Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
यम, नियम, व्रत, तप, बाह्य त्याग, वैराग्य इत्यादि सब साधन किये, परन्तु चैतन्यस्वरूपी अपना आत्मा कौन है ? उसकी समझरूप सच्चा साधन शेष रह गया है। इसलिए जीव का किञ्चित् भी कल्याण नहीं हआ है। __भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव कहते हैं कि हे भव्य आत्माओं! आत्मा के अभेदस्वरूप का अनुभव करने से पूर्व बीच में नव तत्त्व की भेदरूप प्रतीति आये बिना नहीं रहती, परन्तु उस नव तत्त्व के भेदरूप विचार का ही आश्रय मानकर अटकना मत! नव तत्त्व के भेदरूप विचार के आश्रय में अटकने से सम्यक् आत्मा अनुभव में नहीं आता, परन्तु उस भेद का आश्रय छोड़कर, रागमिश्रित विचार का अभाव करके, अभेदस्वभाव सन्मुख होकर शुद्ध आत्मा का निर्विकल्प अनुभव और प्रतीति करने से सम्यक्श्रद्धा होती है। वह सम्यक्श्रद्धा ही आत्मा के कल्याण का उपाय है, उससे ही मोक्ष का दरवाजा खुलता है।
यदि अवस्था में जीव की योग्यता और अजीव का निमित्तपना - ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध न हो तो सात तत्त्व ही सिद्ध नहीं होते। जीव और अजीव की अवस्था में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, उस दृष्टि से देखने पर नव तत्त्व के भेद विद्यमान हैं
और यदि अकेले चैतन्यमूर्ति अखण्ड जीवतत्त्व को लक्ष्य में लो तो द्रव्यदृष्टि में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध भी नहीं होने से नव तत्त्व के भेद नहीं पड़ते हैं; इसलिए शुद्ध चैतन्यस्वभाव की दृष्टि से देखने पर नव तत्त्व अभूतार्थ हैं और एक चैतन्य परम तत्त्व ही प्रकाशमान है। यद्यपि वर्तमान निर्मलपर्याय है अवश्य, परन्तु वह अभेद में मिल जाती है; अर्थात्, उस जीव को द्रव्य और पर्याय के
___Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.