Book Title: Samyag Darshan Part 02
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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भव-भ्रमण का भय ।
यह आत्मा अपने स्वभाव को भूलकर अनन्त काल से चौरासी लाख योनियों में जन्म धारण करके परिभ्रमण कर रहा है। यह शरीर तो नया है और श्मशान में राख हो जानेवाला है। आत्मा के भान बिना ऐसे अनन्त शरीर हो चुके हैं और जो आत्मा का भान नहीं करेगा, उसे अभी अनन्त शरीर धारण करने पड़ेंगे।
अरे रे! मुझे कहाँ तक यह जन्म-मरण करने हैं। इस भव -भ्रमण का कहीं अन्त है या नहीं? इस प्रकार जब तक चौरासी के अवतार का भय नहीं होता, तब तक आत्मा की प्रीति नहीं होती। भय बिना प्रीति नहीं' अर्थात् भव-भ्रमण का भय हुए बिना, आत्मा की प्रीति नहीं होती। सच्ची समझ ही विश्राम है। अनन्त काल से संसार में परिभ्रमण करते हुए कहीं विश्राम प्राप्त नहीं हुआ है। अब सच्ची समझ करना ही आत्मा का विश्राम है।
देखो, यह जीव एक सर्प देखने पर कितना अधिक भयभीत होता है क्योंकि इसे शरीर के प्रति ममत्व और प्रीति है। अरे! प्राणी को एक शरीर पर सर्प के डंसने का इतना भय है तो अनन्त जन्म-मरण का भय क्यों नहीं है? आत्मा की समझ बिना अनन्त अवतार के दु:ख खड़े हैं, इस बात का तुझे भय क्यों नहीं है ? अरे! यह भव पूरा हुआ, वहीं दूसरा भव तैयार है; इस प्रकार एक के बाद दूसरा भव, तू अनन्त काल से कर रहा है। आत्मा स्वयं सच्ची समझ न करे तो जन्म-मरण का अभाव नहीं होता।
अरे रे! जिसे चौरासी के अवतार का डर नहीं है, वह जीव
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