Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
View full book text
________________
www.vitragvani.com
72]
[सम्यग्दर्शन : भाग-3
सम्पूर्ण चैतन्यस्वभाव को आवृत कर – उसके अस्तित्व को भूलकर, क्षणिक क्रोधादि 'वही मैं हूँ' - ऐसी बुद्धिवाला अज्ञानी जीव, क्रोधादि के साथ ही अपना कर्ता-कर्मपना मानता है। भेदज्ञान ज्योति उस अज्ञानी की कर्ता-कर्म की प्रवृत्ति को सब ओर से शमन कर देती है और एक ज्ञानभाव के ही कर्ता-कर्मपने में आत्मा को स्थापित करती है। ____ आत्मा तो स्व-पर प्रकाशक चैतन्यप्रकाशी सूर्य है और विकार तो अन्धकार समान है। चैतन्य सूर्य, विकाररूपी अन्धकार का कर्ता कैसे हो? जैसे सूर्य और अन्धकार को कभी एकता नहीं होती; उसी प्रकार ज्ञान और विकार को कभी एकमेकपना नहीं है। _ विकार तो चैतन्यस्वभाव से बहिरङ्ग है; चैतन्य का अन्तरङ्ग तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है। ऐसे चैतन्य में अन्तर्मुख होकर 'ज्ञान वही मैं' - ऐसा भान करने से जहाँ भेदज्ञानज्योति प्रगट हुई, वहाँ वह ज्ञानज्योति किसी विकार के आधीन नहीं होती, उसमें आकुलता नहीं परन्तु आनन्दता है, वीरता है, उदारता है। ज्ञानज्योति ऐसी उदार है कि सम्पूर्ण जगत को जानने पर भी, उसमें सङ्कोच नहीं होता, और ऐसी धीर है कि चाहे जैसे संयोग को जानने पर भी, वह अपने ज्ञानभाव से च्युत नहीं होती है; विकार को जानने पर भी स्वयं विकाररूप नहीं होती – ऐसी ज्ञानज्योति, विकार के कर्ता -कर्म की प्रवृत्ति को दूर कर डालती है। राग को या पर को करने का उसका स्वभाव नहीं परन्तु जगत् के समस्त पदार्थों को जानने का उसका स्वभाव है।
ऐसी ज्ञानज्योति प्रगट हो, वह अपूर्व मङ्गल है।
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.