Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 3
भी साधारण है, क्योंकि सभी द्रव्य पर्याय वाले हैं। आकाश के सिवाय सभी द्रव्य में अ-सर्व-गत पाया जाता है, अतः वह भी साधारण है। सभी द्रव्य अपनी-अपनी अनादि-सन्तान से बद्ध हैं, अतः वह भी साधारण है। सभी द्रव्य अपने नियत-प्रदेश वाले हैं, अतः प्रदेशत्व भी साधारण है। अरूपत्व भी पुद्गल के सिवाय शेष सब द्रव्यों में पाया जाता है। द्रव्य-दृष्टि से सभी नित्य हैं, इसलिए नित्यत्व भी साधारण है। इसप्रकार आचार्य अकलंकदेव ने ये साधारण पारिणामिक भाव बतलाये हैं, मगर गुण में और स्वभाव में अन्तर है। गुण तो स्वभाव-रूप होते हैं, किन्तु स्वभाव गुण-रूप नहीं होते, इसलिए सामान्य गुणों की गणना में सब को ग्रहण नहीं किया है। ___ आचार्य भगवन् अमृतचन्द्र स्वामी ने प्रवचनसार जी की गाथा 2/3 की व्याख्या में सामान्य गुण इसप्रकार बतलाये हैं- अस्तित्व, नास्तित्व, एकत्व, अन्यत्व, द्रव्यत्व, पर्यायत्व, सर्वगतत्व, असर्वगतत्व, सप्रदेशत्व, अप्रदेशत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व, सक्रियत्व, अक्रियत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, कर्तृत्व, अकर्तृत्व, भोक्तृत्व, अभोक्तृत्व और अगुरुलघुत्व। इनमें भी गुण और स्वभाव का भेद नहीं किया गया। आलापपद्धति के कर्ता आचार्य देवसेन स्वामी ने गुणों और स्वभावों को अलग-अलग गिनाया है। द्रव्य-स्वभाव-प्रकाशनय-चक्र के रचयिता ने भी उन्हीं का अनुकरण किया है।
नय-विवक्षा से आत्मा चेतन-अचेतन-स्वभावी है, यह बात अच्छी तरह से घटित हो गई है। परस्पर विरुद्ध-धर्मों का एक-साथ रहना सम्भव है, उनके साथ रहने में कोई विरोध नहीं है, अनन्त-गुणात्मक आत्मा में सत् की अपेक्षा सभी गुणों के परस्पर अभेद होने पर भी संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा परस्पर-भेद को स्वीकार किया होने से तथा न्याय-शास्त्र में प्रसिद्ध तीन विरोध भी यहाँ घटित नहीं होते हैं, बध्य-घातक, सहानवस्थान, प्रतिबन्ध्य-प्रतिबन्धक।
सहानवस्थान-रूप विरोध तो सम्भव नहीं है, क्योंकि एक ही वस्तु में भेद-अभेद सत्त्व-असत्त्व आदि-धर्म अपेक्षा-भेद से देखे जाते हैं। परस्पर परिहार-स्थिति रूप विरोध तो एक आम्र-फल में रूप और रस की तरह एक-साथ रहने वाले दो धर्मों में ही सम्भव होता है। बध्य-घातक भाव-रूप विरोध भी सर्प और नेवले की तरह बलवान् और कमजोर में ही होता है, किन्तु एक ही वस्तु में रहने वाले सत्त्व-असत्त्व, भेद-अभेद, नित्य-अनित्य आदि-धर्म तो समान-बल-शाली हैं, अतः उनमें यह विरोध