को जो जीवित पुत्र की संप्राप्ति हुई है, वह उसके किसी प्राक्तन पुण्यकर्म का ही परिणाम है, फिर भले ही वह कर्म उसकी अनेकानेक संतानों के विनष्ट हो जाने के अनन्तर उदय में आया था। सारांश यह है कि गंगादत्ता को जो जीवित पुत्र की उपलब्धि हुई है वह उसके किसी पूर्वसंचित पुण्यविशेष का ही फल समझना चाहिये । उसमें कर्मसिद्धान्त के व्याघात वाली कोई बात नहीं है । अस्तु, अब पाठक यक्ष की मनौती का उस बालक के साथ क्या सम्बन्ध है , इस प्रश्न के उत्तर को सुनें न्यायशास्त्र में समवायी, असम पायी और निमित्त ये तीन कारण' माने गये हैं । जिस (१) कारणं त्रिविध समवाय्यसमायिनिमित्तभेदात् । यत्समवेतं कार्यनुत्पद्यते तत्समवायिकारणम् । यदा-तन्तवः पटस्य । पटश्च स्वगतरूपादेः । कार्येण कारणेन वा सहकस्मिन्नर्थे समवेतं सत् कारणमसमवाधिकारणम् । यथा -तन्तुसंयोगः पटस्य । तन्तुरूपं पटरूपस्य । तदु. भयभिन्नं कारणं निमित्तकारणम् । यथा-तुरीवेमादिक पटस्य । (तर्कसंग्रहः) For Private And Personal Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४१८] श्री विपाक सूत्र [सप्तम अध्याय में समवाय सम्बन्ध (नित्यसंबंध) से कार्य की निष्पत्ति - उत्पत्ति हो उसे समवायी कारण कहते हैं जैसे पट (वस्त्र) का समवायी कारण तन्तु (धागे) हैं। समवायी कारण को उपादानकारण या मूलकारण भी कहा जाता है । कार्य अथवा कारण ! समवायी कारण ) के साथ जो एक पदार्थ में समवायसम्बन्ध से रहता है, वह असमवायी कारण कहलाता है । जैसे तन्तुसंयोग पट का असमवायी कारण है। तात्पर्य यह है कि तन्तु में तंतुसंयोग और पट ये दोनों समवायसम्बंध से रहते हैं, इसलिये तंतु - संयोग पट का असमवायी कारण कहा गया है। समवायी और असमवायी इन दोनों कारणों से भिन्न कारण को निमित्त कारण कहा जाता है । जैसे - जुलाहा, तुरी (जुलाहे का एक प्रकार का औज़ार) आदि पट के निमित्त कारण हैं । प्रस्तुत में हमें उपादान और निमित्त इन दोनों कारणों का आश्रयण इष्ट है । जीव को जो सुख दुःख की उपलब्धि होती है उस का उपादान कारण उस का अपना पूर्वोपाजित शुभाशुभ कर्म है, और फल की प्राप्ति में जो भी सहायक सामग्री उपस्थित होती है वह सब निमित्त कारण से संगृहीत होती है । निमित्त कारण को अधिक स्पष्ट करने के लिये एक स्थूल उदाहरण लीजिये - कल्पना करो, एक कुंभकार घट-घड़ा बनाता है। घट पदार्थ में मिट्टी उसका मूलकारण है, और कुम्भकार-कुम्हार, चाक, डोरी आदि सब उस में निमित्त कारण हैं । इसी भान्ति अन्य पदार्थों में भी उपादान और निमित्त इन दोनों कारणों की अवस्थिति बराबर चलती रहती है। शास्त्रों के परिशीलन से पता चलता है कि शभाशभ कर्मफल की प्राप्ति में अनेकानेक निमित्त उपलब्ध होते हैं। उन में देव - यक्ष भी एक होता है दूसरे शब्दों में देवता भी शुभाशुभ कर्मफल के उपभोग में निमित्तकारण बन सकता है, अर्थात् देव उस में सहायक हो सकता है । देव की सहायता के शास्त्रों में अनेकों प्रकार उपलब्ध होते हैं कल्पसूत्र में लिखा है कि हरिणगमेषी देव ने गर्भस्थ भगवान महावीर का परिवर्तन किया था। अन्तकद्दसागसूत्र में लिखा है कि देव ने सुलसा और देवकी की सन्तानों का परिवतन किया था, अर्थात् देवकी की संतान सुलसा के पास और सुलसा की सन्ताने देवकी के पास पहुँचाई थीं । ज्ञाताधर्मकशङ्गसूत्र में लिखा है कि अभयकुमार के मित्र देव ने अकाल में मेघ बना कर माता धारिणी के दोहद को पूर्ण किया था। उपासकदशांगसूत्र में लिखा है कि देव ने कामदेव श्रावक को अधिकाधिक पीडित किया था। इस के अतिरिक्त भगवान् महावीर को लगातार छः महीने संगमदेवकृत उपसगों को सहन करना पड़ा था, इत्यादि अनेकों उदाहरण शास्त्रों में अवस्थित है । परन्तु. प्रस्तुत में गङ्गादत्ता को जीवित पुत्र की प्राप्ति में उम्बरदत्त यक्ष ने क्या सहायता की है ? इस के सन्बन्ध (१) स्थानांगसूत्र- के पंचम स्थान के द्वितीय उद्देश्य में लिखा है कि पुरुष के सहवास में रहने पर भी स्त्री ५ कारणों से गर्भ धारण नहीं करने पाती। उन कारणों में -पुरा वा देवकम्मुणा - यह भी एक कारण माना है। वृत्तिकार के शब्दों में इस की व्याख्या-पुरा वा पूर्व वा गर्भावसरात् देवकर्मणा देवक्रियया देवानुभावेन राक्त्युपधातः स्यादिति शेषः । अथवा देवश्च कामणं च तथाविधद्रव्यसंयोगो देवकार्मणं तस्मादिति - इस प्रकार है अर्थात् गर्भावसर से पूर्व ही देवक्रिया के द्वारा गर्भधारण की शक्ति का उपघात होने से, अथवा-देव और कार्मण-तंत्र आदि की विद्या अर्थात् जादू से गर्भधारण की शक्ति के विनाश कर देने से । तात्पर्य यह है कि-देवता रुष्ट हो कर गर्भधारण की सभी सामग्री उपस्थित होने पर भी गर्भ को धारण नहीं होने देता। इस वर्णन में देवता शभाशभ कर्म के फल में निमित्त कारण बन जा सकता है-यह सुतरां प्रमाणित हो जाता है। For Private And Personal Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । में सूत्रकार मौन हैं। हमारे विचार में तो प्रस्तुत में यही बात प्रतीत होती है कि गङ्गादत्ता के मृत - वत्सात्व दोष के उपशमन का समय आ गया था और उस की कामना की पूर्ति करने वाला कोई पुण्य कर्म उदयोन्मुख हुश्रा । परिणाम यह हुआ कि उसे जीवित पुत्र की प्राप्ति हो गई । वह पुत्रप्राप्ति यक्ष के आराधन के पश्रात् हुई थी, इसलिये व्यवहार में वह उस की प्राप्ति में कारण समझा जाने लगा । रहस्यं तु केवलिगम्यम् । जो लोग किसी पुत्रादि को उपलब्ध करने के उद्देश्य से देवों की पूजा करते हैं, और पूर्वोपार्जित किसी पुण्यकर्म के सहयोगी होने के कारण पुत्रादि की प्राप्ति कर लेने पर भक्तिरसातिरेक से उसे देवदत्त ही मान लेते हैं. अर्थात् पुत्रादि की प्राप्ति में देव को उपादान कारण मान बैठते हैं, वे नितान्त भूल करते हैं, क्यों के यदि पूर्वोपार्जित कर्म विद्यमान हैं तो उस में देव सहायक बन सकता है, इस के विपरीत यदि पूर्व कर्म सहयोगी नहीं है तो एक बार नहीं, अनेकों बार देवपूजा की जावे या देव की एक नहीं लाखों मनौतिए मान ली जाए तो भी देव कुछ नहीं कर सकता । सारांश यह है कि किसी भी कार्य की सिद्धि में देव निमित्त कारण भले ही हो जाय, परन्तु वह उपादान कारण तो त्रिकाल में भी नहीं बन सकता । अत: देव को उपादान कारण समझने का विश्वास शास्त्रसम्मत न होने से हेय है एवं त्याज्य है। प्रश्न--किसी भी कार्य की सिद्धि में देव उपादानकारण नहीं बन सकता, यह ठीक है. परंतु वह कर्मफल के प्रदान में निमित्त कारण तो बन सकता है, उस में कोई सैद्धान्तिक बाधा नहीं आती, फिर उस के पूजन का निषेध क्यों देखा जाता है ? उत्तर- संसार में दो प्रकार की प्रवृत्तियें पाई जाती हैं । प्रथम संसारमूलक और दूसरी मोक्षमूलक । संसारमूलक प्रवृत्ति सांसारिक जीवन की पोषिका होती है, जब कि मोक्षमूलक प्रवृत्ति उस के शोषण का और आत्मा को उस के वास्तविकरूप में लाने अर्थात् आत्मा को परमात्मा बनाने का कारण बनती है । तात्पर्य यह है कि मोक्षमूलक प्रवृत्ति मात्र आध्यात्मिकता की प्रगति का कारण बनती है जब कि संसारमूलक प्रवृति जन्ममरण रूप संसार के संवर्धन का । जैनधर्म निवृत्तिप्रधान धर्म है, वह आध्यात्मिकता की प्राप्ति के लिए सर्वतोमुखी प्ररेणा करता है । आध्यात्मिक जीवन का अन्तिम लक्ष्य परमसाध्य निर्वाणपद को उपलब्ध करना होता है। सांसारिक जीवन उस के लिये बंधनरूप होता है, इसी लिए वह उसे अपनी प्रगति में बाधक सम. झता है । जन्म मरण के दुःखों की पोषिका कोई भी प्रवृत्ति उस के लिये हेय एवं त्याज्य हो. ती है । सारांश यह है कि आध्यात्मिकता के पथ का पथिक साधक व्यक्ति श्रात्मा को परमास्मा बनाने में सहायक अर्थात् मोक्षमूलक प्रवृत्तियों को ही अपनाता है और सांसारिकता की पोषक सामग्री से उसे कोई लगाव नहीं होता, और इसी लिये उससे वह दूर रहता है । देवपूजा सांसारिकता का पोषण करती है या करने में सहायक होती है, इसी लिये जैन धर्म में देवपूजा का निषेध पाया जाता है । देवपूजा सांसारिक जीवन का पोषण कैसे करती है ?, इस के उत्तर में इतना ही कहना है कि देवपूजा करने वाला यही समझ कर पूजा करता है कि इस से मैं युद्ध में शत्रु को परास्त कर दंगा, शासक जन जाऊगा, मुझे पुत्र की प्राप्ति होगी, धन की प्राप्ति होगी तथा अन्य परिवार आदि की उपलब्धि होगो । इस से स्पष्ट है कि पूजक व्यक्ति मोहजाल को अधिकाधिक प्रसारित कर रहा है, जो कि संसारवृद्धि का कारण होता है, परन्तु यह एक मुमुक्षु प्राणी को इष्ट नहीं होता। For Private And Personal Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४२० ] श्री विपाक सूत्र -- [ सप्तम अध्याय यदि कोई यह कहे कि देवपूजा से मोक्ष की प्राप्ति होती है तथा स्वर्ग की उपलब्धि होती है, तो यह उस की भ्रान्ति है, कारण यह है कि देव में ऐसा करने की शक्ति ही नहीं होती । अशक्त से शक्ति की अभ्यर्थना का कुछ अर्थ नहीं होता | धनहीन से धन की आशा नहीं की जा सकती । दूसरी बात यह है जब देव देवरूप से स्वयं मुक्ति में नहीं जा सकता और जब देव को देवलोक की स्थिति पूर्ण होने पर - आयु की समाप्ति होने पर अनिच्छा होते हुए भी भूतल पर आना पड़ता है तो वह दूसरों को मुक्ति में कैसे पहुँचा सकता है ? तथा स्वर्ग का दाता कैसे हो सकता है ? हां, यह ठीक है कि जो लोग देव को कर्मफल का निमित्त मान कर देवपूजा करने वाले पर मिथ्यात्वी का आरोप करते हैं, यह भी उचित नहीं है । पदार्थों का यथार्थबोध ही सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व का न होना मिथ्यात्व है । देव को निमित्त मान कर पूजा करने वाले को को पूर्वोक्त बोध है । वह जानता है कि मैं यह संसारवधन का काम कर रहा हूं और इस में मुझे अध्यात्मसंबंधी कोई भी लाभ नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में उसे सम्यकत्व से शून्य कहना भ्रान्ति है । यदि ऐहिक प्रवृत्तियों में देव सहायक हो सकता है - :- मात्र यह मान कर देवों का श्राराधन करने वाले व्यक्ति मिथ्या हो जायेंगे तो तेला कर के अर्थात् लगातार तीन उपवास कर देवता का आह्वान करने वाले वासुदेव कृष्ण तथा चक्रवर्ती, तीर्थंकर आदि सभी पूर्वपुरुष मिथ्यावियों की कोटि में नहीं आजाएंगे १, और क्या यह सिद्धांत को इष्ट है ?, उत्तर स्पष्ट है नहीं । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रस्तुत सूत्र में उम्बरदत्त का जन्म उस के पिता सागरदत्त और माता गंगादत्ता का काल - धर्म को प्राप्त होना, तथा उस को घर से निकालना एवं उस के शरीर में भयंकर रोगों का उत्पन्न होना इत्यादि विषयों का वर्णन किया गया है । अब सूत्रकार गौतम स्वामा के द्वारा उम्बरदत्त के भा. वी जीवन के विषय में की गई पृच्छा का वर्णन करते हैं - मूल- " तते गं से उम्बरदत्त दारए कालमासे कालं किच्चा कहि गच्छिहिति ?, कहि उववज्जिहिति ? पदार्थ - तते गं - तदनंतर । से- वह । उंबरदत्त - उम्बरदत्त । दारए - बालक, यहां से । कालमासे - कालमास में । कालं किञ्चा - काल करके । कहिं कहां । गहिति ? - जायगा ? | कहिं - कहां पर । उववज्जिहिति ? - उत्पन्न होगा ? 1 1 मूलार्थ - तदनन्तर गौतमस्त्र मो ने भगवान् महावीर स्वामी से पूछा कि भगवन् ! यह उम्बरदत्त बालक यहां से मृत्यु के समय में काल करके कहां जाएगा? और कहां पर उत्पन्न होगा ?, टीका उम्बरदत्त की वर्तमान दशा का कारण जान लेने के बाद गौतम स्वामी को उस के भावी जन्मों के जानने को उत्कण्ठा हुई, तदनुसार वे भगवान् वीर से पूछते हैं कि भगवन् ! उम्वरदत्त का भविष्य में क्या बनेगा ? क्या वह इसी प्रकार दुःखों का अनुभव करता रहेगा अथवा उस के जीवन में कभी सुख का भी संचार होगा ?, प्रभो ! वह यहां से मर कर कहां जायगा ? और कहां उत्पन्न होगा ? गौतमस्वामी के इस प्रश्न में मानव जीवन के अनेक रहस्य छुपे हुए हैं, उस की उच्चावच परिस्थितियों का अनुभव प्राप्त हो जाता है, एवं मानव जीवन को सुपथगामी बनाने में प्रेरणा मिलती है । के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फरमाया व सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं - इस (१) छाया - तत: स उम्वरदत्तो दारकः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति १, कुत्रोपपत्स्यते ?, For Private And Personal Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सप्तम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [४२१ मूल - 'गोतमा ! उंबरदते दारए बावन्तरिं वासाई परमाउं पालइत्ता कालमा से कालं विचा इमी से रयणप्पमाए पुढवीए नेरइयच्चाए उववज्जिहिति, संसारो तहेव जाव पुढवीए० । ततो हत्थियाउरे गरे कुक्कुडत्ताए पञ्चायाहिति । जायमेते चैव गोडिल्लवहिते तत्व हथियाउरे गयरे सेट्ठि० बोहिं० सोहम्मे महाविदेहे ० सिज्झिहिति ५ । विखेवा | || सत्तमं श्रयणं समत्तं ॥ रइयत्तार - नारकीरूप से । । संसारो - संसारभ्रमण पदार्थ - गातमा ! - हे गौतम ! | उम्बरदत्त - उम्बरदत्त । दारए - दारक-बालक | बावतरि - ७२ । वासाई - वर्षा की । परमाउं - परम श्रायु । पालइत्ता - पालकर भोग कर । कालमासे - कालमास में - मृत्यु का समय आ जाने पर । कालं काल । किच्चा - करके । इमीसे-- इस । रयणप्पभाए पुढवीप:- रत्नप्रभा नामक पहली नरक में । उववज्जिहिति- उत्पन्न होगा । तदेव - तथैव - अर्थात् पहले की भांति करेगा । जाब - यावत् । पुढवीर० - पृथिवीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा अर्थात् इसका शेष संसारभ्रमण भी प्रथम अध्ययनगत मृगापुत्र की भान्ति जान लेना चाहिए, यावत् वह पृथिवीकाया में जन्म लेगा । ततो-से निकल कर । हस्थिणाउरे हस्तिनापुर । गरे -नगर में । कुक्कु - उत्तर - कुकुट-कुक्कुट के रूप में । पच्चायाहिति - उत्पन्न होगा। जायतेत चेव - जातमात्र अर्थात् उत्पन्न हुआ हो । गोडिल्लवहिते - गौष्ठिक- दुराचारीमंडल के द्वारा वध को प्राप्त होता हुआ । तत्थेव - वहीं | हत्थिणाउरे पयरे -- हस्तिनापुर नगर में 1 सेट्ठि -- श्रेष्ठकुल में उत्पन्न होगा। बोहि० - बोधिसम्यक्त्व को प्राप्त करेगा, तथा वहां पर मृत्यु को प्राप्त हो कर । सोहम्मे० - सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां से च्यव कर | महाविदेहे ० - महाविदेहक्षेत्र में जन्मेगा, वहां पर संयम का राधन कर के । सिज्झिहिति ५ - सिद्ध पद को को जानेगा, समस्त कमी से रहित हो जायेगा, का अन्त कर डालेगा । णिक्खेवो- निक्षेप सत्तमं - - सप्तम । श्रयणं - अध्ययन । समत - सम्पूर्ण हुआ । प्राप्त करेगा, केवलज्ञान द्वारा समस्त पदार्थों सकल कर्मजन्य सन्ताप से विमुक होगा, सब दुःखों उपसंहार की कल्पना पूर्ववत् कर लेनी चाहिये । मूलार्थ - भगवान् ने कहा कि हे गौतम! उम्रदत्त बालक ७२ वर्ष की परम आयु पाल कर कालमास में काल कर के इसी रत्नप्रभा नामक पृथिवी - नरक में नारकी रूप से उत्पन्न होगा। वह यत् संसार करता हुआ यावत् पृथिवोकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर हस्तिनापुर नगर में कुक्कुड के रूप में उत्पन्न होगा | वां जातमात्र ही गोष्ठिकों के द्वारा व की प्राप्त होता हुआ वहीं हस्तिनापुर में एक श्रेष्ठिकुत में उत्पन्न होगा, वहां सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा, वहां से मर कर सौधम नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां से यब कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा, वहां अगर धर्म को प्राप्त कर यथाविधि संयम की आराधना से कर्मों का (१) छाया - गौतम ! उम्बरदत्ती दारको द्वासप्ततिं वर्षाणि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकतयोपपत्स्यते । संसारस्तथैव यावत् पृथिव्याम् । ततो हस्तिनापुरे नगरे कुकुटतया प्रत्यायास्यति । जातमात्र एव गोष्ठिकर धितस्तत्रैव हस्तिनापुरे नगरे श्रेष्ठ० बोथिं० सौधर्मे० महाविदेहे ० सेत्स्यति ५ । निक्षेपः । ॥ सप्तममध्ययनं समाप्तम् ॥ ० - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४२२] श्री विपाक सूत्र [ सप्तम अध्याय क्षय करके सिद्धपद-मोक्ष को प्राप्त करेगा। केवलज्ञान के द्वारा समस्त पदार्थों को जानेगा, समस्त कर्मों से रहित हो जावेगा, सकलकर्मजन्य मन्नाप से विमुक्त होगा, सब दु.खों का अन्त कर डालेगा । निक्षेप-उपसंहार की कल्पना पूर्व की भान्ति कर लेनी चाहिये । ॥ सप्तम अध्ययन समाप्त ॥ टीका- परम विनीत गौतम स्वामी के अभ्यर्थनापूण प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् ने फरमाया कि हे गौतम ! उम्बरदत्त बालक ७२ वषपर्यन्त इस प्रकार से दुःखानुभव करेगा, अर्थात् ७२ वर्ष की कुल आयु भोगेगा और आर्तध्यान से कर्मबन्ध करता सुश्रा यहां से कालधम को प्राप्त हो कर पहली नरक में उत्पन्न होगा । वहां अनेकानेक कल्पनातीत संकट सहेगा । वहां की दुःखपूर्ण अायु को पूर्ण कर अनेक प्रकार की योनियों में जन्म मरण करता हुआ संसार में रुलेगा । इस प्रकार कर्मों की मार से पीडित होता हुआ यह उम्बरदस का जीव अन्त में पृथिवीकाया में लाखों बार जन्म लेगा, वहां से निकल कर हस्तिनापुर नगर में कुक्कुड़ की योनि में उत्पन्न होगा, परन्तु उत्पन्न होते ही गौष्ठिकों - दुराचारियों के द्वारा वध को प्राप्त हो वह फिर वहीं पर - हस्तिनापुर नगर में नगर के एक प्रतिष्टित सेठ के घर में पुत्ररूप से जन्मेगा, वहां सुखपूर्वक वृद्धि को प्राप्त करता हुआ युवावस्था में साधुओं के पवित्र सहवास को प्राप्त कर के उन के पास दीक्षित हो जायेगा। सा - धुवृत्ति में तपश्चर्या के द्वारा कमों की निर्जरा कर आत्मभावना से भावित हो कर जीवन समाप्त कर सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देव होगा । वहां के अानन्दातिरेक से आनन्दित हो सुखमय जीवन व्यतीत करेगा तथा वहां की आयु समाप्त कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा. वहां पर शैशवावस्था से निकल युवावस्था को प्राप्त कर किसी विशिष्ट संयमो एव ज्ञानी साधु के पास दीक्षा लेकर संयम का अाराधन करेगा, तथा संयमाराधन के द्वारा कों को निर्जरा करता हुआ, कमबन्धनों को तोड़ देगा. जन्म और मरण का अन्त कर देगा तथा निर्वाण पद की प्राप्त कर सिद्ध, बुद्ध, अजर और अमर हो जाएगा। . अनगार श्री गौतम स्वामी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रवचन में उम्बरदत्त के अतीत वर्तमान और अनागत जीवन को सुन कर बहुत विस्मित अथच आश्चर्य को प्राप्त होते हैं, और सोचते हैं कि यह संसार भी एक प्रकार की रंगभूमी या नाट्यशाला है । जहां पर सभी प्राणी नाना प्रकार के नाटक करते हैं । कर्मरूप सूत्रधार के वशीभूत होते हुए प्राणियों को नाना प्रकार के स्वांग धारण करके इस रंगशाला में आना पड़ता है । जीवों द्वारा नाना प्रकार को ऊंच नीच योनियों में भ्रमण करते हुए विविध प्रकार के सुखों और दुःखों की अनुभूत करना ही उन का नाट्यप्रदर्शन है । उम्बरदत्त का जीव पहले धन्वन्तरि वैद्य के नाम से विख्यात हुआ, वहां उस ने अपनी जीवनचर्या से ऐसे करकों को उपार्जित किया कि जिन के फलस्वरूप उसे छठी नरक में जाना पड़ा । वहां की असह्य वेदनाओं को भोग कर वह सेठ सागरदत्त का प्रियपुत्र बना. तथा उसने सेठानी गंगादत्ता की चिरअभिलषित कामना को पूर्ण किया, वहां उसका शैशवकाल बड़ा ही सुखमय बोता, मात . पितृस्नेह का खूब आनन्द प्राप्त किया, परन्तु युवास्था को प्राप्त करते ही इस पर दुःखों के पहाड़ टूट पड़े. माता पिता परलोक सिधार गये, घर से निकाल दिया गया, सारा शरीर रोगों से अभिभत हो गया, और भिखारी बन कर दर २ के धक्के खाने पड़े, तथा इस समय को प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाली भयावह दशा के बाद का जीवन भी बहुत लम्बे समय तक अन्धकारपूर्ण ही बतलाया गया है । इस में केवल हर्षजनक इतनी ही बात है कि अन्त में हस्तिनापुर के श्रेष्ठिकुल में जन्म लेकर बोधि - लाभ के अनन्तर उसे विकास का अवसर प्राप्त होगा और आखिर में वह अपने ध्येय को प्राप्त For Private And Personal Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । कर लेगा। यह संसारी जीवों की लीलाओं का चित्र है, जिन्हें वे इस संसार की रंगस्थली पर निरन्तर करते चले जा रहे हैं, इस विचारपरम्परा द्वारा संसार में रहने वाले जीव की जोवनयात्रा का अवलोकन करने के बाद गौतम स्वामी भगवान् के चरणों में वन्दना करते हैं और इस अनुग्रह के लिये कृतज्ञता प्रकट करके अपने आसन पर चले जाते हैं, वहां जाकर आत्मसाधना में संलग्न हो जाते हैं । पाठकों को स्मरण होगा कि प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में श्री जम्बू स्वामी ने अपने परमपूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मास्वामी से सातवें अध्यन को सुनाने की अभ्यर्थना की थी, जिस की पूर्ति के लिये श्री सुधर्मा स्वामी ने उन्हें प्रस्तुत सातवें अध्ययन का वर्णन कह सुनाया। सातवें अध्ययन को सुना लेने के अनन्तर श्री सुधर्मा स्वामी कहने लगे कि हे जम्बू ! इस प्रकार यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सातवें अध्ययन का अर्थ बतलाया है। मैंने जो कुछ भी तुम्हें सुनाया है, वह सब प्रभुवीर से जैसे मैंने सुना था वैसे ही तुम्हें सुना दिया है, इस में मेरी अपनी कोई भी कल्पना नहीं है। इन्हीं भावों को सूत्रकार ने "निक्खेवो” इस एक पद में अोतप्रोत कर दिया है । निम्खेवा- पद का अथसम्बन्धी ऊहापोह पहले पृष्ठ १८८ पर कर आए हैं। प्रस्तुत में इस पद से जो सूत्रांश अभिमत है, वह निम्नोक्त है - एवं खनु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं दुहविवागाण सत्तमस्स अज्झयणस्स अयमठे पराणत्ते, त्ति बेमि-" इन पदों का अर्थ ऊपर की पंक्तियों में लिखा जा चुका है। "-संसारो तहेव जाव पुढवीए.-" यहां पठित संसार पद संसारभ्रमण का परिचायक है । तथा - तहेव-पद का अर्थ है - वैसे ही अर्थात् जिस तरह प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र का संसारभ्रमण वर्णित हुआ है, वैसे ही यहां पर भी उम्बरदत्त का समझ लेना चाहिये, तथा उसी संसारभ्रमण के संसूचक पाठ को जाव - यावत् पद से ग्रहण किया गया है, अर्थात् जाव-यावत् पद पृष्ठ ८९ पर पढ़े गये "-से णं ततो अणंतरं उव्याहत्ता सरीसवेसु उववजिहिति, तत्थ णं कालं किच्चा दोच्चार पुढवीर-से लेकर -वाउ० तेउ० पाउ० --" यहां तक के पाठ का परिचायक है । तथा-पुढवार०यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ को सूचना पृष्ठ २७५ पर दी जा चुकी है। -सेट्टि० . " यहां के बिन्दु से-कुलंसि पुत्ततार पञ्चायाहिति - इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । तथा – बाहि०, सोहम्मे० महाविदेहे० सिज्झिहिति ५- इन पदों से विवक्षित पाठ की सूचना पृष्ठ ३१२ पर दी जा चुकी है। सारांश यह है कि संसार में दो तरह के प्राणी होते हैं, एक वे जो काम करने से पूर्व उस के परिणाम का विचार करते हैं, उस से निष्पन्न होने वाले हानिलाभ का ख्याल करते हैं । दूसरे वे होते हैं, जो बिना सोचे और बिना समझे ही काम का प्रारम्भ कर देते हैं, वे यह सोचने का भी उद्योग नहीं करते कि इस का परिणाम क्या होगा, अर्थात् हमारे लिये यह हितकर होगा या अहितकर । इन में पहली श्रेणी के लोग जितने सुखी हो सकते हैं, उस से कहीं अधिक दुःखी दूसरी श्रेणी के लोग होते हैं । धन्वन्तरि वैद्य यदि रोगियों को मांसाहार का उपदेश देने से पूर्व, तथा स्वयं मांसाहार एवं मदिरापान करने से पहले यह विचार करता कि जिस तरह मैं अपनी जिहवा के प्रास्वाद के लिए दूसरों के जीवन का अपहरण करता है, उसी तरह यदि कोई मेरे जीवन के अपहरण करने का उद्योग करे तो मुझे उस का यह व्यवहार सह्य होगा या असह्य १, अगर असह्य है तो मुझे भी दूसरों के से अपने मांस को पुष्ट करने का कोई अधिकार नहीं है। "जीवितं यः स्वयं चेच्छेत, कयं सोऽन्यं प्रघातयेत्” इस अभियुक्तोक्ति के अनुसार मुझे इस प्रकार के सावद्य अथच गहिंत व्यवहार For Private And Personal Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४२४ श्री विधाक सूत्र .. [ सप्तम अध्याय तथा अाहार से सर्वथा पृथक रहना चाहिये - तो उस का जीवन इतना संकटमय न बनता । इसलिये प्रत्येक प्राणी को कार्य करते समय अपने भावी हित और अहित का विचार अवश्य कर लेना चाहिये । भावी हिताहित के विचारों को कविता की भाषा में कितना सुन्दर कहा गया है - सोच करे सो सूरमा, कर सोचे सो सूर । बांक सिर पर फूल है, बांके सिर पर धून ॥ इस दोहे में कवि ने कितने उत्तम सारगर्भित विचारों का समावेश कर दिया है। कवि का कहना है कि जो व्यक्ति किसी कार्य को करने से पहले उससे उत्पन्न होने वाले हानि-लाभ को ध्यान में रखता है, उसे दृष्टि से अोझल नहीं होने देता, वह सूरमा --- वीर कहलाता है । इस के विपरीत जो बिना सोचे बिना समझे किसी काम को कर डालता है या किसी भी काम को करने के अनन्तर उसका दुष्परिणाम सामने आने पर सोचता है, वह सूर - अन्धा कहा जाता है । वीर के सिर पर फूलों की वर्षा होती है जबकि अन्धे के सर पर धूल की । इसे एक उदाहरण से समझिए सदाचार की सजीव मूर्ति धर्मवीर सुदर्शन को जब महारानी अभया के आदेश से दासी रम्भा पौषधशाला से चम्पा के राजमहलों में उठा लाती है और सोलह शृगारों द्वारा इन्द्राणी के समान सौन्दर्य की प्रतिमा बनी हुई महाराणी अभया उनके सामने अपने वासनामूलक विचारों को प्रकट करती है तथा हावभाव के प्रदर्शन से उनके मानसमेरु को कम्पित करना चाहती है, तब सेठ सुदशन मन ही मन बड़ी गम्भीरता सोचने लगे - सुदर्शन ! कामवामना मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है, जो सर्वतोभावी पतन करने के साथ २ उस का सर्वस्व भी छीन लेता है। इतिहास इसका पूरा समयक है । रावण त्रिखएडाधिपति था, कथाकार इक लक्ख पूत सवा लक्व नाती, रावण के घर दीया न वाती । यह कह कर उसके परिवार की कितनी महानता अभिव्यक्त करते हैं ?, इस के अतिरिक्त रावण अपने युग का महान विजेता और प्रतापी राजा समझा जाता था । लक्ष्मीदेवी की उस पर पूर्ण कृपा थी. उस की लंका भी सोने से बनी हुई थी। परन्तु हुश्रा क्या ?, एक वासना ने उस का सर्वनाश कर डाला. प्रतिवर्ष उसके कुकृत्यों को दोहराया जाता है, उसे विडम्बित किया जाता है. तथा उसे जलाया जाता है। कहां त्रिखण्डाधिपति रावण और कहां मैं ?. जब वासना ने उस का भी सर्वतोमखी विनाश कर डाला. तो फिर भला मैं किस गणना में हं.. अस्तु महाराणी अभया कितना भी कल कहे. मुझे भूल कर कभी भी वासना के पथ का पथिक नहीं बनना चाहिये । दूसरी बात यह है कि अभया राजपत्नी होने से मेरी माता के तुल्य है। माता के सम्मान को सुरक्षित रखना एक विनीत पुत्र का सवप्रथम कर्तव्य बन जाता है। श्राज तो भला मेरा पौषध ही है, परन्तु मैं तो विवाह के समय - अपनी विवाहिता स्त्री के अतिरिक्त संसार की सब स्त्रियों को माता और बहिन के तुल्य समझंगा-इस प्रतिज्ञा को धारण कर चुका हूँ । तथा शास्त्रों में पानारो की पैनी छुरी कहा है, उस का संसर्ग तो स्वप्न में भी नहीं करना चाहिये, तब महाराणी अभया के इस दुर्गतिमूलक जघन्य प्रस्ताव पर कुछ विचार करू?, यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता, इत्यादि विचारों में निमग्न धमवीर सुदर्शन ने राणी को सदाचार के सत्पथ पर लाने का प्रयास करने के साथ २ उसे स्पष्ट शब्दों में कह दिया For Private And Personal Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित [४२५ वन्दे ने तो जब से जग में कुछ २ होश संभाला है, माता और बहिन सम परनारी को देखा भाला है। मुझ से तो यह स्वप्नतलक में भी आशा मत रखिएगा, तैल नहीं है इस तिलतुष में चाहे कुछ भी करिएगा। स्वत: स्वर्ग से इन्द्राणी भी पतित बनाने श्राजाए, तो भी वज्र मूर्ति सा मेरा मनमेरु न डिगा पाए । पापकर्म के फल से मैं तो हरदम ही भय खाता है, और तुम्हें भी माता जी बस यही भाव समझाता है । (धर्मवीर सुदर्शन में से) सेठ सुदर्शन के उत्तर को सुनकर अभया भड़क उठी, उसने उन को बहुत बुरा भला कहा और अन्त में सेठ सुदर्शन को दण्डित करने के लिये तथा राजा और जनता के सन्मुख अपने आप को सती साध्वी एवं पतिव्रता प्रमाणित करने के लिए उस की ओर से त्रियाचरित्र का भी पूरा २ प्रदर्शन किया गया। परिणाम यह हुआ कि चम्पानरेश अभया के त्रिया चरित्र के जाल में फंस गए और उन्हों ने सेठ जी को शूली पर चढ़ाने का हुक्म दे दिया, परन्तु सेठ सुदर्शन गिरिराज हिमाचल से भी दृढ़ बने हुए थे अत: शूली पर चढ़ते हुए भी सद्भावों के झूले में बड़ी मस्ती में झूल रहे थे । इन्हें कर्तव्य के पालन में आने वाली मृत्यु, मृत्यु नहीं, प्रत्युत मोक्षपुरी की सीढ़ी दिखाई देती थी, इसी लिए वहां पर भी इन का मानस कम्पित नहीं हो पाया। प्राणहारिणी तीक्ष्ण अणी पर सेठ जब वारूढ़ होने लगे ही थे कि तब धर्म के प्रभाव से पल भर में वहां का दृश्य ही बदल गया । लोहशूली के स्थान पर स्वर्णस्तम्भ पर रत्नकान्तिमय सिंहासन दृष्टिगोचर होने लगा। सेठ सुदर्शन उस पर अनुपम शोभा पाने लगे। चम्पानरेश तथा नागरिक उन के चरणों में शीस झुकाने लगे. और देवतागण उन पर पुष्पवर्षा करने लगे। इधर महाराणी अभया ने जब शली को सिंहासन में बदल जाने की बात सुनी तो वह काम्प उठी, सन्न सी रह गई, उस की आंखों से जलधारा बहने लगी, उस का मस्तक चक्र खाने लगा, वह अपने किए पर पछताने लगी कि यदि मैं समझ से काम लेती तो क्यों आज मेरा यह बुरा हाल होता ?, विषय वासना में अन्धी हुई मैंने व्यर्थ में ही सेठ जी को कलंकित किया, पता नहीं राजा मुझे कैसे मारेगा ?, हाय ! हाय !!, क्या करू?. किधर जाऊं १, - इस प्रकार रोने कल्पने और विलाप करने लगी, तथा अन्त में छत्त के साथ रस्सी बान्धकर गल में फांसी लगा कर उसने अपने जीवन का अन्त कर लिया। अभया की आत्महत्या का घृणित वृत्तान्त चम्पा नगरी के घर २ में फैल गया और सर्वत्र उस पर निन्दा एवं पूणा का धूलिप्रक्षेप होने लगा। ___ ऊपर के उदाहरण से कवि का भाव स्पष्ट हो जाता है । अतः जो व्यक्ति सेठ सुदर्शन की तरह किसी भी काम को सोच समझ कर करता है तो उस पर फलों की वर्षा होती है अर्थात उस का सर्वत्र मान होता है और जो अभया राणी को भांति बिना समझे और बिना सोचे कोई काम करेगा तो उस पर धूलिप्रक्षेप होगा अर्थात् उस का सर्वत्र अपवाद होगा, और वह प्रस्तुत अध्ययन में वर्णित धन्वन्तरि वैद्य की भांति दुर्गतियों में नानाप्रकार के दुःखों का उपभोग करने के साथ २ जन्म मरण के प्रवाह में प्रवाहित होता रहेगा। ॥ सप्तम अध्ययन समाप्त ॥ For Private And Personal Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अथ अष्टम अध्याय ज्ञानी और अज्ञानी की विभिन्नता का दिग्दर्शन कराते हुए सूत्रकार ने लिखा है कि शानी वही कहला सकता है जो अहिसक' है, अर्थात् हिंसाजनक कृत्यों से दूर रहता है । अज्ञानी वह है जो अहिंसा से दूर भागता है और अपने जीवन को हिंसक और निदयतापूर्ण कार्यों में लगाये रखता है। ज्ञानी और अज्ञानी के विभेद के कारण भी विभिन्न हैं । ज्ञानी तो यह सोचता रहेगा कि जो अपने जीवन को सुरक्षित रखना चाहता है, वह दूसरों के जीवन का नाश किस तरह से कर सकता है ?, क्योकि विचारशील व्यक्ति जो कुछ अपने लिये चाहता है वह दूसरों के लिये भी सोचता है । तात्पर्य यह है कि मनुष्यता का यही अनुरोध है कि यदि तुम सुखी रहना चाहते हो तो दूसरों को भी सुखी बनाने का उद्योग करो १, इसी में आत्मा का हित निहित है, विपरीत इसके अज्ञानी यह सोचेगा कि वह स्वयं सुखी किस तरह से हो सकता है ?. उसका एक मात्र ध्येय स्वार्थपर्ति होता है, कोई मरता है तो मरे, उसे इसकी पर्वाह नहीं होती कोई उजडता है तो उजड़े उसकी उसे चिन्ता नहीं होने पाती। उसे तो अपना प्रभुत्व और ऐश्वर्य कायम रखने की ही चिन्ता रहती है । इस के अतिरिक्त ज्ञानी जहां परमार्थ की बातें करेगा वहां अज्ञानी अपने ऐहिक स्वार्थ का राग आलापेगा । फलस्वरूप ज्ञानी आत्मा कर्मबन्ध का विच्छेद करता है जब कि अज्ञानी कर्म का बन्ध करता है । प्रस्तुत अष्टम अध्ययन में शौरिकदत्त नामक एक ऐसे अज्ञानी व्यक्ति के जीवन का वर्णन है जो अपने अज्ञान के कारण श्रीद रसोईए के भव में अनेकविध मूक पशुओं के जीवन के नाश करने के अतिरिक्त मांसाहार एवं मदिरापान जैसी दुर्गतिप्रद जघन्य प्रवृत्तियों में अधिकाधिक पापपुज एकत्रित करता है, और फलस्वरूप तीव्रतर अशुभकर्मों का बन्ध कर लेता है और उन का फल भोगते समय अत्यधिक दु:खी होता है। सूत्रकार उसका प्रारम्भ इस प्रकार करते हैं मृल-अट्ठमस्स उक्खेवो । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ सोरियपुरंणगरं होत्था । सोरियवडिंसगं उज्जाणं । सोरियो जक्खो । सोरियदत्ते राया। तस्स णं सोरिय पुरस्स णगरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाएं एगे मच्छवन्धयाडा होत्था । तत्थ णं समुद्ददत्ते नाम (१) एवं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंचण। अहिंसासमयं चेव, एयावंतं वियाणिया || (सूयगडांगसूत्र, १-४-१०) । अर्थात् किसी जीव को न मारना यही ज्ञानी पुरुष के ज्ञान का सार है । अतः एक अहिंसा द्वारा ही समता के विज्ञान को उपलब्ध किया जा सकता है। जैसे मु के दुख अप्रेय है, वैसे दूसरे प्राणियों को भी वह अप्रिय है, इन्हीं भावों का नाम समता है। (२) जीवितं यः स्वयं चेच्छेत् , कथं सोऽन्यं प्रघातयेत् । यद् यदात्मनि चेच्छेत् . तत्परस्यापि चिन्तयेत् । (३) छाया-अष्टमस्योत्क्षेपः । एवं खलु जम्बू · ! तस्मिन् काले २ शौरिकपुरं नगरमभवत् । शौरिकावतंसकमुद्यानम् । शौरिको यक्षः । शौरिकदत्तो राजा । तस्मात् शौरिकपुराद् नगराद् बहिः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे एको मत्स्यबन्धपाटकोऽभूत् । तत्र समुद्रदत्तो नाम मत्स्यबन्धः परिवसति, अधार्मिको यावद् दुष्प्रत्यानन्दः । तस्स समुद्रदत्तस्य समुद्रदत्ता भार्याऽभूदहीनः । तस्य समुद्रदत्तस्य मत्स्यबन्धस्य पुत्रः समद्रदत्ताया भार्याया आत्मजः शौरिकदत्तो नाम दारकोऽभवदहीन । हसइ किचण। For Private And Personal Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। [४२७ मच्छंधे परिवसति, अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे । तस्स णं समुद्ददत्तस्स समुद्ददत्ता भारिया होत्था, अहीण । तस्स णं समुद्ददत्तस्स मच्छंधस्स पुत्ते समुद्ददलाए भारियाए अत्तए सोरियदत्ते नामं दारए होत्था, अहीण । पदार्थ-अट्ठमस्ल-अष्टम अध्ययन का । उक्वेवो-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् समझ लेना चाहिये । एवं खजु-इस प्रकार निश्चय ही। जंबू!-हे जम्बू !। तेणं कालेणं २-उस काल और उस समय में। सोरियपुर-शौरिकपुर नाम का । णगरं होत्था-नगर था, वहां । सोरियवडिंसगं-शौरिकावतंसक नामक । उज्जाणं-उद्यान था, उस में । सोरियो जक्खो-शौरिक नामक यक्ष था अर्थात् शौरिक यक्ष का वहां पर स्थान था। सोरियदत्त राया-शौरिक दत्त नामक राजा था। तस्स णं-उस । सोरियपरस्स-शौरिकपुर णगरस्स-नगर के । वहिया–बाहिर । उत्तरपुरस्थिमे-उत्तर पूर्व। दिसीभाए-दिग्विभाग में अर्थात् ईशान कोण में । एगे-एक । मच्छंधपाडर-मत्स्यबन्धपाटक-मच्छीमारों का मुहल्ला। होत्था-था। तत्थ णं-वहां पर । समुददत्त'- समुद्रदत्त । नाम-नाम का । मच्छंधे--मत्स्यबन्ध-मच्छीमार । परिवसति-रहता था, जो कि । अहम्मिए-अधार्मिक । जाव-यावत् । दुप्पडियाणंदे-दुष्प्रत्यानन्द - बड़ी कठिनाई से प्रसन्न होने वाला था। तस्स णं-उस । समुद्ददत्तस्स-समुद्रदत्त की। समुद्ददत्तासमुद्रदत्ता नाम की। भारिया--भार्या । होत्था-थी, जोकि । अहीण-अन्यून एवं निदोष पांच इन्द्रियों से युक्त शरीर वाली थी। तस्स णं-उस । समुद्ददत्तस्त-समुद्रदत्त । मच्छंधस्स-मत्स्यबन्ध का । पुत्ते-पुत्र । समुदत्तार--समुद्रदत्ता। भारियाय.-भार्या का । अत्तर -आत्मज । सोरियदत्त -शौरिकदत्त । नाम--नाम का । दारए-दारक-- बालक । होत्था-था, जोकि । अहीणअन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रियों से युक्त शरीर वाला था। मूलार्थ-अष्टम अध्ययन के उत्क्षेप-प्रस्तावना की भावना पूर्ववत् कर लेनी चाहिये। हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में शौरिकपुर नाम का एक नगर था, वहां शौरिकावतंसक नाम का उद्यान था, उस में शौरिक नामक यक्ष का आयतन - स्थान था, वहां के राजा का नाम शौरिकदत्त था । शौरिकपुर नगर के बाहिर ईशान कोण में एक मत्स्यबंधों-मच्छीमारों का पाटक-मुहल्ला था, वहां समुद्रदत्त नाम का मत्स्यबंध-मच्छीमार निवास किया करता था जोकि अधमा यावत् दुष्प्रत्यानन्द था। उमकी समुद्रदत्ता नाम की अन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रियों से युक्त शरीर वाली भार्या थी, तथा इनके शौरिक दत्त नाम का एक सोंगसम्पूणे अथव परम सुन्दर बालक था। टीका-चम्पा नगरी के बाहिर पूर्णभद्र चैत्य-उद्यान में आर्य सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य परिवार के साथ विराजमान हो रहे हैं । नगरी की भावुकजनता उनके उपदेशामृत का प्रतिदिन नियमित रूप से पान करती हुई अपने मानवभव को कृतार्थ कर रही है। श्रार्य सुधर्मा स्वामी के प्रधान शिष्य श्री जम्बू स्वामी उनके मुखारविन्द से दुःखविपाक के सप्तम अध्ययन का श्रवण कर उसके परमार्थ को एकाग्र मनोवृत्ति से मनन करने के बाद विनम्र भाव से बोले कि हे भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर स्वामी के द्वारा प्रतिपादित सप्तम अध्ययन के अर्थ को तो मैंने आपश्री के मुख से श्रवण कर लिया है, जिस के लिये मैं आपश्री का अत्यन्तात्यन्त कृतज्ञ हूं, परन्तु मुझे अब दुःखविधाक के अष्टम अध्ययन के श्रवण की उत्कण्ठा हो रही है । अत: श्राप दु:खविपाक के आठवें अध्ययन के अर्थ को सुनाने की कृपा करें, जिसे कि आपने श्रमण भगवान महावीर स्वामी की पर्युपासना में रहकर श्रवण किया है-इन्हीं भावों को सूत्र. कार ने अहमस्स उक्खेवो-इतने पाठ में गर्भित कर दिया है। For Private And Personal Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४२४1 श्री विप क सूत्र [ अष्ठम अध्याय जम्बू स्वामी की उक्त प्रार्थना के उत्तर में अष्टम अध्ययन के अर्थ का श्रवण कराने के लिये आर्य सुधर्मा स्वामी प्रस्तुत अध्ययन का "-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं -" इत्यादि पदों से प्रारम्भ करते हैं । आर्य सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि हे जम्बू ! जब इस अवसर्पिणी काल का चौथा आरा बीत रहा था, तो उस समय शौरिकपुर नाम का एक सुप्रसिद्ध और समृद्धिशाली नगर था । वहां विविध प्रकार के धनी, मानी, व्यापारी लोग रहा करते थे । उस नगर के बाहिर शौरिकावतंसक नाम का एक विशाल तथा रमणीय उद्यान था । उस में शौरिक नाम का एक बड़ा पुराना और मनोहर यक्षमन्दिर था । नगर के अधिपति का नाम महाराजा शौरिकदन था, जो कि पूरा नीतिज्ञ और प्रजावत्सल था । शौरिकपुर नगर के उत्तर और पूर्व दिशा के मध्य में अर्थात् ईशान कोण में मत्स्यबंधपाटक-अर्थात् मच्छियों को मार कर तथा उनके मांस आदि को बेच कर आजीविका करने वालों का एक मुहल्ला था । उस मुहल्ले में समुद्रदत्त नाम का एक प्रसिद्ध मत्त्यबन्ध - मच्छीमार रहा करता था, जो कि महान् अधर्मी तथा पापमय कर्मा में सदा निरत रहने वाला, एवं जिस को प्रसन्न करना अत्यधिक कठिन था । उस को समुद्रदत्ता नाम की भार्या थी जो कि रूप लावण्य में अत्यन्त मनोहर, गुणवती और पतिपरायणा थी । इन के शौरिकदत्त नाम का एक पुत्र था जोकि सुसंगठित शरीर वाला और रूपवान था, उस के सभी अंगोपांग सम्पूर्ण अथच दशनीय थे, परन्तु वह भी पिता की तरह मांसाहारी और मच्छियों का व्यापार करता हुआ जीवन व्यतीत किया करता था। -अट्ठमस्स उक्खेवो- यहां प्रयुक्त अष्टम शब्द अष्टमाध्याय का परिचायक है और उत्क्षेप पद प्रस्तावना, उपोद्घात. प्रारम्भ वाक्य- इत्यादि अर्थों का बोधक है । प्रस्तुत में उत्क्षेप पद से संसूचित प्रस्तावनारूप सूत्रांश निम्नोक्त है जति णं भंते ! समणेणं जाव सम्पत्तणं सत्तमम्स अभयणस्स अयम8 पण्णत्त, अट्ठमस्त णं भंते ! अज्झयणम्स दुहविवागाणां समणेणं जाव सम्पत्तणं के अटे परणत्ते ?- अर्थात् हे भगवन् ! यदि दुःखविपाक के सप्तम अध्ययन का यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन् ! यावत् मोक्ष-सम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के अष्टम अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ।, अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे - यहां पठित जाव-यावत् पद से अभिमत पाठ का विवर्ण पृष्ठ ५५ पर, तथा प्रथम - समुद्रदत्ता के पाठ में पठित-अहीण- के बिन्दु से अभिमत पाठ पृष्ठ १०५ की टिप्पण में, तथा शौरिकदत्त के सम्बन्ध में पटित-अहीर- के बिन्दु से अभिमत पाठ पृष्ठ १२० पर लिखा जा चुका है। अब सूत्रकार शौरिकपुर नगर में भगवान् महावीर स्वामी के पधारने और भगवान् गौतम द्वारा देखे गये एक करुणाजनक दृश्य आदि का वर्णन करते हैं - मूल-तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव, गो। तेणं कालेणं २ समणस्स (१) पाटक नाम मुहल्ले का है, उस पाटक अर्थात् मुहल्ले में अधिक संख्या ऐसे लोगों की थी जो मच्छियों को मार कर अपना निर्वाह किया करते थे, इसीलिए उस मुहल्ले का नाम मत्स्यबन्धों मच्छी मारने वालों) का पाटक-मुहल्ला पड़ गया था। (२) छाया- तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी समवसृतो, यावद गतः । तस्मिन् काले २ श्रमणस्य For Private And Personal Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। ___ [४२९ भगवत्रो महावीरस्स जेडे जाव सोरियपुरे णगरे उच्चनीयमज्झिमकुले अडमाणे अहापज्जत्तं समुदाणं गहाय सोरियपुराओ णगरायो पडिनिक्खमति २ तस्स मच्छंधपाडगस्स अदरसामंतेणं वीइवयमाणे महतिमहालियाए मणुस्सपारसाए मझगयं एगं पुरिसं सुक्खं भुक्ख णिम्मंसं अद्विचम्मावणद्ध किडिकिडियाभूयं णीलसाडगनियत्थं मच्छकंटएणं गलए अणुलग्गेणं कट्ठाई कलुणाई वीसराई उक्कूवमाणं अभिक्खणं २ पूयकवले य रुहिरकवले य किमिकवले य वममाणं पासति २ इमे अज्झथिए ५ समुप्पन्ने-अहो णं इमे पुरिसे पुरा जाब विहरांत । एवं संपेहेति २ जेणेव समणे भगवं जाव पुव्वभवपुच्छा वागरणं । पदार्थ-तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल और उस समय में । सामी- स्वामी-भ्रमण भगवान् महावीर । समोसढे-पधारे । जाव-यावत् अर्थात् परिषद् और राजा । गो-चला गया । तेणं कालेणं २-उस काल और उस समय में । समणस्स - श्रमण । भगवो भगवान् । महावीरस्स - महावीर स्वामी के । जेठे- ज्येष्ठ शिष्य गौतमस्वामी । जाव- यावत् । सोरियपुरे-शौरिकपुर । णगरेनगर में । उच्चनीयमज्झिमकुले-उच्च नीच तथा मध्यम -- सामान्य गृहों में । अडमाणे-भ्रमण करते हुए । अहापज्जनं-यथेष्ट । समुदाणं- समुदान - गृहसमुदाय से प्राप्त भिक्षा । गहाय-ग्रहण करके । सोरियपुराओ - शौरिकपुर । णगराओ-नगर से । पडिनिकमति २-निकलते हैं निकल कर । तस्स-उस मच्छंधपाडगस्स-मत्स्यबंधों - मच्छीमारों के पाटक मुहल्ले के। अदूरसामतेणं-समीप से । वीइवयमाणे - गमन करते हुए । महतिमहालियार-बहुत बड़ी । मणुस्सपरिसाए- मनुष्यों की परिषद् - समुदाय के । मझगयं-मध्यगत । एगं-एक । पुरिसं-पुरुष को । सुक्खं -सूखे हुए को । भुक्खं-बुभुक्षित को। णिम्मसं-निमांस-मांसरहित को। अछिचम्मावणद्ध - अतिकृश होने के कारण जिस का चर्म-चमड़ा हड्डियों से संलग्न है-चिपटा हुआ है । किडिकिडियाभूयं-जो किटिकिटिका शब्द कर रहा है। णीलसाडगनियत्यं-नीलशाटकनिवसित नील शाटक-धोती धारण किये हुए मच्छकंट. एणं-मत्स्यकंटक के । गलए-गल में - कण्ठ में । अणुलग्गणं - लगे होने के कारण । कटाई- कष्टात्मक । कलुणाई -- करुणाजनक । वीसराई--विस्वर दीनतापूर्ण वचन । उक्त्र माणं-बोलते हुए को, तथा । श्रमिक वर्ण २-बार बार । प्रयकवले य पीब के कवलो कल्लों का । रुहिरकत्रले य--रुधिरक खून के कुल्लों का । किमिकवले य- कृमिकवलों-कीड़ों के कुल्लो का । वममाणं-वमन करते हुए को । पासति २ – देखते हैं, देख कर । इने- यह । अझस्थिर ५---प्राध्यात्मिक संकल्प ५ । समुप्पन्ने -उत्पन्न हुअा | अहो -- खेद है, कि । अयं- यह । पुरिले -पुरुष । पुरा- पुरातन । जाव- यावत् । विहरति-विहरण कर रहा है। एवं-इस प्रकार । संपेहेति २-विचार करते हैं, विचार कर। जेणेवजहां । समणे-श्रमण । भगवं भगवान् महावीर स्वामी थे। जाव - यावत् । पुत्वभवपुच्छापूर्वभव की पृच्छा की। वागरणं- भगवान् का प्रतिपादन । भगवतो महावीरस्य ज्येष्ठो यावत् शौरिकपुरे नगरे उच्चनीचमध्यमकुलेऽटन् यथापर्याप्त समुदानं गृहीत्वा शौरिकपुराद् नगरात् प्रतिनिष्कामति २ तस्य मत्स्यबंधपाटकस्यादूरासन्ने व्यतिव्रजन् महातिमहत्यां मनु. ध्यपरिषदि मध्यगतमेकं पुरुषं शुष्क, बुभ क्षतं निर्मासमस्थिचविनद्धं किटिकिटिकाभूतं, नीलशाटक निवसितं मत्स्यकंटकेन गलेऽनुलग्नेन कष्टानि करुणानि विस्वराणि उत्कूर्जतमभीक्ष्णं २ पूयकवलांश्च, साधरकवलाश्च, कृमिकवलांश्च वमन्तं पश्यति २ अयमाध्यात्मिकः २ समुत्पन्न:--अहो ! अयं पुरुषः यावद् विहरति । एवं सम्प्रेक्षते २ यत्रैव श्रमणो भगवान् यावत् पूर्वभवपृच्छा, व्याकरणम् । For Private And Personal Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४३० ] श्री विपाक सूत्र - । अष्टम अध्याय __ मूलार्थ-उस काल और उस समय शौरिकावतंसक नामक उद्यान में श्रमण भावान् महावीर स्वामी पधारे । यावत् परिषद् और राजा वापिस चले गये । उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ-प्रधान शिष्य गौतम स्वामी यावत् शौरिकपुरनगर में उच्च -धनो, नीचनिर्धन तथा मध्य-सामान्य घरों में भ्रमण करते हुए यथेष्ट आहार लेकर नगर से बाहिर निकलते हैं, तथा मत्स्यबंधपाटक के पास से निकलते हुए उन्हों ने अत्यधिक विशाल मनुष्यसमुदाय के मध्य में एक सूखे हुए, बुभुक्षित, निर्मोंस और अस्थिवर्मावनद्ध -जिस का चर्म शरीर की हड्डियों से चिपटा हुआ. उठते बैठते समय जिस की अस्थिएं किटिकिटिका शब्द कर रही हैं, नीलो शाटक वाले एवं गले में मत्स्यकंटक लग जाने के कारण कष्टात्मक, करुणाजनक और दीनतापूर्ण वचन बोलते हुए पुरुष को देखा, जो कि पूयकवलों, रुधिरकवलों और कुमिकवलों का वमन कर रहा था। उस को देख कर उन के मन में निम्नोक्त संकल्प उत्पन्न हुश्रा अहो ! यह पुरुष पूर्वकृन यावत् कर्मों से नरकतुल्य वेदना का उपभोग करता हुआ समय बिता रहा है-इत्यादि विचार कर नगार गौतम श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास यावत् उसके पूर्वभव की पृच्छा करते हैं । भगवान् प्रतिपादन करने लगे । टीका -एक बार शौरिकपुर नगर में चरम तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे, वे शौरिकावतंसक उद्यान में विराजमान हुए । शौरिकपुर निवासियों ने उन के पुनीत दर्शन और परमपावनी धर्मदेशना से भरि २ लाभ उठाया । प्रतिदिन भगवान् की धर्मदेशना सुनते और उस का मनन करते हुए अपने आत्मा के कल्मष - पाप को धोने का पुण्य प्रयत्न करते । एक दिन भगवान् की धर्मदेशना को सुन कर नगर की जनता जब वापिस चली गई तो भगवान् के ज्येष्ठ शिष्य श्री गौतम स्वामी जो कि भगवान् के चरणों में विराजमान थे - बेले के पारणे के निमित्त नगर में भिक्षा के लिये जाने की आज्ञा मांगते हैं । श्राज्ञा मिल जाने पर गौतम स्वामी ने शौरिकपुर नगर की ओर प्रस्थान किया । वहां नगर में पहुँच साधुवृत्ति के अनुसार आहार की गवेषणा करते हुए धनिक और निधन आदि सभी घरों से यथेष्ट भिक्षा लेकर शौरिकपुर नगर से निकले और आते हए समीपवर्ती मत्स्यबंधपाटक-मच्छीमारों के महल्ले में उन्हों ने एक पुरुष को देखा। उस मनुष्य के चारों ओर मनुष्यों का जमघट लगा हुआ था । वह मनुष्य शरीर से बिल्कुल सूखा हुआ, बुभुक्षित तथा भखा होने के कारण उस के शरीर पर मांस नहीं रहा था, केवल अस्थिपंजर सा दिखाई देता था हिलने चलने से उस के हाड किटिकिटिका शब्द करते, उस के शरीर पर नीले रंग की एक धोती थी, गले में मच्छी का कांटा लग जाने से वह अत्यन्त कठिनाई से बोलता, उस का स्वर बड़ा ही करुणाजनक तथा नितान्त दीनतापूर्ण था । इस से भी अधिक उसकी दयनीय दशा यह थी कि वह मुख में से पूय रुधिर और कृमियों के कवलों - कुल्लों का वमन कर रहा था । उसे देख कर भगवान् गौतम सोचने लगे - श्रोह ! कितनी भयावह अवस्था है. इस व्यक्ति की । न मालुम इसने पूर्वभव में ऐसे कौन से दुष्कर्म किये हैं, जिन के विपाकस्वरूप यह इस प्रकार की नरकसमान यातना को भोग रहा है ?, अस्तु, इस के विषय में भगवान् से चल कर पूछेगे-इत्यादि विचारों में निमग्न हुए गौतम स्वामी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में उपस्थित होते हैं । वहां आहार को दिखा तथा आलोचना आदि से निवृत्त हो कर वे भगवान् से इस प्रकार बोले - प्रभो ! आप श्री की आज्ञानुसार मैं नगर में पहुंचा, वहां गोचरी के निमित्त भ्रमण करते हुए For Private And Personal Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित [४३१ मैंने ने एक व्यक्ति को देखा इत्यादि । उस दृष्ट व्यक्ति की सारी अवस्था को गौतम स्वामी ने कह सुनाया । तदनन्तर वे फिर बोले - भगवन् ! वह दु:खी जीव कौन है ?, उसने पूर्वभव में ऐसे कौन से अशुभ कर्म किये हैं. जिन का कि वह यहां पर इस प्रकार का फल भोग रहा है ?. गौतम स्वामी को उक्त जिज्ञासा का ध्यान रखते हुए उस के उत्तर में भगवान् महावीर स्वामी ने जो फरमाया उस का विवर्ण अग्रिम सूत्रों में किया गया है । -सुक्खं, भुक्खं-इत्यादि पदों की व्याख्या निम्नोक्त है१-सुक्खं-शुष्कम् - अर्थात् रुधिर के कम हो जाने के जो सूख रहा हो उसे शुष्क कहते हैं । २-भुक्खं बुभुक्षितम् अर्थात् भुक्ख यह देश्य देशविशेष में बोला जाने वाला पद है, जो बुभुक्षित इस अर्थ का परिचायक है । क्षुधा - भख से पीडित व्यक्ति बुभुक्षित कहलाता है । -जिम्मंसं निमोसम - भोजन दि के अभाव से जो मांस से रहित हो रहा है उसे निर्मास कहते हैं। ४-अट्टिचम्मावणद्धं – अस्थिचावनम् - अतिकत्वादस्थिसंलग्नचर्मकमित्यर्थ:अर्थात् अतिकृश हो जाने के कारगा जिसका चर्म - चमड़ा अस्थियों--- हड्डियों से अवनद्ध-चिपट रहा र्य यह है कि मांस और रुधिर की अत्यधिक क्षोणता के कारण जो अस्थिचर्मावशेष दिखाई पड़ रहा है वह अस्थिचौवनद्ध कहा जाता है । ५-किडिकिडियाभूयं-किटि किटिकाभूतम् , अतिकृशत्वादुपवेशनादिक्रियायां किटिकिटिकेति शब्दायमानास्थिम- अर्थात अतिकश -दर्बल हो जाने के कारण बैठने और उठने आदि की क्रिया से जिस की अस्थिए किटिकिटिका-ऐसे शब्द करती हैं, इसलिए उसे किटिकिटिकाभत कहा जाता है । ____६--णीलसाडगनियत्थं - नीलशाटकनिवसितम् , नोलशाटकं - नोलपरिधानवस्त्रं, निवसितं परिहितं येन यस्य वा स तमिति भावः- अर्थात् जिस ने नीले वर्ण का शाटक-धोती या सामान्य पहरने का वस्त्र धारण कर रखा है, वह नीलसाटकनिसित कहलाता है : इस पद में भगवान् गौतम ने जिस पुरुष को देखा है, उस के परिधानीय वस्त्र का परिचय कराया है। (७) मच्छकराटएणं गलर अणुलागणं --मत्स्यकंटकेन गलेऽनुलग्नेन कराउप्रविष्टे नेत्यर्थः--, अर्थात् ये पद-मत्स्यकएटक के कण्ठ में प्रविष्ट हो जाने के कारण - इस अर्थ के परिचायक हैं। मत्स्य का कांटा मत्स्य कराटक कहलाता है । मत्स्ट का कांटा बड़ा भीषण होता है, वह यदि कण्ठ में लग जाए तो उस का निकलना अत्यधिक कठिन हो जाता है । ८-कष्ट, करुण, विस्वर तथा पूयकवल रुधिरकवल और कृमिक वल इन शब्दों का अर्थ पीछे पृष्ठ ३८० पर लिखा जा चुका है । प्रस्तुत में सुकावं इत्यादि पद द्वितीयान्त हैं अतः अर्थसंकलन में मूलार्थ की भान्ति द्वितीयान्त की भावना कर लेनी चाहिये । समोसढे जाव गो-यहां पठित जाव-यावत पद पृष्ठ २०४ पर पढे गये-परिसा निग्गया राया निग्ग प्रो, धम्मो कहिया परिसा राया य पडि- इन पदों का परिचायक है। ___ -जेह जाव सोरियपुरे- यहां पठित जाव --यावत् पद - अन्तेवासी गोयमे छक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए झाणं झियाइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियमचवलसंभंते मुहपोत्तियं पडिले हेति-से लेकर-दिहीए पुरुओ रियं सोहेमाणे जेणेव-इन पदों का For Private And Personal Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४३२] श्री विपाक सूत्र-- [अष्टम अध्याय परिचायक है।-छक्खमणपारणगंसि-इत्यादि पदों का अर्थ पृष्ठ १२३ पर लिखा गया है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां वाणिजग्राम नगर का उल्लेख है जब कि प्रस्तुत में शौरिक नगर का । शेष वर्णन समान ही है। -अज्झथिए ५ . यहां पर दिये गये ५के अंक से विवक्षित पाठ की सूचना पृष्ठ १३३ पर दी जा चुकी है । तया -पुरा जाव विरहति - यहां पठित जाव-यावत् पद से पृष्ठ ४७ पर पढ़े गये-पोराणाणं दुच्चिराणाणं दुप्पडिकन्ताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणे- इन पदों का परिचायक है । __ - भगवं जाव पुव्वभवपुच्छा वागरणं- यहां पठित-जाव-यावत् पद-महावीरे तेणेव उवागात २ समणस्स भगवो महावीरस्स 'अदूरसामन्ते गमणागमणार पडिक्कमइ २ एसणमणेसणे आलोएड् २ भत्तपाणं पडिदंसति, समणं भगवं महावीरं वंदति णमंसति वन्दित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं भन्ते ! तुब्भेहिं अब्भणुराणाते समाणे सोरियपुरे नयरे उच्चनीयमझमकुिले अडमाणे अहापज्जत्त समुदाणं गहाय सोरियपुराओ-से लेकर - किमिकवले य वममाणं पासामि पासित्ता इमे अज्झथिए-से ले कर -- जाव-विहरति- यहां तक के पदों का परिचायक है । तथा-पुथ्वभवपुच्छा यह पद पृष्ठ ५१ पर पढ़े गये -से णं भन्ते ! पुरिसे पुत्वभवे के श्राति १- से लेकर .. पुरा पोराणाणं जाव विहरति-- यहां तक के पदों का परिचायक है। वागरणं-का अर्थ है - भगवान् का उत्तररूप में प्रतिपादन । भगवान् गौतम का भिक्षा लेकर आना, आकर आलोचना करना और साथ में ही उस दुःखी व्यक्ति के पूर्वभवसम्बन्धी वृत्तान्त को पूछना, इस बात को प्रमाणित करता है कि उस दृश्य से श्रनगार गौतम स्वामी इतने प्रभावित हुए कि उन्हें अपने पारणे का भी ध्यान नहीं रहा, और यदि रहा भी हो तो भी उस भयंकर अथच करुणाजनक दृश्य ने उन्हें इस बात पर विवश कर दिया कि पारणे से पूर्व ही उस विचारे की जीवनी को अवगत कर लिया जाए. ऐसा समझना। प्रस्तुत सूत्र म प्रस्तुत अध्ययन के प्रधान पात्रों का परिचय कराया गया है, और सा में गौतम स्वामी द्वारा देखे गये एक दुःखी पुरुष का वर्णन तथा उसके विषय में गौतम स्वामी के प्रश्न का उल्लेख भी किया गया है । अब अग्रिमसूत्र में भगवान् के द्वारा प्रस्तुत किये गये उत्तर का वर्णन किया जाता है - मल-3एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेणं २ इहेव जंबुद्दीवे दीवे मारहे वासे णंदिपुरे ११) अदूरसामन्ते इत्यादि पदों का अर्थ पृष्ठ १३३ पर किया जा चका है । (२) ये पद पृष्ठ ४२९ पर उल्लिखित है । अन्तर मात्र इतना है कि पडिनिक्खमति के स्थान पर पडिनिखमामि- यह समझ लेना । (३) छाया-एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले २ इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे नन्दिपुर नाम नगरमभवत् । मित्रो राजा, तस्य श्रीदो नाम महानसिकोऽभूदधार्मिको यावद् दुष्प्रत्यानंदः । तस्य श्रीदस्य महानसिकस्य बहवो मात्स्यिकाश्च वागुरिकाश्च शाकुनिकाश्च दत्तभृतिभक्तवेतनाः कल्याकल्यि बहून् लक्षणमत्स्यांश्च यावत् पताकातिपताकांश्च अजांश्च यावद् महिषांश्च तित्तिराँश्च यावद् मयूरांश्च जीविताद् व्यपरोपयन्ति व्यपरोप्य श्रीदाय महानसिकायोपनयन्ति । अन्ये च तस्य बहव तित्तिराश्च यावद् मयूराश्च पञ्जरे सन्निरुद्धास्तिष्ठन्ति । अन्ये च बहवः पुरुषाः दत्तभृतिभक्तवेतनाः तान् बहून् तित्तिरांश्च यावद् मयूरांश्च जीवित एव निष्पक्षयन्त निष्पक्षयित्वा श्रीदाय महानसिकायोपनयन्ति । ततः स श्रीदो महानसिको बहूनां जलचरस्थलच. रखचराणां मांसानि कल्पनीकल्पितानि करोति, तद्यथा-सूक्ष्मखंडितानि च वृत्तदीर्घहस्वखण्डितानि हिमपक्कानि For Private And Personal Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । (४३३ मंगरे हत्था । मित्ते राया । तस्स गं मित्तस्स सिरीए नामं महाणसिए होत्था । हम्पिए जाव दुष्पडियाणंदे | तस्स णं सिरीयस्स महाणसियस्स बहवे मच्छिया य वागुरिया य साउथियाय दिन्नभतिभत्तवेयणा कल्लाकुल्लि बहवे सहमच्छा य जाव पडागातिपडागे य अए य जाव महिसे यतित्तिरे य जाव मयूरे य जीविताओ ववरोवेंति ववशेवेत्ता सिरीयस्स महासिस्स उवर्णेति । अन् य से बहवे तित्तिरा य जाव मऊरा य पंजरंसि सनिरुद्धा चिट्ठ' ति I यह पुरसादिन्नभतिभत्तवेयणा ते बहवे तित्तिरे य जाव मऊरे य जीवन्ते चेव निष्पंखेति निष्खेत्ता सिरीयस्स महाणसियस्स उवसेंति । तते गं से सिरीए महाणसिए बहू जलयरथलयरखहयराणं मंसाई कप्पणीकप्पियाई करेति, तंजहा सरहखंडियाणि य वट्ट - दीर खंडियाणि य हिमपक्काणि य जम्पघम्ममारुयपक्काणि य कालागि य हेरंगाणि य मट्ठाय आमलगरसियाणि य मुद्दिया - कविट्ठ - दालिमरसियाणि य मच्छरसियाणि य तलियाणि य भज्जियाणि य सोल्लियाणि य उचक्खडावेति । अन् य बहवे मच्छरसए य एज्जरसए य तित्तिर० जाव मयूररसए य, अन्नं च विउलं हरियसागं उवक्खडावेति २ मित्तस्स रएणो भोयणमंडवंसि भोयणवेलाए उवणेइ । अपणा वि य णं से सिरीए महाणसिए तेसिं च बहूहिं जाव जलयरथलयरखहयरमंसेहिं रसएहि य हरियसागेहि य सोल्लाह य तलिएहिय भज्जिएहि य सुरं च ६ श्रसाएमाणे ४ विहरति । तते गं से सिरीए महासिए एकम्मे ४ सुबहु पावकम्मं समज्जिणित्ता तेत्तीसं वाससयाई परमाउं पालइत्ता कालमा से ari faar aste पुढवीए उववन्ने । 1 पदार्थ - एवं खलु - इस प्रकार निश्चय ही । गोतमा ! - हे गौतम! । तेणं कालेणं २ – उस काल और उस समय । जंबुद्दीवे - जम्बूद्वीप नामक । दीवेद्वीप के अन्तर्गत । भारहे वासे - भारतवर्ष में | दिपुरे - नन्दिपुर । गामं - नाम का । खगरे- -नगर । होत्था - था, वहां । मित्ते - मित्र नाम का । राया - राजा था। तस्स गं - उस । मित्तस्स - मित्र राजा का। सिरीए - श्रीद या श्रीयक। नाम-नाम का | महारासिए - महानसिक रसोइया । होत्था - था, जो कि । श्रहम्मिए अधर्मी । जाव - यावत् । दुपडियाणंदे - दुष्प्रत्यानन्द - बड़ी कठनाई से प्रसन्न होने वाला था । तस्स गं - उस । सिरीयस्सच 'जन्मघर्ममारुतपक्कानि च कालानि च हेरंगाणि च ताकिकानि च आमलकर सितानि च मृद्वीककपित्थदाडिमरसितानि च मत्स्यर सितानि च तलितानि च भर्जितानि च शूल्यानि चोपस्कारयति । श्रन्यश्च बहून् मत्स्यरसाँच एणरसाँश्च तित्तिर० यावद् मयूररसाँश्च अन्यच्च विपुलं हरितशाकमुपस्कारयति २ मित्राय राज्ञे भोजनमंडपे भांजनवेलायामुपनयति । आत्मनापि च श्रीदो महानसिकस्तेषां च बहुभिर्यावज्जलचरस्थलचरखचरमांसः रसैश्च हरितशाकैश्च शूल्यैश्च तलितैश्च भर्जितंश्च सुरां च ६ श्रास्वाइयन् ४ विहरति । ततः स श्रीदो महानसिक: एतत्कर्मा ४ सुबहु पापकर्म समर्थ्य त्रयस्त्रिशतं वर्षशतानि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा षष्ठ्यां पृथिव्यामुपपन्नः | (१) जन्मपर्कः स्वयमेव पकीभूतमित्यर्थः । ( अभिधान राजेन्द्र कोष ) For Private And Personal Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४३४] श्री विपाक सूत्र [अष्टम अध्याय श्रीद । महाणसियस्स-महानसिक-रसोइए के । बहवे- बहुत से । मच्छिया य -- मात्स्यिक - मच्छीमार । वागुरिया य-वागुरिक-जाल में फंसाने का काम करने वाले व्याध अर्थात् जो जालों से जीवों को पकड़ते हैं । साउणिया य-तथा शाकुनिक-पक्षिघातक अर्थात् पक्षियों का वध करने वाले । दिन्नभतिभत्तवेयणा-जिन्हें वेतनरूप से भृति - रुपया पैसा, भक्त --- धान्य और घृतादि दिया जाता हो, ऐसे नौकर पुरुष । कल्लाकल्लि - प्रतिदिन । बहवे-अनेक । सराहमच्छा य श्लक्षणमत्स्यों---कोमलचर्म वाले मत्स्यों, अथवा सूक्ष्ममत्स्यों-छोटे २ मत्स्यों, अथवा मत्स्यविशेषों । जाव-यावत् । पडागातिपडागे य-पताकातिपताको -मस्त्यविशेषों । अए य-अजों- बकरों । जाव-यावत् । महिसे य-तथा महिषों । तित्तिरे- तित्तिरों । जाव -- यावत् । मयूरे य-मयूरों को । जीवितामो-जीवन से । ववरोति ववरोवेत्ता- व्यपरोपित करते हैं- पृथक करते हैं, जीवन से पृथक् कर के । सिरियस्सश्रीद । महाणसियस्स-महानसिक को । उवणेति-अर्पण करते हैं, तथा । से-उस के । अन्ने य - अन्य । बहवे-बहुत से । तित्तिरा य-तितिर । जाव- यावत् । मयूरा य-मयूर । पंजरंसिपिंजरों में । संनिरुद्धा- संनिरुद्ध-बन्द किये हुए। चिट्ठति- रहते थे । अन्ने य-तथा और । बहवे-अनेक । दिन्नभतिभत्तवेयणा-जिन्हें वेतनरूप से रुपया पैसा और धान्य घृतादि दिया जाता था, ऐसे नौकर । पुरिसे-पुरुष । ते-उन । बहवे-अनेक । तित्तिरे य तितिरों । जाव-यावत् । मयूरे य-मयूरों को । जीवंतए चेव-जीते हुओं को ही । निप्पंखेति निप्पंखेत्ता - पक्ष - परों से रहित करते हैं, पंखरहित कर के । सिरियस्स-श्रीद । महाणसियस्स - महानसिक को । उवणेति-अर्पण करते हैं। तते णं-तदनन्तर । से-वह । सिरिए -श्रीद । महाणसिर- महानसिक । बहूणं - अनेक । जलयर - जलचरों - जल में चलने वाले जीवों । थलयर- स्थलचरों-स्थल में चलने वाले जीवों । खहयराणं-खचरों-आकाश में चलने वाले जीवों के । मंसाई-मांसों को । कप्पणीकप्पियाई करेति - कल्पनी-छुरी से कर्तित करता है अर्थात् उन्हें काट कर खण्ड २ बनाता है । तंजहा-जैसे कि । सराहखंडियाणि य-सूक्ष्मखण्ड और । वह-वृत्त-वतुल -- गोल । दीह-दीर्घ-लम्बे । रहस्सखंडियाणि - तथा ह्रस्व -छोटे २ खण्ड, जो कि । हिमपक्कानि-हिम- बर्फ से पकाए गए हैं। जम्म-जन्म से अर्थात् स्वतः ही । घम्म- धर्म-गरमी तथा । मारुय - मारत - वायु से । पक्काणि य-पकाए गए हैं। कालाणि य-तथा जो काले किये गये हैं। हेरंगाणि य-और हिंगुलसिंग़रफ के समान लाल वर्ण वाले किये गये हैं । महिद्वाणि य - जो तक्रसंस्कारित हैं, और । श्राम जगरसियाणि य-जो आमलक -आंवले के रस से भावित हैं, तथा । मुद्दिया- मृद्वीका-द्राक्षा । कविठ्ठ-कपित्थ-कैथ । दालिमरसियाणि य-और अनार के रस से भावित हैं । मच्छरसियाणि य-तथा जो मत्स्यरस से संस्कारित हैं और जो । तनियाणि य-तैलादि में तले हुए हैं । भज्जियाणि य-अंगरादि पर भूने हुए हैं । सोल्लियाणि य-और जो शूलाप्रोत है अर्थात् मूल में पिरो कर पकाए गए हैं, उन को । उवावडावेति-तैयार करता है । अन्ने य-और । बहवे- बहुत से । मच्छरसए य- मत्स्यों के मांसो के रस । एणेज्जरसए य-एणों - मृगों के मांसों के रस । तित्तिर० - तित्तिरों के मांसों के रस । जाव- यावत् । मयूररसए य-- मयूरों- मोरों के मांसों के रस, तैयार करता है । अन्नं च-और । विउलं-विपुल । हरियसाग- हरे साग । उवकावडावेति २- तैयार करता है, तैयार कर के। मित्तस्स रराणो-मित्र नरेश के। भोयणमंडवंसि-भोजनमंडप में-भोजनालय में । भोयणवेलाए- भोजन के समय । उवणेइ--राजा को अर्पण करता था- भोजनार्थ प्रस्तुत किया करता था। अप्पणा वि य णं - और स्वयं भी। से- वह । सिरिए - श्रीद । महाणसिर-महानसिक । For Private And Personal Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । जलचर । थ जयर तेसिं च-उन । बहूहिं अनेक । जाब - यावत् । जलयर स्थलचर / खहयर - खेचर जीवों के । मंसेहिं -मांसों से । रसेहि य-तथा रसों से । हरियसागेहि य-तथ हरे शाकों से, जो कि । सोल्लेहि य-शूलाप्रोत कर पकाए गए हैं। तलिएहि य-तैलादि में तले हुए हैं। भज्जिरहिय - अग्नि आदि पर भूने हुए हैं, के साथ । सुरं च ६ - छ: प्रकार की सुराश्र - मदिराओं का । सापमाणे ४ -- आस्वादनादि करता हुआ । विहरति - समय व्यतीत कर रहा था । तते गं - तदनन्तर । से- वह । सिरिए - श्रीद | महारासिए - महानसिक । एयकम्मे ४ - एतत्कर्मा, १ एतत्प्रधान, एतद्वि और एतत्समाचार | सुबहु - अत्यधिक । पावकम्मं - पापकर्म का । समज्जिणिता उपार्जन कर के । तेत्तीसं वाससयाई - तेतीस सौ वर्ष की । परमाउं - परम आयु । पालइत्ता - पाल कर - भोग कर । कालमासे - - कालमास में । कालं किच्चा - काल करके । छुट्टीए - छठी | पुढवीप - पृथिवी -: - नरक में । उवबन्ने - उत्पन्न हुआ | 1 मूलार्थ - हे गौतम! उस काल और उस समय इसी जंम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में नन्दिपुर नाम का एक प्रसिद्ध नगर था। वहां के राजा का नाम मित्र था । उल का श्री नाम का एक महान् अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द - कठिनाई से प्रसन्न किया जा सकने वाला, एक महानसिक- रसोइया था, उस के रुपया पैसा और धान्यादि रूप में वेतन ग्रहण करने वाले अनेक मात्स्यिक, वागुरिक और शाकुनिक नौकर पुरुष थे जो कि प्रतििदन श्लक्ष्णमत्स्यों यावत् पताकातिपताकमत्स्यों तथा अजों यावत् माहेषों एवं तित्तिरों यावत् मयूरों आदि प्राणियों को मार कर श्राद महानसिक को कर देते थे । तथा उस के वहां पिंजरों में अनेक तित्तिर यावत् मयूर आदि पक्षी बन्द किये हुए रहते थे श्रीदरसोइए के अन्य अनेक रूपण, पैसा और धान्यादि के रूप में वेतन लेकर काम करने वाले पुरुष जीते हुए तित्तिर यावत् मयूर आदि पक्षियों को पक्षरहित करके उसे लाकर देते थे । तदनन्तर वह श्री नामक महानसिक- रसोइया अनेक जलचर और स्थलचर आदि जीवों के मांस को लेकर छुरी से उन के सूक्ष्मखण्ड, वृत्तखण्ड, दीर्घखण्ड और ह्रस्वखण्ड, इस प्रकार के अनेकविध खण्ड किया करता था । उन खण्डों में से कई एक को हिम - बर्फ में पकाता था, कई एक को अलग रख देता जिस से वे खण्ड स्वतः ही पक जाते थे, कई एक को धूप से एवं कई एक को हवा के द्वारा पकाता था; कई एक को कृष्ण वर्ण वाले एवं कई एक को हिंगुल के वर्ण वाले किया करता था । तथा वह उन खंडों को तक्र - संस्कारित आमलकरसभावित, मृद्वीका दाख, कपित्थ-कैथ और दाडिम अनार के रमों से तथा मत्स्यरसों से भावित किया करता था । तदनन्तर उन मांसग्वण्डों में से कई एक को तेल से तलता, क एक को भाग पर भूनता तथा कई एक को शूला से पकाता था । इसी प्रकार मत्स्यमांसों के रसों को, मृगमांसों के रसों को, तित्तिरमांसों के रसों को यावत् मयूर - मांसों के रसों को तथा ओर बहुत से हरे शाकों को तैयार करता था, तैयार करके महाराज मित्र के भोजनमंडप में ले जा कर महाराज मित्र को प्रस्तुत किया करता, तथा स्वयं भी वह श्रीद महानसिक उन पूर्वोक्त श्लक्ष्णमस्त्य आदि समस्त जीवों के मांसों, रसों, हरितशाकों जोकि शूलपक हैं, तले हुए हैं, भूने हुए हैं, के साथ छः प्रकार की सुरा आदि मदिराओं का आस्वादनादि करता हुआ समय व्यतीत कर रहा था। तदनन्तर इन्हीं कर्मों को करने वाला, इन्हीं कर्मों में प्रधानता रखने वाला, इन्हीं को विद्याविज्ञान रखने वाला तथा इन्हीं पापकर्मों को अपना सर्वोत्तम आचरण मानने वाला वह श्री रसोइया अत्यधिक पापक का उपार्जन कर ३३ सौ वर्ष की परमायु को पाल कर कालमास में काल करके (१) एतत्कर्मा, एतत्प्रधान - आदि पदों का अर्थ पृष्ठ १७९ की टिप्पण में लिखा जा चुका है । For Private And Personal - [४३५ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४३६] श्री विपाक सूत्र-- अष्टम अध्याय छठी पृथिवी- नरक में उत्पन्न हुआ। टीका --सामान्य पुरुष और महापुरुष में यही भेद हुआ करता है कि साधारण पुरुष यदि किसी घटना-विशेष को देखता है तो उस से कुछ भी शिक्षा ग्रहण करने का यत्न नहीं करता प्रत्युत दूसरी ओर मुह फेर लेता है और अपने उद्दिष्ट स्थान की ओर प्रस्थान कर जाता है । परन्तु इस प्रकार की उपेक्षागर्भित मनोवृत्ति महापुरुषों की नहीं होती । किसी विशेष घटना को देख कर महापुरुष उस के विषय में उचित ऊहापोह करते हैं और उस के मूल कारण को ढूंढने का यत्न करते हैं । कारण उपलब्ध होने पर उस के फल की ओर ध्यान देते हुए अपने आत्मा को शिक्षित करने का उद्योग करते हैं । अनगार गौतम स्वामी भी उन्हीं महापुरुषों में से एक हैं, जो कि शौरिकपुर नामक नगर के राजमार्ग में देखी हुई घटना विशेष के मूल कारण को ढूढना चाहते हैं और इसीलिये उन्होंने वीर प्रभु से पूछने का प्रयास किया था । गौतम स्वामी के पूछने पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उस दृष्ट व्यक्ति के पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाना प्रारंभ करते हुए कहा कि गौतम ! बहुत पुरानी बात है। इसी जम्बूद्वीप के अन्तर्गत 'भारतवर्ष के अन्दर नन्दिपुर नाम का एक नगर था, जोकि परमसुन्दर एवं रमणीय था । नगर के शासक महाराज मित्र के नाम से विख्यात थे । वे पूरे प्रजाहितैषी और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति थे । महाराज मित्र के यहां श्रीद नाम का रसोइया था, जो कि महा अधर्मी यावत् जिस को प्रसन्न करना अत्यधिक कठिन था । उस रसोइए ने रुपया, पैसा और धान्यादि के रूप में वेतन लेकर काम करने वाले ऐसे अनेक नौकर रखे हुए थे, जो मच्छियों को मारते तथा अन्य पशुओं को जाल में फंसा कर पकड़ते एवं पशुपक्षियों का वध कर उसे लाकर देते । श्रीद रसोइया इन सब को उनके परिश्रम के अनुसार वेतन देता और उन को अधिक परिश्रम से काम करने की प्रेरणा करता। वे लोग प्रतिदिन अनेक जाति की मच्छियों को पकड़ते, तथा तित्तर, बटेर, कबूतर, मोर अादि पक्षियों एवं जलचरों, स्थलचरों और आकाश में उड़ने वाले जानवरों को पकड़, उन का वध करके श्रीद के पास लाते । इसी प्रकार तित्तर, बटेर और कबूतर आदि पक्षियों के जीते जी पर उखाड़ कर उन्हें श्रीद के पास पहुंचाते । श्रीद भी उन जीवों के मांस के छोटे, बड़े, लम्बे और गोल अनेक प्रकार के टुकड़े करता, उन्हें श्यामवण वाले एवं हिगुल-सिग़रफ के समान वर्ण वाले करता, तथा उन में से कई एक को हिम में रख कर पकाता, कई एक को स्वत: पकने के लिये अलग रखदेता, कई एक को धूप से एवं कई एक को वायु अर्थात् भाफ आदि से पकाता, तथा उन मांसखण्डों में से कई एक को तक्र से संस्कारित करता, एवं कई एक को आंवलों के रसों से, कई एक को कपित्थ (के थफल) के रसों से, कई एक को अनार के रसों से एवं कई एक को मत्स्यों के रसों से संस्कारित करता। तदनन्तर उन्हें तलता, भूनता और शूला से पकाता। इसी भांति मत्स्यादि जीवों के मांसों का रस तैयार करता, एवं विविध प्रकार के हरे शाकों को तैयार करता और महाराज मित्र के भोजनमंडप में तैयार किये उन मांसादि पदार्थों को लाकर भोजन के समय महाराज मित्र नरेश को प्रस्तुत करता और स्वयं भी उक्त प्रकार के उपस्कृत मांसों तथा मदिराओं का यथारुचि सेवन किया करता था । इन्हीं हिंसापूर्ण जघन्य प्रवृत्तियों में अधिकाधिक यासक्त रहना उस का स्वभाव बन गया था । अन्त में उसे इन दुष्कर्मों के फलस्वरूप मर कर छठी नरक (१) आजकल जितना देश भारतवर्ष के नाम से ग्रहण किया जाता है, वह जैनपरम्परागत भारतवर्ष से बहुत न्यून है। जैन परिभाषा के अनुसार उस में ३२ हजार देश हैं और वह बड़ा विशाल एवं विस्तृत है। For Private And Personal Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय हिन्दी भाषा टोका सहित । में उत्पन्न होना पड़ा। ___ प्रस्तुत सूत्र में श्रीद रसोइए के हिंसापरायण व्यापार का जो दिग्दर्शन कराया गया है और उस के फलस्वरूप उस का जो छठी नरक में जाने का उल्लेख किया गया है, उस पर से हिंसक प्रवृत्ति कितनी दूषित और आत्मा का पतन करने वाली होती है ।, यह भलीभांति सुनिश्चित हो जाता है। श्रीद ने अपनी करतम सावद्य प्रवृत्ति से इतने तीव्र पापकर्मों का बन्ध किया कि उसे अत्यन्त दोघकाल तक कल्पनातीत यातनाये भोगनी पड़ीं। अत: प्रा.मिक उत्कर्ष के अभिलाषियों को इस प्रकार की सावद्य प्रवत्ति से सदा और सर्वथा परामुख रह कर अपने देवदर्लभ मानव भव को सार्थक करने का प्रयत्न करते रहना चाहि इस के अतिरिक्त श्रीद रसोइए के जीवनवृत्तान्त का उल्लेख कर के सूत्रकार ने सुखाभिलाषी सहृदय व्यक्तियों के लिये प्राणिवध, मांसाहार तथा मदिरापान से विरत रहने की बलवती पवित्र प्रेरणा की है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार श्रीद रसोइया अनेकानेक जीवों के प्राणों का विनष्ट करने, मांसाहार तथा मदिरापान की जघन्य प्रवृत्तियों से उपाजित दष्कर्मों के कारण छठो नरक में गया. वहां उसे २२ सागरोपम के बड़े लम्बे काल के लिये अपनो हिंसामूलक करणो के भीषण फल का उपभोग करना पड़ा। ठीक इसी भांति जो व्यक्ति हिसापरायण जीवन बनाता हुआ मांसाहार और मदिरापान की दुर्गतिप्रद प्रवृत्तियों में अपने को लगाएगा वह भी श्रीद रसोइए. की तरह नरकों में दु:ख पाएगा और अधिकाधिक संसार में इलेगा- यह बतलाकर सूत्रकार ने प्राणिवध, मांसाहार तथा मदिरापान के त्याग का पाठकों को उत्तम उपदेश देने का अनुग्रह किया है। मांसाहार के दुष्परिणाम का वर्णन करने वाले शास्त्रों में अनेकानेक प्रवचन उपलब्ध होते हैं । उत्तराध्ययन सूत्र में लिखा है कि श्री मृगापुत्र अपने माता पिता से कहते हैं कि मृगादि जीवों के मांस से अपने शरीर को पुष्ट करने के जघन्य कर्म के फल को भोगने के लिये जब मैं नरकगति को प्राप्त हुआ तो वहां पर यमपुरुषों ने मुझ से कहा कि अय दुष्ट ! तुम्हें मृगादि जीवों के मांस से बहुत प्यार था। इसी लिये तू मांसखण्डों को भून २ कर खाया करता था और उस में आनन्द मनाता था। अच्छा, अब हम भी तुझ को उसी प्रकार से निष्पन्न मांस खिलाते हैं। ऐसा कह कर उन यमपुरुषों ने मेरे शरीर में से मांस के टुकड़े काट कर और उन को अग्नि के समान तपाकर मुझे बलात् अनेकों चार खिलाया । । मेरे रोने पीटने की ओर उन्हों ने तनिक भी ध्यान नहीं दिया । तब मुझे वहां इतना महान दुःख होता था कि जिस को स्मरण करते ही मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं । तात्पर्य यह है मांसाहारी व्यक्तियों की नरकों में बड़ी दुर्दशा होती है । जिस प्रकार इस भव में वे दूसरे जीवों के छटपटाने एवं चिल्लाने पर जरा भी ध्यान नहीं करते हैं, ठीक उसी प्रकार वैसी ही गति उन की नरक में होती है । वहां पर भी उन के रुदन अाक्रन्दन एवं विलाप की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। आहार की शुद्धि अथवा अशुद्धि भक्ष्य और अभय पदार्थों के चुनाव पर निर्भर रहा करती है । जो भक्षण किये गये पदार्थ बुद्धि में सात्त्विकता पैदा करने वाले होते हैं, वे भक्ष्य और जिन के भक्षण से चित्त में तामसिकता या विकृति पैदा हो वे अभक्ष्य कहलाते हैं । आत्मा पर जिन पदार्थों के भक्षण का अधिक दोषपूर्ण प्रभाव पड़ता है, उन में प्रधानरूप से मांस और मदिरा ये दो पदार्थ माने गए हैं । मांस और और मदिरा के प्रयोग से प्रात्मा के ज्ञान और चारित्र रूप गणों पर विरोधी एवं दुर्गतिमूलक संस्कारों का बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है और उस की उत्क्रान्ति में अधिक से अधिक बाधा पड़ती (१) तुहं पियाई मंसाई, खण्डाई सोल्लगाणि य । खाविप्रोमि समसाइ', अग्गिवरणाई णेगसो॥ (उत्तराध्ययन सूत्र अ० १९/७०) For Private And Personal Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४३८] श्रो विपाक सूत्र [ अष्टम अध्याय है । अात्मा शुद्ध विकसित और हल्की होने के बदले अधिक अशुद्ध और भारी होता चला जाता है, तथा उत्थान के बदले पतन की ओर ही अधिक प्रस्थान करने लगता है, और अन्त में वह अकाममृत्यु को उपलब्ध करता है । जो जीव अज्ञान के वशीभूत हो कर मृत्यु को प्राप्त करते हैं, उन की मृत्यु को अकाममृत्यु- बालमरण तथा जो जीव ज्ञानपूर्वक मृत्यु को प्राप्त होते हैं उन की यह ज्ञान गभित मृत्यु सकाममृत्यु - पण्डितमरण कहलाती है। मांस और मदिरा का सेवन करने वाले अकाममृत्यु को प्राप्त किया करते हैं जब कि अहिसा सत्यादि सदनुष्ठानों के सौरभ से अपने को सुरभित करने वाले पुण्यात्मा जितेन्द्रिय साधु पुरुष सकाममृत्यु को। इस के अतिरिक्त बालमृत्यु दुर्गतियों के प्राप्त कराने का कारण बनता है, तथा सकाममृत्यु से सद्गतियों की प्राप्ति होती है, इस से यह स्पष्ट हो जाता है मांस और मदिरा का सेवन कभी भी नहीं करना चाहिये ।। महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है कि जो पुरुष अपने लिये प्रात्यन्तिक शान्ति का लाभ करना चाहता है, उस को जगत में किसी भी प्राणी का मांस किसी भी निमित्त से नहीं खाना चाहिये। सम्पूर्ण रूप से अभयपद की प्राप्ति को मुक्ति कहते हैं । इस अभयपद की प्राप्ति उसी का होती है जो दूसरों को अभय देता है । परन्तु जो अपने उदरपोषण अथवा जिह्वास्वाद के लिये कठोर हृदय बन कर मृगादि जीवों की हिंसा करता है, या कराता है. प्राणियों को भय देने वाला तथा उन का अनिष्ट एवं हनन करने वाला है, वह मनुष्य अभय पद को कैसे प्राप्त कर सकता है, अर्थात् कभी नहीं। भगवद्गीता ने साधना में लगे हुए साधकों के लिये -सर्वभूतहिते रताः-और भक्त के लिये "-अद्वष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च-." ऐसा कह कर सर्व प्राणियों का हित और प्रणिमात्र के प्रति मैत्री और दया करने का विधान किया है । प्राणियों के हित और दया के बिना परमसाध्य निर्वाण पद की प्राप्ति तीन काल में भी नहीं हो सकती। अतः आत्मकल्याण के अभिलाषी मानव को किसी समय किसी प्रकार किञ्चित मात्र भी जीव को कष्ट कहीं पहुंचाना चाहिए । धर्म में सब से पहला स्थान भगवती अहिंसा को दिया गया है, शेष सदनुष्ठान तो उस के अंग है, परन्तु अहिंसा परम धर्म है। धर्म को मानने वाले सभी लोगों ने अहिंसा की बड़ी महिमा गाई है । वास्तव में देखा जाए तो बात यह है कि जो धर्म मनुष्य की वृत्तियों को त्याग, निवृत्ति और संयम के पथ का पथिक बनाता है वही यथार्थ धर्म है । इस के विपरीत जो धर्म इन बातों का उपदेश या इन की प्रेरणा नहीं करता वह धर्म ही नहीं है । अहिंसा धर्म में (१) हिंसे बाले मुसाबाई, माइल्ले पिसुणे सढे । भुजमाणे सुरं मासं, सेयमेयं त्ति मन्नइ ॥ (उत्तराध्ययन सू० अ० ५/९) अर्थात् अकाममृत्यु को प्राप्त करने वाला अज्ञानी जीव हिंसा करता है, झूठ बोलता है. छल कपट करता है, चुगली करता है तथा मांस एवं मदिरा का सेवन करता हुआ भी अपने इन कुत्सित आचरणों को श्रेष्ठ समझता है । इस वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि मांस और मदिरा का सेवन करने वाले अज्ञानी जीव अकाममृत्यु को प्राप्त कर दुगर्तियों में धक्के खाते रहते हैं । अत: मांस और मदिरा का सेवन कभी नहीं करना चाहिए। (२) य इच्छेत् पुरुषोऽत्यन्तमात्मानं निरुपद्रवम् । स वर्जयेत मांसानि, प्राणिनामिह सर्वशः ।। (महाभारत अनु० ११५/५५) For Private And Personal Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याग ] हिन्दी भाषा टीका सहित । (४३९ त्यागादि की पूर्वोक्त ये सभी बातें पाई जाती हैं । अतः मांसभक्षण करने वाले अहिंसाधर्म का हनन करते हैं । इस में कोई शका नहीं की जा सकती है । धर्म का हनन ही पाप है । पाप मानव को चतुर्गतिरूप संसार में लाता है और जन्म तथा मरण से जन्य अधिकाधिक दुःखों के प्रवाह से प्रवाहित करता रहता है । अत: पापों से बचने के लिये भी मांसाहार नहीं करना चाहिये ।। जिन मांसाहारी लोगों का यह कहना है कि हम पशुयों को न तो मारते हैं और न उन के मारने के लिये किसी को कहते हैं, फिर हम पापी कैसे ?, इस का उत्तर यह है कि कसाईखाने मांस खाने वालों के लिये ही बने हैं । यदि मांसाहारी लोग मांस न खायें तो कोई प्राणिवध क्यों करे ?, जहां कोई ग्राहक न हो तो वहां कोई दुकान नहीं खोला करता । दूसरी बात यह है कि केवल अपने हाथों किसी को मारने का नाम हिंसा नहीं है । प्रत्युत हिंसा मन वचन और काया के द्वारा करना कराना और अनुमोदन करना इस भांति नौ प्रकार की होती है । मांसाहारी का मन, वचन और शरीर मांपाहारी है फिर भला वह हिंसाजनक पाप से कैसे बच सकता है ? इस के अतिरिक्त शास्त्रों में-१-मांस के लिये सलाह - आज्ञा देने वाला । २- जीवों के अंग काटने वाला । ३-जीवों को मारने वाला । ४ मांस खरीदने वाला । ५-मांस बेचने वाला । ६ मांस पकाने वाला । ७-मांस परोसने वाला और ८ - मांस खाने वाला । इस भांति 'अाठ प्रकार के कसाई बतलाए गए हैं। इन में मांस खाने वाले को स्पष्टरूप से घातक माना है। महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है कि एक बार भीष्मपितामह धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं कि हे युधिष्ठिर ! "- वह मुझे खाता है, इस लिये मैं भी उस को खाऊगा-" यह मांस शब्द का मासत्व है-ऐसा समझो। तात्पर्य यह है कि मांस पद को मां और स इन दो भागों में विभाजित किया जा सकता है । मां का अर्थ होता है-मुझ को और स वह – इस अर्थ का परिचायक है । अर्थात् मांस शब्द "-जिस को मैं खाता हू', एक दिन वह मुझे भी खायेगा-" इस अर्थ का बोध कराता है । अतः अपने भविष्य को सुरक्षित रखने के लिये कभी भी मांस का सेवन नहीं करना चाहिए । "-जैसा खावे अन्न वेसावे मन-" यह अभियुक्तोक्ति इस बात में सबल प्रमाण है कि भोजन से ही मन बनता है । मनुष्य जिन पशु पक्षियों का मांस खाता है, उन्हीं पशु पक्षियों के गुण, आचरण आदि उस में उत्पन्न हो जाते हैं । उन की प्राकृति और प्रकृति वैसी ही क्रमश: बनती चली जाती है । दूसरे शब्दों में सात्विक भोजन करने से सतोगुणमयी प्रकृति बन जाती है । राजसी भोजन करने से रजोगुणमयी और जामस भोजन करने से तमोमयी प्रकृति बन जाती है। अतः खाने के विषय में शान्तचित्त से तथा स्वच्छ हृदय से विचार करते हुए मनुष्य का यह कर्तव्य बन जाता है कि वह मानव की प्रकृति को छोड़ कर पाशविक प्रकृति का आश्रयण न करे, अन्यथा उसे नरकों में भीषणातिभीषण दु :खों का उपभोग करना पड़ेगा । (१) अनुमन्ता विरासिता, निहन्ता क्रयविक्रयी । संस्कर्ता चापहर्ता च, खादकश्चेति घातकाः ॥ (मनुस्मृति ५/५१) (२) मांस भक्षयते यमाद, भतयिष्ये तमप्यहम । एतन्मांसस्य मांसत्वमनुबुद्धस्व भारत ! ॥ (महाभारत ११६/३५) For Private And Personal Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४४०] श्री विपाक सूत्र [अष्टम अध्याय शास्त्रों के परिशीलन से पता चलता है कि 'मांस न खाने वाला और प्राणियों पर दया करने वाला मनुष्य समस्त जीवों का आश्रयस्थान एव . विश्वासपात्र बन जाता है, उस से संसार में किसी प्रकार का उद्वेग नहीं होने पाता और न वह ही किसी द्वारा उद्वेग का भाजन बनता है । वह निर्भय रहता है और दीर्घायु उपलब्ध करता है । बीमारी उस से कोसों दूर रहती है। इस के अतिरिक्त मांस के न खाने से जो पुण्य उपलब्ध होता है उस के समान पुण्य न सुवर्ण दान से होता है और न गोदान एव न भमी के दान से प्राप्त हो सकता है । मांसाहार स्वास्थ्य को भी विशेष रूप से हानि ही पहुँचाता है। मांसाहार की अपेक्षा शाकाहार अधिक परिपुष्ट एव बुद्धिशाली बनाता है । एक बार-मांसभक्षण करना अच्छा है या बुरा ?-इस बात की परीक्षा अमेरिका में दस हज़ार विद्याथियों पर की गई थी। पांच हजार विद्यार्थी शाक. न शादि पर रखे गये थे जब कि पांच हजार विद्यार्थी मांसाहार पर। छ: महीने तक यह प्रयोग चाल रहा । इस के बाद जो जांच की गई उससे माला इस क बाद जा जाच का गई उससे मालूम हा कि जो विद्यार्थी मांसाहार पर रखे गये थे उन की अपेक्षा शाकाहारी विद्यार्थी सभी बातों में अग्रेसर - तेज़ रहे । शाका - हारियों में दया, क्षमा आदि मानवोचित गुण अधिक परिमाण में विकसित हुए तथा मांसाहारियों की अपेक्षा शाकाहारियों में बल अधिक पाया गया और उन का विकास भी बहुत अच्छा हुआ । इस परीक्षा के फल को देख कर वहां के लाखों मनुष्यों ने मांस खाना छोड़ दिया। इस के अतिरिक्त आप पक्षियों पर दृष्टि डालिए । क्या आप ने कभी कबूतर को कीड़े खाते देखा है ? उत्तर होगा - कभी नहीं, परन्तु कौवे को ?. उत्तर होगा - हां !. अनेकों बार । श्राप कबतर बनना पसन्द करते हैं या कौवा १, इस का उत्तर सहृदय पाठकों पर छोड़ता है । ऊपर के विवेचन से यह सिद्ध हो जाता है कि मांसभक्षण किसी भी प्रकार से प्रा. दरणीय एवं आचरणीय नहीं है, प्रत्युत वह हेय है एवं त्याज्य है । अतः मांस खाने वाले मनुष्यों से हमारा सानुरोध निवेदन है कि इस पर भली भांति विचार करें और मनुष्यता के नाते, दया और न्याय के नाते, शरीरस्वास्थ्य और धर्मरक्षा के नाते तथा नरकगति के भीषणातिभीषण असह्य संकटों से अपने को सुरिक्षत रखने के नाते इन्द्रियदमन करते हुए मांसाहार को सर्वथा छोड़ डालें और सब जीवों को दानों में सर्वश्रेष्ठ अभयदान-दे कर स्वयं अभयपद -निवाणपद उपलब्ध करने का स्तुत्य एवं सुखमूलक प्रयास करें ।। जिस प्रकार मांस दुर्गतिप्रद एवं दुःखमूलक होने से याज्य है, ठीक उसी प्रकार मदिरा का सेवन भी मनुष्य की प्रकृति के विरुद्ध होने से हेय है, अनादरणीय है। मदिरा पीने वाले मनुष्यों की जो दुर्दशा होती है उसे आबालवृद्ध सभी जानते ही हैं, अत: उस के स्पष्टीकरण करने के लिए किसी प्रमाण की अवश्यकता नहीं रहती । मदिरा को उर्दू भाषा में शराब कहते है। शराब शब्द दो पदों (१) शरण्यः सर्वभूतानां, विश्वास्यः सर्वजन्तुषु । अनुद्वेगकरो लोके, न चाप्युद्विजते सदा ॥ अधृष्यः सर्वभूतानामायुष्मान्नीरुजः सदा । भवत्यभक्षयन् मांसं, दयावान् प्राणिनामिह ।। हिरण्यदानोदानभू मिदानश्च सर्वशः । मांसस्याभक्षणे धर्मों, विशिष्ट इति नः श्रुतिः ॥ (महा० अनु० ११५/३० -४२-४३) १२) मांसनिषेधमूलक अन्य शास्त्रीय प्रवचन पीछे ३१३ से लेकर ३१५ तक के पृष्ठों पर दिया जा चका है । तथा मांस मनुष्य की प्रकृति के नितान्त विरुद्ध है, इस सम्बन्ध में भी पृष्ठ ३९२ पर तथा ३९३ पर विचार किया जा चका है । For Private And Personal Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अष्टम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [४४१ से बना है । प्रथम शर और दूसरा श्राव । शर शरारत, शैतानी तथा धूर्त्तता का नाम है। श्राब पानी को कहते हैं । अर्थात् जो पानी पीने वाले को इन्सान न रहने दे, उसे शैतान बना दे, धूर्तता के गढ़े में गिरा डाले, मां और बहिन की अन्तरमूलक बुद्धि के उच्छेद कर डाले, हानि और लाभ के विवेक से शून्य कर दे तथा हृदय में पाशविकता का संचार कर दे, उसे शराब कहते हैं। शराब शब्द की इस अर्थविचारणा से यह स्पष्ट हो जाता है कि जीवन के निर्माण एवं कल्याण के अभिलाषी मानव को शराब से कितना दूर एवं विरत रहना चाहिये १, इस के अतिरिक्त मदिरा के निषेधक अनेकानेक शास्त्रीय प्रवचन भी उपलब्ध होते हैं । उत्तराध्ययन सूत्र के १९ वें अध्ययन में लिखा है कि राजकुमार मृगापुत्र अपने माता पिता को दिगपान का परलोक में जो कटु फल भोगना पड़ता है, उस का दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं कि पूज्य माता पिता जी ! स्वोपार्जित अशुभ कर्मों का फल भोगने लिये जब मैं नरक में उत्पन्न हुआ, तब मुझे यमपुरुषों ने कहा कि यदुष्ट ! तुझे मनुष्यलोक में मंदिरा- शराब से बहुत प्रेम था जिस से तू नाना प्रकार की मदिराओं का बड़े चाव के साथ सेवन किया करता था । ले फिर अब हम भी तुझे तेरी प्यारी मदिरा का पान कराते हैं । ऐसा कह कर उन यमपुरुषों ने मुझ को अग्नि के समान जलती हुई बसा - चर्बी और रुधिर - खून का जबर्दस्ती पान कराया। वह भी एक बार नहीं किन्तु अनेकों बार । यमपुरुषों के उस दुःखद एवं बर्बर दण्ड जब मैं स्मरण करता हूँ तो मेरा मानस काम्प उठता है और इसी लिये मैंने यह निश्चय किया है. कि कभी भी मदिरा का सेवन नहीं करूंगा तथा ऐसे अन्य सभी आपातरमणीय सांसारिक विषयों को छोड कर सर्वथा सुखरूप संयम का श्राराधन करू ंगा । दशलिक सूत्र के पंचम अध्ययन के द्वितीयोद्द ेश में मदिरापान का खण्डनमूलक बड़ा सुन्दर वर्णन मिलता है। वहां लिखा है कि आत्मसंयमी साधु संयमरूप विमलयश की रक्षा करता हुआ जिस के त्याग में सर्वज्ञ भगवान् साक्षी हैं, ऐसे "सुरा मेरक आदि सब प्रकार के मादक द्रव्यों का सेवन ( पान ) न करें । सुरं वा मेरगं वा वि, अन्नं वा मज्जगं रसं । ससम्वं न पिवे भिक्खू, जसं सारकमपणो ||३८|| कहते हैं कि हे शिष्यो ! जो साधु धर्म से विमुख हो कर एकान्त स्थान में छिप कर मद्यपान करता है और समझता है कि मुझे यहां छिपे हुए को कोई नहीं देखता है, वह भगवान की आज्ञा का लोप होने से पक्का चोर है । उस मायाचारी के प्रत्यक्ष दोषों को तुम स्वयं देखो और अदृष्ट – मायारूप दोषों को मेरे से श्रवण करो पियए एग श्रोतेो, न मे कोई विवाणइ । तस्स पस्लह दोसाई, मदिरासेवी साधु के लोलुपता, छल कपट, झूठ, अपयश और नियडिं च सुरोह मे ॥३९॥ तृप्ति आदि दोष बढ़ते जाते हैं, अर्थात् उस की निरन्तर असाधुता ही असाधुता बढ़ती रहती है, उस में साधुता का तो नाम भी नहीं रहता । वड्ढइ सुडिया तस्स, मायामोसं च भिक्खुणो । यसो निव्वाणं, सययं च साहुआ ||४०|| मदिरासेवी दुबुद्धि साधु अपने किए हुए दुष्ट कर्मों के कारण चोर के समान सदा उद्विग्न Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अशान्तचित्त रहता है, वह अन्तिम समय पर भी संवर चारित्र की आराधना नहीं कर सकता । राहेइ संवरं ॥ ४१ ॥ निविग्गो जहा तेणा, अतकम्मेहिं दुम्मई । तारिलो मरणंते वि, न विचारमूढ़ मद्यप ( मदिरा पीने वाला) साधु से न तो आचार्यों की आराधना हो सकती है और नाहीं साधुओं की । ऐसे साधु की तो गृहस्थ भी निंदा करते हैं क्योंकि वे उस के दुष्कर्मों को अच्छी तरह जानते हैं । (१) तुहं पिया सुरा सीहू, मेरो य महूणि य । पज्जमि जलतीओ, वसाओ रुहिराणि य ॥ (२) सुरा मेरक- आदि पदों का अर्थ पृष्ठ १४४ पर लिखा जा चुका है । For Private And Personal (उत्तराध्ययन सूत्र ० १९/७१) Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४४२] श्रो विपाक सूत्र [अष्टम अध्याय आयरिए नाराहेइ, समणे आवि तारिसो। गिहत्था वि णं गरिहान्त, जेण जाणंति तारिसं ॥४२॥ शास्त्रों में प्रमाद-कर्तव्य कार्य में अप्रवृत्ति और अकर्तव्य कार्य में प्रवृत्ति रूप असावधानता, पांच प्रकार के बतलाए गए हैं जो कि जीव को संसार में जन्म तथा मरण से जन्य दुःखरूप प्रवाह में अनादि काल से प्रवाहित करते रहते हैं । उन में पहला प्रमाद मध है। मद्य का अथ है मदिराशराब आदि नशीले पदार्थों का सेवन करना । मद्य शुभ आत्मपरिणामों को नष्ट करता है और अशुभ परिणामों को उत्पन्न । मदिरा के सेवन से जहां अन्य अनेकों हानियां दृष्टिगोचर होती हैं वहां इस में अनेकों जीवों की उत्पत्ति होते रहने से जीवहिंसा का भी महान पाप लगता है। लौकिक जीवन को निदित अप्रमाणित एवं पाशविक बना देने के साथ २ परलोक को भी यह मदिरासेवन बिगाड़ देता है । आचार्य हरिभद्र ने बहुत सुन्दर शब्दों में इस से उत्पन्न अनिष्ट परिणामों का वर्णन किया है । आप लिखते हैं - वैरूप्यं व्याधिपिण्डः स्वजनपरिभवः कार्यकालातिपातो। विद्वषो ज्ञाननाराः ग्मृतिमतिहरणं विप्रयोगश्च सद्भिः ॥ पारुष्यं नीचसेवा कुलबलविलयो धर्मकामार्थहानिः ।। कष्टं वै षोडशैते निरुपचयकरा मद्यपानस्य दोषाः ।। (हरिभद्रियाष्टक १९ वां श्लोक टीका) अर्थात् - मद्यपान से १-शरीर कुरूप और बेडौल हो जाता है । २-शरीर व्याधियों का घर बन जाता है । ३ - घर के लोग तिरस्कार करते हैं । ४ - कार्य का उचित समय हाथ से निकल जाता है । ५ - द्वेष उत्पन्न हो जाता है । ६- ज्ञान का नाश होता है। -स्मृति और ८ बुद्धि का विनाश हो जाता है ९-सज्जनों से जुदाई होती है । १० - वाणी में कठोरता आ जाती है। ११ - नीचों की सेवा करना पड़ती १२ -कुल को होनता होती है । १३ – शक्ति का ह्रास होता है । १४-धर्म, १५-काम एवं १६ - अर्थ की हानि होती है। इस प्रकार आत्मपतन करने वाले मद्यपान के दोष १६ होते है। जैनदर्शन की भांति जैनेतरदर्शन में भी मदिरापान को घृणित एव दुर्गतिप्रद मान कर उस के त्याग के लिए बड़े मौलिक शब्दों में प्रेरणा दी गई है। स्मृतिग्रन्थ में लिखा है - कृमिकीटपतंगानां, विड्भुजां चैव पक्षिणाम्। हिंस्राणां चैव सत्त्वानां सुरापो ब्राह्मणां व्रजेत् ॥ (मनुस्मृति अ० १२, श्लोक ५६) अर्थात् मदिरा के पीने वाला ब्राह्मण, कृमि, कीट-बड़े कीड़े, पतङ्ग, सुयर, और अन्य हिंसा करने वाले जीवों, की योनियों को प्राप्त करता है। ब्रह्महा च सुरापश्च, स्तेयी च गुरुतल्पगः । एते सर्वे पृथक ज्ञयाः, महापातकिनो नराः ॥ (मनुस्मृति अध्याय ९/२३५) अर्थात् ब्राह्मण को मारने वाला, मदिरा का पीने वाला, चौर्यकर्म करने वाला और गुरु की स्त्री के साथ गमन करने वाला ये सब महापातको-महापापी समझने चाहिए । अर्थात् ब्रह्महत्या तथा मदिरापान आदि ये सब महापाप कहलाते हैं । सुरां पीत्वा द्विजो मोहादग्निरों सुरां पिबेत् । तयास काये निर्दग्धे, मुच्यते किल्बिषात्ततः । (मनुस्मृति, अध्याय ११/९०) अर्थात् मोह-अजान से मदिरा को पीने वाला द्विज तब मदिरापान के पाप छुटता है जब गरम २ जलती हुई मदिरा को पीने से उस का शरीर दग्ध हो जाता है । यस्य कायगतं ब्रह्म, मद्यनाप्लाव्यते सकृत् । तस्य व्यपैति ब्राह्मण्यं, शूद्रत्वं च स गच्छति ॥ (मनुस्मृति, अध्याय, ११/९७) अर्थात जिस ब्राह्मण का शरीरगत जीवात्मा एक बार भी मदिरा से मिल जाता है. तात्पर्य यह है कि For Private And Personal Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित। एक बार भी जो ब्राह्मण मदिरा का सेवन करता है, उस का ब्राह्मणपना दूर हो जाता है और वह शुद्रभाव को उपलब्ध कर लेता है। चित्त भ्रान्तिर्जायते मद्यपानात् , भ्रान्ते चित्ते पापचर्यामुपेति । पापं कृत्वा दुर्गति यान्ति मूढास्तस्मान्मद्यं नैव पेयं न पेयं ॥१॥ (हितोपदेश) अर्थात् मदिरा के पान करने से चित्त में भ्रान्ति उत्पन्न होती है, चित्त के भ्रान्त होने पर मनुष्य पापाचरण की ओर झुकता है, और पापों के आचरण से अज्ञानी जीव दुर्गति को प्राप्त करते हैं। इस लिए मदिरा-शराब को नहीं पीना चाहिए. नहीं पीना चाहिए। एकतश्चतुरो वेदाः , ब्रह्मचर्य तथैकतः । एकतः सर्वपापानि, मद्यपानं तथैकतः ॥ (अज्ञात) अर्थात् तुला में एक और चारों वेद रख लिये जाएं,. तथा एक ओर ब्रह्मचर्य रखा जाए तो दोनों एक समान होते हैं, अर्थात् ब्रह्मचर्य का माहात्म्य चारों वेदों के समान है । इसी भांति एक ओर समस्त पाप और एक ओर मदिरा का सेवन रखा जाए तो ये भी दोनों समान ही है । तात्पर्य यह है कि मदिरा के सेवन करने का अर्थ है-सब प्रकार के पापों का कर डालना । ख्यातं भारतमण्डले यदुकुलं, श्रेष्ठं विशालं परम् । ____ साताद् देवषिनिर्मिता वसुमतीभूषा पुरी द्वारिका ॥ एतद् युग्मविनाशनं च युगपज्जातं क्षणात्सर्वथा ।। तन्मूलं मदिरा नु दोषजननी, सर्वस्वसंहारिणी ॥१॥ (अज्ञात) अर्थात् यदुकुल भारतवर्ष में प्रसिद्ध, श्रेष्ठ, विशाल और उत्कृष्ट था, तथा द्वारिका नगरी साक्षात् देवों की बनाई हुई और पृथ्वी की भूषा - शोभा अथवा भूषणस्वरूप थी, परन्तु इन दोनों का विनाश एक साथ सर्वथा क्षणभर में हो गया । इस का मूलकारण दोषों को जन्म देने वाली और सर्वस्व का संहार करने वाली मदिरा- शराब ही थी । जित पीवे मति दूर होय बरल पवै नित्त श्राय । अपना पराया न पछाई खस्महु धक्के खाय । जित पीते खस्म विसरै दरगाह मिले सजाय । झूठा मद मूल न पीचई जेका पार बसाय ॥ सिक्खशास्त्र) अर्थात् जिस के पीने से बुद्धि नष्ट हो जाती है और हृदयस्थल में खलबली मच जाती है। इस के अतिरिक्त अपने और पराए का ज्ञान नहीं रहता और परमात्मा को ओर से उसे धक्के मिलते हैं। जिस के पीने से प्रभु का स्मरण नहीं रहता और परलोक में दण्ड मिलता है ऐसे झूठे-निस्सार नशों का जहां तक बस चले कभी भी सेवन नहीं करना चाहिये । औगुन कहीं शराब का ज्ञानवन्त सुनि लेय । मानस से पतुपा करे, द्रव्य गांठि का देय ।। अमल अहारी पातमा, कब हू न पावे पार । कहे कबीर पुकार के, त्यागो ताहि विचार र उर्दू कविता में शराब को “दुखतरे रज" (अगर की पुत्री) के नाम से अभिहित किया जाता है। इसी बात को लक्ष्य में रख कर सुप्रसिद्ध उर्दू के कवि अकबर ने व्यंगोक्ति द्वारा शराब की कितने सुन्दर शब्दों में निन्दा की है। __ उस की बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सर पर । खैरियत गुज़री कि अंगूर के बेटा न हुश्रा ॥ 'मय है इक आग, न तन इस में जलाना हर्गिज़, मय है इक नाग, करीब इस के न जाना हगिज़। मय है इक दाम, न दिल इस में फंसाना हर्गिज़, मय है इक जहर, न इस ज़हर को खाना हगिज़ । (१-शराब । २-जाल) भूल कर भी उसे तुम मुंह न लगाना हर्गिज़, For Private And Personal Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र ४४४] [ अष्टम अध्याय } भूत की तरह यह जिस सर पर चढ़ा करती है, 'हदफे 'तीरे बला उसको किया करती है। faeमने होit "ख़िरद को यह फ़ना करती है, क्या बताऊं तुम्हें अहबाब यह क्या करती है ?, कि व्यां होगा न मुझ से यह फसाना हर्गिज़ । DRINK NOT WINE NOR STRONG DRINK AND EAT NOT ANY UNCLEAN THING. ( JUDGES 13 - 4 ) अर्थात् ईसाइयों के धर्मग्रन्थ इंजील में लिखा है कि शराब मत पित्रो, नाहीं किसी अन्य मादक वस्तु का सेवन करो और नाहीं किसी अपवित्र वस्तु का भक्षण करो । पाश्चात्य लोगों ने भी मदिरासेवन का पूरा २ विरोध किया है। एक पाश्चात्य विद्वान् का कहना है कि - Wine in and wit out - अर्थात् मदिरा के भीतर प्रवेश करते ही बुद्धि बाहिर हो जाती है। इस के अतिरिक्त इस बात पर विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है कि शराब पीना स्वभाविक है या अस्वाभाविक ? | यदि शराब पीना स्वाभाविक होता तो सभी प्राणी शराबी होते । शराब न पीने वाला एक भी प्राणी न मिलता । परन्तु ऐसी बात नहीं है । सारांश यह है कि जिस के बिना जीवन निर्वाह न हो सके वही वस्तु स्वाभाविक कहलाती है । पानी के बिना कोई प्राणी जीवित नहीं रह सकता, अतः पानी जीवन के लिये स्वाभाविक है । क्या शराब के सम्बन्ध में यह बात कही जा सकती है ?, नहीं, क्योंकि हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि शराब के बिना आज करोड़ों श्रादमी जोवित रह रहे हैं । अतः यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि जिस तरह पानी का पीना मनुष्य के लिए स्वाभाविक होता है, वैसे मदिरापान नहीं होता, अर्थात् मदिरापान अस्वाभाविक है । शराब पीने वालों की जो शारीररिक, वाचनिक एवं मानसिक अवस्था होती है, वह सब के सामने ही है । उसकी यहां पुनरावृत्ति करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । मदिरापान की जितनी भी निन्दा की जाए उतनी ही कम है । मदिरा के ही कारण अनेक राजाओं तक का खून बहा है । मदिरा ने ही जोधपुर, बीकानेर और कोटा आदि के राजाओं एवं सरदारों के प्राणों का हरण किया है, ऐसा एक चारण - भाट कवि ने अपनी कविता में कहा है । इस कवि ने और भी बहुत से नाम गिनाए हैं, जो शराब के कटु परिणाम का शिकार बने हैं । इस दुष्ट मदिरा न जाने कितने कलेजे सड़ाए हैं, ? न मालूम कितने दैवी प्रकृति वालों को राक्षसी प्रकृति वाले बना डाला है १, कौन जाने इसने कितने बाद घर बर्बाद कर दिए हैं १, इसी की बदौलत असंख्य मनुष्य अपने सुखमय जीवन से हाथ धो कर दुःख के घर बने रहते हैं। जिस घर में शराब पीने का रिवाज है, उस घर की अवस्था देखने पर कलेजा मुंह को श्राता है। उस घर के स्त्रियां और बच्चे सब के सब टुकड़े २ के लिए हाय हाय करते रहते हैं, पर घर का मालिक शरात्र के चंगुल में ऐसा फंस जाता है कि उस का उस ओर तनिक ध्यान भी नहीं जाता । वह तो मात्र मदिरा के नशे में ही मस्त हो कर झूमता रहता है । वह यह नहीं सोचने पाता कि इस के फलस्वरूप मेरे धन का, शक्ति का और मेरे सम्पूर्ण जीवन का सर्वतोमुखी विनाश होता जा रहा है । इस लिये ऐसे निष्टप्रद मदिरापान से सदा विरत रहने में कल्याण एवं सुख है । सारांश यह है कि सूत्रकार ने प्रस्तुत में श्रीद रसोइए के मांसाहार तथा मदिरापान के जन्य दुष्कर्मों के फलस्वरूप उस को छठी नरक में उत्पन्न होने के कथानक से विचारशील सुखाभिलाषी पाठकों को अनमोल शिक्षायें देने का अनुग्रह किया है । इस पर से पाठकों का यह (१) निशाना (२) तीर का (३) आफत के (४) खलियान (५) अक्ल For Private And Personal Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय 1 हिन्दी भाषा टीका सहित । कर्तव्य बन जाता हैं कि वे प्राणिघात, मांसाहार तथा मदिरापान की अन्यायपूर्ण, निदित, दुर्गतिप्रद एवं दुःखमूलक सावद्य प्रवृत्तियों से अपने को सदा दूर रखें और अपना लौकिक तथा पारलौकिक श्रास्मश्रेय साधने का सुतिमूलक सत्प्रयास करें । अन्यथा श्रीद रसोइए की भांति प्राणिघातादि से उपार्जित दुष्कर्मों का फल भोगने के लिये नरकादि गतियों में कल्पनातीत दुःखों का उपभोग करना पडेगा, एवं जन्ममरणरूप दुःखसागर में डूबना पड़ेगा । -अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे- यहां पठित जाव-यावत् पद से अभिमत पदों का विवर्ण पृष्ठ ५. पर किया जा चुका है । पाठक वहीं देख सकते हैं। मच्छिया-इत्यादि पदों का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है - १ मच्छिया- मात्स्यिकाः, मत्स्यघातिनः- अर्थात् मत्स्यों को मारने वाले व्यक्ति का नाम मात्स्यिक है। २- वागुरिया-वागुरिकाः, मृगाणां बन्धकाः- अर्थात् मृगादि पशुओं को जाल में फंसाने वाला व्यक्ति वागुरिक कहलाता है । ३-साउणिया-शाकुनिकाः, पतिणां घातकाः- अर्थात् पक्षियों का घात - नाश करने वाला व्यक्ति शाकुनिक कहा जाता है । ४-दिण्णभतिभत्तवेयणा-इस पद की व्याख्या पीछे पृष्ठ २१६ पर की जा चुकी है। ५-सराहमच्छा जाव पडागातिपडागे- यहां पठित -जाव--यावत् पद-खवल्लमच्छा य जुगमच्छा य विभिडिमच्छा य हलिमच्छा य मग्गरिमच्छा य रोहियमच्छा य सागरमच्छा य गागरमच्छा य वडमच्छा य वडगरमच्छा य तिमिमच्छा य तिमिगिलमच्छा य णक्कमच्छा य तंदुलमच्छा य करिणयमच्छा य सालिमच्छा य मणियामच्छा य लंगुलमच्छा य मूलमच्छा यइत्यादि पदों का परिचायक है । श्लक्ष्णमत्स्य, खवल्लमत्स्य, युगमत्स्य, विभिडिमत्स्य, हलिमत्स्य, मगरिमत्स्य, रोहितमत्स्य. सागरमत्स्य, गागरमत्स्य, वडमत्स्य, वडगर मत्स्य, तिमिमत्स्य, तिमिङ्गिलमत्स्य, नक्रमत्स्य (नाका), तन्दुलमत्स्य (चावल के दाने जितना मत्स्य), कर्णिकमत्स्य, शालिमत्स्य, मणि कामत्स्य, लंगुलमत्स्य, मूलमत्स्य ---ये सब मत्स्यविशेषों के ही नाम हैं । ६-अए जाव महिसे - यहां पठित -जाव -यावत्-पद " -एले य रोज्झे य ससर य पसए य सूयरे य सिंघे य हरिणे य वसभे य-"इन पदों का ग्राहक है । अज आदि शब्दों का अर्थ पृष्ठ २८९ पर किया जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद षष्ठ यन्त हैं, जब कि प्रस्तुत में द्वितीयान्त हैं । विभक्तिगत भेद के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है। तथा-तित्तिरे य जाव मयूरे- यहां पठित जाव--यावत् पद-वहार य लावर य कवोए य कुक्कुड़े य-इन पदों का परिचायक है। तित्तर तीतर को, वर्तक बटेर को, लावक लावा नामक पक्षिविशेष को, कपोत कबूतर को और कुकुट मुर्गे को कहते हैं । ७-कप्पणीकप्पियाई-कल्प्यते भिद्यते यया सा कल्पनी-छुरिका, कर्जीकेत्यर्थःअर्थात् छुरी या कैंची से काटे हुए मांस कल्पनीकर्तित कहलाते हैं । प्रस्तुत में -सरहखण्डियाणि अादि जितने पद हैं वे सब मांस के विशेषण हैं । इन की व्याख्या निम्नोक्त है - १- सण्हखण्डियाणि-सूक्ष्मरूपेण खण्डीकृतानि -- अर्थात् जिसे सूक्ष्मरूप से खण्डित किया गया है । तात्पर्य यह है कि जिस के छोटे २ टुकड़े किये गए हैं वह सूक्ष्मखण्डित कहलाता है। __२-वदीहरहस्सखण्डियाणि - वृत्तं च दोघं च ह्रस्वं च एषां समाहारः वृत्र" वृत्तदीर्घह्रस्वरूपेण खण्डितानि । वृत्तखण्डितानि - गोलाकारेण खण्डीकृतानि, दीर्घख For Private And Personal Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री विपाक सूत्र - [ अष्टम अध्याय ४४६] दीर्घरूपेण खण्डितानि, ह्रस्वखण्डितानि --हस्त्ररूपेण खण्डितानि - अर्थात् वर्तुल - गोलाकार वाले खण्डित पदार्थ वृत्तखण्डित, दोर्घ - लम्बे आकार वाले खण्डित पदार्थ दीर्घखण्डित, ह्रस्व - छोटे २ आकार वाले खण्डित पदार्थ ह्रस्व वरिडत कहलाते हैं । प्रस्तुत में ये सब पद मांस के विशेषण होने के कारण - वृत्तखण्डित मांस. दीर्घ खण्डित मांस और ह्रस्वबण्डित मांस - इस अर्थ के परिचायक है । ३- हिमपक्काणि हिमपक्वानि - अथात् हिम बर्फ का नाम है, बर्फ में पकाये गये हिमपक्व कहलाते हैं । ४ – जम्प्रघम्ममारुयपक्काणि - जन्मधर्ममारुतपक्वानि । प्रस्तुत में जन्म पक्व, धर्म - ura और मारुतपक्व ये तीन पद हो सकते हैं। जन्मपक्व शब्द स्वतः ही पके हुए के लिये प्रयुक्त होता है, अर्थात् जिस के पकाने में हिम, धूप तथा हवा आदि विशेष करण न हों, वह जन्मपत्र कहलाता धूप में पाया गया हो उसे धर्मपक्त्र कहते हैं, और जो मारुत - हवा में पकाया गया हो, वह मारुतपक्व कहलाता है, अर्थात् वाष्प - भाफ आदि द्वारा पक्व मारुतपक्व कहा जाता है ५ - कालाणि - कालानि इस पद के दो अर्थ उपलब्ध होते हैं। जैसे कि १ - जो किसी भी साधन से कृष्णवर्ण वाला बनाया गया हो. वह काल कहलाता है । २ - काल शब्द प्रस्तुत में कालपक्व इस अर्थ का बोधक है । तात्पर्य यह है कि समय के अनुसार अर्थात् शीत, ग्रीष्म, वर्षादि ऋतुओं या प्रातः, मध्याह्न आदि काल के अनुसार पके हुए को कालपक्व कहते हैं । । ६ – हेरंगाणि – इस पद के भी दो अर्थ किये जाते हैं। जैसे कि १ - जो हिंगुल - सिंगरफ़ के समान लाल वर्ण वाला किया गया है, उसे हेरंग कहते हैं । अथवा २ - मत्स्य के मांस के साथ जो पकाया गया है वह हेरंग कहलाता है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७ - महिद्वाणि – कोषकारों के मत में महिट्ट यह देश्य – देशविशेष में बोला जाने वाला पद है, और तक्र से संस्कारित इस अर्थ का परिचायक हैं । ८ - श्रामलगरसियाणि - श्रामलकर सितानि अर्थात् जो आंवले के रस से संस्कारित हो उसे श्रामलकर सित कहते हैं । ९ - मुद्दिश्राकविदालिमरसियाणि मृडीकाकपित्थदाडिमरसितानि अर्थात् मृद्वीका - द्राक्षा के रस से संस्कारित मृद्रोकारसित, कपित्थ कैथ ( एक प्रकार का कटीला पेड़ जिस में बेर के समान तथा आकार के कसैले और खट्ट े फल लगते हैं) के फलों के रस से संस्कारित कपित्थर सित, और दाडिम - अनार के रस से संस्कारित दाडिमरसित कहा जाता है 1 १० - मच्छर सियाणि मत्स्यरसितानि, अर्थात् मत्स्य के रस से संस्कारित मत्स्यरसित कहलाता है । - ११ - तलियाणि य भज्जियाणि य सोल्लियाणि य- - तलितानि च तैलादिषु, भर्जितानि च अंगारादिषु शूल्यानि च शूलपक्वानि शूले धृत्वा अंगारादिषु पक्वानि, अर्थात् तैलादि में तले को तलत, गारादि पर भूने हुए को भर्जित तथा शूला के द्वारा अंगारादि पर पकाया गया मांस शूल्य कहलाता है । हुए तितिर जाव मयूररसप यहां पटित जाव - यावत् पद - वट्टगरसए य लावगरसए य कपोयरमए य कुक्कुडरस य - इन पदों का, तथा - बहूहिं जाव जलयर - यहां पठित जाव - यावत् पद - सराहमच्छ मंसेहि य खवल्लमच्छ मंसेहि य से लेकर पडागातिपडागमच्छमंसेहि य-यहां तक के पदों का, तथा श्रयमंसेहि य एलमंसेहि य- से लेकर – महिसमंसेहि य- यहां तक के पदों का तथा - तितरमंसेहिय वहगमं सेहि य-से ले कर - मयूरमंसेहि य- यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार - For Private And Personal Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित। [४४७ को अभिमत है। -सुरं च ६-यहां के अंक से-मधुच मेरगं च जाति च सीधुच पसन्नं च--इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन का अर्थ पृष्ठ १४४ पर लिखा जा चुका है । तथा-आसादेमाणे ४ - तथा -एयकम्मे ४ -- यहां के अंको से अभिमत पाठ क्रमशः पृष्ठ २५० पर और १७९ की टिप्पण में लिखा जा चुका है। अब सूत्रकार श्रीद महानसिक के अग्रिम जीवन का वर्णन करते हैंमून-तते णं सा समुदात्ता भारिया जायनिद्द या यावि होत्था, जाया जाया दाग्गा विणिघायमावज्जंति, जहा गंगादत्ताए विता। आपुच्छणा । श्रावयाइयं, दोहलो जाव दागं पयाता, जाव जम्हाणं अहं इमे दारए सोरियस्स जक्खस्स उवाइयलद्धए, तम्हा णं हाउ अम्हं दारए सोरियदत्ते णामेण । तते णं से सोरिए दारए पंचधाती० जाव उम्मुक्कबालभावे विएणयपरिणयमेत्ते जोव्वणगमणुप्पचे यावि हात्था । तते ण से समुद्ददत्ते अन्नया कयाइ कालधम्मणा संजुत्ते । तते णं से सोरिए दारए वहूहि मिन० रोयपाणे ३ समददत्तस्स णीहरणं करेति २ नोइयाई पयकिसनाई करेति । पार्थ-तते णं-तदनन्तर । सा-वह । समुददत्ता - समुद्रदत्ता । भारिया-भार्या । जायनिया - जातनिद्रुता-मृतवत्सा । यावि होत्था-भो थी, उस के । जाया जाया-उत्पन्न होते ही । दारगा-बालक । विणिवायमावज्जति-विनिघात - विनाश को प्राप्त हो जाते थे । जहाजैसे । गंगादत्तार-गंगादत्ता को । विता-विचार उत्पन्न हुए थे, तद्वत् समुद्रता के भी हुए । आपुच्छणा-पति से पूछना । अोवाइयं-यक्षमंदिर में जाकर मन्नत मानना। दोहलो- दोहद उत्पन्न हुआ। जाव- यावत् अर्थात् उस की पूर्ति को । दारगं-बालक को । पयाता - जन्म दिया। जाव - यावत् । जम्हा णं-जिस कारण । अम्हं -हमको । इमे - यह । दाए-बालक । सोरियस्स-शौरिक । जाखस्स -यक्ष की । उवाइयलद्धए --मन्नत मानने से उपलब्ध हुअा है । तम्हा णं- इसलिये । अम्हं-हमारा । दारए-यह वालक । सोरियदत्त -शोरेकदत्त । णामेणं-नाम से । होउहो । तते णं -तदनन्तर । से-वह । सोरिर-शौरिक । दारए बालक । पंचधाती०-पांच धाथमाताओं से परिगृहोत । जाव-यावत् । उम्मुरबानमावे-बालभाव को त्याग कर । विरा गयपरिणयमेत्त-विज्ञान की परिणत-परिपक्व अवस्था को प्राप्त हुआ। जोवणगमणुप्पत्त यावि-युवावस्था को सम्प्राप्त भी। होत्था-हो गया था। तते णं-तदनन्तर अर्थात् उस के पश्चात् । से-वह । समुद्ददत्त-समुद्रदत्त । अन्नया- अन्य । कयाइ-किसी समय । कालधम्मुणा-कालधर्म से । संनुत्ते-संयुक्त हुअा अर्थात् मृत्यु को प्राप्त हो गया । तते णं – तदनन्तर अर्थात् मृत्युधर्म प्राप्त होने के अनन्तर। से-वह । सोरिए-शौरिक । दारए-बालक । बहूहिं- अनेक । मित्त-मित्रों, निजकजनों, स्वजनों-सम्बन्धिजनों, और परिजनों के साथ । रोयमाणे ३ -- रुदन, प्रा. (१) छाया-तत: सा समुद्रदत्ता भार्या जातनिद्रुता चाप्यभवत् । जाता जाता दारका विनिधातमापद्यते। यथा गंगादत्तायाः चिन्ता । आप्रच्छना । उपयाचितम् । दोहदो यावद् दारकं प्रजाता यावद् यस्मादस्माकमयं दारक: शौरिकस्य यक्षस्य उपयाचितलब्धः तस्माद् भवत्वस्माकं दारक: शौरिकदत्तो नाम्ना । तत: स शौरिको दारक: पञ्चधात्री० यावदुन्मुक्तबालभावो विज्ञकपरिणतमात्रो यौवनकमनुप्राप्तश्चाप्यभवत् । ततः स समुद्रदत्तोऽन्यदा कदाचित् कालधर्मेण संयुक्तः । ततः स शौरिको दारको बहभिर्मित्र. रुदन् ३ समुद्रदत्तस्य निस्सरणं करोति २ लौकिकानि मृतकृत्यानि करोति । For Private And Personal Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४४८] श्रो विपाक सूत्र [ अष्टम अध्याय क्रन्दन और विलाप करता हुआ । सहदत्तस्स-समुद्रदत्त का । णीहरणं-निस्सरण - अरथी का निष्कासन । करेति करता है तथा । लोइयाई-लौकिक । मयकिच्चाई-मृतकसम्बन्धी कृत्यों को । करेति -- करता है । मूलार्थ-- उस समय समुद्र दत्ता भार्या जानिद्र ता - मृतवत्मा थी, उस के बालक जन्म लेते ही मर जाया करते थे । गंगादत्ता की भान्ति विचार कर, पति से पूछ कर, मन्नत मान कर तथा दोहद की पूर्ति कर समुद्रदत्ता बालक को जन्म देती है। बालक के शौरिक यक्ष की मन्नत मानने से उपलब्ध होने के कारण माता पिता ने उस का शौरिकदत्त नाम रक्खा । तदनन्तर पांच धाय माराओं से परिगृहीत बाल्यावस्था को त्याग, विज्ञान की परिपक्व अवस्था से सम्पन्न हो वह युवावस्था को प्राप्त हुआ । तदनन्तर किसी अन्य समय समुद्रदत्त कालधर्म को प्राप्त हुआ, तब रुदन, आक्रन्दन और विलाप करते हुए शौरिकदत्त चालक ने अनक मित्रों, ज्ञातिजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों एवं परिजनों के साथ समुद्रदत्त का निस्सरण किया-अरथी निकाली और दाहकम एवं अन्य लौकिक मृतकक्रियाएं की।. टीका- चपलता करने वाला एक वानर चाहे अपनी उमंग -खुशी में लकड़ो के चीरे हुए फटों में लगाई गई कोली को बैंच लेता है, परन्तु उन्हीं फट्टों के बीच में जिस समय उस की पूछ या अण्डकोष भिच जाते हैं तो वह चीखें मारता और अपनी रक्षा का भरसक यत्न करता है, परन्तु अब सिवाय मरने के उस के लिये कोई चारा नहीं रहता । ठीक इसी तरह पापकर्मों के आचरण में आनन्द का अनुभव करने वाले व्यक्ति चाहे कितना भी प्रसन्न हो ल परन्तु कर्मफल के भोगते समय वे उसी तरह चिल्लाते हैं, जिस तरह चपलता के कारण कीली को निकालने वाला मूर्ख वानर अण्डकोषों के पिस जाने पर चिल्लाता है। सारांश यह है कि उपार्जित किया कर्म अपना फल अवश्य देता है। चाहे करने वाला कहीं भी चला जाय । श्रीद रसोइया राजा को प्रसन्न करने के लिये मच्छियों के शिकार करने और उन के मांसों को विविध प्रकार से तैयार करने तथा अपनी जिह्वा को आस्वादित करने के लिये जिस भयानक जीववध का अनुष्ठान किया करता था, उसी के फलस्वरूप उसे छठी नरक में उत्पन्न होना पड़ा । वहां पर उसे अपने कर्मानुरूप नरकजन्य भीषणातिभीषण वेदनाए भोगनी पड़ी। भगवान महावीर स्वामी कहने लगे कि हे गौतम ! जिस समय श्रीद रसोइया छठी नरक में पड़ा हुआ स्वकृत अशुभ कमों के फल को भोग कर वहां की भवस्थिति को पूरा करने वाला ही था, उस समय इसी शौरिकपुर नगर के मत्स्यबन्धक-मच्छीमारों के मुहल्ले में रहने वाले समुद्रदत्त नामक मच्छीमार की भार्या जात. निद्रुता- मृतवत्सा थी, उस के बालक उत्पन्न होते ही मर जाया करते थे। अतएव वह अपनी गोद को खाली देख कर बड़ी दु:खी हो रही थी। उस की दशा उस किसान जैसी थी, जिस की खेती - फसल पक जाने पर ओलों की वर्षा से सर्वथा नष्ट भ्रष्ट हो जाती है । सन्ततिविरह से परम दुःखी हुई समुद्रदत्ता ने भी गगादत्ता अव्यापारेषु व्यापार, यो नर: कतुमिच्छति। स एव निधनं याति, कीलोत्पाटीव वानरः ॥ (पंचतंत्र) (२) गंगादत्ता का सारा जीवनवृत्तान्त दुःखविपाक के सप्तम अध्ययन में आ चुका है, वह भी जातनिद्रता थी, उसने भी रात्रि में अपने परिवार के सम्बन्ध में चिन्तन किया था, जिस में उसने पति से अाज्ञा ले कर उम्बरदत्त यक्ष के अाराधन का निश्चय किया था और तदनुसार उसने पति की आज्ञा ले कर उम्बरदत्त यक्ष की मन्नत मानी तथा गर्भस्थिति होने पर उत्पन्न दोहद की पूर्ति की। सारांश यह है कि जिस For Private And Personal Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकार गंगादत्ता ने अर्द्धरात्रि में कुटुम्बसम्बन्धी चिन्तन किया था, तथा उस ने सम्बन्धी चिन्तन के किया। उसी प्रकार समुद्रदत्ता ने भी रात्रि में परिवार 'शौरिक यक्ष की मनौति मामने का संकल्प किया । For Private And Personal अष्टम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । की भान्ति रात्रि में परिवारसम्बन्धी विचारणा के अनन्तर अपने पति से आज्ञा ले कर शौरिक नामक युव की सेवा में उपस्थित हो पुत्रप्राप्ति के लिए याचना की, और उसकी मन्नत मानी । तदनन्तर समुद्रदत्ता को भी यथासमय गर्भ रहने पर गंगादत्ता के समान दोहद उत्पन्न हुआ और उस की, गंगादत्ता के दोहद की तरह ही पूर्ति की गई । लगभग सवा नौं मास पूरे होने पर समुद्रदत्ता ने एक सुन्दर बालक को जन्म दिया । बालक के जन्म से सारे परिवार में हर्ष मनाया गया और कुलमर्यादा के अनुसार जन्मोत्सव मनाया तथा बारहवें दिन बालक का नामकरण संस्कार किया गया । शौरिक नामक यक्ष की मन्नत मानने से प्राप्त होने के कारण माता पिता ने अपने उत्पन्न शिशु का नाम शौरिकदत्त रक्खा । शौरिकदत्त बालक का, - १ - गोद में रखते वाली, २- कीड़ा कराने वाली, ३ - दुग्धपान कराने वाली, ४- स्नानादिक क्रियायें कराने वाली और ५- अलंकारादि से शरीर को सजाने वाली, इन पांच धायमाताओं के द्वारा पालन पोषण आरम्भ हुआ । वह उनकी देख रेख में शुक्लपक्षीय शशिकला की भान्ति बढ़ने लगा । विज्ञान की परिपक्व अवस्था तथा युवावस्था को प्राप्त होता हुआ वह सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा 1 समय की गति बड़ी विचित्र है, इस के प्रभाव में कोई भी बाधा नहीं डाल सकता । मनुष्य थोड़ी सी आयु लेकर चाहे समय के वेगपूर्वक चलन को स्मृति से ओझल कर दे, किन्तु समय एक चुस्त, चालाक और सावधान प्रतिहारी की भांति अपने काम करने में सदा जागरूक रहता है, तथा प्रत्येक पदार्थ पर अपना प्रभाव दिखाता रहता है । तद्नुसार समुद्रदत्त भी एकदिन समय के चक्र की लपेट में आ जाता है और अचानक मृत्यु की गोद में सो जाता है । पिता की अचानक मृत्यु से शौरिकदृ को बड़ा खेद हुआ, उस के सारे सांसारिक सुख पर पानी फिर गया । पिता के जोते जी जिवनी स्वतन्त्रता उसे प्राप्त थी, वह सारी की सारी जाती रही और विपरीत इस के उस पर अनेक प्रकार के उत्तरदायित्व का बोझ आ पड़ा, जोकि उस के लिये सर्वथा असह्य था । पिता की मृत्यु से उद्विग्न हुए शौरिकदत्त ने मित्र ज्ञाति आदि के सहयोग से पिता का और्द्धदेहिक संस्कार करने के साथ २ विधिपूर्वक मृतक - सम्बन्धी कियाओं का सम्पादन कर के अपने पुत्रजनोचित कर्तव्य का पालन किया । ! T2 99 - जायनिदुया - शब्द के अनेकों रूप उपलब्ध होते हैं। प्राकृतशब्दमहार्णव नामक कोष में- जायनिदुया - यह शब्द मान कर उस का संस्कृत प्रतिरूप “ – जातनिदुता- ऐसा दे कर साथ में उसका मृतवत्सा, ऐसा अर्थ लिखा है। अर्धमागधी कोष में “ - जायनिंद्र या जातनिद्रता - "ऐसा मानकर उस का "जिस के जन्म पाए हुए बालक तुरन्त मर जाते हैं अथवा मृतक पैदा होते हैं वह माता” ऐसा अर्थ लिखा है। टीकाकार श्री अभयदेवसूरि - जायणिदुया - ऐसा रूप मान कर इस की" - जातानि उत्पन्नानि अपत्यानि निद्रु तानि - निर्यातानि मुतानीत्यर्थो यस्याः सा जातनिर्द्धता – ” ऐसी व्याख्या करते हैं । अर्थात् जिस को सन्तति उत्पन्न होते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाए उसे जातनिङ्गुता कहते हैं । श्रभिधानराजेन्द्रकोषकार जाय निर्धुया की अपेक्षा मात्र हिन्दू - ऐसा ही मानते हैं और इस की “ – मृतप्रजायां स्त्रियाम्, निन्दू महेला यह यदपत्यं प्रसूयते तत्तन्त्रियते, एवं यः श्राचार्यों यं यं प्रवाजयति स स म्रियतेऽपगच्छति वा ततः स निन्दुरिव निन्दुः - " ऐसी व्याख्या करते हैं । अर्थात् - निन्दू शब्द के १ - जिस स्त्री की उत्पन्न हुई प्रत्येक 1 सन्तान मर जाए वह स्त्री अथवा - २ - वह आचार्य जिस का प्रत्येक प्रब्रजित शिष्य या तो मर जाता. या निकल जाता है – संयम छोड़ जाता है, वह ऐसे दो अर्थ करतें हैं । तथा 'शब्दार्थचिन्तामणि T E atte उम्बरदत्त यक्ष का श्राराधन अनन्तर पति से आशा ले कर Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४५०] .. श्री विपाक सुत्र-- [अष्टम अध्याय in..................... नामक कोष में-निन्दुः-ऐसा मान कर उस की:-मृतवत्सायाम् । निंद्यतेऽप्रजात्वेनाऽसौ-"ऐसा अर्थ किया है। अर्थात् सन्तति के विनष्ट हो जाने से जो नारी निंदा का भाजन बने वह । दूसरे शब्दों में मृतवत्सा को निन्दु कहते है। संस्कृतशब्दार्थकौस्तुभ नामक कोष में -निन्दु:-ऐसा रूप मानते हुए उस का ". जिस के पास मरा हुआ बच्चा हो वह -ऐसा अर्थ लिखा है । इन सभी विकल्पों में कौन विकल्प वास्तविक है ।, यह विद्वानों द्वारा विचारणीय है ? -जहा गंगादत्ताप चिन्ता- यहां पठित चिन्ता पद पृष्ठ ३९६ तथा ३९७ पर पढ़े गये "-एवं वा अहं सागरदत्तणं सत्थवाहेणं सद्धिं बहूइ वासाइ उरालाई-से ले ३र-प्रोवाइयं उवाइणित्तए एवं संपेहेति-"यहां तक के पदों का परिचायक है । अंतर मात्र इतना है कि वहां सेठानी गंगादत्ता तथा सागरदत्त सार्थवाह एवं उम्बरदत्त यक्ष का नामोल्लेख है, जब कि प्रस्तुत में समुद्रदत्त मत्स्यबंध - मच्छीमार तथा समुद्रदत्ता एवं शौरिक यक्ष का। नामगत भिन्नता की भावना कर लेनी चाहिये। शेष वर्णन समान ही है। -श्रापुच्छणा-यह पद पृष्ठ ३९७ पर पढ़े गये "-तं इच्छामि णं देवाणुप्पिए ! तुब्भेहिं अम्भणुराणाता जाव उवाइणित्तर-"इस पाठ का बोधक है । अर्थात् जिस तरह गंगादत्ता ने सेठ सागरदत्त से उम्बरदत्त यक्ष की मनौति मानने के लिये पूछा था, उसी प्रकार समुद्रदत्ता ने मत्स्यबध-मच्छीमार समुद्रदत्त को शौरिक यक्ष की मनौती मानने की अभ्यर्थना की । - -श्रोवयाइयं - यह पद "-तते णं सा समुद्ददत्ता भारिया समुददत्तणं मच्छंधेणं एतमढे अब्भणुगणाता समाणी सुबहुं पुष्फ० मित्त० महिलाहिं -" से ले कर -तो णं जाव उवाइणति उवाइणित्ता जामेव दिसं पाउन्भूता तामेव दिसं पडिगता- यहां तक के पदों का परिचायक है । इन पदों का अर्थ सप्तमाध्ययन में पृष्ठ ४०६ तथा ४०७ पर लिखा जा चुका है । अर्थात् जिस तरह गंगादत्ता ने सेठ सागरदत्त से आजा मिल जाने पर उम्बरदत्त यक्ष के पास पुत्रप्राप्ति के लिये मनौती मानी थी, उसी प्रकार समुद्रदत्त मत्स्यबंधक-मच्छीमार से आज्ञा प्राप्त कर समद्रदत्ता ने पुत्रप्राप्ति के लिये शौरिक यक्ष के सामने मनौती मानी । नामगत भिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है । दोहलो जाव दारगं-यहां पठित जाव-यावत्-पद से पृष्ठ ४०९ से लेकर पृष्ठ ४१० तथा ४१३ पर पढ़े गए " - धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव फले-" से ले कर" - वराहं मासाणं बहुपडिपुराणाणं-" यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। वर्णन समान होने पर भी नामगत भिन्नता यहां पर पूर्व की भान्ति जान लेनी चाहिये । -पयाता जाव जम्हा-यहां पठित जाव - यावत् पद पृष्ठ ४१४ पर पठित "-ठिति जाव नामधिज्ज करेन्ति-" इन पदों का परिचायक है। तथा-पंचधातो. उम्मुक्कवालभावे-यहां पठित जाव -यावत् पद पृष्ठ १५७ पर पढ़े गए"-परिग्गहिते तंजहा-वीरधातीर-"से ले कर" -सुहंसुहेणं परिवड्ढति-"यहां तक के पदों का, तथा"--तते णं से सोरियदत्त-"इन पदों का परिचायक है। -मित्त० रोयमाणे - यहां दिये गये बिन्दु से" -णाइ-नियग-सयण-सम्बन्धि-परिजणेणं सद्धिं संपरिबुडे- इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। मित्र आदि पदों का अर्थ पृष्ठ १५० के टिप्पण में लिखा जा चुका है । अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में शौरिकदत्त के अग्रिम जीवन का वर्णन करते हैं - मूल--'अन्नया कयाइ सयमेव मच्छंधपहत्तरगत्तं उवसंपज्जित्ता णं विहरति । (१) छाया-अन्यदा कदाचित् स्वयमेव मत्स्यबन्धमइत्तरकत्वमुपसंपद्य विहरति । तत: स शौरिको दारको मत्स्यवन्धो जातः, अधार्मिको यावत् दुष्प्रत्यानन्दः । ततस्तस्य शौरिकमत्स्यबन्धस्य For Private And Personal Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [५१ तते णं से सोरिए दारए मच्छन्धे जाते, अधम्पिए जाव दुप्पडियाणंदे । तते थे तस्स सोरियमच्छंधस्स बहवे पुरिसा दिन्नमतिमत्तवेयणा कल्लाकल्लिं एगट्ठियाहिं जउणं महणदिं श्रोगाहंति ओगाहित्ता बहूहिं दहगलणेहि य दहमलणेहि य दहमदणेहि य दहमहणेहि य दहवहणेहि य दहपवहणे हे य पयंचुलेहि य पवंपुलेहि य जम्भाहि य तिसराहि य भिसराहि य घिसराहि य विसराहि य हिल्लिरीहि य झिल्लिरीहि य लल्लिरीहि य जालेहि य गलेहि य कूड़पासेहि य वक्कबंधेहि य सुत्तबंधेहि य वालवंधेहि य बहवे सोहमच्छे य जाव पडागातिपडागे य गेएहति गरिहत्ता एगट्टियाउ भरेंति भरित्ता कूलं गाहेति गाहित्ता मच्छखलए करेंति करित्ता आयवंसि दलयंति । अन्ने य से बहवे पुरिसा दिन्नभतिभत्तवेयणा आयवतत्तेहि मच्छेहि सोल्लेहि य तलितेहि य भज्जितेहि य रायमग्गसि वित्तिं कप्पेमाणा विहरति । अप्पणावि य णं से सोरिए बहूहि सएहमन्छेहि जाव पडागातिपडागेहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिएहि य सुरं च ६ आसाएमाणे ४ विहरति । पदार्थ-अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय । सयमेव-स्वयं ही । मच्छधमहत्तरगतं-मत्स्यबंधों-मच्छीमारों के महत्तरकत्व-प्रधानत्व को । उवसंपज्जित्ता णं-प्राप्त कर। विहरतिविहरण करने लगा । तते णं-तदनन्तर । से-वह । सोरिए-शौरिक । दारए-बालक । मच्छंधेमत्स्यबन्ध-मच्छीमार । जाते-हो गया, जो कि । अधम्मिए-अधर्मी । जाव-यावत् । दुप्पडियाणंदेदुष्प्रत्यानन्द -अति कठिनाई से प्रसन्न होने वाला, था । तते णं--तदनन्तर । तस्स-उस । सोरियमच्छंधस्स-शौरिक मत्स्यबंध मच्छीमार के। दिनभतिभत्तवेयणा-जिन्हें वेतनरूप से रुपया पैसा और धान्यादि दिया जाता हो, ऐसे । बहवे - अनेक । पुरिसा-पुरुष । कल्जाकल्ति - प्रतिदिन । एगठ्ठियाहिं- छोटी नौकाओं के द्वारा । जउणं - यमुना नामक । महाणदिं - महानदी का । ओगाहंति श्रोगाहित्ता-अवगाहन करते हैं - उस में प्रवेश करते हैं, अवगाहन कर के। बहूहिं-बहुत से। दहगलणेहि य-हृदगलन-हद-मील या सरोवर का जल निकाल देने से। दहमलणेहय-हृदम जल के मर्दन करने अर्थात दरिया के मध्य में पौन:पुन्येन परिभ्रमण करने से अथवा जल निकालने पर उस के कीचड़ का मर्दन करने से । दहमदणेहि य-हृदमर्दन अर्थात् थूहर का दूध डाल कर जल को विकृत करने से । वहमहणेहि य - हृदमथन-हृदगत जल को तरुशाखाअो द्वारा विलोडित करने से । दहवहणेहि य-हृदबहन हृद में से नाली आदि के द्वारा जल के बाहिर निकालने से । दहपवहणेाह यहृदप्रवहण - हृदजल को विशेषरूपेण प्रवाहित करने से । पयंचुलेहि य-मत्स्यबन्धनविशेषों से | पवंपलेहि यबहवः पुरुषाः दत्तभृतिभक्त वेतना कल्याकल्यमे कास्थिकाभिर्यमुना महानदीमवगाहन्ते अवगाह्य बहुभिहदगलनश्च हृदमलनैश्च हृदमर्दनैश्च हृदमथनैश्च हृदवहनश्च हृदप्रवहणश्च प्रपंचुलैश्च प्रपंपुलेश्व भाभिश्च त्रिसराभिश्च भिसराभिश्च घिसराभिश्च द्विसराभिश्च हिल्लिरीभिश्च झिल्लिरीभिश्च लल्लिरीभिश्च - जालेश्च गलेश्च कूटपाशेश्च वल्कबन्धैश्च सूत्रबन्धेश्च वाजबन्धैश्च बहून् इलक्ष्णमास्यांश्च यावत् पताकातिपताकाश्च गृह्णन्ति गृहीत्वा नावो भरंति भृत्वां कूलं गाहंते गाहित्वा मत्स्यखलानि कुर्वन्ति कृत्वा आतपे दापयन्ति । अन्ये च तस्य बहवः पुरुषाः दत्तभृतिभक्तवेतनाः प्रातपतप्तमत्स्यैः शूल्यैश्च सलितैश्च भर्जितैश्च (भृष्टेश्च) राजमार्ग वृत्ति कल्पयन्तो विहरन्त । अात्मनापि च स शौरिको बहुभिः श्लदणमत्स्ययावत् पताकातिपताकैश्च शूल्यैश्च तलितेश्च भर्जितैश्च सुरां च ६ आस्वादयन् ४ विहरति । For Private And Personal Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [अष्टम अध्याय मत्स्यों-मच्छों को पकड़ने के जालविशेषों से । जम्माहि य-बन्धनविशेषों से । तिसराहि य -त्रिसरा--मत्स्य बन्धनविशेषों से । भिसराहि य-मत्स्यों को पकड़ने के बन्धनविशेषों से । घिसराहि य-मत्स्यों को पकड़ने के जालविशेषों से । विसराहि य -मत्स्यों को पकड़ने के जाल विशेषों से । हिल्लिरीहि य-मत्स्यों को पकड़ने के जालविशेषों से, तथा । झिल्लिरीहि य - मत्स्यबन्धनविशेषों से । लल्लिरीहि य-मत्स्यों को पकड़ने के साधनविशेषों से, और । जालेहि य - सामान्य जालों से । गलेहि य--वडिशों- मत्स्यों को पकड़ने की कुडियों से । कुडपासे हि य-कूटपाशों से अर्थात् मत्स्यों को पकड़ने के पाशरूप बन्धनविशेषों से। वक्कबंधेहि य - वल्कत्वचा आदि के बन्धनों से । सुत्तबंधेहि य--सूत्र के बन्धनों से, और । वालबंधेहि य-वालों - केशों के बन्धनों से । बहवे- बहुत से । सराहमच्छे य - कोमल मत्स्यों को । जाव - यावत् । पडागा. तिपडागे य-पताकातिपताक, इस नाम के मत्स्यविशेषों को । गेहति गरि हत्ता-पकड़ते हैं, पकड़ कर । एगठिया उ-छोटी नौका प्रों को। भरति भरिता-भरते हैं, भर कर । कूलं-किनारे पर । गाहेति गाहित्ता-लाते हैं, लाकर, बाहिर की भूमि अर्थात् बाहिर के जलरहित स्थान पर मच्छवलर - मत्स्यों के ढेर । करति करित्ता- लगाते हैं, ढेर लगा कर, उन को सुखाने के लिये । प्राययंसि - धूप में । दलयंति - रख देते हैं । अन्ने य-और । से-उस के । बहवे-बहुत से । दिन्नभतिभत्तवेयणा-रुपया पैसा और धान्यादिरूप वेतन लेकर काम करने वाले । पुरिसा - पुरुष । आयवततोहिं-आतप-धूप में तपे हुए । सोल्लेहि य-शूलाप्रोत किए हुए, तथा । तजितेहि य - तले हुए, तथा । भजितेहि य-भर्जित - भूने हुए । मच्छेहि- मत्स्यमांसों के द्वारा अर्थात् धूप से तप्त -सूखे हुए मत्स्यों के मांसों को शूल द्वारा पकाते हैं, तेल द्वारा तलते हैं, तथा अंगारादि पर भनते हैं, तदनन्तर उन को । रायमग्गंसि-राजमार्ग में, रख कर बेचते हैं, इस तरह अपनी)। वित्ति-आजीविका । कप्पेमा. णा-करते हुए । विहरंति-समय बिता रहे हैं । अप्पणावि य णं-और स्वयं भी । से- वह । सोरिए-शौरिंकदत्त । बहूहिं-अनेकविध । सराहमच्छेहिं - इलक्ष्णमास्यों । जाव - यावत् । पडागातिपडागेहि य-पताकातिपताक नामक मत्स्यविशेषों के मांसों, जो कि । साल्लेहि य - शूलाप्रोत किए हुए हैं, तथा । तलितेहि य-तले हुए हैं । भन्जिएहि य-भुने हुए हैं, के साथ । सुरं च ६-छः प्रकार की सुराओं का । श्रासाएमाणे ४-आस्वादनादि करता हुआ । विहरांत-विहरण कर रहा हैसमय व्यतीत कर रहा है । मूलार्थ-किसी अन्य समय वह -शौरिकदत्त स्वयं ही मच्छीमारों के नेतृत्व को प्राप्त करके विहरण करने लगा। वह महा अधर्मी-पापी यावत् इस को प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन था । इसने रुपया, पैसा और भोजनादि रूप वेतन लेकर काम करने वाले अनेक वेतनभोगो पुरुष रखे हुए थे, जो कि छोटो नौकाओं के द्वारा यमुना नदी में घूमते और बहुत से हृदगलन, हृदमलन, हनमर्दन, ह्रदमंथन, हृदवहन तथा हृदप्रवहन से एवं प्रपंचुल, प्रपंपुल, जम्भा, त्रिसरा भिसरा, घिसरा, द्विसरा, हिल्लिरि, झिल्लिरि, लल्लिरि, जाल, गल, कूट पाश, वस्क-बन्ध, सूत्रबन्ध और वालबन्ध इन साधनों के द्वारा अनेक जाति के सूक्ष्म अथवा कोमल मत्स्यों यावत् फ्ताकातिपताक नामक मत्स्यों को पकड़ते हैं और पकड़ कर उन से नौकायें भरते हैं, भर कर नदी के किनारे पर उन को लाते हैं, लाकर बाहिर एक स्थल पर ढेर लगा देते हैं, तत्पश्चात् उन को वहां धूप में सूखने के लिए धर देते हैं। ___ इसी प्रकार उस के अन्य रुपया पैसा और धान्यादि ले कर काम करने वाले वेतनभोगी पुरुष धूप से सूखे हुए उन मत्स्यों-मच्छों के मांसों को शूलाप्रोत कर पकाते, तलते For Private And Personal Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । और भूनते, तथा उन्हें राजमार्ग में विक्रयाथें रख कर उनके द्वारा वृत्ति-आजीविका करते हुए समय व्यतीत कर रहे थे । इस के अतिरिक्त शौरिकदत्त स्वयं भी उन श लाप्रात किए हुए, भने हुए और तले हुए मत्स्यमांसों के साथ विविध प्रकार की सुराओं का सेवन करता हुआ समय व्यतीत करने लगा। टीका-प्रकृति का प्रायः यह नियम है कि पुत्र अपने पिता के कृत्यों का ही अनुसरण किया करता है । पिता जो काम करता है प्रायः पुत्र भी उसी को अपनाने का यत्न करता है, और अपने को वह उसी काम में अधिकाधिक निपुण बनाने का उद्योग करता रहता है । समुद्रदत्त मत्स्यबन्धमच्छीमार था, परम अधर्मी और परम दुराग्रही था, तदनुसार शौरिकदत्त भी पतृकसम्पत्ति का अधिकारी होने के कारण इन गुणों से वंचित नहीं रहा । पिता की मृत्यु के कुछ दिनों के बाद शौरिकदत्त ने पिता के अधिकारों को अपने हाथ में लिया अर्थात पिता की भांति अब वह सारे मुहल्ले का मुखिया बन गया । मुहल्ले का मुखिया बन जाने के बाद शौरिकदत्त भी पिता को तरह अधर्मसेवी अथच महा लोभी और दुराग्रही बन गया । अपने हिसाप्रधान व्यापार को अधिक प्रगति देने के लिये उसने अनेक ऐसे वेतनभोगी पुरुषों को रखा जोकि यमुना नदी में जा कर तथा छोटी २ नौकाओं पर बैठ कर भ्रमण करते तथा अनेक प्रकार के साधनों के प्रयोग से विविध प्रकार की मछलियों को पकड़ते तथा धूप में सुखाते, इसी भांति, अन्य अनेकों वेतनभोगी पुरुष धूप से तप्त - सूखे हुए उन मत्स्यों को ग्रहण करते और उन के मांसों को शूल द्वारा पकाते और तैल से तलते तथा अंगारादि पर भून कर उन को राजमार्ग में रख कर उनके विक्रय से द्रव्योपार्जन करके शौरिकदत्त को प्रस्तुत किया करते थे । इस के अतिरिक्त वह स्वयं भी मत्स्यादि के मांसों तथा ६ प्रकार की सुरा आदि का निरन्तर सेवन करता हुआ सानन्द समय व्यतीत कर रहा था । दिन्नभतिभत्तयणा-आदि पदों का अर्थसम्बन्धी विचार निम्नोक्त है - . १-दिन्नभतिभत्तवेयणा-" इस पद का अर्थ पृष्ठ २१६ पर लिखा जा चुका है ।। २-एगट्रिया-" शब्द का अर्धमागधीकोषकार ने -एकास्थिका-ऐसा संस्कृत प्रतिरूप देकर -छोटी नौका यह अर्थ किया है, परन्तु प्राकृत सब्दमहार्णव नामक कोष में देश्य – देश विशेष में बोला जाने वाला पद मान कर इस के नौका, जहाज़ ऐसे दो अर्थ लिखे हैं ३-दहगलणं-हदगलनम् हृदस्यमध्ये मत्स्यादिप्रहरणार्थभ्रमणं जलनिस्सारण वा -" अर्थात् हृद बड़े जलाशय एवं झील का नाम है, उस के मध्य में मच्छ आदि जीवों को ग्रहण करने के लिये किये गये भ्रमण का नाम हृदगलन है । अथवा- हृद में से जल के निकालने को हृदगलन कहते हैं । अथवा - मत्स्य आदि को पकड़ने के लिये वस्त्रादि से ह्रद के जल को छानना हृदगलन कहा जाता है। अधमागधी कोष में हृदगजन - शब्द का "-मछली आदि पकड़ने के लिये झरने पर घूमना-शोध निकालना -..' ऐसा अर्थ लिखा है। ४-दहमलणं-हृदमलनं, हृदमध्ये पौनःपुन्येन परिभ्रमणं, जले वा निस्सारिते पंकमदनं." अर्थात् हद के मध्य में मछली आदि जीवों को ग्रहण करने के लिये पुनः पुनः- बारम्बार परिभ्रमण करना, अथवा-हृद में से पानी निकाल कर अवशिष्ट पंक-कीचड़ का मर्दन करना हृद्मलन कहलाता है। अर्धमागधीकोष में हृदमलन के"-१-झरने में तैरना और २-त्रोत में चक्र लगाना-" ये. दो अर्थ पाये जाते है। ५-दहमदणं-हृदमर्दनम् थाहरादिप्रक्षेपेण हृदजलस्य विक्रियाकरणम्-" अर्थात् हृद के मध्य में थूहर (एक छोटा पेड़ जिस में गांठों पर से डण्डे के आकार के डण्ठल निकलते हैं, और इस का दूध बड़ा विषेला होता है) आदि के दूध को डाल कर उस के जल को विकृत-ख़राब कर For Private And Personal Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४५४] । श्री विपाक सूत्र .[अष्टम अभ्याय देना हृदमाईन कहा जाता है । अर्धमागधीकोष में-इदमदन शब्द का "-सरोवर में वार २ घूमने को जाना-जलभ्रमण--" ऐसा अर्थ लिखा है। १६-दहमहणं-दमथनम्, हरजलस्य तरुशाखाभिर्विलोडनम्-" अर्थात् वृक्ष की शाखाओं के द्वारा हृद के जल का विलोडन करना - मथना, हृदमथन कहलाता है । हृदमन्थन में मच्छीमारों का मत्स्यादि को भयभीत तथा स्थानभ्रष्ट करके पकड़ने का ही प्रधान उद्देश्य रहता है। ७-दहवहणं-हृदवहनम्-" इस पद के दो अर्थ होते हैं, जैसे कि १-नाली आदि के द्वारा हुद के पानी को निकालना, अर्थात् ह्रदवहन शब्द " - सरोवर में से पानी निकालने के लिये जो नालियें होती है, उन में से पानी निकाल कर मत्स्य आदि को पकड़ना -" इस अर्थ का परिचायक है। २- हृद से पानी का स्वतः बाहिर निकलना अर्थात् हृद में नौकाओं के प्रविष्ट होने से पानी हिलता है और वह स्वतः ही बाहिर निकल जाता है, इस अर्थ का बोध हृदवहन शब्द कराता है। ८-दहप्पवहणं-हृदप्रवहनम् -' इस पद के भी दो अर्थ उपलब्ध होते हैं, जैसे कि१-मत्स्य आदि को पकड़ने के लिये हृद का बहुत सा पानी निकाल देना । २-मत्स्यादि को ग्रहमा करने के लिये नौकों द्वारा हृद में भ्रमण करना।। इस के अतिरिक्त १-प्रपञ्च ल, २-प्रपम्पुल, ३ - जम्भा, ४-त्रिसरा, ५-भिसरा, ६विसरा, ७-द्विसिरा, ८ -हिल्लिरि, ९-झिल्लिरि, १०-जाल, ये सब मत्स्यादि के पकड़ने के भिन्न २ साधनविशेष है, जिन को वृत्तिकार ने "--मत्स्यबन्धनविशेषाः-" कह कर उल्लेख किया हैप्रपञ्चकादयो मत्स्यबन्धनविशेषाः । कोषकारों ने इन में से कई एक की संस्कृत छाया दी है और कई एक को देश्य माना है । तथा-मछली पकड़ने के कांटे को गल कहते हैं । कूटपाश भी मछलो पकड़ने के जालविशेष ही होता है.। वल्कबन्ध का अर्थ होता है-त्वचा का बना हुअा बन्धन । सूत्र से निर्मित बन्धन सूत्रबन्धन और केशों का बना हुअा बन्धन वालबन्धन कहलाता है । तात्पर्य यह है कि सर्वप्रथम मत्स्यों को अनेकविध जालों द्वारा पकड़ा जाता था फिर उन्हें वल्कल आदि के बंधनों से बांध दिया जाता था। कोषकार ने "-मच्छखले -मत्स्यवत-" का अर्थ "मछलियों के सुखाने की जगह" ऐसा किया है. और टीकाकार श्री अभयदेव सरी " -मन्छ वलए करेति-" का अर्थ करते हैं "स्थडिनेषु मत्स्यपुजान् कर्वन्ति-" अर्थात् भूमी पर मछलियों के ढेर लगाते हैं । प्रकृत में ये दोनों ही अथ सुसंगत हैं । -अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे-यहां पठित जाव-यावत् पद से विवक्षित पदों का वर्णन पृष्ठ ५५ पर, तथा-सरहमच्छे य जाव पडागातिपडागे - यहां पठित जाव-यावत् पद से अपेक्षित पाठ पीछे पृष्ठ ४४५ पर तथा-सुरं च ६–यहां के अंक से अभिमत पाउ पृष्ठ ४४७ पर तथा-आसाएमाणे ४यहां दिये गये अंकों से अभिमत पाठ पृष्ठ २५० पर लिखा जा चुका है। अब सत्रकार शौरिकदत्त के अग्रिम जीवन के वृत्तान्त का वर्णन करते हुए कहते हैं - मल_'तते णं तस्स सोरियदत्तस्म मच्छंधस्स अन्नया कयाइ ते मच्छे सोल्ले य (१) छाया-ततस्तस्य शौरिकदत्तस्य मत्स्यबंधस्य, अन्यदा कदाचित् तान् मत्स्यान् शूल्यांश्च तलितांश्च भर्जितांश्च श्राहरतो मत्स्यकटको गले लग्नश्चाप्यभवत् । ततः स शौरिको महत्या वेदनयाऽभिभूतः सन् कौटुम्बिकपुरुषान् शन्दाययति शब्दाययित्वा एवमवादीत् - गच्छत यूयं देवानुप्रियाः ! शौरिकपुरे नगरे शृङ्गाटक. यावत् पथेषु महता महता शब्देन उद्घोषयन्त: उद्घोषयन्त एवं वदत-एवं खलु देवानुप्रियाः ! शौरिकस्य मस्त्यकंटको गले लग्नः तद् य इच्छति वेद्यो वा ६ शौरिकमात्स्यिकस्य मत्स्यकपटकं गलाद निस्सारयित' For Private And Personal Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय । हिन्दी भाषा टोका सहित । तलिए य भज्जिए य आहारेपाणस मछटए गनए लग्गे यावि होत्था । तत ण स सोरिए महयाए वेयणाए अभिभूते समाणे कोड बियपुरिस सदावेति सद्दावेत्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुब्भे देवाणुपिया! सोरियपुरे णगरे सिवाडग. जाव पहेसु महया महया सद्दणं उग्धं सेमाणा उग्घोसेमाणा एवं वयह-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सोरियस्स मच्छकंटए गलए लग्गे । तं जो णं इच्छति वेज्जो वा ६ सोरियमच्छिपस्स मच्छकंटयं गलाओ नीहरित्तए, तस्स णं सारिए विपुल अत्यसपयाणं दलपति । तते णं से काडु वियपुरिसा जाव उग्घासंति । ततो वहवे वज्जा य ६ इमं एयारूवं उग्घोसण उग्घोसिज्जमाण निसामति निसामित्ता जेणेव सोरियगिहे जेणेव सोरियमच्छंधे तेणेव उवागच्छंति उवाच्छित्ता वहहिं उप्पत्तियाहि य ४ बुद्धीहि परिणामेमाणा वमणेहि य छड्डणे हि य उवीलणेहि य कवलग्गाहेहि य सल्लुद्धरणेहि य विसल्लकरणेहि य इच्छंति सारियमच्छंधस्स पच्छकंटगं गलाओ नीहरित्तए, नो चेव णं संचाएंति नीहरित्तए वा विसोहित्तए वा। तते णं बहवे वेज्जा य ६ जाहे नो संचाएंति सोरियस्स मच्छकंटगं गलामो नीहरि गए वा विसोहित्तए वा ताहे संता ३ जामेव दिसं पाउन्भूता तामेव दिसं पडिगता । तते णं से सोरियमच्छंधे वेज्जपडियारनिविएणे तेणं महया दुक्खेण अभिभूते सुक्खे जाव विहरति । एवं खलु गोतमा ! सोरिए पुरा पोराणाणं जाव विहरति । पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । तस्स- उस । सोरियदत्तस्स- शौरिकदत्त । मच्छधस्स - मत्स्यबंध-मच्छीमार के । अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय । ते-उन । सोल्ले य-शूलाप्रोत करके पकाए हुए । तलिए-तले हुए। भज्जिए य-भूने हुए । मच्छे- मत्स्यमांसों का । श्राहारेमा. णस्स-आहार करते-भक्षण करते हुए के । गलए - गले-कण्ठ में। मच्छकंटए- मत्स्यकएटक-- मत्स्य का कांटा । लग्गे यावि होत्था - लग गया था । तते णं-तदनन्तर अर्थात् गले में कांटा लग जाने के अनन्तर । से- वह । महयाए-महती । वेयणाए वेदना से । अभिभते समाणे- अभिभूतव्याप्त हुअा। सोरिए-शौरिकदत्त । कोडुबियपुरिसे-कौटुम्बिक पुरुषों- अनुचरों को । सदावति सद्दावित्ता-बुलाता है, बुला कर । एवं वयासी-इस प्रकार कहता है । देवाणुप्पिया ! -हे भद्रपुरुषो !। तस्मै शौरिको विपुलमर्थसम्प्रदानं ददाति । ततस्ते कौटुम्बिकपुरुषाः यावदुद्घोषयन्ति । ततो बहवो वैद्याश्च ६ इमामेतद्रूपामुद्घोषणामुद्घोष्यमाणा निशमयन्ति निशम्य यत्रैव शौरिकगृहं यत्रैव शौरिको मत्स्यबन्धस्त. त्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य बहुभिः औत्पातिकीभिश्च बुद्धिभिः परिणमयन्तः वमनैश्च छर्दनैश्च अवपीडनेश्व कव. लग्राहश्च शल्योद्धरणैश्च विशल्यकरणश्च इच्छन्ति शौरिकमत्स्यबंधस्य मत्स्यक्रएटकं गलाद निस्सारयितु, नो चैव संशक्नुवन्ति निस्सारयितु वा विशोधयितु वा। ततस्ते बह्वो वैद्याश्च ६ यदा नो संशक्नुवन्ति शौरिकस्य मत्स्यकण्टक गलाद् निस्सारयितु वा विशोधयितु वा. तदा श्रान्ताः ३ यस्या एव दिश; प्रादुर्भूतास्तामेव दिशं प्रतिगताः । ततः स शोरिको मत्स्यबंधो चै ग्रप्रतिकारनिर्विरणः तेन महता दु.खेनाभिभूतः शुष्को यावत् विहरति । एवं खलु गौतम ! शौरिक: पुरा पुराणानां यावत् विहरति । (१) निष्काशयितु विशोधयितु पूयाधपनेतुमित्यर्थः- वृत्तिकारः। For Private And Personal Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 1ो विपाकासून [अष्टम अन्याय तुब्भे-तुम लोग । गच्छह -जाम्रो। सोरिग्रपुरे:-शौरिकपुर नामक ।णगरे-नगर में। सिघाडगत्रिकोण मागे । जाव-यावत् । पहेसु-सामान्य मांगों-रास्तों परं । महंया महया-महान् ऊंचे। सद्देणंशब्द से । 'उग्धोसेमाणी उग्धोसेमाणा-उद्घोषणा करते हुए, उद्योषणा करते हुए । एवं वयंह- इस प्रकार कहो । एवं खलु-- प्रकार : निश्चय ही । देवापुनिया! हे महानुभावों ! । सोरियस्त-शरिकदस के। गले-कएठ में । मन्छकंडए-मत्स्यकएटक-मच्छो का: कांया लग्गे-लग मश्रा है । तं-अतः । जो एं-जो। वेज्जी वा ६ -वैद्य या वैद्यपुत्रादि । 'सोरियाछियस्त-शोरिक नामक मात्स्यिक-मच्छीमार के। गलीओकण्ठ से । मच्छङदयं - मत्स्यकएटक को । नोहरित्तरनिकालने की । इच्छति- इच्छा रखता है अर्थात् जो कांटे को निकालना चाहता है, और जो निकाल देगा । सस्स +- उस को। सोरिए-शौरिक विउल-विपुल बहुत सी। प्रत्यसपय,णं-आर्थिक सम्पतिः। दलपति- देगा । तते णं-तदनन्तर । ते-वे । कोड बियपुस्सिा - कौटुम्बिकः पुरुष. । जाब-जामत अर्थात् उसकी आज्ञनुसार नगर में। उग्घोसति-उदघोषणा कर देते हैं । ततो-तदनन्तर । बहवे. बहुत से। वेज्जा य६-वैद्य और पंचपुत्रादि । इमं- यह । एयारूवं - इस प्रकार की । उग्धोसिज्ज - माण - उद्घोषित की जाने वाली । उग्घोसणं - उद्घोषणा की। निसामति निसोमित्ता- सुनते हैं, सुनकर । जेव- जहाँ । सोस्थिगिह-शौरिकदत्त का घर था, और । जेणेव-जहां पर सोरिए - शौरिका। मच्छंधे-मत्स्यबस्थ --पच्छीमार था। तेणेव वहां पर । उवागच्छनित उवागच्छिता, प्राजाते हैं, आकर। बहुहि.