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श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध
६५४ ]
[ प्रथम अध्याय
दिया था । वास्तव में ही उस समय मैं मुनिधर्म का ययाविधि पालन करने में असमर्थ था परन्तु अब मैं श्रापश्री के असीम अनुग्रह से अपने आप को मुनिधमें के योग्य समझता हूं। अब मुझ में मुनिधर्म के पालन करने का सामर्थ्य हो गया है । ऐसा मैं अनुभव करता हूँ। इसलिये कृपा करके मुझे मुनिधर्म में दीक्षित करके अपने चरणों में निवास करने का सुअवसर प्रदान करने का अनुग्रह करें ? यही पक्षी के पुनीत चरणों में मेरी विनम्र प्रार्थना है । आशा है कि आप इसे अवश्य स्वीकार करेंगे ।
तदनन्तर सुत्राहुकुमार फिर बोले - भगवन् ! मैंने अपने दूर तथा निकट के सांसारिक सम्बन्धों पर अपनी बुद्धि के अनुसार खूब विचार कर लिया है। विचार करने के अनन्तर मैं इसी परिणाम पर पहुंचा हूं कि संसार में धर्म के अतिरिक्त इस जीव का कोई रक्षक नहीं है। माता, पिता, भाई और बहिन तथा पुत्रकलत्रादि जितने भी सम्बन्धी कवा माने जाते हैं, वे अपने २ स्वार्थ को लेकर सम्बन्ध की दुहाई देने वाले हैं। समय आने पर कोई भी किसी का साथ नहीं देता । साथ देने वाला तो एक मात्र धर्म है। प्रभो ! अब मैं चाहता हूं कि जिन कष्टों को मैं अनन्त बार सह चुका हूँ, उन से किसी प्रकार छुटकारा प्राप्त कर लूं । दीनवन्ध ! मेरो धर्म पर जैसी च श्रारथा है, वैसी पहिले भी थी किन्तु उस को श्राचरण में लाने का इस से पूर्व मुझे बल नहीं मिला था। अब आप भी की कृपा से वह मिल गया है। द अगर इस सुअवसर को हाथ से खो दूं तो फिर यह मुझे प्राप्त होने का नहीं है और इसे खो देना मेरी नितान्त मूर्खता होगी। इस लिये मुझे अत्र मुनिधर्म में दीक्षित करने की शीघ्र से शीघ्र कृपा करें। इस के लिये यदि माता पिता की आता अपेक्षित है तो मैं उसे प्राप्त कर लूंगा । इस के उत्तर में" - जैसे तुम को सुख हो, वैसा करो, परन्तु विलम्ब मत करो. - भगवान् के इन वचनों को सुनकर प्रसन्नचित्त हुआ सुबाहुकुमार भगवान् को विधिपूर्वक वन्दना नमस्कार करने के अनन्तर जिस रथ पर श्राया था, उसी पर सवार होकर माता पिता से आज्ञा प्राप्त करने के लिये अपने महल की ओर
चल दिया।
- श्रत्थियं जाव विवाहिता - यहां पठित जाय यावत् पद से - चिंतियं, कप्पियं, पत्थयं, मणोगयं, संकष्पं – इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का अर्थ पृष्ठ १३३ पर लिखा जा मात्र इतना ही है कि वहां ये पद प्रथमान्त हैं जब कि प्रस्तुत में द्वितीयान्त । अतः अर्थ में द्वितीयान्त पदों की भावना कर लेनी चाहिये ।
- महया० जहा पदमं तहा सिग्गओ - ये शब्द सूत्रकार की इस सूचना को सूचित करते हैं कि प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में यह वर्णन किया गया था कि भगवान् महावीर स्वामी नगर में पधारे तो उस समय सुबाहुकुमार बड़े वैभव के साथ जमालि' की तरह भगवान् के दर्शनार्थ नगर से निकला - इत्यादि सविस्तर वर्णन न करते हुए सूत्रकार ने संकेत मात्र कर दिया है कि सुवा, कुमार जैसे पहिले बड़े समारोह के साथ भगवान् के चरणों में उपस्थित होने के लिये आया था, उसी प्रकार अब भी आया ।
-हतुट्ठे० जहा मेहो तहा श्रम्मापियरो श्रपुच्छति, णिक्खमसाभिसे मो तहेव जाव अणगारे जाते - इस पाठ से सूत्रकार ने यह सूचित किया है कि सुबाहुकुमार का धर्म सुन कर प्रसन्न होना तथा दीक्षार्थ माता पिता से पूछना, निष्क्रमणाभिषेक इत्यादि सभी बातें मेघकुमार के समान जान लेनी चाहिएं, तथा दीक्षार्थ निष्क्रमण और अनगारवृत्ति का धारण करना आदि भी उसी के समान जान लेना चाहिये । मेघ - कुमार का सविस्तर जीवनवृत्तान्त श्री ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में वर्णित है हुआ । विस्तारभय से
(१) श्री जमाति का दर्शनयात्रावृत्तान्त ६०२ से ले कर ६०४ तक के पृष्ठों पर लिखा जा चुका है।
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