Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[71 जो अरहन्त को जानता है, वह अपने आत्मा को जानता है; अर्थात् जैसे द्रव्य-गुण-पर्याय-स्वरूप अरहन्त हैं, उसी स्वरूप मैं हूँ। अरहन्त के जितने द्रव्य-गुण-पर्याय हैं, उतने ही द्रव्य-गुणपर्याय मेरे हैं । अरहन्त को पर्यायशक्ति परिपूर्ण है, तो तेरी पर्याय की शक्ति भी परिपूर्ण ही है। वर्तमान में उस शक्ति को रोकनेवाला जो विकार है, वह मेरा स्वरूप नहीं है। इस प्रकार जो जानता है, उसका मोह 'खलु जादि लयं' अर्थात् निश्चय से क्षय को प्राप्त होता है, यही मोहक्षय का उपाय है।
टीका – जो वास्तव में अरहन्त द्रव्यरूप में, गुणरूप में और पर्यायरूप में जानता है, वह वास्तव में आत्मा को जानता है। क्योंकि दोनों में निश्चय से कोई अन्तर नहीं है। यहाँ पर वास्तव में जानने की बात कही है, मात्र धारणा के रूप में अरहन्त को जानने की बात यहाँ नहीं ली गयी है क्योंकि वह तो शुभराग है। वह जगत की लौकिक विद्या के समान है, उसमें आत्मा की विद्या नहीं है। वास्तव में जाना हुआ तो तब कहलायेगा, जबकि अरहन्त भगवान के द्रव्य-गुण-पर्याय के साथ अपने आत्मा के द्रव्यगुण-पर्याय को मिलाकर देखें कि जैसा अरहन्त का स्वभाव है, वैसा ही मेरा स्वभाव है। यदि ऐसे निर्णय के साथ जाने तो वास्तव में जाना हुआ कहलायेगा। इस प्रकार जो वास्तव में अरहन्त को द्रव्य-गुण-पर्यायस्वरूप से जानता है, वह वास्तव में अपने आत्मा को जानता है और उसे सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। ___ अरहन्त भगवान को जानने में सम्यग्दर्शन आ जाता है। स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है कि "णादं जिणेण णियदं...... यहाँ यह आशय है कि जिनेन्द्रदेव ने जो जाना है, उसमें कोई अन्तर
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