Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 सम्यग्दृष्टि के स्वभावदृष्टि का जो बल है, वह निर्जरा का कारण है और वह दृष्टि में बन्ध को अपना स्वरूप नहीं मानता, स्वयं राग का कर्ता नहीं होता; इसलिए उसे अबन्ध कहा है, परन्तु चारित्र की अपेक्षा से तो उसके बन्धन है। यदि भोग से निर्जरा होती हो तो अधिक से अधिक भोग निर्जरा होनी चाहिए; किन्तु ऐसा तो नहीं होता। सम्यग्दृष्टि के जो रागवृत्ति उत्पन्न होती है, उसे दृष्टि की अपेक्षा से वह अपनी नहीं मानता। ज्ञान की अपेक्षा से वह यह जानता है कि अपने पुरुषार्थ की अशक्ति के कारण राग होता है' और चारित्र की अपेक्षा से उस राग को विष मानता है, दुःखदुःख मालूम होता है। इस प्रकार दर्शन-ज्ञान और चारित्र में से जब दर्शन की मुख्यता से बात चल रही हो, तब सम्यग्दृष्टि के भोग को भी निर्जरा का कारण कहा जाता है। स्वभावदृष्टि के बल से प्रतिसमय उसकी पर्याय निर्मल होती जाती है, अर्थात् वह प्रतिक्षण मुक्त ही होता जाता है। जो राग होता है, उसे जानता तो है, किन्तु स्वभाव में उसे अस्तिरूप नहीं मानता और इस मान्यता के बल पर ही राग का सर्वथा अभाव करता है; इसलिए सच्ची दृष्टि की अपार महिमा है।
सच्ची श्रद्धा होने पर भी जो राग होता है, वह राग, चारित्र को हानि पहुँचाता है, परन्तु सच्ची श्रद्धा को हानि नहीं करता; इसलिए श्रद्धा की अपेक्षा से तो सम्यग्दृष्टि के जो राग होता है, वह बन्ध का कारण नहीं, किन्तु निर्जरा का ही कारण है – ऐसा कहा जाता है, किन्तु श्रद्धा के साथ चारित्र की अपेक्षा को भूल नहीं जाना चाहिए।
जब चारित्र की अपेक्षा से छठे गुणस्थानवर्ती मुनि की शुभवृत्ति को भी विष कहा है, तब फिर सम्यग्दृष्टि के भोग के अशुभभाव
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