-बहुत सी । उत्पत्तियाहि य ४-औत्पातिकी बुद्धिविशेष अर्थात् बिना ही शास्त्राभ्यासादि के झेने वाली बुद्धि स्वभावसिद्ध प्रतिभा, श्रादि । बुद्धिहि - बुद्धियों से । परिणाममाणा-परिणमन को प्राप्त करते हुए अर्थात् सम्यक्तया निदान आदि को समझते हुए उन वैद्यों में । मणेहिय वमनों से तयो । छपहिय - छर्दनों से तथा + उवीलणेहि य-अवपीडन - दबाने: से. और । कलामाहेहि य - कझवनाहों से; तथा । सल्नुकरणेहि य - शल्योबरणों से एवं । विसल्ल करणेहि: य-विशल्यकरणों से । सोरियमच्छंघस्स-शौरिक मत्स्यबन्ध के । मलाओ.-कंठ में से । मच्छकंटगं- मस्स्यकण्टक-मच्छी के कांटे को । नोहरितए,-निकालने की । इच्छंति-इच्छा करते है, अर्थात उक्त उपायों से गले में फंसे हुए, कांटे को निकालने का उद्योग करते हैं, परन्त वे..। नो चेव णं-नहीं । संचाएं ति–समर्थ हुए । नरहरित्तए वा-कांटा निकालने को । विसोहित्तर वा - तथा पूर आदि के हरण को, अर्थात् उन के उक्त उपचारों से न तो उस के गले का काएटा ही निकला और ना उस के मुख से निकलता हुआ पूग-पीब तथा रुधिर ही बन्द हुआ। तते णं-तदनन्तर । ते-वे । बहवे - बहुत से । वेज्जा य६-वैद्य तथा वैद्यपुत्रादि । जाहे - जब । सोरियस्त -शौरिक के । गलामो - कण्ठ से। मच्छकंटंग- मत्स्यकण्टक : को । नीहरित्तर या निकालने और । विलोहित्तर-पूयादि के दूर करने में। नो संचाएपंति-समर्थ नहीं हुए । ताहे तब (वे) । संप्ता ३-श्रान्त, तान्त और परितान्त हुए अर्थात् हितोत्साह होकर । जामेव दिसं - जिस दिशा से । पाउनभूता-पाये थे। तामेव दिसंउसी दिशा को । पडिगता-लौट गये -चले गये। तते गं-तदनन्तर । से-वह । सोरिए-- शौरिक । मच्छंधे-मत्स्यबन्ध । वेज्जपडियारनिविणणे. वैद्यों के प्रतिकार +इलाज से मिराश हुआ/तेणंउस । महया-महान् । दुक्खेणं-दुःख से । अभिभूते-अभिभूत -युक्त हुआ। सुक्खे -शुष्क हो कर: । जाव- यावत् । विहरति-विहरण करता है अर्थात् दुःखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहा है । एवं खलु:इस प्रकार निश्चय हो। गोतमा ! -हे गौतम ! । सोरिए-शौरिकः । पुरा-पूर्वकृत । पोराखावं. पुरातन । जाव-यावत् अर्थात् पाप कर्मों का फल भोगता हुा । विहरति-विहरण कर रहा है For Private And Personal Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हिन्दी भाषा टीका सहित । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय ] समय व्यतीत कर रहा है । मूलार्थ - तदनन्तर किसी अन्य समय पर शूजा द्वारा पकाए गए, तले गए और भूने गए मत्स्यमांसों का आहार करते हुए उस शौरिक मत्स्यबन्ध-मच्छीमार के गले में मच्छी का कांटा लग गया. जिस के कारण वह महतो वेदना का अनुभव करने लगा । तब नितान्त दुःखी हुए शौरिक ने अपने अनुचरों को बुलाकर इस प्रकार कहा कि हे भद्रपुरुषो ! शौरिकपुर नगर के त्रिकोण मार्गों यावत् सामान्य मार्गों पर जा कर ऊंचे शब्द से इस प्रकार उद्घोषणा करो कि हे महानुभावो ! शौरिकदत्त के गले में मत्स्य का कांटा लग गया है, यदि कोई वैद्य या वैद्यपुत्र आदि उस मत्स्यकंटक को निकाल देगा, तो शौरिकदत्त उसे बहुत सा धन देगा | तब कौटुम्बिक पुरुषों - अनुचरों ने उस की आज्ञानुसार सारे नगर में उद्घोषणा कर दी । उस उद्घोषणा को सुन कर बहुत से वैद्य और वैद्यपुत्र आदि शौरिकदत्त के घर आये, कर वमन, छर्दन, पीड़न, कवलग्राह, शल्योद्धरण और विशल्यकरण आदि उपचारों से शौरिकद के गले के कांटे को निकालने तथा पूत्र आदि को बन्द करने का उन्होंने भरसक प्रयत्न किया, परन्तु उस में वे सफल नहीं हो सके अर्थात् उन से शौरिकदत्त के गले का कांटा निकाला नहीं जा सका और ना ही पी एवं रुधिर ही बन्द हो सका, तब वह श्रान्त, तान्त और परितान्त हो अर्थात् निराश एवं उदास हो कर वापिस अपने २ स्थान को चले गये । तब वह वैद्यों को प्रतिकार - इलाज से निर्विण - निराश (खिन्न) हुआ २ शौरिकदत्त उस महती वेदना को भोगता हुआ सूख कर यावत् अस्थिपंजर मात्र शेष रह गया, तथा दुःखपूर्वक समय व्यतीत करने लगा । भगवान् महावीर स्वामी कहते हैं कि हे गौतम ! इस प्रकार अशुभ कर्मों का फल भोग रहा है। वह शौरिकदत्त पूर्वकृत यावत् [ ४५७ For Private And Personal टीका - कर्मग्रन्थों में कर्म की प्रकृति और स्थिति आदि का सविस्तर वर्णन बड़े ही मौलिक शब्दों में पाया जाता है। कोई कर्म ऐसा होता है, जो काफी समय के बाद फलोन्मुख होता है अर्थात् उदय में श्राता है, तथा कोई शीघ्र ही फलप्रद होता है । यह सब कुछ बन्धसमय की स्थिति पर निर्भर करता है । कर्म के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध आदि के भेदोपभेदों के वर्णन करने का यहां पर असर नहीं है तथा विस्तारभय से उन का उल्लेख भी नहीं किया गया । यहां तो संक्षेप से इतना ही बतला देना उचित है कि सामान्यतया कर्म दो प्रकार के होते हैं - एक वे जो जन्मान्तर में फल देने वाले, दूसरे वे जो कि इसी जन्म में फल दे डालते हैं । शौरिकदत्त भच्छीमार के जीवनवृत्तान्त से यह पता चलता है कि उस के तीव्रतर करकमों का फल उसे इस जन्म में मिल रहा है, अर्थात् वह अपने किये कर्म का फल इस जन्म में भी भुगत रहा है । शौरिकदत्त का व्यापार था पका हुआ मांस बेचना, तथा इस व्यवसाय के साथ २ वह उस का स्वयं भी प्रहार किया करता था । तात्पर्य यह है कि वह मत्स्यादि जीवों के मांस का विक्रेता भी था और स्वयं भोक्ता भी । शूलाप्रोत कर पकाए गए, तैलादि में तले और अंगारों पर भूने गए मत्स्यादि जीवों के मांसों के साथ विविध प्रकार की मदिराओं का सेवन करना, उस के व्यवहारिक जीवन का एकमात्र कर्तव्य सा बना हुआ था । इसी में वह अपने जीवन को सार्थक एवं सफल समझता था । किन्तु पापकर्म से यह आत्मा उसी प्रकार मलिन होनी आरंभ हो जाती है, जिस प्रकार मलिन शरीर के सम्पर्क में आने वाला नवीन श्वेत वस्त्र । वस्त्रधारी कितना भी चाहे कि उस का वस्त्र मलिन न होने पावे परन्तु जिस तरह वह वस्त्र उस मलिन शरीर के सम्पर्क में आने से अवश्य मैला हो जाता है, उसी प्रकार Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४५८] श्री विपाक सूत्र अध्याय कर्मरूप मल के सम्पर्क में आने से यह अात्मा भी मलिन होने से नहीं बच सकता। शौरिकदत्त ने पापकों के आचरण से अपने आत्मा को अधिक से अधिक मात्रा में मलिन करने का उद्योग किया और उस के फलस्वरूप उस का मानवजीवन भी अधिक से अधिक दु:ख का भाजन बना । एक दिन शौरिकदत्त शूलापोत किए हुए, तले और भूने हुए मत्स्यमांस को खा रहा था, तो वहीं उस मांस में जो मच्छी का कोई विषैला -जहरीला कांटा रह गया था, वह उस के गले में चिपट गया । कांटे के गले में लगते ही उसे बड़ी असह्य वेदना हुई, वह तड़प उठा । अनेक प्रकार के घरेलू यत्न करने पर भी कांटा नहीं निकल सका, तब उसने अपने अनुचरों को बुला कर सारे नगर में मुनादी कराई कि यदि कोई वैद्य या वैद्यपुत्र, चिकित्सक या चिकित्सकपुत्र आदि शौरिकदत्त के गले में लगे हुए मच्छी के कांटे को बाहिर किकाल कर उसे अच्छा कर दे तो वह उस को बहुत सा धन देकर प्रसन्न करेगा, उस का घर लक्ष्मी से भर देगा। अनुचरों ने सारे शहर में यह उद्घोषणा कर दी. और उसे सुन कर नगर के अनेक प्रसिद्ध वैद्य, वेद्यपुत्र तथा चिकित्सक आदि शौरिकदत्त के घर में पहुँचे, उन्होंने उसके गले को देखा, अपनी अपनी तीक्ष्ण और विलक्षण प्रतिभा के अनुसार उत को चिकित्सा प्रारम्भ की, वमन कराए गए, विधिपूर्वक गले को दबाया गया, स्थूल ग्रासों को खिला कर कांटे को नीचे उतारने का उद्योग किया गया, एवं यन्त्रों के द्वारा निकालने का यत्न किया गया, परन्तु वे सब के सब अनुभवी वैद्य, मेधावी चिकित्सक आदि उस कांटे को बाहिर निकालने या भीतर पहुँचाने में असफल ही रहे, तब वे हताश हो शौरिकदत्त को जवाब दे कर वहां से अपने अपने स्थान को प्रस्थान कर गए, और वैद्यादि के "हम इस कांटे को निकालने में सर्वथा असमर्थ हैं। इस निराशाजनक उत्तर को सुन कर शौरिकदत्त को बड़ा भारी कष्ट हुया और उसी कष्ट से सूख कर वह अस्थिपंजर मात्र रह गया । उस कांटे के विषेले प्रभाव से उस का शरीर विकृत हो गया. उस के मुख से पूय और रुधिर प्रवाहित होने लगा । इस वेदना से उस का शरीर एक मात्र हड्डियों का ढांचा ही रह गया। प्रतिक्षण प्रतिपल वह वेदना से पीड़ित होता हुआ जीवन व्यतीत करने लगा । भगवान् महावीर स्वामी फरमाने लगे कि हे गौतम : यह वही शौरिकदत्त मच्छीमार है, जिस को तुमने शौरिकपुर नगर में मनुष्यों के जमघट में देखा है । ये सब कुछ उसके कमों का ही प्रत्यक्ष फल है । विचारशील मानव को उस के जीवन से उपयुक्त शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये । इस की दुर्दशा को देख कर अात्मसधार को शिक्षा ग्रहण करने वाले तो लाखों में दो चार ही मिलेंगे, किन्तु उसे देख कर दूसरी ओर मुंह फिराने वाले संसार में अनेक होंगे । परन्तु जीवन की महानता के वे ही भाजन बनते है जो उपयक्त शिक्षा से अपने को शिक्षित करते हुए अपना आत्मश्रेय साधने में सदा तत्पर रहते हैं । -सिंघाडग जाव पहेसु- यहां पठित-जाव-यावत्-पद-तिय, चउक्क, चञ्चर, महापह-इन पदों का परिचायक है। सिंघाड़ा-शृगाटक आदि पदों का अर्थ पृष्ठ ६९ पर लिखा जा चुका है । पाठक वहीं पर देख सकते हैं। -वेज्जो वा ६ -- यहां पर दिए गए ६ के अंक से पृष्ठ ६५ पर पढ़े गए- वेज्जपुत्तो वा, जाणो वा, जाणयपुत्तो वा, तेइच्छिो वा, तेइच्छियपुत्तो वा- इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का अर्थ वहीं पर लिख दिया गया है । - कोडुबियपुरिसा जाव उग्घोसंति - यहां पढा गया जाव - यावत् पद-तह त्ति For Private And Personal Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ४५९ विपणं पयम डिसुर्खेति, पडिसुता सोरियपुरे रागरे सिंवाडग-तिय- चउक्क-चरमहापह - पहेसु महया महया सद्देणं “ एवं खलु देवाणुपिया ! सोरियस्स मच्छुकंटए गलर लग्गे, तं जो इच्छति वेज्जो वा ६ सोरियमच्छ्रियस्स मच्छुकटयं गताओ नीहरितर, तस्स एं सोरिए विलं अत्यसंपयाणं दलयति - " ति - इन पदों का परिचायक है। अर्थात् कौटुम्बिकपुरुष - नौकर शौरिकदत्त मच्छीमार की बात को विनयपूर्वक तथेति (ऐसा ही होगा ) ऐसा कह कर स्वीकार करते हैं, और शौरिकपुर के शृङ्गाटक त्रिक चतुष्क, चत्वर, महापथ और पथ इन रास्तों में बड़े ऊंचे शब्द से उद्घोषणा करते हैं कि हे भद्रपुरुत्रो ! शोरिकदत के गले में मत्स्यकंटक - मच्छी का कांटा लग गया है, जो वैद्य तथा वैद्यपुत्र आदि उस को निकाल देगा तो शौरिकदत्त उस को बहुत सा द्रव्य देगा "बहुहिं उत्पत्तियाहिय ४ बुद्धिहिं" - यहां दिया गया चार का अंक वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी इन तीन अवशिष्ट बुद्धियों का परिचायक है । 'औत्पातिकी आदि पर्दो भावार्थ निम्नोक्त है - १ - जो बुद्धि प्रथम बिना देखे बिना सुने और बिना जाने विषयों को उसी क्षण में विशुद्ध यथावस्थितरूप में ग्रहण करतो है, अर्थात् शास्त्राभ्यास और अनुभव आदि के बिना केवल उत्पात - जन्म से ही जो उत्पन्न होती है, उसे श्रौत्पातिकी बुद्धि कहते हैं । नटपुत्र रोहा मगधनरेश महाराज श्रेणिक के मन्त्री श्री अभयकुमार, मुगुलबादशाह अकबर के दीवान श्री वीरबल, महाकवि कालीदास आदि पूर्वपुरुष औत्पातिकी बुद्धि के ही धनी थे । २ - कठिन से कठिन समस्या को सुलझाने वाली, नीतिधर्म और अर्थशास्त्र के रहस्य को ग्रहण करने वाली, तथा लोकद्वय - इस लोक और परलोक में सुख का सम्पादन करने वाली बुद्धि का नाम वैनयिकी बुद्धि है । 1 ३ – उपयोग से - एकाग्र मन से विध कार्यों के अभ्यास और चिन्तन से कार्यों के परिणाम (फल) को देखने वाली, तथा अनेक विशाल फल देने वाली बुद्धि कर्मजा कहलाती है । ४ – अनुमान हेतु और दृष्टान्त से विषय को सिद्ध करने वाली तथा अवस्था के परिपाक से पुष्ट एवं आध्यात्मिक उन्नति और मोक्षरूप फल को देने वाली बुद्धि पारिणामिकी कही जाती है । तथा - वमणेहि - इत्यादि पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में निम्नोक्त है - 55 १ - "मणेहि यति-वमनं स्वतः सम्भूतम् - " अर्थात् वमन शब्द से उस वमन का ग्रहण जानना चाहिए जो किसी उपचार से नहीं किन्तु स्वाभाविक आई है । वमन शब्द का अधिक अर्थ - सम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ ७१ पर किया जा चुका है । २ - "छड्डुले हि यत्ति - छर्दनं वचादिद्रव्य प्रयोगकृतम् - " अर्थात् छर्दन भी वमन का ही नाम है, किन्तु यह बच ( एक पौधा, जिस की जड़ दवा के काम आती है ) आदि आदि शब्द से मदनफल प्रभृति उल्टी लाने वाले द्रव्यों का ग्रहण है ) से कराई जाती है । ३ - " उवीलरोहि यत्ति - श्रवपीडनं - निष्पीडनम् -' अर्थात् प्रस्तुत में गले को दबाने का नाम अवपीडन है । ४- "कवलग्गाहेहि यत्ति -कवलाह: - करकापनोदाय स्थूलकवल यहणम्, मुत्रविमर्दनार्थं वा दंष्ट्राधः काष्ठखण्डदानम्अर्थात् कांटे को निकालने के लिए बड़े ग्रास का ग्रहण कराना, ताकि उसके संघर्ष से गले में का हुआ कांटा निकल जाए, अथवा – मुख की मालिश करने के लिए दाढ़ों के नीचे लकड़ी (१) उत्पत्तिया १ वेश्या २ कम्प्रया ३ परिणामिया ४ बुद्धी चउव्विहा वृत्ता पंचमा नोवलकभई ( नन्दीसूत्र २६) । इन चारों बुद्धियों के विस्तृत स्वरूप को जानने की अभिलाषा रखने वाले पाठक श्री नन्दीसूत्र की टीका देख सकते हैं । For Private And Personal Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४६०] श्री विपाक सूत्र [अष्टम अध्याय का टुकड़ा रखना - कवलग्राह कहलाता है । ५-सल्लुद्धरणेहि य त्ति-शल्योद्धरणम् -यंत्रप्रयोगात् कंटकोद्धारः, तैः-" अर्थात् यन्त्र के प्रयोग से कांटे को निकालना शल्योद्धार कहलाता है । ६-विसल्ल. करणेहि य त्ति-विशल्यकरणम् -औषधसामर्थ्यात्-" अर्थात् औषध के बल से कांटा निकालना विराल्यकरण कहलाता है। -संता ३-यहां दिए गए ३ के अंक से अवशिष्ट, १-तंता , २-परितन्ता-इन दो पदों का ग्रहण करना चाहिये । श्रान्त आदि पदों की व्याख्या पृष्ठ ७३ पर की जा चुकी है ।। -वेज्जपडियारणिविणे -वैद्यप्रतिकारनिर्विरणः-(अर्थात् वैद्यों के प्रतिकार- इलाज से निराश), यह पद शौरिकदत्त के हतभाग्य होने का सूचक है । भाग्यहीन पुरुष के लिए किया गया लाभ का काम भी लाभप्रद नहीं रहता । शल्यचिकित्सा तथा औषधिचिकित्सा आदि में प्रवीण वैद्यों का ल रहना. शौरिक की मन्दभाग्यता को ही अाभारी है। वस्ततः पापिष्टों की यही दशा होती है । उन के लाभ के लिए किया काम भी दुःखान्त परिणाम वाला होता है। -सुक्खे जाव विहरति- यहां के जाव -यावत् पद से"-भुक्खे णिम्मंसे अट्ठिचम्मावणद्ध किडिकिडियाभूए--" इन पदों का प्रहण करना चाहिये। शुष्क आदि पदों का अर्थ इसी अष्टम अध्ययन के पृष्ठ ४३१ पर किया जा चुका है। -पुराणाणं जाव विहरति-यहां पठित-जाव-यावत्-पद से अभिमत पदों का विवर्ण पृष्ठ ५२ पर किया जा चुका है। पाठक वहां पर देख सकते हैं ।। ____ अब सूत्रकार शौरिकदत्त के आगामी भवों का वर्णन करते हुए कहते हैं मल- 'सोरिए णं भंते ! मच्छबंधे इअो कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति ?, कहिं उववज्जिहिति १, गोतमा ! सत्तरि वासाई परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए० संसारो तहेव जाव पुढवीए । ततो हत्थिणाउरे मच्छत्ताए उववज्जिहिति । से णं ततो मच्छिएहिं जीवियानो ववरोविते तत्थेव सेट्टिकुलंसि बोहिं० सोहम्मे० महाविदेहे वासे० सिज्जिहिति ५ । निक्खेवो।। ॥ अट्टम अज्झयणं समत्त ॥ पदार्थ-भंते !-हे भगवन् ! ।सोरिए णं-शौरिक । मच्छबंधे-मत्स्यबन्ध-मच्छीमार । इप्रो-यहां से । कालमासे-कालमास में अर्थात् मृत्यु का समय आ जाने पर । कालं किच्चा-काल करके । कहिं-कहां। गच्छिहिति -- जायगा ? । कहिं-कहां पर । उववन्जिहिति?-उत्पन्न होगा । गोतमा !- हे गौतम ! । सत्तरि-सत्तर । वासाई- वर्षों की । परमाउं-परमायु । पालइत्ता-पालन करके-भोग कर । कालमासे-कालमास में। कालं किच्चा-काल करके । इमीसे-इस । रयणप्पभाए-रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में उत्पन्न होगा। संसारो-संसारभ्रमण । तहेव -उसी भांति अर्थात् प्रथम अध्ययनगत मृगापुत्र की भांति करता हुआ । जाव - यावत् । पुढवीए०-पृथिवीकाया में लाखों वार उत्पन्न होगा। ततो (१) छाया- शौरिको भदन्त ! मत्स्यबन्ध: इतः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति !, कुत्रोपपत्स्यते ? । गौतम ! सप्ततिं वर्षाणि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वाऽस्यां रत्नप्रभायां संसारस्तथैव यावत् पृथिव्याम् । ततो हस्तिनापुरे मत्स्यतयोपपत्स्यते । ततो मात्स्यिकर्जीवितात् व्यपरोपितस्तत्रैव श्रेष्ठिकुले बोधि० सौधर्मे० महाविदेहे वर्षे० सेत्स्यति ५ । निक्षेपः । ॥ अष्टमध्ययनं समाप्तम् ॥ For Private And Personal Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ४६१ वहां से । हथिणाउरे-हस्तिनापुर नगर में। मच्छताए-मत्स्यतया-मत्स्यरूप में । उववज्जिहितिउत्पन्न होगा । से-वह । गणं-वाक्यालंकारार्थक है । ततो-वहां से । मच्छिएहिं-मच्छीमारों के द्वारा । जीवियाओ- जीवन से । ववरोविते-पृथक् किया जाने पर । तत्थेव-वहीं हस्तिनापुर में । सिडिकुलंसि-श्रेष्ठिकुल में उत्पन्न होगा । बोहिं० -- सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा। सोहम्मे - सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां से । महाविदेहे - महाविदेह । वासे-क्षेत्र में जन्मेगा तथा वहां । सिज्झिहिति ५-सिद्ध पद को प्राप्त करेगा ५ । निक्खेवो -निक्षेप --उपसंहार पूर्व की भान्ति जान लेना चाहिये। श्रम- अष्टम । अज्मयणं-अध्ययन । समत-सम्पर्ण हा । मूलार्थ-गौतम स्वामी के"-भगवन् ! शौरिकदत्त मत्स्यबंध-मच्छीमार यहां से कालमास में काल कर के यहां जायगा और कहां उत्पन्न होगा ?-" इस प्रश्न के अनन्तर प्रभु वीर बोले कि हे गौतम ! ७० वर्ष की परमायु भागकर कालमास में काल करके रत्नप्रभा नाम पहली नरक में उत्पन्न होगा । उस का अवशिष्ट संसारभ्रमण पूर्ववत् ही जानना चाहिए, यावत् वह पृथिवो-काया में लाखों बार उत्पन्न होगा। वहां से हस्तिनापुर में मत्स्य बनेगा, वहां पर मात्स्यिकों-मच्छीमारों के द्वारा वध को प्राप्त हो, वहीं हस्तिनापुर में एक श्रेष्ठिकुल में जन्मेगा, वहां पर उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी, वहां मृत्यु को प्राप्त कर सौधर्म नामक देवलोक में उत्पन्न होगा। वहां से च्युत हो कर महाविदेह क्षेत्र में जन्मेगा और वहां चारित्र ग्रहण कर उस के सम्यग आराधन से सिद्ध पद को प्राप्त करेगा ५ । निक्षेप-उपसंहार की कल्पना पूर्व की भान्ति करलेनी चाहिये। ॥अष्टम अध्ययन सम्पूर्ण ॥ टीका-संसारी जीवन व्यतीत करने वाले प्राणियों की अवस्था को देख कर एक कर्मवादी सहृदय व्यक्ति दांतों तले अगुली दबा लेता है, और आश्चर्य से चकित रह जाता है, तथा उन जीवों की मनोगत विचित्रता पर दु:ख के अश्रु पात करता है। आज का संसारी जीव क्या चाहता ?, उत्तर मिलेगा - आनन्द चाहता है, सुख चाहता है और परिस्थितियों की अनुकूलता चाहता है । प्रतिकूलता तो उसे जरा जितनी भी सह्य नहीं होती । सांसारिक सुखों की प्राप्ति के लिए अधिक से अधिक उद्योग करता है, इसके लिए उचितानुचित अथच पुण्य और पाप का भी उसे ध्यान नहीं रहता । तदर्थ यदि उस को किसी जीव की हत्या करनी पड़े तो उसे भी निस्संकोच हो कर डालता है । किसी को दुखाने में उसे श्रानन्द मिले तो दुखाता है, तड़पाने में सुख मिले तो तड़पाता है । सारांश यह है कि - आज के मानव व्यक्ति की यह विचित्र दशा है कि वह पुण्य का फल (सुख) तो चाहता है परन्तु पुण्य का आचरण नहीं करता और विपरीत इसके पाप के फल की इच्छा न रखता हुआ भी पागचरण से 'पराड मुख नहीं होता और पाप का फल भोगते हुए छटपटाता है, बिलबिलाता है । शौरिकदत्त मच्छीमार भी उन्हीं व्यक्तियों में से एक था जो कि पाप करते समय तो किसी प्रकार का विचार नहीं करते और पाप का फल (दुःख) भोगते समय सिर पीटते और रोते चिल्लाते हैं । __ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से शौरिकदत्त का अतीत और वर्तमान जीवन वृत्तान्त सुन कर गौतम स्वामी को बहुत सन्तोष हुआ और वे शोरिकदत्त की वर्तमान दुःखपूर्ण दशा का कारण तो जान गये परन्तु भविष्य में उस का क्या बनेगा ?, इस जिज्ञासा को शान्त करने के लिए वे भगवान् से फिर पूछते हैं कि भगवन् ! यह मर कर अब कहां जायेगा १ और कहां पर उत्पन्न होगा ? (१) पुण्यस्य फलमिच्छन्ति, पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः । न पापफलमिच्छन्ति, पापं कुर्वन्ति यत्नतः ॥१॥ For Private And Personal Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४६२ ] श्री विपाक सूत्र [ अष्टम अध्याय तात्पर्य यह है कि वह घटीयंत्र की तरह संसार में निरन्तर भ्रमण ही करता रहेगा या उस के इस जन्म तथा मरण सम्बन्धी दुःख का कभी अन्त भी होगा ?, गौतम स्वामी का यह प्रश्न बड़ा ही रहस्यपूर्ण है । आवागमन के चक्र में पड़ा हुअा जीव सुख और दुःख दोनों का अनुभव करता है । कभी उसे सुख की उपलब्धि होती है और कभी दुःख की प्राप्ति । परन्तु विचार किया जाये तो उसका वह सुख भी दुःखमिश्रित होने से दुःखरूप ही है। वहां सुख का तो केवल आभासमात्र है। तात्पर्य यह है कि कर्मसम्बन्ध से जब तक जन्म और मृत्यु का सम्बन्ध इस जीवात्मा के साथ बना हुआ है, तब तक इस को शाश्वत सुव की उपलब्धि नहीं हो सकती । उस की प्राप्ति का सर्व - प्रथम साधन 'सम्यकत्व की प्राप्ति है, सम्यक्त्व के बाद ही चारित्र का स्थान है । दर्शन तथा चारित्र की सम्यग अाराधना से यह अात्मा अपने कर्मधन्धनों को तोड़ने में समर्थ हो सकता है । कमबन्धनों को तोड़ने से श्रात्मशक्तिये विकसित होती हैं, उन का पूर्ण विकास -आत्मा की कैवल्यावस्था अर्थात् के लज्ञान प्राप्ति की अवस्था है, उस अवस्था को प्राप्त करने वाला जोवन्मुक आत्मा जैन परिभाषा के अनुसार सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होता. हुअा सदेह या साकार ईश्वर के नाम से अभिहित किया जा सकता है । इसके पश्चात् अर्थात् औदारिक अथच कार्मण शरीर के परित्याग के अनन्तर निर्वाण पद को प्राप्त हा श्रात्मा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अजर और अमर के नाम से सम्बोधित किया जाता है । तब शौरिकदत्त का जीव इस जन्म तथा मरण की परम्परा से छूट कर कभी इस अवस्था को भी जो कि उसका वास्तविक स्वरूप है, प्राप्त करेगा कि नहीं है, यह गौतम स्वामी के प्रश्न का अभिप्राय है। इसके उत्तर में भगवान महावीर स्वामी ने जो कुछ फरमाया उसका वर्णन मूलार्थ में स्फुटरूप से कर दिया गया है, जो कि अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता । अस्तु, शौरिकदत्त का जीव अन्त में समस्त कर्मबन्धनों को तोड़कर अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त वीयं से युक्त होता हुश्रा परम कल्याण और परम सुखरूप मोक्ष को प्राप्त करेगा। -रयणप्पभाए. संसारो तहेव जाव पुढवीए०-इन पदों से तथा इनके साथ दी गई बिन्दुओं से अभिमत पाठ पृष्ठ ३३६ पर, तथा –बोहिं०, सोहम्मे०, महाविदेहे वासे० सिझिहिति ५-इन सांकेतिक पदों से अभिमत पाठ पृष्ठ ३१२ पर लिखा जा चुका है। पाठकों को स्मरण होगा कि दुःखविपाक के सप्तम अध्ययन को सुन लेने के अनन्तर श्री जम्बू स्वामी ने अपने पूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी से उसके अष्टम अध्ययन को सुनाने की अभ्यर्थना की थी, जिस की पूर्ति के लिए श्री सुधर्मा स्वामी ने प्रस्तुत अष्टमाध्याय सुनाना प्रारम्भ किया था । अध्ययन की समाप्ति पर आर्य सधर्मा स्वामी ने श्री जम्बू स्वामी को जो कुछ फरमाया, उसे सूत्रकार ने निम्खेवो-निक्षेपः-- इस पद में गर्भित कर दिया है। निक्खेवो--पद का अर्थसम्बन्धी विचार पृष्ठ १८८ पर किया जा चुका है । प्रस्तुत में इससे जो सूत्रांश अपेक्षित है, वह निम्नोक्त है - एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं दुहविवागाणं अहमस्स अझयणस्स अयमट्टे पर णत्ते, ति बेमि । अर्थात् हे जम्बू ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् (१) नत्थि चरितं सम्मत्तविहूणं, दसणे उ भइयव्वं । ___ सम्मत्तचरित्ताई जुगवं, पुव्वं व सम्मत्त ।। (उत्तराध्ययन सूत्र अ० २८/२९) । अर्थात् सम्यक्त्व -समकित के बिना चारित्र नहीं हो सकता और दर्शन में उसकी-चारित्र की भजना है अर्थात् जहां पर सम्यक्त्व होता है वहां पर चारित्र हो भी सकता है और नहीं भी, तथा यदि दोनों- दर्शन और चारित्र, एक काल में हो तो उन में सम्यक्त्व की उत्पत्ति प्रथम होगी । For Private And Personal Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अष्टम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ४६३ महावीर स्वामी ने इस प्रकार दुःखविपाक के अष्टम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। जम्बू ! जैसा मैंने भगवान् की परम पवित्र सेवा में रह कर उन से सुना है, वैसा तुम्हें सुना दिया है । इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं है । । व्यक्ति को भी जिसे कि सूत्रकार प्रस्तुत अष्टम अध्ययन में शौरिकदत्त नाम के मत्स्यबन्ध - मच्छीमार का अतीत, अनागत और वर्तमान से सम्बन्ध रखने वाले जीवनवृत्तान्त का उपाख्यान के रूप में वर्णन किया गया जिस से हिंसा और उसके कटुफल का साधारण से साधारण ज्ञान रखने वाले भली प्रकार से बोध हो जाता है । पदार्थ वर्णन की वह शैली सर्वोत्तम है, ने अपनाया है । हिसा बुरी है, दुखों की जननी है, उस से अनेक प्रकार के पाप कर्मों का बन्ध होता है । इस प्रकार के वचनों से श्रोता के हृदय पर हिंसा के दुष्परिणाम ( बुराई) की छाप उतनी अच्छी नहीं रहती, जितनी कि एक कथारूप में उपस्थित किये जाने वाले वर्णन से पड़ती है । इसी उद्देश्य से शास्त्रकारों ने कथाशैली का अनुसरण किया है । शौरिकदत्त के जीवनवृत्तान्त से हिंसा से पराङ्मुख होने का साधक को जितना अधिक ध्यान आता है, उतना हिंसा के मौखिक निषेध से नहीं आता । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रस्तुत अध्ययनगत शौरिकदत्त के उपाख्यान से हिंसामय सावध प्रवृत्ति और उस से बान्धे गये पाप कर्मों के विपाक फल की दृष्टि में रखते हुए विचारशील पाठकों को चाहिये कि वे अपनी दैनिकचर्या और खान पान की प्रवृत्ति को अधिक से अधिक निरवद्य अथच शुद्ध बनाने का यत्न करें, तथा मानव भव की दुलभता का ध्यान रखते हुए अपने जीवन को अहिंसक अथच प्रेममय बनाने का भरसक प्रयत्न करें । ताकि उनका जीवन जीवमात्र के लिये अभयप्रद होने के साथ २ स्वयं भी किसी से भय रखने वाला न बने, इसी में मानव का भावी कल्याण अथच सर्वतोभाव श्रेय निहित है। 1 || अष्टम अध्याय समाप्त ॥ For Private And Personal Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अथ नवम अध्याय जैनागमों में ब्रह्मचारी की बड़ी महिमा गाई गई है। श्री प्रश्नव्याकरण' सूत्र में ब्रह्मचर्य व्रत के धारक को भगवान् से उपमित किया गया है। ब्रह्मचारी शब्द में दो पद है । ब्रह्म और चारी । ब्रह्म शब्द का प्रयोग -२मैथुनत्याग, आनन्दवद्धक, ४ वेद-धर्मशास्त्र, तप और शाश्वत ज्ञान" इन अर्थों में होता है, और चारी का अर्थ आचरण करने वाला है । तब ब्रह्मचारी शब्द का- ब्रह्म का आचरण करने वाला यह अर्थ निष्पन्न हुआ। ऊपर बतलाये अनुसार यद्यपि ब्रह्म के अनेक अर्थ हैं, तथापि आजकल इसका रूढ़ अर्थ मथुनत्याग है । इसलिए वर्तमान में मैथुन का त्याग ब्रह्मचर्य और उसका सम्यक् आचरण करने वाला ब्रह्मचारी कहलाता है। इस अर्थविचारणा से जो व्यक्ति स्त्रीसंबन्ध से सर्वथा पृथक रहता है, तथा प्रत्येक स्त्री को माता, भगिनी या पुत्री की दृष्टि से देखता है, वह ब्रह्मचारी है। इसी भान्ति यदि स्त्री हो तो वह ब्रह्मचारिणी है। ब्रह्मचारिणी स्त्री संसार भर के पुरुषों को पिता और भाई एवं पुत्र के तुल्य समझती है। ब्रह्मचर्यव्रत असिधारा के तुल्य बतलाया गया है, जिस तरह तलवार की धारा पर चलना कठिन होता है, उसी तरह ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करना भी नितान्त कठिन होता है । तात्पर्य यह है कि ब्रह्मचर्य के पालन में मन के ऊपर बड़ा भारी अंकुश रखने को आवश्यकता होती है । इस की रक्षा के लिये शास्त्रों में अनेक प्रकार के नियमोपनियम बतलाये गए हैं । उत्तराध्ययन सूत्र के सोलहवें अध्याय में लिखा है कि दस कारण ऐसे होते हैं जिन के सम्यग अाराधन से ब्रह्मचारी अपने व्रत का निर्विघ्नता से पालन कर सकता है, वे दश ५कारण निम्नोक्त हैं - १-जिस स्थान में स्त्री, पशु और नपुसक का निवास हो , उस स्थान में ब्रह्मचर्य के पालक व्यक्ति को नहीं रहना चाहिये। २- ब्रह्मचारी स्त्रीसम्बन्धी कथा न करे अर्थात् स्त्रियों के रूप, लावण्य का वर्णन तथा अन्य कामवर्धक चेष्टाओं का निरूपण न करे। ३- ब्रह्मचारी स्त्रियों के साथ एक अासन से न बैठे और जिस स्थान पर स्त्रिये बैट चुकी हैं, उस स्थान पर मुहूर्त (दो घड़ी) पर्यन्त न बैठे। ४- ब्रह्मचारी स्त्रियों के मनोहर - मन को हरने वाली और मनोरम – मन में अाह्वाद उत्पन्न करने वाली इन्द्रियों की ओर ध्यान न देवे । (१) "तं बंभं भगवंतं......तित्थगरे चेव मुणीणं" ( सम्बरद्वार ४ अध्ययन ) । (२) ब्रह्मति ब्रह्मचर्य मैथुनत्यागः । (३) बृहति-वद्धतेऽस्मिन् श्रानन्द इति ब्रह्म । (४) ब्रह्म वेदः, ब्रह्म तपः ब्रह्म ज्ञानं च शाश्वतं तच्चरत्यर्जयत्यवश्यं ब्रह्मचारी। (५) इन कारणों का अर्थ सम्बन्धी अधिक ऊहापोह करने के लिए देखो, श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के प्रधानाचार्य परमपूज्य परमश्रद्धेय गुरुदेव श्री श्रात्मा राम जी महाराज द्वारा निर्मित श्री उत्तराध्ययन सूत्र की आत्मज्ञानप्रकाशिका नामक हिन्दीभाषाटीका। For Private And Personal Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय] हिन्दी भाषा टोका सहित । [ ४६५ ५- ब्रह्मचारी पत्थर की या अन्य ईंट आदि की दीवारों के भीतर से तथा वस्त्र के परदे के भीतर से आने वाले स्त्रियों के कूजित शब्द ( सुरत समय में किया गया अव्यक्त शन्द ), रुदित शब्द (प्रेमिश्रित रोष से रतिकलहादि में किया गया शब्द ), गीत शब्द (प्रमोद में आकर स्वरतालपूर्वक किया गया शन्द ), हास्य शब्द और स्तनित शब्द ( रतिसुख के आधिक्य से होने वाला शब्द ) एवं क्रन्दित शब्द ( भर्ता के रोष तथा प्रकृति के ठीक न होने से किया गया शोकपूर्ण शब्द) भी न सुने । ६-ब्रह्मचारी पूर्वरति (स्त्री के साथ किया गया पूर्व संभोग ) तथा अन्य पूर्व की गई कामक्रीड़ाओं का स्मरण न करे । ७- ब्रह्मचारी पौष्टिक - पुष्टिकारक एवं धातुवर्धक आहार का ग्रहण न करे। ८-ब्रह्मचारी प्रमाण से अधिक आहार तथा जल का सेवन न करे। -ब्रह्मचारी अपने शरीर को विभूषित न करे, प्रत्युत अधिकाधिक सादगी से जीवन व्यतीत करे। १०- ब्रह्मचारी कामोत्पादक शब्द, स्त्री आदि के रूप, मधुर तथा अम्लादि रस और सुरभि-सुगन्ध और सुकोमल स्पर्श अर्थात् पांचों इन्द्रियों के पांचों विषयों में आसक्त न होने पावे।। इन दश नियमों के सम्यग अनुष्ठान से ब्रह्मचर्य व्रत का पूरा २ संरक्षण हो सकता है। इस के अतिरिक्त शास्त्रों में ब्रह्मचर्य को सुदृढ 'जहाज़ के तुल्य बतलाया गया है। जिस तरह जहाज यात्री को समुद्र में से पार कर किनारे लगा देता है, उसी तरह ब्रह्मचर्य भी साधक को संसार समुद्र से पार कर उसके अभीष्ट स्थान पर पहँचा देता है. इस लिये प्रत्येक मुमुक्ष पुरुष द्वारा ब्रह्मचर्य जैसे महान व्रत को सम्यगतया अपनाने का यत्न करना चाहिये, इसके विपरीत जो जीव ब्रह्मचर्य का पालन न कर केवल मैथुनसेवी बने रहते हैं, तथा उस के लिये उपयुक्त साधनों को एकत्रित करने में अनेक प्रकार के कर कर्म करते हैं, वे अपनी आत्मा को मलिन करते अथच चतुर्गतिरूप संसार - सागर में गोते खाते हैं, तथा नाना प्रकार के दुःखों का अनुभव करते हैं। प्रस्तुत नवम अध्ययन में ब्रह्मचर्य से पराङमुख रहने वाले विषयासक्त एक कामी नारीजीवन का वृत्तान्त वर्णित हुआ है, जो विषयवासनायों का अधिकाधिक उपभोग करने के लिए अपनी सास के जीवन का भी अन्त कर देता है, इसके अतिरिक्त साथ में एक पुरुषजीवन का भी वर्णन उपस्थित किया गया है जो मथुन का पुजारी बन कर तथा एक स्त्री पर आसक्त होकर १९९ स्त्रियों को आग में जला देता है, उस नवम अध्ययन का आदिम सूत्र निम्नोक्त है.मूल-उक्खेवो णवपस्स । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेण समएणं रोहीडए (१) समुद्रतरणे यद्दपायो नौः प्रकीर्तिता । संसारतरणे तद्वद् , ब्रह्मचर्य प्रकीर्तितम् ।। (२) छाया -उत्क्षेपो नवमस्य । एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये रोहीतकं नाम नगरमभूद् , अद०, पृथिव्यवतंसकमुद्यानम् । धरणो यक्षः । वैश्रमणदत्तो राजा । श्रीदेवी । पुष्यनन्दी कुमारो युवराजः । तत्र रोहीतके नगरे दत्तो नाम गाथापति: परिवसति, प्रायः । कृष्णश्री भार्या । तस्य दत्तस्य दुहिता कृष्णश्रियः आत्मना देवदत्ता नाम दारिका अभूदहीन० यावदुत्कृष्टशरीरा । तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी समवसृतो, यावद् गतः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये ज्येष्ठोऽन्तेवासी षष्ठक्षमणपारणके तथैव यावद राजमार्गमवगाढो हस्तिन:, अश्वान् , पुरुषान् पश्यति । तेषां पुरुषाणां मध्यगतां पश्यत्येकां स्त्रियमवकोटकबन्धनामुत्कृत्तकर्णनासा यावच्छूले भिद्यमानां पश्यति दृष्टा अयमाध्यात्मिकः ५ समुत्पन्नस्तथैव निर्गतो यावदेवमवादीत् - एषा भदन्त ! स्त्री पूर्वभवे का आसीत् ।। For Private And Personal Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र-- [नवम अध्याय नाम णगरे होत्था, रिद्ध० । पुढवीवडंसए उज्जाणे । धरणे जक्खे । वेसमणदत्ते राया । सिरीदेवी। पूसणंदी कुमारे जुवराया । तत्थ णं रोहीडए णगरे दत्ते णाम गाहावती परिवसति, अड्ढे० । कएहसिरी भारिया । तस्स णं दत्तस्स धृया कण्हसिरीए अत्तया देवदत्ता नाम दारिया होत्था, अहोण० आव उक्किट्ठसरीरा। तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव गओ । तेणं कालेणं तेणं समएणं जै? अंतेवासी छट्टकाखमणपारणगंसि तहेव जाव रायपग्गं ओगाढे हत्थी, आसे, पुरिसे पासति । तेति पुरिसाणं मझगयं पामति एग इत्थियं अवोडगवंधणं उक्खित्तकएणनासं जाव सूने भिज्जमाणं पाति पासित्ता इमे अज्झथिए ५ समुप्पन्ने तहेव णिग्गते जाव एवं वयासी-एसा णं भंते ! इत्थिया पुन्वभवे का आसि ? । पदार्थ-णवमस्स-नवम अध्ययन का । उक्खेवो-उत्क्षेप-प्रस्तावना की कल्पना पूर्व की भान्ति कर लेनी चाहिये। एवं खलु- इस प्रकार निश्चय ही । जंबू !- हे जम्बू ! । तेणं कालेणं तेणं समएणंउस काल और उस समय में । रोहीडए-रोहीतक । नाम-नाम का । णगरे-नगर । होत्या-या। रिद्ध०-ऋद्ध-भवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित -स्व चक्र और परचक्र के उपद्रवों से रहित, एवं समृद्ध-धन धान्यादि से परिपूर्ण, था । पुढवीवडंसए-पृथिव्यवतंसक नामक । उज्जाणं-उद्यान-बाग था । धरणे- धरण नामक । जक्खे- यक्ष, अर्थात् वहां यक्ष का स्थान था। वेसमणदत्त-वैश्रमणदत्त नाम का । राया-राजा था । सिरी देवी-श्रीदेवी नाम की रानी थी। पूसणंदी-पुष्यनन्दी । कुमारे-कुमार । जुवराया- युवराज था । तत्थ णं-उस । रोहीडए-रोहीतक । णगरे-नगर में। दत्ते-दत्त । नाम--नाम का । गाहावती-एक गाथापति - गृहस्थ । परिवसति-रहता था, जो कि। अडढे०- धनी यावत् अपने नगर में विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त किये हुए था। कण्हमिरी-उसकी कृष्णश्री । भारिया-भार्या स्त्री थी। तस्स णं- उस | दत्तस्स - दत्त की। धूया- दुहिता-पुत्री । कराहसि. रीए- कृष्णश्री की । अत्तया-त्रात्मजा । देवदत्ता - देवदत्ता । नाम-नाम की। दारिया-दारिकाबालिका । होत्या - थी, जोकि । अहीण-अन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रियों से युक्त शरीर वाली । जावयावत् । उक्किासरीरा-उत्कृष्ट –उत्तम शरीर वाली थी । तेणं कालेणं तेणं समरण - उस काल और उस समय में । सामी-भगवान् महावीर स्वामी। समोसढे-पधारे। जाव-यावत् , सब । गो-चले गये। तेणं कालेणं तेणं समएगां-उस काल और उस समय । जं?-प्रधान । अन्तेवासी-शिष्य । छक्खमणपारणगंसि-षष्ठतप-बेले के पारणे के लिये । तहेव-तथैव पूर्ववत् -- पहले की भान्ति । जाव - यावत् । रायमगं- राजमार्ग में। प्रोगाढे - प्रधारे, वहां । हत्थी- हाथियों को। आसे-घोड़ों को । पुरिसे-पुरुषों को। पासति-देखते हैं । तेसि-उन । पुरिसाणं - पुरुषों के। मझगयंमध्यगत । एगं-एक । इत्थियं- स्त्री को, जोकि । अवओडगबंधणं ... अवको टक बन्धन से बन्धी हुई है, तथा । उक्खित्तकराणनासं-जिस के कान और नाक दोनों ही कटे हुए हैं। जाव - यावत् । सूले-सूली पर । भिज्जमाणं-भिद्यमान हो रही है । पासति पासित्ता-देखते हैं, देख कर । इमे- यह । अज्झथिए ५-आध्यात्मिक-संकल्प ५ । समुप्पन्ने-उत्पन्न हुआ । तहेव-तथैव – उसी भान्ति । णिगते-नगर से निकले । जाव- यावत् । एवं वयासी-इस प्रकार बोले । भंते !-हे भदन्त !। एसा णं- यह । इत्थिया-स्त्री। पुव्वभवे- पूर्व भव में । का श्रासि ?-कौन थी ।। For Private And Personal Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [४६७ मूलार्थ-नवम अध्ययन के उत्क्षेप-प्रस्तावना की कल्पना पूर्व की भान्ति कर लेनी चाहिये । हे जम्बू ! उस काल और उस समय में रोहीतक नाम का ऋद्ध, स्तिमित और समृद्ध नगर था। वहा प्रथिव्यवतंपक नाम का एक उद्यान था. उस में धरण नामक यक्ष का एक आयतन-स्थान था। वहां वें श्रमणदत्त नाम राजा का राज्य था। उसकी श्रीदेवी नाम की रानी थी, उसके युवराज पद से अलंकृत पच्यनन्दी नाम का कुमार था। उस नगर में दत्त : का एक गाथापति रहता था. जोकि बडा धनी यावत अपनी जाति में बडा सम्माननीय था। उस की कृष्णश्री नाम की भार्या थी। इन के अन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रियों से युक्त उत्कृष्ट शरीर वाली देवदत्ता नाम की एक बालिका-कन्या थी। उस काल और उस समय पृथिव्यवतंसक नामक उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे, यावत् उनकी धर्मदेशना सुन कर परिषद् और राजा सब वापिस चले गये । उस समय भगवान् के ज्येष्ठ शिष्य गौतम स्वामी षष्ठमण-बेले के पारणे के लिए भिक्षार्थ गये यावद् राजमार्ग में पधारे, वहां पर वे हस्ति गों, अश्वों और पुरुषों को देखते हैं और उनके मध्य में उन्हों ने अवकोटक बन्धन से बन्धी हुई, कटे हुए कर्ण तथा नाक वाली यावत् सूली पर भेदी जाने वाली' एक स्त्री को देखा देख कर उन के मन में यह संकल्प उत्पन्न हुआ यावत् पहले की भान्ति भिक्षा लेकर नगर से निकले और भगवान के पास आकर इस प्रकार निवेदन करने लगे कि भदन्त ! यह स्त्री पूर्व भव में कौन थी।। टीका-संख्याबद्धकम से अष्टम अध्ययन के अनन्तर नवम अध्ययन का स्थान आता है । नवम अध्ययन में राजपत्नी देवदत्ता का जीवनवृत्तान्त वर्णित हुआ है । नवम अध्ययन को सुनने की अभिलाषा से चम्पा नगरी के पूर्णभद्र चैत्य - उद्यान में विराजमान आर्य सुधर्मा स्वामी के प्रधान शिष्य श्री जम्बू स्वामी उन से विनयपूर्वक इस प्रकार निवेदन करते हैं - वन्दनीय गुरुदेव ! आप श्री के परम अनुग्रह से मैंने दु:खविपाक के अष्टम अध्ययन का अर्थ तो सुन लिया और उस का यथाशक्ति मनन भी कर लिया है, परन्तु अब मेरी उसके · दुःखविपाक के नवम अध्ययन के अर्थ को श्रवण करने की भी अभिलाषा हो रही है, ताकि यह भी पता लगे कि यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उस में किस व्यक्ति के किस प्रकार के जीवनवृत्तांत का वर्णन किया है , इस लिये आप नवम अध्ययन का अर्थ सुनाने की भी अवश्य कृपा करें ? तब जम्बू स्वामी की इस विनीत प्रार्थना को मान देते हुए श्री सुधर्मा स्वामी इस प्रकार फरमाने लगे कि हे जम्बू! भव्याम्भोजदिवाकर श्रमण भगवान महावीर स्वामी एक बार रोहीतक नाम नगर में पधारे और नगर के बाहिर वे पृथिव्यवतंसक नामक उद्यान में विराजमान होगये । उस उद्यान में धरण नामक यक्ष का एक यक्षायतन -स्थान था, जिस के कारण उद्यान की अधिक (१) वैयाकरणों के "- वर्तमान के समीपवर्ती भविष्यत् और भूतकाल में भी वर्तमान के समान प्रत्यय होते हैं - " इस सिद्धान्त से "भिद्यमानां में वर्तमानकालिक प्रत्यय होने पर भी अर्थ भविष्य का-भेदन किये जाने वाली-यह होगा । इस भाव का बोध कराने वाला व्याकरणसूत्र सिद्धान्तकौमुदी में वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा । ३/३/१३१/ इस प्रकार है, तथा प्राचार्यप्रवर श्री हेमचन्द्र सूरि अपने हैमशब्दानुशासन में इसे -सत्सामीप्ये सद्वद्वा । ५/४/१। इस सूत्र से अभिव्यक करते हैं। अर्थ स्पष्ट ही है। For Private And Personal Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४६८] श्री विपाक सूत्र [ नवम अध्याय विख्याति हो रही थी । नगर में अनेक धनी, मानी सद्गृहस्थ रहते थे, जिन से वह धन धान्यादि से युक्त और समृद्धिपूर्ण था। नगर में महाराज वैश्रमणदत्त राज्य किया करते थे, वे भी न्यायशील और प्रजावत्सल थे । उन की महारानी का नाम श्रीदेवी था, और पुष्यनन्दी नाम का एक कुमार था, जो कि अपनी विशेष योग्यता के कारण उस समय युवराज पद पर प्रतिष्ठित हो चुका था। रोहीतक नगर व्यापार का केन्द्र था, वहां दूर २ से व्याशरी लोग आकर व्यापार किया करते थे । नगर के निवासियों में दत्त नाम का एक बड़ा प्रसिद्ध व्यापारी था, जो कि धनाढ्य होने से नगर में पर्याप्त प्रतिष्ठा प्राप्त किये हए था । उसकी कुणश्री नाम को सलावण्य में अद्वितीय भार्या थी। उनके देवदत्ता नाम को एक कन्या थी, जो कि नितान्त सुन्दरी थी। के किसी भी अंग प्रत्यंग में न्यूनाधिकता नहीं थी। अधिक क्या कहें उस का अपूर्व रूपलावण्य को भी लज्जित कर रहा था । वास्तव में मानुषी के रूप में वह स्वर्गीया देवी थी। रोहीतक नगर व्यापारियों के आवागमन से तथा राजकीय सुचारु प्रबंध से विशेष ख्याति को प्राप्त कर रहा था, परन्तु श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पधारने से तो उस में और भी प्रगति आ गई । नगर का धार्मिक वातावरण सजग हो उठा। जहाँ देखो धर्म चर्चा, जहाँ देखो भगवान् के गुणों का वर्णन । तात्पर्य यह है कि प्रभु वीर के वहां पधार जाने से लोगों में हर्ष, उत्साह और धर्मानुराग ठाठे मार रहा था । उद्यान की तरफ जाते और अाते हुए नागरिकों के समूह, अानन्द से विभोर होते हुए दिखाई देते थे । उद्यान में आई हुई भावुक जनता को भगवान् की धर्मदेशना ने उस के जीवन में आशातीत परिवर्तन किया। । उस में धर्मानुरग बढ़ा, और वह धार्मिक बनी । उन के धर्मो. पदेश को सुन कर उस ने अपनी २ शक्ति के अनुसार धर्म में अभिरुचि उत्पन्न करते हुए धर्मसम्बन्धी नियमों को अपनाने का प्रयत्न किया। वीर प्रभु की धर्मदेशना को सुन कर जब जनता अपने २ स्थान को चली गई तब परम संयमी परम तपस्वी अनगार गौतम स्वामी बेले का पारणा करने के लिए भिक्षार्थ नगर में जाने की प्रभु से आशा मांगते हैं । आज्ञा मिल जाने पर वे नगर में चले जाते हैं और वहां राजमार्ग में उन्हों ने एक स्त्री को देखा जो कि 'अवकोटकबन्धन से बन्धी हुई थी । उस के कान और नाक कटे हुए थे । उसी के मांसखण्ड उसे खिलाये जा रहे थे। निर्दयता के साथ उसे मारा जा रहा था और उस के चारों ओर पुरुष, हाथी तथा घोड़े एवं सैनिक पुरुष खड़े थे। इस प्राकर सूली पर चढ़ाई जाने वाली उस स्त्री को देख कर गौतम स्वामी चकित से रह गये। विचारी अबला पर कितना अत्याचार हो रहा है ?. ये लोग भो कितने निर्दयी हैं ?, जो इस प्रकार के कर कृत्य को कर रहे हैं , न मालूम इस विचारी ने भी ऐसे कौन से कर्म किये हैं १, जिन से आज यह इस प्रकार अपमानित हो कर प्राण दे रही है ?, ऐसा भयंकर दृश्य तो नरकसम्बन्धी वेदनायों का स्मरण करा देने वाला है । ___ करुणाशील सहृदय गौतम स्वामी उस महिला की उक्त दुर्दशा से प्रभावित हुए २ नगर से यथेष्ट आहार ले कर वापिस उद्यान में आते हैं और भगवान् के चरणों में बन्दना नमस्कार करने के अनन्तर राजमार्ग में देखे हुए करुणाजनक दृश्य को सुना कर उस स्त्री के पूर्वभव को जानने की जिज्ञासा करते हुए कहते हैं कि हे भदन्त ! वह स्त्री पूर्वभव में कौन थी ? जो नरक के तुल्य असम (१) रस्सी से गले और हाथ को मोड़ कर पृष्ठ भाग के साथ बांधना अवकोटक बन्धन कहलाता है। For Private And Personal Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित। वेदनाओं का उपभोग कर रही है , इतना निवेदन करने के बाद अनगार गौतम स्वामी भगवान् महावीर स्वामी से उत्तर की प्रतीक्षा करने लगे । ___"-उखेवो-” इस पद का अर्थ होता है-प्रस्तावना । अर्थात् प्रस्तावना को सूचित करने के लिये सूत्रकार ने “-उखेवो-" इस पद का प्रयोग किया है । प्रस्तावनारूप सूत्रांश निम्नोक्त है ___"-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं अट्ठमस्स अझयणस्स अयमढे पराणत्ते, गावमस्त णं भंते ! अज्झय गस्त दुहविवागाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पराणत्ते? -अर्थात् यदि भगवन् ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःख विपाक के अष्टम अध्ययन का यह (पूर्वोक) अर्थ बतलाया है तो उन्होंने दुःखविपाक के नवम अध्ययन का क्या अर्थ फरमाया है ? -रिद्ध. -तथा - अडढे० - यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ की सूचना क्रमश: पृष्ठ १३८ तथा १२० पर दी गई है । तथा-अहीण. जाव उक्किसरीरा-यहां पठिन जाव-यावत् पद पृष्ठ १०५ के टिप्पण में पढ़े गये -पडिपुराणपंचिदियसरीरा-से ले कर-पियदसणा सुरूवा-यहां तक के पदों का, तथा पृष्ठ ३०७ पर पढ़े गये –उम्मुक्कवालभावा-से ले कर-लावराणेण य उक्किहायहां तक के पदों का बोधक है । तथा-समोसढे जाव गो-यहां के-जाव- यावत्- पद से संगृहीत पद पृष्ठ ४३१ पर लिख दिये गये हैं । तथा-तहेव जाव रायमगं-यहां पठित-तहेवपद उसी भांति अर्थात् जिस तरह पहले वर्णित अध्ययनों में वर्णन कर आये हैं, उसी तरह प्रस्तुत में भी समझना चाहिये, तथा उसी वर्णन का संसूचक जाव-यावत् पद है । जाव-यावत् पद से अभिमत पाठ पृष्ठ २०७ पर लिखा जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है कि प्रस्तुत में रोहीतक नामक नगर का उल्लेख है, जब कि वहां पुरिमताल नगर का । शेष वर्णन समान ही है । -उक्खित्तकराणनासं जाव सूले-यहां पठित जात्र-यावत् पद पृष्ठ १२३ पर लिखे गए -नेहत प्पियगत्तवज्झकरकडिजयनियत्थं-इत्यादि पदों का परिचायक है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां एक पुरुष का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में एक स्त्री का । अर्थगत कोई भेद नहीं है । तथा-अज्झथिए ५- यहां के अंक से अपेक्षित पद पृष्ठ १३३ पर लिखे जा चुके है । -तहेव णिग्गते जाव एवं वयासी- यहां पठित - तहेव-तथा-जाव- यावत् - पद पृष्ठ २१० पर पढे गए-ग्रहोणं इमे परिसे पुरा पुराणाणं-से ले कर - महावीरं वन्दति नमसति २-इन पदों का तथा पृष्ठ २११ पर पढ़े गये -तुब्भेहिं अब्भणुए गाए समाणे-से ले कर- वेएणं वेएति- यहां तक के पदों का परिचायक है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां पुरिमताल नगर ओर उस के राजमार्ग पर भगवान् गौतम ने एक वध्य पुरुष के दयनीय दृश्य को देखा था, और वह दृश्य भगवान् को सुनाया था, जब कि प्रस्तुत में रोहीतक नगर है और उसके राजमार्ग पर एक स्त्री के दयनीय दृश्य को उन्होंने देखा और वह दृश्य भगवान् को सुनाया । अर्थात् दृश्यवर्णक पाठ भिन्न होने के अतिरिक्त शेष वर्णन समान ही है । अब सूत्रकार भगवान् महावीर स्वामी द्वारा दिये गये उत्तर का वर्णन करते हुए कहते हैं - मूल-'एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं सपएणं इहेव जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे (१) एव खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे सुप्रतिष्ठ नाम नगरमभूद्, ऋद्ध । महासेनो राजा । तस्य महासेनस्य धारिणीप्रमुखं देवीसहस्रमवरोधे चाप्यभूत् । तस्य महासेनस्य पुत्रो धारिण्या देव्या आत्मजः सिंहसेनो नाम कुमारोऽभूहीन० युवराजः । ततस्तस्य सिंहसेनस्य For Private And Personal Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४७.] श्री विपाक सूत्र [ नवम अध्याय सुरति णाम नगरे होत्या, रिद्ध० । महासेणे राया, तस्स णं महासेणस्त धारिणीपामुक्खं देवीसहस्सं ओरोहे यावि होत्या । तस्स णं महासेणस्स पुत्ते धारिणीए देवीए अत्तए सीहसेणे णाम कुमारे होत्था, अहोण० जुवराया । तते णं तस्स सीहसेणस्स कुमारस्स अम्बापितरो अन्नया कयाइ पंचपासायवडंसगसयाई काति, अब्भुगतः । तते स तस्स सीहसेणस्स कुमारस्स अन्नया कयाइ सामापायोक्खाणं पंचएहं रायवरकन्नगसयाणं एगदिवसेणं पाणि गेहावसु । चसयो दायो। तते णं से सीहसेणे कुमारे सामापामोखेहि पंचहि देवीसतेहिं सद्धि उप्पि जाव विहरति । तते णं से पहाणे राया अन्नया कयाइ कालधामुणा संजुत्ते, नीहरणं० । राया जाते महया० । पदार्थ-एवं खलु- इस प्रकार निश्चय ही । गोयमा! -हे गौतम !। तेणं कालेणं तेणं समरणं-उस काल तथा उस समय । इहेव - इसी । जंबुद्दी-जम्बूद्वीप नामक । दीवे-द्वीप के अन्तर्गत । भारहे वासे-भारत वर्ष में | सुपति-सुप्रतिष्ठ । णाम-नामक । णगरे-नगर। होत्था-था, जो कि रिद्ध-श्रद्ध-भवनादि के आधिक्य से युक्त. स्तिमित-आन्तरिक और बाह्य उपद्रवों के भय से रहित, तथा समृद्ध --धन धान्यादि से परिपूर्ण, था। महासेणे राया-महासेन नामक राजा था। तस्सगां-उस महासेणस्स-महासेन की। धारिणीपासखं-जिस में धारिणी प्रमख-प्रधान हो ऐसी। देवीसहस्सं-हजार देविएँ । ओरोहे-अवरोध --अन्त:पुर में । यावि होत्था-थीं । तस्स - उस । महासेण स्त-महासेन का । पुते-पुत्र । धारिणीर -धारिणी । देवीर-देवी का । अतए - अात्मज । सीहसेणे-सिंहसेन । णाम-नामक । कुमारे-कुमार । होत्था-था। अहीण-जो कि अन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रियों वाले शरीर से युक्त, तथा । जुबराया-युवराज था। तते ए-तदनन्तर । तस्स-उस । सीहसेणस्स-सिंहसेन । कुमारस्त-कुमार के । अम्मापितरो-माता पिता । अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय । अब्भूगत०-अत्यन्त विशाल । पंचपासायवडंसगसयाई-पांच सौ प्रासादावतंसक-श्रेष्ठ महल । कारति-बनवाते है । तते णं-तदनन्तर । तस्स - उस । सीइसेणस्तसिंहसेन । कुमास्स -कुपार का । अनया काइ-किसी अन्य समय । सामापामोखाण -जिस में श्यामा देवी प्रधान थी ऐसी । पंचएहं रायवरकन्नगसया-पांच सौ श्रेष्ठ राज कन्याओं का । एगदिवसेणं-एक दिन में । पाणिं गए दावे -पाणिग्रहण करवाया। पंचसय प्रो-पांच सौ। दामोप्रीतिदान - दहेज दिया । तते णं- तदनन्तर । से-वह । सोहसेणे -- सिंहसेन । कुमारे-कुमार । कुमारस्याम्पापितरौ, अन्यदा कदाचित् 'पंचप्रासादावतंसकशतानि कारयत: , अभ्युद्गत० । ततस्तस्य सिंहसेनस्य कुमारस्य अन्यदा कदाचित् श्यामाप्रमुखाणां पंचानां राजवरकन्यकाशतानामेकदिवसेन पाणिमग्राहयताम् । पंचशतको दायः । ततः स सिंहसेनः कुमार: श्यामाप्रमुख: पंचभि: देवीशतैः सामुपरि यावत् विहरति । तत: स महासेनो राजा, अन्यदा कदाचिद् कालधर्मण संयुक्तः । निस्सरणं० । राजा जातो महा० । . (१) अवतंसका इवावतंसकाः शेवराः, प्रासादाश्व तेऽवतंसकाः प्रासादावतंसकाः तेषां पंचशतानीत्यर्थः । अर्थात् प्रासाद महल का नाम है । अवतंसक शब्द प्रकृत में शिरोभूषण के लिये प्रयुक्त हुआ है। तात्पर्य यह है कि जैसे शरोभूषण सत्र भूषणों में उन्नत एवं श्रेष्ठ माना गया है, उसी तरह वे प्रासाद भी सब प्रासादों में श्रेष्ठ थे, और उनकी संख्या ५०० थी । For Private And Personal Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित। [४७१ सामापामोक्खेहिं-- श्यामादेवीप्रमुख । पंचहिं देवीसतेहिं-पांच सौ देवियों के । सद्धि - साथ । उप्पिप्रासाद के ऊपर | जाव-यावत् , सानन्द । विहरति-समय बिताता है । तते - तदनन्तर । सेवह । महासेणे-महासेन । राया - राजा । अन्नया कयाइ-अन्यदा कदाचित् । कालधम्मुणा - कालधर्म से । संजुत्त-संयुक्त हुआ-मृत्यु को प्राप्त हो गया । नीहरणं०- राजा का निष्कासन आदि कार्य पूर्ववत् किया । राया जाते-फिर वह राजा बन गया । महया० - जो कि महाहिमवान्-हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् था । मूलार्थ-हे गौतम ! उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीर नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में सुप्रनिष्ठ नाम का एक ऋद्ध, स्तिमित तथा समृद्ध नगर था । वहां पर महाराज महासेन राज्य किया करते थे । उम के अन्तःपुर में धारिणाप्रमुख एक हजार देवियें-रानिये थीं । महाराज महासेन का पुत्र और महारानी धारिणी देवी का आत्मज सिंहसेन नामक 'राजकुमार था, जो कि अन्यून एव निर्दोष पांच इन्द्रियों से युक्त शरीर वाला तथा युवराज पद से अलंकृत था। सिंहसेन गजकुमार के माता पिता ने किसी समय अत्यन्त विशाल पांच सौ प्रासादावतंसक --उत्तम महल बनवाए : नत्यश्व त् किसी अन्य समय उन्होंने सिंहसेन गजकमार का श्यामाप्रमुख पांच सौ सुन्दर राजकन्याओं के साथ विवाह कर दिया और पांच सौ प्रीतिदान-दहेज दिये । तदनन्तर राजकुमार सिंहसेन श्यामाप्रमुख उन पांच सौ राजकन्याओं के साथ प्रासादों में रमण करता हुआ सानन्द समय बिताने लगा । तत्पश्चात् किसी अन्य समय महाराज महासेन को मृत्यु हो गई । रुदन, आक्रदन और विलाप करते हुए रोज कुमार ने उसका निस्परण दि कार्य किया । तत्पश्चात् राजसिंहासन पर आरूढ होकर वह हिमवान् आदि पर्वतों के समान महान् बन गया, अर्थात् राजपद से विभूषित हो हिमवन्त आदि पर्वतों के तुल्य शोभा को प्राप्त होने लगो। .टीका-शूली पर लटकाई जाने वाली एक महिला की करुणामयी अवस्था का वर्णन कर उस के पूर्वभव का जीवनवृत्तान्त सुनने के लिये नितान्त उत्सुक हुए गौतम गणधर को देख, परम कृपालु श्रमस भगवान् महावीर स्वामी बोले कि हे गौतम ! यह संसार कर्म क्षेत्र है, इस में मानव प्राणी नानाप्रकार के साधनों से कर्मों का संग्रह करता रहता है। उस में शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म होते हैं । यह मानव प्राणी इस कर्मभूमी में जिस प्रकार का बीज वन करता है, उसी प्रकार का फल प्राप्त कर लेता है । तुम ने जो दृश्य देखा है वह भी दृष्ट व्यक्ति के पूर्वसंचन कर्मा के ही फल का एक प्रतीक है। जब तुम इस महिला के पूर्व भव का वृत्तान्त सुनोगे, तो तुम्हें अपने अपने आप ही कर्मफल की विचित्रता का बोध हो जायगा। ___ भगवान् फिर बोले -गौतम एक समय की बात है कि इसी २जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत (१) जं जारिसं पुत्वाकासि कम्म, तमेव श्रागच्छइ सम्पराए । एगन्तदुक्खं भवमन्जिणित्ता, वेयन्ति दुक्खी तमणन्तदुक्खं ॥ २३ ॥ (सूय० -- अ. ५, उ८०) अर्थात् जिस जीव ने जैसा कर्म किया है, संसार में वही उस को प्राप्त होता है। जिस ने एकान्त द:खरूप नरकभव का कर्म किया है, वह अनन्त दुःखरूप उस नरक को प्राप्त करता है। (२) तिर्यक लोग के असंख्यात द्वीप और समुद्रों के मध्य में स्थित और सब से छोटा, जम्बू नामक वृक्ष से उपलक्षित और मध्य में मेरुपर्वत से सुशोभित जम्बूद्वीप है । इस में भरत, ऐरावत और महाविदेह ये तीन कर्मभूमी और हैमवत, हैरण्यवत, हरिवर्ष, रम्यकवर्ष, देवकुरु और उत्तरकुरु ये छः अकर्मभूमि क्षेत्र हैं । इस की परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सताईस योजन, तीन कोस एक सौ अढ़ाई धनुष्य (चार हाथ का परिमाण) तथा साढे तेरह अंगुल से कुछ अधिक है। For Private And Personal Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४७२] श्री विपाक सूत्र [नवम अध्याय भारतवर्ष ( जम्बूद्वीप का एक विस्तृत तथा विशाल प्रांत ) में सुप्रतिष्ठ नाम का एक सुप्रसिद्ध नगर था, जो कि समृद्धिशाली तथा धन धान्यादि सामग्री के भंडारों का केन्द्र बना हुआ था । उस में महाराज महासेन राज्य किया करते थे । महाराज महासेन के रणवास में धारिणीप्रमुख एक हजार रानिय थीं, अर्थात् उन का एक हज़ार राजकुमारियों के साथ विवाह हुअा था । उन सब में प्रधान रानी महारानी धारिणी देवी थी, जो कि पतिव्रता, सुशीला और परमसुन्दरी थी । महारानी धारिणी की कुक्षि से एक बालक ने जन्म लिया था । बालक का नाम सिंहसेन था । राजकुमार सिंह सेन ता पिता की तरह सुन्दर, सुशोल और विनीत था. उस का शरीर निर्दोष और संगठित अंगप्रत्यंगों से युक्त था । वह माता पिता का आज्ञाकारी होने के अतिरिक्त राज्यसम्बन्धी व्यवहार में भी निपुण था । यही कारण था कि महाराज महासेन ने उसे छोटी अवस्था में ही युवराज पद से अलंकृत करके उसकी योग्यता को सम्मानित करने का इलाघनीय कार्य किया था । इस प्रकार यवराज सिंहसेन अपने अधिकार का पूरा २ ध्यान रखता हुअा अानन्दपूर्वक समय व्यत मय व्यतीत करने लगा। ____ जब राजकुमार सिंहसेन ने किशोरावस्था से निकल कर युवावस्था में पदार्पण किया तो महाराज महासेन ने युवराज को विवाह के योग्य जान कर उस के लिये पांच सौ नितान्त सुन्दर और विशालकाय 'राजभवनों का तथा उन के मध्य में एक परमसुन्दर भवन का निर्माण कराया. तत्पशात यवराज का पांच सौ सुन्दर राजकन्याओं के साथ एक ही दिन में विवाह कर दिया और पांच सौ दहेज दे डाले । उन राजकन्याओं में प्रधान - मुख्य जो राजकन्या थी, उस का नाम श्यामा था । तात्पर्य यह है कि युवराज सिंहसेन की मुख्य रानी का नाम श्यामा देवी थी, तथा इस विवाहोत्सव में महाराज महासेन ने समस्त पुत्रवधुओं के लिये हिरण्यकोटि आदि पांच सौ वस्तुएं दहेज के रूप में दी । तदनन्तर युवराज सिंहसेन अपनी श्यामा देवी प्रमुख ५०० रानियों के साथ उन महलों में सांसारिक सुखों का यथेच्छ उपभोग करता हुअा अानन्दपूर्वक रहने लगा ।। -रायवरकन्नगसयाणं-इस पद से सूचित होता है कि वे राजकन्यायें साधारण नहीं थीं किन्तु प्रतिष्ठित राजघरानों की थीं । इस के साथ २ यह भी सूचित होता है कि महाराज महासेन का सम्बन्ध बड़े २ प्रतिष्ठित राजाओं के साथ था । पांच सौ कन्याओं के साथ जो विवाह का वर्णन किया है, इस से दो बातें प्रमाणित होती हैं जो कि निम्नोक्त हैं (३) प्राचीन समय में प्रायः राजवंशों में बहुविवाह की प्रथा पूरे यौवन पर थी, इस को अनुचित नहीं समझा जाता था। (२) महाराज महासेन का इतना महान् प्रभाव था कि आस पास के सभी मांडलीक राजा उन को अपनी कन्या देने में अपना गौरव समझते थे । इस व्यवहार से वे महाराज महासेन की कृपा (१) इतने अधिक महलों के निर्माण से दो तीन बातों का बोध होता है - प्रथम तो यह कि माता पिता का पुत्रस्नेह कितना प्रबल होता है ?, पुत्र के आराम के लिये माता पिता कितना परिश्रम तथा व्यय करते हैं १. दूसरी यह कि महाराज महा पेन कोई साधारण नृपति नहीं थे, किन्तु एक बड़े समृद्धिशाली तथा तेजस्यो राजा थे । तोसरी यह कि-हमारा भारतदेश प्राचीन समय में समुन्नत, समृद्धिपूर्ण तथा सम्पत्तिशाली था। प्रायः उसके प्रासादों में स्वर्ण और मणिरत्नों की ही बहुलता रहती थी । सारांश यह है कि पुराने जमाने में हमारे इस देश के विभवसम्पन्न होने के अनेकानेक उदाहरण मिलते हैं । यह देश आज की भांति विभवहीन नहीं था। For Private And Personal Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । का संपादन करना चाहते थे । "-एगदिवसेणं-" यह पद महाराज महासेन की कायं दक्षता एवं दीघदर्शिता का सूचक है। इतने बड़े समारम्भ को एक ही दिन में सम्पूर्ण करना कोई साधारण काम नहीं होता । तात्पर्य यह है कि वे व्यवहार में कुशल और बड़े प्रतिभाशाली व्यक्ति थे । बहुकालसाध्य काय को भी स्वल्प काल में सम्पन्न कर लेते थे । यह सब को विदित ही है कि घड़ी में जितनी चावी दी हुई होती है, उतनी ही देर तक घड़ी चलती है और समय की सूचना देती रहती है । चाबी के समाप्त होते ही वह खड़ी हो जाती है. उस की गति बन्द हो जाती है। यही दशा इस मानव शरीर की है। जब तक प्राय है तब तक वह चलता फिरता और सर्व प्रकार के कार्य करता है । आयु के समाप्त होते ही उसकी सारी चेनाएं समाप्त हो जाती हैं । वह जीवित प्राणी न रह कर. एक पाषाण की भान्ति निश्चेष्टता को धारण कर लेता है, और उस शरीर को जिस का कि बराबर पालन पोषण किया जाता था, जला दिया जाता है । इस विचित्र लीला का प्रत्येक मानव अनुभव कर रहा है । इसी के अनुसार महाराज महासेन भी अपनी समस्त मानव लीलाओं का सम्बरण करके मृत्यु की गोद में जा विराजे। राजभवनों में महाराज की मृत्यु का समाचार पहुंचा तो सारे रणवास में शोक एव दुःख को चादर बिछ गई । युवराज सिंहसेन को महाराज की मृत्यु से बड़ा आघात पहुंचा । शहर में इस खबर के पहुंचते ही मातम छा गया । नगर को जनता. युवराज सिंहसेन के सन्मुख समवेदना प्रकट करने के लिये दौड़ी चली आ रही है । अन्त में बड़े समारोह के साथ महाराज महासेन की अरथी उठाई गई और उन का विधिपूर्वक दाहसंस्कार किया गया । महाराज महासेन की मृत्यु के बाद उन की लौकिक मृतक क्रियायें समाप्त होने पर प्रजाजनों ने यवराज सिंहसेन को राज्यसिंहासन पर बिठलाने के लिये, उनके राज्याभिषेक की तैयारी की और राज्याभिषेक कर के उसे सिंहासनारूढ किया गया । तब से युवराज सिंहसेन महाराज सिंहसेन के नाम से प्रख्यात होने लगे । महाराज सिंहसेन भी पिता की भान्ति न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करने लगे और अपने सद्गुणों एवं सद्भावनाओं से जनता के हृदयों पर अधिकार जमाते हुए राज्यशासन को समुचित रीति से चलाने लगे । __-रिद्ध०-तथा - अहीण. जुवराया- यहां के बिन्दु से अभिमत पाट क्रमशः पृष्ठ १३४ और ३२० पर लिखा जा चुका है । तथा-अभुग्गत०- यहां के बिन्दु से सूत्रकार को निम्नोक्त पाठ अभिमत है - अभुग्गयमुसियपहसियाई विव मणि - कणग-रयण -भत्ति-चित्ताइवाउद्धृत-विजय - बेजयंती-पडागाच्छत्ताइच्छत्तकलियाई तुंगाई गगणतलमभिलंघमाणसिहराई जालंतरयणपंजरुम्मिल्लियाई व मणिकणगथूभियाइ वियसितसयपत्तपुंडरीयाइ तिलयरयणद्धयचंदच्चित्ताइ नानामणिमयदामालंकिए अन्तो बहिं च सराहे तवणिज्जरुइलवालुयापत्थरे सुहफासे सस्सिरीयस्वे पासाइए दसणीए अभिरुवे पडिरूवे , तेसिं णं पासादवडिंसगाणं बहुमझदेसभागे एत्थ णं एणं च महं भवणं कारेन्ति अणेगखंभसयसन्निविटं लीलठियसालभंजियागं अब्भुग्गयसुकयवइरवेइयातोरणवररइयसालभंजियासुसिलिट्ठविसिठ्ठलसंठियपसत्थवेरुलियखभनानामणिकणगरयणखचियउज्जलं बहुसमसुविभत्तनिचियरमणिज्जभूमिभागं ईहामिय उसमतुरगणरमगरविहगवालगकिन्नरहरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमजयभत्तिचित्त खंभुग्गयवयरवेइयापरिग्गयाभिरामं विज्जाहरजमलजुय For Private And Personal Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४७४ ] श्री विपाक सूत्र - [नवम अध्याय लजंतजुत्त' पिव अचवीसहस्समालणीयं स्वगसहस्सकलियं मिसमाग भिब्भिसमाणं चक्खुल्लोयलेसं सुहफासं सस्तिरीयरूवं कंचणमणिरयणधू भियागं नाणा विहपंचवरणघण्टा पडागपरिमण्डि - यहि धवलमिरीचिकवयं विणिम्मुयंत लाउल्जोइयमहियं गोसोससर सरत्तचंदगदद्दर दिन्नपंचगुलितलं उवचियचंद कलर्स चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं श्रासतोस त्तविउलग्वारियमल्लदामकलावं पंचवरणसरस सुरभिमुक्कपुफ्फपुञ्जोवयार कलियं कालागरुपवरकुन्दुरुक्कतुरुक्कधूवमघमघंत गंधुद्धयाभिरामं सुगन्धवरगन्धियं गंधवहिभूयं पासादीयं दरिसणिज्जं अभिरूवं पडिरूवं - इन पदों का अर्थ निम्नोक्त है - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir वे महल अभ्युद्गत - श्रत्यन्त उच्छ्रित - ऊंचे थे और मानों उन्हों ने हंसना प्रारम्भ किया हुआ हो अर्थात् वे अत्यधिक श्वेतप्रभा के कारण हंसते हुए से प्रतीत होते थे । मणियों -सूर्यकान्त दि सुवर्णों और रत्नों की रचनाविशेष से वे चित्र - आश्चर्योत्पादक हो रहे थे 1 वायु से कंपित और विजय की संसूचक वैजयन्ती नामक पताकाओं से तथा छत्रातिछत्रों । छत्र के ऊपर छत्र ) से वे प्रासाद - महल युक्त थे । वे तुङ्ग - बहुत ऊंचे थे, तथा बहुत ऊंचाई के कारण उन के शिखर चोटियां मानों गगनतल को उल्लंघन कर रही थीं । जालियों के मध्य भाग में लगे हुए रत्न ऐसे चमक रहे थे मानों कोई आंखें खोल कर देख रहा था अर्थात् महलों के चमकते हुए रत्न खुली खों के समान प्रतीत हो रहे थे । उन महलों की स्तूपिकाएं - शिखर मणियों और सुवणों से खचित थीं, उन में शतपत्र ( सौ पत्ते वाले कमल) और पुण्डरीक ( कमल विशेष ) विकसित हो रहे थे, अथवा. इन कमलों के चित्रों से वे चित्रित थे । तिलक, रत्न और अर्धचन्द्र - सोपानविशेष इन सब वे चित्र - आश्चर्यजनक प्रतीत हो रहे थे । नाना प्रकार की मणियों से निर्मित मालाओं से अलंकृत थे । भीतर और बाहिर से चिकने थे । उन के प्रांगणों में सोने का सुन्दर रेत बिछा हुआ था । वे सुखदायक स्पर्श वाले थे । उन का रूप शोभा वाला था वे प्रासादीय- चित्त को प्रसन्न अभिरूप - जिन्हें एक बार जब भी देखा जाए तब करने वाले, दर्शनीय – जिन्हें बारम्बार देख लेने पर भी आंखें न थर्के, देख लेने पर भी पुनः दर्शन की लालसा बनी रहे और प्रतिरूप - जिन्हें ही वहां नवीनता ही प्रतिभासित हो, थे । उन पांच सौ प्रासादों के लगभग मध्य भाग में एक महान भवन तैयार कराते हैं । प्रासाद और भवन में इतना ही अन्तर होता है कि प्रासाद अपनी लम्बाई की अपेक्षा दुगुनी ऊंचाई वाला होता है। अथवा अनेक भूमियों - मंज़िलों वाला प्रासाद कहा जाता है जब कि भवन अपनी लम्बाई की अपेक्षा कुछ ऊंचाई वाला होता है, अथवा एक ही भूमि मंजिल वाला मकान भवन कहलाता है । भवनसम्बन्धी वर्णक पाठ का विवर्ण निम्नोक्त है उस भवन में सैंकड़ों स्तम्भ - खम्भे बने हुए थे, उस में लोला करती हुई पुतलियें बनाई हुई थीं । बहुत ऊंची और बनवाई गईं वज्रमय वेदिकाएं चबूतरें, तोरण बाहिर का द्वार उस में थे, जिन पर सुन्दर पुतलियां अर्थात् लकड़ी, मिट्टी, धातु, कपड़े आदि की बनी हुई स्त्री की आकृतियां या मूर्तियां जो विनोद या क्रीड़ा ( खेल ) के लिए हों, बनाई गई थीं। उस भवन में विशेष आकार वाली सुन्दर और स्वच्छ जड़ी हुई वैडूर्य मणियों के स्तम्भों पर भी पुतलियां बनी हुई थीं । अनेक प्रकार की मणियों सुवर्णों, तथा रत्नों से वह भवन खचित तथा उज्ज्वल -- प्रकाशमान हो रहा था । वहां का भूभाग समतल वाला और अच्छी तरह से बना हुआ, तथा अत्यधिक रमणीय था । ईहामृग – भेडिया, वृषभ - बैल, अश्त्र - घोड़ा, मनुष्य, मगर - मत्स्य, पक्षि, सर्प, For Private And Personal Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [४७५ किन्नर-देवविशेष, मृग-हरिण, अष्टापद - पाठ पैरों वाला एक वन्य -- पशु जो हाथी को भी अपनी पीठ पर बैठा कर ले जा सकता है, चमरी गाय, हाथी, वनलता-लताविशेष, और पद्मलता- लताविशेष, इन सब के चित्रों से उस भवन की दीवारें चित्रित हो रही थी. । स्तम्भों के आर हीरे की बनी हुई वेदिकायों से वह भवन मनोहर था। वह भवन एक ही पंक्ति में विद्याधरों के युगलों-जोड़ों की चलती फिरती प्रतिमायों से युक्त था। वह भवन हजारों किरणों से व्याप्त हो रहा था। वह भवन अत्यधिक कान्ति वाला था। देखने वाले के मानों उस भवन में नेत्र गड़ जाते थे । उसका स्पर्श सुखकारी था । उस का रूप मनोहर था । उस की स्तूपिकएँ - बुर्जिएं सुवर्णों, मणियों और रत्नों की बनी हुई थीं । उस का शिखराग्रभाग-चोटी का अगला हिस्सा, पांच वणों वाले नानाप्रकार के घण्टों और पताकायों से सुशोभित था । उस में से बहुत ज्यादा श्वेत किरणों निकल रही थीं। वह लीपने पोतने के द्वारा महित-विभूषित हो रहा था । गोशीर्ष-मलयगिरि चन्दन, और सरस एवं रक्त चन्दन के उस में हस्तक-थापे लगे हुए थे । उस में चन्दन के कलश स्थापित किए हुए थे । चन्दन से लिप्त घटों के द्वारा उस के तोरण और प्रतिद्वारों-छोटे २ द्वारों के देशभाग -निकटवर्ती स्थान सुशोभित हो रहे थे। नीचे से ऊपर तक बहुत सी फूलमालाएं लटक रही थीं । उस में पांचों वर्षों के ताजे सुगन्धित फूलों के ढेर लगे हुए थे | वह कालागरु-कृष्णवर्णीय अगर नामक सुगन्धित पदार्थ, श्रेष्ठ कुन्दुरुक - सुगन्धित पदार्थविशेष, तुरुष्क-सुगन्धित पदार्थ विशेष इन सब की धूपों-धूमों की अत्यन्त सुगन्ध से वह बड़ा अभिराम -मनोहर था । वह भवन अच्छी २ सुगन्धों से सुगन्धित हो रहा था, मानों वह गन्ध की वर्तिका - गोली बना हुआ था। वह प्रासादीय -चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय-जिसे बारम्बार देख लेने पर भी अांखे न थके, अभिरूप-जिसे एक बार देख लेने पर भी पुनः दर्शन की लालसा बनी रहे और प्रतिरूप-जिसे जब भी देखो तब ही वहां नवीनता ही प्रतिभासित हो, इस प्रकार का बना हुआ था । ... "-पंचसयो दामो-" इन पदों की व्याख्या वृत्तिकार आचार्य श्री अभयदेव सूर के शब्दों में यदि करने लगे तो "-पंचसयो दाउ -त्ति हिरण्यकोटि-सुवर्णकोटिप्रभृतीनां प्रेषणकारिकान्तानां पदार्थानां पंचशतानि सिंहसेनकुमाराय पितरौ दत्तवन्तावित्यर्थः । स च प्रत्येकं स्वजायाभ्यो दत्तवानिति -" इस प्रकार की जा सकती है, अर्थात् माता पिता ने विवाहोत्सव पर ५०० हिरण्यकोटि एवं ५०० सुवर्णकोटि से लेकर यावत् ५०० प्रेषणकारिकाए युवराज सिंहसेन को अर्पित की. तब उसने उन सब को विभक्त करके अपनी ५०० स्त्रियों को दे डाला । ५०० - संख्या वाले हिरण्यकोटि आदि पदार्थों का सविस्तर वर्णन निम्नोक्त है - पंचसयहिरएणकोडीओ पंचसयसुवरणकोडीओ पंचसयमउडे मउडप्पवरे पंचसयकडलजुएं कुडलजुयप्पवरे पंचसयहारे हारप्पवरे पंचसयअद्धहारे अद्धहारप्पवरे पंचसयए - गावलीनो एगावलिप्पवराओ एवं मुत्तावलीयो एवं कणगावलीअो एवं रयणावलीओ पंचसयकडगजोए कडगजोयप्पवरे एवं तुडियजोए, पंचसयख मजुयलाई खोमजुयलप्पवराइ एवं वडगनुयलाई एवं पहजुयलाई एवं दुगुल्लजुयलाई, पंचसयसिरीयो पंचसयहिरीयो एवं धिईश्रो कित्तीओ बुद्धीओ लच्छीओ, पंचसयनंदाइपंचसयभद्दाई पंचसयतले तलप्पवरे सव्वरयणामए , णियगवरभवणके ऊ पंचसयज्झए झयप्पवरे पंचसयवए वयप्पवरे दसगोसाहस्सिएणं वएणं, पंचसयनाडगाई नाडगप्पवराई बत्तीसवद्धणं नाडएणं, पंचसयासे आसप्पवरे For Private And Personal Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री विपाक सूत्र - ४७६] [नवम अध्याय सिरिघरपsिaar, Hosture सिरिघरपडिरूवर, पंचसयहत्थी हत्थिष्पवरे सव्वरयणामर पंचसयजालाई जाजपवराई' पंवलयजुग्गाई जुग्गप्पवरा एवं सिवियाओ एवं संदमाणीओ एवं गिल्ली प्रो एवं थिल्लोश्रो, पंचसयवियडज गाइ वियडजाणप्पवराई पंचसयर हे पारिजा ए पंचसरहे संगामिए पंचसय से सप्पवरे पंचसयहत्थी हत्थिप्पवरे पंचसयगामे गामप्पवरे दसकुलसाहस्रिणं गामेण, पंचसयदासे दासप्पवरे एवं चेव दासीओ एवं किंकरे एवं कंचुइज्जे एवं वरिसरे एवं महत्तरए, पंत्रसयसोवरिणए श्रोलंबणदीवे पंचसयरुपामए श्रीलं दण दीवे पंचसय तुवरण रुप्पामय श्रीलंबणदीवे पंचसयसोवरिण उपकं चणदीवे एवं चेत्र तिन्नि वि, पंचयसरि पंजरदीपे एवं चेव तिन्ति वि, पंचसयसोवरिणए थाले पंचसयरुप्पामर थाले पंचसय रुप्पामर थाले पंत्रसयलोवरिया पत्तीओ पंचसयरुपामयाओ पत्तीओ पंचलय सुवागरुप्पामयाओ पसीओ पंचलयलावरियाई थासगाई पंचसयरुप्पामयाई थासगाई पंचसय सुत्ररुपामयाइ थासगाई पंचसयसावरियाई मल्लगाई पंचसयरुप्पामयाई मल्ल गाई पंचसय पुत्रगण रुप्पामयाइ मल्लगाई पंचसयसोवरिण्याओ तलियाश्रो पंचसय रुप्पामयात्री तलिया पंचसय सुवरण रुप्पामया श्री तलिया श्री पंचलयसोवरिणयाश्रो कावा पंचसयरुप्पाया कावा पंचसय सुवरण रुप्पामया श्री कावाश्री पंचसयसोवरिण श्रवण्डए पंचसयरुप्पामरं श्रवण्डर पंचसय सुवण्णरुप्पामए श्रवण्डप पंचसयसोवरिया श्री श्रवयक्का श्रो पंचसय रुप्पामा वयक्का पंवसयसोवरखरुप्पामया श्रवयक्कायो पंचसरसोवरिणए पायपीढए पंचसयरुप्पामर पायपीढए पंचसय सोवण रुप्पामए पायवीढए पंचलय - सावरिया श्रो भिसियाओ पंचसयरुपामयाआ भिसियाश्री पंचसय सुवरण रुप्पामयाओ भिसियाओ पंचस यसोष रिया श्रा करोडियात्री पंचसयप्पामयाओ करोडिया पंचसय वराण रुपामयाओ करोडिया श्री पंचसयसोवरिपर पल्लं के पंच संयस्पामए पल्लंके पंचसय सुवरण रुप्पामर पल्लंके पंचसयोवरियाश्रो पडिसेज्जाश्रो पंचसय रुप्पामयाओ पडिसेज्जाश्रो पंचसयसोवरणरूपामयाओ पडिसेज्जाश्रो पंचसयहंसासणाई पंचसयकोचासगाई एवं गरुला सगाई उन्नयासणाई पण्यासणाई दीशसवाई' भहासराई पक्वासणारं मगरासणाई पंचसयपडमासलाई पंचसयदिसासोवत्थियासखाइ पंचसयतेलसमुग्गे जहा रायप्पसे - इज्जे जाव पंचसय सरिसवसमुग्गे पंचसयखुज्जाश्रो जहा उववाइप जाव पंचसयपारिसीओ पंचयत पंचसयतधारियो चेडीओ पंचसयामरा पंचसयचामरधारीओ चेड़ीश्रो पंत्रलयतालियंडे पंचसयता लियंटधारीओ चेड़ीयो पंचसयकरोडिया श्री पंचसयकोडियाधारी श्रो चेड़ीयो पंचलय - खोरधातोओ जाव पंचसय अंकधाती प्रो पंचसय गमद्दियाश्रो पंचसयउम्मद्दियात्री पंचसयरहाविया श्री पंचसयपसाहियात्री पंचसयवन्नगपेसीओ पंचसय चुन्नग पेसीत्रो पंच जयको डागारी पंचसयदव कारीया पंचसय उवत्याणिया पंचसयनाडइज्जाश्रो पंचसयकडु - विजी पंवसय महारासिगोप्रो पंचसय भण्डागारिणी यो पंचसय प्रज्भाधारिणीश्रो पंचसयपुष्पधारिणीश्रो पंचसयपाणिधारिणी श्रो पंचबलिकारिया पंचसयसेज्जाकारिया श्रो पंचसय प्रभंत रिया श्री पडिहारी ओ पंचसय वाहिर पडिहारियो पंचसयमालाकारीश्री पंचसय पेसकारी अन्नं वा बहुं हिरणं वा सुवरणं वा कंसं वा दूसं वा विउलधणक एगरयणमणिमोतियसं वलिप्पवा तर त्तरय संतसारसावइज्जं श्रलाहि जाव तमाश्रो कुवा श्रो पकामं दाउ पकामं परिभोत्तु पकामं परिभाएउ । इन पदों का अर्थ पृष्ठ ४७७ पर लिखा गया है। · Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय] हिन्दी भाषा टोका महित । । ४७७ ___पांच सौ हिरण्यकोटि ( हिरण्यो अर्थात् श्राभूषणों के रूप में अपरिणत करोड़ मूल्य वाला सोना अथवा चांदी के सिक्के ।, पांच सौ सुवण कोटि (आभूषण के रूप में परिवर्तित सोना, जिस का मूल्य करोड़ हो , 'पांच सौ उत्तम मुकुट, पांच सा उत्तम कुडलों के जोड़े पांच सौ उत्तम हार, पांच सौ उत्तम अर्द्धहार पाँच सौ उत्तम एकावली हार, पांच सौ उतम मुक्तावली हार. गंच सौ उनम कनकावली हार, पाच सौ उत्तम रत्नावली हार. पांव मौ उत्तम कड़ों के जोड़े, पांच सौ उत्तम भुजबंधों के जोड़े पांच सौ उत्तम रेशमी वस्त्रों के जोड़े, पांच सौ उत्तम वटक-टसर के वस्त्र-युगल, पांच सौ उत्तम पट्टसूत्र के वस्त्र - युगल, पांच सौ दुकूल नामक वृक्ष की त्वचा से निर्मित वस्त्र-युगल, पांच सौ श्री देवी की प्रतिमाएं, पांच सौ हो देवी की प्रतिमाएं, पांच सौ धृति देवी की प्रतिमाएं, पांच सौ लक्ष्मी देवी की प्रतिमाएं, पांच सो नन्द मांगलिक वस्तुए अथवा लोहासन, पांच सौ भद्र-मांगलिक वस्तुए अथवा शरासन, पांच सौ उत्तम रत्नमय ताल वृक्ष अपने २ भवनों के चिहस्वरूप पांच सौ उत्तम ध्वजा, दस हज़ार गौओं का एक गोकुल होता है ऐसे पांच सौ उत्तम गोकुल, एक नाटक में ३२ पात्र काम करते हैं ऐसे पांच सौ उत्तम नाटक सर्वरत्नमय लक्ष्मी के भंडार के समान पांच सौ उत्तम घोड़े सर्वरत्नमय लक्ष्मी के भंडार के समान पांच सौ उत्तम हाथी, पांच सौ उत्तम यान - गाड़ी आदि, पांच सौ उत्तम युग्य - एक प्रकार का वाहन जिसे गोल्लदेश में जम्पान कहते हैं, पांच सौ उत्तम शिविकाएं -पालकिये, पांच सौ उत्तम स्यन्दमानिका-पालकीविशेष, इसी प्रकार पांच सौ उत्तम गिल्लिये (हस्ती के ऊपर की अम्बारी-जिस पर सवार बैठते हैं उसे गिल्ली कहते हैं), पांच सौ उत्तम थिल्लियां (थिल्ली घोड़े की काठी को कहते हैं।, पांच सौ उत्तम विकटयान - बिना छत की सवारी पांच सौ पारिवानिक - क्रीड़ादि के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले रथ, पांच सौ सांग्रामिक रथ, पांच सौ उत्तम घोडे, पांच सौ उत्तम हाथी. दस हजार कुल परिवार जिस में रहे उसे ग्राम कहते हैं ऐसे पांच सौ उत्तम गांव. पांच सौ उत्तम दास, पांच सौ उत्तम दासिर, पाच सो उत्तम किंकर पूछ कर काम करने वाले, पांच सौ कंचुकी-अन्त:पुर के प्रतिहारी, पांच सौ वर्ष - धर - वह नपुसक जो अन्तःपुर में काम करते हैं, पांच सौ महत्तर- अन्तःपुर का काम करने वाले, शृखला--- सांकल वाले पांच सौ सोने के दीप ' सांकल वाले पांच सौ चांदी के दीप, सांकल वाले पांच सौ सोने और चांदी अर्थात् दोनों से निमित दीप, ऊंचे दंड वाले पांच सौ सोने के दीप, ऊचे दंड वाले पांच सौ चांदी के दीप, ऊंचे दंड वाले पांच सौ सोने और चांदी के दीप, पंजर- फानूस (एक दड में लगे हुए शीशे के कमल या गिलास प्रा.द जिन में बत्तियां जलाई जाती हैं ) वाले पांच सौ सोने के दीप, पजर वाले पांच सौ चांदी के दीप, पजर वाले सोने और चांदी के पांच सौ दीप, पांच सौ सोने के थाल, पांच सौ चांदी के थाल. पांच सौ सोने और चांदी के थाल. पांच सौ सोने की कटोरियां पांच सौ चांदो की कटोरियां, पांच सौ सोने और चांदी की कटोरियां, पांच सौ सुवर्णमय दपण के आकार वाले पात्रविशेष. पांच सौ रजतमय दर्पण के आकार वाले पात्रविशेष, पांच सौ सुवर्णमय और रजतमय दर्पण के श्राकार वाले पात्रविशेष, पांच सौ सुवर्णमय मल्लक - पानपात्र (कटोरा). पांच सौ रजतमय मल्लक पांच सौ सुवर्ण और चांदी के मल्लक, पांच सौ सुवर्ण की तलिका- पात्रीविशेष, पांच सौ रजत की तलिका. पांच सौ सुवण और रजत की तलिका, पांच सौ सुवर्ण की कलाचिकाचमचे पांच सौ रजत के चमचे, पांच सौ सुवर्ण और रजत के चमचे, पांच सौ सुवर्ण के तापिकाहस्तपात्रविशेष, पांच सौ रजत के तापिकाहस्त, पांच सौ सुवर्ण और रजत के तापिकाहस्त, पांच सौ सुवर्ण (१) कहीं " पांच सौ सामान्य मुकुट तथा पांच सौ उत्तम मुकुट-" ऐसा अर्थ भी देखने में आता है। इसी भांति कुण्डलादि के सम्बन्ध में भी अर्थभेद उपलब्ध होता है । For Private And Personal Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४७८] श्रावपाक सुत्र | नवम अध्याय के अवपाक्य -- तवे, पाच सौ रजत के तव, पाच सो सुवणं और रजत के तवे, पांच सौ सुवर्ण के पादपीठ-पैर रखने के आसन, पांच सौ रजत के पादपीठ, पांच सौ सुवर्ण और रजत के पादपीठ, पांच सौ सुवर्ण के भिसिका-श्रासनविशेष, पांच सौ रजत के आसनविशेष, पांच सौ सुवर्ण और रजत के आसनविशेष, पांच सौ सुवर्ण के करोटिका -कूण्डे अथवा बड़े मुह वाले पात्र विशेष, पाच सौ रजत की करोटिका, पांच सौ सुवणे और रजत की करोटिका, पांच सौ सुवर्ण के पलंग, पांच सौ रजत के पलंग, पांच सौ सोने और रजत के पलंग, पांच सौ सुवर्ण की प्रतिराय्या - उत्तरशय्या अर्थात् छोटे पलग, पांच सौ रजत की प्रतिशय्या पांच सौ सुवर्ण और रजत की प्रतिशय्या पांच सौ हंसासन - हंस के चिह्न वाले आसनविशेष, पांच सौ कौंवासन - क्रौं वपक्षी के आकार वाले आसनविशेष, पांच सौ गरुड़ासन-गरुड़ के आकार वाले अासनविशेष, पांच सौ उन्नत - ऊंचे आसन, पांच सौ प्रणत - नीचे आसन, पांच सौ दीर्घ लम्बे आसन, पांच सौ भद्रासन - अासनविशष, पांच सौ पक्ष्मासन - श्रासनविशेष जिन के नीचे पक्षियों के अनेकविध चित्र हो, पांच सौ मकरासन -- मकर के चिह्न वाले श्रासन, पांच सौ पद्मासन - श्रासनविशेष, पांच सौ दिशासौवस्तिकासन दक्षिणावर्त अर्थात् स्वस्तिक के श्राकार वाले श्रासन, पांच सौ तैजसमुद्ग-तेल के डब्बे, इन के अतिरिक्त राजप्रश्नीय सूत्र में कहे हुए यावत् पांच सौ सरसों रखने के डब्बे, पांच सौ कुबड़ी दासिये इस के अतिरिक औपपातिकसूत्र के कहे अनुसार यावत् । पांच सौ पारिसी - पारस देशोत्पन्न दा सये, पांच सौ छत्र, पांच सौ छत्र धारण करने वाली दासिय. पांच सौ चंवर, पांच सौं चंवर धारण करने वाली दासिये, पांच सौ पखे, पांच सौ पंखा झुलाने वाली दासियें, पांच सौ पानदान वे डिब्बे जिन में पान और उस के लगाने की सामग्री रखो जातो है, पनडबा), पांच सौपानदान को धारण करने वाली दासिएं, पांच सौ क्षीरधात्रिएं - बालकों को दूध पिलाने वाली धायमाताएं, यावत् पांच सौ बालकों को गोद में लेने वाली धायमाताएं. पांच सौ अंगमर्दन करने वाली स्त्रियें, पांच सौ उन्मर्दिका-विशेष रूप से अंगमर्दन करने वाली दासिए', पांच सौ स्नान कराने वाली दासिये, पांच सौ अगार कराने वाली दासिए, पांच सौ चन्दनादि पीसने वाली दासिए, पांच सौ चूर्ण पान का मसाला अथवा सुगन्धित द्रव्य को पीसने वाली दासिए, पांच सौ कीड़ा कराने वाली दासिए पांच सौ परिहास - मनोरंजन कराने वाली दासिए'. पांच सौ राजसभा के समय साथ रहने वाली दासिए'. पांच सौ नाटक करने वाली दासिए पांच सौ साथ चलने वाली दासिए, पांच सौ रसोई बनाने वाली दासिएं. पांच सौ भाण्डागार - भण्डार की देख भाल करने वाली दासिए', पांच सौ मालिने, पांच सौ पुष्प धारण कराने वाली दासिए. पच सौ पानी लाने वाली दासिए, पांच सौ बलिकम – शरीर की स्फूर्ति के लिये तैलादि मर्दन करने वालो दासिये पांच सौ शय्या बिछाने वाली दासिए, पांच सौ अन्तःपुर का पहरा देने वाली दासिए, पांच सौ 'बाहिर का पहरा देने वाली दासिए, पांच सौ माला गूथने वाली दासिए', पांच सौ बाटा श्रादि पीसने वाली अथवा सन्देशवहन करने वाली दासिए, और बहुत सा हिरण्य, सुवर्ण, कांस्य - कांसी, बस्त्र, विपुल बहुत धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, मूगा, रक्त रत्न, उत्तमोत्तम वस्तुएं, स्वापतेय – रुपया पैसा आदि द्रव्य, दिया जो इतना पर्याप्त था कि सात पीढ़ी तक चाहे इच्छापूर्वक दान दिया जाय, स्वयं उस का उपभोग किया जाय, या खूब उसे बांटा जाय तो भी वह समाप्त नहीं हो सकता था। . ___ -उप्पिं जाव विहरति- यहां पठित जाव-यावत् पद से विवक्षित -पासायवरगर कु:माणेहिं - (१) पृष्ठ १६० तथा १६१ पर चिलाती, वामनी आदि सभी दासियों का उल्लेख किया गया है। (२) पृष्ठ १६० पर मञ्जनधात्री तथा मण्डनधात्री आदि शेष माताओं के नाम वर्णित हैं । For Private And Personal Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [४७९ से ले कर-पच्चभवनाणे-यहाँ तक के पद पृष्ठ.... २३४ पर लिखे जा चुके हैं । अन्तर मान्न इतना है कि वहां भग्नसेन का नाम है, जब कि प्रस्तुत में सिंहसेन का। शेष वर्णन समान ही है । . नीहरणं० - यहां नीहरण पद सांकेतिक है जो कि -तप णं से सोहसेणे कुमारे बहुहिं राईसर. जाब सत्यवाहप्पभितीहिं सद्धि संपरिवुडे रोयमाणे कन्दमाणे विलवमाणे महासेणस्स ररामो महया इढिसकारसमुदएणं नीहरणं करेइ २ बहुई लोइयाई मर्याकञ्चाई करेइ - इन पदों को तथा उसके आगे दिया गया बिन्दु-तते गं ते बहवे राईसर० जाव सत्थवाहा सीहसेणं कुमारं महया २रायाभिसेगेणं अभिसिंचंति तते णं सीहसेणे कमारे-इन पदों का परिचायक है। इन पदों का अर्थ पृठ ३३० पर किया जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां शतानीक राजा तथा उदयन कुमार का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में महासेन राजा और सिंहसेन कुमार का नामगत भिन्नता के अतिरिक्त शेष वृत्तान्त समान है । तथा-महया० -- यहां के विन्दु से अभिमत पाठ की सूचना पृष्ठ १३८ पर दी जा चुकी है। , इसके पश्चात् क्या हुश्रा ?, अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हुए कहते हैं मल-'तते णं से सीहसेणे राया सामाए देवीए मुच्छिते. ४ अवसेसाओ देवीप्रो णो आढाति, णो परिजाणाति । अणाढायमाणे अपरिजाणमाणे विहरति । तते णं ता सिं एगूणगाणं पंचएहं देवीसयाणं, एक्कूणाई पंचमाईसयाई इमीसे कहाए लट्ठाई समाखाई एवं खलु सीहसेणे राया सामाए देवोए मुच्छिते ४ अम्हं धूयाओ नो पाढाति नो परिजाणाति, प्राणाढायमाणे, अपरिजाणमाणे विहरति । तं सेयं खलु अम्हं सामं देविं अग्गिप्पओगेण वा विसप्पओगेण वा सत्थप्पभोगेण वा जीवियानो ववरोवित्तए । एवं संपेहेन्ति संपेहिता सामाए देवीए अंतराणि य छिदाणि य विरहाणि प पडिजागरमाणीयो पडिजागरमाणीओ विहरति । तते णं सा सामा देवी इपीसे कहाए लट्ठा समाणी एवं वयासी-एवं खलु ममं एगूणगाण पंचएहं सवत्तीसयाण पंचमाइसया इमीसे कहाए लट्ठाई समाणाई अन्नमन्नं एवं वयासी-एवं खलु सीहसेणे जाव पडिजागरमाणीयो विहरन्ति । तं नः नज्जति णं ममं केणति कुमारेणं मारेस्संति, त्ति कट्ट भीया ४ जेणेव कोवघरे तेणेव उवागच्छा उवागन्छित्ता ओहय० जाव झियाति । . (१) छाया - तत: स सिहसेनो राजा श्यामायां देव्यां मूच्छित: ४ अवशेषा देवीनों आद्रियते, नो परिजानाति, अनाद्रियमाणोऽपरिजानन् विहरति । ततस्तासामेकोनानां पंचानां देवीशतानामेकोनानि पञ्चमातृशतानि अनया कथया लब्धार्थानि सन्ति एवं खलु सिहसेनो राजा श्यामायां देव्यां मूच्छितः ४ अस्माकं दुहितों आद्रियते नो परजानाति, अनाद्रियमाणोऽपरिजानन् विहर ते । तच्छ यः खल्वमाकं श्यामां देवीम ग्निप्रयोगेण वा विषप्रयोगेण वा शस्त्रप्रयोगेण वा जीविताद् व्यपरोप येतुम् । एवं सम्प्रेक्षन्ते संप्रेक्ष्य श्यामायाः देव्याः अन्तराणि च छिद्राणि च विरहांश्च प्रतिजाग्रत्यः प्रतिजाग्रत्यो वहरन्ति । ततः मा यामा देवी अनया कथया लब्धार्था सती एवमवादीत् - एवं खलु मम एकोनानां पंचानां पत्नीशनानां एकोनानि पञ्चमातृशतानि अनया कथा लब्धार्थानि सन्त्यन्योन्यमेवमव. शादिषः-एवं खलु सिंहसेनो यावत् प्रति जाग्रत्यो विहरन्ति -तद न ज्ञायते मां केनचित् कुमारण पारयिष्यन्ति .” इति कृत्वा भीता ४ यत्रैव कोपगृह तत्र वोपागच्छति उपागत्य अरहत- यावद् ध्यायति । For Private And Personal Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir '४८०] श्री विपाक सूत्र - नवम अध्याय पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । से-वह । सोहसेणे राया-सिंहसेन राजा । सामाए-श्यामा। देवीए- देवी में । मूच्छिते ४-१ -मूछित-उसी के ध्यान में पगला बना हुआ, २-गृद्ध - उस की आकांक्षा वाला. ३-ग्रथित -उसी के स्नेहजाल से बन्धा हुआ, ४-अध्युपपन्न - उसी में आसक्त हुअा २ । अवसेसानो-अवशेष-बाकी की । देविनो-देवियों का । णो आढाति -- आदर नहीं करता। णो परिजाणाति-उन की ओर ध्यान नहीं देता । अणाढायमाणे - आदर नहीं करता हुआ । अपरिजाणमाणे-ध्यान न रखता हा । विहरति-विहरण कर रहा है । तते णं - तासि-उन । एयणगाज-एक कम । पचहं देवीसयाणं -पांच सौ देवियों की । एक्कणाईएक कम । पंचाईसपाई -पांच सो माताएं, जो कि । इमीले-इस । कहाए-वृत्तान्त को । लट्ठाई समाणाई.-जान गई हैं, कि । एवं खनु -इस प्रकार निश्चय ही। सीहसेणे-सिंहसेन । राया - राजा । सामार देवीर-श्यामा देवो में । मूच्छिते ४-१-मूञ्छित, २-गृद्ध, ३-ग्रथित और ४-अध्युपपन्न हा २ । अम्हं-हमारी । धृपाश्री-पुत्रियों का। नो श्राढाति -अादर नहीं करता, तथा। जो परिजाणाति-ध्यान नहीं करता, तथा । अणाढायमाणे-आदर न करता हश्रा। अपरिजाणमाणे - ध्यान में रखता हुआ । विहरति-विहरण कर रहा है । त-छत्तः । सेय-योग्य है । खलु-निश्चयार्यक है। अम्हं- हम को अर्थात् हमें अब यही योग्य है कि । सामं देवि-श्यामा देवी को। अग्गिप्पओ गेण वा - अग्नि के प्रयोग से अपवा । विसप्पयो गेण वा-विष के प्रयोग से अथवा । सत्यप्पयोगेण वा.-शस्त्र के प्रयोग से । जीवियानो -जीवन से । ववरोवित्तर - व्यपरोपित करना. अर्थात जीवनरहित कर देना । एवं-इस प्रकार । संपति संपेहिता-विचार करती हैं. विचार करने के बाद। सामाए देवीए -श्यामा देवी के । अंतराणि य-अन्तर- अर्थात् जिस समय राजा का आगमन न हो । छिहाणि य-छिद्र अर्थात् जब राजा के परिवार का कोई भी व्यक्ति न हो । विरहामि य-विरह अर्थात् जिस समय और कोई सामान्य मनुष्य भी न हो, ऐसे समय की । पडिजागरमाणोरो पडिजागरमाणीओप्रतीक्षा करती हुई, प्रतीक्षा करती हुई । विहरति-विचरण करती हैं। तते णं-तदनंतर । सा-वह । मामा देवी-इयामा देवी, जो । इमीसे-इस । कहार-वृत्तान्त से । लद्वद्रा समाणा-लब्धार्थ हुई अर्थात् वह इस वृत्तांत को जान कर । एवं-इस प्रकार । वयासी - कहने लगी । एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही । ममं-मुझे । एगुणगाणं-एक कम । पंचण्हं सवत्तीसयाणंपाँच सौ सपत्नियों को । एक्कूणगाई-एक कम । पंचमाईसयाई-पांच सौ माताए । इमोसेइस । कहार -कथा-वृत्तांत को । लहाई समाणाई -जानतो हुई। अन्नमन्नं-परस्पर । एवं वयासो-कहने लगीं । एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही । सीडसेणे-सिंहसेन । जात्रयावत् । पडिजागरमाणो ओ-प्रतीक्षा करती हुई । विहरंति -विहरण कर रही हैं । तं-अतः । न - नहीं । नज्जति णं - जानती अर्थात् मैं नहीं जानती हूँ कि । मम --मुझे । केणति-किस । कमारेणं-कुमार अर्थात् कुमौत से । मारेस्संति-मारेंगी । ति का-ऐसा विचार कर । भीया ४ - १-भीता-भयोत्पादक बात को सुन कर भयभीत हुई, २ --त्रस्ता-मेरे प्राण लुट लिये जायेंगे, यह सोच कर त्रास को प्राप्त सुई, ३-उद्विग्ना-भय के मारे उस का हृदय कांपने लगा, ४ - संजातभय - हृदय के साथ २ उस का शरीर भी कांपने लगा, इस प्रकार १-भीत, २-त्रस्त, ३-उद्विग्न और ४ - संजातभय होकर श्यामा देवी। जेणेव-जहां । कोवघरे - कोपगृह था अर्थात् जहां क द्ध हो कर बैठा जाए. ऐसा एकान्त स्थान था। तेणेव-वहां पर । उवागच्छति उवागच्छित्ता-आती है, श्राकर। श्रोहय०-अप - तमन:संकल्ला-जिसके मानसिक संकल्प विकल हो गये हैं अर्थात् उत्साह से रहित मन वाली होकर । For Private And Personal Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हिन्दी भाषा टीका सहित । - नवम अध्याय ] जाव - यावत् । क्रियाति -विचार करने लगी । मूलार्थ - तदनन्तर महाराज सिंहसेन श्यामा देवी में मूच्छित, गृद्ध, प्रथित और अध्युपन्न हुआ २ अन्य देवियों का न तो आदर करता है और न उन का ध्यान ही रखता है, विपरीत इस के उन का अनादर और विस्मरण करता हुआ मानन्द समय यापन कर रहा है । तदनन्तर उन एक कम पांच सौ देवियों - रानियों की एक कम पांच सौ माताओं ने जब यह जाना कि" - महाराज सिंहसेन श्यामादेवी में मूच्छिन, गृद्र. प्रथित और अध्युपपन्न हो हमारी कन्याओं का न तो आदर करता है और न उनका ध्यान ही रखता है" तब उन्होंने मिल कर निश्चय किया कि हमारे लिये यही उचित है कि हम श्यामा देवी को अग्निप्रयोग, विषप्रयोग या शस्त्रप्रयोग से जीवनरहित कर डालें । इस तरह विचार करने के अनन्तर वे श्यामादेवी के अन्तर छिद्र तथा विरह की प्रतीक्षा करती हुई समय व्यतीत करने लगीं । इधर श्यामादेवी को भी इस षड्यन्त्र का पता चल गया, , जिस समय उसे यह समाचार मिला तो वह इस प्रकार विचार करने लगी कि मेरी एक कम पांच सौ सात्नियों की एक कम पांच सौ माताएं " -- महाराज सिंहसेन श्यामा में अत्यन्त आसक्त हो कर हमारी पुत्रियों का आदर नहीं करता " यह जान कर एकत्रित हुई और * - अग्नि, विष या शस्त्र के प्रयोग से श्यामा के जीवन का अन्व कर देना ही हमारे लिये श्रेष्ठ है-" ऐसा विचार कर वे उस अवसर की खोज में लगी हुई हैं। यदि ऐसा ही है तो न जाने के मुझे किस कुमौत से मारें ?, ऐसा विचार कर वह श्यामाभी, त्रस्त, उद्विग्न और संजातमय हो उठी, तथा जहां कोपभवन था वहां आई और आकर मानसिक संकल्पों के विफल रहने से निराश मन से बैठो हुई यावत् विचार करने लगी । टीका - जैनशास्त्रों में ब्रह्मचर्य व्रत के दो विभाग उपलब्ध होते हैं - महाव्रत और अणुव्रत । हिन्दू शास्त्रों में इस के पालक की व्याख्या नैष्ठिक ब्रह्मचारी तथा उपकुर्वाण ब्रह्मचारी के रूप में की गई है । जो साधु मुनिराज तथा साध्वी सत्र प्रकार से स्त्री तथा पुरुष के संसर्ग से पृथक् रहते हैं, वे सर्वविरति अथवा नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहलाते हैं, तथा जो अपनी विवाहिता स्त्री के अतिरिक्त संसार की शेत्र स्त्रियों को माता तथा भगिनी एवं पुत्री के रूप में देखते हैं वे देशविरति या उपकुर्वाण ब्रह्मचारी कहलाते हैं । प्रस्तुत में हमें देशविरति या उपकुर्वाण ब्रह्मवारी के सम्बन्ध में कुछ विचार करना इष्ट है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir यह ठीक हैं कि देश विरत गृहस्थ अपनी विवाहिता स्त्री के अतिरिक्त शेष स्त्रियों को माता. बहिन और पुत्री के तुल्य समझे परन्तु अपनी स्त्री के साथ किये जाने वाले संसर्ग का भी यह अर्थ नहीं होता कि उस में वह इतना आसक्त हो जाए कि हर समय उसी का चिन्तन तथा ध्यान करता रहे और उस को एक मात्र कामवासना की पूर्ति का साधन ही बना डाले, ऐसा करना तो स्वदार सन्तोष की कड़ी अवहेलना करने के अतिरिक्त पाप कर्म का भी अधिकाधिक बन्ध करना है । विषयासक्ति कर्तव्यपालक को कर्तव्यनाशक, अहिंसक को हिंसक, तथा दयालु को हिंसापरायण बना देती है । आसक्ति में स्वार्थ है, संकोच है और गर्व है, वहां दूसरे के हित को कोई अवकाश नहीं, अत विचारशील व्यक्ति को इस से सदा पृथक् ही रहने का उद्योग करना चाहिये । [४८१ For Private And Personal महाराज सिंहसेन के जीवन में आसक्ति की मात्रा कुछ अधिक प्रमाग में दृष्टिगोचर हो रही है । महारानी श्यामा पर वे इतने आसक्त थे कि उस के अतिरिक्त किसी दूसरी विवाहिता रानी का उन्हें ध्यान तक भी नहीं आता था। तात्पर्य यह है कि महाराज सिंहसेन श्यामा के स्नेहपाश में बुरी तरह फंस गये थे । Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र ४८२] [नवम अध्याय I एक मात्र उन के हृदय पर सर्वेसर्वा अधिकार जमाये हुए थी, यद्यपि अन्य रानियों में भी पतिप्रेम और रूप - लावण्य की कमी नहीं थी, परन्तु श्यामा के मोहजाल में फंसे हुए सिंहसेन उन की तरफ आँख भर देखने का भी कष्ट न करते । महाराज सिहसेन का यह व्यवहार बाक़ी को रानियों को तो असह्य था ही, परन्तु जब उनकी माताओं को इस व्यवहार का पता लगा तो उन्हें बहुत दुःख हुआ । वे सब मिल कर आपस में परामर्श करती हुई इस परिणाम पर पहुँची कि हमारी पुत्रियों से इस प्रकार के दुर्व्यवहार का कारण एक मात्र श्यामा है, उस ने महाराज को अपने में इतना अनुरक्त कर लिया है कि वह उन को दूसरी तरफ झांकने का भी अवसर नहीं देती, इसलिये उसी को ठीक करने से सब कुछ ठीक हो सकेगा । ऐसा विचार कर वे अग्नि, विष, अथवा शस्त्र आदि के प्रयोग से महारानी श्यामा को समाप्त कर देने की भावना से ऐसे अवसर की खोज में लग गई जिस में श्यामा को मृत्युदण्ड देना सुलभ हो सके । प्रस्तुत कथासंदर्भ से अनेक ज्ञातव्य बातों पर प्रकाश पड़ता है, जो कि निम्नोक्त हैं - १- घर में हर एक के साथ समव्यवहार रखना चाहिये, किसी के साथ कम और किसी के साथ विशेष प्रेम करने से भी अनेक प्रकार की बाधाय उपस्थित हो जाती हैं। जहां समान अधिकारी हों वहां इस प्रकार का भेदमूलक व्यवहार अनुचित ही नहीं किन्तु अयोग्य भी है । अतः इस का परिणाम भी भयंकर ही होता है । इतिहास इस की पूरी २ साक्षी दे रहा है । महाराज सिंहसेन श्यामा के साथ अनुराग करते हुए यदि शेष रानियों से भी अपना कर्तव्य निभाते और कम से कम उन की सर्वथा उपेक्षा न करते तो भी इतना आपत्तिजनक नहीं था, परन्तु उन्हों ने तो बुद्धि से काम ही नहीं लिया । तात्पर्य यह है कि यदि वे अन्य रानियों के साथ अपना यत्किंचित् स्नेह भी व्यक्त करने का व्यावहारिक उद्योग करते तो उनकी प्रेयसी श्यामा के प्रति अन्य महिलाओं के तथा उन की माताओं के हृदयों में नारीजन - सुलभ विद्वेषामि को प्रज्वलित होने का अवसर ही न आता । (२) कुलीन महिला के लिये पतिप्रेम से वंचित रहना जितना दुःखदायी होता है उतना और कोई प्रतिकूल संयोग उसे कष्टप्रद नहीं हो सकता। इस के विपरीत उसे पतिप्रेम से अधिक कोई भी सांसारिक वस्तु इष्ट नहीं होती । श्यामा देवी के साथ जिन अन्य राजकुमारियों का महाराज सिंहसेन ने पाणिग्रहण किया था, उन का भी पतिप्रेम में भाग था, फिर उस से बिना किसी कारण विशेष के उन्हें वंचित रखना गृहस्थधर्म का नाशक होने के साथ २ अन्यायपूर्ण भी है । (३) पुत्री के प्रति माता का कितना स्नेह होता है १, यह किसी स्पष्टीकरण की अपेक्षा नहीं रखता । उस के हृदय में पुत्री को अपने श्वशुरगृह में सर्व प्रकार से सुखी देखने की अहर्निश लालसा बनी रहती है । सब से अधिक इच्छा उस की यह होती है कि उस की पुत्री पतिप्रेम का अधिक से अधिक उपभोग करे. परन्तु यहां तो उस का नाम तक भी नहीं लिया जाता। ऐसी दशा में उन राजकुमारियों की माताएं अपनी पुत्रियों के दुःख में समवेदना प्रकट करतो हुई हत्या जेसे महान् अपराध करने पर उतारू हो जायें तो इस में मातृगत हृदय के लिये आश्चर्यजनक कौनसी बात है १, (१) श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र के नवम अध्ययन में जिन रक्षित और जिनवाल के जीवनवृत्तान्त के प्रसंग में समुद्रगत डगमगाती हुई नौका का वर्णन करते हुए 66 - नव - बहू उवरयभ नुया विलवाणी विव-" ऐसा लिखा है अर्थात् नौका की स्थिति उस नववधू की तरह हो रही है, जो पति के छोड़ देने पर विलाप करती है। भाव यह है कि पति से उपेक्षित नारी का जीवन बड़ा ही दुःखपूर्ण होता । प्रकृत में ज्ञातासूत्रीय उपमा व्यवहार का रूप धारण कर रही है । For Private And Personal Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । ४८३ - - - क्योंकि अपनी पुत्रियों के साथ किये गये दुर्व्यवहार को चुपचाप सहन करने का अंश मातृहृदय में बहुत कम पाया जाता है। यह तो अनुभव मिद्ध है कि जीवन का मोह प्रत्येक व्यक्ति में पाया जाता है । संसार में कोई भी व्यक्ति इस से शून्य नहीं मिलेगा । व्यक्ति चाहे छोटा हो या बड़ा, जीवन सब को प्रिय है और सभी जीवित रहना चाहते हैं, । इसी लिये संसार में जिधर देखो उधर जीवनरक्षा के लिये ही हर एक प्राणी उद्योग कर रहा है। जोवन को हानि पहुंचाने वाले कारणों का प्रतिरोध तथा जीवन का अपहरण करने वाले शत्र तिकार एवं उसे सुरक्षित रखने में निरन्तर सावधान रहने का यत्न यथाशक्ति प्रत्येक प्राणी करता हुआ दृष्टिगोचर होता है। महारानी श्यामा भी अपने जीवन को सुरक्षित रखने के लिये निरन्तर यत्नशील रहती है, उस के हृदय में जीवन के विषय में कुछ शंका हो रही है, इस लिए वह पूरी सावधानता से काम कर रही है । वह जानती है कि मैं ही महाराज सिंहसेन के हृदयसिंहासन पर विराज रही हूं, और किसी के लिये अणुमात्र भी स्थान नहीं । यही कारण है कि महाराज की ओर से मेरी शेष बहिनों ( सपत्नियों-सौकनों ) की उपेक्षा ही नहीं किन्तु उनका अपमान एवं निरादर भी किया जाता है । संभव है कि इससे मेरी बहिनों के हृदय में तीव्र आघात पहुंचे और इस के प्रतिकार के निमित वे अपनी क्रोधाग्नि को मेरी ही आहुति से शान्त करने की चेष्टा करें। महाराज का उन के प्रति जो असद्भाव है, उस का मुख्य कारण मैं ही एक हूं। अतः मेरे प्रति उन की मनोवृत्ति में क्षोभ उत्पन्न होना अस्वभाविक नहीं है। आत्मरक्षा की विचारधारा में निमग्न श्यामा को किसी दिन विस्वस्त सूत्र से जब " -- ४९९ देवियों के साथ महाराज सिंहसेन की ओर से किये गये दुर्व्यवहार को जान कर उन की माताओं के हृदय में विरोध की ज्वाला प्रदीप्त हो उठी है और उन्हों ने मिल कर श्यामा को अन्त करने का दृढ़ निश्चय कर लिया है, तदनुसार वे उस अवसर की प्रतीक्षा कर रही हैं-" यह वृत्तान्त जानने को मिला तो इस से उस के सन्देह ने निश्चित रूप धारण कर लिया। उसे पूरी तरह विश्वास होगया कि उसके जीवन का अन्त करने के लिये एक बड़े भारी षडयन्त्र का आयोजन किया जा रहा है और वह उस की अन्य बहिनों (सपत्नियों की माताओं की तरफ से हो रहा है । यह देख वह एकदम भयभीत हो उठी और 'कोपभवन में जाकर प्रार्तध्यान करने लगी। "-मुच्छिते ४-" यहां के अंक से -गिद्दे, गढिते, अक्रोववन्ने-इन अवशिष्ट पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन का अर्थ पृष्ठ १७३ पर लिखा जा चुका है, तथा अन्तर छिद्र और विरह-इन पदों का अर्थ पृष्ठ ३६२ पर लिखा जा चुका है। ___"-सीहसेणे जाव पडिजागरमाणीप्रो-" यहां पठित जाव-यावत् पद पृष्ठ ४७९ पर पढ़े गये -राया सामाप देवीए मुच्छिते से ले कर-छिद्दाणि य विरहाणि य - यहां तक के पदों का परिचायक है। "-भीया ४-"यहां ४ के अंक से - तत्था, उविग्गा, संजातभया-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन पदों का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है। ___"-श्रोहय. जाब झियासि " यहां पठित जाव यावत् - पद से -मणसंकप्पा भूमीग (१) राजमहलों में एक ऐसा स्थान भी बना हुआ होता है जहां पर महारानिये किसी कारणवशात् उत्पन्न हुए रोष को प्रकट करती हैं और वहां पर प्रवेश मात्र काप -गुस्से के कारण ही किया जाता है । उस स्थान को कोपगृह या कोपभवन कहते हैं । अथवा - महारानिये क्रोधयुक्त हो कर अपने केशादि को बखेर कर जिस किसी भी एकान्त स्थान में जा बैठती हैं वह कोपगृह कहलाता है। For Private And Personal Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४८४] श्री विपाक सूत्र-- [नवम अध्याय पदिट्ठिया करतलपल्हत्यमुही अज्झागोवगया - इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । जिस के मानसिक संकल्य विफल हो गये हैं उसे अपहतमनःसंकल्पा, जिस की दृष्टि भूमि की ओर लग रही है उसे भूमिगतदृष्टिका, जिस का मुख हाथ पर स्थापित हो उसे करतलपर्यस्तमुवी तथा. जो प्रार्तध्यान को प्राप्त हो रही हो उसे आर्तभ्यानोपगता कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में महाराज सिंहसेन का महारानी श्यामा के साथ अधिक स्नेह तथा अन्य रानियों के प्रति उपेक्षाभाव और उस कारण से उन की माताओं का श्यामा के प्राण लेने का उद्योग एवं श्यामा का भयभीत होकर कोपभवन में जाकर अातंत्र्यानमग्न होना आदि बातों का वर्णन किया गया है, इस के पश्चात् क्या हुश्रा , अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-'तते णं सीहसेणे राया इमी से कहाए लढे समाणे जेणेव कोवघरे जेणेव सामा देवी तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता सामं देवि ओहयमणसंकप्पं जाव पाति पाक्षिचा एवं वयासी-किं णं तुमं देवाणुप्पिए ! ओहयमणसंकप्पा जाव झियासि ?, तते णं सा सामा देवी सीहसेणेण रगणा एवं वुत्ता समाणा उप्केण उप्फेणियं एव सोहराय वयासी-एवं खलु सामो ! ममं एक्कूणगाणं पंचएह सवत्तीसयाणं एगूणगाई पंचमाइसयाई इमीसे कहाए लट्ठाई समाणाई अन्नमन सदाति सदावित्ता एवं वयासी-एवं खलु सीहसेणे राया सामाए देवाए मुच्छिए ४ अम्हं धूयाओ नो आढाइ, नो परिजणाइ, अणाढायमाणे अपरिजाणमाणे विहरइ, तं सेयं खलु अम्हं सामं देवि अगिप्पप्रोगेण वा विसप्पयोगेण वा सत्थप्पयोगेण (१) छाया-ततः स सिंहसेनो राजा, अनया कथया लब्धार्थः सन् यत्रैव कोपगृहं यौव श्यामा देवी तत्रैवोपागच्छति उपागल्य श्यामादेवीमपहतमनःसंकल्पां यावत् पश्यति दृष्ट्वा एवमवदत्किं त्वं देवानुप्रिये ! अपहत. यावत् भ्यायसि ?, ततः सा श्यामा देवी सिंह सेनेन राजा एवमुक्ता सती 'उत्फेनोत्फेनितं सिंहसेन राजमे व नवादीत् एवं खलु स्वाभिन् ! ममै कोनकानां पञ्चानां सपत्नीशतानामे कोनानि पञ्चमातृशतानि अनया कथया लब्धार्थीनि सन्त्यन्योन्यं शब्दयन्ति शब्दयित्वा एवमवादिषः-एवं खलु सिंहसेनो राजा श्यामायां देव्यां मूतिः ४ अस्माकं दुहिनों आद्रियते नो परिजानाति, अनाद्रियमानः अपरिजानन विहरति तच्छेयः खलु अस्माकं श्यामा देवीग्नि प्रयोगेन वा विषप्रयोगेन वा शस्त्रप्रयोगेन वा जीविता व्यपरोपयितुम् एवं संप्रक्षन्ते सप्रेक्ष्य ममान्तराणि च छिद्राणि च विरहाणि च प्रति जाग्रत्यो विहरन्ति । तन्न ज्ञायते स्वामिन् ! केनचित् कुमारेण मारयिष्यन्ति इति कृत्वा भीता यावद् ध्यायामि । तत: स सिंहसेनो राजा श्यामां देवीमेवमवादीत् -मा त्वं देवानुप्रिये ! अपहतमन.संकल्पा यावद् व्याय ?, अहं तथा यतिष्ये यथा तव नास्ति कुतोऽपि शरीरस्याबाधा वा प्रबाधा वा भविष्यति, इति कृत्वा ताभिरिष्टाभिः यावत् समाश्वास यति । ततः प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य कौटुम्बिकपुरुषान् शब्द यति शब्दयित्वा एवमवादीत् - गच्छत यूयं देवानुप्रिया: ! सुप्रतिष्ठाद् नगर द् बहिरेको महतीं कूटाकारशालां कुरुत । अनेकस्तम्भशतसंनि विष्टां प्रासादीयां ४ एतमर्थ प्रत्यर्पयत । ततस्ते कौटुम्बिकपुरुषाः करतल० यावद् प्रतिशृण्वन्ति प्रतिश्रुत्य सुप्रतिष्ठितनगराद् बहिः पश्चिमे दिग्भागे एका महती कुटाकारशालां कुर्वन्ति, अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टां प्रासादीयां ४ यत्रैव सिंहसेनो राजा तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य तामाज्ञप्ति प्रत्यर्पयन्ति । (१) उत्फेनोफेनितं फेनोद्वमनकृते, सकोपोष्मवचनं यथा भवतीत्यर्थः ।(अभिधानराजेन्द्रकोपे) For Private And Personal Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [४८५ --- वा जीविया ववरोवित्तर, एवं संपेर्हेति संपेहित्ता ममं अन्तराणि य छिद्दाणि य विहराणि य पडिजांगरमाणीओ विहरन्ति तं न नज्जइ गं सामी ! ममं केणइ कुमारेणं मारिस्संति त्ति कट्ट भीया ४ झियामि । तते गं से सीइसेणे राया सामं देवि एवं वयासी मा गं तुमं देवा ! हतमणसंकप्पा जाव झियाहि, श्रहं गं तहा जतिहामि जहा णं तव नत्थि कत्तो वि सरीरस्स आवाहे वा पवाहे वा भविस्सति, त्ति कट्ट ताहिं इट्ठाहि जाव समासासेति, ततो पडनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता कोडु बियपुरिसे सहावेति सदावित्ता एवं वयासीच्हणं तुभेदेवापिया ! सुबहट्ठस्स नगस्स बहिया एगं महं कूडागारसालं करेह - गखं भमयसंनिविट्ठ ं जाव पासाइयं ४ एयपड्डु पच्चप्पियह । तते गं ते कोड बियपुरिसा करतल० जाव पडसुर्णेति पडिणित्ता सुपइडियनगरस्स बहिया पच्चत्थिमे दिसिभागे गं महं कूडागारसाल करेंति अगखंभसयसंनिविट्ठ जान पासाइयं ४ जेणेव सीह सेणे राया तेणेव उवागच्छन्ति उवागच्छित्ता तमाणत्तियं पच्चप्पियंति । 1 पदार्थ - तते गं - तदनन्तर । से- वह । सिंहसेणे - सिंहसेन । राया - राजा । इमीसे- इस कहाए - वृत्तान्त से । लद्धट्ठ े समाणे - लब्धार्थ हुआ अर्थात् अवगत हुआ । जेणेव - जहां । कोवघर - कोपगृह था, और । जेणेव - जहां। सामा देवी - श्यामा देवी थी। तेणेव - वहां पर । उत्रागच्छइ उवागच्छिता - आता है, कर । सामं - श्यामा | देवि - देवी को, जो कि । श्रहमण संकप्पं- अपहृतमन: - संकल्पा – जिस के मानसिक संकल्प विफल होगये हैं, को । जाव यावत् । पासति पासिता देखता है, देख कर । एवं - इस प्रकार । वयासी कहता है । देवाप्पिए ! - हे महाभागे ! । तुमं- तुम । किराणंक्यों । श्रोहयमण संकप्पा - मानसिक संकल्पों को निष्फल किये हुए जाव - यावत् । भियासि विचार कर रही हो ? । तते णं तदनन्तर । सा- वह । सामादेवी - श्यामा देवी । सीह सेणेणं - सिंहसेन । र राणा - राजा के द्वारा । एवं - इस प्रकार । वृत्ता समाणा - कही हुई । उफेणउफेणियं दूध के उफान के समान क्रुद्ध हुई अर्थात् क्रोधयुक्त प्रबल वचनों से । सीहरायें - सिंहराज के प्रति । एवं वयासी - इस प्रकार बोली । एवं खलु - इस प्रकार निश्चय ही । सामी ! - हे स्वामिन् ! । ममं - मेरी । एक्कू गाणं - कम | पंचराई सत्तोस पाणं - पांच सौ सपत्नियों की । एक्कूणगाई - - एक कम पंच-पांच । माइसयाई सौ माताएं | इमीसे- इस | कहाए – कथा – वृत्तान्त से । लट्ठाई समाणाई - लब्धार्थ हुई - अवगत हुई। अन्न एक दूसरे को । सार्वोति सदावित्ता-बुलाती हैं, बुलाकर एवं वयासी - इस प्रकार कहती हैं । एवं खलु - इस प्रकार निश्चय ही । सीहसेणे - सिंहसेन । राया- राजा । सामाएश्यामा | देवीए - देवी में । मूच्छिते ४ – मूच्छित, गृद्ध, ग्रथित और अभ्युपपन्न हुआ । श्रहं - हमारी धूयाश्रो - पुत्रियों का । गो आहार - आदर नहीं करता । नो परिजाणाइ - ध्यान नहीं रखता । श्रणाढा - यमाणे - आदर न करता हुआ । अपरिजाणमाणे - ध्यान न रखता हुआ । विहरइ - विहरण करता है । तं – इस लिये । सेयं -श्रेय - योग्य है । खलु निश्चयार्थक है । श्रहं हमें । सामं -- श्यामा | देवि-देवी पण वा अग्नि के प्रयोग से । विसप्पोगेण वा -- विष के प्रयोग से । सत्थपत्रोगेण वा - एक 1 + को। 1 (१) मूर्च्छित आदि पदों का अर्थ पृष्ठ ४८० पर पदार्थ में लिखा जा चुका है । For Private And Personal Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४८६] श्री विपाक सूत्र [नवम अध्याय शस्त्र के प्रयोग से । जीवियानो ववरोवित्तर-जीवन से रहित कर देना । एवं संपेहेंति संहिता - इस प्रकार विचार करती हैं, विचार कर । ममं–मेरे । अंतराणि य छिहाणि य विहराणि य-अन्तर' छिद्र और विरह की । पडिजागरमाणोश्रो-प्रतीक्षा करती हुई । विहरंति-विहरण कर रही हैं । तंअतः।नणज्जति-मैं नहीं जानती हूं कि । सानी! हे स्वामिन् । ममं -मुझे। केणई -किस । कुमारेणं - कुमौत से । मारिस्संति-मारेंगी। ति कहु -ऐसा विचार कर । भोया ४-भीत, त्रस्त, उद्विग्न और सजातभय हुई । जाव- यावत् । झियामि -विचार कर रही हूं। तते णं-तदनन्तर । से - वह । सीइसेणे राया-सिंहसेन राजा । सामं देवि-श्यामा देवो के प्रति । एवं वयासी-इस प्रकार बोला । देवाणुप्पिए! - हे महाभागे ! । तुमं- तुम । मा णं-मत । ओइतमणसंकपा-अपहत मन वाली हो। जाव-यावत् । झियासि-विचार करो । अहं णं -- मैं। तहा- वैसे । जत्तिहामि - यत्न करूगा । जहा णं-जैसे । तव-तुम्हारे। सरीरस्स-शरीर को । कत्तो वि-कहीं से भी । श्रावाहे वा-आबाधा - ईषत् पीडा। पवाहे वा-प्रबाधा - विशेष पीडा । नास्थि - नहीं । भविस्सति-होगी । त्ति का इस प्रकार से अर्थात् ऐसे कह कर । ताहिं-उन । इटाहिं-इष्ट । जाव - यावत् वचनों के द्वारा उसे । समासासेति-सम्यक्तया आश्वासन देता है - शान्त करता है । ततो- तत्पश्चात् वहां से । पडिनिक्खमति-निकलता है । पडिनिक्वमित्ता-निकल कर । कोडु वियपुरिसे --कौटुम्बिक पुरुषों को । सदावेति सहावित्ता - बुलाता है, बुलाकर । एवं वयासी-इस प्रकार कहता है । देवाणुप्पिया !-हे भद्र पुरुषो ! । तुम्भे - तुम लोग । गच्छह गां-जात्रो, जाकर । सुपइस्स -सुप्रतिष्ठित । णगरस्स - नगर के । बहियाबाहिर । एगं. महं - एक बहुत बड़ी । कूडागारसालं-कूटाकारशाला-षड्यन्त्र करने के लिये बनाया जाने वाला घर । करेइ-तेयार कराओ. जिस में । अणेगखंभसयसंनिविट्ठ - सैकड़ों स्तम्भ-खम्भे हों और जो। पासाइयं ४-प्रासादीय-मन को हर्षित करने वाली, दर्शनीय - बारम्बार देख लेने पर भी जिस से श्रांखें न थके, अभिरूप-जिसे एक बार देख लेने पर भी पुन: दर्शन की लालसा बनी रहे, तथा प्रतिरूप अर्थात् जिसे जब भी देखा जाए तब ही वहां नवीनता ही प्रतीत हो । एयमढें-इस आज्ञा का। पत्रपिणहप्रत्यर्पण करो अर्थात् बनवा कर मुझे सूचना दो । तते णं तदनन्तर । ते वे । कोडुबियपुरिसा- कौटुम्बिक पुरुष । करतल -दोनों हाथ जोड़ । जाव-यावत् अर्थात् मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि रख कर । पडिसुति पडिसुणेत्ता - स्वीकार करते हैं, स्वीकार करके । सुपट्टियस्स -सुप्रतिष्ठित नगर के । बहियाबाहिर । पच्चत्थिम-पश्चिम । दिसीभागे-दिग्भाग में एगं एक। महं-महती - बड़ी विशाल । कूडागारसालं-कूटाकार शाला । करेंति तैयार कराते हैं. जो कि । अणेगखंभसयसंनिविट्ठ-सैंकड़ों खम्भों वाली और । पासाइयं ४ - प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप थी, तैयार करा कर । जेणेव - जहां पर । सीहसेणे- सिंहसेन । राया - राजा था । तेणेव - वहां पर । उवागच्छंति उवागच्छित्ताश्राते हैं, आकर । तामाणत्तियं-उस आज्ञा का। पच्चपिणंति- प्रत्यर्पण करते हैं अर्थात् आप की आज्ञानुसार कूटाकार शाला तैयार करा दी गई है, ऐसा निवेदन करते हैं । मूलार्थ - तदनन्तर वह सिंहसेन राजा इस वृत्तान्त को जान कर कोपभवन में जाकर श्यामादेवो से इस प्रकार बोला-हे महाभागे ! तुम इस प्रकार क्यां निराश और चिन्तित हो रही ? महाराज सिंहसन के इस कथन को सुन श्यामा देवी क्रोधयुक्त हो प्रबल वचनों से राजा के प्रति इस प्रकार कहने लगी-हे स्वामिन् ! मेरी एक कम पांव सौ सपलियों को एक कम पांच सौ माताएं इस वृत्तात को जान (१) अन्तर आदि पदों की अर्थावगात के लिये देखो पृष्ठ ४८० का पदार्थ । For Private And Personal Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय हिन्दी भाषा टीका साहत। ...[४८७ कर आपस में एक दूसरी को इस प्रकार कहने लगी कि महाराज सिंहसेन श्यामा देवी में अत्यन्त आसक्त हो कर हमारी कन्याओं का आदर, सत्कार नहीं करते, उन का ध्यान भी नहीं रखते, प्रत्युत उन का आदर न करते हुए और ध्यान न रखते हुए समय बिता रहे है। इस लिये अब हमारे लिये यही समुचित है कि अग्नि, विष तथ किसी शस्त्र के प्रयोग से श्यामा का अंत कर डालें। इस प्रकार उन्हों ने निश्चय कर लिया है और तदनुसार वे मरे अंतर, छिद्र और विरह की प्रतीक्षा करती हुई अवसर देख रही हैं । इसलिये न मालूम मुझे वे किस कुमौत से मारें, इस कारण भयभीत हुई मैं यहां पर आकर आर्तध्यान कर रही हूं । यह सुन महाराज सिंहसेन ने श्यामादेवी के प्रति जो कुछ कहा वह निम्नोक्त है ___प्रिये ! तुम इस प्रकार हतोत्साह हो कर प्रार्तध्यान मत करो, मैं ऐसा उपाय करूंगा जिस से तुम्हारे शरीर को कहीं से भी किसी प्रकार की बाधा तथा प्रबाधा नहीं होने पावेगी । इस प्रकार श्यामा देवी को इष्ट आदि वचनों द्वारा सोन्त्वना देकर महाराज सिंहसेन वहां से चले गये, जाकर उन्होंने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलागग, बुलाकर उन से कहने लगे कि तुम लोग यहां से जाओ और जाकर सुप्रतिष्ठित नगर से बाहिर एक बड़ी भारी कुटाकारशाला बनवाओ जो कि सैकड़ों स्तम्भों से युक्त और प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप हो अर्थात् देखने में निता-त सुन्दर हो । वे कौटुम्बिक पुरुष दोनों हाथ जोड़ सिर पर दस नखों वाली अंजलि रख कर इस राजाज्ञा को शिरोधार्य करते हुए चले जाते हैं, जा कर सुप्रतिष्ठित नगर की पश्चिम दिशा में एक महती और अनेकस्तम्भों वाली तथा प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरून और प्रतिरूप अर्थात् अत्यन्त मनोहर कूटाकारशाला तैयार कराते हैं और तैयार कराकर उस की महाराज सिंहसेन को सूचना दे देते हैं। टीका-महारानी श्यामा का ( ४९९ ) रानियों की माताओं के षड्यन्त्र से भयभीत होकर कोपभवन में प्रविष्ट होने का समाचार उस की दासियों के द्वारा जब महाराज सिहसेन को मिला तो वे बड़ी शीघ्रता से राजमहल की ओर प्रस्थित हुए, महलों में पहुंचे और कोपभवन में आकर उन्हों ने महारानी श्यामा को बड़ी ही चिन्ताजनक अवस्था में देखा। वह बड़ी सहमी हुई तथा अपने को असुरक्षित जान बड़ी व्याकुल सी हो रही है एवं उस के नेत्रों से अश्रुओं की धारा बह रही है । महाराज सिंहसेन को अपनी प्रेयसी श्यामा की यह दशा बड़ी अखरी, उस की इस करुणाजनक दशा में महाराज सिंह सेन के हृदय में बड़ी भारी हलचल मचा दो, वे बड़े अधीर हो उठे और श्यामा को सम्बोधित करते हुए बोले कि प्रिये ! तुम्हारी यह अवस्था क्यों ? तुम्हारे इस तरह से कोपभवन में आकर बैठने का क्या कारण है ! जल्दी कहो ? मुझ से तुम्हारी यह दशा देखी नहीं जाती, इत्यादि । पतिदेव के सान्त्वनागर्भित इन वचनों को सुन कर श्यामा के हृदय में कुछ ढाढस बंधी परन्तु फिर भी वह क्रोधयुक्त सर्पिणी की तरह फुकारा मारती हुई अथवा दूध के उफान की तरह बड़े रोष - पूर्ण स्वर में महाराज सिंह सेन को सम्बोधित करती हुई इस प्रकार बोली- स्वामिन् ! मैं क्या करू, मेरी शेष सपत्नियों (सौकनों) की माताओं ने एकत्रित होकर यह निर्णय किया है कि माहाराज श्यामा देवी पर अधिक अनुराग रखते हैं और हमारी पुत्रियों की तरफ़ ध्यान तक भो नहीं देते । इस का कारण एक मात्र श्यामा है, अगर वह न रहे तो हमारी पुत्रिय सुखी होजाएं । इस विचार से उन्हों ने मेरे को मार देने का षड्यन्त्र रचा है. वे रात दिन इसी ध्यान में रहती हैं कि उन्हें कोई उचित अवसर मिले और वे अपना कर्तव्य पालन करें। प्राणनाथ ! इस आगन्तुक भय से त्रास को प्राप्त हुई मैं यहां पर अाकर बैठी हूँ, पता नहीं कि वसर मिलने पर वे मुझे किस प्रकार से मौत के घाट उतारें। इतना कह कर उस ने अपनी मृत्युभयजन्य आंतरिक वेदना को अश्रुकणों द्वारा सूचित करते हुए अपने मस्तक को महाराज के चरणों में रख कर For Private And Personal Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४८८] श्री विपाक सूत्र [नवा अध्याय मूकभाव से अभयदान की याचना की । महारानी श्यामा के इस मार्मिक कथन से महासज सिंहसेन बड़े प्रभावित हुए, उनके हृदय पर उस का बड़ा गहरा प्रभाव हुा । वे कुछ विचार में पड़ गये, परन्तु कुछ समय के बाद ही प्रेम और आदर के साथ श्यामा को सम्बोधित करते हुए बोले कि प्रिये ! तुम किसी प्रकार की चिन्ता मत करो। तुम्हारी रक्षा का सारा भार मेरे ऊपर है, मेरे रहते तुम को किसी प्रकार के अनिष्ट की शंका नहीं करनी चाहिये । तुम्हारी ओर कोई आंख उठा कर नहीं देख सकता । इस लिये तुम अपने मन से भय की कल्पना तक को भी निकाल दो? इस प्रकार अपनी प्रेयसी श्यामा देवी को सान्त्वना भरे प्रेमालाप से ब्राश्वासन दे कर महाराज सिंह मेन वहां से चल कर बाहिर आते हैं तथा महारानी श्यामा के जीवन का अपहरण करने वाले षड्यन्त्र को तहस नहस करने के उद्देश्य से कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर एक विशाल कुटाकारशाला के निर्माण का आदेश देते हैं। इस सूत्र म पात पत्नी के सम्बन्ध का सुचारु दिग्दशन कराया गया है । स्त्री अपने पति में कितना विश्वास रखती है तथा दुःख में कितना सहायक समझती है, और पति भी अपनी स्त्री के साथ कैसा रेममय व्यवहार करता है तथा किस तरह उस की संकटापन्न वचनावली को ध्यानपूर्वक सुनता है, एवं उसे मिटाने का किस तरह आश्वासन देता है, इत्यादि बातों की सूचना भली भान्ति निर्दिष्ट हुई है, जो कि आदर्श दम्पती के लिये बड़े मूल्य की वस्तु है । इस के अतिरिक्त इस विषय में इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि दम्पती. प्रेम यदि अपनी मर्यादा के भीतर रहता है तब तो वह गृहस्थजीवन के लिये बड़ा उपयोगी और सुखप्रद होता है और यदि वह मर्यादा की परिधि का उल्लंघन कर जाता है अर्थात् प्रेम न रह कर आसक्ति या मूर्छा का रूप धारण कर लेता है तो वह अधिक से अधिक अनिष्टकर प्रमाणित होता है । महाराज सिंह सेन यदि अपनी प्रेयसी इयामा में मर्यादित प्रेम रखते, तो उन से भविष्य में जो अनिष्ट सम्पन्न होने वाला है वह न होजा और अपनी शेष रानियों की उपेक्षा करने का भी उन्हें अनिष्ट अवसर प्राप्त न होता। सारांश यह है कि गृहस्थी मानव के लिये जहाँ अपनी धर्मपत्नी में मर्या देत प्रम रखना हितकर है, वहां उस पर अत्यन्त आसक्त होना उतना ही अहितकर होता है। दूसरे शब्दों में -जहां प्रेम मानव जीवन में उत्कर्ष का साधक है वहां आसक्ति - मूछ अनिष्ट का कारण बनती है। --उप्फेण उप्फेणियं -4 उत्फेनोफे नितम् ) की व्याख्या वृत्तिकार "-सकोपोष्मव वनं यथा भवतीत्यर्थः-" इस प्रकार करते हैं । अर्थात् कोप क्रोध के साथ गरम २ बातें जैसे की जाती हैं उसी तरह वह करने लगी। तात्पर्य यह है कि उस के-श्यामा के कथन में क्रोध का अत्यधिक श्रावेश था। श्राबाधा और प्रबाधा इन दोनों शब्दों की व्याख्या श्री अभयदेव सूरि के शब्दों में - तत्राबाधाईषत पीडा, प्रबाधा-प्रकृष्टा पीडैव इस प्रकार है । अर्थात् साधारण कष्ट बाधा है और महान् कष्ट - इस अर्थ का परिचायक प्रबाधा शब्द है । . -ओहयमणसंकप्पं जाव पासति-तथा-ओहयमणसंकप्पा जाव झिया से - यहां पठित जाव-यावत्-पद से - भूमिगयदिहियं, कातनपल् इत्यमुहि अज्माणोवगयं-ये अभिमत पद पीछे पृष्ठ ४८३ तथा ४८४ पर लिखे जा चुके हैं। अन्तर मात्र इतना है कि वहां वे पद प्रथमान्त दिये गये हैं, जब कि प्रस्तुत में द्वितीयान्त भी अपेक्षित हैं, अतः अर्थ में द्वितीयान्त को भावना भी कर लेनी चाहिये। -भीया ४ जाव झियामि यहां दिये गए ४ के अंक से - तत्या उबिग्गा संजाय नया - इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन का अर्थ पृष्ठ ४८० पर पदार्थ में लिखा जा चुका है। तथा-जाव-यावत् पद पृष्ठ ४८३ तथा ४८४ पर पढ़े गये-ओहयमणसंकप्पा-इत्यादि पदों का परिचायक है । तथा-ओहतमण For Private And Personal Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir वनम अध्याय हिन्दी भाषा टीका साहत । [४८९ संकप्पा जाव झियाहि-यहां पठित जाव-यावत् पद से पृष्ठ ४८३ तथा ४८४ पर पढ़े गये भूमीगयदिढ़िया-इत्यादि पदों का दोध होता है। __-इट्ठाहिं जाव समासासेति -यहां पठित जाव-यावत् पद से-कंताहिं, पियाहिं, मनुराणाहिं, मणामाहिं, मणोरमाहिं, उरालाहिं, कल्लाणाहिं, सिवाहि, धन्नाहिं, मंगलाहिं, ससिरीयाहिं, हिययगमणिज्जाहिं, हिययपल्हायनिज्जाहिं, मिय-महुर-मंजुलाहिं वग्गूहि-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है। इष्ट अादि पदों का अर्थ निम्नोक्त है १-इष्ट-अभिलषित (जिस की सदा इच्छा की जाए) का नाम है । २-कान्त सुन्दर को कहते हैं। 3-जिसे सुन कर द्वेष उत्पन्न न हो उसे प्रिय कहा जाता है।४-जिस के श्रवण से मन प्रसन्न होता है वह मनोज्ञ कहलाता है। ५-मन से जिस की चाहना की जाए उसे मना ६-जिस के चिन्तन मात्र से मन में प्रमोदानभव हो उसे मनोरम कहते हैं । ७-नाद, वर्ण और उस के उच्चारण आदि की प्रधानता वाला उदार कहलाता है। ८-समृद्धि करने वाला-इस अर्थ का परिचायक कल्याण शब्द है । ९-वाणी के दोषों से रहित को शिव कहते हैं । १०-धन की प्राप्ति करने वाले अथवा प्रशंसनीय वचन को धन्य कहा जाता है। ११-अनर्थ के प्रतिघात-विनाश में जो हितकर हो उसे मंगल कहते हैं । १२-अलंकार आदि को शोभा से युक्त सश्रीक कहलाता है । १३ - हृदयगमनीय शब्द-कोमल और सुबोध होने से जो हृदय में प्रवेश करने वाला हो, अथवा हृदयगत शोकादि का उच्छेद करने वाला होइस अर्थ का परिचायक है। १४ -हृदयप्रसादनीय शब्द -हृदय को हर्षित करने वाला, इस अर्थ का बोध कराता है। १५-मितमधुरमंजुल-इस में मित, मधुर और मंजुल ये तीन पद हैं । मित परिमित की कहते हैं, अर्थात् वर्ण, पद और वाक्य की अपेक्षा से जो परिमित हो उसे मित कहा जाता है । मधुरशब्द मधुर स्वर वाले वचन का बोध कराता है । शब्दों की अपेक्षा से जो सुन्दर है उसे मंजुल कहते हैं । १६-वाग-वचन का नाम है। प्रस्तुत में इष्ट आदि विशेषण हैं और वाग यह विशेष्य पद है। -पासाइयं ४- यहां दिये गये ४ के अंक से -दसणणिज्जे अभिरुवे पडिरूवे-इन पदों का ग्रहण अभिमत है । इन का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है । तथा-करयल० जाव पडिसुणेति-यहां के बिन्दु तथा-जाव-यावत् पद से पृष्ठ २४६ पर पढ़े गये-करयजपरिग्गहियं दसणहं अंजलिं मत्थर का - इन पदो का, तथा पृष्ठ २५० पर पढ़े गये - तहत्ति श्राणाए विणएणं वयणं-इन पदों का ग्रहण कराना सूत्रकार को अभिमत है। प्रस्तुत सूत्र में महारानी श्यामा का चिन्तातुर होना तथा उस की चिन्ता को विनष्ट करने की प्रतिज्ञा कर महाराज सिंहसेन का अपने अनुचरों को नगर के पश्चिम भाग में एक विशाल कुटाकारशाला के निर्माण का आदेश देना और उसके आदेशानुसार शाला का तैयार हो जाना आदि बातों का वर्णन किया गया है। अब सूत्रकार उस शाला से क्या काम लिया जाता है ?, इस बात का वर्णन करते हैंमल -' तते णं से सीहरूण राया कयाइ एगुणगाणं पंनएहं देवीसयाणं एगूगाई (१ छाया-ततः स सिंहसे नो राजा अन्यदा कदाचिद् एकोनानां पञ्चानां देवी रातानामेकोनानि पञ्चमातृशतानि आमंत्रयति । ततस्तासामेकोनानां पञ्चानां देवीशतानामेकोनानि पञ्चमातृशतानि सिंहसेनेन राजा आमन्त्रितानि सन्ति सर्वालंकारविभूषितानि यथाविभवं यत्रैव सुपतिष्ठं नगरं यत्रैव सिंहसेनो राजा तवोपागच्छन्ति । तत: स सिंहसेनो राजा एकोनानां पञ्चदेवीशतानामेकोनानां पञ्चमातृशतानां कूटाकार - शालामावसथं दापयति । तत: स सिंहसनो राजा कोटुम्विक पुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत् - गच्छत For Private And Personal Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४९०] श्री विपाक सूत्र नवम अध्याय पंचमाइसयाई आमंतेति । तते णं तासि एगूणगाणं पंचएहं देवीसाणं एगृणगाई पंचमाइसयाई सीहसेणेणं रगणा आमंतियाई समाणाई सव्वालंकारविभूसिताई जहाविभवेणं जेणेव सुपइ गरे जेणेव सीहसेणे रोया तेणेव उवागच्छति । तते णं से सीहसेणे राया एगूणगाणं पंचदेवीसयाणं एगृणगाणं पंचमाइसयाणं कूडागारसालं श्रावसह दलयति । तते णं से सीहसेणे राया कोडवियपुरिसे सद्दावेति सद्दावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! विउलं असणं ४ उवणेह सुबहु, पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारं च कूडागरसालं साहरह । तते णं ते कोड विया पुरिसा तहेब जाव साहरति । तते णं तासिं एगूण गाणं पंचएहं देवीसयाणं एगृणागाइ पंचमाइसयाई सव्वालंकारविभूसियाई तं विउलं असणं ४ सुरं च ६ प्रासादेमाणाई ४ गंधव्वेहि य नाडएहि य उवगिज्जमाणाई विहरन्ति । तते णं से सीहसेणे राया अड्ढरत्तकालसमयंसि बहुहिं पुरिसेहिं सद्धिं संपरिवुड़े जेणेव कूडागारसाला तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता कूडागारसालाए दुवाराई पिहेति पिहित्ता कूडागारसालाए सवतो समंता अगणिकायं दलपति । तते णं तासिं एगण गाणं पंचएहं देवीसयाणं एगूणगाई पंचमाइसयाई सीहसेणेणं रगणा आलीवियाई समाणाई रोयमाणाई ३ अत्ताणाई असरणाई कालधम्मुणा संजुत्ताई। तते णं से सीहसेणे राया एयकम्मे ४ सुबह पावं कम्म समज्जिणिता चोचीसं वाससयाई परमाउं पालइचा कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं वावोससागरोवट्टिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने । पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । से-वह । सीहसेणे राया-सिंहसेन राजा । अन्नया कयाइकिसी अन्य समय । एगूणगाणं-एक कम । पंचएहं देवीसयाणं-पांच सौ देवियों की। एगूणाई-एक कम । पंचमाइसयाई-पांच सौ माताओं को । आमंतेति-आमंत्रण देता है । तते गं-तदनन्तर । तासिं-उन । पगूणगाणं-एक कम । पंचएहं देवीसयाणं-पांच सौ देवियों की। एगृणगाई-एक कम । पंचमाइसयाई-पांच सौ माताएं । सोलणेणं-सिंहसेन । रराणा-राजा के द्वारा । अमंतियाई समारणाईश्रामत्रित की गई । जहाविभवेणं - यथाविभव अर्थात् अपने अपने वैभव के अनुसार । सव्वालंकारविभूसि. ताई-सर्व प्रकार के प्राभूषणों से अलंकृत हो कर । जेणेव-जहां । सुपइटे-सुप्रतिष्ठित । णगरे- नगर था। यूयं देवानुप्रिया: ! विपुलमशनं ४ उपनयत, सुबहु पुष्पवस्त्रगन्धमाल्यालंकार च कुटाकारशाला संहरत । ततस्ते कौटुम्बिकाः पुरुषास्तथैव यावत् संहरन्ति । ततस्तासामेकोनानां पञ्चानां देवीशतानामेकोनानि पश्चमातृशतानि सर्वालंकारविभूषितानि तद् विपुलमशनं ४ सुरां च ६ आस्वादयन्ति ४ गांधश्च नाटकैश्चोपगीयमानानि विहरन्ति । ततः स सिंहसेनो राजा अर्द्धरात्रिकालसमये बहभिः पुरुषैः साई संपरिवृतो यत्रैव कुटाकारशाला तगोपागच्छति उपागत्य कुटाकारशालायाः द्वाराणि पिदधाति पिधाय कुटाकारशालायाः सर्वत तः समन्ताद अग्निकार्य दापयति । ततस्तासामे कोनानां पञ्चानां देवीशतानामे कोनानि पञ्चमातृशतानि सिंहसेनेन राज्ञा अदीपितानि सन्ति रुदन्ति ३ अत्राणानि, अशरणानि कालधर्मेण संयुक्तानि । ततः स सिंहसेनो राजा एतत्कर्मा ४ सुबहु पापं कर्म समज्यं चतुस्त्रिंशतं वर्षशतानि परमाय : पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा षष्ठयां पृथिव्यामुत्कर्षेण बाविशतसागरोपस्थितिवेषु नैर यिवेषु नैररिकतयोपपन्नः । For Private And Personal Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ४९१ I जेणेव - जहां। सीह सेणे - सिंहमेन । राया - राजा था। तेणेव - वहां पर । उवागच्छंति - श्राजाती हैं। तते णं - तदनन्तर । से - वह । सोइसेणे - सिंहसेन राया - राजा । एगुणगाणं - एक कम | पंचदेवीसयाणं पांच सौ देवियों की । एगूगगाणं एक कम । पंचमाइसयाणं - पांच सौ माताओं को । 'कूडागारसालं - कूटाकारशाला में | वसई - रहने के लिये स्थान । दलयति - दिलवाता है । तते जं तदनन्तर । से - वह | सोह लेणे - सिंहसेन । राया - राजा । कोडु बियपुरिसे - कौटुम्बिक पुरुषों अनुचरों को । सहावेति सद्दावित्ता - बुलाता है. बुलाकर एवं वयासी - इस प्रकार कहने लगा । देवाप्पिया ! हे भद्रपुरुषो ! । तुब्भे - तुम । गच्छइ णं - जाश्रो । विउलं विपुल । असणं ४ - अशनादि । उवणेह ले जाओ, तथा। सुबहु अनेकविध । पुष्क - पुष्प । वत्थ - वस्त्र । गंध-गंध-सुगन्धित पदार्थ । मल्लालंकारं - और माला तथा अलंकार को । कूडागारसालं - कूटाकारशाला में । साहरह - ले जाओ । तणं - तदनन्तर । ते वे। कोडु वियपुरिसा — कौटुम्बिक पुरुष । तहेव - तथैव - आज्ञा के अनुसार । जावं यावत् । साहरंति - ले जाते हैं अन् कूटाकारशाला में पहुंचा देते हैं । तते गं - तदनन्तर | तासिं - उन । एगुणगाणं - एक कम । पंचरहं देवीसयाणं- - पांच सौ देवियों की । एगूजगाइएक कम । पंचमाइसयाइ ं-पांच सौ माताएं । सञ्चालंकारविभूसियाइ - सम्पूर्ण अलंकारों से विभूति हुई । -उस । विडलं विपुल । असणं ४ – अशनादिक तथा । सुरं च ६ - ६ प्रकार की सुरा आदि मदिराओं का । श्रासादेमाणाइ ं ४- श्रास्वादनादि करती हुई । गंधव्वेहि य- गान्धर्वों – गायक पुरुषों तथा । नापहि य-नाटकों - नर्तक पुरुषों द्वारा । उवगिज्जमा गाई -उपगीयमान अर्थात् गान की गई । विहरन्ति-विहार करती हैं। तते णं - तदनन्तर । से - वह । सोइसेणे राया - महाराज सिंहसेन । श्रड्ढरत्तकालसन सिर्द्धरात्रि के समय । बहूहिं - अनेक । पुरिसेहिं - पुरुषों के । सद्धि- -साथ | संपरिवुडे घिरा हुआ । जेणेव - जहां । कूडागारसाला - कूटाकारशाला थी । तेणेव - वहां पर । उवागच्छति वाचता-ता है, आाकर। कूडागारसालाप - कूटाकारशाला के । दुवाराई - द्वारों - दर्वाज़ों को । विहेति पिहिता बन्द करा देता है, बन्द करा कर । कूडागारसाला - कूटाकारशाला के । सव्वतो समंता - चारों तरफ से । श्रगणिकार्य - अग्निकाय अग्नि । दलयति - लगबा देता है । तते णं - तदनन्तर तासिं - उन । एगुणगाणं - एक कम । पंचरहं देवीसयणं - पांच सौ देवियों की । एगूजगाई- - एक कम । पंचमारलाई - पांच सौ माताएं। सीह सेणं - सिंहसेन । रराणा - राजा के द्वारा । श्रालीवियाइ समाणाइ - श्रादीप्त की गई अर्थात् जलाई गई। रोयमाणाई ३ - रुदन, आक्रन्दन और विलाप करती हुई । अत्तापाइ – त्राण - जिस का कोई रक्षा करने वाला न हो, और । श्रसरणाई - शरण – जिसे कोई शरण देने वाला न हो. काल म्मुखा - काल धर्म से । सनुताई - संयुक्त हुई । तते गं - तदनन्तर । से - वह | सोहले सिंहसेन । राया - राजा । एयकम्मे ४ -१ एतत्कर्मा, एतत्प्रधान, एतद्विद्य और एतत्समाचार होता हुआ | सुबहुं - अत्यधिक । पावं कम्मं - पाप कर्म को । समज्जिणित्त – उपार्जित कर के । चौत्तोस - ३४ । वाससयाई - सौ वर्ष की । परमाड - परमायु । पालइत्ता - भोग कर । कातमासे-काल मास में काजं किवा -काल कर के । छुट्ठीप-छठी । पुढवीप - पृथिवी नरक में । उक्कोसेणं - उत्कृष्ट – अधिकाधिक वावीससागरोवमपिसु - बाईस सागरोपम स्थिति वाले । नेरइरसुनारकियों में । नेरइयत्ताए - नारकीय रूप से । उववन्नेI - उत्पन्न हुआ । मूलार्थ - तत्पश्चात् वद सिंहसेन राजा किसी अन्य समय पर एक कम पांच सौ देवियों की (१) एतत्कर्मा, एतत्प्रधान आदि पदों का अर्थ पृष्ठ १७९ के टिप्पण में लेखा जा चुका है । ७ For Private And Personal 1 -- -- Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४९२] श्री विपाक सूत्र - [नवम अध्याय एक कम पांच सौ माताओं को आमंत्रित करता है । तब सिंहसेन राजा से आमंत्रित हुई वे एक कम पांच सौ देवियों की एक कम पाँच सौ माताएं सर्व प्रकार के वस्त्रों एवं आभूषणों से सुसज्जित हो, सुप्रतिष्ठ नगर में महाराज सिंहसेन के पास आ जाती हैं । महाराज सिंह सेन उन देवियों की माताओं को निवास के लिए कूटाकारशाला में स्थान दे देता है। तदनन्तर कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर कहता है हे भद्रपुरुषो! तुम लोग विपुल अशनादिक तथा अनेकविध पुष्पों, वस्त्रों, गन्धों-सुगन्धित पदार्थों, मालाओं और अलंकारों को कुटाकारशाला में पहुंचा दो?, कौटुम्विक पुरुष महाराज की आज्ञानुसार सभी सामग्री कूटाकारशाला में पहुंचा देते हैं । तदनन्तर सर्व प्रकार के अलंकारों से विभूषित उन एक कम पांच सौ देवियों को माताओं ने उस विपुल अशनादिक तथा सुरा आदि सामग्री का आस्वादनादि किया- यथारुचि उपभोग किया और नाटक-नर्तक गान्धर्वादि से उपगीयमान-प्रशस्यमान होती हुई सानन्द विचरने लगीं। तत्पश्चात् अर्द्ध रात्रि के समय अनेक पुरुषों के साथ समपरिवृत-घिरा हुआ महाराज सिंहसेन जहां कुटाकारशाला थी वहां पर आया, श्राकर उसने कुटाकारशाला के सभी द्वार बन्द करा दिये और उस के चारों तरफ आग लगवा दी । तदनन्तर महाराज सिंहमेन के द्वारा आदीपित-जलाई गई, त्राण और शरण से रहित हुई वे एक कम पांच सौ देवियों की माताएं रुदन, आक्रन्दन और विलाप करती हुई कालधर्म को प्राप्त हो गई। तत्पश्चात् एतत्कर्मा, एतद्विद्य, एतत्प्रधान और एतत्समाचार वह सिंहसेन राजा अत्यधिक पाप कर्मों का उपार्जन करके ३४ सौ वर्ष की परमायु पाल कर कालमास में काल करके छठी नरक में उत्कृष्ट २२ सागरोपम की स्थिति वाले नारकियों में नारकीयरूप से उत्पन्न हुआ। टीका-सैंकड़ों स्तम्भों से सुशोभित तथा बहुत विशाल · कूटाकारशाला के निर्माण के अनन्तर महाराज सिंहसेन ने श्यामा को छोड शेष ४९९ रानियों की माताओं को सप्रेम और सत्कार के साथ अपने यहां अाने का निमंत्रण भेजा। महाराज सिंहसेन का आमंत्रण प्राप्त कर उन ४९९ देवियों की माताओं ने वहां जाने के लिये राजमहिलाओं के अनुरूप वस्त्राभूषणादि से अपने को सुसज्जित किया और वे सब वहां उपस्थित हुई। महाराज सिंहसेन ने भी उन का यथोचित स्वागत और सम्मान किया, तथा कुटाकारशाला में उनके निवास का यथोचित प्रबन्ध कराया, एवं अपने राजसेवकों को बुला कर अाज्ञा दी कि कुटाकारशाला में चतुर्विध (अशन, पान, खादिम और स्वादिम) आहार तथा विविध प्रकार के पुष्पों, वस्त्रों, गन्धों, मालाओं और अलंकारों को पहुँचा दो। महाराज सिंहसेन की आज्ञानुसार उन राजसेवकों ने सभी खाद्य पदार्थ तथा अन्य वस्तुए प्रचुर मात्रा में वहां पहुँचा दी। तब वे माताएं भी कुटाकारशाला में आए महार्ह भोज्यादि पदार्थों का यथारुचि भोगोपभोग करती हुई तथा अनेक प्रकार के गान्धवा-गायकों तथा नाटकों से मनोरंजन और नटों के द्वारा आत्मश्लाघा का अनुभव करती हुई सानन्द समय यापन करने लगीं। ___मुनि श्री अानन्दसागर जी ने अपने विषाकसूत्रीय हिन्दी अनुवाद में पृष्ठ २८९ पर – “एगूणगाणं पंचएहं देवीसयाणं पगूणगाई पंचाइसयाई आमतेति"- इस पाठ का - एककम पांच सौ देवियों (श्यामा से अतिरिक्त ४९९ रानियों) को तथा उन की एक कम पांच सौ माताओं को आमंत्रण दिया- यह अर्थ किया है, परन्तु यह अर्थ उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि "देवीसयाणं माइसयाई” यहां पर सम्बन्ध में षष्ठी है। माता पुत्री का जन्यजनकभाव सम्बन्ध स्पष्ट हो है दूसरी बात - यदि देवियों (रानियों) को भी निमंत्रण होता तो जिस तरह सूत्रकार ने "आमंतेति' इस क्रिया का कम 'माइयाइ” यह द्वितीयान्त रक्खा है, उसी प्रकार ' देवीसयाण" यहां षष्ठी न रख कर सूत्रकार द्वितीया विभक्ति का प्रयोग करते, अर्थात् 'देवीसयाण" के स्थान पर "देवीसयाई" इस पाठ का व्यवहार करते । तीसरी बात - महारानी For Private And Personal Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय1 हिन्दी भाषा टीका सहित। [४९३ श्यामा के जीवन के अपहरण का उद्योग करने वाली वे ४९९ माताएं ही तो हैं और महाराज सिंहसेन का भी उन्हों पर रोष है। शेष रानियों का न तो कोई अपराध है और न हो उन्हें इस विषय में श्यामा ने दोषी ठहराया है। चौथी बात यहां पर "और" इस अथ का सूचक कोई चकारादि पद भी नहीं है। अतः हमारे विचारानुसार तो यहां पर 'एक कम पांच सौ देवियों की एक कम पांच सौ माताओं को निमंत्रण दिया' यही अर्थ युक्तियुक्त और समुचित प्रतीत होता है। गंधोहि य नाडरहिय- गान्धर्वश्च नाटकैश्च) यहां प्रयुक्त गान्धर्व पद-गाने वाले व्यक्ति का बोधक है। नृत्य करने वाले पुरुष का नाम नाटक - नर्तक है । तात्पर्य यह है कि गान्धर्वां और नाटको से उन माताओं का यशोगान हो रहा था यह सब कुछ महाराज सिंहसेन ने उन के सम्मानार्थ तथा मनोविनोदार्थ ही प्रस्तुत किया था ताकि उन्हें महाराज के षडयंत्र का ज्ञान एवं भ्रम भी न होने पावे । इस प्रकार कुटाकारशाला में ठहरी हुई उन माताश्रो को निश्चिन्त और विश्रब्ध आमोद - अमोद में लगी हुई जान कर महाराज सिंहसेन अर्द्ध रात्रि के समय बहुत से पुरुषों को साथ लेकर कूटाकारशाला में पहुंचते हैं, वहां जाकर कुटाकारशाला के तमाम द्वार बंद करा देते हैं और उस के चारों तरफ से आग लगवा देते है । परिणामस्वरूप वे-माताए सब की सब वहीं जल कर राख हो जाती हैं। देवगति कितनी विचित्र है, जिस अग्निप्रयोग से वे श्यामा को भस्म करने की ठाने हुई थी उसी में स्वयं भस्मसात् हो गई । महाराज सिंहसेन ने महारानी श्यामा के वशीभूत होकर कितना घोर अनर्थ किया १. कितना बीभत्स आचरण किया ? उसका स्मरण करते ही हृदय कांप उठता है । इतनी बर्बरता तो हिंसक पशुओं में भी दृष्टिगोचर नहीं होती। एक कम पांच सौ राजमहिला प्रों को जीते जी अग्नि में जला देना और इस पर भी मन में किसी प्रकार का पश्चात्ताप न होना, प्रत्युत हर्ष से फूले न समाना, मानवता ही नहीं किन्तु दानवता की पराकाष्ठा है। परन्तु स्मरण रहे -कमबाद के न्यायालय में हर बात का पूरा २ भुगतान होता है, वहां किसी प्रकार का अन्धेर नहीं है । तभी तो सिंहसेन का जीव छठी नरक में उत्पन्न हुआ, अर्थात् उस को छठी नरक में नारकीयरूप से उत्पन्न होना पड़ा । विषयांध -विषयलोलुप जीव कितना अनर्थ करने पर उतारू हो जाते हैं १, इसके लिये सिंहसेन का उदाहरण पर्याप्त है । प्रस्तुत कथा से पाठकों को यह शिक्षा लेनी चाहिये कि विषयवासना से सदा दूर रहें, अन्यथा तज्जन्य भीषण कर्मों से नारकीय दुःखों का उपभोग करने के साथ २ जन्म मरण के प्रवाह से प्रवाहित भी होना पड़ेगा। -असणं ४ -यहां दिये गये ४ के अक से अभिमत पाठ पृष्ठ २५० पर लिखा जा चुका है । तथा -तहेव जाव साहरांति यहां पठित तहेव पद का अर्थ है, वैसे ही अर्थात् जैसे महाराज सिंहसेन ने अशन, पानादि सामग्री को कुटाकारशाला में पहुंचाने का आदेश दिया था, वेसे राजपुरुषों ने सविनय उसको स्वीकार किया और शीघ्र ही उस का पालन किया, तथा इसी भाव का संसूचक जो आगम पाठ है उसे जाव-यावत् पद से अभिव्यक्त किया है, अर्थात् जाव-यावत् पद-पुरिसा करयलपरिग्गहियं दसणहं अंजलिं मत्थर क एयमढे पडिसुणेति पडिसुणिता विउलं असणं ४ सुबहुं पुष्फवत्थगंधमल्लालंकार व कूडागारसालं- इन पदों का परिचायक है । अर्थ स्पष्ट ही है । -पुरं च ६ - यहां ६ के अंक से अभिमत पाठ की सूचना पृष्ठ ४४७ पर की जा चुकी है, तथा -प्रासादेमाणाइ ४ – यहां ४ के अंक से-विसारमाणाई परिभाएमाणाई, परिभुजमाणाई-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन पदों का अर्थ पृष्ठ १४५ पर लिखा जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये शब्द स्त्रीलिङ्ग हैं जब कि प्रस्तुत में नपुंसक लिंग । अर्थगत कोई भेद नहीं है । For Private And Personal Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [ नवम अध्याय -रोयमाणाई ३-यहां ३ के अंक से-कंदमाणाई विनवमाणाई-इन पदों का ग्रहण करना अभिमत है । रुदन रोने का नाम है. चिल्ला २ कर रोना आक्रन्दन और आर्त स्वर से करुणोत्पादक वचनों का बोलना विलाप कहलाता है । तथा-एयकम्मे ४- यहां ४ के अक से अभिमत पद पृष्ठ १७९ की टिप्पण में दिये जा चुके हैं। __ प्रस्तुत सूत्र में नरेश सिंहसेन द्वारा किये गये निर्दयता एवं करता पूर्ण कृत्य तथा उन कमों के प्रभाव से उस का छठी नरक में जाना आदि बातों का वर्णन किया गया है। अब सूत्रकार उसके अग्रिम जीवन का वर्णन करते हैं मूल- से णं ततो अणंतरं उबट्टित्ता इहेव रोहीडए णगरे दत्तस्म सत्थवाहस्स कएहसिरीए मारियाए कुन्छिसि दारियचाए उववन्ने । तते णं सा कएहसिरी णवएह मासाणं बहपडिपुराणाणं दारियं पयाया, सुकुपालपाणिपायं जाव सुरूवं । तते णं तीसे दारियाए अम्मापितरो निव्वतवारसाहियाए विउलं असणं ४ जाव मिच० नामधेज्जं करेंति । होउ णं दारिया देवदत्ता नामेणं । तते णं सा देवदत्ता पंचधातीपरिग्गहिया जाव परिवति । तते णं सा देवदत्ता दारिया उम्मुक्कबालभावा जाव जोव्वणेण य रूवेण य लावएणेण य अतीव दक्किदा उक्किसरीरा यावि होत्था । तते णं सा देवदत्ता दारिया अन्नया कयाइ एहाया जाव विभूसिया, बहूहिं खुज्जाहिं जाव परिक्खित्ता उप्पि धागासतलगंसि कणगतिन्दूसएणं कीलमाणी विहरति । इमं च णं वेसमणदचे राया एहाते जाव विभूसिते आसं दुरुहति दुहित्ता बहहि परिसेहिं सद्धि संपग्विडे आसवाहणियाऐ णिज्जायमाणे दत्तस्स .