Book Title: Shatkarak Anushilan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 6
________________ षट्कारक अनुशीलन सामान्य षटकारक संक्रमित नहीं होती। वह अन्य द्रव्य या गुणरूप संक्रमित नहीं होती हुई अन्य वस्तु विशेष को कैसे परिणमा सकती है? अर्थात् नहीं परिणमा सकती। इस गाथा की आत्मख्याति टीका में आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं - "इस लोक में जो जितनी कोई वस्तु विशेष जितने प्रमाण में जिस किसी चैतन्यस्वरूप या अचैतन्यस्वरूप द्रव्य या गुण में स्वरस से ही अनादिकाल से वर्त रही है वह 'वास्तव में अपनी अचलित वस्तुस्थिति की सीमा का भेदन करना अशक्य होने के कारण' उसी द्रव्य या गुण में बर्तती रहती है, वह दूसरे द्रव्य या दूसरे गुणरूप से संक्रमित नहीं होती तो अपने से भिन्न दूसरी वस्तु विशेष को परिणमा कैसे सकती है ? अर्थात् नहीं परिणमा सकती। अतः परभाव का अन्य किसी के द्वारा किया जाना सम्भव नहीं है।” उक्त प्रमाण से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक द्रव्य स्वयं कर्ता होकर अपना कार्य करता है और करण, सम्प्रदान, अपादान तथा अधिकरण आदि छहों कारक रूपसे भी द्रव्य स्वयं निज शक्ति से परिणमित होता है। न तो द्रव्य सर्वथा कूटस्थ नित्य है और न ही सर्वथा निरन्वय (पर्याय) क्षणिक है; अपितु वह अर्थ क्रिया करण शक्तिरूप है। वह अपने अन्वयरूप (गुणमय) स्वभाव के कारण एकरूप अवस्थित रहते हुए भी स्वयं उत्पाद-व्यय रूप है। और व्यतिरेक (भेदरूप या पर्यायरूप) स्वभाव के कारण सदा परिणमनशील भी है। यही वस्तु का वस्तुत्व है। तात्पर्य यह है कि - वह द्रव्यदृष्टि से ध्रुव है और पर्यायदृष्टि से उत्पाद-व्यय रूप है। इसी तथ्य को प्रवचनसार गाथा १०० में इस प्रकार कहा है - “उत्पाद व्यय के बिना नहीं होता और व्यय उत्पाद के बिना नहीं होता एवं उत्पाद और व्यय ध्रौव्य स्वरूप अर्थ के बिना नहीं होता । यह वस्तु स्थिति है। गुरुदेव ! यदि यह बात है तो आगम में उत्पाद-व्यय रूप कार्य को परसापेक्ष क्यों कहा? देखो भाई! पर्यायार्थिकनय से तो प्रत्येक उत्पाद-व्यय रूप कार्य अपने काल में स्वयं के षट्कारकों से ही होता है, अन्य कोई उसका कर्ता-कर्म आदि नहीं है, फिर भी आगम में उत्पाद-व्ययरूप कार्य का जो पर सापेक्ष कथन है, वह केवल व्यवहारनय (नैगमनय) की अपेक्षा से किया गया है। गुरुदेव ! आत्मा की कौन-कौन-सी शक्तियाँ वस्तु के स्वतंत्र षट्कारकों की सिद्धि में साधक हैं? भाई ! तुम्हारा यह प्रश्न भी प्रासंगिक है, वैसे तो सभी शक्तियाँ वस्तु की स्वतंत्रता की ही साधक हैं, परन्तु कतिपय प्रमुख शक्तियाँ इसप्रकार हैं - १.भावशक्ति :- इस शक्ति के कारण प्रत्येक द्रव्य अन्वय (अभेद) रूप से सदा अवस्थित रहता है । यह शक्ति पर कारकों के अनुसार होनेवाली क्रिया से रहित भवनमात्र है, अत: इस शक्ति द्वारा द्रव्य को पर कारकों से निरपेक्ष कहा है, इससे द्रव्य की स्वतंत्रता स्वत: सिद्ध हो जाती है। २. क्रियाशक्ति :- इस शक्ति से प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूप सिद्ध कारकों के अनुसार उत्पाद-व्यय रूप अर्थ क्रिया करता है। ३. कर्मशक्ति :- इस शक्ति से प्राप्त होने वाले अपने सिद्ध स्वरूप को द्रव्य स्वयं प्राप्त होता है। ४. कर्त्ताशक्ति :- इस शक्ति से होने रूप स्वतः सिद्ध भाव का यह द्रव्य भावक होता है। ५.करण शक्ति :- इससे यह द्रव्य अपने प्राप्यमाण कर्म की सिद्धि में स्वतः साधकतम होता है। ६. सम्प्रदान शक्ति :- इससे प्राप्यमाण कर्म स्वयं के लिए समर्पित होता है। ७. अपादान शक्ति :- इससे उत्पाद-व्यय भाव के उपाय होने पर भी द्रव्य सदा अन्वय रूप से ध्रुव बना रहता है। ८. अधिकरण शक्ति :- इससे भव्यमात्र (होने योग्य) समस्त भावों का आधार स्वयं द्रव्य होता है। ९. सम्बन्ध शक्ति :- प्रत्येक द्रव्य में सम्बन्ध नाम की भी एक ऐसी शक्ति है, जिससे किसी भी द्रव्य का अपने से भिन्न अन्य किसी द्रव्य के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। इससे यह सूचित होता है कि प्रत्येक द्रव्य अपना ही

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