Book Title: Shatkarak Anushilan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 18
________________ ३४ षट्कारक अनुशीलन कुछ प्रश्नोत्तर (सी) पाँच महाव्रत के निरतिचार पालन करने (शुभराग) से हुआ? अथवा (डी) काल अच्छा था, इससे हुआ? (ई) शुद्धोपयोग में लीन आत्मा स्वयं ही षट्कारक रूप होकर केवलज्ञान प्राप्त करता है? या (एफ) पाँचों कारणों से केवलज्ञान प्राप्त होता है ? सकारण समाधान करें ? उत्तर- (१) चार घाति कर्मों के अभाव से हुआ - यह कथन असद्भूत व्यवहारनय का है। ज्ञानस्वभाव में पूर्णता एकाग्रता होने पर घातिया कर्म तो स्वयं ही नाश को प्राप्त होते हैं। उनके नाश का कर्ता आत्मा है नहीं। यदि आत्मा कर्मो के नाश का कर्ता बने तो आत्मा जड़ का कर्ता ठहरे, जो वस्तु के स्वरूप को स्वीकृत नहीं है। (२) वज्रवृषभ नाराच संहनन पुद्गल की शक्ति है, वह आत्मा की पर्याय का कर्ता होता नहीं है। (३) शुभराग से वीतरागता संभव नहीं है। (४) काल परद्रव्य है, उसका आत्मा में अत्यन्ताभाव है। (५) अत: शुद्धोपयोग की भावना से केवलज्ञान हुआ - यही सत्य है; क्योंकि वस्तुतः अपने आत्मद्रव्य के सर्वज्ञ स्वभाव के कारण स्वतंत्रपने अपने स्वतंत्र षट्कारकों से ही केवलज्ञान होता है तथा जब केवलज्ञान होता, तब उपर्युक्त चारों कारणों की उपस्थिति भी अविनाभावरूप से होती है किन्तु वे वास्तविक कारण नहीं हैं। प्रश्न ६. क्या व्याप्यव्यापकभाव के बिना कर्ता-कर्म की स्थिति होती है उत्तर- नहीं; व्याप्य-व्यापकभाव के बिना कर्ता-कर्म की स्थिति नहीं हो सकती। व्याप्यव्यापकभावसंभवमृते का कर्तृकर्मस्थिति: ? अर्थ : व्याप्यव्यापकभाव के संभव बिना कर्ता-कर्म की स्थिति कैसी ? प्रश्न ७. व्याप्यव्यापकभाव का क्या अर्थ है ? उत्तर : “जो सर्व अवस्थाओं में व्यापे वह तो व्यापक है और कोई एक अवस्था विशेष वह (उस व्यापक का) व्याप्य है; इसप्रकार द्रव्य तो व्यापक है और पर्याय व्याप्य है; द्रव्य पर्याय अभेदरूप ही हैं...ऐसा होने से द्रव्य पर्याय में व्याप्त होता है और पर्याय द्रव्य द्वारा व्याप्य हो जाती है। ऐसा व्याप्यव्यापकपना तत्स्वरूप में ही होता है। अभिन्न सत्तावान पदार्थ में ही होता है, अतत्स्वरूप में कदापि नहीं। जहाँ व्याप्यव्यापकभाव हो वहीं कर्ता-कर्म भाव होता है; व्याप्यव्यापक भाव के बिना कर्ता-कर्म भाव नहीं होता। ऐसा जो जाने वह पुद्गल और आत्मा में कर्ता-कर्म भाव नहीं है - ऐसा जानता है। ऐसा जानने से वह ज्ञानी होता है। -समयसार कलश ४९ का भावार्थ व्याप्यव्यापकभाव या कर्ताकर्मभाव एक ही पदार्थ में लागू होते हैं, भिन्नभिन्न पदार्थों में वे लागू नहीं हो सकते। वास्तव में कोई दूसरों का भला-बुरा कर सकता है, कर्म जीव को संसार में परिभ्रमण कराते हैं - इत्यादि मानना अज्ञान है। निमित्त के बिना कार्य नहीं होता, निमित्त पाकर कार्य होता है यह कथन व्यवहारनय के हैं, उन्हें निश्चय का कथन मानना भी अज्ञानता है। प्रश्न ८. जीव के विकारी परिणाम और पुद्गल के विकारी परिणाम (कर्म) परस्पर कर्ताकर्मपना है ? उत्तर : (अ) नहीं; क्योंकि - जीव, कर्म के गुणों को नहीं करता और

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