गाहावइस्स गिहस्स परसाते वीतीवपति । तते णं से वेसमणे राया जाव वीतीवयमाणे देवदत्तं दारियं उप्पिं मागासतलगंसि जाव पासति पासित्ता देवदत्ताए दारियाए स्वेण य जोव्वणेण य लावएणेण य (१) छाया-स ततोऽनन्तरमुवृत्त्य, इहैव रोहीतके नगरे दत्तस्य सार्थवाहस्य कृष्णश्रियाः भार्यायाः कनौ दारिकतयोपपन्नः । ततः सा कृष्णश्री: नवसु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु दारिका प्रजाता, सुकुमारपाणिपादा यावत सरूपां । ततस्तस्या दारिकायाः अम्बापितरौ निवृत्तद्वादशाहिकाया विपुलमशनं ४ यावद् मित्र० नामधेयं भवत दारिका देवदत्ता नाम्ना । तत: सा देवदत्ता पंचधात्रीपरिगृहीता यावत् परिवर्धते । तत: सा देवना टारिका उन्मुक्तबालभावा यावद् यौवनेन च रूपेण च लावण्येन चातीवोत्कृष्टा उत्कृष्टशरीरा जाता चाप्यभवत् । जन सा देवदत्ता दारिका अन्यदा कदाचित् स्नाता यावद् विभूषिता बहुभि: कुन्जाभिर्यावत् परिक्षिप्ता उपरि आकाशतले कनकतिन्दूसकेन क्रीडन्ती विहरति । इतश्च वैश्रमणदत्तो राजा स्नातो यावत् विभूषितः अश्वमा. रोहति आमा बहुभिः पुरुषः सार्द्ध सम्परिवृतो अश्ववाहनिकया निर्यान् दत्तस्य गाथापतेः गृहस्यादूरासन्ने व्यतिव्रजति। ततः स वैश्रमणो राजा यावद् व्यतिव्रजन् देवदत्तां दारिकामु परि आकाशतले यावत् पश्यति दृष्ट्वा देवदत्तायाः द्वारिकाया: रूपेण च यौवनेन च लावण्येन च जातविस्मय: कौटुम्बिक पुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत -कस्य देवानुप्रियाः! एषा दारिका ?,का च नामधेयेन , ततस्ते कौटुम्बिका: वैश्रमणराजं करतल. यावदेवमवादिषुः - एषा स्वामिन् ! द तस्य साथ वाहस्य दुहिता कृष्णश्यात्मजा देवदत्ता नाम दारिका, रूपेण च यौवनेन च लावण्येन च उत्कृष्टोत्कृष्टशरीरा । For Private And Personal Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [९५ जायविम्हए कोडुवियपुरिसे सद्दावेति सद्दा वित्ता एवं वयासी-कस्स णं देवाणुप्पिया ! एसा दारिया, किं च णामधिज्जेणं १ तते णं ते कोडुम्बिया वेसमणरायं करतल० जाव एवं वयासीएस णं सामी ! दत्तस्स सत्थवाहस्स धृया कण्हसिरिअत्तया देवदत्ता णामं दारिया रूवेण य जोव्वणेण य लावएणेण उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा । पदार्थ-से णं-वह । ततो-वहां से । अणंतर- अन्तर रहित । उव्वहिता-निकल कर । इहेध-इसी। रोहीडए-रोहीतक । णगरे-नगर में । दत्तस्स-दत्त । सत्यवाहस्स-सार्थवाह की। काह सिरीए-कृष्णश्री । मारियाए-भार्या की । कुच्छिसि-कुक्षि में । दारियनाए-बालिका रूप से । उठवन्ने - उत्पन्न हा अर्थात् कन्या रूप से गर्भ में आया। तते ण-तदनन्तर । सा- उस । कण्हसिरीकृष्णश्री ने । नवराहं मासाणं- नव मास । बहुपडिपुराणाणं- लग भग परिपूर्ण हो जाने पर । दारियंबालिका को । पयाया -जन्म दिया, जो कि ! सुकुमालपाणिपायं-सुकुमार-- अत्यन्त कोमल हाथ, पैर वाली । जाव-यावत् । सुरुवं-सुरूपा-परम सुन्दरी थी। तते जं-तदनन्तर : तीसे-उस । दाग्यिाएबालिका के । अम्मापितरो-माता-पिता। निबत्तवारसाहियाए -जन्म से ले कर बारहवें दिन । विउलं-विपुल । असणं ४-अशन आदि आहार । जाव-यावत् । मित्त०-मित्र, ज्ञाति, निजकजन और स्वजनादि को भोजनादि करा कर । नामधेज्जे-नाम । करेंति-रखते हैं । होउ णं-हो । दारियायह बालिका । देवदत्ता-देवदत्ता । नामेणं-नाम से अर्थात् इस बालिका का नाम देवदत्ता रखा जाता है । तते ण-तदनन्तर । सा-वह । देवदत्ता-देवदत्ता । पंचधातीपरिग्गहिया-पांच धाय माताओं से परिगृहीत । जाव-यावत । परिवडढांत-वृद्धि को प्राप्त होने लगी । तते -तदनन्तर । सा-वह । देवदत्ता- देवदत्ता । दारिया- दारिका । उम्मुक्कबालभावा-उन्मुक्तबालभावा - जिस ने बाल भाव को त्याग दिया है । जाव -यावत् । जोधणेण य-यौवन से । हवेण य-रूप से । लावरणेण य-और लावण्य अर्थात् प्राकृति की मनोहरता से । अतीव उक्किट्ठा-अत्यन्त उत्कृष्ट – उत्तम, तथा । उक्किसरीरा-उत्कृष्ट शरीर वाली। यावि होत्या -भी थी। तते णं - तदनन्तर । सा - वह । देवदता-देवदत्ता । दारिया - बालिका । अन्नया-अन्यदा। कयाइ-कदाचित् । गहाया-नहा कर । जाव-यावत । सम्पूर्ण अलंकारों से विभूषित हो । बहुर्मि-अनेक । खुज्जाहि-कुब्जाओं से । जाव - यावत् । परिक्खित्ताघिरी हुई। उप्पिं - अपने मकान के ऊपर । आगासतलगंसि -- झरोखे में । क गतिंदूसरणं -सुवर्ण की गेंद से । कीलमाणी-खेलती हुई। विहरति-विहरण कर रही थी । इमं च णं- और इतने में । वेसमणदत्त - वैश्रमणदत्त । राया-राजा । राहाते-नहा कर । जाव-यावत् । विभूलिते-समस्त आभूषणों से विभूषित हो कर । आसं-अश्व पर । दुरुहति दुरुहित्ता-आरोहण करता है, करके । बहूहिबहत से। पुरिसेहि-पुरुषों के । सद्धिं-साथ । संपत्रुिडे-संपरिवृत -घिरा हा । आसवाहणि. याए-अश्ववाहनिका-अश्वक्रीडा के लिये। णिज्जायमाणे-जाता हु प्रा । दत्तस्त-दत्त । गाहावइस्स - गाथापति-सार्थवाह के । गिहस्त-घर के। अदूरसामतेणं-नज़दीक में से । वीतीवयति- जाता हैगुजरता है । तते णं-तदनन्तर । से -वह । वेसमणे वैश्रमण । राया- राजा । जाव यावत् । वीतीवयमाणे-जाते हुए । देवदत्तं-देवदत्ता। दारिय-बालिका को, जोकि । उप्पिं-ऊपर । अागासतलगंसो-झरोखे में। जाव-यावत् अर्थात् स्वर्ण की गेंद से खेल रही है। पाति पासितादेखता है देख कर । देवदत्तार -देवदत्ता । दारियार -बालिका के । रूवेण य - रूप से । जोव्वणेण ययौवन से, तथा । लावराणेण य-लावण्य से । जायविम्हए-विस्मय को प्राप्त हो । कोडुबियपुरिसे For Private And Personal Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र-- अध्याय कौटुबिम्कपुरुषों को । सदावेति-बुलाता है । सदावित्ता-बुलाकर, उनके प्रति । एवं वयासी-इस प्रकार कहता है । देवाणुप्पिया!- हे भद्रपुरुषो!। एसा - यह । दारिया-बालिका । कस्स ण-किस की है। किं च नामधिज्जेणं- और (इस का) क्या नाम है ?। तते णं-तदनन्तर । ते- वे । कोडुबियाकौटुम्बिक पुरुष । वेसमणगय - महाराज दैश्रमणदत्त के प्रति । करतल०-दोनों हाथ जोड़। जाव-यावत्. मस्तक पर दस नखों वाली अज ले रख कर । एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगे । सामो! हे स्वामिन् ! । एस णं-यह । दत्तस्त-दत्त सत्यवाहस्ल -सार्थवाह की । धूया -पुत्री, और । कर हसिरी प्रत्तया. कृष्णश्री की आत्मजा है, तथा । देवदत्ता - देवदत्ता । णाम-नाम की। दारिया -बालिका है, जो कि । रूवेण य-रूप से । जोवणेण य-यौवन से, और । लावराणे ण य- लावण्य से । उदिवट्ठा- उत्कृष्ट-उत्तम तथा । उक्किट्ठसरीरा-उत्कृष्ट शरीर वाली है । मूलार्थ-तदनन्तर वा सिंहसेन का जीव छठी नरक से निकन कर गेहीतक नगर में दत्त सार्थवाह की कृष्णश्री नामक भार्या के उदर में पुत्रीरूप से उत्पन्न हुआ। तब उस कृष्णश्री ने लगभग नव मास परिपूर्ण होने पर एक कन्या को जन्म दिया जो कि अत्यन्त कोमल हाथ, पैरों वालो यावत परम सुन्दरी थी। तत्पश्चात् उस कन्या के माता पिता ने बारहवें दिन बहुत सा अशनादिक तैयार कराया, यावत् मित्र, ज्ञाति आदि को निमंत्रित कर एवं मब के भोजनादि से निवृत्त हो लेने पर कन्या का नामकरण संस्कार करते हुए कहा कि हमारी इस कन्या का न म देवदत्ता रखा जाता है। तदनन्तर वह देवदत्ता पांच धाय माताओं के मंरक्षण में वृद्धि को प्राप्त होने लगी। तब वह देवत्ता बाल्यावस्था से मुक्त होकर यावत् यौवन, रूप और लावण्य से अत्यन्त उत्तम एवं उत्कृष्ट शरीर वाली होगई । . तदनन्तर वह देवदत्ता किसी दिन स्नान करके यावत् समस्त भूषणों से विभूषित हुई बहुत सी कुब्जा आदि दासियों के साथ अपने मकान के ऊपर झरोखे में सोने को गेंद के साथ खेल रही थी और इधर स्नानादि से निवृत्त यावत् विभूषित महाराज वैश्रमण घोड़े पर सवार हो कर अनेकों अनुचरों के साथ अश्वक्रीडा के लिये राजमहल से निकल सेठ दत्त के घर के पास से होकर जा रहे थे, तब यावत् जाते हुए वैश्रमण महाराज ने देवदत्ता कन्या को ऊपर सोने की गेंद के साथ खेलते हए देखा, देखकर कन्या के रूप, यौवन और लावण्य से विस्मित होकर राजपुरुषों को बुलाकर कहने लगे कि हे भद्रपुरुषो! यह कन्या किस की है १ तथा इस का नाम क्या है ? । तब राजपुरुष हाथ जाड़ कर थावत् इस प्रकार कहने लगे-स्वामिन् ! यह कन्या सेठ दत्त की पुत्री और कृष्णश्री सेठानी की अत्मजा है। नाम इस का देवदत्तो है और यह रूप, यौवन और लावण्य-कान्ति से उत्तम शरीर वाली है। टीका- परम पूज्य तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी बोले कि गौतम ! तत्पश्चात् २२ सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले छठे नरक में अनेकानेक दुःसह कष्टों को भोग कर वहां की भवस्थिति पूरी हो जाने पर सुप्रतिष्ठ नगर का अधिपति सिंहसेन उस नरक से निकल कर सीधा ही इसी रोहीतक नगर में, नगर के लब्धप्रतिष्ठ सेठ दत्त के यहां सेठानी कृष्णश्री के उदर में लड़की के रूप में उत्पन्न हुआ। सेठानी कृष्णश्री गर्भस्थ जीव का (१) महाराज सिंहसेन का लड़की के रूप में उत्पन्न होना अर्थात् पुरुष से स्त्री बनना, उसके छल कपट का ही परिचायक है तथा छल, कपट-माया से इस जीव को स्त्रीत्व - स्त्री भव की प्राप्ति होती है । इस प्रकृतिसिद्ध सिद्धान्त को प्रस्तुत प्रकरण में व्यावहारिक स्वरूप प्राप्त हुआ है। For Private And Personal Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। [४९७ यथाविधि पालन पोषण करने लगी अर्थात् गर्भकाल में हानि पहुंचाने वाले पदार्थों का त्याग और गर्भ को पुष्ट करने वाली वस्तुओं उपभोग करती हुई समय व्यतीत करने लगी। गर्भकाल पूर्ण होने पर कृष्णश्री ने एक सुकोमल हाथ पैरों वाली सांगपूर्ण और परम रूपवती कन्या को जन्म दिया । बालिका के जन्म से सेठदम्पती को बड़ा हर्ष हुआ, तथा इस उपलक्ष्य में उन्हों ने बड़े समारोह के साथ उत्सव मनाया और प्रीतिभोजन कराया, तथा बारहवें दिन नवजात बालिका का "देवदत्ता, ऐसा नामकरण किया। तब से वह बालिका देवदत्ता नाम से पुकारी जाने लगी, इस तरह बड़े आडम्बर के साथ विधिपूर्वक उसका नामकरण संस्कार सम्पन्न हुआ। देवदत्ता के पालन पोषण के लिये माता पिता ने " - ५ --गोदी में उठाने वाली, २-दूध पिलाने वाली, ३-स्नान कराने वाली, ४-क्रीड़ा कराने वाली, और ५-शृगार कराने वाली " इन पांच धाय माताओं का प्रबन्ध कर दिया था और वे पांचों ही अपने २ कार्य में बड़ी निपुण थीं, उन्हीं की देख रेख में बालिका देवदत्ता का पालन पोषण होने लगा और वह बढ़ने लगी। उस ने शैशव अवस्था से निकल कर युवावस्था में पदार्पण किया । यौवन की प्राप्ति से परम सुन्दरी देवदत्ता रूप से, लावण्य से, सौन्दर्य एवं मनोहरता से अपनी उपमा श्राप बन गई । उस की परम सुन्दर प्राकृति की तुलना किसी दूसरी युवती से नहीं हो सकती, मानों प्रकृति की सुन्दरता और लावण्यता ने देवदत्ता को ही अपना पात्र बनाया हो। किसी समय स्नानादि क्रिया यों से निवृत हो सुन्दर वेष पहन कर बहुत सी दासियों के साथ अपने गगनचुम्बी मकान के ऊपर झरोखे में सोने को गेंद से खेलती हुई देवदत्ता बालसुलभ कोडी से अपना मन बहला रही थी, इतने में उस नगर के अधिपति महाराज वैश्रमणदत्त बहुत से अनु वरों के साथ घोड़े पर सवार हए अश्वक्रीडा के निमित्त दत्त सेट के मकान के पास से निकले तो अकस्मात् उन की दृष्टि महल के उपरिभाग की तरफ़ गई और वहां उन्हों ने स्वर्णकन्दुक से दासियों के साथ क्रोडा में लगी हुई देवदत्ता को देखा. देख कर उस के अपूर्व यौवन और रूपलावण्य ने महाराज वेश्रमणदत्त को बलात् अपनी ओर आकर्षित किया और वहां पर ठहरने पर विवश कर दिया। देवदत्ता के अलौकिक सौन्दर्य से महाराज वेश्रमण को बड़ा विस्मय हुा । उन्हें आज तक किसी मानवी स्त्री में इतना सौन्दर्य देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था। कुछ समय तो वे इस भ्रांति में रहे कि यह कोई स्वर्ग से उतरी हुई देवांगना है या मानवी महिला, अन्त में उन्हों ने अपने अनुचरों से पूछा कि यह किस की कन्या है । और इस का क्या नाम है ।, इस के उत्तर में उन्हों ने कहा कि महाराज ! यह अपने नगर सेठ दत्त की पुत्री और सेठानी कृष्णश्री की आत्मजा है और देवदत्ता इस का नाम है । यह रूपलावण्य की राशि और नारीजगत् में सर्वोत्कृष्ट है। -उक्किट्ठा उक्लिरीरा-इस का अर्थ है - उत्कृष्ट उत्तम सुन्दर शरीर वानी । उत्कृष्ट सुन्दर शरीरं यस्याः सा तथा । तथा रूप और लावण्य में इतना अन्तर है कि रूप शुक्ल, कृष्ण आदि वर्ण-रंग का नाम है और शरीरगत सौन्दयविशेष की लावण्य संज्ञा है। अर्धमागधी कोष में आकाशतलक और आकारातल ये दो शब्द उपलब्ध होते हैं । अकाशतलक का अर्थ वहां झरोखा तथा अकाशतल के १ -आकारा का तल. २ - गगनस्पर्शी - बहुत ऊंचा महल, ऐसे दो अर्थ लिखे हैं । प्रस्तुत में सूत्रकार ने आकारात तक शब्द का आश्रयण किया है, परन्तु यदि आकाशतल शब्द से स्वार्थ में क प्रत्यय कर लिया जाए तो प्रस्तुत में आकारातलक शब्द के-आकाश का तन, अथवा गगनस्पर्शी बहुत ऊंचा महल ये दोनों अर्थ भी निष्पन्न हो सकते हैं । तात्पर्य यह है कि - उपि आगा. सतलगंसि-इस पाठ के १-ऊपर झरोखे में, २- ऊपर श्राकाशतल पर अर्थात् मकान की छत पर तथा For Private And Personal Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४९८] श्री विपाक सूत्र [ नवम अध्याय ३ -- गगनस्पर्शी बहुत ऊचे महल के ऊपर, ऐमे तीन अर्थ किये जा सकते हैं । -सुकुमानपाणिपायं जाव सुरुवं यहां पठित जाव यावन पद पृष्ठ १०५ की टिप्पण पड़े में गये - अहीण पडिपर गपंचिंदियसरीरं-से ले कर पियदसणं-यहां तक के पदों का परिचायक है । अन्तर मात्र इतना है वहां ये पद प्रथमान्त हैं, जब कि प्रस्तुत में ये पद द्वितीयान्त अपेक्षित हैं । अतः अर्थ में द्वितीयान्त पदों की की भावना कर लेनी चाहिये। ___-असण ४ जाव मित्त नामधेज्जं - यहां पठित इन पदों से-पाणं खाइमं साइमं उवक्खडाति, मित्न-जाइ-णियग-सपण-संवन्धि-परिजणं आमंतेति, तो पच्छा रहाया कयवलिकम्मासे ले कर - मित्तणाइणियगसयणसम्बोधपरिजणस्स पुरो-- यहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिये । श्रशन पान आदि शब्दों का अर्थ पृष्ठ ४८ की टिप्पण में, तथा -मित्र इत्यादि पदों का अर्थ पृष्ठ १५० की टिप्पण में लिखा जा चका है । तथा-तो पच्छा-इत्यादि पदों का अर्थ पृष्ठ २२९ की टिप्पण में लिखा जा चुका है। मात्र अन्तर इतना है कि वहां विजय चोरसेनापति का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में सेठ दत्त और सेठानी कृष्ण श्री का । तथा वहां - हाया - इत्यादि पद एकवचनान्त है, जब कि यहां ये पद बहुवचनान्त अपेक्षित हैं, अतः अर्थ में बहुवचनान्त पदों की भावना कर लेनी चाहिये। पवधातीपरिग्गहिया जाव परिवड्ढति- यहां पठित जाव-यावत से पृष्ठ १५७ पर -ढे गये -- खीरधातीए १, मज्जण०-से ले कर-चपयपायवे सुहंसुहेण - यहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिये इन का अर्थ पृष्ठ १५८ पर लिखा जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां उज्झितक कुमार का वर्णन है, जब कि प्रस्तुत में देवदत्ता का । लिंगगत भिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है। -- उम्मुक्कबालभावा जाव जोव्वणे ग- यहां पठित जाव - यावत् पद से -जोवण - गमणुप्पत्ता विराणायपरिणयमेत्ता इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । युवावस्था प्राप्त को यौवनकानु - प्राप्ता कहते हैं और विज्ञान की परिपक्व अवस्था को प्राप्त विज्ञातपरिणतमात्रा कही जाती है। - खुज्जाहिं जाव परिक्वित्ता -यहां पठित जाव - यावत् पद से चिलाइयाहि वामणीवडभीबब्बरी-मे ले कर-चेडियाचक्कबाल - यहां तक के पदों ग्रहण करना चाहिये । इन पदों का अर्थ पृष्ठ १६० तथा १६१ पर लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां उज्झतक कुमार का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में देवदत्ता कुमारी का। -हाते जाव विभूसिते-यहां के - जाव-यावत् पद से विवक्षित गठ का वर्णन पृष्ठ ३३३ पर लिखा जा चका है । तथा राया जाव वीतीवयमाणे- यहां पठित जाव यावत् – पद से पृष्ठ ४९४ पर - बहुहिं पुरिसेहिं सद्धिं संवरिपुडे आसवाहणियाए णिज्जायमाणे दनस्स गाहावइस्स गिहस्स अदू सामंतेणं-पढ़े गए इन पदों का ग्रह ए करना चाहिये । तथा -भागासतलगंसि जाव पासति--यहां पठित जाव यावत् पद से कणगतिंदूसपण कोलमाण -इन पदों को ग्रहण करना चाहिये । तथा-करतल० जाव पवं- यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ पृष्ठ २४६ पर लिखा जा चुका है। दत्तपुत्री देवदत्ता के सम्बंध में अपने अनुवरी के कथन को सुनने के बाद रोहीतक नरेश वैश्रमणदत्त ने क्या किया ? अब सूत्रकार उस का वणन करते हुए कहते हैंमूल -'तते णं से वेसमणे राया अस्सवाहणियारो पडिणियत्ते समाणे अमितर (१) छाया - तत: स वैश्रमणो राजा अश्ववाहनिकात: प्रतिनिवृत्तः सन् अभ्यन्तरस्थानीयान् पुरुषान् शब्दयति २ एवमवादीत् - गच्छत यूयं देवानुपियाः ! दत्तस्य दुहितरं कृष्णश्रिय अात्मजां देवदत्तां For Private And Personal Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हिन्दी भाषा टीका सहित । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय ] [ ४९९ द्वाणिज्जे पुरिसे सहावेति सद्दावित्ता एवं वयासी -- गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! दत्तस्स धूयं कह सिरी अयं देवदत्तदारियं पूसणं दिस्स जुवरण्णो भारयत्ताए वरेह, जह विय सा सयरज्जसुक्का । तते गं ते श्रभितरट्ठाणिजा पुरिसा वेसमणरणा एवं वृत्ता समाणा हट्टतुट्ठा करयल० जाव एयमट्ठ पडिसुर्णेति २ एहाया जाव सुद्धप्पवेसाई वत्थाई पवरपरिहिया जेणेव दत्तस्स गिहे तेणेव उवागया । तते गं से दत्ते सत्थवाहे ते पुरिसे एज्जमाणे पासति, पासिता तु आसणा भुट्ट ेति २ सत्तट्ठपयाई अब्भुग्गते आसणेणं उवनिमंतेति, उबनिमंतिता ते पुरिसे सत्ये बीसत्थे सुहासणवरगते एवं वयासी - सदिसंतु गं देवाप्पिया ! किमागमणपच्योयणं १, तते गं ते रायपुरिसा दत्तं सत्थवाहं एवं वयामी - अम्हे णं देवाप्पिया ! तव धूयं कण्हसिरीअत्तयं देवदत्तं दारियं पूसणंदिस्त जुवरण्णो मारियत्ताए वरेमो, तं जति जाणासि देवापिया ! जुत्तं वा पत्तं वा सलाडणिज्जं वा सरिमो वा संजोगो, ता दिज्जउ गं देवदत्ता पूर्णदिस्त जुवरण्णो भण देवाप्पिया ! किं दलयामी सुक्कं ?, तते गं से दत्ते ते रिट्ठाणिज्जे पुरिसे एवं वयासी - एतं चेत्र णं देवाणुपिया ! मम सुक्कं जं गं वे समयदत्ते राया ममं दारियाणिमिचेणं अणुगिरह, ते ठाणेज्जपुरि से विउलेणं पुष्पवत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेति २ पडिबिसज्जेति । तते गं ते ठाणेज्जपुरिसा जेणेव वेसमणे राया तेणेव उवागच्छन्ति २ वेऩमणस्स रणो एतमट्ठ निवेदेंति । I पदार्थ - तते जं- तदनन्तर । से - वह । वेसमणे - वैश्रमण । राया - राजा । श्रस्वाहणियाओ - श्रश्ववाहनिका - अश्वक्रीडा से । पडिणियते समाणे - प्रतिनिवृत्त हुआ अर्थात् वापिस लौटा हुआ । श्रभितरट्ठाणिज्जे - अभ्यन्तरस्थानीय - निजी नौकर, खास आदमी अथवा नज़दीक के सगे सम्बन्धी दारिकां पुष्पनन्दिनो युवराजस्य भार्यातया वृणीध्वम् । यद्यपि च सा स्वराज्यशुल्का । ततस्ते अभ्यन्तरस्थानीया: पुरुषाः वश्रमणराजेन एवमुक्ताः सन्तः हृष्टतुष्टाः करतल० यावदेतमर्थं प्रतिशृण्वंति २ स्नाताः यावत् शुद्धप्रवेश्यानि वस्त्राणि प्रत्ररपरिहिताः यत्रैव दत्तस्य गृहं तत्रैवोपागताः । ततः स दत्तः हस्तान् यतः पश्यति, दृष्ट्वा दृष्टष्टः श्रासनादभ्युत्तिष्ठति सप्ताष्टपदानि श्रभ्युद्गतः श्रासनेनोपनिमंत्रयति उपनिमंत्र्य तान् पुरुषानास्वस्थान्' विस्वस्थान् सुखासनवरगतान् एवमवादीत् - संदिशन्तु देवानुप्रिया ! किमागमन प्रयोजनम् १, ततस्ते राजपुरुषा दत्तं सार्थव। हमे मवादिषुः वयं देवानुप्रिय ! तव दुहितरं कृष्णश्रिय श्रात्मजां देवदत्तां दारिकां पुष्यनन्दिनो युवराजस्य भार्यातया वृणीमहे, तद् यदि जानासि देवानुप्रय ! युक्तं वा पात्रं वा श्लाघनीयं वा सदृशो वा संयोगः, तदा दीयतां देवदत्ता पुष्यनन्दिने युवराजाय १, भण देवानुप्रिय ! किंदापयामः शुल्कम् ?, ततः स दत्तस्तानभ्यन्तर स्थानीयान् पुरुषानेवमवदत् एतदेव देवानुप्रिया ! मम शुल्कं यद् वैश्रमणदत्तो राजा मां दारिकानिमित्तेनानुगृह्णाति । तान् स्थानीयपुरुषान् विपुलेन पुष्पवस्त्रगंधमाल्यालंकारेण सत्कारयति २ प्रतिविसृजति । ततस्ते स्थानीयपुरुषाः यत्रैत्र वैश्रमणो राजा तत्रैवोपागच्छते २ वैश्रमण। य राज्ञ एनमर्थं निवेदयन्ति । (१) स्वस्थान् - स्वास्थ्यं प्राप्तान् गतिजनितश्रमाभावात् । विस्वस्थान - विशेषरूपेण स्वास्थ्य मधिगतान् संक्षोभाभावात् सुखासनवरगतान् - सुखेन सुख या श्रासनवरं गतान् । For Private And Personal Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५००] श्रो विपाक सूत्र-- [नवम अध्याय पुरिसे-पुरुषों को । सदावेति- बुलाता है। सहावित्ता-बुला कर । एवं-इस प्रकार । वयासी-कहने लगा । देवाणुप्पिया ! - हे भद्र पुरुषो ! । तुझे-तुम लोग । गच्छदणं-जाप्रो । दत्तस्स -दत्त की। धूयं-पुत्री । काहसिरीए-कृष्णश्री की । अत्तयं - अात्मजा । देवदत्तदारियं-देवदत्ता दारिका–बालिका को । पूसणंदिस्स -पायनन्दी । जुवरराणो - युवराज के लिए । भारियत्तार-भार्यारूप से । वरेहमांगो १ । जइ वि य -और यद्यपि । सा-वह । सयजनुक्का-स्वकीय राज्यलभ्या है अर्थात् यदि राज्य के बदले भी प्राप्त की जा सके तो भी ले लेनी योग्य है। तते णं -तदनन्तर । ते-वह । अभिंतरठाणिज्जाअभ्यन्तरस्थानीय । परिसा-पुरुष । वेसमणरणा-वैश्रमण राजा के द्वारा । एवं वुत्ता समाणा- इस प्रकार कहे गये। हतुट्ठा -- अत्यधिक हर्ष को प्राप्त हो । करतला -हाथ जोड़ । जाव-यावत् । एयम?-- इस बात को । पडिपुणेति २- स्वीकार कर लेते हैं, स्वीकार कर । राहाया-स्लान कर । जाव-यावत् । सुद्धप्पेवसाई-शुद्ध तथा राजसभा आदि में प्रवेश करने के योग्य । वत्थाई पवरपरिहिया-प्रधान-उत्तम वस्त्रों को धारण किये हुए । जेणेव जहां । दत्तस्स - दत्त का। गिहे-घर था । तेणेव-वहां पर । उबागया - श्रागये , तते णं तदनन्तर । से- वह । दत्त - दत्त । सत्यवाहे-सार्थवाह । ते-उन । पुरिसे-पुरुषों को । एज्जमाणे अाते हुओं को । पासति-देखता है । पासित्ता-देख कर । हतुट्टे बड़ा प्रसन्न हुआ और अपने । आसणाओ-आसन से | अब्भुट्टेति-उठता है, और । सत्तहप. याइ-सात आठ पर-कदम | अभूमाते-आगे जाता है, तथा । श्रासणेणं-पासन से । उवनिमतेतिनिमंत्रित करता है अर्थात् उन्हें श्रासन पर बैठने की प्रार्थना करता है। उवनिमंतेत्ता - इस प्रकार निमंत्रित कर, तथा । आस थे -आस्वस्थ अर्थात् गतिजन्य श्रम के न रहने से स्वास्थ्य -शान्ति को प्राप्त हुए। वि. सत्थे -विस्वस्थ अर्थात् मानसिक क्षोभाभाव के कारण विशेष रूप से स्वास्थ्य को प्राप्त हुए । सुहासणवरगतेसुखपूर्वक उत्तम अासनों पर बैठे हुए । ते-इन । पुरिसे-पुरुषों के प्रति । एवं वयासा-इस प्रकार बोला । देवाणुप्पिया!-हे महानुभावो ! । संदिशंतु एं-पाप फरमा। किमागमणपोयणं-अप के अागमन का क्या हेतु है ?, अर्थात् आप कैसे पधारे हैं । तते णं-तदनन्तर । ते-वे । रायपुरिसा-राजपुरुष । दत्तं सत्यवाहं -दत सार्थवाह के प्रति । एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगे । देवाणुप्पिया! - हे महानुभाव ! । अम्हे णं- हम । तव-तुम्हारी धूयं-पुत्री । का इमिरि अत्तयं-कृष्णश्री की अात्मजा । देवदत्-देवदत्ता । दारियं - बालिका को। पूसणंदिस्त -पुष्य नन्दो । जुधरराणो-युवराज के लिये। भारियत्ताए -भार्यारूप से । वरेमा - मांगते हैं ? । तं - अत: । जति णं- यदि । देवाणुप्पिया-श्राप महानुभाव । जुत्तं वा-युक्त - हमारी प्रार्थना उचित । पत्तं वा - प्राप्त - अवसरप्राप्त । सलाहणिज्ज-श्ला. घनीय तथा संजोगो वा--- वधूवर का संयोग । सरिसो वा-समान -तुल्य । जाणासि-समझते हो । ता - तो। दिज्जर णं - दे दो । देवदत्ता - देवदत्ता को। जुवररणा-युवराज । पूसणंदिस्स- पुष्यनन्दी के लिये। भण -कहो । देवाणुप्पिया! - हे महानुभाव ! ार को । किं- क्या । सुक्कं शुक्ल - उपहार । दलयामो-दिलवायें । तते णं-तदनन्तर । से-वह । दत्ते-दत्त । ते-उन । अभितरवाणिज्जेअभ्यन्तरस्थानीय । पुरिसे - पुरुषों के प्रति । एवं वयासी- इस प्रकार बोले । देवाणुप्पिया! - हे महानुभावो ! । एतं चेव -यही । मम - मेरे लिये। सुक्क-शुक्ल है । ज णं-जो कि । वेसमणदत्ते रायामहाराज वैश्रमणदत्त । ममं - मुझे। दरियाणिमित्तणं-इस दारिका–बालिका के निमित्त से । अणुगिहइअनुगृहीत कर रहे हैं, इस प्रकार कहने के बाद । ते-उन । ठाणपुरिसे- स्थानीय पुरुषों का । विउलेणंविपुल । पुष्क-पुष्प । वस्य-वस्त्र । गंध-सुगंधित द्रव्य । मल् लालंकारेणं-माला तथा अलंकार से । सरकारेति २ –सत्कार करता है, सत्कार कर के। पडिविसज्जेति - उन्हें विसर्जित करता है । तते गं For Private And Personal Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [५०१ तदनन्तर ! ते - वे | ठाणेज्जपुरिसा स्थानीयपुरुष । जेणेव वेसमणे राया- जहां पर महाराज वैश्रमणदत्त . थे : तेणेव · वहीं पर । उवागच्छन्ति २ - आगये, आकर ! वेसमणस्स वैश्रमणदत्त । रग्णा - राजा को । एतमहं - इस अर्थ का अर्थात् वहां पर हुई सारी बातचीत का निवेदति-निवेदन करते हैं I कर मूलार्थ तदनन्तर महाराज वैश्रमणदत्त अश्वत्रादनिका से अश्वक्रीडा से वापिस अपने अभ्यन्तरस्थानीय - अन्तरंग पुरुषों को बुलाते हैं, बुलाकर उन को इस प्रकार कहते हैं - हे महानुभवो ! तुम जाओ, जाकर यहां के प्रतिष्ठित सेठ दत्त की पुत्री और कृष्णश्री की आत्मजा देवदत्ता नाम की कन्या को युवराज पुष्यनन्दी के लिए भार्यारूप से मांग करो । यद्यपि वह स्वराज्यया है अर्थात् वह यदि राज्य दे कर भी प्राप्त की जा सके तो भी ले लेनी योग्य है ! महाराज वैश्रमण की इस यात्रा को सम्मानपूर्वक स्वीकार कर के वे लोग स्नानादि कर और शुद्ध तथा राजसभादि में प्रवेश करने योग्य एवं उत्तम वस्त्र पहन कर जहां दत्त सार्थवाह का घर था, वहां जाते हैं। दत्त सेठ भो उन्हें आते देख कर बड़ी प्रसन्नता प्रकट करता हुआ आसन से उठ कर उन के सत्कारार्थ सात आठ क़दम आगे जाता है और उनका स्वागत कर आमन पर बैठने की प्रार्थना करता है । तदनन्तर गतिजनित श्रम के दूर होने से स्वस्थ तथा मानसिक क्षोभ के न रहने के कारण विशेष रूप स्वास्थ्य को प्राप्त करते हुए एवं सुखपूर्वक उत्तम आसनों पर अवस्थित हो जाने पर उन आने वाले सज्जनों को दत्त सेठ विनम्र शब्दों में निवेदन करता हुआ। इस प्रकार बोला- महानुभावो ! आपका यहां किस तरह से पधारना हुआ है ?, मैं आपके आगमन का हेतु जानना चाहता हूँ । दत्त सार्थवाह के इस प्रकार कहने के अनन्तर उन पुरुषों ने कहा कि हम आप की पुत्री और कृष्णश्री को आत्मा देवदत्ता नाम की कन्या को युवराज पुष्यनन्दी के लिए भार्यारूप से मांग करने के लिये आये हैं । यदि हमारी यह मांग आप को संगत, अमरप्राप्त, श्रावनीय और इन दोनों का सम्बन्ध अनुरूप जान पड़ता हो तो देवदत्ता को युवराज पुष्यनन्दी के लिये दे दो, और कहो, आप को क्या शुल्क - उपहार दिलवाया जाय ? | उन अभ्यन्तरस्थानीय पुरुषों के इस कथन को सुन कर दत्त बोले कि महानुभावो ! मेरे लिये यही बड़ा भारी शुल्क है जो कि महाराज वैश्रमण दत्त मेरो इस बालि को ग्रहण कर मुझे कर रहे हैं। तदनन्तर दत्त सेठ ने उन सब का पुष्प, वस्त्र, गंध, माला और अलंकारादि से arrfan सत्र किया और उन्हें सम्मानपूर्वक विसर्जित किया। तदनन्तर वे स्थानीयपुरुष महाराज वैश्रमण के पास आये और उन्होंने उन को उक्त सारा वृत्तान्त कह सुनाया । टीका - मनोविज्ञान का यह नियम है कि मन सदा नवीनता की ओर झुकता है, नवीनता की तरफ आकर्षित होना उस का प्रकृतिसिद्ध धर्म है । किसी के पास पुरानी पस्तक हो उसे कोई नवीन तथा सुन्दर पुस्तक मिल जावे तो वह उस पुरानी पुस्तक को छोड़ नई को स्वीकार कर लेता है, इसी प्रकार यदि किसी के पास साधारण वस्त्र है, उसे कहीं से मन को लुभाने वाला नूतन वस्त्र मिल जाए तो वह पहले को त्याग देता है । एक व्यक्ति को साधारण - रूखा सूखा, भोजन मिल रहा है, इसके स्थान में यदि कोई दयालु पुरुष उसे स्वादिष्ट भोजन ला कर दे तो वह उसी की ओर ललचाता है। सारांश यह है कि चाहे कोई धार्मिक हो चाहे सांसारिक प्रत्येक व्यक्ति नवीनता और सुन्दरता की ओर आकर्षित होता हुआ दृष्टिगोचर होता है । उन में अन्तर केवल इतना होगा कि धार्मिक व्यक्ति आत्मविकास में उपयोगी धार्मिक साधनों की नवीनता चाहता है और सांसारिक प्राणी संसारगत नवीनता की ओर दौड़ता है । For Private And Personal Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५०२] श्री विपाक सूत्र [नवम अध्याय रोहीतकनरेश वैश्रमणदत्त ने जब से परमसन्दरी दत्त पुत्री देवदत्ता को देखा है तब से वे उसके अद्भुत रूप लावण्य पर बहुत ही मोहित से हो गये । उन की चित्तभित्ति पर कुमारी देवदत्ता की मूर्ति अमिट चित्र की भान्ति अंकित हो गई और वे इसी चिन्ता में निमग्न है कि किसी तरह से वह लड़की उसके राजभवन की लक्ष्मी बने। वे विचारते हैं कि यदि इस कन्या का सम्बन्ध अपने युवराज पुष्यनन्दी से हो जाए तो यह दोनों के अनुरूप अथच सोने पर सहागे जैसा काम होगा । प्रकृति ने जैसा सन्दर और संगठित शरीर पध्यनन्दी को दिया है वैसा ही अथवा उससे अधिक रूपलावण्य देवदत्ता को अर्पण किया है । तब दोनों की जोड़ी उत्तम ही नहीं किन्तु अनुपम होगी। जिस समय रूप लावण्य की अनुपम राशि देवदत्ता महार्ह वस्त्रा . भूषणों से सुसज्जित हो साक्षात् गृहलक्ष्मी की भान्ति युवराज पुष्यनन्दी के वाम भाग में बैठा हुई राजभवन की शोभाश्री का अद्भुत उद्योत करेगी तो वह समय मेरे लिये कितना अानन्दवर्धक और उत्साह भरा होगा ?, इस की कल्पना करना भी मेरे लिये अशक्य है । ___ महाराज वैश्रमणदत्त के इन विचारों को यदि कुछ गम्भीरता से देखा जाय तो उन में पवित्रता और दीर्घदर्शिता दोनों का स्पष्ट आभास होता है। उन्होंने दत्त सेठ को पुत्री देवदत्ता को देखा ओर उस के अनुपम रूप लावण्य के अनुरूप अपने पुत्र को ठहराते हुए उस की युवराज पुष्यनन्दी के लिये याचना की है । इस से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि देवदत्ता के सौंदर्य का उन के मन पर कोई अनुचत प्रभाव नहीं पड़ा, तथा उन की मानसिक धारणा कितनी उज्जवल और मन पर उन का कितना अधिकार था ?, यह भी इस विचारसन्दोह से स्पष्ट प्रमाणित हो जाता है । महाराज वैश्रमणदत्त ने उसे हर प्रकार से प्राप्त करना चाहा परन्तु स्त्रीरूप में नहीं प्रत्युत पुत्रीसमान पुत्रवधू के रूप में । इस से महाराज के संयमित जीवन की जितनी भी प्रशंसा की जावे उतनी ही कम है। इन विचारों के अनन्तर उन्होंने अपने अन्तरंग' परुषों को बुलाया और उन से दत्त सेठ के घर पर जा कर उस की पुत्री देवदत्ता को अपने राजकुमार पुष्यनन्दी के लिये मांगने को कहा। तदनुसार वे वहां गए और दत्त से उस की पुत्री देवदत्ता की याचना की । दत्त ने भी उसे सहर्ष स्वीकार करते हुए उन्हें सम्मान - पर्वक विदा किया, एव उन्हों ने वापिस आकर महाराज वैश्रमणदत को सारा वृत्तान्त कह सुनाया। प्रस्तुत कथासंदर्भ से मुख्य दो बातों का पता चलता है, जो कि निम्नोक्त हैं - १-प्राचीन काल में यह प्रथा थी कि जिस लड़की का सम्बन्ध जिस लड़के के साथ उचित जान पडता था, उसी के साथ करने के लिये लड़की के माता पिता से लड़की की याचना की जाती थी, जो कि अपवाद रूप न हो कर शिष्टजन सम्मत तथ। अनुमोदित थी। २--उस समय ( जिस समय का यह कथासंदर्भ है ) कन्याओं के बदले कुछ शुल्क -उपहार लेने की प्रथा भी प्रचलित थी। महाराज वैश्रमण द्वारा भेजे गए अन्तरंग पुरुषों का दत के प्रति यह कहना कि कोजपहार दिलायें. इस बात का प्रबल प्रमाण है कि उस समय कन्याश्रो का किसी न किसी रूप में उपहार लेने को निन्द्य नहीं समझा जाता था । यदि उस समय यह प्रथा निन्द्य समझी जाती होती तो "दत्त" इस का जरूर निषेध करता। उसने तो इतना ही कहा कि मेरे लिये यही शुल्क काफी है जो महाराज मेरी कन्या को पत्रवधू बना रहे हैं । इस से स्पष्ट हो जाता है कि उस समय लड़की वाले को लड़के वालों की तरफ से (१) अभ्यन्तर स्थान में रहने वाला पुरुष अभ्यन्तरस्थानीय कहा जाता है। अभ्यन्तरस्थानीय को अन्तरंग पुरुष भी कहा जाता है । अन्तरंग पुरुष दा तरह के होते हैं, सम्बन्धिजन और मित्रजन । दोनों का ग्रहण अभ्यन्तरस्थानीय शब्द से जानना चाहिये । For Private And Personal Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नकम अध्याय हिन्दी भाषा टोका सहित । कुछ शुल्क देना अनुचित नहीं समझा जाता था । वर्तमान युग में इस शुल्क? ---उपहार लेने की प्रथा को इस लिए निन्द्य समझा जाता है कि इससे अनेक प्रकार के अनर्थी को जन्म मिला है। वृदविवाह जैसी दुष्ट प्रया को प्रगति मिलने का यही एक मात्र कारण है तथा अयोग्य वरों के साथ योग्य लड़कियों का सम्बन्ध भी इसी को आभारी है। इन्हीं कुपरिणामों के कारण यह प्रथा निन्द्य हो गई और इस लिये आज एक निर्धन कुलीन व्यक्ति अपनी लड़की के बदले लेना तो अलग रहा प्रत्युत लड़की के घर का । जहां लड़की व्याही गई हो) जल भी पोने को तैयार नहीं होता । -जइ वि सा सयरजसक्का - इन पदों का अर्थ वृत्तिकार – यद्यपि सा स्वकोयराज्यशुल्का (स्वकीयं आत्मीयं राज्यमेव शुल्कं यस्याः सा ) स्वकीयराज्यलभ्या इत्यर्थः-इस प्रकार करते हैं अर्थात् अपना समस्त राज्य भी उसके बदले में दिया जाए तो कोई बड़ी बात नहीं। कहीं पर-सयं रज्जसुक्काऐसा पाठ भी उपलब्ध होता है । इस का अर्थ है – यदि वह स्वयं राज्यशुल्का - पट्टरानी होने की भाव अभिव्यक्त करे तो भी ले लेनी योग्य है । यदि सा स्वयं राज्यशुल्का पट्टराशी भवितुमिच्छति तथापि तत्स्वीकृत्य तां वृणीमिति भावः । जिस का गतिजनित श्रम दूर हो गया है वह आस्वस्थ तथा जिस का हृदयसंक्षोभ- व्यग्रता (घबराहट ) से रहित है उसे विस्वस्थ कहते हैं । जुत वा पत्त वा सलाहणिज्जं वा सरिसो वा संजोगो-इन का शाब्दिक अर्थविभेद टीकाकार के शब्दों में निम्नलिखित है - -जुत्तं ति-संगतम्। पत्तं वत्ति-पात्रं वा. अवसरप्राप्तं वा । सलाहणिज्जं त्ति श्लाघ्यमिदम । सरिसो व त्ति-उचितः संयोगो वधवरयोरिति । अर्थात् युक्त संगत को कहते है । पात्र योग्य अथवा अवसरप्राप्त का नाम है अर्थात् ऐसे सम्बन्ध का यह समय है-इस अर्थ का बोधक पात्र शब्द है । श्लाघनीय श्लाघा-प्रशंसा के योग्य को कहते हैं । सदृश उचित और संयोग वधू वर के संबंध का नाम है । तात्पर्य यह है कि वर कन्या के संयोग में इन सब बातों के देखने की आवश्यकता होती है। -हट्ठ० करयल० जाव एयम- यहां के प्रथम बिन्दु से - तुट्टचित्तमाणं दिया पीइमणा परमसोमण स्सिया हरसवसविसप्पमाणहियया धाराहयकलंबुगं पिव समुस्ससिअरोमकूवा- इन पदों का ग्रहण करना चाहिये इन का अर्थ पृष्ठ २२७ तथा २२८ पर लिखा जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये एक स्त्री के विशेषण हैं, जब कि प्रस्तुत में कौटुम्बिक पुरुषों के । लिंगगत तथा वचनगत भिन्नता के अतिरिक्त शेष अर्थगत कोई भेद नहीं है । तथा-जाव - यावत् -पद से विवक्षित पाठ २४६ पर लिखा जा चुका है। - राहाया जाव सुद्धप्पवेसा- यहां के जाव-यावत् पद से -कय बलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छिा - इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन का अर्थ पृष्ठ १७६ तथा १७७ पर लिखा जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद एकवचनांत है जब कि प्रस्तुत में बहुवचनान्त। -हतुट्ट. आसणाओ- यहां का बिन्दु पूर्वोक्त-चित्तमाणं दिए -से लेकर - समुस्ससिय. रोमकूवे - यहां तक के पदों का बोधक है । अन्तर मात्र इतना है कि प्रस्तुत में ये पद एकवचनान्त अपेक्षित है। प्रस्तुत सूत्र में वैश्रमणदत्त नरेश के द्वारा परमसुन्दरी दत्तपुत्री देवदत्ता को याचना तथा दत्त को (१) लड़की का शुल्क --उपहार लेने की प्रथा सभी कुलों में थी - ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आगमों में ऐसे भी प्रमाण हैं, जहां लड़की के लिये शुल्क नहीं भी दिया गया है। वासुदेव श्री कृष्ण ने अपने भाई गजसुकुमार के लिये सोमा की याचना की, परन्तु उस के उपलक्ष्य में किसी प्रकार का शुल्क दिया हो, ऐसा उल्लेख अन्तगढ़ सूत्र में नहीं पाया जाता । For Private And Personal Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५०४] श्री विपाक सूत्र - [नवम अध्याय उस के लिये स्वीकृति देना आदि का वर्णन किया गया है। अब सूत्रकार देवदत्ता से सम्बन्ध रखने वाले अग्रिम वृत्तान्त का वर्णन करते हैं - मूल-'तते णं से दचे गाहावती अन्नया कयाह सोहणंमि तिहिकरणदिवसणक्खत्तमुहत्त सि विउलं असणं ४ उक्खडावेति २ मित्तनाति० आमंतेति । एहाते जाव पायच्छित्त सुहासणवरगते तेणं मित्त० सद्धि संपरिखुड़े तं विउलं असणं ४ आसादेमाणे ४ विहरति । जिमियमुत्तत्तरागते आयंते ३ तं मित्तणाइ० विउलेणं पुष्कवत्थगंधमल्लालंकारेणं सरकारेति २ सम्माणेई २ देवदत्तं दारियं एहायं जाव विभूसियसरीर पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुरूहेति २ सुबहमित्त० जाव सद्धि संपरिवड़े सबिड्ढीए जाव नाइयरवेणं रोहीडगं णगरं मझमझेणं जेणेव वेसमणरएणो गिहे जेणेव वेसमणे राया तेणेव आगच्छति २ बरयल. जाव वद्धावेति २ वेसरणरएणो देवदत्तं दारियं उवणोतं पासित्ता हतुट्ठ० विउलं असणं ४ उवाखडावेति २ मित्तनाति० आमंतेति जाव सक्कारेति २ सम्पाणेइ २ पूमणदिकुमारं देवदत्त दारियं च पट्टयं दुरूहेति २ सेयापीतेहि कल सेहिं मज्जावेति २ वरनेवत्थाई करेति २ अग्गिहामं करेति । पूसणंदिकुमारं देवदत्ताए पाणिं गेएहावेति । तते णं से वेसमणदत्ते राया पूमणं दिस्स कुमारस्स देवदताए सबिडढीए जाव रवेणं महया इड्ढीमककारसमुदएणं पाणिग्गहणं कारवेति २ देवदत्ताए अम्मापियरो मित्त० जाव परियणं च विउलं असणं ४ वत्थगंधमल्लालंकारेण य सक्कारेति २ सम्माणेइ.२ पडिविसज्जेति । पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । से-वह । दत्त -दत्त । गाहावती-गाथापति- गृहपति । अन्नया-अन्यदा। कयाइ-कदाचित् । सोहसि-शुभ । तिहि -तिथि । करण -करण। दिवसदिवस-दिन । णवत्त नक्षत्र, और । मुहुत्त सि - मुहूर्त में । विउल-विपुल । असणं ४ - अशनादिक । (१) छाया ततः स दत्तो गाथापतिः अन्यदा कदाचित् शोभने तिथिकरणदिवस नक्षत्रमुहूर्ते विपुल-- मशनं ४ उपस्कारयति २ मित्रज्ञाति, आमंत्रयति । स्नातो यावत् प्रायश्चित्तः सुखासनवरगतः तेन । साई संपरिवृतः तद्विपुलमशनं ४ आस्वादयन् ४ विहरति । जिमितभुक्तोत्तरागत: आचान्तः ३ तं मित्रज्ञाति० विपुलेन पुष्पवस्त्रगंधमाल्यालंकारेण सत्कारयति २ सन्मानयति २ देवदत्ता दारिकां स्नातां यावद् विभूषितशरीरां पुरूषसहस्रवाहिनी शिविकामारोहयति २ सुबहु मित्र० यावत् साद्ध संपरिवृतः, सर्वर्द्धया यावद् नादितरवेण रोहीतकं नगरं मध्यमध्येन यत्रैव वैश्रमण राजस्य गृहं यत्रैव वैश्रमणो राजा तत्रैवोपागच्छति २ करतल. यावद् वर्धयति २ वैश्रमणराजाय देवदत्तां द्वारिकामुपनयति । ततः स वैश्रमणो राजा देवदत्तां दारिकामुपनीतां दृष्ट्वा हृष्टतुष्ट० विपुलमशनं ४ उपस्कारयति २ मित्रज्ञाति० आमंत्रयति यावत् सत्कारयति • सम्मानयति २ पुष्यनन्दिकुमारं देवदत्तां दारिकां पट्टनारोहयति २. श्वेतर्णतः कलशर्मज्जयति २ वरनेपथ्यौ करोति २ अग्निहोम करोति । पुष्यनन्दिकुमार देवदत्तायाः पाणिं ग्राहयति । ततः स वैश्रमणो राजा पुष्यनन्दिना कुमारस्य देवदत्तायाः सवंर्द्धया यावद् रवेण महता ऋद्धि सत्कारसमुदयेन पाणि ग्रहणं कारयति २ देवदत्ताया अम्बापितरौ मित्र. यावत् परिजनं च विपुलमशन ४ वस्त्रगन्धमाल्यालकारेण च सत्कारयति २ प्रति विसृजति । (१) सेयापीरहि - त्ति रजतसुवर्णमय इत्यर्थः । वृत्तिकार:) For Private And Personal Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [५०५ उववडावेति २-तैयार कराता है, तैयार करा कर । मित्तनाति-मित्र और ज्ञातिजन आदि को' आमतेति -आमंत्रित करता है - बुनाता है । राहाते-स्नान कर । जाव-यावत् । पायच्छित्त-दुष्ट स्वप्नादि के फल को विफल करने के लिये मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य कर के । सुहासणवरगते-सुखासन पर स्थित हो । तेणं -उस । मित्त० -मित्र, ज्ञाति, परिजन आदि के । सद्धि-साथ । संपरिडे-संपरिवृत -घिरा हुआ। तं-उस । विउलं-विपुल-महान् । असणं ४-अशनादिक चतविध आहार का । श्रासादेमाणे ४-प्रास्वादनादि करता हुआ। विहरति-विहरण करता है । 'जिमियभुत्त - त्तरागते-भोजन के अनन्तर वह उचित स्थान पर आया। आयंते ३-आचान्त-आचमन किए हुए, चोक्षमुखगत लेपादि को दूर किये हुए, अत:एव परम शुचिभूत-परम शुद्ध हुआ वह । तं- उस । मित्तणाइo-मि तथा ज्ञातिजन आदि का । विउलेणं - विपुल । पुष्कवत्थगंधमल्लाजकारेणं-पुष्प, वस्त्र, गंध, माला और अलंकार से । सक्कारेति २-सत्कार करता है, करके । सम्माणेइ २-सम्मान करता है, करके । देवदत्त-देवदत्ता। दारियं-बालिका को । राहायं - स्नान । जाव-यावत् । विभूसियसरोरं- समस्त आभूषणों द्वारा शरीर को विभूषित कर । पुरिसस इस्स बाहिणिं-पुरुषसहस्रवाहिनी-हज़ार पुरुषों से उठाई जाने वाली । सीय - शिविका-पालकी में · दुरूहेति २-आरूढ कराता है -बिठलाता है, बिठा कर । बहुमित्त०-बहुत से मित्र । जाव - यावत् ज्ञातिजनादि के । सद्धि-साथ । संपरिखुडे - संपरिवृत-घिरा हुआ । सविड्ढीए - सर्व प्रकार की वृद्धि से । जाव -यावत् । नाइयरवेणं -नादितध्वनि से-बाजे गाजों के साथ । रोहोडयं-रोहीतक । णगरं-नगर के । मज्झमज्झेणं-बीचों बीच । जेणेव-जहां । वेसमणरगणो-महाराज वश्रमण राजा का । गिहे-घर था, और । जेणेव -- जहां पर । वेसमणे-वैश्रमण। राया - राजा था। तेणेव-वहीं पर । उवागच्छति २- प्राजाता है, अाकर । करयल० - हाथ जोड़ । जावयावत् । वद्धावेति २-वधाई देता है, वधाई दे कर । वेसतण राणो-वैश्रमणदत्त राजा को। देवदत्तंदेवदत्ता। दारियं -दारिका को। उव ऐति - अर्पण कर देता है । तते णं - तदनन्तर । से - वह। वेसमणे-वैश्रमण । राया-राजा । उवणोतं- लाई हुई। देवदत्त-देवदत्ता । दारियं-दारिका- बालिका को। पासिता -देख कर । हतु-प्रसन्न होता हुआ । विरलं-विपुल । असणं ४-अशनादि को : उपक्वडावेति २-तैयार कराता है, तैयार करा कर । मितनाति०-मित्र तथा ज्ञातिजन आदि को । आमंतेति -आमंत्रित करता है । जाव -यावत् । सक्कारेति २ - सत्कार करता है, करके । सम्माणेइ २ - सम्मान करता है, करके। पूसणंदिकुमारं - कुमार पुष्यनन्दी । देवदेत्तं दारियं च -और देवदत्ता बालिका को । पय-पट्टक अर्थात् फलक पर । दुरूहेति २-बिठलाता है, विठला कर । सेयपोतेहिं-श्वेत और पीत - सफेद और पीले । कलसेहि-कलशों से । मज्जावेति २--स्नान कराता है, स्नान कराने के अनन्तर । वरनेत्रत्याइं करेति २-उन को सुन्दर वस्त्रों और आभूषणों से अलंकृत किया, करके । अग्गिहोम-अग्निहोम - हवन । करेति -करता है, तदनन्तर । पूस पदिकुमारं-कुमार पुष्यनन्दो को। देवदत्तार- देवदत्ता का । पाणिं - हाथ । गिराहावेति - ग्रहण कराता है । तते णं - तदनन्तर । से --वह । वेसमणेदत्तो - वेश्रमण दत्त । राया-राजा । पूसणं दिस्स-पुष्यनन्दी । कुमारस्स -कुमार को, तथा । देवदत्तार-देवदत्ता को । सविहोर-सर्व ऋद्धि । जात्र-यावत् । रवेणं-वादित्रादि के शब्द से । महया -महान् । इहित नाराए । -ऋद्वे - व त्रालंकारादि सम्पत्ति अोर सत्कार -सम्मान के समुदाय - महानता से । पानिमा इणं -पाणिग्रहण -विवाह संस्कार । कारवेति-कराता है, विवाह करा कर अर्थात् उक्त विधि से (१) इस पद का अथ पृष्ठ २२१ पर लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां यह स्त्रियों का विशेषण है, जब कि प्रस्तुत में एक पुरुष का । - For Private And Personal Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५०६ श्री विपाक सूत्र नवम अध्याय विवाहसंस्कार सम्पन्न हो जाने के बाद । देवदत्तार- देवदत्ता के । अम्मापियो -माता पिता और उन के। मित्त० -मित्र । जाव - यावत् । परियणं च - परिजन को । विउलेणं - विपुल-पर्याप्त । असण०४अशनादिक, तथा । वत्थगंधमल्लालंकारेण य-वस्त्र, गंध, माला और अलंकारादि से । सक्कारेति २सत्कार करता है, सत्कार कर के सम्माणे इ २-सम्मान करता है, करके, उन सब को । पडिविसज्जेतिविसर्जित करता है --विदा करता है । __ मूलार्थ--किसी अन्य समय दत्त गाथापति -गृहस्थ शुभ तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र और मुहूर्त में विपुल अशनादिक सामग्री तैयार करा कर मित्र, ज्ञाति, स्वजन और सम्बन्धी आदि को आमंत्रित कर स्नान यावत् दुष्ट म्वप्नादि के फल को विनष्ट करने के लिये मस्तक पर तिलक और अन्य मांगलिक कार्य करके सुखप्रद आसन पर स्थित हो उस विपुल अशनादिक का मित्र, ज्ञाति, स्वजन, सम्बन्धी एवं परिजनों के साथ आस्वादन, विस्वादन आदि करने के अनन्तर, उचित स्थान पर बैठ 'आचान्त, चाक्ष और परमशुचिभूत हो कर मित्र, ज्ञ तिजन आदि का विपुल पुष्प, वस्त्र, गंध, माला और अलंकार से सत्कार करता है, सम्मान करता है। तदनन्तर स्नान करा कर यावत् शारीरिक विभूषा से विभूषित की गई कुमारी देवदत्ता को सहस्रपुरुषवाहिनी अर्थात् जिसे हजार आदमी उठा रहे हैं ऐसी शिविका में बिठा कर अनेक मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजना, सम्बन्धिजनों और परिजनों से घिरा हुआ सर्व अद्धि यावत् वादित्रादि के शब्दों के साथ राहीतक नगर के मध्य में से होता हुआ दत्त सेठ, जहां पर महागज वैश्रमण का घर और जहां पर महाराज वैश्रमणदत्त विराजमान थे, वहां पर आया, अाकर उस ने महाराज को दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि कर के महाराज की जय हो, विजय हो, इन शब्दों से वधाई दी, वधाई देने के बाद कुमारी देवदत्ता को उनके अर्पण कर दिया, सौंप दिया। महाराज वैश्रमण दत्त उपनीत-अर्पण की गई कुमारी देवदत्ता को देख कर बड़े प्रसन्न हुए, और विपल अशनादिक को तैयार करा कर मित्रों. ज्ञातिजनों, निजकजनों, सम्बन्धिजनों तथा परिजनों को आमंत्रित कर उन्हें भोजनादि करा तथा उन का वस्त्र, गंध और माला अलंकार आदि से सत्कार करते हैं, सम्मान करते हैं, सम्मान करने के अनन्तर कुमार पुष्यनन्दो और कुमारी देवदत्ता को फलक पर बिठा कर श्वेत ओर पीत अर्थात् चांदा और सुवर्ण के कलशों से उनका अभिषेक - स्नान कराते हैं, तदनन्तर उन्हें सुन्दर वेष भूषा से सुसज्जित कर, अग्निहोम-हवन कराते हैं, हवन के बाद कुमार पुष्यनन्दी को कुमारी देवदत्ता का पाणिग्रहण कराते हैं, तदनन्तर वह वैश्रमणदत्त नरेश कुमार पुष्यनन्दी और देवदत्ता वा सम्पूर्ण ऋद्ध यावत महान् वाद धनि और ऋद्धि समुदाय तथा सम्मानसमुदाय के साथ दोनों का विवाह करवा डालते हैं। तात्पर्य यह है 15 विधिपूर्वक बड़े समारोह के साथ कुमार पुष्यनन्दी और कुमारी देवदत्ता का विवाहसंस्कार सम्पन्न हो जाता है। ____ तदनन्तर देवरत्ता के माता पिता तथा उनके साथ आने वाले अन्य मित्रजनों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों का भी विपुल अशनादिक तथा वस्त्र, गन्ध, माला और अलंकारादि से सत्कार करते हैं, सम्मान करते हैं तथा सत्कार एवं सम्मान करने के बाद उन्हें सम्मानपूर्वक विसर्जित अर्थात विदा करते हैं। (१) कुल्ला -कुल्ली करने वाले को श्राचान्त कहते हैं । मुंह में लगे हुए भक्त -भोजन के अंश को जिस ने साफ़ कर लिया है, वह चोक्ष कहलाता है, तथा परम शुद्ध (जिस का मुख बिल्कुल साफ़ हो) को परम. शुचिभूत कहा जाता है। For Private And Personal Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [५०७ टीका - जिस तरह एक क्षुधातुर व्यक्ति क्षुधा दूर करने के साधनों को ढूंढता है और प्रयत्न करने से उनके मिल जाने पर परम आनन्द को प्राप्त होता है तथा अपने को बड़ा पुण्यशाली मानता है, ठीक उसी प्रकार महाराज वैश्रमण भी परम सुन्दरी और परमगुणवती कुमारी देवदत्ता को अपनी पुत्रवधू बनाने की चिन्ता से व्याकुल थे, परन्तु अन्तरंग पुरुषों से " - देवदत्ता के पिता सेठ दत्त ने राजकुमार पुष्यनन्दी को अपना जामाता बनाना स्वीकार कर लिया है - " यह सूचना प्राप्त कर, क्षुधातुर व्यक्ति को पर्याप्त भोजन मिल जाने पर जितने श्रानन्द का अनुभव होता है, उस से भी कहीं अधिक आनन्द का अनुभव उन्हों ने किया । वे अपनी भावी पुत्रवधू देवदत्ता के मोहक रूपलावण्य का ध्यान करते हुए पुलकित हो उठे । तदनन्तर वे अपने यहां विवाह की तैयारी का आयोजन करने में व्यस्त हो गये । 1 इधर सेठ दत्त को भी हर्षातिरेक से निद्रा नहीं आती, जब से उसकी पुत्री कुमारी देवदत्ता के सम्बन्ध का महाराज वैश्रमणदत्त के राजकुमार पुष्यनन्दी से होना निश्चित हुआ, तब से वे फूले नहीं समाते । मेरी पुत्री देवदत्ता सेठानी न बन कर रानी, नहीं २ पट्टरानी बनेगी, यह कितने गौरव की बात है ?, उसे युवराज पुष्यनन्दी जैसा वर मिले, निस्सन्देह यह उसका अहोभाग्य है । उस का इस से अधिक सद्भाग्य क्या हो सकता है कि उसे महाराज वैश्रमण के सुन्दर और सर्वगुण सम्पन्न राजकुमार जैसे सुयोग्य वर की प्राप्ति का अवसर मिला १, अस्तु, जहां तक बने इस का जल्दी ही विवाह कर देना चाहिये, कारण कि इस सम्बन्ध में कोई दग्धहृदय बाधा न डाल दे तथा अपनी लड़की देवदत्ता भी अत्र विवाह योग्य हो गई है. और विवाहयोग्य होने पर लड़की को घर में रखना भी कोई बुद्धिमत्ता नहीं है, तथा ऐसी अवस्था में उस का सुसराल में अपने पति के पास रहना ही श्रेयस्कर है, इत्यादि सोच विचार करने के अनन्तर अपनी भार्या कृष्णश्री की अनुमति ले कर शुभ तिथि; करण, दिवस, नक्षत्र और शुभ मुहूर्त में देवदत्ता के विवाह का कार्य आरम्भ कर दिया । सत्र से प्रथम उसने नाना प्रकार की भोज्य तथा खाद्य सामग्री एकत्रित कराई, तथा अपने मित्रों ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों को आमंत्रित किया । उन के आने पर उन सब का उचित स्वागत किया और विविध प्रकार से तैयार किये गये भोज्य पदार्थों को प्रस्तुत करके उन के साथ सहसंमिलित हुअर्थात् अपने सभी मित्र श्रादि के साथ बैठ कर प्रीतिभोजन किया । तदनन्तर सब के उचित स्थान पर एकत्रित हो जाने पर विपुल वस्त्र. पुष्प और गंध तथा माला अलंकारादि से उन सब का यथोचित सत्कार किया । इस प्रकार विवाह के पूर्व होने वाला सहभोजन या प्रीतिभोजन आदि कार्य सम्पूर्ण हुआ । तदनन्तर कुमारी देवदत्ता को स्नान करा यावत् वस्त्रभूषाणादि से अलंकृत करके हज़ार आदमियों से उठाई जाने वाली एक सुन्दर पालकी में बिठा कर अपने अनेक मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों एवं परिजनों को साथ ले कर बड़े समारोह के साथ दत्त सेठ ने महाराज वैश्रमनदत्त के राजमहल की ओर प्रस्थान किया और वहां जाकर महाराज को बधाई दी और देवदत्ता को उन के अर्पण कर दिया । महाराज वैश्रमणदत्त परम सुन्दरी कुमारी दवदत्ता को देख कर बड़े प्रसन्न हुए । उन्हों ने भी अपने मित्रों ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों को बुला कर उन्हें विविध प्रकार के भोजनों तथा गंध, पुष्प और वस्त्रालंकारादि से सत्कृत किया । तदनन्तर वर कन्या दोनों का अभिषेक करा और उत्तम वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर अग्निहोम कराया और विधिपूर्वक बड़ी धूमधाम के साथ उन का पाणि(१) चन्द्रकला से युक्त काल अथवा चान्द्र दिवस तिथि कहलाता है । ज्योतिषशास्त्र में प्रसिद्ध, aa बालव आदि ग्यारह की करण संज्ञा है । ज्योतिषशास्त्र में वर्णित दोषों से रहित दिन दिवस शब्द से ग्राह्य है । ज्योतिषशास्त्र विहित - अश्वनी, भरणी आदि २८ नक्षत्रों का नक्षत्र पद से ग्रहण होता है । दो घड़ी (४८ मिन्ट) समय अथवा ७७ लवों या ३७७३७ श्वासोच्छ्वासपरिमित काल मुहूर्त कहा जाता I For Private And Personal Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री विपाक सूत्र --- ५०८ ] [नवम अध्याय ग्रहण - विवाह किया गया। विवाह हो जाने पर देवदत्ता के माता पिता और उन के साथ आने वाले उन के मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों को भी भोजनादि से तथा अन्य वस्त्राभूषणादि मे सत्कृत कर के महाराज वैश्रमणदत्त ने सम्मानपूर्वक विदा किया । इस प्रकार कुमारी देवदत्ता और राजकुमार पुष्यनन्दी का विवाह हो जाने पर सेठ दत्त और महाराज वैश्रमण दोनों ही निश्चिन्त होगये । कन्या को सुसराल में ले जाकर विवाह करने की उस समय की प्रथा थी । दक्षिण प्रांत के किन्हीं देशों में आज भी इस प्रथा का कुछ रूपान्तर से प्रचलन सुनने में आता है। देशभेद और कालभेद से अनेक वभिन्न सामाजिक प्रथायें प्रचलित हैं इन में आशंका या आपत्ति को कोई स्थान नहीं । अग्निहोम में मन्त्रोच्चारणपूर्वक घृतादिमिश्रित सामग्री के प्रक्षेप को श्रग्निहोम कहते हैं । यह विवाहविधिका उपलक्षक है । भारतीय सभ्यता में श्रम को साक्षी रख कर पाणिग्रहण- - विवाह करने की र्यादा व्यापक थच चिरन्तन है। - -- Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - मित्त- असण० ४ - यहां के अंक से वाणखाइमसाइमेणं - इस पाठ का ग्रहण करना चाहिये । तथा-1 नाति० श्रमंतेति यहां का बिन्दु नियगसयणसम्बन्धिपरिजणं - इस पाठ का परिचायक है । मित्र आदि पदों का अर्थ पृष्ठ १५० की टिप्पण में लिख दिया गया है। तथा राहाते जाव पायच्छित्त े - यहां के जाव यावत् पद से - कयवलिकम्मे, कयको उयमंगल - इस पाठ का ग्रहण करना चाहिये । कृतबलि कर्मा आदि पदों का अर्थ पृष्ठ १७६ तथा १७७ पर लिखा गया है। तथा - मित्तः सद्धिं - यहां का बिन्दु लाइ यिग सयण - सम्बन्धि - परिजणेणं - इस पाठ का बोधक है। तथा आसादेमाणे ४ - यहां के से अभिमत पाठ पृष्ठ २५० पर लिखा जा चुका है । तथा-- श्रायन्ते ३ - यहां के अंक से चोखे परमसुइभूए इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । श्राचान्त आदि पदों का अर्थ पदार्थ में दे दिया गया है । - हायं जाव विभूसियसरीरं - यहां पठित जाव - यात्रत् पद से कयवलिकम्मं कयकोउयमंगलपायच्छत्त' सन्त्रालंकार - इन पदों का ग्रहण समझना चाहिये । कृतवलिकर्मा आदि पदों का अर्थ पृष्ठ १७६ तथा १७७ पर लिखा गया है । अन्तर मात्र इतना है वहां ये पद प्रथमान्त हैं जब कि प्रस्तुत में द्वितीयान्त । तथा-सव्वालंकार विभूसियसरीरं का अर्थ पदार्थ में किया जा चुका है । - सव्विदीप जाव नाइयरवेणं - यहां के जाव - यावत् पद से - सब्वजुईए सव्ववलेणं, सव्वसमुदपणं सव्वायरेणं सञ्वविभूईए सव्वविभूसार सव्वसंभमेणं सव्वपुष्कगन्धमललालंकारे सन्तु डियस दस रिगणारण महया इड्ढीप महया जुईए महया बलेण महया समुदयण महया वरतु. डियजमगमगप्पवाइएण संख पणव पडह - भेरि - भल्लरि - खरमुहि - हुडुक्क मुख्य - मुयंग - दुदुहि - घोस- इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है । इन का अर्थ निम्नोक्त हैसर्व प्रकार की आभरणादिगत युति - कान्ति से अथवा सब वस्तुओं के सम्मेलन से, सर्व सैन्य से, सर्वसमुदाय मे अर्थात् नागरिकों के समुदाय से सर्व प्रकार के आदर से अथवा औचित्यपूर्ण कार्यों के सम्पादन से, सर्व प्रकार की विभूति - सम्पत्ति से, सर्व प्रकार की शोभा में, सर्व प्रकार के संभ्रम - श्रानन्दजन्य उत्सुकता से, सर्व प्रकार के पुष्प, गन्ध गन्धयुक्त पदार्थ, माला एवं अलंकारों से और सर्व प्रकार के वादित्रों के मेल से जो शब्द उत्पन्न होता है, उस मिले हुए महान् शब्द से अर्थात् बाजों की गडगडाहट से तथा महती ऋद्धि (१) प्रस्तुत में एक आशंका होती है कि जब ऋद्धि आदि के साथ पहले सर्व शब्द का संयोजन किया हुआ है, फिर उन के साथ महान् शब्द के संयोजन की क्या आवश्यकता थी १, इस का उत्तर टीकाकार श्री अभयदेव रि के शब्दों में- अल्पेष्वपि ऋद्धयादिषु सर्वशब्दप्रवृत्तिदृष्टा, अत श्राह - महता इड्ढीए- इस प्रकार For Private And Personal Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय हिन्दी भाषा का सहित। [५०९ से, महती कान्ति से, महान् सैन्यादि रूप बल से, महान् समदाय से अनेक प्रकार के सुन्दर २ साथ २ बजते हुए शंख (वाद्यविशेष), पणव-ढोल, पटह - बड़ा ढोल (नक्कारा , भेरी- वाद्यविशेष, झल्लरि-वलयाकारवाद्यविशेष (झालर) खरमुखो - वाद्यविशेष, हुडुक्क – वाद्यविशेष, मुरज - वाद्यविशेष, मृदंग --- एक प्रकार का बाजा, जो ढोलक से कुछ लम्बा होता है (तबला), दुदुभि -वाद्यविशेष के शब्दों की प्रतिध्वनि के साथ । --करयल जाव वद्धावेति- यहां के जाव-यावत् पद से - परिग्गहियं दसणहं अंजलिं मत्थप का वेसमण रायं जपविजपण--इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन का अर्थ मूलार्थ में कर दिया गया है। -हतुट्ठ विउलं- यहां के बिन्दु से -चित्तमाण दिए पीइमणे परमसोमणस्सिर हरिमवसविसप्पमार्णाहयप, धाराहयकलंबुगं पिव समुस्सलियरोमकूवे- इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन का अर्थ पृष्ठ २२७ तथा २२८ पर लिखा जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये एक स्त्री के विशेषण हैं जब कि प्रस्तुत में एक पुरुष के । अर्थगत कोई भिन्नता नहीं है । -आमंतेति जाव सक्कारेति- यहां के पठित जाव-यावत् पद से पृष्ठ ५०४ पर पढ़े गयेराहाते जाव पाछत्त, सुहासणवरगते-से ले कर ---जाव अलंकारेण - यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । तथा - मित्त० जाव परिजण - यहां के जाव-यावत् पद से - गाइ-णियग सयण-संबन्धि-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये।। प्रस्तुत में युवराज पुष्यनन्दी का देवदत्ता के साथ विवाह बड़े समारोह से सम्पन्न हुआ, यह वर्णन किया गया है । तदनन्तर क्या हुआ ? अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-'तते णं से पूमणंदिकुमारे देवदलाए दारियाए सद्धिं उप्पि पासायवरगते फुट्टमाणेहि मुयंगमस्थएहिं वत्तीसइवद्धनाडएहिं जाव विहरइ । तते णं से वेसमणे राया अन्नया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते । नीहरणं जाव राया जाए पुसणंदी । तते णं से पूसणंदी राया सिराए देवीए मायाभत्ते यावि होत्था । कल्लाकल्लि जेणेव सिरी देवी तेणेव उवागच्छइ २ सिरीए देवीए पायवडणं करेति । सतपागसहस्सपागेहि तेल्लेहिं अभंगावेति । अट्ठसुहाए मंससुहाए तयासुहाए रोमसुहाए चउबिहाए संवाहणाए संवाहावेति । सुरहिणा गधवट्टएणं उन्बट्टावेति २ निहिं उदएहिं मज्जावेति. तंजहा-उसिणोढएणं सीओदएणं गंधोदएणं । विउलं है, अर्थात सर्व शब्द का प्रयोग अल्प अर्थ में भी उपलब्ध होता है। अतः प्रस्तत में ऋद्ध आदि की महत्ता दिखलाने के लिए सूत्रकार ने ऋद्धि आदि शब्दों के साथ महता इस पद का प्रयोग किया है। (१) छाया-ततः स पुष्यनन्दिकुमारो देवदत्तया दारिकया सार्द्धमुपरि प्रासादवरगतः स्फुट्यमानेः मृदंगमस्तकः द्वात्रिंशद्वद्वनाटक: यावद् विहरति । ततः स वैश्रमणो राजा अन्यदा कदाचित् कालधर्मेण संयुक्तः निस्सरणं यावद् राजा जातः पुष्यनन्दी । ततः म पुष्यनन्दी राजा श्रियो देव्याः मातृभक्तश्चाप्यभवत् कल्याकल्यि यत्रैव श्रीदेवी तत्रैवोपरागच्छति २, श्रियो देव्या: पादपतनं करोति, शतपाकसहस्त्रपाकाभ्यां तैला. म्यामभ्यं गयति । अस्थिसुखया मांससुखया त्वक सुखया रोमसुखया चतुर्विधया संवाहनया संवाहयति । सुरभिणा गन्धवर्तकेनोद्वर्तयति २ त्रिभिरुदकैर्मज्जयति, तद्यथा--- उष्णोदकेन. शीतोदकेन, गंधोदकेन । विपुल नशनं भोजयति, श्रियां देव्यां स्नातायां यावत् प्रायश्चित्तायां यावत् जिमितमुक्तोत्चरागतायां ततः पश्चात् स्नाति वा भुक्ते वा उदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुजानो विहरति । For Private And Personal Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [नवम अध्याय असणं ४ भोयावेति । सिरीए देवीए एहायाए जाव पायच्छित्ताए जाव जिमियभुत्तुत्तरागयाए ततो पच्छा एहाति वा भुजति वा उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरति । पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । से-वह । पुसणंदिकुमारे-कुमार पुष्यनन्दी। देवदत्ताए- देवदत्ता । भारियाए-भार्या के । सदि-साथ । उपि-ऊपर । पासायवरगए - उत्तम महल में ठहरा हुआ । कुमाणेहिं मुयंगमत्थरहिं - बज रहे हैं मृदंग जिन में, ऐसे । वत्तीसइबद्धनाडपहि-३२ प्रकार के नाटकों द्वारा । जाव - यावत् । विहरति विहरण करता है। तते णं -तदनन्तर । से- वह । वेसमणेवैश्रमण । राया - राजा । अन्नया -अन्यदा । कयाइ-कदाचित् -- किसी समय । का नधम्मुणा-कालधम से । संजुत्ते-युक्त हुा-काल कर गया। नोहरणं - निस्सरण - अरथी का निकालना । जाव - यावत् । पसणंदी-पुष्यनन्दी । राया-राजा जाए - बन गया। तते गं तदनन्तर । से-वह । पुसणंदी .. पुष्यनन्दी। राया- राजा। सिरीए-श्री देवीए -देवी का । मायाभत्त-मातृभक्त - यह माता अर्थात् - "मान्यते पूज्यते इति माता-" पूज्या है, इस बुद्धि से भक्त । यावि-भी। होत्था-था। कल्लाकल्लिंप्रतिदिन । जेणेव-जहां। सिरीदेवी-श्री देवी थी । तेणेव-वहां पर । उवागच्छइ २ आता है आकर । सिरीए-श्री। देवीए-देवी के । पायवडणं-पादवन्दन । करेति -करता है, और । सतपागस हस्तपागतेल्लेहि-शतपाक और सहस्त्रपाक अर्थात् एक शत और एक सहस्त्र औषधियों के सम्मिश्रण से बनाये हुए तैलों से । अभंगावेति-मालिश करता है । अहिसुहाए - अस्थि को सुख देने वाले। म स लुहार - मांस को सुखकारी । तयासुहाए-त्वचा को सुखप्रद । गेमसुहार - रोमों को सुखकारी, ऐसी । चउठियहाएचार प्रकार की। संवाहणाए - संवाहना-अंगमर्दन से । संवाहावेति - सुख - शान्ति पहुंचाता है । सुरहिणा-सुरभि-सुगन्धित । गंधवट्टपण - गन्धवर्तक - बटने से । उव्व द्यावेति -- उद्वतन करता है - अर्थात् बटना मलता है । तिहिं उदएहि-तीन प्रकार के उदकों - जलों से । मज्जावेति -- स्नान कराता है । तंजहा-जैसे कि । उसिणोदएणं- उष्ण जल से । सीओदयणं-शीत जल से । गंधोदएणं - सुगधित जल से, तदनन्तर । विउलं - विपुल । असणं ४-चार प्रकार के अशनादिकों का । भोयावेति- भोजन कराता है, इस प्रकार । सिरीए - श्री । देवीर -- देवी के । राहायार. नहा लेने । जाव यावत् । पायच्छित्ताए-अशुभ स्वप्नादि के फल को विफल करने के लिये मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य कर के । जाव-यावत् । 'जिमियभुत नरागयाए-भोजन के अनन्तर अपने स्थान पर आ चुकने पर और वहां कुल्ली तथा मुखगत लेप को दूर कर परमशुद्ध हो एवं सुखासन पर बैठ जाने पर । तता पच्छा --उस के पीछे से । राहाति वा-स्नान करता है । भुजति - भोजन करता है । उरालाई -उदार - प्रधान । माणुस्त - गाई-मनुष्यसम्बन्धी। भोगभोगाई - भोगभोगो का, अर्थात् मनोज शब्द, रूपादि विषयों का । भुजमाणेउपभोग करता हुआ । विहरति -विहरण करता है। मलार्थ- राजकुमार पुष्यनन्दी श्रेष्ठीपुत्री देवदत्ता के साथ उत्तम प्रामाद में विविध प्रकार के यादा और जिन में मृदंग बज रहे हैं ऐसे ३. प्रकार के नाटकों द्वारा उपगीयमान-प्रशंसित होते हुए यावत् सोनन्द समय बिताने लगे। कुछ समय बाद महाराज श्रमण काजधर्म की प्राप्त हो गये । उन की मृत्यु पर शोकग्रस्त पुष्यनन्दी ने बड़े समारोह के साथ उन का निस्सरण किया यावत् मृतक कर्म कर के प्रजा के अनुरोध से राज्यसिंहासन पर आरूढ हुए, तब से ले कर वे युवराज से राजा बन गये। राजा बनने के अनन्तर पुष्यनन्दी अपनी माता श्री देवी की निरन्तर भक्ति करने लगे । वे (१) इस पद का सविस्तर अर्थ पृष्ठ २२१ पर किया जा चुका है। For Private And Personal Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय ] हिन्दी भाषा टोका सहित प्रतिदिन माता के पास जाकर उसके चरणों में प्रणाम कर तदनन्तर शतपाक और सहस्रपाक तैलों की मलिश से अस्थि, मांस त्वचा और रोमों को सुग्वकारी ऐसी चार प्रकार की संवाहनक्रिया से शरीर का सुध पहुंचाते । तदनन्तर गंधवर्तक बटने से शरीर का उद्वर्तन कर उष्ण, शीत और सुगन्धित जलों से स्नान कराते, उसके बाद बिपुल अशनादि का भोजन कराते भोजन कराने के बाद जब वह श्रीदेवी सुग्वाम्मन पर विराजमान हो जाती तब पीछे से वे स्नान करते और भाजन करते तदनन्तर मनुष्यसम्बन्धी उदार भोगों का उपभोग करते हुए समय व्यतीत करने लगे। टीका प्रस्तुत सूत्र में अन्य बातों के अतिरिक्त भातृसेवा का जो आदर्श उपस्थित किया गया है, वह अधिक शिक्षाप्रद है। पिता के स्वर्गवास के अनन्तर राज्यसिंहासन पर आरूढ़ होने के बाद पुष्यनन्दी ने अपने आचरण से मातृसेवा का जो आदर्श प्रस्तुत किया है, वह शाब्दिक रूप से मातृभक्त बनने या कहलान वाले पुत्रों के लिये विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। घर में अनेक दास दासियों के रहते हुए भी अपने हाथ से माता की सेवा करना तथा उन को सप्रेम भोजनादि करा देने के बाद स्वयं भोजन करना आदि जितनी भी बातों का उल्लेख प्रस्तुत सूत्र में किया गया है, उस पर से पुष्यनन्दी को आदर्श मातृभक्त कहना वा मानना उस के सर्वथा अनुरूप प्रतीत होता है । सूत्रगत -"सिरीर देवीर मायाभत्त यावि होत्था'- यह पाठ भी इसी बात का समर्थन करता है। -वत्तीसइबद्ध नाडरहिं जाव विहरति - यहां पठित जाव-यावत् पद से - णाणाविहवरतरुणीसंपउत्तेहिं उठवनच्चिज्जमाणे २ उवगिज्जमाणे २ उवलालिज्जमाणे २ पाउसा-वासारत्तसरद - हेमन्त वसन्त -- गिम्ह --पज्जन्ते छप्पि उर्दु जहाविभवेण माणमाणे २ कालं गालेमाणे २ इट्टे सफरिसरसरूवगन्धे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणे-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन का अर्थ निम्नोक्त है परम सुन्दरी युवतियों के साथ बत्तीस प्रकार के नाटकों से उपनृत्यमान -जो नृत्य कर रहा है, उपगीय. मान-प्रशं सत अर्थात् जिस का गुणग्राम हो रहा है, उपलाल्यमान-उपलालित (क्रीडित) वह पष्यनन्दी कुमार प्रावृट् - वर्षा ऋतु अर्थात् चौमापा. वर्षोंरात्र --श्रावण और भादों का महीना. शरद् - आसोज और कार्तिक का महीना हेमन्त - मार्गशीर्ष तथा पोष का महीना बसत चैत्र और वैशाख मास का समय और ग्रीष्म - ज्येष्ठ और आषाढ मास का समय, इन छः ऋतु प्रो का यथाविभव अपने ऐश्वयं के अनुसार अनुभव करता हुआ, आनन्द उठाता हश्रा और समय व्यतीत करता हश्रा एव पांच प्रकार के इष्ट रूप, रस, गन्ध, स्पर्श विषयक मनुष्यसम्बन्धी कामभोगों का उपभोग करता हुआ जीवन व्यतीत करने लगा। -नोहा गजाव तया.. यहां का नीहरण शब्द अरथी निकालने के अर्थ में प्रयुक्त हुया है और यहतर ण से पूलणंदिकुमारे बहुहि नाईल' -तनवर -माडम्बिय - कोडुम्बिय . इन्भ-संहि- सत्यवाहप्प भितीसिद्धि संपबुिडे रोय गणे कन्दमाणे विलवमाणे वेसमणस्स रगणो महया इड्ढीसक्कारसमुद पणं - इन पदों का परिचायक है। तथा -- जाव - यावत पद से - करेति २ बहुइं लोइयाई मर्याकच्चाई क रेति,तए गां ते वहये राईसर-तलवर - माडम्विय -कोडुम्बिय इभ-सेट्ठि-सत्यवाहा पूसनन्दिकुमार महया गयाभिसे रणं अभिसिं चन्ति । तए -इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है । अर्थात् महा. राज वेश्रमण की मृत्यु के अनन्तर बहुत से राजा, ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, सेठ और सार्थवाह आदि से घिरा हुआ पुष्यनन्दी कुमार रुदन, क्रन्दन और विलाप करता हुआ महान् ऋद्धि और सत्कार (१) ईश्वर, तलवर-आदि शब्दों का अर्थ पृष्ठ १६५ पर लिखा जा चुका है। For Private And Personal Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५१२] श्री विगक सूत्र - [नवम अध्याय समुदाय के साथ महाराज वैश्रमणदत्त के शव को बाहिर ले जा कर श्मशान पहुंचाता है । तदनन्तर अनेकों लौकिक मृतक सम्बन्धी कृत्य करता है । तदनन्तर राजा, ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी और सार्थवाह मिल कर पुष्यनन्द कुमार का महान समारोह के साथ राज्याभिषेक करते हैं। तब से पुष्यनन्दी कमार राजा बन गया। शतपाक - के चार अर्थ होते हैं, जैसे कि - १) जिस में प्रक्षिप्त औषधियों का सौ वार पाक किया गया हो। (२) जो सौ औषधियों मे पका हुआ हो । (३) जिस तेन को सौ वार पकाया जाए । ४) अथवा जो सौ रुपये के मूल्य से पकाया जाता हो । इसी प्रकार सहस्त्रपाक के अर्थों की भावना कर लेनी चाहिये। संवाहना-अंगमर्दन का नाम है । इस से चार प्रकार का शारीरिक लाभ होता है। इस के प्रयोग से अस्थि. मांस, त्वचा और रोमों को सुख प्राप्त होता है अर्थात् इन चारों का उपबृहण होता है । इसी लिये सूत्र - कार ने "- अहिसुहाए मंससुहाए, तयासुहाए, रामसुहाए-" यह उल्लेख किया है। किसी २ प्रति में"- अद्वि चुहाए मं० ०या० चम्म० रोमसुहाए चउविहार संवाहणार --" ऐसा पाठ है, परन्तु यह पाठ ठीक प्रतीत नहीं होता । जब सूत्रकार स्वयं चार प्रकार की संवाहना कहते हैं तो फिर पांच प्रकार (अस्थि, मांस, त्वचा, चर्म, रोम की संवाहना कसे संभव हो सकती है। दूसरी बात - त्वच से ही चर्म का ग्रहण हो सकता है । अतः पाठ में चम्म-चर्म का अधिक अथच अनावश्यक सन्निवेश किया गया है। तथा " -गंधवटए-गंधवर्तकेन- " इस का अर्थ टीकाकार श्री अभयदेव सरि ने "गन्धचूर्णेन" अर्थात् गंधचूर्ण किया है, जिस का तात्पर्य सुगन्धित चूर्ण अर्थात् उवटना-बटना है। -असणं ४---यहां के अंक से अभिमत पद पृष्ठ २५० पर लिखे जा चके हैं । तथा-राहार जाव पायच्छित्ताए जाव जिमियभुत्तु त्तरागयाए- यहां पठित प्रथम-जाव-यावत् पद से - कयवलि. कम्माए कयकोउयमंगल-इस पाठ का तथा द्वितीय जाव यावत् - पद से -सुद्धप्पवेसाई मंगलाई पवराई बत्थाई परिहियाए अपनहनाभरणालंकियलरीगर भायण वेलाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगयाए असणपाण वाइमसाइमं श्रासाएमाणाए विसाएमाणाए परिभुजेमाणाए परिभाएमाणाए -- इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । कृतबलिकर्मादि पदों का अथ पृष्ठ १७६ तथा १७७ पर और सुद्धप्पवेसाइ- इत्यादि पदों का अर्थ पृष्ठ २२९ की टिप्पण में लिखा जा चका है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद प्रथमान्त हैं जब कि प्रस्तुत में पञ्चम्यन्त । विभक्तिगत तथा लिंगगत भेद के अतिरिक्त अर्थ में कोई अन्तर नहीं। प्रस्तुत सूत्र में राजकुमार पुष्यनन्दी का कुमारी देवदत्ता के स थ विवाह हो जाने के बाद मानवोचित सांसारिक मनोज्ञ विषयों का उपभोग करना, महाराज वैश्रमण को मृत्यु एवं रोहातकनरेश पुष्यनन्दी का मातृभक्त करना आदि विषयों का वर्णन किया गया है । अब सूत्रकार देवदत्ता के हृदय में होने वाली विचारधारा का वर्णन करते हैं - (१) १-शतं पाकानाम् औषधिक्वाथानां पाके यस्य। २-ओषांधशतेन वा सह पच्यते यत् । ३-शतकृत्वो वा पाको यस्य । ४ -- शतेन वा रूप्यकाणां मूल्यतः पच्यते यत्तत् पाकशतम् । एवं सहस्रपाकमपि ।( स्थानांगसूत्र - स्थान ३, उद्दश १, सूत्र १३५, वृत्तिकारोऽभय देवमूरिः ) इस विषय में अधिक देखने के जिज्ञासु आयुर्वेदीय ग्रंथों के तेल पाकप्रकरणों को देख सकते हैं । (२) अस्थनां सुवहेतत्वात अस्थिलुखया, एवं मसलुखया, त्वकखया, रामसुखया संवा धनया-संवाहनया (अंगमर्दनेन वा विश्रामणया) संवादिता। । कल्पसूत्रकल्पलता वृत्तिः) For Private And Personal Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org नवम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ५१३ मूल - ' तते गं तीसे देवदत्ताए देवीए अन्नया कयाइ पुञ्चरत्तावरतकालसमयंसि कुडुबजागरियं जागरमाणीए इमे एयारूवे अज्झत्थिए ५ समुपज्जिथा - एवं खलु पूसणंदी राया सिरी देवीए माइभत्ते समाणे जाव विहरात । तं एएणं वक्खेवेणं नो संचाएमि श्रहं पूर्णदिणा रणा सद्धिं उरालाई माणुस्सगाईं भोग भोगाइ भुजमाणी विहरित्तए । तं सेयं खलु ममं सिरिं देत्रिं अग्निध्य प्रागेण वा सत्यप्ययोगेण वा विसप्प योगेण वा जोवियाओ चवरोवेत्ता पूर्णदिणा रण्णा सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई' भोग भोगाइ भुजमाणीए विहरिसए, एवं संपेहेति २ सिरीए देवीए अन्तराणि य ३ पडिजागरमाणी २ विहरति । तते णं सा सिरी देवी अन्नया कयाति मज्जाविया विरहियसय णिज्जंसि सुहपत्ता जाया यावि होत्था । इमं च गं देवदत्ता देवा जेणेव सिरीदेवी तेणेत्र उवागच्छति २ सिरि देवि मज्जावियं विरहियसयणिज्जंनि सुहृप्पसुतं पासति २ दिसालोयं करेति २ जेणेव भत्तघरे तणेव उवागच्छ २ लोहदंडं परामुपति २ लोहदंड तावेति २ तत्तं समजोतिभूतं फुल्लं किं सुयसमाणं संडासएणं गहाय जेणेव सिरी देवी तेणेव उवागच्छर २ सिरीए देवीए प्रवासि पक्खिवेति । तते सा सिरी देवी महता २ सद्द ेण श्रारसित्ता कालधम्मुणा संजुत्ता । तते गं तसे सिरी देवीए दासचेडिओ आरसियसद्द सोच्चा निसम्म जेणेव सिरीदेवी तेणेव उवागच्छन्ति २ देवदत्तं देवं ततो वक्कममाणि पासंति । जेणेव सिरी देवी तेणेव उवा Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (१) छाया - ततस्तस्या: देवदत्ताया देव्या अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकालसमये कुटुम्ब - जागरिकां जाग्रत्याश्रयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः ५ समुदपद्यत एवं खलु पुष्यनन्दी राजा श्रिया देव्या मातृभक्तः सन् यावद् विहरति, तदेतेनावक्षेपेण नो संशक्नोम्यहं पुष्यनन्दिना राज्ञा सार्द्धमुदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुजाना विहतुम् । तच्छ्रयः खलु मम श्रियं देवीमग्निप्रयोगेण वा शस्त्रप्रयोगेण वा विषप्रयोगेण वा जीविताद् व्यवरोप्य पुष्यनन्दिमा राजा सार्द्धमुदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुजानाया विहतुम् । एवं संप्र ेक्षते २ श्रिया देव्या अन्तराणि च ३ प्रतिजाग्रती २ विहरति । ततः सा श्रीदेवी अन्यदा कदाचित् मज्जिता विरहितशयनये सुखप्रसुप्ता जाता चाप्यभवत् । इतश्च देवदत्ता देवी यत्रैव श्रीदेवी तत्रैवोपागच्छति २ श्रियं देवीं माज्जतां त्रिरहितशयनीये सुखप्रसुप्तां पश्यति २ दिशालोकं करोति २ यत्रैव भक्तगृहं तत्रैवोपागच्छति २ लोहदंडं परामृशति २ लोहदडं तापयति २ तप्तं ज्योतिः समभूतं फुल्लकिंशुकसमानं संदंशकेन गृहीत्वा यत्रैव श्रीदेवी तत्रैवोपागच्छति २ श्रिया देव्या पाने प्रक्षिपति । ततः सा श्रीदेवा महता २ शब्देनारस्य कालधर्मेण संयुक्ता तत - स्तस्याः श्रियो देव्याः दासचेट्यः श्रारसितशब्दं श्रुत्वा निशम्य यत्रैव श्रीदेवी तत्रैवोपागच्छात २ देवदत्तां देवों ततोऽप्रक्रामन्तीं पश्यति । यत्र श्रादेवी तत्रैवोपागच्छन्त २ श्रियं देवीं निष्प्राणां निश्च ेष्टां जीवविप्रहीणपश्यन्ति २, हा हा अहो ! कार्यमिति कृत्वा रुदत्य : २ यत्रैव पुष्यनन्दी राजा तत्रैवोपागच्छन्ति २ पुष्यनंदिराज मेवमवदन् - एषं खलु स्वामिन् ! श्रीदेवी देवदत्तया देव्या अकाले एव जीविताद् व्यपरोपिता । 4 -- (२) टीकाकार भयदेवसूरि मज्जाविया के स्थान पर मज्जावीया ऐसा पाठ मान कर उस का अर्थ पीतमद्या अर्थात् जिस ने शराब पी रखी है - ऐसा करते हैं । For Private And Personal Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५१४] श्री विपाक सूत्र [नवम अध्याय गच्छन्ति २ सिरिं देविं निप्पाणं निच्चे? जीव विप्पजढं पासंति २ हा हा अहो अकज्जमिति कट्ट रोयमाणीओ २ जेणव पूसणंदी राया तेणेव उवागच्छन्ति २ पूसणंदिरायं एवं वयासी-एवं खलु सामी ! सिरी देवी देवदत्ताए देवीए अकाले चेव जीवियाओ ववरोविया । पदार्थ-तते गं-तदनन्तर । तीसे-उस । देवदत्ताए-देवदत्ता । देवीए -देवी के । अन्नया-अन्यदा । कयाइ-कदाचित् । पुम्वरत्तावरत्तकालसमयंसि-मध्यरात्रि के समय । कुडुम्बजागरियं-कौटुम्विक चिन्ता के कारण । जागरमाणीर-जागती हुई के । इमे- यह । एयारूवे-इस प्रकार का । अज्झस्थिते ५-संकल्प- विचार ५ । समुप्पज्जिथा-उत्पन्न हुा । एवं खलु- इस प्रकार निश्चय ही। पूसणंदी-पुष्यनन्दी । राया - राजा । सिरीए देवीए माइभत्त-श्रीदेवी का, यह पूज्या है, इस बुद्धि से भक्त । समाणे -- बना हुअा। जाव -यावत् । विहरति-विहरण करता है । तं-अत: । एएणं-इस । वक्खवेणं -- व्यक्षेप - बाधा से । नो-नहीं । संचाएमि-समर्थ हूँ। अहं-मैं । पूसणं दिणा-पुष्यनन्दी। रंगणा-राजा के । सद्धिं-साथ । उरालाई-उदार-प्रधान । माणुस्सगाई- मनुष्यसम्बन्धी । भोगभोगाई-विषयभोगों का। भुजमाणी-सेवन करती हुई । विहरित्तर-विहरण करने को, अर्थात् ऐसी दशा में मैं महाराज पुष्यनन्दी के साथ पर्याप्तरूप से विषयभोगों का उपभोग नहीं कर सकती। तं- इसलिये। सेयं-योग्य है । खलु -निश्चयार्थक है। ममं-मुझे। सिरिं देविं-श्री देवी को। अग्गिप्पभोगेण वा-अग्नि के प्रयोग से, अथवा । सत्थप्पोगेण वा-शस्त्र के प्रयोग से, अथवा । विसप्पोगण - विष के प्रयोग द्वारा। जीवियाओ-जीवन से । ववरोवित्ता-व्यपरोपित कर, पृथक् करके । पूसणं दिणा-पुष्यनन्दी । रगणाराजा के । सद्धि - साथ । उरालाई- उदार--प्रधान । माणुस्सगाई-मनुष्यसम्बन्धी। भोगभोगाईविषयभोगों का । भुजमाणी सेवन करते हुए । विहरित्तए -विहरण करना। एवं - इस प्रकार । संपेहेति २-विचार करती है, विचार कर । सिरोर देवीर-श्री देवी के । अन्तराणि य ३-१-अन्तर - जिस समय राजा का आगमन न हो, २-छिद्र - जिस समय राजपरिवार का कोई आदमी न हो, ३. विरह - जिस समय कोई सामान्य मनुष्य भी न हो, ऐसे अवसर की । पडिजागरमाणी २-प्रतीक्षा करती हुई २। विहरतिविहरण करने लगी-अवसर को प्रतीक्षा में रहने लगी। तते णं-तदनंतर । सा-वह । सिरी-श्री देवीदेवी। अन्नया-अन्यदा । कयाइ-कदाचित् । मज्जाविया - स्नान कराए हुए । विरहियसयणिज्जं. सि-एकान्त में अपनी शय्या पर । सुरप्पसुता जाया यावि-सुखपूर्वक सोई पड़ी। होत्था-थी। इमं च णं-और इधर अर्थात् इतने में लब्धावकाश । देवदत्ता- देवदत्ता । देवी-देवी । जेणेव-जहां । सिरीदेवी-श्रीदेवी थी । तेणेव-वहां पर । उबागच्छति २ -- अाती है, अाकर । मज्जावियं-स्नान कराये हुए । विरहियसयणिज्जंसि-एकान्त में अपनी शय्या पर । सु.पस-सुख से सोई हुई । सिरि देवि-माता श्रीदेवी को । पासति २-देखती है, देखकर । दिसालोयं-दिशा का अवलोकन करती है अर्थात् कोई देखता तो नहीं ', यह निश्चय करने के लिये वह चारों ओर देखती है, तदनन्तर । जेणेव-जहां । भत्तबरे-भक्तगृह - रसोई थी। तेणेव-वहां पर । उवागच्छइ २-पाजाती है, आकर । लोहदंडंलोहे के दंड को । परामुसति २ - ग्रहण करती है, ग्रहण कर । लोहदंडं-लोहदण्ड को । तवावेति २तपाती है, तपा कर । तत्तं-तपा हुआ । समजोतिभूतं - अमि के समान देदीप्यमान । फुल् लकिंतुयसमाणंविकसित-खिले हुए, किंशुक-केमू के कुसुम के समान लाल हुए लोहदण्ड को । संडासपणं-संडसाएक प्रकार का लोहे का चिमटा या औज़ार जिस से गरम चीजें पकड़ी जाती है, पंजाब में जिसे संडासी कहते हैं। गहाय -- पकड़ कर । जेणेव-जहां पर । सिरीदेवी -श्रीदेवी (सोई पड़ी थी)। तेणेव-वहां पर । उवा For Private And Personal Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । गच्छइ २-आजाती है, अाकर । सिरीए-श्री । देवीर-देवी के । अवाणंसि-'अपान -गुह्यस्थान में । पक्खिवेति-प्रविष्ट कर देती है। तते णं-तदनन्तर । सा-वह । सिरीदेवी- श्रीदेवी। महता २अति महान् । सद्देणं-शब्द से । प्रारसित्ता-आक्रन्दन कर, चिल्ला २ कर । कालधम्मुणा - कालधर्म से । संजुना-संयुक्त हुई-काल कर गई। तते ण-तदनन्तर । तीले-उस । सिरीर देवोए-श्रीदेवी की । दासचेडीओ-दास, दासियां । प्रारसियस-प्रारसितशब्द-आक्रन्दनमय शब्द को अर्थात् राड़ को । सोक्वा-सुन कर । निसम्म-अवधारण कर । जेणेव-जहां पर: सिरीदेवी-श्रीदेवी थी। तेणेव वहां पर । उवागच्छन्ति २ --अाजाती हैं, पाकर । ततो-वहां से । देवदत्तं- देवदत्ता । देविं - देवी को । अवक्कम. माणिं-निकलती - वापिस आती हुई को। पासंति-देखती हैं, और । जेणेव -जिधर । सिरीदेवी-श्री. देवी थी । तेणेव-वहां पर। उवागच्छन्ति २-आती हैं, आकर। सिरिदेवि -श्रीदेवी को। निप्पाणंनिष्प्राण-प्राणरहित । निच्चेट्ठ-निश्चेष्ट - चेष्टारहित । जीवविप्पजढं-जीवनरहित । पासंति २देखती हैं, देख कर । हा हा अहा-हा ! हा ! अहो ! । अकज मिति -बड़ा अनर्थ हुआ, इस प्रकार । का-कह कर । रोयमाणोश्रो २-रुदन, अाक्रन्दन तथा विलाप करती हुई । जेणेव जहां पर । पूसणंदी-पुष्यनन्दी । राया-राजा था। तेणेव - वहां पर । उवागच्छति २ -अाती हैं, अाकर । पूसणंदिरायं-महाराज पुष्यनन्दी के प्रति । एवं- इस प्रकार । वयासी-कहने लगीं । एवं खलु इस प्रकार निश्चय ही । सामी! -हे स्वामिन् ! । सिरोदेवो-श्रीदेवी को । देवदत्तार -देवदत्ता । देवीएदेवी ने । अकाले चेव-अकाल में ही । जीविषाओ-जीवन से । ववरोविया-पृथक कर दिया, मार दिया। मूलार्थ- तदनन्तर किसी समय मध्यरात्रि में कुटुम्बसम्बन्धी चिन्ताओं से व्यस्त हुई देवदत्ता के हृदय में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि महाराज पुष्यनन्दी निरन्तर श्रीदेवी की सेवा में लगे रहते हैं, तब इस अवक्षेप-विघ्न से मैं महाराज पुष्यनन्दी के साथ उदार मनुष्यसम्बन्धी विषयभोगों का उपभोग नहीं कर सकती, अर्थात उन के श्रीदेवी की भक्ति में निरंतर लगे रहने से मुझे उन के साथ पर्याप्तरूप में भागों के उपभोग का यथेष्ट अवसर प्राप्त नहीं होता। इस लिये मुझे अब यही करना योग्य है कि अग्नि के प्रयोग, शस्त्र अथवा विष के प्रयोग से श्रीदेवी का प्राणांत करके महाराज पुष्यनन्दी के साथ उदार-प्रधान मनुष्यसम्बन्धी विषयभोगों का यथेष्ट उपभोग करू, ऐसा विचार कर वह श्रीदेवी को मारने के लिये किसी अन्तर, छिद्र और विरह की अर्थात् उचित अवसर की प्रतीक्षा में सावधान रहने लगी। ___ तदनन्तर किसी समय श्रीदेवी स्नान किए हुए एकान्त शयनीय स्थान में सुखपूर्वक सोई पड़ी थी । इतने में देवी देवदत्ता ने स्नपित-जिसे स्नान कराया गया हो, एकान्त शयनागार में विश्रब्धनिश्चिन्त हो कर सोई पड़ी श्रीदेवी को देखा और चारों दिशाओं का अवलोकन कर जहा भक्तगृह था वहा आई, आकर एक लोहे के दंडे को लेकर अग्नि में तपाया, जब वह अग्नि जैसा और केसू के फूल के समान लाल होगया तो उसे संडास से पकड़ कर जहां श्रीदेवी थी वहां आई, उस तपे हुए लोहे के दंडे को श्रीदेवी के गुह्यस्थान में प्रविष्ट कर दिया । उस के प्रक्षेप से बड़े भारी शब्द से आक्रन्दन करती हुई श्रीदेवी काल कर गई। तदनन्तर उस भयानक चीत्कार शब्द को सुन कर श्रीदेवी की दास दासियें वां दौड़ी हुई श्राइ आते ही उन्हों ने वहां से देवदत्ता को जाते हुए देखा और जब वे श्रीदेवी के पास गई तो उन्हों ने श्रीदेवी को प्राणरहित, चेष्टाशून्य और जीवनरहित पाया । तब मरी हुई श्रीदेवी को देख कर वे एकदम (१) अपानशब्द का अर्थ कोषों में गुदा लिखा है, परन्तु कहीं २ योनि अर्थ भी पाया जाता है। For Private And Personal Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रो विपाक सूत्र-- [नवम अध्याय चिल्ला उठीं, हाय ! हाय ! महान अनर्थ हुआ, ऐसा कह कर राती, चिल्लाती एवं विलाप करती हई वे महाराज पुष्यनन्दी के पस अई और उस से इस प्रकार वालों कि हे स्वामिन् ! बडा अनर्थ हा देवो देवदत्ता ने माता श्रीदेवी को जीवन से रहित कर दिया - मार दिया । ___टीका शास्त्रों में लिखा है कि जैसे 'किम्प क वृक्ष के फल देखने में सुन्दर, खाने में मधुर और स्पर्श में सुकोमल होते हैं किन्तु उनका परिणाम वैसा सुन्दर नहीं होता अर्थात् जितना वह दर्शनादि में सुन्दर होता है, ख, लेने पर उसका परिणाम उतना ही भीषण होता है. गले के नीचे उतरते ही यह खाने वाले के प्राणों का नाश कर डालता है। सारांश यह है कि जिस प्रकार किम्पाक फल देखने में और खाने में सुन्दर तथा स्वादु होता हुआ भी भक्षण करने वाले के प्राणों का शीघ्र ही विनाश कर डालता है ठीक उसी प्रकार विषयभोगों की भी यही दशा होती है । ये प्रारम्भ में (भोगते समय) तो बड़े ही प्रिय और चित्त को आकर्षित करने वाले होते हैं परन्तु भोगने के पश्चात् इन का बडा ही भयंकर फल होता है। तात्पर्य यह है कि प्रारम्भिक काल में इन की सुन्दरता और मनोजता चित्त को बड़ी लुभाने वाली होती है और इन के आकषण का प्रभाव सांसारिक जीवों पर इतना अधिक पड़ता है कि प्राण देकर भी वे इन को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं । संसार में बड़े भी इस के लिए हुए हैं। रामायण और महाभारत जैसे महान् युद्धों का कारण भी यही है । ये छोटे बड़े और सभी को सताते हैं । मनुष्य, पशु पक्षी यहां तक कि देव भी कोई बचा नहीं है। भतृहरि ने वैराग्य शतक में एक स्थान पर लिखा है कि निबल, काणा. लंगड़ा पूछरहित, जिस के घांवों से राध बह रही है, जिस के शरीर में कीड़े बिलबिल कर रहे हैं, जो बूढा तथा भूखा है. जिस के गले में मिट्टी के बर्तन का घेरा पड़ा हुआ है, ऐसा कुत्ता भी काम के वशीभूत हो कर भटकता है। जब भूखे प्यासे और बूढ़े तथा दुर्बल घाबों से युक्त कुत्ते की यह दशा है, तो दूध मलाई मावा मिष्टान्न उडाने वाले मनुष्यों की क्या दशा होगी । वास्तव में काम का आकर्षण है हो ऐसा, परन्तु यह कभी नहीं भूल जाना चाहिये कि यह आकषण पैनी छुरी पर लगे हुए शहद के आकर्षण से भी अधिक भीषण है। यही कारण है कि शास्त्रों में किम्पाक फल से इसे उपमा दी गई है। ___ जीवन की कड़ी साधनायों से गुज़रने वाले भारत के स्वनामधन्य महामहिम महापुरुषों ने बड़े प्रबल शब्दों में यह बात कही है कि वासनाए उपभोग से न तो शान्त होतो हैं और न कम, किन्तु उन से इच्छा में और अधिक वृद्धि होती है ! कामी पुरुष कामभोगों में जितना अधिक प्रासक होगा, उतनी ही उस की लालसा बढ़ती चली जाएगी। विषयभोगों के उपभोग से वासना के उपशान्त होने की सोचना निरी मूर्खता है । विषय भोगो से उस में प्रगति तो होती है, ह्रास नहीं जिस प्रकार प्रदीप्त हुई अग्नज्वाला घृत के प्रक्षेप से वृद्धि को प्राप्त होती है, उसी भांन्ति कामभोग के अधिक सेवन करने से कामवासना निरन्तर बढती चली जाती है, घटती नहीं विपरीत इस के कई एक विवेकविकल प्राणी एक मात्र कामवासना से वासित होकर निरन्तर कामभोगों के सेवन में लगे हुए कामवसना की पति के स्वप्न देखते हैं और उस के लिये विविध प्रकार के आयास उठाते हैं. परन्तु उससे वासना तो क्या शान्त होनी थी प्रत्युत उस के सेवन से वे ही शान्त हो जाते हैं, तभी तो कहा है - भोगा न भुक्ता, वयमेव भुक्ताः । . १-जहा किम्पागफलाणं, परिणामो न सुन्दरी। ___एवं भुत्ताणं भोगाणं, परिणामो न सुन्दरो ॥ (उत्तराध्ययन सू० अ० १९/१८) (२) कृतः काणः खंजः श्रवणरहितः पुच्छविकलो , प्रणी पूयक्लिन्नः कृमिकुलशतैरावृततनुः । क्षुधातामो जीर्णः पिठरजकपालार्पितगलः , शुनीमन्वेति श्वा हतमपि च हन्त्येव मदनः ॥ (वैराग्यशतक, श्लोक १८) (३) न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवमेव भूय एवाभिवर्धते ॥ For Private And Personal Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [५१७ यह तो प्रायः अनुभव सिद्ध है कि विषयलोलुपी मानव को कर्तव्याकर्तव्य या उचितानुचित का कुल भी ध्यान नहीं होता । उम का एक मात्र ध्येय विषयवासना की पूर्ति होता है, फिर उसके लिये भले ही उसे बड़े से बड़ा अनर्थ भी क्यों न करना पड़े और भले ही उस का परिणाम उस के लिये विशेष हानकर एवं अहितकर निकले, किन्तु इसकी उसे पर्वाह नहीं होती, वह तो पापाचरण में ही तत्पर रहता है। रोहीतकनरेश पुष्यनन्दी की परमप्रिया देवदत्ता से पाठक सुपरिचित हैं । उस के रूपलावण्य और अनुपम सौन्दर्य ने ही उसे एक राजमहिषी बनने का अवसर दिया है । उस में जहां शरीरगत बाह्य सौन्दर्य का प्राधिक्य है वहां उसके अन्तरात्मा में विषयवातना को भी कमी नहीं । वह मानवोचित कामभोगों के उपभोग की लालसा को इतना अधिक बढाए हुए है कि महाराज पुधनन्दी का क्षणिक वियोग भी उसे असह्य हो उठता है । वह नहीं चाहती कि रोहीतकनरेश उस मे थोड़े समय के लिये भो पृथक हों । उसकी इसी तीव्र वासना ने ही उस से मातृवात जैसे बर्बर एवं जघन्य अनर्थ कराने के लिये सन्नद्ध किया, जिस का स्मरण करते ही मानवता कांप उठती है । पृथिवी तथा आकाश रो उठते हैं . पति की पूज्य माता को इस लिये प्राणरहित कर देना कि उसकी सेवा में लगे रहने से पतिसहवास से प्राप्त होने वाले श्रामोद -प्रमोद में विघ्न पड़ता है, कितना नृशंसतापूर्ण घृणित विचार है ।, वास्तव में यह सब कुछ मानवता को पतन करने वाली आत्मघातिनी कामवासना का ही दूषित परिणाम है । जो मानव इस पिशाचिनी कमवासना के चंगुल में नहीं फंसे या नहीं फंसते, वे ही वास्तव में मानव कहलाने के योग्य हैं, बानो के तो सब प्राय: पाशविक जीवन बिताने वाले केवल नाम के ही मानव हैं। षियवासना की भूखी, विवेकशून्य देवदत्ता ने अपने प्राणवल्लभ की चाह में, जिस का कि विषय पूर्ति के अतिरिक्त कोई भी उद्देश्य नहीं था, उस की तीर्थसमान पूज्य माता का जिस विधि और जिस निर्दयता से प्राणान्त किया, उसक वर्णन मूलार्थ में आचुका है । इस पर से इतना समझने में कुछ भी कठिनता नहीं रहती कि ऐहिक स्वार्थ में अंधा हुआ २ मानव व्यक्ति भयानक से भयानक अनर्थ करने में भी संकोच नहीं करता . -विरहियसर्याणसि - इस पद की व्याख्या अभय देवमूरि के शब्दों में-विरहिते विजनस्थाने शयनोयं विरहितशयनोयं तत्र- इस प्रकार है । अर्थात् सोने की वह शय्या, जहां पर दूसरा कोई भी मनुष्य नहीं है.-उस पर । -सहप्प जुत्ता-का अर्थ आजकल के मुहावरे के अनुसार-श्राराम मोना, होता है । वास्तव में इस प्रकार का प्रयोग निश्चिन्त अवस्था में आई हुई निद्रा के लिये होता है । -फुल्लकिंसुयसमाणं--का अर्थ है -- केसू के फूल के समान लाल । इस कथन से तपे हुए लोहदण्ड के अग्निस्वरूप में परिवर्तित हुए रूप का दिग्दर्शन कराना ही सूत्रकार को अभिमत है। - अज्झस्थिते ५ यहां दिये ५ के अंक से अभिमत पाठ पृष्ठ १३३ पर लिखा जा चुका है । तथा मा. इभत्त समारणे जाव विरति -यहां के जाव-यावत पद से पृष्ठ ५०९ तथा ५१, पर पढे गये - कल्लाक. लिंज जेणेव सिरीदेवी तेणेव- से ले कर --भोगभोगाई भुजमाणे- यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । तथा - अन्तराण य ३ - यहां दिये गये ३ के अंक से -छिदाणि य विरहाणि य-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । अन्तर आदि पदों का अर्थ पदार्थ में लिखा जा चुका है । तथा - गेयमाणीश्रो ३ - यहां दिये गये ३ प्रक से - कंदमाणीओ विलवमाणीओ- इन पदों का ग्रहण करना चाहिये हाय मां!, इस प्रकार कहकर करन करती हुई, कंदन -ऊंचे घर से रुदन करती हुई और मस्तक श्रादि पीट कर हमारा क्या होगा ?, ऐसा कहकर विलाप करतो हुई-इन अर्था के परिचायक रोयमाणीओ श्रादि शब्द हैं। राजमाता श्रीदेवी की मृत्यु का समाचार देने वाली दासियों ने श्रीदेवी की मृत्यु को "-एवं खनु सामी! सिरीदेवी देवदत्तार देवीए अकाले चेव जीवियाओ ववरोविया (एवं खलु स्वामिन् ! श्रीदेवी देवदत्तया देव्या अकाले एव जीविताद् व्यपरोपिता)-" इन शब्दों द्वारा अभिव्यक्त किया है। इस कथन For Private And Personal Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५१८] श्री विपाक सूत्र नवम अध्याय से अकालमृत्यु का अस्तित्व प्रमाणित होता है, तथा अकालमृत्यु से कालमृत्यु अपने आप ही सिद्ध हो जाती है । तात्पर्य यह है कि काल और अकाल ये दोनों शब्द एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं, एवं एक दूसरे के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं । तब मृत्यु के -कालमृत्यु और अकालमृत्यु ऐसे दो स्वरूप फलित हो जाते हैं । सामान्य रूप से कालमृत्यु का अर्थ अपने समय पर होने वाली मृत्यु है और अकालमृत्यु का व्यवहार नय की अपेक्षा समय के बिना होने वाली मृत्यु है, परन्तु वास्तव में काल और अकाल से क्या अभिप्रेत है ? और उससे सम्बन्ध रखने वाली मृत्यु का क्या विशेष स्वरूप है ?, जिसमें कि दोनों का विभेद स्पष्ट हो ? यह प्रश्न उपस्थित होता है । उस के सम्बन्ध में किया गया विचार निम्नोक्त है आयु दो प्रकार की होती है अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय । जो अायु बन्धकालीन स्थिति के पूर्ण होने से पहले ही शीघ्र भोगी जा सके वह अपवर्तनीय और जो आयु बन्धकालीन स्थिति के पूर्ण होने से. पहले न भोगी जा सके वह अनपवर्तनीय, अर्थात् जिस का भोगफल बंधकालोन स्थिति-मर्यादा से कम हो वह अपवर्तनीय और जिस का भोगफल उक्त मर्यादा के बराबर ही हो वह अनपवर्तनीय आयु कही जाती है। अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय श्रायु का बन्ध स्वाभाविक नहीं है किन्तु परिणामों के तारतम्य पर अवलम्बित है । भावी जन्म की आयु वर्तमान जन्म में निर्माण की जाती है, उस समय यदि परिणाम मन्द हों तो आयु का बंध शिथिल हो जाता है, जिस से निमित्त मिलने पर बन्धकालीन कालमर्यादा घट जाती है। इसके विपरीत अगर परिणाम तीव्र हों तो आयु का बन्ध गाद हो जाता है, जिससे निमित्त मिलने पर भी बन्धकालीन कालमर्यादा नहीं घटती और न वह एक साथ ही भोगी जा सकती है । जैसे अत्यन्त दृढ़ होकर खड़े हुए पुरुषों की पंक्ति अभेद्य और शिथिल होकर खड़े हुए पुरुषों की पंक्ति भेद्य होती है । अथवा सघन बोए हुए बीजों के पौधे पशुओं के लिये दुष्प्रवेश और विरले २ बोए हुए बीजों के पौधे उनके लिए सुप्रवेश होते है । वैसे ही तीव्र परिणामजनित गाढबन्ध आयु शस्त्र, विष आदि का प्रयोग होने पर भी अपनी नियतकाल - मर्यादा से पहले पूर्ण नहीं होती और मन्द परिणामजनित शिथिल श्रायु उक्त प्रयोग होते ही अपनी नियतकालमर्यादा समाप्त होने के पहले ही अन्तमुहूर्त मात्र में भोग ली जाती है । आयु के इस शीघ्र भोग को ही अपवर्तना या अकालमृत्यु कहते हैं और नियतस्थितिक भोग को अनपवर्तना या कालमृत्यु कहते हैं । अपवर्तनीय आयु सोपक्रम - उपक्रमसहित होती है। तीत्र शस्त्र', तीव्र विष, तीव्र अग्नि आदि जिन निमित्तों से अकालमृत्यु होती है, उन निमित्तों का प्राप्त होना उपक्रम है। ऐसा उपक्रम अपवर्तनीय आयु में अवश्य होता है क्योंकि वह आयु नियम से कालमर्यादा समाप्त होने के पहले ही भोगने के योग्य होती है, परन्तु अनपवतनीय आयु सोपक्रम और निरुपक्रम दो प्रकार की होती है अर्थात् उस आयु को अकालमृत्यु लाने वाले उक्त निमित्तों का सन्निधान होता भी है और नहीं भी होता, परन्तु उक्त निमित्तों का सन्निधान होने पर भी अनपवतनीय आयु नियत कालमर्यादा के पहले पूर्ण नहीं होती, सारांश यह है कि अपवतनीय (१) श्री स्थानांगसूत्र में आयुभेद के सात कारण लिखे हैं, जो कि निम्नोक्त हैं -सविधे आयुभेदे परात्त तंजहा-१-अज्झवसाणे, २-निमित्त, ३ श्राहारे, ४-वेयणा ५-पराघाते, ६-फासे, ७-आणपागू, सत्तविध भिज्जए श्राउ । (७/३/५६१) अर्थात् ११) अध्यवसान-राग, स्नेह, और भयात्मक अध्यवसाय - संकल्ल, (२) निमित्त - दण्ड, कशा - चाबुक शस्त्र आदि रूप, ३- आहार-अधिक भोजन, ४- वेदना - नेत्र आदि की पीड़ा, ५-पराघातगर्तपात आदि के कारण लगी हुई विशेष चोट, ६-सर्श-सर्प आदि का डसना, ७ -श्वासोश्वास - का रुक जाना, ये सात आयु भेद - नाश के कारण होते हैं। (२) जीवाणं भंते ! किं सोवक्कमाउया, निरुवक्कमाउया? गोयमा ! जीवा सोवक्कमाउया वि निरुवक्कमाउया वि । (भगवती सूत्र शत० २० उद्द. १०) For Private And Personal Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । आयु वाले प्राणियों को शस्त्र आदि का कोई न कोई निमित्त मिल हो जाता है, जिस से वे अकाल में ही मर जाते हैं और अनपवर्तनीय आयु वालों को कैसा भी प्रबल निमित्त क्यों न मिले, पर वे अकाल में नहीं मरते। प्रश्न -नियत काल मर्यादा से पहले आयु का भोग हो जाने से कृतनाश (किये हुए का नाश), अकृताभ्यागम जो नहीं किया उस की प्राप्ति) और निष्फलता (फल का अभाव) दोष लगेंगे, जो शास्त्र में इष्ट नहीं, उन का निवारण कैसे होगा? उत्तर - शीघ्र भोग होने में उक्त दोष नही आने पाते, क्योंकि जो कर्म चिरकाल तक भोगा जा सकता है, वही एक साथ भोग लिया जाता है । उस का कोई भी भाग बिना विपाकानुभव किये नहीं छुटता, इसलिये न तो कृतकर्म का नाश है और न बद्धकर्म की निष्फलता ही है, इसी तरह कर्मानुसार आने वालो मृत्यु ही आती है । अतएव अकृत कर्म का आगम भी नहीं । जैसे-घास की सघन राशि में एक तरफ़ छोटा सा अग्निकण छोड़ दिया जाए तो वह अग्निकण एक २ तिनके को क्रमशः जलाते २ सारी उस राशि को विलम्ब से जला सकता है, किन्तु यदि वे ही अग्निकण घास का शिथिल और विरल राशि में चारों ओर छोड़ दिये जाए तो एक साथ उसे जला डालते हैं । __इसी बात को विशेष स्पष्ट करने के लिये शास्त्र में और भी दो दृष्टान्त दिये गये हैं। पहलागणितक्रिया का और दूसरा वस्त्र सुखाने का है । जैसे कोई विशिष्ट संख्या का लघुतम छेद निकालना हो तो इस के लिये गणित प्रक्रिया में अनेक उपाय हैं । निपुण गणितज्ञ प्रभीष्ट फल लाने के लिये एक ऐसी रीति का उपयोग करता है, जिस से बहुत ही शीघ्र अभीष्ट परिणाम निकल पाता है, दूसरा साधारण जानकार मनुष्य भागाकार आदि बिलम्बसाध्य प्रक्रिया से उस अभीष्ट परिणाम को देरी से ला पाता है। इसी तरह से समान रूप में भीगे हुए कपड़ों में से एक को समेट कर और दूसरे को फैलाकर सुखाया जाय. तो पहला देरी से और दूसरा जल्दी से सखेगा। पानी का परिमाण और शोषणक्रिया समान होने पर भी कपड़े के संकोच और विस्तार के कारण उसके सूखने में देरी और जल्दी का फ़क पड़ जाता है । समान परिमाण से युक्त अपवर्तनीय और अनपवतीय आयु के भोगने में भी सिर्फ देरी और जल्दी का ही अन्तर पड़ता है और कुछ नहीं । इस लिये यहां कृत का का नाश आदि उक्त दोष नहीं आते। उपरोक्त चर्चा से अकालमृत्य, ओर काल मृत्यु को समस्या अनायास ही सुलझाई जासकती है, तथा दोनों प्रकार की मृत्यु का वर्णन शास्त्रसम्भत है। तब ही राजमाता श्रीदेवी की मृत्यु को अकालमृत्यु के नाम से प्रस्तुन सूत्रपाठ में अभिहित किया गया है। ___दास और दासियों के द्वारा राजमाता श्रीदेवी की हत्या का समाचार मिलने के अनन्तर महाराज पुष्यनन्दी के हृदय पर उस का क्या प्रभाव पड़ा और उसने क्या किया ?, अब अग्रिम सूत्र में उस का वर्णन करते हैं - मूल -'तते णं से पूमणंदी राया तासिं दासचेडोणं अतिए एयम? सोच्चा (१) औपपातिक-चरमदे होत्तमपुरुषाऽसंखेयवर्षायुषोऽपवायुषः । (तत्त्वार्थसूत्र-- अ. २, सूत्र. ५२ के विवेचन में पंडितप्रवर श्री सुखलाल जी) (२) काया- ततः स पुष्यनन्दी राजा तासां दासचेटीनामन्तिके एतमर्थ अत्वा निशम्य महता मातृशोकेनाकातः सन् परशनिकृत्त इव चम्पकवरपादपो धसेति धरणीतले सर्वांग: सन्निपतित: । ततः स पुष्यनन्दी राजा मुहूर्तान्तरे श्वस्तः सन् बहुभी राजेश्वर० यावत् सार्थवाहै: मित्र. यावत् परिजनेन च साद्ध रुदन्. ३ श्रियो देव्या: महता ऋद्धिसत्कारसमुदयेन निस्सरणं करोति २ आशुरुतः ४ देवदत्तां देवीं पुरा यावद् विहरति । For Private And Personal Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५२०] श्री विपांक सूत्र [नवम अभ्याय निसम्म महया मातिसोएणं अप्फुरणे समाणे परसुनियत्ते विव चंपगवरपायवे धसत्ति धरणीतलंसि सव्वंगेहि सन्निपडिते । तते णं से पूसणंदी राया मुहुत्ततरेण आसत्थे समाणे बहूहिं राईसर० जाव सत्थवाहेहि मित्त० जाव परियणेणं य सद्धि रोयमाणे ३ सिरीए देवीए महता इड्ढिसक्कारसमुदएणं नीहरणं करेति २ आसुरुत्ते ४ देवदत्वं देविं पुरिसेहिं गेण्हावेति २ एतेणं विहाणेणं वझ आणावेति । एवं खलु गोतमा ! देवदत्ता देवो पुरा जाव विहरति । पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । से-वह । पूसणंदी-पुष्यनन्दी । राया राजा । तासिं-उन । दासचेडीणं-दास और चेटियों-दासियों के । अंतिए-पास से । एयम?--- इस वृत्तान्त को। सोच्चासुन कर । निसम्म उस पर विचार कर। महया-महान् । मातिसोएणं - मातृशोक से । अप्फुरणे समाणे-आक्रान्त हुा । परसुनियत्त - परशु - कुल्हाड़े से काटे हुए । चंपगवरपायवे - चम्पकवरपादपश्रेष्ठ चम्पक वृक्ष की। विव-तरह । धसत्ति धस (गिरने की ध्वनि का अनुकरण ), ऐसे शब्द से अर्थात् धड़ाम से । धरणीतलंसि- पृथ्वीतल पर । सव्वंगहिं-सर्व अंगों से । सन्निपडिते-गिर पड़ा । तते णंतदनन्तर । से-वह । पूसणंदी-पुष्यनन्दी । राया-राया । मुरतंतरेण एक मुहूर्त के बाद । आसत्थे समाणे-आश्वस्त होने पर । बहूहिं-- अनेक । राईसर० -राजा - नरेश, ईश्वर -- ऐश्वर्य युक्त । जाव - यावत् । सत्यवाहेहिं-सार्थवाहों –यात्री व्यापारियों के नायकों अथवा संघनायकों, और । मित्त. -- मित्र आदि । जाव-यावत् । परियणेणं य-परिजन के । सद्धिं-साथ । रोयमाणे ३ –रुदन, अाक्रन्दन और विलाप करता हुअा। सिरीए देवीए- श्री देवी का । महता-महान् । इढिसक्कारसमुदएणं --- ऋद्ध तथा सत्कार समुदाय के साथ । नीहरणं करेति २-निष्कासन - अरथी ( सीढ़ी के आकार का ढांचा जिस पर मुर्दे को रख कर श्मशान ले जाते हैं) निकालता है, निकाल कर के । आसुरुत्ते ४ - क्रोध के आवेश में लाल पीला हुआ । देवदत्तं देविं-देवदत्ता देवी को । पुरिसेहि-राजपुरुषों से । गेराहावेति २- पकड़वाता है. पकड़ा कर । एतेणं-इस । विहाणेणं-विधान से । वझ-यह वच्या - हन्तव्या है, ऐसी राजपुरुषों को। वेति-आज्ञा देता है। तं-अतः । एवं-इस प्रकार । खलु-निश्चय ही । गोतमा !- हे गौतम !। देवदत्ता-देवदत्ता । देवी-देवी । पुरा-पुरातन । जाव-यावत् । विहरति-विहरण कर रही है। मूलार्थ-तदनन्तर पुष्यनन्दी राजा उन दास और दासियों के पास से इस वृत्तान्त का सुन और विचार कर महान् मातृशोक से आक्रान्त हुआ परशु से निकृत्त -काटे हुए चम्पक वृक्ष की भान्त धस शब्द पूर्वक भूमि पर सम्पूण अंगों से गिर पड़ा । तत्पश्चात मुहूर्त के बाद वह पुष्यनन्दा राजा आश्वस्त हो होश में आने पर राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह इन सब के साथ और मित्रों. ज्ञातजनों.निजकजनों स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों के साथ रुदन, क्रन्दन सौर विलाप करता हुआ महान ऋद्धि एवं सकारसमदाय से श्रीदेवी की अरथी निकालता हैं । तदनन्तर क्रोधातिरेक से लाल पोला हो वह देशदत्ता बीको राजपुरुषों से पकड़ा कर इस विधान से वध्या-मारी जाए, ऐसी श्राज्ञा देता है अर्थात गौतम ! जैसे तम ने देवदत्ता का स्वरूप देखा है, उस विधान से देवदत्ता हन्तव्या है, य: अज्ञा राजा पुष्यनन्दी की ओर से राजपुरुषों को दी जाती है । इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम ! देवदत्ता देवी पूर्वकृत पाप कर्मों का फल भोगती हुई विहरण कर रही है। टीका-दासियों के द्वारा राजमाता श्रीदेवी की मृत्यु का वृत्तान्त सुनने तथा उसकी परम प्रेयसी देव - दत्ता द्वारा उसका वध किये जाने के समाचार ने रोहीतकनरेश पुष्यनन्दी की वही दशा कर दी जो कि सर्वस्व For Private And Personal Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ५२१ लुट जाने पर एक साधारण व्यक्ति की होती है। माता की इस आकस्मिक और क्रूरतापूर्ण मृत्यु से उस के हृदय पर इतनी गहरी चोट लगी कि वह कुठार के आघात से कटी गई चम्पकवृक्ष की शाखा की भान्ति धड़ाम से पृथिवी पर गिर गया। उस का शरीर निश्चेष्ट हो मुहूर्तपर्यन्त पृथिवी पर पड़ा रहा। उस के अंगरक्षक तथा दरबारी लोग चित्रलिखित मूर्ति की तरह निस्तब्ध हो खड़े के खड़े रह गये । अन्त में अनेक प्रकार के उपचारों से जब पुष्यनन्दी को होश आई तो वह फूट फूट कर रोने लगा। मंत्रिगण तथा अन्य सम्बन्धिजनों के वार २ आश्वासन देने पर उसे कुछ शान्ति मिली । तदनन्तर उसने राजोचित ठाठ से राजमाता का निस्सरण किया अर्थात् बाजों की ध्वनि से श्राकाश को गुंजाता हुआ रोहीतकनरेश पुष्यनन्दी माता की अरथी निकालता है और दाहसंस्कार के अनन्तर विधिपूर्वक उसका मृतककर्म कराता है ! अपनी पूज्य मातेश्वरी श्रीदेवी के शव के दाहसंस्कार आदि करने के अनंतर जब मातृघात करने वाली अपनी रानी देवदत्ता की ओर ध्यान दिया तो उसमें दुःख और क्रोध दोनों ही समानरूप से जाग उठे । दुःख इसलिये कि उसे अपनी पूज्य माता के वियोग की भान्ति देवदत्ता का वियोग भी असह्य था और क्रोध इस कारण कि उस की सहधर्मिणी ने वह काम किया कि जिस की उस से स्वप्न में भी सम्भावना नहीं की जासकती थी । अन्त में उसे देवदत्ता के विषय में बड़ा तिरस्कार उत्पन्न हुआ। वह सोचने लगा- मेरी तीर्थ के समान पूज्य माता को इस भान्ति मारना और वह भी किसी विशेष अपराध से नहीं; किन्तु मैं उस की सेवा करता हूं केवल इसलिये । धिक्कार है ! ऐसी स्त्री को । धिक्कार है उस के ऐसे निर्दयतापूर्ण क्रूरकर्म को । क्या देवदत्ता मानवी है ? नहीं २ साक्षात् राक्षसी है । रूपलावण्य के अन्दर छिपी हुई हलाहल है । अस्तु, जिसने मेरी पूज्य माता का इतनी निर्दयता से वध किया है, उसे भी संसार में रहने का कोई अधिकार नहीं । उसे भी उसके इस 1 पैशाचिक कृत्य के अनुसार ही दण्ड दिया जाना चाहिये, यही न्याय है, यही धर्मानुप्राणित राजनीति है । इन विचारों से क्रोध के आवेश से महाराज पुष्यनन्दी का मुख लाल हो जाता है. और वह अपने राजपुरुषों को देवदत्ता को पकड़ लाने का आदेश देता है, तथा आदेशानुसार पकड़ कर लाये जाने पर उसे अमुक प्रकार से वध करने की आज्ञा देता है। 1 चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर बोले- गौतम ! आज तुम ने जिस भीषण दृश्य को देखा है और जिस स्त्री की मेरे पास चर्चा की है, यह वही देवदत्ता है । देवदत्ता के लिये ही महाराज पुष्यनन्दी ने इस प्रकार से द देने तथा वध करने की आज्ञा प्रदान की है। अतः गोतम ! यह पूर्वकृत कर्मों का ही कटु परिणाम है । इस तरह रोहीतक नगर के राजपथ में देखी हुई स्त्री के पूर्वभवसम्बन्धी गौतमस्वामी के प्रश्न का वीर भगवान् की तरफ से उत्तर दिया गया, जो कि मननीय एवं चिन्तनीय होने के साथ २ मनुष्य को विषयों से विरत रहने की पावन प्रेरणा भी करता है । - राईसर० जाव सत्थवाहेहिं मित्त० जाव परिजगां - यहां पठित प्रथम जाव - यावत् पद तलवरमाडम्बियको डुम्बियइब्भसेट्ठि - - इन पदों का, तथा द्वितीय जाव- यावत् पद- गाइनियगसयणसम्बन्धि -इन पदों का परिचायक है । राजा नरेश का नाम है। ईश्वर आदि शब्दों का अर्थ पृष्ठ १६५ पर, तथा मित्र आदि शब्दों का अथ पृष्ठ १५० के टिप्पण में लिखा जा चुका है । - - रोयमाणे ३ - यहां ३ के अंक से - कंद्रमाणे विलवमाणे – इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । आंसुओं का बहना रुदन, ऊंचे स्वर से रोना कन्दन और आर्तस्वरपूर्वक रुदन विलाप कहलाता है । तथा श्रासुरुत ४ - यहां के अंक से अभिमत पद पृष्ठ १७७ पर लिखे जा चुके हैं। 1 For Private And Personal Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र |नवम अध्याय - एतण विहाणेण - यहां प्रयुक्त एतद् शब्द का अर्थ पृष्ठ १७८ पर लिखा जा च का है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां यह उज्झितक के दृश्य का बोधक लिखा है जब कि प्रस्तुत में रोहीतक नगर के राजमार्ग पर भगवान् गौतमस्वामी द्वारा अवलोकित शूनी पर भेदन की जाने वाली एक स्त्री के वृत्तान्त का परिचायक है । तथा पुरा जाव विहरति यहां के जाव-यात् पद से विवक्षित पाठ पृष्ठ २७१ पर लिखा जा चुका है। प्रस्तुत सूत्र में देवदत्ता के द्वारा राजमाता को मृत्यु तथा उप के इस कृत्य के दण्डविधान आदि का वर्णन किया गया है । अब सूत्रकार देव दत्ता के ही अग्रिम जीवन का वर्णन करते हैं : मूल- 'देवदत्ता णं भते ! देवी इतो कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिहिति ? कहिं उबब जज हात ? पदार्थ-भंते ! -भगवन् ! । देवदत्ता णं देवी - देवदतादेवी । इतो-यहां से । कालमासेकालमास में अर्थात् मृत्यु का समय जाने पर । कालं-काल । किच्चा - कर के । कहि- कहां । गनिहिति ? - जाएगी । कहिं- कहां पर । स्वज्जिहिति ?- उत्पन्न होगी ?। मूलार्थ-भगवन् ! देवदत्ता देवी यहा से कालमास में काल करक कहां जाएगी ? कहां पर उत्पन्न होगी? टीका-रोहीतक नगर के राजमार्ग पर शस्त्र - अस्त्रों से सन्नद्ध सैनिक पुरुषों के मध्यस्थित अवकोटकवन्धन से बन्धी हुई तथा कर्ण और नासिका जिसको काट ली गई थी, ऐसी शूनी पर चढ़ाई जाने वाली एक वध्य नारी के करुणाजनक दृश्य को देख कर भगवान् गौतमस्वामी के हृदय में जो उसके पूर्वजन्मसम्बन्धी वृत्तान्त जानने की इच्छा उत्पन्न हुई, तदनुसार उन्होंने भगवान् महावीर से जो पूछा था उसका उत्तर मिल जाने पर भगवान् गौतम उस स्त्री के आगामी भवों का वृत्तान्त जानने की लालसा से फिर प्रभु वीर से पूछने लगे । वे बोले __ प्रभो! यह देवदत्ता नामक स्त्री यहां से मृत्यु को प्राप्त हो कर कहां जायेगी ? और कहां उत्पन्न होगी? तात्पर्य यह है कि यह इसी भान्ति कर्मजन्य सन्ताप से दुःखोपभोग करती रहेगी, तथा जन्ममरण के प्रवाह में प्रवाहित होती रहेगी, या इस के दुःखों का कहीं अन्त भी होगा ? और कभी संसार सागर से पार भी हो सकेगी ? श्री गौतम स्वामी के द्वारा किये गये प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फरमाया, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं - मल - गोतमा ! असीनि वासाई परमाउँ पालयित्ता कालमासे कालं किच्चा इमी ये रयणप्प पाए पुढवीए उववजिहिति । संपारो जाव वणस्लइ० । ततो अणंतरं उच्च दृत्ता गंगापुरे णगरे हंसत्ताए पच्चायाहिति । से णं तत्थ साउणिएहि वहिते समाणे तत्थेव गंगापुरे (१) छाया- देवदत्ता भदन्त ! देवी इतः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति ! कुत्रोपपत्स्यते । (२) छाया-गौतम ! अशीति वर्घाणि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां पृथव्यामुपपत्स्यते । संसारस्तथैव यावद् वनस्पति० । ततोऽनन्तरमुढत्य गंगापुरे नगरे हसतया प्रत्यायास्यति । स तत्र शाकुनिहतस्तत्रैव गंगापुरे श्रेष्ठ० बोवि० सौधर्म महाविदेहे० सेत्स्यति ५ निक्षेपः । ॥ नवममध्ययनं समाप्तम् ॥ For Private And Personal Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org नवम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित। [५२३ सेटि० बीहिं० सोहम्मे० महाविदेहे० सिज्झिहिति ५ णिक्खेवो । ॥णवमं अज्झयणं सम ।। __ पदार्थ-गोतमा ! -हे गौतम ! । असीति - अस्सी (८०) । वासाई -वर्षों की । परमाउ-परमायु । पालयित्ता - पाल कर-भोग कर । कालमासे - कालमास में - मृत्यु का समय आजाने पर । कालं-काल । किच्चा -करके । इमीसे - इस । रयणधभार - रत्नप्रभा नाम की । पुढवीर-पृथ्वी-नरक में । उववज्जि. हिति---उत्पन्न होगी । संसारो-शेष संसारभ्रमण कर । वणस्त० -वनस्पतिगत निम्ब आदि कटुवृक्षों तथा कटु दुग्ध वाले अर्कादि पौधों में लाखों वार उत्पन्न होगी । ततो-वहां से । अणंतरं-अन्तर रहित । उम्वहिता-निकल कर । गंगापुरे -- गंगापुर । णगरे -नगर में। हंसत्तार - हंसरूप से । पच्चायाहिति-उत्पन्न होगी। से रणं - वह हंस । तस्य - वहां पर । साउणि रहि-शाकुनिकों-शिकारियों के द्वारा । वहिते-वध किया। समाणे -हुा । तत्थेव -वहीं। गंगापुरे-गंगापुर में । सेटि-श्रेष्ठिकुल में उत्पन्न होगा । बोहिं०-सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा। सोहम्मे० -सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां से । महावि - देहे०-महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा, वहां से । सिज्झिहिति ५-सिद्धि प्राप्त करेगा , केवलज्ञान के द्वारा समस्त पदार्थों को जानेगा, सम्पूर्ण कर्मा से रहित हो जाएगा, सकल कर्मजन्य सन्ताप से विमुक्त हो जाएगा तथा सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त कर डालेगा। णि खेयो -निक्षेप - उपसंहार की कल्पना पूर्व की भांति कर लेनी चाहिये । णवम - नवम । अज्मरणं - अध्ययन । समत्तं - सम्पूर्ण हुआ। मूलार्थ-हे गौतम ! देवदत्तादेवी अशीति (८०) वर्षों की परम आयु पाल कर कोलमास में काल करके इस रत्नप्रभा नाम की पृथिवी - नरक में उत्पन्न होगी। शेष संसारभ्रमण पूर्ववत् करती हुईप्रथम अध्ययनवर्ती मृगापुत्र की भांति यावत् वनस्पतिगत निम्ब आदि कटु वृक्षों में तथा कटु दुग्ध वाले अर्क आदि पौधों में लाखों वार उत्पन्न होगी । वहाँ शाकुनिकों द्वारा वध किये जाने पर वह हंस उसी गंगापुर नगर में श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप से जन्म लेगा, वहां सम्यक्त्व को प्राप्त कर सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां चारित्र यहण कर सिद्धि प्राप्त करेगा, केवल ज्ञान द्वारा समस्त पदार्थों को जानेगा, सम्पूर्ण कर्मों से विमुक्त हो जाएगा, समस्त कर्मजन्य सन्ताप से रहित हो जाएगा तथा सब दुःखों का अन्त करेगा । निक्षे-उपसंहार को कल्पना पूर्ववत् कर लेनी चाहिये । ॥ नवम अध्ययन समाप्त ॥ टीका-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी द्वारा वर्णित देवदत्ता के पूर्व जन्म सम्बन्धी वृत्तान्त को सुन लेने के बाद गौतम स्वामी को उसके अागामी भवों को जिज्ञासा हुई, तदनुसार उन्हों ने भगवान् से उस के भावी जीवनवृत्तान्त का वर्णन करने की प्रार्थना की । गौतम स्वामी की प्रार्थना से भगवान् ने देवदत्ता के भावी जीवन के वृत्तान्त को सुनाते हुए जो कुछ कहा, उस का वर्णन मूलार्थ में किया जा चुका है। यह वर्णन भी प्रायः पूर्व वर्णन जैसा ही है, अतः वह अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता। वास्तव में मानव जीवन एक पहेली है । उस में सुख दुःख की अवस्थात्रों का घटीयंत्र की तरह आना जाना निरन्तर बना रहता है । विविध प्रकार की परिस्थितियों से गुज़रता हुआ यह जीवात्मा जिस समय बोधि-सम्यक्त्व का लाभ प्राप्त करता है, उस समय इसका उत्क्रान्ति मार्ग की ओर प्रस्थान करने का रुख होता है, वहीं से इस की ध्येयप्राप्ति का कार्य प्रारम्भ होता है । सम्यक्त्व की प्राप्ति के अनन्तर शुभ संयोगों के सन्निधान से प्रगति मार्ग को ओर प्रस्थान करने वाला साधक का आत्मा कर्मबन्धनों को तोड़ कर एक न एक दिन अपने वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। वहां इसकी जन्म मरण' परम्परा की विकट यात्रा का पर्यवसान हो जाता है और उसे शाश्वत सुख प्राप्त हो जाता है । यही इस कथा का सारांश है। For Private And Personal Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५२४] श्री विपाक सूत्र अध्याय -संसारो तहेव जाव वणस्सइ०- यहां पठित संसार शब्द-संसारभ्रमण. इस अर्थ का बोधक है। तथा -तहेव-तथैव पद वैसे ही अर्थात् जिस तरह प्रथम अध्ययन में राजकुमार मृगापुत्र का संसारभ्रमण वर्णित कर चुके हैं. वैसे ही देवदत्ता का भी संसारभ्रमण समझ लेना -- इन भावों का परिचायक है। उसी संसारभ्रमण के संसूचक पाठ को जाव-यावत् पद से बोधित किया गया है, अर्थात् जाव-यावत् पद पृष्ठ ८९ पर पढ़े गए - सा णं ततो अणंतरं उघटित्ता सरीसवेसु उवज्जिहिति, तत्थ णं कालं किच्चा - से ले कर - तेइन्दिएसु, बेइन्दिएसु- यहां तक के पदों का परिचायक है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां पर मृगापुत्र का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में देवदत्ता का। तया - वण स्सइ०- यहां के बिन्दु से-कइयरुक्खेसु कडुयदृद्धिएसु अणेगमतसहस्सक्खुत्तो उववज्जिहिति-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये। अर्थात् निम्बादि तथा कटु दुग्ध वाली अकादि वनस्पति में लाखों वार जन्म मरण किया जायेगा । तथा "-सेहि वोहिं. सोहम्मे महाविदेहे० सिज्झिहिति ५.. " इन पदों में संठ्ठि - यहां के बिन्दु से ---- कुलंसि पुत्तताए पच्चायाहिति-इन पदों का ग्रहण करना अभिमत है । तथा बोहिं० - आदि पा से विवक्षित पाठ पृष्ठ ३१२ पर लिखा जा चुका है। पाठकों को स्मरण होगा कि प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में यह बतलाया गया था कि श्री जम्बू स्वामी ने अपने परम पूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी से दुःखविपाक सूत्र के अष्टमाध्ययन को सुनने के अनन्तर नवम अध्ययन को सुनाने की अभ्यर्थना की थी, जिस पर श्री सुधर्मा स्वामी ने उन्हें नवम अध्ययन सुनाना प्रारम्भ किया था। उस अध्ययन की समाप्ति पर श्री सुधर्मा स्वामी ने श्री जम्बू अनगार से जो कुछ फ़रमाया, उसे सूत्रकार ने “निश्खेत्रो" इस पद से अभिव्यक्त किया है । निक्खेव का संस्कृत प्रतिरूप निक्षेप होता है । निक्षेप का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ १८८ पर किया जा चुका है । प्रस्तुत में निक्षेपशब्द से संसूचित सूत्रांश निम्नोक्त है एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं दुहविवागाणं नवमस्त अझयणस्स अयम? पराणत्त त्ति बेमि । अर्थात् --हे जम्बू ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के नवम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। सारांश यह है कि भगवान् महावीर ने अनगार गौतम स्वामी के प्रति जो देवदत्ता का आद्योपान्त जीवनवृत्तान्त सुनाया है, यही नवम अध्ययन का अर्थ है, जिस का वर्णन मैं अभी तुम्हारे समक्ष कर चुका हूं, परन्तु इसमें इतना ध्यान रहे कि यह जो कुछ भी मैंने तुम को सुनाता है, वह मैंने वीर प्रभु से सुना हुअा ही सुनाया है, इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं । प्रस्तुत अध्ययन में विषयासक्ति के दुष्परिणाम का दिग्दर्शन कराया गया है। कामासक्त व्यक्ति पतन की ओर कितनी शोघ्रता से बढ़ता है और किस हद तक अनर्थ करने पर उतारु हो जाता है ? तथा परिणामस्वरूप उसे कितनी भयंकर यातनाएं भोगनी पड़तो हैं ? इत्यादि बातों का इस कथासन्दर्भ में सुचारु रूप से निदर्शन मिलता है । लाखों मनुष्यों पर शासन करने वाला सम्राट भी जघन्य विषयासक्ति से नरकगामी बनता है, तथा रूपलावण्य को राशि एक महारानी भी अपनी अनुचित कामवासना की पूर्ति की कुत्सित भावना से प्रेरित हुई महान् अनर्थ का सम्पादन करके नरकों का आतिथ्य प्राप्त कर लेती है । इस पर से मानव में बढ़ो हुई कामवासना के दुष्परिणाम को देखते हुए उस से निवृत्त होने या पराङमुख रहने की समुचित शिक्षा मिलती है । कामवासना से वासित जीवन वास्तव में मानवजीवन नहीं किन्तु पशुजीवन बल्कि उस से भी गिरा हुअा जीवन होता है, अतः विचारशील पुरुषों को जहां तक बने वहां तक अपने जीवन को संयमित और मर्यादित बनाने का यत्न करते रहना चाहिये, तथा विषयवासनाओं के बढ़े हुए जाल को तोड़ने की ओर अधिक लक्ष्य देना चाहिये, यही इस कथासंदर्भ का ग्रहणीय सार है। ॥ नवम अध्याय समाप्त । For Private And Personal Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दशम अध्याय संसार में अनन्त काल से भटकती हुई अात्मा जब विकासोन्मुख होती है, तब यह अनन्त पुण्य के प्रभाव पे निगोद में से निकल कर क्रमशः पत्येक वनस्पति, पृथ्यो, जनादि योनियों में जन्म लेती हुई द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पञ्चेन्द्रिय नारक तिर्यंच आदि जीवों की विभिन्न योनियों के सागर को पार करती हुई किसी विशिष्ट पुण्य के बल से मनुष्य के जीवन को उपलब्ध करती है । इस से मानव जीवन कितना दुर्लभ है ? तथा कितना महान् है ? इत्यादि बातों का भली भान्ति पता चल जाता है । जैन तथा जैनेतर सभी शास्त्रों तथा ग्रन्थों में मानव जीवन की कितनी महिमा वर्णित हुई है ? इसके उत्तर में अनेकानेक शास्त्रीय प्रवचन उपलब्ध होते हैं । पाठकों की जानकारी के लिये कुछ उद्धरण दिये जाते हैं - कम्माणं तु पहाणाए, आणुपुव्वी कयाइ उ । जीवा सोहिमणुपत्ता, प्राययंति मणुस्सयं ।। (उत्तराध्ययन सूत्र अ० ३-७) अर्थात् जब अशुभ कर्मों का भार दूर होता है, अात्मा शद्ध और पवित्र बनता है तब कहीं वह मनुष्य की गति को उपलब्ध करता है। दुल्लहे खलु माणसे भवे, चिरकालेण वि सव्वपाणिणं। गाढा य विवागकम्मुणो, समयं गोयम ! मा पमायए ।। (उत्तराध्ययन सू० अ० १०-४) अर्थात् संसारी जीवों को मनुष्य का जन्म चिरकाल तक इधर उधर की अन्य योनियों में भटकने के अनन्तर बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है इस का मिलना सहज नहीं है। दुष्कर्म का फल बड़ा ही भयंकर होता है, अत: हे गौतम ! क्षण भर के लिये भी प्रमाद मत कर । नरेषु चक्री त्रिदिवेषु वज्री, मृगेषु सिंहः प्रशमो प्रतेषु । मतो मही कृत्सु सुवर्णशै नो, भवेषु मानुष्यभवः प्रधानम् ।। (श्रावकाचार १०-१२) अर्थात् जिस प्रकार मनुष्यलोक में चक्रवर्ती, स्वर्गलोक में इन्द्र, पशु ओं में सिंह, व्रतों में प्रशमभाव और पर्वतों में स्वर्णगिरि -- मेरु प्रधान है, श्रेष्ठ है, ठीक उसी प्रकार संसार के सब जन्मों में मनुष्य जन्म सर्वोत्तम है। जातिशतेन लभते किल मानुत्वम् (गरुडपुराण) अर्थात् गर्भ की सैंकड़ों यातनाए भुगतने के अनन्तर मनुष्य का शरीर प्राप्त होता है। गुह्य ब्रह्म तदिदं ब्रवीमि, नहि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित् ॥ अर्थात् महाभारत में व्यास जी कहते हैं कि श्राओ, मैं तुम्हें एक रहस्य की बात बताऊं । यह अच्छी तरह मन में दृढ़ निश्चय कर लो कि संसार में मनुष्य से बढ़ कर और कोई श्रेष्ठ नहीं है। "-द्विभुजः परमेश्वर:-' अर्थात् मनुष्य दो हाथ वाला परमेश्वर है । स्वर्गी चे अमर इच्छिताती देवा मृत्युलोकी ह्वावा जन्म आम्हां" (सन्त तुकाराम जी) अर्थात् स्वर्ग के देवता इच्छा करते हैं कि प्रभो ! हमें मर्त्य - लोक में जन्म चाहिये अर्थात् हमें मनुष्य बनने की चाह है। For Private And Personal Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५२६] श्री विपाक सूत्र [दशम अध्याय नरतन सम नहिं कविनिउ देही, जोव चराचर जाचत जेही। बड़े भाग मानुष तन पापा, सुरदुर्लभ सब प्रथन गावा॥ (तुलसीदास) दुर्लभ मानव जन्म है, देह न वारम्वार । तरवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ (कबीर वाणी) जो फरिश्ते करते हैं, कर सकता है इन्सान भी। पर फरिश्तों से न हो जो काम है इन्सान का ।। फरिश्ते से बेहतर है इन्लान बनना, मगर इस में पड़ती है मेहनत ज्यादा । इत्यादि अनेकों प्रवचन उपलब्ध होते हैं, जिन से मानव जीवन की दुर्लभता एवं महानता सुतरां प्रमाणित हो जाती है । इस के अतिरिक्त जैन शास्त्रों में मानव जीवन की दुलमता का निरूपण बड़े विलक्षण दश दृष्टान्तों द्वारा किया गया है, जिन का विस्तारभय से प्रस्तुन में उल्लेख नहीं किया जा रहा है। ऊपर के विवेचन में यह स्पष्ट हो जाता है कि मानव का जन्म दुर्लभ है, महान् है। अतः प्रत्येक मानव का कर्तव्य हो जाता है कि इस अनमोल और देवदुर्लभ मनुष्यभव को प्राप्त कर इस से सुगतिमूलक लाभ उठाने का प्रयास करना चाहिये, और प्रात्मश्रेष सावना चाहिये परन्तु इस के विपरीत जो लोग जीवन को पतन की और ले जाने वाले कृत्यों में मग्न रहते हैं तथा सुकृत्यों से दूर भाग कर असदनुष्ठानों में प्रवृत्त रहते हैं, वे दुर्गतियों में अनेकानेक दुःख भोगने के साथ २ जन्म मरण के प्रवाह में प्रवाहित होते रहते हैं, ऐसे प्राणी अनेकों हैं, उन में से अजूश्री नामक एक नारो भो है, जिस ने पृथिवीश्री गणिका के भव में अपने देवदर्लभ मानव जीवन को विषय-वासना के पोषण में ही अधिकाधिक लगाया और अनेकानेक चूर्णादि के प्रयोगों द्वारा राजा, ईश्वर आदि लोगों को वरा में ला कर उन्हें दुराचार के पथ का पथिक बनाया, एवं अपनी वासनामूलक कुत्सित भावनाओं से जन्म मरण रूपी वृक्ष को अधिकाधिक पुष्पित एवं पल्लवित किया प्रस्तुत दशम अध्ययन में उसी अंजू देवी का जीवन वणित हुआ है, जिस का आदिम सूत्र निम्नोक्त है मल-दसम्स्स उक्खेवो, एवं खल जंबू ! तेणं कालेणं २ बद्धपाणपुरे णाम णगरे होत्था । विजयवड्ढमाणे उज्जाणे । माणिभद्दे जक्खे विजयमित्ते राया । तत्थ णं धदेवा णामं सत्थवाहे हात्था अड्ढे ० । पियंगू भारिया । अंजू दारिया जाव सरीरा । समासरणं । परिसा जाव गयो । तेणं कालेणं २ जे? जाव अडमाणे विजयमित्तस्स रगणो गिहस्स असोगवणि याए अदरसामंतेणं वीहवयमाणे पासति एग इत्थियं सुक्खं भुक्खं निम्मंसं किडिकिडियाभूयं अट्ठि वम्मावणद्ध गोलसाडगनियत्थं कट्ठाई कलुणाई वीसराई कूवमाणि (१) छाया-दशमस्मोत्क्षेपः । एवं खनु जम्बू ! तस्मिन् काले २ वर्षमान पुरं नाम नगरमभूत् । विजयवर्धमानमुद्यानम् । माणिभद्रो यक्षः । विजय मित्रो राजा । तत्र धनदेवो नाम सार्थवाहोऽभूदा ढ्यः । प्रियंगू: भार्या । अञ्जू : दारिका यावत् शरीरा । समवसरणम् । परिषद् यावद् गता । तस्मिन् काले २ ज्येष्ठो यावद् अटन् विजयमित्रस्य राज्ञो गृहस्याशोकवनिकाया, अदूरासन्ने व्यतिव्रजन् पश्यत्येकां स्त्रियं शुष्कां वुभुक्षितां निर्मासां किटिकिटिभूतां चौवनद्धां नीलशाटकनिवसितां कष्टानि करुणानि विस्वराणि कूजन्तीं दृष्ट्वा चिन्ता । तथैव यावदेवमवादीत् – सा भदन्त ! स्त्री पूर्व वे कासीद् ? व्याकरणम । For Private And Personal Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दशम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [५२७ पासिता चिन्ता । तहेव जाव एवं वयासा सा गं भंते । इत्थिया पुव्वभवे का आसि ? वामरणं । - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir i , 1 पदार्थ - दस मस्स - दशम अध्ययन के । उकखेवो - उत्क्षेप प्रस्तावना पूर्व की भान्ति जान लेना चाहिये । एवं खनु - इस प्रकार निश्चय ही । जंबू ! - हे जम्बू ! | तेणं काले २ - उस काल और उस समय में । वद्धमाणपुरे - वधमानपुर । णामं - नामक । गगरे - - नगर होत्था - था। विजयवाड्ढमाणे - विजयवर्धमान नामक | उज्जाणे – उद्यान था, वहां माणिभद्दे - माणिभद्र जक्खे - यक्ष का स्थान था । विजय मित्त - विजय मित्र । राधा - राजा था। तत्थ णं - वहां पर । धगदेव - धन देव । गामं-नाम का । सत्थवाहे-यात्री व्यापारियों का मुखिया अथवा संघनायक । होत्या-रहता था, जोकि । अड्ढे ०. १०- बड़ा धनी तथा अपनी जाति में महान् प्रतिष्ठा प्राप्त किए हुए था, उस की। वियं भारिया-प्रियंगू नाम की भार्या थी । अंजू - अंजू नामक | दारिया -दारिका - बालिका । जाब- यावत् । सरीरा - उत्कृष्ट उत्तम शरीर वाली थी । सनोसर - भगवान् महावीर स्वामी पधारे। परिसा परिषद् । जाव - यावत् । गो-चली गई । ते काले २ - उस काल और उस समय । जेट्ठे - ज्येष्ठ शिष्य | जाव - यावत् । श्रमाणे - भ्रमण करते हुए ' विजय मित्तस्स - विजय मित्र । ररागो - राजा के । गिइस्स- -घरको । असोगवणियाए - अशोकवनिकाअशोक वृक्ष प्रधान बनोची के । अदूरसामंतेण - समीप से । वीइवयमाणे - - गमन करते हुए । पासतिदेखते हैं । एगं - एक । इथियं स्त्री को, जो कि । सुखं सूखी हुई। भुक्खं बुभुक्षित । निम्मंसं - मां से रहित - जिस के शरीर का मांस समाप्तप्रायः हो रहा है । किडिकिडिभूयं किटिकिटि शब्द से युक्त - अर्थात् जिसकी शरीरगत अस्थिएं किटि २ शब्द कर रही हैं । अचम्मावराद्धं - जिस का चर्म अस्थियों से चिपटा हुआ है अर्थात् अस्थिचर्मावशेष । जीतसा डगलियत्थं - और जो नीली साडी पहने हुए है, ऐसी उस । कट्टाई – कष्टात्मक - कष्टप्रद कनुणाई - करुणोत्पादक | वीसराई - दीनतापूर्ण वचन कूवमाणि - बोलती हुई को । पासिता देखकर । विन्ता- विचार उत्पन्न हुआ। तदेव - तथैव - उसी प्रकार । जान - यावत् वा पेसा कर । एवं वयासी - इस प्रकार कहने लगे। भंते ! - हे भदंत ! । सा गं - वह । इत्थिया - स्त्री । पुत्रवभवे - पूर्व भव में । का आसि १ – कोन थी १, इस के उतर में भगवान् महावीर स्वामी का वागरणं प्रतिपादन करना । मूलार्थ - - दशम अध्ययन के उत्क्षेप प्रस्तावना की कल्पना पूर्व की भान्ति कर लेनी चाहिये । जम्बू ! उस काल तथा उस समय में वर्द्धमानपुर नाम का एक नगर था। वहां विजयवर्द्धमान नामक उहान था । उस में माणिभद्र नामक यक्ष का स्थान था। विजयमित्र वहां के राजा थे। वतं धनदेव नाम का साया रहता था जोकि बहुत धनी और नगरप्रतिष्ठित था, उस की प्रियंगू नाम को भार्या थी तथा उसकी सर्वोत्कृष्ट शरीर से युक्त अज्जू नाम की एक बालिका थी । 1 उस समय विजयवर्द्धमान उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे, यावत् परिषद् धर्मदेशना सुन कर वापिस चली गई। उस समय भगवान् के ज्येष्ठ शिष्य यावत् भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए विजयमित्र राजा के घर की अशोकवनिका के समीप जाते हुए एक सूखी हुई, बुभूक्षित निर्मान, किटिकटि शब्द करती हुई अस्थचर्मावनद्ध, नीली साड़ी पहने हुए, कष्टमय, करुणाजनक तथा दोनतापूर्ण वचन बोलते हुई एक स्त्री को देखते हैं, देखकर विचार करते हैं। शेष पूर्ववत् यावत् भगवान् से आकर इस प्रकार बोले - भगवन ! यह स्त्री पूर्वभव में कौन थी । इस के उत्तर में भगवान् प्रतिपादन करने लगे । For Private And Personal 1 Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५२८] श्री विपाक सूत्र-- [दशम अध्याय टीका-विपाकसूत्र के नवम अध्ययन में वर्णित दत्त सेठ को पुत्री और कृष्णश्री की अात्मजा देवदत्ता के वृत्तान्त का श्राद्योपान्त, कर्मगत विचित्रता से गर्भित जीवनवृत्तान्त का चम्पानगरी के पूर्णभद्र चैत्य – उद्यान में विराजमान श्रार्य सुधर्मा स्वामी के अन्तेवासी-शिष्य श्री जम्बू स्वामी ध्यानपूर्वक मनन करने के अनन्तर आर्य सुधर्मा स्वामी के चरणों में उपस्थित हो कर विनयपूर्वक निवेदन करने लगे -भगवन् ! आप के परम अनुग्रह से मैंने विपाकश्रुत के दुःखविपाक के नवम अध्ययन के अर्थ का श्रवण किया और उस का चिन्तन तथा मनन भी कर लिया है। अब मेरी इच्छा उस के दसवें अध्ययन के अर्थश्रवण की हो रही है, अतः आप श्री उस को भी सुनाने की कृपा करें। सर्वज्ञप्रणीत निग्रंथप्रवचन के महान् जिज्ञासु आर्य जम्बू स्वामी की उक्त विनीत प्रार्थना को सुन कर परमदयालु श्री सुधर्मा स्वामी बोले जम्बू ! बहुत पुराने समय की बात है, जब कि वर्द्धमानपुर नाम का एक प्रसिद्ध नगर था, उस के बाहिर ईशान कोण में अवस्थित विजयवर्द्धमान नाम का एक रमणीय उद्यान था, उस में माणिभद्र नाम के यक्ष का एक सुप्रसिद्ध स्थान था, जिस के कारण उद्यान में बड़ी चहल पहल रहती थी। नगर के शासक विजयमित्र नाम के नरेश थे । इस के अतिरिक्त उस नगर में धनदेव नाम का एक सुप्रसिद्ध धनी, मानी सार्थवाह रहता था, उसकी प्रियंगू नाम को भार्या और अंजू नाम की एक अत्यंत रूपवती कन्या थी। उस समय विज्यवर्धमान उद्यान में चरम तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी का पधारना हुअा, उन को धर्मदेशना सुन कर जनता के च ने जाने के बाद उन के प्रधान शिष्य गौतम स्वामी भगवान् से आज्ञा ले कर जब भिक्षा के लिये नगर में जाते हैं तब उन्हों ने महाराज विजयमित्र के महल की अशोकवाटिका के समीप से जाते हुए वहां एक स्त्री को देखा । उस की दशा बड़ी दयाजनक थी। शरीर सूखा हुआ, भूख के कारण शरीरगत रुधिर और मांस भी शरीर में दिखाई नहीं देता था, केवल चमड़े में लिपटा हुआ अस्थिपंजर ही नज़र आता था, इस के अतिरिक्त उस का शब्द भी बड़ा करुणोत्पादक और दीनतापूर्ण था, उसके शरीर पर नीली साड़ी थी । गौतम स्वामी इस दृश्य से बड़े प्रभावित हुए, उन्हों ने वापिस आकर भगवान् से सारा वृत्तान्त कहा और उस स्त्री के पूर्वभव की जिज्ञासा की । यही सूत्रगत वर्णन का संक्षिप्त सार है। उक्खेव-उत्क्षेप प्रस्तावना का नाम है । विपाक सत्र के दुःखविवपाक के दशम अध्ययन का प्रस्तावनासम्बन्धी सूत्रपाठ निम्नोक्त है जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तणं दुहविवागाणं नवमस्त अज्झयणस्स अयमठे परणत्त, दसमस्स गणं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं दुहविव. गाणं के अट्ठे पराणते ? -' अर्थात् यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःख-विपाक के नवम अध्ययन का यदि भदन्त ! यह (पूर्वोक्त) अथ प्रतिपादन किया है तो भदन्त ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दु.खविपाक के दशम अध्ययन का क्या अर्थ कथन किया है ? । अड्ढे० -- यहां के बिन्दु से संसूचित पाठ का विवरण पृष्ठ १२० पर, तथा – परिसा जाव गोयहां पठित जाव-यावत् पद से अभिमत पाठ पृष्ठ ३७५ पर लिखा जा चुका है । तथा –जे? जाव अडमाणे - यहां का जाव-यावत् पद --अन्तेवासी इन्दभूती नाम अरणगारे गोयमसगोत्ते-से ले करच उणाणोवगए सव्वक्खरसन्निवाई - यहां तक के पदों का तथा - छट्टे-छट्टेणं अणिक्वित्तणं तवो. कम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, तते णं से भगवं गोयमे छक्वमणपारणगंसि पढमाए For Private And Personal Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दशम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [५२९ .............................. पोरिसीए सज्झायं करेति, बीयाए पोरिसीए झाणं झियाति-से ले कर - दिट्ठीर पुरओ रिय सोहे - माणे- यहां तक के पदों का, तथा जेणेव वद्धमाणपुरे णगरे तेणेव उवागच्छइ उबागच्छित्ता वद्धमायापुरे नगरे उच्चनीयमझिम कुलाइ- इन पदों का परिचायक है । अन्तेवासी इन्दभूतीइत्यादि पदों का अर्थ पृष्ठ १० और ११ के टिप्पण में, तथा - घट्टकट्टेणं अणिक्खित्तणं-इत्यादि पदों का अर्थ पृष्ठ १२३ पर लिखा जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां भगवान गौतम वीर प्रभु से पारणे के निमित्त वाणिजग्राम नगर में जाने की आज्ञा मांगते हैं, जब कि प्रस्तत में वर्धमानपुर नगर में जाने की । नगरगत भिन्नता के अतिरिक्त और कोई अन्तर नहीं है । तथा ---जेणेव वद्धमाणपुरे इत्यादि पदों का अर्थ है -जहां वर्धमानपुर नामक नगर था वहां पर चले जाते हैं और जा कर उच्च (धनी), नीच (निर्धन) तथा मध्यम सामान्य) कुलों में ....... -सुक्खं भुक्खं - इत्यादि पदों का अर्थ अष्टमाध्याय के पृष्ठ ४३१ पर लिखा जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद एक पुरुष के विशेषण है, जब कि प्रस्तुत में एक नारी के। तथा-चिंता तहेव जाव एवं वयासो- यहां पठित चिन्ता शब्द से विवक्षित पाठ की सूचना पृष्ठ २८७ पर दी जा चुकी है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां एक पुरुष के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है. जब कि प्रस्तुत में एक नारी के सम्बन्ध में । तथा तहेव-तथैव पद का अर्थ है-वैसे ही, अर्थात् गौतम स्वामी उस स्त्री के सम्बन्ध में उक्त विचार करते हुए वर्द्धमानपुर नगर में उच्च (धनी), नीच (निर्धन) और मध्यम (सामान्य) कुलों में भ्रमण करते हुए यथेष्ट सामुदानिक -गृहसमुदाय से प्राप्त भिक्षा को लेकर वर्धमानपुर नामक नगर के मध्य में होते हुए जहां भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहां पाते हैं, अाकर भगवान् के निकट गमनागमनसम्बन्धी प्रतिक्रमण (कृत पाप का पश्चात्ताप) कर तथा आहारसम्बन्धी आलोचना (विचारणा या प्रायश्चित्त के लिए अपने दोषों को गुरु के सन्मुख रखना) की, आहार, पानो दिखलाया, तदनन्तर प्रभु को वन्दना नमस्कार किया और निवेदन किया-प्रभो! आप से प्राज्ञा प्राप्त कर के मैं वर्धमानपुर नगर में गया वहां उच्च प्रादि कुलों में भ्रमण करते हुए मैंने विजयमित्र नरेश की अशोकवाटिका के निकट बड़ी दयनीय अवस्था को प्राप्त एक स्त्री को देखा, उसे देख कर मेरे मन में"-अहह! यह स्त्री पूर्वकृत पुरातनादि कर्मों का फल पा रही है। यह ठीक है कि मैंने नरक नहीं देखे किन्तु यह स्त्री तो प्रत्यक्ष नरकतुल्य वेदना को भोग रही है-" ऐसे विचार उत्पन्न हुए, इन भावों का बोधक तहेव-- तथैव पद है, और इन्हीं भावों के संसूचक पाठ को जाव-यावत् पद से अभिव्यक्त किया गया है, तथा जाव-यावत् पद से अभिमत पद निम्नोक्त पाठ का परिचायक है - -त्ति कटु वद्धमाणपुरे णगरे उच्चनीयमज्झिमकुले अडमाणे अहापज्जत्त समुयाणं गेएहति २ सा घद्धमाणपुरं णगरं मझमज्झणं निग्गच्छइ २ त्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता समणस्स भगवो महावीरस्त अदूरसामंते गमणागमणाए पडिक्कमइ २ त्ता एसणमणेसणे आलोएइ २ ता भत्तपाणं पडिदंसति । समणं भगवं महावोरं वंदति नमंसति २ त्ता एवं वयासीएवं खलु अहं भंते ! तुम्भेहिं अब्भणुराणाते समाणे वदमाणपुरे णगरे उच्चनीयमज्झिमकुले धरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे पासामि एग इथियं सुकवं...वी सराई कूवमाणिं पासित्ता इमे अज्झित्थिते ५ समुप्पज्जित्था-अहो णं एसा इत्थी पुरा पुराणाणां दुच्चिराणाणं दुप्पडिक्कन्ताणं असुभाणं पावा कडागां कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणे विहरति । न मे दिट्ठा नरगा वा नेरइया वा पच्चक्खं खलु एसा इत्थी निरयपडिरूवियं वेयणं वेयइ । इन पदों का अर्थ स्पष्ट ही है। तथा वागरण-का अर्थ है-गौतम स्वामी के उत्तर में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का प्रतिपादन । For Private And Personal Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५३०] श्री विपाक सूत्र [दशम अध्याय श्री गौतम स्वामी की जिज्ञासापूर्ति के लिए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जो कुछ फरमाया, अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में उसका वर्णन करते हुए कहते हैं मल:- एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेणं २ इहेब जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे इन्दपुरे णामणगरे होत्था। तत्थ णं इददत्ते राया पुढवीसिरी णामं गणिया। वएणश्रा । तते णं सा पढवीसिरी गणिया इंदपुरे णगरे बहवे राईसर० जाव प्पभियो चुरणप्पप्रोगेहि य जान अभियोगित्ता उरालाई माणुसभोगभोगाई भुजमाणी विहरति । तते णं सा पुढवीसिरी गणिया ऐयकम्पा ४ सुबहुं पावं कम्मं समज्जिणित्ता पणतीसं वाससताई परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं० णेरइयत्ताए उववन्ना । सा णं तो उवट्टित्ता इहेव वद्धमाणे णगरे धणदेवस्स सत्थवाहस्स पियंगू-मारियाए कुच्छिसि दारियत्ताए उववन्ना । तते णं सा पियंगू भारिया णवण्हं मासाणं बहुपडिपुरणाणं दारियं पयाया। नाम अंजूसिरी। सेसं जहा देवदताए । तते णं से विजए राया आसवा० जहे। वेसमणद तहेव अंजु पासति, णवरं अप्पणो अट्ठाए वरेति जहा तेतली, जाव अंजए दारियाए सद्धि उप्पि जाव विहरति । पदार्थ-एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही । गोतमा! हे गौतम ! । तेणं कालेणं २-उस काल तथा उस समय । जंबुद्दीवे- जम्बूद्वीप नामक | दीवे-द्वीप के अन्तर्गत । भारहे वासे-भारत वर्ष में । इंदपरे-इन्द्रपुर । णाम-नामक । णगरे होत्था- नगर था। तत्थ णं-वहां पर । इददत्ते- इन्द्रदत्त नामक । गया - राजा था । पुढविसिरी-पृथिवीश्री । णाम-नाम की। गणिया -गणिका-वेश्या थी। वराणो.वर्णक-वर्णनप्रकरण पूर्ववत् जानना चाहिये । तते - तदनन्तर । सा-वह । पुढविसिरी-पृथिवीश्री । गणिया-गणिका । इद पुरे-इन्द्रपुर। णगरे - नगर में । बहवे-अनेक । राईसर०-राजा-नरेश, ईश्वर – ऐश्वर्य युक्त । जाव – यावत् । प्पभियो- सार्थवाह-यात्री व्यापारियों का मुखिया अथवा संघनायक प्रभृति -आदि लोगों को । चुराणप्प योगेोहे य -चूर्णप्रयोगों से । जाव -यावत् । अभिागित्ता- वश में कर के । उरालाई-उदार – प्रधान। माणुसभागभोगाई- मनुष्यसम्बन्धी विषय भोगों का | भुजमाणीउपभोग करती हुई । विहरति-समय व्यतीत कर रही थी। तते णं -- तदनन्तर । सा - वह । पुढविसिरी (१) छाया-एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले २ इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे इन्द्रपुर नाम नगरमभूत् । तत्रेन्द्रदत्तो राजा। पृथिवीश्रीः नाम गणका । वर्णकः । ततः सा पृथिवीश्री: गणिका, इन्द्रपुरे नगरे बहून् राजेश्वर ० यावत् प्रभृतीन् चूर्णप्रयोगश्च यावद् अभियोज्य उदारान् मानुषभोगभोगान् भुजाना विहरति । ततः सा पृथिवीभी: गणिका एतत्कर्मा ४ सुबहु पार कर्म समज्यं पंचत्रिंशत् वर्षशतानि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा षष्ठयां पृथिव्यामुत्कर्षेण नैरयिकतयोपपन्ना । सा तत उदृत्येहैव वर्धमाने नगरे धनदेवस्य सार्थवाहस्य प्रियंगू--भार्यायाः कुक्षौ दारिकातयोपपन्ना । तत: सा प्रियं गू भार्या नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु दारिका प्रजाता। नाम अंजू . शेवं यथा देवदत्तायाः । ततः स विजयो राजा अश्ववाह नेकया यथैव वै श्रमणदत्तः, तथैवांजू पश्यति । केवलमात्मनोऽर्थाय वृणीते । यथा तेतलिः । यावद् अंज्वा दारिकया सार्द्धमुपरि यावद् विहरति । For Private And Personal Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दशम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ५३१ 1 पृथिवीश्री नामक । गणिया - गणिका । एयकम्मा ४- एतत्कर्मा', एतद्विद्य, एतत्प्रधान और एतत्समाचार बनी हुई। सुबहु - अत्यधिक । पावं - पाप । कम्मं - कर्म का । समज्जिखित्ता-उपार्जन कर । पतीसं वाससताई १- ३५ सौ वर्ष की । परमाउं - परम आयु को पालइत्ता - पाल कर भोग कर । कालमासे - कालमास में अर्थात् मृत्यु का समय आ जाने पर । कालं किच्चा काल करके । छट्ठीर छठी पुढवीप - पृथिवीनरक में । उक्को से ं० - जिन की उत्कृष्ट स्थिति २२ सागरोपम की है, ऐसे नारकियों में । रइयत्ताए - नारकी रूप से । उववन्ना - उत्पन्न हुई । साणं-वह । तत्रो - वहां से । उव्वहित्ता – निकल कर । - इसी । वज्रमाणे - वर्धमान । गगरे- - नगर में । धणेदवस्स - धनदेव । सत्थवाहस्स - सार्थवाह की। पिभारिया - प्रियंगू नामक भार्या की । कुच्छिसिं कुक्षि- उदर में । दायित्ताए – कन्या रूप से । उववन्ना - उत्पन्न हुई । तते गं - तदनन्तर । सा - उस । पिवंगू भारिया - प्रियंगुभार्या के । इव -- वराहं नौ | मासाणं - मास । बहुपडिपुराणाणं - लगभग परिपूर्ण होने पर । दारियं दारिका बालिका का । पयाया -- जन्म हुआ, उस का । नामं नाम । अंजू सिरी - अज्जूश्री रक्खा गया । सेसं-शेष । जहा - जैसे । देवदत्तार - देवदत्ता का वर्णन किया गया है, वैसे ही जानना । तते गं - तदनन्तर । से- वह । विजए - विजय मित्र । राया - राजा । श्रसवा० - अश्ववाहनिका - अश्वक्रीड़ा के लिए गमन करता हुआ । जहेव – जैसे । वेलमणदत्ते - वैश्रमणदत्त । तहेव - उसी भान्ति । अंजु - अंजुश्री को । पासति - देखता है । णवरं - उस में इतनी विशेषता है कि वह उसे । अपणो - अपने । अट्ठार - लिये । वरेति - मांगता है । जहा - जिस प्रकार | तेतली - तेतलि । जाव - यावत् । अजूर - अंजूश्री नामक । दारियाए - बालिका के । सद्धिं - - साथ, ( महलों के ) । उष्पिं ऊपर | जाव - यावत् । विहरति - विहरण करने लगा । 