Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र के लिए प्रेरित हुआ तब मेरे मानस-पट पर गुजरात में होने वाली शान्तिदेव, भट्टि, क्षमाश्रमण सिंहगणी और जिनभद्रगरणी, हरिभद्र, प्राचार्य हेमचन्द्र और वाचक यशोविजयजी जैसी कई विभूतियो के चित्र अंकित हुए, परन्तु आज तो मैने उन विभूतियो मे से एक को ही पसन्द किया है । वह विभूति अर्थात् याकिनीमूनु प्राचार्य हरिभद्र।
प्राचीन गुजरात ने 'जिसे पाला-पोसा और विविध क्षेत्रो मे चिन्तन-लेखन की सुविधा दी ऐमी यह विभूति गत डेढ-सौ वर्ष पहले तो सिर्फ जैन-परम्परा मे ही प्रसिद्ध थी। मै जानता हूँ वहा तक उस काल मे जैन-परम्परा के अतिरिक्त कोई दूसरा प्राचार्य हरिभद्र को जानता हो तो वह 'ललितासहस्रनाम' नामक ग्रन्थ के भाप्यकार भास्करराय ही थे । भास्करराय : मूल मे कर्णाटकवासी थे वह काशी मे आकर रहते थे। उन्होने गुजरात के सूरत शहर के निवासी प्रकाशानन्द नाम के उपासना-मार्ग के प्राचार्य के पास पूर्वाभिषेक-दीक्षा ली थी। भास्करराय विक्रम की अठारहवी शती मे हुए है । उन्होने अपने उस 'सौभाग्य-भास्कर' नाम के भाष्यके
'प्रभावती प्रभारूपा प्रसिद्धा परमेश्वरी।
मूलप्रकृतिरव्यक्ता व्यक्ताव्यक्त स्वरूपिणी ।। १३७ ।' इस श्लोक की व्याख्या करते समय आचार्य हरिभद्र ने 'धर्मसंग्रहणी' नामक प्राकृत ग्रथ की एक गाथा प्रमाण के रूप मे उद्धृत की है। आश्चर्य की बात तो यह है कि श्वेताम्बर से अतिरिक्त दूसरी जैन-शाखाएँ भी हरिभद्र जैसे प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् की कृतियो के विषय मे सर्वथा मौन दिखाई पड़ती हैं, तव एक कर्णाटक-निवासी
और कागीवासी प्रकाण्ड पण्डित भास्करराय का ध्यान हरिभद्र के एक ग्रन्थ की ओर जाता है और वह मूल ग्रन्थ भी संस्कृत नही, किन्तु प्राकृत । ऐसे प्राकृत ग्रन्थ की ओर एक दूरवर्ती विद्वान् का ध्यान जाय और वह भी एक दार्शनिक मुद्दे के बारे मे, तब ऐसा मानना चाहिए कि प्राचार्य हरिभद्र दूसरी तरह से भले अज्ञात जैसे रहे हों,
१ श्री रसिकलाल छो० 'परीख' 'गुजरातनी राजधानीग्रो पृ० ३६-"उत्तर-पूर्व मे श्रावू और पाडावला अथवा अरवल्ली के बाहरी पर्वत, पूर्व मे विन्ध्याद्रि की उपत्यकाए एवं अरण्य तथा दक्षिण में सतपुडा की मुख्य पर्वतमाला के उत्तरीय गिरि-अकुर। इसका स्थानों से निर्देश करूं तो उत्तर मे भिन्नमाल अथवा श्रीमाल, दक्षिण मे सोपारा (जहा वस्तुपाल के 'कीर्तन' अर्थात् देवमन्दिर थे), पूर्व मे दाहोद या रतलाम, पश्चिम मे कच्छभुज-सौराष्ट्र ।"
इस पुस्तक के प्रारम्भ में गुजरात का मानचित्र भी है। - mer निर्गगासागर प्रेस. १९३५ ईसवीय ।