Book Title: Samyag Darshan Part 02
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
View full book text
________________
www.vitragvani.com
42]
[सम्यग्दर्शन : भाग-2
अपने से भिन्न बाहर के भगवान की शुभरागरूप भक्ति तो व्यवहार है परन्तु यदि अन्दर शुद्धरत्नत्रयरूप निश्चय भक्ति होवे तो उस शुभराग को व्यवहार भक्ति कही जाती है। निज परमात्मा की निश्चयभक्ति हो, वहाँ पर परमात्मा की भक्ति को व्यवहार कहा जाता है परन्तु अपने को भूलकर अकेले पर की भक्ति में ही धर्म मानता है, उसे तो वह व्यवहार भी नहीं कहा जाता। शुद्धरत्नत्रय की भक्ति करना, अर्थात् उसकी आराधना करना, वह मोक्ष का मार्ग है। चैतन्यस्वभाव के श्रद्धा-ज्ञान-रमणतारूप परिणति ही आराधना और भक्ति है।
श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ हैं, उनमें छह प्रतिमा तक के श्रावक जघन्य हैं, सात से नौ प्रतिमावाले मध्यम हैं, और दसवींग्यारहवीं प्रतिमावाले उत्तम हैं - परन्तु यह सब श्रावक क्या करते हैं ? ये सब श्रावक, सम्यग्दर्शनपूर्वक शुद्धरत्नत्रय की आराधना करते हैं; ग्यारह प्रतिमाओं में शुद्धरत्नत्रय की भक्ति है। इसके अतिरिक्त राग की आराधना करे, अर्थात् राग से धर्म हो – ऐसा माने, उसे श्रावकपना होता ही नहीं।
जड़ की क्रिया जड़ से होती है, उसका कर्ता अपने को माननेवाला तो मिथ्यादृष्टि है तथा पूजा-भक्ति, शुद्ध आहार इत्यादि के शुभराग को धर्म मान ले तो वह भी मिथ्यादृष्टि है। शुद्ध आहार तथा व्रतादि के शुभराग को व्यवहार कहा जाता है – परन्तु कब? जबकि अन्तर में शुद्धरत्नत्रय की आराधना प्रगट हुई हो तब; जिसे स्वभाव के आश्रय से शुद्धरत्नत्रय की आराधना प्रगट नहीं हुई, उसे तो निश्चय प्रतिमा इत्यादि नहीं है; इसलिए उसे व्यवहार भी नहीं होता है। अहो! एक ही अबाधित मार्ग है कि जितना अन्तर
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.