1 मूलार्थ - गौतम ! इस प्रकार निश्चय ही उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में इन्द्रपुर नाम का एक सुप्रसिद्ध नगर था। वहां इन्द्रदत्त नाम का राजा राज्य किया करता था। नगर में पृथिवीश्री नाम की एक गणिका - वेश्या रहती थी । उस का वन पूर्ववर्णित कामवजा वेश्या की भान्ति जान लेना चाहिए। इन्द्रपुर नगर में वह गरिएका अनेक ईश्वर, तलवर यावत् सार्थवाह श्रादि लोगों को चूर्णादि के प्रयोगों से वश में करके मनुष्यसम्बन्धी उदार - मनोज्ञ कामभोगों का यथेष्ट उपभोग करती हुई आनन्दपूर्वक समय बिता रही थी। तदनन्तर एतत्कर्मा, एतत्प्रधान, एतद्विद्य, तथा एतत् समाचार वह पृथिवी श्री वेश्या अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन कर ३५ सौ वर्ष की परम आयु भोग का कलमास में काल करके छठी नरक के २२ सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले नारकियों के मध्य में नारकीय रूप से उत्पन्न हुई। वहां से निकल कर वह इसी वर्धमानपुर नगर के धनदेव नामक सार्थ वाह की प्रियं भार्या के उदर में कन्यारूप से उत्पन्न हुई अर्थात् कन्यारूप से गर्भ में आई । तदनन्तर उस प्रियं भार्या ने नत्र मास पूरे होने पर कन्या को जन्म दिया और उस का अंजूश्री नाम रक्खा । उस का शेव वर्णन देवदत्ता की तरह जानना । तदनन्तर महाराज विजयमित्र अश्वक्रीडा के निमित्त जाते हुए वैश्रमण दत्त को भान्ति ही अंजूओ को देखते हैं और तेतलि की तरह उसे अपने लिए मांगते हैं, यावत् वे अज्जो के साथ नत प्रासाद में यावत् सानन्द विहरण करते हैं । टीका- गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में उन के द्वारा देखी हुई स्त्री के पूर्वभवसम्बन्धी जीवन-वृत्तान्त का श्रारम्भ करते हुए श्रमण भगवान् महावीर बोले कि - गौतम ! बहुत पुरानी बात है, इसी जम्बूद्वीप के (१) एतत्कर्मा एतद्विद्य श्रादि पदों का अर्थ पृष्ठ १७९ की टिप्पण में दिया जा चुका है । For Private And Personal Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र-- [दशम अध्याय अन्तर्गत भरतक्षेत्र में अर्थात् भारत वर्ष में इन्द्रपुर नाम का एक नगर था, वहां पर महाराज इन्द्रदत्त का शासन था । वह प्रजा का बड़ा ही हितचिन्तक अोर न्यायशील राजा था । इस के शासन में प्रजा को हर एक प्रकार से सुख तथा शान्ति प्राप्त थी। उसो इन्द्रपुर में पृवित्रोश्रो नाम की एक गणिका रहती थी । वह कामशास्त्र की विदुषी, अनेक कलाओं में निपुण, बहुत सी भाषाओं की जानकार और शृङ्गार की विशेषज्ञा थी। इस के अतिरिक्त नृत्य और संगीत कला में भी वह अद्वितीय थी। इसी कला के प्रभाव से वह राजमान्य हो गई थी । हज़ारों वेश्याएं उस के शासन में रहती थीं। उस का रूप लावण्य तथा शारीरिक सौन्दर्य एवं कलाकौशल्य उस के पृथिवीश्री नाम को सार्थक कर रहा था । पृथिवीश्री अपने शारीरिक सौन्दय तथा कलाप्रदर्शन के द्वारा नगर के अनेक राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह प्रभृति - आदि धनी मानी युवकों को अपनी ओर आकर्षित किये हुए थी। किसी को सौन्दर्य से, किसी को कला से और किसी को विलक्षण हावभाव से वह अपने वश में करने के लिए सिद्धहस्त थी, और जो कोई इन से बच जाता उसे वशीकरणसम्बन्धी चूर्णादि के प्रक्षेप से अपने वश में कर लेती। इस प्रकार नगर के रूप तथा यौवन सम्पन्न धनी मानी गृहस्थों के सहवास से वह मनुष्यसम्बन्धी उदारप्रधान विषयभोगों का यथेष्ट उपभोग करती हुई सांसारिक सुखों का अनुभव कर रही थी। वशीकरण के लिये अमुक प्रकार के द्रव्यों का मंत्रोच्चारणपूर्वक या बिना मंत्र के जो सम्मेलन किया जाता है, उसे चूर्ण कहते हैं । इस वशीकरणचूर्ण का जिस व्यक्ति पर प्रक्षेप किया जाता है अथवा जिसे खिलाया जाता है, वह प्रक्षेप करने या खिलाने वाले के वश में हो जाता है। इस प्रकार के २वशीकरणचूण उस समय बनते या बनाये जाते थे और उनका प्रयोग भी किया जाता था, यह प्रस्तुत सूत्रपाठ से अनायास ही सिद्ध हो जाता है। पृथिवीश्री नामक की वेश्या ने काममूलक विषयवासना की पूर्ति के लिए गुप्त और प्रकट रूप में जितना भी पापपुज एकत्रित किया, उसी के परिणामस्वरूप वह छठी नरक में गई और उस ने वहां नरकगत वेदनाओं का उपभोग किया। प्रश्न - यह ठीक है कि मैथुन से मनुष्य के शरीर में अवस्थित सारभूत पदार्थ वीर्य का क्षय होता (१) भरतक्षत्र अर्ध चन्द्रमा के आकार का है। उसके तीन तरफ़ लवण समुद्र और उत्तर में चुल्ल हिमवन्त पर्वत हैं अर्थात् लवण समुद्र और चल्लाहमवंतपर्वत से उस की हद बंधी है : भरत के मध्य में वैताढ्य पर्वत है, और उस से दो भाग होते हैं । वैताढ्य की दक्षिण तरफ़ का दक्षिणार्ध भरत और उत्तर की तरफ़ का उत्तरार्द्ध भरत कहलाता है। चुल्ल हिमवन्त के ऊपर से निकलने वाली गंगा और सिन्धु नदी वैताग्य की गुफाओं में से निकल कर लवण समुद्र में मिलती हैं, इससे भरत के छः विभाग हो जाते हैं। इन छः विभागों में साम्राज्य प्राप्त करने वाला व्यक्ति चक्रवर्ती कहलाता है । तीर्थ कर वगरह दक्षिणाधे के मध्य खण्ड में होते अर्धमागधी कोष) (२) तान्त्रिकग्रन्थों में स्त्रीवशीकरण, पुरुषवशीकरण और राजवशीकरण आदि अनेकविध प्रयोगों का उल्लेख है। उन में केवल मंत्रों, केवल तंत्रों ओर मंत्रपूर्वक तंत्रों के भिन्न भिन्न प्रकार वर्णित हैं, परन्तु सामान्यरूप से इस के दो प्रकार होते हैं । प्रथम यह कि इस का प्रयोग दैविकशक्ति को धारण करता है। इस प्रयोग से जो भी कुछ होता है वह देवबल से होता है अर्थात् देवता के प्रभाव से होता है । इस मान्यता के अनुसार इस का प्रयोग वही कर सकता है जिस के वश में दैविक शक्ति हो। दूसरी मान्यता यह है कि इस का प्रयोग करने वाला ऐसे पुद्गलों ---परमाणु प्रों का संग्रह करता है कि जिन में आकर्षण शक्ति प्रधान होती है, और उन के प्रयोग से जिस पर कि प्रयोग होता है वह दास की तरह आज्ञाकारी तथा अनुकूल हो जाता है । प्रथम में देवदृष्टि को प्राधान्य प्राप्त है और दूसरे में मात्र आकर्षक परमाणुत्रों का प्रभाव है । इस में देवदृष्टि को कोई स्थान नहीं। . For Private And Personal Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हिन्दी भाषा टीका सहित । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दशम अध्याय ] है । वीर्यनाश से शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक शक्ति का ह्रास होता है । बुद्धि मलिन हो जाती है। किसी भी काम में उत्साह नहीं रहने पाता, तथा यह भी ठीक है कि मैथुनसेवी व्यक्ति दूसरों के अनुचित दबाव से झुक जाता है, उसकी प्रवृत्ति दब्बू हो जाती है, वह लोगों के अपमान का भाजन बन जाता है, तथा और मो दुर्गा हैं जिनका वह शिकार हो जाता है। इस के अतिरिक्त क्या विषयसेवन में हिंसा (प्राविध) की संभावना भी रहती है ? ( उत्तर - हां, अवश्य रहती है। शास्त्रों में लिखा है कि जिस समय कामप्रवृत्तिमूलक स्त्री और के पुरुष का सम्बन्ध होता है, उस समय असंख्यात संख्यातीत ) जीवों की विराधना होती है । स्त्री पुरुष सम्बन्ध के समय होने वाले प्राणिविनाश के लिये शास्त्रों में एक बड़ा ही मननीय उदाहरण दिया है। वहां लिखा है कि कल्पना करो कि कोई पुरुष एक बांस की नलिका में रूई या बूर को भर कर उसमें अग्नि के समान तपी हुई लोहे की सलाई का प्रवेश करदे, तो उससे रूई या बूर जल कर भस्म हो जाता है। इसी तरह स्त्री पुरुष के संगम में भी असंख्यात संमूच्छिम त्रस जीवों का विनाश होता है। यहां नलिका के समान स्त्री की जननेन्द्रिय और शलाका के समान पुरुप्रचिन्ह तथा तूल- रूई के सदृश वे संमूच्छिम जीव हैं, जो दोनों के संगम से मर जाते हैं। इस लिये विषय-मैथुन - प्रवृत्ति जहां अन्य अनर्थों की उत्पादिका है, वहां वह हिंसामूलक भी है । इसी जीवविराधना को लक्ष्य में रखकर ही तत्त्ववेत्ता महापुरुषों ने ब्रह्मचर्य के पालन का उपदेश दिया है। इस के विपरीत जो मानव प्राणी ब्रह्मचर्य से पराङ्मुख होकर निरन्तर विषयसेवन में प्रवृत्त रहते हैं, वे अपना शारीरिक और मानसिक बल खोने के साथ २ जीवों की भी भारी संख्या में विराधना करते हुए अधिक से अधिक पतन की ओर प्रस्थान करते हैं । तत्र पापकर्मों के उपचय से उन की आत्मा इतनी भारी हो जाती है कि उन को ऊर्ध्वगति की प्राप्ति संभव हो जाती है और उन्हें नारकीय दुःखों का उपभोग करना पड़ता है 1 ५३३ पृथिवीश्री नाम की वेश्या के नरकगमन का कारण विषयासक्ति ही अधिक रहा है । उस ने इस जघन्य सावद्य प्रवृत्ति में इतने अधिक पापकर्म उपार्जित किये कि जिन से अधिक प्रमाण में भारी हुई उस की आत्मा को छठी पृथिवी में उत्पन्न हो कर अपनी करणी का फल पाना पड़ा । भगवान् कहते हैं कि गौतम ! नरक की भवस्थिति पूरी कर फिर वह इसी वर्धमानपुर नगर में धनदेव सार्थवाह की भार्या प्रियंगुश्री के उदर में कन्यारूप से उत्पन्न हुई अर्थात् गर्भ में आई । लगभग नवमास पूरे होने के अनन्तर प्रियंगुश्री ने एक कन्यारत्न को जन्म दिया। जन्म के बाद नामसंस्कार के समय उस का अंजूश्री नाम रक्खा गया । उस का भी पालन, पोषण, और संवर्धन देवदत्ता की तरह सम्पन्न हुआ, तथा उस का रूपलावण्य और सौन्दर्य भी देवदत्ता की भांति पूर्व था । (१) मेहुणे भंते! सेवमाणस्स केरिसिर संजमे कज्जइ ? गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे रूपनालियं वा बूरनालियं वा तत्तणं करणं समविद्ध सेज्जा, एरिसेणं गोयमा ! मेहुणं सेवमाणस्स संजमे कज्जइ । भगवतीसूत्र श० २ उद्०५, सू० १०६ ) । इस के अतिरिक्त मैथुन के सम्बन्ध में श्री दरवैकालिक सूत्र में क्या ही सुन्दर लिखा है - मूलमेयमहम्मस्स महादोससमुस्सयं । तम्हा मेहुण संसग्गं, निरगंधा वज्जयन्ति रां ॥ श्र०६ / १७ । For Private And Personal Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [दशम अध्याय ... एक दिन अंजूश्री अपनी सहेलियों और दासियों के साथ अपने उन्नत प्रासाद के झरोखे में कनक. कन्दुक अर्थात् सोने की गेंद से खेल रही थी । इतने में वर्धमानपुर के नरेश महाराज विजयमित्र अश्वक्रीड़ा के निमित्त भ्रमण करते हुए उधर से गुज़रे तो अचानक उन की दृष्टि अंजूश्री पर पड़ी। उस को देखते ही वे उस पर इतने मुग्ध हो गए कि उन को वहां से आगे बढ़ना कठिन हो गया। अजूश्री के सौन्दर्यपूर्ण शरीर में कन्दुकक्रीड़ा से उत्पन्न होने वाली विलक्षण चंचलता ने अश्वारूढ विजय नरेश के मन को इतना चंचल बना दिया कि उस के कारण वे अंजूश्री को प्राप्त करने के लिये एकदम अधीर हो उठे । मन पर से उन का अंकुश उठ गया और वह अंजुश्री की कन्दुकक्रीडाजनित शारीरिक च वलता के साथ ऐसा उलझा कि वापिस आने का नाम ही नहीं लेता। सारांश यह है कि अंजूश्री को देख कर महाराज विजयनरेश उस पर मोहित होगये और साथ में आने वाले अनुचरों से उस के नाम, ठाम आदि के विषय में पूछताछ कर येन केन उपायेन उसे प्राप्त करने की भावना के साथ वापिस लौटे अर्थात अागे जाने के विचार को स्थगित कर स्वस्थान को ही वापिस आ गये। इन के आगे का अर्थात् अंजूश्री को प्राप्त करने के उपाय से ले कर उस की प्राप्ति तक का सारा वृत्तान्त अक्षरश: वही है जो वैश्रमणदत के वणन में आ चुका है । केवल नामों में अन्तर है। वहां देवदत्ता यहां अंजूश्री. वहां दत्त यहां धनदेव एवं वहां वैश्रमण दत्त और यहां विजय नरेश है । इसके अतरिक्त वैश्रमणदत्त और विजय मित्र की याचना में कुछ अन्तर है। वैश्रमणदत्त ने तो देवदत्त। को पुत्रवधू के रूप में मांगा था जब कि विजयमित्र अंजू श्री की याचना महाराज कनकरय के प्रधानमन्त्री 'ततेलि कुमार की भान्ति भार्यारूप से अपने लिए कर रहे हैं । तदनन्तर अजूश्री के साथ विजय नरेश का पाणिग्रहण हो जाता है और दोनों मानवसम्बन्धी उदार विषयभोगों का उपभोग करते हुए सानन्द जीवन व्यतीत करने लगे। ___-गणिया वरणश्रो-यहां पठित-वर्णक पद का अर्थ है-वर्णनप्रकरण. अर्थात् गणिका - सम्बन्धी वर्णन पहले किया जा चुका है। इस बात को सूचित करने के लिये सूत्रकार ने -वएणो -इस पद का प्रयोग किया है। प्रस्तुत में इस पद से संसूचित - होत्था, अहीण. जाब सुरुवा वावत्तरीकलापंडियासे ले कर - श्रादेवच्चं जाव विहरति-यहां तक के पाठ का अर्थ पृष्ठ १०६ पर लिखा जा चुका है। राईसर० जाव प्पभियो तथा चुरणप्पओगेहि य जाव अभियोगत्ता-यहां पठित (१) तेतलिपुत्र या तेतलि कुमार का वृत्तान्त " ज्ञाताधमकथाङ्ग" नाम के छठे अंग के १४वें अध्ययन में वर्णित हुअा है । उस का प्रकृतोपयोगी सारांश इस प्रकार है - तेतलि कुमार तेतलिपुर नगर के अधिपति महाराज कनकरथ का प्रधान मंत्री था, जो कि राजकार्य के संचालन में निपुण और नीतिशास्त्र का परममर्मज्ञ था। उस के नीति कौशल्य ने ही उसे प्रधानमंत्री के सुयोग्य पद पर आरूढ होने का समय दिया था। उसी तेतलिपुर नगर में कलाद नाम का एक सुवर्णकार (सुनार) रहता था जो कि धनसम्पन्न और बुद्धिमान् था, परन्तु तेतलिपुर में उस की "मूषिकाकार दारक" के नाम से प्रसिद्धि थी। उस की स्त्री का नाम भद्रा था । भद्रा भी स्वभाव से सौम्य और पतिपरायणा थी। इन के पोहिला नाम की एक रूपवती कन्या थी। जन्म से लेकर युवावस्था पर्यन्त पोहिला का पालन पोषण और शिक्षा दीक्षा आदि का प्रबन्ध भी योग्य धायमाताओं द्वारा सम्पन्न हुआ था। वह भी रूपलावण्य और शारीरिक सौन्दर्य में अपूर्व थी। इस के आगे का अर्थात् उन्नत महल के झरोखे में दासियों के साथ कंदुकक्रीडा करना, और प्रधान मंत्री तेतलि कुमार का उसे देखना एवं निजार्थ याचना करना अर्थात् उसे अपने लिए मांगना अादि संपूर्ण वृत्तान्त पूर्व वर्णित वेश्रमणदत्त या विजयमित्र की तरह ही उल्लेख किया है। अधिक के जिज्ञासु झाताधर्मकथाङ्ग सूत्र में ही उक्त कथासंदर्भ का अवलोकन कर सकते हैं । For Private And Personal Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दशम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । प्रथम-जाव-यावत् पद -तलवरमाडम्बियकोइम्बियइब्भसेट्ठिसत्यवाह-इन पदों का तथा द्वितीय जाव-यावत् पद -हिय उडावणेहिं य निराहवणेहिं य परहवणेहिं य वसीकरणेहिं य आभिगिएहिं य-इन पदों का परिचायक है । तलवर -आदि शब्दों का अर्थ पृष्ठ १६५ पर, तथा-हियउड्डावणेहि इत्यादि पदों का अर्थ पृष्ठ १८७ पर लिखा जा चुका है । तथा -एयकम्मा ४- यहां के अङ्क से अभिमत पाठ का विवण पृष्ठ १७९ की टिप्पण में दिया जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है वहां ये एक पुरुष के विशेषण है, जब कि प्रस्तुत में एक स्त्री के । लिंगगत भिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है। -उकोसेणं णेरइयत्तार- यहाँ का बिन्दु -वावीससागरोवमट्टि इएसु नेरइरसु- इन पदों का परिचायक है । इन पदों का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है । -सेसे जहा देवदत्ताए - इन पदों से सूत्रकार ने अञ्जुश्री के जीवनवृत्तान्त को देवदत्ता के तुल्य संसूचित किया है, अर्थात् जिस प्रकार दुःखविपाक के नवम अध्ययन में देवदत्ता के पालन, पोषण, शारीरिक सौंदर्य तथा कुन्जादि दासियों के साथ विशाल भवन के ऊपर झरोखे में सोने की गेंद से खेलने का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार अजूश्री के सम्बन्ध में भावना कर लेनी चाहिये। -पासवा ० - यहां का बिन्दु-हणियाए णिज्जायमाणे-इस पाठ का बोधक है । तथाजहेव घेसमणदत्त तहेव अजू-इन पदों से सूत्रकार ने नवम अध्ययन में वर्णित पदार्थ की ओर संकेत किया है । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार नवमाध्याय में वर्णित रोहीतकनरेश वैश्रमणदत्त गाथापति के घर के निकट जाते हुए सोने की गेंद से खेलती हुई देवदत्ता को देखते हैं और उसके रूपादि से विस्मत एवं मोहित होते हैं, वैसे ही वर्धमाननरेश विजय धनदेव के घर के निकट जाते हुए अञ्जूश्री को देख कर उस के रूपादि से विस्मित एवं मोहित हो जाते हैं। -णवर अप्पणो अट्ठार वरेति-- यहां प्रयुक्त लवरं- इस अव्यय पद का अर्थ है-केवल अर्थात् केवल इतना अन्तर है । तात्पर्य यह है कि वैश्रमणदत्त और विजयभित्र में इतना अन्तर है कि वैश्रमणदत्त नरेश ने देवदत्ता को युवराज पुष्यनन्दो के लिये मांगा था जब कि विजय नरेश ने अजूश्री को अपने लिये अर्थात् अपनी रानी बनाने के लिये याचना की थी । -जाव अजूए-यहां पठित जाव-यावत् पद से श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र के १४वें अध्ययन में वर्णित तेतलिपत्र ने जिस तरह पोटिल्ला को अपने लिये मांगा था-श्रादि कथासदर्भ के संसूचित पाठ को सूचित किया गया है, जिसे श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग में देखा जा सकता है। - उधि जाव विहरति- यहां पठित जाव-यावत् पद से अभिमत-पासाएवरगए फुटमाणेहिंसे ले कर-पच्चणुभवमाणे – यहां तक के पद पृष्ठ २३४ पर लिखे जा चुके हैं । अन्तर मात्र इतना है कि वहां अभग्नसेन का वर्णन है, जब कि वस्तुत में विजय नरेश का ! अब सूत्रकार अंजूश्री के आगामी जीवनवृत्तान्त का वर्णन करते हैंमूल-'तते णं तीसे अंजए देवीए अन्नया कयाइ जाणिमले पाउन्भूते यानि होत्था । (१) छाया- ततस्तस्या अंज्वा देव्या अन्यदा कदाचित् योनिशूलं प्रादुर्भूतं चाप्यभूत् । ततः स विजयो राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दाययति २ एवमवादीत् -गच्छत देवानुप्रिया: ! वर्धमानपुरे नगरे शृघाटक० यावद् एवमवदत-एवं खलु देवानुप्रिया: ! अंज्वा देव्या योनिशूलं प्रादुर्भूतं य इच्छति वैद्यो वा ६ यावदुद्घोषयन्ति । For Private And Personal Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [दशम अध्याय तते णं से विजए राया कोडुचियपुरि से सदावेति २ त्ता एवं वयासी-गच्छह णं देवाणुपिया ! वद्ध मानपुरे नगरे सिंघा० जाव एवं वयह-एवं खलु देवाणुप्पिया! अंजूए देवीए जोणिसूले पाउब्भूते जो णं इच्छति वेज्जो वा ६ जाव उग्यासेति । तते णं ते बहवे वेज्जा वा ६ इमं एयारूवं उम्पोसणं सोचा निसम्म जेणेव विजए राया तेणेव उवागच्छन्ति अंतर देवीए बहूहि उप्पत्तियाहिं ४ बुद्धिहिं परिणामेमाणा इन्छंति अंजूए देवीए जोणिसूलं उत्सामित्तए, नो संचाएंति उत्सामित्राए । तते णं ते वहवे वेज्जा य ६ जाहे नो संचाएंति अंजूए देवीए जाणिसूलं उवसापितए, ताहे संता तंता परितंता जामेव दिसं पाउब्भृता तामेव दिसं पडिगता । तते णं सा अंजू देवी तीए वेयणाएं अभिभूया समाणी सुक्का भुक्खा निम्मंसा कट्ठाई कलुणाई वीसराइविलवति । एवं खलु गोयमा ! अंजू दवी पुरा जाव विहरति ।। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । तीसे -उस । अञ्जए -अंजू । देवीर- देवी के । अन्नयाअन्यदा । कयाइ-कदाचित् । जोणिसूले - योनिशूल -योनि में होने वाली असह्य वेदना । पाउन्भूतेप्रादुर्भूत-उत्पन्न । यावि होत्या-हो गई थी। तते णं-तदनन्तर । से-वह । विजए - विजयमित्र । राया-राजा । कोडुबियपुरिसे-कौटुम्बिक पुरुषों-पास में रहने वाले अनुचरों को । सद्दावेति २ त्ताबुलाता है और बुलाकर । एवं वयालो-इस प्रकार कहने लगा । देवाणुपिया' !-हे भद्र पुरुषो!। गाहणं-तुम जाओ । वद्वमाणपुरे-वर्धमानपुर । णगरे-नगर के । सिंघा० -शृङ्गाटक-त्रिपथ । जव-यावत् सामान्य मार्गों में । एवं - इस प्रकार । वयह-कहो-उद्घोषणा करो । एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही । देवाणुप्पिया!-हे महानुभावो!। अंजए-अजू। देवीए-देवी के। जाणिसूले-योनिशूलरोगविशेष । पाउन्भूते-प्रादुर्भूत हो गया है -योनि में तीव्र वेदना उत्पन्न हो गई, तब । जो णं-जो कोई । वेज्जो वा ६-वैद्य या वैद्यपुत्र आदि । इच्छति-चाहता है । जाव - यावत् अर्थात् उपशान्त करने वाले को महाराज विजयमित्र पर्याप्त धनसम्पत्ति से सन्तुष्ट करेगा, इस प्रकार । उग्रोसेंति --उद्घोषणा णा करते हैं। तते णंतदनंतर (नगरस्थ) । ते-वे । बहवे-बहुत से । वेज्जा वा ६ -वैद्य आदि । इमं -यह । एयारूवं - इस प्रकार की। उग्घोसणं-उद्घोषणा को । सोच्चा -सुन कर । निसम्म- अर्थरूप से अवधारण कर । जेणेवजहां पर । विजए-विजयमित्र । गया-राजा था तेणेव-वहां पर । उवागच्छन्ति २ ता - आ जाते हैं, श्राकर । अज्जए -अंजू । देवीए -देवो के पास उपस्थित होते हैं, अोर । बहूहिं -विविध प्रकार से । उप्पति याहिं ४ - प्रोत्साति को अादि । बुद्धिहि-बुदियों के द्वारा । परिणाममाणा -परिणाम को प्राप्त कर अर्थात् ततस्ते बहवो वैद्या वा ६ इमामेतद्रपामुदघोषणां श्रुत्वा निशम्य यत्रैव विजयो राजा तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य अंज्वा देव्या बहुभिः औत्पातिकीभि. ४ बुद्धिभिः परिणमयन्त इच्छन्ति, अंज्वा देव्या यो नशू नमुपशयितुम् । नो संशकनुवन्ति उपशमयितुम् । ततस्ते बहवो वैद्या : ६ यदा नो संशकनुवन्ति अज्या देव्या योनिशूलमुवशमयितुम् , तदा प्रान्ता: तान्ता: परितान्ताः यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतास्तामेव दश प्रतिगताः । ततः सा अंजूदेवी तया वेदनया अभिभूता सती शुष्का बुभूझिता निनासा कष्टानि करुणानि विस्वराणि विलपति । एवं खलु गौतम ! अंजुर्देवी पुरा यावद् विहरति । (१) देवानुप्रिय शब्द का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ ६७ के टिप्पण में किया जा चुका है। For Private And Personal Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दशम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [५७ निदान आदि द्वारा निर्णय करते हुए वे वैद्य । अतए देवीए-अंजूदेवी के(नामा प्रकार के प्रयोगों द्वारा)। जो. णिसूलं - योनिशल को। उवसामित्तर-उपशान्त करना । इच्छंति - चाहते हैं, अर्थात् यत्न करते हैं, परन्तु उवसामित्तार -उपशान्त करने में । नो संचाएंति-समर्थ नहीं होते अर्थात् अंजूदेवी के योनिशूल को उपशांत दूर करने में सफल नहीं हो पाये। तते णं-तदनंतर । ते वेज्जा य ६-वे वैद्य श्रादि । जाहे-जब । अतएअंजू। देवीए- देवी के । जोणिसूल-योनिशूल को । उवसामित्तए-उपशान्त करने में । नो संचाएंति-समर्थ नहीं हो सके। ताहे - तब । तंता-तांत-खिन्न । संता-श्रांत, और । परितंता-हतोत्साह हुए २ । जामेव-जिस । दिसं-दिशा से। पाउम्भूता-आये थे । तामेव - उसी । दिसं-दिशा को । पडिगता- वापिस चले गये। तते णं-तदनन्तर । सा-वह । अञ्जू देवी- अंजू देवी । ताप-उस । वेयणाए-वेदना से । अभिभूया-अभिभूत –युक्त । समाणी-हुई २ । सुक्का-सूख गई। भुक्खा - भूखी रहने लगी। निम्मंसा-मांसरहित हो गई । कट्ठाई-कष्टहेतुक । कतुणाई - करुणोत्पादक । वीसराईदीनतापूर्ण वचनों से । विलवति-विलाप करती है । गोयमा !- हे गौतम !। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। अज्जू देवी -अंजूदेवी । पुरा जाव विहरति-पूर्वसंचित अशुभ कर्मों का फल भोग रही है। मूलार्थ-किसी अन्य समय अंजूश्री के शरीर में योनिशूल नामक रोग का प्रादुर्भाव हो गया। यह देख विजयनरेश ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर कहा कि तुम लोग वर्धमानपुर में जाकर वहां के त्रिपथ, चतुष्पथ यावत् सामान्य रास्तों पर यह उद्घोषणा कर दो कि देवी अंजूश्री के योनिशूल रोग उत्पन्न हो गया है, अतः जो कोई वैद्य या वैद्यपुत्र आदि उस को उपशांत कर देगा तो उसे महाराज विजयमित्र पुष्कल धन प्रदान करेंगे । तदनन्तर राजाज्ञा से अनुचरों के द्वारा की गई इस उद्घोषणा को सुन कर नगर के बहुत से अनुभवी वैद्य, वैद्यपुत्र आदि विजयमित्र के पास आते हैं और वहां से देवी अंजूश्री के पास उपस्थित हो कर औत्पातिकी आदि बुद्धियों के द्वारा परिणाम को प्राप्त करते हुए विविध प्रकार के आनुभविक प्रयोगों के द्वारा देवी अंजूश्री के योनिशूल को उपशान्त करने का यत्न करते हैं, परन्तु उन के प्रयोगों से देवी अंजूश्री का योनिशूल उपशान्त नहीं हो पाया । तदनन्तर जब वे अनुभवी वैद्य अंजश्री के योनिशूल को शमन करने में विफल हो गये, तब वे खिन्न, श्रान्त और हतोत्साह हो कर जिधर से आये थे उधर को ही चले गये । तत्पश्चात् देवी अंजुश्री उस शूल जन्य वेदना से दुःखी हुई २ सूखने लगी, भूखी रहने लगी और मांसरहित होकर कष्ट, करुणाजनक और दीनतापूर्ण शब्दों में विलापकरती हई जीवन यापन करने लगी। भगवान् कहते हैं कि हे गौतम ! इस प्रकार देवो अंजूश्री अपने पूर्वोपार्जित पाप कर्मों के फल का उपभोग करती हुई जीवन व्यतीन कर रही है । टीका-सुख और दुःख ये दोनों प्राणी के शुभ और अशुभ कर्मों के फलविशेष हैं, जो कि समय २ पर प्राणी उन के फल का उपभोग करते रहते हैं। शभकर्म के उदय में जीव सुखी और अशुभ के उदय में जीव दु:ख का अनुभव करता है । एक की समाप्ति और दूसरे का उदय इस प्रकार चलने वाले कर्मचक्र में भ्रमण करने वाले जीव को सुख के बाद दुःख और दुःख के अनन्तर सुख का निरंतर अनुभव करना पड़ता है। तात्पर्य यह है कि जब तक आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध है तब तक उन में समय २ पर सुख और दुःख दोनों की अनुभूति बनी रहती है। उक्त नियम के अनुसार अजूश्री के जब तक तो शुभ कर्मों का उदय रहा तब तक तो उसे शारीरिक और मानसिक सब प्रकार के सुख प्राप्त रहे, महाराज विजयमित्र की महारानी बन कर For Private And Personal Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५३८] श्री विपाक सूत्र . [ दशम अध्याय मानवोचित सांसारिक वैभव का उस ने यथेष्ट उपभोग किया, परन्तु आज उस के वे शुभ कर्म फल देकर प्रायः समाप्त हो गये। अब उन की जगह अशुभ कर्मों ने लेली है। उन के फलस्वरूप वह एक तीव्र वेदना का अनुभव कर रही है। योनिशल के पीड़ा ने उस के शरीर को सुखा कर अस्थिपंजर मात्र बना दिया। उस के शरीर की समस्त कान्ति सर्वथा लुप्त हो गई । वह शूलजन्य असह्य वेदना से व्याकुल हुई २ रात दिन निरन्तर विलाप करती रहती है। महाराज विजयमित्र ने उस की चिकित्सा के लिये नगर के अनेक अनुभवी चिकित्सको, निपुण वैद्यों को बुलाया और उन्हों ने भी अपने बुद्धि बल से अनेक प्रकार के शास्त्रीय प्रयोगों द्वारा उसे उपशान्त करने का भरसक प्रयत्न किया परन्तु वे सब विफल ही रहे । किसी के भी उपचार से कुछ न बना । अन्त में हताश हो कर उन वैद्यों को भी वापिस जाना पड़ा। यह है अशुभ कर्म के उदय का प्रभाव, जिस के आगे सभी प्रकार के आनुभविक उपाय भी निष्फल निकले। श्रमण भगवान् महावीर फरमाने लगे कि गौतम ! तुम ने महाराज विजयमित्र की अशोकवाटिका के समीप आन्तरिक वेदना से दुःखो होकर विलाप करती हुई जिस स्त्री को देखा था वह यही अंजूश्री है, जो कि अपने पूर्वोपार्जित अशभ कर्मों के कारण दु:खमय विपाक का अनुभव कर रही है। -सिघा. जाव एवं-यहां पठित जाव-यावत् पद-दुग-तिय-चउक्क-चच्चरमहापह-पहेसु महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणा-इन पदों का तथा-वेज्जे वा ६ - यहां का अङ्क-वेज्जपुत्तो वा जाणो वा जाणयपुत्तो वा तेइच्छिओ वा तेइच्छियपुत्तो वा-इन पदों का परिचायक है । इन पदों का अर्थ पृष्ठ ६५ तथा ६६ पर लिखा जा चुका है। -जाव उग्घोसंति-यहां का जाव -यावत् पद-अजए देवीए जोणिसूलं उवसामित्तते, तस्स णं विजए राया विउलं अत्थसंपयाणं दलयति, दोच्च पितच्चं पि उग्घोसेह उग्घोसित्ता एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणेह । तते णं ते कोडुबिया पुरिसा, एयमटुं करयलपरिग्गहियं मत्थए दसणहं अंजलिं कटु पडिसुणेति पडिसुणिता वद्वमानपुरे सिंघाडग० जाव पहेसु महया २ सद्देणं एवं खलु देवाणुप्पिया! अंजए देवीए जोणिसूले पाउन्भूते, तं जो णं इच्छति वेज्जो वा ६ अंजए देवीए जोणिसूलं उवसामित्तते, तस्स णं विजए राया विउल अत्थसंपयाणं दलयति त्ति- इन पदों का परिचायक है। इन पदों का अर्थ स्पष्ट ही है। -उत्पत्तियाहिं ४ बुद्धिहिं- यहां के अक से अभिमत अवशिष्ट वैनयिकी आदि तीन बुद्धियों की सूचना अष्टमाध्याय के पृष्ठ ४५९ पर की जा चुकी है। तथा-श्रान्त, तान्त और परितान्त पदों का अर्थ पृष्ठ ७३ पर, तथा-शुष्का-इत्यादि पदों का अर्थ पीछे पृष्ठ ४३१ पर, तथा -पुरा जाव विहरति- यहां के जाव-यावत् पद से विवक्षित पदों का विवरण पृष्ठ २७१ पर किया जा चुका अञ्जूश्री के जीवनवृत्तान्त का श्रवण कर और उसके शरीरगत रोग को असाध्य जान कर मृत्यु के अनन्तर उस का क्या बनेगा १, इस जिज्ञासा को ले कर गौतम स्वामी प्रभु से फिर कहते हैं - मूल-२ अंजू णं भते ! देवी इअो कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति ?, कहिं उववजिहिति ।। पदार्थ-भंते! हे भगवन् ! । अंजू णं देवी-अजूदेवी । इनो- यहां से । कालमाने-कालमास में। कालं किच्चा-काल करके । कहिं-कहां । गच्छिहिति ?-- जायेगी। । कहि-कहां पर । (१) अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद द्वितीयान्त तथा पुरुषवर्णन में उपन्यस्त हैं। (२) छाया- अञ्जूः भदन्त ! देवी इतः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति ।, कुत्र उपपत्स्यते ।। For Private And Personal Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दशम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित। ......... [५३९ उववज्जिहिति-उत्पन्न होगी ? । मूलार्थ -भगवन् ! अजूदेवी यहां से कालमास में अर्थात् मृत्यु का समय आ जाने पर, काल कर के कहां जायेगी ? और कहां पर उत्पन्न होगी? । टीका -वधमाननरेश विजयमित्र के अशोकवाटिका के निकट जाते हुए गौतम स्वामी ने जो एक स्त्री का दयनीय दृश्य देखा था, तथा उस से उन के मन में उस के पूर्वजन्मसम्बन्धी वृत्तान्त को जानने के जो संकल्प उत्पन्न हुए थे, उन की पूर्ति हो जाने पर वे बड़े गद्गद हुए और फिर उन्हों ने भगवान् से उस के आगामी भवों के सम्बन्ध में पूछना प्रारम्भ किया। वे बोले -भदन्त ! अजूश्री यहां से मर कर कहां जायेगी ? और कहां उत्पन्न होगी ?, तात्पर्य यह है कि अञ्जूश्री इसी भान्ति संसार में घटीयन्त्र की तरह जन्म मरण के चक्र' में पड़ी रहेगी या इस का कहीं उद्धार भी होगा ?, इस के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फ़रमाया, अब सूत्रकार उस का उल्लेख करते हैं - मूल -२ गोतमा ? अंजू णं देवो बहूई वासाइं परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पमाए पुढवीए णेरइयत्ताए उववज्जिहिइ । एवं संसारो जहा पढ़मो तहा णेयव्वं जाव वणस्सति । सा णं ततो अणंतर उबट्टित्ता सम्वोभद्द गरे मयूरचाए पच्चायाहिति । से णं तत्थ साउणिएहिं वधिते समाणे तत्थेव सव्वोभद्दे णगरे सेडिकुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिति । सेणं तत्य उम्मुवालमावे. तहारूवाणं थेराणं अतिए केवलं बोहिं बुझिहिति । पवज्जा० । सोहम्मे । ततो देवलोगाओ पाउखएणं कहिं गच्छिहिति ?, कहिं उववज्जिहिति ? गोतमा ! महाविदेहे जहा पढमे जाव सिज्झिहिति जाव अतं काहिति । एवं खलु जम्ब ? समणेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दसमस्स अज्झयणस्स अयम? पएणचे। सेवं भंते !, सेवं भंते! । ॥ दुहविवागेसु दससु अझयणेसु पढमो सुयक्खंधो समत्तो ॥ (१) अहो ! संसारकूपेऽस्मिन् जीवाः कुर्वन्ति कर्मभिः । अरघघटीन्यायेन एहिरेयाहिरां क्रियाम् ॥१॥ अर्थात् अाश्चर्य है कि इस संसाररूप कूप में जीव (प्राणी ) कर्मों के द्वारा अरघट्टघटी-न्याय के अनुसार गमनागमन की क्रिया करते रहते हैं । .(२) छाया-गौतम ! अर्देवी नवतिं वर्षाणि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकतयोपपत्स्यते, एवं संसारो यथा प्रथम: तथा ज्ञातव्यो यावद् वनस्पति० । सा ततोऽनन्तरमुद्धृत्य सर्वतोभद्रे नगरे मयूरतया प्रत्यायास्यति । स तत्र शाकुनिर्हतः सन् तत्रैव सर्वतोभद्रे नगरे श्रेष्ठिकुले पुत्रतया प्रत्यायास्यति । स तत्र उन्मुक्तबालभावः तथारूपाणां स्थविराणामन्ति के केवलं बोधि भोत्स्यते प्रवज्या० । सौधर्म । ततो देवलोकाद् आयुःक्षयेण कुत्र गमिष्यति ?, कुत्रोपपत्स्यते ? । गौतम ! महाविदेहे यथा प्रथम: यावत् सेत्स्यति, यावद् अन्तं करिष्यति । एवं खलु जम्बू ! श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन दुःखविपाकानां दशमस्याध्ययनस्यायमर्थ: प्रज्ञप्त: । तदेवं भदन्त !, तदेवं भदन्त ! । ॥ दुःखविपाकेषु दशस्वध्ययनेषु प्रथमः श्रुतस्कन्धः समाप्तः ॥ For Private And Personal Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५४०] श्री विपाक सूत्र [दशम अध्याय पदार्थ-गोतमा !-हे गौतम !। अञ्जू देवी-जूदेवी । नउई-नवति (९०) । वासाई | वर्षों की । परमा-परम आयु । पालइत्ता-पाल कर । कालमासे-कालमास में । कालं किच्चा-काल कर के । इमीसे-इस । रयणप्पभाए -रत्नप्रभा नामक । पुढवीए-पृथिवी में । णेरइयत्ताए-नारकीरूप से । उववन्जिहिद-उत्पन्न होगी। एवं-इस प्रकार । संसारो-संसारभ्रमण । जहा- जैसे। पढमोप्रथम अध्ययन में प्रतिपादन किया है। तहा-तथा-उसी तरह । णेयव्वं-जानना चाहिए । जाव-यावत् । वणस्सति०-वनस्पतिगत निम्बादि कटु वृक्षों तथा कटु दुग्ध वाले अर्कादि के पौधों में लाखों वार उत्पन्न होगी। साणं-वह । ततो-वहां से । अणंतरं-व्यवधानरहित । उव्वहिता-निकल कर । सव्वोभद्दे-सर्वतोभद्र । णगरे-नगर में । मयूरत्ताए-मयूर-मोर के रूप में। पच्चायाहिति-उत्पन्न होगी। से णं-वह मोर । तत्थ-वहां पर । साउणिएहिं-शाकुनिकों-पक्षिघातक शिकारियों के द्वारा। वधिते समाणे-वध किया जाने पर । तत्थेव-उसी । सव्वोभद्दे-सर्वतोभद्र । णगरे- नगर में । सेठ्ठिकुलंसि-वेष्ठिकुल में । पुत्तत्ताए-पुत्ररूप से । पच्चायाहिति-उत्पन्न होगा। सेणं-वह। तत्थ-- वहां पर । उम्मुक्कबालभावे०-बालभाव को त्याग कर -यौवनावस्था को प्राप्त हुए तथा विज्ञान की , परिपक्व अवस्था को प्राप्त किए हुए। तहारूवाणं-तथारूप । थेराणं-स्थविरों के । अंतिए-समीप । केवलं-केवल अर्थात् शंका, आकांक्षा आदि दोषो से रहित । बोधि-बोधि (सम्यक्त्व) को। बुझिहितिप्राप्त करेगा, तदनंतर । पव्वज्जा०-प्रव्रज्या ग्रहण करेगा, उस के अनन्तर । सोहम्मे० -सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा । ततो-तदनन्तर । देवलोगाश्रो-वहां की अर्थात् देवलोक की । उक्खएणंआयु पूर्ण कर। कहि-कहां । गच्छिहिति ? -जायेगा । कहि-कहाँ । उववज्जिहिद ? -- उत्पन्न होगा। गोतमा!-हे गौतम! । महाविदेहे-महाविदेह क्षेत्र में (जायेगा और वहां उत्तम कल में जन्मेगा) । जहा पढमे-जैसे प्रथम अध्ययन में वर्णन किया है , तद्वत् । जाव-यावत् । सिज्झिहिति-सिद पद को प्राप्त करेगा। जाव-यावत् । श्रतं काहिति-सर्व दुःखों का अन्त करेगा। एवं इस प्रकार । खलुनिश्चय ही । जम्बू !- हे जम्बू ! । समणेणं-श्रमण । जाव-यावत् । संपत्रोणं-सम्प्राप्त ने । दुहविवागाणं-दुःखविपाक के । दसमस्स-दसवें । अज्झयणस्स-अध्ययन का । अयम? - यह अर्थ । पएणत्ते-प्रतिपादन किया है । भंते ! हे भगवन् ! । सेवं-वह इसी प्रकार है । भंते ! हे भगवन् ! । सेवं - वह इसी प्रकार है । दुहविवागेसु-दु:खविपाक के । दससु-दस | अज्झयणेसु-अध्ययनों में । पढमो-प्रथम । सुयश्खंधो-श्रुतस्कन्ध । समत्तो-सम्पूर्ण हुआ। मूलार्थ-हे गौतम ! अंजदेवी ९० वर्ष को परम आयु को भोग कर कालमास में काल करके इस रत्नप्रभा नामक पृथिवी में नारकीरूप से उत्पन्न होगी। उस का शेष संसारभ्रमण प्रथम अध्ययन की तरह जानना चाहिए यावत् वनस्पतिगत निम्बादि कटुवृक्षों तथा कटुदुग्ध वाले अर्क आदि पौधों में लाखों बार उत्पन्न होगी, वहां की भवस्थिति को पूर्ण कर वह सर्वतोभद्र नगर में मयूर-मोर के रूप में उत्पन्न होगी। वहां वह मोर पक्षिघातकों के द्वारा मोरा जाने पर उसी सवतोभद्र नगर के एक प्रसिद्ध श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा। वहां बालभाव को त्याग, यौवन अवस्था को प्राप्त तथा विज्ञान की परिपक्व अवस्था को उपलब्ध करता हुआ वह 'तथारूप स्थविरों के समीप बोधिलाभ-सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा। तदनन्तर प्रव्रज्या-दीक्षा ग्रहण करके, मृत्यु के बाद सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होगा। गौतम- भगवन् ! देवलोक की आयु तथा स्थिति पूरी होने के बाद वह कहां जायगा ?, कहां उत्पन्न (१) तथारूप स्थविर का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ ९७ पर किया जा चुका है। For Private And Personal Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दशम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित। [५४१ होगा ? ___ भगवान् – गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में जाएगा और वहां उत्तम कुल में जन्म लेगा, जैसे कि प्रथम अध्ययन में वर्णन किया गया है, यावत सर्व दुःखों से रहित हो जाएगा। हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के दशवें अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। जम्ब-भगवन् ! आप को यह कथन सत्य है, परम सत्य है। ॥ दशम अध्ययन सम्पूर्ण ॥ ॥ दुःखविपाकीय प्रथम श्र तस्कन्ध समाप्त ॥ टीका-परमदुःस्विता अजूदेवी के भावी भवों की गौतम स्वामी द्वारा प्रस्तुत की गई जिज्ञासा की पूाते में भगवान् ने जो कुछ फ़रमाया है, उस का उल्लेख ऊपर मूलार्थ में किया जा चुका है, जो कि सुगम होने से अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता । ____ महापुरुषों की जिज्ञासा भी रहस्यपूर्ण होती है, उस में स्वलाभ की अपेक्षा परलाभ को बहुत अवकाश रहता है । जूदेवी के विषय में उस के अतीत, वर्तमान और भावी जीवन के विषय में जो कुछ पूछा है, तथा उस के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फरमाया है, उस का ध्यानपूर्वक अवलोकन और मनन करने से विवारशील व्यक्ति को मानव जीवन के उत्थान के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध होते हैं । इस के अतिरिक्त आत्मशुद्धि में प्रतिबन्धरूप से उपस्थित होने वाले काम, मोह आदि कारणों को दूर करने में साधक को जिस बल एवं साहस की श्रावश्यकता होती है, उस की काफी सामग्री इस में विद्यमान है। ____ मूलगत "एवं संसारो जहा पढमो, जहा णेयव्वं' - इस उल्लेख से सूत्रकार ने मृगापुत्र नामक प्रथम अध्ययन को सूचित किया है। अर्थात् जिस प्रकार विपाकसूत्रगत प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र का संसारभ्रमण प्रतिपादन किया गया है, उसी प्रकार अंजूश्री के जीव का भी समझ लेना चाहिए । अंजूश्री और मृगापुत्र के जीव का शेष संसारभ्रमण समान है, ऐसा बोधित करना सूत्रकार को इष्ट है, तथा मृगापुत्र का संसारभ्रमण पूर्व के प्रथम अध्ययन में वर्णित हो चुका है। प्रश्न-सूत्रकार ने प्रत्येक स्थान पर "संसारो जहा पढमो" - का उल्लेख कर के सब का संसारभ्रमण समान ही बतलाया है, तो क्या सब के कम एक समान थे?. क्या कर्मबन्ध के समय उन के अध्यवसाय में कोई विभिन्नता नहीं थी।। उत्तर - सामान्यरूप से तो यह सन्देह ठीक मालूम देता है, परन्तु यदि कुछ गम्भीरता से विचार किया जाये तो इस का समाहित होना कुछ कठिन नहीं है । 'आगमों में लिखा है कि संसार में अनन्त आत्माएं हैं । किसी का कर्ममल भिन्न तथा किसी का अभिन्न साधनों से संगृहीत होता है, इसी प्रकार कमफल भी भिन्न और अभिन्न दोनों रूप से मिलता है। मान लो-दो आदमियों ने ज़हर खाया तो उन को फल भी बराबर सा हो यह आवश्यक नहीं, क्योंकि विष किसी के प्राणों का नाशक होता है और किसी का घातक नहीं भी होता । सारांश यह है कि कर्मगत समानता होने पर भी फलजनक साधनों में भिन्नता हो सकती है ___ जैसा २ कम होगा, वैसा २ फल होगा। कई बार एक ही स्थान मिलने पर फल भिन्न २ होता है । जैसे-अनेकों अपराधी हैं किन्तु दण्ड विभिन्न होने पर भी स्थान एक होता है, जिसे कारागारजेल के नाम से पुकारा जाता है । इसी तरह जीवों का संसारभ्रमण एक सा होने पर भी फल भिन्न २ हो तो इस में कौनसी आपत्ति है ।, अथवा-जो बराबर के कर्म करने वाले हैं तो उन का संसारभ्रमण (१) देखो-श्री भगवतीसूत्र शतक २९, उद्देश० १ । For Private And Personal Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org ५४२] श्री विपाक सूत्र [दशम अध्याय तथा फल भी बराबर होगा। इस सूत्र में उन आत्माओं का वर्णन है जिन्हों ने भिन्न २ कर्म किये हैं, और उन का दण्ड भी भिन्न २ है. परन्तु स्यान अर्थात् संसार एक है। तभी तो यह वर्णन किया है कि संसारभ्रमण के अनन्तर कोई महिष बनता है, कोई मृग तथा कोई मोर और कोई हंस बनता है । इसी तरह मच्छ और शूकर आदि का भी उल्लेख है । तब र्याद दण्डगत भिन्नता न होती तो महिष आदि विभिन्न रूपों में उल्लेख कैसे किया जाता ?, इसलिये सूत्र में उल्लेख की गई संसारभ्रमण की समानता स्थानाश्रित है जोकि युक्तियुक्त और आगमसम्मत है । तात्पर्य यह है कि सूत्रकार के उक्त कथन से परिणामगत विभिन्नता को कोई क्षत नहीं पहुंचती। अंजूश्री का जीव वनस्पतिकायगत कटु वृक्षों तथा कटुदुग्ध वाले अर्कादि पौधों में लाखों वार जन्म मरण करने के अनन्तर सर्वतोभद्र नगर में मोर के रूप में अवतरित होगा । वहां पर भी उसके दुष्कर्म उस का पीछा नहीं छोड़ेगे । वह शाकुनिकों-पक्षिघातकों के हाथों मृ यु को प्राप्त हो कर उसी नगर क एक धनी परिवार में उत्पन्न होगा। वहां युवावस्था को प्राप्त कर विकास-मार्ग की अोर प्रस्थित होता हुआ वह विशिष्ट संयमी मुनिराजों के सम्पर्क में आकर सम्यकत्व को उपलब्ध करेगा । अन्त में साधुवर्म में दीक्षित होकर कर्मबन्धनों के तोड़ने का प्रयास करेगा। जीवन के समाप्त होने पर वह सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देवस्वरूप से उत्पन्न होगा । वहां के दैविक सुखों का उपभोग करेगा। इतना कह कर भगवान् मौन हो गये । तब गौतम स्वामी ने फिर पूछा कि भगवन् ! देवभवसम्बन्धी आयु को पूर्ण कर अंजूश्री का जीव कहां जायगा? और कहां उत्पन्न होगा ?, इसके उत्तर में भगवान् बोले - गौतम ! महाविदेह क्षेत्र के एक कुलीन घर में वह जन्मेगा, वहां संयम की सम्यक अाराधना से कर्मों का आत्यंतिक क्षय करके सिद्धगति को प्राप्त होगा। तात्पर्य यह है कि यहां आकर उस की जीवनयात्रा का पर्यवसान हो जायगा। सौधर्म देवलोक में अंजूश्री के जीव की उत्पत्ति बतला कर मौन हो जाने और गौतम स्वामी के दोबारा पूछने पर उस की अग्रिम यात्रा का वर्णन करने से यही बात फलित होती है कि स्वर्ग में गमन करने पर भी आत्मा की सांसारिक यात्रा समाप्त नहीं हो जाती । वहां से च्यव कर उसे कहीं अन्यत्र उत्पन्न होकर अपनी जीवनयात्रा को चालू रखना ही पड़ता है । अन्त में आर्य सुधर्मा स्वामी अपने प्रिय शिष्य जम्बू स्वामी से कहने लगे-जम्बू ! पतितपावन श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने दाखविणक के अंजूश्री नामक दसवें अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। मैंने भगवान् से जैसा श्रवण किया है वैसा ही तुम को सुना दिया है। इस में मेरी निजी कल्पना कुछ नहीं । ___ आर्य सुधर्मा स्वामी के उक्त वचनामृत का कर्णपुटों द्वारा सम्यक् पान कर संतृप्त हुए जम्बू स्वामी आर्य सुधर्मा स्वामी के पावन चरणों में सिर झुकाते हुए गद्गद् स्वर से कह उठते हैं - "सेवं भन्ते!, सेवं भन्ते !” अर्थात् भगवन् ! जो कुछ अापने फरमाया है, वह सत्य है, यथार्थ है । -णेयव्वं जाव वेणस्लति० - यहां का जाव-यावत् पद पृष्ठ ८९ में पढ़े गए-सा णं ततो अणंतरं उव्वहिता सरीसवेसु उववजिजहिति । तत्थ णं कालं किच्चा दोच्चाए पुढवीए -- से ले करतेएइंदिसु बेइन्दिएसु-यहां तक के पदों का. तथा - वणस्सति० - यहां का विन्दु - कडुयरुकबेसु कडुयदुद्धिएसु...अणेगसतसहसक्खुतो उववजिहिति-इन पदों का परिचायक है । तथा-उम्मुक्कबालभावे० - यहां का बिन्दु-जावणगमणुपत्ते विराणायपरिणयमेत्ते -इन पदों का परिचायक है । इन का अर्थ पृष्ठ ३२९ पर लिखा जा चुका है। तथा-पवज्जा । सोहम्मे-ये पद पृष्ठ ३१२ पर पढ़े गये For Private And Personal Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दशम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित। [५४३ २ (बुझिहित्ता) अगाराओ अणगारिय पव्वाहिति-से ले कर-कप्पे देवत्ताए उववज्जिहिति-इन पदों के परिचायक हैं। -महाविदेहे जहा पढमे जाव लिझिहिति--अर्थात् अंजूश्री का जीव देवलोक से च्युत हो कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा, उस का अवशिष्ट वर्णन प्रथम अध्ययन में वर्णित मृगापुत्र की तरह समझ लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि सूत्रकार ने - "जहा पढमे- यहां प्रयुक्त -यथा तथा प्रथम इन शब्दो क ग्रहण कर प्रथमाध्ययन में वर्णित मृगापुत्र की ओर संकेत किया है, और जो "- अंज श्री के जीव का महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होने के अनन्तर मोक्षपयन्त जीवनवृत्तान्त मगापत्र की भान्ति जानना चाहिये- न भा परिचायक है। तथा महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष जाने तक के कथावृत्त को सूचित करने वाले पाठ का बोधक जाव - यावत् पद है। यावत् पद से बोधित होने वाला-वासे जाई कुलाई भवन्ति अडढाई - से ले कर-वत्तव्वया जाव-यहां तक का पाठ पृष्ठ ३१२ पर लिखा जा चुका है। -सिज्झिहिति जाव अन्तं काहिति- यहां पठित जावत् - यावत् पद से-बुझिहिति मुच्चिहिति, परिणिवाहिति सव्वदुक्खाणं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । सिज्झिहिति इत्यादि पदों का अर्थ निम्नोक्त है १-सिज्झिहिति-सब तरह से कृतकृत्य हो जाने के कारण सिद्ध पद को प्राप्त करेगा। २-बुझिहिति- केवल ज्ञान के आलोक से सकल लोक और अलोक का ज्ञाता होगा। ३ -मुन्चिहिति- सर्व प्रकार के ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कर्मों से विमुक्त हो जाएगा। ४-परिणिवाहिति-समस्त कमजन्य विकारों से रहित हो जायेगा । ५-सव्वदुक्वाणमंतं काहिति-मानसिक, वाचिक और कायिक सब प्रकार के दु:खों का अन्त कर डालेगा अर्थात् अव्याबाध सुख को उपलब्ध कर लेगा। -समणेणं जाव सम्पत्तणं - यहां पठित जाव-यावत् पद से- भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धणं पुरिसुन्मेणं पुरिससीहेणं पुरिसवर पुण्डरीएणं पुरिसवरगन्धहत्थिणा लोगुत्तमणं लोगनाहेणं लोगहिएणं लोगपईवेण लोगपज्जोयगरे अभयदए चमखुदएगो मग्गदरणं सरणइएणं जीवदरणं बोहिदएणं धम्मदपणां धम्मदेसए धम्नायएणं धम्मसारहिणा धम्मवर चउरंतचक्कवटिणा दीवो ताणं सरणं गई पइट्ठा अप्पडिहयवरनाणदंसणधरे वियदृच्छउमेणं जिणेरणं जाणएणं तिराणे तारए बुद्धण वोहएण मुत्तण मोयएण सव्वराणुणा सव्वदरिसिणा सिवम यलमरुअमण तमकाटयमव्वावाहमपुणरावित्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं - इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । श्रमण आदि पदों का अर्थ निम्नोक्त है १-श्रमण - तपस्वी अथवा प्राणिमात्र के साथ समतामय - समान व्यवहार करने वाले को श्रमण कहते हैं। २-भगवान् -जो ऐश्वर्य से सम्पन्न और पूज्य होता है, वह भगवान् कहलाता है। ३-महावीर-जो अपने वैरियों का नाश कर डालता है, उस विक्रमशाली पुरुष को वीर कहते हैं । वीरों में भी जो महान् वीर है, वह महावीर कहलाता है। प्रस्तुत में यह भगवान् वर्धमान का नाम है, जो कि उन के देवाधिकृत संकटों में सुमेह की तरह अचल रहने तथा घोर परीषहों और उपसर्गों के आने पर भी क्षमा का त्याग न करने के कारण देवताओं ने रखा था। आगे कहे जाने वाले आदिकर आदि सभी विशेषण भगवान् महावीर के ही हैं। For Private And Personal Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५४४] श्री विपाक सूत्र - [दशम अध्याय ४-आदिकर-आचारांग आदि बारह अंगग्रन्थ श्रतधर्म कहे जाते हैं । श्रुतधर्म के आदिकर्ता अर्थात् श्राद्य उपदेशक होने के कारण भगवान महावीर को आदिकर कहा गया है । ५-तीर्थकर-जिस के द्वारा संसाररूपी मोह माया का नद सुविधा से तिरा जा सकता है, उसे तीर्थ कहते हैं और धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाला तीर्थकर कहलाता है। ६.-स्वयंसम्बुद्ध-अपने आप प्रबुद्ध होने वाला, अर्थात् क्या ज्ञेय है ?, क्या उपादेय है ? और क्या उपेक्षणीय है (उपेक्षा करने योग्य) है ? -- यह ज्ञान जिसे स्वतः ही प्राप्त हुआ है वह स्वयंसंबुद्ध कहा जाता है । ७-परुषोत्तम-- जो पुरुषों में उत्तम-श्रेष्ठ हो, उसे पुरुषोत्तम कहते हैं, अर्थात् भगवान् के क्या बाह्य और क्या प्राभ्यन्तर, दोनों ही प्रकार के गुण अलौकिक होते हैं, असाधारण होते हैं, इसलिये वे पुरुषोत्तम कहलाते हैं। ८-पुरुषसिंह-भगवान महावीर पुरुषों में सिंह के समान थे । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार मृगराज सिंह अपने बल और पराक्रम के कारण निर्भय रहता है, कोई भी पशु वीरता में उस का सामना नहीं कर सकता, उसी प्रकार भगवान् महावीर भी संसार में निर्भय रहते थे, तथा कोई भी संसारी प्राणी उन के आत्मबल, तप और त्याग संबन्धी वीरता की बराबरी नहीं कर सकता था। ९-पुरुषवरपुडरीक -पुण्डरीक श्वेत कमल का नाम है । दूसरे कमलों की अपेक्षा श्वेत कमल, सौन्दर्य एवं सुगन्ध में अत्यन्त उत्कृष्ट होता है। हज़ारों कमल भी उस की सुगन्धि की बराबरी नहीं कर सकते । भगवान् महावीर पुरुषों में श्रेष्ठ श्वेत कमल के समान थे अर्थात् भगवान् मानव-सरोवर में सर्वश्रेष्ठ कमल थे । उन के आध्यात्मिक जीवन की सुगन्ध अनन्त थी और उस की कोई बराबरी नहीं कर सकता था । १०-पुरुषवरगन्धहस्ती-भगवान् पुरुषों में गन्धहस्ती के समान थे । गन्धहस्ती एक विलक्षण हाथी होता है। उस में ऐसी सुगन्ध होती है कि सामान्य हाथी उस की सुगन्ध पाते ही त्रस्त हो भागने लगते हैं । वे उस के पास नहीं ठहर सकते । भगवान् को गन्धहस्ती कहने का अर्थ यह है कि जहां भगवान् विचरते थे वहां अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि कोई भी उपद्रव नहीं होने पाता था। ११-लोकोत्तम-लोकशब्द से स्वर्गलोक, मर्त्यलोक और पाताललोक, इन तीनों का ग्रहण होता है। तीनों लोकों में जो ज्ञान आदि गुणों की अपेक्षा सब से प्रधान हो, वह लोकोत्तम कहलाता है। १२-लोकनाथ - नाथ शब्द का अर्थ है -योग (अप्राप्त वस्तु का प्राप्त होना) और क्षेम (प्राप्त वस्तु की संकट के समय पर रक्षा करना) करने वाला नाथ कहलाता है । लोक का नाथ लोकनाथ कहा जाता है । सम्यग्दर्शनादि सद्गुणों की प्राप्ति कराने के कारण तथा उन से स्खलित होने वाले मेघकुमार आदि को स्थिर करने के कारण भगवान् को लोकनाथ कहा गया है। . १३-लोकहित-लोक का हित करने वाले को लोकहित कहते हैं । भगवान् महावीर मोहनिद्रा में प्रसुप्त विश्व को जगा कर आध्यात्मिकता एवं सच्चरित्रता की पुण्यविभूति से मालामाल कर उस का हित सम्पादित करते थे। १४ - लोकप्रदीप -लोक के लिये दीपक की भान्ति प्रकाश देने वाला लोकप्रदीप कहा जाता है । भगवान् लोक को यथावस्थित वस्तु स्वरूप दिखलाते हैं, इसलिये इन्हें लोकप्रदीप कहा गया है। For Private And Personal Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दशम अध्याय ], हिन्दी भाषा टीका सहित । [५४५ १५-लोकप्रद्योतकर-प्रद्योतकर सूर्य का नाम है। भगवान् महावीर लोक के सूर्य थे । अपने केवल ज्ञान के प्रकाश को विश्व में फैलाते थे और जनता के मिथ्यात्वरूप अन्धकार को नष्ट कर के उसे सन्मार्ग सुझाते थे । इस लिये भगवान् को लोकप्रद्योतकर कहा गया है। १६-अभयदय-अभय -निर्भयता का दान देने वाले को अभयदय कहते हैं । भगवान् महावीर तीन लोक के अलौकिक एवं अनुपम दयालु थे । विरोधी से विरोधी के प्रति भी उनके हृदय में करुणा की धारा बहा करती थी। चण्डकोशिक जेसे भीषण विषधर की लपलपाती ज्वालाओं को भी करुणा के सागर वीर ने शांत कर डाला था। इस लिए उन्हें अभयदय कहा गया है। १७-चक्षुर्दय-श्रांखों का देने वाला चतुर्दय कहलाता है । जब संसार के ज्ञानरूप नेत्रों के सामने अज्ञान का जाला जाता है, उसे सत्यासत्य का कुछ विवेक नहीं रहता, तब भगवान् संसार को ज्ञाननेत्र देते हैं, अज्ञान का जाला साफ करते हैं । इसी लिए भगवान् को चतर्दय कहा गया है। १८-मार्गदय-मार्ग के देने वाले को मार्गदय कहते हैं । सम्यगज्ञान, सम्यगदर्शन और सम्यक चारित्ररूप रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है । भगवान् महावीर ने इस का वास्तविक स्वरूप संसार के सामने रखा था, अतएव उन को मार्गदय कहा गया है । १९-शरणदय-शरण त्राण को कहते हैं । अाने वाले तरह २ के कष्टों से रक्षा करने वाले को शरणदय कहा जाता है । भगवान् की शरण में आने पर किसी को किसी प्रकार का कष्ट नहीं रहने पाता था। २०-जीवदय-संयम जीवन के देने वाले को जीवदय कहते हैं । भगवान् की पवित्र सेवा में आने वाले अनेकों ने संयम का अाराधन कर के परम साध्य निर्वाण पद को उपलब्ध किया था। २१-बोधिदय-बोधि सम्यक्त्व को कहते हैं । सम्यक्त्व का देने वाला बोधिदय कहलाता है। २२-धर्मदय-धर्म के दाता को धर्मदय कहते हैं । भगवान् महावीर ने अहिंसा, संयम तथा तपरूप धर्म का संसार को परम पावन अनुपम सन्देश दिया था । ___२३-धर्मदेशक-धर्म का उपदेश देने पाले को धर्मदेशक कहते हैं । भगवान् श्रुतधर्म और चारित्रधर्म का वास्तविक मर्म बतलाते हैं, इसलिये उन्हें धर्मदेशक कहा गया है । २४-धर्मनायक-धर्म के नेता का नाम धर्मनायक है । भगवान् धर्ममूलक सदनुष्ठानों का तथा धर्मसेवी व्यक्तियों का नेतृत्व किया करते थे। २५-धर्मसारथि-सारथि उसे कहते हैं जो रथ को निरुपद्रवरूप से चलाता हुआ उस की रक्षा करता. है, रथ में जुते हुए बैल आदि प्राणियों का संरक्षण करता है । भगवान् धर्मरूपी रथ के सारथि है। भगवान् धर्मरथ में बैठने वालों के सारथि बन कर उन्हें निरुपद्रव स्थान अर्थात् मोक्ष में पहुँचाते हैं। २६-धर्मवर-चतुरन्त-चक्रवर्ती-पूर्व, पश्चिम और दक्षिण इन तीन दिशाओ में समुद्र - पर्यन्त और उत्तर दिशा में चूनहिमवन्त पर्वतपर्यन्त के भूमिभाग का जो अन्त करता है अर्थात् इतने विशाल भूखण्ड पर जो विजय प्राप्त करता है, इतने में जिस की अखण्ड और अप्रतिहत आज्ञा चलती है, उसे चतुरन्तचक्रवर्ती कहा जाता है । चक्रवर्तियों में प्रधान चक्रवर्ती को वरचतुरन्तचक्रवर्ती कहते हैं । धर्म के वरचतुरन्त चक्रवर्ती को धर्मवरचतुरन्तचक्रवर्ती कहा जाता है । भगवान् महावीर स्वामी नरक, तियंच, मनुष्य और देव इन चारों गतियों का अन्त कर संपूर्ण विश्व पर अपना अहिंसा और सत्य आदि का धर्मराज्य स्थापित करते हैं । अथवा-दान, शील, तप और भावरूप चतुर्विध धर्म की साधना स्वयं अन्तिम कोटि तक करते हैं और जनता को भी इस धर्म का उपदेश देते हैं अतः वे धर्म के वरचतुरन्तचक्रवर्ती कहलाते For Private And Personal Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री विषाक सूत्र ५४६ ] [दशम अध्याय हैं । अथवा - जिस प्रकार सब चक्रवर्ती के अधीन होते हैं, चक्रवर्ती के विशाल साम्राज्य में हो सब राजाओं का राज्य अन्तर्गत हो जाता है अर्थात् अन्य राजाओं का राज्य चक्रवर्ती के राज्य का ही एक अंश होता है, उसी प्रकार संसार के समस्त धर्मतत्त्व भगवान् के तत्त्व के नीचे आ गये हैं । भगवान् का अनेकान्त तत्त्व चक्रवर्ती के विशाल साम्राज्य के समान है और अन्य धर्मप्ररूपकों के तत्त्व एकान्तरूप होने के कारण अन्य राजाओं के समान | सभी एकान्तरूप धर्मतत्व अनेकान्त तत्त्व के अन्तर्गत हो जाते हैं । इसी लिये भगवान् को धर्म का श्रेष्ठ चक्रवर्ती कहा गया है । २७ - द्वीप, त्राण, शरण, गति, प्रतिष्ठा - द्वीप टापू को कहते हैं, अर्थात् संसार - सागर में नानाविध दुःखों की विशाल लहरों के अभिघात से व्याकुल प्राणियों को भगवान् सान्त्वना प्रदान करने के कारण द्वीप कहे गये हैं । अनर्थों - दुःखों के नाशक को त्राण कहते हैं । धर्म और मोक्षरूप अर्थ का सम्पादन करने के कारण भगवान् को शरण कहा गया है। दुःखियों के द्वारा सुख की प्राप्ति के लिये जिस का आश्रय लिया जाए उसे गति कहते हैं। प्रतिष्ठा शब्द "- संसाररूप गर्त में पतित प्राणियों के लिये जो श्राधाररूप है - " इस अर्थ का परिचायक है । दुःखियों को श्राश्रय देने के कारण गति और उन का आधार होने से भगवान् को प्रतिधा कहा गया है । -- Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मूल में भगवया इत्यादि पद तृतीयान्त प्रस्तुत हुए हैं, जब कि दीवो इत्यादि पद प्रथमान्त । ऐसा क्यों है ? यह प्रश्न उत्पन्न होना अस्वाभाविक नहीं है, परन्तु श्रपपातिकसूत्र में वृत्तिकार भयदेव सूरि ने - नमोऽयुगं श्ररिहन्ताणं भगवन्ताणं - इत्यादि षष्ठयन्त पदों में पढ़े गये - दीवो ताणं सरणं गई पट्टाइन प्रथमान्त पदों की व्याख्या में - दीवा ताणं सरणं गई पट्ठा इत्यत्र जे तेर्सि नमोऽयु णमित्येवं गमनमिका कार्येति - इस प्रकार लिखा है । । अर्थात् वृत्तिकार के मतानुसार - दोत्रो ताणं सरणं गई पट्ठाऐसा ही पाठ उपलब्ध होता है और उसके अर्थसंकलन में जे तेसिं नमोऽयु णं - ( जो द्वीप, त्राण, शरण, गति और प्रतिष्ठा रूप हैं उन को नमस्कार हो), ऐसा अध्याहारमूलक अन्वय किया है । प्रस्तुत में जो प्रश्न उपस्थित हो रहा है, वह भी वृत्तिकार की मान्यतानुसार - दोवो ताणं सरणं गई पइट्टा, इत्यत्र जो तेरा त्ति - (जो द्वीप, त्राण, शरण, गति तथा प्रतिष्ठा रूप है, उस ने ) इस पद्धति से समाहित हो जाता है 1 २८ - अप्रतिहतज्ञानदर्शनवर - अप्रतिहत का अर्थ है - किसी से बाधित न होने वाला किसी सेन रुकने वाला । ज्ञान, दर्शन के धारक को ज्ञानदर्शनघर कहते हैं । तब भगवान् महावीर स्वामी अप्रतिहत ज्ञान, दर्शन के धारण करने वाले थे, यह अर्थ फलित हुआ । २९–व्यावृत्तछन – छद्म शब्द के -१ - आवरण, और २ – छत, ऐसे दो अर्थ होते हैं । ज्ञानावरणीय आदि चार घातक कर्म आत्मा की ज्ञान, दर्शन आदि मूल शक्तियों को छादन किए अर्थात् Ch हुए रहते हैं, इस लिये वे छद्म कहलाते हैं । जो छद्म से अर्थात् ज्ञानावरणीय आदि चार घातक कर्मों से तथा छल से अलग हो गया है, उसे व्यावृत्तछद्म कहते हैं । भगवान् महावीर छद्म से रहित थे । ३० - जिन- - राग और द्व ेष आदि श्रात्मसम्बन्धी शत्रुओं को पराजित करने वाला, उन का दमन करने वाला जिन कहलाता है । - ३१ - ज्ञायक – सम्यक् प्रकार से जानने वाला ज्ञायक कहलाता है । तात्पर्य यह है कि भगवान् राग आदि विकारों के स्वरूप को जानने वाले थे । रागादि विकारों को जान कर ही जीता जा सकता है। I कहीं - - जावपणं - ऐसा पाठ भी उपलब्ध होता है । जापक का अर्थ है - जिताने वाला । अर्थात् भगवान् स्वयं भी रागद्व ेषादि को जीतने वाले थे और दूसरों को भी जिताने वाले थे । ३२ - तीर्ण-जो स्वयं संसार सागर से तर गया है, वह तीर्ण कहलाता है । For Private And Personal Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दशम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [५४७ ३३ - तारक – जो दूसरों को संसारसागर से तराने वाला है, उसे तारक कहते है । भगवान् महावीर स्वामी ने जुनमाली आदि अनेकानेक भव्य पुरुषों को संसारसागर से तारा था । ३४ - बुद्ध - जो सम्पूर्ण तत्त्वों के बोध को उपलब्ध कर रहा हो, वह बुद्ध कहलाता है । ३५ - बोधक - जो दूसरों को जीव, अजीव आदि तत्त्वों का बोध देने वाला हो, उसे बोधक कहते हैं । जीव आदि तत्त्वों का बोध देने के कारण भगवान् को बोधक कहा गया है। I ३६ - मुक्त - जो स्वयं कर्मों से मुक्त है, अथवा - जो बाह्य और श्राभ्यन्तर दोनों प्रकार की ग्रन्थियों गांठों से रहित हो, उसे मुक्त कहा जाता है । भगवान् महावीर स्वामी आभ्यन्तर और बाह्य ग्रन्थियों से रहित थे । - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अज्ञान ३७ - मोचक जो दूसरों को कर्मों के बन्धनों से मुक्त करवाता है, उसे मोचक कहते हैं । ३८ - सर्वज्ञ - चर और अचर सभी पदार्थों का ज्ञान रखने वाला और जिस में का सर्वथा अभाव हो, वह सर्वज्ञ कहलाता है । भगवान् घट २ के ज्ञाता होने के कारण सर्वज्ञ कहे गए हैं। ३९ - सर्वदर्शी - चर और अचर सभी पदार्थों का द्रष्टा, सर्वदर्शी कहा जाता है । भगवान् सर्वदर्शी थे । ४० - शिव, अचल, अरुज, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, अपुनरावृत्ति सिद्धगति नामक स्थान को प्राप्त । अर्थात् शिव आदि पद सिद्धगति (जिस के सब काम सिद्ध - पूर्ण हो जावें उसे सिद्ध कहते हैं । आत्मा निष्कर्म एवं कृतकृत्य होने के अनन्तर जहां जाता है उसे सिद्वगति कहा जाता है) नामक स्थान के विशेषण हैं। शिव आदि पदों का अर्थ निम्नोक्त है - १ - शिव कल्याणरूप को कहते हैं । अथवा - जो बाधा, पीड़ा और से रहित हो वह शिव दुःख कहलाता है । सिद्धगति में किसी प्रकार की बाधा या पीड़ा नहीं होती, अतः उसे शिव कहते हैं । २ - अचल – चल रहित अर्थात् स्थिर को कहते हैं । चलन दो प्रकार का होता है, एक स्वाभाविक दूसरा प्रायोगिक । दूसरे की प्रेरणा बिना अथवा अपने पुरुषार्थ के बिना मात्र स्वभाव से हो जो चलन होता है, वह स्वाभाविकचलन कहा जाता है। जैसे जल में स्वभाव से चंचलता है, इसी प्रकार बैठा मनुष्य भले ही स्थिर दीखता है किन्तु योगापेक्षया उस में भी चंचलता है, इसे ही स्वाभाविकचलन कहते हैं । वायु आदि बाह्य निमित्तों से जो चंचलता उत्पन्न होती है, वह प्रायोगिकचलन कहलाता है । मुक्तात्माओं में न स्वभाव से ही चलन होता है और न प्रयोग से ही । मुक्तात्माओं में गति का अभाव है, इसलिये भी वह अचल है । ३ - रुज - रोगरहित को अरुज कहते है । शरीर रहित होने के कारण मुक्तात्मा को वात, पित्त और कफ़ जन्य शारीरिक रोग नहीं होने पाते और कर्मरहित होने से भाव रोग रागद्व ेषादि भी नहीं हो । ४ अनन्त अन्तर रहित का नाम है । मुक्तात्माएं सभी गुणापेक्षया समान होती है । अथवा मुकात्माओं का ज्ञान, दर्शन अनन्त होता है और अनन्त पदार्थों को जानता तथा देखता है, अत एव गुणापेक्षया वे अनन्त हैं । अथवा अन्तरहित को अनन्त कहते हैं । सिद्धगति प्राप्त करने की आदि तो है, परन्तु उसका अन्त नहीं, इसलिये उस को अनन्त कहते हैं । 1 ५ - श्रक्षय - क्षयरहित का नाम है । मुक्तात्माओं की ज्ञानादि आत्मविभूति में किसी प्रकार की होता नहीं श्राने पाती, इस लिये उसे अक्षय कहते है । ६ - अव्याजाव - पीड़ारहित को अबाध कहते हैं । मुक्तात्माओं को सिद्धगति में किसी प्रकार का कष्ट या शोक नहीं होता और न वे किसी दूसरे को पीड़ा पहुँचाते हैं । ७ - पुनरावृत्ति - पुनरागमन से रहित का नाम है, अर्थात् जो जन्म तथा मरण से रहित हो कर For Private And Personal Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५४८] श्री विपाक सूत्र [दशम अध्याय एक वार सिद्धगति में पहुंच जाता है, वह फिर लौट कर कभी संसार में नहीं आता। विपाकश्रुत के दो विभाग हैं, पहला दु:खविपाक और दूसरा सुखविपाक । जिस में हिंसा, असत्य, चौर्य,मैथुन आदि द्वारा उपार्जित अशुभ कर्मों के दुःखरूप विपाक – फल वर्णित हों, उसे दुःखविपाक कहते हैं, और जिस में अहिंसा, सत्य आदि से जनित शभ कर्मों का विपाक वर्णन किया गया हो, उसे सुखविपाक कहते हैं । दुःखविपाक में -१ - मृगापुत्र, २- उज्झितक, ३-अभग्नसेन, ४-शकट, ५- वृहस्पति, ६नन्दिवर्धन, ७-उम्बरदत्त, ८- शौरिकदत्त, ९- देवदत्ता और १०-अजू-ये दश अध्ययन हैं । मृगापुत्र उज्झितक श्रादि का वर्णन पीछे कर दिया गया है । अजूश्री नामक दसवें अध्ययन की समाप्ति के साथ विपाकश्रुत का दशाध्ययनात्मक प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त होता है। मृगापुत्र से ले कर अंजूश्रीपर्यन्त के दश अध्ययनों में वर्णित कथासंदर्भ से ग्रहणीय सार को यदि अत्यन्त संक्षिप्त शब्दों में कहा जाय तो वह इतना ही है कि मानव जीवन को पतन की ओर ले जाने वाले हिंसा और व्यभिचारमूलक असत्कर्मों के अनुष्ठान से सर्वथा पराङ्मुख हो कर आत्मा की आध्यात्मिक प्रगति में सहायकभूत धर्मानुष्ठान में प्रवृत्त होने का यत्न करना और तदनुकूल चारित्रसंगठित करना । बस इसी में मानव का आत्मश्रेय निहित है। इस के अतिरिक्त अन्य जितनी भी सांसारिक प्रवृत्तियें है, उन से प्रात्मकल्याण की सदिच्छा में कोई प्रगति नहीं होती। इस भावना से प्रेरित हुए साधक व्यक्ति यदि उक्त दशों अध्ययनों का मननपूर्वक अध्ययन करने का यत्न करेंगे तो आशा है उन को उस से इच्छित लाभ की अवश्य प्राप्ति होगी। बस इतने निवेदन के साथ हम श्री विपाकश्रुतस्कन्ध के प्रथम श्रुतस्कन्ध सम्बन्धी विवेचन को समाप्त करते हुए पाठकों से प्रस्तुत प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों से प्राप्त शिक्षाओं को जीवन में उतार कर साधनापथ में अधिकाधिक अग्रसर होने का प्रयत्न करेंगे, ऐसी आशा करते हैं। ॥ दशम अध्ययन समाप्त । ॥ विपाकश्रुत का प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त। For Private And Personal Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir विपाकसूत्र हिन्दीभाषाटीकासहित सुखविपाक नामक द्वितीय श्रुतस्कन्ध कामिसागरी For Private And Personal Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private And Personal Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ॥ अथ द्वितीय श्रुतस्कन्ध ॥ प्रथम अध्ययन भारतवर्ष धर्मप्रधान देश है। यहां धर्म को बहुत अधिक महत्त्व प्रदान किया गया है । छोटी से छोटी बात को भी धर्म के द्वारा ही परखना भारत की सब से बड़ी विशेषता रही है। इस के अतिरिक्त धर्म की गुणगाथाओं से बड़े २ विशालकाय ग्रन्थ भर रक्खे हैं । जीवन समाप्त हो सकता है परन्तु धर्म की महिमा का का अन्त नहीं पाया जा सकता। धर्म का महत्त्व बहुत व्यापक है । धर्म दुर्गति का नाश करने वाला है । मनुष्य के मानस को स्वच्छ एवं निर्मल बनाने के साथ २ उसे विशाल और विराट बना डालता है । अनादि काल से सोई मानवता को यह जागृत कर देता है । हृदय में दया और प्रेम की नदी बहा देता है । यदि बात ज़्यादा न बढाई जाए तो धर्म की महिमा अपरम्पार है, इतना ही कहना पर्याप्त होगा । 1 Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १ शास्त्रों में धर्म के दान, शील, तप और भावना ये चार प्रकार बतलाये गये हैं । इन में से पहला प्रकार दान धर्म है। जैनधर्म में दान की बड़ी महिमा बहुत मौलिक शब्दों में अभिव्यक्त की गई है । दान देने बाले को स्वर्ग और मोक्ष का अधिकारी बताया है । दान देने से संसार में कोई भी वस्तु प्राप्य नहीं रहती है । दान जीवन के समग्र सद्गुणों का मूल है, अतः उस का विकास पारमार्थिक दृष्टि से समस्त सद्गुणों का आधार है, तथा व्यावहारिक दृष्टि से मानवी व्यवस्था के सामंजस्य की मूलभित्ति है । दान का मतलब है- न्यायपूर्वक अपने को प्राप्त हुई वस्तु का दूसरे के लिये अर्पण करना । यह उस के कर्ता और स्वीकार करने वाले दोनों का उपकारक होना चाहिये । अर्पण करने वाले का मुख्य उपकार तो यह है कि उस वस्तु पर से उस की ममता हट जाए, फलस्वरूप उसे सन्तोष और समभाव की प्राप्ति हो । स्वीकार करने वाले का उपकार यह है कि उस वस्तु से उस की जीवनयात्रा में मदद मिले और परिणामस्वरूप सद्गुणों का विकास हो । I सभी दान दानरूप से एक जैसे होने पर भी उस के फल में तरतम भाव रहता है । यह तरतम भाव दानधर्म की विशेषता के कारण होता है और यह विशेषता मुख्तया दानधर्म के चार अंगों की विशेषता के अनुसार होती है। इन चार अंगों की विशेषता निम्नोक है १- विधिविशेषता - विधि की विशेषता में देश काल का औचित्य और लेने वाले के सिद्धान्त को बाधा न पहुंचे, ऐसी कल्पनीय वस्तु का अर्पण करना, इत्यादि बातों का समावेश होता है । २- द्रव्यविशेषता- - द्रव्य की विशेषता में दी जाने वाली वस्तु के गुणों का समावेश होता है । जिस वस्तु का दान किया जाये वह वस्तु लेने वाले पात्र की जीवनयात्रा में पोषक हो कर परिणामतः उस के निजगुण विकास में निमित्त बने, ऐसी होनी चाहिये । १३ - दातृविशेषता - -दाता की विशेषता में लेने वाले पात्र के प्रति श्रद्धा का होना उस के प्रति तिरस्कार या असूया का न होना, तथा दान देते समय या देने के बाद में विषाद न करना, इत्यादि गुणों का समावेश होता है । (१) दाणं सीलं च तवो भावो, एवं चउव्विहो धम्मो । सव्वजिणेहिं भणिश्रो, तहा ॥ २९६ ॥ For Private And Personal Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५५० श्री विपाक सूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध-- [प्रथम अध्याय ४-पात्रविशेषता- दान लेने वाले व्यक्ति का सत्पुरुषार्थ के लिये ही सतत जागरूक रहना पात्र' की विशेषता है। दूसरे शब्दों में - जो दान ले रहा है उस का अपने आप को मानवीय आध्यात्मिक विकास की चरम सीमा की ओर झुकाव तथा सदनुष्ठान में निरंतर सावधानता ही पात्र की विशेषता है। पात्रता की विशेषता वाले को सुपात्र कहते हैं, तथा सुपात्र को जो दाम दिया जाता है, उसे मात्रदान कहते हैं । सुपात्रदान कर्मनिजरा का साधक है ओर दाता के लिये संसारसमुद्र से पार कर परमात्मपद को प्राप्त करने में सहायक बनता है । सुपात्रदान की सफलता के लिये भावना महान् सहायक होती है । भावना जितनी उत्तम एवं सबल होती है, उतना ही सुपात्रदान जीवन के विकास में उपयोगी एवं हितावह रहता है। प्रस्तुत सूत्र के सुखविपाक नामक द्वितीय श्रुतस्कंध के इस प्रथम अध्ययन में स्वनामधन्य पुण्यश्लोक श्री सुबाह कुमार जी का परम पवित्र जीवनवृत्तान्त प्रस्तावित हुश्रा है, जिन्हों ने सुमुख गाथापति के भव में महामहिम तपस्विराज श्रीसुदत्त अनगार को उत्कृष्ट परिणामों से दान देकर संसार को परिमित और मनुष्यायु का बन्ध किया था, दूसरे शब्दों में उन्होंने उत्कृष्ट भावना के साथ एक सुपात्र को दान दे कर अपने भविष्य को उज्ज्वल समुज्ज्वल एवं अत्युज्ज्वल बनाया था। इस अध्ययन का प्रारम्भ इस प्रकार होता है मूल- २ तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णगरे गुणसिलए चेहए, सुहम्मे समोसढे । जंबू जाव पज्जुवामति, एवं वयासी-जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेण दुहविवागाणं अयम8 पएणत्ते, सुहविवागाणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठ पएणते ?, तते णं से सुहम्मे अणगारे जम्बुमणगार एवं वयासी-एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं दस अज्मयणा पएणत्ता, तंजहा - (१) सुबाह, (२) मद्दनंदो, य (३) सुजाए, (४) सुवासवे, (५) तहेव जिणदासे, (६) घणवती, य (७) महबलो, (८) मदनन्दी, य (8) महचंदे, (१०) वरदत्ते । जति णं भंते ! सपणेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं दस अज्झयणा पगणता, पढमस्स णं भंते १ अझयणस्स सुहविवागाणं जाव संपणं के अट्ठे पएणते ?, तते णं से सुहम्मे जंबुमणगार एवं वयांसी । . (१) अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसगों दानम् । विधिद्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः। तत्त्वार्थसत्र अ०७, सूत्र ३३/३४, के हिन्दीविवेचन में पण्डितप्रवर श्री सुखलाल जी। " (२) छाया - तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे नगरे गुणशिले चैत्ये सुधर्मा समवसृतः। जम्बूः यावत् पयुपास्ते एवमवादीत् -यदि भदन्त ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन दुःखविपाकानामयमर्थः प्रज्ञप्तः, सुखविपाकानां भदन्त ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रजप्तः १, तत: स सुधर्माऽनगारो जम्बूमनगारमेवमवादीत् -एवं खलु जम्बू: ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन सुखविपाकानां दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-१ . सुबाहुः, २भद्रन-दी च, ३ - सुजातः, ४-सुवासवः, ५ - तथैव जिनदासः, ६-धनपतिश्च, ७ --महाबलः, ८-भद्रनन्दी, ९-महाचन्द्रः. १० - वरदत्तः । यदि भदन्त ! श्रमणे न यावत् संप्राप्तेन, सुखविपाकानां दशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य भदन्त ! अध्ययनस्य सुखविपाकानां यावत् संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्त: ?. ततः स सुधर्मा जम्बूमनगारमेवमवादीत् । For Private And Personal Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । (५५१ पदार्थ-तेणं- उस । कालेणं-काल । तेणं-उस । समय-समय । रायगिहे - राजगृह । णगरे-नगर के । गुणसिलए-गुणशील । चेइए-चेत्य में | सुहम्मे-सुधर्मा स्वामी । समोसढे पधारे जंब -जंब स्वामी। जाव-यावत । पज्जवासति--पयुपासना - भक्ति करने लगे । एवं-इस प्रकार । वयासी-कहने लगे। जइ णं यदि । भंते !-हे भगवन् ! | समणेणं-श्रमण । जाव - यावत् । संपत्त. -मोक्षसंप्राप्त महावीर ने । दुहविवागाणं - दुःखविपाक का । अयम - यह अर्थ । परापत्त-प्रतिपादन किया है, तो । सुहविवागाणं-सुखविपाक का । भंते! - हे भगवन् ! । समणे- श्रमण । जाव-यावत् । संपत्तेणं- मोक्षसंप्राप्त ने । के अटे-क्या अर्थ । पण्णत्त ?- प्रतिपादन किया है ? । तते णं - तदनन्तर । से-वह । सुहम्मे-सुधर्मा स्वामी । अणगारे-अनगार । जंबु-जम्बू । अणगारं-अनगार के प्रति । एवं वयासी- इस प्रकार बोले । एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही । जंबू !- हे जम्बू !। समणेणंश्रमण । जाव-यावत् । संपत्तणं-सम्प्राप्त महावीर द्वारा । सुहविवागाणं-मुखविपाक के । दस-दश । अज्झयणा-अध्ययन । परणत्ता- प्रतिपादन किये गये हैं । तंजहा-जैसे कि । १-सुबाहू-१--सुबाहु २-भहनन्दी य-२-और भद्रनन्दी । ३-सुजाए-३ - सुजात । ४-सुवासवे-४-सुवासव । तहेय-तथैव-उसी तरह। ५-जिणदासे-५-जिनदास । ६-धनवती य-६-और धनपति । ७महव्वलो- ७- महाबल । ८-भद्दनन्दीय-८-और भद्रनन्दी। ९-महचंदे- महाचन्द्र । १०- वरदर -१०- वरदत्त । जति णं- यदि । भंते!-भदन्त ! । समणेणं-श्रमण । जाव-यावत् । संपत्तेण - मोक्षसम्प्राप्त ने । सुहविवागाणं- सुखविपाक के । दस-दश । अझयणा - अध्ययन । पगणत्ता-कथन किये हैं, तो । पढमस्स - प्रथम । अझयणस्त -अध्ययन का । भंते ! - हे भगवन् ! । सुहविवागाणंसुखविपाक के । जाव-यावत् । संपत्तेणं- मोक्षसंप्राप्त महावीर स्वामी ने । के अटे - क्या अर्थ । परणप्रतिपादन किया है । । तते णं-तदनन्तर । से-वह। सुहम्मे - सुधर्मा स्वामी । जंबु- जम्बू । अणगोरं-अनगार के प्रति । एवं क्यासी-इस प्रकार बोले। मूलार्थ - उस काल और उस समय राजगृह नगर के अन्तर्गत गुणशील नामक चैत्य में अनेगा श्री सुधर्मा स्वामी पधारे। तब उन की पर्युपासना में रहे हुए जम्बू स्वामी ने उन के प्रति इस प्रकार कहा कि हे भगवन् ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने यदि दुःविपाक का यह (पूर्वोक्त) अथ प्रतिपादन किया है तो यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक का क्या अथ प्रतिपादन किया है ?, इस के उत्तर में श्रीसुधर्मा अनगार श्रीजंबू अनगार के प्रति इस प्रकार बोले - जम्बू ! यावत् मोक्षसप्राप्त श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने सुखविपाक के दस अभ्ययन प्रतिपादन किये हैं, जैसे कि १-सुबाहु, २-भद्रनन्दी, ३ -सुजात, ४-सुवासव. ५-जिनदास, ६-धनपति, ७महाबल, ८-भद्रनन्दी. ९-महाचन्द्र, १०-वरदत्त ।। . भगवन् ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने यदि सुखविपाक के सुबाहुकुमार आदि दश अध्ययन प्रतिपादन किये हैं तो भदन ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कथन किया है ?, तदनन्तर इस प्रश्न के उत्तर में श्री सुधर्मा स्वामी श्री जम्बू अनगार के प्रति इस प्रकार कहने लगे।। टीका-संशय का विपक्षी निश्चय है, इसी भान्ति दुःख का विपक्षी सुख है । सुख की प्राप्ति सुखजनक कृत्यों को अपनाने से होती है। जब तक सुख के साधनों को अपनाया नहीं जाता तब तक सुख की For Private And Personal Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५५२] श्री विपाक सूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध -- [प्रथम अध्याय उपलब्धि केवल स्वप्नमात्र होती है । सुखप्राप्ति के लिए दुःख के साधनों का त्याग उतना ही आवश्यक है जितना कि सुख के साधनों को अपनाना। दु:ख के साधनों का त्याग तभी संभव है जब कि दुःखजनक साधनों का विशिष्ट बोध हो । कष्ट के उत्पादक साधनों के भान बिना उन का त्याग भी संभव नहीं हो सकता. इसी प्रकार सुखमूलक साधनों को अपनाने के लिये उनका ज्ञान भी आवश्यक है। मनुष्य से ले कर छोटे से छोटे कीट, पतंग तक संसार का प्रत्येक प्राणी सुख की अभिलाषा करता है। सभी जीवों की सभी चेटाओं का यदि सूक्ष्मरूप से अवलोकन किया जाय तो प्रतीत होगा कि उन की प्रत्येक चेष्टा सुख की अभिलाषा से अोतप्रोत है । तात्पर्य यह है कि इस विशाल विश्व के प्रांगण में जीवों की जितनी भी लीलाए हैं वे सब सुखमूलक हैं । सुख की उपलब्धि के लिए जिस मार्ग के अनुसरण का उपदेश महापुरुषों ने दिया है. उस का दिग्दर्शन अनेक रूपों में कराया गया है । श्री विपाक सूत्र में इसी दृष्टि से दुःखविपाक और सुख विपाक ऐसे दो विभाग करके दुःख और सुख के साधनों का एक विशिष्ट पद्धति के द्वारा निर्देश करने का स्तुत्य प्रयास किया गया है। दुःखविपाक के दश अध्ययनों में दुःख और उसके साधनों का निर्देश करके साधक व्यक्ति को उन के त्याग की ओर प्रेरित करने का प्रयत्न किया गया है । इसी भान्ति उप के दूसरे विभाग - सुखविपाक में सुख और उनके साधनों का निर्देश करते हुए साधकों को उन के अपनाने की प्रेरणा की गई है। दोनों विभागों के अनुशीलन से हेयोपादयेरूप में साधक को अपने लिये मार्गनिश्चित करने की पूरी २ सुविधा प्राप्त हो सकती है। पूर्ववणित दुःखविपाक से साधक को हेय का ज्ञान होता है, और आगे वर्णन किये जाने वाले सुखविपाक से वह उपादेय वस्तु का बोध प्राप्त कर सकता है। पूर्व की भान्ति राजगृह नगर गुणशील चैत्य-उद्यान में अपने विनीत शिष्यवर्ग के साथ पधारे हुए आर्य सुधर्मा स्वामी से उन के विनयशील अन्तेवासी-शिष्य आर्य जम्बू स्वामी उन के मुखा श्रुत के दुःखविपाक के दश अध्ययनों का श्रवण करने के अनन्तर प्रतियोगी अर्थात् प्रतिपक्षी रूप से प्राप्त होने वाले उस के सुखविपाकमूलक अध्ययनों के श्रवण को जिज्ञासा से उनके चरणों में उपस्थित होकर प्रार्थना. रूप में इस प्रकार बोले भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने विपाकश्रुत के अन्तर्गत दु:खविपाक के दश अध्ययनों का जो विषय वर्णन किया है, उस का तो श्रवण मैं ने श्राप श्री से कर लिया है, परन्तु विपाकश्रतान्तर्गत सुखविपाक के विषय में भगवान् ने जो कुछ प्रतिपादन किया है, वह मैंने नहीं सुना, अत. आप श्री यदि उसे भी सुनाने की कृपा करें तो अनुचर पर बहुत अनुग्रह होगा। तब अपने शिष्य की बढ़ी हुई जिज्ञासा को देख, आर्य सुधर्मा स्वामी ने फरमाया कि जम्बू ! मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने विपाकत के सुखविपाक में दश अध्ययन वर्णन किये हैं, जिन का नामनिर्देश इस प्रकार है १- सुबाहु, २-भद्रनन्दी, ३- सुजात, ४ - सुवासव, ५-जिनदास, ६-धनमति, ७- महाबल, ८-भद्रनन्दी, ९ - महाचन्द्र और १० - वरदत्तः। . पूज्य श्री सुबाहुकुमार आदि महापुरुषों का सविस्तर वर्णन तो यथास्थान अग्रिम पृष्ठों पर किया जाएगा, परन्तु संक्षेप में इन महापुरुषों का यहां परिचय करा देना उचित प्रतीत होता है १-सुबाहुकुमार-- यह हस्तिशीर्ष नगर के स्वामी महाराज अदीनशत्रु और माता श्री धारिणी के पुत्र थे । ये ७२ कला के जानकार थे । पुष्पचूना जिन में प्रधान थी ऐसी ५०० उत्तमोत्तम राजकन्याओं के साथ इन का विवाह सम्पन्न हुआ था। प्रथम भगवान् महावीर स्वामी से श्रावक के बारह व्रत धारण किये थे । फिर उन्हीं For Private And Personal Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय । हिन्दी भाषा टीका सहित । ................. के चरणों में दीक्षित हो कर तथा संयम का अाराधन कर के देवलोक में उत्पन्न हुए। आज कल श्राप देवलोक में विराजमान हैं वहां से च्यव कर आप ११ भव करते हुए अन्त में मुक्ति को प्राप्त कर लेंगे। प्रस्तुत सुखविपाकीय प्रथम अध्ययन में श्राप श्री का ही जीवन प्रस्तावित हुआ है। पूर्व के भव में आप ने श्री सुदत्त तपस्विराज को आहार दे कर संसार परिमित किया था और मनुष्यायु का बन्ध किया था। २- भद्रनन्दी-ये ऋषभपुर नामक नगर में उत्पन्न हुए थे। इन के पूज्य पिता का नाम महाराज धनावह तथा माता का नाम महारानी सरस्वती था। पूर्व के भव में श्री युगबाहु तीर्थकर को आहारदान दे कर इन्हों ने अपना भविष्य उन्नत बनाया था। वर्तमान में पतितपावन महावीर स्वामी के नेतृत्व में इन के जीवन का निर्माण हुआ । संयमाराधन से प्राप देवलोक में गये। वहां से च्यव कर ११ भव करते हुए निर्वाणपद प्राप्त करेंगे। ३ - सुजात -इन्हों ने वीरपुर नामक नगर को जन्म लेकर पावन किया था। पिता का नाम वीरकृष्ण मित्र और माता का नाम श्रीदेवी या । जिन में राजकुमारी बालश्री मुख्य थी, ऐसी ५०० राजकन्याओं के साथ आप का पाणिग्रहण हुआ था । पूर्व के भव में आप इषुकार नामक नगर में ऋषभदत्त गाथापति के रूप में थे और वहां आप ने तपस्विराज मुनिपुङ्गव श्री पुष्पदन्त जी जैसे सुपात्र को भावनापूर्वक आहारदान दे कर संसारभ्रमण परिमित और मनुष्यायु का बन्ध किया था। वर्तमान भव में पतितपावन वीर प्रभु के चरणों में दीक्षित हुए और देवलोक में उत्पन्न हुए, वहां से च्यव कर ११ भव करते हुए अन्त में मुक्ति में विराजमान हो जाएंगे। ४-सुवासव-आप ने विजयपुर नगर में जन्म लिया था। महाराज वासवदत्त आप के पूज्य पिता थे । महारानी कृष्णादेवी आप की मातेश्वरी थी। आप का जिन ५०० राजकुमारियों के साथ पाणिग्रहण हुआ था, उन में भद्रादेवी प्रधान थी। पूर्वभव में आप ने महाराज धनपाल के रूप में तपस्विराज श्री वैश्रमणदत्त जी महाराज का पारणा कराया था । वर्तमान भव में भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में दीक्षित हो संयम के अाराधन से सिद्ध पद् उपलब्ध किया था। ५-जिनदास-आप सौगन्धिकनरेश महाराज अप्रतिहत के पौत्र थे। पिता का नाम श्री महाचंद्र तथा माता का नाम श्री अरहदत्ता देवी था। महाराज मेघरथ के भव में आप ने श्री सुधर्मा स्वामी प्रतिलाभित किए थे। वर्तमान भव में भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में दीक्षित हुए और संयम के सम्यक् आराधन से आप ने निर्वाणपद प्राप्त किया था । ६-धनपति-आप कनकपुरनरेश महाराज प्रियचन्द के पौत्र थे । आप की पूज्य दादी का नाम श्री सुभद्रादेवी था । आप के पिता का नाम श्री वैश्रमणदत्त था। माता श्री देवी थी । पूर्वभव में आप ने तपस्थिराज श्री संभूतविजय मुनिराज को भावनापुरस्सर दान दिया था। वर्तमान भव में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास दीक्षित हो निर्वाणपद प्राप्त किया था। ७-महाबल - महापुरनरेश महाराज बल के श्राप पुत्र थे । अाप की माता का नाम श्री सुभद्रादेवी था । रक्तवतीप्रमुख ५०० राजकुमारियों के साथ आप का विवाह सम्पन्न हुआ था। नागदत्त गाथापति के भव में आप ने तपस्विराज श्री इन्द्रदत्त मुनिवर्य का पारणा करा कर संसार को परिमित किया था। वर्तमान भव में भगवान् महावीर स्वामी के पवित्र चरणों में साधु बन कर उस के यथाविधि आराधन से मुक्ति प्राप्त की थी। ..८-भद्रनन्दी-आप के पूज्य पिता का नाम सुघोषनरेश महाराज अर्जुन था और मातेश्वरी श्री दत्तवती जी थीं। आप का ५०० राजकुमारियों के साथ विवाह सम्पन्न हुआ था, उन में श्रीदेवी मुख्य थी। श्री धर्मघोष के भव में आप ने श्री धर्मसिंह मुनिराज को निर्दोष एवं शुद्ध भावों के साथ श्राहार पानी देकर, पारणा करा कर अपने संसारभ्रमण को परिमित किया था। वर्तमान भव में भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में दीक्षित हो For Private And Personal Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५५४] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध-- [प्रथम अध्याय कर सिद्ध पद को प्राप्त किया था। प्रस्तुत द्वितीय श्रुतस्कन्धीय द्वितीय अध्याय के भद्रनन्दी इन से भिन्न थे। जन्मस्थान तथा माता पिता आदि की भिन्नता हो इन के पार्थक्य को प्रमाणित कर रही है । ९-महाचन्द्र-आप का जन्म चम्पा नगरी में हुआ था, पिता का नाम महाराज दत्त तथा माता का श्री दत्तवती था । श्रीकान्त जिन में प्रधान थी ऐसी ५०० राजकन्यानों के साथ श्राप का पाणिग्रहण हुआ था। चिकित्सिकानरेश महाराज जितरात्र के भव में आप ने तपस्विराज श्री धमवीर्य का पारणा करा कर अपने भविष्य को उन्नत बनाते हुए मनुष्यायु का बन्ध किया और वर्तमान भव में भगवान महावीर स्वामी के चरणों में दीक्षित हो कर साधुधर्म के सम्यक् आराधन से परम साध्य निर्वाण पद को प्राप्त किया था। १०-वरदत्त-श्राप के पूज्य पिता का नाम साकेतनरेश महाराज भित्रनन्दी था । माता श्रीकान्तादेवी थी । आप का जिन ५०० राजकुमारियों के साथ पाणिग्रहण हुआ था, उन में वर सेना राजकुमारी प्रधान थी, अर्थात् यह आप की पटरानी थी। शतद्वारनरेश महाराज विमलवाहन के भव में आप ने तपस्विराज श्री धर्मरुचि जी महाराज का विशुद्ध परिणामों से पारणा करा कर संसार को परिमित करने के साथ २ मनुष्यायु का बन्ध किया था। वर्तमान भव में चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी के पवित्र चरणों में साधुव्रत धारण कर तथा उस के सम्यक पालन से कालमास में काल करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न हुए। आज कल आप दैविक संसार में अपने पुण्यमय शुभ कर्मों का सुखोपभोग कर रहे हैं । वहां से च्यव कर आप ११ भव करेंगे और अन्त में महाविदेह क्षेत्र में दीक्षित हो कर जन्म मरण का अन्त कर डालेंगे। सिद्ध, बुद्ध, अजर और अमर हो जाएंगे। द्वितीय श्रुतस्कन्ध सुखविपाक के पूर्वोक्त दश अध्ययनों में महामहिम श्री सुबाहुकुमार जी आदि समस्त महापुरुषों का ही जीवनवृत्तान्त क्रमश: प्रस्तावित हुआ है, इसीलिये सूत्रकार ने सुबाहुकुमार आदि के नामों पर अध्ययनों का नामकरण किया है, जो कि उचित ही है। आर्य जम्बू स्वामी के"- भदन्त ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक का क्या अर्थ वर्णन किया है ? अर्थात् उस में किन २ महापुरुषों का जीवनवृत्तान्त उपन्यस्त हुआ है ?-" इस प्रश्न के उत्तर में आर्य सुधर्मा स्वामी ने"--सुखविपाक में भगवान् ने श्री सुबाहुकुमार, श्री भद्रनन्दी आदि दश अध्ययन फ़रमाये हैं, तात्पर्य यह है कि इन दश महापुरुषों के जीवनवृत्तान्तों का उल्लेख किया है-"यह उत्तर दिया था, परन्तु इतने मात्र से प्रश्नकर्ता श्री जम्बू स्वामी की जिज्ञासा पूण नहीं होने पाई, अत: फिर उन्हों ने विनम्र शब्दों में अपने परमपूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी के पावन चरणों में निवेदन किया । वे बोले - भगवन् ! यह ठीक है कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविधाक के दश अध्ययन फ़रमाये हैं, परन्तु उस के सुबाहुकुमार नामक प्रथम अध्ययन का उन्हों ने क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ?, इस प्रश्न के उत्तर में आर्य सुधर्मा स्वामी ने जो कुछ फ़रमाया, उस का वर्णन अग्रिम सूत्र में किया गया है। लोकोत्तर ज्ञान, दर्शन आदि गुणों के गण अर्थात् समूह को धारण करने वाले तथा जिनेन्द्र प्रवचन की पहले पहल सूत्ररूप में रचना करने वाले महापुरुष गणधर कहलाते हैं । चरम तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के-१-इन्द्रभूति, २-अग्निभूति, ३ --वायुभूति, ४--व्यक्तस्वामी,५ -सुधर्मास्वामी, ६-मण्डितपुत्र, ७-मौर्यपुत्र, ८-अकम्पित, ९-अचलभ्राता, १०-मेतार्य, ११-प्रभास, ये ११ गणधर थे। ये सभी वैदिक विद्वान् ब्राह्मण थे। अपने २ मत की पुष्टि के लिये शास्त्रार्थ करने के लिये भगवान् महावीर के पास आये थे । 'अपने २ संशयों का भगवान् से सन्तोष-जनक उत्तर पाकर सभी उन के (१) संशय तथा उनके उत्तरों का विवरण श्री अगरचन्द भैरोंदान सेठिया बीकानेर द्वारा प्रकाशित जनसिद्धान्त बोलसंग्रह के चतुर्थ भाग में देखा जा सकता है। For Private And Personal Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । 1445 शिष्य हो गये थे, तथा भगवान् के चरणों में ज्ञानाराधन; दर्शनाराधन तथा चारित्राराधन की उत्कर्षता को प्राप्त कर उन्हों ने गणधर पद को उपलब्ध किया था । प्रस्तुत में जो श्री सुधर्मा स्वामी का वर्णन किया गया है, ये भगवान् महावीर स्वामी के ही पूर्वोक्त पांचवें गणधर हैं । आज का जैनेन्द्र प्रवचन इन्हीं की वाचना कहलाता है। यही आर्य जम्ब स्वामी के परमपूज्य गुरुदेव हैं। इन्हीं के श्रीचरणों में रहकर श्री जम्बूस्वामी अपनी ज्ञान-पिपासा को जैनेन्द्र प्रवचन के जल से शान्त करते रहते हैं । श्री जम्बूस्वामी का जीवनपरिचय पीछे दुःखविपाक के पृष्ठ २ से लेकर ५ की टिप्पण में दिया जा चुका है पाठक वहीं से देख सकते हैं। 1 विपाकत का शब्दसन्बन्धी ऊहापोह पीछे पृष्ठ २० पर किया जा चुका है। विपाकश्रुत के दुःखविपाक और सुखविक ऐसे दो श्रतस्व है । दुःखविपाक आदि पदों का अर्थ भी पृष्ठ २१ पर लिख दिया गया है । दुःखविपाक के मृगापुत्र आदि दश अध्ययन हैं, जिन का विवरण पहले कर दिया गया है । दुःखविपाक के अनन्तर सुखविपाक का स्थान है, इस में सुबाहुकुमार आदि दश अध्ययन । प्रस्तुत में - सुबाहुकुमार कौन था ?, उस ने कहां जन्म लिया था ?, वह किस नगर में रहता था ?, उस के माता पिता का क्या नाम था १, उस ने किस तरह जीवन का निर्माण एवं कल्याण किया १, मानव से महामानव वह कैसे बना ?, इत्यादि प्रश्न श्री जम्बूस्वामी की ओर से श्री सुधर्मा स्वामी के चरणों में रखे गये हैं, उन का उत्तर ही प्रस्तुत अध्ययन का प्रतिपाद्य विषय है । - जम्बू जाव पज्जुवासति - यहां पठित जाव यावत् पद से - णामं अणगारे कासवगोरोणं सत्तस्सेहे समचउरंस संठाणसंठिए वज्जरिसहनारायसंघयणे कणगपुलगणिघसपम्हगोरे उग्गतवे दिखतवे तत्ततषे महातवे ओराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्ती घोरबंभवेरवासी ऊछूढसरीरे संखितविउलतेउलेसे चोइसपुन्वी चढणाणोवगए सव्वक्बरसनिवाई श्रज्ज सुहम्मस्स थेरस अदूरसामंते उड्ढा होसिरे झाणकोट्ठोवगते संजमेणं तवसा अप्पा भावेमाणे विहरति । तते गं श्रज्ज - जम्बू णामं अणगारे जायसड्ढे जायसंसर जायको उहल्ले, संजायसड्ढे संजायसंसए संजायकोउहल्ले, उप्पन्नसड्ढे उत्पन्नसंसप उप्पन्नको हल्ले, समुप्पन्न सड्ढे समुप्पन्नसंसप समुप्पन्नको उहल्ले उट्ठाए उट्ठेति उट्ठाए उट्टेत्ता जेणामेव श्रज्जसुहम्मे थेरे तेणामेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता प्रज्जसुहम्मे थेरे तितो याहिणं पयाहिणं करेति करिता वंदति नम॑सति वन्दित्ता नर्मसिता श्रज्ज - सुहम्मस्स थेरस्स नच्चासन नाइदूरे सुस्सूसमाणे जमंसमाणे अभिमुहे पंजलिउडे विणणं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये। इन पदों का अर्थ निम्नोक्त है - जम्बू नगर सुधर्मा स्वामी के पास संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विहरण कर रहे थे, जो कि काश्यपगोत्र वाले हैं, जिन का शरीर सात हाथ प्रमाण का है, जो पालथी मार कर बैठने पर शरीर की ऊंचाई और चौड़ाई बराबर हो ऐसे संस्थान वाले हैं, जिन का 'वर्षभनाराच संहनन है, जो सोने की रेखा के समान और पद्मपराग (कमलरज) के समान वर्ण वाले हैं, जो उग्र तपस्वी – साधारण मनुष्य की कल्पना से अतीत को उग्र कहते हैं, ऐसे उम्र तप के करने वाले, दीप्ततपस्वी - कर्मरूपी गहन वन को भस्म करने में समर्थ तप के करने वाले, तप्ततपस्वी - कर्मसंताप के विनाशक तप के करने वाले और महातपस्वी स्वर्गादि की प्राप्ति की इच्छा बिना तप करने वाले हैं, जो उदार प्रधान हैं, जो श्रात्मशत्रुओं के विनष्ट करने में निर्भीक हैं, जो दूसरों के द्वारा दुष्प्राप्य गुणों को धारण करने वाले हैं, जो घोर-विशिष्ट तपस्वी (१) वज्रर्षभानाच संहनन का अर्थ पृष्ठ २७३ पर लिखा जा चुका है। For Private And Personal Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५५६] श्री विपासूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध -- प्रथम अभ्यार हैं, जो दारुण-भीषण ब्रह्मचर्य व्रत के पालक हैं, जो शरीरं पर ममत्व नहीं रख रहे हैं, जो तेजोले श्या-विशिष्ट तपोजन्य लब्धिविशेष, को संक्षिप्त किये हुए हैं, जो १४ पूर्वो' के ज्ञाता है, जो मतिज्ञान, श्रतज्ञान अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान, इन चारों ज्ञानों के धारक हैं, जिन को समस्त अक्षरसंयोग का ज्ञान है, जिन्हों ने उत्कुटुक नामक आसन लगा रखा है, जो अधोमुख हैं, जो धर्म तथा श क ध्यानरूप कोष्ठक में प्रवेश किये हुए हैं अर्थात् जिस प्रकार कोष्ठक में धान्य सुरक्षित रहता है उसी प्रकार ध्यानरूप कोष्ठक में प्रविष्ट हुए आत्मवृत्तियों को सुरक्षित रख रहे हैं। तदनन्तर आर्य जम्बूस्वामी के हृदय में विराकश्रुत के द्वितीय श्रुतस्कन्धोय सुखविपाक में वर्णित तत्त्वों के जानने की इच्छा उत्पन्न हुई और साथ में यह संशयः भी उत्पन्न हुआ कि दुःखविपाक में जिस तरह मृगापुत्र आदि का विषादान्त जीवन वर्णित किया गया है, क्या उसी तरह ही सुख वपाक में किन्हीं प्रसादान्त जीवनों का उपन्यास किया है ?, या उस में किसी भिन्न पद्धति का श्राश्रयण किया गया है ?, तथा उन्हें यह उत्सुकता भी उत्पन्न हुई जब विपाकसूत्रीय दुःखविपाक में मृगापुत्रादि का दुःखमूलक जीवन वृत्तान्त प्रस्तावित हो चुका है और उसी से सुखमूलक जीवनों की कल्पना भी की जा सकती है, तो फिर देखें भगवान् सुखविपाक में सुखमूलक जीवनों का कैसे वर्णन करते हैं ? प्रस्तुत में जो जात, संजात, उत्पन्न तथा समुत्पन्न ये चार पद दिये हैं, इन में प्रथम जात शब्द साधारण तथा संजात शब्द विशेष, इसी भान्ति उत्पन्न शब्द भी सामान्य और समुत्पन्न शब्द विशेष का बोध कराता है । जात और उत्पन्न शब्दों में इतना ही भेद है कि उत्पन्न शब्द उत्पत्ति का और जात शब्द उस की प्रवृत्ति का सूचक है । तात्पर्य यह है कि पहले श्रद्धा, सशय, कौतूहल इन की उत्पत्ति हुई और पश्चात् इन में प्रवृत्ति हुई । इन के सम्बन्ध में अधिक ऊहापोह पृष्ठ १२ से ले कर १७ तक किया जा चुका है अस्तु ।। जातश्रद्ध. जातसंशय, जातकौतूहल, संजातश्रद्ध, संजातसंशय, संजातकोतूहल, उत्पन्नश्रद्ध, उत्पन्नसंशय. उत्पन्न कौतहल. समत्पन्नश्रद्ध समुत्पन्नसंशय तथा समुत्पन्न कौतूहल श्री जम्बू स्वामी अपने स्थान से उठ कर खड़े होते हैं. खड़े होकर जहां सुधर्मा स्थविर विराजमान थे, वहां पर आते हैं, आकर श्री सुधर्मा स्वामी को दक्षिण ओर से तीन बार प्रदक्षिणा (परिक्रमा) की, प्रदक्षिणा कर के स्तुति और नमस्कार किया, स्तुति तथा नमस्कार कर के. आर्य सुधर्मा स्वामी के थोड़ी सी दूरी पर सेवा और नमस्कार करते हुए सामने बठे और हाथों को जोड़ कर विनयपूर्वक उन की भक्ति करने लगे। _ -समणेणं जाव सम्पत्तेणं- यहां पठित जाव-यावत् पद से अभिमत पद पृष्ठ ५४३ पर लिखे जा चुके हैं। पाठक वहीं पर देख सकते हैं। आर्य सुधर्मा स्वामी ने श्री जम्बू स्वामी की जिज्ञासापूर्ति के लिए जो कुछ फ़रमाया, उस का आदिम सूत्र इस प्रकार से है - (१) १४ पूर्वो के नाम तथा उन का भावार्थ पृष्ठ ७ तथा ८ पर लिखा जा चुका है। (२) प्रस्तुत में सुखविपाक के सम्बन्ध में श्री जम्बूस्वामी को क्या संशय उत्पन्न हुअा था ? या उस का क्या स्वरूप था ?, इस के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिल रहा है । इस सम्बन्ध में टीकाकार महानुभाव भी सर्वथा मौन है । तात्पर्य यह है कि जिस तरह भगवती सूत्र में टीकाकार ने भगवान् गौतम के संशय का स्वरूप वर्णित किया है, उसी भांति प्रस्तुत में कोई वर्णन नहीं पाया जाता, तथापि ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र के प्रथम अध्ययन में प्रतिपादित संशयस्वरूप की भांति प्रस्तुत में कल्पना की गई है। For Private And Personal Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित। [५५७ मूल :- 'एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिसीसे णाम णगरे होत्था, रिद्धः। तस्स णं हथिसोसस नगरस्त बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसी भागे पुप्फकरंडए णामं उज्जाणे होत्था, सव्वोउय० । तत्थ णं कयवणमालपियस्स जक्खस्स जक्खायतणे होत्था, दिव्वे । तत्थ णं हथिसीसे णगरे अदीणसत्तु नाम राया होत्या, महया० । तस्स णं अदीणसत्त स्स रगणो धारिणीपामोक्खं देवीसहस्सं ओरोहे यावि होत्था । तते णं सा धारिणीदेवी अन्नया कयाइ तंसि तारिमगंसि वासभवणंसि सीहं सुमिणे जहा मेहजम्मणं तहा भाणियव्वं । सुवाहुकुमारे जाव अलंभोगसमत्थं० यावि जाणेति जाणित्ता अम्मापिपगे पंच पासायवडिंसगसयाई काति, अब्भुग्गय० भवणं०, एवं जहा महब्बलस्स रगणो, णवरं पुष्फचूलापायोक्खाणं पंचएहं रायवरकरणगसयाणं एगदिवसेणं पाणिं गेएहार्वति, तहेव पंचसइयो दाओ जाव उप्पिं पासायवरगते फुट्ट० जाव विहरति । पदार्थ-एवं खलु -इस प्रकार निश्चय ही । जम्बू!- हे जम्बू ! । तेणं कालेणं तेणं समएणं - उस काल और उस समय । रिद्ध०-ऋद्ध -भवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित-स्वचक्र और परचक्र के भय से रहित तथा समृद्ध - धन, धान्यादि से परिपूर्ण । हस्थितीसे - हस्तिशीर्ष । णाम-नाम का । णगरे-नगर होत्था-था। तस्स णं-उस । हथिसोसस्स - हस्तिशीष । णगरस्स-नगर के । बहिया–बाहिर । उत्तरपुरस्थिमे - उत्तरपूर्व । दिसोभागे-दिशा के मध्य भाग में अर्थात् ईशान कोण में। पुष्करंडएपुष्पकरण्डक । णाम- नाम का । उज्जाणे-उद्यान । होत्या-था, जो कि । सव्वोउय० - सर्व ऋतुओं में होने वाले फल, पुष्पादि से युक्त था । तत्थ णं- वहां । कयवणमालपियस्स- कृतवनमालप्रिय । जक्खस्स - यक्ष का। अक्खायतणे - यक्षायतन-स्थान । होत्या - था, जो कि । दिव्वे०-दिव्य अर्थात् प्रधान एवं परम सुन्दर था । तत्थ णं-उस । हथिसीसे - हस्तिशीष । णगरे नगर में। अदीणसत्त - अदीनशत्रु । णामं - नाम का । राया - राजा । होत्था-था, जो कि । महया०-हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् था। तस्स णं-उस । अदीणसत्त स्स-अदीनशत्र । रराणो-राजा की । धारिणीपामोक्ख-धारिणीप्रमुख अर्थात् धारिणी है प्रधान जिन में ऐसी। देवीसहस्सं - हजार देवियें रानियें। ओरोहे यावि होत्या- अन्तःपुर में थीं । तते णं तदनन्तर। सा -- वह । धारिणी-धारिणी । देवी- देवी । अन्नया - अन्यदा । कयाइ-कदाचित् । तंलि उस । तारिसगंसि-तादृश-- राजोचित । वासभव (१ छाया एवं खलु जम्बू : ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये हस्तिशीष नाम नगरमभूत्, श्रद्धः । तस्माद हस्तिशीर्षाद् नगराद बहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे पुष्पकरंडक नाम उद्यानमभूत् , सर्वतु । तत्र कृतवनमाल प्रियस्य यक्षस्य यक्षायतनमभूत् . दिव्यम् । तत्र हस्तिशीर्षे नगरे अदीनशत्रुर्नाम राजाऽभूत्, महता० । तस्यादीनशत्रोः राज्ञः धारिणीप्रमुखं देवीसहस्रम्, अवरोधे चाप्यभवत् । ततः सा धारिणी देवी अन्यदा कदाचित् तस्मिन् तादृशे वासभवने सिंहं स्वप्ने यथा मेघजन्म तथा भणितव्यम् । सुबाहुकुमारो यावत् अलभोगसमर्थ० चापि जानीत: ज्ञात्वा अम्बापितरौ पञ्च प्रासादावतंसकशतानि कारयत:, अभ्युद्गत०, भवनमः । एवं यथा महाबलस्य राश: नवरं पुष्पचूलाप्रमुखाणां पंचानां राजवरकन्याशतानामे कदिवसे पाणिं ग्राहयतः । तथैव पंचशतको दायो यावद् उपरि प्रासादवरगतः स्फुट० यावद् विहरति । For Private And Personal Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ,५५८] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रतस्कन्ध प्रथम अध्याय णंसि-वासभवन में-वासगृह में । सुमिणे-स्वप्न में । सीहं-सिह को (देखती है)। जहा- जैसे ज्ञाताधर्मकांग सूत्र में वर्णित । मेहजम्मणं-मेधकुमार का जन्म कहा गया है । तहा-तथा- उसी प्रकार माणियव्वं-वर्णन करना अर्थात् उस के पुत्र का जन्म मेघकुमार के समान ही जानना चाहिये। सुबाहकम सुबाहुकुमार को । जाव - यावत् । अलंभोगसमत्यं यावि -भोगों के उपभोग करने में सर्वथा समर्थ हुआ । जाणेति जाणित्ता-जानते हैं. भोगों के उपभोग में समर्थ जान कर । अम्मापियरो माता और पिता । पंचमासायडिंसगसयाई-जिस प्रकार भूषणों में मुकुट सर्वोत्तम होता है, उसी प्रकार महलों में उत्तम पांच सौ प्रासादों का निर्माण । कारेति-करवाते हैं ।अब्भुग्गया- जो कि अत्यन्त उन्नत थे और उन के मध्य में। भव. -एक भवन तैयार कराते हैं। एवं -इस प्रकार । जहा -यथा अर्थात जैसे भगवती सूत्र में वर्णित महब्ब. लस्स रराणो-महाबल राजा का कथन किया गया है तद्वत् जानना चाहिये । णवरं-केवल इतना विशेष है कि । पुप्फचूलापामोकवाण-पुष्पचूला है प्रमुख-प्रधान जिन में ऐसी । पचण्हं रायवरकन्नगसयाणंपांच सौ श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ । एगदिवसेणं-एक दिन में । पाणि गराहावति . पाणिग्रहण - विवाह करा देते हैं । तहेव-उसी प्रकार अर्थात् महावल की भान्ति । पंचतानो-पांच सौ की संख्या वाला। दामो- दहेज प्राप्त हुआ जाव-यावत् । उदिप पासायवरगते-ऊपर सुन्दर प्रासादों में स्थित । फुष्टजिस में मृदंग बजाए जा रहे हैं, ऐसे नाटकों द्वारा । जाव -यावत विहति - विहरण करने लगा। मूलार्थ-हे जम्बू ! उस काल और उस समय हस्तिशीर्ष नाम का एक बड़ा ही ऋद्ध, स्तिमित एवं समृद्धि पूर्ण नगर था। उस के बाहिर उत्तर और पूर्व दिशा के मध्य अर्थात् ईशान कोण में सर्व ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले फल, पुष्पादि से युक्त पुष्पकरण्डक नाम का बड़ा ही रमणीय उद्यान था। उस उद्यान में कृतवनमालप्रिय नाम के यक्ष का एक बड़ा ही सुन्दर यक्षायतन-स्थान था । उस नगर में अदीनशत्र नाम के राजा राज्य किया करते थे, जो कि राजाओं में हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् थे । अदीनशत्रु नरेश के अन्त:पुर में धारिणाप्रमुख एक हजार देवियें थीं। . एक समय राजोचित वासभवन में शयन करती हुई धारिणो देवी ने स्वप्न में सिंह को देखा। इस के आगे जन्म आदि का संपूर्ण वृत्तान्त मेषकुमार के जन्म आदि की भान्ति जान लेना चाहिए. यावत सुबाहकुमार सांसारिक कामभोगों के उपभोग में सर्वथा समय हो गया अर्थात् पूर्णतया यौवनसम्पन्न हो गया, तथा सुबाहुकुमार को यावत् भोगोपभोगों में समर्थ हुआ जान कर माता पिता ने सर्वोत्तम पांच मोबडे चे प्रासाद और उनके मध्य में एक अत्यन्त विशाल भवन का निर्माण कराया. जिस प्रकार भाबतीतंत्र में वर्णित महाबल नरेश का विवाह सम्पन्न हुआ था. उसी भांति सबाहक मार का भी विवाह कर दिया गया, उस में अन्तर इतना है कि पुष्पचूला मुम्ब पांच सौ उत्तम राजकन्याओं के साथ एक ही दिन में उस का विवाह कर दिया गया और उसी तरह पृथक् २ पांच सौ प्रातिदान-दहेज दिए गए । तदनन्तर वह सुबाहुकुमार उस विशाल भवन में नाट्यादि से उपगीयमान होता हुआ उन देवियों के साथ मानवोचित मनोज्ञ विषयभोगों का यथारुचि उपभोग करने लगा। टीका-अनगार श्री जम्बू की अभ्यर्थना को सुन कर आय श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा कि हे जम्बू ! इस अवसर्पिणी काल के चौथे आरे में हस्तिशीर्ष नाम का एक नगर था जो कि अनेक विशाल भवनों से समलंकृत, धन, धान्य और जनसमूह से भरा हुआ था। वहां के निवासी बड़े सम्पन्न और सुखी थे। कृषक लोग कृषि के व्यवसाय से ईख, जौ, चावल और गेहूं आदि की उपज करके बड़ी सुन्दरता से अपना निर्वाह करते थे । नगर में गौएं और भैंसें आदि दूध देने वाले पशु भी पर्याप्त थे, एवं कूप, तालाब और उद्यान आदि से वह नगर For Private And Personal Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित। चारों ओर से सुशोभित हो रहा था, उस में व्यापारी, कृषक, राजकर्मचारी, नर्तक, गायक, मल्ल, विदूषक, तैराक, ज्योतिषी, वैद्य, चित्रकार, सुवर्णकार तथा कुम्भकार आदि सभी तरह के लोग रहते थे । नगर का बाज़ार बड़ा सुन्दर था, उस में व्यापारि-वर्ग का का खूब जमघट रहता था । वहां के निवासी बड़े सज्जन और सहृदय थे। चोरों, उचक्कों, गांठकतरों और डाकुओं का तो उस नगर में प्रायः अभाव सा ही था । तात्पर्य यह है कि वह मगर हर प्रकार से सुरक्षित तथा भयशून्य था । नगर के बाहिर ईशान कोण में पुष्पकरण्डक नाम का एक विशाल अथच रमणीय उद्यान था। उस के कारण नगर की शोभा और भी बढ़ी हुई थी । वह उद्यान नन्दनवन के समान रमणीय तथा सुखदायक था, उस में अनेक तरह के सन्दर २ वृक्ष थे। प्रत्येक ऋतु में फलने और फूलने वाले वृक्षों और पुष्पलताओं की मनोरम छाया और आनन्दप्रद सगन्ध से दर्शकों के लिए वह उद्यान एक अपूर्व आमोद-प्रमोद का स्थान बना हुआ था। उस में कृतवनमाल प्रिय नाम के यक्ष का एक सप्रसिद्ध स्थान था जो कि बड़ा ही रमणीय एवं दिव्य-प्रधान था। ____ हस्तिशीर्ष नगर उस समय की सुप्रसिद्ध राजधानी थी। उस में अदीनशत्रु नाम के परम प्रतापी क्षत्रिय राजा का शासन था। अदीनशत्रु नरेश शरवीर, प्रजाहितैषी और पूरे न्यायशील थे । उन के शासन में प्रजा हर प्रकार से सुखी थी । वे स्वभाव से बड़े नम्र और दयालु थे, परन्तु अपराधियों को दण्ड देने, दुष्टों का निकंदन और शत्रों का मानमर्दन करने में बड़े कर थे । उन को न्यायशीलता और धर्मपरायणता के कारण राज्यभर में दुष्काल और महामारी आदि का कहीं भी उपद्रव नहीं होता था। अन्य माण्डलीक राजा भी उन से सदा प्रसन्न रहते थे । तात्पर्य यह है कि उन का शासन हर प्रकार से प्रशंसनीय था। महाराज अदीनशत्र के धारिणी प्रभृति-श्रादि एक हज़ार देवियें थीं, जिन में धारिणी प्रधान महारानी थी। धारिणीदेवी सौन्दर्य की जीती जागती मूर्ति थी। इस के साथ ही वह आदर्श पतिव्रता और परम विनीता भी थी, यही कारण था कि महाराज के हृदय में उस के लिये बहु मान था । एक बार धारिणी देवी रात्रि के समय जब कि अपने राजोचित शयनभवन में सखशय्या पर सुखपूर्वक सो रही थी तो अर्धजागृत अवस्था में अर्थात् वह न तो गाढ़ निद्रा में थी और न सवा जाग ही रही थी, ऐसी अवस्था में उस ने एक विशिष्ट स्वप्न देखा । एक सिंह जिस की गरदन पर सनहरो बाल बिखर रहे थे। दोनों अांखें चमक रही थीं। कंधे उठे हुए, पूछ टेढ़ी और जंभाई लेता हुअा अाकाश से उतरता है और उस के मुंह में प्रवेश कर जाता है। इस स्वप्न के अनन्तर जब धारिणी देवी जागी तो उस का फल जानने की उत्कण्ठा से वह उसी समय अपने पतिदेव महाराज अदीनशत्र के पास पहुंची और मधुर तथा कोमल शब्दों से उन्हें जगा कर अपने स्वप्न को कह सुनाया। स्वप्न सुनाने के बाद वह बोली कि प्राणनाथ ! इस स्वप्न का फल बतलाने की कृपा करें । महागनी धारिणी के कथन को सुन कर कुछ विचार करने के अनन्तर महाराज अदीनशत्र ने कहा कि प्रिये ! तुम्हारा यह स्वप्न बहुत उत्तम और मगलकारी एवं कल्याणकारी है । इस का फल अर्थलाभ, पुत्रलाभ और राज्यलाभ होगा । विशेषरूप से इस का फल यह है कि तुम्हारे एक विशिष्टगुणसम्पन्न बड़ा शूरवीर पुत्र उत्पन्न होगा । दूसरे शब्दों में तुम्हें एक सुयोग्य पुत्र की माता बनने का सौभाग्य प्राप्त होगा। इस प्रकार पतिदेव से स्वप्न का शुभ फल सन कर धारिणी को बड़ी प्रसन्नता हुई और वह उन्हें प्रणाम कर वापिस अपने स्थान पर लौट आई। किसी अन्य दुःस्वप्न से उक्त शुभ स्वप्न का फल नष्ट न हो जाए इस विचार से फिर वह नहीं सोई, किन्तु रात्रि का शेष भाग उस ने धर्मजागरण में ही व्यतीत किया। For Private And Personal Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org ५६०] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय गर्भवती रानी जिन कारणों से गर्भ को किसी प्रकार का कष्ट या हानि पहुँचने की संभावना होती है उन से वह बराबर सावधान रहने लगी। अधिक उष्ण, अधिक ठंडा, अधिक तीखा या अधिक खारा भोजन करना उस ने त्याग दिया। हित और मित भोजन तथा गर्भ को पुष्ट करने वाले अन्य पदार्थों के यथाविधि सेवन से वह अपने गभ का पोषगा करने लगी. बालक पर गर्भ के समय संस्कारों का बहुत अपूर्व प्रभाव होता है । विशेषत: जो प्रभाव उस पर उस की माता की भावनाओं का पड़ता है, वह तो बड़ा विलक्षण होता है ! तात्पर्य यह है कि माता को अच्छी या बुरी जैसी भी भावनाएं होंगी, गभस्थ जीव पर वैसे ही संस्कार अपना प्रभुत्व स्थापि कर लेंगे । बालक के जीवन का निर्माण गर्भ से ही चालू हो जाता है, अत: गर्भवती माताओं को विशेष सावधान रहने की आवश्यकता होती है। भारतीय सन्तान की दुबलता के कारणों में से एक कारण यह भी है कि गर्भ के पालन पोषण और उस पर पड़ने वाले संस्कारों के विषय में बहुत कम ध्यान रखा जाता है। गभधारण के पश्चात् पुरुषसंसर्ग न करना, वासनापोषक प्रवृत्तियों से अलग रहना, मानस को हर तरह से स्वच्छ एवं निर्मल बनाए रखना ही स्त्री के लिए हितावह होता है, परन्तु इन बातों का बहुत कम स्त्रियां ध्यान रखतो हैं । उसी का यह दूषित परिणाम है कि अाजकल के बालक दुर्बल, अल्पायुषी और बुरे संस्कारों वाले पाए जाते हैं, परन्तु महारानी धारिणी इन सब बातों को भली भान्ति जानतो थीं। अतएव वह गभस्थ प्राणो के जीवन के निर्माण एवं कल्याण का ध्यान रखती हुई अपने मानस को दूषित प्रवृत्तियों मे सदा सुरक्षित रख रही थी। तदनन्तर लगभग नवमास के परिपूर्ण होने पर उसने एक सर्वांगसुन्दर पुत्ररत्न को जन्म दिया । जातकर्मादि संस्कारों के कराने से उस नवजात शिशु का "सुबाहुकुमार" ऐसा गुणनिष्पन्न नाम रक्खा । तत्पश्चात् दूध पिलाने वाली क्षीरधात्री स्नान कराने वाली मज्जनधात्री, वस्त्रभूषण पहराने वालो मंडन धात्री. क्रीडा कराने वाली क्रीडापनधात्री और गोद में रखने वालो अंधात्री, इन पांच धाय माताओं की देखरेख में वह गिरिकन्दरागत लता तथा द्वितीया के चन्द्र की भान्ति बढने लगा । इस प्रकार यथाविधि पालन और पोषण से वृद्धि को प्राप्त होता हुआ सुबाहुकुमार जब आठ वर्ष का हो गया तो माता पिता ने शभ मुहूत में एक सुयोग्य कला. चार्य के पास उस की शिक्षा का प्रबन्ध किया । कलाचाय ने भी थोड़े ही समय में मनुष्य की ७२ कलाओं में निपुण कर दिया और उसे महाराज को समर्पित किया। अब सुबाहुकुमार सामान्य बालक न रह कर विद्या, य रूप और यौवन सम्पन्न होकर एक श्रादर्श राजमार बन गया तथा मानवोचित भोगों के उपभोग करने हमवथा योग्य हो गया। तब माता पिता ने उस के लिए पांच सौ भव्य प्रासाद और एक विशाल भवन तैयार कराया और पुष्पचूलाप्रमुख पांच सौ राजकुमारियों के साथ उस का विवाह कर दिया, और प्रेमोपहार के रूप में सवणकोटि २ श्रादि प्रत्येक वस्तु ५०० की संख्या में दी। तदनुसार सबाहकुमार भी उन पांच सौ प्रासादों में उन राजकुमारियों के साथ यथारुच मानवोचित विषयभोगों का उपभोग करता हुअा सानन्द समय व्यतीत करने लगा। यह है सूत्रवर्णित कथासन्दर्भ का सार जिसे सूत्रानुसार अपने शब्दों में व्यक्त किया गया है। हस्तिशीर्ष नगर तथा उस के पुष्पकरंडक उद्यान का जो वर्णन सूत्र में दिया है उस पर से भारत की प्राचीन वैभवशालीनता का भलीभान्ति अनुमान किया जा सकता है । अाज तो यह स्थिति भारतीय जनता की कल्पना से भी परे की हो गई है, परन्तु आज की स्थिति को सौ दो सौ वर्ष पूर्व के इतिहास से मिला कर देखा जाय तथा इसी क्रम से अढ़ाई, तीन हजार वर्ष पूर्व की स्थिति का अन्दाजा लगाया जाय तो मालूम होगा कि (१) ७२ कलाओं का सविस्तर वर्णन १०८ से ले कर ११५ तक के पृष्ठों में किया जा चुका है। (२) सुवर्णकोटि आदि का सविस्तर वर्णन ४७७ से ले कर ४७८ तक के पृष्ठों पर किया गया है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां कुमार सिंह सेन का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में सुबाहुकुमार का । For Private And Personal Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । यह बात अत्युक्तिपूर्ण नहीं किन्तु वास्तविक ही है। कुछ विचारकों का "-साधु मुनिराजों को नारी के सौन्दर्य तथा इसी प्रकार अन्य वस्तुयों के सौन्दर्य वर्णन से क्या प्रयोजन है १-" यह विचार कुछ गौरव नहीं रखता, क्योंकि वास्तविकता को प्रकट करना कोई दोषावह नहीं होता, प्रत्युत उसे छिपाना दोषाधायक हो सकता है। हां, वस्तु पर रागद्वेष करना दोष है, न कि उस का यथार्थरूप में वर्णन करना । आज के साधु की तो बात ही जाने दीजिए, परमपूज्य गणधर देवों ने भी ऐसे वर्णन किए हैं। उन्हों ने सब बातों का, फिर वे बातें चाहे नगरसौन्दर्य से सम्बन्ध रखती हों, स्त्री अथवा पुरुष के सौन्दय विषय की हों, पूरी तरह से वर्णन किया है। ___ महारानी धारिणी देवी का रात्रि के समय महाराज अदोनशत्रु के पास स्वप्न का फल पूछने के लिये अपने शयनागार से उठ कर जाना, यह सूचित करता है कि पूर्वकाल में पति पत्नी एक स्थान पर नहीं सोया करते थे। इस से तथा इसी प्रकार के शास्त्रों में वर्णित अन्य कथानकों से यह सिद्ध होता है कि उस समय प्रायः सभी लोगों की यही नीति थी, जिस से कि उन की दीर्घदर्शिता एवं विषयविरक्ति सूचित होती है। इस नीति के पालन दम्पती भी अधिकाधिक सदाचारी रहने के कारण प्राय: नीरोग रहते और उन की सन्तति भी सशक्त अथच दीर्घजीवी होती। आज इस नीति का पालन तो शायद ही कहीं पर होता हो ?, तब इस का परिणाम भी वही हो रहा है जो नीति के भंग करने से होता है । आज के स्त्री और पुरुषों का दुर्बल होना, अनेक रोगों का घर होना तथा उत्साहहीन होना मात्र इस पूर्वोक्त पवित्र नीति के उल्लंघन का ही कुपरिणाम समझना चाहिए । राजकुमार होते हुए भी सुबाहुकुमार कृषिविद्या, कपड़ा बुनना और इसी प्रकार अन्यान्य दस्तकारी के कामों को जानते थे, यह उन के ७२ कलाओं के ज्ञान से सूचित होता है। सुबाहुकुमार आज के धनी, म युवकों की भान्ति कृषि आदि धन्धों के करने में अपना अपमान नहीं समझते थे। वे जानते थे कि जीवन उतार चढ़ाव आते हैं, कभी जीवन सुखी तथा कभी दुःखी होता है । अनुकूल और प्रतिकूल दोनों तरह की स्थितिए जीवन में चलती रहती हैं, तदनुसार कभी अच्छा व्यवसाय मिल जाता है, तो कभी साधारण व्यवसाय से ही जीवन का निर्वाह करना होता है। यदि पास में कृषि आदि धन्धों का ज्ञान हो नहीं होगा, फिर भला समय पड़ने पर उन का उपयोग कैसे हो सकेगा, पाकिस्तान और हिन्दूस्थान के विभाजन के उदाहरण ने इस तथ्य को व्यवहार का रूप दे दिया है। धन के विनष्ट हो जाने के कारण जो मनुष्य अर्थसाध्य व्यवसाय नहीं कर पाये वे यदि कुछ शिल्प-दस्तकारी का काम नहीं जानते थे तो उन्हें उदरपूर्ति करनी असम्भव हो गई, परन्तु जब कि हाथ का उद्योग करने वालों ने अपने पुरुषार्थ से अपने जीवन की गाड़ी को बड़ी सुविधा के साथ चलाया और अपना भविष्य निराशापूर्ण एवं दुःखपूर्ण होने से बचा लिया। इस के अतिरिक्त कृषि आदि धन्धों का ज्ञान सांसारिक मनुष्य की स्वतन्त्रता को अक्षुण्ण बनाए रखता है और उसे आजीविकासम्बन्धी किसी भी कष्ट का भाजन नहीं बनने देता......इत्यादि विचारों से प्रेरित हुए सुबाहुकुमार ने ७२ कलाओं का शिक्षण प्राप्त किया था। ... माता पिता ने सुबाहुकुमार का विवाह उस समय किया जब कि वह पूरा युवक हो गया था। इस से बाल्यकाल का विवाह अनायास ही निषिद्ध हो जाता है तथा जो माता पिता अपनी संतान का योग्य अवस्था प्राप्त करने से पहले ही विवाह कर देते हैं वे अपनी सन्तान के हितचिन्तक नहीं किन्तु उसके अनिष्ट के सम्पादक हैं, यह भी प्रस्तुत कथासन्दर्भ से सूचित हो जाता है। सुबाहुकुमार के ५०० विवाह क्यों है, और किस लिये । यह प्रश्न विचारणीय है। जैन शास्त्रों के For Private And Personal Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५६२ 1 श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रतस्कन्ध [प्रथम अध्याय पर्यालोचन से पता चलता है कि अधिक विवाह कराने वाले दो वर्ग हैं। एक तो वे जो वैक्रियल न्धि के धारक या वैकियलन्धिसम्मन्न होते हैं। अपने ही जैसे अनेक रूपों को बना लेना और उन से काम भी ले लेना, यह वैकियलब्धि का पुण्यकर्मजन्य प्रभाव होता है। लब्धिधारियों का ऐसा करना कोई आश्रर्यजनक बात नहीं है । रही दूसरे वर्ग की बात, सो इस के विषय में भी यह निर्णय है कि उस समय में ऐसा करना राजा महाराजाओं के वैभव का प्रतीक समझा जाता था। उस समय के विचारकों की दृष्टि में इस प्रथा को गर्हित नहीं समझा गया था, प्रत्युत आदर की दृष्टि से देखा जाता था। इसलिये सुबाहु कुमार का एक साथ ५०० राजकुमारियों के साथ विवाह का होना, उस समय की प्रचलित बहुविवाहप्रथा' को ही आभारी है। उस समय विशाल साम्राज्य के उपभोक्ता का इसी में गौरव समझा जाता था कि उस के अधिक से अधिक विवाह हए हों। किसी विशाल साम्राज्य के अधिपति के कम विवाह हों, यह उस समय के अनुसार वहां के नरेश का अपमान समझा जाता था। यही कारण है कि सुबाहुकुमार के पिता अदीनशत्र के रनिवास को एक हज़ार रानिएं सुशोभित कर रहीं थीं। जिन में प्रधान-पट्टरानी धारिणी देवी थी, परन्तु ध्यान रहे कि जहां अधिक विवाह करना गौरव का अंग बना हुआ था, वहां सदाचारी रहना भी उतना ही आवश्यक था । सुबाहुकुमार के सदाचारी जीवन का परिचय आगे चल कर सूत्रकार स्वयं ही करा देंगे। __पहले से ही यह युग धर्मयुग कहलाता था, उस में धर्म का प्रचार था, चारों ओर धम की दुन्दुभि बजती थी। जिधर देखो उधर ही धर्म की चर्चा हो रही थी। उस के कारण मनोवृत्तियों का स्वच्छ रहना और कामोपासना से विमुख होना स्वाभाविक ही है। आजकल का वासना का पजारी मानव तो इसे झटिति कह देता वा समझ लेता है, परन्तु उसे क्या पता है कि सदाचारी अपने को कामदेव के चंगुल से कितनी नी से बचा लेते हैं और अपने में कितने दृढ़ रहते हैं । अाज के मनुष्य की दशा तो कूप के मंडूक की भान्ति है, जो कूप के विस्तार को ही सर्वोपरि मानता है। सच तो यह है कि जिस का श्रात्मा श्राध्यात्मिक सुख को न देख कर केवल भोग का कलेवर बना हुआ है, वह अपने मानव जीवन को निस्सार कर लेता है और वह उपलब्ध हुए बहुमूल्य अवसर को यों ही खो डालता है। इस के विपरीत सदाचार के सौरभ से सरभित मानस अपने जीवन में अधिकाधिक सदाचारमूलक प्रवृत्तियों का पोषण कर के अपना भविष्य उज्ज्वल, समुज्ज्वल और अत्युज्ज्वल बना डालता है। पांच सौ कन्याओं के साथ एक ही दिन में विवाह करने का यह अर्थ है कि लोगों के समय, शक्ति और स्वास्थ्य आदि का बचाव किया जाय । एक २ कन्या का अलग २ समय में विवाह किया जाता तो न जाने कितना समय लगता, कितनी शक्ति व्यय होती एवं लगातार गरिष्ट भोजनादि के सेवन से कितनों का स्वास्थ्य बिगड़ता । इस के अतिरिक्त राज्य के प्रबन्ध में भी अमर्यादित प्रतिबन्ध के उपस्थित होने की संभावना रहती। इसी विचार से महाराज अदीनशत्रु ने एक ही दिन में और एक ही मण्डप में विवाह का आयोजन करना उचित समझा, जो कि उन की दीघदर्शिता का परिचायक है । इस के अतिरिक्त इस से समय का उपयोग कितनी निपुणता तथा बद्धिमत्ता से करना चाहिये ? इस बात की ओर स्पष्ट संकेत मिलता है । एक मेधावी व्यक्ति के समय का मूल्य कितना होता है तथा उस का उपयोग किस रीति से करना चाहिये ?, ये बातें प्रस्तुत (१) सूत्रकार ने जो सुबाहुकुमार के ५०० राजकुमारियों के साथ विवाह का कथानक उपन्यस्त किया है, इस का यह अर्थ नहीं है कि जैनशास्त्र बहुविवाह की प्रथा का समर्थन या विधान करते हैं, परन्तु प्रस्तुत में तो मात्र घटनावृत्त का वर्णन करना ही सूत्रकार को इष्ट है । For Private And Personal Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हिन्दी भाषा टीका सहित । प्रथम अध्याय ] वर्णन से जान लेनी चाहिये । - रिद्ध० - यहां के बिन्दु से त्थिमियसमिद्ध े पमुइयजण जाणवये श्रणजनम हलसय सहस्त्रसंकि विकिट्ठलट्ठपण तसेउसीमें कुक्कुडलंडेयगामपउरे उच्छुजवसालिकलिये गोमहिसगवेल गप्पभूते श्रायारवन्त चेइयजुवइविविहसन्निविठ्ठवहुले उक्कोडियगायगं ठिभेयभडतक्करखंडक्रहिए खेमे विदवे सुभिकखे वीसत्यसुहावा से श्ररोगकोडिकुटुबिया इराणणिव्वयसुहे जडगजल्ल मल्लमुट्ठिय वेलंबयक गप वगलासग श्री इक्खगलं स्वमं खलू इल्लतु ववीणिय अरोगता लायरा-चरिये श्रारामुज्जाणगडत लागदीहियवपिणिगुणोववेये नंदणवणसन्निभप्पगासे उग्विद्धविउलगंभीरायफल चक्कगयमुसु ढिश्रोरोहसयग्धिजमलकवा डघणदुप्पवेसे धणुकुडिलवं कपागारपरि Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५६३ कविसीसवहरइय संठिया विरायमाणे श्रहालयच रियदारगोपुर तोरण उरणयसुविभत्तरायमग्गे यारियरयदढफ लिहइंदकीले विवविणिच्छेत्त सिप्पियाइएगा णिव्वयसुहे सिंघाडगतिगच उक्क चच्चरपगियावण विविह्वत्थुपरिमरिडर सुरम्मे नरवइपविइरणम हिवइपहे रोग वरतुरगमत्तकु जररपहकर खीय संद माणीया इराण जाए जुग्गे विमडलणवण लियिसोभियजले पण्डुरवरभवणसरिणमहिये उत्तापयपेच्छपिज्जे पासादीये दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिकवे- - इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन पदों का अर्थ निम्नोक है For Private And Personal वह नगर ऋद्ध - भवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित – स्वचक्र और परचक्र के भय से विमुक्त तथा समृद्ध – धन धान्यादि से परिपूर्ण था । उस में रहने वाले लोग तथा जानपद - बाहर से आए हुए लोग, बहुत प्रसन्न रहते थे । वह मनुष्यसमुदाय से आकीर्ण - व्याप्त था, तात्पर्य यह है कि वहां की जनसंख्या अत्यधिक थी । उस की सीमाओं पर दूर तक लाखों हलों द्वारा क्षेत्र - खेत अच्छी तरह बाहें जाते थे तथा वे मनोश, किसानों के अभिलषित फल के देने में समर्थ और बीज बोने के योग्य बनाये जाते थे । उस में कुक्कुटों, मुर्गों और सण्डों-सांडों के बहुत से समूह रहते थे । वह इच्क्षु - गन्ना, यव- जौ और शालि - धान इन से युक्त था । उनमें बहुत सी गौएं, भैंसे और भेडें रहती थीं । उस में बहुत से सुन्दर चैत्यालय और वेश्याओं के मुहल्ले थे । वह उत्कोच - रिश्वत लेने वालों, ग्रन्थिभेदकों - गांठ कतरने वालों, भटों - बलात्कार करने वालों, तस्करों - चोरों और खण्डरों - कोतवालों अथवा कर - महसूल लेने वालों से रहित था, अर्थात् उस नगर में ग्रन्थिभेदक आदि लोग नहीं रहते थे । वह नगर क्षेमरूप था, अर्थात् वहां किसी का अनिष्ट नहीं होता था । वह नगर निरूपद्रव - राजादिकृत उपद्रवों से रहित था । उस में भिक्षुकों को भिक्षा की कोई कमी नहीं थी। वह नगर विश्वस्त - निर्भय अथवा धैर्यवान् लोगों के लिये सुखरूप आवास वाला था, अर्थात् उस नगर में लोग निर्भय और सुखी रहते थे वह नगर अनेक प्रकार के कुटुम्बियों और सन्तुष्ट लोगों से भरा हुआ होने के कारण सुखरूप था। नाटक करने वाले, नृत्य करने वाले, रस्से पर खेल करने वाले अथवा राजा की स्तुति करने वाले चारण, मल्ल-- पहलवान, मौष्टिक - मुष्टियुद्ध करने वाले, विदूषक, कथा कहने वाले और तैरने वाले, रामे गाने वाले अथवा "प की जय हो इस प्रकार कहने वाले, ज्योतिषी, बांसों पर खेल करने वाले, चित्र दिखा कर भिक्षा मांगने वाले, तू नामक वाद्य बजाने वाले, वीणा बजाने वाले, ताली बजा कर नाचने वाले आदि लोग उस नगर में रहते थे । श्राराम - बाग़, उद्यान - जिस में वृक्षों की बहुलता हो और जो उत्सव आदि के समय बहुत लोगों के उपयोग में लाया जाता हो, कूप- कूत्रां, तालाब, बावड़ी, उपजाऊ खेत इन सब की रमणीयता श्रादि गुणों से वह नगर युक्त था । नन्दनवन - एक वन जो मेरुपर्वत पर स्थित है, के समान वह नगर शोभायमान था । उस विशाल नगर के चारों ओर एक गहरी खाई थी जो कि ऊपर से चौड़ी और नीचे से संकुचित थी, I "" Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५६४] श्री विपाकसूत्रीयद्वितीय श्रुतस्कन्ध चक्र – गोलाकार शस्त्रविशेष, गदा - शस्त्रविशेष भुशुण्डी - शस्त्र विशेष, अवरोध- मध्य का कोट, शतघ्नी"Fast प्राणियों का नाश करने वाला शस्त्रविशेष (तोप) तथा छिद्ररहित कपाट, इन सब कारण उस नगर में प्रवेश करना बड़ा कठिन था, अर्थात् शत्रुओं के लिये वह दुष्प्रवेश था । वक्र धनुष से भी अधिक वक्र प्राकारकोट से वह नगर परिक्षिप्त परिवेष्टित था। वह नगर अनेक सुन्दर कंगूरों से मनोहर था। ऊंची अटारियों, कोट के भीतर आठ हाथ के मार्गों, ऊंचे २ कोट के द्वारों, गोपुरों-नगर के द्वारों, तोरणों- - घर या नगर बाहिरी फाटकों और चौड़ी २ सड़कों से वह नगर युक्त था। उस नगर का अर्गल - वह लकड़ी जिस से किवाड़ बन्द करके पीछे से आाड़ी लगा देते हैं (अरगल), इन्द्रकील (नगर के दरवाज़ों का एक अवयव जिस के आधार 'दरवाज़े के दोनों किवाड़ बन्द रह सकें) दृढ था और निपुण शिल्पियों द्वारा उन का निर्माण किया गया था, वहां बहुत से शिल्पी निवास किया करते थे, जिन से वहां के लोगों की प्रयोजनसिद्धि हो जाती थी, इसी लिए वह नगर लोगों के लिए सुखप्रद था । शृङ्गाटकों - त्रिकोण मार्गों त्रिकों - जहां तीन रास्ते मिलते हों, ऐसे स्थानों, चतुष्कों-चतुष्पथों, चत्वरों-जहां चार से भी अधिक रास्ते मिलते हों ऐसे स्थानों और नाना प्रकार के बर्तन आदि के बाजारों से वह नगर सुशोभित था । वह अतिरमणीय था । वहां का राजा इतना प्रभावशाली था कि उस ने अन्य राजाओं के तेज को फीका कर दिया था। अनेक अच्छे २ घोड़ों, मस्त हाथियों, रथों, गुमटी वाली पालकियों, पुरुष की लम्बाई जितनी लम्बाई वाली पालकियों, गाड़ियों और युग्यों अर्थात् गोल्लदेश में एक प्रकार की पालकियां, जिन के चारों ओर फिरती चौरस दो हाथ प्रमाण की वेदिका (कठहरा) होती है, से वह नगर युक्त था । उस नगर के जलाशय नवीन कमल और कमलिनियों से सुशोभित थे । वह नगर श्वेत और उत्तम महलों से युक्त था। वह नगर इतना स्वच्छ था कि अनिमेष – बिना झपके दृष्टि से देखने को दर्शकों का मन चाहता था । वह चित्त को प्रसन्न करने वाला था, उसे देखते २ खें नहीं थकती थीं, उसे एक बार देख लेने पर भी पुनः देखने की लालसा बनी रहती थी, उसे जब देखा जाय तब भी वहां नवीनता ही प्रतिभासित होती थी, ऐसा वह सुन्दर नगर था । - सव्वोउय० - यहां का बिन्दु - सव्वोउयपुप्फफलसमिद्धे रम्मे नंदणवणप्पगासे पासा - ए दस णिज्जे अभिरूवे पडिरूवे – इस पाठ का परिचायक है । सब ऋतुओं में होने वाले पुष्पों और फलों से परिपूर्ण एवं समृद्ध सर्वतुकपुष्पफलसमृद्ध कहलाता है । रम्य रमणीय को कहते हैं । मेरुपर्वत पर स्थित नन्दनवन की तरह शोभा को प्राप्त करने वाला - इस अर्थ का परिचायक नन्दनवनप्रकाश शब्द है । प्रासादीय शब्द - मन को हर्षित करने वाला, इस अथ का दर्शनीयशब्द - जिसे बार २ देख लेने पर भी पुन: देखने की लालसा बनी रहे इस अर्थ का एवं प्रतिरूप शब्द - जिसे जब भी देखा जाय तब भी वहां नवीनता ही प्रतीत हो, इस अर्थ का बोध कराता है । - दिव्वे० - यहां का बिन्दु - सच्चे सच्चोवार सन्निहियपाडिहेरे जागसहस्लभागपडिच्छर बहुजण अच्चे कवणमालपियस्स जक्वस्स जक्वायतणं - इन पदों का संसूचक है । इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है - [प्रथम अध्याय For Private And Personal १ - दिव्य - प्रधान को कहते हैं । २ - सत्य — यक्ष की वाणी सत्यरूप होती थी, जो कहता था वह निष्फल नहीं जाता था, अतः उस का स्थान सत्य कहा गया है । ३ - सत्यावपात - उस का प्रभाव सत्यरूप था अर्थात् उस का चमत्कार यथार्थ ही रहता था । ४ - सन्निहितप्रातिहार्य - वहां के अधिष्टायक वनमालप्रिय नामक यक्ष ने उस की महिमा बढ़ा रखी थी अर्थात् वहां पर मानी गई मनौती को सफल बनाने में वह कारण रहता था । ५ - यागसहस्रभागप्रतीच्छ - हज़ारों यज्ञों का भाग उसे प्राप्त होता था अर्थात् हज़ारों यज्ञों का हिस्सा वह प्राप्त किया करता था। वहां आकर बहुत लोग उस कृतवनमालप्रिय यक्ष के Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रथम अध्याय ] यज्ञायतन की पूजा किया करते थे जक्खस्स जक्खायतणं-ये शब्द हैं । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir हिन्दी भाषा टीका सहित । इन भावों का परिचायक - बहुजणो बच्चे कयवणमालपियस्स [५६५ - महया० - यहां के बिन्दु से - हिमवंत महंतमलय मन्दरमहिंदसारे श्रच्चंत विसुद्ध दोहराकुलवंससुपसू गिरंतरं रायलक्खणविराइचंगमंगे बहुजण बहुमाणे पूजिए सव्वगुणसमिद्धे खत्तिए मुइए मुद्राहिसित्ते माउपिउसुजाए दयपत्ते सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे मणुस्सिंदे जणवयपिया जणवयपाले जणवयपुरोहिए सेउकरे केउकरे गरपवरे पुरिसवरे पुरिससीहे पुरिसव पुरिसासीविसे पुरिसपुण्डरीए पुरिसवरगन्धहत्थी अड्ढे दित्त विशे विच्छिण्णविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइराणे बहुधरणबहुजायरूवरयते श्राश्रोगपश्रोगसंपत्त विछडियमत्त पडरभत्तपाणे बहुदासदासीगोमहिसगवेल गप्पभूते पडिपुराणजंत कोस कोट्ठागाराउधागारे बलवं दुब्बलपच्चामित्त हटयं नियकंटयं मलिग्रकंटयं उद्धियकंटयं श्रकंटयं श्रोहयसत्तु ं निहयसत्त मलियसत्तु · उद्धिसत्त ं निज्जियसत्तु ं पराइ सत्त' ववगयदुब्भिक्खं मारिभयधिप्प मुक्कं खेमं सिवं सुभिक्ख पसन्तडिम्बडमरं रज्जं पसासेमाणे विहरइ – इन पदों का ग्रहण करना चाहिये। इन पदों का भावार्थ निम्नोत है For Private And Personal वह राजा महाहिमवान् अर्थात् हिमालय के समान महान् था, तात्पर्य यह है कि जैसे समस्त पर्वतों में हिमालय पर्वत महान् माना जाता है, उसी भान्ति शेष राजाओं की अपेक्षा से वह राजा महान् था, तथा मलय पर्वतविशेष, मन्दर मेरु पर्वत, महेन्द्र - पर्वतविशेष अथवा इन्द्र, इन के समान वह प्रधान था । वह राजा अत्यन्त विशुद्ध निर्दोष तथा दीर्घ चिरकालीन जो राजाओं का कुलरूप वंश था, उस में उत्पन्न हुआ था । उस का प्रत्येक अंग राजलक्षणों - स्वस्तिक आदि चिह्नों से निरन्तर बिना अन्तर के शोभायमान रहता था । वह अनेक जनसमूहों से सम्मानित था, पूजत था । वह सर्वगुणसम्पन्न था। वह क्षत्रिय जाति का था। वह मुदित - प्रसन्न रहने वाला था । उसके पितामह तथा पिता ने उस का राज्याभिषेक किया था । वह माता पिता का विनीत होने के कारण सुपुत्र कहलाता था । वह दयालु था । वह विधान आदि की मर्यादा का निर्माता और अपनी मर्यादाओं का पालन करने वाला था । वह उपद्रव करने वाला नहीं था और नाहिं वह उपद्रव होने देता था । वह मनुष्यों में इन्द्र के समान था तथा उन का स्वामी था। देश का हितकारी होने के कारण वह देश का पिता समझा जाता था । वह देश का रक्षक था । शान्तिकारक होने से वह देश का पुरोहित माना जाता था । वह देश का मार्गदर्शक था । वह देश के अद्भुत कार्यों को करने वाला था । वह श्रेष्ठ मनुष्यों वाला था और वह स्वयं मनुष्यों में उत्तम था । वह पुरुषों में वीर होने के कारण सिंह के समान था । वह रोषपूर्ण हुए पुरुषों क्रोध को सफल करने में समर्थ होने के कारण वह पुरुषों भ्रमरों के लिये वह व ेत कमल के समान था । गजरूपी में व्याव - बाघ के समान प्रतीत होता था । अपने में आशीविष - सर्पविशेष के समान था | अर्थीरूपी शत्रुराजाओं को पराजित करने में समर्थ होने के कारण वह पुरुषों में श्रेष्ठ गन्धहस्ती के समान था । वह श्राढ्य समृद्ध अर्थात् सम्पन्न था। वह श्रात्म - गौरव वाला था । उस का यश बहुत प्रसृत हो रहा था । उस के विशाल तथा बहुसंख्यक भवन – महलादि शयन शय्या, आसन, यान, वाहन - रथ तथा घोड़े आदि से परिपूर्ण हो रहे थे । उस के पास बहुत सा धन तथा बहुत सा चांदी, सोना था । वह सदा अर्थलाभ - आमदनी के उपायों में लगा रहता था वह बहुत से अन्न पानी का दान किया करता था। उस के पास बहुत सी दासिये, दास, गौर, भैंसें तथा भेड़ थीं । उस के पास पत्थर फेंकने वाले यन्त्र, कोष भण्डार, 1 Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय कोष्ठागार-धान्यगृह तथा आयुधागार-शस्त्रशाला, ये सब परिपूर्ण थे, अर्थात् यंत्र पर्याप्तमात्रा में थे और उन से कोषादि भरे हुए रहते थे। उस के पास विशाल सेना थी। उस के पड़ोसी राजा निबल थे अर्थात् वह बहुत बलवान् था । उस ने स्पर्धा रखने वाले समानगोत्रीय व्यक्तियों का विनाश कर डाला था, इसी भान्ति उस ने उन की सम्पत्ति छीन ली थी, उन का मान भंग कर डाला था, तथा उन्हें देशनिर्वासित कर दिया था, इसी लिये उस के राज्य में कोई स्पर्धा रखने वाला समानगोत्रीय व्यक्तिरूप कण्टक नहीं रहने पाया था। उस ने अपने शत्रों-असमानगोत्रीय स्पर्धा रखने वाले व्यक्तियों का विनाश कर डाला था, उन की सम्पत्ति छीन ली थी, उन का मान भंग कर डाला था, तथा उन्हें देश से निकाल दिया था। उस राजा ने शत्रुओं को जीत लिया था तथा उन्हें पराजित अर्थात् पुन: राज्य प्राप्त करने की सम्भावना भी जिन की समाप्त कर दी गई हो, ऐसा कर डाला था। वह ऐसे राज्य का शासन करता हुआ विहरण कर रहा था, जिस में दुर्भिक्ष-अकाल नहीं था, जो मारी-प्लेग के भय से रहित था, क्षेमरूप था, अर्थात् वहां लोग कुशलतापूर्वक रहते थे। शिव. रूप-सुखरूप था । जिस में भिक्षा सुलभ थी, जिस में डिम्बों - विनों और डमरों-विद्रोहों का अभाव था। "-सीहं सुमिणे जहा मेहजम्मणं तहा भाणियवं-"इस पाठ में सूत्रकार ने सुबाहुकुमार के जीवन की जन्मगत समानता मेघकुमार से की है । मेघकुमार कौन था ?, उस ने कहां पर जन्म लिया था ? और उस के माता पिता कौन तथा किस नाम के थे १, इत्यादि बातों के जानने की इच्छा सहज ही उत्पन्न होती है। तदर्भ मेषकुमार के प्रकृतोपयोगी जीवनवृत्तान्त को संक्षेप से वर्णन कर देना भी आवश्यक प्रतीत होता है राजगृह नाम की एक प्रसिद्ध नगरी थी। उस के अधिपति -नरेश का नाम श्रेणिक था । उन की पट्टरानी का नाम धारिणी था। एक बार महारानी धारिणी राजोचित उत्तम वासगृह में आराम कर रही थी उस ने अर्धजागृत अवस्था में अर्थात् स्वप्न में एक परम सुन्दर तथा जम्भाई लेते हुए, आकाश से उतर कर मुंह में प्रविष्ट होते हाथी को देखा । इस शुभ स्वप्न के देखने से रानी की नींद खुल गई । तदनन्तर वह अपना उक्त स्वप्न पति को सुनाने के लिये अपनी शय्या से उठ कर पति के शयनस्थान की ओर चली । पति की शय्या के समीप पहुँच कर धारिणो देवी ने अपने पति महाराज श्रेणिक को जगाया और उन से अपना स्वप्न कह सुनाया तदनन्तर फलजिज्ञासा से वह वहां बैठ गई। धारिणी से उस के स्वप्न को सुन कर महाराज.श्रोणिक को बहुत हर्ष हुआ। वे धारिणी से बोले कि प्रिये ! यह स्वप्न बड़ा शुभ है, इस के फलस्वरूप तुम्हारी कुक्षि से एक बड़े भाग्यशाली पुत्र का जन्म होगा जो कि परम यशस्वी और कुल का प्रदीप होगा। पति के मुख से उक्त शन्दों को सुन कर उन को प्रणाम कर के यह रानी धारिणी अपने शयनागार में चली गई और कोई अनिष्टोत्पादक स्वप्न न आए इन विचारों से शेष रात्रि को उस ने धर्मजागरण से ही व्यतीत किया। दूसरे दिन प्रातःकाल आवश्यक कार्यों से निवृत्त हो कर महाराज श्रेणिक ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा स्वप्नशास्त्रियों को आमंत्रित किया और धारिणी देवी के स्वप्न को सुना कर उन से उस के शुभाशुभ फल की जिज्ञासा की । इस के उत्तर में स्वप्नशास्त्रों के वेत्ता विद्वानों ने इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया___महाराज ! स्वप्नशास्त्र में ७२ प्रकार के शुभ स्वप्न कहे हैं। उन में ४२ साधारण और ३० विशेष माने हैं, अर्थात ४२ का तो शुभ फल सामान्य होता है और ३० विशिष्ट फल के देने वाले हैं। जिस समय अरिहंत या चक्रवती अपनी माता के गर्भ में आते हैं, तब उन की माताएं इन तीस प्रकार के विशिष्ट स्वप्नों में से १४ स्वप्नों को देख कर जागती हैं, प्रत्युत जब वासुदेव गर्भ में आते हैं तब उन की मातायें इन चौदह स्वप्नों में से किन्हीं सात स्वप्नों को देखती हैं और जब बलदेव गर्भ में आते हैं तो उन की मातायें इन चौदह स्वप्नों में से किन्हीं चार स्वप्नों को देख कर For Private And Personal Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित। [५६७ जागती हैं । इसी प्रकार किसी मांडलिक राजा के गर्भ में आने पर उन की मातायें इन चौदह स्वप्नों में से किसी एक स्वप्न को देख कर जागती हैं। सो महारानी धारिणी देवी भी इन्हों चौदह स्वप्नों में से एक को देख कर जागी हैं, इस लिए इन के गर्भ से पुत्ररत्न का जन्म होगा। वह बालक अपने शिशुभाव को त्याग कर युवावस्थासम्पन्न होने पर सर्वविद्यासम्पन्न और सर्वकलाओं का ज्ञाता होगा । युवावस्था में प्रवेश करने पर या तो वह बालक दानशील और राज्य को बढ़ाने वाला होगा या आत्मकल्याण करने वाला परमतपस्वी और अखण्ड ब्रह्मचारी मुनि होगा। तदनन्तर महाराज श्रेणिक ने स्वप्नशास्त्रियों को बहुमूल्य वस्त्राभूषणादि से सम्मानित कर विदा किया । स्वप्नशास्त्री भी महाराज श्रेणिक को प्रणाम करके अपने २ स्थान को चले गए। गर्भ के तीसरे मास में महारानी को 'अकालमेघ का दोहद उत्पन्न हुआ, जिस के अपूर्स रहने से महारानी हतोत्साह हुई आर्तध्यान में ही रहने लगी। महाराज श्रेणिक को जब इस वृत्तान्त का पता चला, तब उन्हों ने उस को पूर्ण कर देने का आश्वासन देकर शान्त किया, अन्त में अभयकुमार के प्रयास से देवता के अाराधन से उसे पूर्ण कर दिया गया । तदनन्तर समय आने पर धारिणी ने एक सर्वाङ्गसम्पूर्ण पुत्ररत्न को जन्म दिया तथा उस का बड़े समारोह के साथ अकालमेघ दोहद के कारण "- मेघकुमार - " ऐसा गुण निष्पन्न नाम रक्खा गया । पुत्रजन्म के हर्ष में महाराज श्रेणिक और महारानी धारिणी ने अपने वैभव के अनुसार गरीबों, अनागों को जी खोल कर दान दिया । घर २ में मंगलाचार किया गया। मेघकुमार का पालन पोषण उसी प्रकार हुअा, जिस प्रकार राजा, महाराजात्रों के बालकों का हुआ करता है । पांचों धायमाताओं की देखरेख में द्वितीया के चन्द्र की भान्ति सम्वर्द्धन को प्राप्त होता हुआ, योग्य शिक्षकों की दृष्टि तले ७२ कलाओं की शिक्षा प्राप्त करता हुआ, विद्या और विनयसम्पत्ति प्राप्त करने के साथ ही वह युवावस्था को प्राप्त हुआ। यह है मेघकुमार का प्रकृतोपयोगी संक्षिप्त जीवनवृत्तान्त । अधिक के जिज्ञासु श्री ज्ञाताधर्मकयांग सूत्र के प्रथम अध्ययन का अवलोकन कर सकते है । सुबाहूकुमार और मेघकमार के गर्भ में आने पर माता को आए हुए स्वप्नों में इतना ही अन्तर है कि महाराज श्रेणिक की श्रद्धांगिनी ने स्वप्न में हस्ती को देखा और अदीनशत्र की रानी ने सिंह के दर्शन किये । इसी विभिन्नता को दिखलाने के लिए मूल में "-सीई सुमिणे-" ऐसा उल्लेख कर दिया है । इस के अतिरिक्त अकालमेघ के दोहद से श्रेणिक के पुत्र का मेघकुमार नाम रखना और अदीनशत्रु की रानी धारिणी को बैसे दोहद का उत्पन्न न होना और सुबाहुकुमार यह नाम रखना, दोनों की नामगतविभिन्नता को सूचन कर "--सुबाहुकुमारे जाव अलंभोगसमत्थं०-" यहां उल्लिखित जाव-यावत्-पद से - (१) गर्भ के तीसरे महीने गर्भस्थ जीव के भाग्यानुसार जो माता को अमुक प्रकार का मनोरथ उत्पन्न होता है, उस की दोहद संज्ञा है। तदनुसार धारिणी को उस समय यह इच्छा हुई कि मेघों से आच्छादित आकाश को देखू परन्तु वह समय मेघों के आगमन का नहीं था, इसलिये उन से आच्छन्न श्राकाश को देखना बहुत कठिन था। ऐसी दशा में उक्त दोहद की पूर्ति कैसे हो ?, तब ज्ञात होने पर महामंत्री अभयकुमार ने देवता के श्राराधन द्वारा इस दोहद को पूर्ण किया अर्थात् देवी शक्ति के द्वारा मेघों से आकाश को आच्छादित कर धारिणी देवी को दिखलाया और उसके दोहद को सफल किया ताकि गर्भ में कोई क्षति न पहुंचे। (२) ७२ कलाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन पीछे १०८ से ले कर ११५ तक के पृष्ठों पर किया जा चुका है। For Private And Personal Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५६८] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय -बावत्तरीकलापंडिए, 'नवंगसुसपडिबोहिए अट्ठारसविहिप्पगारदेसीभासाविसारए गीयरईगन्धव्वनहकुसले हयजोही गयजोही रहजोही बाहुजोही बाहुप्पमदी अलंभोगसमत्थे साहसिए वियालचारी जाते यावि होत्था, तते णं तस्स सुबाहुकुमारस्स अम्मापिअरो सुबाहुकुमारं बावत्तरिकलापण्डियं नवंगसुत्तपडिबोहियं अट्ठारसविहिप्पगारदेसीभासाविसारयं गीयरई गंधव्वनहकुसलं हयजोहिं गयजोहिं रहजोहिं बाहुजोहिं बाहुप्पमदि-इन पदों का तथा-अलंभोगसमर्थ० - यहां के बिन्दु से-साहसियं वियालचारिं जायं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए । इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है - सुबाहुकमार ७२ कलाओं में प्रवीण हो गया । यौवन ने उस के सोए हुए -दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, एक जिह्वा, एक त्वचा और एक मन -ये नव अंग जागृत कर दिये थे, अर्थात् बाल्यावस्था में ये नव अंग अव्यक्त चेतना -ज्ञान वाले होते हैं, जब कि यौवनकाल में यहो नव अंग व्यक्त चेतना वाले हो जाते हैं, तब सुबाहुकुमार के नव अंग प्रबोधित हो रहे थे । यह कहने का. अभिप्राय इतना ही है कि वह पूर्णरूपेण युवावस्था को प्राप्त कर चुका था। वह अठारह देशों की भाषाओं में प्रवोण हो गया था। उस को गीत. संगीत में प्रेम था, तथा गाने और नृत्य करने में भी वह कुशल -निपुण हो गया था। वह घोड़े, हाथी और रथ द्वारा युद्ध करने वाला हो गया था। वह बाहुयुद्ध तथा भुजात्रों को मदन करने वाला एवं भोगों के परिभोग में भी समर्थ हो गया था, वह साहसिक -साहस रखने वाला और अकाल अर्थात् आधी रात आदि समय में विचरण करने की शक्ति रखने में भी समर्थ हो चुका था। तदनन्तर सुबाहुक मार के माता पिता उस को ७२ कलाओं में प्रवीण आदि, (जाणे ति जाणित्ता -जानते हैं तथा जान कर - यह अर्थ निष्पन्न होता है। ___ -अब्भुग्गय०, तथा- भवणं० - इन सांकेतिक पदों से अभिमत पाठ की सूचना पीछे पृष्ठ ४७३ से ले कर ४७४ तक के पृष्ठों पर कर दी गई है । अन्तर मात्र इतना ही है कि वहां महाराज महासेन के पुत्र श्री सिंहसेन का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में महाराज अदीन रात्रु के सुपुत्र श्री सुबाहुकुमार का । शेष वर्णन समान ही है । तथा वहां मात्र-अभुग्गय०-इतना ही सांकेतिक पद दिया है जब कि प्रस्तुत में उसी के अन्तर्गत - भवणं०-इस पद का भी स्वतन्त्र ग्रहण किया गया है। ___"- एवं जहा महब्बलस्स रराणो -" इन पदों से सूत्रकार ने प्रासादादि के निर्माण में तथा विवाहादि के कार्यों में राजा महाबल की समानता सूचित की है, अर्थात् जिस तरह श्री महाबल के भवनों का निर्माण तथा विवाहादि कार्य सम्पन्न हुए थे, उसी प्रकार श्री सुबाहुकुमार के भी हुए । प्रस्तुत कथासन्दर्भ में श्री महाबल का नाम आने से उसके विषय में भी जिज्ञासा का उत्पन्न होना स्वाभाविक है । अतः प्रसंगवश उस के जीवनवृत्तान्त का भी संक्षिप्त वर्णन कर देना समुचित होगा। - हस्तिनापुर नगर के राजा बल की प्रभावती नाम की एक रानी थी। किसी समम उस ने रात्रि के समय अद्धजागृत अवस्था में अर्थात् स्वप्न में आकाश से उतर कर मुख में प्रवेश करते हुए एक सिंह को देखा । तदनन्तर वह जोंग उठी और उक्त स्वप्न का फल पूछने के लिए अपने शयनागार से उठ कर समीप के शयनागार में सोये हुए महाराज बल के पास आई ओर उन को जगा कर अपना स्वप्न कह सुनाया। स्वप्न को सुन कर नरेश बड़े प्रसन्न हुए तथा कहने लगे कि प्रिये ! इस स्वप्न के फलस्वरूप तुम्हारे गर्भ से एक बड़ा प्रभावशाली पुत्ररत्न उत्पन्न होगा। महारानी प्रभावती उक्त फल को सुन कर हर्षातिरेक से पतिदेव को प्रणाम (१) नवांगानि-श्रोत्रश्चनुरघ्राणरसनाश्त्व१मनोरलक्षणानि सुप्तानि सन्ति प्रबोधितानि यावनेन यस्य स तथा । ( वृत्तिकारः) For Private And Personal Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित। [५६९ कर वापिस अपने शयनभवन में आगई और अनिष्टोत्पादक कोई स्वप्न न आजाए, इस विचार से शेष रात्रि उस ने धर्मजागरण में ही बिताई । स्मानादि की आवश्यक क्रियाओं से निवृत्त हो कर महाराज बल ने अपने कौटुम्विक पुरुषों-राजपुरुषों द्वारा स्वप्नशास्त्रियों को आमन्त्रित किया और उन के सामने महारानी प्रभावती का पूर्वोक्त स्वप्न सुना कर उस का फल पूछा । स्वप्नशास्त्रियों ने भी "-आप के घर में एक सर्वाङ्गपूर्ण पुण्यात्मा पुत्र उत्पन्न होगा, जो कि महान् प्रतापी राजा होगा या अखण्डब्रह्मचारी मुनिराज होगा .....