Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 17
श्लोक - 17
उत्थानिका - पुनः शिष्य गुरु-देव के चरणों में निवेदन करता है- भगवन्! राग-द्वेष के साथ आत्म-स्वरूप का चिन्तवन करने से दोष क्या है ?. समाधान- आचार्य देव स्पष्ट करते हैं
कषायैः रञ्जितं चेतः, तत्त्वं नैवावगाहते । नीलीरक्तेऽम्बरे रागो, दुराधेयो हि कौंकुमः ।।
अन्वयार्थ- (कषायैः रज्जितं ) राग-द्वेष आदि कषायों से रंगा हुआ, (चेतः) चेतन, (तत्त्वं ) तत्त्व रूप शुद्ध स्वरूप को, (नैवं) कभी नहीं, (अवगाहते ) ग्रहण कर पाता है, (हि) क्योंकि जैसे- कि, (नीलीरक्ते - अम्बरे) नीले रंग से रंगे हुए कपड़े पर (कौंकुमः रागः) कुंकुम का रंग, (हि) निश्चय ही, (दुराधेयः) कठिनाई से चढ़ता है | |17 || परिशीलन— जो आत्मा को कसे, उसका नाम कषाय है। आत्म- गुणों का घात करे, वह कषाय है; जो सत्यार्थ-स्वरूप का अवलोकन न होने दे, यथाख्यात आत्मा को उसके चारित्र - गुण से दूर रखे, वह कषाय है; जो अनेक प्रकार के कर्म-धान्य को उत्पन्न करे, वह कषाय है; जिसमें संसार - भ्रमण के फल फलित होते हैं, जो कि दुःख-रूप है, वह कषाय है । कषाय का वेग व्यक्ति के विवेक को समाप्त कर देता है, शास्त्र - ज्ञान से तत्त्व - ज्ञान और आत्म-ज्ञान भिन्न है, शास्त्र - ज्ञान से कषाय का उपशमन नहीं होता, आत्मज्ञान यानी अन्तरंग की आत्मानुभूति, वैराग्य - परिणति ही कषाय के वेग को रोक सकती है, अन्य कोई माध्यम नहीं है । सन्तप्त लोह - पिण्ड के सम्पर्क में जो भी द्रव्य आते हैं, वह उन्हें भी जलाने लगता है, उसीप्रकार कषाय से जलता पुरुष अन्य लोगों को भी जलाने का कार्य करता है, न वहाँ पर गुरु-उपदेश कार्यकारी होता है, न प्रभु-उपदेश | देखो - मारीचि को, भगवद्-वाणी भी उसे अच्छी नहीं लगी, अर्हत् भट्टारक की समोसरण सभा को भी छोड़कर चला गया। भगवन् वर्धमान स्वामी की सभा छोड़कर चला गया, क्या कारण था ?... अन्य कोई कारण नहीं, एक मात्र कारण है कषाय से अनुरंजित परिणमन । जितने भी जीव चारित्र - मार्ग
1. कुछ विद्वान् 'चेतः' के स्थान पर 'चित्तः' पाठ भी मानते हैं, चित्त मन का पर्यायवाची है, यद्यपि उसका प्रयोग चेतन के अर्थ में भी होता है, पर अधिक प्रयोग मन के प्रसंग में ही है, अतः आत्मा के अर्थ में चेतः पाठ ही अधिक समीचीन लगता है।