Book Title: Shatkarak Anushilan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 16
________________ षट्कारक अनुशीलन व्यवहार षट्कारक बनता है। स्पर्शादि और रागादिरूप पौद्गलिकभावों का व्याप्य-व्यापक संबंध पदगल से ही होने से उनका कर्ता पदगल ही है. आत्मा नहीं हाँ.यह बात अवश्य है कि स्पर्शादि और रागादिभावों के ज्ञान के साथ आत्मा का व्याप्य-व्यापकभाव बन जाता है। अतः आत्मा उनके ज्ञान का कर्ता अवश्य है। पर वह ज्ञान वास्तव में तो आत्मा का ही है। क्योंकि वह आत्मा का परिणमन है, पुद्गल से उसका कोई संबंध नहीं है, पुद्गल को तो उसने मात्र जाना ही है, उसमें कुछ किया नहीं। इसी भाव को आगामी कलश में भी स्पष्ट किया जा रहा है, जो इसप्रकार है (शार्दूलविक्रीड़ित) व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेन्नैवातदात्मन्यपि । व्याप्यव्यापकभावसंभवमृते का कर्तृकर्मस्थितिः ।। इत्युद्दामविवेकघस्मरमहोभारेण भिंदंस्तमो । ज्ञानीभूय तदा स एष लसितः कर्तृत्वशून्यः पुमान् ।।४९ ।। (सवैया इकतीसा) तत्स्वरूप भाव में ही व्याप्य-व्यापक बने, बने न कदापि वह अतत्स्वरूप भाव में। कर्ता-कर्म भाव का बनना असंभव है, व्याप्य-व्यापकभाव संबंध के अभाव में ।। इस भाँति प्रबल विवेक दिनकर से ही, भेद अंधकार लीन निज ज्ञानभाव में। कर्तृत्व भार से शून्य शोभायमान, पूर्ण निर्भार मगन आनन्द स्वभाव में ।।४९ ।। व्याप्य-व्याकभाव तत्स्वरूप में ही होता है, अतत्स्वरूप में नहीं । व्याप्यव्यापकभाव के बिना कर्ता-कर्मभाव भी कैसे बन सकता है? तात्पर्य यह है कि व्याप्य-व्यापकभाव के बिना कर्ता-कर्मभाव बन ही नहीं सकता। इसप्रकार प्रबल विवेक और सर्वग्राही ज्ञान के भार (बल) से परकर्तृत्व संबंधी अज्ञानांधकार को भेदता हुआ यह आत्मा ज्ञानी होकर परकर्तृत्व से शून्य हो शोभायमान हो रहा है। उक्त कलश के भाव को पंडित जयचन्दजी छाबड़ा ने भावार्थ में इसप्रकार स्पष्ट किया है - “जो सर्व अवस्थाओं में व्याप्त होता है, सो तो व्यापक है और कोई एक अवस्था-विशेष, वह (उस व्यापक का) व्याप्य है। इसप्रकार द्रव्य तो व्यापक है और पर्याय व्याप्य है । द्रव्य-पर्याय अभेदरूप ही हैं। जो द्रव्य का आत्मा, स्वरूप अथवा सत्त्व है; वही पर्याय का आत्मा, स्वरूप अथवा सत्त्व है - ऐसा होने से द्रव्य, पर्याय में व्याप्त होता है और पर्याय, द्रव्य के द्वारा व्याप्त हो जाती है। ऐसी व्याप्य-व्यापकता तत्स्वरूप में ही (अभिन्न सत्तावाले पदार्थ में ही) होती है; अतत्स्वरूप में (जिनकी सत्ता भिन्न-भिन्न है - ऐसे पदार्थों में) नहीं ही होती । जहाँ व्याप्य-व्यापकभाव होता है, वहीं कर्ता-कर्मभाव होता है; व्याप्य-व्यापकभाव के बिना कर्ता-कर्मभाव नहीं होता - ऐसा जो जानता है, वह पुद्गल और आत्मा के कर्ता-कर्मभाव नहीं है - ऐसा जानता है। ऐसा जानने पर वह ज्ञानी होता है, कर्ता-कर्मभाव से रहित होता है और ज्ञातादृष्टा-जगत का साक्षीभूत होता है।” टीका और कलश के भावार्थ से सम्पूर्ण बात एकदम स्पष्ट हो गई है। अतः अब कुछ भी विशेष कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती है। __कविवर पंडित बनारसीदासजी इस छन्द का भावानुवाद इसप्रकार करते हैं - (सवैया इकतीसा) जैसो जो दरब ताके तैसो गुन परजाय, ताहीसौं मिलत पै मिलै न काहू आनसौं। जीववस्तु चेतन करम जड़ जातिभेद, अमिल मिलाप ज्यौं नितंब जुरै कानसौं। .

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