आदि शब्दों द्वारा स्वप्न का फलादेश कथन किया। तदनन्तर राजा ने यथोचित पारितोषिक दे कर उन्हें विदा किया। ___ लभभग नवमास के परिपूर्ण होने पर महारानी ने एक सर्वाङ्गसुन्दर पुत्ररत्न को जन्म दिया । राज. दम्पती ने बड़े आनन्द मंगल के साथ पुत्र का जन्मोत्सव मनाया तथा बड़े समारोह के साथ उस का नामकरणसंस्कार किया और “महाबल" ऐसा नाम रक्खा। तदनन्तर पांच धायमाताओं के संरक्षण में वृद्धि तथा किसी शिक्षक से शिक्षा को प्राप्त करता हुआ युवावस्था को प्राप्त हुआ। तब महाराज बल ने महाबल के लिये विशाल और उत्तम अाठ प्रासाद - महल बनवाये और उन के मध्य में एक विशाल भवन तैयार कराया । तद शुभ तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में सुयोग्य पाठ राजकन्याओं के साथ उस का एक ही दिन में विवाह कर दिया गया। विवाह के उपलक्ष्य में राजा बल ने आठ करोड़ हिरण्य, पाठ करोड़ सुवर्ण, अाठ सामान्य मुकुट, आठ सामान्य कुण्डलों के जोड़े, इस प्रकार को अनेकविध उपभोग्य सामग्री दे कर श्री महाबल कुमार को उन महलों में निवास करने का आदेश दिया और महाबलकुमार भी प्राप्त हुई दहेज की सामग्री को आठों रानियों में विभक्त कर उन महलों में उन के साथ सानन्द निवास करने लगा। यह है महाबल कुमार का प्रकृतप्रकरणानुसारी संक्षिप्त परिचय । विशेष जिज्ञासा रखने वाले पाठक महानुभावों को भगवतीसूत्र के ग्यारहवें शतक का ग्यारहवां उद्देश्य देखना चाहिये । वहां पल्योपम और सागरोपम के क्षयापचयमूलक प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर स्वामी ने सुर्दशन को उसो का महाबलभवीय वृत्तान्त सुनाया था । राजकुमार महाबल का पाठ राजकुमारियों से विवाह हुश्रा-इस बात से विभिन्नता सूचित करने वाला सूत्रगत "--पुप्फचूलापामोक्खाणं-" इत्यादि उल्लेख है । इस में सुबाहुकमार का ५०० राजकन्याओं से विवाह होने का प्रतिपादन है तथा पांच सौ प्रीतिदान-दहेज देने का वर्णन है । सारांश यह है कि जिस प्रकार भगवती सूत्र में महाबल के लिये भवनों का निर्माण और उस के विवाहों का वर्णन किया है, उसी प्रकार श्री सुबाहुकुमार के विषय में भी जानना चाहिये, किन्तु इतना अन्तर है कि महाबलकुमार का कमलाश्री प्रभृति आठ राजकन्याओं से विवाह हुआ और सुबाहुकुमार का पुष्पचूलाप्रमुख ५०० राजकन्याओं से । इसी प्रकार वहां अाठ और यहां ५०० दहेज दिये गये। ___ -पंचसइओ दाश्रो जाव उप्पिं-यहां पठित -पंचसइओ दाश्रो-ये पद पृष्ठ ४७५ तथा ४७६ पर लिखे गए-पंचसयहिरण्णकोडीओपंचसयसुवरणकोडीओ-से ले कर-भासत्तमाओं, कुलवंसानो पकाम देउ पकामं भोत्तु पकामं परिभाए-"इन पदों के परिचायक हैं। अन्तर मात्र इतना है कि वहां सिंहसेन का वर्णन प्रस्तावित हुआ है जब कि यहां सुबाहु कुमार का । शेषवर्णन समान ही है। तथा जाव-यावत् पद -तए णं से सुबाहुकुमारे एगमेगाए भन्जाय पगमेगं हिरगणकोडिं दलयति। एगमेगं सुवरणकोडिं दलयति । एगमेगं मउडं दलयति एवं चेव सवं जाव एगमेगं पेसणकारिं दलयति । अन्नं च सुवहुं हिरणं जाव परिभाएदलयति । तते णं से सुबाहकमारे-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है। इन पदों का अर्थ इस प्रकार है For Private And Personal Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५७० श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय तदनन्तर सुबाहुकुमार ने अपनी प्रत्येक भार्या -पत्नी को एक एक करोड़ का हिरण्य और एक २ करोड़ का सुवर्ण दिया, एवं एक २ मुकुट दिया, इसी प्रकार पोसने वालो दासियों तक सब वस्तुए बांट दी तथा अन्य बहुत सा सुवर्णदि भो उन सब को बांट कर दे दिया । उस के पश्चात् सुबाहुकुमार...। -फुटमाणेहिं जाब विहरति- यहां के जाव-यावत् पद से विवक्षित-मुइंगमथएहिं वरतरुणीसंपउत्तेहिं-से ले कर-पच्चणुभवमाणे-यहां तक के पदों का विवरण पृष्ठ २३४ पर दिया जा चुका है । अन्तर मात्र इतना ही है कि वहां चोरसेनापति अभग्नसेन का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में श्री सुबाहुकुमार का। अब सूत्रकार सुबाहुकुमार के अग्रिम जीवन का वर्णन करते हुए कहते हैंमल -'तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे परिसा निग्गया। अदीणसर निग्गते जहा कूणिए । सुवाहू वि जहा जमाली, तहा रहेणं णिग्गते, जाव धम्मो कहिओ । राया परिसा गता। तते णं से सुबाहुकुमारे समणस्स भगवश्रो महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हहतुद्दे उठाए उ?इ उद्वित्ता समणं भगवंतं महावीरं वंदइ वन्दित्ता नमंसति नमंसित्ता एवं वयासी-सदहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं जाव जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईसर जाव प्पभिईओ मुडा भवित्ता अगाराप्रो अणगारियं पव्वइया नो खलु अहं तहा संचाएमि मुडे भवित्ता अगाराप्रो अणगारियं पव्वइत्त । अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वतियं सत्तसिखावतिय दुवालसविह गिहिधम्म पडिवज्जामि । अहासुह देवाणुप्पिया ! मा पडिवंधं करेह । तते णं से सुबाहुकुपारे समणस्स भगवो महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वतियं सत्तसिक्खावतियं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जति पडिवज्जित्ता तमेव रहं दुरूहति दुरूहित्ता जामेव दिसं पाउब्भूते तामेव दिसं पडिगते ।। पदार्थ-तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल और उस समय में । समणे-श्रमण । भगवं-भगवान् महावीरे-महावीर स्वामी । समोसढे-पधारे । परिसा-परिषद् -~जनता। निग्गया-नगर से निकली। अदीणसत्त-अदीनशत्रु । निग्गते-निकले । जहा कूणिए-जैसे महाराज कणिक निकला था। सुबाहू वि-सुबाहुकुमार भी । जहा-जैसे । जमाली-जमालि । तहा-उसी प्रकार । रहेणं-रथ से । णिग्गते (१) छाया- तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीर: समवसृतः । परिषद् निर्गता । अदीनशत्रु निर्गतः यथा कूणिकः । सुबाहुरपि यथा जमालिस्तथा रथेन निर्गत: । यावद् धर्मः कथितः । राजा परिषद् गता। ततः सः सुबाहुकुमार: श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अंतिके धर्म श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्ट: उत्थाय उत्तिष्ठति उत्थाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं चंदते वन्दित्वा नमस्यति नमस्यित्वा एवमवादीत्-श्रद्दधामि भदन्त ! निग्रंथं प्रवचनम् । यथा देवानुप्रियाणामन्ति के बहवो राजेश्वर० यावद् प्रभृतयः मुण्डा: भूत्वा अनगाराद् अनगारितां प्रजिता:, नो खलु अहं तथा शक्नोमि मुंडो भूत्वा अगारादनगारितां प्रवजितुम् । अहं देवानुप्रियाणामन्तिके पंचाणुवतिकं, सप्तशिक्षाप्रतिकं, द्वादश विधं गृहिधर्म प्रतिपद्य । यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धं कुर्याः । ततः स सुबाहुकुमार: श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके पंचायुवतिक, सप्तशिक्षाप्रतिक द्वादशविधं गृहिधर्म प्रतिपद्यते प्रतिपद्य तमेव रथं आरोहति प्रारुह्य यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतः तामेव दिशं प्रतिगतः । For Private And Personal Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्यय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [५७१ I I निकला । जाव - यावत् । धम्मो -धमं । कहियो — प्रतिपादन किया। राया- राजा ( चला गया और ) । परिसा परिषद् । गता - चली गई । तते णं तदनन्तर । से वह । सुबाहुकुमारे- सुबाहुकुमार । समणस्ल - श्रमण | भगवो - भगवान् । महावीरस्स - महावीर स्वामी के । श्रतिए - पास से । धम्मं - धर्म को । सोच्वा - श्रवण कर | निसम्म अर्थरूप से अवधारण कर । हट्ठतुट्ठे- - अत्यन्त प्रसन्न हुए २ । उट्ठाएस्वयंकृत उत्थान क्रिया के द्वारा । उट्ठेइ – उठते हैं । उट्ठा-उठ कर । समणं भगवंतं महावीरंश्रमण भगवान् महावीर स्वामी को । वंदइ वन्दित्ता - वन्दना करते हैं, कर के । नमसइ नमसित्ता - नमस्कार करते हैं, करके । एवं - इस प्रकार । वयासी - कहने लगे । भंते ! हे भदन्त ! | निग्गंथं पावयणंनिग्रंथ प्रवचन पर | सदहामि गं - मैं श्रद्धा करता हूं । जाव - यावत् । जहा गं - जैसे । देवाणुप्पियाणंआप श्री जी के । ति -पास बहवे अनेक । राईसर - राजा, ईश्वर । जाव - यावत् । मुडा भवित्ता - मुण्डित हो कर । अगाराश्रो- घर छोड़ कर । अणगारियं पव्वइया - मुनिधर्म को धारण किया है। खनु - निश्चय से मैं । तहा - उस प्रकार | मुंडे भवित्ता मुण्डित होकर । श्रगारा श्रो श्रगारियं - घर छोड़ कर अनगार अवस्था को । पव्वत्ताय - धारण करने में नो संचरमि - समर्थ नहीं हूँ । अहं णं - मैं तो । देवाविवाएं - आप श्री के । तिए - पास से । पञ्चाणुव्वत्तियं-पांच अणुव्रतों वाला। सत्तसिक्खावतियं-सात शिक्षाव्रतों वाला । दुवालसविहं - बारह प्रकार के । गिहिधम्मं - गृहस्थ धर्म को । पडिवज्जामि स्वीकार करना चाहता हूं । उत्तर में भगवान् ने कहा । श्रासुहं - यथा अर्थात् जैसे तुम को सुख हो । मा - मत । पडिबंध - देर करो । तते गं - तदनन्तर । से- वह । सुबाहुकुमारेसुबाहुकुमार । समणस्स - श्रमण । भगवत्रो - भगवान्। महावीरस्स-महावीर स्वामी के अंतिए - पास । पंचान्वतियं - पांच अणुव्रतों वाले । सत्ततिकखावतियं - सात शिक्षाव्रतों वाले । गिहिधम्मं - गृहस्थ - धर्म को । पडिवज्जति पडिवज्जित्ता स्वीकार करता है, स्वीकार कर के । तमेव - उसी । रहंरथ पर | दुरूहति दुरूहित्ता - - सवार होता है, सवार हो कर । जामेत्र दिसं - जिस दिशा से । पाउब्भूते - श्राया था। तामेव दिसं - उसी दिशा को । पडिगते- - चला गया । i मूलार्थ - उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी हस्तिशीर्ष नगर में पधारे। परिषद् नगर से निकली । कूपिक को भांति महाराज अद्दीनशत्रु भी नगर से चले, तथा जमालि की तरह सुबाहुकुमार ने भी भगवान् के दर्शनार्थ रथ के द्वारा प्रस्थान किया, यावत् भगवान् ने धर्म का निरूपण किया । परिषद् और राजा धर्म कथा सुन कर चले गये । तदनन्तर भगवान महावीर स्वामी के पास धर्मकथा का श्रवण तथा मनन कर अत्यन्त प्रसन्न हुआ सुबाहुकुमार उठ कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन, नमस्कार करने के अनन्तर कहने लगा भगवन् ! मैं न प्रवचन पर श्रद्धा करता हूं, यावत् जिस तरह आप के श्री चरणों में अनेक राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि उपस्थित होकर, मुडिन हो कर तथा गृहस्थावस्था से निकल कर अनगार धर्म में दीक्षित हुए हैं अर्थात् जिस तरह राजा ईश्वर आदि ने पांच महात्रतों को ग्रहण किया है, वैसे मैं पांच महाव्रतों को ग्रहण करने के योग्य नहीं हूं, अतः मैं पांच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों का जिस में विधान है ऐसे बारह प्रकार के गृहस्थचमं का आप से अगीकार करना चाहता हूं। तब भगवान के “ – जैसे तुम को सुख हो, किन्तु इस में देर मत करो " ऐसा कहने पर सुबाहुकुमार ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास पंचाणुत्रत, सात शिक्षावरून वर प्रकार के गृहस्थधर्म को स्वीकार किया, अर्थात् क्त द्वादशविध व्रतों के यथाविधि पालन करने का नियम ग्रहण किया । तदनन्तर उसी रथ पर For Private And Personal Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org विपाकसूत्रीयद्वितीय श्रुतस्कन्ध Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५७२] सवार होकर जिधर से आया था, उधर को चल दिया । टीका - जव श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पुष्पकरण्डक उद्यान में पधारे तो उन के पधारने का समाचार हस्तिशीर्ष नगर में विद्युत्-बिजली की भान्ति फैल गया । नगर की जनता में हर्ष तथा उत्साह की लहर दौड़ गई। सभी भावुक नरनारी प्रभु के दर्शनार्थ उद्यान की ओर प्रस्थान करने की तैयारी में लग गये । इधर महाराज अदीनशत्रु श्री भगवान् के आगमन को सुन कर बड़े प्रसन्न हुए और प्रभुदर्शनार्थ पुष्पकरण्डक उद्यान में जाने की तैयारी करने लगे। उन्हों ने अपने हस्तिरत्न और चतुरंगिणी सेना को ससज्जित हो तैयार रहने का आदेश दिया और स्वयं स्नानादि आवश्यक कियाओं से निवृत्त हो वस्त्राभूषण पहन कर हस्तिरत्म पर सवार हो महारानी धारिणीदेवी को तथा सुबाहुकुमार को साथ ले चतुरंगिणी सेना के साथ बड़ी सजधज से भगवान् के दर्शनार्थ उद्यान को ओर चल पड़े । उद्यान के समीप पहुंच कर जहां उन्हों ने पतितपावन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को देखा वहां उन्हों ने हस्तिरत्न से नीचे उतर कर अपने पांचों ही, १ - खङ्ग, २ – छत्र ३ – मुकुट, ४ – चमर और ५ - उपानत् इन राजचिह्नों को त्याग दिया और पांच अभिगमों के साथ वे भगवान के चरणों में उपस्थित होने के लिए पैदल चल पड़े । भगवान् के चरणों में उपस्थित होकर यथाविधि वन्दना, नमस्कार करने के अनन्तर उचित स्थान पर बैठ गए । महाराज श्रतिरात्रु के यथास्थान पर बैठ जाने के अनन्तर महारानी और उनकी अन्य दासियें भी प्रभु को वन्दना नमस्कार कर के यथास्थान बैठ गई । - [ प्रथम अध्याय प्रभु महावीर स्वामी के समवसरण में उन के पावन दर्शन तथा उपदेश श्रवणार्थ आई हुई देवपरिषद्, ऋषिपरिषद्, मुनिपरिषद् और मनुजपरिषद् आदि के अपने २ स्थान पर अवस्थित हो जाने के बाद श्रमण भगवान् महावीर ने धर्मदेशना आरम्भ की। भगवान् बोले For Private And Personal यह जीवात्मा कर्मों के बन्धन में दो कारणों से आता है। वे दोनों राग और द्वेष के नाम से प्रसिद्ध हैं । ये राग और द्वेष इस आत्मा को घटीयंत्र की तरह संसार में घुमाते रहते हैं और विविध प्रकार दुःखों का भाजन बनाते हैं। जब तक संसारभ्रमण के हेतुभूत इस राग द्वेष को साधक आत्मा अपने से पृथकू करने का यत्न नहीं करता, तब तक उस की सारी शक्तियें तिरोहित रहती हैं, उस का आत्मविकास रुका रहता है। आत्मा की प्रगति में प्रतिबन्धरून इस राग और द्वेष का जब तक समूलघात नहीं होने पाता । तब तक इस श्रात्मा को सच्ची शान्ति का लाभ नहीं हो सकता । इस के लिये साधक पुरुष को संयम की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। संयमशील आत्मा ही राग द्वेष पर विजय प्राप्त करके आत्मशक्तियों के विकास द्वारा शान्तिलाभ कर सकता है। मानवजीवन का वास्तविक उद्देश्य आध्यात्मिक शांति प्राप्त करना है । उस के लिये मानत्र को त्यागमार्ग का अनुसरण करना होगा । त्याग के दो स्वरूप हैं। देशत्याग और सर्वत्याग । सर्वत्याग का हो दूसरा नाम सवविरतिधर्म या अनगारधर्म है। इसी प्रकार देशविरति या सरागधमं को देशत्याग के नाम से कह सकते हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो देशविरतिधर्म गृहस्थधर्म है और सर्वविरतिधर्म मुनिधर्म कहलाता है। जब तक साधक - श्रात्मा सर्वप्रकार के सावद्य व्यापार का परित्याग करके संयममार्ग का अनुसरण नहीं करता, तब तक उसे सच्ची शान्ति उपलब्ध नहीं हो सकती । यह ठीक है कि सभी साधक एक जैसे पुरुषार्थी नहीं हो सकते, अतः संयममार्ग में प्रवेश करने के लिये द्वाररूप द्वादशविध गृहस्थधम जिस का दूसरा नाम देशविरतिधर्म है, प्रविष्ट हो कर मोक्षमार्ग के पथिक होने का प्रयत्न करना भी उत्तम है । देशत्याग सर्वत्याग के लिये आरम्भिक निस्सरणी है। पांच अणुव्रत और सातशिक्षावत इस तरह प्रारह व्रतों के पालन की प्रतिज्ञा करने वाला साधक भी विकास - मार्ग की ओर ही प्रस्थान करने वाला हो सकता है (१) अभिगमों का स्वरूप पृष्ठ २९ की टिप्पण में लिखा जा चुका है। Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [५७३ १ – अहिसा, २ – सत्य, ३ - अस्तेय, ४ - ब्रह्मचर्य और ५ - अपरिग्रह इन पांच व्रतों की तरतमभाव से अणु और महान् संज्ञा है । इन का आंशिकरूप में पालन करने वाला व्यक्ति अणुव्रती कहलाता है और सर्व प्रकार से पालन करने वाले की महाव्रती संज्ञा है। महाव्रती अनगार होता है जब कि गृहस्थ को अणुवती कहते हैं, परन्तु जब तक कोई साधक इन के पालन करने का यथाविधि नियम ग्रहण नहीं करता तब तक वह न तो महाव्रतो और नाहिं अणुव्रती कहला सकता है। ऐसी अवस्था में वह अती कहलायेगा । अतः श्रात्मय के अभिलाषी मानव प्राणी को यथाशक्ति धम के श्राराधन में उद्योग करना चाहिये । यदि वह सर्वविरातधर्म-साधुधर्म के पालन में असमर्थ है तो उसे देशविरतिधम - श्रावकधर्म के अनुष्ठान या आराधन में यत्न करना चाहिये । जन्ममरण की परम्परा से छुटकारा प्राप्त करने के लिये धर्म के श्रालम्बन के सिवा और कोई उपाय नहीं है... ' इत्यादि वीर प्रभु की पवित्र सुधामयी देशना को अपने २ कर्णपुटों द्वारा पान कर के संतृप्त हुई जनता प्रभु को यथाविधि वन्दना तथा नमस्कार करके अपने २ स्थान को वापिस चली गई और महाराज श्रदीनशत्रु तथा महारानी धारिणी देवी भी अपने अनुचरसमुदाय के साथ प्रभु को सविधि बन्दना नमस्कार कर के अपने महल की ओर प्रस्थित हुए । भगवान् की देशना का सुबाहुकुमार के हृदय पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा, वह उन के सन्मुख उपस्थित हो कर बड़ी नम्रता से बोला कि भगवन् ! अनेक राजे महाराजे और धनाढ्य आदि अनेकानेक पुरुष सांसारिक वैभव को त्याग कर आप श्री की शरण में श्राकर सर्वविरतिरूप संयम का ग्रहण करते हैं, परन्तु मुझ में उस के पालन की शक्ति नहीं है, इस लिये मुझे तो गृहस्थोचित देशविरतिधर्म के पालन का ही नियम कराने की कृपा करें ?, सुबाहुकुमार के इस कथन के उत्तर में भगवान् ने कहा कि जिस में तुम्हारी श्रात्मा को सुख हो, वह करो, परन्तु धर्मकार्य में विलम्ब नहीं होना चाहिये । तदनन्तर सुबाहुकुमार ने भगवान् के समक्ष पांच अणुव्रतों और सात शिक्षावतों के पालन का नियम करते हुए देशविरति धर्मं को छांगीकार किया, और वह भगवान् को यथाविधि वन्दना नमस्कार करके अपने रथ पर सवार हो कर अपने स्थान को वापिस चला गया । प्रस्तुत सूत्र जो कुछ लिखा है, उस का यह सारांश है । इस पर से विचारशील व्यक्ति को अनेकों उपयोगी शिक्षाओं का लाभ हो सकता है। उन में से कुछ निम्नोत हैं १ - धर्म केवल सुनने की वस्तु नहीं किन्तु आचरण में लाने योग्य पदार्थ हैं। जैसे औषधि का वार २ नाम लेने या पास में रख छोड़ने से रोगी पर उस का कोई प्रभाव नहीं होता और नाहि वह रोगमुक्त हो सकता है, इसी प्रकार धर्म के केवल सुन लेने से किसी को लाभ प्राप्त नहीं हो सकता जब तक सुने हुए धर्मोपदेश को जीवन में उतारने अर्थात् आचरण में लाने का यत्न न किया जाय। जिस तरह रोग की निवृत्ति औषधि के निरन्तर सेवन से होती है, उसी प्रकार भवरोग की निवृत्ति के लिये धर्म - औषध का सेवन करना आवश्यक है न कि केवल श्रवण कर लेना । इसलिये जो व्यक्ति गुरुजनों से सुने हुए सदुपदेश को उनके कथन के अनुसार आचरण में लाता है वही सच्चा श्रोता अथवा जिज्ञासु हो सकता है। सुबाहुकुमार ने भगवान् की धर्मदेशना को केवल सुन लेने तक ही सीमित नहीं रक्खा किन्तु उस को आचरण में लाने का भी स्तुत्य प्रयास किया । २ - दिये गये उपदेश का ग्रहण अर्थात् आचरण में लाना श्रोता की रुचि, शक्ति और विचार पर निर्भर करता है। सभी श्रोता एक जैसी रुचि, शक्ति और विचार के नहीं होते। बहुतों की श्रवण करने से धर्म में (१) धर्मदेशना का विस्तृत वर्णन श्री औपपातिक सूत्र में किया गया है। अधिक के जिज्ञासु पाठक वहां देख सकते हैं। For Private And Personal Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५७४ ] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्र तुम्कन्ध [प्रथम अध्याय अभिरुचि तो हो जाती है, परन्तु वे उस के यथाविधि पालन में असमर्थ होते हैं । इसी प्रकार बहुतों में शक्ति तो होती है परन्तु अभिरुचि श्रद्धा का अभाव होता है और कई एक में रुचि ओर शक्ति के होने पर भी विचारविभेद होता है, जिस के कारण वे धर्मानुष्ठान से वंचित रहते हैं। इसी दृष्टि को सन्मुख रखते हुए शास्त्रकारों अधिकारिवर्ग की रुचि और शक्ति के अनुसार धर्म को भी तरतमभाव से अनेक स्वरूपों कर दिया है । विभाजित जैनपरम्परा में सामान्यतया धर्म को दो स्वरूपों में विभाजित किया है। प्रथम साधुधर्म है तथा दूसरा गृहस्थधर्मे । इन्हीं दोनों को जैनपरिभाषा में सर्वविरतिधर्म और देशविरतिधर्म कहते हैं । सर्वविरतिधर्मधर्म सर्वश्रेष्ठ है परन्तु सभी की इस के ग्रहण में रुचि नहीं हो सकती, तथा रुचि होने पर भी उसके सम्यक अनुष्ठान की शक्ति नहीं होती। तब क्या गृहस्थ मानव धर्म से वंचित ही रह जाये ? नहीं, यह बात नहीं है, क्योंकि उस के लिये देशविरतिधर्म का विधान है अर्थात् वह देशविरतिधर्म को अंगीकार करता हुआ आत्मा को विकासमार्ग में प्रतिष्ठित कर सकता है। तालर्य यह है कि यथादवि और यथाशक्ति धर्म का आराधन करने वाला व्यक्ति भी अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। I सुबाहुकुमार की भगवदुपदिष्ट अनगारधर्म पर पूरी २ आस्था है, उस पर विश्वास होने के साथ २ वह उसे सर्वश्रेष्ठ भी मानता है परन्तु उसके यथाविधि अनुष्ठान में वह अपने को असमर्थ पाता है, इस लिए उसने अपने आप को श्रावकधर्म में दीक्षित होने की भगवान् से प्रार्थना की और भगवान् ने उसे स्वीकार करते हुए उसे श्रावकधर्म में दीक्षित किया। सारांश यह है व्रतग्रहण करने से पूर्व अपनी शक्ति का ध्यान अवश्य रख लेना चाहेये । यदि किसी विशिष्ट तप के प्राराधन को शक्ति नहीं हैं तो उस से कम भी तप किया जा सकता है, परन्तु इतना ध्यान रहे कि यदि शक्ति है तो उस का धर्मपालन में अधिकाधिक सुदपयोग कर अपना श्रात्मश्रेय अवश्य साधना चाहिये, उमे छुपाना नहीं चाहिये। 1 ७ ३ - प्रस्तुत कथा सन्दर्भ में सब से अधिक आकर्षक तो भगवान् का वह कथन है जो कि उन्होंने सुबाहुकुमार को श्रावकधर्म में दीक्षित होने की इच्छा प्रकट करने के सम्बन्ध में किया है | सुबाहुकुमार को उत्तर देते हुए भगवान् कहते हैं " - श्रहासुहं देवाप्पिया ! मा पडिबंधं करोह - " अर्थात् हे भद्र! जैसे तुम को सख हो वैसा करो, परन्तु इस में विलम्भ मत करो । भगवान् के इस उत्तर में दो बातें बड़ी मौलिक ६ - १ – धर्म के ग्रहण में पूरी २ मानसिक स्वतन्त्रता अपेक्षित है, उस के बिना ग्रहण किया हुआ धर्म आत्मप्रगति में सहायक होने के स्थान में उस को अवनति का साधक भी बन जाता है । जो वस्तु इच्छापूर्वक ग्रहण की जाए, ग्रहणकर्ता को उसके संरक्षण का जितना ध्यान रहता है उतना अनिच्छया (किसी प्रकार के दबाव से) गृहीत वस्तु के लिए नहीं होता । सम्भवत: इसी लिए हो जैन शास्त्रों में उपदेशक मुनिराजों के लिए उपदेश तक सीमित रहने और आदेश न देने की मर्यादा रखी गई है। 'अजरामरवत् प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत् । गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥ १ ॥ इस अभियुक्तोक्ति के अनुसार मृत्यु को हर समय सन्मुख रखते हुए श्रविलम्वरूप से धर्म के आराधन में लग जाना चाहिये । जो मानव व्यक्ति यह सोचते हैं कि अभी तो विषयभोगों के उपभोग करने की अवस्था है, (१) मैं जर हूं, मैं अमर हूँ, ऐसा समझ कर तो मनुष्य विद्या और धन का उपार्जन करे और मृत्यु ने मेरे को केशों से पकड़ कर अभी पटका कि अभी पटका, ऐसा जान कर मनुष्य धर्म का आचरण करे । तात्पर्य यह है कि धर्माचरण में विलम्ब नहीं करना चाहिये । For Private And Personal Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ५७५ 1 जब कुछ बूढे होने लगेंगे, उस समय धर्म का प्राराधन कर लेंगे, वे बड़ी भूल करते हैं। मृत्यु का कोई भरोसा नहीं, कल सूर्य को उदय ह ते देखेंगे कि नहीं, इस का कोई निश्चय नहीं है। प्रतिदिन ऐसी अनेक घटनाए दृष्टिगोचर होती हैं, जिन से मानव शरीर की विनश्वरता और क्षणभङ्ग रता निस्संदेह प्रमाणित हो जाती है। इसी दृष्टि से भगवान् ने सुबाहुकुमार को धर्माराधन में विलम्ब न करने का उपदेश दिया प्रतीत होता है । भगवान् के उक्त कथन में ये दोनों बातें इतनी अधिक मूल्यवान है कि इन को हृदय में निहित करने से मानव में विचारसंकीणता को कोई स्थान नहीं रहता । ऊपर अनगारधर्म और सागारधर्म का उल्लेख किया गया है। अनगार साधु का श्राचरणीय धर्म महावतों का यथाविधि पालन करना है, तथा सागारधर्म - गृहस्थधर्मों का पालन करना है । व्रत शब्द के साथ अणु और महत् शब्द के संयोजन से वह गृहस्थ और साधु के घरों में प्रयुक्त होने लग जाता है । जैसे कि ती श्रावक और महावती साधु । इस प्रकार गृहस्थ के व्रत अणु-छोटे और साधु के व्रत महान् - बड़े कहे जाते हैं। शास्त्रों में हिंसा, श्रनृत, स्तेय, ब्रह्म और परिग्रह से विरति - निवृत्ति करने का नाम 'व्रत है । उन में अल्प अंश में निवृत्ति अणवत और सर्वांश में विरति महाव्रत है । दूसरे शब्दों में हिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य और रूप व्रतों का सर्वांशरूप में पालन करना महाव्रत और अल्पांशरूप में पालन युवत कहलाता है । हिंसा आदि व्रतों का अर्थ निम्नोक है १ - श्रहिंसा - मन, वचन और शरीर के द्वारा स्थूल तथा सूक्ष्म रूप सर्व प्रकार की हिंसा से निवृत्त होना श्रहिंसावत अर्थात् पहला व्रत है । २ - सत्य - मन, वचन और शरीर के द्वारा किसी प्रकार का भी मिध्याभाषण न करना दूसरा सत्य व्रत है । ३ - अस्तेय - किसी वस्तु को उस के स्वामी की आज्ञा के बिना ग्रहण करना स्तेय - चोरी , उस का मन, वचन और काया से परित्याग करना अस्तेय अर्थात् अचौर्य व्रत है । - सर्व प्रकार के मैथुन का परित्याग करना ब्रह्मचर्यव्रत कहा जाता है । ५ - अपरिग्रह - लौकिक पदार्थों में मूर्च्छा - आसक्ति तथा ममत्व का होना परिग्रह है । उस को त्याग देने का नाम अपरिग्रहवत है। ४ - ब्रह्मचर्य - ये पांचों ही ऋणु और महान् भेदों से दो प्रकार के है। जब तक इन का आशिक पालन हो तब तक तो इन की अणुव्रत संज्ञा है और सर्वथा पालन में ये महाव्रत कहलाते हैं । तात्पर्य यह है कि हिंसा आदि व्रतों के पालन का विधान शास्त्रों में गृहस्थ और साधु दोनों के लिये है, परन्तु गृहस्थ के लिये इन का सर्वथा पालन अशक्य है, इन का सर्वथा पालन साधु ही कर सकता है । अतः गृहस्थ की अपेक्षा है और साधु की अपेक्षा इन की महावत संज्ञा है । अनगार महाव्रतों का पालक होता है और श्रावकों का पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत सम्मिलित करने से १२ व्रतों का ये (१) हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरति तम् ||१|| देश सर्वतोऽण महती ॥२॥ ( तत्त्वार्थ सूत्र श्र० ७ ) (२) श्री श्रीपपातिक सूत्र के धर्मकथाप्रकरण में पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षा इस प्रकार १२ व्रत लिखे हैं परन्तु प्रकृत में सूत्रकार ने तीन गुणव्रतों और चार शिक्षात्रतों को शिक्षारूप मानते हुए सतसिवातियं - इस पद से ही व्यक्त किया है । व्याख्यास्थल में हम ने १२ व्रतों का निरूपण करते हुए औपपातिक – सूत्रानुसारिणी पद्धति को अपनाते हए ५ अणव्रत तीन गणव्रत और ४ शिक्षाव्रत. ऐसा संकलन किया है । For Private And Personal Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५७६ ] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय पालन करने वाला गृहस्थ जैनपरिभाषा के अनुसार देशविरति श्रावक कहलाता है। श्रावक के बारह ब्रतों का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है। .. १-अहिंसाणवत-स्वशरीर में पीडाकारी तथा अपराधी के सिवाय शेष द्वीन्द्रिय (दो इन्द्रियों वाले जीव आदि स जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा का दो करण', तीन योग से त्याग करना श्रावक का स्थूल प्राणातिपातत्यागरूप प्रथम अहिंसाणवत है । दूसरे शब्दों में -- गृहस्थधर्म में पहला व्रत प्राणी की हिसा का परित्याग करना है। स्थावर जीव सून्म और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय हिलने चलने वाले त्रस प्राणी स्थूल कहलाते हैं । गृहस्थ सूक्ष्म जीवों की हिंसा से नहीं बच पाता अर्थात् वह सर्वथा सूक्ष्म अहिंसा का पालन नहीं कर सकता । इस लिये भगवान् ने गृहस्थधर्म और साधुधर्म की मर्यादा को नियमित करते हुए ऐसा मार्ग बतलाया है कि सामान्य गृहस्थ से लेकर चक्रवर्ती भी उस का सरलतापूर्वक अनुसरण करता हुआ धर्म का उपार्जन कर सकता है। - दूसरी बात यह है कि श्रावक - गृहस्थ के लिये सूक्ष्म हिंसा का त्याग शक्य नहीं है, क्योंकि उस ने चूल्हे का और चक्की का कृषि तथा गोपालन आदि का सब काम करना है। यदि इसे छोड़ दिया जाए तो उस के जीवन का निर्वाह नहीं हो सकेगा । इसलिये शास्त्रकारों ने श्रावक के लिये स्थूल हिंसा का त्याग बतला कर, उस में दो कोटिये नियत की हैं। एक श्राकुट्टी, दुसरी अनाकुट्टी, अर्थात् एक संकल्पी हिंसा दूसरी पारम्भी हिंसा । संकल्पपूर्वक की जाने वाली हिंसा का नाम संकल्पी और आरम्भ से उत्पन्न होने वाली हिंसा को श्रारम्भी हिंसा कहते हैं । इसे उदाहरण से समझिए - गाड़ी में बैठने का उद्देश्य मार्ग में चलने फिरने वाले कीड़े मकौड़ों को मारना नहीं होता । फिर भी प्रायः गाड़ी के नीचे कीड़े मकौड़े मर जाते हैं, इस प्रकार की हिंसा प्रारम्भी या श्रारम्भजा हिंसा कहलाती है। इसी भान्ति एक आदमी चींटियों को जान बूझ कर पत्थर से मारता है, इस प्रकार की हिंसा संकल्पी. या संकल्पजा कही जाती है । सारांश यह है कि त्रस जीवों को मारने का उद्देश्य न होने पर भी गृहस्थसम्बन्धी काम काज करते समय जो अबुद्धि-पूर्वक हिंसा होती है वह आरम्भजा है और संकल्पपूर्वक अर्थात् इरादे से जो हिंसा की जाए वह संकल्पना है। इन में पहले प्रकार की अर्थात् प्रारम्भजा हिंसा का त्याग करना गृहस्थ के लिए अशक्य है। घर का कूड़ा कचरा निकालने, रोटी बनाने. पाटा पीसने. और खेती बाड़ी करने तथा फलपुष्पादि के तोड़ने (१) दो करण. तीन योग से हिंसा नहीं करनी चाहिए, ऐसा कहने का अभिप्राय निम्नोक्त है : १-मारू नहीं मन से अर्थात् मन में किसी को मारने का विचार नहीं करना या हृदय में ऐसा मंत्र नहीं जपना कि जिस से किसी प्राणी की हिंसा हो जाय। __२-मारू नहीं वचन से अर्थात् किसी को शाप श्रादि नहीं देना, जिस से उस जीव की हिंसा हो जाय अथवा जो वाणी किसी प्राणापहार का ३-मारू नहीं काया से अर्थात् स्वयं अपनी काया से किसी नीव को नहीं मारना। ४-मरवाऊं नहीं मन से अर्थात् अपने मन से ऐसा मंत्रादि का जाप न करना जिस से दूसरे व्यक्ति के मन को प्रभावित कर के उस के द्वारा किसी प्राणी की हिंसा की जाए। - ५-मरवाऊं महीं वचन से अर्थात् वचन द्वारा कह कर दूसरे से किसी प्राणी के प्राणों का अपहरण नहीं करना । ६ - मरवाऊं नहीं काया से अर्थात् अपने हाथ आदि के संकेत से किसी प्राणी की हिंसा न कराना। किसी जीव को मारू नहीं, मरवाऊ नहीं ये दो करण और मन, वचम और काया, ये तीन मोगा कहलाते हैं । इस प्रकार जीवनपर्यन्त त्रस जीवों की हिंसा न करने का श्रावक के छः कोटि प्रत्याख्यान होता है । इसी भान्ति सत्य, अचौर्य आदि व्रतों के विषय में भी भावना कर लेनी चाहिये। For Private And Personal Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [५७७ में त्रस जीवों की हिंसा असम्भव नहीं है । इस लिये गृहस्थ को संकल्पी हिंसा के त्याग का नियम होता है, अन्य का नहीं । इस के अतिरिक्त अहिंसाणवत की रक्षा के लिये १-बन्ध, २-वध, ३-छविच्छेद, ४-अतिभार और ५-भक्तपानव्यवच्छेद इन पांच कार्यों के त्याग करने का ध्यान रखना भी अत्यावश्यक है । बन्ध आदि पदों का अर्थ निम्नोक्त है १-बन्ध-रस्सी आदि से बांधना बन्ध कहलाता है । बन्ध दो प्रकार का होता है-द्विपदबन्ध और चतुष्पदबन्ध । मनुष्य आदि को बांधना द्विपदवन्ध और गाय आदि पशुओं को बांधना चतुष्पदबन्ध कहा जाता है । अथवा -बन्ध अर्थवन्ध और अनर्थबन्ध, इन विकल्पों से दो प्रकार का होता है। किसी अर्थ - प्रयोजन के लिये बांधना अर्थबन्ध है तथा बिना प्रयोजन के ही किसी को बांधना अनर्थबन्ध कहलाता है : अर्थबन्ध के भी १-सापेक्षबन्ध, और २ -निरपेक्षबन्ध, ऐसे दो भेद होते हैं । किसी प्राणी को कोमल रस्सी आदि से ऐसा बांधना कि अग्नि लगने आदि का भय होने पर शीघ्र ही सरलता से छोड़ा जा सके, उसे सापेक्षवन्ध कहते हैं । तात्यय यह है कि पढ़ाई आदि के लिये प्राज्ञा न मानने वाले बालकों, चोर आदि अपराधियों को केवल शिक्षा के लिये बांधना तथा पागल को, गाय आदि पशुओं को एवं मनुष्यादि को अग्नि आदि के भय से उन के संरक्षणार्थ दान्धना सापेक्षबंध कहलाता है, जब कि मनुष्य पशु श्रादि को निर्दयता के साथ बांधना निरपेक्षबंध कहा जाता है। अनर्थ वन्व तथा निरपेक्षवन्ध श्रावकों के लिये त्याज्य एवं हेय होता है। २-वध-कोड़ा आदि से मारना व कहलाता है । वध के भी बन्ध की भान्ति द्विपदवध - मनुष्य आदि को मारना, तथा चतुष्पदवध -पशुओं को मारना, अथवा-अर्थवध - प्रयोजन से मारना और अनथवध-बिना प्रयोजन ही मारना, ऐसे दो भेद होते हैं । अनर्थवध श्रावक के लिए त्याज्य है । अर्थवध के सापेक्षवध और निरपेक्षवध ऐसे दो भेद हैं । अवसर पड़ने पर प्राणों की रक्षा का ध्यान रखते हुए मर्म स्थानों में चोट न पहुँचा कर सापेक्ष ताडन सापेक्षवध और निर्दयता के साथ ताडन करना निरपेक्षवध कहलाता है।.श्रावक को निरपेक्षवध नहीं करना चाहिये । ३-छविच्छेद -शस्त्र आदि से प्राणी के अवयवों-अंगों का काटना छविच्छेद कहा जाता है। छविच्छेद के द्विपदधविच्छेद - मनुष्यादि के अवयवों को काटना, तथा चतुष्पदछविच्छेद-पशुओं के अवयवों को काटना, अथवा- अर्थछविच्छेद-प्रयोजन से अवयवों को काटना तथा अनर्थछविच्छेद-बिना प्रयोजन ही अवयवों को काटना, ऐसे दो भेद होते हैं । अनथछविच्छेद श्रावक के लिये त्याज्य है। अर्थछविच्छेदसापेक्षछविच्छेद और निरपेक्ष विच्छेद इन भेदों से दो प्रकार का होता है। कान, नाक, हाथ, पैर आदि अंगों को निदयतापूर्वक काटना निरपेक्षछविच्छेद कहलाता है जोकि श्रावक के लिये निषिद्ध है तथा किसी प्राणी की रक्षा के लिये घाव या फोड़े आदि का जो चीरना तथा काटना है वह सापेक्षछविच्छेद कहा जाता है, इस का श्रावक के लिये निषेध नहीं है। ४-अतिभार -शक्ति से अधिक भार लादने का नाम अतिभार है । मनुष्य, स्त्री, बैल, घोड़े आदि पर अधिक भार लादना अथवा असमय में लड़कों, लड़कियों का विवाह करना, अथवा प्रजा के हित का ध्यान न रख कर कानून का बनाना अतिभार कहा जाता है । अथवा-बन्ध आदि की भान्ति अतिभार के द्विपदअतिभार-मनुष्यादि पर प्रमाण से अधिक भार लादना, तथा चतुष्पदअतिभार - पशुओं पर प्रमाण से अधिक भार लादना, अथवा-अर्थअतिभार-प्रयोजन से अतिभार लादना तथा अनर्थप्रतिभार-बिना प्रयोजन ही अतिभार लादना, ऐसे दो भेद होते हैं । अनर्थअतिभार श्रावक के लिये त्याज्य होता है । अर्थअतिभार सापेक्षअतिभार तथा निरपेक्षअतिभार-इन भेदों से दो प्रकार का होता है। गाड़े आदि में जुते हुए बैलों For Private And Personal Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५७८] श्री विपाकसुत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध -- [प्रथम अध्याय आदि की तथा किसी भी भारवाहक मनुष्य आदि की शक्ति की परवाह न कर के निर्दयतापूर्वक परिमाण से अधिक बोझ लाद देना, अथवा उन की शक्ति से अधिक काम उन से लेना निरपेक्षत्रतिभार और सदभावनापूर्वक' अतिभार लादना सापेक्षअतिभार कहा जाता है । निरपेक्ष प्रतिभार का श्रावक के लिये निषेध किया गया है। ५-भक्तपानव्यच्छेद- अन्न पानी का न देना, अथवा उस में बाधा डालना भक्तपानव्यवच्छेद कहलाता है । भक्तपानव्यवच्छेद द्विपदभक्तपानव्यवच्छेद- मनुष्य आदि को भक्तपान न देना, और चतुष्पदभक्तपानव्यवच्छेद - पशुओं को आहार पानी न देना, अथवा-अर्थभक्तपानव्यवच्छेद और अनर्थभक्तपानव्यवच्छेद इन भेदों से दो प्रकार का होता है । किती प्रयोजन को लेकर आहार पानी न देना अर्थभक्तपानव्यवच्छेद और बिना कारण हो आहार पानी न देना अनर्थभकानव्यवच्छेद कहलाता है। अनर्थभक्तपानव्यवच्छेद श्रावक के लिये त्याज्य होता है, तथा अर्थभक्तपानव्यवच्छेद के सापेक्षभक्तपानव्यवच्छेद-रोगादि के कारण से आहार पानो न देना तथा निरपेक्षभकपानव्यवच्छेद - निर्दयतापूर्वक आहार पानी का न देना, ऐसे दो भेद होते हैं । श्रावक के लिये निरपेक्षभक्तपानव्यवच्छेद का निषेध किया गया है। ...कुछ विचारकों का "-अहिंसा कायरता है - " यह कहना नितान्त भ्रान्तिपूर्ण है और उन के अहिंसासम्बन्धी अबोध का परिचायक है। अहिंसा का गम्भीर ऊहापोह करने से उस में कोई तथ्य प्रतीत नहीं होता। देखिए -कायरता का प्रतिपक्षी कोरता है । वीरता का अर्थ यदि-अस्त्रशस्त्रहीन एवं दीन दुःखियों के जीवन को लूठ लेना, जो मन में आए सो कर डालना या निरंकुश बन जाना, इतना ही है, तो दिन भर झूठ बोलने वाला दूसरों की धनादि सम्पत्ति चुराने वाला, सतियों के सतीत्व को लूटने वाला, दुनिया भर की जघन्य प्रवृत्तियों से धन कमा कर अपनी तिजोरियां भरने वाला, क्या वीर नहीं कहलायेगा ? और क्या ऐसे वोरों से सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन सुरक्षित रह सकेगा !, उत्तर स्पष्ट है, कभी नहीं । क्योंकि जिस समाज या राष्ट्र में ऐसे नराधम व्यक्ति उत्पन्न हो जायेंगे, वह समाज या राष्ट्र अपने अन्तःस्वास्थ्य तथा बाह्यस्वास्थ्य से हाथ धो बैठेगा । जैसे स्वास्थ्यनाश का अन्तिम कटु परिणाम मृत्यु होता है, वैसे ही समाज और राष्ट्र के स्वास्थ्यनाश का अन्तिम परिणाम उस का सर्वतोमुखी पतन होगा । अतः वीरता किसी के जीवना. पहरण में नहीं होती, प्रत्युत अपना कर्तव्य निभाने में, दीन दुखियों के जीवन के संरक्षण एवं पोषण में तथा प्रत्येक दु:खमूलक प्रवृत्ति से सुरक्षित रहने में होता है। जो मानस वीरता के पावन सौरभ से सुरभित होता है वह किसी भी कार्य को करने से पहले उस में न्याय अन्याय की जांच करता है। अन्याय से उसे जब कि न्याय को वह अपना आराध्य देव समझता है, जिस के मान को सुरक्षित रखने के लिये यदि उसे अपने जीवन का बलिदान करना पड़े तो भो वह उस से विमुख नहीं होता । ऐसी ही वीरता का मूलस्रोत भगवती अहिंसा है। इतिहास बताता है कि अहिंसा के वीरों ने हर समय न्याय की रक्षा की है । न्याय की रक्षा के लिये शत्रुओं का दमन करना उन्हों ने अपना कर्तव्य समझा था। राम रावण के साथ न्याय को जीवित रखने के लिये ही लड़े थे । रावण ने सती सीता को चुराकर एक अन्यायपूर्ण अक्षम्य अपराध किया था। सीता लौटाने के लिए उसे समझाया गया परन्तु जब वह नहीं माना तो उस की अन्यायपूर्ण प्रवृत्तियों को ठीक करने के लिए तथा सतियों के सतीत्व की रक्षा के लिए राम जैसे अहिंसक ने अपने को युद्ध के लिए सन्नद्ध (१) प्रस्तुत में सद्भावनापूर्वक अतिभार लादने का अभिप्राय इतना ही है कि उद्दण्ड पशु आदि को शिक्षित करने, अथवा उसे अंकुश में लाने के लिये, अथवा-किसी विशेष परिस्थिति के कारण, अथवा उपायान्तर के न होने से उन्मत्त व्यक्ति पर कदाचित् अतिभार रखना ही पड़ जाए तो उस में निर्दयता के भाव न होने से वह सापेक्षबन्ध श्रादि की भान्ति गृहस्थ के धर्म का बाधक नहीं होता। For Private And Personal Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्यय] हिन्दी भाषा टीका सहित । |५७९ करने में ज़रा संकोच नहीं किया। वास्तव में न्याय की रक्षा वीर ही कर सकता है, कायर के बस का वह काम नहीं होता। इस के अतिरिक्त अहिंसा के अग्रगण्य सन्देशवाहक भगवान् महावीर स्वामी तथा भारत के अन्य महामहिम महापुरुषों का अपना साधक जीवन भी-अहिंसा वीरो का धर्म है-इस तथ्य को प्रमाणित कर रहा है। जिन जंगलों को शेर, अपनी भीषण मर्मवेदी गर्जनाओं से व्याप्त कर रहे हों, जहां हाथी चिंघाड़े मार रहे हो, इसी भान्ति बाघ आदि अन्य हिंसक पशुओं का जहां साम्राज्य हो, उन जंगलों में एक कायर व्यक्ति अकेला और खाली हाथ ठहर सकता है ?, उत्तर होगा, कभी नहीं, परन्तु अहिंसा की सजीव प्रतिमाएं भगवान् महावीर आदि महापुरुष इन सब परिस्थितियों में निर्भय, प्रसन्न तथा शान्त रहते थे । अधिक क्या कह शाजा पीर कहा जाने वाला मानव जिन देवताओं के मात्र कथानक सुन कर कंपित हो उठता है. रात को सुख से सो भी नहीं सकता, उन्हीं देवताओं के द्वारा पहुंचाए गए भीषणातिभीषण, असह्य दुःख अहिंसा के अग्रदतों ने हंस २ कर झेले हैं । सारांश यह है कि अहिंसा वीरों का धर्म है, उस में कायरता और दुर्बलता को कोई स्थान नहीं है । एक हिंसक से अहिंसक बनने की आशा तो की जा सकती है परन्तु कायर कभी भी अहिंसक नहीं बन सकता। २- सत्याणवत-इसे स्थूलमृषावादविरमणव्रत भी कहा जाता है । मृषावाद झूठ को कहते हैं. वह सूक्ष्म और स्थूल इन भेदों से दो प्रकार का होता है । मित्र आदि के साथ मनोरंजन के लिए असत्य बोलना, अथवा कोई व्यक्ति बैठा २ ऊघने लग गया, निकटवर्ती कोई मनुष्य उसे सावधान करता हुआ बोल उठाअरे ! सोते क्यों हो?, इसके उत्तर में वह कहता है, नहीं भाई ! तुम्हारे देखने में अन्तर है, मैं तो जाग रहा हूं.. इत्यादि वाणीविलास सूक्ष्म मृषावाद के अन्तर्गत होता है । स्थूल मृषावाद पांच प्रकार का होता है जो कि निम्नोक्त है १-कन्यासम्बन्धी-अर्थात् कुल, शील, रूप आदि से युक्त, सर्वांगसम्पूर्ण. सुन्दरी, निर्दोष कन्या को कुलादि से हीन बतलाना तथा कुलादि से हीन कन्या को कुलादि से युक्त बतलाना कन्यालीक है। २-भूमिसम्बन्धी-अर्थात् उपजाऊ भूमि को अनुपजाऊ कहमा तथा अनुपजाऊ को उपजाऊ कहना, कम मूल्य वाली को बहु मूल्य वाली और बहु मूल्य वाली को कम मूल्य वाली कहना भूमि-अलीक है । ३-गोसम्बन्धी-अर्थात् गाय, भैंस, घोड़ा आदि चौपायों में जो प्रशस्त हों उन्हें अप्रेशस्त कहना और जो अप्रशस्त हैं उन को प्रशस्त कहना । अथवा-बहु मूल्य वाले गाय आदि पशुओं को अल्प मूल्य वाले बताना तथा अल्प मूल्य वाले को बहुमूल्य बताना । अथवा-अधिक दूध देने वाले गाय भैंस आदि पशओं को कम दुध देने वाला तथा अल्प दूध देने वालों को अधिक दूध देने वाला कहना, इसी भान्ति शीघ्रगति वाले घोड़े आदि पशों को कम गति वाले और कम गति वालों को शीघ्रगति वाले कहना, इत्यादि सभी विकल्प गोलीक के अन्तर्गत हो जाते हैं ४-न्याससम्बन्धी-अर्थात् कुछ काल के लिए किसी विश्वस्त पुरुष आदि के पास सोना, चान्दी, रुपया, वस्त्र, धान्यादि को पुनः वापिस लेने के लिए रखने का नाम न्यास या धरोहर है । उस के सम्बन्ध में झूठ बोलना न्यास-अलीक है । तात्पर्य यह है कि किसी की धरोहर रख कर, देने के समय तुम ने मेरे पास कब रखी थी ?, उस समय कौन साक्षी-गवाह था ?. मैं नहीं जानता. भाग जाओ-ऐसा कह देना न्याससम्बन्धी असत्य भाषण होता है। ५-सातिसम्बन्धी-अर्थात् झूठी गवाही देना। तात्पर्य यह है कि प्रांखों से देख लेने पर For Private And Personal Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५८०] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय कहना कि मैं वहां खड़ा था, मैंने तो इसे देवा हो नहीं । अथवा न देखने पर कहना कि मैंने स्वयं इसे अमुक काम करते हुए दखा है ..... इत्यादि वाणोविलास सातिसम्बन्धी झूठ कहलाता है। कन्यासम्बन्धी. भूमिसम्बन्धी, गोसम्बन्धी, न्याससम्बन्धी तथा साक्षिसम्बन्धी स्थूल असत्य का दो करण तीन योग से त्याग करना स्थलमृषावादत्यागरूप द्वितीय सत्यारणवत कहलाता है। अनन्त काल से आत्मा असत्य भाषण करने के कारण दुःखोपभोग करती रही है। नाना प्रकार के क्लेश पाती आ रही है, अतः दुःख और क्लेश से विमुक्ति प्राप्त करने के लिये असत्य को छोड़ना होगा तथा सत्य की आराधना करनी होगी। बिना सत्य के अाराधन से आत्मश्रेय साधना असंभव है। संभव है इसी लिए पतितपावन भगवान् महावीर स्वामी ने सत्य को भगवान् कहा है। सत्य की आराधना भगवान् की अाराधना है। अतः सत्य भगवान् की सेवा में आत्मार्पण कर के परम साध्य निर्वाणपद की उपलब्धि में किसी प्रकार का विलम्ब नहीं करना चाहिये । इस के अतिरिक्त सत्याणुव्रत के संरक्षण के लिये निम्नोक्त पांच कार्यों से सदा बचते रहना चाहिये १-विचार किये बिना ही अर्थात् हानि और लाभ का ध्यान न रख कर आवेश में आकर किसी पर तू चोर है, इस विवाद का तू ही मूल है, इत्यादि वचनों द्वारा मिथ्यारोप लगाना, दोषारोपण करना । २-दूसरों की गुप्त बातों को प्रकट करना। अथवा एकान्त में बैठ कर कुछ गुप्त परामर्श करने वाले व्यक्तियों पर राजद्रोह आदि का दोष लगा देना। ३-एकान्त में अपनी पत्नी द्वारा कही हुई किसी गोपनीय-प्रकट न करने योग्य बात को दूसरों के सामने प्रकट कर देना । अथवा पत्नी, मित्र आदि के साथ विश्वासघात करना। ४-किसी को झूठ उपदेश या खोटी सलाह देना । तात्पर्य यह है कि लोक तथा परलोक सम्बन्धी उन्नति के विषय में किसी उत्पन्न सन्देह को दूर करने के लिये कोई किसी से पूछे तो उसे अधर्ममूलक जघन्य कार्य करने का कभी उपदेश नहीं देना चाहिए । प्रत्युत जीवन के निर्माण एवं कल्याण की बातें ही बतलानी चाहिएं। ५-झूठे लेख लिखना, जालसाजी करना, तात्पर्य यह है कि दूसरे की मोहर आदि लगा देना या हाथ की सफाई से दूसरों के अक्षरों के तुल्य उस ढंग के अक्षर बना देने आदि प्रकारों से कूटलेख नहीं लिखने चाहिये। ३-अस्तेयाणवत-इसे स्थूल अदत्तादालविरमणव्रत भी कहा जा सकता है । क्षा सावधानी से या असावधानी से रखी हुई या भूली हुई किसी सचित्त (गाय, भैंस आदि), अचित्त (सुवर्ण आदि) स्थूल वस्तु का ग्रहण करना जिस के लेने से चोरी का अपराध लग सकता है । अथवा दुष्ट अध्यवसायपूर्वक साधारण वस्तु को उस के स्वामी की आज्ञा के विना ग्रहण करना स्थूल अदत्तादान कहलाता है गांठे खोल कर चीज़ निकालना, जेब काटना, दूसरे के ताले को बिना अाज्ञा के खोल लेना, पथिकों को लुटना, स्वामी का पता होते हुए भी किसी पड़ी वस्तु को ले लेना, आदि सभी विकल्प स्थूल अदत्तादान में अन्तर्गत हो जाते हैं। ऐसे स्थूल अदत्तादान का दो करण और तीन योग से त्याग करना स्थूलअदत्तादानत्यागरूप तृतीय अस्तेयाणवत कहलाता है । दूसरे की सम्पत्ति पर अनुचित अधिकार करना चोरी है । मनुष्य को अपनी आवश्यकताएं अपने पुरुषार्थ से प्राप्त हुए साधनों के द्वारा पूर्ण करनी चाहिये। यदि प्रसंगवश दूसरों से कुछ लेने की (१) पत्नी की गोपनीय बात प्रकट न करने में यही हाद प्रतीत होता है कि वह अपनी गुप्त बात प्रकट हो जाने से लज्जा तथा क्रोधादि के कारण अपने या दूसरों के प्राणों को घातिका बन सकती है । इस लिये उस की गोपनीय वात को प्रकट करने का निषेध किया है । For Private And Personal Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [५८१ अावश्यकता प्रतीत हो तो वह सहयोगपूर्वक मित्रता के भाव से दिया हुआ ही ग्रहण करना चाहिये । किसी भी प्रकार का बलात्कार अथवा अनुचित शक्ति का प्रयोग कर के कुछ लेना, लेना नहीं है प्रत्युत वह छीनना ही है, जो कि लोकनिंद्य होने के साथ २ अात्मण्तन का भी कारण के माशयामात का भी कारण बनता है। अतः सखाभिलाषी मनुष्यों को चौर्य कर्म की जघन्य प्रवृत्तियों मे सदा बचते रहना चाहिये । इस के अतिरिक्त अस्तेयाणुव्रत के सरक्षण के लिये निम्नलिखित पांच कर्मों का त्याग अवश्य कर देना चाहिये - १-चोर द्वारा चोरी कर के लाई हुई सोना, चांदी अादि वस्तु को लोभवश अल्प मूल्य में खरीदना अर्थात् चोरी का माल लेना । २-चोरों को चोरी के लिये प्ररणा करना या उन को उत्साह देना या उनकी सहायता करनी अर्थात् तुम्हारे पास खाना नहीं है तो मैं देता हूँ, तुम्हारी अपहृत वस्तु यदि कोई बेचता नहीं तो मैं बेच देता हूं, इत्यादि वचनों द्वारा चोरों का सहायक बनना ।। ३-विरोधी राज्य में उस के शासक की आज्ञा बिना प्रवेश करना या अपने राजा की आज्ञा में बिना शत्रुराजाओं के राज्य में आना तथा जाना या राष्ट्रविरोधी कर्म करना । अथवा कर-महसूल आदि की चोरी करना । ४-झूठे माप और तोल रखना, तात्पर्य यह है कि तोलने के वाट और नापने के गज़ श्रादि हीनाधिक रखना, थोड़ी वस्तु देना और अधिक लेना। ५-बहु मूल्य वाली बढ़िया वस्तु में उसी के समान वर्ण वाली अल्प मूल्य वाली वस्तु मिला कर असली के रूप में बेचना । अथवा असली वस्तु दिखा कर नकली देना । अथवा नकली को ही असली के नाम मे बेचना । ४-ब्रह्मचर्याणघन - इसे स्वदारसन्तोषव्रत भी कहा जा सकता है । विधिपूर्वक विवाहिता स्त्री में सन्तोष करना तथा अपनी विवाहिता पत्नी के अतिरिक्त शेष औदारिकशरीरधारी अर्थात् मनुष्य और तिर्यञ्च के शरीर को धारण करने वाली स्त्रियों के साथ एक करण. एक योग से अर्थात् काय से परस्त्री का सेवन नहीं करूंगा. इस प्रकार तथा वैक्रियशरीरधारी-देवशरीरधारी स्त्रियों के साथ दो करण तीन योग से मैथुनसेवनत्यागरूप चतुर्थ ब्रह्मचर्याणवत कहलाता है। विषयवासनाएं जीवन का पतन करने वाली हैं और उन का त्याग जीवन को उन्नत एवं समुन्नत बनाने वाला है, अत: विवेकी पुरुष को इन्द्रियजन्य विषयों से सदा विरत रहना चाहिये । इन्द्रियों और विषयों के संयोग से उत्पन्न भोग दु:ख के ही कारण बनते हैं। इस तथ्य का गीता में बड़ी सुन्दरता से वर्णन किया गया हैं । वहां लिखा है - ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते । श्राद्यन्तवतन्तः कैन्तेय !, न तेषु रमते बुधः ॥ (अध्ययन ५/२२) 'अर्थात् जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सव भोग हैं, वे यद्यपि विषयी पुरुषों को भ्रम से सुखरूप प्रतीत होते हैं, परन्तु ये निःसन्देह दुःख के ही कारण है और आदि अन्त वाले अर्थात् अनित्य हैं । इसलिये हे कौन्तेय ! अर्थात् हे अजुन ! बुद्धिमान विवेकी पुरुष इन में रमण नहीं करता। इस के अतिरिक्त ब्रह्मचर्याणुव्रत के संरक्षण के लिये निनोक ५ कायां का त्याग अवश्य कर देना चाहिये १-कुछ काल के लिये अधीन की गई स्त्री के साथ, अथवा जिस स्त्री के साथ वागदान सगाई हो गया है उस के साथ, अथवा अल्प वय वाली अर्थात् जिस की श्रायु अभी भोगयोग्य नहीं हुई है ऐसी अपनी विवाहिता स्त्री के साथ संभोग आदि करना। For Private And Personal Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org ५८२] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रु तुम्कन्ध [प्रथम अध्याय २-विवाहिता पत्नी के अतिरिक्त शेष वेश्या, विधवा, कन्या, कुलवधू आदि. स्त्रियों के साथ, अथवा जिस कन्या के साथ सगाई हो चुकी है, उस कन्या के साथ संभोग करना। ३-कामसेवन के जो प्राकृतिक अंग हैं उन के अतिरिक्त अन्य अंगों से कामसेवन करना । हस्तमथुन आदि सभी कुकुम इस के अन्तर्गत हो जाते हैं। ४- अपनी सन्तान से भिन्न व्यक्तियों का कन्यादान के फल की कामना से, अथवा स्नेह आदि के वश हो कर विवाह कराना । अथवा दूसरों के विवाहलग्न कराने में अमर्यादित भाग लेना। ५-पांचो इन्द्रियों के विषय रूप, रस, गन्ध और स्पश में आसक्ति रखना, विषयवासनाओं में प्रगति लाने के लिये वीर्यवर्धक औषधियों का सेवन करना, कामभोगों में अत्यधिक आसक्त रहना । ५-अपरिग्रहाणुव्रत-१-क्षेत्र -खेत, २-वास्तु-घर, गोदाम आदि, ३ - हिरण्य-चांदी की बनी वस्तुएं, ४-सुवर्ण-सुवर्ण से निर्मित वस्तुएं, ५ - द्विपद -दास, दासी आदि, ६- चतुष्पद-गाय, भैंस आदि, ७-धन-रुपया तथा जवाहरात इत्यादि, ८-धान्य -२४ प्रकार का धान्य, तथा ९-कुप्य ताम्बा, पीतल, कांसी, लोहा श्रादि धातु तथा इन धातुओं से निर्मित वस्तुयें-इन नव प्रकार के परिग्रह की एक करण' तीन योग से मर्यादा अर्थात् मैं इतने मनुष्य, गज, अश्व आदि रखूगा, इन से अधिक नहीं, इसो भान्ति सभी पदार्थों की यथाशक्ति मर्यादा करना अर्थात् तृष्णा को कम करना, इच्छापरिमाणरूप पञ्चम अपरिग्रहाणुव्रत कहा जाता है। ___ मूर्छा अर्थात् अासक्ति का नाम परिग्रह है। दूसरे शब्दों में किसी भी वस्तु में चाहे वह छोटी, बड़ी, जड़, चेतन या किसी भी प्रकार की हो, अपनी हो, पराई हो उस में आसक्ति रखना, उस में बन्ध जाना, उस के पीछे पड़ कर अपने विवेक को नष्ट कर लेना ही परिग्रह है । धन आदि वस्तुए मुर्छा का कारण होने से भी परिग्रह के नाम से अभिहित की जाती है, परन्तु वास्तव में उन पर होने वाली श्रासक्ति का नाम ही परिग्रह है। परिग्रह भी एक बड़ा भारी पाप है। परिग्रह मानव की मनोवृत्ति को उत्तरोत्तर दूषित ही करता चला जाता है और किसी भी प्रकार का स्वपरहिताहित एवं लाभालाभ का विवेक नहीं रहने देता। सामाजिक एवं राष्ट्रीय विषमता, संघर्ष, कलह, एवं अशान्ति का प्रधान कारण परिग्रह ही है। अतः स्व और पर की शान्ति के लिये अमर्यादित स्वार्थवृत्ति एवं संग्रहबुद्धि पर नियन्त्रण का रखना अत्यावश्यक है । इस के अतिरिक्त अपरिग्रहाणुव्रत के संरक्षण एवं संवर्धन के लिये निम्नोक्त ५ बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिये - १-धान्योत्पत्ति की जमीन को क्षेत्र कहते हैं, वह सेतु -जो कूप के पानी से सींचा जाता है, तथा केतु- वर्षा के पानी से जिस में धान्य पैदा होता है, इन भेदों से दो प्रकार का होता है । भूमिगृहभोयरा; भूमिगृह पर बना हुश्रा घर या प्रासाद, एवं सामान्य भूमि पर बना हुआ घर आदि वास्तु कहलाता है। उक्त क्षेत्र तथा वास्तु को जो मर्यादा कर रखी है, उस का उल्लंघन करना । तात्पर्य यह है कि यदि भूमि दस बीघे की, अथवा दो घर रखने की मर्यादा की है तो उस से अधिक रखना । अथवा मर्यादित क्षेत्र या घर आदि से अधिक क्षेत्र या घर आदि मिलने पर बाड या टोवाल वगैरा हटाकर मर्याटिन क्षेत्र या घर आदि से मिला लेना। २-घटित (घड़ा हुआ) और अघटित (बिना घड़ा हुआ) सोना चांदी के परिमाण का एवं १-एक करण, एक योग से भी मर्यादा की जा सकती है । मर्याटा में मात्र शक्ति अपेक्षित है। केवल तृष्णा के प्रवाह को रोकना इस का उद्देश्य है । For Private And Personal Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अभ्याय] हिन्दी भाषा. टीका सहित । [५८३ हीरा, पन्ना, जवाहरात आदि परिमाण का उल्लंघन करना । राजा की प्रसन्नता से प्राप्त धनादि नियत मर्यादा से अधिक होने के कारण व्रतभंग के भय से पुनः वापिस लेने के लिये किसी दूसरे के पास रख देना। ३-घी, दूध, दही, गुड़, शक्कर आदि धन तथा चावल, गेहूं, मूग, उड़द, जौ, मक्की आदि धान्य कहे जाते हैं। इन दोनों के विषय में जो मर्यादा की है, उस का उल्लंघन करना । अथवा मर्यादा से अधिक धन धान्य की प्राप्ति होने पर उसे स्वीकार कर लेना, परन्तु व्रतभंग के भय से उन्हें धान्यादि के बिक जाने पर ले लूगा, यह सोच कर दूसरे के घर पर रहने देना। ४-द्विपद सन्तान, स्त्री, दास दासी, तोता मैना आदि तथा चतुष्पद - गाय, भैंस, घोड़ा, ऊंट, हाथी आदि के परिमाण का उल्लघन करना। ५- सोने, चांदी के अतिरिक्त कांसी, पीतल, ताम्बा, लोहा आदि धातु तथा उन से निमित बर्तन आदि, आसन, शयन, वस्त्र, कम्बल, तथा बर्तन आदि घर के सामान की जो मर्यादा की है, उस का भंग करना । अथवा नियमित कांसी आदि की प्राप्ति होने पर दो दो को मिला कर वस्तुओं को बड़ी करा देना और नियमित संख्या कायम रखना। अथवा नियत काल की मर्यादा वाले का व्रतभंग के भय से अधिक कांसी आदि पदार्थों को न खरीद कर पुनः खरीदने के लिये उन के स्वामी को "-तुम किसी को नहीं देना, अमुक समय के अनन्तर मैं लेलूगा-" ऐसा कहना । पूर्वोक्त ५ अणुव्रतों के पालन में गुणकारी, उपकारक तथा गुणों को पुष्ट करने वाले व्रत गुणवत कहलाते हैं, और वे तीन हैं। उन की नामनिर्देशपूर्वक व्याख्या निम्नोक्त है १-दिक्परिमाणवत-दिक् दिशा को कहते हैं । दिशा-ऊर्ध्व, अध: और तिर्यक् इन भेदों से तीन प्रकार की होती है । अपने से ऊपर की ओर को उर्व दिशा, नीचे की ओर को अधोदिशा, तथा इन दोनों की बीच की ओर को तिर्यकदिशा कहते हैं । तिर्यदिशा के-पूर्व पश्चिम, उत्तर और 'दक्षिण ऐसे चार भेद होते हैं । जिस ओर सूर्य निकलता है वह पूर्व दिशा, जिस ओर छिपता है वह पश्चिमदिशा, सूर्य की ओर मुंह करके खड़ा होने पर बाए हाथ की ओर उत्तर दिशा और दाहिने हाथ की और दक्षिण दिशा कहलाती है । चार दिशाओं के अतिरिक्त चार विदिशाएं भी होती हैं, जो ईशान आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य इन नामा से अभिहित की जाती हैं । उत्तर और पूर्व दिशा के बीच के 'कोण को ईशान, पूर्व तथा दक्षिण दिशा के बीच के कोण को अाग्नेय, दक्षिण और पश्चिम दिशा के बीच के कोण को नैऋत्य तया पश्चिम और उत्तर दिशा के बीच के कोण को वायव्य कहा जाता है । इन सब ऊर्व, अध: आदि भेदोपभेद वाली दिशाओं में गमनागमन करने अर्थात् जाने और आने के सम्बन्ध में जो मर्यादा की जाती है, तात्पर्य यह है कि जो यह निश्चय किया जाता है कि मैं अमुक स्थान से अमुक दिशा में अथवा सब दिशाओं में इतनी दर से अधिक नहीं जाऊंगा. उस मर्यादा या निश्चय को दिकपरिणामव्रत कहा जाता है। __आगे बढ़ना ही जीवन का प्रधान लक्ष्य होता है, परन्तु आगे बढ़ने के लिये चित्त की शान्ति सर्वप्रथम अपेक्षित होती है। चित्त की शान्ति का सर्वोत्तम उपाय है. - इच्छाओं का संकोच । जब तक इच्छायें सीमित नहीं होगी तब तक चित्त की शान्ति भी नहीं हो सकती । इस लिये भगवान् ने व्रतधारी श्रावक के लिये दिक्परिमाणवत का विधान किया है । इस से कर्मक्षेत्र की मर्यादा बांधी जाती है अर्थात् सीमा निश्चित की जाती है, उस निश्चित सीमा के बाहिर जा कर हिंसा, असत्य आदि पापाचरण का त्याग करना इस का प्रधान उद्दश्य रहा करता है। इस के अतिरिक्त दिकपरिमाणवत के संरक्षण के लिये निम्नलिखितं ५ बातों का For Private And Personal Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५८४ ] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय विशेष ध्यान रखना चाहिये १-ऊर्ध्व दिशा में गमनागमन करने के लिए जो क्षेत्र मर्यादा में रखा है, उस का उल्लंघन न करना । २-नीची दिशश के लिये किये गये क्षेत्रपरिमाण का उल्लघन न करना। ३-तिय दिशा अर्थात् पूर्व और पश्चिम दिशा आदि के लिये गमनागमन का जो परिमाण किया गया है, उस का उल्लंघन न करना । ४- एक दिशा के लिए की गई सीमा को कम कर के उस कम की गई सीमा को दूसरी दिशा को सीमा में जोड़ कर दूसरी दिशा नहीं बढ़ा लेना । इसे उदाहरण से समझिए - किसी व्यक्ति ने व्रत लेते समय पूर्व दिशा में गमनागमन करने की मर्यादा ५० कोस की रखी है, परन्तु कुछ दिनों के पश्चात् उस ने सोचा कि मुझे पूर्व दिशा में जाने का इतना काम नहीं पड़ता और पश्चिम दिशा में मर्यादित क्षेत्र से दूर जाने का काम निकल रहा है, इस लिए काम चलाने के लिये पूर्व दिशा में रखे हुए ५० कोस में से कुछ कम कर के पश्चिम दिशा के मर्यादित क्षेत्र को बढ़ा लू । इस तरह विचार कर एक दिशा के सीमित क्षेत्र को कम कर के दूसरी दिशा के सीमित क्षेत्र में उसे मिला कर उस को नहीं बढ़ाना चाहिये। ५-क्षेत्र की मर्यादा को भूल कर मर्यादित क्षेत्र से आगे नहीं बढ़ जाना, अथवा में शायद अपनी मर्यादित क्षेत्र की सीमा तक आचुका हूंगा कि नहीं? | ऐसा विचार करने के पश्चात् भी निर्णय किये बिना आगे नहीं बढ़ना चाहिये। ऊपर कहा जा चुका है कि गुणवत अणुक्तों को पुष्ट करने वाले, उन में विशेषता लाने वाले होते हैं। दिकपरिमाणवत अणुव्रतों में विशेषता किस तरह लाता है ? इस के सम्बन्ध में किया गया विचार निम्नोक्त है - १-श्रावक का प्रथम अणुव्रत अहिंसाणवत है। उस में स्थूल हिसा का त्याग होता है । सूक्ष्म हिसा का श्रावक को त्याग नहीं होता और उस में किसी क्षेत्र की मर्यादा भी नहीं होती। सूक्ष्म हिंसा के लिये सभी क्षेत्र खुले हैं । दिकपरिमाणवत उसे सीमित करता है, उसे असीम नहीं रहने देता । दिकपरिमाणवत से जाने और श्राने के लिए सीमित क्षेत्र के बाहिर की सूक्ष्म हिंसा भी छूट जाती है । इस तरह दिक्परिमाणवत अहिंसाणुव्रत में विशेषता लाता है। २-श्रावक का दूसरा अणुव्रत सत्याणवत है । उस में स्थूल झूठ का त्याग होता है परन्तु सूक्ष्म झूठ का त्याग नहीं होता । वह सभी क्षेत्रों के लिए खुला रहता है । दिपरिमाणवत सत्याणुव्रत के उस सूक्ष्म झूठ की छड़ को सीमित करता है, जितना क्षेत्र छोड़ दिया गया है उतने क्षेत्र में सूक्ष्म झूठ के पाप से बचाव हो जाता है। ३-श्रावक का तीसरा अणुव्रत अत्रौर्याणुव्रत है। इस में स्थूल चोरी का त्याग तो होता है परन्तु सूक्ष्म चोरी का त्याग नहीं होता। इस के अतिरिक्त वह सभी क्षेत्रों के लिये खुली रहती है, दिपरिमाणवत उसे सीमित करता है, उसे अमर्यादित नहीं रहने देता। ४-श्रावक का चतुर्थ अणुवत ब्रह्मचर्याणवत है । इस में परस्त्री आदि का सवथा तथा सर्वत्र त्याग होने पर भी स्वस्त्री की जो मर्यादा है वह सभी क्षेत्रों के लिये खुली होती है, उस पर किसी प्रकार का क्षेत्रकृत नियंत्रण नहीं होता परन्तु दिक परिमाणवत उसे भी सीमित करता है । दिकपरिमाणव्रत धारण करने वाला व्यक्ति मर्यादित क्षेत्र से बाहिर स्वस्त्री के साथ भी दाम्पत्य व्यवहार नहीं कर सकेगा । इस प्रकार दिक्परिमाणवत ब्रह्मचर्याणुव्रत के पोषण का कारण बनता है । ५-श्रावक का पांचवां परिग्रहाणुव्रत है। इस में भी दिकपरिमाणवत विशेषता उत्पन्न कर देता है क्योंकि दिपरिमाणवत ग्रहण करने वाला व्यक्ति मर्यादित परिग्रह का संरक्षण, अथवा उस की पूर्ति उसी For Private And Personal Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [५८५ क्षेत्र में रह कर कर सकेगा जो उस ने दिक्परिमाणव्रत में जाने और आने के लिये रखा है, उस क्षेत्र से बाहिर न तो मर्यादित परिग्रह का रक्षण कर सकेगा और न उस की पूर्ति के लिये व्यवसाय । इस प्रकार दिकपरिमाणवत सीमित तृष्णा को और सीमित करने में सहायक एवं प्रेरक होता है। २-उपभोगपरिभोगपरिमाणवत-जो एक बार भोगा जा चुकने के बाद फिर न भोगा जा सके, उस पदार्थ को भोगना, काम में लाना उपभोग कहलाता है । जैसे एक बार जो भोजन । है या जो पानी एक बार पीया जा चुका है, वह भोजन या पानी फिर खाया या पीया नहीं जा सकता, अथवा अंगरचना या विलेपन की जो वस्तु एक बार काम में आ चुकी है, जैसे वह फिर काम में नहीं आ सकती, इसी भान्ति जो २ वस्तुएं एक बार काम में आ चुकने के अनन्तर फिर काम में नहीं आती, उन वस्तुओं को काम में लाना उपभोग कहलाता है। विपरीत इस के जो वस्तु एक बार से अधिक काम में ली जा सकती है, उस वस्तु को काम में लेना परिभोग कहलाता है । जैसे आसन, शय्या, वस्त्र, वनिता श्रादि । अथवा जो चीज़ शरीर के अान्तरिक भाग से भोगी जा सकती है, उस को भोगना उपभोग है और जो चीज़ शरीर के बाहिरी भागों से भोगी जा सकती है, उस चीज़ का भोगना परिभोग है। सभी उपभोग्य और परिभोग्य वस्तुओं के सम्बन्ध में यह मर्यादा करना कि मैं अमुक अमुक वस्तु के सिवाय शेष वस्तुए उपभोग और परिभोग में नहीं लाऊगा, उस मर्यादा को उपभोगपरिभोगपरिमाणवत कहा जाता है। इच्छाओं के संकोच के लिये दिकपरिमाणवत की अपेक्षा रहती है, जिस का वर्णन ऊपर किया जा चुका है, उस के श्राश्रयण से मर्यादित क्षेत्र से बाहिर का क्षेत्र और वहां के पदार्थादि से निवृत्ति हो जाती है, परन्तु इतने मात्र से मर्यादित क्षेत्र में रहे हुए पदार्थों के उपभोग और परिभोग की मर्यादा नहीं हो पाती है। मर्यादाहीन जीवन उन्नति की ओर प्रस्थित न हो कर अवनति की ओर प्रगतिशील होता है । इसी दृष्टि को सामने रखते हुए अचार्यों ने सातवें व्रत का विधान किया है । इस व्रत के आराधन से छठे व्रत द्वारा मर्यादित क्षेत्र में रहे हुए पदार्थों के उपभोग और परिभोग की भी मर्यादा हो जाती है। यह मर्यादा एक, दो, तीन दिन आदि के रूप में सीमित काल तक या यावज्जीवन के लिये भी की जा सकती है। उक्त मर्यादा के द्वारा पञ्चम व्रत के रूप में परिमित किये गये परिग्रह को और अधिक परिमित किया जाता है तथा अहिंसा की भावना को और अधिक विराट एवं प्रबल बनाया जाता है । यही इस की अणव्रतसम्बन्धिनी गुणपोषकता है! उपभोग और परिभोग में आने वाली वस्तुएं तो अनेकानेक हैं तथापि शास्त्रकारों ने उन वस्तुओं का २६ बोलों में संग्रह कर दिया है। इन बोलों में प्रायः जीवन की आवश्यक सभी वस्तुए संगृहीत कर दी गई हैं । इन बोलों की जानकारी से व्रतग्रहण करने वाले को बड़ी सुगमता हो जाती है । वह जब यह जान लेता है कि जीवन के लिये विशेषरूप से किन पदार्थों की आवश्यकता रहती है ?, तब उन की तालिका बना कर उन्हें मर्यादित करना उस के लिये सरल हो जाता है। अस्तु, २६ बोलों का विवरण निम्नोक्त है १- उल्लणिया--विधिप्रमाण-आर्द्र शरीर को या किसी भी आर्द्र हस्तादि अवयवों के पोंछने के लिये जिन वस्त्रों की आवश्यकता होती है, उन की मर्यादा करना। २-दन्तवणविधिप्रमाण - दान्तों को साफ करने के लिये जिन पदार्थों की आवश्यकता होती है, उन पदार्थों की मर्यादा करना। ३ - फलविधिप्रमाण- दातुन करने के पश्चात् मस्तक और बालों को स्वच्छ तथा शीतल करने के लिये जिन वस्तुओं की आवश्यकता होती है, उन की मर्यादा करना, या बाल आदि धोने के लिये प्रांवला For Private And Personal Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५८६ ] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [ प्रथम अध्याय यदि फलों की मर्यादा करना या स्नान करने से पहले मस्तक आदि पर लेप करने के लिये आंवले आदि फलों की मर्यादा करना । ४ – अभ्यञ्जनविधिप्रमाण - त्वचासम्बन्धी विकारों को दूर करने के लिये और रक्त को सभी अवयवों में पूरी तरह संचारित करने के लिये जिन तैल आदि द्रव्यों का शरीर पर मर्दन किया जाता है उन द्रव्यों की मर्यादा करना । ५ – उद्वर्त्तनविधिप्रमाण – शरीर पर लगे हुए तैल की चिकनाहट को दूर करने तथा शरीर में स्फूर्ति एवं शक्ति लाने के लिये जो उबटन लगाया जाता है, उस की मर्यादा करना । ६ - मज्जनविधिप्रमाण - स्नान के लिये जल तथा स्नान की संख्या का परिमाण करना । ७ - वस्त्रविधिप्रमाण- पहनने प्रोढने आदि के लिये वस्त्रों की मर्यादा करना । वस्त्रमर्यादा में लज्जारक्षक तथा शीतादि के रक्षक वस्त्रों का ही आश्रयण है, विकारोवादक वस्त्र तो कभी भी धारण नहीं करने चाहिए । ८ - विलेपनविधिप्रमाण - चंदन, केसर आदि सुगन्धित तथा शोभोत्पादक पदार्थों की मर्यादा करना । ९ - पुष्पविधिप्रमाण - फूल तथा फूलमाला आदि की मर्यादा करना, अर्थात् मैं अमुक वृक्ष के इतने फूलों के सिवाय दूसरे फूलों को तथा वे भी अधिक मात्रा में प्रयुक्त नहीं करू ंगा, इत्यादि विकल्पपूर्वक पुष्प- सम्बन्धी परिमाण निश्चित करना । १० - श्राभरण विधिप्रमाण - शरीर पर धारण किये जाने वाले आभूषणों की मर्यादा करना कि मैं इतने मूल्य या भार के अमुक आभूषण के सिवाय और आभूषण शरीर पर धारण नहीं करूंगा । ११ - धूपविधिप्रमाण- - वस्त्र और शरीर को सुगन्धित करने के लिये या वायुशुद्धि के लिये धूप देने योग्य अगर आदि पदार्थों की मर्यादा करना । ऊपर उन पदार्थों के परिमाण का वर्णन किया गया है जिन से या तो शरीर की रक्षा होती है या जो शरीर को विभूषित करते हैं। अब नीचे ऐसे पदार्थों के परिमाण का वर्णन किया जाता है, जिन से शरीर का पोषण होता है, उसे बल मिलता है तथा जो स्वाद के लिए भी काम में लाये जाते हैं - १२ - पेयविधिप्रमाण - जो पीया जाता है उसे पेय कहते हैं । दूध, पानी आदि पेय पदार्थों की मर्यादा करना । १३ - भक्षणविधिप्रमाण - नाश्ते के रूप में खाये जाने वाले मिठाई आदि पदार्थों की, अथवा पकवान की मर्यादा करना । १४ - श्रोदन विधिप्रमाण- श्रोदन शब्द से उन द्रव्यों का ग्रहण करना अभिमत है जो विधिपूर्वक उबाल कर खाये जाते हैं। जैसे-चावल, खिचड़ी श्रादि, इन सब की मर्यादा करना । १५ – सूपविधिप्रमाण - सूप शब्द उन पदार्थों का परिचायक है जो दाल आदि के रूप में खाए जाते हैं, तथा जिन के साथ रोटी या भात आदि खाया जाता है अर्थात् मूंग, चना आदि दालों की मर्यादा करना । १६ - विकृतिविधिप्रमाण - विकृति शब्द दूध, दही, घृत, तैल और गुड़ शकर आदि का परिचायक है, इन सब की मर्यादा करना । १७ - शाकविधिप्रमाण - शाक, सब्जी आदि शाक की जाति का परिमाण करना । ऊपर के For Private And Personal Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [५८७ पन्द्रहवें बोल में उन दालों की प्रधानता है जो अन्न से बनती हैं । शेष सूखे या हरे साग का ग्रहण शाक पद से होता है। १८-माधुरविधिप्रमाण ... अाम, जामुन, केला, अनार श्रादि हरे फल और दाख, बादाम, पिश्ता आदि सूखे फलों की मर्यादा करना । १९-जेमनविधिप्रमाण- जेमन शब्द उन पदार्थों का बोधक है जो भोजन के रूप में सुधा के निवारण के लिए खाए जाते हैं, जैसे -- रोटी, पूरी श्रादि । अथवा बड़ा, पकौड़ी आदि पदार्थ जेमन शब्द से संग्रहीत होते हैं, इन सब की मर्यादा करना। २०-पानीयविधिप्रमाण शीतोदक, उष्णोदक, गन्धोदक, अथवा खारा पानो, मीठा पानी आदि पानी के अनेकों भेद हैं, इन सब की मर्यादा करना। २१ मुखवासविधिप्रमाण-भोजनादि के पश्चात् स्वाद या मुख को साफ करने के लिये प्रयुक्त किए जाने वाले पान, सुपारी, इलायची, चूर्ण आदि पदार्थों की मर्यादा करना। २२ - वाहनविधिप्रमाण - वाहन अर्थात् -१-- चलने वाले-घोड़ा, ऊंट, हाथी आदि, तथा २-फिरने वाले गाड़ी, मोटर, ट्राम, साइकल आदि, इन सब वाहनों की मर्यादा करना । ___२३ -उपानविधिप्रमाण-पैरों की रक्षा के लिये पैरों में पहने जाने वाले जूता, खड़ाऊ आदि पदार्थों का परिमाण करना। २४-शयनविधिप्रमाण-शयन शब्द से उन वस्तुओं का ग्रहण होता है, जो सोने, बैठने के काम आती हैं, जैसे -पलंग, खार, पाट, आसन, बिछौना, मेज. कुर्सी आदि इन सब की मर्यादा करना। २५-सचित्तविधिप्रमाण -श्राम आदि सचित्त पदार्थों की मर्यादा करना । तात्पर्य यह है कि पदार्थ दो तरह के होते हैं । एक सचित्त - जीवसहित और दूसरे अचित्त-जीवरहित । सचित्त और अचित्त दोनों ही अनेकानेक पदार्थ हैं । श्रावक यदि सचित्त का त्याग नहीं कर सकता तो उस को सचित्त पदार्थों की मर्यादा अवश्य कर लेनी चाहिए। २६-द्रव्यविधिप्रमाण - खाने के काम में आने वाले सचित्त या अचिच द्रव्यों की मर्यादा करना। तात्पर्य यह है कि ऊपर के बोलों में जिन पदार्थों की मर्यादा की गई है, उन पदार्थों को द्रव्यरूप में संग्रह कर के उन की मर्यादा करना। जैसे -मैं एक समय में, एक दिन में या अायु भर में इतने द्रव्यों से अधिक का उपयोग नहीं करूंगा । जो वस्तु स्वाद की भिन्नता के लिये अलग मुह में डाली जाएगी, अथवा-एक ही वस्तु स्वाद की भिन्नता के लिये दूसरी वस्तु के संयोग के साथ मुंह में डाली जाएगी, उस में जितनी वस्तुए मिली हुई हैं, वे उतने द्रव्य कहे जाएंगे। उपभोग्य और परिभोग्य पदार्थों की उपलब्धि के लिये धन की आवश्यकता होती है। धन के लिये गृहस्थ को कोई न कोई व्यवसाय चलाना ही होता है। अर्थात् कोई धन्धा -रोज़गार करना ही पडता है । बिना कोई धन्धा किए गृहस्थ जीवन की आवश्यकताएं पूर्ण नहीं हो सकतीं । अतः यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि जीवन को चलाने के लिये गृहस्थ को कोई न कोई व्यापार करना ही होगा। व्यापार आर्य-प्रशस्त और अनार्य-अप्रशस्त इन विकल्पों से दो प्रकार का होता है। प्रशस्त का अभिप्राय हैजिस में पाप कर्म कम से कम लगे और अप्रशस्त का अर्थ है-जिस में पाप अधिकाधिक लगे । तात्पर्य यह है कि कुछ व्यापार अल्पपापसाध्य होते हैं जबकि कुछ अधिकपापसाध्य । श्रावक अधिकपापसाध्य व्यापार न करे, इस बात को ध्यान में रखते हुए सूत्रकार ने उपभोगपरिभोगपरिमाणवत के दो भेद कर दिये हैं। For Private And Personal Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५८८ ] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [ प्रथम अध्याय 1 एक भोजन से दूसरा कर्म से । भोजन शब्द से उपभोग्य और परिभोग्य सभी पदार्थों का ग्रहण कर लिया जाता है । भोजनतम्बन्ध परिमाण किस भान्ति होना चाहिए ? इस के सम्बन्ध में पहले लिखा जा चुका है। रही बात कर्मसम्बन्ध परिमाण को । कर्म का अर्थ है - आजीविका । आजीविका का परिमाण कर्मसम्बन्धी उपभोगपरिभोग परिमाण कहलाता है । तालर्य यह है कि उपभोग्य और परिभोग्य पदार्थों की प्राप्ति के लिये अधिकपापसाध्य - जिस में महा हिंसा हो, व्यापार का परित्याग कर के अल्प पान - साध्य व्यापार की मर्यादा करना । भोजनसम्बन्धी उपभोगपरिभोगपरिमाणत के संरक्षण के लिये निम्नोक ५ कार्यों का सेवन नहीं करना चाहिये - १ - सचिताहार - जिस खान पान की चीज़ में जीव विद्यमान हैं, उस को सचित्त कहते हैं । जैसे - धान, बीज आदि । जिस सचित्त का त्याग किया गया है उस का सेवन करना । २ - सचित्त प्रतिबद्धाहार - वस्तु तो चित्त है परन्तु वह यदि सचित्त वस्तु से सम्बन्धित हो रही है, उस का सेवन करना । तात्पर्य यह है कि यदि किसी का सचित्त पदार्थ को ग्रहण करने का त्याग है तो उसे चित्त से सम्बन्धित अचित्त पदार्थ भी नहीं लेना चाहिये । जैसे- मिठाई अचित्त है परन्तु जिस दोने में रखी हुई है वह सचित्त है, तब सचित्तत्यागी व्यक्ति को उस का ग्रहण करना निषिद्ध है । १३ - अपक्वौषधिभक्षणता - जो वस्तु पूर्णतया पकने नहीं पाई और जिसे कच्ची भी नहीं कहा जा सकता, ऐसी अर्धपक्व वस्तु का ग्रहण करना । तात्पर्य यह है कि यदि किसी ने सचित्त वस्तु का त्याग कर रखा है तो उसे जो पूरी न पकने के कारण मिश्रित हो रही है, उस वस्तु का ग्रहण करना नहीं चाहिये। जैसे - लल्ली, होलके (होले) आदि । ४ - दुष्पक वौषधिभक्षणता जो वस्तु पकी हुई तो है परन्तु बहुत अधिक पक गई है, पक कर बिगड़ गई है, उस का ग्रहण करना । अथवा - जिस का पाक अधिक आरम्भसाध्य हो उस वस्तु का ग्रहण करना । ५- तुच्छौषधिभक्षणता - जिस में क्षुधानिवारक भाग कम है, और व्यर्थ का भाग अधिक है, ऐसे पदार्थ का सेवन करना । अथवा जिस वस्तु में खाने योग्य भाग थोड़ा हो और फैंकने योग्य भाग अधिक हो, ऐसी वस्तु का ग्रहण करना । उपभोगपरिभोगपरिमाणत का दूसरा विभाग कर्म है अर्थात् श्रावक को उपभोग्य और परिभोग्य पदार्थों की प्राप्ति के लिये जिन धन्धों में गाड़ कर्मों का बन्ध होता है वे धन्धे नहीं करने चाहिएं । अधिक पावसाध्य धन्धों को ही शास्त्रीय भाषा में कर्मादान कहते हैं । कर्मादान - कर्म और आदान इन पदों से निर्मित हुआ है, जिस का अर्थ है - जिस में गाड़ कर्मों का आगमन हो । कर्मादान १५ होते हैं । उन के नाम तथा उन का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है - १ - इङ्गालकर्म - इसे अङ्गारकर्म भी कहा जाता है । अङ्गारकर्म का अर्थ है - लकड़ियों के कोयले नाना और उन्हें बेच कर आजीविका चलाना । इस कार्य से ६ काया के जीवों की महान् हिंसा होती है । २ -- वनकर्म -- जंगल का ठेका ले कर, वृक्ष काट कर उन्हें बेचना, इस भान्ति अपनी आजीविका चलाना । इस कार्य से जहां स्थावर प्राणियों की महान् हिसा होती है, वहां त्रस जीवों की भी पर्याप्त हिंसा होती । वन द्वारा पशु पक्षियों को जो आधार मिलना है, उन्हें इस कर्म से निराधार बना दिया जाता है । १३ - शाकटिक कर्म - बैलगाड़ी या घोड़ागाड़ी आदि द्वारा भाड़ा कमाना । अथवा गाड़ा गाड़ी For Private And Personal Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [५८९ श्रादि वाहन बना कर बेचना या किराए पर देना । ___-भाटीकर्म-घोड़ा, ऊट, भैंस, गधा, खच्चर, बैल आदि पशुओं को भाड़े पर दे कर, उस भाड़े से अपनी आजीविका चलाना । इस में महान् हिंसा होती है, क्योंकि भाड़े पर लेने वाले लोग अपने लाभ के सन्मुख पशुओं की दया की उपेक्षा कर डालते हैं । ५- स्फोटीकर्म हल, कुदाली अादि से पृथ्वी को फोड़ना और उस में से निकले हुए पत्थर, मिट्टी, धातु, आदि खनिज पदार्थों द्वारा अपनी आजीविका चलाना । ६-दन्तवाणिज्य-हाथी आदि के दान्तों का व्यापार करना । दान्तों के लिये अनेकानेक प्राणियों का वध होता है, इसलिये भगवान् ने श्रापकों के लिए इस का निषेध किया है । ७-लाक्षावाणिज्य -- लाख वृक्षों का मद होता है, उस के निकालने में त्रस जीवों की बहुत हिंसा होती है । इसलिये श्रावक को लाख का व्यापार नहीं करना चाहिये। ८-रसवाणिज्य - रस का अर्थ है - मदिरा आदि द्रव पदार्थ, उन का व्यापार करना । तात्पर्य यह है कि जो पदार्थ मनुष्य को उन्मत्त बनाते हैं, जिन के सेवन से बुद्धि नष्ट होती है, ऐसे पदार्थों का सेवन अनेकानेक हानियों का जनक होता है, अतः ऐसे व्यापार को नहीं करना चाहिये ।। ९-विषवाणिज्य-अफ़ीम, संखिया आदि जीवन नाशक पदार्थों का व्यवसाय करना, जिन के खाने या सूघने से मृत्यु हो सकती है। १० --केशवाणिज्य-केश का अर्थ है – केश वाला । लक्षणा से दास दासी आदि द्विपदों का ग्रहण होता है, उन का व्यापार करना केशवाणिज्य है। प्राचीन काल में अच्छे केश वाली स्त्रियों का कय, विक्रय होता था और ऐसी स्त्रियां दासी बना कर भारत से बाहिर यूनान आदि देशों में भेजी जाती थीं, जिस से अनेकानेक जघन्य प्रवृत्तियों को जन्म मिलता था। इसलिये श्रावक के लिये यह निन्द्य व्यवसाय भगवान् ने त्याज्य एब हेय बतलाया है। ११-यन्त्रपीडनकर्म यंत्रों-मशीनों द्वारा तिल, सरसों श्रादी या गन्ना आदि का तेल या रस निकाल कर अपनी आजीविका करना। इस व्यवसाय से त्रस जीवों की भी हिंसा होती है। १२-निर्लाञ्छनकर्म बैल, भैंसा, घोड़ा आदि को नपुसक बनाने की आजीविका करना । इस से पशुओं को अत्यन्तात्यन्त पीड़ा होती है, इस लिए भगवान् ने श्रावक के लिये इस का व्यवसाय निषिद्ध कहा है। १३ - दवाग्निदापनकर्म-वनदहन करना । तात्पर्य यह है कि भूमि साफ़ करने में श्रम न करना पड़े, इसलिये बहुत से लोग आग लगा कर भूमि के ऊपर का जंगल जला डालते हैं और इस प्रकार भूमि को साफ़ कर या करा कर अपनी आजीविका चलाते हैं, किन्तु यह प्रवृत्ति महान् हिंसासाध्य होने से श्रावक के लिये हेय है, त्याज्य है। १४-- सराहदतडागोषणकर्म - तालाब, नदी आदि के जल को सुखाने का धन्धा करना। तात्पर्य यह है कि बहुत से लोग तालाब, नदी का पानी मुखा कर, वहां की भूमि को कृषियोग्य बनाने का धन्धा किया करते हैं, इस से जलीय जीव मर जाते हैं । अथवा बोए हुए धान्यों को पुष्ट करने के लिये सरोवर आदि से जल निकाल कर उन्हें सुखा देने की आजीविका करना, इस में त्रस और स्थावर जीवों की महान् हिंसा होती है। इसीलिए यह कार्य श्रावक के लिए त्याज्य है। १५-असतीजनपोषणकर्म-असतियों का पोषण कर के उन से आजीविका चलाना । तात्पर्य यह For Private And Personal Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५९०] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय है कि कुछ लोग कुलटा स्त्रियों का इसलिए पोषण करते हैं कि उन से व्यभिचार करा कर धनोपार्जन किया जाये, यह धन्धा अनर्थों का मूल और पापपूर्ण होने से त्याज्य है। (३) अनर्थदण्डविरमणमत-क्षेत्र, धन, गृह, शरीर, दास, दासी, स्त्री, पुत्री आदि के लिए जो दण्ड-हिंसा किया जाता है, उसे अर्थदण्ड कहते हैं और बिना प्रयोजन की गई हिंसा अनर्थदण्ड कहलाती है । जैसे- रास्ते में जाते हुए व्यर्थ ही हरे पत्ते तोड़ते रहना, किसी कुते आदि को छड़ी मार देना...इत्यादि सभी विकल्प अनर्थदण्ड के अन्तर्गत हो जाते हैं । ऐसे अनर्थदण्ड को त्यागने की प्रतिज्ञा का करना अनर्थदण्डविरमणव्रत है। शास्त्रों में अनर्थदण्ड के ४ भेद पाए जाते हैं, जिन के नाम तथा अर्थ निम्नोक्त हैं - १-अपभ्यानाचरित-जो अप्रशस्त-बुरा ध्यान (अन्तर्मुहूर्त मात्र किसी प्रकार के विचारों में एकाग्रता ) है, वह अपध्यान कहलाता है । तात्पर्य यह है कि 'आर्तध्यान और रौद्रभ्यान के वश हो कर किसी प्राणी को निष्प्रयोजन क्लेश पहुंचाना अपध्यानाचरित कहा जाता है। २-प्रमादाचरित-असावधानी से काम करना, तेल तथा घी आदि के बर्तन बिना ढके, खुले मह रखना आदि । अथवा-मद, विषय, कषाय, निद्रा, विकथा ये ५ प्रमाद होते हैं । अहंकार या मदिरा आदि मद्य पदार्थ का मद शब्द से ग्रहण होता है। पांच इन्द्रियों के तेईस विषयों का ग्रहण विषय शब्द से किया जाता है । क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों की कषाय संज्ञा है । निद्रा नींद को कहते हैं । जिन के कहने, मानने से कोई लाभ न हो उन बातों की गणना विकथा में होती है। इन प्रमादों का सर्वथा त्याग संसारी व्यक्ति के लिये तो अशक्य होता है, इसलिए इस के निष्कारण और सकारण ऐसे दो भेद कर दिये गये हैं । सकारण प्रमाद अर्थदण्ड में है जब कि निष्कारण प्रमाद अनर्थदण्ड से बोधित होता है । अनर्थदण्डविरमणव्रत में निष्कारण प्रमाद का त्याग किया जाता है। ... ३-हिंसाप्रदान-बिना प्रयोजन तलवार, शूल, भाला आदि हिंसा के साधनभूत शस्त्रों को क्रोध से भरे हुए, अथवा जो अनभिज्ञ हैं उन के हाथ में दे देना। ४-पापकर्मोपदेश-जिस उपदेश के कारण पाप में प्रवृत्ति हो, उपदेश सुनने वाला पापकर्म करने लगे, वैसा उपदेश देना। तात्पर्य यह है कि बहुत से मनचले लोगों का ऐसा स्वभाव होता है कि वे दूसरों को मारने पीटने की तथा राजद्रोह आदि की व्यर्थ बातें कहते रहते हैं । अनर्थदण्ड के त्यागी को ऐसा कम नहीं करना चाहिये । अनर्थदण्डविरमगावत का इतना ही उद्देश्य है कि श्रावक ने अणुव्रत स्वीकार करते समय जिन बातों की छुट रखी है, उस छूट का उपयोग करने में अर्थ अनर्थ अर्थात् सार्थक और निरर्थक का वह अन्तर (१) अार्ति दुःख कष्ट, या पीडा को कहते हैं । आर्ति के कारण जो ध्यान होता है उसे प्रार्तभ्यान कहा जाता है । यह ध्यान -१-अनिष्ट वस्तु के संयोग होने पर, २ - इष्ट वस्तु के वियोग होने पर, ३-रोग आदि के होने पर तथा ४ –भोगों की लालसा के कारण उत्पन्न हुआ करता है । इस ध्यान के कारण मन में एक प्रकार की विकलता सी अर्थात् सतत कसक सी हुआ करती है। २-हिंसा आदि क र भावों की जिस में प्रधानता हो उस व्यक्ति को रुद्र कहते हैं । रुद्र व्यक्ति के मनोभावों को रौद्रभ्यान कहा जाता है। रौद्र ध्यान वाला व्यक्ति हिंसा करने, झूठ बोलने, चोरी करने और सम्प्राप्त विषयभोगों के संरक्षण में ही तत्पर रहा करता है और उस के लिए वह छेदन, भेदन, मारण ताइन श्रादि कठोर प्रवृत्तियों का ही चिन्तन करता रहता है । For Private And Personal Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । समझ ले और निरर्थक प्रयोग से अपने को बचा ले । गुणवत अणुव्रतों के पोषक होते हैं, यह पहले बताया जा चुका है । पहले दिपरिमाणवत ने अमर्यादित क्षेत्र को मर्यादित किया। उपभोगपरिभोगपरिमाणवत से अमर्यादित पदार्थों को मर्यादित किया गया है और अनर्थदण्डविरमणव्रत ने पहले की छटों को क्रया से अर्थात् कार्य के अविवेक से पुनः मर्यादित किया है । तात्पर्य यह है कि अनर्थदण्डविरमण व्रत के ग्रहण से यह मर्यादा की जाती है कि मैं निरर्थक पाप से बचा रहंगा और "- गृहकार्य मेरे लिये आवश्यक हैं या नहीं ?, इस काम को करने के बिना भी मेरा जीवन चल सकता है या नहीं ?, यदि नहीं चलता तो विवश मुझे यह काम करना ही पड़ेगा, प्रत्युत इस काम के किए बिना भी यदि मेरा जीवननिर्वाह हो सकता है तो व्यर्थ में उसे क्यों करू, क्यों व्यर्थ में अपनी आत्मा को पाप से भारी बनाऊ?-" इस प्रकार का विवेक सम्प्राप्त हो जाता है और अणुव्रतों के अागारों की निष्प्रयोजन प्रवृत्तियों को रोका जा सकता है। इस के अतिरिक्त 'अनर्थदण्डविरमणव्रत के संरक्षण के लिये निम्नलिखित ५ कार्यों का त्याग आवश्यक है १ - कन्दर्प-कामवासना के पोषक, उत्तेजक तथा मोहोत्पादक शब्दों का हास्य या व्यंग्य में दूसरे के लिये प्रयोग करना। २-कौकुच्य-आंख, नाक, मुह, भृकुटि श्रादि अंगों को विकृत बना कर भांड या विदूषक की भान्ति लोगों को हंसाना । तात्पर्य यह है कि भाण्डचेष्टाओं का करना । प्रतिष्ठित एवं सभ्य लोगों के लिये अनुचित होने से. इन का निषेध किया गया है। ३-मौखर्य-निष्कारण ही अधिक बोलना, निष्प्रयोजन और अनर्गल बातें करना, थोड़ी बात से काम चल सकने पर भी व्यर्थ में अधिक बोलते रहना। ४-संयुक्ताधिकरण-कूटने, पीसने और गृहकार्य के अन्य साधन जैसे-ऊखल, मूसल आदि वस्तुओं का अधिक और निष्प्रयोजन संग्रह रखना । जिस से आत्मा दुर्गति का भाजन बने उसे अधिकरण कहते है अर्थात् दुगतिमूलक पदार्थों का परस्पर में संयोग बनाए रखना, जैसे-गोली भर कर बन्दूक का रखना, वह अचानक चल जाए या कोई उसे अनभिज्ञता के कारण चला दे तो वह जीवन के नाश का कारण हो सकती है, इसीलिए संयुक्ताधिकरण को दोषरूप माना गया है । ___५-उपभोगपरिभोगातिरिक्त-उबटन, प्रांवला, तेल, पुष्प वस्त्र, आभूषण तथा अशन, पान, खादिम और स्वादिम आदि उपभोग्य तथा परिभोग्य पदार्थों को अपने एवं आत्मीय जनो के उपभोग से अधिक रखना । उपभोगपरिभोगपरिमाणवत स्वीकार करते समय जो पदार्थ मर्यादा में रखे गये हैं, उन में अत्यधिक आसक्त रहना. उन में आनन्द मान कर उन का पुनः २ प्रयोग करना अर्थात् उन का प्रयोग जीवन निर्वाह के लिये नहीं किन्तु स्वाद के लिये करना, जैसे – पेट भरा होने पर भी स्वाद के लिये खाना । श्रावक जो व्रत ग्रहण करता है वह देश से ग्रहण करता है, सर्व से नहीं । उस में त्याग की पूर्णता नहीं होती। इस लिये उस की त्यागबुद्धि को सिंचन का मिलना आवश्यक होता है। बिना सिंचन के मिले उस का पुष्ट होना कठिन है। इसीलिये सूत्रकार ने अणुव्रतों के सिचन के लिये तीन गुणवतों का विधान किया है । गुणव्रतों के अाराधन से श्रावक की आवश्यकताए' सीमित हो जाती हैं और श्रावक पुद्गलानंदी न रह कर मात्र जीवननिर्वाह के लिये पदार्थों का उपभोग करता है तथा जीवन में अनावश्यक प्रवृत्तियों के त्याग के साथ २ आवश्यक प्रवृत्तियों में भी वह निवृत्तिमार्ग के लिये सचेष्ट रहता है, परन्तु उस की उस निवृत्तिप्रधान चेष्टा को सदैव बनाये रखने के लिये और उस में प्रगति लाने के लिये किसी शिक्षक एवं प्रेरक सामग्री की For Private And Personal Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५९२ ] श्री विकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध आवश्यकता रहती है। बिना इस के शिथिलता का होना असंभव नहीं है । इसीलिये सूत्रकार ने ४ शिक्षाव्रतों का विधान किया है। ये चार शिक्षाव्रत पूत्र गृहीत व्रतों को दृढ़ करने में एवं उन की पालन की तत्परता में सहायक होते हैं । उन चार शिक्षाव्रतों के नाम और उन की व्याख्या निम्नोत है। १ - सामायिकत्रत – जिस के अनुष्ठान से समभाव की प्राप्ति होती है, राग द्वेष कम पड़ता है, विषय और कषाय की अग्नि शान्त होती है, चित्त निर्विकार हो जाता है, सावध प्रवृत्तियों को छोड़ा जाता है, तथा सांसारिक प्रपंचों की ओर आकर्षित न हो कर आत्मभाव में रमण किया जाता है, उस व्रत अर्थात् अनुष्ठान को सामायिक व्रत' कहते हैं । जैनशास्त्रों में सामायिक का बहुत महत्त्व वर्णित हुआ है । सामायिक का यदि वास्तविक रूप साधक के जीवन में आ जाए तो उस का जीवन सुखी एवं प्रादर्श बन जाता है। सामायिक जीवन भर के लिये भी की जाती है और कुछ समय के लिये भी । कम से कम उस का समय ४८ मिण्ट है । उद्देश्य तो जीवनपर्यन्त ही सावद्य प्रवृत्तियों के त्याग का होना चाहिये, परन्तु यदि यह कम से कम ४८ मिण्टों के लिये तो अवश्य सामायिक करनी चाहिये । यदि त्याग कर लिया जायेगा तो अांशिक लाभ होने के साथ २ इस के द्वारा अहिंसा के दर्शन अवश्य हो जाएंगे, जो भविष्य में उस के जीवन को जीवनपर्यन्त सावद्य प्रवृत्तियों से अलग रखने का कारण बन सकती है । सामायिक दो घड़ी का आध्यात्मिक स्नान है, जो जीवन को पापमल से हल्का करता है और अहिंसा, सत्यादि की साधना को स्फूर्तिशील बनाता | अतः जहां तक बने सामायिकव्रत का आराधन अवश्य किया जाना चाहिये और इस सामायिक द्वारा किये जाने वाले पापनिरोध और श्रात्मनिरीक्षण की अमूल्य निधि को प्राप्त कर परमसाध्य निर्वाणपद को पाने का स्तुत्य प्रयास करना चाहिये । इस के अतिरिक्त सामायिकवत के संरक्षण के लिये निम्नोक्त ५ कार्यों का अवश्य त्याग कर देना चाहिए - I शक्य नहीं है तो गृहस्थ को मुहूर्त भर के लिये पापों का एवं समता की विराट झांकी ११- मनोदुष्प्रणिधान -मन को बुरे व्यापार में लगाना अर्थात् मन का समता से दूर हो जाना तथा मन का सांसारिक प्रपञ्चों में दौड़ना एवं अनेक प्रकार के सांसारिक कर्मविषयक संकल्पविकल्प करना २ - वचोदुष्प्रणिधान - सामायिक के समय विवेकरहित कटु, निष्ठुर, असभ्य वचन बोलना, तथा निरर्थक या सावद्य वचन बोलना | 1 ३ - काय दुष्प्रणिधान - सामायिक में शारीरिक चपलता दिखलाना, शरीर से कुचेष्टा करना, बिना कारण शरीर को फैलाना, सिकोड़ना या बिना पूजे सावधानी से चलना । (१) जो समो सव्वभूपसु तसेसु धावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४ - सामायिक का विस्मरण - मैंने सामायिक की है. इस बात का भूल जाना। अथवा कितनी सामायिक की हैं ?, यह भूल जाना । अथवा - सामायिक करना ही भूल जाना । तात्पर्य यह है कि जैसे मनुष्य अर्थात् जो साधक त्रस स्थावर रूप सभी जीवों पर समभाव रखता होती है, ऐसा केवली भगवान् ने कहा है । [ प्रथम अध्याय For Private And Personal (श्री अनुयोगद्वारसूत्र ) है, उसी की सामायिक शुद्ध जस्स सामाणिओ अप्पा, संजमे शियमे तवे । तम्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ॥ (आवश्यक नियुक्ति) अर्थात् जिसकी आत्मा संयम में, तप में, नियम में सन्निहित संलग्न हो जाती है, उसी की शुद्ध सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान् ने कहा है । Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । को अपने दैनिक भोजनादि का ध्यान रहता है, वैसे उसे दैनिक अनुष्ठान सामायिक को भी याद रखना चाहिये ५- अनवस्थितसामायिककरण - अव्यवस्थित रीति से सामायिक करना. सामायिक की व्यवस्था न रखना अर्थात् कभी करना, कभी नहीं करना, यदि की गई है तो उस से ऊबना, सामायिकसमय पूरा हुआ है या नहीं है, इस बात का बार २ विचार करते रहना, सामायिक का समय होने से पहले ही सामायिक पार लेना आदि । २-देशावकारिक बत- श्रावक के छठे व्रत में दिशाओं का जो परिमाण किया गया है, उस का तथा अन्य व्रतो में की गई मर्यादा को प्रतिदिन कम करना । तात्पर्य यह है कि किसी ने आजीवन, वर्ष या मासादि के लिये "-मैं पूर्व दिशा में सौ कोस से आगे नहीं जाऊंगा-" यह मर्यादा की है, उस का इस मर्यादा को एक दिन के लिये, प्रहर आदि के लिये और कम कर लेना अर्थात् आज के दिन मैं पूर्व दिशा में दस कोस से आगे नहीं जाऊंगा, इस तरह पहली मर्यादा को संकुचित कर लेना या मर्यादित उपभोग्य और परिभोग्य पदार्थों में से अमुक का श्राज दिन के लिये या प्रहर आदि के लिये सेवन नहीं करूंगा, इस भान्ति पूर्वगृहीत व्रतों में रखी मर्यादात्रों को दिन भर या दोपहर आदि के लिये मर्यादित करना देशावकासिक व्रत कहलाता है। उपभोग्य और परिभोग्य पदार्थों का २६ बोलों में संग्रह किया गया है, यह पूर्व कहा जा चुका है परन्तु श्रावक के लिये प्रतिदिन चौदह नियमों के चिन्तन या ग्रहण करने की जो हमारी समाज में प्रथा है वह भी इस देशावकासिक व्रत का ही रूपान्तर है । अतः यथाशक्ति उन चौदह नियमों का ग्रहण अवश्य होना चाहिये । इस नियम के पालन से महालाभ की प्राप्ति होती है, उन नियमों का विवरण निम्नोक्त है १-सचित्त - पृथ्वी, पानी, वनस्पति, सुपारी, इलायची, बादाम, धान्य, बीड़ा आदि सचित्त वस्तुओं का यथाशक्ति त्याग अथवा परिमाण करना चाहिये कि मैं इतने द्रव्य और इतने वज़न से अधिक उपयोग में नहीं लाऊंगा। २-द्रव्य-जो पदार्थ स्वाद के लिये भिन्न २ प्रकार से तैयार किये जाते हैं, उन के विषय में यह परिमाण होना चाहिये कि आज मैं इतने द्रव्यों से अधिक का उपयोग नहीं करूंगा। ३ -विगय–दूध, दही, घृत, तेल और मिठाई ये पांच सामान्य विगय हैं । इन पदार्थों का जितना भी त्याग किया जा सके उतनों का त्याग कर देना चाहिये, अवशिष्टों की मर्यादा करनी चाहिये। मधु, मक्खन ये दो विशेष विगय हैं इन का निष्कारण उपयोग करने का त्याग करना तथा सकारण उपयोग करने की मर्यादा करना । मद्य और मांस ये दो मह।विगय हैं, इन दोनों का सेवन अधर्ममूलक एवं दुर्गतिमूलक होने से सर्वथा छोड़ देना चाहिये । ४-पन्नी-पांव की रक्षा के लिये जो जूते, मोजे, खड़ाऊ, बूट, चप्पल आदि चीजें धारण की जाती हैं, उन की मर्यादा करना । ५-ताम्बूल-जो वस्तु भोजनोपरान्त मुखशुद्धि के लिये खाई जाती है, उन की गणना ताम्बूल में है। जैसे -पान, सुपारी, चूर्ण आदि इन सब की मर्यादा करना । ६-वस्त्र-पहनने, अोढ़ने के वस्त्रों की यह मर्यादा करना कि मैं अमुक जाति के अमुक वस्त्रों से अधिक वस्त्र नहीं लूगा। ७-कुसुम-फूल, इत्र (अतर), तेल तथा सुगन्धादि पदार्थों की मर्यादा करना । ८-वाहन- हाथी, घोड़ा, ऊट, गाड़ी, तांगा, मोटर, रेल, नाव, जहाज़ अादि सब वाहनों की For Private And Personal Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५९४] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय मर्यादा करना । ९-शयन-शय्या, पाट, पलंग आदि पदार्थों की मर्यादा करना। १०-विलेपन - शरीर पर लेपन किये जाने वाले केसर, चन्दन, तेल, साबुन , अंजन, मञ्जन आदि पदार्थों की मर्यादा करना। ११-ब्रह्मचर्य-स्वदारसन्तोष की मर्यादा को यथाशक्ति संकुचित करना । पुरुष का पत्नीसंसर्ग के विषय में और स्त्री का पतिसंसग के विषय में त्याग अथवा मर्यादा करना। १२-दिशा-दिक्परिमाणवत स्वीकार करते समय आवागमन के लिए मर्यादा में जो क्षेत्र जीवन भर के लिये रखा है, उस क्षेत्र का भी संकोच करना तथा मर्यादा करना । १३-स्नान-देश या सर्व स्नान के लिये मर्यादा करना । शरीर के कुछ भाग को धोना देशस्नान है तथा शरीर के सब भागों को धोना सर्वस्नान कहलाता है। १४-भत्त-भोजन, पानी के सम्बन्ध में मर्यादा करना कि मैं आज इतने प्रमाण से अधिक न खाऊंगा और न पीऊगा। कई लोग इन चौदह नियमों के साथ असि, मसि और कृषि इन तीनों को और मिलाते हैं । ये तीनों कार्य आजीविका के लिये किये जाते हैं । आजीविका के लिये जो कार्य किये जाते हैं उन में से पन्द्रह कर्मादानों का तो श्रावक को त्याग होता ही है, शेष जो कार्य रहते हैं उन के विषय में भी यथाशक्ति मर्यादा करनी चाहिये । असि आदि पदों का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है १-असि-शस्त्र-औज़ार आदि के द्वारा परिश्रम कर के अपनी आजीविका चलाना । २-मसि-कलम दवात, काग़ज़ के द्वारा लेख या गणित कला का उपयोग कर के जीवन चलाना। ३-कृषि - खेती के द्वारा या उन पदार्था के क्रयविक्रय से आजीविका चलाना। . देशावकाशिक व्रत की एक व्याख्या ऊपर दी जा चुकी है, परन्तु इस के अन्य व्याख्यान के दो और भी प्रकार मिलते हैं, जो कि निम्नोक्त हैं - (१) जिस प्रकार १४ नियमों के ग्रहण करने से स्वीकृत व्रतों से सम्बन्धित जो मर्यादा रखी गई है, उस में द्रव्य और क्षेत्र से संकोच किया जाता है, इसी प्रकार ५ अणुव्रतों में काल की मर्यादा नियत कर के एक दिन रात के लिये आसवसेवन का त्याग किया जाए, वह भी देशावकाशिक व्रत कहलाता है, जिस को आज का जैन संसार दया या छःकाया के नाम से अभिहित करता है । दया करने के लिये प्रास्रवसेवन का एक दिन रात के लिये त्याग कर के विरतिपूर्वक धर्मस्थान में रहा जाता है । ऐसी विरति त्यागपूर्ण जीवन बिताने का अभ्यासरूप है। दया उपवास कर के भी की जा सकती है। यदि उपवास करने की शक्ति न हो तो आयंबिल आदि करके भी की जा सकती है । यदि कारणवश ऐसा कोई भी तप न किया जा सके तो एक या एक से अधिक भोजन कर के भी की जा सकती है । सारांश यह है कि दया में जितना तप त्याग किया जा सके उतना ही अच्छा है। दया में किये जाने वाले प्रत्याख्यान जितने करण और योग से करना चाहें कर सकते हैं । कोई दो करण और तीन योग से ५ पासवसेवन का त्याग करते हैं । उन की प्रतिज्ञा का रूप होगा कि मैं मन, वचन और काया से ५ श्रास्रवों का सेवन न करूंगा, न दूसरे से कराऊंगा । यह प्रतिज्ञा करने वाला व्यक्ति सावद्य कार्य को स्वयं न कर सकेगा न दूसरों से करा सकेगा, परन्तु इस तरह की प्रतिज्ञा करने वाले व्यक्ति के लिए जो वस्तु बनी है, उस का उपयोग करने से उस की वह प्रतिज्ञा नहीं टूटने पाती । For Private And Personal Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [५९५ दया को एक करण तीन योग से भी धारण किया जाता है। एक करण तीन योग से ग्रहण करने वाला जो व्यक्ति अास्रव का त्याग करता है वह स्वयं अासव नहीं करेगा परन्तु दूसरों से कराता है, तथापि उस का त्याग भंग नहीं होता क्योंकि उस ने दूसरे के द्वारा प्रारम्भ कराने का त्याग नहीं किया। इसी तरह इस व्रत को स्वीकार करने के लिये जो प्रत्याख्यान किया जाता है वह एक करण और एक योग से भी हो सकता है। ऐसा प्रत्याख्यान करने वाला व्यक्ति केवल शरीर से ही प्रारम्भ के कार्य नहीं कर सकता । मन वचन से करने, कराने और अनुमोदने का उस ने त्याग नहीं किया, परन्तु यह त्याग बहुत अल्प हैं। इस में श्रास्रवों का बहत कम अंश त्यागा जाता है। (२) थोड़े समय के लिये प्रासवों के सेवन का त्याग भी -देशावकाशिक व्रत-कहलाता है, आजकल इसे सम्वर कहते हैं । सम्बर करने वाला व्यक्ति जितने थोड़े समय के लिए उसे करना चाहे कर सकता है। जैसे सामायिक के लिये कम से कम ४८ मिन्ट निश्चित होते हैं, वैसी बात सम्बर के लिये नहीं है । अर्थात् इच्छानुसार समय के लिये प्रास्तव से निवृत्त होने के लिए सम्पर किया जा सकता है। आज कल देशाव काशिक व्रत चौविहार उपवास न कर के कई लोग प्रासुक पानी का उपयोग करते हैं और इस प्रकार से किये गये देशावकाशिक व्रत को पौषध कहते हैं, परन्तु वास्तव में इस तरह का पौषध देशावकाशिकव्रत ही है । ग्यारहवें (११) व्रत का पौषध तो तब होता है जब चारों प्रकार के आहारों का पूर्णतया त्याग किया जाए और चारों प्रकार पौषधों को पूरी तरह अपनाया जाये, जो इस तरह नहीं किया जाता प्रत्युत सामान्यरूप से अपनाया जाता है उस की गणना दशमें देशावकाशिक व्रत में ही होती हैं। इस के अनुसार तप कर के पानी का उपयोग करने अथवा शरीर से लगाने, मलने रूप तेल का उपयोग करने पर दशवां व्रत ही हो सकता है, ग्यारहवां नहीं। श्रावक अहिंसा, सत्य आदि अणुव्रतों को प्रशस्त बनाने एवं उन में गुण उत्पन्न करने के लिये जो दिपरिमाणवत तथा उपभोगपरिभोगपरिमाणवत स्वीकार करता है, उस में अपनी आवश्यकता और परिस्थिति के अनुसार जो मर्यादा करता है, वे जीवन भर के लिये करता है । तात्पर्य यह है कि दिकपरिमाणवत और उपभोगपरिभोगपरिमाणवत जीवन भर के लिये ग्रहण किये जाते हैं और इसलिये इन व्रतों को ग्रहण करते समय जो छुट रखी जाती है वह भी जीवन भर के लिये होती है, परन्तु श्रावक ने व्रत लेते समय जो आवागमन के लिये क्षेत्र रखा है तथा भोगोपभोग के लिये जो पदार्थ रखे हैं उन सब का उपयोग वह प्रतिदिन नहीं कर पाता, इसलिए परिस्थिति के अनुसार कुछ समय के लिए उस मर्यादा को घटाया भी जा सकता है अर्थात् गमनागमन के मर्यादित क्षेत्र को और मर्यादित उपभोग्य परिभोग्य पदार्थों को भी कम किया जा सकता है । उन का कम कर देना ही देशावकाशिक व्रत का उद्देश्य रहा हुआ है। इस शिक्षाव्रत के आराधन से प्रारम्भ कम होगा और अहिंसा भगवती की अधिकाधिक सुखद साधना सम्पन्न होगी। अतः प्रत्येक श्रावक को देशावकाशिक व्रत के पालन से अपना भविष्य उज्ज्वल, समुज्ज्वल एवं अत्युज्ज्वल बनाने का स्तुत्य प्रयास करना चाहिये । इस के अतिरिक्त देशावकाशिक व्रत के संरक्षण के लिये निम्नोक्त ५ कार्यों का त्याग आवश्यक है १-आनयनप्रयोग-दिशाओं का संकोच करने के पश्चात् आवश्यकता उपस्थित होने पर मर्यादित भूमि से बाहिर रहे हुए पदार्थ किसी को भेज कर मंगाना । तात्पर्य यह है कि जहां तक क्षेत्र की मर्यादा की है उस से बाहिर कोई पदार्थ नहीं मंगाना चाहिये और तृष्णा का संवरण करना चाहिए। दूसरे के द्वारा मंगवाने से प्रथम तो मर्यादा का भंग होता है और दूसरे श्रावक जितना स्वयं विवेक कर सकता है उतना दूसरा नहीं कर सकेगा। २-प्रष्यप्रयोग-दिशात्रों के संकोच करने के कारण व्रती का स्वयं तो नहीं जाना परन्तु अपने को मर्यादाभंग के पाप से बचाने के विचारों से कोई वस्तु वहां पहुंचाने के लिए नौकर को भेजना । पहले भेद में आनयन प्रधान है जब कि दूसरे में प्रेषण । For Private And Personal Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय ... ३-शब्दानुपात-मर्यादा में रखी हुई भूमि के बाहिर का कोई कार्य होने पर मर्यादित भूमि में रह कर छींक आदि ऐसा शब्द करना जिस से दूसरा शब्द का आशय समझ कर उस कार्य को कर देवे। इस में शब्द की प्रधानता है। ४-- रूपानुपात-मर्यादित भूमि से बाहिर कोई कार्य उपस्थित होने पर इस तरह की शारीरिक चेष्टा करना कि जिस से दूसरा व्यक्ति आशय समझ कर उस काम को कर दे । ५.-बाह्यपुद्गलप्रक्षेप-मर्यादित भूमि से बाहिर कोई प्रयोजन होने पर दूसरे को अपना आशय समझाने के लिए ढेला, कंकर आदि पुद्गलों का प्रक्षेप करना। ३-पौषधोपवासव्रत-धम को पुष्ट करने वाला नियमविशेष धारण कर के उपवाससहित पौषधशाला में रहना पौषधोपवासवत कहलाता है। वह चार प्रकार का होता है। उन चारों के भी पुन: देश और सर्व ऐसे दो २ भेद होते हैं। उन सब का नामपूर्वक विवरण निम्नोक्त है १-श्राहारपौषध-एकासन, आयंबिल करना देश-आहारत्यागपौषध है, तथा एक दिन रात के लिए अशन, पान, खादिम तथा स्वादिम इन चारों प्रकार के आहारों का सर्वथा त्याग करना सर्व. श्राहारत्यागपौषध कहलाता है। २-शरीरपोषध-उद्वर्तन, अभ्यंगन, स्नान, अनुलेपन आदि शरीरसम्बन्धी अलंकार के साधनों में से कुछ त्यागना और कुछ न त्यागना देश-शरीरपौषध कहलाता है तथा दिन रात के लिए शरीरसम्बन्धी अलंकार के सभी साधनों का सर्वथा त्याग करना सर्व-शरीरपौषध है। ३-ब्रह्मचर्यपौषध-केवल दिन या रात्रि में मैथुन का त्याग करना देश-ब्रह्मचर्यपौषध और दिन रात के लिए सर्वथा मैथुन का त्याग कर धर्म का पोषण करना सर्व-ब्रह्मचर्यपौषध कहलाता है। ४-अव्यापारपौषध-श्राजीविका के लिए किए जाने वाले कार्यों में से कुछ का त्याग करना देश-अव्यापारपौषध और आजीविका के सभी कार्यों का दिन रात के लिए त्याग करना सर्व-अव्यापारपोषध कहलाता है। ... इन चारों प्रकार के पौषधों को देश या सर्व से ग्रहण करना ही पोषधोपवास कहलाता है। जो पौषधोपवास देश से किया जाता है वह सामायिक (सावद्यत्याग) सहित भी किया जा सकता है और सामायिक के बिना भी। जैसे-केवल आयंबिल आदि करना, शरीरसम्बन्धी अलंकार का अांशिक त्याग करना, ब्रह्मचर्य का कुछ नियम लेना या किसी व्यापार का त्याग करना परन्तु पौषध की वृत्ति धारण न करना, इस प्रकार के पौषध (त्याग) दशवें प्रत के अन्तर्गत माने गये हैं प्रत्युत ग्यारहवां व्रत तो चारों प्रकार के आहारों का सवथा त्याग सामायिकपूर्ण दिन रात के लिए करने से होता है, उसे ही प्रतिपूर्ण पौषध कहते हैं । प्रतिपूर्ण पौषध का अर्थ संक्षेप में - आठ प्रहर के लिए चारों श्राहार, मणि, सुवर्ण तथा आभूषण, पुष्पमाला, सुगन्धित चूण आदि तथा सकल सावध व्यापारों को छोड़ कर धर्मस्थान में रहना और धर्मध्यान में लीन हो कर शुभ भावों के साथ उक्त काल को व्यतीत करना-ऐसे किया जा सकता है। ___ प्रतिपूर्ण पौषधव्रत के पालक की स्थिति साधुजीवन जैसी होती है । इसीलिए उस में कुरता, कमीज, कोट, पतलून आदि गृहस्थोचित वस्त्र नहीं पहने जाते । पलंग आदि पर सोया नहीं जाता और स्नान भी किया नहीं जाता, प्रत्युत कमीज़ आदि सब उतार कर शुद्ध धोतो आदि पहन कर मुख पर मुखवस्त्रका लगा कर तथा सांसारिक प्रपंचों से सर्वथा अलग रह कर साधु जीवन की भान्ति एकान्त में स्वाध्याय, ध्यान तथा आत्मचिन्तन आदि करते हुए जीवन को पवित्र बनाना हो इस व्रत का प्रवान उद्देश्य रहता है। इस के For Private And Personal Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । अतिरिक्त पौषधोपवासव्रत के संरक्षण के लिए निम्नोक्त ५ कार्यों को अवश्य त्याग देना चाहिए १ - पौषध के समय काम में लिये जाने वाले पाट, बिछौना, आसन आदि की प्रतिलेखना (निरीक्षण) न करना । अथवा मन लगा कर प्रतिलेखना की विधि के अनुसार प्रतिलेखना नहीं करना तथा प्रतिलेखित पाट का काम में लाना । २ – पौषध के समय काम में लिये जाने वाले पाट, आसन आदि का पारमाजन न करना । अथवा विधि से रहित परिमार्जन करना । प्रतिलेखन और परिमार्जन में इतना ही अन्तर होता है कि प्रतिलेखन तो दृष्टि द्वारा किया जाता है, जबकि परिमाजन रजोहरणी - पूजनी या रजोहरण द्वारा हुआ करता है, तथा प्रतिलेखन केवल प्रकाश में ही होता है, जबकि परिमार्जन रात्रि को भी हो सकता है । तात्पर्य यह है कि कल्पना करो दिन में पाट का निरीक्षण हो रहा है । किसी जीव जन्तु के वहां दृष्टिगोचर होने पर रजोहरणी आदि से उसे यतनापूर्वक दूर कर देना, इस प्रकार प्रकाश में प्रतिलेखन तथा परिमार्जन होता है परन्तु रात्रि में अंधकार के कारण कुछ दीखता नहीं तो यतनापूर्वक रजोहरणादि से स्थान को यतनापूर्वक परिमार्जन करना अर्थात् वहां से जीवादि को अलग करना । यही परिमार्जन और प्रतिलेखन में भिन्नता है । [ ५९७ ३ - शरीर चिन्ता से निवृत्त होने के लिये त्यागे जाने वाले पदार्थों को त्यागने के स्थान की प्रतिलेखना न करना । श्रथवा उस की भलीमान्ति प्रतिलेखना न करना । ४ - मल, मूत्रादि गिराने की भूमि का परिमार्जन न करना, यदि किया भी है तो भली प्रकार से नहीं किया गया । ५ - पौषधोपवासव्रत का सम्यक् प्रकार से उपयोगसहित पालन न करना अर्थात् पौध में आहार, शरीरशुश्रूषा मैथुन तथा सावद्य व्यापार की कामना करना । - ४ - अतिथिसंविभागवत जिस के आने का कोई समय नियत नहीं है जो बिना सूचना दिये, अनायास ही आ जाता है उसे अतिथि कहते हैं । ऐसे अतिथि का सत्कार करने के लिये भोजन आदि पदार्थों में विभाग करना अतिथिसंविभाग व्रत कहलाता है । अथवा — जो श्रात्मज्योति को जगाने के लिये सांसारिक खटपट का त्याग कर संयम का पालन करते हैं, सन्तोषवृत्ति को धारण करते हैं, उन को जीवननिर्वाह के लिये अपने वास्ते तैयार किये गये १ - अशन, २ -- पान, ३ खादिम ४- स्वादिम, ५ - वस्त्र, ६ – पात्र, ७ - कम्बल (जो शीत से रक्षा करने वाला होता है), ८-- पादप्रोछन (रजोहरण तथा रजोहरणी, ९ पीठ (बैठने के काम आने वाले पाठ आदि), १० फक (सोने के काम आने वाले लम्बे २ पाट), ११ - शय्या ( ठहरने के लिये घर), १२ -- संधार (बिछाने के लिये घास आदि), १३ औषध (जो एक चीज़ को पीस कर बनाई जात्रे ) र १४ - भोजन (जो अनेकों के सम्मिश्रण से बनी है) ये चौदह प्रकार के पदार्थ निष्काम बुद्धि के साथ आत्मकल्याण को भावना से देना तथा दान का संयोग न भावना बनाये रखना अतिथिस विभागवत कहलाता है । कूट या मिलने पर भी सदा ऐसी For Private And Personal भर्तृहरि ने धन की दान भोग और नाश ये तीन गतिएं मानी हैं । अर्थात् धन दान देने से जाता हैं, भोगों में लगाने से जाता है या नष्ट हो जाता है। जो धन न दान में दिया गया और न भोगों में लगाया गय उस की तीसरी गति होती है अर्थात् वह नष्ट हो जाता है । तात्पर्य यह है कि धन ने जब एक दिन नष्ट हो ही जाना है तो दान के द्वारा क्यों न उस का सदुपयोग कर लिया जाये १ इस का अधिक संग्रह करना किसी भी दृष्टि से हितावह नहीं है | अधिक बढ़े हुए धन को नख की उपमा दी जा सकती है। बढ़ा हुआ नख अपने तथा दूसरे के शरीर पर जहां भी लगेगा वहीं घाव ही करेगा, इसी प्रकार अधिक बढ़ा हुआ धन अपने को तथा अपने Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५९८] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय आसपास के दूसरे साथियों को तंग ही करता है, अशान्ति ही बढ़ाता है। इसलिये बुद्धिमान् बढ़े हुए नाखून को जैसे यथावसर काटता रहता है, इसी भान्ति धन को भी मनुष्य यथावसर दानादि के शुभ कार्यों में लगाता रहे। जैनधर्म धनपरिमाण में धर्म बताता है और उस परिमित धन में से भी नियंप्रति यथाशक्ति दान देने का विधान करता है । जिस का स्पष्ट प्रमाण श्रावक के बारह व्रतों में बाहरवां तथा शिक्षाबतों में से चौथा अतिथिसंविभागवत है । जो व्यक्ति जैनधर्म के इस परम पवित्र उपदेश को जीवनांगी बनाता है वह सर्वत्र सुखी होता है। इस के अतिरिक्त अतिथिसंविभागवत के संरक्षण के लिए निम्नोक्त ५ कार्यों का त्याग कर देना चाहिये : १-सचित्तनिक्षेपन-जो पदार्थ अचित्त होने के कारण मुनि महात्माओं के लेने योग्य हैं उन अचित्त पदार्थों में सचित्त पदार्थ मिला देना । अथवा अचित्त पदार्थों के निकट सचित्त पदार्थ रख देना। २-सचित्तपिधान-साधुत्रों के लेने योग्य अचित्त पदार्थों के ऊपर सचित्त पदार्थ ढांक देना, अर्थात् श्रचित्त पदार्थ को सचित्त पदार्थ से ढक देना। ३-कालातिक्रम - जिस वस्तु के देने का जो समय है वह समय टाल देना । काल का अतिक्रम होने पर यह सोच कर दान में उद्यत होना कि अब साधु जो तो लेंगे ही नहीं पर वह यह जानेंगे कि यह श्रावक बड़ा दातार है।। ४-परव्यपदेश -वस्तु न देनी पड़े, इस उद्देश्य से वस्तु को दूसरे की बताना । अथवा दिये गये दान के विषय में यह संकल्प करना कि इस दान का फल मेरे माता, पिता, भाई श्रादि को मिले । अथवा वस्तु शुद्ध है तथा दाता भी शुद्ध है परन्तु स्वयं न देकर दूसरे को दान के लिये कहना । ५-मात्सर्य-दूसरे को दान देते देख कर उस की ईर्षा से दान देना, अर्थात् यह बताने के लिये दान देना कि मैं उस से कम थोड़े हूं, किन्तु बढ कर हूं, । अथवा मांगने पर कुपित होना और होते हुए भी न देना । अथवा कषायकलुषित चित्त से साधु को दान देना। श्रावक जो व्रत अंगीकार करता है वो सर्व से अर्थात् पूर्णरूप से नहीं किन्तु देश-अपूर्णरूप से स्वीकार करता है । इसलिये श्रावक की अांशिक त्यागबुद्धि को प्रोत्साहन मिलना आवश्यक है । पांचों अणुव्रतों को प्रोत्साहन मिलता रहे इस लिये तीन गुणवतों का विधान किया गया है। उन के स्वीकार करने से बहुत सी आवश्यकताएं सीमित हो जाती हैं। उन का संवद्धन रुक जाता है। बहुत से आवश्यक पदार्थों का त्याग कर के नियमित पदार्थों का उपभोग किया जाता है. परन्तु यह वृत्ति तभी स्थिर रह सकती है जब कि साधक में आत्मजागरण की लग्न हो तथा आत्मानात्मवस्तु का विवेक हो । एतदर्थ बाको के चार शिक्षाव्रतों का विधान किया गया है । आत्मा को सजा रखने के लिये उक्त चारों ही व्रत एक सुयोग्य शिक्षक का काम देते हैं । इसलिये इन चारों का जितना अधिक पालन हो उतना ही अधिक प्रभाव पूर्व के व्रतों पर पड़ता है और वे उतने ही विशुद्ध अथच विशुद्धतर होते जाते हैं । सारांश यह है कि श्रावक के मूलवत पांच हैं, उन में विशेषता लाने के लिये गुणव्रत और गुणव्रतों में विशेषता प्रतिष्ठित करने के लिये शिक्षावत है. कारण यह है कि अणुव्रती को गृहस्थ होने के नाते गृहस्थसम्बन्धी सब कुछ करना पड़ता है । संभव है उसे सामायिक श्रादि करने का समय ही न मिले तो उस का यह अर्थ नहीं होता कि उस का गृहस्थधर्म नष्ट हो गया। गृहस्थधर्म का विलोप तो पांचों अणुव्रतों के भंग करने से होगा, वैसे नहीं। सो पांचों अणव नों की पोषणा बराबर होती रहे । इसीलिये तीन गुणव्रत और चार शिक्षाबत प्राचार्यों ने संकलित किये हैं। वे सातों व्रत भी नितान्त उपयोगी हैं । इसी दृष्टि से अणुव्रतों के साथ इन को परिगणित किया गया है। For Private And Personal Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय) हिन्दी भाषा टीका सहित । -समणे भगवं०-यहां का बिन्दु- महावीरं श्राइगरं- इत्यादि पदों का परिचायक है । इन पदों का अर्थ ५४३ से ले कर ५४८ तक के पृष्ठों पर लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद तृतीयान्त हैं जबकि प्रस्तुत में द्वितीयान्त । विभक्तिगत विभिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है । - जहा कूणिए-यथा कूणिकः- इस का तात्पर्य यह है कि जिस तरह चम्पा नामक नगरी से महाराज कूणिक बड़ी सजधज के साथ भगवान् को वन्दना करने के लिये गये थे, उसी भान्ति महाराज अदीनशत्रु भी हरिशीर्ष नगर से बड़े समारोह के साथ भगवान् को वन्दना करने के लिये गये। चम्पानरेश कूणिक के गमनसमारोह का वर्णन श्री औषपातिक सूत्र में किया गया है, पाठकों की जानकारी के लिये उस सारांश नीचे दिया जाता है श्रेणिकपुत्र महाराज कूणिक मगधदेश के स्वामी थे । चम्पानगरी उन की राजधानी थी। एक बार अाप को एक सन्देशवाहक ने आकर यह समाचार दिया कि जिन के दर्शनों की अाप को सदैव इच्छा बनी रहती है, वे श्रमण भगवान् महावीर स्वामी चम्पानगरी के बाहिर उद्यान में पधार गये हैं। चम्पानरेश इस सन्देश को सुन कर पुलकित हो उठे । सन्देशवाहक को पर्याप्त पारितोषिक देने के अनंतर स्नानादि से निवृत्त हो तथा वस्त्रालंकारादि से अलंकृत हो कर वे अपने सभास्थान में आये, वहां आकर उन्हों ने सेनानायक को बुलाया और उस से कहा कि हे भद्र ! प्रधान हाथी को तैयार करो तथा घोड़ों, हाथियों रथों और उत्तम योद्धाओं वाली चतुरगिणी सेना को सुसज्जित करो। सुभद्राप्रमुख रानियों के लिये भी यान आदि बिल्कुल तैयार करके बाहिर पहुंचा दो और चम्पानगरी को हरतरह से स्वच्छ एवं निर्मल बना डालो । जल्दी जाओ और अभी मेरी इस आज्ञा का पालन करके मुझे सूचित करो। इस के पश्चात् सेनानायक ने राजा की इस श्राज्ञा का पालन कर के उन्हें संसूचित किया । चम्पानरेश अपनी आज्ञा के पालन की बात जान कर बड़े प्रसन्न हुए। तदनन्तर महाराज कूणिक व्यायामशाला में गये । वहां पर नाना विधियों से व्यायाम करने के अनन्तर शतपाक और सहस्रपाक आदि सुगन्धित तेलों के द्वारा उन्हों ने अस्थि, मांस, त्वचा और रोमों को सुख पहुं वाने वाली मालिश कराई । तदनन्तर स्नानगृह में प्रवेश किया और वहां स्नान करने के पश्चात् उन्हों ने स्वच्छ वस्त्रों और उत्तमोत्तम आभूषणों को धारण किया । तदनन्तर गणनायक-गण का मुखिया, दण्डनायक -कोतवाल, राजा-मांडलिक ( किसी प्रदेश का स्वामी), ईश्वर-युवराज, तलवर - राजा ने प्रसन्न होकर जो पट्टबन्ध दिया है उस से विभूषित, माडम्बक - मडम्ब (जो वस्ती भिन्न २ हो ) के नायक, कौटुम्बिक -कुटुम्बों के स्वामी, मन्त्री - बजार, महामन्त्री--प्रधानमंत्री, ज्योतिषी- ज्योतिष विद्या के जानने वाले, दौवारिक - प्रतिहारी (पहरेदार), अमात्य-राजा की सारसंभाल करने वाला, चेट - दास, पीठमर्द -अत्यन्त निकट रहने वाला सेवक अथच मित्र, नगर-नागरिक लोग, निगम-व्यापारी, श्रेष्ठी- मेठ, सेनापति- सेना का स्वामी, सार्थवाह -- यात्री व्यापारियों का मुखिया, दूतराजा का श्रादेश पहुंचाने वाला, सन्धिपाल - राज्य की सीमा का रक्षक-इन सब से सम्परिवृत -घिरे हुए चम्पानरेश कूणिक उपस्थानशाला -सभामंडप में आकर हस्तिरत्न पर सवार हो गये। जिस हाथी पर चम्पानरेश बैठे हुए थे उस के आगे आगे-१-स्वस्तिक, २-श्रीवत्स, ३-नन्दावर्त, ४-वर्धमानक, ५-भद्रासन, ६-कलश-घड़ा, ७-मत्स्य,८-दर्पण - ये आठ मांगलिक पदार्थ ले जाए जा रहे थे । हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना यह चतुरङ्गिपी सेना उन के साथ थी. तथा उन के साथ ऐसे बहुत से पुरुष चल रहे थे जिन के हाथों में लाठियां, भाले. धनुष, चामर, पशुओं को बांधने की रज्जुएं, पुस्तके, फलके -ढालें, अासनविशेष, वीणाएं, आभूषण रखने के डिब्बे अथवा ताम्बूल आदि रखने के डिब्बे थे । For Private And Personal Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६०.] श्री विपाकसू त्रीय द्वितीय श्रुतस्वन्ध [प्रमथ अध्याय तथा बहुत से दण्डी-दण्ड धारण करने वाले, मुण्डी मुण्डन कराये हुए, शिस्त्रण्डी . चोटी रखे हुए, जटीजटाओं वाले, पिंछी- मयूरपंख लिये हुए, हासकर - उपहास (दु:खद हंसी) करने वा ने, डमरकर-लड़ाई झगड़ा करने वाले, चाटुकर-प्रिय वचन बोलने वाले, वादकर - वाद करने वाले, कन्दपकर – कौतूहल करने वाले. दवकर - परिहास ( सुखद हंसी) करने वाले, भाण्डचेष्टा करने वाले अर्थात् मसखरे, कीर्तिकर - कीति करने वाले. ये सब लोग कविता आदि पढ़ते हुर, गीतादि गाने हुए, हसते हुए नाचते हुए, बोलते हुए और भविष्यसम्बन्धी बातें करते हुए, अथवा राजा आदि का अनिष्ट करने वालों को बुरा भला कहते हुए, राजा आदि की रक्षा करते हुए, उन का अवलोकन देखमाल करते हुए, " - महाराज की जय हो, महाराज की जय हो " इस प्रकार शब्द बोलते हुए, यथाक्रम चम्पानरेरा कूणिक की सवारी के आगे २ चल रहे थे । इस के अतिरिक्त नाना प्रकार की वेशभूषा और शस्त्रादि से सुसज्जित नानाविध हाथी और घोड़े दर्शन -यात्रा की शोभा को चार चांद लगा रहे थे। वक्षःस्थल पर बहुत से सुन्दर हारों को धारण करने वाले, कुण्डलों से उद्दीप्त-प्रकाशमान मुख वाले, सिर पर मुकुट धारण करने वाले, अत्यधिक राजतेज की लक्ष्मी से दीप्यमान अर्थात् चमकते हुए चम्पानरेश कुणक पूर्णभद्र नामक उद्यान की ओर प्रस्थित हुए, जिन के ऊपर छत्र किया हुआ था तथा दोनों ओर जिन पर चमर ढुलाए जारहे थे एवं चतुरङ्गिणी सेना जिन का मार्गप्रदर्शन कर रही थी। तथा सर्वप्रकार की ऋद्धि से युक्त, समस्त अाभरणादिरूप लक्ष्मी से युक्त, सवप्रकार की युति-सकल वस्त्राभूषणादि की प्रभा मे युक्त, सर्व प्रकार के बल - सैन्य से युक्त, सर्वप्रकार के समुदाय - नागरिकों के और राजपरिवार के समुदाय से युक्त, सर्व प्रकार के श्रादर - उचित कार्यों के सम्पादन से युक्त, सर्व प्रकार की विभूति - ऐश्वर्य से युक्त, सर्वप्रकार की विभषावेषादिजन्य शोभा से युक्त, सर्वप्रकार के संभ्रम - भक्तिजन्य उत्सुकता से युक्त, सवेपुष्पों, गन्धों सुगन्धित पदार्थों, मालाओं और अलंकारों - भूषणों से युक्त इसी प्रकार 'महान् ऋद्धि आदि से युक्त चम्पानरेश कुणिक शंख, पटह आदि अनेकविध वादित्रों-बाजों के साथ महान् समारोह के साथ चम्पानगरी के मध्य में से हो कर निकले । इन के सन्मख दासपुरुषों ने भृगार - झारी उठा रखी थी, इन्हें उपलक्ष्य कर के दासपुरुषों ने पंखा उठा रखा था, इन के ऊपर श्वेत छत्र किया हुआ था तथा इन के ऊपर छोटे २ चमर ढलाये जा रहे थे। जब चम्पानरेश चम्पानगरी के मध्य में से हो कर निकल रहे थे तब बहुत से अर्थार्थी -धन की कामना रखने वाले. भोगार्थी-भोग ( मनोज्ञ गन्ध, रस और स्पश । को कामना करने वाले, किल्विषिक-दूसरों को नकल करने वाले. नकलिए. कारोटिक - भितुविशेष अथवा पान दान को उठाने वाले, लाभार्थी-धनादि के लाभ की इच्छा रखने वाले, कारवाहिक - महसूल से पीडित हुए, शंखिक -चन्दन से युक्त शंखों को हाथों में लिए हुए, चक्रिक - चक्राकार शस्त्र को धारण करने वाले, अथवा कुम्भकार -कुम्हार और तैलिक --तेली आदि, नङ्गलिक - किसान, मुखमाङ्गलिक-प्रिय वचन बोलने वाले, वर्धमान -स्कन्धों पर उठाए पुरुष, पूष्यमानवस्तुतिपाठक, छात्र समुदाय ये सब २इष्ट कान्त, प्रिय, मनांज्ञ, मनोऽम, मनोअभिराम और हृदयगमनीय वचनों द्वारा, "--महाराज की जय हो, विजय हो -" इस प्रकार के सैंकड़ो मगल वचनों के द्वारा निरन्तर अभिनन्दनसराहना तथा स्तुति करते हुए इस प्रकार बोलते हैं : (१) प्रस्तुत में सब प्रकार का ऋद्ध से युक्त आदि विरोषण कार दिये ही जा चुके हैं। फिर महान् ऋद्धि से युक्त श्रादि विशेषणों की क्या आवश्यकता है ?, यह प्रश्न उपस्थित होता है । उस का उत्तर प्रष्ठ ५०८ तथा ५०९ की टिप्पण में दिया जा चुका है। (२) इष्ट, कान्त, प्रिय आदि पदों की व्याख्या पृष्ठ ४८९ पर की जा चुकी है। For Private And Personal Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित। [६०१ हे समृद्धिशाली महाराज ! तुम्हारी जय हो, हे कल्याण करने वाले महाराज ! तुम्हारी विजय हो. आप फूल और फलें । न जीते हुए शत्रुओं पर विजय प्राप्त करें, जो जीते हुए हैं उन का पालन पोषण करें और सदा जीते हुओं के मध्य में निवास करें। देवों में इन्द्र के समान, असुरों में चमरेन्द्र के समान, नागों में धरणेन्द्र के समान, ताराओं में चन्द्रमा के समान, मनुष्यों में भरत चक्रवर्ती के समान बहुत से वर्षों, बहुत से सेंकड़ों वर्षों, बहुत से हजार वर्षों, बहुत से लाखों वर्षों तक निर्दोष परिवार आदि से परिपूर्ण और अत्यन्त प्रसन्न रहते हुए श्राप उत्कृष्ट आयु का उपभोग करें, इष्ट जनों से सम्परिवृत होते हुए चम्पानगरी का तथा अन्य बहुत से ग्रामों - गांवों. श्राकरों- खानों, नगरों-शहरों, खेटो ( जिस का कोट मिट्टी का बना हुआ हो उसे खेट कहते हैं ), कर्वटोंछोटी बस्ती के स्थानों, मडम्बों-भिन्न २ बस्ती वाले स्थानों, द्रोणमुखों-जल और स्थल के मार्ग से युक्त नगरों, पत्तनों-केवल जल के अथवा स्थल के मार्ग वाले नगरों, आश्रमों-तापस आदि के स्थानों, निगमों-व्यापारियों के नगरों, संवाहों-दुर्गविशेषों जहां किसान लोग सुरक्षा के लिये धान्यादि रखते हैं, सन्निवेशों-नगर के बाहिर के प्रदेशों, जहां प्रामीर-दूध बेचने वाले लोग रहते हैं अथवा यात्रियों के पड़ाव, इन सब का आधिपत्य,' अग्रेसरत्व, भतृत्व, स्वामित्व, महत्तरकत्व, आशेश्वरसैनापत्य कराते हुए अथवा स्वयं करते हुए आप बहुत से नाटकों, गीतों, वादित्रों, वीणाओं, तालियों और मेत्र जैसी आवास करने वाले तथा चतुर पुरुषों के द्वारा बजाये गये मृदङ्गों के शब्दों के साथ विशाल भोगों का उपभोग करते हुए विहरण करेंइस प्रकार से कहने के साथ २ "- आप की जय हो, विजय हो-" ऐसे शब्द बोलते थे। इस के अनन्तर हज़ारों नेत्रमालाओं - नयनपंक्तियों के द्वारा अवलोकित, हज़ारों हृदयमालाओं के द्वारा अभिनन्दित-प्रशंसित, हज़ारों मनोरथमालाओं के द्वारा अभिलषित, हज़ारों व वनमालात्रों के द्वारा अभिस्तुत श्राप कान्ति और सौभाग्य रूप गुणों को प्राप्त करें। इस भाँति प्रार्थित, हज़ारों नरनारियों की हजारों अंजलिमालाओं को दाहिने हाथ से स्वीकार करते हुए, अति मनोहर वचनों के द्वारा नागरिकों से क्षेम कुशल आदि पूछते हुए, हज़ारों भवनपंक्तियों को लांघते हुए श्रेणिकपुत्र चम्पानरेश कुणिक चम्पानगरी के मध्य में से निकलते हुए जहां पर पूर्णभद्र उद्यान था, वहां पर पाए, आ कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के योड़ी दूर रहने पर छत्रादिरूप तीर्थंकरों के अतिशय (तीर्थ करनामकर्मजन्य विशेषताए) देख कर प्रधान हाथी को ठहरा कर नीचे उतरते हैं और १-- खड्ग-तलवार, २-छत्र, ३-मुकु, ४ -उपानत्-जूता, तथा ५-चमर, इन पांच राजचिह्नों को छोडते हैं, तथा जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे वहां पर पांच प्रकार के अभिगमोर के द्वारा उन के सन्मुख उपस्थित होते हैं । तदनन्तर भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक वन्दना तथा नमस्कार करते हैं, तदनन्तर कायिक, वाचिक और मानसिक उपासना के द्वारा भगवान् महावीर स्वामी की पयुपासना - भक्ति करते हैं, यह है चम्पानरेश कूणिक का दर्शनयात्रावृत्तान्त जो कि श्री औपपातिक सूत्र में बड़े विस्तार के साथ वर्णित हुआ है । प्रस्तुत में इतनी ही भिन्नता है कि वहां हस्तिशीषनरेश महाराज अदीन रात्रु पुष्पकरएडक उद्यान में जाते हैं । नगर, राजा, रानी तथा उद्यानगत भिन्नता के अतिरिक्त अवशिष्ट प्रभुवीर दर्शन यात्रा का वृत्तान्त समान है अर्थात् श्री औपपातिक सूत्र में चम्पानगरी, श्रोणिकपुत्र महाराज कूणिक, सुभद्राप्रमुख रानियां और पूर्णभद्र उद्यान का वर्णन है, जबकि सुबाहुकुमार के इस अध्ययन में हस्तिशीर्ष नगर, महाराज अदीनशत्रु, धारिणीप्रमुख रानियाँ पुष्पकरण्डक उद्यान का उल्लेख है। (१) आधिपत्य आदि शब्दों का अर्थ पृष्ठ १९८ पर लिखा जा चुका है। (२) पांच अभिगमों का तथा (३) तीन उपासनाओं का अर्थ पृष्ठ २९ पर लिखा जा चुका है। For Private And Personal Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम अध्याय तथा "-सुबाहू वि जहा जमाली तहा रहेणं णिग्गते जाव-' इस का तात्पर्य वृत्तिकार के शब्दों में "-येन भगवतीवर्णितप्रकारेण जमाली भगवभागिनेयो भगवद्वन्दनाय रथेन निर्गतः, अयमपि तेनैव प्रकारेण निर्गत इति, इह यावत्करणादिदं दृश्यं -समणस्त भगवो महावीरस्स छत्ताइच्छत्त पडागाइपडागं विज्जाचारणे जंभए य देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे य पासति, पासित्ता रहातो पच्चारुहति पच्चारहित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ -" इत्यादि, इस प्रकार है। अर्थात्भगवान् के भागिनेय-भानजा जमालि का भगवान् को वन्दना करने के लिए चार घंटों वाले रथ पर सवार हो कर जाने का जैसा वर्णन भगवती सूत्र में किया गया है, ठीक उसी तरह सुबाहुकुमार भी चार घंटों वाले रथ पर सवार हो कर भगवद्वन्दनार्थ नगर से निकला । इस अर्थ के परिचायक-सुबाहू वि जहा जमाला तहा रहेणं णिग्गते-ये शब्द हैं और जाव-यावत् शब्द - श्रमण भगवान् महावीर के छत्र के ऊपर के छत्र को, पताका के ऊपर की पताकाओं को देख कर विद्याचारण और जभक देवों को ऊपर नीचे जाते आते देख कर रथ से नीचे उतरा और उतर कर भगवान् को भावपूर्वक वन्दना नमस्कार किया, इत्यादि भावों का परिचायक है । तात्पर्य यह है कि भगवद्वन्दनार्थ सुबाहुकुमार उसी भाँति गया जिस तरह जमालि गया था । जमालि के जाने का सविस्तर वर्णन भगवती सूत्र (शतक है, उद्दे० ३३, सू० ३८३) में किया गया है, परन्तु प्रकरणानुसारी जमालि का संक्षिप्त जीवनपरिचय निम्नोक है ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर के पश्रिम में क्षत्रियकुण्डग्राम एक नगर था । वह नगर नगरोचित भी ऋद्धि, समृद्धि श्रादि गुणों से परिपूर्ण था। उस नगर में जमालि नामक क्षत्रियकुमार रहता था । वह धनी, दीप्त-तेजस्वी यावत् किसी से पराभव को प्राप्त न होने वाला था। एक दिन वह अपने उत्तम महल के ऊपर जिस में कि मृदंग बज रहे थे, बैठा हुआ था। सुन्दर युवतियों के द्वारा आयोजित बत्तीस प्रकार के नाटकों द्वारा उस का नर्तन कराया जा रहा था अर्थात् वह नचाया जा रहा था, उस की स्तुति की जा रही थी, उसे अत्यन्त प्रसन्न किया जा रहा था, अपने वैभव के अनुसार प्रावृट्', वर्षा, शरद, हेमन्त, वसन्त और ग्रीष्म इन छः ऋतुओं के सुख का अनुभव करता हुआ, समय व्यतीत करता हुआ, मनुष्यसम्बन्धी पांच प्रकार के इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध रूप कामभोगों का अनुभव कर रहा था। ___इधर क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के शृङ्गाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख-चार द्वारों वाला प्रासाद अथवा देवकुलादि, महापथ और अपथ इन सब स्थानों पर महान् जनशब्द-परस्पर अालापादि रूप, जनव्यूहजनसमूह, जनबोल-मनुष्यों की ध्वनि - अव्यक्त शब्द, जनकलकल-मनुष्यों के कलकल- व्यक्त शब्द, जनोर्मिलोगों की भीड़, जनोत्कलिका-मनुष्यों का छोटा समुदाय, जनसन्निपात (दूसरे स्थानों से आकर लोगों का एक स्थान पर एकत्रित होना) हो रहे थे, और बहुत से लोग एक दूसरे को सामान्यरूप से कह रहे थे कि भद्रपुरुषो ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी जो कि धर्म की आदि करने वाले हैं. यावत् सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी हैं, ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर के बाहिर बहुशालक नामक उद्यान में यथाकल्प-कल्प के अनुसार विराजमान हो रहे हैं। हे भद्रपुरुषो ! जिन तथारूप - महाफल को उत्पन्न करने के स्वाभाव वाले, अरिहन्तो भगवन्तों के नाम और गोत्र के सनने से भी महाफल की प्राप्ति होती है, तब उन के अभिगमन -सन्मुख गमन, वन्दन-स्तुति नमस्कार, प्रतिप्रच्छन-शरीरादि की सुखसाता पूछना और पयुपासना-सेवा से तो कहना ही क्या ? अर्थात् अभिगमनादि का फल कल्पना की परिधि से बाहिर है । इसके अतिरिक्त जब एक भी आर्य और धार्मिक सुवचन (१) प्रावृट आदि शब्दों का अर्थ पृष्ठ ५११ पर लिख दिया गया है । (२) शृंगाटक आदि शब्दों का अर्थ पृष्ठ ६९ पर लिखा जा चुका है। For Private And Personal Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [६०३ के श्रवण से महान् फल होता है, तब विशाल अर्थ के ग्रहण करने से तो कहना ही क्या ? अर्थात् उस का वर्णन करना शक्य नहीं है । इसलिये हे भद्रपुरुषो ! चलो, और हम सब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की स्तुति करें, उन्हें नमस्कार तथा उन का सत्कार एवं सम्मान करें। भगवान् कल्याण करने वाले हैं, मंगल करने वाले हैं, आराध्य देव है, ज्ञानस्वरूप है, अत: इन की सेवा करें । भगवान् को की हुई वन्दना श्रादि हमारे लिये परलोक और इस लोक में हितकारी, सुखकारी, क्षेमकारी, मोक्षप्रद होने के साथ २ सदा के लिये जीवन को सुखी बनाने वाली होगी । इस प्रकार बातें करते हुए बहुत से उग्र- प्राचीन काल के क्षत्रियों की एक जाति जिस की भगवान् श्री ऋषभदेव ने श्रारक्षक पद पर नियुक्ति की थी, उग्रपुत्र- उग्रक्षत्रियकुमार, भोग-श्री ऋषभदेव प्रभु द्वारा गुरुस्थान पर स्थापित कुल, भोगपुत्र, राजन्य-भगवान श्री ऋषभ प्रभु द्वारा मित्रस्थान पर स्थापित वंश, राजन्यपुत्र, क्षत्रिय, क्षत्रियपुत्र, ब्राह्मण, ब्राह्मणपुत्र. भट-शूरवीर, भटपुत्र, योधा-सैनिक, योधपुत्र, प्रशास्ता-धर्मशास्त्र के पढ़ने या पढ़ाने वाला, प्रशास्तूपुत्र, मल्लकी-नृपविशेष, मल्लकिपुत्र, लेच्छकि-नृपविशेष, लेच्छकिपुत्र, इन सब के अतिरिक्त और बहुत से राजा, ईश्वर-युवराज, तलवर-परितुष्ट राजा से दिये गये पट्टवन्ध से विभूषित नृप, माडम्बिक-मडम्ब (जिस के चारों ओर एक योजन तक कोई ग्राम न हो) का स्वामी, कौटुम्बिक-कई एक कुटुम्बों का स्वामी, इभ्य-बहुत धनी, श्रेष्ठी-सेठ,सेनापतिसेनानायक; सार्थवाह - संघनायक आदि इन में कई एक भगवान् को वन्दना करने के लिये, कई एक पूजन-आदर, सत्कार, सम्मान, दशन, कौतुहल के लिये, कई एक पदार्थों का निर्णय करने के लिये, कई एक अश्रत पदार्थों के श्रवण और श्रुत के सन्देहापहार के लिये, कई एक जीवादि पदार्थों को अन्वयव्यतिरेकयुक्त हेतुओं, कारणों, व्याकरणों अर्थात् दूसरे के प्रश्नों के उत्तरो को पूछने के लिये, कई एक दीक्षित होने के लिए, कई एक श्रावक के १२ व्रत धारण करने के लिये, कई एक तीर्थकरों की भक्ति के अनुराग से, कई एक अपनी कुलपरम्परा के कारण वहां जाने के लिये स्नानादि कार्यों से निवृत्त हो तथा अनेकानेक वस्त्राभूषणों से विभूषित हो, कई एक घोड़ों पर सवार हो कर, इसी भाँति कई एक हाथी, रथ, शिविका - पालकी पर सवार हो कर तथा कई एक पैदल ही इस प्रकार उग्रादि पुरुषों के झुण्ड के मुण्डों नाना प्रकार के शब्द तथा अत्यधिक कोलाहल करते हुए क्षत्रिय - कुण्डग्राम नामक नगर के मध्य में से निकलते हैं, निकल कर जहां ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर था और जहां बहुशालक नामक उद्यान था, वहां पहुंचे और भगवान् के छत्रादि रूप अतिशयों को देख कर अपने २ वाहन से नीचे उतरे और भगवान् के चरणों में उपस्थित हुए, वहां वन्दना, नमस्कार करने के पश्चात् यथास्थान बैठ कर भगवान की पर्युपासना करने लगे। अपने महल में प्रानन्दोपभोग करते हुए जमालि ने जब यह कोलाहलमय वातावरण जाना तब उस के हृदय में यह इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुअा कि आज क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर में क्या इन्द्र का महोत्सव है १ अथवा स्कन्द-कार्तिकेय, मुकुन्द-वासुदेव अथवा बलदेव, नाग, यक्ष, भूत, कूप, तडाग, नदी, हृद. पर्वत, वृक्ष, चैत्य अथवा स्तूप का महोत्सव है , जो ये बहुत से उग्रवंशीय, भोगवंशीय आदि लोग स्नान, वस्त्राभूषणादि द्वारा विभूषा किये हुए तथा नाना प्रकार के वाहनों पर आरूढ़ हुए २ एवं अनेकानेक शब्द बोलते हुए क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर के मध्य में से निकल रहे हैं। इस प्रकार विचार कर उस ने द्वारपाल को बुलाया और उसे बोला कि हे भद्र पुरुष ! आज क्या बात है ?, जो अपने नगर में या कोलाहल हो रहा है ?, क्या आज कोई उत्सव है ? जमालि के इस प्रश्न के उत्तर में वह बोला कि महाराज ! उत्सवविशेष तो कोई नहीं है किन्तु नगर के बाहिर बहुशालक नामक उद्यान में श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे हुए हैं । ये लोग उन्हीं के चरणों में अपनी २ भावमा के अनुसार उपस्थित होने के लिए जा रहे हैं। द्वारपाल की इस बात को सुन कर जमालि पुलकित हो उठा और उस ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को For Private And Personal Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६०४] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [ प्रथम अध्याय बुला कर उन्हें चार घण्टों वाले अश्वयुक्त रथ को शीघ्रातिशोघ्र बिल्कुल तैयार कर के अपने पास उपस्थित कर देने की आज्ञा दी । कौटुम्बिक पुरुषों ने भी जमालि की इस आज्ञा के अनुसार रथ को शीघ्रातिशीघ्र तैयार कर उस के पास उपस्थित कर दिया। - तदनन्तर जमालि कुमार स्नानादि से निवृत्त हो तथा वस्त्राभूषणादि से विभूषित हो कर, जहां रथ तैयार खड़ा था, वहां पहुंचा, वहां पहुंच कर वह चार घण्टों वाले अश्वयुक्त रथ पर चढ़ा तथा सिर के ऊपर धारण किये गये कोरण्ट पुष्पों की माला वाला, छत्रों सहित, महान् योधात्रों के समूह से परिवृत वह जमालि चत्रियकुण्डग्राम नामक नगर के मध्य भाग में से होता हुआ बाहिर निकला, निकल कर जहां ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर का बहुशालक नामक उद्यान था वहां आया, श्रा कर रथ से नीचे उतरा तथा पुष्प, ताम्बूल, आयुधशस्त्र तथा उपानत् को छोड़ कर एक वस्त्र से उत्तरासन कर और मुखादि की शुद्धि कर, दोनों हाथों को जोड़ मस्तक पर अंजलि रख कर जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहां आया, अाकर उस ने श्री वीर प्रभु को तीन वार आदक्षिणप्रदक्षिणा की तथा कायिक', वाचिक एवं मानिसक पयुपासना द्वारा भगवान् की सेवा भक्ति करने लगा- यह है जमालि कुमार का वीरदर्शनयात्रावृत्तान्त, जिस की सूत्रकार ने सुत्राहुकुमार के वीरदर्शनयात्रावृत्तान्त से तुलना की है । जमालि और सुबाहुकुमार के दर्शनयात्रावृत्तान्त में अधिक साम्य होने के कारण ही सूत्रकार ने सुबाहुकुमार के दर्शनयात्रावृत्तान्त को बताने के लिए जमालि कुमार के दर्शनयात्रावृत्तान्त की ओर संकेत कर दिया है । अन्तर मात्र नामों का है । जैसे जमालि क्षत्रियकुण्डग्राम नगर का निवासी था जबकि सुबाहुकुमार हस्तिशीर्ष नगर का । इसी भाँति जमालि कुमार ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर के बहुशालक उद्यान में भगवान महावीर के पधारने आदि का जनकोलाहल सुन कर वहां गया था जबकि श्री सुबाहुकुमार हस्तिशीर्ष नगर के पुष्पकरएडक उद्यान में प्रभु के पधारने आदि का जनकोलाहल सुन कर गया था । सारांश यह है कि नामगत भिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है। ___"सदहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं जाव'-इस पाठ में दिये गये जाव-यावत् इस पद से -पत्तियामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं एवं रोमि णं भंते ! निग्गथं पावयणं, अन्भुमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, एवमेयं भंते !, तहमेयं भंते !. अवितहमयं भंते !, असंदिद्धमेयं भंते !, पडिच्छियमेयं भंते !, इच्छितपडिच्छियमेयं भंते !, जंणं तुब्भे वदह त्ति कट्ट एवं यासी-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये। सद्दहामि गां भंते !-इत्यादि पदों का शब्दार्थ निम्नोक्त है हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा रखता हूं। हे भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन पर प्रीति - स्नेह रखता हूं । हे भगवन् ! निग्रन्थ प्रवचन मुझे अच्छा लगता है । हे भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन को मैं स्वीकार करता हूं। हे भगवन् ! जैसा आप ने कहा है, वैसा ही है । हे भगवन् ! आप का प्रवचन जैसी वस्तु है उसी के अनुसार है। हे भगवन् ! आप का प्रवचन सत्य है । हे भगवन् ! अाप का प्रवचन सन्देहरहित है । हे भगवन् ! श्राप का प्रवचन इष्ट है । हे भगवन् ! आप का प्रवचन बारम्बार इष्ट है । हे भगवन् ! आर जो कहते हैं वह इष्ट तथा अत्यधिक इष्ट है - इस प्रकार कह कर सुबाहुकुमार फिर बोले । -राईसर० जाव प्पभिइयो - यहां पठित जाव-यावत् पद से - तजवरमाडंवियकोडुवियसेट्ठिसेणावइसत्यवाह-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । राजा प्रजापति को कहते हैं। सेना के नायक का नाम सेनापति है। अवशिष्ट ईश्वर आदि पदों का अर्थ पृष्ठ १६५ पर लिखा जा चुका है । (१) कायिक आदि त्रिविध पयुपासना का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ २९ की टिप्पणी में किया गया है। For Private And Personal Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [६०५ प्रस्तुत सूत्र में हस्तिशीष नगर के बाहिर पुष्पकर एडक उद्यान में भगवान महावीर स्वामी का पधारना, उन के दर्शनार्थ जनता तथा अदीनशत्रु आदि का आना और उन के चरणों में उपस्थित हो कर सुबाहुकुमार का देश विरति-श्रावधम को अंगीकार करना आदि बातों का उल्लेख किया गया है । अब सूत्रकार अग्रिम सूत्र में सुबाहुकुमार के रूप लावण्य से विस्मय को प्राप्त हुए भगवान् के प्रधान शिष्य श्री गौतम स्वामी की जिज्ञासा के विषय में प्रतिपादन करते हैं मूल- 'तेणं कालेणं तेणं समएणं जट्ट अंतेवासी इंदभूती जाव एवं क्यासीअहो णं भंते ! सुबाहुकुमारे इ8 इदुरूवे कंते कंतरूवे पिए पियरूवे मणुएणे मणुएणरूवे मणामे मणापरूवे सोमे सुभगे पियदंसणे सुरूवे । बहुजणस्य वि य णं भंते ! सुबाहुकुमारे इ8 जाव सुरूवे । साहुजणस्स वि य णं भंते ! सुबाहुकुमारे इ8 जाव सुरूवे । सुबाहुणा भंते ! कुमारेणं इमा इमारूवा उराला माणुसरिद्धी किरणा लद्धा ? किएणा पत्ता ? किराणा अभिसमन्नागया ? कोवा एस पासी पुत्वभवे ? जाव समन्नागया ? __पदार्थ-तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल और उस समय में। जे?- ज्येष्ठ-प्रधान । अंतेवासी-शिष्य । इंदभूती-इन्द्रभूति । जाव-यावत् । एवं-इस प्रकार । वयासी-कहने लगे । अहो !-अहो-आश्चर्य है । णं-वाक्यालंकार में है। भंते !- हे भगवन् ! । सुबाहुकुमारे-सुबाहुकुमार । इढे - इष्ट । इट्ठरुवे-इष्टरूप । कन्ते - कान्त । कन्तरूवे-कान्तरूप । पिए-प्रिय । पियरूवे-प्रियरूप । मणुगणे - मनोज्ञ । मणुराणस्वे--मनोजरूप । मणामे-मनोम । मणामरूवे - मनोमरूप । सोमे- सोमसौम्य । सुभगे-सुभग । पियदसणे - प्रियदर्शन, और । सुरुवे-सुरूप है । भंते !-- हे भगवन् । बहुजणस्स वि य -और बहुत से जनों को भी। सुबाहुकुमारे सुबाहु कुमार । इट्टे जाव- इष्ट यावत् । सुरुवेसुरूप है । भंते ! हे भगवन् ! । साहुजणस्त विय णं-साधुजनों को भी। सुबाहुकुमारे-सुबाहुकुमार । इ? - इष्ट ! इट्ठरुवे- इष्टरूप । जाव-यावत् । सुरुवे-सुरूप है । सुवाहुणा-सुबाहु । कुमारेणंकुमार ने । भंते ! हे भगवन् ! । इमां-यह । पयारूवा- इस प्रकार की । उराला- उदार - प्रधान । माणुसरिद्धी-मानवी ऋद्धि । किरणा--कसे । लद्धा ? - उपलब्ध की ? । किराणा-कैसे । पसा !- प्राप्त को ? और । किराणा- कैसे । अभिसमरणागया ?--समुपस्थित हुई ? । को वा-और कौन । एस- यह । पुव्वभवे - पूर्वभव में । आसि-या। जाव-यावत् । समन्नागया-मानव ऋद्धि समुपस्थित हुई। ___ मूलार्थ-उस कल तथा उस समय भगवान के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति गौतम अनगार यावत् इस प्रकार कहने लगे-अहो ! भगवन ! सुबाहुकुमार बालक बड़ा ही इष्ट, इष्टरूप, कान्त, कान्तरूप, प्रिय, प्रियरूर, मनोज्ञ, मनोज्ञरूप, मनोम, मनोमरूप, सौम्य, सुभग, प्रियदर्शन और सुरूप-सुन्दर रूप वाला है । भगवन् ! यह सुबाहुकुमार माधुजनों को भी इछ, इष्टरूपं यावत् सुरूर लगता है . (१) छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये ज्येष्ठोऽन्तेवासी इन्द्रभूतिर्यावदेवमवादीत् -अहो भदन्त ? सुबाहुकुमार इष्ट इष्टरूपः कान्तः कान्तरूपः प्रियः पियरूपः मनोज्ञ: मनोज्ञरूप: मनोम: मनोमरूप: सोमः सुभग: प्रियदर्शनः । बहुजनस्यापि च भदन्त ! सुबाहुकुमार इष्टो यावत् सुरूपः । साधुजनस्यापि च भदन्त ! सुबाहुकुमार इष्ट इष्टरूप: यावत् सुरूप: । सुबाहुना भदन्त ! कुमारेणेयमेतद्रूपा मानुषद्धिः केन लब्धा ?, केन प्राप्ता ?, केनाभिसमन्वागता १ को वा एष आसीत् पूर्वभवे ? यावत् समन्वागता । For Private And Personal Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६०६] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय भदन्त ! सुबाहुकुमार ने यह अपूर्व मानवी ऋद्धि कैसे उपलब्ध की ?, कैसे प्राप्त की है और कैसे उस के मम्मुख उपस्थित हुई? और यह पूर्वभव में कौन था ? यावत् समृद्धि जिस के सन्मुख उपस्थि हो रही है। __... टीका-भगवान के समवसरण- व्याख्यानसभा में अनेकानेक परमपूज्य साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकायें उपस्थित थीं। सुबाहुकुमार के वार्तालाप के समय भी उन में से अनेकों वहां विद्यमान होंगे । सुबाहुकुमार के सौम्य स्वभाव और आकर्षक मुद्रा को देख कर कौन जाने किस २ के हृदय में किस २ प्रकार की भावनाएं उत्पन्न हुई होगी।, उन सभी का उल्लेख यहां पर नहीं किया गया, परन्तु भगवान् के प्रधान शिष्य श्री इन्द्रभूति जो कि गौतम के नाम से प्रसिद्ध हैं, को वहां बैठे २ जो विचार आए उन का वर्णन यहां पर किया गया है। सुबाहुकुमार की रूपलावण्यपूर्ण भद्र और मनोहर प्राकृति तथा सौम्य स्वभाव एवं मृदु वाणी आदि को देख कर गौतम स्वामी विचारने लगे कि सुबाहुकुमार ने ऐसा कौन सा पुण्य किया है, जिस के प्रभाव से इस को इस तरह की लोकोचर मानवी ऋद्धि संप्राप्त हुई है !, इसके अतिरिक्त इस की सुदृढ़ धार्मिक भावना और चारित्रनिष्ठा की अभिरूचि तो इस को और भी पुण्यशाली सूचित कर रही है। उस में एक साथ इतनी विशेषताएं बिना कारण नहीं आ सकतीं-इत्यादि मनोगत विचारपरम्परा से प्रेरित हुए गौतम स्वामी ने इस विषय की जिज्ञासा को भगवान् के पास व्यक्त करने का विचार किया और भगवान् से सुबाहुकुमार में एक साथ उपलब्ध होने वाली विशेषताओं का मूल कारण जानना चाहा। अन्त में वे भगवान् से बोले-प्रभो ! सुबाहुकुमार इष्ट है, इष्ट रूप वाला है, कान्त है, कान्त रूप वाला है, प्रिय है, प्रिय रूप वाला है, मनोज है मनोज्ञ रूप वाला है, मनोम है, मनोम रूप वाला है, सौम्य है, सुभग है, प्रियदर्शन और सुरूप है । भगवन् ! सुबाहुकुमार को यह मनुष्य-ऋद्धि कसे प्राप्त हुई ', यह पूर्वभव में कौन था ।