Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा० ३९ सत्कारपुरस्कारपरीपहजय छाया-अनुत्कशायी अल्पेच्छः, अज्ञातैपी अलोलुपः ।
रसेपु नानुगृध्येत् , नानुतप्येत प्रज्ञावान् ॥ ३९॥ टीका-'अणुक्कसाई' इत्यादि ।
अनुत्कशायी अनुत्क:-अनुत्कण्ठितः शेते, धातूनामनेकार्थत्वाद् वर्तते इत्येर शीलः सत्कारादिनाञ्छारहित इत्यर्थः, यद्वा-माकतत्वाद्-'अणुकपायी' इतिछाया । अल्पकपायी-कपायरहित इत्यर्थः-वन्दनादिकमकुर्वते न जुध्यति, वन्दनादौ कृते वा न मान कुरुते न वा तदर्थ शीतोष्णाऽऽतापनादिभिर्माया करोति, न चापि तर लोभ करोतीति भावः । अत एव-'अल्पेच्छः'धर्मोपकरणमात्राभिलापी, न तु सत्कारपुरस्काराभिलापीत्यर्थः । अत एव-अज्ञातैपी अज्ञात: जातिश्रुतादिभिरपरिचितो भूत्वा एपयति-गवेषयति पिण्डा दिकं, यः स तथा, यद्वाअज्ञाते अज्ञातकुले एपयति-गवेपयति पिण्डादिक यः स तथा, तत्र हेतु प्रदर्शयति
अब सूत्रकार इसी अर्थ को विशद करते हैं-'अणुकसाई' इत्यादि ।
अन्वयार्थ-(अणुकसाई-अनुत्कशायी) सत्कार आदि की अभिलापा रहित अथवा अल्पकपाय वाला-सत्कारादि विषयक कपायभाव रहित, अर्थात्-वदना आदि नहीं करने वाले के प्रति क्रोध नही करने वाला, तथा वन्दनादि करने पर अभिमान नही करने वाला, तथा मान सन्मान आदि के निमित्त शीत, उष्ण, आतापना आदि द्वारा मायाचार नहीं करने वाला. तथा उस विषय मे लोभ-कषाय भी नहीं करने वाला, (अप्पिच्छे-अल्पेच्छ.) तथा अल्पइच्छावाला दर्भोपकरणमात्र की अभिलाषा वाला सत्कारपुरस्कार आदि की अभिलाषा वाला नही, तथा (अन्नाएसी-अज्ञातैपी) जाति एव श्रुत आदि से अपरिचित होकर शुद्ध पिंडादिक की गवेषणा करने वाला, अथवा-अज्ञातकुल में
वे सूत्रा२ मा म २ २५०८ उरे छ–'अणुकसाई ' त्यात
सन्याय-अणुकसाई-अनुत्कशायी स४ि२ माहिनी मलिनापाथी सहित અથવા અ૫ કષાયવાળા-સકારાદિ વિષયક કષાયભાવ રહિત, અર્થાત વદના આદિ ન કરનાર તરફ ઢોધ નહી કરવાવાળા તથા વદનાદિ કરવાથી અભિમાન નહી કરવાવાળા તથા માન સન્માન આદિ નિમિત્ત શીત, ઉષ્ણ, આતાપના આદિ દ્વારા માયાચાર નહી કરવાવાળા તથા એ વિષયમાં લેભ કષાય પણ नही ४२वावा अप्पिच्छे-अल्पेच्छ तथा-म८५४२ - ५४२९५ भारती मालसापावणा-सत्ता पुर२४१२ महिनी मलिदापावा नही तथा अन्नाएसीગક્ષતિવી જાતિ અગર કૃત આદિથી અપરિચિત બનીને શુદ્ધ પિંડાદિકની ગવેષણ