Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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श्लो . : 2
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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ग्राह्य भी है, अग्राह्य भी है, मित्रामित्र न्याय को समझो, एक पुरुष मित्र भी है, उसी समय वही पुरुष अमित्र भी है, स्व-मित्र की अपेक्षा मित्र है, स्व-शत्रु की अपेक्षा अमित्र भी है, यह मित्रामित्र न्याय है, इसी न्याय से एक समय में एक ही आत्मा ग्राह्य भी है, अग्राह्य भी है। स्वानुभवगम्य होने से तथा संसार दशा में बाह्य श्वासोच्छवास, हलन-चलन क्रिया से चैतन्य धर्म की पहचान अनुमान से अन्य के द्वारा भी ग्रहण की जाती है। अतः ग्राह्य है, वह अन्य द्रव्य के गुण-पर्यायों को स्वीकार नहीं करता, अन्य द्रव्य रूप नहीं होता, अतः अग्राह्य भी है। आचार्य-श्री पूज्यपाद स्वामी ने भी कहा:
यदग्राह्यं न ग्रह्णाति गृहीतं नैव मुञ्चति। जानाति सर्वथा सर्व तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम्।।
-समाधितंत्र, श्लो. 20 जो शुद्धात्मा ग्रहण न करने योग्य को ग्रहण नहीं करता है, और ग्रहण किये जाने योग्य अनंत ज्ञानादि गुणों को नहीं छोड़ता, तथा सम्पूर्ण पदार्थों को सभी प्रकार से जानता है, वही अपने द्वारा ही अनुभव में आने-योग्य चैतन्य द्रव्य – “मैं आत्मा हूँ"। आत्म-द्रव्य पर-भावों से अत्यन्त भिन्न है, अन्य किसी भी द्रव्य के द्वारा आत्म-द्रव्य ग्रहण नहीं किया जाता है, न अन्य द्रव्य द्वारा स्पर्शता ही है। आत्मा अग्राह्य है। ध्यान दो- स्वर्ण कीचड़ के मध्य है, पर कीचड़ को किंचित् भी ग्रहण नहीं कर रहा है, कीचड़ उसे ग्रहण नहीं कर रहा है। पंक पंक ही है, स्वर्ण स्वर्ण ही है, आत्मा कर्म-मल के मध्य रहने पर भी कार्य-रूप नहीं होती, तथा अनादि-बद्ध कर्म आज तक चैतन्य-भूत नहीं हुए अथवा प्राग्भाव रूप आगामी पर्यायों को ग्रहण-करने-योग्य है, अतः ग्राह्य है तथा प्रध्वंसाभावरूप पूर्व-पर्यायों को कभी भी ग्रहण नहीं करता है, अतः अग्राह्य है अथवा यों कहना चाहिए कि सहज ज्ञान द्वारा जानी जाती है, इसलिए ग्राह्य है तथा क्षयोपशम ज्ञान के द्वारा अवेद्यक होने से अग्राह्य है। आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं:
अरसमरूवमगंधं अव्वतं चेदणागुणमसदं । जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिदिट्ठसंठाणं।।
-समयसार, गा. 49 यह आत्मा अमूर्त स्वभाव होने से रस, रूप, गंध, स्पर्श, शब्द, संस्थानादिक पौदगलिक भावों से रहित है, अपने चेतन गुण से धर्म, अधर्म, आकाश, काल, -इन चार अमूर्त द्रव्यों से भी भिन्न है, स्व-जीव-सत्ता की अपेक्षा अन्य-जीव-द्रव्य से भी भिन्न है, अपना