, इस का नाम क्या था ?, गोत्र क्या था ?, इस ने क्या दान दिया था ?, कौन सा भोजन खाया था, क्या आचरण किया था, किस वीतरागी पुरुष की वाणी को सुन कर इस के जीवन का निर्माण हुअा था। ___इष्ट, इष्टरूप, कान्त, कान्तरूप, प्रिय, प्रियरूप, मनोश, मनोज्ञरूप, मनोम, मनोमरूप, सोम, सुभग, प्रियदर्शन और सुरूप इन की व्यापकता के लिए मूल में बहुजन और साधुजन ये दो पद दिये हैं । इस तरह उक्त इष्ट आदि १४ पदों का इन दो के साथ पृथक् २ सम्बन्ध करने से बहुजन इष्ट, बहुजन इष्टरूप, बहुजन कान्त, बहुजन कान्तरूप-इत्यादि तथा--- साधुजन इष्ट. साधुजम इष्टरूप, साधुजन कान्त, साधुजन कान्तरूप इत्यादि सब मिला कर २८ भेद होते हैं, इन सब का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है जिस का प्रत्येक व्यापार या व्यवहार अनुकूल हो, वह इष्ट होता है । सुबाहुकुमार का व्यावहारिक जीवन सब को प्रिय होने के नाते वह बहुजनइष्ट कहलाया और उस का ( सुबाहुकुमार का) धार्मिक जीवन साधुओं को अनुकूल होने के कारण वह साधुजनदष्ट बना । जिसे जिस से स्वार्थ होता है अथवा जिस की जिस के प्रति आसक्ति होती है उसे उस का रूप इष्ट प्रतीत होता है, परन्तु सुबाहुकुमार का रूप ऐसा इष्ट नहीं था, इस बात को विस्पष्ट करने के लिए ही यहां साधुजन शब्द का प्रयोग किया गया है। अर्थात् सुबाहुकुमार का रूप साधुजनों को भी इष्ट था । साधुजन न तो स्वार्थपरायण होते हैं और नाहिं आसक्तिप्रिय । फिर भी उन्हें जो रूप इष्ट प्रतीत होता है वह कुछ साधारण नहीं अपितु अलौकिक होता है । उस की इष्टता कुछ विभिन्न ही होती है । गौतम स्वामी ने सुबाहुकुमार के रूप को जो इष्ट बतलाया है, उस का श्राशय यह है कि जो रूप For Private And Personal Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [६०७ दूसरों को कल्याणमार्ग में इष्ट प्रतीत हो और जिसे देख कर दर्शक की कल्याणमार्ग की ओर प्रवृत्ति बढ़े, वह रूप इष्ट है । जिस रूप पर दृष्टिपात होते ही पाप कांप उठता है या प्रस्थान कर जाता है और अन्तरंग में दबी हुई विशुद्ध धर्मभावना खिल उठती है, वह रूप इष्टकारी है। इस बात की पुष्टि के लिए पाठकों को अपने पूर्वजों के जीवनवृत्तान्त पर दृष्टिपात करना होगा । एक अोर वल्कलवस्त्रधारी महाराज राम हों और दूसरी ओर अनेक उत्तमोत्तम बहुमूल्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित रावण हो, तब इन दोनों में किस का रूप इष्ट है ? सोचिये और विचार करिये कि राम का रूप इष्ट है या रावण का ? विचारक की दृष्टि में राम का रूप ही इष्ट हो सकता है, कारण कि उस में नैतिक और आध्यात्मिक सौन्दर्य है। उस की अपेक्षा रावण के कृत्रिम शारीरिक सौन्दर्य या विभूषा का कुछ भी मूल्य नहीं है । इसी दृष्टि से गौतम स्वामी सुबाहुकुमार के रूप को इष्ट, कान्त और मनोज शब्दों से विशेषित कर रहे हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो-बहुजनसमाज को जो प्रिय लगता है, वह इष्ट कहलाता है ---यह कह सकते हैं। जिस का रूप देख कर जनसमाज-यह मेरा है, २-कह उठे, पुकार उठे वह इष्टरूप है । इष्टकारी रूप नीतिज्ञता, सुशीलता और धार्मिकता पर निर्भर रहा करता है। जो व्यक्ति जितना नीतिज्ञ, सुशील और धर्मनिष्ठ होगा उस का रूप उतना हो इष्टकारी होता है। इस के विपरीत जिस व्यक्ति के देखने से दर्शक के हृदय में पाप वासनात्रों का प्रादुर्भाव हो वह देखने में भले ही सुन्दर मालूम दे परन्तु वह इष्ट या कांतरूप नहीं कहा जा सकता है। इष्ट और कान्त में क्या अन्तर है। इसे भी समझ लेना चाहिये । कोई वस्तु इष्टकारी तो होती है परन्तु वह किसी के लिये इच्छा करने योग्य नहीं भी होती, अथवा देशकाल के अनुसार कमनीय है मगर कभी २ कमनीय नहीं भी रहती। इसे उदाहरण से समझिये घी और दूध को लें। घी और दूध इष्टकारी माना जाता है, परन्तु पर्याप्त भोजन कर लेने के पश्चात् क्या कोई उस को चाहता है ? नहीं। उस समय घी, दूध कमनीय नहीं रहता, क्योंकि उस में रुचि का अभाव होता है, उस में रुचि नहीं होती। यह दोष श्री सुबाहुकुमार में नहीं था। वह कभी अरुचिजनक रूप वाला नहीं होता । उस का रूप सदैव आल्हादजनक रहता है । अतः सुबाहुकुमार इष्ट, इष्टरूप, कान्त और कान्त रूप वाला कहा गया है अर्थात् वह इष्टकारी होने के साथ २ सदा कमनीय भी है। इस से इष्ट और कान्त में जो विभिन्नता है, वह स्पष्ट हो जाती है। इष्ट रूप अनुकूल होता है और कान्त मनोहरता को लिये हुए होता है तथा प्रिय और प्रियरूप का हार्द यह है कि कोई वस्तु इष्ट और कान्त होने पर भी प्रीति के योग्य नहीं होती। उदाहरण के लिये-एक बर्तन में पके हुए ग्रामों का रस और दूसरे में मूगी की पकी हुई दाल है । बुधातुर व्यक्ति के सामने दोनों के उपस्थित किये जाने पर दोनों में भूख को शान्त करने की समान शक्ति होने पर भी वह श्राम रस को चाहेगा। इसी तरह संसार में इष्ट और कमनीय तो बहुत हैं या होंगे परन्तु मुद्गरूप और अाम्ररस में जो अन्तर है वही अन्य सांसारिक मनुष्यों और सुबाहुकुमार में दृष्टिगोचर होता है । जहाँ अन्य लोगों का रूप किसी को भाता और किसी को नहीं भाता है वहां सुबाहुकुमार सब को प्रिय लगता है। इसी प्रकार मनोज और मनोजरूप के विषय में भी निम्नलिखित विवेक है कई वस्तुएं ऐसी होती हैं, जिन से प्रीति तो होती है परन्तु वे मनोज्ञ नहीं होती अर्थात् उन से मन और इन्द्रियों को शान्ति नहीं मिलती। कोई भोज्य वस्तु ऐसी भी होती है जो इष्ट-कमनीय और प्रिय होने पर भी खाने के पश्चात् विकार उत्पन्न कर देने के कारण मनोज्ञ नहीं रहती। जैसे श्रामातिसार के रोगी को प्रिय होने पर भी ग्राम का रस हानिप्रद होता है । ज्वर के रोगी को गरिष्ट भोजन स्वादिष्ट होने पर भी अहितकर For Private And Personal Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६०८] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम अध्याय होता है। सारांश यह है कि संसार में अनेक वस्तुएं हैं जो किसी के लिये मनोज्ञ और किसी के लिये अमनोज होती हैं। एक ही वस्तु मनोज्ञ होने पर भी सब के लिए मनोज नहीं होती, परन्तु सुाहुकुमार इस त्रुटि से रहित है । उस का रूप तथा स्वयं वह सब के लिये मनोज्ञ है। तदनन्तर गौतम स्वामी ने सुबाहुकुमार को मनोम और मनोमरूप कहा है, अर्थात् सबाहुकुमार लाभदायक और लाभदायक रूप वाला है। इस का तात्पय भी स्पष्ट है । कई वस्तु मनोज्ञ आर पथ्य होने पर भी शक्तिप्रद नहीं होती । जिस वस्तु के सेवन से शरीरगत अस्थियों - हड्डियों को शक्ति मिले, वे मोटी हों, खन और चर्बी में पतलापन आवे वे उत्तम होती है । इस के विपरीत जो वस्तु शरीरगत अस्थियों हड्डियों में पतलापन पैदा कर के, रुधिर आदि को गाढ़ा बनाती है वह अधम अर्थात् अनिष्टप्रद होती है । तात्पर्य यह है कि कोई वस्तु शरीर के किसी अंग को लाभ पहुंचाती है और किसी को हानि, परन्तु सबाह कमार सभी को लाभ पहुंचाने वाला है; उस के यहां से कोई भी निराश हो कर नहीं लौटता, इसीलिये वह मनोम और मनोमरूप कहलाया। शीतल -सौम्य प्रकृति वाले को सोम कहते हैं । सोम नाम चन्द्रमा का भी है। जिस प्रकार उस की किरणें सब को प्रकाश और शीतलता पहुंचाती हैं, उसी प्रकार सुबाहुकमार भी अपनी गुणसम्पदा से सब को सन्तापरहित करने में समर्थ है। सौभाग्ययुक्त सुभग कहलाता है । जिस का रूप - प्राकृति सौभाग्य प्राप्ति का हेतु हो वह सुभगरूप है। चन्द्रमा देखने में प्रिय होता है, सब में शीतलता का संचार करता है परन्तु उस में सौभाग्यवधकता नहीं है। वह भूख के कष्ट को नहीं मिटा सकता किन्तु सुबाहुकमार में यह त्रुटि भी नहीं थी। वह सब के दुःखों को दर करने में व्यस्त रहता है, इसलिये वह सुभगरूप है। उत्तमोत्तम स्वादिष्ट भोजन करना, बहुमूल्य वस्त्राभूषण पहनना और यथारुचि श्रामोदप्रमोद करना मात्र ही आकर्षक नहीं होता, उस के लिये तो प्रेम और अच्छे स्वभाव की भी आवश्यकता होती है । एतदर्थ ही सुबाहुकुमार के लिए प्रियदर्शन और सुरूप ये दो विशेषण दिये हैं । प्रेम का आदर्श उपस्थित करने वाली दिव्य मूर्ति का प्रियदर्शन के नाम से ग्रहण होता है और स्वभाव की सुन्दरता का सूचक सुरूप पद है। भगवान् गौतम के कथन से स्पष्ट है कि श्री सबाह कुमार में उपरिलिखित सभी विशेषतायें विद्यमान थीं, वे उसे समस्त जनता का प्यारा कहते हैं । इतना हा नहीं किन्तु साधुजनों को भी प्रिय लगने वाला सुबाहुकुमार को बतला रहे हैं। जनता तो कदाचित् भय और स्वार्थ से भी प्यार कर सकती है परन्तु साधु प्रों को किस से भय ? और किस से स्वार्थ ? उन्हें किसी की झूठी प्रशंसा से क्या प्रयोजन ? गौतम स्वामी कहते हैं कि सुबाहुकुमार साधुजनों को भी इष्ट कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, सौम्य और प्रियदर्शन है। इस से प्रतीत होता है कि वास्तव में ही वह ऐसा था । जो निस्पृह आत्मा प्रारम्भ से दूर हैं, जिन का मन तृण, मिट्टी मणि और कांचन के लिये समान भाव रखता है, जो कांचन, कामिनी के त्यागी हैं, जिन्हों ने संसार के समस्त प्रलोभनों पर लात मार रखी है, उन्हें भी सबाहुकुमार इष्ट, कान्त और मनोज्ञ प्रतीत होता है। इस से सुबाहुकुमार की विशिष्ट गण गरिमा के प्रमाणित होने में कोई भी सन्देह बाको नहीं रह जाता। "- इ8-" आदि पदों की व्याख्या श्री अभयदेवसूरि के शब्दों में निम्नोक्त है - इष्यते स्मेति इष्टः (जो चाहा जाये, वह इष्ट होता है. स च कृत विवक्षितकार्यापेक्षयापि स्यादित्याह For Private And Personal Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टोका सहित । [६०९ इष्टरूपः-इष्टस्वरूप इत्यर्थः (किसी की चाह उस के विशेष कृत्य को उपलक्षित कर के भी हो सकती है, इस इष्टता के निवारणार्थ इष्टरूप यह विशेषण दिया गया है, अर्थात् उस की आकृति ही ऐसी थी जो इष्ट प्रतीत होती थी ) इष्ट इष्टरूपो वा कारणवसादपि स्यादित्यत आह - कान्त:-करनीय, कान्तरूपः -कानीरूपः, शोभनः शोभनस्वभावश्चेत्यर्थः ( इष्टता और इष्टरूपता किसी कारणविशेष से भी हो सकती है, इस आपत्ति को दूर करने के लिए कान्त श्रादि पर दिये है, कान्त का अर्थ होता है-कमनीय -सुन्दर और कान्तरूप का अर्थ है- सुन्दर स्वभाव वाला । सुबाहुकुमार की इष्टता में उस का सुन्दर स्वभाव ही कारण था) एवंविधोऽपि कश्चित् कर्मदापात् परेशं प्रीति नोत्पादयेदित्या पाह - प्रय: -प्रमोत्पादकः, प्रियरूप:-प्रीतिकारिस्वरूपः ( सुन्दर स्वभाव होने पर भी कर्म के प्रभाव से कोई दूसरों में प्रीति उत्पन्न करने में असमर्थ रह सकता है, इस आशंका के निवारणार्थ प्रिय और प्रियरूप ये विशेषण दिये है । प्रेम का उत्पादक प्रिय और जिस का रूप प्रिय - प्रीति का उत्पादक हो उसे प्रियरूप कहते हैं। एवंविधश्च लोककढितोऽपि स्यादित्यत श्राह-मनोन:-मनसाऽन्त:संवेदनेन शोभनतया ज्ञायत इति मनोज्ञ: एवं मनोज्ञरूपः ( कोई २ लोगों के व्यवहार में प्रियरूप होता है और वास्तव में नहीं होता, इस आशंका के निवारणार्थ मनोज्ञादि का प्रयोग किया गया है । आन्तरिक वृत्ति से जिस की शोभनता अनुभव में आवे. वह मनोज्ञ, उस के रूप वाला मनोजरूप कहलाता है ) एवंविधश्चैकदापि स्पादित्यत आह "मणोमेति " मनसा अम्यते गम्यते पुनः पुनःसंस्मरणतो यः स मनोमः, एवं मनोमरूपः ( किसी को मनोज्ञता तात्कालिक हो सकती है, यह ऐसा सुबाहुकमार के विषय में न समझ लिया जाये, एतदर्थ मनोम विशेषण दिया है, जिस की सुन्दरता का स्मरण पुनः पुन: - बारंबार किया जाए, वह मनोम और उस के रूप को मनोमरूप कहते हैं ) एतदेव प्रपंचयन्नाह -" सोमे ति अरोद्रः सुभगो वल्लभः, "पियइसणे" शि प्रेमजनकाकार: किमुक्तं भवति १ ' सुरूवे" ति शोभनाकार: सुस्वभावो वेति -(इस पूर्वोक्त सुन्दरता के विस्तार के लिये ही सोम इत्यादि पदों का निवेश किया गया है । रुद्रतारहित व्यक्ति सोम - सौम्य स्वभाव वाला होता है और वल्लभता वाला-इस अर्थ का सूचक सुभगशब्द है, प्रेम का जनक -उत्पादक आकार और उस आकार वाला प्रियदर्शन कहलाता है । सन्दर आकार तथा सुन्दर स्वभाव वाले को सुरूप कहते हैं ) एवंविधश्चकजनापेक्षयापि स्थादित्यत श्राह- "बहुजणस्सय वि" इत्यादि (सुबाहुकुमार की सुन्दरता, प्रियता और मनोज्ञता श्रादि गुणसंहति -गुणसमूह एक व्यक्ति की अपेक्षा भी मानी जा सकती है ?, इस के निराकरण के लिये बहजन विशेषण दिया है अर्थात् सुबाहु कुमार किसी एक व्यक्ति को ही प्रिय नहीं था किन्तु बहुत से लोगों को वह प्रिय था ) एवंविधश्च प्राकृतजनापेक्षयापि स्यादित्यत आह -" साहुजणस्त य वि" इत्यादि (अनेकों मनुष्यों की प्रियता का अर्थ प्राकृतपुरुषों - साधारण मनुष्यों तक ही सीमित हो, ऐसा भी हो सकता है। इस लिये सूत्रकार ने साधुजन विशेषण दे कर उस का भी निराकरण कर दिया है । तात्पर्य यह है कि सबाहुकुमार केवल सामान्य जनता का ही प्रियभाजन नहीं था अपितु साधुजनों को भी वह प्यारा था । साध शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं - १ - विशिष्टप्रतिभाशाली व्यक्ति, २-मुनिजन-त्यागशील या यति लोग। प्रकृत में ये दोनों ही अर्थ सुसंगत है।) सुबाहुकुमार की उस विशिष्ट गुणसम्पदा से आकृष्ट हुर गौतम स्वामी उस के चले जाने के अनन्तर भगवान् महावीर से पूछते हैं कि भगवन् ! सुबाहुकुमार ने ऐसा कौन सा पुण्य उपार्जित किया है. जिस के फलस्वरूप इसे इस प्रकार की उदार मानवी ऋद्धि की उपलब्धि-संप्राप्ति और समुपस्थिति हुई है? गौतम स्वामी के प्रश्नों को टीकाकार के शब्दों में कहें तो- किरणा लद्धा ,केन हेतुनोपार्जिता?, किराणा For Private And Personal Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६१०] श्रीविपासूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय पत्तोति ? केन हेतुना प्राप्ता- उपार्जिता सती प्राप्तिमुपगता । किराणा अभिसमन्नागया १ त्तिप्राप्तापि सती केन हेतुना श्राभिमुख्येन सांगत्येन चोपार्जनस्य च पश्चात् भोग्यतामुपगते त - अर्थात् किस कारण से इस ने उपार्जित की है, और किस हेतु से उपार्जित की हुई को प्राप्त किया है ? तथा उपार्जित और प्राप्त का उपभोग में आने का क्या कारण है ?-"ऐसा कहा जा सकता है । मूल में -“लद्रा, पत्ता, अभिसमन्नागया" - ये तीन पद दिये हैं. जिन का संस्कृत प्रतिरूप - लब्धा, प्राप्ता, अभिसमन्याग. ता - होता है। तब लब्धा, प्राप्ता और समन्वागता में जो अन्तर है अर्थात् अर्थविभेद है, उस को समझ लेना भी आवश्यक है । इन की अर्थविभिन्नता को निम्नोक्त एक उदाहरण के द्वारा पाठक समझने का यत्न करें - कल्पना करो कि किसी मनुष्य को उस के काम के बदले राजा की तरफ से उसे पारितोषिक - इनाम के रूप में कुछ धन देने की आज्ञा हुई। द्रव्य देने वाले खजांची को भी आदेश कर दिया गया, पर अब तक वह पारितोषिक - इनाम उस को मिला नहीं। इस अवस्था में उस इनाम को लब्ध कहेंगे, और जिस समय इनाम का वह द्रव्य उस को मिल गया हो, उस के हाथ में आगया हो तब उसे प्रार कहेंगे, अर्थात् इनाम देने की आज्ञा तक तो वह लब्ध है और उस के मिल जाने पर वह प्राप्त कहलाता है। यह तो हुआ लब्ध और प्राप्त का भेद । अब “समन्वागत” के अर्थविभेद को देखिये-लब्ध और प्राप्त हुए द्रव्य का उपभोग करना, उसे अपने व्यवहार में लाना अभिलमन्वागत कहलाता है . मानवी ऋद्धि के रूप में इन तीनों का समन्वय इस प्रकार है -मनुष्य शरीर की प्राप्ति के योग्य कर्मों का बांधना तो लब्ध है, और उस शरीर का मिल जाना है प्राप्त, और मनुष्य शरीर को सेवादि कार्यों में लगाना उस का अभिसमन्वागत है। जैसा कि ऊपर बतलाया गया है कि एक मनुष्य को राजा की तरफ़ से इनाम देने का हुकम हुअा और ख़ज़ाने से उसे मिल भी गया, परन्तु बीमार पड़ जाने या और किसी अनिवार्य प्रतिबन्ध के उपस्थित हो जाने से वह उस का उपभोग नहीं कर पाया, उसे अपने व्यवहार में नहीं ला सका, तब उस इनाम का उपलब्ध और प्राप्त होना न होने के समान है । अत: प्राप्त हुए का यथारुचि सम्यकतया उपभोग करने का नाम ही अभिसमन्वागत है अर्थात् जो भली प्रकार से उपभोग में आ सके उसे अभिसमन्वागत कहते हैं । पूर्वोपार्जित पुण्य से सुबाहुकुमार को मानवशरीर की पूर्ण सामग्री प्राप्त हुई है तथा उसे सुरक्षित रखने के साधन भी मिले हैं और वह उस सामग्री का यथेष्ट उपभोग भी कर रहा है । तब इस प्रकार के मानव शरीर में प्रत्यक्षरूप से उपलभ्यमान गणसंहति से श्राषित हुश्रा व्यक्ति यदि उस के मूल कारण की शोध के लिए प्रयत्न करे तो वह समुचित ही कहा जाएगा। गौतम स्वामी भी इसी कारण से सुबाहु कुमार की गुणसंहति के प्रत्यक्षस्वरूप की मौलिकता को जानने के लिए उत्सुक हो कर भगवान् से पूछ रहे हैं कि हे भगवन् ! यह सुबाहुकमार पूर्वभव में कौन था ? कहां था ? किस रूप में था? और किस दशा में था ? इत्यादि । ___ -इन्दभूती जाव एवं-यहां पठित जाव-यावत् पद पृष्ठ १० की टिप्पणी में पढ़े गये-नाम अणगारे गोयमसगोत्तणं सत्तु स्सेहे-से ले कर – झाणकोट्टोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ-इन पदों का तथा-तए णं से भगवं गोयमे सुबाहुकुमारं पासित्ता जायसड्ढे जायसंसए जायकोउहल्ले उत्पन्नसड्ढे उपन्नसंसर, उपपन्नको उहल्ले, संजायसड्ढे संजायसंसए संजायकोउहल्ले समुप्पन्नसड्ढे समुप्पन्नसंसए, समुप्पन्नकोउहल्ले उठाए उठेइ उठाए उठित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ वंदइ नमसइ वन्दित्ता नमंसित्ता पच्चासन्ने णाइदूरे सुस्तूसमाणे नमसमाणे अभिमुहे विण रणं For Private And Personal Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [६११ पंजलिउडे पज्जुवासमाणे २ - इन पदों का परिचायक है । तए णं से भयवं गोयमे सुबाहुकमारंइत्यादि पदों का अर्थ निम्नोक्त है - सुबाहकुमार को देखने के अनन्तर भगवान् गौतम को उस की ऋद्धि के मूल कारण को जानने की इच्छा हुई और साथ में यह संशय भी उत्पन्न हुआ कि सुबाहुकुमार ने क्या दान दिया था?, क्या भोजन खाया था १, कौन सा उत्तम प्रावरण किया था ?, क्या सुबाहुकुामार ने किसी मुनिराज के चरणों में रह कर धर्म प्रवण किया था या कोई और सुकृत्य किया था, जिस के कारण इन को इस प्रकार की ऋद्धि सम्प्राप्त हो रही है ?, तथा गौतम स्वामी को यह उत्सुकता भी उत्पन्न हुई कि देख प्रभु वीर सुबाहुकुमार की गुणसम्पदा का मूल - कारण दान बताते हैं. या कोई अन्य उत्तम आचरण १, अथवा जब प्रभुवीर मेरे संशय का समाधान करते हए असने अमृतमय वचन सुनावेंगे तब उन के अमृतमय वचन श्रवण करने से मुझे कितना आनन्द होगा १, इन विचारों से गौतम स्वामी के मानस में कौतूहल उत्पन्न हुआ। प्रस्तुत में जो जात, संजात, उत्पन्न तथा समुत्पन्न ये चार पद दिये हैं, इन में प्रथम जात शब्द साधारण तथा संजातशब्द विशेष का, इसी भांति उत्पन्नशब्द भी सामान्य का और समुत्पन्नशब्द विशेष का ज्ञान कराता है । तात्पर्य यह है कि इच्छा हुई, इच्छा बहुत हुई, संशय हा, संशय बहुत हुश्रा, कौतूहल हश्रा, बहुत कौतूहल हुअा, इसी भाँति- इच्छा उत्पन्न हुई, बहुत इच्छा उत्पन्न हुई, संशय उत्पन्न हुआ, बहुत संशय उत्पन्न हुआ, कौतूहल उत्पन्न हुआ, बहुत कौतूहल उत्पन्न हुआ-इस सामान्य विशेष की भिन्नता को सूचित करने के लिए ही जात और उत्पन्न शब्द के साथ सम् उपसग का संयोजन किया गया है । जात और उत्पन्न शब्दों में इतना ही अन्तर है कि उत्पन्न शब्द उत्पत्ति का और जात शब्द उस की प्रवृत्ति का संसूचक है । अर्थात् पहले इच्छा, संशय और कौतूहल उत्पन्न हा तदनन्तर उस में प्रवृत्ति हुई। इस भाँति उत्पत्ति और प्रवृत्ति का कार्यकारणभाव सूचित करने के लिये जात और उत्पन्न ये दोनों पद प्रयुक्त किये गए हैं । जातश्रद्ध आदि शब्दों का अधिक अर्थसंबन्धी ऊहापोह पृष्ठ १२ ले कर पृष्ठ १७ तक किया गया है । पाठक वहीं पर देख सकते हैं। जातश्रद्ध, जातसंशय, जातकौतूहल, संजातश्रद्ध, संजातसंशय, संजातकौतूहल, उत्पन्नश्रद्ध, उत्पन्नसंशय, उत्पन्न कौतूहल, समुत्पन्नश्रद्ध , समुत्पन्नसंशय तथा समुत्पन्नकौतूहल श्री गौतम स्वामी उत्थान क्रिया के द्वारा उठ कर जिस ओर श्रमन् भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, उस ओर आते हैं, अाकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार दक्षिण दिशा से प्रारम्भ कर के प्रदक्षिणा करके वन्दन करते हैं, नमस्कार करते हैं, नमस्कार कर के बहुत पास, न बहुत दूर इस प्रकार शुश्रूषा और नमस्कार करते हुए विनय से ललाट पर अञ्जलि रख कर भक्ति करते हुए। -इ8 जाव सुरूवे- यहां पठित जाव-यावत् पद - इठरूवे, कन्ते, कन्तरूवे, पिए, पियरूवे, मणुराणे, मणुण्णरूवे, मणोमे, मणोमरुवे, सोमे, सुभगे, पियदसणे, सुरूवे-इन पदों का तथा - इहरूवे जाव सुरुवे-यहां पठित जाव-यावत् पद-कन्ते, कन्तरूवे, पिए, पियरूवे, मणुराणे, मणुएणरुवे मणोमे, मणोमरूवे, सोमे, सुभगे, पियदंसणे - इन पदों का परिचायक है। -इमा एयारूवा-इन दोनों का अर्थ वृत्तिकार के शब्दों में-इयं प्रत्यक्षा एतद्पा , उपलभ्य, मानस्वरूप व अकृत्रिमत्यर्थः- इस प्रकार है । अर्थात् यह प्रत्यक्षरूप से उपलब्ध होने वाली अकृत्रिम-जिस में किसी प्रकार की बनावट नहीं- ऐसी उदार मानवी ऋद्धि सुबाहुकुमार ने कैसे प्राप्त की ? -को वा एस श्रासि पुठवभवे जाव समन्नागया-यहां पठित जाव-यावत् पद से For Private And Personal Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय किंनामर वा, कि वा गोएणं, कयरंसि वा 'गामंलि वा, नारंसि वा, निगमंसि वा, रायहाणीर वा, खेडंसि वा, कबडंसि वा, मडंवंसि वा, पट्ट पंसि वा, दोण बुहं स वा. प्रागरंसि वा, आससि वा, संवाहंसि वा, संनिवेसंसि वा, किं वा दचा, किं वा भाचा, किंवा किया, किंवा समापरि ता, कस्स वा तहारुवस्स समग्णस्त वा माहणस्त वा अंतिए एगमवि पारियं सुवयणं सोचा णिसम्म सुबाहुकुमारेणं इमा एयारूवा उराला माणुसिड्ढी लद्धा ?, पत्ता, अभिसमन्नागया ? --इन पदो का ग्रहण करना चाहिये। इन पदों का भावार्थ इस प्रकार है भगवन् ! यह पूर्वभव में कौन था ? इस का नाम और गोत्र क्या था?, किस ग्राम, नगर, निगम, राजधानी, खेट, कर्वट, मडम्ब, पट्टन, द्रोणमुख, प्राकर, आश्रम, संवाध तथा किस संनिवेश में कौन सा दान दे कर, क्या भोजन कर, कौन सा आचरण करके, किस तथारूप (विशिष्टशानी) भमण या माहन (श्रावक)२ से एक भी प्रार्य वचन सुन कर और हृदय में धारण कर सुवाहुकुमार ने इस प्रकार की यह उदार-महान् मानवी समृद्धि को उपलब्ध किया ? प्राप्त किया और उसे यथारूचि उपभोग्य - उपभोग के योग्य बनाया अर्थात् वह उस के यथेष्टरूप से उपभोग में आरही है ? इस प्रश्नावली में बहुत सी मौलिक सैद्धान्तिक बातों का समावेश हुआ प्रतीत होता है । अत: प्रसंगवश उन का विचार कर लेना भी अनुचित नहीं होगा संक्षेप से गौतम स्वामी के प्रश्नों को आठ भागों में विभक्त किया जा सकता है -१-यह पूर्वभव में कौन था ?, २ -इस का नाम क्या था १, ३-इस का गोत्र क्या था, ४- इस ने क्या दान दिया था १.५- इस ने क्या भोजन किया था 1.8-इस ने क्या कृत्य किया था ।, ७-इस ने क्या आचरण किया था ।, ८-इस ने किस तथारूर महात्मा की वाणी सुनो है, अर्थात् इस ने क्या सुना है ? ____ इन में नाम और गोत्र का पृथक २ निर्देश सप्रयोजन है। एक नाम के अनेक व्यक्ति हो सकते हैं। उन की व्यावृत्ति के लिये गोत्र का निर्देश करना भी परम आवश्यक है । इसी विचार से गौतम स्वामी ने नाम के बाद गोत्र का प्रश्न किया है । गोत्र कुल या बंश की उस संशा को कहते हैं जो उस के मूलपुरुष के अनुसार होती है। चौथा प्रश्न दान से सम्बन्ध रखता है अर्थात् सुबाहुकुमार ने पूर्वभव में ऐसा कौन सा दान किया था ? जिस के फलस्वरूप उसे इस प्रकार की लोकोत्तर मानवी विभूति की संप्राप्ति हुई है ?, गौतम स्वामी के इस प्रश्न में दान की महानता तथा विविधता प्रतिबोधित की गई है । जैनशास्त्रों में दस प्रकार के दान प्रसिद्ध हैं। उन का नामनिर्देशपूर्वक अर्थसम्बन्धी उहापोह इस प्रकार है - (१) १-ग्रसते बुयादीन गुणान् यदि वा गम्पः-शास्त्रप्रसिद्वानामष्टादशानां कराणामिति प्रामः । २-न विद्यते करो यस्मिन् तमगरम् । ३-निगमः -प्रभूततरवणिगवर्गवासः । ४ - राजाधिष्ठान नगरं राजधानी। ५-प्रांशुप्राकारनिबद्धं खेटम् । ६-खुल्लप्राकारवेष्ठितं कवटम् । ७-अर्धगव्यूततृतीयान्तनामान्तररहितं मडम्बम् । ८-पन-जलस्थलनिर्गमप्रदेशः, (पटनं शकटः गम्यं घोटकैः नौभिरेव च । नौभिरेव तु यद्गम्यं पत्तनं तत्प्रचक्षते ), ९-द्रोणमुखं -जलनिर्गमप्रवेशं पत्तनमित्यर्थः । १० -श्राकरो हिरण्याकरादिः । ११-आश्रमः तापसावसथोपलक्षित: आश्रमविशेषः । १२-संवाधो यात्रासमागतप्रभूतजननिवेशः । १३ - संनिवेश:- तथाविधप्राकृतलोकनिवासः । (राजप्रश्नीयसूत्रे वृत्तिकारो मलयगिरिसूरः) (२) श्रावक-गृहस्थ को भी धर्मोपदेश-धम सम्बन्धी व्याख्यान करने का अधिकार प्राप्त है, यह बात इस पाठ से भलीभान्ति सिद्ध हो जाती है। For Private And Personal Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रथम अध्याय ] Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir हिन्दी भाषा टीका सहित । १ - अनुकम्पादान । २ संग्रहदान । ३ भयदान | ४ - कारुण्यज्ञान । ५ - लज्जादान । ६ - गर्वदान । ७ - अथर्मदान । ८ - धर्मदान । ९ - करिव्यतिदान | १० - कृतान | १- किसी दीन दुःखी पर दया करके उस की सहायतार्थ जो दान दिया जाता है, उसे 'अनुकम्पादान कहते हैं । जैसे भूखे को अन्न, प्यासे को पानी और नंगे को वस्त्र आदि का प्रदान करना । व्यसनप्राप्त मनुष्यों को जो दान दिया जाता है, उसे २ संग्रहदान कहते हैं । श्रथवा बिना भेद भाव से किया गया दान संग्रइदान कहलाता है। 1 २ ३- भय के कारण जो दान दिया जाता है, उसे उभयदान कहते हैं। जैसे कि ये हमारे स्वामी के गुरु हैं, इन्हें श्राहारादि न देने से स्वामी नाराज़ हो जाएगा, इस भय से साधु को श्राहार देना | ४ - किसी प्रियजन के वियोग में या उस के मर जाने पर दिया गया दान कारुण्यदान कहलाता है । - ५ - लज्जा के वश हो कर दिया गया दान ४ लज्जादान कहलाता है। जैसे यह साधु हमारे घर आये हैं, यदि इन्हें आहार न देंगे तो अपकीर्ति होगी, इस विचार से साधु को आहार देना । ६ - बात पर चढ़ कर अर्थात् गर्व या अहंकार से जो दान दिया जाता है वह "गर्वदान है । जैसे - जोश में आकर एक दूसरे की स्पर्धा में भांड आदि को देना । 1 ७ - अधर्म का पोषण करने के लिये जो दान दिया जाता है उसे धर्मदान कहते हैं । जैसेविषयभोग के लिये वेश्या आदि को देना या चोरी करवाने अथवा झूठ बुलवाने के लिये देना । ८ - धम के पोषणार्थ दिया गया दान धर्मदान है। जैसे- सुपात्र को देना । त्यागशील मुनिराजों को धर्म के पोषक समझ कर श्रद्धापूर्वक आहारादि का प्रदान करना । ९ - किसी उपकार की आशा से किया गया दान ' करिष्यतिदान कहलाता है । 1 १० - किसी उपकार के बदले में किया गया दान 'कृतदान है । अर्थात् इस ने मुझे पढ़ाया है । इस ने मेरा पालनपोषण किया है. इस विचार से दिया गया दान कृनदान कहलाता है। चौथा प्रश्न भगवान गौतम को - दस दानों में से सुबाहुकुमार ने कौनसा दान दिया था ? - इस जिज्ञासा का संसूचक है । [ ६१३ पांचवां प्रश्न भोजन से सम्बन्ध रखता है । संसार में दो प्रकार के जीव है। एक वे हैं जो खाने के लिये जीते हैं, दूसरे वे जो जीने के लिये खाते हैं । पहली कक्षा के जीवों की भावना यह रहती है कि यह शरीर खाने के लिये बना है और संसार में जितने भी खाद्य पदार्थ है सब मेरे ही खाने के लिये हैं, इस लिये For Private And Personal (१) कृपणेऽनाथदरिद्र व्यसनप्राप्ते च रोगशोकहते । यद्दीयते कृपार्थादनुकम्पा तद्भव होनम् ||१|| (२) श्रभ्युदये व्यसने वा यत्किञ्चिद्दीयते सहायार्थम् । तत्संग्रहतोऽभिमतं मुनिभिर्दानं न मोक्षायं ॥ १ ॥ (३) राजारक्षपुरोहितमधुमुवमावल्लदण्डपाशित्रु च । यद्दीयते भयार्थात्तद्भयदानं बुधैर्ज्ञेयम् ॥ १॥ (४) अभ्यर्थितः परेण तु यद्दानं जनसमूहमध्यगतः । परचितरक्षणार्थं लज्जायास्तद्भवेद्दानम् ॥१॥ (५) नर्तकष्टकेभ्यो दानं सम्बन्धिबन्धुमित्रेभ्यः । यद्दीयते यशांऽर्थं गर्वेण तु तद्भवेद्दानम् ॥१॥ (६) हिंसानृतचौर्योद्यतपरदारपरिग्रहप्रसक्तेभ्यः । यद्दीयते हि तेषां तज्जानीयादधर्माय ||१|| (७) समतृणमणिमुक्तेभ्यो यद्दानं दीयते सुपात्रेम्यः । अक्षयमतुलमनन्तं तद्दानं भवति धर्माय || २ || (८) करिष्यति कंचनोपकारं ममाऽयमिति बुद्धया यद्दानं तत्करिष्यतीति दानमुच्यते । (९) शतशः कृतोपकारो दत्त' च सहस्रशो ममानेन । श्रहमपि ददामि किञ्चित्प्रत्युपकाराय तद्दानम् ॥ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६१४] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय खाने पीने में किसी प्रकार की कमी नहीं रखनी चाहिये। इस भावना के लोग न तो भक्ष्याभक्ष्य का विचार करते है और न समय कुसमय को देखते हैं । भोजन की शुद्धता या अशुद्धता का उन्हें कोई ध्यान नहीं रहता । जो लोग भक्ष्य और अभक्ष्य के विवेक से शून्य होते हैं, उन के लिये ही अनेकानेक मूक प्राणियों - पशुपक्षियों का वध किया जाता है, ऐसे मांसाहारी लोग इस बात का बिल्कुल ख्याल नहीं करते कि उन की भोजनसामग्री कितने अनर्थ का कारण बन रही है ?, वास्तव में देखा जाये तो संसार में पाप की वृद्धि भूखे मरने वालों की अपेक्षा खाने के लिये जीने वालों ने विरोध को है । यदि भक्ष्याभक्ष्य का कुछ विवेक रखा जाये तो इतना अधिक पाप न फैले । परन्तु इस कक्षा के लोग इन बातों को कहां ध्यान में लाते हैं ? जो लोग जीने के लिये खाते अर्थात् भोजन करते हैं, उन का ध्येय यह नहीं होता कि हम खाकर शरीर को शक्तिशाली बनावें और पापाचरण करें, किन्तु वे इस लिये खाते हैं कि जिस से उन का शरीर टिका रहे और वे उस के द्वारा अधिक से अधिक धर्म का उपार्जन कर सकें। उन को भक्ष्याभक्ष्य का पूरा २ ध्यान रहता है, तथा वे इस बात के लिये सदा चिन्तित रहते हैं कि उन के भोजन के निमित्त किसी जीव को अनावश्यक कष्ट न पहुंचे और वे उस दिन को भी प्रतीक्षा में रहते हैं कि जिस दिन उन के निमित्त किसी भी जीव को किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुंच सके । यद्यपि भोजन दोनों ही करते हैं परन्तु एक पापप्रकृति को बांधता है, जबकि दूसरा पुण्य का बन्ध करता है। इस प्रकार भोजन के लिये जीने वालों का आहार धम के स्थान में अधर्म का पोषक होता है और जीने के लिये खाने वालों का आहार पुण्योपार्जन में सहायक होता है । यही दृष्टि गौतम स्वामी के भोजनसम्बन्धी प्रश्न में अवस्थित है। __ छठा प्रश्न सुबाहुकुमार के कृत्यविषयक है। यह प्रश्न बड़े महत्त्व का है । मानव के प्रत्येक कृत्य-कार्य से दोनों की प्रकृतियों अर्थात् पुण्य और पाप की प्रकृतियों का बन्ध होता है । कर्मबन्ध का आधार मानव की भावना है। मानवीय विचारधारा की शुभाशुभ प्रेरणा से प्राप्तव संवर और सम्बर अानव हो जाता है । वास्तव में देखा जाए तो मानव की बाह्यक्रिया मात्र से वस्तुतत्त्व का यथार्थ निश्चय नहीं हो सकता । आत्मशुद्धि या उस की अशुद्धि की मादिका मानवीय भावना है । इसी के आधार पर शुभाशुभ कर्मबन्ध की भित्ति प्रतिष्ठित है। सांसारिक कृत्यों-कार्या से पाप पुण्य इन दोनों का प्रादुर्भाव होता रहता है, परन्तु ज्ञानपूर्वक-विवेक के साथ जिस काम के करने में पुण्यकर्मबन्ध होता है, उसी काम को यदि अज्ञानपूर्वक अर्थात् अविवेक से किया जाये तो उस में पापकर्म का बन्ध होता है। मनुष्य की प्रवृत्तियाँ उस की उन्नति एवं अवनति का कारण बना करती हैं । इस लिए मनुष्य को चाहिये कि किसी भी कार्य को करने से पहले उस की कृत्यता तथा अकृत्यता का विचार कर ले । यदि कार्य कृत्यता से शन्य है तो उसे कभी नहीं करना चाहिये, चाहे कितना भी संकट आ पड़े। नीतिकारों ने इस तथ्य का पूरे ज़ोर से समर्थन किया है, अतः जीवन को पापजनक प्रवृत्तियों से बचाना चाहिये और धर्मजनक प्रवृत्तियों को अपनाना चाहिये । श्री गौतम स्वामी के प्रश्न का भी यही (१) मांसाहार धार्मिक दृष्टि से निन्दित है, गर्हित है, अतः हेय है, त्याज्य है तथा मनुष्य की प्रकृति के भी प्रतिकूल है आदि बातों का विचार पृष्ठ ३९२ तथा ३१३ पर कर आये हैं । (२) कर्तव्यमेव कर्तव्यं प्राणैः कण्ठगतरपि । अकर्तव्यं न कर्तव्यं प्राणैः कण्ठगतैरपि ॥ अर्थात् – जब प्राण कण्ठ में आ जावें तब भी अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये, उस समय भी कर्तव्य को छोड़ना उचित नहीं है । इसके विपरीत चाहे प्राण कएठ में आ जाये तब भी अकर्तव्य कर्म का आचरण नहीं करना चाहिये । सारांश यह है कि कर्तव्यनिष्ठा में जीवनोत्सर्ग कर देना अच्छा है, परन्तु अक - तव्य-अकृत्य को कभी भी जीवन में नहीं लाना चाहिये। For Private And Personal Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। अभिप्राय है कि सुबाहुकुमार ने विशुद्ध मनोवृत्ति से ऐसा कौन सा पुण्यजनक कृत्य किया ? जिस के कारण आज वह प्रत्यक्षरूप में जगद्वल्लभ बना हुश्रा है ? सातवां प्रश्न उस के समाचरण - शीलसम्बन्धी है । अर्थात् सुबाहुकुमार ने ऐसे कौन से शीलव्रत का अाराधन या अनुष्ठान किया है, जिस के प्रभाव से उम को ऐसी सर्वोच्च मानवता की प्राप्ति हुई है १ आजकल शील शब्द का व्यवहार बहुत संक चित अर्थ में किया जाता है । उस का एक मात्र अर्थ पुरुष के लिए स्त्रीसंगग का त्याग ही समझा जाता है, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है । उस की अर्थ परिधि इस से बहुत अधिक व्यापक है । "स्त्रोसंसर्ग का त्याग" यह शील का मात्र एक अांशिक अर्थ है । इस से अतिरिक्त अर्थों में भी वह व्यवहत होता है। समुच्चयरूप से उस का अर्थ निषिद्ध बुरे कामों से निवृत्त होना और विहित-अच्छे कामों में प्रवृत्ति करना है। अर्थात् शास्त्रग हित हिंसा झूठ, चोरी, व्यभिचार, घूत और मदिरापानादि से निवृत्त होना और शास्त्रानुमोदित-अहिंसा, सत्य, अस्तेय और स्वस्त्र सन्तोष एवं सत्संग और शास्त्रस्वाध्याय आदि में प्रवृत्ति करना शील कहलाता है। परस्त्रीयाग और स्वस्त्रीसन्तोष तो शील के अनेक अर्थों में से दो है। इतना मात्र आचरण करने वाला शीलव्रत के मात्र एक अंग का आराधक माना जा सकता है, सम्पूर्ण का नहीं। गौतम स्वामी का आठवां प्रश्न श्रवण के सम्बन्ध में है। अर्थात् उस ने ऐसे कौन से कल्याणकारी वचनों का श्रवण किया है जिन के प्रभाव से उस को इस प्रकार को लोकोत्तर कीर्ति का लाभ एवं संप्राप्ति हुई है। इस कथन से त्यागशील धर्मपरायण मुनिजनों या गुरुजनों का बड़ा महत्त्व प्रदर्शित होता है, कारण कि धर्मगुरुओं के मुखारविन्द से निकला हुआ धर्मोपदेश जितना प्रभावपूर्ण होता हैं और उस का जितना विलक्षण असर होता है, उतना प्रभावशालो सामान्य पुरुषों का नहीं होता। आचरणसम्पन्न व्यक्त के एक वचन का श्रोता पर जितना असर होता है, उतना आचरण होन व्यक्ति के निरन्तर किए गए उप देश का भी नहीं होता। तपोनिष्ठ त्यागशील गुरुजनों की आत्मा धम के रंग में निरन्तर रंगी हुई रहती है, उन के वचनों में अलौकिक सुधा का संमिश्रण होता है, जिस के पान से श्रोतृवर्ग की प्रसुप हृदयतंत्रो में एक नए ही जीवन का नाद प्रतिध्वनित होने लगता है। वे आत्मशक्ति से ओतप्रोत होते हैं। जिन के वचनो में आत्मिक शक्ति का मार्मिक प्रभाव नहीं होता, वे दूसरों को कभी प्रभावित नहीं कर सकते । उन का तो वका के मुख से निकल कर श्रोताओं के कानों में विलीन हो जाना, इतना मात्र ही प्रभाव होता है. । इसलिए चारित्रशील व्यक्तियों से प्राप्त हुआ सारगर्भित सदुपदेश ही श्रोताओं के हृदयों को पालोडित करने तथा उन के प्रसुप्त आत्मा को प्रबुद्ध करने में सफल हो सकता है। ___ हाथी का दान्त जब उस के पास अर्थात् मुख में होता है, तो वह उस से नगर के मज़बूत से मज़बूत किवाड़ को भी तोड़ने में समर्थ होता है । तात्पर्य यह है कि हाथी के मुख में लगा हुआ दान्त इतना शक्तिसम्पन्न होता है कि उस से दृढ़ किवाड़ भी टूट जाता है, पर वह दान्त जब हाथी के मुख से पृथक् हो कर, खराद पर चढ़ चूड़े का रूप धारण कर लेता है तब वह सौभाग्यवती महिलाओं के करकमलों की शोभा बढ़ाने के अतिरिक्त और कछ भी करने लायक नहीं रहता । उस में से वह उग्रशक्ति विलुप्त हो जाती है । यही दशा धर्मप्रवचन या धर्मोपदेशक की है । चारित्रनिष्ठ त्यागशील गुरुजनों का प्रवचन हाथी के मुख में लगे हुए दान्त के समान होता है और स्त्रियों के हाथ में पहने हुए दान्त के चूड़े के समान चारित्ररहित सामान्य पुरुषों का प्रवचन होता है । एक अपने अन्दर उग्रशक्ति रखता है, जबकि दूसरा केवल शोभा मात्र है। सुबाहुकमार पूर्वभव में किसी विशिष्ट व्यक्ति के प्रवचन से मार्मिक बोध को प्राप्त कर के तदनुसार आचरण For Private And Personal Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय करता हुआ पुनीत होता है । इस का निश्चय उस के ऐहिक मानवी वैभव से होता है। विशिष्ट बोधसम्पन्न व्यक्ति की दृष्टि में अात्मा की उत्पत्ति या विनाश नहीं होता है । अर्थात् "किसी समय में उस की उत्पत्ति हुई होगी और किसी समय उस का विनाश होगा'' इस साधारणजनसंमत अताविक कल्पना को उन के हृदय में कोई स्थान नहीं होता : वे जानते हैं कि कोई पुरुष पुराने वस्त्रों को त्याग नवीन वस्त्र धारण करने पर नया नहीं हो जाता, उसी प्रकार नवीन शरीर ग्रहण कर लेने पर आत्मा भी नहीं बदलता । अात्मा की सत्ता त्रैकालिक है । वह आदि, अन्त हीन और काल की परिधि से बाहिर है । शरीर उत्पन्न होते हैं और विनष्ट भी हो जाते हैं, परन्तु शरीरी-आत्मा अविनाशी है । वह नानाविध आभूषणों में व्याप्त सुवर्ण की भांति ध्रुव है । इस अबाधित सत्य को ध्यान में रखते हुए सुबाहुकुमार के पूर्वभव की पृच्छा की गई है । तथा "किं वा दच्चा, किं वा भोच्चा"-इत्यादि अनेकविध प्रश्नों का तात्पर्य यह है कि ये सभी पुण्योपार्जन के साधन हैं । इम में से किसी का भी सम्यग अनुष्ठान पुण्यप्रकृति के बन्ध का हेतु हो सकता है, परन्तु सुबाहुकुमार ने इन में से किस का आराधन किया था ? यही प्रस्तुत में प्रष्टव्य है। . प्रस्तुत सूत्र में सुबाहुकुमार को देख कर गौतम स्वामी के विस्मित होने तथा उसे प्राप्त हुई मानवी ऋद्धि का मूलकारण पूछते हुए उस के पूर्वभव की जिज्ञासा करने आदि का वर्णन किया है । इस के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फ़रमाया अब सूत्रकार उस का प्रतिपादन करते हैं - मूल-'एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेब जंबुद्दोवे दीवे मारहे वासे हथिणाउरे णामं णगरे होत्था, रिद्ध० । तत्थ णं हथिणाउरे गरे सुमुहे णाम गाहावती. परिवसति शड्ढे । तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा णाम थेरा जातिसंपन्ना जाव पंचहि समणसतेहिं सद्धिं संपरिवुडा पुव्वाणुपुचि चरमाणा गामानुगाम दूइज्जमाणा जेणेव हथियाउरे ण गरे जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छन्ति उवागच्छित्ता महापडिरूवं उग्गहं उग्गिरिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरति । तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसाणं थेराणं अन्तेवासी सुदत्ते अणगारे मासखमणपारणगंसि पढमपोरिसीए मझायं करेति, जहा गोयमसामी तहेव सुहम्मे थेरे आपुच्छति, जाव अडमाणे सुमुहस्स गाहावांतस्स गिह अणुपविट्ठ। (१) छाया-एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तास्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे हस्तिनापुरं नाम नगरमभूद् , ऋद्ध० । तत्र हस्तिनापुरे नगरे सुमुखो नाम गाथापतिः परिवसति, आठ्यः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये धर्मघोषा नाम स्थविरा जातिसम्पन्ना यावत् पञ्चभिः श्रमणशते: सार्द्ध संपरिवृताः पूर्वानुपूर्वी चरन्तो ग्रामानुग्राम द्रवंतो यत्रैव हस्तिनापुर नगरं यत्रैव सहस्राम्रवणमुद्यानं तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य यथाप्रतिरूपमवग्रहमवगृह्य संयमेन तपसा श्रात्मानं भावयन्तो विहरन्ति । तस्मिन् काले तस्मिन् समये धर्मघोषाणां स्थविराणामन्तेवासी सुदत्तो नाम अनगार उदारो यावत् तेजोलेश्यो मासंमासेन क्षममाणो विहरति । ततः स सुदत्तोऽनगारो मासनमणपारण के प्रथमपौरुष्या स्वाध्यायं करोति, यथा गौतमस्वामी तथैव सुधर्मणः स्थविरात् आपृच्छति यावदटन् सुमुखस्य गाथापते हमनुप्रविष्टः । For Private And Personal Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित। पदार्थ-एवं खलु -इस प्रकार निश्चय ही । गातमा !- हे गौतम ! । तेणं कालेणं तेणं समएणंउस काल और उस समय । इहेव-इसी । जंबुद्दीवे दीवे-जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत । भारहेभारत । वासे. वर्ष में। हथिणाउरे-हस्तिनापुर । णाम-नाम का। णगरे-नगर । होत्या-था, जो कि । रिद्ध०-ऋद्ध-भवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित-स्वचक और परचक्र के भय से मुक्त और समृद्ध -धनधान्यादि से परिपूर्ण था । तत्थ णं-उस हथिणाउरे-हस्तिनापुर । णगरे-नगर में । सुमुहे-सुमुख । णाम-नाम का । गाहावती- गाथापति-गृहस्थ । परिवसति-रहता था, जोकि । अड्ढे०--बड़ा धनी यावत् अपने नगर में बड़ा प्रतिष्ठित माना जाता था। तेणं कालेणं तेण समएणं-उस काल और उस समय । धम्मघोसा - धर्मघोष । णाम-नाम के । थेरा-स्थविर । जातिसंपन्ना-जातिसम्पन्न-श्रष्ठ मातृपक्ष वाले । जात्र- यावत् । पंचहिं-पांच । समयसतेहि-सौ श्रमणों के । सद्धिं - साथ । संपरिचुडा-सम्परिवृत । पुव्वाणुपुग्विं-पूर्वानुपूर्वी-क्रमशः । चरमाणा-विचरते हुए। गामाणगामं - प्रामानुग्राम -एक ग्राम से दूसरे ग्राम में। दूइज्जमाणा-गमन करते हुए । जेणेव-जहां । हत्थिणाउरे-हस्तिनापुर । गरे - नगर था, और । जेणेव-जहां पर । सहसंबवणे - सहसाम्रवन नामक । उज्जाणे-उद्यान था । तेणेव-वहां पर । उवागच्छंति-आते हैं । उवागच्छिता-आकर । अहापडि. रूवं-यथाप्रतिरूप-अनगारधर्म के अनुकूल । उग्गह-अवग्रह-आश्रय-बस्ती को। उग्गिरिहत्ता - ग्रहण कर । संजमेणं-संयम, और । तवसा - तप के द्वारा। अप्पाणं-श्रात्मा को। भावेमाणे -भावित करते हुए। विहरति-विचरण करते हैं । तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल और उस समय में। धम्मघोसाणंधर्मत्रोष । राणं-स्यविरों के । अन्तवासी-शिष्य । सुश्त-सुदत्त । नाम-नामक । अणगारेअनगार । उराले-उदार-प्रधान । जात्र-यावत् । तेउलेस्से-तेजोलेश्या को संक्षिप्त किये हुए । मासमासेणं-एक २ मास का । खममाणे-क्षमण-तप करते हुए अर्थात् एक मास के उपवास के बाद पारणा करने वाले । विहरति-विहरण कर रहे थे । तते णं-तदनन्तर । से-वह । सुदत्त -सुदत्त । अणगारे -अनगार । मासक बमणपारणगंसि -मासक्षमण के पारणे में । पढमपोरिसीए-प्रथमपौरुषी में। सज्झायं-स्वाध्याय । करेति-करते हैं। जहा-यथा । गोयमसामी-गौतमस्वामी । तहेव-तयैव । धम्मघोसे-धघोष । थेरे - स्थविर को । श्रापुच्छति-पूछते हैं । जाव-यावत् भिक्षार्थ । अडमाणेभ्रमण करते हुए उन्होंने । सुमुहस्स -सुमुख । गाहावतिस्स-गाथापति के । गिह-घर में । अणुपविटेप्रवेश किया अर्थात् भ्रमण करते हुए सुमुख गाथापति के घर में प्रविष्ट हुए। मूलार्थ-इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम ! उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में हस्तिनापुर नाम का एक ऋद्ध, स्तिमित तथा समृद्ध नगर था । वहाँ समुख नाम का एक धनाढ्य गाथापति रहता था जोकि यावत् नगर का मुखिया माना जाता था। उस काल और उस समय जातिसम्पन्न यावत् पांच सौ श्रमणों से परिवृत हुये धर्मघोष नामक स्थविर क्रमपूर्वक चलते हुए और ग्रामानुग्राम विचरते हुए हस्तिनापुर नगर के सहस्राम्रवन नामक उद्यान में पधारे । वहां यथाप्रतिरूप अवग्रह-बस्ती को ग्रहण कर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विहरण करने लगे। - उस काल और उस समय श्री धर्मघोष स्थविर के अन्तेवासी-शिष्य उदार यावत् तेजोलेश्या को संक्षिप्त किये हुए सुदत्त नाम के अनगार मासिक क्षमण-तप करते हुए विहरण कर रहे थे, साधुजीवन बिता रहे थे। तदनन्तर सुदत्त अनगार मासक्षमण के पारणे में पहले पहर में स्वाध्याय For Private And Personal Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६१८] श्रीविपासूत्रीय द्वितीय श्रुतम्कन्ध - [प्रथम अध्याय करते हैं । जैसे गौतमस्वामी प्रभु वीर से पूछते हैं वैसे ही ये श्री धर्मघोष स्थविर से पूछते हैं, यावत् भिक्षा के लिये भ्रमण करते हुए उन्हों ने समुम्ब गाथापति के घर में प्रवेश किया। टीका -श्री गौतम अनगार के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने सुबाहुकुमार के पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाना प्रारम्भ करते हुए काल और समय इन दोनों का कथन किया है । इस से स्पष्ट सिद्ध है कि ये दोनों अलग २ पदार्थ हैं । जैसे- लोक में व्यापारी लोग खाते में सम्वत् और मिति दोनों का उल्लेख करते हैं। उस में केवल सम्बत् लिख दिया जाये और मिति न लिखी जाये तो वह वहीखाता प्रामाणिक नहीं माना जाता, उस की प्रामाणिकता के लिये दोनों का उल्लेख आवश्यक होता है । वैसे ही सूत्रकार ने काल और समय दोनों का प्रयोग किया है । काल शब्द सम्वत् के स्थानापन्न है और समय मिति के स्थान का पूरक है । तब उस काल और समय का यह अर्थ निष्पन्न होता है कि इस अवसर्पिणी के चतुर्थकाल - चौथे बारे में और उस समय जब कि सुबाहुकुमार सुमुख गाथापति के भव से इस भव में आया था । जब तक स्थान को न जान लिया जावे तब तक उस स्थान पर होने वाली किसी भी घटना का स्वरूप भलीभाँति जाना नहीं जा सकता । इसलिए स्थान का निर्देश करना नितान्त आवश्यक होता है, फिर भले ही वह कहीं हो या कोई भी हो । इसी उद्देश्य की पूर्ति के निमित्त जम्बूद्वीपान्तर्गत भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध नगर हस्तिनापुर का उल्लेख किया गया है। . हस्तिनापुर बहुत प्राचीन नगर है। भारतवर्ष के इतिहास में इस को बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । यह नगर पहले भगवान् शान्तिनाथ ओर कन्धुताथ की राजधानी बना रहा है। फिर पांडवों की राजधानी का भी इसे गौरव प्राप्त रहा है। यहां पर अनेक तीर्थंकरों के कल्याणक हुए और हमारे चरितनायक सुबाहुकुमार के जीव ने भी अपने को सुबाहुकमार के रूप में जन्म लेने की योग्यता का सम्पादन इसी नगर में किया था। संभवत: इसी कारण प्राचीन हस्तिनापुर सुदूर पूर्व से लेकर आजतक भारत का भाग्यविधाता बना रहा है । इसी हस्तिनापुर में सुबाहुकुमार अपने पूर्वभव में सुमुख माथापति के नाम से विख्यात था। . सुमुख-जिस का मुख नितान्त सुन्दर हो, जिस के मुख से प्रिय वचन निकलें, अर्थात् जिस के मुख से अश्लील, कठोर, असत्य और अप्रिय वचनों के स्थान में सभ्य, कोमल, सत्य और प्रिय ववनों का नि. स्सरण हो, वह सुमुख कहा वा माना जाता है। , गाथापति-गाथा नाम घर का है, उस का पति -संरक्षक गाथापति-गृहपति कहलाता है। वास्तव में प्रतिष्ठित गृहस्थ का ही नाम गाथापति है। सुमुख गायापति अाढ्य - सम्पन्न, दीप्त-तेजस्वी और अपरिभूत था अर्थात् नागरिकों में उस का कोई पराभव -तिरस्कार नहीं कर सकता था । तात्पर्य यह है कि धनी, मानी होने के साथ २ वह आचरणसम्पन्न भी था। इसलिये उस का तिरस्कार करने का किसी में भी साहस नहीं होता था । सुमुख गाथापति पूरा २ सदाचारी था, अतएव अपरिभूत था । __धन, धान्य की प्रचुरता से किसी मनुष्य का महत्त्व नहीं बढ़ता । उस की प्रचुरता तो कृपण और दुःशील के पास भी हो सकती है । सुमुख का घर धन, धान्यादि से भरपूर था, मगर उस की विशेषता इस बात में थी कि उस का धन परोपकार में व्यय होता था । दीपक अपने प्रकाश से स्वयं लाभ नहीं उठाता । वह जलता है तो दूसरों को प्रकाश देने के लिये ही । समुख गाथापति भी दीपक की भाँति अपने वैभव का विशेषरूप से दूसरों के लिये ही उपयोग करता था। उस की वदान्यता-दानशीलता देश देशान्तरों में प्रख्यात थी। उस की धनसम्पत्ति का विशेष भाग अनुकम्पादान और सपात्रदान में ही होता था । . For Private And Personal Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । . धर्माप -- सहस्राम्रवन नामक उद्यान में ५०० शिष्यपरिवार के साथ पधारने वाले आचार्य श्री का धमघोष, यह गुणसम्पन्न नाम था। धर्मघोष का व्युत्पत्तिलभ्य अथ होता है -धर्म की घोषणा करने वाला। तात्पर्य यह है कि जिस के जीवन का एक मात्र उद्दश्य धर्म की घोषणा करना, धम का प्रचार करना हो, वह धमेघोष कहा जा सकता है । उक्त आचार्यश्री के जीवन में यह अर्थ अक्षरशः संघटित होता है और उन की गुणसम्पदा के सर्वथा अनुरूप है। स्थविर-स्थविर शब्द का अर्थ सामान्यरूप से वृद्ध -बूड़ा या बड़ा होता हैं । प्रकृत में इस का" - वृद्ध या बड़ा साधु -" इस अर्थ में प्रयोग हुआ है । 'आगमों में तीन प्रकार के स्थविर बतलाये गए हैं - जातिस्थविर सूत्र-श्र तस्थविर और पर्यायस्थविर । साठ वर्ष की आयु वाला जातिस्थविर श्री स्थानांग और समवायांग का पाठी-जानकार सूत्रस्थविर और बीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाला पर्यायस्थविर कहलाता है। यद्यपि धर्मघोष अनगार में इन तीनों में से कौन सी स्थविरता थी १, इस का उल्लेख प्रस्तुत सूत्र में नहीं और नाहिं टीका में है, तथापि सूत्रगत वर्णन से उन में उक्त तीनों ही प्रकार की स्थविरता का होना निश्चित होता है। पांच सौ शिष्य परिवार के साथ विचरने वाले महापुरुष में आयु, श्रुत और दीक्षापर्याय इन तीनों की विशिष्टता होनी ही चाहिये । इस के अतिरिक्त जैनपरम्परा के अनुसार स्थविरों को तीर्थंकरों के अनुवादक कहा जाता है। तीर्थ कर देव के अर्थरूप संभाषण को शाब्दी रचना का रूप देकर प्रचार में लाने का काम स्थविरों का होता है। गणधरों या स्थविरों को यदि तीर्थंकरों के अमात्य - प्रधानमंत्री कहा जाए तो अनुचित न होगा। जैसे, राजा के बाद दूसरे स्थान पर प्रधानमंत्री होता है, उसी प्रकार तीर्थंकरों के बाद दूसरे स्थान पर स्थविरों की गणना होती है, और जैसे राज्यसत्ता को कायम तथा प्रजा को सुखी रखने के लिये प्रधानमंत्री का अधिक उत्तरदायित्व होता है, उसी प्रकार अरिहन्तदेव के धर्म को दृढ़ करने और फैलाने का काम स्थविरों का होता है। तब तीर्थकर देव के धर्म को आचरण और उपदेश के द्वारा जो स्थिर रखने का निरन्तर उद्योग करता है, वह स्थविर है, यह अर्थ भी अनायास ही सिद्ध हो जाता है। जातिसम्पन्न-धर्मघोष स्थविर को जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न और बलसम्पन्न आदि विशेषणों से विशेषित करने का अभिप्राय उन के व्यक्तित्व को महान् सूचित करता है । जाति शब्द माता के कुल की श्रेष्ठता का बोधक है और कुल शब्द पिता के वंश की उत्तमता का बोधक होता है। धर्मघोष स्थविर को जातिसम्पन्न और कलसम्पन्न कहने से उन की मातृकलगत तथा पितृकुलगत उत्तमता को व्यक्त किया गया है। अर्थात् वे उत्तम कल और उत्तम वंश के थे, वे एक असाधारण कुल में जन्मे हुए थे। प्रश्न-एक ही नगर में एक साथ पांच सौ मुनियों को ले कर श्री धर्मघोष जी महाराज का पधारना, यह सन्देह उत्पन्न करता है कि एक साथ पधारे हुए पांच सौ मुनियों का वहां निर्वाह कैसे होता होगा? इतने मुनियों को निर्दोष भिक्षा कैसे मिलती होगी ? उत्तर-उस समय आर्यावर्त में अतिथिसत्कार की भावना बहुत व्यापक थी। अतिथिसेवा करने को लोग अपना अहोभाग्य समझते थे। भिक्षु को भिक्षा देने में प्रत्येक व्यक्ति उदारचित्त था । ऐसी परिस्थिति में हस्तिनापुर जैसे विशाल क्षेत्र में ५०० मुनियों का निर्वाह होना कुछ कठिन नहीं किन्तु नितान्त सुगम था। (१) तो थेरभूमीओ पं० त०-जाइथेरे सुत्तथेरे, परियायथेरे......वीसवासपरियारणं समणे णिग्गंथे परियायथेरे (स्थानांगसूत्र स्थान ३, उ० ३, सू० १५९) (२) श्री ज्ञातासूत्र आदि में गणधरदेवों को भी स्थविरपद से अभिब्यक्त किया गया है । For Private And Personal Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६२० ] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय इस में कोई आशंका वाली बात नहीं है । अथवा पांच सौ मुनियों को साथ ले कर विचरने का यह भी तात्पर्य हो सकता है कि धर्मघोष आचार्य की निश्राय में, उन की आज्ञा में ५०० मुनि विचरते थे । दुसरे शब्दों में उन का शिष्य मुनिपरिवार ५०० था. जिस के साथ वे ग्रामानुग्राम विचरते और धर्मोपदेश से जनता को कृतार्थ करते थे । इस में कुछ मुनियों का साथ में आना, कुछ का पीछे रहना और कुछ का अन्य समीपवर्ती ग्रामों में विचरण करना आदि भी संभव हो सकता है। इस प्रकार भी ऊपर का प्रश्न समाहित किया जा साती है। साधुत्रों का जीवन बाह्य बन्धनों से विमुक होता है, उन पर - "आज इसी ग्राम में ठहरना है या इसे छोड़ ही देना है।" इस प्रकार का कोई प्रतिबन्ध नहीं होता, इसी बात को सूचित करने के लिये "पुवाणपवि" यह पद दिया है । अर्थात् धर्मघोष आचार्य मुनियों के साथ पूर्वानुपूर्वी-एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विवरते थे। उन्हें किसी ग्राम को छोड़ने की ज़रूरत नहीं होती थी। वे तो जहां जाते वहां धमधा की वर्षा करते, उन्हें किसी को वंचित रखना अभीष्ट नहीं था। वास्तव में संयमशील मुनिजनों के ग्रामानुग्राम विचरने से ही धर्म को विशेष प्रोत्साहन मिलता है। इसीलिये साधु को चातुर्मास के बिना एक स्थान पर स्थित न रह कर सर्वत्र विचरने का शास्त्रों में आदेश दिया गया है। धर्मघोष स्थविर के प्रधान शिष्य का नाम सदत्त था। सुदत्त अनगार जितेन्द्रिय और तपस्वी थे । तपोमय जीवन के बल से ही उन्हें तेजोलेश्या की उपलब्धि हो रही थी। उन की तपश्चर्या इतनी उग्र थी कि वे एक मास का अनशन करते और एक दिन आहार करते, अर्थात् महीने २ पारणा करना उन की बाह्य तपस्या का प्रधानरूप था और इसी चर्या में वे अपने साधुजीवन को बिता रहे थे। अन्तेवासी का सामान्य अर्थ समीप में रहने वाला होता है, पर समीप रहने का यह अर्थ नहीं कि हर समय गुरुजनों के पीछे २ फिरते रहना, किन्तु गुरुजनों के आदेश का सर्वथा पालन करना ही उनके समीप रहना है । गुरुजनों के आदेश को शिरोधार्य कर के उस का सम्यग अनुष्ठान करने वाला शिष्य ही वास्तव में अन्तेवासी (अन्ते समीपे वसति तच्छील:) होता है। जिस में बहुत से सद्गुण विद्यमान हों, और उन सब का समुचित रूप में वर्णन न किया जा सकता हो तो उन में से एक दो प्रधान गुणों का वर्णन कर देने से बाकी के समस्त गुणों का भी बिना वर्णन किये ही पता चल जाता है। जैसे राजा के मुकुट का वर्णन कर देने से बाकी के समस्त आभूषणों के सौन्दर्य की कल्पना अपने आप ही हो जाती है। इसी प्रकार सुदत्त मुनि के प्रधानगुण - तपस्या के वर्णन से ही उन में रहे हुए अन्य साधुजनोचित सद्गुणों का अस्तित्व प्रमाणित हो जाता है। प्रश्न-एक मास के अनशन के बाद केवल एक दिन भोजन करने वाले मुनि विहार कैसे कर सकते होंगे ? क्या उन के शरीर में शिथिलता न आ जाती होगी ? बिना अन्न के औदारिक शरीर का सशक्त रहना समझ में नहीं आता ? __ उत्तर-यह शंका बिल्कुल निस्सार है, और दुर्बल हृदय के मनुष्यों की अपनी निर्बल स्थिति के आधार पर की गई है, क्योंकि आज भी ऐसे कई एक मुनि देखने में आते हैं जो कि कई बार एक २ या दो २ मास का अनशन करते हैं और अपनी समूर्ण आवश्यक क्रियाएं स्वयं करते हैं । तपश्चर्या के लिए शारीरिक संहनन और मनोबल की आवश्यकता है । जिस समय की यह बात है उस समय तो मनुष्यों का संहनन अ मनोबल आज की अपेक्षा बहुत ही सुदृढ़ था । इसलिए श्री सुदत्त मुनि के मासक्षमण में किसी प्रकार की आशंका को अवकाश नहीं रहता । इस के अतिरिक्त आत्मतत्त्व के चिन्तक, तपश्चर्या की मूर्ति श्री सुदत्त मुनि For Private And Personal Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित। [६२१ अनशन व्रत का अनुष्ठान करते हुए शिथिल है या सशक्त-मज़बा ? इस का उत्तर तो सूत्रकार ने ही स्वयं यह कह कर दे दिया है कि वे मासक्षमण के पारणे के लिये हस्तिनापुर नगर में स्वयं जाते हैं और भिक्षाथ पर्यटन करते हुए उन्हों ने सुमुख गृहपति के घर में प्रवेश किया। इस पर से सुदत्त मुनि के मानसिक और शारीरिक बल की विशिष्टता का अनुमान करना कुच्छ कठिन नहीं रहता । दूसरी बात-तपस्या करने वाले मुनि को अपने शारीरिक और मानसिक बल का पूरा २ ध्यान रखना होता है। वह अपने में जितना बल देखता है उतना ही तप करता है। तपस्या करने का यह अर्थ नहीं होता कि दूसरों से सेवा करवाना और उन के लिये भारभूत हो जाना । मास मास दो बार कहने का तात्पर्य यह है कि उन को यह तपस्या लंबे समय से चालू थी । वे वर्ष भर में बारह दिन ही भोजन करते थे, इस से अधिक नहीं । आज श्री सुदत्त मुनि के पारणे का दिन है। उन के अनशन को एक मास हो चुका है। वे उस दिन प्रथम पहर में स्वाध्याय करते हैं, दूसरे में ध्यान तीसरे में वस्त्रपात्रादि तथा मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करते हैं । तदनन्तर आचार्यश्री की सेवा में उपस्थित हो उन्हें सविधि वन्दना नकस्कार कर पारणे के निमित्त भिक्षार्थ नगर में जाने की आज्ञा मांगते हैं । आचार्यश्री की तरफ़ से आशा मिल जाने पर नगर में चले जाते हैं, इत्यादि। स्या दा प्रकार की होती है, बाह्य और आभ्यन्तर । अनशन यह बाह्य तप-तपस्या है । बाह्य तप श्राभ्यन्तर तप के बिना निर्जीव प्रायः होता है । बाह्य तप का अनुष्ठान आभ्यन्तर तप के साधनार्थ ही किया जाता है। यही कारण है कि श्री सुदत्त मुनि ने पारणे के दिन भी स्वाध्याय और ध्यानरूप प्राभ्यन्तर तप की उपेक्षा नहीं की । वास्तव में देखा जाये तो आभ्यन्तर तप से अनुपाणित हुआ ही बाह्य तप मानव जीवन के आध्यात्मिक विकास में सहायक हो सकता है। प्रश्न-पांच सौ मनियों के उपास्य श्री सुधर्मघोष स्थविर के अन्य पर्याप्त शिष्यपरिवार के होने पर भी परमतपस्वी सुदत्त अनगार स्वय गोचरी लेने क्यों गये ? क्या इतने मुनियों में से एक भी ऐसा मुनि नहीं या जो उन्हें गोचरी ला कर दे देता ? उत्तर-महापुरुषों का प्रत्येक आचरण रहस्यपूर्ण होता है, उस के बोध के लिए कुछ मनन की अपेक्षा रहती है । साधारण बुद्धि के मनुष्य उसे समझ नहीं पाते । उन को प्रत्येक क्रिया में कोई न कोई ऊंचा आदर्श छिपा हुआ होता है । सुदत्त मुनि का एक मास के अनशन के बाद स्वयं गोचरी को जाना, साधकों के लिये स्वावलम्बी बनने को सुगतिमूलक शिक्षा देता है । जब तक अपने में सामर्थ्य है तब तक दूसरों का सहारा मत ढूढो। जो व्यक्ति सशक्त होने पर भी दूसरों का सहारा ढूढता है वह अात्मतत्त्व की प्राप्ति से बहुत दूर चला जाता है। इसी दृष्टि से श्री स्थानांगसूत्र के चतुर्थ स्थान तथा तृतीय उद्देश्य में परावलम्बी को दुःखशय्या पर सोने वाला कहा है । वास्तव में पालसो बन कर सुख में पड़े रहने के लिये साधुत्व का अंगीकार नहीं किया जाता। उस के लिये तो प्रमाद से रहित हो कर उद्योगशील बनने की आवश्यकता है । श्री दशवकालिकसूत्र के द्वितीय अध्याय में स्पष्ट शब्दों में कहा है -"-चय सोगमल्लं-" अर्थात् सकमारता का परित्याग करो।गृहस्थ भी यदि शक्ति के होते हुए कमा कर नहीं खाता तो घर वालों को शत्र सा प्रतीत होने लगता है। सारांश यह है कि गृहस्थ हो या साधु, 'परावलम्बन सभी के लिए अहितकर है । वास्तव में विचार किया जाये तो बिना विशेष कारण (१) स्वावलम्बन के सम्बन्ध में श्री उत्तराध्ययन सूत्र का निम्नलिखत पाठ कितना मार्गदर्शक है ? - "-संभोगपञ्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ, १, संभोगपञ्चाक्खाणेणं जीवे आलम्बरणाई खवेइ, निरालंबस्स य श्रावठिया जागा भवन्ति, सरणं लाभेणं सन्तुस्सद्द, परलाभ नो श्रासादेइ, परलाभ For Private And Personal Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६२२] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध पराश्रित होना ही आत्मा को पतन की ओर ले जाने का प्रथम सोपान है । इस की तो भावना भी साधक के लिये वांछनीय नहीं है। बस इसी दृष्टि से श्री सुदत्त मुनि ने स्वयं पारो के लिये प्रस्थान किया और वे हस्तिनापुर नगर के साधारण और असाधारण सभो घरों में अन करते हुए अन्त में वहां के सुप्रसिद्ध व्यापारी श्री सुमुख गाथापति के घर में प्रविष्ट हुए । [प्रथम अध्याय - रिद्ध० - यहाँ के बिन्दु से अभिमत पाठ पृष्ठ. ५६३ पर, तथा – श्रदे० - यहाँ के बिन्दु श्रभिमत पाठ पृष्ठ १३० पर लिखा जा चुका है। तथा जातिसंपन्ना जाव पंचहि यहां पठित जाव यावत् पद - कुलसम्पन्ने बलरूपविण्य गाणदंसणचरितलाब सम्पन्ने ओयंसी तेयंसी वच्चास जैसि जियको जियमाणे जियमाये जियलाहे जियइन्दिए जियनिद्दे जियपरीसहे जीवियासमरणभयविष्यमुक्के तवदपहाणे गुण पहाणे एवं करणचरणणिग्गहणिच्छ्रय श्रज्जवमद्दवलाघवखन्तिगुत्तिमुत्तिविज्जामंतवं भवेय नयनियमसच्च सोयणाणदंसणचरित पहाणे उराले घोरे घोव्वर घोरतवस्सी घोरबंभवेरेवासी उच्छूढसरीरे संखित्तविपुलतेउल्लेसे चउदसपूवी चउणाणोवगए - इन पदों का परिचायक है । जातिसम्पन्न आदि पदों का अर्थ निम्नोक्त है For Private And Personal -- प्रभ ए 1 - 4 धर्मघोष मुनिराज जातिसम्पन्न-उत्तम मातृपक्ष से युक्त, अथवा जिस की माता सच्चरित्रता आदि सदगुणों से सम्पन्न हो, कुलसम्पन्न उत्तम पितृपक्ष से युक्त, अथवा जिस को पिता सच्चरित्रता आदि उत्तम गुणों से सम्पन्न हो, बल – शारीकि शक्ति, रूप – शारीरिक सौन्दर्य, विनय-नम्रता, ज्ञानबोध, दशन – श्रद्धान, चारित्र - संयम तथा लाघव - द्रव्य से अल्प उपकरण का होना तथा भाव से ऋद्धि, रस और साता के अहंकार र त्याग, से 'से सम्पन्न -युक्त श्रोजस्वी - मनोबल वाले, तेजस्वी शारीरिक प्रभा से युक्त, वचस्वी - वी -- सौभाग्यादि से युक्त वचन वाले अथवा वर्चस्वी - प्रभा वाले, यशस्वी –दश वाले, जितकोध — क्रोध के विजेता, जितमान मान को जोतने वाले, जितनाय माया ( छलकपट) को जीतने वाले, जितलोभ - लोभ पर विजय प्राप्त करने वाले, जितेन्द्रिय -इन्द्रियों के विजेता, जितनिद्र-निद्रा-नींद के विजेता, जितपरीषह – परिषदों क्षुधा पिपासा आदि) के विजेता, जीविताशामरणमयविप्रमुक्त - जीवन की आशा और मृत्यु के भय से रहित, तपप्रधान - अन्य मुनियों की अपेक्षा जिन का तप उकृष्ट था, गुणप्रधान अन्य मुनियों को अपेक्षा जिन में गुणों की विशेषता थी. ऐसे थे इसो भाँति वे धमवो मुनिवर करण - - पिण्डविशुद्धि (आहारशुद्धि), समिति, भावना आदि जैनशास्त्र के प्रसिद्ध ७० बोलों का समुदाय, चरण - महाव्रत आदि, निग्रह - अनाचार में प्रवृत्ति न करना, निश्चय तत्त्वा का निर्णय आजव - सरलता, मादव मान का निग्रह, लाघव कार्यों में दक्षता, क्षान्ति कोष का न करना गुनि मनोसे, वचन गुप्ति आदि ३ गुप्तियें, मुक्ति-निर्लोभता, विद्या शास्त्रीय ज्ञान अथवा देवी से अधिष्ठित साधनसहित अक्षरपद्धति, मंत्र - हरिणगमेत्री आदि देवों से अधिष्ठित अक्षरपद्धति, ब्रह्म - ब्रह्मवर्ष अथवा सब प्रकार का कुरालानुडान सद् श्राचरण, वेद - श्रागम शास्त्र, नय नैगम आदि नय, नियम अभिग्रहविशेष सत्य सत्यवचन, शौच - द्रव्य से निलें – विशुद्ध और भाव से पात्र के प्रावरण से रहित होना, ज्ञान - मतिज्ञान, श्रुतज्ञानादि पंचविध ज्ञान, दर्शन - चतुदर्शन चक्षुदर्शन आदि चतुर्विष दर्शन, चारित्र - सामायिक आदि पञ्चविव चारित्र, इन सब में प्रधानता रखने वाले थे । तथा जो उदार -प्रधान, घोर - राग द्वेषादि श्रात्मों के लिये भयानक, घोरवत - दूसरों से दुरंनुचर वनों - महाव्रतों के धारक, घोरत स्त्री घोर तप के करने वाले, घोरब्रह्मचर्यवासी - नो, नो पीहे नो पत्थे, नो श्रमितसर । परलाभ अस्तायनाणे तक्मा अपी हेमाणे अपत्येमाणे अणभिलस्सेमाणे दुब' लुहसेज्जं अवसँपज्जित्ता गं त्रिइरई । (उत्तराध्ययन अ० २९, सू० ३३) - - Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [६२३ घोर ब्रह्मचर्य व्रत के धारक, उत्क्षिप्तशरीर-शरीरगत मम,व से सर्वथा रहित, संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यअनेक योजनप्रमाण वाले क्षेत्र में स्थित वस्तुओं को भस्म कर देने वाली तेजोलेश्या घोर तप से प्राप्त होने वाली लं धविशेष को अपने में संक्षिप्त -गुत किये हुए, चतुर्दश पूर्वी-१४ पूर्व के ज्ञाता तथा चतुर्ज्ञानोपगतमतिज्ञान, श्रतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान इन चार ज्ञानों को प्राप्त हो रहे थे। - अहापडिरुवं-का अथ है शास्त्रानुमोदित अनगार वृत्ति के अनुसार, और - उग्गह-अवग्रहम्का अवग्रह या आवासस्थान रहने की जगह - यह अर्थ होता है । तथा - उगिरिहत्ता-का- ग्रहण करके - यह अर्थ समझना चाहिए । तब इस का संकलित अर्थ यह हुआ कि धर्मघोष स्थविर अपने शिष्यपरिवार के साथ सहस्राम्रवन नामक उद्यान में शास्त्रविहित साधुवृति के अनुसार आवासस्थान को ग्रहण कर के वहां अवस्थित हुए। __ उराले जाव लेस्ले • यहां पठित - जाव-यात् पद से - घोरे घोरगुणे घोरज्वए घोरतवस्सी घोरबंभवेवासी उच्ठसीरे संखित्तविउलतेउ-इत्यादि पदों का ग्रहण करना चाहिये । घोर आदि पदों का अर्थ ऊपर लिखा जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद श्री. धर्मघोष जी महाराज के विशेषण हैं. जबकि प्रस्तुत में श्री सुदत्त मुनि के । नामगतभिन्नता के अतिरिक्त अथगत कोई भेद नहीं है -जहा गोयमसामी तहेव सुहम्मे थेरे आपुनति जाव अडमाणे -इस में पारणे के दिन पहले प्रहर से लेकर हस्तिनापुर में भिक्षार्थ जाने तक का सदत्त मुनि का जितना वृत्तान्त है, उसे ' गौतम स्वामी के गतवृत्तान्त की तरह जान लेने का सूत्रकार ने जो निर्देश किया है, तथा जाव-यावत् पद से गौतमस्वामी के समान किये गये सुदत्त मुनि के प्राचार के वर्णक पाठ को जो संसूचित किया है, वह निम्नोक्त है- .. -सुहम्मे थेरे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता सुहम्म थेरं वंदइ नमसइ, बन्दुित्ता नमसित्ता एवं वयालो -इच्छामि णं भते! नुब्भेहिं अब्भणुएणाते समाणे मासक्खमणपारणगंसि हत्थिरणारे णगरे उच्चनीयमज्झिमघरसमुदाणस्त भिक वायरियाए अडित्तर ! अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह, तर णं सुदत्ते अणगारे सुहम्मेणं थेरेणं अभणुएगाते समाणे सुहम्मस्स थेरस्स अंतियातो पडिनिक्खमति पडिनिक्वमित्ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगतरपलोयणाते दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणे जेणेव होत्यणाउरे णगरे तेणेव उवागच्छद, हथियाउरे जयरे उच्चनीयमज्झिमकुलाई । इन पदों का अर्थ निम्नोक्त है - तपस्विराज श्री सुदत्त अनगार मासक्षमण के पारणे के दिन प्रथम पहर में स्वाध्याय करते, दूसरे में ध्यान करते, तीसरे पहर में कायिक और मानसिक चालता से रहित हो कर मुखस्त्रिका की, भाजन एवं वस्त्रों को प्रतिले वता करते, तदनन्तर पात्रों को झाला में रख कर ओर झोलो को ग्रहण कर सुधर्मा स्थावर के चरणों में उपस्थित हो कर वन्दना तया नमस्कार करने के अनतर निवेदन करते हैं कि हे भगवन् ! श्राप (१) गौतम स्वामी का वर्णन पृष्ठ १२३ पर किया जा चुका है । पारणे के लिये जिस विधि से वे गये थे उसी विधि का समस्त अनुसरण सुदत्त मु ने करते हैं । अन्तर मात्र इतना है कि गौतम स्वामी भिक्षा के लिये वाणिजग्राम नगर में जाने से पहले श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से पूछते हैं, जबकि सदत्त मुनि हस्तिनापुर में भिक्षार्थ जाने के लिये धर्मघोष या सुधर्मा स्थविर से आज्ञा मांगते हैं । नगरादि की नामगत भिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है । 1515 For Private And Personal Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६२४] श्रोविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय की आज्ञा होने पर मैं मासक्षमण के पारणे के लिये हस्तिनापुर नगर में 'उच्च-धनी, नीच–निर्धन और मध्यम - सामान्य गृहों में भिक्षार्थ जाना चाहता हूं । सुधर्मा स्थविर के "-जैसे-तुम को सुख हो, वैसे करो, परन्तु विलम्ब मत करो-" ऐसा कहने पर वे सुदत्त अनगार श्री सुधर्मा विर के पास से चल कर कायिक तथा मानसिक चपलता से रहित अभ्रान्त और शान्तरूप से तथा स्वदेहप्रमाण दृष्टिपात कर के ईर्यासमति का पालन करते हुए जहां हस्तिनापुर नगर था वहां पहुंच जाते हैं, और नीच तथा मध्यम स्थिति के कुलों में – । -सुहम्मे थेरे आपुच्छति सुधर्मणः स्थविरानापृच्छति । अर्थात् सुदत्त मुनि सुधर्म स्थविर को पूछते हैं । इस पाठ के स्थान में यदि " - धम्मघोसे थेरे श्रापुच्छति-" यह पाठ होता तो बहुत अच्छा था। कारण कि प्रकृत में सुधर्मा स्थविर का कोई प्रसंग नहीं है कथासन्दर्भ के प्रारम्भ में भी सूत्रकार ने सुदत्त मुनि को धर्मघोष स्थविर का अन्तेवासी बतलाया है । अत: यहां पर “-सुहम्मे-" यह पाठ कुछ संगत नहीं जान पड़ता और यदि "-स्थितस्य गतिश्चिन्तनीया- इस न्याय के अनुसार सूत्रगत पाठ पर विचार किया जाये तो सूत्रकार ने "सुवर्मा" यह "धमेवोष' का ही दूसरा नाम सूचित किया हुआ प्रतीत होता है। अर्थात् सुदत्त अनगार के गुरुदेव धर्मघोष और सुधर्मा इन दोनों नामों से विख्यात थे । इसी अभिप्राय से सूत्रकार ने धर्मघोष के बदले "सुधम्मे-सुधर्मा" इस पद का उल्लेख किया है। इस पाठ के सम्बन्ध में वृत्तिकार श्री अभयदेवसरि "-सुहम्मे थेरे-" त्ति धर्मघोषस्थविरमित्यर्थः । धर्मशब्दसाम्यात शब्दद्वयस्याप्येकार्थत्वात् - इस प्रकार कहते हैं । तात्पय यह है कि "सुधर्मा और धर्मघोष' इन दोनों में धर्म शब्द समान हैं, उस समानता को लेकर ये दो शब्द एक हो अर्थ के परिचायक हैं। सुधर्मा शब्द से धर्मघोष और धर्मघोष से सुधर्मा का ग्रहण होता है। यहां पर उल्लेख किये गये"-सुहम्मे थेरे-" शब्द से जम्बूस्वामी के गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी के ग्रहण की भूल तो कभी भी नहीं होनी चाहिये। उन का इन से कोई सम्बन्ध नहीं है । सुमुख गृह पति के घर में प्रवेश करने के अनन्तर क्या हुआ ? अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैंमूल-ते णं से सुमुहे गाहावती सुदत्तं अणगार एज्जमाणं पासति पासित्ता (१) संयमशील संसारत्यागी मुनि की दृष्टि में धनी और निर्धन, ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय और शद्र सब बराबर हैं, पर यदि इन में आचारसम्पत्ति हो । साधु के लिये ऊंच और नीच का कोई भेदभाव नहीं होता। उच्च, नीच और मध्यमकुल में भिन्नार्थ साधु का भ्रमण करना शास्त्रसम्मत है। अतः उच्च कुल में गोचरी करना और नीच कुल में या सामान्य कुल में न करना साधुधर्म के विरुद्ध है । साधु प्राणिमात्र पर समभाव रखते हैं, किन्तु जो आचारहीन है तथा प्राचारहीनता के कारण लोक में अस्पृश्य था घृणित समझे जाते हैं, उन के यहां भिक्षार्थ जाना लोकाष्ट से निषिद्ध है । (२) छाया-तत: स सुमुखो गायापतिः सुदत्तमनगारमायान्तं पश्यति, दृष्ट्वा हृष्टतुष्टः श्रासनादभ्युत्तिष्ठति अभ्युत्थाय पादपीठात् प्रत्यवरोहति प्रत्यवरुह्य पादुके अवमुञ्चति अवमुच्य एकशाटिकमुत्त० सुदत्तमनगार सप्ताष्टपदानि प्रत्युद्गच्छति प्रत्युद्गत्य त्रिवारमादक्षिण० वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा यत्रैव भक्तगृह तत्रैवोपागच्छति; उपागत्य स्वहस्तेन विपुलेन अशनपान० ४ प्रतिलम्भिष्यामीति तुष्टः ३ । ततस्तेन सुमुखेन गाथापतिना तेन द्रव्य शुद्धेन ३ त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धेन सुदत्तेऽनगारे प्रतिलम्भिते सति संसारः परीतीकृत:, मनुष्यायुर्निबद्धम् । गृहे च तस्य इमानि पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूतानि, तद्यथा-१-वसुधारा वृष्टा । २-दशार्द्धवर्णकुसुमं निपातितम् । ३-चेलोत्क्षेपः कृतः । ४-अाहता देवदुन्दुभयः । ५-अन्तरापि चाकाशे अहोदानमहोदानं घुष्टं च । हस्तिनापुरे शृंगाटक. यावत् पथेषु बहुजनोऽन्योऽन्यं एवमाख्याति ४-धन्यो For Private And Personal Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। हतुढे पासणाओ अब्भुट्ठति अब्भुद्वित्ता पायपीढाश्रो पच्चोरुहति पच्चोरुहित्ता पाउयाओ प्रोमुयति भोमुहत्ता एगसाडियं उत्त० सुदत्तं अणगारे सत्तगुपयाई पच्चुग्गच्छति पच्चुग्गच्छिता तिक्खुत्तो आया० वदति नमंसति वंदित्ता नमेसित्ता जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता सयहत्थेणं विउलेणं असणं पाणं ४ पडिलामेस्सामि ति कट्ट, तु? ३ । तते णं तस्स सुमुहस्स गाहावइस्स तेणं दासुद्धे णं ३ तिविहेणं तिकरणसुद्धणं सुदत्ते अणगारे पडिलाभिए समाणे संसारे परित्तीकते, मणुस्सा उए निवद्ध, गिहंसि य से इमाई पञ्च दिव्वाई पाउब्भूताई, तंजहा-१-वसुहारा वुट्टा, २-दसद्धवरणे कुसुमे निवातिते, ३चेलुम्खेवे कने, ४-पाहतारो देवदुन्दुभीओ, ५-अंतरा वि य णं आगासंसि अहोदाणं अहोदाणं घुट्ठ य । हथियाउरे सिंघाडग० जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवं आइक्खइ ४-धन्ने णं देवाणुप्पिया ! सुमुहे गाहावती जाव तं धन्ने ५ । से सुमुहे गाहावती बहूहं बाससताई आउय पालेति पालित्ता कालमासे कालं किच्चा हेव हत्थिसीसए गगरे अदीणसत्तुस्स रगणो धारिणीए देवीए कुछिसि पुत्तताए उववन्ने । तते णं सा धारिणी देवी सणिज्जसि सुत्तजागरा 'ओहोरमाणी २ तहेव सीहं पासति । सेसं तं चेव जाव उनि पासादे विहरति । एवं खलु गोतमा ! सुबाहुणा इमा एगरूवा मगुस्सरिद्धी लद्धा ३।। ... पदार्य-तते णं-तदनन्तर । से-वह । सुमहे-सुमुख । गाहावती-गाथापति । सुदत्तंसुदत्त । अणमारं-अनगार को। एज्जमाणं-आते हुए को । पासति-देखता है । पासित्ता-देख कर । हट्टतुढे-तुष्ट-अत्यन्त प्रसन्न हुआ २ । श्रासणाओ-आसन से । अब्भुटेति-उठता है । अभुहिता-श्रासन से उठकर । पायपीडायो -पादपीठ -पांव रखने के आसन से । पच्चोरुहतिउतरता है । पच्चोरुहिता-उतर कर । पाउयाओ- पादुकाओं को । अोमुयति-छोड़ता है। श्रोमुइत्ताछोड़ कर । एगसाडियं-एकशाटिक -एक काड़ा जो बीच में सिया हुआ न हो, इस प्रकार का। उत्तउत्तरासंग (उत्तरीय वस्त्र का शरीर में न्यासविशेष) करता है, उत्तरासंग करने के अनन्तर। सुदत्त-सुदत्त । अणगार -अनगार के । स सट्ठपयाई-सात आठ कदम, सत्कार के लिये । पच्चुग्गच्छति-सामने जाता है। पन्चुच्छित्ता-सामने जा. कर । तिक्वुतो-तोनबार । आया० -श्रादक्षिण प्रदक्षिणा करता है, कर के। वंदति- वन्दना करता है। नमसति:-- नमस्कार करता है । वंदित्ता नमंसित्ता वंदना तथा नमस्कार कर के। जेणेव-जहां । भत्तघरे-भक्तगृह था। तेणे-वहां पर। उवागच्छति उवागछिळ - त्ता-आता है, अाकर । सयहत्थेणं- अपने हाथ से । विउलेणं-विपुल । असणं पाणं ४-अशन, पान देवानुप्रिया:! सुमुखो गाथापतिः यावद् तद्धन्यः ५ । स सुमुखो गाथापतिः बहूनि वर्षशतानि आयुः पालयति पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा इहैव अदीनशत्रोः राज्ञो धारिण्या देव्याः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नः। तत: सा धारिणी देवी शयनीये. सुप्त जागरा (निद्राती) २ हस्तिशीर्षके नगरे तथैव सिंह पश्यते । शेषं तदेव यावत् उपरि प्रासादे विहरति । तदेवं खलु गौतम ! सबाहुना इयमतेद्रूपा मनुष्यर्द्धिलब्धा ३ । (१) वारं वारमीषभिद्रां गछन्तीत्यर्थः (वृत्तिकारः) For Private And Personal Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६२६ ] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय आदि चतुर्विध अाहार का । पडिलाभेस्पामि त्ति दान दूंगा अथवा दान का लाभ प्राप्त करूंगा, इस विचार से । तुढे ३- प्रसन्नचित्त हुआ अर्थात् अत्यन्त प्रसन्नता को प्राप्त होता हुआ । तते णं-तदनंतर । तस्स-उस । सुमुहस्त - सुमुख । गाहावइस्स-गाथापति के । तेणं - उस । दव्वसुद्धणं - शुद्ध द्रव्य से, तथा । तिविहेणं-त्रिविध । तिकरणसुद्रणं त्रिकरणशुद्धि से। सुदत्त - सुदत्त । अणगारे -- अनगार के । पडिलाभिते समाणे ..प्रतिलम्भित होने पर अर्थात् सुदत्त अनगार को विशुद्ध भावना द्वारा शुद्ध आहार के दान स अत्यन्त प्रसन्नता को प्राप्त हुए सुमुख गाथापति ने । संसारे संसार को-जन्म मरण की परम्परा को परित्तीकते-बहुत कम कर दिया और । मणुस्साए-मनुष्य प्राय का-उत्तम मानव भव का। निबद्धे-बन्ध किया अर्थात् मनुष्य जन्म देने वाले पुण्यकर्मदलिकों को बांधा । य--और । से-उस के । गिहंसि -घर में । इमाई-ये। पंच -- पांच । दिव्वाई - दिव्य-देवकृत । पाउम्भूताई-प्रकट हुए । तंजहा - जैसेकि । १-वसुझग-वसु -सुवर्ण की धारा की। वुट्ठा-वृष्टि हुई । २-दसद्धवराणे-पांच वों के । कुसुमे-पुष्पों को। निवातिते - गिराया गया । ३-चेलुक्खेवे-वस्त्रों का उत्क्षेप । कतेकिया गया। ४-देवदुदुभीओ-देवदुन्दुभिये । पाहताओ - बजाई गई । ५-पागासंसि अंतरा वि यणं - और आकाश के मध्य में। अहोदाणं अहोदाणं य-अहोदान अहोदान, ऐसी । घुर्ट -उद्घोषण हुई। हथियाउरे-हस्तिनापुर में । सिंघाडग.-त्रिपथ । जाव-यावत् । पहेसु-सामान्य रास्ता में । बहुजणो-बहुत से लोग। अन्नमन्नस्ल -एक दूसरे को । एवं-इस प्रकार । आइक्खइ ४- कहते हैं, ४ । धन्ने णं-धन्य है । देवाणुप्पिया!-हे महानुभावो ! । सुमुहे-सुमुख । गाहावती-गाथापति जाव-यावत्। तं-वह । वह । धन्ने ५-धन्य है.५। से-वह। समडे-समुख । गाहावती-गाथापति । बहूई-बहुत । वाससताई-सैंकड़ों वर्षों की । आउयं-आयु की । पालेति पालित्ता-उपभोग करता है, उपभोग कर के । कालमासे-कालमास में। कालं किच्चा-काल कर के । इहेव-इसी । हत्थिसीसएहस्तिशीर्षक । णगरे-नगर में । अदीणसत्सु स्स-अदीनशत्रु । रगणो-राजा की । धारिणीए-धारिणी। देवीए-देवी की। कच्छिंसि-कुक्षि में-उदर में । पत्तत्ताए-पुत्ररूप से । उववन्ने-उत्पन्न हुआपुत्ररूप से गर्भ में पाया। तते णं-तदनन्तर । सा-वह । धारिणी-धारिणी। देवी-देवी । सपणिज्जसि-अपनी शय्या पर । सुत्तजागरा-कुछ सोई तथा कुछ जागती हुई, अर्थात् । श्रोहीरमाणी २-ईषत् निद्रा लेती हुई। तहेव-तथैव-उसी तरह। सीई-सिंह को । पासति-देखती है। सेसं-बाको सब । तं चेव-उसी भांति जानना । जाव-यावत् । उप्पिंपासादे -ऊपर प्रासादों में । विहरति-भोगों का उपभोग करता है। तं-अतः । एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। गोयमा! -हे गौतम!। सुबाहुणा-सुबा हुकुमार ने । इमा-यह । एयारूवा-इस प्रकार की। मणस्सरिद्धि-मानवी समृद्धि । लद्धा ३-उपलब्ध की है। मूलाथे-तदनन्तर सुमुख गाथापति प्राते हुए सुरत्त अनगार को देखता है, देव कर अत्यन्त प्रसन्नचित्त से आसन पर से उठता है, उठ कर पादपीठ से उतरता है, उतर कर पादुका को त्याग कर एकशाटिक उत्तरासंग के द्वारा सुदत्त अनगार के स्वागत के लिये सात आठ कदम सामने जाता है, सामने जा कर तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा करता है, करके वन्दना नमस्कार करता है, वन्दना नमस्कार करने के अनन्तर जहां पर भक्तगृह है-रसोई है, वहां आता है, आकर आज मैं अपने हाथ से विपुल अशन, पानादि के द्वारा सुदत्त अनगार को प्रतिलाभित करूगा अर्थात् सुपात्र में दान दूंगा, ऐसा विचार कर नितान्त प्रसन्न होता है। तदनन्तर उस सुमुख गृहपति ने उम शुद्ध द्रव्य तथा त्रिविध त्रिकरणशुद्धि से सुदत्त अनगार को प्रतिलम्भित करने पर संसार को संक्षिप्त किया (१) परीतीकृतः । परि समन्तात् इतः-गत: इति: परीत: । अपरीतः परीत: कृत इति परीतीकृतः, पराङ्मुखीकृतः प्रतिनिवर्तित इत्यर्थः । अल्पीकृत इति यावत् । For Private And Personal Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [६२७ और मनुष्य श्रायु का बन्ध किया, तथा उस के घर में-१-सुवर्ण वृष्टि, २-पांच वर्गों के फूलों की वर्षा, ३-वस्त्रों का उत्क्षेप, ४-देवदु'दुभियों का आहत होना, ५-आकाश में अहोदान, अहोदान, ऐसी उद्घोषणा का होना -ये पांच दिव्य प्रकट हुए । हस्तिनापुरनगर के त्रिपथ यावत् सामान्य मार्गों में अनेक मनुष्य एकत्रित होकर आपस में एक दूसरे से कहते थे -हे देवानुप्रियो ! धन्य है सुमुख गाथापति यावत् धन्य है सुमुख गाथापति । तदनन्तर वह सुमुम्व गृहपति सैंकड़ों वर्षों की आयु भोग कर कालमास में काल कर के इसी हस्तिशीर्षक नगर में महाराज श्रदीनशत्रु की धारिणी देवी की कुक्षि में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ। तदनन्तर वह धारिणी देवो अपनी शय्या पर किंचित सोई और किंचित् जागती हुई स्पप्न में सिंह को देखती है। शेष वर्णन पूर्ववत् जानना यावत् उन्नत प्रासादों में विषयमोगों का यथेच्छ उपभोग करने लगा, टीका-शास्त्रों में भिक्षा तीन प्रकार की बतलाई गई है। पहली-सर्वसम्पत्करी. दसरी वृत्ति और तीसरी पौरुषघातिनी। जिन मुनियों ने सांसारिक व्यवहार का सर्वथा परित्याग कर दिया है, जो पांच महाव्रतों का सम्यकतया पालन करते हैं और जिन का हृदय करुणा से सदा श्रोतप्रोत रहता है, वे मुनि केवल संयमरक्षा के लिये जो भिक्षा लेते हैं, वह भिक्षा सर्वसम्पत्करी कहलाती है । यह भिक्षा लेने और देने वाले, दोनों के लिये हितसाधक और आत्मविकास की जानका होती है । इस के अतिरिक्त यह भिक्षा वयं साधक की श्रात्मा में, समाज में तथा राष्ट्र में सदाचार का प्रचण्ड तेज संचारित करने वाली होती है जो मनुष्य लूना, लंगड़ा या अंधा है, स्वयं कमा कर खाने में असमर्थ है, वह अपने जीवननिर्वाह के लिये जो भिक्षा मांगता है वह वृत्ति भिक्षा कहलाती है। जैसे दूसरे लोग कमा कर खाते हैं उसी तरह वह भी भिक्षा के द्वारा अपनी आजीविका चलाता है । तात्पर्य यह है कि यह भिक्षा ही उस की आजीविका है इस लिये यह भिक्षा वृत्ति के नाम से प्रसिद्ध है । जो मनुष्य हट्टा कट्टा और तन्दरुस्त है, वलवान् है, कमा कर खाने के योग्य है परन्तु कमाना न पड़े इस अभिप्राय से मांग कर खाता है, उस की भिक्षा पुरुषार्थ की घातिका होने से पौरुषवातिनी मानी जाती है। मुदत्त अनगार की भिक्षा पहली श्रेणी की है अर्थात् सर्वसम्पत्करी भिक्षा है । यह भिक्षा के श्रेणीविभाग से अनायास ही सिद्ध हो जाता है । इस के अतिरिक्त इस भिक्षा में भी अध्यवसाय की प्रधानता के अनुसार फल की तरतमता होती है । भिक्षा देने वाले गृहस्थ के जैसे प्रणाम होंगे उस के अनुसार ही फल निष्पन्न होता है । सुदत्त अनगार को घर में प्रवेश करते देख सुमुख गृहपति बड़ा प्रसन्न हुा । उस का मन सूर्यविकासी कमल की भाँति इष के मारे खिल उठा। वह अपने आसन पर से उठ कर, नंगे पांव सुदत्त मुनि के स्वागत के लिये सात अाठ कदम आगे गया और उस ने तीन बार श्रादक्षिण प्रदक्षिणा कर के मुनि को भक्तिभाव से वन्दन, नमस्कार किया। तदनन्तर श्री सुदत्त मुनि का उचित शब्दों में स्वागत करता हुआ बोला कि प्रभो ! मेरा अहोभाग्य है । आज मेरा घर, मेरा परिवार सभी कुछ पावन हो गया। आप की चरणरज से पुनीत हुआ सुमुख आज अपने आप की जितनी भी सराहना करे उतनी ही कम है । इस प्रकार कहते हुए उस ने श्री सुदत्त मुनि को भोजनशाला की अोर पधारने की प्रार्थना की और अपने हाथ से उन्हें निर्दोष आहार दे कर अपने आप को परम भाग्यशाली बनाने का स्तुत्य प्रयास किया । आहार देते समय उस के भाव इतने शुद्ध थे कि उन के प्रभाव से उस ने उसी समय मनुष्यभवसंबंधी आयु का पुण्य बन्ध कर लिया। For Private And Personal Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६२८ श्रीविपासूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध - [प्रथम अध्याय तपस्विराज मुनि सुदत्त का सुमु व गृहपति के घर अकस्मात् पधारना भो किसी गंभीर आराय का सूचक है । सन्तसमागम किसी पुण्य से ही होता है । यह उक्ति आबालगोपाल प्रसिद्ध है और सर्वानुमोदित है । फिर एक तपोनिष्ठ संयमी एवं जितेन्द्रिय मुनिराज का समागम तो किसी पूर्वकृत महान् पुण्य को प्रकट करता है। श्री सुदत्त मुनि अनायास ही सुमुख गृहपति के घर आते हैं, इस का अर्थ है कि सुमुख का पूर्वोपाजित शुभ कर्म उन्हें -सुदत्तमुनि को ऐसा करने की प्रेरणा करता है । अथवा प्रभावशाली तपस्विराज मुनिजनों का चरण. न्यास वहीं पर होता है जहां पर पूर्वकृत शुभकर्म के अनुसार उपयुक्त समस्त सामग्री उपस्थित हो । वर्षा का जल किसी उपजाऊ भूमि में गिरे तभी लाभदायक होता है । बंजर भूमि में पड़ा हुआ वह फलप्रद नहीं होता । यही कारण है कि श्री सुदत्त मुनि सुमुख जैसी उपजाऊ भूमि में अनुग्रहरूप वर्षा बरसाने के लिये सजल मेघ के रूप में उस के घर में पधारे हैं। सच्चे दाता को दान का प्रसंग उपस्थित होने पर तीन पार हर्ष उत्पन्न होता है । १-आज मैं दान दंगा, आज मुझे बड़े सद्भाग्य से दान देने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। २-दान देते समय हर्षित होता है और ३-दान देने के पश्चात् सन्तोष और आनन्द का अनुभव करता है। साध ने इतना आहार लिया। जिस के मन में ऐसे भाव आते हैं, उसने दान का महत्त्व ही नहीं समझा, ऐसा समझना चाहिये । देय पदार्थ शुद्ध हो. उस में किसी प्रकार की त्रुटि न हो. दाता भी शुद्ध अर्थात निर्मल भावना से युक्त हो और दान लेने वाला भी परम तपस्वी एवं जितेन्द्रिय अनगार हो। दूसरे शब्दों में-देय वस्तु दाता और प्रतिग्रहीता-पात्र ये तीनों ही शुद्ध हो तो वह दान जन्म मरण के बन्धनों को तोड़ने वाला और संसार को संक्षिप्त करने-कम करने वाला होता है-ऐसा कहा जा सकता है । सुमुख गृहपति के यहां ये तीनों ही शुद्ध थे, इसलिये उस ने अलभ्य लाभ को संप्राप्त किया। वैदिकसम्प्रदाय में गंगा, यमुना और सरस्वती इन को पुण्यतीर्थ माना गया है। इन तीनों के संगम को पुण्य त्रिवेणी कहा है। इसी को दूसरे शब्दों में तीर्थराज कहा जाता है और उसे पुण्य का उत्पादक माना गया है । किनु जैन परम्परा में शुद्ध दाता, शद्ध देय वस्तु और शुद्ध पात्र ये तीन तीर्थ माने गये हैं। इन तीनों. के सम्मेलन से तीर्थराज बनता है । इस तीर्थराज की यात्रा करने वाला अपने जीवन का विकास करता हुआ दुर्गतियों में उपलब्ध होने वाले नानाविध दु:खों से छूट जाता है । इस के अतिरिक्त वह मनुष्यों तथा देवों का भी पूज्य बन जाता है । देवता लोग भी उस के चरणों के स्पर्श से अपने को कृतकृत्य समझते हैं । सुमुख गृहपति ने इसी पुण्य त्रिवेणी में स्नान करके फलस्वरूप संसार को कम कर दिया और अागामी भव के लिये मनुष्य की आयु का बन्ध किया । इस के अतिरिक्त उस के घर में जो मोहरों की वृष्टि, पांच वर्ण के पुष्पों की वर्षा, वस्त्रों की वर्षा दुन्दुभि का बजना तथा "अहोदान अहोदान" की घोषणा होना - ये पांच दिव्य प्रकट हए, यह विधिपुरस्सर किये गये सुपात्रदानरूर तीर्थ में स्नान करने का ही प्रत्यक्ष फल है। जैसा कि प्रथम भी कहा गया है कि प्रत्ये । कर्तव्य के पीछे करने वाले को जो अपनी भावना होती है, उसी के अनुसार कर्तव्य-कर्म के फन का निर्धारण होता है । मानव की भावना जितनी शद्ध और बलवती होगी, उतना ही उस का फल भी विशुद्ध और बलवान् होगा यह बात ऊपर के कथासन्दर्भ से स्पष्ट हो जाती है। जीवन के आन्तरिक विकास में देय वस्तु के परिमाण का कोई मूल्य नहीं होता अपितु भावना का मूल्य है : देय वस्तु समान होने पर भी भावना की तरतमता से उसके फल में विभेद हो जाता है। मानव जीवन के विकासक्षेत्र में भावना को जितना महत्त्व प्राप्त है, उतना, और किसी वस्तु को नहीं । भावना के प्रभाव से ही मनदेवी माता, भरत चक्रवर्ती, प्रसन्न चन्द्र राजर्षि और कपिलमुनि प्रभृति आत्माश्रो ने केवल ज्ञान प्राप्त कर For Private And Personal Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टोका सहित [६२९ निर्वाणपद को प्राप्त कर लिया था । तात्पर्य यह है कि मानव जीवन का उत्थान और पतन भावना पर ही अवलम्बित है । 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी"-इस अभियुक्तोक्त में अणुमात्र भी विसंवाद दिखाई नहीं देता अर्थात् इस की सत्यता निर्वाध है । प्रश्न-सुदत्त मुनि ने महीने की तपस्या का पारणा किया, आहार देने वाले सुमुख के घर सुवण की वृष्टि हुई, यह ठीक है परन्तु आजकल दो दो महीने की तपस्या होती है और पारणा भी होता है मगर कहीं पर भी इस तरह से स्वयं की वृष्टे देवी वा सुनी नहीं जाती, ऐसा क्यों? उत्तर - सबसे प्रथम ऐसा प्रश्न करने वालों या सोचने वालों को यह जान लेना चाहिये कि सुवर्णवृष्टि की लालसा ही उस वृष्टि में एक बड़ा भारी प्रतिबन्ध है, रुकावट है। जो लोग तपस्वी मुनि को आहार देकर मोहरों की वर्षा की अभिलाषा करते हैं, वे थोड़ा देकर बहुत की इच्छा करते हैं । यह तो स्पष्ट ही एक प्रकार की सौदेबाज़ी है । जिस की पारमार्थिक जगत् में कुछ भी कीमत नहीं। देव किसी व्यापारी या सौदेबाज के प्रांगन में मोहरों की वर्षा नहीं करते। मोहरों की वर्षा तो दाता के घर में हुआ करती है । सच्चा दाता दान के बदले में कुछ भी पाने की अभिलाषा नहीं करता. वह तो देने के लिये ही देता है, लेने के लिये नहीं । ऐसा दाता तो कोई विरला ही होता है और वसुधारा का वर्षण भी उसी के घर होता है। . इस के अतिरिक्त अगर कोई पुरुष भूख से पोडित हो रहा है तो उस की भूख मिटाने के लिये उसे कुछ खाने को देना, उस को अपेक्षा वह अपने लिये अधिक लाभकारी होता है। तात्पर्य यह है कि दान लेने वाले की अपेक्षा दान देने वाला अधिक लाभ उठाता है, इत्यादि बातों का स्पष्टीकरण प्रस्तुत में वर्णित सुमुख गृहपति के जीवन से अनायास ही हो जाता है । प्रश्न जिस समय सुमुख गृहपति ने सुदत्त मुनि के पात्र में आहार डाला तो उस समय देवताओं ने वसुधारा आदि की वृष्टि को और आकाश से अहोदान अहोदान की घोषणा की, इस में क्या हार्द है ! उत्तर-इस के द्वारा देवता यह सूचित करते हैं कि हे मनुष्यों ! तुम बड़े भाग्यशाली हो, तुम को ही इस दान की योग्यता प्राप्त हुई है । हमारा ऐसा सद्भाग्य नहीं कि किसी सुपात्र को दान दे सकें । सब कुछ होते हुए भी हम कुछ नहीं कर सकते । तुम को ऐसा सुअवसर अनेक बार प्राप्त होता है, इसलिये तुम धन्य हो तथा तुम्हें योग्य है कि उस को हाथ से न जाने दो । सारांश यह है कि देवता लोग इस सुवर्णवृष्टि द्वारा शद्ध हृदय से किये गये सुपात्रदान की भूरि २ प्रशंसा कर रहे हैं। प्रश्न-जिस समय श्री सुमुख गृहपति ने सुदत्तमुनि को दान दिया था वह समय भारतवर्ष का सुवर्णमय युग था, जिसे लगभग तीन हज़ार वष से भी अधिक समय हो चुका है। उस समय जितना सस्तापन था उस की तो आज कल्पना भी नहीं कर सकते । ऐसे सस्तेपन के ज़माने में सुमुख गृहपति के द्वारा दिये आहार की कीमत भी बहुत कम ही होगी, तब इतनी साधारण चीज़ के बदले में देवों ने सुवर्ण जैसी महापं वस्तु की वृष्टि की. इस का क्या कारण है। उत्तर-इस का मुख्य कारण यही था कि दाता के भाव नितान्त शुद्ध थे । इसी कारण दान का मूल्य बढ़ गया, अतः देवों ने स्वर्ण को वर्षा की । वास्तव में देखा जाए तो देय वस्तु का मूल्य नहीं आंका जाता, वह स्वल्य मूल्य की हो या अधिक की । मूल्य तो भावना का होता है । विना भावना के तो जीवन अपण किया हुआ भी किसी विशिष्ट फल को नहीं दे सकता। इस लिये दानादि समस्त कार्यों में भावना ही मूल्यवती है। प्रश्न ---सुमुख गृहपति ने श्री सुदत्त मुनि को दान देने पर मनुष्य का आयुष्य बांधा, इस कथन से स्पष्ट For Private And Personal Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६३०] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रतस्कन्ध अध्याय सिद्ध होता है कि उस ने मिथ्यात्व की दशा में दान दिया, दूसरे शब्दों में वह मिथ्यात्वी था या होना चाहिये। उत्तर -श्री सुमुख गृहपति को मिथ्यात्वी या मिथ्यादृष्टि कहना भूल करना है । संयमशील मुनिजनों में इस की जैसी अनन्य श्रद्धा थी, वैसी तो आजकल के उत्कृष्ट श्रावकों में भी दृष्टिगोचर नहीं होती । इस प्रकार की प्रान्तरिक भक्ति सम्यग्दृष्टि में ही हो सकती है और इस के अतिरिक्त सम्यग्दृष्टि व्यक्ति के जो २ चिन्ह होते हैं, उन से वह सर्वथा परिपूर्ण था । प्रश्न -भी भगवती सूत्र शतक ३० उद्देश्य १ में लिखा है कि सम्यगदृष्टि मनुष्य तथा पशु वैमानिक देवगति के अतिरिक्त अन्य किसी भी गति का बन्ध नहीं करता, परन्तु सुमुख गृहपति ने सम्यगदृष्टि होते हुए भी मनुष्य आयु का बन्ध किया, देवगति का नहीं । इस से प्रमाणित होता है कि वह सम्यग्दृष्टि नहीं था । अगर सम्यगदृष्टि होता तो वैमानिक देव बनता, मनुष्य नहीं । उत्तर-श्री भगवतीसूत्र में जो कुछ लिखा है, उस से सुमुख गृहपति का सम्यगदृष्टि होना निषिद्ध नहीं हो सकता । वहां लिखा है कि जो मनुष्य और तियच विशिष्ट क्रियावादी ( सम्यगदृष्टि । होते हैं और निरतिचार व्रतों का पालन करते हैं वे ही वैमानिक की आयु का बन्ध करते हैं। इस से स्पष्ट विदित होता है कि भगवती सूत्र का उक्त कथन सामान्य सम्यग्दृष्टि के लिये नहीं किन्तु विशेष के लिये है। . प्रश्न-श्री भगवतीसूत्र में इस विषय का जो पाठ है उस में मात्र " क्रियावादी" पद है. विशिष्ट क्रियावादी नहीं । ऐसी दशा में उस का विशिष्ट क्रियावादी अर्थ मानने के लिये कौन सा शास्त्रीय आधार है ! उत्तर-यहां पर विशिष्ट क्रियावादी का ही ग्रहण करना उचित है । इस के लिये 'श्री दशाश्रतस्कन्ध का उल्लेख प्रमाण है । वहां लिखा है कि महारंभी और महापरिग्रही सम्यग्दृष्टि नरक में जाता है । यदि श्री भगवती सूत्रगत क्रियावादी पद से विशिष्ट सम्यगदृष्टि अर्थ गृहीत न हो तो उस का श्री दशाश्रुतस्कन्ध के साथ विरोध होता है । तात्पर्य यह है कि यदि सामान्यरूप से सभी सम्यगदृष्टि वैमानिक की श्रायु का बन्ध करते है - यह अाशय श्री भगवतीसूत्र के उल्लेख का हो तो भी दशाश्रुतस्कन्धगत श्रारम्भ और परिग्रह की विशेषता रखने वाले सम्यग्दृष्टि को नरकमाप्ति का उल्लेख विरुद्ध हो जाता है जो कि सिद्धान्त को इष्ट नहीं है और यदि क्रियवादी से विशिष्ट क्रियावादी अर्थ ग्रहण करें तो विरोध नहीं रहता । कारण कि जो विशिष्ट सम्यगढष्टि है उसी के लिये वैमानिक आयु के बन्ध का निर्देश है न कि सभी के लिये । दूसरे शब्दों में कहें तोश्री भगवतीसूत्र में जिस सम्यगदृष्टि के लिये वैमानिक आयु के बन्ध का कथन है, वह सामान्य क्रियावादी के लिए नहीं अपितु विशिष्ट क्रियावादी-सम्यगदृष्टि के लिए है, और जो श्री दशाश्रुतस्कंध सूत्र में महारम्भी तथा महापरिग्रही के लिये नरकप्राप्ति का उल्लेख है वह सामान्य सम्यगदृष्टि के लिये है, विशिष्ट सम्यगदृष्टि के लिए नहीं। उस में तो महारम्भ और महापरिग्रह का सम्भव ही नहीं होता प्रश्न-क्या श्री दशाश्रु तस्कन्धसूत्र के अतिरिक्त श्री भगवतीसूत्र में भी इस विषय का समर्थक कोई उल्लेख है। उत्तर-हां है । भगवतीसूत्र में ही (श० १, उ० २) लिखा है कि विराधक श्रावक की उत्पत्ति जघन्य भवनवासी देवों में और उत्कृष्ट ज्योतिषी देवों में होती है । श्रावक के विराधक होने पर भी उसका सम्यक व सुरक्षित रहता है अर्थात् वह क्रियावादी होने पर भी वैमानिक देवों में उत्पन्न न हो कर भवनवासी तथा ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होता है । इस से भी स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि श्री भगवती त्रगत उक्त क्रियावादी पद से (१) देखिये-श्रीदशाभु तस्कन्ध की छठी दशा। For Private And Personal Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अभ्याय] हिन्दी भाषा टोका सहित । विशिष्ट क्रियावदी का ही ग्रहण करना अभीष्ट है, सामान्य का नहीं । इस लिये श्री सुमुख गाथापति के सम्यगदृष्टि होने में कोई सन्देह नहीं है। प्रश्न-यदि श्री सुमुख गाथापति को मिथ्या दृष्टि ही मान लिया जाये तो क्या हानि है ! उत्तर- यही हानि है कि सुमुख गृहपति का परित्तसंसारी-परिमितसंसारी होना समर्थित नहीं होगा और यह बात शास्त्रविरुद्ध होगी। मिथ्यादृष्टि जीव का सदनुष्ठान अकामनिर्जरा (कर्मनाश की अनिच्छा से भूख आदि के सहन करने से जो निर्जरा होती है वह) का कारण बनता है. और वह- 'कामनिर्जरा वाला संसार को परित्त-परिमित नहीं कर सकता। संसार को परिमित करने के लिये तो सम्यक्त्व की आवश्यकता है । सम्यग्दृष्टि जीव का सदनुष्ठान-शुभ कर्म ही सकामनिजेरा (कर्मनाश की इच्छा से ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का पालन करने से होने वाली निर्जरा ) का कारण है और उस से ही संसार परिमित होता है। दूसरी बात-अनन्तानुबंधी क्रोधादि के नाश हुए बिना संसार परिमित नहीं हो सकता और अनन्तानुबंधी कोध का नाश सम्यक्त्व पाए बिना नहीं हो सकता । तब सुमुख गृहपति को प्रमाणित करने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि उसे सम्यगदृष्टि स्वीकार किया जाये। इस के अतिरिक्त एक बात और भी ध्यान देने योग्य है. वह यह कि मिथ्याष्टि और उस की क्रिया को भगवान की आज्ञा से बाहिर माना है, जो कि युक्तिसंगत है। इसी न्याय के अनुसार सुमुख गृहपति की दानक्रिया को भी आशाबाह्य ही कहना पड़ेगा, परन्तु वस्तुस्थिति इस के विपरीत है। अर्थात् सुमुख को मिथ्यादृष्टि और उस के सुपात्रदान को अाशाविरुद्ध नहीं माना गया है । अगर सुमुख मिथ्या दृष्टि है तो उस की दानक्रिया को आशानुमोदित कसे माना जा सकता है । अत: जहां सुमुख की दानकिया भगवदाज्ञानुमोदित है वहां उस का सम्यग्दष्टि होना भी भगवान् के कथनानुकूल ही है। प्रश्न-देवों का सुवणवृष्टि करना और "अहोदान अहोदान' की घोषणा करना क्या पापजनक नहीं है। उत्तर- नहीं । इसे एक लौकिक उदाहरण से समझिये । कल्पना करो कि कोई गृहस्थ अपने पुत्र या पुत्री की सगाई करता है यदि उस ने पुत्र की सगाई की है तो वह लड़की वालों के सम्मान का भाजन बनता है। लड़की का पिता उसे अपनी लड़की का श्वशुर जान कर उस का श्रादर, सम्मान करता है तथा सभ्य भाषण और भोजनादि से उसे प्रसन्न करने का यत्न करता है। इस सम्मानसूचक व्यवहार से लड़के का पिता यह निश्चय कर लेता है कि सगाई पक्की हो गई । इन्हें मेरा लड़का और मेरा घर आदि सब कुछ पसन्द है। इसी प्रकार लड़की की सगाई में समझिए। यदि वह अपनी लड़की के श्वशुर का सम्मान करता है और वह उस के सम्मान को स्वीकार कर लेता है तो सगाई पक्की अन्यथा कच्ची समझ ली जाती है । बस इसी से मिलती जुलती बात की पुनरावृत्ति देवों की सुवर्णवृष्टि और देवकृत हर्षघोषणा ने की है । हर्षध्वनि सुपात्रदान की प्रशंसासूचक है और सुवर्णवृष्टि उस की सफल अनुमोदना है। अब रही- पुण्य और पाप की बात १ सो इस का उत्तर स्पष्ट है। जबकि सुपात्रदान कर्मनिर्जरा का हेतु है तो उस की प्रशंसा या अनुमोदना को पाप - जनक क्यों कर माना जा सकता है ? सारांश यह है कि स्वर्णवृष्टि और हर्षध्वनि से देवों ने किसी प्रकार (१) श्री श्रीपपातिकसूत्र के मूलपाठ में सम्वररहित निर्जरा की क्रिया को मोक्षमार्ग से अलग स्वीकार किया है। उस क्रिया का अनुष्ठान करने वाले मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव को मोक्षमार्ग का अनाराधक माना गया है। विशेष की जिज्ञासा रखने वाले पाटक श्री सनांग सूत्र ( स्थान ३, उद्द. ३) तथा श्री भगवती सूत्र के शतक पहले और उद्देश्य चतुर्थ को देख सकते हैं । For Private And Personal Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६३२] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय के पाप का संचय नहीं किया प्रत्यत पुण्य का उपार्जन किया है। इस कथासंदर्भ से यह बात भलीभाँति सिद्ध हो जाती है कि जो लोग यह समझते या सोचते हैं कि हाय ! हम न तो करोड़पति हैं, न लखपति । यदि होते तो हम भी दान करते, वे भूल करते हैं । समुख गायापति ने कोई करोड़ों या लाखों का दान नहीं किया किन्तु थोड़े से अन्न का दान दिया था। उसी ने उस के संसार को परिमित कर दिया । अतः इस सम्बन्ध में किसी को भी निराश नहीं होना चाहिये । दान की कोई इयत्ता नहीं होती, वह थोड़ा भी बहुत फल देता है और बहुत भी निष्फल हो सकता है । दान की फलता और विफलता का आधार तो दाता के भावो पर निर्भर ठहरता है । देय वस्तु स्वल्प हो या अधिक इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता, अन्तर का कारण तो भावना है । दान देते समय दाता के हृदय में जैसी भावना होगी उसी के अनुसार ही फल मिलेगा। भावना का वेग यदि साधारण होगा तो साधारण फल मिलेगा और यदि वह असाधारण होगा तो उस का फल भी असाधारण ही प्राप्त होगा। तात्पर्य यह है कि पापं. पुण्य और निर्जरा में सर्वप्राधान्य भावना' को ही प्राप्त है। भावनाशून्य हर एक अनुष्ठान निस्सार एवं निष्प्रयोजन है। - संसार में दान का कितना महत्त्व है ? यह सुमुख गाथापति के जीवन से सहज ही में ज्ञात हो जाता है । वास्तव में दान के महत्त्व को समझाने के लिये ही इस कथासन्दर्भ का निर्माण किया गया है, अन्यथा गौतमस्वामी अपने ज्ञानबल से स्वयमेव सब कुछ जान लेने में समर्थ थे ऐसा न कर सब के सन्मुख सेमुख गृहपति के जीवन को भगवान् से पूछने का यत्न करना निस्सन्देह सांसारिक प्राणियों को दान की महिमा समझाने के लिये ही उन का पावन प्रयास है, तथा दान के प्रभाव को दिखजाने के निमित्त ही सूत्रकार ने सुमुख गृहपति को, कई सौ वर्ष तक सानंद जीवन व्यतीत करने के अनन्तर मृत्यधर्म को प्राप्त हो कर महाराज अदीनशत्रु की सती साध्वी धारिणी देवी के गर्भ में पुत्ररूप से उत्पन्न होने और जन्म लेकर वहां के विपुल ऐश्वर्य का उपभोग करने वाला कहा है। भगवान् कहते हैं - गौतम! इस सुमुख गृहपति का पुण्यशाली जीव ही धारिणी देवी के गर्भ में श्राकर सुबाहुकुमार के रूप में उत्पन्न हुआ है। इस से यह सुबाहुकुमार पूर्वजन्म में कौन था । इत्यादि प्रश्नों का उत्तर भली भाँन्ति स्फुर हो जाता है प्रस्तुत कथासन्दर्भ के उत्तर में गौतम स्वामी की ओर से किये गए प्रश्नों के उत्तर में भगवान ने जो कुछ फ़रमाया, उस से निष्पन्न होने वाले सारांश की तालिका नीचे उदत की जाती हैगौतमस्वामी श्रमण भगवान् महावीर १-प्रश्न-सुबाहुकुमार पूवभव में कौन था? उत्तर-एक प्रसिद्ध गथापति - गृहस्थ था । २-प्रश्न-इस का नाम क्या था ? उत्तर-सुमुख गाथापति। ३-प्रश्न-इस का गोत्र क्या था? उत्तर-(सूत्रसंकलन के समय छूट गया है) ४-प्रश्न-इस ने क्या दान दिया? उत्तर-सुदत्त अनगार को आहार दिया था। ५-प्रश्न-इस ने क्या खाया था ? . उसर-मानवोचित सात्त्विक भोजन । ६-प्रश्न-इस ने क्या कृत्य किया था ? उत्तर -भावनापुरस्सर दानकार्य किया था। (१) भावना के सम्बन्ध में निम्नोक्त वीरवाणी मननीय है भावणाजोगसुद्धप्पा, जले नावा हि आहिया । नावा व तीरसंपन्ना, सव्वदुक्खा तिउदृह ॥ (सूयगडांगसूत्र श्रुतस्कंध १. अ० १५, गाथा ६) For Private And Personal Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित। ७ -प्रश्न इस ने किस शील का पालन किया था ? उत्तर. पांचों शीलों का । ८-प्रश्न इस ने किस तथारूप मुनि के वचन सने थे ? उत्तर-तपस्विराज श्री सदत्त मुनि जी महाराज के । सुबाहुकुमार के पूर्वभवसम्बन्धी जीवन वृत्तान्त में अधिकतया सपात्रदान का महत्त्व वर्णित हुआ है, जोकि प्रत्येक मुमुक्षु जीव के लिये आदरणीय तथा आचरणीय है। ____ शास्त्रों में चार प्रकार के मेघ बतलाये गये हैं । जैसेकि -१-क्षेत्र में बरसने वाले, २-अक्षेत्र में बरसने वाले, ३-क्षेत्र अक्षेत्र दोनों में बरसने वाले, ४ –क्षेत्र अक्षेत्र दोनों में न बरसने वाले। इसी प्रकार चार तरह के दाता होते हैं । जैसे कि - "-क्षेत्र-सपात्र में देने वाले, २-अक्षेत्र-कुपात्र में देने वाले, ३-क्षेत्र अक्षेत्रसुपात्र तथा कुरात्र दोनों में देने वाले. ४ - क्षेत्र अक्षेत्र -सुपात्र, कुपात्र दोनों में न देने वाले। इस में तीसरी श्रेणी के दाता बड़े उदार होते हैं । वे सुपात्र को तो देते ही हैं परन्तु प्रवचनप्रभावना आदि के निमित्त कुपात्र को भी दान देते हैं । कुपात्र कम नर्जरा की दृष्टि से चाहे दान के अयोग्य होता है परन्तु अनुकम्पा - करुणा बुद्धि से वह भी योग्य होता है । सभी दानों में सुपात्रदान प्रधान है, यह महती कर्मनिरा का हेतु होता है, तथा दाता को जन्ममरणपरम्परा के भयंकर रोग से विमुक्त करने वाली रामबाण औषधि है । इस के सेवन से साधक आत्मा एक न एक दिन जन्म और मृत्यु के बन्धन से सदा के लिये छूट जाता है । इस के अतिरिक्त घर में आये हुए मुनिराज का अभ्युत्थानादि से किस प्रकार स्वागत करना चाहिए ? और उन को आहार देते समय कैसी भावना को हृदय में स्थान देना चाहिए ? एवं आहार दे चुकने के बाद मन में किस हद तक सन्तोष प्रकट करना चाहिए ? इत्यादि गृहस्थोचित सद्व्यवहार की शिक्षा के लिये समुख गाथापति के जीवनवृत्तान्त का अध्ययन पर्याप्त है। हष्ट तुष्ट - शब्द के १-कृष्ट - मुनि के दर्शन से हर्षित तथा तुष्ट-सन्तोष को प्राप्त अर्थात् मैं धन्य हूं कि आज मुझे सुपात्रदान का सुअवसर प्राप्त होगा, इस विचार से सन्तुष्ट । २ - अत्यन्त प्रमोद से यक्त, ऐसे अनेकों अर्थ पाए जाते हैं। सिंहासन के नीचे पैर रखने के एक आसनविशेष की पादपीठ संज्ञा होती है। पादुका खड़ाओं का ही दूसरा नाम है। -उत्त०-यहां के बिन्दु से - उत्तरासंग करेइ करित्ता-इस पाठ का ग्रहण करना चाहिये । उत्तरासंग का अर्थ होता है - एक अस्यूत वस्त्र के द्वारा मुख को आच्छादित करना। -सत्तट्ठपयाई-सप्ताष्टपदानि - इस का सामान्य अर्थ-सात आठ पांव - यह होता है । यहां पर मात्र सात या आठ का ग्रहण न करके सूत्रकार ने जो सात और आठ इन दोनों का एक साथ ग्रहण किया है, इस में एक रहस्य है, वह यह है कि जब आदमी दोनों पांव जोड़ कर खड़ा होता है, तब चलने पर एक पांव आगे होगा और दूसरा पांव पीछे । चलते २ जब अगले पांव से सात कदम पूरे हो जाएंगे तब उसी दशा में स्थित रहने से एक कदम आगे और एक पीछे, ऐसी स्थिति होगी, और तदनन्तर पिछले पांव को उठ साथ मिलाने से खड़े होने की स्थिति सम्पन्न होती है। ऐसे क्रम में जो पांव आगे था उस से तो सात कदम होते हैं और जिस समय पिछला पांव अगले पांव के साथ मिलाया जाता है उस समय आठ क़दम होते हैं । तात्पर्य यह है कि एक पांव से सात कदम रहते हैं और दूसरे से आठ कदम होते हैं । इसी भाव को सूचित करने के लिये सूत्रकार ने केवल सात या पाठ का उल्लेख न कर के-सत्तकृपयाईऐसा उल्लेख किया है, जो कि समुचित ही है। -तिक्खुत्तो आया०- यहां का बिन्दु -हिणं पयाहिणं करेइ करित्ता - इन पदों का संसूचक है । इन का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है । प्रस्तुत में पढ़े गये -तिक्खुत्तो-इत्यादि पद वन्दना For Private And Personal Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६३४] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [ प्रथम अध्याय विधि के पाठ का संक्षिप्त रूप है । वन्दना' का सम्पूर्ण पाठ निम्नोक्त है ___"-तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेमि वंदामि नमसामि सरकारेमि सम्मामि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि मत्थरण वंदामि । अर्थात् मैं तीन बार गुरु महाराज की दक्षिण की ओर से ले कर प्रदक्षिणा (हाथों का आवर्त -घुमाना) करता हूं, स्तुति करता हूँ, नमस्कार करता हूं, सत्कार करता हूँ. सम्मान करता हूं, गुरु महाराज कल्याणकारी हैं, मंगलकारी हैं, धर्म के देव हैं और ज्ञान के भण्डार हैं, ऐसे गुरु महाराज की मन, वचन और काया से सेवा करता हूं, श्री गुरु महाराज को मस्तक झुका कर वन्दना करता हूं। -सयहत्येणं विउलेणं असणं पाणं ४ – यहां ४ के अंक से खादिम और स्वादिम इन दो का भी ग्रहण जानना चाहिए । इस उल्लेख में -सयहत्थेणं-का यह भाव है कि सुमुख गृहपति के मानस में इस विचार से परम हर्ष हुअा कि मैं आज स्वयं अपने हाथों से मुम महाराज को आहार दूंगा। अाजकल के श्रावक को इस से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये । जब भी साधु महाराज घर पर पधारें तो स्वयं अपने हाथ से दान देने का संकल्प तथा तदनुसार आचरण करना चाहिये जो लाभ अपने हाथ से देने में होता है, वह किसी दूसरे के हाथ से दिलवाने में प्राप्त नहीं होता, यह बात श्री समुख गाथापति के जीवन से भलोभाँति स्पष्ट हो जाती है । फलत: जो श्रावक नौकरों से ही दान कराते हैं, वे भूल करते हैं। -तुट्टे ३-यहां पर उल्लेख किये गये ३ के अंक से -पडिलामेमाणे तुट्टे, पडिलाभिए वि तुट्टेइन पदों का ग्रहण करना चाहिए । इन का भावार्थ है कि सुमुख गृहपति दान देते समय मुदित - प्रसन्न हुआ और दान देने के पश्चात् भी हर्षित हुा । दान देने के पूर्व, दान देने के समय और दान देने के पश्चात् भी प्रसन्नता का अनुभव करना, यही दाता की विशेषता का प्रत्यक्ष चिह्न होता है। . -दव्वसुद्धणं ३-- यहां दिये गए ३ के अंक से-गाहगलुद्धणं, दायगसद्धणं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए । इन का अभिप्राय ग्राहकशुद्धि से और दाता की शुद्धि से है, अर्थात् दान देने वाला और दान लेने वाला, दोनों ही शुद्ध होने चाहिएं। दान के सम्बन्ध में जैसा कि पहले बतलाया गया है, दाता, देय और ग्राहक - ये तीनों जहां शुद्ध होंगे वहां ही दान कल्याणकारी होता है। प्रकृत में समुख गृहपति दाता, उस का आहार देय और श्री सुदत्त (१) वन्दना के द्रव्य और भाव से दो भेद पाये जाते हैं । उपयोगशून्य होते हुए शरीर के - दो हाथ, दो पैर और एक मस्तक-इन पांच अंगों को नत करना द्रव्यवन्दन कहलाता है, तथा जब इन्हीं पांचों अंगों से भावसहित विशुद्ध एवं निर्मल मन के उपयोग से वन्दन किया जाता है तब वह भाववन्दन कहलाता है। (२) पहले समय में तीर्थंकर या गुरुदेव समवसरण के ठीक बीच में बैठा करते थे, अतः अागन्तुक व्यक्ति भगवान् को या गुरुदेव के चारों ओर घूम कर फिर सामने आकर पांचों अङ्गनमा कर वन्दन किया करता था । घूमना गुरुदेव के दाहिने हाथ से प्रारम्भ किया जाता था, इन सारे भावों को आदक्षिण प्रदक्षिणा, इन पदों द्वारा सूचित किया गया है, परन्तु आज यह परम्परा विच्छिन्न हो गई है आज तो गुरुदेव के दाहिनी ओर से बाई ओर अंजलिबद्ध हाथ घुमा कर आवर्तन किया जाता है । श्रावर्तन ने ही प्रदक्षिणा का स्थान ले लिया है। आजकल की इस प्रकार की प्रदक्षिणा - क्रिया का स्पष्ट रूप आरती उतारने की क्रिया में दृष्टिगोचर होता है। अञ्जलिबद्ध हाथों का श्रावर्तन प्राचीन प्रदक्षिणा का मात्र प्रतीक है। (३) अशन, पान, खादिम और स्वादिम इन पदों का अर्थ पृष्ठ ४८ की टिप्पणी में दिया जा चुका है। For Private And Personal Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। मुनि आदाता - ग्राहक हैं, ये तीनों ही शद्ध थे । अर्थात् दाता की भावना ऊंची थी, देय वस्तु -- आहारादि प्रासक-निर्दोष थी और ग्राहक सर्वोत्तम था। इसलिये दान भी सर्व प्रकार से फलदायक सम्पन्न हुआ । -तस्स सुमुहस्स गाहावइस्स यहां तृतीया के स्थान में -हैमशब्दानुशासन शब्दशास्त्र के - कचिद् द्वितीयादेः । ८ -३ - १३४ । इस सूत्र ' से षष्ठी विभक्ति प्रयुक्त हुई है। -तिविहेणं-तिकरणसुद्धणं -(तीन प्रकार की करणशुद्धि से ) इन पदों का भावार्थ है कि जिस समय सुमुख गृहपति आहार दे रहा था, उस समय उस के तीनों करण-मन, वचन और काया शुद्ध थे। आहार देते समय सुमुख गृहपति की मनोवृत्ति, वाणी का व्यापार, शारीरिक चेष्टा, ये तीनों ही संयत, प्रशस्त अथ च निदोष थीं। -परित्तोकते-इस का भावार्थ है - सुमुख गृहपति ने उक्त सुपात्रदान से संसार --जन्ममरणरूप परम्परा को परिमित -स्वल कर दिया। इस के अतिरिक्त जैनपरिभाषा के अनुसार "परित्तसंसारी" उसे कहते हैं, जिस का जघन्य (कम से कम) काल अन्तर्मुहूत हो और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) काल देशोनथोड़ा सा कम, अर्धपुद्ग नपरावर्तन हो । अर्थात् जिम का जन्ममरणरूप संसार कम से कम 'अन्तर्मुहूर्त का, अधिक से अधिक देशोन अर्धपुद्गलपरावर्तन तक रह जावे उसे परित्तसंसारी-परिमित संसार वाला कहते हैं । संसार अपरिमित है । उस की कोई इयत्ता नहीं है। यह प्रवाह से अनादि अनन्त है । इस अपरिमित जन्ममरणपरम्परा को अपने लिए परिमित कर देना किसी विशिष्ट आत्मा को ही आभारी होता है । परिमित संसारी का मोक्षगमन सुनिश्चित हो जाता है, इसलिये यह बड़े महत्त्व की वस्तु है। दिव्य का अर्थ है - देवसन्बन्धी या देवकृत । वसु का अर्थ है - सुवर्ण । उस की वृष्टि धारा कहलाती है। वास्तव में देवकृत सुवर्णवृष्टि को ही वसुधारा कहते हैं। कृष्ण. नील, पीत, श्वेत और रक्त ये पांच रंग पुष्पों में पाए जाते हैं । देवों से गिराए गए पुष्प वैकियलब्धिजन्य होते हैं । अतएव ये अचित्त होते हैं । यही इन की विशेषता है । चेलोत्क्षेप-चेल नाम वस्त्र का है, उस का उत्क्षेप - फेंकना चेलोत्क्षेप कहलाता है। आश्चर्य उत्पन्न करने वाले दान की अहोदान संज्ञा है। सुवर्ण वृष्टि, पुष्पवर्षण और चेलोत्क्षेप एवं दुन्दुभिनाद, ये सब ही आश्चर्योत्पादक हैं । इसलिये जिस दान के प्रभाव से ये प्रकट हुए हैं उसे अहोदान शब्द से व्यक्त करना नितरां समीचीन है । -सिंघाडग० जाव पहेसु-यहां पठित-जाव-यावत्-पद से --तियचउक्कचच्चरमहापह-इन पदों का ग्रहण होता है । त्रिकोण मार्ग की गाटक संज्ञा है। जहां तीन रास्ते मिलते हो उसे त्रिक कहते हैं । चार रास्तों के सम्मिलित स्थान की चतुष्क -चौक संज्ञा है । जहां चार से भी अधिक रास्ते हों वह चत्वर कहलाता है । जहां बहुत से मनुष्यों का यातायात हो वह महापथ और सामान्यमार्ग की (१) द्वितीयादीनां विभक्तीनां स्थाने षष्ठी भवति क्वचित् । सीमाधरस्स वन्दे । तिस्ता मुहस्स भरिमा । अत्र द्वितीया याः षष्ठो । धणस्त लहो- धनेन लब्ध इत्यर्थः । चिरेण...(वृत्तिकार:) (२) एक जीव जितने समय में लोक के समस्त पुद्गलों को औदारिक, वैक्रिय, तेजस और कार्मण इन शरीरों के रूप से तथा मन, वचन और काय के रूप से ग्रहण कर परिणमित कर ले अर्थात् लोक के सब पुद्गलों को औदारिक शरीर के रूप में, फिर वैक्रिय, फिर तेजस, फिर कार्मण शरीर के रूप में, फिर मन इसी भाँति वचन और काय के रूप में समस्त पुद्गलों का ग्रहण करके परिणत करे। उतने काल को पुद्गलपरावर्तन कहते हैं । उस के अधकाल को अर्धपुद्गलपरावर्तन कहते हैं । दूसरे शब्दों में – अनन्त अवसर्पिणी और अनन्त उत्सर्पिणी प्रमाण का एक कालविभाग अर्धपुद्गलपरावर्तन कहलाता है। For Private And Personal Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध ६३६] पथ संज्ञा होती है । - - आइक्खड़ -- सामान्यरूप - एवं श्राइकखइ ४ - इस पाठ में उपन्यस्त ४ का श्रंक एवं श्राइक्खड, एवं भासह, एवं पराणवेड, एवं परुवेइ - इन चार पदों के बोध कराने के लिए दिया गया । इस पर वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि कहते हैं। कि 'प्रथम के एवं श्राइकवर ( इस प्रकार कथन करते हैं), एवं भासह (इस प्रकार भाषण करते हैं इन दोन पदों के अनुक्रम से व्याख्यारूप ही - एवं परणवेइ ( इस प्रकार प्रतिपादन करते हैं), एवं परूवेंड इस प्रकार प्ररूपण करते हैं, ये दो पद प्रयुक्त किये गए हैं। अथवा इन चारों का भावार्थ “ मे कहते हैं । भाइ - विशेषरूप में कहते हैं। पराणवेद - प्रमाण और युक्ति के द्वारा बोध कराते हैं । परूवे - भिन्न २ रूप से प्रतिपादन करते हैं, इस प्रकार समझना चाहिए। तात्पर्य यह है कि समुख गृहपति के विषय में हस्तिनापुर की जनता इस प्रकार कहती है, इस प्रकार से बोलती है, इस प्रकार से बोध कराती है और वि भिन्नरूप से निरूपण करती । यदि कुछ गम्भीरता से विचार किया जावे तो "आख्याति, भाषते ' इन दोनों के व्याख्यारूप में ही 'प्रज्ञापयति और प्ररूपयति" ये दोनों पद प्रयुक्त हुए हैं या होने चाहियें । वृत्तिकार का पहला कथन - एतच्च पूर्वोक्तपदद्वयस्यैव क्रमेण व्याख्यानार्थे पदद्वयमवगन्तव्यम् - कुछ अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है । आख्यान और भाषण की प्रज्ञापन और प्ररूपण अर्थात् युक्तिपूर्वक बोधन और विभिन्न प्रकार से निरूपण - यही सुचारु व्याख्या हो सकती है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal प्रथम अध्याय -धन्ने णं देवा० सुमुहे गाहावती जात्र तं धन्ने ५ - इस स्थान में उल्लिखित जाव- यावत् पद से तथा ५ के अंक से भगवती सूत्रानुसारी-धन्ते णं देवापिया ! सुमुहे गाहावती, कयत्थे णं देवापिया ! सुमुहे गाइावती, कयपुराणे णं देवाप्पिया ! सुमुहे गाहावती, कपलकवणे र्ण देवाणुपिया ! सुमु गाहातो, कया गं लोय। देवापिया ! सुमुहस्ल गाहावइस्स, सुलझे णं देशणुपिया ! मास्तर जन्मजीवियरुते सुमुहस्स गाहावइस्स, जस्त ण गिहंसि तहारू साधू साधुवे पडिलाभिर समाणे इमाई पंच दिव्वाई पाउब्याई तंजहा - १ - सुहारा बुट्ठा, २ - दसद्धवराणे कुसुमे नित्रातिते, ३ – चेतुवेवे कते, ४ - आहताय देवदुन्दुभी ५ अन्तरा विय गं आगा अहोदाराम होदा घुई य, तं धन्ने कत्थे कयपुन्ने कलकवणे कया गं लोया सुल े माणुस्सर जम्मजोवियफले सुनुहरुल गाहावस्व सुमुहस्त गाडावरून - इस पाठ की ओर संकेत कराया गया है । अर्थात् हे महानुभावो ! यह सुमुत्व गाथापति धन्य है, कृताथ है - जिस का प्रयोजन सिद्ध हो गया है, कृतपुण्य - पुण्यशील है, कृतलक्षण है (जिस ने शरोरगत चिह्नों को सफत कर लिया है), इस ने दोनों लोक सफल कर लिये हैं, इसने अपने मनुष्य जन्म तथा जीवन को सफल कर लिया है - जन्म तथा जीवन का फल भाँति प्राप्त कर लिया है। जिस के घर में सौम्य आकार वाले तथारूप साधु (शास्त्रों में वर्णित हुए प्राचार का पालक मुनि के प्रतिलामित होने पर अर्थात् मुनि को दान देने से - १- -सोने की वर्षा, २- पांच वर्ण के पुष्पों की वर्षा, ३ वस्त्रों की वर्षा, ४ – देवदुन्दुभियों का वजना, ५ - आकाश में अहो ! आश्चर्यकारक ) दान, अहोदान - इस प्रकार की उद्घोषणा, ये पांच दिव्य प्रकट हुए हैं, इसलिये सुमुख गाथापति धन्य है, कृतार्थ है, कृतपुण्य है, कृतलक्षण है, इस ने दोनों लोक सफल कर लिये हैं, इस ने मनुष्य का जन्म तथा (१) एवं इति सामान्येनावडे, इह चान्यदपि पदत्रयं द्रष्टव्यम् - एवं भासइति विशेषतः श्राचष्टे । एवं पराणवेद एवं परूवेड - एतच्च पदद्वयं पूर्वोतपदद्वयस्यैव क्रमेण व्याख्यानार्थ पदद्वयमवगन्तव्यम् । अथवा आख्यातीति तथैव, भापते व्यवचनैः प्रज्ञापयातीति युक्तिभिर्वाधयति, प्ररूपयति तु भेदतः कथयतीति । (वृत्तिकारः) Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [६३७ जीवन सफल कर लिया है। प्रस्तुत में प्रथम धन्य आदि पद देकर पुनः जो धन्य आदि पद पठित हुए हैं वीसा के संच हैं। एक पाठ को एक से अधिक बार उच्चारण करने का नाम वीप्सा है । प्रस्तुत में बोसा के रूप में ही उक्त पाठ को दोबारा उच्चारण किया गया है। संभ्रम' या श्राश्वर्य में वीप्सा दोषावह नहीं होती । - तहेव सीहं पासति - यहां पठित तथेत्र यह पद " - वैसे ही अर्थात् प्रस्तुत अध्ययन के आरम्भ में माता धारिणी ने स्वप्न में मुख में प्रवेश करते हुए सिंह को देखा था, उसी भाँति यहां भी समझ लेना चाहिये – " इस अर्थ का परिचायक है । तथा बालक का जन्म, उस का सुबाहुकुमार नाम रखना, पांच घायमाताओं के द्वारा सुबाहुकुमार का पालनपोषण, विद्या का अध्ययन, युवक सुबाहुकुमार के लिये ५०० उत्तम महलों तथा उन में एक विशाल रमणीय भवन का निर्माण, पुष्पचूनाप्रमुख ५०० राजकुमारियों के साथ पाणिग्रहण, माता पिता का ५०० की संख्या में प्रीतिदान-दहेज देना, सुबाहुकुमार का उस पीतिदान का अपनी पत्नियों में विभक्त करना तथा अपने महलों के ऊपर उन तरुण रमणियों के साथ ३२ प्रकार के नाटकों के द्वारा सानन्द सांसारिक कामभोगों का उपभोग करना, इन सब बातों को संसूचित करने के लिये सूत्रकार ने - सेसं तं चेत्र जाव उपि पालादे विहरति- इन पदों का संकेत कर दिया है । इन सब बातों का सविस्तर वर्णन प्रस्तुत अध्ययन के आरंभ में किया जा चुका है । पाठक वहीं देख सकते हैं । - पत्ता अभिसमन्नागया- इन शेष पदों का ग्रहण ६१० पर लिख दिया गया है। - लद्धा ३ - यहां पर दिये गये ३ के अंक से करना सूत्रकार को अभिमत है । इन पदों का अर्थ पूर्व पृष्ठ इस प्रकार सुबाहुकुमार के अतीत और वर्तमान जीवनवृत्तान्त का परिचय करा देने के बाद अब सूत्रकार उस के भावी जीवनवृत्तान्त का वर्णन करते हैं मूल - पभू णं भंते! सुबाहुकुमारे देवाप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ (१) शाकटायन व्याकरण में लिखा है कि सम्भ्रम अर्थ में पदों का अनेक बार प्रयोग हो जाता है । जैसेकि - ५५९ - संभ्रमेऽसकृत्। २-३-१ । संभ्रमे वर्तमानं पदं वाक्यं वा असकृदनेकवारं प्रयुज्यते । जय जय जय । जिन जिन जिन । हिरहिरहः । सर सर सर । हस्त्यागच्छति हस्त्यागच्छति हस्त्यागच्छति । लघु पलाय लघु पलायध्वं लघु पलायध्वमित्यादि । इस के अतिरिक्त सिद्धान्तकौमुदी में लिखा है – 'सभ्रमेण प्रवृत्तां यथेष्टमनेका प्रयोगां न्यायसिद्धः" ( वा० ५०५६ ) सर्प सर्प | बुध्यस्व बुभ्यस्त्र सर्प सर्प सर्प | बुध्यस्व बुध्यस्व बुध्यस्व । इत्यादि पद दिये हैं जो कि वीप्सा के संसूचक हैं । प्रस्तुत में नगर निवासी सुमुख गाथापति की जो पुनः २ प्रशंसा कर रहे हैं तथा इस में पदों का अनेक बार जो प्रयोग हुआ है, वह भी बीसा के निमित्त ही है । (२) छाया - प्रभु : भदन्त ! सुबाहुकुमारो देवानुप्रियाणामन्तिके मुंडो भूत्वाऽगारादनगारतां प्रव्रजितुम् ? हन्त प्रभुः । ततः स भगवान् गोतमः श्रमं भगवन्तं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन् विहरति । ततः स श्रमणो भगवान् अन्यदा कदाचित् हस्तिशीर्षाद् नगराद् पुष्पकरंडादुद्यानात कृतवनमालयक्षायतनात् प्रतिनिष्क्रामति प्रतिनिष्क्रम्य बहिर्जनपदं विहरति । ततः स सुबाहुकुमार: श्रमणोपासको जातः, अभिगतजीवाजीवो यावत् प्रतिलम्भयन् विहरति । ततः स सुबाहुकुमारोऽन्यदा चतुर्दश्यष्टम्युष्टिपौर्णमासीषु यत्रैव पौषधशाला तत्रैवोपागच्छति उपागत्य पौषधशालां प्रमाष्टि प्रमा उच्चारप्रवणभूमिं प्रतिलेखयति प्रतिलेख्य दर्भसंस्तार संस्तृणोति दर्भसंस्तारमारोहति । अष्टमभक्तं प्रगृण्हाति । पौषधशालायां पौषधिकोऽष्टमभक्तिकः पौषधं प्रतिजाग्रत् २ विहरति । For Private And Personal Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६३८] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय अणगारियं पव्वइत्तए ? हंता पभू । तते णं से भगवं गोयमे समणं भगवं वंदति नमसति वन्दित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । तते णं से समणे भगवं अन्नया कयाइ हथिसीसाओ गगरायो पुप्फकरंडामओ उज्जाणाओ कतवणमालजक्खायतणाश्रो पडिनिक्खमइ पडिनिमित्ता बहिया जणवयं विहरति । तते णं से सुबाहुकुमारे समाणोवासए जाते अभिगयजावाजीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरति । तते णं सुबाहुकुमारे अन्नया चाउद्दसट्टमुद्दिपुराणमासिणीसु जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छह उवागच्छित्ता पोसहसालं पमज्जति पमज्जिचा उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेति पडिलेहिचा दब्मसंथारगं संथरेइ दब्मसंथारं दुरूहति । अट्ठममत्तं पगेएहति, पोसहसालाए पोसहिए अट्ठमभत्तिए पोसहं पडिजागरमाणे पडिजागरमाणे विहरति । पदार्थ- हे भंते !-हे भदन्त ! । सुबाहुकुमारे-सुबाहुकुमार । देवाणुप्पियाणं -श्रापश्री के । अंतिए-पास । मुण्डे भवित्ता-मुंडित हो कर । अगाराअो-अगार-घर को छोड़ कर । अरणगारियं-अनगारधर्म को। पवइत्तर -प्राप्त करने में । भू-समर्थ है ? । -वाक्यलंकारार्थक है । हंता-हां । पभू-समर्थ है। तते -तदनन्तर । से-वह । भगवं-भगवान् । गोयमे-गौतम । समणं-श्रमण भगवं-भगवान् महावीर स्वामी को। वंदति-वन्दना करते हैं । नमसति-नमस्कार करते हैं । वंदिता नमंसित्ता-वन्दना, नमस्कार कर के। संजमेण-संयम और । तवसा-तप के द्वारा । अप्पा-आत्मा को | भावेमाणे-भावित करते हुए। विहरति-विहरण करने लगे । तते - तदनन्तर । से-वे । समणे-श्रमण । भगवं-भगवान् महावीर स्वामी । अन्नया-अन्यदा। कयाइकिसी समय । हथिसीसाओ-हस्तिशीर्ष । णगरायो - नगर के । पुप्फकरडाओ-पुष्पकरंडक नामक । उज्जाणाओ-उद्यान से । कृतवणमालजक्वायतणाओ-कृतवनमाल नामक यक्षायतन से । पडिनिक्ख. मति पडिनिक्खमित्ता-निकलते हैं, निकल कर । बहिया-बाहिर । जणवयं-जनपद - देश में । विहरतिविहरण करने लगे । तते -तदनन्तर । से-वह । सुबाहुकुमारे-सुबाहुकुमार ।समणोवासए -श्रमणोपासक-श्रावक-जैनगृहस्थ । जाते-हो गया । अभिगयजीवाजीवे-जीव और अजीव आदि तत्त्वों का मर्मज्ञ । जाव-यावत् । पडिलामेमाणे -अाहारादि के दानजन्य लाभ को प्राप्त करता हुआ । विहरतिविहरण करने लगा । तते -तदनन्तर । से -वह । सुबाहुकुमारे-सवाहुकुमार । अन्नया-अन्यदा । चाउद्दसहमुहिष्टपुरणमासिणीसु-चतुर्दशी, अष्टमी, उद्दिष्ट -अमावस्या और पूर्णमासी इन तिथियों में से किसी एक तिथि के दिन । जेणेव-जहां । पोसहसाला-पोषवाला -पौषधवा करने का स्थान था। तेणेव-वहां । उवागच्छति उवागच्छित्ता-आता है, अाकर । पोसहसालं-पौषधशाला का । पमज्जति पमज्जित्ता - प्रमार्जन करता है, प्रमार्जन कर । उच्चारपासवणभूमि - उच्चारप्रस्रवणभूमि - मलमूत्र के स्थान की। पडिलेहेति-प्रतिलेखना करता है, निरीक्षण करता है, देखभाल करता है । दब्भसंथारं-दर्भसंस्तारकुशा का संस्तार-आसन । संथारेइ-बिछाता है । दब्भसंथारं -दर्भ के आसन पर । दुरूहात-बारूढ़ होता है। अट्टममतं अष्टमभक्त -तीन दिन का अविरत उपवास । पगएहति-ग्रहण करता है। पोसहसालाए- पौषधशाला में । पोसहिए-पौषधिक पौषधव्रत धारण किए हुए वह । अट्ठमभत्तिरअष्टमभक्तिक -अष्टमभक्कसहित । पोसह-पौषध - अष्टमी, चतुर्दशी श्रादि पर्वतिथि में करने योग्य जैन श्रावक का व्रतविशेष, अथवा आहारादि के त्यागपूर्वक किया जाने वाला धार्मिक अनुष्ठान विशेष का । पडिजागरमाणे पडिजागरमाणे-पालन करता हुआ,२। विहरति-विहरण करने लगा । For Private And Personal Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रथम अध्याय | www.kobatirth.org हिन्दी भाषा टीका सहित । [६३९ मूतार्थ -भगवन् ! सुबाहुकुमार आपश्री के चरणों में मुडित हो कर गृहस्थावास को त्याग कर अनगारधर्म को ग्रहण करने में समर्थ है ? Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भगवान् - हां गौतम ! है, अर्थात् प्रत्रजित होने में समर्थ है। तदनन्तर भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को विधिपूर्वक वन्दना नमस्कार कर संयम और तप के द्वारा आत्मभावना करते हुए विहरण करने लगे, अर्थात् साधुचर्या के अनुसार समय बिताने लगे । तनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने किसी अन्य समय हस्तिशीर्ष नगर के पुष्पकरण्डक दानगत कृतवनमाल नामक पक्षायतन से विहार कर अन्य देश में भ्रमण करना आरम्भ कर दिया। इधर सुबाहुकुमार जो कि श्रमणो गमक-श्रावक बन चुका था और जीवाजीवादि पदार्थों का जानकार हो गया था, आहारदि के दान द्वारा अपूर्व लाभ प्राप्त करता हुआ समय बिता रहा था । तत्पश्चात् किसी समय वह सुबाहु कुमार चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी के दिनों में से किमी एक दिन पौषधशाला में जाकर वहां की प्रमार्जना कर, उच्चार और प्रस्रवण भूमि का निरीक्षण करने के अनन्तर वह कुशासन बिछा कर उस पर आरूढ़ हो कर अष्टमभक्त - तीन उपवास को ग्रहण करता है, ग्रहण कर पौधशाला में पौष हो कर यथाविधि उसका पालन करता हुआ अर्थात् तेलापौषध कर के विहरण करने लगा - धार्मिक क्रियानुष्ठान में समय व्यतीत करने लगा । - टीका - प्रस्तुत मूलपाठ में सुबाहुकुमार से सम्बन्ध रखने वाली मुख्य- १ - गौतम स्वामी का प्रश्न और भगवान् का उत्तर । २ – सुबाहुकुमार का तत्त्वज्ञान से सम्बन्ध रखने वाला सम्यक् बोध । ३ – ग्रहण किये गये देशविरतिधर्म का 'सम्यक् पालन - इन तीन बातों का वर्णन किया गया है। इन तीनों का ही यहां पर क्रमशः विवेचन किया जाता है. १ - क्या भगवन् ! यह सुबाहुकुमार जिस ने श्रापश्री की सेवा में उपस्थित हो कर गृहस्थधर्म को स्वीकार किया है, वह कभी श्री से सर्वविरतिधर्म - साधुधमं को भी अंगीकार करेगा ? वह सर्वविर तिघमं के पालन में समर्थ होगा ? तात्पर्य यह है कि आपश्री के पास मुण्डित हो कर श्रगार - घर को छोड़ कर गारता को प्राप्त करने गृहस्थावास को त्याग मुनिधर्म को स्वीकार करने में प्रभु – समर्थ होगा कि नहीं ?, यह था प्रश्न जो गौतम स्वामी ने भगवान् से किया था । गौतम स्वामी के इस प्र में प्रयुक्त किये गये १ - मुण्डित, २ - अनगारता, ३ - प्रभु। ये तीनों शब्द विशेष भावपूर्ण हैं । ये तीनों ही उत्तरोत्तर एक दूसरे के सहकारी तथा परस्पर सम्बद्ध हैं। इन का अर्थ सम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है 1 १ - मुण्डित - यहां पर सिर के बाल मुंडा देने से जो मुण्डित कहलाता है, उस द्रव्यमुण्डित का ग्रहण अभिमत नहीं, किन्तु यहां भाव से मुण्डित हुए का महा अभिप्रेत है । जिस साधक व्यक्ति ने सिर पर लदे हुए गृहस्थ के भार को उतार देने के बाद हृदय में निवास करने वाले विषयकषायों को निकाल कर बाहिर फैंक दिया हो वह भावमुण्डित कहलाता है । श्रमणता – साधुता प्राप्त करने के लिये सत्र से प्रथम बाहिर से जो मुंडन कराया जाता है वह आन्तरिक मुडन का परिचय देने के लिये होता है। यदि अन्तर में विषयकपायों का कीच भरा पड़ा रहे तो बाहिर के इस मु ंडन से श्रमणभाव साधुता की प्राप्ति दुर्घट ही नहीं किन्तु असम्भव भी । इसीलिये शास्त्रकार स्पष्ट घोषणा कर रहे हैं कि " न वि मुडिएण समणो - " अर्थात् केवल सिर के मुडा लेने से अलग नहीं हो सकता, पर उनके लिये तो भावमुडित विषयकवाव (१) उत्तराध्ययन सूत्र अध्याय २५, गा० ३१ । तथा श्री स्थानाङ्ग सूत्र में भी इस सम्बन्ध में लिखा हैदस मुंडा पं० तं जहा- सोइन्दियमुंडे जाव फासिंदियमुण्डे, कोहे जाव लोभमुण्डे सिरमुण्डे । For Private And Personal Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org विपाकसूत्रीयद्वितीय श्रुतस्कन्ध ६४० ] रहित होने की आवश्यकता है। तत्र गौतम स्वामी के पूछने का भी यही अभिप्राय है कि क्या श्री सुबाहुकुमार भाव से मु°डित हो सकेगा ? तात्पर्य यह है कि द्रव्य से मुडित होने वालों, बाहिर से सिर मुंडाने वालों की तो संसार में कुछ भी कमी नहीं। सैंकड़ों नहीं बल्कि हज़ारों ही निकल आयें तो भी कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है परन्तु भाव से मुण्डित होने वाला तो कोई विरला ही वीरात्मा निकलता है । प्रयुक्त हुआ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - 1 जिस २ – अनगारता - गृहस्थ और साधु की बाह्य परीक्षा दो बातों से होती है। घर से और जर से । ये दोनों गृहस्थ के लिये जहां भूत्रणा बनते हैं वहां साधु के लिये नितान्त दूषणरूप हो जाते हैं। गृहस्थी के पास घर नहीं वह गृहस्य नहीं और जिस साधु के पास घर है वह साधु नहीं । इस लिये मुण्डित होने के साथ २ घरसम्बन्धी अन्य वस्तुओं के त्याग की भो साधुता के लिये परम आवश्यकता है। वर्तमान युग में घरबार आदि रखते हुए भी जो अपने आप को परिव्राजकाचार्य या साधुशिरोमणि कहलाने का दावा करते हैं, वे भले ही करें, परन्तु शास्त्रकार तो उस के लिये ( साधुता के लिये ) अनगारता घर का न होना ) को ही प्रतिपादन करते हैं। गृह के सुखों का परित्याग कर के, सर्वथा गृहत्यागी बन कर विवरना एवं नानाविध परीषहों को सहन करना एक राजकुमार के लिये शक्य है कि नहीं ? अर्थात् सुबाहुकुमार जैसे सद्गुणसम्पन्न सुकुमार राजकुमार के लिये उस कठिन संयमन्नत के पालन करने की संभावना की जा सकती है कि नहीं ? यह गौतम स्वामी के प्रश्न में रहा हुआ अनगारता का रहस्यगर्भित भाव है । प्रथम अध्याय - ३ - प्रभु - पाठकों को स्मरण होगा कि श्रमण भगवान् महावीर की सेवा में उपस्थित हो कर उनकी धर्मदेशना सुनने के बाद प्रतिबोध को प्राप्त हुए श्री सुबाहुकुमार ने भगवान् से कहा था कि प्रभो ! इस में सन्देह नहीं कि आप के पास अनेक राजा महाराजा और सेठ साहूकारों ने सर्वविरतिधर्म - साधुधर्म को गीकार किया है परन्तु मैं उस सर्व विरतिरूप साधुधर्म को ग्रहण करने में समर्थ नहीं हूं। इसलिये आप मुझे देशविरतिधर्म को ग्रहण कराने की कृपा करें, अर्थात् मैं महाव्रतों के पालन में तो असमर्थ हूँ अतः वनों का ही मुझे नियम करावें । श्री सुबाहुकुमार के उक्त कथन को स्मृति में रखते हुए ही श्री गौतम स्वामी ने भगवान् से" - पभू णं भन्ते १ सुबाहुकुमा रे देवाणु अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अगगारियं पव्वइत्तीए - " यह पूछने का उपक्रम किया है । इस प्रश्न में सब से प्रथम प्रभु शब्द का इसी अभिप्राय से प्रयोग किया जान पड़ता है । भगवान् - हां गौतम ! है अर्थात् सुबाहुकुमार मुण्डित हो कर सर्वविरतिरूप साधुवम के पालन करने में समर्थ है। उस में भावसाधुता के पालन को शक्ति है । भगवान् के इस उत्तर में गौतम स्वामी की सभी शंकायें समाहित हो जाती हैं। - हंता पभू-हंत प्रभुः- यहां दंत का अर्थ स्वीकृति होता है । अर्थात् हृत अव्यय स्वीकारार्थ में है। प्रभु समर्थ को कहते हैं । - संजमेण तवसा अपा भावेमा - प्रर्थात् संयर और तप के द्वारा अपनी आत्मा को भावित करना । संयम के आराधन और तप के अनुष्ठान से आत्मगुणों के विकास में प्रगति लाने का यत्न - विशेष ही श्रात्मभावना या आत्मा को वासित करना कहलाता है । For Private And Personal जनपद यह शब्द राष्ट्र, देश, जनस्थान और देशनिवासी जनसमूह आदि का बोधक है, किन्तु प्रकृत में यह राष्ट्र - देश के लिये ही प्रयुक्त हुआ है। २ - से सुबाहुकुमारे समणांवासर जाते अभिगयजीवाजीवे जाव पडिनाभेमाणे विहरति इन पदों में श्रमणोपासक का अर्थ और उस की योग्यता के विषय में वर्णन किया गया है। श्रमणोपासक शब्द (२) यहां पर घर शब्द को स्त्री, पुत्र तथा अन्य सभी प्रकार की धन सम्पत्ति का उपलक्ष्य समझना चाहिए । Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित। [६४१ का व्युत्पतिजन्य अर्थ क्या है ? तथा जीवाजीवादि पदार्थों का अधिगम करने वाला भ्रमणोपासक कैसा होना चाहिये । इन बातों पर विचार कर लेना भी उचित प्रतीत होता है । श्रमणों के उपासक को श्रमणोपासक कहते हैं | जो धर्मश्रवण' की इच्छा से साधुओं के पास बैठता है, उस की उपासक' संज्ञा होती है। उपासक -१ द्रव्य, २-तदर्थ, ३ -मोह और ४-भाव इन भेदों से चार प्रकार का माना गया है। जिस का शरीर उपासक होने के योग्य हो, जिस ने उपासकभाव के आयुष्कर्म का बन्ध कर लिया हो तथा जिस के नाम गोत्रादि कर्म उपासकभाव के सम्मुख आ गये हों, उसे द्रव्योपासक कहते हैं । जो सचित्त, अचित्त और मिश्रित पदार्थों के मिलने की इच्छा रखता है, उन की प्राप्ति के लिये उपासना (प्रयत्नविशेष) करता है, उसे तदर्थोपासक कहते हैं । अपनी कामवासना की पूर्ति के लिये युवती युवक की और युवक युवती की उपासना करे, परस्पर अन्धभाव से एक दूसरे की आज्ञा का पालन करें तथा मिथ्यात्व की उत्तेजनादि करें उसे मोहोपासक कहा जाता है । जो सम्यग्दृष्टि जीव शुभ परिणामों से ज्ञान, दर्शन और चारित्र के उपासक श्रमण-साधु की उपासना करता है उसे भावोपासक कहते हैं । इसी भावोपासक की ही श्रमणोपासक संज्ञा होती है । तात्पर्य यह है कि भावोपासक और श्रमणोपासक ये दोनों समानार्थक है । प्रश्न-जनसंसार में श्रावक ( जो धर्म को सुनता है -जैन गृहस्थ ) शन्द का प्रयोग सामूहिक रूप से देखा जाता है । चतुर्विध संघ में भी श्रावकपद है, किन्तु सूत्र में "श्रमणोपासक, लिखा है। इस का क्या कारण है ? और इन दोनों में कुछ अर्थगत विभिन्नता है, कि नहीं ? यदि है तो क्या ? उत्तर-श्रावक शब्द का प्रयोग अविरत सम्यग्दृष्टि के लिये किया जाता है और श्रमणोपासक, यह शब्द देशविरत के लिये प्रयुक्त होता है । सूत्रों में जहां श्रावक का वर्णन आता है वहां तो "-दंसणसावए. दर्शनश्रावक-" यह पद दिया गया है और जहां बारह व्रतों के आराधक का वर्णन है वहां पर " -समणोवासप-श्रमणोपासक-" यह पाठ पाता है। सारांश यह है कि व्रत, प्रत्याख्यान श्रादि से रहित केवल सम्यग्दर्शन को धारण करने वाला व्यक्ति श्रावक कहलाता है और द्वादशव्रतधारी की "श्रमणोपासक" संज्ञा है। यही इन दोनों में अर्थगत भेद है। वर्तमान में तो प्रायः श्रावकशब्द ही दोनों के लिये प्रयुक्त होता है। अर्थात् अविरत सम्यग्दृष्टि और देशविरत दोनों का ही ग्रहण श्रावक शब्द से किया जाता है। -अभिगयजीवाजीवे -इस विशेषण से श्री सुबाहुकुमार को जीवाजीवादि पदार्थों का सम्यग ज्ञाता प्रमाणित किया गया है । चेतना विशिष्ट पदार्थ को जीव और चेतनारहित जड़ पदार्थ को अजीव कहते हैं । इन दोनों का भेदोपभेदसहित सम्यग बोध रखने वाला व्यक्ति अभिगतजीवाजीव कहलाता है । इस के अतिरिक्त श्री सुबाहुकुमार के सात्त्विक ज्ञान और चारित्रनिष्ठा एवं धार्मिक श्रद्धा के द्योतक और भी बहुत से विशेषण हैं, जिन्हें सत्रकार ने "जाव-यावत् पद से सूचित कर दिया है। वे सब इस प्रकार हैं (१) उप-समीपम् आस्ते-निषीदति धर्मश्रवणेच्छया साधूनामिति उपासकः । (वृत्तिकारः) (२) इन चारों की विशद व्याख्या के लिये देखो-जैनधर्मदिवाकर श्राचार्यप्रवर परमपूज्य गुरुदेव श्री श्रात्मा राम जी महाराज द्वारा अनुवादित श्री दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, पृष्ठ २७३ । (३) अभिगतः सम्यक्तया ज्ञात: जीवाजीवादिपदार्थ:-पदार्थस्वरूपो येन.स तथा । अर्थात जिस ने जीव, अजीव प्रभृति पदार्थों का सम्यग् बोध प्राप्त कर लिया है, उसे अभिगतजीवाजीव कहते है। श्री सुबाहुकुमार को इन का. सम्यग बोध था, इसलिये उस के साथ यह विशेषण लगाया गया है। For Private And Personal Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६४२]] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय उवलद्धपुरणपावे, श्रासवसंवर निज्जरकिरियाहिगरणबन्धमोक्खकुसले, असहेज्जदेवतासुरनागसुवरगजक्खरक्खसकिन्नरकिंपुरिसगरुलगंधव्वमहोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावय. साओ अणइक्कमणिज्जे. निग्गंथे पावयणे निस्संकिए निक्कंखिए निव्वितिगिच्छे लढे गहिय? पुच्छियो अडिगयडे विणिच्छिय? अटिमिंजपेमाणुगगरते अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अटे, अयं परमेटे, सेसे अनट्टे, उसियफलिहे अवंगुयदुवारे चियत्तेउरघरप्पवेसे बहूहिं सीलब्धयगुणवेरमणपञ्चक्खाणपोस होपवासेहिं चाउद्दसमुद्दिपुराणमासिणीसु पडिपुराणं पोसहं सम्म अणुपालेमाणे समाणे निग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिगहकंबलपायपुछणेणं पीढफलगसिज्जासंथारएणं प्रोसहभेसज्जेण य पडिलाभेमाणे अहापरिग्गहिपहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे विहरति । इन पदों का अर्थ निम्नोक्त है - वह सुबाहुकुमार जीव, अजीव के अतिरिक्त पुण्य (श्रात्मप्रदेशों के साथ क्षीरनीर की भाँति मिले हुए शुभ कर्मपुद्गल) और पाप (आत्मप्रदेशों से मिले हुए अशुभ कर्मपुद्गल) के स्वरूप को भी जानता था । इसी प्रकार प्राप्तव, संवर२, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण", बन्ध और मोक्ष के स्वरूप का ज्ञाता था, तथा किसी भी कार्य में वह दूसरों की सहायता की आशा नहीं रखता था। अर्थात् वह निर्ग्रन्थप्रवचन में इतना दृढ़ था कि देव असुर, नाग, सुवर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग आदि देवविशेष भी उसे निग्रंथ प्रवचन से विचलित नहीं कर सकते थे। उसे निग्रन्थप्रवचन में शंका (तात्विकी शंका) कांक्षा (इच्छा) और विचिकित्सा (फल में सन्देह लाना) नहीं थी। उस ने शास्त्र के परमार्थ को समझ लिया था, वह शास्त्र का अर्थ- रहस्य निश्चितरूप से धारण किये हुए था। उस ने शास्त्र के सन्देहजनक स्थलों को पूछ लिया था, उन का ज्ञान प्राप्त कर लिया था, उन का विशेषरूप से निणय कर लिया था, उस की हड्डियां और मज्जा सर्वज्ञदेव के प्रेम-अनुराग से अनुरक्त हो रही थी अर्थात् निग्रन्थप्रवचन पर उस, का अटूट प्रेम था। हे आयुष्मन् ! वह सोचा करता था कि यह निग्रंथप्रवचन ही अर्थ (सत्य) है, परमार्थ है (परम सत्य है). उस के बिना अन्य सब अनर्थ (असत्यरूप) है । उस की उदारता के कारण उस के भवन के दरवाजे की अर्गला ऊँची रहती थी और उस का द्वार सब के लिये सदा खुला रहता था। वह जिस के घर या अन्त:पुर में जाता उस में प्रीति उत्पन्न किया करता था, तथा वह शीलवत', गुणव्रत, विरमण-रागादि से निवृत्ति-प्रत्याख्यान, पौषध, उपवास तथा चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन परिपूर्ण पौषधव्रत किया करता था । श्रमणों - निग्रन्थों को निर्दोष और ग्राह्य अशन, पान, खादिम और स्वादिम श्राहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, पीठ, फलक, शय्या, संस्तार, औषध औरभेषज श्रादि देता हुआ महान् लाम (१) शुभ और अशुभ कर्मों के आने का मार्ग प्रास्रव होता है । २-शुभ और अशुभ कर्मों के आने के मार्ग को रोकना सम्बर कहलाता है। ३-आत्मप्रदेशों से कमवर्गणाओं का देशत: या सर्वतः क्षीण होना निर्जरा कहलाती है। ४-कर्मबन्ध की कारणभूत चेष्टाओं को क्रिया कहते हैं और वह २५ प्रकार की होती हैं । ५-कर्मबन्ध के साधन-उपकरण या शस्त्र को अधिकरण कहते हैं । अधिकरण जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण भेद से दो प्रकार का होता है। ६-कर्मपुद्गलों का जीवप्रदेशों के साथ दूध पानी की तरह मिलने अर्थात् जीवकर्म-संयोग को बन्ध कहते हैं । ७-कमपुद्गलों का जीवप्रदेशों से आत्यन्तिक सर्वथा क्षीण हो जाना मोक्ष कहलाता है। (८) शीलव्रत से पांचों अणुव्रतों का ग्रहण करना चाहिये। शीलव्रत, गुणद्रत और शिक्षाव्रतों की व्याख्या इसी अध्ययन में ५७६ से ले कर ५९८ तक के पृष्ठों पर की जा चकी है। For Private And Personal Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] __ हिन्दी भाषा टीका सहित। [६४३ को प्राप्त करता तथा यथाप्रगृहीत तपकर्म के द्वारा अपनी आत्मा को भावित - वासित करता हुआ विहरण कर रहा था। इस वर्णन में श्रमणोपासक की तत्त्वज्ञानसम्बन्धी योग्यता, प्रवचननिष्ठा, गृहस्थचर्या और चारित्रशुद्धि की उपयुक्त धार्मिक क्रिया आदि अनेक ज्ञातव्य विषयों का समावेश किया गया है। गृहस्थावास में रहते हुए धर्मानुकूल गृहसम्बन्धी कार्यों का यथाविधि पालन करने के अतिरिक्त उस का आत्मश्रेय साधनार्थ क्या कर्तव्य है ? और उस के प्रति सावधान रहते हुए नियमानुसार उस का किस तरह से आचरण करना चाहिए ? इत्यादि अनुकरणीय और आचरणीय विषयों का भी उक्त वर्णन से पर्याप्त बोध मिल जाता है। (३) पौषधोपवास -धर्म केवल सुनने की वस्तु नहीं अपितु आचरण की वस्तु है । जैसे औषधि का नाम उच्चारण करने से रोग की निवृत्ति नहीं हो सकती और तदर्थ उस का सेवन आवश्यक है । इसी प्रकार धर्म का श्रवण करने के अनन्तर उस का आचरण करना आवश्यक होता है । बिना आचरण के धर्म से कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। जब तक धर्म का श्रवण कर के पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ उस का आचरण न किया जावे तब तक उस से किसी प्रकार का भी लाभ प्राप्त नहीं हो सकेगा । इसी दृष्टि से ज्ञान और दर्शन में कुशल श्री सुबाहुकुमार ने उन दोनों के अनुसार चारित्रमूलक पौषधोपवास व्रत का अनुष्ठान करने में प्रमाद नहीं किया। सुबाहुकुमार अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा इन पुण्य तिथियों में पौषधोपवासव्रत करता था और धर्मध्यान के द्वारा आत्मचिन्तन में निमग्न हो कर गृहस्थधर्म का पालन करता हुआ समय व्यतीत कर रहा था । -पोसह- यह प्राकृत भाषा का शब्द है । इस की संस्कृत छाया 'पोषध होती है । पोषधशब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ "-पोषणं पोष:-पुष्टिरित्यथः तं धत्त गृह्णाति इति पोषधम्" इस प्रकार है। अर्थात् जिस से आध्यात्मिक विकास को पोषण-पुष्टि मिले उसे पोषध कहते हैं । यह श्रावक का एक धार्मिक कृत्यविशेष है, जो कि पौषधशाला में जाकर प्रायः अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वतिथियों में किया जाता है । इस में सर्व प्रकार के सावध व्यापार के त्याग से लेकर मुनियों की भाँति सारा समय प्रमादरहित हो कर धर्मध्यान करते हुए व्यतीत करना पड़ता है। इस में आहार का त्याग करने के अतिरिक्त शरीर के गार तथा अन्य सभी प्रकार के लौकिक व्यवहार या व्यापार का भी नियमित समय तक परित्याग करना होता है । इस व्रत की सारी विधि पौषधशाला या किसी पौषधोपयोगी स्थान पर की जा सकती है । इस के अतिरिक्त पौषधव्रत शास्त्रों में १-आहारपौषध, २-शरीरपौषध, ३-ब्रह्मचर्यपौषध और ४-अव्यवहारपौषध या अव्या. पारपौषध, इन भेदों से चार प्रकार का वर्णन किया गया है, ये चारों भी सर्व और देश भेद के से दो २ प्रकार के कहे है । इस तरह सब मिला कर पौषध के आठ भेद हो जाते हैं । इन आठों भेदों का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ ५९६ पर किया जा चुका है। सामान्यरूप से तो इस के दो ही भेद है-देशपौषध और सर्वपौषध । देशपौषध का ग्रहण दसवें (१) पोषध शब्द से व्याकरण के "प्रज्ञादिभ्यश्च । ५-४-३६ (सिद्धान्त कौमुदी) इस सूत्र से स्वार्थ में अण प्रत्यय करने से पौषध शन्द भी निष्पन्न होता है। आज पौषध शब्द का ही अधिक प्रयोग मिलता है। इसीलिये हमने इस का अधिक आश्रयण किया है। (२) पोसहोववासे चउम्विहे पएणते तंजहा-आहारपोसहे. सरीरपोसहे, बम्भपोसहे अववहारपोसहे। For Private And Personal Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ૬૪૪ ] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [ प्रथम अध्याय 1 में और ग्यारह व्रत में सर्वपौषध का ग्रहण होता है। पौषध लेने की जो विधि है उस में ऐसा ही 'उल्लेख पाया जाता हैं । सर्वपौषध में पूरे आठ प्रहर के लिए प्रत्याख्यान होता है । इस से कम काल का पौषध सर्वपौषध नहीं कहलाता। सुबाहुकुमार का पौषध सर्वपौषध था और वह उसने पौषधशाला में किया था और वहीं पर इस ने अष्टमभक्त-तेला व्रत सम्पन्न किया था । यह बात मूलपाठ से स्पष्ट सिद्ध हो जाती है । तात्पर्य यह है कि श्री सुबाहुकुमार ने लगातार तीन पौषध करने का नियम ग्रहण किया, परन्तु इतना ध्यान रहे कि पौषधत्रय करने से पूर्व उस ने एकाशन किया तथा उस की समाप्ति पर भी एकाशन किया । इस भाँति उस ने आठ भोजनों का त्याग किया । कारण कि पौषध में तो मात्र दिन रात के लिए आहार का त्याग होता है । दैनिक भोजन द्विसंख्यक होने से पौषधत्रय में छः भोजनों का त्याग फलित होता है । सूत्रकार स्वयं ही - पोसहिएइस विशेषण के साथ - अट्ठमभत्तिए - - यह विशेषण दे कर उस के श्राठ भोजनों का त्याग संसूचित कर रहे हैं । प्रश्न - पौषध और उपवास इन दोनों में क्या भिन्नता है ? उत्तर- धर्म को पुष्ट करने वाले नियमविशेष का धारण करना पौषध कहलाता है । पौषध भेदोपभेदों का वर्णन पीछे पृष्ठ ५९६ पर किया जा चुका है । और उपवास मात्र त्रिविध या चतुर्विध आहार के त्याग का नाम है । तथा उपवासपूर्वक किया जाने वाला पौषधद्रत पौषधोपवास कहलाता है । पौष व्रत में उपवास अवश्यंभावी है जब कि उपवास में पौषव्रत का आचरण आवश्यक नहीं । श्रथवा पौषधोपवास एक ही शब्द है । पौषघव्रत में उपवास – अवस्थिति पौषधोपवास कहलाता है । पौधशाला - जहां बैठ कर पौषधत्रत किया जाता है, उसे पौधशाला कहते है । जैसे भोजन के स्थान को भोजनशाला, पढ़ने के स्थान को पाठशाला कहते हैं. उसी भाँति पौषधशाला के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिये । मलमूत्रादि परित्याग की भूमि को उच्चारप्रस्रवणभूमि कहा जाता है । प्रश्न – सूत्रकार ने जो पुरीषालय का निर्देश किया है, इस की यहां क्या आवश्यकता थी ? क्या यह भी कोई धार्मिक अंग हैं ? उत्तर - जहां पर मलमूत्र का त्याग किया जाता हो उस स्थान को देखने से दो लाभ होते हैं । प्रथम तो वहां के जीवों की यतना हो जाती है । दूसरे वहां की सफ़ाई से भविष्य में होने वाली जीवों की (१) पौषध का सूत्रसम्मत पाठ इस प्रकार है - एकारसमे पडिपुराणे पोस होववासवर सव्वत्र असण - पाण–खाइम - साइम-पञ्चकवा, श्रवम्भ - पचकखाणं, मणिसुवरणाइपचकवाणं मालावन्नगविलेवपाइपच्चक्खाणं, सत्यमुसल• वावाराइसावज्जजोगपञ्चकवाणं जाव श्रहोरतं पज्जुवासामि दुविहं तिबिहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कापसा तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पा वोसिरामि । इस पाठ में चारों प्रकार के आहार का, सब प्रकार की शारीरिक विभूषा का तथा सर्व प्रकार के मैथुन एवं समस्त सावद्य व्यापार का अहोरात्रपर्यन्त त्याग कर देने का विधान किया गया है । प्रातःकाल सूर्योदय से ले कर अगले दिन सूर्योदय तक का जितना काल है वह अहोरात्र काल माना जाता है। दूसरे शब्दों में पूरे आठ प्रहर तक आहार, शरीर विभूषा, मैथुन तथा व्यापार का सर्वथा त्याग सर्वपौषध कहलाता है । (२) पोषणं पोषः पुष्टिरित्यर्थः तं धत्त े गृह्णाति इति पोषधः, स चासावुपवासेश्चेति । यद्वोक्त्यैव व्युत्पत्त्या पोपधमष्टम्यादिरूपाणि पर्वदिनानि तत्रोप० श्रहारादित्यागरूपं गुणमुपेत्य वासः -- निवसनमुपवास इति पोषधोपवासः । ( उपासक दशांग संजीवनी टीका पृष्ठ २५७ ) । For Private And Personal Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टोका सहित । [६४५ विराधना से बचा जा सकता है और तीसरी बात यह भी है कि यदि किसी समय अकस्मात् बाधा (मलमूत्र त्यागने की हाजित) उत्पन्न हो तो जाय उस से झटिति निवृत्ति की जा सकती है। यदि उक्त स्थान को पहले न देखा जाय तो काम कैसे चलेगा ? बाधा को रोकने से शरीर अस्वस्थ हो जाएगा, शरीर के अस्वस्थ होने पर धार्मिक अनुष्ठान में प्रतिबन्ध उपस्थित होगा...