Book Title: Shatkarak Anushilan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 20
________________ षट्कारक अनुशीलन कुछ प्रश्नोत्तर व्यर्थ ही परतंत्र होते हैं। अत: व्यवहारकारकों को असत्य कहा है। प्रश्न 11. व्यवहार कारक किस नय के विषय बनते हैं ? जब ये असत्य हैं तो इन्हें आगम में स्थान क्यों दिया? उत्तर : ये उपचरित असद्भूत व्यवहारनय के विषय बनते हैं। प्रश्न 12. आत्मा की प्राप्ति को स्वाधीन क्यों कहा? उत्तर : अन्य कारकों से सर्वथा निरपेक्ष होने से। प्रश्न 13. अध्यात्म में कारक छह ही क्यों कहे ? सम्बन्ध एवं सम्बोधन को कारकों में क्यों नहीं माना ? उत्तर : एक कारण तो यह है कि ये सम्बन्ध एवं सम्बोधन कारक पर से जोड़ते हैं, पराधीनता के सूचक हैं अत: अध्यात्म में इन्हें स्थान प्राप्त नहीं है। ___ दूसरी बात : इन दोनों का क्रिया की निष्पत्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है। किसी भी कर्म या क्रिया की निरष्पत्ति में छह तरह के प्रश्न ही उठते हैं। जैसे कि___१. किसने किया (कर्ता) वस्तु स्वातंत्र्य की घोषणा ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयतः, स भवति नापरस्य परिणामिन एव भवेत् / न भवति कर्तृशून्यमिह कर्म न चैकतया; स्थितिरिह वस्तुनो भवतु कर्तृ तदेव ततः / / वास्तव में अपना परिणाम ( पर्याय ) ही निश्चय से कर्म है, वह परिणाम अपने अश्रयभूत परिणामी ( द्रव्य ) का ही होता है. अन्य का नहीं और कर्म कर्ता के बिना नहीं होता तथा वस्तु की स्थिति सदा एकरूप नहीं होती; (क्योंकि वस्तु द्रव्य-पर्याय स्वरूप होने से उसमें सर्वथा नित्यत्व संभव नहीं है) इसलिए वस्तु स्वयं ही अपने परिणामरूप कर्म की कर्ता है। - आचार्य अमृतचन्द्र समयसार कलश 121 2. क्या किया (कर्म) 3. किस साधन से किया (करण) 4. किसके लिए किया (सम्प्रदान) 5. किसमें किया (अधिकरण) 6. किसमें से किया (अपादान) प्रश्न 14. षट्कारक के स्वरूप और इस समस्त जानकारी से क्या लाभ हैं ? यह भी सारांश रूप में स्पष्ट कीजिए? उत्तर : हाँ, हाँ; क्यों नहीं। सुनो ! प्रत्येक द्रव्य अपनी क्रियापरिणति का कर्ता आदि आप स्वयं है यह आत्मा अपने अज्ञानवश संसार का पात्र आप स्वयं बना हुआ है और अपने पुरुषार्थ के द्वारा उसका अन्त कर आप स्वयं मोक्ष का पात्र बनेगा, वहीं से आत्मा की सम्यग्दर्शन रूप अवस्था का प्रारंभ होता है और इस आधार से जैसे-तैसे चारित्र में परनिरपेक्षता आकर स्वावलंबन में वृद्धि होती जाती है वैसे-वैसे सम्यग्दृष्टि का उक्त विचार आत्मचर्या का रूप लेता हुआ परम समाधि दशा में परिणत हो जाता है। अतएव अन्य द्रव्य तभिन्न अन्य द्रव्य की क्रियापरिणति का कर्ता है, कर्म है, करण है, सम्प्रदान है, अपादान है, अधिकरण है, यह व्यवहार से ही कहा जाता है; निश्चय से तो प्रत्येक द्रव्य अपनी क्रियापरिणति का स्वयं कर्ता है, स्वयं कर्म है, स्वयं करण है, स्वयं सम्प्रदान है, स्वयं अपादान है और स्वयं अधिकरण है; यही सिद्ध होता है। अनादिकाल से यह जीव निश्चय षट्कारक को भूलकर अपने विकल्प द्वारा मात्र व्यवहार षट्कारक का अवलम्बन करता आ रहा है, इसलिए वह संसार का पात्र बना हुआ है; जब वह निश्चय षट्कारक का यथार्थ निर्णय करके पुरुषार्थ द्वारा अपना त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव का आश्रय लेकर शुद्धात्मानुभूति प्रगट करता है तब मोक्षमार्ग का प्रारम्भ होता है। अत: जीवन संशोधन में निश्चय षट्कारक का सम्यग्ज्ञान करना कार्यकारी है। शुद्धात्मस्वभाव की प्राप्ति के लिए बाह्य साधनसामग्री ढूँढने की व्यर्थ की व्यग्रता (आकुलता) 0 0 . . . . . . ... ..

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