Book Title: Shatkarak Anushilan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 14
________________ व्यवहार षट्कारक सुखरूप परिणति और शरीर सर्वथा भिन्न होने के कारण सुख और शरीर में निश्चय से किंचित्मात्र भी कार्य-कारणता नहीं है। शरीर सुख-दुःख नहीं देता। देवों का उत्तम वैक्रियिक शरीर सुख का कारण नहीं है और नारकियों का शरीर दुःख का कारण नहीं है। आत्मा स्वयं ही इष्ट-अनिष्ट विषयों के वश होकर सुख-दुःख की कल्पनारूप में परिणमित होता है। संसार में या मोक्ष में आत्मा अपने आप ही सुखरूप परिणमित होता है; उसमें विषय अकिंचित्कर हैं अर्थात् कुछ नहीं कर सकते। अज्ञानी विषयों को सुख का कारण मानकर व्यर्थ ही उनका अवलंबन लेते हैं। जो आत्मा इस कर्म के परिणाम को तथा नोकर्म के परिणाम को करता नहीं है, मात्र जानता ही है, वह ज्ञानी है। आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में कहते हैं - “निश्चय से मोह, राग, द्वेष, सुख, दुःख आदि रूप से अंतरंग में उत्पन्न होता हुआ जो कर्म का परिणाम है और स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, बंध, संस्थान, स्थूलता, सूक्ष्मता आदि रूप से बाहर उत्पन्न होता हुआ जो नोकर्म का परिणाम है; वे सब ही पुद्गल के परिणाम हैं । परमार्थ से जिसप्रकार घड़े के और मिट्टी के व्याप्य-व्यापकभाव का सद्भाव होने से कर्ता-कर्मपना है, उसीप्रकार पुद्गलपरिणाम के और पुद्गल के ही व्याप्य-व्यापकभाव का सद्भाव होने से कर्ता-कर्मपना है। पुद्गलद्रव्य स्वतंत्र व्यापक है, इसलिए पुद्गलपरिणाम का कर्ता है और पुद्गलपरिणाम उस व्यापक से स्वयं व्याप्त होने के कारण उसका कर्म है। इसलिए पुद्गलद्रव्य के द्वारा कर्ता होकर कर्मरूप से किये जाने वाले समस्त कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलपरिणामों का कर्त्ता परमार्थ से आत्मा नहीं है; क्योंकि पुद्गलपरिणाम को और आत्मा को घट और कुम्हार की भाँति व्याप्य-व्यापक भाव के अभाव के कारण कर्ता-कर्मपने की असिद्धि है। परन्तु परमार्थ से पुद्गलपरिणाम के ज्ञान और पुद्गल को घट और कुम्हार की भाँति व्याप्य-व्यापकभाव का अभाव होने से कर्त्ता-कर्मपने की असिद्धि है और जिसप्रकार घड़े और मिट्टी में व्याप्य-व्यापकभाव का सद्भाव होने से कर्ता-कर्मपना है; उसीप्रकार आत्मपरिणाम और आत्मा के व्याप्य-व्यापकभाव का सद्भाव होने से कर्ता-कर्मपना है।" उक्त संपूर्ण कथन में न्याय और युक्ति से एक ही बात सिद्ध की गई है कि स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, बंध, संस्थान आदि तो पुद्गल परिणाम हैं ही; किन्तु मोह, राग, द्वेष, सुख-दुःख आदि भी पुद्गलपरिणाम हैं और इनका कर्ता-भोक्ता निश्चय से पुद्गल ही है, आत्मा नहीं। हाँ, आत्मा समयसार गाथा ७५ (कर्ता-कर्म कारकों के संदर्भ में) कम्मस्स य परिणामंणो कम्मस्स य तहेव परिणामं । ण करेइ एयमादा जो जाणदिसो हवदिणाणी ।।७५ ।। करम के परिणाम को नोकरम के परिणाम को। जो ना करें बस मात्र जानेप्राप्त होंसद्ज्ञान को।।७५ ।।

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