Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
View full book text
________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग-3]
[47
आचार्यदेव ने कहा है कि हे भव्य! तू हमारे निज-वैभव के स्वानुभव की इस बात को, अपने स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से प्रमाण करना। एकत्वस्वभाव का अभ्यास करने से अन्तर में स्वसन्मुख स्वसंवेदन जागृत हुआ, तब वह जीव, द्रव्यश्रुत के रहस्य को प्राप्त हुआ। जहाँ ऐसा रहस्य प्राप्त हुआ, वहाँ अन्तर की अनुभूति में आनन्द के झरने, झरने लगे... शास्त्र के अभ्यास से, उसके संस्कार से, विशिष्ट स्वसंवेदन शक्तिरूप सम्पदा प्रगट करके, आनन्द के फुब्बारेसहित प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से यथार्थ वस्तुस्वरूप जानने पर, मोह का क्षय होता है। अहो! मोह के नाश का अमोघ उपाय कभी निष्फल नहीं जाता - ऐसा अफर उपाय सन्तों ने प्रसिद्ध किया है।
विकल्परहित ज्ञान का वेदन कैसा है? उसका अन्तर्लक्ष्य करना, वह भावश्रुत का लक्ष्य है। राग की अपेक्षा छोड़कर, स्व का लक्ष्य करने को भावश्रुत कहते हैं और उस भावश्रुत में आनन्द के फब्बारे हैं। प्रत्यक्षसहित परोक्षप्रमाण हो तो वह भी आत्मा को यथार्थ जानता है। प्रत्यक्ष की अपेक्षारहित अकेला परोक्षज्ञान तो परावलम्बी है; वह आत्मा का यथार्थ संवेदन नहीं कर सकता। आत्मा के सन्मुख झुककर प्रत्यक्ष हुआ ज्ञान और उसके साथ अविरुद्ध – ऐसा परोक्षप्रमाण, उससे आत्मा को जानने पर अन्दर से आनन्द का झरना बहता है। यह सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का और मोह के नाश का अमोघ उपाय है।
अरहन्त भगवान के आत्मा को जानकर, वैसा ही अपने आत्मा का स्वरूप पहचानने से ज्ञानपर्याय अन्तर्लीन होकर सम्यग्दर्शन होता है और मोह का क्षय होता है... तत्पश्चात् उसी में लीन होने से पूर्ण शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है और सम्पूर्ण मोह का
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.