Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 116
________________ १०२ समदर्शी आचार्य हरिभद्र (8) क्लेश-निवारण के ध्येय को दृष्टि-समक्ष रखकर ही योगमार्ग की विविव प्रणालिकाए अस्तित्व मे आई हैं, परन्तु उनमे एक ऐसी भ्रान्ति पैदा हो गई है कि मन स्वयं ही क्ले शो का धाम है । फलत. उसमे जो वृत्तिया या कल्पनाएं उदयमान होती है वे सभी बन्धनरूप हैं, अतएव मनोव्यापार के सर्वथा अवरोध का नाम ही निर्विकल्प समाधि है । इस तरह क्लेश का नाश करने के लिए प्रवृत्त होने पर क्लेशरहित वृत्तियो का भी उच्छेद एक योगकार्य माना गया। इसके अनेक अच्छे-बुरे उपाय खोजे गये । इनमे से एक ऐसे उपाय की स्थापना करनेवाला पक्ष अस्तित्व में आया कि ध्यान का मतलव ही यह है कि चित्त को प्रत्येक प्रकार के व्यापार से रोकना । इसी का नाम है विकल्पना-निवृत्ति । इस पक्ष से सम्बन्ध रखने वाली एक मनोरजक कहानी भोट भापा में लिखे गये कमलशील के जीवन मे से उपलब्ध होती है। होशंग नाम का एक चीनी भिक्षु तिब्बत के तत्कालीन राजा को अपनी योग-विषयक मान्यता इस तरह समझाता था कि ध्यान करने का अर्थ ही यह है कि मन को विचार करने से रोकना । एक बार उस राजा को इस प्रश्न के बारे मे सच्चा बौद्ध मन्तव्य क्या है यह जानने की इच्छा हुई। उसने नालन्दा विश्वविद्यालय के विद्वान् कमलशील को तिब्बत मे बुलाया। होशंग और कमलशील के बीच शास्त्रार्थ हुआ। मध्यस्थ के स्थान पर राजा था । जो हारे वह जीतने वाले को माला पहनाये और तिब्बत में से चला जाय, ऐसी शर्त थी। होशंग ने अपना पक्ष उपस्थित किया। उस समय कमलशील ने उसके उत्तर में जो कुछ कहा वह मनोविलयवादियो के लिए विचारने जैसा है। कमलशील ने कहा कि मन जिस विषय के विचारो को रोकने का प्रयत्न करेगा वह विषय उसकी स्मृति मे पायगा ही। इसके अलावा यदि कोई विचित्र उपायो से मन को सर्वथा कुण्ठित करने का या निष्क्रिय बनाने का प्रयत्न करेगा, तो भी वह थोडे समय के पश्चात् पुनः विचार करने लगेगा। वह निष्क्रियता ही मन मे विद्रोह करके विचार, चक्र चालू करेगी। मन का स्वभाव ही ऐसा है कि वह क्षणभर के लिए भी विचार किये विना नही रह सकता । ऐसा कहकर कमलशील ने बौद्ध-परिभाषा के अनुसार बतलाया कि जो योगी लोकोत्तर प्रज्ञा की भूमिका में जाना चाहता हो अथवा तो सम्बोवप्रज्ञा प्राप्त करने की अभिलाषा रखता हो, उसे तो सम्यक् प्रत्यवेक्षणा करनी ही चाहिए। अपने आपकी तथा जगत् की वस्तुओं एवं घटनामो की प्रत्यवेक्षणा करने का मतलव है उनमे क्षणिकता एवं अनात्मा की भावना करना । यह भावना ही विकल्पना का निरोध है, नही कि शून्यता के नाम पर मन को निष्क्रिय एवं कुण्ठिन बनाना । कमलशील की इन दलीलो से होशंग, जो प्रज्ञापारमिता का अर्थ

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