Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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श्लो. : 15
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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वृषण-वृद्धि है व लिंग-वृद्धि है, चर्म-रहित है, ऐसा पुरुष उत्तम कुल में जन्म लेने पर भी दिगम्बर-दीक्षा का पात्र नहीं है। सुमुख एवं सुंदर देहधारी ही जिन-मुद्रा के पात्र हैं, कुल-कलंकी अथवा व्यसन से ग्रसित, लोक-मर्यादा-शून्य, राज्याधिकारी अर्थात् राजा का सेवक बिना राज-आज्ञा के जिन-दीक्षा नहीं ले सकते। ऋण-युक्त, लज्जाशील-व्यक्ति आदि भगवद्-दीक्षा के पात्र नहीं हैं, फिर जिन-दीक्षा के पात्र कौन हैं? ....ऐसा प्रश्न करने पर आचार्य भगवन् कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं
वण्णेसु तीसु एक्को कल्लाणंगो तवोसहो वयसा। सुमुहो कुच्छारहिदो लिंगग्गहणे हवदि जोग्गो।।
-प्रवचनसार, गा. 224 अर्थात् जो पुरुष तीन वर्षों में से एक वर्ण वाला हो अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हो, रोग से रहित हो, तप को सहन करने की क्षमता वाला हो, प्रशस्त मुख वाला हो, वयस्क हो, न अति-बाल, न अति-वृद्ध हो, अपवाद-रहित हो, वह इस निर्ग्रन्थ लिंग को ग्रहण करने के योग्य होता है। इसप्रकार द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव का होना अनिवार्य है, अन्तरंग तप की सिद्धि के लिए बहिरंग तप का होना आवश्यक है, बिना बहिरंग तप के अन्तरंग तप नहीं होता। स्वात्म-सिद्धि के लिए बहिरंग-तप भी सहकारी कारण है, अन्तरंग तप अन्तरंग सहकारी है, इसप्रकार इस श्लोक में पूज्यवर ने यह स्पष्ट कर दिया है कि एक कारण से कभी भी कार्य की सिद्धि नहीं होती, निश्चय एवं व्यवहार उभय-नय, उभय-धर्म के माध्यम से ही मोक्ष-मार्ग प्रशस्त होता है, जो व्यवहार-मात्र से मोक्ष-मार्ग मानते हैं, वे अज्ञ हैं तथा वे निश्चय-मात्र को मोक्ष-मार्ग स्वीकारते हैं, वे भी अज्ञ पुरुष हैं; विज्ञ तो वही हैं, जो निश्चय-व्यवहार दोनों को मोक्ष स्वीकारते हैं।
निश्चय साध्य है, व्यवहार साधन है, इसप्रकार सर्वत्र ही कारण-कार्य-भाव को समझना चाहिए।।१५।।
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विशुद्ध-वचन
* नहीं सूझता नेत्र-हीन को रास्ता और नय-विहीन को मोक्ष का मारग......|
* काम करते हैं ज्ञानी
और विसंवाद करते हैं अज्ञानी....|