Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha

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Page 303
________________ परिशिष्ट-2 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन आचार्यों के शिष्यों के नाम से नेमिचन्द्र का उल्लेख प्राप्त होता है । - जै. सि. को., भा. 2, पृ. 621 नैयायिक – न्याय दर्शन के मूल प्रवर्तक अक्षपाद गौतम ऋषि हुए हैं, जिन्होंने इसके मूल-ग्रन्थ न्याय-सूत्र की रचना की है । इनके समय के बारे में अलग-अलग मत हैं, कुछ विद्वान् इन्हें ई. 150-250 और दूसरे इन्हें ई. 200-450 के मध्य बताते हैं । न्यायसूत्र पर अनेक टीकाएँ प्राप्त होती हैं। - जै. सि. को., भा. 2, पृ. 633 नो-कर्म- कर्म के उदय से प्राप्त होने वाला औदारिक आदि शरीर जो जीव के सुख-दुःख में निमित्त बनता है, वह नो-कर्म कहलाता है । - जै. द. पा. को., पृ. 146 न्याय-ग्रन्थ - तर्क व युक्ति द्वारा परोक्ष पदार्थों की सिद्धि व निर्णय के अर्थ न्याय- शास्त्र का उद्गम हुआ । यद्यपि न्याय-शास्त्र का मूल आधार नैयायिक दर्शन है, परन्तु वीतरागता के उपासक जैन व बौद्ध दर्शनों को भी अपने सिद्धान्त की रक्षा के लिए न्याय - शास्त्र का आश्रय लेना पड़ा। जैनाचायों में स्वामी समन्तभद्र, अकलंक भट्ट और विद्यानन्दि को विशेषतः वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक व बौद्ध मतों से टक्कर लेनी पड़ी । - जै. सि. को., भा. 2, पृ.630 (टिप्पणी - न्याय - शास्त्र से सम्बन्धित ग्रन्थ न्याय-ग्रन्थ हैं ।) /243 प पंचकल्याणक—- जैनागम में प्रत्येक तीर्थंकर के जीवन काल के पाँच प्रसिद्ध घटना स्थलों का उल्लेख मिलता है, उन्हें पंच कल्याणक के नाम से कहा जाता है, क्योंकि वे अवसर जगत् के लिए अत्यन्त कल्याण व मंगलकारी होते हैं। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा- नव-निर्मित जिन-बिम्ब की शुद्धि करने के लिए जो पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पाठ किये जाते हैं, वह उसी प्रधान पंच कल्याणक की कल्पना है, जिसके आरोपण के द्वारा प्रतिमा में असली तीर्थकर की स्थापना होती है । - जै. सि. को., भा. 2, पृ. 31-32 पंच-परमेष्ठी/पंच-परम-गुरु- जो परम-पद में तिष्ठता है, वह परमेष्ठी परमात्मा होता है । अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु - ये पंच परमेष्ठी हैं । - जै. सि. को. भा. 3, पृ. 22-23 पंचास्तिकाय - 1. जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - ये छः द्रव्य स्वीकार किये गये हैं । इनमें काल-द्रव्य तो परमाणु- मात्र-प्रमाण-वाला होने से कायवान् नहीं है । शेष पाँच द्रव्य अधिक प्रमाण वाले होने के कारण कायवान् हैं। वे पाँच ही अस्ति काय कहे जाते है । - जै. सि. को., भा. 1, पृ. 220 आ. कुन्दकुन्द (ई. 127 - 179 ) कृत तत्त्वार्थ-विषयक 123 प्राकृत - गाथाओं में

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