इत्यादि सभी बातों को ध्यान में रखते हुए सूत्रकार ने उच्चारप्रस्रवणभूमि के निरीक्षण का निर्देश किया है। इस से इस की धार्मिक पोषकता सुस्पष्ट है। __ -संथार- संस्तार, इस शब्द का प्रयोग आसन के लिये किया गया है । दर्भ कुशा का नाम है, कुशा का श्रासन दर्भसंस्तार कहलाता है । अष्टमभक्त यह जैनसंसार का पारिभाषिक शब्द है । जब इकट्ठ तीन उपवासों का प्रत्याख्यान किया जाये तो वहां अष्टमभक्त का प्रयोग किया जाता है । अथवा अष्टम शब्द अाठ का संसूचक है और भक्त भोजन को कहते हैं । तात्पर्य यह है कि जिस तप में आठ भोजन छोड़े जाए उसे अष्टमभक्त कहा जाता है । एक दिन में भोजन दो बार किया जाता है । प्रथम दिन सायंकाल का एक भोजन छोड़ना अर्थात् एकाशन करना और तीन दिन लगातार छः भोजन छोड़ने, तत्पश्चात् पांचवें दिन प्रातः का भोजन छोड़ना, इस भाँति आठ भोजनों को छोड़ना अष्टमभक्त कहलाता है । ___ इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने सुबाहुकुमार के धार्मिक ज्ञान और धर्माचरण का वर्णन करते हुए उसे एक सुयोग्य धार्मिक राजकुमार के रूप में चित्रित किया है ? अब उस के अग्रिम जीवन का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं- .. मूल-तए णं तस्स सुवाहुस्स कुमारस्स पुन्चरत्तावरत्तकाले धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमे एयारूवे अज्झत्थिते ४ समुप्पज्जित्था-धन्ने णं ते गामागर० जाव सन्निवेसा, जत्थ णं समणे भगवं महावीरे विहरति, धन्ना णं ते राईसर० जे समणस्स भगवो महावीरस्स अंतिए मुडा जाव पव्वयन्ति । धन्ना णं ते राईसर० जे णं समणस्स भगवो महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वतियं जाव गिहिधम्म पडिवज्जन्ति । धन्ना णं ते राईसर० जेणं समणस्स भगवओ महावोरस्स अतिए धम्मं सुणेति । तं जइ णं समणे भगवं महावीरे पुवाणुपुब्धि (१) छाया-ततस्तस्य सुबाहोः कुमारस्य पूर्वरात्रापररात्रकाले धर्मजागर्यया जाग्रतोऽयमेतद्प आध्यात्मिकः ४ समुत्पद्यत-धन्यास्ते' प्रामाकर० यावत् सन्निवेशा यत्र श्रमणो भगवान् महावीरो विहरति । धन्यास्ते राजेश्वर० ये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्पान्तिके मुंडा यावत् प्रव्रजन्ति, धन्यास्ते राजेश्वर० ये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके पञ्चाणुवतिकं यावद् गृहिधर्म प्रतिपद्यन्ते, धन्यास्ते राजेश्वर. ये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके धर्म शृण्वन्ति, तद् यदि श्रमणो भगवान् महावीर: पूर्वानुपूर्व्या यावद् द्रवन् इहागछेत् यावद् विहरेत् , ततोऽहं श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके मुंडो भूत्वा यावत् प्रव्रजेयम् । (१) जहां महापुरुषों के चरणों का न्यास होता है वह भूमि भी पावन हो जाती है, यह बात बौद्धसाहित्य में भी मिलती है । देखिए गामे वा यदि वा रज्जे, निन्ने वा यदि वा थले । यत्यारहन्तो विहरन्ति, तं भूमि रामणेय्यक ॥९॥ (धम्मपद अर्हन्तवर्ग) For Private And Personal Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६४६] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय जाव दइज्जमाणे इहमागछेज्जा जाव विहरिज्जा, तते णं अहं समणस्स भगवओ महावीरस्स अतिए मुडे भवित्ता जाव पव्वएज्जा। पदाथ-तए णं-तदनन्तर । तस्त-उस । सुबाहुस्स-सुबाहु। कुमारस्त -कुमार को । पुव्वरत्तावरत्तकाले - मध्यरात्रि में। धम्मजागरिय-धर्मजागरण-धर्मचिन्तन में । जागरमाणस्सजागते हुए को। इमे-यह । एयारूवे- इस प्रकार का । अज्कत्थिते ४ - संकल्प ४ । समुप्पज्जित्थाउत्पन्न हुा । धन्ना णं-धन्य हैं । ते -वे । गामागर-ग्राम, आकर । जाव-यावत् । सन्निवेसासन्निवेश । जत्थ णं-जहां । समणे · श्रमण । भगवं -भगवान् । महावीरे-महावीर स्वामी । विहरति - विचरते हैं । धन्ना णं -धन्य हैं । ते -वे । राईसर०-राजा ईश्वर श्रादि । जे णं-जो । समणस्स भगवश्रो महावीरस्स-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के। अंतिए – पास । मडा- मुंडित हो कर। जावयावत् । पव्वयंति-दीक्षा ग्रहण करते हैं । धन्ना णं-धन्य हैं । ते-वे । राईसर० - राजा और ईश्वरादि । जे णं-जो । समणस्स भगवो महावीरस्त - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के । अंतिए - पास । पंचाणव्वतियं - पंचाणुवतिक । गिहिधम्म-गृहस्थधर्म को । पडिवज्जति स्वीकार करते हैं। धन्ना णं-धन्य हैं । ते- वे । जे णं- जो । समणस्स भगवश्री महावीरस्स-श्रमण भगवान महावीर स्वामी के । अंतिर -समीप । धम्मं धर्म का । सुण ति-श्रवण करते हैं । तं-अतः । जइ णं- यदि । समणे-श्रमण । भगवं-भगवान् । महावीरे-महावीर । पुव्वाणपवि–पूर्वानुपूर्वी - क्रमशः । जाव-यावत् । दुइज्जमाणे-गमन करते हुए । इहमागच्छेज्जा-यहां आ जावें । जाव-यावत । विहरिज्जा-विहरण करें। तते णं - तब । अहं-मैं । समणस्स भगवो महावीरस्स - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के। अंतिर -पास । मुंडे - मुडित । भवित्ता-हो कर । जाव -यावत् । पवएज्जा - प्रबजित हो जाऊं- दक्षिा ग्रहण कर लू। मूलार्थ- तदनन्तर मध्यरात्रि में धर्मजागरण के कारण जागते हुए सुबाहुकुमार के मन में यह संकल्प उठा कि वे ग्राम, नगर, आकर, जनपद और सन्निवेश श्रादि धन्य हैं कि जहां पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विचरते हैं, वे राजा, ईश्वर आदि भी धन्य हैं कि जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास मुण्डत हो कर प्रवजित होते हैं तथा वे राजा, ईश्वर श्रादिक भी धन्य है जो श्रमण भगवान् महावीर के पास पञ्चा पुत्र तक ( जिस में पांच अणुव्रतों का विधान है ) गृहस्थधर्म को अंगीकार करते हैं, एवं वे भी राजा, ईश्वरादि धन्य हैं जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप धर्म का श्रवण करते हैं। तब यदि श्रमण भगवान महावीर स्वामी पूर्वानुपूर्वी यावत् गमन करते हुए, यहां पधारें तो मैं श्रमण भगवान महावीर स्वामो के पास मुण्डित होकर प्रवजित होजाऊं-दीक्षा धारण करल। टीका-दर्भसंस्तारक-'कुशा के आसन पर बैठ कर पौषधोपवासव्रत को अंगीकार कर के धर्मचिन्तन में लगे हुए श्री सुबाहुकुमार के हृदय में एक शुभ संकल्प उत्पन्न होता है । जिस का व्यक्त स्वरूप इस प्रकार है (१) सुबाहुकुमार का रेशम आदि के नर्म और कोमल अासन को त्याग कर कुशा के श्रासन पर बैठ कर धर्म का अाराधन करना उस को धर्ममय मनोवृत्ति की दृढता को तथा उस को सादगी को सूचित करता है। साधक व्यक्ति में देहाध्यास (देहासक्ति) की जितनी कमी होगी उतनी ही उस की विकासमार्ग की ओर प्रगति होगी। इस के अतिरिक्त कुशासन पर बैठने से अभिमान नहीं होता और इस में यह भी गुण है कि बस से टकरा कर जो वायु निकलती है, उस से योगसाधन में बड़ी सहायता मिलती है । वैदिकपरम्परा में कुशा को बड़ा महत्त्व प्राप्त है। For Private And Personal Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । धन्य हैं वे ग्राम, नगर, देश और सन्निवेश आदि स्थान जहां पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का विचरना होता है। वे राजा, महाराजा और सेठ साहुकार भी बड़े पुण्यशाली हैं जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में मुडित हो कर दीक्षा ग्रहण करते हैं और जो उन के चरणों में उपस्थित हो पंचाणुव्रतिक गृहस्थधर्म को अंगीकार करते हैं, वे भी धन्य हैं । उन के चरणों में रह कर धर्मश्रवण का सौभाग्य प्राप्त करने वाले भी धन्य हैं तब यदि सद्भाग्य से अब के भगवान् यहां पधारेंगे तो मैं भी उन के पावन श्रीचरणों में उपस्थित हो कर संयमव्रत को अंगीकार करूंगा। . सुबाहुकुमार का संकल्प कितना उत्तम और कितना पुनीत है ? यह कहने की आवश्यकता नहीं । तरणहार जीवों के संकल्प प्रायः ऐसे ही हुआ करते हैं, जो स्व और पर दोनों के लिये कल्याणकारी हो । हृदय के अन्दर जब सात्त्विक उल्लास उठता है तो साधक का मन विषयासक्त न हो कर श्रात्मानुरक्त होने का यत्न करता है और तदनुकूल साधनों को एकत्रित करने का प्रयास करता है । पौषधशाला के प्रशान्त प्रदेश में एकाप्र मन से धर्मध्यान करते हुए सुबाहकुमार के हृदय में उक्त प्रकार के संकल्प का उत्पन्न होना उस के मानव जीवन के सर्वतोभावी आध्यात्मिक विकास को उपलब्ध करने की पूर्वसूचना है । परिणामस्वरूप इस के अनुसार प्रवृत्ति करता हुआ वह अवश्य उसे प्राप्त करने में सफलमनोरथ होगा: प्रश्न - श्री सबाहुकुमार ने यह विचार किया कि यदि भगवान् हस्तिशीर्ष नगर में पधारेंगे तो मैं उन के पास दीक्षित हो जाऊंगा। इस पर यह अशंका होती है कि सुबाहुकमार भगवान् के पास स्वयं क्यों न चला गया । अथवा उस ने भगवान् के पास कोई निवेदनपत्र ही क्यों न भेज दिया । जिस में यह लिख दिया होता कि मैं दीक्षा लेना चाहता हूं, अतः आप यहां पधारें ? उत्तर-सुबाहुकुमार न तो स्वयं गया और न उस ने कोई प्रार्थनापत्र भेजा, इस के अदर भी कई एक कारण हैं । भला, एक परम श्रद्धालु व्यक्ति कोई ऐसा कृत्य कर सकता है जो सत्य से शून्य हो ? तथा निरर्थक हो ? सुबाहुकुमार समझता है कि यदि मेरी इस भावना पर भगवान् पधार जाए तो मैं समझ लूगा कि मैं दीक्षित होने के योग्य हूँ और यदि मेरे में दीक्षाग्रहण करने की योग्यता नहीं होगी तो मेरी इस भावना पर भी भगवान् नहीं पधारेंगे। कारण कि भगवान् सर्वज्ञ और सर्वान्तर्यामी हैं, वे जो कुछ भी करेंगे वे मेरे लाभ के लिये होगा। दूसरे शब्दों में भगवान् महावीर स्वामी के पधारने का अर्थ यह होगा कि मेरा मनोरथ सफल है, भवितन्यता मेरा साथ दे रही है और यदि भगवान न पधारें तो उस का वह अर्थ होगा कि अभी मैं दीक्षा के अयोग्य हूँ | सुबाहुकुमार के ये विचार महान् विनय के संसूचक हैं। सुबाहुकुमार यदि अपने नगर को छोड़ कर अन्यत्र जा कर दीक्षा लेता तो उस का वह प्रभाव नहीं हो सकता था, जो कि वहां अर्थात अपने नगर में हो सकता है । एक राजकुमार का दीक्षा लेने की अभिलाषा से अन्यत्र जाने की अपेक्षा अपनी राजधानी में दीक्षित होना अधिक प्राभाविक है । राजकुमार के दीक्षित होने पर वहां की प्रजा पर जो प्रभाव हस्तिशीर्ष में हो सकता है वह अन्यत्र होना सम्भव नहीं है । इसीलिये सुबाहुकुमार भगवान् के पास नहीं गया । निवेदनपत्र के विषय में यह बात है कि सुबाहुकुमार को यह मालूम है कि भगवान् सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी हैं । तब सर्वज्ञ से जो प्रार्थना करनी है. वह श्रात्मा के द्वारा सुगमता से की जा सकती है और उसी के द्वारा ही करनी चाहिये । सर्वज्ञ के पास निवेदनपत्र भेजना, सर्वज्ञता का अपमान करना है और अपनी मूर्खता अभिव्यक्त करनी है। निवेदनपत्र तो छामस्थों के पास भेजे जाते हैं न कि सर्वेश के पास भी। बस इन्हीं कारणों से सुबाहुकुमार न तो भगवान् के पास गया और न उन के पास किसी के हाथ प्रार्थनापत्र भेजने को ही उस ने उचित समझा। For Private And Personal Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६४८] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध - धम्मजागरियं - धर्मचिन्तन के लिये किये जाने वाले जागरण को तथा इस पद मे सूत्रकार ने यह भी सूचित किया है जो काल भोगियों के सोने के आध्यात्मिक चिन्तन का होता है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ प्रथम अध्याय धर्म जागरिका कहते हैं, का होता है वह योगियों - प्रज्झत्थिते ५ - यहां पर उल्लेख किये गये ५ के अंक से - चितिए, कप्पिए, पत्थिए मणोगर संकप्पे - इन अवशिष्ट पदों का ग्रहण करना चाहिये । स्थूलरूप से इन का अर्थ समान ही है और सूक्ष्म दृष्टि से इन का जो अर्थविभेद है वह पृष्ठ १३३ पर लिखा जा चुका 1 - गामागर० जाव सन्निवेसा -यहां पठित जाव यावत् पद से- नगरकव्वड़मडंबखेड़दो मुहपट्टण निगम श्रासमसंवाहसंनिवेसा- - इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए। ग्राम आदि पदों का अर्थ निम्नोत है ग्राम गांव को अथवा बाड से वेष्टित प्रदेश को कहते हैं । सुवर्ण एवं रत्नादि के उत्पत्तिस्थान को प्राकर कहा जाता है। नगर शहर का अथवा कर - महसूल से रहित स्थान का नाम नगर है । खेट शब्द धूली के प्राकार के से वेष्टित स्थान - इस अर्थ का परिचायक है । अढाई कोस तक जिस के बीच में कोई ग्राम न हो — इस अर्थ का बोधक मडम्ब शब्द है । जल तथा स्थल के मार्ग से युक्त नगर द्रोणमुख कहलाता है । जहां सब वस्तुओं की प्राप्ति की जाती हो उस नगर को पत्तन कहते हैं। वह जलपत्तन - जहां नौकाओं द्वारा जाया जाता है तथा स्थलपत्तन - जहां गाड़ी आदि द्वारा जाया जाता है, इन भेदों से दो प्रकार का होता है । अथवा जहां गाड़ी श्रादि द्वारा जाया जाएं वह पत्तन और जहां नौका श्रादि द्वारा जाया जाता है वह पट्टन कहलाता है | जहां अनेकों व्यापारी रहते हैं वह नगर निगम, जहां प्रधानतया तपस्वी लोग निवास करते है वह स्थान श्राश्रम कहा जाता है। किसानों के द्वारा धान्य की रक्षा के लिये बनाया गया स्थलविशेष अथवा पर्वत की चोटी पर रहा हुआ जनाधिष्ठित स्थलविशेष अथवा जहां इधर उधर से यात्री लोग निवास एवं विश्राम करें उस स्थान को संवाह कहते हैं । सन्निवेश छोटे गांव का नाम है अथवा अहीरों के निवासस्थान का अथवा प्रधानतः सार्थवाह आदि के निवासस्थान का नाम संनिवेश है । - राईसर ० -- यहां दिए गए बिन्दु से - तलवर माडं बियकोडु' बिय सेट्ठिसेगाव सत्थवाहपभियउ - इस पाठ का ग्रहण समझना चाहिये । राजा प्रजापति का नाम है। सेना के नायक को सेनापति कहते हैं । श्रवशिष्ट ईश्वर आदि पदों का अथ पृष्ठ १६५ पर लिखा जा चुका है - मुंडा जाव पव्वयंति - यहां पठित जाव यावत् पद से - भवित्ता श्रगाराउ श्रगारिय ( अर्थात् - दीक्षित हो कर अनगारभाव को धारण करते हैं ) – इन पदों का ग्रहण करना चाहिए । तथा - "पंचा तियं जाव गिहिधम्मं" इस में उल्लिखित जाव यावत् पद से - सत्तसिक्खावतियं दुवालविहंइस अवशिष्ट पाठ का ग्रहण जानना चाहिए। इस का अर्थ है-पांच अणुव्रत और सात शिक्षात्रत अर्थात् 'बारह प्रकार के व्रतों वाला गृहस्थधर्मे । धर्मशब्द के अनेकों अर्थ हैं, किन्तु प्रकृत में शुभकर्म - कुशलानुष्ठान, (१) सुतामुखी सया, मुणिणो सया जागरन्ति । (आचारांग सूत्र, श्र० ३०, उद्द े० १) अर्थात् - सोना और जागना द्रव्य एवं भावरूप से दो तरह का होता है। हम प्रतिदिन रात में सोते For Private And Personal हैं और दिन में जागते हैं, यह तो द्रव्यरूप से सोना और जागना है, परन्तु पाप में ही प्रवृत्ति करते रहना भाव सोना है और धार्मिक प्रवृत्ति करते रहना भाव जागना है । इस प्रकार जो अमुनि है - पापिष्ट हैं दुष्टवृत्ति वाले हैं वे तो सदैव सोए हुए ही हैं और जो मुनि हैं, सात्त्विक वृत्ति वाले हैं वे सदैव जागते रहते हैं। यही मुनि और श्रमुनि में अन्तर है, विशिष्टता है । Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा का सहित। यह अर्थ समझना चाहिए । धर्म का संक्षिप्त अर्थ सुकृत है। -पुव्वाणुपुटिव जाव दूइज्जमाणे-यहां पठित जाव-यावत् पद से -चरमाणे गामाणुगामइन अवशिष्ट पदों का ग्रहण जानना चाहिये । अर्थात् ये पद" -क्रमशः चलते हुए और एक ग्राम से दूसरे ग्राम में जाते हुए -"इस अर्थ के बोधक है । तथा-इहमागच्छेज्जा जाव विहरिज्जा- इस वाक्यगत जाव-यावत् पद से - इहेव णयरे अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिरिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । अर्थात् यदि भगवान् महावीर यहां पधारें और इसी नगर में अनगारवृत्ति के अनुसार आश्रय स्वीकार कर के तप और संयम के द्वारा आत्मभावना से भावित होते हुए विहरण कर - निवास करें। तथा-मडे भवित्ता जाव पव्वएज्जा- यहां पठित जाव-यावत् पद से-गाराओ अणगारियं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन का अर्थ स्पष्ट ही है। सारांश यह है कि मेरा शरीर सर्वाङ्गपरिपूर्ण है । किसी अंग में भी किसी प्रकार की त्रुटि नहीं है । ऐसा सर्वांगसुन्दर शरीर किसी विशिष्ट पुण्य के उदय से ही प्राप्त होता है । संसार में अनेकों प्राणी हैं। उन में यदि बोलने की शक्ति है तो देखने की नहीं, देखने की है तो सुनने की नहीं, सुनने की है तो सूघने की नहीं, यदि सब कुछ है तो भले बुरे को पहिचानने की शक्ति नहीं। इसी प्रकार हाथ हैं तो पांव नहीं, कान हैं तो नाक नहीं और नाक है तो जिह्वा नहीं । अगर अन्य सब कुछ है तो प्रतिभा नहीं है । तात्पर्य यह है कि ससारी प्राणियों में प्रायः कोई न कोई त्रुटि अवश्य देखने में आती है, परन्तु मेरा शरीर सब तरह से परिपूर्ण है। तब इस प्रकार के अविकृत शरीर को प्राप्त करके भी यदि मैं जन्म मरण के दुःखजाल से छुटने का उपाय नहीं करूंगा तो मेरे से बढ़ कर प्रमादी कौन हो सकता है ? चिन्तामणि रत्न के समान प्राप्त हुए इस मानव शरीर को यही कामभोगों में लगा कर व्यर्थ खो देना तो निरी मूर्खता है । ऐसे उत्तम शरीर से तो अच्छे से अच्छा काम लेने में ही इस की सफलता है । इस के द्वारा तो किसी ऐसे पुण्यकार्य का संपादन करना चाहिये कि फिर इस संसार की अन्धकारपूर्ण गर्भ की कालकोठरी में आने का अवसर ही न मिले । ऐसा कार्य तो धर्म का सम्यग अनुष्ठान ही है । जन्म मरण के भय से त्राण देने वाला और कोई पदार्थ नहीं है परन्तु धर्म का सम्यक पालन तभी शक्य हो सकता है जब कि प्रारम्भ अोर परिग्रह का त्याग किया जाए । गृहस्थ में रह कर श्रारम्भ और परिग्रह का सर्वथा त्याग करना तो किसी तरह भी शक्य नहीं है । बहाँ तो अनेकों प्रकार के प्रतिबन्ध सामने श्राखड़े होते हैं, जिन का निवारण करना कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव सा हो जाता है । अतः इस के लिये सब से अधिक और सुन्दर तथा सरल उपाय तो यही है कि मैं श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में उपस्थित हो कर संयमव्रत को अपना लू, मुनिधर्म को अंगीकार कर लू । इसी में मेरा हित है, इसी में मेरा मंगल और कल्याण है । पहिले तो कई एक कारणों से उस अनमोल अवसर से लाभ नहीं उठा सका परन्तु अब कि ऐसी भूल नहीं करूंगा। अवश्य जीवन को साधुता के सौरभ से सरभित कलंगा और अपना भविष्य उज्ज्वल एवं समुज्ज्वल बनाने का प्रयास करूंगा । ये थे तेले की तपस्या के साथ श्रात्मचिन्तन करने वाले सुबाहुकमार के मनोगत विचार, जिन के अनुसार वह श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पधारने पर अपने आप को संयमवत के लोकोत्तर रम में रंगने का स्वप्न देख रहा है । इस के अनन्तर क्या हुश्रा अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं - . मूल-तते णं समणे भगवं महावीरे सुवाहुस्स कुमारस्स इमं एयारूवं अज्झत्थियं (१) छाया- तत: श्रमणो भगवान् महावीर: सुबाहोः कुमारस्य इममेतद्र पमाध्यात्मिकं यावद् For Private And Personal Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय जाव वियाणित्ता पुव्वाणुपुब्बिं दहज्जमाणे जेणेव हत्थिसीसे णगरे जेणेव पुष्फकरंडे उज्जाणे जेणेव कयवणमालप्पियस्स जक्खस्स जक्खायतणे तेणेव उवागच्छा उत्रागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिएहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति । परिसा राया निग्गते । तते णं तस्स सुबाहुस्स कुमारस्स तं महया० जहा पढमं तहा निग्गयो । धम्मो कहिओ। परिसा राया गतो । तते णं से सुबाहुकुमारे समणस्स भगवश्री महावीरस्स अतिए धम्म सोच्चा निसम्म हहतुढे जहा मेहो तहा अम्मापियरो आपुच्छति । निक्खमणाभिसेस्रो तहेव जाव अणगारे जाते, इरियासमिते जाव बम्भयारी। पदार्थ-तते ण-तदनन्तर । समणे-श्रमण । भगवं-भगवान् । महावीरे-महावीर स्वामी । सुबाहुस्स - सुबाहु । कुमारस्ल-कुमार के । इमं - यह । एयारूवं-इस प्रकार के । अज्झत्यियं ५- संकल्प आदि को । जाव - यावत् । वियाणित्ता- जान कर । पुव्वाणुपुवि-पूर्वानुपूर्वी-क्रमश: । दूइज्जमाणे- भ्रमण करते हुए । जेणेव-जहां । हथिसीसे-हस्तिशीर्ष । णगरे- नगर था। जेणेव-जहां । पुप्फकरण्डेपुष्पकरंडक नामक । उज्जाणे-उद्यान था। जेणेव-जहां पर । कयवणमालप्पियस्स- कृतवनमालप्रिय । जक्खस्त-यक्ष का । जक्खायतणे-यक्षायतन था । तेणेव-वहां पर । उवागच्छति-पधारे । अहापडिहवं -यथाप्रतिरूप । उग्गह-अवग्रह । उग्गिरिहत्ता-ग्रहण कर । संजमेणं- संयम से । तवसा-तप के द्वारा। अप्पाण-आत्मा को। भावेमाणे-भावित-वासित करते हुए । विहरतिविहरण करने लगे। परिसा-परिषद् । राया- राजा। निग्गते- नगर से निकले । तते गं- तदनन्तर । तस्स - उस । सुबाहुस्स-सुबाहु । कुमारस्स-कुमार का तं-वह । महया०-महान् समुदाय के साथ । जहा-जैसे । पढम-पूर्ववर्णित (नगर से निष्क्रमण था) । तहा-वैसे (वह) । निग्गो - निकला । धम्मोधर्म का। कहिश्रो-प्रतिपादन किया। परिसा-परिषद् । राया-राजा । गतो-चला गया । तते एंतदनन्तर । से-वह । सुबाहुकुमारे-सुबाहुकुमार । समणस्स-श्रमण | भगवो महावीरस्स-भगवान् महावीर के अंतिए-पास । धम्म-धर्मकथा को। सोच्चा '-सुन कर । निसम्म-अर्थं से अवधारण कर । हतु -अत्यन्त प्रसन्न हुअा २। जहा-जैसे। मेहो-मेघ-महाराज श्रेणिक के पुत्र मेघकमार । तहाउसी प्रकार । अम्मापियरो-माता पिता को । श्रापुच्छति-पूछता है । निक्खमणाभिसेश्रो-निष्क्रमणाभिषेक । तहेव-तथैव-उसी तरह । जाप-यावत् । अणगारे-अनगार जाते-हो गया । इरियासमितेईर्यासमिति का पालक । जाव-यावत् । बंभयारी-ब्रह्मचारी बन गया। विज्ञाय पूर्वानुपूर्व्या द्रवन् यत्रैव हस्तिशीर्ष नगर, यत्रैव पुष्पकरण्डमुद्यानं यत्रैव कृतवनमालप्रियस्य यक्षस्य यक्षायतनं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य यथाप्रतिरूपमवग्रहमवगृह्य संयमेन तपसाऽऽस्मानं भवयन् विहरति । परिषद् राजा निर्गतः । ततस्तस्य सुवाहो: कुमारस्य तद् महता. यथा प्रथमं तथा निर्गतः । धर्मः कथितः । परिषद् राजा गतः। ततः स सुबाहुकुमारः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्यांतिके धर्म श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टयथा मेघस्तथ अम्बापितरौ आपृच्छति । निष्क्रमणाभिषेकस्तथैव यावद् अनगारो जातः ईर्यासमितो यावद् ब्रह्मचारी। (१) सोच्चा -यह पद मात्र श्रवणपरक है । सुने हुए का मनन करने में “निसम्म" शब्द का प्रयोग होता है । अर्थात् सुना और उसके अनन्तर मनन किया, इन भावों के परिचायक सोच्चा और निसम्म ये दोनों पद है। For Private And Personal Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [६५१ मूलार्थ-तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर स्वामी सुबाहुकुमार के उक्त प्रकार के संकल्प को जान कर क्रमशः ग्रामानुग्राम चलते हुए हस्तिशीर्ष नगर के पुष्पकरण्डक उद्यानान्तर्गत कृतवनमालप्रिय नामक यक्ष के यक्षायतन में पधारे और यथाप्रतिरूप-अनगारवृत्ति के अनुकूल अवग्रह-स्थान ग्रहण कर के वहां अवस्थित हो गए। तदनन्तर परिषद् और राजा नगर से निकले, सुबाहुकुमार भी पूर्व की भाँति महान समारोह के साथ भगवान के दर्शनार्थ प्रस्थित हुए । भगवान् ने धर्म का प्रतिपादन किया, परिषद तथा राजा धर्मदेशना सुन कर वापिस चले गये । सुबाहुकुमार भगवान के पास धर्म का श्रवण कर उम का मनन करता हुआ प्रसन्नचित्त से मेघकुमार की भाँति माता पिता से पूछता है । उस का (सुबाहुकुमार का) निष्क्रमण-अभिषेक भी उसी तरह ( मेषकुमार की तरह ) हुआ, यावत् वे अनगार, ईर्यासमिति के पालक और ब्रह्मचारी बन गये, मुनिव्रत को उन्हों ने धारण कर लिया। टीका-पुरुष और महापुरुष में भेद करने वाली एक शक्ति है. जो परोपकार के नाम से प्रसिद्ध है। पुरुष स्वार्थी होता है, वह अपना ही प्रयोजन सिद्ध करना जानता है, इस के विपरीत महापुरुष परमार्थी होता है, अपने हित से भी वह दूसरों के हित का विशेष ध्यान रखता है। दोनों के साध्य भिन्न • होते हैं, इसी लिये दोनों विभिन्न साधनसामग्री को जुटाने का भी विभिन्न प्रकार से प्रयास करते हैं। स्वार्थी पुरुष तो उस साधनसामग्री को ढूढता है जिस से अपना स्वार्थ सिद्ध हो, उस में दूसरे की हानि या नाश का उसे बिल्कुल ध्यान नहीं रहता, उसे तो मात्र अपने प्रयोजन से काम होता है, परन्तु महापुरुष ऐसा नहीं करता, वह तो ऐसी सामग्री को ढूढेगा कि जिस से किसी दूसरे को हानि न पहुंचती हो, प्रत्युत लाभ ही प्राप्त होता हो । महापुरुषों का प्रत्येक प्रयास दूसरों को सुखी बनाने, दूसरों का कल्याण सम्पादित करने के लिये होता है। वे -परोपकाराय सतां विभूतयः-" इस लोकोक्ति का बड़े ध्यान से संरक्षण करते हैं और अपनी धनसम्पत्ति या ज्ञानविभूति का वे दीन दुःखी प्राणियों के दु:खों तथा कष्टों को दूर करने में ही उपयोग करते हैं । यही कारण है कि संसारसमुद्र में गोते खाने वाले दुःखसन्तप्त मानव प्राणी ऐसे महापुरुषों का आश्रय लेते हैं और उन्हें अपना उपास्य बना कर जीवन व्यतीत करने का उद्योग करते हैं। सुबाहुकुमार जैसे भावुक तथा विनीत व्यक्ति की अपने उपास्य के प्रति कितनी श्रद्धा एवं विशुद्ध भावना है । इस का वर्णन ऊपर हो चुका है। अपने उपासक की निर्मल भावना को जिस समय सुबाहुकुमार के परम उपास्य भगवान् महावीर ने जाना तो सुबाहुकुमार के उद्धार की इच्छा से भगवान् ने हस्तिशीर्ष नगर की ओर प्रस्थान कर दिया। ग्रामानुग्राम विचरते हुए भगवान् हस्तिशीर्ष नगर में पधारे और पुष्पकरण्डक नामक उद्यानगत कृतवनमालप्रिय यक्ष के मन्दिर में विराजमान हो गये । तदनन्तर उद्यानपाल के द्वारा भगवान् के पधारने की सूचना मिलते ही नगरनिवासी जनता को बड़ा हर्ष हुअा। भावुक नगरनिवासी लोग प्रसन्न मन से भगवान के दर्शनार्थ उद्यान की ओर चल पड़े। इधर नगरनरेश भी सुबाहुकुमार को साथ ले कर बड़े समारोह के साथ उद्यान की ओर प्रस्थान करते हुए भगवान् की सेवा में उपस्थित हो जाते हैं तथा विधिपूर्वक वन्दनादि करके यथास्थान बैठ जाते हैं। प्रश्न-क्या भगवान् महावीर स्वामी के पास शिष्य नहीं थे । यदि थे तो क्या वे भगवान् की सेवा नहीं करते थे। यदि करते थे तो केवल एक शिष्य की लालसा से उन्हें स्वयं पैदल विहार कर इतना बड़ा कष्ट उठा कर हस्तिशीर्ष नगर में आने की क्या आवश्यकता प्रतीत हुई ? For Private And Personal Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६५२] श्रोविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रृंतस्कन्ध [प्रथम अध्याय उत्तर-भगवान महावीर स्वामी के शिष्यों की कुल संख्या १४ हज़ार मानी जाती है और उन में गौतम: स्वामी; जैसे परमविनीत, परमतपस्वी और मेधावी अनगार मुख्य थे । सब के सब भगवान् के चरण- . कमलों के भ्रमर थे और भगवान के हित के लिये अपना सर्वस्व अर्पण करने वाले थे। तात्पर्य यह है कि उनका. शिष्यपरिवार पर्याप्त था और वह भी परम विनीत । अत: उन की सेवा भी होती थी कि नहीं ? इस प्रश्न का उत्तर अनायास ही समझा जा सकता है । अब रही शिष्यलालसा की बात, उस का उत्तर यह है कि भगवान् को शिष्य बनाने की न तो कोई लालसा थी और नाहि उन के अात्मसाधन में यह सहायक थी। केवल एक बात थी जिस. के लिये भगवान् ने वहां कष्ट उठा कर भी पधारने का यत्न किया। वह थी "-- जगतहित की भावना-"। सुबाहुकुमार मेरे वहां जाने से दीक्षा ग्रहण करेगा और दीक्षित हो कर जनता को सद्भावना का मार्गः प्रदर्शित करेगा तथा अज्ञानान्धकार में पड़ी हुई जनता को. उज्ज्वल प्रकाश देगा एवं अपने आत्मा का कल्याण साधन करत हुश्रा:अन्य प्रात्माओं को भी शान्ति पहुंचावेगा और स्वात्मा के उत्थान से अनेक पतितः श्रात्माओं का उद्धार करने में समर्थ होगा......इत्यादि शुभचिारणा से प्रेरित होकर ही भगवान् ने विहार कर वहां पधारने का यत्न किया। भगवान् के हृदय में सुबाहुकमार से निष्पन्न होने वाले दूसरों के हित का ही ध्यान, थाः । तब इतने परम उपकारी वीरप्रभु के विषय में शिष्यलालसा, की कल्पना तो निरी अज्ञानमूलक है । इस. की तो वहां संभावना भी नहीं की जा सकती। इस के अतिरिक्तः यह भी विचारणीय है कि हर एक कार्य समय आने पर बनता है, समयः के आए बिना कोई काम नहीं बनता । यदि समय नहीं पाया तो लाख यत्न करने पर भी कार्य नहीं होता और समय आने पर अनायास ही हो जाता है। भगवान् तो घट घट के ज्ञाता हैं, अतीत और अनागत उन के लिये वर्तमान है। वे तो पहले ही कह चुके हैं कि सुबाहुकुमार उन के पास दीक्षित होगा, उन की वाणी तथ्य से कभी शून्य नहीं हो सकती थी. किन्तु उस की सत्यता या पूर्ति की प्रत्यक्षता के लिये कुछ समय अपेक्षित था। समय आने पर सुबाहुकमार को ना तो किसी ने प्रेरणा की और न किसी ने दीक्षित होने का उपदेश दिया किन्तु अन्तरात्मा से उसे प्रेरणा मिली और वह दीक्षा के लिये तैयार हो गया तथा भगवान् के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा। . मनुष्य की शुभ भावना और दृढ निश्चय अवश्य फल लाता है। इस अनुभवसिद्ध उक्ति के अनुसार सुबाहुकुमार की.शुभभावना भी अपना फल लाई । जिस समय उस के किसी अनुचर ने पुष्पकरएडक उद्यान में प्रभु के. पधारने का समाचार दिया तो सुबाहुकमार को जो प्रसन्नता हुई उस का व्यक्त करना इस. तुद्र लेखनी की सामर्थ्य से बाहिर की वस्तु है । भगवान् का श्रागमन सुनते ही वह पहले की तरह-जिस तरह प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में वणन किया गया है, श्रमण, भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में उपस्थित हो जाता है और विधिपूर्वक वन्दना नमस्कार करने के अनन्तर भगवान् को पयुपासना में यथास्याम बैठ जाता है । सब के यथास्थान बैठ जाने पर उन की धर्मामृतपान करने को बढी हुई अभिलाषा को देख कर भगवान् बोले भव्यपुरुषो ! जिस प्रकार नगरप्राप्ति के लिये उस के मार्ग को जानने और उस पर चलने की आवश्यकता है। उसी प्रकार मोक्षमन्दिर तक पहुंचने की इच्छा रखने वाले साधकों को भी उस के मार्ग का बोध प्राप्त करके उस पर चलने की आवश्यकता होती है। किसी प्रकार की लालसा का न होना मोक्ष का मार्ग है । जब तक (१) भगवान् को “ तिराणाणं तारयाणं" इसीलिये कहा जाता है कि जहां भगवान् स्वयं संसार सागर से पार होते हैं, वहां वे संसारी प्राणियों को भी संसार सागर से पार करते. हैं.। "तारयाणं, यह. पद भगवान की महान् दयालुता, कृपालुता एवं विश्वमैत्रीभावना का एक ज्वलन्त प्रतीक हैं । For Private And Personal Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्यायः] .हिन्दी भाषा टीका सहित । [६५३. .TO लालसायें बनी हुई हैं तब तक मोक्ष की इच्छा करना, वायु को मुट्ठी में रोकने की चेष्टा करना है । इस लिये : सर्वप्रथम सांसारिक लालसाओं से पिंड छुडाना चाहिये । लालसाओं से पीछा छुड़ाने के लिये सब से प्रथम महापिशाचिनी हिंसा को त्यागना होगा। पिना हिंसा के त्याग किये लाल लाय विनष्ट नहीं हो सकती । हिंसात्याग के लिये पहले असत्य को त्यागना होगा। जहां झूठ है वहां हिसा है। जहां हिंसा है वहां लालसा है। लालसा मिटाने के लिए हिंसा के साथ झूठ का भी परित्याग करना पड़ता है । इसी प्रकार झूठ के. त्यागार्थ चोरी का त्याग करना आवश्यक है। चोरी करने वाला झूठ, हिंसा : और लालसा का ही उपासक होता है । इस लिये झूठ के साथ स्तेयकर्म का भी परित्याग कर देना चाहिये और चोरी के त्याग के निमित्त. ब्रह्मचर्य का पालन करना जरूरी है। बिना ब्रह्मा क्या पालन किये, बिना इन्द्रियों को वश में किये न तो चोरी छट.सकती है न असत्य -- और नाहि हिंसा । इस लिये हिंसा से ले. कर झूठायन्त सभी दाणों के व्यागार्थ: मैथुन का त्याग और ब्रह्म वयं का पालन नितान्त आवश्यक है। जैसे हिंसादि के त्यागाथ, ब्रह्मचर्य का पालन , अर्थात् इन्द्रियों का निग्रह करना आवश्यक है। उसो प्रकार ब्रह्मचर्य के लिये परिग्रह का त्याग करना होगा । सवः प्रकार के पापों का मूलस्त्रोत परिग्रह ही है । दूसरे शब्दों में इस श्रात्मा को जन्म मरणः --रूप. संसार में फिराने और भटकाने वाला परिग्रह ही है। इसी से सर्वप्रकार के पापाचरणों में यह जीव प्रवृत्त होता. हैं। इसलिये परिग्रह का परित्याग करो। उस के त्यागने से लालसा का अपने अकप: त्याग हो जाएगा . .. या ममत्व का नाम परिग्रह है। संसार की निस वस्तु पर आत्मा का ममत्व है, आत्मा के लिये वही परिग्रहःहै। अत: मोक्षरूप श्रानन्दनगर में प्रवेश करने के लिये परिग्रह का परित्याग परम आवश्यक है । जो अन्यात्मा, इस का-परिग्रह. काः जितने अंरा में त्याग करेगा, उस को लालसाए उतने हो अंश में, कम होती जावेगा। और जितनी २ लालसाएं कम होंगी उतना: २यहः अात्मा मोक्षामन्दिर के समीप अाता चला जाएगा । मोक्ष में, दुःख तो लेरा मात्र भी नहीं । वह तो आनंदस्वरूप है। वहां पर आत्मानुभूति के अतिरिक्त और किसी भी प्रकार की दुःखानुभूति को स्थान नहीं है । अत: मोक्षाभिलाषी जोवों के लिये यह परम आवश्यक है कि वे इस सारगर्भित सिद्धान्त का मनन करें और उस को यथाशक्ति आचरण में लाने का उद्योग करें ... इत्यादि 'भगवान् की इस मर्मस्पर्शी देशना को सुन कर नागरिक लोग और. महाराज अदीनशत्रु आदि जनता भगवान् को वन्दना तथा नमस्कार करके नगर को वापिस चली गई। विश्ववन्द्य श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समवसरण में उन के आज के उपदेश को विचारपूर्वक मनन करने और उसके अनुसार आचरण करने वालों में से एक सुबाहुकुमार का ही. इतिवृत्त हमें उपलब्ध होता है। शेष श्रोताओं के मन में क्या २ विचार उत्पन्न हुए और उन्होंने किस , हद तक भगवान् के सदुपदेश को अपनाया या अपनाने का यत्न किया है. इस का उत्तर हमारे पास नहीं है । हां ! सुबाहुकुमार जी.. के जीवन पर उस का जो प्रभाव हुआ, वह हमारे सामने अवश्य उपस्थित है। भावान् की इस धर्मदेशना से सुबाहुकुमारः के हृदयगतः उन वि वारों को बहुत पुष्टि मिली जो कि उस नो तेले की तपस्या करते समय अपने हृद्रय में एकत्रित कर लिए थे । अब उस ने अपने उन, संकल्पों को और भी दृढ़, कर लिया और वह शीघ्र से शोघ्र उन्हें कार्यान्वित करने के लिये उत्सुक हो उठा। तदनन्तर वद. विधिपूर्वक वन्दना, नमस्कार. कर के भगवान् के चरणों में बड़े विनीतभाव से इस प्रकार- बोला. .. प्रभो! आपश्री जब यहां पहले पधारे थे, तो उस समय मैंने अपने-आप.को मुनिधर्म के लिये असमर्थ बतलाया था और तदनुसार श्राप से श्रावकोचित अणुव्रतों का ग्रहण कर के आपने आत्मा को सन्तोष . (१) भगवान् की धर्मदेशनारूप सुधा का विशेषरूप से पान करने वालों को श्री औपपातिक सूत्र का धर्मदेशनाधिकार देखना चाहिये । For Private And Personal Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध ६५४ ] [ प्रथम अध्याय दिया था । वास्तव में ही उस समय मैं मुनिधर्म का ययाविधि पालन करने में असमर्थ था परन्तु अब मैं श्रापश्री के असीम अनुग्रह से अपने आप को मुनिधमें के योग्य समझता हूं। अब मुझ में मुनिधर्म के पालन करने का सामर्थ्य हो गया है । ऐसा मैं अनुभव करता हूँ। इसलिये कृपा करके मुझे मुनिधर्म में दीक्षित करके अपने चरणों में निवास करने का सुअवसर प्रदान करने का अनुग्रह करें ? यही पक्षी के पुनीत चरणों में मेरी विनम्र प्रार्थना है । आशा है कि आप इसे अवश्य स्वीकार करेंगे । तदनन्तर सुत्राहुकुमार फिर बोले - भगवन् ! मैंने अपने दूर तथा निकट के सांसारिक सम्बन्धों पर अपनी बुद्धि के अनुसार खूब विचार कर लिया है। विचार करने के अनन्तर मैं इसी परिणाम पर पहुंचा हूं कि संसार में धर्म के अतिरिक्त इस जीव का कोई रक्षक नहीं है। माता, पिता, भाई और बहिन तथा पुत्रकलत्रादि जितने भी सम्बन्धी कवा माने जाते हैं, वे अपने २ स्वार्थ को लेकर सम्बन्ध की दुहाई देने वाले हैं। समय आने पर कोई भी किसी का साथ नहीं देता । साथ देने वाला तो एक मात्र धर्म है। प्रभो ! अब मैं चाहता हूं कि जिन कष्टों को मैं अनन्त बार सह चुका हूँ, उन से किसी प्रकार छुटकारा प्राप्त कर लूं । दीनवन्ध ! मेरो धर्म पर जैसी च श्रारथा है, वैसी पहिले भी थी किन्तु उस को श्राचरण में लाने का इस से पूर्व मुझे बल नहीं मिला था। अब आप भी की कृपा से वह मिल गया है। द अगर इस सुअवसर को हाथ से खो दूं तो फिर यह मुझे प्राप्त होने का नहीं है और इसे खो देना मेरी नितान्त मूर्खता होगी। इस लिये मुझे अत्र मुनिधर्म में दीक्षित करने की शीघ्र से शीघ्र कृपा करें। इस के लिये यदि माता पिता की आता अपेक्षित है तो मैं उसे प्राप्त कर लूंगा । इस के उत्तर में" - जैसे तुम को सुख हो, वैसा करो, परन्तु विलम्ब मत करो. - भगवान् के इन वचनों को सुनकर प्रसन्नचित्त हुआ सुबाहुकुमार भगवान् को विधिपूर्वक वन्दना नमस्कार करने के अनन्तर जिस रथ पर श्राया था, उसी पर सवार होकर माता पिता से आज्ञा प्राप्त करने के लिये अपने महल की ओर चल दिया। - श्रत्थियं जाव विवाहिता - यहां पठित जाय यावत् पद से - चिंतियं, कप्पियं, पत्थयं, मणोगयं, संकष्पं – इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का अर्थ पृष्ठ १३३ पर लिखा जा मात्र इतना ही है कि वहां ये पद प्रथमान्त हैं जब कि प्रस्तुत में द्वितीयान्त । अतः अर्थ में द्वितीयान्त पदों की भावना कर लेनी चाहिये । - महया० जहा पदमं तहा सिग्गओ - ये शब्द सूत्रकार की इस सूचना को सूचित करते हैं कि प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में यह वर्णन किया गया था कि भगवान् महावीर स्वामी नगर में पधारे तो उस समय सुबाहुकुमार बड़े वैभव के साथ जमालि' की तरह भगवान् के दर्शनार्थ नगर से निकला - इत्यादि सविस्तर वर्णन न करते हुए सूत्रकार ने संकेत मात्र कर दिया है कि सुवा, कुमार जैसे पहिले बड़े समारोह के साथ भगवान् के चरणों में उपस्थित होने के लिये आया था, उसी प्रकार अब भी आया । -हतुट्ठे० जहा मेहो तहा श्रम्मापियरो श्रपुच्छति, णिक्खमसाभिसे मो तहेव जाव अणगारे जाते - इस पाठ से सूत्रकार ने यह सूचित किया है कि सुबाहुकुमार का धर्म सुन कर प्रसन्न होना तथा दीक्षार्थ माता पिता से पूछना, निष्क्रमणाभिषेक इत्यादि सभी बातें मेघकुमार के समान जान लेनी चाहिएं, तथा दीक्षार्थ निष्क्रमण और अनगारवृत्ति का धारण करना आदि भी उसी के समान जान लेना चाहिये । मेघ - कुमार का सविस्तर जीवनवृत्तान्त श्री ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में वर्णित है हुआ । विस्तारभय से (१) श्री जमाति का दर्शनयात्रावृत्तान्त ६०२ से ले कर ६०४ तक के पृष्ठों पर लिखा जा चुका है। For Private And Personal Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टोका सहित । [६५५ उस का सम्पूर्ण उल्लेख तो यहां पर नहीं हो सकता तथापि प्रकृतोपयोगी स्थलमात्र का संक्षेप से यहां पर वर्णन कर दिया जाता है। राजगृह नाम की सुप्रसिद्ध राजधानी में महाराज श्रेणिक का शासन था। उन की महारानी का नाम श्री धारिणीदेवी था । महारानी धारिणी की पुनीत कुक्षि से जिस पुण्यशाली बालक ने जन्म लिया वह मेषकुमार के नाम से संसार में विख्यात हुआ । मेधकुमार का लालन पालन प्रवीण धायमाताओं की पूर्ण देखरेख में बड़ी उत्तमता से सम्पन्न हुआ । सुयोग्य कलाचार्य की छाया तले बालक मेषकुमार ने ७२ कला' आदि का उत्तम शिक्षण प्राप्त किया और युवावस्था को प्राप्त करते ही वह अपने मानवोचित हर प्रकार के कर्तव्य को पूरी तरह समझने लगा और तदनुसार ही व्यवहार करने लगा। मेघकुमार को युवक हुअा जान कर महाराज श्रेणिक ने उस के लिये पाठ उत्तम महल और उन के मध्य में एक विशाल भवन बनवाया । तदनन्तर उत्तम तिथि, करण, नक्षत्रादि में आठ सुयोग्य राजकुमारियों के साथ पाणिग्रहण करवाया और प्रीतिदान में हिरण्यकोटि श्रादि अनेकानेक बहुमूल्य पदार्थ दिए और मेषकुमार भी बत्तीस प्रकार के नाटकों के साथ उन महलों में राजकुमारियों के साथ यथारुचि भोगोपभोग करने लगा। एक समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विचरते २ राजगृह नगरी में पधारे और गुणशिल नामक चैत्य-उद्यान में विराजमान होगए । सारे नगर में भगवान् के पधारने की खबर बिजली की भांति फैल गई। सब लोग भगवान् का दर्शन करने, उन्हें वन्दना नमस्कार करने तथा भगवान् के मुखारविन्द से निकले हुए अमृतमय उपदेश को सुनने के लिये गुणशिल नामक उद्यान में बड़े समारोह के साथ जाने लगे। इधर मेघकुमार भी अपने पूरे वैभव के साथ भगवान् को वन्दन करने तथा उन का धर्मोपदेश सुनने के लिये वहां पहुंचा । सारी जनता के उचित स्थान पर बैठ जाने के बाद भगवान ने उसे धर्मोपदेश देना प्रारम्भ किया। उपदेश क्या था ? मानो जीवन के धार्मिक विकास का साक्षात् मार्ग दिखाया जा रहा था । भगवान् के सदुपदेश ने मेघकुमार के हृदय पर अपूर्व प्रभाव डाल दिया । उस के हृदयसरोवर में वैराग्य की तरंगे निरंतर उठने लगीं। उस के मन पर से मानवोचित सांसारिक वैभव की भावना इस तरह उतर गई जैसे सांप के शरीर पर से पुरानी कांचली उतर जाती है। तात्पर्य यह है कि भगवान् की धर्मदेशना से मेघकुमार के विषयवासनावासित हृदय पर वैराग्य का न उतरने वाला रंग चढ़ गया । उस का हृदय जहां विषयान्वित था वहां अब वैराग्यान्वित होकर संसार को घृणास्पद समझने और मानने लगा। सब के चले जाने पर मेघकुमार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के सम्मुख उपस्थित हो कर बड़े नम्रभाव से बोला-भगवन् ! आप श्री का प्रवचन मुझे अत्यन्त प्रिय और यथाथे लगा, मेरी इच्छा है कि मैं आपश्री के चरणों में मुण्डित होकर प्रवजित हो जाऊ, संयम व्रत को ग्रहण कर लू । माता तथा पिता से पूछना शेष है, अतः उन से पूछ कर मैं अभी उपस्थित होता हूं। इस के उत्तर में भगवान् नेजैसे तुम को सुख हो, विलम्ब मत करो-इस प्रकार कहा, यह सुन कर मेघकुमार जिस रथ पर चढ़ कर श्रआया था उस पर सवार होकर घर पहुंचा और माता पिता को प्रणाम करके इस प्रकार कहने लगा मैं ने आज भगवान् महावीर स्वामी के उपदेशामृत का खूब पान किया ? उस से मुझे जो अानन्द माप्त हुआ वह बर्णन में नहीं सकता। उपदेश तो अनेकों बार सुने परन्तु पहले कभी हृदय इतना प्रभावित नहीं हुआ था, जितना कि आज हो रहा है। मां ! भगवान् के चरणों में आज मैं ने जो उपदेश सुना है, (१) ७२ कलाओं का दिग्दर्शन १०८ से लेकर ११५ तक के पृष्ठों पर किया जा चुका है। For Private And Personal Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - ६५६ ] उस का मेरे हृदयपट पर जो पावन चित्र अंकित हुआ है उसे मैं ही देख सकता हुँ, दूसरे को दिखलाना मेरे लिये शक्य है ? के पुत्र इन वचनों का सुन कर महाराना धारणा बाली - पुत्र ! तू बड़ा भ्राग्यशाली है ? जो कि तूने श्रमण भगवान् महावीर की वाणी को सुना और उस में तेरी अभिरूचि उत्पन्न हुई। इस प्रकार के धर्माचार्यो से धर्म का श्रवण करना और उसे जीवन में उतारने का प्रयत्न करना किसी भाग्यशाली का ही काम हो सकता है। भाग्यहीन व्यक्ति को ऐसा पुनीत अवसर प्राप्त नहीं होता । इस लिये पुत्र ! तू सचमुच ही भाग्यशाली है । प्रथम अध्याय माँ ! मेरी इच्छा है कि मैं भगवान् के चरणों में उपस्थित हो कर दीक्षा ग्रहण कर लूं । मेघकुमार " बड़ी नम्रता से माता के सामने अपना मनोभाव व्यक्त किया और स्वीकृति मांगी । पुत्र अपने प्रिय पुत्र मेघकुमार की यह बात सुनकर महारानी अवाक् सी रह गई । उसे क्या खबर थी कि उस के here at श्रमण भगवान् महावीर की धर्मदेशना ने अपने वैराग्यरंग से सर्वथा रंजित कर दिया है और अब उस पर मोह के रंग का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता. उसे मेघकमार' के उक्त विचार से पुत्रवियोगजन्य बहुत दुःख हुआ । माता पिता अपनी विवाह के योग्य पुत्री का विवाह अपनी इच्छा से करते हैं, तब भी विदाई के समय उन्हें मातृपितृस्नेह व्यथित कर ही 'देता है । इसी प्रकार मेत्रकुमार की धर्मपरायणा माता धारिणी देवी, दीक्षा को सर्वश्रेष्ठ मानती हुई भी तथा साधुजनों की संगति और संयम को आदर्श रूप समझती हुई भी मेघकुमार के मुख से दीक्षित होने का विचार सुन उस के हृदय को पुत्र की ममता ने हर प्रकार से व्यथित कर दिया । वह बेसुध हो कर पृथ्वी पर गिर पड़ी । जब दास दासियों के उपचार से वह कुछ सचेत हुई तो .स्नेहपूर्ण हृदय से मेघकुमार को सम्बोधित करती हुई इस प्रकार बोली For Private And Personal पुत्र ! तू ने यह क्या कहा ? मैं तो तुम्हारा मुख देख २ कर ही जी रही हूँ। मेरे स्नेह का एक मात्र केन्द्र तो तू ही है ।, मैंने तो तुम्हें उस रत्न से भी अधिक संभाल कर रखा है, जिसे सुरक्षित रखने के लिये एक सुदृढ़ और सुन्दर डिब्बे की जरूरत होती है ? मैं तो तुम्हारे आते का मुख और जाते की पीठ देखने के लिये ही खड़ी रहती हूं । ऐसी दशा में तुम्हारे दीक्षित हो जाने पर मेरी जो अवस्था होगी उस का भी तू पुत्र ! गम्भीरता से विचार कर ? माता का भी पुत्र पर कोई अधिकार होता है । इसलिये बेटा ! अधिक नहीं तो मेरे जीते तक तो तू इस दीक्षा के विचार को अपने हृदय से निकाल दे। अभी तेरा भर यौवन है, इस उपयुक्त सामग्री भी घर में विद्यमान है, यह सारा वैभव तेरे ही लिये है, फिर तू इस का यथारुचि उपभोग न कर के दीक्षा लेने की क्यों ठान रहा है ? छोड़ इन विचारों को, तू अभी बच्चा है, संयम के पालने में कितनी कठिनाइयें झेलनी पड़ती हैं, इस का तुझ को अनुभव नहीं है। संयमव्रत का ग्रहण करना कोई साधारण बात नहीं है । इस के लिये बड़े दृढ़ मनोबल की आवश्यकता होती है । तेरा कोमल शरीर, सुकुमार अवस्था और देवदुलभ राज्यवैभव की संप्राप्ति आादि के साथ दीक्षा जैसे कठोरत की तुलना करते हुए मुझे तो तू उस के योग्य प्रतीत नहीं होता। इस पर भी यदि तेरा दीक्षा के लिये ही विशेष आग्रह है तो मेरे मरने के बाद दीक्षा ले लेना । इस प्रकार माता की और महाराज श्रेणिक के आ जाने पर उन की ओर से कही गईं इसी प्रकार की स्नेहपूर्ण ममताभरी बातों को सुन कर माता पिता को सम्बोधित करते हुए मेघकुमार बोलें. आप की पुनीत गोद में बैठ कर मैंने तो यह सीखा है कि जिस काम में अपना और संसार का Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [६५७ कल्याण हो, उस काम के करने में क्लिम्ब नहीं करना चाहिये । परन्तु आप कह रहे हैं कि हमारे जीते जी दीक्षा न लो, यह क्यों ?, फिर क्या यह निश्चित हो चुका है कि हम में से पहले कोन मरेगा ? क्या माता पिता की उपस्थिति में पुत्र या पुत्री की मृत्यु नहीं हो सकती ? मेधकुमार के इस कथन का उत्तर माता पिता से कुछ न बन पड़ा । तब उन्हों ने उसे घर में रखने का एक और उपाय करने का उद्योग किया। महारानी धारिणी और महाराज श्रेणिक बोले बेटा! यदि तुम को हमारा ध्यान नहीं, तो अपनी नवपरिणीता वधुओं का तो ख्याल करो ? अभी तुम इन्हें व्याह कर लाये हो, इन बेचारियों ने तो अभी तक तुम्हारा कुछ भी सुख नहीं देखा । तुम यदि इन्हें इस अवस्था में छोड़ कर चले गये तो इन का क्या बनेगा ? इन को रक्षा करना तुम्हारा प्रधान कर्तव्य है । इन के विकसित हुए यौवन का विनाश कर दीक्षा के लिये उद्यत होना कोई बुद्धिमत्ता नहीं । यदि साधु ही बनना होगा तो अभी बहुत समय है, कुछ दिन घर में रह कर सांसारिक सुखों का भी उपभोग करो। वंशवृद्धि का सारा भार तुम पर है बेटा ! मेघकुमार बोला - यह कामभोग तो जीवन को पतित कर देने वाले हैं । स्वयं मलिन हैं और अपने उपासक को भी मलिन बना देते हैं : यह जो रूप लावण्य और शारीरिक सौंदर्य है, वह भी चिरस्थायी नहीं है, और यह शरीर जिसे सुन्दरता का निकेतन समझा जाता है, निरा मलमूत्र और अशुचि पदार्थों का घर है। ऐसे अपवित्र शरीर पर अासकि रखना निरी मूर्खता है । इस के अतिरिक्त ये शरीर, धन और कलत्रादि कोई भी इस जीव के साथ में जाने वाले नहीं हैं । समय आने पर ये सब साथ छोड़ कर अलग हो जाते हैं । फिर इन पर मोह करना या विश्वास रखना कैसे उचित हो सकता है ? पूज्य माता और पिता जो ! इस अस्थिर सांसारिक सम्बन्ध के व्यामोह में पड़ कर आप मुझे अपने कर्तव्य के पालन से च्युत करने का यत्न न करें। सच्चे माता पिता वे ही होते हैं, जो पुत्र के वास्तविक हित की ओर ध्यान देते हैं । मेरा हित इसी में है कि एक वीर क्षत्रिय के नाते कर्मरूप आत्मशत्रुओं को पराजित कर के आत्मस्वराज्य को प्राप्त करू। इस के लिये साधन है-संयम व्रत का सतत पालन । अत: यदि उस की आप मुझे आज्ञा दे दें, तो मैं आप का बहुत आभारी रहूंगा । आप यदि सांसारिक प्रलोभनों के बदले मुझे यह आशीर्वाद दें कि जा बेठा ! तू संयम व्रत को ग्रहण करके एक वीर क्षत्रिय की भाँति कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त करने में सफल हो, तो कैसा अच्छा हो । मां! मुझे शीघ्र प्राज्ञा दो कि मैं भगवान के पास दीक्षित हो जाऊ पिता जी ! कहो न, कि दीक्षा लेना चाहते हो तो भले ही ले लो, हमारी आज्ञा है। मेवकुमार के इस आग्रह भरे वचनसन्दर्भ को सुनने के बाद उस की माता ने संयमव्रत की कठिनाइयों का वर्णन करते हुए फिर कहा कि पुत्र ! संयमव्रत लेने की तेरे अन्दर जो लालसा है, वह तो प्रशंसनीय है, परन्तु जिस मार्ग का तू पथिक बनने की इच्छा कर रहा है, उस का सम्यकतया बोध भी प्राप्त कर लिया है । संयम कहने में तो तीन चार व्यञ्जनों का समुदाय है, पर इस के वाच्य को जीवनसात् करनाजीवन में उतारना, बहुत कठिन होता है । संयम लेने का अर्थ है-उस्तरे की धार। को चाटना और साथ में जिह्वा को कटने न देना, तथा नदी के प्रबल वेग के प्रतिकूल गमन करना, महान् समुद्र को भुजाओं से पार करना। भाँति संयम का अर्थ है-बड़े भारी पर्वत को सिर पर उठा कर चलना। इसलिये पत्र ! सब कुछ सोच समझ ले, फिर संयम ग्रहण की ओर बढ़ना ? कहीं ऐसा न हो कि इधर सांसारिक वैभव से भी हाथ धो बैठो और उधर संयम भी न पाल सको । माता धारिणी फिर बोली कि पुत्र ! संयमव्रत में सब से बड़ी कठिनाई यह है कि उस में भोजन की व्यवस्था बड़ी अटपटी है । कच्चा पानी इस में त्याज्य होता है । For Private And Personal Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६५८] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय संसार भर के जितने मधुर से मधुर एवं कोमल से कोमल फल फूल हैं, उन सब का ग्रहण इठ में वर्जित होता है । भोजन के ग्रहण में भी बड़ी सावधानी रखनी पड़ती है । भिक्षा से जीवननिर्वाह करना होता है। इस विषय में तो इतनी अधिक कठिनाई है कि जो तेरे जैसे राजसी ठाठ में पले हुए सुकुमार युवक की कल्पना में भी नहीं था सकती । नीरस भोजन, पृथ्वी पर सोना, दंशमशकादि का काटना और शीतातप का लगना आदि ऐसे अनेक कष्ट झेलने पड़ते है कि जिन की तेरे जैसे राजकुमार को कभी कल्पना भी नहीं हो सकती। ऐसे विकट मार्ग में गमन करने से पहिले अपने आत्मबल को भी देख लेना चाहिये । कहीं इस नवीन वैराग्य की बाढ़ में तरने के बदले अपने आप को खो देने की भूल न कर बैठना । तू अभी बच्चा है। तेरा अनुभव इतना विशद नहीं। प्रत्येक काय में उस के प्रारम्भ से पहले उस से निष्पन्न होने वाले हानि लाभ का विचार करना नितान्त अावश्यक होता है । इस लिये पुत्र ! मेरी तो इस समय तेरे लिये यही सम्मति है कि तू अभी दीक्षा के विचार को स्थगित कर दे। माता पिता के इस उपदेश का भी मेधकुमार के हृदय पर कुछ असर नहीं हुआ, प्रत्युत कठिनाई की बातों को सुन कर वह कुछ उत्तेजित सा होकर बोला कि माता जी ! संयम महान् कठिन है, यह मैं जानता हूं और यह भी जानता हूं कि इस के धारक वीर पुरुष हो हो सकते हैं। यह काम कायरों और कमज़ारों का नहीं, वे तो प्रारम्भ में ही फिसल जाते हैं । परन्तु मैं तो एक वीर क्षत्रियाणी का वीरपुत्र हूं और क्षात्रधर्म का जीता जागता प्रतीक हूँ : वीरांगना के प्रात्मजों में दुर्बलता की शंका करना नितरां भ्रम है। मां! एक सिंहनी अपने पुत्र को रणसंग्राम से पीछे हटने का उपदेश दे, यह देख मुझे तो आश्चर्य होता है। एक क्षत्रिय कमार होता हा मैं संयम की कठिनता से भयभीत हो जाऊयह तो आप को स्वप्न में भी ख्याल नहीं करना चाहिये। "तेजस्विनः क्षणमसूनपि संत्यजन्ति । सत्यवतप्रणयिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् " अर्थात् तेजस्वी, धीर और वीर पुरुष अपने प्राणों का त्याग कर देते हैं परन्तु ग्रहण की हुई प्रतिज्ञा को भंग नहीं होने देते । भला मां! यह तो बतलाश्रो कि संसार में कोई ऐसा काम भी है जिस में किसी न किसी प्रकार का कष्ट न उठाना पड़े १ माता बच्चे को जन्म देते समय कितनी व्यापक वेदना का अनुभव करती है ? यदि वह उस असह्य वेदना को सह लेती है तभी तो अपनी गोद को बच्चे से भरी हुई पाती है और "-मां !, मां !-" हस मधुर ध्वनि से अपने कर्णविवरों को पूरित करने का हर्षपूर्ण पुण्य अवसर प्राप्त करती है । __माता जी ! मुझे संयम की कठिनाइयों से भयभीत करके संयम से पराङमुख करने का विफल प्रयास मत करो । मैं तो "कार्य वा साधयामि देहं वा पातयामि'-इस प्रतिज्ञा का पालन करने वाला हूँ। इस लिये मुझे संयम में उपस्थित होने वाली कठिनाइयों से अणुमात्र भी भय नहीं है । आप इस विषय में सर्वथा निश्चिन्त रहें । आप का यह वीर बालक आप की शुभकीर्ति में किसी प्रकार का लांछन नहीं लगने देगा। अतः मुझे दीक्षाग्रहण करने की श्राज्ञा प्रदान करो १ माता के चप रहने पर वह फिर बोला वीर माता अपने पुत्र को रणक्षेत्र में जाने के लिये स्वयं सजा कर भेजती है, परन्तु श्राज न जाने उसे क्या हो गया १ मां ! मैं तो कमरूपी शत्रुओं के महान् दल को विध्वंस करने जा रहा हूं, मुझे उस के लिये स्वयं तैयार करो ? योग्य माताओं के आदर्श को अपना कर अपने इस वीर बालक को संयमयात्रा की आज्ञा प्रदान करो ? अब तो सौभाग्यवश मुझे श्रमण भगवान महावीर जैसे सेनानायक फा संयोग प्राप्त हो रहा (१) कार्य को सिद्ध कर लूगा या उस की सिद्धि में जीवन को अर्पण कर दूंगा, अर्थात् कार्यसिद्धि के लिये इतनी दृढ़ता है तो उसके लिये मृत्युदेवी का सहर्ष प्रालिंगन कर लूगा । For Private And Personal Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित। है। मैं उन के शासन में अवश्य विजय प्राप्त करूंगा। ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है । इस लिये मां ! उठो तुम स्वयं चल कर मुझे भगवान् के चरणों में जाकर उन्हें अर्पण कर दो और अन्ततोगत्वा यही समझ लेना कि मेरा वीर पुत्र अपनी प्रान को बचाने की खातिर रणक्षेत्र में कूद पड़ा है। मेघकुमार के पिता महाराज श्रेणिक बड़े नीतिज्ञ थे । उन्हों ने सोचा कि कभी कभी अनेक युवक भावुकता के प्रवाह में बहते हुए अंतरंग में स्थायी और दृढ़ संकल्पों के अभाव में भी स्थायी प्रभाव रखने वाले कार्यों में जुट जाते हैं । उस का फल यह होता है कि तीर तो हाथ से छूट जाता है मात्र पश्चात्ताप पल्ले रह जाता है । यद्यपि मेघ कुमार बुद्धिमान् और सुशोल है तथापि युवक हो तो है । अस्तु, इस की दृढ़ता की प्रथम जांच करनी चाहिये । यह सोच महाराज श्रेणिक मेघकुमार को सम्बोधित करते हुए बोले पुत्र ! त् वीर है, संसार में वीरता का श्रादर्श उपस्थित कर तू संयमी - साधु बन कर दुनिया को कायरता का सन्देश क्यों देता है ? संसार का जितना कल्याण तलवार से हो सकता है, उतना साधुवृत्ति से नहीं होगा। अपने ऊपर आये हुए गृहस्थी के भार से भयभीत हो कर भागना कायरों का काम है, तेरे जैसे वीरात्मा का नहीं १ लोग तुझे क्या समझेगे ? तेरी शक्ति का संसार को क्या लाभ हुआ ? पदि तू संसार का कल्याण चाहता है तो अपने हाथ शासन की बागडोर ले और प्रजा का नीतिपूर्वक पालन कर । ऐसा करने से तेरा और जगत् दोनों का हित सम्पन्न होगा। पिता की यह बात सुन मेवकुमार बोला -पिता जी ! यह आप ने क्या कहा ! क्या संयम धारण करना कायरों का काम है ? नहीं, नहीं। उस के धारण करने के लिये तो बड़ी शूरवीरता की आवश्यकता होतीहै। तलवार चलाने में वह वीरता नहीं जो सयम के ग्रहण करने में है। तलवार के बल से जनता के मन को भयभीत किया जा सकता है, उसे व्यथित एवं संत्रस्त किया जा सकता है परन्तु अपनाया या उठाया नहीं जा सकता । तलवार से वश होने वाले, तलवार की स्थिति तक ही वश में रह सकते हैं, पीछे से वे शत्र बनते हैं और समय आने पर सारा बदला चुका लेते हैं । राम अकेला था, निस्सहाय था, जंगल का विहारी था और रावण था लंकेश, परन्तु प्रजा ने किस का साथ दिया ? राम का न कि रावण का । सारांश यह है कि तलवार चलाने में वीरता नहीं, वीरता तो उस काम में है, जिस से अपना और दूसरों का हित सम्पन्न हो, कल्याण हो । दूसरी बात यदि बाहिरी शत्रों को जीता तो क्या जीता ? इस में तो कोई असाधारण वीरता नहीं, वीरता तो अान्तरिक शत्रों की विनय में है। उन का दमन करने वाला ही सच्चा वीर है। काम, क्रोधादि जितने भी आन्तरिक शत्र हैं वे तलवार से कभी जोते नहीं जा सकते, इन पर तलवार का कोई असर नहीं होता । उन के जीतने का तो एक मात्र साधन संयमव्रत है । सयम की तलवार में जितना बल है उस से तो शतांश या सहस्रांश भी इस बाहिर की चमकने वालो लोहे की जड़ तलवार में नहीं है । संयम की तलवार जहां अन्दर के काम, क्रोधादि को मार भगाने में शक्तिशाली है, वहां बाहिर के शत्रुओं को पराजित करने में भी वह सिद्धहस्त है । मैं तो इसी उद्देश्य से अर्थात् इन्हीं अन्तरग शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिये अपने आप को संयम की तलवार से सन्नद्ध कर रहा हूँ, परन्तु आप उस में प्रतिबन्ध बन रहे हैं। क्या आप के हृदय में मेरी इस आदर्श वीरोचित तैयारी के लिये प्रोत्साहन देने की भावना जागृत नहीं होती? अवश्य होनी चाहिये । क्या ही अच्छा हो, यदि आप अपने हाथ से मेरा निष्क्रमणाभिषेक करावें ओर प्रसन्नचित्त से मुझे भगवान् के हाथ समर्पित करें। मेषकुमार के सदुत्तर ने महाराज श्रेणिक को भी मौन करा दिया और माता ने भी समझ लिया कि मेषकुमार अब एक नहीं सकेगा । तब इस से तो यही अच्छा है कि इस के भेयसाधक कार्य में अब विशेष For Private And Personal Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। प्रतिबन्ध उपस्थित न किया जाय । इस विचार के अनन्तर मेघकुमार को संबोधित करते हुए वह बोली-अच्छा, बेटा ! यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो जाओ, वीरोचित धर्म का वीरवेष पहन कर उस की प्रतिष्ठा को अधिक से अधिक बढ़ाने का उद्योग करते हुए. इच्छित विजय प्राप्त करो, यही मेरा हार्दिक आशीर्वाद है। दीक्षा के लिये उद्यत हुए मेघकुमार को इस तरह से माता पिता का समझाना भी रहस्य से खाली नहीं है। उस में माता पिता के एक कर्तव्य की सूचना निहित है । इस के अतिरिक्त माता पिता इस बात की जांच करते हैं कि हमारा पुत्र किसी अमुक सांसारिक बात की कमी से तो साधु नहीं बन रहा ? इस के अतिरिक्त जांच करने से "-अमुक का पुत्र अमुक कमी से साधु बन गया" इस अपवाद से अपने आप को बचाया जा सकता है। इसी लिये माता ने अन्य बातों के कहने के साथ २ अन्त में यह भी कहा डाला कि बेटा ! कम से कम एक दिन की राज्यश्रो का उपभोग तो अवश्य करो-ऐसा कहने से वह "संयम को श्रेष्ठ समझता है या राज्य को?-" इस बात का भी भली भाँति निर्णय हो जायेगा । इस के अतिरिक्त राज्य को त्याग कर संयम लेने से संसार पर विशिष्ट प्रभाव पड़ेगा और संयम के महत्त्व का संसार को पता लगेगा। मेघकुमार भी माता के उक्त कथन (एक दिन की राज्यश्री का उपभोग अवश्य करो) का अभि. प्राय समझ गया और जैसे सोने की असली परीक्षा अग्नि में तपा कर ही होती है वैसे मुझे भी अपनी दृढ़ता की परीक्षा राज्य लेकर देनी होगी। यह सोच उस ने राज्य लेने की स्वीकृति दे दी और माता के अनुरोध को शिरोधार्य कर उस की लालसा को पूरा किया । दूसरे दिन मेघकुमार का बड़े समारोह के साथ राज्याभिषेक करके उसे राजा बना दिया गया । मेधकुमार राज्यसिंहासन पर बैठा और उसके ऊपर छत्र और दोनों तरफ़ चामर दुलाये जाने लगे । राज्यसत्ता मेघकमार को अर्पण कर दी गई। दूसरे शब्दों में उसे राज्यशासन का सारा भार सौंप दिया गया। महाराज श्रेणिक और महारानी धारिणी अपने पुत्र को राजगृहनरेश के रूप में देख कर अत्यन्तात्यन्त प्रसन्न हुए और सप्रेम कहने लगे कि पुत्र ! किसी कस्तु की इच्छा है ? तब मेघ नरेश ने उत्तर दिया-मुझे रजोहरण और पात्र चाहिये और शिरोमुंडन के लिए एक नाई चाहिए । महाराज श्रेणिक तथा माता धारिणी ने जब यह देखा कि मेधकुमार अपनी परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया है और अब उसे किसी ढंग से श्रापातरमणीय सांसारिक कामभोगों में फंसाया नहीं जा सकता । अब तो यह प्रभु वीर के चरणों में दीक्षित होकर अपना आत्मश्रेय साधने में अत्यधिक उत्सुक एवं उस के लिये सन्नद्ध हो रहा है तब उन्हों ने अपने कौटुम्विक पुरुषों को बुला कर कहा कि भद्र पुरुषो ! राज्य के कोष में से तीन लाख मोहरें निकाल लो। उन में से दो लाख मोहरों द्वारा रजोहरण ओर पात्र ले आओ, एक लाख मोहरे नापित -नाई का दे डालो, जो दीक्षित होने से पूर्व कुमार का शिरोमण्डन करेगा। , कौटुम्बिक पुरुषों ने महाराज को इच्छा के अनुपार वह सब कुछ कर दिया, तब दीक्षामहोत्सव की तैयारी होने लगी। सब से प्रथम मेघकुमार को एक पट्टासन पर बैठा कर सोने और चांदी के कलशों से स्नान कराया गया। शरीर को पोंछ कर सुन्दर से सुन्दर तथा बहुमूल्य वस्त्राभूषण पहनाये गये । सुगन्धित द्रव्यों का लेपन किया गया। तत्पश्चात् सेवकों को पालकी लाने की आज्ञा दी गई । अाज्ञा मिलते ही सेवकवृन्द एक सुन्दर सुसज्जित और एक हज़ार आदमियों के द्वारा उठाई जाने वाली पालकी ले आये । उस पालकी में पूर्व की ओर मुख कर के मेघकुमार बैठ गये। उन के पास ही महारानी धारिणी भी अच्छे २ वस्त्रालंकार पहन कर बैठ गई । मेधक मार के बाई ओर उन की धाय माता रजोहरण और पात्र ले कर बैठ गई । एक तरुण महिला छत्र लेकर उस के पीछे बैठ गई । दो युवतियें हाथों में चंवर लेकर वहां आई और मेघकमार को ढुलाने लगीं। एक और तरुण सुन्दरी पंखा लेकर पालकी में आई और वहां मेघकुमार के For Private And Personal Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६६१] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय उष्णताजन्य संताप को दूर करने का यत्न करने लगो। एक स्त्री झारी लेकर वहां आई वह भी वहां पूर्वदक्षिण दिशा की ओर खड़ी हो गई । ऐसे वैभव से मेघकुमार को उस पालकी में बिठलाया गया । पालकी की तैयारी होने पर महाराज श्रेणिक ने समान रंग, समान आयु और समान वस्त्र वाले एक हजार पुरुषों को बुलाया । अाज्ञा मिलने पर वे पुरुष स्नानादि से निवृत्त हो, वस्त्राभूषण पहिन कर वहां उपस्थित हो गये। महाराज श्रेणिक की ओर से पालकी उठाने की आज्ञा मिलने पर उन्हों ने पालकी को अपने कंधों पर उठा लिया और राजगृह के बाजार की ओर चलने लगे। एक राजा अपने राज्य को त्याग कर दीक्षा ले रहा है, ऐसी सूचना मिलने पर कौन ऐसा भाग्य हीन श्रादमी होगा जो इस पावन दीक्षामहोत्सव में सम्मिलित न हुआ होगा ? सारे नागरिक दीक्षामहोत्सव को देखने के लिये जलप्रवाह को भाँति उमड़ पड़े। राज्य की समस्त सेना भी उपस्थित हुई । सारांश यह है कि वहां महान् जनसमूह एकत्रित हो गया तथा सब लोग जय जय कार से आकाश को प्रतिध्वनित करते हुए दीक्षायात्रा की शोभा में वृद्धि करने लगे। मेवकुमार की सहस्रपुरुषवाहिनी पालको बड़े वैभवपूर्ण समारोह के साथ नगर के बीच में से होकर चली। सब के आगे सेना थी और महाराज श्रेणिक भी उसी के साथ थे। सेना के पीछे मंगलद्रव्य थे और उनके पोछे मेत्रकुमार को पालकी थो । पालकी के पीछे जनता थी । इस प्रकार धूमधाम से मेघकुमार की पालकी जहां महामहिम, करुणा के सागर, दीनों के नाथ, पतितपावन, दयानिधि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे उस ओर अर्थात् गुणशिलक उद्यान की ओर चली । वहां उद्यान के समीप पहुँचने पर पालकी नीचे रक्खी गई और मेवकुमार तथा उस की माता आदि सब उस में से उतर पड़े । मेधकुमार को आगे करके महाराज श्रेणिक और महारानी धारिणी जहां पर भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहां पहुँचे । सब ने विधिपूर्वक भगवान् को वन्दन किया। सदनन्तर मेवकुमार की ओर संकेत कर के महारानो धारिणो तथा महाराज श्रेणिक ने बड़े विनम्रभाव से भगवान् को सम्बोधित करते हुए कहा भगवन् ! हम आप को एक शिष्य की भिक्षा देने लगे हैं, आप इसे स्वीकार करने की कृपा करें। यह मेवकुमार हमारा इकलौता बेटा है । यह हमें प्राणों से भी अधिक प्रिय है, परन्तु इस की भावना आप श्री के चरणों में दीक्षित हो कर प्रात्मकल्याण करने की है । यद्यपि यह राज्यवैभव के अनुपम कामभोगों में पला है तथापि कीच में पेदा हो कर कीच से अलिप्त रहने वाले कमल की भाँति यह कामभोगों में आसक्त नहीं हुआ। जिन दुःखों को इस ने अतीत जन्मों में अनेक बार सहा है, उन से यह विशेष भयभीत है । अनागत में अतीत के समान दुःखों को न पाऊ', इस भावना से यह आपश्री के चरणों में उपस्थित हो रहा है । अतः इस की इस पुनीत भावना को पूर्ण करने की आप इस पर अवश्य कृपा करें। माता पिता के इस निवेदन के अनन्तर भगवान् महावीर स्वामी की ओर से शिष्यभिक्षा को स्वीकृति मिलने पर मेवकुमार भगवान् के पास से उठ कर ईशान कोण में चले जाते हैं, वहां जाकर उन्होंने शरीर पर के सारे बहुमूल्य वस्त्राभूषणों को उतारा और उन्हें माता के सुपुर्द किया । माता धारिणो ने भी उन्हें सुरक्षित रख लिया। तदनन्तर माता और पिता मेघकुमार को सम्बोधित करते हुए बोले पुत्र ! हमारी आन्तरिक इच्छा न होने पर भी हम विवश हो कर तुम को आज्ञा दे रहे हैं, किन्तु तुम ने इस बात का पूरा २ ध्यान रखना कि जिस कार्य के लिये तुम ने राज्यसिंहासन को ठुकराया (१) माता धारिणी के एक ही पुत्र होने के कारण मेबकुमार को इकलौता बेटा कहा गया है । For Private And Personal Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन [प्रथम अध्याय है उस को सफल करने के लिए पूरा २ उद्योग करना और पूरी सफलता प्राप्त करनी । तुम क्षत्रियकुमार हो, इस लिये संयमव्रत के सम्यक अनुष्ठान से कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त करने में पूरी २ आत्मशक्ति का प्रयोग करना और अपने कर्तव्यपालन में प्रमाद को कभी स्थान न देना । उस से हर समय सावधान रहना । हम भी उसी दिन की प्रतीक्षा कर रहे हैं जब तेरी ही तरह संयमशील बन कर कर्मरूपी शत्रओं के साथ युद्ध करने के लिए अपने आप को प्रस्तुत करेंगे। इस प्रकार पुत्र को समझा कर महाराज श्रेणिक ओर महारानी धारिणी भगवान् को वन्दना नमस्कार कर के अपनी राजधानी की ओर स्थित हुए माता पिता के चले जाने के बाद मेषकुमार ने पंचमुष्टि लोच कर के भगवान् के पास आकर विधिपूर्वक वन्दन किया और हाथ जोड़ इस प्रकार प्रार्थना की प्रभो ! यह संसार जरामरणरूप अनि से जल रहा है। जिस तरह जलते हुए घर में से . सर्वप्रथम बहुमूल्य पदार्थों को निकालने का यान किया जाता है, उसी प्रकार मैं भी अपनो अमूल्य आत्मा को संसार की मि से निकालना चाहता हूँ। मेरी उत्कट इच्छा यही है कि मुझे इस अग्नि में न जलना पड़े । इसी लिये मैं आपश्री के चरणों में दीक्षित होना चाहता हूं। कृपया मेरी इस कामना को पूरा करो। मेघकुमार की इस प्रार्थना पर भगवान् ने उसे मुनिधम की दोक्षा प्रदान की और मुनिधर्मोचित शिक्षाय देकर उसे मुनिधर्म की सारी चर्या समझा दी तथा मेघकुमार भी भगवान् वीर के आदेशानुसार संयमव्रत का यथाविधि पालन करते हुए समय व्यतीत करने लगे। .. यह है मेधकुमार का दीक्षा तक का जोवनवृत्तान्त, जिस से श्री सुबाहुकुमार की दीक्षा तक को चर्या को उपमित किया गया है । तात्पर्य यह है कि जिस तरह मेबकुमार के हृदय में दीक्षा लेने के भाव उत्पन्न हुए तथा माता पिता से आज्ञा प्राप्त करने का उद्योग किया और माता पिता ने परीक्षा लेने के अनन्तर उन्हें सहर्ष श्राज्ञा प्रदान की और अपने हाथ से समारोहपूर्वक निष्कमणाभिषेक कर के उन्हें भगवान् को समर्पित किया उसी तरह श्री सुबाहुकुमार के विषय में भी जान लेना चाहिये। यहां पर केवल नामों का अन्तर है और कुछ नहीं। मेघकुमार के पिता का नाम अणिक है और सुबाहुकुमार के पिता का नाम अदीनशत्रु है । दोनों की माताए एक नाम की थीं। मेवकुमार राजगृह नगर में पत्ला और उस ने गुणशिलक नामक उद्यान में दीक्षा ली, जब कि सुबाहुकुमार हस्तिशीर्ष नगर में पला और उस ने दीक्षा पुष्पकरण्डक नामक उद्यान में ली । शेष, वृत्तान्त एक जैसा है। -हतु०-यहां के बिन्दु से - समणं भगवं महावोरं- इत्यादि पाठ का ग्रहण है। समग्रपाठ के लिये 'श्रीज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के प्रथम अध्याय के २३वे सूत्र से ले कर २६वें सूत्र तक के पाठ को देखना चाहिये। इतने पाठ में श्री मेघकुमार का समस्त वर्णन विस्तारपूर्वक वर्णित हुआ है। निष्क्रमण नाम दीक्षा का है और अभिषेक का अर्थ है - दीक्षासम्बन्धी पहिली तैयारी । तात्पर्य यह है कि दीक्षा की प्रारंभिक क्रियासम्पत्ति को निष्क्रमणाभिषेक कहा जाता है। जिस ने घर, बार आदि का सर्वथा परित्याग कर दिया हो, वह. अनगार कहलाता है । तथा इरियासमिते जाव बंभयारीयहां पठित जाव-यावत् पद से -भासासमिते, एसणासमिते, आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिते, उच्चारपासवणखेलसिंघाण जल्लपरिठ्ठावणियास मिते, म समिते. वयसमिते, कायसमिते, मणगुत्त, वयगुत्ते, कायगुत्त, गुत्ते, गुत्तिदिये, गुत्तभयारी-इन अवशिष्ट पदों का ग्रहण करना चाहिए । इन का अर्थ इस प्रकार है (१) भागमोदयसमिति पृष्ठ ४६ से ले कर पृष्ठ ६० तक का सूत्रपाठ देखना चाहिये। (२) न विद्यते अगारादिकं द्रव्यजातं यस्यासौ अनगारः । (वृत्तिकार:) For Private And Personal Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित [ ६६३ १ - ईर्यासमिति' - युगप्रमाणपूर्वक भूमि को एकाग्र चित्त से देख कर जीवों को बचाते हुए यतापूर्वक गमन करने का नाम ईर्यासमिति है । २- भाषासमिति सदोष वाणी को छोड़ कर निर्दोष वाली अर्थात् हित, मित, सत्य एवं स्पष्ट वचन बोलने का नाम भाषासमिति है । ३ - एषणासमिति - श्रहार के ४२ दोषों को टाल कर, शुद्ध श्राहार तथा वस्त्र, पात्र आदि उपविका ग्रहण करना । अर्थात् एषणा - गवेषणा द्वारा भिक्षा एवं वस्त्र पात्रादि का ग्रहण करने का नाम एषणासमिति है । ४ - श्रादानभांडमात्र निक्षेपणासमिति - श्रासन, संस्तारक, पॉट, वस्त्र, पात्रादि उपकरणों को उपयोगपूर्वक देख कर एवं रजोहरण से पोंछ कर लेना एवं उपयोगपूर्वक देखी और प्रतिलेखित भूमि पर रखने का नाम श्रादानभाण्डमात्र निक्षेपणासमिति है। 1 प्रस्रवण-मूत्र, ५ - उच्चारप्रवणखेल सिंघाण जल्लप रिष्ठापनिकासमिति - उच्चार - मल, खेल - थूक, सिंघाण - नाक का मल, जल्ल-शरीर का मल इन की परिष्ठापना - परित्याग में सम्यक प्रवृत्ति का नाम उच्चारप्रवणखेल सिंघाण जल्ल परिष्ठा पनिकासमिति है । ६ - मनः समिति - पापों से निवृत्त रहने के लिए एकाग्रतापूर्वक की जाने वाली आगमोक्त सम्यक एवं प्रशस्त मानसिक प्रवृत्ति का नाम मनः समिति है । ७ - वचः समिति - पापों से बचने के लिये एकाग्रतापूर्वक की जाने वाली आगमोक्त सम्यक एवं प्रशस्त वाचनिक प्रवृत्ति का नाम वचःसमिति है । ८- कायसमिति - पापों से सुरक्षित रहने के लिये एकाग्रतापूर्वक की जाने वाली श्रागमोक्त सम्यक एवं प्रशस्त कायिक प्रवृत्ति का नाम कायसमिति है। (१) ईर्ष्या नाम गति या गमन का है । विवेकयुक्त हो कर प्रवृत्ति करने का नाम समिति है । ठीक प्रवचन के अनुसार श्रात्मा की गमनरूप जो चेष्टा है उसे ईर्ष्यासमिति कहते हैं। यह इस का शाब्दिक अर्थ है । ईयसमिति के श्रालम्बन, काल, मार्ग और यतना ये चार भेद होते हैं। जिस को प्राश्रित करके गमन किया जाए वह श्रालम्बन कहलाता है। दिन या रात्रि का नाम काल है । रास्ते को मार्ग कहते हैं और सावधानी का दूसरा नाम यतना है । श्रालम्बन के तीन भेद होते हैं-ज्ञान, दर्शन और चारित्र । पदार्थों के सम्यग बोध का नाम ज्ञान है। तत्राभिरुचि को दर्शन और सम्यक आचरण को चारित्र कहते हैं । काल से यहां पर मात्र दिन का ग्रहण है । साधु के लिये गमनागमन का जो समय है, वह दिवस है । रात्रि में आलोक का अभाव होने से चक्षुत्रों का पदार्थों से साक्षात्कार नहीं हो सकता । अतएव साधुयों के लिये रात्रि में विहार करने की आज्ञा नहीं है । मार्गशब्द उत्पथरहित पथ का बोधक है । उसी में गमन करना शास्त्रसम्मत अथच युक्तियुक्त है । उत्पथ में गमन करने से आत्मा और संयम दोनों की विराधना संभवित है । यतना के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से चार भेद हैं। जीव, अजीव आदि द्रव्यों को नेत्रों से देख कर चलना द्रव्य यतना है । साढ़े तीन हाथ प्रमाण भूमि को आगे से देख कर चलना क्षेत्र यतना है। जब तक चले तब तक देखे यह काल यतना है । उपयोग सावधानता पूर्वक गमन करना भाव यतना है । तात्पर्य यह है कि चलने के समय शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श आदि जो इन्द्रियों के विषय है उन को छोड़ देना चाहिये और चलते हुए वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, धर्मकथा और अनुप्र ेक्षा इन पांच प्रकार के स्वाध्यायों का भी परित्याग कर देना चाहिये । For Private And Personal Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६६४] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय ९-मनोगुप्ति-श्रातध्यान तथा रौद्रध्यान रूप मानसिक अशुभ व्यापार को रोकने का नाम मनोगुप्ति है। १०-वचनगुप्ति-वाचनिक अशुभ व्यापार को रोकना अर्थात् विकथा न करना, झूठ न बोलना निंदा चुगली अादि दूषित वचनविषयक व्यापार को रोक देना ववन गुप्ति शब्द का अभिप्राय है । ११-कायगुप्ति - कायिक अशुभ व्यागर को रोकना अर्थात् उठने, बैठने, हिलने, चलने, सोने आदि में अविवेक न करने का नाम कायगुपित है। पूर्वोक्त ८ समितियों से, तीन गुप्तियों से युक्त और गुप्त - मन वचन और काया को सावध प्रवृत्तियों से इन्द्रियों को रोकने वाला और 'गुप्तेन्द्रिय -कच्छर को भाँति इन्द्रियों को वश में रखने वाला तथा ब्रह्मचर्य का संरक्षण करने वाला। प्रश्न-समिति और गुप्ति में क्या अन्तर -भेद है? उत्तर-योगों में विवेकपूर्वक प्रवृत्ति का नाम समिति है. और अशुभ योगों से आत्ममंदिर में आने वाले कर्मरज को रोकना गुति कहलाती है । दूसरे शब्दों में मनःसमिति का अर्थ है - कुशल मन की प्रवृत्ति । मनोगुप्ति का अर्थ है-अकुशल मनोयोग का निरोध करना । यही इन में अन्तर है। सारांश यह है कि गुप्से में असत् क्रिया का निषेध मुख्य है और समिति में सत् क्रिया का प्रवतन मुखय है । अतः समिति केवल सम्यक् प्रवृत्ति रूप ही होती है और गुप्ति निवृत्तिरूप । .. - प्रश्न-महाराज श्रेणिक ने अोघे और पात्रों का मूल्य दो लाख मोहरें दिया तथा नाई को एक लाख मोहरे मेवकुमार के शिरोमुण्डन के उपलक्ष्य में दी। इस में क्या रहस्य रहा हुआ है। उत्तर-एक साधारण बुद्धि का बालक भी जानता है कि एक पैसे के मूल्य वाली चीज़ एक पैसे में ही खरीदी जा सकती है, दो पैसों में नहीं । नोतिशास्त्र के परम पण्डित, पुरुषों की ७२ कलात्रो में प्रवीण और परम मेवावी मगधेश साधारण मूल्य वाले पदार्थ का अधिक मूल्य कैसे दे सकते हैं ? तब अोघे और पात्रों की अधिक कीमत दो लाख मोहरें देने का अभिप्राय और है जिस की जानकारी के लिये मनन एवं चिन्तन अपेक्षित है। मेघकमार के लिये जिस दुकान से अोधा और पात्र ख़रीदे गये थे, उस दुकान का नाम शास्त्रों में “२कुत्तियावण-कुत्रिकापण" लिखा है । कु नाम पृथिवी का है। त्रिक शब्द से अधोलोक, मध्यलोक (१) –“ गुत्ता गुत्ति दिय त्ति " -गुप्तानि शब्दादिषु रागादि निरोधात् . अगुप्तानि च आगमश्रवणेर्यासमित्यादिष्वनिरोधादिन्द्रियाणि येषां ते तथा । (औपपातिकसूत्रे वृत्तिकारः) (4) "-कुत्तियावण उत्ति" -देवताधिष्ठितत्वेन स्वर्गमत्यपाताललक्षणभूत्रितयसंभविवस्तुसम्पादक आपणो - हहः कुत्रिकापणः । (औपपातिकसूत्रे वृत्तिकार:) इस का भावाथ यह है कि देवता के अधिष्ठाता होने से स्वर्गलोक, मनुष्यलोक और पाताललोक हुन तीन लोकों में उत्पन्न होने वाली वस्तुओं की जहां उपलब्धि हो सके उस दुकान को कुत्रिकापण कहते हैं। अभिधानराजेन्द्र कोष में कुत्रिकापण की छाया कुत्रिजापण ऐसी भी की है। वहां का स्थल मननीय होने से यहां दिया जाता है कत्रिकापणः-कुरिति पृथिव्याः सज्ञा। कूनां स्वर्गपातालमर्त्यभूमीनां त्रिक तात्स्थ्यात्तद्व्यपदेशः इति कृत्वा लोका अपि कुत्रिकमुच्यते । कुत्रिकमापणायति व्यवहरति यत्र हऽसौ कत्रिकापणः । अथवा धातुमूलजीवलक्षण : त्रिभ्यो जातं त्रिजं सर्वमपि वस्त्वित्यर्थः । कौ पृथिव्यां त्रिजमापणायति-व्यवहरति यत्र हऽ सौ कुत्रिजापणः । For Private And Personal Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित। और ऊर्श्वलोक का ग्रहण होता है । अथवा पृथिवी शब्द से अधः, मध्य और ऊर्ध्व इन तीनों भागों का ग्रहण करना इष्ट है । तात्पर्य यह है कि जिस दुकान में भूमि के निम्नभाग तथा ऊर्श्वभाग (पर्वतादि) एवं मध्य भाग (सम भूमि) इन तीनों भागों में उत्पन्न होने वाली प्रत्येक वस्तु उपलब्ध हो सके उसे कुत्रिकापण कहते हैं । इस दुकान में एक ऐसा भी विभाग होता था जहां धार्मिक उपकरण होते थे जो सब के काम आते थे। वे उपकरण धार्मिक प्रभावना के लिये बिना मूल्य भी वितरण किये जाते थे । मूल्य देने वाला मूल्य देकर भी ले जा सकता था और उस मूल्य से फिर वही सामग्री तैयार हो जाती थी, जो कि धार्मिक कार्यों के उपयोग में पा जाया करती थी। इस के अतिरिक्त स्वतंत्र रूप से भी दान दे कर उस में वृद्धि की जा सकती थी। महाराज श्रेणिक ने दो लाख मोहरें देकर रजोहरण और पात्रों का मूल्य देने के साथ २ धर्मप्रभावना के लिये उस धर्मोपकरणविभाग में दीक्षामहोत्सव के सुअवसर में अवशिष्ट मोहरें दान में दे डाली जो कि उन का दानभावना एवं धर्मप्रभावना का एक उज्ज्वल प्रतीक था, तथा अन्य धनी मानी गृहस्थों के सामने उन के कर्तव्य को उन्हें स्मरण कराने के लिये एक आदर्श प्रेरणा थी । ऐसा हमारा विचार है | रहस्यन्तु केवलिगम्यम्। दीक्षा' -एक महान् पावन कृत्य है । महानता का प्रथम अंक है । इसीलिये यह उत्सव बड़े हर्ष से मनाया जाता है । इस उत्सव में विवाह की भाँति आनन्द की सर्वतोमुखी लहर दौड़ जाती है । अन्तर मात्र इतना ही होता है कि विवाह में सांसारिक जीवन की भावना प्रधान होती है, जब कि इस में आत्मकल्याण की एवं परमसाध्य निर्वाणपद को उपलब्ध करने की मंगलमय भावना ही प्रधान रहा करती है। इसीलिये इस में सभी लोग सम्मिलित हो कर धर्मप्रभावना का अधिकाधिक प्रसार करके पुण्योपार्जन करते हैं और यथाशक्ति दानादि सत्कार्यों में अपने धन का सदुपयोग करते हैं । इसी भाव से प्रेरित हो कर महाराज श्रेणिक ने नाई को एक लाख मोहरें दे डाली । लाख मोहरें दे कर उन्हों ने यह आदर्श उपस्थित किया है कि पुण्यकार्यों में जितना भी प्रभावनाप्रसारक एवं पुण्योत्पादक लाभ उठाया जा सके उतना ही कम है। इस के अतिरिक्त भागमों में वर्णन मिलता है कि जिस समय भगवान् महावीर चम्पानगरी में पधारते हैं, उस समय उन के पधारने की सूचना देने वाले राजसेवक को महाराज कोणिक ने लाखों का पारितोषिक दिया। यदि पुत्रदीक्षामहोत्सव के समय खुशी में आकर मगधेश श्रेणिक ने नाई को पारितोषिक के रूप में एक लाख मोहर दे दी तो कौन सी आश्चर्य की बात है ? महाराज श्रेणिक ने जो कुछ किया वह अपने वैभव के अनुसार ही किया है, ऐसा करने से व्यवहारसम्बन्धी अकुशलता की कोई बात नहीं है। बड़ों की खुशी में छोटों को खुशी का अवसर न मिले तो बड़ों की खुशी का तथा उन के बड़े होने का क्या अर्थ ? कुछ नहीं । संभव है इसी लिए आज कल भी दीक्षार्थी के केशों को थाली में रख कर नाई सभी उपस्थित लोगों से दान देने के लिये प्रेरणा करता है और लोग भी यथाशक्ति उस की थाली में धनादि का दान देते है। धार्मिक हर्ष में दानादि सत्कार्यों का पोषित होना स्वाभाविक ही हैं । इस में विसंवाद वाली कोई बात नहीं है । प्रश्न - मेवकुमार की दीक्षा से पूर्व ही उसके माता पिता वहां से चले गये ? दीक्षा के समय वहां उपस्थित क्यों नहीं रहे ? उत्तर-माता पिता का हृदय अपनी संतति के लिये बड़ा कोमल होता है । जिस सन्तति को अपने सामने सर्वोत्तम वेषभूषा से सुसज्जित देखने का उन्हें मोह है, उसे वे समस्त वेषभूषा को उतार कर और (१) संस्कार विशेष या किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिये आत्मसमर्पण करना ही दीक्षा का भावार्थ है। For Private And Personal Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय अतस्कन्ध [प्रथम अध्याय अपने हाथों में केशों को उखाड़ते हुए भी देखें, यह माता पिता का हृदय स्वीकार नहीं कर सकता, यही कारण है कि वे दीक्षा से पूर्व ही चले गये। प्रस्तुत सूत्र में यह वर्णन किया गया है कि श्रमणोपासक श्री सुबाहुकमार ने विश्ववन्द्य दीनानाथ पतितपावन चरमतीर्थकर करुणा के सागर भगवान् महावीर की धर्मदेशना को सुन कर संसार से विरक्त हो कर उन के चरणों में प्रव्रज्या ग्रहण कर ली-गृहस्थावास को त्याग कर मुनिधर्म को स्वीकार कर लिया । मुनि बन जाने के अनन्तर सुबाहुकुमार का क्या बना ? इस जिज्ञासा की पूर्ति के लिए अब सूत्रकार महामहिम मुनिराज श्री सुबाहुकुमार जी महाराज की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हैं मूल-तते णं से सुबाहू अणगारे समणस्स भगवो महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अन्तिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जति, बहूहिं चउत्थ० तयोविहाणेहिं अप्पाणं भावेत्ता, बहूई वासाइं सामरणपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सद्धि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता आलोइयपडिक्कन्ते समाहिं पत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने । से णं ततो देवलोकाउ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता माणुस्सं विग्गहं लभिहिति लभिहित्ता केवलं बोहिं बुझिहिति बुज्झिहित्ता तहारूवाणं थेराणं अन्तिए मुंडे जाव पव्वइस्सति । से णं तत्थ बहूई वासाई सागरणं पाउ-- णिहिति पाउणिहित्ता आलोइयपडिक्कते समाहिं पत्ते कालगते सणंकुमारे कप्पे देवत्ताए ववज्जिहिति । ततो माणुस्सं । पवज्जा । बंभलोए । माणुरसं । महासुक्के । माणुस्सं। आणए । माणुस्सं । श्रारणे । माणुस्सं । सव्वट्ठसिद्ध । से णं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता महाविदिहे जाव अडाई जहा दडपतिपणे सिज्झिहिति ५ । तं एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमह पएणत्ते । त्ति बेमि । ॥ पढमं अज्झयणं समत्तं॥ (१) छाया-तत: स सुबाहुरनगार: श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य तथारूपाणां स्थविराणामन्ति. के सामायिकादीनि, एकादशाङ्गानि अधीते । बहुभिश्चतुथ० तपोविधानः श्रात्मानं भावयित्वा, बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा मासिक्या संलेखनयाऽऽत्मानं जोषयित्वा षष्टिं भक्तान्यनशनतया छेदयित्वा श्रालेचितप्रतिकान्तः समाधि प्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा सौधर्मे कल्पे देवतयोपपन्नः। स ततो देवलोकायुःक्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण अनन्तरं चयं त्यक्त्वा मानुषं विग्रहं लप्स्यते लब्ध्वा केवलं बोधि भोत्स्यते बुध्वा तथारूपाणां स्थविराणामंतिके मुण्डो यावत् प्रव्रजिष्यति । स तत्र बहूनि वर्षाणि श्रामण्यं पालयिष्यति पालयित्वा आलोचितप्रतिक्रान्त: समाधि प्राप्त: कालगतः सनत्कुमारे कल्पे देवतयोपपत्स्यते, ततो मानुष्यं, प्रव्रज्या। ब्रह्मलोके । मानुध्यं । महाशुक्र । मानुष्यं । पानते । मानुष्यं । श्रारणे । मानुष्यं । सर्वार्थसिद्ध। स ततोऽनन्तरमुढत्य महाविदेहे यावदाढ्यानि यथा दृढ़प्रतिज्ञः सेत्स्यति ५ । तदेवं खलु जम्बू: ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन सुखविपाकानां प्रथम - स्याध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः । इति ब्रवीमि । ॥ प्रथममध्ययनं समाप्तम् ।। For Private And Personal Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [६६७ पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । से-वह । सुवाहू-सुबाहु । अणगारे-अनगार । समणस्सश्रमण । भगवओ-भगवान् । महावीरस्स-महावीर स्वामी के । तहारूवाणं-तथारूप । थेराणं-स्थविरों के। अंतिए-पास । सामाइयमाइयाई-सामायिक अादि । एक्कारस-एकादश । अंगाई-अंगों का । अहिज्जति-अध्ययन करता है । वहूहि-अनेक । चउत्थ०-व्रत, बेला श्रादि । तपोविहाणेहिं-नानाविध तपों के आचरण से । अप्पाणं-आत्मा को। भावेत्ता-भावित-वासित करके । बहूइं-अनेक । वासाई - वर्षों तक । सामरणपरियागं-श्रामण्यपर्याय अर्थात् साधुवृत्ति का । पाउणित्ता-पालन कर । मासियार -मासिक-एक मास की । संले हणाए -संलेखना (एक अनुष्ठानविशेष जिस में शारीरिक और मानसिक तप द्वारा कषायादि का नाश किया जाता है ) के द्वारा | अप्पाणं-अपने आप को । झूसित्ता-आराधित कर । सहि- साठ । भत्ताई-भक्तों-भोजनों का । अणसणाए -अनशन द्वारा । छेदित्ता-छेदन कर । आलोइयपडिक्कन्ते - आलोचितप्रतिकान्त अर्थात् 'आलोचना और प्रतिक्रमण को कर के । समाहिं-समाधि को । पत्त-प्राप्त हुआ। कालमासे-कालमास में । कालं किच्चा-काल कर के। सोहम्मे-सौधर्म । कप्पे-देवलोक में । देवत्ताए-देवरूप से । उववन्ने-उत्पन्न हुआ । से णं-वह । ततो-उस । देवलोकाउ-देवलोक से । आउक्खएणं-आयु के क्षय होने से । भवक्खएणंभव के क्षय होने से । ठिइक्खएणं-और स्थिति का क्षय होने से । अणंतरं-अन्तररहित । चयं-देवशरीर को। चइत्ता-छोड़ कर । माणुस्सं-मनुष्य के । विग्गह-शरीर को । लििहति-प्राप्त करेगा । लोभहित्ता-प्राप्त कर के, वहां । केवलं-निर्मल - शंका, आकांक्षा श्रादि दोषों से रहित । बोहि-सम्यक्त्व को । बुझिहिति-प्राप्त करेगा । बुझिहित्ता - प्राप्त करके । तहारूवाणं-तथारूप । थेराणं-स्थविरों के अंतिए-पास । मुंडे - मुण्डित होकर । जाव - यावत् अर्थात् साधुधर्म में । पव्वइस्सति-प्रव्रजित-। दीक्षित हो जाएगा । से णं-वह । तत्थ-वहां पर । बहूई-अनेक । वासाई - वर्षों तक । सामएणंसंयमव्रत को पाउणिहिति-पालन करेगा। आलोइयपडिक्कन्ते-आलोचना और प्रतिक्रमण कर । समाहि पत्त-समाधि को प्राप्त हुआ ।कालगते -काल करके । सणंकुमारे-सनत्कुमार नामक कप्पे-तीसरे देवलोक. में । देवत्तार -देवतारूप से । उववज्जिहिति-उत्पन्न होगा । ततो-वहां से । माणुस्सं- मनुष्य भव प्राप्त करेगा, वहां से । महासुक्के-महाशुक्र नामक देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां से च्यव कर । माणस्संमनुष्य भव में जन्मेगा, वहां से मर कर । श्राणए-अानत नामक नवम देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां से । माणुस्तं - मनुष्यभव में जन्म लेगा, वहां से । श्रारणे-ारण नाम के एकादशवें देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां से । माणुस्सं-मनुष्य भव में जन्मेगा और वहां से । सबसिद्धे-सर्वार्थसिद्ध में उत्पन्न होगा । से णं-वह । तता-वहां से । अणंतरं - व्यवधानरहित । उव्यत्तिा --निकल कर । महाविदेहेमहाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा । जाव-यावत् । अड्ढाई-अाढ्य कुल में । जहा-जैसे। दढपतिराणेदृढ़प्रतिज। सिन्झिहिति ५ - सिद्ध पद को प्राप्त करेगा, ५ । तं - सो। एवं-इस प्रकार । खलु-निश्चय ही। जंबू!-हे जम्बू ! । समणेणं-श्रमण । जाव-यावत् । संपत्तणं-संप्राप्त ने । सुहविवागाणं-सुखविपाक के । पढमस्त-प्रथम । अज्झयणस्त-अध्ययन का । अयम?-यह अर्थ । पराण-प्रतिपादन (१) श्रालोचना-शब्द प्रायश्चित्त के लिये अपने दोषों को गुरुओं को बतलाना-इस अर्थ का परिचायक है, और प्रमादवश शुभ योग से गिर कर अशुभ योग प्राप्त करने के अनन्तर फिर से शुभयोग को प्राप्त करने तथा साधु और श्रावक के प्रातः सायं करने के एक आवश्यक अनुष्ठानविशेष की प्रतिक्रमण संज्ञा है। For Private And Personal Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६६८] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम अध्याय किया है । त्ति- इस प्रकार । बेमि-मैं कहता हूं । पढम-प्रथम । अझयणं-अध्ययन । समत्तसम्पूर्ण हुअा। मूलाथे-तदनन्तर वह सुबाहु अनगार श्रमण भगवान महावीर स्वामी के 'तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि एकादश अंगों का अध्ययन करने लगा, तथा उपवास आदि अनेक प्रकार के तपों के अनुष्ठान से आत्मा को भावित करता हुआ, बहुत वर्षों तक श्रामण्यपयोय का यथाविधि पालन कर के एक मास की संलेखना से अपने आप को आराधित कर २६ उपवासोंअन रानव्रतों के साथ अलोचना और प्रतिक्रमण करके आत्मशुद्धि द्वारा समाधि प्राप्त कर कालमास में काल करके सौधर्म नामक देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुआ। __ तदनन्तर वह सुबाहुकुमार का जीव सौधर्म देवलोक से आयु, भव और स्थिति का क्षय होने पर देवशरीर को छोड़ कर व्यवधानरहित मनुष्यशरीर को प्राप्त करेगा ।वहां पर कांक्षा, आकांक्षा आदि दोषों से रहित सम्यक्त्व को प्राप्त कर तथारूप स्थविरों के पास मुडित हो यावत्-दीक्षित हो जाएगा, वहां पर अनेक वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन करके आलोचना तथा प्रतिक्रमण कर समाधिस्थ हो मृत्युधर्म को प्राप्त कर सनत्कुमार नामक तीसरे लोक में उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर मनुष्य भव को प्राप्त कर दीक्षित हो मृत्यु के पश्चात् ब्रह्मलोक नामक पांचवें देवलोक में उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर मनुष्य भव को धारण करके अनगारधर्म का आराधन कर शरीरान्त होने पर महाशुक्र नामक सातवें देवलोक में उत्पन्न होगा । वहां से च्यव कर मनुष्य भव में आकर दीक्षित हो, काल करके आनत नाम नवमें देवलोक में जन्मेगा। वहां की भवस्थिति को पूरी करके फिर मनुष्य भर को प्राप्त हो दीक्षात्रत का पालन करके मृत्यु के अनन्तर आरण नामक ग्यारहवें देवलोक में उत्पन्न होगा । तदनन्तर वहां प्ले च्यव कर पुन: मनुष्य भव. को प्राप्त करेगा और श्रमणधर्म का पालन करके मृत्यु के पश्चात् सर्वार्थसिद्ध नामक विमान में (२६ वें देवलोक में) उत्पन्न होगा और वहां से च्यव कर सुबाहुकुमार का वह जीव व्यवधानरहित महाविदेह क्षेत्र में किसी धनिक कुल में उत्पन्न होगा। वहां दृढप्रतिज्ञ की भाँति चारित्र प्राप्त कर सिद्ध पद को ग्रहण करेगा । अर्थात् जन्म मरण से रहित होकर परम सुब को प्राप्त कर लेगा। आर्य सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि हे जम्बू ! मोक्षसंप्रोप्त श्रमण भावान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है । ऐसा मैं कहता हूँ। ॥ प्रथम अध्ययन समाप्त ।। टीका-सुबाहुकुमार ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास साधुधर्म ग्रहण कर लिया है, यह पहले बताया जा चुका है। उस के पहले के और इस समय के जीवन में बहुत परिवर्तन हो गया है । कुछ दिन पहले वह राजकुमार था । घर में नाना प्रकार के स्वादिष्ट से स्वादिष्ट भोजन किया करता था परन्तु आज वह अकिंचन है, सर्व प्रकार के राज्यवैभव से रहित है, रूखा सूखा भोजन करने वाला है वह भी पराये घरों से मांग कर । उस का शरीर इस समय राज्य वेषभूषा के स्थान में त्यागशील मुनिजनों की वेषभूषा से सुशोभित हो रहा है । जहां राग था, वहां त्याग है। जहां मोह था, वहां विराग है । इसी प्रकार खान पानादि का स्थान अब अधिकांश उपवास श्रादि तपश्चर्या को प्राप्त है । सागारता ने न अमारता का ग्राश्रय पान किया है। यही उस के जीवन का प्रधान परिवर्तन है । (१) तथारूप तथा स्थविर पद की व्याख्या पृष्ठ ९७ पर की जा चुकी है। For Private And Personal Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित __ सुबाहकुमार अहिंसा आदि पांचों महावतों के यथाविधि पालन में सतत जागरूक रहता है । उस में किसी प्रकार का भी अतिचार-दोष न लगने पावे, इस का उसे पूरा २ ध्यान रहता है। जीवन के बहुमूल्य धन ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए भी वह विशेष सजग रहता है। कारण कि यह जीवन का सर्वस्व है । जिस का यह सुरक्षित है, उस का सभी कुछ सुरक्षित है । संक्षेप में कहें तो सुबाहु मुनि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से प्राप्त हुए संयम धन को बड़ी दृढ़ता और सावधानी से सुरक्षित किए हुए विचर रहा था। व ज्ञान से ही आत्मा अपने वास्तविक उद्देश्य को समझ सकता है और तदनन्तर उसके साधनों से उसे सिद्ध कर लेता है। शास्त्रों में ज्ञान की बड़ी महिमा गाई गई हैं । श्री भगवती सूत्र में लिखा है कि परलोक में साथ जाने वाला ज्ञान ही है, चारित्र तो इसी लोक में रह जाता है । गीता में लिखा है कि संसार में ज्ञान के समान पवित्र और उस से ऊची कोई वस्तु नहीं है । 'नहि ज्ञानेन सदशं पवित्रमिह विद्यते"। अत: छः महीने लगातार श्रम करने पर भी यदि एक पद का अभ्यास हो तब भी उस का अभ्यास नहीं छोड़ना चाहिये, क्योंकि ज्ञान का अभ्यास करते २ अन्तर के पट खुल जाए', केवल ज्ञान की प्राप्ति हो जाए, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। __ स्वनामधन्य महामहिम श्री सबाहुकुमार जी महाराज ज्ञानाराधना की उपयोगिता को एवं अभिमत साध्यता को बहुत अच्छी तरह जानते थे। इसी लिये जहां उन्हों ने साधुजीवनचर्या के लिए पूरी २ सावधानी से काम लिया वहां ज्ञानाराधना भी पूरी शक्ति लगा कर की। पूज्य तथारूप स्थविरों के चरणों में रह कर उन्होंने सामायिक आदि ११ अंगों का अध्ययन किया , उन्हें याद किया, उन का भाव समझा और तदनुसार अपना साधुजीवन व्यतीत करना आरम्भ किया। एकादश अंग-जैनवाङमय अङ्ग, उपांग , मूल और छेद इन चार भागों में विभक्त है । उन में ११ अङ्ग, १२ उपांग, ४ मूल और ४ छेद हैं । इन की कुल संख्या ३१ होती है । इन में आवश्यक सूत्र के संकलन से कुल संख्या ३२ हो जाती है । ग्यारह अंगों के नाम निम्नोक्त हैं १-पाचारांग-इस में श्रमणों-निग्रन्थों के आहार-विहार तथा नियमोपनियमों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। २-सूत्रकृतांग-इस में जीव, अजीव आदि पदार्थों का बोध कराया गया है । इस के अतिरिक्त ३६३ एकान्त क्रियावादी आदि के मतों का उपपादन और निराकरण करके जैनेन्द्र प्रवचन को प्रामाणिक सिद्ध किया गया है । वर्णन बड़ा ही हृदयहारी है। ३ - स्थानांग-इस में जीव, अजीव आदि पदार्थों का तथा अनेकानेकों जीवनोपयोगी उपदेशों का विशद वर्णन मिलता है और यह दश भागों में विभक्त किया गया है। यहां विभाग शब्द के स्थान पर 'स्थान" शब्द का व्यहार मिलता है। ४- समवायांग-इस सूत्र में भी जीव, अजीव आदि पदार्थों का स्वरूप संख्यात और असंख्यात विभागपूर्वक वर्णित है। ५- 'भगवती-इस में जीव, अजीव, लोक, अलोक, स्वसिद्धान्त, परसिद्धान्त आदि विषयों से सम्बन्ध रखने वाले ३६ हजार प्रश्न और उनके उत्तर वणित हैं । ६-ज्ञाताधर्मकथांग-इस में अनेक प्रकार की बोधप्रद धार्मिक कथायें संगृहीत की गई हैं। ७ -- उपासकदशांग-इस में श्री श्रानन्द श्रादि दश श्रावकों के धार्मिक जीवन का वर्णन करते (१) इसे विवाहपएणत्ति-व्याख्याप्रज्ञप्ति भी कहते हैं । For Private And Personal Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६७० ] हुए श्रावधर्म का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है । ८ - अन्तकृद्दशांग - इस में गजसुकुमाल आदि महान् जितेन्द्रिय महापुरुषों के तथा पद्मावती आदि महासतियों के मोक्ष जाने तक के कृत्यों का वर्णन किया गया है । ९- श्रनुचरोपपातिकदशांग- -इस में जाली आदि महातपस्वियों के एवं धन्ना आदि महापुरुषों के विजय, वैजयन्त, आदि अनुत्तर विमानों में जन्म लेने आदि का वर्णन किया गया है । १० - प्रश्नव्याकरण - इस में अंगुष्टादि प्रश्नविद्या का निरूपण तथा पांच श्राश्रवों और पांच संवरों के स्वरूप का दिग्दर्शन कराया गया था, परन्तु समयगति की विचित्रता के कारण वर्तमान में मात्र पांच आश्रवों और पांच संवरों का ही वर्णन उपलब्ध होता है । अंगुष्टादि प्रश्नविद्या का वर्णन इस में उपलब्ध नहीं होता। [प्रथम अध्याय - ११ - विपाकश्रुत इस में मृगापुत्र आदि के पूर्वसंचित अशुभ कर्मों का अशुभ परिणाम तथा सुबाहुकुमार आदि के पूर्वसंचित शुभ कर्मों के शुभ विपाक का वर्णन किया गया है । कालदोषकृत बुद्धिबल और आयु की कमी को देख कर सर्वसाधारण के हित के लिये अंगों में से भिन्न २ विषयों पर गणधरों के पश्चाद्वर्ती श्रुतकेवली या पूर्वधर आचार्यों ने जो शास्त्र रचे हैं वे उपांग कहलाते हैं । उपांग १२ होते हैं । उन का नामपूर्वक संक्षिप्त परिचय निम्नोक्त है १ - श्रपपातिकसूत्र - यह पहले अङ्ग आचाराङ्ग का माना जाता है । इस में चंपा नगरी, पूर्णभद्र यक्ष, पूर्णभद्र चैत्य, अशोकवृक्ष, पृथ्वी शिला, कोणिक राजा, राणी धारिणी, भगवान् महावीर तथा भगवान् के साधुओं का वर्णन करने के साथ २ तप का, गौतमस्वामी के गुणों, सशयों, प्रश्नों तथा सिद्धों के विषय में किये प्रश्नोत्तरों का वर्णन किया गया है। २ - राजप्रश्नीय - यह सूत्रकृतांग का उपाङ्ग है । सूत्रकतांग से क्रियावादी अक्रियावादी आदि ६३३ मतों का वर्णन है । राजा प्रदेशी क्रियावादी था, इसी कारण उसने श्री केशी श्रमण से जीवविषयक प्रश्न किये थे । क्रियावाद का वर्णन सूत्रकृतांग में है । उसी का दृष्टान्तों द्वारा विशेष वर्णन राजप्रभीयसूत्र में है । ३ - जीवाजीवाभिगम - यह तीसरे अंग स्थानांग का उपांग है । इस में जीवों के २४ स्थान, अवगाहना, आयुष्य, अबहुत्व, मुख्यरूप से अढाई द्वीप तथा सामान्यरूप से सभी द्वीप समुद्रों का वर्णन है । स्थानांगसूत्र में संक्षेप से कही गई बहुत सी वस्तुर इस में विस्तारपूर्वक बताई गई हैं। ४ - प्रज्ञापना - यह समवायांगसूत्र का उपांग है। समवायांग में जीव, जीव, स्वसमय, परसमय, लोक, लोक आदि विषयों का वर्णन किया गया है। एक २ पदार्थ की वृद्धि करते हुए सौ पदार्थों तक का वर्णेन समवायांगसूत्र में है। इन्हीं विषयों का वर्णन विशेषरूप से प्रज्ञापना सूत्र में किया गया है । इस में ३६ पद हैं । एक २ पद में एक २ विषय का वर्णन है । ५ - जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति - इस में जम्बूद्वीप के अन्दर रहे हुए भरत आदि क्षेत्र, वैताढ्य आदि पर्वत, पद्म आदि द्रह, गंगा आदि नदियां, ऋषभ आदि कूट तथा ऋषभदेव और भरत चक्रवर्ती का वर्णन विस्तार से किया गया है। ज्योतिषी देव तथा उन के सुख आदि भी बताए गये हैं । इस में दस अधिकार हैं । For Private And Personal ६ - चन्द्र प्रज्ञप्ति - चन्द्र की ऋद्धि, मंडल, गति, गमन, संवत्सर, वर्ष, पक्ष, महीने, तिथि, नक्षत्र का कालमान, कुल और उपकुल के नक्षत्र, ज्योतिषियों के सुख आदि का वर्णन इस सूत्र में बड़े विस्तार से है । इस सूत्र का विषय गणितानुयोग है । बहुत गहन होने के कारण यह सरलतापूर्वक समझना कठिन है । ७ - सूर्यप्रज्ञति - यह उत्कालिक उपांग सूत्र है । इस में सूर्य की गति, स्वरूप, प्रकाश, 1 आदि Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [६७१ विषयों का वर्णन है । इस में २० प्राभृत हैं । ८-निरयावलिका - यह अाठवां उपांग है, इस के दस अध्ययन हैं और यह कालिक है । ९-कल्पावतंसिका - यह नौवां उपांग है, इस के दस अध्ययन हैं और यह कालिक है। १०-पुष्पिका- यह सूत्र कालिक है और इस के दस अध्ययन हैं । ११-पुष्पचूलिका-यह सूत्र कालिक है, इस के दस अध्ययन हैं। १२-वृष्णिदशा-यह सूत्र कालिक है और इस के बारह अध्ययन है । मूलसूत्र ४ हैं, जिन का नामपूर्वक संक्षिप्त परिचय निम्नोक्त है १-उत्तराभ्ययन - इस में विनयश्रत आदि ३६ उत्तर-प्रधान अध्ययन होने से यह उत्तराभ्ययन कहलाता है । २-दशवकालिक - यह सूत्र दश अध्ययनों और दो चू लिकाओं में विभक्त है। इस में प्रधानतया साधु के ५ महाव्रतो तथा अन्य प्राचारसम्बन्धी विषयों का वर्णन किया गया है, और यह उत्कालिक है । ३-नन्दीसूत्र-इस में प्रधानतया मविज्ञान, तज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान इन पांच ज्ञानों का वर्णन किया गया है और यह उत्कालिक (जिस का कोई समय न हो) सूत्र है । ४-अनुयोगद्वार-अनुयोग का अर्थ है -व्याख्यान करने की विधि । उपक्रम, निक्षेप. अनुगम और नय इन चार अनुयोगों का जिस में वर्णन हो उसे अनुयोगद्वार कहते हैं । छेदसूत्र भी ४ हैं । इन का नामपूर्वक संक्षिप्त परिचय निम्नोक्त है १-दशाश्रु तस्कंध-इस सूत्र में दश अध्ययन होने से इस का नाम दशाश्रु तस्कंध है और यह कालिक (जिस के पढ़ने का काल नियत हो) है। २-वृहत्कल्प-कल्प शब्द का अर्थ मर्यादा होता है । साधुधर्म की मर्यादा का विस्तारपूर्वक प्रतिपादक होने से यह सूत्र वृहत्कल्प कहलाता है। ___३-निशीथ-इस सूत्र में बीस उद्देश में हैं । इस में गुरुमासिक, लघुमासिक तथा गुरु चातुर्मासिक लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्तों का प्रतिपादन है। ४- व्यवहारसूत्र-जिसे जो प्रायश्चित्त अाता है उसे वह प्रायश्चित्त देना व्यवहार है । इस सूत्र में प्रायश्चित्तों का वर्णन किया गया है । इस लिये इसे व्यवहारसूत्र कहते हैं । ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल और चार छेद ये सब ३१ सूत्र होते हैं। इन में आवश्यक सूत्र के संयोजन करने से इन की संख्या ३२ हो जाती है । साधु और गृहस्थ को प्रतिदिन दो बार करने योग्य आवश्यक अनुष्ठान या प्रतिक्रमण आवश्यक कहलाता है। सामायिक शब्द चारित्र के पंचविध विभागों में से प्रथम विभाग-पहला चारित्र, श्रावक का नवम व्रत आवश्यक सूत्र का प्रथम विभाग तथा संयमविशेष इत्यादि अनेकों अर्थों का परिचायक हैं। प्रकृत में सामायिक का अर्थ-आचारांग--यह ग्रहण करना अभिमत है। कारण कि मूल में-सामाइयमाइयाई-सामायिकादीनि-यह उल्लेख है। यह – एकारस अंगाई-एकादशांगानि-इस का विशेषण है। अर्थात् सामायिक है आदि में जिन के ऐसे ग्यारह अंग। प्रश्न-सुबाहुकुमार को ग्यारह अंग पढाए गए - यह वर्णन तो मिलता है परन्तु उसे श्री आवश्यकसूत्र पढ़ाने का वर्णन क्यों नहीं मिलता, जो कि साधुजीवन के लिये नितान्त आवश्यक होता है ? उत्तर-श्री आवश्यक सूत्र-, यह संज्ञा ही सूचित करती है कि साधुजीवन के लिये यह अवश्य For Private And Personal Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६७२] श्रीविपकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय पठमीय, स्मरणीय और आचरणीय है। अतः उस के उल्लेख की तो आवश्यकता ही नहीं रहती। उस का अध्ययन तो सुबाहुकुमार के लिये अनिवार्य होने से बिना उल्लेख के ही उल्लिखित हो ही जाता है। प्रश्न - ग्यारह अंगों में विपाक श्रत का भी निर्देश किया गया है, उस के द्वितीय श्रतस्कंध के प्रथम अध्ययन में सुबाहुकुमार का जीवनचरित्त वर्णित है । तो क्या वह सुबाहुकमार यही था या अन्य ? यदि यही था तो उस ने विपाकसूत्र पढ़ा, इस का क्या अर्थ हुआ ? जिस का निर्माण बाद में हुअा हो उस का अध्ययन कैसे संभव हो सकता है? उत्तर-विपाकसूत्र के द्वितीय श्रतस्कंध के प्रथम अध्ययन में जिस सुबाहुकुमार का वृत्तान्त वर्णित है, वह हमारे यही हस्तिशीर्षनरेश महाराज अदीनशत्रु के परमसुशील पुत्र सुबाहुकमार हैं । अब रही बात पढ़ने की, सो इस का समाधान यह है कि भगवान् महावीर स्वामी के ग्यारह गणधर थे, जो कि अनुपम ज्ञानादि गुणसमूह के धारक थे । उन की नौ वाचनायें (अागमसमुदाय) थीं जो कि इन्हीं पूर्वोक्त अंगों, उपांगों आदि के नाम से प्रसिद्ध थीं । प्रत्येक में विषय भिन्न २ होता था और उन का अध्ययनक्रम भी विभिन्न होता था। वर्तमान काल में जो वाचना उपलब्ध हो रही है वह भगवान् महावीर स्वामी के पट्टधर परमश्रद्धेय श्री सुधर्मा स्वामी की है। ऊपर जो अंगों का वर्णन किया गया है वह इसी से सम्बन्ध रखता है। सुधर्मा स्वामी की वाचनागत विभिन्नता सुबाहुकुमार के जीवन वृत्तान्त से स्पष्ट हो जाती है। तथा सुबाहुकमार के जीवन से यह भी स्पष्ट होता है कि सुबाहु कुमार का अध्ययन किसी अन्य गणधर की देख रेख में निष्पन्न हुआ और उस ने उस की वाचना के हो एकादश अंग पढ़े, उन का अर्थ सुधर्मा स्वामी की वाचना से भिन्न था । अतः सुबाहु. कमार ने जो विपाक पढ़ा वह भी अन्य था जोकि आज दुर्भाग्यवश अनुपलब्ध है। ___ श्राचार्य प्रवर अभयदेवसूरि ने भगवतीसूत्र की व्याख्या में स्कन्दककुमार के विषय से सम्बन्ध रखने वाले विचारों का जो प्रदर्शन किया है वह मननीय एवं प्रकृत में उपयोगी होने से नीचे दिया जाता है नन्वनेन स्कन्दकचरितात् प्रागेवैकादशांगनिष्पत्तिरवसीयते पंचमांगान्तभूतं च स्कन्दकचरितमुपलभ्यते, इति कथं न विरोधः १ उच्यते-श्रीमन्महावीरतीयें किल नव वाचना, तत्र च सर्ववाचनासु स्कन्दकचरितात् पूर्वकाले ये स्कन्दकचरिताभिधेया अर्थास्ते चरितान्तरद्वारेण प्रज्ञाप्यन्ते । स्कन्दकवरितोत्पत्तौ च सुधर्मस्वामिना जम्बूनामानं स्वशिष्यम्गीकृत्याधिकृतवाचनायामस्यां स्कन्दकचरितमेवाश्रित्य तदर्थ प्ररूपणा कृतेति न विरोधः । अथवा सातिशायित्वाद गणधराणामनागतकालभाविचरितनिवन्धनमदुष्टमिति, भाविशिष्यसन्तानापेक्षया, अतीतकालनिर्देषोऽपि न दुष्ट इति । (भगवती सूत्र शतक २, उद्दे० १, सू० ९३) अर्थात् – प्रस्तुत में यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि स्कन्दक चरित से पहले ही एकादश अंगों का निर्माण हो चुका था। स्कन्दकचरित्र पंचम अंग (भगवती सूत्र) में संकलित किया गया है । तब स्कन्दक ने ११ अंग पड़े, इस का क्या अर्थ हुअा ? क्या उस ने अपना ही जीवन पढ़ा ? इस का उत्तर निम्नोक्त है भगवान् महावीर के तीर्थ-शासन में नौ वाचनाएं थों। प्रत्येक वाचना में स्कन्दक के जीवन का अभिधेयअर्थ (शिक्षारूप प्रयोजन) समान रूप से अवस्थित रहता था । अन्तर इतना होता था कि जीवन के नायक तथा नायक के साथी भिन्न होते थे । सारांश यह है कि जो शिक्षा स्कन्दक के जीवन में मिलती थी, उसी शिक्षा (१) अाज भी देखते हैं कि सब प्रान्तों में शास्त्री या बीए पाद परीक्षाएं नाम से तो समान हैं परन्तु उस की अध्ययनोय पुस्तके विभिन्न होती हैं एवं पुस्तकगत विषय भी पृथक् पृथक होते हैं। यह क्रम प्राचीनता का प्रतीक है। For Private And Personal Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [६७३ को देने वाले अन्य जीवनों का संकलन सर्ववाचनात्रों में मिलता था । सुधर्मा स्वामी ने अपने शिष्य जम्बू स्वामी को लक्ष्य बना कर अपनी इस वाचना में स्कन्दक के जीवन से ही उस अर्थ की प्ररूपणा कर डाली, जो अर्थ अन्य वाचनाओं में गर्भित था। अतः यह स्पष्ट है कि स्कन्दक ने जो अगादि शास्त्र पढ़े थे की वाचना में नहीं थे । अथवा दूसरी बात यह भी हो सकती है कि श्री गणधर महाराज अतिशय अर्थात् ज्ञानविशेष के धारक होते थे । इसलिये उन्हों ने अनागत काल में होने वाले चरित्रों का संकलन कर दिया । इस के अतिरिक्त अनागत शिष्यवर्ग की अपेक्षा से अतीत काल का निर्देश भी दोषावह नहीं है । दीक्षा के अनन्तर सुबाहुकुमार को तथारूप स्थविरों के पास शास्त्राध्ययनार्थ छोड़ दिया गया और श्री सुबाहुकमार मुनि ने भी अपनी विनय तथा सुशीलता से शीघ्र ही आगमों के अध्ययन में सफलता प्राप्त कर ली, पर्याप्त ज्ञानाभ्यास कर लिया। ज्ञानाभ्यास के पश्चात् सुबाहुकुमार ने तपस्या का प्रारम्भ किया। उस में वे व्रत, बेला, तेला आदि का अनुष्ठान करने लगे। अधिक क्या कहें-मुवाहमुनि ने अपने जीवन को तपोमथ ही बना डाला । आत्मशुद्धि के लिये तपश्चर्या एक आवश्यक साधन है। तप एक अमि है कि जो आत्मा के कषायमल को भस्मसात् कर देने की शक्ति रखती है। "-तपसा शुद्धिमाप्नोति-"। अन्त में एक मास की संलेखना -२९ दिन का संथारा करके आलोचना तथा प्रतिक्रमण करने के अनन्तर समाधिपूर्वक श्री सुबाहु मु ने इस औदारिक शरीर को त्याग कर देवलोक में पधार गये । दूसरे शब्दों में श्री सुबाहुकुमार पर्याप्तरूप से साधुवृत्ति का पालन कर परलोक के यात्री बने और देवलोक में जा विराजे। -चउत्थ० तवोविहाणेहि -- यहां दिए गए बिन्दु से-उमदसमवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं-इस अवशिष्ट पाठ का ग्रहण करना चाहिये । इस का अर्थ यह है कि व्रत, बेले, तेले, चौले और पंचौले के तप से तथा १५ दिन, एक महीने की तपस्या से एवं और अनेक प्रकार के तपोमय अनुष्ठानों से। चतुर्थभक्त-इस पद के दो अर्थ उपलब्ध होते हैं जैसे कि -१-उपवास, २-जिस दिन उपवास करना हो उस के पहले दिन एक समय खाना और उपवास के दूसरे दिन भी एक समय खाना । इस प्रकार ये दो भक्त-भोजन हुए। दो भक्त उपवास के और दो आगे पीछे के । इस प्रकार दो दिनों के भक्त मिला कर चार भक्त होते हैं । इन चार भक्तों ( भोजनों ) का त्याग चतुर्थभक्त कहलाता है । आजकल इस का प्रयोग दो वक्त आहार छोड़ने में होता है जो कि व्रा के नाम से प्रसिद्ध है । पूर्व संचित कर्मों के नाश करने वाले अनुष्ठानविशेष की 'तप संज्ञा है, उस का विधान तपोविधान कहलाता है । श्रामण्य साधुता का नाम है। पर्याय भाव को कहते हैं । श्रामण्यपर्याय का अर्थ होता है - साधुभाव - साधुवृत्ति । सलेखना-जिस तप के द्वारा शरीर और क्रोध, मान, माया ओर लोभ इन कषायों को कृशनिर्बल किया जाता है उस तर के अनुष्ठान को २संलेखना कहते हैं। ___ -अप्पाणं असित्ता - आत्मानं जोपयित्वा-यहां झूसित्ता का प्रयोग -पाराधित कर केइस अर्थ में किया गया है । संलेखना से आराधित करने का अर्थ है -संलेखना द्वारा अपने को मोक्षमार्ग के अनुकूल बनाना । महीने की संलेखना के स्पष्टीकरणार्थ ही मूल में-सहि भत्ता-पष्टिं भक्तानि-इस का उल्लेख किया गया है । अर्थात् महीने की संलेखना का अर्थ है-साठ भक्तों - भोजनों का परित्याग । प्रश्न-सूत्रकार ने-मासियाए संलेहणाए-का उल्लेख करने के बाद -सटिं भत्ताई-इस (१) तवेणं भंते ! जोवे किं जणयः । तवेणं जोवे वोदाण जणयइ ।। २७ । (उत्तरा० अ० २९) (२) संलिख्यते कशी क्रियते शरीरकषायादिकमनयेति संलेखनेति भावः । (वृत्तिकार:) For Private And Personal Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६७४ श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [ प्रथम अध्याय का उल्लेख क्यों किया गया। जब कि उस से ही काम चल सकता था, कारण कि मासिक संलेखना और साठ भक्तों का त्याग – दोनों एक ही अर्थ के बोधक हैं । उत्तर-शास्त्र का कोई भी वचन व्यर्थ नहीं होता, केवल समझने की त्रुटि होती है । प्रत्येक ऋतु में मासगत दिनों की संख्या विभिन्न होती है । तब जिस ऋतु में जिस मास के २९ दिन होते हैं, उस मास के ग्रहण करने की सूचना देने के लिये सूत्रकार ने-मासियार संले दणाए-ये पद देकर भी-सढि भक्ताईये पद दे दिये हैं जोकि उचित ही हैं। क्योंकि २९ दिनों के व्रतों में ही ६० भक्त-भोजन छोड़े जा सकते हैं । -आलोइयपडिक्कन्ते-आलोचितप्रतिक्रान्तः- श्रात्मा में लगे हुए दोषों को गुरुजनों के की आज्ञानुसार उन दोषों से पृथक होने के लिये प्रायश्चित्त करने वाले को श्रालाचितप्रतिक्रान्त कहते हैं । इस पद का सविस्तर विवेचन पृष्ठ ९८ पर किया जा स पद का सविस्तर विवेचन पृष्ठ ९८ पर किया जा चका है । समाधि-इस पद का निक्षेप - विवेचन नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव से चार प्रकार का होता है। १-किसी का नाम समाधि रख दिया जाय तो वह नामसमाधि है। २-समाधि की प्राकृति-आकार को स्थापना समाधि कहते हैं। ३-मनोज्ञ शब्दादि पञ्चविध विषयो दि इन्द्रियों की जो तष्टि होती है. उस का नाम व्यसमाधि है। अथवा-दध और शक्कर के मिलान से रस की जो पुष्टि होती है उसे.अथवा-किसी द्रव्य के सेवन से जो शान्ति उपलब्ध हो कहते हैं । अथवा- यदि तुला के ऊपर किसी वस्तु को चढ़ाने से दोनों भाग सम हो जावें उसे द्रव्यसमाधि कहते हैं । जिस जीव को जिस क्षेत्र में रहने से शान्ति उपलब्ध होती है, वह क्षेत्र की प्रधानता के कारण क्षेत्रसमाधि कहलाती है। जिस जीव को जिस काल में शान्ति मिलती है, वह शान्ति उस के लिये कालसमाधि है । जैसे - शरद् ऋतु में गौ को, रात्रि में उल्लू को और दिन में काक को शान्ति प्राप्त होती है, वह शान्तिकाल की प्रधानता के कारण काल समाधि कही जाती है । ४-भावसमाधि-भावसमाधि दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन भेदों से चार प्रकार की कही गई है । १-जिस गुण-शक्ति के विकास से तत्त्व-सत्य की प्रतीति हो, अथवा जिस से छोड़ने और ग्रहण करने योग्य तत्त्व के यथार्थ विवेक की अभिरुचि हो, वह दर्शन भावसमाधि है । २-नय और प्रमाण से होने वाला जीवादि पदार्थों का यथार्थ बोध ज्ञानभावसमाधि है । ३ - सम्यग् ज्ञान पूर्वक काषायिक भाव राग, द्वेष और योग की निवृत्ति होकर जो स्वरूपरमण होता है वही चारित्र भावसमाधि है। ४- ग्लानिरहित किया गया तथा पूर्वबद्ध कर्मों का नाश करने वाला तप नामक अनुष्ठानविशेष तपभावसमाधि है। सारांश यह है कि जिस के द्वारा आत्मा सम्यक्तया मोक्षमागे में अवस्थित किया जाय वह अनुष्ठान समाधि' कहलाता है। प्रकृत में इसी समाधि का ग्रहण अभिमत है । समाधि को प्राप्त करने वाला व्यक्ति समाधिप्राप्त कहलाता है । कालमास-का अर्थ है -- समय आने पर । इस का प्रयोग सूत्रकार ने अकाल मृत्यु के परिहार के लिये किया है । इस का तात्पर्य यह है कि श्री सुबाहु कुमार की अकाल मृत्यु नहीं हुई है। कल्प-इस शब्द के अनेको अर्थ है -१ -समर्थ, २- वर्णन, ३-छेदन, ४-करण, ५ (१) सम्यगाधीयते-मोतः तन्मार्ग वा प्रत्यात्मा योग्यः क्रियते व्यवस्थाप्यते येन धर्मेणासौ धर्मः समाधिः । (श्री सूत्रकृताङ्गवृत्तौ) (२) कल्प राब्दोऽनेकार्थाभिधायी--कचित्सामर्थ्य, यथा-वर्षाष्टप्रमाण: चरणपरिपालने कल्पः समथः इत्यर्थः । कचिद् वर्णनायाम् -यथा-अध्ययन मिदभनेन कल्पितं वर्णितमित्यर्थः । किचछेदने --यथा -के सान् कर्तर्या कल्पयति-छिनत्ति इत्यर्थ : । कचित् करणे -क्रियायाम्-यथा For Private And Personal Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [६७५ सादृश्य, ६-अधिवास -निवास, ७ -योग्य, ८-अाचार, ९-कल्प-शास्त्र, १० - कल्प - राजनीति इत्यादि व्यवहार जिन देवलोकों में हैं वे देवलोक... । इन अर्थों में से प्रकृत में अन्तिम अथ का ग्रहण अभिमत है। देवलोक २६ माने जाते हैं । १२ कल्प और १४ कल्पातीत । इन में १- सौधर्म, २- ईशान ३सनत्कुमार, ४ --महेन्द्र, ५ - ब्रह्म, ६ -लान्तक, ७ --महाशुक्र, ८-सहस्रार, ९-बानत, १.-प्राणत, ११-श्रारण, १२ - अच्युत, ये बारह कल्पदेव कहलाते हैं । तथा कल्पातीतों में पुरुषाकृतिरूप लोक के ग्रीवास्थान में अवस्थित होने के कारण १-भद्र,२-सुभद्र, ३-सुजात, ४-सुमनस, 1-प्रियदशन, ६ -सुदशन, ७अमोघ, ८-- सुप्रतिवद्ध, ९-यशोधर ये ९ अवेयक कहलाते हैं । सब से उत्तर अर्थात् प्रधान होने से पांच अनुत्तर विमान कहलाते हैं । जैसे कि-१-विजय, २-वैजयंत, ३-जयन्त, ४ - अपराजित, ५-सर्वार्थसिद्ध । सौधर्म से अच्युत देवलोक तक के देव, कल्पोपपन्न ओर इन के ऊपर के सभी देव इन्द्रतुल्य होने से अहमिन्द्र कहलाते हैं । मनुष्य लोक में किसी निमित्त से जाना हुआ तो कल पोपपन्न देव ही जाते आते हैं । कल्पातीत देव अपने स्थान को छोड़ कर नहीं जाते । हमारे सुबाहुकुमार अपनी आयु को पूर्ण कर कल्पोपपन्न देवों के प्रथम विभाग में उत्पन्न हुए, जो कि सौधर्म नाम से प्रसिद्ध है । सारांश यह है कि सुबाहुकुमार मुनि ने जिस लक्ष्य को ले कर राज्यसिंहासन को ठुकराया था तथा संसारी जीवन से मुक्ति प्राप्त की थी, आज वह अपने लक्ष्य में सफल हो गए ? और साधुवृत्ति का यथाविधि पालन कर आयुपूर्ण होने पर पहले देवलोक में उत्पन्न हो गए और वहां की दवी संपत्ति का यथाकांच उपभोग करने लगे। श्रमण भगवान् महावीर बोले - गौतम ! सुबाहु मुनि का जीव देवलोक के सुखों का उपभोग करके बहा की आयु. वहां का भव और वहां की स्थिति को पूरी कर के वहां से च्युत हो मनुष्यभव को प्राप्त करेगा अ वहां अनेक वर्षों तक श्रामण्यश्याय का पालन करके समाधिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त कर तीसरे देवलोक में उत्पन्न होगा । तदनन्तर वहां की अायु को समाप्त कर फिर मनुष्यभव को प्राप्त करेगा। वहां भी साधुधर्म को स्वीकार कर के उस का यथाविधि पालन करेगा और समय आने पर मृत्यु को प्राप्त हो कर पांचवें कल्प-देवलोक में उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर मनुष्य और वहां से सातवें देवलोक में इसो भाँति वहां से फिर मनुष्यभव में, वहां से मृत्यु को प्राप्त हो कर नवमें देवलोक में उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर फिर मनुष्य और वहां से ग्यारहवें देवलोक में जायगा। वहां से फिर मनुष्य बनेगा तथा वहां से सर्वार्थ सिद्ध में उत्पन्न होगा। वहां के सुखों का उपभोग कर वह महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा। वहां पर तथारूप स्थविरों के समीप मुनिधर्म की दीक्षा को ग्रहण कर संयम और तप से आत्मा को भावित करता हुअा सम्यगदर्शन और सम्यगजान पूर्वक सम्यकतया भावचारित्र की आराधना से श्रात्मा के साथ लगे हुए कर्ममल को जला कर, कर्मबन्धनों को तोड़ कर अष्टविध कर्मों का क्षय करके परमकल्याणस्वरूप सिद्धपद को प्राप्त करेगा। दूसरे शब्दों में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, और परमात्मपद को प्राप्त कर के आवागमन के चक्र से सदा के लिये मुक्त हो जायेगा, जन्म मरण से रहित हो जायोगा। -आउखएणं, भवावरणं, ठितिक्वएणं-इन पदों की व्याख्या वृत्ति कार श्री अभयदेव सूरि के शब्दों में इस प्रकार हैकल्पिता मयाऽस्याजीविका कृता इत्यर्थः । कचदौपम्ये-यथा-सौम्येन तेजसा च यथाक्रममि-- न्दुसूर्यकल्पा: साधवः। कविधिवासे-यथा-सौधर्मकल्पवासी शुक्रः सुरेश्वरः । उक्तं च - सामध्ये वर्णनायां छेदने करणे तथा। . औपम्ये चाधिवासे च कल्पशब्दं विदुबुधाः ।। (वृहत्कल्पसूत्रे भाष्यकारः) For Private And Personal Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६७६] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय अतस्कन्ध [प्रथम अध्याय -आउखएणं ति-श्रायुष्कर्मद्रव्यनिर्जरणेण। भवक्खएणं त्ति-देवगतिनिबंधनदेवगत्यादिकर्मद्रव्यनिर्जरणेण । ठितिक वएणं त्ति -आयुष्कर्मादिकर्मस्थितिविगमेन । अर्थात् अायु शब्द से आयुष्कर्म के दलिकों (परमाणुविशेषों) का ग्रहण होता है। दलिकों या कर्मवर्गणाओं का क्षय ओयुक्षय है । भव शब्द से देवगति को प्राप्त करने में कारणभूत नामकर्म की पुण्यात्मक देवगति नामक प्रकृति के कर्मदलिकों का ग्रहण है, अर्थात् देवगति को प्राप्त करने में पुण्यरूप नामकर्म की देवगति प्रकृति कारण होती है । उस प्रकृति के कर्मदलिकों का नाश भवनाश कहलाता है । स्थिति शब्द से आयुष्कर्म के दलिकों की अवस्थानमर्यादा का ग्रहण है । अर्थात् अायुष्कम के दलिक जितने समय तक श्रात्मप्रदेशों से संबन्धित रहते हैं उस काल का स्थिति शब्द से ग्रहण किया जाता है । उस काल (स्थिति) का नाश स्थितिनाश कहा जाता है । यही इन तीनों में भेद है। -अणंतरं-कोई जीव पुरातन दुष्ट कर्मों के प्रभाव से नरक में जा उत्पन्न हुआ, वहां की दुःखयातनाओं को भोग कर तियञ्च योनि में उत्पन्न हुआ, वहां की स्थिति को पूरी कर फिर मनुष्यगति में पाया, उस जीव का मनुष्यभव को धारण करना सान्तर-अन्तरसहित है। एक ऐसा जीव है जो नरक से निकल सीधा मानव शरीर को धारण कर लेता है, उसका मानव बनना अनन्तर-अन्तररहित कहलाता है। सुबाहुकुमार की देवलोक से मनुष्यभवगत अनन्तरता को सूचित करने के लिये सूत्रकार ने 'अन्तरं" यह पद दिया है, जो कि उपयुक्त ही है। भगवतीसूत्र में लिखा है कि ज्ञानाराधना, दशनाराधना' (दर्शन - सम्यक्त्व की आराधना) और शंका, कांक्षा आदि दोषों से रहित होकर प्राचार का पालन करने वाला व्यक्ति कम से कम तीन भव करता है, अधिक से अधिक १५ भव-जन्म धारण करता है । १५ भवों के अनन्तर वह अवश्य निष्कम-कर्मरहित हो जाएगा। सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त कर डालेगा। ऐसा शास्त्रीय सिद्धान्त है । इस सिद्धान्तसम्मत वचन से यह सिद्ध हो जाता है कि सुबाहुकमार ने सुमुख गायापति के भव में एक सुदत्त नामक अनगार को दान देकर जघन्य ज्ञानाराधना तथा दर्शनाराधना का सम्पादन किया, उसी के फलस्वरूप वह पन्द्रहवें भव में महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न हो जाएगा। यह उस का अन्तिम भव है । इस के अनन्तर यह जन्म धारण नहीं करेगा। देवलोकों का संख्याबद्ध वर्णन पहले किया जा चुका है। सर्वार्थसिद्ध से च्युत होकर सुबाहुकुमार का महाविदेह क्षेत्र में जन्म ले कर सिद्धगति को प्राप्त होना, यह महाविदेह क्षेत्र की विशिष्टता सूचित करता है । महाविदेह कर्मभूमियों का क्षेत्र हैं । इस में चौथे आरे जैसा अवस्थित काल है । महाविदेह क्षेत्र में जन्म ले कर सुबाहुकुमार ने क्या किया, जिस से कि वह सर्व कर्मों से रहित होकर मोक्ष को प्राप्त हुआ ? इस सम्बन्ध में कुछ भी न कहते हुए सूत्रकार ने इतना ही लिख दिया है कि-जहा दिढपतिराणे-अथात् इस के आगे का उस का सारा जीवनवृत्तान्त दृढ़प्रतिज्ञ की तरह जान लेना चाहिये । तात्पर्य यह है कि महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेने के बाद सुबाहुकुमार ने वही कुछ किया जो कुछ श्री दृढ़ प्रतिज्ञ ने किया था । इस से दृढ़प्रतिज्ञ के वृत्तान्त की जिज्ञासा स्वतः ही उत्पन्न हो जाती है। दृढ़प्रतिज्ञ का सविस्तर वर्णन तो औपपातिक सूत्र में किया गया है। उस का प्रकरणानुसारी संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है (१) आराधना-निरतिचारतपानुपालना । (वृत्तिकार:) (२) जहन्निए णं भंते ! नाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहि सिझति जाव अंतं करेति ? गायमा ! अत्थेगतिए तच्चणं भवग्गहेणं सिझइ जाव अंतं करेइ । सत्तभवग्गहणाई पुण नाइक्कमइ । एवं दसणाराहणं पि एवं चरित्ताराहणं पि । (भग० श०६, उ० १, सू० ३११)। For Private And Personal Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । ६७७ गोतम -भदन्त ! अम्बड परिव्राजक का जीव देवलोक से च्युत हो कर कहां जायेगा ? कहां पर जन्म लेगा? भगवान् गौतम ! महाविदेह नाम का एक कर्मभूमियों का क्षेत्र है। उस में अनेकों धनाढ्य एवं प्रतिष्ठित कुल हैं । अम्बड़ परिव्राजक का जीव देवलोक से च्युत हो कर उन्हीं कुलों में से एक विख्यात कुल में जन्म लेगा । जिस समय वह माता के गर्भ में आयेगा, उस समय उस के माता पिता की श्रद्धा धर्म में विशेष दृढ होने लगेगी। गर्भ काल के पूर्ण होने पर जब वह जन्म लेगा तो उस का शीररिक सौन्दर्य बड़ा अद्भुत और विलक्षण होगा। उस के गर्भ में आने से माता पिता की धार्मिक श्रद्धा में विशेष दृढ़ता उत्पन्न होने के कारण माता पिता अपने नवजात बालक का दृढ़प्रतिज्ञ-यह गुणनिष्पन्न नाम रखेगे। माता पिता के समुचित पालन पोषण से वृद्धि को प्राप्त करता हुआ दृढ़प्रतेिज बालक जब आठ वर्ष का हो जाएगा तो उसे एक सुयोग्य कलाचाय को सौंपा जाएगा। विनयशील दृड प्रतिज्ञ कुशाग्रबुद्ध होने के कारण थोड़े ही समय में विद्यासम्पन्न और कलासम्पन्न होने के साथ २ युवावस्था को भी प्राप्त हो जाएगा। तदनन्तर प्रतिभाशाली युवक दृढ़प्रतिज्ञ को सांसारिक विषयभोगों के उपभोग में समर्थ हुझा जान कर उसे सांसारिक बन्धन में फंसाने का यत्न करेंगे, परन्तु वह अनेक प्रकार के प्रयत्न करने पर भी इस बन्धन में आने के लिये सहमत नहीं होगा। अपने ब्रह्मचर्य को अखण्ड रखने का वह पूरा २ ध्यान रखेगा । तदनन्तर किसी तथारूप श्रमण को संगति से उसे सम्पकस्य का लान होगा । उस की प्राप्ति से उस में वैराग्य की भावना जागृत होगो और अन्त में वह मुनिधर्म को अंगीकार कर लेगा। गृहोत संयम व्रत का यथाविधि पालन करता हुअा मुनि दृढपतिज्ञ ज्ञान, दर्शन और चारित्र की निरतिचार आराधना से कर्ममल का नाश करके आत्मविकास की पराकाष्ठा-केवल ज्ञान को प्राप्त कर लेगा। भगवान् कहते हैं कि हे गौतम ! तदनन्तर अनेको वर्ष केवली अवस्था में रह कर अनगार दृढ़प्रतिज्ञ मासिक संलेखना ( आमरण अनशनबन) से शरीर को त्याग कर अपने ध्येय को प्राप्त करेगा । अर्थात् जिस प्रयोजन के लिए उस ने सर्व प्रकार के सांसारिक पदार्था से मोह को तोड़ कर साधु जीवन को अपनाया था, उस का वह प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। दूसरे शब्दों में सर्वप्रकार के कम बन्धनों का प्रात्यन्तिक विच्छेद कर वह कम रहित होकर जन्म मरण के दु:खों से सर्वथा छुट जायगा, आत्मा से परमात्मा बन जाएगा। यह है दृढ़प्रतिज्ञ का संक्षिप्त जीवनवृत्तान्त । इसा वृत्तान्त की समानता बतलाने के लिये सत्रकार ने-जहा दिढ़पतिराणेयह उल्लेख किया है । सारांश यह है कि सुबाहुकुमार भी दृढ़प्रतिज़ की भाँति मुक्ति को प्राप्त कर लेगे । --अतिए मराडे जाव पवारसति- यहां पठित-जाव-यावत पद से-भवित्ता अरणगारिश्र-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये। इन का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है । तथामहाविदेहे जाव अडढाई- यहां के जाब -यावत् पद से - बासे जाई कुलाइ भवंति- इन पदा का ग्रहण करना चाहिये । अर्थ स्पष्ट ही है। -सिज्झिहिति ५-यहां पर दिये गये ५ के अंक से-बुझिहिति, मुञ्चिहिति, परिनिव्वाहिति, लयदुवाणमंतं कारहिति -- इन पदों को संगृहीत करना चाहिये । इन का अर्थ निम्नोत है सिद्ध होगा--सकल कर्मों के क्षय से निष्ठितार्थ - कृतकृत्य होगा । बुद्ध होगा, केवलज्ञान से सम्पूर्ण वस्तुतत्त्व को जानेगा। मुक्त होगा -भवोपग्राही ( जन्मग्रहण में निमित्त भूत ) कांगों से छूट जाएगा । परिनिवृत्त होगा-कर्मजन्य जो ताप (दुःख) है उस के विरह (अभाव) हो जाने से शान्त होगा। जन्म मरण आदि के दुःखों का अन्त करेगा। सारांश यह है कि सुबाहुकुमार का जीव अपने पुनीत आचरणों से जन्म For Private And Personal Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६९८1 ओविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय मरण आदि के दुःखों का अन्त करेगा। दूसरे शब्दों में कहे तो सुबाहुकुमार का जीव अपने पुनीत आचरणों से जन्म तथा मरण रूप भवपरम्परा का उच्छेद कर डालेगा और वह सदा के लिये इस से मुक्त हो जाएगा तथा आत्मा की स्वाभाविक अवस्था को प्राप्त कर लेगा जो कि अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त वीय - शक्ति रूप है-यह कह सकते हैं । सुपात्र दान की महानता और पावनता सुबाहुकुमार के सम्पूर्ण जीवन मे स्पष्ट सिद्ध हो जाती है। समाव गाथापति के भव में उस ने सुपात्र में भिक्षा डाली थी, उसी का यह महान् फल है कि आज वह परम्परा सोमबका अाराध्य बन गया है। इस जीवन से भावना की मौलिकता भी विस्पष्ट हो जाती है। किसी भी कार्य में सफलता तभी प्राप्त होती है यदि उस में विशुद्ध भावना को उचित स्थान प्राप्त हो । जब तक भावगत दूषण दर नहीं होता तब तक अात्मा आनन्दरूप भूषण को हस्तगत नहीं कर सकता । अतः श्री सुबाहुकुमार के जीवन को आचरित करके मोक्षाभिलाषियों को मोक्ष में उपलब्ध होने वाले सुख को प्राप्त करने का यत्न करना चाहिये । यही इस कथासंदर्भ से ग्रहणीय सार है। इस प्रकार सुबाहुकुमार के जीवनवृत्तान्त को सुनाने के बाद आर्य सुधर्मा स्वामी बोले कि हे जम्बू ! इस प्रकार मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। जम्बू ! प्रभु वीर के पावन चरणों में रह कर जैसा मैंने सुना था वैसा ही तुम्हें सुना दिया, इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं है। इस के मूलस्रोत तो परम आराध्य मंगलमूर्ति भगवान् महावीर स्वामी ही हैं। आर्य सुधर्मा स्वामी के इस कथन में प्रस्तुत अध्ययन की प्रामाणिकता सिद्ध की गई है । सर्वज्ञभाषित होने से उस का प्रामाण्य सुस्पष्ट है। -समणेणं जाव संपत्तेणं - यहां पर उल्लेख किये गये जाव-यावत् पद से अभिमत पदों का वर्णन ५४३ से ले कर ५४८ तक के पृष्ठों पर कर दिया गया है । सुखप्राप्ति के लिये कहीं इधर उधर भटकने की आवश्यकता नहीं है । उस की उपलब्धि अपने ही ओर देखने से, अपने में हो लीन होने से होती है । बाह्य पदार्थ सुख के कारण नहीं बन सकते, उन में जो सुख मिलता है, वह सुख नहीं, सुखाभास है, सुख की भ्रान्त कल्पना है । मधुलिप्त असिधारा ( शहद से लिपटी हुई तलवार की धारा) को चाटने से क्षणिक सुख का आभास जरूर होता है किन्तु उस का परिणाम सखावह नहीं होता है । मधुर रस के आस्वादन के साथ २ जिह्वा का भेदन भी होता चला जाता है । यही बात संसार की समस्त सुखजनक सामग्री की है । जब सख के साधन अचिरस्थायी और विनश्वर हैं तो उन से प्राप्त होने वाला सुख स्थायी कैसे हो सकता है ? इस के अतिरिक्त ज्ञानी पुरुषों का यह कथन सोलह आने सत्य है कि संसारवर्ती राजघाट, महल अटारी, गाड़ी घोड़ा, वस्त्राभूषण, और भोजनादि जितने भी पदार्थ हैं, उन में अनुराग या आसक्ति ही स्थायी दुःख का कारण है । इन से विरक्त हो कर अात्मानुराग ही वास्तविक सुख का यथार्थ साधन है । मानव प्राणो इन बाह्य पदार्थों से जितना भी विमुख होगा, जितना भी मोह कम करेगा, उतना ही वास्तविक सुख की उपलब्धि में अग्रेसर होगा और आध्यात्मिक शान्ति को प्राप्त करता चला जारगा। सांसारिक पदार्थों के संसर्ग में रागद्वेषजन्य व्याकुलता का अस्तित्व अनिवार्य है और जहां व्याकुलता है, वहां कभी सुख का क्षणिक अाभास भले हो परन्तु सुख नहीं है, निराकुलता नहीं है । इस लिये स्थायी सुख या निराकुलता प्राप्त करने के लिये सांसारिक पदार्थों के संसर्ग अर्थात् इन पर से अनुराग का त्याग करना परम आवश्यक है। बस यही प्रस्तुत अध्ययन गत सुबाहुकुमार के कथासन्दर्भ का रहस्यमूलक ग्रहणीय सार है। For Private And Personal Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित। श्री सुबाहुकुमार का जीवनवृत्तान्त साधकों या मुमुक्षु जनों को सर्वथा उपादेय है। शाश्वत सुख के अभिलाषियों के लिये सुप्रसिद्ध राजमार्ग हैं । जो साधक विकास की ओर प्रस्थान करने वाले हैं उन्हें इस के दिव्यालोक में सुख का वास्तविक स्वरूप अवश्य उपलब्ध होगा। यह आत्मा सुख और आनन्द का अथाह सागर है । ज्ञान की अनन्त राशि है। शक्तियों का अखूट भंडार है । जिस को यह अपना वास्तविक रूप उपलब्ध हो जाता है, उस के लिये फिर कुछ भी अप्राप्य या अनुपलभ्य नहीं रहता। परन्तु इस अवस्था को प्राप्त करने के लिये जिन साधनों को अपनाने की आवश्यकता होती है, वे सब प्रस्तुत अध्ययन के प्रतिपाद्य अर्थ में निर्दिष्ट हैं । जो साधक उन को आदर्श रख कर अपने जीवन पथ को निश्चित करेगा. वह महामहिम श्री सबाहकमार की र की भांति एक न एक दिन अपने गन्तव्य स्थान को प्राप्त कर लेगा। यह निर्विवाद और निस्सन्देह है। ॥ प्रथम अध्ययन समाप्त॥ For Private And Personal Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अथ द्वितीय अध्याय अनेकविध साधनसामग्री के उपयोग से सुखप्राप्ति की वाञ्छा करने वाले मानव प्राणियों से भरा हुआ यह संसार सागर के समान है । जिस का किनारा मुक्तनिवास है । संसारसागर को पार कर उस मुक्तनिवास तक पहुंचने के लिये जिस दृढ़ तरणी-नौका की आवश्यकता रहती है, वह नौका सुशत्रदान के नाम से संसार में विख्यात है। अर्थात् संसारसागर को पार करने के लिये सुदृढ़ नौका के समान सपात्र टान है और उस पर सवार होने वाला संस्कारी जीव-सुघड़ मानव है । तात्पर्य यह है कि भवसागर से पार होने के लिये मुमुक्षु जीव को सुपात्रदानरूप नौका का अाश्रयण करना परम आवश्यक है। बिना इस के श्राश्रयस किये मुक्तनिवास तक पहुंचना दुर्घट है। मानव जीवन का आध्यात्मिक विकास सुपात्रदान पर अधिक निर्भर रहा करता है, पर उस में सदभाव का प्रवाह पर्याप्त प्रवाहित होना चाहिये । बिना इस के इष्टसिद्धि असंभव है। हर एक कार्य या प्रवृत्ति में, फिर वह धार्मिक हो या सांसारिक, भावना का ही मूल्य है। कार्य की सफलता या निष्फलता का आधार एक मात्र उसी पर है । सद्भावनापूर्वक किया गया सुपात्रदान ही महान् फलप्रद होता है तथा जीवनविकास के क्रम में अधिकाधिक साहाय्य प्रदान करता है। प्रस्तुत सुखविपाकगत द्वितीय अध्याय में राजकुमार भद्रनन्दी के जीवनवृत्तान्त द्वारा सुरात्रदान की महिमा बता कर सत्रकार ने सुपात्रदान के द्वारा आत्मकल्याण करने की पाठकों को पवित्र प्रेरणा की है । भद्रनन्दी का जीवनवृत्तान्त सूत्रकार के शब्दों में निम्नोक्त है मूल-वितियस्स उक्खेवो । एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं उसभपुरे णगरे । थूभकरंडगं उजाणं । धन्नो जक्खो धिणावहो राया। सरस्सती देवी। सुमिणदंसणं,। कहणा । जम्मं । बालतणं । कलामो य । जोधणं । पाणिग्रहणं । दामो। पासाद० भोगा य जहा सुबाहुस्स, नवरं भदनंदीकुमारे । सिरीदेवीपामोक्खाणं पंचसयाणं रायवरकन्नगाणं पाणिग्गहणं । सामिस्स समोसरणं । सावगधम्मं० । पुरभवपुच्छा । महाविदेहे वासे पाटीगिणी णगरी । विजयकुमारे । जुगवाहू तित्थंगरे पडिलाभिते । मणुस्साउए बने । इहं उप्पन्ने । सेसं जहा सुबाहुस्स जाव महाविदेहे सिज्झिहिति, बुज्झिहिति, मुचिहिति. . (१) छाया-द्वितीयस्योत्क्षयः । एवं खलु जम्बू: ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये वृषभपुर नगरम् । स्तपकर डकमुद्यानम् । धन्यो यक्षः । धनावहो राजा । सरस्वती देवी । स्वप्नदर्शनम् । कथनम् । जन्म । बालत्वम् । कलाश्च । यौवनम् । पाणिग्रहणम् । दायः । प्रासाद० भोगाश्च, यथा सुवाहो: । नवरम्, भद्रनन्दीकुमारः। श्रीदेवी-प्रमुखाणां पञ्चशतानां राजवरकन्यकानां पाणिग्रहणम् । स्वामिनः समवसरणम् । श्रावकधर्मः । पर्वभवपृच्छा । महाविदेहे, पुण्डरीकिणी नगरी । विजयकुमारः । युगवाहुस्तीर्थ करः प्रतिलाभितः । मनष्यायर्बदम् । इहोत्पन्न: । शेषं यथा सुबाहो: यावत् महाविदेहे सेत्स्यति, भोत्स्यते, परिनिर्वास्यति. सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति । निक्षेपः। ॥ द्वितीयमध्ययनं समाप्तम् ।। For Private And Personal Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीय अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । परिणिव्वाहिति सव्वदुक्खाणमंतं करेहिति । निक्खेवो । ॥ वितियं यणं समत्तं ॥ 1 पदार्थ - वितिय द्वितीय अध्ययन का । उक्खेवो - उत्क्षप - प्रस्तावना पूर्ववत् जानन चाहिये | एवं - इस प्रकार । खजु - निश्चय ही जंबू ! - हे जम्बू ! | तेणं - उस । काले- - काल में । तेणं समएणं - उस समय में। उसमपुरे ऋषभपुर नामक | गरे-न - नगर था । धूमकरं डयं स्तूपकरंडक । उज्जाणं - उद्यान था । धन्ते धन्य नामक । जक्खो-यक्ष था । धणावहो—धनावह। रायाराजा था। सरस्वती देवी सरस्वती देवी थी । सुमिसणं स्वप्न का देखना । कहणं - कथन-पति कहना | जम्मं बालक का जन्म । बालत्तणं - बाल्यावस्था । कला श्री य - कलाओं का सीखना । जो— यौवन को प्राप्त करना । पाणिग्गद्दणं- पाणिग्रहण विवाह का होना। दाश्रो प्रीतिदान-दहेज की प्राप्ति । पालाद० महलों में भोगा य - भोगों का सेवन करने लगा। जहां-जैसे । सुबाहुस्ससुबाहुकुमार का वर्णन है। नवरं - विशेष यह है कि । भद्दनन्दी भद्रनन्दी । कुमारे-कुमार था । सिरीदेवोपामोक खाणं- श्रीदेवीप्रमुख । पंचसयाग पांच सौ रायवरकन्नगाणं - श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ । पाणिग्गहणं -- विवाह हुआ । सामिस्स श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का। समोसरणं - समयसरण—पधारना हुआ । सावगधम्मं० - श्रावकधर्म का ग्रहण करना । पुव्वभवपुच्छा - पूर्वभव की पृच्छा । महाविदेहे - महाविदेह क्षेत्र में पुण्डरीगिणी - पुण्डरीकिणी नाम की। णगरी नगरी थी। विजए विजय नामक । कुमारे कुमार था। जुगबाहू - युगबाहु | तित्थंगरे - तीर्थकर । पडिलाभिते प्रतिलामित किये । मगुरुलाउए - मनुष्य आयु का बबन्ध किया । इहं यहां । उववन्ने उत्पन्न हुआ। सेसं - शेष । जहा - -जैसे । सुबाहुस्स - सुबाहुकुमार का वर्णन है । जाव - यावत् । महाविदेहे . महाविदेह क्षेत्र में । सिज्झिहिति- - सिद्ध होगा । बुज्झिहिति- - बुद्ध होगा। मुच्चिहिति - कर्मबन्धनों से मुक्त होगा। परिनिवाहिति - निर्वाण पद को प्राप्त होगा । सव्वदुकखाणमन्तं - सर्व दुःखों का अन्त । करेहिति करेगा । नित्रखेवो - निक्षर की कलना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिये । वितियं - द्वितीय । अज्म अध्ययन समत्त - समाप्त हुआ · r L Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal [ ६८१ मूलार्थ - द्वितीय अध्ययन के उत्क्षेप - प्रत्तावना की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिये । जम्बू ! उस काल तथा उस समय ऋषभपुर नामक नगर था, वहां पर स्तूपकरंडक नामक उद्यान था, वह धन्य नाम के यक्ष का यज्ञायतन था। वहां धनावह नाम का राजा राज्य किया करता था। उसकी सरस्वती देवी नाम की रानी थी । महारानी का स्वप्न देखना और पति से कहना, समय आने पर बालक का जन्म होना, और बालक का बाल्यावस्था में कलाएं सीख कर यौवन को प्राप्त करना, तदनन्तर विवाह का होना, माता पिता द्वारा दहेज का देना, तथा राजभवन में यथारुचि भोगों का उपभोग करना आदि सब कुछ सुबाहुकुमार की भाँति जानना चाहिये । इस में इतना अन्तर अवश्य है कि बालक का नाम भद्रनन्दी था । उसका श्रीदेवीप्रमुख ५०० श्रेष्ठ राजकन्याओं साथ विवाह हुआ | महावीर स्वामी का पधारना, भद्रनन्दी का श्रावकधर्म ग्रहण करना, गौतम स्वामी का पूर्वभवसम्बन्धी प्रश्न करना, तथा भगवान् का कथन करना— महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत पुण्डरीकिणी नाम की नगरी में विजय नामक कुमार था, उस का युगबाहु तीर्थंकर को प्रतिलाभित करना, उस से मनुष्य आयु का बन्ध करना और यहां पर Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६८२1 श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [द्वितीय अध्याय भद्रनन्दी के रूप में उत्पन्न होना । शेष वर्णन सुबाहुकुमार के सदृश ही जान लेना चाहिए । यावत् महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर चारित्र पाल कर सिद्ध होगा, मुक्त होगा, निर्वाण पद को प्राप्त होगा और सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त करेगा। निक्षेप की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिये। ॥ द्वितीय अध्ययन सम्पूर्ण ।। टीका-राजगृह नगरी के गुणशिलक नामक उद्यान में आर्य सधर्मा स्वामी अपने शिष्यपरिवार के साथ पधारे हुए हैं। उन के प्रधान शिष्य का नाम जम्बू अनगार था । जम्बू मुनि जी घोर तपस्वी, परममेधावी, परम संयमी, विनीत, साधुओं में विशिष्ट प्रतिभा के धनी और परमविवेकी मुनिराज थे । आप प्राय: आर्य सधर्मा स्वामी के ही चरणों में अधिक निवास किया करते थे श्राप का अधिक समय शास्त्रस्वाध्याय में ही व्यतीत हुआ करता था । अभी आप सुखविपाक के सुबाहु नामक प्रथम अध्ययन का मनन करके उठे हैं। अब आप का मन सुखविपाक के द्वितीय अध्ययन के अर्थ को सुनने के लिये उत्कंठित हो रहा है। . आगे बढ़ने वाले को आगे ही बढ़ना पसन्द होता है । उसे उदासीन होना नहीं आता । उस की प्रकृति ही उसे प्रगति के लिये बाध्य करती रहती है ! श्री जम्बू मुनि भी इसी तरह प्रयत्नशील हुए और आर्य सुधर्मा स्वामी के चरणों में उपस्थित हो कर बोले-भदन्त ! आप श्री के अनुग्रह से मैंने सुखविपाक के प्रथम अध्ययन का अर्थ सुन लिया है और उस का यथाशक्ति चिन्तन तथा मनन भी कर लिया है । अब आप उस के दूसरे अध्ययन के अर्थ का श्रवण कराने की भी कृपा करें? मुझे उस का अर्थ सुनने की भी बहुत उत्सकता हो रही है । इसी भाव को सत्रकार ने -वितियस्त उक्खेवो-इस संक्षिप्त वाक्य में गर्भित कर दिया है । . . -उक्खेव- उत्क्षेप प्रस्तावना का नाम है। प्रस्तुत सुखविपाकगत द्वितीय अध्ययन का प्रस्तावनारूप सूत्रांश निम्नोक्त है -जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयम? पएणते, वितियस्स णं भंते ! अज्झयणस्स सुहविवागाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के पट्टे परणतं । अर्थात् -- यदि भदन्त ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के प्रथम अध्ययन का यह (पूर्वोत) अर्थ वर्णन किया है तो भदन्त ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक के दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? जम्बू स्वामी की उक्त प्रार्थना पर दूसरे अध्ययन के अर्थ का प्रतिपादन करते हुए आर्य सुधर्मा स्वामी बोले कि हे जंबू ! ऋषभपुर नाम का एक समृद्धिशाली नगर था। उस के ईशानकोण में स्तूपकरंडक नाम का एक रमणीय उद्यान था, उस में धन्य नाम के यक्ष का एक विशाल मन्दिर था। उस नगर के शासकनृपति का नाम धनावह था । उस की सरस्वती देवी नाम की रानी थी किसी समय शयनभवन में सुखशय्या पर सोई हुई महारानी सरस्वती ने स्वप्न में एक सिंह को देखा जो कि आकाश से उतर कर उस के मुख में प्रवेश कर गया। वह तुरन्त जागी और उसने अपने पति के पास आ कर अपने स्वप्न को कह सुनाया। स्वप्न को सुन कर महाराज धनावह ने कहा कि इस स्वप्न के फलस्वरूप तुम्हारे एक सुयोग्य पुत्र होगा । महारानी ने महाराज के मंगलवचन को बड़े सम्मान से सुना और नमस्कार कर के वह अपने शय्यास्थान पर जा कर अवशिष्ट रात्रि को कोई अनिष्टोत्पादक स्वप्न न पा जाये इस विचार से धर्मजागरण में ही व्यतीत करने लगी। समय आने पर महारानी सरस्वती ने एक रूप गुण सम्पन्न बालक को जन्म दिया। माता पिता ने उस का नाम भद्रनन्दी रक्खा । योग्य लालन पालन से शुक्रपक्षीय शशिकला की भांति वृद्धि को प्राप्त करता हुआ वह शिशुभाव को त्याग युवावस्था को प्राप्त हुआ । इस के मध्य में उस ने सुयोग्य विद्वानों की देख For Private And Personal Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वितीय अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [६८३ रेख के कारण उचित शिक्षा में निपुणता प्राप्त कर ली। यौवनप्राप्त श्री भद्रनन्दी के माता पिता ने उस का एक साथ श्रीदेवीप्रमुख ५०० राजकन्याओं के साथ विवाह कर दिया और सब को पृथक् २ दहेज दिया। तदनन्तर उन राजकन्याओं के साथ उन्नत प्रासादों में रह कर सांसारिक कामभोगों का यथेष्ट उपभोग करता हुआ भद्रनन्दी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा। किसी समय भूषभपुर नगर में चौबीसवें तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी पधारे और शिष्यपरिवार के साथ स्तूपकरंडक उद्यान में विराजमान हो गए । नगर की भावुक जनता उन के दर्शन और धर्मोपदेश श्रवण करने के लिये उद्यान में आई । भगवान् ने सब की उपस्थिति में धर्म का उपदेश दिया । उपदेश सुन कर जनता अपने २ स्थानों को वापिस लौट गई। सब के चले जाने के बाद वहां धर्मश्रवणार्थ आये हुए भद्रनन्दी ने भगवान् के सम्मुख उपस्थित हो कर सुबाहुकुमार की भांति साधुवृत्ति के ग्रहण में असमर्थता प्रकट करते । उन से पञ्चागतिक गृहस्थधर्म का ग्रहण किया। जब गृहस्थधर्म का नियम ग्रहण करके भद्रनन्दी अपने स्थान को चला गया, तब गौतम स्वामी ने सुबाहुकुमार की तरह भद्रनन्दी के रूप, लावण्य और गुणसम्पत्ति की प्रशंसा करते हुए उस के पूर्वभव के सम्बन्ध में भगवान से पूछा कि भदन्त ! यह भद्रनन्दी पूर्वभव में कौन था। तथा किस पुण्य के आचरण से इसने इस प्रकार की मानवी गुणसमृद्धि प्राप्त की है। इत्यादि । गोतम स्वामी के उक्त प्रश्न के उत्तर में श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने जो फरमाया, वह निम्नोक्त है गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में पुण्डरी किनी नाम की एक सुप्रसिद्ध नगरी थी। वहां के शासक के पुत्र का नाम विजयकुमार था। विजयकुमार प्रतिभाशालो और त्यागशील साधु महात्माश्रों का बड़ा अनुरागी था । एक वार उस नगरी में युगबाहु नाम के तीर्थंकर महाराज पधारे । विजयकुमार ने बड़ी विशुद्ध भावना से उन्हें आहार दिया। आहार का दान करने से उस ने उसी समय मनुष्य की आयु का बन्ध किया। तथा वहां की भवस्थिति पूरी करने के बाद उस सुपात्रदान के प्रभाव से वह यहां आकर भद्रनन्दी के रूप में अवतरित हुश्रा। तब भद्रनन्दी को इस समय जो मानवी ऋद्धि सम्प्राप्त हुई है, वह विशद्ध भावों से किये गये उसी आहारदानरूप पुण्याचरण का विशिष्ट फल है । तदनन्तर गौतम स्वामी के-भदन्त ! क्या यह भद्रनन्दी मुनिधर्म में भी प्रवेश करेगा ? अर्थात् मुनिधर्म की दीक्षा लेगा कि नहीं। इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् बोलेहां गौतम १, लेगा ? तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहां से अन्यत्र विहार कर गये एक दिन श्रमणोपासक भद्रनन्दी पौषधशाला में जा कर पौषधोपवास करता है । वहां तेले की तपस्या से आत्मचिन्तन करते हुए भद्रनन्दी को सुबाहुकुमार की तरह विचार उत्पन्न हुअा कि धन्य है वे नगर और प्रामादिक, जहां श्रमण भगवान महावीर स्वामी भ्रमण करते है, धन्य हैं वे राजा महाराज और सेठ साहुकार जो उन के चरणों में दीक्षित होते है और वे भी धन्य हैं कि जिन्हों ने भगवान् महावीर से पञ्चाणुव्रतिक गृहस्थधर्म को स्वीकार किया है । तब यदि अब कि भगवान् यहां पधारेंगे तो मैं भी उन के पास मुनिदीक्षा को धारण करूगा-इत्यादि । तदनन्तर अपने उक्त विचार को निश्चित रूप देने की भावना के साथ २ गृहीतव्रत की अवधि समाप्त होने पर भद्रनन्दी ने व्रत का पारणा किया और वह भगवान् के आगमन की प्रतीक्षा में समय बिताने लगा। कुछ समय के बाद भगवान महावीर स्वामी जब वहां पधारे तो भद्रनन्दी ने उन के चरणों में मुनिवृत्ति को धारण करके अर्थात् मुनिधर्म की दीक्षा ग्रहण करके अपने शभ विचार को सफल किया, तथा गृहीत संयमव्रत के सम्यग आराधन से आत्मशुद्धि द्वारा विकास को भी सम्प्राप्त किया। इस के अतिरिक्त निर्वाण पद प्राप्ति तक भद्रनन्दी का सम्पूर्ण इतिवृत्त सबाहुकुमार की भांति ही जान लेना चाहिये। प्रथम अध्याय में सुबाहुकुमार के जीवन का जो विकासक्रम वर्णित हुआ है, वही सब भद्रनन्दी का For Private And Personal Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६८४] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [द्वितीय अध्याय है। जहां कहीं कुछ विभिन्नता श्री, उस का उल्लेख मूल में सूत्रकार द्वारा स्वयं ही कर दिया गया है । शेष जीवन, जन्म से लेकर मोक्षपर्यन्त सब सुबाहुकुमार के जीवन के समान ही होने से सूत्रकार ने उसका उल्लेख नहीं किया। इसी लिये विवेचन में भी उल्लेख करना आवश्यक नहीं समझा गया । कारण कि सबाहुकुमार के जीवनवृत्तान्तों में प्रत्येक बात पर यथाशक्ति पूरा २ प्रकाश डालने का यत्न किया गया है। सूत्रकार ने पुण्यश्लोक परमपूज्य श्री सुबाहुकुमार के जीवनवृत्तान्त से स्वनामधन्य श्री भद्रनन्दी के जीवनवृत्तान्तों से अधिकाधिक समानता के दिखलाने लिए ही मात्र-उसभपुरे गरे थूभकरंडगंइत्यादि पद, तथा–पासाद. सावगधम्म- यहां बिन्दु-सुबाहुस्स जाव महाविदेहे -- यहां जावयावत् पद दे कर वर्णित विस्तृत पाठ की ओर संकेत कर दिया है। अतः सम्पूर्ण पाठ के जिज्ञासु पाठकों को सुबाहुकुमार के अध्ययन का अध्ययन अपेक्षित है । नामगत भेद के अतिरिक्त अर्थगत कोई अन्तर नहीं है । -निक्लेवो-का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ १८८ पर किया जा चुका है। प्रस्तुत में उस से संसूचित सूत्रांश निम्नोक्त है -एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तण सुहविवागाणं वितियस्ल अभयास्स अयम? पराणत्त । तिबेमि । अर्थात् हे जम्बू ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के द्वितीय अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ कथन किया है । मैंने जैसा भगवान् से सुना था, वैसा तुम्हें सना दिया है। इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं है। प्रस्तुत अध्ययन में भी प्रथम अध्ययन की तरह सुपात्रदान का महत्त्व वर्णित हुश्रा है । स पात्रदान से मानव प्राणी की जीवननौका संसारसागर से अवश्य पार हो जाती है। यह बात हस अध्ययन की अर्थविचारणा से स्पष्टतया प्रमाणित हो जाती है। इसलिये मुमुक्षु जीवों के लिये उस का अनुसरण कितना श्रावश्यक है ? यह बतलाने की विशेष आवश्यकता नहीं रहती। ॥ द्वितीय अभ्याय सम्पूर्ण ॥ For Private And Personal Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अथ तताय अध्याय दान पद का निर्माण दो व्यञ्जनों और दो स्वरों के समुदाय से हुआ है। यह छोटा सा पद बड़े विशद श्रो गम्भीर अथ से गर्भित एवं श्रोतप्रोत है । इस अर्थ को जीवन में लाने वाला व्यक्ति दानी कहलाता है । कोई २ व्यक्ति अपनी सेवा या प्रशंसा के उद्देश्य से भी दान देते है, परन्तु इस भावना से किया गया दान. दान के महत्त्व से शून्य होता है । वास्तविक दान में तो किसी भी ऐहिक स्वार्थ को स्थान नहीं होता । उस में तो नितान्त शुद्धि की आवश्यकता रहती है । दान देने वाला. दान लेने वाला और देय वस्तु, ये तीनों जहां शुद्ध हो, निर्दोष हों, किसी भी प्रकार के स्वार्थ से रहित हो, वहीं पर किया गया दान सफल निवडता है। प्रस्तुत तीसरे अध्ययन में भी ऐसी ही दानप्रणाली का वर्णन करने के लिए श्रद्धाशील दानी व्यक्ति श्री सुजातकुमार का जीवन संग्रहीत हुआ है । जिस का विवेचन निम्नोक्त है - मूल- तच्चस्स उक्वेवो । वीरपुर नगरं । मणोरमं उज्जाणं । वीरकण्ठमित्ते राया। सिरी देवी । सुजाए कुमारे । बलसिरीपामोक्खाणं पञ्चसयकन्नगाणं पाणिग्गहणं । सामी समोसरिते । पुव्यभवपुच्छा। उसुयारे णगरे । उसमदत्ते गाहावती । पुष्फदत्ते अणगारे पडिलाभिए । माणुस्साउए निवद्ध । इहं उप्पन्ने जाव महाविदेहे सिज्झिहिति ५ । निवखेयो। ॥ततियं अज्झयणं समत्तं ।। पदार्थ-तच्चस्स -तृतीय अध्ययन का । उक्खेवो-उत्क्षेप - प्रस्तावना पूर्व की भांति जान लेना चाहिये । वीरपुरं - वीर पुर । णगरं-नगर था मगोग्मं-मनोरम । उज्जाणं उद्यान था । वीरकण्ह मित्त - वीरकृष्णमित्र । राया- राजा था । सिरोदेवी- श्री देवी थी । सुजाए-सुजान । कुमारेकुमार था। बलसिरीपामोकवाणं-लश्रीप्रमुख । पंचसयकन्नगाणं -- पांच सौ श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ । पाणिग्गहणं-- पाणिग्रहण-विवाह हुआ । सामी महावीर स्वामी । सासरिते- पधारे । पुष्वभवपुछा पूर्वभव की पृच्छा की गई । उसुयारे - इक्षुसार नामक । णगरे नगर था । उम्भदत्त ऋषभदत्त । गाहावती- गाथापति - गृहस्थ था। पुप्फदत्त - पुष्पदत्त । अणगारे - अनगार : पडिलाभिए- प्रतिलंभित किये । माणुस्साउप निवदू-मनुष्यायु का बन्ध किया । इह-यहां । उप्पन्नेउत्पन्न हुआ । जाव - यावत् । महाविदेहे - महाविदेह क्षेत्र में । सिझिहिति ५ - सिद्ध होगा, ५ । निक्खेवा - निक्षेप - उपसंहार की कल्पना पूर्व की भांति कर लेनी चाहिये । ततियं - तनीय ! अज्झयणं - अध्ययन । समत्त'- समाप्त हुआ। (१) छाया तृतीयस्योत्क्षेप: । वीरपुर नगरम् । मनोरममुद्यानम् । वीर कृष्ण मित्रो राजा : श्रीदेवी। सुजातः कुमार: । बलश्रीप्रमुखाणां पञ्चरातकन्यकानां पाणिग्रहणम् । स्वामी समवसृतः । पूर्वभवपृच्छा । इक्षुकार नगरम् । ऋषभदत्तो गाथापाति: । पुष्पदत्तोऽनगार: प्रतिलाभितः । मनुष्यायुर्निबद्धम् । हहोत्पन्नो यावत् महाविदेहे सेत्स्यति ५ । निक्षेपः । । तृतीयमध्ययनं समाप्तम् ॥ For Private And Personal Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६८६] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध - तृतीय अध्याय मूलार्थ-तृतीय अध्ययन का उत्क्षेप पूर्व की भाँति जान लेना चाहिये। जम्बू ! वीरपुर नामक नगर था । वहां मनोरम नाम का उद्यान था। महाराज वीरकृष्णमित्र राज्य किया करते थे। उन की रानी का नाम श्रीदेवी था । सुजात नाम का कुमार था । बलश्रीप्रधान पांच सौ श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ उस का-सुजात कुमार का पाणिग्रहण हुआ । श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे । सुजात कुमार का गृहस्थधर्म स्वीकार करना, भगवान् गौतम द्वारा उस का पूर्वभव पूछना । भगवान् का प्रतिपादन करना कि इनुसार नगर था। वहां ऋषभदत्त गाथापति निवास किया करता था। उसने पष्पदत्त अनगार को प्रतिलम्भित किया-आहारदान दिया। मनष्य की आय को बान्धा। आयु पूर्ण होने पर यहां सुजातकुमार के रूप में वीरपुर नामक नगर में उत्पन्न हुआ । यावत् महाविदेह क्षेत्र में चारित्र ग्रहण कर सिद्धपद प्राप्त करेगासिद्ध होगा । निक्षेप की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिये। ॥ तृतीय अध्ययन समाप्त ॥ टीका-प्रस्तावना तथा उपसंहार ये दोनों पदार्थवर्णनशैली के मुख्य अंग हैं । इस सम्बन्ध में पहले भी कहा जा चुका है । प्रस्तुत में सूत्रकार के शब्दों में प्रस्तावना जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेण जाव सम्पत्तणं सुहविवगाण वितियस्स अज्झय एस्स अयमठे पणत्त । ततियस्स ण भंते ! अज्झयणस्स सुदविवागाण समणेण भगवया महावीरेण जाव सम्पत्तलं के अह पएणते? - इस प्रकार है । अर्थात् भदन्त ! यदि यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के दूसरे अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ वर्णन किया है तो भदन्त ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक के तीसरे अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? इसी प्रकार तीसरे अध्ययन का वर्णन करने के अनन्तर सूत्रकार ने एवं खलु जम्बू ! समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्त गा सुहविवागाण तच्चस्त अज्क्रयणस्स अयमझें पराणत्त । त्ति बेमि । अर्थात् हे जम्बू ! इस प्रकार यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के तीसरे अध्ययन का यह पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है, इस प्रकार मैं कहता हूं-यह कह कर निक्षेप या उपसंहार संसूचित कर दिया है। सूत्रकार ने एक स्थान पर इन दोनों का निरूपण करके अन्यत्र इन के उपक्रम और उपसंहार के) सूचक क्रमश उक्खेवो उत्तेपः, और निक्खेवो-निक्षपः ये दो पद दे दिये हैं। जिन में उक्त अर्थ का ही समा तीसरे अध्ययन का पदार्थ भी प्रथम अध्ययन के समान ही है। केवल नाम और स्थानादि का भेद है। प्रथम अध्ययन का मुख्य नायक सुबाहुकुमार है जब कि तीसरे का सुजातकुमार । इस के अतिरिक्त पूर्वभव में ये दोनो सुमुख बार ऋषभदत्त गाथापति के नाम से विख्यात थे । अर्थात् सुबाहुकुमार सुमुख गाथापति के नाम से प्रसिद्ध था और सुजात ऋषभदत्त के नाम से प्रख्यात था। इसी तरह सुबाहुकुमार को तारने वाले सुदत्तमुनि और सुजात के उद्धारक पुष्पदत्त हुए । इस के सिवा माता पिता के नाम को छोड़ कर बाका सारा जीवनवृत्तान्त दोनों का जन्म से लेकर मोक्षपर्यन्त एक ही जैसा है । अर्थात् - गर्भ में आने पर माता का स्वप्न में मुख में प्रवेश करते हुए सिंह को देखना, जन्म के बाद बालक का शिक्षण प्राप्त करना. युवा होने पर राजकन्याओं से विवाह करना । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पधारने पर उन से पञ्चाणुव्रतिक गृहस्थधर्म की दीक्षा लेना । उन के विहार के करने के अनन्तर पौषधशाला में धर्माराधन करते हुए मन में शुभ विचारों का उद्गम होना और फलस्वरूप भगवान् के दोवारा पधारने पर मुनिधर्म की दीक्षा लेना और संयम का यथाविधि पालन करने के अनन्तर सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होना तथा वहां से च्यव कर फर मनुष्य भव को प्राप्त For Private And Personal Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तृतीय अध्याय हिन्दी भाषा टीका महित । करना और इसी प्रकार आवागमन करते हुए अन्त में महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न हो कर संयम व्रत के सम्यम् अनुष्ठान से कमबन्धनों को तोड कर सिद्ध पद - मोक्षपद को प्राप्त करना, आदि में अक्षरश: समानता है। -उप्पन्ने जाव सिझिहिति ५--यहां पठित जाव-यावत् पद गौतम स्वामी का वीर प्रभु से - सुजातकुमार श्रापश्री के चरणों में दीक्षित होगा कि नहीं ? - ऐसा प्रश्न पूछना तथा भगवान् महावीर स्वामी का उत्तर देना और अन्त में प्रभु का विहार कर जाना । सुजात कुमार का तेला पौषध करना, उस में साधु होने का विचार करना, भगवान् का वीरपुर नामक नगर में श्राना, सजातकुमार का दीक्षित होना, संबमाराधन से उस का मृत्यु के अनन्तर देवलोक में उत्पन्न होना, वहां से सुबाहुकुमार की भांति अनेकानेक भव करते हुए वह अन्त में महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा, आदि भावों का परिचायक है।। तथा ५ के, झक से अभिमत पद श्री सुबाहुकुमार नामक सुखविपाक के प्रथम अध्ययन के पृष्ठ:६७७ पर लिखे जा चुके हैं। पाठक वहीं देख सकते हैं । नामगत भेद के अतिरिक्त अर्थगत कोई अन्तर नहीं है । ॥ तृतीय अध्ययन सम्पूर्ण । For Private And Personal Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अथ चतुर्थ अध्याय प्रत्येक अनुष्ठान में विधि का निर्देश होता है । विधिपूर्वक किया गया क्रियानुष्ठान ही हितप्रद, लाभप्रद और फलदायक हो सकता है । विधिहीन अनुष्ठान से फलाप्राप्ति के अतिरिक्त विपरीत फल की संभावना भी रहती है और वह सुखप्राप्ति के स्थान में संकट का उत्पादक भी बन जाता है । दान भी एक प्रकार का पवित्र अनुष्ठान है । उस का भी विधिपूर्वक ही आचरण करना चाहिये । विधि का स्वरूप. नीचे की पंक्तियों में है । दान देते समय भावना उच्च और निमल हो तथा साथ में प्रेम का संचार हो। तभी दानविधि सम्पन्न होती है । किसी को अनादर या अपमान से दिया हुआ दान दाता को उस के अच्छे फल से वंचित कर देता है प्रस्तुत अध्ययन में इसी प्रकार के विधिपूर्ण दान और उस से निष्पन्न होने वाले मधुर फल की चर्चा की गई है. जिस को जिनदास के जीवनवृत्तातों द्वारा अभिव्यक्त किया गया है। जिनदास का परिचय निम्नोक्त है मूल--'चउत्थस्स उक्खेवो । विजयपुरंणगरं । नन्दणवणं उज्जाणं । असोगो जक्खो। वासवदत्ते राया । कण्हा देवी । सुवासवे कुमारे । भदापामोक्खाणं पंचसयाणं जाव पुव्वभवे । कोसम्बी णगरी । घणपाले राया । वेसमणभद्दे अणगारे पडिलाभिते । इहं उप्पन्ने जाव सिद्ध । निक्खेवो। ॥चउत्थं अज्झयणं समत्तं ॥ पदार्थ - चउत्थस्स-चतुर्थ अध्ययन का । उक्खेवा-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्व की भांति जान लेना चाहिये । विजयपुरं-विजयपुर । णगरं-नगर था। नंदणवणं-नन्दनवन नामक । उज्जाणं-उद्यान था। असोगा-अशोक नामक । जक्खो-यक्ष था । वासवदत्ते-वासवदत्त । राया-राजा था । कण्हा-कृष्णा । देवी-देवी थी । सुवासवे-सवासव नामक । कुमारे-कुमार था । भद्दापामोक्खा-भद्राप्रमुख । पचसयागां-पांच सौ यावत् अर्थात् श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ विवाह हुआ। पुथ्वभव-पूर्वभवसम्बन्धी पृच्छा की गई । कासवी-काशांबी। गगरी-नगरी थी । घणपाल-धनपाल । गया-राजा था । वेसमणभद्दे-वैश्रमणभद्र । अणगारे-अनगर को । पहिनाभित-प्रतिलम्भित किया । इहं-यहां । उप्पन्ने-उत्पन्न हुआ । जाव-यावत् । सिद्ध-सिद्ध हुा । निक्खेवोनिक्षेप-उपसहार पूर्व की भाँति जान लेना चाहिये । चउत्थं-चतुर्थ । अज्झयणं-अध्ययन । समत-सम्पूर्ण हुआ। मूलार्थ-चतुर्थ अध्ययन का उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्व की भाँति जान लेना चाहिए । जम्बू ! विजयपुर नाम का का एक नगर था । वहा नन्दनवन नाम का उद्यान था। वहां अशोक नामक (१) छाया-चतुर्थस्योत्क्षेपः । विजयपुर नगरम् । नन्दनवनमुद्यानम् । अशोको यक्षः। वासवदत्तो राजा । कृष्णादेवी । सुवासवः कुमार: । भद्राप्रमुखाणां पंचशतानां यावत् पूर्वभवः। कौशाम्बी नगरी । धनपालो राजा वैश्रमणभद्रोऽनगारः प्रतिलाभित: । इहोत्पनो यावत् सिद्धः । निक्षेपः । ॥ चतुर्थमध्ययनं समाप्तम् ॥ For Private And Personal Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [६८९ यक्ष का यक्षायतन था। वहां के राजा का नाम वासवदत्त था । उस की कृष्णादेवी नाम की रानी थी और सुवासव नामक राजकुमार था। उस का भद्राप्रमुख ५०० श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ विवाह हुआ। तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी पधारे। तब सुवासव कुमार ने उन के पास श्रावकधर्म को स्वीकार किया। गौतम स्वामी ने उस के पूर्वभव का वृत्तान्त पूछा । प्रभु ने कहा गौतम ! कौशाम्बी नगरी थी, वहां धनपाल नाम का राजा था, उस ने वैश्रमणभद्र नामक अनगार को आहार दिया और मनुष्य आयु का बन्ध किया । तदनन्तर वह यहां पर सुवासवकुमार के रूप में उत्पन्न हुआ यावत् मुनिवृत्ति को धारण कर के सिद्धगति को प्राप्त हुआ । निक्षेप की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिए। ययन समाप्त ॥ टीका-जम्बू स्वामी की-भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ वर्णन किया है ? उसे भी सुनाने की कृपा करें, इस अभ्यर्थना के अनन्तर आर्य सुधर्मा स्वामी बोले-जम्बू ! विजयपुर नाम का एक प्रसिद्ध नगर था । उस के बाहिर ईशान कोण में नन्दनवन नाम का उद्यान था। उस में अशोक यक्ष का एक विशाले यक्षायतन था। वहां के नरेश का नाम वासवदत्त था। उस की कृष्णा देवी नाम की रानी थी। उन के राजकुमार का नाम सुवासव था । वह बड़ा ही सशील तथा सुन्दर था। एक वार विजयपुर के उक्त उद्यान में तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी पधारे । तब सवासव ने उन से गृहस्थधर्म के पञ्चाणुव्रतिक दीक्षा ग्रहण की । सुवासव के सद्गुणसम्पन्न मानवी वैभव को देख कर गणधर देव गौतम स्वामी ने भगवान् से उस के पूर्वभव को जानने की इच्छा प्रकट की। इस के उत्तर में भगवान् ने कहा-गौतम ! कौशाम्बी नाम की एक विशाल नगरी थी। वहां धनपाल नाम का एक धार्मिक राजा था। उस का संयमशील साधुजनों पर बड़ा अनुराग था एक दिन उस के यहां वैश्रमण नाम के एक तपस्वी मुनि भिक्षा के निमित्त पधारे । धनपाल नरेश ने उन को विधिपूर्वक वन्दन किया और अपने हाथ से नितान्त श्रद्धापूरिन हदय से निर्दोष प्रासुक आहार का दान दिया । उस के प्रभाव से उस ने मनुष्य आयु का बन्ध कर के उस भव की आयु को पूर्ण कर यहां आकर सुवासव के रूप में जन्म लिया । इस के आगे का प्रभु वीर द्वारा वर्णित उस का सारा जीवनवृत्तान्त अर्थात् जन्म से ले कर मोक्षपर्यन्त का स सुबाहुकुमार की भांति जान लेना चाहिए । इस में इतनी विशेषता है कि वह उसी जन्म में मोक्ष को प्राप्त हुआ, इत्यादि वर्णन करने के अनन्तर आर्य सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने सुखविपाक के चतुर्थ अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ प्रतिपादन किया है। प्रस्तुत अध्ययन में चरित्रनायक के नाम, जन्मभूमि, उद्यान, माता पिता, परिणीत स्त्रिये तथा पूर्वभवसम्बन्धी नाम और जन्मभूमि तथा प्रतिलाभित मुनिराज आदि का विभिन्नतासूचक निर्देश कर दिया गया है और अवशिष्ट वृत्तान्त को प्रथम अध्ययन के समान समझ लेने की सूचना कर दी है। -नंदणं वणं-इस पाठ के स्थान में कहीं -मणोरमं-- ऐसा पाठ भी है। तथा- उत्तेप और निक्षेप शब्दों का अर्थसम्बन्धी उहापोह पीछे कर चुके हैं। प्रस्तुत में उत्तेप से-जइ जं भंते । समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तणं सुहविवागाणं ततियस्स अज्झयणस्स अयम? पराणत चउत्यस्स णं भंते ! अज्झयणस्स सुहविवागाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तणं के अहे पराणते ?-अर्थात् यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने यदि भदन्त ! सुखविपाक के तृतीय For Private And Personal Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६९.] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रु तस्कन्ध [चतुर्थ अध्याय अध्ययन का यह अर्थ फरमाया है तो भावन् ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुर्खावपाक के चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ फरमाया है । इन भावों का, तथा निक्षेप पद-एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तणं सुहविवागाणं च उत्थस्स अज्झयणस्त अयमठे पराणत्त । त्ति बेमि-अर्थात् हे जम्बू ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के चतुर्थ अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है-इन भावों का परिचायक है। -पाणिग्रहणं जाव पठवभवे-यहां पठित जाव-यावत पद-सवासवकमार का अपने महलों में भद्राप्रमुख ५०० राजकुमारियों के साथ आनंदोपभोग करना, भगवान् महावीर स्वामी का विजयपुर नगर में पधारना । राजा, सुवासवकुमार तथा नागरिकों का धर्मोपदेश सुनने के लिये प्रभु के चरणों में उपस्थित होना, धर्मकथा श्रवण करने के अनन्तर राजा तथा जनता के चले जाने पर सवासवकुमार का साधुधर्म को ग्रहण करने में अपनी असमर्थता बतलाते हुए श्रावकधर्म को ग्रहण करना और वन्दना तथा नमस्कार करने के अनन्तर वापिस अपने नगर को चले जाना, आदि भावों का तथा सुवासवकुमार के पूर्वजन्मसम्बन्धी वृत्तान्त को पूछना, भगवान् का उसे सुनाना, अन्त में विजयपुर में अवतरित होना, इन भावों का परिचायक है । -उप्पन्ने जाव सिद्धे-यहां पठित जाव-यावत् पद सुवासवकुमार के सम्बन्ध में भगवान् से गौतम का “यह साधु बनेगा या नहीं ?, ऐसा प्रश्न पूछना, भगवान् का-हां, बनेगा, ऐसा उत्तर देना । तदनन्तर भगवान् का विहार कर जाना, इधर सुवासवकुमार का तेलापौषध में साधु होने का निश्चय करना, अन्त में भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में दीक्षित होना तथा संयमाराधन द्वारा अधिकाधिक आत्मविकास करके केवलज्ञान प्राप्त करना, आदि भावों का परिचायक है । सबाहुकुमार और सुवासवकमार के जीवनवृत्तान्त में इतना ही अन्तर है कि सुबाहुकुमार पहले देवलोक से मनुष्य भव करके इसी भाँति अन्य अनेकों भव करके अन्त में महाविदेह क्षेत्र में दीक्षित हो सिद्ध बनेगा, जब कि श्री सवासवकुमार ने इसी जन्म में सिद्ध पद को उपलब्ध कर लिया । प्रस्तुत अध्ययन भी सुपात्रदान के महत्त्व का बोधक है। इस से भी उस की महिमा प्रदर्शित होती है। लोक में जैसे -नदियों में गंगा, पशुओं में गाय और पक्षियों में गरुड़ तथा वन्य जीवों में सिंह आदि महान् और प्रधान माना जाता है, उसी प्रकार सभी प्रकार के दानों में सुपात्रदान सर्वोत्तम, महान् तथा प्रधान होता है । तब भावपुरस्सर किया गया सुपात्रदान कितना उत्तम फल देता है ? यह इस अध्ययन से स्पष्ट ही है। ॥ चतुर्थ अध्ययन सम्पूर्ण ॥ For Private And Personal Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अथ पञ्चम अध्याय भारतीय धार्मिक वाङमय में दानधर्म का बड़ा महत्त्व पाया जाता है । दान एक सीढी है जो मानव प्राणी को ऊर्ध्वलोक तक पहुँचा देता है । जिस तरह मकान के ऊपर चढ़ने के लिये सीढ़ी की आवश्यकता होती है, ठीक उसी तरह मुक्तिरूप विशाल भवन पर आरोहण करने के लिये भी सीढी की आवश्यकता है । वह सीदी शास्त्रीय परिभाषा में दान के नाम से विख्यात है। दान के आश्रयण से मनुष्य ऊर्ध्वगति प्राप्त कर सकता है, परन्तु जिस प्रकार सीढी के द्वारा ऊपर चढने वाले को भी सावधान रहना पडता है, ठीक उसी भाँति मोक्ष के सोपानरूप इस दान के विषय में भी बड़ी सावधानता की ज़रूरत है। वह सावधानता दो प्रकार की होती है। एक पात्रापात्र सम्बन्धी दूसरी आवश्यकता और अनावश्यकता सम्बन्धी । पात्र की विचारणा में दाता को पहले यह देखना होता है कि जिस को मैं जो वस्तु दे रहा हूं. वह उस का अधिकारी भी है या कि नहीं। दूसरे शब्दों में-मेरी दी हुई वस्तु का यहां सदुपयोग होगा या दुरुपयोग । पात्र में डाली हुई वस्तु जैसे अच्छा फल देने वाली होती है वैसे कुपात्र में डालने से उस का विपरीत फल भी होता है। इसी प्रकार ग्रहण करने वाले को उस की आवश्यकता भी है या कि नहीं? इस का विचार करना भी जरूरी है। जैसे समुद्र में वर्षण और तृप्त को भोजन ये दोनों अनावश्यक होने से निष्फल होते हैं, उसी तरह बिना आवश्यकता के दिया गया पदार्थ भी फलप्रद नहीं होता । सारांश यह है कि जहां दाता और प्रतिग्राही- ग्रहण करने वाला दोनों ही शुद्ध हों वहां पर ही देय वस्तु से समुचित लाभ हो सकता है, अन्यथा नहीं। प्रस्तुत अध्ययन में दान के महत्त्वप्रदर्शनार्थ जिस जिनदास नामक भावुक व्यक्ति का जीवन अंकित हुआ है, उस में दाता, प्रतिग्रहीता और देय वस्तु तीनों ही निर्दोष हैं, अतएव वहां फल भी समुचित ही हुआ । प्रस्तुत अध्ययन के पदार्थ का उपक्रम निम्नोक्त है - मूल-- 'पञ्चमस्स उक्खेयो । सोगन्धिया णगरी। णीलासोगे उज्जाणे । सुकालो जखो । अपडिहो राया । सुकण्हा देवी । महचंदे कुमारे । तस्स अरहदत्ता भारिया। जिणदासो पुत्तो। तित्थगरागमणं । जिणदासपुरभवो । मज्झमिया णगरी । मेहरहे राया । सुधम्मे अणगारे पडिलाभिते जाव सिद्ध । निक्खेवो। ॥पंचमं अज्झयणं समत्तं ॥ पदार्थ -पंचमस्स-पंचम अध्ययन का । उक्खेवा-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्व की भाँति जानना चाहिये । सोगन्धिया-सौगन्धिका नामक । णगरी-नगरी थी। णीलासोगे- नीलाशोक नामक । उज्जाणे-उद्यान था। सुकाले-सुकाल नामक । जस्खे -यक्ष – यक्ष का स्थान था। अपडिहओ-अप्रतिहत । राया - राजा था । सुकराहा-सुकृष्णा । देवी-देवी थी। महचंदे--महाचन्द्र । कुमारे - कुमार था। तस्स-उस की (१) छाया-पञ्चमस्योत्क्षेप: । सौगन्धिका नगरी । नीलाशोकमुद्यानम् । सुकालो यक्षः। अप्रतिहतो राजा। सुकृष्णा देवी । महाचन्द्रः कुमारः । तस्य अर्हदत्ता भार्या । जिनदास: पुत्रः । तीर्थकरागमनम् । मिनदासपूर्वभवः । माध्यमिका नगरी । मेघरथो राजा। सुधर्मा अनगारः प्रतिलाभितो यावत् सिद्धः । निक्षेपः। ॥ पंचममध्ययनं समाप्तम् ।। For Private And Personal Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाकसूत्रीय द्वतीय श्रुतस्कन्ध [पञ्चम अध्याय महाचन्द्र की । अरहदत्ता-अहंदत्ता । भारिया-भार्या थी । जिणदासो - जिनदास । पुत्तो-पुत्र था । तित्थगरागमणं-तीर्थकर भगवान का आगमन हुा । जिणदासपुश्वभवो - जिनदास का पूर्वभव पूछना । मज्झिमया-माध्यमिका । रणगरी-नगरी थी। मेहरहे-मेघरथ । राया-राजा था। सुधम्मे-सुधर्मा । अणगारे-अनगार। पडिलाभिते-प्रतिलंभित किये गए । जाव -यावत् । सिद्ध-सिद्ध हुआ । निक्खयो-निक्षेप अर्थात् उपसंहार की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिये । पंचम-पांचवां । अज्झयणं-अध्ययन । समत्त- सम्पूर्ण हुआ। ___ मूलार्थ-श्चम अध्ययन का उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् जानना चाहिये । जम्बू ! सौगन्धिका नाम की नगरी थी। वहां नीलाशोक नाम का उद्यान था उस में सुकाल नामक यक्ष का यक्षायतन था। नगरी में महाराज अप्रतिहत राज्य किया करते थे, उन की रानी का नाम सुकृष्णा देवी था और पुत्र का नाम महाचन्द्र कुमार था। उस की अर्हदत्ता भार्या थी, इन का जिनदास नाम का एक पुत्र था । उस समय तीर्थकर भगवान का आगमन हुआ--श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे । जिनदास का भगवान से पंचायुवतिक गृहस्थवर्म स्वीकार करना, गणधर देव श्री गौतम स्वामी द्वारा उस का पूर्वभव पूछना और श्रमण भगवान महावीर स्वामी प्रतिपादन करने लगे गौतम ! माध्यमिका नाम की नगरी थी। महाराज मेघरथ वहां के राजा थे । सुधर्मा अनगार को महाराज मेघरथ ने आहार दिया, उस से मनुष्य आयु का बन्ध किया और यहां पर जन्म लेकर यावत् इसी जन्म में सिद्ध हुआ । निक्षेप - उपसंहार की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिये। ॥पञ्चम अध्ययन समाप्त ।। टीका-प्रस्तुत अध्ययन में जिनदास का जीवनवृत्तान्त सकलित किया गया है । जिनदास महाचन्द्र का पुत्र और अर्हदत्ता का आत्मज था । इस के पितामह का नाम अप्रतिहत और पितामही का सुकृष्णादेवी था । इस को जन्मभूमि सौगन्धिका नगरी थो। जिनदास पूर्वभव में मेघरथ नाम का राजा था। इस की राजधानी का नाम माध्यमिका था। मेघरथ नरेश प्रजापालक होने के अतिरिक्त धर्म में भी पूरी अभिरुचि रखता था। एक दिन उस के पूर्वपुण्योदय से उस के घर में सधर्मा नाम के एक परम तपस्वी मुनि का आगमन हुअा। मुनि को देख कर मेघरथ को बड़ी प्रसन्नता हुई, उस ने बड़े भक्तिभाव से मुनि को अपने हाथ से आहार दिया । विशुद्ध भाव और विशुद्ध श्राहार से उक्त मुनिराज को प्रतिलाभित करने से मेघरथ ने मनुष्य आयु का बन्ध किया और समय आने पर मृत्युधर्म को प्राप्त करने के अनन्तर वह इसी सौगन्धिका नगरी में जिनदास के रूप में उत्पन्न हुअा।। किसी समय नीलाशोक उद्यान में तीर्थकर भगवान् महावीर का पधारना हुआ । उस समय यह जिनदास भी जनता के साथ भगवान् का दर्शन करने और धर्मश्रवण करने के लिये अाया। धर्मदेशना को सुनकर उस के हृदय में धर्म के आचरण की अभिरुचि उत्पन्न हुई और उस ने भगवान् से गृहस्थधर्म की दीक्षा प्रदान करने की अभ्यर्थना की । भगवान् ने भी उसे श्रावकधर्म की दीक्षा प्रदान कर दी। तब से जिनदास श्रमणोपासक बन गया। इस के अनन्तर उस के श्रमणधर्म में दीक्षित होने से लेकर मोक्षगमन पर्यन्त सारी जीवनचर्या श्री सुबाहुकुमार की तरह ही है। -" यह है पांचवें अध्ययन का पदार्थ जिस की जिज्ञासा श्री जम्बू स्वामी ने अपने परमपूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी से की थी। इस पांचवें अध्ययन के कथासन्दर्भ का तात्पर्य भी मानवभव प्राप्त प्राणियों को दानधर्म और विशेष कर सपात्रदान में प्रवृत्त कराना है । शास्त्रकारों ने जो सुपात्रदान का फल मनुष्य आयु का बन्ध यावत् मोक्ष को For Private And Personal Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पश्चम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । प्राप्ति लिखा है । उस को हृदयंगम कराने के लिये यह कथासन्दर्भ एक उत्तम शिक्षक का काम देता है। -पडिलाभिते जाव सिद्धे-इस संक्षिप्त पाठ में जाव-यावत् पद से आहार देने से लेकर मोक्ष जाने तक के प्रथम अध्ययन में उल्लेख किये गये समस्त इतिवृत्त को संगृहीत करने की ओर संकेत किया गया है । विशेष बात यह है कि वह उसो भव में मोक्ष गया । इस के अातारक्त अध्ययन की प्रस्तावना में दान धर्म को मोक्ष का सोपान बतलाते हुए जो उस के महत्त्व का वर्णन किया था, प्रस्तुत कथासंदर्भ से उस की सम्यग रूप से उपपत्ति हो जाती है। उत्तेप का अर्थ है - प्रस्तावना । प्रस्तुत में प्रस्तावनारूप सूत्रांश - जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तणं सुहविवागाणं च उत्यस्ल अकय गस्त अयम? परमत्त । पंचमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तणं के अटे पराणत्त । -अर्थात् श्री जम्बूस्वामी अपने गुरु देव श्री सुधर्मास्वामो से कहने लगे कि यदि भदन्त ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के चतुर्थ अध्ययन का यह (पूर्वोक्त। अर्थ फ़रमाया है तो भगवन् ! पावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के पञ्चम अध्ययन का क्या अर्थ फ़रमाया है ?-" इस प्रकार है। निक्षेप का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ १८८ पर किया जा चुका है । निक्षेप शब्द से संसूचित सूत्रपाठ निनोक्त है एवं खलु जम्बू ! समणे भगवया महावीरेणं जाव संपत्तणं सुहविवागाणां पंचमस्स अज्झयणस्स अयम? पणत्ते। त्ति बेमि । अर्थात् सुधर्मा स्वामी कहने लगे कि हे जम्बू ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामो ने सुखविपाक के पञ्चम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है । इस प्रकार मैं कहता हूँ अर्थात् जैसा मैंने भगवान् से सुना है वैसा तुम्हें सुना दिया है । इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं है। -पडिलाभिते जाव सिद्धे- यहां पठित जाव-यावत् पद -मेवरथ राजा का संसार को परिमित करने के साथ २ मनुष्यायु को बांधना, मृत्यु के अनन्तर उस का जिनदास के रूप में अवतरित होना, गौतम स्वामी का भगवान महावीर से - जिनदास श्राप श्री के चरणों में दीक्षित होगा या कि नहीं ? - ऐसा पूछना, भगवान् का-हां होगा, ऐसा उत्तर देना तथा विहार कर जाना, जिनदास का तैला पौषध करना, उस में भगवान् के चरणों में साधु बनने का निश्चय करना. तदनन्तर भगवान् महावीर स्वामी का वहां पर पधारना तथा जिनदास का माता पिता से आज्ञा ले कर दीक्षित हो कर आत्मसाधना में संलग्न होना तथा समय आने पर केवलज्ञान को प्राप्त करना, आदि भावों का परिचायक है। सुबाहकुमार और जिनदास के जीवनवृत्तान्त में इतना ही अन्तर है कि श्री सुबाहुकुमार प्रथम देवलोक से व्यत हो कर अनेकों भव करके महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध पद प्राप्त करेंगे जब कि जिनदास उसी जन्म में सिद्ध हो गए। ॥ पंचम अध्ययन समाप्त ॥ For Private And Personal Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अथ षष्ठ अध्याय प्रथम अध्ययन से लेकर पांचवें अध्ययन तक सुपात्रदान की महिमा को श्री सुबाहुकुमार आदि नाम के विशिष्ट व्यक्तियों के जीवनवृत्तान्तों से समझाने का प्रयत्न किया गया है। उन्हीं अध्ययनों के विशद इतिवृत्त को ही इस अध्ययन में संक्षिप्त कर के श्री धनपति के जीवनवृत्तान्त द्वारा सुपात्रदान का महत्त्व दर्शाया गया है, जिस का विवरण निम्नोक्त है मूल-'छट्ठस्स उक्खेवो । कणगपुरं णगरं । सेतासोयं उज्जाणं । वीरभद्दो जक्खो । पियचंदो राया । सुभद्दादेवी । वेसमणे कुमारे जुवराया । सिरीदेवीपामोक्खाणं पंचसयाणं राजवरकन्नगाणं पाणिग्गहणं । तित्थगरागमणं । धणवती जुवरायपुत्ते जाव पुव्वभवे । मणिचइया णगरी । मित्ते राया । संभूयविजए अणगारे पडिलाभिते जाव सिद्ध । निक्खेवो । ॥ छट्ट अज्झयणं समत्तं ॥ पदार्थ-छहस्स-छठे अध्ययन का । उक्खेवो-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्व की भाँति जानना चाहिए । कणगपुरं-कनकपुर । जगरं-नगर था। सेतासोयं-श्वेताशोक नामक । उज्जाणं-उद्यान था, उस में । वीरभद्दो-वीरभद्र नाम के । जक्खो-यक्ष का यक्षायतन था। पियचन्दो-प्रिय चन्द्र । रायाराजा था। सुभद्दा-सुभद्रा नाम की । देवी-देवी थी। वेसमणो-वैश्रमण नाम का । कुमार-कुमार । जुवराया-युवराज था। सिरीदेवीपामो गर्ण-श्रीदेवीप्रमुख । पंचसयाणं- पांच सौ । राजवरकन्नगाणं-श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ । पाणिग्गहणं-पाणिग्रहण हुआ । तित्यगरागमणं-तीर्थकर भगवान का आगमन हुा । घणवती-धनपति । जुवरायपुत्त-युवराजपुत्र वहां उपस्थित हुअा। जावयावत् । पुव्वभवे-पूर्वभव की पृच्छा की गई । मणिचइया-मणिचयिका । णगरी-नगरी थी। मित्त - मित्र । गया-राजा था। संभूयविजए-संभूतविजय । अणगारे-अनगार । पडिलाभिते-प्रतिम्भित किये । जाव-यावत् । सिद्ध-सिद्ध हुए । निश्खेवो-निक्षेप - उपसंहार को कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिये । उ8-छठा । अज्झय- अध्ययन । समत- सम्पूर्ण हुश्रा । मूलार्थ-छठे अध्ययन का उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् जानना चाहिये । हे जम्बू ! कनकपुर नाम का नगर था । वहां श्वेताशोक उद्यान था और उस में वीरभद्र नाम के यक्ष का मन्दिर था। वहां महाराज प्रियचन्द्र का राज्य था, उस की रानी का नाम सुभद्रा देवी था, युवराजपदालंकृत कुमार का नाम वैश्रमण था, उस ने श्रीदेवीप्रमुख ५०० श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ विवाह किया। उस समय तोर्थंकर भगवान महावीर स्वामी पवारे । युवराज के पुत्र धनपतिकुमार ने भगवान से श्रावक के व्रतों को ग्रहण किया। पूर्वभव की पृच्छा की गई। धनपतिकुमार पूर्वभव में मणिचयिका १-छाया षष्ठस्योत्क्षेपः । कनकपुरं नगरम् । श्वेताशोकमुद्यानम् । वीरभद्रो यक्षः । प्रियचन्द्रो राजा । सुभद्रा देवी। वैश्रमणः कुमारो युवराजः । श्रीदेवीप्रमुखाणां पंचशतानां राजवरकन्यकानां पाणिग्रहणम् । तीथकरागमनम्। धनरतियुवराजपुत्रो यावत् पूर्वभवः । मणिचयिका नगरी । मित्रो राजा । संभूतविजयोऽनगार: प्रतिलाभितो यावत् सिद्धः । निक्षेपः । || षष्ठमध्ययनं समाप्तम् । For Private And Personal Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । नगरी का राजा था, उस का नाम मित्र था। उस ने श्री संभूतविजय नाम के मुनिराज को आहार से प्रतिलाभित किया । यावत् इसी जन्म में वह सिद्धगति को प्राप्त हुआ । निक्षेप की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिये। ॥छठा अध्ययन समाप्त ।। टीका-प्रस्तुत अध्ययन में धनपतिकुमार का जीवनवृत्तान्त अंकित किया गया है । उस ने भी सुबाहुकुमार की तरह पूर्वभव में सुपात्रदान से मनुष्यायु का बन्ध किया, तथा तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी से श्रावकधर्म और तदनन्तर मुनिधर्म की दीक्षा ले कर संयम के सम्यग आराधन से कर्मबन्धनों को तोड़ कर निर्वाण पद प्राप्त किया। इसभव तथा पूर्वभव में नामादि की भिन्नता के साथ २ सुबाहुकमार और धनपति कुमार के जीवनवृत्तान्त में केवल इतना ही अन्तर है कि सुबाहुकुमार तो देवलोकों में जाता हुआ और मनुष्यभव को प्राप्त करता हुआ अन्त में महाविदेह क्षेत्र में सिद्धपद प्राप्त करेगा जब कि धनपतिकुमार ने इसी जन्म में कर्मों के बन्धनों को तोड़ कर निर्वाणपद प्राप्त किया और वह सिद्ध बन गया। __ मूल में पढ़ा गया उत्क्षेप पद-जइ गां भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्त गर्ग सुहविवागाणपंचमस्स अज्झयणस्स अयम परणत, छट्टस्स णभंते ! समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्तण के अटे पराणते?-अर्थात् यदि भगवन् ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ले सुखविपाक के पंचम अध्याय का वह (पूर्वोक्त) अर्थ फ़रमाया है तो भगवन् ! यावत मोक्षसंग्राम श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक के छठे अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ?-इन भावों का, तथा निक्षेप पद-एवं खलु जम्बू ! समणे भगवया महावीरेणं जाव संपत्तण छट्ठस्स अज्झयणस्स अयमपरागत -अर्थात हे जम्ब ! यावत मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने छठे अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है-, इन भावों का परिचायक है। -जुवरायपुत्ते जाव पुषभवे-यहां पठिन जाव - यावत पद धनपति कुमार का भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में धर्मोपदेश सुनने के अनन्तर साधुवर्म को अंगीकार करने में अपना असामथ्य प्रकट करते हुए श्रावकधर्म को ग्रहण करना और जिस रथ पर सवार होकर आया था, उसी रथ पर बैठ कर वापिस चले जाना । तदनन्तर गौतम स्वामी का उस के पूर्वजन्मसम्बन्ध में भगवान् से पूछना और भगवान् का पूर्वजन्मवृत्तान्त सुनाना इत्यादि भावों का, तथा -पडिलाभिते जाव सिद्धे- यहां पठित जाव- यावत पद - मित्र राजा का संसार को परिमित करने के साथ साथ मनुष्य आयु का बन्द करना, और मृत्यु के अनन्तर युवराजपुत्र धन - पतिकुमार के रूप में अवतरित होना तथा राजकीय ऐश्वर्य का उपभोग करते हुए जीवन व्यतीत करना । गौतम स्वामी का भगवान् महावीर से -धनपतिकमार श्रापश्री के चरणों में साधु होगा, या कि नहीं ? ऐसा प्रश्न पूछना, भगवान का-हां गौतम ! होगा. ऐसा उत्तर देना । तदनन्तर भगवान् महावीर का वहां से विहार करना । एक दिन धनपति कमार का पौषधशाला में तेला पौषध करना, उस में भगवान् के चरणों में दीक्षित होने का निश्चय करना तथा भगवान् का कनकपुरनगर के श्वेताशोक उद्यान में पधारना, राजा, धनपतिकुमार तथा नागरिकों का 'प्रभुचरणों में धर्मोपदेश श्रवण करने के लिये उपस्थित होना और उपदेश सुन लेने के अनन्तर राजा तथा नागरिकों के चले जाने पर साधुधर्म में दीक्षित होने के लिये धनपतिकमार का तैयार होना, तथा माता पिता की आज्ञा मिलने पर भगवान् का उसे दीक्षित करना और मुनिराज धनपतिकुमार का बड़ी दृढता तथा संलग्रता से संयमाराधन कर के अंत में केवलशान प्राप्त करना, आदि भावों का परिचायक है । । पष्ठ अध्याय समाप्त ।। For Private And Personal Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अथ सप्तम अध्याय.. यह अध्याय भी छठे अध्याय की भाँति सपात्रदान की महिमार्थ ही वर्णित हुआ है। इस के मुख्यनायक श्री महाबलकुमार हैं । इन की जीवनगाथा इस में अंकित की गई है। इनका विवरण निम्नोक्त है - मल-'सत्तमस्स उक्खेवो । महापुरं णगरं । रत्तासोगं उज्जाणं । रत्तपाओ जक्खो । चले राया । सुभदा देवो । महब्बले कुमारे । रत्तवतीपामोक्खाणं पंचसयाणं रायवरकन्नगाणं पाणिग्गहणं । तित्थगरागमणं जाव पुव्वभवो । मणिपुरं णगरं । णागदचे गाहावती । इंददचे अणगारे पडिलाभिते जाव सिद्ध । निक्खेवो । ॥ सत्तमं अज्झयणं समत्॥ पदार्थ-सत्तमस्स- सप्तम अध्ययन का। उक्खेवां-उत्क्षेप - प्रस्तावना पूर्ववत् जानना चाहिए। महापुरं-महापुर । णगरं - नगर था । रत्तासोगं- रक्ताशोक । उज्जाणं-उद्यान था । रत्तपात्रोरक्तपाद नामक । जक्वा - यक्ष का यक्षायतन था। बले- बल नामक । राया-राजा था। सुभद्दासुभद्रा नामक । देवी -देवी- रानी थी । महब्बले – महाबल । कुमारे-कुमार था । रत्तवतीपामोकमाणं- रक्तवतीप्रमुख । पंचसयाणं-५०० । रायवरकन्नगाणं-श्रेष्ठ राजकन्याओं' के साथ । पाणिगह-पाणिग्रहण - विवाह हुआ। तित्थगगगमणं-तीर्थकर भगवान का आगमन हुआ । जाव - यावत् । पृथ्वभवो - पूर्वभव की पृच्छा की गई । मणिपुरं-मणिपुर । णगरं- नगर था। णागदत्त - नागदत्त । गाहावती-गायापति था। इंददत्त -इन्द्रदत्त । अणगारे-अनगार को । पडिलाभितेप्रतिलाभित किया गया । जाव-यावत् । सिद्ध - सिद्ध हुा । निक्खेवो निक्षेप -उपसंहार की कल्पना पूर्व की भांति कर लेनी चाहिये । सत्तमं-सातवां । अज्झय-अध्ययन । समत्त-सम्पूर्ण हुा । मूलाथे-सप्तम अध्ययन का उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्व की तरह जान लेना चाहिये । जम्बू ! महापुर नामक नगर था। वहां रक्ताशोक नाम का उद्यान था, उस में रक्तपाद यक्ष का विशाल स्थान था। नगर में महाराज बल का राज्य था। उन की रानी का नाम सुभद्रा देवी था । इन के महाबल नाम का राजकुमार था । उस का रक्तवतीप्रधान ५०० श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण-विवाह किया गया। उस समय तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी पधारे। तदनन्तर महाबल राजकुमार का (१) छाया- सप्तमस्योत्क्षेप: । महापुरं नगरम् । रक्ताशोकमुद्यानम् । रक्तपादो यक्ष: । बलो राजा। सुभद्रा देवी। महाबलः कुमारः। रक्तवतीप्रमुखाणां पंचशतानां राजवरकन्यकानां पाणिग्रहणम् । तीर्थकरागमनम् । यावत् पूर्वभवः । मणिपुरं नगरम् । नागदत्तो गाथापतिः । इन्द्रदत्तोऽनगारः । प्रतिलाभितो यावत् सिद्धः। निक्षेपः । ॥ सप्तमध्ययनं समाप्तम् ॥ For Private And Personal Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । श्रावकधमे भगवान से अंगीकार करना और गणधर देव का भगवान् से उस का पूर्वभव पूछना तथा भगवान का प्रतिपादन करते हुए कहना कि गौतम मणिपुर नाम का एक नगर था । वहां नागदत्त नामक ग्रह पति रहता था, उस ने इन्द्रदत्त नाम के अनगार को निर्मल भावनाओं के साथ शुद्ध आहार के द्वारा प्रतिलाभित किया तथा मनुष्य आयु का वध करके वह यहां पर महाबल के रूप में उत्पन्न हुआ । तदनन्तर उस ने साधुधर्म में दीक्षित हो कर यावत् सिद्ध पद को-मोक्ष को प्रान किया। निक्षेप को कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिये। ॥ सप्तम अध्ययन समाप्त ॥ टोका-छठे अध्ययन के अनन्तर सप्तम अध्ययन का स्थान है । सप्तम अध्ययन में श्री महाबलकुमार का जीवन वृत्तान्त संकलित हुआ । महाबल कुमार महापुर-नरेश महाराज बल के पुत्र थे, इन की माता का नाम सभद्रा देवी था । माता पिता ने महाबल का शिक्षण सुयोग्य कलाचार्यों की छत्रछाया तले करवाया था। युवक महाबल का ५०० श्रेष्ठ राजकुमारियों के साथ विवाह सम्पन्न हश्रा था। ५०० रानियों में मुख्य रानी श्रीमती रक्तवती जी थीं जो कि परम सुन्दरी अथच पतिपरायणा थीं। ___एक दिन चरम तीथ कर पतितपावन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का महापुर नगर के रक्ताशोक नामक उद्यान में पधारना हुआ। नागरिक तथा राजा एवं महाबलकुमार भगवान् के चरणों में उपस्थित हुए। भगवान् ने धर्मोपदेश किया। उपदेश सुनने के अनन्तर राजा तथा नागरिकों के चले जाने पर महाबल ने श्रावकोचित व्रतों का नियम ग्रहण किया। गणधर देव के पूछने पर भगवान् ने उसके पूर्व भव का वणन करते हुए कहा कि वह पूर्वभव में मणिपुर नगर का गाथापति था । उस ने इन्द्रदत्त नाम के एक तपस्वी अनगार को आहारादि से प्रतिलाभित करके मनुष्यायु का बन्ध किया था, वहां की आयु समाप्त कर यह बलनरेश की धमपत्नी सुभद्रा देवी के गर्भ से महाबल के रूप में उत्पन्न हुआ । तथा इस भव में मुनिधर्म के अनुष्ठान से सुबाहुकुमार की भांति सब प्रकार के कर्मबन्धनों का विच्छेद कर के इसी जन्म में मोक्षगामी बनेगा। उत्क्षेप शब्द प्रस्तावना का बोधक है । प्रस्तावना सूत्रकार के शब्दों में -जइ णं भन्ते ! समणेणंभगवया महावीरेणं जाव संपत्तणं सुहविधागाणं छठ्ठस्त अज्झयणस्स अयम? पराणत्त, सत्तमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेण जाव संपत्त के अट्टे पगणते ?, अर्थात् जम्बू स्वामी अपने परमपूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी से निवेदन करने लगे कि भगवन् ! यदि यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक के छठे अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन् ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक के सप्तम अध्ययन का क्या अर्थ फरमाया है ? - इस प्रकार है । तथा निक्षेप शब्द उपसंहार का सूचक है। उपसंहाररूप सूत्रपाठ निनोक्त है एवं खलु जम्बू ! समणे भगवया महावीरेण’ जाव संपत्तां सुहविवागाणं सत्तनस्स अज्झयणस्स अयम? परणत्त । तिबेमि । अर्थात् श्री सुधर्मा स्वामो कहने लगे कि हे जम्बू ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के सप्तम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ फरमाया है। इस प्रकार मैं कहता हूं । अर्थात् हे जम्बू ! मैंने जो कुछ कहा है वह प्रभु वीर के कथनानुसार ही कहा है, इस में मेरी अपनी ओर से कोई कल्पना नहीं की गई है। -तित्ययरागमणं जाव पुठवभवो-यहां पठित जाव-यावत् पद-तीर्थकर भगवान् के आने के पश्चात् बलनरेश तथा जनता एवं महाबल कुमार आदि का आना, उपदेश सुनना, उपदेश सुनने के अनन्तर For Private And Personal Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६९८] श्री विपाकसूत्रीय द्वतीय श्रुतस्कन्ध [सप्रम अध्याय महाबल कुमार का भगवान् से श्रावकधर्म का अंगीकार करना आदि सुबाहुकुमार के अध्ययन में वर्णित विस्तृत कथासन्दर्भ का तथा"-पडिलाभिते जाव सिद्धे-यहां पठित जाव-यावत् पद-नागदत्त गाथापति का इन्द्रदत्त मुनि का पारणा कराने के अनन्तर मनुष्य आयु का बांधना, संसार को परिमित करना और वहां से मृत्यु को प्राप्त हो जाने के अनन्तर महापुर नगर में महाराज बल के घर में महाबल के रूप में उत्पन्न होना और भगवान् महावीर स्वामी के पास दीक्षित होना आदि सबाहुकुमार के अध्ययन में वर्णित वृत्तान्त का परिचायक है। अन्तर मात्र इतना ही है कि सुबाहुकमार देवलोक तथा मनुष्य लोक में कई एक जन्म ले कर अन्त में महाविदेह क्षेत्र में साधु हो कर मुकिलाभ करेंगे जब कि महाबल कुमार प्रभु वीर के चरणों में दीक्षित हो कर इसी जन्म में सिद्ध हो गए। ऊपर के कथासन्दर्भ से यह भलीभाँति प्रमाणित हो जाता है कि सुपात्र को दिया गया भावनापूर्वक निर्दोष आहार जीवन के विकास कर कारण बनता है और परम्परा से इस मानव प्राणी को जन्म मरण के बन्धनों से मुक्ति दिलवाकर परमसाध्य निवार्णपद को उपलब्ध कराने में महान सहायता प्रदान करता है । अत: मुमुक्षु प्राणियों को सुपात्रदान का अनुसरण एवं आचरण करना चाहिए, यही इस अध्याय में वर्णित जीवनवृत्तान्त से ग्रहणीय सार है । ॥ सप्तम अध्याय समाप्त ।। For Private And Personal Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अथ अष्टम अध्याय इस अध्ययन की रचना भी सुपात्रदान के महत्त्ववोधनार्थ ही हुई है। धर्म का अाराधन इस मानव प्राणी को कितना ऊंचा ले जाता है तथा उसे अपने गन्तव्य स्थान को प्राप्त कराने में कितना सहायक होता है ? यह भद्रनन्दी के जीवनवृत्तान्तों से सहज ही में हृदयंगम हो सकता है । भद्रनन्दी का विवरण निम्नोक्त है-- मूल--'अट्ठमस्स उक्खेवो । सुघोसं णगरं । देवरमणं उज्जाणं । वीरसेणो जक्खो । अज्जुणो गया। तत्तवती देवी । भदनंदी कुमारे । सिरीदेवीपामोक्खाणं पंचसयाणं रायवर-- कन्नगाणं पाणिग्गहणं जाव पुब्वभवे । महाघोसे णगरे। धम्मघोसे गाहावती । धम्मसीहे अणगारे पडिलाभिते । जाव सिद्ध । निक्खेवो । ॥अट्ठमं अज्झयणं समत्तं ॥ पदार्थ-अहमस्स- अष्टम अध्ययन का । उक्खेवो-उत्क्षेप - प्रस्तावना पूर्व की भान्ति जान लेना चाहिये । सुघोसं-सुबोष नाम का। णगरं - नगर था। देवरमणं- देवरमण नामक। उज्जाणं-उद्यान था । वीरसेणे -वीरसेन । जक वो-यक्ष का आयतन -स्थान था । अज्जुणो - अर्जुन । राया-राजा था। तत्तवती-तत्त्ववती । देवी-देवी थी। भद्दनन्दी-भद्रनन्दी नामक । कुमारे-कुमार था। सिरीदेवीपामोक्खाणं - श्रीदेवीप्रधान । पंचसयाणं-५०० । रायवरकन्नगाणं-श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ । पाणिग्गहणं-पाणिग्रहण किया गया । जाव-यावत् । पुत्वभवे - पूर्वभव की पृच्छा की गई । महाघोसे - महाघोष नामक । णगरे - नगर था। धम्मघोसे-धर्मघोष । गाहावती - गाथापति था। धम्मसीहे-धर्मसिंह । अणगारे -अनगार को। पडिलाभिते-प्रतिलाभित किया गया । जाव-यावत् । सिद्ध-सिद्ध हो गया। निक्वेयो-निक्षेप - उपसंहार की कल्पना पूर्ववत् कर लेनी चाहिए । अट्ठमं-अष्टम । अज्झयणं-- अध्ययन । समत्त-सम्पूर्ण हुआ। मूलार्थ-अष्टम अध्ययन का उत्क्षेप-प्रस्तावना की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिये । सुघोष नामक नगर था । वहां देवरमण नामक उद्यान था। उस में वीरसेन नामक यक्ष का स्थान था। नगर में अर्जुन नाम के राजा का राज्य था। उस की तत्ववती रानी और भद्रनन्दी नामक कुमार था। उस का श्रीदेवीप्रमुख ५०० श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ । उस समय तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी उद्यान में पधारे । तदनन्तर भद्रनन्दी का भगवान से श्रावकधर्म स्वीकार करना । गणधरदेव गौतम स्वामी का भगवान से उस के पूर्वभव के सम्बन्ध में पुच्छा करनी और भगवान का उत्तर देते हुए फरमाना कि गौतम ! महाघोष नगर था । वहां (१) छाया-अष्टमस्योत्क्षेपः । सुघोषं नगरम् । देवरमणमुद्यानम् । वीरसेनो यक्षः, । अर्जुणो राजा, तस्ववती देवी । भद्रनन्दी कुमारः । श्रीदेवीप्रमुखाणां पंचशतानां राजवरकन्यकानां पाणिग्रहणम् । यावत् पूर्वभवः । महोघोष नगरम् । धर्मघोषो गाथापति : । धर्मसिंहोऽनगार: प्रतिलाभितो यावत् सिद्धः । निक्षेपः । ॥ अष्टमाध्ययनम् समाप्तम्।। For Private And Personal Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७०० श्री विपाकसूत्रीय द्वतीय श्रुतस्कन्ध [अष्टम अध्याय धर्मघोष नामक गाथापति रहता था। उसने धर्मसिंह नामक अनगार को प्रतिलाभित किया और मनुष्य श्रायु का बन्ध करके वह यहां पर उत्पन्न स्था। यावत उस ने सिद्धगति को उपलब्ध किया । निक्षप का कल्पना पूर्व को भाँति कर लेनी चाहिये।। ॥ अष्टम अध्याय समाप्त । टीका-प्रस्तुत अध्ययन के चरितनायक का नाम भद्रनन्दी है। भद्रनन्दी का जन्म सुघोष नगर में हुआ। पिता का नाम महाराज अजुन और माता का नाम श्रीतत्त्ववती देवी था। भद्रनन्दी का पालन पोषण बड़ी सावधानी से हुआ । योग्य कलाचार्य के पास इस ने विद्याध्ययन किया। माता पिता द्वारा युवक भद्रनन्दी का श्रीदेवीप्रमुख ५०० श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ विवाह सम्पन्न हुआ और भद्रनन्दी भी उन राजकुमारियों के साथ अपने महलों में सांसारिक सुखोपभोग करता हुआ सानन्द जीवन व्यतीत करने लगा। ___एक दिन चरम तीर्थकर पतितपावन भगवान् महावीर स्वामी संसार में अहिंसा का ध्वज फहराते हुए सुघोष नगर के देवरमण नामक उद्यान में विराजमान हो जाते है । भगवान् के पधारने की सूचना नागरिको को मिलने की ही देर थी, नागरिक बड़े समारोह के साथ वहां जाने लगे । गजा, भद्रनन्दी कुमार तथा नागरिकों के यथास्थान उपस्थित हो जाने पर भगवान् ने धर्मोपदेश दिया । उपदेश सुन कर लोग, राजा तथा नागरिक अपने २ स्थान को वापिस चले गये, तब भद्र नन्दो कुमार ने साधुधर्म को ग्रहण करने में अपनी असमथता प्रकट करते हुए भगवान् से श्रावकव्रतों को ग्रहण किया और तदनन्तर वह जिस रथ से आया था उस पर बैठ कर अपने स्थान को वापिस चला गया । भद्रनन्दी के चले जाने पर गौतमस्वामी ने भद्रनन्दी की मानवी ऋद्धि के मूल कारण को जानने की इच्छा से भगवान् महावीर के चरणों में उस के पूर्वभव को बतलाने का निवेदन किया । गौतम स्वामी के विनीत निवेदन का उत्तर देते हुए भगवान् कहने लगे कि गौतम ! यह पूर्वभव में महाघोष नगर का प्रतिष्ठित गृहपति था। इस का नाम धर्मघोष था। इस ने धर्मसिंह नाम के एक तपस्वी मुनिराज को श्रद्धापूर्वक आहार देने से जिस विशिष्ट पुण्य का उपार्जन किया, उसी के फलस्वरूप वह यहां आकर भद्रनन्दी के रूप में उत्पन्न हुआ और उसे सर्व प्रकार की मानवी संपत्ति प्राप्त हुई। श्रावकधर्म और तदनन्तर साधुधर्म का ययाविधि अनुष्ठान करके श्री भद्रनन्दी अनगार ने बन्धे हुए कर्मों की निर्जरा करके मोक्षपट को प्राप्त किया। इस का समस्त जीवनवृत्तान्त प्रायः सुबाहुकुमार के समान ही है, जो अन्तर है वह सूत्रकार ने स्वयं ही अपनी भाषा में स्पष्ट कर दिया है । - उक्खेवो- उत्क्षेप पद प्रस्तावना का संसूचक है । सूत्रकार के शब्दों में प्रस्तावना-जइ ण भंते ! समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्तण सुहविवागाणसत्तमस्स अज्झयणस्त अयमझे परणत, अट्ठमस्स ण भन्ते ! अज्झयणस्स सुहविवागाणं समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्तण के अटे पराणत्ते', अर्थात् यदि भगवन् ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवन महावीर स्वामी ने सुखविपाक के सप्तम अध्ययन का यह (पोत) अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन् ! यावत् मोक्षसम्माप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के अष्टम अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है । इस प्रकार है । तथा-निक्खेवो—निक्षेप शन्द से अभिमत पाठ निम्नोक्त है एवं खलु जम्बू ! समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्ते ण सुह विवागाण अहमस्स अज्झयणस्स अयम? पराणत्ते, ति बेमि--अर्थात् हे जम्बू ! इस प्रकार यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के अष्टम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। मैंने जैसा वीर प्रभु For Private And Personal Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। [७०१ मुना है वैसा ही तुम्हें सुनाया है । इस में मेरी ओर से अपनी कोई कल्पना नहीं की गई है। -पाणिग्गहण जाव पुव्वभवे--यहां पठित जाव-यावत् पद---श्रीभद्रनन्दी का श्री सुबाहुकुमार की भाँति अपने महलों में अपनी विवाहित स्त्रियों के साथ सांसा रक कामभागों का उपभोग करते हुए विहरण करना, भगवान् महावीर स्वामी का वहां आना, राजा, भद्र नन्दी तथा नगर की जनता का प्रभुचरणों में उपस्थित होना तथा उपदेश सुन कर वापिस अपने २ स्थान को चले जाना । तदनन्तर भद्रनन्दी का साधुवृत्ति के लिये अपने को अशक्त बता कर भगवान् से श्रावकधर्म अंगीकार करना और वहां से उठ कर वापस अपने महलों में चले जाना इत्यादि भावों का तथा-पडि नाभिते जाव सिद्धे--यहां पटित जाव--यावत् पद-धमेघोष गाथापति का संसार को परिमित करने के साथ २ मनुष्यायु का बान्धना, आयुपूर्ण होने पर महाराज अर्जुन के घर भद्रनन्दी के रूप में उत्पन्न होना । गौतम स्वामी का--भगवन् ! क्या भद्र नन्दी आपश्री के चरणों में दीक्षित होगा', यह प्रश्न करना, भगवान का-हां में उत्तर देना । तदनन्तर भगवान् का विहार कर जाना, भद्रनन्दी का तेलापौषध करना, उस में भगवान के पास दीक्षित होने का निश्चय करना । भगवान् का फिर पधारना, भगवान् का धर्मोपदेश देना, उपदेश सुन कर भद्रनन्दी का माता पिता से आज्ञा लेकर साधुधर्म को अगीकार करना और उस साधना द्वारा केवल ज्ञान की प्राप्ति करना-आदि भावों का परिचायक है। सुबाहुकमार और भद्रनन्दी जी के जीवनवृत्तान्त में इतना ही अन्तर है कि भी सुबाहुकुमार जी देवलोक श्रादि के अनेकों भव करने के अनन्तर मुक्ति में जायेंगे जब कि श्री भद्रनन्दी इसी भव में मुक्ति में पहुंच जाते हैं। ॥ अष्टम अध्याय समाप्त ।। For Private And Personal Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अथ नवम अध्याय इस अध्ययन में श्री महाचन्द्र कुमार का जीवनवृत्तान्त वर्णित हुअा है । इस का पदार्थ भी पूर्व अध्ययनों के समान हो है, केवल नाम और स्थानादि में अन्तर है, जो कि नीचे के सत्रपाठ से ही सुस्पष्ट हो जाता है - मूल- 'नवमस्स उक्खेव । चम्पा नगरी । पुण्णभद्दे उज्जाणे । पुण्णभद्दे जक्खे । दत्ते राया । रत्तवती देवी । महचंदे कुमारे जुबराया । सिरीकंतापामोक्खाणं पंचसयाणं रायवरकन्नगाणं पाणिग्गहणं । जाब पुवभवे तिगिच्छिया णगरी । जितसत्तू गया। धम्मवीरिए अणगारे पडिलाभिते जाव सिद्ध । निक्खेवो । ॥ नवमं अज्झयणं समत्तं ॥ पदार्थ-नवमस्स-नवम । अज्झयणस्त-अध्ययन का । उक्खेवो - उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् जानना चाहिए । चंपा नगरी-चंपा नाम की नगरी थी, वहां । पुराणभद्दे-पूर्णभद्र नामक | उज्जाणे-उद्यान था, उस में । पुराणभद्दे - पूर्णभद्र । जक्खे - यक्ष का स्थान था । दत्त-दत्त नाम का । राया-राजा था । रत्तवती-रक्तवती । देवी - देवो - रानी थी। महचंदे - महाचन्द्र । कुमारे - कुमार । जुवराया- युवराज था । सिरीकंतापामोक्खाण- श्रीकान्ताप्रमुख । पंचसयाण-५०० । रायवाकन्नगाणं - श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ । पाणिग्गहण -पाणिग्रहण हुआ । जाव-यावत् । पुत्वभवो-पूर्वभव की पृच्छा की गई । तिगिला-चिकित्सिका नामक । णगरी-नगरी थी। जितसत्त - जितशत्र नामक । क । राया-राजा था। धम्मवीरिए-धर्मवीर्य । अणगारे -अनगार को । पडिलाभिते - प्रतिलाभित किया गया। जावयावत् । सिद्ध-सिद्ध हुआ । निक्खेत्रो - निक्षेप - उपसंहार की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिये । नमं- नवम । अज्झयण अध्ययन । समतौं सम्पूर्ण हुआ। मूलार्थ - नवम अध्ययन का उत्क्षेप–प्रस्तावना पूर्व की भाँति जान लेना चाहिये। जम्बू ! चम्पा नामक नारी थी, वहां पूर्णभद्र नामक उद्यान था, उस में पूर्णभद्र यक्ष का आयतन-स्थान था। वहां के राजा का नाम दत्त था और रानी का नाम रक्तवती था, उन के युवराजपदालंकृत महाचन्द्र नाम का कुमार था, उस का श्रीकान्ताप्रमुख ५०० श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ विवाह हुआ था। एक दिन पूर्णभद्र उद्यान में तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी पधारे । महाचन्द्र ने उन से श्रावक के बारह व्रतों का ग्रहण किया । गणवर देव गौतम स्वामी ने दत्त के पूर्वभव की पृच्छा की। भगवान महावीर ने उत्तर देते हुए कहा कि चिकित्सिका नामक नगरी थी। महाराज (१) छाया - नवमस्योत्क्षेप: । चम्पा नगरी । पूर्णभद्रमुद्यानम् । पूर्णभद्रो यक्षः । दत्तो राजा । रक्तवती देवी । महाचन्द्र: कुमारो युवराजः । श्रीकान्ताप्रमुखाणां पंचशतानां राजवरकन्यकानां पाणिग्रहणम् । यावत् पूर्वभवः । चिकित्सिका नगरी । जितशत्रू राजा। धर्मवीर्योऽनगार: प्रतिलाभितो यावत् सिद्धः । निक्षेपः । ॥ नवममध्ययनं समाप्तम् ॥ For Private And Personal Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय हिदी भाषा टीका सहित । [७०३ जितशत्रु वहां का राजा था। उस ने धर्मवीर्य अनगार को प्रति लाभित किया । यावत् सिद्धपदमोक्षपद को प्राप्त किया । ॥ नवम अध्ययन समाप्त ।। टीका - अष्टम अध्ययन के अनन्तर नवम अध्ययन का स्थान है। नवम अध्ययन की प्रस्तावना को सूचित करने के लिये सूत्रकार ने- उक्खेव- यह पद दे डाला है । उत्क्षेप पद से अभिमत प्रस्तावनारूप सूत्रांश-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरण जाव सम्पत्तरोण सुरविवागाण अठुमरस अज्मयणस्स अयम? पराणत्त, नवमस्स ण भंते ! अज्झयणस्स समणेण भगवया महावीरेण जाव सम्पत्तण के अट्टे पराणते?, अर्थात् यदि भदन्त ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के अधम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन् ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण मगवान् महावीर ने सुविपाक के नवम अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? - इस प्रकार है। प्रस्तुत अध्ययन के पदार्थ में चरित्रनायक का नाम महाचन्द या महचन्द्र है । यह महाराज दत्त का पुत्र और रक्तवती का आत्मज तथा युवराज पद से अलंकृत था। इस का ५०० श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ विवाह हुआ था । इस की पटरानी का नाम श्री कान्तादेवी था । पूर्व भव में यह चिकित्सिका नगरी का जितशत्रु नामक राजा था। प्रजापरायण होने के अतिरिक्त यह धर्मपरायण भी था । इस ने धर्मवीर्य नाम के एक अनगार को श्रद्धापूर्वक आहारदान दिया । उस के प्रभाव से यह इस चम्पानगरी में महाचन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ । जब तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी चम्पा के पूर्णभद्र उद्यान में पधारे तो महाचन्द्र ने श्रावक के बारह व्रतों का नियम ग्रहण किया, इत्यादि मोक्षपर्यन्त सम्पूर्ण वृत्तान्त प्रथम अध्ययन गत सुबाहुकुमार के वर्णन के समान ही समझना चाहिए । केवल नाम और स्थानादि का अन्तर है। अन्त में यह इसी भव में सिद्ध गति को प्राप्त हो जाता है। निक्षेप-शब्द का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ १८८ पर किया जा चुका है । प्रस्तुत में निक्षेप शब्द से अभिमत सूत्रपाठ निम्नोक्त है -एवं खलु जम्बू ! समणेण भगवया महावीरेण जाव सम्पत्तण सुहवि वागाण नवमस्त अझयणस्त अयम पराणत्ते, सिबेमि-अर्थात् आर्य सुधर्मा स्वामी फरमाने लगे कि हे जम्बू ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के नवम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। मैंने जैसा भगवान् से सुना था वैसा तुम्हें सुना दिया है। इस में मेरी अपनी श्रोर से कोई कल्पना नहीं की गई है। -पाणिग्गहण जाव पुठवभवो-तथा-पडिलाभिते जाव सिद्धे- यहां पठित जावयावत् पद से संसूचित पदार्थ पीछे पृष्ठ ७०१ पर लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना ही है कि वहां श्री भद्रनन्दी का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में श्री महाचन्द्र कमार का। तथा वहां भद्रनन्दी के नगर का, माता पिता का, उस के पूर्वभवगत नामादि का उल्लेख है, जब कि यहां महाचन्द्र के नगर का, माता पिता का, तथा महाचन्द्र के पूर्वभवीय नाम आदि का। सारांश यह है कि नामगत भिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है। प्रस्तुत अध्ययन में भी सुपात्रदान को सर्वोत्तम प्रमाणित करने के लिये एक धार्मिक आख्यान की संक्षिसरूप से संकलना की गई है। यह नवम अध्ययन का पदार्थ है। ॥ नवम अध्ययन समाप्त ॥ For Private And Personal Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अथ दशम अध्याय यह दसवां अध्ययन भी पहले नौ अध्ययनों की भाँति सुपात्रदान और संयमाराधन के परिणाम को हृदयंगम कराने के लिये रक धार्मिक कथासंदर्भ के रूप में अंकित किया गया है। इस अध्ययन में वर्णित हुए वरदत्तकुमार के जीवनवृत्तान्त का विवरण निम्नोक्त है मूल--'दसमस्स उक्खेवो । एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं साएयं णाम णगरं होत्था । उत्तरकुरू उज्जाणे । पासामियो जक्खो । मित्तणंदी राया। सिरीकन्तादेवी । वरदत्ते कुमारे । वरसेणापामोक्खाणं पंचदेवीसयाणं रायवरकन्नगाणं पाणिग्गहणं । तित्थगरागमणं । सावगधम्मं । पुन्वभवो । सयदुवारे णगरे । विमलवाहणे राया । धम्मरुई अणगारे पडिलाभिते । मणुस्साउए बद्ध । इहं उप्पन्ने । सेसं जहा सुवाहुस्स कुमारस्स । चिन्ता । जाव पव्वज्जा । कप्पंतरे । ततो जाव सव्वट्ठसिद्ध । ततो महाविदेहे जहा दिढपतिएणे जाव सिज्झिहिति ५ । एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं दसमस्स अज्झयणस्स अयमढे पएणते, त्ति बेमि । सेवं भंते !, सेवं भंते ! सुहविवागा। । दसमं अज्झयणं समत्तं ॥ पदार्थ-दसमस्त-दशम अध्ययन का । उ वेवो-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् जानना चाहिये । एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही । जंबू !--हे जम्बू ! । तेण कालेण-उस काल में। तेज समएण-उस समय में । सारयं--साकेत । णाम-नामक । णगर-नगर । हात्था—था । उत्तरकुरू-उत्तरकुरु नाम का। उजनाणे--उद्यान था, वहां । पासामि प्रो--पाशामृग नामक | जम्वो -यक्ष-यक्ष का यक्षायतन था। नित्तणदो-मित्रनन्दी । रापा-राजा था। सिरीकता--श्रीकान्ता नामक । देवी-देवी अर्थात् रानी थी। वरदत्त --वरदत्त नामक । कुमारे-कुमार था। वरसेनापामोक्खाण-वरसेनाप्रमुख । पंचदेवीसयाणं रायवरकन्नगाण --पांच सौ श्रेष्ठ राजकुमारियों का । पाणिग्गज--पाणिग्रहण -विवाह हुमा । तिस्थगरागमण-तीर्थकर महाराज का आगमन हुआ । सावगम्म-श्रावकधर्म का अंगीकार करना । (१) छाया-दशमस्योत्क्षेपः । एवं खलु जम्बू: ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये साकेतं नाम नगरमभूत् । उत्तरकुरु उद्यानम् । पाशामृगो यक्षः । मित्रनन्दी राजा । श्रीकान्ता देवी । वरदत्त: कुमारः । वरसेनाप्रमुखाणां पंचदेवीशतानां राजवरकन्यकानां पाणिग्रहणं । तीर्थकरागमनम् । श्रावधम् । पूर्वभवः । शतदारं नगरम् । विमलवाहनो राजा । धर्मरुचिरनगार: प्रतिलाभित: । मनुष्यायुर्बद्धम् । इहोत्पन्नः। शेषं यथा सुबाहो: कुमारस्य चिन्ता । यावत् प्रवज्या ।कल्यान्तरे ततो यावत् सवार्थसिद्ध । ततो महाविदेहे यथा दृढप्रतिज्ञो यावत् सेत्स्यति ५ । एवं खलु जम्बू: ! श्रमणेण भगवता महावीरेण यावत् संप्राप्तेन सुखविपाकानां दशमत्य अध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञप्त: । इति ब्रवीमि । तदेवं भदन्त ! तदेव भदन्त !, सुखविवाका:। ॥ दशममध्ययन समाप्तम् ।। For Private And Personal Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दशम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [७०५ पुश्वभवो--पर्वभव की पृच्छा की गई । सयदुवारे--शतद्वार नामक । णगरे--नगर था। विमलवाहणे राया-विमलवाहन नामक राजा था.। धम्मरुई--धर्मरुचि । अणगारे--अनगार को । पडिलाभिते--प्रतिलाभित किया. गया, तथा । मणुस्साउए-मनुष्य आयु का । बद्धे-बन्ध किया । इहं-यहां पर । उप्पन्ने-उत्पन्न हुआ। सेसं-शेष वर्णन । जहा-जैसे । सुवाहुस्स-सुबाहु । कुमारस्स-कुमार का है, वैसे ही जानना चाहिये। चिन्ता-चिन्ता अर्थात् पौषध में भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में दीक्षित होने का विचार । जाव-यावत् । पव्वज्जा--प्रव्रज्या--साधुवृत्ति का ग्रहण करना । कप्पंतरे-कल्यान्तर में--अन्यान्य देवलोकों में उत्पन्न होगा। ततो--वहां से | जाव--यावत् । सव्वसिद्धे-सर्वार्थसिद्ध नामक विमान में उत्पन्न होगा । ततो--वहां से । महाविदेहे--महाविदेह क्षेत्र में जन्मेगा । जहा--जैसे । दिढपतिराणे-दृढप्रतिज्ञ । जावयावत् । सिज्झिहिति ५--सिद्ध होगा, ५ । एवं खलु-इस प्रकार निश्रय ही । जंबू !-हे जम्बू ! । समणेणंश्रमण । भगवया-भगवान् । महावीरेण --महावीर । जाव--यावत् । संपत गां--मोक्ष प्राप्त ने। सुहविवागाणं--सुखविपाक के । दसमस्स--दशम । अज्झयणस्त--अध्ययन का। अयय?—यह अर्थ । पराणत्त-प्रतिपादन किया है। सेवं भंते!-भगवन् ! ऐसा ही है। सेवं भंते !-भगवन् ! ऐसा ही है । सुहविवागा-सुखविपाकविषयक कथन । दसमं--दशम । अज्झयणं-अध्ययन । समत्त-सम्पूण हुआ। त्ति बेमि-इस प्रकार मैं कहता हूं। मूलार्थ-जम्बू स्वामी-भगवन् ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने यदि सुखविपाक के नवम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ वर्णन किया है तो भदन्त ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने सुखविपाक के दशम अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? सुधर्मा स्वामी-जम्बू ! उस काल और उस समय साकेत नाम का सुप्रसिद्ध नगर था। वहां उत्तरकुरु नामक उद्यान था, उस में पाशामृग नाम के यक्ष का यक्षायतन-स्थान था। साकेत नगर में महाराज मित्रनन्दी का राज्य था। उस की रानी का नाम श्रीकान्ता और पुत्र का नाम वरदत्त था। कुमार का वरसेनाप्रमुख ५०० श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण-विवाह हुआ था। तदनन्तर किसी समय उत्तरकुरु उद्यान में तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी का आगमन हुआ । वरदत्त ने भगवान् से श्रावकधर्म को ग्रहण किया। गणधरदेव के, पूछने पर भगवान् महावीर वरदत्त के पूर्वभव का वर्णन करते हुए कहने लगे कि हे गौतम ! शतद्वार नामक नगर था । उस में विमलवाहन नाम का राजा राज्य किया करता था । उसने धर्मरुचि नाम के अनगार को आहारादि से प्रतिलम्भित किया तथा मनुष्य आयू को बाधा। वहा की भवास्थांत को पूर्ण कर के वह इ साकेतनगर में महाराज मित्रनन्दी की रानी श्रीकान्ता के उदर से वरदत्त के रूप में उत्पन्न हुआ शेष वृत्तान्त सुबाहुकुमार की भाँति समझना अर्थात् पौषधशाला में धर्मध्यान करते हुए उसका विचार करना और तीर्थकर भगवान के आने पर दीक्षा अंगीकार करना। मृत्यधर्म को प्राप्त कर वह अन्यान्य अर्थात सौधर्म आदि देवलोकों में उत्पन्न होगा। वरदत्त कुमार का जीव स्वर्गीय तथा माननीय अनेकों भव धारण करता हुआ अन्त में सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न होगा, वहां से च्यव कर महाविदेहक्षेत्र में उत्पन्न हो दृढप्रतिज्ञ की तरह यावत् सिद्धगति को प्राप्त करेगा । हे जम्ब ! इस प्रकार यावत मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक के दशवें अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। ऐसा मैं कहता हूँ। जम्बूस्वामी-भगवन् ! आप का यह सुखविपाकविषयक कथन जैसा कि आपने फरमाया ॥ दशम अध्ययन समाप्त । For Private And Personal Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ७०] www.kobatirth.org श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [ दशम अध्याय टीका - दसमस्त उक्खेवो - दशमस्योत्क्षेपः इन पदों से सूत्रकार ने दशम अध्ययन की प्रस्तावना सूचित की है, जो कि सूत्रकार के शब्दों में- जति ग' भंते ! समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्त सुहविवागाणं णवमस्स अज्कयणस्स मट्ठे पराणत्ते, दसमस्त णं भंते! अज्झयणस्स समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्ते के श्रट्टे पराणत्त १, इस प्रकार है । इन पदों का अर्थमूलार्थ में दिया जा चुका है । । प्रस्तुत अध्ययन का चरित्रनायक वरदत्तकुमार है कुमार के समान ही है। जहां कहीं नाम और स्थानादि का दिया है । यह अन्तर नीचे की पंक्तियों में दिया जाता है • सुबाहुकुमार१ - जन्मभूमि- हस्तिशीर्ष । २- उद्यान - पुष्पकरंडक | ३ - पक्षायंतन - कृतवनमालप्रिय । ४- - पिता - अदीनशत्रु | ५- माता - धारिणी देवी । ६- प्रधानपत्नी पुष्पचूला । ७ - पूर्वभव का नाम – सुमुख गाथापति । 5- जन्मभूमि हस्तिनापुर । ६- प्रतिज्ञाभित अनगार - श्री सुदत्त । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir वरदत्त का जीवनवृत्तान्त भी प्राय: सुबाहु - अन्तर है, उस का निर्देश सूत्रकार ने स्वयं कर वरदत्तकुमार - १ - जन्मभूमि - साकेत । २-उद्यान - उत्तरकुरु । ३-- यज्ञायतन - पाशामृग । ४ - पिता - मित्रनन्दी | ५- माता - श्रीकान्तादेवी । ६- प्रधानपत्नी - वरसेना । ७- पूर्वभव का नाम - विमलवाहन नरेश । 5- जन्मभूमि शतद्वार नगर | ६- प्रतिलामित अतगार - श्री धर्मचि अन्तर नहीं है । दोनों ही राजकुमार थे। दोनों का इसके अतिरिक्त दोनों की धार्मिक चर्या में कोई ऐश्वर्य समान था। दोनों में श्रमण भगवान् महावीर की धर्मदेशना के श्रवण से धर्माभिरुचि उत्पन्न हुई थी। दोनो ने प्रथम श्रावकधर्म के नियमों को ग्रहण किया और भगवान् के विहार कर जाने के अनन्तर पौधशाला में पौषधोपवास किया तथा भगवान् के पास दीक्षित होने वालों को पुण्यशाली बतलाया एवं भगवान् के पुन: पधारने पर मुनिधर्म में दीक्षित होने का संकल्प भी दोनों का समान है । तदनन्तर संयमव्रत का पालन करते हुए मनुष्य भव से देवलोक और देवलोक से मनुष्यभव, इस प्रकार समान रूप से गमनागमन करते हुए अन्त में महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर और वहां पर चारित्र की सम्यग आराधना से कर्मरहित हो कर मोक्ष गमन भो दोनों का समान ही होगा। ऐसी परिस्थिति में दूसरे अध्ययन से ले कर दसवें अध्ययन के अर्थ को यदि प्रथम अध्ययन के अर्थ का संक्षेप कह दिया जाये तो कुछ अनुचित न होगा । दूसरे शब्दों में कहें तो इन अध्ययन में प्रथम अध्ययन के अर्थ को ही प्रकारान्तर या नामान्तर से अनेक बार दोहराया गया है, ताकि मुमुक्षु प्राणी को दानधम और चारित्रधर्म में विशेष अभिरुचि उत्पन्न हो तथा वह उन का सम्यगुरूप से आचरण करता हुआ अपने ध्येय को प्राप्त कर सके J प्रश्न - सेसं जहा सुबाहुस्स — इतने कथन से वरदत्त के अवशिष्ट जीवनवृत्तान्त का बोध हो सकता था, फिर आगे सूत्रकार ने जो - चिन्ता जाव पव्वज्जा आदि पद दिये है, इन का क्या प्रयोजन ? अर्थात् इनके देने में क्या तात्पर्य रहा हुआ है ? उत्तर --- सेसं - इत्यादि पदों से काम तो चल सकता था, पर सूत्रकार द्वारा - जहा- यथा - शब्द से For Private And Personal Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दशम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [७०७ -पत्तदोः नित्यसम्बन्ध:-इस न्याय से सम्प्राप्त तहा शब्द से जिन पाठों अथवा जिन बातों का ग्रहण करना अभिमत है, उन के स्पष्टीकरणार्थ हो ये -चिन्ता -आदि पदों का ग्रहण किया गया है। इस में उस समय की लेखनप्रणाली या प्रतिपादनशेली ही कारण कही या मानी जा सकती है। -सावग्गधम्म चिन्ता जाव पवज्जा-इत्यादि संक्षिप्त पाठों में मूलपाटगत आदि और अन्त के मध्यवर्ती पाठों के ग्रहण की ओर संकेत किया गया है । सूत्रकार की यह शेली रही है कि एक स्थान पर समग्र पाठ का उल्लेख करके अन्यत्र उसके उल्लेख की आवश्यकता होने पर समग्र पाठ का उल्लेख न करके प्रारम्भ के पद के साथ जाव-यावत् पद दे कर अन्त के पद का उल्लेख कर देना, निस मे कि मध्यवर्ती पदों का संग्रह करना सूचित हो सके। इसी शैली का आगमों में प्राय: सर्वत्र अनुसरण किया गया है। -सावगधम्मं०-यहां के बिन्दु पृष्ठ ५७० पर पढ़े गये-पडिवज्जति २ त्ता तमेव रह-इत्यादि पद का तथा चिन्ता जाव पावज्जा--यहां पठित जाव-यावत् पद पृष्ठ ६४५ पर पढे गये-धन्ने ण ते गामागर. जाव सन्निवेसा-इत्यादि पदों का तथा-ततो जाव सव्वट्ठसिद्धे-यहां पठित जाव-यावत् से पृष्ठ ६६६ पर पढे गये-देवलोयाउ आउखएण भवखरण-इत्यादि पदों का संसूचक है। -दिढपइराणे जाव.सिझिहिति-यहां पठित जाव-यावत् पद-ौपपातिक सूत्र में वर्णित दृढपतिज्ञ के जीवन के वर्णक पाठ को ओर संकेत करता है। दृढप्रतिज्ञ का जीवन वृत्तान्त पीछ पृष्ठ ६७७ पर लिखा जा चुका है । तथा-सिजिमाहिति ५-यहां के अंक से भी अभिमत पाठ पृष्ठ ६७७ पर, तथा महावीरेण जाव संपत्तण-यहां पठित जाव-यावत पद से अभिमत-श्राइगरण-इत्यादि पाठ ५४३ से लेकर ५४८ तक के पृष्ठों पर वर्णित हो चुका है। -सेवं भंते !. सेवं भते ! सुहविवाग-इन पदों से जम्बू स्वामी की विनयसम्पत्ति और श्रद्धासंभार का परिचय मिलता है । गुरुजनों के मुखारविन्द से सुने हुए निर्ग्रन्थप्रवचन पर शिष्य की कितनी आस्था होनी चाहिये ?-यह इन पदों से स्पष्ट भासमान हो रहा है । जम्बू स्वामी कहते हैं कि हे भगवन् ! आपने जो कुछ फरमाया है, यह सर्वया-अक्षरशः यथार्थ है, असंदिग्ध है, सत्य है । विपाकश्रुत के सुखविपाक नामक द्वितीयश्रुतस्कन्ध के दश अध्ययनों में भिन्न भिन्न धार्मिक व्यक्तियों के जीवनवृत्तान्तों के वर्णन में एक ही बात की बार २ पुष्टि की गई है । सुपात्रदान और संयमव्रत का सम्यग आराधन मानवजीवन के आध्यात्मिक विकास में कितना उपयोगी है और उस के आचरण से मनुष्य अपने साध्य को कैसे सिद्ध कर लेता है ? इस विषय का इन अध्ययनों में पर्याप्त स्पष्टीकरण मिलता है। विकासगामी साधक के लिये इस में पर्याप्त सामग्री है । सुपात्रदान यह दान के ऐहिक और पारलौकिक फल में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। इस लिये सुखविपाक के दशों अध्ययनों में इस के महत्त्व को एक से अधिक बार प्रदर्शित करने का प्रयत्न किया गया है । अंगग्रंथों में विपाकसूत्र ग्यारहवां अंगसूत्र है । विपाकसूत्र दु:खविपाक और सुखविपाक इन दो विभागों में विभक्त है । दुःखविपाक में मृगापुत्र आदि दस अध्ययन वर्णित हैं और सुखविपाक में सुबाहुकुमार आदि दस अध्ययन । प्रस्तुत वरदत्त नामक अध्ययन सुखविगक का दसवां अध्ययन है । इस में श्री वरदत्त कुमार का जीवनवृत्तान्त प्रस्तावित हुश्रा है, जिस का विवरण ऊपर दिया जा चुका है। इस अध्ययन की समाप्ति पर सुखविपाक समाप्त हो जाता है। ॥ दशम अध्याय समाप्त। For Private And Personal Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir उपसंहार सूत्रकार ने जैसे प्रत्येक अध्ययन की प्रस्तावना और उस का उपसंहार करते हुए उत्क्षेप और निक्षेप इन दो पदों का उल्लेख करके प्रत्येक अध्ययन के प्रारम्भ और समाप्ति का बोध कराया है, उसी क्रम के अनुसार श्री विपाकत का उपसंहार करते हुए सत्रकार मंगलपूर्वक समाप्तिसूचक पदों का उल्लेख करते हैं-- मूल-'नमो सुयदेवयाए। विवागसुयस्स दो सुयक्खंधा-दुहविवागो य सुहविवागो य । तत्थ दुहविवागे दस अज्झयणा एक्कसरगा दससु चेव दिवसेसु उदिसिज्जन्ति । एवं सुहविवागे वि । सेसं जहा आयारस्स । ॥एक्कारसमं अंगं सम्मत्तं ।। .. पदार्थ नमो - नमस्कार हो। सुयदेवयाए -श्रुतदेवता को । विवागसुयस्स-विपाकश्रुत के । दो-दो । सुयखंधा-श्रुतस्कंध हैं, जैसेकि । दुहविवागो य-दुःखविपाक और । सुहविवागो य सुखविपाक । तत्थ-वहां । दुहविवागे-दु:खविपाक में । दस-दस । अज्झयणा-अध्ययन । एक्कसरगा-एक जैसे । दस तु चेव-दस ही । दिवसेतु-दिनों में । उद्दिसिज्जति - कहे जाते हैं । एवं-इसी प्रकार । सुहविवागे वि-सखविपाक में भी समझ लेना चाहिये । सेसं-शेष वर्णन । जहा - जैसे । आयारसम- आचारांग सूत्र का है, वैसे यहां पर भी समझ लेना चाहिये । एक्कारसम-एकादशवां । अंग-अंग । सम्मत्त - सम्पूर्ण हुआ। मूलार्थ-श्रुतदेवता को नमस्कार हो। विपाकश्रुत के दो श्रु तस्कंध हैं। जैसेकि - १ - दुःखविपाक और २-सुखविपाक । दुःखविपाक के एक जैसे दश अध्ययन हैं जो कि दस दिनों में प्रतिपादन किये जाते हैं । इसी तरह सुखविपाक के विषय में भी जानना चाहिए अर्थात. उस के भी दश अध्ययन एक जैसे हैं और दश ही दिनों में वर्णन किये जाते हैं। शेष वर्णन आचारांग सूत्र की भाँति समझ लेना चाहिये। . ॥ एकादशवां अंग समाप्त ।। टीका-मंगलाचरण की शिष्ट परम्परा अत्यन्त प्राचीन है । ग्रन्थ के प्रारम्भ और समाप्ति के अवसर पर मंगलाचरण करना यह शिष्ट सम्मत आचार है । इसी शिष्ट प्रथा का अनुसरण करते हुए सत्रकार ने सूत्र की समाप्ति पर - नमो सयदेवयाए-नमः श्रुतदेवतायै-इन पदों द्वारा मंगलाचरण का निर्देश किया है। इन का अर्थ अग्रिम पंक्तियों में किया जा रहा है । किसी २ प्रति में यह पाट उपलब्ध नहीं भी होता। (१) छाया-नमः श्रुतदेवताय । विपाकश्रुतस्य द्वौ श्रुतस्कन्धौ-दुःखविपाकः सुखविपाकश्च । तत्र दुःखविपाके दश अध्ययनानि एकसदृशानि दरास्त्र दिवसेषु उद्दिश्यन्ते । एवं सुखविपाळेति । प्रोषं यथा आचारस्य । ॥ एकादशांगं समाप्तम् ॥ For Private And Personal Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir उपसंहार हिन्दी भाषा- टीका सहित । [७०६ श्री विपाकश्रत के १-दुःखविपाक ओर सुखविपाक ये दो तस्कन्ध हैं । दुःखविपाक-जिस में दुष्ट कर्मों का दुःखरूप विपाक - परिणाम कथाओं के रूप में वर्णित हो वह दुःखविपाक है । सुखविपाक-जिस में शुभ कर्मों का सुखरूप विपाक-फल का विशिष्ट व्यक्तियों के जीवनवृत्तान्तों से बोध कराया जावे उसे सुखविपाक कहते हैं । दुःखविपाक के और सुखविपाक के दस २ अध्ययन हैं । इस प्रकार कुल. बीस अध्ययनों में श्रुतविपाक नाम के ग्यारहवें अंग का संकलन हुअा है । विपाकसूत्र के पूर्वोक्त २० अध्ययनों के अध्ययनक्रम का भी सूत्रकार ने स्वयं ही स्पष्ट उल्लेख कर दिया है। सूत्रकार का कहना है कि विपाकसूत्रगत दुःखविपाक के दस अध्ययन दस दिनों में बांचे जाते हैं और सुखविपाक के दस अध्ययन भी दुःखविपाक की भाँति- दस दिनों में प्रतिपादन किये जाते हैं। उपसंहार में सर्वप्रथम सूत्रकार ने तदेवता को नमस्कार किया है । यह नमस्कार अभिमतग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति पर किया जाता है और यह मंगल का सूचक तथा ग्रन्थ के निर्विघ्न पूर्ण हो जाने के कारण उत्पन्न हुए हर्षविशेष का परिचायक है। मनोविज्ञान का यह सिद्धान्त है कि सफलता, सफल व्यक्ति को अपने इष्टदेव का स्मरण अवश्य कराया करती है । उसो के. फलस्वरूप यह मङ्गलाचरण है । . श्रु तदेवतायह शब्द तीर्थंकर या गणधर महाराज का बोधक है । अर्थात् इन पदों से सूत्रकार ने अर्थरूप से जैनेन्द्र वाणी के प्रदाता तीर्थंकर महाराज तथा सूत्ररूप से जैनेन्द्रवाणी के प्रदाता गणधर महाराज का स्मरण करके अपने पुनीत श्रद्धासंभार का परिचय दिया है। -एक्कसरगा-एकसहशानि- इन पदों का अर्थ होता है-एक समान, एक जैसे । तात्पर्य यह है कि दुःखविपाक में जितने भी अध्ययन संकलित है वे सब एक समान हैं, इसी प्रकार सुखविपाक के दश अध्ययन' भी एक जैसे हैं । यहां पर समानता परिणामगामिनी है अर्थात् प्रथमश्रुतस्कन्ध में वर्णित अध्ययनों का अन्तिम परिणाम दुःख और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में वर्णित अध्ययनों का अन्तिम परिणाम सुख है । इस दुःख और सुख की वणित व्यक्तियों के जीवन में समानता होने से इन को एक समान कहा गया है । अथवा वर्णित व्यक्तियों के श्राचार में अधिक समानता होने की दृष्टि से भी ये एक समान एक जैसे कहे जा सकते हैं । अथवा दस दिनों में इन दस अध्ययनों के वर्णन होने से इन को समानता सुतरां स्पष्ट हो जाती है। अथवा दु:खविपाक तथा सुखविपाक के अध्ययनों में वर्णित मृगापुत्र आदि तथा सुबाहुकुमार आदि सभी महापुरुष अन्त में परमसाध्य निवार्ण पद को प्राप्त कर लेते हैं । इस दृष्टि से भी ये सभी अध्ययन समान कहे गए हैं। विपा कश्रत के अध्ययनादि क्रम को विशेष रूप से जानने के लिये श्री प्राचारांग सूत्र क अध्ययन अपेक्षित है । यह बात-सेसं जहा आयारस्त-इन पदों से ध्वनित होती है। अत: जिज्ञासु पाठकों को श्री आचारांग सूत्र का अध्ययन अवश्य करना चाहिये। ... सूत्रकार ने-सेसं जहा आयारस्त-यह कह कर जो विपाकसूत्र के शेष वर्णन को आचाराङ्ग सूत्र के समान संसूचित किया है, इस से यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि सूत्रकार को आचाराङ्गपूत्र की विपाकसत्र के साथ कौनसी समानता अभिमत है ? तथा आचारांग सूत्र के कौनसे वर्णन के समान विपाकसत्र का वर्णन (१) श्रुत आगम या शास्त्र को और स्कन्ध उस शास्त्र के खण्ड या विभाग को कहते हैं अर्थात् आगम या शास्त्र के खण्ड या विभाग का नाम श्र तस्कन्ध है । इस के अपर विभाग अध्ययन के नाम से अभिहित किये जाते हैं। (२) श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में श्रुतदेवता एक देवी मानी जाती है जो कि श्रुत की अधिष्ठात्री के रूप में उन के यहां प्रसिद्ध हैं। For Private And Personal Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ___ श्री विपाकसूत्रीय द्वतीय श्रुतस्कन्ध [उपसंहार समझा जाये ? इस सम्बन्ध में प्राचार्य अमयदेवसरि भी मौन है। तथाति विद्वानों के साथ विचार करने से हमें जो गात हो सका है वह पाठकों की सेवा में अर्पित किये देते हैं । इस में कहां तक औचित्य है, यह पाठक स्वयं ही विचार करें। नन्दीसूत्र आदि सूत्रों में वर्णित श्री. उपासकदशाङ्ग आदि सत्रों के परिचय में श्रुतग्रहण के अनन्तर उपधान तप का वर्णन किया गया है। उपधान के अनेकों अर्थों में से "-उप समीपे धोयते क्रियते मूत्रादिकं येन तपसा तदुपधानम् । अथवा-अङ्गोपाङ्गानां सिद्धान्तानां पठनाराधनार्थमाचाम्लोपवासनिर्विकृत्यादिलक्षण: तपाविशेष उपधानम् । अर्थात् जिस तप के द्वारा सूत्र आदि की शीघ्र उपस्थिति हो वह तप उपधान तप कहलाता है । तात्पर्य यह है कि तप निर्जरा का सम्पादक होने से ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय तथा क्षयोपशम का कारण बनता है । जिस से सत्रादि की शीघ्र अवगति हो जाती है तथा साथ में सत्राध्ययन निर्विघ्नता से समाप्त हो जाता है । अथवा अङ्ग तथा उपाङ्ग सिद्धान्तों के पढ़ने और आराधन करने के लिये प्रायविल, उपवास और निर्विकृति आदि लक्षण वाला तपविशेष -" ये दो अर्थ उपलब्ध होते हैं, इन्हीं अर्थों की पोषक मान्यता आज भी प्रत्येक सत्राध्ययन के साथ २ या अन्त में की जाती श्रायविल तपस्या के प में पाई जाती है। यह ठीक है कि वर्तमान में उपलब्ध आगमों में किस सत्राध्ययन में कितना श्रायविल' शादि तप होना चाहिये। इस सम्बन्ध में कोई निर्देश नहीं मिलता। तथापि उन में उपधान तप के वर्णन से पोस्त मान्यता की प्रामाणिकता निर्विवाद सिद्ध हो जाती है । आगमों के अध्ययन के समय आयंविल ना की गपरम्परा के अनुसार जो मान्यता अाज उपलब्ध एक प्रचलित है. उस को तालिका पाठकों की जानकारी के लिये नीचे दो जाती है ११-अङ्गशास्त्र-१-श्राचाराङ्गसूत्र ४० प्रायविल । २-पूत्रकृताङ्गसूत्र ३० आय विल ।३ स्थानांगसत्र १८ श्रायविल । ४-समवायांगसूत्र ३ अाय विल । ५-भगवतीसूत्र १८६ आय विल । ६-ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ३३ अायंविल । ७ . उपासकदशाङ्ग १४ श्राय विल । ८-अन्तकृदशाङ्ग १२ श्रायविल । ९अनुत्तरोपातिकदशा ७ आय विल । १०-प्रश्नव्याकरण ५ श्रायविल। ११-विपाक सूत्र २४ आय विल । . ... १२-उपाङ्गशास्त्र-१- औपपातिक ३ श्रायविल । २-राजप्रश्नीय ३ अायं विल । ३-जीवाभिगम ३ अायं विल । ४-प्रज्ञापमा ३ अायंविल । ५-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ३० आय विल । ६-निरयावलिका ७ । प्रायविल ७-कल्पावतंसिका ७ श्रायं विल । -पुष्पिका ७ अायं विल । -पुष्पचूला ७ आय विल । १०-वृष्णिदशा ७ अायं विल । ११-चन्द्रप्रज्ञप्ति ३ अायं विल । १२सूर्यप्रगति ३ आय विल ।। ४-मूलसूत्र १- दशवैकालिक १५ श्रायविल । २-नन्दी ३ अायं विल ३-उत्तराध्ययन २६ आयंविल । ४-अनुयोगद्वार २६ आय विल । (१) श्रायं विल शब्द के अनेकों संस्कृतरूपों में से प्राचाम्ल, यह भी एक रूप है । आचाम्ल में दिन में एक बार रूक्ष, नीरस एवं विकृतिरहित एक आहार ही ग्रहण किया जाता है। दूध, घी. दही, तेल, गुड़, शकर, मीठा और पक्वान्न आदि किसी भी प्रकार का स्वादु भोजन आचाम्लवत में ग्रहण नहीं किया जा सकता। इस में लवणरहित चावल, उड़द अथवा सत्त आदि में से किसी एक के द्वारा ही आचाम्ल किया जाता है। आजकल भूने हुए चने आदि एक नीरस अन्न को पानी में भिगो कर खाने का भी आचाम्ल प्रचलित है। इस तप में रसलोलुपता पर विजय प्राप्त करने का महान् आदर्श है । वास्तव में देखा जाए तो रस. नेन्द्रिय का संयम एक बहुत बड़ा संयम है। For Private And Personal Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हिन्दी भाषा टीका सहित । उपसंहार] [ ७११ विल । ३ – व्यवहार २० ४ छेदसूत्र - १ - निशीथ १० श्रायं विल । ४ – दशाश्रुतस्कन्ध २० आयंबिल । ११ अङ्ग, १२ उपाङ्ग, ४ मूल और ४ छेद ये ३१ सूत्र होते हैं। आवश्यक ३२ वां सूत्र है, उस के लिये ६ श्रायंबिल होते हैं । विल । २ - बृहत्कल्प २० प्रस्तुत में विपाकसूत्र का प्रसंग चालू है । अतः विपाकसूत्र के अध्ययन श्रादि करने वाले महानुभावों के लिये गुरुपरम्परा अनुसार आज की उपलब्ध धारणा से २४ श्रायं विलों का अनुष्ठान अपेक्षित रहता है । इसी बात को संसूचित करने के लिये सूत्रकार ने विपाकसूत्र के अन्त में- सेसं जहा श्रायारस्ल - इन पदों का संकलन किया है । अर्थात् विपाकसूत्र के सम्बन्ध अवशिष्ट उपधान तप का वर्णन आचारांग सूत्र के वर्णन के समान जानना चाहिये । तात्पर्य यह है कि श्राचारासूत्रगत उपधानतप तपोदृष्ट्या समान है । जैसे श्राचारांग सूत्र के लिये उपधानतप निश्चित है वैसे ही विपाकसूत्र के लिये भी है, फिर भले ही वह भिन्न २ दिनों में सम्पन्न होता हो । दिनगत भिन्नता ऊपर बताई जा चुकी है । ऐसा किसी २ प्रति में ग्रंथाग्रं - १२५०, उल्लेख देखा जाता 1. यह पुरातन शैली है। उसी के अनुसार यहां भी उस को स्थान दिया गया है। ग्रंथ के अग्र को ग्रन्थाग्र कहते हैं । ग्रन्थ का अर्थ स्पष्ट है, और अग्र नाम परिमाण का है। तब ग्रंथ - शास्त्र का अग्र - परिमाण ग्रंथाग्र कहलाता है । तात्पर्य यह है कि ग्रन्थगत गाथा या लोक आदि का परिमाण का सूचक ग्रंथाग्र शब्द है । प्रस्तुतसूत्र का परिमाण १२५० लिखा है अर्थात् गद्यरूप में लिखे गये विपाकश्रुत का यदि पद्यात्मक परिमाण किया जाए तो उसको संख्या १२५० होती है । परन्तु यह कहां तक ठीक है ? यह विचारणीय है । क्योंकि वर्तमान में उपलब्ध विपाकसूत्र की सभी प्रतियों में प्रायः पाठगत भिन्नता सुचारुरूपेण उपलब्ध होती है, फिर भले ही वह अांशिक भी क्यों न हो । रहित कहा गया है। जैनागमों की भक्ति लेना चाहिये, क्योंकि व्याख्यागत प्रयुक्त Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir उपलब्ध सूत्रों में विपाकसूत्र का अन्तिम स्थान है तथा प्राप्तोपदिष्ट होने से इस की प्रामणिकता पर भी किसी प्रकार के सन्देह को अवकाश नहीं रहता । तथा इस निग्रंथप्रवचन से जो शिक्षा प्राप्त होती है उस का प्रथम ही भिन्न २ स्थानों पर अनेक बार उल्लेख कर दिया गया है और अब इतना ही निवेदन करना है कि मानवभव को प्राप्त कर जीवनप्रदेश में अशुभकर्मों के अनुष्ठान से सदा पराङ्मुख रहना और शुभकर्मों के अनुष्ठान में सदा उद्यत रहना, यही इस निर्मन्थप्रवचन से प्राप्त होने वाली शिक्षाओं का सार है । अन्त में हम अपने सहृदय पाठकों से पूज्य श्रभयदेवसूरि के वचनों में अपने के हार्द को अभिव्यक्त करते हुए विदा लेते हैं 'हानुयोगे यदयुक्तमुक्तं, तद्धीधनाः द्राक् परिशोधयन्तु नोपेक्षगं युतिमदत्र येन, 'जिनागमे भक्तिपरायणानाम् ॥ विपाकसूत्र समाप्त ॥ - (१) अर्थात् श्राचार्य श्री अभयदेवसूरि का कहना है कि मेरी इस व्याख्या में जो अयुक्त - युक्तिमें परायण --लीन मेधावी पुरुषों को उस का शीघ्र ही संशोधन कर युक्तिशून्य स्थलों की उपेक्षा करनी योग्य नहीं है । For Private And Personal Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राप्ति-स्थान (१) श्री जैनशास्त्रमाला कार्यालय जैनस्थानक, लुधियाना ( पंजाब ) लाला गजरमल प्यारे लाल जैन चौड़ा बाजार, लुधियाना (पंजाब) For Private And Personal Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री विपाकसूत्र हिन्दीभाषा टीकासहित का परिशिष्ट विभाग Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir परिशिष्ट नं०१ प्रस्तावना तथा सूत्रव्याख्या में प्रयुक्त ग्रन्थों की सूची १- अर्धमागधी कोष २६- जैनसिद्धान्तकौमुदी (शतावधानी श्री रत्नचंद २- अनुयोगद्वार सूत्र जी महाराज) ३- अभिधानचिंतामणि कोष (आचार्य हेमचन्द्र) | २७- तर्कसंग्रह ४- अभिधानराजेन्द्र कोष २८- तत्त्वार्थ सूत्र (पं० सुखलाल जी) ५- अष्टांग हृदय २६- तत्त्वार्थ सूत्र (भाष्य) ६- अन्तकृशांग सूत्र ३०- दशवकालिक सूत्र (आचार्य श्री आत्माराम ७- आचारांग सूत्र जी महाराज) ८- आत्मरहस्य (श्री रतनलाल जी जैन) | ३१- दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र (आचार्य श्री आत्माराम - आवश्यकनियुक्ति जी महाराज) ३२- दीवाने अकबर १०- इंजील (इसाई धर्मग्रन्थ) ३३- देवागम स्तोत्र (समन्तभद्र आचार्य) ११- उत्तराध्ययन सूत्र (आचार्य श्री आत्माराम ३४- धम्मपद (बौद्ध ग्रन्थ) जी महाराज) १२- उपासकदशांग सूत्र (पण्डितप्रवर मुनि श्री | ३५- धर्मवीर सुदर्शन (कविरत्न श्री अमरचंद जी महाराज) ___ घासीलाल जी म.) ३६- न्यायसिद्धान्तमुक्तावली १३- ऋग्वेद ३७- नवतत्त्व १४- औपपातिक सूत्र (सटीक) ३८- नालन्दाविशालशब्दसागर (कोष) १५- कबीरवाणी ३६- नंदीसूत्र (सटीक) १६- कर्मग्रन्थ (पं० सुखलाल जी) ४०- पंचतन्त्र १७- कल्पसूत्र (सटीक) ४१- पद्मकोष १८- गरुड़ पुराण ४२- प्रज्ञापना सूत्र (सटीक) १६- गुरुग्रंथ साहिब (सिक्ख धर्मशास्त्र) ४३- प्रश्नव्याकरण सूत्र (सटीक) २०- चक्रदत्त ४४- प्राकृतशब्दमहार्णव (कोष) २१- चरकसंहिता ४५- भगवती सूत्र सटीक (श्री अभयदेव सूरि) २२- जम्बूचरित्र ४६- भगवती सूत्र प्रथम शतक-६ भाग २३- जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र (श्राचार्य श्री जवाहर लाल जी महाराज) २४- जवाहरकिरणावली (छठी किरण) ४७- भगवती सूत्र (पं० श्री बेचरदास जी) २५- जैन सिद्धान्त बोलसंग्रह (अगरचंद भैरोंदान | ४८- भगवान महावीर का आदर्श जीवन सेठिया बीकानेर) । (प्रसिद्धवक्ता श्री चौथमल जी महाराज) For Private And Personal Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra (७१६) ४६ - भगवद्गीता ५०- मनुस्मृति ५१ - महाभारत ५२ - माधवनिदान ५३ - मेवदूत ५४ - योगशास्त्र ५५ - राजप्रनीय सूत्र ५६ - रामचरितमानस ५७ - लोक प्रकाश ५८ - वंगसेन (सटीक) ५६ - वाग्भट्ट ६० - वारणी संत तुकाराम जी (आचार्य हेमचन्द्र ) (सटीक) ( तुलसीदास) ६७ - वृहत्कल्प सूत्र ६८ - वैराग्य शतक ७६ - वृहत् हिन्दी कोष ७८ www.kobatirth.org ६१- वात्स्यायन कामसूत्र ६२ - विपाकसूत्र (श्री अभयदेव सूरि ) ६३ - विपाक सूत्र (मुनि श्रानन्द सागर जी) ६४ - विपाक सूत्र श्री विपाकसूत्र (पण्डितप्रवर मुनि श्री घासीलाल जी महाराज) ६५ - विपाक सूत्र (अंग्रेजी अनुवाद सहित ) ६६- वीतरागदेवस्तोत्र ( आचार्य हेमचन्द्र जी ) (सटीक) (भर्तृहरि) शब्द स्तोम महानिधि (कोप) ७१ - शब्दार्थचिन्तामणि ( कोष ) ७२- शाकटायन व्याकरण ७३- शाङ्गधरसहिता ७४- शिवपुराण ७५ - शिशुपालवध ७६- श्रमणसूत्र Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ परिशिष्ट नं० १ ( कविरत्न श्री अमरचन्द जी महाराज) ७७ - श्रावक के बारह व्रत (आचार्य श्री जवाहर लाल जी महाराज) ७८- श्रावकाचार ७६ - समवायांग सूत्र (सटीक) ८० - संस्कृतशब्दार्थकौस्तुभ ( कोष ) ८१ - संक्षिप्त हिन्दी शब्दसागर (काशी नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित ) ८२ - सामायिक प्रतिक्रमण सूत्र ८३ - सिद्धहेमशब्दानुशासन (श्राचार्य हेमचन्द्र) ८४ - सिद्धान्तकौमुदी (भट्टोजि दीक्षित) ८५ - सुभाषितरत्नभाण्डागार (संस्कृत श्लोकसंग्रह ) ८६- सुश्रुतसंहिता For Private And Personal ८७- सूयगडांग सूत्र ८- सृष्टिवाद समीक्षा ८६- स्थानांग सूत्र ६० - हरिभद्रीयाष्टक ६१ - हितोपदेश ६२ - ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ( सटीक ) (सटीक) (सटीक) Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra शब्द अकज्ज अकन्त कामिय अकारए क्य अक्खात अगड़ अगणिकाय अग्गश्र पुर अग्गिश्र अङ्ग अङ्ग श्रच्छि अजीर प्रज्ज अज्ज अत्थिते अज्कयण अज्झवसारण भोवन्न अट्ट अट्ठ अट्ठ अट्ठम अट्ठम अट्ठमी पृष्ठ अ ५१४ ७६ ७७ ५७ ३६७ ३३ ३५२ ३४६ २०४ ५६ το १८ 383 ७७ २२ ५७ १ १७६ ४७ १८ १६६ १६६ ७४ १८ ८३ २०४ ६३८ ३२२ परिशिष्ट नं० २ विपाकसूत्रीय शब्दकोष पंक्ति | शब्द अट्ठारस १ अट्ठारसम १२ अट्टि १५ ३ अडू (ट) अडवी अड्ढ १० अड्ढरत्त १२ अढहार १ अड्ढाइज्ज ५ अणगार १७ अंतर ५ अणधारय १५ अणाह ११ अट्ठि २१ अतिर २ अकड्ढ ५. अणुगिह २ अणुपत्त ११ गुमग्ग २१ अणुमय ८वडूढ 15 w m www.kobatirth.org ७ अणुवासरण ८ अग १६ अगखण्डी १ अणो हट्टिए ८ अण्डा ६ अण्डयवाणिय अण्ण पृष्ठ १०४ २०४ १७५ १२१ १६२ Ξε १४६ ३४२ ७४ १ ७४ ३५२ १३७ ७६ ४० ४० ४६६ १७६ ३३ ७७ ३६७ ६५ Σε १६२ १६६ २१२ २१२ ५६ For Private And Personal पंक्ति | शब्द ६ प्रणया ११ | अणिज्जमाण ३ तिसरमाण १० तीव ४ अतुरिय अत्तए अत्तारण २२ २५ ८ Σ ५ १० १ श्रत्थसम्पयाण श्रत्थि अथाम ३ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अदूरसामन्त अद्दहिय अद्ध श्रद्धाण ह १२ १२ अन्तिए अन्तरावण ४ अन्तितातो १३ अन्तेवासी १० अन्नत्थ अन्नमन्न अपुण्या ८ अप्पाण १० अप्पिया १० अप्पेगइय ६ अप्फुरणा बीय ५ अभंग २ भाते १७ अभंग पृष्ठ ५७ ३७६ ३६६ ४६४ ३२ २२ १६१ ६५ २६ २५१ ५२ ३४६ Σε २५८ २१२ σε ३२ १ १६६ ६२५ ३६७ ३७६ ७६ १४७ १६२ १४६ ६५. ३२ ३५२ पंक्ति १ ५ १४ १३ २५ こっ १८ ३ २ * ५ ११ १ ह ६ ११ १७ २४ ७ २ (2) १० १२ ३ ४ २५ ६ x २३ १४ Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra (७१८) शब्द अभंतर अभितरिय भुक्ख श्रब्भुरगत भुति अभिक्ख अभिभूत अभिसेय अभिसेग अमच श्रमणाम अमरपुराण अम्मधाति अम्म अय योमय अलए अल्ल अलपट्ट अल्लीण वडग श्रवक्कम अवहारण श्रवडू अवदाहरण अवयासाव अवरज्झ अवसेस पृष्ठ वीरिए ΤΟ १६६ ४०६ ४७० ६२५ בס ४६ ६५० ३५.२ २८० अरिस ५७ अरिसिल्ल ३७६ अलंकारिय ३६३ अलंभोगसमत्थ ५५७ ३५२ २४७ ३४६ ७६ ७६ ८२ ३६६ २८८ ३०७ १५७ १२३ १६२ ३०७ १२४ २०४ २५१ पंक्ति शब्द १ असण ५ असयंवस सारोह ४ असिपत्त १ सिलट्ठि ३ असुभ ७ सागत ६ अहम्मिए १२ हासुह १२ हिमड २४ अहिलस ११ ह ७ ४ अहापज्जत १५ अहापडिरुव ५ २ आइक्ख १ आउ ६ आउय आउर आउव्वेद ७ १५ ६ उह श्री विपाकसूत्र आओडाव १४ ३ आगत २२ । आगम २ ६५ १० ३५२ १४ आगई ६५ १० आढा आगार आगितिमित्त www.kobatirth.org आपत्तिय ५ ४ आणव ११ आणुपुव्व ५ श्रपुच्छ पृष्ठ ४० ७७ १२३ ३४६ १६२ ४७ २१८ ५२ १३२ १ ३२ ४० ७४ τε आ २५ τε ८८ ३८७ ३८७ १२३ ३५२ ३३ ३६३ १०४ २२ २२ ४७६ ६५ ३०३ १५६ ४७ For Private And Personal पंक्ति | शब्द ४ आवाह १५ भिओगि २० आभो १२ आमंत ६ आमल ३ श्रामेल ६ आयन्त १३ आयव २ ६ २६ १३ २३ | आरसिय १२ लीवर आलीविय आलोअ | आलोइय आवज आस आसअ आसत्थ आसवाहणी ३३ - १८ १७ २ १३ ह ४३३ १२३ २४७ ४५१ याहिपयाहिण १ आवरणसत्ता १३६ १४६ ५.३ आसा आसुरुत्त श्रहिण्ड आहिय आहेवच्च Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २२ २२ इ १३ इ ४ इंगाल ३ इच्छ १२ इट्ठ ५. इड्ढी [परिशिष्ट नं० २ पंक्ति ५ १ १२ १ पृष्ठ ४८५ १८० ५२ ४६० Y २१८ τ १५६ १२३ ४६ ४६६ ४६४ ७४ ३०२ २१८ १६८ ५.३ २५ ३६८ २१२ ६५ ७७ १५६ १० १७ ५ ८ १० २६ ५ ४ १३ ५ २० ८ १८ 5 ७ १७ ८ १८ २६ १ २० २६ १० १ - १४ Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir परिशिष्ट नं २ (७१६) पंक्ति पंक्ति शब्द पृष्ठ २८४ २५ ६३८ १०४ उदाहु शब्द इत्थी इन्दमह इन्भ इरियासमित इरियाममिय ईसर ए १०४ ६५१ २०४ . १६ एग २५ ४५१ ३५२ ... ६२५ उउय उक्कंप उक्किट्ठ उकित्त उक्कुरूडिया १२३ ३२१ ८३ ५३ ४७६ १०४ उकोड़ा उकोस " हिन्दीभाषाटीकासहित पंक्ति शब्द उहिट्ठ उसिय ८३ १/उदात्र ८६ उदामिय १२३ १६ एक्कवीस उप्पत्तिया ४५५ एक्कारसम उप्पाड ३५२ एकारसम | उप्पीलिय १२३ उम्फेण उप्फेणिय ४८४ १२ एगट्ठिय उरपरिसप्प ११/ एगतीस उराल १६६ १० एगसाडिय उरुघंट २१८ एगमेग उरंउर २५१ एगण उल्ल ५/ एगृणतीस उलुग्ग एज्जमाण उवउत्त १६६ एणेज उवग एत्तो उवगूढ एयकम्म उवंग उवदंस उवदिस ३८७ उवप्पदाण २५१ ओगाढ़ उवयार १०४ ओगाह उववन्न उववेय ओमंथिय १०४ उवसाम ओरोह उवाग उवीलण ओवाइय उव्वट्ट ओवील उव्वद्रण उचट्टाव ५०६ ओवील ओवीलेमाण उस्सुक्क २५७ ओसह ओसारिय उक्खेव उग्गाह उग्घोस उच्चार उच्छंग ४३३ ३६७ ६१६ ६४ x x : . एल ६३८ २८८ ३६७ ओ उज्जल. . २२ उज्जाण उज्भ १० ओट्ठ १२१ ४०६ १४१ १४१ ६२५ उद्र उट्टिया ३४६ ओमुय hd x 60mmoom com... ६५ . ओलूह १२३ उट्ठात उत्तरकंचुइज्ज उत्तरपुरस्थिम उत्तरासंग उत्तरिल्ल उत्तारण ४०६ ३६७ १६६ ३५२ . २२ ६२५ २३८ उसिण उदा २४। उस्सेह १२३ For Private And Personal Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (७२०) श्री विपाकसूत्र [परिशिष्ट नं०२ पृष्ठ शब्द श्रोहय पंक्ति, शब्द १२ कमलोवम कंबल ३६७ १४१ ६२५ क ओहीर १४१ पंक्ति शब्द कालुणवड़िया २५ ४कास कासिल ३७६ १२ किडिकिडियाभूय ४२६ का ३६६ ककुह २१ कयत्थ ४ कयर कयलक्खरण १४ कयाइ ५१ १४ किमि x swx no ककरस ३६६ १४१ १२४ ३६६ १२३ १२ किंसुअ ५१३ कक्ख कच्छ ४६४ १२३ कच्छभ कच्छुल्ल कज्ज १५७ ३२८ ३४६ ८३ ३८७ कील २३ कीलावण कीलिय २/कुक्कुडि ७/कुच्छि कुच्छि १२ कुडंग कुडुम्बजागरिया २१२ ३६० ६ करकडि करपत्त १७ करयल २ करोडिय कलकल कलंबचीरपत्त कलुस २० कल्लाकल्लि क कट्ठ ३४६ १६६ ३४६ १२३ कवत्र कुमार ३६३ o x x m 6 x on we owo ma e ४६४ कुहाड कडसकर कडी कडुय करणग करणङ्गर कण्डू करण कणीरह . ३४६ ४५१ २१२ १५३ २१२ ३८७ ४५५ ४३३ २०४ कवल्ली कवोत कवलग्गाह कूड़पास १६२ ११ कविट्ठ १०४ ४८५ ३०२ कत्तो कृविय कूयमाण कोउय कस कहा ३७६ ४०६ ३४६ कत्थ कोहिल्ल १६६ . कत्थइ कन्त ६५ कन्दू २१२ काइ कोडी कोडुबिय कोढ़ कोढ़िय ८६ कहि ३६८ २१२ काकरिणमंस १२४ कायतिगिच्छा ३८७ कारण ५६ काल काल कालधम्म ४७० कप्प कप्प कप्पडिय कप्पणी कप्पाय कप्पिय कोहालिया o w w oc o o o ३ कोप्पर ३८७ २८८ १६४ २८८ ३७६ २१२ १७५ ३८७ १६२ ४७४ 20. कोमारभिच्च ७कोलंब कोवघर १० कालमास For Private And Personal Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir परिशिष्ट नं० २] हिन्दीभाषाटीकासहित (७२१) शब्द पृष्ठ पंक्ति। शब्द ___पंक्ति शब्द पृष्ठ पंक्ति पृष्ठ १२३ खण __ ५०६ ३७६ १६६ ७ १६६ ३५२ १२४ २४ घड़ ४६०६ घर ६ घलंघल ४५१५ घात १७ घायावणा संधिप्तर खणण खण्डपट्ट खएडपडह खण्डमल्ल खण्डिय खएडी १६६ al. mmmx गन्धवट्ट गन्धव्य गब्भ गल गामेल्ल गायलट्टि गालण गावी गाह ४५१ ४३३ १६२ ६२५ २१२ १६६ १३७ 5. 00 घुइ ३२१ १३७ २३ गाह ८६ ४५१ ४६४ गाहावइ गिद्ध गिलाण १६६ ८६ ३२२ ३८७ चउक्क चिउरणाण च उत्थ च उद्दसी चउप्प चउप्पुड चरिंदिन खत्त खत्तिय खम्भ खलब खलीणमट्टिय खलु खर खहयर खातिम खाय खिप्प खीर खील १२ गिह १६च उठिवह | गिह १२ गिहिधम्म ४] गीवा गुज्झ १६१ ५७० ३६३ ५६ च उसहि १०४ ७७ गुडा १२३ ३४६ १२३ १२४ १६६ खुज ४६४ १५ गत्तिय ६गुलिया १५६ १६२ ३६३ खुरपत्त ३४६ १२ गेण्ह ० चक्खु चडयर चच्चर चंदसूरदसए चम्पग चम्म चम्मपट्ट चय चाउदस १४। चाउरंग १५ चारग चारगपाल १०चारुवेश चिंचा ३४६ गविज्ज १८० ६३८ २५१ १६६ ८६ १६१ १५६ गढित गणिम गणिया गण्ठिभेय गोठिल्लिन ७ गोणत्त १६ गोरण ८ गोत्त २४ गोत्तास १० गोमण्डव १०४ १६८ १०४ १०४ ३४६ १४६ १३७ गत १०४ For Private And Personal Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra (७२२) शब्द चिश्चिसर चिट्ठ चिंधपट्ट चिराती चुत चुल्ल पिउ चुल्लमाउ चेइ चेलुक्व चोक्ख चोदस पुव्वि चोदसम चोरपल्ली छठ्ठ छट्ठक्खमण छह छट्ठ छडछडस्स छड्डु छत्त छल्ली छागलिय छिज्ज छिद छिप्प छिप्पतूर छिव भ जक्ख जक्वाययण पृष्ठ १४६ ४० १२३ २२ ३६८ २०४ २०४ १ ६२५ २४७ १ ज २०४ १६२ τ ३८२ १२१ ३५३ ४५५ १०४ ६५ २८८ १२४ १६६ १४१ २१८ ३४६ ३५२ २३ २२ पंक्ति शब्द २६ जंगोल २ जण २१ जत्त १७ जति १० जर २६ जतो ५ जप्पभिति ७ जंभा ४ जमगसमग ८ जम्म ५ जम्मं ५ जम्मपक्क ४ जलयर जहण ३५ होइय ७ जहा २७ जहानामए ६ जहाविभव हजा १० जाति १२ जातिध २ जाइसंपन्न १ जागरिया ६ जाण al mr; ३ www.kobatirth.org श्री विपाकसूत्र પ जाणा जातनिंदुआ जामाउ जाणु जाया ६ जायमेत्त १७ जायसढ़ ८ ११ पृष्ठ ३८७ २५ ४८५ १८ ३३ ७६ ४५१ ५७ ३६६ ६८० ४३३ ५७ τε १०४ १८ ४० ४६० १४१ ४० २२ २२ ? १५६ ३३ ६५ १५६ २०४ १७५ ३३ १४६ १ For Private And Personal पंक्ति | शब्द ३ जाव १६ जाहे ४ जिह १५ जिमिय १० जमलत्त ११ जुत्त ४ जुय १ जुवराया जय १३ १६ ww go १० २० ?? २ जितकार जह ७ Ir Ε २ २० भूस २० こ ५. टिट्टिभ १३ ट्ठाणिज १० १ ३ ३ १ जेट्ठ १० जोणिसूल जोव्वण झय भाणकोट्ठ भियाति झिल्लरी Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ठव ठित ठिति ठितिपडिय डम्भण [ परिशिष्ट नं० २ पंक्ति ६ ४ ४ पृष्ठ १ ३२५ १४१ २१८ ३०७ १०४ १२३ ४७० १६६ ३५२ २८८ 可以 झ ਨ १६६ Σε ट १०४ १ १४१ १५१ ६६६ २१२ ४६६ ho १५३ २४७ ७४ १५६ ड ३४६ ५ ७ १० २३ ३ ७ १ ५ २७ १ १७ १० ह ११ 40 ५ - ५. ? १० १३ १५ Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra परिशिष्ट नं० २] शब्द डह एक्खत्त जति गयरी परग वरं गाइ पाणी पाली शिक्किट्ठ ५५७ १४६ ३३ Το २१८ १६६ च्छुिभ खिज्जायमा ४६४ व्वुिड १६१ यव्व रइय इयत्ता गं रहाय त उय तच्च तच्छण तज्ज तडि तण तत्त तते 3 སྣྲུ ལྦ, ; ततो तत्थ पृष्ठ ४०६ तन्त ग ५०४ ३६३ १ ४७ ५३६ ४७ ७४ १ त y ३४२ ६५ ६५ ५३ τε १३७ ३०७ १ ७४ २२ ६५ पंक्ति शब्द १० तन्ती तप्पण तप्पभिति ३ १३ ३ 1 x 1 ४ ८ तवा १२ तवस्सी तम्ब तलवर तलित ६तहत्ति तहा तहारूव तं १७ ताल १८ ताव १३ | ताहे ४ ि १ ५ ५ ५ ४ ११ १० तिकरण ७ तिक्खुता ४ तिन्दूस तिय हिन्दीभापाटीका सहित तिरिक्ख तिरिय तिलंतिल तिवलिय ४ १६ तिविह ६ तिसिर ५] तिहि तुट्ठ १० |तुप्पिय www.kobatirth.org १७ तूवर १६ तेइन्दि पृष्ठ ३४६ ६५ ७६ ३४२ ५६ १४१ २१२ ३३ ८३ २५ ३३ १८ ५३ ५१३ ३२२ १७५ ६२५ ६२५ ४६४ ६४ τε १७६ १२४ १७५ ६२५ ४५१ ४०५ ३२ १२३ ७७ τε For Private And Personal पंक्ति शब्द १० तेइच्छि ११ तेउ ११ तेत्तीस ५. तेरस १६ तेरसम ५. तेल्ल १० त्ति ع १ १८ ह १६ ४ ११ ५ ५ ३ दग १५ | दच्चा १२ | दढ़प्पहार दण्डअ थ‍ थलयर थासक थिमिय थिर थिविथिवंत थेर ५ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दब्भ दब्भाण | दसद्धवरण दंसण ४ दरिसज्जि ३ | दलय पृष्ठ ४०६ ५१ १६२ २५ ५ दंडिखण्डवसरण ३७६ ६३८ १ ३४६ २२ ६२५ ७७ २५१ २४ दवावेति २३| दव्वसुद्ध १३ दसम ११ दुसरत ६५. τε ४४३ τε २०४ ३४२ ६० थ १०४ २१२ १२३ ५२ ८५ ३७६ Ξε (७२३) ६५ ३५२ ६२५ १८ २५७ पंक्ति २ १३ १६ १० ६ w s १० ε १६ Σ २५ ३ १७ 5 5 ८ १५ १५ ५. எ ७ ११ २१ १३ १५ ५ १५ Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (७२४) श्री विपाकसूत्र [परिशिष्ट नं०२ पृष्ठ पृष्ठ दह पंक्ति शब्द २ दुइज्जमाण ३ देवाणुप्पिय १देसप्पन्त देसीभासा ८ देहवलि ६१६ ३२ ११२ ३४६ दाम शब्द ४५१ दात्र २३२ दाओयरित्र ३७६ २१८ दाय ३६७ दार २२ दारग दारिय ३६७ दालिम ४३३ दाह दाहिणपुरथिम ५२ दिज्ज दिट्ठ पंक्ति शब्द १८/नमंसित्ता २३/नह च्छेयण ४ नाडअ हनामधेज्ज नास १८ निक्कण ४ निकत्वमण निक्खेव निगर निग्गच्छइ निग्गन्थ १६६ २१ दोच्च ३४६ w निग्गम १६२ nnn.monsces) 06 धमणि धम्म धम्मायरिय धरणीतल धरिम धसत्ति धाती धिति दिट्ठी १६१ निग्गम E दिएण (निच्चे निच्छूड दिसिभा दीह २२ ४३३ १६२ १५७ १६६ २०४ ४०६ निडाल १७५ धया दुग्ग १४१ व घउज Ww दुञ्चिरण दुद्ध दुद्धिय दुप्पडिक्कंत दुप्पडियाणंद दुप्पहंस निच्छा नित्तेय नित्थाण निदाण निद्धरण ३ निप्पक्ख १५ निप्पारण निप्फन्न निब्भय नक्क नगर ४३३ २२ १६२ mom .net. २०४ दुव्वल ६८७ ६/नत्तु ६ नत्तुइणी. १३७ २०४ २०४ १६२ नियग दुल्लभ दवार दुवे १४६ १६२ २०४ ६/नतुई ११ नत्तुयावई २नस्थि १६ नदी ८/नपुसगकम्म २२ 61 ६ नियत्त २१ नियत्थ १५ नियल १२३ दुहट्ट १७६ निरुवसग्ग For Private And Personal Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir परिशिष्ट नं०२] हिन्दीभाषाटीकासहित (७२५) शब्द पंक्ति शब्द पृष्ठ पंक्ति ७४८ ६२५ m m6 पंक्ति| शब्द १७/ पत्थ ३|पस्थिय १७/पंथकोट २० पंथकोट्ट ८पभणित २१२ १६६ ३६३ निरूह निवातिते निविण्ण निवेस निवेसिय निव्वत्त निव्वाघा निविण्ण निसियाव नीहरण नेह ३६७ १५६ २३ पभिइ ३६७ १७६ ani & ) - ॥ पभू पृष्ठ ११पडाग १.३ पडागातिपडाग ४३३ पडिकप्पित पडिक्कंत ८९ पडिगय २४ पडिजागरमाण २२ पडिनिक्खम ३२ २३/ पडिणियत्त ४६८ ५ पडिबंध १३ पडिबोहिय २३/पडियाइक्ख पडियार ६/पडिलाभ ६२५ १ पडिवज्ज ६/पडिबाल २५८ ८३ ४५५ ३३/पमज्ज ५७० १७ पमोद २५८ १४६ ४०६ पम्हल ६]पया पया प १३७ ४|पयाय ३६६ १०४ पयाया R " , ३७६ ६ पडिविसज्ज १५/पडिसुण ३ पडिसेह २१ पड्डिय ४। पढ़म १३७ CA દર २५१ पउर पयोयण ३३ पक्खार १२३ पक्खी पगडिज्जमारण पगलंत पंगल पञ्चक्ख पञ्चगुभव पञ्चगुव्यतिया ५७० पञ्चाया पंचिन्दिय पच्चुनर पच्छण पच्छा पच्छाव पज्ज ३५२ पज्जुवास पट्ट ३४२ पट्टय ५३० १७६ MuS पढ़ममल्ल पएणत्त पणतीस पणवीस पंडिय पंडुल्लइय परहवण पएहावागरण पयार |पयोग परसु परंमुह पराभव |परामुस परक्कम १७/परिक्खित्त ७ परिग्गहित १|परिचत्त ७परिछेज्ज परिजण • १/परिजाण १६ परिणय १२ परिणाम ३ परितंत १० परीत्तीकत ४ परिपेरन्त १४६ ४७६ k mr 60mm x 6 १८० १६६ ३६५ ४६६ ६२५ २१२ पड For Private And Personal Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (७२६) श्री विपाकसूत्र परिशिष्ट नं०२ १४६ शब्द परिभाष परियट्र परियाग १२४ ३७६ १२४ पंक्ति शब्द पाडल पाण पाणि पाणिग्गहण पाणिय पामुक्ख ८६ पंक्ति | शब्द |पीय १/पीय | पीह | पुक्खरिणी E_ur Me Lo - परिवस | पुच्छ ६५ पुज १४१ - - पाय पायच्छित पुडपाग पुढवी पुढवीकाय पुराण २५८ ४८५ - पुत्त पायन्दुय पायरास पादपडिया पायपीढ पारणग पारदारिय १६२ - ____IOK ८६ पारेवइ oli w we r & ove २१२ २८८ पाले . परिवुडा परिस्सव परिसा परिसुक्क परिहे पवह पवाह पवहण पवाय पव्यय पसरण पसय पस्स पंसु पपह पहकर पहरण पहाण पहार पाउण पाउभय पाउया पाउस पाग पागार पाड पाड पाडण ३२८ पुत्तता पुप्फ पुरतो पुरापोराण पुरिस पुरिसक्कार २५१ पुरोहि ३१८ पुत्व पुव्वरत्तावरत्तकाल-७७ समय पुण्यागुपुचि पुव्वावरण्ह ५७० पाव पावयण पास पासवरण पासाईय पासाय पासायवडंसग पाहुड NW . 6 MR.MWR x x s ॥ पूयत्त पारंत ४ ६२५ ८६ ६०५ पित्र पिओ ॥ ५०६ १७६ पल्ल पाय १६२ २२ पिड २१२ । पिउस्सियापतिय २०४ पिप्पल ३४६ २१८ २६६ १६ पारिसी पिव पोसहि १४/पोसह For Private And Personal Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (७२७) पंक्ति 1 ५१३ ५८४ C ६०५ ८६ 16 भिय मणुण्ण १७४ मंडण भिय २४७ १८० १५६ ६८० परिशिष्ट नं०२] हिन्दीभाषाटीकासहित शब्द पृष्ठ पंक्ति शब्द पंक्ति शब्द मज्ज पोसहसाला भत्तपाणघर ६३८ मज्जण भन्त मज्जाविया फरिह १६२ ५ भर मज्जाव फलह २१८ भर मज्म फलवित्तिविसेस ४५ ३ भाग २५ १५ भारिया मज्भमज्झेण ४०५ ११ भास मणाम भि उडि मणुअ बत्तीस बंदीग्गहाण १६६ भिज्ज्ञ मणुस्स बम्भयारी ८६ भिसर ४५१ बहिया मएडव बारस मन्त मुक्खा बालत्तण मन्त बालघाती भुयबरिसप्प बावत्तरी भूमिघर मम्मण बाहिर २ भूमिया मयकिच बी १२ भूयविज्जा मलण ___३६६८ भेद मलिय बेइन्दि ८६ १२ भेसज्ज बेमि भाच्चा ५१ मह भोयण २४७ ४ महतिमहालिय भगव २७मायाव५१० भगंदर महण भगंदरिय मउड महय भज्जअ मगर महत्थ भज्जित मम्ग महापह भण्डग मग्गइअ २४७ ६महापिउ भति मच्छ ८६ महामाउन भत्त मच्छखल भत्तपारण भत्तबेला भत्तघर ३ मच्छिया २५ १५ महुर १४१ ३६६ ३६६ मन्ने XXnde mae ur W.NEmmm . १४६ बज्म ४५१ १४१ १२३ ३०७ Mino awks १ महग्य २३८ ४५१ २५ २३८ २५. < MUVI.10 5 duyur 29 6.1 २०४ २०४ ४३३ ४३३ १७५ ३६६ ७ महाणसिय १ महिट्ठ ८ महित २३ मच्छंध १६ मच्छिय Kuw For Private And Personal Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाकसूत्र [परिशिष्ट नं०२ शब्द पंक्ति . माई पंक्ति शब्द १३ रयणप्पभा ११/रसायण १४६ पंक्ति शब्द लोइय ४ लोमहत्थ लोहियपाणी ३८७ ४३३ १६२ १७३ ३३ ३२२ माउसिया २०४ माउसियापति २०४ माडंबिय मारणस्सग मामिया मायाभत्त ५०६ मारुय माहण ३२१ मित्त मिसिमिसीमाण ३०२ मुग्गर मुच्छित १६६ १६ रहस्सिय २० रहस्सकत रात्र रायमग्ग राया ३२६ १० वइस्स वक्कबंध १० वक्खेव १८ वज २१८ २३ रायरिह वज्झ २३८ ३५२ ३१८ १/वज्झ १२४ २२ | रायावगारी १८ रिउव्वेय ६/रिद्ध रिद्धि ams Mwwew.m.. ६०५ ८६ ३७६ २५ ३२८ ४३३ १० रुहिर ३६७ १/रुव ८६ मुदिया मुद्ध मुद्ध मुह मुहपोत्तित्र मुहुत्त AN ३ रोगिय | रोज्झ रोयातंक ३८७ २८८ orm dex वट्टक १० वड़िया १२ बढि ३वण वरणप्फइ वरण वत्त वत्तव्वया वत्थिकम्म वद्धाव वंद वमरण वम्माव वम्मिय . k ह २६३ मुत्र ३४६ ૨૨ १६१ १४१ मेज मेरग मोडिय ६५. लउड लच्छि लंछपोस ५३ १६२ ३५२ १२३ ६४ लता १६२ वय १६ ११ य यावि ४० २१८ रजसिरि लंबिय लम्भ १६लहुहत्थ लावणि १३/लावक २३ लुद्ध ८.लेसे wIG600mmm __३६३ ७४ वयंस वयासी वरत्त वलीवद विवरोविय ११ ववहार १४) वसट्ट ६वसण ३८७ १४१ ३८७ ५२ रट्रकूड रत्त रत्ति १२३ १०४ १२१ १४१ For Private And Personal Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra परिशिष्ट नं २ ] शब्द वसभ सहि वसीकरण वंसीकलंक वह वह वहण वहिर वाउ वारिय वागरेत वारिया वाजिकरण वाडग वायरासी वायव वाल वाल वावीस वास वास वासभवण वाहिय विकि वियाल विधु विज्ज विणास विति विरणाथ विति विदि विदित पृष्ठ १३७ २५.८ १८० १६२ १४९ १७६ ४५१ २२ τε ३३४ २८५ ४३३ ३८७ २८८ ३४६ २२ २०४ ३४६ ३५२ τε ७४ २५८ ३२६ १४६ ५.६ १६२ १४१ १६६ २५. १०४ १६२ पंक्ति | शब्द ६ विद्धी ६ विद्धंस १ विद्धस हिन्दीभापाटीकासहित ५ विनिहाय ४ विप्पजढ़ ६ विप्पाला ३ २१ २१ ८ ५५.७ ६ विसम ३८७ ६ विसर विपुल २० विमरण १३ विम्हय २० वियंग १ वियायि : वियार ४ विद्याल ५ विरहिय - विरेयण २१ विलव ११ विवची ११ विवाग विवागस्य विसत्थ ६ ६ www.kobatirth.org विसल्लकरण विसारय ४ विसेस १६ विसोह विसर ७ विहम्म ७ विहरइ १६ विहा १० विहाण ६ विहारण पृष्ठ ५.३ }દ no १५.६ ५.१४ १४६ ४० १४७ ४६५ १४७ १०४ ३२६ ३२६ ५१३ ६५ ९४६ १६१ १८ १८ ४६६ १६२ ४५१ ४५५ १०४ १०४ ४५.५. १४६ ५.३ १ ४० ८६ २६६ For Private And Personal पंक्ति शब्द ३ वीइवयमारण वीसम्भ ५. वीसम्भवाती म वीसर १ वुट्ठ ६ वुन्त वेज्ज वेदाव ४ ६ ww ११ ४ ६ ८ ह १३ १८ वेत्त वेद वेय Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir वेयण वेयरमा वेसासिय वेसिया वोच्छिण १६ स १६ स ६ सय ४ सइर ५. सक्कार ह सगड ६सगडिय संकला ११ संको डिय ५ संगत ४. संगोव ७ सचक्खु ११ सच्छंद १० सयण १६ संचाय पृष्ठ ४२६ CRE ३५२ ३७६ ૬૫ 80 ६५. ३५.२. ३४६ १३२ ४७ २१२ स ४७ ७७ १६६ १४७ १४६ १ ६५. १६६ १५६ २६३ ४० ३४६ ३५२ १०४ १५६ २५ १६६ १४६ ६५ (७२१) पंक्ति ३ १० ? ソ १० १ १८ ७ १ ५ x x x 15 9 3 ४ ५. ७ પ १२ ६ ६ ५ १४ ७ ४ ६ १० १२ १५. - १२ १४ Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [परिशिष्ट नं २ शब्द पृष्ठ "पृष्ठ ५७ ८६ ४६६ ३८७ mWWc0 ४७६. पंक्ति | शब्द २० समश्र समण समज्जिण १४ समजाइभूय समाण समायर समायार समासास समाहि समुक्खित्त समुदय समुद समुप्पज्ज समुयाण समुल्लावक | समुल्लासिय ६ | समोसढ़ . .. MUM. . पंक्ति। शब्द - ३ सरीरग सरीसव सलाहणिज्ज ५ संलेहणा १८ संलवति | सल्लहत्त सवत्ती सव्व सव्वो सव्व उय संवच्छर | संवड्ढ़ ससय संसुमार १४ सहस्स ६ सहस्सखुत्तो ६ सहस्सलम्भा १७ | साउणिया १५ साग ६|सागरोवम साडग साड़ण साड़िया सातिम संजन संजुत्त संजोग ४६६ सड़ सडियं ३७६ सरगाह १३७ संठिया १६२ संडासत्र ५१३ मराह ४३३ सत्त सत्तम सत्तरम सत्तरसम सत्तासिकावावतिय-५७७ सत्तावरण ३०७ सनुस्सेह सत्थकोसह सत्यवाह सत्योगडिअ सद सहवेही सहह सहाव सद्धि संत . १३२ २१८ ८६ B म्भा समोसर १०४ ४३३ ४३३ २५२ | संपत्त संपरिवुड संपत्ति ५२६ १६२ संपेह ४०४ साम २ संत ३२२ संभग्ग संभंत संमाणिय | सय सयरिणज्ज सयहत्थ सयरज्जसुक्का ४६६ सर २१८ सरासण १२३ मंतिहोम संथर संथारग संदिस संधिछेय सन्निविट्ठ ५१३ सामरण सामी सारक्ख सालाग सावतेज सास सासिल्ल ३८७ २५१ १६८ ११२ ४|सरिस १० साह? For Private And Personal Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra परिशिष्ट नं २ ] शब्द साहर साहसित सिक्खाव सिंघ सिंघाडग सिज्झ सिट्ठिकुल सिणेह सिणेहपाण सिरावेध सिरोवस्थि सिला सिलिया सिवत्थ सीअ सीधु सीय सीस सीसग सीसगभम सीह सुइ सुक्क सुक्ख सुख सुहा सुन्त सुन्त सुत्तजागर पृष्ठ पंक्ति ४६० τ १७६ २८८ ६४ ३३४ Τε ६५. ६५. ६५ ६५ ३४६ ६५. ३८७ ५०६ १४१ ५०४ २५ ३४२ २५१ τε १६६. ४६६ १४१ २५ २०४ १०४ ३४६ ६२५ शब्द ७ सुत्तबन्धण २ सुद्द १५ ६ ४. सुमि ११ सुयक्खंध २१ सुलद्ध १६ सुर ६. सुरूव ६ सुह ११ सुहृपसुता ११ सुहं सुहे ६ सुहहत्थ १२ सुहासरण ४ सूय २४ सूल ६ सूल ७ सूर सूयरत्ताए सूइ १० सेय १ सेय ७ ११ = हिन्दीभाषाटीकासहित । १६ सुद्धपवेस www.kobatirth.org सेयापीत सेल सेव सोअ सांसिल्ल सोम 5 ६ ११ १३ सोणिय पृष्ठ ४५१ ३२२ ४६६ ५५७ १५ ३६६ १४१ ११६ १८ ५१३ १३७ ३८७ ४६६ ३७६ १७६ ५७ १६२ २७१ ३४६ ४०६ I ५०४ १६२ ५३६ १३२ ३७६ ६०५ ५० For Private And Personal क्ति शब्द ६ सोशियत्त १३ सोलस ४ सोलसम ६ सोल्ल २० सोल्ल १३ सोह ५ १७ हट्ट २० हडाहड १० हडी १० हत्थ ४. हत्थछिन्न ७ हत्थंदुय २ हत्थारोह हत्थी २ हंता हम्म २५ हरिय १५ हव्व ६. ११ १२ ५ हुण्ड हे १६ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४ १ ८ हियउडाव‍ हिययउंडअ हिल्लरी हेट्ठामुह हेरंग होत्या पृष्ठ ४६ ५७ २०४ २१२ १४१ ३२ ३२ २५ ३४६ २२ ३५२ -३४६ १२३ १२३ २६ १२४ ४३३ ३३ १८० ३२२ ४५१ २२ २६.७ ३५२ ४३३ १ 13:1 (७३१) पंक्ति १ १० ११ ५. २५. २४ १५ २१ ६ ६ १५ १६ ७ ५ २१ Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir परिशिष्ठ नं. ३ श्री विपाकसूत्रीय शुद्धिपत्रक' अशुद्ध .. शुद्ध पृष्ठ पंक्ति | अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति | अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति पाउभूया पाऊभूया १ ५ की . का १६ . २३ | स्त न स्त ३२ २१ चोपगतः वोपागतः १ २० | प्रात .. प्राप्त १६ २३ | रयीन्त . रयन्ति , ३० संम्पएणे . सम्पन्ने २ ३ | ग्यारवें ग्यारहवें २०२२ | पधारने पधारने का३४ १३ करोति करेति २ १६ | पट्टराणी पटरानी २२ १ पार पर , १६ पूर्व पूर्वो २ २५] सर्वतु सर्वतक० २२ २५ हुआ रहा रहा हुआ ३६ २३ आर ओर ३. २ | पगुलो पंगुलो २२ २८ तोंहो ३७ २ ग्यारवां ग्यारहवां ३ ४ रहस्सियसि रहस्सियसि २३ २२ चापल्यभावात् चापल्यावाधा बाधा ३ १७ श्राकार आकार २४ १५ भावात् , ३२ भी। भी ४ ३३ | भांती भाँति २४ २३ | | अधे . अंधे ३८ ३४ पाठ ७.५ | निग्गछति निग्गच्छति२५ २० वीत्थ , वत्थ ४० ३ वारय वारिय ७ १४ । किं नन किं २६.२० श्रमण : .यावत श्रमण ४१ १ अवज्जं अवंझ ७ १६ | दक्षिण दक्षिणं २६ २५ चतुविध चतुर्विध ४३ ३ ब्रतः व्रतः ७ २३ | शीर्ष शीर्ष २६ ३० | पठान्तर्गत पाठान्तर्गत ४६ ३ मनपर्यव मनःपर्यव २ भाव भावः २६ ३४ तरिमन् तस्मिन् ४६ १३ मन-पर्याय मनःपर्याय ६ ३२ | निगच्छति निग्गच्छति२७. ५ च हरति चाहरति ४६ २३ शिष्थ शिष्य १० ४ तीयसे तीसे य २७ २० सोणिय सोणियं ४७१ बन बन ११ १३ तीब्र तीव्र २६ ३३ शोणियं सोणियं ४७ २१ विशिष्ठ विशिष्ट ११ २० सात्विक, सात्विक ३१ ७ गातमस्स गोतमस्स ,, २३ ऋषभ ऋषभ ११ ३१ | धमप्राण धर्मप्राण ३१ १० स्वादिम खादिम ४८ ३२ ऋषि ऋषि १४ २५ | देना किया देनी की ३१ १२ भौंरे भोयरे ४६ १६ प्रचीन प्राचीन १४ २ | निष्कम - ‘निष्कर्म ३१ १२ / बलक वालक ५० ११ उसे उस पर १६ १५ | निगच्छन्ति निग्गच्छन्ति ,, २१ | शोणियं सोणियं ५० २४ की को १६ १५ | २७ के २७ , रिद्ध ऋद्ध ५२ २३ (१) प्रैस वालों की असावधानी से जो अर्धविरामचिन्ह, पूर्णविरामचिन्ह तथा संयोगचिन्ह आदि चिन्ह गिर गए हैं या अनावश्यक लग गए हैं, पाठक उन्हें स्वयं सुधार कर पढने की कृपा करें। इस के अतिरिक्त अनेक स्थलों पर मात्रायें, ऊर्ध्वरेफ तथा अनुस्वार अस्पष्ट हैं या गिर गए हैं, पाठक उन्हें भी सुधार लें । मात्र दिग्दर्शन के लिये हम ने ऊपर मात्रा एवं ऊर्ध्वरेफ से रहित कुछ शब्दों का शुद्ध रूप भी दे दिया है। For Private And Personal Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir परिशिष्ट नं. ३] हिन्दी भाषा टीका सहित । (७३३) प्रसन , २८ प अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति । अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति | अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति नहीं नहीं ५२ ३१ जप्पभिति जप्पभिति ७६ ११ / सूरी सूरि १६ ३४ विजवद्धमान विजयवर्द्ध- पुग्वि पुटिव ७७ ८ विचित्राकर: विचित्राकार:,, ३८ मान ५३ १५ तप्पभिति तप्पभितिं ७७ । विण्णाय विएणय ६७ १६कशचेपटा कशाचपेटा ५३ ३३ खराणि खाराणि , १२ फरमया फरमाया ५४ २७ | संज्ञा मग मंग ७७ २६ , २४ रक्खें रक्खे | गर्भ ५६ १२ आदेशानु- सन्मुख अपने ६८ १७ जीव ७८ २ समाचर: समाचार: ५६ २४ | खराणि खाराणि ७८ १३ सार अपने दोषों का निवेदन गमेल्लेग गामेल्लग ५७ पाप निवृत्ति दुखित दुःखित ७६१ ७ के लिये तजहा तंजहा ५७ २१ अच्छितरेसु अच्छितरेसु८० ३ प्रायश्चित्त यवहार का व्यवहार ५८ नडियों ४ नाडियों ८० १० भम्मक भस्मक कार्य टीकाकार , कार्य ५ टीकाका ५ अन्ध पदार्थ प्रसन्न अन्धं मूलार्थ ५८ २१ लगभग सक्षिप्त संक्षिप्त , १७ आवयक आवश्यक ५६ १० परिपूर्ण ८३ ८ सक्षेप संक्षेप निसृत , २० निस्सृत ६० १६ उद्विग्न ८४६ सव सब वताभिष्यन्द वाता वहां , १३ भिष्यन्द ६३ ५ दुखविपाक दुःखविपाक १०१ ३६ मेद होता ८६ ४ भेद ६३ २८ सेत्स्यत सेत्स्यति , ३४ हस्ताक्षेप हस्तक्षेप ८७ २० होता होता है ६४ ३ सर्वदुख सर्वदुःख , ३६ तता ततो ६ ११/ अहिसा अहिंसा १०३ ५ वणन वर्णन ६४ ५ विजववर्द्ध-विजयवर्द्ध--६४ २७ / | ण णं ८८ १३ | जम्बू! जम्बूः ! , २२ पौरस्त्ये रट्ठकूडस्य रट्ठकूडस्स ६५ चउरिदिएमु चरिंदिण्सु ६२ ५ पौस्त्ये , २३ ६ अययन अध्ययन ६२ ३४] त्रिशद् त्रिशद् , यथाविध यथाविधि ६६ ८ अधमी अधर्मी ६३ ४] ऋद्धि. रिद्ध० १०४ रहकूटस्स रहकूडस्स ६६ १७ भांती भाँति , ३५ | कणीरह- करणीरहसुदर सुन्दर ६७ २८ ओर और ६४ १२ स्मित स्मितं अगमवादी आगमवादी ७० ११ युक्त युक्त उर्ध्व ऊर्ध्व ७१ १४ स्थिति स्थिति ६४ २३ | विहितं , चरक दि चरकादि ७१ २० त्रयोविंशत् त्रयस्त्रिंशत् ,, ३५ | पट्टराणी पटरानी १०५ वृहणैः बृहणैः ७३ ३६ सगरोपम सागरोपम ६५ ४ पटराणी पटरानी १०७ १३ दुखी दुःखी ७४ १६ | गुनन गुणन , १२ शब्दो शब्दों , २० यासमय यथासमय ७५ ६ | उन वहां , २० | साधरण साधारण २८ चिकीत्सत चिकित्सित ७५ १६ निष्कष निष्कर्ष के १, २१ की १०६ २ दुखितः दुःखितः ७५ ३४ समाचर समाचार ६६ २४ | महिलाओं महिला १११ ७ स्थान , जबदस्त दुखार्तो दुःखार्तो ७५ ३४ स्थन २६ | जबर्दस्त , २७ का का प्रायः ७६ ३| यो नयों योनियों , ३२ / पदाथा पदार्थों ११२ ५ विहित For Private And Personal Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री विपाक सूत्र [परिशिष्ट नं०३ धम यह गोशला अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति । अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति | अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति का को ११२ १४ | पाण पाणं , २१ कन्दन् क्रन्दन १४६ २३ के में ११२३० रहावीर महावीर , २३ | विपलन् विलपन् , २३ सन्तानोपादन सन्तानो- पासमि पासामि १३४ १] पूरे लगभग पूरे १५० २ त्पादन ११३ १८ धर्म , २२ | रखने लगे रखते हैं , ११ क्रला कला ११४ १५ ] पदों पदार्थों १३५ ३ | पूरे लगभग पूरे १५१ १० • सपा सो ११४ २३] प्रत्योत्पाद- प्रत्ययोत्पाद- और्द्धदैहिक औचं दैहिक ,, २२ श्रीर . और ११४ ३०० नाथम् . नार्थम् , २५ | | त्रिश्ला त्रिशला १५२ ८ लिये के लिये ११५ ५ सत्र सूत्र १३५ २५ और्द्धदैहिक और्वदैहिक १५२ ३१ आदश आदर्श , ३० सव सर्व ५३६ १ जेणव जेणेव १५३ १२ यर यार ११६ १५ , ६ वर्ष वर्षों ५५४ १८-३२ अथ अर्थ ११८ ५ ज्ञनातिशय ज्ञानातिशय ,, ११ | हस्तनापुर हस्तिनापुर १५५ ५ सविवर्ण सविवरण ,, २८ बचनों वचनों सुख सुखों , २५ आहेबच्च आहेवच्चं ,, २६ नमक नामक १३८ ४ दो दोच्चं १५६ १२ महत्तरगत्वं महत्तरकत्वं ,, ३१ गोशाला , ८ परिपूर्ण लगभग ससारिक सांसारिक ११६ ३ वहा वहां , परिपूर्ण १५७ ५३ सुमद्रा सुभद्रा , ३३ आंखे आंखें १३६ १४ | उझितक उज्झितक १५८ २३ अघमर्णा अधमणे १२० ११ तंसि पूरे लगभग पूरे ,, १४ वणित वर्णित १२२ १ देवाण देवाणु० , १७ प्रचीन प्राचीन १५६ ३१ चलने चलाने , १ सम्बन्ध सम्बन्ध , ३२ झियाती झियाति १२२ २६ आसा आसा० , ३ मज्जनधात्री मण्डनधात्री १६० १३ ओसाारय ओसारिय १२३ १६ गई , २१ अन्तपुर अन्तःपुर १६१ ८ अन्यां च अन्यांश्च , २८ | पूरे हो | हो पूरे १४४ ५ चउविहं चउव्विहं , १७ सत्रस्तं संत्रस्तं , ३१ | पुण्णाओ सपुण्णाश्रो १४४ १७ कुर्वाना कुर्वाणा , ३२ डाग पडाग १२४ १० खजूर खजूर १४५ १० विजयवित्र विजयमित्र १६४ ४ उझितक उज्झितक १२५ १२ इक्छाओं इच्छाओं ,, २१ हो १६५ २४ चुराहे चौराहे १२६ ११ | हीणा हीना , २६ लवणसद्र लवणसमुद्र १६३ २१ देखा को देखा १२८ १ | भेरे मेरे का गडा गुडा , ४] सन्पन्न सम्पन्न शृंघाठक शृंगाटक , २३ घृत्तिकार वृत्तिकार , पूति । गया गया था १६७ ७ निनोक्त इस प्रकार १२६ ३६ | सहायता सहायका महापाल महीपाल १६८ ३२ बद्धो बद्धौ १३० १० जाने जाने पर अणाहट्टए अणोहट्टए , ६ दुव्यवहार दुर्व्यवहार १३० २२| बांछि- वांछि- , २६ उालाई उरालाई १६६ २ मुनादि मुनादी १३१ १७ | पोहदा दोहदा , ३२ उझिययं उज्झिययं , ४. सम्पूण सम्पूर्ण १३३ ३/+ २ १४६ २२ | हीत्था होत्था , १२ तसि ए पूर्ति For Private And Personal Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir परिशिष्ट नं० ३] हिम्दो भाषा टोका सहित । лек ܕܕ इतन अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति | अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति | अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति अधुवन्नो अध्युपपन्नो १६६ २८ | तियग्भोगों तिर्यग्भोगों १८२ १७ हुई २१५ ४ अत्यत अत्यन्त १७१ ५ बारह बारहवें , २२ पञ्चविध षड्विध भों , ११ भी १७२ ७ व्यतीत सम्प्राप्त भित्र नहीं नहीं , २३ मित्र २१७ २६ सौधम __सौधर्म १८३ ६ विणेति विणेन्ति विक २१८ । विकृत , प्रमातिरेक प्रेमातिरेक , १२ इच्छा , २२ पांच छः २१६ ४ अपनी वाणों सग्रह अपने संग्रह , १५ बाणों . १८४ ८ २२० १० वासनाओ वासनाओं ,, २३ | कन्धे कन्धों सन्दभितः सन्दर्भितः , २५ २२१ । लिये समुदायारे समायारे १८५ २८ के लिये है। तत्पर्य २२२ १७ + १७३ १५ कि काम के टिप्पण की टिप्पणी ,, २६ पंचविध षड्विध २२५ ७ ध्वजा वेश्या इतना १८६ ६ की , १५ गत अशुभ सत्कार संस्कार , १३ परिपूर्ण लगभग परिपूर्ण, २२ आत्म परिबोहिं + १८७ ३२ लगभग नौ २२६ ५ णाम सम्पन्न स्कन्ध सम्बन्ध श्रुतस्कन्ध १८८ १७ यह है होने से सम्बन्धि २२७ ८ उज्झितकुमार प्राय प्रायः १८८ १५ लगभग नौ ,, १५ पूति पूर्ति १५३ १६ पक्षीगण पक्षिगण , ३१ के टिप्पण की टिप्पणी २२८ १३ कता करता १७४ ११ | स्वेछा . स्वेच्छा , ३३ पदाथा पदार्थों २३१ १० गात्र गानं , ३३ दुख के टिप्पण की टिप्पणी में ,, ३४ महितग महितगत्तं १७५ ३ कीयत कियत् २३५ २५ स्वप्नों स्वप्नों , २७ वणन वर्णन | जीवचर्या जीवनचर्या २३६ २० , २१ पवडवा पकडवा १७६ १५ अध्ययन | करें १६२ ११ श्रध्ययन कराएं २३८ १८ आशुरोक्तः आसुरोक्त: १७७ १६ १६७ २३ ग्राम आदि २३६ ६ कहते आशुरुक्त आसुरोक्त , १५ भिएण भिन्न २०१६ वहां वहीं २३६ २६ मिसमिसीमाण मिसिमिसी जीवगाहं जीवग्गाहं वन , १८-२३ २४५ १६ गये जाते परीक्षे परोक्षे १७८ २४ के टिप्पण की टिप्पणी २०३ १४ २४७ २८ पंचविध षड्विध , ३० विरुणाय विएणय १७६ १० भान मान , २७ , १६ | दुहितः | जासूस विज्ञान दुहितः विज्ञक जासूसों २०४ २६ २४८-१२ पांच छः २४६ ७ यथा , २७ | शास्त्र शस्त्र , ३२ समुदाचार समाचार का टिप्पण की टिप्पणी २५० ३२ अगर नगर २०७ ३ ३२-३३ सेनश्चो सेनश्चोर २५१ २४ , भिरणे १८० १६ ५ भिन्न दशनार्थ दर्शनार्थ | का टिप्पण की टिप्पणी २५३ ३५ कमा | श्वशुर- श्वशुर- २०८ १८ सैनिकी सैनिकों व्यतीत सम्प्राप्त १८१ १/शाल २५६ १४ श्याल , १८ सा विण्णाय विण्णय ५] समायरे समायारे २१३ ३४/ अभितार्थ अभिमतार्थ .. १६ के २१४ ६-१० महारज महाराज २६० १७ माले बाले , २१ | पंचविध षड़विध . , १६ | दुसाध्य दुस्साध्य , १९ ग्रामों करते " ३७ बन या " ३० कर्मों " १० For Private And Personal Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (७३६) श्री विपाक सूत्र [परिशिष्ट नं.३ पांच २६४ १८ वर्ष '1 हाथ हाथा " अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति | अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति | अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति कूटकार कूटाकार २६१ ५ | पंचविध षड्विध ३०१ ३० | ओंधा धा ३५३ १७ विवर्ण विवरण २६२ २७ टिप्पण टिप्पणी ३०३ ३६ | पांब पांव , २३ छः अल्यज्ञ अल्पज्ञ ३०४ ३४ | शरीर शरीर में ३५५ १६ पंचविध षड्विध , २७ विचारे बेचारे ३०५ २ सूइय सूइयों , १७ पांच छः २६५ ७ टिप्पण टिप्पणी ३०६ ४ विन्नाय विरणाय ३६२ २ पंचविध षड्विध , ११ मंत्री ६ देवाणुप्पए देवाणुप्पिए ३६४ ५ टिप्पण टिप्पणी , ३४ वर्षों ३०८८ लका लङ्का ३७२ १७ आपति आपत्ति २६७ २७ | अम्मिए अहम्मिए ३०६ ६| रंग , २७ चुका चुका है २६८ १४ | अलिंगित प्रालिंगित , २६ अध्यय अध्याय ३७४ ६ सम्पति सम्पत्ति २७० २४ | होगा + ३१२ १३ पडलिसंडे पाडलिसंडे , १५ नरेइएसु नेरइएसु २७१ २३ | के टिप्पण की टिप्पणी ,, १६ सयय समय ३७५ २ पर के २७३ १५ | अधमर्षों अधमणे ३१३ १८ हाथों हाथ ३७७ १८ उस ने उस के २७४ १४ | गा कह ३१५ २८ पैरों पैर , निसृत निस्सृत २७७ २५ / कल्याणेन्मु- कल्याणोन्मुनिग्रंथ निग्रंथ २७६ ३० खी खी ३१७ १५ | पैर पैरों का २८१३३ | मूख मूखे ३२५३४ देहविलका देहबलिका ३८१ १५ कामों कामों में २८३ १५ | के टिप्पण की टिप्पणी ३२७ ३४ पारस पुरिसं ३८३ १ भेदलक्षण दण्डलक्षण , ३० | वर्ष वर्षों ३२८ २ द्वाविंशतं द्वात्रिंशतं ३८७ ३२ ततः + धर्म धर्मः २८४ ३१ प्राक्तनीय प्राक्तन ३६० १६ अमगारे अणगारे २८७ । तस्स कि है कि तस्य , ३४ बाद के बाद ३६१ ३ वर्षों सहस्त्र सहस्र ३३५ ११ से से भी , २८८ २० अंगारेष अंगारेषु वणन वर्णन टिप्पण टिप्पणी णक क के २८६ १० . से ३६६ पंचविध षड्विध + २६० ३. | अबा: अम्बाः ३६६ १६ पदाथ पदार्थ | यद्यह यद्यहं , चर्या चर्या रखना खाना ३३६ ७ २६१ प्रजनिष्यति प्रजनिष्यसि , ३० ज्जो जो जाता जाता है , ३४१ ८ २० सम्बन्धी सम्बन्धि ३६६ २५ राज्ययोग्य राजयोग्य ३४३ १ जाना जाते , २७ टिप्पण टिप्पणी , तिष्ठति तिष्ठन्ति ३४५ २१ करना करते ४०० २८ बह्यः देना देने बह्वयः , २२ अर्द्ध ४०५ १५ " " सर्वथा लगभग ३४७ । निति नीति २६६ १७ | वणुलताओं वेणुलताओं ३४८ २४ पूर्वोजित पूर्वोपार्जित , १६लय के लिये ३५१ १४ ॥ पद दस्स तस्स ३०० २१ / घाटति घाटयति .. २८ अ आई " २३ अर्थी अरथी ३३० ३३२ २१ को + गया __ + "२७ प्राई For Private And Personal Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३७ रे परिशिष्ट नं० ३] हिन्दी भाषा टोका सहित । (७३७) अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति | अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति प्रमार्जन ४०८ १४ लिये के लिये प्रमाजन ४६२ १६ ३६७४८६ ७ अथ अर्थ ४४२ ४ नहीं नाहीं ४६३ २ डवक्खड़ा उवक्खड़ा , १४ | निदित निन्दित , ७ अमोद प्रमोद , १० सुबहु , २६ छुटता से छूटता , ३४ मानवता दानवता , १८ अथात् अर्थात् ४११ २४ विवर्ण विवरण ४४५ ६ उतारु उतारू , २२ माताएं . सार्थवाह , ३५ शोरिक शौरिक ४४७ २२ टिप्पण टिप्पणी ४६४ सार्थवाह माताएं , ३६ के टिप्पण की टिप्पणी ४५० ३३ उन तज्जन्य होना होने ४१२ १८ पाशेश्च पाशैश्च ४५१ २६ टिप्पण टिप्पणी ४६८ के टिप्पण की टिप्पणी ,, ३० शोरिक शौरिक. ४५६ ६ + , ३६ | | व्यवहारिक व्यावहारिक ४५७ ३२ पढे में में पढ़े , आसादन्ति आसादेन्ति ४१३ १/किकाल निकाल ४५८ ६ हां यहां , ६ पदा पदों पदों का ४५६ १० पदों पदों का , २२ विवर्ण विवरण ,, २१ | विचारी बेचारी ४६८ २७-२८ अणुगिहइ अणुगिरहइ ५०० ३३ अथ अर्थ , २३ | के टिप्पण की टिप्पणी ४६६ १३ उज्जवल उज्ज्वल ५०२ १५ रोगातक रोगातङ्क ४१४ २३ शरोभूषण शिरोभूषण ४७० ३२ | अन्तगढ़ अन्तगडू ५०३ ३६ शटितन्त शटितहस्त , ३३ | द्वीप द्वीपों ४७१ ३४ | २ ५०४ १२ - दुखी दुःखी ४१५६ विवर्ण विवरण ४७४ २८ कुछ ४१६ २४ किरणों किरणें ४७५ ६ विउलं ५०५ ५ रोगक्रान्त रोगाक्रान्त , २८ आभूषण आभूषणों ५७७ २ प्ररेणा प्ररणा ४१६ २३ देवदत्ता ५०७ २६ पृठ पृष्ठ ४७६८ अनुभूति अनुभूति ४२२ २६ ३७७३७ ३७७३ ५०७ ३६ अतः सोचने से सोचने ४२३ १७ टिपप्ण टिप्पणी ५०८ १३ बाधाय बाधाएं की को , ३३ महती महती १ , ३२ उतार उतारू तस्स तस्य ४२६ ३२ सहस्त्र सहस्त्र ५१० मिद्ध सिद्ध समुद्र समुद्र उद्वतन उद्वतन , , विवर्ण विवरण ४२८ २५ सहस्त्र सहस्र ५१२ २७ परिजणाइ परिजाणाइ ४८४ १५ टिप्पण टिप्पणी त्वच त्वचा , १३ तच्छेयः तच्छ्यः , २३ भरि भूरि टिप्पण टिप्पणी , २४ कोवघर कोवघरे ४८५ १३ विवर्ण विवरण रही रही हो ४८६ ३२ जिज्ञासु इच्छुक ___इच्छुक ५१२ ३४ के कारण तथ तथा ४८७ ४ माजतां मजितां ५१३ २२ को आइ मेरे आई ५१५ ३३ टिप्पणी टिप्पण , ३६ , ५ किम्पक किम्पाक ५१६ ४ के ४३७ १० गभित आकर्षण ५१६ १६ गर्भित ४३८ ४ अदीपितानि आदीपितानि ४६०३० आकषण वर्षों राजा त्याज्य ४६१ ३०/राया ५२० १२ याज्य ४४०२६ वर्ष ४४१ ३ के टिप्पण की टिप्पणी ,, ३५ | सद्वि सद्धि ५२० १५ दवदत्ता ४८१ ३२ वर्ष वर्षों का क का For Private And Personal Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (७३८) श्री विपाक सूत्र-" [पाराशष्ट नं०३ की १२ को अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ टक्ति सन्बन्धि सम्बन्धि ५२१ ५ | उन उस ५५२ १३ | उपस्थि उपस्थित ६०६ २ के टिप्पण की टिप्पणी ,, ३१ | गुणशील गुणशिलक , ५७ | वधकता वर्धकता ६०८ १६ उतारु उतारू ५२४ २७ | बालश्री बला ५५३ १०] आर्किषत अकर्षित ६१० २४ | जन और जैन ५५४ ३६ ओर ५२६ १४ ले से ले ६११ २० घणदेवा धणदेवो टिप्पण , २२ टिप्पणी ५५५ ६ श्रमन् मुख श्रमण ५५८ २७ प्रमुख समासरणं समोसरणं ,, २३ धमानपुर वर्धमानपुर ५२७ ५ प्रातिदान प्रीतिदान ५५८ २८ | अस्थ और अस्थि महारानी रानी ३२ , ५५६ १६ क के टिप्पण की टिप्पणी ५२६ ४ मगलकारी मंगलकारी ५५६ ३० भा भी ५६१ ५ कुच्छ कुछ वेसमणद वेस्मणदत्ते ५३० ११ पाकिस्तान (पाकिस्तान , २२ नकस्कार नमस्कार वर्ष वर्षों ५३१ ३ सन्तुस्सद्द सन्तुस्सइ लिया लिया) अजूश्री अजूश्री , ३१ , २६ था या बाहें बाहे ५६३ ५८ टिप्पण टिप्पणी , ३४ लम्भिते लाभिते ये से उस के ५३२ २३ कुक्कुटों, कुक्कुटों दिथा दिया ६३२ ३० प्रयोग प्रयोक्ता , ३० का के ५६५ १ | उठ उठा ६३३ २८ कथाङ्ग० कथाङ्ग ५३४ २४ | नाहिं नाहीं , २२ | गछेत् गच्छेत् ६४५ २७ दियडा हियउड्डा सुणन्ति सुणेन्ति ६४६ १४ विवर्ण विवरण ५३५ ५ मान्य उत्तम ५६६ ६४८ ३० टिप्पण टिप्पणी टिप्पण टिप्पणी ५७२ ३५| नांहि नाहीं ६५२ ६ वस्तुत प्रस्तुत नाहि नाहीं ५७३ २४] " ६५३६ Vघाटक शृंगाटक धमें धर्म ५७५ ६हस इस ६५८ २३ प्रदमवदत एवं बदत अगवत - अणुव्रत , १३ | ववज्जि उववज्जि ६६६ २६ जाणिसूलं जोणिसूलं तात्पय तात्पर्य ५७ ७११ लोक . देवलोक ६६८ १३ अजू अजू अनथ अनर्थ .. १७ किचच्छेद कचिच्छेद ६७४ ३४ गई गई है , १८ देखा। कचदौ कचिदौ २|दखा ६७५ ३२ मुवशम मुपशम , २८ करेगा दश करेगा और ६७५ १७ दिशं झूठा .. ४ | झूठ गौतम ६८३ १३ के टिप्पण की टिप्पणी, ३२ | वतन्तः क्रमश आवश्यकनि- अनुयोग क्रमशः - ६८६ २४ उपशान्त उपशान्त-५३७ ३ जिनदास सुवासवकुमार६८७६ के पीड़ा की पीड़ा ५३८ ३] युक्ति द्वार की पयन्त ६८६ . पर्यन्त ५४३ ७ उस .. उस का उक्खेव ऊक्खेवो , ७०...... महव्वलो महब्बलो ५५० १६ टिप्पण टिप्पणी कुमारस्य कुमारस्य। ७० भी गुणशील गुणशिलक ५५१ २ ६०२ १६ । झुण्डों भुण्ड ६०३ २१ अध्ययन अध्ययनों ७ अथ अर्थ ५५१ २४/ अभिसम- अभिसम इसी ७०७ अन्तकृ- अन्तकृशाङ्ग समाप्त सम्प्राप्त , २६ / एणा न्ना ६०४ २३ ५६७ ५ ... ५६६ १४-३० , २८ ५८० र गोतम । वन्तः - सभी For Private And Personal Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Su0"ЧизеqoyФлриеш иелб ZSZOLO upsvysur Suradas For Private And Personal