Book Title: Samyag Darshan Part 02
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
[181
आत्मार्थी जीव का उत्साह और आत्मलगन
(३)
चैतन्य के आनन्द में झूलती दशा में सन्तों ने इन शास्त्रों की रचना की है। अन्तर में आनन्द की झलक बताकर जगत को सावधान किया है कि अरे जीवों! रुक जाओ... बाहर में तुम्हारा आनन्द नहीं है, तुम्हारा आनन्द तुम्हारे अन्तर में है। आहा! बाह्य वेग में दौड़ते जगत को ललकार कर सन्तों ने रोक दिया है; और यह बात झेलनेवाला जीव कैसा है? – वह तो इस प्रवचन में स्वयं ही कहेंगे।
आत्मा में मोक्ष की झलक लेकर और आत्मार्थी जीवों को हित का मार्ग दर्शाने के लिए सन्तों ने इन शास्त्रों की रचना की है। वे सन्त, क्षण भर में अन्तर में स्थिरता करके आनन्द में लवलीन हो जाते हैं और किञ्चित् बाहर आने पर शुभवृत्ति उत्पन्न हों, तब शास्त्र लिखते हैं.... इस प्रकार चैतन्य के आनन्द में झूलती दशा में सन्तों ने इन शास्त्रों की रचना की है। अन्तर की आनन्द की झलक बतलाकर, जगत् को सावधान किया है कि अरे जीवों! रुक जाओ... बाहर में कहीं तुम्हारा आनन्द नहीं है; तुम्हारा आनन्द तुम्हारे अन्तर में है। अहा! बहिर्मुख दौड़ते हुए जगत् को सावधान करके सन्तों ने रोक दिया है।
देखो, यह बात झेलनेवाला जीव कैसा है ? आत्मार्थी है, आत्मार्थ के लिए मर जाने को तैयार है। 'काम एक आत्मार्थ का
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