Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[47 इसलिए अभी ही किसी भी तरह आत्म-प्रतीति कर लेनी चाहिए, इस प्रकार स्वभाव की रुचि प्रगट करने पर, विकार का बल नष्ट हो जाता है। यह विकार अपने चैतन्य की शोभा नहीं, किन्तु कलंक है। मेरा चैतन्यतत्त्व उससे भिन्न, असङ्ग है। इस प्रकार निरन्तर स्वभाव की रुचि और पुरुषार्थ के अभ्यास द्वारा प्रज्ञारूपी छैनी को चलाना चाहिए।
3. निपुण पुरुषों के द्वारा – यहाँ लौकिक निपुणता की बात नहीं, किन्तु स्वभाव का पुरुषार्थ करने में निपुणता की बात है। लौकिक बुद्धि में निपुण होने पर भी, उसे स्वयं शंका बनी रहती है कि मेरा क्या होगा? इसी प्रकार जिसे ऐसी शंका बनी रहती है कि 'तीव्र कर्म उदय में आयेंगे तो मेरा क्या होगा? यदि अभी मेरे भवशेष होंगे तो क्या होगा? मुझे प्रतिकूलता आ गई तो क्या होगा?' तो वह निपुण नहीं, किन्तु अशक्त पुरुषार्थहीन पुरुष है। जो ऐसी पुरुषार्थहीनता की बातें करता है, वह प्रज्ञारूपी छैनी का प्रहार नहीं कर सकता; इसीलिए कहा है कि 'निपुण पुरुषों के द्वारा चलायी जाने पर' अर्थात् जिसे कर्मों के उदय का लक्ष्य नहीं, किन्तु मात्र स्वभाव की प्राप्ति का ही लक्ष्य है और जिसे अपने स्वभाव की प्राप्ति के पुरुषार्थ के बल से मुक्ति की निःसन्देहता ज्ञात है, ऐसे निपुण पुरुष ही तीव्र पुरुषार्थ के द्वारा प्रज्ञारूपी छैनी को चलाकर भेदविज्ञान करते हैं। ____4. सावधान होकर – अर्थात् प्रमाद और मोह को दूर करके चलानी चाहिए। यदि एक क्षण भी सावधान होकर चैतन्य का अभ्यास करे तो अवश्य ही भेदज्ञान और मोक्ष प्राप्त हो जाये। जो चैतन्य में सावधान है, उसे कर्म के उदय की
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